सोमवार, 2 जुलाई 2018

असली यदुवंशी कौन ? अहीर अथवा जादौन ! एक विश्लेषण --भाग द्वित्तीय।

असली यदुवंशी कौन ? अहीर अथवा जादौन ! एक विश्लेषण --भाग द्वित्तीय

इतिहास के बिखरे हुए पन्ने "      कुछ कथा- वाचक ---जो कृष्ण चरित्र के विवरण के लिए भागवतपुराण को आधार मानते हैं तो भागवतपुराण भी स्वयं ही परस्पर विरोधाभासी तथ्यों को समायोजित किए हुए है ।👇

रोहिण्यास्तनय: प्रोक्तो राम: संकर्षस्त्वया ।
देवक्या गर्भसम्बन्ध: कुतो देहान्त विना ।।८
(भागवतपुराण दशम् स्कन्ध अध्याय प्रथम)

भगवन् आपने बताया कि बलराम  रोहिणी के पुत्र थे ।इसके बाद देवकी के पुत्रों में आपने उनकी गणना क्यों की ? दूसरा शरीर धारण किए विना दो माताओं का पुत्र होना कैसे सम्भव है?

तब द्वित्तीय अध्याय श्लोक संख्या 8 में शुकदेव परिक्षित को इसका उत्तर देते हुए कहते हैं ।👇

भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम् ।
यदूनां निजनाथानां योग मायां समादिशत् ।6।
गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोप गोभिरलंकृतम्।

रोहिणी वसुदेवस्य भार्या८८स्ते नन्द गोकुले ।।
अन्याश्च कंस संविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ।।7

देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम् ।
तत् संनिकृष्य रोहिण्या उदरे संनिवेशय ।।8

अथाहमंशभागेन देवक्या: पुत्रतां शुभे !
प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ।9।
अर्थात् विश्वात्मा भागवान् ने देखा कि मुझे हि अपना स्वामी और सब कुछ मानने वाले यदुवंशी गोप कंस के द्वारा बहुत ही सताए जी रहे हैं। तब उन्होंने अपनी योगमाया को आदेश दिया।6। 
कि  देवि ! कल्याणि तुम व्रज में जाओ  वह प्रदेश गोपों और गोओं से सुशोभित है । वहाँ नन्द बाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी गुप्त स्थान पर रह रही हैं। कंस के भय से  उनकी और भी पत्नियाँ कंस से डर कर नन्द के सानिध्य में छिपकर रह रहीं हैं ।7।  इस समय मेरा अंश जिसे शेष कहते हैं ; देवकी के उदर में गर्भ रूप में स्थित है ! उस गर्भ को तुम वहाँ से निकाल कर गोकुल में रोहिणी के उदर में रख दो ।8। कल्याणि ! अब ---मैं अपने समस्त ज्ञान बल आदि अंशों के साथ  देवकी का पुत्र बनुँगा और तुम नन्द की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना !9।
प्रथम बात तो यहाँ यह प्रक्षिप्त है कि(गर्भ अन्तरण )की घटना प्राकृतिक नियमों के विपरीत हो गयी ! ---जो कि असम्भव है।उस युग में वह भी प्राकृतिक सिद्धान्तों के पूर्णत विरुद्ध !
अब भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी प्रसंग वर्णित करते हैं ---जो संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-के सन्दर्भ में है ।👇
गर्भ संकर्षणात् तं  वै प्राहु: संकर्षणं भुवि ।
रामेति लोकरमणाद् बलं बलवदुच्छ्रयात् ।13।

अर्थात् देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में खींच खींचे जाने के कारण  शेष जी को लोग संसार में संकर्षण कहेंगे ।
अब  दशम् स्कन्ध के अष्टम् अध्याय में पहले क्या लिखा है --दौनों की तुलना करें !
भागवतपुराण में गर्गाचार्य संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण Etymological Analization  ही अवैज्ञानिक व असंगत है प्रस्तुत करते हैं ।
अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै:!
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदु:
यदूनामपृथग्भावात् संकर्षणमुशन्त्युत।।12
गर्गाचार्य कहते हैं कि यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम रौहिणेय भी होगा । यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा  ! इसलिए इसका नाम राम भी होगा । इसके बल की कोई सीमा नहीं है इस लिए इसका नाम बल भी होगा।
परन्तु संकर्षण व्युत्पत्ति- ही यहाँ पूर्ण रूपेण काल्पनिक व असंगत है । ---जो भागवतपुराण की प्रमाणिकता व प्राचीनता को संदिग्ध करती है ।👇
संकर्षण व्युत्पत्ति-के सन्दर्भों में भागवतपुराण कार ने कहा कि  इसका नाम संकर्षण इस लिए होगा कि
" यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा ! और लोगों में फूट पड़ने पर मेल कराएगा  इसी लिए इसका नाम संकर्षण भी होगा 👈👅
यह उपर्युक्त व्युत्पत्ति- पूर्ण रूपेण मिथ्या है ।

सङ्कर्षणम्, क्ली, आकर्षणम् ।
सम्यक्प्रकारेण कर्षणम् ।
संपूर्व्वकृष् धातोरनट्प्रत्ययेन निष्पन्नम् ॥
(यथा, भागवते । १० । २ । १३ ।
“गर्भसंकर्षणात् तं वै प्राहुः सङ्कषणं भुवि ॥” एकीकरणम् । इति स्वामी ॥ यथा, भागवते । ५ । २५ । १ । “तस्य मूलदेशे त्रिंशयोजनसहस्रान्तरे आस्ते या वै कला भगवतस्तामसी समाख्याता अनन्त इति सात्वतीया द्रष्टृदृश्ययोः सङ्कर्षणं अहमित्यभिमानलक्षणं यं सङ्कर्षण इत्याचक्षते”

सङ्कर्षणः, पुं, (सम्यक् कर्षतीति । सं + कृष् + ल्युट् ) बलदेवः । इत्यमरःकोश ॥ (अस्य नामनिरुक्तिर्यथा, हरिवंशे । ५९ । ६ ।
“कर्षणेनास्य गर्भस्य स्वगर्भाच्चावितस्य वै ।
सङ्कर्षणो नाम शुभे तव पुत्त्रो भविष्यति ॥
” तथा च भागवते । १० । २ । १३ ।
“गर्भसंकर्षणात् तं वै प्राहुः सङ्कर्षणं भुवि )
संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति वैय्याकरणिक दृष्टि से तो हरिवंश पुराण में ठीक है परन्तु प्राकृतिक घटना के रूप से नहीं !
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परन्तु मेरी शोध मान्यताओं के अनुसार कृष्ण तथा संकर्षण -जैसे शब्द कृषि संस्कृति मूलक हैं ।
बल राम के हाथों में हल और उनका संकर्षण नाम इस तथ्य को सूचित करता है कि यादवों ने गोचारण क्रिया से  ही कृष्ण  पद्धति का विकास किया ।
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भागवतपुराण में अन्य विक्षिप्तताओं की श्रृंखला में एक स्थान पर पहले ही गोविन्द शब्द का प्रयोग हुआ ह तब इन्द्र और कृष्ण का मिलन भी वही होता है
दशम् स्कन्ध अध्याय ६ में  👇
पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धि मात्मानं भगवान् पर:।
क्रीडन्तं पातु गोविन्द: शयानं पातु माधव 25। पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की , परमात्मा भगवान् तेरे अहंकार की रक्षा करे ।खेलते समय गोविन्द रक्षा करे !लेते समय माधव रक्षा करे !
अब कृष्ण को इन्द्र ने गोविन्द नाम किस प्रकार दिया ?
दशम् स्कन्ध अध्याय 28 में  वर्णन है  👇
                       •  शुकवाच- •
एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभि: पयसा८८त्मन:।
जलैराकाशगंगाया एरावतकरोद्धृतै: 22।
इन्द्र: सुरषिर्भि: साकं नोदितो देवमातृभि:।
अभ्यषिञ्चित दाशार्हं  गोविन्द इति चाभ्यधात् ।।23।
अर्थात्:- शुकदेव जी कहते हैं हे राजन् परिक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण से एेसा कहकर  कामधेनु ने अपने दूध से और देव माताओं की प्रेरणाओं से देव राज इन्द्र ने एरावत की सूँड़ के द्वारा लाए हुए आकाश गंगा के जल से देवर्षियों के साथ  यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उनको गोविन्द नाम प्रदान किया !
और सबसे बडा़ प्रमाण कि भागवतपुराण बारहवीं सदी की रचना है यह है कि भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन है।
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भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन सिद्ध करता है-कि भागवतपुराण बुद्ध के बहुत बाद की रचना है ।
दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर
वर्णन है कि 👇

नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।
म्लेच्छ प्राय क्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्कि रूपिणे ।।22

दैत्य और दानवों को  मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे ---मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ ।और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे ! मै आपको नमस्कार करता हूँ 22।

भागवतपुराण में अनेक प्रक्षिप्त (नकली) श्लोक हैं
जैसे- 👇
सर्वान् स्वाञ्ज्ञातिसम्बन्धान् दिग्भ्य: कंसभयाकुलान् ( पाठान्तरण-भयार्दितान्)।
यदुवृष्णयन्धकमधुदाशार्हकुकुरादिकान् ।।15।
सभाजितान् समाश्वास्य विदेशावासकर्शितान् ।
न्यवायत् स्वगेगेषु वित्तै:संतर्प्य विश्वकृत् ।।16
अर्थात् श्रीकृष्ण ने ---जो कंस के भय से  व्याकुल होकर इधर उधर भाग गये थे ;उन यदुवंशी ,वृष्णि वंशी ,अन्धक वंशी ,मधुवंशी ,दाशार्हं वंशी ,और कुकुर आदि वंशों में उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ़ ढूँढ़ कर कृष्ण ने बुलाया !
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अब यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि क्या वृष्णि अन्धक मधु दाशार्हं और कुकुर वंशी यादव नहीं थे !👅
इसी प्रकार के प्रक्षिप्त नकली श्लोक यादवों के इतिहास को विकृत करने के लिए बीच बीच में डाले गये ।
एक स्थान पर काल्पनिक रूप से भागवतपुराण कार ने वर्णित किया है कि श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ श्रुतकीर्ति ---जो केकय देश में ब्याही थी उसकी पुत्री भद्रा थी उसका भाई सन्तर्दन आदि ने उसे स्वयं ही कृष्ण के साथ विवाह कर दिया।👇
श्रुतकीर्ति: सुतां भद्रामुपयेमे पितृष्वसु: ।
कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्ण: सन्तर्दनादिभि:।।56।
क्या यह यादवों की संस्कृति नष्ट करने की साजिश नहीं
कृष्ण को रास लीला का नायक बनाने वाले भी यही धूर्त लोग हैं।
और ---जो लोग कहते हैं कि सभी यदुवंशी तो शंखोद्धार तीर्थ  में ही आपस में नष्ट हो गये थे ।
तो ये बातें भी भ्रान्ति पूर्ण हैं। क्योंकि भागवतपुराण में ही यह वर्णन है 👇
भागवतपुराण में एकादश स्कन्ध के 31वें अध्याय के 24 वें श्लोक में वर्णन है कि
स्त्री बाल वृद्धानाय हतशेषान् धनञ्जय: ।
इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ।।24
अर्थात् पिण्डदान के अनन्तर बची कुची स्त्रीयों बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्र प्रस्थ आये। वहाँ सबको बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक करके हिमालय की वीर यात्रा की !
कदाचित यहाँ गोपिकाओं को लूटने का प्रकरण नहीं है
अत: ये भागवतपुराण भी महात्मा बुद्ध के बहुत बाद की रचना है लगभग बारहवीं सदी की ---
जिसमें कथाओं का कोई तारतम्य नहीं है ।
क्योंकि पुराणों को लिखने वाले प्रत्यक्ष दृष्टा तो थे नहीं
केवल जन श्रुतियों के आधार पर कथाऐं लिपिबद्ध की गयीं  और सब पर बाद में व्यास की मौहर लगा दी गयी

भागवतपुराण के दशम् स्कन्ध में केवल कृष्ण चरित्र को दूषित करने का ही उपक्रम किया गया है ।

__कामी वासनामयी मलिन हृदय ब्राह्मणी संस्कृति ने हिन्दूधर्म के नाम पर अहीर, गोपों को कृष्ण नामक कथित भगवान का रूप देकर  भी एक कामी और भोगी पुरुष बना कर  केवल समाज को व्यभिचार की प्रेरणाऐं दी है ।.....

ब्रह्मवैवर्तपुराण ने अश्लीलता की सारी हदे पार कर दी है  पुराण कारों ने कहा है कि:-
"चतुर्णमपि वेदानां पाठादपि वरम् फलम् " (कृष्णजन्म खण्ड अध्याय-133)
अर्थात- चारो वेद पठने से भी अधिक श्रेष्ठ फल इस पुराण पढ़ने से होगा।
इस पुराण में  अश्लीलता की सम्पूर्ण सीमा उल्लंघित होती है ।
ब्रह्मा विश्वम् विनिर्माणाय सावित्र्यां वर योषिति।
चकार वीर्यधानम् च कामुक्या कामुको यथा।।
सा दिव्यं शतवर्ष च धृत्वा गर्भं सुदुःसहम् ।।
सुप्रसूता च सुषुवे चतुर्वेदान्मनोहरात् ।।
(ब्रह्मखण्ड अध्याय-9/1-2)
अर्थात-ब्रह्मा ने विश्व का निर्माण करने के लिए सावित्री में उसी प्रकार वीर्यस्थापन किया जैसे एक कामुक पुरुष कामुक स्त्री में करता है, तब सावित्री ने दिव्य सौ वर्षो के बाद चारो वेदों को जन्म दिया !
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इस पुराण में वेद भी सावित्री के गर्भ से पैदा हुआ है !

प्रकृतिखण्ड अध्याय-8/29 मे लिखा है कि विष्णु ने वाराह रूप मे पृथ्वी से सम्भोग किया और बेचारी पृथ्वी बेहोश हो गयी! इसलिये पृथ्वी विष्णु की पत्नि कही गयी!
यहाँ ब्रह्मा और सावित्री विलास पुरुष स्त्रीयों के रूप में वर्णित हैं।
पृथ्वी का प्रातःस्मरणीय श्लोक भी यही कहता है:-
सुमेरियन पुरातन कथाओं में वर्णित देव का विष्णु को यही नही छोड़ा और तुलसी (वृन्दा) से भी सहवास का दोषी बताया।
"शङ्खचूङस्य रूपेण जगाम तुलसी प्रति।
गत्वा तस्यां मायया च वीर्यधानं चकार।।"
(प्रकृतिखण्ड-20/12)
अर्थात- तुलसी भी जान गयी थी कि मेरे पति का रूपधारण करके कोई अन्य पुरुष (विष्णु) मेरे साथ सहवास कर रहा है !

शिव को भी इस पुराण ने नही छोड़ा, शिव का सती के साथ अश्लील वर्णन इस पुराण मे है!
सती के मरने के बाद भी जो श्लोक लिखे गये जरा उस पर नजर डालो-
"अधरे चाधरं दत्वा वक्षो वक्षसि शङ्कर:।
पुनः पुनः समाश्लिपुनर्मूछामवाप सः।।"
अर्थात- अधरो पर अधर और वक्ष पर वक्ष मिला कर शंकर ने उस मृतक शरीर का आलिंगन किया!

अब जब ब्रह्मा,विष्णु और शिव नही बचे तो भला कृष्ण कहाँ से बचते ! इस पुराण ने कृष्ण की इज्जत उतारने मे कोई कसर नही छोड़ी।
जरा इस पुराण के प्रकृतिखण्ड का कुछ श्लोक देखिये-
"करे घृत्वा च तां कृष्णः स्थापयामास वक्षसि।
चकार शिथिल वस्त्रं चुम्बन च चतुर्विधम् ।।
बभूव रतियुद्धेन विच्छिन्नां क्षुद्रघण्टिका।
चुम्बननोष्ठेंरागश्च ह्याश्लेषेण च पत्रकम् ।।
मूर्छामवाप सा राधा बुपुधेन दिवानिषम् ।।"
अर्थात- कृष्ण ने राधा का हाथ पकड़कर वक्ष से लगा लिया,और उसके वस्त्र हटाकर चतुर्विध चुम्बन किया! फिर जो रतियुद्ध हुआ उससे राधा की करधनी टूट गयी और चुम्बन से होठों का रंग उड़ गया, तथा इस संगम से राधा मूर्छित हो गयी और उसे रात-दिन तक होश नही आया।
कृष्ण की इज्जत उतारने में इन व्यभिचारीयों ने कोई कस़र नहीं छोड़ी ।
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यही नही कृष्ण जन्मखण्ड (अध्याय-106/22) मे लिखा है कि-
"कुब्जा मृता संभोगद्वाससा रजकोमृतः"
यहाँ रुक्मि कृष्ण से कहता है कि "तुमने कुब्जा से ऐसा सम्भोग किया कि वह बेचारी मर ही गयी"
कुब्जा के साथ जन्मखण्ड (अध्याय-72) मे और भी कई अश्लील श्लोक है जिसमे नाना प्रकार के सम्भोग का वर्णन है, जिसे शब्दों की मर्यादा में लिखने असम्भव है ! हाँ कृष्ण जन्मखण्ड अध्याय-27/83 श्लोक भी कम अश्लील नही है-
"प्रजग्मुर्गोपिका नग्नाः योनिमाच्छाद्व पाणानि"
यहाँ बताते हैं कि गोपिकाऐं अपनी हाथ से योनि को ढ़ककर पानी के बाहर निकली! वैसे इस अध्याय के सारे श्लोक अति अश्लील है, जिसे लिखना सम्भव नही।

खैर कृष्ण का गुणगान तो और भी है, जन्मखण्ड (अध्याय-3/59-62) मे लिखा है कि गोलोक मे कृष्ण विरजा नाम की एक महिला से सहवास कर रहे थे, तभी राधा ने पकड़ लिया और फटकारते हुये कहा कि- "हे कृष्ण तू पराई औरत मे व्यभिचार करते हो, तुम चंचल और लम्पट हो, तुम मनुष्यो की भाँति मैथुन करते हो! तुम मेरे सामने से चले जाओ, और तुम्हे श्राप देती हूँ कि तुम्हे मनुष्य योनि मिले"

पुराणकर्ता यही नही रुके, गणपतिखण्ड (अध्याय-20/44-46) मे इन्द्र और रम्भा के सम्भोग का ऐसा वृतान्त है कि कोई पोर्न फिल्मकार भी शर्म से लाल हो जाऐ!
ब्रह्मखण्ड (अध्याय-10/85-87) मे विश्वकर्मा और घृताची के सम्भोग का अति अश्लील वर्णन है, आगे इसी अध्याय के श्लोक-127-128 मे एक ब्राह्मणी से अश्विनीकुमार के बालात्कार ऐसा वर्णन है कि कोई कामशास्त्र भी फीका पड़ जाऐ।

यह सम्पूर्ण पुराण ही अश्लीलता से परिपूर्ण है,

कई प्रकरण तो ऐसे है कि लगता है कि यह पुराण न होकर वात्स्यायन का काम शास्त्र है ।

पुराणों में बड़ी कुशलता से रास लीला के नाम पर यादवों के महानायक कृष्ण  की इज्जत उतारी गयी है
आगे इसी सन्दर्भों में कुछ तथ्यों का प्रकाशन करते हुए
कृष्ण के वास्तविक जीवन पर भी प्रकाशन किया गया है
अमरकोश में क्षत्रिय के पर्याय वाची रूप हैं
2।8।1।1।4
मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुजः क्षत्रियो विराट्. राजा राट्पार्थिवक्ष्माभृन्नृपभूपमहीक्षितः॥
और पुष्यमित्र सुंग ई०पू० १८४ के शासन काल में जाति मूलक वर्ण -व्यवस्था को अधिक परिपुुष्ट करने हेतु अनेक ग्रन्थ वैदिक साहित्य में समायोजित किए गये
जैसे पुरुष सूक्त की निम्न ऋचा
ब्राह्मणोsस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत:
उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोsजायत।।
(ऋग्वेद १०/९०/१२)
फिर प्राय : अधिकतर पुराणों में कृष्ण चरित्र को षड्यन्त्र पूर्वक भ्रष्ट करने की ही कुचेष्टा की है ।
यद्यपि हरिवंश पुराण इन  सभी परम्पराओं से पृथक
कृष्ण के यथार्थोन्मुख  गोप चरित् की व्याख्या करता है
परन्तु भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व काल्पनिकता की मर्यादा ही भंग कर दी है ।
भागवतपुराणकार की बाते कहाँ तक संगत हैं  --
बुद्धि जीवि पाठक स्वयं ही निर्णय कर सकता है ।
पहले तो कृष्ण को यदु वंश का होने से क्षत्रिय( राजा)
के रूप में निषिद्ध घोषित करता है ।
परन्तु यदु वंश का होने पर भी उग्रसेन को राजा के रूप में मान्य किया जाता है ।
एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२
आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।।१३
श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय
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देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।
और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं।
आप हम लोगो पर शासन कीजिए क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।
यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है।
कि यादव राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं।
कदाचित वेदों में यदु को दास कहा गया है ।
और दास का अर्थ असुर है ।
लौकिक संस्कृत में दास को शूद्र कहा गया।
एक तथ्य और किसी भी पुराण में कृष्ण को क्षत्रिय नहीं कहा गया है।
क्योंकि क्षत्रिय राजा होता है ।
और स्वयं वैदिक ऋचाओं में यदु को दास अर्थात् शूद्र के रूप वर्णन ही प्रमाण है
और यदुवंशी अपने को क्षत्रिय घोषित करें तो वह यदुवंशी कदापि नहीं है।
परन्तु यदि क्षत्रिय का अर्थ शत्रु का क्षरण करने वाला स्वीकार किया जाता है तो आभीर अथवा यादव सबसे बड़े क्षत्रिय हैं ।
परन्तु क्षत्रिय शब्द ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था के रूप में रूढ़ बद्ध होकर मान्य कर दिया गया है ।
अत: अहीर अपने को इसके अर्थ में क्षत्रिय कभी स्वीकार नहीं करते हैं ।
और  फिर अहीरों को किसी क्षत्रिय प्रमाण पत्र की भी आवश्यकता नहीं ।वे तो जन्म से ही यौद्धा अथवा वीर प्रवृत्तियों से समन्वित हैं ।
देखिए क्षत्रिय शब्द का अर्थ क्षत् से त्राण करने वाला  वीर अथवा यौद्धा होता है ।
और यह कोई जातिगत उपाधि नहीं है विशेषत: वैदिक सन्दर्भों में -
परन्तु लौकिक साहित्य में इसे जातिगत उपाधि ही बना दिया है । ---जो कि एक रूढ़ि वादी मान्यता ही है ।
यदि क्षत्रिय शब्द का व्युत्पत्ति- मूलक विश्लेषण करें तो अहीर असली क्षत्रिय हैं ; और
इस अर्थ में अहीर तो सबसे पहले क्षत्रिय ही हैं सुमेरियन पुरातन कथाओं में खत्री या खत्ती (हिट्टी) जैसे शब्द भी हैं
और भारतीय पुराणों में प्राय: कथाओं का सृजन वेदों के अर्थ -अनुमानों से ही किया गया है ।
फिर आप अहीरों को किस रूप में मानते हो ? आप भी बताऐं !
श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं ।
जिनका सम्बन्ध
असीरियन तथा द्रविड सभ्यता से भी है ।
द्रविड (तमिल) रूप अय्यर अहीर से विकसित रूप है।
कहीं कहीं अहीरों को ब्राह्मणों ने उनकी अलौकिकताओं से प्रभावित होकर ब्राह्मण भी स्वीकार कर लिया है ।
परन्तु द्वेष फिर भी वरकरार रहा ।
कृष्ण को इतिहास कारों ने द्रविड संस्कृति का नायक स्वीकार किया है।
कृष्ण का स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है।
छान्दोग्य उपनिषद  :--(3.17.6 )
कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् । वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्तेः
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कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि  घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी !
जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे।
श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।
परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं।
जैसे "चातुर्य वर्णं मया सृष्टं गुण कर्म स्वभावत:"
तथा वर्णानां ब्राह्मणोsहम" क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ब्राह्मण वर्चस्व वर्धन को लक्ष्य करके वैदिक धर्म के कर्म-काण्ड परक रूप की स्थापना हुई।
परन्तु कृष्ण का सम्पूर्ण आध्यात्मिक दृष्टि कोण प्राचीनत्तम द्रविड संस्कृति से अनुप्राणित है ।
---जो मैसॉपोटमिया की संस्कृति में द्रुज़ (Druze)
कैल्ट संस्कृति में ड्रयूड (Druids) कहे गये ।
द्रविड दर्शन ही कृष्ण का दर्शन है ।
एक साम्य दौनों का
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |(6)
यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
किन्तु हे  अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |।।7।।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |18।
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आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता
प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं ।
जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids)
कहते थे ।
जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे
यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे ।
पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी ...
इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं ।
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Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis " Pythagorean "
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The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal    
, and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body "
ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है ,
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Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13..
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कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है ।
( Philosophyof Druids About Soul)
Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean":
"The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body."
Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis). Caesar wrote:
With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say, which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion.
— Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13
आत्मा के बारे में द्रुडों का दर्शन)
अलेक्जेंडर कर्नेलियस पॉलीफास्टर ने द्रविडों को दार्शनिकों के रूप में संदर्भित किया और आत्मा और पुनर्जन्म या (मेटाम्प्सीकोसिस )"पायथागॉरियन" की अमरता के अपने सिद्धांत को कहा:
"गौल्स (कोल)के बीच पाइथोगोरियन सिद्धान्त प्रचलित हैं । कि मानव की आत्माएं अमर हैं, और निश्चित अवधि के बाद वे दूसरे शरीर में प्रवेश करेंगीं।"
सीज़र टिप्पणी: "उनके सिद्धांत का मुख्य बिंदु यह है कि आत्मा मर नहीं जाती है और मृत्यु के बाद यह एक शरीर से दूसरे में गुज़रता है" अर्थात् नवीन शरीर धारण करती है ।( मेटेमस्पर्शिसिस)।
सीज़र ने लिखा:
अध्ययन के अपने वास्तविक पाठ्यक्रम के संबंध में, सभी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उनकी राय में, मानव आत्मा की अविनाशी होने में दृढ़ विश्वास के साथ अपने विद्वानों को आत्मसात करने के लिए है, जो उनकी धारणा के अनुसार, केवल मृत्यु से गुजरता है । जैसे एक मकान से दूसर मकान में; केवल इस तरह के सिद्धांत द्वारा वे कहते हैं, जो अपने सभी भयों की मृत्यु को रोकता है, मानव स्वभाव के सर्वोच्च रूप को विकसित किया जा सकता है
इस मुख्य सिद्धान्तों की शिक्षाओं के लिए सहायक, वे विभिन्न व्याख्यान और विश्व के भौगोलिक वितरण, प्राकृतिक दर्शन की विभिन्न शाखाओं पर, और धर्म से जुड़े कई समस्याओं पर, खगोल विज्ञान पर चर्चाएं आयोजित करते हैं।
- जूलियस सीज़र, डी बेलो गैलिको, VI, 13
इतना ही नहीं पश्चिमीय एशिया में यहूदीयों के सहवर्ती 
द्रुज़ एकैश्वरवादी (Monotheistic)
थे ।
ये इब्राहीम परम्पराओं के अनुयायी थे ।
जिसे भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा कहा गया है ।
परन्तु ये मुसलमान ,ईसाई और यहूदी होते हुए भी
ईश्वर को एक मानते थे ।
तथा इनका विश्वास था कि पुनर्जन्म होता है ।
और आत्मा दूसरे शरीर में जाती है ।
सीरिया ,इज़राएल ,लेबनान और जॉर्डन में बहुसंख्यक रूप से ये लोग आज भी अपनी मान्यताओं का दृढता से अनुपालन कर रहे हैं ।
तथा इनका मानना है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा  एक दूसरे शरीर में प्रवेश करती है ,वह भी जीवन में वर्ष की निश्चित संख्या के अन्तर्गत ..
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वस--निवासे आच्छादने वा आधारकर्मादौ घञ् ।
१ गृहे २ वस्त्रे ३ अवस्थाने हेमचन्द्र कोश। वास--अच् । ४ वासके शब्दर० ।
तत्रार्थे स्त्रीत्वमपि तत्र टाप् । ५ सुगन्धे च । स्थानभेदेऽवस्थाननिषेधी यथा
“तस्मात् सङ्कीर्णवृत्तेषु वासो मम न रोचते ।
पुंसो ये नाभिनन्दन्ति वृत्तेनाभिजनेन च ।
न तेषु च वसेत् प्राज्ञः श्रेयोऽर्थी पापपुद्धिपु ।
ये त्वेवमभिजानन्ति वृत्तेनाभि- जनेन च ।
तेषु साधुषु व स्तव्यं सवासः श्रेयसे मतः” मात्स्ये २८ अ०
“धार्मिकैरावृते ग्रामे न व्याधिबहुले भृशम् ।
न शूद्रराज्ये निवसेत् न पाषण्डजनैर्वृते । हिमवद्बिन्ध्ययोर्मध्यं पूर्वपश्चिमयोः शुभम् ।
मुक्त्वा समुद्रयोर्देशं नान्यत्र निवसेत् द्विजः । अर्द्धक्रोशा- न्नदोकूलं वर्जयित्वा द्विजोत्तमः ।
नान्यत्र निवसेत् पुण्यं नान्त्यजग्रामसन्निधौ ।
न संवसेच्च पतितैर्न चण्डालैर्न पुक्कशैः ।
न मूर्खैर्नावलिप्तैश्च नान्त्यैर्नान्त्यावसायिभिः”
कूर्मपुराण १५ अ० ।
“धनिनः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यश्च पञ्चमः ।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते तत्र वासं न कारयेत्” चाणक्य📢

...सम्पूर्ण सृष्टि में जीव की भिन्नता का कारण प्राणी का चित् अथवा मन ही है ।
हमारा चित्त ही हमारी दृष्टि ज्ञान और वाणी का संवाहक है,
हमारी चेतना जितनी प्रखर वाणी उतनी ही स्पष्ट और उज्ज्वल।
कृष्ण का ज्ञान निस्सन्देह आध्यात्मिक ही है; परन्तु कृष्ण को आधार मानकर काम शास्त्र की व्याख्याऐं इनके चरित्र पर आरोपित की गयीं ।
कृष्ण के जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन हमें प्राप्त है वह मूलतः श्रीमद् भागवत आदि पुराणों का है; और वह ऐतिहासिक कम, काल्पनिक अधिक हैं;
और यह बात ग्रन्थ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है।
भागवत पुराण बारहवीं सदी की रचना है ।
जिसका निर्माण दक्षिणात्य के उन ब्राह्मणों ने किया जो वात्स्यायन के कामशास्त्र से अनुप्रेरित थे
खजुराहो मध्य प्रदेश के मन्दिर काम शास्त्रीय पद्धति पर आरेखित प्रस्तुत चित्र हैं ।
अधिकांश पुराण इसी काल की रचनाऐं हैं ।
आइए देखें--- उनमे ध्वनित अश्लीलता भागवतपुराण को सन्दर्भित करते हुए।
दक्षिणावर्तलिंगश्च नरो वै पुत्रवान् भवेत |
वामावर्ते तथा लिंगे नर: कन्या प्रसूयते ||१||
स्थूले: शिरालेर्वीषमैर्लिंगै­र्दारिद्र्यमादिशेत् | ऋजुभिर्वर्तुलाकारे: पुरुषा: पुत्रभागिन: ||२|| - भविष्यपुराण ब्राह्म. अध्याय २५
अर्थ –जिस आदमी का लिंग दायी तरफ झुका हुआ हो वह पुत्र पैदा करने वाला होता है|
जिसका लिंग बायीं तरफ झुका हो उसके कन्या पैदा होती है ||१||
मोटे रंगोवाले ,टेढ़े रंगोवाले ,टेड़े लिंगो से दरिद्रता होती है जिन पुरुषो के लिंग सीधे ,गोल होवे ,वे पुत्रो के भागी होते है ||२||
कटुतेल भल्लातन्क बृहतीफलदाडिमम् ||१७ ||
कल्के: साधितैर्लिंप्त लिंग तेन विवर्द्धते ||१८||
-गरुडपुराण .आचार. अध्याय १७६
अर्थ –कडवा तेल ,भिलावा ,बहेड़ा तथा अनार,
इसकी चटनी के लेप करने से लिंग बढ़ता है |
कर्पुर देवदारु च मधुना सह योजयेत |
लिंगलेपाच्च तेनैव वशीकुर्यात स्त्रिय किल ||२|| - -गरुडपुराण .आचार .अध्याय १८० अर्थ – कपूर ,देवदारु को शहद के साथ मिलाकर लिंग के लेप करे तो स्त्री वश में हो जाती है|
सैन्धव च महादेव पारावतमल मधु |
एभिर्लिंप्ते तु लिंगे वे कामिनीवशकृद भवेत ||१६|| - गरुडपुराण. आचार.अध्याय १८५
अर्थ –हे महादेव ! नमक और कबूतर की बीठ शहद में मिलाकर यदि लिंग के लेप करे तो स्त्री वश में हो जाती है
ब्रह्मचर्येsपि वर्तनत्या: साध्व्या ह्मपि च श्रूयते |
ह्रद्ंय हि पुरुष दृष्टवा योनि: संक्लिद्यते स्त्रिया: ||२८|| - भविष्यपुराण. ब्राह्म. अ. ७३
ब्रह्मचर्य में रहती साध्वी स्त्री की योनि भी सुन्दर पुरुष को देख कर टपकने लगती है |
बभूव काममत्ताया योनौ कंडूयन जलम् ||२४|| - ब्रह्मवैवर्तपुराण खण्ड ४ अध्याय २३ ।
रोमाञ्चित हुई धर्मयुक्त स्त्री के भी काम में मत्त होने पर योनि में खुजली तथा जल टपकने लगता है २४। कर्पुरमदनफलमधुकै: पूरित: शिव |
योनि: शुभा स्याद वृध्दाया युवत्या: कि पुनर्हर||१६|| - गरुड़पुराण आचार. अ. २०२ ।
हे शिव ! यदि योनि को कपूर ,मैनफल तथा शहद से भर दिया जावे तो बूढी स्त्री की योनि भी बढिया हो जाती है जवान का तो कहना ही क्या ||
इसके अलावा बहुत से ऐसी बाते पुराणों में है|
ऐसा लगता है कि  जेसे ये पुराण नही बल्कि कोई यौवनचिकित्सा शास्त्रीय या कामशास्त्रीय  ग्रन्थ हों ।
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भागवतपुराणकार ने भी काम (सेक्स) को केन्द्रित करके इस पुराण की रचना की है ।
वस्तुतः भागवत में सृष्टि की सम्पूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन  काल्पनिक और कामात्मक (रास लीला परक  रूप )में कराया गया है।
ग्रन्थ के पूर्वार्ध (स्कन्ध 1 से 9) में सृष्टि के क्रमिक विकास (जड़-जीव-मानव निर्माण) का और उत्तरार्ध (दशम स्कन्ध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक शैली में किया गया है। यद्यपि कहीं कहीं सांख्य दर्शन की गम्भीरता तो कहीं वेदान्त दर्शन के अद्वैत वाद की गरिमा भी है ।
भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण लीला के कुछ मुख्य प्रसंगों का आध्यात्मिक संदेश पहुचानने का यहाँ प्रयास किया गया है। जो कि उस काल की प्रवृत्ति रही है

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भारतीय पुराणों की कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 ई सन्  हुआ था ।
परन्तु कई वैज्ञानिक कारणों से प्रेरित कृष्ण का जन्म 950 ईसापूर्व मानना है सम्भवतः इस समय कृष्ण का वर्णन भोज पत्रों आदि पर हुआ हो ।
परन्तु कृष्ण का युद्ध आर्यों के नेता इन्द्र से हुआ ऐसा ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९०वें सूक्त का वर्णन कहता है
और महाभारत में कृष्ण के दार्शिनिक तथा राजनैतिक रूप का वर्णन है।
महाभारत का लेखन बुद्ध के बाद में हुआ है ।
क्योंकि आदि पर्व में बुद्ध का ही वर्णन हुआ है।
बुद्ध का समय ई०पू० 566के समकक्ष है ।
छान्दोग्य उपनिषद का अनुमान कृष्ण से सम्बद्ध है, जो 8 वीं और 6 वीं शताब्दी ई.पू. के बीच कुछ समय में रचित हुआ था, प्राचीन भारत में कृष्ण के बारे में अटकलों का एक और स्रोत रहा है।
भागवत महापुराण के द्वादश स्कन्ध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरम्भ के सन्दर्भ में भारतीय गणना के अनुसार कलयुग का शुभारम्भ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फ़रवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकण्ड पर हुआ था।
एेसा आनुमानिक रूप से माना है।
परन्तु यह तथ्य प्रमाण रूप नहीं हैं ।
पुराणों में बताया गया है कि जब श्री कृष्ण का स्वर्गवास हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ, इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ई०पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा। इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई।
पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है , जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था, जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे।
पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है।
इससे सिद्ध होता है कि कृष्ण 'द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध हैं । वैसे भी अहीरों (गोपों)में कृष्ण का जन्म हुआ ; और द्रविडों में अय्यर (अहीर) तथा द्रुज़ Druze नामक यहूदीयों में अबीर (Abeer) समन्वय स्थापित करते हैं।
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इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 950 ई०पूर्व तक होता रहा होगा जो पुरातात्विक सबूत की गणना में सटीक बैठता है।
द्रविड अथवा सिन्धु घाटी की संस्कृतियाँ 5000 से 950 ई०पू० समय तक निर्धारित हैं। 
इससे कृष्ण जन्म का सटीक अनुमान  मिलता है।
ऋग्वेद -में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के  तटवर्ती प्रदेश में रहता था ।
और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है
विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है  देखें---
अंशु + अस्त्यर्थे मतुप् ।
सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र ।
सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रा० आ० ४३ अ० ।
अंशुमति पदार्थमात्रे त्रि० ।
पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है ।
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" आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या:
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण:
विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
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ऋग्वेद कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ रहता था ।
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया ,
और उसकी सम्पूर्ण सेना
तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है
जो यमुना के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है ।
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वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टिमार्गी संप्रदाय के अनुयायी भगवान कृष्ण के लिए ठाकुर जी संबोधन देते हैं।
इसी सम्प्रदाय ने उन्हें कृष्ण जी को ठाकुर का प्रथम सम्बोधन दिया ।
यद्यपि किसी पुराण अथवा शास्त्र में ठक्कुर शब्द का प्रयोग कृष्ण के लिए कभी नहीं हुआ है। भ्रान्ति वश बेवजह राजपूत समुदाय के लोग कृष्ण को ठाकुर बिरादरी से सम्बद्ध कर रहे हैं ।
वल्लभाचार्य एक रूढि वादी ब्राह्मण थे । और राजपूतों के श्रद्धेय भी थे ।
परन्तु  इस सम्बोधन के मूल में कालान्तरण में यह भावना प्रबल रही  कि " कृष्ण को यादव सम्बोधन न देकर केवल आभीर (गोप) जन-जाति को हेय सिद्ध किया जा सके ।
इसलिए ठाकुर जी का सम्बोधन दिया जाने लगा ।
वस्तुत जादौन भीटी अथवा अन्य राज-पूत ---जो स्वयं को यदुवंशी क्षत्रिय कहते हैं । अपने आप को गोपों से सम्बद्ध नहीं करते हैं । परन्तु कृष्ण तो गोप ही थे ।
अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप (आभीर) कहा!
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गोपायनं य:  कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९।  (हरिवंश पुराण )
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
देखें :- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण..
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" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।२२।।
द्या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ते८प्यमे तस्य भुवि संस्यते ।।२४।।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषुतिष्ठति भूतले ।
गुरु गोवर्धनो नामो मधुपुर: यास्त्व दूरत:।।२५।।
सतस्य कश्यपस्य अंशस्तेजसा कश्यपोपम:।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक: तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्चते ।।२६।।
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्य धीमत:
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अर्थात्  हे विष्णु ! महात्मा वरुण के एैसे वचन सुनकर
तथा कश्यप के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके
उनके गो-अपहरण के अपराध के प्रभाव से
कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दे दिया ।।२६।।
कश्यप की सुरभि और अदिति नाम की पत्नीयाँ क्रमश:
रोहिणी और देवकी हुईं ।
यद्यपि पुराण कारों ने कृष्ण के लिए ठाकुर सम्बोधन कभी प्रयुक्त नहीं किया ।
यह तथ्य पिष्टपेषण अथवा पुनरुक्त करने का यही तात्पर्य है कि कृष्ण को पुराणों में गोप ही कहा गया है।
ठाकुर नहीं
__________________________________________ क्योंकि ठाकुर शब्द संस्कृत भाषा का नहीं अपितु ये तुर्की , ईरानी तथा आरमेनियन मूल का है ।
अतः शास्त्र कार इस शब्द के प्रयोग से बचते रहे । __________________________________________ पुराणों में तथा महाभारत के अन्तर्गत शान्ति - पर्व से उद्धृत श्रीमद्भगवद् गीता में भी कृष्ण को यादव ही कह कर सम्बोधित किया गया है , ठाकुर नहीं । देखें--- _______________________________________  
   सखेति  मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति। अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥११- ४१॥
(श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय ११ श्लोक संख्या ४१)  ________________________________________ अर्थात् हे भगवन्, आप को केवल अपना मित्र ही मान कर, मैंने प्रमादवश अथवा प्रेम वश आपको जो यह हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा (मित्र) कह कर सम्बोधित किया, वह आप की महिमा को न जानते हुए ही किया हैे।
________________________________________
और ठाकुर शब्द तुर्कों और ईरानियों के साथ भारत आया
ठाकुर जी सम्बोधन का प्रयोग वस्तुत : स्वामी भाव को व्यक्त करने के निमित्त है ।
न कि जन-जाति विशेष के लिए ।
कृष्ण को ठाकुर सम्बोधन का क्षेत्र अथवा केन्द्र नाथद्वारा ही प्रमुखत: है।
यहाँ के मूल मन्दिर में कृष्ण की पूजा ठाकुर जी की पूजा ही कहलाती है।
यहाँ तक कि उनका मन्दिर भी हवेली कहा जाता है।
विदित हो कि हवेली (Mansion)और तक्वुर (ठक्कुर)" A person who wearer of the crown is called Takvor "  दौनों शब्दों की पैदायश ईरानी भाषा से है
कालान्तरण में भारतीय समाज में ये शब्द रूढ़ हो गये  ⛺⛺.🌲☘🌴 🌉 ..................................
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के देशभर में स्थित अन्य मन्दिरों में भी भगवान को ठाकुर जी कहने का परम्परा रही है।

जब वेदों में यदु को ही दास अथवा असुर रूप में वर्णन किया हो ।तो जाहिर सी बात है कि पुरोहितों का यदु वंश से भी घृणा अथवा द्वेष होगा ही क्यों वेदों के विधानों को पारित व प्रचारित करने के लिए ब्राह्मण भारतीय समाज में हस्तक्षेप करते रहे हैं ।

येन  महानघ्न्या जघनमश्विना येन सुरा ।
येनाक्षा अभ्यषिच्यन्त तेनेमां वर्चसावतम् ।३६।
                                        अथर्ववेद १५/१/३६
अथर्ववेद में इतिहासस्य च वै स पुराणस्य च गाथानां चनाराशंसीनां च प्रियं धाम भवति य एवं वेद ।१२।
                            अथर्ववेद का० १५/अ०१ सू० ६
इस बात को जानने वाला इतिहास पुराण गाथाओं का प्रियधाम होता है ।

स विशो ८नु व्यचलत् ।१। तं सभा च समितिश्च सेना च सुरा चानुव्यचलन ।२।
सभायाश्च वै स समितेश्च सेनायाश्च सुरायाश्च प्रियं धाम भवति य एवं वेद । अथर्ववेद (का०१५ अ०२ सूक्त ९ )
उसने प्रजाओं के अनुकूल व्यवहार किया सभा समिति सेना और सुरा उसके अनुकूल हो गये।
इस प्रकार जानने वाला समित सभा सेना और सुरा का -प्रिय धाम होता है ।
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प्रियास इत् ते मघवन्नभिष्टौ
        नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
        अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।। ऋग्वेद ७/१९/८ में भी यही ऋचा
अथर्ववेद (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७
हे इन्द्र ! तुम्हारे मित्र रूप यजमान हम
अपने घर में प्रसन्नता से रहें।
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले हो ।
ऋग्वेद में अर्थ किया हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेना करने सुदास को सुखी करो । और तुर्वसु और यदु को अपने अधीन करो ।

और भी देखें--- अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१। पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२। (ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हो सोम !  तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों  (नगरों) को तोड़ा था । उसी रस से युक्त होकर इन्द्र के पाने के लिए प्रवाहित होओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले सोम रस ने ही  तुर्वसु सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों को  शासन (वश)में किया ।

सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् । व्यानट् तुर्वशे शमि । ऋग्वेद ८/४६/२७
हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० । निह्नवाकर्त्तरि । “सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७
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किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं
त्वां श्रृणोमि अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोगने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
मुझे क्षीण न करो ।

वेद मेंअश्लील ता
तद् इन्द्राव आ भर येना दसिष्ठ कृत्वने ।
द्विता कुत्साय शिश्नथो नि चोदय ! ऋग्वेद ८/२४/२५
चोदयति चोदना, चोद्यम् 55

यदु एेसे स्थान पर रहते हैं ।
जहाँ ऊँटो का बाहुल्य है ।
शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम्
त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६। उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६
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ऋतं वोचे नमसा पृच्छ्यमानस्तवाशसा जातवेदो यदीदम्
त्वमस्य क्षयसि यद्ध विश्वं दिवि यदु द्रविणं यत् पृथिव्याम् ।।११। ऋग्वेद १/५/११

द्विर्य पञ्च जीजनन् त्वसंवसाना : स्वसारो अग्नि मानुषीषु विक्षु। ऋ ० १/६/८ स्वसृ - स्त्री
उत् त्या तुर्वशा यदू अस्नातारा शचिपति : ।
                  इन्द्रो विद्वाँ अपारयत् ।।१७।।
ऋग्वेद-४/३१/१७
अर्थात् शचि पति इन्द्र नें यदु और तुर्वसु को संकट (विद्वाँ )से पार किया ।
त्वमपो यदवे तुर्वन्नाया८रमय: सुदुघा पार इन्द्र ।
ऋग्वेद ५/३२/७
अर्थात् हे इन्द्र तुमने यदु और तुर्वसु को हमसे बहुत दूर समुद्र के पार कर दिया ।

यदु और तुर्वसु समु्द्र पार रहते हैं  ऋग्वेद में इसके प्रमाण ---
प्र यत् समुद्रमतिं शूर पर्षि पारया तुर्वसुं यदुं स्वस्ति
।१२। ऋग्वेद ६/२०/१२
हे इन्द्र ! तु समु्द्र लाँघने में सफल होते हो ! तब समुद्र के पार रहने वाले यदु और तुर्वसु को समु्द्र के पार भगाते हो

अव गिरेर् दासं शम्बरं हन् प्रावो  दिवोदासं चित्राभिरूती ।५। ऋग्वेद ६/२६/५/
हे इन्द्र तुमने दास शम्बर को पर्वत से नीचे गिराकर मारा और दिवोदास की रक्षा की ।
हरप्पा का वर्णन
वधीदिन्द्रो वरशिखस्य शेषो८भ्यावर्तिने चायमानाय शिक्षन्।
वृची वतो यद् हरियूपीयायां हन् पूर्वज अर्धे भियसापरो दर्त् ।।ऋ० ६/२७/५

ऋग्वेद में मितन्नीयों का वर्णन देखें---
स वह्निभिर्ऋक्वभिर्गोषु शश्वन् मितज्ञुभि: पुरुकृत्वा जिगाय।ऋ०६/३२/३

कहीं कहीं वर्णन है कि  जो यदु और तुर्वसु को दूर देशों से यहाँ लाये  थे । वे इन्द्र हमारे मित्र हों नीचे देखें---
य आनयत् परावत: सुनीती तुर्वशं यदुम् । इन्द्र: स नो युवा सखा ।।ऋ० ६/४५/१
__________________________________________   तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर )परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी । यहाँ पर ही इसका जन्म हुआ ।  _________________________________________ "तब निस्सन्देह इस्लाम धर्म का आगमन नहीं हो पाया था मध्य एशिया में ।
वहाँ सर्वत्र ईसाई विचार धारा ही प्रवाहित थी , केवल छोटे ईसाई राजा होते थे ।
ये स्थानीय बाइजेण्टाइन ईसाई सामन्त (knight) अथवा माण्डलिक ही होते थे तब तुर्की भाषा में इन्हें तक्वुर (ठक्कुर) ही कहा जाता था ! उस समय एशिया माइनर (तुर्की) और थ्रेस में ही  इस प्रकार की शासन प्रणाली होती थी "
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टेकफुर (ठक्कुर ) शब्द का जन्म एक टाइटल (उपाधि) के रूप में हुआ था । जो कि सेल्जुक और प्रारम्भिक तुर्क अवधि (शासन काल)में स्वतन्त्र या अर्ध-स्वन्त्र अल्पसंख्यक ईसाई शासकों या एशिया माइनर और थ्रेस में स्थानीय बीजान्टिन गवर्नरों के सन्दर्भों में था।

उत्पत्ति और अर्थ  की दृष्टि से भारत में जब विदेशीयों का क्षत्रिय करण ब्राह्मण धर्म के संरक्षण एवं बौद्ध श्रमणों के क्षरण के लिए राजस्थान के माउण्ट आबू पर्वत पर अग्नि संस्कार (यज्ञ) के द्वारा हुआ ।
हूण , कुषाण तथा तुर्की, मंगोलियन तथा ईरानी मूल के गादौन अथवा जादौन पठानों का समायोजन हुआ ।
संस्कृत भाषा में इन्हें प्रस्थ अथवा प्रस्थान अथवा पृक्त कहा ।
यह समय छठी सदी का उत्तरार्द्ध था
तब ठाकुर शब्द का प्रचलन सातवीं से बारह तेरहवीं सदी तक सभी राजपूतों के लिए उनके जमीदारी खिताबो के तौर पर हुआ ।
यद्यपि ठक्कुर शब्द की उत्पत्ति अनिश्चित है। यह सुझाव दिया गया है कि यह अरबी निकोर Nikfor के माध्यम से बीजान्टिन शाही नाम निकेफोरोस Nikephorosसे निकला है। कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि यह आर्मेनियाई टैघॉवर, taghavor :-- मुकुट-धारक से निकला है।
शब्द और इसके रूपों काल परिस्थितियों व जल-वायु प्रभाव से कुछ उच्चारण भेद भी हुआ जैसे-(टेकवुर, टेकुर, तेकिर,(tekvur, tekur, tekir )इत्यादि।
13 वीं शताब्दी में फारसी या तुर्की में लिखने वाले इतिहासकारों द्वारा इस शब्द का उपयोग सामन्त अथवा भू-खण्ड मालिकों के लिए हुआ । जैसे-
"बीजान्टिन लॉर्ड्स या अनातोलिया (तुर्की) में कस्बों और किले के राजपालों गवर्नरों को संदर्भित करने के लिए हुआ"  यह अक्सर बीजान्टिन सीमावर्ती युद्ध के नेताओं, अक्रितई के कमांडरों को दर्शाता है, लेकिन बीजान्टिन राजकुमारों और सम्राटों को भी खुद ", उदाहरण के लिए Tekfur Sarayı के मामले में,

इस प्रकार इतिहास कार इब्न बीबी सिक्किशिया के अर्मेनियाई राजाओं को टेकवुर के रूप में सन्दर्भित करते हैं, जबकि वह और डेडे कॉर्कट महाकाव्य ट्रेबीज़ोंड के साम्राज्य के शासकों को "दंजित के टेकवुर" के रूप में सन्दर्भित करते हैं।
प्रारम्भिक तुर्क अवधि में, इस शब्द का इस्तेमाल किले और कस्बों के बीजान्टिन गवर्नर दोनों के लिए किया गया था, जिनके साथ तुर्क उत्तर-पश्चिमी अनातोलिया और थ्रेस में तुर्क विस्तार के दौरान लड़े थे,  लेकिन बीजान्टिन सम्राटों के लिए भी, मलिक के साथ एक दूसरे के साथ ("राजा") और शायद ही कभी, फासिलीयस (बीजान्टिन शीर्षक बेसिलस का प्रतिपादन) भी ठक्कुर खिताब से हुआ हो 
हसन कोलक सुझाव देता है कि यह उपयोग कम से कम वर्तमान राजनीतिक वास्तविकताओं और बीजान्टियम की गिरावट को प्रतिबिम्बित करने के लिए एक जानबूझकर विकल्प के तौर पर था, जो 1371-94 के बीच और फिर 1424 के बीच और 1453 में कॉन्स्टेंटिनोपल के पतन के कारण रंप बीजान्टिन राज्य ओटोमैन को एक सहायक वासल  के समय प्रचलन में रहा । 15 वीं शताब्दी के तुर्क इतिहासकार एनवेरी कुछ हद तक अद्वितीय रूप से दक्षिणी ग्रीस के फ्रैंकिश शासकों और एजियन द्वीपों के लिए टेकफुर शब्द का उपयोग करते हैं।

संदर्भ तालिकाऐं -----

^ ए बी सी डी Savvides 2000, पीपी 413-414।
^ ए बी Çolak 2014, पी। 9।
^ कोलक 2014, पीपी। 13 एफ ..
^ कोलक 2014, पी। 19।
^ कोलक 2014, पी। 14।
सूत्रों का कहना है
कोलक, हसन (2014)। "Tekfur, Fasiliyus और Kayser: ओटोमन दुनिया में बीजान्टिन इंपीरियल Titulature की अपमान, लापरवाही और स्वीकृति"। Hadjianastasis, Marios में। ओटोमन इमेजिनेशन के फ्रंटियर: रोड्स मर्फी के सम्मान में अध्ययन। BRILL। पीपी 5-28। आईएसबीएन 978 9 004280 9 15।
Savvides, एलेक्सियो (2000)। "Tekfur"। इस्लाम का विश्वकोश, नया संस्करण, खंड एक्स: टी-यू। लीडेन और न्यूयॉर्क: ब्रिल। पीपी 413-414। आईएसबीएन 90-04-11211-1।

Tekfur
(638 शब्द)
, टेकवुर, देर से रुम सालजुज और प्रारंभिक तुर्क समय में उपयोग किया जाने वाला एक शीर्षक। यह संभवतः आर्मेनियाई मूल (<टैगहेवर " ताज पहनने वाौला ", एमपी तग-आवरा (हब्सचमान, आर्मेनिस ग्रेमैटिक देखें। आई आर्मेन। एटिमोलॉजी, लीपज़िग 18 9 7, एसवी; आई मैलिकॉफ-सियार, ले डेस्टान डी उमुर पाचा, पेरिस 19 54, 47 एन 6, और इंडेक्स, 144 बी) या, ग्रीक नाम निकफोरोस> निकोर> टेकफुर से कम संभावना है (ज़ेनकर, तुर्क। अरबी-पर्स देखें। हैंडवॉर्टरबच, लीपज़िग 1866, एसवी; ई। जचरियाडो, हिस्ट और प्रारंभिक सुल्तानों की किंवदंतियों 1300-1400 [जीके में], एथेंस 1 99 1, 215)। यह फारसी में इतिहासकारों द्वारा नियोजित किया गया था ...
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Savvides, ए, "Tekfur", में: इस्लाम के विश्वकोष, द्वितीय संस्करण, द्वारा संपादित: पी। Bearman, । Bianquis, सीई Bosworth, ई। वैन Donzel, डब्ल्यूपी। Heinrichs। 01 जुलाई 2018 को ऑनलाइन परामर्श <http://dx.doi.org/10.1163/1573-3912_islam_SIM_7483>
पहले ऑनलाइन प्रकाशित: 2012
पहला प्रिंट संस्करण: आईएसबीएन: 978 9 004161214, 1 9 60-2007

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Tekfur was a title used in the late Seljuk and early Ottoman  periods to refer to independent or semi-independent minor Christian rulers or local Byzantine governors in Asia Minor and Thrace.

Origin and meaning-
The origin of the title is uncertain. It has been suggested that it derives from the Byzantine imperial name Nikephoros, via Arabic Nikfor. It is sometimes also said that it derives from the Armenian taghavor, "crown-bearer". The term and its variants (tekvur, tekur, tekir, etc.) began to be used by historians writing in Persian or Turkish in the 13th century, to refer to "denote Byzantine lords or governors of towns and fortresses in Anatolia (Bithynia, Pontus) and Thrace. It often denoted Byzantine frontier warfare leaders, commanders of akritai, but also Byzantine princes and emperors themselves", e.g. in the case of the Tekfur Sarayı , the Turkish name of the Palace of the Porphyrogenitus in Constantinople (mod. Istanbul).

Thus Ibn Bibi refers to the Armenian kings of Cilicia as tekvur, while both he and the Dede Korkut epic refer to the rulers of the Empire of Trebizond as "tekvur of Djanit". In the early Ottoman period, the term was used for both the Byzantine governors of fortresses and towns, with whom the Turks fought during the Ottoman expansion in northwestern Anatolia and in Thrace,but also for the Byzantine emperors  themselves, interchangeably with malik ("king") and more rarely, fasiliyus (a rendering of the Byzantine title basileus).[3] Hasan Çolak suggests that this use was at least in part a deliberate choice to reflect current political realities and Byzantium's decline, which between 1371–94 and again between 1424 and the Fall of Constantinople in 1453 made the rump Byzantine state a tributary vassal to the Ottomans.The 15th-century Ottoman historian Enveri  somewhat uniquely uses the term tekfur also for the Frankish rulers of southern Greece and the Aegean islands.
References
^ a b c d Savvides 2000, pp. 413–414.
^ a b Çolak 2014, p. 9.
^ Çolak 2014, pp. 13ff..
^ Çolak 2014, p. 19.
^ Çolak 2014, p. 14.
Sources
Çolak, Hasan (2014). "Tekfur, fasiliyus and kayser: Disdain, Negligence and Appropriation of Byzantine Imperial Titulature in the Ottoman World". In Hadjianastasis, Marios. Frontiers of the Ottoman Imagination: Studies in Honour of Rhoads Murphey. BRILL. pp. 5–28. ISBN 9789004280915.
Savvides, Alexios (2000). "Tekfur". The Encyclopedia of Islam, New Edition, Volume X: T–U. Leiden and New York: BRILL. pp. 413–414. ISBN 90-04-11211-1.

Tekfur
(638 words)
, Tekvur , a title used in late Rūm Sald̲j̲ūḳ and early Ottoman times. It is most probably of Armenian origin (< tag̲h̲avor “crown bearer”, MP tāg-āwāra (see Hubschmann, Armenische Grammatik . i. Armen . Etymologie , Leipzig 1897, s.v.; I. Mélikoff-Sayar, Le Destān d’Umūr Pacha , Paris 1954, 47 n. 6, and index, 144b) or, less likely, from the Greek name Nikephoros > Nikfor > Tekfur (see Zenker, Türk. arab.-pers. Handwörterbuch , Leipzig 1866, s.v.; E. Zachariadou, Hist . and legends of the early sultans 1300-1400 [in Gk.], Athens 1991, 215). It was employed by historians in Persi…

Savvides, A., “Tekfur”, in: Encyclopaedia of Islam, Second Edition, Edited by: P. Bearman, Th. Bianquis, C.E. Bosworth, E. van Donzel, W.P. Heinrichs. Consulted online on 01 July 2018 <http://dx.doi.org/10.1163/1573-3912_islam_SIM_7483>
First published online: 2012
First print edition: ISBN: 9789004161214, 1960-

Jadoon (जादून)----
जादुून / गादून पाकिस्तान में एक (पश्तूनों) पठानों की जनजाति हैं। जादौन (हिन्दुस्तान / पश्तो / उर्दू: جدون), जिसे गाडोन (पश्तो: ګدون) भी कहा जाता है, पाकिस्तान में एक पश्तुन जनजाति है। एक शौकिया नृवंशविज्ञानी और प्रशासन ब्रिट्रिश राज में , होरेस रोज ने उन्हें 19 11 में स्वाबी में गदून में आंशिक रूप से उपस्थित किया, और आंशिक रूप से किबर (खैबर) पख्तुनख्वा प्रान्त के एबोटाबाद और हरिपुर जिलों में उपस्थित हुए। दुरन्द रेखा के पार, जनजाति के कुछ सदस्य अफगानिस्तान में नंगारहर और कुनार में रहते हैं। जादौन स्वाबी और अफगानिस्तान और हिंदुको में एबोटाबाद और हरिपुर में पश्तो बोलते हैं। वहाँ नाम जडून को कभी-कभी गदून के रूप में लिखा जाता है और एक उद्धरण में सुडून के रूप में लिखा जाता है। असल में जडून इहेबेटेंट्स और गैडून क्षेत्र है।
गॉडून के लोगों को जडून कहा जाता है।

अत: जादौन पठानों की भारतीय शाखा है ।जनजाति की वंशावली तालिका, जैसा कि "तारख-ए-खान जहांनीवा-
1612 ईस्वी में लिखे गए ख्वाजा निमातुल्लाह हरवी द्वारा मखजान-ए-अफगानी, को पुनरुत्पादित किया गया है (परिशिष्ट संख्या 1 में)। यह पुस्तक मुगल सम्राट जहांगीर के क्षेत्र में लिखी गई थी जिसमें जादौन जनजाति को एक पश्तूनों अथवा पठानों की शाखा के रूप में जाना जाता है पनी अफगान, सर ओलाफ कैरो, गुरघुष्ट की वंशावली तालिका के तहत अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "द पठान" में उल्लेख किया गया है कि जाडोन पन्ना जनजाति के रूप में उतरे थे। "पाकिस्तान: राजनीतिक विकास की पहेली" पृष्ठ पर लेखक 14 9 और एनडब्ल्यूएफपी 19 54 की साल की पुस्तक की पृष्ठ 14, लिखती है:
एनडब्ल्यूएफपी जनसांख्यिकीय और जनजातीय लोगों के बीच जनसांख्यिकीय रूप से विभाजित है।
यद्यपि पठान संख्यात्मक रूप से श्रेष्ठ हैं, यह क्षेत्र अवंस, गुजर इत्यादि का घर भी है। पठान, पर्वत श्रृंखलाओं में प्रमुखों की कई विशिष्ट जनजातीय इकाइयों में विभाजित हैं, यूसुफजई की मलकंद एजेंसी, मोहनैंड्स और अफरीदीस हैं खैबर एजेंसी और कोहट पास, तिराह के ओराकाज़ीस, उत्तर और दक्षिणी वजीरिस्तान के वज़ीर, और दीखान के भित्तिनी और शिरानिस आदि।
प्रांत के बसने वाले इलाकों में मार्डन, खालिल्स, मोहम्मद, मुहम्मद-जैस, दौदजाइस, खट्टक, खोहाट के बंगाश, बन्नू के मारवाट और वजीर और डी.आई.खान के गंडापुर, कुंडिस और मिनाखेल के यूसुफजाइस हैं। कुछ महत्वपूर्ण मामूली जनजातियां हजारा और स्वाबी के जादौन हैं, शिनवार और बाबर और दावर्स के शिनवाड़ी और मुल्लागोरियों में। पुस्तक में "पेशावर जिले के निपटारे पर रिपोर्ट, मेजर एचआर जेम्स, 1868, भाग -2 , परिशिष्ट-डी "पृष्ठ 133 पर, जाडोन वंशावली तालिका में पन्नी अफगान के वंशज के रूप में दिखाए जाते हैं।

जादौन पठानों का इतिहास ---
जादौन मूल रूप से पहले अफगानिस्तान के नंगारहर क्षेत्र में स्पिन घर सीमा की पश्चिमी ढलानों पर रहते थे। बाद में, जादौन Kabulregion में स्थानांतरित हो गया। 16 वीं शताब्दी में, जाडोन्स यूसुफज़ई में शामिल हो गए, जिन्हें मुगल सम्राट बाबर के एक मामा मिर्जा उलुग बेग ने काबुल से निकाल दिया था । और वे पूर्व में पेशावर क्षेत्र में चले गए और पश्तून के दिलजाक जनजाति में रहने वाले इलाकों में बस गए ।
वे कटलांग की लड़ाई में दिलजाक्स को पराजित करने में सफल रहे, और उन्हें सिंधु नदी के पूर्व में हजारा क्षेत्र की ओर धकेल दिया। अंततः जादौन सिंधु में सिंधु नदी के पश्चिमी तट पर बस गए। लेकिन बाद में, कुछ जादौन भी एबोटाबाद और हरिपुर में सिंधु नदी के पूर्वी तट पर बस गए।
जदुून अशरफ से घिरे हुए हैं जो घुरघुष्ट अफगान के पन्नी वंश के जादौन (गादून) भी हैं। पारनी, काकर, नागहर (जिन्होंने नागहर जनजाति और दावी बनाई थी, इस्माइल के पुत्र डेनी के चार बेटे थे, जिन्हें घुरघुश भी कहा जाता था। उन्होंने थ्रो बनाया

जूडॉन
इस और इसी तरह के नाम वाले लोगों की सूची के लिए, जूडॉन देखें।
जैडन एक हिब्रू नाम है जिसका अर्थ है "भगवान ने सुना है," "आभारी" (स्ट्रॉन्ग कॉनकॉर्डेंस के अनुसार), "एक न्यायाधीश," या "जिसे भगवान ने निर्णय लिया है"   और बाइबिल के इतिहास में दो पात्रों का नाम।
मेरोनोथाइट जाडोन
जॉर्डन मेरोनोथाइट हिब्रू बाइबिल में नहेम्याह की पुस्तक में यरूशलेम की दीवार के निर्माण करने वालों में से एक था।
पैगंबर जादौन
फ्लेवियस जोसेफस के मुताबिक, जैडन एक नाबालिग भविष्यद्वक्ता का नाम था जो यहूदियों आठवीं की प्राचीन काल में संदर्भित था। 8,5 जिसे 1 राजा 13: 1 में वर्णित भगवान का व्यक्ति माना जाता है।
परन्तु जूडान अथवा जादौन शब्द का सम्बन्ध जूडा अथवा यहुदह् शब्द से है । --जो यहूदीयों के पूर्व - पुरुष हैं । भारतीय राजपूतों अथवा उन जादौन बंजारों को प्रारम्भिक काल से ही जादौन कहा जाता रहा है ।
  अत: भारतीय पुराणों में प्रचलित यादव शब्द से इसका सम्बन्ध न होकर जूडान अथवा जादौन से अधिक सन्निकट है ।

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                        इति ---भाग द्वित्तीय

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