महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 296 श्लोक 1-13
षण्णवत्यधिकद्विशततम (296) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
पराशरगीता-वर्णविशेष की उत्पत्ति का रहस्य, तपोबल से उत्कृष्ट वर्ण् की प्राप्ति, विभिन्न वर्णों के विशेष और सामान्य धर्म, सत्कर्म की श्रेष्ठता तथा हिंसारहित धर्म का वर्णन
जनक ने पूछा - वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ। आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्पन्न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्मदाता पिता ही नूतन जन्म धारण करता है। ऐसी दशा में प्रारम्भ में ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए ब्राह्ममणों से ही सबका जन्म हुआ है, तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ? पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि
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पराशर उवाच। | |
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः। तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३। | |
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः। अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४। |
जिससे जो जन्म लेता है, उसी का वह स्वरूप होता है तथापि तपस्या की न्यूनता के कारण लोग निकृष्ट जाति को प्राप्त हो गये हैं । उत्तम क्षेत्र और उत्तम बीज से जो जन्म होता है, वह पवित्र ही होता है। यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्नकोटिका हो तो उससे निम्न संतान की ही उत्पत्ति होती है ।
धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्यों का प्रादुर्भाव हुआ था । तात ! जो मुख से उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्पत्ति हुई। इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं । नरेश्वर ! क्षत्रिय, अतिरथ, अम्बष्ठ, उग्र, वैदेह, श्वपाक, पुल्कस, स्तेन, निषाद, सूत, मागध, अयोग, करण, व्रात्य और चाण्डाल - ये ब्राह्मण आदि चार वर्णों से अनुलोम और विलोम वर्ण की स्त्रियों के साथ परस्पर संयोग होने से उत्पन्न होते हैं । जनक ने पूछा - मुनिश्रेष्ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्म दिया है, तब मनुष्यों के भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।
ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्पन्न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्व को कैसे प्राप्त हुए ? पराशर जी ने कहा - राजन ! तपस्या से जिनके अन्त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्मा पुरूषों के द्वारा जिस संतान की उत्पत्ति होती है, अथवा वे स्वेच्छा से जहाँ-कहीं भी जन्म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि से निकृष्ट होने पर भी उसे उत्कृष्ट ही मानना चाहिये । नरेश्वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्पन्न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया ।
विदेहराज ! मेरे पितामह वसिष्ठजी, काश्यम-गोक्त्रीय ॠष्यश्रृगं, वेद, ताण्ड्य, कृप, कक्षीवान्, कमठ आदि, यवक्रीत, वक्ताओं में श्रेष्ठ द्रोण, आयु, मतंग, दत्त, द्रुपद तथा मत्स्य - ये सब तपस्या का आश्रय लेने से ही अपनी-अपनी प्रकृति को प्राप्त हुए थे।
इन्द्रिय संयम और तप से ही वे वेदों के विद्वान तथा समाज में प्रतिष्ठित हुए थे । पृथ्वीनाथ ! पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।
मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।
अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं।
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं ।
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
जनक ने पूछा - भगवन् ! आप मुझे सब वर्णों के विशेष धर्म बताइये, फिर सामान्य धर्मों का भी वर्णन कीजिये; क्योंकि आप सब विषयों का प्रतिपादन करने में कुशल हैं । पराशर जी ने कहा - राजन ! दान लेना, यज्ञ कराना तथा विद्या पढाना-ये ब्राह्मणों के विशेष धर्म हैं (जो उनकी जीविका के साधन हैं )। प्रजा की रक्षा करना क्षत्रिय के लिये श्रेष्ठ धर्म है । नरेश्वर ! कृषि, पशुपालन और व्यापार - ये वैश्यों के कर्म हैं तथा द्विजातियों की सेवा शूद्र का धर्म है । महाराज ! ये वर्णों के विशेष धर्म बताये गये हैं। तात ! अब उनके साधारण धर्मों का विस्तारपूर्वक वर्णन मुझसे सुनो । क्रूरता का अभाव (दया), अंहिसा, अप्रमाद (सावधानी), देवता-पितर आदि को उनके भाग समर्पित करना अथवा दान देना, श्राद्धकर्म, अतिथिसत्कार, सत्य, अक्रोध, अपनी ही पत्नी में संतुष्ट रहना, पवित्रता रखना, कभी किसी के दोष न देखना, आत्मज्ञान तथा सहनशीलता - ये सभी वर्णों के सामान्य धर्म हैं । नरश्रेष्ठ ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य - ये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। उपर्युक्त धर्मों में इन्हीं का अधिकार है । नरेश्वर ! ये तीन वर्ण विपरीत कर्मों में प्रवृत होने पर पतित हो जाते हैं। सत्पुरूषों का आश्रय ले अपने-अपने कर्मों में लगे रहने से जैसे इनकी उन्नति होती है, वैसे ही विपरीत कर्मों के आचरण से पतन भी हो जाता है ।
यह निश्चय है कि शूद्र पतित नहीं होता तथा वह उपनयन आदि संस्कार का भी अधिकारी नहीं है। उसे वैदिक अग्निहोत्र आदि कर्मों के अनुष्ठान का भी अधिकार नहीं प्राप्त है; परंतु उपर्युक्त सामान्य धर्मों का उसके लिये निषेध भी नहीं किया गया है । महाराज विदेहनरेश ! वेद-शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न द्विज शूद्र को प्रजापति के तुल्य बताते हैं (क्योंकि वह परिचार्या द्वारा समस्त प्रजा का पालन करता है); परंतु नरेन्द्र ! मैं तो उसे सम्पूर्ण जगत के प्रधान रक्षक भगवान विष्णु के रूप में देखता हूँ (क्योंकि पालन कर्म विष्णुका ही है और वह अपने उस कर्म द्वारा पालनकर्ता श्रीहरि की आराधना करके उन्हीं को प्राप्त होता है) । हीनवर्ण के मनुष्य (शुद्र) यदि अपना उद्धार करना चाहें तो सदाचार का पालन करते हुए आत्मा को उन्नत बनाने वाली समस्त क्रियाओं का अनुष्ठान करें; परंतु वैदिक मन्त्र का उच्चारण न करें। ऐसा करने से वे दोष के भागी नहीं होते हैं ।
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