रविवार, 6 नवंबर 2022

ईशावास्य उपनिषद्

ईशावास्य उपनिषद् 

मंत्र_नौ

नौवें से ग्यारहवें इन तीन मंत्रों में अविद्या और विद्या की बात की गई है। परंतु समस्या यहां यह है कि अविद्या और विद्या से अभिप्रेत क्या है यह स्पष्ट नहीं किया गया है। अतः लोगों ने अपनी अपनी रुचि के अनुसार विद्या और अविद्या शब्दों के अर्थ लगाए हैं।

शंकर, उबट, महीधर आदि प्राचीन भाष्यकार अविद्या का अर्थ कर्मकांड (हवन, यज्ञ, अग्निहोत्र आदि ) करते हैं और विद्या का अर्थ आत्मज्ञान बताते हैं। मंत्र में कहा गया है कि जो अविद्या की उपासना करते हैं, वे घोर अंधकार में प्रवेश पाते हैं और जो विद्या में रत रहते हैं वे उस से भी अधिक अंधकार में प्रवेश करते हैं। (मंत्र 9) यह कर्मकांड और आत्मज्ञान के दो विरोधी शिविरों की निरर्थकता की घोषणा है। दोनों ही मार्ग अंधकार में ले जाते हैं- यही मंत्र का सरलार्थ प्रतीत होता है: अविद्या के अनुयायी (हवन, यज्ञ आदि कर्मकांड करने वाले) घोर अंधेरे में और विद्या में रत अर्थात् आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान आदि के अनुयायी और भी ज्यादा घोर अंधेरे में जाते हैं। न कर्मकांड सार्थक है, न ही तथाकथित आत्म ज्ञान या ज्ञानमार्ग, वेदमंत्रकार व उपनिषत्कार अंधेरे से बहुत डरते हैं। तीसरे मंत्र में भी इसी अंधेरे की बात है, अर्थात् इस उपनिषद् के 18 मंत्रों में से तीन में 'अंधेरा' ही 'अंधेरा' है।

मंत्र_दस व ग्यारह : पूर्ण भूतकाल

यह दावा किया जाता है कि वेद ईश्वर ने सृष्टि के आदि में रचे थे; परंतु वेद के मंत्र खुद इस दावे को मुंह चिढ़ा रहे हैं। उपनिषद् का दसवां मंत्र यजुर्वेद का 13वां मंत्र है। इस में कहा गया है कि विद्या का फल और है तथा अविद्या का फल और है-ऐसा हम ने बुद्धिमानों से सुना था, जिन्होंने इन चीजों की हमारे प्रति व्याख्या की थी — 

अन्यदेवाहुर्विद्ययान्यदाहुरविद्यया,
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे। (10)

इस मंत्र में (शुम) और 'विचचक्षिरे' शब्द लिट्लकार के रूप है। लिट् पूर्ण भूतकाल (perfect past tense) है। यह अति प्राचीनकाल का बोध कराता है। अतः, इस का प्रयोग अतिप्राचीन भूतकाल के वर्णनात्मक प्रसंगों में ही होता है। पाणिनि ने कहा है कि लिट्लकार परोक्ष भूत में हुई घटना का सूचक है - परोक्षेलिट् (अष्टाध्यायी, 3-2-115 )। यहां एक ही पंक्ति में दो बार लिट् का प्रयोग किया गया है: जिन्होंने व्याख्या की थी (विचचक्षिरे ), उन से सुना था ( शुश्रुम); यानी वेद के इस मंत्र का रचयिता अपने अतीत की, वर्षों पहले की बात बता रहा है कि हम ने इस की व्याख्या करने वालों से सुना था।

यह वाक्य न तो 'ईश्वर' का हो सकता है, न सृष्टि के शुरू का यह कथन तब का है जब बुद्धिमान विद्याअविद्या की व्याख्या किया करते थे। मंत्रकार ने उन्हें कभी वर्षों पहले सुना था और आज मंत्र रचते समय वह उस भूतकाल में सुनी व्याख्या की ओर संकेत कर रहा है। स्पष्ट है, जब मंत्रकार ने यह मंत्र रचा तब सृष्टि को बने वर्षों बीत चुके थे। यदि वेद सृष्टि के शुरू में ईश्वर द्वारा दिए गए होते तो यह मंत्र यजुर्वेद में कभी हो ही नहीं सकता था। यह तो बना ही सृष्टि के वर्षों बाद है और पूर्व प्राप्त किए ज्ञान व अनुभव को व्यक्त किया है। इस से स्पष्ट है कि वेद न ईश्वर रचित हैं और न वे सृष्टि के शुरू में दिए गए। वे आम कवियोंऋषियों की रचनाएं हैं जिन में उन के अनुभव, कामनाएं, ज्ञान, जैसा तब उन को हो सकता था, आदि वर्णित हैं। 

समझौते_का_प्रयास

जब अविद्या भी कुएं में गिराती है और विद्या भी, तब दोनों दुकानें बंद होंगी ही।

अतः दोनों ने अपनेअपने स्वार्थों की रक्षा के लिए समझौता करने का यहां प्रयास किया कि जो दोनों को एक साथ जानता है, जो दोनों दुकानों से एक साथ सौदा खरीदता है, जो दोनों नावों पर एक साथ चढ़ता है, वह 'अविद्या से मृत्यु को पार करता है और विद्या से अमृतत्व (अमरत्व ) को प्राप्त करता है'- 

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते। ( 11 )

यदि अविद्या से ही मृत्यु को पार किया जा सकता है, तब अमरत्व तो प्राप्त हो ही गया। ऐसे में विद्या को साथ लेना क्या एकदम फालतू व व्यर्थ नहीं? यह विद्या अतिरिक्त बोझ केवल दोनों दुकानों को एक साथ चलती रखने के लिए लादा गया है। यहीं सांठगांठ का सारांश निहित है।

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