नीचे ब्रह्माण्ड पुराण में सात ऋषियों की उत्पत्ति अन्य पुराणों से भिन्न वर्णन हैं।
"ऋषय ऊचुः
कथं सप्तर्षयः पूर्वमुत्पन्नाः सप्त मनसाः ।
पुत्रत्वे कल्पिताश्चैव तन्नो निगद सत्तम ॥२,१.१३॥****
'ऋषियों ने कहा :—
हे श्रेष्ठ ! कृपया हमें यह बताइए कि किस प्रकार सप्तर्षि ( सप्तर्षि ) जो पहले ब्रह्मा के मानसिक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए थे, पुनः ब्रह्मा द्वारा उनके ही पुत्र मान लिए गये।13।
"सूत उवाच
पूर्वं सप्तर्षयः प्रोक्ता ये वै स्वायंभुवेऽन्तरे ।
मनोरन्तरमासाद्य पुनर्वैवस्वतं किल ॥२,१.१४॥
"सूत ने कहा :-
वे सात ऋषि ( सप्तर्षि ) जो स्वायंभुव मन्वन्तर में विद्यमान बताए गए हैं, वैवस्वत मन्वन्तर में पहुँचने पर ।१४।
भवाभिशाप संविद्धा अप्राप्तास्ते तदा तपः ।
उपपन्ना जने लोके सकृदागमनास्तु ते ॥२,१.१५॥
भव (अर्थात शिव) के शाप से अभिभूत हो गए थे। वे तपस्या की (पूर्ववर्ती) शक्ति प्राप्त करने में असमर्थ थे।
वे जनलोक पहुँचने के बाद वहीं रुक गए जहाँ से वे केवल एक बार लौट सकते थे।१५।
ऊचुः सर्वे सदान्योन्यं जनलोके महार्षयः।
एत एव महाभागा वरुणे विततेऽध्वरे ॥२,१.१६॥*****
वे महर्षि जनलोक में एक दूसरे से निरंतर कहने लगे - "जब चाक्षुष मन्वन्तर में वरुण का पवित्र यज्ञ पूर्णरूप से सम्पन्न होगा, तब हम सब इन महान आत्माओं के रूप में उसी में जन्म लेंगे। १६।
सर्वे वयं प्रसूयामश्चाक्षुषस्यान्तरे मनोः ।
पितामहात्मजाः सर्वे तन्नः श्रेयो भविष्यति॥ २,१.१७॥
हम सब पितामह (अर्थात ब्रह्मा) के पुत्रों के रूप में ही माने जाऐंगे। यह हमारे महान यश के लिए अनुकूल होगा।"१७।
एवमुक्त्वा तु ते सर्वे चाक्षुषस्यान्तरे मनोः ।
स्वायंभुवेन्तरे प्राप्ताः सृष्ट्यर्थं ते भवेन तु॥ २,१.१८॥
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ऐसा कहकर, वे, जो स्वायंभुव मन्वन्तर में भव ( शिव,) द्वारा शापित हुए थे, आगे की सृष्टि के लिए चाक्षुष मन्वन्तर में जन्मे।१८।
जज्ञिरे ह पुनस्ते वै जनलोकादिहागताः ।
देवस्य महतो यज्ञे वारुणीं बिभ्रतस्तनुम् ॥२,१.१९॥
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वे जनलोक से लौटकर यहाँ पुनः जन्मे। वे उस महान् देव के यज्ञ में जन्मे, जिन्होंने वरुण का भौतिक रूप धारण किया था।१९।
ब्रह्मणो जुह्वतः शुक्रमग्नौ पूर्वं प्रजेप्सया ।
ऋषयो जज्ञिरे दीर्घे द्वितीयमिति नः श्रुतम् ॥ २,१.२०॥
हमने सुना है कि ऋषियों का दूसरा जन्म हुआ, जैसे ब्रह्मा ने सन्तान प्राप्ति की इच्छा से अपने वीर्य से अग्नि में होम किया था।२०।
भृग्वङ्गिरा मरीचिश्च पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
अत्रिश्चैव वसिष्ठश्च ह्यष्टौ ते ब्रह्मणः सुताः ॥ २,१.२१ ॥
ब्रह्मा के आठ पुत्र थे—अर्थात्। भृगु, अंगिरस, मरीचि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि और वशिष्ठ..।२१।
तथास्य वितते यज्ञे देवाः सर्वे समागताः ।
यज्ञाङ्गानि च सर्वाणि वषट्कारश्च मूर्त्तिमान् ॥ २,१.२२॥
अनुवाद:-उनके इस विशाल यज्ञ में सभी देवता उपस्थित थे। यज्ञ के विभिन्न सहायक साधन भी उपस्थित थे। वषट्कार वहाँ साकार रूप में उपस्थित थे। २२।
मूर्त्तिमन्ति च सामानि यजूंषि च सहस्रशः।
ऋग्वेदश्चाभवत्तत्र यश्च क्रमविभूषितः॥२,१.२३॥
साम मंत्र और हजारों यजुर् मंत्र भी साकार रूप में वहाँ उपस्थित थे। ऋग्वेद भी वहाँ क्रम से उपस्थित था।२३।
यजुर्वेदश्च वृत्ताढ्य ओङ्कारवदनोज्ज्वलः।
स्थितो यज्ञार्थसंपृक्तः सूक्तब्राह्मणमन्त्रवान्॥ २,१.२४॥
(निम्नलिखित देवता वहाँ साक्षात् उपस्थित थे) तेजस्वी रूप वाली देवी इला (पृथ्वी), दिशाएँ और दिशा के स्वामी, देवकन्याएँ , देवताओं की पत्नियाँ और माताएँ।
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सामवेदश्च वृत्ताढ्यः सर्वगेयपुरः सरः ।
विश्वावस्वादिभिः सार्द्धं गन्धर्वैः सम्भृतोऽभवत् ॥ २,१.२५ ॥
ब्रह्मवेदस्तथा घोरैः कृत्वा विधिभिरन्वितः ।
प्रत्यङ्गिरसयोगैश्च द्विशरीरशिरोऽभवत् ॥२,१.२६॥
लक्षणा विस्तराः स्तोभा निरुक्तस्वर भक्तयः ।
आश्रयस्तु वषट्कारो निग्रहप्रग्रहावपि ॥२,१.२७॥
दीप्तिमूर्त्तिरिलादेवी दिशश्चसदिगीश्वराः ।
देवकन्याश्च पत्न्यश्च तथा मातर एव च ॥२,१.२८॥
आययुः सर्व एवैते देवस्य यजतो मखे ।
मूर्तिमन्तः सुरूपाख्या वरुणस्य वपुर्भृतः ॥ २,१.२९ ॥
जब भगवान वरुण भौतिक शरीर धारण करके यज्ञ कर रहे थे, तब ये सभी अपने सुंदर देहधारी स्वरूप में यज्ञ में पहुंचे। वे सभी सौंदर्य और तेज से संपन्न थे।२९।
स्वयंभुवस्तु ता दृष्ट्वा रेतः समपतद्भुवि ।
ब्रह्मर्षिभाविनोऽर्थस्य विधानाच्च न संशयः ॥ २,१.३०॥
अनुवाद:-
उन्हें देखते ही स्वयंभू भगवान का वीर्य भूमि पर गिर पड़ा।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह सब ऋषियों के जन्म के कारण ही हुआ था।३०।
धृत्वा जुहाव हस्ताभ्यां स्रुवेण परिगृह्य च ।
आस्रवज्जुहुयां चक्रे मन्त्रवच्च पितामहः ॥ २,१.३१ ॥
अनुवाद:-
उन ब्रह्मा ने दोनों हाथों से श्रुवा वीर्य ग्रहण करके और मंत्रों का उच्चारण करते हुए (एक साथ) होम किया।३१।
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ततः स जनयामास भूतग्रामं प्रजापतिः ।
तस्यार्वाक्तेजसश्चैव जज्ञे लोकेषु तैजसम् ॥ २,१.३२॥
अनुवाद:-
तब प्रजापति ने भूतों (जीवों या तत्त्वों) का समूह बनाया । उनके निम्न तेज से लोकों में तैजस ब्रह्म उत्पन्न हुआ ।३२।
सन्दर्भ:- ब्रह्माण्ड पुराण मध्यमभाग- अध्याय (१)
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