रविवार, 1 दिसंबर 2024

शर्मा शब्द की व्युत्पत्ति तथा वैदिक अर्थ-

"शर्मा शब्द का वैदिक इतिहास-

__________________________

  1. "शर्मा और वर्मा आदि सहचर शब्दों का प्राचीनतम रूप हम्हें ऋग्वेद में मिलता है; जिनमें इन शब्दों का मूल अर्थ भी दृष्टिगोचर होता है।
    "शर्मा शब्द की उत्पत्ति-
  2. शर्मा शब्द शर्मन् - शब्द का प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप है।
  • "इन्द्र मरुत्व इह पाहि सोमं यथा शार्याते अपिबः सुतस्य ।
    तव प्रणीती तव शूर शर्मन्-ना
    विवासन्ति कवयः सुयज्ञाः ॥७॥

    अनुवाद-

हे इन्द्र , तुम भी यहाँ मरुतों सहित इस उत्सव में सोम का पान करो , जैसे तुमने  शर्यातिपुत्र के अर्घ्य का पान किया था। ; तुम्हारे यज्ञ का संस्करण करने वाले पुरोहित तुम्हारे लिए पशुओं का वध करने वाले( शूर)  शर्मन- अपनी सुन्दर यज्ञों में अनेक ऋचाऐ (स्तुतियाँ) बुनते हैं।७।

  • ऋग्वेदः - मण्डल ३- सूक्त- ५१ ऋचा- ७)
    _________________________________
    वे + सन् - वेञ् तन्तुसन्ताने भ्वादिः कर्तरि प्रयोगः लट् लकारः परस्मै पदम् 'अन्य पुरुष बहुवचन रूप -विवासन्ति= बुनने की इच्छा करते हैं।
    उपर्युक्त ऋचा में शर्मन् शूर शब्द भी परस्पर अर्थ सम्पूरक है।

धातुपाठ- में शूर् धातु हिंसा करना" बध करना आदि अर्थ में है। शूर शब्द - लौकिक संस्कृत में भी हिंसक और घातक के अर्थ में प्रचलित है।

माधवीयधातुवृत्ति, धातु-प्रदीप- और क्षीरतरंगिणी तथा पाणिनीय धातुपाठ में भी शूर्-धातु का अर्थ वध करना ही है।

शूरी{ शूर्) =हिंसा,स्तम्भनयोः

  • दिवो वराहमरुषं कपर्दिनं त्वेषं रूपं नमसा नि ह्वयामहे ।
    हस्ते बिभ्रद्भेषजा वार्याणि शर्म वर्म च्छर्दिरस्मभ्यं यंसत् ॥५॥ —(ऋग्वेदः १/११४/५)

    अनुवाद:-"
    उस अरुण रंग के देव वराह रूप कपर्दिन ( जटाधारी) का नम्रता पूर्वक हम आह्वान करते हैं, जो हाथ में भय से उत्पन्न सभी दुर्बलताओं का निवारण करने वाले शस्त्र (शर्मन्) और (वर्मन्)कवच और शरीर को आच्छादित करने वाली ढाल धारण किए हुए है। वह वराह रूप कपर्दिन इन सब (शस्त्र और कवच) को हम्हें प्रदान करते हुए हम्हें अपने कवच से भी आच्छादित करे ।।(ऋ०१/११४/५)

उपर्युक्त ऋचा में शर्म( शर्मन्) शब्द शस्त्र के अर्थ में है

वैदिक काल में इन्द्र के यज्ञ में पशुओं का वध करने वाला पुरोहित शर्मन् कहलाता था। और इन्द्र सभी यज्ञ पशुओं के वध से सम्पन्न होते थे।

  • "उक्षणो हि मे पञ्चदशं साकं पचन्ति विशतिम्।
    उत्ताहंमदिम् पीवं इदुभा कुक्षी प्रणन्ति मे विश्वस्मांदिन्द्र ।।
    ऋग्वेद 10-/86-/14

[ इंद्र कहते हैं- मेरे याजक पुरोहित मेरे लिए पंद्रह (और) बीस बैल तैयार करते हैं; मैं उन्हें खाता हूं और मोटा हो जाता हूं, वे मेरे पेट के दोनों तरफ कोख में भरते हैं; इंद्र सारी (दुनिया) से ऊपर हैं।

सायण - का भाष्य भी उपर्युक्त ऋचा का यही पशुबलि मूलक अर्थ करता है।

  • अथेन्द्रो ब्रवीति = तत्पश्चात इन्द्र कहता है। “मे= मदर्थं ( = मेरे लिए )“पञ्चदश= पञ्चदशसंख्याकान्= पन्द्रह “विंशतिं= बींस। विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः =वृषभान् = बैलों को "साकं= सह = साथ । मम भार्ययेन्द्राण्या = मेरी पत्नी के साथ प्रेरिता =यष्टारः= यज्ञकर्ता । "पचन्ति = पकाते हैं। “उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि= । और मैं अग्नि के द्वारा उसका भक्षण करता हूँ। जग्ध्वा चाहं "पीव इत स्थूल एव भवामीति शेषः । =और उन्हें खाकर मैं पीव( मोटा )“ और स्थूल होता हूँ। किञ्च "मे मम “उभा उभौ “कुक्षी “पृणन्ति = मेरी दोनों कोखें भरती हैं। सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । और याजक सोम का पान कराते हैं। सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः॥ वह मैं इन्द्र सबसे श्रेष्ठ हूँ।

अर्थ :- इंद्र ने कहा - मेरे लिए यज्ञ करने वाले मेरे याजक पुरोहित मेरे लिए 15 - 20 बैल मारकर पकाते हैं वह खाकर मैं पुष्ट (मोटा) होता हूँ। वे मेरे पेट की दोनों कोख सोम ( सुरा) से भी भरते हैं) 

  • भारोपीय वर्ग की कैन्टम( शतम्) परिवार की भाषाओं में है।  प्राप्त oxen- उक्षण- वृषभ का ही वाचक है।
  • Ox (बॉल) is the oldest word in the Indo-European language - as -
  • 1-Middle English -oxe,2- Old English -oxa "ox" (plural oxan) 3-Proto-Germanic *ukhson 4- Old Norse- oxi, 5-Old Frisian -oxa,6-Middle Dutch- osse, 7-Old High German- ohso,8-German- Ochse, 9-Gothic -auhsa),10-Welsh -ych "ox,11-Middle Irish- oss "stag," 12-Sanskrit -uksa, (उक्ष:) 13-Avestan uxshan- "ox, bull"),


उक्षा मिमाति प्रति यन्ति धेनवः”( ऋ० ९, ६९, ४)। बैल चिल्लाते  हैं; गायें निकट जाती हैं: 

___________________________________
वहीं यास्क के निघण्टु के अनुसार शर्मन् को घर ( शरणस्थल) के अर्थ में प्रयोग करते हैं।


वैदिक काल में इन्द्र के यज्ञ में पशुओं की बलि चढ़ाने वाले पुरोहित को शर्मन् ( शृ= हिंसायां+मनिन् कृदन्त प्रत्यय) कहा जाता था।
सम्पूर्ण धातुपाठ में शृ -धातु का एक ही अर्थ है।- कत्ल करना।

विदित हो कि सभी  शब्दों का निर्माण धातुओं ( क्रिया मूल) से होता है। ये शब्द धातु कहलाते हैं। पाणिनीय धातुपाठ में लगभग (2200) मूल धातुऐं शामिल हैं जिन्हें द्वितीयक मूलों के विपरीत प्राथमिक मूल कहा जा सकता है। सभी धातुऐं प्राय द्विवर्ण मूलक हैं।

शृ- धातु का एक ही अर्थ हिंसा करना है।
जिससे शर्मन् शब्द बना है।
प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप शर्मा- हुआ।

कृष्ण देव पूजा अथवा यज्ञ मूलक कर्मकाण्डों के विरोधी थे क्योंकि देव- यज्ञ के लिए पशु हिंसा अनिवार्य पूरक क्रिया थी ।

कृष्ण ने ही सर्वप्रथम इन्द्र के पशुहिंसा मूलक यज्ञों को बन्द कराया।


परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि यज्ञों में बलि के नाम पर पशुओं की निर्ममता पूर्वक हत्या लोक कल्याण में नहीं थी।

  • ततःप्रभृति लोकेषु यज्ञादौ पशुहिंसनम् ।।बभूव सत्ये तु युगे धर्म आसीत्सनातनः ।। 2.9.9.३० ।।

अनुवाद:उसके बाद, यज्ञ (बलि) और अन्य (धार्मिक) अवसरों पर जानवरों की हत्या को बढ़ावा मिला। केवल सत्य ( कृत ) युग में ही शाश्वत धर्म प्रचलित था।३०।

  • कालेन महता सोपि सह देवैः सुराधिपः ।। आराध्य सम्पदं प्राप वासुदेवं प्रभुं मुने ।३१।

अनुवाद-हे ऋषि, लंबे समय के बाद, देवों के स्वामी इंद्र ने देवताओं के साथ मिलकर भगवान वासुदेव को प्रसन्न किया और उनकी समृद्धि पुनः प्राप्त की।३१।

  • ततो धर्मनिकेतस्य श्रीपतेः कृपया हरेः। यथापूर्वं च सद्धर्मस्त्रिलोक्यां संप्रवर्त्तत ।३२।

अनुवाद-:तब श्री के भगवान और धर्म के आसन (शरण) हरि की कृपा से, वास्तविक धर्म तीनों लोकों में फैल गया।३२।

  • तत्रापि केचिन्मुनयो नृपा देवाश्च मानुषाः ।कामक्रोधरसास्वादलोभोपहतसद्धियः । तमापद्धर्ममद्यापि प्राधान्येनैव मन्वते ।३३।

अनुवाद-:फिर भी कुछ देवता, ऋषि और पुरुष हैं जिनके अच्छे दिमाग काम, क्रोध, लालच और (मांसाहार) स्वाद से प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं, जो आपपद-धर्म (अर्थात संकट के समय में स्वीकार्य प्रथाओं) को प्रमुख धर्म मानते हैं । ३३।

  • एकान्तिनो भागवता जितकामादयस्तु ये ।आपद्यपि न तेऽगृह्णंस्तं तदा किमुताऽन्यदा।३४।

अनुवाद:-भगवान के भक्त, जिन्होंने अपनी भावनाओं पर विजय पा ली है, और जो पूरी तरह से भगवान के प्रति समर्पित हैं, दबाव में भी उन्हें (उन प्रथाओं को) नहीं अपनाते हैं। अन्य अवसरों का तो कहना ही क्या! ।३४।

  • इत्थं ब्रह्मन्नादिकल्पे हिंस्रयज्ञप्रवर्त्तनम् ।यथासीत्तन्मयाख्यातमापत्कालवशाद्भुवि ।३५।

"अनुवाद:इस प्रकार, हे ब्राह्मण, मैंने तुम्हें बताया है कि पहले कल्प में, हिंसा (हिंसा) से युक्त यज्ञ कैसे प्रचलित हुए।३५।

_________________________

  • वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है –
  • या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे।अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ। योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।। (५.४४-४५)

"शर्मान्तं ब्राह्मणस्य वर्मान्तं क्षत्रियस्य गुप्तान्तं वैश्यस्य भृत्यदासान्तं शूद्रस्य दासान्तमेव वा ।९। -
( बौधायनगृह्यसूत्रम् गृह्यशेषः प्रथमप्रश्ने एकादशोऽध्यायः)

ब्राह्मण के नाम का शर्मा से अन्त, क्षत्रिय नाम का वर्मा से अन्त , वैश्य के नाम का गुप्त से अन्त, शूद्र के नाम का दास से अन्त हो !

शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता च भूभुजः । भूतिर्गुप्तश्च वैश्यस्य दासः शूद्रस्य कारयेत्।।

देव तथा शर्मा विप्र के नामान्त; वर्मा त्राता तथा भूमि के रक्षकों के; भूति, तथा गुप्त वैश्य के तथा दास शूद्र के नाम के अन्त में हो !


इसीलिए भगवान-देव-संस्कृति के विद्रोही पुरुष थे।
उन्होंने वन, पशु और पर्वतों को अपना उपास्य स्वीकार किया।
इसी लिए उनके चरित्र-उपक्रमों में इन्द्र -पूजा का विरोध परिलक्षित होता है ।👇

इसीलिए कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अदेव विशेषण से सम्बोधित भी किया गया है।
जिसका अर्थ है-( देवों को न मानने वाला )

श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं इस बात के प्रमाण के लिए कि "कृष्ण
देव विषयक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं।

कारण यही था कि यज्ञ के नाम पर निर्दोष जीवों की हत्या होती थी।

श्रीमद्भागवतम्
भागवत पुराण स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास अध्याय 5: नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन श्लोक 13

श्लोक 11.5.13 भागवत पुराण
"यद् घ्राणभक्षो विहित: सुराया-
स्तथा पशोरालभनं न हिंसा।
एवं व्यवाय: प्रजया न रत्या
इमं विशुद्धं न विदु: स्वधर्मम् ॥१३॥

शब्दार्थ:- यत्—चूँकि; घ्राण—सूँघ कर; भक्ष:—खाओ; विहित:—वैध है; सुराया:—मदिरा का; तथा—उसी तरह; पशो:—बलि पशु का; आलभनम्—विहित वध; न—नहीं; हिंसा— हिंसा;वध एवम्—इसी प्रकार से; व्यवाय:—यौन; प्रजया—सन्तान उत्पन्न करने के लिए; न—नहीं; रत्यै—इन्द्रिय-भोग के लिए; इमम्—यह (जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है); विशुद्धम्—अत्यन्त शुद्ध; न विदु:—वे नहीं समझ पाते; स्व-धर्मम्—अपने उचित कर्तव्य को ।.

अनुवाद:- वैदिक आदेशों के अनुसार, जब यज्ञोत्सवों में सुरा प्रदान की जाती है, तो उसको पीकर नहीं अपितु सूँघ कर उपभोग किया जाता है। इसी प्रकार यज्ञों में पशु-बलि की अनुमति है, किन्तु व्यापक पशु-हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है। धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तु विवाहोपरान्त सन्तान उत्पन्न करने के लिए, शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं।

किन्तु दुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकतावादी जन यह नहीं समझ पाते कि जीवन में उनके सारे कर्तव्य नितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए।
भागवत पुराण का उपर्युक्त श्लोक यद्यपि कृष्ण के हिंसा वरोधी मत को अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं है। और देवयजन ( यज्ञ)के नाम पर हिंसामूलक यज्ञ का विरोध न करके उससे बचने का तो रास्ता बता रहा है।
परन्तु यह उपर्युक्त कथन मौलिक रूप से कृष्ण का नहीं हैं। अपितु किसी देवयज्ञवादी ने इसे बड़ी चतुराई से भागवत में जोड़ दिया है।

परन्तु कृष्ण देव पूजा के इसी हिंसामूलक उपक्रम के कारण विरोधी भी थे।

तात्पर्य:- पशु-यज्ञ के सम्बन्ध में मध्वाचार्य ने भी देव पूजा का पक्ष बड़ी सहजता से लिया है। उन्होंने निम्नलिखित कथन दिया है—

  • "यज्ञेष्वालभनं प्रोक्तं देवतोद्देशत: पशो:।
    हिंसानाम तदन्यत्र तस्मात् तां नाचरेद् बुध:॥
    यतो यज्ञे मृता ऊर्ध्वं यान्ति देवे च पैतृके।
    अतो लाभादालभनं स्वर्गस्य न तु मारणम्॥

    भावार्थ:-
    इस कथन के अनुसार कभी कभी किसी देवता विशेष की तुष्टि के लिए पशु-यज्ञ करने की पुरोहित संस्तुति करते हैं।
    किन्तु यदि कोई व्यक्ति वैदिक नियमों का दृढ़ता से पालन न करते हुए अंधाधुंध पशु-वध करता है, तो ऐसा वध वास्तविक हिंसा है।

आखिर रूढ़िवादी परम्पराओं का भी निर्वहन करना क्या बुद्धि मानी है ? जिसमें जीवों की हत्या के विधान हों।

और इस हिंसामूलक यज्ञों को आज किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

इन्द्रोपासक पुरोहितों की मान्यता है। कि
"यदि पशु-यज्ञ सही ढंग से सम्पन्न किया जाता है, तो बलि किया गया पशु तुरन्त देवलोक तथा पितृलोक को चला जाता है।

इसलिए ऐसा यज्ञ पशुओं का वध नहीं है, अपितु वैदिक मंत्रों की शक्ति-प्रदर्शन के लिए होता है, जिसकी शक्ति से बलि किया हुआ पशु, तुरन्त उच्च लोकों को प्राप्त होता है।

किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने इस युग में ऐसे पशु-यज्ञ का पूर्ण निषेध किया है,

क्योंकि मंत्रों का उच्चारण करने वाले योग्य ब्राह्मणों का अभाव है और तथाकथित यज्ञशाला सामान्य कसाई-घर का रूप धारण कर लेती है।

इसके पूर्व के युग में जब पाखण्डी लोग वैदिक यज्ञों का गलत अर्थ लगाकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि पशु-वध तथा मांसाहार वैध है, तब विचारणीय प्रश्न यह है कि मुसलमान भी कुरबानी अथवा हलाल कुरान का कलमा पढकर ही करते हैं ।
क्या ईश्वर कुरबानी का भूखा है? अथवा देवता माँस भक्षी हैं क्या?

यद्यपि कृष्ण ने यज्ञ के नाम पर पशु वध का पूर्ण निषेध करते हुए ही देव यज्ञ को बन्द करा दिया था।

अधिकतर यज्ञों में पशुबध अनिवार्य था।
इसी लिए इस बध को बन्द करने के लिए स्वयं भगवान् बुद्ध ने अवतार लिया और उनकी घृणित उक्ति को अस्वीकार किया।

  • इसका वर्णन गीत गोविन्द कार जयदेव ने किया है—
    "निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।
    केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे॥
  • अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।

अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी क्यों कि यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।
कृष्ण का समय द्वापर युग का अन्तिम चरण और कलियुग का प्रारम्भिक चरण का मध्य है। अत: कलि युग के लिए विधान - निर्देश कृष्ण ने किया"

  • "समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके।अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले ।६१।
    अनुवाद:- ★-
    कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि में भूतल पर कृष्ण ने अन्नकूट का विधान किया।61।
    विशेष:- अन्नकूट-एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है । उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं। यह त्यौहार कृष्ण द्वारा वैदिक हिंसा पूर्ण यज्ञों के विरोध में स्थापित किया गया विधान था।
  • "देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रतिदुःखितः ।
    वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् । प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।
    अनुवाद:-★
    कृष्ण द्वारा स्थापित इस अन्नकूट उत्सव से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण के लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।
  • तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
    राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्यचागता।६३।
    अनुवाद:- ★
    तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।

    तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्। नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।
  • अनुवाद:- ★
    तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।
    राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।
    अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।
    अनुवाद:-★
    वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं। वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।
    वे ही सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।
    इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।
    शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।
    अनुवाद:- ★
    यह सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।६६।
    इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।

इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ-★
___________

विचार विश्लेषण-
इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है।
जिसके साक्ष्य जहाँ -तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।
जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रही था और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।
तब ऐसे समय कृष्ण ने सर्वप्रथम इन अन्ध रूढ़ियों का खण्डन व विरोध किया।

पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञों को समस्त गोप-यादव समाज में रोककर निषिद्ध दिया था।

पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित भी किया ही है। भले ही रूपक-विधेय कोई भी हो-
जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है।
कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों द्वारा देवों को प्रसन्न किया जाता हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है।

कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश के बहाने से रूढ़िवादी देवोपासक पुरोहितों के मन्तव्य को हंसकर कहा जिसका आरोपण चैतन्य के रूप में हुआ है:- कि कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है ।
वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।
____________
यज्ञ से यद्यपि ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती
यज्ञ केवल देवपूजा की प्रक्रिया है ।
यह देव पूजा के विधान कि सांकेतिक परम्परा मात्र बन रह गयी है।

श्रीमद्भगवत् गीता पाँचवीं सदी में रचित ग्रन्थ में जिसकी कुछ प्रकाशन भी है ।

यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है।
अब कृष्ण जिस वस्तुत का समर्थन करते हैं
मनुःस्मृति उसका विरोध करती है ।
क्योंकि मनुस्मृति ब्राह्मण वादी व्यवस्था का पोषक व समर्थक है।

"प्राचीन काल में यज्ञ की अवधारणा -
"यज्ञ का अर्थ और सांस्कृतिक विधान"
____________________________________

"यज्ञ" प्राचीन भारतीय देव संस्कृति के आराधकों का एक प्रसिद्ध वैदिक कृत्य था जिसमें वे विभिन्न आयोजनों पर प्रायः देवों को लक्ष्य करके हवन किया करते थे।

यज्ञ देवसंस्कृति के आराधकों की उस अवधारणा का प्रारूप है। जब वे शीत प्रदेशों में जीवन यापन के उपरान्त शीत-प्रभाव को कम करने के लिए नित्य-नैमित्तिक अग्नि को ईश्वरीय रूप में मान कर उसकी उपासना और सानिध्य प्राप्त करते हुए उसका यजन किया करते थे।
यह अग्नि ही भारतीयों का प्रारम्भिक और अग्रदेव है। यही सृष्टि में सर्वप्रथम उत्पन्न होकर आगे चला और सबका नेता बना । संस्कृत कोशकारों नें अग्नि शब्द की उत्पत्ति अनेक प्रकार से उसके भौतिक गुणों और प्रवृत्तियों को दृष्टि गत करके ही की हैं।

"अङ्गति ऊर्द्ध्वं गच्छति अगि--नि नलोपः " = जो नित्य ऊपर को गमन करता है।।

यूरोपीय भाषाओं में अग्नि शब्द सांस्कृतिक रूपों में विद्यमान है।

  • लैटिन में इग्निस = (igneous) ओल्ड चर्च और स्लॉवोनिक भाषाओं में ऑग्नि= (ogni,) और रूसी परिवार की लिथुआनियन भाषा में ugnis= (उगनिस) रूप में यह शब्द विद्यमान है।

भारतीयों में अग्नि की महा उपासना आज भी प्रचलित है।

"ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ॥ (ऋग्वेद१/१/१)

अनुवाद:- यज्ञ के पुरोहित, दीप्तिमान्, देवों का आह्वान करने वाले ऋत्विक् और रत्नधारण करने वाले अग्नि की मैं स्तुति करता हूँ।

यज्ञ तत्पर्य्यायः । सवः २ अध्वरः ३ यागः ४ सप्त- तन्तुः ५ मखः ६ क्रतुः ७ । अमरकोश(।२।७।१३)

८ इष्टिः इष्टम् ९ वितानम् १० मन्युः ११ आहवः १२ सवनम् १३ हवः १४ अभिषवः १५ होमः १६ हवनम् १७ महः १८ । इति शब्दरत्नावली ॥

यज्ञः शब्द के पर्याय वाची अथवा समानार्थी शब्द निम्नलिखित हैं।

समानार्थक:१-यज्ञ,२-सव,३-अध्वर,४--याग,५-सप्ततन्तु,६-मख,७-क्रतु,८-इष्टि,९-वितान,१०-स्तोम,११-मन्यु,१२-संस्तर,१३-स्वरु,१४-सत्र,१५-हव-2।7।13।2।1

उपज्ञा ज्ञानमाद्यं स्याज्ज्ञात्वारम्भ उपक्रमः। यज्ञः सवोऽध्वरो यागः सप्ततन्तुर्मखः क्रतुः॥

अवयव : यज्ञस्थानम्,यागादौ_हूयमानकाष्ठम्,यागे_यजमानः,हविर्गेहपूर्वभागे_निर्मितप्रकोष्टः,यागार्थं_ संस्कृतभूमिः,अरणिः,यागवेदिकायाम्_दक्षिणभागे_स्थिताग्निः,अग्निसमिन्धने_प्रयुक्ता_ऋक्, हव्यपाकः,अग्निसंरक्षणाय_ रचितमृगत्वचव्यजनम्,स्रुवादियज्ञपात्राणि, यज्ञपात्रम्,क्रतावभिमन्त्रितपशुः, यज्ञार्थं_पशुहननम्,यज्ञहतपशुः,हविः,अवभृतस्नानम्,क्रतुद्रव्यादिः,यज्ञकर्मः,पूर्तकर्मः,यज्ञशेषः,भोजनशेषः,सोमलताकण्डनम्,अघमर्षणमन्त्रः,

यज्ञोपवीतम्,विपरीतधृतयज्ञोपवीतम्,कण्डलम्बितयज्ञोपवीतम्,यज्ञे_स्तावकद्विजावस्थानभूमिः,यज्ञियतरोः_शाखा,यूपखण्डः
स्वामी : यागे_यजमानः

सम्बन्धित : यूपकटकः,अग्निसमिन्धने_प्रयुक्ता_ऋक्,हव्यपाकः,अग्निसंरक्षणाय_रचितमृगत्वचव्यजनम्,दधिमिशृतघृतम्,क्षीरान्नम्,देवान्नम्,पित्रन्नम्,यज्ञपात्रम्,क्रतावभिमन्त्रितपशुः,यज्ञार्थं_पशुहननम्,यज्ञहतपशुः,हविः,अग्नावर्पितम्,अवभृतस्नानम्,क्रतुद्रव्यादिः,पूर्तकर्मः,यज्ञशेषः,दानम्,अर्घ्यार्थजलम्

वृत्तिवान् : यजनशीलः
: ब्रह्मयज्ञः, देवयज्ञः, मनुष्ययज्ञः, पितृयज्ञः, भूतयज्ञः, दर्शयागः, पौर्णमासयागः पदार्थ-विभागः : , क्रिया

  • विशेष—प्राचीन भारतीय देव संस्कृतियों के आराधकों नें यह प्रथा प्रचलित थी कि जब उनके यहाँ जन्म, विवाह या इसी प्रकार का और कोई आयोजन समारंभ होता था, अथवा जब वे किसी मृतक की अंत्येष्टि क्रिया या "पितरों का श्राद्ध आदि करते थे, तब ऋग्वेद के कुछ सूक्तों और अथर्ववेद के मत्रों के द्वारा अनेक प्रकार की प्रार्थनाएँ करते थे।

इसी प्रकार पशुओं का पालन करनेवाले अपने पशुओं की वृद्धि के लिये तथा कृषक लोग अपनी उपज बढ़ाने के लिये अनेक प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान समारंभ करके स्तुति आदि करते थे।

इन अवसरों पर अनेक प्रकार के हवन आदि भी होते थे, जिन्हें उन दिनों 'गृह्यकर्म [सं० गृह्यकर्मन्] गृहस्थ के लिये विहित कर्म, संस्कारादि कहते थे।

इन्हीं गृह्यकर्म से आगे विकसित होकर यज्ञों का रूप प्राप्त किया। पहले इन यज्ञों में घर का मालिक या यज्ञकर्ता, यज्ञमान होने के अतिरिक्त यज्ञपुरोहित भी हुआ करता था।

और प्रायः अपनी सहायता के लिये एक आचार्य, जो '{ब्राह्मण'= मन्त्र-वक्ता} कहलाता था, नियुक्त कर लिया जाता था। इन यज्ञों की आहुति घर के यज्ञकुंड में ही होती थी। इसके अतिरिक्त कुछ धनवान् या राजा ऐसे भी होते थे, जो बड़े ब़ड़े यज्ञ किया करते थे।

जैसे,— वैदिक देवता इंद्र की प्रसन्न करने के लिये सोमयाग किया जाता था। धीरे -धीरे इन यज्ञों के लिये अनेक प्रकार के नियम अथवा विधान पारित होने लगे; और पीछे से उन्हीं नियमों के अनुसार भिन्न भिन्न यज्ञों के लिये भिन्न भिन्न प्रकार की यज्ञभूमियाँ और उनमें पवित्र अग्नि स्थापित करने के लिये अनेक प्रकार के यजकुण्ड बनाये जाने लगे।

ऐस यज्ञों में प्रायः चार मुख्य ऋत्विज हुआ करते थे, जिनकी अधीनता में और भी अनेक ऋत्विज् काम करते थे।

आगे चलकर जब यज्ञ करनेवाले यज्ञमान का काम केवल दक्षिणा बाँटना ही रह गया, तब यज्ञ संबंधी अनेक कृत्य करने के लिये और लोगों की नियुक्ति होने लगी।

१-होता-

मुख्य चार ऋत्विजों में पहला 'होता' नाम से जाना जाता था और वह देवताओं की प्रार्थना करके उन्हें यज्ञ में आने के लिये आह्वान करता था।

२-उद्गाता-

दूसरा ऋत्विज् 'उद्गाता' कहलाता था। जो यज्ञकुंड़ में सोम की आहुति देने के समय़ सामागान करता था।

३-अध्वर्यु-

तीसरा ऋत्विज् 'अध्वर्यु' या यज्ञ करनेवाला होता था; और वह स्वयं अपने मुँह से गद्य मंत्र पढ़ता तथा अपने हाथ से यज्ञ के सब कृत्य करता था।

४-ब्रह्मा-

चौथे ऋत्विज् 'ब्रह्मा' अथवा महापुरोहित कहलाता था जो सब प्रकार के विघ्नों से यज्ञ की रक्षा करनी पड़नी था;

और इसके लिये उसे यज्ञुकुंड़ की दक्षिणा दिशा में स्थान दिया जाता था; क्योकि वही यम की दिशा मानी जाती थी।

और उसी ओर से असुर लोग आया करते थे। इसे इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता था कि कोई किसी मंत्र का अशुद्ध उच्चारण न करे।

इसी लिये 'ब्रह्मा' का तीनों वेदों ऋगवेद- यजुर्वेद और सामवेद - का ज्ञाता होना भी आवश्यक था। जब यज्ञों का प्रचार बहुत बढ़ गया, तब उनके संबंध में अनेक शास्त्र बन गए, और वे शास्त्र 'ब्राह्मण' तथा 'श्रौत सूत्र' कहलाए।

इसी कारण लोग यज्ञों को 'श्रौतकर्म' भी कहने लगे।

इसी के अनुसार यज्ञ अपनी मूल गृह्यकर्म धारा से अलग हो गए, जो केवल स्मरण के आधार पर होते थे। फिर इन गृह्यकर्मों के प्रतिपादक ग्रंथों को 'स्मृति' कहने लगे।

प्रायः सभी वेदी का अधिकांश इन्ही यज्ञसंबंधी बातों से भरा पड़ा है।

पहले तो सभी लोग यज्ञ किया करते थे, पर जब धीरे धीरे यज्ञों का प्रचार घटने लगा, तब अध्वर्यु और होता ही यज्ञ के सब काम करने लगे। पीछे भिन्न भिन्न ऋषियों के नाम पर भिन्न भिन्न नामोंवाले यज्ञ प्रचलित हुए, जिससे ब्राह्मणों का महत्व भी बढ़ने लगा।

इन यज्ञों में अनेक प्रकार के पशुओं की बलि भी दी जाने लगी।, जिससे कुछ लोग असंतुष्ट होने लगे; और परिणाम स्वरूप भागवत(सात्वत्त) आदि नए सम्प्रदाय स्थापित हुए, जिनके कारण कर्मकाण्ड मूलक यज्ञों का प्रचार धीरे धीरे बंद ही गया।

यज्ञ अनेक प्रकार के होते थे। जैसे,— सोमयाग, अश्वमेध यज्ञ, (राजसूय) यज्ञ, ऋतुयाज, अग्निष्टोम, अतिरात्र, महाव्रत, दशरात्र, दशपूर्णामास, पवित्रोष्टि, पृत्रकामोष्टि, चातुर्मास्य सौत्रामणि, दशपेय, पुरुषमेध, आदि, आदि।

"असुर संस्कृति के आराधक आर्यों की ईरानी शाखा में भी यज्ञ प्रचालित रहे जो 'यश्न' नाम जाने जाते थे। इस 'यश्न' से ही फारसी का 'जश्न' शब्द विकसित हुआ है।।
यह यज्ञ वास्तव में एक प्रकार के पुण्योत्सव होते थे । अब भी विवाह, यज्ञोपवीत आदि उत्सवों को कहीं कहीं यज्ञ कहते हैं। यज्ञ का एक नाम विष्णु और अग्नि भी है।

"यज्ञ गुणों को अनुसार सात्विक राजसिक और तामसिक तीन प्रकार हे गये।
पांच महायज्ञ प्रसिद्ध हैं (1) ब्रह्मयज्ञ (2) देवयज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) बलिवैश्व देव यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ। वैदिक परंपरा में, यज्ञ (जिसे महायज्ञ के रूप में भी जाना जाता है) आशीर्वाद, समृद्धि, शुद्धि और आध्यात्मिक विकास के लिए विभिन्न देवताओं या ब्रह्मांडीय शक्तियों के प्रसाद ग्रहण ( कृपा प्राप्ति) के रूप में किया जाता है।

महायज्ञ के दौरान पुजारियों, विद्वानों और भक्तों की भागीदारी के साथ विस्तृत अनुष्ठान और समारोह आयोजित किए जाते हैं। इन अनुष्ठानों में अक्सर वैदिक मंत्रों का जाप, घी, अनाज और जड़ी-बूटियों जैसी विभिन्न वस्तुओं को पवित्र अग्नि (अग्नि) में चढ़ाना और सटीक पाठ के साथ विशिष्ट क्रियाएं करना शामिल होता है। अनुष्ठान प्राचीन वैदिक ग्रंथों में उल्लिखित दिशानिर्देशों और प्रक्रियाओं का सख्ती से पालन करते हुए आयोजित किए जाते हैं।

माना जाता है कि महायज्ञों का प्रभाव शक्तिशाली और दूरगामी होता है। उन्हें निस्वार्थ सेवा और भक्ति का कार्य माना जाता है और माना जाता है कि वे सकारात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं जो प्रतिभागियों और पर्यावरण को बड़े पैमाने पर लाभ पहुंचा सकते हैं।

आधुनिक समय में, महायज्ञ अभी भी भारत और अन्य स्थानों पर जहां भारतीय सनातन धर्म के रूप में सम्पन्न किया जाता है। कुछ महायज्ञ विशिष्ट उद्देश्यों जैसे ग्रह निवारण, शांति या विश्व कल्याण के लिए आयोजित किये जाते हैं। अनुष्ठान का पैमाना और जटिलता अवसर और इसमें शामिल प्रतिभागियों की संख्या के आधार पर भिन्न हो सकता है।

राजकुल के व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ को महायज्ञ की श्रेणी में रखा जाता था। महायज्ञ के संपादन में 17 पुरोहितों की आवश्यकता होती थी। यज्ञ के प्रकार निम्नवत है।

1.राजसु यज्ञ या राज्याभिषेक :-

यह राजा के सिंहासन रोहण से संबंधित यज्ञ था। इस यज्ञ के अवसर पर राजा राजकीय वस्त्रों में सुसज्जित होकर पुरोहित से धनुष बाण लेकर स्वयं को राजा घोषित करता था। यह 1 वर्ष तक चलने वाला यज्ञ था बाद के दिनों में इसे सामान्य अभिषेक तक सीमित कर दिया गया। राजसूय का सर्वप्रथम उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है राजसुय यज्ञ कराने वाले पुरोहित को 24000 गाय तक दान में दी जाती थीं।.

2. बाजपेय यज्ञ:-

बाजपेय का शाब्दिक अर्थ है शक्ति का पान। यह शौर्य प्रदर्शन व प्रजा मनोरंजनार्थ किया जाने वाला यज्ञ था। ये लगभग 17 दिनों तक चलता था।

3.अश्वमेघ यज्ञ:-

अश्वमेघ का शाब्दिक अर्थ घोड़े की बलि है । यह राजनीतिक विस्तार हेतु किया जाने वाला यज्ञ था। इस यज्ञ में एक घोड़े को अभिषेक के पश्चात 1 वर्ष तक स्वतंत्र विचरण के लिए छोड़ दिया जाता था । विचरण के दौरान घोड़े के साथ 400 योद्धा मार्ग में उसकी रक्षा करते थे। विचरण करने वाले सम्पूर्ण भाग पर राजा का अधिपत्य समझ लिया जाता था । अगर किसी राजा द्वारा उस घोड़े को पकड़ लिया जाता था तो उसे राजा से युद्ध करना होता था।

वर्ष के समाप्त होने पर उस घोड़े को राजधानी लाया जाता था और उसकी बलि दी जाती थी। यह यज्ञ महात्मा बुद्ध के द्वारा तीव्र भर्त्सना के कारण कुछ समय तक बंद रहा, परन्तु पुनः इस परम्परा को पुष्यमित्र शुंग द्वारा प्रारम्भ किया गया।

इस यज्ञ का परचलन गुप्त एवं प्रारंभिक चालुक्य वंश तक रहा उसके बाद यह बंद हो गया।.

4. अग्निओष्टम यज्ञ :-

इसे अग्निष्टोमा के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रमुख वैदिक यज्ञ (बलि अनुष्ठान) है जो प्राचीन हिंदू परंपराओं में बहुत महत्व रखता है। यह वैदिक ग्रंथों, विशेषकर यजुर्वेद और तैत्तिरीय संहिता में वर्णित सबसे पुराने और सबसे विस्तृत अनुष्ठानों में से एक है। अग्निष्टोम यज्ञ एक सोम यज्ञ है, जिसका अर्थ है कि इसमें विशिष्ट वैदिक मंत्रों का जाप करते हुए पवित्र अग्नि (अग्नि) में सोम रस निकालना और चढ़ाना शामिल है। अनुष्ठान आम तौर पर कई दिनों तक चलता है और जटिल समारोहों को करने के लिए कुशल पुजारियों टीम की आवश्यकता होती है। अग्निष्टोम का केंद्रीय तत्व सोम पौधा है, जो वैदिक अनुष्ठानों में एक पवित्र पौधा है जिसके बारे में माना जाता है कि इसमें दैवीय गुण हैं और यह भगवान सोम (चंद्र) से जुड़ा है।

सोम रस को पौधे से निकाला जाता है, अन्य पदार्थों के साथ मिलाया जाता है और अग्नि में आहुति दी जाती है। अनुष्ठान के दौरान प्रतिभागी सोम पीते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका शरीर और दिमाग पर शुद्धिकरण और उन्नत प्रभाव पड़ता है। अग्निष्टोम यज्ञ को अत्यधिक शुभ माना जाता है और माना जाता है कि इससे आध्यात्मिक उत्थान, देवताओं का आशीर्वाद और समृद्धि सहित विभिन्न लाभ मिलते हैं। यह एक जटिल और मांगलिक समारोह है, जिसमें सटीक पाठ, प्रसाद और क्रियाएं शामिल होती हैं, और आमतौर पर विशेष अवसरों पर या विशिष्ट उद्देश्यों के लिए किया जाता है।

शब्दार्थ-

(अस्मिन् चराचरे) इस जंगम स्थावर लोक में (या वेदविहिता हिंसा नियता) जो वेद विहित हिंसा नियत है, (अहिंसां एव तां विद्यात्) उसको अहिंसा ही समझना चाहिये। (वेदात् धर्मः हि निर्बभौ) वेद से ही धर्म उत्पन्न हुआ है।

वह हत्या जो वेद द्वारा अनुमोदित है, इस चर और अचर प्राणियों की दुनिया में शाश्वत है: इसे बिल्कुल भी हत्या नहीं माना जाना चाहिए; चूँकि वेद से ही धर्म प्रकाशित हुआ।(44)

मेधातिथि की टिप्पणी ( मनुभाष्य ):

वेदों में प्राणियों की हत्या का जो विधान किया गया है, वह इस चराचर और स्थावर प्राणियों के संसार में अनादि काल से चला आ रहा है । दूसरी ओर, जो तंत्र और अन्य हिंसा कार्यों में निर्धारित है वह आधुनिक है, और गलत प्रेरणा पर आधारित है। इसलिए केवल पहले वाले को ही 'कोई हत्या नहीं ' माना जाना चाहिए; और यह इस कारण से है कि इसमें दूसरी दुनिया के संदर्भ में कोई पाप शामिल नहीं है। जब इस हत्या को 'कोई हत्या नहीं' कहा जाता है।

तो यह केवल इसके प्रभावों को ध्यान में रखते हुए है, न कि इसके स्वरूप को ध्यान में रखते हुए (जो निश्चित रूप से हत्या का रूप है )।

अब प्रश्न बनता है।

“चूंकि दोनों कृत्य समान रूप से हत्या करने वाले होंगे ; उनके प्रभाव में अंतर कैसे हो सकता है ? ”

इसका उत्तर है—'क्योंकि वेद से ही धर्म प्रकाशित हुआ';—क्या वैध (सही) है और क्या अवैध (गलत) है इसका प्रतिपादन वेद से हुआ; मानवीय अधिकारी बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं हैं। और वास्तव में, वेद यह घोषित करता हुआ पाया जाता है कि कुछ मामलों में, हत्या कल्याण के लिए अनुकूल है। न ही रूप की कोई पूर्ण पहचान है (दोनों प्रकार की हत्याओं के बीच); क्योंकि सबसे पहले तो यह अंतर है कि, जहां एक बलिदान को पूरा करने के लिए किया जाता है, वहीं दूसरा पूरी तरह से व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए किया जाता है; और दूसरी बात आशय में भी अंतर है, अर्थात सामान्य हत्या या तो मांस खाने की इच्छा रखने वालों के द्वारा की जाती है, या उस प्राणी द्वारा (मारे गए प्राणी) से घृणा करने वाले द्वारा की जाती है, जबकि वैदिक हत्या इसलिए की जाती है क्योंकि मनुष्य सोचता है कि 'यह 'शास्त्रों द्वारा आदेश दिया गया है।'

आर्यसमाजीयों का मानना है। कि

यज्ञ में पशुवध वाममार्गियों ने सम्मिलित किया है। अन्यथा वेदों में तो यज्ञ के अर्थ में अध्वर शब्द आता है जिसका अर्थ यह है कि जिसमें कहीं हिंसा न हो " परन्तु गहन अध्ययन से विदित होता है। वेदों में भी हिंसक बलि प्रधान यज्ञ भौतिक उपलब्धियों के लिए कुछ लोगों द्वारा सम्पन्न किए जाते थे।

नीचे स्कन्द पुराण से कुछ सन्दर्भ उद्धृत किए जाते हैं।

स्कन्दपुराण -खण्ड ३ (ब्रह्मखण्डः)

      (प्रस्तुति- यादव योगेश रोहि-)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें