बुधवार, 15 मई 2024

सुरा-

असुर शब्द को दो प्रकार से परिभाषित किया गया है :—

असु नाम की शुभङ्कर शक्ति से युक्त असु + र; ऋग्वेद में असुर शब्द इस अर्थ में है, एवं इन्द्र, वरुण, आदि ऋग्वेदिक देवताओं को भी असुर की उपाधि से विभूषित किया गया है।

असुर शब्द को जो अ+सुर; अर्थात जो सुर न हो इस अर्थ में भी वर्णन किया गया है। पौराणिक विहङ्गम में यही मुख्य अर्थ है।

असुर शब्द की व्युत्पत्ति की विस्तृत व्याख्या इस आलेख में उपलब्ध है।

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अरविन्द व्यास
 · 2वर्ष
क्या यह सच है कि वैदिक काल के हमारे पूर्वजों द्वारा सुर और असुर दोनों को आहुति दिया जाता था? यदि हाँ, तो असुरों को बुरे लोगों के रूप में क्यों चित्रित किया जाता है?
असुरों को वैदिक विहङ्गम में शुभ शक्ति माना गया है, किन्तु कुछ स्थानों पर वेदों में असुर देव-विरोधी भी हैं। यह असुर शब्द की व्युत्पत्ति तथा भेद से समझा जा सकता है। असुर को किस प्रकार परिभाषित किया जाता है उससे यह अन्तर स्पष्ट हो सकता है। असुर = असु + मद्गुरादयश्चेति उरच्। अथवा असुर = सुर विरोधी। मेरा मूल लेख यहाँ इस शब्द के पूर्ण विश्लेषण के लिए उद्धृत है : असुर का आध्यात्मिक स्वरूप दैत्य, आदित्य, दानव, देव, असुर, सुर आदि आध्यात्मिक विभूतियाँ हैं। इनके विवरण की लेख-शृङ्खला में यह प्रथम लेख असुर के मूल स्वरूप तथा शब्द-व्युत्पत्ति को स्पष्ट करने का प्रयास है। व्युत्पत्ति असुर शब्द की व्युत्पत्ति भारोपीय मूल के शब्द *h₂émsus से परिकल्पित है। यह मूल *h₂ems- से सम्बन्धित शब्द है। इसका अर्थ एक दैवीय विभूति है। इससे सम्बन्धित शब्द हैं : * हित्ताइत : 𒈗𒍑 (ह-अश-शू-उश – राजा) * अवेस्तन : 𐬀𐬵𐬎‎ (अहु – ईश्वर), 𐬀𐬢𐬵𐬎 (अन्हू – अस्तित्व, ईश्वर, जीवन), 𐬀𐬵𐬎𐬭𐬀 (अहूर) * यूराली भाषाओं में:एर्ज्या : азоро (अज़ोरो)मोक्शा : азор (अज़ोर)कोमी : озыр (ओज़र)उद्मुर्त : узыр (उज़्र) * संस्कृत : असुर, असु * जर्मानिक शाखा में * पुरानी नोर्स: æsir (ऍसिर = देवताओं की एक श्रेणी; यह शक्ति तथा युद्ध के देव उदार तथा कृपा हैं)फारोइज : ásur (असुर)आइसलैंडिक, नॉर्वेजियन, स्वीडिश, डेनिश, आयरिश : ás, as (अस)फिनिश : aasa (आसा) अतः पुराने भारोपीय धर्मों में असुर एक शुभङ्कर शक्ति मानी जाती थी। ऋग्वेद में असुर ऋग्वेद में असुर का मूल असु से है, जिसे पञ्चप्राण का समानार्थक माना गया है, यह ऋग्वेद में आध्यात्मिक लोक के रूप में वर्णित है। असु का अर्थ प्रज्ञा, भावना, मन, विचार, जल, ताप, सांसारिक सुख आदि भी है। असु, क्ली, (अस्यतेऽनेन । अस् + उ ।) चित्तं । उपतापः । इत्युणादिकोषः ॥ असुः, पुं, (अस्यन्ते इति । अस् + उ ।) प्राणः पञ्चप्राणेषु बहुवचनान्तः । असवः । इत्यमरः ॥ (“तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति” । इति नीतिशतके । ९९ श्लोकः ।) – कल्पद्रुमः वाचस्पत्यम् के अनुसार असु को धारण करना जीवन तत्त्व है। असुधारण¦ न॰ असूनां प्राणादिपञ्चवायुवृत्तीनां धारणम्। जीवने। – वाचस्पत्यम् इसी आधार पर ऋग्वेद में असु-नीति को धारण करने की कामना की गई है। असुनीते मनो अस्मासु धारय जीवातवे सु प्र तिरा न आयुः । रारन्धि नः सूर्यस्य संदृशि घृतेन त्वं तन्वं वर्धयस्व ॥५॥ – ऋग्वेदः १०.५९.५ इससे रचा है असुर = असु + मद्गुरादयश्चेति उरच्। (अष्टाध्यायी दन्त उन्नत उरच्)। अतः असुर का अर्थ जो आध्यात्मिक हो, प्राण देने वाला हो। इसी अर्थ में ऋग्वेद में सूर्य, वरुण (१० बार असुर कहा गया), इन्द्र (९ सूक्तों में असुर कहा गया तथा ५ बार आसूर्य, एक बार असुरत्व वाला), अग्नि (१२ बार असुर कहा गया), रुद्र (६ बार असुर कहा गया), मित्र (८ बार असुर कहा गया) आदि को असुर कहा गया है। यथा सवित्र (सूर्य का एक रूप) के लिए असुर का प्रयोग : हिरण्यहस्तो असुरः सुनीथः सुमृळीकः स्ववाँ यात्वर्वाङ् । अपसेधन्रक्षसो यातुधानानस्थाद्देवः प्रतिदोषं गृणानः ॥१०॥ – ऋग्वेदः सूक्तं १.३५ मित्र तथा वरुण के लिए देवताओं तथा असुरों के सम्राट का सम्बोधन : महान्ता मित्रावरुणा सम्राजा देवावसुरा । ऋतावानावृतमा घोषतो बृहत् ॥४॥ – ऋग्वेदः सूक्तं ८.२५ असुर का यही अर्थ फ़ारस में अहूर के रूप में गया है। इस शब्द को अ + सुर; जो सुर न हो, सुर-विरोधी हो इस अर्थ में उत्तर-वैदिक काल में तथा पौराणिक कथाओं में लिया गया है। जैसे ऋग्वेद काल में ही अग्नि को असुरों का त्याग कर देवताओं का साथ देने का आह्वान हुआ है। वही इच्छा वरुण से भी व्यक्त की गई है। पश्यन्नन्यस्या अतिथिं वयाया ऋतस्य धाम वि मिमे पुरूणि । शंसामि पित्रे असुराय शेवमयज्ञियाद्यज्ञियं भागमेमि ॥३॥ बह्वीः समा अकरमन्तरस्मिन्निन्द्रं वृणानः पितरं जहामि । अग्निः सोमो वरुणस्ते च्यवन्ते पर्यावर्द्राष्ट्रं तदवाम्यायन् ॥४॥ निर्माया उ त्ये असुरा अभूवन्त्वं च मा वरुण कामयासे । ऋतेन राजन्ननृतं विविञ्चन्मम राष्ट्रस्याधिपत्यमेहि ॥५॥ – ऋग्वेदः सूक्तं १०.१२४ ज्ञात रहे कि अग्नि का पारसी धर्म में बहुत महत्व है एवं अहूरमाज्दा (𐬀𐬵𐬎𐬭𐬀 𐬨𐬀𐬰𐬛𐬁) का एक नाम वरुन भी है। इससे प्रतीत होता है कि असुर वैदिक परम्परा में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते थे, किन्तु सुर तथा असुरों के अनुयायियों में युद्ध के पश्चात वैदिक संस्कृति में असुर देवों के शत्रु रूप में ही देखे जाने लगे। असुरः, पुं, स्त्री, (अस्यति देवान् क्षिपति इति । असं + उरन् । यद्वा न सुरः विरोधे नञ्तत्- पुरुषः । यद्वा नास्ति सुरा यस्य सः । सूर्य्यपक्षे असति दीप्यते इति उरन् ।) सुर विरोधी । – कल्पद्रुम: यह वैदिक काल में देवता ही माने जाते थे, इसका प्रमाण हमें अमरकोश से मिलता है, जिसमें इनके पूर्वकाल में देव होने को असुर के समानार्थक शब्दों में विस्तरण किया गया है : असुरा दैत्यदैतेयदनुजेन्द्रारिदानवाः। शुक्रशिष्या दितिसुताः पूर्वदेवाः सुरद्विषः॥ – अमरकोशः १.१.१२.१.१ असु का एक अर्थ सांसारिक सुख है, तथा असुरों को इसी का भोग करने वाला मान कर उन्हें पूजन योग्य नहीं समझा जाता है। तथा देवताओं के असु के आध्यात्मिक एवं उनके विरोधियों के असु के सांसारिक भाव पर ध्यान देने से सुरों तथा असुरों का विरोध है। छान्दोग्य उपनिषद के प्रथम अध्याय के दूसरे खण्ड में देव तथा असुर दोनों प्रजापति से आत्मन् का स्वरूप जानने के लिए जाते हैं तथा इस सीखने में असुर शरीर (सांसारिक भूति) को ही आत्मन् मान लेता है। देवासुरा ह वै यत्र संयेतिरे उभये प्राजापत्यास्तद्ध देवा उद्गीथमाजह्रुरनेनैनानभिभविष्याम इति ॥ १ ॥ ते ह नासिक्यं प्राणमुद्गीथमुपासांचक्रिरे तँ हासुराः पाप्मना विविधुस्तस्मात्तेनोभयं जिघ्रति सुरभि च दुर्गन्धि च पाप्मना ह्येष विद्धः ॥ २ ॥ अथ ह वाचमुद्गीथमुपासांचक्रिरे ताँ हासुराः पाप्मना विविधुस्तस्मात्तयोभयं वदति सत्यं चानृतं च पाप्मना ह्येषा विद्धा ॥ ३ ॥ अथ ह चक्षुरुद्गीथमुपासांचक्रिरे तद्धासुराः पाप्मना विविधुस्तस्मात्तेनोभयं पश्यति दर्शनीयं चादर्शनीयं च पाप्मना ह्येतद्विद्धम् ॥ ४ ॥ अथ ह श्रोत्रमुद्गीथमुपासांचक्रिरे तद्धासुराः पाप्मना विविधुस्तस्मात्तेनोभयँ शृणोति श्रवणीयं चाश्रवणीयं च पाप्मना ह्येतद्विद्धम् ॥ ५ ॥ अथ ह मन उद्गीथमुपासांचक्रिरे तद्धासुराः पाप्मना विविधुस्तस्मात्तेनोभयँसंकल्पते संकल्पनीयं चासंकल्पनीयं च पाप्मना ह्येतद्विद्धम् ॥ ६ ॥ अथ ह य एवायं मुख्यः प्राणस्तमुद्गीथमुपासांचक्रिरे तँहासुरा ऋत्वा विदध्वंसुर्यथाश्मानमाखणमृत्वा विध्वँसेतैवम् ॥ ७ ॥ यथाश्मानमाखणमृत्वा विध्वँसत एवँ हैव स विध्वँसते य एवंविदि पापं कामयते यश्चैनमभिदासति स एषोऽश्माखणः ॥ ८ ॥ नैवैतेन सुरभि न दुर्गन्धि विजानात्यपहतपाप्मा ह्येष तेन यदश्नाति यत्पिबति तेनेतरान्प्राणानवति एतमु एवान्ततोऽवित्त्वोत्क्रमति व्याददात्येवान्तत इति ॥ ९ ॥ तँ हाङ्गिरा उद्गीथमुपासाञ्चक्र एतमु एवाङ्गिरसं मन्यन्तेऽङ्गानां यद्रसः ॥ १० ॥ तेन तँह बृहस्पतिरुद्गीथमुपासञ्चक्र एतमु एव बृहस्पतिं मन्यन्ते वाग्घि बृहती तस्या एष पतिः ॥ ११ ॥ तेन तँहायास्य उद्गीथमुपासाञ्चक्र एतमु एवायास्यं मन्यन्त आस्याद्यदयते ॥ १२ ॥ तेन तँह बको दाल्भ्यो विदाञ्चकार । स ह नैमिशीयानामुद्गाता बभूव स ह स्मैभ्यः कामानागायति ॥ १३ ॥ आगाता ह वै कामानां भवति य एतदेवं विद्वानक्षरमुद्गीथमुपास्त इत्यध्यात्मम् ॥ १४ ॥ – ॥छान्दोग्योपनिषद् अध्यायः १ द्वितीयः खण्डः ॥ प्रजापति की से प्राप्त एक ही समान शिक्षा के विपरीत अर्थ निकालने से देवताओं तथा असुरों में मतभेद होने को सांकेतिक रूप से इनके अनुयायियों के मतभेद के रूप में तथा इसकी दशराज्ञ युद्ध में परिणति होने के उपरान्त देवों का असुर के रूप में महिमामण्डन समाप्त हुआ, तथा इन असुरों के अनेक अनुयायियों ने भारत भूमि छोड़ दी। सामवेदीय जैमिनीय (तलवकार) उपनिषद ब्राह्मण में असुरम् को “जो असु (प्राण) में रमता हो” के रूप में विवरण दिया गया है। पतङ्गमक्तमसुरस्य मायया हृदा पश्यन्ति मनसा विपश्चितः समुद्रे अन्तः कवयो वि चक्षते मरीचीनां पदमिच्छन्ति वेधस इति (१) पतङ्गमक्तमिति प्राणो वै पतङ्गः पतन्निव ह्येष्वङ्गेष्वति रथमुदीक्षते पतङ्ग इत्याचक्षते (२) असुरस्य माययेति मनो वा असुरं तद्ध्यसुषु रमते तस्यैष माययाक्तः (३) हृदा पश्यन्ति मनसा विपश्चित इति हृदैव ह्येते पश्यन्ति यन्मनसा विपश्चितः (४) समुद्रे अन्तः कवयो वि चक्षत इति पुरुषो वै समुद्र एवंविद उ कवयः त इमां पुरुषेऽन्तर्वाचं विचक्षते (५) मरीचीनां पदमिच्छन्ति वेधस इति मरीच्य इव वा एता देवता यदग्निर्वायुरादित्यश्चन्द्र माः (६) न ह वा एतासां देवतानां पदमस्ति पदेनो ह वै पुनर्मृत्युरन्वेति (७) तदेतदनन्वितं साम पुनर्मृत्युना अति पुनर्मृत्युं तरति य एवं वेद (८) ॥३५॥ – जैमिनीयोपनिषद्ब्राह्मणम्अध्यायः ३ षष्ठेऽनुवाके सप्तमः खण्डः अतः असुर का अर्थ इस शब्द के शुभ रूप में आरम्भ हुआ तथा यह देवताओं के लिए भी प्रयोग किया जाता है। किन्तु कुछ असुरों के सुर-विरोधी होने से यह शब्द “जो सुर न हो” के अर्थ में रूढ हो गया।

वर्तमान समय में असुर शब्द को सुरों के विरोधी के अर्थ में ही सीमित कर दिया गया है।

इस आलेख में शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर दैत्यों तथा दानवों को भी देने वाले की रूप में; तथा राक्षसों की रक्षण करने वाले के अर्थ में व्याख्या की गई है।

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अरविन्द व्यास
 · 1वर्ष
क्या राक्षस, दानव, दैत्य, असुर एक दूसरे के पर्याय हैं या ये अलग अलग वंश हैं?
असुर मूलतः असुर वह है जो असु-र असुवान हो। असु एक प्रकार की शुभङ्कर प्राणशक्ति है। वैदिक विहङ्गम में, विशेषकर ऋग्वेद में असुर का मुख्यतः यह अर्थ बनता है; सूर्य, इन्द्र, वरुण, आदि अनेक देवताओं को ऋग्वेद में असुर कहा गया है। असुर को अ-सुर जो सुर न हो; इस अर्थ में सुर विरोधी के रूप में भी प्रयोग किया जाता रहा है; तथा यही अर्थ वर्तमान समय में व्यापक रूप से मान्य माना जाता है। वाचस्पत्यम में असुर के लिए पूर्ब्बदेवः (पूर्व-देव; पहले के देवता) पर्यायवाची शब्द दिया गया है। जोकि असुरों के किसी काल में देवता होने का सङ्केत देता है। इस विषय पर मैं एक उत्तर पहले ही प्रस्तुत कर चुका हूँ। क्या यह सच है कि वैदिक काल के हमारे पूर्वजों द्वारा सुर और असुर दोनों को आहुति दिया जाता था? यदि हाँ, तो असुरों को बुरे लोगों के रूप में क्यों चित्रित किया जाता है? के लिए अरविन्द व्यास (Arvind Vyas) का जवाब ऐहोल के दुर्गा मन्दिर के निकट असुर, सुदानव, तथा दैत्यदेव की उपमाओं से अलङ्कृत वरुण की प्रतिमा। (Statue Of Varun Dev ) दानव दानवों को परम्परागत रूप से दानु की सन्तानों के रूप में दर्शाया गया है। दानु ऋषि कश्यप की एक पत्नी हैं। परम्परागत रूप से दैत्य, दानव, आदित्य, नाग, आदि सभी ऋषि कश्यप के उनकी विभिन्न पत्नियों (दिति, दानु, अदिति, कद्रु, आदि) से उत्पन्न सन्तानें कहा जाता है। ऋग्वेद में कुछ स्थानों पर दानव शब्द मिलता है। जोकि कुछ स्थानों पर नकारात्मक छवि प्रस्तुत करता है। यथा, अरो॑रवी॒द्वृष्णो॑ अस्य॒ वज्रोऽमा॑नुषं॒ यन्मानु॑षो नि॒जूर्वा॑त् । नि मा॒यिनो॑ दान॒वस्य॑ मा॒या अपा॑दयत्पपि॒वान्सु॒तस्य॑ ॥ — ऋग्वेद २.११.१० भावार्थ:— बलशाली इन्द्र देव के वज्र ने बार-बार गर्जना की और तब सोम पीने वाले इन्द्र ने इस दानव की माया को नष्ट कर दिया। तथा, कुछ स्थानों पर सकारात्मक छवि भी, और यह छवि ऋग्वेद में प्रधान है। यथा, पृ॒क्षे ता विश्वा॒ भुव॑ना ववक्षिरे मि॒त्राय॑ वा॒ सद॒मा जी॒रदा॑नवः । पृष॑दश्वासो अनव॒भ्ररा॑धस ऋजि॒प्यासो॒ न व॒युने॑षु धू॒र्षदः॑ ॥४ — ऋग्वेद २.३४.४ भावार्थ :— मरुद्गण मित्र के समान विश्व के सभी भुवनों में आश्रय प्रदान करते हैं। अक्षय अन्न का प्रदान करने वाले चितकबरे (धब्बे युक्त) घोड़ों पर विराजने वाले जीरदानव — शीघ्र दान देने वाले — मरुद्गण अपने धर्म मार्ग पर चलने वाले याजकों की उन्नति करते हैं। ऋग्वेद में दानव शब्द लगभग सदैव सु- उपसर्ग लगाकर प्रयोग किया गया है। यद्यु॒ञ्जते॑ म॒रुतो॑ रु॒क्मव॑क्ष॒सोऽश्वा॒न्रथे॑षु॒ भग॒ आ सु॒दान॑वः । धे॒नुर्न शिश्वे॒ स्वस॑रेषु पिन्वते॒ जना॑य रा॒तह॑विषे म॒हीमिष॑म् ॥८ — ऋग्वेद २.३४.८ भावार्थ :— ऐश्वर्यशाली दानव (दानशील) मरुद्गणों के वक्षस्थल पर स्वर्णहार सुशोभित हैं। जैसे गायें दूध देती हैं वैसे ही अपने घोड़ों को रथ में जोते मरुद्गण भी याजकों को अन्न प्रदान करते हैं। ऋग्वेद में ही दानव, सुदानव, अथवा जीरदानव शब्द ६४ बार आता है। यह मुख्य रूप से मरुद्गणों के लिए प्रयोग हुआ है; तथा यह देने वाले अथवा दानी के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। मरुद्गणों को ही नहीं इन्द्र-वरुण को भी जीरदानव (शीघ्र दान देने वाले) कहा गया है :— घृतप्रुषः सौम्या जीरदानवः सप्त स्वसारः सदन ऋतस्य । या ह वामिन्द्रावरुणा घृतश्चुतस्ताभिर्धत्तं यजमानाय शिक्षतम् ॥ — ऋग्वेद ८.६९.४॥ ऋग्वेद के ही आठवें मण्डल की तिरासीवीं ऋचा में अनेक देवताओं (विश्वे देवा), यथा, इन्द्र, विष्णु, अश्विनी कुमारों, आदि को सुदानव (अच्छा दान देने वाले) कहा गया है। वयमिद्वः सुदानवः क्षियन्तो यान्तो अध्वन्ना । देवा वृधाय हूमहे ॥६॥ अधि न इन्द्रैषां विष्णो सजात्यानाम् । इता मरुतो अश्विना ॥७॥ प्र भ्रातृत्वं सुदानवोऽध द्विता समान्या । मातुर्गर्भे भरामहे ॥८॥ यूयं हि ष्ठा सुदानव इन्द्रज्येष्ठा अभिद्यवः । अधा चिद्व उत ब्रुवे ॥९॥ — ऋग्वेद ८.५३॥ वरुण, मित्र, के साथ अर्यमा को भी सुदानव कहा गया है:— त्वया ह्यग्ने वरुणो धृतव्रतो मित्रः शाशद्रे अर्यमा सुदानवः । यत्सीमनु क्रतुना विश्वथा विभुररान्न नेमिः परिभूरजायथाः ॥ — ऋग्वेद १.१४१.९॥ कुछ स्थानों पर दानव शब्द बिना किसी विशेषण के प्रयोग किया गया है। इनमें वृत्त भी दानव हैं त्वया ह्यग्ने वरुणो धृतव्रतो मित्रः शाशद्रे अर्यमा सुदानवः । यत्सीमनु क्रतुना विश्वथा विभुररान्न नेमिः परिभूरजायथाः ॥ — ऋग्वेद ५.३२.९॥ तथा यहाँ इन्द्र दानवों को नियन्त्रित करते हैं। स न॑: श॒क्रश्चि॒दा श॑क॒द्दान॑वाँ अन्तराभ॒रः । इन्द्रो॒ विश्वा॑भिरू॒तिभि॑: ॥ — ऋग्वेद ८.३२.१२ दानवों की माता (वृत्त की माता भी) दनु है। जोकि भारोपीय संस्कृति में नदी रूपा जलदेवी है। युरोप की मुख्य नदी दान्युब का नाम भी इसी देवी के नाम पर है। मुख्यतः दानव शब्द की व्युत्पत्ति दा तथा दान धातुओं से मानी जा सकती है। यह मूल धातु शब्द देने के अर्थ में तो हैं ही दा दाण् दाने भ्वादिः, परस्मैपदी, सकर्मकः, अनिट्ल्युट्-प्रत्ययान्तम् (देना) — धातुपाठ १.१०७९ (कौमुदीधातुः-९३०) दा डुदाञ् दाने जुहोत्यादिः, उभयपदी, सकर्मकः, अनिट्ल्युट्-प्रत्ययान्तम् (देना, सौंपना, दान करना) — धातुपाठ ३.१० (कौमुदीधातुः-१०९१) वहीं यह धातु शब्द काटने, खण्डित करने जैसे अर्थ में भी प्रयोग होती है। दा दाप् लवने अदादिः, परस्मैपदी, सकर्मकः, अनिट्ल्युट्-प्रत्ययान्तम् (काटना, कतराना) — ०२.००५४ (कौमुदीधातुः-१०५९) दान् दानँ खण्डने आर्जवे च भ्वादिः, उभयपदी, सकर्मकः, सेट् (खंडन करना, तोडना) — ०१.११४९ (कौमुदीधातुः-९९४) अतः दानव एक ओर दान देते हैं; वहीं वे खण्डित भी करते हैं। ऋग्वेद के साक्ष्य से यह भी स्पष्ट है कि दानव को भी उस काल में बहुत सम्माननीय शब्द माना जाता था। किन्तु, ऐसा संकेत मिलता है कि ऋग्वेद काल के आरम्भ में दानवों (देने वालों) में मतभेद होकर दो भाग हो गए; जिससे इन्द्रादि (इन्द्र तथा उनके सहयोगी) सुदानव अथवा जीरदानव कहलाए; तथा वृत्रादि (वृत्र तथा उनके समान इन्द्र के विरोधी) दानव। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि मरुद्गण जिन्हें दानव, सुदानव, जीरदानव, आदि उपाधियाँ दी गई हैं; कश्यप तथा दिति को उनके माता-पिता कहा गया है। मरुद्गणों के उत्त्पन्न होने की कथा ब्रह्माण्डपुराण के मध्यभाग के अध्यायः ५ (मरुदुत्पत्तिवर्णनंनाम पञ्चमोध्यायः) में दी गई है। जिसमें दिति शक्र (इन्द्र) को पराजित करने वाले पुत्र की कामना करती है। अवसर पाकर इन्द्र स्वयं ही दिति के गर्भाशय में घुसकर गर्भ को सात भागों में और फिर उन सात को सात भागों में खण्डित कर देते हैं। यह सात गुना सात अर्थात उनचास मरुतों की उत्पत्ति की कथा है। यह मरुद्गण कालान्तर में इन्द्र के ही सहयोगी बन गए। दनु का भारोपीय मूल शब्द है *déh₂nu - जोकि भारोपीय संस्कृति में एक नदी देवी है। डेन्यूब नदी का नाम भी इसी मूल से व्युत्पन्न है; इस नदी को ग्रीक में Δανούιος (दानौईयस), Δανούβιος (दानौबियस), लैटिन में Dānuvius (दानुवियस) , Dānubius (दानुबियस) जैसे नाम मिले। केल्टिक भाषाओं में Dānu (दानु), आयरिश: Dana (दाना), वेल्श: Dôn (दोन), संस्कृत दानु (द्रव, बुन्देलखंडी, ओस), अवेस्तन 𐬛𐬁𐬥𐬎‎ (दानु), तथा ओसेटियन дон (दोन) इसी से व्युत्पन्न शब्द हैं। अन्ततोगत्वा इस भारोपीय मूल शब्द के मूल को *dʰenh₂- (बहाव, गतिमान होना) में माना गया है। चूँकि धन तरल है; वह बहता है; और संस्कृत भाषा के धन शब्द की व्युत्पत्ति भी इसी भारोपीय मूल शब्द *dʰenh₂- से हुई मानी जाती है; और Dane (डेन — डेनमार्क के निवासी) भी इसी दानु से सम्बन्धित हैं। दैत्य दिति की सन्तानों को दैत्य कहते हैं। किन्तु यह शब्द ऋग्वेद में नहीं मिलता है; वैदिक संहिताओं में मात्र अथर्ववेद में इसका एक ही उल्लेख है; वह भी एक उपसर्ग से जुडकर। दिति की वृद्धि होकर दैत्य बना है; अतः दिति शब्द की व्याख्या कर उससे दैत्य की भी व्याख्या कर सकते हैं। दिति का अर्थ है वितरण करना, विभाजित करना, देना, उदारता, दानशीलता, आदि; पहले दो शब्दों को हिन्दी में 'बाँटना' शब्द से व्यक्त कर सकते हैं। अतैव, दिति दानशीलता, उदारता, आदि का मूर्त रूप में व्यक्तिकरण है। जैसा ऋग्वेद की इस ऋचा से स्पष्ट होता है। चित्ति॒मचि॑त्तिं चिनव॒द्वि वि॒द्वान्पृ॒ष्ठेव॑ वी॒ता वृ॑जि॒ना च॒ मर्ता॑न् । रा॒ये च॑ नः स्वप॒त्याय॑ देव॒ दितिं॑ च॒ रास्वादि॑तिमुरुष्य ॥ — ऋग्वेद ४.२.११ भावार्थ :— हे अग्नि जिस प्रकार अश्वपालक घोड़े तथा उसकी काठी को सरलता से अलग कर देता है; उसी प्रकार आप पाप और पुण्य को अलग करें। आप हमें उत्तम सन्तानों से युक्त ऐश्वर्य प्रदान करें; दानशील और उदार बनाएँ। टिप्पणी :— इसमें दिति तथा अदिति दोनों का उल्लेख है। अदिति का उल्लेख रास्वादि॑तिमुरुष्य का सन्धिविच्छेद रास्व॑ अदि॑तिम् उ॒रु॒ष्य॒ है। कश्यप तथा अदिति की सन्तानों को आदित्य (सूर्य, इन्द्र आदि) कहा गया है। यह अर्थ सायण के भाष्य में भी दिया गया है। “विद्वान् प्राणिनां पुण्यपापरूपाणि कर्माणि जानानः सोऽग्निः “चित्तिं ज्ञातव्यं पुण्यम् "अचित्तिम् अनुपादेयत्वेनाचेतनीयं पापम् । यद्वा । चित्तिं ज्ञानमचित्तिमज्ञानं "वि “चिनवत् विचिनोतु पृथक्करोतु । तत्र दृष्टान्तः । "पृष्ठेव । यथाश्वपालोऽश्वानां "वीता कान्तानि "वृजिना दुर्वहाणि च पृष्ठा पृष्ठानि हेयोपादेयत्वेन पृथक्करोति तद्वत् । किंच "मर्तान् पुण्यकृतोऽपुण्यकृतः "च मनुष्यान् पृथक्करोतु । हे “देव अग्ने "स्वपत्याय शोभनपुत्रोपेताय "राये धनाय "नः अस्मान् कुरु । “दितिं दातारं “च “रास्व देहि । "अदितिम् । पञ्चम्यर्थे द्वितीया । अदातुः सकाशात् "उरुष्य रक्ष ॥ चित्तिम् ।' चिती संज्ञाने'। स्त्रियां क्तिन् । नित्त्वदाद्युदात्तः । चिनवत् । चिनोतेर्लेट्यडागमः । दितिम् । ‘दाण् दाने । कर्तरि क्तिन् । रास्व। ‘रा दाने ' । लोटि व्यत्ययेनात्मनेपदम् । ‘चवायोगे प्रथमा' इति न निघातः ॥ दितिं दातारं — दिति दातार (देने वाली) हैं। त्वम॑ग्ने वी॒रव॒द्यशो॑ दे॒वश्च॑ सवि॒ता भगः॑ । दितिश्च दाति॒ वार्यं॑ ॥ — ऋग्वेदः ७.१५.१२ भावार्थ हे अग्नि आप वीरवत यश देते हैं; तथा हे सविता, भग, दिति भी वर देते हैं। दैत्य तथा दिति इन दोनों ही शब्दों की मूल धातु है दे, जिसका अर्थ रक्षण तथा पोषण करना है। दे देङ् रक्षणे भ्वादिः, आत्मनेपदी, सकर्मकः, अनिट्ल्युट्-प्रत्ययान्तम् (रक्षण करना, पोषण करना) — धातुपाठ १.१११७ (कौमुदीधातुः-९६२) यह मूल रूप से एक भारोपीय धातु शब्द है : *deh₂-; ग्रीक δῆμος (देमोस — व्यक्ति, जनसमूह, भागी, नागरिक) इसी भारोपीय धातु शब्द से रचित माना गया है। ग्रीक δαιτρός (दैत्रोस — भाग करने वाला), δαιτύς (दैत्यस — पंच); δαίμων (दैमोन) — देने वाला देवता; दिवंगत आत्मा, यह शब्द demon (डैमोन) के अर्थ में रूढ हो गया है।; ग्रीक देवताओं के लिए प्रयुक्त θεός (थेओस) भी इसी मूल से उत्पन्न है। फिर्गियन δεως (देओस), आर्मेनियन դիք (दिक्) भी इसी मूल से देवता के अर्थ में प्रयुक्त शब्द हैं। देवी के अर्थ में प्रयुक्त अंग्रेजी ides, जर्मन idis (इदिस), आइसलैंडिक, फारोई, अंग्रेजी dís (डिस) इसी मूल से व्युत्पन्न शब्द हैं। अवेस्तन भाषा में दैत्य वस्तुतः देने वाले हैं; उनकी पवित्र नदी वाङ्गुही दैत्य है। राक्षस वर्तमान मान्यता के अनुसार राक्षस की व्युत्पत्ति रक्षस् की वृद्धि से हुई है जिसका अर्थ हानि, चोट, क्षति है यह विनाश, हानि, क्षति का मूर्त रूप है। अवेस्तन 𐬭𐬀𐬱𐬀𐬵 (रशह) इसका बन्धु शब्द है। इसका भारोपीय मूल शब्द *h₂rétḱ-os (विनाश, विनाशक) परिकल्पित है। यह शब्द रक्ष् धातु से व्युत्पन्न माना जाता है; जो बचाने, रक्षा करने के अर्थ में प्रयुक्त है। रक्ष् रक्षँ पालनेभ्वादिः, परस्मैपदी, सकर्मकः, सेट्कर्तरि लोट्लकारः (परस्मैपदम्) मध्यमपुरुषः एकवचनम् (पालन करना, बचाव करना, रक्षा करना) — १.७४६ (कौमुदीधातुः-६५८) संस्कृत में राक्षस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार समझाई गई है; "रक्षन्त्यस्मात् रक्षः रक्ष एव राक्षसः"; जो रक्षा करते हैं; रक्ष हैं वे राक्षस हैं। राक्षसों की तीन श्रेणियाँ हैं; प्रथम, यक्षों की भाँति संरक्षण देने वाले और कृपालु; दूसरे, देवताओं के विरोधी, असुर; तथा तीसरे रात्रि के जीव, निशाचर। रक्ष् का भारोपीय मूल *h₂lek- (रक्षा करना) परिकल्पित है। जिससे आर्मेनियन երաշխիք (एर्श्क्सिक), ग्रीक ἀλέξω (अलेक्जो); अंग्रेजी ealgian (ईल्गियन); लैटिन ulciscor (उल्सिस्कोर — रक्षा करना, बदला लेना, अन्याय के विरुद्ध लड़ना); ग्रीक ἀλκή (रक्षक, सेना, लडना) आदि हैं। ग्रीक ἀλέξω से Ἀλέξανδρος (अलेक्जान्द्रोस) बना है, रक्षा करने वाला; इसमें ἀνήρ-ος (आन्र-ओस — नर = ανδρος आन्द्रोस) के साथ सन्धि हुई है। ईसा पूर्व तेरहवीं शताब्दी के हित्ताइत नाम 𒀀𒆷𒀝𒊭𒀭𒁺𒍑 (अलेक्जान्द्रुस) में इस शब्द का प्रथम उल्लेख है। वर्तमान मान्यता के अनुसार राक्षस की व्युत्पत्ति रक्षस् की वृद्धि से हुई है जिसका अर्थ हानि, चोट, क्षति है। इसका भारोपीय मूल शब्द *h₂rétḱ-os परिकल्पित है। असुर, दैत्य, दानव, राक्षस, आदि नामों का यदि हम व्याकरण-सम्मत विश्लेषण करें तो यह ज्ञात होता है कि यह सभी असुवान, दाता, दान देने वाले, रक्षा करने वाले, जैसे अर्थों में जाने जाते हैं। पौराणिक विहङ्गम में यदि इनकी उत्पत्ति के बारे में विवरण को देखें तो यह सभी कश्यप ऋषि की उनकी विभिन्न पत्नियों से सन्तानें हैं। मार्कण्डेय पुराण में अदिति से आदित्यों अर्थात सुरों अथवा देवताओं का जन्म, दिति से दैत्यों का जन्म, दनु से दानवों का जन्म, तथा खसा से राक्षसों का जन्म कहा जाता है। अदितिर्जनयामास दैवांस्त्रिभुवनेश्वरान् । दैत्यान्दितिर्दनुश्चोग्रान्दानवानुरुविक्रमान् । । ५ — मार्कण्डेयपुराणम् /अध्याय १०१ अदिति ने तीनों लोकों के स्वामी देवताओं को जन्म दिया; दैत्य दिति से और महाउग्र एवं पराक्रमी दानव दनु से उत्पन्न हुए। राक्षसों को कश्यप एवं उनकी पत्नी खसा के वंशज माना जाता है। गरुडारुणौ च विनता यक्षरक्षांसि वै खसा । कद्रूः सुषाव नागांश्च गन्धर्वान्सुषुवे मुनिः । । ६ — मार्कण्डेयपुराणम् /अध्याय १०१ विनता से गरुड तथा अरुण; खसा से यक्ष और राक्षस, कद्रू से नाग; एवं गन्धर्व मुनि से उत्पन्न हुए। ऐसा प्रतीत होता है कि एक ही पिता से और विभिन्न भगिनी माताओं उत्पन्न इनमें सभी के अपने गुण थे; किन्तु, अन्तर्विरोध भी; अतः देवता और दैत्य, दानवों, राक्षसों आदि में संघर्ष चला। देवता सुर कहलाए और इनके विरोधी संयुक्त रूप से असुरों के नाम से जाने गए। टिप्पणी :— ग्रीक ανδρος का भारोपीय मूल शब्द *h₂nḗr परिकल्पित है; संस्कृत नृ तथा नर इसी से रचे शब्द हैं। यह मनुष्य, शक्ति, बल, जीवनी ऊर्जा आदि अर्थों में है। इस में द की ध्वनि के आने के समरूप यदि इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति भी इसी मूल से मानी जाए तो कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए; क्योंकि वर्तमान परिकल्पित मूल *h₃eyd- से *(H)i-n-d-ro- (“बलशाली”) की रचना मानी गई है। इस प्रकार के अन्य रोचक उत्तर आप मेरे मञ्च भाषा-विज्ञान और शब्द-व्युत्पत्ति पर देख सकते हैं। © अरविन्द व्यास, सर्वाधिकार सुरक्षित। इस आलेख को उद्धृत करते हुए इस लेख के लिंक का भी विवरण दें। इस आलेख को कॉपीराइट सूचना के साथ यथावत साझा करने की अनुमति है। कृपया इसे ऐसे स्थान पर साझा न करें जहाँ इसे देखने के लिए शुल्क देना पडे।

असुरों का सुर विरोधी होने के अर्थ में होने और देवताओं के सुर कहलाने का कारण जाने के लिए सुर शब्द कुछ भी व्याख्या आवश्यक है।

असुर शब्द की व्युत्पत्ति में यह स्पष्ट है कि असुर शब्द के शुभ करने वाली दिव्य शक्ति के अर्थ में अनेक भारोपीय बन्धु शब्द हैं। ऋग्वेद में भी असुर शब्द शुभ दिव्य शक्ति के अर्थ में है। किन्तु सुर शब्द के अन्य भारोपीय बन्धु शब्द न होने से अनेक शोधार्थी इसे असुर के विलोम शब्द के रूप में व्युत्पन्न मानते हैं। न कि असुर शब्द को सुर के विलोम रूप में।

सुर [सुष्ठु राति ददात्यभीष्टं; सु-रा-क्त] शब्द की व्युत्पत्ति रा धातु से हुई है; इस धातु से देने, मनोकामना पूर्ण करने, आदि के अर्थ में शब्दों की रचना होती है।

रा रा दाने अदादिः परस्मैपदी सकर्मकः अनिट् (देना, मिल जाना, अनुदान ) — धातुपाठ २.५२ (कौमुदीधातुः-१०५७)

सुर शब्द को सूर्य (जो जीवनदायी प्रकाश देता है), विद्वान व्यक्ति (जो ज्ञान देता है), तथा मनोकामनाएँ पूर्ण कर देने वाले देवताओं के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। चूँकि देवताओं का वर्गीकरण तैंतीस कोटियों में किया गया है; ३३ की सङ्ख्या को भी सुर कहा गया है।

स्वर को भी सुर ही कहते हैं। जीवनदायी जल को सुर कहा जाता है; वहीं, मद्य (सुरा), चषक (मद्यपात्र) को भी सुर कहा जाता है।

सुरा को भी दो भिन्न प्रकार से परिभाषित किया गया है —

धनवान के अर्थ में

सुराः / सुरै [धनवान् । सु शोभनो रा धनं यस्येति बहुव्रौहौ कृते रैशब्दस्य रादेशेन निष्पन्नः ॥ ];

तथा;

सु अभिषवे + क्रन् । स्त्रियां टाप्;

जो अभीष्ट की प्राप्ति कराए; यह शब्द इस प्रकार मद्य, जल, तथा चषक के अर्थ में है।

सुरा मूलतः चावल अथवा अङ्कुरित यव (जौ / तक्म) के दानों को खमीर (नगन्हू) युक्त औषधिय वनस्पतियों से खमीर उठाकर बनाने का विवरण कात्यायन श्रोत सूत्र में मिलता है।

दक्षिणेन हृत्वा नग्नहुचूर्णानि कृत्वा तांश्च व्रीहि-श्यामाकौदनयो! एथगापृथगाचामौ निषिच्य चूर्णे: सर्ठ०सृज्य निदघाति तन्मासरम्‌ ॥ २० ॥

ओदनौ चूर्णमासरैः सर्ठ०सृज्य “खाद्वी त्वार्ठ ०शुना त” इति (१९।१,२०।२७) त्रिरात्र निदघाति ॥ २१ ॥

—कात्यायन श्रोत सूत्र

यह यज्ञ के लिए बनाया गया पेय है; जो साके अथवा बियर के समतुल्य है। चूँकि यह देवताओं को अर्पण करने के लिए बनाया जाता रहा है। अतः कुछ स्थानों पर यह विवरण मिलता है कि जिन्होंने यज्ञ का सुरापान किया, वे सुर तथा जिन्हें इससे वञ्चित रखा गया वे असुर कहलाए। यथा, सौत्रामणी यज्ञ में विशेषकर इन्द्र को सुरापान करने का आह्वान किया जाता है; शाङ्खायनश्रौतसूत्र में यम, अश्विन, सरस्वती, इन्द्र आदि को सुरापान का इस मन्त्र के साथ आह्वान किया जाता है :—

यमश्विना नमुचावासुरे दधि सरस्वत्यसुनोदिन्द्रियाय
इमं तं शुक्रं मधुमन्तमिन्दुं सोमं राजानमिह भक्षयामि
इति भक्षमन्त्रः सुरायाः॥

— शाङ्खायनश्रौतसूत्र १५.१५.१३ ॥

देवता भी अपने आह्वान करने वालों को सुरा प्रदान करते हैं; यह ऋग्वेद की इस ऋचा से सुस्पष्ट है :—

युवं नरा स्तुवते पज्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरंधिम् ।
कारोतराच्छफादश्वस्य वृष्णः शतं कुम्भाँ असिञ्चतं सुरायाः ॥७॥

— ऋग्वेदः १.११६.७

भावार्थ :—

हे नेतृत्व क्षमता से संपन्न अश्विनीकुमारों आपने पज्रिकुल के काक्षीवान को, नगर की रक्षा के लिए परामर्श दिए; आपने अपने बलशाली घोड़े के खुर की आकृति के एक पात्र से आपने सुरा के सौ घड़े भर दिए।

कहीं कहीं सुरा को मधु के साथ भी व्यक्त किया गया है; अतः यह मधु (शहद; फूलों ले रस) की मदिरा भी हो सकती है।


वैसे, पौराणिक विहङ्गम में विशेषकर ब्रह्माण्ड पुराण, विष्णु पुराण, पद्म-पुराण में समुद्रमन्थन के समय समुद्र से वारुणी (सुरा की देवी जिन्हे वरुण की पुत्री भी कहते हैं) के उत्पन्न होने का विवरण मिलता है। इन्हें दैत्यों ने अस्वीकार किया; किन्तु, देवताओं ने अपनाया, अतः देवता सुर कहलाए!

ध्यान दें कि यद्यपि सुरापान को अधिकांश वैदिक, तथा वेदोत्तर काल का विहङ्गम वर्जित करता है; विशेषकर ब्राह्मणों के लिए! किन्तु, देवताओं पर वह नियम नहीं लगाए जा सकते जोकि मानवों पर लगाए जाते हैं। यथा, पद्मपुराण से,

सुलक्ष्मीर्नाम सा चैका द्वितीया वारुणी तथा ।
ज्येष्ठा नाम तथा ख्याता कामोदान्या प्रचक्षते ८।
तासां मध्ये वरा श्रेष्ठा पूर्वं जाता महामते ।
तस्माज्ज्येष्ठेति विख्याता लोके पूज्या सदैव हि ९।
वारुणीपानरूपा च पयःफेनसमुद्भवा ।
अमृतस्य तरंगाच्च कामोदाख्या बभूव ह १०।
सोमो राजा तथा लक्ष्मीर्जज्ञाते अमृतादपि ।
त्रैलोक्यभूषणः सोमः संजातः शंकरप्रियः ११।
मृत्युरोगहरा जाता सुराणां वारुणी तथा ।
ज्येष्ठासु पुण्यदा जाता लोकानां हितमिच्छताम् १२। — पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः)/अध्यायः ११९

[(समुद्रमन्थन से जो चार कन्याएँ प्रकट हुईं) उनमें से एक का नाम सुलक्ष्मी और दूसरी का वारुणी था। तीसरी ज्येष्ठा तथा चतुर्थ कामोदा के नाम से प्रसिद्ध है। हे ज्ञानीजनों, इन महिलाओं में से सर्वश्रेष्ठ का जन्म अतीत में हुआ था अतः वह जगत में ज्येष्ठ कहलाती है और सदैव पूजी जाती है। वरुणी पेय के रूप में है और वह फेन (झाग) के रूप में प्रकट हुई थी। अमृत ​​की तरङ्ग से उत्पन्न से वह कामोदा कहलाई। सोम देव (चन्द्रमा) तथा लक्ष्मी भी इसी अमृत से प्रकट हुईं। सोम तीनों लोकों का आभूषण बने और शिव को प्रिय हुए। इसी प्रकार वारुणी सुरों की मृत्यु और रोग के नाश करने वाली बन गईं। ज्येष्ठा संसार के लोगों के कल्याण का कारण बनीं। ]

इस प्रकरण को गीता प्रेस गोरखपुर के अनुवाद में वारुणी (सुरा की अधिष्ठात्री देवी) को देवताओं द्वारा त्यागने और असुरों द्वारा स्वीकारने का विवरण दिया गया है; जोकि मनमाना अनुवाद है।

तत्पश्चात्‌ वारुणी (मदिरा) देवी प्रकट हुई, जिसके मदभरे नेत्र घूम रहे थे। वह पग-पगपर लड़खड़ाती चलती थी। उसे अपवित्र मानकर देवताओंने त्याग दिया। तब वह असुरोंके पास जाकर बोली--'दानवो ! मैं बल प्रदान करनेवाली देवी हूँ, तुम मुझे ग्रहण करो ।' दैत्योंने उसे ग्रहण कर लिया । 

यद्यपि,नारद पुराण में वारुणी को श्री विष्णु की आज्ञा से असुरों को देने का विवरण मिलता है।

यदा सुरासुरैर्देवि मथितः क्षीरसागरः ।।
कामोदा सा तदोत्पन्ना कन्यारत्नचतुष्टये ।। ६८-४ ।।

कन्या रमाख्या प्रथमा द्वितीया वारुणी स्मृता ।।
कामोदाख्या तृतीया तु चतुर्थी तु वराभिधा ।। ६८-५ ।।

तत्र कन्यात्रयं प्राप्तुं विष्णुना प्रभविष्णुना ।।
वारुणी त्वसुरैर्नीता विष्णुदेवाज्ञया सति ।। ६८-६ ।।

[हे देवी, जब क्षीरसागर का देवताओं और राक्षसों ने मन्थन किया था, तब चार कन्या रत्न उत्पन्न हुईं। पहली कन्या का नाम रमा और दूसरी का नाम वारुणी रखा गया; तीसरी को कमोदा और चौथी को वरा कहा जाता है। तब सर्वशक्तिमान भगवान विष्णु को तीन कन्याएँ प्राप्त हुईं; एवं भगवान विष्णु के आदेश से वरुणी को राक्षसों ने ले लिया।]

इससे यह प्रतीत होता है कि देवताओं द्वारा सुरा की अधिष्ठात्री देवी वारुणी को ग्रहण करने के बारे में पुराण एकमत नहीं हैं।


विशेष टिप्पणी :—

देवता (देव एव स्वार्थे तल्) अथवा देव (दिव्--अच्) शब्दों की व्युत्पत्ति दिव् धातु से हुई है। इस धातु की व्याख्या यह है:—

दिव् दिवुँ परिकूजने चुरादिः आत्मनेपदी अकर्मकः सेट् (दुःख देना, शोक करना, सताना)

— धातुपाठ १०.२३० (कौमुदीधातुः-१७०७)

दिव् दिवुँ मर्दने चुरादिः उभयपदी सकर्मकः सेट् (मर्दन करना, रगड़ ना)

—‌ १०.२४९ (कौमुदीधातुः-१७२५)

सम्भवतः यह हम सबके लिए झटका है कि व्युत्पत्ति की दृष्टि से देवता न केवल सुरापान करने वाले हैं; अपितु, वे मर्दन करने वाले, कष्ट और दुःख देने वाले भी हैं।

यह भाव फ़ारसी भाषा के دیو (देव) तथा अवेस्तन भाषा के 𐬛𐬀𐬉𐬎𐬎𐬀 (दैव) शब्दों के अर्थ में भी मिलता है।

अतः देव शब्द को "दीव्यत्यनेनेति । दिव + करणे घञ्" (खेल-क्रीडा करने वाले) के रुप में इन्द्रियों; तथा "दीव्यति आनन्देन क्रीडतीति दिव + अच् " (आनन्द से क्रीडा करने वाले) के अर्थ में परिभाषित किया गया है।

किन्तु, भारोपीय शब्दावली की तुलना करने पर यह देव शब्द दिवस (प्रकाश वाले समय) के परामानवीय अस्तित्व को व्यक्त करता है।

अनातोलियाई भाषाओं लीसियन में 𐊈𐊆𐊇 (जिव), लीदियन में 𐤣𐤦𐤥𐤦 (दिवि), लूवियश में 𒋾𒉿𒊍 (तिवाज, “एक सूर्य देवता”), पालाइक में 𒋾𒅀𒊍 (तियाज), आर्मेनियाई में աստուած (असु-तुआज; प्राचीन काल असु (अच्छा, शुभ) देवता; अब यह झूठे देवता के अर्थ में; यह शब्द असु के परिवर्तनशील अर्थ का एक अन्य उदाहरण है); केल्टिक भाषा परिवार में ब्रेटोन में doue (दौरे) कोर्निश में dew (देव), वेल्श में duw (दूध), गॉलिसियन में Deva (एक नदी माता का नाम), Dēuos (देउओस), Dēwos (देवोस), आयरिश में dia (दिया), Dé (दे), स्कॉटिश गॉलिक में dia (दिया), लात्वीयाई dìevs (दिवेस), लिथुआनियाई diẽvas (दीवेस), अंग्रेजी में Tiw (टिव), नोर्स, आइसलैण्डिक, स्वीडिश, आदि में týr (टीर) , गोथिक में 𐍄𐌴𐌹𐍅𐍃 (तेइवेस), तथा लातिन में deus, (देउस), dīvus (दीवुस) इन सभी शब्दों की व्युत्पत्ति भारोपीय मूल शब्द *deywós (देय्वोस; देव) से ही परिकल्पित है।

भारोपीय धातु शब्द *dyew- (द्येव; द्यु — चमक, आकाश) इससे निकट का सम्बन्ध रखती है; जिससे दिवस (दीव्यत्यत्र दिव्—असच् किच्च) शब्द की व्युत्पत्ति है। अतः देव का दिव्य, द्युति, और दिवस से प्राचीन सम्बन्ध है।

सुरा तथा अवेस्तन भाषा के 𐬵𐬎𐬭𐬁 (हुरा) की व्युत्पत्ति भारोपीय धातु *sew- (सेव; गाढ़ा द्रव, निचोड़) से मानी गई है; सोम तथा अवेस्तन 𐬵𐬀𐬊𐬨𐬀 (होम; सोम), एवं ग्रीक ὕω (हुओं; बरसना) एवं लातिन sucus (सुकुस; चूसना)‌; अंग्रेजी suck (सक; चूसना) इसी धातु शब्द से व्युत्पन्न हैं।



जयन्ती-

जयन्ती" शब्द का मूल अर्थ "विजय पाने वाली" है; जोकि ऋग्वेद में किये इस शब्द के सबसे प्राचीन उल्लेख में मिलता है। यथा, ऋग्वेद की इस ऋचा में :—

असपत्ना सपत्नघ्नी जयन्त्यभिभूवरी ।
आवृक्षमन्यासां वर्चो राधो अस्थेयसामिव ॥५॥

(अ॒स॒प॒त्ना । स॒प॒त्न॒ऽघ्नी । जय॑न्ती । अ॒भि॒ऽभूव॑री । आ । अ॒वृ॒क्ष॒म् । अ॒न्यासा॑म् । वर्चः॑ । राधः॑ । अस्थे॑यसाम्ऽइव ॥)

— ऋग्वेदः १०.१५९.५

[भावार्थ :—

(ऋषिका शची पौलुमी (इन्द्र की पत्नी) इस ऋचा में कहती हैं कि) मैं सपत्नियों का विनाश कर उनपर विजय प्राप्त करने वाली हूँ। अस्थिर व्यक्तियों का तेज और ऐश्वर्य जिस प्रकार नष्ट होता है वैसे ही मैं सपत्नियों के तेज और ऐश्वर्य विनाश करती हूँ।

टिप्पणी : सामान्य रूप से सपत्नी का अर्थ सौतन है; कुछ टीकाकार इस ऋचा में सपत्नी का अर्थ अधिकार जताने वाले विरोधी के अर्थ में करते हैं।]

वाचस्पत्यम् के अनुसार जयन्ती शब्द के यह अर्थ हैं

जयन्ती¦ स्त्री जि--झ गौरा॰ ङीष्।

१ दुर्गाशक्तिभेदे (माँ दुर्गा की एक प्रकार की शक्ति)

२ जयन्तभगिन्यां शक्रपुत्र्यां (इन्द्र के पुत्र जयन्त की बहिन का नाम)

३ पताकायां च (पताका (युद्ध में विजय की सूचक), झण्डा)

४ स्वनामख्याते वृक्षभेदे (एक प्रकार का वृक्ष; जैत अथवा जैता)

५ श्रावणकृष्णाष्टमीरोहिणीयोगे कृष्णाष्टमीशब्दे (रोहिणी नक्षत्र योग वाली श्रावण मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी; श्री कृष्ण जन्माष्टमी)

६ यात्रायोगविशेषे (एक विशेष प्रकार का यात्रा योग)

७ हरिद्रायां (हल्दी)

८ दुर्गासखीभेदे (माँ दुर्गा की एक सखी)

९ अरणि (लकड़ी का अग्नि जलाने के प्रयोग में आने वाला यन्त्र)

१० दर्शिता यथा।
“यथा जया च विजया यथा चैव जयन्तिका। शुभा-नन्दा सुनन्दा च कौमुदी च यथोर्मिला। यथाचम्पकमाला च यथा मलयवासिनी। कर्पूरलतिकायद्वदसृग्धारा यथा शुभा। अशोका च विशोका चयथा कमलगन्धिनी। यथा च मन्दनिःश्वासा यथामृगमदोत्तमा। यथा च कोकिलालापा यथा मयूर-[Page3055-b+ 38] भाषिणी। गन्धपद्मनिधिर्यद्वदनुक्तज्ञा यथा च सा। दृगञ्चलेङ्गितज्ञा च यथा कृतमनोरथा। पानचित्तहरायद्वत्तथा स्त्वेषा सुलक्षणा”।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रोहिणी योग को जयन्ती नाम दिया गया है। यथा सङ्कीर्ण ग्रन्थों में एक श्रीमद आनन्दतीर्थ भगवत्पादाचार्य विरचित जयन्ती कल्प में यह विवरण इस प्रकार है

रोहिण्यामर्धरात्रे तु यदा कालाष्टमी भवेत् ।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता सर्वापापप्रणाशनी ॥ १ ॥

यस्यां जातो हरिः साक्षान्निशीते भगवानजः ।
तस्मात्तद्दिनमत्यन्तं पुण्यं पापहरं स्मृतम् ॥ २ ॥

तस्मात् सर्वैरुपोष्या सा जयन्ती नाम वै सदा ।
द्विजातिभिर्विशेषेण तद्भक्तैश्च विशेषतः ॥ ३ ॥

[भावार्थ :—

जब काल मास का आठवें दिन आधी रात को रोहिणी नक्षत्र योग होता है, तब वह योग जयन्ती कहा जाता है; जोकि सभी पापों का नाश करने वाला है ॥ उसी रात भगवान हरि का जन्म हुआ। इसलिए वह दिन अत्यन्त पवित्र और सभी पापों का नाश करने वाला माना जाता है ॥ अत: सभी को, विशेषकर उन ब्राह्मणों को जो भगवान के परम भक्त हैं ॥

]

अग्नि पुराण में भी इसी प्रकार का विवरण मिलता है।

वक्ष्ये व्रतानि चाष्टम्यां रोहिण्यां प्रथमं व्रतं ।
मासि भाद्रपदेऽष्टभ्यां रोहिण्यामर्धरात्रके ॥
कृष्णो जातो यतस्तस्यां जयन्ती स्यात्ततोऽष्टमी ।
सप्तजन्मकृतात्पापात्मुच्यते चोपवासतः ॥
कृष्णपक्षे भाद्रपदे अष्टम्यां रोहिणीयुते ।
उपाषितोर्चयेत्कृष्णं(१) भुक्तिमुक्तिप्रदायकं ॥ — अग्नि पुराण १८३.१-३

रोहिणी मास की अष्टमी तिथि के व्रतों तथा प्रथम व्रत का वर्णन करता हूँ; भाद्रपद माह में अष्टमी तिथि को आधी रात के समय रोहिणी होती है; महीने का आठवाँ दिन जयन्ती है क्योंकि कृष्ण का जन्म हुआ था; इस दिन का उपवास सात जन्मों के पापों से वह मुक्ति दिलाता है। भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष के आठवें दिन रोहिणी नक्षत्र में मनुष्यों को कृष्ण की पूजा-आराधना करनी चाहिए जो मुक्ति प्रदान करते हैं।

ज्योतिषी कहते हैं कि जयन्ती योग दुर्लभ है; 2023 को श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर जयन्ती योग था। गौतमीमहातन्त्रं के अनुसार सोमवार अथवा बुधवार को रोहिणी नक्षत्र वाली अष्टमी को जयन्ती योग होता है।

सोमाह्नी बुधवारे वा अष्टमी रोहिणीयुता।
जयन्ती सा समाख्याता लभ्यते पुण्यसञ्चयैः ॥ — गौतमीयमहातन्त्रम् ३१.८४।

[

सोमवार अथवा वुधवार को रोहिणीयुता अष्टमी जयन्ती कही गई हं ओर यह अतिशय पुण्य से ही प्राप्त होती हे। ]

अतः यह प्रतीत होता है कि जयन्ती (पापों पर विजय दिलाने वाले) योग के समय श्री कृष्ण जन्माष्टमी के होने से इस दिन को श्री कृष्ण जयन्ती कहा जाने लगा। जिससे जयन्ती का अर्थ विस्तार जन्मोत्सव के अर्थ में भी हो गया। समय के साथ अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों के जन्मदिवस भी जयन्ती कहलाने लगे!


विशेष टिप्पणी :—

जिज्ञासु पाठकों के संशय निवारण हेतु—

जयन्ती को जीवित नहीं मात्र मृत व्यक्ति के लिए ही प्रयोग करने का मत तर्कसङ्गत नहीं है; क्योंकि

1 जयन्ती शब्द का जन्म-मृत्यु से सम्बन्ध नहीं है।

2 भाषाओं में अर्थ-सङ्कोच तथा अर्थ-विस्तार सामान्य प्रक्रिया है; अतः अर्थ-विस्तार कर हनुमान जयन्ती आदि लिखना अनुचित नहीं कहा जा सकता है। विशेषकर जब अधिकांश व्यक्ति इस शब्द को जन्मोत्सव के अर्थ में ही मुख्य अर्थ मानने लगे हैं।

3 काल के किसी महत्वपूर्ण पड़ाव पर पहुँचना भी विजय है। जैसे, किसी फिल्म का पच्चीस सप्ताह लगातार प्रदर्शन होने को रजत-जयन्ती कहना उचित है। तो किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति की स्मृति का हमारे मन-मस्तिष्क में, हमारी भावनाओं पर विजय पाकर कालजयी हो जाना; और उसके लिए एक विशेष दिन का हमारे द्वारा मनाया जयन्ती कहलाने की योग्यता रखता है।

सोमवार, 13 मई 2024

वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता-


आज शास्त्रों के शोधों से यह प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव, गोप अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्ण व्यवस्था में शामिल नहीं हैं।

इन गोपों की उत्पत्ति स्वराट विष्णु के हृदय रोम कूपों से  हुई है अत: इनका वर्ण विष्णु से उत्पन्न होने के कारण ही वैष्णव है। वैष्णव वर्ण के शास्त्रों में प्रमाण हैं। जिन्हें हम आगे यथाक्रम प्रस्तुत करेंगे

विष्णु पद में सन्तान वाचक अण्- प्रत्यय करने से वैष्णव शब्द बनता है। जिसका अर्थ है विष्णु से उत्पन्न अथवा विष्णु की सन्तान !
और चातुर्य वर्ण के अन्तर्गत  प्रमुख ब्राह्मण ब्रह्मा ( पुल्लिंग ब्रह्मन् पद में अण् प्रत्यय लगाने बनता है। जिसका अर्थ होता है ब्रह्मा कि सन्तान!
गोप साक्षात स्वराट्- विष्णु से उत्पन्न होने ब्राह्मणों के भी पूज्य व उनसे श्रेष्ठ हैं।

प्रस्तुत है  वर्ण व्यवस्था पर सारगर्भित आलेख-
प्रस्तुतिकरण:-यादव योगेश कुमार रोहि -( अलीगढ़) एवं इ० माता प्रसाद यादव -( लखनऊ)

गर्गसंहिता के विश्वजित् खण्ड में के अध्याय दो और ग्यारह में यह  गोपों की उत्पत्ति का वर्णन है।
यदि मान लिया जाए कि गोलोक में उत्पन्न गोप भिन्न और पृथ्वी लोक के गोप भिन्न हैं तो भी यह बात सही नहीं है।

क्योंकि इसी विश्वजित्खण्डः के अध्याय एकादश ( ग्यारह) में पृथ्वी के सभी यादवों को कृष्ण ने अपने सनातन विष्णु रूप का अंश बताया है।

प्रसंग देखें-

"एक समय की बात है- सुधर्मा में श्रीकृष्‍ण की पूजा करके, उन्‍हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेन ने दोनों हाथ जोड़कर धीरे से कहा।

उग्रसेन कृष्ण से बोले ! - भगवन् ! नारदजी के मुख से जिसका महान फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञ का यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्‍ठान करुँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणों से पहले के राजा लोग निर्भय होकर, जगत को तिनके के तुल्‍य समझकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे।

तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।
तब कृष्ण नें कहा था

"ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः।
जित्वारीनागमिष्यंति हरिष्यंति बलिं दिशाम् ॥७॥

"शब्दार्थ:-
१-ममांशा= मेरे अंश रूप (मुझसे उत्पन्न)
२-यादवा: सर्वे = सम्पूर्ण यादव।
३- लोकद्वयजिगीषवः = दोनों लोकों को जीतने की इच्छा वाले।
४- जिगीषव: = जीतने की इच्छा रखने वाले।
५- जिगीषा= जीतने की इच्छा - जि=जीतना धातु में + सन् भावे अ प्रत्यय = जयेच्छायां ।
६- जित्वा= जीतकर।
७-अरीन्= शत्रुओ को।
८- आगमिष्यन्ति = लौट आयेंगे।
९-हरिष्यन्ति= हरण कर लाऐंगे।
१०-बलिं = भेंट /उपहार।
११- दिशाम् = दिशाओं में।
सन्दर्भ:- गर्गसंहिता‎ खण्डः ७ विश्वजित्खण्ड)
अनुवाद:-
समस्‍त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हें। वे दौनों लोकों, को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार भी लायेंगे।७।

ब्रह्मवैवर्त पुराण तथा गर्ग सहिता में भी गोपों को स्वराटविष्णु- (गोलोक वासी कृष्ण) के हृदय- रोम कूपों से  उत्पन्न  बताया है।
देखें निम्न श्लोक-

कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने: ! "आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१। सन्दर्भ:-(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक -41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( स्वराट्-विष्णु ) के समान थे। वास्तव में स्वराट्- विष्णु का ही गोलोक धाम का रूप  कृष्ण है। जो सदैव किशोर अवस्था में रहते हैं।

इसी प्रकार  गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।

जिसे हम निम्न श्लोकों में दर्शाते हैं।
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"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः॥ गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥ काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैःप्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥२२।
सन्दर्भ:-
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥

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शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के हृदय- रोमकूप) से उत्पन्न होने से अञ्श रूप में वैष्णव ही थे। वैष्णव  ब्रह्मा की चातुर्य वर्ण-व्यवस्था से  पृथक वर्ण है।

चातुर्य- वर्णव्यवस्था ब्रह्मा की सृष्टि है तो पाँचवाँ वर्ण वैष्णव वर्ण विष्णु की सृष्टि है।

चातुर्य वर्ण व्यवस्था में ब्रह्मा की मुखज सन्तान होने से ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं।
परन्तु विष्णु के हृदय रोम कूपों से उत्पन्न होने से गोप ब्राह्मणों के भी पूज्य व उनसे श्रेष्ठ हैं।

व्याकरणीय नियम से  ब्राह्मण शब्द ( पुल्लिंग  शब्द-ब्रह्मन् से +अण् प्रत्यय )= करने पर  तद्धित प्रत्ययान्त पद के रूप में सिद्ध होता है।
जिसका अर्थ होता है ब्रह्मा की सन्तान-

ब्रह्मन्- शब्द नपुसंसक लिंग में होने पर परम-ब्रह्म का वाचक है। परन्तु पुल्लिंग रूप में केवल ब्रह्मा का वाचक है। ब्रह्मा  जो ब्राह्मणों के पिता और सांसारिक सृष्टि के रचयिता हैं।

देखें ऋग्वेद के दशम मण्डल के नब्बे वें सूक्त की यह बारहवीं ऋचा भी ब्राह्मणों की उत्पत्ति के विषय में प्रकाश डालती है। 

इस विषय में ऋचा कहती है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय बाहों से, वैश्य उरू ( नाभि और जंघा के मध्य भाग) से और शूद्र दोनों पैरों से उत्पन्न हुए हैं।

"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। (ऋग्वेद 10/90/12)

श्लोक का  अनवय युक्त अनुवाद:- इस विराटपुरुष (ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरणों से शूद्र  की उत्पत्ति हुई।(10/90/12)

इस लिए अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की ही सृष्टि हैं। जबकि विष्णु स्वयं निराकार ईश्वर का अविनाशी साकार रूप भी हैं- विष्णु का ही सांसारिक व मूल गोलोकवासी रूप कृष्ण है।

विष्णु का गो तथा गोपो से सनातन सम्बन्ध है। पृथ्वी पर जब भी स्वराज विष्णु अवतार लेते हैं तो वे केवल गोपों के ही बीच में लेते हैं।

वेदों में विष्णु लोक का वर्णन करते हुए अनेक ऋचाऐं यह उद्घोष करती हैं। विष्णु के लोक में बहुत सी स्वर्ण मण्डित गायें रहती हैं।

भारतीय वेदों में विष्णु का वर्णन "गोप" के रूप में ही हुआ  है। देखें निम्न ऋचा -

"त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥ तृणि पदा वि चक्रमे विष्णुर गोपा अदाभ्य:। अतो धर्माणि धारायं।।
(ऋग्वेद 1/22/18)

उस अविनाशी विष्णु ने गोप रूप में सम्पूर्ण लोकों को तीन पग में अभिगमन कर लिया वही धर्म को धारण करने वाला है।

शास्त्रों में पंचम वर्ण के विषय में उपर्युक्त जानकारी है। परन्तु कोई भी तथाकथित पुरोहित या कथा वाचक कभी भी यह जानकारी समाज को नहीं देता है। इसके विषय में आज तक कोई चर्चा नही होती है।

परन्तु आभीर लोग यदि आज भी ब्राह्मणों को स्वयं से श्रेष्ठ मानकर इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर ब्राह्मणीय वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं ।

तो ब्राह्मण लोग  उन्हें वैश्य और शूद्र वर्ण  ही मानते हैं। और स्मृति ग्रन्थों में विशेषत: मनुस्मृति में इस प्रकार की काल्पनिक मन गड़न्त श्लोक  भी बनाकर जोड़े गये हैं। जिसमें तथाकथित ब्राह्मणो ने अहीरों अपनी अवैध सन्तान बताया है। इसके लिए
मनुस्मृति का अध्याय दश का पन्द्रहवाँ श्लोक देखें-

विचार करना होगा कि जो गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर ( हृदय रोम कूप) से उत्पन्न हैं । और जबकि ब्राह्मण विष्णु के नाभि कमल की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं ।  तो इन दौंनों में किसकी श्रेष्ठता है। कालान्तर में धर्म की ठेकेदारी ब्राह्मणों ने अपने हाथ में लेकर अपने आप को बिना मतलब ही श्रेष्ठ बना कर लिख दिया- यहाँ तक की ब्राह्मण व्यभिचारी और कुकर्मी भी हो तो भी वह पूज्य है ।

तुलसी दास तभी  जहालत में लिख गये  "पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।"
(रामचरित.मानस. ३।३४।२)

अर्थः "शील और गुण से हीन ब्राह्मण भी पूजनीय है और गुणों से युक्त और ज्ञान में निपुण शूद्र भी पूजनीय नहीं है।"

तुलसी से पहले यही बात मनुस्मृति, पाराशर स्मृति और अन्य स्मृतियाों में लिखी गयी । जैसे

"दु:शीलोऽपि द्विज: पूजयेत् न शूद्रो विजितेन्द्रिय: क: परीतख्य दुष्टांगा दोहिष्यति शीलवतीं खरीम् (पाराशर-स्मृति 192)

शील का मतलब:- चाल ,व्यवहार, आचारण। वृत्ति अथवा चरित्र है।  — जैसा कि उद्धरण है।
'भाव' ही कर्म के मूल प्रवर्तक और शील के संस्थापक हैं।—रस०, पृ० १६१।

विशेष—बौद्ध शास्त्रों में दस शील कहे गए हैं—हिंसा, स्त्येन, व्यभिचार, मिथ्याभाषण, प्रमाद, अपराह्न भोजन, नृत्य गीतादि, मालागंधादि, उच्चासन शय्या और द्रव्यसंग्रह इन सब का त्याग।

उपर्युक्त गद्यांशों में केवल शील का अर्थ बताना है।
तुलसी दु:शील ब्राह्मण को पूजने की बात कह रहे हैं
वह भी  धर्म ग्रन्थ की आढ़ में

परन्तु शूद्र कही जाने वाली मेहनत कश जाति के काबिल और विद्वान होने पर भी सम्मानित न करने की भी बात भी कह रहें हैं।
ये कैसी सामाजिकता?

मतलब धर्म और समाज का ठेका  पुरोहितों ने ही ले लिया। वह भी दर दर भीख माँग कर - शा~ आ ~~बास!!!

दु:शील का मतलब चरित्रहीन भी है। ऐसे ब्राह्मणों को पूजने का विधान बनाकर धर्म का सत्यानाश ही किया गया है ।

दुर्जना दासवर्गाश्च पटहाः पशवस्तथा ।
ताडिता मार्दवं यान्ति दुष्टा स्त्री व्यसनी नरः।५५।

दुर्जन= गँवार। दास = शूद्र! पटह = बड़ा ढोल! पशव = पशुगण। ताडिता ( प्रताडिता- पिटे हुए होकर- मार्दव= कोमलता (अधीनता) को प्राप्त होते हैं।
दुष्ट नारी और व्यसनी नर भी प्रताणित होकर कोमल हो जाते हैं।
अनुवाद:-
दुष्ट, दास, बड़े ढोल और पशु और दुष्टा नारी ।
मार खाकर  ही मृदुता ( अधीनता) को डरते मारे  प्राप्त हो जाते हैं ।

तुलसी दास ने ढोल गवाँर शूद्र पशु नारी की चौपाई यहीं से इ़अनुवाद की है। यहाँ भी ता जन का अर्थ पीटना ही है। नकि समझाना-

गोपों को भी स्मृतिग्रन्थों नीच और  दुष्कर्म से उत्पन्न सन्तान दर्शाकर धर्म शास्त्रों की मर्यादा को तोड़ा है।

अत: गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं यह बात प्राचीन ग्रन्थों में दर्ज ही है।।

इसका साक्ष्य पद्मपुराण उत्तर खण्ड, वृहद-नारदपुराण-
ब्रह्म-वैवर्त पुराण ब्रह्म-खण्ड और गर्ग संहिता विश्व जित्खण्ड में है।

पञ्चम वर्ण वैष्णव के पक्ष में ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा पद्म पुराण उत्तराखण्ड से   निम्न श्लोक देखने योग्य हैं।

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ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह) में चार वर्णों से पृथक पाँचवा वर्ण वैष्णव की एक स्वतंत्र जाति आभीर का वर्णन किया है।

"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रोजातयोयथा। स्वतन्त्राजातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३।

अनुवाद- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति गोप है।(१.२.४३)

___________
सन्दर्भ:-(ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय ग्यारह)-१/२/४३
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उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।

वैष्णव ही इन अहीरों का  वर्ण है ।
अत: यादव अथवा गोप गण ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था में समाहित नही हैं ।

परन्तु रूढ़िवादी पुरोहितों ने अहीरों के विषय में इतिहास छुपा कर बाते लिखीं हैं।
और ब्रह्मा के द्वारा निर्मित वर्णन व्यवस्था में शामिल कर उन्हें वैश्य तथा शूद्र बनाने का असफल प्रयास किया है।

और वैष्णव वर्ण सभी चार वर्णों में श्रेष्ठ है उसको छुपाया गया है । अब हम वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता के साक्ष्य देते हैं नीचे देखें-

"सर्वेषांचैववर्णानांवैष्णवःश्रेष्ठ-उच्यते ।
येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः॥ ४
(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -६८)

अनुवाद:- महेश्वर ने कहा:-मैं तुम्हें उस तरह के एक आदमी का वर्णन करूंगा। चूँकि वह विष्णु का है, इसलिए उसे वैष्णव कहा जाता है। सभी जातियों में वैष्णव को सबसे महान कहा जाता है।

प्राचीन युग का वर्णधर्म; सत्ययुगमें मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।-

भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।

"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥

"त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी।
विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥२०॥

"विप्रक्षत्रियविटशूद्रा मुखबाहूरुपादजाः।
वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥२१॥"
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--२०-२१)

अनुवाद:-(भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है।

हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए।
बाद में विराट पुरुष ( ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।
उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥

पहले सभी ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होने से ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए कोई क्षत्रिय हुआ तो कोई वैश्य- और कोई शूद्र हो गया।

महाभारत में भी इस बात की पुष्टि निम्न श्लोक से होती है

"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्। ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)

अनुवाद:-भृगु ने कहा-ब्राह्मणादि भृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बाद में कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥

परन्तु आभीर लोग सतयुग से ही संसार में धर्म का प्रसारण करने वाले सदाचारी ( अच्छे व्रत का ज्ञाता व पालन करने वाले ! हुए ।

धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
___________________________________
अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।

हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य की सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।

विष्णु भगवान की अवधारणा प्राचीन मेसोपोटामिया की संस्कृतियों में भी है।

विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में है जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।

वही विष्णु अहीरों में गोप रूप में जन्म लेता है । और अहीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।

विदित हो की "आभीर शब्द "अभीर का समूह वाची "रूप है। जो अपने प्रारम्भिक रूप में वीर शब्द से विकसित हुई है।

अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।

और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।

हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।

अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।

"चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे। अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है । जो अफ्रीका कि अफर" जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को जिम्बाब्वे मेें था।

"तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थे सभी पशुपालक व चरावाहे थे।

भारतीय संस्कृत भाषा ग्रन्थों में अमीर और आभीर दो पृथक शब्द प्रतीत होते हैं परन्तु अमीर का ही समूहवाची अथवा बहुवचन रूप आभीर है।

परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: वर्णन किया है। देखें नीचे क्रमश: विवरण-

१- आ=समन्तात् + भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है

- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।

अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोश कार- तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की है।

"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुखकरके चारो-ओर गायें चराता है उन्हें घेरता है। वाचस्पत्य के पूर्ववर्ती कोशकार "अमर सिंह" की व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।

जबकि तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय ( profation) को अभिव्यक्त करती है ।
और व्यक्तियों की प्रवृति भी वृत्ति( व्यवसाय-)से निर्मित होती है। जैसे सभी "वकालत करने वाले अधिक बोलने वाले तथा अपने मुवक्किल की पहल-(lead the way) करने में वाणीकुशल होते हैं। जैसे डॉक्टर ,ड्राइवर आदि - अत: किसी भी समाज के दोचार व्यक्तियों सम्पूर्ण जाति या समाज की प्रवृति का आकलन करना बुद्धिसंगत नहीं है।

"प्रवृत्तियाँ जातियों अथवा नस्लों की विशेषता है और स्वभाव व्यक्ति के पूर्वजन्म के संस्कार का प्रभाव-"

क्योंकि अहीर "वीर" चरावाहे थे यह वीरता इनकी पशुचारण अथवा गोचारण वृत्ति से पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी जातियों में समाविष्ट हो गयी !
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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है यह पूर्व ही उल्लेख कर चुके हैं। ।

जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ; जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।

इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।

अत: ययाति के पूर्व पुरुषों की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा। और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही कालान्तर अधिक रूढ़ हो गया।

अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुस्-नहुष' और ययाति आदि का भी नाम नहीं था।

तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है । वही अहीर जाति का ही रूप है। वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है ।

अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं।

वैवाहिक मर्यादा के लिए समाज में गोत्र अवधारणा सुनिश्चित की गयी ताकि सन्निकट रक्त सम्बन्धी पति -पत्नी न बन सकें क्योंकि इससे तो भाई बहिन की मर्यादा ही दूषित हो जाएगी।

      "जय श्री राधे कृष्णाभ्याम् नमो नम: !



गुरुवार, 9 मई 2024

वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता के साक्ष्य

  1. महेश्वर उवाच- शृणु नारद! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।
  2. तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मिसाम्प्रतम्।२
  3. विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवःश्रेष्ठ उच्यते ।३।                                      -१-महेश्वर- उवाच ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं । १।                            २-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।                                    ३-चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाता है; और सभी वर्णों मे वैष्णव श्रेष्ठ कहे जाता है।३।          "पद्म पुराण उत्तराखण्ड अध्याय(६८  श्लोक संख्या १-२-३।

मंगलवार, 7 मई 2024

व्यू टी पार्लर और महिलाएं-

अक्ल बाँटने लगे विधाता, लम्बी लगी कतारी । 
सभी आदमी खड़े हुए थे, कहीं नहीं थी नारी ।।
सभी नारियाँ कहाँ रह गयीं, था ये अचरज भारी । 
पता चला ब्यूटी पार्लर में, पहुँच गयीं थीं सारी ।।
मेकअप की थी गहन प्रक्रिया, एक एक पर भारी । 
बैठी थीं कुछ इन्तजार में, कब आयेगी बारी ।।
उधर विधाता ने पुरूषों में, अक्ल बाँट दी सारी । 
पार्लर से फुर्सत पा कर के, जब पहुँची सब नारी ।।
बोर्ड लगा था स्टॉक ख़त्म है, नहीं अक्ल अब बाकी । 
रोने लगी सभी महिलाएँ, नीन्द खुली ब्रह्मा की ।।
पूछा कैसा शोर हो रहा, ब्रह्मलोक के द्वारे ? 
पता चला कि स्टॉक अक्ल का पुरुष ले गये सारे ।।
ब्रह्मा जी ने कहा देवियों, बहुत देर कर दी है। 
जितनी भी थी अक्ल सभी वो, पुरुषों में भर दी है ।।
लगी चीखने महिलाएँ, ये कैसा न्याय तुम्हारा ? 
कुछ भी करो, चाहिए हमको आधा भाग हमारा ।।
पुरुषों में शारीरिक बल है,हम ठहरी अबलाएँ । 
अक्ल हमारे लिए जरुरी, निज रक्षा कर पाएँ ।।
बहुत सोच दाढ़ी सहला कर, तब बोले ब्रह्मा जी । 
इक वरदान तुम्हे देता हूँ, हो जाओ अब राजी ।।
थोड़ी सी भी हँसी तुम्हारी, रहे पुरुष पर भारी । 
कितना भी वह अक्लमन्द हो, अक्ल जायेगी मारी ।।
एक बोली, क्या नहीं जानते ! स्त्री कैसी होती है ? 
हँसने से ज्यादा महिलाएँ, बिना बात रोती हैं ।।
ब्रह्मा बोले यही कार्य तब, रोना भी कर देगा । 
औरत का रोना भी नर की, बुद्धि को हर लेगा ।।
इक बोली, हमको ना रोना, ना हँसना आता है । 
झगड़े में हैं सिद्धहस्त हम, झगड़ा ही भाता है ।।
ब्रह्मा बोले चलो मान ली, यह भी बात तुम्हारी । 
घर में जब भी झगड़ा होगा, होगी विजय तुम्हारी ।।
जग में अपनी पत्नी से जब कोई पति लड़ेगा । 
पछतायेगा, सिर ठोकेगा आखिर वही झुकेगा ।।
ब्रह्मा बोले सुनो ध्यान से, अन्तिम वचन हमारा ।
तीन शस्त्र अब तुम्हें दे दिये, पूरा न्याय हमारा ।।
इन अचूक शस्त्रों में भी, जो मानव नहीं फँसेगा । 
बड़ा विलक्षण जगतजयी ऐसा नर दुर्लभ होगा ।।
कहे कवि सब बड़े ध्यान से, सुन लो बात हमारी । 
बिना अक्ल के भी होती है, नर पर भारी नारी ।। -

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सोमवार, 6 मई 2024

राधा की माता कलावती- का शिवपुराण में वर्णन

शिवपुराण  (रुद्रसंहिता) खण्डः ३ (पार्वतीखण्डः) अध्यायः (२)


           "नारद उवाच"
विधे प्राज्ञ वदेदानीं मेनोत्पत्तिं समादरात् ।।
अपि शापं समाचक्ष्व कुरु संदेहभञ्जनम् ।।१।।

             "ब्रह्मोवाच"
शृणु नारद सुप्रीत्या मेनोत्पत्तिं विवेकतः ।।
मुनिभिः सह वक्ष्येहं सुतवर्य्य महाबुध ।।२।।

दक्षनामा मम सुतो यः पुरा कथितो मुने ।।
तस्य जाताः सुताः षष्टिप्रमितास्सृष्टिकारणाः ।।३।।

तासां विवाहमकरोत्स वरैः कश्यपादिभिः ।।
विदितं ते समस्तं तत्प्रस्तुतं शृणु नारद ।। ४ ।।
_______
तासां मध्ये स्वधानाम्नीं पितृभ्यो दत्तवान्सुताम् ।।
तिस्रोभवन्सुतास्तस्यास्सुभगा धर्ममूर्तयः ।। ५ ।।

तासां नामानि शृणु मे पावनानि मुनीश्वर ।।
सदा विघ्नहराण्येव महामंगलदानि च ।।६।।

मेनानाम्नी सुता ज्येष्ठा मध्या धन्या कलावती।।
अन्त्या एतास्सुतास्सर्वाः पितॄणाम्मानसोद्भवाः ।।७।।

अयोनिजाः स्वधायाश्च लोकतस्तत्सुता मताः।।।
आसाम्प्रोच्य सुनामानि सर्वान्कामाञ्जनो लभेत् ।।८।।

जगद्वन्द्याः सदा लोकमातरः परमोददाः ।।
योगिन्यः परमा ज्ञाननिधानास्तास्त्रिलोकगाः ।।९।।

एकस्मिन्समये तिस्रो भगिन्यस्ता मुनीश्वर ।।
श्वेतद्वीपं विष्णुलोकं** जग्मुर्दर्शनहेतवे।।2.3.2.१०।।

कृत्वा प्रणामं विष्णोश्च संस्तुतिं भक्तिसंयुताः ।।
तस्थुस्तदाज्ञया तत्र सुसमाजो महानभूत् ।।११।।

तदैव सनकाद्यास्तु सिद्धा ब्रह्मसुता मुने ।।
गतास्तत्र हरिं नत्वा स्तुत्वा तस्थुस्तदाज्ञया।।१२।।

सनकाद्यान्मुनीन्दृष्ट्वोत्तस्थुस्ते सकला द्रुतम् ।।
तत्रस्थान्संस्थितान्नत्वा देवाद्याँल्लोकवन्दितान् ।। १३ ।।

तिस्रो भगिन्यस्तांस्तत्र नोत्तस्थुर्मोहिता मुने ।।
मायया दैवविवशाश्शङ्करस्य परात्मनः ।। १४ ।।

मोहिनी सर्व लोकानां शिवमाया गरीयसी ।।
तदधीनं जगत्सर्वं शिवेच्छा सा प्रकीर्त्यते ।।१५।।

प्रारब्धं प्रोच्यते सैव तन्नामानि ह्यनेकशः ।।
शिवेच्छया भवत्येव नात्र कार्या विचारणा ।।१६।।

भूत्वा तद्वशगास्ता वै न चक्रुरपि तन्नतिम्।।
विस्मितास्सम्प्रदृश्यैव संस्थितास्तत्र केवलम् ।। १७ ।।

तादृशीं तद्गतिं दृष्ट्वा सनकाद्या मुनीश्वराः ।।
ज्ञानिनोऽपि परं चक्रुः क्रोधं दुर्विषहं च ते ।।१८।।

शिवेच्छामोहितस्तत्र सक्रोधस्ता उवाच ह ।।
सनत्कुमारो योगीशश्शापन्दण्डकरं ददन् ।। १९ ।।

                "सनत्कुमार उवाच ।।
यूयं तिस्रो भगिन्यश्च मूढाः सद्वयुनोज्झिताः ।।
अज्ञातश्रुतितत्त्वा हि पितृकन्या अपि ध्रुवम् ।। 2.3.2.२०।।

अभ्युत्थानं कृतं नो यन्नमस्कारोपि गर्वतः ।।
मोहिता नरभावत्वात्स्वर्गाद्दूरा भवन्तु हि ।।२१।।

नरस्त्रियः सम्भवन्तु तिस्रोऽपि ज्ञानमोहिताः ।।
स्वकर्मणः प्रभणावे लभध्वं फलमीदृशम् ।।२२।।

              "ब्रह्मोवाच"
इत्याकर्ण्य च साध्व्यस्तास्तिस्रोऽपि चकिता भृशम्।।
पतित्वा पादयोस्तस्य समूचूर्नतमस्तकाः ।।२३।।

पितृतनया ऊचुः ।।
मुनिवर्य्य दयासिन्धो प्रसन्नो भव चाधुना ।।
त्वत्प्रणामं वयं मूढाः कुर्महे स्म न भावतः ।।२४ ।।

प्राप्तं च तत्फलं विप्र न ते दोषो महामुने ।।
अनुग्रहं कुरुष्वात्र लभेम स्वर्गतिम्पुनः ।। २५ ।।

               "ब्रह्मोवाच"
श्रुत्वा तद्वचनं तात प्रोवाच स मुनिस्तदा ।।
शापोद्धारं प्रसन्नात्मा प्रेरितः शिवमायया ।। २६ ।।

             "सनत्कुमार उवाच"
पितॄणां तनयास्तिस्रः शृणुत प्रीतमानसाः ।।
वचनं मम शोकघ्नं सुखदं सर्वदैव वः ।। २७ ।।

विष्णोरंशस्य शैलस्य हिमाधारस्य कामिनी ।।
ज्येष्ठा भवतु तत्कन्या भविष्यत्येव पार्वती ।।२८।।

धन्या प्रिया द्वितीया तु योगिनी जनकस्य च ।।
तस्याः कन्या महालक्ष्मीर्नाम्ना सीता भविष्यति।। २९।।

वृषभानस्य  गोपस्य कनिष्ठा च कलावती ।।
भविष्यति प्रिया राधा तत्सुता द्वापरान्ततः।। 2.3.2.३०।।

मेनका योगिनी पत्या पार्वत्याश्च वरेण च ।।
तेन देहेन कैलासं गमिष्यति परम्पदम् ।। ३१ ।।

धन्या च सीतया सीरध्वजो जनकवंशजः ।।
जीवन्मुक्तो महायोगी वैकुण्ठं च गमिष्यति ।।३२।

कलावती वृषभानोः कौतुकात्कन्यया सह ।।
जीवन्मुक्ता च गोलोकं गमिष्यति न संशयः ।३३।

विना विपत्तिं महिमा केषां कुत्र भविष्यति ।।
सुकर्मिणां गते दुःखे प्रभवेद्दुर्लभं सुखम् ।३४।

यूयं पितॄणां तनयास्सर्वास्स्वर्गविलासिकाः ।।
कर्मक्षयश्च युष्माकमभवद्विष्णुदर्शनात् ।। ३५ ।।

इत्युक्त्वा पुनरप्याह गतक्रोधो मुनीश्वरः ।।
शिवं संस्मृत्य मनसा ज्ञानदं भुक्तिमुक्तिदम् ।।३६।।

अपरं शृणुत प्रीत्या मद्वचस्सुखदं सदा ।।
धन्या यूयं शिवप्रीता मान्याः पूज्या ह्यभीक्ष्णशः।३७।

मेनायास्तनया देवी पार्वती जगदम्बिका ।।
भविष्यति प्रिया शम्भोस्तपः कृत्वा सुदुस्सहम् ।। ३८।।

धन्या सुता स्मृता सीता रामपत्नी भविष्यति ।।
लौकिकाचारमाश्रित्य रामेण विहरिष्यति ।३९ ।
___________
कलावतीसुता राधा साक्षाद्गोलोकवासिनी ।।
गुप्तस्नेहनिबद्धा सा कृष्णपत्नी भविष्यति ।।2.3.2.४० ।।
________________
                "ब्रह्मोवाच"
इत्थमाभाष्य स मुनिर्भ्रातृभिस्सह संस्तुतः।।
सनत्कुमारो भगवाँस्तत्रैवान्तर्हितोऽभवत् ।।४१।।

तिस्रो भगिन्यस्तास्तात पितॄणां मानसीः सुताः ।।
गतपापास्सुखं प्राप्य स्वधाम प्रययुर्द्रुतम् ।।४२।।

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे पूर्वगतिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।।

अध्याय 2 - मेना और अन्य लोग सनक आदि का अपमान करते हैं।

 रुद्र-संहिता (3): पार्वती-खंड
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[इस अध्याय के लिए संस्कृत पाठ उपलब्ध है]

                नारद ने कहा:-
1. हे बुद्धिमान ब्रह्मा, कृपया अब मुझे मैना की उत्पत्ति और उनके अवतरण के बारे में श्रद्धापूर्वक बताएं। कृपया मेरा संदेह दूर करें.

               ब्रह्मा ने कहा:-
2. हे नारद और अन्य ऋषियों,  अब मेना की उत्पत्ति की कथा सुनो। 
3. हे श्रेष्ठ पुत्र, हे महान विद्वान, मैं अब इसका वर्णन करूंगा।

3. हे ऋषि, मैं आपको अपने पुत्र दक्ष के बारे में पहले ही बता चुका हूँ। उनकी साठ बेटियाँ थीं जो सभी सृष्टि का साधन थीं।

4. उन्होंने कश्यप और अन्य  ऋषियों  के साथ  विवाह  किया। आप वह सब पहले से ही जानते हैं। हे नारद, अब वर्तमान कथा सुनो।

5. उनमें से एक पुत्री स्वधा पितरों को दे दी गयी। उसकी तीन बेटियाँ थीं, जो सभी सुन्दर विशेषताओं वाली और गुणवती थीं।

6. हे श्रेष्ठ ऋषि, उनके पवित्र नामों को सुनो जो बाधाओं को दूर करते हैं और आशीर्वाद प्रदान करते हैं।

7. मैना सबसे बड़ी थी। धन्या बीच वाली थी. कलावती सबसे छोटी थी।  ये सभी पितरों की मानसिक रूप से उत्पन्न  पुत्रियाँ थीं।

8. उनका जन्म स्वधा के गर्भ से नहीं हुआ था। उन्हें परंपरागत रूप से ही उसकी पुत्रीयाँ माना जाता था। इनके नाम का स्मरण करने से मनुष्य अपनी मनोकामना पूरी कर सकते हैं।

9. जगत् की माताएँ समस्त ब्रह्माण्ड के लिए सदैव पूजनीय हैं। वे महान् आनन्द प्रदान करने वाले हैं। वे महान योगिनियाँ, ज्ञान की भण्डार हैं। वे तीनों लोकों में व्याप्त हैं।

10. हे श्रेष्ठ ऋषि, एक बार तीनों बहनें दर्शनीय स्थलों की यात्रा के लिए विष्णु के लोक  श्वेतद्वीप (सफेद द्वीप) में गईं।

11. विष्णु को प्रणाम करने और भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करने के बाद वे उनके आदेश पर वहीं रुक गए। वहां लोगों का एक बड़ा जमावड़ा लगा हुआ था.

12. हे ऋषि, उसी समय, सिद्ध, ब्रह्मा के पुत्र - सनक और अन्य वहां आए। उन्होंने विष्णु को प्रणाम किया और उनकी स्तुति की और उनके आदेश पर वहीं रुक गये।

13. उन ऋषियों को देखकर सनक आदि अन्य लोग तथा जो लोग वहां इकट्ठे हुए थे, खड़े हो गये। जब वे, लोगों के आदर करनेवाले देवताओं के समक्ष, बैठे, तो सब ने उनको दण्डवत् किया।

14. दुर्भाग्य से असहाय और भगवान शिव की माया से मोहित होकर, तीनों बहनें खड़ी नहीं हुईं।

15. शिव की माया भारी है और संसार को मोहित करने में सक्षम है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसके अधीन है। इसे शिव की इच्छा भी कहा जाता है।

16. वही कार्य कहलाता है जिसका फल मिलना प्रारम्भ हो गया हो। इसके नाम अनेक हैं. सब कुछ शिव की इच्छा पर होता है। इस संबंध में विचार करने की कोई बात नहीं है।

17. इस माया का शिकार होकर बहनों ने सनकादि  को प्रणाम नहीं किया। इसके बाद वे उन्हें देखकर आश्चर्यचकित और स्तब्ध रह गयीं।

18. उनके ऐसे व्यवहार को देखकर महर्षि, सनक और अन्य ऋषि, बुद्धिमान होने के बावजूद, भी असहनीय क्रोधित हो गए।

19. स्वयं शिव की माया से मोहित होकर सिद्ध योगी सनक ने गुस्से में आकर उन्हें दण्ड के रूप में शाप देने की बात कही।

             "सनतकुमार कहते हैं:-
20. तुम तीनों बहनें पितरों की पुत्रियां होते हुए भी मूर्ख, बुद्धि से रहित और वेदों के सार से अनभिज्ञ हो।

21. आप खड़ी नहीं हुईं और न ही आपने हमें कोई सम्मान दिया। आप अभिमानी और भ्रमित थीं और इसलिए आपने मनुष्यों का भ्रमित स्वभाव प्रदर्शित किया। अत: तुम सब स्वर्ग छोड़ दोगीं।

22. अज्ञान से मोहित हुई तीनों बहनें मानव नारी के रूप में जन्म लें। क्या आप यह फल अपने कर्म की शक्ति के परिणामस्वरूप प्राप्त कर सकते हों।

              "ब्रह्मा ने कहा:-
23. यह सुनकर पवित्र कुमारियां घबरा गईं। तीनों उसके पैरों पर गिर पड़े और सिर झुकाकर बोलीं।

            "पितरों की बेटियों ने कहा:-
24. “हे श्रेष्ठ ऋषि, दया के सागर, अब प्रसन्न हो जाओ। क्योंकि हम मानसिक रूप से भ्रमित थीं इसलिए हमने आपके सामने सिर नहीं झुकाया।

25 हे महर्षियों, उसका फल हमें प्राप्त हो चुका है। हे महर्षि, इसमें आपकी कोई गलती नहीं है। अब हमें आशीर्वाद दें जिससे हम फिर से स्वर्ग में निवास प्राप्त करेंगे।

               "ब्रह्मा ने कहा:-
26 हे प्रिय, उनकी बातें सुनकर ऋषि ने उन से बातें कीं। उन्हें शिव की माया ने शाप से मुक्ति दिलाने के लिए प्रेरित किया था। उन्हें थोड़ा सांत्वना मिली.

            "सनतकुमार कहते हैं:-
27. हे पितरों की तीनों पुत्रियों, मेरे वचन आनन्द से सुनो, जो तुम्हारा दु:ख दूर करके तुम्हें सुख देगा।

28. तुममें से जो ज्येष्ठ है, वह विष्णु के अंश हिमवत पर्वत की पत्नी बने।
 पार्वती उनकी पुत्री होंगी।

29. दूसरी बेटी धन्या जनक की पत्नी योगिनी होगी। उनकी पुत्री सीता के नाम पर महालक्ष्मी होगी।

30. सबसे छोटी कलावती गोप-वृषभान की पत्नी होगी। द्वापर के अंत में राधा उनकी पुत्री होंगी।

31. पार्वती के वरदान के कारण योगिनी मैना अपने शरीर सहित और अपने पति के साथ महान क्षेत्र कैलास को प्राप्त करेगी।

32. जनक के वंश में जन्मी सीता से जनक को आशीर्वाद मिलेगा और वह एक जीवित मुक्त आत्मा होंगे। एक महान योगी, वह वैकुण्ठ को प्राप्त करेगा।

33. वृषभान के पुण्य से कलावती एक जीवित मुक्त आत्मा बन जाएगी और अपनी बेटी के साथ गोलोक  को प्राप्त करेगी। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।

34. प्रतिकूलता के बिना कोई महानता कैसे प्राप्त कर सकता है ? अच्छे संस्कारों वाले व्यक्तियों के लिए, यदि दुःख मिट जाए तो सुख पहुँचना कठिन हो जाएगा।

35. तुम पितरों की पुत्रियां स्वर्ग में सुशोभित होगीं। विष्णु के दर्शन से तुम्हारे बुरे कर्म शांत हो गये हैं।”

36. यह कहने के बाद, ऋषि ज्ञान, सांसारिक सुख और मोक्ष के दाता शिव के बारे में सोचकर अपने क्रोध से मुक्त हो गए।

37. आगे सुनो मेरे वचन तुम्हें सदैव सुखदायक लगते हैं। आप सभी शिव की प्रसन्नता से धन्य हैं। अत: आप तुरंत आदर और सम्मान के पात्र बन जाओगीं।

38. मैना की बेटी, देवी पार्वती, ब्रह्मांड की मां, कठोर तपस्या करने के बाद शिव की पत्नी बन जाएंगी।

39. धन्या की बेटी सीता राम की पत्नी बनेगी। सांसारिक परंपराओं के आधार पर वह राम के साथ क्रीड़ा करेगी।

40. गोलोक निवासी कलावती की पुत्री राधा, गुप्त प्रेम से कृष्ण के साथ संयुक्त होकर उनकी पत्नी बनेगी।
************
                  "ब्रह्मा ने कहा:-
41 इतना कहकर विधिवत स्तुति किये जाने पर वे पवित्र मुनि सनत्कुमार अपने भाइयों सहित वहीं अन्तर्धान हो गये।

42. तीनों बहनें, पितरों की मानसिक रूप से गर्भित बेटियां, अपने पापों से मुक्त हो गईं और खुशी प्राप्त की। वे शीघ्रता से अपने आवास पर लौट आये।

फ़ुटनोट और संदर्भ:
[1]:

 श्वेतद्वीप- इस द्वीप की पहचान करना संभव नहीं हो सका है। कर्नल विल्फोर्ड ने इसकी पहचान ब्रिटेन से करने का प्रयास किया। 
[2]:




            "सनत्कुमार उवाच ।।
पितॄणां तनयास्तिस्रः शृणुत प्रीतमानसाः ।।
वचनं मम शोकघ्नं सुखदं सर्वदैव वः ।।२७।।

विष्णोरंशस्य शैलस्य हिमाधारस्य कामिनी ।।
ज्येष्ठा भवतु तत्कन्या भविष्यत्येव पार्वती ।।२८।।

धन्या प्रिया द्वितीया तु योगिनी जनकस्य च ।।
तस्याः कन्या महालक्ष्मीर्नाम्ना सीता भविष्यति ।। २९ ।।

वृषभानोर्गोपस्य कनिष्ठा च कलावती ।।
भविष्यति प्रिया राधा तत्सुता द्वापरान्ततः ।। 2.3.2.३० ।।

मेनका योगिनी पत्या पार्वत्याश्च वरेण च ।।
तेन देहेन कैलासं गमिष्यति परम्पदम् ।। ३१ ।।

धन्या च सीतया सीरध्वजो जनकवंशजः ।।
जीवन्मुक्तो महायोगी वैकुण्ठं च गमिष्यति ।।३२।

कलावती वृषभानस्य कौतुकात्कन्यया सह ।।
जीवन्मुक्ता च गोलोकं गमिष्यति न संशयः ।३३।

विना विपत्तिं महिमा केषां कुत्र भविष्यति ।।
सुकर्मिणां गते दुःखे प्रभवेद्दुर्लभं सुखम् ।३४।

यूयं पितॄणां तनयास्सर्वास्स्वर्गविलासिकाः ।।
कर्मक्षयश्च युष्माकमभवद्विष्णुदर्शनात् ।। ३५ ।।

इत्युक्त्वा पुनरप्याह गतक्रोधो मुनीश्वरः ।।
शिवं संस्मृत्य मनसा ज्ञानदं भुक्तिमुक्तिदम् ।। ३६।।

                    अनुवाद:-

                सनतकुमार कहते हैं:-
27. हे पितरों की तीनों पुत्रियों, तुम सब मेरे वचन आनन्द से सुनो, जो तुम्हारा दु:ख दूर करके तुम्हें सुख देगा।

28. तुममें से जो ज्येष्ठ है, वह विष्णु के अंश हिमवत पर्वत की पत्नी बने  पार्वती उनकी पुत्री होंगी।

29. दूसरी बेटी धन्या जनक की पत्नी योगिनी होगी। उनकी पुत्री सीता के नाम पर महालक्ष्मी होगी।

30. सबसे छोटी कलावती गोप-वृषभान की पत्नी होगी। द्वापर के अंत में राधा उनकी पुत्री होंगी।

31. पार्वती के वरदान के कारण योगिनी मैना अपने शरीर सहित और अपने पति के साथ महान क्षेत्र कैलास को प्राप्त करेगी।

32. जनक के वंश में जन्मी सीता से जनक को आशीर्वाद मिलेगा और वह एक जीवित मुक्त आत्मा होंगे। एक महान योगी, वह वैकुण्ठ को प्राप्त करेगा।

33. वृषभान के पुण्य से कलावती एक जीवित मुक्त आत्मा बन जाएगी और अपनी बेटी के साथ गोलोक  को प्राप्त करेगी। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।

34. प्रतिकूलता के बिना कोई महानता कैसे प्राप्त कर सकता है ? अच्छे संस्कारों वाले व्यक्तियों के लिए, यदि दुःख मिट जाए तो सुख पहुँचना कठिन हो जाएगा।

35. तुम पितरों की पुत्रियां स्वर्ग में सुशोभित होगीं। विष्णु के दर्शन से तुम्हारे बुरे कर्म शांत हो गये हैं।”

36. यह कहने के बाद, ऋषि ज्ञान, सांसारिक सुख और मोक्ष के दाता शिव के बारे में सोचकर अपने क्रोध से मुक्त हो गए।

37. आगे सुनो मेरे वचन तुम्हें सदैव सुखदायक लगते हैं। आप सभी शिव की प्रसन्नता से धन्य हैं। अत: आप तुरंत आदर और सम्मान के पात्र बन जाओगीं।

38. मैना की बेटी, देवी पार्वती, ब्रह्मांड की मां, कठोर तपस्या करने के बाद शिव की पत्नी बन जाएंगी।

39. धन्या की बेटी सीता राम की पत्नी बनेगी। सांसारिक परंपराओं के आधार पर वह राम के साथ क्रीड़ा करेगी।

40. गोलोक निवासी कलावती की पुत्री राधा, गुप्त प्रेम से कृष्ण के साथ संयुक्त होकर उनकी पत्नी बनेगी।
************
ब्रह्मा ने कहा:-
41 इतना कहकर विधिवत स्तुति किये जाने पर वे पवित्र मुनि सनत्कुमार अपने भाइयों सहित वहीं अन्तर्धान हो गये।

42. तीनों बहनें, पितरों की मानसिक रूप से गर्भित बेटियां, अपने पापों से मुक्त हो गईं और खुशी प्राप्त की। वे शीघ्रता से अपने आवास पर लौट आये।

टिप्पणी और संदर्भ:
[1]:

 श्वेतद्वीप- इस द्वीप की पहचान करना संभव नहीं हो सका है। कर्नल विल्फोर्ड ने इसकी पहचान ब्रिटेन से करने का प्रयास किया। 

आभीर सुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |
अस्या : शख्यश्च ललिता विशाखाद्या:
 सुविश्रुता: |83 |।
_____________________________________
अहीरों की कन्यायों में राधा श्रेष्ठा है ;  
जो वृन्दावन की स्वामिनी है और ललिता , विशाखा आदि जिसकी सखीयाँ  हैं |83||

उद्धरण ग्रन्थ   "श्रीश्री राधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूप गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु शिष्य-

मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

मोहन प्यारे तेरे द्वारे।

मोहन प्यारे तेरे द्वारे।
करता आज पुकार मैं-
दुनियाँँ झूँठी किस्मत रूठी और नइया मझधार में-
मोहन प्यारे तेरे द्वारे ।
करता आज पुकार मैं-
         मुखड़ा-
            
खाटू वाले श्याम निराले ।
जीवन मेरा अब तेरे हबाले-
दीन दु:खियों के ओ रखवाले-
क्यों भटक रहा बेकार मैं-
मोहन प्यारे तेरे द्वारे।
करता आज पुकार मैं-
       अन्तरा-१

वृन्दावन की सन्त गलिन में
लेकर आया अन्त: मलिन मैं-
कभी तंज और, तन्हाई को झेला-
सूने पथ पर मैं पथिक अकेला
चलता धीमी  रफ्तार में-
       अन्तरा २

मोहन प्यारे तेरे द्वारे।
करता आज पुकार मैं-
दुनियाँँ झूँठी किस्मत रूठी और नइया मझधार में-
मोहन प्यारे तेरे द्वारे ।
करता आज पुकार मैं-

चंचल मन है क्षणभंगुर काया 
कभी सत्य का मैंने सार न पाया।
दुनियाँ के सब  नौटंकी मेले-
करते करते ही समय बिताया।
साँसों को भी  बैच दिया 
 इस गफलत के  बाजार में 
         अन्तर-३

मोहन प्यारे तेरे द्वारे।
करता आज पुकार मैं-
दुनियाँँ झूँठी किस्मत रूठी और नइया मझधार में-
मोहन प्यारे तेरे द्वारे ।
करता आज पुकार मैं-

जज्वा जो मेरे जेहन में समाया।
बदनशींवी के जुल्मत का  साया
उम्र का सूरज भी ढलने को आया
तेरी माया का कोई भेद न पाया
समय निकल गया है गुबार में-

मोहन प्यारे तेरे द्वारे।
करता आज पुकार मैं-
दुनियाँँ झूँठी किस्मत रूठी और नइया मझधार में-
मोहन प्यारे तेरे द्वारे ।
करता आज पुकार मैं-
        
   गीतकार- वीरपाल- यादव