हमारे सनातन धर्म के किस काल में गौ मांस भक्षण की व्यवस्था थी?
बिल्कुल व्यवस्था थी, प्रमाण पढ़ों .........
१. ऋग्वेद १०-८६-१४ (इन्द्र देव का कथन 'यज्ञ करनेवाले यजमान मेरे लिए १५-२० बैल मारकर पकाते हैं, वह खाकर में ताकतवर हो जाता हूँ, वे मेरा पेट मद्य से भी भर देते हैं)
३. ऋग्वेद १०-२८-३ (हे इन्द्र देव, अत्रा कि कामनासे जिस वक्त आप के लिए हवन किया जाता हैं, उस वक्त यजमान पत्थरों पे जल्द से जल्द सोमरस तैयार करते हैं वह आप प्राशन करते हो, यजमान बैल का मांस पकाते हैं वो आप खाते हैं)
अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम् ।
पचन्ति ते वृषभाँ अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन्हूयमानः ॥३।
भाष्य:-
हे “इन्द्र “ते त्वदर्थं "मन्दिनः मादयितॄन् “तूयान् अविलम्बितान् सोमान् “अद्रिणा अभिषवग्राव्णा “सुन्वन्ति यजमाना अभिषुण्वन्ति । “एषाम् अस्मदादियजमानानां संबन्धिनः “सोमान् “त्वं “पिबसि । किंच त्वदर्थं “वृषभान् पशून ये च यजमानाः “पचन्ति “तेषां संबन्धिनो हविर्भूतान् पशून् “अत्सि भक्षयसि । हे “मघवन् धनवन्निन्द्र त्वं यदा “पृक्षेण हविर्भूतेनान्नेन निमित्तेन “हूयमानः यजमानैर्हूयसे तदेति पूर्वेण संबन्धः ॥
५. ऋग्वेद १०-७९-६ (जिसप्रकार तलवार गाय के टुकड़े करती हैं)
६. ऋग्वेद १०-९१-१४ (जिस में घोड़ा, बैल, वशा गाय, बकरा इ. का हवन किया गया उस अग्निपर थोड़ा मद्य छिड़ककर मै मन से उनका स्तवन करता हूँ)
७. ऋग्वेद १०-१६-९२ (जो गायें देवो के यज्ञ के लिए खुद को अर्पण कर देते हैं, जो गायें आहुति सोम जानती हैं, उन्ह गायों को हे इंद्र देव, दूध से परिपूर्ण और संतती युक्त बनाकर हमारे लिए गौशाला में भेज दो)
८. ऋग्वेद ६-१७-२७ (हे इंद्र देव, सम्पूर्ण मरुत गण सम्मिलित होकर स्प्रेताद्वारा आपको वचनबद्ध कराते हैं और आपके वजह से पूषा और विष्णू देव शेकडों भैसों का पाक बनाते हैं, उसीप्रकार तीन यात्राएं पूरी करने के लिए मादक और वृत्र नाशक ऐसा सोम उसमे डाल देते हैं)
९. ऋग्वेद १०-८६-१३ (हे वृषकपी पत्नी, आप धन से पूर्ण, गुणों से पूर्ण और सुन्दर सुपुत्रवती हैं. आपके बैलों का इंद्र देव भक्षण करें, आपकी प्यारी और सुखकारक चीजों का बलि का आप भक्षण करें, इन्द्रे देव सर्वश्रेष्ठ हैं)
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 86 के मन्त्र
वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे । घसत्त इन्द्र उक्षण: प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठवृषाकपायि । रेवति । सुऽपुत्रे । आत् । ऊँ इति । सुऽस्नुषे । घसत् । ते । इन्द्रः । उक्षणः । प्रियम् । काचित्ऽकरम् । हविः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.१३
[ वृषाकपि कहते हैं]: हे वृषाकपि की माता, हे धनवान, उत्तम पुत्रों वाली, उत्तम बहुओं वाली, हे इन्द्र को अपने बैलों का आहार दो, (उसे) प्रिय और सबसे मनोहर घी दो, इन्द्र सबसे ऊपर हैं (संसार से)।”
१०. ऋग्वेद ९-७९-४ (हे शोण, आपका परमअंश धुलोकात हैं, वहा से आपकी अंश पृथ्वीपर पर्वतोंपे गिर गये और उनके वृक्ष बन गये. बुद्धिमान लोग आपको हातों से चमड़ों के ऊपर पत्थर से रगड़ते हैं और पानी से धो डालते हैं)
११. ऋग्वेद ८-५-३८ (उन्ह वीर पुत्र नायकों कि संतती पृथ्वीपर जीवित हैं, मदद करनेवाले सारे उनके चारों दिशाए में हैं, वो चमड़े का इस्तेमाल करनेवाले हैं)
१२. ऋग्वेद ९-१० (सोमलता बेल का रस गाय के चमडिपर छानते हैं, पराक्रमी आदमी सोम शब्द का उच्चारण करके इंद्रपदपर विराजमान होता है)
१३. ऋग्वेद १०-१६-७ (हे मृतात्मा, तू धर्म के साथ अग्नि कि ज्वाला का कवच धारण कर. तू वपा और मांस से आच्छादित हो)
१४. ऋग्वेद १-१६२-३ (सभी देवताओं को काम आनेवाला बकरा, जगत्पोषक का ही अंश हैं, उसको शीघ्रगामी घोड़े के सामने लाया जाता हैं, इसलिए देवताओं के उत्कृष्ट भोजन के लिए घोड़े के साथ बकरे का मांस भी पकाना चाहिए)
१५. ऋग्वेद २-१२६-९ (घोड़ों का जो कच्चा मांस मक्खियां खाती हैं, काटने या साफ़ करते समय जो हत्यार को लगता हैं, या काटनेवालों के हात और नाख़ून से लगता हैं वो सब देवों के पास जाने दो)
१६. ऋग्वेद १-१६३-११ (हे घोड़ों, अग्नि में पकते वक्त तुम्हारे शरीर से जो रस निकलता हैं और उसका जो भाग हत्यार को चिपकके रहता हैं और मिट्टीमे गिर जाता हैं वो घास में मिश्रित ना हो जाए. देवता उसको खाने कि इच्छा कर रहे हैं, बलि का सारा भाग उनको ही मिले)
१७. ऋग्वेद १-१६-२ (घोड़ों को पकाते वक्त सारे सभी दिशाओं से देख रहे हैं, 'अच्छा सुगंध आ रहा हैं, देवों को अर्पण कीजिये' ऐसा जो कह रहे हैं, जो मांस भिक्षा कि कामना रखते हैं और वो मिलने के लिए उधर बैठे हुए हैं, उनका भाग भी हमें ही मिले).
१८. यजुर्वेद ३५-२० (पितरों के लिए आप ख़ास गाय का चमड़ा लेकर जाओ, उस ख़ास चमड़ी से निकलनेवाली वपा का प्रवाह पितरों कि तरफ बहता जाये और उन पितरों के लिए दान करने वालों कि सारी कामनाएं पूरी हो जाये).
भाषांतर / अनुवाद (डा. एस. एल. सागर).
ए॒ष च्छाग॑: पु॒रो अश्वे॑न वा॒जिना॑ पू॒ष्णो भा॒गो नी॑यते वि॒श्वदे॑व्यः। अ॒भि॒प्रियं॒ यत्पु॑रो॒ळाश॒मर्व॑ता॒ त्वष्टेदे॑नं सौश्रव॒साय॑ जिन्वति ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । छागः॑ । पु॒रः । अश्वे॑न । वा॒जिना॑ । पू॒ष्णः । भ॒गः । नी॒य॒ते॒ । वि॒श्वऽदे॑व्यः । अ॒भि॒ऽप्रिय॑म् । यत् । पु॒रो॒ळाश॑म् । अर्व॑ता । त्वष्टा॑ । इत् । ए॒न॒म् । सौ॒श्र॒व॒साय॑ । जि॒न्व॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष च्छाग: पुरो अश्वेन वाजिना पूष्णो भागो नीयते विश्वदेव्यः। अभिप्रियं यत्पुरोळाशमर्वता त्वष्टेदेनं सौश्रवसाय जिन्वति ॥
स्वर रहित पद पाठएषः। छागः। पुरः। अश्वेन। वाजिना। पूष्णः। भगः। नीयते। विश्वऽदेव्यः। अभिऽप्रियम्। यत्। पुरोळाशम्। अर्वता। त्वष्टा। इत्। एनम्। सौश्रवसाय। जिन्वति ॥ १.१६२.३
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