गुरुवार, 12 दिसंबर 2024

यादव वंश-

यादव जाति - एक परिचय

यादव जाति : एक परिचय :-

(1)
यदोवनशं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः परमुच्यते।
यत्राव्तीर्णं कृष्णाख्यं परंब्रह्म निराकृति ।।
(श्री विष्णु पुराण)

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(2)
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणां ।
यदोर्वन्शं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।
यत्र-अवतीर्णो भग्वान् परमात्मा नराकृतिः।
यदोसह्त्रोजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः।।
(श्रीमदभग्वत् -महापुराण)

अर्थ:

(यदु वंश परम पवित्र वंश है. यह मनुष्य के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है. इस वंश में स्वयम भगवान परब्रह्म ने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था जिन्हें श्रीकृष्ण कहते है. जो मनुष्य यदुवंश का श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा.
यादव भारत एवं नेपाल में निवास करने वाला एक प्रमुख जाति है, जो चंद्रवंशी राजा यदु के वंशज हैं | इस वंश में अनेक शूरवीर एवं चक्रवर्ती राजाओं ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने बुद्धि, बल और कौशल से कालजयी साम्राज्य की स्थापना किये | भाफ्वान श्री कृष्ण इनके पूर्वज माने जाते हैं |

प्रबुद्ध समाजशास्त्री एम्. एस ए राव के अनुसार यादव एक हिन्दू जाति वर्ण, आदिम जनजाति या नस्ल है, जो भारत एवं नेपाल में निवास करने वाले परम्परागत चरवाहों एवं गड़ेरिया समुदाय अथवा कुल का एक समूह है और अपने को पौराणिक राजा यदु के वंशज मानते हैं | इनका मुख्य व्यवसाय पशुपालन और कृषि था |

यादव जाति की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या के लगभग 16% है | अलग-अलग राज्यों में यादवों की आबादी का अनुपात अलग-अलग है| 1931 ई० की जनगणना के अनुसार बिहार में यादवों की आबादी लगभग 11% एवं उत्तर प्रदेश में 8.7% थी| यादव भारत की सर्वाधिक आबादी वाली जाति है, जो कमोबेश भारत के सभी प्रान्तों में निवास करती है| नेपाल में भी यादवों के आबादी लगभग 20% के आसपास है| नेपाल के तराई क्षेत्र में यादव जाति की बहुलता अधिक है, जहाँ इनकी आबादी 45 से 50% है|
यादव जाति को भारत के भिन्न – भिन्न राज्यों एवं क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है
1.      गुजरात – अहीर, जडेजा, चुडासमा, नंदवंशी, भरवाड, परथारिया, सोराथिया, पंचोली, मस्चोइय
2.      पंजाब, हरियाणा एवं दिल्ली – अहीर, सैनी, राव, यादव, हरल
 3.      राजस्थान – अहीर, यादव4.      उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ – अहीर, यादव, महाकुल, ग्वाला, गोप, किसनौत, मंझारौठ, गोरिया, गौर, भुर्तिया, राउत आदि5.      प बंगाल एवं उड़ीसा – घोष, ग्वाला, सदगोप, यादव, पाल, प्रधान,
6.      हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड – यादव, रावत
7.      महाराष्ट्र – यादव, जाधव, कुरुबा, धनगर, गवली, गोल्ला, गायकवाड़, अहीर, सोलास्कर, खेदकर8.      कर्नाटक – कुरुबा, धांगर,  वाडियार, गोल्ला, ग्वाला, यादव9.      आंध्रप्रदेश – कुरुबा, कुरुम्बार, कुरुमा, गोल्ला, यादव
10.   तमिलनाडु – कोनार, आयर, मायर, ईडैयर, नायर, इरुमान, यादव, वदुगा आयर्स
11.   केरल – मनियानी, कोलायण, उरली नायर, एरुवान, नायर

यादव गोत्र
महाराष्ट्र:- अहीर, यादव, गवली,राधव, धांगर,ग्वाला, गौल्ला, पंवार, शिर्द भालेकर, धूमल, लटके, घोले, धगे, महादिक, 
खेडकर, वजहा, नारे, फगबले, डाबरे, मिरटल, काटे, किलाजे, तटकर, चीले, दलाया, बनिया, जांगडे|

उत्तर प्रदेश:-   अहीर, घोसी, ग्वाला, यादव, यदुवंशी | अहीरों की शाखाएं हें: वेणुवंशी, भिरगुडी, दोहा, धनधौरी, 
गद्दी, गोमला, घोड़चढ़ा, घोषी, गुजर, खूनखुनिया, राजोरिया, और रावत |
मध्य युग में यादवों का एक समूह मराठों में, दूसरा जाटों में और तीसरा समूह, राजपूतों में विलीन हो गए| 
जैसलमेर के भाटी यादव राजपूत हो गये, पटियाला, नाभा, आदि के जादम शासक जाट हो गए| इसी प्रकार भरतपुर के यादव शासक भी कालांतर में जाट संघ में विलीन होकर जाट कहलाने लगे|
उत्तर प्रदेश, राजस्थान, व मध्य प्रदेश के जादौन अपने को कृष्ण के वंशज बताते हें पर ठाकुर कहलवाते हें| शिवाजी की माँ जिजाबाई यादव वंश में पैदा हुई थी|
पटियाला के महधिराज का तो विरुद्ध ही था: "यदुकुल अवतंश, भट्टी भूषण|"

मध्य प्रदेश:- 
अहीर, ग्वाला, ग्वाल, गोलाआ, कंस, ठाकुर, जाधव (जादव), गोप, राउत,थेटवार,राव, घोषी आदि |
इनके दो मुख्य भाग है:- हवेलियों में रहने वाले, तथा बिरचिया- जंगलो में बसनेवाले यादव|

आन्ध्रप्रदेश:-   गोल्ला, धनगर, एड्द्यर, कोनार, कुब्र, कुर्वा, यादव, पेरागेल्ला (कुछ अपने नाम के अंत में राव, 
रेड्डी, रेड्द्य्याह, स्वामी, आदि लगाते है|
 गोत्र/ शाखाए:- फल्ला, पिनयानि, प्रकृति, दुई, सरसिधिदी, सोनानोयाना, नमी, डोकरा, प्रिय्तल, मनियाला, रोमला, बोरी, तुमदुल्ला, खारोड़, कोन एव गुन्तु बोयना|

आसाम, त्रिपुरा, सिक्किम, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल आदि पूर्वी राज्य:- ग्वाला, घोष, गोअल, गोआला, गोप, अहीर, यादव, मंडल, पाल|

आन्दमान तथा निकोबार द्वीप समूह:- यादव, रोलाला, काटू, भाटी एवं कोणार|

बिहार:- यादव,ग्वाला, गोप, अहीर, सदगोप,घोषी, नंदगोप, गोरिया,गोयल, सफलगोप|
मुख्य शाखाएं:- महरोत,सत्मुलिया, किशनोंत, गोरिया या दहिराज तथा धहियारा,मंडल, महतो (महता),गुरुमहता, खिरहरी, मारिक,भंडारी, मांजी, लोदवयन,राय, रावत, नन्दनिया|

गुजरात:- आहिर, अहीर,यादव, ग्वाला|

हरियाणा, चन्दीगढ़,पंजाब, हिमाचल,राजस्थान, एवं दिल्ली के यादव अहीर, ग्वाला,गोवाला, राव तथा यादव कहलाते है|

कर्णाटक:- गौल्ला, गौवली,गोपाल, यादव, अस्थाना,अडवी, गोल्ला, हंबर,दुधिगोला, कोणार, गौडा,गौड़ा|
कन्नड़ गौला की शाखाएं:- हल, हव, कड, कम्पे, उज|

बेलगाँव की शाखाएं:- अडवी अथवा तेलगु, हनम,किशनौत, लेंगुरी, पकनक,और शस्यगौला|

बीजापुर की शाखाएं:- मोरे,पवार, शिंदे, और यादव अथवा जाधव (जादव)

केरल:- यादव, एडायन,एरुमन, कोयला, कोलना,मनियाना, अय्यर, नैयर,उर्लीनैयर, कोणार, पिल्लै,कृष्नावाह, नाम्बियार|

गोवा:- यादव, ग्वलि, ग्वाला,अहीर, गोप, गवली|

तमिलनाडु और पांडिचेरी:-एथियर, एडियर,कोणार,उदयर, यादवन, वडूगा अय्यर, वदुगा एदेअय्यर,गोल्ला, मोंड गोल्ला, कोण,पिल्लै, मंथी, दास, करयालन,

पश्चिमी बंगाल:- अहीर, गोल्ला, गोप, सदगोप, घोष, यादव, मंडल, ग्वार, पाल, दास, महतो, मासिक, फाटक, गुरुमहता,  कपास|

उड़ीसा:- प्रधान, गोला, गोल्ला, गोप, सदगोप, अहीर, गौर्र, गौडा, मेकल, गौल्ला, यादव, पाल, भुतियाँ, रावत, गुर्भोलिया, महतो|

दादरा एवं नागर हवेली:- अहीर/ आहिर, भखाद, यादव|

यादव जाति की उत्पत्ति
पौराणिक ग्रंथों, पाश्चात्य साहित्य, प्राचीन एवं आधुनिक भारतीय साहित्य, उत्खनन से प्राप्त सामग्री तथा विभिन्न शिलालेखों और अभिलेखों के विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है के यादव जाति के उत्पति के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित है | धार्मिक मान्यताओं एवं हिन्दू ग्रन्थों के अनुसार यादव जाति का उद्भव पौराणिक राजा यदु से हुई है | जबकि भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्य एवं पुरातात्विक सबूतों के अनुसार प्राचीन आभीर वंश से यादव (अहीर) जाति की उत्पति हुई है | इतिहासविदों के अनुसार आभीर का ही अपभ्रंश अहीर है |
हिन्दू महाकाव्य ‘महाभारत’ में यादव एवं आभीर (गोप) शब्द का समानांतर उल्लेख हुआ है | जहाँ यादव को चद्रवंशी क्षत्रिय बताया गया है वहीँ आभीरों का उल्लेख शूद्रों के साथ किया गया है | पौराणिक ग्रन्थ ‘विष्णु पुराण’, हरिवंश पुराण’ एवं ‘पदम् पुराण’ में यदुवंश का विस्तार से वर्णन किया गया है |
यादव वंश प्रमुख रूप से आभीर (वर्तमान अहीर), अंधक, वृष्णि तथा सात्वत नामक समुदायो से मिलकर बना था, जो कि भगवान कृष्ण के उपासक थे। यह लोग प्राचीन भारतीय साहित्य मे यदुवंश के एक प्रमुख अंग के रूप मे वर्णित है। प्राचीन, मध्यकालीन व आधुनिक भारत की कई जातियाँ तथा राज वंश स्वयं को यदु का वंशज बताते है और यादव नाम से जाने जाते है।
जयंत गडकरी के कथनानुसार, " पुराणों के विश्लेषण से यह निश्चित रूप से सिद्ध होता है कि अंधक, वृष्णि, सात्वत तथा अभीर (अहीर) जातियो को संयुक्त रूप से यादव कहा जाता था जो कि श्रीक़ृष्ण की उपासक थी। परंतु यह भी सत्य है की पुराणो मे मिथक तथा दंतकथाओं के समावेश से इंकार नहीं जा सकता, किन्तु महत्वपूर्ण यह है कि पौराणिक संरचना के तहत एक सुदृढ़ सामाजिक मूल्यो कीप्रणाली प्रतिपादित की गयी थी|

लुकिया मिचेलुत्ती के यादवों पर किए गए शोधानुसार -
यादव जाति के मूल मे निहित वंशवाद के विशिष्ट सिद्धांतानुसार, सभी भारतीय गोपालक जातियाँ, उसी यदुवंश से अवतरित है जिसमे श्रीक़ृष्ण (गोपालक व क्षत्रिय) का जन्म हुआ था .....उन लोगों मे यह दृढ विश्वास है कि वे सभी श्रीक़ृष्ण से संबन्धित है तथा वर्तमान की यादव जातियाँ उसी प्राचीन वृहद यादव सम समूह से विखंडित होकर बनी हैं।
 
क्रिस्टोफ़ जफ़्फ़ेर्लोट के अनुसार,
यादव शब्द कई जातियो को आच्छादित करता है जो मूल रूप से अनेकों नामों से जाती रही है, हिन्दी क्षेत्र, पंजाब व गुजरात में- अहीर, महाराष्ट्र,गोवा, आंध्र व कर्नाटक में-गवली, जिनका सामान्य पारंपरिक कार्य चरवाहे,गोपालक व दुग्ध-विक्रेता का था।
लुकिया मिचेलुत्ती के विचार से -
यादव लगातार अपने जातिस्वरूप आचरण व कौशल को उनके वंश से जोड़कर देखते आए हैं जिससे उनके वंश की विशिष्टता स्वतः ही व्यक्त होती है। उनके लिए जाति मात्र पदवी नहीं है बल्कि रक्त की गुणवत्ता है, और ये द्रष्टव्य नया नही है। अहीर (वर्तमान मे यादव) जाति की वंशावली एक सैद्धान्तिक क्रम के आदर्शों पर आधारित है तथा उनके पूर्वज, गोपालक योद्धा श्री कृष्ण पर केन्द्रित है, जो कि एक क्षत्रिय थे।
सैन्य वर्ण ( मार्शल रेस )
वर्ष 1920 मे भारत मे अंग्रेज़ी हुकूमत ने यदुवंशी अहीर जाति को सैन्य वर्ण ( मार्शल रेस ) के रूप मे सेना मे भर्ती हेतु मान्यता दी,जबकि पहले से ही सेना मे उनकी भर्ती होती आ रही थी तथा अहीर सैनिको की 4कंपनियाँ बनाई गयीं। भारत- चीन युद्ध के दौरान यादव सैनिकों का पराक्रम व बलिदान भारत मे आज तक सरहनीय माना जाता है।
उपजातीयां व कुल गोत्र
यादव मुख्यतया यदुवंशी,नंदवंशी व ग्वालवंशी उपजातीय नामो से जाने जाते है, अहीर समुदाय के अंतर्गत 20 से भी अधिक उपजातीया सम्मिलित हैं। वे प्रमुखतया ऋषि गोत्र अत्रि से है तथा अहीर उपजातियों मे अनेकों कुल गोत्र है जिनके आधार पर सगोत्रीय विवाह वर्जित है।
भारत की मौजूदा आर्य क्षत्रिय जातियों में अहीर सबसे पुराने क्षत्रिय हैं। जब तक जाट, राजपूत, गूजर और मराठा नामों की सृष्टि भी नहीं हुई थी, अहीरों का अभ्युदय हो चुका था। ब्रजमें अहीरों की एक शाखा गोपों का कृष्ण-काल में जो राष्ट्र था, वह प्रजातंत्र प्रणाली द्वारा शासित 'गोपराष्ट्र' के नाम से जाना जाता था।

शूरसेन या मथुरा मंडल जिसमें श्रीकृष्ण के लीला स्थल विशेष रुप से सम्मिलित है, भक्तिकाल में ब्रज प्रदेश के रुप में प्रसिद्ध हुआ। पुराणकाल में यह क्षेत्र मथुरा मंडल तथा विभिन्न ग्रंथों में शूरसेन जनपद के रुप में विख्यात रहा था। वर्तमान ब्रज क्षेत्र पर यदि ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए तो यह क्षेत्र भी कभी एक सुरम्य वन प्रदेश था, जहाँ प्रमुख रुप से आभीर निवास करते थे। मथुरा राज्य के आदि संस्थापक मधु ने हरिवंश पुराण में स्वयं कहा है कि मेरे राज्य में चारों ओर आभीरों की बस्ती है।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार आभीर जाति आर्यों से इतर थी और उनकी संस्कृति बहुत समृद्ध थी तथा आर्यों की संस्कृति से उसमें काफी असमानता थी। आभीरों में स्री-स्वातंत्र्य आर्यों की अपेक्षा अधिक था, वे नृत्य-गान में परम प्रवीण और दो वेणी धारण करने वाली थीं। 'हल्लीश' या 'हल्लीसक नृत्य' इन आभीरों की सामाजिक नृत्य था, जिसमें आभीर नारियाँ अपनी रुचि के किसी भी पुरुष के साथ समूह बनाकर मंडलाकार नाचती थीं। हरिवंश पुराण के हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय में उल्लेख है- कृष्ण की इंद्र पर विजय के उपरांत आभीर रमणियों ने उनके साथ नृत्य करने का प्रस्ताव किया। भाई या पति व अन्य आभीरों के रोकने पर भी वे नहीं रुकीं और कृष्ण को खोजने लगीं-
ता वार्यमाणा: पतिमि भ्रातृभिर्मातृमिस्तथा।
कृष्ण गोपांगना रात्रो मृगयन्ते रातेप्रिया:।।
- हरिवंश, हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय, श्लोक २४
आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था। नृत्य का स्वरुप स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्र का टीका में अभिनव गुप्त ने कहा है-
मंडले च यत स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकंतु तत्।
नेता तत्र भवदेको,गोपस्रीणां यथा हरि:।।
इसी नृत्य को श्री कृष्ण ने अपनी कला से सजाया तब वह रास ने नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण 'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं। द्वारका के राज दरबार में प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त द्वारका आकर उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रुप से जोड़ा व इसे स्री-समाज को सिखाया और देश देशांतरों में इसे लोकप्रिय बनाया। सारंगदेव ने अपने 'संगीत-रत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। वह लिखते है-
     पार्वतीत्वनु शास्रिस्म,लास्यं वाणात्मामुवाम्।
तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।।७।।
तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:।
एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्।।८।।
इस प्रकार रास की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली। जैन धर्म में रास की विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा, क्योंकि जैनियों के 23वे तीर्थकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही यदुवंशी थे। उन्हें प्रसन्न करने का रास जैन धर्म में भी एक प्रधान साधन माना गया था,परन्तु बाद में अश्लीलता बढ़ जाने के कारण जैन मुनियों ने इस पर रोक लगा दी थी।
वैदिक युग से ही मध्यदेश ( गंगा- यमुना का क्षेत्र ) भारतीय संस्कृति का हृदय रहा है और तपोवन संस्कृति का केंद्र होने से ब्रजक्षेत्र की अपनी स्थिति रही है। यद्यपि वेदों में ब्रज शब्द गायों के चारागाह के अर्थ में प्रयुक्त है, वह तब इस विशेष प्रदेश का बोध नहीं कराता था। इस प्रदेश को प्राचीन वांगमय में "मथुरा मंडल' और बाद में "शूरसेन जनपद' कहा गया है,जिसकी राजधानी मथुरा थी,जिसे "मधु' ने बसाया था। मधु के समय जब मथुरा नगरी बसी, तब इसके चारों ओर आभीरों की बस्ती थी और वे वैदिक संस्कृति से प्रतिद्वेंद्विता रखते थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ के वनों से आकर्षित होकर यहाँ आभीर अपने पशुधन के साथ भारी संख्या में आ बसे थे और उनके वैदिक ॠषियों से मधुर संबंध नहीं थे। तब यह क्षेत्र आभीर- संस्कृति का केंद्र बन गया,जो वैदिक संस्कृति के प्रतिद्वेंद्वी व उनसे कई रुपों में भिन्न थे। आभीर गोपालक,अत्यंत वीर, श्रृंगारप्रिय थे और इनके समाज में स्री- स्वतंत्रता आर्यों से कहीं अधिक थी। साथ ही यह यज्ञ के विरोधी भी थे और संभवतः इन्हें इसीलिए मत्स्य पुराण में मलेच्छ तक कहा गया हे। मधु को पुराणों ने धर्मात्मा तथा लवण को जो उसके उपरांत इस प्रदेश का राजा बना था, राक्षस कहा है। 
1.                  वाल्मीकि रामायण के अनुसार मथुरा के ॠषियों ने अयोध्या जाकर श्रीराम से लवण की ब्राह्मण विरोधी व यज्ञ विरोधी नीतियों की शिकायत की तो शत्रुघ्न को उन्होंने एक बड़ी सेना के साथ यहाँ भेजा था तथा मथुरा राज्य सूर्यवंश के अधिकार में चला गया था। शत्रुघ्न को छल से लवण का वध करना पड़ा था। इस घटना के सांस्कृतिक विश्लेषण से प्रतीत होता है कि रामायण काल में मथुरा की तपोवनी वैदिक संस्कृति तथा आभीरों की संस्कृति में टकराव होने लगा था। लवण के शासन काल में आभीर प्रबल हो गए थे, क्योंकि लवण स्वयं शैव था और वह वैदिक ब्राह्मणों से आभीरों के अधिक निकट था। साथ ही इस घटना से यह भी प्रतीत होता है कि इस काल में इस क्षेत्र में शैवों का भी प्रभाव बढ़ गया होगा, क्यों कि राजा लवण स्वयं शिव का अनन्य भक्त और दुर्द्धुर्ष वीर था। यहाँ तक कि वह रावण जैसे प्रतापी नरेश की पुत्री कुभीनसी का लंका से हरण कर लायाथा। अतः शैव, आभीर और वैदिक संस्कृतियाँ इस युग में इस क्षेत्र में विकसित हो रही थी और उनमें पारस्परिक टकराव भी था। ब्रज में भगवान शंकर के सर्वत्र जो शिवलिंग विराजित हैं, उनसे स्पष्ट है कि यहाँ शैव संस्कृति का भी बोलबाला था। शत्रुघ्न ने लवण को पराजित करके जब मथुरा को नए सिरे से बसाया तो ब्रज की वन्य संस्कृति में नागरिक संस्कृति का समावेश होने लगा। शासन तंत्र की सशक्तपकड़ के कारण उस समय सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया भी प्रारंभ हुई होगी। परंतु सूर्यवंशी शासन यहाँ स्थायी नहीं रह सका। श्रीकृष्ण से पूर्व ही यहाँ यादव- शक्ति का आधिपत्य छा गया जो आभीरों के ही संबंधी थे। पौराणिक वंशावली से ज्ञात होता है कि मथुरा के यदुवंशी नरेश वसुदेव के पिता शूरसेन व आभीरों के प्रमुख सरदास नंद ( जो श्रीकृष्ण के पालक पिता थे ) के पिता पार्जन्य एक ही पिता दैवमीढ़�ष या देवमीढ से उत्पन्न भाई थे, जिनकी माताएँ पृथक- पृथक थीं। देवमीढ की दो रानियाँ थी – मदिषा और वैष्यवर्णा | मदिषा के गर्भ से शूरसेन और वैश्यवर्णा के गर्भ से पार्जन्य का जन्म हुआ |
 श्रीकृष्ण स्वयं वैदिक संस्कृति के समर्थक न थे। हरिवंश में वह कहते हैं --
वनंवनचरा गोपा: सदा गोधन जीवितः

गावोsस्माद्दुैवतं विद्धि,गिरयश्च वनानि च।

कर्षकाजां कृषिर्वृयेत्ति, पण्यं विपणि जीविनाम्।

गावोsअस्माकं परावृत्ति रेतत्वेविद्यामृच्यते।।

-- विष्णु पर्व, अ. 7
इस प्रकार श्री कृष्ण ने यज्ञ- संस्कृति के विरोध में ब्रज में जिस गोपाल- संस्कृति की स्थापना की उसमें वैदिक इंद्र को नहीं, वरन वनों व पर्वतों को उन्होंने अपना देवता स्वीकार किया। इंद्र की पूजा बंद करना वैदिक संस्कृति की ही अवमानना थी।
एक स्थान पर यज्ञ- संस्कृति से स्पष्ट रुप से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कृष्ण कहते हैं --
मंत्रयज्ञ परा विप्रा: सीतायज्ञ कर्षका:।
गिरीयज्ञास्तथा गोपा इजयोsस्माकिनर्गिरिवने।।

-- हरिवंश पुराण, अ. 9
इस प्रकार पौराणिक काल में जहाँ श्री कृष्ण ने यहाँ यज्ञ- संस्कृति की उपेक्षा करके गोपाल- संस्कृति की प्रतिष्ठा की वहाँ बलराम ने हल- मूसल लेकर कृषि- संस्कृति को अपनाया जो एक- दूसरे की पूरक थीं। यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो हमारी दृष्टि में महाभारत का युद्ध भी आर्य- संस्कृति के अभिमानी राज- नेताओं के संहार का ही श्रीकृष्ण द्वारा आयोजित एक उपक्रम था। जिसके द्वारा वह एक भेदभाव विहीन सामान्य भारतीय संस्कृति का उदय देखना चाहते थे, जिसमें आर्य- अनार्य सभी उस रक्तस्नान के उपरांत एक हो गए। यही कारण है कि श्रीकृष्ण आज भी 16 कलापूर्ण अवतार के रुप में प्रत्येक वर्ग के आराध्य देव हैं। महाभारत काल या कृष्ण काल में ब्रज में असुर- संस्कृति, नाग- संस्कृति तथा शाक्त- संस्कृति का भी विकास हुआ।
अहीर या अभीर -

अहीर, ग्वाला, गोप आदि यादव के पर्यायवाची है| पाणिनी, कौटिल्य एवं पंतजलि के अनुसार अहीर जाति के लोग हिन्दू धर्म के भागवत संप्रदाय के अनुयायी हैं|

गंगाराम गर्ग के अनुसार अहीर प्राचीन अभीर समुदाय के वंशज हैं, जिनका वर्णन महाभारत तथा टोलेमी के यात्रा वृतान्त में भी किया गया है| उनके अनुसार अहीर संस्कृत शब्द अभीर का प्राकृत रूप है| अभीर का शाब्दिक अर्थ होता है- निर्भय या निडर| वे बताते हैं की बर्तमान समय में भी बंगाली एवं मराठी भाषा में अहीर को अभीर ही कहा जाता है|
सर्वप्रथम पतंजलि के महाभाष्य में अभीरों का उल्लेख मिलता है। जो ई० पू० 5 वीं शताब्दी में लिखी गई थी | वे सिन्धु नदी के निचले काँठे और पश्चिमी राजस्थान में रहते थे।
दूसरे ग्रंथों में आभीरों को अपरांत का निवासी बताया गया है जो भारत का पश्चिमी अथवा कोंकण का उत्तरी हिस्सा माना जाता है।'पेरिप्लस' नामक ग्रन्थ तथा टालेमी के यात्रा वृतांत में भी आभीर गण का उल्लेख है। पेरिप्लस और टालेमी के अनुसार सिंधु नदी की निचली घाटी और काठियावाड़ के बीच के प्रदेश को आभीर देश माना गया है। मनुस्मृति में आभीरों को म्लेच्छों की कोटि में रखा गया है।  आभीर देश जैन श्रमणों के विहार का केंद्र था। अचलपुर (वर्तमान एलिचपुर, बरार) इस देश का प्रमुख नगर था जहाँ कण्हा (कन्हन) और वेष्णा (बेन) नदियों के बीच ब्रह्मद्वीप नाम का एक द्वीप था। तगरा (तेरा, जिला उस्मानाबाद) इस देश की सुदंर नगरी थी। आभीरपुत्र नाम के एक जैन साधु का उल्लेख भी जैन ग्रंथों में मिलता है।
आभीरों का उल्लेख अनेक शिलालेखों में पाया जाता है। शक राजाओं की सेनाओं में ये लोग सेनापति के पद पर नियुक्त थे। आभीर राजा ईश्वरसेन का उल्लेख नासिक के एक शिलालेख में मिलता है। ईस्वी सन्‌ की चौथी शताब्दी तक अभीरों का राज्य रहा।

आजकल की अहीर जाति ही प्राचीन काल के आभीर हैं। अहीरवाड (संस्कृत में आभीरवार; भिलसा औरझांसी के बीच का प्रदेश) आदि प्रदेशों के अस्तित्व से आभीर जाति की शक्ति और सामर्थ्य का पता चलता है। अहीर एक पशुपालक जाति है, जो उत्तरी और मध्य भारतीय क्षेत्र में फैली हुई है। इस जाति के साथ बहुत ऐतिहासिक महत्त्व जुड़ा हुआ है, क्योंकि इसके सदस्य संस्कृत साहित्य में उल्लिखित आभीर के समकक्ष माने जाते हैं।

कुछ लोग आभीरों को अनार्य कहते हैं, परन्तु 'अहीरक' अर्थात आहि तथा हरि अर्थात नाग अर्थात् कृष्ण वर्णी रहे होंगे या अहि काले तथा तेज शक्तिशाली जाति अहीर कहलाई होगी। जब आर्य पश्चिम एशिया पहुंचे तब अहीर (दक्षिण एशियाइ पुरुष/South Asian males) पश्चिम एशिया पर राज्य करते थेI उन्होंने आर्य महिलाओं (पश्चिम यूरेशियन महिलाओं) से शादी की और आर्यों की वैदिक सभ्यता का स्विकार कियाI ईसा की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आभीर राजा पश्चिमी भारत के शक शासकों के अधीन थे। ईसवीं तीसरी शताब्दी में आभीर राजाओं ने सातवाहन राजवंश के पराभव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद के स्तम्भ लेख में आभीरों का उल्लेख उन गणों के साथ किया गया है, जिन्होंने गुप्त सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली थी।

भारत की मौजूदा आर्य क्षत्रिय(वैदिक क्षत्रिय) जातियों में हट्टी, गुर्जर और अभिरा/अहिर(पाल) सबसे पुराने क्षत्रिय हैं। जब तक जाट, राजपूत, और मराठा नामों की सृष्टि भी नहीं हुई थी, हट्टी और अहीरों का अभ्युदय हो चुका था।

अहीरों की तीन मुख्य शाखाएं है – यदुवंशी, नंदवंशी एवं ग्वालवंशी|

नेपाल एवं दक्षिण भारत के आधुनिक उत्तखनन से भी स्पष्ट होता है की गुप्त उपाधि अभीर राजाओं में सामान्य बात थी| इतिहासकार डी आर. रेग्मी का स्पष्ट मत है की उत्तर भारत के गुप्त शासक नेपाल के अभीर गुप्त राजाओं के वंशज थे | डॉ बुध प्रकाश के मानना है की अभिरों के राज्य अभिरायाणा से ही इस प्रदेश का नाम हरियाणा पड़ा| इस क्षेत्र के प्राचीन निवासी अहीर ही हैं| मुग़ल काल तक अहीर इस प्रदेश के स्वतन्त्र शासक रहे हैं| 

अभीर या सुराभीर की ओर से विश्व को कृषिशास्त्र, गौवंशपालन या पशुपालन आधारित अर्थतंत्र, भाषा लेखन लिपि, चित्र व मूर्तिकला, स्थापत्य कला (नगर शैली), नगर रचना (उन्ही के नाम से नगर शब्द), खाध्यपदार्थो मे खमीरिकरण या किण्वन (fermentation) प्रक्रिया की तकनीक (अचार, आटा/ब्रेड/नान, घोल/batter, सिरका, सुरा) इत्यादि जैसी सदैव उपयोगी भेट मिली है जो वर्तमान युग मे भी मानव जीवन और अर्थतन्त्र की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है।

मैक्स मुलर, क्रिस्चियन लास्सेन, मिसेज मैन्निंग तथा अन्य इतिहासकारों के अनुसार बाइबल मे उल्लेखित अपनी समृद्धि के लिए प्रसिद्ध ओफिर (सोफिर) क्षेत्र और बन्दरगाह भी अभीर (सूराभीर) का ही द्योतक है। ग्रीक भाषा मे ओफिर का अर्थ नाग होता है। हिब्रू भाषा मे ‘अबीर’ ‘Knight’ याने शूरवीर योद्धा या सामंत के अर्थ मे प्रयोग होता है। संस्कृत मे अभीर का अर्थ निडर होता है। भारतवर्ष मे ‘अभीर’ अभीर-वंशी-राजा के अर्थ मे भी प्रयोग हुआ है। आज भी इस्राइल मे ओफिर शीर्ष नाम का प्रयोग होता है। यह जानना भी रसप्रद होगा की कोप्टिक भाषा (मिस्र/इजिप्त) मे ‘सोफिर’ भारतवर्ष के संदर्भ मे प्रयोग होता था।
सोफिर बन्दरगाह से हर तीन साल में क्षेत्र के अभीर राजा सोलोमन को सोना, चाँदी, गंधसार (संदल), अनमोल रत्न, हाथीदांत, वानर, मयूर, इत्यादि प्राप्त होते थे। इसमे ओफिर पर्वत (वर्तमान मे गुनुङ्ग लेदान पर्वत, मुयार, मलेशिया-जहा उस काल मे अभीरों का दबदबा था) से भी सोने और अन्य वस्तुओ के प्रेषण आते थे।

अभीर भारत वर्ष के किसी न किसी भूभाग पर निरंतर १२०० वर्ष का दीर्घ कालीन शासन करने वाले एकमात्र राजवंश है। ग्रीक इतिहास मे उल्लेखित अभिरासेस भी अभीर के ही संदर्भ मे है। प्राचीन ग्रीस के रोमनादों या रोमक यानि एलेक्ज़ांड्रिया के साथ भी अभीरो के राजद्वारी संबंध रहे थे।

सांप्रदायिक सद्भावना सभी अभीर शासकों की लाक्षणिकता रही है। हिन्दू वैदिक संस्कृति मे आस्था रखते हुए भी अभीरों ने राज्य व्यवस्था मे समय समय पर जर्थ्रोस्टि, बौद्ध, जैन सम्प्रदायो को भी पर्याप्त महत्व दिया है। भारतवर्ष मे त्रिकुटक वंश के अभीर वैष्णव धर्मावलम्बी होने की मान्यता है। शक शिलालेखों मे भी अभीर का उल्लेख मिलता है। अभीरों मे नाग पुजा व गोवंश का विशेष महत्व रहा है। सोलोमन के मंदिरो से लेकर के वर्तमान शिवमंदिरो मे नंदी का विशेष स्थान रहा है। मध्य भारत के अभीर कालचुर्यों का राजचिन्ह भी स्वर्ण-नंदी ही था।

शक कालीन 102 ई० या 108 ई० के उतखनन से ज्ञात होता है की शक राजाओं के समय अभीर सेना के सेनापति होते थे | रेगीनाल्ड एडवर्ड एन्थोवें ने नासिक उत्तखनन के आधार पर बताया है की चौथी सदी में अभीर इस क्षेत्र के राजा थे | सम्राट समुद्रगुप्त के समय यानि चतुर्थ शताब्दी के मध्य में अभीर पूर्वी राजपूताना एवं मालवा के शासक थे| हेनरी मिएर्स इलियट के अनुसार ईसा संवत के आरम्भ के समय अहीर नेपाल के राजा थे | संस्कृत साहित्य अमरकोष में ग्वाल, गोप एवं बल्लभ को अभीर का पर्यायवाची बताया गया है| हेमचन्द्र रचित द्याश्रय काव्य में जूनागढ़ के निकट अवस्थित वनथली के चुडासमा राजकुमार रा ग्रहरिपू को अभीर एवं यादव दोनों बताया गया है| उस क्षेत्र के जन श्रुतियों में भी चुडासमा को अहीर राणा कहा गया है|

यूनानी राजदूत मैगस्थनीज
यूनानी राजदूत मैगस्थनीज बहुत वर्षों तक चंद्रगुप्त और उसके पुत्र बिंदुसार के दरबारों में रहा । मैगस्थनीज ने भारत की राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का विवरण किया , उसका बहुत ऐतिहासिक महत्व है । मूल ग्रंथ वर्तमान समय में अनुपलब्ध है, परन्तु एरियन नामक एक यूनानी लेखक ने अपने ग्रंथ 'इंडिका' में उसका कुछ उल्लेख किया है । मैगस्थनीज के श्री कृष्ण, शूरसेन राज्य के निवासी, नगर और यमुना नदी के विवरण से पता चलता है कि 2300 वर्ष पूर्व तक मथुरा और उसके आसपास का क्षेत्र शूरसेन कहलाता था । कालान्तर में यह भू-भाग मथुरा राज्य कहलाने लगा था । उस समय शूरसेन राज्य में बौद्ध-जैन धर्मों का प्रचार हो गया था किंतु मैगस्थनीज के अनुसार उस समय भी यहाँ श्री कृष्ण के प्रति बहुत श्रद्धा थी|
मथोरा और क्लीसोबोरा
मैगस्थनीज ने शूरसेन के दो बड़े नगर 'मेथोरा' और'क्लीसोबोरा' का उल्लेख किया है । एरियन ने मेगस्थनीज के विवरण को उद्घृत करते हुए लिखा है कि`शौरसेनाइ' लोग हेराक्लीज का बहुत आदर करते हैं । शौरसेनाई लोगों के दो बडे़ नगर है- मेथोरा [Methora] और क्लीसोबोरा [Klisobora]उनके राज्य में जोबरेस* नदी बहती है जिसमें नावें चल सकती है ।* प्लिनी नामक एक दूसरे यूनानी लेखक ने लिखा है कि जोमनेस नदी मेथोरा और क्लीसोबोरा के बीच से बहती है ।[प्लिनी-नेचुरल हिस्ट्री 6, 22] इस लेख का भी आधार मेगस्थनीज का लेख ही है ।
टालमी नामक एक अन्य यूनानी लेखक ने मथुरा का नाम मोदुरा दिया है और उसकी स्थिति 125〫और 20' - 30" पर बताई है । उसने मथुरा को देवताओं की नगरी कहा है ।* यूनानी इतिहासकारों के इन मतों से पता चलता है कि मेगस्थनीज के समय में मथुरा जनपद शूरसेन [1] कहलाता था और उसके निवासी शौरसेन कहलाते थे, हेराक्लीज से तात्पर्य श्रीकृष्ण से है । शौरसेन लोगों के जिन दो बड़े नगरों का उल्लेख है उनमें पहला तो स्पष्टतःमथुरा ही है,दूसरा क्लीसोबोरा कौन सा नगर था, इस विषय में विद्वानों के विभिन्न मत हैं ।

जनरल एलेक्जेंडर कनिंघम
जनरल एलेक्जेंडर कनिंघम ने भारतीय भूगोल लिखते समय यह माना कि क्लीसीबोरा नाम वृन्दावन के लिए है । इसके विषय में उन्होंने लिखा है कि कालिय नाग के वृन्दावन निवास के कारण यह नगर `कालिकावर्त' नाम से जाना गया । यूनानी लेखकों के क्लीसोबोरा का पाठ वे `कालिसोबोर्क' या`कालिकोबोर्त' मानते हैं । उन्हें इंडिका की एक प्राचीन प्रति में `काइरिसोबोर्क' पाठ मिला, जिससे उनके इस अनुमान को बल मिला ।* परंतु सम्भवतः कनिंघम का यह अनुमान सही नहीं है ।
वृन्दावन में रहने वाले के नाग का नाम, जिसका दमन श्रीकृष्ण ने किया, कालिय मिलता है ,कालिक नहीं । पुराणों या अन्य किसी साहित्य में वृन्दावन की संज्ञा कालियावर्त या कालिकावर्त नहीं मिलती । अगर क्लीसोबोरा को वृन्दावन मानें तो प्लिनी का कथन कि मथुरा और क्लीसोबोरा के मध्य यमुना नदी बहती थी,असंगत सिद्ध होगा, क्योंकि वृन्दावन और मथुरा दोनों ही यमुना नदी के एक ही ओर हैं ।
अन्य विद्धानों ने मथुरा को 'केशवपुरा' अथवा'आगरा ज़िला का बटेश्वर [प्राचीन शौरीपुर]' माना है । मथुरा और वृन्दावन यमुना नदी के एक ओर उसके दक्षिणी तट पर स्थित है जब कि मैगस्थनीज के विवरण के आधार पर 'एरियन' और'प्लिनी' ने यमुना नदी दोनों नगरों के बीच में बहने का विवरण किया है । केशवपुरा,जिसे श्रीकृष्ण जन्मभूमि के पास का वर्तमान मुहल्ला मल्लपुरा बताया गया है, उस समय में मथुरा नगर ही था । ग्राउस ने क्लीसोवोरा को वर्तमान महावन माना है जिसे श्री कृष्णदत्त जी वाजपेयी ने युक्तिसंगत नहीं बतलाया है ।
कनिंघम ने अपनी 1882-83की खोज-रिपोर्ट में क्लीसोबोरा के विषय में अपना मत बदल कर इस शब्द का मूलरूप`केशवपुरा'[2] माना है और उसकी पहचान उन्होंने केशवपुरा या कटरा केशवदेव से की है । केशव या श्रीकृष्ण का जन्मस्थान होने के कारण यह स्थान केशवपुरा कहलाता है । कनिंघम का मत है कि उस समय में यमुना की प्रधान धारा वर्तमान कटरा केशवदेव की पूर्वी दीवाल के नीचे से बहती रही होगी और दूसरी ओर मथुरा शहर रहा होगा । कटरा के कुछ आगे से दक्षिण-पूर्व की ओर मुड़ कर यमुना की वर्तमान बड़ी धारा में मिलती रही होगी ।* जनरल कनिंघम का यह मत विचारणीय है । यह कहा जा सकता है । कि किसी काल में यमुना की प्रधान धारा या उसकी एक बड़ी शाखा वर्तमान कटरा के नीचे से बहती रही हो और इस धारा के दोनों तरफ नगर रहा हो, मथुरा से भिन्न`केशवपुर' या `कृष्णपुर'नाम का नगर वर्तमान कटरा केशवदेव और उसके आस-पास होता तो उसका उल्लेख पुराणों या अन्य सहित्य में अवश्य होता ।
प्राचीन साहित्य में मथुरा का विवरण मिलता है पर कृष्णपुर या केशवपुर नामक नगर का पृथक् उल्लेख कहीं प्राप्त नहीं होता । अत: यह तर्कसम्मत है कि यूनानी लेखकों ने भूलवश मथुरा और कृष्णपुर (केशवपुर) को,जो वास्तव में एक ही थे,अलग-अलग लिख दिया है । लोगों ने मेगस्थनीज को बताया होगा कि शूरसेन राज्य की राजधानी मथुरा केशव-पुरी है और भाषा के अल्पज्ञान के कारण सम्भवतः इन दोनों नामों को अलग जान कर उनका उल्लेख अलग-अलग नगर के रूप में किया हो । शूरसेन जनपद में यदि मथुरा और कृष्णपुर नामक दो प्रसिद्ध नगर होते तो मेगस्थनीज के पहले उत्तर भारत के राज्यों का जो वर्णन साहित्य (विशेषकर बौद्ध एवं जैन ग्रंथो) में मिलता है, उसमें शूरसेन राज्य के मथुरा नगर का विवरण है ,राज्य के दूसरे प्रमुख नगर कृष्णपुर या केशवपुर का भी वर्णन मिलता । परंतु ऐसा विवरण नहीं मिलता । क्लीसोबोरा को महावन मानना भी तर्कसंगत नहीं है [3]
अलउत्वी के अनुसार महमूद ग़ज़नवी के समय में यमुना पार आजकल के महावन के पास एक राज्य की राजधानी थी, जहाँ एक सुदृढ़ दुर्ग भी था । वहाँ के राजा कुलचंद ने मथुरा की रक्षा के लिए महमूद से महासंग्राम किया था । संभवतः यह कोई पृथक् नगर नहीं था, वरन वह मथुरा का ही एक भाग था । उस समय में यमुना नदी के दोनों ही ओर बने हुए मथुरा नगर की बस्ती थी[यह मत अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है] । चीनी यात्री फ़ाह्यान और हुएन-सांग ने भी मथुरा नदी के दोनों ही ओर बने हुए बौद्ध संघारामों का विवरण किया है । इस प्रकार मैगस्थनीज का क्लीसोवोरा [कृष्णपुरा] कोई प्रथक नगर नहीं वरन उस समय के विशाल मथुरा नगर का ही एक भाग था, जिसे अब गोकुल-महावन के नाम से जाना जाता है । इस संबंध में श्री कृष्णदत्त वाजपेयी के मत तर्कसंगत लगता है – "प्राचीन साहित्य में मधुरा या मथुरा का नाम तो बहुत मिलता है पर कृष्णापुर या केशवपुर नामक नगर का पृथक् उल्लेख कहीं नहीं प्राप्त होता है । अतः ठीक यही जान पड़ता है कि यूनानी लेखकों ने भूल से मथुरा और कृष्णपुर [केशवपुर] को, जो वास्तव में एक ही थे, अलग-अलग लिख दिया है । भारतीय लोगों ने मैगस्थनीज को बताया होगा कि शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा केशवपुरी है । उसने उन दोनों नामों को एक दूसरे से पृथक् समझ कर उनका उल्लेख अलग-अलग नगर के रूप में किया होगा । यदि शूरसेन जनपद में मथुरा और कृष्णपुर नाम के दो प्रसिद्ध नगर होते, तो मेगस्थनीज के कुछ समय पहले उत्तर भारत के जनपदों के जो वर्णन भारतीय साहित्य [विशेष कर बौद्ध एवं जैन ग्रंथो] में मिलते है, उनमें मथुरा नगर के साथ कृष्णापुर या केशवपुर का भी नाम मिलता है ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
↑ लैसन ने भाषा-विज्ञान के आधार पर क्लीसोबोरा का मूल संस्कृत रूप `कृष्णपुर'माना है । उनका अनुमान है कि यह स्थान आगरा में रहा होगा । (इंडिश्चे आल्टरटुम्सकुण्डे,वॉन 1869, जिल्द 1,पृष्ठ 127, नोट 3 ।
↑ श्री एफ0 एस0ग्राउज का अनुमान है कि यूनानियों का क्लीसोबोरा वर्तमान महावन है, देखिए एफ0एस0 ग्राउज-मथुरा मॅमोयर (द्वितीय सं0, इलाहाबाद1880), पृ0 257-8फ्रांसिस विलफोर्ड का मत है कि क्लीसोबोरा वह स्थान है जिसे मुसलमान `मूगूनगर'और हिंदू `कलिसपुर'कहते हैं-एशियाटिक रिसचेंज (लंदन, 1799), जि0 5, पृ0 270। परंतु उसने यह नहीं लिखा है कि यह मूगू नगर कौन सा है। कर्नल टॉड ने क्लीसोबोरा की पहचान आगरा ज़िले के बटेश्वर से की है (ग्राउज, वही पृ0 258)
अर्रियन, दिओदोरुस,तथा स्ट्रैबो के अनुसार मेगास्थनीज़ ने एक भारतीय जनजाति का वर्णन किया है जिसे उसने सौरसेनोई कहा है, जो विशेष रूप से हेराक्लेस की पूजा करते थे, और इस देश के दो शहर थे,मेथोरा और क्लैसोबोरा, और एक नाव्य नदी,. जैसा कि प्राचीन काल में सामान्य था, यूनानी कभी कभी विदेशी देवताओं को अपने स्वयं के देवताओं के रूप में वर्णित करते थे, और कोई शक नहीं कि सौरसेनोई का तात्पर्य शूरसेन से है,यदु वंश की एक शाखा जिसके वंश में कृष्ण हुए थे; हेराक्लेस का अर्थ कृष्ण, या हरि-कृष्ण: मेथोरा यानि मथुरा,जहां कृष्ण का जन्म हुआ था, जेबोरेस का अर्थ यमुना से है जो कृष्ण की कहानी में प्रसिद्ध नदी है. कुनिटास कर्तिउस ने भी कहा है कि जब सिकंदर महान का सामना पोरस से हुआ, तो पोरस के सैनिक अपने नेतृत्व में हेराक्लेस की एक छवि ले जा रहे थे. कृष्ण: एक स्रोत पुस्तक, 5 पी, एडविन फ्रांसिस ब्रायंट,ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस अमेरिका, 2007

धनगर –
धनगर महाराष्ट्र में यादवों की एक उपजाति है | आईने-ए-अकबरी में धनगर को एक साहसी एवं शक्तिशाली जाति बताया गया है, जो किला बनाने में निपुण है तथा अपने क्षेत्र एवं राज्य पर शासन करते हैं| धांगर की चार शाखाएं हैं – (1) हतकर – भेडपालक या गड़ेरिया (2) अहीर – गौपालक (3) महिषकर – भैंस पालक और (4) खेतकर – उन एवं कम्बल बुनने वाले|
जाधव –
      देवगिरि के सुवना या यादव राजाओं के वंशज जाधव कहलाते हैं | जाधव मराठा कुल के अंतर्गत आता है| वर्त्तमान में ये अपने आप को यदुवंशी मराठा कहते हैं | जमीनी स्तर पर ये महाराष्ट्र के अहीर, गवली या धनगर से अपने के भिन्न मानते हैं |
कुरुबा –
      कुरुबा का अर्थ होता है – योद्धा एवं विश्वसनीय व्यक्ति| ब्रिटिश इतिहासकार रिनाल्ड एडवर्ड एन्थोवें के अनुसार कुरुमादा जाति भी अहीर जाति का एक हिस्सा है| महान लेखक कालिदास, कनकदास आदि इसी उपजाति के सदस्य थे|
मणियानी, कोलायण, आयर, इरुवान –
मणियानी क्षत्रिय नैयर जाति की एक उप जाति है| मणियानी समुदाय मंदिर निर्माण कला में निपुण माने जाते हैं| मणि (घंटी) एवं अणि (काँटी) के उपयोग के कारण, जो मंदिर निर्माण हेतु मुख्य उपकरण है , ये मणियानी कहलाये| दूसरी मान्यता के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण के स्यमन्तक मणि के कारण इन्हें मणियानी कहा जाता है| पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ये अगस्त्य ऋषि के साथ द्वारिका से केरल आये|
कोलायण एवं इरुवान यादवों के दो मुख्य गोत्र है| यादवों को यहाँ आयर, मायर तथा कोलायण भी कहा जाता है| केरल के यादवों को व्यापक रूप से नैयर, नायर एवम उरली नैयर भी कहा जाता है |
      मंदिर निर्माण में महारत हासिल होने के कारण उत्तरी मालाबार क्षेत्र के कोलाथिरी राजाओं ने कोलायण कुल के लोगों को मणियानी की उपाधि प्रदान की|

कोनार, इडैयर, आयर –
तमिलनाडु में यादवों को कोनार, इडैयर, आयर, इदयन, गोल्ला (तेलगु भाषी) आदि नाम से जाना जाता है| तमिल भाषा में कोण का अर्थ – राजा एवं चरवाहा होता है | 1921 की जनगणना में तमिलनाडु के यादवों को इदयन कहा गया है|
सैनी
सैनी  भारत की एक योद्धा जाति है. सैनी, जिन्हें पौराणिक साहित्य में शूरसैनी के रूप में भी जाना जाता है, उन्हें अपने मूल नाम के साथ केवल पंजाब और पड़ोसी राज्य हरियाणा, जम्मू और कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में पाया जाता है. वे अपना उद्भव यदुवंशीसूरसेन वंश से देखते हैं,जिसकी उत्पत्ति यादव राजा शूरसेन से हुई थी जो कृष्ण और पौराणिक पाण्डव योद्धाओं,दोनों के दादा थे. सैनी, समय के साथ मथुरा से पंजाब और आस-पास की अन्य जगहों पर स्थानांतरित हो गए.
प्राचीन ग्रीक यात्री और भारत में राजदूत, मेगास्थनीज़ ने भी इसका परिचय सत्तारूढ़ जाति के रूप में दिया था तथा वह इसके वैभव के दिनों में भारत आया था जब इनकी राजधानी मथुरा हुआ करती थी. एक अकादमिक राय यह भी है कि सिकंदर महान के शानदार प्रतिद्वंद्वी प्राचीन राजा पोरस, इसी यादव कुल के थे. मेगास्थनीज़ ने इस जाति को सौरसेनोई के रूप में वर्णित किया है.
इससे स्पष्ट है कि कृष्ण,राजा पोरस, भगत ननुआ,भाई कन्हैया और कई अन्य ऐतिहासिक लोग सैनी भाईचारे से संबंधित थे" डॉ. प्रीतम सैनी, जगत सैनी: उत्पत्ति आते विकास 26-04, -2002, प्रोफेसर सुरजीत सिंह ननुआ, मनजोत प्रकाशन, पटियाला, 2008
राजपूत से उत्पन्न होने वाली पंजाब की अधिकांश जाति की तरह सैनी ने भी तुर्क-इस्लाम के राजनीतिक वर्चस्व के कारण मध्ययुगीन काल के दौरान खेती को अपना व्यवसाय बनाया, और तब से लेकर आज तक वे मुख्यतः कृषि और सैन्य सेवा,दोनों में लगे हुए हैं. ब्रिटिश काल के दौरान सैनी को एक सांविधिक कृषि जनजाति के रूप में और साथ ही साथ एक सैन्य वर्ग के रूप में सूचीबद्ध किया गया था.
सैनियों का पूर्व ब्रिटिश रियासतों, ब्रिटिश भारत और स्वतंत्र भारत की सेनाओं में सैनिकों के रूप में एक प्रतिष्ठित रिकॉर्ड है. सैनियों ने दोनों विश्व युद्धों में लड़ाइयां लड़ी और 'विशिष्ट बहादुरी'के लिए कई सर्वोच्च वीरता पुरस्कार जीते. सूबेदार जोगिंदर सिंह, जिन्हें 1962 भारत-चीन युद्ध में भारतीय-सेना का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार, परमवीर चक्र प्राप्त हुआ था, वे भी सहनान उप जाती के एक सैनी थे. [36]
ब्रिटिश युग के दौरान, कई प्रभावशाली सैनी जमींदारों को पंजाब और आधुनिक हरियाणा के कई जिलों में जेलदार, या राजस्व संग्राहक नियुक्त किया गया था.
सैनियों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी हिस्सा लिया और सैनी समुदाय के कई विद्रोहियों को ब्रिटिश राज के दौरान कारवास में डाल दिया गया, या फांसी चढ़ा दिया गया या औपनिवेशिक पुलिस के साथ मुठभेड़ में मार दिया गया.
हालांकि, भारत की आजादी के बाद से, सैनियों ने सैन्य और कृषि के अलावा अन्य विविध व्यवसायों में अपनी दखल बनाई. सैनियों को आज व्यवसायी, वकील,प्रोफेसर, सिविल सेवक,इंजीनियर, डॉक्टर और अनुसंधान वैज्ञानिक आदि के रूप में देखा जा सकता है. प्रसिद्ध कंप्यूटर वैज्ञानिक,अवतार सैनी जिन्होंने इंटेल के सर्वोत्कृष्ट उत्पाद पेंटिअम माइक्रोप्रोसेसर के डिजाइन और विकास का सह-नेतृत्व किया वे इसी समुदाय के हैं.  अजय बंगा, भी जो वैश्विक बैंकिंग दिग्गज मास्टर कार्ड के वर्तमान सीईओ हैं एक सैनी हैं. लोकप्रिय समाचार पत्र डेली अजीत,जो दुनिया का सबसे बड़ा पंजाबी भाषा का दैनिक अखबार है[ उसका स्वामित्व भी सैनी का है.
पंजाबी सैनियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन आदि जैसे पश्चिमी देशों में रहता है और वैश्विक पंजाबी प्रवासियों का एक महत्वपूर्ण घटक है.
सैनी, हिंदू और सिख, दोनों धर्मों को मानते हैं. कई सैनी परिवार दोनों ही धर्मों में एक साथ आस्था रखते हैं और पंजाब की सदियों पुरानी भक्ति और सिख आध्यात्मिक परंपरा के अनुरूप स्वतन्त्र रूप से शादी करते हैं.
अभी हाल ही तक सैनी कट्टर अंतर्विवाही क्षत्रिय थे और केवल चुनिन्दा जाती में ही शादी करते थे. दिल्ली स्थित उनका एक राष्ट्रीय स्तर का संगठन भी है जिसे सैनी राजपूत महासभा कहा जाता है जिसकी स्थापना 1920 में हुई थी.
प्राचीन भारत के राजनीतिक मानचित्र में ऐतिहासिक सूरसेन महाजनपद. सैनियों ने इस साम्राज्य पर 11 ई. तक राज किया (मुहम्मदन हमलों के आरंभिक समय तक). 
हरियाणा के दक्षिणी जिलों में और उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी 20वीं सदी में माली जाति के लोगों ने "सैनी" उपनाम का उपयोग शुरू कर दिया. बहरहाल, यह पंजाब के यदुवंशी सैनियों वाला समुदाय नहीं है. सैनी ब्रिटिश पंजाब (पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर) से बाहर कभी नहीं गए. यह इस तथ्य से प्रमाणित हुआ है कि 1881 की जनगणना पंजाब से बाहर सैनी समुदाय के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती है और इबेट्सन जैसे औपनिवेशिक लेखकों के आक्षेप के बावजूद, सैनी और माली को अलग समुदाय मानती है. 1891 की मारवाड़ जनगणना रिपोर्ट ने भी राजपूताना में किसी'सैनी' नाम के समुदाय को दर्ज नहीं किया है और केवल दो समूह को माली के रूप में दर्ज किया है. जिनका नाम है महूर माली और राजपूत माली जिसमें से बाद वाले को राजपूत उप-श्रेणी में शामिल किया गया है. राजपूत मालियों ने अपनी पहचान को 1930 में सैनी में बदल लिया लेकिन बाद की जनगणना में अन्य गैर राजपूत माली जैसे माहूर या मौर ने भी अपने उपनाम को 'सैनी' कर लिया. पंजाब के सैनियों ने ऐतिहासिक रूप से कभी भी माली समुदाय के साथ अंतर-विवाह नहीं किया (एक तथ्य जिसे इबेट्सन द्वारा भी स्वीकार किया गया और 1881 की जनगणना में विधिवत दर्ज किया गया), या विवाह के मामले में वे सैनी समुदाय से बाहर नहीं गए,और यह वर्जना आम तौर पर आज भी जारी है. दोनों समुदाय, सामाजिक,सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से भी अधिकांशतः भिन्न हैं.
राउत-
छत्तीसगढ़ में विविध जातियां निवास करती हैं। इन जातियों में राउत जाति अपनी विशेषताओं के कारण अलग महत्व रखती है। यह जाति मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ के दुर्ग, रायपुर और बस्तर जिले में एवं महाराष्ट्र के नागपुर एवं भंडारा जिले में निवास करती है | राउत जाति अन्य जातियों की तरह अलग-अलग क्षेत्रों में आकर छत्तीसगढ़ में बस गयी है। गोपालन और दुग्ध व्यवसाय करने वाली इस जाति को यहां के सामाजिक कार्यों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
राउत शब्द की व्युत्पत्ति-'राउत’ शब्द अपने साथ एक दीर्घ ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परंपरा लिए हुए है। शब्दकोष में 'राउत’ शब्द को राजपुत्र मानते हुए राजवंश का (कोई) व्यक्ति,क्षत्रिय, वीर पुरुष अथवा बहादुर अर्थ दिया है।
डॉ. पाठक ने शब्द उत्पत्ति के आधार पर 'राउत’ शब्द को 'राव’ से व्युत्पत्ति'रावत’ का अपभ्रंश माना है। रसेल और हीरालाल के अनुसार 'राउत’ शब्द राजपूत का विकृत रूप है। चूंकि छत्तीसगढ़ में आज भी'अहीर’ को 'राउत’ ही कहा जाता है। अत: एक अन्य मत के अनुसार अहीर की उत्पत्ति'अभीर’ जाति से मानी जाती है, जिसका विवरण पुरातात्विक अभिलेखों एवं हिन्दू लेखों में सुरक्षित है। कुछ विद्वानों के राउत शब्द की व्युत्पत्ति व अर्थ की ओर ध्यान दें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि गोचारण एवं दुग्ध वाहन की वृत्ति के लिए कुछ राउत जाति पहले राज्य का संचालन करती रहीं होगी और राजवंशी थे।
जाति नाम- श्री कृष्ण राउत जाति के आराध्य देव हैं। इन्हें ही राउत जाति के लोग अपना पूर्वज मानते हैं अत: इनकी कार्यप्रणाली व नामकरण श्रीकृष्ण से जुड़ा हुआ है। श्रीकृष्ण ने गौ का पालन किया तथा गोपाल कहलाए। नाग (सर्प) को नाथा था, इसलिये अहीर कहलायें और ये यदुवंशी तो थे ही इन सबसे प्रेरित होकर ही राउत जाति को लोग अपने आपको गोपाल, अहीर और यादव मानते हैं। महाभारत युद्ध के पश्चात यदुवंशी सैनिक अस्त्र-शस्त्र त्याग कर गो पालन और दुग्ध व्यवसाय को अपनाकर देश भर में फैल गये

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यादव भारतवर्ष के प्राचीनतम जातियों में से एक है, जो क्षत्रिय राजा यदु के वंशज हैं| यदुकुल में ही हैहय, तालजंघ, अभीर, वृष्णि, अन्धक, सात्वत, कूकुर, भोज, चेदी नामक वंशों का उदय हुआ |

हैहय वंश – 

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में हैहय राजाओं का वर्णन है, जो अवन्ती प्रदेश के राजा थे तथा उनकी राजधानी महिष्मती थी | पुराणों में हैहय वंश के सबसे प्रतापी राजा कार्तवीर्य अर्जुन का उल्लेख है| ऋग्वेद में उसे चक्रवर्ती सम्राट कहा गया है | पुराणों में हैहय के पांच कुल – वीतिहोत्र, शर्यात, भोज, अवन्ती तथा तुन्डिकर का उल्लेख है, जो सामूहिक रूप से तालजंघ कहलाते थे | वीतिहोत्र कुल का अंतिम शासक रिपुंजय था |
चेदी वंश –
यदु के दुसरे पुत्र क्रोष्टा के वंशज क्रोष्टा यादव कहलाये | क्रोष्टा के वंश में ही विदर्भ वंश की उत्पति हुई| कालांतर में विदर्भ वंश से ही चेदि वंश की उत्पति हुई|
चेदि आर्यों का एक अति प्राचीन वंश है। ऋग्वेद की एक दानस्तुति में इनके एक अत्यंत शक्तिशाली नरेश कशु का उल्लेख है। ऋग्वेदकाल में ये संभवत: यमुना और विंध्य के बीच बसे हुए थे।
पुराणों में वर्णित परंपरागत इतिहास के अनुसार यादवों के नरेश विदर्भ के तीन पुत्रों में से द्वितीय कैशिक चेदि का राजा हुआ और उसने चेदि शाखा का स्थापना की। चेदिराज दमघोष एवं शिशुपाल इस वंश के प्रमुख शासक थे |चेदि राज्य आधुनिक बुंदेलखंड में स्थित रहा होगा और यमुना के दक्षिण में चंबल और केन नदियों के बीच में फैला रहा होगा। कुरु के सबसे छोटे पुत्र सुधन्वन्‌ के चौथे अनुवर्ती शासक वसु ने यादवों से चेदि जीतकर एक नए राजवंश की स्थापना की। उसके पाँच में से चौथे (प्रत्यग्रह) को चेदि का राज्य मिला। महाभारत के युद्ध में चेदि पांडवों के पक्ष में लड़े थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के 16 महाजनपदों की तालिका में चेति अथवा चेदि का भी नाम आता है। चेदि लोगों के दो स्थानों पर बसने के प्रमाण मिलते हैं - नेपाल में और बुंदेलखंड में। इनमें से दूसरा इतिहास में अधिक प्रसिद्ध हुआ। मुद्राराक्षस में मलयकेतु की सेना में खश, मगध,यवन, शक हूण के साथ चेदि लोगों का भी नाम है।
भुवनेश्वर के समीप उदयगिरि पहाड़ी पर हाथीगुंफा के अभिलेख से कलिंग में एक चेति (चेदि) राजवंश का इतिहास ज्ञात होता है। यह वंश अपने को प्राचीन चेदि नरेश वसु (वसु-उपरिचर) की संतति कहता है। कलिंग में इस वंश की स्थापना संभवत:महामेघवाहन ने की थी जिसके नाम पर इस वंश के नरेश महामेघवाहन भी कहलाते थे। खारवेल,जिसके समय में हाथीगुंफा का अभिलेख उत्कीर्ण हुआ इस वंश की तीसरी पीढ़ी में था। महामेघवाहन और खारवेल के बीच का इतिहास अज्ञात है। महाराज वक्रदेव,जिसके समय में उदयगिरि पहाड़ी की मंचपुरी गुफा का निचला भाग बना, इस राजवंश की संभवत: दूसरी पीढ़ी में था और खारवेल का पिता था।
खारवेल इस वंश और कलिंग के इतिहास के ही नहीं, पूरे प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख शासकों में से है। हाथीगुंफा के अभिलेख के विवरण में अतिशयोक्ति की संभावना के पश्चात्‌ भी जो शेष बचता है, उससे स्पष्ट है कि खारवेल असाधारण योग्यता का सेना नायक था और उसने कलिंग की जैसी प्रतिष्ठा बना दी वैसी बाद की कई शताब्दियों संभव नहीं हुई।
खारवेल के राज्यकाल की तिथि अब भी विवाद का विषय हे, जिसमें एक मत ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के पूर्वार्ध के पक्ष में है किंतु खारवेल को ईसा पूर्व पहली शताब्दी के उत्तरार्ध में रखनेवाले विद्वानों की संख्या बढ़ रहीं है।

वृष्णि कुल – 
सात्वत के पुत्र वृष्णि के वंशज वृष्णिवंशी यादव अथवा वार्ष्णेय कहे जाते हैं | इसी वंश में राजा शूरसेन, वसुदेव, देवभाग, श्री कृष्ण, बलराम, उद्धव, अक्रूर, सात्यिकी, कृतवर्मा आदि प्रतापी राजा एवं शूरवीर योद्धा हुए |

अन्धक वंश -
क्रोष्टा के कुल में राजा सात्वत का जन्म हुआ| सात्वत के सात पुत्रों में एक राजा अन्धक थे| जिनके वंशज अन्धक वंशी कहलाये| इसी वंश में शूरसेन देश के राजा उग्रसेन, कंस, देवक तथा श्री कृष्ण की माता देवकी का जन्म हुआ|

भोज वंश –
सात्वत के दुसरे पुत्र महाभोज के वंशज भोजवंशी यादव कहलाये| इसी वंश में राजा कुन्तिभोज हुए, जिनके निःसंतान होने पर राजा शूरसेन ने अपनी पुत्री पृथा (कुंती ) को उसे गोद दे दिया|

विदर्भ वंश -
क्रोष्टा के वंश में ही विदर्भ वंश की उत्पति हुई| ज्यामघ के पुत्र विदर्भ ने दक्षिण भारत में विदर्भ राज्य की स्थापना की | शैब्या के गर्भ से विदर्भ के तीन पुत्र हुए – कुश, क्रथ और रोमपाद | महाभारत काल में विदर्भ देश में भीष्मक नामक एक बड़े यशस्वी राजा थे | उनके रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मवाहु, रुक्मेश और रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र थे और रुक्मिणी नामक एक पुत्री भी थी | महाराज भीष्मक के घर नारद आदि महात्माजनों का आना - जाना रहता था | महात्माजन प्रायः भगवान श्रीकृष्ण के रूप-रंग, पराक्रम, गुण, सौन्दर्य, लक्ष्मी वैभव आदि की प्रशंसा किया करते थे | राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण से हुआ था | रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ हुए | मत्स्य पुराण एवं वायु पुराण में उन्हें दक्षिणापथ वासी कहा गया है| लोपामुद्रा विदर्भ की ही राजकुमारी थी, जिनका विवाह अगस्त्य ऋषि के संग हुआ था |
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