अध्याय-(११) [भाग-३]
यादवंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपति।
यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज
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इस अध्याय के भाग- (३) का मुख्य उद्देश्य यादव वंश की चारित्रिक वंशावली का व्याख्यान करते हुए गोपेश्वर श्रीकृष्ण के लौकिक चरित्र को भी स्पष्ट करना है। तो उसके लिए यदु के पुत्र क्रोष्टा को ही लेकर चलेंगे जहां क्रोष्टा की ही पीढ़ी में आगे चलकर अंधक और वृष्णि नामक दो महान विभूतियों का उदय हुआ। जिसमें वृष्णि के वंशजो में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ तथा अंधक के वंशजों में गोपेश्वर श्रीकृष्ण की ननिहाल( माता का कुल हुआ ।
यदु के दूसरे पुत्र- क्रोष्टा के पुत्र वृजिनीवान हुए। इसी वृजिनीवान की पीढ़ी में में आगे चलकर ज्यमाघ हुए जिनकी पत्नी शैब्या से विदर्भ हुए। फिर विदर्भ की पत्नी भोज्या से तीन पुत्र - कुश, क्रथ और रोमपाद हुए। जिसमें रोमपाद के दो पुत्र - बभ्रु और कृति हुए। इनमें से कृति के पुत्र- चेदि हुए जिनसे यादवों की शाखा में चेदि वंश का उदय हुआ। फिर इसी चेदि की पीढ़ी में दमघोष हुए। जिनका विवाह श्री कृष्ण की बुआ श्रुतिश्रवा से हुआ था। फिर इसी श्रुतिश्रवा और दमघोष से शिशुपाल का जन्म हुआ जो भगवान श्री कृष्ण का प्रतिद्वन्द्वी था।
अब हम लोग विदर्भ के दूसरे पुत्र- क्रथ को लेकर आगे बढ़ेंगे। तो विदर्भ के दूसरे पुत्र - क्रथ के कुन्ति हुए। फिर कुन्ति के वृष्णि (प्रथम) हुए। फिर वृष्णि के निवृत्ति, निवृत्ति के दशार्ह हुए। दशार्ह के व्योम, व्योम के जीमूत, जीमूत के पुत्र विकृति हुए, विकृति के भीमरथ, भीमरथ के नवरथ, नवरथ के दशरथ, दशरथ के शकुनि, शकुनि के करम्भ, करम्भि के पुत्र देवरात हुए, देवरात के मधु, मधु के कुरुवश, कुरुवश के अनु, अनु के पुरूहोत्र, पुरूहोत्र के आयु (सत्वत) हुए। इस सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अन्धक, और महाभोज हुए।
देखा जाए तो यादव वंश में कुल चार वृष्णि थे। जिनको इस तरह से भी समझा जा सकता है -
(१)- प्रथम वृष्णि- हैहय वंशी यादवों के सहस्रबाहु के पुत्र जयध्वज के वंशज मधु के ज्येष्ठ पुत्र थे।
(२)- द्वितीय वृष्णि- विदर्भ के पौत्र कुन्ति के एक पुत्र का नाम भी वृष्णि था। यह सात्वत से पूर्व के यादव वृष्णि हैं।
३- तृतीय वृष्णि- सात्वत के कनिष्ठ (सबसे छोटे) पुत्र का नाम वृष्णि था। यह वृष्णि अन्धक के ही भाई थे।
विदित हो सातवीं पीढ़ी पर गोत्र बदल जाता है ।
४- चतुर्थ वृष्णि- सात्वत पुत्र वृष्णि के पौत्र (नाती) थे । अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम भी वृष्णि ही था यही अन्तिम वृष्णि सात्वत शाखा में थे।
इन चारो वृष्णियों में से हम प्रमुख रूप से सात्वत पुत्र वृष्णि (तृतीय) को ही लेकर आगे चलेंगे जो क्रोष्टा की पीढ़ी में सात्वत पुत्र वृष्णि (द्वितीय) है।
सहस्रबाहु के पुत्र जयध्वज के वंशजों में मधु यादव राजा हुए। सौ पुत्रों में वृष्णि नाम से भी एक राजा हुए। तभी यादव माधव और वार्ष्णेय यादवों का विशेषण भी हो हो गया।
उन्हीं के नाम और मधु के गुणों तथा यदु के कारण यादव वंश के सदस्यपत्तियों को यादव, माधव और वार्ष्णेय नाम से जाना गया। इसकी पुष्टि- भागवत पुराण - (9/23/30)
से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिताः।
यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो वृजिनवांस्ततः॥
अनुवाद- परीक्षित् ! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।३०।
सात्वत के सात पुत्रों में वृष्णि (द्वितीय) के दो पुत्र- सुमित्र और युद्धाजित हुए। जिसमें युद्धाजित के शिनि और अनमित्र दो पुत्र हुए। फिर अनमित्र के तीन पुत्र - निघ्न, शिनि (द्वितीय), और वृष्णि (तृतीय) हुए। इस तृतीय वृष्णि के भी दो पुत्र- श्वफलक और चित्ररथ हुए।
जिसमें श्वफलक की पत्नी गान्दिनी से अक्रूर जी का जन्म हुआ जो यादवों की सुरक्षा को लेकर सदैव तत्पर रहते थे। उसी क्रम में श्वफलक के भाई चित्ररथ के भी दो पुत्र - पथ और विदुरथ हुए। फिर इस विदुरथ के शूर, हुए। शूर के भजमान (द्वितीय), भजमान (द्वितीय) के शिनि (तृतीय), शिनि (तृतीय) के स्वयमभोज, स्वयमभोज के हृदीक, हृदीक के देवमीढ हुए।
देवमीढ की तीन पत्नियां थी - अश्मिका, सतप्रभा और गुणवती थीं। जिसमें देवमीढ की पत्नी अश्मिका से शूरसेन का जन्म हुआ। इस शूरसेन की पत्नी का नाम मारिषा था, जिससे कुल दस पुत्र हुए। उन्हीं दस पुत्रों में धर्मवत्सल वसुदेव जी भी थे। जिसमें वसुदेव जी की बहुत सी पत्नियां थीं किन्तु मुख्य रूप से दो ही पत्नियां- देवकी और रोहिणी प्रसिद्ध थीं। जिसमें वसुदेव और देवकी से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। तथा वासुदेव जी की दूसरी पत्नी रोहिणी से बलराम जी का जन्म हुआ।
इस प्रकार से हम लोग भक्तिभाव के साथ गोपेश्वर श्रीकृष्ण के यहां पहुंच गए।
किंतु बिना नन्दबाबा के यहां पहुंचे श्रीकृष्ण की बात अधूरी ही रहेगी। तो नन्दबाबा के यहां पहुंचने के लिए हमें पुनः देवमीढ की दूसरी पत्नी गुणवती तक जाना होगा। किन्तु इसके पहले देवमीढ की दूसरी पत्नी सतप्रभा को भी जान लें कि- देवमीढ की पत्नी सतप्रभा से एक कन्या- सतवती हुई।
इस प्रकार से हम लोग भक्तिभाव के साथ गोपेश्वर श्रीकृष्ण के यहां पहुंच गए।
किंतु बिना नन्दबाबा के यहां पहुंचे श्रीकृष्ण की बात अधूरी ही रहेगी। तो नन्दबाबा के यहां पहुंचने के लिए हमें पुनः देवमीढ की दूसरी पत्नी गुणवती तक जाना होगा। किन्तु इसके पहले देवमीढ की दूसरी पत्नी सतप्रभा को भी जान लें कि- देवमीढ की पत्नी सतप्रभा से एक कन्या- सतवती हुई।
अब हम पुनः देवमीढ की पत्नी गुणवती की तरफ रुख करते हैं जहां नन्दबाबा मिलेंगे। तो देवमीढ की तीसरी पत्नी गुणवती से- अर्जन्य, पर्जन्य और राजन्य नामक तीन पुत्र हुए। इन पुत्रों में से हम पर्जन्य को ही लेकर आगे बढ़ेंगे।
तो पर्जन्य की पत्नी का नाम वरियसी था। इसी वरियसी और पर्जन्य से कुल पांच पुत्र - उपनन्द, अभिनन्द, नन्द (नन्दबाबा), सुनन्द, और नन्दन हुए।
पर्जन्य के कुल पांच पुत्रों में नन्दबाबा अधिक लोकप्रिय थे। पारिवारिक दृष्टिकोण से नन्दबाबा और वासुदेव जी आपस के भाई ही थे, क्योंकि ये दोनों देवमीढ के परिवार से ही सम्बन्धित थे । नन्दबाबा की पत्नी का नाम यशोदा था। जिससे विंध्यवासिनी (योगमाया) अथवा एकानशा नाम की एक अद्भुत कन्या का जन्म हुआ। उसके जन्म लेने का मुख्य उद्देश्य नवजात शिशु गोपेश्वर श्रीकृष्ण की रक्षा करना था।
योगमाया भगवान श्रीकृष्ण के आदेश पर ही नन्दबाबा की पत्नी यशोदा के उदर गर्भ से अवतीर्ण हुई थीं।
गुप्तकालीन ग्रंथ कौमुदीमहोत्सव में इस देवी विन्ध्यवासिनी के लिए यदुवंशियों की कुलदेवी एकानंगा शब्द का प्रयोग हुआ है। इस नाटक में ही यह विवरण भी मिलता है कि इस देवी का एक मन्दिर पम्पासर में भी था जिसे ‘चण्डिकायतन’ के नाम से जाना जाता था।
एक अन्य गुप्तकालीन ग्रंथ ‘बृहत्संहिता’ में इस देवी के जिन तीन रूपों का वर्णन मिलता है। उनमें से एक द्विभुज रूप है, दूसरा चतुर्भुज तो तीसरा अष्टभुज हैं। अपने द्विभुज स्वरूप में उनका बायां हाथ कटिविन्यस्त है और दूसरे हाथ में कमल है। चतुर्भुज रूप में उनके हाथों में कमल, पुस्तक, वर और अक्षमाला विद्यमान हैं। तो अष्टभुजा स्वरूप में देवी के पास कमण्डलु, चाप, कमल, पुस्तक, वर, बाण, दर्पण और अक्षमाला सुशोभित है।
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ ॥४१॥
अनुवाद:-
वैवस्वत मन्वन्तर में अठाईसवाँ द्वापर युग आने पर शुम्भ और निशुम्भ जैसे दूसरे महासुर उत्पन्न होंगे ।
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ॥ ४२॥
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ ॥४१॥
अनुवाद:-
वैवस्वत मन्वन्तर में अठाईसवाँ द्वापर युग आने पर शुम्भ और निशुम्भ जैसे दूसरे महासुर उत्पन्न होंगे ।
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ॥ ४२॥
अनुवाद:-
तब नन्दगोप के घर में यशोदा के गर्भ से उत्पन्न हो विन्ध्याचलनिवासिनी के रूप में उन दोनों का नाश करुँगी।
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श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
नारायणीस्तुतिर्नामैकादशोऽध्यायः ॥११॥
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नन्दगोप गृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा|
ततस्तौ नाशयिष्यामि विंध्याचलनिवासिनी।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विंध्याचलनिवासिनी।
सा कन्या ववृधे तत्र वृष्णिसंघसुपूजिता ।
पुत्रवत् पाल्यमाना सा वसुदेवाज्ञया तदा।४६ ।
पुत्रवत् पाल्यमाना सा वसुदेवाज्ञया तदा।४६ ।
विद्धि चैनामथोत्पन्नामंशाद् देवीं प्रजापतेः ।
एकानंशां योगकन्यां रक्षार्थं केशवस्य तु ।४७ ।
तां वै सर्वे सुमनसः पूजयन्ति स्म यादवाः ।
देववद् दिव्यवपुषा कृष्णः संरक्षितो यया ।४८।
हरिवंशे (२।४।४७)
इस बात की पुष्टि- विष्णुपुराण के पांचवें अंश के अध्याय- (१) के श्लोक (७२) से (८०) तक के श्लोकों से होती है।
जिसमें लिखा गया है कि - योगमाया को जन्म लेते ही वसुदेव जी अपने नवजात शिशु श्रीकृष्ण को योगमाया के स्थान पर रखकर योगमाया को लेकर बन्दीगृह में पुनः पहुंच गए।
जब कंस को यह पता चला कि देवकी को आठवीं संतान पैदा हो चुकी है तो वह बन्दीगृह में पहुंच कर योगमाया को ही देवकी का आठवां पुत्र समझकर पत्थर पर पटक कर मारना चाहा, किंतु योगमाया उसके हाथ से छुटकर कंस को यह कहते हुए आकाश मार्ग से विंध्याचल पर्वत पर चली गई कि- तुझे मारने वाला पैदा हो चुका है। वही योगमाया विंध्याचल पर्वत पर आज भी यादवों की प्रथम कुल देवी के रूप विराजमान है।
इस संबंध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री माता प्रसाद जी कहना है कि- "कुलदेवी या कुल देवता उसी को कहा जाता है जो कुल की रक्षा करते हैं।
इसी निमित्त योगमाया विंध्यवासिनी को यादवों (गोपों) की प्रथम कुल देवी तथा उसी क्रम में गोपेश्वर श्री कृष्ण को यादवों (गोपों) का प्रथम कुल देवता कहा गया। इन दो महान शक्तियों को आज भी यादव (अहीर) समाज अपने कुल एवं वंश की रक्षा के लिए परंपरागत रूप से पूजते हैं।"
(ज्ञात हो - नन्दबाबा को योग माया विंध्यवासिनी के अतिरिक्त एक भी पुत्र नहीं हुआ। इसलिए उनका वंश आगे तक नहीं चल सका।) इस लिए किसी को नन्दवंशी यादव कहना उचित नहीं है।
(ज्ञात हो - नन्दबाबा को योग माया विंध्यवासिनी के अतिरिक्त एक भी पुत्र नहीं हुआ। इसलिए उनका वंश आगे तक नहीं चल सका।) इस लिए किसी को नन्दवंशी यादव कहना उचित नहीं है।
इस प्रकार से अब तक हम लोग क्रोष्टा के पीढ़ी की कठिन डगर को पार करते हुए वसुदेव जी तथा उनके भाई नन्दबाबा के यहां से होते हुए श्रीकृष्ण, बलराम और योगमाया विंध्यवासिनी के यहां पहुंचा गये।
अब हमलोग यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के ननिहाल को जानेंगे कि- क्रोष्टा की किस पीढ़ी में श्रीकृष्ण का ननिहाल था।
तो इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि - सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अंधक, और महाभोज हुए।
तो इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि - सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अंधक, और महाभोज हुए।
जिसमें हमलोग सात्वत के पुत्र वृष्णि (द्वितीय) के कुल में उत्पन्न श्रीकृष्ण को जाना। अब हमलोग सात्वत के पुत्र- अंधक के कुल को जानेंगे जहां भगवान श्रीकृष्ण का ननिहाल मिलेगा।
सात्वत पुत्र अंधक के कुल चार पुत्र- कुकुर, भजमान, सुचि और कम्बलबर्हिष हुए। जिसमें अंधक के ज्येष्ठ पुत्र वह्नि थे। इस वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा, कपोतरोमा के अनु और अनु के अंधक (द्वितीय) हुए। इस अंधक (द्वितीय) के दुन्दुभि हुए और दुन्दुभि के अरिहोत्र, अरिहोत्र के पुनर्वसु हुए।
पुनर्वसु के एक पुत्र आहुक तथा एक पुत्री आहुकी नाम की थी। जिसमें पुनर्वसु के पुत्र आहुक की पत्नी का नाम शैव्या था। इसी पुनर्वसु और शैव्या से दो पुत्र - देवक और उग्रसेन हुए। जिसमें पुनर्वसु के पुत्र देवक की सात कन्याएं - पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी थीं। देवी तुल्य इन सातो पुत्रियों का विवाह वृष्णिवंशी वासुदेव जी से हुआ था।
इन्हीं सातों में से देवकी के उदरगर्भ से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। इस तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण का ननिहाल मथुरा के राजा उग्रसेन के पुत्र देवक के यहां था।
और इसी देवक के सगे भाई उग्रसेन थे, जो मथुपुरा के प्रजापालक राजा थे। उनकी की पत्नी का नाम पद्मावती था। इसी पद्मावती और उग्रसेन से महत्वाकांक्षी कंस का जन्म हुआ।
कंस अपने पिता अग्रसेन को बंदी बनाकर स्वयं मथुरा का राजा बना और प्रजा पर नाना प्रकार का अत्याचार करने लगा। कंस बल और पराक्रम में अजेय था। वह अपने समय में बड़े-बड़े दैत्य को पराजित कर अधिक शक्ति संपन्न होकर समस्त देवताओं को भी जीत लिया था।
उस समय भूतल पर उसके जैसा बलवान राजा कोई नहीं था। किंतु जब कंस अत्याचार की सीमा को पार कर गया तब किशोर श्रीकृष्ण उसके ही दरबार में उसका वध कर दिया और पुनः अग्रसेन को मथुरा का राजा बनकर स्वयं मथुरा की रक्षा करते हुए पृथ्वी के भार को दूर किया।
इस प्रकार से यह अध्याय- अध्याय-(११) का भाग- (तीन) यादव वंश के अंतर्गत क्रोष्टा कुल के भगवान श्रीकृष्ण सहित प्रमुख सदस्यपतियों तथा उनके वंश क्रम की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय-(१२) के भाग- (१)- में यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन तथा भाग- (२) में श्रीकृष्ण का गोलोक गमन इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया है।
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