गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

तो इस संबन्ध में देखा जाए तो पौराणिक ग्रंथों में गोत्रों की उत्पत्ति मुख्य रूप से उन चार ऋषियों से बतायी गयी है जो इन्द्रिय संयम और तप से ही वेदों के विद्वान तथा समाज में प्रतिष्ठित हुए थे।

महाभारत शान्ति पर्व  में राजा जनक और पराशर का संवाद  है जिसमें  - राजा जनक पराशर ऋषि से  प्रश्न करते हैं  

 देखें  इसकी पुष्टि के लिए- महाभारत शान्ति पर्व का अध्याय- (285) के श्लोक- (17)  व (18 ) से होती है।

मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।

अनुवाद: - हे राजन् सबसे पहले मूलगोत्र केवल चार ही थे अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु।१७।

कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
अनुवाद:-अन्‍य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्‍पन्‍न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्‍या से ही साधू-समाज में सुविख्‍यात एवं सम्‍मानित हुए हैं ।18।

महाभारत के शान्ति पर्व के इसी अध्याय ( 285) के तृतीय श्लोक से भी जाति स्वरूप की सत्यता सिद्ध होती है।

            "पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।(महाभारत  — 12/.285/.3)

अनुवाद:-पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि जिससे जो जन्‍म लेता है, उसी का वह स्‍वरूप होता है तथापि तपस्‍या की न्‍यूनता के कारण लोग निकृष्‍ट जाति को प्राप्‍त हो गये हैं।३।


ऐसी दशा में प्रारम्‍भ में ब्रह्माजी से उत्‍पन्‍न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्‍म हुआ है, तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ?

तब पराशरजी ने  इसी प्रसंग में पुन: राजा जनक से कहा था। हाँ- महाराज ! यह ठीक है कि 
              
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति सम्भवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।

अनुवाद:-
उत्‍तम क्षेत्र ( खेत) और उत्‍तम बीज से जो जन्‍म होता है, वह पवित्र ही होता है।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्‍नकोटि ( घटिया किस्म) का हो तो उससे निम्‍न संतान की ही उत्‍पत्ति होती है ।४। 

धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्‍यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।

तात ! जो मुख से उत्‍पन्‍न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्‍पन्‍न होने वाले मनुष्‍यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्‍पन्‍न हुए, वे धनवान (वैश्‍य) कहे गये; जिनकी उत्‍पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्‍पत्ति हुई।
(बम्बई निर्णय सागर प्रेस- संस्करण)

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