असुर शब्द को दो प्रकार से परिभाषित किया गया है :—
असु नाम की शुभङ्कर शक्ति से युक्त असु + र; ऋग्वेद में असुर शब्द इस अर्थ में है, एवं इन्द्र, वरुण, आदि ऋग्वेदिक देवताओं को भी असुर की उपाधि से विभूषित किया गया है।
असुर शब्द को जो अ+सुर; अर्थात जो सुर न हो इस अर्थ में भी वर्णन किया गया है। पौराणिक विहङ्गम में यही मुख्य अर्थ है।
असुर शब्द की व्युत्पत्ति की विस्तृत व्याख्या इस आलेख में उपलब्ध है।
वर्तमान समय में असुर शब्द को सुरों के विरोधी के अर्थ में ही सीमित कर दिया गया है।
इस आलेख में शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर दैत्यों तथा दानवों को भी देने वाले की रूप में; तथा राक्षसों की रक्षण करने वाले के अर्थ में व्याख्या की गई है।
असुरों का सुर विरोधी होने के अर्थ में होने और देवताओं के सुर कहलाने का कारण जाने के लिए सुर शब्द कुछ भी व्याख्या आवश्यक है।
असुर शब्द की व्युत्पत्ति में यह स्पष्ट है कि असुर शब्द के शुभ करने वाली दिव्य शक्ति के अर्थ में अनेक भारोपीय बन्धु शब्द हैं। ऋग्वेद में भी असुर शब्द शुभ दिव्य शक्ति के अर्थ में है। किन्तु सुर शब्द के अन्य भारोपीय बन्धु शब्द न होने से अनेक शोधार्थी इसे असुर के विलोम शब्द के रूप में व्युत्पन्न मानते हैं। न कि असुर शब्द को सुर के विलोम रूप में।
सुर [सुष्ठु राति ददात्यभीष्टं; सु-रा-क्त] शब्द की व्युत्पत्ति रा धातु से हुई है; इस धातु से देने, मनोकामना पूर्ण करने, आदि के अर्थ में शब्दों की रचना होती है।
रा रा दाने अदादिः परस्मैपदी सकर्मकः अनिट् (देना, मिल जाना, अनुदान ) — धातुपाठ २.५२ (कौमुदीधातुः-१०५७)
सुर शब्द को सूर्य (जो जीवनदायी प्रकाश देता है), विद्वान व्यक्ति (जो ज्ञान देता है), तथा मनोकामनाएँ पूर्ण कर देने वाले देवताओं के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। चूँकि देवताओं का वर्गीकरण तैंतीस कोटियों में किया गया है; ३३ की सङ्ख्या को भी सुर कहा गया है।
स्वर को भी सुर ही कहते हैं। जीवनदायी जल को सुर कहा जाता है; वहीं, मद्य (सुरा), चषक (मद्यपात्र) को भी सुर कहा जाता है।
सुरा को भी दो भिन्न प्रकार से परिभाषित किया गया है —
धनवान के अर्थ में
सुराः / सुरै [धनवान् । सु शोभनो रा धनं यस्येति बहुव्रौहौ कृते रैशब्दस्य रादेशेन निष्पन्नः ॥ ];
तथा;
सु अभिषवे + क्रन् । स्त्रियां टाप्;
जो अभीष्ट की प्राप्ति कराए; यह शब्द इस प्रकार मद्य, जल, तथा चषक के अर्थ में है।
सुरा मूलतः चावल अथवा अङ्कुरित यव (जौ / तक्म) के दानों को खमीर (नगन्हू) युक्त औषधिय वनस्पतियों से खमीर उठाकर बनाने का विवरण कात्यायन श्रोत सूत्र में मिलता है।
दक्षिणेन हृत्वा नग्नहुचूर्णानि कृत्वा तांश्च व्रीहि-श्यामाकौदनयो! एथगापृथगाचामौ निषिच्य चूर्णे: सर्ठ०सृज्य निदघाति तन्मासरम् ॥ २० ॥
ओदनौ चूर्णमासरैः सर्ठ०सृज्य “खाद्वी त्वार्ठ ०शुना त” इति (१९।१,२०।२७) त्रिरात्र निदघाति ॥ २१ ॥
—कात्यायन श्रोत सूत्र
यह यज्ञ के लिए बनाया गया पेय है; जो साके अथवा बियर के समतुल्य है। चूँकि यह देवताओं को अर्पण करने के लिए बनाया जाता रहा है। अतः कुछ स्थानों पर यह विवरण मिलता है कि जिन्होंने यज्ञ का सुरापान किया, वे सुर तथा जिन्हें इससे वञ्चित रखा गया वे असुर कहलाए। यथा, सौत्रामणी यज्ञ में विशेषकर इन्द्र को सुरापान करने का आह्वान किया जाता है; शाङ्खायनश्रौतसूत्र में यम, अश्विन, सरस्वती, इन्द्र आदि को सुरापान का इस मन्त्र के साथ आह्वान किया जाता है :—
यमश्विना नमुचावासुरे दधि सरस्वत्यसुनोदिन्द्रियाय
इमं तं शुक्रं मधुमन्तमिन्दुं सोमं राजानमिह भक्षयामि
इति भक्षमन्त्रः सुरायाः॥— शाङ्खायनश्रौतसूत्र १५.१५.१३ ॥
देवता भी अपने आह्वान करने वालों को सुरा प्रदान करते हैं; यह ऋग्वेद की इस ऋचा से सुस्पष्ट है :—
युवं नरा स्तुवते पज्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरंधिम् ।
कारोतराच्छफादश्वस्य वृष्णः शतं कुम्भाँ असिञ्चतं सुरायाः ॥७॥— ऋग्वेदः १.११६.७
भावार्थ :—
हे नेतृत्व क्षमता से संपन्न अश्विनीकुमारों आपने पज्रिकुल के काक्षीवान को, नगर की रक्षा के लिए परामर्श दिए; आपने अपने बलशाली घोड़े के खुर की आकृति के एक पात्र से आपने सुरा के सौ घड़े भर दिए।
कहीं कहीं सुरा को मधु के साथ भी व्यक्त किया गया है; अतः यह मधु (शहद; फूलों ले रस) की मदिरा भी हो सकती है।
वैसे, पौराणिक विहङ्गम में विशेषकर ब्रह्माण्ड पुराण, विष्णु पुराण, पद्म-पुराण में समुद्रमन्थन के समय समुद्र से वारुणी (सुरा की देवी जिन्हे वरुण की पुत्री भी कहते हैं) के उत्पन्न होने का विवरण मिलता है। इन्हें दैत्यों ने अस्वीकार किया; किन्तु, देवताओं ने अपनाया, अतः देवता सुर कहलाए!
ध्यान दें कि यद्यपि सुरापान को अधिकांश वैदिक, तथा वेदोत्तर काल का विहङ्गम वर्जित करता है; विशेषकर ब्राह्मणों के लिए! किन्तु, देवताओं पर वह नियम नहीं लगाए जा सकते जोकि मानवों पर लगाए जाते हैं। यथा, पद्मपुराण से,
सुलक्ष्मीर्नाम सा चैका द्वितीया वारुणी तथा ।
ज्येष्ठा नाम तथा ख्याता कामोदान्या प्रचक्षते ८।
तासां मध्ये वरा श्रेष्ठा पूर्वं जाता महामते ।
तस्माज्ज्येष्ठेति विख्याता लोके पूज्या सदैव हि ९।
वारुणीपानरूपा च पयःफेनसमुद्भवा ।
अमृतस्य तरंगाच्च कामोदाख्या बभूव ह १०।
सोमो राजा तथा लक्ष्मीर्जज्ञाते अमृतादपि ।
त्रैलोक्यभूषणः सोमः संजातः शंकरप्रियः ११।
मृत्युरोगहरा जाता सुराणां वारुणी तथा ।
ज्येष्ठासु पुण्यदा जाता लोकानां हितमिच्छताम् १२। — पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः)/अध्यायः ११९
[(समुद्रमन्थन से जो चार कन्याएँ प्रकट हुईं) उनमें से एक का नाम सुलक्ष्मी और दूसरी का वारुणी था। तीसरी ज्येष्ठा तथा चतुर्थ कामोदा के नाम से प्रसिद्ध है। हे ज्ञानीजनों, इन महिलाओं में से सर्वश्रेष्ठ का जन्म अतीत में हुआ था अतः वह जगत में ज्येष्ठ कहलाती है और सदैव पूजी जाती है। वरुणी पेय के रूप में है और वह फेन (झाग) के रूप में प्रकट हुई थी। अमृत की तरङ्ग से उत्पन्न से वह कामोदा कहलाई। सोम देव (चन्द्रमा) तथा लक्ष्मी भी इसी अमृत से प्रकट हुईं। सोम तीनों लोकों का आभूषण बने और शिव को प्रिय हुए। इसी प्रकार वारुणी सुरों की मृत्यु और रोग के नाश करने वाली बन गईं। ज्येष्ठा संसार के लोगों के कल्याण का कारण बनीं। ]
इस प्रकरण को गीता प्रेस गोरखपुर के अनुवाद में वारुणी (सुरा की अधिष्ठात्री देवी) को देवताओं द्वारा त्यागने और असुरों द्वारा स्वीकारने का विवरण दिया गया है; जोकि मनमाना अनुवाद है।
तत्पश्चात् वारुणी (मदिरा) देवी प्रकट हुई, जिसके मदभरे नेत्र घूम रहे थे। वह पग-पगपर लड़खड़ाती चलती थी। उसे अपवित्र मानकर देवताओंने त्याग दिया। तब वह असुरोंके पास जाकर बोली--'दानवो ! मैं बल प्रदान करनेवाली देवी हूँ, तुम मुझे ग्रहण करो ।' दैत्योंने उसे ग्रहण कर लिया ।
यद्यपि,नारद पुराण में वारुणी को श्री विष्णु की आज्ञा से असुरों को देने का विवरण मिलता है।
यदा सुरासुरैर्देवि मथितः क्षीरसागरः ।।
कामोदा सा तदोत्पन्ना कन्यारत्नचतुष्टये ।। ६८-४ ।।कन्या रमाख्या प्रथमा द्वितीया वारुणी स्मृता ।।
कामोदाख्या तृतीया तु चतुर्थी तु वराभिधा ।। ६८-५ ।।तत्र कन्यात्रयं प्राप्तुं विष्णुना प्रभविष्णुना ।।
वारुणी त्वसुरैर्नीता विष्णुदेवाज्ञया सति ।। ६८-६ ।।
[हे देवी, जब क्षीरसागर का देवताओं और राक्षसों ने मन्थन किया था, तब चार कन्या रत्न उत्पन्न हुईं। पहली कन्या का नाम रमा और दूसरी का नाम वारुणी रखा गया; तीसरी को कमोदा और चौथी को वरा कहा जाता है। तब सर्वशक्तिमान भगवान विष्णु को तीन कन्याएँ प्राप्त हुईं; एवं भगवान विष्णु के आदेश से वरुणी को राक्षसों ने ले लिया।]
इससे यह प्रतीत होता है कि देवताओं द्वारा सुरा की अधिष्ठात्री देवी वारुणी को ग्रहण करने के बारे में पुराण एकमत नहीं हैं।
विशेष टिप्पणी :—
देवता (देव एव स्वार्थे तल्) अथवा देव (दिव्--अच्) शब्दों की व्युत्पत्ति दिव् धातु से हुई है। इस धातु की व्याख्या यह है:—
दिव् दिवुँ परिकूजने चुरादिः आत्मनेपदी अकर्मकः सेट् (दुःख देना, शोक करना, सताना)
— धातुपाठ १०.२३० (कौमुदीधातुः-१७०७)
दिव् दिवुँ मर्दने चुरादिः उभयपदी सकर्मकः सेट् (मर्दन करना, रगड़ ना)
— १०.२४९ (कौमुदीधातुः-१७२५)
सम्भवतः यह हम सबके लिए झटका है कि व्युत्पत्ति की दृष्टि से देवता न केवल सुरापान करने वाले हैं; अपितु, वे मर्दन करने वाले, कष्ट और दुःख देने वाले भी हैं।
यह भाव फ़ारसी भाषा के دیو (देव) तथा अवेस्तन भाषा के 𐬛𐬀𐬉𐬎𐬎𐬀 (दैव) शब्दों के अर्थ में भी मिलता है।
अतः देव शब्द को "दीव्यत्यनेनेति । दिव + करणे घञ्" (खेल-क्रीडा करने वाले) के रुप में इन्द्रियों; तथा "दीव्यति आनन्देन क्रीडतीति दिव + अच् " (आनन्द से क्रीडा करने वाले) के अर्थ में परिभाषित किया गया है।
किन्तु, भारोपीय शब्दावली की तुलना करने पर यह देव शब्द दिवस (प्रकाश वाले समय) के परामानवीय अस्तित्व को व्यक्त करता है।
अनातोलियाई भाषाओं लीसियन में 𐊈𐊆𐊇 (जिव), लीदियन में 𐤣𐤦𐤥𐤦 (दिवि), लूवियश में 𒋾𒉿𒊍 (तिवाज, “एक सूर्य देवता”), पालाइक में 𒋾𒅀𒊍 (तियाज), आर्मेनियाई में աստուած (असु-तुआज; प्राचीन काल असु (अच्छा, शुभ) देवता; अब यह झूठे देवता के अर्थ में; यह शब्द असु के परिवर्तनशील अर्थ का एक अन्य उदाहरण है); केल्टिक भाषा परिवार में ब्रेटोन में doue (दौरे) कोर्निश में dew (देव), वेल्श में duw (दूध), गॉलिसियन में Deva (एक नदी माता का नाम), Dēuos (देउओस), Dēwos (देवोस), आयरिश में dia (दिया), Dé (दे), स्कॉटिश गॉलिक में dia (दिया), लात्वीयाई dìevs (दिवेस), लिथुआनियाई diẽvas (दीवेस), अंग्रेजी में Tiw (टिव), नोर्स, आइसलैण्डिक, स्वीडिश, आदि में týr (टीर) , गोथिक में 𐍄𐌴𐌹𐍅𐍃 (तेइवेस), तथा लातिन में deus, (देउस), dīvus (दीवुस) इन सभी शब्दों की व्युत्पत्ति भारोपीय मूल शब्द *deywós (देय्वोस; देव) से ही परिकल्पित है।
भारोपीय धातु शब्द *dyew- (द्येव; द्यु — चमक, आकाश) इससे निकट का सम्बन्ध रखती है; जिससे दिवस (दीव्यत्यत्र दिव्—असच् किच्च) शब्द की व्युत्पत्ति है। अतः देव का दिव्य, द्युति, और दिवस से प्राचीन सम्बन्ध है।
सुरा तथा अवेस्तन भाषा के 𐬵𐬎𐬭𐬁 (हुरा) की व्युत्पत्ति भारोपीय धातु *sew- (सेव; गाढ़ा द्रव, निचोड़) से मानी गई है; सोम तथा अवेस्तन 𐬵𐬀𐬊𐬨𐬀 (होम; सोम), एवं ग्रीक ὕω (हुओं; बरसना) एवं लातिन sucus (सुकुस; चूसना); अंग्रेजी suck (सक; चूसना) इसी धातु शब्द से व्युत्पन्न हैं।