सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

"श्रीकृष्णेतिहासम्" समग्रग्रन्थ-


             (भाग-एक)

श्रीकृष्णेतिहासम् अर्थात श्रीकृष्ण का इतिहास प्रस्तुत करने वाला एक ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित ग्रन्थ है।

-भागवत  धर्म के संस्थापक भगवान श्रीकृष्ण एक अद्वितीय व अद्भुत महामानव भी थे जिनके चरित्र की समग्रता भूतकाल के गर्भ में समाहित है। आध्यात्मिक व पारलौकिक दृष्टिकोण से भारतीय माइथोलॉजी(पुराणशास्त्रों) में विष्णु के तीन स्वरूप मान्य हैं। इस विष्णु-त्रय में  स्वयं श्रीकृष्ण स्वराट- विष्णु के रूप में सर्वोच्च भगवान बनकर  प्रतिष्ठित हैं। यह उनका सर्वोच्च और समग्र रूप है।  वह सुरक्षा, करुणा, कोमलता और प्रेम के साक्षात स्वरूप हैं; कृष्ण का व्यक्तित्व बहु-आयामी है। वे सभी भारतीय धर्मों विशेषत: जैन, बौद्ध, ब्राह्मण, आदि में सबसे लोकप्रिय और व्यापक रूप से पूजनीय व इष्ट हैं।

कृष्ण का जन्म दिवस प्रत्येक वर्ष भारतीयों द्वारा चन्द्र-सौर  भारतीय पाञ्चाङ्ग के अनुसार  भाद्रमास कृष्णपक्षाष्टमी को मनाया जाता है। जो ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार अगस्त के अन्त या सितम्बर के प्रारम्भ में आता है। परन्तु जिन शास्त्रीय साक्ष्यों के आधार पर यह जन्म दिन अथवा जयन्ती का पर्व मनाया जाता है। उन्हीं साक्ष्यों में परस्पर इस तथ्य पर भेद है।

कुछ पुराण भाद्रपद मास की अपेक्षा श्रवणमास में भी कृष्ण जन्म का वर्णन करते हैं। इस विषय पर आगे यथाक्रम विस्तृत विश्लेषण किया जाऐगा।

कृष्ण के जीवन के उपाख्यानों और आख्यानों को आम तौर पर कृष्ण लीला कहा जाता है। जिनका-श्रोत  महाभारत , भागवतपुराण , ब्रह्मवैवर्त पुराण और पद्मपुराण, देवीभागवतपुराण भगवद्गीता, आदि ग्रन्थ हीं हैं। इन ग्रन्थों में एक केंद्रीय पात्र के रूप में श्रीकृष्ण का वर्णन हैं , और कई भारतीय  दार्शनिक , धार्मिक और पौराणिक ग्रन्थों में भी इनका उल्लेख है। जोकि इन्हें विभिन्न परिप्रेक्ष्यों में चित्रित करते हैं।  गुप्त काल में बहुतायत से निर्मित उनकी प्रतिमाऐं भी उनके जीवन की  किंवदन्तियों को दर्शाती हैं, और वे उनके जीवन के विभिन्न चरणों को दिखाती हैं, जैसे कि एक शिशु मक्खन खाता है, और  वह बाल्यावस्था में  गोचारण भी करता है इत्यादि।  

कृष्ण का नाम और उनके पर्यायवाची शब्द पहली  सहस्राब्दी ईसा पूर्व के साहित्य और ग्रन्थों में भी पाए जाते हैं।  

कृष्णवाद जैसी कुछ उप-परम्पराओं में, कृष्ण को स्वयं सर्वोच्च भगवान के रूप में पूजा जाता है। ये उपपरम्पराऐं मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के सन्दर्भ में विशेषत: उभर कर आयीं हैं। 

कृष्ण-सम्बन्धित साहित्य ने भारत देश में भरतनाट्यम , कथकली , कुचिपुड़ी , ओडिसी  और मणिपुरी नृत्य जैसी कई प्रदर्शन कलाओं को भी प्रेरित किया है। 

वह श्रीकृष्ण सर्व-भारतीयों के आराध्य हैं, लेकिन कुछ स्थानों पर विशेष रूप से पूजनीय व सांस्कृतिक चेतना भी हैं, जैसे उत्तर-प्रदेश में मथुरा- वृन्दावन  ,  गुजरात में द्वारका और 

जूनागढ़ ; तथा ओडिशा में जगन्नाथ  , पश्चिम बंगाल के  मायापुर में  कृष्ण को मुख्य रूप से श्रीकृष्ण के रूप में ही जाना जाते है


  • यहीं पश्चिमीय बंगाल के मायापुर में श्री चैतन्य महाप्रभु: का जन्म हुआ जो कृष्ण मत के प्रचारक व सन्त थे। मायापुर भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु की जन्मस्थली है, जिनका जन्म ईस्वी सन्       (1486) में हुआ था। जिनका गौड़ीय वैष्णववाद के अनुयायियों के लिए विशेष महत्व है, उनके अनुयायी उन्हें राधा के रूप में कृष्ण के एक विशेष अवतार मानते हैं। 

    महाराष्ट्र के पण्ढरपुर में विठोबा(विट्ठल) के रूप में श्रीकृष्ण की ही पूजा होती है।

विठोबा (देवता)
  • पहचान:
    भगवान विठोबा को विट्ठल और पाण्डुरङ्ग  के नाम से भी जाना जाता है. 
  • स्वरूप:
    उन्हें आमतौर पर हिंदू देवता विष्णु या उनके अवतार कृष्ण का एक रूप माना जाता है. 
  • पूजा स्थल:
    उनकी पूजा मुख्य रूप से महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्यों में की जाती है. 
  • प्रसिद्ध रूप:
    उन्हें अक्सर अपनी कमर पर हाथ रखे, ईंट पर खड़े एक काले युवा लड़के के रूप में चित्रित किया जाता है, जिनके साथ उनकी पत्नी रुक्मिणी खड़ी होती हैं. 
  • विठ्ठलविठोबा अर्थात पाण्डुरंग एक हिन्दू देवता हैं जिनकी पूजा मुख्यतः महाराष्ट्रकर्नाटकगोवातेलंगाना, तथा आन्ध्र प्रदेश में होती हैं। उन्हें आम तौर पर भगवान विष्णु अथवा उनके अवतार, कृष्ण की अभिव्यक्ति माना जाता हैं। विठ्ठल अक्सर एक सावले युवा लड़के के रूप में चित्रित किए जाते है, एक ईंट पर खडे और दोनो हाथ कमर पर रखे; कभी-कभी उनकी पत्नी रखुमाई (ऋक्षमणी)- रुक्मिणी भी साथ होती हैं। विट्ठलस्वामी मन्दिर दक्षिण भारत के प्रसिद्ध स्थानों में से एक है। यह मन्दिर कर्नाटक राज्य के हम्पी में स्थित है। हम्पी के समस्त मन्दिरों में यह सबसे ऊँचा है। माना जाता है कि राजा कृष्णदेव राय ने 'हज़ार राम' एवं 'विट्ठलस्वामी' नामक मंदिरों का निर्माण करवाया था।

    विठोबा

विट्ठल शब्द की उत्पत्ति के बारे में कई मत हैं, जिनमें सबसे प्रचलित मान्यता यह है कि मराठी शब्द 'विट' (ईंट) और 'ठल' (खड़े होना) के संयुक्त रूप से यह शब्द बना है, जो भगवान विठोबा को ईंट पर खड़े होने की कथा से जुड़ा है. एक अन्य मत के अनुसार, यह संस्कृत शब्द 'विष्णु' का कन्नड़ भाषा में अपभ्रंश होकर 'बिट्टी' और फिर 'विट्ठल' बना है. यह भगवान विष्णु या कृष्ण का एक रूप है, जिनकी पूजा महाराष्ट्र और कर्नाटक में की जाती है. 
उत्पत्ति के मुख्य मत:
  1. विट + ठल: यह सबसे आम व्याख्या है. कहा जाता है कि भगवान विष्णु (जिन्हें विठोबा भी कहते हैं) अपने भक्त पुंडलिक के माता-पिता की सेवा को देखते हुए एक ईंट पर खड़े हो गए थे. मराठी में ईंट को 'विट' कहते हैं और 'ठल' का अर्थ 'खड़े होना' है, जिससे यह नाम विट्ठल पड़ा.
  2. विष्णु का अपभ्रंश: कुछ विद्वानों का मानना है कि यह मूल शब्द 'विष्णु' का ही विकृत रूप है. डॉ. आर. जी. भंडारकर के अनुसार, कन्नड़ में विष्णु शब्द का अपभ्रंश होकर 'बिट्टी' हुआ और इसी से 'विट्ठल' शब्द बना है.
  3. विट + स्थान: एक अन्य व्याख्या यह भी है कि यह शब्द संस्कृत के 'विष्णु' और 'थल' (स्थान या निवास) से बना है, जिसका अर्थ है "विष्णु का स्थान". 
विट्ठल की कथा:
  • भगवान विष्णु रुक्मिणी से नाराज़ होकर दिंडीवन पहुंचे, जहां उन्हें भक्त पुंडलिक मिले.
  • पुंडलिक अपने माता-पिता की सेवा में लीन थे.
  • पुंडलिक ने भगवान से ईंट पर खड़े होने के लिए कहा ताकि वे अपने माता-पिता की सेवा में कोई चूक न करें.
  • भगवान विष्णु उनकी भक्ति और सेवा से प्रसन्न होकर उसी ईंट पर खड़े हो गए, जिससे उन्हें 'विट्ठल' नाम मिला. 
 


 राजस्थान के नाथद्वारा में कृष्ण को मुख्य रूप से श्रीनाथजी के नाम से जाना जाता है. श्रीनाथजी, भगवान कृष्ण का सात वर्षीय बालक रूप है, जिन्होंने गोवर्धन पर्वत उठाया था. इस मंदिर को "श्रीनाथजी की हवेली" भी कहा जाता है, जो भगवान के निवास का प्रतीक है।

 "श्रीकृष्ण के श्रीनाथ रूप की पुन: ठाकुर रूप और मन्दिर की हवेली रूप में प्रतिष्ठा का ऐतिहासिक विवरण-

पुष्टिमार्ग के अनुयायी बताते हैं कि श्रीकृष्ण के इस स्वरूप का हाथ और चेहरा पहले गोवर्धन पहाड़ी से उभरा था और उसके बाद माधवेंद्र पुरी के आध्यात्मिक नेतृत्व में स्थानीय निवासियों (व्रजवासियों) ने गोपाल (कृष्ण) देवता की पूजा शुरू की। इन्हीं गोपाल देवता को बाद में श्रीनाथजी कहा गया। इस प्रकार, माधवेन्द्र पुरी को गोवर्धन के पास गोपाल देवता की खोज के लिए मान्यता दी जाती है, जिसे बाद में पुष्टि मार्ग के संस्थापक वल्लभाचार्य द्वारा श्रीनाथजी के रूप में अनुकूलित और पूजित किया गया। 

प्रारम्भ में, माधवेंद्र पुरी ने देवता के ऊपर उठे हुए हाथ और बाद में, चेहरे की पूजा की।

पुष्टिमार्ग साहित्य के अनुसार, श्रीनाथजी ने श्री वल्लभाचार्य को भारतीय विक्रम संवत 1549 में दर्शन दिए और वल्लभाचार्य को निर्देश दिया कि वे गोवर्धन पर्वत पर पूजा प्रारम्भ करें। वल्लभाचार्य ने उन देवता की पूजा के लिए व्यवस्था की, और इस परम्परा को उनके पुत्र विठ्ठलनाथजी ने आगे बढ़ाया।


श्री नाथद्वारा में भगवान श्रीनाथ जी की यह मूर्ति पहले  आगरा और ग्वालियर में थी जब औरंगजेब ने हिंदू मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश दिया तो वहाँ के महंत इस दिव्य मूर्ति को लेकर वृंदावन से वाया जयपुर, मारवाड़ पहुंचे। तत्कालीन महाराजा ने श्रीनाथ जी को चौपासनी में रुकवाया

चौपासनी राजस्थान के जोधपुर शहर के पास एक क्षेत्र है, यह ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से भी महत्वपूर्ण है, जहाँ अतीत में श्रीनाथजी की मूर्ति भी कुछ समय के लिए विराजमान थी। 

ऐतिहासिक महत्व की दृष्टि से -:यह एक ऐसा स्थान है जहाँ औरंगज़ेब के शासनकाल में श्रीनाथजी की मूर्ति छह महीने तक विराजमान थी, इससे पहले कि उन्हें श्रीनाथद्वारा ले जाया गया।
नाथद्वारा (Nathdwara) भारत के राजस्थान राज्य के राजसमन्द ज़िले में स्थित एक नगर है

फिर जब तत्कालीन महाराजा  पाटोदी(बाड़मेर) ठाकुर ने श्रीनाथ जी की सुरक्षा की दृष्टि से बीड़ा उठाया और वे श्रीनाथ जी को पाटोदी ले पधारे।

छ: माह तक श्रीनाथ जी पाटोदी (बाड़मेर) राजस्थान में ही बिराजे।  तभी ऌये पाटोदी के ठाकुर भी कहलाने लगे इस तरह श्रीनाथ जी का पाटोदी से बहुत गहरा सम्बन्ध है। जब बात लीक हो गई तो महंत जी ने मेवाड़ का रुख किया। कोठारिया के ठाकुर और महाराणा राजसिंह जी मेवाड़ में अपने प्राणों पर खेल कर श्रीनाथ जी को  नाथद्वारा में स्थापित कर दिया। 

माना जाता है कि प्रतिमा ले जाते हुए रथ, यात्रा करते समय मेवाड़ के सिहाड़ गांव में कीचड़ में फंस गया था, और इसलिए मूर्ति की स्थापना मेवाड़ के तत्कालीन राणा की अनुमति के साथ एक मंदिर में की गई थी। धार्मिक मिथकों के अनुसार, नाथद्वारा में मंदिर का निर्माण 17 वीं शताब्दी में श्रीनाथजी द्वारा स्वयं चिन्हित किए गए स्थान पर किया गया था। 

मंदिर को लोकप्रिय रूप देने के लिए से श्रीनाथजी की हवेली (श्रीनाथजी का घर) भी कहा जाता है। और श्रीनाथ जी को तभी से ठाकुर जी कहने की शुरुआत हुई। क्योंकि श्रीनाथ द्वारा में एक नियमित गृहस्थी की तरह इनके रथ की आवाजाही होती है। इस लिए यह नाथद्वारा उनका घर या हवेली है। 

ठाकुर शब्द तुर्कों और ईरानियों के साथ भारत आया । ठाकुर का अर्थ पगड़ीधारी, भूखण्डका मालिक जागीरदार  है। ठाकुर जी सम्बोधन का प्रयोग वस्तुत : स्वामी भाव को व्यक्त करने के निमित्त है । न कि जन-जाति विशेष के लिए । कृष्ण को ठाकुर सम्बोधन का क्षेत्र अथवा केन्द्र नाथद्वारा राजस्थान प्रमुखत: है। मन्दिरों में कृष्ण की पूजा ठाकुर जी की पूजा ही कहलाती है। यहाँ तक कि उनका मन्दिर भी हवेली कहा जाता है। विदित हो कि हवेली (Mansion) और तक्वुर (ठक्कुर) दौनों शब्दों की पैदायश ईरानी, तुर्की और आरमेनियन भाषाओं से है।

कालान्तरण में भारतीय समाज में ये शब्द रूढ़ हो गये । पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के देशभर में स्थित अन्य मन्दिरों में भी भगवान श्रीकृष्ण को  अब ठाकुर जी कहने का परम्परा  है।


श्रीनाथजी के बारे में मुख्य बातें:
  • बाल रूप:श्रीनाथजी भगवान कृष्ण के 7 वर्ष की अवस्था के रूप में पूजे जाते हैं.
  • गोवर्धनधारी:वे गोवर्धन पर्वत उठाने वाले कृष्ण के विग्रह हैं, और उन्हें गिरिराज धरण भी कहा जाता है. 
  • मन्दिर का महत्व:यह मंदिर वल्लभ संप्रदाय का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है, जहाँ भक्त श्रीनाथजी की सेवा करते हैं. 

 ,भारत के कर्नाटक राज्य के उडुपी शहर में कृष्ण बाल रूप प्रतिष्ठित हैं यहाँ कृष्ण मठ को 13वीं सदी में वैष्णव संत श्री माधवाचार्य द्वारा स्थापित किया गया था। वे द्वैतवेदान्त सम्प्रदाय के संस्थापक थे।,  तमिलनाडु में पार्थसारथी और केरल के अरनमुला में  भगवान कृष्ण का नाम पार्थसारथी है. इस मंदिर को अरनमुला पार्थसारथी मंदिर कहा जाता है, जहाँ भगवान कृष्ण की पूजा अर्जुन के सारथी के रूप में की जाती है, क्योंकि महाभारत में उन्होंने अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाई थी.  और केरल के गुरुवायूर में श्रीकृष्ण को बाल रूप  में ही पूजा जाता है।

गुरुवायूर के भगवान/पिता) को गुरुवायुरप्पन के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है, यह  विष्णु का एक रूप है जिसे मुख्य रूप से केरल । वह गुरुवयूर मंदिरी के पीठासीन देवता हैं, जिनकी पूजा उनके बाल रूप में कृष्ण के रूप में की जाती है, जिन्हें गुरुवयूर उन्नीकन्नन (गुरुवयूर का शाब्दिक 'छोटा कृष्ण') भी कहा जाता है।


गुरुवायूरप्पन रूप में

गुरुवायूरप्पन भगवान विष्णु का एक रूप हैं, जिनकी पूजा कृष्ण के बाल रूप में की जाती है और वह केरल के प्रसिद्ध गुरुवायूर मन्दिर के पीठासीन देवता हैं. उन्हें "गुरुवायूर का छोटा कृष्ण" भी कहा जाता है. इस मूर्ति की उत्पत्ति ब्रह्मा द्वारा राजा सुतपा और रानी पृश्नि को दिए गए कृष्ण की मूर्ति से हुई है, जिसे वायु की सहायता से केरल में स्थापित किया गया

गुरुवायूरप्पन के बारे में मुख्य बातें:
  • देवता:वह भगवान विष्णु का ही एक रूप हैं. 
  • रूप:उनकी पूजा कृष्ण के बाल रूप में की जाती है, जिन्हें गुरुवायूर उन्नीकन्नन (छोटा कृष्ण) भी कहते हैं. 
  • स्थान:वह गुरुवायूर मंदिर के मुख्य देवता हैं, जो केरल, भारत में स्थित है. 
  • मूर्ति:यह मूर्ति एक विशेष प्रकार के पत्थर 'कृष्ण शिला' से बनी है, जिसे अत्यधिक आध्यात्मिक माना जाता है. 
  • उत्पत्ति:ऐसा माना जाता है कि भगवान कृष्ण ने द्वारिका में अपनी मूर्ति को उद्धार के लिए वायु देवता की मदद से केरल भेजा था, और उसी स्थान पर गुरुवायूरप्पन की स्थापना हुई, इसलिए इस जगह का नाम गुरु-वायु-उर पड़ा. 

यह नाम क्यों पड़ा:
गुरुवायूरप्पन नाम "गुरु" (शिक्षक), "वायु" (पवन देवता), और "उर" (स्थान) से बना है, क्योंकि माना जाता है कि भगवान कृष्ण की मूर्ति को वायु देवता ने केरल में स्थापित किया था. 

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1960 के दशक से, कृष्ण की पूजा पश्चिमी दुनिया और अफ्रीका तक भी फैल गई है।

जिसका मुख्य कारण इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शसनेस (इस्कॉन) का कृष्ण भक्ति अभियान है। 

नाम और विशेषण-

कृष्ण के बहुमुखी व्यक्तित्वीय गुणों के कारण सैकड़ों नाम हैं। परन्तु उसमें कृष्ण नाम ही अधिक प्रचलित है।

"कृष्ण" नाम की उत्पत्ति वैदिक भाषा की धातु कृष्= हलचालने" से हुई है। जिसका अर्थ है- हल चलाना/ कृषि करना।

कृष्ण एक विशेषण है जो मुख्य रूप से उनके कृषक पृष्ठभूमि को इंगित करता है।  कृष्ण शब्द के अन्य अर्थ भी विकसित हुए हैं  जैसे "काला",  या "गहरा नीला" आदि  है। वैसे तो कृष्ण ने अपने बहुमुखी व्यक्तित्व से जनमानस को आकर्षित भी किया था। इसलिए उनका कृष्ण होना सार्थक है। कृषि कार्य और गोपालन करने से त्वचा का रंग काला (श्यामल) हो जाने के कारण ही बाद में कृष्ण शब्द का अर्थ काला हो गया। श्याम शब्द कृष्ण के कायिक रञ्जना को दर्शाता है। कई कारणों से किसान काले होते हैं, जिसमें प्रमुख कारण है  धूप में अधिक समय बिताना (जो मेलेनिन नामक पिगमेंट( रञ्जक) का उत्पादन बढ़ाता है), वंशानुगत कारण, कुछ स्वास्थ्य समस्याएं जैसे हाइपरपिगमेंटेशन, हार्मोनल बदलाव, पोषक तत्वों की कमी (विशेषकर विटामिन बी12), और अस्वस्थ जीवनशैली के कारण भी त्वचा का रंग श्यामल हो जाता है।  किसान प्राय: धूप-छाँव की परवाह न करके दिन-रात महनत करता हैं।। 


धूप और मेलेनिन
  • सूर्य की किरणें:
    जब त्वचा पर सूरज की अल्ट्रावायलेट (UV) किरणें पड़ती हैं, तो त्वचा में मेलेनिन हार्मोन का उत्पादन बढ़ जाता है। मेलेनिन त्वचा को रंग देने वाला वर्णक(पिगमेंट)
  •  है, और इसका ज़्यादा उत्पादन त्वचा को काला बनाता है।                            
  • स्थान-
    विषुवत रेखा के आस- पास या गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की त्वचा ज़्यादा काली होती है क्योंकि वहां धूप की तीव्रता अधिक होती है, जिससे शरीर ज़्यादा मेलेनिन हार्मोन सर्जित करता है।                                               
  •  अन्य कारण-
  • कुछ लोगों की त्वचा वंशानुगत रूप से काली होती है, जो उनकी आनुवंशिकी का परिणाम होता है। ऐसा होने के मूल में भी जलवायु सम्बन्धी गुणों का आनुवांशिक गुण बनकर परम्परागत रूप से सम्प्रेषित होना ही है।

 

कृष्ण के भाई संकर्षण हैं जो हल के आविष्कारक तथा कृषिविद्या के जनक हैं। दोंनो भाई कृषक पृष्ठभूमि से सम्बन्धित हैं। जो पहले पशुपालन करते थे वही बाद में कृषि के भी करने वाले हुए।

श्रीकृष्ण के अन्य नामों में विष्णु नाम भी है।विष्णु के नाम के रूप में , कृष्ण को विष्णु सहस्रनाम में (57) वें नाम के रूप में सूचीबद्ध किया गया है ।विष्णु सहस्रनाम मुख्य रूप से महाकाव्य महाभारत के अनुशासन पर्व से उत्पन्न है। महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद, बाणों की शय्या पर लेटे भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को भगवान विष्णु के इन एक हजार नामों के बारे में बताया था, जो उनके गुणों और शक्तियों का वर्णन करते हैं। अनुशासन पर्व के 149वें अध्याय में मिलता है,


               भीष्म उवाच:
इतिदं कीर्तनियास्य केशवस्य महात्मनः।
नामनाम सहस्रं दिव्यानाम् अशेषेण प्रकीर्तितम्॥१। 

योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वर: ।
नारसिंहवपु: श्रीमान् केशव: पुरुषोत्तम: ॥१६॥

अग्राह्य: शाश्वत: कृष्णो लोहिताक्ष: प्रतर्दन: ।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥२०।

महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवास: सतां गति: ।
अनिरुद्ध: सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पति: ॥३३॥

मरीचिर्दमनो हंस: सुपर्णो भुजगोत्तम: ।
हिरण्यनाभ: सुतपा: पद्मनाभ: प्रजापति: ॥३४॥

वेधा: स्वाङ्गोऽजित: कृष्णो द्दढ: सङ्कर्षणोऽच्युत:।
वरुणो वारुणो वृक्ष: पुष्कराक्षो महामना: ॥७२॥

इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मन: ।
नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् ॥१२१॥

य इदं श्रृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् ।
नाशुभं प्राप्नुयात्किञ्चित्सोऽमुत्रेह च मानव: ॥१२२॥

 उनके कृष्ण अथवा श्याम नाम के आधार पर, कृष्ण को अक्सर मूर्तियों में काले या नीले रंग के रूप में चित्रित किया जाता है। कृष्ण को कई अन्य नामों, विशेषणों और उपाधियों से भी जाना जाता है जो उनके कई संघों और गुणों को दर्शाते हैं। सबसे आम नामों में मोहन="सम्मोहन रखने वाला" हैं; गोविन्द गोपेन्द्र = गोपों का स्वामी", ?  और गोपाल "'गो' के रक्षक। "

कृष्ण को वासुदेव-कृष्ण , मुरलीधर या चक्रधर भी कहा जा सकता है। मानद उपाधि "श्री"का प्रयोग अक्सर कृष्ण के नाम से पहले किया जाता है। कृष्ण के अन्य नाम-

"अच्युत , दामोदर , गोपाल , गोपीनाथ , गोविंद , केशव , माधव , राधा रमण , वासुदेव , कन्नन आदि-

जन्म:–मथुरा , शूरसेन (वर्तमान उत्तर प्रदेश , भारत)

देहावसान:–भालका , सौराष्ट्र (वर्तमान वेरावल , गुजरात , भारत) 

अभिभावक:- नन्द यशोदा व वसुदेव देवकी।

जाति - गोप (आभीर) रोहिणी और वासुदेव की अन्य पत्नियाँ (सौतेली माताएँ)

भाई-बहन बलराम (सौतेले भाई)सुभद्रा (सौतेले बहन)योगमाया एकानंशा (पालक-बहन)

कृष्ण की अन्य सन्तानें व पत्नी के नाम-

राधा-रुक्मणी-सत्यभामा अन्य 6 प्रमुख रानियाँ-16,000 - 16,100 कनिष्ठ रानियाँ प्रमुख सन्तानें-प्रद्युम्न"साम्ब,भानु और कई अन्य ।


          {श्रीकृष्ण का यमज रूप}
- अर्थात श्रीकृष्ण का नन्द और वसुदेव के यहाँ एक साथ जन्म लेना प्राचीन ग्रन्थों पर आधारित साक्ष्यों सहित विवेचना-

"श्रीकृष्ण के जन्म की यथार्थ तिथि निर्णय क्या है ?

सनातन धर्म में श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का पूर्ण अवतार माना जाता है। इन पूर्ण विष्णु को ही स्वराट विष्णु कहते हैं। विष्णु के तीन भेदों में यह सर्वोच्च स्वरूप है। भगवान विष्णु  श्रीकृष्ण के रूप में द्वापर युग में अवतार लेते हैं। और धर्म की संस्थापना के लिए दुष्टों का संहार करते हैं। आम तौर पर श्रीकृष्ण के अवतरण या जन्म की तिथि भाद्रपद के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि की अर्द्ध-रात्रि को माना जाता है । लेकिन इसको लेकर भी पुराणों में मतभेद है। जिस पर एक विश्लेषण यहाँ अपेक्षित है।

क्या श्रीकृष्ण का जन्म भादों के महीने में हुआ था ?

श्रीकृष्ण के चरित्र को लेकर सबसे ज्यादा प्रामाणिक ग्रन्थों में महाभारत, देवीभागवत महापुराण और हरिवंश पुराण को माना जाता है । हरिवंश पुराण को महाभारत का अवशिष्ट ( बचा हुआ) भाग भी माना जाता है जिसमें भगवान विष्णु के सभी अवतारों विशेष कर भगवान श्रीकृष्ण के जीवन और कार्यों का विस्तार से वर्णन है।

महाभारत में श्रीकृष्ण के जन्म की तिथि और उनके बाल्यकाल का कोई विवरण नहीं मिलता है श्रीमद्भावगत महापुराण के दशम स्कन्ध में अवश्य भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का विवरण मिलता है लेकिन आश्चर्यजनक रूप से भगवान श्रीकृष्ण का जन्म किस महीने में हुआ था ,इसको लेकर श्रीमद्भभावगत महापुराण भी मौन है।

हरिवंश पुराण में भी श्रीकृष्ण के जन्म की कथा मिलती है।

हरिवंशपुराण के अनुसार, भगवान कृष्ण का जन्म भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मध्यरात्रि के समय, रोहिणी नक्षत्र में हुआ था. इस समय अभिजित नक्षत्र, जयन्ती नामक रात्रि और विजय नामक मुहूर्त था, और ग्रहों की शुभ स्थिति थी. 
जन्म का विवरण
  • तिथि:भाद्रपद मास, कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि 
  • समय:मध्यरात्रि 
  • नक्षत्र:रोहिणी नक्षत्र 
  • अन्य शुभ योग: हरिवंशपुराण के अनुसार, उस समय अभिजित् नक्षत्र, जयन्ती नामक रात्रि और विजय नामक मुहूर्त था. 

निष्कर्ष:-
यह विवरण जन्माष्टमी के पर्व से मेल खाता है, जिसे इसी तिथि और समय के अनुसार मनाया जाता है. कृष्ण का जन्म एक शुभ लग्न में हुआ था, जिसमें शुभ ग्रहों की दृष्टि थी और सभी ग्रह अपनी गति क्रम से ग्यारहवें स्थान में स्थित थे, जैसा कि हरिवंशपुराण में वर्णित है. 

अभिजिन्नाम नक्षत्रं जयन्ती नाम शर्वरी ।
मुहूर्तो विजयो नाम यत्र जातो जनार्दनः ।१७।।

हरिवंशपुराण (विष्णुपर्व)अध्यायः(४)

 लेकिन यहाँ भी ये नहीं बताया गया है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म किस महीने में हुआ था श्रीमद्भावत महापुराण में केवल ये बताया गया है कि श्रीकृष्ण का जन्म रात्रि के पहर में शुभ नक्षत्र था और ग्रह और तारे सभी शुभता के साथ स्थित थे। हरिवंश पुराण में भी यही कहा गया है कि श्रीकृष्ण का जन्म एक शुभ रात्रि में एक विशेष मूहूर्त में हुआ था । लेकिन इन दोनों ही ग्रन्थो में श्रीकृष्ण के जन्म का महीना नहीं बताया गया है ।

क्या श्रीकृष्ण का जन्म सावन के महीने में हुआ था ?

यद्यपि महाभारत श्रीकृष्ण के जन्म की घटना का कोई विवरण नही देता , श्रीमद्भावतम और महाभारत का खिल (परिशिष्ट) भाग हरिवंश पुराण में भी श्रीकृष्ण के जन्म के महीने का कोई श्लोक या विवरण नहीं मिलता , फिर भी  आज के भारतीय भादों के महीने में ही श्रीकृष्ण का जन्म मनाते हैं।

लेकिन अगर कुछ और ग्रन्थो के श्लोकों को पढ़ा जाए तो उनमें ये कहा गया है कि सावन के महीने में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।

श्रावणे मासि पक्षे च कृष्णेऽष्टम्यां प्रजापतेः।
नक्षत्रे वसुदेवस्य देवक्यां भगवान् हरिः१६/६५॥
सर्वलोकहितार्थाय भूमेर्भारावतारणम्।
कर्तुमाविरभूद्भूमौ मध्यरात्रे महामते।।१६/६६॥

(विश्वामित्रसंहिता, अध्याय – १६, श्लोक – ६५-६६)

पुराणों में श्रीकृष्ण के जन्म को लेकर मतभेद-

विश्वामित्र संहिता का ये श्लोक ये कहता है कि  श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जब प्रजापति (ब्रह्मा) का नक्षत्र  था, तब आधी रात को सभी लोकों का कल्याण करने के लिए और पृथ्वी का भार कम करने के लिए वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से भगवान का अवतार हुआ ।६५-६६।

द्वापरे समनुप्राप्ते विरोधिवत्सरे शिवे।
श्रावणे चाष्टमी शुक्ला बुधरोहिणीसंयुता॥६३।
वज्रयोगे मध्यरात्रौ पूर्णः कृष्णो हरिः स्वयम्।
कंसस्य च वधार्थाय अर्जुनस्य हिताय च॥६४

(शक्तिसंगम महातन्त्र राज, छिन्नमस्ताखण्ड, पटल – 06, श्लोक – 63-64)

शक्ति संगम  महातंत्र का ये श्लोक कहता है कि  द्वापरयुग के आने पर विरोधी नामक सम्वत्सर में जब सावन के महीने के शुक्लपक्ष की अष्टमी की तिथि थी और वो दिन बुधवार का था और उस वक्त आधी रात को रोहिणी नक्षत्र का शुभ समय था उस वक्त वज्रयोग जैसे अति शुभ योग में आधी रात को ही स्वयं भगवान श्रीहरि विष्णु  अवतार लेकर कंस का वध करने और अर्जुन का हित करने के लिए श्रीकृष्ण रुप में पधारे।

पद्मपुराण उत्तरखण्ड जो सभी पुराणों में प्राचीन व बृहद  माना जाता है , उसमें में सावन के महीने में ही भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के बारे में श्लोक मिलते हैं। देखें निम्नलिखित श्लोकों को-


               ( हरिश्चन्द्रोवाच )

 केनैव च विधानेन कस्मिनमासे च सा तिथि: ।कर्त्तव्या तन्ममाचक्ष्व अनुग्राह्योस्मि ते यदि।३१

            (सनत्कुमार- उवाच) 

शृणुष्वावहितो राजनकथ्यमानं मया तव। श्रावण सत्य तु मासस्य कृष्णाष्टम्यां नराधिप।३२। 

रोहिणी यदि लभ्येत जयन्ती नाम सा तिथि।भूयोभूयो महाराज भवेज्जन्मनि कीरणम्।३३।

सन्दर्भ- पद्मपुराण (उत्तरखण्डः)अध्यायः (३१)

पद्मपुराण उत्तरखण्ड के उपर्युक्त श्लोकों के अनुसार सावन के महीने की अष्टमी तिथि को रात्रि के समय और आकाश में रोहिणी नक्षत्र विराजमान था, उस पुण्य वेला में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।

परन्तु पद्मपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय (१३) में वर्णन है कि 

भाद्रेमास्यसिताष्टम्यां यस्यां जातो जनार्द्दनः ।
तदहं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व महामुने ।९।

पद्मपुराणम्/खण्डः ४ (ब्रह्मखण्डःअध्यायः (१३)

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म किस तिथि को हुआ था ?

श्रीमद्भागवत महापुराण और हरिवंश पुराण भगवान श्रीकृष्ण के जन्म की तिथि के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहते । श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म से संबंधित दो श्लोक महत्वपूर्ण हैं –

अथ सर्वगुणोपेतः कालः परमशोभनः।
यर्हि एव अजनजन्मर्क्षं शान्तर्क्ष-ग्रहतारकम।।

(श्रीमद्भागवत पुराण, स्कन्ध (10) अध्याय (3), श्लोक (1)

इस श्लोक में शुकदेव जी राजा परीक्षित को कहते हैं कि – “अब समस्त शुभ गुणों से युक्त शुभ समय आया जब उसका जन्म होने वाला था जो अजन्मा (श्रीकृष्ण) है । इस काल में सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त और सौम्य हो रहे थे।“

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण का जब जन्म होता है तो इस समय के बारे में श्रीमद्भागवत महापुराण का ये श्लोक कुछ ऐसा कहता है –

(निशीथे तम उद्भूते जायमाने जनार्दन।) देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णु: सर्वगुहाशय: आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशि इन्दुरिव पुष्कल:।। ८।

(श्रीमद्भागवत पुराण, स्कन्ध 10, अध्याय 3, श्लोक 8) श्रीमद्भागवत महापुराण के दसवें स्कन्ध के अध्याय 3 के श्लोक 8 में ये कहा गया है कि – “ उस रात में उन जनार्दन ( विष्णु) के जन्म का समय आया। चारों तरफ अन्धकार का साम्राज्य था। उसी समय सबके ह्दय में विराजमान विष्णु देवरुपिणी देवकी के गर्भ से प्रगट हुए , जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा का उदय हुआ हो।“

स्पष्ट है कि श्रीमद्भागवत महापुराण में श्रीकृष्ण के न तो जन्म की तिथि बताई गई है और न ही उनके जन्म का नक्षत्र , लेकिन श्री हरिवंशपुराण श्रीकृष्ण के जन्म का नक्षत्र. मुहूर्त दोनों के बारे में बताता है –  

भिजिन्नाम नक्षत्रं जयन्ती नाम शर्वरी।
मुहूर्तो विजयो नाम यत्र जातो जनार्दनः॥

(हरिवंशपुराण, विष्णुपर्व, अध्याय – 4 – श्लोक – 17)

हरिवंश पुराण के इस श्लोक के अनुसार जब भगवान् जनार्दन (विष्णु) का अवतार हो रहा था, उस नक्षत्र का नाम अभिजित्, रात्रि का नाम जयन्ती और मुहूर्त का नाम विजय था। लेकिन आश्चर्य की बात यहां भी यही है कि श्रीकृष्ण के जन्म की तिथि नहीं बताई गई है और न ही महीना बताया गया है 

यद्यपि  हमनें इस लेख में विश्वामित्र संहिता और पद्मपुराण उत्तरखण्ड" ब्रह्मपुराण" विष्णु पुराण" और कुछ ग्रन्थों के अनुसार ये दिखाया है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म सावन के महीने में अष्टमी की तिथि को ही हुआ था। 

ये हो सकता है कि महीने और पक्षो में कुछ हजार सालो में परिवर्तन होता रहता हो और इसलिए ये भ्रम आज भी बना हुआ है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म आखिरकार किसी तिथि और किस महीने हुआ था।  -

ब्रह्मपुराण  अवतार प्रयोजन वर्णन-

              "व्यास उवाच"

श्रृणुध्वं मुनिशार्दूलाः प्रवक्ष्यामि समासतः। अवतारं हरेश्चात्र भारावतरणेच्छया।।१८१.१।।

यदा यदा त्वधर्मस्य वृद्धिर्भवति भो द्विजाः। धर्मश्च ह्रासमभ्योति तदा देवो जनार्दनः॥१८१.२ ।।

अवतारं करोत्यत्र द्विधा कृत्वाऽऽत्मनस्तनुम्।साधूनां रक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च॥१८१.३।

दुष्टानां निग्रहार्थाय अन्येषां च सुरद्विषाम्।प्रजानां रक्षणार्थाय जायतेऽसौ युगे युगे।।१८१.४ ।।

पुरा किल मही विप्रा भूरिभारावपीडिता।        जगाम धरणी मेरौ समाजे त्रिदिवौकसाम्।।१८१.५।

सब्रह्मकान्सुरान्सर्वान्प्रणित्याथ मेदिनी।कथयामास तत्सर्वं खेदात्करुणभाषिणी।।१८१.६।।

                  धरण्युवाच

अग्निः सुवर्णस्य गुरुर्गवां सूर्योऽपरो गुरुः।ममाप्यखिललोकानां वन्द्यो नारायणो गुरुः।। १८१.७ ।।

तत्सांप्रतमिमे दैत्याः कालनेमिपुरोगमाः। मर्त्यलोकं समागम्य बाधन्तेऽहर्निशं प्रजाः।। १८१.८ ।।

कालनेमिर्हतो योऽसौ विष्णुना प्रभविष्णुना।उग्रसेनसुतः कंसः संभूतः सुमहासुरः।।१८१.९ ।।

अरिष्टो धेनुकः केशी प्रलम्बो नरकस्तथा।सुन्दोऽसुरस्तथाऽत्युग्रो वाणश्चापि बलेः सुतः।। १८१.१० ।।

तथाऽन्ये च महावीर्या नृपाणां भवनेषु ये। समुत्पन्ना दुरात्मानस्तान्न संख्यातुमुत्सहे।। १८१.११ ।।

अक्षौहिण्यो हि बहुला दिव्यमूर्तिधृताः सुराः।महाबलानां दृप्तानां दैत्येन्द्राणां ममोपरि।। १८१.१२ ।।

तद्भूरिभारपीडार्ता न शक्नोम्यमरेश्वराः।विभर्तुमात्मानमहमिति विज्ञापयामि वः।। १८१.१३ ।।

क्रियतां तन्महाभागा मम भारावतारणम्। यथा रसातलं नाहं गच्छेयमतिविह्वला।।१८१.१४।।

              व्यास उवाच

इत्याकर्ण्य धरावाक्यमशेषैस्त्रिदशैस्ततः।भुवो भारावतारार्थं ब्रह्मा प्राह च चोदितः।। १८१.१५ ।।

               ब्रह्मोवाच

यदाह वसुधा सर्वं सत्यमेतद्दिवौकसः। अहं भवो भवन्तश्च सर्वं नारायणात्मकम्।।१८१.१६ ।।

विभूतयस्यु यास्तस्य तासामेव परस्परम्। आधिक्यं न्यूनता बाध्यबाधकत्वेन वर्तते।। १८१.१७ ।।

तदागच्छत गच्छामः क्षीराब्धेस्तटमुत्तमम्।तत्राऽऽराध्य हरिं तस्मै सर्वं विज्ञापयाम वै।। १८१.१८ ।।

सर्वदैव जगत्यर्थे स सर्वात्मा जगन्मयः।स्वल्पांशेनावतीर्योर्व्यां धर्मस्य कुरुते स्थितिम्।। १८१.१९ ।।

              व्यास उवाच

इत्युक्त्वा प्रययौ तत्र सह देवैः पितामहः।समाहितमना भूत्वा तुष्टा गरुडध्वजम्।। १८१.२०।

              ब्रह्मोवाच

नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रमूर्ते, सहस्रबाहो बहुवक्त्रपाद। नमो नमस्ते जगतः प्रवृत्तिविनाशसंस्थानपराप्रमेय।।१८१.२१ ।।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं च बृहत्प्रमाणं गरीयसामप्यतिगौरवात्मन्।प्रधानबुद्धीन्द्रियवाक्प्रधानमूला परात्मन्भगवन्प्रसीद।।१८१.२२ ।।

एषा मही देव महीप्रसूतैर्महासुरैः पीडितशैलबन्धा।परायणं त्वां जगतामुपैति, भारावतारार्थमपारपारम्।।१८१.२३ ।।

एते वयं वृत्ररिपुस्तथाऽयं, नासत्यदस्रौ वरुणस्तथैषः। इमे च रुद्रा वसवः ससूर्याः, समीरणाग्निप्रमुखास्तथाऽन्ये।। १८१.२४ ।।

सुराः समस्ताः सुरनाथ कार्यमेभिर्मया यच्च तदीश सर्वम्। आज्ञापयाऽऽज्ञां प्रतिपालयन्तस्तवैव तिष्ठाम सदाऽस्तदोषाः।।१८१.२५।।

             व्यास उवाच

एवं संस्तूयमानस्तु भगवान्परमेश्वरः।उज्जहाराऽऽत्मनः केशौ सितकृष्णौ द्विजोत्तमाः।। १८१.२६ ।।

उवाच च सुरानेतै मत्केशौ वसुधातले। अवतीर्य भुवो भारक्लेशहानिं करिष्यतः।। १८१.२७ ।।

सुराश्च सकलाः स्वांशैरवतीर्य महीतले। कुर्वन्तु युद्धमुन्मत्तैः पूर्वोत्पन्नैर्महासुरैः।।१८१.२८।।

ततः क्षयमशेषास्ते दैतेया धरणीतले। प्रयास्यन्ति न संदेहो नानायुधविचूर्णिताः।। १८१.२९ ।।

वसुदेवस्य या पत्नी देवकी देवतोपमा। तस्या गर्भोऽष्टमोऽयं तु मत्केशो भविता सुराः।। १८१.३०।।

अवतीर्य च तत्रायं कंसं घातयिता भुवि।कालनेमिसमुद्‌भूतमित्युक्त्वाऽन्तर्दधे हरिः।। १८१.३१ ।।

अदृश्याय ततस्तेऽपि प्रणिपत्य महात्मने। मेरुपृष्ठं सुरा जग्मुरवतेरुश्च भूतले।। १८१.३२ ।।

कंसाय चाष्टमो गर्भो देवक्या धरणीतले।भविष्यतीत्याचचक्षे भगवान्नारदो मुनिः।। १८१.३३ ।।

कंसोऽपि तदुपश्रुत्य नारदात्कुपितस्ततः। देवकीं वसुदेवं च गृहे गुप्तावधारयत्।। १८१.३४ ।

जातं जातं च कंसाय तेनैवोक्तं यथा पुरा। तथैव वसुदेवोऽपि पुत्रमर्पितवान्द्विजाः।। १८१.३५ ।।

हिरण्यकशिपोः पुत्राः षड्गर्भा इति विश्रुताः।विष्णुप्रयुक्ता तान्निद्रा क्रमाद्गर्भे न्ययोजयत्।। १८१.३६ ।।

योगनिद्रा महामाया वैष्णवी मोहितं यया। अविद्यया जगत्सर्वं तामाह भगवन्हरिः।१८१.३७।

विष्णुरुवाच 

गच्छ निद्रे ममाऽऽदेशात्पातालतलसंश्रयान्।एकैकश्येन षड्गर्भन्देवकीजठरे नय।१८१.३८ ।।

हतेषु तेषु कंसेन शेषाख्योऽशस्ततोऽनघः।अंशांसेनोदरे तस्याः सप्तमं संभविष्यति।। १८१.३९ ।।

गोकुले वसुदेवस्य भाराया वै रोहिणी स्थिता।तस्याः प्रसूतिसमये गर्भो नेयस्त्वयोदरम्।। १८१.४० ।।

सप्तमो भोजराजस्य भयाद्रोधोपरोधतः।      देवक्याः पतितो गर्भ इति लोको वदिष्यति।। १८१.४१ ।।

गर्भसंकर्षणात्सोऽथ लोके संकर्षणेति वै।संज्ञामवाप्स्यते वरीः श्वेताद्रिशिखरोपमः।। १८१.४२ ।।

ततोऽहं संभविष्यामि देवकीजठरे शुभे।            गर्भे त्वया यशोदाया गन्तव्यमविलम्बितम्।। १८१.४३ ।।

प्रावृट्काले च नभसि कृष्णाष्टम्यामहं निशि।उत्पत्स्यामि नवम्यां च प्रसूतिं त्वमवाप्स्यसि।। १८१.४४ ।।

यशोदाशयने मां तु देवक्यास्त्वामनिन्दिते।मच्छक्तिप्रेरितमतिर्वसुदेवो नयिष्यति।१८१.४५।।

कंसश्च त्वामुपादाय देवि शैलशिलातले।प्रक्षेप्स्यत्यन्तरिक्षे च त्वं स्थानं समवाप्स्यसि।। १८१.४६ ।।

ततस्त्वां शतधा शक्रः प्रणम्य मम गौरवात्।प्रणिपातानतशिरा भगिनीत्वे ग्रहीष्यति।। १८१.४७ ।।

ततः शुम्भनिशुम्भादीन्हत्वा दैत्यान्सहस्रशः।स्थानैरनेकैः पृथिवीमसेषां मण्डयिष्यसि।। १८१.४८ ।।

त्वं भूतिः संनतिः कीर्तिः कान्तिर्वै पृथिवी धृतिः।लज्जापुष्टिरुषा च काचिदन्या त्वमेव सा।। १८१.४९ ।।

ये त्वामार्येति दुर्गेति वेदगर्भेऽम्बिकेति च।      भद्रेति भद्रकालीति क्षेम्या क्षेमंकरीति च।। १८१.५० ।।

प्रातश्चैवापराह्णे च स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः।            तेषां हि वाञ्छितं सर्वं मत्प्रसादाद्भविष्यति।। १८१.५१ ।।

सुरामांसोपहारैस्तु भक्ष्यभोज्यैश्च पूजिता।नृणामशेषकामांस्त्वं प्रसन्नायां प्रदास्यसि।। १८१.५२ ।।

ते सर्वे सर्वदा भद्रा मत्प्रसादादसंशयम्।      असंदिग्धं भविष्यन्ति गच्छ देवि यथोदितम्।। १८१.५३ ।।

इति श्रीमहापुराणे(ब्रह्मपुराणे) आदिब्राह्मे हरेरंशावतारनिरूपणं नामैकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।।१८१ ।।

 अनुवाद:-

अध्याय 72(182) - हरि के अवतार

                व्यास ने कहा :

हे श्रेष्ठ मुनियों, सुनो, मैं तुम्हें संक्षेप में उन अवतारों का वर्णन करूँगा जो पृथ्वी का भार हरने के लिए भगवान श्रीहरि ने धारण किये थे।1।

हे ब्राह्मणो, जब-जब पाप बढ़ता है और पुण्य क्षीण होता है, तब-तब भगवान विष्णु सज्जनों की रक्षा, पुण्य की स्थापना और दुष्टों तथा देव- शत्रुओं का दमन करने के लिए अपने शरीर को दो भागों में विभाजित करके अवतार लेते हैं। वे प्रजा की रक्षा के लिए प्रत्येक युग में जन्म लेते हैं ।2-4।

हे ब्राह्मणों ! पूर्वकाल में पृथ्वी अत्यधिक भार से पीड़ित हो गई थी। पृथ्वी स्वर्गवासियों की सभा में गई। ब्रह्मा सहित देवताओं को प्रणाम करके पृथ्वी ने दुःखी होकर सब कुछ कह सुनाया।5-6।

                पृथ्वी ने कहा  

अग्नि देवताओं के गुरु हैं, सूर्य गौओं के गुरु हैं, तथा नारायण मेरे तथा अन्य लोगों द्वारा नमस्कार किये जाने योग्य लोगों के गुरु हैं।7।

अब कालनेमि के अनुयायी दैत्य इस मृत्युलोक में आ गए हैं। वे दिन-रात प्रजा को कष्ट पहुँचाते हैं।8।

वह असुर कालनेमि, जो सर्वशक्तिमान विष्णु द्वारा मारा गया था, अब महान असुर कंस और उग्रसेन के पुत्र के रूप में जन्म ले रहा है ।9।

. अरिष्ट , धेनुका , केशिन , प्रलम्ब , नरक , सुन्द , बाण , बलि का भयंकर पुत्र आदि कई अन्य अत्यंत शक्तिशाली असुर हैं । ये राजाओं के लोकों में उत्पन्न दुष्ट आत्माएँ हैं। मैं उन सभी की गणना करने का प्रयास नहीं कर सकका हूँ।10-11।

 हे दिव्य रूप धारण करने वाले देवो ! मुझ पर बहुत सी अक्षौहिणी (अत्यंत बलवान अभिमानी दैत्यों की विशाल सेना) आक्रमण कर रही हैं।12।

 हे अमर प्राणियों के स्वामियों, उनके अत्यधिक भार से व्यथित और पीडित होकर मैं स्वयं को स्थिर नहीं कर पा रही हूँ। हे परम धन्यों, मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि मुझ पर से यह अतिरिक्त भार हटा दें, अन्यथा मैं मोहवश अधोलोक में डूब जाऊँगी।13-14।

व्यास ने कहा :

पृथ्वी के ये शब्द सुनकर देवताओं ने ब्रह्मा से पृथ्वी का भार हटाने का अनुरोध किया।15।

ब्रह्मा ने कहा :

 हे स्वर्गवासियों! पृथ्वी जो कुछ कहती है, वही सत्य है। तुम सब, मैं और हर - हम सभी नारायण की उत्कृष्ट और मनोहर शक्तियाँ हैं। इन शक्तियों में दूसरों को रोकने और उनके द्वारा बाधित होने की श्रेष्ठता और हीनता की भावना है। इसलिए आओ। हम क्षीरसागर के उत्तम तट पर जाएँगे। वहाँ हम हरि को प्रसन्न करेंगे और उन्हें सब कुछ बताएँगे।16-18।

. वह प्रभु सबका आत्मा है । वह ब्रह्मांड के समान है। वह सदैव आपके हित के लिए कार्य करेगा। अपने एक छोटे से अंश के साथ वह पृथ्वी पर जन्म लेगा और सद्गुणों की स्थापना करेगा।19।

व्यास ने कहा : ऐसा कहकर ब्रह्माजी देवताओं के साथ चले गए। उन्होंने पूर्ण एकाग्रता से गरुड़देव की स्तुति की ।20।

ब्रह्मा ने कहा :

हे हजार रूपों वाले प्रभु, आपको नमस्कार है, नमस्कार है; हे हजार भुजाओं वाले, हे अनेक भुजाओं और अनेक पैरों वाले, आपको नमस्कार है, नमस्कार है, हे ब्रह्मांड की रचना, पालन और संहार में लगे हुए प्रभु, हे अज्ञेय।21।

. हे प्रभु, आप सूक्ष्मतम प्राणियों में भी सूक्ष्मतम हैं; आपका आकार महान है, आप सबसे भारी से भी भारी हैं। हे प्रभु, प्रधान , ब्रह्माण्डीय बुद्धि और इन्द्रियों से युक्त, हे प्रमुख लोकों के समान प्रभु, आप प्रसन्न हों।22।

 हे प्रभु, पृथ्वी पर उत्पन्न हुए पराक्रमी असुरों के कारण यह पृथ्वी अत्यंत पीड़ित है। यह दुःख के भारी भार से व्यथित है। इस भार को दूर करने के लिए यह आपके पास आई है, जो लोकों के परम आश्रय हैं, तथा आपसे बढ़कर कोई अन्य उद्धारक नहीं है।23।

. हे देवराज! हम सभी आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए तत्पर हैं - वृत्र , नासत्य और अश्विन का संहार करने वाले इन्द्र , वरुण , रुद्र , वसु , सूर्य, वायु , अग्नि और देवता। हे देव! इन सबको और मुझे क्या करना चाहिए, इसकी आज्ञा दीजिए। हम दोषों से बचने के लिए भी आपकी आज्ञा का पालन करेंगे ।24-25।

व्यास ने कहा :

हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, इस प्रकार स्तुति करने पर, महाप्रभु ने अपने सिर से दो बाल उखाड़े, एक श्वेत और दूसरा काला। फिर उन्होंने देवताओं से इस प्रकार कहा, "मेरे ये दो बाल अत्यधिक भार से व्यथित पृथ्वी पर अवतार लेंगे।"26-27।

सभी देवता पृथ्वी पर अवतार लें। वे पहले से ही उत्पन्न हुए शक्तिशाली अभिमानी असुरों से युद्ध करें।28

फिर, इसमें कोई संदेह नहीं है कि पृथ्वी पर जितने भी असुर हैं, उन सबका नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा चूर्ण-चूर्ण करके नाश कर दिया जाएगा।29।

हे अमर ! मेरा यह बाल (केश) वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से आठवें बच्चे के रूप में जन्म लेगा , जो देवों के समान है।30।

पृथ्वी पर जन्म लेकर यह कालनेमि के कंस-वर का वध करेगा। ऐसा कहकर श्रीहरि वहीं अन्तर्धान हो गये।3।

तब उन देवताओं ने उन महान भगवान को प्रणाम किया जो अदृश्य हो गए, मेरु पर्वत पर चले गए और फिर पृथ्वी पर उतर आए।32।

नारद मुनि ने कंस से कहा - "पृथ्वी पर उत्पन्न देवकी के गर्भ से आठवाँ बालक तुम्हारा वध करेगा।33।

34. नारद से यह सुनकर कंस क्रोधित हो गया और उसने देवकी और वसुदेव को उनके ही घर में बंदी बनाकर उनके कुएँ की रखवाली करने लगा।34।

हे ब्राह्मणों! जब भी कोई पुत्र उत्पन्न होता तो वसुदेव तुरन्त उस पुत्र को कंस को सौंप देते थे, जैसा कि उन्होंने स्वयं पहले ही उसे बताया था।35।

हिरण्यकशिपु के पुत्र गर्भस्थ शिशु के रूप में विख्यात हुए। विष्णु द्वारा प्रेरित होकर उनकी योगनिद्रा ने उन्हें क्रमशः देवकी के गर्भ से जोड़ दिया।36।

भगवान विष्णु की इस योगनिद्रा को महामाया और अविद्या भी कहते हैं । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उनसे मोहित है।37।

[ नोट : ब्रह्मपुराण के कुछ संस्करणों में यह अध्याय यहीं समाप्त होता है। 

           "भगवान हरि ने उससे कहा : 

हे निद्रा ! यहाँ से जाओ। मेरे कहने पर इन (हिरण्यकशिपु के) बालकों को, जो इस समय पाताल लोक में हैं, एक-एक करके देवकी के गर्भ में ले जाओ।38।

जब वे कंस द्वारा मारे जाएँगे, तो मेरा पापरहित अंश शेष, एक छोटे से अंश के रूप में देवकी के गर्भ में सातवाँ बालक बनेगा।39।

अहीरों की बस्ती में वसुदेव की एक और पत्नी रोहिणी है । देवकी के गर्भ में बच्चा पैदा होने पर उसे रोहिणी के गर्भ में ले जाना चाहिए। तब लोग कहेंगे कि कंस के भय और कारावास की कठोरता के कारण देवकी के गर्भ में सातवें बच्चे का गर्भपात हो गया।40-41।

चूँकि गर्भस्थ शिशु को खींच लिया गया है, अतः संसार में मेरु शिखर के समान वीर बालक संकर्षण का जन्म होगा।42।

तब मैं देवकी के शुभ गर्भ से जन्म लूँगा। तुम भी अविलम्ब यशोदा के गर्भ में जाओ।43।

 मैं वर्षा ऋतु में श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को रात्रि में जन्म लूँगा । तुम्हारा जन्म नवमी तिथि को होगा।44।

हे आनन्दिते, मेरी शक्ति से प्रेरित होकर वसुदेव मुझे यशोदा के शयन-शयन-स्थल पर ले जाएंगे और तुम्हें देवकी के शयन-स्थल पर।45।

हे भद्रे , कंस तुम्हें पकड़कर एक चट्टान पर पटक देगा। तत्पश्चात तुम आकाश में निवास करोगी।46।

इन्द्र मेरे प्रति आदरपूर्वक सौ बार तुम्हें प्रणाम करेगा; सिर झुकाकर तुम्हें अपनी बहन के रूप में स्वीकार करेगा।47।

तत्पश्चात् तुम हजारों दैत्यों का वध करोगे और विभिन्न धामों से सम्पूर्ण पृथ्वी को सुशोभित करोगे।48।

 आप निम्नलिखित देवियों के समान हैं:— भूति (अस्तित्व), सन्नति (नमस्कार), कीर्ति (यश), कांति (तेज), पृथ्वी (पृथ्वी), धृति (साहस), लज्जा (शर्म), पुष्टि (पोषण), उमा तथा अन्य देवियाँ, चाहे वे कोई भी हों।49।

यदि भक्तगण प्रातःकाल और मध्याह्न में अपने स्वरूप को झुकाकर आपकी स्तुति करें और आपको आर्या , दुर्गा , वेदगर्भा , अम्बिका , भद्रा , भद्रकाली , क्षेम्या और क्षेमकारी कहकर सम्बोधित करें, तो मेरी कृपा से उन्हें जो कुछ भी चाहिए होगा।50-51।

.मदिरा, मांस, अन्य उपहारों और विविध खाद्य पदार्थों से पूजित होकर आप प्रसन्न होंगी और मनुष्यों की समस्त इच्छाएं पूर्ण करेंगी।52।

निःसंदेह, मेरी कृपा से उन सबका सदैव कल्याण होगा। इसमें संदेह करने की आवश्यकता नहीं है। हे भद्र महिला, आप पहले बताए गए तरीके से जाएँ।53।

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पद्मपुराण उत्तरखण्ड और ब्रह्मपुराण के समान ही विष्णुपुराण 5/1/78 में भी कृष्ण के श्रावण मास में जन्म लेने की बात आई है- जैसे)

"प्रावृट्काले च 'नभसि' कृष्णाष्टम्यामहं निशि।उत्पत्स्यामि नवम्यां तु प्रसूतिं त्वमवाप्स्यसि ।।

अर्थात– वर्षाऋतु में नभस् (श्रावण) मास की अष्टमी को रात्रि के समय मैं जन्म लूँगा और तुम (योगमाया) नवमी को उत्पन्न होगी।

टिप्पणी- नभस्य और नभस् जो पृथक शब्द हैं।और दोनो का ही अर्थ भिन्न भिन्न है।

 नभस्य -भाद्रपदमासे नभःशब्दे उदाहरण । “प्रथमा च द्वितीया च नभस्ये मासि निग्दिता” वसिष्ठः। “अथ नभस्य इव त्रिदशायुषम्” रघुवंश महाकाव्य- नभस्य शब्द का अर्थ भाद्रपद मास है और विष्णु पुराण में इसका प्रयोग न हेकर नभस्- नपुंसक लिंग शब्द का प्रयोग हुआ है। नभस् का सप्तमी एक वचन अधिकरण कारक- रूप हुआ नभसि-

नभस्- श्रावणे मासि पु० अमरः कोश । बाहुल्येन मेघसम्बन्धात्तस्य तथात्वम् । “नभोनभस्यत्वमलम्भितद्दृशौ” नैषधीय चरितं “नभाश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू” यजुर्वेद- १४।१५ ।

यहाँ यह बात विचारणीय है कि श्रीकृष्ण का जन्म वर्षा ऋतु के नभस् अर्थात् (सावन) श्रावण मास में हुआ था। भाद्रपद मास में नहीं। भाद्रपद की परम्परा क्यों और कैसे बनी ये बुद्धिजीवियों की चिन्ता  का विषय होना चाहिए।

अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक 'Notable Horoscopes' के प्रथम पृष्ठ पर डॉ वी बी रामन ने उनकी जन्म तिथि अमान्त  श्रावण अष्टमी को ( १९ जुलाई ३२२८ बीसी ) बताई है। 

हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व 4/17 में कहा है कि-

अभिजिन्नाम नक्षत्रं जयन्ती नाम शर्वरी । मुहूर्तो विजयो नाम यत्र जातो जनार्दनः ।।

अर्थात – जब योगेश्वर  श्रीकृष्ण प्रकट हुए उस समय अभिजित् नामक 'नक्षत्र' था, जयन्ती नाम की रात्रि थी और विजय नामक विशिष्ट मुहूर्त था 

पद्मपुराण उत्तरखण्ड (31/32) में कहा गया है कि 

               सनत्कुमार उवाच-
शृणुष्वावहितो राजन्कथ्यमानं मया तव।श्रावणस्य तु मासस्य कृष्णाष्टम्यां नराधिप।३२।

रोहिणी यदि लभ्येत जयंती नाम सा तिथिः          भू योभूयो महाराज भवेज्जन्मनि कारणम्।३३। 

अर्थात – हे राजन, श्रावण मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को यदि रोहिणी नक्षत्र हो तो उस तिथि को जयन्ती तिथि कहा जाता है।

उपर्युक्त सभी प्रमाणों से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी वर्षा ऋतु के श्रावण मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को ही सिद्ध होती है।

ज्ञातव्य है कि यजुर्वेद १४ /१५  के अनुसार नभस्च  नभस्यश्च वार्षिकावृतु,  अर्थात् श्रावण (प्रथम) और भाद्रपद (दूसरा), ये दो महीने वर्षा ऋतु के होते हैं। इसका अर्थ ये हुआ कि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी दक्षिणायन/वर्षा ऋतु/श्रावण सङ्क्रान्ति से सम्बद्ध सौरमास से जुड़े चान्द्रमास की निशीथ व्यापिनी अष्टमी को ही होती है।

 दैनिक पञ्चाङ्ग  से जुड़े सन्देश में निम्न लिखित अंश प्रतिदिन अनुदानित हैं -

सूर्य व  चन्द्र के भोगांशों देशान्तर (Longitudes) से हम सौर एवं चान्द्रमासों तथा आज की तिथि का और पुनः दी हुई क्रान्ति (Declination of the Sun) से वापस सूर्य भोगांश के सत्य का परीक्षण कर सकते हैं। इसी से होगा पञ्चागों के झूठ और सच के दूध का दूध और पानी का पानी समस्त पञ्चाङ्ग निर्माता और ज्योतिर्विदजन ही नहीं हमारे सभी पाठक मित्र भी कृपया इस गुरुमन्त्र  को अपनी स्मरण में गाण्ठ बान्ध कर रख लें-- समीचिना क्रान्ति: सङ्क्रान्ति:।।

अस्तु, सिद्धान्त सम्मत क्रान्ति सिद्ध सङ्क्रान्तियों के अनुसार (देखें ऋग्वेद १/१५५/०६) तो बृहस्पतिवार, १७ जुलाई २०२५  को श्री कृष्ण जन्माष्टमी  की तिथि सिद्ध होती है जो कि आज भूतकाल का विषय बन चुकी है।     

___________

अब ब्रह्मपुराण के समान ही विष्णुपुराण और भागवतपुराण से समान श्लोक उद्धृत कर निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत करते हैं।

            श्रीपराशर उवाच
एवं संस्तूयमानस्तु भगवान्परमेश्वरः ।
उज्जहारात्मनः केशौ सितकृष्णौ महामुने॥ ५,१.६०॥

उवाच च सुरानेतौ मत्केशौ वसुधातले ।
अवतीर्य भुवो भारक्लेशहानिं करिष्यतः॥ ५,१.६१॥

विशेष-भूमेः सुरेतरवरूथविमर्दितायाः।क्लेशव्ययाय कलया सितकृष्णकेशः। जातः करिष्यति जनानुपलक्ष्यमार्गः। कर्माणि चाऽऽत्ममहिमोपनिबन्धनानि ॥२६॥

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय (7) द्वितीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः (7) श्लोक 26- का हिन्दी अनुवाद:

भगवान् के लीलावतारों की कथा:-जिस समय झुण्ड-के-झुण्ड दैत्य पृथ्वी को रौंद डालेंगे उस समय उसका भार उतारने के लिये भगवान् अपने सफ़ेद और काले केश से बलराम और श्रीकृष्ण के रूप में कलावतार ग्रहण करेंगे। वे अपनी महिमा को प्रकट करने वाले इतने अद्भुत चरित्र करेंगे कि संसार के मनुष्य उनकी लीलाओं का रहस्य बिलकुल नहीं समझ सकेंगे ।26।

श्लोक का संदर्भ:यह श्लोक दर्शाता है कि भगवान कृष्ण, अपने पूर्ण विस्तार सहित, पृथ्वी पर संकट को समाप्त करने के लिए प्रकट हुए।

"सितकृष्णकेशः" शब्द का प्रयोग यहाँ कृष्ण के (श्वेत)और  '(काले') 'सुन्दर' केशों के लिए किया गया है, जो उनकी उपस्थिति का वर्णन करता है

यह दर्शाता है कि भगवान कृष्ण (जिन्हें अक्सर कृष्ण वर्ण का माना जाता है) के आने से पृथ्वी पर सुख-शांति स्थापित होगी। 


पुन: विष्णु पुराण से उद्धृत क्रमश: श्लोक-

सुराश्च सकलाःस्वांशैरवतीर्य महीतले ।
कुर्वन्तु युद्धमुन्मत्तैः पूर्वोत्पन्नैर्महासुरैः ॥५,१.६२॥

ततः क्षयमशेषास्ते दैतेया धरमीतले ।
प्रयास्यन्ति न संदेहो मद्दृपातविचूर्णिताः॥ ५,१.६३॥

वसुदेवस्य या पत्नी देवकी देवतोपमा ।
तत्रायमष्टमो गर्भो मत्केशो भविता सुराः ॥ ५,१.६४ ॥

अवतीर्य च तत्रायं कंसं घातयिता भुवि ।
कालनेमीं समुद्भूतमित्युक्त्वान्तर्दधे हरिः ॥ ५,१.६५ ॥

अदृश्याय ततस्तस्मै प्रणिपत्य महामुने ।
मेरुपृष्ठं सुरा जग्मुरवतेरुश्च भूतले ॥ ५,१.६६ ॥

कंसाय चाष्टमो गर्भो देवक्या धरणीधरः ।
भविष्यतीत्याच चक्षे भगवान्नारदो मुनिः ॥ ५,१.६७ ॥

कंसोऽपि तदुपश्रुत्य नारदात्कुपितस्ततः ।
देवकीं वसुदेवं च गृहे गुप्तावधारयत् ॥ ५,१.६८ ॥

वसुदेवेन कंसाय तेनैवोक्तं यथा पुरा ।
तथैव वसुदेवोऽपि पुत्रमर्पितवान् द्विज ॥ ५,१.६९॥

हिरण्यकशिपोः पुत्राःषड्गर्भा इति विश्रुताः ।
विष्णुप्रयुक्ता स्तान्निद्राक्रमाद्गर्भानयोजयत् ॥ ५,१.७० ॥

योगनिद्रा महामाया वैष्णवी मोहितं यया ।
अविद्यया जगत्सर्वं तामाह भगवान्हरिः ॥५,१.७१॥

              श्रीभगवानुवाच

निद्रे गच्छ ममादेशात्पातालातलसंश्रयान् ।
एकैकत्वेन षड्गर्भान्देवकीजठरं नय ॥ ५,१.७२ ॥

हतेषु तेषु कंसेन शेषाख्योंशस्ततो मम ।
अंशांशोनादरे तस्याःसप्तमः संभविष्यति ॥ ५,१.७३ ॥

गोकुले वसुदेवस्य भार्यान्या रोहिणी स्थिता ।
तस्याःस सम्भूतिसमं देवि नेयस्त्वयोदरम् ॥ ५,१.७४ ॥

सप्तमो भोजराजस्य भयाद्रोधोपरोधतः ।
देवक्याः पितितो गर्भ इति लोको वदिष्यति ॥ ५,१.७५ ॥

गर्भसंकर्षणात्सोऽथ लोके संकर्षणेति वै ।
संज्ञामवाप्स्यते वीरः श्वेताद्रिशिखरोपमः ॥ ५,१.७६ ॥

ततोऽहं संभविष्यामि देवकीजठरे शुभे ।
भर्गं त्वया यशोदाया गन्तव्यमविलंबितम् ॥ ५,१.७७ ॥

*****
प्रावृट्काले च नभसि कृष्णाष्टम्यामहं निशि ।
उत्पत्स्यामि नवम्यां तु प्रसूतिं त्वमवाप्स्यसि ॥ ५,१.७८ ॥

यशोदाशयने मां तु देवक्यास्त्वामनिन्दिते ।
मच्छक्तिप्रोरितमतिर्वसुदेवो नयिष्यति ॥५,१.७९ ॥

कंसश्च त्वामुपादाय देवि शैलशिलातले ।
प्रक्षेप्स्यत्यन्तारिक्षे च संस्थानं त्वमवाप्स्यसि ॥ ५,१.८० ॥

ततस्त्वां शतदृक्छक्रः प्रणम्य मम गौरवात् ।
प्रणिपातानतशिरा भगिनीत्वे ग्रहीष्यति ॥५,१.८१।

त्वं च शुंभनिशुंभादीन्हत्वा दैत्यान्सहस्रशः ।
स्थानैरनेकैः पृथिवीमशेषां मण्डयिष्यसि ॥ ५,१.८२ ॥

त्वं भूतिः सन्नतिः क्षान्तिः कान्तिर्द्यौः पृथिवी धृतिः 
लज्जापुष्टी रुषा या तु काचिदन्या त्वमेव सा ॥ ५,१.८३ ॥

ये त्वामार्येति दुर्गेति वेदगर्भांबिकेति च ।
भद्रेति भद्रकालीति क्षेमदा भग्यदेति च ॥ ५,१.८४॥

प्रातश्चैवापराह्ने च स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः ।
तेषां हि प्रार्थितं सर्वं मत्प्रसादाद्भविष्यति ॥ ५,१.८५ ॥

सुरामांसोपहरैश्च भक्ष्यभोज्यैश्च पूजिता ।
नॄणामशेषसामांस्त्वं प्रसन्ना संप्रदास्यसि ॥ ५,१.८६ ॥

ते सर्वे सर्वदा भद्रे मत्प्रसादादसंशयम् ।
असंदिग्धा भविष्यन्ति गच्छ देवि यथोदितम् ।
इति विष्णुमहापुराणे पञ्चमांशे प्रथमोऽध्यायः (१)

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अनुवाद:-

श्री पराशर जी बोले ;- हे महामुने ! इस प्रकार स्तुति किये जानेपर भगवान परमेश्वर ने अपने श्याम और श्वेत दो केश उखाड़े ॥ ५ ९॥ 

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और देवताओं से बोले-मेरे ये दोनों केश पृथ्वी पर अवतार लेकर पृथिवी के भाररूप कष्ट को दूर करेंगे ॥ ६० ॥ 

सब देवगण अपने-अपने अंशों से पृथ्वी पर अवतार लेकर अपने से पूर्व उत्पन्न हुए उन्मत्त दैत्यों के साथ युद्ध करें।६१॥

तब मेरे दृष्टिपात से दलित होकर पृथिवी तलपर सम्पूर्ण दैत्यगण निस्सन्देह क्षीण हो जाएँगे ॥६२।। 

वसुदेवजी की जो देवी के समान देवकी नाम की भार्या है उसके आठवें गर्भ से मेरा यह (श्याम ) केश अवतार लेगा ॥६३॥

और इस प्रकार वहाँ अवतार लेकर यह कालनेमि का अवतार कंस का वध करेगा।' ऐसा कहकर श्रीहरि अन्तर्धान हो गये ॥६४॥ 

हे महामुने ! भगवान के अदृश्य हो जानेपर उन्हें प्रणाम करके देवगण सुमेरु पर्वत पर चले गये और फिर पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए ॥ ६५ ॥

इसी समय भगवान नारदजी ने कंस से आकर कहा कि देवकी के आठवें  गर्भ में भगवान धरणी धर जन्म लेंगे ॥६६॥

नारद जी से यह समाचार पाकर कंस ने कुपित होकर वसुदेव और देवकी को कारागृह में बंद कर दिया ॥ ६७ ॥

द्विज ! वसुदेव जी भी, जैसा कि उन्होंने पहले कह दिया था, अपना प्रत्येक पुत्र कंस को सौंपते रहे ॥६८ ॥

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ऐसा सुना जाता है कि ये छः गर्भ पहले हिरण्य कशिपु के पुत्र थे। भगवान विष्णु की प्रेरणा से योगनिद्रा उन्हें क्रमशः गर्भ में स्थित करती रही ।।६९॥ 

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 विशेष- परन्तु देवीभागवतपुरण के अनुसार ये छै: पुत्र अदिति के थे। और सातवाँ बलराम रूप शेषनाग  कद्रु के पुत्र थे। परन्तु अदिति रूप देवकी के छ: स्थापित पुत्र और सप्तम गर्भविस्थापित पुत्र बलराम थे। 

(जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै" - देवी भागवतमहापुराण)

अत: देवीभागवत पुराण का वर्णन सत्य तथा  तर्कसंगत है। जबकि विष्णु पुराण और ब्रह्मपुराण का वर्णन प्रक्षेप है।

जिस अविद्या-रूपिणी से सम्पूर्ण जगत् मोहित हो रहा है, वह योगनिद्रा भगवान विष्णु के महामाया है उससे भगवान श्री हरि ने कहा--॥ ७०॥

श्रीभगवान् बोले  - हे निद्रे ! जा, मेरी आज्ञा से तू पाताल में स्थित छः गर्भ को एक-एक करके देवकी की कुक्षि में स्थापित कर दे॥७१।। 

कंस द्वारा उन सबके मारे जाने पर शेष नामक मेरा अंश अपने अंशांश देवकी के सातवें गर्भ में स्थित होगा ॥७२॥ 

हे देवि ! गोकुल में वसुदेवजी की जो रोहिणी नामकी दूसरी भार्या रहती है उसके उदर में उस सातवें गर्भ को ले जाकर तू इस प्रकार स्थापित कर देना जिससे वह उसी के जठर से उत्पन्न हुए के समान जान पड़े ॥७३॥

उसके विषय में संसार यही कहेगा कि कारागार में बन्द होने के कारण भोजराज कंस के भय से देवकी का सातवाँ गर्भ गिर गया ॥७४॥

 वह श्वेत शैलशिखर के समान वीर पुरुष गर्भ से आकर्षण किये जाने के कारण संसार में 'सङ्गर्षण' नाम से प्रसिद्ध होगा॥ ७५॥

तदनन्तर, हे शुभे ! देवकी के आठवें गर्भ में मैं स्थित होऊँगा । उस समय तू भी तुरन्त ही यशोदा के गर्भ में चली जाना ॥७६॥

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वर्षा ऋतु में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की रात्रि के समय मैं जन्म लूंगा और तू नवमी को उत्पन्न होगी। ७७ ॥ 

हे अनिन्दिते ! उस समय मेरी शक्ति से अपनी मति फिर जाने के कारण वसुदेव जी मुझे तो यशोदा के और तुझे देवकी के शयनगृह में ले जाएंगे ॥७८॥

तब, हे देवि ! कंस तुझे पकड़कर पर्वत-शिलापर पटक देगा; उसके पटकते ही तू आकाश में स्थित हो जायगी ॥ ७९ ।।

उस समय मेरे गौरव से सहस्रनयन इन्द्र शिर झुकाकर प्रणाम करनेके अनन्तर तुझे भगिनी रूप से स्वीकार करेगा॥ ८० ॥ 

तू भी शुम्भ, निशुम्भ आदि ,सहस्र दैत्यों को मारकर अपने अनेक स्थानों से समस्त पृथ्वी को सुशोभित करेगी॥८१॥ 

तू ही भूति, सन्नति, क्षान्ति और कन्ति है; तू ही आकाश, पृथिवी, धृति, लज्जा, पुष्टि और उषा है; इनके अतिरिक्त संसारमें और भी जो कोई शक्ति है वह सब तू ही है॥ ८२॥

जो लोग प्रातः काल और सायंकाल में अत्यन्त नम्रतापूर्वक तुझे आर्या, दुर्गा, वेदगर्भा, अम्बिका, भद्रा, भद्रकाली, क्षेमदा और भाग्यदा आदि कहकर तेरी स्तुति करेंगे उनकी समस्त कामनाएँ मेरी कृपा से पूर्ण हो जायँगी ॥८३-८४ ॥

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मदिरा और मांस की भेंट चढ़ाने से तथा भक्ष्य और भोज्य पदार्थो द्वारा पूजा करने से प्रसन्न होकर तू मनुष्यों की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण कर देगी ॥८५॥ 

*****

तेरे द्वारा दी हुई वे समस्त कामनाएँ मेरी कृपा से निस्सन्देह पूर्ण होंगी। हे देवि ! अब तू मेरे बतलाये हुए स्थानको जा ॥८६॥

 ऊपर कही हुई कहानी विष्णुमहापुराण के पञ्चमांश प्रथमोऽध्याय में तथा ब्रह्मा के विधि-विधानों पर केन्द्रित ब्रह्मपुराण( महापुराण) के (181) वें अध्याय  में उल्लिखित है। दोनों पाठ एक दूसरे की नकल हैं। यह यज्ञ मूलक कर्मकाण्डों के समर्थ  पुरोहितो द्वारा आरोपित हैं । यह सभी क्षेपक ही है।

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स्कन्द पुराणकार भीराधा जी के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए उन्हें आदि शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करता है। देखे निम्नलिखित श्लोकों को-

श्रीकृष्णस्य मनश्चंद्रो राधास्यप्रभयान्वितः ।।तद्विहारवनं गोभिर्मण्डयन्रोचते सदा ।।५।।

कृष्णचन्द्रः सदा पूर्णस्तस्य षोडश याः कलाः ।।चित्सहस्रप्रभाभिन्ना अत्रास्ते तत्स्वरूपता ।। ६ ।।

एवं वज्रस्तु राजेन्द्र प्रपन्नभयभञ्जकः।।श्रीकृष्णदक्षिणे पादे स्थानमेतस्य वर्तते ।।७।।

अवतारेऽत्र कृष्णेन योगमायाऽति भाविता ।।तद्बलेनात्मविस्मृत्या सीदन्त्येते न संशयः ।। ८।।

श्लोकार्थ -

श्रीकृष्ण का मनरूपी चन्द्रमा राधा के मुख की प्रभारूप चाँदनी से युक्त हो उनकी लीलाभूमि वृन्दावन को अपनी किरणों से सुशोभित करता हुआ यहाँ सदा प्रकाशमान रहता है ।।५।। 

श्रीकृष्णचन्द्र नित्य परिपूर्ण हैं, प्राकृत चन्द्रमा की भाँति उनमें वृद्धि और क्षयरूप विकार नहीं होते। उनकी जो सोलह कलाएँ हैं, उनसे सहस्रों चिन्मय किरणें निकलती रहती हैं; इससे उनके सहस्रों भेद हो जाते हैं। इन सभी कलाओं से युक्त, नित्य परिपूर्ण श्रीकृष्ण इस व्रजभूमि में सदा ही विद्यमान रहते हैं; इस भूमि में और उनके स्वरूप में कुछ अन्तर नहीं है ।।६।। 

राजेन्द्र परीक्षित् ! इस प्रकार विचार करने पर सभी व्रजवासी गोप भगवान्‌ के अंग में स्थित हैं। शरणागतों का भय दूर करनेवाले जो ये वज्रनाभ हैं, इनका स्थान श्रीकृष्ण के दाहिने चरण में है ।।७।। 

इस अवतार में भगवान् श्रीकृष्ण ने इन सबको अपनी योगमाया से अभिभूत कर लिया है, उसी के प्रभाव से ये अपने स्वरूप को भूल गये हैं और इसी कारण सदा दुःखी रहते हैं। यह बात निस्सन्देह ऐसी ही है ।।८।।

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श्रीस्कान्दे महापुराणे एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे परीक्षिदुद्धवसंवादे श्रीभागवतमाहात्म्ये तृतीयोऽध्यायः।।३।।

इसके अति आगम ग्रन्थों में कृष्ण यामलतन्त्र के निम्नलिखित श्लोक विचारणीय हैं।

📚: वृषभानुपुराद्याता क्रीडार्थं राधिका स्वयम्।। पारावारेति विख्यातं स्थानं तस्मात् समागता:।।५४।।

कृष्ण यामल तन्त्र-📚

बिम्बाधरेण मुरली कररी विलासी।मायूरपिच्छपरिलाञ्छित चारचूड:।आभीरबालककुलेन विहारकारी।। राधापतिर्मम पुनर्भविताऽनुकूल:।।१५८।

कृष्ण यामल तन्त्र-📚

📚: एक: कृष्णो द्विधाभूतो मुमुक्षुभजनैषिणो:। उपकाराय शुद्धात्मा वेदविद्भि: स गीयते। मुक्तोब्रृह्मपदंयाति तदंगं ज्योतिरुत्तमम्।।८/२६ ख –८/२७ क।(कृष्ण यामल तन्त्र)

प्रकाशन काल में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों नें भी ग्रन्थों में छेड़ाखानी की और कुछ जोड़ा कुछ तोड़ा और कुछ मरोड़ा है। अत: पुराण जो कृष्ण द्वैपायन व्यास की रचना बताए जाते परस्पर कहीं कहीं विरोधाभास लिए हुए हैं। 


           †श्रीकृष्ण जन्माष्टमी † 

देवी भागवत पुराण के कुछ श्लोकों में कृष्ण के जन्म  वर्णन है। वसुदेव और नन्द दोनों सजातीय एक ही परिवार के व्यक्ति थे।

बहुत से पुराणों में वसुदेव को भी गोप जाति में जन्म लेने वाला कहा है।
जैसे - देवी भागवतमहापुराण के निम्नलिखित श्लोकों को देख सकते हैं। जो वसुदेव के पूर्वजन्म के प्रभाव से गोपों में जन्म लेने की बात करते हैं।

अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥
                     -व्यास उवाच-
तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम्।
जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥१८॥
अनुवाद:-अतएव मर्यादा की रक्षा के लिये ब्रह्माजी ने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यप को शाप दे दिया कि तुम अपने अंश से पृथ्वीपर यदुवंश में जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियों के साथ गोप जाति में जन्म लेकर गोपालन का कार्य करोगे ।। 15-16 ।।

व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारने के लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यप को शाप दे दिया था ॥17॥
उधर कश्यप की भार्या दिति ने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदिति को शाप दे दिया कि क्रम से तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जायँ ॥18
सन्दर्भ:-
(देवीभागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय तृतीय) 
इसके अतिरिक्त
हरिवंशपुराण हरिवंश पर्व के (55) वें अध्याय में भी वसुदेव को गोप कहा गया है। 
ये सभी गोप यादव आदि  आभीर शब्द के ही पर्याय हैं।
हरिवंश पुराण में में वसुदेव के गोप जाति में जन्म लेने की पूर्वजन्म के शाप प्रभाव का वर्णन है।
देखें निम्नलिखित श्लोकों को-
 
येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।३३।
अनुवाद :- अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ ( ब्रह्मा ) ने कश्यप को शाप देते हुए कहा-।३२।

हे  कश्यप ! तुमने जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है  तुम उसी अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।

वायु भी भगवान श्रीकृष्ण के गोप ते घर जन्म लेने की बात करता है।
 
गोपायनं यः कुरुते जगतां सार्व्वलौकिकम्।
स कथं गां गतो विष्णुर्गोपमन्वकरोत्प्रभुः ।।१२।। (वायुपुराण- 97) 

गोपायनं यः कुरुते जगतः सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देवो विष्णुर्गोपत्वमागतः ।।१२।।
(हरिवंश पुराण हरिवंशपर्व अध्याय-40)

गोपायनं यः कुरुते जगतः सार्वलौकिकम् ।
स कथं भगवान्विष्णुः प्रभासक्षेत्रमाश्रितः॥२६॥
स्कन्द पुराण-7/1/9/26

उपर्युक्त श्लोक तीन अलग अलग पुराणों  वायुपुराण, हरिवंशपुराण और स्कन्द पुराण  से उद्धृत हैं।

जिनका अर्थ है - जो प्रभु जगत के  सभी जीवों अथवा लोगों की रक्षा करने में समर्थ है । वह गोपों के घर गोप बनकर आते हैं।

अब कोई यदि यही राग अलाप रहा है। कि  कृष्ण गोप (अहीर) नहीं हैं। तो वह महाधूर्त और वज्र मूर्ख ही है।

कृष्ण का जन्म गोप जाति में हुआ था स्वयं राम भक्त तुलसी भी इसी बात को स्वीकार करते हैं।

पद संख्या (231) से (240) तक / तुलसीदास विनयपत्रिका / 

सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो।
बायों दियो बिभव कुरूपति को, भोजन जाइ बिदुर-घर कीन्हो।3।

सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपग्रह लीन्हो"
 यह विनय पत्रिका का एक पदांश है, जिसमें कवि संत तुलसीदास ने कहा है कि देवों, मुनियों और ब्राह्मणों के श्रेष्ठ माने जाने वाले कुल को त्यागकर, भगवान श्री कृष्ण के गोपगृह (अहीरों के घर) में जन्म लेने की बात कही है। यह भगवान की लीला और उनके जन्म के समय की स्थिति को दर्शाता है। जैसा कि  स्वयं अनेक पुराणों में भी

व्याख्या:

सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल: इसका अर्थ है कि देव (सुर), ऋषि-मुनि (मुनि) और ब्राह्मणों (बिप्र) के लिए जो बड़े और श्रेष्ठ माने जाते हैं, उन कुलों को त्यागकर। 
गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो:
भगवान श्रीकृष्ण ने गोप (ग्वालों) के घर (गोपगृह) में गोकुल में जन्म लिया।  यही गोप ़यादव और अहीर भी कहलाते हैं।

यह पद इस बात पर प्रकाश डालता है कि किस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने संसार के सभी श्रेष्ठ माने जाने वाले जाति- कुलों को छोड़कर केवल अहीरों (गोपों) के घर में जन्म लिया, जो उनकी लीला का एक महत्वपूर्ण अंग है। 
विभिन्न पुराणों से उद्धृत सन्दर्भ जिनमें भगवान श्रीकृष्ण के जन्म समय का वर्णन है। प्रस्तुत करते हैं।

सिंहराशिगते सूर्ये गगने जलदाकुले ।
मासि भाद्रपदेऽष्टम्यां कृष्णपक्षेऽर्धरात्रके ।
वृषराशिस्थिते चन्द्रे नक्षत्रे रोहिणीयुते ॥१४॥

वसुदेवेन देवक्यामहं जातो जनाः स्वयम् ।।
एवमेतत्समाख्यातं लोके जन्माष्टमीव्रतम् ।।१५।।

श्लोक
एकेनैवोपवासेन कृतेन कुरुनन्दन।
सप्तजन्मकृतात् पापान्मुच्यते नात्र संशयः॥२०॥

हिन्दी अनुवाद
हे कुरुनन्दन ! केवल एक बार भी यह उपवास (कृष्णजन्माष्टमी व्रत) करने से सात जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं।
       

बंगाल के चैतन्य महाप्रभु द्वारा संचारित गौड़ीय सम्प्रदाय के अनुयायी सन्तों की मान्यता है  कि जिस समय कारागार में श्रीवसुदेव-देवकी के सम्मुख चतुर्भुजरूप में भगवान्‌ प्रकट हुए थे, उसी समय नन्दबाबा के घर पर भी यशोदानन्दन के रूप में द्विभुजरूप में  भगवान प्रकट हुए थे। 

एक: कृष्णो द्विधाभूतो मुमुक्षुभजनैषिणो:। उपकाराय शुद्धात्मा वेदविद्भि: स गीयते। मुक्तोब्रृह्मपदंयाति तदंगं ज्योतिरुत्तमम्।।८/२६ ख –८/२७ क।(कृष्ण यामल तन्त्र)

और यशोदा माता ने जुड़वाँ रूप में  दो सन्तानों को जन्म दिया था पुत्र का नाम गोविन्द और पुत्री का नाम अम्बिका था। 

नन्दपत्न्यां यशोदायां मिथुनं सञ्जायत: । गोविन्दाख्यः पुमान् कन्या साम्बिका च मथुरां गता ।।५।

(कृष्ण यामल तन्त्र)

 विदित हो कि भगवान का द्विभुजधारी गोप रूप गोलोक का शाश्वत रूप है। जबकि चतुर्भुज रूप वैकुण्ठ वासी विष्णु रूप है। इसी लिए भगवान पृथ्वी पर गोपों के यहाँ ही गोप रूप में अवतरण करते हैं।

वे नन्द के पुत्र रूप में भी जन्म लेते हैं और वसुदेव के पुत्र रूप में भी जन्म लेते है।

श्रीमद्भागवत, दशमस्कन्ध के पञ्चम अध्याय के प्रथम श्लोक में वर्णन आया है--

नन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने जाताह्नादो महामनाः।

यह श्लोक श्रीमद्भागवतपुराण (स्कन्ध १०, अध्याय ५, श्लोक १) से है, जो कहता है कि पुत्र के उत्पन्न होने पर महान हृदय वाले नन्द को आनन्द हुआ, और उन्होंने स्नान व शुद्ध होकर अलंकार धारण किए तथा वेदज्ञ ब्राह्मणों को बुलाया। यह नन्द के पुत्र प्राप्ति के आनन्द और जातकर्मादि उत्सव की प्रारम्भिकता का वर्णन करता है। पूर्ण श्लोक निम्नलिखित है।

नन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने जाताह्लादो महामनाः।
आहूय विप्रान् वेदज्ञान् स्नातः शुचिरलंकृतः॥ १॥
वाचयित्वा स्वस्त्ययनं जातकर्मात्मजस्य वै।
कारयामास विधिवत् पितृदेवार्चनं तथा॥२।
अनुवाद:-
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! नन्दबाबा बड़े मनस्वी और उदारचेता थे । पुत्र का जन्म होने पर तो उनका हृदय विलक्षण आनन्द से भर गया । उन्होंने स्नान किया और पवित्र होकर सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये । फिर वेदज्ञ ब्राह्मणों को बुलवाकर स्वस्तिवाचन और अपने पुत्र का जातकर्म-संस्कार करवाया । साथ ही देवता और पितरों की विधिपूर्वक पूजा भी करवायी ॥१-२॥

श्लोक का अर्थ नन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने:
  • जब नन्द के पुत्र का जन्म हुआ। यहाँ आत्मज शब्द नन्द और कृष्ण के रक्त व आनुवांशिक सम्बन्ध को सूचित करता है।
  • जाताह्लादो महामनाः
    महान मन वाले नन्द आनन्दित हुए।
  • आहूय विप्रान् वेदज्ञान्:
    उन्होंने वेदों को जानने वाले ब्राह्मणों को बुलाकर।
  • स्नातः शुचिरलङ्कृतः:
    उन्होंने स्नान किया, शुद्ध हुए और अलंकार धारण किए।
आगे की जानकारी
  • नन्द ने तत्पश्चात विधिवत जातकर्मादि संस्कार करवाए और पितृ-देवताओं का पूजन किया। उन्होंने ब्राह्मणों को अलंकरणों से युक्त दस लाख गायें और सात रत्न तथा रेशमी वस्त्रों से युक्त तिलाद्रि (तिलों से भरे पर्वत) दान किए। 


श्रीनन्दजी के आत्मज स्वयं से उत्पन्न (पुत्र) होने पर उन महामना को परमाह्लाद हुआ।' 

श्रीनन्दजी के यहाँ भगवान्‌ पुत्ररूप में जन्म न  लेते तो शुकदेव जी 'आत्मज उत्पन्ने' पुत्र पैदा हुआ पद  न कहकर 'स्वात्मजं मत्वा' अपना पुत्र मानकर ' वाक्यपद कहते। जो उन्होंने ऐसा नहीं  कहा है। अत: व्याकरण की दृष्टि से भी कृष्ण गोविन्द नाम से नन्द के पुत्र हैं।

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कृष्ण यामल तन्त्र नामक ग्रन्थ में वर्णन है कि नन्द की पत्नी यशोदा के जुड़वां सन्तानें हुई एक लड़का हुआ और एक लड़की । लड़के का नाम गोविन्द और लड़की का नाम अम्बिका रखा गया जो मथुरा को चली गयी।५।

नन्दपत्न्यां यशोदायां मिथुनं सञ्जायत: । गोविन्दाख्यः पुमान् कन्या साम्बिका च मथुरां गता ।।५।

(कृष्ण यामल तन्त्र)

इतना ही नहीं विष्णु यामल में वर्णन है कि वसुदेव द्वारा ले जाए ग॒ए वासुदेव कृष्ण निश्चय ही नन्द पुत्र की आत्मा में विलीन हो गयी जैसे मेघों में बिजली समा जाती है।

वसुदेव: समानीतो वासुदेवोऽखिलात्मनि लीनो नन्दसुते राजन् ! घने सौदामिनी यथा।।६।

अनुवाद:-वसुदेव द्वारा लाये गये वासुदेव श्रीकृष्ण स्वयं नन्द पुत्र में लीन हो गये जैसे बिजली मेघों में विलीन हो जाती है।६।

(विष्णु यामल-तत्र)

इन महानुभावों का कहना है कि श्रीवसुदेव-देवकी की भक्ति ऐश्वर्यमिश्रित वात्सल्यमयी थी और श्रीनन्दयशोदा की भक्ति ऐश्वर्यगन्धशून्य विशुद्ध वात्सल्यमयी।

इसी से वसुदेव-देवकी के सामने भगवान्‌ शंख-चक्र-गदापद्मधारी चतुर्भुज अद्भुत बालक के रूप में आविर्भूत हुए। भगवान्‌ के इस ऐश्वर्यमय रूप को देखकर उन्होंने समझा कि श्रीभगवान्‌ नारायण हमारे पुत्ररूप में प्रकट हुए हैं; अतएव उन्होंने हाथ जोड़कर इनकी स्तुति की और भगवान ने भी पूर्व-जन्मों की स्मृति दिलाकर अपने साक्षात्‌ भगवान्‌ होने का परिचय दिया। 

इसमें ऐश्वर्य प्रत्यक्ष है। तदनन्तर वात्सल्य-भाव का उदय होनेपर कंस के भयसे उन्होंने भगवान्से बार-बार चतुर्भुजरूप को छिपाकर द्विभुज साधारण शिशु बनने के लिये अनुरोध किया।

इससे यह सिद्ध है कि श्रीवसुदेव-देवकी का वात्सल्य-प्रेम-ऐश्वर्यमिश्रित था और भगवान्‌ का ऐश्वर्यमय चतुर्भुजरूप ही उनका आराध्य था तथा वे उसको पुत्ररूप में प्राप्त करना तथा देखना चाहते थे। 

परन्तु इसके विपरीत श्रीनन्द-यशोदा का वात्सल्य-प्रेम विशुद्ध था, उसमें ऐश्वर्य-ज्ञान का तनिक भी सम्बन्ध नहीं था; इससे उनके सामने भगवान्‌ द्विभुज प्राकृत बालक के रूप में ही आविर्भूत हुए और उन्होंने कोई स्तुति-प्रार्थना भी नहीं की। यह द्विभुज रूप ही गोलोक का गोप रूप है। इसी रूप को 

पुत्र समझकर गोद में उठा लिया और नवजात बालक के कल्याणार्थ जातकर्मादि करवाये।

***

नन्दपत्नयां यशोदायां मिथुन: समपद्यत:। गोविन्दाख्यः पुमान्‌ कन्या साम्बिका मथुरां गता॥ 

यह प्रसिद्ध ही है कि भगवान्‌ उसी रूप में भक्त के सामने प्रकट होते हैं, जो रूप भक्त के मन में होता है। श्रीभागवत में श्रीब्रह्माजी ने कहा है--

त्वं भक्तियोगपरिभावितहृत्सरोज ।
आस्से श्रुतेक्षितपथो ननु नाथ पुंसाम् ।
यद् यद् धिया ते उरुगाय विभावयन्ति ।
तत्तद् वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाय ॥११॥

(भागवतपुराण-३/९/११)

भगवन्‌ ! आपके भक्त जिस स्वरूप की निरन्तर भावना करते हैं, आप आप उसी रूप में प्रकट होकर भक्तों की कामना पूर्ण करते हैं।'

श्रीमद्भागवत में जो यह स्पष्ट वर्णन नहीं आया है--इसका कारण यह बताया जाता है कि श्रीशुकदेवजी भक्तराज परीक्षित्‌ को कथा सुना रहे थे। परीक्षित्‌ का सम्बन्ध वसुदेवजी से था। अतः उन्हें विशेष आनन्द देने के लिये शुकदेवजी ने नन्दालय में भी भगवान्‌ के प्रकट होने का स्पष्ट वर्णन नहीं किया; परन्तु उनका प्रेमपूर्ण हृदय माना नहीं और इस श्लोक में उनके श्रीमुखसे “नन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने ' के रूप में रहस्य प्रकट हो ही गया। 

श्रीमद्भागवतमें और भी संकेत है--कंस ने जब गोकुल से लायी हुई यशोदा की कन्या को देवकी की कन्या समझकर उसे मारने के लिये शिलापर पटकना चाहा, तब वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी और देवीरूप से प्रकट हुई । उस समय भागवत में उसके लिये 'अदृश्यतानुजा विष्णो: ' अर्थात्‌ 'कंस ने भगवान्‌की अनुजा (छोटी बहिन)-को देखा '-यों लिखा है। पर यदि भगवान्‌ श्रीकृष्ण केवल श्रीदेवकी के पुत्र होते तो यशोदा की कन्या को भगवान्‌ की 'अनुजा' कहना युक्तियुक्त तथा सत्य न होता किन्तु परमानन्दघनविग्रह भक्तवाञ्छाकल्पत भक्तवाञ्छाकल्पतरु श्रीभगवान्‌ जिस समय कंस-कारागार में वसुदेव-आत्मजरूप में प्रकट हुए थे, ठीक उसी समय गोकुल में नन्दात्मज के रूप में भी वही भगवान् प्रकट हुए थे तथा उसी के थोड़ी देर बाद योगमाया कन्या के रूप में प्रकट हुई थीं। 

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श्रीहरिवंश में आया है-

गर्भकाले त्वसम्पूर्णे अष्टमे मासि ते स्त्रियौ। देवकी च यशोदा च सुषुवाते समं तदा ।११।

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व अध्याय (4)

अर्थात्‌ गर्भकाल पूरा होने के पहले ही आठवें महीने में 'देवकी और यशोदा दोनों ने एक ही साथ प्रसव किया था।' 

इस तथ्य  पर यह कहा जा सकता है कि “जिस समय देवकी जी के भगवान्‌ पुत्ररूप में प्रकट हुए, उसी समय यशोदाजी के योगमाया प्रकट हुईं।' 

पर ऐसा कहना बनता नहीं; क्योंकि श्रीमद्भागवत (१०। ३। ४७) -में यह स्पष्ट उल्लेख है कि “' श्रीभगवान्‌ से प्रेरित वसुदेवजी ने पुत्र को गोद में लेकर कारागार से बाहर निकलने की इच्छा की, उस समय “योगमाया ' प्रकट हुईं।'

अतएव कारागार में भगवान का और गोकुल में योगमाया का प्राकट्य आगे-पीछे हुआ, एक ही समय नहीं हुआ था। इस तथ्य पर भी यह कहा जा सकता है कि गोकुलमें ' भगवान्‌ प्रकट हुए ! इसमें स्पष्ट प्रमाण क्या है ? तो इसके समाधान में ' श्रीकृष्णयामल तन्त्र' नामक ग्रन्थ का कहना है कि नन्द पत्नी यशोदा के यमज( जुड़वाँ) संतान हुई थी; पहले एक पुत्र हुआ, तदनन्तर एक कन्या हुई पुत्र साक्षात्‌ श्रीगोविन्द थे और कन्या थी स्वयं अम्बिका (योगमाया)। 

यशोदा की इस कन्या को ही वसुदेवजी मथुरा ले गये थे- 

इस स्पष्टोक्ति से योगमायाको 'श्रीकृष्ण की अनुजा'(छोटी बहिन)  कहा जाना भी सार्थक हो गया।

इस विषय पर फिर कहा जा सकता है--' श्रीवसुदेव जी जब शिशु श्रीकृष्ण को लेकर गोकुल गये, तब वहाँ उन्हें केवल शिशु बालिका ही क्‍यों दिखायी दी, बालक क्‍यों नहीं दिखायी दिया ? और बालक भी था तो फिर वह बालक कहाँ गया ? वहाँ दो बालक होने चाहिये।' 

इस शंका का समाधान यह है कि इनके वहाँ पहुँचते ही उसी क्षण इन वसुदेव बालक उस नन्दबालक में विलीन हो गया। इन्हें पता ही नहीं लगा कि वहाँ कोई बालक और भी था। वरिष्ठ महानुभावों ने यहाँ तक माना है कि जिस समय कंस के कारागार में देवकी ने यह प्रबल इच्छा की कि श्रीभगवान्‌ के चतुर्भुजरूप का गोपन हो जाय, उसी समय यशोदा हृदयस्थ भगवान्‌ का द्विभुज बालकरूप उस चतुर्भुजरूप को छिपाकर देवकी के सामने आविर्भूत हो गया (यदा स्वाविर्भूतचतुर्भुजरूपाच्छादनाय श्रीदेवकीच्छाजायत, तदा यशोदाहदयस्थद्विभुजरूपस्य तद्रूपाच्छादनपूर्वकाविर्भावस्तत्रासीदिति गम्यते--'वैष्णवतोषिणी')। 

यशोदा के यहाँ प्रकट भगवान्‌ वहाँ से तुरन्त यहाँ आकर प्रकट हो गये और उनमें भगवान्‌ का शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुजरूप तुरन्त वैसे ही विलीन हो गया, जैसे बादल में बिजली विलीन हो जाती है-

वसुदेवसुतः श्रीमान्‌ वासुदेवोऽखिलात्मनि। लीनो नन्दसुते राजन ! घने सौदामनी यथा॥ 6। (श्रीकृष्णयामल तन्त्र )

देवक्‍यां देवरूपिण्यां. विष्णु: सर्वगुहाशयः। आविरासीद्‌ यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः॥  भागवत पुराण-(१०। ३। ८)

यहाँ 'देवकी' शब्द 'देहली-दीपक' न्याय से श्रीदेवकीजी और श्रीयशोदाजी दोनोंका ही वाचक हैक्योंकि यशोदाजीका भी दूसरा नाम 'देवकी' था। 

श्रीहरिवंशपुराण में आया है-

द्वे नाम्नी नन्‍दभार्याया यशोदा देवकीति च। अतः सख्यमभूत्तस्या देवक्या शौरिजायया॥अनुवाद:-“नन्दभार्या यशोदा के यशोदा और देवकी-दो नाम थे, इसीलिये उनका नामसाम्य के कारण वसुदेव-पत्नी देवकी से सख्यभाव था।' 

इस वाक्य से भी यह कहा जा सकता है कि सांकेतिक भाषा में श्रीशुकदेवजीने दोनों जगह भगवान्‌ के प्राकट्य की बात कह दी। एक अस्पष्ट संकेत और भी है-

यशोदा नन्दपत्नी च जातं॑ परमबुध्यत। न तल्लिड्रं परिश्रान्तना निद्रयापगतस्मृतिः॥ 

(श्रीमद्भागवत पुराण- १०। ३। ५३) 

नन्दपत्नी यशोदा को यह तो ज्ञात हुआ कि संतान हुई है; परंतु श्रम और निद्रा (भगवत्प्रेरित स्वजनमोहिनी माया)-के कारण अचेत होने से वे यह न जान सकीं कि पुत्र है या कन्या! इससे भी नन्दालय में भगवान्‌ के प्राकट्य का संकेत है। महानुभावों का कहना है कि भगवान्‌ के दो रूप हैं--'ऐश्वर्य सम्पन्न' और 'ब्राह्म सम्पन्न। 'ऐश्वर्य' मायायुक्त है और “ब्राह्म' स्वरूप मायातीत है। अचिन्त्यानन्त-अतुलनीय-कल्याण-गुणगणसम्पन्न स्वमायाविशिष्ट ' ऐश्वर्य' रूप के द्वारा इस विश्वब्रह्माण्ड का सृजन-पालन आदि होता है। भगवान्‌का शुद्ध ब्रह्मस्वरूप उत्पादन-पालनादि लीलाओं से रहित, केवल आनन्दप्रेममय है। अत: वसुदेवजी के यहाँ जिस रूप का प्राकट्य हुआ था, वह “ऐश्वर्य"' रूप था और “नन्दात्मज' रूप से ब्रह्मस्वरूप गोलोक रूप से भगवान्‌ अवतरित हुए थे। श्रीवसुदेवजीके यहाँ आविर्भूत 'ऐश्वर्य ' रूप और नन्दात्मज ब्राह्मस्वरूप में ब्राह्मस्वरूप गोपनरूप से गोपांगनाओं के साथ ब्रजमण्डल में रह गया। यही “वृन्दावन परित्यज्य पादमेक॑ न गच्छति' का रहस्य है।

यद्यपि श्रीभागवतमें इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है तथा यह क्लिष्ट कल्पना-सी भी है, तथापि महानुभावोंके उपर्युक्त विवेचनके अनुसार श्रीभगवान्‌ “नन्दात्मज' रूपमें भी अवतीर्ण हुए हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। 

भारत के विभिन्न राज्यों में श्रीकृष्ण के नाम-

कृष्ण की आमतौर पर पूजा इस प्रकार की जाती है:

  1. कन्हैय्या/ बांकेबिहारी /ठाकुरजी/कान्हा/कुंजबिहारी/ राधा रमण / राधावल्लभ /किसना/किशन : उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश
  2. जगन्नाथ : ओडिशा
  3. विठोबा : महाराष्ट्र
  4. श्रीनाथजी : राजस्थान
  5. गुरुवायूरप्पन / कन्नन : केरल
  6. द्वारकाधीश /रणछोड़ : गुजरात
  7. मायोन/पार्थसारथी/कन्नन : तमिलनाडु
  8. कृष्णय्या: कर्नाटक

ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोत-

कृष्ण की परंपरा प्राचीन भारत के कई स्वतंत्र देवताओं का एक समामेलन प्रतीत होती है, जिनमें से सबसे पहले वासुदेव को प्रमाणित किया गया है । वासुदेव वृष्णि जनजाति के एक नायक-देवता थे , जो वृष्णि नायकों से संबंधित थे , जिनकी पूजा 5वीं-6वीं शताब्दी ईसा पूर्व से पाणिनी के लेखन में और दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से हेलियोडोरस के साथ पुरालेख में प्रमाणित है। स्तम्भ ] एक समय में, ऐसा माना जाता है कि वृष्णियों की जनजाति यादवों/अभीरों की जनजाति के साथ मिल गई थी, जिनके अपने नायक-देवता का नाम कृष्ण था।  वासुदेव और कृष्ण मिलकर एक देवता बन गए, जो इसमें प्रकट होता है महाभारत , और उन्हें महाभारत और भगवद गीता में विष्णु के साथ पहचाना जाने लगा।  चौथी शताब्दी ईस्वी के आसपास, एक अन्य परंपरा, मवेशियों के रक्षक, आभीरों के गोपाल-कृष्ण का पंथ

प्रारम्म्भिक पुरालेखीय स्रोत

सिक्के पर चित्रण (दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व)

वासुदेव -कृष्ण, बैक्ट्रिया के अगाथोकल्स के सिक्के पर  शताब्दी 180  ई.पू. यह देवता की "सबसे प्रारंभिक स्पष्ट छवि" है। 

180 ईसा पूर्व के आसपास, इंडो-ग्रीक राजा अगाथोकल्स ने देवताओं की छवियों वाले कुछ सिक्के ( अफगानिस्तान के ऐ-खानौम में खोजे गए) जारी किए थे, जिन्हें अब भारत में वैष्णव कल्पना से संबंधित माना जाता है।  सिक्कों पर प्रदर्शित देवता संकर्षण प्रतीत होते हैं - गदा गदा और हल के गुणों वाले बलराम , और शंख (शंख) और सुदर्शन चक्र के गुणों वाले वासुदेव-कृष्ण।  बोपराची के अनुसार, देवता के शीर्ष पर स्थित शिरस्त्राण वास्तव में शीर्ष पर अर्ध-चंद्र छत्र ( छत्र ) के साथ एक शाफ्ट का गलत चित्रण है। 

शिलालेख

भारतीय राज्य मध्य प्रदेश में हेलियोडोरस स्तंभ , लगभग 120  ईसा पूर्व बनाया गया था। शिलालेख में कहा गया है कि हेलियोडोरस एक भागवतेन है , और शिलालेख में एक दोहा महाभारत के एक संस्कृत श्लोक की बारीकी से व्याख्या करता है ।

हेलियोडोरस स्तंभ , ब्राह्मी लिपि शिलालेख वाला एक पत्थर का स्तंभ, बेसनगर ( विदिशा , मध्य भारतीय राज्य मध्य प्रदेश ) में औपनिवेशिक युग के पुरातत्वविदों द्वारा खोजा गया था। शिलालेख के आंतरिक साक्ष्य के आधार पर, यह 125 और 100  ईसा पूर्व के बीच का बताया गया है और अब इसे हेलियोडोरस के नाम से जाना जाता है - एक इंडो-ग्रीक जिसने एक क्षेत्रीय भारतीय राजा, काशीपुत्र भागभद्र के लिए ग्रीक राजा एंटियालसिडास के राजदूत के रूप में कार्य किया था । हेलियोडोरस स्तंभ शिलालेख " वासुदेव" को हेलियोडोरस का एक निजी धार्मिक समर्पण है", एक प्रारंभिक देवता और भारतीय परंपरा में कृष्ण का दूसरा नाम। इसमें कहा गया है कि स्तंभ का निर्माण " भगवत हेलियोडोरस" द्वारा किया गया था और यह एक " गरुड़ स्तंभ" है (दोनों विष्णु-कृष्ण-संबंधित शब्द हैं)। इसके अतिरिक्त, शिलालेख में महाभारत  के अध्याय 11.7 से एक कृष्ण-संबंधित श्लोक शामिल है जिसमें कहा गया है कि अमरता और स्वर्ग का मार्ग सही ढंग से तीन गुणों का जीवन जीना है: आत्म- संयम ( दमः ), उदारता ( कागः या त्याग ), और सतर्कता ( प्रमादः) ) पुरातत्वविदों द्वारा 1960 के दशक में हेलियोडोरस स्तंभ स्थल की पूरी तरह से खुदाई की गई थी। इस प्रयास से एक गर्भगृह, मंडप और सात अतिरिक्त स्तंभों के साथ एक बहुत बड़े प्राचीन अण्डाकार मंदिर परिसर की ईंट की नींव का पता चला ।  हेलियोडोरस स्तंभ शिलालेख और मंदिर प्राचीन भारत में कृष्ण-वासुदेव भक्ति और वैष्णववाद के सबसे पहले ज्ञात साक्ष्यों में से हैं। 

चिलास में बलराम और कृष्ण अपने गुणों के साथ । पास के खरोष्ठी शिलालेख में राम [कृ] सा लिखा है । पहली शताब्दी ई.पू.

हेलियोडोरस शिलालेख पृथक साक्ष्य नहीं है। हाथीबाड़ा घोसुंडी शिलालेख , जो राजस्थान राज्य में स्थित हैं और आधुनिक पद्धति द्वारा पहली  शताब्दी ईसा पूर्व के हैं, संकर्षण और वासुदेव का उल्लेख करते हैं, यह भी उल्लेख करते हैं कि संरचना सर्वोच्च देवता नारायण  के सहयोग से उनकी पूजा के लिए बनाई गई थी । ये चार शिलालेख सबसे पुराने ज्ञात संस्कृत शिलालेखों में से कुछ होने के कारण उल्लेखनीय हैं।

उत्तर प्रदेश के मथुरा-वृंदावन पुरातात्विक स्थल पर पाए गए एक मोरा पत्थर के स्लैब पर , जो अब मथुरा संग्रहालय में रखा गया है , उस पर ब्राह्मी शिलालेख है। यह पहली शताब्दी ईस्वी पूर्व का है और इसमें पांच वृष्णि नायकों का उल्लेख है , जिन्हें संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न , अनिरुद्ध और साम्ब के नाम से जाना जाता है ।  

वासुदेव के लिए शिलालेखीय रिकॉर्ड दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में अगाथोकल्स और हेलियोडोरस स्तंभ के सिक्के के साथ शुरू होता है, लेकिन कृष्ण का नाम पुरालेख में बाद में दिखाई देता है। अफगानिस्तान की सीमा के पास, उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान में पहली शताब्दी ईस्वी के पूर्वार्द्ध के चिलास II 

पुरातात्विक स्थल पर , पास में कई बौद्ध छवियों के साथ, दो पुरुष उत्कीर्ण हैं। दोनों पुरुषों में से बड़े ने अपने दोनों हाथों में हल और गदा पकड़ रखी थी। 

कलाकृति के साथ खरोष्ठी लिपि में एक शिलालेख भी है, जिसे विद्वानों ने राम-कृष्ण के रूप में परिभाषित किया है , और दो भाइयों, बलराम और कृष्ण के एक प्राचीन चित्रण के रूप में व्याख्या की गई है।

"The first known depiction of the life of Krishna himself comes relatively late, with a relief found in Mathura, and dated to the 1st–2nd century CE. This fragment seems to show Vasudeva, Krishna's father, carrying baby Krishna in a basket across the Yamuna. The relief shows at one end a seven-hooded Naga crossing a river, where a makara crocodile is thrashing around, and at the other end a person seemingly holding a basket over his head.

 Gita


एक व्यक्तित्व के रूप में कृष्ण के विस्तृत विवरण वाला सबसे पहला ग्रंथ महाकाव्य महाभारत है , जिसमें कृष्ण को विष्णु के अवतार के रूप में दर्शाया गया है।  कृष्ण महाकाव्य की कई मुख्य कहानियों के केंद्र में हैं। महाकाव्य की छठी पुस्तक ( भीष्म पर्व ) के अठारह अध्याय जो भगवद गीता का निर्माण करते हैं, उनमें युद्ध के मैदान पर अर्जुन को कृष्ण की सलाह शामिल है ।

हरिवंश पुराण भी महाभारत का खिलभाग है। जिसमें कृष्ण के आभीर( गोप ) जाति में जन्म लेने का वर्णन है।

प्राचीन काल में जब भगवद गीता की रचना की गई थी, तब कृष्ण को व्यापक रूप से एक व्यक्तिगत देवता के बजाय विष्णु के अवतार के रूप में देखा जाता था, फिर भी वह बेहद शक्तिशाली थे और विष्णु के अलावा ब्रह्मांड में लगभग सभी चीजें "किसी न किसी तरह कृष्ण के शरीर में मौजूद थीं" "


हरिवंश पुराण जो  , महाभारत के बाद के परिशिष्ट में  कृष्ण के बचपन और युवावस्था का विस्तृत संस्करण शामिल है।

अन्य स्रोत

वैष्णव परंपरा में कृष्ण को उनके जीवन के विभिन्न चरणों में मनाया जाता है।

छान्दोग्य उपनिषद , जिसकी रचना ईसा पूर्व 8वीं और 6वीं  शताब्दी के बीच हुई मानी जाती  है, प्राचीन भारत में कृष्ण के संबंध में अटकलों का एक अन्य स्रोत रहा है। 

छान्दोग्योपनिषद-श्लोक (III.xvii.6) में कृष्णाय देवकीपुत्राय में कृष्ण का उल्लेख अंगिरसा परिवार के ऋषि घोर के छात्र के रूप में किया गया है। कुछ विद्वानों द्वारा घोरा की पहचान जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ से की जाती है । यह वाक्यांश, जिसका अर्थ है " देवकी के पुत्र कृष्ण के लिए", मैक्स मुलर जैसे विद्वानों द्वारा कृष्ण के बारे में दंतकथाओं और वैदिक विद्या के संभावित स्रोत के रूप में उल्लेख किया गया है।


यास्क का निरुक्त , छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास एक व्युत्पत्ति शास्त्रीय शब्दकोश प्रकाशित हुआ है, जिसमें अक्रूर के पास मौजूद श्यामंतक रत्न का संदर्भ है , जो कृष्ण के बारे में प्रसिद्ध पौराणिक कथाओं का एक रूप है। शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय-आरण्यक कृष्ण अपने वृषि उत्पत्ति से बेकार हैं। 

प्राचीन वैयाकरण पाणिनि (संभवतः 5 वीं या 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व के थे ) द्वारा लिखित अष्टाध्यायी में , वासुदेव और अर्जुन को , पूजा के प्राप्तकर्ता के रूप में, एक ही सूत्र में एक साथ सन्दर्भित किया गया है । 

बाल कृष्ण नृत्य, 14 वीं  शताब्दी  ईस्वी चोल मूर्तिकला, तमिलनाडु , होनोलूलू कला अकादमी में ।

मेगस्थनीज , एक यूनानी नृवंशविज्ञानी और चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के अंत में चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में सेल्यूकस प्रथम के राजदूत, ने अपने प्रसिद्ध काम इंडिका में हेराक्लीज़ का संदर्भ दिया था । यह पाठ अब इतिहास में खो गया है, लेकिन बाद के यूनानियों जैसे एरियन , डायोडोरस और स्ट्रैबो द्वारा माध्यमिक साहित्य में उद्धृत किया गया था । इन ग्रंथों के अनुसार, मेगस्थनीज ने उल्लेख किया है कि भारत की सौरसेनोई जनजाति, जो हेराक्लीज़ की पूजा करती थी, के पास मेथोरा और क्लेइसोबोरा नाम के दो प्रमुख शहर थे, और जोबारेस नाम की एक नौगम्य नदी थी। एडविन ब्रायंट के अनुसार  भारतीय धर्मों के एक प्रोफेसर, जो कृष्ण पर अपने प्रकाशनों के लिए जाने जाते हैं, "इसमें कोई संदेह नहीं है कि सौरसेनोई यदु वंश की एक शाखा, शूरसेनस को संदर्भित करता है, जिससे कृष्ण संबंधित थे"।  ब्रायंट का कहना है कि हेराक्लीज़ शब्द संभवतः हरि-कृष्ण का ग्रीक ध्वन्यात्मक समकक्ष है, जैसे कि मथुरा का मेथोरा, कृष्णपुरा का क्लीसोबोरा और जमुना का जोबारेस । बाद में, जब सिकंदर महान ने उत्तर पश्चिम भारतीय उपमहाद्वीप में अपना अभियान शुरू किया, तो उसके सहयोगियों को याद आया कि पोरस के सैनिक हेराक्लीज़ की एक छवि ले जा रहे थे।

बौद्ध पाली सिद्धान्त और घट-जातक (नंबर  454) में वासुदेव और बलदेव के भक्तों का विवादास्पद उल्लेख है। इन ग्रंथों में कई विशिष्टताएँ हैं और ये कृष्ण कथाओं का विकृत और भ्रमित संस्करण हो सकते हैं।

 जैन धर्म के ग्रंथों में भी तीर्थंकरों के बारे में अपनी किंवदंतियों में, कई विशिष्टताओं और विभिन्न संस्करणों के साथ, इन कहानियों का उल्लेख किया गया है । प्राचीन बौद्ध और जैन साहित्य में कृष्ण से संबंधित किंवदंतियों के इस समावेश से पता चलता है कि प्राचीन भारत की गैर-हिंदू परंपराओं द्वारा देखे गए धार्मिक परिदृश्य में कृष्ण धर्मशास्त्र अस्तित्व में था और महत्वपूर्ण था । 

थेरवाद (बौद्ध धर्म की प्रमुख शाखा में पाली ग्रन्थों में वासुदेव शब्द है।

घट जातक (संख्या 454) में बताया गया है कि जब वसुदेव के पुत्र की मृत्यु हो गई और वसुदेव निराशा में डूब गए, तो उनके भाई घटपंडित ने पागलपन का नाटक करके उन्हें होश में लाया।

वासुदेव के मंत्री रोहिणीय थे। वासुदेव को (जि.4.84; जि.6.421 में उन्हें कन्ह कहा गया है) कान्हा और फिर केशव कहकर संबोधित किया गया है। विद्वान बताते हैं (जि.4.84) ​​कि उन्हें कन्ह्यानगोत्त के होने के कारण कन्ह्या कहा जाता था, और केशव इसलिए क्योंकि उनके केश सुंदर थे (केशसोभानतय)। हालाँकि, ये नाम इस सिद्धांत का समर्थन करते हैं (देखें अंधकवेन्हुदासपुत्त, संख्या 1) कि वासुदेव की कथा कृष्ण की कथा से जुड़ी थी।

महाउम्मग्ग जातक (ज.वि.421) में वर्णित है कि राजा शिवि की माता जाम्बवती, वासुदेव कान्हा की पत्नी थीं। विद्वान इस वासुदेव की पहचान अंधकवेन्हुदासपुत्त के ज्येष्ठ पुत्र से करते हैं और कहते हैं कि जाम्बवती एक चण्डाली थीं। वासुदेव उनके अद्भुत सौंदर्य के कारण उन पर मोहित हो गए और उनकी जाति के विपरीत उनसे विवाह कर लिया। उनका पुत्र शिवि था, जो बाद में द्वारावती में अपने पिता के सिंहासन पर बैठा।

वासुदेव की पहचान सारिपुत्त से की जाती है। जे.iv.89.

वासुदेववत्तिका। संभवतः वासुदेव (कृष्ण) के अनुयायी; उनका उल्लेख बलदेववत्तिका और अन्य के साथ समानब्रह्मणवत्तशुद्धिका की सूची में किया गया है। 

-जैन ग्रन्थों में श्रीकृष्ण-

वसुदेव कृष्ण के पिता हैं: श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों स्रोतों के अनुसार वे नौवें वासुदेव ("हिंसक नायक") हैं । चूँकि वे चक्रवर्ती (सार्वभौमिक सम्राट) की आधी शक्ति रखते हैं , इसलिए उन्हें अर्धचक्रीण भी कहा जाता है। जैन किंवदंतियों में ऐसे नौ वासुदेवों का वर्णन है जो आमतौर पर अपने "कोमल" जुड़वां बलदेवों के साथ प्रकट होते हैं। इन जुड़वां नायकों की किंवदंतियों में आमतौर पर उनके विरोधी समकक्ष प्रतिवासुदेव (प्रतिनायक) शामिल होते हैं।

राजा वासुदेव, रानी देवकी और उनके पुत्र कृष्ण की कहानियाँ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ("तिरसठ महान व्यक्तियों का जीवन") जैसे ग्रंथों में वर्णित हैं , जो हेमचंद्र द्वारा बारहवीं शताब्दी में रचित श्वेताम्बर ग्रंथ है।

वासुदेव (वासुदेव) (या विष्णु, नारायण) नौ "नायकों" के समूह और विरोधी प्रतिवासुदेवों (या प्रतिविष्णु, प्रतिनारायण) के समकक्ष को संदर्भित करता है, जिसका उल्लेख श्वेतांबर और दिगंबर दोनों साहित्य में किया गया है। - प्रत्येक अर्ध काल चक्र में, बलभद्र (सौम्य नायक), वासुदेव (हिंसक नायक) और प्रतिवासुदेव (प्रतिनायक) के 9 समूह होते हैं। हिंदू पुराणों के विपरीत, जैन पुराणों में बलभद्र और नारायण नाम केवल बलराम और कृष्ण तक ही सीमित नहीं हैं। इसके बजाय वे शक्तिशाली सौतेले भाइयों के दो अलग-अलग वर्गों के नाम के रूप में कार्य करते हैं, जो जैन ब्रह्माण्ड विज्ञान के प्रत्येक अर्ध काल चक्र में नौ बार प्रकट होते हैं और संयुक्त रूप से आधे चक्रवर्ती के रूप में आधी पृथ्वी पर शासन करते हैं। अंततः नारायण द्वारा प्रतिनारायण को उसके अधर्म और अनैतिकता के कारण मार दिया जाता है।

प्राचीन संस्कृत व्याकरणविद् पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में बाद के भारतीय ग्रंथों में पाए जाने वाले कृष्ण और उनके सहयोगियों के कई संदर्भ दिए हैं। पाणिनि के श्लोक 3.1.26 पर अपनी टिप्पणी में, उन्होंने कंसवध या "कंस की हत्या" शब्द का भी उपयोग किया है , जो कृष्ण से जुड़ी किंवदंतियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

पुराणों

कई पुराण , ज्यादातर गुप्त काल (4-5वीं शताब्दी ईस्वी) के दौरान संकलित हैं जिनमें कृष्ण की जीवन कहानी या उसके कुछ मुख्य अंश बताये गये हैं। दो पुराणों, भागवत पुराण और विष्णु पुराण में कृष्ण की कहानी का सबसे विस्तृत वर्णन है, लेकिन भागवत और विष्णु पुराण की वर्तमान प्रतियों से बहुत से श्लोक निकालकर प्रक्षिप्त श्लोक संलग्न कर दिए गये हैं। और अन्य ग्रन्थों में कृष्ण की जीवन कहानियाँ अलग-अलग हैं, और उनमें महत्वपूर्ण विसंगतियाँ हैं। सम्भवत ये बाद में जोड़े गये  प्रक्षिप्त अंश हैं।

[ आभीर जाति को यदि शब्द व्युत्पत्ति के हिसाब से देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है। अर्थात् आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन है। 'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो तरह से भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं। जैसे-

ईसा पूर्व पाँचवी सदी में कोशकार अमरसिंह ने अपने कोश अमरकोश में अहीरों की प्रवृत्ति वीरता (निडरता) को केन्द्रित करके आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की है। नीचे देखें।

आ= समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ददाति शत्रुणां हृत्सु =  जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।

किन्तु वहीं पर अमरसिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ नें अपने ग्रन्थ वाचस्पत्यम् में अभीर- जाति की शब्द व्युत्पत्ति को उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय के आधार पर गोपालन को केन्द्रित करके ही सुनिश्चित किया  है। नींचे देखें।

"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुख करके चारो-ओर से गायें चराता है या उन्हें घेरता है।

अगर देखा जाय तो उपर्युक्त दोनों शब्दकोश में जो अभीर शब्द की व्युत्पत्ति को बताया गया है उनमें बहुत अन्तर नहीं है। क्योंकि एक नें अहीरों की वीरता मूलक प्रवृत्ति (aptitude ) को आधार मानकर शब्द व्युत्पत्ति को दर्शाया है तो वहीं दूसरे नें अहीर जाति को गोपालन वृत्ति अथवा (व्यवसाय) (profation) को आधार मानकर शब्द व्युत्पत्ति को दर्शाया है।

अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप आहीर होता है। अब यहाँ पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना आवश्यक हो जाता है। तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते हैं।

ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर हिन्दी में आये हैं,वे 'तद्भव' कहलाते हैं। अर्थात- तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किन्तु कालान्तरण में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिन्दी में आहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी

उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।

किन्तु यहाँ पर हमें अहीर और आभीर, शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना है कि इनका प्रयोग हिन्दी और संस्कृत ग्रन्थों में कब, कहाँ और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है।

तो इस सम्बन्ध में सबसे पहले अहीर शब्द के विषय में जानेंगे कि हिन्दी ग्रन्थों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ।  इसके बाद संस्कृत ग्रन्थों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए कहाँ-कहाँ प्रयुक्त हुआ।

अहीर शब्द का प्रयोग हिन्दी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रुप से किया गया है। जैसे-

अहीर शब्द का रसखान कवि अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किए हैं-

"सेष, गनेस, महेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।

जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावैं।

नारद से सुक ब्‍यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।

ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।।8।।

इसी  ग्रन्थ "सुजानरसखान" में अन्यत्र भी रसखान श्रीकृष्ण को अहीर  लिखते हैं ।

देस बदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगो।

तातें तिन्‍हैं तजि जानि गिरयौ गुन सौगुन गाँठि परैगो।

बाँसुरीबारो बड़ो रिझवार है स्‍याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।

लाड़लौ छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगौ।।18।

बाँकी धरै कलगी सिर ऊपर बाँसुरी-तान कटै रस बीर के।

कुंडल कान लसैं रसखानि विलोकन तीर अनंग तुनीर के।

डारि ठगौरी गयौ चित चोरि लिए है सबैं सुख सोखि सरीर के।

जात चलावन मो अबला यह कौन कला है भला वे अहीर के।।88।।

_____

इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांँव में हुआ था। जिन्होंने (500) साल पहले दो ग्रन्थ  "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदासजी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।

नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर। हूँ चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।। ५८।

अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्रीकृष्ण) ! आप जगत के तारण तरण (उद्धारक) हो, मैं चारण आप श्रीहरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर गुणों के क्षीर से भरा हुआ है।५८।

और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्रीकृष्ण को अहीर कहते हुए उनका  स्तवन किया है। सूरसागर के दशमस्कन्ध-(पृष्ठ ४७९) में लिखा है-

चातकी बूंद भई हो हेरत हेरत रही हिराइ ।८१॥जैतश्री॥ 

सखीरी काके मीत अहीर । काहे को भरि भरि ढारति हो इन नैन राह के नीर।।

आपुन पियत पियावत दुहि दुहिं इन धेनुनके क्षीर। निशि वासर छिन नहिं विसरतहै जो यमुना के तीर।। ॥ 

मेरे हियरे दौं लागति है जारत तनु की चीर । सूरदास प्रभु दुखित जानिकै छांडि गए वे पीर ।।८२॥ 

 सूरसागर.पृष्ठ/

(४७९)

दशमस्कन्ध-१०

ये उपर्युक्त सभी उदाहरण श्रीकृष्ण के अहीर जाति का होने के हैं जो हिन्दी साहित्यिक ग्रन्थों में प्रयुक्त हुए सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं। अब हम लोग आभीर शब्द को जानेंगे जो प्राकृत भाषा के आहीर का तत्सम रूप है, वह संस्कृत ग्रन्थों में कहाँ-कहाँ प्रयुक्त हुआ हैं। इसके साथ ही आभीर (अहीर) शब्द के पर्यायवाची शब्द - गोप, गोपाल और यादव को भी जानेंगे कि पौराणिक ग्रन्थों में अभीर के ही अर्थ में कैसे प्रयुक्त हुए हैं।

सबसे पहले हम गर्गसंहिता के विश्वजितखण्ड के अध्याय -(७) के श्लोक संख्या- (१४) को लेते हैं जिसमें में भगवान श्रीकृष्ण और नन्दबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग शिशुपाल उस समय करता है जब सन्धि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी शिशुपाल के यहाँ जाते हैं। किन्तु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहता है कि-

आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः।वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्तोऽयं गतत्रपः।।१४।

प्रद्युम्नं तस्तुतं जित्वा सबलं यादवैः सह।कुशस्थलीं गमिश्यामि महीं कर्तुमयादवीम्।। १६।

अनुवाद -

•  वह (श्रीकृष्ण) पहले नन्द नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वसुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं।१४।

• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीत कर भूमण्डल को यादवों से शून्य कर देने के लिए कुशस्थली पर चढ़ाई करूँगा।१६।

उपर्युक्त दोनो श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें भगवान श्रीकृष्ण सहित सम्पूर्ण अहीर अथवा यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।

इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- (२०) के श्लोक - (६) और (७) में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बन्धित थे।  

भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्।कलिङ्गाः  सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।।६।   

यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये। शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।।७।

             

अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज शूरवीर आभीर) और दशेरक।६।

अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी और शूरसेन प्रदेश के अभीर (अहीर) दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।

इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश के तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या- (१६-१७ और १८ ) में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-

"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः ।१६।

सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः। मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा ।१७।

आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः ।। १८।

                    

अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं।१७-१७।

हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं।१८।

▪ इसी तरह से महाभारत के उद्योगपर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों (अहीरों) को अजेय योद्धा के रूप में वर्णन है-

"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।

अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों (आभीरों) की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।

           

इसी तरह से जब भगवान श्रीकृष्ण ने  इन्द्र की पूजा बन्द करवा दी, तब इसकी सूचना जब इन्द्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्रीकृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को जो कुछ कहा उसका वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय -(२५ )के श्लोक - (३) से( ५) में मिलता है। जिसमें इन्द्र ने अपने दूतों से कहा कि-

अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्

कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।।३।


वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।

कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम्।। ५।


अनुवाद- ओह, इन जंगली ग्वालों (गोपों ) का इतना घमण्ड ! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला।३।

• कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५।


उपर्युक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर तथा यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।


इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग भागवत पुराण स्कन्ध दशम के अध्याय- (६१) के श्लोक (३५) में मिलता है। जिसमें द्यूत- क्रीडा) जूवा खेलते समय रुक्मि बलराम जी को कहता है कि -


नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।

अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।।३४।


अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले  गोपाल (ग्वाले) ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।

इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसलिए  गर्गसंहिता के अनुवाद कर्ता, अनुवाद करते हुए गोपाल शब्द को ग्वाल के रूप में लिखते हैं।

इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया।

वासुदेवेति मां ब्रूत न तु गोपं यदूत्तमम् ।
एकोऽहं वासुदेवो हि हत्वा तं गोपदारकम् ।। १भविष्यपर्व- अध्या!य91 )


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(१)- भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना और अहीरों का पृथक वर्ण-

[क]- पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति-

देखा जाए तो प्राचीन भारतीय समाज में पञ्च-पञ्चायत और पञ्चजन जैसे शब्द सामाजिक व्यवस्था में पाँच वर्णों की मान्यता व उनके निर्णयों पर आधारित पञ्च- प्रथा के ही सूचक दिग्दर्शक थे। जो परम्परागत रूप से आज भी ग्रामीण समाज में पञ्चों द्वारा की गयी पञ्चायतों के रूप में प्रचलित व विद्यमान  हैं। 

जिसे भारत की पञ्चायत राज प्रणाली में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। क्योंकि भारत में पञ्चायत राज प्रणाली, भारतीय समाज में पारम्परिक रूप से ग्राम संस्थाओं पर ही आधारित है।

 ग्राम पञ्चायत, गाँव की मन्त्रिपरिषद का काम करती है। जिनके सदस्यों का चुनाव जनता करती है और इस जनता मे सभी पाँचों वर्णों के प्रतिनिधि पञ्च के रूप में उपस्थित  व अनुमोदित होकर अपना निष्पक्ष निर्णय देते हैं।

इस तरह की संकल्पना हमारे समाज में पूर्व काल से ही रही है। जिसकी पुष्टि- सर्वप्रथम ऋग्वेद से होती है जिसमें बताया गया है कि- पञ्चकृष्टी और पञ्चजन शब्द पाँच वर्णों के प्रतिनिधि व पञ्चों के रूपान्तरण थे।

"आ दधिक्राः शवसा पञ्चकृष्टीः सूर्य इव ज्योतिषापस्ततान।

सहस्रसाः शतसा वाज्यर्वा पृणक्तु मध्वा समिमा वचांसि ॥१०॥ ऋग्वेद ४/३८/१०

तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुराँ अभि देवा असाम।

ऊर्जाद उत यज्ञियास: पञ्चजना मम होत्रं जुषध्वम् ॥ ऋग्वेद-१०.५३.४।

पदों का  अर्थ-

(अद्य) = आज (तद् वाचः प्रथमम्) = उस प्रथम वाणी को   (मसीय) = हृदयस्थरूपेण उच्चारण करता हूँ।  (येन) = जिससे  (देवाः) = और देवगण (असुरान्) = आसुरों को (अभि असाम) = अभिभव करते हैं।

(ऊर्जादः) = पौष्टिक (शक्तिवर्धक) अन्नों का सेवन करने वाले (उत) = और (यज्ञियासः) = यज्ञशील (पञ्चजना:) = पाँच वर्ण (जाति) ! (मम होत्रम्) = मेरे हवन को (जुषध्वम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करो।

उपर्युक्त ऋचाओं में पञ्च' पञ्चकृष्टी' और पञ्च जन' जैसे पद पर ध्यान केन्द्रित किया गया है।

ऋग्वेद में पञ्चजन: और पञ्चकृष्टी संज्ञा पद बताते हैं कि समाज में पाँच प्रकार के व्यक्ति थे जिनका समाज में वर्चस्व होता था। ऋग्वेद में उल्लिखित पञ्चजना: शब्द पाँच जातियों के प्रतिनिधियों का ही वाचक है।

श्लोक:

ब्राह्मण क्षत्त्रिय वैश्य शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।

तथा स्वतन्त्रा जातिरेका आभीरा च तस्या वर्ण अस्मिन् विश्वे वैष्णवाभिधा।।

(ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्मखण्ड, एकादश अध्याय, सात्वतीय टीका)

सारांश (टीका के अनुसार)

यह श्लोक ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड से लिया गया है, जिसमें चातुर्यवर्ण्य  व्यवस्था के अतिरिक्त पाँवे वैष्णव वर्ण  की महत्ता को भी दर्शाया गया है। श्लोक में कहा गया है कि जैसे समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं, वैसे ही विश्व में वैष्णव नाम का एक स्वतन्त्र और सर्वोच्च वर्ण है।

इस वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत आभीर /आहीर (  यादव अथवा गोप  जाति को एक स्वतन्त्र और विशेष जाति के रूप में उल्लेखित किया गया है, जो गोप (आभीर) जाति  भगवान स्वराट्-  विष्णु  से उत्पन्न होकर   उनकी सनातन भक्ति में ही  लीन रहती है। वह वर्ण से वैष्णव है।

विस्तृत व्याख्या व भावार्थ:-

यह श्लोक भारतीय दर्शन और सामाजिक संरचना में ब्रह्मा की चातुर्यवर्ण्य व्यवस्था के साथ-साथ स्वराट्- विष्णु से उत्पन्न  एक अन्य वर्ण वैष्णव की  सार्वभौमिकता , प्राचीनता  और उसकी सर्वोपरिता को स्थापित करता है।

शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था को समाज के कार्यों को सुचारु व व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए बनाया गया था, जिसमें प्रत्येक वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा शूद्र) की अपनी विशिष्ट भूमिका थी।

एक अन्य वर्ण वैष्णव इन सबसे पृथक और सर्वोच्च था।

समाज में प्राचीन काल से ही  वर्ण व्यवस्था के प्रतिनिधित्व के लिए पञ्चायत व्यवस्था भी कायम थी। जो समवेत रूप से सामाजिक समस्याओं के निवारण के लिए सम्मति व निर्णय पारित करती थी।

पञ्च शब्द समाज के पाँच वर्णों के प्रतिनिधीयों को स्वयं में अन्तर्निहित किए हुए है।

वैदिक ऋचाओं में बहुतायत से पञ्चजना, और पञ्चकृष्टय: जैसे पद पाँच वर्णों से सम्बन्धित पञ्चायत व्यवस्था की प्राचीनता को अभिव्यक्त करते है।


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📚: १२वीं सदी के गुजरात के जैन धर्माचार्य व विद्वान हेमचन्द्र सूरी ने अपने ग्रन्थ द्वाश्रय(

 महाकाव्य के द्वितीय तृतीय और चतुर्थ सर्गों  में 'आभीर' और 'आहीर' दोनों शब्दों का प्रयोग. संस्कृत और प्राकृत  में सर्वप्रथम समानार्थक रूप से  किया है, 

यद्यपि उनके द्वारा किया गया प्रयोग एक-दूसरे के पर्याय के रूप में था, जिससे यह पता चलता है कि वे एक ही समुदाय को दर्शाते थे। 

आभीर और अहीर का सम्बन्ध:

अहीर शब्द मूल रूप से 'आभीर' शब्द का विकृत प्राकृत रूप है, और कुछ इतिहासकार इसे निडर व्यक्ति के रूप में भी परिभाषित करते हैं। 

कुछ लोग आभीरों को कृष्ण के वंशज मानते हैं, जिन्हें यदुवंशी अहीर कहा जाता है।

द्वयाश्रय काव्य में आभीरों का उल्लेख जूनागढ़ के निकट के एक राजकुमार के सन्दर्भ में मिलता है, जिसे 'वनथली के चूड़ासमा राजकुमार ग्रहरिपु को यादव और आभीर कहा गया है। यह भी प्रमाणित होता है कि हेमचन्द्र ने अपने इस काव्य में 'आभीर' शब्द का प्रयोग एक विशेष सन्दर्भ में किया है। 
विस्तृत व्याख्या
  • द्वयाश्रय काव्य क्या है ?
    • यह प्राकृत भाषा के प्रसिद्ध महाकाव्य 'कुमारपाल-चरित' का दूसरा नाम है।
    • इसे आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी प्राकृत व्याकरण के नियमों को स्पष्ट करने के लिए १२वीं सदी में रचा था।
    • यह महाकाव्य २० सर्गों का है, जिसमें पहले ४ सर्गों में राजा कुमारपाल के जीवन का वर्णन है और बाकी सर्गों में जैन धर्म की मान्यताओं का वर्णन है। 
  • आभीर कौन थे?
    • आहीरों को प्राचीन काल के आभीर जाति के रूप में जाना जाता है, जिसमें यादव वंश का प्रादुर्भाव होता है।
    • वे भारतीय उपमहाद्वीप के एक योद्धा-पशुपालक और कृषक समुदाय के सदस्य थे और स्वयं को यदुवंशी कहते हैं। 
  • द्वयाश्रय काव्य में आभीरों का सन्दर्भ:
    • यह काव्य गुजरात के चालुक्य राजा कुमारपाल से सम्बन्धित है।
    • काव्य में 'वनथली के चूड़ासमा राजकुमार गृहरिपु' का उल्लेख है, जिसे समानार्थक रूप से यादव और आभीर कहा गया है, जो अभीरों के यादवों से सघन सम्बन्ध की पुष्टि करता है।
    • द्वयाश्रय काव्य के माध्यम से यह भी पता चलता है कि मूलराज ने सौराष्ट्र के आभीरों के साथ भी सम्बन्ध स्थापित किए थे, जैसा कि किसी दानपत्र से प्रमाणित होता है। 
निष्कर्ष
द्वयाश्रय काव्य में आभीरों का उल्लेख एक ऐतिहासिक सन्दर्भ में मिलता है, जिसमें आभीर के लिए प्राकृत भाषा में आहीर शब्द का प्रयोग समानान्तर रूप से हुआ है। और सौराष्ट्र व गुजरात के आभीरों के ऐतिहासिक महत्व को दर्शाता है। 

आभीर से अहीर शब्द का प्रयोग संस्कृत से तद्भव रूप में विकसित हुआ है और यह प्रक्रिया किसी विशिष्ट समय में नहीं बल्कि प्राकृत भाषा के विकास के दौरान स्वाभाविक रूप से हुई है, जहाँ "आभीर" का रूप बदलकर "अहीर" हो गया, जिसका अर्थ "दूधवाला" या "गोपालक" है।
इसके विकास का लिखित रूप द्वाश्रय काव्य है। हेमचन्द्र ने इस ग्रन्थ का लेखन   (ई.1088-1173) में किया।
विकास प्रक्रिया
  • आभीर का संस्कृत रूप: संस्कृत में 'आभीर' शब्द का प्रयोग प्राचीन ग्रंथों जैसे महाभारत और पुराणों में मिलता है। 
  • प्राकृत का प्रभाव: प्राकृत भाषा के विकास के दौरान, संस्कृत के कई शब्द अपभ्रंश होकर सरल रूप ले लेते थे। इसी प्रक्रिया के तहत 'आभीर' शब्द 'अहीर' में बदल गया। 
  • तद्भव परिवर्तन: यह एक तद्भव परिवर्तन है, जिसमें एक शब्द संस्कृत से प्राकृत और फिर अन्य स्थानीय भाषाओं में बदलते हुए नया रूप धारण करता है। 
उदाहरण
  • महाभारत और पुराणों में आभीरों का उल्लेख एक गोपालन और युद्धप्रिय जाति के रूप में मिलता है।
  • समय के साथ, यह नाम बदलकर "अहीर" हो गया और हिन्दी भाषी क्षेत्रों में इन लोगों को अहीर, ग्वाला और यादव के नाम से भी जाना जाने लगा, जो सभी गोपालन के पारम्परिक पेशे से जुड़े हैं। 





अन्य धर्मों में भी कृष्ण की मान्यता ब्राह्मण धर्म से बाहर- जैन" बौद्ध जातक और बहाई धर्म तक (भाग प्रथम) में हमने संक्षेप में उल्लेख किया  -

अब आगे के क्रम में किसी सांइस जर्नी वाले के प्रश्नों को आधार मान कर हम कृष्ण के ऐतिहासिक तथ्यों का पुन: विश्लेषण करते हैं।

कोई "साइन्स जर्नी' यूट्यब चैनल वाला 
नवबौद्ध कहता है कि कृष्ण का कहीं अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है। वह केवल बुद्ध को और पहली भाषा पालि को मान कर कुछ साधारण किस्म के लोगों को वरगला रहा है।

उत्तर-
तो हमारा उससे कहना है कि पहले तो वह बौद्ध जातक और पिटकों में ही कृष्ण को तलाश ले बौद्धों से भी पूर्व- जैनों के ग्रन्थों में (६४) शलाका पुरुषों में कृष्ण का विशेष रूप से  वर्णन प्राप्त होता है। जैसा कि हमने अभी प्रथम भाग के उत्तरार्द्ध में दर्शाया। इसी बात को हम पुन: प्रस्तुत करते हैं।

जैन धर्म १-
जैनधर्मपरंपरा में (63) शलाकापुरुष या प्रमुख विशिष्ट व्यक्तियों की सूची है, अन्य के अलावा, चौबीसतीर्थंकर(आध्यात्मिक शिक्षक) के रूप में वर्णित हैं। 

इन शलाकापुरुषों में से एक वासुदेव के रूप में कृष्ण , बलदेव के रूप में बलराम और प्रति-वासुदेव के रूप में जरासन्ध का वर्णन हैं ।

जैन चक्र के समय प्रत्येक युग में एक वासुदेव का जन्म होता है, जहाँ बड़े भाई को बलदेव कहा जाता है। त्रिदेव के बीच, बलदेव अहिंसा के सिद्धान्त के घटक हैं, जो जैन धर्म का एक केंद्रीय विचार है। 

खलनायक (प्रति-वासुदेव) है,जो दुनिया को नष्ट करने का प्रयास करता है। दुनिया को शान्त करने के लिए, वासुदेव-कृष्ण को अहिंसा सिद्धान्त को लागू करना होगा और प्रति-वासुदेव को मारना होगा।  इन त्रयों की कहानियाँ नारायण के हरिवंश पुराण (8 वीं शताब्दी ई. पू.) (इसका नाम, महाभारत के परिशिष्ट ) के साथ युद्ध न हो) और हेमचन्द्र के त्रिषष्ठी-शलाकापुरुष'-चरित्र में भी पाए जा सकते हैं। 

जैन धर्म के पुराणों में कृष्ण के जीवन की कहानी को हिंदू ग्रंथों की तरह ही सामान्य रूप से दर्शाया जाता है, लेकिन विवरण में, वे बहुत भिन्नता हैं: 

वे कहानियों में जैन तीर्थंकर के रूप में शामिल होते हैं , और आम तौर पर कृष्ण पर इसके विपरीत, विवादास्पद रूप से आलोचना करने वाले होते हैं। इसके संस्करण महाभारत , भागवत पुराण और विष्णुपुराण देवीभागवत पुराण आदि में मिलते हैं।

उदाहरण के लिए, जैन संस्करण में कृष्ण युद्ध हार गए हैं, और उनकी गोपियाँ और उनके यादव कबीले द्वैपायन नामक एक तपस्वी द्वारा आग में मारे गए हैं। इसी तरह, शिकारी जरा के तीर के लगने से निधन के बाद, जैन ग्रंथों में कहा गया है कि कृष्ण तीसरे नरक में जाते हैं जैन ब्रह्माण्ड-विज्ञान, जबकि उनके भाई को छठे स्वर्ग में जाने के लिए कहा जाता है।
विमलसूरी को हरिवंश पुराण के जैन संस्करण का लेखक माना जाता है ।

लेकिन इसकी पुष्टि करने वाली कोई मान्यता नहीं मिली है। यह अनुमान लगाया गया है कि बाद में जैन ईसाइयों ने, लगभग 8 वीं शताब्दी के ईसाइयों ने, जैन परम्परा में कृष्ण राजा का एक पूरा संस्करण लिखा और इसका श्रेय प्राचीन विल्म्सूरी को दिया। कृष्ण कथा के आंशिक और पुराने संस्करण जैन साहित्य में उपलब्ध हैं, जैसे श्वेतांबर आगम परंपरा के अंतगता दासो में। 

अन्य जैन ग्रंथों में कृष्ण को बाईसवें तीर्थंकर , नेमिनाथ का चचेरा भाई बताया गया है। जैन ग्रन्थों में कहा गया है कि नेमिनाथ ने कृष्ण को सारा ज्ञान सिखाया था जिसके बाद उन्होंने भगवद गीता में अर्जुन को दिया था। 

जैन धर्म पर अपने प्रकाशनों के लिए जाने जाने वाले धर्म के प्रोफेसर जेफ़री डी. लॉन्ग के अनुसार कृष्ण और नेमिनाथ के बीच का यह सम्बन्ध जैनियों के लिए भगवद गीता को आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण पाठ के रूप में स्वीकार करना, पढ़ना और  उसका आध्यात्मिक चिन्तन  तथा उनके द्वारा, कृष्ण के अभिनन्दन का एक ऐतिहासिक कारण बना हुआ है। 

  

 "बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में कृष्ण का अस्तित्व- 

बौद्ध धर्म में कृष्ण- का अस्तित्व-
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सम्राट शोमू का आदेश 752 ई. में बनाया गया एक मंदिर,टोडाई-जी मंदिर , नारा, जापान में ग्रेट बुद्ध हॉल में बांसुरी बजाते हुए कृष्ण का चित्र
कृष्ण की बौद्ध कहानी धर्म में जातक‍ डिजिटल में आता है ।   विधुर पंडित जातक में मधुरा (संस्कृत: मथुरा) का उल्लेख है , बौद्ध जातक ग्रन्थ- घर - जातक में कंस, देवगभा (संस्कृत: देवकी), उपसागर या वासुदेव, गोवर्धन (गोवर्धन), बलदेव (बलराम), और कान्हा या केशव (संस्कृत: कृष्ण) ) का उल्लेख है। कृष्णा, केशव). 

कृष्ण संस्करण के जैन संस्करण की तरह, घट जातक के बौद्ध संस्करण की भी कहानी की सामान्य अवधारणा का पालन किया जाता है,  लेकिन हिंदू संस्करण भी भिन्न हैं।  उदाहरण के लिए, बौद्ध कथा में देवगभा (देवकी) का वर्णन किया गया है कि उनके जन्म के बाद उनके एक खंबे पर बने महल में अलग-अलग भूमिका निभाई गई थी, इसलिए कोई भी भावी पति तब तक नहीं पहुंच सकते थे. इसी तरह के कृष्ण के पिता को एक शक्तिशाली राजा के रूप में वर्णित किया गया है,

लेकिन फिर भी उनके देवगभा से मुलाकात होती है, और राजा कंस अपनी बहन देवगभा से विवाह कराता है। कृष्ण के भाई-बहनों को कंस ने नहीं मारा, हालाँकि उसने कोशिश की। पौराणिक कथा के बौद्ध संस्करण में, कृष्ण के सभी भाई-बहन भक्त हो गए।

कृष्ण और उनके भाई-बहनों की राजधानी बन गयी। ज्योतिष संस्करण में अर्जुन और कृष्ण की बातचीत गायब है। इसमें एक नई किंवदंती शामिल है, जिसमें कृष्ण अपने पुत्रों की मृत्यु पर अस्वीकरण दुख में विलाप करते हैं, और एक घटपंडित कृष्ण को सबक सिखाने के लिए पागलपन का नाटक करते हैं। 
ज्योतिष कथा में उनके भाई-बहनों के नशे में धुत्त होने के बाद उनके बीच आंतरिक विनाश भी शामिल है। 

बौद्ध कथा के अनुसार कृष्ण की मृत्यु भी जरा नाम के एक शिकारी के हाथ से होती है, लेकिन जब वह एक मार्शल शहर की यात्रा कर रहे होते हैं। 
कृष्ण को लिपि समझकर जरा ने भाला फेंक दिया जो उनकी जनजातियों में जा लगा, जिससे कृष्ण को बहुत पीड़ा हुई और फिर उनकी मृत्यु हो गई। 

इस घट-जातक प्रवचन के अंत में , बौद्ध पाठ ने घोषणा की कि बौद्ध परंपरा में बुद्ध के श्रद्धेय शिष्यों में से एक,सारिपुत्त ने अपने पिछले जन्म में बुद्ध से दुःख की सीख लेने के लिए अपने पिछले जन्म में कृष्ण के रूप में अवतार लिया था। 
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तब उन्होंने [गुरु] ने सत्य की घोषणा की और जन्म की पहचान की: "उस समय, आनंद रोहिणी थे, सारिपुत्त वासुदेव [कृष्ण] थे, बुद्ध के शिष्य अन्य व्यक्ति थे, और मैं स्वयं घटपंडित था।"

—  जातक कथा संख्या 454, व्याख्या: डब्लूएचओडी राउज़ 
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बौद्ध ग्रन्थों में कृष्ण-वासुदेव को शामिल किया गया है और उन्हें उनके पिछले जीवन में शामिल किया गया है बुद्ध का शिष्य बनाकर 

हिंदू ग्रंथों में बुद्ध को शामिल किया गया है और उन्हें विष्णु का  अवतार कहा गया है । चीनी बौद्ध धर्म , ताओवाद और चीनी लोक धर्म में, भगवान नेझा के निर्माण को प्रभावित करने के लिए कृष्ण की छवि को नलकुवारा के साथ मिला दिया गया है, जैसा कि प्रस्तुत किया है।  एक दिव्य देव-बालक के रूप में और अपनी युवावस्था में एक नाग का वध करना हुआ। 


कृष्णाट्टम, केरल की एक प्राचीन मंदिर कला और नृत्य-नाटिका है, जिसे कोझिकोड के राजा मानवेद ने (16)वीं शताब्दी में रचा था। यह भगवान कृष्ण की कहानी को आठ नाटकों की एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत करती है। यह प्रदर्शन 'कृष्णगीति' पर आधारित है और यह गुरुवायूर मंदिर में मन्नत के तौर पर आयोजित होता है। 
(कृष्णाट्टम) की उत्पत्ति "कृष्ण नाट्यम्" शब्द से हुई है, और यह कथकली इनमें एक अन्य प्रमुख शास्त्रीय भारतीय नृत्य शैली की झलक शामिल है। ब्रायण्ट ने  पुराणों में कृष्ण चरित्र के प्रभावों का सारांश इस प्रकार दिया है

, "[इसमें] एक अपवाद को छोड़ दें, तो संस्कृत साहित्य में इतिहास में किसी भी अन्य पाठ की तुलना में अधिक श्लोक साहित्य, कविता, नाटक, नृत्य, सिद्धान्त और कला को प्रेरित किया है।" . 

पल्लीयोदम , एक प्रकार की बड़ी नाव है जिसे केरल के अरनमुला पार्थसारथी मन्दिर द्वारा उत्रात्थी जलमेला और वल्ला साध्य के वार्षिक जल जुलूसों के लिए बनाया और इस्तेमाल किया जाता है। किंवदन्ती है कि इसे कृष्ण द्वारा डिजाइन किया गया था और इसे शेषनाग की तरह दिखने के लिए बनाया गया था, जिस पर विष्णु सवार थे। 



अन्य
माता यशोदा के साथ शिशु कृष्ण
चौबीस अवतारकृष्ण का उल्लेख "अवतार कृष्ण" के रूप में किया गया है, जो पारम्परिक और

ऐतिहासिक रूप से है सिख गुरु गोबिंद सिंह की दशम ग्रन्थ रचना है । 

सिख-अव्वध (19) वीं सदी के राधा स्वामी आंदोलन के भीतर, इसके संस्थापक शिव दयाल सिंह के बसाए उन्हें जीवित गुरु और भगवान (कृष्ण/विष्णु) के अवतार माने जाते थे।
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बहाईयों का मत है कि कृष्ण "ईश्वर के प्रकट रूप"थे, या पैगम्बरों की पंक्ति में से एक थे धीरे-धीरे-धीरे हो रही मनुष्य की क्षति के लिए भगवान के वचन को प्रकट किया जाता है। इस तरह, कृष्ण ,अब्राहम, मूसा, ज़ोरोस्टर,बुद्ध, मुहम्मद,जीसस, बाब और बहाई धर्म के संस्थापक ,बहाउल्लाह के साथ एक ऊँचा स्थान साझा करते हैं

18 वीं सदी के इस्लामी आन्दोलन अहमदिया, कृष्ण को अपने प्राचीन पैगम्बरों में से एक माना जाता है। 
 गुलाम अहमद ने कहा कि वह स्वयं कृष्ण, जीसस और मोहम्मद जैसे पैगम्बरों के भी एक पैगम्बर थे, जो धर्म और हमले के अन्तिम दिनों के पुनरुद्धारकर्ता के रूप में पृथ्वी पर आए थे। .

कृष्ण की पूजा या श्रद्धा को 19 वीं शताब्दी के बाद से कई नए धार्मिक आंदोलनों द्वारा अपनाया गया है, और वह कभी-कभी ग्रीक , बौद्ध , बाइबिल और यहां तक ​​कि ऐतिहासिक विद्वानों के साथ-साथ गुप्त ( रहस्यमयी)  ग्रन्थों में एक उदार पन्थ के सदस्य हैं।  उदाहरण के लिए, ऊंचाहार दर्शन और गुप्त चर्चों में एक प्रभावशाली व्यक्ति, एडोर्ड शूरे, कृष्ण को एक महान दीक्षार्थी मानते थे,एडवर्ड शूरे फ्रांसीसी दार्शनिक, कवि, नाटककार, उपन्यासकार, और गूढ़ साहित्य के प्रचारक थे। उनका जन्म 21 जनवरी 1841 को स्ट्रासबर्ग, फ़्रांस में हुआ था और उनकी मृत्यु 7 अप्रैल 1929 को पेरिस में हुई थी। वह गूढ़ता और विभिन्न प्राचीन सभ्यताओं के आध्यात्मिक पहलुओं में अपनी रुचि के लिए जाने जाते हैं।


जबकि थियोसोफिस्ट कृष्ण को मैत्र ( प्राचीन ज्ञान के गुरुओं में से एक) का अवतार मानते हैं।, बुद्ध के साथ मानवता के लिए सबसे महत्वपूर्ण आध्यात्मिक शिक्षक हैं कृष्ण। 

कृष्ण को एलेस्टर क्रॉली द्वारा सन्त घोषित किया गया था और उन्हें ओर्डो टेम्पली ओरिएण्टिस के ग्नोस्टिक मास में एक्लेसिया ग्नोस्टिका कैथोलिका सन्त के रूप में समझाया गया है । 


यमलार्जुन अर्थात अर्जुन के दो पेड़ों की कथा महाभारत तथा अन्य पुराणों में है। अर्जुन के दो पेड़ जिनके मध्य से अपने बाल्यकाल में कृष्ण ने  उखल फंसाया और लगे खींचने ! उनके खींचने से पेड़ उखड़ गए और दो गंधर्व नलकूबर और मणिग्रीव प्रकट हुए ।
दोनों गंधर्व ऋषि शाप के कारण वृक्ष हो गए थे और कृष्ण ने उन्हें मुक्ति दे दी थी । 

ये किस्सा पौराणिक है, ऐतिहासिक नहीं है।  
आश्चर्यजनक रूप से ये घटनाओं से सम्बन्धित टैबलेट ( पत्थर की तख्ती) मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी पुरातत्व विद् - अरनेस्टमैके को  मिला है ।

डॉ. इ.जे.एच. मैक्के जब मोहनजोदड़ो की खुदाई कर रहे थे तो उन्हें एक साबुन पत्थर का बना टेबलेट मिला ।

ये लरकाना, सिंध में मिला पत्थर का टेबलेट यमलार्जुन प्रसंग दर्शाता है ।

बाद में प्रोफेसर वी.एस. अग्रवाल ने भी इसकी पहचान इसी रूप में की है ।

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प्लेट नंबर 90, ऑब्जेक्ट नंबर डी.के. 10237 के नाम से जाने जाने वाले इस टेबलेट का जिक्र कई किताबों में है 

वासुदेव शरण अग्रवाल सहित कई विद्वानों और इतिहासकारों की किताबों में (Mackay report Page 334-335 पर वर्णित plate no.90, object no. D.K.10237 का जिक्र आता है |

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ऐसा कहा जा सकता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों को कृष्ण सम्बन्धी कथाओं का पता था। बाकी आपको इस प्लेट के बारे में क्यों नहीं बताया गया ये तो कृष्ण ही जानें  ! 

एक अन्य मुद्रा पर दो व्यक्ति अंकित हैं जिनमें से प्रत्येक के हाथ में एक-एक पेड़ है। ऐसी संभावना व्यक्त की गई है कि मुद्रा पर इस अंकन के 

पीछे महाभारत में उल्लिखित कृष्ण द्वारा यमलार्जुन वृक्ष को उखाड़ कर उनकी आत्मा मुक्त करने जैसी कहानी रही हो।

यह भी हो सकता है कि वृक्षों को देवता की पूजा में रोपा जा रहा हो। वृक्षों की पूजा प्राकृतिक रूप में भी की जाती थी। इस मुद्रा के दूसरी ओर एक झुका व्यक्ति एक पेड़ (जो नीम-सा लगता है) की पूजा कर रहा है। कुछ वृक्षों (जैसे पीपल) को वेदिका से वेष्ठित दिखलाया गया है। ऐतिहासिक काल में सिक्‍कों पर वेदिका वेष्ठित वृक्ष का अंकन अत्यन्त लोकप्रिय रहा है। पीपल की पवित्रता आज तक वर्तमान है। 

हरिवंशपुराण विष्णु पर्व
अध्यायः (७) में भी  यमलार्जुन की कथा का वर्णन इसी खोज के अनुरूप है।

श्रीकृष्णबलरामाभ्यां व्रजे जानुभ्यां रिङ्गणम् एवं श्रीकृष्णेन आत्मानं उलूखले बद्ध्वा यमलार्जुनभङ्गकरणम्।
सप्तमोऽध्यायः वैशम्पायन उवाच

काले गच्छति तौ सौम्यौ दारकौ कृतनामकौ ।
कृष्णसंकर्षणौ चोभौ रिङ्गिणौ समपद्यताम् ।।१।

तावन्योन्यगतौ बालौ बाल्यादेवैकतां गतौ ।
एकमूर्तिधरौ कान्तौ बालचन्द्रार्कवर्चसौ ।। २।।

एकनिर्माणनिर्मुक्तावेकशय्यासनाशनौ ।
एकवेषधरावेकं पुष्यमाणौ शिशुव्रतम् ।। ३ ।।

एककार्यान्तरगतावेकदेहौ द्विधाकृतौ ।
एकचर्यौ महावीर्यावेकस्य शिशुतां गतौ ।। ४ ।।

एकप्रमाणौ लोकानां देववृत्तान्तमानुषौ ।
कृत्स्नस्य जगतो गोपौ संवृत्तौ गोपदारकौ ।। ५ ।।

अन्योन्यव्यतिषक्ताभिः क्रीडाभिरभिशोभितौ ।
अन्योन्यकिरणग्रस्तौ चन्द्रसूर्याविवाम्बरे ।। ६ ।।

विसर्पन्तौ तु सर्वत्र सर्पभोगभुजावुभौ ।
रेजतुः पांसुदिग्धाङ्गौ दृप्तौ कलभकाविव ।। ७ ।।

क्वचिद् भस्मप्रदीप्ताङ्गौ करीषप्रोक्षितौ क्वचित्।
तौ तत्र पर्यधावेतां कुमाराविव पावकी ।। ८ ।।

क्वचिज्जानुभिरुद्घृष्टैः सर्पमाणौ विरेजतुः ।
क्रीडन्तौ वत्सशालासु शकृद्दिग्धाङ्गमूर्धजौ ।। ९ ।।

शुशुभाते श्रिया जुष्टावानन्दजननौ पितुः ।
जनं च विप्रकुर्वाणौ विहसन्तौ क्वचित्क्वचित्।। 2.7.१० ।।

तौ तत्र कौतूहलिनौ मूर्धजव्याकुलेक्षणौ ।
रेजतुश्चन्द्रवदनौ दारकौ सुकुमारकौ ।। ११ ।।

अतिप्रसक्तौ तौ दृष्ट्वा सर्वव्रजविचारिणौ ।
नाशकत् तौ वारयितुं नन्दगोपः सुदुर्मदौ ।। १२ ।।

ततो यशोदा संक्रुद्धा कृष्णं कमललोचनम् ।
आनाय्य शकटीमूले भर्त्सयन्ती पुनः पुनः ।१३ ।।

दाम्ना चैवोदरे बद्ध्वा प्रत्यबन्धदुलूखले ।
यदि शक्तोऽसि गच्छेति तमुक्त्वा कर्म साकरोत्।।१४।।

व्यग्रायां तु यशोदायां निर्जगाम ततोऽङ्गणात् ।
शिशुलीलां ततः कुर्वन्कृष्णो विस्मापयन्व्रजम्।
सोऽङ्गणान्निःसृतः कृष्णः कर्षमाण उलूखलम्।। १५ ।।

यमलाभ्यां प्रवृद्धाभ्यामर्जुनाभ्यां चरन् वने ।
मध्यान्निश्चक्राम तयोः कर्षमाण उलूखलम् ।। १६।

तत्तस्य कर्षतो बद्धं तिर्यग्गतमुलूखलम् ।
लग्नं ताभ्यां समूलाभ्यामर्जुनाभ्यां चकर्ष च ।१७। 

तावर्जुनौ कृष्यमाणौ तेन बालेन रंहसा ।
समूलविटपौ भग्नौ स तु मध्ये जहास वै ।। १८ ।।

निदर्शनार्थं गोपानां दिव्यं स्वबलमास्थितः ।
तद्दाम तस्य बालस्य प्रभावादभवद् दृढम् ।१९ ।।


श्रीमहाभारते खिलमागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि शिशुचर्यायां यमलार्जुनभङ्गो नाम सप्तमोऽध्यायः ।।७।।

अनुवाद:-
1-3. वैशम्पायन ने कहा:—समय बीतने पर कृष्ण और संकर्षण नाम के वे दोनों बालक अपने पैरों पर रेंगने लगे।

4-वे दोनों सुन्दर बालक, उगते हुए सूर्य के समान, दो शरीरों वाले एक ही व्यक्ति, मानो एक ही साँचे में ढले हुए, एक ही रूप धारण करने लगे, एक ही शय्या पर लेटने लगे, एक ही भोजन करने लगे और एक ही वस्त्र धारण करने लगे। इस प्रकार वे वहाँ बालकों की भाँति क्रीड़ा करने लगे।

4-5. वे दोनों महाशक्तियाँ, जो समस्त लोकों की साक्षी के समान हैं, एक ही शरीर वाली होने पर भी, दैत्यों के संहार तथा यज्ञों के पुनरुद्धार के एकमात्र महान कार्य को सम्पन्न करने के लिए दो मानव रूप धारण करती थीं। यद्यपि वे समस्त जगत की रक्षक थीं, फिर भी इसी हेतु उनका जन्म ग्वाल-बालों के रूप में हुआ था।

6. जब वे वहाँ क्रीड़ा कर रहे थे, तब वे आकाश में एक-दूसरे की किरणों से आवृत सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रतीत हो रहे थे।

7. वे सर्पों के समान भुजाओं वाले, सर्वत्र जाते हुए, धूल से ढके हुए दो गर्वित युवा हाथियों के समान प्रतीत होते थे।

8. और कभी-कभी उनके शरीर राख और गोबर से लिपटे हुए होते थे, और वे अग्नि के दो राजकुमारों की तरह चमकते थे।

9. कभी-कभी वे घुटनों के बल चलकर गौशालाओं में प्रवेश करते थे और अपने शरीर तथा बालों को गोबर से लिपे हुए वहां क्रीड़ा करते थे।

10. कभी-कभी वे दोनों बालक व्रजवासियों के साथ शरारतें करते हुए अपनी हंसी से अपने पिता को प्रसन्न करते थे।

11. चन्द्रमा के समान मुख वाले वे दोनों सुन्दर बालक, जब कौतूहल से भरे होते थे और उनकी लटें उनकी आँखों को विचलित करती थीं, तब और भी अधिक आकर्षक प्रतीत होते थे।

12. वे अत्यंत चंचल और नटखट हो गए और व्रज में सर्वत्र विचरण करने लगे। और नन्द उन्हें किसी भी प्रकार रोक नहीं सके।

13-14. एक दिन यशोदा क्रोधित होकर कमल-नेत्र कृष्ण को रथ के पास ले आईं और उनकी कमर में रस्सी बाँधकर उन्हें ओखली से बाँधकर बार-बार डाँटते हुए बोलीं, "जाओ, यदि तुम ऐसा कर सकते हो।" यह कहकर वे अपने काम में लग गईं।

15. जब यशोदा अपने घरेलू कामों में व्यस्त थीं, तब कृष्ण व्रजवासियों को आश्चर्यचकित करने और खेलने के उद्देश्य से आँगन से बाहर निकल आए।

16. उस ओखली को लेकर कृष्ण प्रांगण से बाहर निकलकर उस वन में गए जहाँ यमला और अर्जुन नामक विशाल वृक्ष थे।

17-19. उस ओखली को दोनों वृक्षों के बीच रखकर वह उसे घसीटने लगा। इस प्रकार घसीटने के कारण ओखली वृक्षों की जड़ में दृढ़ता से जम गई। फिर वह अर्जुन और यमल नामक वृक्षों को घसीटने लगा। इस प्रकार उसके द्वारा अत्यन्त बलपूर्वक खींचे जाने से वे दोनों अर्जुन वृक्ष जड़ और शाखाओं सहित उखड़ गए। ग्वालों को यह दिखाने के लिए भगवान ने अपनी दिव्य शक्ति का प्रयोग करते हुए वहाँ हँसना शुरू कर दिया। उनकी शक्ति से वह रस्सी और भी मजबूत हो गई।


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अभीर,आभीर, अवर, अफर, अबीर आयर, आयबेरिया, तथा वीर नाम से अहीरों की प्राचीन विभिन्न संस्कृतियों में उपस्थिति -

आभीर( आहीर) जाति की उत्पत्ति कैसे हुई ?

आहिर आदिमजाति माना जाता है इनको इजरायल में अबीर। अफ्रीका में अफर । तुर्की में अवर। आयरलैंड अथवी आयरिश में आबेरिय । । चीन में "सु" नाम से शोधकर्ताओं ने पहचान किया।

परन्तु इनका मुख्य रूप से हर सभ्यता के साथ तो जिक्र है ही अब्राहमिक( यहूदी ) धर्म और भारतीय धर्म में भी समान जिक्र है।  दोनों मुख्य धर्मो के ग्रन्थ को देखा जाय तो समानता है।

यादव की उत्पत्ति पुराणों के अनुसार ययाति से यदु और यदु से यादव वंश की उत्पत्ति हुई । परन्तु प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदु वंश किस जाति में  उत्पन्न हुआ। भारतीय पुराणों में विशेषत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में आभीर जाति को सत्युग के प्रारम्भ में उपस्थित माना है । भारतीय पुराणों के अनुसार सभी चारों युगों में आभीर जाति उपस्थित रही है। 

यहूदीयों की उत्पत्ति बाइबिल के सृष्टि खण्ड ( जेनेसिस ) अनुसार याकूब से यहूदा और यहूदा से यहूदीयों की उत्पत्ति हुई है।

याकूब इजराएल के नीम से भी जानी जाती है। याकूब से जैकब और हाकि़म जैसे शब्द विकसित हुए। याकूव ही ययाति है।

अब ये यादव  यहुदी हैं अथवा यहूदी यादव हैं  तो सवाल उठता है ये अहीर कौन है?

हिब्रू बाइबिल में अबीर शब्द शक्तिशाली अथवा बहादुर का विशेषण है।

हिब्रू बाइबिल में "अबीर" (אָבִיר) शब्द का अर्थ "मजबूत" या "शक्तिशाली" है। यह ईश्वर के लिए एक उपाधि है, जिसका प्रयोग याकूब और इज़राइल की शक्ति और दृढ़ता को दर्शाने के लिए किया गया है, विशेषकर जेनेसिस 49:24 और कुछ भजन और यशायाह की पुस्तकों में। 

अबीर शब्द के प्रयोग:
  • ** ईश्वर के लिए विशेषण:** यह ईश्वर की शक्ति और दृढ़ता को व्यक्त करने के लिए एक विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है।       
  • "अबीर याकूब": जेनेसिस 49:24 में, यह "याकूब का बल" (Mighty One of Jacob) के रूप में आता है, जो ईश्वर को याकूब के संरक्षक और रक्षक के रूप में दर्शाता है।
  • ** काव्यात्मक प्रयोग**: इसका उपयोग अक्सर काव्य पंक्तियों में किया जाता है, जो ईश्वर की ताकत और उसकी शक्ति को दर्शाती है। 
उदाहरण:
  • उत्पत्ति 49:24: "परन्तु उसका धनुष बना रहा और उसका बाण दृढ़ रहा; उसके हाथों की कलाइयाँ मेरे अबीर-याकूब के हाथों के कारण मज़बूत हो गईं..."।
  • भजन 132:2, 5: ईश्वर का उल्लेख "अबीर" के रूप में भी किया जाता है। 
  • यशायाह 49:26: ईश्वर की अपनी लोगों पर विजय और बचाव का वर्णन करने के लिए। 

यहुदह् को ही यदु कहा गया ...
हिब्रू बाइबिल में यदु के समान यहुदह् शब्द की व्युत्पत्ति
मूलक अर्थ है " जिसके लिए यज्ञ की जाये"
और यदु शब्द यज् --यज्ञ करणे
धातु से व्युत्पन्न वैदिक शब्द है ।


इतिहास मे भी अहीरों की निर्भीकता और वीरता का वर्णन प्राचीनत्तम है ।
इज़राएल में आज भी अबीर यहूदीयों का एक वर्ग है ।
जो अपनी वीरता तथा युद्ध कला के लिए विश्व प्रसिद्ध है ।
कहीं पर " आ समन्तात् भीयं राति ददाति इति आभीर :
इस प्रकार आभीर शब्द की व्युत्पत्ति-की है , जो
अहीर जाति के भयप्रद रूप का प्रकाशन करती है ।
अर्थात् सर्वत्र भय उत्पन्न करने वाला आभीर है ।
यह सत्य है कि अहीरों ने दास होने की अपेक्षा दस्यु होना उचित समझा ...

यहूदियों और अहीर कबीले के बीच "अबीर" शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर एक मत यह है कि यहूदी धर्म के प्रणेता पैगम्बर इब्राहिम के वंशज, जिनका नाम याकूब था, ने यहूदी "अबीर" कबीले का गठन किया था, जो भारत की प्राचीन अहीर जाति से संबंधित थे। यहूदी लोगों के इस "अबीर" कबीले का संबंध प्राचीन इब्रानियों या आभीरों से था, और यह कबीला आज भी भारत में मौजूद है। 
"अबीर" शब्द की उत्पत्ति
  • प्राचीन भारतीय संदर्भ:यहूदी धर्म का इतिहास लगभग 4000 साल पुराना है, जिसकी शुरुआत पैगंबर इब्राहिम ने की थी, और उनके पोते याकूब (जिन्हें इजराइल भी कहा जाता है) ने 12 यहूदी कबीलों का गठन किया था, जिनमें से एक "अबीर" कबीला था। यहूदी धर्म के ऐतिहासिक ग्रंथ, 'तनख', में इस बात का उल्लेख है कि यह कबीला भारत की प्राचीन अहीर जाति से उत्पन्न हुआ था। 
  • प्रमाण और शोध:कुछ शोधकर्ताओं ने "अबीर" कबीले के इस संबंध में प्राचीन भारत के "अहीर" वंश से होने के साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं, जिन्होंने भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। 
अहीर कबीले और यहूदी समुदाय का सम्बन्ध
  • समान नामकरण:"यहूदी अबीर कबीला" के रूप में, यहूदी धर्म से जुड़ा "अबीर" कबीला भारत के प्राचीन अहीर कबीले से जुड़ा हुआ है, जो आज भी भारत में कई क्षेत्रों में रहते हैं। 
  • सांस्कृतिक और भाषाई जुड़ाव:यहूदी धर्म के अनुयायियों के बीच "अबीर" का विशेष स्थान है क्योंकि यह उनकी प्राचीन जड़ों और उनके ऐतिहासिक महत्व से जुड़ा हुआ है। 

यहूदीयों की हिब्रू बाइबिल के सृष्टि-खण्ड नामक अध्याय  Genesis 49: 24 पर ---
अहीर शब्द को जीवित ईश्वर का वाचक बताया है।

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___The name Abir is one of The titles of the living god  for some reason it,s usually translated for some reason all god,s
 in Isaiah 1:24  we find four names of
The lord in rapid  succession as Isaiah
Reports " Therefore Adon - YHWH - Saboath and Abir ---- Israel declares...
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Abir (अभीर )---The name  reflects protection more than strength although one obviously -- has to be Strong To be any good at protecting still although all modern translations universally translate this  name  whith ----  Mighty One , it is probably best  translated whith --- Protector --रक्षक ।
हिब्रू बाइबिल में तथा यहूदीयों की परम्पराओं में ईश्वर के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं :----
(१)----अबीर (२)----अदॉन (३)---सबॉथ (४)--याह्व्ह् तथा (५)----(इलॉही)
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हिब्रू भाषा मे अबीर (अभीर) शब्द के बहुत ऊँचे अर्थ हैं- अर्थात् जो रक्षक है, सर्व-शक्ति सम्पन्न है
इज़राएल देश में याकूब अथवा इज़राएल-- ( एल का सामना करने वाला )को अबीर
का विशेषण दिया था ।
इज़राएल एक फ़रिश्ता है जो भारतीय पुराणों में यम के समान है ।
जिसे भारतीय पुराणों में ययाति कहा है ।
ययाति यम का भी विशेषण है।

समानता के और भी स्तर हैं जैसे- हिब्रू बाइबिल में ईसा मसीह की बिलादत (जन्म) भी गौओं के सानिध्य में ही हुई ...

ईसा का नाम (कृष्ट) है जो  कृष्ण के चरित्र का भी साम्य है।
ईसा के गुरु ऐञ्जीलस ( Angelus)/Angel हैं जिन्हें हिब्रू परम्पराओं ने फ़रिश्ता माना है ।
तो कृष्ण के आध्यात्मिक  गुरु घोर- आंगीरस हैं ।जिन्हें सप्तर्षियों गिना जाता है।

तो ये समझना जरूरी है। कि यदु तो व्यक्ति थे जिनके वंश को यादव नाम से जाना थे  उनकी जाति क्या थी ? इसका जवाब प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में जैसा कि वर्णन है ऋग्वेद के दशम मण्डल के (62) में सूक्त मन्त्र में 👇

उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी (स्मत् दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश् च मामहे।१०। 

अर्थात् यदु और तुर्वशु नामक जो दास हैं गोओं से परिपूर्ण है अर्थात् चारो ओर से घिरे हुए हैं हम सब उनकी स्तुति करते हैं।१०।

यहाँ यदु को गोप ही बताया गया है। यादव ही अभीर है यदु के बाद इनको यादव भी कहा जाने लगा था इस कारण ही सभी शोधकार्ता यहूदी यादव को एक ही मानते हैं।  क्यों की इनके उत्त्पति में तो समानता है ही संस्कृति में भी व्यवस्था में अत्यधिक समानता है। यहाँ तक की वैवाहिक परम्पराओं और प्रवृत्तियों में भी गजब की आश्चर्जनक समानता है।

बदले की भावना ये अपने दुश्मन को छोड़ते नही जातिवादी कट्टरता इनको रक्तशुद्धता में परिबद्ध करती है।

यानी यादव यहूदी वही हो सकता है जिसके माता पिता दोनों यादव हो बरना मामला गड़बड़ समझो समाज से बाहर कर देते है।  जैसे यहां यादवों का योद्धा कबीला अहीर है वैसे ही यहूदियों का योद्धा कबीला अबीर है। जिसने पश्चिमी एशिया में जूडो -कराटे का व्यवहारिक ज्ञान दिया।

"मिश्र के यहूदीयों का एक विशेषण कॉप्ट(गुप्त)- 


गोप और अंग्रेज़ी कॉप(Cop) शब्दों की एक रूपता-

भले ही कुछ भाषा शास्त्री कॉप्ट शब्द का विकास मिश्र के शब्द एजिप्टियोस से मानते हैं। उनका विचार है कि कॉप्टिक लोग  मिस्र के ईसाई समुदाय से सम्बन्धित हैं, जबकि मिस्र में यहूदी लोगों का अपना विशिष्ट इतिहास, समुदाय और परम्पराऐं हैं। इसलिए, यहूदियों के लिए कॉप्टिक एक विशेषण नहीं है, बल्कि एक अलग जातीय-धार्मिक समूह के लिए एक शब्द है। 

कॉप्टिक क्या है?
  • कॉप्टिक (Coptic)शब्द मिस्र के ईसाई समुदाय को संदर्भित करता है, जो प्राचीन मिस्रवासियों के वंशज हैं। 
  • यह शब्द ग्रीक शब्द "एजिप्टियोस" से आया है, जिसका अर्थ "मिस्रवासी" है, जिसे बाद में अरबों ने  इसे "क़ुबत" कर दिया। 

परन्तु संस्कृत शब्द गुप्त  यूनानी भाषाओं में कॉप्ट हो गया है। 
चंद्रगुप्त मौर्य को यूनानी लेखकों द्वारा मुख्य रूप से "सैंड्रोकोटस" (Sandrocottus) या कभी-कभी "एंड्रोकोप्टस" (Androcopttus) के नाम से जाना जाता था. यह नाम ब्रिटिश प्राच्यविद् सर विलियम जोन्स द्वारा पहचाना गया था, जिन्होंने पहली बार चंद्रगुप्त मौर्य और "सैंड्रोकोटस" के बीच संबंध स्थापित किया था. 

"The Dutch verb kopen for "to buy" originates from Middle Dutch côpen, 

which in turn comes from Old Dutch cōpon and the Proto-Germanic root kaupaz.

 This Germanic root was likely a loanword from Latin caupō, meaning "tradesman" or "merchant". 

डच भाषा में खरीदने के लिए"  क्रियात्मक कोपेन शब्द मध्य डच के कोपेन शब्द से उत्पन्न होता है, 

जो बदले रूपों में पुराने डच कॉपोन और प्रोटो-जर्मेनिक शब्द कौपज़ से आता है।

यह जर्मेनिक मूलशब्द लैटिन के  (कोपो) से निष्पन्न है। जिसका अर्थ है - व्यापारी "

जर्मन भाषा मे यह शब्द कॉफेन और डेनिश भाषा में  कोबे, रूप में है।
"
कोपेनहेगन:गोपांगन
डेनमार्क की राजधानी, इसका नाम इस शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है "व्यापारी का बंदरगाह"। 

ब्राह्मणीय वर्णव्यवस्था में गोप अथवा गुप्त वैश्य वर्ण का भी विशेषण है। गोप लोग गोपालक तथा कृषि कर्म करने से वैश्य वर्ण  में ब्राह्मणों ने माने हैं। यद्यपि गोप सभी वर्णों का कार्य करते हैं।

संस्कृत भाषा की 1865 धातुओं (शब्द तथा क्रिया के मूल रूपों) में गुप्- एक नामधातु है। जिसका विकास गोप शब्द से हुआ गो+पा = गाय पालना से हुआ है।
प्राचीन काल में गाय पालना अत्यधिक कठिन कार्य था गायें भारतीय अर्थ व्यवस्था की ही आधार स्तम्भिका नहीं अपितु विश्व की अनेक संस्कृतियों में जीवन और जीविका का  उत्स थीं ।
इस सन्दर्भ में भाषाविज्ञान को आधार बनाकर हम कुछ तथ्यों का  प्रकाशन कर रहे हैं।
जैसे पशु शब्द से ही पैसा और फीस जैसे शब्द विकसित होते हैं। पशु हमारी अर्थ- व्यवस्था के आधार थे। पशुओं गाय प्राचीन पाल्या पशु है। और गोप "अहीर" जाति का व्यवसाय मूलक विशेषण है।

अहीर लोग वैदिक काल से ही गोपालन करते हैं ।
अत: वेद में गोप " गोधुक् और अभीरु: शब्द उपलब्ध हैं।

पाश्चात्य संस्कृतियों में जो वैदिक संस्कृति के समानान्तर विकसित हुईं विशेषत: ग्रीक लैटिन और जर्मन की संस्कृतियाँ उनमें भी गो शब्द विद्यमान हैं । गौ प्रथम पाल्य पशु था।
पशु शब्द और पैसा शब्द के बीच आज भले ही सीधा सम्बन्ध नहीं है, बल्कि प्राचीन काल में पशुधन को धन के रूप में प्रयोग किया जाता था, जिसे पशु-मुद्रा कहते थे, जो भविष्य में धातु-मुद्रा और फिर आधुनिक पैसे के विकास का एक अप्रत्यक्ष आधार बनी।  समय के साथ, वस्तुओं के बदले वस्तुओं के विनिमय (वस्तु-विनिमय) से पशु-मुद्रा की ओर बढ़ा गया, और फिर तृतीय चरण में  धातु-मुद्रा का विकास हुआ। 
पशु-मुद्रा से पैसे का अप्रत्यक्ष संबंध
  • पशु-मुद्रा  प्राचीन समाजों में, विनिमय के माध्यम के रूप में सीधे पशुओं का इस्तेमाल होता था। लोग अपनी ज़रूरतों के अनुसार मवेशी, गाय या भैंस जैसी चीज़ों का आदान-प्रदान करते थे।              
  • पशुओं का महत्व:पशुधन को धन और संपत्ति का एक महत्वपूर्ण रूप माना जाता था। यह वित्तीय सुरक्षा और विनिमय का एक प्रारंभिक तरीका पशु ही थे ।              
  • ** धातु मुद्रा की ओर विकास:** धीरे-धीरे, धातु मुद्रा का विकास हुआ, जो पशुधन की तुलना में अधिक सुविधाजनक और टिकाऊ थी। धातु मुद्रा का प्रचलन बढ़ने के साथ ही पशु-मुद्रा समाप्त होने लगी परन्तु उनके लिए नामित शब्द रूढ हो गये। 
  • आधुनिक पैसे का विकास:धातु मुद्रा से हुआ, जो पैसे के एक महत्वपूर्ण विकासवादी क्रम का हिस्सा है।
इन रूपों में पशु' शब्द से 'पैसा' और 'फीस' शब्दों का प्रत्यक्ष संबंध न होकर परोक्ष सम्बन्ध है। '
  • लैटिन/पुरानी फ्रेंच से उत्पत्ति:'फीस' (Fee) शब्द की उत्पत्ति पुरानी फ्रेंच शब्द 'fée' या लैटिन शब्द 'feudum' से हुई है, जिसका अर्थ किसी अधिकार या विशेषाधिकार के बदले भुगतान किया जाने वाला शुल्क था। 
  • सामंती व्यवस्था:प्रारंभिक सामंती व्यवस्था में, 'फीस' शब्द का उपयोग भूमि के स्वामित्व या सामंती व्यवस्था के तहत प्राप्त होने वाले पदों के लिए किया जाता था। सेवा के बदले दी जाने वाली भुगतान को भी फीस कहा जाता था। 

यहूदी पशुपालक समाज था ये लोग बैल की पूजा करते थे।बाइबिल में निर्गमन 32 में वर्णित सोने के बछड़े की मूर्ति की पूजा एक ऐतिहासिक घटना थी जिसमें मूसा के अनुपस्थित रहने पर इस्राएलियों के एक समूह ने मूर्तियों का निर्माण करके उनकी पूजा की, लेकिन यह यहूदी धर्म के मूल सिद्धांतों के अनुसार नहीं था और इसकी निंदा की गई थी। यहोवा के एक ही ईश्वर की अवधारणा यहूदी धर्म का केंद्र है, जबकि सोने के बछड़े की पूजा एक पाप और ईश्वर से दूर जाने का प्रतीक था। 
सोने के बछड़े की घटना का विवरण
  • पृष्ठभूमि:जब मूसा पर्वत सिनाई पर परमेश्वर से मिलने के लिए गए, तब इस्राएलियों ने मूसा के पीछे छूटने के कारण सोने का बछड़ा बनाने और उसकी पूजा करने का निर्णय लिया। 
  • आराधना:इस्राएलियों ने सोने के इस बछड़े की पूजा की, जिसे परमेश्वर की पूजा के बजाय एक मूर्तिकला के रूप में देखा गया, जिससे ईश्वर के साथ उनका विश्वास और भरोसा कमज़ोर हुआ। 
  • बाइबिल का चित्रण:निर्गमन की पुस्तक में इस घटना को मूर्तिपूजा का एक उदाहरण के रूप में वर्णित किया गया है और इसे 'पाप' माना गया है। 

यहूदी धर्म में गाय के प्रति श्रद्धा भाव की  विधि भारतीय यादवों से पृथक है । सम्भवत; यह अति प्राचीन परम्परा का ही एक परिवर्तित रूप हो जैसे 

एक लाल बछिया, या हिब्रू में  जिसे "पराह अदुमाह", कहते है  बिल्कुल वैसा ही है जैसा सुनने में लगता है—एक छोटी मादा गाय जो पूरी तरह से लाल होती है। लेकिन हम यहाँ किसी भी लाल गाय की बात नहीं कर रहे हैं। यहूदी परम्परा के अनुसार, इस बछिया को कुछ खास मानदण्डों पर खरा उतरना होता है:

  1. यह पूरी तरह से लाल होना चाहिए (बहुत ही चुनिंदा बातें!)
  2. इसमें कोई दोष नहीं हो सकता
  3. इसका उपयोग कभी भी श्रम के लिए नहीं किया गया होगा (काम करने वाली बछियाओं की अनुमति नहीं है!)

ये आवश्यकताएं सीधे बाइबल से आती हैं, विशेष रूप से गिनती 19:1-2 , जिसमें ईश्वर द्वारा कहा गया है:

अदोन( ईश्वर) ने मूसा और हारून से कहा, 'यह तोरा( धर्म संहिता )की विधि है, जिसकी आज्ञा अदोन ने दी है: इस्राएलियों से कहो कि वे तुम्हारे पास एक निर्दोष लाल बछिया ले आएं, जिस पर कोई दोष न हो और जिस पर कभी कोई जूआ न रखा गया हो।'”

इन सभी मानदंडों पर खरी उतरने वाली गाय मिलना लगभग उतना ही मुश्किल है जितना भूसे के ढेर में सुई मिलना—अगर वह सुई भी पूरी तरह लाल हो और उससे कभी कुछ सिलने में इस्तेमाल न किया गया हो। कोई आश्चर्य नहीं कि जब कोई संभावित उम्मीदवार सामने आता है तो लोग उत्साहित हो जाते हैं!

भारत-यूरोपीय देवताओं वरुण , मित्र और इंद्र और यम को किसके राज्य में मान्यता दी गई थी। यह पूर्वोत्तर सीरिया में मितन्नीयों( जिसे वेद में मितज्ञु) कहा गया है। यहीं पूर्वोत्तर सीरिया( सामदेश) दूसरी सहस्राब्दी की तीसरी तिमाही में हुर्रियन आबादी पर एक इंडो-आर्यन अभिजात वर्ग का शासन था।  उनके मुख्य देवताओं के नाम और सामान्य चरित्र से परे हुर्रियनों के धर्म के बारे में बहुत कम जानकारी है: तेशुब( अशुतोष) , एक तूफान देवता, और उसकी पत्नी हेपत( हेमवती); उनका बेटा, शर्रुमा( स्कन्द), का विवरण है। एक तूफान देवता भी; मेसोपोटामियन ईशर( स्त्री) के साथ पहचानी जाने वाली देवी शौशका; और कुसुख और शिमेगी, चंद्र और सौर देवता , क्रमशः तथा इनसे सम्बन्धित  हुरियन पौराणिक कथाओं को हित्ती संस्करणों के माध्यम से ही जाना जाता है।


सैमेटिक "हैमेटिक और यूरोपीय संस्कृतियों में "मनु" की उपस्थिति- 

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मनु के विषय में  विश्व के सभी धर्म - मतावलम्बी अपने अपने पूर्वाग्रह से ग्रस्त ही हैं ।
भारतीय सन्दर्भों में किसी ने "मनु" की अवधारणा  अयोध्या  के आदि- पुरुष के रूप में है। तो किसी ने सुमेर और बैबीलॉन ( मेसोपाटामिया ) की संस्कृतियों में "नूह"  के रूप में  की है । परन्तु अयोध्या का स्थान निर्धारण अनिश्चित है। किसी ने मनु को हिमालय का अधिवासी कहा है ! परन्तु हिमालय पर्वतीय प्रदेश है जो यूरोपीय संस्कृति का संकेत करता है।
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"परन्तु सत्य के निर्णय निश्पक्षता के सम धरातल पर होते हैं न कि पूर्वाग्रह के ऊबड़ खाबड़ स्थलों पर ". और हम मनु के ऐतिहासिक तथ्यों पर एक निष्पक्ष पहल करेंगे-

भारतीय पुराणों की कथाऐं मेसोपोटामिया और यूरोपीय मिथकों का समिश्रण रूप है।

विश्व की सभी महान संस्कृतियों में "मनु" का वर्णन मानव सभ्यता के उद्भासक के रूप में किसी न किसी प्रकार अवश्य हुआ है !


परन्तु भारतीय संस्कृति में यह मान्यता अधिक प्रबल तथा पूर्णत्व को प्राप्त है। अत: इस विवरण में भारतीय सन्दर्भों को उद्धृत करते हुए अन्य संस्कृतियों से भी तथ्य उद्धृत किए गये हैं।
👇

1- प्रथम सांस्कृतिक वर्णन:–"भारतीय पुराणों में मनु का वर्णन:–👇

पुराणों में वर्णित है कि मनु ब्रह्मा के पुत्र हैं ;
जो मनुष्यों के मूल पुरुष माने जाते हैं।
विशेष—वेदों में मनु को यज्ञों का आदिप्रवर्तक लिखा है। ऋग्वेद में कण्व और अत्रि को यज्ञ प्रवर्तन में मनु का सहायक लिखा है।

शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि मनु एक बार जलाशय में हाथ धो रहे थे; उसी समय उनके हाथ में एक छोटी सी मछली आई।
उसने मनु सें अपनी रक्षा की प्रार्थना की और कहा कि आप मेरी रक्षा कीजिए;
मैं अपकी भी रक्षा करुँगी। उसने मनु से एक आनेवाली बाढ़ की बात कही और उन्हें एक नाव बनाने के लिये कहा।

मनु ने उस मछली की रक्षा की; पर वह मछली थोड़े ही दिनों में बहुत बड़ी हो गई।
जब बाढ़ आई, मनु अपनी नाव पर बैठकर पानी पर चले और अपनी नाव उस मछली की आड़ ( श्रृंग) में बाँध दी। मछली उत्तर को चली और हिमालय पर्वत की चोटी पर उनकी नाव उसने पहूँचा दी। वहाँ मनु ने अपनी नाव बाँध दी।
उस बड़े ओघ (जल-प्रलय )से अकेले मनु ही बचे थे। उन्हीं से फिर मनुष्य जाति की वृद्धि हुई। दूसरी कथा के अनुसार-

ऐतरेय ब्राह्यण में मनु के अपने पुत्रों में अपनी  सम्पत्ति का विभाग करने का वर्णन मिलता है। उसमें यह  भी लिखा है कि उन्होंने हरिवंश पुराण के अनुसार वैवस्वत मनु के एक पुत्र "नाभागारिष्ठ" को अपनी संपत्ति का भागी नहीं बनाया था।

निघण्टु में 'मनु' शब्द का पाठ "द्युस्थान देवगणों में है ; और वाजसनेयी संहिता में मनु को प्रजापति लिखा है। पुराणों और सूर्यसिद्धान्त आदि ज्योतिष के ग्रन्थों के अनुसार एक कल्प में चौदह मनुओं का अधिकार होता है और उनके उस अधिकारकाल को मन्वन्तर (मनु-अन्तर) कहते हैं।

चौदह मनुओं के नाम ये हैं—(१)स्वायम्। (२)स्वारोचिष्। (३) उत्तम। (४) तामस। (५) रवत। (६) चाक्षुष। (७) वैवस्वत। (८) सावर्णि। (९) दक्षसावर्णि। (१०) ब्रह्मसावर्णि। (११) धमसावर्णि। (१२) रुद्रसावर्णि। (१३) देवसावर्णि और(१४) इन्द्रसावर्णि।

वर्तमान मन्वन्तर वैवस्वत मनु का है।
मनुस्मृति मनु को विराट् का पुत्र लिखा है और मनु से दस प्रजापतिया की उत्पत्ति हुई यह वर्णन है।

(उपर्युक्त कथा हिब्रू बाइबिल में  भी कुछ अन्वन्तर से वर्णित है मनु की कथा  "नूह" की कथा का प्रतिरूप ही  है ।

--जो सुमेरियन माइथॉलॉजी से संग्रहीत है-

"संस्कृत भाषा में मनु शब्द की व्युत्पत्ति !
 मन्यते इति मनु। ( मन् + इति उ:) मनु: “ शॄस्वृस्निहीति । “ उणादि सूत्र १ । ११ ।  


ब्रह्मणः पुत्त्रः । स च प्रजापतिर्धर्म्मशास्त्रवक्ता च ।
 इति लिङ्गादिसंग्रहे अमरः ॥ ब्रह्मा का पुत्र धर्मशास्त्र का वक्ता मनुष्यों का पूर्वज ।  इति शब्द- रत्नावली ॥

(यथा  ऋग्वेदे । ८। ४७। ४।“ मनोर्विश्वस्य घेदिम आदित्याराय ईशतेऽनेहसो व ऊतयः सु ऊतयो व ऊतयः ॥ ऋगवेद 8/47/4“  मनोर्भव: मनुष्य: ।
इति तद्भाष्ये सायणः ॥

वस्तुत 
मनु सुमेरियन संस्कृतियों में विकसित माइथॉलॉजीकल की अवधारणा है ।
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इसी आधार पर काल्पनिक रूप से ब्राह्मण समाज द्वारा वर्ण-व्यवस्था का समाज पर आरोपण कर दिया गया , जो वैचारिक रूप से तो सम्यक् था परन्तु व्यवहारिक रूप में कभी यथावत् परिणति नहीं हुआ।

वर्ण व्यवस्था जाति अथवा जन्म के आधार पर दोष-पूर्ण व अवैज्ञानिक ही थी ।
इसी वर्ण-व्यवस्था को ईश्वरीय विधान सिद्ध करने के लिए काल्पनिक रूप से ब्राह्मण - समाज ने मनु-स्मृति की रचना की ।
जिसमें तथ्य समायोजन इस प्रकार किया गया कि स्थूल दृष्टि से कोई बात नैतिक रूप से मिथ्या प्रतीत न हो ।

वर्तमान में मनु के नाम से नामित स्मृति ग्रन्थ( धर्म-शास्त्र) पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी सुमित भार्गव (ई०पू०१८४-४८ ) के समकालिक है ।
यह  पुष्य-मित्र सुंग केे निर्देशन में ब्राह्मण समाज द्वारा 'मनु' की रचना मान्य कर दी गयी ।

लगभग चौथी शताब्दी में नारद स्मृति के लेखक को मनुस्मृति के लेखक का नाम ज्ञात था । नारद स्मृति कार के अनुसार ' सुमति भार्गव ' नाम के एक व्यक्ति थे जिन्होंने मनुसंहिता की रचना की ।इस प्रकार मनु नाम ‘सुमति भार्गव' का छद्म नाम था और वह ही इसके वास्तविक रचयिता थे”( अम्बेडकर वाड्मय , भाग 7 , पृ० 151 ) ।

— “मनु के काल - निर्धारण के प्रसंग में डॉक्टर अम्बेडकर की पुस्तक में सन्दर्भ देते हुए बताया था कि मनुस्मृति का लेखन ईसवी पूर्व 185 , अर्थात पुष्यमित्र की क्रान्ति के बाद सुमति भार्गव के हाथों हुआ था ।” ( वही , भाग 7 , पृ० 116 )

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परन्तु मनु भारतीय धरा की विरासत नहीं थे ।
और ना हि अयोध्या उनकी जन्म भूमि थी। यह भी सत्य है क्योंकि भारत में अयोध्या का स्थान अनिश्चित ही है।
वर्तमान में अयोध्या भी थाईलेण्ड बैंकॉक में "एजोडिया" के रूप में है ।

रामनगरी अयोध्या (Ayodhya) की तरह एक और आयोध्या थाइलैंड (Thailand) में भी बसती है। थाइलैंड एक ऐसा देश है जहां पर राम को सांस्कृतिक धरोहर की तरह माना जाता है। यहाँ पर कई प्राचीनकाल राममंदिर हैं और एक शहर है 'अयुत्थया' (Ayutthaya, Thailand) जो स्थानीय भाषा में अयोध्या का समानार्थी है।

15 वीं सदी में 'अयुत्थया' थाईलैंड की राजधानी की तरह विकसित हुआ था। यहां पर कई राम मंदिरों का निमार्ण हुआ। बाद में बर्मा की सेना के आक्रमण ने इस शहर को तबाह कर दिया। मंदिर के साथ कई मूर्तियों को नष्ट कर दिया गया।
क्या है शहर का इतिहास

गौरतलब है कि इतिहास को गौर से देखा जाए तो दक्षिण पूर्व एशिया के देश थाइलैंड में एक वक्त पर राम राज ही था। माना जाता है कि चक्री वंश के पहले राजा की उपाधि ही राम प्रथम थी। थाईलैंड में आज भी यहीं राजवंश मौजूद है। जब यहाँ पर बर्मा देश का शासन हटा तो देश ने दोबारा से अपनी सांस्कृतिक धरोहर को समेटना शुरू कर दिया।
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सुमेरियन सभ्यताओं में भी अयोध्या को एजेडे "Agede" नाम से वर्णन किया है। जिसे सुमेरियन इतिहास में "अक्काद" रूप में वर्णन किया गया है। यहीं सूर्य वंशी राजा सगर का शासन था । जिन्हें सारगॉन नाम से जाना जता है। मनु को भी सगर की पूर्वज माना जाता है। सगर अयोध्या के एक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा थे। ईरान, मध्य एशिया, बर्मा, थाईलैंड, इण्डोनेशिया, वियतनाम, कम्बोडिया, चीन, जापान और यहां तक ​​कि फिलीपींस में भी मनु की पौराणिक कथाऐं लोकप्रिय थीं।

विद्वान ब्रिटिश संस्कृतिकर्मी, जे. एल. ब्रॉकिंगटन  "राम" को विश्व साहित्य का एक उत्कृष्ट शब्द मानते हैं।
यद्यपि वाल्मीकि रामायण महाकाव्य का कोई प्राचीन इतिहास नहीं है। यह बौद्ध काल के बाद की रचना है। फिर भी इसके पात्र का प्रभाव सुमेरियन और ईरानीयों की प्राचीनत्तम संस्कृतियों में देखा जा सकता है।

राम के वर्णन की विश्वव्यापीयता का अर्थ है कि राम एक महान ऐतिहासिक व्यक्ति रहे होंगे। इतिहास और मिथकों पर औपनिवेशिक हमला सभी महान धार्मिक साहित्यों का अभिन्न अंग है। लेकिन स्पष्ट रूप से एक ऐतिहासिक पात्र के बिना रामायण कभी भी विश्व की श्रेण्य-साहित्यिक रचना नहीं बन पाएगी।

राम,  मेडियनस  और ईरानीयों के एक नायक भी  हैं ।  जहाँ मित्र, अहुरा मज़्दा आदि जैसे सामान्य देवताओं को वरीयता दी गई है। टी• क्यूइलर यंग, ​​एक प्रख्यात सांस्कृतिक ईरानी विद्वान   जिन्होंने कैम्ब्रिज में प्राचीन इतिहास और प्रारम्भिक विश्वकोश में ईरान के इतिहास और पुरातत्व पर लिखा है:-👇

वह उप-महाद्वीप के बाहर प्रारम्भिक भारतीयों और ईरानीयों को सन्दर्भों की विवेचना करते हैं ।

 💐 राम ’पूर्व-इस्लामी ईरान में एक पवित्र नाम था; जैसे आर्य "राम-एनना" दारा-प्रथम के प्रारम्भिक पूर्वजों में से थे।

जिसका सोने की टैबलेट( शील या मौहर पुरानी फ़ारसी में एक प्रारम्भिक दस्तावेज़ है;

राम जोरास्ट्रियन कैलेंडर में एक महत्वपूर्ण नाम है; "रेमियश" राम और वायु को समर्पित है। संभवतः हनुमान की एक प्रतिध्वनि; भी है। कई राम-नाम पर्सेपोलिस (ईरानी शहर) में पाए जाते हैं।

राम बजरंग फार्स की एक कुर्दिश जनजाति का नाम भी है। राम-नामों के साथ कई सासैनियन शहर: राम अर्धशीर, राम होर्मुज़, राम पेरोज़, रेमा और रुमागम -जैसे नाम प्राप्त होते हैं ।

राम-शहरिस्तान सूरों की प्रसिद्ध राजधानी थी। राम-अल्ला यूफ्रेट्स (फरात) पर एक शहर है और यह फिलिस्तीन में भी है।
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"उच्च प्रामाणिक सुमेरियन राजा-सूची में राम सिन और भरत (बरत-सिन) सौभाग्य से प्राप्त होते हैं।

उच्च प्रामाणिक सुमेरियन राजा-सूची में राम सिन और भरत (बरत-सिन) सौभाग्य से प्राप्त होते हैं।सुमेरियन इतिहास का एक अध्ययन राम का एक बहुत ही ज्वलन्त चित्र प्रदान करता है।

उच्च प्रामाणिक सुमेरियन राजा-सूची में भरत (वरद) warad सिन और रामसिन(रिमसिन )जैसे पवित्र नाम दिखाई देते हैं।
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राम मेसोपोटामिया वर्तमान (ईराक और ईरान)के सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाले सम्राट थे। जिन्होंने 60 वर्षों तक शासन किया।
भरत सिन ने 12 वर्षों तक शासन किया (1834-1822 ई.पू.) का समय
जैसा कि बौद्धों के दशरथ जातक में कहा गया है। जातक का कथन है, "साठ बार सौ, और दस हज़ार से अधिक, सभी को बताया, / प्रबल सशस्त्र राम ने"

केवल इसका मतलब है कि राम ने साठ वर्षों तक शासन किया, जो अश्शूरियों (असुरों) के आंकड़ों से बिल्कुल सहमत हैं।
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अयोध्या सरगोन की राजधानी अगड( अवध) (अजेय) हो सकती है ।
जिसकी पहचान अभी तक नहीं हुई है।
यह संभव है कि एजेड (Agade) (अयोध्या)डेर या हारुत के पास हरयु  या सरयू नदी के पास थी।👇


सीर दरिया का साम्य सरयू से है ।

सिर दरियामध्य एशिया की एक बड़ी नदी है। यह २,२१२ किलोमीटर लम्बी नदी किर्गिज़स्तानताजिकिस्तानउज़बेकिस्तान और काज़ाख़स्तान के देशों से निकलती है। आमू दरिया और सिर दरिया को मध्य एशिया की दो सब से महत्वपूर्ण नदियाँ माना जाता है, हालांकि आमू दरिया में सिर दरिया से कहीं ज़्यादा पानी बहता है।


इतिहास लेखक डी. पी. मिश्रा जैसे विद्वान इस बात से अवगत थे कि राम हेरात क्षेत्र से हो सकते हैं।

प्रख्यात भाषाविद् "सुकुमार सेन" ने यह भी कहा कि राम ईरानीयों के धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में एक पवित्र नाम है।

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सुमेरियन माइथॉलॉजी में "दूर्मा" नाम धर्म की प्रतिध्वनि है ।

सुमेरियन माइथॉलॉजी के मितानियन ( वैदिक रूप) मितज्ञु राजाओं का तुसरत नाम दशरथ की प्रतिध्वनि प्रतीत होता है। मितज्ञुओं का वर्णन ऋग्वेद में हुआ है । ये बाइबिल के मितन्नी ही हैं। Mitanni वैदिक ऋचाओं में (मितज्ञु)

"उत स्या नः सरस्वती जुषाणोप श्रवत्सुभगा यज्ञे अस्मिन् ।
मितज्ञुभिर्नमस्यैरियाना राया युजा चिदुत्तरा सखिभ्यः ॥४॥ ऋग्वेद7/95/4

सायण-भाष्य-उत अपि च "जुषाणा प्रीयमाणा "सुभगा शोभनधना “स्या सा “सरस्वती “नः अस्माकम् “अस्मिन् “यज्ञे “उप “श्रवत् । अस्मदीयाः स्तुतीरुपशृणोतु । कीदृशी सा। “मितज्ञुभिः प्रह्वैर्जानुभिः “नमस्यैः नमस्कारैर्देवैः “इयाना उपगम्यमाना । चिच्छब्दश्चार्थे । “युजा नित्ययुक्तेन “राया धनेन च संगता “सखिभ्यः "उत्तरा उत्कृष्टतरा । ईदृश्यस्मदीयाः स्तुतीरुपशृणोत्वित्यन्वयः

वैदिक पात्र मितज्ञुओं का वर्णन अन्य संस्कृतियों में" 

तथा ऋग्वेद में अन्यत्र भी मितज्ञु जाति का वर्णन है ।"

"स वह्निभिरृक्वभिर्गोषु शश्वन्मितज्ञुभिः पुरुकृत्वा जिगाय । पुरः पुरोहा सखिभिः सखीयन्दृळ्हा रुरोज कविभिः कविः सन्॥३॥(ऋग्वेद 6/32/3)

सायण भाष्य- पुरुकृत्वा बहुकर्मकृत् “सः इन्द्रः “वह्निभिः हविषां वोढृभिः “ऋक्वभिः स्तोतृभिः “शश्वत् सर्वदा "मितज्ञुभिः= संकुचितजानुभिरङ्गिरोभिः सह “गोषु निमित्तभूतेषु "जिगाय असुरान् जितवान् । जित्वा च "पुरोहा पुराणां हन्ता सः इन्द्रः “सखिभिः समानख्यानैः “कविभिः क्रान्तप्रज्ञैरङ्गिरोभिः सह “सखीयन् सखित्वमात्मन इच्छन् “कविः “सन् स्वयमपि क्रान्तप्रज्ञो भवन् “दृळ्हाः स्थिराः “पुरः आसुरीः पुरीः “रुरोज ॥

सायण ने उपर्युक्त दौनों भाष्यों में मितज्ञु शब्द  का अर्थ  "छोटे घुटनों वाले" किया है । जो सत्य नहीं क्योंकि सायण को इतिहास की ज्ञान नहीं था।

मिश्तानी (मिथानी क्यूनिफॉर्म कूर उरुमी  Ta-e-an-i), मित्तानी Mitanni ), जिसे मिस्र के ग्रंथों में अश्शुरियन( असुरों) के समकालीन व सहवर्ती  भी कह गया है।

उत्तरी सीरिया में एक (Hurrian) 
(सुर-भाषा ) बोलने वाला और सीसिस्तान के  दक्षिण पूर्व अनातोलिया राज्य था।

1500-1300 ईसा पूर्व मितन्नी (मितज्ञु) एक हज़ारों अमोरिथ- एमॉराइट (मरुतों) को बाबुल के विनाश के बाद एक क्षेत्रीय शक्ति बन गई ।

और असीरी (अशरियन राजाओं) की एक श्रृंखला ने मेसोपोटामिया में एक शक्ति निर्वाध रूप में बनायी।

मित्तानी साम्राज्य

1500-1300 ईसा पूर्व, सीरिया से उत्तरी सीरिया और दक्षिण-पूर्व एनाटोलिया में स्थित साम्राज्य


मित्तानी साम्राज्य यह सा्म्राज्य कई सदियों तक (१६०० -१२०० ईपू) पश्चिम एशिया में राज करता रहा। इस वंश के सम्राटों के संस्कृत नाम थे। विद्वान समझते हैं कि यह लोग महाभारत के पश्चात भारत से वहां प्रवासी बने। कुछ विद्वान समझते हैं कि यह लोग वेद की (मैत्रायणीय) शाखा के प्रतिनिधि हैं। 

कुछ भी हो यहूदियों के ग्रन्थों में भी इनका वर्ण "सिन्नार (सिनाई पर्वत" के रहने वालों के रूप में हुआ है।

मिद्यान  ( हिब्रू : מדין , Miḏyān ; अरबी : مدين , Maḏyān ; " नाम का अर्थ है :: संघर्ष, निर्णय ") अब्राहम के पुत्र का चौथा पुत्र और :: केतुराह का पुत्र था । वह मिद्यानी लोगों ( हिब्रू : מדיןים , Miḏyānīm ) के पूर्वज हैं, जिन्हें हाउस ऑफ़ इज़राइल के इतिहास में दो महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई थीं । मीदिया उत्तर-पश्चिमी ईरान का एक क्षेत्र है, 

 बाइबल मिद्यानियों की वंशावली के बारे में और अधिक विवरण नहीं देती है।  (बाइबिल-उत्पत्ति 25:2,4 )

यूसुफ

यूसुफ के ईर्ष्यालु भाइयों ने उसे गड्ढ़े में फेंकने के बाद , उसे मिद्यानियों के व्यापारियों को बेच दिया, जो उसे  वे  दास के रूप में बेचने के लिए मिस्र ले गए। 

मूसा

2473 ईसापूर्व पूर्वाह्न की सर्दियों में, मूसा मिस्र से भागकर मिद्यानी देश चले गये। वहाँ उसकी मित्रता एक मिद्यानी याजक से हुई जिसका नाम :: जेथ्रो था । इस जेथ्रो की सात बेटियाँ थीं, जिनमें सिप्पोरा बड़ी थी , जिनसे मूसा ने विवाह किया था।  वर्षों बाद, किन के वंशज क़ेनियों ने स्वयं को इस्राएलियों से जोड़ लिया। ( न्यायियों 1:16 )

परन्तु जब इस्राएली जंगल में भटक रहे थे, तब मिद्यानियों ने "मोआबियों" के साथ मिलकर इस्राएलियों को नष्ट करने का प्रयास किया था। प्रतिशोध में, पीनहास ने मिद्यानियों को कुचलने के लिए 12,000 पुरुषों की एक सेना का नेतृत्व किया।

गिदोन

2764 पूर्वाह्न में, मिद्यानियों ने इस्राएलियों पर अत्याचार किया, जिन्होंने तब तक कनान पर कब्जा कर लिया था । मिद्यानियों ने इस प्रभुत्व को सात वर्षों तक बनाए रखा, जब तक कि न्यायाधीश गिदोन ने तीन सौ की सेना के साथ एक संयुक्त मिद्यानियों- और मोआबी सेना को पराजित नहीं किया। 

वंशज

बाइबिल मिद्यानियों

अरब इतिहासकार और भूगोलवेत्ता, याकूत अल-हमवी, हमें बताते हैं कि अरब की मिद्यानी जनजातियाँ अरबी की हाविल भाषा बोलती थीं , और वह इस तथ्य की भी पुष्टि करते हैं कि मिद्यान इब्राहीम का पुत्र था । मिद्यान की जनजातियाँ मिस्र और अन्य स्रोतों से भी जानी जाती हैं। उदाहरण के लिए, टॉलेमी ने उनकी नाम मोदियाना के रूप में दर्ज किया, जबकि सिनाई प्रायद्वीप के छोर के विपरीत प्राचीन पूर्व-इस्लामिक अरब शहर मद्यान को आज मगहिर शुऐब ("शुऐब की गुफा") के रूप में जाना जाता है। 

कुर्द

इब्राहीम द्वारा भेजे जाने के बाद , मिद्यान के वंशज पर्वत श्रृंखला के उत्तर और दक्षिण दोनों काकेशस के क्षेत्र में बस गए:

मित्तानी देश की राजधानी का नाम वसुखानी (धन की खान) था।

इस वंश के वैवाहिक सम्बन्ध मिस्र से थे। एक धारणा यह है कि इनके माध्यम से भारत का बाबुलमिस्र और यूनान पर गहरा प्रभाव पडा।

मित्तानी वंशावली

  • कीर्त्य Kirta 1500 BC-1490 BC
  • सत्वर्ण 1 :Shuttarna I, son of Kirta 1490 BC-1470 BC
  • वरतर्ण- Barattarna, P/Barat(t)ama 1470 BC-1450 BC
  • Parshatatar, (may be identical with Barattarna) 1450 BC-1440 BC
  • Shaushtatar (son of Parsha(ta) tar) 1440 BC-1410 BC
  • आर्ततम 1 Artatama I 1410 BC-1400 BC
  • सत्वर्ण 2 Shuttarna II 1400 BC-1385 BC
  • अर्थसुमेढ़ Artashumara 1385 BC-1380 BC
  • तुष्यरथ अथवा दशरथ en:Tushratta 1380 BC-1350 BC
  • सत्वर्ण 3 Shuttarna III 1350 BC, son of an usurper Artatama II
  • मतिवाज Shattiwaza or Mattivaza, son of Tushratta 1350 BC-1320 BC
  • क्षत्रवर 1 Shattuara I 1320 BC-1300 BC
  • वसुक्षत्र Wasashatta, son of Shattuara 1300 BC-1280 BC
  • क्षत्रवर 2 Shattuara II, son or nephew of Wasashatta 1280 BC-1270 BC, or maybe the same king as Shattuara I.
सभी तिथियों को सावधानी के साथ लिया जाना चाहिए क्योंकि वे अन्य प्राचीन निकट पूर्वी देशों के कालक्रम के साथ तुलना करके ही काम करते हैं

मितानी के राज्य

सदी 1500 ई०पू० से 1300 ईसा पूर्व विद्यमान थे।ओल्ड असीरियन साम्राज्य (Yamhad) जमहद मध्य अश्शूर साम्राज्य अपने इतिहास की शुरुआत में वैदिक रूप मितज्ञु की प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी मिस्र थुटमोसाइट्स के तहत थी। हालांकि,  हित्ती साम्राज्य की चढ़ाई के साथ, मित्तन्नी और मिस्र ने हित्ति प्रभुत्व के खतरे से अपने पारस्परिक हितों की रक्षा के लिए एक बन्धन बनाया।

14 वीं शताब्दी ईसा पूर्व 14 वीं सदी के दौरान, मितांनी ने अपनी राजधानी वासुखेनी पर केंद्रित निगरानी रखी, जिसका स्थान पुरातत्वविदों द्वारा खबुर नदी के मुख्यालयों पर बताया गया था।
मितन्नी राजवंश ने उत्तरी युफ्रेट्स-तिग्रिस (फरात एवं दजला) क्षेत्र पर सदी के बीच शासन किया।
1475 और सदी 1275 ईसा पूर्व आखिरकार, मित्तानी हित्ती और बाद में अश्शूर (असुर )के हमलों की निन्दा  करते थे, और मध्य असीरियन साम्राज्य के एक प्रान्त का दर्जा कम कर दिया गया था।

पाश्चात्य इतिहास विद "मार्गरेट .एस. ड्रावर ने "तुसरत" (दशरथ)-के नाम का अनुवाद 'भयानक रथों के मालिक' के रूप में किया है।
लेकिन यह वास्तव में 'दशरथ रथों का मालिक' या 'दस गुना रथ' हो सकता है

जो दशरथ के नाम की प्रतिध्वनि है।
दशरथ ने दस राजाओं के संघ का नेतृत्व किया। इस नाम में आर्यार्थ जैसे बाद के नामों की प्रतिध्वनि है।
सीता और राम का ऋग्वेद में भी वर्णन है।
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राम नाम के एक असुर (शक्तिशाली राजा) को संदर्भित करता है, लेकिन कोसल का कोई उल्लेख नहीं करता है

वास्तव में कोसल नाम शायद सुमेरियन माइथॉलॉजी में "खास-ला" के रूप में था ।
और सुमेरियन अभिलेखों के मार-कासे (बार-कासे) के अनुरूप हो सकता है।👇

"refers to an Asura (powerful king) named Rama but makes no mention of Kosala.♨
In fact the name Kosala was probably Khas-la and may correspond to Mar-Khase (Bar-Kahse) of the Sumerian records.

कई प्राचीन संस्कृतियों में  मिथकों में साम्य उनकी प्राचीन एकरूपता का सूचक  हैं।
प्रस्तुत लेख मनु के जीवन की प्रधान घटना  बाढ़ की कहानी का विश्लेषण करना ही  है। परन्तु ये सभी पात्र पौराणिक हैं अत: इनकी ऐतिहासिक सिद्ध के लिए इनका अन्य संस्कृतियों से उद्धरण अपेक्षित है।
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2-सुमेरियन संस्कृति में 'मनु'का वर्णन जीवसिद्ध के रूप में-
महान बाढ़ आई और यह अथक थी और मछली जो विष्णु की मत्स्य अवतार थी, ने मानवता को विलुप्त होने से बचाया।
ज़ीसुद्र सुमेर का एक अच्छा राजा था और देव एनकी ने उसे चेतावनी दी कि शेष देवताओं ने मानव जाति को नष्ट करने का दृढ़ संकल्प किया है ।
उसने एक बड़ी नाव बनाने के लिए ज़ीसुद्र को बताया। बाढ़ आई और मानवता बच गई-

ज़िसुद्रा ( ओल्ड बेबीलोनियन : 𒍣𒌓𒋤𒁺 zi-ud-su₃-ra₂ , नियो-असीरियन : 𒍣𒋤𒁕 zi-sud-da , [1] ग्रीक : Ξίσουθρος , अनुवाद।  Xísouthros ) शूरुपक (c. 2900 ईसा पूर्व) में सूचीबद्ध है। 62 सुमेरियन राजा महान बाढ़ से पहले सुमेर के अंतिम राजा के रूप में सूची की पुनरावृत्ति । बाद में उन्हें सुमेरियन सृजन मिथक के नायक के रूप में दर्ज किया गया और बेरोसस के लेखन में ज़िसुथ्रोस के रूप में प्रकट होता है। उद्धरण वांछित ]

ज़िसुद्र
𒍣𒌓𒋤𒁺
शूरुपक के
राजा सुमेर के राजा
सुमेरियन राजा सूची, 1800 ईसा पूर्व, लार्सा, इराक (विस्तार)। जेपीजी
सुमेरियन राजा सूची, 1800 ईसा पूर्व, लार्सा, इराक
एंटीडिल्वियन राजा
शासनसी।  2900 ईसा पूर्व
पूर्वजउबर टूटू
उत्तराधिकारीकीश का जलप्रलय
जुशूर
मृतअमर
राजवंशपुराना
पिताउबारा-तुतु (अक्कडियन परम्परा)

ज़ीसुद्र कई पौराणिक पात्रों में से एक है जो निकट पूर्वी बाढ़ मिथकों के नायक हैं, जिनमें अत्रहासिस , उत्तानपश्चिम और बाइबिल नूह शामिल हैं। हालांकि प्रत्येक कहानी अपनी विशिष्ट विशेषताओं को प्रदर्शित करती है, कहानी के कई प्रमुख तत्व दो, तीन या सभी चार संस्करणों के लिए आम हैं। 

"साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्य-

"शूरुपक के राजा जीसूद्र 

 सुमेरियन राजा सूची में, ज़्यूसुद्र, या शूरुपक के ज़िन-सुड्डू को एक महान बाढ़ से पहले सुमेर के अंतिम राजा के पुत्र के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। [2] उन्हें दस सार्स (3,600 वर्ष की अवधि) के लिए राजा और गुडुग पुजारी दोनों के रूप में शासन करने के रूप में दर्ज किया गया है , [3] हालांकि यह आंकड़ा शायद दस वर्षों के लिए एक प्रतिवादी त्रुटि है। [4] इस संस्करण में, ज़िसुद्र को अपने पिता उबरा-टूटू से शासन विरासत में मिला , [5] जिन्होंने दस सार्स तक शासन किया । [6]

ज़ियसुद्र के उल्लेख के बाद की पंक्तियाँ पढ़ती हैं:

फिर बाढ़ बह गई। जब जल-प्रलय समाप्त हो गया, और राज्य स्वर्ग से उतर गया, तब राज्य कीश में था। [7]

नदी की बाढ़ के तुरंत बाद प्रारंभिक राजवंशीय काल में किश शहर का विकास शूरुपक (आधुनिक टेल फारा ), उरुक, किश और अन्य  स्थानों पर तलछटी स्तर द्वारा पुरातात्विक रूप से प्रमाणित किया गया था , जिनमें से सभी को रेडियोकार्बन दिनांकित किया गया है। 2900 ईसा पूर्व। [8] जेमडेट नस्र अवधि (सी.ए. 30वीं शताब्दी ईसा पूर्व) से पॉलीक्रोम मिट्टी के बर्तन , जो प्रारंभिक राजवंश I काल से तुरंत पहले थे, सीधे शूरुपक बाढ़ स्तर के नीचे खोजे गए थे। [8] [9] मैक्स मल्लोवन ने लिखा है कि "हम वेल्ड ब्लंडेल प्रिज्म [अर्थात् डब्ल्यूबी-62] से जानते हैं कि बाढ़ के समय, सुमेरियन नूह,शूरुपक शहर का राजा था, जहां उसे आसन्न आपदा की चेतावनी मिली थी। एक के रूप में उसकी भूमिका उद्धारकर्ता गिलगमेश महाकाव्य में अपने समकक्ष उत्तानपश्चिम को सौंपे गए से सहमत हैं। ... पुरालेख संबंधी और पुरातात्विक खोज दोनों ही इस बात पर विश्वास करने के लिए अच्छा आधार देते हैं कि ज़िसुद्र एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक शहर का एक प्रागैतिहासिक शासक था, जिसके स्थल की पहचान की गई है। [10]

यह कि ज़िसुद्र शूरुपक का एक राजा था, गिलगमेश XI टैबलेट द्वारा समर्थित है, जो उत्तानपश्चिम ( सुमेरियन नाम ज़िसुद्रा का अक्कादियन अनुवाद) का संदर्भ 23 पंक्ति में "मैन ऑफ़ शूरुपक" के साथ देता है। [11

सुमेरियन बाढ़ मिथक-

ज़ियसुद्रा की कहानी सुमेरियन में लिखी गई एक एकल खंडित गोली से जानी जाती है, जिसकी लिपि 17 वीं शताब्दी ईसा पूर्व ( ओल्ड बेबीलोनियन साम्राज्य ) के अनुसार है, और 1914 में अर्नो पोएबेल द्वारा प्रकाशित की गई थी। [12] पहला भाग मनुष्य और जानवरों के निर्माण और पहले शहरों एरिडु , बाद-तिबिरा , लारक , सिप्पार और शूरुपक की स्थापना से संबंधित है । टैबलेट में लापता खंड के बाद, हम सीखते हैं कि देवताओं ने मानव जाति को नष्ट करने के लिए बाढ़ भेजने का फैसला किया है। भगवान एनकी(ताजे पानी के अंडरवर्ल्ड समुद्र के स्वामी और बेबीलोनियन देवता ईए के सुमेरियन समकक्ष) एक बड़ी नाव बनाने के लिए शूरुपक के शासक ज़िसुद्रा को चेतावनी देते हैं; नाव के लिए दिशाओं का वर्णन करने वाला मार्ग भी खो गया है। जब टैबलेट फिर से शुरू होता है, तो यह बाढ़ का वर्णन कर रहा होता है। एक भयानक तूफान सात दिनों तक चला, "विशाल नाव को महान जल पर उछाला गया था," तब उत्तु (सूर्य) प्रकट होता है और ज़िसुद्र एक खिड़की खोलता है, खुद को आगे बढ़ाता है, और एक बैल और एक भेड़ की बलि देता है। एक और विराम के बाद, पाठ फिर से शुरू होता है, बाढ़ स्पष्ट रूप से खत्म हो जाती है, और ज़ीसुद्र खुद को एन (स्काई) और एनिल (लॉर्डब्रेथ) के सामने झुका रहा है, जो उसे "अनन्त सांस" देते हैं और उसे दिलमुन में रहने के लिए ले जाते हैं । कविता का शेष भाग खो गया है। [13]विफल सत्यापन ]

ज़ियसुद्रा का महाकाव्य 258-261 पंक्तियों में एक तत्व जोड़ता है जो अन्य संस्करणों में नहीं मिलता है, कि नदी की बाढ़ के बाद [14] "राजा ज़िसुद्र ... उन्होंने कुर दिलमुन में निवास किया , वह स्थान जहां सूरज उगता है"। सुमेरियन शब्द "कुर" एक अस्पष्ट शब्द है। शमूएल नूह क्रैमर का कहना है कि "इसका प्राथमिक अर्थ 'पहाड़' है, इस तथ्य से प्रमाणित है कि इसके लिए इस्तेमाल किया जाने वाला चिन्ह वास्तव में पहाड़ का प्रतिनिधित्व करने वाला एक चित्रलेख है। पहाड़ी देशों के बाद से 'पहाड़' के अर्थ से 'पहाड़' विकसित हुआ है। सीमावर्ती सुमेर अपने लोगों के लिए एक निरंतर खतरा थे। कुर का अर्थ सामान्य रूप से 'भूमि' भी था। [13] अंतिम वाक्य का अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है "पार करने के पहाड़ में, दिलमुन का पहाड़,

एक सुमेरियन दस्तावेज़ जिसे क्रेमर द्वारा लगभग 2600 ईसा पूर्व के शूरुपक के निर्देश के रूप में जाना जाता है, बाद के संस्करण में ज़िसुद्र को संदर्भित करता है। क्रेमर ने कहा "तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य तक ज़ियसुद्र साहित्यिक परंपरा में एक सम्मानित व्यक्ति बन गए थे" [15]

ज़िसुथ्रोस -

ज़िसुथ्रोस (Ξίσουθρος) सुमेरियन ज़ियसुद्रा का यूनानीकरण है, जिसे बेरोसस के लेखन से जाना जाता है जो बाबुल में बेल का एक पुजारी था , जिस पर अलेक्जेंडर पॉलीहिस्टर मेसोपोटामिया की जानकारी के लिए बहुत अधिक निर्भर था। बाढ़ मिथक के इस संस्करण की दिलचस्प विशेषताओं में, सुमेरियन देवता एन्की की ग्रीक देवता क्रोनस , ज़ीउस के पिता के साथ व्याख्या के माध्यम से पहचान है ; और दावा है कि ज़िसुथ्रोस द्वारा निर्मित ईख की नाव कम से कम बेरोसस के दिन तक, अर्मेनिया के "कोरसीरियन पर्वत" में बची रही. ज़िसुथ्रोस को एक राजा के रूप में सूचीबद्ध किया गया था, जो एक आर्डेट्स का पुत्र था, और उसने 18 सारोई पर शासन किया था । एक सरोस ( अक्कडियन में शार ) 3600 के लिए खड़ा है और इसलिए 18 सरोई का अनुवाद 64,800 वर्षों के रूप में किया गया था। एक सरोई या सरोस एक ज्योतिषीय शब्द है जिसे 29.5 दिनों के 222 चंद्र महीनों या 17.93 सौर वर्षों के बराबर 18.5 चंद्र वर्ष के रूप में परिभाषित किया गया है।

अन्य स्रोत-

ज़ियसुद्र का उल्लेख अन्य प्राचीन साहित्य में भी किया गया है, जिसमें द डेथ ऑफ़ गिलगमेश [16] और द पोएम ऑफ़ अर्ली रूलर्स , [17] और द इंस्ट्रक्शंस ऑफ़ शूरुपक का एक बाद का संस्करण शामिल है । [18]


मेसोपोटामिया के धर्म में ज़ीसुद्रा , भगवान द्वारा भेजी गई बाढ़ के उत्तरजीवी के रूप में बाइबिल के नूह के मोटे तौर पर प्रतिरूप । जब देवताओं ने मानवता को बाढ़ से नष्ट करने का फैसला किया था, तो भगवान एन्की (अक्कादियन ईए ), जो डिक्री से सहमत नहीं था , ने इसे ज़ीसुद्रा को प्रकट किया, जो अपनी विनम्रता और आज्ञाकारिता के लिए जाना जाता है। एनकी की आज्ञा के अनुसार ज़्यूसुद्र ने किया और एक विशाल नाव का निर्माण किया, जिसमें वह सफलतापूर्वक बाढ़ से बाहर निकला। बाद में, उसने खुद को देवताओं अन ( अनु ) और एनिल (बेल) के सामने दंडवत किया, और एक ईश्वरीय जीवन जीने के लिए एक इनाम के रूप में, ज़िसुद्र को अमरता दी गई । उत्तानपश्चिम देखें ।

बाढ़ मिथक


बाढ़ मिथक , जिसे बाढ़ मिथक भी कहा जाता है, कई पौराणिक कथाओं में से कोई भी जिसमें बाढ़ आम तौर पर अवज्ञाकारी मूल आबादी को नष्ट कर देती है। एक महान बाढ़ (जलप्रलय) के मिथक यूरेशिया और अमेरिका में फैले हुए हैं । बाढ़, कुछ अपवादों के साथ, पानी द्वारा एक प्रायश्चित है, जिसके बाद एक नए प्रकार की दुनिया का निर्माण होता है।

नोह की नौका
नोह की नौका

बाइबिल में वर्णित बाढ़ों का  मिथक-

जलप्रलय का बाइबिल विवरण (उत्पत्ति 6:11–9:19) विशेषताएंबाढ़ कहानी के नायक के रूप में नूह । अपने खाते में, नूह को कुलपति के रूप में दर्शाया गया है, जो अपने निर्दोष धर्मपरायणता के कारण, अपने दुष्ट समकालीनों के जलप्रलय में नाश होने के बाद मानव जाति को बनाए रखने के लिए परमेश्वर द्वारा चुना गया था। एक धर्मी व्यक्ति, नूह ने "प्रभु की दृष्टि में अनुग्रह पाया" (उत्पत्ति 6:8)। इस प्रकार, जब परमेश्वर ने पृथ्वी के भ्रष्टाचार को देखा और इसे नष्ट करने का निश्चय किया, तो उसने नूह को आसन्न आपदा की दिव्य चेतावनी दी और उसे और उसके परिवार को बचाने का वादा करते हुए उसके साथ एक वाचा बाँधी। नूह को एक निर्माण करने का निर्देश दिया गया था सन्दूक , और परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार उसने सन्दूक में दुनिया की सभी प्रजातियों के जानवरों के नर और मादा नमूने लिए, जिससे स्टॉक की भरपाई की जा सकती थी। नतीजतन, इस कथा के अनुसार, पूरी जीवित मानव जाति नूह के तीन पुत्रों और उनकी पत्नियों के वंशज थे।

नूह के वीरतापूर्ण उत्तरजीविता के बाद, अरारत पर्वत पर सुरक्षित रूप से उतरने के बाद बाढ़ का धार्मिक अर्थ व्यक्त किया गया। फिर उसने एक वेदी का निर्माण किया जिस पर उसने भगवान को जले हुए बलिदान चढ़ाए, जिसने फिर खुद को एक समझौते के लिए बाध्य किया कि वह मानवता के खाते में पृथ्वी को फिर कभी श्राप न दे। तब परमेश्वर ने इस वाचा में अपने वादे की दृश्य गारंटी के रूप में आकाश में एक मेघ-धनुष स्थापित किया । परमेश्वर ने सृष्टि के समय दी गई अपनी आज्ञाओं को भी नवीनीकृत किया लेकिन दो परिवर्तनों के साथ: मानव जाति अब जानवरों को मार सकती थी और मांस खा सकती थी, और हत्या के लिए मनुष्यों को दंड दिया जाएगा। मेसोपोटामिया की पौराणिक कथाओं की मूर्त समानताओं के बावजूदऔर बाइबिल की बाढ़, बाइबिल की कहानी का एक अनूठा हिब्रू परिप्रेक्ष्य है। बेबीलोनियन कहानियों में बाढ़ का विनाश देवताओं के बीच असहमति का परिणाम था, जबकि उत्पत्ति में यह मानव इतिहास के नैतिक भ्रष्टाचार का परिणाम था। मेसोपोटामिया के संस्करणों का आदिम बहुदेववाद बाइबिल की कहानी में एक धर्मी ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और परोपकार की पुष्टि में बदल गया है।

मेसोपोटामिया बाढ़ मिथक

के अनुसार एरिडु जेनेसिस , एक प्राचीन सुमेरियन  धार्मिक महाकाव्य, देवताओं ने मिट्टी से मानव जाति को जमीन पर खेती करने, भेड़-बकरियों की देखभाल करने और देवताओं की पूजा को बनाए रखने के लिए तैयार किया। शहर जल्द ही बन गए, लेकिन, किसी कारण से, देवताओं ने बाढ़ से मानव जाति को नष्ट करने का फैसला किया। एन्की ( अक्कडियन : ईए), जो डिक्री से सहमत नहीं था, ने इसे प्रकट किया ज़िसुद्र , एक ऐसा व्यक्ति जो अपनी विनम्रता और आज्ञाकारिता के लिए जाना जाता है। एनकी की आज्ञा के अनुसार ज़्यूसुद्र ने किया और एक विशाल नाव का निर्माण किया, जिसमें वह सफलतापूर्वक बाढ़ से बाहर निकला। बाद में, उसने खुद को देवताओं एन (अनु) और एनिल के सामने झुकाया, और एक ईश्वरीय जीवन जीने के लिए एक इनाम के रूप में, ज़िसुद्र को अमरत्व दिया गया।

 संबंधित बेबीलोनियन में गिलगमेश महाकाव्य , उत्तानपश्चिम और उनकी पत्नी पौराणिक बाढ़ के उत्तरजीवी हैं, जिन्होंने अपने द्वारा निर्मित महान नाव में मानव और पशु जीवन को संरक्षित किया है। इस जोड़े को एक सन्दूक बनाने के दैवीय निर्देश को मानने के लिए एक इनाम के रूप में भगवान एनिल द्वारा देवता घोषित किया गया था।

एक अन्य मेसोपोटामिया मिथक की कहानी है अतरहासिस , एक बुद्धिमान व्यक्ति जिसे खुद को बचाने के लिए एक जहाज बनाने के लिए देवताओं में से एक द्वारा चेतावनी दिए जाने के बाद बाढ़ से बचाया गया था। यह कहानी खंडित ओल्ड बेबीलोनियन और असीरियन संस्करणों में संरक्षित है। 

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इन बेबीलोनियन पौराणिक कथाओं में बाढ़ की बाइबिल की कहानी के साथ घनिष्ठ संबंध हैं और सन्दूक के निर्माण और प्रावधान, इसके प्लवनशीलता, और रेवेन और कबूतर के प्रेषण के साथ-साथ मानव द्वारा निभाई गई भूमिका जैसी विशेषताओं का स्रोत हैं। बाइबिल खाते में नायक।

अन्य बाढ़ मिथक

ग्रीक पौराणिक कथाओं में,प्रोमेथियस (मानव जाति का निर्माता) का पुत्र ड्यूकालियन , नूह के समकक्ष है। जब  देवताओं के राजा ज़्यूस ने बाढ़ से पूरी मानवता को नष्ट करने का संकल्प लिया, तो ड्यूकालियन ने एक सन्दूक का निर्माण किया, जिसमें एक संस्करण के अनुसार, वह और उसकी पत्नी बाढ़ से बाहर निकले और  माउंट पर्नासस पर उतरे । 

भारतीय बाढ़ पौराणिक कथाओं के अनुसार, आदमीमनु महान बाढ़ का एकमात्र उत्तरजीवी था , जो पहले आदमी नूह और  आदम के हिब्रू बाइबिल के आंकड़ों की विशेषताओं को मिलाता  था । शतपथ  ब्राह्मण याद करते हैं कि कैसे मनु को एक मछली ने चेतावनी दी थी, जिस पर उसने दया की थी, कि एक बाढ़ पूरी मानवता को नष्ट कर देगी। इसलिए उसने मछली की सलाह के अनुसार एक नाव बनाई। जब बाढ़ आई, तो उसने इस नाव को मछली के सींग से बांध दिया और सुरक्षित रूप से एक पहाड़ की चोटी पर आराम करने के स्थान पर ले जाया गया। जब बाढ़ कम हुई, तो एकमात्र जीवित मानव मनु ने जल में मक्खन और खट्टे दूध की आहुति डालते हुए एक यज्ञ किया। एक वर्ष के बाद, जल से एक स्त्री का जन्म हुआ जिसने स्वयं को "मनु की पुत्री" घोषित किया। ये दोनों तब पृथ्वी को फिर से भरने के लिए एक नई मानव जाति के पूर्वज बन गए । महाभारत ("भारत राजवंश के   महान महाकाव्य") में, मछली की पहचान भगवान  ब्रह्मा के साथ की गई है , जबकि पुराणों ("प्राचीन विद्या") में यह हैमत्स्य , भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार ।

एज़्टेक का मानना ​​था कि वर्तमान ब्रह्मांड से पहले चार संसार मौजूद थे। वे संसार, या "सूर्य", विपत्तियों द्वारा नष्ट कर दिए गए थे, और प्रत्येक सूर्य के अंत में मानवजाति को पूरी तरह से मिटा दिया गया था। चौथा सूर्य, नहुई-अटल, "चार-जल", 52 वर्षों तक चली एक विशाल बाढ़ में समाप्त हुआ। केवल एक पुरुष और एक महिला बच गए, एक विशाल सरू में शरण ली, लेकिन बाद में उन्हें कुत्तों में बदल दिया गया।

एनसाइक्लोपी

नूह

बाइबिल का आंकड़ा

सारांश

इस विषय का संक्षिप्त सारांश पढ़ें

नूह का सन्दूक, सेंट-सविन-सुर-गार्टेम्पे, फादर में चर्च की गुफा में 12वीं शताब्दी का फ्रेस्को।

नूह , बाइबिल के नायक, नोए की वर्तनी भी है उत्पत्ति के पुराने नियम की किताब में बाढ़ की कहानी , दाख की बारी की खेती के प्रवर्तक, और, शेम, हाम और जेफेथ के पिता के रूप में, एक सेमिटिक वंशावली रेखा के प्रतिनिधि प्रमुख। कम से कम तीन बाइबिल स्रोत परंपराओं का एक संश्लेषण, नूह एक धर्मी व्यक्ति की छवि है जिसे एक पक्ष बनाया गया है इस्राएल के परमेश्वर यहोवा के साथ वाचा , जिसमें आपदा के विरुद्ध प्रकृति की भविष्य की सुरक्षा सुनिश्चित है।

नूह उत्पत्ति 5:29 में लेमेक के पुत्र के रूप में और आदम के वंश में नौवें स्थान पर प्रकट होता है। जलप्रलय की कहानी (उत्पत्ति 6:11-9:19) में, उसे कुलपति के रूप में दर्शाया गया है, जिसे उसकी निष्कलंक धर्मपरायणता के कारण, उसके दुष्ट समकालीनों के जलप्रलय में नष्ट हो जाने के बाद मानव जाति को बनाए रखने के लिए परमेश्वर द्वारा चुना गया था। एक धर्मी व्यक्ति, नूह ने "प्रभु की दृष्टि में अनुग्रह पाया" (उत्पत्ति 6:8)। इस प्रकार, जब परमेश्वर ने पृथ्वी के भ्रष्टाचार को देखा और इसे नष्ट करने का निश्चय किया, तो उसने नूह को आसन्न आपदा की दिव्य चेतावनी दी और उसे और उसके परिवार को बचाने का वादा करते हुए उसके साथ एक वाचा बाँधी । नूह को एक निर्माण करने का निर्देश दिया गया था सन्दूक , और परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार उसने सन्दूक में दुनिया की सभी प्रजातियों के जानवरों के नर और मादा नमूने लिए, जिससे स्टॉक की भरपाई की जा सकती थी। नतीजतन, इस कथा के अनुसार, पूरी जीवित मानव जाति नूह के तीन पुत्रों के वंशज थे। ऐसी वंशावली एक सार्वभौमिक ढाँचे को स्थापित करती है जिसके भीतर इज़राइल के विश्वास के पिता के रूप में इब्राहीम की बाद की भूमिका अपने उचित आयामों को ग्रहण कर सकती है।

बाढ़ की कहानी का इनसे गहरा नाता है सर्वनाश बाढ़ की बेबीलोनियन परंपराएँ जिसमेंउत्तानपश्चिम नूह के अनुरूप भूमिका निभाता है। ये पौराणिक कथाएँ बाइबिल की बाढ़ की कहानी की ऐसी विशेषताओं का स्रोत हैं जैसे कि सन्दूक का निर्माण और प्रावधान, उसका तैरना, और पानी का घटाव, साथ ही साथ मानव नायक द्वारा निभाई गई भूमिका। टैबलेट संख्या (XI)गिलगमेश महाकाव्य उत्तानपश्चिम का परिचय देता है, जो नूह की तरह, एक सन्दूक बनाने के लिए दिव्य निर्देश को ध्यान में रखते हुए लौकिक विनाश से बच गया।

The religious meaning of the Flood is conveyed after Noah’s heroic survival. He then built an altar on which he offered burnt sacrifices to God, who then bound himself to a pact never again to curse the earth on man’s account. God then set a rainbow in the sky as a visible guarantee of his promise in this covenant. God also renewed his commands given at creation but with two changes: man could now kill animals and eat meat, and the murder of a man would be punished by men.


Despite the tangible similarities of the Mesopotamian and biblical myths of the flood, the biblical story has a unique Hebraic perspective. In the Babylonian story the destruction of the flood was the result of a disagreement among the gods; in Genesis it resulted from the moral corruption of human history. The primitive polytheism of the Mesopotamian versions is transformed in the biblical story into an affirmation of the omnipotence and benevolence of the one righteous God. Again, following their survival, Utnapishtim and his wife are admitted to the circle of the immortal gods; but Noah and his family are commanded to undertake the renewal of history.

उत्पत्ति 9:20-27 में नूह से संबंधित कथा एक अलग चक्र से संबंधित है, जो जलप्रलय की कहानी से संबंधित नहीं लगती है। उत्तरार्द्ध में, नूह के पुत्र विवाहित हैं और उनकी पत्नियाँ उनके साथ सन्दूक में हैं; लेकिन इस आख्यान में वे अविवाहित प्रतीत होंगे, और न ही नूह की बेशर्म नशे की लत बाढ़ की कहानी के पवित्र नायक के चरित्र के साथ मेल खाती है। उत्पत्ति 9:20-27 में तीन अलग-अलग विषयों का पता लगाया जा सकता है: पहला, यह परिच्छेद कृषि की शुरुआत का वर्णन करता है, और विशेष रूप सेबेल , नूह के लिए; दूसरा, यह नूह के तीन पुत्रों के व्यक्तियों में प्रदान करने का प्रयास करता है,शेम,हाम, और जेफेथ, मानव जाति की तीन जातियों के पूर्वज और उनके ऐतिहासिक संबंधों के लिए कुछ हद तक खाते में; और तीसरा, कनान की अपनी निंदा के द्वारा , यह बाद में इस्राएलियों की विजय और उनके अधीनता के लिए एक परोक्ष औचित्य प्रदान करता है। कनानी - नूह के नशे में धुत होने और उसके पुत्र हाम का अनादर करने के परिणामस्वरूप नूह ने हाम के पुत्र कनान को श्राप दिया। यह घटना फ़िलिस्तीन के जातीय और सामाजिक विभाजन का प्रतीक हो सकती है: इज़राइली (शेम की रेखा से) कनान की पूर्व-इज़राइली आबादी से अलग हो जाएंगे (जो कि व्यभिचारी के रूप में चित्रित किया गया है), जो इब्रानियों के अधीन रहेंगे।


पेन्टाट्यूक के संकलन से पहले नूह की प्रतीकात्मक आकृति प्राचीन इस्राएल में जानी जाती थी । यहेजकेल (14:14, 20) उसके बारे में उस धर्मी व्यक्ति के आदर्श के रूप में बात करता है , जो इस्राएलियों के बीच अकेले, परमेश्वर के प्रतिशोध से बचेगा । नए नियम में, ल्यूक (3:36) के अनुसार सुसमाचार की वंशावली में नूह का उल्लेख किया गया है जो कि चित्रित करता है आदम से यीशु का वंश। यीशु जलप्रलय की कहानी का भी उपयोग करते हैं जो पुरुषों की एक सांसारिक पीढ़ी पर "नूह के दिनों में" बपतिस्मा के उदाहरण के रूप में आई थी, और नूह को अपने समय के पुरुषों के लिए पश्चाताप के उपदेशक के रूप में चित्रित किया गया है, जो स्वयं में एक प्रमुख विषय है यहूदी एपोक्रिफ़ल और रैबिनिकल लेखन।


पौराणिक आंकड़ा


जैसा कि सभी धर्मों के साथ होता हैप्रतीकात्मकता , पौराणिक आख्यानों को सही ठहराने या उन्हें विश्वसनीय बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। प्रत्येक मिथक अपने आप को एक आधिकारिक , तथ्यात्मक विवरण के रूप में प्रस्तुत करता है, भले ही वर्णित घटनाएँ प्राकृतिक नियम या सामान्य अनुभव से कितनी ही भिन्न क्यों न हों। इस प्राथमिक धार्मिक अर्थ के विस्तार से, मिथक शब्द का उपयोग एक वैचारिक विश्वास को संदर्भित करने के लिए अधिक शिथिल रूप से किया जा सकता है, जब वह विश्वास अर्ध-धार्मिक विश्वास का उद्देश्य हो; एक उदाहरण राज्य के विलुप्त होने का मार्क्सवादी गूढ़ वैज्ञानिक मिथक होगा।

जबकि मिथकों की रूपरेखा एक अतीत की अवधि से या अपने स्वयं के अलावा किसी अन्य समाज से आम तौर पर काफी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, उन मिथकों को पहचानना जो अपने समय और समाज में प्रभावी हैं हमेशा मुश्किल होता है। यह शायद ही आश्चर्य की बात है, क्योंकि एक मिथक का अधिकार खुद को साबित करने से नहीं बल्कि खुद को पेश करने से होता है। इस अर्थ में एक मिथक का अधिकार वास्तव में "बिना कहे चला जाता है," और मिथक को विस्तार से केवल तभी रेखांकित किया जा सकता है जब उसका अधिकार अब निर्विवाद नहीं है, लेकिन किसी अन्य, अधिक व्यापक मिथक द्वारा किसी तरह से खारिज या दूर कर दिया गया है।

मिथ शब्द ग्रीक मिथोस से निकला है , जिसमें "शब्द", "कहने" और "कहानी," से लेकर "कथा" तक कई अर्थ हैं; मिथकों की निर्विवाद वैधता की तुलना लोगो से की जा सकती है , जिस शब्द की वैधता या सच्चाई को तर्क और प्रदर्शित किया जा सकता है। क्योंकि मिथक सबूत के प्रयास के बिना शानदार घटनाओं का वर्णन करते हैं, कभी-कभी यह माना जाता है कि वे बिना किसी वास्तविक आधार वाली कहानियां हैं, और यह शब्द झूठ या सबसे अच्छा गलत धारणा का पर्याय बन गया है। हालांकि, धर्म के अध्ययन में , मिथकों और कहानियों के बीच अंतर करना महत्वपूर्ण है जो केवल असत्य हैं।

इस लेख के पहले भाग में ज्ञान की आधुनिक शाखाओं द्वारा प्रस्तावित विषय के विभिन्न दृष्टिकोणों को ध्यान में रखते हुए प्रकृति, अध्ययन, कार्यों, सांस्कृतिक प्रभाव और मिथकों के प्रकारों पर चर्चा की गई है। दूसरे भाग में, मिथक में जानवरों और पौधों की भूमिका के विशेष विषय की कुछ विस्तार से जांच की जाती है। विशिष्ट संस्कृतियों की पौराणिक कथाओं को ग्रीक धर्म , रोमन धर्म और जर्मनिक धर्म के लेखों में शामिल किया गया है ।

मिथक की प्रकृति, कार्य और प्रकार

मिथक हर समाज में मौजूद है। वास्तव में, यह मानव संस्कृति का एक बुनियादी घटक प्रतीत होगा । क्योंकि विविधता इतनी महान है, मिथकों की प्रकृति के बारे में सामान्यीकरण करना मुश्किल है। लेकिन यह स्पष्ट है कि उनकी सामान्य विशेषताओं और उनके विवरण में लोगों के मिथक लोगों की आत्म-छवि को प्रतिबिंबित, अभिव्यक्त और अन्वेषण करते हैं। इस प्रकार मिथक का अध्ययन व्यक्तिगत समाजों और समग्र रूप से मानव संस्कृति दोनों के अध्ययन में केंद्रीय महत्व रखता है।

सैमेटिक संस्कृतियों में प्राप्त मिथकों के अनुसार
नूह (मनु:)को एक बड़ी नाव बनाने और नाव पर सभी जानवरों की एक जोड़ी लेने की चेतावनी दी गई थी। नाव को अरारात पर्वत जाना था ।
और उसके शीर्ष पर लंगर डालना था जो बाढ़ में बह गया था।

इन तीन प्राचीन संस्कृतियों में महान बाढ़ के बारे में बहुत समान कहानियाँ हैं।

बाइबिल के अनुसार इज़राइल में इस तरह की बड़ी बाढ़ का कारण कोई महान नदियाँ नहीं हैं, लेकिन हम जानते हैं कि
इब्रानियों ने उर के इब्राहीम के लिए अपनी उत्पत्ति का पता लगाया जो मेसोपोटामिया में है।
भारतीय इतिहास में यही इब्राहीम ब्रह्मा है।
जबकि टिगरिस (दजला)और यूफ्रेट्स (फरात)बाढ़ और अक्सर बदलते प्रवेश में, उनकी बाढ़ उतनी बड़े पैमाने पर नहीं होती है।
एक दिलचस्प बात यह है कि अंग्रेजी क्रिया "Meander "का अर्थ है, जिसका उद्देश्य लक्ष्यहीनता से एक तुर्की नदी के नाम से आता है।
जो अपने परिवेश को बदलने के लिए कुख्यात है।
सिंधु और गंगा बाढ़ आती हैं लेकिन मनु द्वारा वर्णित प्रलय जैसा कुछ भी नहीं है।

महान जलप्रलय 5000 ईसा पूर्व के आसपास हुआ जब भूमध्य सागर काला सागर में टूट गया।
इसने यूक्रेन, अनातोलिया, सीरिया और मेसोपोटामिया को विभिन्न दिशाओं में (littoral) निवासियों के प्रवास का नेतृत्व किया।
ये लोग अपने साथ बाढ़ और उसके मिथक की अमिट स्मृति को ले गए।

अक्कादियों ने कहानी को आगे बढ़ाया क्योंकि उनके लिए सुमेरियन वही थे जो लैटिन यूरोपीय थे।

सभी अकाडियन शास्त्रियों को सुमेरियन, एक मृत भाषा सीखना था, जैसे कि सभी शिक्षित यूरोपीय मध्य युग में लैटिन सीखते हैं।

ईसाइयों ने मिथक को शामिल किया क्योंकि वे पुराने नियम को अवशोषित करते थे क्योंकि उनके भगवान जन्म से यहूदी थे।
बाद में उत्पन्न हुए धर्मों ने मिथक को शामिल नहीं किया। जोरास्ट्रियनवाद जो कि भारतीय वैदिक सन्दर्भों में साम्य के साथ दुनियाँ के रंगमञ्च पर उपस्थित होता है; ने मिथक को छोड़ दिया।
अर्थात्‌ पारसी धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में जल प्रलय के स्थान पर यम -प्रलय ( हिम -प्रलय ) का वर्णन है 

जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म। इसी तरह इस्लाम जो यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और कुछ स्थानीय अरब रीति-रिवाजों का मिश्रण है, जो मिथक को छोड़ देता है। सभी मनु के जल प्रलय के मिथकों में विश्वास करते हैं ।

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सुमेरियन और भारतीयों के बीच एक और आम मिथक है  सात ऋषियों का है।
सुमेरियों का मानना ​​था कि उनका ज्ञान और सभ्यता सात ऋषियों से उत्पन्न हुई थी। हिंदुओं में सप्त ऋषियों का मिथक है जो इन्द्र से अधिक शक्तिशाली थे।
यह सुमेरियन कैलेंडर से है कि हमारे पास अभी भी सात दिन का सप्ताह है।
उनके पास एक दशमलव प्रणाली भी नहीं थी जिसे भारत ने शून्य के साथ आविष्कार किया था। उनकी गिनती का आधार दस के बजाय साठ था ।
और इसीलिए हमारे पास अभी भी साठ सेकंड से एक मिनट, साठ मिनट से एक घंटे और एक सर्कल में 360 डिग्री है।

सीरिया में अनदेखी मितन्नी राजधानी को वासु-खन्नी अर्थात समृद्ध -पृथ्वी का नाम दिया गया था।
मनु ने अयोध्या को बसाया यह तथ्य वाल्मीकि रामायण में वर्णित है।

वेद में अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है, "अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या"
अथर्ववेद १०/२/३१ में  वर्णित है।
वास्तव में यह सारा सूक्त ही अयोध्या पुरी के निर्माण के लिए है।
नौ द्वारों वाला हमारा यह शरीर ही अयोध्या पुरी बन सकता है।
अयोध्या का समानार्थक शब्द "अवध" है ।

"मध्य-एशिया (तुर्की) में मनु की अवधारणा-

प्राचीन काल में एशिया - माइनर ---(छोटा एशिया), जिसका ऐतिहासिक नाम -करण अनातोलयियो के रूप में भी हुआ है ।
यूनानी इतिहास कारों विशेषत: होरेडॉटस् ने अनातोलयियो के लिए एशिया माइनर शब्द का प्रयोग किया है ।

जिसे आधुनिक काल में तुर्किस्तान अथवा टर्की नाम से भी जानते हैं ।
यहाँ की पार्श्व -वर्ती संस्कृतियों में मनु की प्रसिद्धि उन सांस्कृतिक-अनुयायीयों ने अपने पूर्व-पुरुष  { Pro -Genitor } के रूप में स्वीकृत की है ।

मनु को पूर्व- पुरुष मानने वाली जन-जातियाँ प्राय: भारोपीय वर्ग की भाषाओं का सम्भाषण करती रहीं हैं ।
वस्तुत: भाषाऐं सैमेटिक वर्ग की हो अथवा हैमेटिक वर्ग की अथवा भारोपीय , सभी भाषाओं मे समानता का कहीं न कहीं सूत्र अवश्य है।

जैसा कि मिश्र की संस्कृति में मिश्र का प्रथम पुरुष जो देवों का का भी प्रतिनिधि था , वह था "मेनेस्" (Menes)अथवा मेनिस् (Menis) इस संज्ञा से अभिहित था ।

मेनिस ई०पू० 3150 के समकक्ष मिश्र का प्रथम शासक और मेंम्फिस (Memphis) नगर में जिसका निवास था

"मेंम्फिस "प्राचीन मिश्र का महत्वपूर्ण नगर जो नील नदी की घाटी में आबाद है ।
तथा यहीं का पार्श्ववर्ती देश फ्रीजिया (Phrygia)के मिथकों में भी मनु की जल--प्रलय का वर्णन मिऑन (Meon)के रूप में है ।

मिऑन अथवा माइनॉस का वर्णन ग्रीक पुरातन कथाओं में क्रीट के प्रथम राजा के रूप में है । जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र है ।

और यहीं एशिया- माइनर के पश्चिमीय समीपवर्ती लीडिया( Lydia) देश वासी भी इसी मिअॉन (Meon) रूप में मनु को अपना पूर्व पुरुष मानते थे।

इसी मनु के द्वारा बसाए जाने के कारण लीडिया देश का प्राचीन नाम मेऑनिया "Maionia" भी था ।
ग्रीक साहित्य में विशेषत: होमर के काव्य में "मनु" को (Knossos) क्षेत्र का का राजा बताया गया है ।

ग्रीक पौराणिक कथाओं में मिनोस कौन था ?

ग्रीक पौराणिक कथाओं में मिनोस क्रेते द्वीप के राजा और शासक थे। उन्हें ज़्यूस और यूरोपा का पुत्र माना जाता था । किंवदंतियों के भीतर, मिनोस को कई उपलब्धियों का श्रेय दिया जाता है, जिसमें पोसिडॉन की इच्छा के माध्यम से सिंहासन प्राप्त करना और एजियन सागर के कई द्वीपों का उपनिवेश करना शामिल है। उन्हें कानूनों का एक सफल कोड बनाने का श्रेय भी दिया जाता है। मिनोस ग्रीक पौराणिक कथाओं की कई कहानियों में एक शक्तिशाली राजा के रूप में एक चरित्र के रूप में प्रकट होता है जो न्याय और कभी-कभी अत्याचार के साथ शक्ति रखता है। ग्रीक किंवदंतियों के अलावा, विद्वानों और इतिहासकारों का मानना ​​है कि मिनोस कांस्य युग के शासकों को दी गई एक शाही उपाधि हो सकती है।

"कनान देश की कैन्नानाइटी(Canaanite ) संस्कृति में बाल -मिऑन के रूप में भारतीयों के बल और मनु (Baal- meon) और यम्म (Yamm) देव के रूप मे वैदिक देव यम से साम्य संयोग नहीं अपितु संस्कृतियों की एकरूपता की द्योतक है ।

यम और मनु दौनों को सजातिय रूप में सूर्य की सन्तानें बताया है।
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विश्व संस्कृतियों में  यम  का वर्णन --- यहाँ भी कनानी संस्कृतियों में भारतीय पुराणों के समान यम का उल्लेख यथाक्रम नदी ,समुद्र ,पर्वत तथा न्याय के अधिष्ठात्री देवता के रूप में हुआ है।

कनान प्रदेश से ही कालान्तरण में सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं का विकास हुआ था । 
स्वयम् कनान शब्द भारोपीय है , केन्नाइटी भाषा में कनान शब्द का अर्थ होता है मैदान अथवा जड्•गल यूरोपीय कोलों अथवा कैल्टों की भाषा पुरानी फ्रॉन्च में कनकन (Cancan)आज भी जड्.गल को कहते हैं ।

और संस्कृत भाषा में कानन =जंगल सर्वविदित ही है। परन्तु कुछ बाइबिल की कथाओं के अनुसार कनान एक पूर्व पुरुष था --जो  हेम (Ham)की परम्पराओं में एनॉस का पुत्र था।

जब कैल्ट जन जाति का प्रव्रजन (Migration) बाल्टिक सागर से भू- मध्य रेखीय क्षेत्रों में हुआ।

तब मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों में कैल्डिया के रूप में इनका विलय  हुआ ।
तब यहाँ जीव सिद्ध ( जियोसुद्द )अथवा नूह के रूप में मनु की किश्ती और प्रलय की कथाओं की रचना हुयी ।

और तो क्या ? यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट ( Crete ) की संस्कृतियों में मनु आयॉनिया लोगों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए।
भारतीय संस्कृति की पौराणिक कथाऐं इन्हीं घटनाओं ले अनुप्रेरित हैं।
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भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनन ) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) के मानवीय-करण (personification) रूप है ।

शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को श्रृद्धा-देव
(श्रृाद्ध -देव) कह कर सम्बोधित किया है।
तथा बारहवीं सदी में रचित श्रीमद्भागवत् पुराण में वैवस्वत् मनु तथा श्रृद्धा से ही मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है। 👇

सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में " मनवे वै प्रात: "वाक्यांश से घटना का उल्लेख आठवें अध्याय में मिलता है।

सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को श्रृद्धा-देव कह कर सम्बोधित किया है।👇

--श्रृद्धा देवी वै मनु (काण्ड-१--प्रदण्डिका १) श्रीमद्भागवत् पुराण में वैवस्वत् मनु और श्रृद्धा से मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है--
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"ततो मनु: श्राद्धदेव: संज्ञायामास भारत श्रृद्धायां जनयामास दशपुत्रानुस आत्मवान"(9/1/11) 
 छन्दोग्य उपनिषद में मनु और श्रृद्धा की विचार और भावना रूपक व्याख्या भी मिलती है।
"यदा वै श्रृद्धधाति अथ मनुते नाSश्रृद्धधन् मनुते " __________________________________________
जब मनु के साथ प्रलय की घटना घटित हुई तत्पश्चात् नवीन सृष्टि- काल में :– असुर (असीरियन) पुरोहितों की प्रेरणा से ही मनु ने पशु-बलि दी थी।

किल आत्आकुलीइति ह असुर ब्रह्मावासतु:।
तौ हो चतु: श्रृद्धादेवो वै मनु: आवं नु वेदावेति।
तौ हा गत्यो चतु:मनो वाजयाव तु इति।।

असुर लोग वस्तुत: मैसॉपोटमिया के अन्तर्गत असीरिया के निवासी थे।
सुमेर भी इसी का एक अवयव है ।
अत: मनु और असुरों की सहवर्तीयता प्रबल प्रमाण है मनु का सुमेरियन होना ।
बाइबिल के अनुसार असीरियन लोग यहूदीयों के सहवर्ती सैमेटिक शाखा के थे।

सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु की वर्णित कथा हिब्रू बाइबिल में यथावत है --- देखें एक समानता !
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"हिब्रू बाइबिल में नूह का वर्णन:-

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बाइबिल उत्पत्ति खण्ड (Genesis)- "नूह ने यहोवा (ईश्वर) कहने पर एक वेदी बनायी ;
और सब शुद्ध पशुओं और सब शुद्ध पक्षियों में से कुछ की वेदी पर होम-बलि चढ़ाई।(उत्पत्ति-8:20) 
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And Noah builded an alter unto the Lord Jehovah and took of the every clean beast, and of every clean fowl or birds, and offered ( he sacrificed ) burnt offerings on the alter
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Genesis-8:20 in English translation... -------------------------------------------------------------------
हृद् तथा श्रृद्  शब्द वैदिक भाषा में मूलत: एक रूप में ही हैं ; रोम की सांस्कृतिक भाषा लैटिन आदि में क्रेडॉ "credo" का अर्थ :--- मैं विश्वास करता हूँ ।
तथा क्रिया रूप में credere---to believe लैटिन क्रिया credere--- का सम्बन्ध भारोपीय धातु 
"Kerd-dhe" ---to believe से है ।
साहित्यिक रूप इसका अर्थ "हृदय में धारण करना –(to put On's heart-- पुरानी आयरिश भाषा में क्रेटिम cretim रूप  --- वेल्स भाषा में (credu ) और संस्कृत भाषा में श्रृद्धा(Srad-dha)---faith,
इस शब्द के द्वारा सांस्कृतिक प्राक्कालीन एक रूपता को वर्णित किया है ।
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श्रृद्धा का अर्थ :–Confidence, Devotion आदि हार्दिक भावों से है ।

प्राचीन भारोपीय (Indo-European) रूप कर्ड (kerd)--हृदय है ।
ग्रीक भाषा में श्रृद्धा का रूप "Kardia" तथा लैटिन में "Cor " है ।
आरमेनियन रूप ---"Sirt" पुरातन आयरिश भाषा में--- "cride" वेल्स भाषा में ---"craidda" हिट्टी में--"kir" लिथुअॉनियन में--"sirdis" रसियन में --- "serdce" पुरानी अंग्रेज़ी --- "heorte". जर्मन में --"herz" गॉथिक में --hairto " heart" ब्रिटॉन में---- kreiz "middle" स्लेवॉनिक में ---sreda--"middle ..

यूनानी ग्रन्थ "इलियड तथा ऑडेसी "महा काव्य में प्राचीनत्तम भाषायी साम्य तो है ही देवसूचीयों मेंभी साम्य है ।

आश्चर्य इस बात का है कि ..आयॉनियन भाषा का शब्द माइनॉस् तथा वैदिक शब्द मनु: की व्युत्पत्तियाँ (Etymologies)भी समान हैं।

जो कि माइनॉस् और मनु की एकरूपता(तादात्म्य) की सबसे बड़ी प्रमाणिकता है।

क्रीट (crete) माइथॉलॉजी में माइनॉस् का विस्तृत विवेचन है, जिसका अंग्रेजी रूपान्तरण प्रस्तुत है ।👇
------------------------------------------------------------- .. Minos and his brother Rhadamanthys
जिसे भारतीय पुराणों में रथमन्तः कहा है ।
And sarpedon wereRaised in the Royal palace of Cnossus-... Minos Marrieged pasiphae- जिसे भारतीय पुराणों में प्रस्वीः प्रसव करने वाली कहा है !
शतरूपा भी इसी का नाम था यही प्रस्वीः या पैसिफी सूर्य- देव हैलिअॉस् (Helios) की पुत्री थी।
क्यों कि यम और यमी भाई बहिन ही थे ।
जिन्हें मिश्र की संस्कृतियों में पति-पत्नी के रूप में भी वर्णित किया है ।

Pasiphae is the Doughter of the sun god (helios ) हैलीअॉस् के विषय में एक तथ्य और स्पष्ट कर दें कि यूनानीयों का यही हैलीअॉस् मैसोपॉटामियाँ की पूर्व सैमेटिक भाषाओं ---हिब्रू आरमेनियाँ तथा अरब़ी आदि में "ऐल " (El) के रूप में है।
इसी शब्द का हिब्रू भाषा में बहुवचन रूप ऐलॉहिम Elohim )है ।
इसी से अरब़ी में " अल् --इलाह के रूप में अल्लाह शब्द का विकास हुआ है।
विश्व संस्कृतियों में सूर्य ही प्रत्यक्ष सृष्टि का कारण है
अत: यही प्रथम देव है ।

भारतीय वैदिक साहित्य में " अरि " शब्द का प्राचीनत्तम अर्थ "ईश्वर" है ।
वेद में अरि शब्द के अर्थ हैं ईश्वर तथा घर "और लौकिक संस्कृत में अरि शब्द केवल शत्रु के अर्थ में रूढ़ हो गया

ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के १३६ वें सूक्त का ५वाँ श्लोक "अष्टौ अरि धायसो गा:
पूर्ण सूक्त इस प्रकार है ।👇

पूर्वामनु प्रयतिमा ददे वस्त्रीन्युक्ताँ अष्टवरि धायसो गा: । सुबन्धवो ये विश्वा इव व्रा अनस्वन्त: श्रव एेषन्त पज्रा: ऋ०2/126/5/

कुछ भाषा -विद् मानते हैं कि ग्रीक भाषा के हेलिअॉस् (Helios)का सम्बन्ध भारोपीय धातु स्वेल (sawel ) से प्रस्तावित करते हैं।

अवेस्ता ए जेन्द़ में  हवर (hvar )-- सूर्य , प्रकाश तथा स्वर्ग लिथुऑनियन सॉले (Saule )   गॉथिक-- सॉइल (sauil) वेल्स ---हॉल (haul) पुरानी कॉर्निश-- हिऑल (heuul) आदि शब्दों का रूप साम्य स्पष्ट है ।

परन्तु यह भाषायी प्रवृत्ति ही है कि संस्कृत भाषा में अर् धातु "हृ "धातु के रूप में पृथक विकसित हुयी।
वैदिक "अरि" का रूप लौकिक संस्कृत भाषा में "हरि" हो कर ईश्वरीय अर्थ को तो प्रकट करता है 
परन्तु इरि रूप में शत्रु का अर्थ रूढ़ हो जाता है ।

कैन्नानाइटी संस्कृति में यम "एल" का पुत्र है।

और भारतीय पुराणों में सूर्य अथवा विवस्वत् का पुत्र.. इसी लिए भी हेलिऑस् ही हरिस् अथवा अरि: का रूपान्तरण है ।👇

अरि से हरि और हरि से सूर्य का भी विकास सम्भवत है जैसे वीर: शब्द सम्प्रसारित होकर आर्य रूप में विकसित हो जाता  है।
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जिसमें अज् धातु का संयोजन है:–अज् धातु अर् () धातु का ही विकास क्रम है जैसे वीर्य शब्द से बीज शब्द विकसित हुआ ।संस्कृत साहित्य में सूर्य को समय का चक्र (अरि) कह कर वर्णित किया गया है।

."वैदिक सूक्तों में अरिधामश् शब्द का अर्थ अरे: ईश्वरस्य धामश् लोकं इति अरिधामश् रूप में है।
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वास्तव में पैसिफी और माइनॉस् दौनों के पिता सूर्य ही थे ।
ऐसी प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताऐं थी ।
ओ३म् (अमॉन्) रब़ तथा ऐल जिससे अल्लाह शब्द का विकास हुआ प्राचीनत्तम संस्कृतियों में केवल सूर्य के ही वाचक थे ।

आज अल्लाह शब्द को लेकर मुफ़्ती और मौलाना लोग फ़तवा जारी करते हैं और कहते हैं  कि यह एक इस्लामीय अरब़ी शब्द है।
--जो गैर इस्लामीय के लिए हराम है ।
परन्तु यह अल्लाह वैदिक अरि का असीरियन रूप है । मनु के सन्दर्भ में ये बातें इस लिए स्पष्ट करनी पड़ी हैं कि क्योंकि अधिकतर संस्कृतियों में मनु को मानवों का आदि तथा सूर्य का ही पुत्र माना गया है।

यम और मनु को भारतीय पुराणों में सूर्य (अरि) का पुत्र माना गया है।

क्रीट पुराणों में इन्द्र को (Andregeos) के रूप में मनु का ही छोटा भाई और हैलीअॉस् (Helios) का पुत्र कहा है।
इधर चतुर्थ सहस्राब्दी ई०पू० मैसॉपोटामियाँ दजला- और फ़रात का मध्य भाग अर्थात् आधुनिक ईराक की प्राचीन संस्कृति में मेनिस् (Menis)अथवा मेैन (men) के रूप में एक समुद्र का अधिष्ठात्री देवता है।

यहीं से मेनिस का उदय फ्रीजिया की संस्कृति में हुआ था । यहीं की सुमेरीयन सभ्यता में यही मनुस् अथवा नूह के रूप में उदय हुआ, जिसका हिब्रू परम्पराओं नूह के रूप वर्णन में भारतीय आर्यों के मनु के समान है।
मनु की नौका और नूह की क़िश्ती
दोनों प्रसिद्ध हैं।
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"जर्मनिक संस्कृतियों में मनु: (मैनुस)Mannus का आख्यान-👇

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Mannus, according to the Roman writer Tacitus, was a figure in the creation myths of the Germanic tribes. Tacitus is the only source of these myths.Tacitus wrote that Mannus was the son of Tuisto and the progenitor of the three Germanic tribes Ingaevones, Herminones and Istvaeones. In discussing the German tribes Tacitus wrote:I n ancient lays, their only type of historical tradition, they celebrate Tuisto, a god brought forth from the earth.They attribute to him a son, Mannus, the source and founder of their people, and to Mannus three sons, from whose names those nearest the Ocean are called Ingvaeones, those in the middle Herminones, and the rest Istvaeones. Some people, inasmuch as antiquity gives free rein to speculation, maintain that there were more sons born from the god and hence more tribal designations—Marsi, Gambrivii, Suebi, and Vandilii—and that those names are genuine and ancient. (Germania, chapter 2)

Several authors consider the name Mannus in Tacitus's work to stem from an Indo-European root; see Indo-European cosmogony § Linguistic evidence.

The Latinized name Mannus is evidently of some relation to Proto-Germanic *Mannaz, "man".

Mannus again became popular in literature in the 16th century, after works published by Annius de Viterbo and Johannes Aventinus purported to list him as a primeval king over Germany and Sarmatia.

In the 19th century, F. Nork wrote that the names of the three sons of Mannus can be extrapolated as Ingui, Irmin, and Istaev or Iscio. A few scholars like Ralph T. H. Griffith have expressed a connection between Mannus and the names of other ancient founder-kings, such as Minos of Greek mythology, and Manu of Hindu tradition.

Guido von List incorporated the myth of Mannus and his sons into his occult beliefs which were later adopted into Nazi occult beliefs.

अनुवाद:-

मन्नुस, रोमन लेखक टैसिटस के अनुसार, जर्मनिक जनजातियों के उत्पत्ति मिथकों में एक व्यक्ति था। रोमन इतिहासकार टैसिटस इन मिथकों का एकमात्र स्रोत है।

टैसिटस ने लिखा है कि मन्नस ( Mannus)ट्यूइस्टो ( _त्वष्टा) का पुत्र था और ज्सने तीन जर्मनिक जनजातियों  १-इंगेवोन्स, २-हर्मिनोन्स और ३-इस्तवाइओन्स के पूर्वज रूप में स्वयं को व्याख्यायित किया।

जर्मन जनजातियों पर चर्चा करते हुए टैकिटस ने लिखा: कि 

प्राचीन काल में, उनकी एकमात्र प्रकार की ऐतिहासिक परंपरा में, जर्मन लोग   ट्यूइस्टो का जश्न (उत्सव)मनाते हैं, जो कि पृथ्वी से लाए गए देवता हैं।

वे उसके लिए एक पुत्र, मन्नुस, उनके लोगों के स्रोत और संस्थापक, और मन्नू के तीन पुत्रों को श्रेय देते हैं, जिनके नाम से महासागर के निकटतम लोगों को (इंगवीओन्स ) कहा जाता है, जो मध्य हर्मिनोन्स में हैं, और बाकी इस्तवाईओन्स हैं। कुछ लोग, चूंकि इनकी पुरातनता  अटकलों पर पूरी तरह से लगाम लगाती है, यह बनाए रखती है  और  विश्वास है  कि  देव से   और अधिक पुत्र पैदा हुए थे और इसलिए अधिक आदिवासी पदनाम-मार्सी, गम्ब्रिवी, सुएबी, और वंदिली-आदि हैं और ये नाम वास्तविक और प्राचीन हैं। (जर्मनिया, अध्याय 2)

कई लेखक टैसिटस के काम में मन्नस नाम को एक इंडो-यूरोपियन मूल से उत्पन्न  मानते हैं; 

लैटिनकृत नाम मन्नस स्पष्ट रूप से प्रोटो-जर्मनिक * मन्नज, "आदमी" से कुछ संबंध रखता है।

मेनुस फिर से 16 वीं शताब्दी में साहित्य में लोकप्रिय हो गया, एनियस डी विटर्बो और जोहान्स एवेंटिनस द्वारा प्रकाशित कार्यों के बाद उन्हें जर्मनी और सरमाटिया पर एक आदिम राजा के रूप में जिसे सूचीबद्ध करने के लिए कहा गया।

19 वीं सदी में एफनोर्क ने लिखा है कि "मानुस के तीन बेटों के नाम इंगुई, इरमिन और इस्तैव या इस्सियो के रूप में निकाले जा सकते हैं। कुछ विद्वान जैसे 'राल्फ टी.एचग्रिफ़िथ" ने मानस और अन्य प्राचीन संस्थापक-राजाओं के नामों के बीच एक संबंध व्यक्त किया है, जैसे ग्रीक पौराणिक कथाओं के मिनोस और भारतीय परंपरा के मनु में है।

गुइडो वॉन लिस्ट" ने मन्नस और उसके बेटों के मिथक को अपने मनोगत विश्वासों में शामिल किया, जिन्हें बाद में नाज़ीयों ने मनोगत विश्वासों में अपनाया गया।

References

[1]Publishers, Struik; Stanton, Janet Parker, Alice Mills, Julie (2007-11-02). Mythology: Myths, Legends and Fantasies. Struik. pp. 234–. ISBN 9781770074538. Archived from the original on 2014-07-04. Retrieved 6 April 2014.

[2]The Phonology/paraphonology Interface and the Sounds of German Across Time, p.64, Irmengard Rauch, Peter Lang, 2008

[3]Tales of the Barbarians: Ethnography and Empire in the Roman West, p. 40, Greg Woolf, John Wiley & Sons, 01-Dec-2010

[4]"Word and Power in Mediaeval Bulgaria", p. 167. By Ivan Biliarsky, Brill, 2011

[5]Mitra-Varuna: An Essay on Two Indo-European Representations, p. 87, by Georges Dumézil, Zone, 1988. The question remains whether one can phonetically link this Latin mani- "(dead) man" the *manu- which, apart from the Sanskrit Manu (both the name and the common noun for "man"), has given, in particular, the Germanic Mannus (-nn- from *-nw- regularly), mythical ancestor of the Germans (...), the Gothic manna "man" ... and the Slavic monžǐ."

[6]"man | Origin and meaning of man by Online Etymology Dictionary". www.etymonline.com. Archived from the original on 2020-08-14. Retrieved 2020-09-28.

[7]Germany and the Holy Roman Empire: Volume I: Maximilian I to the Peace of Westphalia, 1493-1648, p.110, Joachim Whaley, Oxford University Press, 2012

[8]Historian in an age of crisis: the life and work of Johannes Aventinus, 1477-1534, p. 121 Gerald Strauss, Harvard University Press, 1963

[9]William J. Jones, 1999, "Perceptions in the Place of German in the Family of Languages" in Images of Language: Six Essays on German Attitudes, p9 ff.

[10]Populäre Mythologie, oder Götterlehre aller Völker, p. 112, F. Nork, Scheible, Rieger & Sattler (1845)

[11]"A Classical Dictionary of India: Illustrative of the Mythology, Philosophy, Literature, Antiquities, Arts, Manners, Customs &c. of the Hindus", p. 383, by John Garrett, Higginbotham and Company (1873)

[12]़Goodrick-Clarke, Nicholas (1992). The Occult Roots of Nazism: Secret Aryan Cults and Their Influence on Nazi Ideology. NYU Press. pp. 56–. ISBN 9780814730607. Archived from the original on 4 July 2014. Retrieved 6 April 2014.

Grimm, Jacob (1835). Deutsche Mythologie (German Mythology); From English released version Grimm's Teutonic Mythology (1888); Available online by Northvegr © 2004-2007: Chapter 15, page 2 Archived 2012-01-14 at the Wayback Machine File retrieved 12-08-2011.

Tacitus. Germania (1st Century AD). (in Latin...

जर्मन वर्ग की प्राचीन सांस्कृतिक भाषों में क्रमशः यमॉ Yemo- (Twice) -जुँड़वा यमल तथा मेन्नुस Mannus- मनन (Munan ) का वर्णन करने वाला एक रूपता आधार है ।
अर्थात् विचार शक्ति का अधिष्ठाता मनु है ।
और उन मनन "Munan" में संयम का रूप यम है ।

फ्राँस भाषा में यम शब्द (Jumeau )के रूप में है । रोमन इतिहास कारों में "टेकट्टीक्स" (Tacitus) जर्मन जाति से सम्बद्ध इतिहास पुस्तक "जर्मनिका " में लिखता हैं।
अपने प्राचीन गाथा - गीतों में वे ट्युष्टो अर्थात् ऐसा ईश्वर जो पृथ्वी से निकल कर आता है
मैनुस् उसी का पुत्र है वही जन-जातिों का पिता और संस्थापक है।

जर्मनिक जन-जातियाँ उसके लिए उत्सव मनाती हैं । मैनुस् के तीन पुत्रों को वह नियत करते हैं ।
जिनके पश्चात मैन (Men)नाम से बहुत से लोगों को पुकारा जाता है ।
( टेकट्टीक्स (Tacitus).. जर्मनिका अध्याय (2)
100 ईस्वी सन् में लिखित ग्रन्थ.... --------------------------------------------------------------

यम शब्द रोमन संस्कृति में (Gemellus ) के रूप में है
जो लैटिन शब्द (Jeminus) का संक्षिप्त रूप है।
रोमन मिथकों के मूल-पाठ (Text )में मेन्नुस् (Mannus) ट्युष्टो (Tuisto )का पुत्र तथा जर्मन आर्य जातियों के पूर्व पुरुष के रूप में वर्णित है ।👇

-- A. roman text(dated) ee98) tells that Mannus the Son of Tvisto Was the Ancestor of German Tribe or Germanic people "
इधर जर्मन आर्यों के प्राचीन मिथकों "प्रॉज़एड्डा आदि में उद्धरण है :–👇
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Mannus progenitor of German tribe son of tvisto in some Reference identified as Mannus "
उद्धरण अंश (प्रॉज- एड्डा ) वस्तुतः ट्युष्टो ही भारतीय आर्यों का देव त्वष्टा है।
,जिसे विश्व कर्मा कहा है जिसे मिश्र की पुरा कथाओं में "तिहॉती" ,जर्मन भाषा में प्रचलित डच (Dutch )का मूल रूप "त्वष्टा" शब्द है ।
गॉथिक शब्द (Thiuda )के रूप में भी "त्वष्टा" शब्द है प्राचीन उच्च जर्मन में यह शब्द (Diutisc )तथा जर्मन में (Teuton )है ।
और मिश्र की संस्कृति में (tehoti) के रूप में वर्णित है।
जर्मन पुराणों में भारतीयों के समान यम और मनु सजातीय थे ।
भारतीय संस्कृति में मनु: और यम: दोनों ही विवस्वान् (सूर्य) की सन्तान थे ।

इसी लिए इन्हें वैवस्वत् कहा गया यह बात जर्मनिक जन-जाति में भी प्रसिद्ध थी।
The Germanic languages have lnformation About both ...Ymir ------------------------------------------------------------ यमीर ( यम) and (Mannus) मेनुस् Cognate of Yemo and Manu"..मेन्नुस् मूलक मेन "Man" शब्द भी डच भाषा का है ।

जिसका रूप जर्मन तथा ऐंग्लो - सेक्शन भाषा में मान्न "Mann" रूप है ।
प्रारम्भ में जर्मन लोग "मनुस्" का वंशज होने के कारण स्वयं को मान्न कहते थे।

मनु का उल्लेख ऋग्वेद काल से ही मानव -सृष्टि के आदि प्रवर्तक एवम् समग्र मानव जाति के आदि- पिता के रूप में मान्य हो गया था।
__________________________________________
वैदिक सन्दर्भों मे प्रारम्भिक चरण में मनु तथा यम का अस्तित्व अभिन्न था कालान्तरण में मनु को जीवित मनुष्यों का तथा यम को मृत मनुष्यों के लोक का आदि पुरुष माना गया ... _____________________________________ जिससे यूरोपीय भाषा परिवार में मैन (Man) शब्द आया ।
मैने प्रायः उन्हीं तथ्यों का पिष्ट- पेषण भी किया है जो मेरे विचार बलाघात का लक्ष्य है।
और मुझे अभिप्रेय भी ..

जर्मन माइथॉलॉजी में यह तथ्य प्रायः प्रतिध्वनित होता रहता है ।👇 ------------------------------------------------------------

 "The ancient Germanic tribes believeb that they had acmmon origin all of them Regarding as their fore father  "mannus" the son of god "tuisco" mannus was supposed to have and three sons from whom had sprung the istaevones the lngavones" ------------------------------------------------------------------

 हम पूर्व में इस बात को कह चुके हैं , कि क्रीट मिथकों में माइनॉस् (Minos )ज्युस तथा यूरोपा की प्रथम सन्तान है । 👇

यूनानीयों का ज्यूस ही वैदिक संहिताओं में (द्यौस् )के रूप में वर्णित है विदित हो कि यूरोप महाद्वीप की संज्ञा का आधार यही यूरोपा शब्द ही है।

.यहाँ एक तथ्य विद्वानों से निवेदित है कि मिथकों में वर्णित घटनाऐं और पात्र प्राचीन होने के कारण परम्परागत रूप से सम्वहन होते होते अपने मूल रूप से प्रक्षिप्त (बदली हुई ) हो जाती है ; परन्तु उनमें वर्णित पात्र और घटनाओं का अस्तित्व अवश्य होता है ।
किसी न किसी रूप में मनु के विषय में यूरेशिया की बहुत सी संस्कृतियाँ वर्णन करती हैं । ---------------------------------------------------------------
.🐋🐬🐳🐋🏊🏄🐟.....
पाश्चात्य पुरातत्व वेत्ता - डॉ० लियो नार्ड वूली ने पूर्ण प्रमाणित पद्धति से सिद्ध किया है ।
कि एशिया माइनर के पार्श्ववर्ती स्थलों का जब उत्खनन करवाया , तब ज्ञात हुआ कि जल -प्रलय की विश्व -प्रसिद्ध घटना सुमेरिया और उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में हुई थी।

सुमेरियन जल - प्रलय के नायक सातवें मनु वैवस्वत् थे जल प्रलय के समय मत्स्य अवतार विष्णु रूप में भगवान् ने इसी मनु की रक्षा की थी ...इस घटना का एशिया-माइनर की असीरी संस्कृति (असुरों की संस्कृति ) की पुरा कथाओं में उल्लेख है कि मनु ही जल- प्रलय के नायक थे ।
विष्णु और मनु के आख्यान सुमेरियन संस्कृति से उद्धृत किए भारत में आगत देव संस्कृति  से अनुयायीयों ने 👇

"विष्णु देवता का जन्म सुमेरियन
पुरातन कथाओं में"
82 INDO-SUMERIAN SEALS DECIPHERED
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sentation on ancient Sumerian and Hitto-Phoenician sacred seals and on Ancient Briton monuments,
see our former work,
1 of which the results therein announced are now con- firmed and established by the evidence of these Indo- Sumerian seals.
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This Sumerian " Fish " title for the Sun-god on this and the other amulet seals, as " Fish of the Setting Sun (S'u- kha) " is of the utmost critical importance for establishing the Sumerian origin of the Indo-Aryans..
and the Aryan character of the Sumerian language,
as it discloses for the first time the origin and hither to unknown real meaning of the Vedic name for the Sun-god " Vishnu," and of his represen-tative as a Fish-man, as well as the Sumerian origin of the English word " Fish," the Gothic " Fisk " and Latin " Piscis."
The first " incarnation " of the Sun-god Vishnu in Indian mythology is represented as a Fish-man (see Fig. 19)

and in substantially the same form as the Sumerian Fish-man personification of the Sun-god of the Waters in the Sumerian seals.
Now the Sumerians of Mesopotamia called the Setting Sun " The Fish (KM) "
2- a fact which has not hitherto been remarked or recognized.
And this Sumerian title of " Fish " for the Sun is explained in the bilingual
Sumero-Akkadian glossaries by the actual word occurring in this and the other Indo-Sumerian amulets,
namely S'u-khd, with the addition of " man = (na),
_________________________________________
3 by word-signs which read literally " The Winged Fish-man " ; * thus co-relating the Winged or soaring Sun with the Fish personification of the supposed " returning or resurrecting " Sun in " the waters under the earth."
This solar title of "
The Winged Fish " is further given the synonym of "The turning Bii-i-es's which latter name 1 W.P.O.B., 247 f., 251, 308. 2 B.. 8638. 3 lb., and 1586. 4 S'u=" wing," B.W., 311. 5 Gar-bi-i-i-es' (B., 7244) ; gar=" turn " (B., 11984) ; es' (B., 2551).

SUMER ORIGIN OF VISHNU IN NAME AND FORM 83
is evidently a variant spelling of the Sumerian Pi-es' or Pish for " Great Fish " with the pictograph word-sign of Fig, 19. — Sumerian Sun-Fish as Indian Sun-god Vishnu. From an eighteen th-centuiy Indian image (after Moor's Hindoo Pantheon).
Note the Sun-Cross pendant on his necklace. He is given four arms to carry his emblems : la) Disc of the Fiery Wheel {weapon) of the Sun, (M Club or Stone-mace (Gada or Kaumo-daki)
1 of the Sky-god Vanma, (c) Conch-shell (S'ank-ha), trumpet of the Sea-Serpent demon, 1 (d) Lotus (Pad ma) as Sun- flower.* i. Significantly this word " Kaumo-daki " seems to be the Sumerian Qum, " to kill or crush to pieces " (B., 4173 ; B.W.. 193) and Dak or Daggu " a cut stone " (B., 5221, 5233). a. " Protector of the S'ankha (or Conch) " is the title of the first and greatest Sea- Serpent king in Buddhist myth, see my List of Naga (or Sea-Serpent) Kings in Jour. Roy. Asiat. Soc, Jan, 1894. 3. On the Lotus as symbol of heavenly birth, see my W.B.T., 338, 381, 388.
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84 INDO-SUMERIAN SEALS DECIPHERED Fish joined to sign " great." 1 This now discloses the Sumerian origin not only of the " Vish " in Vish-nu, but also of the English '* Fish," Latin " Piscis," etc.— the labials B, P, F and V being freely interchangeable in the Aryan family of languages.
The affix nu in " Vish-nu " is obviously the Sumerian Nu title of the aqueous form of the Sun-god S'amas and of his father-god la or In-duru इन्द्र:  (Indra) as " God of the Deep." ' It literally defines them as " The lying down, reclining or bedded " (god)
3 or " drawer or pourer out of water." ' It thus explains the common Indian representation of Vishnu as reclining upon the Serpent of the Deep amidst the Waters, and also seems to disclose the Sumerian origin of the Ancient Egyptian name Nu for the " God of the Deep."
5 Thus the name
Vish-nu " is seen to be the equivalent of the Sumerian Pisk-nu,(पिस्क- नु ) and to mean "Pisk-nu,(पिस्क- नु ) and to mean " The reclining Great Fish (-god) of the Waters " ; and it will doubtless be found in that full form in Sumerian when searched for. And it would seem that this early " Fish " epithet of Vishnu for his " first incarnation " continued to be applied by the Indian Brahmans to that Sun-god even in his later "
incarnations " as the "striding" Sun-god in the heavens.
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Indeed the Sumerian root Pish or Pis for " Great Fish " still survives in Sanskrit as Fts-ara विसार:  " fish." " This name thus affords another of the many instances which I 1 On sign T.D., 139; B.W., 303. The sign is called " Increased Fish " {Kua-gunu, i.e., Khd-ganu, B., 6925), in which significantly the Sumerian grammatical term gunu meaning " increased " as applied to combined signs, is radically identical with the Sanskrit grammatical term gut.a ( = " multi- plied or auxiliary," M.W.D., 357) which is applied to the increased elements in bases forming diphthongs, and thus disclosing also the identity of Sanskrit and Sumerian grammatical terminology.
* M., 6741, 6759 ; B., 8988. s B., 8990-1, 8997. 4 lb., 8993. 5 This Nu is probably a contraction for Nun, or " Great Fish," a title of the god la (or Induru) इन्द्ररु of the Deep (B., 2627). Its Akkad synonym of Naku, as "drawer or pourer out of Water," appears cognate with the Anu(n)-«aAi, or " Spirits of the Deep," and with the Sanskrit Ndga or " Sea-Serpent." • M.W.D., 1000. The affix ara is presumably the Sanskrit affix ra, added to roots to form substantives, just as in Sumerian the affix ra is similarly added (cp., L.S.G., 81).
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SUMER ORIGIN OF POSEIDON
85 have found of the Sumerian origin of Aryan words, and in particular in the Sanskrit and English.
This Fish-man form of the Sumerian Sun-god of the Waters of the Deep,
Piesh, Pish or Pis (or Vish-nu),
also appears to disclose the unknown origin of the name of the Greek Sea-god "
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संख्या 82 वीं इण्डो-सुमेरियन निद्रा (सील )में प्राचीन सुमेरियन और हिट्टो फॉनिशियन पवित्र मुद्राओं पर( और प्राचीन ब्रिटान स्मारकों पर हस्ताक्षर किए गए हैं ।
जिनमें से मौहर संख्या (1) में से परिणाम घोषित किए गए हैं ।
अब इन इंडो-सुमेरियन सीलों  के प्रमाण के आधार पर पुष्टि की गई है कि इस सुमेरियन "मछली देव" पर सूर्य-देवता का आरोपण है।
और अन्य ताबीज मुद्राओं के लिए शीर्षक, "स्थापित सूर्य (सु-ख़ाह) की मछली" के रूप में इंडो-आर्यों की सुमेरियन मूल की स्थापना के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साम्य है ।

और सुमेरियन भाषा के आर्यन चरित्र के रूप में, यह सूर्य-देवता "विष्णु" के लिए वैदिक नाम की उत्पत्ति और अब तक अज्ञात मछली अर्थ के रूप में प्रकट करता है और मत्स्य -मानव के रूप में उनकी प्रतिनिधि के समान साथ ही अंग्रेजी शब्द "फिश" के सुमेरियन मूल, गॉथिक "फिसक" और लैटिन "पिसिस पर भी प्रकाश डालता है ।
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भारतीय पौराणिक कथाओं में सूर्य-देव विष्णु का पहला "अवतार" मत्स्य -नर के रूप में दर्शाया गया है।
, और अत्यधिक सीमा तक उसी तरह के रूप में जैसे सुमेरियन मछली-नर  के रूप में सूर्य का देवता के रूप में चित्रण सुमेरियन मुद्राओं पर (अब मेसोपोटामिया )के सुमेरियन मुद्राओं पर उत्कीर्ण है।

और सूर्य के लिए "मछली" के इस सुमेरियन शीर्षक को द्विभाषी सुमेरो-अक्कादियन शब्दावलियों में वास्तविक शब्द और अर्थ इस प्रकार के अन्य इंडो-सुमेरियन ताबीज पर व्याख्यायित है ।
"मत्स्य मानव ।
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पिस्क-नु" शब्द को पंखधारी मछली-मानव " आदि अर्थों के रूप पढ़ते हैं। इस प्रकार पंखों या बढ़ते सूर्य को "पृथ्वी के नीचे के पानी में" लौटने या पुनर्जीवित करने वाले सूर्य के मछली के संलयन के साथ सह-संबंधित कथाओं का सृजन सुमेरियन संस्कृति में होगया था 
--जो कालान्तरण में भारतीय पुराणों में मिथक रूप में अभिव्यक्त हुई ।
"द विंगेड फिश" के इस सौर शीर्षक को "biis"को  फिश" का समानार्थ दिया गया है।
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सूर्य और विष्णु भारतीय मिथकों में समानार्थक अथवा पर्याय वाची रहे हैं।
"विष्-नु " में प्रत्यय "नु" स्पष्ट रूप से सूर्य-देवता के जलीय रूप और उनके पिता-देवता  इन-दुरु (इन्द्र) के "देवता  के रूप में सुमेरियन आदम का शीर्षक है।

यह इस प्रकार विष्णु के सामान्य भारतीय प्रतिनिधित्व को जल के बीच दीप के नाग पर पुन: और यह भी लगता है कि "दीप के देवता" के लिए प्राचीन मिस्र के नाम आतम के सुमेरियन मूल का खुलासा किया गया है।
इस प्रकार "विष्णु" नाम सुमेरियन "पिस्क-नु "के बराबर माना जाता है।
और " जल की बड़ी फिश (-गोड) को  करना; और और यह निश्चित रूप से सुमेरियन में उस पूर्ण रूप में पाए जाने पर खोजा जाएगा।
और ऐसा प्रतीत होता है कि "अवतार" के लिए विष्णु के इस बड़ी "मछली" का उपदेश भारतीय ब्राह्मणों ने अपने बाद के "अवतारों" में भी विष्णु-देवता को स्वर्ग में सूर्य-देवता के रूप में लागू किया है।वास्तव में "महान मछली" के लिए सुमेरियन मूल पीश या पीस शब्द अभी भी संस्कृत में एफ्स-ऐरा "मछली" के रूप में जीवित है।जो वैदिक मत्स्यवाची शब्द "विसार" से साम्य है "यह नाम इस प्रकार कई उदाहरणों में से एक है जिसे मैं  दीप, पीश, पीश या पीस (या वाश-नु) के जल के सुमेरियन सूर्य-देवता का यह नाम है ।

मिश्रु "MISHARU" - The Sumerian god of law and justice, brother of Kittu.
भारतीय पुराणों में मधु और कैटव का वध विष्णु-देवता करते है ।
मत्स्यः से लिए वैदिक सन्दर्भों में एक शब्द पिसार
भारोपीय मूल की धातु से प्रोटो-जर्मनिक में फिस्कज़(पुरानी सैक्सोन, पुरानी फ्रिसिज़, पुरानी उच्च जर्मन फ़िश, पुरानी नोर्स फिस्कर। मध्य डच विस्सी, डच, जर्मनी, फ़िश्च, गॉथिक फिसक का स्रोत) से पुरानी अंग्रेजी मछलियां "मछली"
pisk- "एक मछली।
*pisk-
Proto-Indo-European root meaning
"a fish."It forms all or part of: fish; fishnet; grampus; piscatory; Pisces; piscine; porpoise.It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by:Latin piscis (source of Italian pesce)

French poisson, Spanish pez, Welsh pysgodyn, Breton pesk); Old Irish iasc; Old English fisc, Old Norse fiskr, Gothic fisks.

1-Latin piscis,
2-Irish íasc/iasc,
3-Gothic fisks,
4-Old Norse fiskr,
5-English fisc/fish,
6-German fisc/Fisch,
7-Russian пескарь (peskarʹ),
8-Polish piskorz,
9-Welsh pysgodyn,
10-Sankrit visar
11Albanian peshk

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This important reference is researched by Yadav Yogesh Kumar 'Rohi'. Thus, no gentleman should not add to its break!

भारतीय ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण के अनुसार अपने इष्ट को वलि समर्पण हेतु मनुः ने असीरियन द्रविड पुरोहितों का आह्वान किया था "" असुरः ब्राह्मण इति आहूत " -------------------------------------------------------------
मानव संज्ञा का आधार प्रथम स्वायंभुव मनु थे ।
उधर नार्वे की पुरा कथाओं में मनु की प्रतिष्ठा मेनुस (Mannus )के रूप में है।
जे जर्मनिक जन-जातियाँ के आदिम रूप हैं।
पश्चिमीय एशिया की हिब्रू जन-जाति के धर्म ग्रन्थ ऑल्ड-टेक्सटामेण्ट(पुरानी बाइबिल ) जैनेसिस्(उत्पत्ति) खण्ड के पृष्ठ संख्या  82 पर वर्णित है ""👇

कि नूह (मनुः) ने ईश्वर के लिए एक वेदी बनायीऔर उसमें पशु पक्षीयों को लेकर यज्ञ- अग्नि में उनकी बलि दी इन्हीं कथाओं का वाचन ईसाई तथा इस्लामीय ग्रन्थों में किया गया है।
मनु के सन्दर्भ में ये कुछ प्रमाणिक तथ्य थे ••••••••



     "श्रीकृष्णेतिहासम्"

    महाबलिपुरम्-और कृष्ण-


तमिल साहित्य में कृष्ण का वर्णन प्राचीन संगम ग्रंथों से लेकर भक्ति साहित्य तक मिलता है, जहाँ उन्हें 'कन्नन' नाम से जाना जाता है। शिलप्पाधिकारम जैसे महाकाव्यों में कृष्ण का उल्लेख है, और आंडाल जैसी कवयित्रियों ने कृष्ण भक्ति की अत्यंत भावपूर्ण अभिव्यक्ति की है। कृष्ण के जीवन की कहानियाँ, जैसे रास लीला, प्राचीन तमिल ग्रंथों में भी मिलती हैं, जो इस बात का संकेत देता है कि कृष्ण भक्ति तमिल संस्कृति का एक अभिन्न अंग रही है। 
प्राचीन संगम साहित्य में कृष्ण
  • कन्नन का उल्लेख:प्राचीन तमिल साहित्य में कृष्ण को 'कन्नन' नाम से जाना जाता है, जो संस्कृत कृष्ण का ही प्राकृत रूप है। 
  • कहानियों का अस्तित्व:संगम ग्रंथों जैसे अगनानुरु में रास लीला का उल्लेख मिलता है, जो दर्शाता है कि कृष्ण से जुड़ी अंतरंग स्मृतियाँ यादवों द्वारा सँजोई गई थीं। 
  • वाहन और ध्वज:तमिल कवियों ने कृष्ण के वाहनों और ध्वजों का भी वर्णन किया है, जो धार्मिक और साहित्यिक ज्ञान के प्रति उनके झुकाव को दर्शाता है। 
तमिल महाकाव्य और भक्ति साहित्य में कृष्ण
  • शिलप्पादिकारम:इस महाकाव्य में कृष्ण के हल्लोन (बलराम) की प्रशंसा की गई है। 
  • आंडाल की भक्ति:तमिल की प्रसिद्ध वैष्णव कवयित्री आंडाल ने कृष्ण के वियोग में तिरुप्पावै और नाच्चिचार तिरूमोलि जैसे पद लिखे, जिनमें कृष्ण के प्रति उनकी गहन भक्ति और प्रेम व्यक्त किया गया है। वह कृष्ण को अपना पति मानती थीं और उनके साथ रासलीला की कल्पना करती थीं। 
  • कृष्ण के विभिन्न रूप:कृष्ण को ग्वाला, पालक और देव के रूप में चित्रित किया गया है, जोTamil भूमि के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। 

तमिल की सबसे प्राचीन कृति 'थोलकप्पियम' में स्वयं संस्कृत के शब्द हैं, तो फिर तमिल, संस्कृत से पुरानी भाषा कैसे हो सकती है?

तमिलज़ के पास 690 ईसा पूर्व से लिखित लिपि थी (सालुवांकुप्पम मुरुगन मंदिर के पत्थर पर तमिलज़ी शिलालेख) जबकि संस्कृत की 600 ईस्वी तक कोई लिपि नहीं थी। थोलकाप्पियम का समय 300 ईसा पूर्व है।

350 ईसा पूर्व से अधिक पुराने कीलझाडी बर्तनों के टुकड़ों में तमिलझी लिपि अंकित है।

आदिचनल्लूर (650 ईसा पूर्व), कोर्राई (500 ईसा पूर्व), पोरुन्थल (450 ईसा पूर्व), अझगनकुलम, कोडुमनाल (350 ईसा पूर्व) में मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े, एक ढलाईखाना और कुछ सोने के टुकड़े मिले थे और उनकी आयु कार्बन डेटिंग द्वारा निर्धारित की गई थी। उपरोक्त उत्खनन कीलझाड़ी साक्ष्यों से भी पुराने पाए गए हैं।

ओडिशा के राजगीर और दौलागिरी की चट्टानों में पाए गए अशोक के ब्राह्मी शिलालेख (प्रकृति) 262 से 232 ईसा पूर्व के हैं। मैंने 2014 और 2015 में इन जगहों का दौरा किया है। अशोक के शिलालेख में उल्लेख है कि दक्षिण के शासक - करिकाल चोलझान, पांड्य और चेर राजा - उनके समकालीन थे। इसमें यह भी उल्लेख है कि दक्षिण में एक अलग लिपि का प्रयोग होता था। तमिलज़ी में, शिलालेख आम लोगों के लिए कुम्हारों द्वारा बनाए गए थे, जबकि अशोक के शिलालेख शासकों के लिए शिक्षित लोगों द्वारा बनाए गए थे। यह उन दोनों क्षेत्रों में साक्षरता दर के स्तर को दर्शाता है।

तमिल भाषा में ऋषि अगस्त्य/अकथियार द्वारा रचित अकथियम था, जिसका उल्लेख तोल्काप्पियार ने अपने तोल्काप्पियम में किया है, जो 360 ईसा पूर्व से लेकर आज तक का पहला उपलब्ध लिखित तमिल व्याकरण है।

उस व्याकरण में, थोलकाप्पियार ने सोल अथिकाराम लिखा था, जहां उन्होंने शब्दों को 4 श्रेणियों में वर्गीकृत किया था - ईयारचोल (प्राकृतिक थमिलज़ शब्द), वडासोल (संस्कृत, पाली, प्रकृति के शब्द), थिरिसोल (कविता और साहित्य में प्रयुक्त शब्द) और .थिसाई चोल (केंद्रीय थमिलज़खम के आसपास के 12 क्षेत्रों में बोली जाने वाली बोलियाँ)। ).

उन्होंने तमिल भाषा में वडासोल लिखने के नियमों का उल्लेख किया था।

तिरुक्कुरल में (तिरुवल्लुवर द्वारा 34 ईसा पूर्व लिखा गया) 24 तमिल शब्द थे। तो थिरुक्कुरल में, जिसमें 14000 से अधिक शब्द हैं, 24 वडासोल हैं

बाद में 200 ई. तक तीसरे तमिल संगम ग्रंथों में हमें 45 वडासोल मिलते हैं।

बाद के ग्रंथों में 6वीं शताब्दी ई. तक 242 वडासोल और थिरिसोल थे।

13वीं शताब्दी के बाद वडसोल का प्रचलन और अधिक बढ़ने लगा। इस प्रकार 15वीं शताब्दी में मणिप्रवलम नामक एक और शैली अस्तित्व में आई। इस प्रकार, वडसोल का प्रतिनिधित्व करने के लिए 16वीं शताब्दी में नए अक्षर - ஷ (श), ஸ (सा), ஹ (ह), க்ஷ (क्ष), और ஸ்ரீ (श्री) जोड़े गए।

1895 में, मराईमलाई आदिकल की पुत्री और एक तमिल शिक्षिका श्रीमती नीलाम्बिका /நீலாம்பிகை அம்மையார் ने तमिल में वडसोल की एक सूची संकलित की। इसे 1898 में शैव तमिलज़ पाथुकाप्पु कलझकम (कीमत 3 आना) द्वारा "वडसोल - तमिलज़ अकारथी" शीर्षक के तहत एक संग्रह के रूप में प्रकाशित किया गया था। इसमें 25 पृष्ठ हैं - जिसमें प्रस्तावना और सामग्री के लिए पृष्ठ शामिल हैं। मैंने इसे 3 साल पहले (2020) पढ़ा था। इसमें 23 पृष्ठों में वडसोल है। इसमें प्रति पृष्ठ 2 कॉलम और प्रति कॉलम 40 शब्द हैं। इसलिए पृष्ठ 3 से 24 तक प्रति पृष्ठ 80 शब्द हैं। 25वें पृष्ठ (जो कि अंतिम पृष्ठ है) में बाएं कॉलम में 40 शब्द हैं, जबकि दाएं कॉलम में 33 शब्द हैं।

तो 44 कॉलम में तमिलज़ में वडासोल की कुल संख्या 1760 + 73 = 1833 शब्द हैं।

1896 में किए गए शोध के अनुसार तमिल भाषा में 3.8 लाख शब्द थे (12 शब्दकोश उपलब्ध हैं)।

इस प्रकार, 3.8 लाख तमिल शब्दों में से 1833 शब्दों (वडासोल) का प्रतिशत 0.5% से भी कम है। इसलिए, तमिल भाषा के 99.5% अपने मूल शब्द हैं।

भारत की सभी भाषाओं में से तमिल भाषा में वडासोल - अर्थात संस्कृत, पाली और प्राकृत भाषाओं से लिए गए शब्दों की संख्या सबसे कम है।

तमिल भाषा ने भी संस्कृत को कई शब्द दिए हैं, जो इस प्रश्न में शामिल नहीं हैं।

संपादन 1

तमिल भाषा स्वयं को पृथ्वी की सबसे प्राचीन भाषा होने का दावा नहीं करती।

हालाँकि, यह न केवल सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है, बल्कि सबसे पुरानी जीवित शास्त्रीय भाषा भी है।


महाबलिपुरम् (Mahabalipuram) या मामल्लपुरम् (Mamallapuram) भारत के तमिलनाडु राज्य के चेंगलपट्टु ज़िले में स्थित एक प्राचीन नगर (शहर) है।

यह मंदिरों का शहर राज्य की राजधानी, चेन्नई, से 55 किलोमीटर दूर बंगाल की खाड़ी से तटस्थ है।

चेन्नई का पुराना नाम मद्रास (Madras) है, जिसे 1996 में तमिलनाडु सरकार ने आधिकारिक तौर पर बदलकर चेन्नई कर दिया था। 


यह प्राचीन शहर अपने भव्य मंदिरों, स्थापत्य और सागर-तटों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। सातवीं शताब्दी में यह शहर पल्लव( पाल ) राजाओं की राजधानी था। 

द्रविड वास्तुकला की दृष्टि से यह शहर अग्रणी स्थान रखता है। यहाँ पर पत्थरों को काट कर मन्दिर बनाया गया। पल्लव वंश के अंतिम शासक अपराजित थे।

सामान्य तथ्य महाबलिपुरम / मामल्लपुरम , 

मुख्य आकर्षण-

महाबलीपुरम का रथ मंदिर

यह स्थान सबसे विशाल नक्काशी के लिए लोकप्रिय है। यह 27 मीटर लंबा और 9 मीटर चौड़ा है। इस व्हेल मछली के पीठ के आकार की विशाल शिलाखंड पर ईश्वर, मानव, पशुओं और पक्षियों की आकृतियां उकेरी गई हैं।

अर्जुन्स् पेनेन्स को मात्र महाबलिपुरम या तमिलनाडु की गौरव ही नहीं बल्कि देश का गौरव माना जाता है।

समुद्र-तट का मन्दिर (शोर टेम्पल)

महाबलिपुरम के तट मन्दिर को दक्षिण भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में माना जाता है जिसका संबंध आठवीं शताब्दी से है। 

यह मंदिर द्रविड वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। यहां तीन मंदिर हैं। बीच में भगवान विष्णु का मंदिर है जिसके दोनों तरफ से शिव मंदिर हैं। मंदिर से टकराती सागर की लहरें एक अनोखा दृश्य उपस्थित करती हैं। इसे महाबलीपुरम् का रथ मंदिर भी कहते है। इसका निर्माण नरसिंह वर्मन प्रथम ने कराया था। 

प्रांरभ में इस शहर को "मामल्लपुरम" कहा जाता था।

रथ-

महाबलिपुरम के लोकप्रिय रथ दक्षिणी सिर पर स्थित हैं। महाभारत के पांच पांडवों के नाम पर इन रथों को पांडव रथ कहा जाता है। पांच में से चार रथों को एकल चट्टान पर उकेरा गया है। द्रौपदी और अर्जुन रथ वर्ग के आकार का है जबकि भीम रथ रेखीय आकार में है। धर्मराज रथ सबसे ऊंचा है। इसमे दौपदी के पांच रथमंदिर हुए। क्योंकि उसके पांच पति थे। इस लिए उसके पांच रथमंदिर हुए।

कृष्ण मण्डपम्-

यह मंदिर महाबलिपुरम के प्रारंभिक पत्थरों को काटकर बनाए गए मंदिरों में एक है। मंदिर की दीवारों पर ग्रामीण जीवन की झलक देखी जा सकती है। एक चित्र में भगवान कृष्ण को गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाए तथा बाँसुरी बजाते हुए दिखाया गया है।

गुफाएँ-

वराह गुफा विष्णु के वराह और वामन अवतार के लिए प्रसिद्ध है। साथ की पल्लव के चार मननशील द्वारपालों के पैनल लिए भी वराह गुफा चर्चित है। सातवीं शताब्दी की महिसासुर मर्दिनी गुफा भी पैनल पर नक्काशियों के लिए खासी लोकप्रिय है।

मूर्ति संग्रहालय-

राजा स्ट्रीट के पूर्व में स्थित इस संग्रहालय में स्थानीय कलाकारों की 3000 से अधिक मूर्तियां देखी जा सकती हैं। संग्रहालय में रखी मूर्तियां पीतल, रोड़ी, लकड़ी और सीमेन्ट की बनी हैं।

मुट्टुकाडु-

यह स्थान महाबलिपुरम् से 21 किलोमीटर की दूरी पर है जो वाटर स्पोट्र्स के लिए लोकप्रिय है। यहां नौकायन, केनोइंग, कायकिंग और विंडसर्फिग जसी जलक्रीड़ाओं का आनंद लिया जा सकता है।

कोवलोंग-

महाबलिपुरम से 19 किलोमीटर दूर कोवलोंग का खूबसूरत बीच रिजॉर्ट स्थित है। इस शांत फिशिंग विलेज में एक किले के अवशेष देखे जा सकते हैं। यहां तैराकी, विंडसफिइर्ग और वाटर स्पोट्र्स की तमाम सुविधाएं उपलब्ध हैं।

महाबलिपुरम् नृत्य पर्व-

यह नृत्य पर्व सामान्यत: जनवरी या फरवरी माह में मनाया जाता है। भारत के जाने माने नृत्यकार शोर मंदिर के निकट अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। पर्व में बजने वाले वाद्ययंत्रों का संगीत और समुद्र की लहरों का प्राकृतिक संगीत की एक अनोखी आभा यहां देखने को मिलती है।

आवागमन-

वायु मार्ग-

महाबलिपुरम से 60 किलोमीटर दूर स्थित चैन्नई निकटतम एयरपोर्ट है। 

भारत के सभी प्रमुख शहरों से चैन्नई (मदुरई)  के लिए फ्लाइट्स हैं।

रेल मार्ग

चेन्गलपट्टू महाबलिपुरम का निकटतम रेलवे स्टेशन है जो 29 किलोमीटर की दूरी पर है। चैन्नई और दक्षिण भारत के अनेक शहरों से यहां के लिए रेलगाड़ियों की व्यवस्था है।

सड़क मार्ग

महाबलिपुरम तमिलनाडु के प्रमुख शहरों से सड़क मार्ग से जुड़ा है। राज्य परिवहन निगम की नियमित बसें अनेक शहरों से महाबलिपुरम के लिए जाती हैं।


यह कविता संगम साहित्य की सबसे महत्वपूर्ण कविताओं में से एक है। हालाँकि यह उस तरह की संगम कविता है जो मुझे बहुत सारी तुलनाओं और छिपे अर्थों के साथ पसंद है, लेकिन यह कविता मुझे विशेष रूप से किसी अन्य कारण से रुचिकर लगती है। इस कविता में कृष्ण मिथकों और मुरुगन की कृति थिरुपरनकुंड्रम के दिलचस्प संदर्भ हैं।

आपकी भुजाओं को
सूजे हुए बांस की तरह पतला छोड़कर ,
थलाइवन ने हमें दूर देश में धन संचय करने का महान कार्य
करने के लिए छोड़ दिया है।

सुदूर देश की अपनी यात्रा में
, (उसने देखा)
नर हाथी झुक जाता था और
ऊँचे या पेड़ को तोड़ देता था,
ताकि युवा मादा हाथी कोमल टहनियों को
खा सके , जैसे, "माल जिसने उस पर चलकर पेड़ों को रौंद दिया , ताकि चरवाहे समुदाय की स्नान करने वाली महिलाओं को , पानी से भरी उत्तर की तोलुनाई (यमुना) नदी के विस्तृत फैले हुए रेत के तटों पर ठंडी पत्तियों को पहनने की अनुमति दें ” और वासना से सराबोर गालों पर बसने वाली मधुमक्खियों को भगाएं । (यह देखकर थलाइवन वापस आ जाएंगे).

कवि: मदुरै मारुतन इलानाकन

Translated by me based on Swaminathan Iyer’s and Dr.Kamil Zvelebil’s commentry.

थलाइवन अब दौलत कमाने के लिए थलाइवी छोड़ चुके हैं. इसकी वजह से थलाइवी का हाथ बांस के आकार का पतला होता जा रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि वह ठीक से खाना नहीं खा रही है और अपने प्रेमी से अलग होने के कारण बीमार भी है।

थलाइवन की यात्रा में वह देखता था कि नर हाथी ऊंचे पेड़ों को झुका देता था ताकि उसकी कोमल प्रेम, मादा हाथी उसे खा सके और वासना (जोलू!) से भीगे गालों पर झुंड में आने वाली मधुमक्खियों को भी भगा सके, यह देखकर वह वापस आ जाता था। . इस कृत्य की तुलना कृष्ण से की जाती है, जिन्होंने यमुना में स्नान करने गई गोपिकाओं के कपड़े ठग लिए थे और जब बलराम उस ओर आए, तो लड़कियों को शर्म से बचाने के लिए उन्होंने जंगली नींबू (कुरुंथा मरम) को अपने पैरों से कुचल दिया और दे दिया। उन्हें छिपने की जगह मिलती है.

इन पंक्तियों का महत्व:
हथिनी ने मादा हाथी के लिए ऊंचे पेड़ों को झुका दिया - थलाइवन ने धन कमाने के लिए थलाइवी छोड़ दी।
वासना से सराबोर गालों पर मधुमक्खियाँ मंडरा रही हैं - थलाइवी प्रेम रोग और प्रेमी से अलगाव से पीड़ित है।
नर हाथी के पीछा करने के कृत्य से थलाइवन को एहसास होगा कि उसे अपने प्रेमी से प्यार की बीमारी को दूर करना होगा और थलाइवी को देखने के लिए वापस लौटना होगा।

मल/कृष्ण अयार लड़कियों के कपड़े छीन रहे हैं - थलाइवन धन की तलाश में थलाइवी की शांति को अपने साथ ले जा रहा है।
अयार लड़कियाँ शर्म की स्थिति में होती हैं जब बलरामन आता है - थलाइवी अलगाव के कारण प्यार से बीमार हो जाती है।
इससे पहले कि लड़कियों पर कोई शर्मिंदगी आ जाए, कृष्णा उन्हें बचा रहे हैं - थलाइवी को उम्मीद है कि थलाइवन वापस आएगा और उसे प्यार की बीमारी से बचाएगा।

Thiruparankundram

यह कविता थिरुपरनकुंद्रम को मुरुगन के शुरुआती पवित्र स्थलों में से एक के रूप में भी प्रमाणित करती है (संगम में उल्लिखित दूसरा स्थान सेंथी-थिरुसेन्थुर है। कोपियस चंदन के पेड़ों के साथ ऊंचे पर्वत (नेटुवराई) का उल्लेख किया गया है, जिसके बारे में अनुतुवन ने गाया था, जिसे 'कूल' परनकुंरम कहा जाता है। और जो "बड़े गुस्से वाले मुरुकन का निवास स्थान है, जिसके पास चमकीले पत्ते जैसे लंबे भाले थे, जिसने करन के शरीर को दो टुकड़ों में काट दिया था"।

नल्लंतुवनार

अनुतुवन एक साथी कवि नल्लंतुवनार (250-400 ईस्वी के बीच किसी भी समय) थे, जिन्होंने परिपादल कविता 8 में थिरुपरनकुंड्रम के बारे में गाया था (गीत में थिरुपरनकुंड्रम का विस्तृत वर्णन है - मैंने अभी तक इसे नहीं पढ़ा है!)। उन्हें संगम युग के उत्तरार्ध के प्रतिभाशाली कवियों में से एक माना जाता है। वह अकाम 43, नरिनाई 88, पारिपातल 6, कलिथोकाई 118-150 के लेखक हैं और शायद कलिथोकाई संकलन के संकलनकर्ता भी रहे हैं। कवि यहाँ सम्मान करते हैं उन्होंने अपनी कविता में थिरपरनकुंड्रम कहा, जिसे अनुतुवन ने गाया था।

यमुना में कृष्ण और गोपिकाओं का सबसे पहला उल्लेख ???

निम्नलिखित पंक्तियों का अनुवाद डॉ. कामिल ज़्वेलेबिल द्वारा किया गया है।

नर हाथी अपनी मादा के खाने के लिए कोमल टहनियों को नष्ट कर देता है, उसकी तुलना "माल" से की जाती है, जो कपड़े पहनने के लिए पेड़ों की शाखाओं (यानी कुरुंतमारम, कन्नन द्वारा काटा गया जंगली चूना) पर चलते हुए रौंदता (चलता, कूदता, मिटिट्टु) बनाता है। पानी से भरी तोलुनाई नदी के दूर-दूर तक फैले रेत वाले चौड़े घाट के [किनारों पर] ग्वालों (अंतर) समुदाय की युवा महिलाओं (मकलिर) को ठंडक मिलती है।

और डॉ. ज़्वेलेबिल के अनुसार, किंवदंती का यह संस्करण किसी भी संस्कृत स्रोत को ज्ञात नहीं है। सबसे पहला संस्कृत स्रोत या तो भागवतपुराण या विष्णुपुराण प्रतीत होता है। इसलिए ऐसा लगता है कि मटुरै मरुतानिलनकन की यह अकाम 59 कविता भारत में कृष्ण की आकृति और यमुना नदी के तट पर चरवाहों का उल्लेख करने वाली सबसे पुरानी कविता प्रतीत होती है।


यमुना में कृष्ण, बलराम और ग्वाल-बालों की पूरी आकृति का उल्लेख चिंतामणि 209 में निम्नलिखित श्लोक में किया गया है ( ற்றுட்

போனிற வளையி னார்க்குக் குருந்தவ னொசித "

यह एक अच्छा विचार है ।”

इस कविता पर प्रोफेसर जॉर्ज एल. हार्ट की राय नीचे दी गई है (अकाम 59)

अकाम 59 में वर्णन किया गया है कि "एक हाथी जो ऊंचे पेड़ों को झुकाता है ताकि उसका साथी खा सके, जैसे कृष्ण [मल}, जो उन पर पैर रखकर [शाखाओं] को नीचे झुकाता है [मिटि-चढ़ने के बाद?] ताकि चौड़ी रेतीली रेत पर चरवाहे लड़कियाँ तोलुनाई[यमुना] के तट पर उत्तर अच्छे कपड़े बना सकता है और पहन सकता है।” यह भारतीय साहित्य में कृष्ण और गोपियों की कहानी के सबसे शुरुआती संदर्भों में से एक है; यह हरिवंश के समकालीन या उससे थोड़ा बाद का होना चाहिए। किसी भी घटना में, इतनी प्रारंभिक तिथि में तमिल में इसकी उपस्थिति इंगित करती है कि यह भारत के कई हिस्सों में पहले से ही अच्छी तरह से जाना जाता होगा। नायक द्वारा अपनी प्रेमिका को पोशाक (तलाई) बनाने के लिए पत्ते भेंट करने का विषय तमिल की एक विशेषता है। भगवान कृष्ण और रोवर यमुना दोनों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले नाम तमिल शब्द हैं; मल, "काला वाला"; टोलुनाई, संभवतः टोलू मूल से, "पूजा करना", उत्तर भारत में किसी स्थान के लिए शुद्ध तमिल नाम का सर्वेक्षण की गई कविताओं में एकमात्र उदाहरण है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि, शुरुआत से ही, तमिलों ने उत्तर भारत के देवताओं और पौराणिक शख्सियतों पर अपनी काव्य परंपराएं लागू कीं और सबसे पहले उन्होंने नए देवताओं की भूमिकाओं पर जोर दिया, जो उनके लिए केंद्रीय और सबसे डराने वाला कार्य था। जीवन, पुरुष और महिलाओं के बीच प्यार ”।



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         भाग-चतुर्थ-

कृष्ण अस्तित्व के ऐतिहासिक व वैदिक साक्ष्य-


कृष्ण को आठवीं सदी की उत्पत्ति मानना और उन्हे कुषाण वंशीय वासुदेव से सम्बन्धित कर दिया जाना  जिस कुषाण वंश का समय कनिष्क के काल के वर्ष (64 से 98) वर्ष तक के समकक्ष है मूर्खों की बेतुकी बातें व कुतर्क ही हैं।

क्यों कि वासुदेव नामांकित शिलालेखों से पता चलता है कि उसका शासनकाल कम से कम (191 से 232) ईस्वी तक था। 

एक यूट्यूबर जो  पूर्वदुराग्रही और वैदिक साहित्य और भाषा विज्ञान से पूर्णत: अनभिज्ञ या अनजान ही है उसका कहना है कि "कृष्ण शब्द संस्कृत का है और संस्कृत का जन्म आठवीं  ईस्वी सदी में हुआ है"।

हम इस शोध लेख में उस छद्मवेषी   साइन्सजर्नी नामक यूट्यूबर के कुतर्कों का समाधान करते हुए उसके कुतर्कों के विपरीत  प्रमाण और साक्ष्य प्रस्तुत कर रहे हैं।

हम बतादें- कि 
भारत में कुषाण वंश की स्थापना "कुजुल कडफिसेस" नामक व्यक्ति ने की। 
"कुजुल कडफिसेस" एक कुषाण राजकुमार था जिसने पहली सदी ईस्वी में "युएझ़ी (यूची) परिसंघ को संगठित किया और वह पहला कुषाण सम्राट बना।

जिसके साक्ष्य अफग़ानिस्तान के बग़लान प्रान्त में सुर्ख़ कोतल नामक पुरातन स्थल में पाए गए हैं। अत: सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं है।
रबातक शिलालेख के अनुसार "कुजुल कडफिसेस" प्रसिद्ध कुषाण सम्राट कनिष्क का परदादा था। 

कनिष्क का सम्बन्ध कुषाणों की चीन की "यू-ची जाति से थे  जो तुषारी(तोखारी) लोग कहे जाते थे। तुषारों का वर्णन भारतीय पुराणों में जन जातीय रूप में हुआ भी है।
कुछ इतिहासकार कुषाणों को "यूची" कबीले का कहते हैं। जिनका मिलान इतिहास कारो ने गूजर "अहीर और जाटों के कुछ कबीलों से किया गया। 

पौराणिक कालगणना के अनुसार भी कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 वर्ष पूर्व हुआ था। 

कई वैज्ञानिकों तथा पुराणों का यही सत्य मानना है, जो महाभारत युद्ध की कालगणना से मेल खाता है। भगवान कृष्ण के जन्म का सटीक अन्दाजा शायद ही कोई लगा पाए। इस विषय पर कई मतभेद हैं परन्तु सारगर्भित तथ्यों पर ध्यान डालें तो सारे परिणाम अपने स्थान पर सत्य हैं।

भागवत महापुराण के द्वादश स्कन्ध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरंभ के सन्दर्भ में भारतीय गणना के अनुसार कलि युग का शुभारम्भ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकण्ड पर हुआ था। 

भगवान श्रीकृष्ण का ऐसा परिचय जिसे शायद ही आपने पहले कभी सुना या पढ़ा होगा। 3228 ई.पू., श्रीकृष्ण संवत् में श्रीमुख संवत्सर, भाद्रपद अथवा श्रावणपद कृष्ण अष्टमी, (21 जुलाई, बुधवार के दिन मथुरा में कंस के कारागार में माता देवकी के गर्भ से कृष्ण ने जन्म लिया उनके पिता- श्री वसुदेव जी थे । उसी दिन वासुदेव ने नन्द-यशोदा जी के घर गोकुल में छोड़ा।

पुराणों में बताया गया है कि जब श्रीकृष्ण का देहावसान हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ। इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ईसा पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा।

इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई। 
अर्नेस्ट मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बालक का चित्र बना हुआ था, जो हमें भागवत आदि पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर संकेत करता है।

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इसके अनुसार महाभारत का युद्ध ( 3000 ईसा पूर्व ) हुआ होगा, जो पुराणों की गणना में सटीक बैठता है।

श्रीकृष्ण का रूप वर्णन:-
श्रीकृष्ण की बारम्बार वर्णित छवि के अनुसार उनकी अंगकान्ति श्याम (सांवली)थी। वे नित्य तरुण पीताम्बरधारी और विभिन्न वनमालाओं से विभूषित थे। 

वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे। शारंगधनुष धारण किए हुए थे। कौस्तुभ मणि उनके वक्षस्थल की शोभा बढ़ा रही थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में लक्ष्मी का निवास था। शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की प्रभा से वे मनोहर जान पड़ते थे।

सुविख्यात इतिहासकार दामोदर धर्मानन्द कोशाम्बी के अनुसार कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उनका पारम्परिक शस्त्र चक्र है।

यह शस्त्र वैदिक नहीं है और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बन्द हो गया था; परनितु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्षिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से दैत्यों पर आक्रमण करते दिखाया गया है।

अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई पू, जबकि मोटे तौर पर, वाराणसी में पहली बस्ती की नींव पड़ी थी। दूसरी ओर, ऋग्वेद में कृष्ण को इन्द्र का शत्रु बताया गया है, 

और उनका नाम श्यामवर्ण देव संस्कृति के अनुयायी  लोगों का द्योतक है। 
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अन्त का इतिहास वास्तव में यादव गणतन्त्र के अंत का इतिहास है।
महाभारत का एक पर्व है-भीष्म पर्व। भीष्म पर्व का अध्याय पच्चीस से लेकर अध्याय बयालीस तक वस्तुत: गीता का क्रमश: अध्याय एक से लेकर अध्याय अठारह है। महाभारत में भीष्म पर्व और भीष्म पर्व में रखी हुई है गीता। ऐसा लगता है वेदव्यास गीता रत्न को महाभारत के अन्तर्गत बहुत सहेजकर रखना चाहते थे। जैसे संदूक के अंदर छोटा संदूक और छोटे संदूक में रखा गया मूल्यवान रत्न। परन्तु पाँचवीं सदी के उत्तरार्द्ध में श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम अध्याय के बाद कुछ पुरोहितवादी श्लोक जोड़े गये हैं। 

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कम ही लोगों को जानकारी होगी कि तीर्थंकर नेमिनाथ श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। संन्यास लेने से पूर्व उनका नाम अरिष्टनेमि था। जैन साहित्य एवं आगमिक कृतियों में कृष्ण को अति विशिष्ट पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है।

'उत्तराध्ययन' के अनुसार कृष्ण का जन्मनाम केशव था। उन्हें 'कण्ह' या कृष्ण संभवत: श्यामवर्णी होने के कारण कहा जाता रहा होगा।
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उनके पितामह का नाम अंधकवृष्णि बताया गया है, जिनके पुत्र हुए वसुदेव और उन्हीं के पुत्र वासुदेव कहलाए। 

कृष्ण की नगरी का नाम उत्तराध्ययन में  द्वारगापुरी(वारगापुरी) मिलता है, जो नौ योजन पर्यन्त थी। नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में रैवतक पर्वत था, जिस पर नन्दनवन था। कृष्ण की सभा का नाम सुधर्मा था। दूसरे महत्वपूर्ण जैनागम 'निरयावलिका' में आए वर्णन के अनुसार कृष्ण की इस सभा में तीन तरह की भेरियां थीं : कौमुदी, सामुदायिन और सन्‍नाहिका, जिन्हें विभिन्न अवसरों पर बजाया जाता था। कृष्ण का राज्य वैताढ्य पर्वत से लेकर द्वारावती तक फैला हुआ बताया गया है। 
इसी प्रकार कण्ह जातक नाम से एक बौद्ध ग्रन्थ उपलब्ध है। 
उसमें कृष्‍ण कुमार का विवाह महरूपी नामक कन्या से करवाया गया है। यहाँ कृष्ण कुमार को ओक्काक यानी इक्ष्वाकु वंशी कहा गया है। 
परन्तु यह इक्ष्वाकु यदुवंश के अन्तर्गत एक पूर्वज का नाम है।

घतजातक में कृष्ण की कहानी दूसरे ढंग से कही गई है। कृष्ण चर्चा बौद्ध गाथाओं में भी है, मगर बिलकुल अपनी निजी भंगिमा के साथ। जैन और बौद्धों ने भी कृष्ण का उल्लेख किया है । अत: कृष्ण का समय निर्विवाद रूप से महावीर स्वामी औ महात्मा बुद्ध से भी प्राचीन है।

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सबसे पहले तो नव बौद्ध का यह मानना भी युक्ति युक्त नहीं कि कुषाण वंशी वासुदेव ही कृष्ण का रूपान्तरण है। 

हाँ इतना कहा जा सकता है कि सम्भवत: वासुदेव कनिष्क के उत्तराधकारी मध्य एशिया( तुर्की और  चीनी) यू-ची कबीले के थे जो चरावाहे थे। कृष्ण का स्वतन्त्र उल्लेख ऋग्वेद से लेकर छान्दोग्य
उपनिषद में भी मिलता है जो  पुराणों और रामायण, महाभारत से प्राचीनत्तम भारतीय साहित्य हैं। 

सिन्धु सभ्यता की मोहन-जोदारो की खुदाई में भी कृष्ण चरित्र से सम्बम्धित "ओखल बन्धन" और यमलार्जुन वृक्षों के दृश्यों से अंकित पत्थर मिले हैं।

मोहनजो-दारो  सिंधी  शब्द है। जिसका अर्थ है 'मृतकों का टीला'  और कभी-कभी इसका अर्थ  'मोहन का टीला' भी होता है।  और यह मोहन कौन था ? सभी जानते हैं।

 पाकिस्तान के सिंध प्रांत में एक पुरातात्विक स्थल है मोहन -जोदारो । लगभग 2500 ईसा पूर्व निर्मित, यह प्राचीन काल की सबसे बड़ी बस्ती थी सिन्धु घाटी सभ्यता , और जो दुनिया के शुरुआती प्रमुख शहरों में से एक, प्राचीन मिस्र , मेसोपोटामिया ,  यूनान की मिनोअन क्रेते और नॉर्टे चिको की सभ्यताओं के समकालीन है । 
कम से कम 40,000 लोगों की अनुमानित आबादी के साथ, मोहनजो-दारो लगभग 1700 ईसा पूर्व तक समृद्ध रहा। 

सिन्धु घाटी की सभ्यता सम्भवतः ईसा पूर्व नवम सदी तक जीवन्त रही होगी ।
कृष्ण, शिव, दुर्गा, जैसे पौराणिक पात्रों की प्रतिमाएँ भी यहाँ भी मिली हैं।

यह मोहनजो-दारो, लरकाना जिले, सिंध (अब पाकिस्तान में) के पुरातात्विक स्थल है जहाँ से खोदी गई एक साबुन की टेबलेट प्राप्त है।

विशेष:-

 टेबलेट- सोपस्टोन (जिसे स्टीटाइट या सोपरॉक के नाम से भी जाना जाता है) एक टैल्क-शिस्ट है, जो एक प्रकार की रूपांतरित चट्टान है। यह मुख्य रूप से मैग्नीशियम से भरपूर खनिज टैल्क से बना है। यह डायनेमोथर्मल मेटामोर्फिज्म और मेटासोमैटिज्म द्वारा निर्मित होता है, जो उन क्षेत्रों में होता है जहां टेक्टोनिक प्लेटें नीचे जाती हैं, गर्मी और दबाव से, तरल पदार्थ के प्रवाह के साथ, लेकिन पिघले बिना चट्टानों को बदलती हैं। यह हजारों वर्षों से नक्काशी का एक माध्यम रहा है।

यह टेबलेट भगवान कृष्ण के जीवन की एक महत्वपूर्ण कहानी के साथ अद्भुत समानता दर्शाता है।

टैबलेट में एक बालक को दो पेड़ों को उखाड़ते हुए दिखाया गया है। इन दोनों पेड़ों से दो मानव आकृतियाँ निकल रही हैं और कुछ पुरातत्वविदों  इसे भगवान कृष्ण से जुड़ी तारीखें तय करने के लिए एक दिलचस्प पुरातात्विक खोज करार दे रहे हैं।

यह छवि यमलार्जुन प्रकरण- (भागवत और हरिवंश पुराण दोनों में उल्लिखित) से मिलती जुलती है।

 टैबलेट पर मौजूद युवा लड़के के भगवान कृष्ण होने की बहुत संभावना है, और पेड़ों से निकलने वाले दो इंसान दो शापित गंधर्व हैं, जिन्हें नलकूबर और मणिग्रीव के रूप में पहचाना जाता है।

ऊपर: मोहेंजो-दारो, लरकाना जिला, सिंध (अब पाकिस्तान में) के पुरातात्विक स्थल से सोपस्टोन टैबलेट की खुदाई की गई। स्रोत - मैके की रिपोर्ट, भाग 1, पृष्ठ 344-45, भाग 2, प्लेट 90, वस्तु संख्या। डीके 10237.

दिलचस्प बात यह है कि मोहनजो-दारो में खुदाई करने वाले डॉ. ईजेएच मैके" ने भी इस छवि की तुलना यमलार्जुन प्रकरण से की है। इस विषय के एक अन्य विशेषज्ञ प्रो. वीएस अग्रवाल ने भी इस पहचान को स्वीकार किया है। इसलिए, यह काफी सम्भव है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग भगवान कृष्ण की कहानियों से अवगत थे। बेशक, इस तरह का एक और पृथक साक्ष्य तथ्यों को स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है। हालाँकि, सबूतों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस सन्दर्भ में और अधिक अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है।

द्वारिका के साथ सिन्धु घाटी सभ्यता के स्थलों (पूरे उपमहाद्वीप में) की भौगोलिक निकटता को देखते हुए, इस कोण को भी ध्यान में रखते हुए अनुसंधान किया जाना चाहिए। 

जबकि मोहनजो-दारो शब्द का आम तौर पर स्वीकृत अर्थ 'मुर्दों का टीला' है, इसके समानांतर अर्थ - 'मोहन का टीला' की जांच की भी कुछ गुंजाइश है। समानता एक संयोग से भी अधिक हो सकती है!

रुचि रखने वालों के लिए मोहनजो-दारो की पृष्ठभूमि की जानकारी (स्रोत:www.harappa.com)
मोहनजो-दारो की खोज मूल रूप से 1922 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के एक अधिकारी आरडी बनर्जी ने की थी, हड़प्पा में प्रमुख खुदाई शुरू होने के दो साल बाद। 

बाद में, 1930 के दशक के दौरान "जॉन मार्शल, केएन दीक्षित, अर्नेस्ट मैके" और कई अन्य लोगों के निर्देशन में साइट( स्थल ) पर बड़े पैमाने पर खुदाई की गई।
हालाँकि उनके तरीके उतने वैज्ञानिक या तकनीकी रूप से अच्छे नहीं थे जितने होने चाहिए थे, फिर भी वे बहुत सारी जानकारी लेकर आए जिसका अभी भी विद्वानों द्वारा अध्ययन किया जा रहा है।
इस स्थल पर अन्तिम प्रमुख उत्खनन परियोजना 1964-65 में स्वर्गीय डॉ. जीएफ डेल्स द्वारा की गई थी, जिसके बाद मौसम से उजागर संरचनाओं को संरक्षित करने की समस्याओं के कारण खुदाई रोक दी गई थी।
1964-65 के बाद से साइट पर केवल बचाव उत्खनन, सतह सर्वेक्षण और संरक्षण परियोजनाओं की अनुमति दी गई है।

इनमें से अधिकांश बचाव अभियान और संरक्षण परियोजनाएं पाकिस्तानी पुरातत्वविदों और संरक्षकों द्वारा संचालित की गई हैं।
(1980) के दशक में व्यापक वास्तुशिल्प दस्तावेज़ीकरण, विस्तृत सतह सर्वेक्षण, सतह स्क्रैपिंग और जांच के साथ मिलकर जर्मन और इतालवी सर्वेक्षण टीमों द्वारा डॉ. माइकल जानसन (आरडब्ल्यूटीएच) और डॉ. मौरिज़ियो तोसी (आईएसएमईओ) के नेतृत्व में किया गया था।

हड़प्पा सभ्यता की तिथि कार्बन डेटिंग पद्धति द्वारा 2500 ई०पूर्व से (1750) ई० पूर्व तक निर्धारित की जती है।



शिलापट पर श्रीकृष्ण जन्म के प्रमाण-

भगवान श्रीकृष्ण के मथुरा में जन्म लेने को लेकर भारतीयों में कोई संदेह नहीं। धर्मग्रंथों में उनकी न जाने कितनी लीलाओं का वर्णन है। इसके पुरातात्विक प्रमाण भी मौजूद हैं, लेकिन आमतौर पर जानकारी में नहीं हैं। सत्तानवे साल पहले गताश्रम टीला से मिली मूर्ति को भगवान कृष्ण के जन्म का पुरातत्व में पहला प्रमाण है। 

धर्मग्रन्थ-




 इस क्रम में पहले  हम तमिलनाडु के ऐतिहासिक नगर महाबलिपुरम् से सम्बन्धित तथ्यों का भी विश्लेषण करते हैं। जे मथुरा ी पृष्ठ भूमि रर

जिसमें प्राप्त शिलाओं पर कृष्ण बांसुरी बजाते हुए अंकित हैं।
यह ऐतिहासिक सन्दर्भ है-


महाबलिपुरम के तट मन्दिर को दक्षिण भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में माना जाता है जिसका सम्बन्ध आठवीं शताब्दी से है। 

महाबलिपुरम् (Mahabalipuram) या कहें  मामल्लपुरम् (Mamallapuram) भारत के तमिलनाडु राज्य के चेंगलपट्टु ज़िले में स्थित एक प्राचीन नगर (शहर) है।

यह मन्दिरों का शहर राज्य की राजधानी, चेन्नई, से (55) किलोमीटर दूर बंगाल की खाड़ी से तटस्थ है।
चैन्नई का पुराना नाम मदुरैई है जिसका शुद्ध रूप मथुरा है।
स्थानीय लोग इसे (तेन मदुरा) कहते हैं, यानि दक्षिणी मथुरा - उत्तर भारत के मथुरा की उपमा में यह नाम है।

क्योंकि यहाँ ऐतिहासिक रूप से पाण्ड्य राजाओं का शासन रहा है, चोळों के साम्राज्य में भी यहाँ पाण्ड्यों की उपस्थिति रही है। 
याद रहे कि तमिळ लिखावट को देखकर यह निश्चित नहीं किया जा सकती है। कि इसका नाम और उच्चारण मथुरा था। या मतुरा या मदुरा या मधुरा - तमिळ उच्चारण में भी यह अन्तर स्पष्ट नहीं होता।
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पल्लव राजाओ की विरासत -
महाबलिपुरम प्राचीन शहर अपने भव्य मंदिरों, स्थापत्य और सागर-तटों के लिए बहुत प्रसिद्ध है।सातवीं शताब्दी में यह शहर पल्लव(आभीर) राजाओं की राजधानी था। 

द्रविड वास्तुकला की दृष्टि से यह शहर अग्रणी स्थान रखता है। यहाँ पर पत्थरो को काट कर मन्दिर बनाया गया। पल्लव वंश के अन्तिम शासक अपराजित थे। वे कभी भी किसी से पराजित नहीं हुए।

यह मन्दिर द्रविड वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। यहाँ तीन मन्दिर हैं। बीच में भगवान विष्णु का मन्दिर है जिसके दोनों तरफ से शिव मन्दिर हैं। मन्दिर से टकराती सागर की लहरें एक अनोखा दृश्य उपस्थित करती हैं। 
इसे महाबलीपुरम् का रथ मंदिर भी कहते है। इसका निर्माण "नरसिंह वर्मन्" प्रथम ने कराया था। नरसिंह वर्मन, पल्लव राजवंश का एक शक्तिशाली शासक था, जिसने 630 से 668 ईस्वी तक शासन किया

प्रारम्भ में इस शहर को "मामल्लपुरम" कहा जाता था।
महाबलिपुरम के लोकप्रिय रथ दक्षिणी सिर पर स्थित हैं।
महाभारत के पाँच पाण्डवों के नाम पर इन रथों को पाण्डव रथ कहा जाता है। पाँच में से चार रथों को एकल चट्टान पर उकेरा गया है।

द्रौपदी और अर्जुन रथ वर्ग के आकार का है जबकि भीम रथ रेखीय आकार में है। 
धर्मराज रथ सबसे ऊंचा है।

इसमे दौपदी के पाँच रथमन्दिर हुए। क्योंकि उसके पांच पति थे। इस लिए उसके पांच रथमंदिर हुए।
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कृष्ण मण्डपम्-
यह मन्दिर महाबलिपुरम के प्रारम्भिक पत्थरों को काटकर बनाए गए मन्दिरों में से एक है। मन्दिर की दीवारों पर ग्रामीण जीवन की झलक देखी जा सकती है। एक चित्र में भगवान कृष्ण को गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाए तथा बाँसुरी बजाते हुए दिखाया गया है।


यमुना में कृष्ण और गोपिकाओं का सबसे पहला उल्लेख-

निम्नलिखित पंक्तियों का अनुवाद डॉ. कामिल ज़्वेलेबिल द्वारा किया गया है।

नर हाथी अपनी मादा के खाने के लिए कोमल टहनियों को नष्ट कर देता है, उसकी तुलना "माल" से की जाती है, जो कपड़े पहनने के लिए पेड़ों की शाखाओं (यानी कुरुंतमारम, कन्नन द्वारा काटा गया जंगली चूना) पर चलते हुए रौंदता (चलता, कूदता, मिटिट्टु) बनाता है।

पानी से भरी तोलुनाई नदी के दूर-दूर तक फैले रेत वाले चौड़े घाट के [किनारों पर] ग्वालों अंतर- (आयर) समुदाय की युवा महिलाओं (मकलिर) को ठण्ड  लगती है।

और डॉ. ज़्वेलेबिल के अनुसार, किंवदन्ती का यह संस्करण किसी भी संस्कृत स्रोत को ज्ञात नहीं है। सबसे पहला संस्कृत स्रोत या तो भागवतपुराण/ अथवा देवीभागवत महापुराण या विष्णुपुराण प्रतीत होता है


साइन्स जर्नी चैनल का यूट्यूबर  "कृष्ण" शब्द को सातवीं आठवीं सताब्दी का मानता है । जबकि

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ऋग्वेद की सबसे पुरानी प्रति भोजपत्र पर लिखी हुई है, जिसे पुणे (महाराष्ट्र) के भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट (BORI) में रखा गया।
शारदा लिपि का समय मुख्यतः (8)वीं से (13)वीं शताब्दी ईस्वी तक माना जाता है, हालांकि इसकी उत्पत्ति (8)वीं शताब्दी के आसपास पश्चिमी ब्राह्मी लिपि से हुई मानी जाती है. यह कश्मीर और आसपास के उत्तर-पश्चिमी भारतीय क्षेत्रों में संस्कृत और कश्मीरी भाषाओं को लिखने के लिए व्यापक रूप से उपयोग की जाती थी, खासकर कश्मीर में 13वीं शताब्दी तक यह फली-फूली. 


शारदा लिपि का विकास ब्राह्मी लिपि की पश्चिमी शाखा से हुआ.
इसके सबसे पुराने ज्ञात अभिलेख (8)वीं शताब्दी के आसपास के हैं.।

यह लिपि (13)वीं शताब्दी तक कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और पञ्जाब में व्यापक रूप से प्रचलित थी. 
यह कश्मीर की मूल लिपि है और शारदा देवी (ज्ञान की देवी) के नाम पर रखी गई है.
इसका उपयोग कश्मीर में ही नहीं, बल्कि पंजाब और हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में भी होता था, जहाँ से गुरुमुखी और टाकरी जैसी लिपियाँ विकसित हुईं.
प्राचीन वैदिक साहित्य का एक बड़ा हिस्सा इसी लिपि में लिखा गया है. 
आजकल शारदा लिपि का उपयोग बहुत सीमित है और केवल कश्मीरी पंडित समुदाय द्वारा धार्मिक और ज्योतिषीय उद्देश्यों के लिए कभी-कभी किया जाता है.
इसे संरक्षित करने और पुनर्जीवित करने के प्रयास किए जा रहे हैं, क्योंकि यह भारतीय सभ्यता की एक महत्वपूर्ण विरासत है.

ऋग्वेद की प्राचीन लिपि शारदा लिपि में है 
जबकि बाकी (29) मेनुस्क्रिप्ट (पाण्डुलिपि) देवनागरी लिपि में भी हैं.

इनमें बहुत से ऐसे फीचर हैं, शब्दों के ऐसे उच्चारण हैं, जो फिलहाल आधुनिक प्रतियों में कहीं नहीं दिखते हैं।.

शारदा लिपि का व्यवहार ईसा की दसवीं शताब्दी से उत्तर-पूर्वी पंजाब और कश्मीर में देखने को मिलता है

एक यूरोपीय. विद्वान "ब्यूह्लर का मत था कि शारदा लिपि की उत्पत्ति गुप्त लिपि की पश्चिमी शैली से हुई है, और उसके प्राचीनतम लेख (8) वीं शताब्दी से मिलते हैं।

"श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोत-

एक व्यक्तित्व के रूप में कृष्ण का विस्तृत विवरण सबसे पहले ऋग्वेद और उसके बाद छान्दोग्योपनिषद में मिलता है।

फिर बहुत बाद में  महाकाव्य महाभारत में कृष्ण के विषय में लिखा गया है , जिसमें कृष्ण को विष्णु के पूर्ण-अवतार के रूप में दर्शाया गया है। जबकि महाभारत से पूर्व लिखित ग्रन्थ ब्रह्म वैवर्तपुराण में कृष्ण को विष्णु का भी मूल कहा गया है। 

महाभारत के बाद के परिशिष्ट हरिवंशपुराण में कृष्ण के बचपन और युवावस्था का एक विस्तृत संस्करण है। इसके अतिरिक्त 

भारतीय-यूनानी मुद्रण में भीकृष्ण चरित्र अंकित हैं।-

(180)  ईसा पूर्व लगभग इण्डो-ग्रीक राजा एगैथोकल्स ने देवताओं की छवियों पर आधारित कुछ सिक्के जारी किये थे। 

भारत में अब उन सिक्को को वैष्णव दर्शन से सम्बन्धित माना जाता है। सिक्कों पर प्रदर्शित देवताओं को विष्णु के अवतार बलराम -( संकर्षण) के रूप में देखा जाता है जिसमें गदा और हल और वासुदेव-कृष्ण , शंख और सुदर्शन चक्र दर्शाये हुए हैं।

प्राचीन संस्कृत व्याकरण भाष्यकार पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भारतीय ग्रन्थों के देवता कृष्ण और उनके सहयोगियों के कई सन्दर्भों का उल्लेख किया है।

 पाणिनी की श्लोक- (३/१/२६) पर अपनी टिप्पणी में, वह कंसवध अथवा कंस की हत्या का भी उल्लेख करते हैं, जो कि कृष्ण से सम्बन्धित किंवदन्तियों का एक महत्वपूर्ण अंग है। 

पाणिनि का समय भी ईसा पूर्व 800 से 400 के मध्य है, विद्वान् जन  पाणिनि का समय भगवान बुद्ध से पूर्व बताते हैं। पाणिनी पणि ( फोनीशियन ) जाति से सम्बन्धित थे जिन्होंने भाषा और लिपि पर कार्य किया।

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दुनियाँ की प्रथम लिपि फोनेशियन है पणि लोगो की देन है  जिससे कालान्तर में दुनियाभर की अन्य लिपियाँ विकसित हुई । पणियों का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है ।

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बौद्ध ग्रन्थ पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गये हैं। 

ब्राह्मी लिपि के विषय में नीचे कुछ विश्लेषण है। जिसमें कृष्ण चरित्र को लिखा गया है।

हेलीडियोरस स्तम्भ और अन्य शिलालेख-

मध्य भारतीय राज्य मध्य प्रदेश में औपनिवेशिक काल के पुरातत्वविदों ने एक ब्राह्मी लिपि में लिखे शिलालेख के साथ एक स्तम्भ की खोज की थी। आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए, इसे १२५ और १०० ईसा पूर्व के बीच का घोषित किया गया है और ये निष्कर्ष निकाला गया कि यह एक इंडो-ग्रीक प्रतिनिधि द्वारा एक क्षेत्रीय भारतीय राजा के लिए बनवाया गया था जो ग्रीक राजा एण्टिलासिडास के एक राजदूत के रूप में उनका प्रतिनिधि था। इसी इंडो-ग्रीक के नाम अब इसे हेलेडियोरस स्तंभ के रूप में जाना जाता है। इसका शिलालेख "वासुदेव" के लिए समर्पण है जो भारतीय परम्परा में कृष्ण का दूसरा नाम है।

कई विद्वानों का मत है कि इसमें "वासुदेव" नामक देवता का उल्लेख है, क्योंकि इस शिलालेख में कहा गया है कि यह " भागवत हेलियोडोरस" द्वारा बनाया गया था और यह " गरुड़ स्तंभ" (दोनों विष्णु-कृष्ण-संबंधित शब्द हैं)।

इसके अतिरिक्त, शिलालेख के एक अध्याय में कृष्ण से संबंधित कविता भी शामिल हैं महाभारत के अध्याय ११/७ का सन्दर्भ देते हुए बताया गया है कि अमरता और स्वर्ग का रास्ता सही ढंग से तीन गुणों का जीवन जीना है: स्व- संयम ( दमः ), उदारता ( त्याग ) और सतर्कता ( अप्रामदाह )


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हेलियोडोरस शिलालेख एकमात्र प्रमाण नहीं है। तीन हाथीबाड़ा शिलालेख और एक घोसुण्डी शिलालेख,जो कि राजस्थान राज्य में स्थित हैं। 

और आधुनिक कार्यप्रणाली के अनुसार जिनका समयकाल 19 वीं  सदी ईसा पूर्व है उनमें भी कृष्ण का उल्लेख किया गया है। पहली सदी ईसा पूर्व , संकर्षण (बलराम का एक नाम ) और वासुदेव का उल्लेख करते हुए, उनकी पूजा के लिए एक संरचना का निर्माण किया गया था। ये चार शिलालेख प्राचीनतम ज्ञात संस्कृत शिलालेखों में से एक है 

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राजहाथीबाड़ा घोसुण्डी शिलालेख राजसथान के चित्तौड़गढ़ के पास प्राप्त शिलालेख है।इस शिलालेख की भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है। 

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ये ब्राह्मी लिपि में, संस्कृत के प्राचीनतम शिलालेख हैं।  हाथीबाड़ा शिलालेख, नगरी गाँव से प्राप्त हुए थे जो चित्तौड़गढ़ से 8 किलोमीटर उत्तर में है।

घोसुण्डी शिलालेख (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व)

यह लेख कई शिलाखण्डों में टूटा हुआ है। इसके कुछ टुकड़े ही उपलब्ध हो सके हैं। इसमें एक बड़ा खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है।

घोसुण्डी का शिलालेख नगरी चित्तौड़ के निकट घोसुण्डी गांव में प्राप्त हुआ था इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है। 

घोसुण्डी का शिलालेख सर्वप्रथम डॉक्टर देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर द्वारा पढ़ा गया यह राजस्थान में वैष्णव या भागवत संप्रदाय से संबंधित सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख है।

इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि उस समय तक राजस्थान में भागवत धर्म लोकप्रिय हो चुका था।

इसमें भागवत की पूजा के निमित्त शिला प्राकार बनाए जाने का वर्णन है

इस लेख में संकर्षण और वासुदेव के पूजागृह के चारों ओर पत्थर की चारदीवारी बनाने और गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख है। इस लेख का महत्त्व द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रचार, संकर्षण तथा वासुदेव की मान्यता और अश्वमेघ यज्ञ के प्रचलन आदि में है।

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कई पुराणों में कृष्ण की जीवन कथा को बताया या कुछ इस पर प्रकाश डाला गया है ।

जैसा कि बताया जा चुका है कि ऋग्वेद की ऋचाओं को लिखने वाली पहली लिपि शारदा लिपि है। जिसका विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। औ ब्राह्मी लिपि का निर्माण फिनीशियन लिपि के आधार पर हुआ।  और पाणिनी फनीशी( पणि) भाषाविद् - पाणिनी ने संस्कृत व्याकरण अष्टाध्यायी का लेखन किया।

           "ब्राह्मी लिपि का परिचय-

  • ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक (असोक) द्वारा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनवाये गये शिलालेखों के रूप में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। नये अनुसन्धानों के आधार 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के लेख भी मिले है। ब्राह्मी भी खरोष्ठी की तरह ही पूरे एशिया में फैली हुई थी।
  • अशोक ने अपने लेखों की लिपि को 'धम्मलिपि' का नाम दिया है; उसके लेखों में कहीं भी इस लिपि के लिए 'ब्राह्मी' नाम नहीं मिलता। लेकिन बौद्धोंजैनों तथा ब्राह्मण-धर्म के ग्रंथों के अनेक उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इस लिपि का नाम 'ब्राह्मी' लिपि ही रहा होगा।
  • बौद्ध ग्रंथ 'ललितविस्तर' में 64 लिपियों के नाम दिए गए हैं। इनमें पहला नाम 'ब्राह्मी' है और दूसरा 'खरोष्ठी' है । 
  • जैनों के 'पण्णवणासूत्र' तथा 'समवायांगसूत्र' में 16 लिपियों के नाम दिए गए हैं, जिनमें से पहला नाम 'बंभी' (ब्राह्मी) का है।
  • 'भगवतीसूत्र' में सर्वप्रथम 'बंभी' (ब्राह्मी) लिपि को नमस्कार करके (नमो बंभीए लिविए) सूत्र का आरंभ किया गया है।
  • 668 ई. में लिखित एक चीनी बौद्ध विश्वकोश 'फा-शु-लिन्' में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का उल्लेख मिलता है। इसमें लिखा है कि, 'लिखने की कला का शोध दैवी शक्ति वाले तीन आचार्यों ने किया है; उनमें सबसे प्रसिद्ध ब्रह्मा है, जिसकी लिपि बाईं ओर से दाहिनी ओर को पढ़ी जाती है।'
  • इससे यही जान पड़ता है कि ब्राह्मी भारत की सार्वदेशिक लिपि थी और उसका जन्म भारत में ही हुआ किन्तु बहुत-से विदेशी पुराविद मानते हैं कि किसी बाहरी वर्णमालात्मक लिपि के आधार पर ही ब्राह्मी वर्णमाला का निर्माण किया गया था।     *****
  • ब्यूह्लर जैसे प्रसिद्ध पुरालिपिविद की मान्यता रही कि ब्राह्मी लिपि का निर्माण फिनीशियन लिपि के आधार पर हुआ। इसके लिए उन्होंने एरण के एक सिक्के का प्रमाण भी दिया था।    एरण मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित एक प्राचीन नगर है, जिसका नाम ऐरिकिण भी मिलता है। 

  • एरण (सागर ज़िला, म.प्र.) से ताँबे के कुछ सिक्के मिले हैं, जिनमें से एक पर 'धमपालस' शब्द के अक्षर दाईं ओर से बाईं ओर को लिखे हुए मिलते हैं। चूंकि, सेमेटिक लिपियां भी दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थीं, इसलिए ब्यूह्लर ने इस अकेले सिक्के के आधार पर यह कल्पना कर ली कि आरंभ में ब्राह्मी लिपि भी सेमेटिक लिपियों की तरह दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी।                                              
  • ओझा जी तथा अन्य अनेक पुरालिपिविदों ने ब्यूह्लर की इस मान्यता का तर्कयुक्त खंडन किया है। उस समय ओझा जी ने लिखा था, 'किसी सिक्के पर लेख का उलटा आ जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि सिक्के पर उभरे हुए अक्षर सीधे आने के लिए सिक्के के ठप्पे में अक्षर उलटे खोदने पड़ते हैं, अर्थात् जो लिपियां बाईं ओर से दाहिनी ओर लिखी जाती हैं उनके ठप्पों में सिक्कों की इबारत की पंक्ति का आरंभ दाहिनी ओर से करके प्रत्येक अक्षर उलटा खोदना पड़ता है, परंतु खोदनेवाला इसमें चूक जाए और ठप्पे पर बाईं ओर से खोदने लग जाए तो सिक्के पर सारा लेख उलटा आ जाता है, जैसा कि एरण के सिक्के पर पाया जाता है।' साथ ही, ओझा जी ने लिखा था, 'अब तक कोई शिलालेख इस देश में ऐसा नहीं मिला है कि जिसमें ब्राह्मी लिपि फ़ारसी की नाईं उलटी लिखी हुई मिली हो।'
  • यह 1918 के पहले की बात है।


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पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह भाषाविकास के क्रम में जो संस्कृत से माना जाता है वह ठीक नहीं। 

यथार्थत: वैदिककाल से ही साहित्यिक भाषा के रूप में परिमार्जित करके संस्कृत के साथ साथ उससे मिलती जुलती लोकभाषाओं ने देश एवं कालभेदानुसार साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का रूप धारण किया है। 

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पालि भी अपनी पूरी विरासत संस्कृत से नहीं ले रही, क्योंकि उसमें अनके शब्दरूप ऐसे पाए जाते हैं जिसका मेल संस्कृत से नहीं, किन्तु उसका उत्पत्ति मिलान वेदों की भाषा से बैठता है।

 उदाहरणार्थ- पालि एवं अन्य प्राकृतों में तृतीया बहुवचन के देवेर्भि, देवेहि, जैसे रूप मिलते हैं।

अकारान्त संज्ञाओं के ऐसे रूपों का संस्कृत में सर्वथा अभाव है, किंतु वैदिक में देवेभिर्, उतना ही सुप्रचिलित है जितना देवै:।

वैदिक भाषा में देवेभिर्- और दैवै: दोनों शब्द प्रचलन में रहे परन्तु पूर्व शब्द देवेभिर् ही है परन्तु लौकिक भाषा संस्कृत में देवै: ही प्रचलित है।

अतएव उक्त रूप की परम्परा पालि तथा प्राकृतों में वैदिक भाषा से ही उत्पन्न मानी जा सकती है।

उसी प्रकार पालि में 'यमामसे', 'मासरे', 'कातवे' आदि अनेक रूप ऐसे हैं जिनके प्रत्यय संस्कृत में पाए ही नहीं जाते, किन्तु वैदिक भाषा में विद्यमान हैं। *******

पालि के ग्रन्थों तथा अशोक की प्रशस्तियों से पूर्व का प्राकृत (लोकभाषाओं) में लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है तथा प्राकृत वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए संस्कृत को प्रकृति मानकर प्राकृत भाषा का व्याकरणात्मक विश्लेषण किया है और इसीलिए यह भ्रान्ति उत्पन्न हो गई है कि प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से हुई। 

पालि के कच्चानमोग्गल्लान आदि व्याकरणों में यह दोष नहीं पाया जाता, क्योंकि वहाँ भाषा का वर्णन संस्कृत को प्रकृति मानकर नहीं किया गया।

पालि भाषा दीर्घकाल तक राज्य भाषा के रूप में भी गौरवान्वित रही है। भगवान बुद्ध ने पालि भाषा में ही उपदेश दिये थे। अशोक के समय में इसकी बहुत उन्नति हुई। उस समय इसका प्रचार भी विभिन्न बाहरी देशों में हुआ। अशोक के समय सभी लेख पालि भाषा में ही लिखे गए थे। यह कई देशो जैसे श्रीलंकाबर्मा तिब्बत आदि देशों की धर्म भाषा के रूप में सम्मानित हुई।

‘पाली’ भाषा का उद्भव गौतम बुद्ध से लगभग तीन सौ वर्ष पहले ही हो चुका था, किन्तु उसके प्रारम्भिक साहित्य का पता नहीं लगता। प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य प्रारम्भिक अवस्था में कथा, गीत, पहेली आदि के रूप में रहता है और उसकी रूपरेखा तब तक लोगों को जबानी याद रहती है जब तक कि वह लेखबद्ध हो या ग्रन्थारूढ न हो जाय। 

इस काल में पालि भाषा की जैसे उत्पत्ति हुई वैसे ही विकास भी हुआ। प्रारम्भ से लेकर लगभग तीन सौ वर्षों तक पालि भाषा जन साधारण के बोलचाल की भाषा रही, किन्तु जिस समय भगवान बुद्ध ने इसे अपने उपदेश के लिए चुना और इसी भाषा में उपदेश देना शुरू किया, तब यह थोड़े ही दिनों में शिक्षित समुदाय की भाषा होने के साथ राजभाषा भी बन गई।

पालि’ शब्द का सबसे पहला व्यापक प्रयोग हमें आचार्य बुद्धघोष की अट्टकथाओं और उनके विसुद्धिमग्ग में मिलता है।

परन्तु अश्वघोष ने बुद्धचरित संस्कृत भाषा में लिखा- वहाँ यह बात अपने उत्तर कालीन भाषा सम्बन्धी अर्थ से मुक्त है। आचार्य बुद्धघोष ने पालि शब्द -दो अर्थों में इसका प्रयोग किया है- (१) बुद्ध-बचन या मूल त्रिपिटक के अर्थ में (२) पाठ या मूल टिपिटक के पाठ अर्थ में।

‘पालि भाषा’ से तात्पर्य उस भाषा से लेते हैं जिसमें स्थविरवाद(थेरवाद)-बौद्धधर्म का तिपिटक और उसका सम्पूर्ण उपजीवी साहित्य रखा हुआ है। किन्तु ‘पालि’ शब्द का इस अर्थ में प्रयोग स्वयं पालि साहित्य में भी उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व कभी नहीं किया गया। 

पालि भाषा मूलतः मागधी भाषा ही थी। मगध आधुनिक समय में विहार का दक्षिणी भाग ही पहले मगध था "अधुना वेहाराख्यदेशस्य दक्षिण- भागः")

विहार की पालि भाषा के उदाहरण कच्चायन-व्याकरण में देखने को मिलते हैं। 

मागधी ही मूल पालि भाषा है, जिसमें प्रथम कल्प के मनुष्य बोलते थे, जो ही अश्रुत वचन वाले शिशुओं की मूल भाषा है और जिसमें ही बुद्ध ने अपने धर्म का, मूल रूप से भाषण किया। इसी प्रकार महावंश के परिवर्द्धित अंश चोल वंश के परिच्छेद 37 की 244 वीं गाथा में कहा गया है “सब्बेसं मूलभासाय मागवाय निरुत्तीया” आदि। निश्चय ही सिंहली परम्परा अपनी इस मान्यता में बड़ी दृढ़ है कि जिसे हम आज पालि कहते हैं, वह बुद्धकालीन भारत में बोली जाने वाली मागध भाषा ही थी। बुद्ध बचनों की भाषा को ही सिंहली परम्परा ‘मागधी’ कहना नहीं चाहती, वह अट्टककथाओं तक की भाषा को बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में मागधी कहना ही अधिक पसन्द करती है। पालि शब्द वैदिक पल्लि- ( ग्राम) से विकसित है। जहाँ वाचन की स्वाभाविकता होती है।

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"पालि भाषा ब्राह्मी लिपि में है जिस लिपि की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।-

  • यह बाँये से दाँये की तरफ लिखी जाती है।
  • यह मात्रात्मक लिपि है। व्यञ्जनों पर मात्रा लगाकर लिखी जाती है।
  • कुछ व्यञ्जनों के संयुक्त होने पर उनके लिये 'संयुक्ताक्षर' का प्रयोग (जैसे प्र= प् + र)
  • वर्णों का क्रम वही है जो आधुनिक भारतीय लिपियों में है।

ब्राह्मी लिपि के अभिलेख-

सम्राट अशोक के ब्राह्मी लिपि में अंकित प्रमुख अभिलेख
  • रुम्मिनदेई - स्तम्भलेख
  • गिरनार - शिलालेख
  • बराबर - गृहालेख
  • मानसेहरा - शिलालेख
  • शाहबाजगद्री - शिलालेख
  • दिल्ली - स्तम्भलेख
  • गुर्जर - लघु-शिलालेख
  • मस्की- शिलालेख
  • कान्धार - द्विभाषी शिलालेख

ब्राह्मी की सन्तति-

ब्राह्मी लिपि से उद्गम हुई कुछ लिपियाँ और उनकी आकृति एवं ध्वनि में समानताएं स्पष्टतया देखी जा सकती हैं। इनमें से कई लिपियाँ ईसा के समय के आसपास विकसित हुई थीं। इन में से कुछ इस प्रकार हैं-

१-देवनागरी, २-बांग्ला लिपि, ३-उड़िया लिपि, ४-गुजराती लिपि, ५-गुरुमुखी, ६-तमिल लिपि, ७-मलयालम लिपि, ८-सिंहल लिपि, ९-कन्नड़ लिपितेलुगु लिपि, १०तिब्बती लिपि, ११-रञ्जना, प्रचलित १२-नेपाल, १३-भुंजिमोल, १४-कोरियाली, १५-थाई, १६-बर्मेली, १७-लाओ, १८-ख़मेर, १९-जावानीज़, २०-खुदाबादी लिपि आदि।

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 जबकि वेद शब्द भारोपीय होने से अनेक भाषाओ में है जिसका कुछ विवरण नीचे है।
परन्तु यह वैदिक शब्द ही है जो संस्कृत में विद धातु में + ल्युट् (अन) + टाप्) प्रत्यय जोड़ने से बनता है।  जिसका रूप अर्थ- ज्ञान - तथा  सुख-दुःख का अनुभव ( बोध) और विवाह है ।
 
विद -धातु भारोपीय परिवार ही नही अपितु सैमेटिक और हैमेटिक भाषाओं में भी है ।

It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: 
१-Vedic language- veda "I know;" 
२-Avestan vaeda "I know;"
३-Greek oida,
४- Doric woida "I know,"
 ५-idein "to see;"

 ६-Old Irish fis "vision," find "white," i.e. "clearly seen," fiuss "knowledge;" 

७-Welsh gwyn,

 ८-Gaulish vindos,

 ९-Breton gwenn "white;"

 १०-Gothic, 

११-Old Swedish, Old English witan "to know;"

 १२-Gothic weitan "to see;" 

१३-English wise, German wissen "to know;"

१४- Lithuanian vysti "to see;" 

१५-Bulgarian vidya "I see;" 

१६-Polish widzieć "to see," wiedzieć "to know;" 

१७-Russian videt' "to see," vest' "news
१८- Old Russian vedat' "to know."

wed (v.)
Old English weddian "to pledge oneself, covenant to do something, vow; betroth, marry,"
 also "unite (two other people) in a marriage, conduct the marriage ceremony," from Proto-Germanic *wadja (source also of Old Norse veðja, Danish vedde "to bet, wager," Old Frisian weddia "to promise," Gothic ga-wadjon "to betroth"), from PIE root *wadh- (1) "to pledge, to redeem a pledge" (source also of Latin vas, genitive vadis "bail, security," 
Lithuanian vaduoti "to redeem a pledge"), which is of uncertain origin.

पुरानी अंग्रेजी विवाह (wed)- "१ प्रतिज्ञा करना
२- विवाह करना,
 प्रोटो-जर्मनिक *वाडजा (पुराने नॉर्स वेजा का भी स्रोत, डेनिश वेड्डे "शर्त लगाना ," ओल्ड फ़्रिसियाई वेडिया "वादा करना," गोथिक) गा-वाडजॉन "टू बीट्रोथ"), पीआईई रूट से *वाध- (1) "प्रतिज्ञा करना" (स्रोत)लैटिन का भी वास, जननेटिव वादीस "जमानत, सुरक्षा,"लिथुआनियाई वाडुओटी "प्रतिज्ञा भुनाने के लिए") जो अनिश्चित मूल का है।
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The sense has remained closer to "pledge" in other Germanic languages (such as German Wette "a bet, wager"); development to "marry" is unique to English. "Originally 'make a woman one's wife by giving a pledge or earnest money', then used of either party" [Buck]. Passively, of two people, "to be joined as husband and wife," from c. 1200. Related: Wedded; wedding.
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 (वेदना)। अर्थ भारतीय पुराणों में—
हिंसाभार्या त्वधर्मस्य तयोर्जज्ञे तथानृतम् ।१७ ।।

कन्या च निकृतिस्ताभ्यां भयन्नरकमेव च।
माया च वेदना चैव मिथुनन्त्विदमेतयोः । १८ ।।

तयोर्जज्ञेथ वै मायां मृत्युं भूतापहारिणम्।
वेदना च सुतं चापि दुः खं जज्ञेथ रौरवात् ।१९ ।।
अनुवाद:-हिंसा अधर्म की पत्नी थी । तत्पश्चात उनसे अनृत का जन्म हुआ।

18. निकृति उनकी पुत्री थी। उनसे भय और नरक उत्पन्न हुए, जिनकी पत्नियाँ माया और वेदना थीं।

19. उन दोनों में से, माया ने प्राणियों का संहार करने वाले मृत्यु को जन्म दिया । और वेदना ने रौरव (नरक) से दुःख नामक पुत्र को जन्म दिया।

 (अग्नि पुराण, अध्याय 20)।


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थेरवाद (बौद्ध धर्म की प्रमुख शाखा)
थेरवाद शब्दावली में वेदना
स्रोत : विज्डम लाइब्रेरी: धम्मसंगनी
वेदना बहुत सामान्य अर्थ वाला शब्द है, जिसका अर्थ है संपर्क या प्रभाव पर शारीरिक या मानसिक, भावना या प्रतिक्रिया। अनुभूति शायद ही भावना के रूप में इतनी वफादार प्रस्तुति है!

 हालांकि वेदना को अक्सर इन्द्रिय-गतिविधि में "संपर्क से पैदा हुआ" के रूप में जाना जाता है, इसे हमेशा आम तौर पर तीन प्रजातियों से मिलकर परिभाषित किया जाता है -

आनन्द (ख़ुशी),दर्द (बीमारी),और तटस्थ भावना
- एक सुखवादी पहलू जिसके लिए 'भावना' शब्द ही पर्याप्त है। इसके अलावा, यह प्रतिनिधि भावना को समाहित करता है।

वेदना का यह सामान्य मानसिक पहलू, शारीरिक रूप से स्थानीय संवेदनाओं से अलग है - उदाहरण के लिए, दांत दर्द - संभवतः उत्तर में "मानसिक" (सीटासिकम) शब्द द्वारा जोर दिया गया है। साइ. बताते हैं कि इस अभिव्यक्ति (= सीतानिसिटट्टम) से "शारीरिक सुख समाप्त हो जाता है" (असल. 139)।

(ऋग्वेद 1.176.4)
असुन्वन्तं समं जहि दूणाशं यो न ते मयः ।
अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदोहते ॥४॥

अनुवाद:-
हे इन्द्र ! सोमरस न निचोड़ ने वाले दु: साध्य विनाश वालों और सुख न पहुँचाने वालों का विनाश करो। ऐसे लोगों का धन हमें दो । तुम्हारी स्तुति करने वाला ही धन पाता है ।४। ऋग्वेद-(१/१७६/४)
वेदनं= धनम्।vedanaṃ < vedanam < vedana[noun], accusative, singular, neuter “property; marriage; obtainment.”
= अनुवाद:

 (असुन्वन्तम्)= अभिषवादिनिष्पादनपुरुषार्थरहितम् (समम्)= सर्वम् (जहि)= मारो- हन् धातु लोटलकार । (दूणाशम्)= दुःखेन नाशनीयम् (यः)=जो (न)= निषेधे (ते)= तव (मयः)= सुखम् (अस्मभ्यम्) (अस्य) (वेदनम्)= धनम् (दद्धि) धर । अत्र दध धारण इत्यस्माद्बहुलं छन्दसीति शपो लुक् व्यस्ययेन परत्मैपदञ्च । (सूरिः) =विद्वान् (चित्) इव (ओहते) व्यवहारान् वहति । अत्र वाच्छन्दसीति संप्रसारणं लघूपधगुणः ॥ ४ ।

(असुन्वन्तम्) पदार्थों के सार खींचने आदि पुरुषार्थ से रहित (दूणाशम्) दुःख से विनाशने योग्य (समम्) समस्त को (जहि) मारो (यः) जो (सूरिः) विद्वान्  (चित्) समान (ओहते) व्यवहारों की प्राप्ति करता है (ते) तुम्हारे (मयः) सुख को (न) नही (अस्य) इसके (वेदनम्) धन को (अस्मभ्यम्) हमारे लिए (दद्धि) याच्ञायाम् निघण्टुः । अयं धातुरित्यन्ये । दे दो ॥ ४ ।

(ऋग्वेद 4.30.13)

उत शुष्णस्य धृष्णुया प्र मृक्षो अभि वेदनम्। पुरो यदस्य सम्पिणक् ॥१३॥

 अनुवाद:-
"तूने वीरता से शूष्ण का धन छीन लिया , जब तुमने उसके नगरों को ध्वस्त कर दिया था।"

अक्सर बौद्धवादी अपने पूर्वदुराग्रह द्वारा कहा करते हैं।
कि पालि भारत की सबसे प्राचीन ज्ञात भाषा है। जिसे भारत की सबसे प्राचीन ज्ञात लिपि धम्म लिपि में लिखा जाता था। 

जिसका प्रमाण सम्राट अशोक के शिलालेख और स्तम्भ से प्राप्त होता है। पाली भाषा भारत के जनमानस की भाषा थी।

परन्तु कुछ इतिहासकार संस्कृत को सबसे प्राचीन भाषा मानते है पर ये भी प्रमाणित नहीं है वैदिक भाषा प्राचीन है। क्योंकि पाली भाषा में (ऋ, क्ष, त्र, ज्ञ, ऐ, औ) अक्षर नही है। इन अक्षरों की उत्पत्ति बाद के समय में हुई।

भारत का सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में ऋ से ये आसानी से समझा जा सकता है की पाली भाषा ही भारत की सबसे प्राचीन भाषा है। 
पालि की प्रवृति साधारण जन के अनुरूप है अत: (ऋ) वर्ण का उच्चारण (र) रूप में ही होता है।

परन्तु इन इतिहास कारों को भाषा की प्रवृत्ति का बोध नहीं है।
क्योंकि "ऋ" वर्ण मूल स्वरों में है जिसमें "अ" स्वर का योग करने पर (र) वर्ण का विकास होता है।

"पालि व्याकरण परम्परा-पालि व्याकरण में पाँच व्याकरण परम्परा प्रसिद्ध है –जिनको हम निम्नलिखित रूप से उद्धृत कर रहे हैं।

1.बोधिसत्त

2.सब्बगुणाकार

3.कच्चान

4.मोग्गल्लान

5.सद्दनीति

बोधिसत्त  और  सब्बगुणाकार अधिक प्राचीन व्याकरण है, जो  वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।

पालि भाषा में कच्चायन  व्याकरण में अक्खरापादयो एकचत्तालिसं अर्थात  (41) वर्ण माने गए है तथा मोग्गल्लान

व्याकरण में तेचत्तालीस-क्खरा वण्णा अर्थात  (43) वर्ण माने जाते है। पाली भाषा में मोग्गल्लान व्याकरण

अधिक प्रचलित है। प्रस्ततु लेख में  मोग्गल्लान व्याकरण का  आधार लिया गया है।

स्वर

पालि भाषा में दसादो सरा अर्थात (10) स्वर है।

अ,आ, इ, ई, उ, ऊ, एँ, ऐ , ओँ, ओ।

    द्वेद्वे सवण्णा  अर्थात दो-दो स्वर सवर्ण कहे गए है। पुब्बो रस्सो  अर्थात पूर्व स्वर हृस्व जाता है और परोदीघो  अर्थात बाद का स्वर दीर्घ  माना जाता है।

व्यञ्जन

 पालि भाषा में  (33)  व्यञ्जन है।

ङ्
अं

    

पञ्‍च पञ्‍चका वग्गा का तात्पर्य  पाँच- पाँच वण्ण के  पाँच वग्ग  है-जसे कवग्ग, चवग्ग, टवग्ग,तवग्ग,पवग्ग. बिन्दु  निग्गहीतं अर्थात ‘अं’ को निग्गहित- निग्रहित (अनुस्वार) कहते है।

"जो वर्ण पालि भाषा में नहीं हैं उनके लिए प्रयुक्त वर्ण" 

  • लृ ऐ, औ पालि भाषा में नहीं है.
  • रेफ भी पालि भाषा में नहीं है। कभी कभी रेफ का लोप होता है तो कभी  कभी ‘र’ होता है।

जैसे-

कर्म = कम्म

महार्ह = महारहो

  •  के स्थान पर पालि भाषा में अ, इ ,उ का प्रयोग करते है।

जैसे-

गृहं= गहं

ऋणं= इणं

ऋतु= उतु

  •  के स्थान पर ए, इ, ई का प्रयोग करते है।

जैसे-

ऐरावण = एरावण

ग्रैवेयं = गीवेय्यं

सैन्धव = सिन्धव

  •  के स्थान पर ओ, उ का प्रयोग करते है।

जैसे-

दौवारीक =दोवारीक

मौक्तिक =मुत्तिकं

  • श,ष के स्थान पर  का प्रयोग करते है।

जैसे-

ऋषि =इसि

शाखा=साखा

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तथागत बुद्ध ने अपने उपदेश पालि में ही दिए है। धम्म ग्रन्थ त्रिपिटक की भाषा भी पालि ही हैl


संस्कृत में (13) स्वर, पालि भाषा में (10) स्वर, प्राकृत में (10) स्वर, अपभ्रंश में (8) तथा हिन्दी में (11) स्वर होते है।

'पालि' शब्द का निरुक्त:-
पालि शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों के अनेक मत पाए जाते हैं। किसी ने इसे पाठ शब्द से तथा किसी ने पायड (प्राकृत) से उत्पन्न करने का प्रयत्न किया है। एक जर्मन विद्वान् मैक्स वैलेसर ने पालि को 'पाटलि' का संक्षिप्त रूप बताकर यह मत व्यक्त किया है कि उसका अर्थ पाटलिपुत्र की प्राचीन भाषा से है।
इन व्युत्पत्तियों की अपेक्षा जिन दो मतों की ओर विद्वानों का अधिक झुकाव है, उनमें से एक तो है पं० विधुशेखर भट्टाचार्य का मत, जिसके अनुसार पालि, पंक्ति शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। पंक्ति को मराठी में पाळी बोलते है और मराठी में और संस्कृत में पालन शब्द भी है जिसका अर्थ है जिसको लोग पाल पोसकर बड़ा करते है या पालन का अर्थ जिसका नियम के अनुसार अवलम्ब या प्रयोग किया जाता है। इस मत का प्रबल समर्थन एक प्राचीन पालि कोश अभिधानप्पदीपिका (12वीं शती ई.) से होता है,

क्योंकि उसमें तन्ति (तन्त्र), बुद्धवचन, पंति (पंक्ति) और पालि इन शब्दों में भी स्पष्ट ही पालि का अर्थ पंक्ति ही है। परन्तु पालि का सम्बन्ध पल्लि ( ग्राम)से भी सम्भव हो सकता है। क्यों पालि में जन साधारण की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है ।
 
पालि और संस्कृत का स्वरूप क्रमश: जंगल और उद्यान जैसा है। जैसे जंगल में पौधों का स्वाभाविक विकास बिना किसी काट- छाँट के होता है जबकि उद्यान में माली पौधों का परिमार्जन और काँट- छाँट कर उन्हें सन्तुलित रूप देता रहता है। पालि जनसाधारण की प्रवृत्ति के अनुकूल भाषा है। जबकि संस्कृत शिष्ट और सभ्यजनों की भाषा है।


भाषा की दृष्टि से पालि उस मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा का एक रूप है जिसका विकास लगभग ई.पू. छठी शती से वैदिक भाषा से माना जाता है। उससे पूर्व की आदियुगीन भारतीय आर्यभाषा का स्वरूप वेदों तथा ब्राह्मणों ग्रन्थों  में प्राप्त होता है, जिन्हें 'वैदिक भाषा' कहते है। वैदिक भाषा एवं संस्कृत की अपेक्षा मध्यकालीन भाषाओं पालि अपभ्रंश आदि का भेद प्रमुखता से निम्न बातों में पाया जाता है :
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ध्वनियों में ऋ, लृ, ऐ, औ - इन स्वरों का अभाव,
ए और ओ की ह्रस्व ध्वनियों का विकास,
श्, ष्, स् इन तीनों ऊष्मों के स्थान पर किसी एकमात्र का प्रयोग (सामान्यतः स का प्रयोग)
विसर्ग ( ः ) का सर्वथा अभाव तथा असवर्णसंयुक्त व्यंजनों को असंयुक्त बनाने अथवा सवर्ण संयोग में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति।
व्याकरण की दृष्टि से परिलक्षित होती है।
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इन भाषाओं में संज्ञा एवं क्रिया के रूपों में द्विवचन का अभाव,
पुल्लिंग और नपुंसक लिंग में अभेद और व्यत्यय( उल्टा चलने वाला (व्यतिक्रम)।

कारकों एवं क्रियारूपों में संकोच,
हलन्त रूपों का अभाव,
कियाओं में परस्मैपद, आत्मनेपद तथा भवादि, अदादि गणों के भेद का लोप।
ये विशेषताएँ मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के सामान्य लक्षण हैं और देश की उन लोकभाषाओं में पाए जाते हैं !

जिनका सुप्रचार उक्त  दो हजार वर्ष तक रहा और जिनका बहुत-सा साहित्य भी उपलब्ध है।

काल के आधार पर प्राकृत भाषाओं के भेद
उक्त सामान्य लक्षणों के अतिरिक्त इन भाषाओं में अपने-अपने देश और काल की अपेक्षा अनेक भेद पाए जाते हैं। काल की दृष्टि से उनके तीन स्तर माने गए हैं -
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इन सब युगों की पालि भाषाओं को एक सामान्य नाम प्राकृत दिया गया है। प्रकृति अर्थात स्वाभाविकता से उत्पन्न भाषा-

इसके प्रथम स्तर को भाषाओं का स्वरूप अशोक की प्रशस्तियों तथा पालि साहित्य में प्राप्त होता है।
 द्वितीय स्तर की भाषाओं में मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री प्राकृत भाषाएँ है जिनका विपुल साहित्य उपलब्ध है।

 तृतीय स्तर की भाषाओं को अपभ्रंश एव अवहट्ठ नाम दिए गए हैं।

देशभेद की दृष्टि से प्राकृत भाषाओं के भेद
देशभेद की दृष्टि से मध्यकालीन भाषाओं के भेद का सर्वप्राचीन परिचय मौर्य सम्राट् अशोक (ई.पू. तृतीय शती) की धर्मलिपियों(ब्राह्मी) में प्राप्त होता है। इनमें तीन प्रदेशभेद स्पष्ट हैं - पूर्वी, पश्चिमी और पश्चिमोत्तरी। 
पूर्वी भाषा का स्वरूप धौली और जौगढ़ की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें (र) वर्ण के स्थान पर (ल ) तथा आकारांत शब्दों के कर्ताकारक एकवचन की विभक्ति (ए )सुप्रतिष्ठित है। प्राकृत के वैयाकरणों ने इन प्रवृत्तियों को मागधी प्राकृत के विशेष लक्षणों में गिनाया है। वैयाकरणों के मतानुसार इस मागधी प्राकृत का तीसरा विशेष लक्षण तीनों ऊष्म वर्णों के स्थान पर (श्) का प्रयोग है। किन्तु अशोक के उक्त लेखों में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती, क्योंकि यहाँ तीनों ऊष्मों के स्थान पर (स् )ही प्रयुक्त हुआ है। इसी कारण अशोक की इस पूर्वी प्राकृत को मागधी न कहकर अर्धमागधी का प्राचीन रूप कहना अधिक उपयुक्त है।

पश्चिमी भाषा भेद का प्रतिनिधित्व करनेवालों में गिरनार की प्रशस्तियाँ हैं। इनमें (र) और (ल) का भेद सुरक्षित है। ऊष्मों के स्थान पर (स् )का प्रयोग है तथा अकारान्त कर्ता कारक एकवचन रूप ओ में अन्त होता है। इन प्रवृत्तियों से स्पष्ट है कि यह भाषा शौरसेनी का प्राचीन रूप है।
पालि शब्द भी पल्लि शब्द से विकसित हुआ - पल्ली का अर्थ गाँव होता है ।
यानि पाली ग्रामीणों की स्वाभाविक भाषा-
 
पश्चिमोत्तर की भाषा का रूप शहबाजगढ़ी और मानसेरा की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें प्राय: (श्, ष्, स्) ये तीनों ऊष्म वर्ण अपने स्थान पर सुरक्षित हैं। कहीं-कहीं कुछ व्यत्यय दृष्टिगोचर होता है। रकारयुक्त संयुक्तवर्ण भी दिखाई देते हैं, तथा ज्ञ और न्य के स्थान पर रंञ, का प्रयोग (जैसे रंञो ) पाया जाता है। ये प्रवृत्तियाँ उस भाषा को पैशाची प्राकृत का पूर्व रूप इंगित करती हैं।

पालि त्रिपिटक का कुछ भाग अवश्य ही अशोक के काल में साहित्यिक रूप धारण कर चुका था क्योंकि उसके लाहुलोवाद, मोनेय्यसुत्त आदि सात प्रकरणों का उल्लेख उनकी भाब्रू की प्रशस्ति में हुआ है। किन्तु उपलब्ध साहित्य की भाषा में अशोक के पूर्वी शिलालेख की भाषा सम्बन्धी विशेषताओं का प्राय: सर्वथा अभाव है। व्यापक रूप से पालि भाषा का स्वरूप गिरनार प्रशस्ति की भाषा से सर्वाधिक मेल खाता है और इसी कारण पालि मूलतः पूर्वदेशीय नहीं, किन्तु मध्यदेशीय है। जिस विशेषता के कारण पालि मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के प्रथम स्तर की गिनी जाती है (द्वितीय स्तर की नही), वह है उसमें मध्यवर्ती अघोष व्यञ्जनों के लोप तथा महाप्राण वर्णों के स्थान पर ह् के आदेश का अभाव। ये प्रवृत्तियाँ द्वितीय स्तर की भाषाओं के सामान्य लक्षण हैं। हाँ, कहीं कहीं क् त् जैसे अघोष वर्णों के स्थान पर ग् द् आदि सघोष वर्णों का आदेश दिखाई देता है। किंतु यह एक तो अल्पमात्रा में ही है और दूसरे वह प्रथम स्तर की उक्त मर्यादा के भीतर अपेक्षाकृत पश्चात्काल की प्रवृत्ति का द्योतक है।
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पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय- आर्यभाषाओं के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह भाषाविकास जो संस्कृत से माना जाता है वह ठीक नहीं। यथार्थत: वैदिककाल से ही साहित्यिक भाषा के साथ साथ उससे मिलती जुलती लोकभाषा ने देश एवं कालभेदानुसार साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का रूप धारण किया है।

पालि भी अपनी पूरी विरासत संस्कृत से नहीं ले रही, क्योंकि उसमें अनके शब्दरूप ऐसे पाए जाते हैं जिसका मेल संस्कृत से नहीं, किंतु वेदों की भाषा से बैठता है। उदाहरणार्थ- पालि एवं अन्य प्राकृतों में तृतीया बहुवचन के देवेर्भि, देवेहि, जैसे रूप मिलते हैं। अकारान्त संज्ञाओं के ऐसे रूपों का संस्कृत में सर्वथा अभाव है, किंतु वैदिक में देवेर्भि, उतना ही सुप्रचिलित है जितना देवै:।
अतएव उक्त रूप की परम्परा पालि तथा प्राकृतों में वैदिक भाषा से ही उद्भूत मानी जा सकती है। उसी प्रकार पालि में 'यमामसे', 'मासरे', 'कातवे' आदि अनेक रूप ऐसे हैं जिनके प्रत्यय संस्कृत में पाए ही नहीं जाते, किन्तु वैदिक भाषा में विद्यमान हैं। पालि के ग्रन्थों तथा अशोक की प्रशस्तियों से पूर्व का प्राकृत (लोकभाषाओं) में लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है तथा प्राकृत वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए संस्कृत को प्रकृति मानकर प्राकृत भाषा का व्याकरणात्मक विश्लेषण किया है और इसीलिए यह भ्रांति उत्पन्न हो गई है कि प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से हुई।
 पालि के कच्चान, मोग्गल्लान आदि व्याकरणों में यह दोष नहीं पाया जाता, क्योंकि वहाँ भाषा का वर्णन संस्कृत को प्रकृति मानकर नहीं किया गया।
वैदिक भाषा का वह रूप जिसको संस्कार अथवा सुधार कर नगरीय व्यवस्था के वाग्व्यवहार सञ्चालन हेतु निश्चित किया गया था वही भाषा संस्कृत थी।
जबकि पालि सीधे वैदिक रूपों को स्वाभाविक रूप में ग्रहण करती है जो जन साधारण के अनुरूप थे।
पालि एक नदी के समान प्रवाहित हुई तो संस्कृत नहर के समान - 
यही क्रिया दोनों के भिन्न भिन्न होने का कारण बनी-
जबकि पालि और संस्कृत दोंनो का एक ही श्रोत है वैदिक भाषा !

पालि भाषा का उद्भव-
पालि भाषा दीर्घकाल तक राज्य भाषा के रूप में भी गौरवान्वित रही है। भगवान बुद्ध ने पालि भाषा में ही उपदेश दिये थे। अशोक के समय में इसकी बहुत उन्नति हुई। उस समय इसका प्रचार भी विभिन्न बाह्य देशों में हुआ। अशोक के समय सभी लेख पालि भाषा में ही लिखे गए थे। यह कई देशो जैसे श्री लंका, बर्मा आदि देशों की धर्म भाषा के रूप में सम्मानित हुई।

‘पाली’ भाषा का उद्भव गौतम बुद्ध से लगभग तीन सौ वर्ष पहले ही हो चुका था, किन्तु उसके प्रारम्भिक साहित्य का पता नहीं लगता। प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य प्रारम्भिक अवस्था में कथा, गीत, पहेली आदि के रूप में रहता है और उसकी रूपरेखा तब तक लोगों को जबानी याद रहती है जब तक कि वह लेखबद्ध हो या ग्रन्थारूढ न हो जाय। इस काल में पालि भाषा की जैसे उत्पत्ति हुई वैसे ही विकास भी हुआ। प्रारम्भ से लेकर लगभग तीन सौ वर्षों तक पालि भाषा जन साधारण के बोलचाल की भाषा रही, किन्तु जिस समय भगवान बुद्ध ने इसे अपने उपदेश के लिए चुना और इसी भाषा में उपदेश देना शुरू किया, तब यह थोड़े ही दिनों में शिक्षित समुदाय की भाषा होने के साथ राजभाषा भी बन गई। ‘पालि’ शब्द का सबसे पहला व्यापक प्रयोग हमें आचार्य बुद्धघोष की अट्टकथाओं और उनके विसुद्धिमग्ग में मिलता है। वहाँ यह बात अपने उत्तर कालीन भाषा सम्बन्धी अर्थ से मुक्त है। आचार्य बुद्धघोष ने दो अर्थों में इसका प्रयोग किया है- (१) बुद्ध-बचन या मूल टिपिटक के अर्थ में (२) पाठ या मूल टिपिटक के पाठ अर्थ में।

पालि भाषा’ से तात्पर्य उस भाषा से लेते हैं जिसमें स्थविरवाद बौद्धधर्म का त्रिपिटक और उसका सम्पूर्ण उपजीवी साहित्य रखा हुआ है। किन्तु ‘पालि’ शब्द का इस अर्थ में प्रयोग स्वयं पालि साहित्य में भी उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व कभी नहीं किया गया। पालि भाषा मूलतः मागधी भाषा ही थी। इसके उदाहरण कच्चायन-व्याकरण में देखने को मिलते हैं। 
मागधी ही मूल भाषा है, जिसमें प्रथम कल्प के मनुष्य बोलते थे, जो ही अश्रुत वचन वाले शिशुओं की मूल भाषा है और जिसमें ही बुद्ध ने अपने धर्म का, मूल रूप से भाषण किया। इसी प्रकार महावंश के परिवर्द्धित अंश चूल वंश के परिच्छेद 37 की 244 वीं गाथा में कहा गया है “सब्बेसं मूलभासाय मागवाय निरुत्तीया” आदि।

 निश्चय ही सिंहली परम्परा अपनी इस मान्यता में बड़ी दृढ़ है कि जिसे हम आज पालि कहते हैं, वह बुद्धकालीन भारत में बोली जाने वाली मागध भाषा ही थी। बुद्ध बचनों की भाषा को ही सिंहली परम्परा ‘मागधी’ कहना नहीं चाहती, वह अट्टककथाओं तक की भाषा को बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में मागधी कहना ही अधिक पसन्द करती है। यह बाते हम पूर्व में कह चुके हैं। 

पालि भाषा की लिपि का विकास वेदों में वर्णित पणियों की लिपि फोनेशियन( प्यूनिक) लिपि से हुआ है।

 


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फॉनिशिया (1200-500 ईसा पूर्व) पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व में आधुनिक लेबनान और सीरिया के तट पर रहने वाले सेमिटिक-भाषी कनानियों की सभ्यता थी।

टायर और सिडोन जैसे प्रमुख शहरों से , फोनीशियन(पणि) व्यापारियों और नाविकों ने भूमध्य सागर की खोज की , और व्यापक वाणिज्यिक गतिविधियों में लगे तथा इन्हीं ने
 समुद्रीय पश्चिमी भूमध्य सागर में कार्थेज और अन्य उपनिवेशों की स्थापना की।


इतिहास :-जब इसराइली लोग एक संयुक्त राज्य का गठन कर रहे थे, तब फोनीशियन लोग (जो खुद को "कैनानी"/कनानी कहते थे) 1200 ईसा पूर्व में सीरिया -फिलिस्तीन के क्षेत्र में बस गए थे।

1100 ईसा पूर्व तक कनानी क्षेत्र सिकुड़ कर पहाड़ों और समुद्र के बीच में वर्तमान लेबनान की एक संकीर्ण पट्टी में सिमट गया था।

क्योंकि इस्राएलियों और पलिश्तियों ने उनकी भूमि पर विजय प्राप्त कर ली थी।

फोनीशियनों ने तट पर छोटे शहर-राज्य ,१-बाइब्लोस , २-बेरिटस , ३-सिडोन और ४-टायर नाम से बसाए। 

 (1000) ईसा पूर्व से पहले, बाइब्लोस सबसे महत्वपूर्ण फोनीशियन शहर-राज्य था, जो माउण्ट लेबनान की ढलानों से देवदार की लकड़ी और पेपीरस का वितरण केंद्र था। मिस्र से राजा हीराम , जो 969 ईसा पूर्व में सत्ता में आए थे, वे ही टायर शहर की  में वृद्धि के लिए प्रमुखता जिम्मेदार थे, उन्होंने राजासोलोमन के साथ घनिष्ठ गठबन्धन बनाया और यरूशलेम में पहले मंदिर के निर्माण के लिए कुशल फोनीशियन कारीगरों और देवदार की लकड़ी प्रदान की। 

800 ईसा पूर्व में टायर ने पास के सिडोन पर कब्ज़ा कर लिया और भूमध्यसागरीय तटीय व्यापार पर हावी हो गया। टायर व्यावहारिक रूप से अभेद्य था, जिसमें एक नहर से जुड़े दो बंदरगाह, एक बड़ा बाज़ार, राजकोष और अभिलेखागार के साथ एक शानदार महल, और देवताओं मेलकार्ट और एस्टार्ट(ईस्तर)  के मंदिर थे । 30,000 निवासियों में से कुछ मुख्य भूमि पर उपनगरों में रहते थे।

900 ईसा पूर्व के बाद टायर ने अपना ध्यान पश्चिम की ओर लगाया और सीरियाई तट से 100 मील दूर तांबे से समृद्ध द्वीप साइप्रस पर उपनिवेश स्थापित किए । 700 ईसा पूर्व तक पश्चिमी भूमध्य सागर में बस्तियों की एक श्रृंखला ने एक " फोनीशियन त्रिभुज " का निर्माण किया, जो पश्चिमी लीबिया से मोरक्को तक उत्तरी अफ्रीकी तट , स्पेन के दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी तट से बना था, जिसमें जिब्राल्टर जलडमरूमध्य पर गेड्स (आधुनिक कैडिज़) शामिल थे , जो नियंत्रित करते थे । भूमध्य सागर और अटलांटिक महासागर के बीच का मार्ग ; और सार्डिनिया , सिसिली और माल्टा के तट से दूर द्वीप इटली . टायर ने असीरियन( असुर) राजाओं को श्रद्धांजलि देकर 701 ईसा पूर्व तक अपनी स्वायत्तता बनाए रखी। उस वर्ष अंततः यह असीरियन सेना के हाथों गिर गया जिसने इसके अधिकांश क्षेत्र और आबादी को छीन लिया, जिससे सिडोन फोनीशिया में अग्रणी शहर बन गया।

को श्रद्धांजलि देकर 701 ईसा पूर्व तक अपनी स्वायत्तता बनाए रखी। उस वर्ष अंततः यह असीरियन सेना के हाथों गिर गया जिसने इसके अधिकांश क्षेत्र और आबादी को छीन लिया, जिससे सिडोन फोनीशिया में अग्रणी शहर बन गया।
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तूनिशिया से मिली फ़ोनीशियाई में लिखी
(बाल हम्मोन) और तनित नामक देवताओं की प्रार्थना का प्रमाणित दस्तावेज है।

बाल ऋग्वेद में वर्णित बल है जो इन्द्र और बृहस्पति का प्रतिद्वन्

तूनिसीया उत्तरी अफ़्रीक़ा महाद्वीप में एक अरब राष्ट्र है जिसका अरबी भाषा में नाम अल्जम्हूरीयाह अत्तूनिसीयाह (الجمهرية التونسية) या तूनिस है। यह भूमध्यसागर के किनारे स्थित है, इसके पूर्व में लीबिया और पश्चिम मे अल्जीरिया देश हैं। देश की पैंतालीस प्रतिशत ज़मीन सहारा रेगिस्तान में है जबकि बाक़ी तटीय जमीन खेती के लिए इस्तमाल होती है। रोमन इतिहास मे तूनिस का शहर कारथिज एक आवश्यक जगह रखता है और इस प्रान्त को बाद में रोमीय राज्य का एक प्रदेश बना दीया गया जिस का नाम अफ़्रीका यानी गरम प्रान्त रखा गया जो अब पूरे महाद्वीप का नाम है।

तूनीशियाई वर्णमाला फ़ोनीशिया की सभ्यता द्वारा अविष्कृत वर्णमाला थी !

जिसमें हर वर्ण एक व्यंजन की ध्वनि बनता था। क्योंकि फ़ोनीशियाई लोग समुद्री सौदागर थे।

 इसलिए उन्होंने इस अक्षरमाला को दूर-दूर तक फैला दिया और उनकी देखा-देखी और सभ्यताएँ भी अपनी भाषाओँ के लिए इसमें फेर-बदल करके इसका प्रयोग करने लगीं। और फिर अनेक समानान्तर लिपियों का विकास हुआ।

माना जाता है के आधुनिक युग की सभी मुख्य अक्षरमालाएँ( लिपियाँ) इसी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की संताने हैं। 

 "ब्राह्मी , देवनागरी सहित, भारत की सभी वर्णमालाएँ भी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की वंशज हैं।


इसका विकास लगभग (1050) ईसा-पूर्व में आरम्भ हुआ था । 

और प्राचीन यूनानी सभ्यता के उदय के साथ-साथ अंत हो गया। परन्तु यूनानी लिपि भी फोनेशियन लिपि से विकसित हुई।

 वर्णमाला की दृष्टि से-फ़ोनीशियाई वर्णमाला के हर अक्षर का नाम फ़ोनीशियाई भाषा में किसी वस्तु के नाम पर रखा गया है। 

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अंग्रेज़ी में वर्णमाला को "ऐल्फ़ाबॅट" बोलते हैं जो नाम फ़ोनीशियाई वर्णमाला के पहले दो अक्षरों ("अल्फ़" यानि "बैल" और "बॅत" यानि "घर") से आया है।

पहले हम अलिफ की कुण्डली निकालते हैं

Aleph-First letter of many Semitic abjads

"Alef" redirects here. For other uses, see Aleph (disambiguation) and Alef (disambiguation).

Aleph (or alef or alif, transliterated ʾ) is the first letter of the Semitic abjads, including Phoenician ʾālep 𐤀, Hebrew ʾālef א, Aramaic ʾālap 𐡀, Syriac ʾālap̄ ܐ, Arabic ʾalif ا, and North Arabian 𐪑. It also appears as South Arabian 𐩱 and Ge'ez ʾälef አ.

Quick Facts Bet →, Phoenician ...

These letters are believed to have derived from an Egyptian hieroglyph depicting an ox's head to describe the initial sound of *ʾalp, the West Semitic word for ox (compare Biblical Hebrew אֶלֶף‎ ʾelef, "ox"). 


संस्कृत में अलीक: का अर्थ मस्तक है।

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The Phoenician variant gave rise to the Greek alpha (Α), being re-interpreted to express not the glottal consonant but the accompanying vowel, and hence the Latin A and Cyrillic А.

Phonetically, aleph originally represented the onset of a vowel at the glottis. 

In Semitic languages, this functions as a prosthetic weak consonant, allowing roots with only two true consonants to be conjugated in the manner of a standard three consonant Semitic root. In most Hebrew dialects as well as Syriac, the aleph is an absence of a true consonant, a glottal stop ([ʔ]), the sound found in the catch in uh-oh. In Arabic, the alif represents the glottal stop pronunciation when it is the initial letter of a word. In texts with diacritical marks, the pronunciation of an aleph as a consonant is rarely indicated by a special marking, hamza in Arabic and mappiq in Tiberian Hebrew. In later Semitic languages, aleph could sometimes function as a mater lectionis indicating the presence of a vowel elsewhere (usually long). When this practice began is the subject of some controversy, though it had become well established by the late stage of Old Aramaic (ca. 200 BCE). Aleph is often transliterated as U+02BE ʾ , based on the Greek spiritus lenis ʼ; for example, in the transliteration of the letter name itself, ʾāleph.

Origin-The name aleph is derived from the West Semitic word for "ox" (as in the Biblical Hebrew word Eleph (אֶלֶף) 'ox'), and the shape of the letter derives from a Proto-Sinaitic glyph that may have been based on an Egyptian hieroglyph, which depicts an ox's head.

More information Hieroglyph, Proto-Sinaitic ...

In Modern Standard Arabic, the word أليف /ʔaliːf/ literally means 'tamed' or 'familiar', derived from the root ʔ-L-F, from which the verb ألِف /ʔalifa/ means 'to be acquainted with; to be on intimate terms with'. In modern Hebrew, the same root ʔ-L-P (alef-lamed-peh) gives me’ulaf, the passive participle of the verb le’alef, meaning 'trained' (when referring to pets) or 'tamed' (when referring to wild animals).

Ancient Egyptian

Further information: Transliteration of Ancient Egyptian § alef

More information "Aleph" in hieroglyphs ...

The Egyptian "vulture" hieroglyph (Gardiner G1), by convention pronounced [a]) is also referred to as aleph, on grounds that it has traditionally been taken to represent a glottal stop ([ʔ]), although some recent suggestions tend towards an alveolar approximant ([ɹ]) sound instead. Despite the name it does not correspond to an aleph in cognate Semitic words, where the single "reed" hieroglyph is found instead.

The phoneme is commonly transliterated by a symbol composed of two half-rings, in Unicode (as of version 5.1, in the Latin Extended-D range) encoded at U+A722 Ꜣ LATIN CAPITAL LETTER EGYPTOLOGICAL ALEF and U+A723 ꜣ LATIN SMALL LETTER EGYPTOLOGICAL ALEF. A fallback representation is the numeral 3, or the Middle English character ȝ Yogh; neither are to be preferred to the genuine Egyptological characters.

Aramaic-

The Aramaic reflex of the letter is conventionally represented with the Hebrew א in typography for convenience, but the actual graphic form varied significantly over the long history and wide geographic extent of the language. Maraqten identifies three different aleph traditions in East Arabian coins: a lapidary Aramaic form that realizes it as a combination of a V-shape and a straight stroke attached to the apex, much like a Latin K; a cursive Aramaic form he calls the "elaborated X-form", essentially the same tradition as the Hebrew reflex; and an extremely cursive form of two crossed oblique lines, much like a simple Latin X.

More information Cursive Aramaic, Lapidary Aramaic ...

Hebrew

"א" redirects here. For the Biblical manuscript, see Codex Sinaiticus.

Hebrew spelling: אָלֶף ‎

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In Modern Israeli Hebrew, the letter either represents a glottal stop ([ʔ]) or indicates a hiatus (the separation of two adjacent vowels into distinct syllables, with no intervening consonant). It is sometimes silent (word-finally always, word-medially sometimes: הוּא‎ [hu] "he", רָאשִׁי‎ [ʁaˈʃi] "main", רֹאשׁ‎ [ʁoʃ] "head", רִאשׁוֹן‎ [ʁiˈʃon] "first"). The pronunciation varies in different Jewish ethnic divisions.

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In gematria, aleph represents the number 1, and when used at the beginning of Hebrew years, it means 1000 (e.g. א'תשנ"ד‎ in numbers would be the Hebrew date 1754, not to be confused with 1754 CE).

Aleph, along with ayin, resh, he and heth, cannot receive a dagesh. (However, there are few very rare examples of the Masoretes adding a dagesh or mappiq to an aleph or resh. The verses of the Hebrew Bible for which an aleph with a mappiq or dagesh appears are Genesis 43:26, Leviticus 23:17, Job 33:21 and Ezra 8:18.)

In Modern Hebrew, the frequency of the usage of alef, out of all the letters, is 4.94%.

Aleph is sometimes used as a mater lectionis to denote a vowel, usually /a/. That use is more common in words of Aramaic and Arabic origin, in foreign names, and some other borrowed words.

More information Orthographic variants, Various Print Fonts ...

Rabbinic Judaism–

Aleph is the subject of a midrash that praises its humility in not demanding to start the Bible. (In Hebrew, the Bible begins with the second letter of the alphabet, bet.) In the story, aleph is rewarded by being allowed to start the Ten Commandments. (In Hebrew, the first word is אָנֹכִי‎, which starts with an aleph.)

In the Sefer Yetzirah, the letter aleph is king over breath, formed air in the universe, temperate in the year, and the chest in the soul.

Aleph is also the first letter of the Hebrew word emet (אֶמֶת‎), which means truth. In Judaism, it was the letter aleph that was carved into the head of the golem that ultimately gave it life.

Aleph also begins the three words that make up God's name in Exodus, I Am who I Am (in Hebrew, Ehyeh Asher Ehyeh אהיה אשר אהיה), and aleph is an important part of mystical amulets and formulas.

Aleph represents the oneness of God. The letter can be seen as being composed of an upper yud, a lower yud, and a vav leaning on a diagonal. The upper yud represents the hidden and ineffable aspects of God while the lower yud represents God's revelation and presence in the world. The vav ("hook") connects the two realms.

Judaism relates aleph to the element of air, and the Scintillating Intelligence (#11) of the path between Kether and Chokmah in the Tree of the Sephiroth [citation needed].

Yiddish–

In Yiddish, aleph is used for several orthographic purposes in native words, usually with different diacritical marks borrowed from Hebrew niqqud:

With no diacritics, aleph is silent; it is written at the beginning of words before vowels spelled with the letter vov or yud. For instance, oykh 'also' is spelled אויך. The digraph וי represents the initial diphthong [oj], but that digraph is not permitted at the beginning of a word in Yiddish orthography, so it is preceded by a silent aleph. Some publications use a silent aleph adjacent to such vowels in the middle of a word as well when necessary to avoid ambiguity.

An aleph with the diacritic pasekh, אַ, represents the vowel [a] in standard Yiddish.

An aleph with the diacritic komets, אָ, represents the vowel [ɔ] in standard Yiddish.

Loanwords from Hebrew or Aramaic in Yiddish are spelled as they are in their language of origin.

Syriac–

More information Alaph ...

In the Syriac alphabet, the first letter is ܐ, Classical Syriac: ܐܵܠܲܦ, alap (in eastern dialects) or olaph (in western dialects). It is used in word-initial position to mark a word beginning with a vowel, but some words beginning with i or u do not need its help, and sometimes, an initial alap/olaph is elided. For example, when the Syriac first-person singular pronoun ܐܸܢܵܐ is in enclitic positions, it is pronounced no/na (again west/east), rather than the full form eno/ana. The letter occurs very regularly at the end of words, where it represents the long final vowels o/a or e. In the middle of the word, the letter represents either a glottal stop between vowels (but West Syriac pronunciation often makes it a palatal approximant), a long i/e (less commonly o/a) or is silent.

South Arabian/Ge'ez

In the Ancient South Arabian alphabet, 𐩱 appears as the seventeenth letter of the South Arabian abjad. The letter is used to render a glottal stop /ʔ/.

In the Ge'ez alphabet, ʾälef አ appears as the thirteenth letter of its abjad. This letter is also used to render a glottal stop /ʔ/.

More information South Arabian, Ge'ez ...

Arabic–

Written as ا or 𐪑, spelled as ألف or 𐪑𐪁𐪐 and transliterated as alif, it is the first letter in Arabic and North Arabian. Together with Hebrew aleph, Greek alpha and Latin A, it is descended from Phoenician ʾāleph, from a reconstructed Proto-Canaanite ʾalp "ox".

Alif is written in one of the following ways depending on its position in the word:

More information Position in word, Isolated ...

More information North Arabian ...

Arabic variants

Alif mahmūza: أ and إ

Main article: Hamza

The Arabic letter was used to render either a long /aː/ or a glottal stop /ʔ/. That led to orthographical confusion and to the introduction of the additional marking hamzat qaṭ‘ ﺀ to fix the problem. Hamza is not considered a full letter in Arabic orthography: in most cases, it appears on a carrier, either a wāw (ؤ), a dotless yā’ (ئ), or an alif.

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The choice of carrier depends on complicated orthographic rules. Alif إ أ is generally the carrier if the only adjacent vowel is fatḥah. It is the only possible carrier if hamza is the first phoneme of a word. Where alif acts as a carrier for hamza, hamza is added above the alif, or, for initial alif-kasrah, below it and indicates that the letter so modified is indeed a glottal stop, not a long vowel.

A second type of hamza, hamzat waṣl (همزة وصل) whose diacritic is normally omitted outside of sacred texts, occurs only as the initial letter of the definite article and in some related cases. It differs from hamzat qaṭ‘ in that it is elided after a preceding vowel. Alif is always the carrier.

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Alif mamdūda: آ

The alif maddah is a double alif, expressing both a glottal stop and a long vowel. Essentially, it is the same as a أا sequence: آ (final ـآ) ’ā /ʔaː/, for example in آخر ākhir /ʔaːxir/ 'last'.

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"It has become standard for a hamza followed by a long ā to be written as two alifs, one vertical and one horizontal." (the "horizontal" alif being the maddah sign).

Alif maqṣūrah: ى

The ى ('limited/restricted alif', alif maqṣūrah), commonly known in Egypt as alif layyinah (ألف لينة, 'flexible alif'), may appear only at the end of a word. Although it looks different from a regular alif, it represents the same sound /aː/, often realized as a short vowel. When it is written, alif maqṣūrah is indistinguishable from final Persian ye or Arabic yā’ as it is written in Egypt, Sudan and sometimes elsewhere.

The letter is transliterated as y in Kazakh, representing the vowel /ə/. Alif maqsurah is transliterated as á in ALA-LC, ā in DIN 31635, à in ISO 233-2, and ỳ in ISO 233.

In Arabic, alif maqsurah ى is not used initially or medially, and it is not joinable initially or medially in any font. However, the letter is used initially and medially in the Uyghur Arabic alphabet and the Arabic-based Kyrgyz alphabet, representing the vowel /ɯ/: (ىـ ـىـ‎).

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Numeral As a numeral, alif stands for the number one. It may be modified as follows to represent other numbers.[citation needed]

More information Modification to alif, Number represented ...

Other uses

Mathematics

In set theory, the Hebrew aleph glyph is used as the symbol to denote the aleph numbers, which represent the cardinality of infinite sets. This notation was introduced by mathematician Georg Cantor. In older mathematics books, the letter aleph is often printed upside down by accident, partly because a Monotype matrix for aleph was mistakenly constructed the wrong way up.

Aleph

कई सेमेटिक( अबजदों  वर्णमालाओं)का पहला अक्षर-

एलेफ़ (या एलेफ़ या अलिफ़, लिप्यंतरित ʾ) सेमेटिक अबजादों का पहला अक्षर है, जिसमें 

1-फ़ोनीशियन ʾalep 𐤀, 

2-हिब्रू ʾalef א, 

3-अरामी ʾalap 𐡀, 

4-सिरिएक ʾalap̄ ̄, 

5-अरबी ʾalif ا, और 

6-उत्तरी अरब 𐪑 शामिल हैं। 

यह साउथ अरेबियन 𐩱 और गीज़ ʾälef አ के रूप में भी दिखाई देता है।

त्वरित तथ्य शर्त →, फोनीशियन ...

ऐसा माना जाता है कि ये अक्षर मिस्र के एक चित्रलिपि से लिए गए हैं, जिसमें एक बैल के सिर को दर्शाया गया है, जो बैल के लिए पश्चिमी सेमिटिक शब्द *ʾalp की प्रारंभिक ध्वनि का वर्णन करता है (बाइबिल के हिब्रू אֶלֶף‎ ʾelef, "बैल" की तुलना करें)।


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फोनीशियन संस्करण ने ग्रीक अल्फा (Α) को जन्म दिया, जिसे ग्लोटल व्यंजन नहीं बल्कि साथ वाले स्वर को व्यक्त करने के लिए दोबारा व्याख्या की गई, और इसलिए लैटिन ए और सिरिलिक ए।

ध्वन्यात्मक रूप से, एलेफ़ मूल रूप से ग्लोटिस पर एक स्वर की शुरुआत का प्रतिनिधित्व करता था।

सेमिटिक भाषाओं में, यह एक कृत्रिम कमजोर व्यंजन के रूप में कार्य करता है, जिससे केवल दो सच्चे व्यंजन वाली जड़ों को मानक तीन व्यंजन सेमिटिक रूट (धातु)के तरीके से संयुग्मित किया जा सकता है। अधिकांश हिब्रू बोलियों के साथ-साथ सिरिएक में, एलेफ एक सच्चे व्यंजन, एक ग्लोटल स्टॉप ([ʔ]) की अनुपस्थिति है, जो ध्वनि उह-ओह में पकड़ में पाई जाती है।

अरबी में, अलिफ़ ग्लोटल स्टॉप उच्चारण का प्रतिनिधित्व करता है जब यह किसी शब्द का प्रारंभिक अक्षर होता है। 

विशेषक चिह्नों वाले ग्रंथों में, व्यंजन के रूप में एलेफ़ का उच्चारण शायद ही कभी एक विशेष चिह्न द्वारा दर्शाया जाता है, अरबी में हम्ज़ा और तिबेरियन हिब्रू में मप्पिक। बाद की सेमेटिक भाषाओं में, एलेफ़ कभी-कभी मेटर लेक्शनिस के रूप में कार्य कर सकता है जो कहीं और स्वर की उपस्थिति (आमतौर पर लंबा) का संकेत देता है।

 यह प्रथा कब शुरू हुई यह कुछ विवाद का विषय है, हालाँकि यह पुराने अरामाइक के अंतिम चरण (लगभग 200 ईसा पूर्व) तक अच्छी तरह से स्थापित हो गई थी। 

एलेफ़ को अक्सर ग्रीक स्पिरिटस लेनिस ʼ के आधार पर U+02BE ʾ के रूप में लिप्यंतरित किया जाता है; उदाहरण के लिए, अक्षर नाम के लिप्यंतरण में ही, āleph.

मूल

एलेफ नाम पश्चिमी सेमिटिक शब्द "बैल" से लिया गया है (जैसा कि बाइबिल के हिब्रू शब्द एलीफ (אֶלֶף) 'बैल') में है, और अक्षर का आकार एक प्रोटो-सिनाईटिक ग्लिफ़ से लिया गया है जो शायद एक पर आधारित हो सकता है मिस्र का चित्रलिपि, जो एक बैल के सिर को दर्शाता है।

आधुनिक मानक अरबी में, शब्द أليف /ʔaliːf/ का शाब्दिक अर्थ है 'पालित' या 'परिचित', है।

जो मूल ʔ-L-F से लिया गया है, जिससे क्रिया ألِف /ʔalifa/ का अर्थ है 'परिचित होना; 'के साथ घनिष्ठ संबंध रखना।प्रेमी-आदि 

 आधुनिक हिब्रू में, वही मूल ʔ-L-P (एलेफ़-लैमेड-पेह) मी'उलाफ़ देता है, जो क्रिया ले 'एलेफ़ का निष्क्रिय कृदन्त है, जिसका अर्थ है 'प्रशिक्षित' (पालतू जानवरों का संदर्भ देते समय) या 'पालतू' (जब सन्दर्भित किया जाता है) जंगली जानवर)।

पौराणिक मिश्र:-

अधिक जानकारी: प्राचीन मिस्र का लिप्यंतरण § एलेफ़

इब्रानी:-

सुविधा के लिए टाइपोग्राफी में अक्षर के अरामी रिफ्लेक्स को पारंपरिक रूप से हिब्रू א के साथ दर्शाया जाता है, लेकिन वास्तविक ग्राफिक रूप भाषा के लंबे इतिहास और व्यापक भौगोलिक विस्तार के कारण काफी भिन्न होता है। 

मराकटेन पूर्वी अरब के सिक्कों में तीन अलग-अलग एलेफ़ परंपराओं की पहचान करता है: एक लैपिडरी अरामी रूप जो इसे वी-आकार के संयोजन और शीर्ष से जुड़े एक सीधे स्ट्रोक के रूप में महसूस करता है, लैटिन के की तरह; एक घसीट अरामी रूप को वह "विस्तृत एक्स-फॉर्म" कहते हैं, मूलतः वही परंपरा हिब्रू प्रतिवर्त के रूप में; और दो पार की गई तिरछी रेखाओं का एक अत्यंत घसीट रूप, एक साधारण लैटिन एक्स की तरह।


यहूदी

"א" यहां पुनर्निर्देश करता है। बाइबिल पांडुलिपि के लिए, कोडेक्स साइनेटिकस देखें।

हिब्रू वर्तनी: אָלֶף ‎

आधुनिक इज़राइली हिब्रू में, अक्षर या तो एक ग्लोटल स्टॉप ([ʔ]) का प्रतिनिधित्व करता है या एक अंतराल को इंगित करता है (दो आसन्न स्वरों को अलग-अलग अक्षरों में अलग करना, बिना किसी हस्तक्षेप वाले व्यंजन के)।

यह कभी-कभी मौन होता है (शब्द-अंततः हमेशा, शब्द-मध्यवर्ती रूप से कभी-कभी: הוּא‎ [hu] "he", רָאשִׁי‎ [ʁaˈʃi] "main", רֹאשׁ‎ [ʁoʃ] "head", רִאשׁוֹן‎ [ʁiˈʃon] "first " ). विभिन्न यहूदी जातीय प्रभागों में उच्चारण भिन्न-भिन्न होता है।

जेमट्रिया में, एलेफ संख्या 1 का प्रतिनिधित्व करता है, और जब हिब्रू वर्षों की शुरुआत में उपयोग किया जाता है, तो इसका मतलब 1000 होता है (उदाहरण के लिए א'תשנ"ד‎ संख्या में हिब्रू तारीख 1754 होगी, 1754 सीई के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए)।

अलेफ, अयिन, रेश, हे और हेथ के साथ, दागेश प्राप्त नहीं कर सकता। (हालाँकि, मासोरेट्स द्वारा अलेफ या रेश में दागेश या मप्पिक जोड़ने के कुछ बहुत ही दुर्लभ उदाहरण हैं। 

हिब्रू बाइबिल के छंद जिनके लिए मप्पिक या दागेश के साथ अलेफ दिखाई देता है, उत्पत्ति 43:26, लेविटस 23:17 हैं, अय्यूब 33:21 और एज्रा 8:18.)

आधुनिक हिब्रू में, सभी अक्षरों में से, एलेफ़ के उपयोग की आवृत्ति 4.94% है।

एलेफ का उपयोग कभी-कभी स्वर को दर्शाने के लिए मेटर लेक्शनिस के रूप में किया जाता है, आमतौर पर /ए/। यह प्रयोग अरामी और अरबी मूल के शब्दों, विदेशी नामों और कुछ अन्य उधार लिए गए शब्दों में अधिक आम है।

रब्बीनिक यहूदी धर्म:-

एलेफ एक मिड्रैश का विषय है जो बाइबिल शुरू करने की मांग न करने की अपनी विनम्रता की प्रशंसा करता है। (हिब्रू में, बाइबल वर्णमाला के दूसरे अक्षर से शुरू होती है।कहानी में, एलेफ़ को दस आज्ञाएँ शुरू करने की अनुमति देकर पुरस्कृत किया जाता है। (हिब्रू में, पहला शब्द אָנֹכִי‎ है, जो एलेफ से शुरू होता है।)

सेफ़र यत्ज़िराह में, अक्षर एलेफ़ सांस पर राजा है, ब्रह्मांड में वायु का निर्माण होता है, वर्ष में शीतोष्ण होता है, और आत्मा में छाती होती है।

एलेफ़ हिब्रू शब्द एमेट (אֶמֶת‎) का पहला अक्षर भी है, जिसका अर्थ सत्य है। यहूदी धर्म में, यह अक्षर एलेफ़ था जिसे गोलेम के सिर में उकेरा गया था जिसने अंततः इसे जीवन दिया।

एलेफ उन तीन शब्दों की भी शुरुआत करता है जो निर्गमन में भगवान का नाम बनाते हैं, मैं वही हूं जो मैं हूं (हिब्रू में, एहयेह आशेर एहयेह אהיה אשר אהיה), और एलेफ रहस्यमय ताबीज और सूत्रों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

___                  

अलेफ ईश्वर की एकता का प्रतिनिधित्व करता है। पत्र को एक ऊपरी युद, एक निचले युद और एक विकर्ण पर झुके हुए वाव से बना देखा जा सकता है। 

ऊपरी युद ईश्वर के छिपे और अवर्णनीय पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है जबकि निचला युद दुनिया में ईश्वर के रहस्योद्घाटन और उपस्थिति का प्रतिनिधित्व करता है। वाव ("हुक") दो क्षेत्रों को जोड़ता है।

यहूदी धर्म एलेफ को हवा के तत्व से जोड़ता है, और सेफिरोथ के पेड़ में केथर और चोकमा के बीच के पथ की स्किंटिलेटिंग इंटेलिजेंस (#11) [उद्धरण वांछित]।

यहूदी

यिडिश में, एलेफ़ का उपयोग मूल शब्दों में कई वर्तनी संबंधी उद्देश्यों के लिए किया जाता है, आमतौर पर हिब्रू निक्कुड से उधार लिए गए विभिन्न विशेषक चिह्नों के साथ:

बिना किसी विशेषक चिह्न के, एलेफ़ चुप है; यह शब्दों की शुरुआत में वोव या युड अक्षर से लिखे गए स्वरों से पहले लिखा जाता है। उदाहरण के लिए, oykh 'भी' को אויך लिखा जाता है। डिग्राफ וי प्रारंभिक डिप्थॉन्ग [ओजे] का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन यिडिश ऑर्थोग्राफी में किसी शब्द की शुरुआत में उस डिग्राफ की अनुमति नहीं है, इसलिए यह एक साइलेंट एलेफ से पहले होता है। कुछ प्रकाशन अस्पष्टता से बचने के लिए आवश्यक होने पर शब्द के बीच में ऐसे स्वरों से सटे एक साइलेंट एलेफ़ का भी उपयोग करते हैं।

विशेषक पसेख,( אַ )के साथ एक एलेफ, मानक यिडिश में स्वर [ए] का प्रतिनिधित्व करता है।

विशेषक कोमेट्स, אָ के साथ एक एलेफ़, मानक यिडिश में स्वर [ɔ] का प्रतिनिधित्व करता है।

यिडिश में हिब्रू या अरामी भाषा के ऋणशब्दों की वर्तनी वैसे ही की जाती है जैसे वे उनकी मूल भाषा में हैं।

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सिरिएक

अधिक जानकारी अलफ़...

सिरिएक वर्णमाला में, पहला अक्षर Ԑ है, शास्त्रीय सिरिएक: ԐֵԵԠֲ֦, अलाप (पूर्वी बोलियों में) या ओलाफ़ (पश्चिमी बोलियों में)। इसका उपयोग स्वर से शुरू होने वाले शब्द को चिह्नित करने के लिए शब्द-प्रारंभिक स्थिति में किया जाता है, लेकिन i या u से शुरू होने वाले कुछ शब्दों को इसकी सहायता की आवश्यकता नहीं होती है, और कभी-कभी, प्रारंभिक अलाप/ओलाफ हटा दिया जाता है। उदाहरण के लिए, जब सिरिएक प्रथम-व्यक्ति एकवचन सर्वनाम ԐԸԢԵԐ enclitic स्थिति में होता है, तो इसका उच्चारण पूर्ण रूप eno/ana के बजाय no/na (फिर से पश्चिम/पूर्व) किया जाता है। यह अक्षर शब्दों के अंत में बहुत नियमित रूप से आता है, जहां यह लंबे अंतिम स्वरों ओ/ए या ई का प्रतिनिधित्व करता है। शब्द के मध्य में, अक्षर या तो स्वरों के बीच एक ग्लोटल स्टॉप का प्रतिनिधित्व करता है (लेकिन पश्चिम सिरिएक उच्चारण अक्सर इसे एक तालव्य सन्निकटन बनाता है), एक लंबा आई/ई (कम सामान्यतः ओ/ए) या मौन होता है।

साउथ अरेबियन/गीज़

प्राचीन दक्षिण अरब वर्णमाला में, 𐩱 दक्षिण अरब अबजद के सत्रहवें अक्षर के रूप में प्रकट होता है। अक्षर का उपयोग ग्लोटल स्टॉप /ʔ/ प्रस्तुत करने के लिए किया जाता है।

गीज़ वर्णमाला में, ʾälef አ इसके अबजद के तेरहवें अक्षर के रूप में प्रकट होता है। इस अक्षर का उपयोग ग्लोटल स्टॉप /ʔ/ प्रस्तुत करने के लिए भी किया जाता है।

अधिक जानकारी साउथ अरेबियन, गीज़...

अरबी

ا या 𐪑 के रूप में लिखा जाता है, ألف या 𐪑𐪁𐪐 के रूप में लिखा जाता है और अलिफ़ के रूप में लिप्यंतरित किया जाता है, यह अरबी और उत्तरी अरब में पहला अक्षर है। हिब्रू एलेफ़, ग्रीक अल्फ़ा और लैटिन ए के साथ, यह फ़ोनीशियन सेलेफ़ का वंशज है, एक पुनर्निर्मित प्रोटो-कैनानाइट एल्प "बैल" से।

अलिफ़ को शब्द में उसकी स्थिति के आधार पर निम्नलिखित में से किसी एक तरीके से लिखा जाता है:

यद्यपि यूरोपीय भाषाओं में "Axe" ( तलवार या कुलाड़ी) के लिए वैदिक तथा संस्कृत में असि: शब्द है।

असिः, पुंल्लिंग-(असतीति । अस दीप्तौ इनि ।) अस्त्र- भेदः । खा~डा तरवाल इत्यादि भाषा । तत्प- र्य्यायः । खड्गः २ निस्त्रिंशः ३ चन्द्रहासः ४ रिष्टिः ५ कौक्षेयकः ६ मण्डलाग्रः ७ करपालः ८ कृपाणः ९ इत्यमरः ॥ प्रबालकः १० भद्रात्मजः ११ रिष्टः १२ ऋष्टिः १३ धाराविषः १४ कौक्षेयः १५ तरवारिः १६ तरवाजः १७ कृपाणकः १८ करवालः १९ कृपाणी २० शस्त्रः २१ । इति शब्दरत्नावली ॥ विषसनः २२ । इति त्रिकांण्ड- शेषः ॥ (“पर्णशालामथ क्षिप्रं विकृष्टासिः प्रविश्य सः । वैरूप्यपौनरुक्तेन भीषणां तामयोजयत्” ॥ इति रघवंशे १२ । ४० ॥ “स्यन्दनाश्वैः समे युध्येदनूपे नौद्विपैस्तथा । वृक्षगुल्मावृते चापैरसिचर्म्मायुधैः स्थले ॥” इति मनौ ७ । १९२ ॥) तस्य स्तुतिर्यथा । “असिर्व्विषसनः खड्गस्तीक्ष्णधारो दुरासदः । श्रीगर्भो विजयश्चैव धर्म्मपालो नमोऽस्तु ते ॥ इत्यष्टौ तव नामानि स्वयमुक्तानि वेधसा । नक्षत्रं कृत्तिका ते तु गुरुर्देवो महेश्वरः ॥ हिरण्यञ्च शरीरन्ते धाता देवो जनार्द्दनः । पिता पितामहो देवस्त्वं मां पालय सर्व्वदा ॥ नीलजीमूतसङ्काशस्तीक्ष्णदंष्ट्रः कृशोदरः । भावशुद्धोऽमर्षणश्च अतितेजास्तथैव च ॥ इयं येन धृता क्षौणी हतश्च महिषासुरः । तीक्ष्णधाराय शुद्धाय तस्मै खड्गाय ते नमः” ॥ इति वृहन्नन्दिकेश्वरपुराणीयदुर्गोत्सवपद्धतिधृत- वाराहीतन्त्रं ॥

मा त्वा तपत्प्रिय आत्मापियन्तं मा स्वधितिस्तन्व आ तिष्ठिपत्ते ।
मा ते गृध्नुरविशस्तातिहाय छिद्रा गात्राणि असिना मिथू कः ॥२०॥( ऋग्वेद  १/१६२/२०)

अक्रीळन्क्रीळन्हरिरत्तवेऽदन्वि पर्वशश्चकर्त गामिव -असिः ॥६॥( ऋग्वेदः सूक्तं १०/७९/६)



माहेश्वर सूत्र को संस्कृत व्याकरण का प्रथम आधार माना जाता है।

  • पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत अर्थात् संस्कारित एवं नियमित करने के उद्देश्य से वैदिक भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को ध्वनि-विभाग के रूप अर्थात् (अक्षरसमाम्नाय), नाम- (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पद- (विभक्ति युक्त वाक्य में प्रयुक्त शब्द , आख्यात-(क्रिया), उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है।

अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभाजित हैं । व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 सूत्रों में किया है।

जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं।

तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को दृष्टि गत रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।

  • विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी में ही हुआ यद्यपि संस्कृत की शब्दावली वैदिक भाषा की ही थी। ।
  • तभी ग्रामीण या जनसाधारण की भाषा बौद्ध काल से पूर्व ई०पू० 563 में भी थी । यह भी वैदिक भाषा (छान्दस्)से विकसित हुई। ये ही भाषाऐं गाँव( पल्लि) से सम्बन्धित होने से पालि और साधारण जन प्रकृति से सम्बन्धित होने से प्राकृत कह लायी गयीं।

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व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए पाणिनी ने सूत्र शैली की सहायता ली है।

  • पुनः विवेचन को अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का निर्माण करके प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं।

माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति-----माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शंकर) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से मानी गयी है। जो कि एक श्रृद्धा प्रवण अतिरञ्जना ही है ।

रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसे आख्यान परक रूप इस प्रकार दिया। 👇

  • नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्। उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान्एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥

अर्थात:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया।

इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) रूप में प्रकट हुया। " डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ।

  • इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है।
  • वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में शिव का ओ३म स्वरूप भी है ।
  • उमा शिव की ही शक्ति का रूप है ।

उमा शब्द की व्युत्पत्ति -

  • (उ- भो मा तपस्यां कुरुवति -अरे तपस्या मत करो- यथा, “उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम ” । जब उमा की माता ने तपस्या का निषेध ( मनाही) की तब इसके बाद इस सुमुॉखी का नाम उमा हुआ।

इति कुमारोक्तेः(कुमारसम्भव महाकाव्य)।

  • यद्वा ओर्हरस्य मा लक्ष्मीरिव ।उं शिवं माति मिमीते वा । आतोऽनुपसर्गेति कः । अजादित्वात् टाप् ।
  • अवति ऊयते वा उङ् शब्दे “विभाषा तिलमाषो मेति” । ५।२।४। निपातनात् मक् )
  • दुर्गा का विशेषण ।

परन्तु यह पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण है जिसमें संशोधन और भी अपेक्षित है।

  • यादव योगेश कुमार रोहि ने इसका विश्लेषण किया है।

  • यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश कभी नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल )भी माहेश्वर सूत्र में सम्मिलित न होते ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं मौलिक नहीं।
  • इनकी संरचना के विषय में नीचे विश्लेषण प्रस्तुत है

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पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ;जो निम्नलिखित हैं: 👇__________________________________________

  • १. अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।

उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार के क्रम से संयोजित किया गया है।

  • फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों या प्रत्याहारों (एक से अधिक वर्णों) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं।
  • माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं।
  • प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण में उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
  • इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
  • प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र व्यंजन वर्णों की गणना की गयी है।
  • संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है।
  • अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।
  • प्रत्याहार की अवधारणा :---प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।

अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।

  • उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।
  • यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है।
  • अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
  • इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
  • फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
  • उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण
  • (ण् क् च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है।
  • इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है |
  • अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।

________________________________

  • (अ"इ"उ ऋ"लृ मूल स्वर ।
  • (ए ,ओ ,ऐ,औ) ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ है ।
  • जैसे क्रमश: अ+ इ = ए तथा अ + उ = ओ संयुक्त स्वरों के रूप में गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं ।
  • अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇
  • । अ" इ" उ" । और ये परवर्ती (इ) तथा (उ) स्वर भी केवल
  • (अ) स्वर के उदात्त( ऊर्ध्वगामी ) उ ।
  • तथा अनुदात्त-(निम्न गामी) इ । के रूप में हैं ।
  • ___________
  • ऋ तथा ऌ स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है ।
  • जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।
  • अब (ह)वर्ण महाप्राण है ।
  • जिसका उच्चारण स्थान काकल है ।👉👆👇
  • मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं ।
  • परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी वर्णों की रचना दर्शायी है ।
  • पच्चीस स्वर ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप
  • इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।
  • क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25
  • _________________________
  • और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन
  • कवर्ग ।चवर्ग ।टवर्ग ।तवर्ग । पवर्ग। = 25।
  • तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ ई ऊ ऋृ लृ ) (ए ऐ ओ औ )
  • ( य व र ल) ( चन्द्रविन्दु ँ )
  • अनुस्वार तथा विसर्ग अनुसासिक के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।
  • पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा वर्णा शम्भुमते मता: ।

स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है।

अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं।

वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇

_________________________________________

1. कम्पक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं।

2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :

क. नासा ग्रसनी (nasopharynx), ख. ग्रसनी (pharynx),

ग. मुख (mouth),

घ. स्वरयंत्र (larynx),

च. श्वासनली और श्वसनी

(trachea and bronchus)

छ. फुफ्फुस (फैंफड़ा )(lungs),

ज. वक्षगुहा (thoracic cavity)।

3. स्पष्ट उच्चारक (articulators)अवयव :- इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :

क. जिह्वा (tongue),

ख. दाँत (teeth),

ग. ओठ (lips),

घ. कोमल तालु (soft palate),

च. कठोर तालु (मूर्धा )(hard palate)।

__________________________________________

स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं :

जीवात्मा द्वारा प्रेरित वायु फुफ्फुस जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है, तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयन्त्र तक पहुंचती है, जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कम्पित होने लगती हैं, जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है।

ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयन्त्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं।

इसके उपरान्त उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपान्तरण उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दन्त तथा ओष्ठ आदि करते हैं।

इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।

स्वरयंत्र---

अवटु (thyroid) उपास्थि

वलथ (Cricoid) उपास्थि

स्वर रज्जुऐं

ये संख्या में चार होती हैं जो स्वरयन्त्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं।

यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थिति स्थापक रेशे भी होते हैं।

देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है।

इसमें ऊपर की दोनों तन्त्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं।

इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कण्ठ-द्वार (glottis) कहते हैं।

इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बन्द होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है।

स्वर की उत्पत्ति में स्वररज्जुओं की गतियाँ (movements)----

श्वसन काल में रज्जुद्वार खुला रहता है और चौड़ा तथा त्रिकोणकार होता है।

श्वाँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा (विस्तृत) तथा श्वाँस छोड़ने में कुछ संकीर्ण (संकुचित) हो जाता है।

बोलते समय रज्जुएँ आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं ;और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है।

जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वारा उतना ही संकीर्ण हो जाता है।

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स्वरयन्त्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लंबाई बढ़ती है ; जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है।

स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं।

इसी लिए पुरुषों का स्वर मन्द्र सप्तक पर आधारित है

और स्त्रियों का स्वर तार सप्तक पर आधारित है।

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स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त --

उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है।

यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन आ जाता है।

ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है ।

स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है :👇

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1. प्रबलता (loudness) - यह कम्पन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है।

2. तारत्व (Pitch) - यह कम्पन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है।

3. गुणता (Quality) - यह गुञ्जनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है; और कम्पन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर करता है।

  1. अ" स्वर का उच्चारण तथा ह स्वर का उच्चारण श्रोत समान है । कण्ठ तथा काकल ।
  2. _________________________________________
  3. नि: सन्देह काकल कण्ठ का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं।
  4. जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है कहा भी गया है ।
  5. "अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा ।
  6. अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
  7. अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । अ-<हहहहह.... ।
  8. अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।
  9. अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।________________________________________
  10. य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।
  11. क्यों कि अन्त: का अर्थ मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ स्थित रहने वाला ।ये अन्त:स्थ वर्ण
  12. क्रमश: गुण सन्ध्याक्षर या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 👇
  13. जैसे :- इ+अ = य अ+इ =ए
  14. उ+अ = व अ+उ= ओ ______________________________________
  15. ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।
  16. स्पर्श व्यञ्जनों सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
  17. ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११.
  18. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३.
  19. शषसर्।
  20. उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार क प्रतिनिधित्व करते हैं ।
  21. जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।
  22. यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है।
  23. टवर्ग के साथ मूर्धन्य (ष) उष्म वर्ण है ।
  24. तथा तवर्ग के साथ दन्त्य (स) उष्म वर्ण है ।
  25. ___________________________________👇💭
  26. यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है वहाँ तवर्ग का अभाव है।
  • अतः त थ द ध तथा स वर्णो को यूरोपीय अंग्रेजी आदि भाषाओं में नहीं लिख सकते हैं ।
  • क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है ।

अतः "श्" वर्ण के लिए (Sh) तथा "ष्" वर्ण के (S )वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं । यूरोपीय भाषाओं में तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही हैं ।

_________________________________________

  • १४. हल्।
  • तथा पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है ।
  • इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप हैं ।
  • मौलिक रूप में केवल 28 वर्ण हैं ।
  • जो ध्वनि के मुल रूप के द्योतक हैं ।

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1. बाह्योष्ठ्य (exo-labial)

2. अन्तःओष्ठ्य (endo-labial)

3. दन्त्य (dental)

4. वर्त्स्य (alveolar)

5. पश्च वर्त्स्य (post-alveolar)

6. प्रतालव्य( prä-palatal )

7. तालव्य (palatal)

8. मृदुतालव्य (velar)

9. अलिजिह्वीय (uvular)

10.ग्रसनी से (pharyngal)

11.श्वासद्वारीय (glottal)

12.उपजिह्वीय (epiglottal)

13.जिह्वामूलीय (Radical)

14.पश्चपृष्ठीय (postero-dorsal)

15.अग्रपृष्ठीय (antero-dorsal)

16.जिह्वापाग्रीय (laminal)

17.जिह्वाग्रीय (apical)

18.उप जिह्विय( sub-laminal)

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स्वनविज्ञान के सन्दर्भ में, मुख गुहा के उन 'लगभग अचल' स्थानों को उच्चारण बिन्दु (articulation point या place of articulation) कहते हैं; जिनको 'चल वस्तुएँ' छूकर जब ध्वनि मार्ग में बाधा डालती हैं तो उन व्यंजनों का उच्चारण होता है।

उत्पन्न व्यञ्जन की विशिष्ट प्रकृति मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर करती है- उच्चारण स्थान, उच्चारण विधि और स्वनन (फोनेशन)।

मुख गुहा में 'अचल उच्चारक' मुख्यतः मुखगुहा की छत का कोई भाग होता है जबकि 'चल उच्चारक' मुख्यतः जिह्वा, नीचे वाला ओष्ठ (ओठ), तथा श्वाँस -द्वार (ग्लोटिस)आदि हैं।

व्यञ्जन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण में वायु अबाध गति से न निकलकर मुख के किसी भाग:-

(तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि) से या तो पूर्ण अवरुद्ध होकर आगे बढ़ती है या संकीर्ण मार्ग से घर्षण करते हुए या पार्श्व मार्ग से निकलती है ।

  1. इस प्रकार वायु मार्ग में पूर्ण या अपूर्ण अवरोध उपस्थित होता है। तब व्यञ्जन ध्वनियाँ प्रादुर्भूत ( उत्पन्न) होती हैं ।
  2. हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण----
  3. व्यञ्जनों का वर्गीकरण मुख्य रूप से स्थान और प्रयत्न के आधर पर किया जाता है।
  4. व्यञ्जनों के उत्पन्न होने के स्थान से सम्बन्धित व्यञ्जन को आसानी से पहचाना जा सकता है।
  5. इस दृष्टि से हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-
  6. उच्चारण स्थान (ध्वनि वर्ग) उच्चरित ध्वनि--👇
  7. द्वयोष्ठ्य:- ,प , फ, ब, भ, म
  8. दन्त्योष्ठ्य :-, फ़
  9. दन्त्य :-,त, थ, द, ध
  10. वर्त्स्य :-न, स, ज़, र, ल, ळ
  11. मूर्धन्य :-ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र, ष
  12. कठोर :-तालव्य श, च, छ, ज, झ
  13. कोमल तालव्य :-क, ख, ग, घ, ञ, ख़, ग़
  14. पश्च-कोमल-तालव्य:- क़ वर्ण है।
  15. स्वरयन्त्रामुखी:-. ह वर्ण है ।
  16. "ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का
  17. जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह" वर्ण हैं।
  18. "ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।
  19. काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ । घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं। शब्द कोशों में इसका अर्थ :- १. काला कौआ । २. कंठ की मणि या गले की मणि ।
  20. उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का वर्गीकरण--👇
  21. उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-
  22. स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।
  23. विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का उच्चारण करता है ।
  24. क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ और क़ सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।
  25. च, छ, ज, झ को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में रखा जाता है।
  26. इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।
  27. मौखिक व नासिक्य :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियां आती हैं।
  28. हिन्दी में ङ, ञ, ण, न, म व्यञ्जन नासिक्य हैं। इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें 'पञ्चमाक्षर' भी कहा जाता है।
  29. और अनुनासिक भी --
  30. इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।
  31. वस्तुत ये सभीे प्रत्येक वर्ग के पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूप हैं ।
  32. परन्तु सभी केवल अपने स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में अाकर "न" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।
  33. जैसे :-
  34. कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
  35. अङ्क , सङ्ख्या अङ्ग , लङ्घ।
  36. चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
  37. चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
  38. टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
  39. कण्टक, कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।
  40. तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
  41. तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन, अन्ध ।
  42. पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
  43. पम्प , गुम्फन , अम्बा, दम्भ ।
  • ________________________________________
  • इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं।
  • उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन :- उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें उष्म व्यञ्जन कहते है।
  • वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।
  • तवर्ग - (त थ द ध न) का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।
  • और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है।
  • जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि--
  • इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण ये सभी सजातिय हैं।
  • जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि
  • चवर्ग -च छ ज झ ञ का तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं ।
  • जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि
  • इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।
  • उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
  • ये भी चार व्यञ्जन होते है- श, ष, स, ह।
  • _____________________________________
  • पार्श्विक : इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से निकलती है।
  • 'ल' ऐसी ही पार्श्विक ध्वनि है।
  • अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।
  • हिन्दी में य, व ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।
  • लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है। हिन्दी में 'र' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।
  • उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें उत्क्षिप्त कहते हैं।
  • ड़ और ढ़ ऐसे ही व्यञ्जन हैं।
  • जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।
  • घोष और अघोष वर्ण---
  • व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
  • इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में
  • विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।
  • जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं।
  • दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।
  • स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है।
  • _________________________________________
  • घोष अघोष
  • ग, घ, ङ,क, ख
  • ज,झ, ञ,च, छ
  • ड, द, ण, ड़, ढ़,ट, ठ
  • द, ध, न,त, थ
  • ब, भ, म, प, फ
  • य, र, ल, व, ह ,श, ष, स ।
  • प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है।
  • प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु।
  • जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।
  • पञ्चम् वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं।
  • हिन्दी के ;- ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।
  • वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।
  • क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।

वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है

परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है ।

(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।)

_______________________________________

भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को कहते हैं।

किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।

शब्दांश :- शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो शब्द की ध्वनियाँ बदल जाती बैंड

उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक'।

यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से देखे जा सकते हैं।

लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है।

अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं - 'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।

यह क्रिया उच्चारण बलाघात पर आधारित है ।

कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')। कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अंत-अर-राष-ट्रीय')।

एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है।

इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है। व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है।

अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।

अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।

उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।

यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा। इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।

कतिपय भाषाओं में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।

  • अंग्रेजी भाषा में न, र, ल, जैसे एन ,आर,एल, आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
  • अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है।
  • __________________________________________
  • ध्वनि उत्पत्ति- सिद्धान्त-----
  • मानव एवं अन्य जन्तु ध्वनि को कैसे सुनते हैं? -- ध्वनि तरंग कर्णपटल का स्पर्श करती है , कान का पर्दा, कान की वह मेकेनिज्म जो ध्वनि को संकेतों में बदल देती है।
  • श्रवण तंत्रिकाएँ, (पर्पल): ध्वनि संकेत का आवृति स्पेक्ट्रम, तन्त्रिका में गया संकेत) ही शब्द है ।
  • भौतिक विज्ञान में -
  • ध्वनि (Sound) एक प्रकार का कम्पन या विक्षोभ है जो किसी ठोस, द्रव या गैस से होकर सञ्चारित होती है। किन्तु मुख्य रूप से उन कम्पनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान (Ear) से सुनायी पडती हैं।
  • ध्वनि की प्रमुख विशेषताएँ---
  • ध्वनि एक यान्त्रिक तरंग है न कि विद्युतचुम्बकीय तरंग। (प्रकाश विद्युतचुम्बकीय तरंग है।
  • ध्वनि के सञ्चरण के लिये माध्यम की जरूरत होती है। ठोस, द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि का सञ्चरण सम्भव है।
  • निर्वात में ध्वनि का सञ्चरण नहीं हो सकता।
  • द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि केवल अनुदैर्घ्य तरंग (longitudenal wave) के रूप में चलती है जबकि ठोसों में यह अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave) के रूप में भी संचरण कर सकती है।
  • अनुदैर्घ्य तरंग:---
  • जिस माध्यम में ध्वनि का सञ्चरण होता है यदि उसके कण ध्वनि की गति की दिशा में ही कम्पन करते हैं तो उसे अनुदैर्घ्य तरंग कहते हैं!
  • अनुप्रस्थ तरंग:-
  • जब माध्यम के कणों का कम्पन ध्वनि की गति की दिशा के लम्बवत होता है तो उसे अनुप्रस्थ तरंग कहते है।
  • सामान्य ताप व दाब (NTP) पर वायु में ध्वनि का वेग लगभग 343 मीटर प्रति सेकेण्ड होता है।
  • बहुत से वायुयान इससे भी तेज गति से चल सकते हैं उन्हें सुपरसॉनिक विमान कहा जाता है।
  • मानव कान लगभग २० हर्ट्स से लेकर २० किलोहर्टस (२०००० हर्ट्स) आवृत्ति की ध्वनि तरंगों को ही सुन सकता है।
  • बहुत से अन्य जन्तु इससे बहुत अधिक आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं। जैसे चमकाधड़
  • एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने पर ध्वनि का परावर्तन एवं अपवर्तन होता है।
  • माइक्रोफोन ध्वनि को विद्युत उर्जा में बदलता है; लाउडस्पीकर विद्युत उर्जा को ध्वनि उर्जा में बदलता है।
  • किसी भी तरंग (जैसे ध्वनि) के वेग, तरंगदैर्घ्य और आवृत्ति में निम्नलिखित संबन्ध होता है:-
  • {\displaystyle \lambda ={\frac {v}{f}}}
  • जहाँ v तरंग का वेग, f आवृत्ति तथा : {\displaystyle \lambda } तरंगदर्ध्य है।
  • आवृत्ति के अनुसार वर्गीकर---
  • अपश्रव्य (Infrasonic) 20 Hz से कम आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं देती,
  • श्रव्य (sonic) 20 Hz से 20 kHz, के बीच की आवृत्तियों वाली ध्वनि सामान्य मानव को सुनाई देती है।
  • पराश्रव्य (Ultrasonic) 20 kHz से 1,6 GHz के बीच की आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं पड़ती,
  • अतिध्वनिक (Hypersonic) 1 GHz से अधिक आवृत्ति की ध्वनि किसी माध्यम में केवल आंशिक रूप से ही संचरित (प्रोपेगेट) हो पाती है।
  • ध्वनि और प्रकाश का सम्बन्ध शब्द और अर्थ के सामान्य या शरीर और आत्मा के समान जैविक सत्ता का आधार है ।
  • ध्वनि के विषय में दार्शनिक व ऐैतिहासिक मत -
  • ______________________________________
  • सृष्टि के प्रारम्भ में ध्वनि का प्रादुर्भाव ओ३म् के रूप में हुआ --
  • ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति----
  • एक वैश्विक विश्लेषण करते हैं
  • ओ३म् की अवधारणा द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना है
  • वे नि: सन्देह फॉनिशियन जन-जाति के सहवर्ती अथवा सजातिय बन्धु रहे होंगे । क्यों दौनों का सांस्कृतिक समीकरण है ।
  • द्रविड द्रव (पदार्थ ) अथवा जल तत्व का विद =वेत्ता ( जानकार) द्रव+विद= समाक्षर लोप (Haplology)
  • के द्वारा निर्मित रूप द्रविद -द्रविड है !
  • ये बाल्टिक सागर के तटवर्ती -संस्कृतियों जैसे प्राचीन फ्रॉञ्च ( गॉल) की सैल्टिक (कैल्टिक) जन-जाति में द्रूयूद (Druid) रूप में हैं ।
  • कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham शब्द का दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था !
  • कि उनका विश्वास था ! कि इस प्रकार (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है।
  • और उनका मान्यता भी थी..
  • प्राचीन भारतीय आर्य मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति (syllable prosperity) यथावत् रहती है
  • इसके उच्चारण प्रभाव से ओघम् का मूर्त प्रारूप सूर्य के आकार के सादृश्य पर था ।
  • जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं।
  • ..ब. वास्तव में ओघम् (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है .
  • जैसे सूर्य से प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा (ammon- ra) के रूप ने था ..जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है।
  • आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है।
  • सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में अोमन् शब्द आमीन के रूप में है ।
  • तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै ! जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है .. अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे .. दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे ।
  • मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य हुए
  • .. क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण है,।
  • मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे !!
  • इन्हीं से ईसाईयों में (Amen) तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन ?


पणि कौन थे ? यह जानना भी आवश्यक है क्योंकि पणियों को यूरोपीय ग्रीक, लैटिन और डच इत्यादि पुराणों में वर्णन है।
राथ के मतानुसार यह शब्द 'पण्=विनिमय' से बना है तथा पणि वह व्यक्ति है, जो कि बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता।
इस मत का समर्थन जिमर तथा लुड्विग ने भी किया है।
लड्विग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ का आदिवासी व्यवसायी माना है।
ये अपने सार्थ अरब, पश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ़्रीका में भेजते थे और अपने धन की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करने को प्रस्तुत रहते थे।

इनके लिए 
दस्यु अथवा दास शब्द के प्रसंगों के आधार पर उपर्युक्त मत पुष्ट होता है।
किन्तु आवश्यक है कि आर्यों के देवों की पूजा न करने वाले और पुरोहितों को दक्षिणा न देने वाले इन पणियों को धर्मनिरपेक्ष, लोभी और हिंसक व्यापारी कहा जा सकता है।
ये आर्य और अनार्य दोनों हो सकते हैं।
हिलब्रैण्ट ने इन्हें स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित पर्नियन जाति के तुल्य माना है।
जिसका सम्बन्ध दहा (दास) लोगों से था।
फ़िनिशिया इनका पश्चिमी उपनिवेश था, जहाँ ये भारत से व्यापारिक वस्तुएँ, लिपि, कला आदि ले गए।

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पणि के संस्कृत में अर्थ ,
व्यवहारो द्यूतं स्तुतिर्वा पणः अस्त्यर्थे इनि पणिन्।
१ क्रयादिव्यवहारयुक्ते
२ स्तुतियुक्ते च
३ ऋषिभेदे पु० । तस्यापत्यम् अण् “गाथिविदथीत्यादि” पाणिनि  ।
पाणिन तस्यापत्ये यूनि ततः इञ् पाणिनिः ।

सरमा तथा पणि संवाद–
सरमा शब्द निर्वचन प्रसंग में उद्धृत ऋग्वेद 10/108/01 के व्याखयान में प्राप्त होता है। आचार्य यास्क का कथन है कि इन्द्र द्वारा प्रहित देवशुनी सरमा ने पणियों से संवाद किया।
पणियों ने देवों की गाय चुरा ली थी।
इन्द्र ने सरमा को गवान्वेषण के लिए भेजा था।
यह एक प्रसिद्ध आख्यान है।

आचार्य यास्क द्वारा सरमा माध्यमिक देवताओं में पठित है। वे उसे शीघ्रगामिनी होने से सरमा मानते हैं।
वस्तुतः मैत्रायणी संहिता के अनुसार भी सरमा वाक् ही है। गाय रश्मियाँ हैं  इस प्रकार यह आख्यान सूर्य रश्मियों के अन्वेषण का आलंकारिक वर्णन है।
निरुक्त शास्त्र के अनुसार
‘‘ऋषेः दृष्टार्थस्य प्रीतिर्भवत्यायानसंयुक्ता’’
अर्थात् सब जगत् के प्रेरक परमात्मा अद्रष्ट अर्थों को आख्यान के माध्यम से उपदिष्ट करते हैं।

क्रमशः एक-एक शब्द पर विचार करते हैं।

पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शब्द तथा चार बार एकवचनान्त पणि शब्द का प्रयोग है।
पणि शब्द पण् व्यवहारे स्तुतौ च धातु से अच् प्रत्यय करके पुनः मतुबर्थ में अत इनिठनौ से इति प्रत्यय कर के सिद्ध होता है।
यः पणते व्यवहरति स्तौति स पणिः अथवा कर्मवाच्य में पण्यते व्यवहियते सा पणिः’’।
अर्थात् जिसके साथ हमारा व्यवहार होता है और जिसके बिना हमारा जीवन व्यवहार नहीं चल सकता है, उसे पणि कहते हैं ।

पणिक भाषा , जिसे कार्थागिनीन  या फोएनिसियो-पूनिक भी कहा जाता है!
यह सेमेटिक परिवार की कनानी भाषा  , फिनिशियन भाषा की एक विलुप्त विविधतामयी भाषा है।
यह 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 5 वीं शताब्दी ईस्वी तक, उत्तर पश्चिमी अफ्रीका में कार्तगिनियन साम्राज्य और शास्त्रीय पुरातनता में पणिक लोगों द्वारा कई भूमध्य द्वीपों में बोली जाती थी

ट्यूनीशिया और (तटीय हिस्सों), जैसे मोरक्को , अल्जीरिया  , दक्षिणी इबेरिया , लीबिया , माल्टा , पश्चिमी सिसिली आदि देशों में यह लोग भ्रमण करते थे
800 ईसा पूर्व से 500 ईस्वी तक का समय --
भाषा परिवार-
अफ्रीकी-एशियाई
यहूदी
पश्चिम सेमिटिक
केंद्रीय सेमिटिक
नॉर्थवेस्ट सेमिटिक
कैनेनिटी( कनानी)

इतिहास के दृष्टि कोण से -
पेनिक्स या वैदिक सन्दर्भों में वर्णित पणि  146 ईसा पूर्व रोमन गणराज्य द्वारा कार्थेज के विनाश तक फेनेशिया के संपर्क में रहे।
फोनिशियन नामकरण पणिस् अथवा पणिक से सम्बद्ध है ।

नियो-पुणिक शब्द को दो इंद्रियों में प्रयोग किया जाता है: एक फीनशियन वर्णमाला से संबंधित है और दूसरा भाषा में ही है।  वर्तमान सन्दर्भ में, नियो-पुणिक ने कार्तेज के पतन के बाद और 146 ईसा पूर्व पूर्व पुणिक क्षेत्रों के रोमन विजय के बाद पूनिक की बोली को संदर्भित किया है।
बोली पहले की पंचिक भाषा से भिन्न थी, जैसा कि पहले के पंख की तुलना में अलग-अलग वर्तनी से और गैर-सेमिटिक नामों के उपयोग से स्पष्ट रूप से लिबिको-बर्बर मूल के उपयोग से स्पष्ट है।
अंतर द्विपक्षीय परिवर्तनों के कारण था कि पुणिक उत्तर-अफ्रीकी लोगों के बीच फैल गया था।
नव-पुणिक कार्यों में लेपिस मैग्ना एन 1 9 (9 2 ईस्वी) शामिल है।

चौथी शताब्दी ईस्वी तक, पुणिक अभी भी ट्यूनीशिया, उत्तर पश्चिमी अफ्रीका के अन्य हिस्सों और भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में बोली जाती थी।
नव-पुणिक वर्णमाला भी Punic (प्यूनिक)भाषा से निकली। लगभग 400 ईस्वी  तक, पुणिक का पहला अर्थ मुख्य रूप से स्मारक शिलालेखों के लिए उपयोग किया जाता था, जो कहीं और कर्सर नव-पुणिक वर्णमाला द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था।
पुणिक साहित्यिक कार्यों के उदाहरणों में मागो के विषय को शामिल किया गया है, जो महान कुख्यातता के साथ एक पुणिक जनरल है, जिसने लड़ाई के दौरान किताबों के लेखन के माध्यम से कार्थेज के प्रभाव को उतना ही फैलाया।
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रोमन सीनेट ने इतने कामों की सराहना की कि कार्थेज लेने के बाद, उन्होंने उन्हें बर्बर राजकुमारों को प्रस्तुत किया, जिनके पास पुस्तकालयों का स्वामित्व था।
मैगो का काम ग्रीक में यूटिका के कैसियस डायनीसियस द्वारा अनुवादित किया गया था।
लैटिन संस्करण का शायद ग्रीक संस्करण से अनुवाद किया गया था। साहित्य के पुणिक कार्यों के और उदाहरणों में हनो नेविगेटर के काम शामिल हैं, जिन्होंने अफ्रीका के आसपास नौसेना के दौरान और नई उपनिवेशों के निपटारे के दौरान अपने मुठभेड़ों के बारे में लिखा था।

Punic का एक तीसरा संस्करण लैटिनो-Punic होगा, लैटिन वर्णमाला में लिखा एक Punic, लेकिन सभी वर्तनी उत्तर पश्चिमी अफ्रीकी उच्चारण का पक्ष लिया। लैटिनो-पुनीक को तीसरी और चौथी शताब्दी तक बोली जाती थी और सत्तर बरामद ग्रंथों में दर्ज की गई थी। रोमन शासन के तहत पुणिक का आश्चर्यजनक अस्तित्व इसलिए था क्योंकि बोलने वाले लोगों के पास रोम के साथ बहुत अधिक संपर्क नहीं था, और इसलिए लैटिन सीखने की आवश्यकता नहीं थी।
सन्दर्भ तालिका -
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लैटिनो- Punic ग्रंथों में पहली शताब्दी Zliten एलपी 1, या दूसरी शताब्दी Lepcis Magna एलपी 1 शामिल हैं। [ स्पष्टीकरण की आवश्यकता ] उन्हें चौथी शताब्दी के अंत में भी लिखा गया था, बीर एड-ड्रेडर एलपी 2 । शास्त्रीय स्रोत जैसे स्ट्रैबो (63/4 ईसा पूर्व - एडी 24), लिबिया के फोनीशियन विजय का जिक्र करते हैं।

सलस्ट (86 - 34 ईसा पूर्व) के अनुसार 146 ईसा पूर्व के बाद पुणिक के हर रूप में परिवर्तन हुआ है, जो दावा करते हैं कि पुणिक को " न्यूमिडियन के साथ उनके विवाहों में बदल दिया गया था"। यह खाता पुणिक पर उत्तर-अफ्रीकी प्रभाव का सुझाव देने के लिए पाए गए अन्य सबूतों से सहमत है, जैसे यूनेबियस के ओनोमास्टिक में लिबिको-बर्बर नाम। [ संदिग्ध ] आखिरी ज्ञात साक्ष्य रिपोर्टिंग एक जीवित भाषा के रूप में Punic है हिप्पो के अगस्तिन (डी। 430) की है।
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पणियों का देवता (ईश्वरीय सत्ता) वल
का सेमैेटिक पुराणों में रूप -बाल ठीक से Ba'al , पुरातनता के दौरान Levant में बोली जाने वाली उत्तर पश्चिमी सेमेटिक भाषाओं में एक शीर्षक और सम्मानित अर्थ " भगवान " था। लोगों के बीच इसके उपयोग से, यह देवताओं पर लागू किया गया था।  विद्वानों ने पहले सौर संप्रदायों के साथ और विभिन्न असंबद्ध संरक्षक देवताओं के साथ नाम से जुड़ा हुआ था, लेकिन शिलालेखों से पता चला है कि बाल नाम विशेष रूप से तूफान और प्रजनन भगवान हदाद और उनके स्थानीय अभिव्यक्तियों से जुड़ा हुआ था। [8]

Ba'al
प्रजनन , मौसम , बारिश , हवा , बिजली , ऋतु , युद्ध , नाविकों के संरक्षक और समुद्री व्यापारियों के देवता , रेफाईम (पैतृक आत्माओं) के नेता
बाद के विचार: देवताओं के राजा

उगलिट के खंडहर में पाए गए थंडरबॉल्ट के साथ बाल का स्टील
प्रतीक
बुल , भेड़
क्षेत्र
कनान के पास और पास
पास, आसपास और उगारिट में
मिस्र (मध्य साम्राज्य)
व्यक्तिगत जानकारी
पत्नी के
अनाट , अथतर्ट, आर्से, तलेय, पिड्रे
माता-पिता
डगन (सामान्य लोअर) एल  (कुछ उगारिटिक ग्रंथ)
एक माँ की संताने
Anat
सदियों की अवधि में संकलित और क्यूरेटेड हिब्रू बाइबिल में विभिन्न लेवेंटाइन देवताओं के संदर्भ में शब्द का सामान्य उपयोग शामिल है, और आखिरकार हदाद की ओर इशारा करते हुए आवेदन, जिसे झूठे भगवान के रूप में अस्वीकार कर दिया गया था। उस प्रयोग को ईसाई धर्म और इस्लाम में ले जाया गया था, कभी-कभी दानव में बेल्जबूब के अपमानजनक रूप के तहत।

एटिमोलॉजी -
अंग्रेजी शब्द "बाल" की वर्तनी ग्रीक बाल ( Βάαλ ) से निकली है, जो नए नियम [9] और सेप्टुआजिंट , [10] में दिखाई देती है और इसके लैटिनयुक्त रूप बाल से , जो वल्गेट में दिखाई देती है। [10] ये रूप स्वर में कम-से-कम नॉर्थवेस्ट सेमेटिक फॉर्म बीएल से निकलते हैं। फोएनशियन देवता और झूठे देवताओं के रूप में शब्द की बाइबिल की  इंद्रियों को आम तौर पर प्रोटेस्टेंट सुधार के दौरान किसी भी मूर्तियों , संतों के प्रतीक , या कैथोलिक चर्च को दर्शाने के लिए बढ़ाया गया था। [11] इस तरह के संदर्भों में, यह anglicized उच्चारण का पालन करता है और आमतौर पर इसके दो As के बीच किसी भी निशान को छोड़ देता है। [1] सेमिटिक नाम के करीबी लिप्यंतरण में, आयन का प्रतिनिधित्व बाल के रूप में किया जाता है।

नॉर्थवेस्ट सेमेटिक भाषाओं में - यूगारिटिक , फोएनशियन , हिब्रू , एमोरिट , और अरामासिक- शब्द बाल ने " मालिक " और विस्तार से, "भगवान", [10] एक "मास्टर" या "पति" का संकेत दिया। [12] [13] संज्ञेयों में अक्कडियन बेल्लू ( 𒂗 ), [सी] अम्हारिक बाल ( ባል ), [14] और अरबी बाल ( بعل ) शामिल हैं। बाल ( बेथेल ) और बाल अभी भी आधुनिक हिब्रू  और अरबी में "पति" के शब्दों के रूप में कार्य करते हैं। वे चीजों के स्वामित्व या गुणों के कब्जे से संबंधित कुछ संदर्भों में भी दिखाई देते हैं।

स्त्री का रूप ba'alah है ( हिब्रू : בַּעֲלָה ; [15] अरबी : بعلة  ), जिसका अर्थ है मादा मालिक या घर की महिला [15] के अर्थ में "मालकिन" और अभी भी " पत्नी " के लिए दुर्लभ शब्द के रूप में सेवा करना । [16]

प्रारंभिक आधुनिक छात्रवृत्ति में सुझावों में सेल्टिक भगवान बेलेनस के साथ तुलना भी शामिल है। [17]

सेमिटिक धर्म -
यह भी देखें: प्राचीन निकट पूर्व के धर्म , प्राचीन सेमिटिक धर्म , कनानी धर्म , और कार्थागिनी धर्म

एक बाल का कांस्य मूर्ति, 14 वीं x 12 वीं शताब्दी ईसा पूर्व, फीनशियन तट के पास रस शमरा (प्राचीन उगारिट ) में पाया गया। Musée du Louvre ।
जेनेरिक -
यह भी देखें: बेल , ज़ीउस बेलोस , और बेलस नाम के अन्य आंकड़े
सुमेरियन में एन की तरह, अक्कडियन बेल्लू और नॉर्थवेस्ट सेमिटिक बाल (साथ ही साथ इसकी स्त्री रूप बालाह ) मेसोपोटामियन और सेमिटिक पैंथियंस में विभिन्न देवताओं के शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता था। केवल एक निश्चित लेख , जननांग या उपकला , या संदर्भ स्थापित कर सकता है कि कौन सा विशेष भगवान था। [18]

हदाद -
मुख्य लेख: हदाद और अदद
बायल को तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व द्वारा उचित नाम के रूप में भी इस्तेमाल किया गया था, जब वह अबू सलाबीख  में देवताओं की एक सूची में प्रकट होता है। [10] अधिकांश आधुनिक छात्रवृत्ति का दावा है कि यह बाल-आमतौर पर "भगवान" के रूप में प्रतिष्ठित है ( हे बहेल , हा बाल ) - तूफान और प्रजनन देवता हदाद के समान है; [10] [1 9] [12] यह बाल हडु के रूप में भी प्रकट होता है। [13] [20]विद्वानों ने प्रस्ताव दिया कि, हदाद की पंथ महत्त्व में बढ़ी है, इसलिए उसका सच्चा नाम किसी के लिए बहुत पवित्र माना गया है, लेकिन महायाजक जोर से बोलने के लिए और उपनाम "भगवान" ("बाल") था इसके बजाए, " बेल " का इस्तेमाल बाबुलियों के बीच मर्दुक और इस्राएलियों के बीच यहोवा के  लिए " अदोनी " के लिए किया गया था। एक अल्पसंख्यक प्रस्ताव करता है कि बाल एक देशी कनानी देवता था जिसकी पंथ की पहचान अदद के पहलुओं के साथ की गई थी या अवशोषित की गई थी। [10] पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक , उनके मूल संबंधों के बावजूद, दोनों अलग थे: हदाद की पूजा अरामियों और बाल ने फीनशियनों और अन्य कनानियों  द्वारा की थी। [10]

एल -
मुख्य: एल
फोएनशियन बायल आमतौर पर एल या डगन के साथ पहचाना जाता है। [21]

Ba'al बाल ( वैदिक -बल)
Ba'al शिलालेखों में जीवित रहने के लिए अच्छी तरह से प्रमाणित है और लेवेंट [22] में अलौकिक नामों में लोकप्रिय था, लेकिन आमतौर पर अन्य देवताओं के साथ उनका उल्लेख किया जाता है, "कार्रवाई के अपने क्षेत्र को शायद ही कभी परिभाषित किया जा रहा है"। [23] फिर भी, उगारिटिक रिकॉर्ड उन्हें मौसम देवता के रूप में दिखाते हैं, विशेष रूप से बिजली , हवा , बारिश और प्रजनन क्षमता पर शक्ति। [23] [डी] क्षेत्र के सूखे गर्मियों को अंडरवर्ल्ड में बाल के समय के रूप में समझाया गया था और शरद ऋतु में उनकी वापसी ने तूफान का कारण बनने के लिए कहा था। [23] इस प्रकार, कनान में बालल की पूजा - जहां उन्होंने अंततः देवताओं के नेता और राजा के संरक्षक के रूप में एल को आपूर्ति की- मिस्र और मेसोपोटामिया के विपरीत, इसकी खेती के लिए वर्षा पर क्षेत्रों की निर्भरता से जुड़ा हुआ था, जो सिंचाई पर केंद्रित था उनकी प्रमुख नदियों से। फसलों और पेड़ों के लिए पानी की उपलब्धता के बारे में चिंता ने अपनी पंथ के महत्व को बढ़ाया, जिसने वर्षा देवता के रूप में अपनी भूमिका पर ध्यान केंद्रित किया। [12] युद्ध के दौरान उन्हें भी बुलाया गया था, जिसमें दिखाया गया था कि उन्हें मनुष्यों की दुनिया में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करने का विचार किया गया था, [23] एल के अधिक अलगाव के विपरीत। बालाबेक के लेबनानी शहर का नाम बाल के नाम पर रखा गया था। [26]

उगारिट का बाल हदाद का प्रतीक था, लेकिन समय बीतने के बाद, यह सिद्धांत भगवान का नाम बन गया, जबकि हदाद महाकाव्य बन गया। [27] बायल को आमतौर पर दगान का पुत्र कहा जाता था, लेकिन यूगारिटिक स्रोतों में एल के पुत्रों में से एक के रूप में दिखाई देता है। [22] [13] [ई] बालाल और एल दोनों यगारिटिक ग्रंथों में बैल से जुड़े थे, क्योंकि यह ताकत और प्रजनन दोनों का प्रतीक था। [28] कुंवारी देवी ' अनाथ उसकी बहन थीं और कभी-कभी उसके माध्यम से एक बच्चे के साथ श्रेय दिया जाता था। [ उद्धरण वांछित ] उन्होंने सांपों के खिलाफ विशेष दुश्मन आयोजित किया, दोनों स्वयं और यमू के प्रतिनिधियों ( lit. "सागर"), कनानी समुद्र देवता और नदी देवता के रूप में । [2 9] उन्होंने टैनिन ( तुन्नानु ), "ट्विस्ट सर्प" ( बान'क्लटन ), " लिटन द फ्यूजिटिव सर्पेंट" ( लेट्टन बान ब्र , बाइबिल लीविथान ), [2 9] और " सात प्रमुखों के साथ ताकतवर " ( Šlyṭ D.šb't Rašm )। [30] [एफ] बाम के यमू के साथ संघर्ष अब आम तौर पर बाइबिल की पुस्तक डैनियल के 7 वें अध्याय में दर्ज दृष्टि के प्रोटोटाइप के रूप में माना जाता है। [32] समुद्र के विजेता के रूप में, बालल को कनानी और फोएनशियनों ने नाविकों और समुद्री व्यापारियों के संरक्षक के रूप में माना था। [2 9] मोना के विजेता के रूप में, कनानी मृत्यु देवता , उन्हें बाल रापूमा ( बीएल आरपीयू ) के नाम से जाना जाता था और विशेष रूप से सत्तारूढ़ राजवंशों के पूर्वजों, रेफैम ( आरपीयूएम ) के नेता के रूप में जाना जाता था। [29]

कनान से, पूर्व साम्राज्य बीसीई में फोएनशियन उपनिवेशवाद  की लहरों के बाद, मध्य साम्राज्य और भूमध्यसागरीय इलाकों  में बाल की पूजा मिस्र में फैल गई। [22] उन्हें विभिन्न उपहासों के साथ वर्णित किया गया था और, यूगारिट को फिर से खोजने से पहले, यह माना जाता था कि इन्हें अलग-अलग स्थानीय देवताओं के लिए संदर्भित किया गया था। हालांकि, जैसा कि दिन द्वारा समझाया गया है, उगारिट के ग्रंथों से पता चला है कि उन्हें "विशेष देवता के स्थानीय अभिव्यक्तियों" के रूप में माना जाता था, जो रोमन कैथोलिक चर्च में वर्जिन मैरी के स्थानीय अभिव्यक्तियों के समान थे। " [1 9] उन शिलालेखों में, उन्हें अक्सर "विक्टोरियस बाल" ( अलीिन या आलिन बाल ) के रूप में वर्णित किया जाता है, [13] [10] "


Phoenicia में


सीथियन साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार पश्चिम एशिया एवं पूर्वी यूरोप में था
एशिया माइनर / अनातोलिया के शास्त्रीय क्षेत्रों के भीतर फेनिशिया का स्थान

फेनिशिया एक प्राचीन सेमिटिक सभ्यता थी जिसकी उत्पत्ति पूर्वी भूमध्य सागर और उपजाऊ वर्धमान के पश्चिम में हुई थी । उनकी सभ्यता प्राचीन ग्रीस के समान शहर-राज्यों में संगठित थी, जिनमें से सबसे उल्लेखनीय थे टायर , सिडोन , अरवाड , बेरिटस , बायब्लोस , त्रिपोलिस , एको या टॉलेमाइस और कार्थेज ।


फेनिशिया का स्थान

विद्वान आम तौर पर इस बात से सहमत हैं कि इसमें आज के लेबनान , उत्तरी इज़राइल और दक्षिणी सीरिया के तटीय क्षेत्र शामिल हैं जो उत्तर में अरवाड तक पहुँचते हैं, लेकिन इस बात पर कुछ विवाद है कि यह दक्षिण में कितनी दूर तक गया, सबसे दूर सुझाया गया क्षेत्र अश्कलोन है । [5] इसके उपनिवेश बाद में पश्चिमी भूमध्य सागर (विशेष रूप से कार्थेज) और यहां तक ​​कि अटलांटिक महासागर तक पहुंच गए। यह सभ्यता 1500 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व के बीच भूमध्य सागर में फैली थी ।

शब्द-साधन(शब्द व्युत्पत्ति

फोनीशियन नाम , लैटिन पोएनी (विशेषण पोएनिकस, बाद में प्यूनिकस) की तरह, ग्रीक Φοίνικες ( फोनिकेस ) से आया है। शब्द φοῖνιξ फ़ोनिक्स का अर्थ भिन्न-भिन्न रूप से " फोनीशियन व्यक्ति", "टायरियन पर्पल, क्रिमसन" या "खजूर" है और होमर में पहले से ही तीनों अर्थों के साथ प्रमाणित है । [6] (पौराणिक पक्षी फ़ीनिक्स का भी यही नाम है, लेकिन यह अर्थ सदियों बाद तक प्रमाणित नहीं हुआ है।) यह शब्द φόοινός phoinós "रक्त लाल" से लिया गया है, [7] स्वयं संभवतः φόνος फ़ोनोस "हत्या" से संबंधित है . यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन सा अर्थ पहले आया, लेकिन यह समझ में आता है कि यूनानी कैसे थेखजूर और डाई के लाल या बैंगनी रंग का संबंध उन व्यापारियों से हो सकता है जो दोनों उत्पादों का व्यापार करते थे। रॉबर्ट एसपी बीकेस ने जातीय नाम की पूर्व-ग्रीक उत्पत्ति का सुझाव दिया है। [8] ग्रीक में शब्द का सबसे पुराना प्रमाणित रूप माइसेनियन पो-नी-की-जो , पो-नी-की हो सकता है , जो संभवतः मिस्र के fnḫw (फेनखु) से उधार लिया गया है। [9]

फेनिशिया एक प्राचीन यूनानी शब्द है जिसका उपयोग क्षेत्र के प्रमुख निर्यात को संदर्भित करने के लिए किया जाता है, म्यूरेक्स मोलस्क से टायरियन बैंगनी रंगे कपड़े, और प्रमुख कनानी बंदरगाह कस्बों को संदर्भित किया जाता है; समग्र रूप से फोनीशियन संस्कृति के अनुरूप नहीं है क्योंकि इसे मूल रूप से समझा गया होगा। उनकी सभ्यता प्राचीन ग्रीस के समान शहर-राज्यों में संगठित थी , [28] शायद उनमें से सबसे उल्लेखनीय थे टायर , सिडोन , अर्वाड , बेरिटस , बायब्लोस और कार्थेज । [29]प्रत्येक शहर-राज्य एक राजनीतिक रूप से स्वतंत्र इकाई थी, और यह अनिश्चित है कि फोनीशियन किस हद तक खुद को एक राष्ट्रीयता के रूप में देखते थे। पुरातत्व, भाषा, जीवनशैली और धर्म के संदर्भ में फोनीशियनों को अलग करने के लिए कुछ भी नहीं था क्योंकि वे लेवांत के अन्य निवासियों, जैसे उनके करीबी रिश्तेदारों और पड़ोसियों, इज़राइलियों से स्पष्ट रूप से भिन्न थे। [30]

लगभग 1050 ईसा पूर्व, फोनीशियन भाषा लिखने के लिए फोनीशियन वर्णमाला का उपयोग किया जाता था। [31] यह सबसे व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली लेखन प्रणालियों में से एक बन गई, जिसे फोनीशियन व्यापारियों ने भूमध्यसागरीय दुनिया भर में फैलाया, जहां यह विकसित हुई और कई अन्य संस्कृतियों द्वारा इसे आत्मसात किया 

अगाथोकल्स के सिक्के पर देवता


अगाथोकल्स ( लगभग  180 ईसा पूर्व ) के सिक्के में ब्राह्मी लिपि और भारत के कई देवताओं को शामिल किया गया था, जिनकी व्याख्या विष्णु , शिव , वासुदेव , बलराम या बुद्ध के रूप में की गई है । [9] [10]

1. ज़ीउस देवी हेकेट के साथ खड़ा है । [11] ग्रीक: "किंग अगाथोकल्स"।
2. देवता सिर पर आयतन के साथ एक लंबा हेमेशन पहने हुए, हाथ आंशिक रूप से मुड़े हुए और कॉन्ट्रापोस्टो मुद्रा में हैं। ग्रीक: "राजा अगाथोकल्स"। [11] यह सिक्का कांसे का है । [12]
3. हिंदू भगवान बलराम - गुणों के साथ संकर्षण । ग्रीक: "राजा अगाथोकल्स"। [13]
4. हिंदू भगवान वासुदेव - गुणों के साथ कृष्ण । [13] ब्राह्मी : "राजने अगाथुक्लेयासा", "राजा अगाथोकलेस"।

5. देवी लक्ष्मी , अपने दाहिने हाथ में कमल धारण करती हैं। [14] ब्राह्मी : "राजने अगाथुक्लेयासा", "राजा अगाथोकलेस"।

1880 में, इसी तरह का एक सिक्का अगाथोकल्स द्वारा चलाया गया था, लेकिन फिलिप के बेटे अलेक्जेंडर की "स्मृति" में ब्रिटिश संग्रहालय के पर्सी गार्ंडर द्वारा प्रकाशित किया गया था। [4] अगाथोकल्स के लिए किसी ऐसे व्यक्ति का उप-राजा बनना असंभव था जिसने लगभग दो सौ साल पहले शासन किया था, ड्रॉयसन के स्पष्टीकरण को सैलेट के पक्ष में सरसरी तौर पर खारिज कर दिया गया था। [4] [ई] गार्डनर ने प्रस्तावित किया कि ये सिक्के यूक्रेटाइड्स प्रथम द्वारा (अंततः सफल) चुनौती की पूर्व संध्या पर अपनी जनता को बढ़ाने के लिए जारी किए गए थे । [15] 1900 के मध्य की शुरुआत में, ह्यूग रॉविन्सन और विलियम टार्नएक भव्य हेलेनिस्टिक अतीत के अपने दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के लिए गार्डनर के विचारों का विस्तार करेगा जहां अगाथोकल्स ने अपनी वंशावली को नकली बना दिया था और यूक्रेटाइड्स I सेल्यूसिड नियंत्रण को फिर से स्थापित करने के लिए एंटिओकस IV के आदेशों का पालन कर रहा था । [16] [15] अन्य विद्वान आम तौर पर इन "पूर्वज सिक्कों" को बहुत अधिक महत्व देने से बचते हैं। [17]

इन सिक्कों की और भी किस्में बाद में खोजी जाएंगी। [4] इनमें डायोडोटस द्वितीय , डेमेट्रियस द्वितीय और डेमेट्रियस का उल्लेख है । [4] [6] [18] [17] पिछले कुछ दशकों में, ऐसे सिक्के अधिक संख्या में खोजे गए हैं लेकिन इन सिक्कों की सटीकता इस तथ्य से प्रभावित है कि ये नियंत्रित उत्खनन से नहीं बल्कि नीलामी नेटवर्क से आए थे। [4] महाद्वीपों की यात्रा करने और कई हाथों से गुजरने के बाद ही विद्वानों द्वारा उनका मूल्यांकन किया गया। [4]

तब से यह स्वीकार कर लिया गया है कि ये सिक्के वास्तव में अगाथोकल्स के पूर्ववर्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। [19] ढलाई और महत्व का सटीक संदर्भ अभी भी स्पष्ट नहीं है। [6]


भारत देवताओं के साथ अगाथोकल्स का सिक्का ।
ओबीवी बलराम - ग्रीक किंवदंती के साथ संकर्षण : ΒΑΣΙΛΕΩΣ ΑΓΑΘΟΚΛΕΟΥΣ ( बेसिलोस अगाथोक्लिअस )। ब्राह्मी कथा के साथ
रेव वासुदेव-कृष्ण :𑀭𑀚𑀦𑁂 𑀅𑀕𑀣𑀼𑀼𑀓𑁆𑀮𑁂𑀬𑁂𑀲 राजने अगाथुक्लेसा "राजा अगाथोकल्स"।

3 अक्टूबर 1970 को, फ्रांसीसी पुरातत्वविदों की एक टीम द्वारा एक तीर्थयात्री के पानी के जहाज से ऐ-खानौम के प्रशासनिक क्वार्टर में छह भारतीय-मानक चांदी के ड्रैकमास की खोज की गई थी। [26] ये सिक्के वैदिक देवताओं का पहला मुद्राशास्त्रीय प्रतिनिधित्व हैं और प्रारंभिक भारत में भगवतीवाद के वैष्णववाद का पहला रूप होने के प्रमुख साक्ष्य के रूप में काम करते हैं। [27] [28]

सिक्के विष्णु के शुरुआती अवतारों को प्रदर्शित करते हैं : बलराम - संकर्षण , पीछे मूसल और हल की विशेषताओं के साथ , और वासुदेव - कृष्ण , सामने शंख और सुदर्शन चक्र की विशेषताओं के साथ । [27] [28] [जी] सिक्कों के आधार पर भारतीय मूर्तिकला के विशिष्ट ट्रेडमार्क - तीन-चौथाई के विपरीत ललाट मुद्रा, पर्दों में कठोर और स्टार्चयुक्त सिलवटें, अनुपात की अनुपस्थिति, और पैरों का बग़ल में स्वभाव - ऑडोइन और बर्नार्ड ने अनुमान लगाया कि नक्काशी भारतीय कलाकारों द्वारा की गई थी। [27]बोपेराच्ची निष्कर्ष पर विवाद करते हैं और वासुदेव-कृष्ण के छत्र के साथ टोपी और ऊंची गर्दन वाले फूलदान के साथ शंख के गलत चित्रण की ओर इशारा करते हैं ; उनका अनुमान है कि एक यूनानी कलाकार ने अब लुप्त हो चुकी (या अनदेखी) मूर्ति से सिक्का उकेरा था। [27]

अगाथोकल्स के कुछ कांस्य सिक्कों के अग्रभाग पर पाई गई एक नाचती हुई लड़की को सुभद्रा का प्रतिनिधित्व माना जाता है । [27]

साइन्स जर्नी चैनल का यूट्यूबर  कृष्ण शब्द को पाली  और प्राकृत भाषाओं में  नही   मानता है जबकि वेद शब्द भारोपीय होने अनेक भाषाओ में  है जिसका कुछ विवरण नीचे है।

प्राकृत- में कृष्ण का रूप (काण्ह) है और पाली की पूर्व लिपि ब्राह्मी थी  ।

बौद्ध ग्रन्थ तो महावीर स्वामी का वर्ण निगंठ ( निर्ग्रन्थ तथा ज्ञान पुत्र के रूप में वर्णन करते हैं 

 परन्तु जैन ग्रन्थों में किसी भी बुद्ध का वर्णन नहीं है। अत: जैन धर्म बौद्ध धर्म से पुराना  है ।

सत्य तो यही है कि कृष्ण को ऋग्वेद
में असुर अर्थात् अदेव कहा है ।
--- जो यमुना की तलहटी में इन्द्र से युद्ध करते हैं 
मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई खोज के अनुसार पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है।
जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था ।
जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे।
पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है। पुराणों का सृजन बुद्ध के परवर्ती काल में हुआ । और कृष्ण की कथाऐं इससे भी ---पुरानी हैं ।

अथर्ववेद-(20/137/7)
ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा
देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् । सूक्तम् - (१३७)
"अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः। आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥
(इयानः) चलता हुआ (अंशुमतीम्) विभागवाली [सीमावाली नदी-म० ८]  पर (अव अतिष्ठत्) ठहरा है। (नृमणाः) नरों के समान मनवाले (इन्द्रः) इन्द्र  ने (तम् धमन्तम्) उस हाँफते हुए को (शच्या) शचि के साथ  (आवत्)-
लङ्(अनद्यतन भूत)
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःआवत्=युद्ध किया 
 युद्ध किया  और (स्नेहितीः) स्नेहयुक्त (अप अधत्त) हटा लिया है ॥७॥
टिप्पणी:-
 (धमन्तम्) उच्छ्वसन्तम्। पराभवेन दीर्घं श्वसन्तम् (स्नेहितीः) स्नेहतिः स्नेहतिर्वधकर्मा-निघ० २।१९। स्वकीया मारणशीलाः सेनाः (नृमणाः) नेतृतुल्यमनस्कः (अप अधत्त) दूरे धारितवान् निवर्तितवान् ॥

ऋग्वेद प्रथम एवम् अष्टम मण्डल में कृष्ण का वर्णन सायण भाष्य सहित

ऋग्वेदः सूक्तं १.१०१
कुत्स आङ्गिरसः
दे. इन्द्रः( १ गर्भस्राविण्युपनिषद्)। जगती, ८-११ त्रिष्टुप्

"प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥

यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन्पिप्रुमव्रतम्।                                         इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥२॥

यस्य द्यावापृथिवी पौंस्यं महद्यस्य व्रते वरुणो यस्य सूर्यः ।                                              यस्येन्द्रस्य सिन्धवः सश्चति व्रतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥३॥
सामवेदः -कौथुमीया/संहिता -ग्रामगेयः-प्रपाठकः १०-वैरूपम्

सामवेदः‎ - कौथुमीया‎ - संहिता‎ - ग्रामगेयः‎ - प्रपाठकः १०
:32
वैरूपम्.

वैरूपम्.
प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना ।
अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हुवेमहि ।। ३८० ।। तथा  ऋग्वेद १/१०१/१

(३८०।१) ।। वैरूपम् । विरूपो जगतीन्द्रो मरुत्त्वान्।
प्रमंदाऽ२३४इने ।। पितुमदाऽ३र्च्चाऽ३तावचः । यःकाऽ३ओऽ२३४वा ।
कृष्णगर्भानिरहन्नृजिश्वनाऽ३ । अवस्याऽ२३४वाः। वृषणंवा । ज्रादक्षाऽ२३४इणाम् ।
मारौवाओऽ२३४वा ।। त्वन्तꣳसख्यायहुवाऽ५इमहाउ ।। वा ।।
( दी ३ । प० १० । मा० ९ )२३ ( णो । ६५१)

द्र. पञ्चनिधनं वैरूपम्
वैरूपोपरि वैदिकसंदर्भाः

अस्मिन् जगति अस्माकं इन्द्रियाणि यत्किंचित् संवेदनं प्राप्नुवन्ति, तत् सर्वं असत्यं तु नैवास्ति, किन्तु विरूपितं अवश्यमस्ति। यदा वयं वैराजपदं प्राप्नुवन्ति, तदा अस्माकं दृष्टिः सत्यस्य दर्शने समर्था भवति।"
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यो अश्वानां यो गवां गोपतिर्वशी य आरितः कर्मणिकर्मणि स्थिरः।                        वीळोश्चिदिन्द्रो यो असुन्वतो वधो मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥४॥
___________

यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत् ।  इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥५॥

यः शूरेभिर्हव्यो यश्च भीरुभिर्यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभिः ।                                                इन्द्रं यं विश्वा भुवनाभि संदधुर्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥६॥

रुद्राणामेति प्रदिशा विचक्षणो रुद्रेभिर्योषा तनुते पृथु ज्रयः ।                                                इन्द्रं मनीषा अभ्यर्चति श्रुतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥७॥

यद्वा मरुत्वःपरमे सधस्थे यद्वावमे वृजने मादयासे।अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा त्वाया हविश्चकृमा सत्यराधः ॥८॥

त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्चकृमा ब्रह्मवाहः।                                                अधा नियुत्वः सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व ॥९॥

मादयस्व हरिभिर्ये त इन्द्र विष्यस्व शिप्रे वि सृजस्व धेने ।                                              आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन्हव्यानि प्रति नो जुषस्व ॥१०॥

मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा वयमिन्द्रेण सनुयाम वाजम् ।                                                  तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥११॥

{सायण-भास्यम्}
प्र मन्दिने' इति एकादशर्चमष्टमं सूक्तमाङ्गिरसस्य कुत्सस्यार्षम् । अष्टम्याद्याश्चतस्रस्त्रिष्टुभः शिष्टाः सप्त जगत्यः । इन्द्रो देवता । तथा चानुक्रान्तं - ' प्रमन्दिन एकादश कुत्स आद्या गर्भस्राविण्युपनिषच्चतुस्त्रिष्टुबन्तम्' इति । दशरात्रस्य नवमेऽहनि मरुत्वतीये एतत्सूक्तम् । विश्वजितः' इति खण्डे सूत्रितं- ‘प्र मन्दिन इमा उ त्वेति मरुत्वतीयम्' (आश्व. श्रौ. ८.७.) इति ॥
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प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥
अर्थ-
अच्छी प्रकार से  इन्द्र और उसके सखा राजा  ऋजिश्वन् की  स्तुति करने वाले के लिए यह निर्देश है कि वे उनकी अन्न से पूरित हवि आदि से अर्चना करते हुए  ऐसे वचनों से कहें कि वे इन्द्र मरुतगण जिनके सखा है और जिन इन्द्र ने दाहिने हाथ में वज्र धारण करते हुए कृष्ण के द्वारा गर्भिताओं का वध कर दिया था ;रक्षा के इच्छुक हम सब उन शक्ति शाली इन्द्र का ही आह्वान करते हैं । 

विशेष=असुर शब्द का प्रयोग तो कृष्ण के लिए सायण ने अपने भाष्य में ही किया है । अन्यथा मूल ऋचा में असुर पद नहीं  होकर अदेव पद है ।
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  . १०९-११५ ) । एतदनार्षत्वेनानादरणीयं भवति । एषोऽर्थः क्रमेणर्क्षु वक्ष्यते । तथा चास्या ऋचोsयमर्थः । 1“द्रप्सः =। द्रुतं सरति गच्छतीति द्रप्सः । पृषोदरादिः । द्रुतं गच्छन् "दशभिः “सहसैः दशसहस्रसंख्यैरसुरैः “इयानः= “कृष्णः एतन्नामकोऽसुरः "अंशुमतीं नाम नदीम् “अव “अतिष्ठत् =अवतिष्ठते । ततः 2-“शच्या= कर्मणा प्रज्ञानेन वा 3-“धमन्तम्= उदकस्यान्तरुच्छ्वसन्तं यद्वा जगद्भीतिकरं शब्दं कुर्वन्तं “तं =कृष्णमसुरम् “इन्द्रः मरुद्भिः सह 5-“आवत् =प्राप्नोत् । पश्चात्तं कृष्णमसुरं तस्यानुचरांश्च हतवानिति वदति । “नृमणाः नृषु मनो यस्य सः । यद्वा । कर्मनेतृष्वृत्विक्ष्वेकविधं मनो यस्य स तथोक्तः । तादृशः सन् “स्नेहितीः । स्नेहतिर्वधकर्मसु पठितः । सर्वस्य हिंसित्रीस्तस्य सेनाः “अप “अधत्त ।6- अपधानं =हननम् । अवधीदित्यर्थः । ‘ अप स्नीहितिं नृमणा अधद्राः' (सा. सं. १. ४. १.४.१) इति छन्दोगाः पठन्ति । तस्यानुचरान् हत्वा तं द्रुतं गच्छन्तमसुरमपाधत्त । हतवान् ॥
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"द्र॒प्सम॑पश्यं॒ विषु॑णे॒ चर॑न्तमुपह्व॒रे न॒द्यो॑ अंशुमत्या:।
नभो॒ न कृ॒ष्णम॑वतस्थि॒वांस॒मिष्या॑मि वो वृषणो॒ युध्य॑ता॒जौ ॥१४
द्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्यः । अंशुऽमत्याः ।
नभः । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । वः । वृषणः । युध्यत । आजौ ॥१४

तुरीयपादो मारुतः । मरुतः प्रति यद्वाक्यमिन्द्र उवाच तदत्र कीर्त्यते । हे मरुतः “द्रप्सं द्रुतगामिनं कृष्णमहम् “अपश्यम् =अदर्शम् । कुत्र वर्तमानम् । “विषुणे= विष्वगञ्चने सर्वतो विस्तृते देशे । यद्वा । विषुणो विषमः । विषमे परैरदृश्ये गुहारूपे देशे। “चरन्तं =परितो गच्छन्तम् । किंच “अंशुमत्याः एतन्नामिकायाः “नद्यः =नद्याः “उपह्वरे= अत्यन्तं गूढे स्थाने “नभो “न नभसि यथादित्यो दीप्यते तद्वत्तत्र दीप्यमानम् “अवतस्थिवांसम् उदकस्यान्तरवस्थितं “कृष्णम् एतन्नामकमसुरमपश्यम् । तस्मिन् दृष्टे सति हे “वृषणः कामानामुदकानां वा सेक्तारो मरुतः “वः युष्मान् युद्धार्थम् “इष्यामि अहमिच्छामि । ततो यूयं तमिमं कृष्णम् "आजौ । अजन्ति गच्छन्त्यत्र योद्धार आयुधानि प्रक्षेपयन्तीति वाजिः संग्रामः । तस्मिन् "युध्यत संहरत । वाक्यभेदादनिघातः । केचित् इष्यामि वो मरुतः इति पठन्ति । तत्र हे मरुतः वो युष्मानिच्छामीत्यर्थो भवति ॥

अध॑ द्र॒प्सो अं॑शु॒मत्या॑ उ॒पस्थेऽधा॑रयत्त॒न्वं॑ तित्विषा॒णः।विशो॒ अदे॑वीर॒भ्या॒३॒॑चर॑न्ती॒र्बृह॒स्पति॑ना यु॒जेन्द्र: ससाहे ॥१५।

अध । द्रप्सः । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः ।
विशः। अदेवीः ।अभि। आऽचरन्तीः ।बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥१५।

1-“अध= अथ 2-“द्रप्सः =द्रुतगामी कृष्णः 3-“अंशुमत्याः= नद्याः 4-“उपस्थे =समीपे 5-“तित्विषाणः= दीप्यमानः सन् 6-“तन्वम् =आत्मीयं शरीरम् 7-“अधारयत् । =परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन 8-“युजा= सहायेन 9-“अदेवीः =अद्योतमानाः । कृष्णरूपा इत्यर्थः । यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । 10-“आचरन्तीः= आगच्छन्तीः 11-“विशः= असुरसेनाः "अभि 12-"ससहे =जघान । तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ३४ ॥ 

त्वं ह॒ त्यत्स॒प्तभ्यो॒ जाय॑मानोऽश॒त्रुभ्यो॑ अभव॒ः शत्रु॑रिन्द्र ।
गू॒ळ्हे द्यावा॑पृथि॒वी अन्व॑विन्दो विभु॒मद्भ्यो॒ भुव॑नेभ्यो॒ रणं॑ धाः ॥१६
पद पाठ:-
त्वम् । ह । त्यत् । सप्तऽभ्यः । जायमानः । अशत्रुऽभ्यः । अभवः । शत्रुः । इन्द्र ।
गूळ्हे इति । द्यावापृथिवी इति । अनु । अविन्दः । विभुमत्ऽभ्यः । भुवनेभ्यः । रणम् । धाः ॥१६

हे “इन्द्र “त्वं खलु “त्यत् तत् कर्म कृतवानसि। किं तत् उच्यते । "जायमानः त्वं प्रादुर्भवन्नेव । “अशत्रुभ्यः स्तुरहितेभ्यः “सप्तभ्यः कृष्णवृत्रनमुचिशम्बरादिसप्तभ्यो बलवद्भ्यः शत्रुभ्यः तदर्थं “शत्रुः “अभवः । यद्वा । सप्तभ्यः । ससैवाङ्गिरसः । सप्तभ्योङ्गिरोभ्यो गवानयनार्थं प्रादुर्भवन्नेवाशत्रुभ्यो बलवद्भ्यः पणिभ्यः शत्रुरभवः । किंच हे इन्द्र त्वं “गूळ्हे तमसा गूढे संवृते “द्यावापृथिवी द्यावापृथिव्यौ सूर्यात्मना ते प्रकाश्यानुक्रमेण "अविन्दः अलभथाः । तथा “विभुमद्भ्यः महत्त्वयुक्तेभ्यः "भुवनेभ्यः लोकेभ्यः "रणं रमणं “धाः धारयसि । विदधासीत्यर्थः ॥
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drip (v.)
c. 1300, drippen, "to fall in drops; let fall in drops," from Old English drypan, also dryppan, from Proto-Germanic *drupjanan (source also of Old Norse dreypa, Middle Danish drippe, Dutch druipen, Old High German troufen, German triefen), perhaps from a PIE root *dhreu-. Related to droop and drop. Related: Dripped; dripping.

drip (n.)
mid-15c., drippe, "a drop of liquid," from drip (v.). From 1660s as "a falling or letting fall in drops." Medical sense of "continuous slow introduction of fluid into the body" is by 1933. The slang meaning "stupid, feeble, or dull person" is by 1932, perhaps from earlier American English slang sense "nonsense" (by 1919).

विषुण-अनेक रूप का। बहुरूपी। २. सर्वग। सर्वगत। ३. विप्रकीर्ण। बिखरा हुआ। ४. पराङमुख [को०]।


"अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
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क्रमशः उपर्युक्त तीनों ऋचाओं का पदपाठ-

"अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥

पद का अन्वय= अव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः ।आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥१३।

शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण-                १-अव= तुम रक्षा करो लोट्लकर  मध्यम पुरुष एकवचन।
२-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में  ।
३- अंशुमतीम् = यमुनाम्  –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।
४-अवतिष्ठत् =  अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश  लङ्लकार रूप)  स्थित हुए।
५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक  तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।
 ६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं  कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को।  (ध्मा धातु का धम आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप  एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है  ।
७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।
८-नृमणां( धनानां) 
९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्यपुरुषएकवचने) 

विशेषटिप्पणी-
१०-अव्=१- रक्षण २-गति ३-कान्ति ४-प्रीति ५-तृप्ति ६-अवगम ७-प्रवेश ८-श्रवण ९- स्वाम्यर्थ १०-याचन ११-क्रिया। १२ -इच्छा १३- दीप्ति १४-अवाप्ति १५-आलिङ्गन १६-हिंसा १७-दान  १८-वृद्धिषु।                
११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
प्रथम पुरुष एक वचन का लङ् लकार(अनद्यतन भूूूतकाल का रूप।
आवत् =प्राप्त किया । 
हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया  और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप  धन दिया।
भाष्य-
कृष्णो दशसहस्रैर्गोपै: परिवृत: सन्  अँशुमतीनामधेयाया नद्या:  यमुनाया: तटेऽतिष्ठत् तत्र कृष्णस्य नाम्न: प्रसिद्धं  तं गोपं नद्यार्जलेमध्ये   स्थितं इन्द्रो ददर्श स इन्द्र: स्वपत्न्या शच्या सार्धं आगत्य जले स्निग्धे तं गोपं कृष्णं तस्यानुचरानुपगोपाञ्च अतीवानि धनानि अदात्।

हिन्दी अनुवाद- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं अशुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप कृष्ण को यमुना नदी के जल में स्थित देखा।
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द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥

पद का अन्वय= द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ ।

नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१४।।

हिन्दी अर्थ-इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा  और इस साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं चाहूगा । अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़  कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं चाहूँगा। जहाँ जल और- ( नभ) बादल भी न हो 
(अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
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शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण-
१-द्र॒प्सम्= जल को कर्मकारक द्वित्तीया।अपश्यम्=अदर्शम्  दृश् धातु का लङ्लकार  (सामान्य भूतकाल ) क्रिया पदरूप  - मैंने देखा ।__________________

२- वि + सवन(‌सुन) रूप विषुण -(विभिन्न रूप)।   षु (सु)= प्रसवऐश्वर्ययोः - परस्समैपदीय सवति सोता [ कर्मणि- ]  सुषुवे सुतः सवनः सवः अदादौ (234) सौति स्वादौ षुञ् अभिषवे (51) सुनोति (911) सूनुः, पुं, (सूयते इति । सू + “सुवः कित् ।” उणादिसूत्र्र ३।३५। इति (न:) स:च कित् )

पुत्त्रः । (यथा, रघुः । १ । ९५ ।
“सूनुः =सुनृतवाक् स्रष्टुः विससर्ज्जोदितश्रियम् ) अनुजः । सूर्य्यः । इति मेदिनी ॥ अर्कवृक्षः । इत्यमरः कोश ॥
षत्व विधान सन्धि :-"विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद 'कु(कखगघड•)    'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई  स्वर जैैैसे इ उ आदि हो अथवा 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।

शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु। हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।__________________________

विषुण-विभिन्न रूपी।
३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्=  चरते हुए साँड  को।
४-आजौ =  संग्रामे  युद्ध में।
५-अ॒व॒ = उपसर्ग
६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है । तस्थिवस्=  स्था--क्वसु  स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।
७-व:= युष्मान् - तुम सबको ।  युष्मभ्यम् ।  युष्माकम् । यष्मच्छब्दस्य द्बितीया चतुर्थी षष्ठी बहुवचनान्तरूपोऽयम् इति व्याकरणम् ॥
८-उपह्वरे= निर्जन देशे।
९-वृ॒ष॒णः॒ = साँड ने ।
१०-युध्य॑त= युद्ध करते हुए।
११-आजौ= युद्ध में ।
१२-इष्या॑मि= मैं इच्छा करुँगा।
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अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
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अर्थ-कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया  जो इनके गोपों - विशों (गोपालन आदि करने वाले -वैश्यवृत्ति सम्पन्न) थे ।  चारो ओर चलती हुई गायों के साथ रहने वाले गोपों को इन्द्र ने बृहस्पति की  सहायता से दमन किया ।
पदपाठ-विच्छेदन :-
। द्रप्स:। अंशुऽमत्याः। उपऽस्थे ।अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः। विशः। अदेवीः ।अभि । आऽचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा । इन्द्रः। ससहे॥१५।
“अध =अथ अधो वा “द्रप्सः= द्रव्य अथवा जल बिन्दु: “अंशुमत्याः= यमुनाया: नद्याः“(उपस्थे=समीपे “(  त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे  तित्विषाणः= दीप्यमानः)( सन् =भवन् ) “(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “(अधारयत्  = शरीर धारण किया)। परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत्‌ । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन “युजा =सहायेन “अदेवीः = देवानाम्  ये न पूजयन्ति इति अदेवी:। कृष्णरूपा इत्यर्थः । 
यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । “आचरन्तीः =आगच्छन्तीः “विशः=गोपालका:"अभि "ससहे षह्(सह्) लिट्लकार (अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) । शक्यार्थे - चारो और से सख्ती की ।
 सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह अधेः प्रसहने (1333) इत्यत्र सह्यतेः सहतेर्वा निर्देश इति शक्तावुपेक्षायाञ्च उदाहृतं तमधिचक्रे इति (7) 22  तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ॥ ३४ ॥ 

ऋग्वेद २/१४/७ में भी सायण ने "उपस्थ' का अर्थ उत्संग( गोद) ही किया है । जैसे 
अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥देखे 

हे अध्वर्यवो जघन्वान् पूर्वं शत्रून् हतवान् य इंद्रः शतं सहस्रमसुरान् भूम्या उपस्थ उत्संगेऽवपत् । एकैकेन प्रकारेणापातयत् । किंच यः कुत्सस्यैतन्नामकस्य राजर्षेः । आयोः पौरूरवसस्य राजर्षेः। अतिथिग्वस्य दिवोदासस्य । एतेषां त्रयाणां वीरानभिगंतॄन्प्रति द्वंद्विनः शुष्णादीनसुरान् न्यवृणक् । वृणक्तिर्हिंसाकर्मा । अवधीत् । तथा च मंत्रवर्णः । त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारंधयोऽतिथिग्वाय शंबरं ।१. ५१. ६.। इति । तादृशायेंद्राय सोमं भरत ॥
 
तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

१-तस्मिन् -उसमें ।
 २-रमते लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन - क्रीडा करते हैं रमण करते हैं । रम्=क्रीडायाम्
३-देव:(प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक।
स्त्रीभि:=  तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप स्त्रीयों के साथ।
परिवृत:= चारों ओर से घिरे हुए।

हारनूपुरकेयूररशना आद्यै: तृतीया विभक्ति वहुवचन = हार नूपुर(घँघुरू) केयूर(बाँह में पहनने का एक आभूषण  ,बिजायठ  बजुल्ला ,अंगद , बहुँठा अथवा भुजबंद भी जिसकी हिन्दी नाम हैं  आदि के द्वारा । 
तदा= तस्मिन् काले -उस समय में।
भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
भूषितानां= भूषण पहने हुओं का (षष्ठी वहुवचन रूप सम्बन्ध बोधक रूप)
वरस्त्रीणां=श्रेष्ठ स्त्रीयों का ।
चारु=सुन्दर । अङ्गीनाम्= अंगों वाली का षष्ठी विभक्ति वहुचन रूप ।
विशेषत:=विशेष से पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।
शुभम्- जल जैसा राजनिघण्टु में शुभम् नपुँसक रूप में जल अर्थ उद्धृत किया है । अत: उपर्युक्त श्लोक में 'शुभम् शुभगन्धान्वितं' विशेषण का विशेष्य पद है ।
शुभगन्धान्वितं= शुभ (कल्याण कारी) गन्धों से युक्त को द्वितीया विभक्ति  कर्म कारक पद रूप ।

कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान भी नहीं किया ।
सुर संस्कृति से प्रभावित  कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते थे। परन्तु  सुरापान यादवों की सांस्कृतिक परम्परा या पृथा नहीं थी।
जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में  

वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥
(वाल्मीकि रामायण  बालकाण्ड सर्ग 45 के श्लोक 38)
उपर्युक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
इस कारण देवोपासक पुरोहितों  के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों  द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।

परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिक अर्थ प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों को कहा गया है ।
इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने 
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर  (13,14,15,) में कृष्ण को असुर अथवा अदेव  कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेष वश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है।
परन्तु फिर भी ये लोग पूर्णत: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
राजनिर्घण्टः।। शुभम्-(उदकम् । इति निघण्टुः । १।१२।
सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते ( सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है ।

भविष्य पुराण के ब्रह्मखण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है ।
स्त्रियों के साथ दिन में रमण ( संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है । जो सरासर कृष्ण चरित्र की धज्जीयाँ पीटना है
कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
और करोड़ो देवों की पूजा करना। धर्म के नाम परसुरापान करना  कृष्ण ने नहीं किया।
______
जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा -
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।9/23।
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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक
अर्थ: –हे अर्जुन ! जो भक्त दूसरे देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, लेकिन उनकी यह पूजा विना विधि पूर्वक ही होती है।
कृष्ण का तो एक ही उद्घोष( एलान) था कि सभी देवताओं से सम्बन्धित सम्प्रदाय ( धर्मों) को छोड़कर मेरी शरण आजा मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय अठारह का मूल श्लोकः देखें निम्न रूपों में
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सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।18.66। 
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।

वेदों में कृष्ण और इन्द्र के युद्ध सम्बन्धी तथ्य-

भारतीय भाषाओं में इन्द्र" नाम की कोई निश्चित व्युत्पत्ति नहीं है। सबसे प्रशंसनीय रूप से यह एक प्रोटो-इण्डो-यूरोपियन मूल का शब्द है।

यूरोपीय भाषाओं में एण्डरो-(andró) शब्द ग्रीक भाषा के Aner से विकसित हुआ है। Aner का सम्बन्ध कारक रूप एण्डरो- है। मूल भरोपीय भाषाओं में (H- Ner) हनर-

ओस्कैन में  (ner)- "पुरुषों का"), अल्बानियाई में  नजेरी "आदमी, मानव," वेल्स- नर । मितन्नी में  इन-द-र- शब्द है। यद्यपि अवेस्ता में इन्द्र एक दुष्ट शक्ति है। क्योंकि देव शब्द ही अवेस्ता में दुष्ट का वाचक है। पारसी मिथ को के सम्बन्ध में इन्द्र और देव शब्द पर आगे यथा क्रम विचार किया जाएगा ।

संस्कृत(Sanskrit) एक वैदिक भाषा परिनिष्ठित व संशोधित रूपान्तरण है. कुछ लोगों का मानना है कि ये दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है, जो लगभग 5000 साल पुरानी है. ऋग्वेद जिस भाषा में लिखा गया है वो इसका यानी संस्कृत का प्रथम स्वरूप है, लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि संस्कृत ऋग्वेद से भी पहले इस्तेमाल होती थी. इस भाषा का इस्तेमाल आज से लगभग 3500 साल पहले सीरिया का एक राजवंश किया करता था. आज हम उसी राजवंश के बारे में आपको आगे यथाक्रम बताएंगे.

भारतीय वेदों में इन्द्र की सबसे अधिक स्तुति वैदिक ब्राह्मणों ने की है। और इन्द्र को वेदों में सबसे वड़ा देव घोषित किया गया है ।

परन्तु वैदिक पुरोहित भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए ही इन्द्र आदि देवताओं का योजन( यज्ञ) आदि किया करते थे। देवताओं की उपासना से आध्यात्मिक ज्ञान अथवा मोक्ष तो मिन नहीं सकता और न ही यज्ञों के सम्पादन से न ईश्वर की अनुभूति हो सकती है और नहीं आत्मज्ञान प्राप्त होता है।

 यज्ञ केवल देवों की प्रसन्नता के लिए किए जाते थे और ये यज्ञ भी निर्दोष पशुओं पक्षीयों की हत्या के बिना सम्पन्न नहीं माने जाते थे। इन्द्र स्वयं यज्ञ में पशुमेध का समर्थ था।

वेदों में तथा पुराणों में इन्द्र का चरित्र पूर्णतया राजसिक है । वह पुराणों में तो अपनी कामुक प्रवृत्ति के लिए जाना जाता है। वेदों वनो  भी उसका विलासी चरित्र उभर कर आता है। उसमें सत्व गण का कोई भाव नहीं है। भोग विलास में निरन्तर लगा हुआ इन्द्र आध्यात्मिक ज्ञान से विमुख और परे है।

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महाभारत के आदि पर्व में इन्द्र का यज्ञ भूमि में सोम पीकर उन्मत्त होने का वर्णन है।

सोम एक नशीला पदार्थ था जिसे पारसी धर्म ग्रन्थों में होम कहा गया है क्योंकि फारसी में प्राय: वैदिक भाषा के " स" वर्ण का उच्चारण "ह"वर्ण के रूप में होता है"

प्राचीन भारत में सुर, सुरा, सोम और मदिरा आदि का बहुत प्रचलन था। कहते हैं कि इंद्र की सभा में सुंदरियों के नृत्य के बीच सुरों के साथ सुरापान होता था। 
सोम रस : सभी देवता लोग सोमरस का सेवन करते थे। प्रमाण- 'यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इंद्रदेव को प्राप्त हो।-

सुतपाव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये ।
सोमासो दध्याशिरः ॥५॥

सुतऽपाव्ने । सुताः । इमे । शुचयः । यन्ति । वीतये।सोमासः । दधिऽआशिरः ॥५।

सायणभाष्य:-

“इमे "सोमासः अस्मिन् कर्मणि संपादिताः सोमाः "सुतपाव्ने= अभिषुतस्य सोमस्य पानकर्त्रे । षष्ठ्यर्थे चतुर्थी । तस्य पातुः =“वीतये भक्षणार्थं "यन्ति तमेव प्राप्नुवन्ति । कीदृशाः सोमाः । "सुता:= अभिषुताः । “शुचयः =दशापवित्रेण शोधितत्वात् शुद्धाः । "दध्याशिरः =अवनीयमानं दधि आशीर्दोषघातकं येषां सोमानां ते दध्याशिरः ।। सुतपाव्ने । सुतं पिबतीति सुतपावा । वनिप: पित्त्वात् धातुस्वर एव शिष्यते । समासे द्वितीयापूर्वपदप्रकृतिस्वरं बाधित्वा कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम् । शुचयः । शुच दीप्तौ'। ‘इन्' इत्यनुवृत्तौ ‘इगुपधात्कित्' (उ. सू. ४. ५५९) इति इन् । कित्त्वाल्लघूपधगुणाभावः। नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् । वीतये । ‘ वि गतिप्रजनकान्त्यशनखादनेषु' इत्यस्मात् ' मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः ' ( पा. सू. ३, ३. ९६ ) इति क्तिन् उदात्तः । सोमासः । ‘ षुञ् अभिषवे'। ‘ अर्तिस्तुसुहुसृधृक्षि° ' ( उ. सू. १. १३७ ) इत्यादिना मन् । नित्त्वादाद्युदात्तः । ‘ आज्जसेरसुक्' (पा. सू. ७. १. ५० } इत्यसुगागमः । दध्याशिरः । दधाति पुष्णातीति दधि । ‘डुधाञ् धारणपोषणयोः । ‘ आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च ' ( पा. सू.ब॒ ३. २. १७१ ) इति किन् । लिङ्वद्भावात् द्विर्भावः । कित्त्वादाकारलोपः । नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् ।शॄ ‘हिंसायाम् ' । शृणाति हिनस्ति सोमेऽवनीयमानं सत् सोमस्य स्वाभाविकं रसम् ऋजीषत्वप्रयुक्तं नीरसं दोषं वा इत्याशीः । क्विपि ‘ ऋत इद्धातोः ' ( पा. सू. ७, १. १०० ) इति इत्वं रपरत्वं च । दध्येव आशीर्येषां सोमानां ते दध्याशिरः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ।९ ॥ (ऋग्वेद-1/5/5).

तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे ।
वायो तान्प्रस्थितान्पिब ॥१॥

"शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदुनिम्नं न रीयते।। 

(ऋग्वेद-1/23/1).. 

शतं वा यः शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम् ।
एदु निम्नं न रीयते ॥२॥

(ऋग्वेद-1/30/2) 

इन्द्रा य गाव आशिरं दुदुह्रे वज्रिणे मधु” (ऋग्वेद- ८/, ५८,/ ६ )

इमे त इन्द्र सोमास्तीव्रा अस्मे सुतासः ।
शुक्रा आशिरं याचन्ते ॥१०॥

ताँ आशिरं पुरोळाशमिन्द्रेमं सोमं श्रीणीहि ।
रेवन्तं हि त्वा शृणोमि ॥११॥

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।
ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥१२॥

सुरापान : प्राचीन काल में सुरा एक प्रकार से शराब ही थी कहते हैं कि सुरों द्वारा ग्रहण की जाने वाली हृष्ट (बलवर्धक) प्रमुदित (उल्लासमयी) वारुणी (पेय) इसीलिए सुरा कहलाई। कुछ देवता सुरापान करते थे। 

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।
ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥१२॥ (ऋग्वेदः सूक्तं 8/2/12)

अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर नंगे  होकर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात ही मचाया करते हैं।

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,प्रसंग समुद्र मंथन.

विश्वामित्र राम लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे बताते हुए कहते हैं ....
असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः 
हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)
('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये 
और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई.
वारुणी को   ग्रहण करने से देवतालोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी"

धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं।
धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, असु राति अर्थात् जो प्राण देता है, के रूप में चित्रित किया गया है
'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'असु युक्त अथवा प्राण -युक्त के अर्थ में किया गया है । और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है।
'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८)
और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है।
विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक भी  है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है।

परन्तु लौकिक संस्कृत में सुर के विपरीत असुर हैं।

वाल्मीकि रामायण को बाल काण्ड नें सुरा पीने वाले को सुर" ( देव) कहा है ।

वाल्मीकि रामायण-
बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
 सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है- 
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
"सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥ ३८।
(वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड)
उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है. 
चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे। 

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,
प्रसंग ( समुद्र मंथन.) विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं ।
और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे में बताते हुए कहते हैं ।

"असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः। (३८)
 ('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई. 

वारुणी को ग्रहण करने से देवता लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी" के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिन्द्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है.।
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ये तो सर्वविदित ही है कि इन्द्र सुरा और सुन्दरियों के रूपरस का  पान करता रहता था। 
इन्द्र एक व्यभिचारी देव था। कृष्ण ने सर्वप्रथम इन्द्र के इस कुत्सित कर्म को दृष्टिगत करते हुए उसकी पूजा पर रोक लगाई।
तो इन्द्रोपासक पुरोहितों ने षड्यन्त्र पूर्वक कृष्ण के चरित्र को इन्द्र से भी अधिक दूषित करके चित्रित किया गया। और जो देवसंस्कृति के समर्थन में कृष्ण ने काम नहीं किया उसे भी कृष्ण के नाम पर जोड़कर कृष्ण के विचारों के साथ भी षड्यन्त्र कर दिया।

इन्द्र सुरापान करके उन्मत्त रहता था । और सुरापान करने वाला ही कामुक और उन्मत्त होकर व्यवहार करता है।

अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर नंगे  होकर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात ही मचाया करते हैं।

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो  सुरायाम्  ऊधर्न नग्ना जरन्ते (ऋग्वेद -8/2./12)

पदान्वय:-सुरायाम्- पीतासो= सुरा पीने वाले।दुर्मदासो= बुरी तरह उन्मत्त होकर। नग्ना हृत्सु:- नंगे होकर छाती या हृदय में स्थित । ऊध: - स्तनो को  । जरन्ते - जारके समान मसलते या जीर्ण करते हैं।

(न ) जिस प्रकार- (दुर्मदास:- दूषित मद से उन्मत्त लोग। युध्यन्ते-युद्ध करते हैं। हृत्सु- हृदयों में। सुरायाम्- पीतास:- सुरा पीने वाले लोग। नग्ना: - नंगे लोग।ऊध:-स्तन या छाती। जरन्ते- जारों की तरह मसलते रहते हैं। जीर्ण करते रहते हैं।

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इन्द्र भी इसी प्रकार का चरित्र निर्वहन करता है।

"व्युषिताश्व इति ख्यातो बभूव किल पार्थिवः ।पुरा परमधर्मिष्ठः पूरोर्वंशविवर्धनः ।७।

तस्मिंश्च यजमाने वै धर्मात्मनि महात्मनि।उपागमंस्ततो देवाः सेन्द्राः सह महर्षिभिः।८।

अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।व्युषिताश्वस्य राजर्षेस्ततो यज्ञे महात्मनः।९।

महाभारत आदिपर्व- (1/120/ 7-8-9-10)

  "अनुवाद :-एक समय वे महाबाहु धर्मात्‍मा नरेश व्युषिताश्व जब यज्ञ करने लगे, उस समय इन्‍द्र आदि देवता देवर्षियों के साथ उस यज्ञ में पधारे थे। उसमें देवराज इन्‍द्र सोमपान करके उन्‍मत्त हो उठे !थे तथा ब्राह्मण लोग पर्याप्त दक्षिणा पाकर हर्ष से फूल उठे थे।

इन्द्रोपासक पुरोहित भी केवल भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए इन्द्र की स्तुति करते हैं। इन्द्र के उपासक केवल स्वर्ग" सुन्दर स्त्री और भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए ही इन्द्र की उपासना करते है।

इन्द्र बहुत से बैलों( उक्षण) को खाने वाला और अपनी यज्ञों में पशु बलि माँगता है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्त-(86) जो वृषाकपि के नाम से है   उसकी समस्त ऋचाऐं इन्द्र के विलासी चरित्र का दिग्दर्शन करती हैं।

ऋग्वेदः सूक्तं १०/८६/

                " वृषाकपिसूक्तम्

"तैइस ऋचाओं का यह वृषाकपि सूक्त है जिसमें  वृषाकपि नामक इन्द्र अन्य पत्नू से उत्पन्न एक पुत्र था इन्द्र और इन्द्राणी( शचि) का परस्पर संवाद है

वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥१॥ 

"सोम-अभिषव करने के लिए यज्ञ में मुझ इन्द्र द्वारा आज्ञा दिए हुए स्तोताओं ने वृषाकपि का पूजन किया। वहाँ उपस्थित दैदीप्मीन मुझ  इन्द्र की मेरे द्वारा प्रेरित होकर भी उन स्तोताओं ने स्तुति नहीं की किन्तु मेरे पुत्र वृषाकपि की ही स्तुति की जिस सोम से बढ़े हुए यज्ञो में स्वामी वृषाकपि मेरा पुत्र और मेरा मित्र होकर सोमपान में हालांकि हर्षित हुआ। तो भी उन यज्ञों में मैं इन्द्र सम्पूर्ण जगत में श्रेष्ठतर हूँ। आचार्य माधव भट्ट के अनुयायी इस ऋचा को इन्द्राणी का वचन मानते हैं। उनका कहना है कि इन्द्राणी के लिए अर्पित हवि को वृषाकपि के स्थान में विद्यमान किसी अन्य मृग ( पशु ) ने दूषित कर दिया है। वहाँ इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। उस पक्ष में तो इस ऋचा का यह अर्थ है।)सोमाभिषव करने के लिए आज्ञा दिए गये  यजमान सोनाभिषव की प्रक्रिया से अलग हो गये और मेरे पति इन्द्रदेव की   स्तोता उस जनपद में स्तुति नहीं करते हैं। जिस जनपद में बढ़े हुए धनों  में स्वामी वृषाकपि  हर्षित होता है। मेरे मित्र और मेरे प्रिय इन्द्र देव सब जगत् में श्रेष्ठतर हैं।१।

परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः। नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥२॥

  "अनुवाद :- हे इन्द्र तुम अत्यन्त चलकर वृषाकपि के पास जाते हो। अर्थात् अन्यत्र सोम पीने के लिए नहीं जाते हो। वही इन्द्र समस्त जगत् में श्रेष्ठतर है।२।

किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः। यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्रप उत्तरः ॥३॥

  "अनुवाद :-  हे इन्द्र हरित वर्ण वाले वृषाकपि ने तुम्हारा क्या प्रिय कार्य किया ? क्यों कि वृषाकपि मृग पशु) जाति का है। जिस वृषा कपि के तुम इन्द्र उदार होकर पुष्टिकर धन शीघ्र न करते हो। जो इन्द्र समस्त जगति में श्रेष्ठतर है।३।

यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि । श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥

  "अनुवाद :-  हे इन्द्र तुम जिस अभिलाषित   वृषाकपि का पालन करते हो उस वृषाकपि को सूकर  खाने की इच्छाकरने वाला कुत्ता शीघ्र भक्षण करे।और उसके कान को पकड़े । क्योंकि कुत्ता सूअर को खाना चाहता है। इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठतर है।४।

प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत् ।शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥

  "अनुवाद :-  मुझ इन्द्राणी के लिए यजमानों द्रारा अर्पितप्रिय और  विशेषरूप से घृतयुक्त  हवियोंं को वृषाकपि के स्थान में विद्मान किसी कपि ने दूषित कर दिया। तत्पश्चात् मेरी इच्छा गै कि उस कि स्वामी वृषाकपि का शिर शीघ्र काट दूँ। मैं इस दुष्ट कर्म करने वाले वृषाकपि के लिए सुखकर न होऊँ। इस मुझ इन्द्राणी के पति इन्द्र समस्त जगत् में श्रेष्ठतर हैं।५।

न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत् ।न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥६॥

  "अनुवाद :-

मुझ इन्द्राणी से दूसरी कोई नारी अत्यन्त सौभाग्य वती नहीं है। मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी अत्यन्त सुखी अथवा सुपुत्रों वाली नहीं है। जैसा कि यह ऋचा कहती है ।६।

"यह बहुत रज वाली रमणी मुझ स्वनय राजा को बहुत बार भोग( संभोग) प्रदान करती है। मेरे से दूसरी नारी पुरुषो को अत्यधिक रूप से अपना शरीर समर्पित करने वाली नहीं है। मेरी तुलना में दूसरी स्त्री संभोग में लीन अपनी दौंनों जाघों को ऊपर उठाने वाली नहीं है। मेरे पति समस्त जगत में उत्कृष्टतर हैं।६।

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वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।

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इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 

इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। 

इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है 

उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्ग भविष्यति ।भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥

 "अनुवाद :-"इस प्रकार इन्द्राणी द्रारा बुरा भला कहा हुआ वृषाकपि कहता है कि हे माता ! सुन्दर लाभभ मे जिस प्रकार से तुमने कहा है। वैसा ही अंग शीघ्र हो जाये । तुम्हारे इस प्रेम करने को स्वीकार करने में मेरा क्या प्रयोजन है। मेरे पिता के लिए तुम्हारी यौनि उपयुक्त हो ।और मेरे पिता के लिए तुम्हीरी जंघा उपयुक्त हो। मेरे पिता इन्द्र को आपका शिर प्रेमालाप करने में कोयल आदि पक्षी  की तरह हर्षिकत करे। मेरे पिता इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।७।

इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों में ही जीवन का आनन्द खोजता है । इन्द्र शचि से कहता है  कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-

किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥

 "अनुवाद :- इन्द्र  क्रोधित इन्द्राणी को शान्त करते हुए कहता है कि हे सुन्दर भुजाओं वाली ,सुन्दर अंगुरियों वाली बड़े बालों वाली चौड़ी जाँघो वाली  तथा वीर पत्नी इन्द्राणी! तुम हमारे पुत्र वृषाकपि पर क्यो क्रोध कर रही हो।जिसका पिता मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।८।


अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥९॥

संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥

इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।नह्यस्या अपरं चन साकं मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥

नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेरृते ।यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥

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वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे । घसत्ते इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥

 "अनुवाद :-

मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी सौभाग्य शाली नहीं  है । कामनाओं की वर्षा करने से वृषभ अभीष्टदेश को जाने से इन्द्र वृषाकपि है। हे धनवाली और उत्तम पुत्र वाली और पुत्र वधू वाली शचि ! तुम्हारे ये पति इन्द्र वीर्य दान करने नें समर्थ पशु ( बैल)को शीघ्र खाऐं। और तुम्हें सुख कर हवि प्रदान करें । तुम्हारे पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।१३ ।

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उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् ।उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥

 "अनुवाद :-

इसके बाद इन्द्र कहता है।  मेरी पत्नी इन्द्राणी द्वारा भेजे हुए याज्ञिक   पन्द्रह से बीस बैलों( वृषभों) को एक साथ पकाते हैं। और उन्हें  मैं  इन्द्र खाता हूँ । तथा उन्हें खाकर मोटा होता हूँ।मेरी मैंने कोशों को यज्ञ करने वाले सोम रस से भरते हैं। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१४।


एक  भारतीय कालखण्ड में पुरोहित ॉअ पने अतिथि को गाय का मांस खिलाते थे।

स्वगृहागतशिष्टेभ्यः पशूनेव निहत्य च।।
निवेदयामासुरेते गोछागप्रमुखान्मुने ।।२२।।

अनुवाद:-

हे ऋषिवर! उन्होंने विशिष्ट अतिथियों के लिए गाय (बैल) और बकरे आदि पशुओं को मारकर उन्हें परोसा।

"गोघ्न- गांव हन्ति तस्मै अतिथि ( जिसके लिए गाय मारी जाए।- 



वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत् मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥

 "अनुवाद :- इसके बाद इन्द्राणी कहती है कि हे  इन्द्र! जैसे तेज लिंग या सींगों वाला वृषभ गायों के समूह के बीच  में आवाज करता हुआ प्रसन्न होता है। वैसे ही तुम मेरे साथ रमण(सैक्स ) करो । तुम्हारे हृदय के लिए दधिमन्थन के सयय में शब्द करता हुआ  कल्याण कारी हो। तुम्हारे लिए इन्द्राणी भावाभिलाषिणी जिस सोम को अभिषुत करती है। वह सोम भी कल्याण कारी हो । मेरे पति समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१५।

न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत् । सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥

 "अनुवाद :- 

हे इन्द्र वह मनुष्य  कभी मैथुन नहीं कर सकता  , जिस पुरुष का लिंग जंघाओं के बीच में लम्बा होकर लटक जाता है। वही पुरुष स्त्री के साथ मैथुन कर सकता है  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग जम्हाई लेता हो । इन्द्राणी का पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१६।

न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥

अनुवाद :-वह मनुष्य मैथुन नहीं कर सकता  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग लटक जाता है।किन्तु वही मनुष्य मैथुन कर सकता है जिस मनुष्य का लिंग जंघाओं के बीच में  अकड़ता जम्हाई लेता है।

शेष अर्थ पूर्ववत् है। यहाँ पूर्वोक्त का अन्तर  देखने योग्य है। पहली ऋचा में इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। और उस दूसरी ऋचा में इन्द्र इन्द्राणी से कहता है। इस प्रकार दौंनों में कोई विरोध नहीं है।१७। कामशास्त्र की खुलकर वार्ता है।

अर्थ:- (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे इन्द्र  (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार  (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही (यस्य कपृत्) जिसका लिंग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों  जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता लटकता है (स-इत्-ईशे) वह ही समर्थ होता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला लिंग  विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह मैथुन  नहीं कर सकता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमों  वाला अङ्ग लिंग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर -जङ्घाओं के बीच में लिंग लम्बा होता है, वह ही स्त्रीयों पर अधिकार कर पाता है॥१७॥

अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत् ।असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥

१८ हे  “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं= हिंसितं “विदत् =विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं =शस्त्रं "सूनाम्= उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं =भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “{एधस्य काष्ठस्य} “आचितं=संगृहीतं "अनः =शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

बैल पकाने का जिक्र-

अनुवाद :-

सायण- भाष्य-−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-है।(परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य- कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्)  नव अन्न हवि को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः)- पकाने के लिये ईंधन के भरे अन:-छकड़े को (इन हत्या के साधनों को) चयनित कर लिया ॥१८॥


अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम् । पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥

अनुवाद :-

तत्पश्चात इन्द्र कहता है। मैं इन्द्र यजमानों को देखता हुआ। दास और आर्य को अलग करता हुआ यज्ञ में जाता हूँ।तथा हवि पकाने वाले औरसोम अभिषव करने वाले यजमान का  परिपक्व मन से सोम अभिषव करने वाले यजमान का सोम पीता हूँ। तथा बुद्धि मान यजमान को मैं इन्द्र देखता हूँ। जो मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१९।

धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहाँ उप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥

अनुवाद :-जल शून्य और जल विहीन देश धन्व होता है। काटने योग्य वन कृन्तत्र होता है।जो जल शून्य और वन विहीन देश होता है। ऐसा वन मृगों के निर्वासन वाला होता है। किन्तु सघन जल नहीं होता है उस शत्रु गृह और हमारे घर के बीच कितने योजनों की दूरी है। अर्थात वह हमारा घर अत्यन्त दूर नहीं हैं।अत: निकटवर्ती शत्रुगगृह से ही हे वृषाकपि ! तुम हमारे घर में विशेष रूप में चले आओ और आकर यज्ञ गृहों के समीप जाओ । क्योंकि मैं इन्द्र सबसे अधिक श्रेष्ठ हूँ।२०।


पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै । य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥

अनुवाद :-आकर वापिस गये हुए वृषाकपि से इन्द्र कहते हैं। हे वृषाकपि तुम फिर हमारी ओर आओ!और तुम्हारे आने पर तुम्हारे चित को प्रसन्न करने वाले कर्मों को इन्द्राणी और मैं इन्द्र हम दोनों  विचार कर पूर्ण करें ! उदय होकर सब प्राणियों की नींद के नाशक जो सूर्य हैं जैसे वे अस्त होते हैं वैसे ही तुम मार्ग में अपने आवास को जाते हो। क्योंकि मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ ।२१।


यदुदञ्चो वृषाकपे ! गृहमिन्द्राजगन्तन । क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगञ्जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥

अनुवाद :-जाकर फिर आये हुए वृषाकपि से इन्द्र पूछते हैं। हे परम ऐश्वर्य शाली वृषाकपि ! तुम सीधे खड़े़ होकर मेरे घर में आओ ! एक वृषाकप् के लिए बहुवचन पद पूजा-( सम्मान) के लिए प्रयुक्त है। हे वृषाकपि वहाँ आप से सम्बन्धित बहुत से पाथिक( मार्गसम्बन्धी) रसों का उपभोक्ता वह मृग कहाँ रह गया अथवा मनुष्यों को हर्षित करने वाला मृग किस देश को चला गया। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ ।२२।


पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् । भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥

अनुवाद :-

इन्द्र के द्वारा छोड़े जाते हुए वाण से  इस मन्त्र के द्वारा वषाकपि आश करते हैं। कि हे इन्द्र द्वारा छोड़े हुए वाण पर्शु नाम की मृगी थी इस मनु पुत्री पर्ष़शु ने एक साथ बीस पुत्रों को जन्म दिया उसका उदर गर्भ में स्थित बीस पुत्रों से पुष्ट हो गया था। उस पर्शु का कल्याण हो मेरे पिता इन्द्र जगत में सबसे श्रेष्ठ हैं।२३।

सायणभाष्यम्: - मूल संस्कृत रूप-

"यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् ।निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थमहेश्वरम् ॥

अष्टमाष्टकस्य चतुर्थोऽध्याय आरभ्यते । तत्र ‘वि हि ' इति त्रयोविंशत्यृचं द्वितीयं सूक्तम् ।

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वृषाकपिर्नामेन्द्रस्य पुत्रः । स चेन्द्राणीन्द्रश्चैते त्रयः संहताः संविवादं कृतवन्तः । तत्र ‘वि हि सोतोरसृक्षत ' : किं सुबाहो स्वङ्गुरे ' ‘ इन्द्राणीमासु नारिषु ' इति द्वे ‘ उक्ष्णो हि मे ' ' अयमेमि' इति चतस्र इत्येता नवर्च इन्द्रवाक्यानि । अतस्तासामिन्द्र ऋषिः । ‘ पराहीन्द्र ' इति पञ्च ‘ अवीराम् ' इति द्वे ' वृषभो न तिग्मशृङ्गः' इत्याद्याश्चतस्र इत्येकादशर्चं इन्द्राण्या वाक्यानि । अतस्तासामिन्द्राण्यृषिः । ‘ उवे अम्ब ' ‘ वृषाकपायि रेवति ' • पशुर्ह नाम ' इति तिस्रो वृषाकपेर्वाक्यानि । अतस्तासां वृषाकपिर्ऋषिः । सर्वं सूक्तमैन्द्रं पञ्चपदापङ्क्तिच्छन्दस्कम् । तथा चानुक्रान्तं -- वि हि त्र्यधिकैन्द्रो वृषाकपिरिन्द्राणीन्द्रश्च समूदिरे पाङ्तम् ' इति । षष्ठेऽहनि ब्राह्मणाच्छंसिन उक्थ्यशस्त्र एतत्सूक्तम् । सूत्रितं च ---- ‘ अथ वृषाकपिं शंसेद्यथा होताज्याद्यां चतुर्थे ' ( आश्व. श्रौ. ८. ३) इति । यदि षष्ठे:हन्युक्थ्यस्तोत्राणि द्विपदासु न स्तुवीरन् सामगा यदि वेदमहरग्निष्टोमः स्यात्तदानीं ब्राह्मणाच्छंसी माध्यंदिने सवन आरम्भणीयाभ्यः ऊर्ध्वमेतत्सूक्तं शंसेद्विश्वजित्यपि । तथा च सूत्रितं -- सुकीर्तिं ब्राह्मणाच्छंसी वृषाकपिं च पङ्क्तिशंसम् ' (आश्व. श्रौ. ८. ४) इति ।। 

"अनुवादभाष्य :-

 ॥१।।सोतोः =सोमाभिषवं कर्तुं "वि "असृक्षत । यागं प्रति मया विसृष्टा अनुज्ञाताः स्तोतारो= वृषाकपेर्यष्टारः । “हि= इति पूरणः । तत्र "देवं= द्योतमानम् "इन्द्रं मां “न “अमंसत । मया प्रेरिताः सन्तोऽपि ते स्तोतारो न स्तुतवन्तः । किंतु मम पुत्रं वृषाकपिमेव स्तुतवन्तः । "यत्र येषु “पुष्टेषु सोमेन प्रवृद्धेषु यागेषु "अर्यः= स्वामी “वृषाकपिः मम पुत्रः मत्सखा मम सखिभूतः सन् “अमदत् सोमपानेन हृष्टोऽभूत् । यद्यप्येवं तथापि “इन्द्रः अहं "विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगतः "उत्तरः =उत्कृष्टतरः। माधवभट्टास्तु वि हि सोतोरित्येषर्गिन्द्राण्या वाक्यमिति मन्यन्ते। तथा च तद्वचनम् । इन्द्राण्यै कल्पितं हविः कश्चिन्मृगोऽदूदुषदिन्द्रपुत्रस्य वृषाकपेर्विषये वर्तमानः । तत्रेन्द्रमिन्द्राणी वदति । तस्मिन्पक्षे त्वस्या ऋचोऽयमर्थः । सोतोः= सोमाभिषवं कर्तुं वि ह्यसृक्षत। उपरतसोमाभिषवा आसन् यजमाना इत्यर्थः । किंच मम पतिमिन्द्रं देवं नामंसत स्तोतारो न स्तुवन्ति । कुत्रेति अत्राह । यत्र यस्मिन् जनपदे पुष्टेषु प्रवृद्धेषु धनेष्वर्यः स्वामी वृषाकपिरमदत् । मत्सखा मत्प्रियश्चेन्द्रो विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगत उत्तरः उत्कृष्टतरः ।।

"अनुवाद भाष्य :-

॥२।हे “इन्द्र त्वम् "अति {अत्यन्तं “व्यथिः= चलितः "वृषाकपेः =वृषाकपिं “परा “धावसि= प्रतिगच्छसि । "अन्यत्र "सोमपीतये सोमपानाय “नो "अह नैव च “प्र “विन्दसि प्रगच्छसीत्यर्थः । सोऽयम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ।

"अनुवाद भाष्य :-


॥३।हे इन्द्र “त्वां प्रति "हरितः= हरितवर्णः "मृगः= मृगभूतः "अयं वृषाकपिः। मृगजातिर्हि =वृषाकपि। "किं प्रियं "चकार अकार्षीत् । "यस्मै वृषाकपये "पुष्टिमत्= पोषयुक्तं "वसु= धनम् "अर्यो “वा उदार इव स त्वं "नु क्षिप्रम् “इरस्यसीत् प्रयच्छस्येव । यः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

"अनुवाद भाष्य :-


५=“मे मह्यमिन्द्राण्यै “तष्टानि यजमानैः कल्पितानि “प्रिया प्रियाणि “व्यक्ता व्यक्तान्याज्यैर्विशेषेणाक्तानि हवींषि कश्चित् वृषाकपेर्विषये वर्तमानः "कपिः “व्यदूदुषत्= दूषयामास । ततोऽहम् “अस्य तत्कपिस्वामिनो वृषाकपेः “शिरो “नु क्षिप्रं "राविषं लुनीयाम् । "दुष्कृते दुष्टस्य कर्मणः कर्त्रे वृषाकपयेऽस्मै {"सुगं= सुखं} न "भुवम् अहं न भवेयम् । अस्मै सुखप्रदात्री न भवामीत्यर्थः । अस्या मम पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥१।

"अनुवाद :-भाष्य

6-“मत् मत्तोऽन्या "स्त्री नारी "सुभसत्तरा अतिशयेन सुभगा "न "भुवत् न भवति । नास्तीत्यर्थः । किंच मत्तोऽन्या स्त्री "सुयाशुतरा अतिशयेन सुसुखातिशयेन सुपुत्रा वा "न भवति । तथा च मन्त्रान्तरं -- ददाति मह्यं यादुरी =याशूनां =भोज्या शता' (ऋ. सं. १. १२६. ६) इति । किंच “मत् मत्तोऽन्या “प्रतिच्यवीयसी पुमांसं प्रति शरीरस्यात्यन्तं च्यावयित्री “न अस्ति । किंच मत्तोऽन्या स्त्री “सक्थ्युद्यमीयसी संभोगेऽत्यन्तमुत्क्षेप्त्री “न अस्ति । न मत्तोऽन्या काचिदपि नारी मैथुनेऽनुगुणं!

अयं शरारु:) यह घातक  (माम्) मुझको (अवीराम् इव) अबला की भाँति (अभि मन्यते) मानता है ।(वीरिणी अस्मि) वीराङ्गना हूँ (इन्द्रपत्नी) मैं इन्द्र की पत्नी हूँ (मरुत् सखा)  मरुत जिनके मित्र है। (इन्द्रः)  (विश्वस्मात् उत्तर:) संसार में सबसे श्रेष्ठ है।

"अनुवाद :-भाष्य

मुझ इन्द्राणी से दूसरी कोई नारी अत्यन्त सौभाग्य वती नहीं है। मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी अत्यन्त सुखी अथवा सुपुत्रों वाली नहीं है। जैसा कि यह ऋचा कहती है ।६।

"यह बहुत रज वाली रमणी मुझ सुना राजा को बहुत बार भोग( संभोग) प्रदान करती है। मेरे से दूसरी नारी पुरुषो को अत्यधिक रूप से अपना शरीर समर्पित करने वाली नहीं है। मेरी तुलना में दूसरी स्त्री संभोग में अपनी दौंनों जाघों को ऊपर उठाने वाली नहीं है। मेरे पति समस्त जगत में उत्कृष्ट हैं।६।

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वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।

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"इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है!

इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। 

इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है 

इन्द्र शचि से कहता है  कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-

"नाहमिन्द्राणि शरण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते।‘‘

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ब्याज पर उधार में दिए जाने वाली वस्तुओं में स्वर्ण, अन्न और गायों के साथ स्त्रियों का भी उल्लेख आता है। 

सम्भवतः इसी कारण पी0वी0 काणे जी लिखते हैं, ‘‘ऋग्वेद (1.109.12) गलत सन्दर्भ), मैत्रायाणी संहिता (1.10.1), निरूक्त (6.9,1.3) तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.7,10) आदि के अवलोकन से यह विदित होता है कि प्राचीन काल में विवाह के लिए लड़कियों का क्रय-विक्रय होता था।‘‘ 

अथर्ववेदः/ काण्डं २०/सूक्तम् १२६-


अथर्ववेदः - काण्डं २०
सूक्तं २०.१२६
वृषाकपिरिन्द्राणी च।

दे. इन्द्रः। छ. पङ्क्तिः
वृषाकपिसूक्तम्

          (अथर्ववेद  20/126)
वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।
यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१॥

परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः ।
नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२॥

किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः ।
यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥३॥

यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि ।
श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥

प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत्।
शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥

न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत्।
न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥६॥

उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्गं भविष्यति ।
भसन् मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥

किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।
किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥

अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।
उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥९॥

संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।
वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥

इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।
नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥

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नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते ।
यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥

वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे ।
घसत्त इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥

उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंसतिम् ।
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥

वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत्।
मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥

न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्।
सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥

न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते ।
सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥

अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत्।
असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥

अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन् दासमार्यम् ।
पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥

धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।
नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहामुप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥

पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै ।
य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥

यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन ।
क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगं जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥

पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् ।
भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥

_________    

॥७-एवमिन्द्राण्या शप्तो वृषाकपिर्ब्रवीति । “उवे इति संबोधनार्थो निपातः । हे "अम्ब= मातः “सुलाभिके= शोभनलाभे त्वया "यथैव येन प्रकारेणैवोक्तं तथैव तत् "अङ्ग क्षिप्रं "भविष्यति भवतु । किमनेन त्वदनुप्रीतिकारिणा ग्रहेण मम प्रयोजनम् । किंच "मे मम पितुः त्वदीयो “भसत् भग उपयुज्यताम्। किंच मम पितुस्त्वदीयं "सक्थि चोपयुज्यताम् । किंच "मे मम पितरमिन्द्रं त्वदीयं "शिरः च प्रियालापेन “वीव यथा कोकिलादिः पक्षी तद्वत् “हृष्यति हर्षयतु । मम पिता “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः ॥

"अनुवाद :-

इस प्रकार इन्द्राणी के द्वारा बुरा भला कहा गया वृषाकपि कहता है। हे माता ! सुन्दर लाभ में जिस प्रकार तुमने कहा है। वैसा ही अंग शीघ्र हो जाए तुम्हारे इस प्रेम करने में मेरा क्या प्रयोजन है। मेरे पिता के लिये तुम्हारी यौनि  उपयुक्त हो। और मेरे पिता के लिए तुम्हारी जंघा उपयुक्त हो। मेरे पिता को तुम्हारा सिर प्रेमालाप से कोयल आदि पक्षीयों की भाँति  हर्षित करे। मेरे पिता इन्द्र समस्त जगत में उत्तम है।७।

 ।८-क्रुद्धामिन्द्र उपशमयति । हे “सुबाहो हे =शोभनबाहो{ "स्वङ्गुरे= शोभनाङ्गुलिके} “पृथुष्टो पृथुकेशसंघाते “पृथुजघने विस्तीर्णजघने "शूरपत्नि वीरभार्ये हे इन्द्राणि “त्वं "नः अस्मदीयं “वृषाकपिं “किं किमर्थम् "अभ्यमीषि अभिक्रुध्यसि । एकः किंशब्दः पूरणः । यस्य पिता “इन्द्रः अहं “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

"अनुवाद :-

॥९-पुनरिन्द्रमिन्द्राणी ब्रवीति ।“शरारुः= घातुको मृगः “अयं वृषाकपिः “माम् इन्द्राणीम् “अवीरामिव "अभि "मन्यते विजानाति । "उत अपि च “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्या "अहम् इन्द्राणी “वीरिणी पुत्रवती " *मरुत्सखा मरुद्भिर्युक्ता च "अस्मि भवामि ।*

अनुवाद:

“[ इन्द्राणी बोलती है]: यह क्रूर जानवर ( वृशाकापि ) मुझे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में तुच्छ जानता है जिसका कोई नर (रक्षक) नहीं है, और फिर भी मैं नर संतानों की मां हूं, इंद्र की पत्नी हूं , मरुतों की मित्र  ; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।”

सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य (ऋग्वेद 10/86/9)

[इंद्राणी बोलती है]: यह जंगली जानवर (वृषाकपि) मुझे ऐसे तुच्छ समझता है जैसे कि उसका कोई नर (रक्षक) नहीं है, और फिर भी मैं नर संतानों की मां हूं, इंद्र की पत्नी हूं, मरुतों की मित्र हूं; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।

"अनुवाद :-

१०-नारी= स्त्री “ऋतस्य= सत्यस्य "वेधाः= विधात्री “वीरिणी= पुत्रवती “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्येन्द्राणी “संहोत्रं स्म समीचीनं यज्ञं खलु “समनं= संग्रामं “वा। समितिः समनम्' इति संग्रामनामसु पाठात् । "अव प्रति “पुरा “गच्छति । “महीयते स्तोतृभिः स्तूयते च । तस्या मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ २ ॥

"अनुवाद :-

 ॥११-अथेन्द्राणीमिन्द्रः स्तौति । "आसु सौभाग्यवत्तया प्रसिद्धासु "नारिषु स्त्रीषु स्त्रीणां मध्ये “इन्द्राणीं “सुभगां सौभाग्यवतीम् "अहम् इन्द्रः “अश्रवम् अश्रौषम्। किंच “अस्याः इन्द्राण्याः “पतिः पालकः "विश्वस्मात् "उत्तरः उत्कृष्टतरः "इन्द्रः “अपरं “चन अन्यद्भूतजातमिव "जरसा =वयोहान्या ("नहि "मरते न खलु म्रियते )

। यद्वा । इदं वृषाकपेर्वाक्यम् । तस्मिन् पक्षे त्वहमिति शब्दो वृषाकपिपरतया योज्यः । अन्यत्समानम् ॥

"अनुवाद :-

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१३-हे वृषाकपायि । कामानां वर्षकत्वादभीष्टदेशगमनाच्चेन्द्रो वृषाकपिः । तस्य पत्नि । यद्वा । वृषाकपेर्मम मातरित्यर्थः । “रेवति धनवति "सुपुत्रे शोभनपुत्रे "सुस्नुषे शोभनस्नुषे हे इन्द्राणि "ते तवायम्

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"इन्द्रः {"उक्षणः= Oxen सेचन समर्थान् “आदु= अद् भक्षणे) अनन्तरमेव । शीघ्रमेवेत्यर्थः । पशून्- “घसत्= प्राश्नातु । किंच “काचित्करम् । कं= सुखम् । तस्याचित् संघः । तस्करं हविः "प्रियम् इष्टं कुर्विति शेषः । किंच ते पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् “उतरः । तथा च यास्कः - ‘ वृषाकपायि रेवति सुपुत्रे मध्यमेन {सुस्नुषे}  पुत्रवधू-

माध्यमिकया वाचा । स्नुषा साधुसादिनीति वा साधुसानिनीति वा । प्रियं कुरुष्व सुखाचयकरं हविः सर्वस्माद्य इन्द्र उत्तरः' (निरु. १२, ९) इति

"अनुवाद :-कामनाओं की वर्षा करने से वृषभ अभीष्टदेश को जाने से इन्द्र वृषाकपि है। हे धनवाली और उत्तम पुत्र वाली और पुत्र वधू वाली शचि ! तुम्हारे ये पति इन्द्र वीर्य दान करने नें समर्थ पशु ( बैल) को शीघ्र खाऐं। और तुम्हें सुख कर हवि प्रदान करें । तुम्हारे पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।१३ ।

॥१४-अथेन्द्रो ब्रवीति । “मे =मदर्थं “पञ्चदश पञ्चदशसंख्याकान् “विंशतिं= विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः= वृषभान् "साकं= सह मम भार्ययेन्द्राण्या। प्रेरिता यष्टारः "पचन्ति =। “उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि । जग्ध्वा चाहं "पीव =“इत स्थूल एव भवामीति शेषः । किंच "मे मम “उभा= उभौ “कुक्षी “पृणन्ति= सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः ॥

इसके बाद इन्द्र कहता है।  मेरी पत्नी इन्द्राणी द्वारा भेजे हुए याज्ञिक   पन्द्रह से बीस बैलों( वृषभों) को एक साथ पकाते हैं। और उन्हें  मैं  इन्द्र खाता हूँ । तथा उन्हें खाकर मोटा होता हूँ।मेरी मैंने कोशों को यज्ञ करने वाले सोम रस से भरते हैं। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१४।

१५-अथेन्द्राणी ब्रवीति ।"{तिग्मशृङ्गः =तीक्ष्णशृङ्गः शेप: वा} "वृषभो "न यथा वृषभः "यूथेषु गोसंघेषु “अन्तः =मध्ये “रोरुवत्= शब्दं कुर्वन् गा अभिरमयति- (मैथुन करोति) तथा हे इन्द्र त्वं मामभिरमय इति शेषः । किंच “हे इन्द्र "ते =तव "हृदे हृदयाय "मन्थः =दध्नो मथनवेलायां शब्दं कुर्वन् “शं शंकरो भवत्विति शेषः । किंच "ते तुभ्यं "यं सोमं “भावयुः भावमिच्छन्तीन्द्राणी “सुनीति अभिषुणोति सोऽपि शंकरो भववित्यर्थः । मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥१५ ॥

"अनुवाद :-

इसके बाद इन्द्राणी कहती है कि हे  इन्द्र! जैसे तेज लिंग या सींगों वाला वृषभ गायों के समूह के बीच  में आवाज करता हुआ प्रसन्न होता है। वैसे ही तुम मेरे साथ रमण( सैक्स ) करो । तुम्हारे हृदय के लिए दधिमन्थन के सयय में शब्द करता हुआ  कल्याण कारी हो। तुम्हारे लिए इन्द्राणी भावाभिलाषिणी जिस सोम को अभिषुत करती है। वह सोम भी कल्याण कारी हो । मेरे पति समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१५।

१६- हे इन्द्र "सः जनः “न “ईशे मैथुनं कर्तुं नेष्टे न शक्नोति "यस्य जनस्य “कपृत् =शेपः “सक्थ्या= सक्थिनी “अन्तरा "रम्बते= लम्बते । "सेत् स एव स्त्रीजने “ईशे =मैथुनं कर्तुं शक्नोति “यस्य जनस्य “निषेदुषः शयानस्य "रोमशम् उपस्थं "=विज़म्भते विवृतं भवति । यस्य च पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् “उत्तरः ॥

अश्लील अर्थ-

"अनुवाद :-

हे इन्द्र वह मनुष्य  कभी मैथुन नहीं कर सकता  , जिस पुरुष का लिंग जंघाओं के बीच में लम्बा होकर लटक जाता है। वही पुरुष स्त्री के साथ मैथुन कर सकता है  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग विस्तृत हो जाता है। इन्द्राणी का पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१६।

न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥

(अथर्ववेद में भी  - काण्ड » 20; सूक्त » 126; ऋचा » 16 है।

सः) वह पुरुष (न ईशे) ऐश्वर्यवान् नहीं होता है, (यस्य) जिसका (कपृत्) लिंग (सक्थ्या अन्तरा) दोनों जंघाओं के बीच (रम्बते) नीचे लटकता है, (सः इत्) वही पुरुष (ईशे) ऐश्वर्यवान् होता है, (यस्य निषेदुषः) जिस बैठे हुए  हुए]पुरुष का (रोमशम्) रोमवाला लिंग।(विजृम्भते) जम्हाई लेता है फैलता है, (इन्द्रः) इन्द्र (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१६॥

सक्थि= उरु( जाँघ) (सज्यते इति । सन्ज सङ्गे + “ असिसञ्जिभ्यां क्थिन् ।  “ उणा० ३ । १५४ । क्थिन् । )  ऊरुः ।  इत्यमरः कोश ॥  (यथा   मार्कण्डेये ।  १८ ।  ४९ । “ नृणां पदे स्थिता लक्ष्मीर्निलयं संप्रयच्छति । सक्थ्नोश्च संस्थिता वस्त्रं तथा नानाविधं वसु ॥ ) शकटावयवविशेषः । इत्युणादिकोषः ॥

सक्थि शब्द यूरोपीय तथा ईरानी ईराकी भाषाओं में भी है।

Etymology-

From Proto-Indo-Iranian *sáktʰiš,(सक्थि) from Proto-Indo-European *sokʷHt-i-s (“thigh”). Cognate with Avestan 𐬵𐬀𐬑𐬙𐬌‎ (haxti, “thigh”), Old Armenian ազդր (azdr), Middle Persian [script needed] (h(ʾ)ht' /⁠haxt⁠/, “thigh”), Ossetian агъд (aǧd), Hittite [Term?] (/⁠šakuttai⁠/).

Noun-

सक्थि  (sákthin

  1. the thigh, thigh-bone quotations 
  2. the pole or shafts of a cart
  3. (euphemistic, in the dual) the female genitals quotations 

Declension-

Neuter i-stem declension of सक्थि (sákthi)

Further reading

कपृत्- लिंग![संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग "लिंग।"
 < रोमश[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, नपुंसकलिंग"वल्व =गर्भे (उल्व- यौनि भग)
"अनुवाद :-वह मनुष्य मैथुन नहीं कर सकता  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग लटक जाता है।किन्तु वही मनुष्य मैथुन कर सकता है जिस मनुष्य का लिंग जंघाओं के बीच में  अकड़ता जम्हाई लेता है।

शेष अर्थ पूर्ववत् है। यहाँ पूर्वोक्त का अन्तर  देखने योग्य है। पहली ऋचा में इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। और उस दूसरी ऋचा में इन्द्र इन्द्राणी से कहता है। इस प्रकार दौंनों में कोई विरोध नहीं है।१७। कामशास्त्र की खुलकर वार्ता है।

अर्थ:- (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे इन्द्र  (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार  (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही (यस्य कपृत्) जिसका लिंग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों  जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता लटकता है (स-इत्-ईशे) वह ही समर्थ होता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला लिंग  विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह मैथुन  नहीं कर सकता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमोंवाला अङ्ग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर -जङ्घाओं के बीच में लिंग विजृम्भित होता है, वह ही स्त्रीयोंपर अधिकार कर पाता  है ॥१७॥

शृङ्गं हि मन्मथोद्भेदस्तदागमनहेतुकः । उत्तमप्रकृतिप्रायो रसः शृङ्गार इष्यते ॥

शृङ्ग= न॰ शॄ--गन् पृषो॰ मुम् ह्रस्वश्च।
१ पर्वतोपरिभागेसातौ अमरः कोश।
२ प्रभुत्वे
३ चिह्ने
४ जलक्रीडार्थयन्त्रभेदे(पिचकारी) लिङ्गे च। यूरोपीय  रूप सिरञ्ज- syringe से साम्य-
५ पश्वादीनां विषाणे (शृङ्गा)
६ उत्कर्षे चमेदि॰।
७ ऊर्ये
८ तीक्ष्णे
९ पद्मे च शब्दर॰
१० महिष- शृङ्गनिर्मितवाद्यभेदे (शिङ्ग)
११ कामोद्रेके साहित्यदर्पण- शृङ्गार शब्दे दृश्यम्।
१२ कूर्चशीर्षकवृक्षे पु॰ मेदिनीकोश।

syringe (noun) (latin-suringa)  (Greek-syringa,)

सिरिंज (संज्ञा) संकीर्ण ट्यूब," जो"तरल  धारा इंजेक्ट करने के लिए 15-वीं सदी की शुरुआत में.प्रयोग होता था (पहले यह  सुरिंगा, 14वीं सदी के अंत में था), जो लेट लैटिन के (सिरिंज,)(श्रृंगा-) से ग्रीक के  (सिरिंज,) सिरिंक्स से आया।

"ट्यूब, होल, चैनल, शेफर्ड पाइप," सिरिजिन से संबंधित "पाइप, सीटी, फुसफुसाहट के लिए" ,'' श्रृँग - सींग -से सम्बन्धित हैं।

१८ हे  “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं= हिंसितं “विदत् =विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं =शस्त्रं "सूनाम्= उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं =भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “{एधस्य काष्ठस्य} “आचितं पूर्णम् "अनः =शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

बैल पकाने का जिक्र-

−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-है।(परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्)  नव अन्न हवि को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः) जलाने के लिये ईंधन के भरे शकट-छकड़े को इन हत्या के साधनों को अपने अधीन कर लिया, ॥१८॥

______________________

"अनुवाद : भाष्य-

 ॥१९-अथेन्द्रो ब्रवीति । "विचाकशत् पश्यन् यजमानान् “दासम्= उपक्षपयितारम् {सुरम्= "आर्यम् }अपि च "विचिन्वन् = पृथक्कुर्वन् "अयम् अहमिन्द्रः “एमि= यज्ञं प्रति गच्छामि। यज्ञं गत्वा च “पाकसुत्वनः । पचतीति =पाकः । सुनोतीति =सुत्वा । हविषां पक्तुः सोमस्याभिषोतुर्यजमानस्य पाकेन विपक्वेन मनसा सोमस्याभिषोतुर्वा यजमानस्य संबन्धिनं सोमं "पिबामि । तथा “धीरं धीमन्तं यजमानम् "अभि "अचाकशम्= अभिपश्यामि । योऽहम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः॥

"अनुवाद :-भाष्य-

॥२०"धन्व निरुदकोऽरण्यरहितो देशः । "कृन्तत्रं कर्तनीयमरण्यम् । "यत् यत् "च “धन्व "च कृन्तत्रं च भवति । मृगोद्वासमरण्यमेवंविधं भवति न त्वत्यन्तविपिनम् । तस्य शत्रुनिलयस्यास्मदीयगृहस्य च मध्ये "कति "स्वित् “ता तानि “योजना योजनानि स्थितानि । नात्यन्तदूरे तद्भवतीत्यर्थः । अतः "नेदीयसः अतिशयेन समीपस्थाच्छत्रुनिलयात् हे "वृषाकपे त्वम् "अस्तम् अस्माकं गृहं “वि “एहि विशेषेणागच्छ । आगत्य च "गृहान् यज्ञगृहान् "उप गच्छ । यतोऽहम् "इन्द्रः सर्वस्मादुत्कृष्टः ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२१-आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२२-गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र= परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन =आगच्छ ।

एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् =अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः-- ‘यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२३-इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । ("पर्शुः "नाम मृगी) । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं= सह "ससूव= अजीजनत् । "त्यस्यै =तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् =भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या

 "उदरमामयत्= गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

Yima (Yama) – the first mortal king to have ruled. He was favored by the gods and given supernatural powers. When the population grew too large, he enlarged the world and also saved the world when the gods informed him a bitter winter was coming and he enclosed animals, vegetation, and seeds in a giant barn (a tale preceding the biblical narrative of Noah and his Ark) to preserve life. He fell from divine grace when he began to think more highly of himself than he should have. Even so, for his virtuous service, he was made Lord of the Dead, and the afterlife was initially known as Yima's Realm.


Jamshid (Jam, Yima Kshaeta) – the fourth king of the world who brought civilization to its greatest height, initiated the construction of cities, established social hierarchy, and introduced winemaking. According to one part of his legend, Jamshid banished a woman of his harem who, in attempting to commit suicide afterwards, drank a bottle of fermented grape juice thinking it was poison. When she found it produced pleasing sensations, she brought the rest to Jamshid who reinstated her and decreed that grapes should be used in making wine.

Indar – the early god of courage, bravery, heroism, and warfare.

Indra – the demon of apostasy who encouraged the abandonment of religious practice and true faith.

Haoma सोम:– god of the harvest, health, strength, and vitality; personification of the haoma plant whose juices brought enlightenment and of which Gaokerena was the greatest and largest.

Daevas व- – the mostly male demons in the service of Angra Mainyu who spread lies and disorder in the world. They are the sworn enemies of the Amesha Spentas and all that is good and work closely with the drujs who are mostly female demons.

Dev – demon of war and the terror of war, one of the most powerful daevas, completely lacking in morality or compassion.

Atar अत्रि- – the god of fire who is also the personification of fire and physically present when fires are lighted. He is associated with light, righteousness, and purity.


२१-आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२२-गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र= परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन =आगच्छ ।

एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् =अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः---- ‘ यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२३-इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । ("पर्शुः "नाम मृगी) । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं= सह "ससूव= अजीजनत् । "त्यस्यै =तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् =भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या

 "उदरमामयत्= गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

Yima (Yama) – the first mortal king to have ruled. He was favored by the gods and given supernatural powers. When the population grew too large, he enlarged the world and also saved the world when the gods informed him a bitter winter was coming and he enclosed animals, vegetation, and seeds in a giant barn (a tale preceding the biblical narrative of Noah and his Ark) to preserve life. He fell from divine grace when he began to think more highly of himself than he should have. Even so, for his virtuous service, he was made Lord of the Dead, and the afterlife was initially known as Yima's Realm.


Jamshid (Jam, Yima Kshaeta) – the fourth king of the world who brought civilization to its greatest height, initiated the construction of cities, established social hierarchy, and introduced winemaking. According to one part of his legend, Jamshid banished a woman of his harem who, in attempting to commit suicide afterwards, drank a bottle of fermented grape juice thinking it was poison. When she found it produced pleasing sensations, she brought the rest to Jamshid who reinstated her and decreed that grapes should be used in making wine.

Indar – the early god of courage, bravery, heroism, and warfare.

Indra – the demon of apostasy who encouraged the abandonment of religious practice and true faith.

Haoma सोम:– god of the harvest, health, strength, and vitality; personification of the haoma plant whose juices brought enlightenment and of which Gaokerena was the greatest and largest.

Daevas व- – the mostly male demons in the service of Angra Mainyu who spread lies and disorder in the world. They are the sworn enemies of the Amesha Spentas and all that is good and work closely with the drujs who are mostly female demons.

Dev – demon of war and the terror of war, one of the most powerful daevas, completely lacking in morality or compassion.

Atar अत्रि- – the god of fire who is also the personification of fire and physically present when fires are lighted. He is associated with light, righteousness, and purity.


 
 हित्ती पौराणिक कथा - , हुर्रियन और हित्ती प्रभावों का मिश्रण है । मेसोपोटामिया( ईरान ईराॐ और कनानी प्रभाव हुर्रियन पौराणिक कथाओं के माध्यम से अनातोलिया की पौराणिक कथाओं में प्रवेश करता हैं। हित्ती निर्माण मिथक क्या रहा होगा, इसका कोई ज्ञात विवरण नहीं है, लेकिन विद्वानों का अनुमान है कि हिट्टियन मातृ देवी, जिसे नवपाषाण स्थल कैटालहोयुक से ज्ञात "महान देवी" अवधारणा से जुड़ा माना जाता है , अनातोलियन तूफान की पत्नी हो सकती है। भगवान (जो थोर , इंद्र और ज़ीउस जैसी अन्य परंपराओं के तुलनीय देवताओं से संबंधित माना जाता है )।

यूरोपीय पुरातन कथाओं में इन्द्र को "एण्ड्रीज" (Andreas) के रूप में वर्णन किया गया है । जिसका अर्थ होता है शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ।

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Andreas - son of the river god peneus and founder of orchomenos in Boeotia।

Andreas Ancient Greek - German was the son of river god peneus in Thessaly from whom the district About orchomenos in Boeotia was called Andreas in Another passage pousanias speaks of Andreas( it is , however uncertain whether he means the same man as the former) as The person who colonized the island of Andros .... 

अर्थात् इन्द्र थेसिली में एक नदी देव पेनियस का पुत्र था । जिससे एण्ड्रस नामक द्वीप नामित हुआ 

पेनिस - लिंगेन्द्रीय का वाचक है। _____________________________

"डायोडॉरस के अनुसार .." ग्रीक पुरातन कथाओं के अनुसार एण्ड्रीज (Andreas) रॉधामेण्टिस (Rhadamanthys) से सम्बद्ध था । रॉधमेण्टिस ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र और मिनॉस (मनु) का भाई था । 

ग्रीक पुरातन कथाओं में किन्हीं विद्वानों के अनुसार एनियस (Anius) का पुत्र एण्ड्रस( Andrus) के नाम से एण्ड्रीज प्रायद्वीप का नामकरण करता है।

जो अपॉलो का पुजारी था  परन्तु पूर्व कथन सत्य है । ग्रीक भाषा में इन्द्र शब्द का अर्थ शक्ति-शाली पुरुष है । जिसकी व्युत्पत्ति- ग्रीक भाषा के ए-नर (Aner) शब्द से हुई है ।

जिससे एनर्जी (energy) शब्द विकसित हुआ है। संस्कृत भाषा में{ अन् =श्वसने प्राणेषु च }के रूप में  वैदिक कालीन धातु विद्यमान है ।

जिससे प्राण तथा अणु जैसे शब्दों का विकास हुआ है।

कालान्तरण में वैदिक भाषा में नर शब्द भी इसी रूप से व्युत्पन्न हुआ .... वेल्स भाषा में भी नर व्यक्ति का वाचक है । फ़ारसी मे नर शब्द तो है ।

परन्तु इन्द्र शब्द नहीं है  इनदर है। वेदों में इन्द्र को वृत्र का शत्रु बताया है।यह सर्व विदित है।

वृत्र को केल्टिक माइथॉलॉजी मे (ए-बरटा) ( Abarta ) कहा है । जो वहाँ दनु और त्वष्टा परिवार का सदस्य है । 

इन्द्रस् देवों का नायक अथवा यौद्धा था ।

भारतीय पुरातन कथाओं में त्वष्टा को इन्द्र का पिता बताया है।

 शम्बर को ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के सूक्त १४ / १९ में कोलितर कहा है पुराणों में इसे दनु का पुत्र कहा है । जिसे इन्द्र मारता है । ऋग्वेद में इन्द्र पर आधारित २५० सूक्त हैं । यद्यपि कालान्तरण में सुरों के नायक को ही इन्द्र उपाधि प्राप्त हुई ।

अत: कालान्तरण में भी जब देवोपासक  भू- मध्य रेखीय भारत भूमि में आये ... जहाँ भरत अथवा वृत्र की अनुयायी व्रात्य ( वारत्र )नामक जन जाति पूर्वोत्तरीय स्थलों पर निवास कर रही थी।

 भारत में भी यूरोप से आगत सुरों की सांस्कृतिक मान्यताओं में भी स्वर्ग उत्तर में है । और नरक दक्षिण में है ।

स्मृति रूप में अवशिष्ट रहीं ... और विशेष तथ्य यहाँ यह है कि नरक के स्वामी यम हैं यह मान्यता भी यहीं से मिथकीय रूप में स्थापित हुई ।

नॉर्स माइथॉलॉजी के ग्रन्थ प्रॉज-एड्डा में नारके का अधिपति यमीर को बताया गया है। 

यमीर यम ही यूरोपीय रूपान्तरण है । हिम शब्द संस्कृत में यहीं से विकसित है यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में हीम( Heim) शब्द हिम के लिए आज भी यथावत है। 

नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में यमीर (Ymir) Ymir is a primeval being , who was born from venom that dripped from the icy - river earth from his flesh and from his blood the ocean , from his bones the hills from his hair the trees from his brains the clouds from his skull the heavens from his eyebrows middle realm in which mankind lives" _______________________________

 (Norse mythology prose adda) अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है। यह हिम नद से उत्पन्न , नदी और समुद्र का अधिपति हो गया । पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए .. ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी । वहाँ यम को यम रूप में ही नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है। 

जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है, यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी 

बाल्टिक सागर के तट वर्ती प्रदेशों पर दीर्घ काल तक क्रीडाऐं करते रहे .

पश्चिमी बाल्टिक सागर के तटों पर इन्हीं देव संस्कृति के अनुयायीयों ने मध्य जर्मन स्केण्डिनेवीया द्वीपों से उतर कर बोल्गा नदी के द्वारा दक्षिणी रूस .त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर प्रवास किया आर्यों के प्रवास का सीमा क्षेत्र बहुत विस्तृत था । आर्यों की बौद्धिक सम्पदा यहाँ आकर विस्तृत हो गयी थी ।

मनुः जिसे जर्मन आर्यों ने मेनुस् (Mannus) कहा आर्यों के पूर्व - पिता के रूप में प्रतिष्ठित थे ! मेन्नुस mannus( थौथा) (त्वष्टा)--(Thautha ) की प्रथम सन्तान थे ! 

मनु के विषय में रोमन लेखक टेकिटस (tacitus) के अनुसार---- Tacitus wrote that mannus was the son of tuisto and The progenitor of the three germanic tribes ---ingeavones--Herminones and istvaeones .... ____________________________________ in ancient lays, their only type of historical tradition they celebrate tuisto , a god brought forth from the earth they attribute to him a son mannus, the source and founder of their people and to mannus three sons from whose names those nearest the ocean are called ingva eones , those in the middle Herminones, and the rest istvaeones some people inasmuch as anti quality gives free rein to speculation , maintain that there were more tribal designations- Marzi, Gambrivii, suebi and vandilii-__and that those names are genuine and Ancient Germania ____________________________________________

Chapter 2 ग्रीक पुरातन कथाओं में मनु को मिनॉस (Minos)कहा गया है । जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र तथा क्रीट का प्रथम राजा था । जर्मन जाति का मूल विशेषण डच (Dutch) था । जो त्वष्टा नामक इण्डो- जर्मनिक देव ही है ।

 टेकिटिस लिखता है , कि Tuisto ( or tuisto) is the divine encestor of German peoples...... ट्वष्टो tuisto---tuisto--- शब्द की व्युत्पत्ति- भी जर्मन भाषाओं में *Tvai----" two and derivative *tvis --"twice " double" thus giving tuisto--- The Core meaning -- double अर्थात् द्वन्द्व -- अंगेजी में कालान्तरण में एक अर्थ द्वन्द्व- युद्ध (dispute / Conflict )भी होगया यम और त्वष्टा दौनों शब्दों का मूलत: एक समान अर्थ था इण्डो-जर्मनिक संस्कृतियों में  मिश्र की पुरातन कथाओं में त्वष्टा को (Thoth) अथवा tehoti ,Djeheuty कहा गया जो ज्ञान और बुद्धि का अधिपति देव था । ____________________________________

आर्यों में यहाँ परस्पर सांस्कृतिक भेद भी उत्पन्न हुए विशेषतः जर्मन आर्यों तथा फ्राँस के मूल निवासी गॉल ( Goal ) के प्रति जो पश्चिमी यूरोप में आवासित ड्रूयूडों की ही एक शाखा थी l जो देवता (सुर ) जर्मनिक जन-जातियाँ के थे लगभग वही देवता ड्रयूड पुरोहितों के भी थे । यही ड्रयूड( druid ) भारत में द्रविड कहलाए 

इन्हीं की उपशाखाऐं  वेल्स (wels) केल्ट (celt )तथा ब्रिटॉन (Briton )के रूप थीं जिनका तादात्म्य (एकरूपता ) भारतीय जन जाति क्रमशः भिल्लस् ( भील ) किरात तथा भरतों से प्रस्तावित है ये भरत ही व्रात्य ( वृत्र के अनुयायी ) कहलाए आयरिश अथवा केल्टिक संस्कृति में वृत्र  का रूप अवर्टा ( Abarta ) के रूप में है यह एक देव है। जो थौथा (thuatha) (जिसे वेदों में त्वष्टा कहा है !) और दि - दानन्न ( वैदिक रूप दनु ) की सन्तान है .

Abarta an lrish / celtic god amember of the thuatha त्वष्टाः and De- danann his name means = performer of feats अर्थात् एक कैल्टिक देव त्वष्टा और दनु परिवार का सदस्य वृत्र या Abarta जिसका अर्थ है कला या करतब दिखाने बाला देव यह अबर्टा ही ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटों Briton का पूर्वज और देव था इन्हीं ब्रिटों की स्कोट लेण्ड ( आयर लेण्ड ) में शुट्र--- (shouter )नाम की एक शाखा थी , जो पारम्परिक रूप से वस्त्रों का निर्माण करती थी ।

 वस्तुतःशुट्र फ्राँस के मूल निवासी गॉलों का ही वर्ग था , जिनका तादात्म्य भारत में शूद्रों से प्रस्तावित है , ये कोल( कोरी) और शूद्रों के रूप में है ।

जो मूलत: एक ही जन जाति के विशेषण हैं एक तथ्य यहाँ ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में जर्मन आर्यों और गॉलों में केवल सांस्कृतिक भेद ही था जातीय भेद कदापि नहीं ।

 क्योंकि आर्य शब्द का अर्थ यौद्धा अथवा वीर होता है । यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में इसका यही अर्थ है । 

बाल्टिक सागर से दक्षिणी रूस के पॉलेण्ड त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर बॉल्गा नदी के द्वारा कैस्पियन सागर होते हुए भारत ईरान आदि स्थानों पर इनका आगमन हुआ । 

आर्यों के ही कुछ क़बीले इसी समय हंगरी में दानव नदी के तट पर परस्पर सांस्कृतिक युद्धों में रत थे ।

भरत जन जाति यहाँ की पूर्व अधिवासी थी संस्कृत साहित्य में भरत का अर्थ जंगली या असभ्य किया है। 

और भारत देश के नाम करण कारण यही भरत जन जाति थी ।भारतीय प्रमाणतः जर्मन आर्यों की ही शाखा थे जैसे यूरोप में पाँचवीं सदी में जर्मन के ऐंजीलस कबीले के आर्यों ने ब्रिटिश के मूल निवासी ब्रिटों को परास्त कर ब्रिटेन को एञ्जीलस - लेण्ड अर्थात् इंग्लेण्ड कर दिया था और ब्रिटिश नाम भी रहा जो पुरातन है ।

इसी प्रकार भारत नाम भी आगत आर्यों से पुरातन है दुष्यन्त और शकुन्तला पुत्र भरत की कथा बाद में जोड़ दी गयी जैन साहित्य में एक भरत ऋषभ देव परम्परा में थे। जिसके नाम से भारत शब्द बना।

इस लिए द्रविड और शूद्र शब्द भी यूरोपीय मूल के हैं। आर्य द्रविड और शूद्र थ्योरी सत्यनिष्ठ नहीं है।

मध्य-एशिया के अधिकतर लोग संस्कृत भाषा बोलने लगे.

संस्कृत बोलने वाले सीरिया के इस साम्राज्य के बारे में पहले जानते थे।

इंडो-आर्यन परम्परा में . इन्द्र नाम की सबसे पुरानी तारीख़ी घटना 14-वीं सदी ईसापूर्व की बोगाज़कोय की प्रसिद्ध हित्ती-मितानी संधि में है। हां मितन्नी( मितज्ञु) दैवीय गवाहों के रूप में मित्र-वरुण, इंद्र और नासत्य का आह्वान करते हैं 

यह सन्देश कीलाक्षर लिपि में है। जो उस समय सुमेर की लिपि थी।

मितन्नी "एमोराइट-(मरुत) तथा हित्ती ये सुमेरियन जातियाँ थी।

यदु और तुर्वसु को जब पुरोहितों ने नहीं छोड़ा तो उनके वंशज कृष्ण को कैसे छोड़ के।

वेदों में यदु और तुर्वसु का नकारात्मक वर्णन-
स॒त्यं तत्तु॒र्वशे॒ यदौ॒ विदा॑नो अह्नवा॒य्यं ।  व्या॑नट् तु॒र्वणे॒ शमि॑ ॥२७।
(ऋग्वेद 8/45/27) 
(पद-पाठ)
स॒त्यम् । तत् । तु॒र्वशे॑ । यदौ॑ । विदा॑नः । अ॒ह्न॒वा॒य्यम् ।
वि । आ॒न॒ट् । तु॒र्वणे॑ । शमि॑ ॥२७।।
(सायण-भाष्य)
“तुर्वशे राज्ञि “यदौ च यदुनामके च राज्ञि “तत् प्रसिद्धं यागादिलक्षणं “शमि कर्म  शची शमी' इति कर्मनामसु पाठात् । "सत्यं परमार्थं "विदानः जानंस्तयोः प्रीत्यर्थम् अह्नवाय्यम् अह्नवाय्यनामकं तयोः शत्रुं 
“तुर्वणे= संग्रामे “व्यानट्= व्याप्तवान् ।।
(पद का अर्थान्वय)
_________
अग्निना । तुर्वशम् । यदुम् । पराऽवतः । उग्रऽदेवम् । हवामहे ।   अग्निः । नयत् । नवऽवास्त्वम् । बृहत्ऽरथम् । तुर्वीतिम् । दस्यवे । सहः ॥१८।।
(सायण-भाष्य)
“अग्निना सहावस्थितान् तुर्वशनामकं यदुनामकम् उग्रदेवनामकं च राजर्षीन् "परावतः =दूरदेशात् "हवामहे =आह्वयामः ।                                  स च "अग्निः नववास्तुनामकं बृहद्रथनामकं तुर्वीतिनामकं च राजर्षीन् "नयत्= इहानयतु । कीदृशोऽग्निः ।                                       "दस्यवे "सहः अस्मदुपद्रवहेतोश्चोरस्याभिभविता ॥{ नयत् । ‘णीञ् प्रापणे'। लेटि अडागमः  इतश्च लोपः' इति इकारलोपः  } नववास्त्वम् । नवं वास्तु यस्यासौ नववास्तुः । ‘ वा छन्दसि' इत्यनुवृत्तेः अमि पूर्वत्वाभावे यणादेशः । बृहद्रथम् । बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥
________________________________
प्रियासः । इत् । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नरः । मदेम । शरणे । सखायः । नि । तुर्वशम् । नि । याद्वम् । शिशीहि । अतिथिऽग्वाय । शंस्यम् । करिष्यन् ॥८।
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
 हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान 
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण  करने वाले उनका नाश करने  बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 
(ऋग्वेद-7/19 /8)

हे "मघवन्= धनवन्निन्द्र “ते =तव "अभिष्टौ =अभ्येषणे "नरः =स्तोत्राणां नेतारो वयं "सखायः समानख्यातयः “प्रियासः =प्रियाश्च सन्तः “शरणे ="इत् गृह एव “मदेम= मोदेम ।                    किञ्च “अतिथिग्वाय । पूजयातिथीन् गच्छतीत्यतिथिग्वः । 

तस्मै सुदासे दिवोदासाय= वास्मदीयाय राज्ञे “शंस्यं= शंसनीयं सुखं "करिष्यन् =कुर्वन् 
"तुर्वशं राजानं "नि "शिशीहि =वशं कुरु । "याद्वं च राजानं “नि शिशीहीत्यर्थः ॥

सायण-भाष्यम् :-
तृतीयेऽनुवाके सप्त सूक्तानि । तत्र ‘अया वीती' इति त्रिंशदृचं प्रथमं सूक्तम् । अमहीयुर्नामाङ्गिरस ऋषिः । गायत्री छन्दः । पवमानः सोमो देवता । तथा चानुक्रान्तम्- अया वीती त्रिंशदमहीयुः' इति । उक्तो विनियोगः ॥

अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इंदो॒ मदे॒ष्वा ।अ॒वाह॑न्नव॒तीर्नव॑ ॥१।।
पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।
(ऋग्वेद9/61/1-2)

हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था। उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।

शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।
पदपाठ-
अ॒या । वी॒ती । परि॑ । स्र॒व॒ । यः । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । मदे॑षु । आ ।
अ॒व॒ऽअह॑न् । न॒व॒तीः । नव॑ ॥१।।

(सायण-भाष्य)
हे “इन्दो= सोम “अया =अनेन रसेन “वीती= वीत्या इन्द्रस्य भक्षणाय “परि “स्रव =परिक्षर । कीदृशेन रसेनेत्यत आह । “ते= तव “यः रसः “मदेषु= संग्रामेषु “नवतीर्नव इति नवनवतिसंख्याकाश्च शत्रुपुरीः “अवाहन =जघान  अमुं सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्र उक्तलक्षणाः शत्रुपुरीर्जघानेति कृत्वा रसो जघानेत्युपचारः ॥

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पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।

पुरः॑ । स॒द्यः । इ॒त्थाऽधि॑ये । दिवः॑ऽदासाय । शम्ब॑रम् ।
अध॑ । त्यम् । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् ॥२।
(पद का अर्थान्वय)
 (इत्थाधिये दिवोदासाय) दिवोदास के लिए(शम्बरम्) शम्बर को (त्यम् तुर्वशम् यदुम्) और यदु और तुर्वसु को (अध) (पुरः) पुर को ध्वंसन करो ॥२॥

(ऋग्वेद -9/61/1-2)

“सद्यः एकस्मिन्नेवाह्नि “पुरः =शत्रूणां पुराणि सोमरसोऽवाहन् । “इत्थाधिये सत्यकर्मणे “दिवोदासाय राज्ञे “शम्बरं शत्रुपुराणां स्वामिनम् "अध अथ =“त्यं तं “तुर्वशं तुर्वशनामकं राजानं दिवोदासशत्रुं “यदुं यदुनामकं राजानं च वशमानयञ्च । 

अत्रापि सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्रः सर्वमेतदकार्षीदिति सोमरसे कर्तृत्वमुपचर्यते ॥

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।  वह भी गोपों के रूप में सम्भवत: वैदिक सन्दर्भ में दास - दाता का वाचक रहा परन्तु लोकिक संस्कृत में दास पराधीन और गुलाम का वाचक रहा जो शूद्र वर्ण में सम्मिलित किए गये।

" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी   " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 

(ऋग्वेद १०/६२/१०)

यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।

प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ   नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि   अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा

सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७

हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन (शमन) कर डाला ।

अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।

“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है 

किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/

हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । 
तुम मुझे क्षीण न करो 

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शतमहं तिरिन्दिरे सहस्रं पर्शावा ददे ।
राधांसि याद्वानाम् ॥४६॥(ऋग्वेद ८/६/४६)

(सायण-भाष्य)
इदमादिकेन तृचेन तिरिन्दिरस्य राज्ञो दानं स्तूयते । “पर्शौ परशुनाम्नः पुत्रे । उपचारज्जन्ये जनकशब्दः । “तिरिन्दिरे एतत्संज्ञे राजनि “याद्वानाम् । यदुरिति मनुष्यनाम । यदव एव याद्वाः । स्वार्थिकस्तद्धितः । तेषां मध्ये “अहं “शतं शतसंख्याकानि “सहस्रं सहस्रसंख्याकानि च “राधांसि धनानि “आ “ददे स्वीकरोमि । यद्वा । याद्वानां यदुकुलजानामन्येषां राज्ञां स्वभूतानि राधांसि बलादपहृतानि तिरिन्दिरे वर्तमानान्यहं प्राप्नोमि ।।

त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ।
ददुष्पज्राय साम्ने ॥४७॥ऋग्वेद ८/६/
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त्रीणि॑ श॒तान्यर्व॑तां स॒हस्रा॒ दश॒ गोना॑म् ।
द॒दुष्प॒ज्राय॒ साम्ने॑ ॥४७।।

सायण-भाष्य-
पूर्वस्यामृचि स्वसंप्रदानकं दानमुक्तम् । अधुनान्येभ्योऽप्यृषिभ्यस्तिरिन्दिरो बहु धनं दत्तवानित्याह । 

“अर्वतां गन्तॄणामश्वानां “त्रीणि "शतानि "गोनां गवां “दश दशगुणितानि "सहस्रा सहस्राणि च "पज्राय स्तुतीनां प्रार्जकाय “साम्ने एतत्संज्ञायर्षये । यद्वा । साम्ने । साम स्तोत्रम् । तद्वते पज्राय पज्रकुलजाताय कक्षीवते । “ददुः तिरिन्दिराख्या राजानो दत्तवन्तः ।।

उदानट् ककुहो दिवमुष्ट्राञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ॥४८॥(ऋग्वेद ८/६/४८)

उत् । आ॒न॒ट् । क॒कु॒हः । दिव॑म् । उष्ट्रा॑न् । च॒तुः॒ऽयुजः॑ । दद॑त् ।
श्रव॑सा । याद्व॑म् । जन॑म् ॥४८।।
सायण-भाष्य-
अयं राजा “ककुहः उच्छ्रितः सन् “श्रवसा कीर्त्या “दिवं स्वर्गम् "उदानट् उत्कृष्टतरं व्याप्नोत् । किं कुर्वन् । "चतुर्युजः चतुर्भिः स्वर्णभारैर्युक्तान् “उष्ट्रान् “ददत् प्रयच्छन् । तथा “याद्वं “जनं च द्रासत्वेन प्रयच्छन् ॥ ॥ १७ ॥
__________   

यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६
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त्वं धुनि॑रिन्द्र॒ धुनि॑मतीरृ॒णोर॒पः सी॒रा न स्रव॑न्तीः ।
प्र यत्स॑मु॒द्रमति॑ शूर॒ पर्षि॑ पा॒रया॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ स्व॒स्ति ॥१२।।

पदपाठ-
त्वम् । धुनिः । इन्द्र । धुनिऽमतीः । ऋणोः । अपः । सीराः । न । स्रवन्तीः ।
प्र । यत् । समुद्रम् । अति । शूर । पर्षि । पारय । तुर्वशम् । यदुम् । स्वस्ति ॥१२

हे "इन्द्र “धुनिः शत्रूणां कम्पयिता “त्वं “धुनिमतीः धुनिर्नामासुरो यासु निरोधकतया विद्यते ताः “अपः उदकानि "सीरा “न नदीरिव “स्रवन्तीः प्रवहन्तीः “ऋणोः अगमयः ।
धुनिं हत्वा तेन निरोधितान्युदकानि प्रवाहयतीत्यर्थः ।
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 हे “शूर वीरेन्द्र “यत् यदा “समुद्रम् “अति अतिक्रम्य “प्र “पर्षि प्रतीर्णो भवसि तदा समुद्रपारे तिष्ठन्तौ “तुर्वशं “यदुं च "स्वस्ति क्षेमेण “पारय अपारयः । समुद्रमतारयः ।।
अनुवाद:-
हमारे कल्याण के लिए यदु और तुर्वसु को समुद्र के दूसरी पार करते हो। अर्थात्  क्यों पुरोहितों को आशंका है कि ये दौंनों कहीं आँखों के सामने न रहें।

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"य आनयत्परावतः सुनीती तुर्वशं यदुम् ।
इन्द्रः स नो युवा सखा ॥१॥

 (ऋग्वेद-6/45/1)
इन्द्रः॑। सः। नः॒ । युवा॑। सखा॑ ॥१
यः । आ । अनयत् । पराऽवतः । सुऽनीती । तुर्वशम् । यदुम् ।
यः इन्द्रः "तुर्वशं “यदुं चैतत्संज्ञौ राजानौ शत्रुभिर्दूरदेशे प्रक्षिप्तौ “सुनीती सुनीत्या शोभनेन नयनेन “परावतः तस्माद्दूरदेशात् “आनयत् अनीतवान् “युवा तरुणः “सः “इन्द्रः “नः अस्माकं “सखा भवतु ।।

पदों का अर्थ:-(यः) जो (युवा) जवानी युक्त (इन्द्रः) इन्द्र देव (सुनीती) सुन्दर न्याय से (परावतः)- दूरदेशात्  दूर देश से भी  -परा+अव--वा० अति । १ दूरदेशे निघण्टुः (तुर्वशम्)  तुर्वसु को  (यदुम्) यदु को (आ) सब प्रकार से (अनयत्) लङ्(अनद्यतन भूत) वह इन्द्र ले गया । (सः) वह (नः) हम लोगों का (सखा) मित्र हो ॥१॥

ऋग्वेद 6.45.1 व्याकरण का अंग्रेजी विश्लेषण]

य < यः < यद्[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग"कौन; कौन सा; यत् [सर्वनाम]।"
अनयत ्<  < √ नी [क्रिया], एकवचन, अपूर्ण" वापस करना; निकालना; निकालना।"

परावतः < परवत्[संज्ञा], विभक्ति, एकवचन, स्त्रीलिंग"दूरी; ।"
सुनीति < सुनीति [संज्ञा], अच्छी नीति, एकवचन, स्त्रीलिंग“सुनीति।”
तुर्वश< तुर्वशुम्< 

[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

यदुम् < यदु

[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

“यदु < इन्द्र

[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग

सा < तद् [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग

"यह; वह, वह, यह (निरर्थक सर्वनाम); संबंधित(ए); वह; कर्तावाचक; तब; विशेष(ए); संबंधकारक; वाद्य; आरोपवाचक; वहाँ; बालक [शब्द]; संप्रदान कारक; एक बार; वही।"

नहीं < नः <हमको

[संज्ञा], संबंधवाचक, बहुवचन"मैं; मेरा।"

युवा < युवान[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग "युवा; युवा।”
सखा < सखी

[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग; साथी; सखी [शब्द]।”

"उत त्या तुर्वशायदू अस्नातारा शचीपतिः ।
इन्द्रो विद्वाँ अपारयत् ॥१७॥
हे इन्द्र ! उन दौंनों यदु और तुर्वसु को तुमने बन्धी बनाया और दूर समुद्र पार कर दिया। विद्वान इसे जानते हैं।१७।
पदों के अर्थ:-
उत अपि च "अस्नातारा= अस्नातारौ।  इन्द्रेण परिबद्धौ "त्या =त्यौ तौ= तौ द्वे । “तुर्वशायदू तुर्वशनामानं यदुनामकं च राजानौ “शचीपतिः= शचीन्द्रस्य भार्या । 
तस्याः पतिर्भर्ता "विद्वान् -सकलमपि जानन् “इन्द्रः "अपारयत्=  पारे दूरे अकरोत् - पार दूर कर दिया।
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ऋग्वेदः सूक्तं ४,/३०/१७

ष्णै- धातु के रूप द्विवचन वैदिक रूप अस्ना तारा- दौंनों  को बाँध दिया।
जबकि ष्ना- स्ना धातु का भी यही समान  अनद्यतन भूत काल का रूप  सेना धातु का वैदिक है।
अत: अनुवादक भ्रमित हैं कि स्नातारा- स्नान अर्थ में है। जबकि ष्णै- बन्धने वेष्टने वा। वेष्टन= घेरने या लपेटने की क्रिया या भाव है।

क्यों कि पूर्वी ऋचाओं में यदु और तुर्वसु को अपने वश में करने लिए ब्राह्मण पुरोहित इन्द्र से निरन्तर प्रार्थना करते हैं ।
फिर इन्द्र कि द्वारा यदु और तुर्वशु में एक का ही राज्याभिषेक होना चाहिए । परन्तु यहाँ यदु-तुर्वसु दौंनों का राज्याभिषेक कैसे हो सकता है ? अत: अस्नातारा= ष्णै = वैष्टने धातु का  लङ्(अनद्यतन भूत)का वैदिक द्विवचन रूप है। जिसका अर्थ है दौंनों को बाँध लिया लपेट लिया।

लुट्(अनद्यतन भविष्यत् ष्णै=बन्धने वेष्टने वा" )
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःस्नातास्नातारौस्नातारः
मध्यमपुरुषःस्नातासिस्नातास्थःस्नातास्थ
उत्तमपुरुषःस्नातास्मिस्नातास्वःस्नातास्मः

दोनों धातुओं के समान रूप होने से अर्थ भ्रान्ति होना स्वाभाविक ही है।
लुट्(अनद्यतन भविष्यत् - ष्ना= शुचौ स्नाने वा" )
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःस्नातास्नातारौस्नातारः
मध्यमपुरुषःस्नातासिस्नातास्थःस्नातास्थ
उत्तमपुरुषःस्नातास्मिस्नातास्वःस्नातास्मः

कृष्ण की अवधारणा भारत में है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के मोहन -जोदारो में कृष्ण की बाल लीला सम्बन्धी भित्ति चित्र है।

वेदों में इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णित है।

अथर्ववेद-(20/137/7)
ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा
देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् । सूक्तम् - (१३७)
"अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः। आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥
(इयानः) =चलता हुआ (अंशुमतीम्)=  यमुना नदी को । अव अतिष्ठत्= ठहरा है। (नृमणाः= नर  के समान मन वाले (इन्द्रः) इन्द्र  ने (तम् धमन्तम्) उस हाँफते हुए को (शच्या) शचि के साथ  (आवत्)-युद्ध किया ।
लङ्(अनद्यतन भूत)
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःआवत्=युद्ध किया 
(स्नेहितीः) स्नेहयुक्त (अप अधत्त) हटा लिया है ॥७॥
टिप्पणी:-
(धमन्तम्) =उच्छ्वसन्तम्।  पराभवेन दीर्घंश्वसन्तम्- उसास लेते हुए को।  (स्नेहितीः) स्नेहतिः स्नेहतिर्वधकर्मा-निघ० २।१९। स्वकीया मारणशीलाः सेनाः (नृमणाः) नेता के समान मन वाले- नेतृतुल्यमनस्कः (अप अधत्त) -दूर हटा दिया-दूरे धारितवान् -निवर्तितवान् ॥

ऋग्वेद प्रथम एवम् अष्टम मण्डल में कृष्ण का वर्णन सायण भाष्य सहित-

ऋग्वेदः सूक्तं १.१०१
कुत्स आङ्गिरसः
देवता- इन्द्रः( १ गर्भस्राविण्युपनिषद्)। जगती, ८-११ त्रिष्टुप्

"प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥(ऋ०१/१०१/१)
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सायण का अर्थ-
हे ऋत्विजो ! स्तुति योग्य उन इन्द्र के लिए हवि रूप अन्न से युक्त स्तुति रूप वचन का उत्कृष्टता से उच्चारण करो !  जिन इन्द्र ने ऋजिश्वा नामक मित्र राजा के साथ कृष्ण नानक असुर के द्वारा गर्भवती उसकी स्त्रीयों का वध  किया था। अर्थात् कृष्ण नामक असुर को मारकर  उसके पुत्रों का जन्म न होने देने के लिए ही उसकी गर्भवती स्त्रियों का भी इन्द्र ने बध कर दिया था । रक्षा पाने के इच्छुक हम कामनाओं की वर्षा करने वाले और वज्र युक्त दक्षिण हाथ वाले मरुतों से युक्त उन इन्द्र का मित्रता के लिए आह्वान करते हैं।यहाँ मूल ऋचा में कृष्ण के लिए असुर शब्द नहीं है परन्तु सायण ने असुर विशेषण अपनी तरफ से जोड़ दिया है।

आंध्र " को " इंद्र " से लिया जाना चाहिए, जैसा कि फ़्रेंच में " आंद्रेई " है।
वह वज्र के नाम से जाना जाने वाला बिजली का वज्र धारण करता है और ऐरावत नामक सफेद हाथी पर सवार होता है। इंद्र सर्वोच्च देवता हैं और अग्नि के जुड़वां भाई हैं और उनका उल्लेख अदिति के पुत्र आदित्य के रूप में भी किया गया है। उनका घर स्वर्ग में मेरु पर्वत पर स्थित है।

इंद्र पारसी धर्म में एक देवता के नाम के रूप में प्रकट होता है । उन्हें बर्मीज़ में ðadʑá mɪ́ɴ , थाई में พระอินทร์ (Phra In), मलय में Indera, तेलुगु में ఇంద్రుడు (Indrudu), तमिल में இந்தி के नाम से जाना जाता है। ரன் (इंथिरन), चीनी में 帝释天 (दिशितिआन), और में जापानी के रूप में 帝釈天 (ताईशाकुटेन)।
वह वज्रपाणि से जुड़े हैं - मुख्य धर्मपाल या बुद्ध, धर्म और संघ के रक्षक और रक्षक जो पांच ध्यानी बुद्ध की शक्ति का प्रतीक हैं।

एक देवता के रूप में इंद्र अन्य इंडो-यूरोपीय देवताओं के सजातीय हैं; वे या तो थोर, पेरुन और ज़ीउस जैसे गरजने वाले देवता हैं, या डायोनिसस जैसे नशीले पेय के देवता हैं। मितन्नी के देवताओं में इंद्र (इंदारा) के नाम का भी उल्लेख किया गया है, जो एक हुरियन-भाषी लोग थे जिन्होंने लगभग 1500BC-1300BC तक उत्तरी सीरिया पर शासन किया था।

ऋग्वेद संहिता की ऋचाएँ वैदिक साहित्य के सबसे पुराने और जटिल साहित्य का प्रतिनिधित्व करती हैं। 
(ऋग्वेद 1.101.1)

"प्र मंदिने पितुमद अर्चता वाको यः कृष्णगर्भा निर्हन्न ऋषिस्वना | अवस्यावो विष्वाणं वज्रदक्षिणं मारुतवन्तं सख्यय हवामहे। (ऋग्वेद १/१०१/१)
अनुवाद:-
“जो प्रसन्न है (प्रशंसा के साथ), उसे आहुतियों के साथ प्रणाम करो, जिसने ऋषिस्वन के साथ, कृष्ण की मूर्ति को नष्ट कर दिया ; सुरक्षा की इच्छा से, हम अपने मित्र बनने के लिए उसकी मांग करते हैं, जो (लाभों का) दाता है, जो अपने दाहिने हाथ में वज्र रखता है , उसकी देखभाल मारुति करता है।

सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य-
ऋजिश्वान एक राजा और इंद्र का मित्र था ; कृष्ण एक असुर थे, जिनमें उनके स्त्रियों की भी हत्या कर दी गई थी, ताकि उनका कोई भी संतान जीवित न रह सके। 

व्याकरणिक टिप्पणी:-
 प्र=
[विशेषक्रिया]
"की ओर; आगे।"
मंदिने=
[संज्ञा], मूलवाचक, एकवचन, पुल्लिंग
“नशीला पदार्थ; ताज़ा करने वाला।”

पितुमद < पितुमत्
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग
"आहार।"

अर्चता= अर्च्-स्तुतौ-
[क्रिया], बहुवचन, वर्तमान अनिवार्यता

"गाओ; पूजा करना; सम्मान; प्रशंसा; स्वागत।"

वचो < वाचः < वचस्
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

"कथन; आज्ञा; भाषण; शब्द; सलाह; शब्द; आवाज़।"

यः < यद्
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग
"कौन; कौन सा; यत् [सर्वनाम]।"

कृष्ण < कृष्ण
[संज्ञा]

कृष्णगर्भ < गर्भः < गर्भ
[संज्ञा], कर्मवाचक, बहुवचन, स्त्रीलिंग

“भ्रूण; गर्भ; अंदर; गुला; भ्रूण; गर्भ; बच्चा; ; गर्भाद्रुति; उत्तर; गर्भावस्था; यार; पेट; निशेचन; अंदर; उधेड़; बच्चा; द्रवपुंज; बीच" स्त्री

निर्हन्न < निर्हन्न < निर्हन्न < √हन्
[क्रिया], एकवचन, मूल सिद्धांतकार (इंड.)

ऋजिस्वान < ऋजिस्वान
[संज्ञा], वाद्य, एकवचन, पुल्लिंग

ऋजिस्वान्।”

अवस्यावो < अवस्यावः < अवस्यु
[संज्ञा], कर्तावाचक, बहुवचन, पुल्लिंग

“सुरक्षा की मांग करना; मजबूरन

विश्णम् < विश्णम् < विश्णम्
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

"साँड़; इंद्र; घोड़ा; विश्णु; आदमी।"

वज्रदक्षिणम् < वज्र
[संज्ञा], पुल्लिंग

“वज्र; वज्र; वज्र; वज्र; बिजली चमकाना; अभ्र; वज्रमुषा; हीरा; वज्र [शब्द]; वज्रकपात; वज्र; वैक्रान्त।"

वज्रदक्षिणम् < दक्षिणम् < दक्षिणा
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

“दक्षिणी; सही; दक्षिण; दक्षिण दिशा में; दक्षिणा [शब्द]; ईमानदार; दक्षिणवर्त; चतुर्।"

मरुतवंतं < मरुतवंतम् < मारुतवंत
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

“इंद्र; मेरुवंत [शब्द]।"

साख्य < साख्य
[संज्ञा], संपुष्टकारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

"दोस्ती; सहायता; कंपनी।"

हवामहे < ह्वा
[क्रिया], बहुवचन, वर्तमान सूचक
"उठाना; अपील करना; बुलाना; बुलाओ।"

यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन्पिप्रुमव्रतम्।                                        इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥२॥

यस्य द्यावापृथिवी पौंस्यं महद्यस्य व्रते वरुणो यस्य सूर्यः ।                                              यस्येन्द्रस्य सिन्धवः सश्चति व्रतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥३॥
सामवेदः -कौथुमीया/संहिता -ग्रामगेयः-प्रपाठकः १०-वैरूपम्

सामवेदः‎ - कौथुमीया‎ - संहिता‎ - ग्रामगेयः‎ - प्रपाठकः १०
:32 वैरूपम्.-
प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना ।
अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हुवेमहि ।। ३८० ।। तथा  ऋग्वेद १/१०१/१

(३८०।१) ।। वैरूपम् । विरूपो जगतीन्द्रो मरुत्त्वान्।
प्रमंदाऽ२३४इने ।। पितुमदाऽ३र्च्चाऽ३तावचः । यःकाऽ३ओऽ२३४वा ।
कृष्णगर्भानिरहन्नृजिश्वनाऽ३ । अवस्याऽ२३४वाः। वृषणंवा । ज्रादक्षाऽ२३४इणाम् ।
मारौवाओऽ२३४वा ।। त्वन्तꣳसख्यायहुवाऽ५इमहाउ ।। वा ।।
( दी ३ । प० १० । मा० ९ )२३ ( णो । ६५१)

द्र. पञ्चनिधनं वैरूपम्
वैरूपोपरि वैदिकसंदर्भाः

अस्मिन् जगति अस्माकं इन्द्रियाणि यत्किंचित् संवेदनं प्राप्नुवन्ति, तत् सर्वं असत्यं तु नैवास्ति, किन्तु विरूपितं अवश्यमस्ति। यदा वयं वैराजपदं प्राप्नुवन्ति, तदा अस्माकं दृष्टिः सत्यस्य दर्शने समर्था भवति।"
________
यो अश्वानां यो गवां गोपतिर्वशी य आरितः कर्मणिकर्मणि स्थिरः।                        वीळोश्चिदिन्द्रो यो असुन्वतो वधो मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥४॥
___________

यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत् ।  इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥५॥

यः शूरेभिर्हव्यो यश्च भीरुभिर्यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभिः ।                                                इन्द्रं यं विश्वा भुवनाभि संदधुर्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥६॥

रुद्राणामेति प्रदिशा विचक्षणो रुद्रेभिर्योषा तनुते पृथु ज्रयः ।                                                इन्द्रं मनीषा अभ्यर्चति श्रुतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥७॥

यद्वा मरुत्वःपरमे सधस्थे यद्वावमे वृजने मादयासे।अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा त्वाया हविश्चकृमा सत्यराधः ॥८॥

त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्चकृमा ब्रह्मवाहः।                                                अधा नियुत्वः सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व ॥९॥

मादयस्व हरिभिर्ये त इन्द्र विष्यस्व शिप्रे वि सृजस्व धेने ।                                              आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन्हव्यानि प्रति नो जुषस्व ॥१०॥

मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा वयमिन्द्रेण सनुयाम वाजम् ।                                                  तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥११॥

{सायण-भास्यम्}
प्र मन्दिने' इति एकादशर्चमष्टमं सूक्तमाङ्गिरसस्य कुत्सस्यार्षम् । अष्टम्याद्याश्चतस्रस्त्रिष्टुभः शिष्टाः सप्त जगत्यः । इन्द्रो देवता । तथा चानुक्रान्तं - ' प्रमन्दिन एकादश कुत्स आद्या गर्भस्राविण्युपनिषच्चतुस्त्रिष्टुबन्तम्' इति । दशरात्रस्य नवमेऽहनि मरुत्वतीये एतत्सूक्तम् । विश्वजितः' इति खण्डे सूत्रितं- ‘प्र मन्दिन इमा उ त्वेति मरुत्वतीयम्' (आश्व. श्रौ. ८.७.) इति ॥
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प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥
अर्थ-
अच्छी प्रकार से  इन्द्र और उसके सखा राजा   ऋजिश्वन् की  स्तुति करने वाले के लिए यह निर्देश है कि वे उनकी अन्न से पूरित हवि आदि से अर्चना करते हुए  ऐसे वचनों से कहें कि वे इन्द्र मरुतगण जिनके सखा है और जिन इन्द्र ने दाहिने हाथ में वज्र धारण करते हुए कृष्ण के द्वारा गर्भिताओं का वध कर दिया था ;रक्षा के इच्छुक हम सब उन शक्ति शाली इन्द्र का ही आह्वान करते हैं । 

विशेष=असुर शब्द का प्रयोग तो कृष्ण के लिए सायण ने अपने भाष्य में ही किया है । अन्यथा मूल ऋचा में असुर पद नहीं  होकर अदेव पद है ।
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  . १०९-११५ ) । एतदनार्षत्वेनानादरणीयं भवति । एषोऽर्थः क्रमेणर्क्षु वक्ष्यते । तथा चास्या ऋचोsयमर्थः । 1“द्रप्सः =। द्रुतं सरति गच्छतीति द्रप्सः । पृषोदरादिः । द्रुतं गच्छन् "दशभिः “सहसैः दशसहस्रसंख्यैरसुरैः “इयानः= “कृष्णः एतन्नामकोऽसुरः "अंशुमतीं नाम नदीम् “अव “अतिष्ठत् =अवतिष्ठते । ततः 2-“शच्या= कर्मणा प्रज्ञानेन वा 3-“धमन्तम्= उदकस्यान्तरुच्छ्वसन्तं यद्वा जगद्भीतिकरं शब्दं कुर्वन्तं “तं =कृष्णमसुरम् “इन्द्रः मरुद्भिः सह 5-“आवत् =प्राप्नोत् । पश्चात्तं कृष्णमसुरं तस्यानुचरांश्च हतवानिति वदति । “नृमणाः नृषु मनो यस्य सः । यद्वा । कर्मनेतृष्वृत्विक्ष्वेकविधं मनो यस्य स तथोक्तः । तादृशः सन् “स्नेहितीः । स्नेहतिर्वधकर्मसु पठितः । सर्वस्य हिंसित्रीस्तस्य सेनाः “अप “अधत्त ।6- अपधानं =हननम् । अवधीदित्यर्थः । ‘ अप स्नीहितिं नृमणा अधद्राः' (सा. सं. १. ४. १.४.१) इति छन्दोगाः पठन्ति । तस्यानुचरान् हत्वा तं द्रुतं गच्छन्तमसुरमपाधत्त । हतवान् ॥
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"द्र॒प्सम॑पश्यं॒ विषु॑णे॒ चर॑न्तमुपह्व॒रे न॒द्यो॑ अंशुमत्या:।
नभो॒ न कृ॒ष्णम॑वतस्थि॒वांस॒मिष्या॑मि वो वृषणो॒ युध्य॑ता॒जौ ॥१४
द्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्यः । अंशुऽमत्याः ।
नभः । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । वः । वृषणः । युध्यत । आजौ ॥१४

तुरीयपादो मारुतः । मरुतः प्रति यद्वाक्यमिन्द्र उवाच तदत्र कीर्त्यते । हे मरुतः “द्रप्सं द्रुतगामिनं कृष्णमहम् “अपश्यम् =अदर्शम् । कुत्र वर्तमानम् । “विषुणे= विष्वगञ्चने सर्वतो विस्तृते देशे । यद्वा । विषुणो विषमः । विषमे परैरदृश्ये गुहारूपे देशे। “चरन्तं =परितो गच्छन्तम् । किंच “अंशुमत्याः एतन्नामिकायाः “नद्यः =नद्याः “उपह्वरे= अत्यन्तं गूढे स्थाने “नभो “न नभसि यथादित्यो दीप्यते तद्वत्तत्र दीप्यमानम् “अवतस्थिवांसम् उदकस्यान्तरवस्थितं “कृष्णम् एतन्नामकमसुरमपश्यम् । तस्मिन् दृष्टे सति हे “वृषणः कामानामुदकानां वा सेक्तारो मरुतः “वः युष्मान् युद्धार्थम् “इष्यामि अहमिच्छामि । ततो यूयं तमिमं कृष्णम् "आजौ । अजन्ति गच्छन्त्यत्र योद्धार आयुधानि प्रक्षेपयन्तीति वाजिः संग्रामः । तस्मिन् "युध्यत संहरत । वाक्यभेदादनिघातः । केचित् इष्यामि वो मरुतः इति पठन्ति । तत्र हे मरुतः वो युष्मानिच्छामीत्यर्थो भवति ॥

अध॑ द्र॒प्सो अं॑शु॒मत्या॑ उ॒पस्थेऽधा॑रयत्त॒न्वं॑ तित्विषा॒णः।विशो॒ अदे॑वीर॒भ्या॒३॒॑चर॑न्ती॒र्बृह॒स्पति॑ना यु॒जेन्द्र: ससाहे ॥१५।अध । द्रप्सः । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः ।
विशः। अदेवीः ।अभि। आऽचरन्तीः ।बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥१५।

1-“अध= अथ 2-“द्रप्सः =द्रुतगामी कृष्णः 3-“अंशुमत्याः= नद्याः 4-“उपस्थे =समीपे 5-“तित्विषाणः= दीप्यमानः सन् 6-“तन्वम् =आत्मीयं शरीरम् 7-“अधारयत् । =परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन 8-“युजा= सहायेन 9-“अदेवीः =अद्योतमानाः । कृष्णरूपा इत्यर्थः । यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । 10-“आचरन्तीः= आगच्छन्तीः 11-“विशः= असुरसेनाः "अभि 12-"ससहे =जघान । तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ३४ ॥ 

त्वं ह॒ त्यत्स॒प्तभ्यो॒ जाय॑मानोऽश॒त्रुभ्यो॑ अभव॒ः शत्रु॑रिन्द्र ।
गू॒ळ्हे द्यावा॑पृथि॒वी अन्व॑विन्दो विभु॒मद्भ्यो॒ भुव॑नेभ्यो॒ रणं॑ धाः ॥१६
पद पाठ:-
त्वम् । ह । त्यत् । सप्तऽभ्यः । जायमानः । अशत्रुऽभ्यः । अभवः । शत्रुः । इन्द्र ।
गूळ्हे इति । द्यावापृथिवी इति । अनु । अविन्दः । विभुमत्ऽभ्यः । भुवनेभ्यः । रणम् । धाः ॥१६

हे “इन्द्र “त्वं खलु “त्यत् तत् कर्म कृतवानसि। किं तत् उच्यते । "जायमानः त्वं प्रादुर्भवन्नेव । “अशत्रुभ्यः स्तुरहितेभ्यः “सप्तभ्यः कृष्णवृत्रनमुचिशम्बरादिसप्तभ्यो बलवद्भ्यः शत्रुभ्यः तदर्थं “शत्रुः “अभवः । यद्वा । सप्तभ्यः । ससैवाङ्गिरसः । सप्तभ्योङ्गिरोभ्यो गवानयनार्थं प्रादुर्भवन्नेवाशत्रुभ्यो बलवद्भ्यः पणिभ्यः शत्रुरभवः । किंच हे इन्द्र त्वं “गूळ्हे तमसा गूढे संवृते “द्यावापृथिवी द्यावापृथिव्यौ सूर्यात्मना ते प्रकाश्यानुक्रमेण "अविन्दः अलभथाः । तथा “विभुमद्भ्यः महत्त्वयुक्तेभ्यः "भुवनेभ्यः लोकेभ्यः "रणं रमणं “धाः धारयसि । विदधासीत्यर्थः ॥
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drip (v.)
c. 1300, drippen, "to fall in drops; let fall in drops," from Old English drypan, also dryppan, from Proto-Germanic *drupjanan (source also of Old Norse dreypa, Middle Danish drippe, Dutch druipen, Old High German troufen, German triefen), perhaps from a PIE root *dhreu-. Related to droop and drop. Related: Dripped; dripping.

drip (n.)
mid-15c., drippe, "a drop of liquid," from drip (v.). From 1660s as "a falling or letting fall in drops." Medical sense of "continuous slow introduction of fluid into the body" is by 1933. The slang meaning "stupid, feeble, or dull person" is by 1932, perhaps from earlier American English slang sense "nonsense" (by 1919).

विषुण-अनेक रूप का। बहुरूपी। २. सर्वग। सर्वगत। ३. विप्रकीर्ण। बिखरा हुआ। ४. पराङमुख [को०]।

अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
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क्रमशः उपर्युक्त तीनों ऋचाओं का पदपाठ-

"अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥

पद का अन्वय= अव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः ।आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥१३।

शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण-                १-अव= तुम रक्षा करो लोट्लकर  मध्यम पुरुष एकवचन।
२-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में  ।
३- अंशुमतीम् = यमुनाम्  –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।
४-अवतिष्ठत् =  अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश  लङ्लकार रूप)  स्थित हुए।
५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक  तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।
 ६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं  कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को।  (ध्मा धातु का धम आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप  एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है  ।
७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।
८-नृमणां( धनानां) 
९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्यपुरुषएकवचने) 
विशेषटिप्पणी-
१०-अव्=१- रक्षण २-गति ३-कान्ति ४-प्रीति ५-तृप्ति ६-अवगम ७-प्रवेश ८-श्रवण ९- स्वाम्यर्थ १०-याचन ११-क्रिया। १२ -इच्छा १३- दीप्ति १४-अवाप्ति १५-आलिङ्गन १६-हिंसा १७-दान  १८-वृद्धिषु।                
११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
प्रथम पुरुष एक वचन का लङ् लकार(अनद्यतन भूूूतकाल का रूप।
आवत् =प्राप्त किया । 
हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया  और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप  धन दिया।
भाष्य-
कृष्णो दशसहस्रैर्गोपै:परिवृत: सन्  अँशुमतीनामधेयाया नद्या:  यमुनाया: तटेऽतिष्ठत् तत्र कृष्णस्य नाम्न: प्रसिद्धं  तं गोपं नद्यार्जलेमध्ये   स्थितं इन्द्रो ददर्श स इन्द्र: स्वपत्न्या शच्या सार्धं आगत्य  जले स्निग्धे तं गोपं कृष्णं तस्यानुचरानुपगोपाञ्च अतीवानि धनानि अदात्।

हिन्दी अनुवाद- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं अंशुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप कृष्ण को इन्द्र ने  यमुना नदी के जल में स्थित देखा।

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द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥

पद का अन्वय= द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ ।
नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१४।।

हिन्दी अर्थ-इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा  और इस साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं देखना चाहूँगा । अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़  कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं देखना चाहूँगा। जहाँ जल और- ( नभ) बादल भी न हो ऐसे स्थान पर-
(अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
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शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण-
१-द्र॒प्सम्= जल को कर्मकारक द्वित्तीया।अपश्यम्=अदर्शम्  दृश् धातु का लङ्लकार  (सामान्य भूतकाल ) क्रिया पदरूप  - मैंने देखा ।__________________

२- वि + सवन(‌सुन) रूप विषुण -(विभिन्न रूप)।   षु (सु)= प्रसवऐश्वर्ययोः - परस्समैपदीय सवति सोता [ कर्मणि- ]  सुषुवे सुतः सवनः सवः अदादौ (234) सौति स्वादौ षुञ् अभिषवे (51) सुनोति (911) सूनुः, पुं, (सूयते इति । सू + “सुवः कित् ।” उणादिसूत्र्र ३।३५। इति (न:) स:च कित् )

पुत्त्रः । (यथा, रघुः । १ । ९५ ।
“सूनुः =सुनृतवाक् स्रष्टुः विससर्ज्जोदितश्रियम् ) अनुजः । सूर्य्यः । इति मेदिनी ॥ अर्कवृक्षः । इत्यमरः कोश ॥
षत्व विधान सन्धि :-"विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद 'कु(कखगघड•)     'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई  स्वर जैैैसे इ उ आदि हो अथवा 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।

शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु। हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।__________________________

विषुण-विभिन्न रूपी।
३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्=  चरते हुए साँड  को।
४-आजौ =  संग्रामे  युद्ध में।
५-अ॒व॒ = उपसर्ग
६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है । तस्थिवस्=  स्था--क्वसु  स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।
७-व:= युष्मान् - तुम सबको ।  युष्मभ्यम् ।  युष्माकम् । यष्मच्छब्दस्य द्बितीया चतुर्थी षष्ठी बहुवचनान्तरूपोऽयम् इति व्याकरणम् ॥
८-उपह्वरे= निर्जन देशे।
९-वृ॒ष॒णः॒ = साँड ने ।
१०-युध्य॑त= युद्ध करते हुए।
११-आजौ= युद्ध में ।
१२-इष्या॑मि= मैं इच्छा करुँगा।
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"अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
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अर्थ-कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया  जो इनके गोपों - विशों (गोपालन आदि करने वाले -वैश्यवृत्ति सम्पन्न) थे ।  चारो ओर चलती हुई गायों के साथ रहने वाले गोपों को इन्द्र ने बृहस्पति की  सहायता से दमन किया ।
पदपाठ-विच्छेदन :-
। द्रप्स:। अंशुऽमत्याः। उपऽस्थे ।अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः। विशः। अदेवीः ।अभि । आऽचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा । इन्द्रः। ससहे॥१५।
“अध =अथ अधो वा “द्रप्सः= द्रव्य अथवा जल बिन्दु: “अंशुमत्याः= यमुनाया: नद्याः“(उपस्थे=समीपे “(  त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे  तित्विषाणः= दीप्यमानः)( सन् =भवन् ) “(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “(अधारयत्  = शरीर धारण किया)। परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन “युजा =सहायेन “अदेवीः = देवानाम्  ये न पूजयन्ति इति अदेवी:। कृष्णरूपा इत्यर्थः । 
यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । “आचरन्तीः =आगच्छन्तीः “विशः= गोपालका:"अभि "ससहे षह्(सह्) लिट्लकार ( अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) ।।शक्यार्थे - चारो और से सख्ती की ।
 सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह अधेः प्रसहने (1333) इत्यत्र सह्यतेः सहतेर्वा निर्देश इति शक्तावुपेक्षायाञ्च उदाहृतं तमधिचक्रे इति (7) 22  तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ॥ ३४ ॥ 

ऋग्वेद २/१४/७ में भी सायण ने "उपस्थ' का अर्थ उत्संग( गोद) ही किया है । जैसे 
अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥देखे हे अध्वर्यवो जघन्वान् पूर्वं शत्रून् हतवान् य इंद्रः शतं सहस्रमसुरान् भूम्या उपस्थ उत्संगेऽवपत् । एकैकेन प्रकारेणापातयत् । किंच यः कुत्सस्यैतन्नामकस्य राजर्षेः । आयोः पौरूरवसस्य राजर्षेः। अतिथिग्वस्य दिवोदासस्य । एतेषां त्रयाणां वीरानभिगंतॄन्प्रति द्वंद्विनः शुष्णादीनसुरान् न्यवृणक् । वृणक्तिर्हिंसाकर्मा । अवधीत् । तथा च मंत्रवर्णः । त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारंधयोऽतिथिग्वाय शंबरं ।१. ५१. ६.। इति । तादृशायेंद्राय सोमं भरत ॥
 
तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

१-तस्मिन् -उसमें ।
 २-रमते लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन - क्रीडा करते हैं रमण करते हैं । रम्=क्रीडायाम्
३-देव:(प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक।
स्त्रीभि:=  तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप स्त्रीयों के साथ।
परिवृत:= चारों ओर से घिरे हुए।

हारनूपुरकेयूररशना आद्यै: तृतीया विभक्ति वहुवचन = हार नूपुर(घँघुरू) केयूर(बाँह में पहनने का एक आभूषण  ,बिजायठ  बजुल्ला ,अंगद , बहुँठा अथवा भुजबंद भी जिसकी हिन्दी नाम हैं  आदि के द्वारा । 
तदा= तस्मिन् काले -उस समय में।
भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
भूषितानां= भूषण पहने हुओं का (षष्ठी वहुवचन रूप सम्बन्ध बोधक रूप)
वरस्त्रीणां=श्रेष्ठ स्त्रीयों का ।
चारु=सुन्दर । अङ्गीनाम्= अंगों वाली का षष्ठी विभक्ति वहुचन रूप ।
विशेषत:=विशेष से पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।
शुभम्- जल जैसा राजनिघण्टु में शुभम् नपुँसक रूप में जल अर्थ उद्धृत किया है । अत: उपर्युक्त श्लोक में 'शुभम् शुभगन्धान्वितं' विशेषण का विशेष्य पद है ।
शुभगन्धान्वितं= शुभ (कल्याण कारी) गन्धों से युक्त को द्वितीया विभक्ति  कर्म कारक पद रूप ।

कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान भी नहीं किया ।
सुर संस्कृति से प्रभावित  कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते रहे होंगे । परन्तु  सुरापान यादवों की सांस्कृतिक परम्परा या पृथा नहीं थी।
जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में  

वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥
(वाल्मीकि रामायण  बालकाण्ड सर्ग (45) के श्लोक (38)
उपर्युक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
इस कारण देवोपासक पुरोहितों  के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों  द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।

परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिक अर्थ प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों को कहा गया है ।
इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने 
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या (96) की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर  (13,14,15,) में कृष्ण को असुर अथवा अदेव"  कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित किया है ।
परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेषवश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है।
परन्तु फिर भी ये लोग पूर्णत: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
राजनिर्घण्टः।। शुभम्-(उदकम् । इति निघण्टुः । १।१२।
सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते ( सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है ।

भविष्य पुराण के ब्रह्मखण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है।
स्त्रियों के साथ दिन में रमण ( संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है ।
कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
और करोड़ो देवों की पूजा करना। ये कृष्ण ने नहीं किया।

📚
यः कृष्णः केश्यसुर स्तम्बज उत तुण्डिकः ।
अरायान् अस्या मुष्काभ्यां भंससोऽप हन्मसि ॥५॥
अथर्ववेदः -
सूक्तं ८/६/५
(यः) जो  (कृष्णः)  (केशी) बहुत से केशवालाे केशी (असुरः) , (स्तम्बजः) स्तम्ब से उत्पन्न  होनेवाला है (उत) और (तुण्डिकः) कुरूप थूथन वा कुरूप नाभिवाला [है]। (अरायान्) अलक्ष्मीवाले उनको  (अस्याः) इस [स्त्री] के (मुष्काभ्याम्) दोनों अण्डकोशों से और (भंससः) गुप्त स्थान से (अप हन्मसि) तुम मारते हो  ॥५॥
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श्रीविष्णुाहापुराणे पञ्चमांशो ! षोडशोऽध्यायः १६।

          श्रीपराशर उवाच !
केशी चापि बलोदग्रः कंसदूतः प्रचोदितः।
कृष्णस्य निधनाकाङ्क्षी वृन्दावनमुपागमत् ।१।

स खुरक्षतभूपृष्ठस्सटाक्षेपधुताम्बुदः ।
द्रुतविक्रान्तचन्द्रार्कमार्गो गोपानुपाद्रवत् ।२।

तस्य हेषितशब्देन गोपाला दैत्यवाजिनः।
गोप्यश्च भयसंविग्ना गोविन्दं शरणं ययुः ।३।

त्राहित्राहीति गोविन्दः श्रुत्वा तेषां ततो वचः।
सतोयजलदध्वानगम्भीरमिदमुक्तवान् ।४।

अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैः।
भवद्भिर्गोपजातीयैर्वीरवीर्यं विलोप्यते ।५।

किमनेनाल्पसारेण हेषिताटोपकारिणा ।
दैतेयबलवाह्येन वल्गता दुष्टवाजिना ।६।

एह्येहि दुष्ट कृष्णोऽहं पूष्णस्त्विव पिनाकधृत् ।
पातयिष्यामि दशनान्वदनादखिलांस्तव। ७ ।

इत्युक्त्वाऽस्फोट्य गोविन्दः केशिनस्सम्मुखं ययौ ।
विवृतास्यश्च सोप्येनं दैतेयाश्व उपाद्रवत् ।८ ।

बाहुमाभोगिनं कृत्वा मुखे तस्य जनार्दनः।
प्रवेशयामास तदा केशिनो दुष्टवाजिनः ।९।

केशिनो वदनं तेन विशता कृष्णबाहुना।
शातिता दशनाः पेतुः सिताब्भ्रावयवा इव ।१०।

कृष्णस्य ववृधे बाहुः केशिदेहगतो द्विज।
विनाशाय यथा व्याधिरासंभूतेरुपेक्षितः ।११ ।

विपाटितोष्ठो बहुलं सफेनं रुधिरं वमन् ।
सोक्षिणी विवृते चक्रे विशिष्टे मुक्तबन्धने ।१२ ।

जघान धरणीं पादैश्शकृन्मूत्रं समुत्सृजन्।
स्वेदार्द्र गात्रश्शान्तश्च निर्यत्नस्सोऽभवत्तदा ।१३।

व्यादितास्यमहारन्ध्रस्सोऽसुरः कृष्णबाहुना ।
निपातितो द्विधा भूमौ वैद्युतेन यथा द्रुमः।१४।

द्विपादे पृष्ठपुच्छार्द्धे श्रवणैकाक्षिनासिके।
केशिनस्ते द्विधा भूते शकले द्वे विरेजतुः ।१५।

हत्वा तु केशिनं कृष्णो गोपलैर्मुदितैर्वृतः।
अनायस्ततनुस्स्वस्थो हसंस्तत्रैव तस्थिवान् ।१६ ।

ततो गोप्यश्च गोपाश्च हते केशिनि विस्मिताः।
तुष्टुवुः पुण्डरीकाक्षमनुरागमनोरमम् ।१७ ।

अथाहान्तर्हितो विप्र नारदो जलदे स्थितः ।
केशिनं निहतं दृष्ट्वा हर्षनिर्भरमानसः ।१८ ।

साधुसाधु जगन्नाथ लीलयैव यदच्युत ।
निहतोऽयं त्वया केशी क्लेशदस्त्रिदिवौकसाम् ।१९।
युद्धोत्सुकोहमत्यर्थं नरवाजिमहाहवम्।
अभूतपूर्वमन्यत्र द्रष्टुं स्वर्गादिहागतः ।२०।

कर्माण्यऽत्रावतारे ते कृतानि मधुसूदन ।
यानि तैर्विस्मितं चेतस्तोषमेतेन मे गतम् ।२१।

तुरङ्गास्यास्य शक्रोपि कृष्ण देवाश्च बिभ्यति ।
धुतकेसरजालस्य ह्रेषतोऽभ्रावलोकिनः।२२।

यस्मात्त्वयैष दुष्टात्मा हतः केशी जनार्दन ।
तस्मात्केशवनाम्ना त्वं लोके ख्यातो भविष्यसि ।२३।

स्वस्त्यस्तु ते गमिष्यामि कंसयुद्धेऽधुना पुनः ।
परश्वोऽहं समेष्यामि त्वया केशिनिषूदन ।२४ ।

उग्रसेनसुते कंसे सानुगे विनिपातिते ।
भारावतारकर्त्ता त्वं पृथिव्या पृथिवीधर ।२५ ।

तत्रानेकप्रकाराणि युद्धानि पृथिवीक्षिताम्।
द्रष्टव्यानि मया युष्मत्प्रणीतानि जनार्दन। २६।

सोऽहं यास्यामि गोविन्द देवकार्यं महत्कृतम् ।
त्वयैव विदितं सर्वं स्वस्ति तेऽस्तु व्रजाम्यहम् ।२७।

नारदे गते कृष्णस्सह गोपैस्सभाजितः।
विवेश गोकुलं गोपीनेत्रपानैकभाजनम्। २८।

इति श्रीविष्णुाहापुराणे पञ्चमांशो! षोडशोऽध्यायः १६।




श्रीविष्णुपुराण-
  (पञ्चम अंश)
           "केशिवध प्रकरण-"
          श्री पराशर जी बोले ;- 
हे मैत्रेय ! इधर कंस के दूतद्वारा भेजा हुआ महाबली   केशी भी कृष्ण  के वध की इच्छासे [ घोड़े का रूप धारणकर ] वृन्दावन - में आया ॥१॥
वह अपने खुरों से पृथ्वीतल  को  खोदता, ग्रीवा के बालों से बादलों को छिन्न-भिन्न करता तथा वेग से चन्द्रमा और सूर्य के मार्ग को भी पार करता गोपोंं की ओर दौड़ा ॥२॥

उस अश्वरूप दैत्य के हिनहिनाने के शब्द से भयभीत होकर समस्त गोप और गोपियाँ श्री गोविंद की शरण में आये॥३॥

तब उनके त्राहि-त्राहि शब्द को सुनकर भगवान कृष्णचन्द्र सजल मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर वाणीसे बोले-४॥

 हे गोपालगण! आपलोग केशी (केशधारी अश्व ) से न डरें, आप तो गोप-जातिके हैं, फिर इस प्रकार भयभीत होकर आप अपने वीरोचित पुरुषार्थ का लोप क्यों करते हैं ? | ५ ॥ 

यह अल्पवीर्य, हिनहिनाने से आतङ्क(भय) फैलानेवाला और नाचने वाला दुष्ट अश्व, जिस पर राक्षस गण बलपूर्वक चढ़ा करते हैं, आपलोगों का क्या बिगाड़ सकता है ? ॥ ६॥

[ इस प्रकार गोपों को धैर्य बँधाकर वे केशी से  कहने लगे ] - 'अरे दुष्ट ! इधर आ, पिनाकधारी वीरभद्र ने जिस प्रकार पूषा के दाँत उखाड़े थे उसी प्रकार मैं कृष्ण तेरे मुख से सारे दाँत गिरा दूंगा ॥ ७॥ 

ऐसा कहकर श्रीगोविन्द उछलकर केशीके सामने आये और वह अश्वरूपधारी दैत्य भी मुँह खोलकर उनकी ओर दौड़ा ॥ ८ ॥ 

तब जनार्दन अपनी बाँह फैलाकर उस अश्वरूपधारी दुष्ट दैत्य के मुखमें डाल दी ॥९॥

 केशी के मुखमें घुसी हुई भगवान कृष्ण की बाहुसे टकराकर उसके समस्त दाँत शुभ्र मेघखण्डों के समान टूटकर बाहर गिर पड़े ।। १०॥

हे द्विज ! उत्पत्तिके समय से ही उपेक्षा की गयी व्याधि जिस प्रकार नाश करने के लिये बढ़ने लगती है उसी प्रकार केशीके दे हमें प्रविष्ट हुई कृष्णचन्द्रकी भुजा बढ़ने लगी ॥ ११॥ 

अन्तः में ओठों के फट जानेसे वह फेनसहित रुधिर वमन करने लगा और उसकी आँखें स्नायुबंधन के ढीले हो जानेसे फूट गयीं ॥ १२॥ 

तब वह मल-मूत्र छोड़ता हुआ पृथ्वी पर पैर पटकने लगा, उसका शरीर पसीने से भरकर ठंढा पड़ गया और वह निश्चेष्ट हो गया ॥ १३ ॥

इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजा से जिसके मुखका विशाल रन्ध्र फैलाया गया है वह महान असुर मरकर वज्रपातसे गिरे हुए वृक्ष के समान दो खण्ड होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ १४ ॥ 

केशी  के शरीर के वे दोनों खण्ड दो पाँव, आधी पीठ, आधी पूँछ तथा एक-एक कान-आँख और नासिकारन्ध्रसहित सुशोभित हुए ॥ १५॥

इस प्रकार केशी को मारकर प्रसन्न चित्त ग्वाल- बालों से घिरे हुए श्रीकृष्णचन्द्र बिना श्रमके स्वस्थ चित्तसे हँसते हुए वहीं खड़े रहे ॥ १६ ॥

तब केशी के मारे जाने से विस्मित हुए गोप और गोपियों ने अनुरागवश अत्यन्त मनोहर प्रतीत होनेवाले कमलनयन श्री श्याम सुन्दर की स्तुति की ॥१७ ॥

हे विप्र ! उसे मरा देख मेघ पटल में छिपे हुए श्री नारद जी हर्षित चित्र से कहने लगे-॥१८॥

हे जगन्नाथ ! हे अच्युत !! आप धन्य हैं, धन्य है । अहा ! अपने देवताओं को दुःख देनेवाले इस केशी को लीलासे ही मार डाला ॥ १९ ॥

मैं मनुष्य और अश्व के इस अभूतपूर्व ( पहले कभी न होनेवाले ) युद्धको देखनेके लिये ही अत्यन्त उत्कण्ठित होकर स्वर्गसे यहाँ आया था | २०॥

हे मधुसूदन ! आपने अपने इस अवतार में जो-जो कर्म किये हैं उनसे मेरा चित्त अत्यन्त विस्मित और सन्तुष्ट हो रहा है ॥२१॥

हे कृष्ण ! अपनी जटाओं को फड़ फड़ानेवाले और हींस-हींसकर आकाशकी ओर देखनेवाले इस घोड़े से तो समस्त देवगण और इन्द्र भी डर जाते थे ।। २२ ॥

हे जनार्दन ! आपने इस दुष्टात्मा केशी को मारा है; इसलिये आप लोकमें 'केशव' नामसे विख्यात होंगे॥२३॥
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 हे केशिनीषूदन ! आपका कल्याण हो, अब मैं जाता हूँ । परसों कंसके साथ आपका युद्ध होनेके समय मैं फिर आऊँगा ॥२४ ॥

हे पृथिवीधर ! अनुगामीयों सहित उग्रसेन के पुत्र कंस के मारे जानेपर आप पृथ्वी का भार उतार देंगे ।। २५ ॥ 

हे जनार्दन ! उस समय मैं अनेक राजाओं के साथ आप आयुष्मान पुरुषके किये हुए अनेक प्रकारके युद्ध देखूँगा ॥ २६ ॥ 

हे गोविन्द ! अब मैं जाना चाहता हूँ । आपने देवताओं को बहुत बड़ा कार्य किया है। आप सभी कुछ जानते हैं [ मैं अधिक क्या कहूँ ? ] आपका मंगल हो, मैं जाता हूँ" ॥२७॥

तदनन्तर नारद जी के चले जानेपर गोपगणसे सम्मानित गोपियों के नेत्रों के एकमात्र पेय [ अर्थात दृश्य ] श्रीकृष्णचन्द्रने ग्वालबालोंके साथ गोकुल में प्रवेश किया ॥ २८॥
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जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा -
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।9/23।
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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक
अर्थ: –हे अर्जुन ! जो भक्त दूसरे देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, लेकिन उनकी यह पूजा विना विधि पूर्वक ही होती है।
कृष्ण का तो एक ही उद्घोष( एलान) था कि सभी देवताओं से सम्बन्धित सम्प्रदाय ( धर्मों) को छोड़कर मेरी शरण आजा मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय अठारह का मूल श्लोकः देखें निम्न रूपों में
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सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।18.66। 
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
कृष्ण के सन्दर्भ में कुछ तथाकथित नव बौद्ध कहते हैं कि कृष्ण शब्द संस्कृत का है और पाली भाषा में नहीं है।

परन्तु उनको पता होना चाहिए कि( र) वर्ण पाली भाषा में है।
जो कि (ऋ+ अ = र) का सन्ध्यक्षर संक्रमण का नवीन रूप है।
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"दातव्यं दानं तु दीयते दीनं दयनीयं वा।
उच्च दानं दातुः इच्छानुरूपं सुप्रभा।
भिक्षितव्य भिक्षा भिक्षुकस्य इच्छानुरूपा
पुण्यरहिता तुच्छा हीना  इयं  किंवा ।१।
अनुवाद:-
"दान देना ही कर्तव्य है" - तो दान दीन को देना चाहिए जो दया का पात्र होता है यह दान उच्च और दाता की इच्छा के अनुसार होता है।
भीख भिखारी की इच्छा के अनुसार और दान की अपेक्षा तुच्छ व हीन होती है इसका कोई पुण्य नही होता है।१।
  आभीर संहिता-
यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता-9/25) 
अनुवाद:-
देवताओं का पूजन करने वाले  देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों का पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को ही प्राप्त होते हैं।
परन्तु  हे अर्जुन ! मेरा पूजन करने वाले वैष्णव भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।

वेदों में राधा, वृषभानु , कृष्ण अर्जुन केशी दैत्य आदि का वर्णन-

ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के अतिरिक्त चौथे वेद ‌अथर्ववेद में भगवान कृष्ण का वर्णन केशी नामक दैत्य  का वध करने वाला बताकर वर्णन किया गया है।

अत: वेदों में भी कृष्ण होने की बात सिद्ध होती है।
नीचे स्पष्ट रूप से शौनक संहिता ,अथर्ववेद  और सामवेद आदि  में कृष्ण का स्पष्ट उल्लेख है।

(अथर्ववेद - काण्ड »8; सूक्त»6; ऋचा»5)
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१. ( यः कृष्ण:) = जो कृष्ण,२-(केशी) = केशी नामक  ३- (असुरः) =दैत्य  ४-(स्तम्बजः) जिसके केश गुच्छेदार हैं =  ५-(उत) = और ६- (तुण्डिक:) = कुत्सित मुखवाला है / थूथनवाला है। ७-(अरायान्) = निर्धन पुरुषों को ८-(अस्याः) = इस के ९-(मुष्काभ्याम्) = मुष्को से-अण्डकोषों से  तथा  १०-(भंसस:)भसत् कटिदेशः पृषो० । उपचारात् तत्सम्बन्धिनि पायौ ऋ० १० । १६३ ।  = कटिसन्धिप्रदेश  से  ११- (अपहन्मसि) = दूर करते हैं।
 "अनुवाद:- जो कृष्ण केशी दैत्य के गुच्छे दार केशों और उसके विकृत मुख उसके अण्डकोशों तथा इसकी कटि ( कमर)आदि भागों को निर्धन लोग दूर करते हैं।
उपर्युक्त ऋचा में वर्णन है कि कृष्ण केशी दैत्य के गुच्छे दार केशों और उसके विकृत मुख और अण्डकोशों तथा कटि प्रदेश (कमर,)आदि के स्पर्श से गरीब अथवा निर्धन लोगों को तथा  स्वयं को भी कृष्ण दूर करते हैं।

भागवत पुराण में वर्णन है कि कृष्ण-भगवान का अत्यन्त कोमल कर(हाथ) कमल भी उस समय ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो।

उसका स्पर्श होते ही केशी के दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देने पर बहुत बढ़ जाता है, वैसे ही श्रीकृष्ण का भुजदण्ड उसके मुँह में बढ़ने लगा। 
अचिन्त्यशक्ति भगवान श्रीकृष्ण का हाथ उसके मुँह में इतना बढ़ गया कि उसकी साँस के भी आने-जाने का मार्ग न रहा। 
अब तो दम घुटने के कारण वह पैर पीटने लगा। 

दशम स्कन्ध, अध्याय 36, श्लोक 16-26 तथा अध्याय 37, श्लोक 1-9

अथर्ववेद (दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व) में संकलित है जिसमें , केशी,= "बालों (केशों )वाले", दैत्य का  पहली बार वर्णन किया गया है     

अर्जुन द्वारा भगवत गीता में भी कृष्ण को तीन बार केशी का हत्यारा कहा गया है- केशव (1.30 और 3.1) और केशी-निषूदन (18.1)। पहले अध्याय (1.30) में, कृष्ण को केशी के हत्यारे के रूप में संबोधित करते हुए, अर्जुन युद्ध के बारे में अपना संदेह व्यक्त करते हैं।
ऋग्वेद १/१०/३/ तथा यजुर्वेद ८/३४ में केशिन् का वर्णन है ।
पदों अन्वयार्थ:-
युक्ष्वा हि= संयुक्त ही होओ। केशिना= केशी दैत्य के संहारक अथवा सुन्दर केशों वाले के द्वारा   । हरी = हरि भगवान कृष्ण के द्वारा। वृषणा= वृषणों के द्वारा। कक्ष्यप्रा= काँछ के साथ। अथा= और। इन्द्र=  इन्द्र। सोमपा= सोमपा। नः= हमारी।गिरामुप॑श्रुतिं= सुनी हुई वाणी को । चर = दूत ।
"अनुवाद:- केशी दैत्य का बध  करने वाले हरि के साथा जुड़ जाओ ! जिसने केशी दैत्य के अण्डकोष और काँख पकड़ कर फैंक दिया। हे सोमपान करने वाले इन्द्र ! हमारी सुनी हुई स्तुतिगीत को कृष्ण तक दूत के रूप में पहुचाऐं।३।
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पद पाठ
यस्मा॑त्। जा॒तम्। न। पु॒रा। किम्। च॒न। ए॒व। यः। आ॒ब॒भूवेत्या॑ऽऽ ब॒भूव॑। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥ प्र॒जाऽप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। प्र॒जया॑ स॒ꣳर॒रा॒ण इति॑ सम्ऽररा॒णः। त्रीणि॑। ज्योती॑षि। स॒च॒ते॒। सः। षो॒ड॒शी ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:-32» ऋचा -:5
पदों का अर्थ और अन्वय:- हे मनुष्यो ! (यस्मात्) जिस  से (पुरा) पहिले (किम्, चन) कुछ भी (न जातम्) नहीं उत्पन्न हुआ, (यः) जो  (आबभूव) हुआ जिसमें (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक  वर्त्तमान हैं, (सः एव) वही (षोडशी) सोलह कलावाला (प्रजया) प्रजा के साथ (सम्, रराणः) सम्यक्  रमता हुआ (प्रजापतिः) प्रजा का पालक अधिष्ठाता (त्रीणि) तीन (ज्योतीषिं)ज्योतियों  को (सचते) संयुक्त करता है ॥५ ॥
"अनुवाद:-  हे मनुष्यों जिससे पहले कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ। जिससे सम्पूर्ण विश्व और सभी लेक उत्पन्न हुए वही ईश्वर !  सोलह कलाओं से युक्त प्रजा के साथ आनन्द करता हुआ। प्रजा पालक रूप में  तीन ज्योतियों में जुड़ता है।
उपर्युक्त ऋचा में कृष्ण के सौलह कलाओं से सम्पन्न होने का वर्णन है। उस कृष्ण के परम् -ब्रह्म रूप का वर्णन है जो संसार के सृजक पालक और संहारक तीन रूपों की ज्योतियों समाहित होते हैं। और आगे इसी क्रम में 
निम्न ऋचा में भी वृष्णि नन्दन कृष्ण के चरित्र का अद्भुत वर्णन है।

जो एक  पर्वत शिखर से दूसरे पर्वत शिखर पर बहुत सी  चढ़ाई चढ़ते हुए  इन्द्र को सावधान करने के लिए अथवा उसे  चेताने के लिए या कहें  चैलेंज करने के लिए  वृष्णि शिरोमणि कृष्ण अपने यूथ (गोप समूह ) के साथ वहाँ पहुँचते हैं।२।
यत्) यस्मात् = जिससे (सानोः) पर्वतस्य शिखरात्= पर्वत शिखर से । 
 (सानुम्) =शिखरम् । (अरुहत्) रोहति । अत्र लडर्थे लङ् । विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने शः । (भूरि)= बहुत ।  (अस्पष्ट) =स्पशते । अत्र लडर्थे लङ्, बहुलं छन्दसीति शपो लुक् । (कर्त्त्वम्) कर्त्तुं योग्यं /कार्य्यम् । अत्र करोतेस्त्वन् प्रत्ययः । (तत्) तस्मात् (इन्द्रात्)  (अर्थम्) अर्तुं ज्ञातुं प्राप्तुं गुणं द्रव्यं वा । उषिकुषिगार्त्तिभ्यः स्थन् । (उणादि सूत्र०२.४) अनेनार्त्तेः स्थन् प्रत्ययः । (चेतति)= संज्ञापयति प्रकाशयति वा । अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः । (यूथेन) सुखप्रापकपदार्थसमूहेनाथवा वायुगणेन सह । तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः । (उणा०२.१२) अनेन यूथ शब्दो निपातितः । (वृष्णिः) वृष्णे: वंशोद्भव:श्रीकृष्ण   (एजति) कम्पते गम्यते वा ॥२॥


बकरा आदि की बलि से रहित इन्द्रदेव जल रहित हो गया। । तेरे द्वारा दिया गया  जल  अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त हो गया जिसमें   गायों के बाड़े और आभीर वस्ती  वृद्धि रहित  हो गये  ,  ( हे राधा तुम इन्द्र को जल रहित करती हो।  (इन्द्र) इन्द्र। गायों  को ,व्रज  को क्षीण करके  बड़े बड़े विवरों में जल को  कर रहा है।॥७॥

(अद्रिवः) जल रहित। (इन्द्रः) इन्द्र देव।(सुनिरजम्) सु+ निर्+अजम्= बकरा आदि की बलि से रहित इन्द्र को । (त्वादातम्) तु + आदातम्= अथवा त्वा- दातम्। तेरे द्वारा दिया गया ।  (यशः) जल । (सुविवृतम्) अच्छी प्रकार विस्तार को प्राप्त हो  (गवाम्)=  गायों के  (व्रजम्) आभीर वस्ती को  (अपवृधि) वृद्धि रहित   करता है ,  (राधः) राधा   (कृणुष्व) करती हैं,    (अद्रिवः)  जल रहित  (इन्द्र) इन्द्र।  (गवाम्) गायों को ।  (व्रजम्) गायों के बाड़े को (अपावृधि) क्षीण करके  (सुविवृतम्)  बड़े बड़े विवरों में। (सुनिरजम्) सु+ निर्+ अजम् =  (यशः) जल को 
 (कृणुश्व) कम कीजिये॥७॥

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अनुवाद:-
अर्थात् :-हे प्रभो! गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करो । जन्म से ही नित्य  तुम  विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो  तुम अग्नि के समान सर्वत्र विस्तार को प्राप्त हो ।२।

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अर्थात्  हे वृषभानु !  तुम मनुष्यों को देखो पूर्व काल में  कृष्ण अग्नि के सदृश्- उद्भासित होने  वाले है । ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे !
इस  दोनों ऋचाओं में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप  का उल्लेख किया गया है । जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है , क्योंकि वृषभानु गोप ही राधा के पिता हैं।



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पद पाठ-
इ॒दम्। हि। अनु॑। ओज॑सा। सु॒तम्। रा॒धा॒ना॒म्। प॒ते॒। पिब॑। तु। अ॒स्य। गि॒र्व॒णः॒॥

१- (गिर्वणः) स्तुति किये हुए२- (राधानाम्) राधा के षष्ठी विभक्ति बहुवचन सम्बन्ध कारक रूप में  ३-(पते) पति  ! सम्बोधन रूप में हे राधा के पति।  ४-(ओजसा) = बल  के द्वारा  ५-(अस्य) इसके ६-(इदम्) इस ७-(सुतम्) सु + क्त = निचोड़ा हुआ। ८- (पिब)- पीजिए ९-(हि) निश्चय ही ॥१०॥
१-गिर्वणः=
गिरा स्तुत्या वन्यते वन--कर्म्मणि असुन् संज्ञात्वात् णत्वं पृषो० नोपपददीर्घः। १- स्तोतरि च ।
__________


अनुवाद:- हे प्रभु परमात्मन् ! तुम सभी धर्मों के स्वरूप हो। यज्ञ में "होता- यज्ञ में आहुति देनेवाला अथवा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालनेवाला।  जैसे तमस से घृतधाराओं से होमाग्नि को सिञ्चित करता है। उसी प्रकार वह परमात्मा आनन्द में निमग्न होकर सान्त्वना सम्पदा लेकर बोलने की इच्छा से अथवा वाणी की शक्ति से  विश्व कल्याण के लिए लोक का आश्रय करते हैं।

पदपाठ- त्वे इति । धर्माणः । आसते । जुहूभिः । सिञ्चतीःऽइव । कृष्णा । रूपाणि । अर्जुना । वि । वः । मदे । विश्वाः । अधि । श्रियः । धिषे । विवक्षसे ॥३

(त्वे) हे प्रभो ! परमात्मन् ! (धर्माणः-आसते) तुम सभी धर्मों के स्वरूप हो (जुहूभिः-सिञ्चतीः-इव) होता- होम के चम्मच( चमस) से जैसे घृत-धाराएँ सींची जाती हुई होमाग्नि में आश्रय लेती हैं, उसी भाँति (कृष्णा अर्जुना रूपाणि) तुम कृष्ण और अर्जुन आदि रूपों में (मदे) आनन्द में  (वः) और सान्त्वना सम्पदा के लिए  उतरते हो (विश्वाः श्रियः-अधि धिषे)विश्व - कल्याण के लिए । (विवक्षसे) बोलने की इच्छा से वाणी की शक्ति से॥३।।
___________________________    
श्रीमद्भगवदगीता में भगवान कृष्ण इस प्रकार कहते हैं:
"वेदैश्च च सर्वैर् अहं एव वेद्यो
"सभी वेदों के द्वारा, मुझे जाना जाएगा।" (गीता 15.15)

कृष्ण और राधा जी का वर्णन ऋक्-परिशिष्ट-श्रुति के निम्नलिखित कथन में किया गया है:
"राधाय माधवो देवो, माधवेन च राधिका, विभ्रजन्ते जनेसु च

श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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परिशिष्ट

श्रीराधा, श्रीराधा-नाम और राधा-उपासना सनातन है

इसके अतिरिक्त दक्षिण के बहुत-से प्राचीन ग्रन्थों में राधा का उल्लेख है। भक्त कवि बिल्वमगंल का ‘कृष्णकर्णामृत’ तो श्रीराधा-कृष्णलीला से ही ओतप्रात है।

वेद में ‘राधम्’ आदि शब्द बहुत जगह आये हैं। इसके विभिन्न अर्थ किये गये हैं। हो सकता है कि वेद के कोई विशिष्ट विद्वान इसका स्पष्ट ‘राधा’ ही अर्थ करें।

महाभारत के प्रसिद्ध टीकाकार महान् श्रीनीलकण्ठजी ने ऋग्वेद के बहुत-से मन्त्रों के भगवान श्रीकृष्ण के लीला परक अर्थ किये हैं। उनका इस विषय पर एक ग्रन्थ ही है- जिसका नाम है ‘मन्त्रभागवत’। इसमें नीलकण्ठ जी ने निम्रलिखित मन्त्र में राधा के दर्शन किये हैं-
मन्त्र है-

"अतारिषुर्भरता गव्ययः समभक्त विप्रः सुमतिं नदीनाम्।
प्रपिन्वध्वभिषयन्ती सुराधा आवक्षाणाः पृणध्वं यात शीभम्।।

 (गव्यवः) गायों का  (भरताः) भरण करने वाली (सुराधाः)  हे सुन्दर राधा जी   (नदीनाम्) नदियों को (अतारिषुः) तारण करें   (विप्रः) विद्याया: वपति इति विप्र-  (सुमतिम्) उत्तम मति को (सम -भक्त) समान भक्ति करने वाले।  (इषयन्तीः) इच्छा करती हुई 
(वक्षणाः) बछड़ो को। 
 (बहुवचन) (प्र, पिन्वध्वम्) लोट लकार बहुवचन आत्मने पदीय सिञ्चन करों /दूध पिलाओ  (आ) (पृणध्वम्) प्रसन्न करो  (शीभम्) शीघ्र (यात) जाओ ॥१२॥
"अनुवाद:- गायों का भरण करने वाली हे सुन्दर राधे ! शीघ्र हम्हें प्रसन्न करो ।
जैसे गायें बछड़ों को अपने मातृत्व से प्रसन्न करती हैं। जैसे नदियाँ अपने जल से भक्तों को समान जल प्रदान करती हैं। उन्हें तृप्त करती हैं।

राधा  गोपागंनाओं में सर्वोपरि महत्त्व रखती हैं- इसलिये यहाँ उन्हें ‘सुराधा’ कहा गया है। इस मन्त्र का नीलकण्ठ जी कृत अर्थ मन्त्र-भागवत में देखना चाहिये।
  1. ऋग्वेद 3/33/12
  2.  यह "मन्त्र भागवत" ग्रन्थ खेमराज श्रीकृष्णदास के वेकटेश्वर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित है।

इसके अतिरिक्त ऋक्-परिशिष्ट के नाम से निम्रलिखित श्रुति निम्बार्क-सम्प्रदाय के उदुम्बरसंहिता, वेदान्तरत्नमंजूषा, सिद्धान्तरत्न आदि ग्रन्थों में तथा श्रीश्रीजीवगोस्वामी के प्रसिद्ध ग्रन्थ श्रीकृष्णसंदर्भ अनुच्छेद (189) में उद्धत की हुई मिलती है-

‘राधया माधवो देवो माधवेन च राधिका। विभ्राजते जनेषु। योऽनयोर्भेदं पश्यति स मुक्तः स्यान्न संसृतेः।’

अर्थात् ‘भगवान श्रीमाधव श्रीराधा के साथ और श्रीराधा श्रीमाधव के साथ सुशोभित रहती हैं। मनुष्यों में जो कोई इनमें अन्तर देखता है तो वह संसार से मुक्त नहीं होता।’

राधा जी की एक प्रय सखी विशाखा नाम से थीं। 
पुण्यं पूर्वा फल्गुन्यौ चात्र हस्तश्चित्रा शिवा स्वाति सुखो मे अस्तु ।
राधे विशाखे सुहवानुराधा ज्येष्ठा सुनक्षत्रमरिष्ट मूलम् ॥३॥

______________________________

"पद्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, भविष्यपुराण, श्रीमद्देवीभागवत, मत्स्यपुराण, आदिपुराण, वायु पुराण, वराह पुराण, नारदीय पुराण, गर्गसंहिता, सनत्कुमारसंहिता, नारदपाच्चरात्र, राधातन्त्र आदि अनेकों ग्रन्थों में ‘राधा-महिमा’ का स्पष्ट उल्लेख है।



(ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; ऋचा » 31)
(अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 11)

गोपाम्) गोपाल कृष्ण को।  अनिपद्यमानम्) न गिरनेवाले [अचल], (पथिभिः) मार्गों से (आ, च) आगे और (परा, च) पीछे (चरन्तम्) - आ चरन्तम्) समीप आते हुए को  (अपश्यम्) देखता हूँ (सः) वह गोप (सध्रीचीः) साथी रूप में  (सः)  (विषूचीः) अनेक प्रकार की गतियों में स्वयं को (वसानः) ढाँपता हुआ (भुवनेषु) लोकलोकान्तरों के (अन्तः) बीच में (आ, वरीवर्त्ति) निरन्तर प्रकार वर्त्तमान है ॥ ३१

“मैंने एक  गोपाल  ( गोप ) को देखा। वह कभी अपने पद से नहीं गिरता; कभी वह निकट होता है, कभी दूर, विभिन्न पथों पर गमन करता रहता है। वह मित्र साथी है, नाना प्रकार के वस्त्रों से सुसज्जित है। वह बार-बार भौतिक दुनिया के मध्य में आता है।
__________    
उपर्युक्त श्लोक में सभी गोपों में सबसे प्रमुख कृष्ण का वर्णन किया गया है। इसमें कृष्ण को अवतारी पुरुष और सर्वोच्च भगवान के रूप में भी वर्णित किया गया है।

प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार रोहि (अलीगढ़) एवम् इ० माताप्रसाद सिंह यादव (
छान्दोग्य उपनिषद में कृष्ण का वर्णन-
छांदोग्य उपनिषद् सामवेदीय छान्दोग्य ब्राह्मण का औपनिषदिक भाग है जो प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। यह उपनिषद ब्रह्मज्ञान के लिये प्रसिद्ध है।
इसका समय 8 वीं से 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व है।

तद्धैताद्घोर अंगिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रयोक्तवोवाचापिपास एव स बभुव सोऽन्तवेलायमेतत्रयं प्रतिपद्येताक्षितमास्युतमसि प्राणसंशितमासीति तत्रैते दवे ऋचौ भवतः || 3.17.6 ||

अनुवाद:-

6.  घोर अंगिरस ऋषि ने देवकी के पुत्र कृष्ण को यह सत्य सिखाया था । परिणामस्वरूप, कृष्ण सभी इच्छाओं से मुक्त हो गए। तब घोर ने कहा: 'मृत्यु के समय व्यक्ति को ये तीन मंत्र दोहराने चाहिए: आत्मा का कभी नाश नहीं होता, आत्मा कभी नहीं बदलता, और आत्मा जीवन का स्वरूप हैं।" इस संबंध में यहां दो ऋक मंत्र दिए गए हैं:

राधाय माधवो देवो, माधवेन च राधिका, विभ्रजन्ते जनेसु च



पद्म पुराण:

पद्म पुराण में भी प्राचीन ऋग्वेद श्लोक की महिमा दी गई है। यह इस प्रकार है:
,
पद्म पुराण में भी प्राचीन ऋग्वेद श्लोक की महिमा दी गई है। यह इस प्रकार है:
पद्म पुराण में भी प्राचीन ऋग्वेद श्लोक की महिमा दी गई है। यह इस प्रकार है:
,"यदक्षरं वेदगुह्यं यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः।
यस्तन्नो वेद किमृचा करिष्यति ये तद्विदुस्त इमे समासते ।६७।
अनुवाद:-
जो अक्षर { अविनाशी) तथा वेद में गोपनीय है। जिसमें सम्पूर्ण देव निवास करते हैं। वे देव ही यदि उसको नहीं जानते तो  इसमें वेद की ऋचा क्या करेगी? जो लोग इसके जानते हैं वे उसी को में रहते हैं।६७।

तद्विष्णोः परमं धाम सदा पश्यन्ति सूरयः ।
अक्षरं शाश्वतं दिव्यं देवि चक्षुरिवाततम् ।६८।
अनुवाद:-उन विष्णु के परम धाम का सूरजन(साधक-ज्ञानी ) सदा दर्शन करते हैं। अक्षर शाश्वत तथा दिव्य वह नेत्र के समान विस्तृत है।६८।
तुलना करें -इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है। "विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान माना गया है -
  • "तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् -(ऋग्वेद १/२२/२०)।


सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर का विस्तृत (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥

अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं।

ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) का ऋचा संख्या (6)

  • "ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः ।अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि" ऋग्वेद-१/१५४/६।

सायण- भाष्य-"हे यजमान और उसकी पत्नी ! तुम दोनों के लिए जाने योग्य उन प्रसिद्ध सुखपूर्वक निवास करने योग्य स्थानों पर हम कामना करते हैं।
अर्थात तुम्हारे जाने के लिए विष्णु से प्रार्थना करते हैं। जिन स्थानों पर किरणें अत्यन्त उन्नत और बहुतों के द्वारा आश्रयवाली होकर अति विस्तृत हैं। अथवा न जाने वाली अर्थात् अत्यन्त प्रकाशवाली हैं।
उन निवास स्थानों के आधारभूत द्युलोक में बहुत से महात्माओं के द्वारा स्तुति करने योग्य और कामनाओं की वर्षा करने वाले विष्णु का गन्तव्य रूप में प्रसिद्ध निरतिशय स्थान अपनी महिमा से अत्यधिक स्फुरित होता है।६।


तत्प्रवेष्टुमशक्यं च ब्रह्मरुद्रादिदैवतैः।
ज्ञानेन शास्त्रमार्गेण वीक्ष्यते योगिपुंगवैः ।६९।
अनुवाद:-उसमे प्रवेश करने के लिए ब्रह्मा रूद्र आदि देवगण भी  असमर्थ हैं। ज्ञान और शास्त्रीय पद्धति से श्रेष्ठ योगी उनका दर्शन करते हैं।६९।

अहं ब्रह्मा च देवाश्च न जानन्ति महर्षयः ।
सर्वोपनिषदामर्थं दृष्ट्वा वक्ष्यामि सुव्रते ।७०।
अनुवाद:-हे सुव्रते! मैं ( शंकर) ,ब्रह्मा और देवगण  और महर्षि लोग भी उसे नहीं जानते । मैं तो सभी उपनिषदों के अर्थ को देखकर ही कहता हूँ।७०।

विष्णोः पदे हि परमे पदे तत्सशुभाह्वयेः ।
यत्र गावो भूरिशृंगा आसते सुसुखाः प्रजाः ।७१।
अनुवाद:- भगवान विष्णु के परम पद में  शुभ आह्वान है । वहाँ पर  बहुत अधिक सींगो वाली गायें तथा प्रजाऐं सुखपूर्वक रहती हैं।७१।

अत्राह तत्परं धाम गोपवेषस्य शार्ङ्गिणः ।
तद्भाति परमं धाम गोभिर्गोपैस्सुखाह्वयैः ।७२।
अनुवाद:- अब परम धाम का वर्णन करता हूँ। जहाँ  सुख से सम्पन्न गायें तथा वह लोक गोपों से  युक्त है।७२।

सामान्या विभिते भूमिन्तेऽस्मिन्शाश्वते पदे ।
तस्थतुर्जागरूकेस्मिन्युवानौ श्रीसनातनौ ७४।
अनुवाद:-इस शाश्वत धाम में सामान्य भूमि है। इसमें सदा जवान रहने वाले  भदेवी और नीला देवी के साथ  सनातन भगवान रहते हैं।७४।

यतः स्वसारौ युवती भू-नीले विष्णुवल्लभे ।
अत्र पूर्वे ये च साध्या विश्वेदेवास्सनातनाः ।७५।
यतः स्वसारौ युवती भू-नीले विष्णुवल्लभे ।
अत्र पूर्वे ये च साध्या विश्वेदेवास्सनातनाः ।७५।
अनुवाद:-जहाँ से दौनो बहिनें इसमें सदा जवान रहने वाले  भूदेवी और नीला देवी के साथ  सनातन भगवान रहते हैं।७५।

''गोलोक के निवास में, बड़े-उत्कृष्ट सींगों वाली कई गायें हैं और जहां सभी निवासी अत्यंत आनंद में रहते हैं।'' -पद्म पुराण उत्तर खंड अध्याय-( 227) में इसी प्रकार का वर्णन है।

इसके अलावा, पद्म पुराण, भूमि खंड, अध्याय 4.1 में वर्णन है - गतेषु तेषु गोलोकं वैष्णवं तमसः परम् 
शिवशर्मा महाप्राज्ञः कनिष्ठं वाक्यमब्रवीत् १।
'सोम शर्मा की पितृ भक्ति' वाला अध्याय - गोलोक का वर्णन फिर से सुत गोस्वामी द्वारा इस प्रकार किया गया है: 

4. ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्म वैवर्त पुराण, प्रकृति खंड, अध्याय 54.15-16 में इस प्रकार बताया गया है

ऊर्ध्वं वैकुण्ठ लोक च पञ्चशत कोटि योजनात्
गोलोक वर्तुलकारो वृद्ध स सर्वलोकः

"गोलोक का सर्वोच्च निवास वैकुंठ के निवास से करोड़ योजन (1 योजन-8 किमी) ऊपर स्थित है। यह सभी लोकों में सबसे ऊंचा है।"- ब्रह्म वैवर्त पुराण, प्रकृति खंड 54.15-16

इसके अलावा, गोलोक वृन्दावन की श्रेष्ठ स्थिति का वर्णन ब्रह्म वैवर्त पुराण, कृष्ण जन्म खंड, अध्याय 4.188 में भी इस प्रकार है:

ब्रह्माण्ड बहिर् ऊर्ध्वं च न अस्ति लोकास्ता ऊर्ध्वकः

ऊर्ध्वं सूर्यमयं सर्वं तदन्त सृस्तिर एव च
''गोलोक का यह निवास ब्रह्माण्ड के बाहर स्थित है। यह सबसे ऊँचा स्थान है. इससे कोई दूसरा लोक नहीं है। इसका पूर्ण शून्यता (अनन्त शून्यता एवं अंधकार) है। वास्तव में, यह गोलोक राक्षसी राक्षस का अंत है।''- ब्रह्म वैवर्त पुराण, कृष्ण जन्म खंड 4.188

वैकुण्ठ च शिवलोक च गोलोक च तयो परः

''गोलोक शिवलोक और वैकुंठ लोक के ऊपर स्थित है।'' - ब्रह्म वैवर्त पुराण 1.7.20

5. बृहत् ब्रह्म संहिता (पंचरात्र)

बृहत् ब्रह्म संहिता- 3.1.122 में इस प्रकार कहा गया है:
उर्ध्वं तु सर्वलोकेभ्यो गोलोके प्रकृतिः परे

“गोलोक का निवास सभी स्थानों के ऊपर स्थित है। यह पूरी तरह से पदार्थ से परे (अनुवांशिक) है।" बृहत् ब्रह्म संहिता 3.1.122
__________________
6. वायु पुराण:-
वायु पुराण में, गोलोक का सर्वोच्च निवास, जिसमें भगवान कृष्ण और श्रीमती राधारानी शाश्वत रूप से निवास करते हैं, का वर्णन इस प्रकार किया गया है।

धावतोऽन्यानतिक्रान्तं वदतो वागगोचरम् ।
वेदवेदान्तसिद्धान्तैर्विनिर्णीतं तदक्षरम् ।४२.४२ ।

अक्षरान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा सा परा गतिः ।
इत्येवं श्रूयते वेदे बहुधापि विचारिते ।। ४२.४३ ।।

अक्षरस्यात्मनश्चापि स्वात्मरूपतया स्थितम्।
परमानन्दसन्दोहरूपमानन्द विग्रहम् ।। ४२.४४।

लीलाविलासरसिकं बल्लवीयूथमध्यगम्।
शिखिपिच्छकिरीटेन बास्वद्रत्नचितेन च ।४२.४५।

उल्लसद्विद्युदाटोपकुण्डलाभ्यां विराजितम्।
कर्णोपान्तचरन्नेत्रखञ्जरीटमनोहरम् ।।४२.४६।।

कुञ्जकुञ्जप्रियावृन्दविलासरतिलम्पटम्।
पीताम्बरधरं दिव्यं चन्दनालेपमण्डितम् ।।४२.४७।

अधरामृत संसिक्तवेणुनादेन वल्लवीः।
मोहयन्तञ्चिदानन्दमनङ्गमदभञ्जनम् ।४२.४८ ।

कोटिकामकलापूर्णं कोटिचन्द्रांशुनिर्मलम्।
त्रिरेखकम्ठविलसद्रत्नगुञ्जामृगा कुलम् ।४२.४९ 

यमुनापुलिने तुङ्गे तमालवनकानने।
कदम्बचम्पकाशोकपारिजातमनोहरे ।। ४२.५० ।।

शिखिपारावतशुकपिककोलाहलाकुले।
निरोधार्थं गवामेव धावमानमितस्ततः ।। ४२.५१।

राधाविलासरसिकं कृष्णाख्यं पुरुषं परम्।
श्रुतवानस्मि वेदेभ्यो यतस्तद्गोचरोऽभवत् ।। ४२.५२ ।।

एवं ब्रह्मणि चिन्मात्रे निर्गुणे भेदवर्जिते।
गोलोकसंज्ञिके कृष्णो दीव्यतीति श्रुतं मया ।। ४२.५३ ।।

नातः परतरं किञ्चिन्निगमागमयोरपि।
तथापि निगमो वक्ति ह्यक्षरात् परतः परः।४२.५४।

गोलोकवासी भगवानक्षरात्पर उच्यते।
तस्मादपि परः कोऽसौ गीयते श्रुतिभिः सदा । ४२.५५ ।

उद्दिष्टो वेद वचनैर्विशेषो ज्ञायते कथम्।
श्रुतेर्वार्थोऽन्यथा बोध्यः परतस्त्वक्षरादिति ।। ४२.५६ ।।

श्रुत्यर्थे संशयापन्नो व्यासः सत्यवतीसुतः।
विचारयामास चिरं न प्रपेदे यथातथम् ।४२.५७।

                 "सूत उवाच।।
विचारयन्नपि मुनिर्नाप वेदार्थनिश्चयम्।
वेदो नारायणः साक्षाद्यत्र मुह्यन्ति सूरयः।४२.५८।

तथापि महतीमार्त्तिं सतां हृदयतापिनीम्।
पुनर्विचारयामास कं व्रजामि करोमि किम् । ४२.५९ ।

पश्यामि न जगत्यस्मिन्सर्वज्ञं सर्वदर्शनम्।
अज्ञात्वाऽन्यतमं लोके सन्देहविनिवर्त्तकम् । ४२.६० ।

सन्दर्भ :-वायुपुराण 104(42) वें अध्याय के ( 42-60 )  तक के श्लोक- 
_______________
“भगवान कृष्ण, जो पत्नी राधा जी के प्रेमी हैं, वेदों में सर्वोच्च पुरुष कहलाते हैं।” जिनसे  यह सारा संसार प्रकट होता है। उन्होंने वास्तविक वेदों में अद्वैत निर्गुण ब्रह्म का वर्णन किया है, जो गोलोक के अपने शाश्वत निवास में रहता है। “-वायु पुराण 104 ( 42).52-55
________. 
श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे/
श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके राधिकाश्रमे । रासमण्डल-मध्ये च मह्यं वृन्दावने वने ॥ ९॥
श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे/नारद-नारायणसंवादे परशुरामाय श्रीकृष्णकवच-प्रदानं नाम एकत्रिंशत्तमोऽध्ययः ॥
_____________

8. स्कंद पुराण
स्कंद पुराण के वासुदेव महात्म्य (वैश्व खंड) के प्रसिद्ध खंड में भगवान कृष्ण के गोलोक निवास का विस्तृत वर्णन है।

"वासुदेवस्याङ्गतया भावयित्वा सुरान्पितॄन् ।।
अहिंसपूजाविधिना यजन्ते चान्वहं हि ते ।। ३१ ।।

अहिंसया च तपसा स्वधर्मेण विरागतः ।। वासुदेवस्य माहात्म्यज्ञानेनैवात्मनिष्ठया ।। २५।।

संमानिता सुरगणैः पाद्यार्घ्यस्वागतादिभिः ।।
ते बृहन्मुनयोऽपश्यन्मेध्यांस्तान्क्रोशतः पशून् ।७।

सात्त्विकानामपि च तं देवानां यज्ञविस्तरम् ।।
हिंसामयं समालोक्य तेऽत्याश्चर्यं हि लेभिरे ।। ८ ।

धर्मव्यतिक्रमं दृष्ट्वा कृपया ते द्विजोत्तमाः ।।
महेन्द्रप्रमुखानूचुर्देवान्धर्मधियस्ततः ।। ९ ।।

सात्त्विकानां हि वो देवः साक्षाद्विष्णू रमापतिः ।।
अहिंसयज्ञेऽस्ति ततोऽधिकारस्तस्य तुष्टये ।१९ ।

प्रत्यक्षपशुमालभ्य यज्ञस्याचरणं तु यत् ।।
धर्मः स विपरीतो वै युष्माकं सुरसत्तमाः ।। 2.9.6.२० ।।

________ 
सन्दर्भ:- स्कन्दपुराणम्‎ - खण्डः २ (वैष्णवखण्डः)‎ वासुदेवमाहात्म्यम्
                 " सावर्णिरुवाच ।।
स हि भक्तो भगवत आसीद्राजा महान्वसुः ।।
किं मिथ्याऽभ्यवदद्येन दिवो भूविवरं गतः ।। १ ।।

केनोद्धृतः पुनर्भूमेः शप्तोऽसौ पितृभिः कुतः ।।
कथं मुक्तस्ततो भूप इत्येतत्स्कन्द मे वद् ।। २ ।।
                  "स्कन्द उवाच ।।
शृणु ब्रह्मन्कथामेतां वसोर्वास वरोचिषः ।।
यस्याः श्रवणतः सद्यः सर्वपापक्षयो भवेत् ।। ३ ।।

स्वायम्भुवान्तरे पूर्वमिन्द्रो विश्वजिदाह्वयः ।।
आररम्भे महायज्ञमश्वमेधाभिधं मुने ।। ४ ।।

निबद्धाः पशवोऽजाद्याः क्रोशन्तस्तत्र भूरिशः ।।
सर्वे देवगणाश्चापि रसलुब्धास्तदासत ।। ५ ।।

क्षेमाय सर्वलोकानां विचरन्तो यदृच्छया ।।
महर्षय उपाजग्मुस्तत्र भास्करवर्च्चसः ।। ६।।

संमानिता सुरगणैः पाद्यार्घ्यस्वागतादिभिः ।।
ते बृहन्मुनयोऽपश्यन्मेध्यांस्तान्क्रोशतः पशून् ।७।

सात्त्विकानामपि च तं देवानां यज्ञविस्तरम् ।।
हिंसामयं समालोक्य तेऽत्याश्चर्यं हि लेभिरे ।। ८ ।।

धर्मव्यतिक्रमं दृष्ट्वा कृपया ते द्विजोत्तमाः ।।
महेन्द्रप्रमुखानूचुर्देवान्धर्मधियस्ततः ।। ९ ।।
                    "महर्षय ऊचुः ।।
देवैश्च ऋषिभिः साकं महेन्द्राऽस्मद्वचः शृणु ।।
यथास्थितं धर्मतत्त्वं वदामो हि सनातनम् ।। 2.9.6.१० ।।

यूयं जगत्सर्गकाले ब्रह्मणा परमेष्ठिना ।।
सत्त्वेन निर्मिताः स्थो वै चतुष्पाद्धर्मधारकाः । ११।

रजसा तमसा चासौ मनूंश्चैव नराधिपान् ।।
असुराणां चाधिपतीनसृजद्धर्मधारिणः ।। १२ ।।

सर्वेषामथ युष्माकं यज्ञादिविधिबोधकम् ।।
ससर्ज श्रेयसे वेदं सर्वाभीष्टफलप्रदम् ।। १३ ।।

अहिंसैव परो धर्मस्तत्र वेदेऽस्ति कीर्त्तितः ।।
साक्षात्पशुवधो यज्ञे नहि वेदस्य संमतः ।। १४ ।।

चतुष्पादस्य धर्मस्य स्थापने ह्येव सर्वथा ।।
तात्पर्यमस्ति वेदस्य न तु नाशेऽस्य हिंसया ।१५ ।

रजस्तमोदोषवशात्तथाप्यसुरपा नृपाः ।।
मेध्येनाजेन यष्टव्यमित्यादौ मतिजाड्यतः ।।
छागादिमर्थं बुबुधुर्व्रीह्यादिं तु न ते विदुः ।। १६ ।।

सात्त्विकानां तु युष्माकं वेदस्यार्थो यथा स्थितः ।।
ग्रहीतव्योन्यथा नैव तादृशी च क्रियोचिता ।१७।

यादृशो हि गुणो यस्य स्वभावस्तस्य तादृशः ।।
स्वस्वभावानुसारेण प्रवृत्तिः स्याच्च कर्मणि ।१८ ।।
सात्त्विकानां हि वो देवः साक्षाद्विष्णू रमापतिः ।।
अहिंसयज्ञेऽस्ति ततोऽधिकारस्तस्य तुष्टये ।१९ ।

प्रत्यक्षपशुमालभ्य यज्ञस्याचरणं तु यत् ।।
धर्मः स विपरीतो वै युष्माकं सुरसत्तमाः ।। 2.9.6.२० ।।

रजस्तमोगुणवशादासुरीं संपदं श्रिताः ।।
युष्माकं याजका ह्येते सन्त्यवेदविदो यथा ।। २१।।

तत्सङ्गादेव युष्माकं साम्प्रतं व्यत्ययो मतेः ।।
जातस्तेनेदृशं कर्म प्रारब्धमिति निश्चितम् ।। २२ ।।

राजसानां तामसानामासुराणां तथा नृणाम् ।।
यथागुणं भैरवाद्या उपास्याः सन्ति देवताः ।। २३।

स्वगुणानुगुणात्मीयदेवतातुष्टये भुवि ।।
हिंस्रयज्ञविधानं यत्तेषामेवोचितं हि तत् ।। २४ ।।

तत्रापि विष्णुभक्ता ये दैत्यरक्षोनरादयः ।।
तेषामप्युचितो नास्ति हिंस्रयज्ञः कुतस्तु वः ।२५ ।

यज्ञशेषो हि सर्वेषां यज्ञकर्मानुतिष्ठताम् ।।
अनुज्ञातो भक्षणार्थं निगमेनैव वर्तते ।। २६ ।।

सात्त्विकानां देवतानां सुरामांसाशनं क्वचित् ।।
अस्माभिस्त्वीक्षितं नैव न श्रुतं च सतां मुखात् ।। २७ ।।

तस्माद्व्रीहिभिरेवासौ यज्ञः क्षीरेण सर्पिषा ।।
मेध्यैरन्नरसैश्चाऽन्यैः कार्यो न पशुहिंसया ।।२८।।

तत्रापि बीजैर्यष्टव्यमजसंज्ञामुपागतैः ।।
त्रिवर्षकालमुषितैर्न्न येषां पुनरुद्गमः ।। २९ ।।
अद्रोहश्चायलोभश्च दमो भूतदया तपः ।।
ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमदम्भश्च क्षमा धृतिः ।। 2.9.6.३० ।।

सनातनस्य धर्मस्य रूपमेतदुदीरितम् ।।
तदतिक्रम्य यो वर्तेद्धर्मघ्नः स पतत्यधः ।। ३१ ।।
           ।। स्कन्द उवाच ।।
इत्थं वेदरहस्यज्ञैर्महामुनिभिरादरात् ।।
बोधिता अपि सन्नीत्या स्वप्रतिज्ञाविघाततः ।।

तद्वाक्यं जगृहुर्नैव तत्प्रामाण्यविदोपि ते ।। ३२ ।।

महद्व्यतिक्रमात्तर्हि मानक्रोधमदादयः ।।
विविशुस्तेष्वधर्मस्य वंश्याश्छिद्रगवेषिणः ।। ३३ ।।
अजश्छागो न बीजानीत्यादि वादिषु तेष्वथ ।।
विमनस्स्वृषिवर्येषु पुनस्तान्बोधयत्सु च ।। ३४ ।।
राजोपरिचरः श्रीमांस्तत्रैवागाद्यदृच्छया ।।
तेजसा द्योतयन्नाशा इन्द्रस्य परमः सखा ।। ३५ ।।
तं दृष्ट्वा सहसायान्तं वसुं ते त्वन्तरिक्षगम् ।।
ऊचुर्द्विजातयो देवानेष च्छेत्स्यति संशयम् ।। ३६ ।।
एष भूमिपतिः पूर्वं महायज्ञान्सहस्रशः ।।
चक्रे सात्वततन्त्रोक्तविधिनारण्यकेन च ।। ३७ ।।
येषु साक्षात्पशुवधः कस्मिंश्चिदपि नाऽभवत् ।।
न दक्षिणानुकल्पश्च नाप्रत्यक्षसुरार्च्चनम् ।। ३८ ।।
अहिंसाधर्मरक्षाभ्यां ख्यातोसौ सर्वतो नृपः ।।
अग्रणीर्विष्णुभक्तानामेकपत्नीमहाव्रतः ।। ३९ ।।
ईदृशो धार्मिकवरः सत्यसन्धश्च वेदवित् ।।
कथंचिन्नान्यथा ब्रूयाद्वाक्यमेष महान्वसुः ।। 2.9.6.४० ।।
एवं ते संविदं कृत्वा विबुधा ऋषयस्तथा ।।
अपृच्छन्सहसाऽभ्येत्य वसुं राजानमुत्सुकाः ।। ४१ ।।
देवमहर्षय ऊचुः ।।
भो राजन्केन यष्टव्यं पशुना होस्विदौषधैः ।।
एतं नः संशयं छिन्धि प्रमाणं नो भवान्मतः ।। ४२ ।।
स्कन्द उवाच ।।
स तान्कृताञ्जलिर्भूत्वा परिपप्रच्छ वै वसुः ।।
कस्य वः को मतः पक्षो ब्रूत सत्यं समाहिताः ।। ४३ ।।
महर्षय ऊचुः ।।
धान्यैर्यष्टव्यमित्येव पक्षोऽस्माकं नराधिप ।।
देवानां तु पशुः पक्षो मतं राजन्वदात्मनः ।। ४४ ।।
स्कन्द उवाच ।।
देवानां तु मतं ज्ञात्वा वसुस्तत्पक्षसंश्रयात् ।।
छागादिपशुनैवेज्यमित्युवाच वचस्तदा ।। ४५ ।।
एवं हि मानिनां पक्षमसन्तं स उपाश्रितः ।।
धर्मज्ञोप्यवदन्मिथ्या वेदं हिंसापरं नृपः ।।४६।।
तस्मिन्नैव क्षणे राजा वाग्दोषादन्तरिक्षतः ।।
अधः पपात सहसा भूमिं च प्रविवेश सः।।
महतीं विपदं प्राप भूमिमध्यगतो नृपः।।
स्मृतिस्त्वेनं न प्रजहौ तदा नारायणाश्रयात्।।४८।।
मोचयित्वा पशून्त्सर्वांस्ततस्ते त्रिदिवौकसः ।।
हिंसाभीता दिवं जग्मुः स्वाश्रमांश्च महर्षयः।।४९।।
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णव खण्डे श्रीवासुदेवमाहात्म्ये वेदस्यहिंसापरत्वोक्त्या उपरिचरवसोरधःपातवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ।।६।।


एकान्तधर्मसिद्यर्थं वासुदेवस्य पूजनम् ।।
करिष्य इति संकल्प्य कुर्यान्न्यासविधिं ततः ।। २ ।।
न्यासे मन्त्रा द्वादशार्णो गायत्री वैष्णवी तथा।।
नारायणाष्टाक्षरश्च ज्ञेया विष्णुषडक्षरः ।। ३ ।।
एते द्विजानां विहितास्तदन्येषां त्विह त्रयः ।।
वासुदेवाष्टाक्षरश्च हरिपञ्चाक्षरस्तथा ।।
षडर्णः केशवस्येति न्यासे होमे च संमताः ।। ४
ततोऽक्षरब्रह्मरूपो राधाकृष्णं हृदि प्रभुम् ।।
ध्यायेदव्यग्रमनसा प्राणायामं समाचरन्।।९।।
अधोमुखं नाभिपद्मं कदलीपुष्पवत्स्थितम्।।
विभाव्यापानपवनं प्राणेनैक्यमुपानयेत्।।2.9.28.१०।।
पद्मनाले तमानीय सह तेन तदम्बुजम्।।
आकर्षेदूर्ध्वमथ तन्नदत्तीव्रमुपैति हृत् ।।
प्रफुल्लति च तत्रैतद्धृदयाकाश उल्लसत् ।। ११ ।।
तेजोराशिमये तत्र ततोप्यधिकतेजसा ।।
दर्शनीयतमं शान्तं ध्यायेच्छ्रीराधिकापतिम् ।। १२ ।।
उपविष्टं स्थितं वा तं दिव्यचिन्मयविग्रहम् ।।
ध्यायेत्किशोरवयसं कोटिकन्दर्पसुन्दरम् ।। १३ ।।
रूपानुरूपसंपूर्णदिव्यावयवलक्षितम् ।।
शरच्चन्द्रावदातांगं दीर्घचारुभुजद्वयम् ।। १४ ।।
आरक्तकोमलतलरम्यांगुलिपदाम्बुजम् ।।
तुंगारुणस्निग्धनखद्युतिलज्जायितोडुपम् ।। १५ ।।
स्कन्द पुराण28वाँ अध्याय ।
प्राप्ता ये वैष्णवीं दीक्षां वर्णाश्चत्वार आश्रमाः ।।
चातुर्वर्ण्यस्त्रियश्चैते प्रोक्ता अत्राधिकारिणः ।। ७ ।।
वेदतन्त्रपुराणोक्तैर्मन्त्रैर्मूलेन च द्विजाः ।।
पूजेयुर्दीक्षिता योषाः सच्छूद्रा मूलमन्त्रतः ।।
मूलमन्त्रस्तु विज्ञेयः श्रीकृष्णस्य षडक्षरः ।।८।।
स्वस्वधर्मं पालयद्भिः सर्वेरेतैर्यथाविधि ।।
पूजनीयो वासुदेवो भक्त्या निष्कपटान्तरैः ।। ९ ।।
आदौ तु वैष्णवीं दीक्षां गृह्णीयात्सद्वरोः पुमान् ।।
सदैकान्तिकधर्मस्थाद्ब्रह्मजातेर्दयानिधेः ।। 2.9.26.१० ।।


स्कन्द पुराण गोलोक वर्णन
भूम्यप्तेजोनिलाकाशाहम्महत्प्रकृतीः क्रमात् ।।
क्रान्त्वा दशोत्तरगुणाः प्राप गोलोकमद्भुतम् ।।१२।।
धाम तेजोमयं तद्धि प्राप्यमेकान्तिकैर्हरेः।।
गच्छन्ददर्श विततामगाधां विरजां नदीम्।।१३।।
गोपीगोपगणस्नानधौतचन्दनसौरभाम्।।
पुण्डरीकैः कोकनदै रम्यामिन्दीवरैरपि।।१४।।
तस्यास्तटं मनोहारि स्फटिकाश्ममयं महत्।।
प्राप श्वेतहरिद्रक्तपीतसन्मणिराजितम्।।१५।।
कल्पवृक्षालिभिर्ज्जुष्टं प्रवालाङ्कुरशोभितम्।।
स्यमन्तकेन्द्रनीलादिमणीनां खनिमण्डितम् ।। १६ ।।
नानामणीन्द्रनिचितसोपानततिशोभनम् ।।
कूजद्भिर्मधुरं जुष्टं हंसकारण्डवादिभिः ।। १७ ।।
वृन्दैः कामदुघानां च गजेन्द्राणां च वाजिनाम् ।।
पिबद्भिर्न्निर्मलं तोयं राजितं स व्यतिक्रमत् ।। १८ ।।
उत्तीर्याऽथ धुनी दिव्यां तत्क्षणादीश्वरेच्छया ।।
तद्धामपरिखाभूतां शतशृङ्गागमाप सः ।। १९ ।।
हिरण्मयं दर्शनीयं कोटियोजनमुच्छ्रितम् ।।
विस्तारे दशकोट्यस्तु योजनानां मनोहरम् ।। 2.9.16.२० ।।
______________________________
गोपानां गोपिकानां च कृष्णसंकीर्त्तनैर्मुहुः ।।
गोवत्स पक्षिनिनदैर्न्नानाभूषणनिस्वनैः ।।
दधिमन्थनशब्दैश्च सर्वतो नादितं मुने ।। ३८ ।।

फुल्लपुष्पफलानम्रनानाद्रुमसुशोभनैः ।।
द्वात्रिंशतवनैरन्यैर्युक्तं पश्यमनोहरैः ।। ३९ ।।

तद्वीक्ष्य हृष्टः स प्राप गोलोकपुरमुज्वलम् ।।
वर्तुलं रत्नदुर्गं च राजमार्गोपशोभितम् ।। 2.9.16.४० ।।
____________
गोपस्य वृषभानोस्तु सुता राधा भविष्यति ।।
वृन्दावने तया साकं विहरिष्यामि पद्मज ।। ३४ ।।

लक्ष्मीश्च भीष्मकसुता रुक्मिण्याख्या भविष्यति ।
उद्वहिष्यामि राजन्यान्युद्धे निर्जित्य तामहम् । ३५।

स्कंद देव (कार्तिकेय) ने नारद मुनि की श्वेतद्वीप से गोलोक तक की संपूर्ण यात्रा का वर्णन किया है। मैं इसमें से केवल कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत  हूैं।

''पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, ब्रह्मा, महत और प्रकृति के क्षेत्रों (कोशों) को एक के बाद एक पार करते गए, जिनमें से हर पिछले एक से दस गुना बड़ा है, नारद अखिल दिव्य निवास तक पहुँचते हैं। गोलोक का. यह भगवान हरि का एक जीवंत निवास है, जिसे केवल भगवान हरि की प्रति समर्पित शुद्ध भक्तों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।'' - विष्णु खंड, वासुदेव महात्म्य, स्कंद पुराण 16.12-13

  
''हर ब्रह्मांड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड पाताल से ब्रह्मलोक तक फैला हुआ है। वैकुण्ठ का धाम उससे भी ऊँचा है (अर्थात् ब्रह्माण्ड के बाहर स्थित है)। पुनः गोलोक का निवास वैकुण्ठ से पचास करोड़ योजन ऊँचा है।''- (देवी भागवत 9.3.8-9)

17. सनतकुमार संहिता
यमुनायन निमग्न प्रकाश सं गोकुलस्य च
गोलोकं प्राप्य तत्रभूत संयोग-रस-पेजल

''उसे (श्री राधा ने) यमुना में डूबकर अपना जीवन त्याग दिया (सांसारिक लीलाओं से लापता हो गई)। इस प्रकार वह आध्यात्मिक दुनिया में गोलोक लौट आए जहां उन्होंने फिर से भगवान कृष्ण की सती का आनंद लिया।'' - सनतकुमार संहिता, पाठ (309
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बाइबिल में "अबीर" नाम ईश्वर तथा ईश्वरीय सत्ताओं का वाचक-

बाइबिल में "अबीर" नाम ईश्वर तथा ईश्वरीय सत्ताओं  का वाचक-

The name Abir: Summary

Meaning
Mighty One, Protector, Shield
Etymology
From the verb אבר ('br), to be strong or to protect.
Related names
• Via אבר ('br): AbrahamAbramShemeber

🔼 The name Abir in the Bible

The name Abir is one of the titles of the Living God. For some reason it's usually translated (for some reason all God's names are usually translated and usually not very accurate), and the translation of choice is usually Mighty One, which isn't very accurate. Our name occurs six times in the Bible but never alone; five times it's coupled with the name Jacob and once with Israel.

In Isaiah 1:24 we find four names of the Lord in rapid succession as Isaiah reports: "Therefore Adon YHWH Sabaoth Abir Israel declares..". Another full cord occurs in Isaiah 49:26: "All flesh will know that I, the Lord, am your Savior and your Redeemer, the Abir Jacob," and the identical is noted in Isaiah 60:16.

The full name Abir Jacob was first spoken by Jacob himself. At the end of his life, Jacob blessed his sons, and when it was Joseph's turn he spoke to him of blessings from the hands of Abir Jacob (Genesis 49:24). Many years later, the Psalmist remembered king David, who swore by Abir Jacob that he would not sleep until he had found a place for YHWH; a dwelling place for Abir Jacob (Psalm 132:2-5).

हिन्दी अनुवाद:-

अबीर नाम : सारांश

अर्थ
पराक्रमी, रक्षक, ढाल
शब्द-साधन
क्रिया אבר ( 'br ) से, मजबूत होना या रक्षा करना।
संबंधित नाम
• वाया אבר ( 'br ): इब्राहीम , अब्राम , शेमेबर

🔼 बाइबिल में अबीर नाम

अबीर नाम जीवित परमेश्वर की उपाधियों में से एक है। किसी कारण से इसका आमतौर पर अनुवाद किया जाता है जैसे भगवान के नामों का आमतौर पर अनुवाद किया जाता है और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होता है। और पसंद का अनुवाद आमतौर पर रक्षक ही होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। हमारा यह अबीर नाम बाइबिल में छह बार आता है लेकिन अकेले कभी नहीं; पांच बार इसे याकूब और एक बार इस्राएल के नाम से जोड़ा जाता है ।

यशायाह 1:24 में हम यशायाह की रिपोर्ट के अनुसार तेजी से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम पाते हैं : "इसलिए अदोन   यह्व (YHWH) सबाथ और अबीर"  इज़राइल घोषित करता है ..."। यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण रस्सी होती है: "सभी मनुष्य जानेंगे कि मैं, यहोवा, तुम्हारा उद्धारकर्ता और तुम्हारा छुड़ानेवाला, अबीर याकूब हूं," और यशायाह 60:16 में समान उल्लेख किया गया है।

अबीर जैकब का पूरा नाम सबसे पहले खुद जैकब ने बोला था। अपने जीवन के अंत में, याकूब ने अपने पुत्रों को आशीष दी, और जब यूसुफ की बारी आई तो उसने उससे अबीर याकूब के हाथों आशीषों के बारे में बात की (उत्पत्ति 49:24)। कई वर्षों बाद, भजन लिखने वाले को राजा दाऊद की याद आई , जिसने अबीर याकूब की शपथ खाई थी कि वह तब तक नहीं सोएगा जब तक उसे यहोवा के लिए जगह नहीं मिल जाती; वही  "अबीर" याकूब   का निवास स्थान या शरण है।(भजन संहिता 132:2-5)।

 उसे कई बार अबीर इज़राइल (यशायाह 1:24) या अबीर जैकब (उत्पत्ति 49:24, भजन 132:2 और 132:5, यशायाह 49:26 और 60:16) के रूप में जाना जाता है।

†-हिब्रू बाइबिल में तथा यहूदीयों की परम्पराओं में ईश्वर के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं :----
(१)----अबीर (२)----अदॉन (३)---सबॉथ (४)--याह्व्ह्

तथा (५)----(इलॉही) अबीर नाम जीवित परमेश्वर की उपाधियों में से एक है। किसी कारण से सभी भगवान के नामों का आमतौर पर अनुवाद किया जाता है और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होता है), और पसंद का अनुवाद आमतौर पर  एक शक्तिशाली/ रक्षक (माइटी वन) होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। अबीर नाम बाइबिल में छह बार आता है लेकिन अकेले कभी नहीं; पांच बार इसे याकूब और एक बार इस्राएल के नाम से जोड़ा जाता है ।

यशायाह 1:24 में हम यशायाह की रिपोर्ट के अनुसार तेजी से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम पाते हैं : "इसलिए अदोन YHWH सबाथ अबीर इज़राइल घोषित करता है "। यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण रस्सी होती है: "सभी मनुष्य  जानेंगे कि मैं, यहोवा, तुम्हारा उद्धारकर्ता और तुम्हारा छुड़ानेवाला, अबीर याकूब हूं," और यशायाह 60:16 में समान उल्लेख किया गया है।

अबीर जैकब का पूरा नाम सबसे पहले स्वयं जैकब ने बोला था। अपने जीवन के अंत में, याकूब ने अपने पुत्रों को आशीष दी, और जब यूसुफ की बारी आई तो उसने उससे अबीर याकूब के हाथों आशीषों के बारे में बात की (उत्पत्ति खण्ड- 49:24)। कई वर्षों बाद, भजन लिखने वाले को राजा दाऊद की याद आई , जिसने अबीर याकूब की शपथ खाई थी कि वह तब तक नहीं सोएगा जब तक उसे यहोवा के लिए जगह नहीं मिल जाती; अबीर याकूब का निवास स्थान (भजन संहिता- 132:2-5)।

अबीर नाम אבר ( 'br ) धातु से आया है, जिसका अर्थ मोटे तौर पर मजबूत होना होता है:

स्वयं बाइबिल में क्रिया के रूप में नहीं आती है, लेकिन असीरियन भाषा में इसका अर्थ मजबूत या दृढ़ होना होता है। स्पष्ट रूप से इब्रानी भाषा में ऐसे कई शब्द हैं जिनका संबंध शक्ति से है, लेकिन यह एक विशिष्ट प्रकार की शक्ति को दर्शाता है।

🔼 Etymology of the name Abir-

The name Abir comes from the root אבר ('br), which roughly means to be strong:

Excerpted from: Abarim Publications' Biblical Dictionary
אבר

The verb אבר ('br) means to be strong or firm, particularly in a defensive way (rather than offensive). The derived nouns אבר ('eber) and אברה ('ebra) refer to the pinion(s) that make up a bird's wings, which in turn means that the ancients saw avian wings as means to protect rather than to fly with (the signature trait of angels, hence, is not an ability to fly but a tendency to protect). The verb אבר ('abar) describes activities done with pinions, which is to fly or to protect. The adjective אביר ('abbir), meaning strong in a defensive way; protective.


†-हिब्रू बाइबिल में तथा यहूदीयों की परम्पराओं में ईश्वर के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं :----
(१)----अबीर (२)----अदॉन (३)---सबॉथ (४)--याह्व्ह्

तथा (५)----(इलॉही) अबीर नाम जीवित परमेश्वर की उपाधियों में से एक है। किसी कारण से सभी भगवान के नामों का आमतौर पर अनुवाद किया जाता है और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होता है), और पसंद का अनुवाद आमतौर पर  एक शक्तिशाली/ रक्षक (माइटी वन) होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। अबीर नाम बाइबिल में छह बार आता है लेकिन अकेले कभी नहीं; पांच बार इसे याकूब और एक बार इस्राएल के नाम से जोड़ा जाता है ।

यशायाह 1:24 में हम यशायाह की रिपोर्ट के अनुसार तेजी से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम पाते हैं : "इसलिए अदोन YHWH सबाथ अबीर इज़राइल घोषित करता है "। यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण रस्सी होती है: "सभी मनुष्य  जानेंगे कि मैं, यहोवा, तुम्हारा उद्धारकर्ता और तुम्हारा छुड़ानेवाला, अबीर याकूब हूं," और यशायाह 60:16 में समान उल्लेख किया गया है।

अबीर जैकब का पूरा नाम सबसे पहले स्वयं जैकब ने बोला था। अपने जीवन के अंत में, याकूब ने अपने पुत्रों को आशीष दी, और जब यूसुफ की बारी आई तो उसने उससे अबीर याकूब के हाथों आशीषों के बारे में बात की (उत्पत्ति खण्ड- 49:24)। कई वर्षों बाद, भजन लिखने वाले को राजा दाऊद की याद आई , जिसने अबीर याकूब की शपथ खाई थी कि वह तब तक नहीं सोएगा जब तक उसे यहोवा के लिए जगह नहीं मिल जाती; अबीर याकूब का निवास स्थान (भजन संहिता- 132:2-5)।

अबीर नाम אבר ( 'br ) धातु से आया है, जिसका अर्थ मोटे तौर पर मजबूत होना होता है:

सन्दर्भ:- अबारीम प्रकाशन 'बाइबिलिकल डिक्शनरी से उद्धृत
(अबर शब्द का विकास-)

क्रिया אבר ( 'br ) का अर्थ मजबूत या दृढ़ होना होता है, विशेष रूप से (आक्रामक के बजाय)  रक्षात्मक तरीके से । इस मूल की संज्ञाऐं हैं-  אבר ( 'eber ) और אברה ( 'ebra ) पिनियन (ओं) को संदर्भित करती हैं जो एक पक्षी के पंख बनाती हैं, जिसका अर्थ है कि पूर्वजों ने एवियन पंखों को उड़ान भरने के बजाय (हस्ताक्षर) के रूप में रक्षा करने के साधन के रूप में देखा था यह फरिश्तों का गुण है:- इसलिए, उड़ने की क्षमता नहीं बल्कि रक्षा करने की प्रवृत्ति है)।  यद्यपि  אבר ( 'abar )क्रिया- पंखों के साथ की जाने वाली गतिविधियों का वर्णन करती है, जो उड़ना या रक्षा करना ही है। विशेषण אביר ( 'अब्बीर ), जिसका अर्थ रक्षात्मक तरीके से मजबूत होता है; सुरक्षात्मक है

सन्दर्भ:-
अबारीम प्रकाशन 'बिब्लिकल डिक्शनरी: द ओल्ड टेस्टामेंट हिब्रू शब्द: אבר

Abarim प्रकाशनं हिब्रू शब्दकोश

अबर

जड़ אבר ( 'br ) एक उल्लेखनीय जड़ है जो पूरे सामी भाषा स्पेक्ट्रम में पाई जाती है। जड़ स्वयं बाइबिल में क्रिया के रूप में नहीं आती है, लेकिन असीरियन भाषा में इसका अर्थ मजबूत या दृढ़ होना होता है। स्पष्ट रूप से इब्रानी भाषा में ऐसे कई शब्द हैं जिनका संबंध शक्ति से है, लेकिन यह एक विशिष्ट प्रकार की शक्ति को दर्शाता है, अर्थात् एक पक्षी के पंख या उड़ान-पंख। यह तुरंत स्पष्ट नहीं है कि पूर्वजों ने पंख को कैसे देखा (या उन्होंने इसे "मजबूत" नाम क्यों दिया), लेकिन इसका कारण यह है कि उन्होंने इसे दो अधिचर्मिक  (एपिडर्मल)  विकासों में से एक के रूप में पहचाना, जिसके साथ एक प्राणी स्वाभाविक रूप से ढंका हो सकता है, दूसरा एक बाल होना (और एक्सोस्केलेटन की गिनती नहीं)। शायद पूर्वजों ने अपने स्पष्ट संरचनात्मक गुणों के कारण बालों को "कमजोर" और पंख को "मजबूत होने" के रूप में देखा, लेकिन यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि बालों के लिए हिब्रू शब्द, अर्थात् שער ( s'r ) का हिस्सा है शब्दों का एक समूह जो सभी को एक गहन भावनात्मक अनुभव के साथ करना है (और इसे करीब से देखने के लिए, ( संस्कृत भाषा में अभ्र -गतौ  धातु विद्यमान है।अभ्र--अच् । १ मेघ २ मुस्तक ३ आकाश  अब्भ्र- शब्देऽधिकं दृश्यम् “. जब बालों वाला प्राणी भय का अनुभव करता है, तो वह केवल अपने जीवन के लिए लड़ सकता है या भाग सकता है; एक पंख वाला प्राणी बस उड़ सकता है और तैर सकता है। एक पक्षी की पृथ्वी से ऊपर उठने और स्वर्ग की ओर उड़ने की क्षमता का आध्यात्मिक पहलू हिब्रू कवियों से नहीं बचा है ; कुछ स्वर्गदूतों के बारे में कहा गया है कि उनके पंख पक्षी जैसे होते हैं, जिनसे वे उड़ते हैं (यशायाह 6:2), और स्वयं परमेश्वर के पास भी पंख होते हैं (भजन संहिता 91:4)। लेकिन चूंकि स्वर्गदूतों का आम तौर पर मानवीय रूप होता है और मनुष्य परमेश्वर के स्वरूप में बनाए गए हैं, इसलिए यह तर्क संगत है कि मनुष्यों के पंख भी होते हैं। और इसका मतलब है कि:

  • पक्षियों के शारीरिक अंग बहुत अधिक सामान्य गुणवत्ता की शारीरिक अभिव्यक्ति मात्र हैं, और
  • भगवान, स्वर्गदूतों और मनुष्यों के पंख गैर-भौतिक पंख हैं जो पक्षियों के लिए भौतिक पंखों की तरह ही काम करते हैं।

अब, वह "वही चीज़" क्या हो सकती है?

पूर्वजों ने आज की तुलना में बहुत अधिक देखभाल के साथ सृष्टि का अवलोकन किया, और उन्होंने कहा कि उड़ान एक पंख का सबसे परिभाषित कार्य नहीं है। वास्तव में, पंख के लिए हिब्रू शब्द כנף ( kanap ) है, और संबंधित क्रिया כנף ( kanep ) है, जिसका अर्थ उड़ना नहीं है, बल्कि छिपाना या घेरना है। यशायाह के सेराफिम के छह पंख हैं, लेकिन केवल दो का उपयोग उड़ान के लिए किया जाता है और चार का उपयोग आवरण और सुरक्षा के लिए किया जाता है। इसलिए यशायाह ने YHWH -यह्व: यहोवा-  को यरूशलेम की मुर्गी के बच्चों की तरह रक्षा करने की बात की (यशायाह 31:5) और भजनकार परमेश्वर के पंखों के नीचे शरण लेने की बात करता है (भजन संहिता 91:4)। पक्षियों और कीड़ों जैसे पंख वाले जीवों को सामूहिक रूप से जाना जाता थाעוף ( 'op' ), समान क्रिया עוף ( 'op' ) के बाद, लेकिन एक संबद्ध संज्ञा עפעף ( 'ap'ap ) का अर्थ है पलक; वह अंग जो आंख को ढकता और उसकी रक्षा करता है।

दूसरे शब्दों में: पंख अनिवार्य रूप से उपकरण हैं जिनके साथ छिपाने या रक्षा करने के लिए हम तत्पर होते हैं।, और उड़ान के पंख होने का एक मात्र दुष्प्रभाव है।

हमारी जड़ की बाइबिल व्युत्पत्ति हैं:

  • पुल्लिंग संज्ञा אבר ( 'eber ), जिसका अर्थ है पिनियन,(पंख ) वह करने की क्षमता जो आप पंखों के साथ कर सकते हैं। यह एवर संज्ञा तीन बार आती है: भजन 55: 6 में डेविड बहुत अधिक भयावहता को देखता है, और चाहता है कि कोई उसे कबूतर की तरह אבר - एवर दे ( יונה , योना ), ताकि वह उड़ सके ( עוף , 'op ) और बस सके ( שכן , शकन ) [शांति में?]। भविष्यवक्ता यशायाह ने प्रसिद्ध रूप से घोषित किया कि जो लोग YHWH यहोवा की प्रतीक्षा करते हैं, वे ( עלה , 'ala ) אבר के साथ उकाब की तरह चढ़ेंगे (यशायाह 40:31)। और यहेजकेलडाबर YHWH से एक पहेली मिली , जिसमें स्पष्ट रूप से बड़े पंखों ( כנפים , kanapim ), लंबे पंखों ( אבר ) और पूर्ण पंख ( נוצה , nosa ) और विभिन्न रंगों के साथ बेबीलोन साम्राज्य को एक महान ईगल (बाज) के रूप में दर्शाया गया है ।(यहेजकेल 17:3)।
  • स्त्रैण समतुल्य אברה ( 'ebra ), जिसका अर्थ समान है और चार बार प्रयोग किया जाता है: अय्यूब 39:13 में एक शुतुरमुर्ग खुशी से אברה और प्रेम के पंख के साथ फड़फड़ाता है। मुश्किल भजन संहिता 68:13 में "वह जो घर पर रहती है," एक स्पष्ट लड़ाई के बाद, एक सुरक्षा में झूठ बोलती है जिसे कबूतर के चांदी के पंखों और सोने के אברה  एवरा के साथ करना पड़ता है । उल्लेखनीय रूप से, व्यवस्थाविवरण 32:11 में, यहोवा को एक उकाब के समान माना गया है जिसने याकूब (= इस्राएल ) को उसकी आभा में पकड़ा, उसके ऊपर मंडराते हुए और उसकी देखभाल करते हुए और उसकी आँख के तारे की तरह उसकी रखवाली करते हुए उपस्थित रहा। कुछ ऐसा ही, लेकिन उपमा के बिना, भजन संहिता 91:4 में होता है, जहां वह जो यहोवा पर भरोसा रखता है, यहोवा के पंखों के नीचे शरण ले सकता है और वह उसे  यहोवा अपने पंखों से ढांप लेगा ।
  • सांकेतिक क्रिया אבר ( 'abar ), जिसका अर्थ है: पंख/पंखों का उपयोग करना। अय्यूब 39:26 में इसका केवल एक बार प्रयोग किया गया है। अधिकांश अनुवाद मानते हैं कि यहोवा अय्यूब से पूछता है कि क्या यह उसकी समझ से है कि बाज उड़ता है, लेकिन स्पष्ट रूप से हमारी क्रिया उड़ान तक सीमित नहीं है।
  • विशेषण אביר ( 'अब्बीर ), जिसका अर्थ है मजबूत (जिस तरह से एक पंख मजबूत होता है), और यहीं पर हमारी जड़(मूल) और भी दिलचस्प हो जाती है:

विशेषण אביר ( 'अब्बीर ) का शाब्दिक अर्थ पंख वाला होता है। जिसका स्पष्ट रूप से अंग्रेजी में हिब्रू की तुलना में कुछ और अर्थ होता है। हिब्रू में यह शब्द उड़ान-पंख की कठोरता और लचीलेपन के साथ-साथ पंख के सुरक्षात्मक गुणों और वाहक और संभावित मेहमानों को सुरक्षा की भावना देने की क्षमता को दर्शाता है। यह शब्द अक्सर सैन्य संदर्भों में प्रकट होता है (पराक्रमी के अर्थ में; 

अय्यूब 24:22, यिर्मयाह 46:15, विलापगीत 1:15), और यहाँ अबारीम प्रकाशन में हमें आश्चर्य होता है कि क्या यह शायद एक प्रकार के सैनिक के लिए सामान्य शब्द के रूप में भी काम करता है, तुलनीय है ।  डेविड के "पराक्रमी-पुरुषों" के लिए (जो एक अलग शब्द है, גבר , geber से )।

सबसे खास बात यह है कि इस शब्द का प्रयोग भगवान के व्यक्तिगत नाम के रूप में भी किया जाता है, जिसका नाम अबीर है, जिसका अर्थ है ताकतवर।

 मसोरा लेखकों ने हमारे विशेषण 'अब्बीर' और इस नाम ' अबीर' के उच्चारण के बीच एक मिनट के अंतर पर जोर दिया , लेकिन यह अंतर इस शब्द के पहली बार लिखे जाने के 1500 साल बाद तक मौजूद नहीं था।

बहुवचन में, यह शब्द ज्यादातर एक सामूहिक सैन्य बल को दर्शाता है, और ध्यान दें कि हिब्रू में एक बहुवचन भी शाब्दिक बहुसंख्यकता के बजाय तीव्रता की दशा अथवा अवस्था को दर्शाता है। न्यायियों 5:22 में, न्यायाधीश दबोरा और जनरल बाराक गाते हैं कि कैसे उन्होंने कनानी सेनापति सीसरा की सेना के खिलाफ (मार्च )आक्रमण अभियान किया, और कैसे घोड़ों के ( סוס , sus ) गरजने वाले खुरों ने उनके डैशिंग אבירי के रूप में धराशायी कर दिया । यिर्मयाह 8:16 और 47:3 में अबेर्री और घुड़सवार सेना के बीच एक समान संबंध बनाया गया है। दूसरी ओर, भजन संहिता 22:12 में, हम जाने-पहचाने कथन को पढ़ते हैं, "बहुत से बैलों बृषभों [ פר , par का बहुवचन ] ने मुझे घेर लिया है, बाशान के אבירי ने मुझे घेर लिया है"। ऐसा प्रतीत होता है कि  बुल-थीम को भजन संहिता 50:13 पर ले जाया गया है, जहाँ אבירים का उपयोग עתוד ( 'attud ) के साथ किया जाता है, जिसका अर्थ है वह-बकरी। भजन संहिता 68:30 में, यह עגל ( 'egel ) के साथ प्रकट होता है, जिसका अर्थ नर बछड़ा है। यशायाह 34:7 में यह फिर से פר ( par ) के बगल में दिखाई देता है, जिसका अर्थ है युवा बैल बृषभ-।

यह सब दृढ़ता से सुझाव देता है कि शब्दों का यह विशेष समूह एक धर्मशास्त्रीय विचार को दर्शाता है जो अश्शूर और बेबीलोन में भी मौजूद था, जिसे वहां लामासु या सेडू नाम के प्रसिद्ध पंख वाले बैल के रूप में चित्रित किया गया था (और जो बदले में दिव्य शदाई नाम से संबंधित हो सकता है )।

साम्राज्य के वर्षों के हिब्रू विद्वान एक सांस्कृतिक निर्वात में काम नहीं कर रहे थे, लेकिन पड़ोसी संस्कृतियों के अपने सहयोगी विद्वानों से बड़े पैमाने पर उधार ली गई कहानियाँ, कल्पना और शब्दावली हैं।। यही बात स्पष्ट रूप से आज भी होती है। 

पाठक को अब तक यह समझ लेना चाहिए कि जब प्राचीन लोग आधुनिक लोगों की तुलना में पंखों या बैलों या पंख वाले बैल की मूर्ति को देखते थे तो उनके मन में पूरी तरह से अलग भावनाएँ थीं। पूर्वजों के विभिन्न संघों के कारण जो भी हो, जहाँ तक हम बता सकते हैं, असीरियन पंख वाले बैल ने एक रक्षक आत्मा, एक घर-भावना का चित्रण किया, जिसे बाद में रोमनों ने एक जीनियस या डेमन कहा । 

नियमित घरों के लिए छोटे और शहरों, राज्यों और साम्राज्यों के लिए बड़े थे।

जाहिर है, जब लोगों ने इस घर-भावना के विचार के इर्द-गिर्द संगठित दुनिया में याह्विज़्म की व्याख्या करने की कोशिश की, तो YHWH सारी सृष्टि की "हाउस-स्पिरिट" बन गया। और चूँकि परमेश्वर का "घर-आध्यात्मिक" वाचा इब्राहीम (के घर) के साथ शुरू हुआ, फिर याकूब के घराने और फिर इस्राएल के घराने तक पहुँचा, और अंततः बाइबल में पृथ्वी के सभी परिवारों तक पहुँचेगा।

 उसे कई बार अबीर इज़राइल (यशायाह 1:24) या अबीर जैकब (उत्पत्ति 49:24, भजन 132:2 और 132:5, यशायाह 49:26 और 60:16) के रूप में जाना जाता है।


जिस ओ३म् (ऊँ) शब्द के उच्चारण करने पर शूद्र अथवा निम्न समझी जाने वाली जन-जातियाें की जिह्वा का रूढि वादी परम्पराओं के अनुगामी ब्राह्मण उच्छेदन तक कर देते थे ।

जिस ओ३म् (ऊँ) शब्द के उच्चारण करने पर शूद्र अथवा निम्न समझी जाने वाली जन-जातियाें की जिह्वा का रूढि वादी परम्पराओं के अनुगामी ब्राह्मण उच्छेदन तक कर देते थे ।
और जिस ओ३म् शब्द का प्रादुर्भाव उसी द्रविड संस्कृति से हुआ हो ! जिनके लिए इसका शब्द के उच्चारण पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया हो ।
आज हम उस शब्द की जन्म-कुण्डली खोलेंने का प्रयास करेंगे -
_________________________________________
सर्व-प्रथम हम विचार करते हैं ओ३म् शब्द के विकास की पृष्ठ-भूमि पर...
विश्व इतिहास के सांस्कृतिक अन्वेषणों के उपरान्त कुछ तथ्यों से हम अवगत हुए ।
कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (OGHUM )शब्द का दृढता से  उच्चारण विधान किया जाता था ।
ई०पू० 400 से ई०पू० एक शतक के समय होगा ।

  कि उस संस्कृति के  विश्वास करने वालों का मत था !  कि इस प्रकार आउ-मा (Ow- ma) अर्थात् जिसे
भारतीय आर्यों  ने ओ३म् रूप में साहित्य ,कला और ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया है ...
अर्थात्  प्राचीन भारतीय देव संस्कृति के अनुयायीयों की मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति ( syllable prosperity ) यथावत् रहती है !
प्राचीनत्तम फ्रॉन्स की संस्कृतियों में ओघम् का मूर्त प्रारूप 🌞 सूर्य के आकार के सादृश्य पर था ।
जैसा कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं
वास्तव में ओघम् (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार  नि:सृत होती है जैसे सूर्य से उसका प्रकाश 🌞☀⚡☀ प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में भी द्रविड संस्कृति का यही ऑघम शब्द  आमोन् रा ( ammon - ra ) जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मयी रूप में प्रस्तावित है ..
आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान
के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है ।
सुमेरियन एवं सैमेटिक हिब्रू आदि परम्पराओं  में ..
रब़ अथवा रब्बी शब्द का अर्थ - नेता तथा महान एवं गुरू होता हेै !
जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है ..
अरबी भाषा में रब़ --ईश्वर का वाचक है ।
रब्बुल उल् अलामीन मतलब ईश्वर सम्पूर्ण संसार का रक्षक है ।

अमीन शब्द (अरबी:जुबान में ( آمین) या आमीन का शाब्दिक अर्थ है "ऐसा हो सकता है" या "ऐसा है"। मुसलमानों में शब्द आमिन का प्रयोग आमतौर पर उसी शब्द के साथ किया जाता है जिसका अर्थ है "मुझे जवाब दें", और वाक्यांश "इलाही अमीन"
(अरबी: الهی آمین; अर्थ:-
हे मेरे भगवान ! मुझे जवाब दें) आधुनिक काल सैमेटिक परम्पराओं के अनुयायी लोगों के बीच बहुत आम है।
इसका उपयोग अंग्रेजी में अमेन के रूप में किया जाता है (अर्थ: तो यह हो)। वस्तुत: अमेन हिब्रू बाइबिल में वर्णित रूप है ।

शिया  शरीयत  में, प्रार्थनाओं में कुरान 1 (सूर अल-हम्द) को पढ़ने के बाद अमीन न कहने पर  कि प्रार्थना को शरीयती तौर पर अमान्य कर दिया गया है।

हिब्रू परम्पराओं से यह अरब की रबायतों में कायम हुआ

हिब्रू में, शब्द अमीन को सबसे पहले "सही" और "सत्य" नामक विशेषण के रूप में उपयोग किया जाता था, लेकिन यशायाह की किताब के मुताबिक इसका उपयोग संज्ञा के रूप में किया जाता था।
यह शब्द फिर हिब्रू में एक invariant ऑपरेटर (अर्थात्, "वास्तव में" और "निश्चित रूप से")के अर्थ में बदल गया।
इसका उपयोग बाइबिल में 30 बार और तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के यूनानी अनुवाद में 33 बार किया गया है।

इतिहास की पहली पुस्तक [नोट 2] और किंग्स बुक्स [नोट 3] की पहली पुस्तक में इस शब्द की घटना से पता चलता है।
कि यह शब्द यहूदी प्रार्थनाओं और अनुष्ठानों में चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले भी इस्तेमाल किया गया था।

प्राचीन यहूदी परम्परा में, इस शब्द का उपयोग शुरुआत या प्रार्थना के अन्त में किया गया था।
प्रार्थनाओं, और भजनों के अन्त में इसकी पुनरावृत्ति प्रासंगिक सामग्रियों की पुष्टि और समर्थन दोनों में थी , और उम्मीद की अभिव्यक्ति थी कि हर कोई अमेन का उल्लेख करने के दौरान अभ्यास के आशीर्वाद साझा कर सकता है।
तलमूद और अन्य यहूदी परम्पराओं की अवधि में, यह महत्वपूर्ण था कि विभिन्न स्थितियों में शब्द का उपयोग कैसे किया जाए, और ऐसा माना जाता था कि भगवान किसी भी प्रार्थना के लिए "आमीन" कहता है जो उसे सम्बोधित किया जाता है।

ईसाई धर्म में---------

यहूदी परम्पराओं को ईसाई चर्चों में अपना रास्ता मिला। "अमीन" शब्द का प्रयोग नए नियम में 119 बार किया गया था, जिनमें से 52 मामले यहूदी धर्म में इसका उपयोग कैसे किया जाता है।
नए नियम के माध्यम से, शब्द दुनिया की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में प्रवेश किया।

शब्द, अमीन, जैसा कि नए नियम में प्रयोग किया गया है, उसमें इसके  चार अर्थ हैं -

पावती और अनुमोदन; एक प्रार्थना में समझौता या भागीदारी, और किसी के प्रतिज्ञा की अभिव्यक्ति।
दिव्य प्रतिक्रिया का अनुरोध, जिसका अर्थ है:
"हे भगवान! स्वीकार करें या जवाब दें!" अर्थात् एवं अस्तु !
एक प्रार्थना या प्रतिज्ञा की पुष्टि, जिसका अर्थ है: "तो यह हो" (आज शब्द को दो अर्थों को इंगित करने के लिए प्रार्थनाओं के अंत में उपयोग किया जाता है)।
एक विशेषता या यीशु मसीह का नाम ।
अरबी में

चूंकि इस्लाम के उद्भव से पहले यहूदी धर्म और नाज़रेन ईसाई धर्म दोनों अरब प्रायद्वीप में अनुयायी थे, इसलिए यह संभव है कि मक्का और मदीना समेत अरब, इससे परिचित थे, हालांकि जहिल्या काल की कविताओं में इसका कोई निशान नहीं मिला है। यह शब्द कुरान में नहीं होता है, लेकिन प्रारंभिक मुस्लिम शब्द से निश्चित रूप से परिचित थे। पैगंबर मुहम्मद ने शब्द का प्रयोग किया, लेकिन ऐसा लगता है कि शुरुआती मुस्लिम शब्द के अर्थ के बारे में निश्चित नहीं थे, क्योंकि पैगंबर ने उन्हें एक स्पष्टीकरण और शब्द की व्याख्या दी (यह कहकर कि "अमीन एक है अपने वफादार सेवकों पर दिव्य डाक टिकट ")। और 'अब्द अल्लाह बी। अल-अब्बास ने शब्द का व्याकरणिक विवरण देने की कोशिश की।

पवित्र कुरान के निष्कर्षों में

शब्द कुरान 10:88 और 89 के उत्थानों में उल्लिखित है। कुरान के लगभग सभी exegetes के अनुसार, जब पैगंबर मूसा (ए) फिरौन को शाप दिया, वह और उसके भाई, भविष्यवक्ता हारून (ए) , शब्द अमेन उद्धृत किया।

प्रार्थना में अमीन का हवाला देते हुए

सुन्नी मुस्लिम इस शब्द का हवाला देते हैं, अमीन, प्रार्थना में कुरान 1 को कविता के जवाब के रूप में पढ़ने के बाद, "हमें सही मार्ग दिखाएं", (कुरान, 1: 6)। यदि उपासक अपनी प्रार्थना व्यक्तिगत रूप से कहता है, तो वे स्वयं को इस शब्द का हवाला देते हैं, और यदि वे एक मंडली प्रार्थना कहते हैं, जब प्रार्थना के नेता कुरान 1 को पढ़ना समाप्त कर देते हैं, तो सभी अनुयायियों ने एक साथ उद्धृत किया है। शिया न्यायविदों का कहना है कि प्रार्थना में अमीन का हवाला देते हुए यह अमान्य है, क्योंकि यह प्रार्थना में एक विधर्मी अभ्यास है जिसे पैगंबर की परंपरा में पुष्टि नहीं माना जाता है।

टिप्पणियाँ

↑ यशायाह 65:16
↑ धन्य है यहोवा, इस्राएल का परमेश्वर, अनन्तकाल से अनन्तकाल तक। "तब सभी लोगों ने कहा"
आमीन! "1 पुरानी

.अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे ..
दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे ..मिश्र की संस्कृति

में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में
अत्यधिक पूज्य था ..
क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि ..अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारणहै मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्परओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे !!
....इन्हीं से ईसाईयों में Amen तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन् !! (ऐसा ही हो ) होगया है इतना ही नहीं जर्मन आर्य ओ३म् का सम्बोधन omi /ovin  या  के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए सम्बोधित करते करते थे .....
.इसी वुधः का दूसरा सम्बोधन ouvin ऑविन् भी था ..
...यही woden अंग्रेजी मेंgoden बन गया था जिससे कालान्तर में गोड(god  )शब्द बना है
जो फ़ारसी में ख़ुदा के रूप में हैं !
सीरिया की सुर संस्कृति में यह शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है ।
वेदों में ओमान् शब्द बहुतायत से रक्षक ,के रूप में आया है । भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि शिव ( ओ३म् ) ने ही पाणिनी को ध्वनि निकाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की ! ......
जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ  पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के लोग थे !
ये लोग द्रविडों से सम्बद्ध थे !
वस्तुत: यहाँ इन्हें द्रुज संज्ञा से अभिहित किया गया था ...
...द्रुज जनजाति ...प्राचीन इज़राएल ..
जॉर्डन ..लेबनॉन में तथा सीरिया में
आज तक प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताओं को सञ्जोये हुए है ..
.द्रुजों की मान्यत थी कि आत्मा अमर है ..पुनर्जन्म ..   कर्म फल के भोग के लिए होता है ..ठीक यही मान्यता बाल्टिक सागर के तटवर्ति druid द्रयूडों में पुरोहितों के रूप में थी !
केल्ट वेल्स ब्रिटॉनस् आदि ने

इस वर्णमाला को द्रविडों से ग्रहण किया था !
एक द्रविड अपने समय के सबसे बडे़ द्रव्य - वेत्ता और तत्व दर्शी थे !
जैसा कि द्रविड नाम से ध्वनित होता है
...मैं  यादव योगेश कुमार 'रोहि'
भारतीय सन्दर्भ में भी इस शब्द पर
कुछ व्याख्यान करता हूँ !
जो संक्षिप्त ही है  ऊँ एक प्लुत स्वर है जो सृष्टि का आदि कालीन प्राकृतिक ध्वनि रूप है जिसमें सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित है !!
इसके अवशेष एशिया - माइनर की पार्श्ववर्ती आयोनिया ( प्राचीन यूनान ) की संस्कृति में भी प्राप्त हुए है
यूनानी आर्य ज्यूस और पॉसीडन ( पूषण ) की साधना के अवसर पर अमोनॉस ( amonos) के रूप में ओमन् अथवा ओ३म् का उच्चारण करते थे !!!!!!!
भारतीय सांस्कृतिक संन्दर्भ में भी ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति परक व्याख्या आवश्यक है वैदिक ग्रन्थों विशेषतः ऋग्वेद मेंओमान् के रूप में भी है संस्कृत के वैय्याकरणों के अनुसार ओ३म् शब्द धातुज ( यौगिक) है जो अव् घातु में मन् प्रत्यय करने पर बना है
पाणिनीय धातु पाठ में अव् धातु के अनेक अर्थ हैं ।
अव्-- --१ रक्षक २ गति ३ कान्ति४ प्रीति ५ तृप्ति ६ अवगम ७ प्रवेश ८ श्रवण ९ स्वामी १० अर्थ ११ याचन १२ क्रिया १३ इच्छा १४ दीप्ति १५ अवाप्ति १६ आलिड्.गन १७ हिंसा १८ आदान १९ भाव वृद्धिषु ( १/३९६/  भाषायी रूप में ओ३म् एक अव्यय ( interjection) है जिसका अर्थ है -- ऐसा ही हो ! ( एवमस्तु !) it be so इसका अरबी़ तथा हिब्रू रूप है आमीन् ।
लौकिक संस्कृत में ओमन् ( ऊँ) का अर्थ--- औपचारिकपुष्टि करण अथवा मान्य स्वीकृति का वाचक है ---
मालती माधव ग्रन्थ में १/७५ पृष्ट पर-- ओम इति उच्यताम् अमात्यः" तथा साहित्य दर्पण --- द्वित्तीयश्चेदोम् इति ब्रूम १/"" हमारा यह संदेश प्रेषण क्रम अनवरत चलता रहेगा **** मैं योगेश कुमार रोहि निवेदन करता हूँ !! कि इस महान संदेश को सारे संसार में प्रसारित कर दो !!! आमीन् ..............

योगेश कुमार रोहि के द्वारा अनुसन्धानित
भारतीयही नहीं अपितु विश्व इतिहास का यह एक नवीनत्तम् सांस्कृतिक शोध है |





यहोवा की कहानी मितानीयों से -

YHWH: नाम का मूल अरबी अर्थ

परमेश्वर ने मूसा को अपना नाम इब्रानी मूल ה.ו.י, "अस्तित्व" से "मैं हूँ" के रूप में प्रकट किया। हालाँकि, YHWH नाम मिद्यान में उत्पन्न हुआ है, और "प्यार, इच्छा या जुनून" के लिए अरबी शब्द से निकला है।


YHWH: नाम का मूल अरबी अर्थ

जलती हुई झाड़ी से पहले मोसेस,  मार्क चागल 1966, संग्रहालय आन डे स्ट्रूम

निर्गमन अध्याय 6 में, जब मूसा ने शिकायत की कि कैसे फिरौन ने इस्राएल के कार्यभार को बढ़ा दिया है और उन्हें स्वतंत्र करने से इनकार कर दिया है, तो परमेश्वर मूसा के सामने प्रकट होता है और इस्राएल को मिस्र से बाहर ले जाने और उन्हें प्रतिज्ञा की भूमि पर लाने के अपने वादे को दोहराता है। [1] इस संदेश के भाग के रूप में, परमेश्वर ने मूसा से कहा कि उसका नाम YHWH है, भले ही उसने कभी भी इस नाम को कुलपतियों के साथ साझा नहीं किया, और केवल उन्हें (एल शादाई )के रूप में दिखाई दिया:

שמות ו:ב וַיְדַבֵּר אֱלֹהִים אֶל מֹשֶׁה וַיֹּאמֶר אֵלָיו אֲנִי יְָו। ו:ג וָאֵרָא אֶל אַבְרָהָם אֶל יִצְחָק וְאֶל יַעֲקֹב בְּאֵל שַׁדָּי וּשְׁמִי יְ־הוָה לֹא נוֹדַעְתִּי לָהֶם.

निर्गमन 6:2 परमेश्वर ने मूसा से बात की, और उस से कहा, मैं यहोवा हूं। 6:3 मैं ने इब्राहीम, इसहाक, और याकूब को एलशदै के रूप में दर्शन दिया, परन्तु यहोवा के नाम से उन पर प्रगट न किया।

पाठ यह स्पष्ट करता है कि YHWH नाम - छात्रवृत्ति में टेट्राग्रामेटन ("चार अक्षरों" के लिए ग्रीक) के रूप में जाना जाता है - प्राचीन इज़राइली इतिहास में एक नए युग को चिह्नित करते हुए बहुत महत्व रखता है, लेकिन यह इसके अर्थ के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं देता है।

YHWH होने के रूप में

इसके विपरीत, जलती हुई झाड़ी पर भगवान का पहला रहस्योद्घाटन, जिसमें पहली बार मूसा को इस विशेष नाम से परिचित कराया गया है, [2] इसके अर्थ की व्याख्या करता है या कम से कम संकेत देता है:

שמ ַ ַ ג ָאֱלֹ ִנֵּ ִנֵּ ִנֵּ אָנֹכִ אָנֹכִ אֶל בְּנֵ בְּנֵ ִשְׂרָאֵל ִשְׂרָאֵל ְאָמַרְתִּ ְאָמַרְתִּ אֱלֹ אֱלֹ אֱלֹ אֲב אֲב אֲב אֲב מַ מַ מַ מַ שְּׁמ מָ מָ מָ מָ מָ מָ מָ מָ מָ।
 
निर्गमन 3:13 मूसा ने परमेश्वर से कहा, जब मैं इस्राएलियों के पास जाकर उन से कहूं, कि तुम्हारे पितरोंके परमेश्वर ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है, और वे मुझ से पूछें, कि उसका क्या नाम है? मैं उनसे क्या कहूँ?”
ג:יד וַיֹּאמֶר אֱלֹהִים אֶל מֹשֶׁה אֶהְיֶה אֲשֶׁר אֶהְיֶה। וַיֹּאמֶר כֹּה תֹאמַר לִבְנֵי יִשְׂרָאֵל אֶהְיֶה שְׁלָחַנִי אֲלֵי֝।
3:14 और परमेश्वर ने मूसा से कहा, मैं जो हूं सो हूं। और उस ने कहा, इस्त्राएलियों से यों कहना, कि एह, मैं हूं ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।

जब मूसा परमेश्वर से उसका नाम पूछता है, तो परमेश्वर सबसे पहले "मैं वही हूँ जो मैं हूँ" कहकर उत्तर देता है और यहाँ तक कि "उन्हें बताओ कि एह्ये (मैं-हूँ) अस्मि- ने तुम्हें भेजा है" कहकर उत्तर देता है। शब्द एहिह ("मैं हूं") बहुत कुछ (YHWH) की तरह लगता है, और इसका अर्थ शब्दों पर एक नाटक के रूप में है, यह समझाते हुए कि (YHWH) के नाम का अर्थ है "वह होगा" या "अस्तित्व"। [3] इस प्रकार, ईश्वर इस निहित व्युत्पत्ति का (चतुराक्षर) टेट्राग्रामेटन के साथ अनुसरण करता है:

ג:טו וַיֹּאמֶר עוֹד אֱלֹהִים אֶל מֹשֶׁה כֹּה תֹאמַר אֶל בְּנֵי יִשְׂרָאֵל יְ־הוָה אֱלֹהֵי אֲבֹתֵיכֶם אֱלֹהֵי אַבְרָהָם אֱלֹהֵי יִצְחָק וֵאלֹהֵי יַעֲקֹב שְׁלָחַנִי אֲלֵיכֶם זֶה שְּׁמִי לְעֹלָם וְזֶה זִכְרִי לְדֹר דֹּר.
 
3:15 फिर परमेश्वर ने मूसा से आगे कहा, इस्त्राएलियों से यों कहना, कि तुम्हारे पितरों का परमेश्वर, अर्यात्‌ इब्राहीम का परमेश्वर, इसहाक का परमेश्वर, और याकूब का परमेश्वर यहोवा, उसी ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। ' यह हमेशा के लिए मेरा नाम होगा, यह अनंत काल के लिए मेरा उपनाम होगा।

फिर भी, यह व्याख्या YHWH के मूल अर्थ को नहीं दर्शाती है। शब्द "वह है" इसके तीसरे अक्षर के रूप में एक वाव के साथ नहीं लिखा जाएगा, लेकिन एक योड के साथ , जैसा कि יהיה, जैसा कि "मैं हूं" शब्द אהיה है। दूसरा, ध्यान दें कि आयतें कितनी अजीब तरह से पढ़ी जाती हैं, यह शब्द (YHWH) पर अर्थ (एहहे )को लागू करने की कोशिश कर रही है। भगवान ने पहले मूसा को "एहयेह" नाम का उपयोग करने के लिए कहा, और फिर स्वयं को समझाए बिना, YHWH नाम का उपयोग करने के लिए कहा। [4] इस प्रकार, मैं तर्क दूंगा कि यहां स्पष्टीकरण एक लोकप्रिय व्युत्पत्ति है, और हमें इस नाम की व्युत्पत्ति के लिए कहीं और देखने की जरूरत है।

मूसा की मिद्यानी-मितानी (मितज्ञु) पृष्ठभूमि की कहानी-

नाम को समझने का पहला सुराग निर्गमन की पुस्तक में जलती हुई झाड़ी की कहानी के संदर्भ से मिलता है। मूसा द्वारा एक मिस्री को मारने और फिरौन से भाग जाने के बाद (2:12-15), वह मिद्यान में समाप्त होता है, जहाँ वह मिद्यान के याजक रूएल (या यित्रो) से मिलता है, और उसकी बेटी सिप्पोरा से विवाह करता है (2:15-22) अपने ससुर के झुंड की चरवाही करते हुए, वह जलती हुई झाड़ी को देखता है और परमेश्वर के अपने पहाड़ पर परमेश्वर से एक रहस्योद्घाटन प्राप्त करता है:

שמות ג:א וּמֹשֶׁה הָיָה רֹעֶה אֶת צֹאן יִתְרוֹ חֹתְנוֹ כֹּהֵן מִדְיָן וַיִּנְהַג אֶת הַצֹּאן אַחַר הַמִּדְבָּר וַיָּבֹא אֶל הַר הָאֱלֹהִים חֹרֵבָה.
निर्गमन 3:1 मूसा अपने ससुर यित्रो नाम मिद्यान के याजक की भेड़-बकरियां चराता या, और वह उनको जंगल में हांककर परमेश्वर के पर्वत (होरेब) तक ले गया।

यह प्रसंग बताता है कि परमेश्वर का पर्वत इस्राएल या मिस्र में नहीं है, बल्कि यह होरेब जंगल में है, जो मिद्यान से दूर नहीं है। मिद्यान कहाँ है और ऐतिहासिक रूप से हम इसके बारे में क्या जानते हैं ?

मिद्यान और उत्तरी अरब की कुरैय्या संस्कृति-

टॉलेमी द्वारा मिडियाना के रूप में वर्णित क्षेत्र को मानते हुए बाइबिल में मिडियन के समान क्षेत्र है, एक धारणा जिसे मिद्यान और इश्माएल  के बीच बाइबिल के संबंध द्वारा समर्थित किया जा सकता है, हम स्वर्गीय कांस्य और इसकी भौतिक संस्कृति के बारे में काफी कुछ जान सकते हैं। प्रारंभिक लौह युग (13 वीं -12 वीं शताब्दी ईसा पूर्व ) ।

अर्ध-खानाबदोशों का एक समूह, जो शुतुरमुर्ग या अन्य पक्षियों की छवियों के साथ एक बहुत ही विशिष्ट, रंगीन और आकर्षक, सजाए गए मिट्टी के बर्तनों का उत्पादन करता था, कुरैय्याह के ओएसिस के रूप में जाने वाले क्षेत्र में टॉलेमी मिडियन कहे जाने वाले क्षेत्र के उत्तर-पूर्व में रहते थे। इस मिट्टी के बर्तनों की शैली को  विद्वानों में कुरैय्या पेंटेड वेयर (QPW) के रूप में जाना जाता है।

कुरैय्या लोग धातु विज्ञान के विशेषज्ञ भी थे, विशेष रूप से तांबे को गलाने और कांस्य के उत्पादन में। कुरैय्या के क्षेत्र में स्वयं तांबे की नसें नहीं हैं, लेकिन ऐसी नसें अरब प्रायद्वीप में आगे दक्षिण में पाई जाती हैं, और तांबे के अयस्क को गलाने के लिए कुरैय्या के उत्तर में भेजा गया था क्योंकि कुरैय्याह (मिद्यानियों) के लोग धातु के काम में विशेषज्ञ थे। [5]

इस संस्कृति के उंगलियों के निशान के साक्ष्य इस अवधि में तांबे के गलाने के अन्य क्षेत्रों में भी पाए जाते हैं, विशेष रूप से दक्षिणी लेवेंट में फेनान और टिमना की साइटें (क्रमशः आधुनिक जॉर्डन और इज़राइल में)। [6] डेड-सी और अरावा साइंस सेंटर में काम करने वाले एक पुरातत्वविद् "उजी अवनेर" ने तर्क दिया है कि मिद्यानियों को विशेषज्ञों या ठेकेदारों के रूप में लाया गया था, जो स्थानीय खानाबदोश (शासु) जनजातियों या मिस्र के लोगों के साथ काम कर रहे थे, जिनकी उपस्थिति थी इस अवधि के दौरान यह क्षेत्र, अपने ग्राहकों (या नियोक्ताओं) के लिए अयस्क से शुद्ध तांबे का उत्पादन करता था। [7]

एक अरबी जनजाति

मिद्यानी एक प्रोटो-अरेबियन जनजाति थे; [8] उनका गृह आधार अरब में था और वे इश्माएलियों से संबंधित हैं। न्यायियों की पुस्तक इसे गिदोन की कहानी में स्पष्ट रूप से बताती है, जो मिद्यानियों को हराने के बाद इस्राएलियों से निम्नलिखित अनुरोध करता है:

שופטים ח:כד וַיֹּאמֶר אֲלֵהֶם גִּדְעוֹן אֶשְׁאֲלָה מִכֶּם שְׁאֵלָה וּתְנוּ לִי אִישׁ נֶזֶם שְׁלָלוֹ כִּי נִזְמֵי זָהָב לָהֶם כִּי יִשְׁמְעֵאלִים הֵם . ח:כה וַיֹּאמְרוּ נָתוֹן נִתֵּן וַיִּפְרְשׂוּ אֶת הַשִּׂמְלָה וַיַּשְׁלִיכוּ שָׁמָּה אִישׁ נֶזֶם שְׁלָלוֹ.
 
Judg 8:24 गिदोन ने उन से कहा, मुझे तुम से यह बिनती करनी है, कि तुम में से हर एक अपक्की अपक्की बाली मुझे दे। (उनके पास सोने की बालियाँ थीं, क्योंकि वे इश्माएली थे।) 8:25 "निश्चित रूप से!" उन्होंने उत्तर दिया। और उन्होंने कपड़ा बिछाकर उस पर अपनी लूट की बाली डाल दी।
ח:כו וַיְהִי מִשְׁקַל נִזְמֵי הַזָּהָב אֲשֶׁר שָׁאָל אֶלֶף וּשְׁבַע מֵאוֹת זָהָב לְבַד מִן הַשַּׂהֲרֹנִים וְהַנְּטִפוֹת וּבִגְדֵי הָאַרְגָּמָן שֶׁעַל מַלְכֵי מִדְיָן וּלְבַד מִן הָעֲנָקוֹת אֲשֶׁר בְּצַוְּארֵי גְמַלֵּיהֶם . ח:כז וַיַּעַשׂ אוֹתוֹ גִדְעוֹן לְאֵפוֹד…
8:26 जो सोने की बालियां उसने मांग ली थीं उनका वजन एक हजार सात सौ शेकेल सोना था। यह चाँद और झुमके और मिद्यान के राजाओं द्वारा पहने जाने वाले बैंजनी वस्त्रों और उनके ऊँटों के गले के हार के अलावा था । 8:27 गिदोन ने इस सोने का एक एपोद बनाया...

जब नामों की बात आती है तो हम मिद्यानियों और इश्माएलियों के बीच संबंध के प्रमाण भी देखते हैं। उदाहरण के लिए, मूसा के ससुर यित्रो या जेतेर (निर्गमन 4:17) का वही नाम है जो दाऊद के बहनोई (दाऊद की बहन अबीगैल का पति), यतेर इश्माएली (1 इतिहास 2:17) का है।

मसाला व्यापार

लौह युग के दौरान और बाद में, अरब जनजाति के रूप में मिद्यानियों, मसाला व्यापार का हिस्सा थे। वे अरब से यात्रा करेंगे और भूमध्यसागरीय तट और/या मिस्र के रास्ते में इज़राइल से गुजरेंगे। यह यूसुफ की बाइबिल की कहानी में परिलक्षित होता है, जिसमें मिद्यानियों और इश्माएली व्यापारियों का मसालों और दासों के साथ मिस्र जाने का वर्णन है:

בראשית לז:כה …וַיִּשְׂאוּ עֵינֵיהֶם וַיִּרְאוּ וְהִנֵּה אֹרְחַת יִשְׁמְעֵאלִים בָּאָה מִגִּלְעָד וּגְמַלֵּיהֶם נֹשְׂאִים נְכֹאת וּצְרִי וָלֹט הוֹלְכִים לְהוֹרִיד מִצְרָיְמָה… לז:כח וַיַּעַבְרוּ אֲנָשִׁים מִדְיָנִים סֹחֲרִים וַיִּמְשְׁכוּ וַיַּעֲלוּ אֶת יוֹסֵף מִן הַבּוֹר וַיִּמְכְּרוּ אֶת יוֹסֵף לַיִּשְׁמְעֵאלִים בְּעֶשְׂרִים כָּסֶף וַיָּבִיאוּ אֶת יוֹסֵף מִצְרָיְמָה.
उत्पत्ति 37 :25 …उन्होंने (यूसुफ के भाइयों) ने आंख उठाकर इश्माएलियों का एक दल गिलाद से ऊंटों पर गोंद, बलसान, और लदानम लादे हुए मिस्र को जाते देखा। 37:28 जब मिद्यान के सौदागर उधर से निकले, तब उन्होंने यूसुफ को गड़हे में से बाहर निकाला। उन्होंने यूसुफ को चान्दी के बीस सिक्कोंमें इश्माएलियोंके हाथ बेच डाला, और वे उसको मिस्र में ले आए। [9]

इस कहानी में, व्यापारी पहले उत्तर की ओर गए थे, शायद अरामियों के साथ व्यापार करने के लिए, और यिज्रेल घाटी के माध्यम से वाया मैरिस तक दक्षिण की ओर बढ़ रहे थे, जो उन्हें मिस्र में ले जाएगा। हालांकि कहानी दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में सेट की गई है , ऊंटों जैसी कालानुक्रमिक विशेषताओं से पता चलता है कि यह पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व में लिखा गया था ।

इन पूर्वी अरब जनजातियों और मसाला मार्ग के बीच मजबूत संबंध बाइबिल के नाम से परिलक्षित होता है (जनरल 25: 1-2) उनकी नामांकित मां, क़ेटुराह (קטורה) देता है, धूप के लिए हिब्रू शब्द से संबंधित एक नाम, क्यूटोरट (קטורת ) ).

संक्षेप में, मिद्यानियों धातु विज्ञान और मसाला व्यापार में शामिल एक अरब जनजाति थे, जिसका आधार अरब प्रायद्वीप के उत्तर-पूर्व में था, लेकिन जिनकी बस्ती की पहुंच बहुत व्यापक थी, दक्षिण-पश्चिम सिनाई प्रायद्वीप, दक्षिणी ट्रांसजॉर्डन में रहने वाले पॉकेट के साथ, और अरावाह (दक्षिण-पूर्वी नेगेव का रेगिस्तानी इलाका), शायद वहाँ तांबे की नसों के कारण।

शास्वे-लैंड YHWA

14 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के मिस्र के अभिलेखों के आधार पर , हम जानते हैं कि इन क्षेत्रों में रहने वाले केवल मिद्यानी लोग ही जातीय समूह नहीं थे। [10] अमुनहोटेप III के सोलेब न्युबियन मंदिर की भौगोलिक सूची में, अरावाह और दक्षिणी ट्रांसजॉर्डन के लोगों को शास्वे (या शासु) कहा जाता है, एक सामान्य शब्द जिसका अर्थ कुछ "खानाबदोश जनजाति" जैसा है।

शब्द शास्वे , š ꜣ स्व ( [11] "भूमि" टी  ( ) के लिए मिस्र के निर्धारक के बाद लिखा गया है, यह दर्शाता है कि मिस्री पाठ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों का वर्णन कर रहा है जो विभिन्न शास्वे में बसे हुए हैं । सूचीबद्ध एक क्षेत्र को खानाबदोश-भूमि सेईर कहा जाता है, जो एदोम में माउंट सेईर क्षेत्र के समान है। सूची में निम्नलिखित नाम, और इस प्रकार सेईर के पास या सन्निहित, घुमंतू-भूमि येहवा, yhw ꜣ( w) ( ) था। [12]इस नाम का उच्चारण अनिश्चित है, क्योंकि हिब्रू की तरह, चित्रलिपि में स्वर शामिल नहीं हैं, लेकिन यह शब्द इस्राएल के देवता, YHWH के नाम से संबंधित प्रतीत होता है, जिसका सटीक प्राचीन उच्चारण भी अज्ञात है।

एक देवता और एक भूमि

सूची में येहवा एक भूमि का नाम है। जैसे एक खानाबदोश समूह सेईर नामक भूमि में रहता था, दूसरा येहवा नामक भूमि में रहता था। लेकिन प्राचीन काल में, एक नाम कभी-कभी एक उपनाम और एक उपनाम दोनों हो सकता था। असीरिया (असुर) नाम इसे स्पष्ट रूप से दिखाता है: यह अश्शूर के मुख्य देवता और उनके प्राचीन राजधानी शहर दोनों का नाम है। कालांतर में यह उनके साम्राज्य का नाम भी हो गया। एक अन्य उदाहरण ज्ञान की ग्रीक देवी एथेना होगी, जो एथेंस की संरक्षक देवी के रूप में शुरू हुई थी। [13]

YHWH एदोमी दक्षिण से आता है

बाइबिल के प्रमाण बताते हैं कि (YHWH) दक्षिण-पूर्व से आता है, या तो एदोम की पहाड़ियों से या उससे भी आगे दक्षिण में मिद्यान या उससे आगे। यह विशेष रूप से बाइबल की तीन अति प्राचीन कविताओं में स्पष्ट है:

मूसा का गीत (व्यव. 33:2)

יְ־הוָה מִסִּינַי בָּא וְזָרַח מִשֵּׂעִיר לָמוֹ הוֹפִיעַ מֵהַר פָּארָן וְאָתָה מֵרִבְבֹת קֹדֶשׁ…
यहोवा सीनै (सिनाई पर्वत) से आया; उसने सेईर से उन पर अपना तेज चमकाया; वह पारान पर्वत से प्रकट हुआ, और रिबेबोत-कोडेश से आया ...

दबोरा का गीत (न्यायियों 5:4)

יְ־הוָה בְּצֵאתְךָ מִשֵּׂעִיר בְּצַעְדְּךָ מִשְּׂדֵה אֵּׂ֩עִיר אֶרָץ
हे यहोवा, जब तू सेईर से निकला, और एदोम देश से निकला, तब पृथ्वी कांप उठी...

हबक्कूक का गीत (हबक्कूक 3:3)

אֱלוֹהַ מִתֵּימָן יָבוֹא וְקָדוֹשׁ מֵהַר פָּארָן סֶלָה…
परमेश्वर तेमान से आ रहा है, पवित्र परमेश्वर पारान पर्वत से आ रहा है। सेला…।

इनमें से प्रत्येक कविता दक्षिण में अपने घर से आने वाले YHWH की छवि के साथ शुरू होती है। वास्तव में, हबक्कूक का गीत (पद. 7) यह भी वर्णन करता है कि कैसे मिद्यानियों के तंबू (יְרִיעוֹת אֶרֶץ מִדְיָן) हिलते हैं जब यहोवा अपने लोगों के रास्ते में उनके पास जमीन पर पैर रखता है।

भगवान का पहाड़

यह अवधारणा मूसा और जलती हुई झाड़ी की कहानी के साथ सही बैठती है, जहाँ मूसा अपने मिद्यानियों के ससुर के झुंडों को चराते हुए परमेश्वर के पर्वत पर जाता है। मूसा मिद्यानियों के इलाके में भटक रहा है, हालांकि अरब में नहीं, बल्कि आधुनिक समय के पेट्रा, बाइबिल के कादेश (अरामाईक में रिकेम) के आसपास के क्षेत्र में, जहां हमारे पास एदोम से दूर नहीं रहने वाले एक कुरैया-संस्कृति समूह का प्रमाण है।

एक अरबी नाम

यदि YHWH की उत्पत्ति मिद्यानियों के बीच येहवा की खानाबदोश भूमि में है, तो नाम का अर्थ हिब्रू भाषा परिवार के बजाय अरबी भाषा परिवार से होना चाहिए। यह आगे ה.ו.י, "होना" से टेट्राग्रामेटन के निर्गमन 3 में व्युत्पत्ति पर सवाल उठाता है, क्योंकि हिब्रू और अरामी के विपरीत, प्रोटो-अरबी में "टू" शब्द के लिए रूट ה.ו.י नहीं है। होना।" [15]

ईर्ष्यालु भगवान

1956 में, शेलोमो डोव गोइटिन (1900-1985), यहूदी और अरबी दोनों अध्ययनों के एक विद्वान, [16] ने सुझाव दिया कि यह नाम अरबी मूल hwy (هوى), और शब्द हवा ( هوايا ) से लिया गया है, जिसका अर्थ है "प्रेम , स्नेह, जुनून, इच्छा। [17] उन्होंने इस सुझाव को निर्गमन 34 के अनुच्छेद के साथ जोड़ा, जो विद्वानों द्वारा धार्मिक अनुष्ठान के रूप में जाने जाने वाले कानूनों के एक समूह में है। कानूनों में से एक, जो इज़राइल को अन्य देवताओं की पूजा करने से मना करता है, पढ़ता है:

שמ לד לד
निर्गमन 34:14 क्योंकि तुम्हें किसी दूसरे देवता को दण्डवत्‌ नहीं करना चाहिए, क्योंकि यहोवा जिसका नाम भावशून्य है, वह भावहीन परमेश्वर है।

गोइटिन का सुझाव है कि "यहवह जिसका नाम भावुक है" देवता के व्यक्तिगत नाम YHWH को संदर्भित करता है, जिसका अर्थ है "भावुक व्यक्ति", और यह नाम जुनून के लिए उस (प्रोटो) अरबी शब्द से निकला है। यह इस विचार को दर्शाता है कि अपने उपासकों के साथ YHWH का बंधन भावुक प्रेम में से एक है, और यदि उपासक अन्य देवताओं की पूजा करके "धोखा" देते हैं तो YHWH परेशान हो जाते हैं।

दूसरे शब्दों में, उपासकों का YHWH के साथ संबंध अनन्य होना चाहिए। इसके अलावा, गोइटिन के अनुसार, YHWH द्वारा मांगी गई यह विशिष्टता खानाबदोश, अरब जनजातियों के बीच एक देवता के रूप में उनकी उपस्थिति पर वापस जाती है।

मोनोलैट्री तौहीद-एकेश्वरवाद

विद्वान एक ईश्वर की ऐसी विशिष्ट पूजा को "मोनोलाट्री" कहते हैं। जबकि एकेश्वरवाद का दावा है कि कोई अन्य देवताओं का अस्तित्व नहीं है, एकेश्वरवाद अन्य देवताओं के अस्तित्व की अनुमति देते हुए, एक ईश्वर के प्रति वफादारी और अनन्य संबंध मानता है। वास्तव में, बाइबल के कई अनुच्छेद जिन्हें हम आजकल एकेश्वरवादी के रूप में पढ़ते हैं, वास्तव में एकपक्षी हैं। एक उत्कृष्ट उदाहरण स्वयं डिकोलॉग में है:

דברים ה:ז-ט לֹא יִהְיֶה לְךָ אֱלֹהִים אֲחֵרִים עַל פָּנָיַ… ה:ט לֹא תִשְׁתַּחְוֶה לָהֶם וְלֹא תָעָבְדֵם כִּי אָנֹכִי יְ־הוָה אֱלֹהֶיךָ אֵל קַנָּא….
Deut 5:7 मेरे सिवाय तेरा कोई और देवता न हो... 5:9 तू उनको दण्डवत् न करना, और न उनकी उपासना करना। क्योंकि मैं तेरा परमेश्वर याहवेह भावशून्य परमेश्वर हूं...

पाठ यह नहीं कहता है कि कोई अन्य देवता मौजूद नहीं है, केवल यह है कि उन्हें YHWH के अलावा किसी दूसरे की पूजा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि YHWH एक भावुक भगवान है जो स्वाभाविक रूप से इस तरह के व्यवहार से ईर्ष्या और उत्तेजित हो जाएगा। YHWH का अपने अनुयायियों के साथ संबंध एक पति की तरह एक पत्नी के साथ है; वह अपने उपासकों से प्यार करता है लेकिन किसी भी "आस-पास पूजा करने" से खतरनाक रूप से ईर्ष्या करता है। जैसे नीतिवचन की पुस्तक पतियों के बारे में कहती है:

משלי ו:לד כִּי קִנְאָה חֲמַת גָּבֶר וְלֹא יַחְמוֹל בְּיוֹם נָקָם।
नीतिवचन 6:34 पति का कोप भड़क उठेगा; वह अपने प्रतिशोध के दिन पर कोई दया नहीं करेगा।

YHWH अपने लोगों के लिए एक ऐसा ही भावपूर्ण पति है और अगर उसके लोग बेवफा हैं तो वह उतना ही तामसिक है।

भंजन

अनन्य होने के अलावा, YHWH पूजा अप्रतिष्ठित थी, यानी इसमें देवता की छवियां शामिल नहीं थीं। यह 12 वीं -11 वीं शताब्दी (लौह युग I, बाइबिल के अनुसार, न्यायाधीशों की अवधि) की इस्राएलियों की बस्तियों में मानव छवियों की अनुपस्थिति से स्पष्ट है। [18]  इसके अलावा, YHWH के अनुयायी स्पष्ट रूप से मूर्तिभंजक थे, और वे अन्य देवताओं की छवियों को नष्ट कर देंगे। हम इसे 13 वीं शताब्दी के अंत में हज़ोर पर इस्राएल की विजय में देख सकते हैं , जहाँ हम पाते हैं कि विजेताओं ने व्यवस्थित रूप से सभी धार्मिक मूर्तियों और छवियों को नष्ट कर दिया। [19]

इकोनोक्लासम ने कुरैय्याह संस्कृति (मिद्यानियों) की भी विशेषता बताई, जैसा कि तिम्ना में खुदाई से देखा गया है। मिस्रवासियों ने तिमना में देवी "हाथोर" अशेरा- के लिए एक छोटा सा मंदिर बनाया, जिसकी खुदाई "तेलअवीव" विश्वविद्यालय और लंदन के पुरातत्वविद्, बेनो रोथेनबर्ग (1914-2012) द्वारा की गई थी। उसी समय, मिद्यानियों का अपना स्वयं का पूजा स्थल था, जिसमें एक तंबू में खंभे (מצבות) का संग्रह था। (क्षेत्र की अत्यधिक शुष्कता के कारण, तंबू के टुकड़े बच गए और उत्खननकर्ताओं द्वारा खोजे गए।)

मिस्र के हैथोर मंदिर के विपरीत, मिद्यानियों के पूजा क्षेत्र में कोई चित्र नहीं था, चाहे वे चित्रित हों या खुदी हुई हों, जो उनके एकोनिज़्म को दर्शाता है। जब मिस्रियों ने इस क्षेत्र को छोड़ दिया, तो मिद्यानियों ने हाथोर मंदिर सहित पूरे क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। ऐसा करने में, उन्होंने शैल चित्रों से हाथोर के चेहरे को मिटाकर क्षेत्र को धार्मिक रूप से स्वीकार्य बना दिया और इन चट्टानों को अपने क्षेत्र में एक अन्य स्तंभ के रूप में पुन: उपयोग किया। रोथेनबर्ग के तर्क की उजी अवनर द्वारा हाल ही में की गई खुदाई से पुष्टि हुई थी। [20] यह मूर्ति भंजन एक अन्य संबंधित समूह, केनाइट्स (परिशिष्ट देखें) में भी परिलक्षित होता है।

YHWH, मिद्यान और मूसा के बारे में प्रामाणिक परम्परा-

एक मिद्यानी महिला से मूसा के विवाह की परंपरा में प्रामाणिकता की छाप है: इस्राएली अपने प्राथमिक धार्मिक नेता के एक गैर-इस्राएली महिला से विवाह के बारे में एक कहानी क्यों गढ़ेंगे ?

अधिक समस्यात्मक रूप से, मूसा न केवल अपनी पत्नी को मिद्यानियों के बीच पाता है, बल्कि वहाँ अपने परमेश्वर को भी पाता है। जैसा कि मैंने अन्य संदर्भों में तर्क दिया है, जैसे कि मेरा, "होवव द मिद्यानी: कहानी का अंत क्यों कट गया? TheTorah , 2016), “बाइबिल के ग्रंथ इसे नरम करने या यहां तक ​​कि छिपाने की कोशिश करते हैं, लेकिन मूसा-इन-मिडियन परंपरा की पूरी ताकत वह है जो मिद्यानी/प्रोटो-अरेबियन देवता YHWH के उद्भव की व्याख्या करती है- एक भावुक देवता की अपेक्षा अनन्य प्रेम—इस्राएल के ईश्वर के रूप में।

अनुबंध

एनीकोनिक केनाइट्स: एक अन्य मिद्यानी-जैसी याहविस्टिक जनजाति

मिद्यानियों के एकोनिज़्म के लिए एक और सबूत केनियों से आता है। मिद्यानियों और केनियों के बीच संबंध स्पष्ट नहीं है, लेकिन बाइबिल का पाठ कभी-कभी दोनों को मिलाता है, क्योंकि मूसा के ससुर को कभी-कभी एक और कभी-कभी दूसरे के रूप में वर्णित किया जाता है। [21]

न्यायियों 1:16 में, हमें बताया गया है कि अरद घाटी में केनियों का बसेरा था, और विद्वानों ने लंबे समय से सुझाव दिया है कि होर्वत उज़ा शहर बाइबिल कीना है, क्योंकि इसके आसपास की धारा को वादी-एल-केनी कहा जाता है, अर्थात, केनाइट स्ट्रीम। आयरन II (राजशाही काल) शहर की खुदाई से पता चलता है कि पड़ोसी (इज़राइली!) शहरों में लोगों की छोटी नक्काशी थी, होर्वत उज़ा में कोई नहीं था। तेल अवीव विश्वविद्यालय के बाइबिल काल के एक इतिहासकार नादव नामान ने सुझाव दिया कि ऐसा इसलिए था क्योंकि केनाइट्स विशेष रूप से उनकी प्राचीन, अलौकिक परंपरा से जुड़े थे। [22]

इसी तरह, बाद की अवधि के एक केनाइट व्यक्ति, यहोनादाब बेन रेकाब (1 इतिहास 2:55), [23] को जेहू के बाल-विरोधी आंदोलन में शामिल होने के रूप में वर्णित किया गया है (2 किग्रा 10:15-16)। यिर्मयाह में हम सुनते हैं कि यह समूह—रेकाबियों, एक केनी उपकुल—एक खानाबदोश तंबू में रहने वाला जीवन व्यतीत करता था, बिना घर बनाए या खेत लगाए, और शराब की खपत से परहेज करता था। यह जीवन शैली उस चीज़ की याद दिलाती है जिसे हम बाद के समय में एक अन्य अरबी जनजाति, नबातियन के साथ देखते हैं, जो कि अप्रतिष्ठित भी थे। [24]

भले ही मिद्यानियों, केनियों और रेकाबियों के बीच सटीक संबंध धुंधला बना रहे - सिवाय इसके कि बाद के दो छोटे समूह इस्राएल का हिस्सा बन गए और पहले के बड़े समूह नहीं बने - ये सभी समूह एक अलौकिक, (YHWH) पूजा करने वाली परम्परा का हिस्सा थे, जो कि था प्रारम्भिक काल में इस्राएलियों द्वारा अपनाया और पुन: आकार दिया गया।


        ( भाग- पञ्चम्)

गुप्त काल में कृष्ण की प्रतिमाओं के साक्ष्य-


फ़ाइल:कृष्णा लिफ्टिंग गोवर्धन टीला - स्वर्गीय गुप्त काल - एसीसीएन 15-1113 - सरकारी संग्रहालय - मथुरा 2013-02-23 5384.जेपीजी

कृष्ण के ऋग्वेद आदि में कई सन्दर्भ प्राप्त होते हैं।

जिनमें कुछ ऋचाऐं निम्नलिखित हैं।

"अयं वां कृष्णो अश्विना हवते वाजिनीवसू । मध्व: सोमस्य पीतये ॥

पदपाठ-अयम् । वाम् । कृष्णः । अश्विना । हवते । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू ।मध्वः । सोमस्य । पीतये ॥३।ऋ० ८/८५/३

अयम्) यह (कृष्णः)  (मध्वः) मधुर आदि गुणयुक्त (सोमस्य) सोम के (पीतये) पान  कराने हेतु (वाजिनीवसू) दोनों अश्वनी कुमारों को-  (वा) तुम दोनों (अश्विनौ) अश्विनी युगल को (हवते) बुलाता है॥३॥

सायण भाष्य:-“अश्विना =अश्विनौ “अयं “कृष्णः नाम मन्त्रद्रष्टा ऋषिः “वां युवां “हवते स्तुतिभिराह्वयति । किमर्थम् । “मध्वः “सोमस्य “पीतये इति ॥

"शृणुतं जरितुर्हवं कृष्णस्य स्तुवतो नरा । मध्व: सोमस्य पीतये।।

पद पाठ:-शृणुतम् । जरितुः । हवम् । कृष्णस्य । स्तुवतः । नरा ।मध्वः । सोमस्य । पीतये ॥४।

नरा) अश्वनी कुमार ! (मध्वः) माधुर्य आदि गुणयुक्त (सोमस्य) सोम का (पीतये) पान करने के लिए  (जरितुः) स्तोता के (स्तुवतः) गुणवर्णन करते हुए का (कृष्णस्य) कृष्ण का  (हवम्) आह्वान को (शृणुतम्) सुनें॥४॥ (ऋग्वेद ८/८५/४)

सायण-भाष्य

हे "नरा नरौ सर्वस्य नेतारावश्विनौ “जरितुः । तच्छीलार्थे तृन् । व्यत्ययेनान्तोदात्तत्वम् । जरितुः स्तवनशीलस्य संप्रति “स्तुवतः स्तोत्रं कुर्वतः “कृष्णस्य एतन्नामकस्यर्षेः सम्बन्धि “हवं युष्मद्विषयमाह्वानं “शृणुतम् । यद्वा । जरितुरन्यदेवानां स्तोतुः स्तुवत इदानीं युवयोः स्तोत्रकारिणस्तस्य हवं शृणुतम् । शिष्टं  गतम् ॥(ऋ० १/१३०‍/४)

← 

अविन्दद्दिवो निहितं गुहा निधिं वेर्न गर्भं परिवीतमश्मन्यनन्ते अन्तरश्मनि ।
व्रजं वज्री गवामिव सिषासन्नङ्गिरस्तमः ।
अपावृणोदिष इन्द्रः परीवृता द्वार इषः परीवृताः ॥३॥

ऋग्वेदः - मण्डल( 1/130/3/ 

जो (वज्री) वज्र धारण करने वाला इन्द्र। (व्रजं, गवामिव) जैसे व्रजमण्डल में गाय के तरह (सिषासन्) जनों को ताड़ना देने अर्थात् दण्ड देने की इच्छा करता हुआ (अङ्गिरस्तमः) अग्नि युक्त (इन्द्रः) इन्द्र (इषः) इच्छा करने वाला  (परीवृताः) ढपी हुई (इषः) इच्छा  (द्वारः) द्वारों को (अपावृणोत्) खोले तथा (अनन्ते) अनन्त में (अश्मनि) आकाश में  (अन्तः) बीच (परिवीतम्) सब ओर से व्याप्त (वेः) पक्षी के (गर्भम्) गर्भ के (न) समान (गुहा) गुहा में (निहितम्) स्थित (निधिम्) खजाने को (दिवः) स्वर्ग से (अविदन्त्) प्राप्त होता है ॥ ३॥

दादृहाणो वज्रमिन्द्रो गभस्त्योः क्षद्मेव तिग्ममसनाय सं श्यदहिहत्याय सं श्यत् ।
संविव्यान ओजसा शवोभिरिन्द्र मज्मना ।
तष्टेव वृक्षं वनिनो नि वृश्चसि परश्वेव नि वृश्चसि ॥४॥


त्वं वृथा नद्य इन्द्र सर्तवेऽच्छा समुद्रमसृजो रथाँ इव वाजयतो रथाँ इव ।
इत ऊतीरयुञ्जत समानमर्थमक्षितम् ।
धेनूरिव मनवे विश्वदोहसो जनाय विश्वदोहसः ॥५॥


इमां ते वाचं वसूयन्त आयवो रथं न धीरः स्वपा अतक्षिषुः सुम्नाय त्वामतक्षिषुः ।
शुम्भन्तो जेन्यं यथा वाजेषु विप्र वाजिनम् ।
अत्यमिव शवसे सातये धना विश्वा धनानि सातये ॥६॥


भिनत्पुरो नवतिमिन्द्र पूरवे दिवोदासाय महि दाशुषे नृतो वज्रेण दाशुषे नृतो ।
अतिथिग्वाय शम्बरं गिरेरुग्रो अवाभरत् ।
महो धनानि दयमान ओजसा विश्वा धनान्योजसा ॥७॥


इन्द्रः समत्सु यजमानमार्यं प्रावद्विश्वेषु शतमूतिराजिषु स्वर्मीळ्हेष्वाजिषु ।
मनवे शासदव्रतान्त्वचं कृष्णामरन्धयत् ।
दक्षन्न विश्वं ततृषाणमोषति न्यर्शसानमोषति ॥८॥

ऋग्वेद संहिता की ऋचाएँ भारतीय संस्कृत साहित्य के सबसे पुराने और जटिल साहित्य का प्रतिनिधित्व करती हैं। दस मण्डलों में, ये उपर्युक्त ऋचा प्राचीन भारत में व्यापक रूप से किए जाने वाले ऐतिहासिक घटनाओं का मूल सार हैं।


ऋग्वेद 1.130.8

इन्द्र॑: स॒मत्सु॒जज॑मान॒मार्यं॒ प्राव॒द्विश्वे॑षु श॒तमु॑तीरा॒जीषु॒ स्व॑र्मिळहेश्वा॒जीषु॑। मन॑वे॒ शस॑दव्र॒तन्त्वचं॑ कृष्णम॑रंधयत्। दक्ष॒न्न विश्वं॑ ततृषा॒नमो॑षति॒ न्य॑र्षसा॒नमो॑षति॥
इन्द्रः समसु यजमानमार्यं प्रवद्विश्वेषु शतमुतिराजिशु स्वरमिळहेश्वाजिशु। मनवे शासद्व्रतान्त्वचं कृष्णमरान्धयत्। दक्षिणान् विश्वं ततृषाणमोषति न्यार्षानमोषति ॥
इंद्र: समत्सु यजमानं आर्यं प्रवद विश्वेषु शतमुतिर आजिशु स्वामीषेषव आजिशु | मनवे शासद् अवृत्तं त्वचं कृष्णम् अरंधयत् | दक्षण न विश्वं ततृषाणं ओशति न्य अरशासनं ओशति ||

 अनुवाद:

“ इंद्र , विविध प्रकार के रक्षक (अपनी पूजा के) युद्धों में, अपने आर्य उपासक की सभी संघर्षों में रक्षा करते हैं, उन संघर्षों में जो स्वर्ग प्रदान करते हैं; उन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों की उपेक्षा करने वालों को (मानव के लाभ के लिए) दण्डित किया; उसने (आक्रामक की) काली चमड़ी को फाड़ दिया; मानो (ज्योति से) जलकर वह घातक को भस्म कर देता है; वह उसे पूरी तरह से नष्ट कर देता है जो क्रूरता से प्रसन्न होता है।''

सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य

काली चमड़ी: किंवदंती है कि एक असुर , जिसका नाम काला कृष्ण था, अपने दस हजार अनुयायियों के साथ अन्सुमती नदी के तट पर पहुंचा , जहां उसने भयानक विनाश किया जब तक कि मरुतों के साथ इंद्र को बृहस्पति द्वारा उसके खिलाफ नहीं भेजा गया , जब वह इंद्र द्वारा पराजित किया गया और उसकी त्वचा छीन ली गई।

उपर्युक्त ऋचा का सम्यक् अनुवाद व अर्थ सायण द्वारा नहीं किया गया। क्योंकि मूल ऋचा में न तो कृष्ण को असुर कहा गया है और नाही विश- असुर अथवा राक्षस वाली शब्द है। -

विवरण:

ऋग्वेद की बहुस्तरीय व्याख्या

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सूरश्चक्रं प्र वृहज्जात ओजसा प्रपित्वे वाचमरुणो मुषायतीऽशान आ मुषायति ।
उशना यत्परावतोऽजगन्नूतये कवे ।
सुम्नानि विश्वा मनुषेव तुर्वणिरहा विश्वेव तुर्वणिः ॥९॥


स नो नव्येभिर्वृषकर्मन्नुक्थैः पुरां दर्तः पायुभिः पाहि शग्मैः ।
दिवोदासेभिरिन्द्र स्तवानो वावृधीथा अहोभिरिव द्यौः ॥१०॥

सायणभाष्यम्

व्रजम् । वज्री । गवाम्ऽइव । सिसासन् । अङ्गिरःऽतमः ।अप । अवृणोत् । इषः । इन्द्रः । परिऽवृताः । द्वारः । इषः । परिऽवृताः ॥३।।

अयमिन्द्रः “दिवः =द्युलोकादानीतं सोमम् "अविन्दत् =अलभत लब्धवान् । द्युलोकात् गायत्र्या पक्षिरूपयापहृतं भूमावानीतं स्वीकृतवानित्यर्थः । द्युलोकादानयनं तैत्तिरीये ' तृतीयस्यामितो दिवि सोम आसीत्तं गायत्र्याहरत्' (तै. ब्रा. ३. २. १. १ ) इत्यादिषु प्रसिद्धम् । स एव विशेष्यते । “गुहा= “निहितम् अतिगोप्ये प्रदेशे पर्वतादौ स्थापितम् अत एव “निधिं निधिस्थानीयम् अनाशमित्यर्थः। आनयने दृष्टान्तः। “वेः =पक्षिणः "गर्भं “=न शिशुमिव । यथा कपोतादिस्त्री पक्षिणी स्वशिशुं व्याधादिभयात् कस्मिश्चिद्दुर्गमे स्थापयित्वा तत्स्थानम् अजानती परिभ्रम्य विन्दते तद्वदित्यर्थः। पुनः कीदृशम् । "अश्मनि =पाषाणे अतिमहति विस्तृते "अनन्ते "अश्मनि =अपरिमितपाषाणे पर्वतादौ "परिवीतं लताकण्टकादिना परितो वेष्टितम् । सत्स्वपीतरेषु देवेषु कोऽस्यातिशय इति तत्राह । अयम् "इन्द्रः “वज्री’= वज्रवान् "गवां “व्रजम् इव पणिना असुरेणापहृतं भूमौ खनित्वा पाषाणेन पिहितद्वारं गवां व्रजं यथा तमसुरं जित्वा द्वारम् उद्घाट्य' लब्धवान् तद्वत् सोमं “सिषासन संभक्तुमिच्छन् ॥ ‘ सनीवन्तर्ध' इति विकल्पनात् इडभावे ‘जनसन ' इति आत्वम् ॥ अविन्दत् । अयमर्थः ‘पणिनेव गावः' (ऋ. सं. १. ३२. ११ ) इत्यादिश्रुतिषु प्रसिद्धः। तथा अयम् “इन्द्रः परीवृताः परितो मेघेनावृताः “इषः अन्नहेतुभूतस्योदकस्य "द्वारः द्वाराणि "अपावृणोत् अपवृतान्यकरोत् उद्घाटितवानित्यर्थः । तथा कृत्वा “इषः इष्यमाणानि व्रीह्याद्यन्नानि "परीवृताः भूमौ परितो व्याप्तान्यकरोत् । वज्रेण मेघं भित्त्वा जलवर्षणेन सस्यादिसमृद्धिं कृत्वा व्रीह्यादिकं भूमौ व्याप्तमकरोदित्यर्थः। यतः अयमेवं कृतवान् अतः सोमस्वीकारो युक्तः ॥


हे “इन्द्र “त्वं "वृथा =अप्रयत्नेनैव "नद्यः =नदीः "समुद्रम् "अच्छ'= आभिमुख्येन "सर्तवे= प्राप्तुम् “असृजः मेघं निर्भिद्य उत्पादितवानसि । तत्र दृष्टान्तः । “रथानिव । यथा त्वं रथान् अस्मद्यागं प्रति अच्छ सर्तवे आभिमुख्येन प्राप्तुम् असृजः सृष्टवानसि तद्वत् । किंच “वाजयतो "रथानिव संग्राममन्नं वा इच्छन्तो राजादयः रथानिव । ते यथा संग्राम प्रतिं ओषध्यादिकं वा अतिसर्तुं रथान् सृजन्ति तद्वत् ॥ क्यजन्तात् ‘शतुरनुमः' इति विभक्तेरुदात्तत्वम् ॥ किंच "इतः अस्मत्संनिधिदेशम् ॥ द्वितीयार्थे तसिल् ॥ अस्मान् प्रति “ऊतीः ऊत्यः गमनवत्यो रक्षणवत्यो वा नद्यः "समानमर्थं समानप्रयोजनवत् "अक्षितम् उदकम् अयुञ्जत योजितवत्यः । त्वत्प्रसादादिति भावः ॥ अर्थशब्दः उदकविशेषणः सन् नपुंसकलिङ्गः ॥ अक्षितमित्युदकनाम, ‘अक्षितं बर्हिः' (नि.१.१२.७७)इति तन्नामसु पाठात् । तत्र दृष्टान्तः । मनवे मनोरर्थाय “धेनूरिव धेनवो यथा "विश्वदोहसः सर्वार्थं दोग्ध्र्यः अभवन् । यथा वा "जनाय यस्मै कस्मै चित्समर्थाय तदर्थं "विश्वदोहसः भवन्ति सर्वक्षीरप्रदा भवन्ति । यद्वा । जनाय सर्वजनार्थं सस्यादीनभिलक्ष्य नद्यः विश्वदोहसः संपूर्णदोग्ध्र्यः भवन्ति सर्वत्र प्रवहन्ति । अत्र नद्यः प्रीणनात् दोहस इत्युपचर्यते । ईदृग्जगदुपकारिवृष्टिप्रदः' इतीन्द्रस्यैव स्तुतिः ॥ ॥ १८।।

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इन्द्रः । समत्ऽसु । यजमानम् । आर्यम् । प्र । आवत् । विश्वेषु । शतम्ऽऊतिः । आजिषु । स्वःऽमीळ्हेषु । आजिषु ।

मनवे । शासत् । अव्रतान् । त्वचम् । कृष्णाम् । अरन्धयत् । दक्षम् । न । विश्वम् । ततृषाणम् । ओषति । नि । अर्शसानम् । ओषति ॥८।।

अयम्= "इन्द्रः "समत्सु= रणेषु प्रहारनिमित्तेषु "यजमानं =यष्टारम् "आर्यम् =अरणीयं सर्वैर्गन्तव्यं “प्रावत् रक्षति । समत्सु= इति संग्रामनाम ‘समत्सु समरणे' (नि. २.१७.२२ ) इति तन्नामसु पाठात् । किंच “शतमूतिः स्वभक्तेष्वपरिमितरक्षणः इन्द्रः "विश्वेषु । लिङ्गव्यत्ययः ।। “आजिषु सर्वेषु स्पर्धानिमित्तेषु संग्रामेषु यजमानं प्रावत्। तथा "स्वर्मीळ्हेषु स्वर्गदेशेषु सुखस्य सेचयत्सु वा "आजिषु महासंग्रामेषु प्रावत् स्वर्गप्रदानेन रक्षति । रणे आभिमुख्येन हतानां वीराणां स्वर्गः पराशरेण स्मर्यते-’ द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ । परिव्राड्योगयुक्तश्च रणे योऽभिमुखो हतः' (परा. ३. २५) इति । अत्रेतिहासमाचक्षते । अंशुमती नाम नदी । तस्यास्तीरे कृष्णनामा असुरः वर्णतश्च कृष्णः दशसहस्रैरनुचरैरुपेतः तद्देशवर्तिनः पीडयन्नास्ते । तत्रेन्द्रः बृहस्पतिना प्रेरितः सन् मरुद्भिः सहितः कृष्णां तदीयत्वचमुत्कृत्य सानुचरमवधीत् । अयमर्थः ' अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठत्' (ऋ. सं. ८.९६. १३) इत्यादिना उपरिष्टात् वक्ष्यते । 

तदत्रोच्यते । अयमिन्द्रः "मनवे मनुष्याय ॥ विभक्तिव्यत्ययः ॥ मनुष्याणामर्थाय । "अव्रतान् । व्रतमिति कर्मनाम् । तद्रहितान् यागविद्वेषिणः “शासत् शिक्षितवान् हिंसितवान् ॥ शासेर्लेटि अडागमः ॥ तथा "कृष्णां "त्वचं कृष्णनाम्नोऽसुरस्य कृष्णवर्णां त्वचमुत्कृत्य "अरन्धयत् हिंसितवान् । ‘ रध हिंसायाम्'। ‘रधिजभोरचि' इति नुम् ॥ केन प्रकारेणेति तदुच्यते । “धक्षत् भस्मीकरोति ।। लेट्यडागसः । ‘सिब्बहुलम्' इति सिप् ।। तथा "विश्वं "ततृषाणमोषति । सर्वमपि हिंसकं तदनुचरसंघं दहति । यत्किंचिदवशिष्टमिति न इत्याह । "अर्शसानं हिंसारुचिं हतावशिष्टं सर्वमपि "नि “ओषति निःशेषेण दहति ॥

उपर्युक्त वैदिक ऋचाओं में सायण ने ऋचा का रूढ़िवादी तरीके से अर्थ किया है। जो कि यथार्थ नहीं है। क्योंकि यदि कृष्ण का असुर अर्थ कर दिया भी जाय तो  पूर्व वैदिक काल में असुर शब्द बुद्धिमान और प्राणवान व्यक्तियों के अर्थक  था।

और कृष्ण शब्द कृषि करने वालों का वाचक था रंग से कृष्ण का कोई तात्पर्य ही नहीं था।

कृषाणु किसान का वाचक शब्द ही कालान्तर में काले अथवा श्यामल वर्ण का अर्थ किसानों के रंग को लेकर देने लगा। क्योंकि ये निरन्तर भूमध्य रेखीय क्षेत्रों में धूप -छाँव की परवाह न करते हुए मेहनत करते थे । अत: इनका रंग श्यामल(काला) होना स्वाभाविक ही था।

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मथुरा से प्राप्त विष्णु की प्रतिमा जो कि द्वितीय शताब्दी ईस्वी. की है, भारत के प्राचीनतम विष्णु प्रतिमाओं में से एक मानी जाती है। यहाँ से जो समय शुरू हुआ वह भारतीय मूर्ति विज्ञान में एक नया आयाम जोड़ता है। गुप्त काल के अंतर्गत भारतीय कला (चौथी-छठी शताब्दी): भारतीय कला के इतिहास में  महान युग कहा जाता है- क्योंकि कलाकृतियों की संपूर्णता और परिपक्वता जैसी चीज़ें इससे पहले कभी नहीं रहीं। गुप्त कला अध्यात्मिक गुणों से युक्त थी और गुप्तकाल का प्रारंभिक दौर भारतीय कला पर ज़ोर देता है। 

गुप्त राजा गोप  अहीर (यादव) जाति के थे, जो प्राचीन भारत के पशुपालक समुदाय से सम्बन्धित थे. इतिहासकार मानते हैं कि गुप्त राजवंश (लगभग 240-550 ईस्वी) नेपाल के अहीरों या गोपों से जुड़ा था, और कुछ गुप्त शासक भी खुद को गोप या गोपाल कहते थे

गोप जाति और गुप्त राजवंश के संबंध:
  • नाम में समानता:'गोप' शब्द का अर्थ गोपालक होता है, और इतिहासकार डी. आर. रेग्मी और के.पी. जायसवाल का मानना है कि गुप्त शब्द गोप का ही रूपान्तरण है.
  •  नेपाल से संबंध:नेपाल के गोपाल राजवंश के संस्थापक भक्तमान गुप्त थे, और बाद के सभी राजाओं ने अपने नाम के साथ 'गुप्त' उपाधि जोड़ी. 
  • गुप्त वंश के शुरुआती शासक:कुछ ऐतिहासिक स्रोत, जैसे बिहार रिसर्च सोसाइटी की एक रिपोर्ट, गुप्त राजवंश को गोप वंश (यादव वंश) का ही बताते हैं. 
  • जातीय पहचान:गुप्त राजवंश के अहीरों से संबंध होने का मत मगध साम्राज्य के गुप्त शासकों की पृष्ठभूमि और जाति की पहचान को स्पष्ट करता है, जैसा कि चौधरी बाबू राम जैसे विद्वानों ने अपनी पुस्तकों में लिखा है. 
गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे  दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ।गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक  उत्तरप्रदेश और बिहार में था।
साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इस अवधि का योगदान आज भी सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता है। 

महान गणितज्ञ आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर गुप्त काल के ही उज्ज्वल नक्षत्र हैं।दशमलव प्रणाली का आविष्कार तथा वास्तुकलामूर्तिकला, चित्रकला ओर धातु-विज्ञान के क्षेत्र की उपलब्धियों पर आज भी लोगों का आनंद और आश्चर्य होता है।

गुप्त राजवंश की उत्पति:
इतिहासकार डी. आर. रेग्मी के अनुसार गुप्त वंश की उत्पति नेपाल के प्राचीन अभीर-गुप्त राजवंश (गोपाल राजवंश) से हुई थी।इतिहासकार एस. चट्टोपाध्याय ने पंचोभ ताम्र-पत्र के हवाले से कहा कि गुप्त राजा गोपालक थे तथा उनका उद्भव प्राचीन अभीर-गुप्त वंश से हुई थी |गोप एवं गौ शब्द से गुप्त शब्द की उत्पति हुई है।

इतिहास:
आरम्भ में इनका शासन केवल मगध पर था, पर बाद में गुप्त वंश के राजाओं ने संपूर्ण उत्तर भारत को अपने अधीन करके दक्षिण में कांजीवरम के राजा से भी अपनी अधीनता स्वीकार कराई। इस वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए।

नृसिंहगुप्त बालादित्य (463-473 ई.) को छोड़कर सभी गुप्तवंशी राजा  भागवत धर्मावलंबी थे।बालादित्य ने बौद्ध धर्म अपना लिया था।
मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत मेंराजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही।कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लानेका प्रयास किया।मौर्योत्तर काल के उपरान्त तीसरी शताब्दी इ. में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्वी में 
गुप्त वंश प्रमुख हैं।मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है।
गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे  दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ।

गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक    उत्तर प्रदेश और बिहार में था।
इस राजवंश में जिन शासकों ने शासन किया उनके नाम इस प्रकार है:-
श्रीगुप्त (240-280 ई.),
घटोत्कच (280-319 ई.),
चंद्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.)
समुद्रगुप्त (335-375 ई.)
रामगुप्त (375 ई.)
चंद्रगुप्त द्वितीय (375-414 ई.)
कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य (415-454 ई.)
स्कन्दगुप्त (455-467 ई.)

गुप्त साम्राज्य को कृष्ण मूर्तियों का विकास करने वालों के रूप में जाना जाता है। अतः यदि गुप्तकाल को मूर्तिकला का उत्कृष्ट काल कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। 

गुप्त सम्राटों के संरक्षण में भागवत धर्म का पूर्ण विकास हुआ परंतु उनकी सहिष्णुता की नीति ने अन्य धर्मों एवं संप्रदायों को फलने-फूलने का अवसर प्रदान किया।

इस काल में विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, स्कंद, कुबेर, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा, आदि विभिन्न हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का निर्माण किया गया।

परन्तु गुप्त शासक वैष्णव मत के उपासक थे। अतः उनके समय में भगवान विष्णु की बहुसंख्यक प्रतिमाओं का निर्माण किया गया। इसके उदाहरण विष्णु की 5 वीं शताब्दी पुरानी मूर्ति है जो कि चतुरानन शैली की है। इस प्रतिमा को तीन सिर वाले विष्णु के रूप मे उकेरा गया है। इसमें विष्णु के विश्वरूप को मानव सिर के साथ दिखाया गया है और उनके अन्य स्वरूपों में से वराहावतार (Varaha) तथा नरसिंह (Narasimha) को दिखाया गया है। विष्णु की अन्य प्रतिमाएं जैसे विष्णु वैकुंठ चतुर्मूर्ति (Vaikuntha Chaturmurti) भी तीन-सिरों (पीठ की तरफ चौथे सिर के साथ) के रूप में दिखती हैं। चौथी शताब्दी से विष्णु की कई प्रतिमाएँ बननी शुरू हुई और ये विष्णु मूर्तियाँ चतुर्भुजी थी जैसे कि विष्णु चतुरानन, इसमें वासुदेव-कृष्ण की विशेषताओं को दर्शाया गया है और कंधों पर एक किरणों का पुंज भी लगाया गया है। भगवान विष्णु, हिन्दू त्रिदेवों में से एक देव हैं, जिनकी महत्वता अत्यंत ही ऊंची है। गहरे समुद्र में रहने वाले विष्णु भगवान को तीनों लोकों के रक्षक के रूप में जाना जाता है। इन्हें अक्सर चार-सशस्त्र पुरुष के रूप में चित्रित किया जाता है, जिसमें इनकी चार भुजाएं उनके सर्व-शक्तिशाली और सर्व-व्यापी स्वभाव को दर्शाया गया है। सामने की दो भुजाओं के माध्यम से विष्णु का भौतिक अस्तित्व दर्शाया गया है जबकि पीछे की दो भुजाएँ आध्यात्मिक दुनिया में उनकी उपस्थिति का प्रतिनिधित्व करती हैं। इनके चारों हाथ शंख (Conch (जो उत्पत्ति का प्रतीक है और इसका नाम पंच-जन्य (Pancha-janya) है, जिसमें से पाँच तत्वों के सिद्धांतों का विकास हुआ) अथव पाँच वर्णों का प्रतिनिधित्व है, चक्र (Discus (जो जीवन का प्रतीक है जिसका केंद्र परिवर्तनहीन और गतिहीन वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करता है)), गदा (Mace (कौमुदीकी (Kaumudiki) जो मौलिक ज्ञान (आद्या-विद्या) का प्रतीक है, कौमुदीकी की तुलना काल की शक्ति काली से की जाती है)) और पद्म या कमल (Lotus) (जो विकसित ब्रह्मांड और सृष्टि के विस्तार का प्रतिनिधित्व करता है, कमल पवित्रता, आध्यात्मिक धन, प्रचुरता, वृद्धि और उर्वरता का प्रतीक है) से सुशोभित हैं। इनका गला चमकीला और शंख के आकार का है और माथे के बीच में तिलक लगा है, जो आकाश में अर्धचंद्र की तरह प्रकाशमान है। वे सुनहरे रंग के रेशमी वस्त्र (पीताम्बर) से सुशोभित रहते हैं जोकि ब्रह्मांड में कृपा, सुंदरता और आनंद का प्रतीक हैं। इनकी त्वचा का रंग आकाश जैसा नीला है, जो सर्व-व्यापक प्रकृति को दर्शाता है। इनके सीने पर ऋषि भृगु (Bhrigu) के पैरों के निशान हैं। भगवान विष्णु के हृदय में स्थित महर्षि भृगु का ये पद-चिह्न उपासकों में सदा के लिये श्रद्धास्पद रहे हैं। इसके अलावा उनकी छाती पर श्रीवत्स (Srivatsa) का निशान है। इसे विष्णु की योगिक शक्तियों (योग शक्ति) का प्रतीक कहा जाता है। यह प्राकृतिक दुनिया के स्रोतों और मूल प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। विष्णु की छवि को कई बार धनुष शारंग (Saranga) तथा बाणों या तलवार नन्दक (Nandaka) से संपन्न दिखाया है। इनकी यह तलवार एक शक्तिशाली हथियार है, जो अज्ञानता को नष्ट करती है।
कहा जाता है कि जब भी पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, तब भगवान विष्णु एक विशेष रूप में बुराई को नष्ट करने के लिए जन्म लेते हैं। 

चाहे वह मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम हों या श्रीकृष्ण, वे हर युग में पृथ्वी पर रहे हैं। 

गुप्त कला का विकास भारत में गुप्त साम्राज्य के शासनकाल में (२०० से ३२५ ईस्वी में) हुआ। इस काल की वास्तुकृतियों में मंदिर निर्माण का ऐतिहासिक महत्त्व है। बड़ी संख्या में मूर्तियों तथा मंदिरों के निर्माण द्वारा आकार लेने वाली इस कला के विकास में अनेक मौलिक तत्व देखे जा सकते हैं जिसमें विशेष यह है कि ईंटों के स्थान पर पत्थरों का प्रयोग किया गया