द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।३३।
(मत्स्यपुराण/अध्यायः १४३ -)
अनुवाद- द्रव्ययज्ञ और मन्त्रयज्ञ दोनों तप की समता के हैं। यज्ञों से देवताओं की प्राप्ति होती है तथा तपस्या से विराट् ब्रह्म (परमेश्वर - स्वराट् विष्णु ) की प्राप्ति होती है।३३।
यज्ञ के अवसर पर देवों को लक्ष्य करके पशुओं की बलि चढ़ाने का विधान वर्णन कूर्मपुराण-उत्तरभाग के अध्याय (१७) के श्लोक (३६- से ४१) में भी है कि -
"मत्स्यान् स शल्कान् भुञ्जीयान् मासम् रौरवम् एव च। निवेद्य देवताभ्यः तु ब्राह्मणेभ्यः तु न अन्यथा ।३६।
अनुवाद:-शल्क मछली और रूरूमृग( काले हिरन) का मांस देवता और ब्राह्मणों को समर्पित करने योग्य ( नैवेद्य) के रूप में भोग कराना चाहिए ।३६।
मयूरं तित्तिरं चैव कपोतं च कपिञ्जलम्।
वाध्रीणसं वकं भक्ष्यं मीनहंसपराजिता:।। ३७।।
अनुवाद:- मोर ,तीतर और इसी प्रकार कबूतर चातक/ पपीहा( कपिञ्जल) गैंडा, बगुला, मछली हंस सभी शिकार किए हुए खाने योग्य हैं।३७।
शफरम् सिंहतुण्डम् च तथा पाठीनरोहितौ ।
मत्स्याः च एते समुद्दिष्टा भक्षणाय द्विजोत्तमाः ।।३८।।
अनुवाद,:- शफरी-मछली तथा सिंहतुण्ड( शेर जेैसे तुण्ड-वाली एक प्रकार की मछली पाठीन -पढिना नाम की मछली, रोहित मछली ये भी खाने के लिए बतायी गयीं है।३८।
प्रोक्षितं भक्षयेदेषां मांसं च द्विजकाम्यया।
यथाविधि नियुक्तं च प्राणानामपि चात्यये।।३९।।
अनुवाद :- धो- पौंछ कर ही ब्राह्मण को मांस इच्छानुसार खाना चाहिए। शास्त्र-विधि के अनुसार शिकार किए गये प्राणी के प्राण निकल जाने पर ही उसके मांस का भक्षण करना चाहिए ।३९।।
भक्षयेन्नैव मांसानि शेषभोजी न लिप्यते।
औषधार्थमशक्तौ वां नियोगाद् यजकारणात्।। ४०।।
अनुवाद:- यज्ञ के पश्चात बचा हुआ मांस खाकर व्यक्ति पाप से लिप्त नहीं होता है। औषधि रूप में कोई अशक्त ( कमजोर ) व्यक्ति हो तो उसको भी माँस खाना चाहिए ।४०।
आमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे दैवे वा मांसमूत्सृजेत ।
यावन्ति पशुरोमाणि तावतो नरकान् व्रजेत् ॥४१॥
अनुवाद:-
पितरों के श्राद्ध अथवा देवों के यज्ञ में आमन्त्रित व्यक्ति मांस को नहीं खाता है तो वह उतने समय तक नरक में रहता है। जितने रोम (रोंगटे) एक पशु के शरीर पर होते हे।४१।।
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