इस अध्याय में भगवान विष्णु के "वैष्णव वर्ण" तथा ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति के साथ-साथ दोनों वर्णों में प्रमुख अंतर और कुछ मूलभूत विशेषताओं के विषय में प्रकाश डाला गया है।।
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:- वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति -:
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ज्ञात हो कि- "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति श्री कृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। जिसमें केवल गोप आते हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु (श्रीकृष्ण ) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है। ४३।
इस सन्ध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से ही बताई गई है-
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं। वैष्णव वर्ण को ही पञ्चंमवर्ण कहा जाता है। पञ्चंमवर्ण के गोपों की उत्पत्ति सर्वप्रथम गोलोक में स्वराट विष्णु अर्थात श्री कृष्ण के रोम कूपों से हुई है। इस बात को इसके पिछले अध्याय- (चार) में बताया जा चुका है। वहां से विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।
इसके आगे अब हमलोग जानेंगे कि ब्रह्मा जी के "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति कैसे हुई।
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़ -: ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति :-
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सर्वविदित है कि देवो के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति हुई। इस बात की पुष्टि -विष्णु पुराण के प्रथमांश के छठे अध्याय के श्लोक - (६) से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम ।
पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१/६/६।
अनुवाद:-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।।६।
फिर इसी आधार पर ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र) में विभाजित हो गई। इस बात की पुष्टि पद्मपुराण सृष्टिखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या-(१३०) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम। पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१३०।
अनुवाद- पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।१३०।
इस संबंध में अत्रि संहिता का (१४०) वां श्लोक भी यही सूचित करता है कि -
"जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते॥१४०
अनुवाद:- ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हाेने वाला जन्म से ही 'ब्राह्मण' कहलाता है। फिर उपनयन संस्कार हाे जाने पर वह 'द्विज' कहलाता है और विद्या प्राप्त कर लेने पर वही ब्राह्मण 'विप्र' कहलाता है। इन तीनाें नामाें से युक्त हुआ ब्राह्मण 'श्राेत्रिय' कहा जाता है।१४०।
(विशेष:- श्रुति ( वेद) के ज्ञाता ब्राह्मण ही श्रोत्रिय कहलाता है।)
ज्ञात हो ब्रह्मा जी के इन चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए हुई। इस बात की पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया। ७
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान विष्णु से वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति हुई वहीं दूसरी तरफ ब्रह्मा जी से चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति हुई। अब इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए।
अब ऐसे में उत्पत्ति विशेष के कारण दोनों वर्णों में प्रमुख रूप से (४) प्रकार के युगलान्तर (भेद) देखने को मिलता है। जिसको क्रमशः बिन्दुवार दर्शाया गया है।
[१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
[२] कर्मकाण्ड एवं भक्ति मूलक अन्तर।
[३] भेदभाव एवं समता मूलक अन्तर।
[४] देव यज्ञ मूलक और ईश्वर भक्ति मूलक अन्तर।
जिसमें चारों प्रकार के अंतरों का विस्तार पूर्वक वर्णन नीचे किया गया हैं -
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[१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर
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(क) "ब्राह्मी वर्णव्यवस्था जन्म गत है"
ज्ञात हो कि-चातुर्वर्ण्य व्यवस्था- ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना है, जिसमें जन्म के आधार पर वर्ण -विभाजन की एक सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है।
रूढ़िवादी पुरोहितों की मान्यता है कि पूर्वजन्म के पुण्य- पाप कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्रों के घर में जन्म मिलता है।
यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं तो ब्राह्मण के घर में जन्म मिलेगा और बुरे कर्म किए हैं तो शूद्र के घर में जन्म मिलेगा। कर्मों के अच्छे-बुरे अनुपात से ही व्यक्ति को कभी वैश्य तो कभी क्षत्रिय के घर में जन्म मिलता है। पर ये सिद्धान्त दोषपूर्ण है- क्यों कि जन्म से व्यक्ति की महानता का निश्चय नहीं होता मानव जाति में मनुष्य के व्यक्तित्व ( व्यक्ति के बाह्य और आन्तरिक गुणों) का निर्माण उसका परिवेश और माता - पिता के आनुवांशिक विशेषताएँ करती हैं। यह तो समाज में प्रत्यक्ष देखा जाता है। कि सभी ब्राह्मण जन्म से ही सात्विक प्रवृत्ति वाले और ईश्वर चिन्तक नहीं होते हैं। ब्राह्मणों में बहुतायत लोग तामसिक व राजसी प्रवृत्ति वाले होते हैं। इसी प्रकार स्वयं को परम्परागत रूप से क्षत्रिय कहने वाले लोगों की सन्तान भी वीर तथा साहसी नहीं होती वैश्य और शूद्रों के विषय में इसी प्रकार कहा जा सकता है। हर समाज में हर तरह के व्यक्ति पैदा होते हैं। दो चार व्यक्तियों से ही आप किसी समाज की प्रवृत्तियों का निर्धारण नहीं किया जा सकता।
दूसरी बात यह कि व्यक्ति की प्रवृत्तियों का निर्धारण निश्चय ही व्यक्ति की वृत्ति (व्यवसाय) एवं उसके कर्म से होते हैं न कि जन्म से। कुछ प्रवृत्तियों के निर्धारण माता- पिता के आनुवांशिक गुणों तथा कुछ का पूर्वजन्म के कर्म- संस्कारों से होता है। इस लिए यह कहना महती मूर्खता है कि पूर्व जन्म के पाप और पुण्य कर्मों के अनुसार व्यक्ति को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के घर में जन्म मिलता है।
(ख) वैष्णवर्ण व्यवस्था का आधार जन्मगत नहीं कर्मगत है।
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के विपरीत वैष्णव वर्ण में गुण' प्रवृति (स्वभाव) और कर्म के आधार पर ही वर्ण- विभाजन की सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। यही सत्य और विज्ञान सम्मत है। क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता एक वैष्णव ग्रन्थ है जिसमें वर्ण व्यवस्था को कर्म गत माना है जन्म गत नहीं। इसकी पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता 4.13 से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।
मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा( इच्छा) नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह कभी कर्मोंसे नहीं बँधता। 4/13।
"इच्छाओं से प्रेरित कर्म ही फलदायी होते हैं। और उन अच्छे - बुरे फलों को भोगने के लिए पुनर्जन्म होता है। और यह जन्म व्यक्ति की इच्छा मूलक प्रवृतियों के अनुरूप विभिन्न योनियों ( शरीरों) में होता है। यही इस संसार का सनातन नियम है। भक्ति ज्ञान और कर्म योग के मध्य की अवस्था है। यह सच्चे अर्थों में निष्काम कर्मयोग है । अर्थात् ईश्वर का ईश्वर को समर्पित कर्म- श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश है। इसके लिए नीचे श्लोक- देखें।
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
भावार्थ:-
भगवान कृष्ण कहते हैं ! तेरा कर्म में ही अधिकार है उसके फल में नहीं। अर्थात् ( कर्म मार्ग में ) कर्म करते हुए तेरा फल में कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा( इच्छा ) होगी तो तू कर्मफलप्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफलप्राप्तिका कारण तू मत बन।
क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना( इच्छा) से प्रेरित होकर कर्म करने में लगता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है।
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[२] कर्मकाण्ड एवं भक्ति मूलक अन्तर
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(क)- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था पूरी तरह से कर्मकाण्डों पर
आधारित है। जिसमें कर्मकाण्ड एवं यज्ञ का विधान ब्राह्मण प्रधान चारों वर्णों के लिए ही है। इस बात को पूर्व में बताया जा चुका है कि- चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। जिसकी पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।। ७।।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में भक्ती-भजन की अपेक्षा कर्मकांडों एवं यज्ञों का विशेष महत्व होता है। इनके कर्मकाण्डी यज्ञों में सर्वप्रथम पशु बलि का प्रावधान इन्द्र के द्वारा किए गए यज्ञों से ही प्रारंभ हुआ था। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण /अध्यायः १४३ के प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें ऋषियों ने इंद्र से पूछा कि -
सूत उवाच।
ऋषय ऊचुः !
कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।
पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः।१
अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।
कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा।।२
औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।
प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।।३
वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः।
संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।।४
एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्-
"सूत उवाच!
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।। ५
दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।।६
यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।।७
सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।।८
आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।।९
य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये।।१०
अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।।११
***
विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।
अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।।१२
अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।।१३
***
आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।
विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।।१४
अनुवाद- १ से १४
ऋषियों ने पूछ— सूतजी ! पूर्वकालमें स्वायम्भुवमनुके कार्य कालमें त्रेतायुगके प्रारम्भ में किस प्रकार यज्ञ की प्रवृत्ति हुई थी ?
जब कृतयुगके साथ उसकी संध्या (तथा संध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुगकी संधि प्राप्त हुई।
उस समय वृष्टि होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्ता वृत्ति की स्थापना हो गयी। उसके बाद वर्णाश्रमकी स्थापना करके परम्परागत आये हुए मन्त्रोंद्वारा पुनः संहिताओं को एकत्र कर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई?
हम लोगोंके प्रति इसका यथार्थरूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजीने कहा 'आपलोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये ॥1- 14॥
एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः।
एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।१५
**
उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।।
तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणम्।
जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते।।१६
ते तु खिन्ना विवादेन शक्त्या युक्ता महर्षयः।
सन्धाय सममिन्द्रेण पप्रच्छुः खचरं वसुम्।। १७
अनुवाद- १५-१७
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! विश्वभोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने ऐह लौकिक तथा पारलौकिक कमों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया। उनके उस अश्वमेध यज्ञके आरम्भ होने पर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए। उस यज्ञ-कर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रियाको आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्निमें अनेकों प्रकारके हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, सामगान करनेवाले देवगण विश्वासपूर्वक ऊँचे स्वरसे सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वरसे मन्त्रोंका उच्चारण कर रहे थे।
पशुओंका समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवोंका आवाहन हो चुका था। जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे और जो प्रत्येक कल्पके आदिमें उत्पन्न होनेवाले अजानदेव थे, देवगण उनका यजन कर रहे थे।
इसी बीच जब यजुर्वेदके अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलिका उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्रसे पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञकी यह कैसी विधि है ? आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषासे जो जीव-हिंसा करनेके लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है।
सुरश्रेष्ठ! आपके यज्ञमें पशु हिंसाकी यह नवीन विधि दीख रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसाके व्याजसे धर्मका विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं।
यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो वेदविहित धर्मका अनुष्ठान कीजिये।
सुरश्रेष्ठ! वेदविहित विधिके अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्मके पालनसे यज्ञके बीजभूत त्रिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है। इन्द्र ! पूर्वकालमें ब्रह्माने इसीको महान् यज्ञ बतलाया है।' तत्त्वदर्शी ऋषियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी विश्वभोक्ता इन्द्रने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान और मोह से भरे हुए थे।
फिर तो इन्द्र और उन महर्षियों के बीच 'स्थावरों या जङ्गमोंमेंसे किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बातको लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ ।
यद्यपि वे महर्षि शक्तिसम्पन्न थे, तथापि उन्होंने उस विवाद से खिन्न होकर इन्द्र के साथ संधि करके (उसके निर्णयार्थ ) उपरिचर (आकाशचारी राजर्षि) वसुसे प्रश्न किया।१५-१७
"ऋषय ऊचुः।
महाप्राज्ञ! त्वया द्रृष्टः कथं यज्ञविधिर्नृप।
औत्तानपादे प्रब्रूहि संशयं नस्तुद प्रभो!।।१८
अनुवाद- ऋषियों ने पूछा— उत्तानपाद-नन्दन नरेश ! आप तो सामर्थ्यशाली एवं महान् बुद्धिमान् हैं। आपने किस प्रकार की यज्ञ विधि देखी है, उसे बतलाइये और हम लोगोंका संशय दूर कीजिये ।१८
"सूत उवाच।
श्रुत्वा वाक्यं वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम्।वेदशास्त्रमनुस्मृत्य यज्ञतत्त्वमुवाच ह।।१९
यथोपनीतैर्यष्टव्यमिति होवाच पार्थिवः।
यष्टव्यं पशुभिर्मेध्यैरथ मूलफलैरपि।।२०
हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमः।
तथैते भविता मन्त्रा हिंसालिङ्गामहर्षिभिः।।२१
दीर्घेण तपसा युक्तैस्तारकादिनिदर्शिभिः।
तत्प्रमाणं मया चोक्तं तस्माच्छमितुमर्हथ।।२२
यदि प्रमाणं स्वान्येव मन्त्रवाक्यानि वो द्विजाः!।
तथा प्रवर्त्ततां यज्ञो ह्यन्यथा मानृतं वचः।।२३
एवं कृतोत्तरास्ते तु युञ्ज्यात्मानं ततो धिया।
अवश्यम्भाविनं द्रृष्ट्वा तमधोह्यशपंस्तदा।।२४
इत्युक्तमात्रो नृपतिः प्रविवेश रसातलम्।
ऊद्र्ध्वचारी नृपो भूत्वा रसातलचरोऽभवत्।।२५
वसुधातलचारी तु तेन वाक्येन सोऽभवत्।
धर्माणां संशयच्छेत्ता राजा वसुधरो गतः।।२६
अनुवाद- १९-२६
सूतजी कहते हैं। उन ऋषियोंका प्रश्न ! सुनकर महाराज वसु उचित - अनुचितका कुछ भी विचार न कर वेद-शास्त्रों का अनुस्मरण कर यज्ञतत्त्वका वर्णन करने लगे। उन्होंने कहा- 'शक्ति एवं समयानुसार प्राप्त हुए पदार्थों से यज्ञ करना चाहिये।
पवित्र पशुओं और मूल फलोंसे भी यज्ञ किया जा सकता है।
मेरे देखने में तो ऐसा लगता है कि हिंसा यज्ञका स्वभाव ही है। इसी प्रकार तारक आदि मन्त्रोंके ज्ञाता उग्रतपस्वी महर्षियोंने हिंसासूचक मन्त्रोंको उत्पन्न किया है।
उसी को प्रमाण मानकर मैंने ऐसी बात कही है, अतः आपलोग मुझे क्षमा कीजियेगा। द्विजवरो! यदि आप लोगों को वेदों के मन्त्रवाक्य प्रमाणभूत प्रतीत होते हों तो यही कीजिये, अन्यथा यदि आप वेद-वचनको झूठा मानते हों तो मत कीजिये।' वसु-द्वारा ऐसा उत्तर पाकर महर्षियनि अपनी बुद्धिसे विचार किया और अवश्यम्भावी विषयको जानकर राजा वसुको विमानसे नीचे गिर जानेका तथा पातालमें प्रविष्ट होनेका शाप दे दिया।
ऋषियोंकि ऐसा कहते ही राजा वसु रसातलमें चले गये। इस प्रकार जो राजा वसु एक दिन आकाशचारी थे, वे रसातलगामी हो गये। ऋषियोंके शापसे उन्हें पातालचारी होना पड़ा। धर्मविषयक संशयोंका निवारण करने वाले राजा वसु इस प्रकार अधोगतिको प्राप्त हुए।१९-२६
तस्मान्नवाच्यो ह्येकेन बहुज्ञेनापि संशयः।
बहुधारस्य धर्म्मस्य सूक्ष्मा दुरनुगागातिः।।२७
तस्मान्न निश्चयाद्वक्तुं धर्म्मः शक्तो हि केनचित्।देवानृषीनुपादाय स्वायम्भुवमृते मनुम्।।२८
तस्मान्न हिंसा यज्ञे स्याद्यदुक्तमृषिभिः पुरा।ऋषिकोटिसहस्राणि स्वैस्तपोभिर्दिवङ्गताः।।२९
तस्मान्न हिंसा यज्ञञ्च प्रशंसन्ति महर्षयः।
उञ्छो मूलं फलं शाकमुदपात्रे तपोधनाः।।३०
एतद्दत्वा विभवतः स्वर्गलोके प्रतिष्ठिताः।
अद्रोहश्चाप्यलोभश्च दमोभूतदया शमः।।३१
ब्रह्मचर्यं तपः शौचमनुक्रोशं क्षमा धृतिः।
सनातनस्य धर्म्मस्य मूलमेव दुरासदम्।।३२
द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।३३
ब्रह्मणः कर्म्मसंन्यासाद् वैराग्यात्प्रकृतेर्लयम्।
ज्ञानात् प्राप्नोति कैवल्यं पञ्चैता गतयः स्मृताः।।३४
अनुवाद- २७-३४
इसलिये बहुज्ञ (अत्यन्त विद्वान्) होते हुए भी अकेले किसी धार्मिक संशय का निर्णय नहीं करना चाहिये; -क्योंकि अनेक द्वार (मार्ग) वाले धर्मकी गति अत्यन्त सूक्ष्म और दुर्गम है। अतः देवताओं और ऋषियोंके साथ-साथ, स्वायम्भुव मनुके अतिरिक्त अन्य कोई भी अकेला व्यक्ति धर्म के विषयमें निश्चयपूर्वक निर्णय नहीं दे सकता। इसलिये पूर्वकालमें जैसा ऋषियोंने कहा है, उसके अनुसार यज्ञ में जीव- हिंसा नहीं होनी चाहिये।
हजारों करोड़ ऋषि अपने तपोबलसे स्वर्गलोकको गये हैं। इसी कारण महर्षिगण हिंसात्मक यज्ञकी प्रशंसा नहीं करते।
वे तपस्वी अपनी सम्पत्तिके अनुसार उच्छवृत्तिसे प्राप्त हुए अन्न, मूल, फल, शाक और कमण्डलु आदिका दान कर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित हुए हैं। ईर्ष्याहीनता, निर्लोभता, इन्द्रियनिग्रह, जीवोंपर दयाभाव, मानसिक स्थिरता, ब्रह्मचर्य, तप, पवित्रता, करुणा, क्षमा और धैर्य— ये सनातन धर्मके मूल ही हैं,
जो बड़ी कठिनता से प्राप्त किये जा सकते हैं। यज्ञ द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं और तपस्याकी सहायिका समता है। यज्ञोंसे देवताओंकी तथा तपस्यासे विराट् ब्रह्मकी प्राप्ति होती है।
कर्म (फल) का त्याग कर देनेसे ब्रह्म-पदकी प्राप्ति होती है, वैराग्यसे प्रकृतिमें लय होता है और ज्ञानसे कैवल्य (मोक्ष) सुलभ हो जाता है। इस प्रकार ये पाँच गतियाँ बतलायी गयी हैं। २७-३४
कृ प उ
एवं विवादः सुमहान् यज्ञस्यासीत् प्रवर्त्तते।
ऋषीणां देवतानाञ्च पूर्वे स्वायम्भुवेऽन्तरे।।३५
ततस्ते ऋषयो द्रृष्ट्वा हृतं धर्मं बलेन ते।
वसोर्वाक्यमनाद्रृत्य जग्मुस्ते वै यथागतम्।।३६
गतेषु ऋषिसङ्घेषु देवायज्ञमवाप्नुयुः।
श्रूयन्ते हि तपः सिद्धा ब्रह्मक्षत्रादयो नृपाः।।३७
प्रियव्रतोत्तानपादौ ध्रुवो मेधातिथिर्वसुः।
सुधामा विरजाश्चैव शङ्कपाद्राजसस्तथा।।३८
प्राचीनबर्हिः पर्ज्जन्यो हविर्धानादयो नृपाः।
एते चान्ये च बहवस्ते तपोभिर्दिवङ्गताः।।३९
राजर्षयो महात्मानो येषां कीर्त्तिः प्रतिष्ठिताः।तस्माद्विशिष्यते यज्ञात्तपः सर्वैस्तु कारणैः।।४०
ब्रह्मणा तपसा सृष्टं जगद्विश्वमिदं पुरा।
तस्मान्नाप्नोति तद्यज्ञात्तपो मूलमिदं स्मृतम्।।४१
यज्ञप्रवर्तनं ह्येवमासीत् स्वायम्भुवेऽन्तरे।
तदा प्रभृति यज्ञोऽयं युगैः सार्द्धं प्रवर्तितः।।४२
अनुवाद- ३५- ४२
पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञकी प्रथा प्रचलित होनेके अवसरपर देवताओं और ऋषियोंके बीच इस प्रकारका महान् विवाद हुआ था। तदनन्तर जब ऋषियोंने यह देखा कि यहाँ तो बलपूर्वक धर्मका विनाश किया जा रहा है, तब वसुके कथनकी उपेक्षा कर वे जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। उन ऋषियोंके चले जानेपर देवताओंने यज्ञकी सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं।
इसके अतिरिक्त इस विषयमें ऐसा भी सुना जाता है कि बहुतेरे ब्राह्मण तथा क्षत्रियनरेश तपस्याके प्रभावसे ही सिद्धि प्राप्त की थी। प्रियव्रत उत्तानपाद, ध्रुव, मेधातिथि, वसु, सुभामा, विरजा, शङ्खपाद, राजस प्राचीनवर्हि, पर्जन्य और हविधान आदि नृपतिगण तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से नरेश तपोबलसे स्वर्गलोक को प्राप्त हुए हैं, जिन महात्मा
राजर्षियोंकी कीर्ति अबतक विद्यमान है अतः तपस्या सभी कारणों से सभी प्रकार यज्ञ से बढ़कर है।
पूर्वकालमें ब्रह्माने तपस्याके प्रभावसे ही इस सारे जगत्को सृष्टि की थी, अतः यज्ञ द्वारा वह बल नहीं प्राप्त हो सकता। उसकी प्राप्ति का मूल कारण तप ही कहा गया है। इस प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञ की प्रथा प्रारम्भ हुई थी। तबसे यह यज्ञ सभी युगों के साथ प्रवर्तित हुआ। ३५-४२
अतः मत्स्यपुराण के उपरोक्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है कि इंद्र के सारे यज्ञ पशु बलि पर ही आधारित थे। जो पशुपालकों के लिए बहुत बड़ी समस्या थी। इसी कारण से गोपालक भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी थी। क्योंकि इंद्र के यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती थी। इसके विकल्प में भगवान श्रीकृष्ण गोवर्धन पूजा का सूत्रपात किया और स्पष्ट रूप से उद्घोषणा किया कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों द्वारा देवों को प्रसन्न किया जाता हो ऐसी देव पूजा व्यर्थ है। क्योंकि भगवान की उपासना में प्रेम और अपनेपन की प्रधानता होती है किसी पूजन विधि या कर्मकाण्ड की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही या पाखण्ड ग्राही नहीं हैं। इस बात को निम्नलिखित तरीके से बताया गया है कि -
(ख) वैष्णव वर्णव्यवस्था- भक्तिमूलक है -
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राजर्षियोंकी कीर्ति अबतक विद्यमान है अतः तपस्या सभी कारणों से सभी प्रकार यज्ञ से बढ़कर है।
पूर्वकालमें ब्रह्माने तपस्याके प्रभावसे ही इस सारे जगत्को सृष्टि की थी, अतः यज्ञ द्वारा वह बल नहीं प्राप्त हो सकता। उसकी प्राप्ति का मूल कारण तप ही कहा गया है। इस प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञ की प्रथा प्रारम्भ हुई थी। तबसे यह यज्ञ सभी युगों के साथ प्रवर्तित हुआ। ३५-४२
अतः मत्स्यपुराण के उपरोक्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है कि इंद्र के सारे यज्ञ पशु बलि पर ही आधारित थे। जो पशुपालकों के लिए बहुत बड़ी समस्या थी। इसी कारण से गोपालक भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी थी। क्योंकि इंद्र के यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती थी। इसके विकल्प में भगवान श्रीकृष्ण गोवर्धन पूजा का सूत्रपात किया और स्पष्ट रूप से उद्घोषणा किया कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों द्वारा देवों को प्रसन्न किया जाता हो ऐसी देव पूजा व्यर्थ है। क्योंकि भगवान की उपासना में प्रेम और अपनेपन की प्रधानता होती है किसी पूजन विधि या कर्मकाण्ड की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही या पाखण्ड ग्राही नहीं हैं। इस बात को निम्नलिखित तरीके से बताया गया है कि -
(ख) वैष्णव वर्णव्यवस्था- भक्तिमूलक है -
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यज्ञ गोपों के लिए विहित कर्म नहीं है क्यों की गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति (निश्चल भाव से आत्म समर्ण-पूर्वक ईश्वर का भजन एवं संकीर्तन करते हैं। गोप वैष्णव हैं यही वैष्णवों का परम कर्तव्य हैं। इस संबंध में वैष्णवों का मानना है कि कर्म- काण्डों से न तो किसी को कोई आत्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और नाहीं संसार से किसी की मुक्ति। क्योंकि परमेश्वर किसी नैवेद्य- का आकाँक्षी नहीं है। नैवेद्य तो देवों के लिए ही होता है। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृति खण्डः-अध्याय (३) एवं देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः (९)/अध्यायः (३) से होती है। जिसको श्लोक सहित नीचे उद्धरित किया गया है -
"मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै विभुः।
श्रूयतां तद् ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते ॥२८॥
"प्रतिविश्वं यन्नैवेद्यं ददाति वैष्णवो जनः ।
तत्षोडशांशो विषयिणो विष्णोः पज्वदशास्य वै॥२९॥
"निर्गुणस्य आत्मनः च एव परिपूर्णतमस्य च ।
नैवेद्येन च कृष्णस्य न हि किञ्चिद् प्रयोजनम् ।।३०।।
"यद्यद्ददाति नैवेद्यं तस्मै देवाय यो जनः ।
स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीनाथो विराट् तथा॥ ३१॥
"अनुवाद- २८-२९, ३०-३१
• मन्त्र देकर प्रभु ने उसके आहार की भी व्यवस्था की। हे ब्रह्मपुत्र उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ। प्रत्येक लोक में वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् विष्णु का होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुष के होते हैं ।।२८-२९॥
• उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उन प्रभुको जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे वे लक्ष्मीनाथ विराट् पुरुष ही ग्रहण करते हैं ॥३०-३१॥
ज्ञात हो कि- वैष्णव भक्तों के लिए परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल एवं आसान है। इस संबंध में भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में कहते हैं कि -
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।। २६
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खा लेता हूं अर्थात स्वीकार कर लेता हूं। २६
व्याख्या - देवताओं की उपासना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परंतु भगवान (श्री कृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेमकी,अपनेपन की प्रधानता है, विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही नहीं।
दूसरी बात यह कि वैष्णव भक्त इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि किसकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए किसकी नहीं।
इस संबंध में गोपेश्वर श्रीकृष्ण गीता के अध्याय- ७ के श्लोक - २३ में कहें हैं कि -
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।। २३
अनुवाद - तुक्ष बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अंत वाला (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। २३।
ऐसी ही बात श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ९ के श्लोक संख्या- २५ में भी लिखी गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।। २५
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।
अतः गीता तथा देवी भागवत पुराण और ब्रह्मावर्त पुराण इत्यादि के उपरोक्त सभी श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि है कि- वैष्णव वर्ण पूर्णतः भक्तिमूलक विचारधारा है जिसमें कर्मकाण्ड एवं पाखण्डवाद के लिए कोई स्थान नहीं है।
मत्स्य पुराण में यज्ञ और भक्ति का पृथक पृथक फल बताया गया है -
द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।143.33।।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।143.33।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय-(4/28)
"द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।28।
व्याख्या :- इस प्रकार बहुत सारे संयमी पुरुष हैं, जो द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ व ज्ञानयज्ञ आदि व्रतों का अनुशासित रूप से पालन करते हैं ।28।
विशेष :- इस श्लोक में यज्ञ के पाँच भेद बताऐ गये हैं :-
द्रव्ययज्ञ :-द्रव्य का अर्थ पदार्थ होता है, इसलिए समाज या लोकहित के लिए सांसारिक साधनों को उपलब्ध करवाना द्रव्य यज्ञ कहलाता है । जैसे- जरूरतमंदों को भोजन, वस्त्र व दवाईयाँ आदि उपलब्ध करवाना ।
तपोयज्ञ :- सभी प्रकार की अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों को सहजता से सहन करते हुए कर्तव्य का पालन करना ही तपोयज्ञ कहलाता है।
योगयज्ञ :- योग साधना द्वारा शरीर व मन पर नियंत्रण पाकर, मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होना योगयज्ञ कहलाता है ।
स्वाध्याय यज्ञ :- मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय यज्ञ कहलाता है ।
ज्ञानयज्ञ :- विवेक व वैराग्य आदि सदगुणों का पालन करते हुए साधना मार्ग पर निरन्तर बढ़ते रहना ज्ञानयज्ञ कहलाता है।
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