सोमवार, 7 दिसंबर 2020

साध्य है अन्त:करण शुद्धि मन चित अहंकार और निर्मल बुद्धि !

मनुष्य की जितनी पूजा, भजन ,तपस्या और साधना है वह केवल अन्त:करण शुद्धि के साधन मात्र हैं जैसे दर्पण को स्वच्छ करने पर प्रकाश स्वत: ही परावर्तित होेने लगता है 
ठीक उसी प्रकार सत्य ज्ञान रूपी प्रकाश मन दर्पण पर परावर्तित  होने लगता  है ! 
 महावीर बुद्ध और कबीर आदि जितने भी साधक हुए सबने यही उपक्रम  किया 

ये सभी साधन मनुष्य में पात्रता ही उत्पन्न करते हैं 
अन्यथा इनकी क्या उपयोगिता है यदि पूजा भजन और साधना करने  या गंगा आदि के नहाने से अन्त: करण का शुद्धि करण ही न हो तो ये सब मूर्खता पूर्ण आचरण ही हैं ! भार ही हैं जिनका कोई औचित्य नहीं 

जब व्यक्ति पात्र अर्थात् अन्त:करण चतुष्टय ( मन बुद्धि अहंकाऱ और चित से शुद्ध हो जाता है)  तो उसे अपूर्णता का एहसास  कभी नहीं होता है और इच्छाऐं ही 
अपूर्णता का एहसास कराने वाली मनो तरंगे हैं 
 ये अपूर्णता से प्रेरित मन के आवेग- संवेग है  ! 
इच्छाओं के संवेग ही अन्त:करण को धूमिल करने वाला धुँआ हैं ! 
 
और इस संसार लक्ष्मी या दौलत उपलब्ध हो जाने पर इच्छाऐं उमड़ने ही लगती हैं 
लक्ष्मी का एक नाम कामिनी भी है और कामना इसकी पुत्री और काम इसका पुत्र है 
जहाँ कामना होगी वहाँ काम का आवेग भी होगा 
कामनाऐं साँसारिक उपभोग की पिपासा या प्यास ही हैं 

कामनाओं के आवेग ही संसार रूपी सिन्धु की उद्वेलित लहरें हैं 
इनके आवेगों  से उत्पन्न मोह के भँवर और लोभ के गोते भी मनुष्य को अपने आगोश में समेटते  और अन्त में मेटते ही हैं !

अन्त: करण चतुष्टय में अहंकार का शुद्धिकरण होने का अर्थ है उसका स्व के रूप में परिवर्तन स्व ही आत्मसत्ता की विश्व व्यापी अनुभूति है 
और जब यही सीमित और एकाकी हो जाती है तो इसे ही अहंकार कहा जाता है 
और यही अहंकार क्रोधभाव से समन्वित होकर संकल्प को उत्पन्न करता है और संकल्प से इच्छा का जन्म होता है 
यही इच्छा अज्ञानता से प्रेरित संसार का उपभोग करने के लिए उतावली होकर जीव को अनेक अच्छे बुरे कर्म करने को वाध्य करती है !

यही  प्रवृत्तियों के साँचे में इच्छाऐं अपने को ढाल लेती हैं 
अहंकार से संकल्प की उत्पत्ति और यही संकल्प संवेगित होकर इच्छा का रूप धारण करता है ...
और इच्छाऐं अनन्त होकर कभी तृप्त न होने वाली हैं 

सब कुछ उपभोग करने बाद भी हम आज भी हम सब अकिंचन  या अभाव ग्रस्त  ही  हैं 

इसी लिए मेरी कभी भी ये इच्छा नहीं रही की मेरे पास अकूत सम्पत्ति हो 
हाँ अपनी कुछ भौतिक आवश्यकताओं की सिद्धि का साधन धन अवश्य माना 
और जो केवल लोक मान्यता से ही समाज में  मान्य है 

ये सांसारिक सम्पत्तियाँ आपत्तियों का कारण ही बनती हैं 
बुद्धिमानी यही है कि साँसारिक इच्छाओं को संतुलित करते हुए मनुष्य ज्ञान पूर्वक भक्ति का आश्रय ले 
क्यों कि जीवन को जानना ही परम लक्ष्य है ! 

अर्थात् मौलिक भौतिक आवश्यकताओं की आपूर्ति का साधन ही धन है .
और केवल उसी धन तक अपना पुरुषार्थ करे 
परन्तु पारलौकिक यात्रा में सद्कर्म अथवा आध्यात्मिक ज्ञान ही सिद्धिदायक है 

इच्छाओं की धारा में मनुष्य दु:ख सुख का मन से अनुभव करता है 
सुख मिलते दु:ख होत है और दु:ख मिले सुख होत
अन्त में केवल दु:ख मिले तो जाते हैं सब रोत !!

परन्तु आनन्द का कोई सापेक्षिक भाव नहीं ये आत्मा की मौलिकता और हृदय की अनुभूति है 
और यहाँ सारे द्वन्द्वात्मक भेद तिरोहित हो जाते हैं 
व्यक्ति के आनन्द के श्रोत उसके अन्त:करण की शुद्धता है सभी सदाचरण और आध्यात्मिक उपकरण मात्र अन्त:करण की शुद्धता के लिए ही हैं !

पात्रता का तात्पर्य अधिकारी होना है और जो कर्तव्य को ईश्वर में समर्पण करते हुए करता है तो वह निष्काम कर्म करने से कभी कर्म के द्वन्द्वात्मक फल का भागी और भोगी नहीं होता है 

अधिकारी का तात्पर्य ही कर्तव्य का पालन करने वाला है ...
दुनियाँ की सारी समस्याऐं तब खड़ी होती हैं जब हम कर्तव्य  छोड़ कर केवल अधिकार की ही बात करते रहते हैं ..
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श्रृद्धेय गुरु सुमन्त कुमार यादव के आशीर्वाद से 
आध्यात्मिक बन्धु अभिषेक चौहान(गुर्जर) कासगंज वालों की वैचारिक संगत से प्रेरित 
ये उद्गार ....

यादव योगेश कुमार रोहि

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