शंकराचार्य का भाष्य-
"इतश्च न शूद्रस्थाऽधिकार: यदस्य स्मृते: श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधो भवति, वेदश्रवणप्रतिषेधो वेदाध्ययनप्रतिषेधस्तदर्थज्ञानानुष्ठीनयोश्च प्रतिषेध: शूद्रस्य स्मर्यते। श्रवणप्रतिषेधस्तावत् -
अथास्य वेदमुपश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणम् इति। पद्यु ह वा एतच्छ्मशानं यच्छूद्रसस्तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् इति च। अतएवाऽध्ययनप्रतिषेध:। यस्य हि समीपेऽपि नाऽध्येतव्यं भवति, स कथमश्रृतमधीयीत। भवति च वेदोच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेद इति। अतएव चाऽर्थादर्थज्ञानानुष्ठानयो: प्रतिषेधो भवति- 'न शूद्राय मतिं दद्यात्' इति, 'द्विजातीनाम ध्ययनमिज्जा दानम्' इति च। येषां पुनः पूर्वकृत संस्कारवशाद् विदुरधर्मव्याधप्रभृतीनां ज्ञानोत्पत्तिस्तेषां न शक्यते फलप्राप्ति: प्रतिषेद्धुम्, ज्ञानस्यैकान्तिकफलत्वात्। 'श्रावयेच्चतुरो वर्णन्' इति चेतिहासपुराणाधिगमे चातुर्वर्ण्यस्याऽधिकास्मरणात्। वेदपूर्वकस्तु नास्त्यधिकार: शूद्राणामिति स्थितम्।"
भाष्य का अनुवाद-
"और इससे भी शूद्र का विद्या में अधिकार नहीं है, क्योंकि स्मृति उसके लिए श्रवण, अध्ययन और अर्थ का निषेध करती है। स्मृति में शूद्र के लिए वेद के श्रवण, वेद के अध्ययन और वेदार्थ के ज्ञान और अनुष्ठान का निषेध है। '
अथास्य वेदमुप०' (समीप से वेद का श्रवण करने वाले शूद्र के दोनों कानों को सीसे और लाख से भर दे) और 'पद्यु ह वा एतच्छ्मशानं' (शूद्र निःसन्देह जङ्गम श्मशान है, इसलिए शूद्र के समीप में अध्ययन नहीं करना चाहिए) इस प्रकार श्रवण का निषेध है। इसी से अध्ययन का निषेध भी सिद्ध होता है, क्योंकि जिसके समीप में अध्ययन किस प्रकार कर सकता है? यदि शूद्र वेद का उच्चारण करे, तो उसकी जिह्वा काट देनी चाहिए। यदि वेद को याद करे, तो उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देने चाहिएं, ऐसी स्मृति भी है। इसी हेतु से अर्थात् शूद्र के लिए अर्थज्ञान और अनुष्ठान का भी निषेध होता है-
'न शूद्राय०' (ब्राह्मण को चाहिए कि शूद्र को वेदार्थ-ज्ञान न दे) और 'द्विजातीनाम् (केवल द्विजों के लिए ही अध्ययन, यज्ञ और दान का विधान है)।
परन्तु विदुर, धर्मव्याध आदि, जिनको पूर्वकर्म के संस्कारों से ज्ञान उत्पन्न हुआ था, उनके लिए फलप्राप्ति का निषेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि ज्ञान अव्यभिचरित फल उत्पन्न करता है। 'श्रावयेच्च०' (चारों वर्णों को सुनावे) इस प्रकार स्मृति, इतिहास और पुराण का ज्ञान प्राप्त करने में चारों वर्णों के अधिकार बतलाती है। इससे सिद्ध हुआ कि वेदाध्ययनपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने का शूद्र को अधिकार नहीं है।"
श्री रामानुजाचार्य और शूद्र-
वेदान्तदर्शन १/३/३८ के "श्रीभाष्य" में श्री रामानुजाचार्य जी इस सूत्र का भाष्य यों करते हैं-
"(शूद्रस्य वेदश्रवणतदध्ययनतदर्थानुष्ठानानि प्रतिषिध्यन्ते। पद्यु हु वा एतत् श्मशानं यत्छूद्र: तस्मात् शूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् - (वसिष्ठस्मृति १८/१),
तस्मात् शूद्रो बहुपशुरयज्ञिय इति। बहुपशु: पशुसदृश इत्यर्थः। अननुश्रृण्वतोऽध्ययनतदर्थज्ञानतदर्यानुष्ठानानि न सम्भवन्ति। अतस्तान्यपि प्रतिषिद्धान्येव। स्मर्यते च श्रवणादिनिषेध:।
अथ हास्य वेदमुश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रति पूरणमुदाहरणे जिह्वाच्छेदो धारणो शरीरभेद इति। न चास्योपदिशेद् धर्मम् न चास्य व्रतमादिशेत्
गोतमस्मृति- 12/4
(मनु० ४/८०) इति च। अतः शूद्रस्यानधिकार इति सिद्धम्।"
न शूद्राय मतिं दद्यन्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम्।
न चास्योपदेशेद् धर्मं न चास्य व्रतमादिशेत् ॥ 80 ॥ (मनुस्मृति 4/80)
न चास्योपदेशेद् धर्मं न चास्य व्रतमादिशेत् ॥ 80 ॥ (मनुस्मृति 4/80)
अर्थात्- "शूद्र के लिए वेद का श्रवण, अध्ययन और उनका अनुष्ठान व आचरण प्रतिषिद्ध है। शूद्र चलता-फिरता श्मशान है। अतः उसके समीप अध्ययन न करना चाहिए; वह पशु समान है। जब वेद का श्रवण ही उसके लिए निषिद्ध है, तो अध्ययन, उनके अर्थज्ञान और वैदिक आचरण तो सम्भव ही नहीं। शूद्र वेद सुन ले, तो उसके कानों को सीसे और लाख से भर देना चाहिए। वेदमन्त्र का वह उच्चारण करे, तो उसकी जीभ काट देनी चाहिए और वेदमन्त्र को याद करे, तो उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े का डालने चाहिएं। इसलिए शूद्र का वेदाध्ययन और ब्रह्मविद्या में सर्वथा अनधिकार है।"
पुष्टिमार्ग के आचार्य श्री वल्लभाचार्य जी और शूद्र-
'ब्रह्मसूत्र' १/३/३८ पर भाष्य करते हुए वे लिखते हैं-
"दूरे ह्याधिकारचिन्ता वेदस्य श्रवणाध्ययनमर्थज्ञानं त्रयमपि तस्य (शूद्रस्य) प्रतिषिद्धम्। तत्सन्निधावन्यस्य च। अथास्य वेदमुपश्रृण्वतस्त्रयुजतुभ्यां श्रोतपरिपूरणमिति। पद्यु ह वा एतत् श्मशानं यच्छूद्रस्तत् - समीपे नाध्येतव्यमिति। उच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेद: (गौतम स्मृति- १२/४)। स्मृतियुक्त्याऽपि वेदार्थे न शूद्राधिकार इत्याह। स्मृतेश्च 'वेदाक्षरविचारेण शूद्र: पतति तत्क्षण त्' (पराशर स्मृति १/६३) इति। स्मार्तपौराणिकज्ञानादौ तु कारणविशेषेण शूद्रयोनौ गतानां महतामधिकार:। तथापि न कर्मजातिशूद्राणाम्।तस्मान्नास्ति वैदिके क्वचिदपि शूद्राधिकार इति स्थितम्।"
अनुवाद- "शूद्र के लिए वेदश्रवण करने, पढ़ने और उसके अर्थज्ञान तीनों का निषेध है। अतः उसके वेदाधिकार की चिन्ता तो बहुत दूर का विषय है। शूद्र यदि वेद के मन्त्रों को सुन ले, तो उसके कानों को सीसे और लाख से भर देना चाहिए। उच्चारण करे, तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिए, मन्त्र याद कर ले, तो उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देने चाहिएं। वेद के एक अक्षर के विचार से भी शूद्र उसी क्षण में पतित हो जाता है, ऐसा पराशर-स्मृति आदि में कहा है। स्मृति और पुराणों के ज्ञान में भी अधिकार किसी विशेष कारण शूद्रकुलोत्पन्न महापुरुषों का ही है; जाति या जन्म से शूद्रों का नहीं। इसलिए वैदिक ज्ञान में तो कहीं भी शूद्रों का अधिकार नहीं है, यह सिद्ध होता है।"
द्वैतवाद-प्रचारक श्री मध्वाचार्य (स्वामी आनन्द तीर्थ जी महाराज) और शूद्र-
वेदान्त दर्शन १/३/३८ पर 'अणुभाष्य' में वे लिखते हैं-
"श्रवणे त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रपरिपूरणम्, अध्ययने जिह्वाच्छेद:, धारणे हृदयविदारणम् इति प्रतिषेधात्। 'नाग्निनं यज्ञ: शूद्रस्य तथैवाध्ययनं कुत:। केवलैव तु शुश्रूषा त्रिवर्णानां विधीयते' इति स्मृतेश्च। विदुरादीनां तूत्पन्नज्ञानत्वान्न कश्चिद् विशेष:।"
अर्थात्- "यदि शूद्र वेद के शब्द को सुन ले तो उसके कान को सीसे और लाख से भर देना चाहिए और वेद के अध्ययन करने पर उसकी जिह्वा काट डालनी चाहिए और अर्थ का ज्ञान व निश्चय करने पर उसके हृदय के टुकड़े कर देने चाहिएं। शूद्र को अग्निहोत्र, यज्ञ, अध्ययनादि का अधिकार नहीं, उसका कार्य केवल तीन वर्णों की सेवा है, ऐसा स्मृति में कहा है। विदुर आदि को जन्म से ही ज्ञान उत्पन्न हो गया था। अतः उसमें कुछ विशेषता नहीं।"
श्री निम्बार्काचार्य जी और शूद्र-
ब्रह्मसूत्र १/३/३८ का भाष्य "वेदान्त-पारिजातसौरभ" में लिखा है-
"शूद्रो नाधिकियते। शूद्रसमीपे नाध्येतव्यभित्यादिना तस्य वेदश्रवणादिप्रतिषेधात्। न चास्योपदिशेद् धर्ममित्यादि स्मृतिश्च।"
अर्थात्- "शूद्र का वेदाध्ययन का अधिकार नहीं है। शूद्र के समीप अध्ययन नहीं करना चाहिए। इस विधान से उसके वेदश्रवणादि का निषेध है। स्मृति में भी कहा है कि शूद्र को धर्म का उपदेश नहीं देना चाहिए।"
इन पांच आचार्यों ने शूद्रों के साथ किस प्रकार का अत्याचार व अमानवता का व्यवहार करने का निर्देश किया है। यह विचारणीय है।
कवष, ऐलूष, ऐतरेय ऋषि कौन थे? क्या वे ब्राह्मण थे? नहीं, वे जन्मना शूद्र, दासीपुत्र होते हुए भी वेदमन्त्रों के प्रचारक थे तथा ऋग्वेद के ब्राह्मण 'ऐतरेय-ब्राह्मण' को बनाने वाले 'ऐतरेय' दासीपुत्र थे।
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श्री रामानुजाचार्य जी वैष्णव मत के थे और वैष्णव मत के प्रवर्तक "शठकोप" थे जो कंजर जाति के थे।
स्वामी महेश्वरानन्दगिरि: महामण्डलेश्वर, कनखल भी लिखते हैं-
"एवं श्री रामानुजाचार्यसम्प्रदायेऽपि 'पल्ली' संज्ञकस्य शूद्रस्य कुले जात: शठकोप:, सच गुणकर्मभ्यामेव ब्राह्मण्यमधिगत्य श्रीवैष्णसंप्रदायस्य परमाचार्य: संवृत इति दिव्यसूरिचरित्रचतुर्थसप्तर्गोक्त वचनैरेतत् विदितं भवति। श्रेष्ठ श्रीवैष्णवाचार्य्य: 'शठकोपोऽन्त्यजात्मज:'। जन्मकर्म - विशुद्धानां ब्राह्मणानामभूद् गुरु:।"
अर्थात्- "श्री रामानुजाचार्य-सम्प्रदाय में भी 'पल्ली' नाम के शूद्र के कुल में उत्पन्न शठकोप गुण, कर्म से श्री वैष्णव सम्प्रदाय के परमाचार्य हुए, यह 'दिव्यसूरिचरित्र' के चतुर्थसर्ग के वचन से विदित होता है। श्रेष्ठ श्रीवैष्णवाचार्य 'शठकोप' अन्त्यज-उत्पन्न थे। वे जन्म-कर्म से विशुद्ध ब्राह्मणों के भी गुरु हुए।"
आद्य शंकराचार्य जी महाराज के अनुयायी उपर्युक्त महामण्डलेश्वर जी ने तो श्री आद्य शंकराचार्य जी महाराज के वेदान्तदर्शन १/३/३८ के भाष्य पर भी टीका-टिप्पणी करते हुए लिखा है-
"साक्षाद्वेदविरुद्धत्वात्, स्मृतिष्वेतादृशं वच:। प्रक्षिप्तं स्यान्नृशंसैस्तु स्वार्थान्धैर्जनशत्रुभि:।"
अर्थात्- "(शूद्रों का जिह्वाच्छेदन आदि की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि) ऐसा स्मृतिवचन तो साक्षात् वेद-विरुद्ध है, प्रक्षिप्त हैं।"
इन्होंने स्वयं भी श्री आद्य शंकराचार्य के भाष्य का खण्डन कर दिया।
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