यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। लौकिक संस्कृत में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है। इसी लिए संस्कृत भाषा के कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं। जिससे यदु शब्द पुल्लिंग रूप में व्युत्पन्न होता है।
जैसे [संस्कृत भाषा में 'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल + उणादि प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर -पृषोदर प्रकरण के नियम से "जस्य दत्वं" अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द बनता है।
पाणिनीय व्याकरण में पृषोदरादीनि एक पारिभाषिक शब्द है।
पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' (६.३.१०८) इस पाणिनीय सूत्र से यज्- धातु के अन्तिम वर्ण "जकार को दकार" आदेश हो जाने से यदु शब्द बनता है।
यदु का अर्थ है - यजन करने वाला।
यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं।
यज् = १-यजन करना- २-न्याय (संगतिकरण) करना और ३-दान करना ।
विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक समावेश था।
वे हिंसा से रहित वैष्णव यज्ञ भी करते थे । सबका यथोचित न्याय भी करते थे। और दान के क्षेत्र में वे निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा प्रखर हो गयी थी । तभी तो भगवान श्रीकृष्ण ने
भागवत पुराण के एकादश स्कन्ध के सप्तम अध्याय में स्वयं उद्धव जी से कहा हैं -
'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ।३१।
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे।३१।
श्रीमद्भागवत पुराण स्कन्ध (11) अध्याय (7) श्लोक संख्या-(31)
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ऋग्वेद की एक ऋचा में इनके दान कर्म के लिए इन्हें वैदिक सन्दर्भ के प्राचीनत्तम दास शब्द से सम्बोधित किया गया है। दास का अर्थ वैदिक काल में "दाता " होता था। इसी सन्दर्भ में यदु और तुर्वसु की वैदिक ऋषि ने स्तुति और प्रशंसा भी की है।
जैसे ऋग्वेद की निम्नलिखित ऋचा में देखे-
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"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥
अनुवाद:- और वे दोनों दास ( दाता) कल्याण कारी दृष्टि वाले
स्नान आदि क्रियाओं से युक्त होकर नित्य गायों का पालन पोषण करते है और दान करते हैं हम उनकी स्तुति करते हैं। १०/६२/१०
"-भाष्य"
(स्मद्दिष्टी) =प्रशस्त कल्याण वा दर्शनौ दृष्टौ “स्मद्दिष्टीन्= कल्याण कारी दृष्टि वाले द्विवचन ।
प्रशस्तदर्शनान्” [ऋ० ६।६३।९] (गोपरीणसा)= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ = गायों से घिरे हुए वे दोंनो यदि और तुर्वसु। “परीणसा= बहुनाम” [ वैदिक शब्द निघण्टु में दासा द्विवचन में दाता का वाचक है। ३।१]
(दासा)= दातारौ “दासृ= दाने” [भ्वादि०] “दासं= दातारम्” [ऋ० ७।१९।२ ]
(उत )= अपि तस्य =ज्ञानदातुः (परिविषे) =स्नान-सेवायै योग्यौ भवतः “विष सेचने सेवायाम् च ” [भ्वादि०] (यदुः-तुर्वः-च एतयो: नाम्नो: गोपभ्याम् (मामहे)= स्तुमहे। ॥१०॥
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दासा शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक ( त्राता) है।
अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- न कि दास मध्यकालीन सन्दर्भ में !
क्यों वैदिक काल में घृणा शब्द दया का वाचक था तो आज घृणा का अर्थ नफरत है।
उपर्युक्त ऋचा पर सम्यग्भाष्य- निम्नलिखित है।
( १-“उत = अत्यर्थेच अपि च।
२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।
३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ
४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं।
पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना। अर्थ में है ।दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।
महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे" है।)
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता ( दानी ) के अर्थ नें चरितार्थ था।
परन्तु कई उतार चढ़ावों के बाद दास शब्द यह आज वैष्णव का वाचक हो गया ।
पद्मपुराण के भूमि खण्ड में दास वैष्णव का वाचक है।
देखें निम्नलिखित श्लोक-
' विष्णूवाच!
वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।
अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा
तुम मेरे भक्त हो!।७९।
"राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।
'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।
अनुवाद:- विष्णु ने कहा
! ऐसा ही हो ! तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं! अपनी पत्नी के साथ तुम मेरे लोक में निवास करो !।८१।
एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।
निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३।
और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८४।
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पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(B3)
इन ऋचाओं के भाष्य और अनुवाद से स्पष्ट होता कि यदु और तुर्वसु के लिए प्रयोग किया गया द्विवचन में दासा" शब्द दानी या दाताओं का वाचक है नकि
मध्यकालीन शूद्र के अर्थ दास शब्द का वाचक है।
क्यों कि ऋग्वेद. की उपर्युक्त ऋचा में यदि दासा शब्द शूद्र या असुर का वाचक होता तो मन्त्र दृष्टा ऋषि यदु और तुर्वसु की स्तुति या प्रशंसा नही करते।
ऋग्वेद की इसी दशवी ऋचा में प्रयुक्त ( गोपरीणसा) पद से यदु के गोप ( गोपालक. ) होने की भी पुष्टि होती है।।
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यदु की सन्तानों ने भी अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन किया- यदु से यादव शब्द सन्तान वाचक अण्- प्रत्यय लगने पर बनता है।
"यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द बनता है।
यदु + अण् । यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज- यादव लोग न्यायप्रिय, युद्धप्रिय और सबसे मेलजोल( संगतिकरण) करने वाले होते हैं।
वैदिक काल में यदुवंश में उत्पन्न राजा आसंग का प्रसंग उल्लेखनीय है।
अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभिः सहस्रैः ।
अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥३३॥ (ऋग्वेद-8/1/33)
पदपाठ-अध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ ।( दा॒स॒त् )। अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ ।अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥३३।
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(१-“अध =अपि च
२"प्लायोगिः= प्रयोगनाम्नः पुत्रः “आसङ्गः नाम राजा
३“दशभिः =दशगुणितैः “सहस्रैः सहस्रसंख्याकैर्गवादिभिः
४“अन्यान् =दातॄन् “
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५-अति “दासत्= अतिक्रम्य ददाति ।
६-“अध= अनन्तरम्
७-“उक्षणः = वृषभा: सेचनसमर्थाः “मह्यम् आसङ्गेन दत्ताः
८-“रुशन्तः= दीप्यमानाः “दश दशगुणितसहस्रसंख्याकास्ते गवादयः “नळाइव । नळास्तटाकोद्भवास्तृणविशेषाः । ते यथा “सरसः तटाकात् {संघशो} निर्गच्छन्ति तथैव मह्यं दत्ता गवादयोऽस्मादासङ्गात् "निरतिष्ठन् निर्गत्यावास्थिषत । एवमेवंप्रकारेण मां स्तुहीति मेध्यातिथिं प्रत्युक्तत्वादेतासां चतसृणामृचां {प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥
अनुवाद-
आसङ्ग यदुवंशी राजा सूक्त-दृष्टा मेधातिथि ऋषि को बहुत सारा धन देकर उन ऋषि को अपने द्वारा दिए गये दान के स्तुति करने के लिए प्रेरित करता है।
बहुव्रीहि समास-मेधा से युक्त हैं अतिथि जिनके वह मेधातिथि इस प्रकार-मेधातिथि ऋषि ।
आप हमारी ही प्रशंसा करो , प्रसन्न रहो उदासीनता मत करो।
निश्चित रूप से हम सब परिवारी जन और प्रयोग नाम वाले राजा के पुत्र आसङ्ग राजा दश हजार गायों के दान द्वारा अन्य दानदाताओं का उल्लंघन कर गायों का दान करता है।
दासा शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक ( त्राता) होता है।
अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- नकि 'दास' के आधुनिक सन्दर्भ में ! क्यों वैदिक काल में घृणा शब्द दया भाव का वाचक था तो आज घृणा का अर्थ नफ़रत है।
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यदु शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से यदु शब्द हिब्रू भाषा में यथावत् मिलता है।
जो कि हिब्रू क्रिया ( ידה) = यदा ) से सम्बन्धित है । जिसका अर्थ है - प्रशंसा करना -स्तुति करना।
इसी यदा क्रिया से संबंधित नाम हैं।
•यादा ( यादा ) : अबीहुद , अबीहूद , अहिहूद , अम्मीहूद , बाले- यहूदा , एहूद , एलियुद , होद , होदवियाह , होदिय्याह , ईशहोद , जद्दै , यदायाह , यदूतून , येहूदी , यहूदी , यहूदा , यहूदा , यहूदा , यहूदिया , जूडिथ आदि
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इस प्रकार यदु नाम के अनुरूप ही उसके अर्थ की सार्थकता भी सिद्ध होती है।
यदु यादवों के पूर्वज थे जिनका ऋग्वेद के दशम मण्डल में गोप रूप में वर्णन प्राप्त होता है। यदु विष्णु के यज्ञ पुरूष रूप का अंश थे। यदु शब्द का ही वैदिक अर्थ होता - यजनशील-अथवा यज्ञ करने वाला- ऋग्वेद में यदु को गायों से घिरा हुआ गोप रूप में निम्न ऋचा में देखें-
"उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दास( दाता) हैं जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दाताओं की प्रशंसा करते हैं । यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है; गो-पालक ही गोप होते हैं
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लक्ष्मी नारायणी संहिता में भी पद्मपुराण के समान ययाति की तृतीय पत्नी अश्रुबिन्दुमती को बिन्दुमती कह कर वर्णन किया गया है।
श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।
"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु ! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
"लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः ३ (द्वापरयुगसन्तानः अध्याय 73-)
यदु से पूर्व भी उनके आदि पूर्वज पुरूरवा से लेकर आयुष ,नहुष और ययाति भी सफल गोपालक ही थे । परन्तु यदु ने उस प्राचीन गोपालन की परम्परा को पूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ निर्वहन किया।
यदु प्रारम्भ से स्वराट्- विष्णु का यजन करने वाले थे। ये परम वैष्णव थे।
यदु शब्द का व्याकरण परक अर्थ- यज्ञ करने वाला होता है।
यदु की पत्नी यज्ञवती थी जो गोलोक में जो दक्षिणा और सुशीला नाम से प्रसिद्ध थीं। वही अपने अंश से भूलोक पर यज्ञवती हुई। कालान्तर में यदु से यज्ञवती के सहस्रजित , क्रोष्ठा ,नल ,और रिपु आदि पुत्र हुए ।
📚: "यादवों के पूर्वज यदु यज्ञतत्व के पूर्ण ज्ञाता थे। इसी लिए लोक में उन्हें यदु भी कहा गया। यदु वैष्णव यज्ञों के प्रवर्तक थे। इसके विपरीत जो देवयज्ञ होते थे वे पशु हिंसा से सने हुए और भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए इन्द्र आदि देवों के निमित्त किये जाते थे।
यदु की पत्नी का नाम यदु के नाम के अनुरूप यज्ञवती था जो गोलोक की एक गोपी थी। जिसका गोलोक नाम सुशीला वही कालान्तर में यज्ञपुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में अवतरित हुई।
यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होना का प्रकरण पौराणिक है।
देवीभागवतपुराण- स्कन्धः नवम -अध्याय (45-) तथा इसकी पुष्टि ब्रह्मवैवर्त्त महापुराण के द्वितीय प्रकृतिखण्ड के
बयालीसवें(४२) अध्याय से भी होती है।।
इस प्रकरण विस्तार पूर्वक वर्णन श्री कृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चं वर्ण " में किया गया है। ।
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