गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

स्तोत्र-

अहो श्रीकृष्ण ! अस्मिन्मायानागरीयां
को गुरूरिति मम इह त्वया विना  ।।
अहमोऽनाथ एष शून्यपाथो मोचको
 त्वं बन्धनानां यानि नियतिना।।१। 
अनुवाद:- हे श्रीकृष्ण!  इस माया नगरी में
 आपके बिना यहाँ मेरा गुरु कौन है?
 मैं अनाथ हूं, यह सूना पथ तारणहार है।
 तू वह बंधन है जो नियति से है। १।



"अवगमनात्परमत: हे विभो ! 
सर्वं त्यक्त्वा निजगुरू: त्वं मत्वा ।।
स्तोत्र लेखनकार्यं साधयिष्यामि ।।
कृपया कुरु पथदर्शनं मे स्वामि।।२।
अनुवाद:-
पहुँच से परे सर्वव्यापक! हे प्रभु सब त्यागकर के तुमको अपना गुरु मानकर स्तोत्र ( स्तुतियाँ) के लेखन की क्रिया करुँगा। कृपया मेरा मार्गदर्शन करो मेरे स्वामि!२।
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 हे गोपेश्वर ! भवतो विहाय न मम कश्चिद्गुरुः 
न कश्चिदीश्वरोऽस्मिन् कर्मभूमौ तिष्ठामि।
अतः मां निजपादयोः स्थापयित्वा नित्यं गुरुत्वेन कुरु हे मम स्वामि ते अनुगामि ।३।
अनुवाद:-
हे गोपेश्वर आपको छोड़कर न मेरा कोई गुरु है। न मेरा कोई ईश्वर मैं  इस कर्म- भूमि स्थित हूँ। इस लिए अपने युगल चरणों मे स्थापित कर अपने गुरुत्व के द्वारा मुझे अनुग्रहीत कर मेरे स्वामी मैं तेरा अनुगामी हूँ।३।

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अहो गोपेश्वर: श्री कृष्ण !  मम एकमेव निवेदनं यद्यदा यदा अहं भवन्तं स्मरामि।।
तदा तदा त्वं  आगच्छ स्वप्रियया सह
यतः भवन्तौ विना तेन ना सिद्धं  कार्यं न शक्नोमि स्वामि।।४।
अनुवाद:-
हे गोपेश्वर श्रीकृष्ण मेरा एक ही निवेदन है कि जब जब मैं तुम्हारा स्मरण करूँ। तब तब तुम अपनी प्रिया राधा जी के साथ आओ !  क्योंकि आपके विना मैं एक कार्य भी सिद्ध नहीं कर सकता स्वामि!।४।

-हे गोपेश्वर श्रीकृष्ण !  त्वां विहाय अन्यस्य ना अनुगामी।
कालस्य निर्माता विधाता ते शरणमिच्छामि।  भक्तिं प्रयच्छ. त्वं  मह्यं  हे नाथ हे स्वामि ।।५।
अनुवाद:-
हे गोपेश्वर श्रीकृष्ण तुम्हारे विना अन्य का में अनुयायी नहीं हूँ। तुम काल को निर्माता सृष्टि के विधाता हो मैं तेरी शरण जाता हूँ। भक्ति दो तुम मुझे हे नाथ हे मेरे स्वामी।५।

हे देव !  जगति सर्वाणि वस्तूनि भवतः एव सन्ति।  एतन्मनसि निश्चय कृत्वा सर्व त्यक्त्वा अस्मिन् समये यत्किञ्चिदपि तुभ्यं समर्पयामि।
हर्षेण गृहाण च कुरु दीनस्य त्राण ओ सर्व जगते: स्वामि  ।६।
अनुवाद:-
संसार की सभी वस्तुऐं आपसे ही अस्तित्व में  हैं। ऐसा मन में निश्चय करके सब त्यागकर इस समय जो कुछ भी है वह तुम्हें समर्पित करता हूँ।६।



 विशेष जानकारी- (१)
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो ते भक्त्या कर्म समर्पयामि।
भक्तेर्भावेन सर्वनिर्मितं तेन अहं तुभ्यं कोटिश् नमामि।।१।
अनुवाद:- पत्र' पुष्प और फल तथा जल जो भी भक्ति के द्वारा कर्म  तेरे लिए  मैं अर्पित करता हूँ। मुझ भक्त के  भाव के अनुसार उसे तुम ग्रहण करो क्योंकि सब तेरे द्वारा ही निर्मित है मैं तुम्हे कोटि कोटि बार प्रणाम करता हूँ।
भाष्य:-
पत्रम्पुष्पं फलानि च यत्किमपि च कर्माणि भक्त्या ते समर्पयामि।  मम भक्तस्य भावनानुसारं स्वीकुर्वसि 
हे मे स्वामि!
यतोहि सर्वं त्वया एव निर्मितम् तथा च अहं त्वां कोटि कोटिश्  नमामि।


 वैष्णव यज्ञ के समय - प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरांत- "ॐ श्रीकृष्णाय सर्वकर्म समर्पयामि स्वाहा"  के साथ भावाञ्जलि अर्पित करें। किंतु ध्यान रहे उपरोक्त सभी मंत्रों को किसी पुरोहित से न पढ़वा जाय और ना ही उनसे कुछ करवाया जाय क्योंकि इन मंत्रों को केवल कृष्ण भक्त गोप ही सिद्ध और सफल कर सकते हैं बाकी कोई नहीं। 

[इसके बारे में विस्तृत जानकारी अध्याय- (१) के भाग-(२) में दी गई है वहां से अपने संशय को दूर कर सकते हैं।]

(२)- बाकी हवन-यज्ञ के अतिरिक्त सुबह-शाम श्रीकृष्ण  पूजा, आराधना, या आरती इत्यादि के समय पांचों मंत्रों से श्रीकृष्ण का बार-बार स्तुति करें। यदि कोई भक्त संस्कृत का श्लोक नहीं पढ़ सकता तो वह मंत्रों को भक्ति भाव से हिंदी अनुवाद में पढ़कर श्रीकृष्ण की आराधना कर सकता है ऐसा करने से उसे कोई दोष नहीं होगा।

 जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए कहां-कहां प्रयुक्त हुआ।
अहीर शब्द का प्रयोग हिंदी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रुप से किया गया है। जैसे-
 जैन महाकवि हेमचन्द्र सूरि ने 1000ईस्वी के समकक्ष अपने ऐतिहासिक महाकाव्य द्वाश्रयकाव्यम् (कुमरपालचरित) के द्वितीय सर्ग में चालुक्य राजा ग्राहरिपु  को आभीर जातीय लिखा है। उन्होंने ही आभीर शब्द का प्राकृतिक भाषा में आहिर प्रयोग किया है। आहिर शब्द ही अहीर हो गया।
                     

भगवान श्रीकृष्ण को गोपजाति और यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय - (७) में बताया जा चुका है।

 

      
     




 

ऋषि अत्रि को लेकर दूसरा आश्चर्य तब होता है जब ऋषि अत्रि से चंद्रमा को उत्पन्न करा कर यादवों के मूल वंश- चंद्रवंश को भी अत्रि से जोड़ दिया गया। सोचने वाली बात है कि जो अत्रि स्वयं वारूणी यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए हों या ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हों वे चंद्रमा को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ? अर्थात् यह संभव नहीं है।

जबकि वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम चंद्रमा की उत्पत्ति गोलोक में विराट विष्णु से हुई है न कि ब्राह्मण ऋषि अत्रि से।

(ज्ञात हो - विराट विष्णु गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं, जिनकी उत्पत्ति गोलोक में ही परमेश्वर श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से हुई है, इसलिए उन्हें गर्भोधकशायी विष्णु भी कहा जाता है इन्हीं गर्भोधकशायी विष्णु के अनंत रोम कूपों से अनंत ब्रह्मांडों की उत्पत्ति हुई और उनमें भी उतनें ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश उत्पन्न हुए तथा उतने ही सूर्य और चंद्रमा उत्पन्न हुए। फिर उन प्रत्येक ब्रह्मांडों में ब्रह्मा जी उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण के आदेश पर द्वितीय सृष्टि की रचना की है। द्वितीय सृष्टि रचना में ब्रह्मा के  दस मानस पुत्र उत्पन्न हुए, उन दस मानस पुत्रों में अत्रि भी थे। तो इस स्थिति में ऋषि अत्रि अलग से कैसे चंद्रमा को उत्पन्न कर सकते हैं ? 

अर्थात यह संभव नहीं है क्योंकि अत्रि के जन्म की तो बात दूर इनके पिता ब्रह्मा की भी उत्पत्ति से बहुत पहले सूर्य और चंद्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हो चुकी होती है। 

कुल मिलाकर पौराणिक ग्रंथों  में ऋषि अत्रि से चंद्रमा की उत्पत्ति बताने का एकमात्र उद्देश्य ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में सम्मिलित करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।

 विराट विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण से चंद्रमा की उत्पत्ति की पुष्टि-  श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ११ के श्लोक- (१९) से होती है जिसमें विराट पुरुष से सम्पूर्ण ब्रह्मांड उत्पत्ति एवं विलय क्रम में सूर्य और चंद्रमा की स्थिति को सर्वप्रथम भूतल पर अर्जुन ने उस समय देखा और जाना जब भगवान श्रीकृष्ण अपना विराट रूप का दर्शन अर्जुन को कराया। उसे विराट पुरुष को देखकर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं -

"अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।

              (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१९)

अनुवाद- आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चंद्र और सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुख वाले और अपने तेज से इस संसार को तपाते हुए देख रहा हूं।१९।
  
 इसी प्रकार से विराट विष्णु से चंद्रमा की उत्पत्ति का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -

चन्द्रमा मनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च  प्रणाद्वायुरजायत।।१३।

अनुवाद- महा विष्णु के मन से चंद्रमा, नेत्रों से सूर्य ज्योति, मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।

अतः उपरोक्त साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- चंद्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हुई है अत्रि से नहीं।

और यह भी सिद्ध हुआ कि- विष्णु से उत्पन्न होने के नामानुसार चंद्रमा भी उसी तरह से वैष्णव हुआ जिस तरह से विष्णु से उत्पन्न गोप (यादव) वैष्णव हैं। यह ध्रुव सत्य है।

 ( विशेष) - किंतु ध्यान रहे चंद्रमा कोई मानवी सृष्टि नहीं है वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए उससे कोई पुत्र इत्यादि उत्पन्न होने की कल्पना करना भी माहा मूर्खता होगी।

चंद्रमा के दिन-मान से वैष्णव लोग काल- गणना करते हैं तथा अपना प्रथम वंशज और आराध्य देव मानकर पूजा करते हैं। इसी परंपरा से वैष्णव वर्ण के गोपों में चंद्रवंश का उदय हुआ।
और भगवान श्रीकृष्ण जब भी भू-तल पर अवतरित होते हैं तो वे चंद्रवंश के अंतर्गत वैष्णव वर्ण के अभीर जाति यदुवंश आदि में ही अवतरित होते हैं।
      
गोप कुल में अवतरित होने के संबंध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) में कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपों के कुल में अवतरित होने का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके पिछले अध्याय- (८) में किया जा चुका है। वहां से विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।

इन उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- उत्पत्ति विशेष के कारण गोपों अर्थात् यादवों का मूल गोत्र और वर्ण  दोनों ही "वैष्णव" है जो उनके अनुवांशिक गुणों एवं रक्त संबंधों को संकेत करता है। तथा उनका एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" है जिसमें गोपों का कोई रक्त संबंध नहीं है, जिसका उद्देश्य केवल ब्राह्मण पूरोहितों से पूजा पाठ, हवन, विवाह इत्यादि को संपन्न कराना है।

इस प्रकार से अध्याय- (९) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं।

अब इसके अगले अध्याय- (१०) में गोपकुल के श्रीकृष्ण एवं राधा सहित पुरुरवा और उर्वशी, आयुष, नहुष,ययाति इत्यादि महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे में बताया गया है।

बलः शरीरं मानुष्यं त्यक्त्वा धाम जगाम ह ।
देवाँस्तत्रागतान्दृष्ट्वा हरिरंतरधीयत ॥ १३ ॥

व्रजे गत्वा हरिर्नंदं यशोदां राधिकां तथा ।
गोपान्गोपीर्मिलित्वाऽऽह प्रेम्णा प्रेमी प्रियान्स्वकान् ॥ १४।

अनुवाद - बलराम जी मानव शरीर को छोड़कर अपने धाम को चले गए। वहां देवताओं को आया देख श्रीकृष्ण अंतर्धान हो गए। ब्रज में जाकर श्रीहरि नन्द, यशोदा, राधिका तथा गोपियों सहित गोपों से मिले और उन प्रेमी भगवान ने अपने प्रिय जनों से प्रेम पूर्वक इस प्रकार कहा। १३-१४।

     
किंतु भगवान श्रीकृष्ण के अगले कथन को बताने से पहले यहां कुछ बताना चाहेंगे कि-
___________________________________
देवानामागमनसमये गोपेश्वरश्रीकृष्णः किमर्थमन्तर्धानं जातः? 

अतः तस्मिन् समये गोपेश्वर श्री कृष्णः त्रिभिः कारणैर्देवानामागमनेन अन्तर्धानं जातः।

 (१)- प्रथमं कारणं यत् - गोलोकयात्रायाः अलौकिकघटनासु गोपान् विहाय अन्यः कोऽपि संलग्नो न भवितुम् अर्हति ।  अत एव भगवान् श्रीकृष्णः तत  अन्तर्धानं जातः।

देवताओं के आने पर गोपेश्वर श्रीकृष्ण क्यों अन्तर्धान हो गए ? 

तो उस समय गोपेश्वर श्रीकृष्ण तीन कारणों से देवताओं के आने पर अन्तर्धान हो गए।

(१)- पहला कारण यह कि - गोलोक के आवागमन की अलौकिक घटनाक्रम में गोपों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्मिलित नहीं हो सकता। इस लिए भगवान श्रीकृष्ण वहां से अंतर्धान हो गये।
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 (२) - द्वितीयं कारणं यत् - भगवान् श्रीकृष्णः गोलोकात् स्वगोपगोपीभिः सह पृथिव्यां भूमिभारं दूरीकर्तुं आगच्छति तथा च कार्यस्य समाप्तेरनन्तरं भगवान् श्रीकृष्णः तदेव गोपैः सह पुनर्गोलोकं गच्छति तथा च गोपीः ।  अस्याः घटनायाः सह देवानाम् किमपि सम्बन्धो नास्ति।  अत एव देवानाम् आगमनसमये भगवान् श्रीकृष्णः तत्र अन्तर्धानं जातः।

 (३)- तृतीयं कारणं यत् भगवान् श्रीकृष्णसहितस्य गोपानां अस्याः आन्दोलनस्य घटना गुप्तं रहस्यपूर्णा च अस्ति।  गोपाः गोपीः एव एतत् लोके जानन्ति।  तथा गोपेश्वर श्री कृष्णः सदा एतां घटनां गोपनीयं कर्तुम् इच्छति।  अत एव गोपेश्वरः ततः श्रीकृष्णदेवताः आगमनसमये अन्तर्धानं जातः।


(२)- दूसरी कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण भूमि का भार दूर करने के लिए गोलोक से अपने गोप और गोपियों के साथ ही पृथ्वी पर आते हैं और कार्य पूर्ण हो जाने पर भगवान उन्हीं गोप और गोपियों को लेकर पुनः गोलोक को चले जाते हैं। इस घटनाक्रम से देवताओं का कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए वहां पर देवताओं के आनें पर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये।

(३)- तीसरा कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण सहित गोपों के इस आवागमन की धटना गुप्त एवं रहस्य पूर्ण है। लोक में  इसे केवल गोप और गोपियां ही जानते हैं। और इस घटना को गोपेश्वर श्री कृष्ण सदैव गुप्त ही रखना चाहते हैं। इसीलिए गोपेश्वर श्री कृष्ण देवताओं के आने पर वहां से अन्तर्धान हो गए।


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उपर्युक्तत्रयकारणात् भगवान् श्रीकृष्णस्य गोलोकयात्रायाः वास्तविकतां गोपान् विहाय न देवाः न ऋषयः पूर्णतया जानन्ति। 

 एतस्य पुष्टिः ब्रह्मवैवर्तपुराणस्य श्रीकृष्णस्य जन्मखण्डस्य (९४) अध्यायस्य (८२) (८३) च श्लोकैः भवति ।  यस्मिन् लिखितम् अस्ति यत्- .

उपरोक्त तीनों कारणों से भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक गमन की वास्तविकता को गोपों के अतिरिक्त पूर्ण रूप से न तो देवता और न ही ऋषि-मुनि जन जानते हैं। 

इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (९४) के श्लोक- (८२) और (८३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
____________________________________
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये ।८२।
 

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।     
                                    
अनुवाद - ८२-८३
श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं। ८२।
•  ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८३।
                   
 इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -

गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो। ९।

यहीं कारण है कि - पुराणों में भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक गमन के प्रसंग में श्रीकृष्ण को बहेलिए से मरवा कर गोलोक भेजनी की हास्यास्पद कथा लिखी गई है।
        
अब हम पुनः अपने मूल प्रसंग पर आते हैं- वहां उपस्थित नन्द आदि गोपों से भगवान कहे-



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