रविवार, 29 दिसंबर 2024

★-श्रीकृष्ण-चरित्रसाराङ्गिणी-★ अद्यतन संशोधित संस्करण- (भाग प्रथम)

 

    "श्रीकृष्ण साराङ्गिणी " 

                    विषय सूची
                   [छवि 118]
                   

                         अध्याय-   
१ - पूजा-अर्चना के विधि- विधान एवं गलत कथाओं को  सुनने व कहने के दुष्परिणाम।
   [क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
   [ख]-तेैतीस कोटि देवता में किसकी पूजा करें ?
   [ग] - श्रीकृष्ण की पूजा के लाभ।             
   [घ] - शिव पूजा के लाभ।     
   [ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।
   [च] - श्रीराम पूजा के लाभ।
   [छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।
   [ज] - श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?
   [झ] - गलत कथा कहने व सुनने के                            दुष्परिणाम।
   [ञ] - एक सच्चे गुरु की पहचान।
२- श्रीकृष्ण का स्वरूप एवं उनके गोलोक का वर्णन

३- श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नहीं है।

४-  गोलोक में गोप- गोपियों सहित- नारायण,शिव , ब्रह्मा आदि प्रमुख देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का - विस्तार

५- वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों मे मूलभूत अन्तर एवं विशेषताएं-
   [क] - वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति।
   [ख] - ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
   [ग ] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अंतर-
        [१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
        [२] यज्ञ मूलक एवं भक्ति मूलक अन्तर।
        [३] भेदभाव एवं समता मूलक अन्तर।

६-  वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व -
[१] गोपों का ब्राह्मणत्व (धर्मज्ञ होने )का कर्म-
    (क)- सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर( गोप) हैं।
    (ख)- अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
    (ग)- यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा का परिचय।
    (घ)- ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय।

[२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म।
[३] गोपों का वैश्य कर्म।
[४] गोपों का शूद्र कर्म।

७-  वैष्णव वर्ण के "गोपों" की पौराणिक - प्रशंसा
८-  भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण

९-  गोप, गोपाल, अहीर और यादव उपाधि धारक कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं, तथा इनका वास्तविक गोत्र वैष्णव है या अत्रि ?
     
१०- गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय -
        भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय।
        भाग-(२) श्रीराधा का परिचय।
        भाग-(३) पुरूरवा और उर्वशी का परिचय।
        भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का  परिचय।

११-  गोप जाति के यादव वंश का उदय एवं उसके प्रमुख
        सदस्यपति -
        भाग- (१) महाराज यदु का परिचय।
        भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
        भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज

१२-  यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक-गमन
       भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण के बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
     भाग- (२)- श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।

             (प्राक्कथन)  

पुस्तिका "श्रीकृष्ण- साराङ्गिणी" को लिखने का एक मात्र उद्देश्य श्रीकृष्ण के जीवन एवं उनके चरित्र-विषयक वार्तालाप के उपरान्त उत्पन्न हुए कुछ प्रश्नों तथा कुछ भ्रान्ति मूलक टिप्पणियों का सम्यक शास्त्रीय उत्तरों को त्वरित खोजकर  समाधान करना ही है।  इस उद्देश्य हेतु यह पुस्तिका एक सफल प्रयास है।

इस पुस्तिका का आकार न बहुत छोटा और न ही बहुत बड़ा इसलिए भी निर्धारित किया गया है, ताकि इसे आसानी से पाठकगण कहीं भी समाज में ले जाकर जनसाधारण को कृष्ण तथा उनके पारिवारिक सदस्य गोपों की उत्पत्ति तथा चरित्रों का बोध करा सके।
यह "श्रीकृष्ण- साराङ्गिणी" पुस्तिका वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण का शास्त्रीय कलेवर (शरीर) ही है। अत: इस भाव को मन में रखकर भक्त- गण इसे भगवान् श्रीकृष्ण के पूजा- स्थल पर रखकर श्रीकृष्ण की उपस्थिति का आभास भी कर सकते हैं। क्योंकि इसमें श्रीकृष्ण के जीवन के अद्भुत पहलुओं का शास्त्रोचित विधि से वर्णन किया गया है।

इस पुस्तिका के लेखन कार्य से लेकर श्रीकृष्ण  जीवन के सारगर्भित चरित्रों के चित्रों का शब्दांकन करने तक प्रेरणा श्रोत बनकर परम श्रद्धेय,सन्त हृदय गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज की मुख्य भूमिका रही हैं। जिनके आध्यात्मिक मार्गदर्शन में यह पुस्तक अपने बारह अध्यायों में श्रीकृष्ण के अतीव सार-गर्भित चरित्रों के साथ अपने नाम को सार्थक करती हुई परमेश्वर श्रीकृष्ण के ही चरणों में समर्पित है।

                          -:अनुनीत- विनीत :-
                              लेखक गण-
                       गोपाचार्य हंस- योगेशरोहि
                                    एवं
                       गोपाचार्य हंस- माता प्रसाद 


फोटो- [ १   ]    फोटो -[ २   ]   फोटो -[ ३   ]   लेखक-                    आत्मानन्द             लेखक-

              "श्रीकृष्णाय निवेदनम् "

________________________________
              "श्रीकृष्ण- अभ्यर्चना"  ________________________________               
'हे केशव  मया भवते  
         नमतो  भक्त्या  अर्प्यते।
यत्किमपि अस्मिन् भवे
         नमनानि तुभ्यं भगवते।।१।

अनुवाद:- हे केशव ! आपको  नमन करते हुए इस संसार में जो भी कुछ मेरा है वह सब मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किया जाता है। हे भगवन् मैं तुमको अनेकों नमन करता हूँ।१।

जड-जङ्गम चेतन स्थावरम् 
         आद्यन्ताश्च न्यूनञ्च पुरुम्।
अमूनि सर्वाणि  तवेव 
          त्वमेव सहर्षेण स्वीकुरु।।२।

अनुवाद :- जड़ -चेतन, चल-अचल , आदि-अन्त,
कम-ज्यादा, सब कुछ तुम्हारा ही है। उसे तुम सहर्ष स्वीकार करो।

ज्ञानपुञ्जं  प्रवासिकुञ्जम् 
            मुरलीमधुरं यत्र कदम्ब द्रुम।
गीतां पुनीतां सुवक्तारम् 
              अहं वन्दे कृष्णं जगद्गुरुम्।।३।।

अनुवाद :- ज्ञान के समुच्चय तथा कुञ्जों में रहने वाले, और कदम्ब वृक्ष के तले मधुर मुरली बजाने वाले, कुरुक्षेत्र में पवित्र गीता का वाचन करने वाले जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।३।

सर्वेचराचरेषु व्याप्नोसि ते सत्ता
           निर्गुणसगुणयोरुभयोर्रूपयोर्।
जानान्ति रहस्यं केशवस्य भक्ता:
          अन्वेषयति तु कर्मकाण्डेषु घोर:।।४।

अनुवाद :- हे केशव! आप की सत्ता समस्त चराचर (जड़-चेतन, संसार के सभी प्राणियों) में निर्गुण और सगुण दोनों रूप में व्याप्त हैं। आपके इस रहस्य को भक्त भली-भाँति जानते हैं। किंतु भयानक और मूढ़मति व्यक्ति आपको कर्मकाण्डों में खोजते है।४।

संसृत्यौ सिन्धौ शष्पिता सरणि।
          वयमाकृण्म भावोर्म्या सम्मध्यता:।
न मज्जेद् मम जीवनस्य तरणि"
          हे मोहन ! तर अत्र लोभमोहावृता:।।५।

भाष्य:- हे मोहन ! अयं आत्मा जगतः समुद्रे जीवनस्य नौकायां उपविष्टोऽयं समुद्रं तरितुं इच्छति; परन्तु अत्र कामलोभादिभावानां तरङ्गाः निरन्तरम् उदयमाना  एव भवन्ति।  हे मोहन !  अत एव जीवननौकाया  ​​मार्गोऽतीव क्लिष्टोऽभवत् । मा भूत् मम नौका तरङ्गजनितसक्तिलोभादिभ्रमणेषु मज्जति;  तस्मात् त्वं स्वयमेव एतां नौकां तरेत्।५।

अनुवाद:- -हे मोहन ! संसार रूपी सागर के जीवन रूपी नौका में बैठा हुआ यह जीवात्मा- इस सागर को पार करना चाहता है ; परन्तु यहाँ काम,लोभ आदि की भावना रूपी तरंगे निरन्तर उच्छलती रहती हैं। हे मोहन ! इसी कारण से जीवन रूपी नौका का मार्ग बड़ा जटिल हो गया हैं। मझधार में लहरों से उत्पन्न मोह-लोभ आदि के भँवरों में कहीं मेरी नौका डूब न जाय ; इसलिए आप ही इस नौका को पार करें।।५।
भावसाम्य-
उदाहरण-
"भव सागर है कठिन डगर है। 
         हम कर बैठे खुद से समझौते ! 
डूब न जाए जीवन की किश्ती । 
          यहाँ मोह के भंवर लोभ के गोते ।

                    ____
भगवान्- श्रीकृष्ण की औपचारिक पूजन -विधि-

यज्ञ और हवन के समय - उपर्युक्त  प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरान्त- 
ॐ श्रीकृष्णाय नमः 
प्रभो !  तुभ्यं निजभावंं नैवेद्यं समर्पयामि !

के साथ नैवेद्य अर्पित करें। किंतु ध्यान रहे उपर्युक्त पांचों मंत्रों को किसी पुरोहित से न पढ़वाया जाय और ना ही उनसे कुछ करवाया जाय क्योंकि इन मंत्रों को केवल कृष्ण भक्त गोप ही सिद्ध और सफल कर सकते हैं बाकी कोई नहीं।
[इसके बारे में विस्तृत जानकारी अध्याय- (१) के भाग-(२) में दी गई है पाठकगण वहां से अपने संशय का निवारण कर सकते हैं।]

(२)- सुबह-शाम श्रीकृष्ण  पूजा, आराधना, या आरती इत्यादि के समय भक्तिभाव से पांचों मंत्रों से श्रीकृष्ण का स्तवन स्वयं करें और प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरान्त "अहं सर्वस्यं श्रीकृष्णाय समर्पयामि" ( मैं श्रीकृष्ण को अपना सबकुछ समर्पित करता हूँ)  के साथ नमस्कार करें। यदि कोई भक्त संस्कृत श्लोक नहीं पढ़ सकता तो वह मंत्रों को भक्तिभाव से हिंदी अनुवाद को ही पढ़कर श्रीकृष्ण की आराधना व स्तुति कर सकता है। ऐसा करने से उसे कोई दोष नहीं होगा। किंतु ध्यान रहे फूल, पत्ते इत्यादि को ही उनके चरणों में रखें, बाकी खाद्यान्न इत्यादि पदार्थों को उनके चरणों पर कदापि न रखें। खाद्यान्न पदार्थों को किसी पात्र में रखकर प्रभु के अगल-बगल थोड़ा ऊपर ही रखें।   

ध्यान रहे ये सब क्रिया विधि मात्र एक औपचारिकता है। इसको करते समय किसी प्रकार का आडम्बर या भौकाल नहीं होना चाहिये। क्योंकि भगवान- भाव के ग्राही हैं क्रिया ग्राही नहीं। अर्थात् आप क्या कर रहे हैं कैसे कर रहे हैं उससे उनका कोई लेना देना नहीं है। सत्य तो यह है कि -
भक्त के द्वारा निःस्वार्थ भाव से- येन -केन प्रकारेण कुछ भी चढ़ाया गया पदार्थ वे सहर्ष स्वीकार कर ही लेते हैं।

(३)-  अगर भक्त के पास अर्पण के लिए मौके पर कुछ भी उपलब्ध नही है, तो भी वह श्रीकृष्ण की पूजा- अर्चना कर सकता है। इसके लिए भक्त को भक्तिभाव से मंत्रोच्चारण कर प्रभु की स्तुति करनी होगा। यहीं भक्ति की प्रारंभिक क्रिया है। ऐसा बार-बार करने से एक दिन श्रीकृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का भाव जागृत होगा। उसी दिन से वह प्रभु का सच्चा ज्ञानी भक्त हो जाएगा। तब उसके लिए चढ़ावा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रहेगा।
वह दिन-रात मस्त मगन होकर प्रभु का सुमिरन यों ही करता रहेगा। क्योंकि अब तो उसे परमेश्वर के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया है कि -
"
अर्थात् जब परमेश्वर बिना पैरों के चलता है, बिना कान के सुनता है, हाथ न होते हुए भी विभिन्न तरह के कार्य करता है अर्थात यहां बिना किसी कारण के ही कार्य हो रहा है।
तब परमेश्वर की भक्ति में तेरे-मेरे, अपना-पराया, विधि-विधान, मेरे या दूसरे द्वारा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रहइसीलिए कहा जाता है कि - परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल व आसान है। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में स्वयं कहे हैं कि -


पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।। (श्रीमद्भगवद्गीता)

 
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझ में तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात स्वीकार कर लेता हूं। २६ ।
      
  [क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।

समाज में एक कहावत प्रचलित है - "मांगो उसी से जो दे-दे खुशी से" अर्थात् कुछ पानें की अपेक्षा उसी से करनी चाहिए जो देने में सक्षम हो। ठीक यहीं बात अध्यात्म- जगत में भी लागू होती है कि पूजा या अर्चना उसी की करनी चाहिए जो सबकुछ देने में सामर्थ्यवान एवं सक्षम हो। अब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जगत में कौन ऐसा सामर्थ्यवान है जिससे मांगने पर सबकुछ मिल सकता ? तो इसका जवाब है "परमेश्वर"। तब फिर प्रश्न उठता है कि परमेश्वर कौन है ?
                    
तो इस प्रश्न का सही जबाब पाना असम्भव तो नहीं किंतु कठिन अवश्य है। क्योंकि शास्त्रों से लेकर जितने भी धर्मगुरु या धर्म प्रवर्तक हुए सभी ने अपने-अपने हिसाब से परमात्मा की विशेषताएं और परिभाषाएं निर्धारित की  हैं। जैसे -
१- कोई उसे नूर कहता है तो कोई उसे हुजूर कहता है।
२- कोई उसे निर्गुण माना, तो कोई उसे सगुण माना।
३- कोई उसे निराकार मानता है, तो कोई उसे साकार मानता है।
४- कोई उसे साकार और निराकार दोनों ही रूपों में मनता है।
५- तो कोई उसे निर्गुण और सगुण दोनों ही  मानता है।

इन उपरोक्त बातों पर यदि विचार किया जाय तो ये सभी बातें परमेश्वर को एक निश्चित दायरे में रखकर कही गई हैं कि- परमेश्वर निर्गुण हैं, सगुण हैं या दोनों हैं। किंतु परमेश्वर तो सीमाओं से परे अनंत गुणों वाले हैं। जिनका कोई आदि है न अंत है। वे स्थूल से भी स्थूलतम और सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम हैं। उनके लिए सगुण, निर्गुण, निराकार, साकार, निर्विकल्प, निर्लिप्त, प्रारंभ, अंत, अनंत, शून्य, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी इत्यादि जितना भी कहा जाय ये तो ये सब  बहुत कम ही विशेषण पद है।
             
तब प्रश्न उठता है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण ही सबकुछ हैं तो इस माया नगरी मे जहां अनेकों छद्म- भेषधारी अपनी कथाओं के माध्यम से (३३) करोड़ देवी-देवता को पूजने को कहते हों, और स्वयं को भी अपने भक्तों से पुजवाते हों, ऐसी विकट और आडम्बर पूर्ण व भ्रान्त स्थिति में अनंत गुणों वाले परमात्मा को कैसे पहचाना जाय कि यहीं परमप्रभु परमेश्वर हैं ?
              
( तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसी ग्रन्थ के अध्याय- (दो) और अध्याय (तीन) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि- परमप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण ही है। उनके अतिरिक्त और कोई परमेश्वर नहीं है। वहां से इस संबंध में विस्तार पूर्वक जानकारी प्राप्त कर सकते  हैं।)
                
फिर भी यहां पर उससे सम्बन्धित कुछ जानकारी अवश्य दी गई है कि- वास्तव में श्री कृष्ण ही परमप्रभु परमेश्वर हैं। उनको किसी एक गुण से नहीं जाना जा सकता। फिर भी यदि उसको  गुणों के आधार पर देखा जाए तो उनके अनंत गुण है। उसमें भी देखा जाए तो वे साकार, निराकार, निर्गुण, सगुण इत्यादि सबकुछ हैं।
                       
जहां तक उनको साकार और निराकार होने का प्रश्न है तो परमेश्वर प्रलय काल में निराकार रूप में रहते हैं किंतु जब वे सृष्टि करतें हैं तो साकार रूप में हो जाते हैं।
इस बात की पुष्टि- श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय-( ४ ) के श्लोक-( ७) में परमेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७।

            
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।
                 
इसी तरह से परमेश्वर को सगुण और निर्गुण इत्यादि होने के संबंध में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक- (१२ ) में भी लिखा गया है। जिसमें अर्जुन श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-

परं  ब्रह्म  परं  धाम  पवित्रं परमं भवान्।
पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।।१२।

             
अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२।
                
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म,
सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि पद-रूपों में तत्वज्ञानी लोग  परमेश्वर श्रीकृष्ण को जानते हैं।
                
परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप 
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७), और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन को अपने बारे में बताते हैं कि-

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।। १६।

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।। १७।

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। १८।
          

अनुवाद - क्रतु मैं हूं, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूं, औषधि मैं हूं, मंत्र मैं हूं, घृत मैं हूं, अग्नि मैं हूं, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूं। जानने योग्य पवित्र ॐकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूं। इस संपूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूं। (१६-१७-१८)

इसी तरह से श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक- ४२ में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि-

अथवा  बहुनैतेन  किं  ज्ञातेन  तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।४२।।


अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है?  मैं अपने किसी एक अंशसे  सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।

              
इस प्रकार से देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण ही सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है। बाकी- 33 कोटि देवी-देवता तो उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंश- भूत शक्तियां, कला और कलांश हैं। इन सभी बातों की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या (१७-१८)और (१९) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।।१७।

स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम् ।।१८।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।।१९।

                                     
अनुवाद- द्विभुजधारी, किशोरवय, गोपवेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है, वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं।१७।
• परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति- मुनि गणों के साथ करते हैं।१८।
• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षी रूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा हंसी और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।१९।
                  
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक- (४३) में भी लिखी गई है जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण को ही परमेश्वर इत्यादि कहा गया है।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।।४३।            

अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप  दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता और साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ।४३।
                   
कुछ इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय - (३०)के श्लोक- (६ )से (८) में भगवान श्री कृष्ण को परमप्रभु परमेश्वर बताया गया है। जिसमें मुनि नारायण, नारद को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराट विष्णु इत्यादि श्री कृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं -

चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः।
त्वं चापि नारद मुने परमादरेण सञ्चिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम् ।।६।

यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः।
कलाविशेषा भवपारमुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः।।७।

सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम् ।
कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः।।८।

                 
अनुवाद - जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर कौन समर्थ है ? तुम भी श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के चरणार्विंद का अत्यंत आदर पूर्वक चिंतन करो। ६।
•  नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान (श्रीकृष्ण) की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्माजी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।
•  सहस्र शिरों वाले शेषनाग संपूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण करते हैं। वो भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठ हो। वे भगवान कूर्म भी श्रीकृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं।८।
                    
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण- के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (६६) के श्लोक - (५६) में भी लिखी गई है। जो श्रीकृष्ण और राधा संवाद के रूप में है। जिसमें  श्रीकृष्ण राधा जी से अपने विषय में कहते हैं कि-

"अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।। ५६
                      

अनुवाद - उस विराट विष्णु के रोम कूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (शिव) आदि देवता, मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं। ५६।
                       
अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों से स्पष्ट होता है कि- परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण ही हैं। बाकी ३३ करोड़ देवी-देवता उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंशभूत शक्तियां हैं। उसमें भी जो तीन प्रमुख देवता- ब्रह्मा, विष्णु और महेश है, वो भी श्रीकृष्ण से उत्पन्न उन्हीं के कला और कलांश हैं।
        
[ख] -३३ कोटि देवता में किसकी पूजा करें ?
तब पुनः प्रश्न उठता है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण जो परिपूर्णतम परब्रह्म हैं, सर्व सामर्थ्यवान हैं, तो उनको छोड़कर मनुष्य (३३) करोड़ देवी- देवताओं की पूजा क्यों करता है ? तो इसका जबाब है "अज्ञानता"। क्योंकि मनुष्य इस माया नगरी में पाखंडवाद के भ्रम जाल में फंसकर यह भेद नहीं कर पाता कि परमेश्वर श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए या उनसे उत्पन्न (३३ ) करोड़ देवी-देवताओं की।

इसके साथ ही वह यह भी नहीं जान पाता कि- किस देवी देवों की पूजा करने से कौन सा लाभ और पद प्राप्त होता है। और जिस मनुष्य इस रहस्य को जान लिया समझो वह परमेश्वर को भी पहचान कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इसलिए परमेश्वर श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए।
               
परम-प्रभु श्रीकृष्ण की ही सर्वदा ध्यान व पूजा अर्चना करने की शिफारिश प्रमुख देवताओं ने भी की है।
जैसे -
शिवजी पार्वती को श्रीकृष्ण की ही आराधना करने को कहते हैं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खंड के अध्याय-(४८)के श्लोक संख्या- (४८) और (४९) में मिलता है। 
जो शिव पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि -

"आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।४८।

परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम्।४९।

अनुवाद-
• हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीट पर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८।
• केवल त्रिगुणातीत परमब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं। अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो।४९।

उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो  शिव जी स्वयं पार्वती को श्रीकृष्ण की आराधना करने को कहते हैं। और यह शिव वाणी है। क्या इससे भी बड़ी कोई वाणी ब्रह्माण्ड में हो सकती है ? जबाब होगा नहीं
          

इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- २१ के श्लोक- ४३ में भी लिखी गई है। जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।।४३।

              
अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता के साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ४३।

मगर सवाल यह है कि क्यों श्रीकृष्ण का ही ध्यान व आराधना करनी चाहिए ? क्या (३३) करोड़ देवी-देवताओं और उसमें भी शिव, विष्णु इत्यादि प्रमुख देवताओं के ध्यान व आराधना से कोई लाभ नहीं ? तो इसका जवाब है लाभ अवश्य है किंतु सीमित है। कहने का तात्पर्य यह है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होंगे तथा भूतों को पूजने वाला भूतों और प्रेतों को प्राप्त होगें और जो परमेश्वर को पूजता है वह परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राप्त होता है।  इस बात को गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता के अध्याय- ७ के श्लोक - २३ में स्वयं कहें हैं कि -
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।। २३।

अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन  देवताओं की आराधना का फल अंत वाला (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। २३।

ऐसी ही बात श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय- (९) के श्लोक संख्या- (२५) में भी लिखी गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन
से कहते हैं कि -

"यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।9.25।।
 

अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। २५
       
पुनः भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद् भागवत पुराण के अध्याय- १८ के श्लोक -६५ और  ६६ में कहते हैं कि -
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।। ६५।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। ६६।


 अनुवाद - ६५-६६
• तू मेरा भक्त हो जा, मुझ में मनवाला हो, तू मेरा पूजन करने वाला हो जा, और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जाएगा। यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूं, क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है।
• संपूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत कर।
              
और सबसे उचित  बात है कि- परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति भी बहुत ही सरल व आसान है। इस संबंध में भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में कहते हैं कि -

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।२६

अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूं अर्थात स्वीकार कर लेता हूं।२६।

 व्याख्या - देवताओं की पूजा- अर्चना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परंतु भगवान (श्री कृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेम ( भक्ति) की, और अपनेपन की प्रधानता है, किसी विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भावग्राही है क्रियाग्राही नहीं।

अन्ततोगत्वा श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- परमेश्वर श्रीकृष्ण की ही भक्ति, आराधना व ध्यान करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव है। इधर -उधर भटकने से नहीं।

तब ऐसे में यह जानना और आवश्यक हो जाता है कि भक्तों के लिए पूजा व आराधना का फल- परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित अन्य देवताओं का कितना होता है। तो इसका विस्तार पूर्वक वर्णन- श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय -(३०) में मिलता है। जिसमें परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित छोटे-बड़े सभी देव-देवताओं की पूजा अर्चना के लाभ व फलों को बड़े ही सारगर्भित ढंग से बताया गया है।
          
जिसमें सबसे पहले हम लोग श्रीकृष्ण पूजा के लाभों को जानेंगे उसके बाद अन्य देवताओं से मिलने वाले लाभों को जानेंगे।

श्रीकृष्ण भक्तों को उनकी पूजा से जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उसका वर्णन श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ६९ से ७०) और( ८५ से ८९) में मिलता है। जिसमें श्रीकृष्ण भक्तों के बारे में बताया गया है कि -

"करोति भारते यो हि कृष्णजन्माष्टमीव्रतम् ।
शतजन्मकृतं पापं मुच्यते नात्र संशयः॥६९।

वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश।
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य कृष्णे भक्तिंलभेद्‌ ध्रुवम्॥।७०।

अनुवाद - भारतवर्ष में जो मनुष्य श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह अपने सौ जन्मों में किये गये पापों छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है। और जबतक चौदहों इन्द्रों की स्थिति बनी रहती है, तब-तब वह वैकुण्ठलोक में आनन्द का भोग करता है। इसके बाद वह पुनः उत्तम योनि में जन्म लेकर निश्चित रूप से भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त करता है।६९-७०।
                   
यहां पर श्रीकृष्ण भक्तों से संबंधित उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत के उपरान्त पापों से मुक्त होकर दीर्घ काल के लिए गोलोक धाम को तो प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता क्योंकि वे दीर्घ काल के पश्चात पुनः मृत्युलोक में जन्म लेता है। 
अर्थात् वह अभी आवागमन से मुक्त नहीं हो सकता है। तब प्रश्न उठता है कि श्रीकृष्ण भक्त आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष को कैसे प्राप्त करेगा ? तो इसका जवाब इसके अगले श्लोक- (८५ से ८९) में दिया गया है, जिसमें  बताया गया है कि श्रीकृष्ण भक्तों को कैसे मोक्ष की प्राप्ति होगी।
'कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥८५।

शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्‍भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥ ८६।

गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्‌दृढाम्॥८७।

क्रमेण सुदृढांभक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो ।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥ ८८।

ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥८९।


अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है।
पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। 

तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा (बुढ़ापा) तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है।८५-८९।
               
यहां पर श्रीकृष्ण भक्तों से संबंधित उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्तों के लिए मोक्ष हेतु सबसे उत्तम साधन- "कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियोंको साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा करना ही है। यदि श्रीकृष्ण भक्त ऐसा करता है तो निश्चित रूप से भक्त श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होगा इसमें संदेह नहीं है।
           
किंतु देवी-देवताओं को पूजने वाले कभी नहीं मोक्ष को प्राप्त होते। क्यों नहीं होते ? तो इसको अच्छी तरह से समझने के लिए कुछ प्रमुख देवी-देवताओं के पूजन विधि और उसके लाभ को जानना होगा जैसे -         

(अध्याय- १
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               [घ] - शिव पूजा के लाभ। 

शिव भक्तों को जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उन सभी का वर्णन श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ७१ से ७५ ) में मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -

इहैव भारते वर्षे शिवरात्रिं करोति यः।
मोदते शिवलोके स सप्तमन्वन्तरावधि ॥७१।

शिवाय शिवरात्रौ च बिल्वपत्रं ददाति यः।
पत्रमानयुगं तत्र मोदते शिवमन्दिरे ॥ ७२।

पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य शिवभक्तिं लभेद्‌ध्रुवम् ।
विद्यावान्पुत्रवाञ्छ्रीमान् प्रजावान्भूमिमान्भवेत् ॥ ७३।

चैत्रमासेऽथवा माघे शङ्‌करं योऽर्चयेद्‌व्रती ।
करोति नर्तनं भक्त्या वेत्रपाणिर्दिवानिशम् ॥ ७४।

मासं वाप्यर्धमासं वा दश सप्त दिनानि च ।
दिनमानयुगं सोऽपि शिवलोके महीयते ॥ ७५।

शिवं यः पूजयेन्नित्यं कृत्वा लिङ्‌गं च पार्थिवम् ।
यावज्जीवनपर्यन्तं स याति शिवमन्दिरम् ॥ ११०।

मृदो रेणुप्रमाणाब्दं शिवलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य राजेन्द्रो भारते भवेत् ॥ १११।

               
अनुवाद - ७१-७५ और ११०- १११ तक
• इस भारतवर्ष में जो मनुष्य शिवरात्रि का व्रत करता है, वह सात मन्वन्तरों के काल तक शिवलोक में आनन्द से रहता है।७१
• जो मनुष्य शिवरात्रि के दिन भगवान् शंकर को बिल्वपत्र( बेलपत्थर) अर्पण करता है, वह बिल्वपत्रों की जितनी संख्या है उतने वर्षों तक उस शिवलोक में आनन्द भोगता है। पुनः श्रेष्ठ योनि प्राप्त करके वह निश्चय ही शिवभक्ति प्राप्त करता है और विद्या, पुत्र, श्री, प्रजा तथा भूमि- इन सबसे सदा सम्पन्न रहता है। ७२-७३।
• जो व्रती चैत्र अथवा माघ में पूरे मासभर, आधे मास, दस दिन अथवा सात दिन तक भगवान् शंकर की पूजा करता है और हाथ में बेंत लेकर भक्तिपूर्वक उनके सम्मुख नर्तन करता है, वह उपासना के दिनों की संख्या के बराबर युगों तक शिवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। ७४-७५।

• जो मनुष्य प्रतिदिन पार्थिव( मिट्टी) का लिंग बनाकर शिव की पूजा करता है और जीवन पर्यन्त इस नियमका पालन करता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है और वह पार्थिव लिंग में विद्यमान रजकणों की संख्या के बराबर वर्षों तक शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहां से पुनः भारतवर्ष में जन्म लेकर वह महान् राजा होता है। ११०- १११।
         
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाय तो शिव भक्त निश्चित रूप से शिवलोक को प्राप्त होता हैं। किंतु वह उस लोक तक नहीं पहुंच पाता जो शिवलोक से पचास करोड़ उपर है। जिसका नाम है "गोलोक" जो नित्य एवं चिरस्थाई है।

वहां जाने के बाद मनुष्य आवागमन से मुक्त अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। किंतु शिव भक्त शिवलोक तक ही रह जातें हैं और पुनः मृत्यु लोक में आकर जन्म लेते हैं- (कौन सा लोक कहां स्थापित हैं इसकी विस्तृत जानकारी अध्याय- (दो) में दी गई है।) 


           [ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।

श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय-(३०) के श्लोक- १०५ और १०६ में बताया गया है कि विष्णु की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौनसा स्थान व पद प्राप्त होता है ?

विद्वान्सुचिरजीवी च श्रीमानतुलविक्रमः ।
यो वक्ति वा ददात्येव हरेर्नामानि भारते ॥१०५।

युगं नाम प्रमाणं च विष्णुलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य स सुखी धनवान्भवेत् ॥ १०६।
                

अनुवाद- भारतवर्ष में जो मनुष्य भगवान श्री हरि (विष्णु) के नाम का स्वयं कीर्तन करता है अथवा इसके लिए दूसरों को प्रेरणा देता है वह जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है और वहां से पुनः इस लोक (मृत्युलोक) में आकर वह सुखी तथा धनवान होता है।१०५-१०६।
               
विष्णु भक्तों से संबंधित उपरोक्त श्लोकों पर विचार किया जाए तो विष्णु भक्त भी निश्चित रूप से विष्णुलोक को प्राप्त होता है और वह विष्णु के जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में निवास भी करता है। इसके बाद जब उसके जपे हुए नाम की संख्या पूरी हो जाती है तब उसे पुनः मृत्यु लोक में आना पड़ता है। अर्थात वह विष्णु लोक प्राप्त होने के बाद भी मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता है।
 "यहां पर कुछ लोगों को संशय हो सकता है कि विष्णु और श्रीकृष्ण एक ही है। किंतु ऐसी बात नहीं है क्योंकि श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश से विराट पुरुष (विराट विष्णु) और विराट विष्णु के एक अंश से अनंत विष्णु अनंत ब्रह्मांड में रहते हैं, जो श्रीकृष्ण के कुछ अंशों से श्रीकृष्ण का प्रतिनिधित्व किया करते हैं।       
**********
इस बात को कम ही लोग जानते हैं। इसी अज्ञानता के कारण है अधिकांश- कथावाचक और कुछ पुराण भी श्री कृष्ण को विष्णु से उत्पन्न बताते हैं जो ज्ञान की उल्टी धारा बहाने के समान है [कौन देवता कब, कैसे और कितने अंशों से उत्पन्न हुआ है इसकी विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (४) में दी गई है। 
वहां से इस विषय पर विस्तृत जानकारी ली जा सकती है]      


           [च] - श्रीराम पूजा के लाभ।

"श्रीराम" भक्तों के बारे में भी श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय -(३०) के श्लोक- (७६) और (७७) में बताया गया है कि श्रीराम की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?

श्रीरामनवमीं यो हि करोति भारते पुमान् ।
सप्तमन्वन्तरं यावन्मोदते विष्णुमन्दिरे॥७६ ॥

पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य रामभक्तिं लभेद्‌ध्रुवम् ।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो महांश्च धनवान्भवेत्॥७७॥


अनुवाद - जो मनुष्य भारतवर्ष में श्रीरामनवमी का व्रत सम्पन्न करता है, वह विष्णुके धाम में सात मन्वन्तर तक आनन्द करता है। पुनः उत्तम योनि में जन्म पाकर वह निश्चय ही रामकी भक्ति प्राप्त करता है और जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ तथा महान् धनी होता है। ७६- ७७।
                     
अब यहां पर श्री राम भक्तों पर विचार किया जाए तो श्रीराम भक्त भी निश्चित रूप से विष्णु लोक को प्राप्त होता हैं। किंतु वह पुनः मृत्युलोक में उत्तम योनि में जन्म लेता है और महाधनी होता है।
श्रीराम भक्तों के बारे में ऐसा ही श्लोक में लिखा गया है। किंतु यहां विचार किया जाए तो रामभक्त विष्णु लोक पहुंचे कर भी आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति तभी हो सकती है जब मनुष्य परम धाम गोलोक को प्राप्त होता है। जो सभी लोकों से उपर है। वहां जाने के बाद मनुष्य को पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।      
   
   ‌‌[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।

"देवी सावित्री और सरस्वती" जो दोनों ही ब्रह्मा जी की पत्नियां मानीं जाती हैं जिनकी उत्पत्ति पूर्व काल में श्रीराधा से ही हुई है। जिनका मुख्य स्थान ब्रह्मलोक है। उनके भक्तों के बारे में भी श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय -(३० ) के श्लोक- (९७ से ९९ ) में बताया गया है कि देवी सावित्री और सरस्वती की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?

"भारतं पुनरागत्य चारोगी श्रीयुतो भवेत् ।
ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां सावित्रीं यो हि पूजयेत्॥ ९६।

महीयते ब्रह्मलोके सप्तमन्वन्तरावधि ।
पुनर्महीं समागत्य श्रीमानतुलविक्रमः ॥ ९७।

चिरजीवी भवेत्सोऽपि ज्ञानवान्सम्पदा युतः ।
माघस्य शुक्लपञ्चम्यां पूजयेद्यः सरस्वतीम् ॥९८।

संयतो भक्तितो दत्त्वा चोपचाराणि षोडश ।
महीयते मणिद्वीपे यावद्ब्रह्म दिवानिशम् ॥ ९९।

                 
अनुवाद - ९६-९९
• जो मनुष्य ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को भगवती सावित्री का पूजन करता है, वह सात मन्वन्तरों की अवधि तक ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। पुनः पृथ्वी पर लौटकर वह श्रीमान अतुल पराक्रमी, चिरंजीवी, ज्ञानवान तथा सम्पदा सम्पन्न हो जाता है। ९६-९७।
• जो मनुष्य माघ महीने के शुक्लपक्ष की पञ्चमी
तिथि को भक्तिपूर्वक सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों को अर्पण कर सरस्वती को पूजा करता है, वह ब्रह्माके आयु पर्यन्त मणि द्वीप में दिन-रात प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और पुनः जन्म ग्रहण कर महान् कवि तथा पण्डित होता है।९८-९९।
            
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो ब्रह्मा जी की दोनों पत्नियों के भक्त ब्रह्मा जी के लोक अर्थात् ब्रह्मलोक को अवश्य प्राप्त होते है जो शिव लोक और बैकुण्ठ लोक से बहुत नीचे है। किंतु इन दोनों देवियों के भक्त मृत्युलोक में पुनः जन्म ग्रहण करते हैं। इस प्रकार से इन देवियों के भक्त भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते। ऐसा ही उपरोक्त श्लोकों में लिखा गया है।

अतः पूजा अर्चना के उपरोक्त सभी श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- देवी- देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही होता है और उनके भक्त उन्हीं को प्राप्त होते हैं।

किंतु परमेश्वर श्रीकृष्ण को पूजने वाला श्रीकृष्ण को प्राप्त होकर गोलोक में गोप होकर उनका पार्षद हो जाता है। तब वह श्रीकृष्ण के ही रूप व स्वरूप में विलीन हो जाता है। इसी को मोक्ष कहा जाता है।

     
   [ज]- श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?
                
तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठना स्वाभाविक हो जाता है कि जब देवी-देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही है तो मनुष्य परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण के अतिररिक्त ३३ करोड़ देवी-देवताओं को क्यों पूजते हैं ? तो इसका एकमात्र जबाब है- अज्ञानता। इसके साथ ही कुछ कथावाचकों का परब्रह्म श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान का होना। यह बात बिल्कुल सत्य है।
            
क्योंकि श्रीकृष्ण ही परिपूर्णतम परब्रह्म हैं, इस गूढ़ रहस्य का सम्पूर्ण ज्ञान केवल तीन लोगों को ही है- पहला पंचमुखी शिव, दूसरा- श्री राधा और तीसरा- गोप और गोपियां। 

बाकी ३३ करोड़ देवी-देवताओं सहित बड़े-बड़े तपस्वियों को श्रीकृष्ण से संबंधित अल्प ज्ञान ही है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२) और (८३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये ।८२।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।                                             

अनुवाद - ८२-८३
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं।
• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८३।                   
इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -
• गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो।९।
              
तब ऐसे में यह निर्णय कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है कि-  जब परमेश्वर श्री कृष्ण के गुणों एवं रहस्यों का ज्ञान बड़े-बड़े ऋषि मुनि को नहीं है, पुराणों में अल्प वर्णन है, ब्रह्मा और सनत्कुमार भी  परमात्मा श्री कृष्ण को अल्प ही जानते है।
                     
तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब  श्री कृष्ण के सम्पूर्ण गुणों रहस्यों को जब बड़े-बड़े ऋषि मुनि नहीं जान सके , पुराणों में अल्प वर्णन है, तथा ब्रह्मा और सनत कुमार भी  परमात्मा श्री कृष्ण को अल्प ही जानते है। तो श्रीकृष्ण के संपूर्ण चरित्रों को कौन बता सकता है या कहें कि श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी कौन हो सकता है ?
                      

तो इसका एकमात्र समाधान है - जो श्री कृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को पूर्ण रूप से जानता हो, वहीं इस समस्या का पूर्णतया समाधान कर सकता है। और ऊपर के श्लोकों में स्पष्ट रूप से बताया जा चुका है कि श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को केवल तीन लोग-  (१) - शिव जी (२) - श्रीराधा (३) - और गोप- गोपियां ही जानते हैं, बाकी कोई नहीं। अतः इन तीन के अलावा और कोई श्री कृष्ण के गुण रहस्यों और उनकी कथाओं को न तो कर सकता और ना ही बता सकता है। क्योंकि श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान रखने वाला उनके सम्पूर्ण चरित्रों को कैसे बता सकता है।
                  
अब इन तीनों में देखा जाए तो पहले नम्बर पर भगवान शिव जी आते हैं, जो श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों एवं गूढ़ रहस्यों को जानते हैं। तो क्या शिव जी भू-तल पर आकर सार्वजनिक रूप से श्री कृष्ण कथा कहेंगे ? इसका जबाब होगा नहीं। क्योंकि उनको भूतल पर श्री कृष्ण कथा कहते हुए शिव जी को कभी नहीं देखा गया और ना ही शास्त्रों में  ऐसा लिखा हुआ मिलता है।
फिर भी भगवान शिव, परमात्मा श्री कृष्ण और श्रीराधा के सम्पूर्ण चरित्रों को केवल पार्वती जी को बताएं हैं, वो भी श्रीकृष्ण की अनुमति मिलने पर।
 इस बात की पुष्टि - ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय - (४८) के प्रमुख श्लोकों में मिलता है। जो पार्वती शिव संवाद के रूप में जाना जाता है। जिसमें पार्वती शिव जी से कहतीं हैं कि -
तदुत्पतिं च तद्ध्यानं नाम्नो माहात्म्यमुत्तमम् ।
पूजाविधानं चरितं स्तोत्रं कवचमुत्तमम् ।१४।

आराधनविधानं च पूजापद्धतिमीप्सिताम्।
साम्प्रतं ब्रूहि भगवन्मां भक्तां भक्तवत्सल ।१५।

कथं न कथितं पूर्वमागमाख्यानकालतः।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा नम्रवक्त्रो बभूव सः ।१६।

पञ्चवक्त्रश्च भगवाञ्छुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ।
स्वसत्यभङ्गभीतश्च मौनीभूय विचिन्तयन् ।१७।

सस्मार कृष्णं ध्यानेनाभीष्टदेवं कृपानिधिम् ।
तदनुज्ञां च संप्राप्य स्वार्द्धाङ्गां तामुवाच सः ।१८।

निषिद्धोऽहं भगवता कृष्णेन परमात्मना ।
आगमारम्भसमये राधाख्यानप्रसंगतः ।१९।

मदर्द्धांगस्वरूपा त्वं न मद्भिन्ना स्वरूपतः ।
अतोऽनुज्ञां ददौ कृष्णो मह्यं वक्तुं महेश्वरि । २०।

मदिष्टदेवकान्ताया राधायाश्चरितं सति ।
अतीव गोपनीयं च सुखदं कृष्णभक्तिदम् ।२१।

जानामि तदहं दुर्गे सर्वं पूर्वापरं वरम् ।
यज्जानामि रहस्यं च न तद्ब्रह्मा फणीश्वरः ।२२।
               
अनुवाद - आप श्रीराधा के प्रादुर्भाव, ध्यान, उत्तम नाम- महात्म्य, उत्तम पूजा - विधान, चरित्र, स्तोत्र, उत्तम कवच, आराधना विधि तथा अभीष्ट पूजा -पद्धति का इस समय वर्णन कीजिए।
भक्तवत्सल! मैं आपकी भक्त हूं अतः मुझे यह सब बातें अवश्य बताएं। साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालिए कि आपने आगमाख्यान से पहले ही इस प्रसंग का वर्णन क्यों नहीं किया था ? (१४-१५-१६)

• पार्वती का उपयुक्त वचन सुनकर भगवान पंचमुख शिव ने अपना मस्तक नीचा कर लिया। अपना सत्य भंग होने के भय से वे मौन हो गए और चिंता में पड़ गए।१७।

•  तब उस समय उन्होंने अपने इष्ट देव
करुणा निधान भगवान श्रीकृष्ण( स्वराट्- विष्णु) का ध्यान द्वारा स्मरण किया और उनकी आज्ञा पाकर वे अपने अर्धांग स्वरूपा पार्वती से इस प्रकार बोले- देवी ! आगमाख्यान का आरंभ करते समय मुझे परमात्मा भगवान श्री कृष्ण ने राधाख्यान के प्रसंग से रोक दिया था। १८-१९।

•  परन्तु माहेश्वरी ! तुम तो मेरा आधा अंग हो, अतः स्वरुपतः मुझसे भिन्न नहीं हो। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने इस समय मुझे यह प्रसंग तुम्हें सुनाने की आज्ञा दे दी है। २०-२१।

•  अतः इस गोपनीय विषय को भी तुमसे कहता हूं। दुर्गे ! यह परम अद्भुत रहस्य है मैं इसका कुछ वर्णन करता हूं सुनो।२२।

(पार्वती को भगवान शिव ने राधाख्यान में क्या बताया उसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक के अध्याय- (दो) में किया गया है। वहां से राधाख्यान की कुछ सामान्य जानकारी प्राप्त की जा सकती हैं।)
                
अतः इस प्रसंग से यह सिद्ध होता है कि-गोपेश्वर श्री कृष्ण और श्री राधा के संपूर्ण चरित्रों को बताने के लिए शिव को भी श्रीकृष्ण से अनुमति लेनी पड़ी थी। तो ऐसे में भगवान शिव भूतल पर सार्वजनिक रूप से श्री कृष्ण कथा कैसे कह सकते हैं ?
            
अब रही बात दूसरी श्री राधा जी की। क्योंकि श्री कृष्ण के संपूर्ण रहस्यों एवं चरित्रों को श्री राधा भी जानती हैं। तो क्या श्रीराधा जी इस भूतल पर आकर श्रीकृष्ण कथा कहेंगी ? ऐसा संभव नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण और श्रीराधा में कोई भेद नहीं है। सांसारिक प्रक्रिया के मूल  द्वन्द्वात्मक रूप से परे होने पर दोनों मूलत: एक ही ब्रह्म रूप हैं।

तो ऐसे में वह अपनी ही कथा स्वयं कैसे कहेंगी। क्योंकि आज तक ऐसा कभी नहीं देखा गया कि कोई अपनी कथा स्वयं कहता हो।
                  

अब रही बात तीसरे क्रम पर गोप और गोपियों की। क्योंकि गोप और गोपियां भी श्रीकृष्ण के संपूर्ण चरित्र एवं गूढ़  रहस्यों को भलि भांति जानते हैं। क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्री कृष्ण और श्री राधा के रोम कूपों से ही हुई हैं। ऐसे में भला ये गोप और गोपियां श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों को कैसे नहीं जान सकते ? और सबसे बड़ी बात यह है कि श्री कृष्ण की लीला का सहचर बनकर ये गोप और गोपियां संपूर्ण ब्रह्मांड में उसी तरह से विद्यमान हैं, जैसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रत्येक ब्रह्मांड में विद्यमान है।
और भगवान श्री कृष्ण इन्हीं गोप और गोपियों को लेकर अपने लीलाएं किया करते हैं।

(गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा से कैसे और कब हुई ? इस विषय पर संपूर्ण जानकारी इस पुस्तक के अध्याय (४) में दी गई है वहां से इसकी जानकारी प्राप्त की  सकती हैं।)
              

अतः उपरोक्त तथ्यों के आधर पर सिद्ध होता है कि - श्रीकृष्ण कथा केवल गोप और गोपियां ही कह सकते हैं, जो मानवीय रूप में भूतल पर बहुतायत संख्या में विद्यमान हैं।
और उनके मन- मस्तिष्क में जन्म जन्मान्तर से श्री कृष्ण का संपूर्ण चरित्र एवं गुणों का ज्ञान सुषुप्तावस्था में विद्यमान है। ****
बस उसे श्री कृष्ण की आराधना करके जगाने की जरूरत है। और जिस क्षण वह ज्ञान, गोप और गोपियों में जागा, उसी क्षण वह श्री कृष्ण कथा कहने के लिए पात्र हो जाएंगे। 
चाहे वह गोप हो या गोपी। इनके अतिरिक्त भू-तल पर श्रीकृष्ण कथा कोई नहीं कह सकता भले ही वह कितना ही बड़ा कथावाचक क्यों न हो।
 क्योंकि इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (९४) के श्लोक-(८२)और (८३) में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि -

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये। ८२।

किंचित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।८३।
                         

अनुवाद - ८२,८३
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।        
_____________    
 

 [अध्याय- (१)
(|||)✓✓✓
                      
                   

[शास्त्रोचित पूजा-अर्चना के विधि विधान एवं गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणाम। ]

       
    [झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणाम।

ऐसे में यदि इन तीन - (शिव जी, श्रीराधा, और गोप-गोपियों ) के अतिरिक्त कोई दूसरा अपने को विद्वान बताकर श्री कृष्ण कथा कहता है तो निश्चित रूप से वह श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों का वर्णन नहीं कर पायेगा। और शास्त्रों में यह विधान किया गया है कि गलत कथा या आधी अधूरी कथा कहने वाले नरक के भागी होते हैं।
                 
 इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड उत्तरार्द्ध- के अध्याय -(८५)
के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो नन्द बाबा और श्रीकृष्ण संवाद के रूप में है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा के पूछे जाने पर, गलत कर्म करने वाले एवं धुर्त कथावाचकों के बारे में कहते हैं कि-
                                     
कविः प्रहर्ता विदुषां माण्डूकः सप्तजन्मसु। असत्कविर्ग्रामविप्रो नकुलः सप्तजन्मसु।१९२।   
                                          
कुष्ठी भवेच्च जन्मैकं कृकलासस्त्रिजन्मसु। 
जन्मैकं वरलश्चैव ततो वृक्षपिपीलिका।१९३।                                             
ततः शूद्रश्च वैश्यश्च क्षत्रियो ब्राह्मणस्तथा।
कन्याविक्रयकारी च चतुर्वर्णो हि मानवः।१९४।                    
सद्यः प्रयाति तामिस्रं यावच्चन्द्रदिवाकरौ।
ततौ भवति व्याधश्च मांसविक्रयकारकः। १९५।       

"ततो व्याधि(धो)र्भवेत्पश्चाद्यो यथा पूर्वजन्मनि । मन्नामविक्रयी विप्रो न हि मुक्तो भवेद् ध्रुवम्।१९६।
                     
मृत्युलोके च मन्नामस्मृतिमात्रं न विद्यतेः पश्चाद्भवेत्स गो योनौ जन्मैकं ज्ञानदुर्बलः।१९७।    
                        
ततश्चागस्ततो मेषो महिषःसप्तजन्मसु।
महाचक्री च कुटिलो धर्महीनस्तु मानवः।१९८।

                    
अनुवाद- १९२-१९८
• विद्वानों के कवित्व (विद्वत्ता) पर प्रहार करने वाला सात जन्मों तक मेंढक होता है। और जो झूठे ही अपने को विद्वान कहकर गाँवों की पुरोहितायी और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करता है; वह सात जन्मों तक नेवला होता है। १९२।
• और वह  एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक  गिरगिट होता है, फिर एक जन्म में बर्र ( ततैया) होने के बाद वह वृक्ष की चींटी (माटा/ दींमक) होता है।१९३।
•  उसके बाद क्रमश:  शूद्र , वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण बनता है, और इन चारो वर्णों मे कन्या बेचने वाला तथा मेरे नाम को बेचने वाला ब्राह्मण ( विप्र) भी कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं करता- यह ध्रुव सत्य है।१९४।
•  तथा मेरे नाम को बेचने वाला (मेरे नाम पर धंधा चलाने वाला) कथावाचक (पुरोहित) शीघ्र ही तामिस्र नरक में जाता है और तब-तक रहता है जब तक सूर्य तथा चन्द्रमा रहते है। उसके बाद मांस बेचने वाला बहेलिया बनता है।१९३।
•  फिर उसे पूर्व जन्म के कर्म- संस्कारों के कारण बीमारी घेरती है। और मेरे नाम को बेचने वाले (मेरे नाम पर धंधा चलाने वाले) पुरोहितों (कथावाचकों) की मुक्ति नहीं होती- यह ध्रुव सत्य है। १९६।
•  मृत्युलोक में जिसके ध्यान में मेरा नाम आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गाय का बछड़ा बनकर जन्म लेता है। १९७।
• इसके बाद बकरा, फिर मेढा और सात जन्मों तक भैंसा होता है। इस प्रकार बहुत से चक्कर लगाते (महचक्री) हुए  वह जो षड्यन्त्र रचने में बहुत प्रवीण हो। कुटिल धर्म से हीन मानव बनता है।१९८।

   
             [ञ] - सच्चे गुरु की पहचान।

इसीलिए किसी ऐसे गुरु को चुनना चाहिए जो तत्व ज्ञानी हो, श्रीकृष्ण के प्रति भक्तिभाव उत्पन्न करने वाला हो, गुरुमंत्र नहीं वल्कि कृष्ण मंत्र देने वाला हो, जो शिष्यों से स्वं को न पुजवाकर परमेश्वर को पूजने की बात कहता हो। यदि ऐसा गुरु मिल जाए तो उसे गुरु मानकर ज्ञान अवश्य लेना चाहिए। सच्चे गुरु, भाई, बंधु , माता-पिता की कुछ ऐसी ही विशेषताएं देवीभागवतपुराण-स्कन्धः (9) अध्याय (48)- के अध्याय -(४६) में बताईं गई है। जो इस प्रकार है-

यो बन्धुश्चेत्स च पिता हरिवर्त्मप्रदर्शकः।
सा गर्भधारिणी या च गर्भावासविमोचनी॥६५।

दयारूपा च भगिनी यमभीतिविमोचनी।
विष्णुमन्त्रप्रदाता च स गुरुर्विष्णुभक्तिदः॥६६।

गुरुश्च ज्ञानदो यो हि यज्ज्ञानं कृष्णभावनम्।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं ततो विश्वं चराचरम्॥ ६७।

आविर्भूतं तिरोभूतं किं वा ज्ञानं तदन्यतः।
वेदजं यज्ञजं यद्यत्तत्सारं हरिसेवनम्॥ ६८।

तत्त्वानां सारभूतं च हरेरन्यद्विडम्बनम्।
दत्तं ज्ञानं मया तुभ्यं स स्वामी ज्ञानदो हि यः॥६९।

ज्ञानात्प्रमुच्यते बन्धात्स रिपुर्यो हि बन्धदः।
विष्णुभक्तियुतं ज्ञानं नो ददाति च यो गुरुः॥७०।

स रिपुः शिष्यघाती च यतो बन्धान्न मोचयेत् ।
जननीं गर्भजक्लेशाद्यमयातनया तथा॥७१।

न मोचयेद्यः स कथं गुरुस्तातो हि बान्धवः।
परमानन्दरूपं च कृष्णमार्गमनश्वरम्॥ ७२।
             

अनुवाद- ६५-७२
भगवत्प्राप्ति का मार्ग दिखाने वाला बन्धु ही सच्चा पिता है। जो आवागमन (गर्भवास ) से मुक्त कर देनेवाली है, वही सच्ची माता है। वही बहन दयास्वरूपिणी है, जो यम के त्रास (भय) से छुटकारा दिला दे।  गुरु वही है, जो विष्णु का मन्त्र प्रदान करनेवाला तथा भगवान् विष्णु के प्रति भक्ति उत्पन्न करने वाला हो।६५-६६।

•  ज्ञानदाता गुरु वही है, जो भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन कराने वाला ज्ञान प्रदान करे; क्योंकि तृण से  लेकर ब्रह्माण्डपर्यन्त चराचर सम्पूर्ण विश्व आविर्भूत( उत्पन्न) होकर पुनः विनष्ट होने वाला है, तो फिर अन्य वस्तु से ज्ञान कैसे हो सकता है ? वेद अथवा यज्ञ से जो भी सारतत्त्व निकलता है, वह भगवान् श्रीहरि की सेवा ही है।६७-६८।
• यही हरिसेवा समस्त तत्त्वों का सारस्वरूप है, भगवान् श्रीहरि की सेवा के अतिरिक्त अन्य सब कुछ विडम्बना ( जग- हँसाई) मात्र है। मेरे द्वारा जो ज्ञान तुमको  दिया गया है। ज्ञानदाता स्वामी वही है जो ज्ञान के द्वारा बन्धन से मुक्त कर देता है वही बन्धु है ! और जो बन्धन में डालता है, वह शत्रु है। जो  भगवान् विष्णु में भक्ति उत्पन्न करनेवाला ज्ञान नही देता वह गुरु भी शत्रु ही है। ६९-७०।
•  वह गुरु शत्रु और शिष्यघाती ही है जो बन्धन से मुक्त नहीं करता है। जो जननी के गर्भजनित  कष्ट तथा यमयातना से मुक्त न कर सके; उसे गुरु, तात तथा बान्धव कैसे कहा जाय ? जो बन्धन से मुक्त नहीं करे। और जो भगवान् श्रीकृष्ण के परमानन्दस्वरूप सनातन मार्ग का निरन्तर दर्शन नहीं कराता हो। ७१-७२।
             
उपरोक्त श्लोकों में जो गुरु की विशेषताएं बताई गई है- ("वह गुरु शिष्य घाती है जो अपने ज्ञान से शिष्यों को मोह-माया के बंधनमुक्त नहीं करता तथा परमानन्द स्वरूप सनातन मार्ग का निरंतर दर्शन नहीं कराता"।) वह बिल्कुल सत्य है। उसी के हिसाब से मनुष्य को गुरु का चयन करना चाहिए। पाखंडी और छद्मवेषधारी गुरुओं को तुरंत त्याग  देना चाहिए। इसी में भलाई है नहीं तो फिर जग हंसाई है।

और यादव लोग तो वैसे भी पाखण्डवाद से सदैव दूर रहते हैं। इस बात की पुष्टि हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय- (२२) के श्लोक (१४) से उस समय होती है जब कंस अपने समस्त यादवों को राज दरबार में बुलाकर कुछ  इस प्रकार कहा-
अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः ।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः ।।१४ ।।

अनुवाद- आप (यादव) सब लोग पाखंडपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मंत्राओं को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।

अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण कथा कहने का पात्र केवल गोप और गोपियों ही है। इनके अतिरिक्त और किसी के द्वारा श्री कृष्ण कथा कहने का मतलब श्रीकृष्ण की अधूरी जानकारी देना है।
*********
यही कारण है कि गोपों के अतिरिक्त वर्तमान समय में जितने भी कथावाचक हैं श्री कृष्ण कथा कहते समय श्री कृष्ण के साथ गोपों की चर्चा नहीं कर पाते हैं।

इस प्रकार से परमप्रभु परमेश्वर कौन हैं ? पूजा-अर्चना के वास्तविक विधि-विधान क्या है ? वास्तव में किसकी पूजा करनी चाहिए किसकी नहीं ? कथावाचकों द्वारा गलत कथा कहने के दुष्परिणाम तथा सही गुरु का चयन कैसे किया जाए इन सभी की जानकारी के साथ यह अध्याय समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय- (दो) में जानकारी दी गई है कि- "श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनका गोलोक धाम कैसा है और कहां स्थापित है"।

                    

    [ अध्याय - द्वितीय] 

                         🙏
गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का वास्तविक स्वरूप और उनके गोलोक का वर्णन मुख्यतः ब्रह्मवैवर्तपुराण और गर्गसंहिता में मिलता है। जिसमें सबसे पहले हमलोग गोपेश्वर श्री कृष्ण के स्वरूप को जानेंगे, इसके बाद गोलोक की लौकिक एवं भौतिक स्थिति को जानेंगे।

जिसमें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय २- के क्रमशः श्लोक संख्या- ४ से २१ में श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूपों के बारे में लिखा गया है कि -
ज्योतिः समूहं प्रलये पुराऽऽसीत्केवलं द्विज।
सूर्य्यकोटिप्रभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम्।४।

स्वेच्छामयस्य च विभोस्तज्ज्योतिरुज्ज्वलं महत् ।।  
ज्योतिरभ्यन्तरे लोकत्रयमेव मनोहरम् ।५।

तेषामुपरि गोलोकं नित्यमीश्वरवद् द्विज ।।त्रिकोटियोजनायामविस्तीर्णं मण्डलाकृति।६।

तेजःस्वरूपं सुमहद्रत्नभूमिमयं परम्।।
अदृश्यं योगिभिः स्वप्ने दृश्यं गम्यं च वैष्णवैः।७।

आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितम्।८।  
(ब्रह्मवैवर्तपुराण-(ब्रह्मखण्डः)अध्यायः (२) के आठवें  श्लोक का उत्तरार्द्ध)

सद्रत्नरचितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितम्।।
लये कृष्णयुतं सृष्टौ गोपगोपीभिरावृतम्।९।

तदधो दक्षिणे सव्ये पञ्चाशत्कोटियोजनान् ।।
वैकुण्ठं शिवलोकं तु तत्समं सुमनोहरम्।१०।

गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम् ।१३।
( ब्रह्मवैवर्तपुराण-(ब्रह्मखण्डः)अध्यायः (२)के
   तेरहवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)

परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारकम् ।।
ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा।१४।

तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम् ।।
तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम् ।१५।

नवीननीरदश्यामं रक्तपङ्कजलोचनम् ।।शारदीयपार्वणेन्दुशोभितं चामलाननम् ।१६।

कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोरमम् ।।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् ।१७।

रत्नसिंहासनस्थं च वनमालाविभूषितम् ।।
तदेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।२०।

स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।२१।

अनुवाद-

• पुरातन प्रलय काल में केवल ज्योति-पुञ्ज प्रकाशित था। जिसकी प्रभा करोड़ो सूर्यों के समान थी। वही नित्य व शाश्वत ज्योतिर्मण्डल असंख्य विश्वों का कारण बनता है।४।

• वह स्वेच्छामयी,सर्वव्यापी परमात्मा का महान सर्वोज्ज्वल तेज है। उस तेज के आभ्यन्तर (भीतर) मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं।५।

• और उन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक धाम है जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई- चौड़ाई तीन करोड़ योजन तक विस्तारित है। उसका आयतन सभी और से मण्डलाकार है। ६।

• और उसकी परम- तेज युक्त सुन्दर महान भूमि रत्नों से मड़ी हुई है। वह लोक योगियों के लिए स्वप्न में भी दिखाई देने योग्य नहीं है। वह केवल वैष्णवों के लिए ही दृश्य और गम्य (पहुँचने योग्य) है। ७।

• वहाँ आधि (मानसिक पीड़ा) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) जरा (बुड़़ापा) मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं है।८।

• रत्न से निर्मित असंख्य मन्दिरों से सुशोभित उस लोक में प्रलय काल में केवल श्री कृष्ण मूल रूप से विद्यमान रहते हैं। और सृष्टि काल में वही गोप-गोपियों से परिपूर्ण रहता है।९।

• और इस गोलोक के नीचे दक्षिण भाग में पचास करोड़ योजन दूर वैकुण्ठ धाम है। और वाम-भाग में इसी के समानान्तर शिवलोक विद्यमान है।१०।

• गोलोक से भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है।१३। 

• जो परम आह्लाद जनक तथा नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। वह ज्योति ही परमानन्द दायक है जिसका ध्यान सदैव योगीजन योग के द्वारा ज्ञान नेत्रों से करते हैं।१४।

• ज्योति के भीतर जो अत्यन्त परम मनोहर रूप है। वही  निराकार व परात्पर ब्रह्म है; उसका रुप उस ज्योति के भीतर अत्यन्त सुशोभित होता है । १५।

• जो नूतन जलधर (मेघ) के समान श्याम (साँवला) है  जिसके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्लित हैं। जिनका निर्मल मुख शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करता है।१६।

• यह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है। उनकी दो भुजाएँ हैं। एक हाथ में मुरली सुशोभित होती है,और उपरोष्ठ एवं अधरोष्ठों पर मुस्कान खेलती रहती है जो पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं। १७।

• वह श्याम सुन्दर पुरुष रत्नमय सिंहासन पर आसीन है और आजानुलम्बिनी (घुटनों तक लटकने वाली) वन माला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परम्-ब्रह्म परमात्मा और सनातन ईश्वर कहते हैं।२०।

•  वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।    

भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक का स्वरूप तथा उनके गोप गोपियों - के विषय में ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२८) के कुछ प्रमुख श्लोकों में भी बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। जिसका हम निम्नलिखित श्लोकों में प्रस्तुतिकरण करते हैं।

****
तत्तेजोमण्डलाकारे सूर्य्यकोटिसमप्रभे ।
नित्यं स्थलं च प्रच्छन्नं गोलोकाभिधमेव च। ४०।।

लक्षकोट्या योजनानां चतुरस्रं मनोहरम् ।।
रत्नेन्द्रसारनिर्माणैर्गोपीभिश्चावृतं सदा ।।४१।।

सुदृश्यं वर्तुलाकारं यथा चन्द्रस्य मण्डलम्।।
नानारत्नैश्च खचितं निराधारं तदिच्छया ।।४२।

ऊर्ध्वं च नित्यवैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनम्।
गोगोपगोपीसंयुक्तं कल्पवृक्षसमन्वितम् ।।४३।
 

अनुवाद ( ४०- ४३)       
• करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान जो मंडलाकार तेज पुंज है, उसके भीतर नित्य धाम छुपा हुआ है जिसका नाम गोलोक है।४०।

• वह मनोहर लोक चारों ओर से लक्ष्य कोटि योजन विस्तृत है। सर्वश्रेष्ठ दिव्य रत्न के सारतत्वों से जिनका निर्माण हुआ है, ऐसे दिव्य भवनों तथा गोपांगनाओं से वह लोक सदा भरा हुआ है। ४१।

• चन्द्रमण्डल के समान ही वह गोलाकार है। रत्नेन्द्रसार से निर्मित वह धाम परमात्मा की इच्छा के अनुसार बिना किसी आधार के ही स्थित है। ४२।

• उस नित्य लोक की स्थिति वैकुणठ लोक से पचास करोड़ योजन ऊपर है। वहां गायें, गोप और गोपियां निवास करती हैं। वहां कल्पवृक्ष के वन हैं।४३।

वृन्दावनवनाच्छत्रं विरजावेष्टितं मुने।४४।।

शतशृङ्गं शातकुम्भैः सुदीप्तं श्रीमदीप्सितम्।।
लक्षकोट्या परिमितैराश्रमैः सुमनोहरैः।४५।।

शतमन्दिरसंयुक्तमाश्रमं सुमनोहरम्।।
प्राकारपरिखायुक्तं पारिजातवनान्वितम्।४६।

कौस्तुभेन्द्रेण मणिना राजितं परमोज्ज्वलम् ।।
हीरसारसुसंक्लृप्तसोपानैश्चातिसुन्दरैः।४७।।

मणीन्द्रसाररचितैः कपाटैर्दर्पणान्वितैः ।।
नानाचित्रविचित्राढ्यैराश्रमं च सुसंस्कृतम्।४८।।

षोडशद्वारसंयुक्तं सुदीप्तं रत्नदीपकैः ।
रत्नसिंहासने रम्ये महार्घमणिनिर्मिते ।४९।

नानाचित्रविचित्राढ्ये वसन्तं वरमीश्वरम्।
नवीननीरदश्यामं किशोरवयसं शिशुम् ।५०।

शरन्मध्याह्नमार्त्तण्डप्रभामोचकलोचनम् ।
शरत्पार्वणपूर्णेन्दुशुभदीप्तिमदाननम्।५१ ।

कोटिकन्दर्पलावण्यलीलानिन्दितमन्मथम् ।
कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टं पुष्टं श्रीयुक्तविग्रहम्।५२।

सस्मितं मुरलीहस्तं सुप्रशस्तं सुमङ्गलम् ।
परमोत्तमपीतांशुकयुगेन समुज्ज्वलम्।५३ ।

वीक्षितं गोपिकाभिश्च वेष्टिताभिस्समन्ततः।
स्थिरयौवनयुक्ताभिः सस्मिताभिश्च सादरम्। ५४।

अनुवाद- (४४-५४)
• मुने ! वह वृंदावन से आच्छन्न और विरजा नदी से आवेष्टित है। वहां सैकड़ो शिखरों से सुशोभित गिरिराज विराजमान है। स्वर्ण निर्मित लक्ष्य कोटि के मनोहर आश्रम है।४४-४५।

• जिनसे वह अभीष्ट धाम अत्यंत दीप्तिमान एवं श्री संपन्न दिखाई देता है। उन सबके मध्य भाग में एक परम मनोहर आश्रम है जो अकेला ही सौ मन्दिरों से संयुक्त है। वह परकोटों तथा खाइयों से घिरा हुआ तथा पारिजात के वनों से सुशोभित है।४६।

• उस आश्रम के भवनों में जो कलश लगे हैं उनका निर्माण रत्नराज कौस्तुभ मणि से हुआ है।
इसलिए वह उत्तम ज्योति पुंज से जाज्वल्यमान रहते हैं।

उन भवनों में जो सीढ़ियां हैं वे दिव्य हीरे के सारतत्व से बनी हुई है। उनसे उन भवनों का सौंदर्य बहुत बढ़ गया है।४७।

• मणीन्द्रसार से निर्मित वहां के किवाड़ों में दर्पण जड़े हुए हैं। नाना प्रकार के चित्र -विचित्र उपकरणों से वह आश्रम भली भांति सुसज्जित है।४८।

• उसमें सोलह दरवाजे हैं तथा वह आश्रम रत्नमय प्रदीपों से अत्यंत उद्भासित होता है। वह बहुमूल्य रत्न द्वारा निर्मित है।४९।

• तथा नाना प्रकार के विचित्र चित्रों से चित्रित रमणीय रत्नमय सिंहासन पर सर्वेश्वर श्री कृष्ण बैठे हुए हैं। उनकी अंक कांति नवीन मेघमाला के समान श्याम है वे किशोर अवस्था के बालक हैं। ५०।

• उनके नेत्र शरद काल की दोपहरी की सूर्य की प्रभा को छीने लेते हैं।५१

• उनका मुखमंडल शरद पूर्णिमा के पूर्ण चंद्रमा की शोभा को ढक देता है। उनका सौंदर्य कोटी कामदेव को लावण्य लीला को तिरस्कृत कर रहा है। उनका पुष्ट श्रीविग्रह करोड़ चंद्रमाओं की प्रभा से सेवित है।५२।

• उनके मुख पर मुस्कुराहट खेलती रहती है उनके हाथ में मुरली शोभा पाती है। सब ओर से घेरकर खड़ी हुई गोपांगनाएं उन्हें सदा सादर  निहारती रहती है।५३।

• वे गोपांगनाएं भी सुस्थिर यौवन से युक्त मंद मुस्कान से सुशोभित तथा उत्तम रत्न के बने हुए आभूषणों से विभूषित हैं।५४।

भूषिताभिश्च सद्रत्ननिर्मितैर्भूषणैः परम्।
एवंरूपमरूपं तं मुने ध्यायन्ति वैष्णवाः।६१ ।

सततं ध्येयमस्माकं परमात्मानमीश्वरम् ।।
अक्षरं परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम्।६२ ।।

स्वेच्छामयं निर्गुणं च निरीहं प्रकृतेः परम् ।।
सर्वाधारं सर्वबीजं सर्वज्ञं सर्वमेव च।६३ ।।

सर्वेश्वरं सर्वपूज्यं सर्वसिद्धिकरं प्रदम्।।
स एव भगवानादिर्गोलोके द्विभुजः स्वयम् ।६४।

गोपवेषश्च गोपालैः पार्षदैः परिवेष्टितः।।
परिपूर्णतमः श्रीमान् श्रीकृष्णो राधिकेश्वरः।६५।

अनुवाद -६१-६५-
• मुने ! वैष्णवजन उन निराकार परमात्मा का इस रूप में ध्यान किया करते हैं। वे परमात्मा ईश्वर हम सब लोगों के सदा ही ध्येय हैं। उन्हीं
को अविनाशी परब्रह्म कहा गया है। ६१-६२।

• वे ही दिव्य स्वेच्छामय शरीरधारी सनातन भगवान है। वे निर्गुण, निरीह और प्रकृति से परे हैं। सर्वाधार, सर्वबीज, सर्वज्ञ,सर्व स्वरुप है।६३।।

• सर्वेश्वर, सर्वपूज्य तथा संपूर्ण सिद्धियों को हाथ में देने वाले हैं। वे आदि पुरुष भगवान स्वयं ही द्विभुज रूप धारण करके गोलोक में निवास करते हैं।६४।

•उनकी वेशभूषा भी ग्वालों के समान होती है और वे अपने पार्षद गोपालों(गोपों ) से घिरे रहते हैं। उन परिपूर्णतम भगवान को श्रीकृष्ण कहते हैं। वे सदा श्रीजी के साथ रहने वाले और श्रीराधिका के प्राणेश्वर हैं।६५।

 इसके अलावा ऋग्वेद मण्डल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में भी गोलोक का वर्णन मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि- गोलोक में भूरिश्रृंगा गायें रहती है इसीलिए उस परमधाम को गोलोक अर्थात्  गायों का लोक कहा जाता है।

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।
पदों के अर्थ व अन्वय:-
जिसमें "पदों का अर्थ है:-(यत्र)= जहाँ (अयासः)= प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः)= स्वर्ण युक्त सींगों वाली  (गावः)= गायें हैं (ता)= उन ।(वास्तूनि)= स्थानों को (वाम्)= तुम को  (गमध्यै)= जाने को लिए (उश्मसि)= इच्छा करते हो।  (उरुगायस्य)= बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः)= सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्)= उत्कृष्ट (पदम्)= स्थान   (भूरिः)= अत्यन्त (अव भाति) =उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्)= उसको (अत्राह)= यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६।

अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त  सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु  वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यही स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं। क्योंकि इस सम्बन्ध में ऐसा ही लिखा गया है कि -
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
 (ऋग्वेद १/२२/१८)
 इस ऋचा के पद-भेद से स्पष्ट होता है कि -
(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को  (धारयन्)= धारण करता हुआ ।  (गोपाः)= गोपालक रूप, (विष्णुः)= संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि)= क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही  (धर्माणि)= धर्मों को ।18॥

अर्थात् यह बात वेदों से भी सुनिश्चित हुयी कि -
परमेश्वर श्रीकृष्ण का सनातन निवास गोलोक है, जहां वे गोप-वेष में अपने गौवें तथा गोपों के साथ रहते हैं और गोप-वेष में ही रहकर धर्म की स्थापना  बारम्बार करते है।

इस प्रकार से यह अध्याय- (दो) भगवान श्रीकृष्ण का सनातन स्वरूप और उनके गोलोक धाम की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय -(३) में जानेंगे कि श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई परम शक्ति या परमेश्वर नहीं है।   

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     [ अध्याय - तृतीय] 

  [अध्याय- ३ (|)✓✓✓



श्री कृष्ण ही एकमात्र परम प्रभु या परमेश्वर है। इस बात की पुष्टि सर्वप्रथम ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (३०) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है।
जिसमें नारायण मुनि नारद जी को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराट विष्णु इत्यादि श्री कृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं -

"चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः।
त्वं चापि नारद मुने परमादरेण सञ्चिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम्।।६।

  
यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः।
कलाविशेषा भवपारमुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः।। ७।   

    
सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम् ।।
कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः ।।८।


गोलोकनाथस्य विभोर्यशोऽमलं श्रुतौ पुराणे नहि किञ्चन स्फुटम्।
न पाद्ममुख्याः कथितुं समर्थाः सर्वेश्वरं तं भज पाद्ममुख्यम् ।। ९।

विश्वेषु सर्वेषु च विश्वधाम्नः सन्त्येव शश्वद्विधिविष्णुरुद्राः ।।
तेषां च संख्याः श्रुतयश्च देवाः परं न जानन्ति तमीश्वरं भज ।। १०।

करोति सृष्टिं स विधेर्विधाता विधाय नित्यां प्रकृतिं जगत्प्रसूम्।
ब्रह्मादयः प्राकृतिकाश्च सर्वे भक्तिप्रदां श्रीप्रकृतिं भजन्ति ।। ११।


ब्रह्मस्वरूपा प्रकृतिर्न भिन्ना यया च सृष्टिं कुरुते सनातनः।
श्रियश्च सर्वाः कलया जगत्सु माया च सर्वे च तया विमोहिताः।।१२।


नारायणी सा परमा सनातनी शक्तिश्च पुंसः परमात्मनश्च।
आत्मेश्वरश्चापि यया च शक्तिमांस्तया विना स्रष्टुमशक्त एव ।। १३।

अनुवाद -
•  जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर किसकी सामर्थ्य है ? हे नारद ! तुम भी श्री हरि के चरणारविंद का अत्यंत आदर पूर्वक चिंतन करो। ६।

• नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्मा जी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।

• सहस्र शिरो वाले शेषनाग संपूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण अथवा स्थापित करते है। वे भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठ हो। वे भगवान कूर्म भी श्री कृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं। ८।

• गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ स्पष्ट रूप से वर्णन नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु (श्रीकृष्ण ) की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान का भजन  करो।९।

• सभी ब्रह्माण्डों में सर्वदा सार्वभौम निवास उन परमेश्वर के प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र विद्यमान हैं।
इन देवताओं की संख्या असंख्य है  और देवता भी उस भगवान के  परम - स्वरूप को नहीं जानते हैं। उस परमेश्वर का भजन करो।१०।

 (अर्थात- जो सृष्टिकर्ता एक  नियम से सृष्टि सर्जन करता है वह भी उस शाश्वत प्रकृति का चिन्तन करता है जो ब्रह्माण्ड की जननी है। ब्रह्मा और अन्य तथा सभी प्राकृतिक प्राणीयों को भक्ति प्रदान करने वाली  इस भाग्य की देवी की पूजा करते हैं।)
प्रकृति ब्रह्मस्वरूप है वह उससे भिन्न नहीं है जिससे नित्य सृष्टि होती है। संसार की सारी सुंदरता और सारी माया उसकी कलाओं से  विमोहित हो जाती है।१२।

• नारायणी मनुष्य और परमात्मा की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति है। यहां तक कि आत्मा का स्वामी भी उसके बिना, जो सर्वशक्तिमान है, सृजन करने में असमर्थ है।१३।
            
भगवान श्रीकृष्ण को सर्वेश्वर एवं ऐश्वर्यशाली होने की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के  अध्याय- २१ के श्लोक संख्या- (४३) से भी होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम् ।।४३।

अनुवाद -
• वह परमेश्वर  सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही उस परम- सत्ता के प्रतिनिधि हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए ।४३।

और ऐसा ही वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या (१७) से (१८)और (१९) में भी मिलता है -

"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम्।।१७।

स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम्।।१८।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम्।।१९।

अनुवाद:-
• द्विभुजधारी, किशोर वय, गोपवेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है;  वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं।१७।

परम्- ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति मुनि गणों के साथ करते हैं।१८।

• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षीरूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा  मुस्कान और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।१९।

इन श्लोकों के अतिरिक्त ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६७) के श्लोक संख्या - (४९) से भी कृष्ण की सर्वोपरिता स्वत: सिद्ध होती है जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं राधा से कहते हैं कि-

"आधारश्चाहमाधेयं कार्य च कारणं विना ।
अये सर्वाणि द्रव्याणि नश्वराणि च सुन्दरि"।४९।


अनुवाद-  हे राधे !  मैं आधार और आधेय ,कारण और कार्य दोंनो ही रूपों में हूँ । सभी द्रव्य परिवर्तन शील होने से नाशवान है। श्री कृष्ण संपूर्ण ब्रह्मांड की एकमात्र सर्वोच्च शक्ति हैं वे इसी सत्य को राधा जी से कहते हैं।"  
          
 इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-( ११ ) के श्लोक संख्या- (१६) में भगवान श्री कृष्ण की सर्वोच्चता का तुलनात्मक वर्णन मिलता है जो "शौनक और सूत  संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें सूत जी शौनक जी कहते है कि-

"नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न च कृष्णात्परः सुरः।
न शङ्कराद्वैष्णवश्च न सहिष्णुर्धरा परा।।१६।

अनुवाद:-
• गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है। कृष्ण से बड़ा कोई देव अथवा ईश्वर नहीं, और शंकर (शिव) से बड़ा कोई सहनशील  वैष्णव इस भू-मंडल में नहीं है।१६।                        
इसी तरह से ब्रह्मवैवर्तपुराण -श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (6) के श्लोक संख्या- (४२- ४३- ४४ -४५-४६ -४७) और (४८) में अपनी विभूतियों के विषय में स्वयं गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक में पधारे देवताओं से कहते हैं कि-

"देवाः कालस्य कालोऽहं विधाता धातुरेव च।
संहारकर्तुः संहर्ता पातुः पाता परात्परः।।४२।


"ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।
त्वं विश्वसृट् सृष्टिहेतोः पाता धर्मस्य रक्षणात्।। ४३।

"ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।
स्वकर्मफलदाताऽहं कर्मनिर्मूलकारकः।।४४।

"अहं यान्संहरिष्यामि कस्तेषामपि रक्षिता ।
यानहं पालयिष्यामि तेषां हन्ता न कोऽपि वा। ४५।

"सर्वेषामपि संहर्ता स्रष्टा पाताऽहमेव च ।
नाहं शक्तश्च भक्तानां संहारे नित्यदेहिनाम् ।।४६।

"भक्ता ममानुगा नित्यं मत्पादार्चनतत्पराः।
अहं भक्तान्तिके शाश्वत्तेषां रक्षणहेतव ।४७।

"सर्वे नश्यन्ति ब्रह्माण्डानां प्रभवन्ति पुनःपुनः।
न मे भक्ताः प्रणश्यन्ति निःशंकाश्च निरापदः।४८।


अनुवाद:-
• हे देवो ! मैं  काल का भी काल हूँ। विधाता का भी विधाता हूँ। संहारकारी का भी संहारक तथा पालक का भी पालक मैं ही परात्पर परमेश्वर हूँ। ४२।

• और मेरी आज्ञा से ही शिव रूद्र रूप धारण कर संसार का संहार करते हैं इसलिए उनका नाम "हर" सार्थक है। और मेरी आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि सर्जन के लिए उद्यत रहते हैं। इस लिए वे विश्व- स्रष्टा कहलाते हैं। और धर्म के रक्षक देव विष्णु सृष्टि की रक्षा के कारण पालक कहलाते हैं। ४३।

• ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सबका ईश्वर मैं ही हूँ। मैं ही कर्म फल का दाता और कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ। ४४।

• और मैं जिसका संहार करना चाहता हूँ; उनकी रक्षा कौन कर सकता है ? तथा मैं जिसका पालन करने वाला हूँ; उसका विनाश करने वाला कोई नहीं है ।४५।
• मूलत: मैं ही सबका सर्जक ,पालक और संहारक हूँ। परन्तु मेरे भक्त नित्यदेही हैं उनका संहार करने में मैं भी समर्थ नहीं हूँ।४६।

• भक्त मेरे अनुयायी (मेरे पीछे-पीछे चलने वाले) हैं; वे सदैव मेरे चरणों की उपासना में तत्पर रहते हैं। इसलिए मैं भी सदा भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिए समर्पित रहता हूँ।४७।

• सभी ब्रह्माण्ड नष्ट होते और पुन: पुन: बनते हैं। परन्तु मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते वे सदैव नि:शंक( डर और शंका रहित) और सभी आपत्तियों से परे रहते हैं। और मैं सदा भक्तों के अधीन रहता हूँ क्योंकि भक्त मेरे अनुयायी हैं।४८।                        
ब्रह्मवैवर्तपुराण के समान ही भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ इसी प्रकार की बातें श्रीमद्भागवत पुराण के नवम- स्कन्ध के चतुर्थ- अध्याय-श्लोक संख्या-(६३-६४) में भी लिखी गई हैं कि- सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करने वाला परमेश्वर केवल अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं कि-

"अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतन्त्र इव द्विज।    साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:।६३।
                         
"नाहं आत्मानमाशासे मद्भक्तै: साधुभिर्विना। श्रियंचात्यन्तिकीं ब्रह्मन् ! येषां गति: अहं परा।६४।
अनुवाद-
मैं सब प्रकार से भक्तों के अधीन रहता हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधक भक्तों ने मेरे हृदय को अपने वश में कर लिया है। भक्त मुझको प्रिय हैं और मैं उन भक्तों को प्रिय हूँ।६३।

ब्राह्मण ! मैं अपने भक्तों का एक मात्र आश्रय हूँ। इसलिए मैं अपने साधक भक्तों को छोड़कर न मैं अपने को चाहता हूँ और न ही अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को।६४।
                  
इसी प्रकार गोपेश्वर श्रीकृष्ण के विषय में ब्रह्म वैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय-(२१) के श्लोक संख्या -(४१ और ४२) में लिखा गया है कि -

स्थिरयौवनयुक्ताभिर्वेष्टिताभिश्च सन्ततम्।। भूषणैर्भूषिताभिश्च राधावक्षःस्थलस्थितम्।४१।।

ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च पूजितं वन्दितं स्तुतम्।
किशोरं राधिकाकान्तं शान्तरूपं परात्परम्।४२।।

अनुवाद-

• स्थिर यौवन युक्त चारों तरफ आभूषणों से सुसज्जित वे श्रीकृष्ण श्रीराधा जी के वक्ष:स्थल पर स्थित रहते हैं।४१।

• ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवों द्वारा निरन्तर पूजित, वन्दित और जिनकी स्तुति की गयी हो; वे राधा जी के प्रिय श्रीकष्ण जिनकी अवस्था किशोर है। जो शान्त स्वरूप और परात्पर ब्रह्म हैं।४२।

फिर भगवान श्री कृष्ण की सर्वोच्चता उस समय सिद्ध होती है। जब भगवान श्रीकृष्ण एक समय राधा जी को अपने बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताईं थीं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त-पुराण के श्री कृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय -(६६) के श्लोक संख्या -(५० से ५९) तक के श्लोकों में मिलता है।
जिसमें भगवान श्री कृष्ण राधा जी से कहते हैं कि -
"आविर्भावाधिकाः कुत्र कुत्रचिन्न्यूनमेव च।
ममांशाः केऽपि देवाश्च केचिद्देवाःकलास्तथा।। ५०।

केचित्कलाः कलांशांशास्तदंशांशाश्च केचन ।
मदंशा प्रकृतिः सूक्ष्मा साच मूर्त्याच पञ्चधा।५१।।

सरस्वती च कमला दुर्गा त्वं चापि वेदसूः।
सर्वे देवाः प्राकृतिका यावन्तो मूर्तिधारिणः।५२।।

अहमात्मा नित्यदेही भक्तध्यानानुरोधतः ।
ये ये प्रकृतिका राधे ते नष्टाः प्राकृते लये।५३।।

अहमेवाऽऽसमेवाग्रे पश्चादप्यहमेव च।
यथाऽहं च तथा त्वं च यथा धावल्यदुग्धयोः।५४‌।।

भेदः कदाऽपि न भवेन्निश्चितं च तथाऽऽवयोः।
अहं महान्विराट् सृष्टौ विश्वानि यस्य लोमसु ।। ५५।

अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।५६।।

अयं विष्णोर्लोमकूपे वासो मे चांशतः सति ।
तस्य स्त्री त्वं च बृहती स्वांशेन सुभगा तथा । ५७।

तस्य विश्वे च प्रत्येकं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
ब्रह्मविष्णुशिवा अंशाश्चान्ये चापि च मत्कलाः ।५८।।

मत्कलांशांशकलया सर्वे देवि चराचराः।
वैकुण्ठे त्वं महालक्ष्मीरहं तत्र चतुर्भुजः।५९।।

अनुवाद -
• कहीं किन्हीं पदार्थों का आविष्कार अधिक होता है और कहीं कम मात्रा में कुछ देवता मेरे अंश हैं, कुछ कला हैं और कुछ अंश के भी अंश हैं। मेरी अंश स्वरूपा प्रकृति सूक्ष्मरूपिणी है। उसकी पाँच मूर्तियाँ है ।५०-५१।

• प्रधान मूर्ति तुम राधा,वेदमाता गायत्री,दुर्गा,लक्ष्मी आदि और जितने भी मूर्ति धारी देवता हैं वे सब प्राकृतिक हैं। और मैं उन सबका आत्मा हूँ।५२।।

• और भक्तों के द्वारा ध्यान करने के लिए मैं नित्य देह धारण करके स्थित रहता हूँ। हे राधे ! जो जो प्राकृतिक देह धारी हैं। वे सब प्राकृतिक प्रलय के समय नष्ट हो जाते हैं।

• सबसे पहले मैं वही था और सबके अन्त में भी मैं ही रहुँगा। हे राधे ! जिस प्रकार मैं हूँ ; उसी प्रकार तुम भी हो ! जिस प्रकार दुग्ध और उसका धवलता (सफेदी) में भेद नहीं हैं।५४।

• प्राकृतिक सृष्टि में मैं ही वह महान विराट हूँ। जिसकी रोमावलियों में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान है।५५।

• वह महा विराट् मेरा ही अँश है और तुम अपने अंश से उसकी पत्नी भी हो। जो समिष्टी (समूह) में है वही व्यष्टि (इकाई) में भी है। बाद की सृष्टि में मैं ही वह क्षुद्र विराट् विष्णु भी हूँ जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है।५६।।

• विष्णु के रोम कूपों में मेरा आंशिक निवास है। तुम्ही अपने अंश रूप से उसकी पत्नी हो।५७।।

• उस विराट विष्णु के रोम कूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश( शिव ) आदि देवता मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं।५६।

• हे देवि ! मेरे कला और अंश के द्वारा सम्पूर्ण स्थावर- जंगम (चराचर) जगत में विद्यमान है। वैकुण्ठ में तुम अपने अंश से महालक्ष्मी और मैं चतुर्भुज विष्णु रूप में हूँ।५९।   
    
अतः उपरोक्त श्लोक के आधार पर सिद्ध होता है कि परमात्मा श्रीकृष्ण ही परम परमेश्वर हैं।
इन सबके अतिरिक्त गोपेश्वर श्री कृष्ण की सर्वोच्चता का पता उस समय भी चलता है, जब भगवान श्री कृष्ण गोलोक में सृष्टि-सृजन  का कार्य करते हैं।

उस समय जो-जो देवता या श्रीकृष्ण की अंशभूत शक्तियां, उनके  जिस-जिस भाग व अंश से उत्पन्न होते हैं, वे सभी प्रलय काल में उसी क्रम से श्रीकृष्ण के उसी  भाग और अंश में विलीन हो जाते हैं।
        
इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय- (३४) के श्लोक संख्या- (५७) (५- ५९ )और (६०) से होती है। जो राधा-कृष्ण संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा जी से कहते हैं -

"चक्षुर्निमीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः।
प्रलये प्राकृताः सर्वे देवाद्याश्च चराचराः।५७।।

"लीना धातरि धाता च श्रीकृष्णे नाभिपङ्कजे।
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः।५८।

"रुद्राद्या भैरवाद्याश्च यावन्तश्च शिवानुगाः।
शिवाधारे शिवे लीना ज्ञानानन्दे सनातने ।५९।

"ज्ञानाधिदेवः कृष्णस्य महादेवस्य चात्मनः।
तस्य ज्ञाने विलीनश्च बभूवाथ क्षणं हरेः।६०।

"तस्य ज्ञाने विलीनश्च बभूवाथ क्षणं हरेः।
दुर्गायां विष्णुमायायां विलीनाः सर्व शक्तयः।६१।

सा च कृष्णस्य बुद्धौ च बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता ।
नारायणांशः स्कन्दश्च लीनो वक्षसि तस्य च।६२।

श्रीकृष्णांशश्च तद्बाहौ देवाधीशो गणेश्वरः ।
पद्मांशभूता पद्मायां सा राधायां च सुव्रते ।६३।

गोप्यश्चापि च तस्यां च सर्वा वै देवयोषितः।
कृष्णप्राणाधिदेवी सा तस्य प्राणेषु सा स्थिता ।६४।

सावित्री च सरस्वत्यां वेदशास्त्राणि यानि च ।
स्थिता वाणी च जिह्वायां तस्यैव परमात्मनः।६५।

गोलोकस्थस्य गोपाश्च विलीनास्तस्य लोमसु।
तत्प्राणेषु च सर्वेषां प्राणा वाता हुताशनः।६६।

अनुवाद:- (५७ - ६६)
• उस परम्-ब्रह्म परमात्मा के नेत्र - निमीलन (आँखें बन्द करने पर)  प्राकृतिक प्रलय हो जाती है। इसके परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण चराचर  जगत के प्राणी तथा देवादि गण पहले  ब्रह्मा में विलय होते या समा जाते हैं।५७। 

•और ब्रह्मा श्रीकृष्ण के अंश रूप क्षुद्रविष्णु के नाभि- कमल में विलय हो जाते हैं। और क्षुद्र-विष्णु भी विराट-विष्णु में और विराट-विष्णु सर्वोच्चत्तम व परिपूर्णत्तम सत्ता स्वराट्-विष्णु में (श्रीकृष्ण) में विलय हो जाते हैं। अर्थात्- इसी क्रम में क्षीरोदशायी विष्णु-नारायण और वैकुण्ठ निवासी चतुर्भुज विष्णु  गोपेश्वर श्रीकृष्ण के वामपार्श्व (बाई बगल) में समा जाते हैं।५८।

•  रूद्र और भैरव आदि जितने भी शिव के अनुचर हैं। वे मंगलाधार सनातन ज्ञान नन्दन स्वरूप शिव में लीन हो जाते हैं।५९।

• और ज्ञान के अधिष्ठात्री देव परमात्मा शिव उन श्री कृष्ण के ज्ञान में विलीन हो जाते हैं।६०।

• संपूर्ण शक्तियां विष्णु माया दुर्गा में तिरोहित हो जाती है।६१।

• विष्णु माया दुर्गा भगवान श्री कृष्ण की बुद्धि में स्थान ग्रहण कर लेती है, क्योंकि वे उनकी बुद्धि की अधिष्ठात्री की देवी है। नारायण के अंश स्वामिकार्तिकेय उनके वक्षः स्थल में लीन हो जाते हैं।६२।

• सुब्रते ! गणों के स्वामी देवेश्वर गणेश को भगवान श्रीकृष्ण का अंश माना गया है। वे उनकी दोनों भुजाओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। लक्ष्मी की अंशभूता देवियां लक्ष्मी में तथा लक्ष्मी श्रीराधा में लीन हो जाती हैं।६३।

• गोपियां तथा संपूर्ण देवपत्नियां भी श्रीराधा में ही लीन हो जाती हैं। भगवान श्री कृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी श्रीराधा उनके प्राणों में निवास कर जाती हैं।६४।

• सावित्री, वेद एवं संपूर्ण शास्त्र सरस्वती में प्रवेश कर जाते हैं।और सरस्वती परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा में विलीन हो जाती है।६५।

• गोलोक के संपूर्ण गोप भगवान श्रीकृष्ण के रोम कूपों लीन हो जाते हैं। और उन प्रभु के प्राणों में सम्पूर्ण प्राणियों की प्राण स्वरूप वायु का तथा उनकी जठराग्नि में समस्त अग्नियों का विलय हो जाता है।६६।

इसी क्रम में श्रीराम तथा उनके चारो भाइयों सहित सीताजी को भी श्रीकृष्ण के विग्रह में विलीन हो जाने की पुष्टि- गर्गसंहिता के गोलक खंड के अध्याय- (तीन) के श्लोक- (६-७),और (८) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"तदैव चागतः साक्षाद्‌रामो राजीवलोचनः।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः॥ ६॥

*दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे।
असंख्यवानरेन्द्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने॥ ७॥

"लक्षध्वजे लक्षहये शातकौम्भे स्थितस्ततः ।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः सम्प्रलीनो बभूव ह॥ ८॥


अनुवाद - ६-८ • वे पूर्ण स्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहां (गोलोक) में पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में सीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। ५-६।
• उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था उसपर निरंतर चम्बर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानरयूथपति उनकी रक्षा के कार्यों में संलग्न थे। उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गंभीर ध्वनि निकल रही थी। उसपर लाख ध्वजाएं फहर रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ स्वर्णमय था। उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहां पधारे थे। वह भी श्रीकृष्णचंद्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गए।७-८।                          

 [ अध्याय - तृतीय] 

  [अध्याय- ३ (।।)✓✓✓


अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के आदि (प्रारम्भ) और अन्त भी हैं। और यहीं श्रीकृष्ण अपने परात्पर स्वरूप में अनन्त भी हैं। क्योंकि सृष्टि काल में वे ही प्रभु अपने विग्रह ( शरीर) से जिस क्रम में सृष्टि का निर्माण करते हैं, और समय के अनुरूप वे ही प्रभु पुन: प्रलय काल में सम्पूर्ण सृष्टि का अपने विग्रह (शरीर) में विलय भी उसी प्रकार कर लेते हैं। जैसे "मकड़ी अपने शरीर से लार के द्वारा जाला बनाकर उसमे स्थित हो जाती है । और फिर कुछ समय पश्चात वही मकड़ी उस जाले को निगल कर अपने शरीर में समेट लेती है। 
यही परमात्मा श्री कृष्ण का शाश्वत स्वरूप है जो साकार और निराकार के साथ- साथ आदि, अन्त और अनंत तथा सनातन भी है। वे ही सनातन भगवान श्रीकृष्ण- सृष्टि कर्ता, पालन कर्ता, और संहार कर्ता भी है।
यह सृष्टिजगत परमात्मा श्री कृष्ण का ही शाश्वत स्वरूप है। और इन सभी बातों की पुष्टि भगवान शिव ने ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड के अध्याय- (४८) के श्लोक संख्या-(४८) और (४९) में स्वयं कहकर की हैं - जो शिव पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं-

"आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् । ४८।

परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम् । ४९।


अनुवाद:-
• हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८।

• केवल त्रिगुणातीत परम- ब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो। ४९।

फिर भगवान शिव- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्डः अध्याय-(१७ के श्लोक संख्या -६३) में कहते हैं -

"भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।
सर्वेशं सर्वरूपं च सर्वात्मानन्तमीश्वरम।।६३।     
    
अनुवाद:- केवल त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा श्रीराधावल्लभ श्रीकृष्ण ही परम सत्य है ; अतः तुम उन्हीं की आराधना करो।६३।
            
इस प्रकार से भगवान शिव और पार्वती संवाद से भी सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण ही परम प्रभु है, और उनकी ही आराधना करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव हो सकता है। क्योंकि वास्तव में यदि देखा जाए तो परमेश्वर अर्थात् श्रीकृष्ण अपने आप में सबकुछ है। उसमें परस्पर सभी विरोधी रूप सम-भाव में स्थापित है। उनकी परस्पर प्रतिक्रिया स्वरूप विषमता होने पर ही सृष्टि रचना प्रारम्भ होती हैं। इसलिए वे ही  प्रथम सृजन कर्ता, हर्ता और भर्ता भी है। इस बात को ब्रह्मवैवर्त पुराण के अध्याय- (३) का यह महत्वपूर्ण श्लोक बारहवाँ दर्शाता हैं कि-

"निष्कामं कामरूपं च कामघ्नं कामकारणम्।
सर्वं सर्वेश्वरं सर्वं बीजरूपमनुत्तमम् तस्मै प्रभवे नम:।१२।।


अनुवाद -
जो परमात्मा श्रीकृष्ण कामनाओं से रहित अर्थात (निष्काम) और कामदेव के रूप भी हैं। और जो काम -भाव के कारक उसके जन्म दाता भी हैं। सबके ईश्वर , सबके बीज (मूल) और  सब-कुछ हैं और वे उत्तम से भी उत्तम हैं उस प्रभु के लिए हम नमस्कार करते हैं।१२।

ध्यान रहे उपरोक्त श्लोक में "अनुत्तमम्"- विशेषण पद से सामान्य जन भ्रमित न हों क्योंकि उसकी व्याकरण सम्मत. विवेचना इस प्रकार से की गई है -
अनुत्तमम्= न उत्तमोयस्मात् अत्युत्कृष्टे = जिससे उत्तम नहीं है कोई अर्थात् अत्युकृष्ट ( वाचस्पत्यम्कोश ) इसके अलावा अमर कोश में भी अनुत्तमम् शब्द का अर्थ है - "नहीं है उत्तम  जिससे कुछ भी" अर्थात अत्युत्तम। अर्थ हुआ है।

नास्ति उत्तमः उत्कृष्टो यस्मात् सः - यह अर्थ बहुव्रीहि समास के द्वारा निर्धारित होता है।
ऐसे ही मनुस्मृति कार ने भी अनुत्तमम् पद  का एक अर्थ यही किया है।- नहीं है उत्तम जिससे कुछ भी-

‘"इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्।’
(स्रोत - मनुस्मृति अध्याय- २ श्लोक संख्या-९)
  
अनुवाद:- दान करने वाला मनुष्य इस लोक में कीर्ति और परलोक में उत्तम से भी उत्तम सुख  प्राप्त करता है। ९।     
          
इन सबके अतिरिक्त श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपने बारे में बहुत कुछ कहते हैं  और अर्जुन भी श्रीकृष्ण के बारे में बहुत कुछ कहते हैं। जिसे श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद के रूप में जाना जाता है जैसे- श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या- (१२ और ४२ ) में अर्जुन- श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-

"परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।।१२।।

अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२।
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म,
सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि रूपों में तत्वज्ञानी परमेश्वर श्रीकृष्ण को ही जानते हैं।

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।४२
।।
अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है, जबकि मैं अपने किसी एक अंश से इस संपूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हूँ अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे किसी एक अंश में है।४२।

परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७), और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन को बताते हैं कि-

"अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।।१६।

"पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।

"गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। १८।


अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।१६-१७-१८।
               
अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि  भगवान श्री कृष्ण ही परम प्रभु है, उनके अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नही है।
         
इस प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए यह अध्याय-(तीन) समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय- (चार) में जानकारी दी गई कि -
गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ ?

यह तो सर्वविदित है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना करते हैं। इसलिए उन्हें स्रष्टा भी कहा जाता है। किंतु प्रश्न यह है कि-  सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्मा जी को किसने उत्पन्न किया ? क्या ब्रह्मा- जी की सृष्टि रचना से पहले भी कोई सृष्टि रचना थी ? क्या ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग गोप और गोपियां भी हैं ? क्या  ब्रह्मा जी के चार वर्णों के अलावा कोई पाँचवाँ वर्ण भी इस भू-मंडल पर है ? इन तमाम प्रश्नों का उत्तर जाने बिना सृष्टि रचना के गूढ़ रहस्यों को जान पाना सम्भव नहीं है।

तो इन सारे प्रश्नों का वास्तविक समाधान करने वाला एकमात्र पुराण है "ब्रह्मवैवर्तपुराण"। क्योंकि यही एक ऐसा प्राचीनतम पुराण है, जो परमात्मा के विवर्त अर्थात् - परिवर्तन मयी विस्तार का वर्णन करता है। इसी विशेषण के कारण इसे ब्रह्मवैवर्तपुराण कहा जाता है। और यही एकमात्र ऐसा पुराण है जो परमात्मा की प्रथम सृष्टि रचना का भी वर्णन करता है। बाकी अन्य पुराण इसके बाद की सृष्टि रचना- जो  ब्रह्मा जी द्वारा की गई है उसका वर्णन करते हैं। यहीं कारण  है कि ब्रह्मवैवर्तपुराण को प्रथम पुराण माना जाता है।
               
सृष्टि सर्जन के प्रारम्भिक काल का वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या- (१ से ७) तथा (१८ से ३०) और (३१) में मिलता है। जिसमें सृष्टि के प्रारम्भिक क्रम को दर्शाते हैं।

"दृष्ट्वा शून्यमयं विश्वं गोलोकं च भयङ्करम्।
निर्जन्तु निर्जलं घोरं निर्वातं तमसा वृतम् ।।१।


आलोच्य मनसा सर्वमेक एवासहायवान् ।
स्वेच्छया स्रष्टुमारेभे सृष्टिं स्वेच्छामयः प्रभुः।।३।

आविर्बभूवुः सर्गादौ पुंसो दक्षिणपार्श्वतः ।
भवकारणरूपाश्च मूर्तिमन्तस्त्रयो गुणाः ।।४।

ततो महानहङ्कारः पञ्चतन्मात्र एव च।
रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाश्चैवेतिसंज्ञकाः ।।५।

आविर्बभूव पश्चात्स्वयं नारायणः प्रभुः ।
श्यामो युवा पीतवासा वनमाली चतुर्भुजः।।६।

शंखचक्रगदापद्मधरः स्मेरमुखाम्बुजः ।।
रत्नभूषणभूषाढ्यः शार्ङ्गी कौस्तुभभूषणः।।७।

आविर्बभूव तत्पश्चादात्मनो वामपार्श्वतः।
शुद्धस्फटिकसङ्काशः पञ्चवक्त्रो दिगम्बरः।। १८।

आविर्वभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात्।
महातपस्वी वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः।३०।

शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः।३१।

अनुवाद- १- से ३१ तक-
• प्रलय काल के उपरान्त भगवान ने देखा की सम्पूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव जन्तु नहीं है। १।

• तब जगत को इस शून्य अवस्था में देख मन ही मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एक मात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि रचना आरम्भ की।२-३।

• सबसे पहले उन परम पुरुष श्री कृष्ण के दक्षिणपार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्तव, अहंकार, पांच तमन्नाएं तथा रूप, रस, गंध, स्पर्श, और शब्द-ये पांच विषय क्रमशः प्रकट हुए।४-५।

• तदनन्तर श्री कृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ जिनकी अंग-कांति श्याम थी वे नित्य तरुण पीतांबर धारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनकी चार भुजाएं थीं, उन्होंने अपने हाथ में क्रमशः संख, चक्र, गदा, और पद्म धारण कर रखे थे।६-७।

• तत्पश्चात परमात्मा श्री कृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंककांति शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल एवं उज्जवल थी। उनके पांच मुख थे और दिशाएं ही उनके लिए वस्त्र थी अर्थात् वे निर्वस्त्र थे।१८।

• तत्पश्चात श्री कृष्ण के नाभि कमल से बड़े- बूढ़े महा तपस्वी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु ले रखा था। उनके वस्त्र, दांत और केश सभी सफेद थे। और उनके चार मुख थे। ३०-३१।
   
इन उपरोक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ है कि सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भिक चरण में भगवान श्री कृष्ण के लोक - गोलोक में परम प्रभु श्री कृष्ण  द्वारा नारायण, शिव और ब्रह्मा जी की भी उत्पत्ति हुई है। जिसमें ब्रह्मा जी, श्रीकृष्ण के आदेश पर अन्य लोकों में अपने हिसाब से सृष्टि करते हैं। इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितीयक सृष्टि- कर्ता कहा जाता है। किंतु मूल सृष्टि परमात्मा श्रीकृष्ण (स्वराट-विष्णु) के द्वारा ही होती है। इसीलिए श्रीकृष्ण को प्रथम सृष्टि कर्ता कहा जाता है। क्योंकि सब कुछ उन्हीं से उत्पन्न होता है और अंत में उन्हीं में विलीन हो जाता है।
                  
फिर सृष्टि- सर्जन के उसी क्रम में ब्रह्मा, शिव नारायण आदि की उत्पत्ति के समय ही गोपों की भी उत्पत्ति हुई। जिसका वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(5) के श्लोक संख्या- २५, (४० और ४२) से होती है, जिसमें लिखा गया है कि -

"आविर्बभूव कन्यैका कृष्णस्य वामपार्श्वतः।
धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्घ्यं प्रभोः पदे।
२५।

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।

अनुवाद -
गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण के वाम-पार्श्व से वामा के रूप में एक कामनाओं की प्रतिमूर्ति- प्रकृति रूपा कन्या उत्पन्न हुई जो कृष्ण के ही समान किशोर-वय थी।२५।

• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे। ४२।

गोप और गोपियां श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समरूप इसलिए थे, क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्री राधा की सूक्ष्मतम इकाई रूप अर्थात उनके क्लोन से हुई हैं। इसलिए - सभी गोप श्रीकृष्ण के समरूप तथा सभी गोपियों श्रीराधा के समरूप उत्पन्न हुईं।

इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि-  समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समरूप होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है।

और विज्ञान के इस समरूप सिद्धान्त से परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा, पूर्व काल में ही अपनी सूक्ष्मतम इकाइयों से समरूपण विधि द्वारा गोलोक में गोप- गोपियों की उत्पत्ति  कर चुके हैं।

किंतु विज्ञान परमात्मा श्रीकृष्ण के उस सिद्धांत को आज अपनी उपलब्धियां मानकर फूले नहीं समा रहा है।
    
इस प्रकार से सिद्ध होता है कि गोपों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण से तथा गोपियों की उत्पत्ति श्रीराधा से हुई है। इस बात को प्रमुख देवताओं  सहित परमात्मा श्रीकृष्ण ने भी स्वीकार किया है।

अब प्रश्न यह भी उत्पन्न हो सकता है ! कि राधा और कृष्ण तो द्वापर युग (आज से  लगभग साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए ) और आभीर अथवा गोप जाति तो सतयुग से ही अस्तित्व में है।

तो इसका समाधान यही है कि राधा और कृष्ण का गोलोक वासी रूप सनातन है। उसी से 
सत्युग के प्रारम्भ में गोलोक में ही गोपीयों और गोपों  की उत्पत्ति राधा और कृष्ण से हुई -

जैसे- गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में भगवान शिव ने पूर्व काल में पार्वती को भी ऐसा ही दृष्टान्त सुनाया था। जिसे शिव-वाणी समझ कर इस घटना को पुराणों में सार्वकालिक और सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया जाता है। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक संख्या- (४३) में मिलता है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-
"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।

अनुवाद -• श्रीराधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।
इस प्रकार से देखा जाए तो शिव जी के कथन से भी यह सिद्ध होता है कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से प्रारम्भिक रूप से गोलोक में ही हुई है। 
  
इसी तरह से गोप-गोपियों की उत्पत्ति  को लेकर परम प्रभु परमात्मा श्रीकृष्ण की वे सभी बातें और प्रमाणित कर देती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने अँश से उत्पन्न गोपों की उत्पत्ति के विषय में स्वयं ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६) के श्लोक संख्या -(६२) में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः
६२।
अनुवाद:- 
हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।

और ऐसी ही बात भगवान श्री कृष्ण उस समय भी कहते हैं- जब वे स्वयं भूतल पर गोप जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में अवतरित होते हैं।, और कुछ समय पश्चात कंस का वध करके मथुरा के सिंहासन पर पुन: कंस के पिता उग्रसेन को अभिषिक्त करते हैं।

और इसके  कुछ समय पश्चात उग्रसेन, श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ के आयोजन का परामर्श करते हैं।। उसी प्रसंग के क्रम में स्वयं श्रीकृष्ण उग्रसेन से कहते हैं कि- 
"सभी यादव मेरे अंश हैं"। इस बात की पुष्टि गर्गसंहिता के (विश्वजित्खण्डः) के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- (५ -६) और-(७ ) से होती है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-

"सम्यग्व्यवसितं राजन् भवता यादवेश्वर।
यज्ञेन ते जगत्कीर्तिस्त्रिलोक्यां सम्भविष्यति ॥५॥

आहूय यादवान्साक्षात्सभां कृत्वथ सर्वतः।
ताम्बूलबीटिकां धृत्वा प्रतिज्ञां कारय प्रभो ॥६॥

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- 
•  तब श्री कृष्ण ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। ५।

•  प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाईये।६।

•  क्योंकि ये समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।

गोपों की उत्पत्ति के बारे में कुछ ऐसा ही वर्णन उस समय भी मिलता है, जब  समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भूमण्डल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े, तब उस समय दन्तवक्र नाम के दैत्य से यादवों का भयानक युद्ध हुआ।
उसी समय श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने गर्गसंहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय-( 11 ) के श्लोक संख्या-(२१और २२) में दन्तवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहा-

"नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः। गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः।
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परै:।२२।

अनुवाद-
नंदराज साक्षात् द्रोण नामक वसु हैं, जो गोकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक में जो गोपालगण( आभीर) हैं, वे साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियों श्री राधा के रोम से उत्पन्न हुई हैं। वे सब की सब यहां ब्रज में उतर आई हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्री कृष्ण को प्राप्त हुई है।२१-२२।
                 
इस प्रकार से इन तमाम पौराणिक साक्ष्यों से स्पष्ट होता है प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्री कृष्ण ही है। उन्होंने अपनी  प्रथम सृष्टि रचना में नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति की है। जिसमें से भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों को तो अपनी लीला का सहचर बनाकर अपने साथ ही रहने दिया, और जब भी भूमि का भार हरण करने के लिए भूतल पर उन्हें आना होता हैं, तो वे अपने गोपों के साथ ही आते हैं, और भूमि का भार हरण कर पुनः गोप-गोपियों सहित अपने धाम- गोलोक को चले जाते हैं।
            
गोलोक में जब भगवान श्री कृष्ण ब्रह्मा, नारायण, शिव तथा देवताओं की उत्पत्ति कर लेते हैं तब उसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा जी को बुलाकर उनके कर्म- एवं दायित्वों को निश्चित करते हुए ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खंड के अध्याय-(६ ) के श्लोक संख्या-(७१) और-(७२) में कहते हैं-
"मदीयं च तपः कृत्वा दिव्यं वर्षसहस्रकम् ।
सृष्टिं कुरु महाभाग विधे नानाविधां पराम् ।७१।

इत्युक्त्वा ब्रह्मणे कृष्णो ददौ मालां मनोरमाम्।
जगाम सार्द्धं गोपीभिर्गोपैर्वृन्दावनं वनम् ।
७२। 

अनुवाद-
• महाभाग विधे ! अर्थात ब्रह्मा जी ! तुम सहस्र दिव्य वर्षों तक मेरी प्रसन्नता के लिए तप करके नाना प्रकार की उत्तम सृष्टि करो।

• ऐसा कह कर श्री कृष्ण ने ब्रह्मा जी को एक मनोरम माला दी। फिर गोप- गोपियों के साथ वे नित्य नूतन दिव्य वृन्दावन में चले गए।
(ध्यान रहे गोलोक में भी वृंदावन है)
इसके बाद भगवान श्री कृष्ण का आदेश पाकर ब्रह्मा जी विविध प्रकार की उत्तम सृष्टि रचना का कार्य प्रारंभ करते हैं।
इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितीयक सृष्टि रचनाकार भी कहा जाता है, जिसमें ब्रह्मा जी अपनी मर्यादा में रहकर ही सृष्टि की रचना करते हैं। जिसमें वे संपूर्ण ब्रह्मांड में अनंत लोकों रचना करते हुए उनमें जड़, जीव, जगत इत्यादि की सुन्दर रचना किये हैं। उसी क्रम में उन्होंने मानवीय सृष्टि  के चातुर्यवर्ण की भी रचना की है। जिसमे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों  की सामाजिक स्थितियां बनी है।
       
किंतु ब्रह्मा जी सबसे उपर वाले गोलक और उससे क्रमशः नीचे शिव लोक और वैकुण्ठ लोक तथा गोप और गोपियों की सृष्टि रचना नहीं करते हैं। यहीं कारण है कि गोपों को ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना का भाग नहीं माना जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय-५ के श्लोक -१२ से १७ में  भी होती है
जो इस प्रकार है-

"ब्राह्मवाराहपाद्माश्च त्रयः कल्पा निरूपिताः।
कल्पत्रये यथा सृष्टिः कथयामि निशामय।१२।

"ब्राह्मे च मेदिनीं सृष्ट्वा स्रष्टा सृष्टिं चकार सः।
मधुकैटभयोश्चैव मेदसा चाज्ञया प्रभोः।१३।।

"वाराहे तां समुद्धृत्य लुप्तां मग्नां रसातलात् ।
विष्णोर्वराहरूपस्य द्वारा चातिप्रयत्नतः।१४ ।


"पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे ।।
त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना।१५।


'एतत्तु कालसंख्यानमुक्तं सृष्टिनिरूपणे।।
किंचिन्निरूपणं सृष्टे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।१६।


"अतः परं किं चकार भगवान्सात्वतांपतिः ।।
एतान्सृष्ट्वा किं चकार तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ।। १७ ।।

   
अनुवाद -( १२ से १७ ) तक-
ब्रह्मकल्प में मधु-कैटभ के मेद (चर्बी) से मेदिनी ( पृथ्वी ) की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि रचना की थी। फिर वाराह कल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गई थी, तब वाराहरूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्न पूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि रचना की।
तत्पश्चात पाद्मकल्प में सृष्टि- कर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि- कमल पर सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी (तीन लोक) है, उसकी  रचना की। किंतु उसके ऊपर जो नित्य तीन लोक (शिवलोक, वैकुण्ठलोक, और उससे भी ऊपर गोलोक है ) उसकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।
      
कुल मिलाकर ब्रह्मा जी सभी की सृष्टि करते हैं किंतु उनकी भी कुछ मर्यादाएं हैं- जैसे वे सत्य सनातन एवं चिरस्थाई- वैकुण्ठ लोक, शिवलोक, और सबसे ऊपर गोलोक और उसमें रहने वाले गोप और गोपियों की सृष्टि नहीं करते। 
क्योंकि गोप और गोपियों की उत्पत्ति तो भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा के रोम-कूपों से उसी समय हो जाती है जिस समय नारायण, शिव और ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। तो ऐसे में ब्रह्मा जी, गोपों की उत्पत्ति दुबारा (पुनः) कैसे कर सकते हैं ?

तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि- जब गोप, ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है तो स्पष्ट सी बात है कि वे ब्रह्मा जी की चातुर्वर्ण्य से भी अलग हुए होगें। तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब गोप ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के भाग नहीं हैं तो इनका वर्ण क्या है ? अर्थात् ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र  इत्यादि में से क्या हैं ? तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसके अगले अध्याय- पांच और छः में किया गया है। वहां से इस विषय पर संपूर्ण जानकारी मिलेगी।
      
इस प्रकार से यह अध्याय इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं जिनसे सर्वप्रथम गोलोक में नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति हुई जो ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य से अलग हैं।
    
अब इसके अगले अध्याय- (५) में जानकारी दी गई है कि - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताएं क्या है ?

इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य भगवान विष्णु के "वैष्णव वर्ण" तथा ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति के साथ-साथ दोनों वर्णों में वैचारिक अंतर और कुछ मूलभूत विशेषताओं को बताना है। 

इसके लिए प्रमुख - (तीन) शीर्षकों और उप शीर्षकों में विभाजित किया गया है -
[क] - वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति।
[ख] - ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
[ग ] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अंतर-

       [१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
       [२] यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
       [३] भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।

        _______________________________

 [क]-वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति।     ________________________________

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रथम वैष्णववर्ण और वैष्णव धर्म के प्रवर्तक तथा संरक्षक गोपेश्वर श्रीकृष्ण ही हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (७३ के श्लोक- ९२) में स्वयं अपने को वैष्णव होने की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-

पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।।९२।


अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूं । और वनों में चंदन हूं। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ। और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ।९२।

"नि:शङ्क शब्द की व्याकरणिक व्युत्पत्ति विश्लेषण-

नि:शङ्क- निस् निषेध वाची उपसर्ग + शङ्क = भय (त्रास) भीक:अथवा डर।
नि:शङ्क पुलिङ्ग शब्द है जिसका अर्थ होता है- निर्भीक अथवा निडर।)

नि:शङ्क का मूल अर्थ निर्भीक है और निर्भीक का अर्थ होता- जो भयभीत नही होता हो।
अत: नि:शङ्क अथवा निर्भीक विशेषण पद आभीर शब्द का पर्याय है। जो अहीरो (गोपों) की जातिगत प्रवृत्ति को सूचित करता है।
आभीर लोग वैष्णव वर्ण तथा वैष्णव धर्म के अनुयायी होते ही हैं।
अत: ब्रह्मवैवर्तपुराण श्रीकृष्ण जन्मखण्ड का उपरोक्त श्लोक गोप जाति की निर्भीकता प्रवृत्ति का भी संकेत करता है।

अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि- "वैष्णव वर्ण" और धर्म की उत्पत्ति श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। जिसमें केवल गोप जाति के लोग आते हैं। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।

"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु (श्रीकृष्ण) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वह  वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।

इस सम्बन्ध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से उत्पन्न ही बताया गया है-

विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।

अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव पद पुल्लिंग रूप में बनता हैं। और स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द रूप- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।

कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं। वैष्णव वर्ण को ही पञ्चंमवर्ण भी कहा जाता है। पञ्चंमवर्ण के गोपों की उत्पत्ति सर्वप्रथम गोलोक में स्वराट विष्णु अर्थात श्रीकृष्ण के रोम कूपों से हुई है। इस कारण देखा जाए तो यह प्रथम वर्ण भी है। ब्रह्मा की चातुर्यवर्ण की उत्पत्ति इसके बाद हुई है। गोप वैष्णव वर्ण के प्रमुख सदस्य पति होने के कारण से ये ब्रह्मा जी के चातुर्यवर्ण से परे हैं। इस बात को इसके पिछले अध्याय- (चार) में बताया जा चुका है। वहाँ से वैष्णव वर्ण तथा गोपों की उत्पत्ति की विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

 इसी क्रम में अब हमलोग जानेंगे कि ब्रह्मा जी के "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति कैसे हुई।
            _____________________________

    [क]- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति।
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सर्वविदित है कि देवो के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्यवर्ण" की उत्पत्ति हुई। इस बात की पुष्टि -विष्णु पुराण के प्रथमांश के छठे अध्याय के श्लोक- (६) से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम ।
पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१/६/६।


अनुवाद:-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।।६।

फिर इसी जन्मगत आधार पर ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था भी चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र) में विभाजित हो गई। इस बात की पुष्टि

पद्मपुराण  सृष्टिखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या-(१३०) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-

"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम। पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१३०।  

अनुवाद- पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।१३०।

इस सम्बन्ध में अत्रि संहिता का (१४०) वाँ श्लोक भी यही सूचित करता है कि -
"जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते॥१४०


अनुवाद:- ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हाेने वाला जन्म से ही 'ब्राह्मण' कहलाता है। फिर उपनयन संस्कार हाे जाने पर वह 'द्विज' कहलाता है और विद्या प्राप्त कर लेने पर वही ब्राह्मण 'विप्र' कहलाता है। इन तीनाें नामाें से युक्त हुआ ब्राह्मण 'श्राेत्रिय' कहा जाता है।१४०।
(विशेष:- श्रुति (वेद) के ज्ञाता ब्राह्मण ही श्रोत्रिय कहलाता है।)
ज्ञात हो ब्रह्मा जी के इन चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए हुई। इस बात की पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥


अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया। ७।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान विष्णु से वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति हुई वहीं दूसरी तरफ ब्रह्मा जी से चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति हुई।

और इन दोनों वर्णों से दो प्रकार की संस्कृतियों का भी उदय हुआ। एक ब्राह्मणी संस्कृति और दूरी वैष्णवी संस्कृति। जो दोनों ही एक दूसरे के विपरीत विचारधारा वाली संस्कृतियाँ हैं।

    
   [ग ] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अंतर-
     
इन दोनों के वर्णों अर्थात् संस्कृतियों में प्रमुख रूप से (३) प्रकार के युगलान्तर (भेद) देखने को मिलता है। जिसको क्रमशः बिन्दुवार दर्शाया गया है।
[१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर-
[२] यज्ञ मूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
[३] भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।

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       [१]  जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर
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(क) "ब्राह्मी वर्णव्यवस्था जन्मगत है"
ज्ञात हो कि-चातुर्वर्ण्य व्यवस्था- ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना है, जिसमें जन्म के आधार पर वर्ण -विभाजन की एक सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है।
रूढ़िवादी पुरोहितों की मान्यता है कि पूर्वजन्म के पुण्य- पाप कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्रों के घर में जन्म मिलता है।

यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं तो ब्राह्मण के घर में जन्म मिलेगा और बुरे कर्म किए हैं तो शूद्र के घर में जन्म मिलेगा। कर्मों के अच्छे-बुरे अनुपात से ही व्यक्ति को कभी वैश्य तो कभी क्षत्रिय के घर में जन्म मिलता है। पर ये सिद्धान्त दोषपूर्ण है- क्यों कि जन्म से व्यक्ति की महानता का निश्चय नहीं होता मानव जाति में मनुष्य के व्यक्तित्व (व्यक्ति के बाह्य और आन्तरिक गुणों) का निर्माण उसका परिवेश और माता-पिता के आनुवांशिक विशेषताएँ ही करती हैं। यह तो समाज में प्रत्यक्ष देखा जाता है कि सभी ब्राह्मण जन्म से ही सात्विक प्रवृत्ति वाले और ईश्वर चिन्तक नहीं होते हैं। ब्राह्मणों में भी बहुतायत लोग तामसिक व राजसी  प्रवृत्ति वाले होते हैं। इसी प्रकार  स्वयं को परम्परागत रूप से क्षत्रिय कहने वाले लोगों की सन्तान भी वीर तथा साहसी नहीं होती ।
वैश्य और शूद्रों के विषय में  इसी प्रकार कहा जा सकता है। हर समाज में हर तरह के व्यक्ति पैदा होते हैं। दो चार व्यक्तियों से ही किसी समाज की प्रवृत्तियों का निर्धारण नहीं किया जा सकता।
दूसरी बात यह कि व्यक्ति की प्रवृत्तियों का निर्धारण अथवा निश्चय  व्यक्ति की वृत्ति (व्यवसाय) एवं उसके कर्म से होता हैं न कि जन्म से।

कुछ प्रवृत्तियों का निर्धारण माता-पिता के आनुवांशिक गुणों तथा कुछ का पूर्वजन्म के कर्म- संस्कारों से होता है। इसलिए यह कहना महती मूर्खता है कि पूर्व जन्म के पाप और पुण्य कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के घर में जन्म मिलता है।

कुल मिलाकर - कहने का तात्पर्य यह है कि- ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से जन्मगत अथवा जन्म के आधार पर भेद करते हुए सामाजिक वर्ण व्यवस्था लागू करती है जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार प्रकार के वर्ग समूह होते हैं।

(ख)- वैष्णवी वर्ण व्यवस्था का आधार जन्मगत नहीं कर्मगत है।

ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के जन्मगत आधार के विपरीत वैष्णव वर्ण में गुण' प्रवृति (स्वभाव) और कर्म के आधार पर  ही वर्ण- विभाजन की सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। यही सत्य और विज्ञान सम्मत है। 
क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता एक वैष्णव ग्रन्थ है जिसमें वर्ण व्यवस्था को कर्म गत ही माना है जन्मगत नहीं। 

इसकी पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता -(4/13) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।
अनुवाद:-
मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फलों में मेरी कोई स्पृहा (इच्छा) नहीं है, इसलिये मुझे कर्म कभी लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कभी कर्मों से नहीं बँधता है ।4/13।

और यही सत्य है क्योंकि इच्छाओं से प्रेरित कर्म ही फलदायी होते हैं। और उन अच्छे - बुरे फलों को भोगने के लिए पुनर्जन्म होता है। और यह जन्म व्यक्ति की इच्छा मूलक प्रवृतियों के अनुरूप विभिन्न योनियों ( शरीरों) में होता है। यही इस संसार का सनातन नियम है।
कर्म का फल" फल का भोग।
जीवन जगत् का यह संयोग

कर्मा: फलानि उत्पादयन्ते तानि फलानि परिणामानि रूपाणि भोक्तुं प्राणीनि जन्मानि लभन्ते  ये च जायन्ते ते अवश्यं म्रियन्ते  जन्ममरणं च जगत्।
 अर्थ:-
कर्म फल उत्पन्न करते हैं और उन फलों, परिणामों और रूपों का आनंद लेने के लिए प्राणियों का जन्म होता है और जो पैदा होते हैं उन्हें मरना ही पड़ता है, और जन्म और मृत्यु ही संसार है।
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भक्ति- ज्ञानयोग और कर्मयोग के मध्य की अवस्था है। यह सच्चे अर्थों में निष्काम कर्मयोग है। अर्थात् ईश्वर का ईश्वर को समर्पित कर्म ही भक्ति है- श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश है। इसके लिए नीचे श्लोक- देखें।

'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।

भावार्थ:-
भगवान कृष्ण कहते हैं !  तेरा कर्म में ही अधिकार है उसके फल में नहीं। अर्थात्  (कर्म मार्ग में ) कर्म करते हुए तेरा फल में कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा ( इच्छा ) होगी तो तू कर्मफलप्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफलप्राप्तिका कारण तू मत बन।
क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना (इच्छा) से प्रेरित होकर कर्म करने  में लगता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है।

इसी सिद्धांत के अनुसार वैष्णव वर्ण व्यवस्था भी स्थापित है जो जन्मगत आधार पर न होकर कर्मगत आधार पर स्थापित है।

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        [२] यज्ञ मूलक एवं भक्ति मूलक अन्तर
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(क)- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था पूरी तरह से कर्मकाण्डों एवं यज्ञों आधारित है। जिसमें कर्मकाण्ड एवं यज्ञ का विधान ब्राह्मण प्रधान चारों वर्णों के लिए ही है। इस बात को पूर्व में बताया जा चुका है कि- चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। जिसकी पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥

अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।। ७।।

ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में भक्ति-भजन की अपेक्षा कर्मकाण्डों एवं यज्ञों पर विशेष महत्व दिया जाता है। इनके कर्मकाण्डी यज्ञों में सर्वप्रथम पशु बलि का प्रावधान इन्द्र के द्वारा किए गए यज्ञों से ही प्रारम्भ हुआ था। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण /अध्यायः १४३ के प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें ऋषियों ने इंद्र से पूछा कि -

             सूत उवाच।
             ऋषय ऊचुः !
कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।
पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः।१।

अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।
कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा।।२।

औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।
प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।।३।

वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः।
संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।।४।

एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्-

अनुवाद- १-४
ऋषियों ने पूछ— सूतजी ! पूर्वकाल में स्वायम्भुवमनु के कार्य काल में त्रेतायुग के प्रारम्भ में किस प्रकार यज्ञ की प्रवृत्ति हुई थी ?
जब कृतयुग( सत्युग) के साथ उसकी संध्या (तथा संध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुग की संधि प्राप्त हुई।
उस समय वृष्टि( वर्षा) होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्तावृत्ति( बाजार) की स्थापना हो गयी। उसके बाद वर्णाश्रम की स्थापना करके परम्परागत रूप से आये हुए मन्त्रोंद्वारा पुनः संहिताओं को एकत्र कर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई ?
हम लोगों के प्रति इसका यथार्थरूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजी ने कहा 'आपलोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये ॥1- 4॥

               "सूत उवाच !
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।।५।

दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।।६।

यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।।७।

सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।।८।

आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।।९।

य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये।।१०।

अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।।११।
*******
विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।

अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।।१२।

अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।।१३।
**
आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।

विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।।१४।

एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः।
एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।१५।
**
उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।।

तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणम्।
जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते।।१६।

अनुवाद- ५-१६
सूत जी कहते हैं-ऋषियो ! विश्व-भोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने इहलौकिक तथा पारलौकिक कर्मों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया।
उनके उस अश्वमेध यज्ञ के आरम्भ होने पर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए। उस यज्ञ-कर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकार के हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, सामगान करनेवाले देवगण विश्वास पूर्वक ऊँचे स्वर से सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वर से मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे।
पशुओंका समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवोंका आवाहन हो चुका था। जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे और जो प्रत्येक कल्पके आदिमें उत्पन्न होनेवाले आदिदेव (पूर्वदेव) थे, देवगण उन्हीं अपने पूर्वजों का यजन कर रहे थे।
इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ (समूह के समूह) ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओं को देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञ की यह कैसी विधि है ? आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषा से जो जीव-हिंसा करनेके लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है।
सुरश्रेष्ठ ! आपके यज्ञ में पशु हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसा के व्याज से धर्म का विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं।
यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो आगमविहित धर्मका अनुष्ठान कीजिये।
सुरश्रेष्ठ! आगम विहित विधि के अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्म के पालन से यज्ञके बीजभूत  त्रिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है। इन्द्र ! पूर्वकाल में ब्रह्मा ने इसी को महान् यज्ञ बतलाया है।'


तत्त्वदर्शी ऋषियों द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी विश्वभोक्ता इन्द्र ने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे अभिमान और मोह से भरे हुए थे।
फिर तो इन्द्र और उन महर्षियों के बीच 'स्थावरों या जङ्गमों में से किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बात को लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ।१५-१६।

किंतु इंद्र ने शक्ति संपन्न होने की वजह से ऋषियों की एक भी बात नहीं मानी और यज्ञों में पशु बलि को परंपरागत के रूप में जारी रखा। तभी से देव यज्ञों में पशुबलि की परंपरा प्रारंभ हुई। जिसमें पशुओं के मांस को भी खाना परंपरागत रूप से स्वीकार किया गया। जिसमें द्विजों (ब्राह्मणों) को मांस खाने की अनिवार्यता को व्यासस्मृति के अध्याय- (तीन) के श्लोक- (५४) में बड़े ही स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि -

"क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतित द्विज:। मृगयोपार्जितं मासमभ्यर्च पितृदेवता:।५४।

अनुवाद:- यज्ञ और श्राद्ध में जो द्विज मांस नहीं खाता, वह पतित हो जाता है। मृगया (शिकार) से उपार्जित मांस से पितर और देवों की अभ्यर्चना (पूजा) करनी चाहिए।५४।

ऐसी ही बात कूर्मपुराण-उत्तरभाग के अध्याय (१७) के श्लोक (३६ से ४१) में भी कही गई है कि -

मत्स्यान स शल्कान भुत्र्जीयात् मासम् रौरवम् एव च ।
निवेद्य देवताभ्यः तु ब्राह्मणेभ्यः तु न अन्यथा  ।।३६।।


मयूरं तित्तिरं चैव कपोतं च कपिञ्जलम्।
वाध्रीणसं वकं भक्ष्यं मीनहंसपराजिता:।। ३७।।

शफरम् सिंहतुण्डम् च तथा पाठीनरोहितौ ।
मत्स्याः च एते समुद्दिष्टा भक्षणाय द्विजोत्तमाः ।।३८।।

प्रोक्षितं भक्षयेदेषां मांसं च द्विजकाम्यया।
यथाविधि नियुक्तं च प्राणानामपि चात्यये।।३९।।

भक्षयेन्नैव  मांसानि   शेषभोजी  न   लिप्यते।
औषधार्थमशक्तौ वां नियोगाद् यजकारणात्।। ४०।।

आमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे दैवे वा मांसमूत्सृजेत ।
यावन्ति पशुरोमाणि तावतो  नरकान्  व्रजेत् ॥४१॥

अनुवाद- ३६ से ४१

• शल्क मछली और रूरूमृग (काले हिरन) का मांस देवता और ब्राह्मणों को समर्पित करने योग्य (नैवेद्य) के रूप में भोग कराना चाहिए ।३६।
• मोर, तीतर और इसी प्रकार कबूतर, चातक (पपीहा या , कपिञ्जल), गैंडा, बगुला, मछली हंस सभी  जानवर शिकार किए हुए खाने योग्य हैं।३७।
• शफरी-मछली तथा  सिंहतुण्ड (शेर जेसे तुण्ड-वाली एक प्रकार की मछली पाठीन (पढिना),मछली रोहित मछली ये भी खाने के लिए बतायी गयीं है।३८।
• धो पौंछ कर ही ब्राह्मण को मांस इच्छानुसार खाना चाहिए। शास्त्र विधि के अनुसार शिकार किए हुए प्राणी के प्राण निकल जाने पर ही उसके मांस का भक्षण करना चाहिए ।३९।
यज्ञ के पश्चात बचा हुआ मांस खाकर ‌व्यक्ति पाप से लिप्त नहीं होता है। औषधि के रूप में अशक्त (कमजोर) व्यक्ति को भी माँस खाना चाहिए। ४०।
• यदि पितरों के श्राद्ध अथवा देवों के यज्ञ में आमन्त्रित व्यक्ति मांस को नहीं खाता है, तो वह उतने समय तक नरक में रहता है जितने रोम एक पशु के शरीर पर होते हैं।४१

इन उपरोक्त श्लोक से यह सिद्ध होता है कि पूर्व काल में ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत देव यज्ञों एवं अन्य प्रमुख  अवसरों(मौकों) पर पशु बलि एवं मांस खाने और खिलाने की प्रथा विद्यमान थी। जिसमें देवताओं को मांस चढ़ाया जाता था और द्विज (ब्राह्मण) लोग भी उसे खाते थे। और जो मौके पर नहीं खाता, वह नर्कगामी होता था।

तान्त्रिक ग्रन्थों में आगम का लक्षण निम्नलिखित है।
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आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतञ्च गिरिजानने ।
मतञ्च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते
अनुवाद:-  शिव के मुख से आया हुआ और पार्वती को  मुख में पहुँचा हुआ तथा वासुदेव कृष्ण का मत( माना हुआ) उसी को आगम कहा जाता है।।
आगम की ही एक अपर संज्ञा है – तंत्र। तंत्र और आगम, समानार्थी अर्थों में  शास्त्रों में प्रयुक्त होते रहे हैं। 

आगम इन सात लक्षणों से समन्वित होता है :- सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षट्कर्म, (शांति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन तथा मारण) साधन तथा ध्यानयोग। ये आगम ग्रन्थ के लक्षण हैं।


तन्त्रशास्त्र का वह अंग जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, उनका साधन, पुरश्चरण-(हवन आदि के समय किसी विशिष्ट देवता का नाम जप  अथवा किसी मंत्र, स्तोत्र आदि को किसी अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये किसी निश्चित समय और परिमाण तक नियमपूर्वक जपना या पाठ करना)  और चार प्रकार का ध्यानयोग होता है ।
आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतञ्च गिरिजान
ने। मतञ्च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते” ॥ 
इति (एतल्लक्षणं यथा -“सृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानां तथार्च्चनं । साधनञ्चैव सर्व्वेषां पुरश्चरणमेव च ॥ षट्कर्म्मसाधनं चैव ध्यानयोगश्चतुर्विधः । सप्तमिर्लक्षणैर्युक्तं त्वागमं तद्विदुर्बुधाः”॥ इति इति यथा रघुवंशे । १० । २६

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इसमें ज्ञान, कर्म और उपासना आदि के विषय में बताया गया है। वेद-शास्त्रों को निगम कहते हैं।शास्त्रों के  उस स्वरूप को आगम कहते हैं जो  व्यवहार अथवा आचरण में उतारने वाले उपायों का रूप होता है।। तन्त्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही मुख्य है

आगमात् शिववक्त्राद् गतं च गिरिजा मुखम्। सम्मतं वासुदेवेनागमः इति कथ्यते ॥

जिससे अभ्युदय-लौकिक कल्याण और निःश्रेयस-मोक्ष के उपाय बुद्धि में आते हैं, वह आगम कहलाता है। [वाचस्पति मिश्र, योग भाष्य, तत्व वैशारदी व्याख्या]

उपास्य देवता की भिन्नता के कारण आगम के तीन प्रकार हैं :- वैष्णव आगम (पंचरात्र तथा वैखानस आगम), शैव आगम (पाशुपत, शैवसिद्धांत, त्रिक आदि) तथा शाक्त आगम। 

द्वैत, द्वैताद्वैत तथा अद्वैत की दृष्टि से भी इनमें तीन भेद माने जाते हैं। 

आगम वेदमूलक और सम्पूरक हैं। इनके वक्ता प्रायः भगवान् शिव हैं।

यह शास्त्र साधारणतया तंत्रशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध है। निगमागम मूलक भारतीय संस्कृति का आधार जिस प्रकार निगम (वेद) है, उसी प्रकार आगम (तंत्र) भी है। 

दोनों स्वतंत्र होते हुए भी एक दूसरे के पोषक व सन् पूरक भी हैं। 

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निगम कर्म, ज्ञान तथा उपासना का स्वरूप बतलाता है तथा आगम इनके उपायभूत साधनों का वर्णन करता है।

(निगम  सैद्धांतिक है तो आगम प्रायौगिक) 

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किंतु इसके विपरीत वैष्णवीवर्ण व्यवस्था में देव यज्ञों की तरह ना ही कोई यज्ञ का प्रावधान है और ना ही पशु बलि एवं मांस खाने का विधान है। 

क्योंकि वैष्णवी वर्ण व्यवस्था कर्मकाण्डो से दूर पूरी पूर्णरूपेण भक्ति पर आधारित है। जिसको नीचे विस्तार पूर्वक बताया गया है।


  (ख)  वैष्णवी वर्ण व्यवस्था- भक्तिमूलक है -
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जैसा कि प्रमाण सहित ऊपर बताया जा चुका है कि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सर्वप्रथम इंद्र के द्वारा हिंसा पूर्ण देव यज्ञों का विधान किया गया था जिसमें पशुओं के मांस खाने का भी विधान था। किंतु इसके विपरीत वैष्णवी व्यवस्था पूर्णतः वैष्णव भक्ति पर आधारित है। क्योंकि यज्ञों में पशु बलि को लेकर मत्स्य पुराण के (१४३) वें अध्याय का (३३) वां श्लोक में देव यज्ञ और भक्ति में भेद करते हुए लिखा गया है कि- यज्ञ और भक्ति का पृथक-पृथक फल होता है।

द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।३३


अनुवाद- द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकने वाले वैष्णव यज्ञ तप के समान ही हैं। परन्तु पशु वध मूलक यज्ञों से देवताओं की प्राप्ति होती है तथा तपस्या एवं भक्ति से विराट् ब्रह्म (परमेश्वर- स्वराट् विष्णु) की प्राप्ति होती है।३३।

इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भगभद्गीता के अध्याय - (४ के श्लोक- २८) से भी होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ का वास्तविक अर्थ बताते हुए यज्ञ के पांच भेद बताए हैं।

"द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।२८।


व्याख्या :- इस प्रकार बहुत सारे संयमी पुरुष हैं, जो द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ व  ज्ञानयज्ञ आदि व्रतों का अनुशासित रूप से पालन करते हैं ।२८।

विशेष :- इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने "यज्ञ" के पांच भेद बताए गए हैं। जो देव यज्ञों के ठीक विपरीत हैं।

(१) द्रव्ययज्ञ :-द्रव्य का अर्थ पदार्थ होता है, इसलिए समाज या लोकहित के लिए सांसारिक साधनों को उपलब्ध करवाना द्रव्य यज्ञ कहलाता है । जैसे- जरूरतमंदों को भोजन, वस्त्र व दवाईयाँ आदि उपलब्ध करवाना ।

(२) तपोयज्ञ :- सभी प्रकार की अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों को सहजता से सहन करते हुए कर्तव्य का पालन करना ही तपोयज्ञ कहलाता है।

(३) योगयज्ञ :- योग साधना द्वारा शरीर व मन पर नियंत्रण पाकर, मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होना योगयज्ञ कहलाता है।

(४) स्वाध्याय यज्ञ :- मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय यज्ञ कहलाता है ।

(५) ज्ञानयज्ञ :- विवेक व वैराग्य आदि सदगुणों का पालन करते हुए साधना मार्ग पर निरन्तर बढ़ते रहना ज्ञानयज्ञ कहलाता है।


[अध्याय-पञ्चम ] (।।)√√√•

देखा जाए तो उपर्युक्त श्लोक में भगवान कृष्ण ने पांच प्रकार के यज्ञों में देव यज्ञों, जिसमें पशु बलि का प्रावधान है  उसका वर्णन नहीं किया है।
अतः मत्स्यपुराण के उपरोक्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है कि इंद्र के सारे यज्ञ पशु बलि पर ही आधारित थे। जो पशुपालकों के लिए बहुत दु:खद वपशुसंरक्षण की समस्या थी। इसी कारण से गोपालक एवं पशु-पक्षी प्रेमी भगवान श्रीकृष्ण ने बल पूर्वक सभी देव-यज्ञों को विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी। 

क्योंकि इन्द्र के यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती थी। इसके विकल्प में भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पूजा (प्रकृति पूजा) का सूत्रपात किया और स्पष्ट रूप से उद्घोषणा की "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों से देवों को प्रसन्न किया जाता हो ऐसी देव पूजा व्यर्थ ही है। 

क्योंकि भगवान की उपासना में प्रेम और आत्मीयता की प्रधानता होती है किसी पूजन विधि या कर्मकाण्ड की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही या पाखण्ड ग्राही नहीं हैं। इसलिए यज्ञ वैष्णव भक्तों अर्थात् गोपों के लिए विहित कर्म नहीं है। क्योंकि गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति के  निश्चल भाव से आत्मसमर्ण पूर्वक ईश्वर का भजन एवं संकीर्तन करते हैं; यही  वैष्णवों का परम  कर्तव्य हैं। इस संबंध में वैष्णवों का मानना है की कर्मकाण्डों से न तो किसी को कोई आत्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और नाहीं संसार से किसी की मुक्ति हुई है।

क्योंकि परमेश्वर किसी नैवेद्य- का भी आकाँक्षी नहीं है। नैवेद्य तो देवों के लिए ही विहित कर्म  होता है। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण  प्रकृति खण्ड- अध्याय (३) एवं देवीभागवतपुराण स्कन्ध (९) अध्याय (३) से होती है।

जिसमें गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और राधा से उत्पन्न विराट पुरुष (विराट विष्णु) कहते हैं कि -

"मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै विभुः।
श्रूयतां तद्‌ ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते॥२८॥

"प्रतिविश्वं यन्नैवेद्यं ददाति वैष्णवो जनः।
तत्षोडशांशो विषयिणो विष्णोः पज्वदशास्य वै॥२९॥


"निर्गुणस्य आत्मनः च एव परिपूर्णतमस्य च।
नैवेद्येन च कृष्णस्य न हि किञ्चिद् प्रयोजनम् ।।३०।।

"यद्यद्ददाति नैवेद्यं तस्मै देवाय यो जनः।
स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीनाथो विराट् तथा॥ ३१॥


"अनुवाद- २८-२९, ३०-३१
• मन्त्र देकर प्रभु ने उसके (विराट पुरुष) के लिए आहार की भी व्यवस्था की। हे ब्रह्मपुत्र उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ। प्रत्येक लोक में वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् विष्णु का होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुष के होते हैं ।।२८-२९॥
उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उन प्रभु को जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे विराट पुरुष ही ग्रहण करते हैं ॥३०-३१॥

अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि परमेश्वर श्री कृष्ण के लिए किसी भी प्रकार के नैवेद्य या चढ़ावे इत्यादि की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि परमेश्वर श्रीकृष्ण भाव ग्राही है क्रियाग्राही नहीं हैं। इसी वजह से वैष्णव भक्तों के लिए परमेश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल एवं आसान है। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद् गीता में कहते हैं कि -

'अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।। १४।

                           {श्रीमद्भगवद्गीता- (८/१४)
अनुवाद- अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगी के लिए मैं सुलभ अर्थात उसको सरल रूप से प्राप्त हो जाता हूं।१४।

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।२६।

                         श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२६)
 अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूं अर्थात स्वीकार कर लेता हूं। २६।
             
व्याख्या - देवताओं की उपासना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परंतु भगवान (श्रीकृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेम की,अपनेपन की और मन की पवित्रता की ही प्रधानता है,किसी कर्मकाण्डीय विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही नहीं।

दूसरी बात यह कि वैष्णव भक्त इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि किसकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए ;  किसकी नहीं। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों का स्वयं मार्गदर्शन करते हुए कहते हैं कि -

"अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।।
२३।
                 श्रीमद्भगवद्गीता- (७/२३)
अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन  देवताओं की आराधना का फल अन्त वाला अर्थात् (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाल-े देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।
    
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।२५।

                       श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२५)
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।

       वैष्णव भक्त अपने कर्तव्य पथ से भटक न जाएं इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को सर्वज्ञत्व का उपदेश देते हुए कहते हैं कि-

अहं ही सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्चयवन्ति ते।। २४।।
               श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/२४)

अनुवाद- संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूं,। परंतु वे अर्थात् देवताओं को पूजने वाले मुझे तत्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता है।

पुनः भगवान आगे कहते हैं कि -

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।। १६

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।। १७

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। १८
               श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/१६,१७,१८)
  
अनुवाद - क्रतु मैं हूं, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूं, औषध मैं हूं, मंत्र मैं हूं, घृत मैं हूं, अग्नि मैं हूं, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूं। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूं। इस संपूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूं। १६,१७,१८

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥२५॥
                 श्रीमद्भगवद्गीता- (१३/२५)

अनुवाद- जो मनुष्य तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंसे सुनकर उपासना करते हैं, ऐसे वे सुननेके परायण हुए मनुष्य मृत्युको तर जाते हैं।

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता: ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।१४।।
              श्रीमद्भगवद्गीता- (१३/१४)

अनुवाद:- वे दृढ़ निश्चय वाले भक्त जन निरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी भक्ति प्राप्ति के लिये यत्न करते हुए और मुझ को बार-बार प्रणाम करते हुए सदैव मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं।

        भक्ति का वास्तविक भेद भक्त प्रहलाद को अच्छी तरह से ज्ञात था। इस संबंध में भक्त प्रहलाद श्रीमद्भागवत पुराण के स्कंध- ७ अध्याय- ५ के श्लोक- २३ में भक्ति के (नौ) प्रकार के भेद को बताते हुए कहते हैं कि-

             श्रीप्रह्राद उवाच -

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।२३

अनुवाद- प्रह्लाद ने कहा- विष्णु (श्रीकृष्ण) की भक्ति के नौ भेद हैं। (१)- भगवान की लीला गुणों का श्रवण। (२)- उनका ही कीर्तन। (३) उनके रूप आदि का स्मरण। (४)- उनके चरणों की सेवा। (५)- पूजा एवं अर्चन (६)- वन्दन।  (७)- दास्य (८)- सख्य और (९)- आत्मनिवेदन।

अतः उपरोक्त सभी श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि है कि- वैष्णवी वर्ण व्यवस्था पूर्णतः भक्तिमूलक विचारधारा पर आधारित है। इसमें कर्मकाण्ड, हिंसा मूलक यज्ञ एवं पाखण्डवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके साथ ही ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के विपरीत वैष्णवी वर्ण व्यवस्था भेदभाव से रहित समता मूलक समाज की स्थापना करती है। इसके लिए नीचे देखें।

        ____________________________
        [३] भेदभाव एवं समता मूलक अन्तर।
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(क) ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था भेदभाव मूलक है।

ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से भेदभाव पर आधारित है। जिसमें उंच-नीच का भेद बहुतायत देखने को मिलता है।जिसकी पुष्टि- मनुस्मृति के अध्याय- ८ के श्लोक २७० और २७७ से होती है। जिसमें आचरण गत विधानों के अन्तर्गत शूद्रों के लिए कठोर दंड का आदेश दिया है, जो शूद्र वर्ण का व्यक्ति यदि उच्च वर्ण के व्यक्तियों के प्रति अपराध करते है तो उसके लिए सबसे जघन्यतम दण्डों का विधान है। देखें निम्नलिखित श्लोक -

एकजातिर्द्विजातींस्तु वाचा दारुणया क्षिपन्।
जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः॥२७०॥

विट्शूद्रयोरेवमेव स्वजातिं प्रति तत्त्वतः।
छेदवर्जं प्रणयनं दण्डस्यैति विनिश्चयः॥२७७।।

अनुवाद-
• शूद्र लोग  यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को पापी कहे तो उसे जिव्हाछेदन का दण्ड देना चाहिये, क्योंकि उसकी उत्पति जघन्य( सबसे नीचे) स्थान से है।२७०।
• वैश्य और शूद्र भी इस प्रकर आपस में गाली दें तो पूर्वोक्

त दण्ड की व्यवस्था करे अर्थात वैश्य शूद्र को गाली दे तो उसे प्रथम साहस और शूद्र वैश्य को गाली दे तो उसे मध्यम साहस का दण्ड दे। ऐसे अवसर पर शूद्र की जीभ न काटना यही दण्ड का निश्चय है।२७७
               
       कुछ इसी तरह का वर्णन गौतमस्मृति द्वादश- अध्याय- के श्लोक- १ से ६ में मिलता है। जिसमें भेदभाव पर आधारित दण्ड का प्रावधान किया गया है।

शूद्रो द्विजातीनभिसंधायाभिहत्य च वाग्‌दण्ड।
पारुष्याभ्यामङगमोच्यो येनोपहन्यात् ॥१॥

आर्यस्त्र्यभिगमने लिङ्गोद्धारः स्वहरणं च ॥२॥

गोप्ता चेद्वधोऽधिकः ॥३॥

अथ हास्य वेदमुपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूर।
णमुदाहरणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः॥४॥

आसनशयनवाक्पथिषु समप्रेप्सुर्दण्डयः ॥५॥

शतं क्षत्र्त्रियो ब्राह्मणाक्रोशे ॥६॥

अनुवाद- १-६
वैदिक पाठ सुनने के लिए शूद्रों के कानों को पिघले हुए टिन या लाख से भरने का अधिकार है, इसे दोहराने के लिए, उसकी जीभ काट दी जानी चाहिए और यदि वह याद करता है, तो उसके शरीर को अलग कर दिया जाना चाहिए।

इसी तरह से मनु ने भी अपनी मनुस्मृति के अध्याय- ८ के श्लोक ३७४ में निर्धारित किया है कि-

शूद्रो गुप्तं अगुप्तं वा द्वैजातं वर्णं आवसन् ।
अगुप्तं अङ्गसर्वस्वैर्गुप्तं सर्वेण हीयते ।३७४।

अनुवाद- यदि शूद्र किसी असुरक्षित द्विज (ब्राह्मण) स्त्री के साथ संभोग करता है तो उसे अपना अपराधी अंग को खोना पड़ता है, और यदि वह वही अपराध किसी सुरक्षित द्विज स्त्री के साथ करता है तो उसे अपने प्राण गंवाने पड़ते हैं।

इसी तरह से मनुस्मृति, 2./135 में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता का दावा करते हुए घोषणा की है कि-

ब्राह्मणं दशवर्षं तु शतवर्षं तु भूमिपम् ।
पितापुत्रौ विजानीयाद् ब्राह्मणस्तु तयोः पिता ॥135 ॥

अर्थात्-  दस साल का ब्राह्मण भी सौ साल के क्षत्रिय के पिता के समान है।

मनुस्मृति के समान ही कुछ श्लोक मत्स्यपुराण के अध्याय -२७७ में भी मिलता है। जिसमें जातिगत आधार पर भेदभाव करते हुए दंड का प्रावधान किया गया है। इसके लिए नीचे देखें।

सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः ।
कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वाप्यस्य कर्तयेत्।८४ ।

केशेषु गृह्णतो हस्तं छेदयेदविचारयन्।
पादयोर्नासिकायाञ्च ग्रीवायां वृषणेषु च।।८५

अनुवाद- ८४-८५
• यदि कोई नीच जाति वाला व्यक्ति उत्कृष्ट व्यक्ति के साथ आसन पर बैठना चाहता है तो राजा उसकी कमर में एक चिन्ह बनाकर अपने राज्य से निर्वासित कर दे या उसकी गुदा भाग को कटवा दे।८४
• इसी प्रकार यदि कोई निम्न जाति वाला किसी उच्च जातीय व्यक्ति के केशों को पकड़ता है तो उसके हाथ को बिना विचार किए ही कटवा देना चाहिए। इसी प्रकार का दंड दोनों पैरों, नासिका, गला तथा अंडकोष के पकड़ने पर भी देना चाहिए।८५

ये उपरोक्त सभी बातें ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में देखने को मिलती है। जिसमें सामाजिक एवं जातीय भेद भाव के आधार पर दंड का विधान निर्धारित किया गया है। किंतु इसके ठीक विपरीत वैष्णव वर्णव्यवस्था- समानता मूलक सिद्धांत पर आधारित है जिसमें किसी प्रकार का भेद भाव नहीं है। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण अंतर को नीचे देखें -
                          कृ प उ

अध्याय 5
(|||) ✓✓✓


(ख)- वैष्णवी व्यवस्था समतामूलक है।

     ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के ठीक विपरीत वैष्णवी व्यवस्था समतामूलक सामाज पर आधारित है। जिसमें स्त्री-पुरुष, जाति-पाति, ऊंच-नीच, अपना-पराया इत्यादि का कोई भेद-भाव नहीं है। इस संबंध में वैष्णव वर्ण के महा प्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय - ९ के श्लोक- ३२ में अर्जुन से कहते हैं कि -
'मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।३२।।

अनुवाद - हे पार्थ ! यदि स्त्री, वैश्य और शूद्र ये जो कोई पापयोनि वाले भी हों, वे भी मुझ पर आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।३२।

         इसी प्रकार से भागवत पुराण में वैष्णव धर्म की प्रवृत्ति के बारे में बहुत ही अच्छा लिखा गया है कि वैष्णव धर्म में उंच नीच एवं जातीय भेद-भाव नहीं है।

भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम् ।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात् ॥ २१
            (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१४/२१)
भगवान् के वचन – मैं सन्तों का प्रिय और आत्मा हूँ, मेरी प्राप्ति श्रद्धा व अनन्य भक्ति से ही होती है । मेरी अनन्य भक्ति में यह सामर्थ्य है कि वह जन्मजात (श्वपाक) चाण्डाल को भी अत्यन्त पवित्र बना देने वाली है। २१

न यस्य जन्म कर्मभ्याम् न वर्ण आश्रम.     जातिभिः ।सज्जते अस्मिन् अहंभावः देहे वै स हरेः प्रियः ।।५१।।

न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा ।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥५२॥
                   (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/२/५१,५२)

• भागवत धर्म (वैष्णव भक्ति) में न  वर्णाश्रमगत भेद है, न जातिगत भेद ही, न जन्मगत भेद है, न कर्मगत । यहाँ तक कि देह-धर्मों का भी भेद नहीं है । ऐसा सर्वभूत शम ही उत्तम भागवत धर्म है ।५१
• जो धन संपत्ति अथवा शरीर आदि में- "यह अपना है और यह पराया" इस प्रकार का भेदभाव नहीं रखता, समस्त पदार्थ में समस्वरूप परमात्मा को देखा है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा संकल्प से विक्षिप्त न होकर शांत रहता है, वह भगवान का उत्तम भक्त है। ५२

न हि भगवन्नघटितमिदं त्वद्दर्शनान् नृणामखिलपापक्षयः ।यन्नाम सकृच्छ्रवणात् पुल्कसकोऽपि विमुच्यते संसारात् ॥ ४४ ॥            
                (श्रीमद्भागवत पुराण- १६/६/४४)

भगवान्! आपके दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के सारे पाप क्षीण हो जाते हैं, यह कोई असंभव बात नहीं है, क्योंकि आपका नाम एक बार सुनने से ही नीच चांडाल भी संसार से मुक्त हो जाता है। ४४

    भगवान श्रीकृष्ण समाज में ऊंच-नीच का भेदभाव रखनें वालों से अपनी भक्ति तथा कृपा से सदैव दूरी बनाकर रखते हैं। और ऐसे लोग जो समाज में भेदभाव पैदा करते हैं उनके लिए दण्ड का प्रावधान करते हुए कहते हैं कि-

यस्यामृतामलयशः श्रवणावगाहः सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः।
सोऽहं भवद्‍भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्तिः छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ॥६॥
                 (भागवत पुराण- ३/१६/६)

मेरी निर्मल सुयश सुधा में  गोता लगाने से  चाण्डाल पर्यन्त सारा जगत तुरन्त पवित्र होकर कुण्ठा रहित  हो जाता है। इस लिए मैं विकुण्ठ कहलाता हूँ। किन्तु मुझे यह पवित्र कीर्ति आप भक्तों से ही प्राप्त होती है। इस लिए जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा,  मैं उसे तत्काल काट डालुँगा चाहें वह मेरी बाहू (भुजा) ही क्यों नहो।६

    और वैष्णव भक्तों की रक्षा तथा वैष्णव धर्म एवं समता मूलक समाज की स्थापित करने के लिए भगवान समय-समय पर भूतल पर अवतरित भी होते हैं।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७
                        (श्रीमद्भागवत गीता ४/७)
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। ६६
                  (श्रीमद्भागवत गीता (१८/६६)
संपूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में
आजा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत कर। ६६
(व्याख्या)- भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों को यह उद्घोषणा करते हुए कहते हैं कि जिस-जिस धर्म और समाज में भेद-भाव की प्रधानता हो उसे तुरंत छोड़कर भक्तों को मेरी शरण में आ जाना चाहिए। मैं उन सभी भक्तों को पाखंडपूर्ण समाज से मुफ्त करके अवश्य कल्याण करूंगा।

कुल मिलाकर सामान्य रूप से देखा जाए तो वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में प्रमुख रूप से (६) प्रकार के निम्नलिखित वैचारिक अंतर देखे जाते हैं।

(१) पहला यह की ब्राह्मी वर्णव्यवस्था- में सभी मनुष्य समान अधिकार वाले नहीं हैं। जबकि वैष्णव वर्ण में सभी बराबर हैं।
वैष्णव सन्तो का उद्घोष है कि-"हरि को भजे सो हरि को होई !  जाति- पाँति पूछे नहिं कोई

"

(२)- दूसरा अंतर विष्णु और ब्रह्मा द्वारा निर्मित वर्णों में यह भी है कि- ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में चारो वर्णों के लोग अपने ही वंशानुगत कार्यों को अनिवार्य रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी जातीय धर्म समझकर करते हैं, भले ही उनमें इसकी पूर्ण प्रवृत्ति तथा योग्यता हो या नो हो।
जैसे- ब्राह्मण का बालक मन्दिरों या देवस्थानों में परम्परागत रूप से चढ़ावा लेने तथा वहाँ की पूजा आदि क्रियाओं करेगा ही चाहें वह संस्कृत भाषा का ज्ञान तथा शास्त्रों का ज्ञान भलें ही न रखता हो- जबकि वैष्णव वर्ण में ऐसी व्यवस्था नहीं है। इस वर्ण में जो जिस योग्यता के अनुरूप होगा वह वही काम करेगा।

(३) - इन दोनों में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में इसके सदस्यों का विभाजन जन्म के आधार पर चार मानव समूहों ( ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र) में होता है।
जबकि वैष्णव वर्ण में बिना वर्ग विभाजित हुए इसके सभी सदस्य अपनी योग्यता अनुसार सभी कर्मों को करने के लिए स्वतंत्र हैं। चाहे वह क्षत्रियोचित कर्म हो या ब्रह्मांत्व कर्म हो।

(४) - चौथा सबसे बड़ा अंतर यह है कि- श्रौत (श्रुति- वेद मूलक) स्मार्त ( स्मृति- मूलक ब्राह्मण, धर्मशास्त्रमूलक) धर्म की कट्टरता को नासमझ लोग भागवतधर्म में घटाने लगते हैं। परन्तु भागवत धर्म ही वैष्णव वर्ण- व्वस्था का आधार है। जबकि स्मृति ब्राह्मण वर्णव्यवस्था- का आधार है।
(५) पांचवां अंतर यह है कि- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में विधान है कि- चातुर्वर्ण्य के लोग अपने वर्ण के दायरे में रहकर ही कार्य करते हैं, उससे हट कर दूसरे वर्ग का कार्य नहीं कर सकते। जैसे कोई ब्राह्मण वर्ण का है, तो वह ब्राह्मणत्व कर्म ही करेगा क्षत्रियोचित कर्म कदापि नहीं कर सकता। इसी तरह से यह बात चारों वर्णों के लिए लागू होती है।
इस बात की पुष्टि- मार्कण्डेय पुराण के अध्याय- (११०) के श्लोक (३०) और (३६) से होती है जिसमें ब्रह्मा जी के वर्णव्यवस्था के शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए कहा गया है कि-
"त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोऽयं महात्मनः ।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप ॥३०॥

सोऽयं वैश्यत्वमापन्नस्तव पुत्रः सुमन्दधीः।
नास्याधिकारो युद्धाय क्षत्रियेण त्वया सह ।३६।

अनुवाद-  हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है, और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना वर्ण-गत नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है ।। ३०,३६

         इन उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि ब्रह्मा जी के वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण के कर्मों को करना निषिद्ध है।
        जबकि वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, व्यवसायि एवं सेवा आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के कर सकते हैं। वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कर्मों एवं उनके दायित्वों का वर्णन इसके अगले अध्याय-(छः) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि वैष्णव वर्ण के सदस्य किस प्रकार से - ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, व्यवसायि, एवं सेवा आदि सभी कर्मों को स्वतंत्र रूप से बिना प्रतिबंध के करते हैं।

(६)- और अंत में सबसे महत्वपूर्ण छठवां अंतर यह है कि -
ब्राम्ही वर्ण व्यवस्था में दास को सबसे निकृष्ट कर्म करने वाला बताया गया तथा उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा गया। इस बात की पुष्टि- मनुस्मृति- अध्याय २- के श्लोक संख्या- ३१ और ३२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥ ३१॥

शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम् ।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ॥३२।

अनुवाद- ३१-३२
• ब्राह्मण का नाम शर्मवत् (यज्ञ में पशु बलि मूलक) होना चाहिए, क्षत्रिय का नाम शक्ति से संबंधित होना चाहिए, वैश्य का नाम धन से संबंधित होना चाहिए, जबकि शूद्र (दास) का नाम घृणित होना चाहिए। ३१
• ब्राह्मण का नाम शर्मवत् , क्षत्रिय का नाम 'रक्षापरक', वैश्य का नाम 'समृद्धिपरक' तथा शूद्र का नाम दासत्व (गुलामीपरक) का बोधक होना चाहिए। ३२

        जबकि इसके विपरीत वैष्णव वर्ण में सभी भक्त अपने आप को भगवान का दास मानते हुए अपने को दास  कहलाना ही श्रेयस्कर समझाते हैं। या यूं कहें कि वैष्णव भक्तों को दास ही कहा जाता है जैसे- रैदास, सूरदास, कबीरदास, मलूकदास इत्यादि। और एक सच्चा वैष्णव भक्त जब भी अपनी भक्ति का फल भगवान से मांगता हैं, तो वह केवल भगवान के दासत्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं मांगता।
        वास्तव में देखा जाए तो वैष्णव सन्तों में दास पदवी का प्रचलन वैष्णव भक्त राजा ययाति के द्वारा ही हुआ।
क्योंकि पूर्वकाल में जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का का ही वर माँगा। इसक

ी पुष्टि -पद्मपुराभूमिखण्ड के अध्याय- ८३ के श्लोक- ८० से होती है।
                    "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।

अनुवाद- राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) ही दीजिए। ८०

अन्ततः दास शब्द की व्याख्या; ऋग्वेद में दास शब्द दान देने (दासृ दाने) के अर्थ में है। यथा ऋग्वेद के इस की ऋचा लें-

यस्ते भरादन्नियते चिदन्नं निशिषन्मन्द्रमतिथिमुदीरत् ।
आ देवयुरिनधते दुरोणे तस्मिन्रयिर्ध्रुवो अस्तु दास्वान् ॥७॥   
                                 (ऋग्वेदः सूक्तं ४.२)

"(हे अग्निदेव!) उसके यहां एक पुत्र पैदा हो, जो भक्ति में दृढ़ और प्रसाद में उदार हो, जो भोजन की आवश्यकता होने पर आपको यज्ञ द्वारा भोजन प्रदान करता हो, जो आपको लगातार प्रसन्न करने वाला सोमरस देता हो, जो अतिथि के रूप में आपका स्वागत करता हो , और श्रद्धापूर्वक आपको उसके आवास में प्रज्ज्वलित करता हो।" (दास्वान् = दानवान् —सायणभाष्यम्)


     अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - वैष्णव भक्तों के लिए दास शब्द ही यथार्थ है। जिसका अर्थ- दान कर्ता भी है। जिसमें दास शब्द अपने विकास क्रम में कई अर्थों को धारण किया। इसके लिए अध्याय - ११ के भाग- (१) महाराज यदु के परिचय में देखा जा सकता है।

      इस प्रकार से यह अध्याय- (५) वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताओं की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय- (६) में बताया गया है कि- वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व क्या है।

अध्याय- ६
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वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व

इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य- वैष्णव वर्ण के कुछ प्रमुख आध्यात्मिक पुरुषों का परिचय देते हुए वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य के सदस्यों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी देना है। क्योंकि ब्रह्मा जी के वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण के कर्मों को करना निषिद्ध माना गया है। इस बात को पिछले अध्याय- पांच में बताया जा चुका है।
         जबकि इसके विपरीत वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है। इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यकु एवं शूद्र आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के बड़े ही गर्व से करते हैं। ऐसा क्यों होता है ? इसको निम्नलिखित शीर्षकों के आधार पर समझा जा सकता है -


[१] गोपों का ब्राह्मणत्व (धर्मज्ञ) कर्म-
    (क)- सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर हैं।
    (ख)- अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
     (ग)- यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा 
            और स्वधा का परिचय।
     (घ)- ब्रह्मांड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय।

[२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म।
[३] गोपों का वैश्य कर्म।
[४] गोपों का शूद्र कर्म।

  

                   [१] गोपों का ब्राह्मणत्व कर्म
                        _________*_________

   ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में ब्राह्मणों का प्रमुख कर्म- पूजा-पाठ, यज्ञ कराना, उपदेश देना ही होता है। और ये सभी धार्मिक कर्म करने के लिए वैष्णव वर्ण के अहीर (गोप) किसी ब्राह्मण पुरोहित इत्यादि के आश्रित नहीं हैं। क्योंकि स्वभावत: वैष्णव वर्ण के गोप प्रारंभ से ही धार्मिक कृत्य करते आए हैं। इस संबंध में देखा जाए तो सदियों से परंपरागत रूप से चली आ रही सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर ही रहें हैं, जिन्होंने अपनी सत्यनारायण व्रत कथा कथा से कइयों को तार दिया।
     गोपों के इसी धर्मज्ञ स्वभाव और धार्मिक कृत्यों की वजह से इन्हें पौराणिक ग्रंथों में सबसे बड़ा धर्मवत्सल, धार्मिक, सदाचारी, ज्ञानयोगी, और कर्मयोगी माना गया है। ये समय-समय पर शस्त्र और शास्त्र दोनों उठाते हैं। इसके  सबसे बड़े उदाहरण गोपेश्वर श्री कृष्ण हैं। इसके अतिरिक्त ज्ञान की देवी अहीर कन्या- गायत्री, यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा तथा ब्रह्मांड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना इत्यादि इसके उदाहरण हैं जो सभी वैष्णव वर्ण के गोप कुल के प्रारंभिक सदस्य रहे हैं। इन सभी के बारे में क्रमशः नीचे जानकारी दी गई है की ये सभी कैसे सबसे बड़े धर्मवत्सल एवं धर्मज्ञ हैं।

  (क) "सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर हैं"
            ______________°________________
          सर्वप्रथम भूतल पर गोपों को ही - सबसे बड़ा धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल माना गया। इस संबंध में कई पौराणिक साक्ष्य और प्रसंग सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। उनमें से एक सत्यनारायण व्रत कथा भी है जो श्री स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड के अध्याय-(२३६) से लेकर युगों-युगों से सत्यनारायण अर्थात् भगवान विष्णु की कथा के रूप में प्रचलित रही है। जिसे हम और आप बचपन से ही इस विष्णु कथा को सुनते आ रहे हैं। किंतु इस बात को कम ही लोग जानते हैं कि इस सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र गोप हैं ही हैं जो इस कथा के माध्यम से कइयों को तार दिए। इस बात की पुष्टि सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य स्रोत श्री स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड के अध्याय-(२३३ से २३७ ) से होती है। जो सत्यनारायण व्रत कथा में अध्याय - (५) के रूप में स्थापित है। जानकारी के लिए उसे नीचे उद्धरित किया गया है।

सूत उवाच"
अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः।
आसीत् तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्परः ॥ १ ॥

प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप सः।
एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान् पशून्॥ २॥

आगत्य वटमूलं च   दृष्ट्वा   सत्यस्य   पूजनम्।
गोपाः कुर्वन्ति संतुष्टा भक्तियुक्ताः सबान्धवाः॥३॥

राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम सः।
ततो गोपगणाः सर्वे  प्रसादं   नृपसन्निधौ ॥४॥

संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वे यथेप्सितम्।
ततः प्रसादं   संत्यज्य   राजा दुःखमवाप सः॥५॥

"अनुवाद- १-५
• श्रीसूतजी बोले – हे श्रेष्ठ मुनियो ! अब इसके बाद मैं एक अन्य कथा कहूँगा, आप  उसे  सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर( तैयार रहने वाला) तुङ्गध्वज नाम का एक राजा था।१।
• उसने सत्यदेव ( सत्यनारायण) के प्रसाद का परित्याग करके दुःख प्राप्त किया। एक बार वह वन में जाकर और वहाँ बहुत-से पशुओंको मारकर।२।
• वह वट वृक्ष के नीचे आया तो वहाँ उसने देखा कि गोपगण (अहीर लोग) बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान् सत्यदेव की पूजा करतें हैं।३।
• राजा यह देखकर भी अहंकार( दर्प)  वश न तो वह राजा वहाँ गय

ा और न उसने भगवान् सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। इसके बाद (पूजन के पश्चात) सभी गोपगण भगवान् सत्य नारायण का  प्रसाद राजा के समीप में ।४।
• रखकर वहाँ से पुन: लौट कर और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान्‌का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसादका परित्याग करने से बहुत दुःख हुआ॥ ५॥

तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत्।
सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥६ ॥

अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम्।
मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥७॥

ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणैः सह।
भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृपः॥८॥

सत्यदेवेन प्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् ।
इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ॥ ९॥

"अनुवाद  ६-९
• उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य हो भगवान् सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है।६।

• इसलिये मुझे वहीं जाना चाहिये जहाँ श्रीसत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों( अहीरों) के समीप गया।७।

• और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान् सत्यदेव की पूजा की।८।

•  भगवान् सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों को उपभोगकर अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक)- को चला गया॥९॥

य   इदं     कुरुते    सत्यव्रतं      परमदुर्लभम्।       
शृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तः फलप्रदाम् ॥१०॥

धनधान्यादिकं तस्य भवेत् सत्यप्रसादतः।
दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत् बन्धनात् ॥ ११॥

भीतो भयात् प्रमुच्येत् सत्यमेव न संशयः।
ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत् ॥ १२ ॥

इति वः कथितं विप्राः सत्यनारायणव्रतम्।
यत् कृत्वा सर्वदुः खेभ्यो मुक्तो भवति मानवः॥१३॥

"अनुवाद:- १०- १३
• सूत जी कहते हैं- जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्रीसत्यनारायण के व्रत को करता  और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है।।१०।
• उसे भगवान् सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र के घर में धन  हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से छूट जाता है।११।
• डरा हुआ व्यक्ति भय से मुक्त हो जाता है-यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। (इस लोकमें वह सभी इच्छित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक) को जाता है।१२।
• हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान् सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है ॥१३ ॥


विशेषतः   कलियुगे   सत्यपूजा   फलप्रदा।
केचित् कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च ॥ १४॥

सत्यनारायणं केचित् सत्यदेवं तथापरे।
नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥१५॥

भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातनः।
श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१६॥

य इदं पठेत् नित्यं शृणोति मुनिसत्तमाः।
तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादतः॥१७॥

व्रतं वैस्तु कृतं पूर्व सत्यनारायणस्य च।
तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वराः॥१८॥

"अनुवाद:- १४-१८
• कलियुग में तो भगवान् सत्यदेव (सत्यनारायण) की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान् विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश।१४।
•  और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान् सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं।१५।
• कलियुग में सनातन भगवान् विष्णु ही सत्यव्रत-रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करनेवाले होंगे।१६।
• हे श्रेष्ठ मुनियो। जो व्यक्ति नित्य भगवान् सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान् सत्यनारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।१७।
• हे मुनीश्वरो ! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान् सत्यनारायण का व्रत किया था, उनके अगले जन्म का वृत्तान्त कहता हूँ, आप लोग उसे सुनें॥१८

"शतानन्दो महाप्राज्ञः सुदामा ब्राह्मणो ह्यभूत्। तस्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह ॥१९॥

"काष्ठभारवहो   भिल्लो   गुहराजो   बभूव ह।
तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै ॥ २० ॥

"उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत्।
श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥ २१ ॥

"धार्मिकः सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत्।
देहार्धं क्रकचैश्छित्त्वा दत्त्वा मोक्षमवाप ह ॥ २२ ॥

"तुङ्गध्वजो महाराजः स्वायम्भुवोऽभवत् किल।
सर्वान् भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत् ॥ २३ ॥

अनुवाद:- १९-२३
• महान् प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण [सत्यनारायणका व्रत करनेके प्रभावसे] दूसरे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।१९।
• लकड़‌हारा भिल्लों का राजा गुहराज हुआ और अगले जन्ममें उसने भगवान् श्रीरामकी सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया।२०।
• महाराज उल्कामुख [दूसरे जन्म में] राजा दशरथ हुए, जिन्होंने

श्रीरङ्गनाथ ( विष्णु) की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया।२१।
• इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु [पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में] मोरध्वज नाम का राजा हुआ। उसने आरे से चीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान् विष्णुको अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया।२२।
• महाराज तुङ्गध्वज पूर्व जन्म में स्वायम्भुव मनु के रूप में हुए थे और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। २३
"भूत्वा  गोपाश्च  ते  सर्वे  व्रजमण्डलवासिनः।
निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः॥२४ ॥

अनुवाद -
और जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करनेवाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वतधाम – गोलोक प्राप्त किया ॥ २४॥

श्लोक २४ का शब्दार्थ :-
सत्यनारायण की वन में  कथा करने वाले वे सभी गोपगण ही  व्रजमण्डल में ( भूत्वा = जन्म लेकर /होकर )
गोपा: = गोप गण। ते सर्वे= वे सब। व्रजमण्डलवासिनः= व्रजमण्डल के निवासी।
निहत्य= मारकर। राक्षसान् सर्वान् = सभी राक्षसों को ।

किंतु यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि- इस  सत्यनारायण व्रत कथा में गोपों से सम्बंधित सबसे महत्वपूर्ण श्लोक- २४
"भूत्वा  गोपाश्च  ते  सर्वे  व्रजमण्डलवासिनः।
निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः"॥२४

को स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड के अध्याय-(२३६) से पुरोहितों ने इर्ष्या बस निकलवा दिया है। अब वहां पर २४ श्लोक न होकर केवल २३ श्लोक ही शेष रह गए हैं। गोपों के इस २४ वें महत्वपूर्ण श्लोक को अब वर्तमान समय में गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित "सत्यनारायण व्रत कथा" में मिलता है। इसके अलावा "शब्द कल्पद्रुम" ( खण्ड- ५ पृष्ठ संख्या- २२९) में गोपों का यह महत्वपूर्ण श्लोक आज भी सुरक्षित है।

    कुल मिलाकर सत्यनारायण व्रत कथा से यह सिद्ध होता है कि गोप प्रारंभ से ही धार्मिक, धर्मवत्सल, तथा वैष्णव धर्म के प्रबल प्रचारक रहे हैं।
गोपों के इसी गुण विशेष के कारण भगवान श्री कृष्ण के सामने श्रीराधा जी ने गोपों को सबसे बड़ा धर्मवत्सल कहा इस बात की पुष्टि - गर्गसंहिता के वृंदावन खंड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या -२२ से होती है। जिसमें राधा जी श्रीकृष्ण से कहती हैं कि-

"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।

अनुवाद - गोप सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गंगा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुंदर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़ कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
इसके अतिरिक्त गोपों के धर्मवत्सल होने के और कई महत्वपूर्ण उदाहरण दिए जा सकते हैं। उनमें से प्रमुख हैं -
(१) अहीर कन्या वेदमाता गायत्री।
(२) यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और
     स्वधा।
(३) ब्रह्मांड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना इत्यादि।

   अब हम इन तीनों महत्वपूर्ण गोप कन्याओं को एक-एक करके बताऊंगा की संपूर्ण ब्रह्मांड में इनसे बड़ा धर्मवत्सल व धर्मज्ञ कोई नहीं है।

       (ख) अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
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देवी गायत्री सहित समस्त गोपों को धर्म वत्सल एवं धर्मज्ञ होने की पुष्टी - पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक- १५,१६ और १७ से होती है जिसमें भगवान विष्णु गोपों की कन्या, गायत्री को ब्रह्मा जी को कन्यादान के उपरांत गोपों से कहते हैं कि-

भोभोगोपसदाचारनत्वंशोचितुमर्हसि।
कन्याषातेमहाभागाप्राप्तादेवंविरिञ्चिनम्।। १५
योगिनियोंगयुक्तायेब्राह्मणाबेदपारगा:।
नलभन्तेप्रार्थयन्तस्ताङ्गतिन्दुहितागता।। १६
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरंचयते।। १७

अनुवाद -
•  हे गोपगण! तुम यहां वृथा प्रलाप मत करो। यह पुण्यवती, सौभाग्यवती तथा कुल एवं बन्धुगढ़ के लिए आनंदप्रदा है। इस बाला को हम यहां लाए हैं। इसे ब्रह्मा ने अपनी पत्नी बनाया है। इन्होंने भी ब्रह्मा का अवलंबन किया है। यदि यह पुण्यवती नहीं होती, तब इस सभा में आती क्यों? हे महाभाग! तुम यह सब जानकर अब शोक मत करो। तुम्हारी यह भाग्यशाली कन्या ने ब्रह्मा को प्राप्त किया है। १५
• ज्ञान योगी, कर्मयोगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना भी करके यह स्थान नहीं पाते, तथापि तुम्हारी यह कन्या उस गति को पा गई है। १६
• तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है। १७
                इन उपरोक्त- तीनों श्लोकों से एक ही साथ चार बातें सिद्ध होती है-
• पहला यह कि- देवी गायत्री, गोपों की कन्या हैं अर्थात वह एक गोप कन्या है, जिनका विवाह ब्रह्मा जी से हुआ। जिनके मं

त्रोच्चारण से अर्थात् गायत्री मंत्र के जाप से जगत का कल्याण होता है।
जिसमें देवी गायत्री को अहीर (गोप) कन्या होने की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय-१६ के- श्लोक-१५५ से भी होती है। जिसमें देवी गायत्री अपना परिचय देते हुए इंद्र से कहती है -
गोपकन्यात्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम् ।
नवनीतमिदमं शुद्धं दधि चेदं विमण्डकम् ।। १५५

अनुवाद- हे वीर! मैं गोप कन्या हूं। यहां दुग्ध विक्रय करने आई हूं। यह विशुद्ध नवनीत है। यह देखो! यह मंडराहित दधि है। तुमको यदि मट्ठा या दूध जो आवश्यक हो, कहो तथा यथेष्ट ग्रहण करो। १५५

• दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि- गोपों से बड़ा कोई
धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल नहीं है। इस बात को जानकर ही भगवान विष्णु ने गोपों की कन्या- देवी गायत्री को ब्रह्मा जी को कन्यादान किया। और ब्रह्मा जी ने उसे अपनी पत्नी स्वीकार किया।
• तीसरी बात यह सिद्ध होती है कि- आभीर कन्या देवी गायत्री उस स्थान और पद को प्राप्त हुई। जिसे योगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना करने के बाद भी नहीं पाते। अब इससे बड़ा ब्राह्मणत्व कर्म वैष्णव वर्ण के गोपों के लिए और क्या हो सकता है।
• चौथी बात यह कि- देवी गायत्री महा विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम अहीर कन्या थी। जिसकी भूरी-भूरी प्रसंशा भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी के यज्ञ-सत्र में किया और गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री पद पर नियुक्त किया। जो आज भी यह मान्यता है कि संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
            देवी गायत्री का यदि पारिवारिक परिचय देखा जाए तो उनकी माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम "गोविल" था। जो दोनो ही नाम गोलोक से सम्बन्धित है। गायत्री के पिता-गोविल को नन्दसेन,अथवा नरेन्द्र सेन आभीर नाम से भी जाना जाता है। जो आनर्त देश, वर्तमान नाम (गुजरात) के रहने वाले थे। इस बात की पुष्टि-
लक्ष्मीनारायण संहिता के खण्ड (एक) के अध्याय-५०९ के प्रमुख श्लोकों से होती है,जो इस प्रकार हैं -

"ब्रह्मणं यज्ञमिमं ज्ञात्वा शुद्धः स्नात्वा समागतः।
गोपकन्या नित्यं या शुद्धात्मा वैष्णव जातिका।।६२।।

श्री विष्णो वै तमुवाच प्रत्युत्तरं शृणु प्रिये ।
जाल्म एषाऽस्ति वीराण्याभीराणी जातितोऽस्ति वै ।।६४।।

शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्येतद्विदः।
पुरा सृष्टे समारम्भे गोलोके श्रीकृष्णेन परात्मना सुघटिता६५

अमुना स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता ।
अथ द्वितीया रूपा कन्या च गायत्र्याभिधा कृता ।।६६

सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ ।
अथ भूलोके यज्ञप्रवाहार्थं  ब्रह्माणं ववल्हे ।। ६८

पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता बभूव।। ६९

हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह  गायत्री नाम्ना।। ७०

अनुवाद:-
• इस ब्रह्मा के यज्ञसत्र को जानकर शुद्ध स्नान करके आयी हुई गोप कन्या नित्य जो शुद्धात्मा और वैष्णव जाति की है।६२।
• श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए  उस गोप-कन्या को कहा ! सुन प्रिये ! ये बात छिपी हुई नही है कि ये वीराणी  जाति से निश्चय ही अहीराणी है।६४।
• सुनो ! मैं  जानाता हूँ वह वृत कोई अन्य विद्वान नहीं जानता यह सत्य पूर्वकाल में सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण परमात्मा के द्वारा गोलोक में सुघटित हुआ।। ६५
• उस परमात्मा ने अपने ही अंश से सावित्री और दूसरी कन्या के  गायत्री नाम से प्रकट किया गया।६६।
• सावित्री श्री हरि के द्वारा ही गोलोक में प्रभु के सानिन्ध्य में भूलोक में यज्ञ प्रवाहन के लिए ब्रह्मा जी को प्रदान की गयीं । ६८
• पृथ्वी पर मनुष्य रूप में वहाँ मानव शरीर में ब्रह्मा की पत्नी रूप में यज्ञ कार्य के लिए अपेक्षित हुईं।६९
• उस कारण से कृष्ण के द्वारा सावित्री को आज्ञा दी गयी। तब द्वित्तीय स्वरूप में तुमको जानना चाहिए गायत्री नाम से ७०
          ज्ञात हो इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी "गोपेश्वरश्रीकृष्णस्य- पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रंथ में दी गई है जो इस पुस्तिका का ही विस्तार रूप है।
               
(ग) यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और
     स्वधा का परिचय।
       ______________°_______________

      देवी गायत्री के समान ही गोप कुल की देवी दक्षिणा, देवी स्वाहा और स्वधा भी हैं। जिनका यज्ञ, हवन और पित्र- पूजन के दरम्यान विशेष भूमिका रहती है। जिसमें यज्ञ और हवन के दरम्यान जो स्वाहा नाम के उच्चारण से हवन कुंडों में जो नैवेद्य अर्पण किया जाता है, और यज्ञ समाप्ति के बाद जो दान दक्षिणा दिया जाता है, वह सब देवी स्वाहा और दक्षिण के माध्यम से ही फलीभूत होता है। और ये देवी स्वाहा और दक्षिण दोनों ही गोपेश्वर श्री कृष्ण के गोलोक की गोपी सुशीला के ही अंशावतार है जो कभी गोलोक में श्री राधा के शाप से गोपी सुशील को भूतल पर स्वाहा, स्वधा और दक्षिणा के रूप में आना प

ड़ा था।
  जिसमें सुशीला को गोपी होने का प्रमाण तथा सुशीला को यज्ञ पुरुष की पत्नी दक्षिण के रूप में उत्पन्न होने का वर्णन
देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- ४५ के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो इस प्रकार है -

गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः।
राधा प्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा ॥ २
अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ।
विद्यावती गुणवती चातिरूपवती सती ॥ ३
      अनुवाद - प्राचीनकालमें गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधाकी प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मीके लक्षणोंसे सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी। २,३

रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ।
उवासादक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा ॥ ७ ॥
सम्बभूवानम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ।
दृष्ट्वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरोत्तमाम् ॥ ८
        अनुवाद- वह रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधाके सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंक( बगल) में बैठ गयी ॥ ७,८

कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्‌कजलोचनाम् ।
कोपेन कम्पिताङ्‌गीं च कोपेन स्फुरिताधराम् ॥९॥
वेगेन तां तु गच्छन्तीं विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं चकार सः ॥१०॥
     अनुवाद- तब मधुसूदन श्रीकृष्ण ने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय पत्नी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥९-१०॥

पलायन्तं च कान्तं च विज्ञाय परमेश्वरी ।
पलायन्तीं सहचरीं सुशीलां च शशाप सा ॥ १५ ॥
अद्यप्रभृति गोलोकं सा चेदायाति गोपिका ।
सद्यो गमनमात्रेण भस्मसाच्च भविष्यति ॥ १६ ॥

  अनुवाद-  १५-१६
• परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीला को पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आजसे गोलोकमें आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी।१५,१६

दर्शनं देहि रमण दीना विरहदुःखिता ।
अथ सा दक्षिणा देवी ध्वस्ता गोलोकतो मुने ॥३५

अनुवाद - हे मुने ! इसके बाद राधा जी के द्वारा गोलोक से पलायित सुशीला नामक की वह गोपी दक्षिणा नाम से प्रसिद्ध हुई। ३५

       
                  
                      कृ .प .उ.

अध्याय-६
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इस संबंध में ज्ञात होगी भगवान नारायण ने ही उस सुशीला का नाम दक्षिण रखा इस संबंध में नीचे के ये श्लोक कुछ इसी प्रकार का संकेत दे रहे हैं-

नालभंस्ते फलं तेषां विषण्णाः प्रययुर्विधिम् ।
विधिर्निवेदनं श्रुत्वा देवादीनां जगत्पतिम् ॥ ३७ ॥
दध्यौ च सुचिरं भक्त्या प्रत्यादेशमवाप सः ।
नारायणश्च भगवान् महालक्ष्याश्च देहतः ॥ ३८ ॥
विनिष्कृष्य मर्त्यलक्ष्मीं ब्रह्मणे दक्षिणां ददौ ।
ब्रह्मा ददौ तां यज्ञाय पूरणार्थं च कर्मणाम् ॥ ३९ ॥
             अनुवाद -  जिसे भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रह से मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट किया और उसका दक्षिणा नाम रखकर उसे ब्रह्मा जी को सौंप दिया। तब ब्रह्मा जी यज्ञ संबंधी समस्त कार्यों की संपन्नता के लिए देवी दक्षिण को यज्ञ पुरुष के हाथ में दे दिया। ३७,३८,३९
             तब यज्ञ पुरुष देवी दक्षिणा के पूर्व काल की बातों का स्मरण दिलाते हुए देवी दक्षिण से कहा कि-
पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा वरा ॥ ७१ ॥
राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिया ।
      अनुवाद - हे महाभागे!तुम पूर्वकालमें गोलोककी एक गोपी थी और गोपियोंमें परम श्रेष्ठ थी। श्रीकृष्ण तुमसे अत्यधिक प्रेम करते थे और तुम राधाके समान ही उन श्रीकृष्णकी प्रिय सखी थी। ७१
कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ॥ ७२ ॥
आविर्भूता दक्षिणांसाल्लक्ष्म्याश्च तेन दक्षिणा।
पुरा त्वं च सुशीलाख्या ख्याता शीलेन शोभने॥ ७३॥
लक्ष्मीदक्षांसभागात्त्वं राधाशापाच्च दक्षिणा ।
गोलोकात्त्वं परिभ्रष्टा मम भाग्यादुपस्थिता ॥७४॥
कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु ।
       अनुवाद- एक बार कार्तिक पूर्णिमा को राधामहोत्सव के अवसरपर रासलीला में तुम भगवती लक्ष्मी के दक्षिणांशसे प्रकट हो गयी थी, उसी कारण तुम्हारा नाम दक्षिणा पड़ गया। हे शोभने ! इससे भी पहले अपने उत्तम शील के कारण तुम सुशीला नाम से प्रसिद्ध थी तुम भगवती राधिका के शापसे गोलोक से च्युत( पतित) होकर और पुनः देवी लक्ष्मी के दक्षिणांशसे आविर्भूत हो। अब देवी दक्षिणाके रूप में मेरे सौभाग्यसे मुझे प्राप्त हुई हो। हे महाभागे ! मुझपर कृपा करो और मुझे ही अपना स्वामी बना लो ॥ ७२,७४

फिर यज्ञ पुरुष उस देवी से कहा-
कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु ।
कर्मिणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा ॥७५॥
त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम् ।
त्वया विना तथा कर्म कर्मिणां च न शोभते ॥७६॥
ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च ।
कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥ ७७ ॥
       अनुवाद-  तुम्हीं यज्ञ करनेवालों को उनके कर्मों का सदा फल प्रदान करने वाली देवी हो। तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियों का सारा कर्म निष्फल हो जाता है और तुम्हारे बिना अनुष्ठानकर्ताओंका कर्म शोभा नहीं पाता है।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल आदि भी तुम्हारे बिना प्राणियोंको कर्मका फल प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं। ७५,७६,७७
                   
     और इस संबंध में सबसे बड़ी बात श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कंद के अध्याय-४३ के श्लोक-३८ में लिखी गई है,जिसमें बताया गया है कि यज्ञ, हवन के दरम्यान गोपी सुशीला की अंशस्वरूपा देवी स्वाहा का कितना महत्व है-
दक्षिणाग्निगार्हपत्याहवनीयान् क्रमेण च।
ऋषियो मुनयश्चैव ब्राह्मणा: क्षत्रियादय:।। ३८
स्वाहान्तं मंत्रमुच्चार्य हविर्दानं च चक्रिरे ।
स्वाहायुक्तं च मत्रं च यो गृह्णाति प्रशस्तकम् ।। ३९

   अनुवाद - तभी से ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मंत्र के अंत में स्वहा शब्द जोड़कर मंत्रोच्चारण करके अग्नि में हवन करने लगे। और जो मनुष्य स्वाहा युक्त  प्रशस्त मंत्र का उच्चारण करता है, उसे सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाती है।

    (घ) ब्रह्मांड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय
           ______________°________________

शतचन्द्रानना धन्या और मान्या गोलोक की एक विदुषी गोपी है जो गोलोक के सोलहवें द्वार की सदैव रक्षा में तत्पर रहती है। गोपी शतचन्द्रानना को ब्राह्मण विदुषी होने का परिचय  उस समय मिलता है जब समस्त देवता भगवान नारायण के कहने पर पृथ्वी के भार को दूर करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण के परमधाम गोलोक को प्रस्थान किया। किंतु जब देवता लोग गोलोक के सोलहवें द्वार पर पहुंचे तो वहां द्वार की रक्षा में  नियुक्त गोपी शतचन्द्रानना उनसे कुछ प्रश्न पूछकर अंदर जाने से रोक दिया। तब देवताओं ने जो कुछ कहा उसका सारा वृत्तांत गर्गसंहिता के गोलोकखण्ड के अध्याय- (२) के प्रमुख श्लोकों में कुछ इस प्रकार मिलता  है -

तत्र कन्दर्पलावण्याः श्यामसुंदरविग्रहाः।
द्वरि गन्तुं चाभ्यदितान् न्यषेधन् कृष्णपार्षदाः।। २०

अनुवाद - वहां कामदेव के समान मनोहर रूप लावण्य शालिनी श्यामसुंदर विग्रह श्रीकृष्ण पार्षदा (शतचन्द्रानना) द्वारपाल का कार्य करती थीं। देवताओं को द्वारा के भीतर जाने के लिए उद्यत देख उन्होंने मना किया।

"श्र

ीदेवा ऊचुः -
लोकपाला वयं सर्वे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।
श्रीकृष्णदर्शनार्थाय शक्राद्या आगता इह ॥२१॥

अनुवाद - देवता बोले- हम सभी ब्रह्मा विष्णु शंकर नाम के लोकपाल और इंद्र आदि देवता है भगवान श्री कृष्ण के दर्शनार्थ यहां आए हैं।

तच्छ्रुत्वा तदभिप्रायं श्रीकृष्णाय सखीजनाः।
ऊचुर्देवप्रतीहारा गत्वा चान्तःपुरं परम् ॥२२॥

तदा विनिर्गता काचिच्छतचन्द्रानना सखी।
पीतांबरा वेत्रहस्ता सापृच्छद्वाञ्छितं सुरान् ॥ २३ ॥

अनुवाद - २२-२३
देवताओं की बात सुनकर उन सखियों ने जो श्री कृष्ण की द्वारपलकाएं थी, श्रेष्ठ अन्तः पुरमें जाकर देवताओं की बात कह सुनाई। तभी एक सखी जो शतचन्द्रानना नाम से विख्यात थी उनके वस्त्र पीले थे और जो हाथ में बेंत की छड़ी लिए थी, बाहर आयी और उन देवताओं से उनका अभीष्ट प्रयोजन पूछा। २२-२३

श्रीशतचन्द्राननोवाच -
कस्याण्डस्याधिपा देवा यूयं सर्वे समागताः।
वदताशु गमिष्यामि तस्मै भगवते ह्यहम् ॥२४॥

अनुवाद - शतचन्द्रानना बोली - यहां पधारे हुए आप सब देवता कि ब्रह्मांड के अधिपति हैं, यह शीघ्र बताइये। तब मैं भगवान श्री कृष्ण को सूचित करने के लिए उनके पास जाऊंगी। २४

श्रीदेवा ऊचुः -
अहो अण्डान्युतान्यानि नास्माभिर्दर्शितानि च ।
एकमण्डं प्रजानीमोऽथोऽपरं नास्ति नः शुभे ॥ २५ ॥

अनुवाद - तब देवताओं नें कहा - अहो! यह तो बहुत आश्चर्य की बात है, क्या अन्यान्य ब्राह्मण भी हैं ? हमनें तो उन्हें कभी नहीं देखा। शुभे! हम तो यही जानते हैं कि एक ही ब्राह्मण है, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं। २५

श्रीशतचन्द्राननोवाच -
ब्रह्मदेव लुठन्तीह कोटिशो ह्यण्डराशयः।
तेषां यूयं यथा देवास्तथाण्डेऽण्डे पृथक् पृथक् ॥ २६ ॥

नामग्रामं न जानीथ कदा नात्र समागताः ।
जडबुद्ध्या प्रहृष्यध्वे गृहान्नापि विनिर्गताः ॥२७॥

ब्रह्माण्डमेकं जानन्ति यत्र जातास्तथा जनाः ।
मशका च यथान्तःस्था औदुंबरफलेषु वै ॥ २८ ॥

अनुवाद - २६-२८
तब शतचन्द्रानना उन देवताओं से बोली - ब्रह्मदेव! यहां (गोलोक) में करोड़ों ब्राह्मण इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें भी आप जैसे ही पृथक पृथक देवता वास करते हैं। अरे! क्या आप लोग अपना नाम गांव तक नहीं जानते ? जान पड़ता है की कभी यहां आए नहीं है, अपनी थोड़ी सी जानकारी में ही हर्ष से फूल उठे हैं। जान पड़ता है कभी घर से बाहर निकले ही नहीं। जैसे गूलर के फूलों में रहने वाले कीड़े जिस फल में रहते हैं, उसके सिवा दूसरे को नहीं जानते, उसी प्रकार आप जैसे साधारण जन जिसमें उत्पन्न होते हैं, एक मात्र उसी को ब्रह्मांड समझते हैं। २६-२८

श्रीनारद उवाच -
उपहास्यं गता देवा इत्थं तूष्णीं स्थिताः पुनः ।
चकितानिव तान् दृष्ट्वा विष्णुर्वचनमब्रवीत् ॥२९॥

श्रीविष्णुरुवाच -
यस्मिन्नण्डे पृश्निगर्भोऽवतारोऽभूत्सनातन ।
त्रिविक्रमनखोद्‌भिन्ने तस्मिन्नण्डे स्थिता वयम् ॥ ३० ॥

श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा तं च संश्लाघ्य शीघ्रमन्तःपुरं गता
पुनरागत्य देवेभ्योऽप्याज्ञां दत्त्वा गताः पुरम् ॥३१॥

अथ देवगणाः सर्वे गोलोकं ददृशुः परम् ।
तत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते ॥३२॥

अनुवाद - २९- ३२
• इस प्रकार उपहास के पात्र बने हुए सब देवता चुपचाप खड़े रहे, कुछ बोल ना सके। तब उन्हें चकित से देखकर भगवान विष्णु ने शतचन्द्रानना से कहा- जिस ब्रह्मांड में भगवान पृश्निगर्भ का सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम (विराट रूपधारी वामन) के नख से ब्रह्मांड में विवर बन गया है वहीं हम निवास करते हैं। २९-३०
• तब भगवान विष्णु की यह बात सुनकर शतचन्द्रानना ने उनकी भूरी भूरी प्रशंसा की और स्वयं भीतर चली गयी फिर शीघ्र ही आयी और सबको अंतःपुर में पधारने की आज्ञा देकर वापस चली गयी। तदनंतर संपूर्ण देवताओं ने परम सुंदर धाम गोलक का दर्शन किया। वहां गोवर्धन नामक गिरिराज शोभा पर रहे थे। २९-३२

      अतः  उपरोक्त प्रसंग से सिद्ध होता है कि गोपी शतचन्द्रानना जैसी विदुषी की तुलना संपूर्ण ब्रह्मांड में किसी से नही की जा सकती। क्योंकि इसकी विद्वता के सामने ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा समस्त देवताओं को लज्जित होना पड़ा।

  इस तरह से देखा जाए तो गोप और गोपियां ही एकमात्र धर्मज्ञ ज्ञान से परिपूर्ण सारे कर्म-विधान और फल के नियामक हैं। इनके ही माध्यम से ज्ञान की अविरल धारा संपूर्ण ब्रह्मांड में प्रवाहित होती है। और सारे धार्मिक कर्म विधान इन्हीं के द्वारा संपन्न एवं फलित होते हैं, चाहे वह यज्ञ हो या पूजा पाठ में हवन इत्यादि ही क्यों न हो। और इन्हीं गोप- गोपियों को आधार मानकर ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के कर्मकाण्डी ब्राह्मण लोग ब्राह्मणत्व कर्म करते हैं। किंतु उनके सभी कर्मफलों व परिणामों में गोपों की ही भूमिका रहती है। इसीलिए गोपों को श्रेष्ठ व धर्मवत्सल जानकर ही गर्गसंगीता के अश्वमेधखंड खंड के अध्याय 60 के श्लोक संख्या 40 में गोपों को पापों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है-
य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरे:।
मुक्तिं यदुनां गोपानां

सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०
        अनुवाद - जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं, तथा गोप,यादव की मुक्ति का वृतांत पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।
और ब्राह्मणत्व कर्म का सबसे बड़ा उदाहरण परमात्मा श्री कृष्ण हैं जिन्होंने कुरुक्षेत्र में विराट रूप धारण कर अर्जुन को ज्ञान का वह उपदेश दिया जो अखिल ब्रह्मांड में प्रसिद्ध है, इसे कौन नहीं जानता। भगवान श्री कृष्ण को गोप होने को गोप होने के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी
अध्याय- ८ में दी गई है।
          कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप जिन्हें यादव व अहीर भी कहा जाता है, वे सभी बिना वर्ण विभाजन के आध्यात्मिक व धार्मिक कर्तव्यों को स्वाभाविक रूप से करते हैं। वैष्णव वर्ण के गोप ही अहीर और यादव हैं, इसका विस्तार पूर्वक वर्णन अध्याय- ९ में किया गया है वहां से इस विषय पर जानकारी ली जा सकती है।
अब हमलोग गोपों के क्षत्रिय कर्म को जानेंगे की ये लोग ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के क्षत्रिय ना होते हुए भी कैसे क्षत्रिय धर्म को निभाते हुए समय-समय पृथ्वी के भार को भी दूर करते ?

           
               [२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म

       वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में माहाक्षत्रिय कहा जाता है। किंतु ध्यान रहे- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के क्षत्रियों से इनका कोई संबंध नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्री कृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा
भूमि-भार हरण के उद्देश्य से किया था। भगवान श्री कृष्ण सहित इस नारायण सेना का प्रत्येक गोप- सैनिक, क्षत्रियोचित कर्म करते हुए बड़े से बड़े युद्धों में दैत्यों का वध करके भूमि के भार को दूर किया। गोपों को क्षत्रियोचित कर्म करने से ही उन्हें क्षत्रियों में माहाक्षत्रिय कहा जाता है।
      इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म करने की वजह से ही अपने को क्षत्रिय कहें हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से। इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिचासों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-
क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्या: प्रकृतिस्थिता:।
यदुवंशे समुत्पन्न: क्षात्रं वृत्तमनुष्ठित:।। १०
    अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूं। प्रकृति मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूं, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूं।
  इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को क्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के जन्मजात क्षत्रियों से।
और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के जन्मजात क्षत्रिय वर्ण में नही।  भगवान श्रीकृष्ण खुद गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- ८ जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहां से इस विषय पर पाठक गण जानकारी ले सकते हैं।
     भगवान श्री कृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भांति नंद बाबा की पुत्री योगमाया- विंध्यवासिनी को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा ।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।। २३
         अनुवाद-  समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिय हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐमकार एवं वषट्कार हो।
     किंतु इस संबंध में ध्यान रहे कि योगमाया- विंध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण की। क्योंकि योगमाया विंध्यवासिनी, गोप नन्द बाबा की एकलौती पुत्री हैं।
          कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के बनावटी जन्मजात क्षत्रिय। इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शस्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण हैं - दुर्गा,  गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना।
     अब यहां पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे संबंधित सभी सेनाएं जैसे- "नारायणी सेना" अपराजित एवं अजेय है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक

और परलोक को जीतने की क्षमता हैं। क्योंकि सभी  गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उनपर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात्  देवता, गंधर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय-२ के श्लोक संख्या- ७ में भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।। ७
           अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और संपूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।
          इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेय एवं अपराजित है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय भी कहा जाता है।

                   [३] गोपों का वैश्य कर्म

ब्रह्मा जी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म- व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप स्वतंत्र रूप से करते हैं। इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किंतु ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है। क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतंत्र हैं। अतः गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर शस्त्र भी उठाते हैं। इसके साथ ही गोप लोग कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं। जिसमें ये गोप पशुपालन में  मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है।

गोपालन एवं कृषि कार्य से गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का सम्बन्ध पूर्व काल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मंडल (१) के सूक्त- 154 की रिचा (6) में मिलता है-
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि ॥६
              अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त  सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु  वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि  नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।
   इससे सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण सहित गोप वैश्य कर्म के अंतर्गत गोपालन करते थे जिसे आज भी परंपरागत रूप से निभाते हैं।
गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किंतु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-६ के श्लोक-२६ में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।। २६
         अनुवाद- बाबा हमारे गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।
            इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी का हल और मूसल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
            श्री कृष्ण के पिता वासुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कंध के अध्याय- २० के श्लोक-६० और ६१ से होती है-
तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।। ६०
वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१
              अनुवाद- वहां पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी सुरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहां के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था। ६०,६१

       इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अंतर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण भी नंद बाबा से बड़े गर्व के साथ करते हैं कि- बाबा हमारे सभी गोप किसान हैं।

                        [४] गोपों का शूद्र कर्

म।

    देखा जाए तो  ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण में चौथे पायदान पर शूद्र आते हैं, जिनका मुख्य कर्म सेवा करना निश्चित किया गया है। उससे हटकर शूद्र कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसा ही उन पर प्रतिबंध लगाया गया है।
किंतु वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वैष्णव वर्ण के गोप, ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य इत्यादि कर्मों के साथ- साथ सेवा कर्म को भी नि:संकोच और बड़े गर्व के साथ बिना प्रतिबंध के करते आए हैं। जिसमें गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का भी ऐसा ही कर्मगत स्वभाव देखने को मिलता है। क्योंकि पाप और अत्याचार को दूर करने के लिए और समाज सेवा के लिए ही प्रभु भूमि पर अवतरित होते हैं।
    भगवान श्री कृष्ण को सेवा कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने की पुष्टि- युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से होती है, जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध (उत्तरार्ध ) के अध्याय-७५ के श्लोक- ४,५ और ६ से होती है। जिसमें उस यज्ञ के बारे में लिखा गया है कि-
भीमो महानसाध्यक्षो थानाध्यक्ष: सुयोधन:।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्य साधने।। ४
गुरुशुश्रूषणे जिष्णु: कृष्ण: पदावनेजन।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामना:।। ५
युयुधाननो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादय:।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादय:।। ६

  अनुवाद- भीमसेन भोजनालय की देखभाल करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे सहदेव अभ्यगतों के स्वागत सत्कार में नियुक्त थे। और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे। अर्जुन गुरुजनों की सेवा सुश्रुषा करते थे। और स्वयं भगवान श्री कृष्ण, आए हुए अतिथियों के पांव पखारने का काम करते थे। देवी द्रोपदी भोजन परोसने का काम करती थीं। और उदार शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे। ४,५,६
     इन उपरोक्त श्लोक को यदि शुद्ध अंतरात्मा विचार से किया जाए, तो गोपेश्वर श्री कृष्ण समाज सेवा में वह कार्य किये जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के शूद्र किया करते हैं। जबकि भगवान श्री कृष्ण वैष्णव वर्ण के गोप रूप में पांव- पखार कर यह सिद्ध कर दिये कि-  वैष्णव वर्ण के सदस्य ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व,वैश्य कर्म- के साथ-साथ शूद्र (समाज सेवा) कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। जबकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से शूद्र- (सेवा) कर्म को निंदनीय माना गया है। जबकि वैष्णव वर्ण में कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसमें वैष्णव जन निःसंकोच सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के करने की आजादी होती है जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में ऐसा नहीं है।
      
         इसीलिए वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक ग्रंथों में भूरी-भूरी प्रशंसा की गई है। उनकी सभी प्रसंशाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके अगले अध्याय- (७) में किया गया है। उसे भी इसी अध्याय के साथ जोड़कर पढ़ें।
    इस प्रकार से यह अध्याय-(६) वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

अध्याय- (७)✓✓✓

वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में प्रशंसा।

आत्मानन्द जी:
योगेश रोहि -
              
पौराणिक ग्रन्थों में वैष्णव वर्ण के गोपों अर्थात यादवों की समय-समय पर भूरी-भूरी प्रशंसा की गई है। जैसे-
(१)- ब्रह्मा जी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा जी से होने को सुनिश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या- १७ में कहते हैं कि-
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरञ्चयते।। १७।

अनुवाद-  तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।  

अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों जैसा धर्मवत्सल, सदाचारी और धर्मज्ञ भूतल पर ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्मांड में कोई नहीं है।

(२)- गोपों (यादवों) की कुछ इसी तरह की प्रशंसा और  विशेषताओं को कंस स्वयं करता है।यादवों को अपने दरबार में बुलाकर उनसे जो कुछ कहा उसका वर्णन- हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -(२२ के १२ से २५ ) तक के श्लोकों में मिलता है। जो इस प्रकार है -

"भवन्तः सर्वकार्यज्ञा वेदेषु परिनिष्ठिताः।
न्यायवृत्तान्तकुशलास्त्रिवर्गस्य प्रवर्तकाः।।१२।

कर्तव्यानां च कर्तारो लोकस्य विबुधोपमाः ।
तस्थिवांसो महावृत्ते निष्कम्पा इव पर्वताः।।१३।।

अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः ।।१४ ।।

यशः प्रदीपा लोकानां वेदार्थानां विवक्षवः।
आश्रमाणां निसर्गज्ञा वर्णानां क्रमपारगाः।।१५।।

प्रवक्तारः सुनियतां नेतारो नयदर्शिनाम् ।
भेत्तारः परराष्ट्राणां त्रातारः शरणार्थिनाम्।।१६।।

एवमक्षतचारित्रैः श्रीमद्भिरुदितोदितैः ।
द्यौरप्यनुगृहीता स्याद्भवद्भिः किं पुनर्मही।। १७।।

ऋषीणामिव वो वृत्तं प्रभावो मरुतामिव ।
रुद्राणामिव वः क्रोधो दीप्तिरङ्गिरसारमिव।।१८।।

व्यावर्तमानं सुमहद् भवद्भिः ख्यात कीर्तिभिः ।
धृतं यदुकुलं वीरैर्भूतलं पर्वतैरिव।।१९।।

अनुवाद -
आप (यादव ) समस्त कर्तव्य कर्मों के ज्ञाता, वेदों के परिनिष्ठित विद्वान, न्यायोचित वार्ताव में कुशल, धर्म, अर्थ, और काम के प्रवर्तक, कर्तव्य पालक, जगत के लिए देवताओं के समान माननीय महान आचार्य विचार में दृढ़ता पूर्वक स्थिर रहने वाले और पर्वत के समान अविचल है। १२-१३।
• आप सब लोग पाखंडपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मंत्राओं को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।
• आपके यशस्वी रूप प्रदीप संपूर्ण जगत में अपना प्रकाश फैला रहे हैं। आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ है। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म है, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके आप लोग पारंगत विद्वान है।१५।
• आप लोग उत्तम विधियों के वक्ता, नीतिदर्शी पुरुषों के भी
नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक है।१६।
• आपके सदाचार में कभी आंच नहीं आने पाई है। आप लोग श्रीसंपन्न हैं तथा श्रेष्ठ पुरुषों की चर्चा होते समय आप लोगों के नाम बारम्बार लिए जाते हैं। आप लोग चाहें तो स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ? ।१७।
• आपका (यादवों का ) आचार ऋषियों के,  प्रभाव मरुद्गणों के,  क्रोध रुत्रों के, और तेज अग्नि के समान है।१८।
• यह महान यदुकुल जब अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो रहा था, उस समय विख्यात कीर्ति वाले आप जैसे वीरों ने ही इसे मर्यादा में स्थापित किया, ठीक उसी तरह से जैसे पर्वतों ने इस भूतल को दृढ़तापूर्वक धारण कर रखा है। १९।

उपरोक्त श्लोकों में देखा जाए तो यादवों के लिए
पांच महत्वपूर्ण बातें निकल कर सामने आती है। वो हैं-

(१)- यादव - पाखंडपूर्ण वृत्ति से सदैव दूर रहते थे और आज भी दूर रहते हैं।
(२)- यादव - वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। तथा आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म है, उन्हें ये लोग भली- भांति जानते हैं। और चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके ये लोग पारंगत विद्वान है।    
 (३)- यादव - नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं।
(४)- यादवों के दृढ़संकल्प की बात करें तो ये स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं, फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ? ये सभी विशेषताएं आज भी यादवों में देखने को मिलती है।

(५)- यादवों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनके  
        आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रुत्रों के,
        और तेज अग्नि के समान होता है दूसरी बात यह कि- यादवों की इन्हीं विशेषताओं की वजह से जब कालयवन नें नारद जी से पूछा कि इस स

मय पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन हैं ? इसपर नारद जी विष्णुपुराण के पंचम अंश के अध्याय- २३ के श्लोक संख्या- ६ में नारद जी बताएं हैं -

स तु वीर्यमदोन्मतः पृथिव्यां बलिनो नृपान् ।
अपच्छन्नारदस्तस्मै कथयामास यादवान्।। ६।
अनुवाद - तदनन्तर वीर्यदोन्मत्त कालयवन ने नारद जी से पूछा कि पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन से हैं ? इस पर नारद जी ने उसे यादवों को ही सबसे अधिक बलशाली बताया। ६।

इसी तरह से गोपकुल की गोपियों के लिए गर्गसंहिता के गोलक खंड के अध्याय- १० के श्लोक संख्या-(८) में नारद जी कंस से कहते हैं कि -
"नन्दाद्या वसव: सर्वे बृषभान्वादय: सरा:।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च सन्ति भूमौ नृपेश्वर।। ८।

अनुवाद -  नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के अवतार हैं।
 नृपेश्वर कंस ! इस "व्रजभूमि में जो गोपियां है, उनके रूप में वेदों की ऋचाएं यहां निवास करती हैं"।
अब इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि गोपियों की उपमा वेदों की ऋचाओं से की जाती है।

(४)- गोपिया कोई साधारण स्त्रियां नहीं थीं। तभी तो चातुर्वर्ण्य के नियामक व रचयिता ब्रह्मा जी- श्रीमद्भभागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय - (४७) के श्लोक (६१) में गोपियों की चरण धूलि को पाने के लिए तरह-तरह की कल्पना करते हुए मन में विचार करते हैं कि-
"आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथमं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।। ६१।

 अनुवाद - मेरे लिए तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृंदावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि बन जाऊं। अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊंगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओं (गोपियों ) की चरण धूलि निरंतर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी।
अब इन गोपकुल की गोपियों लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि ब्रह्मा जी भी इनके चरण धूलि को पाने के लिए झाड़ी और लता तक बन जाने की इच्छा करते हैं।

(५)- इसी तरह से गोपों के बारे में श्री राधा जी, गोपी रूप धारण किए भगवान श्री कृष्ण से- गर्गसंहिता के वृंदावन खंड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या -२२ में कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।
अनुवाद - ग्वाले सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गंगा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुंदर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
(६)- इसी तरह से परम ज्ञानयोगी उद्धव जी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय-(९४) के कुछ प्रमुख श्लोकों में गोपियों  की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-
"धन्यं भारतवर्षं तु पुण्यदं शुभदं वरम् ।
गोपीपादाब्जरजसा पूतं परमनिर्मलम्। ७७।

ततोऽपि गोपिका धन्या सान्या योषित्सु भारते ।
नित्यं पश्यन्ति राधायाः पादपद्मं सुपुण्यदम्। ७८।
 अनुवाद - इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपीकाएं सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं, क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्री राधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती रहती हैं।७७-७८।

पुनः उद्धव जी कहते हैं कि -

"षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं च ब्रह्मणा ।
राधिकापादपद्मस्य रेणूनामुपलब्धये ।। ७९।

गोलोकवासिनी राधा कृष्णप्राणाधिका परा ।
तत्र श्रीदामशापेन वृषभानसुताऽधुना ।।८०।

ये ये भक्ताश्च कृष्णस्य देवा ब्रह्मादयस्तथा ।
राधायाश्चापि गोपीनांकरां नार्हन्ति षोडशीम्।।८१।

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये । ८२।।

किंचित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।। ८३।।

धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमागतो गोकुलं यतः ।
गोपिकाभयो गुरुभ्यश्च हरिभक्तिं लभेऽचलाम् ।। ८४ ।।

मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।। ८५ ।।

न गोपीभ्यः परो भक्तो हरेश्च परमात्मनः ।
यादृशीं लेभिरेगोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।८६।।

अनुवाद -
• इन्हीं राधिका के चरण कमल की रज को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था। ७९।

•  गोलोक- वासिनी राधा जी, जो परा प्रकृति हैं। वहीं  भगवान कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे गोलोक में श्रीदामा के शाप से आज-कल  भूलोक में वृषभानु की पुत्री राधा के नाम से उपस्थित हैं। और जो-जो श्री कृष्ण के भक्त हैं, वे सभी राधा के भी भक्त हैं। ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की 16 (सोलहवीं) कला की भी समानता नहीं कर सकते। ८०-८१।
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप से तो योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियाँं ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी

स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।

•  इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया। यहां गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से मुझे अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई है, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। ८४।

पुनः इसके अगले श्लोक- ८५ और ८६ में उद्धव जी कहते हैं कि-
"मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।। ८५ ।।
न गोपिभ्यः परो भक्तों हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरे गोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।। ८६।।

अनुवाद -
• अब मैं मथुरा नहीं जाऊँगा, और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर (दास,सेवक) होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूँगा, क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है वैसी भक्ति दूसरों को प्राप्त नहीं हुई। ८५ - ८६।                
और यहीं कारण है कि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को गोप और गोपियों की पूजा करने का भी विधान किया गया है। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भेवीभागवत पुराण के नवम् स्कंध के अध्याय -३० के श्लोक संख्या - ८५ से ८९ से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।।८५।

शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधाया सह।
भारते पूजयेभ्दवत्या चोपचाराणि षोडश।।८६।

गोलोक वसते सोऽपि यावद्वै ब्राह्मणो वय।
भारतं पुनरागत्य कृत्यो भक्तिं लभेद् दृढाम।।८७।

क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देवं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।।८८।

ततः कृष्णस्य सारुपयं पार्षदप्रवरो भवेत्।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत।।८९।
अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मंडल संबंधी उत्सव मनाकर शालिग्राम- शिला पर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्ति पूर्वक साधन सहित श्री कृष्ण की पूजा संपन्न करता है, वह ब्रह्मा जी के स्थिति पर्यंत गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्री कृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। फिर भगवान श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मंत्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्री कृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। ८५-८९।
          
                  
गोपों की इन्हीं सब आध्यत्मिक विशेषताओं के कारण- गोपों (यादवों) को पाप से मुक्ति दिलाने वाला कहा जाता है। इस बात की पुष्टि-  गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड खंड के अध्याय- ६० के श्लोक संख्या- ४० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।

अनुवाद- जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा गोपालक( गोप) , यादवों की मुक्ति का वृतांत पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।।

कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- (११) के श्लोक संख्या- (४) में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-

"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परं ब्रह्म निराकृति।। ४।
अनुवाद - जिसमें श्री कृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने साकार रूप में अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।४।

किंतु वे लोग विशेषकर ऐसे कथावाचक, पापों से मुक्त नहीं हो पाते जो जानबूझकर या स्वार्थवश या लालचवश श्रीकृष्ण कथा में श्रीकृष्ण की आधी -अधुरी जानकारी को बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे कथावाचक कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते। साथ ही वे पाप तथा दण्ड के भागी होते हैं। क्योंकि श्री कृष्ण कथा तभी पूर्ण मानी  जाती है जब श्रीकृष्ण के साथ ही उनके पारिवारिक सदस्य गोपों का भी वर्णन किया गया हो। क्योंकि यह बात शास्त्रोचित है कि गोपेश्वर श्री कृष्ण के सहचर गोप हैं जिनके साथ भगवान श्री कृष्ण अपनी लीलाएं करते रहते हैं। इसीलिए बगैर गोपों का वर्णन किये श्रीकृष्ण की कथा अधूरी ही मानी जाती है। जिससे कभी उसके श्रवण का पुण्यफल प्राप्त नहीं हो सकता है।

इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि -"ऐसे छद्म-वेषधारी कथावाचकों से सावधान रहने की आवश्यकता है जो अल्पज्ञान से बिना गोपों का वर्णन किये ही श्रीकृष्ण कथा कहते हों।"
     
        गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणामों
की जानकारी अध्याय - १ भाग-(दो) में बतायी जा चुकी है। वहां से इस विषय पर विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।
                    
इस प्रकार से यह अध्याय- ७ वैष्णव वर्ण के गोपकुल  के गोप और गोपियों की पुराणो

ं में की गई भूरी-भूरी प्रसंशाओं और उनकी आध्यात्मिक महत्ता की कुछ जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
  
इसी क्रम में इसके अगले अध्याय- ८ में भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरित होने के प्रमुख कारणों को जानेंगे।

अध्याय- (८) ✓✓✓

भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण"



"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७
             (श्रीमद्भागवत गीता अध्याय- ४/७)
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- "जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं"।
        इसी को चरितार्थ करने के लिए परमेश्वर श्रीकृष्ण अपने गोलोक से धरा धाम पर गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं।
       इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कंध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान् शूद्रान कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते।। २२
     अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।
                   इसी तरह से श्रीमद् भागवत पुराण के ग्यारहवें  स्कंध के अध्याय-६ के श्लोक संख्या -२३ और २५ में ब्रह्मा जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि-
अवततीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद् रुपमनुत्तमम्।
कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः।। २३

यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरूषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पंचविंशाधिकं प्रभो।। २५
               अनुवाद - आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत के हित के लिए उदारता और पराक्रम से भरी अनेक लीलाएं कीं । २३
•  पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु ! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये "एक सौ पच्चीस वर्ष" बीत गए हैं। २५
        
                      इसी तरह से हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के अध्याय- ५५ के श्लोक - १७ में गोपेश्वर श्री कृष्ण, ब्रह्मा जी से पूछा कि- आप मुझे यह बताएं कि मैं किस प्रदेश में कैसे प्रकट होकर अथवा किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि में संहार करूंगा ? इस पर ब्रह्मा जी श्लोक संख्या- १८ से २० में कहा -
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रृणु में विभो।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।। १८
यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।
यादवानां महद वंशमखिलं धारयिष्यसि।। १९
ताश्चासुरान् समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मननो  महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। २०
             अनुवाद - सर्वव्यापी नारायण! आप मुझे इस उपाय को सुनिए, जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। हे महाबाहो! भूतल पर जो आपके पिता होंगे,जो माता होगीं और जहां जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के संपूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे, वह सब बताता हूं सुनिए। १८,१९,२०
          इसी तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण को यदुवंश में जन्म लेने की पुष्टि- गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- १४ के श्लोक संख्या- ४१ से होती है। जिसमें त्रेता युग के रावण के भाई विभीषण जो अमर होकर लंका का राजा द्वापर युग तक था। उसी समय यादव अपनी विशाल सेना के साथ विश्वजीत युद्ध के लिए निकले थे। उसी दरम्यान
दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य विभीषण को बताया कि-
असंख्यब्राह्मण्डपतिर्गोलोकेश: परात्पर:।
जातस्तयोर्वधाथार्य यदुवंशे हरि: स्वयंम्।। ४१

यादवेन्द्रो भूरिलीलो द्वारकायां विराजते। ४२/२

        अनुवाद - असंख्य ब्रह्मांडपति परात्पर गोलोकनाथ 
श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। वे यादवेंद्र बहुत सी लीलाएं करते हुए इस समय द्वारिका में विराजमान है। ४१, ४२/२
        यादवों के उसी विश्वजीत युद्ध के समय मुनि वामदेव ने राजा गुणाकर  को भी भगवान श्री कृष्ण को यादव कुल में उत्पन्न होने की बात बहुत ही अच्छे ढंग से बतायें। जिसका वर्णन गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- २८ के श्लोक संख्या ४५ व ४६ में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-
राजंस्त्वं हि न जानसि परिपूर्णतमं हरिम्।
सुराणां महदर्थाय जातं यदुकुले स्वयंम्।
भुवो भारावताराय भक्तानां रक्षणाय च।। ४५
भूत्वा यदुकुले साक्षाद् द्वारकायां विराजते।
तेन कृष्णेन पुत्रोऽयं प्रदुम्नो यादवेश्वरः ।
उग्रसेनमखार्थाय जगज्नेतुं प्रणोदित:।। ४६
      अनुवाद - राजन! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्री हरि, देवताओं का महान कार्य सिद्ध करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। पृथ्वी का भार उतरने और भक्तों की रक्षा करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हो वे साक्षात भगवान द्वारिकापुरी में विराजते हैं। उन्हीं श्री कृष्ण ने उग्रसेन के यज्ञ की सिद्धि के लिए संपूर्ण जगत को जीतने के निमित्त अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युमन को भेजा है।
४५, ४६
              यादवों के उसी विश्वज

ीत युद्ध के समय जब श्रीकृष्ण के द्वारा महान बलशाली दैत्यराज शकुनी मारा गया तब उसकी पत्नी मदालसा हाथ जोड़कर श्री कृष्ण से जो कुछ बोली उससे भी सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण यदुकुल में अवतीर्ण हुए थे। जिसका वर्णन गर्गसंगीता के विश्वजीत खंड के अध्याय- ४२ के श्लोक संख्या- ६ और ७ में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-

भारावताराय भुवि प्रभो त्वं जातो यदूनां कुल आदिदेव।
ग्रसिष्यसे पासि भवं निधाय गुणैर्न लिप्तोऽसि नमामि
तुभ्यम्।। ६

मदात्मजं पालय भीतभीत ममुष्य हस्तं कुरु शीर्षि्ण देव।
भर्त्रा कृते में किल तेऽपराधं क्षमस्व देवेश जगन्निवास।। ७

   
अनुवाद- ६-७
प्रभो! आदि देव! आप भूतल का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतरित हुए हैं। आप ही संसार के स्रष्टा एवं पलक है, और प्रलय काल आने पर आप ही इसका संहार भी करते हैं। किंतु आप कभी भी गुणों से लिप्त नहीं होते। मैं आपकी अनुकूलता प्राप्त करने के लिए आपके चरणों को प्रणाम करती हूं। मेरा बेटा बहुत डरा हुआ है। आप इसकी रक्षा कीजिए। देव ! इसके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखिए। देवेश ! जगन्निवास ! मेरे पति ने  जो अपराध किया है उसे क्षमा कीजिए।
           इसी तरह से जब सभी देवता मिलकर ब्रह्मा जी का विवाह अहीर कन्या गायत्री से करा दिए, तब ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री क्रोध से तिलमिलाकर अहीर कन्या गायत्री सहित देवताओं को शापित करने लगी। उसी समय वहां उपस्थित विष्णु को भी सावित्री श्राप दे देती हैं। उसी श्राप के विधान से ही गोपेश्वर श्रीकृष्ण को यदुकुल में जन्म लेना पड़ा। इस बात की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या-१६१ से होती है। जिसमें सावित्री विष्णु को शाप देते हुए कहती हैं कि-
यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि ।।१६१
                    अनुवाद - हे विष्णु! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बनकर लंबे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। १६१
            इसी तरह से बलराम जी को भी यदुकुल में उत्पन्न होने की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खंड के श्लोक संख्या -१३और १४ से होती है। जिसमें बलराम जी स्वयं अपने पार्षदों से कहते हैं कि -
हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।। १३

भो वर्म त्वमपि चाविर्भव। हे मुनयः पाणिन्यादयो हे व्यासादयो हे कुमुदादयो हे कोटिशो रुद्रा हे भवानीनाथ
हे एकादश रुद्रा हे गंन्धर्वा! हे वासुक्यादिनागेन्द्रा हे निवातकवचा हे वरुण हे कामधेनो मूम्यां भारतखण्डे यदुकुलेऽवतरन्तं  मां यूयं सर्वे सर्वदा एत्य मम दर्शनं कुरुत।। १४
            अनुवाद - हे हल और मुसल! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूं, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना।
हे कवच! तुम भी वैसे ही प्रकट हो जाना। हे पाणिनि आदि, व्यास आदि तथा कुमुद आदि मुनियों! हे कोटि-कोटि रूद्रों! गिरिजा पति शंकर जी! ग्यारह रुद्रों! गन्धर्वों ! वासुकि आदि नागराजों! निवातकवच आदि दैत्यों! हे वरूण और कामधेनु! मैं भूमंडल पर भारतवर्ष में यदुकुल में अवतार लूंगा। तुम सब वहां आकर सदा सर्वदा मेरा दर्शन करना। १३,१४

             उपरोक्त सभी श्लोकों से यह सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण यदुकुल या यदुवंश में हुआ है। किंतु इस संबंध में ज्ञात हो कि- यदुवंश या यदुकुल- वैष्णव वर्ण के गोपकुल का ही प्रमुख वंश एवं कुल है। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण को जब वंश में जन्म लेने की बात कही जाती है तब उनके लिए यदुवंश का नाम लिया जाता है। किंतु जब भगवान श्री कृष्ण को किसी कुल में जन्म लेने की बात कही जाती है तो उनके लिए गोपकुल या यदुकुल नाम लिया जाता है। इसमें दोनों तरह से बात एक ही है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण को अनेकों बार यदुवंश के साथ-साथ गोपकुल में भी जन्म लेने की बात कही गई है। जैसे-
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपकुल में जन्म लेने की बात हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में कही गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८
           अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
           भगवान श्री कृष्ण को गोपकुल में अवतीर्ण होने की बात गायत्री संग ब्रह्मा जी के विवाह के समय तब होती है जब इंद्र गोप कन्या गायत्री को बलात उठाकर ब्रह्मा जी से विवाह हेतु यज्ञ स्थल पर ले गए। तब सभी गोप अपना मुख्य शस्त्र लाठी- डंडा के साथ अपनी कन्या गायत्री को खोजते हुए ब्रह्मा जी के यज्ञ स्थल पर पहुंचे। वहां पहुंच कर गायत्री के माता-पिता ने पूछा कि- मेरी कन्या को कौन यहां लाया है ? तब उनकी यह बात सुनकर तथा उनके क्रोध का अंदाजा लगाकर वहां उपस्थित सभी देवता औ

र ऋषि मुनि भयभीत हो गए। तभी वहां उपस्थित विष्णु जी बीच बचाव करते हुए गोपों के सामने खड़े हो गए और उस मौके पर जो कुछ गोपों से कहा उसका वर्णन पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या -१६ से २० में मिलता है। जिसमें विष्णु जी गोपों से कहते हैं कि -

अनया आभीरकन्याया तारितो गच्छ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।। १६             

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले। १७           

करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।। १८    

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः ।
करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः ।।१९    

न चास्याभविता  दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्।
श्रुत्वा वाक्यं  तदा विष्णोः प्रणिपत्य  ययुस्तदा ।। २०

                 अनुवाद:- हे आभीरों (गोपों ) इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोक को जाओ तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य  सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुंगा। १६
• और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी। उसी समय धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।१७
• तब मैं उनके बीच रहूंगा। तुम्हारी सभी पुत्रियां मेरे साथ रहेंगी। १८
• तब वहां कोई पाप, द्वेष और ईर्ष्या नहीं होगी। ग्वाले और मनुष्य भी किसी को भय नहीं देंगे। १९   
•  इस कार्य (ब्रह्मा से विवाह करने) के फलस्वरूप इस (तुम्हारी पुत्री को) कोई पाप नहीं लगेगा। विष्णु के ये वचन सुनकर वे सभी उन्हें प्रणाम करके वहां से चले गए। २०  
              किंतु जाते समय गोपगण भी विष्णु से यह वादा करवाया कि आप निश्चित रूप से गोपकुल में ही जन्म लेंगे। जिसका वर्णन इसी अध्याय के श्लोक -२१ में है जिसमें गोपगण विष्णु जी से कहते हैं कि -
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे।
अवतारः कुलेऽस्माकंं  कर्तव्योधर्मसाधनः।। २१
                 अनुवाद - हे देव! यही हो। आपने जो वर दिया, वैसा ही हो। आप हमारे कुल में धर्मसाधन कर्तव्य हेतु अवश्य अवतार लेंगे। २१
     तब विष्णु ने भी गोपों को ऐसा ही आश्वासन दिया। तत्पश्चात सभी गोप खुशी-खुशी से अपने-अपने घर चले गए।
         उसी समय अहीर कन्या गायत्री ने ब्रह्मा जी की प्रथम पत्नी सावित्री जो विष्णु को यह शाप दे चुकी थी कि - हे विष्णु! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बन कर  लंबे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। उस शाप को गायत्री वर्दान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कंद पुराण खण्ड- ६ के नागर खंड के अध्याय- १९३ के श्लोक - १४ और १५ में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -
तेनाकृत्येऽपि  रक्तास्ते  गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् ॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥ १४॥

यत्रयत्र  च वत्स्यंन्ति  मद्वं शप्रभवानराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति ॥१५॥

अनुवाद -१४-१५
आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती है-  तुम्हारे  इस प्रकार  रक्त सम्बन्धी ( blood relation ) वाले गोप (अहीर) तुम्हारी प्राप्ति कर  विना कुछ कर्म के भी प्रशंसनीय पद प्राप्त कर जायेंगे। और सभी लोग विशेष रूप से देवता भी उनकी प्रशंसा करेंगे। १४
•  पुन: गायत्री विष्णु से  कहती हैं- मेरे गोप वंश के लोग जहां भी रहेंगे, वहां श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो। १५

            अतः उपरोक्त सभी महत्वपूर्ण श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि-  धर्म स्थापना हेतु गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म या अवतरण, वैष्णव वर्ण के अंतर्गत गोप जाति (अहीर जाति ) के यादव वंश में ही होता है अन्य किसी जाति या वंश में नहीं।
                यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण, चाहे गोलोक में हो या भूलोक में हो, वे सदैव गोप भेष में गोपों के ही साथ ही रहते हैं, और सभी लीलाएं उन्हीं के साथ ही करते हैं। इसीलिए गोपों को श्रीकृष्ण का सहचर (सहगामी) अर्थात् साथ-साथ चलने वाला कहा जाता है।
                भगवान श्री कृष्ण को सदैव गोप भेष में गोपों के साथ रहने की पुष्टि - हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -३ के श्लोक -३४ से होती है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण जन्म लेने से पूर्व योग माया से कहते हैं कि- 
मोहहित्वा च तं कंसमेका त्वं भोक्ष्यसे जगत्।
अहमप्यात्मनो वृत्तिं विधास्ये गोषु गोपवतः।। ३४
             अनुवाद - तुम उस कंस को मोह में डालकर अकेली ही संपूर्ण जगत का उपभोग करोगी। और मैं भी ब्रज में गौओं के बीच में रहकर गोपों के समान ही अपना व्यवहार बनाऊंगा।
             ये तो रही बात भूलोक की। किंतु गोपेश्वर श्री कृष्ण गोलोक में भी अपने गोपों के साथ सदैव गोप भेष में ही रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय

२- के श्लोक - २१ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
 किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१
                अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर ) भेष में रहते हैं।२१।
           अतः इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण चाहे गोलोक हो या भूलोक दोनों स्थानों पर वे सदैव गोप भेष में गोपों के साथ ही रहते हैं।
         इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - २६ और ४१ में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जो पौण्ड्रक, श्री कृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहा कि-
स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१

अनुवाद - ओ यादव! ओ गोपाल! इस समय तुम कहां चले गए थे ? आजकल मैं ही वासुदेव नाम से विख्यात हूं। २६
तब भगवान श्री कृष्ण पौण्ड्रक  से कहा-
• राजन मैं सर्वदा गोप हूं अर्थात प्राणियों का सदा प्राण दान करने वाला हूं, तथा संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूं। ४१
               
        इसी तरह से एक बार श्री कृष्ण की तरह-तरह की अद्भुत लीलाओं को देखकर गोपों को संशय होने लगा कि कृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। ये या तो कोई देवता है या कोई ईश्वरीय शक्ति। और इस रहस्य को श्रीकृष्ण अपने गोपों के लिए गुप्त रखना चाहते थे, ताकि मेरी बाल लीला बाधित न हो।  इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण उनके संशय को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय- २० के श्लोक- ११ में अपने सजातीय गोपों से कहते हैं कि-
मन्यते मां यथा सर्वे भवन्तो भीमविक्रमम्।
तथाहं नावमन्तव्यः स्वजातीयोऽस्मि बान्धवः।। ११
        अनुवाद - आप सब लोग मुझे जैसा भयानक पराक्रमी समझ रहे हैं, वैसा मानकर मेरा अनादर न करें। मैं तो आप लोगों का सजातीय (गोप जाति का) भाई बंधु ही हूं।
       इस प्रकार से यह अध्याय- इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि- गोपेश्वर श्री कृष्ण गोलोक और भू-लोक  दोनों स्थानों पर सदैव गोप भेष में अपने गोपकुल के गोपों के साथ ही रहते हैं।
अब इसके अगले अध्याय- ९ में जानकारी दी गई है कि-
गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र अत्रि है या वैष्णव ?







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