"नाहं देवो न गन्धर्वो न यक्षो न च दानवः" का अर्थ है कि मैं न तो देव हूँ, न गंधर्व, न यक्ष और न ही दानव हूँ। यह एक प्रसिद्ध कथन है जो भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया है।
जब गोप उन्हें उनके वास्तविक स्वरूप के बारे में उन्हें पूछते हैं। इस कथन में श्रीकृष्ण स्वयं को एक साधारण अहीर बालक बताते हैं, जो उन्हें गोपियों के लिए अपना निकटतम बंधु और मित्र के रूप में स्वीकार करने का आह्वान करता है।
कथन का संदर्भ:
यह कथन ब्रह्मपुराण व विष्णुपुराण से लिया गया है।
जब गोप श्रीकृष्ण से उनके बारे में पूछते हैं कि क्या वह कोई देवता, दानव, यक्ष, गंधर्व या कोई अन्य उच्च शक्ति हैं, तो वह कहते हैं कि वह इनमें से कोई भी नहीं हैं, बल्कि उनके अपने प्रिय बंधु और एक सरल गोप ( अहीर) हैं।
इसका अर्थ यह भी है कि तैतीस कोटि देवों के बाद यक्ष और गंधर्वों का स्थान आता है, पर वे उनसे भी आगे के स्वरूप को प्रदर्शित करते हैं।
"गोपगणः ऊचुः
देवो वा दानवो वा त्वं यक्षो गन्धर्व एव वा।
किमस्माकं विचारेण बान्धवोस्मि नमोस्तु ते।।8।
"श्रीपराशर उवाच
क्षणं भूत्वा त्वसौ तूष्णीं किञ्चित् प्रणयकोपवान् ।
इत्येवमुक्तस्तैर्गोपैः कृष्णोप्याह महामतिः।।9।
-श्रीभगवान उवाच
मत्सम्बन्धेन वो गोपा यदि लज्जा न जायते ।
श्लाघ्यो वाहं ततः किं वो विचारेण प्रयोजनम् ।।10
यदि वोस्ति मयि प्रीतिः श्लाघ्योहं भवतां यदि ।
तदात्मबन्धुसदृशी बुद्धिर्वः क्रियतां मयि ।।11
नाहं देवो न गन्धर्वो न यक्षो न च दानवः ।
अहं वो बान्धवो जातो नैतच्चिन्त्यमित् अन्यथा ।।12
- श्रीविष्णु पुराण पञ्चमांश अध्याय-(13 ) 8 - 12
अनुवाद:-
श्रीकृष्ण के असामान्य गुण देखकर उनके साथी अहीर लोग विस्मित हैं । कृष्ण की लीला, विद्या और वीर्य से अहीर लोग चकित है । वे पूछतें हैं..
"भाई, कौन है आप ? देव है, दानव है, गन्धर्व है, यक्ष है? हमारा प्रणाम है आपको ।"
ये कहानी पराशर जी सुना रहे हैं । वे कहते हैं...
"गोपालों के यूँ पूछने पर श्रीकृष्ण क्षणभर चुप रहे । फिर प्रणयकोप से, यानि प्यार भरे गुस्से से, कृष्ण उत्तर देते हैं ।"
श्रीकृष्ण कहते हैं...
"मेरे और आपके सम्बन्ध से यदि आपको कोई लज्जा नहीं होती है, तो फिर मेरी प्रशंसा के बारे में विचार करने का क्या प्रयोजन है?
'यदि मुझमे आपको प्रेम दिखाई देता है, या प्रशंसा दिखाई देती है, तो ये केवल हमारा आत्म बन्धुत्व है ।
'ना मैं देव हूँ, ना गन्धर्व, ना यक्ष, ना दानव । बन्धु हूँ आपका । अब अन्य चिंता छोड दो ।
ब्रह्म पुराण में भी ठीक इसी प्रकार के समान श्लोक हैं।
सत्यं सत्यं हरेः पादौ श्रयामोऽमितविक्रम।
यथा त्वद्वीर्यमालोक्य न त्वां मन्यामहे नरम्।। १८९.५ ।।
देवो वा दानवो वा त्वं यक्षो गन्धर्व एव वा।
किं चास्माकं विचारेण बान्धवोऽस्ति नमोऽस्तु ते।। १८९.६ ।।
प्रीतिः सस्त्रीकुमारस्य व्रजस्य तव केशव।
कर्म चेदमशक्यं यत्समस्तैस्त्रिदशैरपि।। १८९.७ ।।
बालत्वं चातिवीर्यं च जन्म चास्मास्वशोभनम्।
चिन्त्यमानममेयात्मञ्शङ्कां कृष्ण प्रयच्छति।। १८९.८ ।।
व्यास उवाच
क्षणं भूत्वा त्वसौ तूष्णीं किंचित्प्रणयकोपवान्।
इत्येवमुक्तस्तैर्गोपैराह कृष्णो द्विजोत्तमाः।। १८९.९ ।।
श्रीकृष्ण उवाच
मत्संबन्धेन वो गोपा यदि लज्जा न जायते।
श्लाघ्यो वाऽहं ततः किं वो विचारेण प्रयोजनम्।। १८९.१० ।।
यदि वोऽस्ति मयि प्रीतिः श्लाघ्योऽहं भवतां यदि।
तदर्घा बन्धुसदृशी बान्धवाः क्रियतां मयि।। १८९.११ ।।
नाहं देवो न गन्धर्वो न यक्षो न च दानवः।
अहं वो बान्धवो जातो नातश्चिन्त्यमतोऽन्यथा।। १८९.१२ ।।
व्यास उवाच
इति श्रुत्वा हरेर्वाक्यं बद्धमोनास्ततो बलम्।
ययुर्गोपा महाभागास्तस्मिन्प्रणयकोपिनि।। १८९.१३ ।।
ब्रह्मपुराणम्/अध्यायः १८९