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:- वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति -:
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ज्ञात हो कि- "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। जिसमें केवल गोप जाति के आते हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो वर्ण विष्णु (श्रीकृष्ण) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से ही वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।
इस सम्बन्ध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से ही बताई गई है-
"विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव पद हुआ और वैष्णव पद के स्त्रीलिंग रूप में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द पद- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं। वैष्णव वर्ण को ही पञ्चमवर्ण भी कहा जाता है। पञ्चमवर्ण के गोपों की उत्पत्ति सर्वप्रथम गोलोक में स्वराट विष्णु अर्थात श्रीकृष्ण के रोम कूपों से हुई है। गोप वैष्णव वर्ण के प्रमुख सदस्य पति होने के कारण ये ब्रह्मा जी के चतुर्वर्ण से परे व पृथक हैं। इस बात को इसके पिछले अध्याय- (चार) में बताया जा चुका है। वहाँ से वैष्णव वर्ण तथा गोपों की उत्पत्ति की विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।
इसी क्रम में अब हमलोग जानेंगे कि ब्रह्मा जी के "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति कैसे हुई।
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-: ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति :-
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सर्वविदित है कि देवो के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति हुई। इस बात की पुष्टि -विष्णु पुराण के प्रथमांश के छठे अध्याय के श्लोक - (६) से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
"ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम ।
पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१/६/६।
अनुवाद:-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।।६।
फिर इसी जन्मगत आधार पर ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था भी चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र) में विभाजित हो गई। इसी बात की पुष्टि एक अन्य पुराण पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या-(१३०) में सन्दर्भित किया गया है जिसमें लिखा गया है कि-
"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम। पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१३०।
अनुवाद- पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।१३०।
इस संबंध में अत्रि संहिता का (१४०) वां श्लोक भी यही सूचित करता है कि -
"जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते॥१४०।
अनुवाद:- ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हाेने वाला जन्म से ही 'ब्राह्मण' कहलाता है। फिर उपनयन संस्कार हाे जाने पर वह 'द्विज' कहलाता है और विद्या प्राप्त कर लेने पर वही ब्राह्मण 'विप्र' कहलाता है। इन तीनाें नामाें से युक्त हुआ ब्राह्मण 'श्राेत्रिय' कहा जाता है।१४०।
(विशेष:- श्रुति (वेद) का ज्ञाता ब्राह्मण ही श्रोत्रिय कहलाता है।)
ज्ञात हो ब्रह्मा जी के इन चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए हुई। इस बात की पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया। ७।
विष्णु पुराण के समान पद्मपुराण (सृष्टिखण्ड-अधयाय-(३) में वर्णन है कि चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया ।
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यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्मा चकार ह।
चातुर्वर्ण्यं महाराज यज्ञसाधनमुत्तमम्।१३१।
चातुर्वर्ण्यं महाराज यज्ञसाधनमुत्तमम्।१३१।
यज्ञेनाप्यायिता देवा वृष्ट्युत्सर्गेण मानवाः।
आप्यायन्ते धर्मयज्ञा यतः कल्याणहेतवः।१३२।
आप्यायन्ते धर्मयज्ञा यतः कल्याणहेतवः।१३२।
अनुवाद:-
महाराज ! ये चारों वर्ण यज्ञ के उत्तम साधन हैं; अतः ब्रह्माजी ने यज्ञानुष्ठान की सिद्धि के लिये ही इन सबकी सृष्टि की।१३१।
यज्ञ से तृप्त होकर देवतालोग जल की वर्षा करते हैं, जिससे मनुष्यों की भी तृप्ति होती है; अतः धर्ममय यज्ञ सदा ही कल्याण का हेतु है।१३२।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान विष्णु से वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति हुई वहीं दूसरी तरफ ब्रह्मा जी से चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति हुई।
और इन दोनों वर्णों से दो प्रकार की संस्कृतियों का भी उदय हुआ। एक ब्राह्मणी संस्कृति और दूरी वैष्णवी संस्कृति।
जो दोनों ही एक दूसरे के विपरीत विचारधारा वाली संस्कृति हैं।
इन दोनों के वर्णों अर्थात् संस्कृतियों में प्रमुख रूप से (३) प्रकार के युगलान्तर (भेद) देखने को मिलता हैं। जिसको क्रमशः बिन्दुवार निम्नलिखित रूप से दर्शाया गया है।
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[क]जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर-
____________________________________(क) "ब्राह्मी वर्णव्यवस्था जन्म गत है"
ज्ञात हो कि-चातुर्वर्ण्य व्यवस्था- ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना है, जिसमें जन्म के आधार पर ही वर्ण -विभाजन की एक सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है।
रूढ़िवादी पुरोहितों की मान्यता है कि पूर्वजन्म के पुण्य- पाप कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के घर में जन्म मिलता है।
यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं तो ब्राह्मण के घर में जन्म मिलेगा और बुरे कर्म किए हैं तो शूद्र के घर में जन्म मिलेगा। कर्मों के अच्छे-बुरे अनुपात से ही व्यक्ति को कभी वैश्य तो कभी क्षत्रिय के घर में जन्म मिलता है।
परन्तु कई कारणों से पूर्वजन्म के अच्छे- बुरे कर्ममूलक पुनर्जन्म के ये उपर्युक्त सिद्धान्त दोषपूर्ण है- क्यों कि जन्म से व्यक्ति की महानता का निश्चय कभी नहीं हो सकता है। मानव जाति में मनुष्य के व्यक्तित्व (व्यक्ति के बाह्य और आन्तरिक गुणों) का निर्माण तो उसका परिवेश और माता - पिता के आनुवांशिक विशेषताओं के अनुरूप ही होता है। यह तो समाज में प्रत्यक्ष देखा भी जाता है कि सभी ब्राह्मण जन्म से ही सात्विक प्रवृत्ति वाले और ईश्वर चिन्तक नहीं होते हैं। और इनके शरीर में जन्म से कोई विशेष ब्राह्मण सूचक चिन्ह अथवा प्रतीक भी नहीं होता- अन्य जातियों के समान ब्राह्मणों में बहुतायत लोग तामसिक व राजसी प्रवृत्ति वाले भी होते हैं। इसी प्रकार स्वयं को परम्परागत रूप से क्षत्रिय कहने वाले लोगों की सन्तान भी जन्म से कभी वीर तथा साहसी नहीं होती ! वैश्य और शूद्रों के विषय में इसी प्रकार कहा जा सकता है। हर समाज में हर तरह के व्यक्ति पैदा होते हैं। दो चार व्यक्तियों से ही किसी समाज की प्रवृत्तियों का निर्धारण नहीं किया जा सकता।
दूसरी बात यह कि व्यक्ति की प्रवृत्तियों का निर्धारण अथवा निश्चय किसी व्यक्ति की वृत्ति (व्यवसाय) एवं उसके कर्म से होता हैं न कि जन्म से।
कुछ प्रवृत्तियों के निर्धारण माता- पिता के आनुवांशिक गुणों तथा कुछ का पूर्वजन्म के कर्म- संस्कारों से होता है। इसलिए यह कहना महती मूर्खता है कि पूर्व जन्म के पाप और पुण्य कर्मों के अनुसार व्यक्ति को ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र के घर में जन्म मिलता है।
कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि- ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से जन्मगत आधार पर भेद करते हुए सामाजिक वर्ण व्यवस्था लागू करती है जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार प्रकार के वर्ग समूह होते हैं।
(ख) वैष्णवी वर्ण व्यवस्था का आधार जन्मगत नहीं कर्मगत है।)
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के जन्मगत आधार के विपरीत वैष्णव वर्ण में गुण' प्रवृति (स्वभाव) और कर्म के आधार पर ही वर्ण- विभाजन की सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। यही सत्य और विज्ञान सम्मत भी है।
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के जन्मगत आधार के विपरीत वैष्णव वर्ण में गुण' प्रवृति (स्वभाव) और कर्म के आधार पर ही वर्ण- विभाजन की सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। यही सत्य और विज्ञान सम्मत भी है।
क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता एक वैष्णव ग्रन्थ है जिसमें वर्ण व्यवस्था को वैष्णव पद्धति से कर्म गत माना है जन्मगत नहीं। इसकी पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता ( 4/13) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।
अनुवाद:-
मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा (इच्छा) नहीं है, इसलिये मुझे कर्म कभी लिप्त नहीं करते हैं। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कभी कर्मों से नहीं बँधता है। 4/13।
और यही सत्य है क्योंकि इच्छाओं से प्रेरित कर्म ही फलदायी होते हैं। और उन अच्छे - बुरे फलों को भोगने के लिए ही व्यक्ति अथवा प्राणी का पुनर्जन्म होता है। और यह जन्म व्यक्ति की इच्छा मूलक प्रवृतियों के अनुरूप विभिन्न योनियों ( शरीरों) में होता है। मनुष्य योनि भोगयोनि के साथ साथ कर्म योनि भी है। जबकि जीव जगत की सभी योनियाँ केवल भोग योनि ही हैं। यही इस संसार का सनातन नियम है। भक्ति ही वैष्णव वर्ण में मुख्य ईश्वर उपासना का मार्ग है - ज्ञान और कर्म मध्य की अवस्था ही भक्ति है। यह भक्ति सच्चे अर्थों में निष्काम कर्मयोग है। अर्थात् ईश्वर का ईश्वर को समर्पित कर्म ही भक्ति है- कर्म के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश है। इसके लिए नीचे श्लोक- देखें।
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
भावार्थ:-
भगवान कृष्ण कहते हैं ! तेरा कर्म में ही अधिकार है उसके फल में नहीं। तुझे कर्मफल की कभी इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा ( इच्छा ) होगी
तो तू कर्मफलप्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफलप्राप्तिका कारण तू मत बन।
क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना (इच्छा) से प्रेरित होकर कर्म करने में लगता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है।
इसी सिद्धान्त के अनुसार वैष्णव वर्ण व्यवस्था भी स्थापित है जो जन्मगत आधार पर न होकर कर्मगत आधार पर स्थापित है।
मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा (इच्छा) नहीं है, इसलिये मुझे कर्म कभी लिप्त नहीं करते हैं। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कभी कर्मों से नहीं बँधता है। 4/13।
और यही सत्य है क्योंकि इच्छाओं से प्रेरित कर्म ही फलदायी होते हैं। और उन अच्छे - बुरे फलों को भोगने के लिए ही व्यक्ति अथवा प्राणी का पुनर्जन्म होता है। और यह जन्म व्यक्ति की इच्छा मूलक प्रवृतियों के अनुरूप विभिन्न योनियों ( शरीरों) में होता है। मनुष्य योनि भोगयोनि के साथ साथ कर्म योनि भी है। जबकि जीव जगत की सभी योनियाँ केवल भोग योनि ही हैं। यही इस संसार का सनातन नियम है। भक्ति ही वैष्णव वर्ण में मुख्य ईश्वर उपासना का मार्ग है - ज्ञान और कर्म मध्य की अवस्था ही भक्ति है। यह भक्ति सच्चे अर्थों में निष्काम कर्मयोग है। अर्थात् ईश्वर का ईश्वर को समर्पित कर्म ही भक्ति है- कर्म के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश है। इसके लिए नीचे श्लोक- देखें।
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
भावार्थ:-
भगवान कृष्ण कहते हैं ! तेरा कर्म में ही अधिकार है उसके फल में नहीं। तुझे कर्मफल की कभी इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा ( इच्छा ) होगी
तो तू कर्मफलप्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफलप्राप्तिका कारण तू मत बन।
क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना (इच्छा) से प्रेरित होकर कर्म करने में लगता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है।
इसी सिद्धान्त के अनुसार वैष्णव वर्ण व्यवस्था भी स्थापित है जो जन्मगत आधार पर न होकर कर्मगत आधार पर स्थापित है।
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(क)- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था पूरी तरह से कर्मकाण्डों एवं यज्ञों पर आधारित है। जिसमें कर्मकाण्ड एवं यज्ञ का विधान ब्राह्मण प्रधान चारों वर्णों के लिए ही है। इस बात को पूर्व में बताया जा चुका है कि- चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। जिसकी पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।। ७।।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में भक्ति-भजन की अपेक्षा कर्मकाण्डों एवं यज्ञों पर विशेष बल दिया जाता है। इनके कर्मकाण्डी यज्ञों में सर्वप्रथम पशु-बलि का प्रावधान इन्द्र के द्वारा किए गए यज्ञों से ही प्रारम्भ हुआ था। ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में पुरोहित लोग यज्ञ में पशुओं की बलि देकर देवों को प्रसन्न करके अपनी लिए भौतिक सम्पदाओं की प्राप्ति की कामना करते हैं। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण /अध्यायः(१४३ ) के प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें शौनक आदि ऋषि पुराणों के वक्ता सूत जी से यज्ञ की विधि के विषय में उस प्राचीन प्रसंग को पूछते हैं जिसमें ऋषियों ने इन्द्र से यज्ञ विधि के विषय में जो पूछा था -
"सूत उवाच।
ऋषय ऊचुः !
कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।
पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः।१।
अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।
कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा।।२।
औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।
प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।।३।
वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः।
संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।।४।
(क)- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था पूरी तरह से कर्मकाण्डों एवं यज्ञों पर आधारित है। जिसमें कर्मकाण्ड एवं यज्ञ का विधान ब्राह्मण प्रधान चारों वर्णों के लिए ही है। इस बात को पूर्व में बताया जा चुका है कि- चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। जिसकी पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।। ७।।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में भक्ति-भजन की अपेक्षा कर्मकाण्डों एवं यज्ञों पर विशेष बल दिया जाता है। इनके कर्मकाण्डी यज्ञों में सर्वप्रथम पशु-बलि का प्रावधान इन्द्र के द्वारा किए गए यज्ञों से ही प्रारम्भ हुआ था। ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में पुरोहित लोग यज्ञ में पशुओं की बलि देकर देवों को प्रसन्न करके अपनी लिए भौतिक सम्पदाओं की प्राप्ति की कामना करते हैं। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण /अध्यायः(१४३ ) के प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें शौनक आदि ऋषि पुराणों के वक्ता सूत जी से यज्ञ की विधि के विषय में उस प्राचीन प्रसंग को पूछते हैं जिसमें ऋषियों ने इन्द्र से यज्ञ विधि के विषय में जो पूछा था -
"सूत उवाच।
ऋषय ऊचुः !
कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।
पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः।१।
अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।
कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा।।२।
औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।
प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।।३।
वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः।
संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।।४।
एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्-
अनुवाद- १-४
ऋषियों ने पूछ— सूतजी ! पूर्वकाल में स्वायम्भुवमनु के कार्य काल में त्रेतायुग के प्रारम्भ में किस प्रकार यज्ञ की प्रवृत्ति हुई थी ?
जब कृतयुग( सत् -युग) के साथ उसकी संध्या (तथा संध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुग की सन्धि प्राप्त हुई।
उस समय वृष्टि होने पर ओषधियाँ उत्पन्न हुईं तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्ता वृत्ति(बाजार) की स्थापना हो गयी। उसके बाद वर्णाश्रमकी स्थापना करके परम्परागत आये हुए मन्त्रों द्वारा पुनः संहिताओं को एकत्र कर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई ?
हम लोगोंके प्रति इसका यथार्थ रूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजी ने कहा 'आपलोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये ॥1- 4॥
"सूत उवाच!
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।। ५।
दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।।६।
यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।।७।
सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।।८।
आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।।९।
य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये।।१०।
अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।।११।
*******
विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।
अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।।१२।
अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।।१३।
**
आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।
विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।।१४।
एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः।
एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।१५।
**
उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।।
तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणम्।
जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते।।१६।
अनुवाद- ५-१६
सूत जी कहते हैं-ऋषियो ! विश्वभोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने ऐह लौकिक तथा पारलौकिक कर्मों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया। उनके उस अश्वमेध यज्ञ के आरम्भ होने पर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए। उस यज्ञ-कर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकारके हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, सामगान करनेवाले देवगण विश्वास पूर्वक ऊँचे स्वर से सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वर से मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे।
पशुओं का समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवों का आवाहन हो चुका था। जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभाग के भोक्ता थे और जो प्रत्येक कल्पके आदि में उत्पन्न होनेवाले पूर्व देव थे, देवगण उन अपने पूर्वजों का ही यजन कर रहे थे।
इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ( समूह) ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आप के यज्ञकी यह कैसी विधि है ? आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषा से जो जीव-हिंसा करने के लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है।
सुरश्रेष्ठ ! आपके यज्ञ में पशु हिंसाकी यह नवीन विधि दीख रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसाके व्याजसे धर्मका विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं।
यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो आगम विहित धर्म का अनुष्ठान कीजिये।
सुरश्रेष्ठ! आगम विहित विधि के अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्मके पालन से यज्ञ के बीजभूत त्रिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है। इन्द्र ! पूर्वकालमें ब्रह्मा ने इसी को महान् यज्ञ बतलाया है।' तत्त्वदर्शी ऋषियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी विश्वभोक्ता इन्द्रने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान( अहंकार) और मोह से भरे हुए थे।
फिर तो इन्द्र और उन महर्षियों के बीच 'स्थावरों या जङ्गमों में से किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बातको लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ।१५-१६।
किंतु इन्द्र ने शक्ति सम्पन्न होने की वजह से ऋषियों की एक भी बात नहीं मानी और यज्ञों में पशु बलि को परम्परागत रूप में जारी रखा। तभी से देव यज्ञों में पशुबलि की परम्परा प्रारंभ हुई। जिसमें यज्ञ के समापन पर पशुओं के मांस को भी खाना परंपरागत रूप से स्वीकार किया गया। जिसमें द्विजों (ब्राह्मणों) को मांस खाने की अनिवार्यता को व्यासस्मृति के अध्याय- (तीन) के श्लोक- (५४) में बड़े ही स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि -
"क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतित द्विज:। मृगयोपार्जितं मासमभ्यर्च पितृदेवता:।५४।
अनुवाद:- यज्ञ और श्राद्ध में जो द्विज मांस नहीं खाता, वह पतित हो जाता है। मृगया (शिकार) से उपार्जित मांस से पितर और देवों की अभ्यर्चना (पूजा) करनी चाहिए।५४।
ऐसी ही बात कूर्मपुराण-उत्तरभाग के अध्याय- (१७ )के श्लोक (३६ से ४१) में भी कही गई है कि -
मत्स्यान स शल्कान भुत्र्जीयात् मासम् रौरवम् एव च ।
निवेद्य देवताभ्यः तु ब्राह्मणेभ्यः तु न अन्यथा ।।३६।।
मयूरं तित्तिरं चैव कपोतं च कपिञ्जलम्।
वाध्रीणसं वकं भक्ष्यं मीनहंसपराजिता:।।३७।।
शफरम् सिंहतुण्डम् च तथा पाठीनरोहितौ ।
मत्स्याः च एते समुद्दिष्टा भक्षणाय द्विजोत्तमाः ।।३८।।
प्रोक्षितं भक्षयेदेषां मांसं च द्विजकाम्यया।
यथाविधि नियुक्तं च प्राणानामपि चात्यये।।३९।।
भक्षयेन्नैव मांसानि शेषभोजी न लिप्यते।
औषधार्थमशक्तौ वां नियोगाद् यजकारणात्।। ४०।।
आमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे दैवे वा मांसमूत्सृजेत ।
यावन्ति पशुरोमाणि तावतो नरकान् व्रजेत् ॥४१॥
अनुवाद- ३६ से ४१
• शल्क मछली और रूरूमृग (काले हिरन) का मांस देवता और ब्राह्मणों को समर्पित करने योग्य (नैवेद्य) के रूप में भोग कराना चाहिए ।३६।
"क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतित द्विज:। मृगयोपार्जितं मासमभ्यर्च पितृदेवता:।५४।
अनुवाद:- यज्ञ और श्राद्ध में जो द्विज मांस नहीं खाता, वह पतित हो जाता है। मृगया (शिकार) से उपार्जित मांस से पितर और देवों की अभ्यर्चना (पूजा) करनी चाहिए।५४।
ऐसी ही बात कूर्मपुराण-उत्तरभाग के अध्याय- (१७ )के श्लोक (३६ से ४१) में भी कही गई है कि -
मत्स्यान स शल्कान भुत्र्जीयात् मासम् रौरवम् एव च ।
निवेद्य देवताभ्यः तु ब्राह्मणेभ्यः तु न अन्यथा ।।३६।।
मयूरं तित्तिरं चैव कपोतं च कपिञ्जलम्।
वाध्रीणसं वकं भक्ष्यं मीनहंसपराजिता:।।३७।।
शफरम् सिंहतुण्डम् च तथा पाठीनरोहितौ ।
मत्स्याः च एते समुद्दिष्टा भक्षणाय द्विजोत्तमाः ।।३८।।
प्रोक्षितं भक्षयेदेषां मांसं च द्विजकाम्यया।
यथाविधि नियुक्तं च प्राणानामपि चात्यये।।३९।।
भक्षयेन्नैव मांसानि शेषभोजी न लिप्यते।
औषधार्थमशक्तौ वां नियोगाद् यजकारणात्।। ४०।।
आमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे दैवे वा मांसमूत्सृजेत ।
यावन्ति पशुरोमाणि तावतो नरकान् व्रजेत् ॥४१॥
अनुवाद- ३६ से ४१
• शल्क मछली और रूरूमृग (काले हिरन) का मांस देवता और ब्राह्मणों को समर्पित करने योग्य (नैवेद्य) के रूप में भोग कराना चाहिए ।३६।
• मोर, तीतर और इसी प्रकार कबूतर, चातक (पपीहा) अथवा कपिञ्जल), गैंडा, बगुला, मछली हंस सभी शिकार किए हुए पक्षी खाने योग्य हैं।३७।
• शफरी-मछली तथा सिंहतुण्ड (शेर जैसे तुण्ड-वाली एक प्रकार की मछली, पाठीन (पढिना), और रोहित मछली ये सभी खाने के लिए बतायी गयीं है।३८।
• धो -पौंछ कर ही ब्राह्मण को मांस इच्छानुसार खाना चाहिए। शास्त्र विधि के अनुसार शिकार किए हुए प्राणी के प्राण निकल जाने पर ही उसके मांस का भक्षण करना चाहिए ।३९।
• यज्ञ के पश्चात बचा हुआ मांस खाकर व्यक्ति पाप से लिप्त नहीं होता है। औषधि के रूप में अशक्त (कमजोर) व्यक्ति को भी माँस खाना चाहिए। ४०।
• यदि पितरों के श्राद्ध अथवा देवों के यज्ञ में आमन्त्रित व्यक्ति मांस को नहीं खाता है, तो वह उतने समय तक नरक में रहता है जितने रोम एक पशु के शरीर पर होते हैं।४१।
इन उपर्युक्त श्लोकों से यह सिद्ध होता है कि पूर्व काल में ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत देव यज्ञों एवं अन्य प्रमुख याज्ञिक अवसरों पर पशु बलि एवं मांस खाने और खिलाने की पृथा विद्यमान थी। जिसमें देवताओं को मांस चढ़ाया जाता था और द्विज (ब्राह्मण) लोग भी उसे खाते थे। और जो इस अवसर पर मांस नहीं खाता, वह नरक गामी होता था।
किंतु इसके विपरीत वैष्णवी वर्ण व्यवस्था में देव यज्ञों की तरह ना ही कोई यज्ञ का प्रावधान है और ना ही पशु बलि एवं मांस खाने का विधान है।
क्योंकि वैष्णवी वर्ण व्यवस्था कर्मकाण्डों से दूर पूरी पूर्णरूपेण भक्ति पर आधारित है। जिसको नीचे विस्तार पूर्वक बताया गया है।
(ख) वैष्णवी व्यवस्था- भक्तिमूलक है -
____________________________जैसा कि प्रमाण सहित ऊपर बताया जा चुका है कि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सर्वप्रथम इन्द्र के द्वारा हिंसा पूर्ण देव यज्ञों का विधान पारित किया गया था जिसमें पशुओं के मांस खाने का भी विधान था। किंतु इसके विपरीत वैष्णवी व्यवस्था पूर्णतः शाकाहारी व वैष्णव भक्ति पर आधारित है।
क्योंकि यज्ञों में पशु बलि को लेकर मत्स्य-पुराण के (१४३) वें अध्याय का (३३) वें श्लोक में देव यज्ञ और भक्ति में भेद करते हुए लिखा गया है कि- यज्ञ और भक्ति का पृथक-पृथक फल होता है।
"द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।३३।
अनुवाद- द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकने वाले यज्ञ तप के समान ही हैं। परन्तु पशु वध मूलक यज्ञों से देवताओं की प्राप्ति होती है तथा तपस्या एवं भक्ति से विराट् ब्रह्म (परमेश्वर - स्वराट् विष्णु) की प्राप्ति होती है।३३।
इस बात की पुष्टि- गीता के अध्याय - ४ के श्लोक संख्या- (२८) से भी होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ का वास्तविक अर्थ बताते हुए यज्ञ के पांच भेद बताते हैं।
"द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।२८।
व्याख्या :- इस प्रकार बहुत सारे संयमी पुरुष हैं, जो द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ व ज्ञानयज्ञ आदि व्रतों का अनुशासित रूप से पालन करते हैं ।२८।
विशेष :- इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने "यज्ञ" के पांच भेद बताए गए हैं। जो देव यज्ञों के ठीक विपरीत हैं। उपर्युक्त श्लोक में देव यज्ञ का भगवान श्रीकृष्ण ने कहीं भी निर्देश नहीं किया है।
(१) द्रव्ययज्ञ :-द्रव्य का अर्थ पदार्थ होता है, इसलिए समाज या लोकहित के लिए सांसारिक साधनों को उपलब्ध करवाना द्रव्य यज्ञ कहलाता है । जैसे- जरूरतमंदों को भोजन, वस्त्र व दवाईयाँ आदि उपलब्ध करवाना ।
(२) तपोयज्ञ :- सभी प्रकार की अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों को सहजता से सहन करते हुए कर्तव्य का पालन करना ही तपोयज्ञ कहलाता है।
(३) योगयज्ञ :- योग साधना द्वारा शरीर व मन पर नियंत्रण पाकर, मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होना योगयज्ञ कहलाता है ।
(४) स्वाध्याय यज्ञ :- मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय यज्ञ कहलाता है ।
(५) ज्ञानयज्ञ :- विवेक व वैराग्य आदि सदगुणों का पालन करते हुए साधना मार्ग पर निरन्तर बढ़ते रहना ज्ञानयज्ञ कहलाता है।
देखा जाए तो उपर्युक्त श्लोक में भगवान कृष्ण ने पांच प्रकार के यज्ञों में देव यज्ञों का वर्णन इस लिए नहीं किया क्योंकि, जिसमें पशुओं का वध करके बलि का प्रावधान है।
अतः मत्स्यपुराण के उपरोक्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है कि इन्द्र के सारे यज्ञ पशु बलि पर ही आधारित थे।
जो पशुपालकों की आस्था और वृत्ति के विपरीत थे। इसी कारण से गोपालक एवं पशु-पक्षी प्रेमी भगवान श्रीकृष्ण ने बल पूर्वक सभी देव-यज्ञों को विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों को प्रतिबन्धित कर दिया। क्योंकि इन्द्र के यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती थी। इसके विकल्प में भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पूजा (प्रकृति पूजा) का सूत्रपात किया और स्पष्ट रूप से उद्घोषणा की कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों से देवों को प्रसन्न किया जाता हो ऐसी देव पूजा व्यर्थ ही है। क्योंकि भगवान की उपासना में प्रेम और आत्मीयता की प्रधानता होती है वह सर्वान्तर यामी परमेश्वर किसी पूजन विधि या कर्मकाण्ड का अभिलाषी नहीं है। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही या कर्मकाण्ड ग्राही नहीं हैं। इस बात को निम्नलिखित तरीके से बताया गया है कि -
अध्याय ५/२ ✓
याज्ञिक विधान वैष्णव भक्तों अर्थात् गोपों के लिए विहित कर्म नहीं है क्योंकि गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति मार्गीय हैं जो निश्चल भाव से आत्मसमर्ण पूर्वक ईश्वर का भजन एवं संकीर्तन करते हैं। यही वैष्णवों का परम कर्तव्य हैं। इस संबंध में वैष्णवों का मानना है की कर्मकाण्डों से न तो किसी को कोई आत्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और नाहीं संसार से किसी की मुक्ति हुई है।
अध्याय ५/२ ✓
याज्ञिक विधान वैष्णव भक्तों अर्थात् गोपों के लिए विहित कर्म नहीं है क्योंकि गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति मार्गीय हैं जो निश्चल भाव से आत्मसमर्ण पूर्वक ईश्वर का भजन एवं संकीर्तन करते हैं। यही वैष्णवों का परम कर्तव्य हैं। इस संबंध में वैष्णवों का मानना है की कर्मकाण्डों से न तो किसी को कोई आत्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और नाहीं संसार से किसी की मुक्ति हुई है।
क्योंकि परमेश्वर किसी नैवेद्य- का आकाँक्षी नहीं है। नैवेद्य तो देवों के लिए ही विहित होता है। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृति खण्डः-अध्याय (३) एवं देवीभागवतपुराण /स्कन्धः (९)/अध्यायः (३) से होती है।
जिसमें गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और राधा से उत्पन्न विराट पुरुष (विराट विष्णु) कहते हैं कि -
"मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै विभुः।
श्रूयतां तद् ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते ॥२८॥
"प्रतिविश्वं यन्नैवेद्यं ददाति वैष्णवो जनः ।
तत्षोडशांशो विषयिणो विष्णोः पज्वदशास्य वै॥२९॥
"निर्गुणस्य आत्मनः च एव परिपूर्णतमस्य च ।
नैवेद्येन च कृष्णस्य न हि किञ्चिद् प्रयोजनम् ।।३०।।
"यद्यद्ददाति नैवेद्यं तस्मै देवाय यो जनः ।
स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीनाथो विराट् तथा॥ ३१॥
"अनुवाद- २८-२९, ३०-३१
• मन्त्र देकर प्रभु ने उसके (विराट पुरुष) के लिए आहार की भी व्यवस्था की। हे ब्रह्मपुत्र उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ। प्रत्येक लोक में वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् विष्णु का होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुष ( विराट- विष्णु ) के होते हैं ।।२८-२९॥
• उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उन प्रभु को जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे विराट पुरुष ही ग्रहण करते हैं ॥३०-३१॥
अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि परमेश्वर श्री कृष्ण के लिए किसी भी प्रकार के नैवेद्य या चढ़ावे इत्यादि की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि परमेश्वर श्रीकृष्ण भाव ग्राही है क्रियाग्राही नहीं हैं। इसी वजह से वैष्णव भक्तों के लिए परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल एवं आसान है। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं कि -
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।। १४।
श्रीमद्भगवद्गीता- (८/१४)
अनुवाद- अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगी के लिए मैं सुलभ अर्थात उसको सहजता से प्राप्त हो जाता हूं।
'पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।२६।
श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२६)
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खा लेता हूं अर्थात स्वीकार कर लेता हूँ।
व्याख्या - देवताओं की उपासना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परंतु भगवान (श्री कृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेम की,अपनेपन की प्रधानता है, किसी यज्ञ- विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही नहीं।
दूसरी बात यह कि वैष्णव भक्त इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि किसकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए अर्थात उस अनन्त परमेश्वर के अतिरिक्त किसी की नहीं करनी चाहिए।
दूसरी बात यह कि वैष्णव भक्त इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि किसकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए अर्थात उस अनन्त परमेश्वर के अतिरिक्त किसी की नहीं करनी चाहिए।
इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों का स्वयं मार्गदर्शन करते हुए कहे हैं कि -
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।।२३।
श्रीमद्भगवद्गीता- (७/२३)
अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अंत वाला (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को ही प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।२५।
श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२५)
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।२५।
वैष्णव भक्त अपने कर्तव्य पथ से भटक न जाएं इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को सर्वज्ञत्व का उपदेश देते हुए कहते हैं कि-
अहं ही सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्चयवन्ति ते।।२४।।
श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/२४)
अनुवाद- सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूं,। परन्तु वे व्यक्ति जो देवताओं का पूजन करने वाले मुझे तत्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता है।
पुनः भगवान आगे कहते हैं कि -
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।।१६।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।१८।
श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/१६,१७,१८)
अनुवाद - क्रतु मैं हूं, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूं, औषध मैं हूं, मंत्र मैं हूं, घृत मैं हूं, अग्नि मैं हूं, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूं। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूं। इस संपूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूं। १६,१७,१८।
"ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥२५॥
श्रीमद्भगवद्गीता- (१३/२५)
कई मनुष्य ध्यानयोग के द्वारा, कई सांख्ययोग के द्वारा और कई कर्मयोग ( भक्तियोग) के द्वारा अपने-आपसे अपने-आपमें परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं।२५।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।।२३।
श्रीमद्भगवद्गीता- (७/२३)
अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अंत वाला (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को ही प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।२५।
श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२५)
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।२५।
वैष्णव भक्त अपने कर्तव्य पथ से भटक न जाएं इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को सर्वज्ञत्व का उपदेश देते हुए कहते हैं कि-
अहं ही सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्चयवन्ति ते।।२४।।
श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/२४)
अनुवाद- सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूं,। परन्तु वे व्यक्ति जो देवताओं का पूजन करने वाले मुझे तत्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता है।
पुनः भगवान आगे कहते हैं कि -
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।।१६।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।१८।
श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/१६,१७,१८)
अनुवाद - क्रतु मैं हूं, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूं, औषध मैं हूं, मंत्र मैं हूं, घृत मैं हूं, अग्नि मैं हूं, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूं। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूं। इस संपूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूं। १६,१७,१८।
"ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥२५॥
श्रीमद्भगवद्गीता- (१३/२५)
कई मनुष्य ध्यानयोग के द्वारा, कई सांख्ययोग के द्वारा और कई कर्मयोग ( भक्तियोग) के द्वारा अपने-आपसे अपने-आपमें परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं।२५।
अनुवाद- जो मनुष्य तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों से सुनकर उपासना करते हैं, ऐसे वे सुनने के परायण हुए मनुष्य मृत्यु को तर जाते हैं।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता: ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।१४।।
श्रीमद्भगवद्गीता- (१३/१४)
अनुवाद:- वे दृढ़ निश्चय वाले भक्त जन निरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी भक्ति प्राप्ति के लिये यत्न करते हुए और मुझ को बार-बार प्रणाम करते हुए सदैव मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं।१४।
भक्ति का वास्तविक भेद भक्त प्रहलाद को अच्छी तरह से ज्ञात था। इस संबंध में भक्त प्रहलाद श्रीमद्भागवत पुराण के स्कन्ध- (७) अध्याय- (५) के श्लोक- (२३) में भक्ति के (नौ) प्रकार के भेद को बताते हुए कहते हैं कि-
श्रीप्रह्लाद उवाच -
"श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।२३।
अनुवाद- प्रह्लाद ने कहा- विष्णु (श्रीकृष्ण) की भक्ति के नौ भेद हैं।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता: ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।१४।।
श्रीमद्भगवद्गीता- (१३/१४)
अनुवाद:- वे दृढ़ निश्चय वाले भक्त जन निरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी भक्ति प्राप्ति के लिये यत्न करते हुए और मुझ को बार-बार प्रणाम करते हुए सदैव मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं।१४।
भक्ति का वास्तविक भेद भक्त प्रहलाद को अच्छी तरह से ज्ञात था। इस संबंध में भक्त प्रहलाद श्रीमद्भागवत पुराण के स्कन्ध- (७) अध्याय- (५) के श्लोक- (२३) में भक्ति के (नौ) प्रकार के भेद को बताते हुए कहते हैं कि-
श्रीप्रह्लाद उवाच -
"श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।२३।
अनुवाद- प्रह्लाद ने कहा- विष्णु (श्रीकृष्ण) की भक्ति के नौ भेद हैं।
(१)- भगवान की लीला गुणों का श्रवण।
(२)- उनका ही कीर्तन।
(३) उनके रूप आदि का स्मरण।
(४)- उनके चरणों की सेवा।
(५)- पूजा एवं अर्चन
(६)- वन्दन।
(७)- दास्य
(८)- सख्य और
(९)- आत्मनिवेदन।
अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि है कि- वैष्णवी वर्ण व्यवस्था पूर्णतः भक्तिमूलक विचारधारा पर आधारित है। इसमें कर्मकाण्ड, हिंसा मूलक यज्ञ एवं पाखण्डवाद के लिए कोई स्थान नहीं है।
अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि है कि- वैष्णवी वर्ण व्यवस्था पूर्णतः भक्तिमूलक विचारधारा पर आधारित है। इसमें कर्मकाण्ड, हिंसा मूलक यज्ञ एवं पाखण्डवाद के लिए कोई स्थान नहीं है।
इसके साथ ही ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के विपरीत वैष्णवी वर्ण व्यवस्था भेदभाव से रहित समता मूलक समाज की स्थापना करती है। इसके लिए नीचे देखें।
(क) ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था भेदभाव मूलक है।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से भेदभाव पर आधारित है। जिसमें ऊँच-नीच का भेद बहुतायत देखने को मिलता है। जिसकी पुष्टि- मनुस्मृति के अध्याय- (८) के श्लोक संख्या- (२७०) और (२७७) से होती है। जिसमें आचरण गत विधानों के अन्तर्गत शूद्रों के लिए कठोर दण्ड का आदेश दिया गया है, जो शूद्र वर्ण का व्यक्ति यदि उच्च वर्ण के व्यक्तियों के प्रति अपराध करता है तो उसके लिए सबसे जघन्यतम दण्डों का विधान है। देखें निम्नलिखित श्लोक -"एकजातिर्द्विजातींस्तु वाचा दारुणया क्षिपन्।
जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः॥२७०॥
विट्शूद्रयोरेवमेव स्वजातिं प्रति तत्त्वतः।
छेदवर्जं प्रणयनं दण्डस्यैति विनिश्चयः॥२७७।।
अनुवाद-
• शूद्र लोग यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को कठोर वचन कहे तो उसका जिह्वाच्छेदन( जीभ- काटने) का दण्ड देना चाहिये, क्योंकि उसकी उत्पति जघन्य ( सबसे नीचे) स्थान से उत्पन्न हुआ है ।२७०।
• वैश्य और शूद्र भी इस प्रकर आपस में गाली दें तो पूर्वोक्त दण्ड की व्यवस्था करे अर्थात वैश्य शूद्र को गाली दे तो उसे प्रथम साहस और शूद्र वैश्य को गाली दे तो उसे मध्यम साहस का दण्ड दे। ऐसे अवसर पर शूद्र की जीभ न काटना यही दण्ड का निश्चय है।२७७।
कुछ इसी तरह का वर्णन गौतमस्मृति के द्वादश-( बारहवें) अध्याय- के श्लोक- (१ से ६) में मिलता है। जिसमें भेदभाव पर आधारित दण्ड का प्रावधान किया गया है।
शूद्रो द्विजातीनभिसन्धायाभिहत्य च वाग्दण्ड।
पारुष्याभ्यामङ्गमोच्यो येनोपहन्यात् ॥१॥
पारुष्याभ्यामङ्गमोच्यो येनोपहन्यात् ॥१॥
आर्यस्त्र्यभिगमने लिङ्गोद्धारः स्वहरणं च ॥२॥
गोप्ता चेद्वधोऽधिकः ॥३॥
अथ हास्य वेदमुपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणमुदाहरणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः॥४॥
आसनशयनवाक्पथिषु समप्रेप्सुर्दण्डयः ॥५॥
(गौतमस्मृति-)
अनुवाद- १-६
शूद्र यदि द्विजातीय व्यक्ति के साथ षड्यंत्र करता हैं । अथवा कठोर व्यवहार करता है जिस अंग से करता है उसे शरीर से भंग कर देना चाहिए ।१।
यदि शूद्र तीनों वर्ण की स्त्रियों के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करता है तो उसका लिंग काट देना चाहिए।२।
और यदि वह याद करता है, तो उसके शरीर को अलग कर दिया जाना चाहिए।३।
वैदिक पाठ सुनने के अपराध मे शूद्रों के कानों को पिघले हुए टिन या लाख से भरने का अधिकार है, इस वेद के मन्त्र अथवा ऋचा का उच्चारण करने के अपराध के लिए, उसकी जीभ काट दी जानी चाहिए उसके जिस अंग से अपराध हो उसे शरीर े भंग ( अलग) कर देना चाहिए ।४
तीनों वर्णों के आसन , शयन और वाणी तथा मार्ग में साथ चलने पर वह शूद्र दण्ड का अधिकारी है।५।
उपर्युक्त स्मृति ग्रन्थ पर शांकर-भाष्य निम्नलिखित रूप से है।
शंकराचार्य का भाष्य-
"इतश्च न शूद्रस्थाऽधिकार: यदस्य स्मृते: श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधो भवति, वेदश्रवणप्रतिषेधो वेदाध्ययनप्रतिषेधस्तदर्थज्ञानानुष्ठीनयोश्च प्रतिषेध: शूद्रस्य स्मर्यते। श्रवणप्रतिषेधस्तावत् -
अथास्य वेदमुपश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणम् इति। पद्यु ह वा एतच्छ्मशानं यच्छूद्रसस्तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् इति च। अतएवाऽध्ययनप्रतिषेध:। यस्य हि समीपेऽपि नाऽध्येतव्यं भवति, स कथमश्रृतमधीयीत। भवति च वेदोच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेद इति। अतएव चाऽर्थादर्थज्ञानानुष्ठानयो: प्रतिषेधो भवति- 'न शूद्राय मतिं दद्यात्' इति, 'द्विजातीनाम ध्ययनमिज्जा दानम्' इति च। येषां पुनः पूर्वकृत संस्कारवशाद् विदुरधर्मव्याधप्रभृतीनां ज्ञानोत्पत्तिस्तेषां न शक्यते फलप्राप्ति: प्रतिषेद्धुम्, ज्ञानस्यैकान्तिकफलत्वात्। 'श्रावयेच्चतुरो वर्णन्' इति चेतिहासपुराणाधिगमे चातुर्वर्ण्यस्याऽधिकास्मरणात्। वेदपूर्वकस्तु नास्त्यधिकार: शूद्राणामिति स्थितम्।"
शांकर-भाष्य का अनुवाद-
"और इससे भी शूद्र का विद्या में अधिकार नहीं है, क्योंकि स्मृति उसके लिए श्रवण, अध्ययन और अर्थ का निषेध करती है। स्मृति में शूद्र के लिए वेद के श्रवण, वेद के अध्ययन और वेदार्थ के ज्ञान और अनुष्ठान का निषेध है। '
अथास्य वेदमुप•' (समीप से वेद का श्रवण करने वाले शूद्र के दोनों कानों को सीसे और लाख से भर दे) और 'पद्यु ह वा एतच्छ्मशानं'.वसिष्ठस्मृति १८/१) (शूद्र निःसन्देह जङ्गम श्मशान है, इसलिए शूद्र के समीप में अध्ययन नहीं करना चाहिए) इस प्रकार श्रवण का निषेध है। इसी से अध्ययन का निषेध भी सिद्ध होता है, क्योंकि जिसके समीप में अध्ययन किस प्रकार कर सकता है? यदि शूद्र वेद का उच्चारण करे, तो उसकी जिह्वा काट देनी चाहिए। यदि वेद को याद करे, तो उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देने चाहिएं, ऐसी स्मृति भी है। इसी हेतु से अर्थात् शूद्र के लिए अर्थज्ञान और अनुष्ठान का भी निषेध होता है-
'न शूद्राय•' (ब्राह्मण को चाहिए कि शूद्र को वेदार्थ-ज्ञान न दे) और 'द्विजातीनाम् (केवल द्विजों के लिए ही अध्ययन, यज्ञ और दान का विधान है)।
इसी तरह से मनुस्मृति कार ने भी अपनी मनुस्मृति के अध्याय- (८) के श्लोक (३७४) में यही विधान निर्धारित किया है कि
शूद्रो गुप्तं अगुप्तं वा द्वैजातं वर्णं आवसन् ।
अगुप्तं अङ्गसर्वस्वैर्गुप्तं सर्वेण हीयते।३७४।।
अनुवाद- यदि शूद्र किसी असुरक्षित द्विज (ब्राह्मण) स्त्री के साथ संभोग करता है तो उसे अपना अपराधी अंग को खोना पड़ता है, और यदि वह वही अपराध किसी सुरक्षित द्विज स्त्री के साथ करता है तो उसे अपने प्राण गंवाने पड़ते हैं।
इसी तरह से मनुस्मृति, 2./135 में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता का दावा करते हुए घोषणा करती है कि-
ब्राह्मणं दशवर्षं तु शतवर्षं तु भूमिपम् ।
पितापुत्रौ विजानीयाद् ब्राह्मणस्तु तयोः पिता ॥135 ॥
अर्थात्- दस साल का ब्राह्मण भी सौ साल के क्षत्रिय के पिता के समान है।
मनुस्मृति के समान ही कुछ श्लोक मत्स्यपुराण के अध्याय -(२७७) में भी मिलते हैं। जिसमें जातिगत आधार पर भेदभाव करते हुए दंड का प्रावधान पारित किया गया है। इसके लिए नीचे देखें।
"सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः।
कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वाप्यस्य कर्तयेत्।८४।।
केशेषु गृह्णतो हस्तं छेदयेदविचारयन्।
पादयोर्नासिकायाञ्च ग्रीवायां वृषणेषु च।।८५।
अनुवाद- ८४-८५
• यदि कोई नीच जाति वाला व्यक्ति उत्कृष्ट व्यक्ति के साथ आसन पर बैठना चाहता है तो राजा उसकी कमर में एक चिन्ह बनाकर अपने राज्य से निर्वासित कर दे या उसकी गुदा (नितम्ब) भाग को कटवा दे।८४।
• इसी प्रकार यदि कोई निम्न जाति वाला व्यक्ति किसी उच्च जातीय व्यक्ति के केशों को पकड़ता है तो उसके हाथ को बिना विचार किए ही कटवा देना चाहिए। इसी प्रकार का दंड दोनों पैरों, नासिका, गला तथा अण्डकोष के पकड़ने पर भी देना चाहिए।८५।
ये उपरोक्त सभी बातें ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में वर्ण-व्यवस्था की दृढ़ता के लिए देखने को मिलते हैं। जिसमें सामाजिक एवं जातीय भेद- भाव के आधार पर दंड का विधान निर्धारित किया गया है। किंतु इसके ठीक विपरीत वैष्णव वर्णव्यवस्था- समानता मूलक सिद्धाव्त पर आधारित है जिसमें किसी प्रकार का भेद भाव नहीं है। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण अंतर तीसरे को नीचे देखें -
कृ प उ
अध्याय 5/३ ✓
(ख)- वैष्णवी व्यवस्था समतामूलक है।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के ठीक विपरीत वैष्णवी व्यवस्था समतामूलक सामाज पर आधारित है। जिसमें स्त्री-पुरुष, जाति-पाति, ऊंच-नीच, अपना-पराया इत्यादि का कोई भेद-भाव नहीं है।
इस संबंध में वैष्णव वर्ण के महा प्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय - (९) के श्लोक- (३२) में अर्जुन से कहते हैं कि -
'मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।३२।।
अनुवाद - हे पार्थ ! यदि स्त्री, वैश्य और शूद्र ये जो कोई पापयोनि वाले भी हों, वे भी मुझ पर आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।३२।
इसी प्रकार से भागवत पुराण में वैष्णव धर्म की प्रवृत्ति के बारे में बहुत ही अच्छा लिखा गया है कि वैष्णव धर्म में ऊँच- नीच एवं जातीय भेद-भाव नहीं है।
भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात् ॥ २१।
(श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१४/२१)
भगवान् के वचन – मैं सन्तों का प्रिय और आत्मा हूँ, मेरी प्राप्ति श्रद्धा व अनन्य भक्ति से ही होती है । मेरी अनन्य भक्ति में यह सामर्थ्य है कि वह जन्मजात (श्वपाक) चाण्डाल को भी अत्यन्त पवित्र बना देने वाली है।२१।।
न यस्य जन्म कर्मभ्याम् न वर्ण आश्रम. जातिभिः । सज्जते अस्मिन् अहंभावः देहे वै स हरेः प्रियः ।।५१।।
न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा ।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥५२॥
(श्रीमद्भागवत पुराण- ११/२/५१,५२)
• भागवत धर्म (वैष्णव भक्ति) में न वर्णाश्रमगत भेद है, न जातिगत भेद ही, न जन्मगत भेद है व्यसाय ( कर्मगत)। यहाँ तक कि देह-धर्मों का भी भेद नहीं है । ऐसा सर्वभूत शम ही उत्तम भागवत धर्म है ।५१।
भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात् ॥ २१।
(श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१४/२१)
भगवान् के वचन – मैं सन्तों का प्रिय और आत्मा हूँ, मेरी प्राप्ति श्रद्धा व अनन्य भक्ति से ही होती है । मेरी अनन्य भक्ति में यह सामर्थ्य है कि वह जन्मजात (श्वपाक) चाण्डाल को भी अत्यन्त पवित्र बना देने वाली है।२१।।
न यस्य जन्म कर्मभ्याम् न वर्ण आश्रम. जातिभिः । सज्जते अस्मिन् अहंभावः देहे वै स हरेः प्रियः ।।५१।।
न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा ।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥५२॥
(श्रीमद्भागवत पुराण- ११/२/५१,५२)
• भागवत धर्म (वैष्णव भक्ति) में न वर्णाश्रमगत भेद है, न जातिगत भेद ही, न जन्मगत भेद है व्यसाय ( कर्मगत)। यहाँ तक कि देह-धर्मों का भी भेद नहीं है । ऐसा सर्वभूत शम ही उत्तम भागवत धर्म है ।५१।
• जो धन संपत्ति अथवा शरीर आदि में- "यह अपना है और यह पराया" इस प्रकार का भेदभाव नहीं रखता, समस्त पदार्थ में समस्वरूप परमात्मा को देखता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा संकल्प से विक्षिप्त न होकर शांत रहता है, वह भगवान का उत्तम भक्त है।५२।।
न हि भगवन्नघटितमिदं त्वद्दर्शनान् नृणामखिलपापक्षयः । यन्नाम सकृच्छ्रवणात् पुल्कसकोऽपि विमुच्यते संसारात् ॥४४॥
(श्रीमद्भागवत पुराण- १६/६/४४)
भगवान् ! आपके दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के सारे पाप क्षीण हो जाते हैं, यह कोई असम्भव बात नहीं है, क्योंकि आपका नाम एक बार सुनने से ही नीच चाण्डाल( पुल्कस) भी संसार से मुक्त हो जाता है। ४४
भगवान श्रीकृष्ण समाज में ऊंच-नीच का भेदभाव रखनें वालों से अपनी भक्ति तथा कृपा से सदैव दूरी बनाकर रखते हैं। और ऐसे लोग जो समाज में भेदभाव पैदा करते हैं उनके लिए दण्ड का प्रावधान करते हुए कहते हैं कि-
यस्यामृतामलयशः श्रवणावगाहः सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः।
सोऽहं भवद्भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्तिः छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ॥६॥
(भागवत पुराण- ३/१६/६)
मेरी निर्मल सुयश सुधा में गोता लगाने से चाण्डाल पर्यन्त सारा जगत तुरन्त पवित्र होकर कुण्ठा रहित हो जाता है। इस लिए मैं विकुण्ठ कहलाता हूँ। किन्तु मुझे यह पवित्र कीर्ति आप भक्तों से ही प्राप्त होती है। इस लिए जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, मैं उसे तत्काल काट डालुँगा चाहें वह मेरी बाहू (भुजा) ही क्यों नहो।६।
और वैष्णव भक्तों की रक्षा तथा वैष्णव धर्म एवं समता मूलक समाज की स्थापित करने के लिए भगवान समय-समय पर भूतल पर अवतरित भी होते हैं।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।७।
(श्रीमद्भागवत गीता ४/७)
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। ६६।।
(श्रीमद्भागवत गीता (१८/६६)
संपूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, शोक मत कर।६६।।
(व्याख्या)- भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों को यह उद्घोषणा करते हुए कहते हैं कि जिस-जिस धर्म और समाज में भेद-भाव की प्रधानता हो उसे तुरंत छोड़कर भक्तों को मेरी शरण में आ जाना चाहिए। मैं उन सभी भक्तों को पाखंडपूर्ण समाज से मुफ्त करके अवश्य कल्याण करूंगा।
कुल मिलाकर सामान्य रूप से देखा जाए तो वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में प्रमुख रूप से (६) प्रकार के निम्नलिखित वैचारिक अंतर देखे जाते हैं।
(१) पहला यह की ब्राह्मण वर्णव्यवस्था- में सभी मनुष्य समान अधिकार वाले नहीं हैं। जबकि वैष्णव वर्ण में सभी बराबर हैं।
वैष्णव सन्तो का उद्घोष है कि-"हरि को भजे सो हरि को होई ! जाति- पाँति पूछे नहिं कोई"
(२)-दूसरा अंतर विष्णु और ब्रह्मा द्वारा निर्मित वर्णों में यह भी है कि- ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में चारो वर्णों के लोग अपने ही वंशानुगत कार्यों को अनिवार्य रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी जातीय धर्म समझकर करते हैं, भले ही उनमें इसकी पूर्ण प्रवृत्ति तथा योग्यता हो या नो हो।
जैसे- ब्राह्मण का बालक मन्दिरों या देवस्थानों में परम्परागत रूप से चढ़ावा लेने तथा वहाँ की पूजा आदि क्रियाओं करेगा ही चाहें वह संस्कृत भाषा का ज्ञान तथा शास्त्रों का ज्ञान भलें ही न रखता हो- जबकि वैष्णव वर्ण में ऐसी व्यवस्था नहीं है। इस वर्ण में जो जिस योग्यता के अनुरूप होगा वह वही काम करेगा।
(३) - इन दोनों में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में इसके सदस्यों का विभाजन जन्म के आधार पर चार मानव समूहों ( ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र) में होता है।
जबकि वैष्णव वर्ण में बिना वर्ग विभाजित हुए इसके सभी सदस्य अपनी योग्यता अनुसार सभी कर्मों को करने के लिए स्वतंत्र हैं। चाहे वह क्षत्रियोचित कर्म हो या ब्रह्मांत्व कर्म हो।
(४) - चौथा सबसे बड़ा अंतर यह है कि- श्रौत (श्रुति- वेद मूलक) स्मार्त ( स्मृति- मूलक ब्राह्मण, धर्मशास्त्रमूलक) धर्म की कट्टरता को नासमझ लोग भागवतधर्म में घटाने लगते हैं। परन्तु भागवत धर्म ही वैष्णव वर्ण- व्वस्था का आधार है। जबकि स्मृति ब्राह्मण वर्णव्यवस्था- का आधार है।
(५) पांचवां अंतर यह है कि- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में विधान है कि- चातुर्वर्ण्य के लोग अपने वर्ण के दायरे में रहकर ही कार्य करते हैं, उससे हट कर दूसरे वर्ग का कार्य नहीं कर सकते। जैसे कोई ब्राह्मण वर्ण का है, तो वह ब्राह्मणत्व कर्म ही करेगा क्षत्रियोचित कर्म कदापि नहीं कर सकता। इसी तरह से यह बात चारों वर्णों के लिए लागू होती है।
इस बात की पुष्टि- मार्कण्डेय पुराण के अध्याय- (११०) के श्लोक (३०) और (३६) से होती है जिसमें ब्रह्मा जी के वर्णव्यवस्था के शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए कहा गया है कि-
"त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोऽयं महात्मनः ।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप ॥३०॥
सोऽयं वैश्यत्वमापन्नस्तव पुत्रः सुमन्दधीः।
नास्याधिकारो युद्धाय क्षत्रियेण त्वया सह ।३६।
अनुवाद- हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है, और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना वर्ण-गत नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है ।। ३०,३६
इन उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि ब्रह्मा जी के वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण के कर्मों को करना निषिद्ध है।
जबकि वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, व्यवसायि एवं सेवा आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के कर सकते हैं। वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कर्मों एवं उनके दायित्वों का वर्णन इसके अगले अध्याय-(छः) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि वैष्णव वर्ण के सदस्य किस प्रकार से - ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, व्यवसायि, एवं सेवा आदि सभी कर्मों को स्वतंत्र रूप से बिना प्रतिबंध के करते हैं।
(६)- और अंत में सबसे महत्वपूर्ण छठवां अंतर यह है कि -
ब्राम्ही वर्ण व्यवस्था में दास को सबसे निकृष्ट कर्म करने वाला बताया गया तथा उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा गया। इस बात की पुष्टि- मनुस्मृति- अध्याय २- के श्लोक संख्या- ३१ और ३२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥ ३१॥
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम् ।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ॥३२।
अनुवाद- ३१-३२
• ब्राह्मण का नाम शुभ होना चाहिए, क्षत्रिय का नाम शक्ति से संबंधित होना चाहिए, वैश्य का नाम धन से संबंधित होना चाहिए, जबकि शूद्र (दास) का नाम घृणित होना चाहिए। ३१
• ब्राह्मण का नाम शर्मवत् (यज्ञ में बलि करने से सम्बन्धित), क्षत्रिय का नाम 'रक्षापरक', वैश्य का नाम 'समृद्धिपरक' तथा शूद्र का नाम दासत्व (गुलामीपरक) का बोधक होना चाहिए। ३२
जबकि इसके विपरीत वैष्णव वर्ण में सभी भक्त अपने आप को भगवान का दास मानते हुए अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझाते हैं। या यूं कहें कि वैष्णव भक्तों को दास ही कहा जाता है जैसे- रैदास, सूरदास, कबीरदास, मलूकदास इत्यादि। और एक सच्चा वैष्णव भक्त जब भी अपनी भक्ति का फल भगवान से मांगता हैं, तो वह केवल भगवान के दासत्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं मांगता।
वास्तव में देखा जाए तो वैष्णव सन्तों में दास पदवी का प्रचलन वैष्णव भक्त राजा ययाति के द्वारा ही हुआ।
क्योंकि पूर्वकाल में जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का का ही वर माँगा।
क्योंकि पूर्वकाल में जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का का ही वर माँगा।
इसकी पुष्टि -पद्मपुराणभूमि-खण्ड के अध्याय- (८३) के श्लोक- (८०) से होती है।
"राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद- राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) ही दीजिए। ८०।
अन्ततः दास शब्द की व्याख्या; ऋग्वेद में दास धातु-से हई है। दास्- दान देना (दासृ दाने) के अर्थ में है। यथा ऋग्वेद के इस निम्न की ऋचा में देखे-
यस्ते भरादन्नियते चिदन्नं निशिषन्मन्द्रमतिथिमुदीरत् ।
आ देवयुरिनधते दुरोणे तस्मिन्रयिर्ध्रुवो अस्तु दास्वान् ॥७॥
(ऋग्वेदः सूक्तं ४.२)
"(हे अग्निदेव !) उसके यहां एक पुत्र पैदा हो, जो भक्ति में दृढ़ और प्रसाद में उदार हो, जो भोजन की आवश्यकता होने पर आपको यज्ञ द्वारा भोजन प्रदान करता हो, जो आपको लगातार प्रसन्न करने वाला सोमरस देता हो, जो अतिथि के रूप में आपका स्वागत करता हो , और श्रद्धापूर्वक आपको उसके आवास में प्रज्ज्वलित करता हो।" (दास्वान् = दानवान् —सायणभाष्यम्)
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - वैष्णव भक्तों के लिए दास शब्द ही यथार्थ है। जिसका अर्थ- दान कर्ता भी है। दास शब्द ने अपने विकास क्रम में कई अर्थों को धारण किया। इसके लिए अध्याय - (११) के भाग- (१) महाराज यदु के परिचय में देखा जा सकता है।
"राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद- राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) ही दीजिए। ८०।
अन्ततः दास शब्द की व्याख्या; ऋग्वेद में दास धातु-से हई है। दास्- दान देना (दासृ दाने) के अर्थ में है। यथा ऋग्वेद के इस निम्न की ऋचा में देखे-
यस्ते भरादन्नियते चिदन्नं निशिषन्मन्द्रमतिथिमुदीरत् ।
आ देवयुरिनधते दुरोणे तस्मिन्रयिर्ध्रुवो अस्तु दास्वान् ॥७॥
(ऋग्वेदः सूक्तं ४.२)
"(हे अग्निदेव !) उसके यहां एक पुत्र पैदा हो, जो भक्ति में दृढ़ और प्रसाद में उदार हो, जो भोजन की आवश्यकता होने पर आपको यज्ञ द्वारा भोजन प्रदान करता हो, जो आपको लगातार प्रसन्न करने वाला सोमरस देता हो, जो अतिथि के रूप में आपका स्वागत करता हो , और श्रद्धापूर्वक आपको उसके आवास में प्रज्ज्वलित करता हो।" (दास्वान् = दानवान् —सायणभाष्यम्)
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - वैष्णव भक्तों के लिए दास शब्द ही यथार्थ है। जिसका अर्थ- दान कर्ता भी है। दास शब्द ने अपने विकास क्रम में कई अर्थों को धारण किया। इसके लिए अध्याय - (११) के भाग- (१) महाराज यदु के परिचय में देखा जा सकता है।
"इस प्रकार से यह अध्याय- (५) वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताओं की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
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