शनिवार, 27 मई 2017

"कृष्ण के पूर्वज यदु को शूद्र घोषित कर दिया " तो कृष्ण भी शूद्र हुए ....

अहीर प्रमुखतः एक हिन्दू भारतीय जाति समूह है ।
परन्तु कुछ अहीर मुसलमान भी हैं  और बौद्ध तथा कुछ सिक्ख भी हैं ।
और ईसाई भी  ।
भारत में अहीरों को
यादव समुदाय के नाम से भी पहचाना जाता है, तथा अहीर व यादव या राव साहब
ये सब यादवों के ही विशेषण हैं।
हरियाणा में राव शब्द यादवों का विशेषण है।
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यहूदीयों की हिब्रू बाइबिल के सृष्टि-खण्ड नामक अध्याय  Genesis 49: 24 पर ---
अहीर शब्द को जीवित ईश्वर का वाचक बताया है
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___The name Abir is one of The titles of the living god  for some reason it,s usually translated(  for some reason all god,s
    in Isaiah 1:24  we find four names of
The lord in rapid  succession as Isaiah
Reports " Therefore Adon - YHWH - Saboath and Abir ---- Israel declares...
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Abir (अभीर )---The name  reflects protection more than strength although one obviously -- has to be Strong To be any good at protecting still although all modern translations universally translate this  name  whith ----  Mighty One , it is probably best  translated whith --- Protector --रक्षक ।
हिब्रू बाइबिल में तथा यहूदीयों की परम्पराओं में ईश्वर के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं :----
(१)----अबीर (२)----अदॉन (३)---सबॉथ (४)--याह्व्ह्
तथा (५)----(इलॉही)
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हिब्रू भाषा मे अबीर (अभीर) शब्द के बहुत ऊँचे अर्थ हैं- अर्थात् जो रक्षक है, सर्व-शक्ति सम्पन्न है
इज़राएल देश में याकूब अथवा इज़राएल-- ( एल का सामना करने वाला )को अबीर
    का विशेषण दिया था ।
इज़राएल एक फ़रिश्ता है जो भारतीय पुराणों में यम के समान है ।
जिसे भारतीय पुराणों में ययाति कहा है ।
ययाति यम का भी विशेषण है ।
   भारतीय पुराणों में विशेषतः महाभारत तथा श्रीमद्भागवत् पुराण में
   वसुदेव और नन्द दौनों को परस्पर सजातीय वृष्णि वंशी यादव बताया है ।
देवमीढ़ के दो रानीयाँ मादिष्या तथा वैश्यवर्णा नाम की थी ।
मादिषा के शूरसेन और वैश्यवर्णा के पर्जन्य हुए ।
शूरसेन के वसुदेव तथा पर्जन्य के नन्द हुए
नन्द नौ भाई थे --
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धरानन्द ,ध्रुवनन्द ,उपनन्द ,अभिनन्द सुनन्द
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कर्मानन्द धर्मानन्द नन्द तथा वल्लभ ।
हरिवंश पुराण में वसुदेव को भी गोप कहकर सम्बोधित किया है ।
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"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत !
गावां कारणत्वज्ञ सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति !!
अर्थात् हे विष्णु वरुण के द्वारा कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दिया गया ..
क्योंकि उन्होंने वरुण की गायों का अपहरण किया था..
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                   हरिवंश पुराण--(ब्रह्मा की योजना नामक अध्याय)
            ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण पृष्ठ संख्या १३३----
और गोप का अर्थ आभीर होता है ।
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परन्तु यादवों को कभी भी कहीं भी वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय स्वीकार न करने का कारण
यही है, कि ब्राह्मण समाज ने प्राचीन काल में ही यदु को दास अथवा शूद्र घोषित कर दिया था ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण रूप में देखें---
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उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----
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अन्यत्र ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के तृतीय सूक्त के छठे श्लोक में दास शब्द का प्रयोग शम्बर असुर के लिए हुआ है ।
जो कोलों का नैतृत्व करने वाला है !
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उत् दासं कौलितरं बृहत: पर्वतात् अधि आवहन इन्द्र: शम्बरम् ।।
------------------------------------------------------------६६-६
ऋग्वेद-२ /३ /६
दास शब्द इस सूक्त में एक वचन रूप में है ।
और ६२वें सूक्त में द्विवचन रूप में है ।
वैदिक व्याकरण में "दासा "
लौकिक संस्कृत भाषा में "दासौ" रूप में मान्य है ।

ईरानी आर्यों ने " दास " शब्द का उच्चारण "दाहे "
रूप में किया है -- ईरानी आर्यों की भाषा में दाहे का अर्थ --श्रेष्ठ तथा कुशल होता है ।
अर्थात् दक्ष--
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यदुवंशी कृष्ण द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता  में--
यह कहना पूर्ण रूपेण मिथ्या व विरोधाभासी ही है
कि .......
     "वर्णानां ब्राह्मणोsहम् "
       (  श्रीमद्भगवद् गीता षष्ठम् अध्याय विभूति-पाद)
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{"चातुर्यवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:" }
      (श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय ४/३)

क्योंकि कृष्ण यदु वंश के होने से स्वयं ही शूद्र अथवा दास थे ।
फिर वह व्यक्ति समाज की पक्ष-पात पूर्ण इस वर्ण व्यवस्था का समर्थन क्यों करेगा ! ...
गीता में वर्णित बाते दार्शिनिक रूप में तो कृष्ण का दर्शन (ज्ञान) हो सकता है ।
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परन्तु {"वर्णानां ब्राह्मणोsहम् "}
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अथवा{ चातुर्यवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:}
जैसे तथ्य उनके मुखार-बिन्दु से नि:सृत नहीं हो सकते हैं
गुण कर्म स्वभाव पर वर्ण व्यवस्था का  निर्माण कभी नहीं हुआ...
ये तो केवल एक आडम्बरीय आदर्श है ।
केवल जन्म या जाति के आधार पर ही हुआ ..
स्मृतियों का विधान था , कि ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी पूज्य है ।
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और शूद्र जितेन्द्रीय होने पर भी पूज्य नहीं है।
क्योंकि कौन दोष-पूर्ण अंगों वाली गाय को छोड़कर,
शील वती गधी को दुहेगा ...
"दु:शीलोSपि द्विज पूजिये न शूद्रो विजितेन्द्रीय:
क: परीत्ख्य दुष्टांगा दुहेत् शीलवतीं खरीम् ।।१९२।।.          ( पराशर स्मृति )
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हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप कहा है ।
हरिवंश पुराण में वसुदेव का गोप रूप में वर्णन
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"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत !
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वम् एष्यति ।।२२।।
अर्थात् जल के अधिपति वरुण के द्वारा ऐसे वचनों को सुनकर अर्थात् कश्यप के विषय में सब कुछ जानकर वरुण ने कश्यप को शाप दे दिया , कि कश्यप ने अपने तेज के प्रभाव से उन गायों का अपहरण किया है ।
उसी अपराध के प्रभाव से व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करें अर्थात् गोपत्व को प्राप्त हों ।
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                                    हरिवंश पुराण (ब्रह्मा की योजना) नामक अध्याय पृष्ठ संख्या २३३
(ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करणों)
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और बौद्ध काल के बाद में रचित स्मृति - ग्रन्थों में
जैसे व्यास -स्मृति में अध्याय १ श्लोक संख्या ११--१२ में---
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बर्द्धिको नापितो गोप: आशाप: कुम्भ कारको ।
वणिक: किरात कायस्थ:मालाकार : कुटुम्बिन:
वरटो मेद चाण्डाल:दास: स्वपच : कोलक:
एषां सम्भाषणं स्नानं दर्शनाद् वै वीक्षणम् ||
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अर्थात्  बढ़ई ,नाई ,गोप (यादव)कुम्भकार,बनिया ,किरात
कायस्थ मालाकार ,दास अथवा असुर कोल आदि जन जातियाँ इतनी अपवित्र हैं, कि इनसे बात करने के बाद
सूर्य दर्शन अथवा स्नानं करके पवित्र होना चाहिए
----------(व्यास -स्मृति )----.

                 सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है
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" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय:
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अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....
        (सम्वर्त- स्मृति)
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वेद व्यास स्मृति में लिखा है कि
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वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
वणिक् किरात: कायस्थ :मालाकार: कुटुम्बिन:
एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि:
चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट:
वरटो मेद चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।
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वर्द्धकी (बढ़ई) ,नाई ,गोप ,आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ,माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्करो, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दास,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं  वे भी अन्त्यज होते हैं ।
इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम:
नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दासगोपका:।।४९।।

   शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न    नैव दुष्यति                          ( व्यास-स्मृति)
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:
।।५०।।
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नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।
जिनके वंश का ज्ञान है एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०।
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           (व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय  श्लोक ११-१२)
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स्मृतियों की रचना काशी में  हुई ,----------
वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने  रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की  जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
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"" वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् ।
पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।।
अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा ।
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तुलसी दास जी भी इसी पुष्य मित्र सुंग की परम्पराओं का अनुसरण करते हुए लिखते हैं ---
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राम और समुद्र के सम्वाद रूप में...
"आभीर  यवन किरात खल अति अघ रूप जे "
वाल्मीकि-रामायण में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में वर्णित युद्ध-काण्ड सर्ग २२ श्लोक ३३पर
समुद्र राम से निवेदन करता है कि
आप अपने अमोघ वाण दक्षिण दिशा में रहने वाले
अहीरों पर छोड़ दे--
जड़ समुद्र भी राम से बाते करता है ।
कितना अवैज्ञानिक व मिथ्या वर्णन है ..
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अहीर ही वास्तविक यादवों का रूप हैं
जिनकी अन्य शाखाएें गौश्चर: (गुर्जर) तथा
जाट हैं ।
दशवीं सदी में अल बरुनी ने नन्द को जाट के रूप में वर्णित किया है ...जाट अर्थात् जादु
(यदु )
अहीर ,जाट ,गुर्जर आदि जन जातियों को शारीरिक रूप से शक्ति शाली और वीर होने पर भी तथा कथित ब्राह्मणों ने कभी क्षत्रिय नहीं माना..
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क्योंकि इनके पूर्वज यदु दास घोषित कर दिये थे ।....

और आज जो राजपूत अथवा ठाकुर अथवा क्षत्रिय स्वयं को लिख रहे हैं ...
वो यदु वंश के कभी नहीं हैं ।
क्योंकि वेदों में भी यदु को दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया है।
जादौन तो अफ़्ग़ानिस्तान में तथा पश्चिमोत्तर पाकिस्तान में पठान थे ।
जो सातवीं सदी में कुछ इस्लाम में चले गये
और कुछ भारत में राजपूत अथवा ठाकुर के रूप में उदित हुए ... यद्यपि जादौन पठान स्वयं को यहूदी ही मानते हैं ....
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परन्तु हैं ये पठान लोग धर्म की दृष्टि से  मुसलमान है ...
पश्चिमीय एशिया में भी अबीर (अभीर) यहूदीयों की प्रमाणित शाखा है ।
यहुदह् को ही यदु कहा गया ...
हिब्रू बाइबिल में यदु के समान यहुदह् शब्द की व्युत्पत्ति
मूलक अर्थ है " जिसके लिए यज्ञ की जाये"
और यदु शब्द यज् --यज्ञ करणे
धातु से व्युत्पन्न वैदिक शब्द है ।

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वेदों में वर्णित तथ्य ही ऐतिहासिक श्रोत हो सकते हैं ।
न कि रामायण और महाभारत आदि ग्रन्थ में वर्णित तथ्य....
ये पुराण आदि ग्रन्थ बुद्ध के परवर्ती काल में रचे गये ।
और भविष्य-पुराण सबसे बाद अर्थात् में उन्नीसवीं सदी में..
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आभीर: , गौश्चर: ,गोप: गोपाल : गुप्त: यादव -
इन शब्दों को एक दूसरे का पर्याय वाची समझा जाता है। अहीरों को एक जाति, वर्ण, आदिम जाति या नस्ल के रूप मे वर्णित किया जाता है, जिन्होने भारत व नेपाल के कई हिस्सों पर राज किया था । 
गुप्त कालीन संस्कृत शब्द -कोश "अमरकोष " में गोप शब्द के अर्थ ---गोपाल, गोसंख्य, गोधुक, आभीर, वल्लभ,  आदि बताये गए हैं।
प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश के अनुसार भी अहिर, अहीर,
अरोरा  व ग्वाला सभी समानार्थी शब्द हैं।
हिन्दी क्षेत्रों में अहीर, ग्वाला तथा यादव शब्द प्रायः परस्पर समानार्थी माने जाते हैं।.
वे कई अन्य नामो से भी जाने जाते हैं, जैसे कि गवली, घोसी या घोषी अहीर,
घोषी नामक जो मुसलमान गद्दी जन-जाति है ।
वह भी इन्ही अहीरों से विकसित है ।
हिमाचल प्रदेश में गद्दी आज भी हिन्दू  हैं ।
तमिल भाषा के एक- दो विद्वानों को छोडकर शेष सभी भारतीय विद्वान इस बात से सहमत हैं कि अहीर शब्द संस्कृत के आभीर शब्द का तद्भव रूप है।
आभीर (हिंदी अहीर) एक घुमक्कड़ जाति थी जो शकों की भांति बाहर से हिंदुस्तान में आई।
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इतिहास कारों ने ऐसा लिखा ...
सत्य पूछा जाय तो आर्यों का आगमन शीत प्रदेशों से हुआ है ,जो आजकल स्वीलेण्ड या स्वीडन है
स्वीडन को प्राचीन नॉर्स भाषा में-स्विरिगी कहा हैं जहाँ कभी  जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध स्वीअर जाति रहती थी ,उसके नाम पर स्वीडन को स्वेरिकी अथवा स्वेरिगी कहा है।
भारतीय आर्यों ने जिसे स्वर्ग कहा है ।
जहाँ छ:मास का दिन और छ:मास की दीर्घ कालिक रात्रियाँ नियमित होती हैं ।..
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प्रारम्भिक चरण में आर्य यहीं से नीचे दक्षि़णीय दिशा में चले मध्य एशिया जिसका नाम अनातोलयियो अथवा टर्की भी रहा है ।
वहाँ तक आये और अन्तिम चरण में आर्य भारत में आ गये ....
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परन्तु प्रमाण तो यह भी हैं कि अहीर लोग ,
देव संस्कृति के उपासक जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध भारतीय आर्यों से बहुत पहले ही इस भू- मध्य रेखीय देश में आ गये थे, जब भरत नाम की इनकी सहवर्ती जन-जाति निवास कर कहा थी ।
भारत नामकरण भी यहीं से हुआ है...
शूद्रों की यूरोपीय पुरातन शाखा स्कॉटलेण्ड में शुट्र (Shouter) थी ।
स्कॉटलेण्ड का नाम आयर लेण्ड भी नाम था ।
तथा जॉर्जिया (गुर्जिस्तान)
भी इसी को कहा गया ...
स्पेन और पुर्तगाल का क्षेत्र आयबेरिया
इन अहीरों की एक शाखा की क्रीडा-स्थली रहा है !
आयरिश भाषा और संस्कृति का समन्वय
  प्राचीन फ्रॉन्स की ड्रयूड (Druids) अथवा द्रविड संस्कृति से था ।
ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटॉन् भी इसी संस्कृति से सम्बद्ध थे ।
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परन्तु पाँचवी-सदी  में जर्मन जाति से सम्बद्ध एेंजीलस शाखा ने इनको परास्त कर ब्रिटेन का नया नाम आंग्ललेण्ड देकर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया ---
भारत के नाम का भी ऐसा ही इतिहास है ।
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   आभीर शब्द की व्युत्पत्ति- " अभित: ईरयति इति आभीर " के रूप में भी मान्य है ।
  इनका तादात्म्य यहूदीयों के कबीले अबीरों  (Abeer)
से प्रस्तावित है ।
 "(  और इस शब्द की व्युत्पत्ति- अभीरु के अर्थ अभीर से प्रस्तावित है--- जिसका अर्थ होता है ।जो भीरु अथवा कायर नहीं है ,अर्थात् अभीर :)
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इतिहास मे भी अहीरों की निर्भीकता और वीरता का वर्णन प्राचीनत्तम है ।
इज़राएल में आज भी अबीर यहूदीयों का एक वर्ग है ।
जो अपनी वीरता तथा युद्ध कला के लिए विश्व प्रसिद्ध है ।
कहीं पर " आ समन्तात् भीयं राति ददाति इति आभीर :
इस प्रकार आभीर शब्द की व्युत्पत्ति-की है , जो
अहीर जाति के भयप्रद रूप का प्रकाशन करती है ।
अर्थात् सर्वत्र भय उत्पन्न करने वाला आभीर है ।
यह सत्य है कि अहीरों ने दास होने की अपेक्षा दस्यु होना उचित समझा ...
तत्कालीन ब्राह्मण समाज द्वारा बल-पूर्वक आरोपित आडम्बर का विरोध किया ।
अत: ये ब्राह्मणों के चिर विरोधी  बन गये
और ब्राह्मणों ने इन्हें दस्यु ही कहा "
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     बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया हुआ बताया है ,
वह भी यवन (यूनानीयों)के साथ ...
देखिए कितना विरोधाभासी वर्णन है ।
फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गया....
और वह भी गोपिकाओं को लूटने वाले ..
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जबकि
गोप को ही अहीर कहा गया है ।
संस्कृत साहित्य में..
इधर उसी महाभारत के लेखन काल में लिखित स्मृति-ग्रन्थों में व्यास-स्मृति के अध्याय १ के श्लोक संख्या ११---१२ पर गोप, कायस्थ ,कोल आदि को इतना अपवित्र माना, कि इनको देखने के बाद तुरन्त स्नान करना चाहिए..

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यूनानी लोग  भारत में ई०पू० ३२३ में आये
और महाभारत को आप ई०पू० ३०००वर्ष पूर्व का मानते हो..
फिर अहीर कब बाहर से आये ई०पू० ३२३ अथवा ई०पू० ३०००में ....
भागवत पुराण में तथागत बुद्ध को विष्णु का अवतार माना लिया गया है ।
जबकि वाल्मीकि-रामायण में राम बुद्ध को चोर और नास्तिक कहते हैं ।
राम का और बुद्ध के समय का क्या मेल है ?
अयोध्या काण्ड सर्ग १०९ के ३४ वें श्लोक में राम कहते हैं--जावालि ऋषि से----
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यथा ही चोर:स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि
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बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में
अहीरों को बाहर से आया बताया गया.....
फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये....
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किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा:
आभीर शका यवना खशादय :।
येsन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया
शुध्यन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नम:
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                            श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८
वास्तव में एैसे काल्पनिक ग्रन्थों का उद्धरण देकर
जो लोग अहीरों(यादवों) पर आक्षेप करते हैं ।
नि: सन्देह वे अल्पज्ञानी व मानसिक रोगी हैं ..
वैदिक साहित्य का अध्ययन कर के वे अपना
उपचार कर लें ...
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   हिब्रू भाषा में अबीर शब्द का अर्थ---वीर अथवा शक्तिशाली (Strong or brave)
आभीरों को म्लेच्छ देश में निवास करने के कारण अन्य स्थानीय आदिम जातियों के साथ म्लेच्छों की कोटि में रखा जाता था, तथा वृत्य क्षत्रिय कहा जाता था।
वृत्य अथवा वार्त्र भरत जन-जाति जो वृत्र की अनुयायी तथा उपासक थी ।
जिस वृत्र को कैल्ट संस्कृति में ए-बरटा (Abarta)कहा
है ।
जो त्वष्टा परिवार का सदस्य हैं ।

  तो इसके पीछे यह कारण था , कि ये यदु की सन्तानें हैं
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  यदु को ब्राह्मणों ने आर्य वर्ग से बहिष्कृत कर
उसके वंशजों को ज्ञान संस्कार तथा धार्मिक अनुष्ठानों से वञ्चित कर दिया था ।
  और इन्हें दास --( त्याग हुआ ) घोषित कर दिया था ।
   
   इसका एक प्रमाण देखें ---
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उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे-
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                                  ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२ सूक्त के १० वें श्लोकाँश में..
यहाँ यदु और तुर्वसु दौनों को दास कर सम्बोधित किया गया है ।
     यदु और तुर्वसु नामक दास गायों से घिरे हुए हैं
हम उनकी प्रशंसा करते हैं।
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ईरानी आर्यों की भाषा में दास शब्द दाह/ के रूप में है जिसका अर्थ है ---पूज्य व पवित्र अर्थात् (दक्ष )
यदु का वर्णन प्राचीन पश्चिमीय एशिया के धार्मिक साहित्य में गायों के सानिध्य में ही किया है ।
अत: यदु के वंशज गोप अथवा गोपाल के रूप में भारत में प्रसिद्ध हुए.....
हिब्रू बाइबिल में ईसा मसीह की बिलादत(जन्म) भी गौओं के सानिध्य में ही हुई ...
ईसा( कृष्ट) और कृष्ण के चरित्र का भी साम्य है |
ईसा के गुरु एेंजीलस( Angelus)/Angel हैं ,जिसे हिब्रू परम्पराओं ने फ़रिश्ता माना है ।
तो कृष्ण के गुरु घोर- आंगीरस हैं ।
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     दास शब्द ईरानी असुर आर्यों की भाषा में दाहे के रूप में उच्च अर्थों को ध्वनित करता है।
    बहुतायत से अहीरों को दस्यु उपाधि से विभूषित किया जाता रहा है ।
    सम्भवत: इन्होंने  चतुर्थ वर्ण के रूप में दासता की वेणियों को स्वीकार नहीं किया, और ब्राह्मण जाति के प्रति विद्रोह कर दिया तभी से ये दास से दस्यु: हो गये ...
जाटों में दाहिया गोत्र इसका रूप है ।

  वस्तुत: दास का बहुवचन रूप ही दस्यु: रहा है ।
जो अंगेजी प्रभाव से डॉकू अथवा  (dacoit )हो गया
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महाभारत में भी युद्धप्रिय, घुमक्कड़, गोपाल अभीरों का उल्लेख मिलता है।
   महाभारत के मूसल पर्व में आभीरों को लक्ष्य करके
प्रक्षिप्त और विरोधाभासी अंश जोड़ दिए हैं ।
कि इन्होने प्रभास क्षेत्र में गोपियों सहित अर्जुन को भील रूप में लूट लिया था ।
  
आभीरों का उल्लेख अनेक शिलालेखों में पाया जाता है।
शक राजाओं की सेनाओं में ये लोग सेनापति के पद पर नियुक्त थे।
आभीर राजा ईश्वरसेन का उल्लेख नासिक के एक शिलालेख में मिलता है।
ईस्वी सन्‌ की चौथी शताब्दी तक अभीरों का राज्य रहा।
अन्ततोगत्वा कुछ अभीर राजपूत जाति में अंतर्मुक्त हुये व कुछ अहीर कहलाए, जिन्हें राजपूतों सा ही योद्धा माना गया।
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   मनु-स्मृति में अहीरों को काल्पनिक रूप में ब्राह्मण पिता तथा अम्बष्ठ माता से उत्पन्न कर दिया है ।
आजकल की अहीर जाति ही प्राचीन काल के आभीर हैं।.
  "आभीरोsम्बष्टकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण" इति-----( मनु-स्मृति )
तारानाथ वाचस्पत्य कोश में आभीर शब्द की व्युत्पत्ति- दी है --- "आ समन्तात् भियं राति ददाति   - इति आभीर : "
अर्थात् सर्वत्र भय भीत करने वाले हैं ।-
यह अर्थ तो इनकी साहसी और वीर प्रवृत्ति के कारण दिया गया था ।
    क्योंकि शूद्रों का दर्जा इन्होने स्वीकार नहीं किया ।
दास होने की अपेक्षा दस्यु बनना उचित समझा।
अत: इतिहास कारों नें इन्हें दस्यु या लुटेरा ही लिखा ।
जबकि अपने अधिकारों के लिए इनकी यह लड़ाई थी ।
सौराष्ट्र के क्षत्रप शिलालेखों में भी प्रायः आभीरों का वर्णन मिलता है।
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पुराणों व बृहद्संहिता के अनुसार समुद्रगुप्त काल में भी दक्षिण में आभीरों का निवास था।
उसके बाद यह जाति भारत के अन्य हिस्सों में भी बस गयी।
मध्य प्रदेश के अहिरवाड़ा को भी आभीरों ने संभवतः बाद में ही विकसित किया।
राजस्थान में आभीरों के निवास का प्रमाण जोधपुर शिलालेख (संवत 918) में मिलता है, जिसके अनुसार "आभीर अपने हिंसक दुराचरण के कारण निकटवर्ती इलाकों के निवासियों के लिए आतंक बने हुये थे "
यद्यपि पुराणों में वर्णित अभीरों की विस्तृत संप्रभुता 6ठवीं शताब्दी तक नहीं टिक सकी, परंतु बाद के समय में भी आभीर राजकुमारों का वर्णन मिलता है, हेमचन्द्र के "दयाश्रय काव्य" में जूनागढ़ के निकट वनस्थली के चूड़ासम राजकुमार गृहरिपु को यादव व आभीर कहा गया है।
भाटों की श्रुतियों व लोक कथाओं में आज भी चूड़ासम "अहीर राणा" कहे जाते हैं।
अम्बेरी के शिलालेख में सिंघण के ब्राह्मण सेनापति खोलेश्वर द्वारा आभीर राजा के विनाश का वर्णन तथा खानदेश में पाये गए गवली (ग्वाला) राज के प्राचीन अवशेष जिन्हें पुरातात्विक रूप से देवगिरि के यादवों के शासन काल का माना गया है, यह सभी प्रमाण इस तथ्य को बल देते हैं कि आभीर यादवों से संबन्धित थे। आज तक अहीरों में यदुवंशी अहीर नामक उप जाति का पाया जाना भी इसकी पुष्टि करता है।
अहीरों की ऐतिहासिक उत्पत्ति को लेकर विभिन्न इतिहासकर एकमत नहीं हैं।
परन्तु महाभारत या श्री मदभगवत् गीता के युग मे भी यादवों के आस्तित्व की अनुभूति होती है ।।
तथा उस युग मे भी इन्हें आभीर,अहीर, गोप या ग्वाला ही कहा जाता था।
कुछ विद्वान इन्हे भारत में आर्यों से पहले आया हुआ बताते हैं, परंतु शारीरिक गठन के अनुसार इन्हें आर्य माना जाता है।
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पौराणिक दृष्टि से, अहीर या आभीर यदुवंशी राजा आहुक के वंशज है।
शक्ति संगम तंत्र मे उल्लेख मिलता है कि राजा ययाति के दो पत्नियाँ थीं-देवयानी व शर्मिष्ठा।
देवयानी से यदु व तुर्वशू नामक पुत्र हुये।
यदु के वंशज यादव कहलाए। यदुवंशीय भीम , सात्वत के वृष्णि आदि चार पुत्र हुये व इन्हीं की कई पीढ़ियों बाद राजा आहुक हुये, जिनके वंशज आभीर या अहीर कहलाए।
“आहुक वंशात् समुद्भूता आभीरा: इति प्रकीर्तिता। (शक्ति संगम तंत्र, पृष्ठ 164)” इस पंक्ति से स्पष्ट होता है कि यादव व आभीर मूलतः एक ही वंश के क्षत्रिय थे तथा "हरिवंश पुराण" मे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।

भागवत में भी वसुदेव ने आभीर पति नन्द को अपना भाई कहकर संबोधित किया है ,
व श्रीक़ृष्ण ने नन्द को मथुरा से विदा करते समय गोकुलवासियों को संदेश देते हुये उपनन्द, वृषभानु आदि अहीरों को अपना सजातीय कह कर संबोधित किया है।
व्रज के कवियों ने अहीरों को कहीं "जाट " तो कहीं "गुर्जर "भी वर्णित किया है ।
   जैसे वृषभानु आभीर की कन्या  राधा को गुजरीया कहकर वर्णित करना...
अलबरुनी ने नन्द को जाट कहा है ।

वर्तमान अहीर भी स्वयं को यदुवंशी आहुक की संतान मानते हैं।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से, अहीरों ने 108 ई०सन्  में मध्य भारत मे स्थित 'अहीर बाटक नगर' या 'अहीरोरा' (अरौरा) व उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले मे अहिरवाड़ा की नींव रखी थी।
रुद्रमूर्ति नामक अहीर अहिरवाड़ा का सेनापति था ,
जो कालांतर मे राजा बना।
माधुरीपुत्र, ईश्वरसेन व शिवदत्त इस वंश के मशहूर राजा हुये, जो बाद मे यादव राजपूतो मे सम्मिलित हो गये।
कोफ (कोफ 1990,73-74) के अनुसार - अहीर प्राचीन गोपालक परंपरा वाली कृषक जाति है ।
जिन्होने अपने पारम्परिक मूल्यों को सदा राजपूत प्रथा के अनुरूप व्यक्त किया , परंतु उपलब्धियों के मुक़ाबले वंशावली को ज्यादा महत्व मिलने के कारण उन्हे "कल्पित या स्वघोषित राजपूत" ही माना गया।
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थापर के अनुसार पूर्व कालीन इतिहास में 10वीं शताब्दी तक प्रतिहार शिलालेखों में अहीर-आभीर समुदाय को पश्चिम भारत के लिए "एक संकट जिसका निराकरण आवश्यक है" बताया गया।
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"मेगास्थनीज के वृतान्त व महाभारत के विस्तृत अध्ययन के बाद रूबेन इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि " भगवान कृष्ण एक गोपालक नायक थे ! "
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तथा गोपालकों की जाति अहीर ही कृष्ण के असली वंशज हैं, न कि कोई और राजवंश।"
प्रमुख रूप से अहीरो के तीन सामाजिक वर्ग है-यदुवंशी, नंदवंशी व ग्वालवंशी।
इनमे वंशोत्पत्ति को लेकर विभाजन है। यदुवंशी स्वयं को राजा नन्द का वंशज बताते है व ग्वालवंशी प्रभु कृष्ण के ग्वाल सखाओ से संबन्धित बताए जाते है।
एक अन्य दन्तकथा के अनुसार भगवान कृष्ण जब असुरो का वध करने निकलते है  !
तब माता यशोदा उन्हे टोकती है, उत्तर देते देते कृष्ण अपने बालमित्रो सहित यमुना नदी पार कर जाते है।
कृष्ण के साथ असुर वध हेतु यमुना पार जाने वाले यह बालसखा कालांतर मे अहीर नंदवंशी कहलाए।
आधुनिक साक्ष्यों व इतिहासकारों के अनुसार नंदवंशी व यदुवंशी मौलिक रूप से समानार्थी है,
क्योंकि ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार यदु नरेश वासुदेव तथा नन्द बाबा निकट संबंधी या कुटुंबीजन थे व यदुवंशी थे।
नन्द की स्वयं की कोई संतान नहीं थी ।
अतः यदु राजकुमार कृष्ण ही नंदवश के पूर्वज हुये।
अहीरों का बहू संख्यक कृषक संवर्ग स्वयं को ग्वाल अहीरों से श्रेष्ठ व जाट, राजपूत, गुर्जर आदि कृषक वर्गों के बराबर का मानता है।
ग्वाल अहीरों का प्रमुख व्यवसाय पशुपालन व दुग्ध-व्यापार है तथा यह वर्ग उत्तर प्रदेश की सीमाओं व हरियाणा के फ़रीदाबाद व गुड़गाँव जनपदों में पाया जाता है।
प्रारम्भ में तीव्र रहा यह विभेद अब कम हो चला है।
बनारस के ग्वाल अहीरों को 'सरदार' उपनाम से संबोधित किया जाता है।
मानव वैज्ञानिक कुमार सुरेश सिंह के अनुसार, अहीर समुदाय लगभग 64 बहिर्विवाही उपकुलों मे विभाजित है।
कुछ उपकुल इस प्रकार है- जग्दोलिया, चित्तोसिया, सुनारिया, विछवाल, जाजम, ढडवाल, खैरवाल, डीवा, मोटन, फूडोतिया, कोसलिया, खतोड़िया, भकुलान, भाकरिया, अफरेया, काकलीय, टाटला, जाजड़िया, दोधड़, निर्वाण, सतोरिया, लोचुगा, चौरा, कसेरा, लांबा, खोड़ा, खापरीय, टीकला तथा खोसिया। प्रत्येक कुल का एक कुलदेवता है।.............
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मजबूत विरासत व मूल रूप से सैन्य पृष्ठभूमि से बाद में कृषक चरवाहा बनी अहीर जाति स्वयं को सामाजिक पदानुक्रम में ब्राह्मण व राजपूतो से निकटतम बाद का व जाटो के बराबर का मानती है।
अन्य जातियाँ भी इन्हें महत्वपूर्ण समुदाय का मानती है
अहीर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से एक लड़ाकू जाति है। 1920 मे ब्रिटिश शासन ने अहीरों को एक "कृषक जाति" के रूप मे वर्गीकृत किया था,  जो कि उस काल में "लड़ाकू जाति" का पर्याय थी।
वे 1898 से सेना में भर्ती होते रहे थे। तब ब्रिटिश सरकार ने अहीरों की चार कंपनियाँ बनायीं थी, इनमें से दो 95वीं रसेल इंफेंटरी में थीं।
1962 के भारत चीन युद्ध के दौरान 13 कुमायूं रेजीमेंट की अहीर कंपनी द्वारा रेजंगला का मोर्चा भारतीय मीडिया में सरहनीय रहा है।
वे भारतीय सेना की राजपूत रेजीमेंट में भी भागीदार हैं।
भारतीय हथियार बंद सेना में आज तक बख्तरबंद कोरों व तोपखानों में अहीरों की एकल टुकड़ियाँ विद्यमान हैं।

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     योगेश कुमार" रोहि"
ग्राम --आजा़दपुर ,पत्रालय ---पहाड़ीपुर ,
जनपद-- अलीगढ़---के सौजन्य से
       प्रेषित यह सन्देश
आज अहीरों को कुछ रूढ़िवादीयों द्वारा
    फिर से परिभाषित करने की असफल कुचेष्टाऐं की जा रहीं
       अतः उसके लिए यह सन्देश आवश्यक है ।
कि इसे पढ़े.......
और अपना मिथ्या वितण्डावाद बन्द करें ..
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                                  धन्यवाद !

3 टिप्‍पणियां:

  1. Abe randi ke bache..afganistan kab bana he or gandhari kaha ki thi ye janta he...? Randwe ke bache kaha kaha ka kahani utha ke kon mulla ka kitab padh ke ma chuda raha he tum...bahin ke lode koi gandu teri ma ka yar mulla 10wi sadi me ma chudwa kar nand yadu ke bare me janega .dwapar yug me yadu kon tha nanad kon tha mulla teri ma se puch gya tha jo usko bahart ka sanskriti or chatriya vansh ka jankari hoga kon kiska beta kaha se aya..jat matlab jadu teri ma ka bur me...jat matlab mera jhant bey randwe...randi ka bcha janta nahi he kuch pr kuch bhi likhte gaya...randi ka bacha sala

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  2. Yadu ka nam suna he to krihsn ka suna hi hoga....or krihsn ka suna he to arjun ka suna hi hoga...or ajj uss arjun ka vansaj ko achi tarah pata he ek itihas se ki krishn or yadu ka vansaj kon he.....or arjun ke vansaj jat ko apne jhant pe rakhte he...arjun ka vansaj tomar rajput he aur vhi he..or rkishn ke vansaj thakur jadon jadeja bhati hi he ye bat arjun ke vansaj bhi ek itihas se jante he...kyuki krihsn or arjni dono dost the or itihas se dono le pariwar sath hi he...bharat pe raj kiya he dono he...or sun randwe jise tu afganustan se bata raha he...randwe ke bache to pata kar pehle afganistan pehle bana he ki afganustan me pehle rajputo or hinduo ka raj tha afganistan or kandar gandhari kaurav ki ma ka tha ...smjha randwe...or sun teri ma ka bur me krihsn ko thakur ji bola jata tha kyuki wo yadav ahir gop pure yadu kul ke raja bhi the or manya tha sbko isliye unko thakur kaha jata he ...or randi ke bache bharat ke sabd ka matlab jo tu mulsim ke dictonry me khijta he to teri ma ka bur me Din ka matlab bharat me savera or gareeb hota he or usi Din Ka matlab mullo ke desh me allah se jura hota he...to randwe ke bache ulti sidhi kahani bana kar gand marwane se acha he jat ki jhant noch or fb id de tumko yadu kul ka jankari bhi dedenge or randwe ye bhi bata denge thakur cbudri singh wo the jiske samne me ache ache rand ke aulad khade nahi hote the..

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  3. शोधपूर्ण ,, अबीर, यदु , यहूदी अहीर

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