शनिवार, 19 अप्रैल 2025

करणी सेना के आदि माता का विस्तृत परिचय और उनकी उत्पत्ति-

करणी सेना के आदि माता का विस्तृत परिचय और उनकी उत्पत्ति-
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करणी माता, चारण जाति, और करणी सेना के विषय को संतुलित रूप से समझाने के लिए निम्नलिखित व्याख्या उदाहरणों के साथ प्रस्तुत की गई है। यह व्याख्या संक्षिप्त, तथ्यात्मक, और दोनों संदर्भों (करणी माता और करणी सेना) को समान महत्व देती है, ताकि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक पहलुओं का समग्र दृष्टिकोण मिले।
1- करणी माता- ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व
करणी माता (जन्म: 1387 ईस्वी, सुवाप गांव, जोधपुर) चारण जाति की एक प्रभावशाली महिला थीं, जिनका बचपन का नाम रिघुबाई था। चारण जाति राजस्थान में राजाओं के गुणगान, वंशावली संरक्षण, और कथावाचन के लिए जानी जाती थी। करणी माता को एक आध्यात्मिक शक्ति के रूप में पूजा जाता है, खासकर बीकानेर के देशनोक मंदिर में, जहाँ काबा (चूहे) को उनके भक्तों का पुनर्जन्म माना जाता है।
उदाहरण: देशनोक का करणी माता मंदिर, जहाँ हजारों चूहे भक्तों के बीच स्वतंत्र घूमते हैं, उनकी चमत्कारी शक्ति का प्रतीक है। यह मंदिर चारण संस्कृति और आध्यात्मिक मान्यताओं का जीवंत उदाहरण है, जो आज भी लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है।
2- चारण जाति: उत्पत्ति और सांस्कृतिक भूमिका
स्कन्द पुराण (सह्याद्रिखंड और काशीखंड) के अनुसार, चारणों की उत्पत्ति वैश्य पुरुष और शूद्रा स्त्री से मानी गई है। वे डिंगल बोली में काव्य रचना, गायन, और राजाओं-ब्राह्मणों की प्रशंसा के लिए प्रसिद्ध थे। चारण शिक्षित थे और राजपूतों के साथ घनिष्ठ संबंध रखते थे, जिनकी वीरता को वे काव्यों में अमर करते थे। चारण और भाट, हालांकि समान कार्य करते थे, लेकिन चारण साहित्यिक और भाट वंशावली संग्रह में अधिक सक्रिय थे। दोनों को राजाओं से कर-मुक्त जागीरें मिलती थीं।
उदाहरण- चारण कवि दुरसा आढ़ा ने 17वीं सदी में मारवाड़ के राठौड़ राजपूतों की वीरता पर "राठौड़ां री ख्यात" लिखी, जो डिंगल बोली में रचित एक महत्वपूर्ण काव्य है। यह चारणों की साहित्यिक प्रतिभा और राजपूतों के साथ सांस्कृतिक निकटता को दर्शाता है।
चारणों ने युद्धों में भी भाग लिया और अपनी स्वामी भक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। उनके घर संकटकाल में राजपूत महिलाओं के लिए सुरक्षित आश्रय माने जाते थे।
उदाहरण- 1818 में मराठों के खिलाफ जोधपुर के युद्ध में चारण योद्धा मेघजी चारण ने राठौड़ राजपूतों के साथ वीरता दिखाई। यह उनकी स्वामी भक्ति और योद्धा भावना का उदाहरण है।
3. करणी सेना- स्थापना और उद्देश्य
करणी माता की स्मृति में श्री राजपूत करणी सेना की स्थापना 23 सितंबर 2006 को जयपुर, राजस्थान में लोकेन्द्र सिंह कालवी द्वारा की गई। यह गैर-लाभकारी धार्मिक संगठन चारण, भाट, और बंजारा जातियों द्वारा शुरू किया गया, जो राजपूत संस्कृति, हिंदू धार्मिक मूल्यों, और सामाजिक गौरव की रक्षा के लिए सक्रिय है। इसका मुख्यालय जयपुर में है और यह भारत के साथ-साथ विदेशों में भी सक्रिय है।
उदाहरण- करणी सेना ने 2017 में फिल्म पद्मावत का विरोध किया, क्योंकि उनका मानना था कि यह राजपूत रानी पद्मिनी और उनके इतिहास को गलत तरीके से चित्रित करती है। यह घटना उनकी राजपूत गौरव और सांस्कृतिक संरक्षण की प्रतिबद्धता को दर्शाती है।
4. चारण-भाट और बंजारा का आपसी संबंध
चारण और भाट सामाजिक रूप से समान थे, लेकिन चारण अधिक साहित्यिक और शिक्षित थे, जबकि भाट लोक कथाओं और वंशावली संरक्षण में सक्रिय थे। 18वीं सदी में कुछ चारण और भाट व्यापार में लगे और बंजारा कहलाए, जो घुमक्कड़ व्यापारी थे। बंजारा समुदाय भी करणी माता को पूजता है, जो चारण-बंजारा सांस्कृतिक संबंध को दर्शाता है।
उदाहरण- राजस्थान के लाम्बा बंजारा समुदाय आज भी करणी माता के देशनोक मंदिर में नियमित दर्शन के लिए जाता है। यह चारण-बंजारा समुदायों के साझा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक बंधन को दिखाता है।
5- सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व
चारण जाति में ब्राह्मणों (शिक्षा और साहित्य) और राजपूतों (योद्धा भावना) का मिश्रण दिखता है। वे राजस्थानी साहित्य, विशेष रूप से डिंगल काव्य, और राजपूत इतिहास के संरक्षक रहे हैं। करणी सेना इस विरासत को आगे बढ़ाते हुए आधुनिक समय में राजपूत गौरव और हिंदू संस्कृति की रक्षा करती है। करणी माता की आध्यात्मिक छवि और चारणों की सांस्कृतिक भूमिका आज भी राजस्थान की पहचान का हिस्सा हैं।
उदाहरण- करणी माता के सम्मान में हर साल देशनोक मंदिर में करणी माता मेला आयोजित होता है, जिसमें चारण, भाट, बंजारा, और राजपूत समुदाय शामिल होते हैं। यह मेला उनकी सांस्कृतिक एकता और आध्यात्मिक आस्था का प्रतीक है।

करणी माता चारण जाति की प्रतीक हैं, जिनकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत देशनोक मंदिर और डिंगल काव्य में जीवित है। चारण जाति ने राजपूतों के साथ मिलकर राजस्थान की सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध किया, और उनकी स्वामी भक्ति युद्धों में भी दिखी। करणी सेना, जो 2006 में करणी माता की स्मृति में स्थापित हुई, इस विरासत को आधुनिक समय में राजपूत गौरव और हिंदू मूल्यों की रक्षा के रूप में आगे बढ़ाती है।

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

ठाकुर शब्द का इतिहास-



"ठाकुर शब्द की उत्पत्ति व विकास-क्रम -नवीन संस्करण-

"ठाकुर शब्द की उत्पत्ति व विकास-क्रम - को दृष्टिगत रखते हुए  तुर्की, आरमेनियन, और फारसी भाषा से साक्ष्य हम प्रस्तुत करेंगे-

परम्परागत रूप में आज ठाकुर शब्द  राजपूत जाति  का विशेषण बन गया है।
यद्यपि ब्राह्मण समाज के कुछ आँचलिक गणमान्य लोग भी  यह विशेषण स्वयं के लिए लगाते हैं। जैसे -"ठाकुर" गुजरात तथा पश्चिमीय बंगाल  तथा मिथिला के ब्राह्मणों की एक उपाधि है ।

इसके अतिरिक्त कुर्मी और नाई भी ठाकुर  शब्द  से नवाजे या सम्मानित किए जाते हैं।

संस्कृत शब्द-कोशों में इसे ठाकुर नहीं अपितु "ठक्कुर" लिखा है। जो देव मूर्ति के पर्याय के  रूप में  भी प्रचलन में है  विशेषत: भगवान श्रीकृष्ण के लिए है। 

ठाकुर शब्द का उदय भारत में तुर्की काल में  भारतीय भाषाओं में स्थान पा लेता है।

द्विजोपाधिभेदे च । यथा गोविन्द- ठक्कुरःकाव्यप्रदीपकर्त्ता इसका रचना काल

चौदहवीं सदी" के लगभग सामन्तीय काल में होता है।
अनंत संहिता एक हाल ही में निर्मित ग्रन्थ है, जिसे गौड़ीय मठ के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के शिष्य अनन्त वासुदेव ने लिखा है। यह एक पंचरात्र आगम माना जाता है , जो गौड़ीय वैष्णवों के बीच सामूहिक रूप से " नारद पंचरात्र" के रूप में जाना जाने वाला पंचरात्र कोष का हिस्सा है ।

अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठाकुर: का उपयोग भी किया गया है, जो भगवान कृष्ण के संदर्भ में है।
ये संस्कृत भाषा में प्राप्त ठक्कुर शब्द का अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध का विवरण है।
ये संहिता बाद की है ।

इसलिए विष्णु के अवतार की देव मूर्ति को ठाकुर कहते हैं ठाकुर नाम की उपाधि ब्राह्मण लेखकों की चौदहवीं सदी से ही प्राप्त होती है।

परन्तु बाद में राजपूत जाति की प्राकृत उपाधि ठाकुर भी इसी से निकली है। यद्यपि किसी भी प्रसिद्ध व्यक्ति को ठाकुर या ठक्कुर कहा जा सकता है।
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इन्हीं विशेषताओं और सन्दर्भों के रहते भगवान कृष्ण के लिए भक्त ठाकुर जी  सम्बोधन का उपयोग करते रहे हैं।
 विशेषकर सौलहवीं सदी में श्रीवल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टिमार्गी सम्प्रदाय के अनुयायी  द्वारा हुआ। इसी सम्प्रदाय ने कृष्णजी को ठाकुर का प्रथम सम्बोधन दिया ।

यद्यपि पुराणकारों ने कृष्ण के लिए कहीं भी ठाकुर सम्बोधन का कभी भी प्रयोग नहीं किया है। यहाँ तक कि किसी पुराण ,वेद अथवा भारतीय धार्मिक ग्रन्थ में ठाकुर शब्द का उल्लेख प्राप्त नही होता है।
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"क्योंकि ठाकुर शब्द संस्कृत भाषा का है ही नहीं अपितु  तुर्की , ईरानी तथा आरमेनियन मूल का है।
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पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाती है।
जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया है ।

पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ  है । परन्तु बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द का प्रवेश -तुर्कों के माध्यम से भारतीय भाषाओं में हो चुका था ।
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और ठाकुर शब्द तुर्कों और ईरानियों के साथ- साथ भारत में आया।  बंगाली वैष्णव सन्तों ने भी स्वयं को ठाकुर कहा गया। ठाकुरजी सम्बोधन का प्रयोग वस्तुत स्वामी भाव को व्यक्त करने के लिए ही  है । न कि जन-जाति विशेष के लिए  । कृष्ण को ठाकुर सम्बोधन का क्षेत्र अथवा केन्द्र नाथद्वारा राजस्थान प्रमुखत: है।__________________________________

यहाँ के मूल मन्दिर में कृष्ण की पूजा ठाकुर जी की पूजा ही कहलाती है। यहाँ तक कि उनका मन्दिर भी "हवेली" कहा जाता रहा है।
विदित हो कि हवेली  (Mansion) और तक्वुर (ठक्कुर) दौनों शब्दों की पैदायश ईरानी भाषा से है।

कालान्तरण में भारतीय समाज में ये शब्द रूढ़ हो गये। पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के देशभर में स्थित अन्य मन्दिरों में भी भगवान श्रीकृष्ण को ठाकुर जी ही कहने की परम्परा चल पड़ी है।
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ईरानी ,आरमेनियन तथा तुर्की भाषा से आयात "तगावोर" शब्द संस्कृत भाषा में  आते आते  कई वर्तनी और उच्चारण विन्यास की प्रक्रिया से  गुजरा है।

जो संस्कृत भाषा में तक्वुर: (ठक्कुर) हो गया इस शब्द के जन्म सूत्र- पार्थियन (पहलवी) और  आर्मेनियन व  तुर्की भाषा में भी प्राप्त हैं ।____________________________________
जैसे- 
 मध्य-आर्मेनियाई- भाषा में इसका उच्चारण विन्यास निम्नलिखित रूप से है।

թագվոր- ( टैगवोर ) 
թագուոր-  ( टैगोर )
 "टैगोर शब्द-व्युत्पत्ति व विकास क्रम- 

 "यह मध्य आरमेनियन का "टैगवोर" शब्द पुराने  अर्मेनियाई के թագաւոր ( t'agawor ) से विकसित होकर आया और यह पुरानी आर्मेनियन का "टगावोर शब्द भी  पार्थियन भाषा से विकसित  पुरानी आर्मेनियन का  भाषा का है।

टैगवॉर शब्द के व्याकरणिक रूप-
संज्ञा 
թագւոր =( t'agwor ), संबंधकारक - हे राजन्!
एकवचन թագւորի ( t'agwori ) = एक राजा का ।
टैगवॉर शब्द का अर्थ
दूल्हा भी है । ( क्योंकि वह विवाह के दौरान एक मुकुट धारण करता है )


"व्युत्पन्न शब्द- 
թագուորանալ ( t'aguoranal )
टैग _ _ _
शब्द _ _ _
թագվորորդի _ _ _
 वंशज शब्द-
विभिन्न भाषाओं में टैगवॉर शब्द-

→ अर्मेनियाई: թագվոր ( टैगवोर )
→ अरबी: تكفور ‎( तकफुर )
→ पुरानी कैटलन: तफूर
 → कैटलन: तफूर
→ पुराने पुर्तगाली: तफूर , तफुल
→  गैलिशियन्: तफूर
→ पुर्तगाली:  (तफुल)
→ पुरानी स्पेनिश: तफूर
→ स्पेनिश: तहूर
→ फारसी: تکفور ‎(तकफुर)
→ फ़ारसी: تکور ‎(तक्वोर) takvor )

 "सन्दर्भ ग्रन्थ :-
लाज़रीन, टी। एस ; एवेटिसियन , एचएम (2009), “ թագւոր ”, मिइन हायरेनी बारान [ डिक्शनरी ऑफ मिडिल अर्मेनियाई ] (अर्मेनियाई में), दूसरा संस्करण, येरेवन: यूनिवर्सिटी प्रेस।


Etymology ( शब्द व्युत्पत्ति)

This Word too From Middle Armenian (թագւոր) (tʿagwor),This Word too from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor= “king”), And This Word too from  Parthian *tag(a)-bar (“king”, literally “crown bearing”), 

borrowed during the existence of the Armenian Kingdom of Cilicia-

Cilicia (/sɪˈlɪʃə/) is a geographical region in southern Anatolia in Turkey,
 extending inland from the northeastern coasts of the Mediterranean Sea.

Noun-
→تَكْفُور • (takfūr) 
 → Armenian king

Declension-
Declension of noun تَكْفُور -(takfūr)
Descendants-
→ Old Catalan:- tafur
Catalan: -tafur
→ Old Portuguese: -tafur, taful
Galician: -tafur
Portuguese: -taful
→ Old Spanish:- tafur
Spanish: -tahúr
→ Persian: تکفور‎ -(takfur)


References-
Ačaṙean, Hračʿeay (1971–1979), “թագ”, in Hayerēn armatakan baṙaran [Armenian Etymological Dictionary] (in Armenian), 2nd edition, a reprint of the original 1926–1935 seven-volume edition, Yerevan: University Press.

हिन्दी भाषान्तरण-
यह "तगावोर" शब्द भी मध्य अर्मेनियाई भाषा (թագւոր) (tʿagwor) से है, यह शब्द भी पुराने अर्मेनियाई के  (թագաւոր)- (t'agawor, "राजा") से यहाँ आया है, और यह शब्द भी पार्थियन * टैग (ए) -बार (tag(a)-bar )="राजा /शासक", से व्युत्पन्न है ।

शाब्दिक रूप से इसका अर्थ "क्राउन बियरिंग" मुकुटधारी) से है ”)

सिलिसिया के अर्मेनियाई साम्राज्य के अस्तित्व के दौरान  इस शब्द को उधार लिया गया था।
सिलिसिया (/ sɪˈlɪʃə/) तुर्की के दक्षिणी अनातोलिया( एशिया माइनर) में एक भौगोलिक क्षेत्र है, जो भूमध्य सागर के उत्तरपूर्वी तटों से अंतर्देशीय तक फैला हुआ है।
यहाँ  सामान्य लोगों की भाषा तुर्की आर्मेनिया और फारसी आदि हैं।

संज्ञा-
تَكْفُور ़़ 
अर्मेनियाई राजा
 संज्ञा का अवक्षेपण تَكْفُور (तकफूर)
वंशज-
→ पुराना कैटलन: तफूर।
कैटलन: तफूर
→ पुराने पुर्तगाली: तफूर, तफुल।
गैलिशियन्: तफूर।
पुर्तगाली:  तफुल (tafu)
→ पुरानी स्पेनिश: तफूर
स्पेनिश: तहूर
→ फारसी: تکفور‎ (तकफुर)


संदर्भ-
एकेन, ह्रेके (1971-1979), "թագ", हायरेन आर्मटाकन बरन [अर्मेनियाई व्युत्पत्ति संबंधी शब्दकोश] (अर्मेनियाई में), दूसरा संस्करण, मूल 1926-1935 सात-खंड संस्करण का पुनर्मुद्रण, येरेवन: यूनिवर्सिटी प्रेस। 


ठाकुर शब्द के मूल सूत्र मूल भारोपीय स्थग् धातु में निहित हैं । इसी स्थगित से "ठग" शब्द भी विकसित हुआ है।
यद्यपि ठग और ठाकुर शब्द का जन्म स्थान एक ही है ।
भारोपीय मूल सा शब्द स्थग्- आवरण करना आच्छादित करना।

दरअसल ठग सच्चाई को छुपा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है । 

(स्थगति संवृणोति आत्मानमिति स्थग भाषायां ठग: 
 ( स्थग् + अच्  )  धूर्त्तः ।  यथा  - “ स्थगश्च निर्लज्जः पटुः पाटविकोऽपि च ॥  “ इति शब्दरत्नावली त्रिकाण्डशेषश्च ॥

कन्नड़-अंग्रेजी शब्दकोश

 कन्नड़ शब्दावली में तगा (ತಗ):—[संज्ञा] धोखा देने या धोखा दिए जाने का कार्य या उदाहरण।
स्रोत : अलार: कन्नड़-अंग्रेजी संग्रह
संदर्भ जानकारी

कन्नड़ एक द्रविड़ भाषा है (इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार के विपरीत) जो मुख्य रूप से भारत के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में बोली जाती है। परन्तु तगा शब्द इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार के प्रभाव से ही पहुंचा है।

स्थगन का संस्कृत भाषा में एक अर्थ आवरण भी है। यह आवरण सिर पर प्रतिष्ठित होकर ताज बन जाता है।

और फारसी का तक्वोर शब्द    तगा=ताज + वर ( भर)= तगावर से विकसित = फारसी रूपान्तरण है ।

फारसी का "तगा शब्द संस्कृत "स्थग (आवरण) का रूपान्तरण है। तुर्की भाषा में यह "टेक' है। भारोपीय और अन्य संक्रमित भाषाओं में यही संस्कृत का स्थग शब्द इन रूपों में विद्यमान है। 

अब स्थग् धातु भारोपीय और ईरानी वर्ग की धातु ( क्रिया मूल)  है। जिसकी व्युत्पत्ति नीचे है।

"Etymology Of (Steg-स्थग्)
From Parthian [script needed] (tāg), attested in 𐫟𐫀𐫡𐫤𐫀𐫃‎ (xʾrtʾg /xārtāg/,

 “crown of thorns”) कांटों का ताज" , ultimately from Proto-Indo-European *(s)teg- स्थग्=संवरणे  स्थगति  सकता है /
 छुपाता है। (“to cover”) 

Related। अरबी देगा (ठगाई -छुपाव) शब्द संस्कृत स्थग-ठग का विकसित रूप है)  
to Arabic تَخْت‎ (taḵt तख्त-, “bed, couch,..” भी इसी से सम्बन्धित है।),

 also an Iranian borrowing; and to Aramaic תָּגָא‎ (tāḡā).

Attested as 𐢞𐢄‎ (tj तज), “crown”) (Nabatean script) in the 4th-century Namara inscription.[1]

"Pronouciation-
"noun-
تَاج • (tāj) m (plural تِيجَان‎ (tījān)तजन)

crown
‏الصِّحَّةُ تَاجٌ عَلَى رُؤُوسِ الْأَصِحَّاءِ لَا يَرَاهُ إِلَّا الْمَرْضَى.‎‎
aṣ-ṣiḥḥatu tājun ʿalā ruʾūsi l-ʾaṣiḥḥāʾi lā yarāhu ʾillā l-marḍā.
Health is a crown on the heads of the healthy, that only the ill can see.
Declension

 ▼Declension of noun تَاج (tāj)
Descendants
Andalusian Arabic: تَاج‎[1]
Maltese: tieġ
→ Chagatai: تاج‎‎ (taj‎)
Uyghur: تاج‎‎ (taj‎)
Uzbek: toj
→ English: taj
→ Persian: تاج‎ (tâj)
→ Baluchi: تاج‎ (táj)
→ Bashkir: таж (taj)
→ Bengali: তাজ (taj)
→ Chechen: таж (taž)
→ Kazakh: тәж (täj)
→ Punjabi: ਤਾਜ (tāj)
→ Turkish: taç
→ Urdu: تاج‎ (tāj) / Hindi: ताज (tāj)
→ Ottoman Turkish: تاج‎ (tac)
Turkish: taç
→ Serbo-Croatian: tȁdž/та̏џ
→ Swahili: taji
References-
↑ 1.0 1.1 علی صیادانی، وام‌واژه‌های فارسی دیوان ابن هانی؛ شاعر شیعه اندلس, پژوهش‌های زبان‌شناسی تطبیقی، ص ۱۵۵
Baluchi-
Etymology-
From Persian تاج‎ (tâj).

Noun-
تاج • (táj)

crown
Ottoman Turkish
Etymology-
From Arabic تَاج‎ (tāj).

Noun-
تاج • (tac, taç)

crown, diadem
regal power, the position of someone who bears a crown
(figuratively) reign
a headdress worn by various orders of dervishes, a mitre
corolla of a flower
chapiteau of an alembic
the تاج التواریخ (tac üt-tevarih, “Crown of Histories”) by Sadeddin, a model for the ornatest style of literature
Descendants-
Turkish: taç
→ Serbo-Croatian: tȁdž/та̏џ
Persian-
تاج -ताज‎
Etymology-
From Arabic تَاج‎ (tāj), from Parthian [Manichaean needed] (tʾg /tāg/, “crown”), attested in 𐫟𐫀𐫡𐫤𐫀𐫃‎ (xʾrtʾg /xārtāg/, “crown of thorns”), from Old Iranian *tāga-, ultimately from Proto-Indo-European *(s)teg- (“to cover”).

Related to Persian تخت‎ (taxt, “bed, throne”), and akin to Old Armenian թագ (tʿag), Arabic تاج‎ (tāj), and Aramaic תָּגָא‎ (tāḡā), Iranian borrowings.

Pronunciation-
(Classical Persian): : /tɑːd͡ʒ/
(Dari): : /tɒːd͡ʒ/
(Iranian Persian): : /tɒːd͡ʒ/
(Tajik): : /tɔːd͡ʒ/
Noun
Dari تاج
Iranian Persian
Tajik тоҷ (toj)
تاج • (tâj) (plural تاج‌ها‎ (tâj-hâ))

crown
tuft
Descendants-
→ Baluchi: تاج‎ (táj)
→ Bashkir: таж (taj)
→ Bengali: তাজ (taj)
→ Chechen: таж (taž)
→ Kazakh: тәж (täj)
→ Punjabi: ਤਾਜ (tāj)
→ Turkish: taç
→ Urdu: تاج‎ (tāj) / Hindi: ताज (tāj)
Urdu-
Etymology-
From Persian تاج‎ (tâj).

Noun-
تاج • (tāj) m (Hindi spelling ताज)

crown
" आद्य-भारोपीय -
"मूल-
*(रों)तेग- (अपूर्ण )

कवर करने के लिए
-व्युत्पन्न शब्द-
 प्रोटो-इंडो-यूरोपियन रूट *(s)teg- (कवर) से प्राप्त शर्तें
*(स)तेग-ए-ती ( मूल उपस्थित )
हेलेनिक:
प्राचीन यूनानी: στέγω ( स्टेगो )
प्रोटो-इंडो-ईरानी: *stʰágati
प्रोटो-इंडो-आर्यन: *स्तगति
संस्कृत: स्थिरि ( स्थागति )
प्रोटो-इटैलिक: *tego
लैटिन: टेगो
*stog-éye-ti ( प्रेरक )
प्रोटो-इंडो-ईरानी: *स्टगायति
प्रोटो-इंडो-आर्यन: *स्तगायति
संस्कृत: स्थगयति ( स्थागयति )
*तेग-दलेह₂
इटैलिक:
लैटिन: तेगुला ( आगे के वंशजों के लिए वहां देखें )
*तेग-मन
इटैलिक:
लैटिन: टेगमेन , टेगिमेन , टेगुमेन ( एपेंटेटिक -आई--यू- के साथ )
*तेग-नहीं-
प्रोटो-इटैलिक: * टेग्नोम
लैटिन: टिग्नम
*स्टेग-नो
प्रोटो-हेलेनिक: *स्टेग्नोस
प्राचीन यूनानी: στεγανός     ( स्टेग्नोस )
⇒ अंग्रेजी: स्टेग्नोग्राफ़ी
*(रों)टेग-ओएस
प्रोटो-अल्बानियाई: * टैगा
अल्बानियाई: tog
अल्बानियाई.  : toger
प्रोटो-सेल्टिक: * टेगोस          
प्रोटो-हेलेनिक: *(s)tégos
Ancient Greek: στέγος (stégos), τέγος (tégos)
⇒ English: stegosaur, stegosaurus
*teg-ur-yo-
Italic:
Latin: tugurium, tegurium, tigurium
*tég-us (“thick”)
*tog-eh₂-
Italic:
Latin: toga
*tog-o-
Proto-Celtic: *togos (“roof”)
Brythonic:
Breton: to
Welsh: to
Goidelic:
From Old Irish tech, from Proto-Celtic *tegos, from Proto-Indo-European *(s)tég-os (“cover, roof”). Cognate with English thatch.

Proto-Germanic: *þaką, *þakjaną, *þakinō (see there for further descendants)
Unsorted formations:
Proto-Balto-Slavic: *stāgas
Old Prussian: stogis
Latgalian: stogs
Lithuanian: stogas
Proto-Slavic: *stogъ (see there for further descendants)
Proto-Indo-Iranian: *táktas
Proto-Iranian: *táxtah
Middle Persian: tʾht' (taxt) (see there for further descendants)
Khotanese: 𐨟𐨿𐨟𐨁𐨌‎ (ttī, “abode, covered place, nest”)
>? Proto-Indo-Iranian:
Proto-Iranian: *tāgah (“arch, vault”)
Middle Iranian: *tāk
→ Arabic: طَاق‎ (ṭāq)
Middle Persian: tʾg (/tāg/)
Persian: طاق‎, تاق‎ (tâq)→ Armenian: թաղ     (tʿał)→       
 
  ★Root-
*(s)teg-

pole, stick, beam
"dDerved terms-
 Terms derived from the Proto-Indo-European root *(s)teg- (pole)
*stog-eh₂
Proto-Germanic: *stakô (see there for further descendants)
*stog-nos
Proto-Germanic: *stakkaz (see there for further descendants)
*teg-slom
Proto-Italic: *texlom
Latin: tēlum (see there for further descendants)
*teg-nom
Proto-Italic: *tegnom
Latin: tīgnum
★Refereces-
पोकोर्नी, जूलियस (1959) Indogermanisches etymologisches Wörterbuch [ इंडो-यूरोपियन व्युत्पत्ति संबंधी शब्दकोश ] (जर्मन में), खंड 3, बर्न, मुन्चेन: फ्रेंकी वेरलाग, पृष्ठ 1013
बेली, एचडब्ल्यू (1979) खोतान साका का शब्दकोश , कैम्ब्रिज, लंदन, न्यूयॉर्क, मेलबोर्न: कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 127

→ 
___________________________________
पार्थियन भाषा, जिसे अर्ससिड पहलवी और पहलवानीग के नाम से भी जाना जाता है, एक विलुप्त प्राचीन उत्तर पश्चिमी ईरानी भाषा है।  यह एक बार पार्थिया में बोली जाती थी, जो वर्तमान उत्तरपूर्वी ईरान और तुर्कमेनिस्तान में स्थित एक क्षेत्र है। परिणाम स्वरूप यह तुर्की  और फारसी शब्दों का भी साझा स्रोत है। पार्थियन अर्ससिड पार्थियन साम्राज्य (248 ईसा पूर्व - 224 ईस्वी)तक  की राज्य की भाषा थी, साथ ही अर्मेनिया भी अर्सेसिड वंश की नामांकित शाखाओं की भाषा थी।

 अत: तुर्की  उतर-पश्चिमी ईरानी   भाषा का अर्मेनियाई लोगों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा, जिसकी शब्दावली का एक बड़ा हिस्सा मुख्य रूप से पार्थियन से उधार लेने से बना था; इसकी व्युत्पन्न आकारिकी और वाक्य रचना भी भाषा संपर्क से प्रभावित थी, लेकिन कुछ हद तक।  इसमें कई प्राचीन पार्थियन (पहलवी) शब्द संरक्षित किए गए थे, और अब केवल अर्मेनियाई में ही जीवित हैं।

ठाकुर शब्द भी यहीं निकल कर भारतीय भाषाओं  ठक्कुर; तो कहीं ठाकुर और कहीं ठाकरे तथा टैंगोर रूप में विस्तारित  हुआ है। 

वर्गीकरण-★

भारतीय भाषाओं का ठाकुर शब्द का जन्मस्थान यही पार्थियन भाषा है ।  परन्तु इस शब्द का विकास और विस्तार आर्मेनिया और तुर्की  और फारसी में  होते हुए हुआ अरबी भाषा तक हुआ। 

तुर्किस्तान में यह ठाकुर  (तेकुर अथवा टेक्फुर ) के रूप में परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी। 

यहाँ पर ही इसका विस्तार शासकीय रूप में हुआ। यद्यपि संस्कृत भाषा में इसके जीवन अवयव उपलब्ध थे। परन्तु जन्म तुर्की आरमेनिया और फारसी भाषाओं में ही हुआ है। 

यदि इसका जन्म  संस्कृत में  होता तो यह (स्थग= आवरण भर=धारण करने वाला)= स्थगभर= से  (ठगवर) हो जाता। और ठग का सजातीय हो जाता -

आवरण धारण करने वाला अर्थ देने वाला शब्द पार्थियन भाषा में टगा (मुकुट) अथवा शिरत्राण तथा वर -धारक  का वाचक  हो गया है। अर्थात तगा धारी ही ठाकुर होता था।

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इसके सन्दर्भ में समीपवर्ती उस्मान खलीफा के समय का उल्लेख किया जा सकता है  जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे।
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तब निस्संदेह इस्लाम धर्म का आगमन इस समय तक तुर्की में  नहीं हो पाया था और मध्य एशिया में वहाँ सर्वत्र ईसाई विचार धारा ही प्रवाहित हो रही थी , केवल  जो छोटे ईसाई  राजा  होते थे। यही  स्थानीय बाइजेण्टाइन ईसाई सामन्त (knight) अथवा माण्डलिक जिन्हें  तुर्की भाषा में इन्हें तक्वुर (ठक्कुर)  कहा जाता था। मुकुट धारी या पगड़ीधारी होते थे। 

 वहीं से तुर्कों के साथ यह तक्वुर शब्द भारत में आया । तुर्को का उल्लेख भारतीय पुराण भी करते है।

इस समय  एशिया माइनर (तुर्की) और थ्रेस में ही  इस प्रकार की शासन प्रणाली होती थी जिसमें  सामन्त या निकट राजा का अधिकारी तक्वुर कहलाता था।
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 तुर्की में  तैकफुर
ओटोमन तुर्की में है जो Tekfur  تكفور , अरबी से تَكْفُور ( तकफुर ) , मध्य अर्मेनियाई  में թագւոր  ( tʿagwor )  और  , पुराने अर्मेनियाई թագաւոր ( t'agawor , “ राजा ) है।

ये  पार्थियन *टैग(ए) -बार ( “ राजा ” ) विकसित हुआ, शाब्दिक रूप से जिसका अर्थ है “  जिसकी ताजपोशी की गयी हो  ” )

 यह उस समय शासकीय शब्दावली में, अर्मेनियाई साम्राज्य के सिलिसिया के दौरान उधार लिया गया  शब्द था ।

उच्चारण
 टेकफर
संज्ञा

टेकफुर ( निश्चित अभियोगात्मक टेकफुरु , बहुवचन टेकफुरलर )

बीजान्टिन युग के दौरान अनातोलिया और थ्रेस में एक ईसाई समान्त का पद नाम  

यह शब्द 13 वीं शताब्दी में फ़ारसी या तुर्की में लिख रहे इतिहासकारों द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगा था , जिसका अर्थ है "बीजान्टिन प्रभुओं या एनाटोलिया ( तुर्की) के बीथिनीया, पोंटस) और थ्रेस में कस्बों और किले के गवर्नरों (राजपालों )के निरूपण करना से था। यह शब्द प्रायः बीजान्टिन सीमावर्ती युद्ध के नेताओं, अकराति के कमांडरों, तथा बीजान्टिन राजकुमारों और सम्राटों   को भी निरूपित करता है ", उदाहरण के लिए, कॉन्स्टेंटिनो में पोर्कफिरोजनीटस के पैलेस के तुर्की नाम, "टेक्फुर सराय" के मामले में
( देखें--- तुर्की लेखक "मोद इस्तानबूल "के सन्दर्भों पर आधारित तथ्य) इस प्रकार इब्न बीबी ने भी सिल्किया के अर्मेनियाई राजाओं को (टेक्विर) के रूप में संदर्भित किया है।

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सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से तुर्कों की कई शाखाएँ यहाँ  भारत में आकर बसीं। इससे पहले यहाँ से पश्चिम में भारोपीय भाषी (यवन, हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का पढ़ाब रहा था। विदित हो कि तुर्की में ईसा के लगभग ७५०० वर्ष पहले मानवीय आवास के प्रमाण मिल चुके हैं।अत: यहीं 
हिट्टी साम्राज्य की स्थापना (१९००-१३००) ईसा पूर्व में हुई थी। ये भारोपीय वर्ग की भाषा बोलते थे । १२५० ईस्वी पूर्व ट्रॉय की लड़ाई में यवनों (ग्रीक) ने ट्रॉय शहर को नेस्तनाबूद (नष्ट) कर दिया और आसपास के क्षेत्रों  पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया।
१२०० ईसापूर्व से तटीय क्षेत्रों में यवनों का आगमन भी आरम्भ हो गया।
छठी-सदी ईसापूर्व में फ़ारस के शाह साईरस (कुरुष) ने अनातोलिया पर अपना अधिकार कर लिया।
इसके करीब २०० वर्षों के पश्चात ३३४ ई० पूर्व  में सिकन्दर ने फ़ारसियों को हराकर इस पर अपना अधिकार किया। बस !
ठक्कुर अथवा ठाकुर शब्द का इतिहास भारतीय संस्कृति में यहीं से प्रारम्भ होकर आज तक व्याप्त है ।
कालान्तरण में सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक पहुंच गया था।
तब तुर्की और ईरानी सामन्त तक्वुर का लक़ब उपाधि(title) लगाने लग गये थे । 

भारत में तुर्की शासनकाल में तुर्की शब्दावली से भारतीय शासन शब्दावली में यह तक्वोर शब्द  ठक्कुर: ठाकुर शब्द बनकर समाहित हो गया ।
यहीं से भारतीय राजपूतों ने इसे अपने शाही रुतवे के लिए के ग्रहण किया ।
ईसापूर्व १३० ईसवी सन्  में अनातोलिया  (एशिया माइनर अथवा तुर्की ) रोमन साम्राज्य का अंग बन गया था । ईसा के पचास वर्ष बाद सन्त पॉल ने ईसाई  धर्म का प्रचार किया और सन ३१३ में रोमन    साम्राज्य ने ईसाई धर्म को अपना लिया।
इसके कुछ वर्षों के अन्दर ही कान्स्टेंटाईन साम्राज्य का अलगाव हुआ और कान्स्टेंटिनोपल इसकी राजधनी बनाई गई।
सन्त शब्द भी भारोपीय मूल से सम्बद्ध है ।

यूरोपीय भाषा परिवार में विद्यमान (Saint) इसका प्रति रूप है ।
रोमन इतिहास में सन्त की उपाधि उस मिसनरी missionary' को दी जाती है । जिसने कोई आध्यात्मिक चमत्कार कर दिया हो ।
छठी सदी में बिजेन्टाईन साम्राज्य अपने चरम पर था पर १०० वर्षों के भीतर मुस्लिम अरबों ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया।
बारहवी सदी में धर्मयुद्धों में फंसे रहने के बाद बिजेन्टाईन साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया।
सन् १२८८ में ऑटोमन साम्राज्य का उदय हुआ ,और सन् १४५३ में कस्तुनतुनिया का पतन।
इस घटना ने यूरोप में पुनर्जागरण लाने में अपना महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

विशेष- कोन्स्तान्तीनोपोलिस, बोस्पोरुस जलसन्धि और मारमरा सागर के संगम पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर है, जो रोमन, बाइज़ेंटाइन, और उस्मानी साम्राज्य की राजधानी थी। 324 ई. में प्राचीन बाइज़ेंटाइन सम्राट कोन्स्टान्टिन प्रथम द्वारा रोमन साम्राज्य की नई राजधानी के रूप में इसे पुनर्निर्मित किया गया, जिसके बाद इन्हीं के नाम पर इसे नामित किया गया।
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वर्तमान तुर्क पहले यूराल और अल्ताई पर्वतों के बीच बसे हुए थे। जलवायु के बिगड़ने तथा अन्य कारणों से ये लोग आसपास के क्षेत्रों में चले गए।
लगभग एक हजार वर्ष पूर्व वे लोग एशिया माइनर में बसे। नौंवी सदी में ओगुज़ तुर्कों की एक शाखा कैस्पियन सागर के पूर्व बसी और धीरे-धीरे ईरानी संस्कृति को अपनाती गई। ये सल्जूक़ तुर्क ही जिनकी उपाधि (title) तेगॉर थी भारत में  लेकर आये। और ईरानियों में भी तेगुँर उपाधि नामान्तर भेद से प्रचलित थी।

 

बाँग्ला देश में आज भी टेंगौर शब्द के रूप में केवल ब्राह्मणों का वाचक है । मिथिला में भी ठाकुर ब्राह्मण समाज की उपाधि है।
यद्यपि ठाकरे शब्द महाराष्ट्र के कायस्थों का वाचक है, जिनके पूर्वजों ने कभी मगध अर्थात् वर्तमान विहार से ही प्रस्थान किया था ।
यद्यपि इस ठाकुर शब्द का साम्य तमिल शब्द (तेगुँर )से भी प्रस्तावित हैै  ।
तमिल की  एक बलूच शाखा है बलूच ईरानी और मंगोलों के सानिध्य में भी रहे है । जो वर्तमान बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषी है ।
संस्कृत स्था धातु का सम्बन्ध  भारोपीयमूल के स्था (Sta )धातु से है ।
संस्कृत भाषा में इस धातु  प्रयोग --प्रथम पुरुष एक वचन का रूप तिष्ठति है ,
तथा ईरानी असुर संस्कृति के उपासक आर्यों की भाषा में हिस्तेति तथा ग्रीक भाषा में हिष्टेमि ( Histemi ) लैटिन -Sistere ।
तथा रूसी परिवार की लिथुअॉनियन भाषा में -Stojus जर्मन भाषा (Stall) गॉथिक- Standan ।
स्थग् :--- हिन्दी रूप ढ़कना, आच्छादित करना आदि।  भारतीय इतिहास एक वर्ग विशेष के लोगों द्वारा पूर्व-आग्रहों (pre solicitations )से ग्रसित होकर ही लिखा गया । आज आवश्यकता है इसके यथा स्थिति पर  पुनर्लेखन की ।



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सन्दर्भ -
Ačaṙean, Hračʿeay (1973), “ թագ ”, Hayeren armatakan baṙaran [ अर्मेनियाई व्युत्पत्ति शब्दकोश ] (अर्मेनियाई में), खंड II, दूसरा संस्करण, मूल 1926-1935 सात-खंड संस्करण का पुनर्मुद्रण, येरेवन: यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 136

डैंकॉफ़, रॉबर्ट (1995) अर्मेनियाई लोनवर्ड्स इन टर्किश (टरकोलॉजिका; 21), विस्बाडेन: हैरासोवित्ज़ वेरलाग, § 148, पृष्ठ 44

पारलाटिर, इस्माइल एट अल। (1998), “ टेकफुर ”, तुर्की सोज़्लुक में , खंड I, 9वां संस्करण, अंकारा: तुर्क दिल कुरुमु, पृष्ठ 163बी।

Tekfur was a title used in the late Seljuk and early Ottoman periods to refer to independent or semi-independent minor Christian rulers or local Byzantine governors in Asia Minor and Thrace.


 "This is a research -Thesis whose overall facts is explored "by Yadav Yogesh Kumar  'Rohi" 

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राजपूतों की उत्पत्ति और मुगलों से उनके वैवाहिक सम्बन्ध-

राजपूतों की उत्पत्ति और मुगलों से उनके वैवाहिक सम्बन्ध-

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राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे इतिहास में कई मत प्रचलित हैं।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राजपूत संस्कृत के राजपुत्र शब्द का अपभ्रंश है; राजपुत्र शब्द हिन्दू धर्म ग्रंथों में कई स्थानों पर देखने को मिल जायेगा लेकिन वह जातिसूचक के रूप में नही होता अपितु  किसी भी राजा के संबोधन सूचक शब्द के रूप में होता है । 

परन्तु  अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि पुराणों में एक स्थान पर राजपुत्र जातिसूचक शब्द के रूप में आया है जो कि इस प्रकार है-👇
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।११०।‎

ब्रह्मवैवर्तपुराण 
 (ब्रह्मखण्डः)अध्यायः(१०) का श्लोकसंख्या-( ११०)

इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे जातिसम्बन्धनिर्णयो नाम दशमोऽध्यायः ।१०।

भावार्थ:- क्षत्रिय से करण-कन्या (वैश्य पुरुष और शूद्र कन्या से ) में राजपुत्र और राजपुत्र की कन्या में करण द्वारा 'आगरी' उत्पन्न हुआ।११०।

राजपुत्र के क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या के गर्भ में उत्पन्न होने का वर्णन (शब्दकल्पद्रुम) में भी आया है- 
"करणकन्यायां क्षत्त्रियाज्जातश्च इति पुराणम् ॥" अर्थात:- क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या में उतपन्न संतान...

यूरोपीय विश्लेषक मोनियर विलियमस् ने भी लिखा है कि-
A rajpoot,the son of a vaisya by an ambashtha or the son of Kshatriya by a karan...
~A Sanskrit English Dictionary:Monier-Williams, page no. 873
शब्दकल्पद्रुम व वाचस्पत्य में भी एक अन्य स्थान पर भी राजपुत्र शब्द जातिसूचक शब्द के रूप में आया है; जो कि इस प्रकार है:-

 ३- वर्णसङ्करभेदे राजपुत्र “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां
राजपुत्रस्य सम्भवः” इति पराशरःसंहिता ।

अर्थात:- वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उतपन्न होता है।

 राजपूत शब्द हमें स्कंद पुराण के सह्याद्री खण्ड में भी देखने को मिलता है जो कि इस प्रकार एक वर्णसंकर जाति के अर्थ में है-

"शय्या विभूषा सुरतं भोगाष्टकमुदाहृतम्।
 शूद्रायां क्षत्रियादुग्रः क्रूरकर्मा प्रजायते।।४७।।

"शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्रामकुशलो भवेत्।
तया वृत्त्या स जीवेद्यो शूद्रधर्मा प्रजायते।।४८।।

राजपूत इति ख्यातो युद्धकर्मविशारदः।
वैश्य धर्मेण शूद्रायां ज्ञात वैतालिकाभिध:।४९ ।
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उपर्युक्त सन्दर्भ:-(स्कन्दपुराण- आदिरहस्य सह्याद्रि-खण्ड- व्यास देव व सनत्कुमार का संकर जाति विषयक संवाद नामक २६ वाँ अध्याय-श्लोक संख्या- ४७,४८,४९ पर राजपूतों की उत्पत्ति वर्णसंकर के रूप में है ।

( भावार्थ:-क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;

और शस्त्र- वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है )
कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत क्षत्रिय शब्द का पर्यायवाची है।

 लेकिन अमरकोष में राजपूत और क्षत्रिय शब्द को परस्पर पर्यायवाची नही बतलाया है; स्वयं देखें-
"मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो क्षत्रियो बाहुजो विराट्।
(राजा राट् पार्थिवक्ष्मा भृन्नृपभूपमहीक्षित:।।
-अमरकोष
अर्थात:मूर्धाभिषिक्त,राजन्य,बाहुज,क्षत्रिय,विराट्,राजा,राट्,पार्थिव,क्ष्माभृत्,नृप,भूप,और महिक्षित ये क्षत्रिय शब्द के पर्याय है।

इसमें 'राजपूत' शब्द या तदर्थक कोई अन्य शब्द नहीं आया है।

पुराणों के निम्न श्लोक को पढ़ें-

"सद्यः क्षत्रियबीजेन राजपुत्रस्य योषिति।
बभूव तीवरश्चैव पतितो जारदोषतः।।
-ब्रह्मवैवर्तपुराण / (ब्रह्मखण्डः)/अध्यायः १०/श्लोकः (९९)

भावार्थ:-क्षत्रिय के बीज से राजपुत्र की स्त्री में तीवर उत्पन्न हुआ।वह भी व्याभिचार दोष के कारण पतित कहलाया।

यदि क्षत्रिय और राजपूत परस्पर पर्यायवाची शब्द होते तो क्षत्रिय पुरुष और राजपूत स्त्री की संतान राजपूत या क्षत्रिय ही होती न कि तीवर या धीवर ! इसके अतिरिक्त शब्दकल्पद्रुम में राजपुत्र को वर्णसंकर जाति लिखा है ।

जबकि क्षत्रिय वर्णसंकर नही...
Manohar Laxman  varadpande(1987). History of Indian theatre: classical theatre. Abhinav Publication. Page number 290
"The word kshatriya is not synonyms with Rajput."

अर्थात- क्षत्रिय शब्द राजपूत का पर्यायवाची नहीं है। मराठी इतिहासकार कालकारंजन  ने अपनी पुस्तक (प्राचीन- भारताचा इतिहास) के हर्षोत्तर उत्तर भारत नामक विषय के प्रष्ठ संख्या (३३८ में राजपूत और वैदिक क्षत्रिय भिन्न भिन्न बतलाये हैं।

 वैदिक क्षत्रियों द्वारा पशुपालन करने का उल्लेख धर्म ग्रंथों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है जबकि राजपूत जाति पशुपालन को अत्यंत घृणित दृष्टि से देखती है और पशुपालन के प्रति संकुचित मानसिकता रखती है...

महाभारत में जरासंध पुत्र सहदेव द्वारा गाय भैंस भेड़ बकरी को युधिष्ठिर को भेंट करने का उल्लेख मिलता है;युधिष्ठिर जो कि एक क्षत्रिय थे पशु पालन करते होंगे तभी कोई भेंट में पशु देगा-
                    ★सहदेव-उवाच★
इमे रत्नानिभूरिणी गोजाविमहिषादयः।।
हस्तिनोऽश्वाश्च गोविन्द वासांसि विविधानिच।
दीयतां धर्मराजाय यथा वा मन्यतेभवान्
~महाभारत सभापर्व(जरासंध वध पर्व)अध्याय: २४श्लोक: ४१-सहदेव ने कहा- प्रभो! ये गाय, भैंस, भेड़-बकरे आदि पशु, बहुत से रत्न, हथी-घोड़े और नाना प्रकार के वस्त्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं। गोविन्द! ये सब वस्तुएँ धर्मराज युधिष्ठिर को दीजिये अथवा आपकी जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझ सवा के लिये आदेश दीजिये। इसके अतिरिक्त कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में क्षत्रिय को भेड़ पालने के लिए कहा गया है।

कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है-
Brajadulal Chattopadhyay 1994; page number 60- प्रारंभिक मध्ययुगीन साहित्य बताता है कि इस नवगठित राजपूत में कई जातियों के लोग शामिल थे। भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानों ने इस ऐतिहासिक तथ्य का पूर्णतः पता लगा लिया है कि जिस काल में इस जाति का भारत के राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण हुआ था, उस काल में यह एक नवागन्तुक जाति समझती जाती थी। बंगाल के अद्वितीय विद्वान स्वर्गीय श्री रमेशचंद्र दत्त महोदय अपने (Civilization in Ancient India) नामक प्रसिद्ध ग्रंथ के भाग-२ , प्रष्ठ १६४ में लिखते है-

आठवीं शताब्दी के पूर्व राजपूत जाति हिंदू आर्य नहीं समझी जाती थी। देश के साहित्य तथा विदेशी पर्यटकों के भृमण वृत्तान्तों में उनके नाम का उल्लेख हम लोगों को नहीं मिलता और न उनकी किसी पूर्व संस्कृति के चिन्ह देखने में आते हैं।

 डॉक्टर एच० एच० विल्सन् ने यह निर्णय किया है कि ये(राजपूत)उन शक आदि विदेशियों के वंशधर है जो विक्रमादित्य से पहले,सदियों तक भारत में झुंड के झुंड आये थे।

विदेशी जातियां शीघ्र ही हिंदू बन गयी।वे जातियाँ अथवा कुटुम्ब जो शासक पद को प्राप्त करने में सफल हुए हिंदुओं की राज्यशासन पद्धति में क्षत्रिय बनकर तुरन्त प्रवेश कर गए।इसमें कोई संदेह नहीं कि उत्तर के परिहार तथा अनेक अन्य राजपूत जातियों का विकास उन बर्बर विदेशियों से हुआ है, जिनकी बाढ़ पाँचवीं तथा छठी शताब्दीयों में भारत में आई थी।

इतिहास-विशारद स्मिथ साहब अपने Early History of India including Alexander's Compaigns, second edition,page no. 303 and 304 में लिखते हैं-
आगे दक्षिण की ओर से बहुत सी आदिम अनार्य जातियों ने भी हिन्दू बनकर यही सामाजिक उन्नति प्राप्त कर ली,जिसके प्रभाव से सूर्य और चंद्र के साथ सम्बन्ध  जोड़ने वाली वंशावलियों से सुसज्जित होकर गोड़, भर,खरवार आदि क्रमशः चन्देल, राठौर,गहरवार तथा अन्य राजपूत जातियाँ बनकर निकल पड़े।

इसके अतिरिक्त स्मिथ साहब अपने The Oxford student's history of India, Eighth Edition, page number 91 and 92 में लिखते हैं- उदाहरण के लिए अवध की प्रसिद्ध राजपूत जाति जैसों को लीजिये।ये भरों के समीपी सम्बन्धी अथवा अन्य इन्हीं की संतान हैं।आजकल इन भरों की प्रतिनिधि, अति ही नीची श्रेणी की एक बहुसंख्यक जाति है।

जस्टिस कैम्पबेल साहब ने लिखा है कि प्राचीन-काल की रीति-रिवाजों (आर्यों की) को मानने वाले जाट, नवीन हिन्दू-धर्म के रिवाजों को मानने पर राजपूत हैं। 

जाटों से राजपूत बने हैं न कि राजपूतों से जाट। जबकि स्व० प्रसिद्ध इतिहासकार  शूरवीर पँवार ने अपने एक शोध आलेख में गुर्जरों को राजपूतों का पूर्वज माना है।

मुहम्मद कासिम फरिश्ता ने भी राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में फ़ारसी में अपनी पुस्तक
"तारीक ऐ फरिश्ता" में अपना मत प्रस्तुत किया है इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद किया -
Lt Colonel John Briggs ने जो मद्रास आर्मी में थे, किताब के पहले वॉल्यूम ( Volume - 1 ) के Introductory Chapter On The Hindoos में पेज नंबर 15 पर लिखा है-

The origion of Rajpoots is thus related The rajas not satisfied with their wives, had frequently children by their female slaves who although not legitimate successors to the throne ,were Rajpoots or the children of the rajas "अर्थात:- राजा अपनी पत्नियों से संतुष्ट नहीं थे, उनकी महिला दासियो द्वारा अक्सर बच्चे होते थे, जो सिंहासन के लिए वैध उत्तराधिकारी नहीं थे, लेकिन इनको राजपूत या राजा के बच्चे या राज पुत्र कहा जाता था । प्रसिद्ध इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद जी ने अपनी पुस्तक- "A Short History Of Muslim Rule In India" के पेज नंबर 19 पर बताया है की राजपुताना में किसको बोला जाता है राजपूत-
The word Rajput in comman paralance,in certain states of Rajputana is used to denote the illegitimate sons of a Ksatriya chief or a jagirdar.-अर्थात:-राजपुताना के कुछ राज्यों में आम बोल चाल में राजपूत शब्द का प्रयोग एक क्षत्रिय मुखिया या जागीरदार के नाजायज बेटों को सम्बोधित करने के लिए प्रयोग किया जाता है। विद्याधर महाजन जी ने अपनी पुस्तक "Ancient India" जो की 1960 से दिल्ली विश्वविद्यालय में पढाई जा रही है ,  के पेज 479 पर लिखा है:-The word Rajput is used in certain parts of Rajasthan to denote the illegitimate sons of a Kshatriya Chief ar Jagirdar. अर्थात:- राजपूत शब्द राजस्थान के कुछ हिस्सों में एक क्षत्रिय प्रमुख या जागीरदार के नाजायज बेटों को निरूपित करने के लिए उपयोग किया जाता है।
History of Rise of Mohammadan power in India, volume 1, chapter 8
The Rajas, not satisfied with their wives, had frequently children by their female slaves, who, although not legitimate successors to the throne,were styled rajpoots, or the children of the rajas. 
The muslim Invaders took full advantage of this realy bad and immoral practice popular among indian kings, to find a good alley among hindoos and to also satisfy their own lust and appointed those son of kings as their Governors.
During mugal period this community became so powerful that they started abusing their own people motherland.
History of Rajsthan book "He was son of king but not from the queen."
राजस्थान का इतिहास भाग-1:-गोला का अर्थ दास अथवा गुलाम होता है। 

भीषण दुर्भिक्षों के कारण राजस्थान में गुलामों की उत्पत्ति हुई थी। इन अकालों के दिनों में हजारों की संख्या में मनुष्य बाजारों में दास बनाकर बेचे जाते थे। पहाड़ों पर रहने वाली पिंडारी और दूसरी जंगली जातियों के अत्याचार बहुत दिनों तक चलते रहे और उन्हीं जातियों के लोगों के द्वारा बाजारों में दासों की बिक्री होती थी, वे लोग असहाय राजपूतों को पकड़कर अपने यहाँ ले जाते थे और उसके बाद बाजारों में उनको बेच आते थे। इस प्रकार जो निर्धन और असहाय राजपूत खरीदे और बेचे जाते थे, उनकी संख्या राजस्थान में बहुत अधिक हो गयी थी और उन लोगों की जो संतान पैदा होती थी, वह गोला के नाम से प्रसिद्ध हुई। इन गुलाम राजपूतों को गोला और उनकी स्त्रियों तथा लड़कियों को गोली कहा जाता था। इन गोला लोगों में राजपूत, मुसलमान और अनेक दूसरी जातियों के लोग पाये जाते हैं।

बाजारों में उन सबका क्रय और विक्रय होता है। बहुत से राजपूत सामन्त इन गोला लोगों की अच्छी लड़कियों को अपनी उपपत्नी बना लेते हैं और उनसे जो लड़के पैदा होते हैं, वे सामन्तों के राज्य में अच्छे पदों पर काम करने हेतु नियुक्त कर दिये जाते हैं। 

देवगढ़ का स्वर्गीय सामन्त जब उदयपुर राजधानी में आया करता था तो उसके साथ तीन सौ अश्वारोही गोला सैनिक आया करते थे।

 उन सैनिकों के बायें हाथ एक-एक साने का कडा होता था । जैसा कि राजस्थान का इतिहास नामक पुस्तक में लिखा है कि इन्हें अच्छे पदों पर काम करने के हेतु नियुक्त किया जाता था और history of Rise of Mohammadan में भी लिखा कि मुगल काल में ये शक्तिशाली होने लगे तब इन्होंने सत्ता के लिए लड़ना प्रारम्भ कर दिया जैसा कि ऐतिहासिक ग्रंथो में ऐसे राजाओं के प्रमाण मिल जायेंगे जो जीवन भर सत्ता के लिए लड़ते रहे जैसा कि कर्नल टॉड की किताब राजस्थान का इतिहास में कन्नौज और अनहिलवाडा के राजाओं ने सत्ता के लिए पृथ्वीराज चौहान को शक्तिहीन करने के लिए गजनी के शाहबुद्दीन को आमंत्रित किया !

और अजीत सिंह ने सत्ता के लिए राजा दुर्गादास राठौर को राज्य से निष्कासित करवा दिया।
राणा सांगा के बड़े भाई पृथ्वीराज के दासी पुत्र बनवीर ने सत्ता के लिए विक्रमादित्य की हत्या करवाई... इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा की एक पुस्तक में प्रताप सिंह द्वारा सत्ता के लिए जगपाल को मारने का उल्लेख मिलता है।

पृथ्वीराज उड़ाना और राणा सांगा के मध्य सत्ता के लिए खुनी झगड़ा होने का ऐतिहासिक पुस्तको में जिक्र मिलता है और इसी झगड़े में राणा सांगा अपनी एक आँख और हाथ खो देते है और पृथ्वीराज उड़ाना को मरवा देते है।

कैसे सत्ता के लिए राजकुमार रणमल राठौर राणा मोकल को रेकय से निकलवा देता है और राणा राघव देव की हत्या करवा देता है!!

ऐसे करके ये सत्ता में बने रहे और इनकी वित्तीय स्थिति काफी मजबूत हो गयी...

वित्तमेव कलौ नृणां जन्माचारगुणोदयः। धर्मन्यायव्यवस्थायां कारणं बलमेव हि।।~श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध द्वितीय अध्याय श्लोक संख्या २। 
भावार्थ:-कलयुग में जिसके पास धन होगा,उसी को लोग कुलीन,सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे।
जिसके हाथ में शक्ति होगी वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा।

राजपूतों ने मुगलों को तो अपनी बेटियाँ दीं राजसत्ताओं के लालच में क्योंकि  कन्या अथवा स्त्री इनके लिए भोग के ही साधन थे।

 हिन्दु स्मृति- ग्रन्थों को आधार मानकर स्त्रियों के प्रति तत्कालीन पुरोहित और राजपूत समाज का दृष्टि कोण  समतामूलक नहीं था लैंगिक स्तर पर स्त्री का बजूद सन्तान उत्पादिका और उपभोग हेतु था।

जब राजपूत और राजपूताना के इतिहास पर चर्चा होती है तो उस काल मे राजपूत शासकों के आश्रित एवं स्वतन्त्र रूप से लिखी गई ख्यातों से तमाम ऐतिहासिक साक्ष्य लिए जाते हैं ।

तथा उनकी पुष्टि करण हेतु अन्य स्रोतों से साम्य करने के बाद उसे इतिहास की शक्ल या प्रारूप दिया जाता है। 

ऐसी ही एक ख्यात का ज़िक्र लेखक और पत्रकार नज़ीर मलिक साहब के हरा ले की जानिब से है जिसमें राष्ट्रकवि "रामाधारी सिंह दिनकर" ने अपनी पुस्तक 
"संस्कृति के चार अध्याय' के पृष्ठ संख्या 232-33 पर दिया है , जिससे पता चलता है कि मुगलों की इच्छा के बाद भी उनकी लड़कियाँ राजपूतों से क्यों नही ब्याही जा सकीं, जब कि राजपूतों की लड़कियां मुगकों के घर आती रहीं।

स्वर्गीय दिनकर जी ने राजस्थान की प्रसिद्ध ख्यात "वीर विनोद" के हवाले से लिखा है कि जब हुमायूँ  अचानक सूरी से हार कर ईरान में शरण लिए हुए था तो एक दिन शेरशाह ने ईरान में हुमायूं से पूछा कि मुगल अपनी बेटियों की शादियां हिन्दुस्थान  की किसी वीर जाति से की है या नहीं।  
इस पर मुगल शासक हुमायूँ ने बादशाह से कहा कि पठान तो हमारे शत्रु हैं,  और राजपूत हमसे बेटी लेंगे नहीं।  

ये बात हुमायूँ को खटक रही  थी अतः मरने से पूर्व उसने अकबर को आदेश दिया कि वह राजपूतों से दोस्ती करने के लिए उससे रोटी-बेटी का सम्बंध बनाने का प्रयास ज़रूर करे। 

हुमायूँ की इसी वादीयत के मुताबिक अकबर ने कई राजपूत सरदारों से कहा कि वे मुगलों की बेटी से शादिया करें। 

लेकिन अकबर का यह प्रस्ताव राजपूत सरदारों के गले नही उतरा। 

राजपूतों का विचार था। कि अगर उन्होंने मुगल शहज़ादियों से शादियां की तो हिन्दू शास्त्र के अनुसार वे सब भ्रष्ट हो जाएँगे और मुसलमान मान लिए जाएँगे। 

"इसलिए आपस मे सोच विचार कर उन्होंने निर्णय लिया कि राजपूत भले अपनी बेटी मुगलों को व्याह कर उसे त्याग देंगे मगर वे मुगलों की बेटी नही लाएंगे। 

सन्दर्भ- (वीर विनोद, द्वितीय खंड, भाग एक, पृष्ठ 170 की पाद टिप्पणी से )

वीर विनोद नामक ख्यात में लिखी बात की पुष्टि करते हुए राजपूतों की वीरता और वफादारी पर कुछ और भी लिखा है जिसे अकबरकालीन किताब "महसिरुल उमरा" से लिया है।

इन बातों से पता चलता है कि मुगलो की ज़्यादातर शहजादियाँ कुँवारी क्यों राह जाती थी ? 

दूसरी बात यह कि तत्कालीन हिन्दू धर्म पर बंदिशें कितनी सख्त थीं कि वहाँ किसी मुलिम को हिन्दू धर्म मे शामिल करने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।                                                  जबकि हिन्दू मुस्लिम तो बन सकता था ।

सती प्रथा बालकन्याविवाह आदि कुप्रथाऐं उपभोगात्मक और निज भोगारक्षण को दृष्टि गत करके बनायी गयी थीं ।
________
16 वीं शताब्दी के मध्यकालीन समय के बाद, कई राजपूत शासकों ने मुगल सम्राटों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए और विभिन्न क्षमताओं से उनकी सेवा की। राजपूतों के समर्थन के कारण ही अकबर भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखने में सक्षम हुआ था।

राजपूत रईसों ने अपने राजनैतिक उद्देश्यों के लिए मुगल बादशाहों और उनके राजकुमारों से अपनी बेटियों की शादी करवाई थी।

उदाहरण के लिए, अकबर ने अपने लिए और अपने पुत्रों व पौत्रों के लिए 40 शादियां सम्पन्न कीं, जिनमें से 17 राजपूत-मुगल गठबंधन थे। 

मुगल सम्राट अकबर के उत्तराधिकारी, उनके पुत्र जहाँगीर और पोते शाहजहाँ की माताएँ राजपूत थीं।

मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत परिवार ने मुगलों के साथ वैवाहिक संबंधों में नहीं जुड़ने को सम्मान की बात बना दिया और इस तरह से वे अन्य सभी राजपूत कुलों से विपरीत खड़े रहे थे।

इस समय के पश्चात राजपुतों और मुगलों के बीच वैवाहिक संबंधों में कुुछ कमी आई।

राजपूतों के साथ अकबर के संबंध तब शुरू हुए थे जब वह 1561 में आगरा के पश्चिम में सीकरी के चिस्ती सूफी शेख की यात्रा से लौटा था। 

तभी बहुत राजपूत राजकुमारियों ने अकबर से शादी रचाई थी।

राजपूत-मुग़ल वैवाहिक संबंधों की सूची-
मुख्य राजपूत-मुग़ल वैवाहिक संबंधों की सूची
जनवरी 1562, अकबर ने राजा भारमल की बेटी से शादी की. (कछवाहा-अंबेर)

15 नवंबर 1570, राय कल्याण सिंह ने अपनी भतीजी का विवाह अकबर से किया (राठौर-बीकानेर)

1570, मालदेव ने अपनी पुत्री रुक्मावती का अकबर से विवाह किया. (राठौर-जोधपुर)
1573, नगरकोट के राजा जयचंद की पुत्री से अकबर का विवाह (नगरकोट)

मार्च 1577, डूंगरपुर के रावल की बेटी से अकबर का विवाह (गहलोत-डूंगरपुर)

1581, केशवदास ने अपनी पुत्री का विवाह अकबर से किया (राठौर-मोरता)
16 फरवरी, 1584, राजकुमार सलीम (जहांगीर) का भगवंत दास की बेटी से विवाह (कछवाहा-आंबेर)
1587, राजकुमार सलीम (जहांगीर) का जोधपुर के मोटा राजा की बेटी से विवाह (राठौर-जोधपुर)
2 अक्टूबर 1595, रायमल की बेटी से दानियाल का विवाह (राठौर-जोधपुर)

28 मई 1608, जहांगीर ने राजा जगत सिंह की बेटी से विवाह किया (कछवाहा-आंबेर)
1 फरवरी, 1609, जहांगीर ने राम चंद्र बुंदेला की बेटी से विवाह किया (बुंदेला, ओर्छा)

अप्रैल 1624, राजकुमार परवेज का विवाह राजा गज सिंह की बहन से (राठौर-जोधपुर)
1654, राजकुमार सुलेमान शिकोह से राजा अमर सिंह की बेटी का विवाह(राठौर-नागौर)

17 नवंबर 1661, मोहम्मद मुअज्जम का विवाह किशनगढ़ के राजा रूप सिंह राठौर की बेटी से(राठौर-किशनगढ़)
5 जुलाई 1678, औरंगजेब के पुत्र मोहम्मद आजाम का विवाह कीरत सिंह की बेटी से हुआ. कीरत सिंह मशहूर राजा जय सिंह के पुत्र थे. (कछवाहा-आंबेर)
30 जुलाई 1681, औरंगजेब के पुत्र काम बख्श की शादी अमरचंद की बेटी से हुए(शेखावत-मनोहरपुर)[13][14][15]
सन्दर्भ★-

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↑ Smith, Bonnie G. (2008). The Oxford Encyclopedia of Women in World History. Oxford University Press. पृ॰ 656. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-19-514890-9. मूल से 2 सितंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 जुलाई 2020.
↑ Richards, John F. (1995). The Mughal Empire. Cambridge University Press. पृ॰ 23. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-521-56603-2. मूल से 16 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 जुलाई 2020.
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↑ Hansen, Waldemar (1972). The peacock throne : the drama of Mogul India (1. Indian ed., repr. संस्करण). Delhi: Motilal Banarsidass. पपृ॰ 12, 34. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-0225-4.
↑ Barbara N. Ramusack 2004, पृ॰प॰ 18–19.
↑ Chandra, Satish (2007). Medieval India: From Sultanat to the Mughals Part-II. Har Anand Publications. पृ॰ 124. मूल से 23 दिसंबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 जुलाई 2020.
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↑ "पद्मावती : जिनके लिए लड़ रहे हो वो तो आपस में मौज से रहते थे". iChowk.in. 2017-11-26. अभिगमन तिथि 2020-07-12.
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इतिहास के बिखरे हुए पन्नों से -.........

राजपूतों की उत्पत्ति-

करणी माता चारण जाति की  महिला थीं, जिनके बचपन का नाम रिघुबाई था।  उन्ही की स्मृति में करणी सेना की स्थापना चारण भाट और बंजारा जाति के लोगों ने की 

करणी माता का जन्म 1387 ईस्वी में राजस्थान. जिले में,  सुवाप गांव, जोधपुर फलोदी से 20 मील दक्षिण-पूर्व में हुआ था

ये चारण जाति की थी चारण लोग . राजाओं के वंश की कीर्ति गानेवाले। भाट । बंदीजन  होते थे। जो की. राजस्थान की एक जाति  है । 

विशेष— स्कन्द पुराण सह्याद्रिखंड में लिखा है कि जिस प्रकार वैतालिकों की उत्पत्ति वैश्य और शूद्रा स्त्री से  होती है, उसी प्रकार चारणों की भी  उत्पत्ति वैश्य पुरुष और शूद्रा स्त्री से  है; पर चारणों का वृषलत्व( दोगलापन) कम है ।

इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना था । 

स्कन्द पुराण  के काशीखण्ड में भी चारणों का व्यवसाय- गाना बजान तथा देवताओं और राजाओं का गुणगान करना बताया गया है।

गान्धर्वस्त्वेषलोकोऽमी गन्धर्वाश्च शुभव्रताः।।
देवानां गायनाद्येते चारणाः स्तुतिपाठकाः।२१।

स्कन्दपुराण   खण्डः (४) (काशीखण्डः अध्यायः (८)


चारण जाति की उत्पत्ति- 
चारण भारत के पश्चिमी गुजरात राज्य में रहने वाले व हिन्दू जाति की वंशावली का विवरण रखने वाले वंशावलीविद, भाट और कथावाचक लोग ही चारण होते हैं।[1]

विषय सूची
1 उत्पत्ति
1.1 चारण-भाट
2 स्वामि भक्ति
3 टीका टिप्पणी और संदर्भ
4 संबंधित लेख

उत्पत्ति-
चारण लोग राजस्थान की राजपूत जाति से अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं और संभवत: मिश्रित ब्राह्मण तथा राजपूत वंश से उत्पन्न हो सकते हैं। इनके कई रिवाज उत्तरी भारत में उनके प्रतिरूप( समान रूप) वाले भाटों से मिलते-जुलते हैं। 

दोनों समूह वचन भंग के बजाय मृत्यु के वरण को अधिक महत्त्व देने के लिए विख्यात हैं।

 चारण, योद्धा तथा राजाओं से संबंधित कथा गीतों की रचना एक विशिष्ट पश्चिमी राजस्थानी बोली  में करते हैं, जिस बोली को 'डिंगल' कहा जाता है,।

जिसका प्रयोग किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं किया जाता।

चारण-भाट-
'चारण' एवं 'भाट' को अलग-अलग जाति में वर्गीकृत किया जा सकता है, किन्तु दोनों वर्गों के सामाजिक अन्तर को देखते हुए उन्हें एक ही जाति की दो उप-जातियाँ कहा जा सकता है।


चारण जाति में ब्राह्मण और राजपूत के गुणों का सामन्जस्य( मेल) मिलता है।

 पठन-पाठन तथा साहित्यिक रचनाओं के कारण उनकी तुलना ब्राह्मणों से की जाती है।
राजपूत जाति की उत्पत्ति-


चारण लोग राजपूत जाति तथा राजकुल से सम्बन्धित थे तथा वे शिक्षित होते थे। 


अपने शैक्षिक ज्ञान की अधिकता के कारण वे राजस्थानी वात, ख्यात, रासो और साहित्य के लेखक रहे थे।

वहीं दूसरी ओर भाट लोग जनसाधारण से सम्बंधित थे, अधिकतर पढ़े-लिखे नहीं थे। 

लालसायुक्त याचक-प्रवृति ने उनकी प्रतिष्ठा को धुमिल किया।

 शिक्षा की कमी के कारण वे चारणों से अलग पीढ़ीनामा, वंशावली तथा कुर्सीनामा के संग्रहकर्ता थे।


 लेकिन फिर भी समाज में दोनों की प्रतिष्ठा बराबर की रही थी। चारण तथा भाटों को अपनी सेवा के बदले राज्य अथवा जागीरों से कर मुक्त भूमि, गाँव आदि प्राप्त होते थे।



स्वामि भक्ति
भूमि धारक चारण कृषि कार्य भी करते थे। युद्ध में भाग लेने व शान्ति की स्थापना में यह जाति राजपूत जाति के निकट थी।

 18 वीं शताब्दी में मराठों के विरुद्ध तथा 19वीं शताब्दी में आन्तरिक उपद्रवों को दबाने में इस जाति के लोगों ने सफल सैनिक कार्यवाहियों में भाग लिया था।


 महाराणा अमरसिंह के काल में कुछ चारणों तथा भाटों ने अपने पैतृक व्यवसाय के साथ-साथ व्यापारिक सामान भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने व बेचने का कार्य आरम्भ किया। 

ऐसे लोगों को 'बनजारा'( ) कहा जाता था। चारणों की स्वामि भक्ति सदैव उल्लेखनीय रही थी। संकटकाल में भी वह अपने स्वामी के साथ रहता था। 


उनका घर संकटकाल में राजपूत स्त्रियों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित माना जाता था।

राजपूतों की उत्पत्ति और मुगलों से उनके वैवाहिक सम्बन्ध-

"भारतीय धरापर अनादि काल से अनेक जनजातियों का आगमन हुआ।

छठी सातवीं ईस्वी में भी अनेक जन-जातीयाँ का भारत में आगमन हुआ। जो या तो यहाँ व्यापार करने के लिए आये अथवा इस देश को लूटने के लिए आये। कुछ चले भी गये तो कुछ अन्त में यहीं के होकर रह गये। 

________

वास्तव में भारतीय प्राचीन पौराणिक ग्रन्थों में ग्रन्थों के मिथकों के प्राचीनतम होने से उन आगन्तुक मानव जातियों का वर्णन भी नहीं मिलता है । कालान्तर में जब भारतीय संस्कृति में अनेक विजातीय तत्वों का समावेश हुआ तो परिणाम स्वरूप उनकी वंशावली का निर्धारण हुआ ताकि उन्हें  किसी प्रकार भारतीयता से सम्बद्ध किया जाये  ?  अथवा इन वंशों को प्राचीनता का पुट देने के लिए सूर्य और चन्द्र वंश की कल्पना इनके साथ कर दी गयी ।
जो  वास्तविक रूप से  हिब्रू संस्कृति के साम और हाम का ही भारतीय रूपान्तरण  है ।
भारतीय धरा पर उभरती नवीन जातियों ने भी राजपूतों के रूप में कभी अपने को सूर्यवंश से जोड़ा तो कभी चन्द्रवंश से  यद्यपि यादवों को सोमवंश और राम के  वंशजो को सूर्यवंश से सम्बन्धित होना तो भारतीय पुराणों में वर्णित किया गया है । परन्तु राम का वंश और जीवन चरित्र प्रागैतिहासिकता के गर्त में समाविष्ट है । फले ही जातीय स्वाभिमान के लिए कोई स्वयं को राम से जोड़ ले परन्तु राम का वर्णन अनेक संस्कृतियों में मिथकीय रूप में हुआ है।
राम के जीवन " जन्म तथा वंश का कोई कालक्रम भारतीय सन्दर्भ में समीचीन या सम्यक्‌  रूप से नहीं हैं ।
अनेक पूर्वोत्तर और पश्चिमी देशों की संस्कृति में राम का वर्णन उनकी सांस्कृतिक परम्पराओं के अनुरूप है ।
मिश्र, थाइलैंड, खेतान, ईरान- ईराक (मेसोपोटामिया) दक्षिणी अमेरिका, इण्डोनेशिया तथा भारत में भी राम कथाओं का विस्तार अनेक रूपों में हुआ है। भले ही भारत में आज कुछ लोग स्वयं को राम का वंशज कह कर सूर्य वंश से जोड़े परन्तु यह सब निराधार ही है।
हाँ चन्द्र वंश या कहें सोम वंश जिसके  सबसे प्राचीन वंश धारक यादव लोग हैं।
साम से सोम शब्द कि रूपांतरण हुआ जिसे दैवीय रूप देने को लिए सोम( चन्द्र) बना दिया
वे आज भी अहीरों, गोपों और घोष आदि के रूप में गोपालक को रूप में अब तक पशुपालन में संलग्न हैं। पौराणिक सन्दर्भों से विशेषत: पद्मपुराण सृष्टि- खण्ड स्कन्दपुराण (नागर-खण्ड ) तथा नान्दीपुराण से प्राप्त जानकारी के अनुसार वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री एक आभीर जाति के परिवार से सम्बन्धित कन्या थी।



117. वही (सहस्रबाहू) पशुओ का पालक (रक्षक) और भूमि में बीज वपन करने वाला हुआ; वही निश्चित रूप ही खेतों का रक्षक और कृषक था; वह अकेले ही अपने योगबल के माध्यम से वर्षा के लिए बादल बन गया सब कुछ अर्जन करने से अर्जुन बन गया।
(पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय १२)-
इस प्रकार आर्य शब्द भी कृषि से सम्बन्धित था। जैसा कि वैदिक सन्दर्भों में अब भी है।
_____________________________

आधुनिक राजपूत शब्द एक जाति से अब संघ या वाचक बन गया है।
जबकि क्षत्रिय आज भी एक वर्णव्यवस्था का अंग है।  पुराणों में राजपूतों का वर्णन होने से ये छठी सातवीं सदी के तो हैं ही अधिकतर पुराण इस काल तक लिखे जाते रहे हैं। परन्तु पद्मपुराण का सृष्टि खण्ड सबसे प्राचीन है। जिसमें वर्णन है कि अहीर (आभीर) जाति कि कन्या गायत्री सा विवाह यज्ञ कार्य हेतु विष्णु भगवान द्वारा पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा से पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न कराया गया  और अन्त में सभी अहीरों को विदाई के समय विष्णु भगवान द्वारा आश्वस्त करते हुए अहीर जाति के यदुवंश में द्वापर युग में अपने अवतरण लेने की बात कहीं।
तथा अन्य पुराण देवीभागवत मार्कण्डेय और हरिवंश पुराण आदि में वरुण प्रेरित ब्रह्मा के आदेश द्वारा कश्यप को वसुदेव गोप के रूप में मथुरा नगरी में जन्म लेने के लिए कहा ।
देवीभागवत पुराण के द्वादश स्कन्ध में वसुदेव स्वयं पिता कि मृत्यु के पश्चात कृषि और गोपालन से जीविका निर्वहन करते हैं।
___________
परन्तु आज जो जनजातियाँ पौराणिक सन्दर्भों में वर्णित नहीं हैं ।वे स्वयं को कभी सूर्य वंश से जोड़ती हैं तो कभी चन्द्र वंश से और  इस प्रकार पतवार विहीन नौका के समान इधर से उधर भटकते हुए किनारों से परे ही रहती हैं। 
आज ये जनजातियाँ स्वयं को राजपूत मानती हैं और यदुवंश से सम्बन्धित करने के लिए पूरा जोर लगा रहीं हैं । सम्भव है अहीरों से ही जिनकी निकासी हुई हो परन्तु वे इस बात को मानने के पक्षधर नहीं हैं। हम आपके संज्ञान में यह तथ्य प्रेषित कर दें कि ययाति के शाप के परिणाम-स्वरूप यादवों में लोकतन्त्र शासन की व्यवस्था का परम्परागत स्थापन हुआ ।
"प्रसन्नशुक्रवचनाज्व जरां संकामयितुं ज्येष्ठं पुत्रं यदुमुवाच,--त्वन्माता महशापादियमकालेनैव जरा मामुपस्थिता । तानहं तस्यैवानुग्रहादू भवतः सञ्च रायाम्येकं वर्षसहस्त्रम्, त तृप्तोऽस्मि विषयेषु, त्वदूयसा विषयानह भोक्तुमिच्छामि ।। ४-१०-४ ।।

नात्र भवता प्रत्याख्यानं कर्त्तव्यमित्युक्तः स नैच्छत् तां जरामादातुम ।तञ्चपि पिता शशाप,--त्वत प्रसूतिर्न राज्यार्हा भविष्यतीति ।। ४-१०-५ ।।                    (विष्णु पुराण 

चतुर्थांश अध्याय दस)

न हि राज्येन मे कार्यं नाप्यहं नृप काङ्क्षितः ।

न चापि राज्यलुब्धेन मया कंसो निपातितः । ४८।
किं तु लोकहितार्थाय कीर्त्यर्थं च सुतस्तव ।
व्यङ्गभूतः कुलस्यास्य सानुजो विनिपातितः । ४९।
अहं स एव गोमध्ये गोपैः सह वनेचरः ।
प्रीतिमान् विचरिष्यामि कामचारी यथा गजः । 2.32.५० ।
एतावच्छतशोऽप्येवं सत्येनैतद् ब्रवीमि ते ।
न मे कार्यं नृपत्वेन विज्ञाप्यं क्रियतामिदम् । ५१ ।
भवान राजास्तु मान्यो मे यदूनामग्रणीः प्रभुः ।
विजयायाभिषिच्यस्व स्वराज्ये नृपसत्तम ।५२ ।।
यदि ते मत्प्रियं कार्यं यदि वा नास्ति ते व्यथा ।
मया निसृष्टं राज्यं स्वं चिराय प्रतिगृह्यताम् ।५३ 
।( हरिवंशपुराण विष्णुपर्व अध्याय ३२)।
"नरेश्वर! मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं है। न तो मैं राज्य का अभिलाषी हूँ और न राज्य के लोभ से मैंने कंस को मारा ही है। मैंने तो केवल लोकहित के लिये और कीर्ति के लिये भाई सहित तुम्हारे पुत्र को मार गिराया है। जो इस कुल का विकृत (सड़ा हुआ) अंग था। मैं वही वनेचर होकर गोपों के साथ गौओं के बीच प्रसन्नतापूर्वक विचरूंगा, जैसे इच्छानुसार विचरने वाला हाथी वन में स्वच्छन्दक घूमता है मैं सत्य की शपथ खाकर इन बातों को सौ-सौ बार दुहराकर आपसे कहता हूं, मुझे राज्य से कोई काम नहीं है, आप इसका विज्ञापन कर दीजिये आप यदुवंशियों के अग्रगण्य स्वामी तथा मेरे लिये भी माननीय हैं, अत: आप ही राजा हो। नृपश्रेष्ठ! अपने राज्यों पर अपना अभिषेक कराइये, आपकी विजय हो यदि आपको मेरा प्रिय कार्य करना हो अथवा आपके मन में मेरी ओर से कोई व्यथा न हो तो मेरे द्वारा लौटाये गये इस राज्य को दीर्घकाल के लिये ग्रहण करें।' ।श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः ४५
←  श्रीमद्भागवतपुराणम्
       अध्यायः ४५

वसुदेवदेवकी सान्त्वनम्; उग्रसेनस्य राज्याभिषेकः; रामकृष्णयोरुपनयनं विद्याध्ययनं, गुरुर्मृतपुत्रस्यानयनं च -

अथ पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः
श्रीशुक उवाच
पितरावुपलब्धार्थौ विदित्वा पुरुषोत्तमः
मा भूदिति निजां मायां ततान जनमोहिनीम् ।१।
उवाच पितरावेत्य साग्रजः सात्वर्षभः
प्रश्रयावनतः प्रीणन्नम्ब तातेति सादरम्। २।
नास्मत्तो युवयोस्तात नित्योत्कण्ठितयोरपि
बाल्यपौगण्डकैशोराः पुत्राभ्यामभवन्क्वचित् ।३।
न लब्धो दैवहतयोर्वासो नौ भवदन्तिके
यां बालाः पितृगेहस्था विन्दन्ते लालिता मुदम् ।४।
सर्वार्थसम्भवो देहो जनितः पोषितो यतः
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मर्त्यः शतायुषा। ५।
यस्तयोरात्मजः कल्प आत्मना च धनेन च
वृत्तिं न दद्यात्तं प्रेत्य स्वमांसं खादयन्ति हि ।६।
मातरं पितरं वृद्धं भार्यां साध्वीं सुतं शिशुम्
गुरुं विप्रं प्रपन्नं च कल्पोऽबिभ्रच्छ्वसन्मृतः ।७।
तन्नावकल्पयोः कंसान्नित्यमुद्विग्नचेतसोः
मोघमेते व्यतिक्रान्ता दिवसा वामनर्चतोः ।८।
तत्क्षन्तुमर्हथस्तात मातर्नौ परतन्त्रयोः
अकुर्वतोर्वां शुश्रूषां क्लिष्टयोर्दुर्हृदा भृशम् ।९।
श्रीशुक उवाच
इति मायामनुष्यस्य हरेर्विश्वात्मनो गिरा
मोहितावङ्कमारोप्य परिष्वज्यापतुर्मुदम् ।१०।
सिञ्चन्तावश्रुधाराभिः स्नेहपाशेन चावृतौ
न किञ्चिदूचतू राजन्बाष्पकण्ठौ विमोहितौ ।११।
एवमाश्वास्य पितरौ भगवान्देवकीसुतः
मातामहं तूग्रसेनं यदूनामकरोन्नृपम् ।१२।
आह चास्मान्महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि
ययातिशापाद्यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।१३।
मयि भृत्य उपासीने भवतो विबुधादयः
बलिं हरन्त्यवनताः किमुतान्ये नराधिपाः ।१४।
सर्वान्स्वान्ज्ञातिसम्बन्धान्दिग्भ्यः कंसभयाकुलान्

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यदु वंश में कभी भी कोई पैत्रक या वंशानुगत रूप से राजा नहीं हुआ राजतन्त्र प्रणाली को यादवों ने कभी नही आत्मसात् किया चाहें वह त्रेता युग का सम्राट सहस्रबाहू अर्जुन हो अथवा शशिबिन्दु  ये सम्राट अवश्य बने परन्तु लोकतन्त्र प्रणाली से अथवा अपने पौरुषबल से ही बने पिता की विरासत से नही इसी प्रकार वर्ण -व्यवस्था भी यादवों ने कभी नहीं स्वीकार की । अत: राजा सम्बोधन यादवों के लिए कभी नहीं रहा कृष्ण को कब राजा कहा गया 
राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे इतिहास में कई मत प्रचलित हैं।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राजपूत संस्कृत के राजपुत्र शब्द का अपभ्रंश है; राजपुत्र शब्द हिन्दू धर्म ग्रंथों में कई स्थानों पर देखने को मिल जायेगा लेकिन वह जातिसूचक के रूप में नही होता अपितु  किसी भी राजा के संबोधन सूचक शब्द के रूप में होता है । 
परन्तु  अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि पुराणों में एक स्थान पर राजपुत्र जातिसूचक शब्द के रूप में आया है जो कि इस प्रकार है-👇
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भावार्थ:- क्षत्रिय से करण-कन्या(वैश्य पुरुष और शूद्र कन्या से ) में राजपुत्र और राजपुत्र की कन्या में करण द्वारा 'आगरी' उत्पन्न हुआ।
राजपुत्र के क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या के गर्भ में उत्पन्न होने का वर्णन (शब्दकल्पद्रुम) में भी आया है- "करणकन्यायां क्षत्त्रियाज्जातश्च इति पुराणम् ॥" अर्थात:- क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या में उतपन्न संतान...
यूरोपीय विश्लेषक मोनियर विलियमस् ने भी लिखा है कि-
A rajpoot,the son of a vaisya by an ambashtha or the son of Kshatriya by a karan...
~A Sanskrit English Dictionary:Monier-Williams, page no. 873
शब्दकल्पद्रुम व वाचस्पत्य में भी एक अन्य स्थान पर भी राजपुत्र शब्द जातिसूचक शब्द के रूप में आया है; जो कि इस प्रकार है:-
 ३- वर्णसङ्करभेदे राजपुत्र “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां
राजपुत्रस्य सम्भवः” इति पराशरःसंहिता ।
अर्थात:- वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उतपन्न होता है।
राजपूत सभा के अध्यक्ष श्री गिर्राज सिंह लोटवाड़ा जी के अनुसार राजपूत शब्द रजपूत शब्द से बना है जिसका अर्थ वे मिट्टी का पुत्र बतलाते हैं। थोड़ा अध्ययन करने के बाद ये रजपूत शब्द हमें स्कंद पुराण के सह्याद्री खण्ड में देखने को मिलता है जो कि इस प्रकार एक वर्णसंकर जाति के अर्थ में है-
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 उपर्युक्त सन्दर्भ:-(स्कन्दपुराण- आदिरहस्य सह्याद्रि-खण्ड- व्यास देव व सनत्कुमार का संकर जाति विषयक संवाद नामक २६ वाँ अध्याय-श्लोक संख्या- ४७,४८,४९ पर राजपूतों की उत्पत्ति वर्णसंकर के रूप में है ।भावार्थ:-क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र- वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है )
कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत क्षत्रिय शब्द का पर्यायवाची है। लेकिन अमरकोष में राजपूत और क्षत्रिय शब्द को परस्पर पर्यायवाची नही बतलाया है; स्वयं देखें-
अर्थात:मूर्धाभिषिक्त,राजन्य,बाहुज,क्षत्रिय,विराट्,राजा,राट्,पार्थिव,क्ष्माभृत्,नृप,भूप,और महिक्षित ये क्षत्रिय शब्द के पर्याय है।
इसमें 'राजपूत' शब्द या तदर्थक कोई अन्य शब्द नहीं आया है।



पुराणों के निम्न श्लोक को पढ़ें-
-ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः १ (ब्रह्मखण्डः)/अध्यायः १०/श्लोकः (९९)
भावार्थ:-क्षत्रिय के बीज से राजपुत्र की स्त्री में तीवर उतपन्न हुआ।वह भी व्याभिचार दोष के कारण पतित कहलाया।
यदि क्षत्रिय और राजपूत परस्पर पर्यायवाची शब्द होते तो क्षत्रिय पुरुष और राजपूत स्त्री की संतान राजपूत या क्षत्रिय ही होती न कि तीवर या धीवर ! इसके अतिरिक्त शब्दकल्पद्रुम में राजपुत्र को वर्णसंकर जाति लिखा है जबकि क्षत्रिय वर्णसंकर नही...
Manohar Laxman  varadpande(1987). History of Indian theatre: classical theatre. Abhinav Publication. Page number 290
"The word kshatriya is not synonyms with Rajput."
अर्थात- क्षत्रिय शब्द राजपूत का पर्यायवाची नहीं है। मराठी इतिहासकार कालकारंजन  ने अपनी पुस्तक (प्राचीन- भारताचा इतिहास) के हर्षोत्तर उत्तर भारत नामक विषय के प्रष्ठ संख्या ३३४ में राजपूत और वैदिक क्षत्रिय भिन्न भिन्न बतलाये हैं। वैदिक क्षत्रियों द्वारा पशुपालन करने का उल्लेख धर्म ग्रंथों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है जबकि राजपूत जाति पशुपालन को अत्यंत घृणित दृष्टि से देखती है और पशुपालन के प्रति संकुचित मानसिकता रखती है...
महाभारत में जरासंध पुत्र सहदेव द्वारा गाय भैंस भेड़ बकरी को युधिष्ठिर को भेंट करने का उल्लेख मिलता है;युधिष्ठिर जो कि एक क्षत्रिय थे पशु पालन करते होंगे तभी कोई भेंट में पशु देगा-
~महाभारत सभापर्व(जरासंध वध पर्व)अध्याय: २४श्लोक: ४१-सहदेव ने कहा- प्रभो! ये गाय, भैंस, भेड़-बकरे आदि पशु, बहुत से रत्न, हथी-घोड़े और नाना प्रकार के वस्त्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं। गोविन्द! ये सब वस्तुएँ धर्मराज युधिष्ठिर को दीजिये अथवा आपकी जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझ सवा के लिये आदेश दीजिये। इसके अतिरिक्त कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में क्षत्रिय को भेड़ पालने के लिए कहा गया है
कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है-
Brajadulal Chattopadhyay 1994; page number 60- प्रारंभिक मध्ययुगीन साहित्य बताता है कि इस नवगठित राजपूत में कई जातियों के लोग शामिल थे। भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानों ने इस ऐतिहासिक तथ्य का पूर्णतः पता लगा लिया है कि जिस काल में इस जाति का भारत के राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण हुआ था, उस काल में यह एक नवागन्तुक जाति समझती जाती थी। बंगाल के अद्वितीय विद्वान स्वर्गीय श्री रमेशचंद्र दत्त महोदय अपने (Civilization in Ancient India) नामक प्रसिद्ध ग्रंथ के भाग-२ , प्रष्ठ १६४ में लिखते है-
आठवीं शताब्दी के पूर्व राजपूत जाति हिंदू आर्य नहीं समझी जाती थी। देश के साहित्य तथा विदेशी पर्यटकों के भृमण वृत्तान्तों में उनके नाम का उल्लेख हम लोगों को नहीं मिलता और न उनकी किसी पूर्व संस्कृति के चिन्ह देखने में आते हैं। डॉक्टर एच० एच० विल्सन् ने यह निर्णय किया है कि ये(राजपूत)उन शक आदि विदेशियों के वंशधर है जो विक्रमादित्य से पहले,सदियों तक भारत में झुंड के झुंड आये थे।
विदेशी जातियां शीघ्र ही हिंदू बन गयी।वे जातियाँ अथवा कुटुम्ब जो शासक पद को प्राप्त करने में सफल हुए हिंदुओं की राज्यशासन पद्धति में क्षत्रिय बनकर तुरन्त प्रवेश कर गए।इसमें कोई संदेह नहीं कि उत्तर के परिहार तथा अनेक अन्य राजपूत जातियों का विकास उन बर्बर विदेशियों से हुआ है, जिनकी बाढ़ पाँचवीं तथा छठी शताब्दीयों में भारत में आई थी।
इतिहास-विशारद स्मिथ साहब अपने Early History of India including Alexander's Compaigns, second edition,page no. 303 and 304 में लिखते हैं-
आगे दक्षिण की ओर से बहुत सी आदिम अनार्य जातियों ने भी हिन्दू बनकर यही सामाजिक उन्नति प्राप्त कर ली,जिसके प्रभाव से सूर्य और चंद्र के साथ सम्बन्ध  जोड़ने वाली वंशावलियों से सुसज्जित होकर गोड़, भर,खरवार आदि क्रमशः चन्देल, राठौर,गहरवार तथा अन्य राजपूत जातियाँ बनकर निकल पड़े।
इसके अतिरिक्त स्मिथ साहब अपने The Oxford student's history of India, Eighth Edition, page number 91 and 92 में लिखते हैं- उदाहरण के लिए अवध की प्रसिद्ध राजपूत जाति जैसों को लीजिये।ये भरों के समीपी सम्बन्धी अथवा अन्य इन्हीं की संतान हैं।आजकल इन भरों की प्रतिनिधि, अति ही नीची श्रेणी की एक बहुसंख्यक जाति है।
जस्टिस कैम्पबेल साहब ने लिखा है कि प्राचीन-काल की रीति-रिवाजों (आर्यों की) को मानने वाले जाट, नवीन हिन्दू-धर्म के रिवाजों को मानने पर राजपूत हैं। जाटों से राजपूत बने हैं न कि राजपूतों से जाट। जबकि स्व० प्रसिद्ध इतिहासकार  शूरवीर पँवार ने अपने एक शोध आलेख में गुर्जरों को राजपूतों का पूर्वज माना है।
मुहम्मद कासिम फरिश्ता ने भी राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में फ़ारसी में अपनी पुस्तक
"तारीक ऐ फरिश्ता" में अपना मत प्रस्तुत किया है इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद किया -
Lt Colonel John Briggs ने जो मद्रास आर्मी में थे, किताब के पहले वॉल्यूम ( Volume - 1 ) के Introductory Chapter On The Hindoos में पेज नंबर 15 पर लिखा है-
The origion of Rajpoots is thus related The rajas not satisfied with their wives, had frequently children by their female slaves who although not legitimate successors to the throne ,were Rajpoots or the children of the rajas "अर्थात:- राजा अपनी पत्नियों से संतुष्ट नहीं थे, उनकी महिला दासियो द्वारा अक्सर बच्चे होते थे, जो सिंहासन के लिए वैध उत्तराधिकारी नहीं थे, लेकिन इनको राजपूत या राजा के बच्चे या राज पुत्र कहा जाता था । प्रसिद्ध इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद जी ने अपनी पुस्तक- "A Short History Of Muslim Rule In India" के पेज नंबर 19 पर बताया है की राजपुताना में किसको बोला जाता है राजपूत-
The word Rajput in comman paralance,in certain states of Rajputana is used to denote the illegitimate sons of a Ksatriya chief or a jagirdar.-अर्थात:-राजपुताना के कुछ राज्यों में आम बोल चाल में राजपूत शब्द का प्रयोग एक क्षत्रिय मुखिया या जागीरदार के नाजायज बेटों को सम्बोधित करने के लिए प्रयोग किया जाता है। विद्याधर महाजन जी ने अपनी पुस्तक "Ancient India" जो की 1960 से दिल्ली विश्वविद्यालय में पढाई जा रही है ,  के पेज 479 पर लिखा है:-The word Rajput is used in certain parts of Rajasthan to denote the illegitimate sons of a Kshatriya Chief ar Jagirdar. अर्थात:- राजपूत शब्द राजस्थान के कुछ हिस्सों में एक क्षत्रिय प्रमुख या जागीरदार के नाजायज बेटों को निरूपित करने के लिए उपयोग किया जाता है।
History of Rise of Mohammadan power in India, volume 1, chapter 8
The Rajas, not satisfied with their wives, had frequently children by their female slaves, who, although not legitimate successors to the throne,were styled rajpoots, or the children of the rajas. 
The muslim Invaders took full advantage of this realy bad and immoral practice popular among indian kings, to find a good alley among hindoos and to also satisfy their own lust and appointed those son of kings as their Governors.
History of Rajsthan book "He was son of king but not from the queen."
राजस्थान का इतिहास भाग-1:-गोला का अर्थ दास अथवा गुलाम होता है। 
भीषण दुर्भिक्षों के कारण राजस्थान में गुलामों की उत्पत्ति हुई थी। इन अकालों के दिनों में हजारों की संख्या में मनुष्य बाजारों में दास बनाकर बेचे जाते थे। पहाड़ों पर रहने वाली पिंडारी और दूसरी जंगली जातियों के अत्याचार बहुत दिनों तक चलते रहे और उन्हीं जातियों के लोगों के द्वारा बाजारों में दासों की बिक्री होती थी, वे लोग असहाय राजपूतों को पकड़कर अपने यहाँ ले जाते थे और उसके बाद बाजारों में उनको बेच आते थे। इस प्रकार जो निर्धन और असहाय राजपूत खरीदे और बेचे जाते थे, उनकी संख्या राजस्थान में बहुत अधिक हो गयी थी और उन लोगों की जो संतान पैदा होती थी, वह गोला के नाम से प्रसिद्ध हुई। इन गुलाम राजपूतों को गोला और उनकी स्त्रियों तथा लड़कियों को गोली कहा जाता था। इन गोला लोगों में राजपूत, मुसलमान और अनेक दूसरी जातियों के लोग पाये जाते हैं।
बाजारों में उन सबका क्रय और विक्रय होता है। बहुत से राजपूत सामन्त इन गोला लोगों की अच्छी लड़कियों को अपनी उपपत्नी बना लेते हैं और उनसे जो लड़के पैदा होते हैं, वे सामन्तों के राज्य में अच्छे पदों पर काम करने हेतु नियुक्त कर दिये जाते हैं। देवगढ़ का स्वर्गीय सामन्त जब उदयपुर राजधानी में आया करता था तो उसके साथ तीन सौ अश्वारोही गोला सैनिक आया करते थे। उन सैनिकों के बायें हाथ एक-एक साने का कडा होता था । जैसा कि राजस्थान का इतिहास नामक पुस्तक में लिखा है कि इन्हें अच्छे पदों पर काम करने के हेतु नियुक्त किया जाता था और history of Rise of Mohammadan में भी लिखा कि मुगल काल में ये शक्तिशाली होने लगे तब इन्होंने सत्ता के लिए लड़ना प्रारम्भ कर दिया जैसा कि ऐतिहासिक ग्रंथो में ऐसे राजाओं के प्रमाण मिल जायेंगे जो जीवन भर सत्ता के लिए लड़ते रहे जैसा कि कर्नल टॉड की किताब राजस्थान का इतिहास में कन्नौज और अनहिलवाडा के राजाओं ने सत्ता के लिए पृथ्वीराज चौहान को शक्तिहीन करने के लिए गजनी के शाहबुद्दीन को आमंत्रित किया !
और अजीत सिंह ने सत्ता के लिए राजा दुर्गादास राठौर को राज्य से निष्कासित करवा दिया।
राणा सांगा के बड़े भाई पृथ्वीराज के दासी पुत्र बनवीर ने सत्ता के लिए विक्रमादित्य की हत्या करवाई... इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा की एक पुस्तक में प्रताप सिंह द्वारा सत्ता के लिए जगपाल को मारने का उल्लेख मिलता है।
पृथ्वीराज उड़ाना और राणा सांगा के मध्य सत्ता के लिए खुनी झगड़ा होने का ऐतिहासिक पुस्तको में जिक्र मिलता है और इसी झगड़े में राणा सांगा अपनी एक आँख और हाथ खो देते है और पृथ्वीराज उड़ाना को मरवा देते है।
कैसे सत्ता के लिए राजकुमार रणमल राठौर राणा मोकल को रेकय से निकलवा देता है और राणा राघव देव की हत्या करवा देता है!!
ऐसे करके ये सत्ता में बने रहे और इनकी वित्तीय स्थिति काफी मजबूत हो गयी...
भावार्थ:-कलयुग में जिसके पास धन होगा,उसी को लोग कुलीन,सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे।जिसके हाथ में शक्ति होगी वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा।
राजपूतों ने मुगलों को तो अपनी बेटियाँ दीं राजसत्ताओं के लालच में क्यों कन्या अथवा स्त्री इनके लिए भोग के ही साधन थे हिन्दु स्मृति- ग्रन्थों को आधार मानकर स्त्रियों के प्रति तत्कालीन पुरोहित और राजपूत समाज का दृष्टि कोण  समतामूलक नहीं था लैंगिक स्तर पर स्त्री का बजूद सन्तान उत्पादिका और उपभोग हेतु था।
जब राजपूत और राजपूताना के इतिहास पर चर्चा होती है तो उस काल मे राजपूत शासकों के आश्रित एवं स्वतन्त्र रूप से लिखी गई ख्यातों से तमाम ऐतिहासिक साक्ष्य लिए जाते हैं ।
तथा उनकी पुष्टि करण हेतु अन्य स्रोतों से साम्य करने के बाद उसे इतिहास की शक्ल या प्रारूप दिया जाता है। 
ऐसी ही एक ख्यात का ज़िक्र लेखक और पत्रकार नज़ीर मलिक साहब के हरा ले की जानिब से है जिसमें राष्ट्रकवि "रामाधारी सिंह दिनकर" ने अपनी पुस्तक 
"संस्कृति के चार अध्याय' के पृष्ठ संख्या 232-33 पर दिया है , जिससे पता चलता है कि मुगलों की इच्छा के बाद भी उनकी लड़कियाँ राजपूतों से क्यों नही ब्याही जा सकीं, जब कि राजपूतों की लड़कियां मुगकों के घर आती रहीं।
स्वर्गीय दिनकर जी ने राजस्थान की प्रसिद्ध ख्यात "वीर विनोद" के हवाले से लिखा है कि जब हुमायूँ  अचानक सूरी से हार कर ईरान में शरण लिए हुए था तो एक दिन शेरशाह ने ईरान में हुमायूं से पूछा कि मुगल अपनी बेटियों की शादियां हिन्दुस्न की किसी वीर जाति से की है या नहीं।  
इस पर मुगल शासक हुमायूँ ने बादशाह से कहा कि पठान तो हमारे शत्रु हैं,  और राजपूत हमसे बेटी लेंगे नहीं।  
ये बात हुमायूँ को खटक रही  थी अतः मरने से पूर्व उसने अकबर को आदेश दिया कि वह राजपूतों से दोस्ती करने के लिए उससे रोटी-बेटी का सम्बंध बनाने का प्रयास ज़रूर करे। 
हुमायूँ की इसी वादीयत के मुताबिक अकबर ने कई राजपूत सरदारों से कहा कि वे मुगलों की बेटी से शादिया करें। 
लेकिन अकबर का यह प्रस्ताव राजपूत सरदारों के गले नही उतरा। 

राजपूतों का विचार था। कि अगर उन्होंने मुगल शहज़ादियों से शादियां की तो हिन्दू शास्त्र के अनुसार वे सब भ्रष्ट हो जाएँगे और मुसलमान मान लिए जाएँगे। 

"इसलिए आपस मे सोच विचार कर उन्होंने निर्णय लिया कि राजपूत भले अपनी बेटी मुगलों को व्याह कर उसे त्याग देंगे मगर वे मुगलों की बेटी नही लाएंगे। 
सन्दर्भ- (वीर विनोद, द्वितीय खंड, भाग एक, पृष्ठ 170 की पाद टिप्पणी से )

वीर विनोद नामक ख्यात में लिखी बात की पुष्टि करते हुए राजपूतों की वीरता और वफादारी पर कुछ और भी लिखा है जिसे अकबरकालीन किताब "महसिरुल उमरा" से लिया है।

इन बातों से पता चलता है कि मुगलो की ज़्यादातर शहजादियाँ कुँवारी क्यों राह जाती थी ? दूसरी बात यह कि तत्कालीन हिन्दू धर्म पर बंदिशें कितनी सख्त थीं कि वहाँ किसी मुलिम को हिन्दू धर्म मे शामिल करने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।                                                  जबकि हिन्दू मुस्लिम तो बन सकता था ।
सती प्रथा बालकन्याविवाह आदि कुप्रथाऐं उपभोगात्मक और निज भोगारक्षण को दृष्टि गत करके बनायी गयी थीं ।
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16वीं शताब्दी के मध्यकालीन समय के बाद, कई राजपूत शासकों ने मुगल सम्राटों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए और विभिन्न क्षमताओं से उनकी सेवा की। राजपूतों के समर्थन के कारण ही अकबर भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखने में सक्षम हुआ था।राजपूत रईसों ने अपने राजनैतिक उद्देश्यों के लिए मुगल बादशाहों और उनके राजकुमारों से अपनी बेटियों की शादी करवाई थी।

 उदाहरण के लिए, अकबर ने अपने लिए और अपने पुत्रों व पौत्रों के लिए 40 शादियां सम्पन्न कीं, जिनमें से 17 राजपूत-मुगल गठबंधन थे। मुगल सम्राट अकबर के उत्तराधिकारी, उनके पुत्र जहाँगीर और पोते शाहजहाँ की माताएँ राजपूत थीं।

मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत परिवार ने मुगलों के साथ वैवाहिक संबंधों में नहीं जुड़ने को सम्मान की बात बना दिया और इस तरह से वे अन्य सभी राजपूत कुलों से विपरीत खड़े रहे थे।

इस समय के पश्चात राजपुतों और मुगलों के बीच वैवाहिक संबंधों में कुुछ कमी आई।

राजपूतों के साथ अकबर के संबंध तब शुरू हुए थे जब वह 1561 में आगरा के पश्चिम में सीकरी के चिस्ती सूफी शेख की यात्रा से लौटा था। तभी बहुत राजपूत राजकुमारियों ने अकबर से शादी रचाई थी।

राजपूत-मुग़ल वैवाहिक संबंधों की सूची-

मुख्य राजपूत-मुग़ल वैवाहिक संबंधों की सूची

  • जनवरी 1562, अकबर ने राजा भारमल की बेटी से शादी की. (कछवाहा-अंबेर)
  • 15 नवंबर 1570, राय कल्याण सिंह ने अपनी भतीजी का विवाह अकबर से किया (राठौर-बीकानेर)
  • 1570, मालदेव ने अपनी पुत्री रुक्मावती का अकबर से विवाह किया. (राठौर-जोधपुर)
  • 1573, नगरकोट के राजा जयचंद की पुत्री से अकबर का विवाह (नगरकोट)
  • मार्च 1577, डूंगरपुर के रावल की बेटी से अकबर का विवाह (गहलोत-डूंगरपुर)
  • 1581, केशवदास ने अपनी पुत्री का विवाह अकबर से किया (राठौर-मोरता)
  • 16 फरवरी, 1584, राजकुमार सलीम (जहांगीर) का भगवंत दास की बेटी से विवाह (कछवाहा-आंबेर)
  • 1587, राजकुमार सलीम (जहांगीर) का जोधपुर के मोटा राजा की बेटी से विवाह (राठौर-जोधपुर)
  • 2 अक्टूबर 1595, रायमल की बेटी से दानियाल का विवाह (राठौर-जोधपुर)
  • 28 मई 1608, जहांगीर ने राजा जगत सिंह की बेटी से विवाह किया (कछवाहा-आंबेर)
  • 1 फरवरी, 1609, जहांगीर ने राम चंद्र बुंदेला की बेटी से विवाह किया (बुंदेलाओर्छा)
  • अप्रैल 1624, राजकुमार परवेज का विवाह राजा गज सिंह की बहन से (राठौर-जोधपुर)
  • 1654, राजकुमार सुलेमान शिकोह से राजा अमर सिंह की बेटी का विवाह(राठौर-नागौर)
  • 17 नवंबर 1661, मोहम्मद मुअज्जम का विवाह किशनगढ़ के राजा रूप सिंह राठौर की बेटी से(राठौर-किशनगढ़)
  • 5 जुलाई 1678, औरंगजेब के पुत्र मोहम्मद आजाम का विवाह कीरत सिंह की बेटी से हुआ. कीरत सिंह मशहूर राजा जय सिंह के पुत्र थे. (कछवाहा-आंबेर)
  • 30 जुलाई 1681, औरंगजेब के पुत्र काम बख्श की शादी अमरचंद की बेटी से हुए(शेखावत-मनोहरपुर)[13][14][15]

सन्दर्भ★-

  1.  Richards, John F. (1995). The Mughal Empire. Cambridge University Press. पपृ॰ 22–24. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-521-25119-8.
  2.  Bhadani, B. L. (1992). "The Profile of Akbar in Contemporary Literature". Social Scientist20 (9/10): 48–53. JSTOR 3517716डीओआइ:10.2307/3517716.
  3.  Chaurasia, Radhey Shyam (2002). History of Medieval India: From 1000 A.D. to 1707 A.D. Atlantic Publishers & Dist. पपृ॰ 272–273. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-269-0123-4.
  4.  Dirk H. A. Kolff 2002, पृ॰ 132.
  5.  Smith, Bonnie G. (2008). The Oxford Encyclopedia of Women in World History. Oxford University Press. पृ॰ 656. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-19-514890-9. मूल से 2 सितंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 जुलाई 2020.
  6.  Richards, John F. (1995). The Mughal Empire. Cambridge University Press. पृ॰ 23. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-521-56603-2. मूल से 16 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 जुलाई 2020.
  7.  Lal, Ruby (2005). Domesticity and Power in the Early Mughal World. Cambridge University Press. पृ॰ 174. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-521-85022-3.
  8.  Vivekanandan, Jayashree (2012). Interrogating International Relations: India's Strategic Practice and the Return of History War and International Politics in South Asia. Routledge. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-136-70385-0.
  9.  Hansen, Waldemar (1972). The peacock throne : the drama of Mogul India (1. Indian ed., repr. संस्करण). Delhi: Motilal Banarsidass. पपृ॰ 12, 34. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-0225-4.
  10.  Barbara N. Ramusack 2004, पृ॰प॰ 18–19.
  11.  Chandra, Satish (2007). Medieval India: From Sultanat to the Mughals Part-II. Har Anand Publications. पृ॰ 124. मूल से 23 दिसंबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 जुलाई 2020.
  12.  David O. Morgan, Anthony Reid, (2010). The New Cambridge History of Islam: Volume 3, The Eastern Islamic World, Eleventh to Eighteenth Centuries. Taylor and Francis. पृ॰ 213.
  13.  "मुगल नहीं राजपूत थे शाहजहां, ताज पर सवाल क्‍यों?"News18India. 2017-11-01. मूल से 14 मई 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-07-12.
  14.  "राजपूत मां का बेटा शाहजहां सिर्फ़ मुसलमान कैसे"News18India. 2017-10-30. मूल से 11 जुलाई 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-07-12.
  15.  "पद्मावती : जिनके लिए लड़ रहे हो वो तो आपस में मौज से रहते थे"iChowk.in. 2017-11-26. अभिगमन तिथि 2020-07-12.
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 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई | पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 151 |