रविवार, 29 दिसंबर 2024

★-श्रीकृष्ण-चरित्रसाराङ्गिणी-★ अद्यतन संशोधित संस्करण- (भाग प्रथम)


अध्याय -९
[भाग- १] ✓✓ ✓


गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश, कुल और गोत्र के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र "अत्री" है या वैष्णव।
                
इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य यादवों के जाति, वंश, कुल एवं गोत्रों की वास्तविक जानकारी देना ही है। इसको क्रमबद्ध तरीके से बताने के लिए इस अध्याय को दो भागों में बांटा गया है-
भाग- (क) यादवों की जातिगत विशेषताएं।
भाग- (ख) यादवों का वास्तविक गोत्र वैष्णव है या अत्रि ?

जिसमें प्रथम भाग में यादवों की जातिगत विशेषताओं को बताते हुए यह बताया गया है कि गोप, गोपाल, अहीर, और यादव  एक ही जाति, वंश एवं कुल के सदस्य हैं। तथा इसके दूसरे भाग में बताया गया है कि- यादवों का मुख्य गोत्र वैष्णव गोत्र है किंतु विकल्प के रूप में यादव लोग अति गोत्र को भी मानते हैं।

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     भाग- (क) यादवों की जातिगत विशेषताएं।
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                   जो भी थोड़ा बहुत पढ़ा लिखा होगा तथा थोड़ा भी व्याकरण की जानकारी रखता होगा। वह इस बात को अवश्य जानता होगा कि अहीर शब्द के पर्यायवाची - आभीर, गोप, गोपाल, यादव, गोसंख्य, गोधुक, बल्लव, घोष इत्यादि होते हैं।                             इस सम्बन्ध में अमरकोश जो गुप्त काल की रचना है। उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं, जो इस प्रकार है-
१- गोपाल २- गोसङ्ख्य ३- गोधुक,  ४- आभीर ५- वल्लव ६- गोविन्द  ७- गोप।
         आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक:
                                  श्रोत - अमरकोश  2/9/57/2/5
आभीर शब्द की ब्युत्पत्ति को देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।
आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन का वाचक है। 'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं।
          
      अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप अहीर होता है।
अब यहां पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना आवश्यक हो जाता है। तो इस संबंध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते है। ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर हिंदी में आये है, 'तद्भव' कहलाते है। यानी तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किंतु कालांतर में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिंदी में अहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।
   किंतु हमें अहीर,आभीर, और यादव शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना है कि इनका प्रयोग हिंदी और संस्कृत ग्रंथों में कब कहां और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है।
तो इस संबंध में सबसे पहले अहीर शब्द को के बारे में जानेंगे कि हिंदी ग्रंथों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ।  इसके बाद संस्कृत ग्रंथों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए कहां-कहां प्रयुक्त हुआ।
अहीर शब्द का प्रयोग हिंदी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रुप से किया गया है। जैसे-
                           अहीर शब्द का रसखान कवि अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किए हैं। जैसे-
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।
धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।। खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी।
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।।

                इसी तरह से भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने 500 साल पहले दो ग्रंथ  "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदासजी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।

नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूं चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।। ५८

                   अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण (सर्जक) हो, मैं चारण आप श्री हरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुंदर) और दूध से भरा हुआ है। ५८

                  और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में लिखा है-
"सखी री, काके मीत अहीर"

ज्ञात हो अहीर नाम का एक राग भी है जो अहीर भैरव नाम से भी जाना जाता है। राग अहीर भैरव का द

िन (भोर के समयं) के रागों में एक विशेष स्थान है। यह राग पूर्वांग में राग भैरव के समान है और उत्तरांग में राग काफी के समान है। राग के पूर्वांग का चलन, राग भैरव के समान ही होता है जिसमें रिषभ पर आंदोलन किया जाता है यथा ग म प ग म रे१ रे१ सा। इसमें मध्यम और कोमल रिषभ की संगती मधुर होती है, जिसे बार बार लिया जाता है।

इसी राग पर हिंदी फिल्म- "एक दूजे के लिए" का गाना- "बाली उमर को सलाम" गाया गया है "। इससे यह भी सिद्ध होता है कि अहीर जाती की प्राचीनतम एवं अति समृद्धशाली संस्कृति रही है।

               इस प्रकार से देखा जाए तो हिंदी ग्रंथों तथा संगीत की दुनिया में अहीर शब्द का प्रयोग केवल यादव, गोप, घोष, और ग्वाला के लिए ही सामान्य रुप से प्रयुक्त किया जाता है, अन्य किसी के लिए नहीं।


अब यह जानना है कि संस्कृत व पौराणिक ग्रंथों में "आभीर" शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से अहीर, गोप, और यादव, के लिए कहां-कहां किया गया है। ध्यान रहे इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि आभीर संस्कृत शब्द है, जिसका तद्भव रुप अहीर है। तो जाहिर है कि अहीर शब्द संस्कृत में प्रयुक्त नहीं होगा। उसके स्थान पर "आभीर" शब्द ही प्रयुक्त होगा।
जैसे -:  
गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय ७ के श्लोक संख्या- १४ में भगवान श्री कृष्ण और नंदबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग शिशुपाल उस समय किया जब संधि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी
शिशुपाल के यहां गए। किंतु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहा कि-
आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्तोऽयं गतत्रपः।। १४

प्रद्युम्नं तस्तुतं जित्वा सबलं यादवैः सह।
कुशस्थलीं गमिश्यामि महीं कर्तुमयादवीम्।। १६

अनुवाद -
•  वह (श्रीकृष्ण) पहले नंद नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वासुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं। १४
• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीतकर भूमंडल को यादवों से शून्य कर देने के लिए  कुशस्थली पर चढ़ाई करूंगा। १६

        इन उपर्युक्त दो श्लोक को यदि देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण सहित संपूर्ण अहीर और यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।
       इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- २० के श्लोक - ६ और ७ में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बंधित थे।   
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः  सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।। ६  

यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।। ७
             अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक। ६
         •  अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।

     इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६,१७ और १८ में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-

"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः । 16

सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः।मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा । 17

आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः ।। 18
     
                 अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं। १७-१७
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। १८

▪️ इसी तरह से महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों  के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है-

"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।

        अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
        उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
            ध्यान रहे ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों को क्षत्रिय होने की भी पुष्टि करती हैं।
             इन उपरोक्त श्लोकों से आभीर जाति का प्राचीनतम स्थिति का पता चलता है। ध्यान रहे अहीर का पर्यायवाची शब्द गोप होता है।

                    इसी तरह से जब भगवान श्री कृष्ण  इंद्र की पूजा बंद करवा

दी, तब इसकी सूचना जब इंद्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्री कृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को जो कुछ कहा उसका वर्णन श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय -२५ के श्लोक - ३ से ५ में मिलता है। जिसमें इंद्र अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।। ३

वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ।। ५
                      अनुवाद - ओह, इन जंगली ग्वालों (गोपों ) का इतना घमंड! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला। ३
•   कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५
           इन उपरोक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर, और यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।
                        इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग गर्गसंहिता के अध्याय- ६२ के
श्लोक ३५ में मिलता है। जिसमें जूवा खेलते समय रुक्मी बलराम जी को कहता है कि -
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।। ३४
              अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले वाले ग्वाले ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।
             इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसलिए गर्ग संगीता के अनुवाद कर्ता, अनुवाद करते हुए गोपाल शब्द को ग्वाल के रूप में रखा।
     और अहीर, गोप, गोपाल, ग्वाल ये सभी यादव शब्द का ही पर्यायवाची शब्द हैं, चाहे इन्हें अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें,  ग्वाला कहें,  यादव कहें ,सब एक ही बात है।
     जैसे भगवान श्री कृष्ण को तो सभी लोग जानते हैं कि यदुवंश में उत्पन्न होने से उन्हें यादव कहा गया और गोप कुल में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया और गोपालन करने से उन्हें गोपाल और ग्वाला कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है।
भगवान श्रीकृष्ण को गोपकुल और यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय - (७) में बताया जा चुका है।

             भगवान श्री कृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया। जब यज्ञ हेतु सभी लोगों ने श्री कृष्ण को अग्र पूजा के लिए चुना। किंतु वहीं पर उपस्थित शिशुपाल इसका विरोध करते हुए भगवान श्री कृष्ण को
यदुवंश शिरोमणि न कहकर उनके लिए ग्वाला (गोप) शब्द से संबोधित करते हुए उनका तिरस्कार किया। जिसका वर्णन- श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय 74 के श्लोक संख्या - १८, १९, २० और ३४ में कुछ इस प्रकार है -
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ।। १८
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।। १९
यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निनराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः।। २०
             
                  अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८
•  यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं। १९
•  यह सारा विश्व श्री कृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्री कृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्री कृष्णा ही अग्नि, आहुति और मंत्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।
                 भगवान श्री कृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।। ३४
             अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ३४

इस श्लोक के अनुसार यदि शिशुपाल के इस कथन पर  विचार किया जाए तो वह श्री कृष्ण के लिए ग

ोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहां तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्री कृष्ण- गोप, गोपाल और ग्वाला ही हैं। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहे हैं जो इस प्रकार है-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८
           अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
           अतः शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण को गोपाल या गोप कहा कोई गलत नहीं कहा। किंतु वह भगवान श्री कृष्ण को कौवा और कुलकलंक कहा, यहीं उसने गलत कहा जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्री कृष्ण ने उसका वध कर दिया।
                      इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - २६ और ४१ में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जो पौण्ड्रक, श्री कृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहता है कि-

स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६

गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१

अनुवाद-  राजा पौंड्रक ने भगवान से कहा- ओ यादव!ओ गोपाल ! इस समय तुम कहां चले गए थे? २६
• तब भगवान श्री कृष्ण ने पौंड्रक से कहा - राजन ! मैं सर्वदा गोप हूं , अर्थात प्राणियों का प्राण दान करने वाला हूं , संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूं।

देखा जाए तो इन उपयुक्त दो श्लोकों से तीन बातें और सिद्ध होती है।
• पहला यह कि- राजा पौंड्रक, भगवान श्रीकृष्ण को यादव और गोप दोनों शब्दों से संबोधित करता है। इससे सिद्ध होता है कि यादव और गोप एक ही होते हैं।
• दूसरा यह कि- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने को गोप कहते हुए यह सिद्ध करते हैं कि मैं गोप हूं।
• तीसरा यह कि- गोप ही एक ऐसी जाती है जो संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों पर शासन करने वाली है।
    
             इस प्रकार से अध्याय- (९) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं।
      अब इसके अगले भाग में (दो) में✍️

अध्याय- ९ भाग- २
(|) ✓✓✓

गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र अत्रि है या वैष्णव ?

    भाग- (ख) यादवों का वास्तविक गोत्र वैष्णव है या अत्रि ?
   
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यादवों को अपना वास्तविक गोत्र जानने से पहले गोत्रों की उत्पत्ति को जानना होगा की गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई तथा गोत्र कितने प्रकार के होते हैं ?
  तो इस संबन्ध में देखा जाए तो पौराणिक ग्रंथों में गोत्रों की उत्पत्ति मुख्य रूप से उन चार ऋषियों से बतायी गयी है जो इन्द्रिय संयम और तप से ही वे वेदों के विद्वान तथा समाज में प्रतिष्ठित हुए थे। इसकी पुष्टि- महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- २९६ के श्लोक- १७ से होती है। जिसमें  - राजा जनक पराशर ऋषि से प्रश्न पूछते हैं-

मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।

अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। 
          अन्‍य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्‍पन्‍न हुए हैं। 
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्‍या से ही साधू-समाज में सुविख्‍यात एवं सम्‍मानित हुए हैं । महाभारत शान्ति पर्व का निम्न श्लोक इस बात का संकेत करता है।

कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।

जनक ने पूछा - वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्‍पन्‍न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ। आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्‍पन्‍न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्‍मदाता पिता ही नूतन जन्‍म धारण करता है।

ऐसी दशा में प्रारम्‍भ में ब्रह्माजी से उत्‍पन्‍न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्‍म हुआ है, तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ?

तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि 
              "पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।

सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।

अनुवाद:-
जिससे जो जन्‍म लेता है, उसी का वह स्‍वरूप होता है तथापि तपस्‍या की न्‍यूनता के कारण लोग निकृष्‍ट जाति को प्राप्‍त हो गये हैं । उत्‍तम क्षेत्र( खेत) और उत्‍तम बीज से जो जन्‍म होता है, वह पवित्र ही होता है।

यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्‍नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्‍न संतान की ही उत्‍पत्ति होती है । 

धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्‍यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।

तात ! जो मुख से उत्‍पन्‍न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्‍पन्‍न होने वाले मनुष्‍यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्‍पन्‍न हुए, वे धनवान (वैश्‍य) कहे गये; जिनकी उत्‍पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्‍पत्ति हुई।

इनसे भिन्‍न जो दूसरे-दूसरे मनुष्‍य हैं, वे इन्‍हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्‍पन्‍न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं।     इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्‍ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्‍म दिया है, तब मनुष्‍यों के भिन्‍न-भिन्‍न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्‍यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।

ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्‍म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्‍पन्‍न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्‍व को कैसे प्राप्‍त हुए ? पराशर जी ने कहा - राजन ! तपस्‍या से जिनके अन्‍त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्‍मा पुरूषों के द्वारा जिस संतान की उत्‍पत्ति होती है, अथवा वे स्‍वेच्‍छा से जहाँ-कहीं भी जन्‍म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि से निकृष्‍ट होने पर भी उसे उत्‍कृष्‍ट ही मानना चाहिये । नरेश्‍वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्‍पन्‍न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया ।

      उपरोक्त संवादों से सिद्ध होता है कि - प्रारंभिक काल में गोत्रों का निर्धारण व्यक्ति के तपोबल एवं उसके कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ करता था। अर्थात् निम्न योनि का व्यक्ति भी अपने तपोबल एवं कर्मों के आधार पर उच्च योनि को प्राप्त कर सकता था। उसी तरह से उच्च योनि का व्यक्ति निम्न कर्म करने पर निम्न योनि को प्राप्त होता था। किंतु इस सिद्धांत का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और अंततोगत्वा ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में गोत्र एवं कुल का निर्धारण कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा। जिसके परिणाम स्वरूप सामाजिक भेदभाव एवं अस्पृश्यता का उदय हुआ। क्योंकि पूर्व काल में जिन चार ऋषियो

ं- अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु  से जो चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे उनके अतिरिक्त ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अपनी आवश्यकतानुसार अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारिणों में शामिल किया जो किसी न किसी रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए थे। उन सभी को सम्मिलित कर पुरोहितों नें गोत्र निर्धारण का एक नया सिद्धांत बनाया जो मुख्यतः तीन सिद्धांतों पर आधारित हैं।
        
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनी जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करते हैं। 

ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर संतान पूरक गोत्र कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि का संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।

(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात उनकी उत्पत्ति किससे हुई है का पता नहीं। ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।

(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यंत किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त संबंध का संकेत करता है। 
 
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त संबंध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र-  गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा जी या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।

इस संबंध में बतादें कि- संपूर्ण ब्रह्मांड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई। 

इसलिए श्रीकृष्ण ( स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।  तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
 किंतु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश  पौराणिक ग्रंथों में यादवों के मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।

 जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्मे ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर  यादवों में कूद पड़े ? यह एक विचारणीय विषय है।

इस संबंध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कहना है कि -
"गोप लोग श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ऋषि अत्रि से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"

गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हंस श्री माता प्रसाद जी का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि संपन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई

रक्त संबंध नहीं है"।

गोपों के इस वैकल्पिक गोत्र अत्रि की परम्परा का प्रारंभ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मंत्रोच्चारण से संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे। उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को संपन्न का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को संपन्न कराना था।

अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६ और १७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।

फिर आगे चलकर गोपों की इसी परम्परा को निर्वहन करते हुए भू-तल पर गोप कुल में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण संग श्रीराधा का विवाह भाण्डीर वन में अत्रि के पिता ब्राह्मण देवता ब्रह्मा द्वारा ही संपन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।

"पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।

हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।

ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।

कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।

प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।

वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।

श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।

पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।

प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।

तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।

पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः।।१३०।

अनुवाद- १२०-१३०
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मंत्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।       

अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - गोपों का वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" केवल पूजा पाठ, यज्ञ और विवाह इत्यादि तक ही सीमित है। अत्रि- गोत्र में गोपों के रक्त संबंधों को स्थापित करना उनके मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के समान होगा।

क्योंकि "गोत्र उत्पत्ति सिद्धांत के अनुसार यह मान्यता है की प्रारम्भिक काल में जिनकी उत्पत्ति जिससे होती है उसी के नाम पर उसका गोत्र निर्धारित होता है"। इस सिद्धान्त के अनुसार यादवों का "अत्रि गोत्र" तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति ऋषि अत्रि से हुई होती।

किंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रारंभिक काल में यादवों (गोप और गोपियों) की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा से उसी समय हो जाती है जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पन्न होते हैं। इस बात को विस्तार पूर्वक अध्याय- (४) में बताया गया है कि- गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोपों की उत्पत्ति कैसे हुई है।

फिर भी इस संबंध में कुछ साक्ष्य यहां देना चाहेंगे कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से ही हुई है।

(१)- पहला साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक (४३) से है जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-

"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।

अनुवाद -• श्रीराधा के रोम कूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।

(२)- दूसरा साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) से है, जिसमें लिखा गया

है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण   वेषेणैव  च  तत्समः। ४२।

अनुवाद- ४०-४२
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

(३)- तीसरा साक्ष्य- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६ के श्लोक- ६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-

"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।

अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।

(४)- चौथा साक्ष्य - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- ७ से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।

अब ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि - जब गोपों (यादवों) की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है तो जाहिर सी बात है कि इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार वैष्णव ही होना चाहिए न की अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह गोत्र सिद्धांत के बिल्कुल विपरीत होगा।
       
इस संबंध में श्रीकृष्ण भक्त एवं श्रीकृष्ण चरित्र विश्लेषक- गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी  का कथन है कि - "यादवों का अत्रि गोत्र तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति अत्रि से हुई होती। किंतु अत्रि का जन्म तो गोपों की उत्पत्ति से बहुत बाद में भू-तल पर ब्रह्मा जी से हुई है। ऐसे में गोपों का गोत्र- अत्रि कैसे हो सकता है ?"

इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी के कथन पर विचार किया जाए तो उनका कथन बिल्कुल सत्य है। क्योंकि प्रमुख पौराणिक ग्रंथों में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही बतायी गई है।

मत्स्यपुराण के अध्याय- (१७१) के श्लोक - (२६) और (२७) में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से बताई गई है। जो इस प्रकार है-

विश्वेशं प्रथमः तावन्महातापसमात्मजम्।
सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्मं स सृष्टवान।।२६।

दक्षं मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
वसिष्टं गौतमं चैव भृगुमङ्गिरसं मनुम्।। २७।

अनुवाद- २६-२७
सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने धर्म नामक पुत्र को प्रकट किया जो विश्व के ईश्वर महान तपस्वी संपूर्ण मन्त्रों द्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, "अत्रि", पुलस्त्य, क्रतु , वशिष्ठ, गौतम, भृगु, अंगिरा और मनु को उत्पन्न किया।२६-२७।

इसी प्रकार से मत्स्यपुराण के अध्याय- (१४५) के श्लोक (९० और ९१) में ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में अत्रि को भी बताया गया है।

भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः।
मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दशः।। ९०।

ब्राह्मणो मानसा ह्येते उत्पन्नाः स्वयमीश्वराः।
परत्वेनर्षयो  यस्मान्तास्तस्मान्महर्षयः।। ९१।

अनुवाद- ९०-९१
भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ और पुलस्त्य, ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परतत्व से युक्त है, इसीलिए महर्षि माने गए हैं।
 
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - ऋषि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं अर्थात इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई हैं ना की गोपेश्वर श्रीकृष्ण से।
 तब ऐसे में गोपों का गोत्र -"अत्रि" नाम से कैसे स्थापित हो सकता है ? यह तभी संभव हो सकता है जब अत्रि की भी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से हुई होती। किंतु अत्रि तो ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं।
 
इससे यह सिद्ध होता है कि यादवों के मूल गोत्र- "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के लिए जाने-माने ऋषि अत्रि को निराधार और बेवजह ही घसीट कर यादवों के गोत्र में सम्मिलित किया गया ताकि यादव लोग भ्रमित होकर अपने मूल गोत्र "वैष्णव" को भूलकर  ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अत्रि गोत्र का अंग बनकर रह जाए।

                        ‌कृ.प.उ.

अध्याय- (९)

[भाग- २ (||) ]✓✓✓


         ऋषि अत्रि को लेकर आश्चर्य तो तब होता है जब यह पता चलता है की ऋषि अत्रि का एक अलग से वंश और गोत्र भी है। जो ब्राह्मणों से संबंधित है न कि यादव अथवा गोपों से सम्बन्धित। इसकी पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय- (१९७) के श्लोक- (१-११) से होती है जिसमें भगवान मत्स्य कहते हैं-

               । मत्स्य उवाच ।
अत्रिवंशसमुत्पन्नान् गोत्रकारान्निबोध मे।
कर्दमायनशाखेयास्तथा शारायणाश्च ये ।।१।

उद्दालकिः शौणकर्णिरथौ शौक्रतवश्च ये।
गौरग्रीवा गौरजिनस्तथा चैत्रायणाश्च ये ।।२।

अर्द्धपण्या वामरथ्या गोपनास्तकि बिन्दवः।
कणजिह्वो हरप्रीति र्नैद्राणिः शाकलायनिः ।।३।

तैलपश्च सवैलेय अत्रिर्गोणीपतिस्तथा।
जलदो भगपादश्च सौपुष्पिश्च महातपाः ।।४।

छन्दो गेयस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः।
श्यावाश्वश्च तथा त्रिश्च आर्चनानश एव च ।।५।

परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः।
दाक्षिर्बलिः पर्णविश्च ऊर्णनाभिः शिलार्दनिः ।।६।

वीजवापी शिरीषश्च मौञ्जकेशो गविष्ठिरः।
भलन्दनस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः ।।७।

अत्रिर्गविष्ठिरश्चैव तथा पूर्वातिथिः स्मृतः।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः ।।८।
आत्रेयपुत्रिकापुत्रानत ऊर्ध्वं निबोध मे।
कालेयाश्च सवालेया वासरथ्यास्तथैव च ।।९।

धात्रेयाश्चैव मैत्रेयास्त्र्यार्षेयाः परिकीर्तिताः।
अत्रिश्च वामरथ्यश्च पौत्रिश्चैवमहानृषिः ।।१०।

इत्यत्रिवंशप्रभवास्तवाह्या महानुभावा नृपगोत्रकाराः।
येषां तु नाम्ना परिकीर्तितेन पापं समग्रं पुरुषो जहाति।। ११।

अनुवाद- १-११
मत्स्यभगवान ने  कहा- राजेन्द्र अब मुझसे महर्षि अत्रिके वंशके उत्पन्न हुए कर्दमायन तथा शारायणशाखीय गोत्रकर्ता मुनियों का वर्णन सुनिये ये हैं- उद्दालकि, शीणकर्णिरथ, शौकतव, गौरग्रीव, गौरजिन, चैत्रायण अर्धपण्य, वामरथ्य, गोपन, अस्तकि, बिन्दु, कर्णजिहू, हरप्रीति, लैाणि, शाकलायनि, तैलप, सवैलेय, अत्रि, गोणीपति, जलद, भगपाद, महातपस्वी सौपुष्पि तथा छन्दोगेय— ये शरायण के वंश में कर्दमायनशाखा में उत्पन्न हुए ऋषि हैं। इनके प्रवर श्यावाश्व, अत्रि और आर्चनानश ये तीन हैं। इनमें परस्पर में विवाह नहीं होता। दाक्षि, बलि, पर्णवि, ऊर्णुनाभि, शिलार्दनि, बीजवापी, शिरीष, मौञ्जकेश, गविष्ठिर तथा भलन्दन- इन ऋषियों के अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि-ये तीन ऋषिवर माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह सम्बन्ध निषिद्ध है।
   
( विशेष - उपर्युक्त वंश एवं गोत्र ऋषि अत्रि के पुत्रों का रहा)
अब इसके आगे भगवान मत्स्य - अत्रि की पुत्री "आत्रेयी" के वंश के बारे में बताते हुए कहते हैं-
अब मुझसे अत्रि की पुत्रिका आत्रेयी से उत्पन्न प्रवर ऋषियों का विवरण सुनिये- कालेय, वालेय, वामरथ्य, धात्रेय तथा मैत्रेय इन ऋषियोंके अत्रि, वामरथ्य और महर्षि पौत्रि—ये तीन प्रवर ऋषि माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह नहीं होता।
राजन्! इस प्रकार मैंने आपको इन अत्रि वंशमें उत्पन्न होनेवाले गोत्रकार महानुभाव ऋषियों का नाम सुना दिया, जिनके नामसंकीर्तनमात्र मनुष्य अपने सभी पाप कर्मों से छुटकारा पा जाता है ॥ १-११

इस प्रकार से देखा जाए तो यादवों के वंश एवं गोत्र में जिस ब्राह्मण अत्रि को शामिल किया जाता है उनका एक वंश है जो पूर्ण रूपेण ब्राह्मणों के वंश एवं गोत्र से संबंधित है। 

ऐसे में एक ब्राह्मण (अत्रि) से यादवों के गोत्र एवं वंश को स्थापित करना यादवों के मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" पर कुठाराघात करने के ही समान है।

ऋषि अत्रि को लेकर दूसरा आश्चर्य तब होता है जब ऋषि अत्रि से चंद्रमा को उत्पन्न करा कर यादवों के मूल वंश- चंद्रवंश को भी अत्रि से जोड़ दिया गया। सोचने वाली बात है कि जो अत्रि स्वयं वारूणी यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए हों या ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हों वे चंद्रमा को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ? अर्थात् यह संभव नहीं है।
    जबकि वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम चंद्रमा की उत्पत्ति गोलोक में विराट विष्णु से हुई है न कि ब्राह्मण ऋषि अत्रि से।

(ज्ञात हो - विराट विष्णु गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं, जिनकी उत्पत्ति गोलोक में ही परमेश्वर श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से हुई है, इसलिए उन्हें गर्भोधकशायी विष्णु भी कहा जाता है इन्हीं गर्भोधकशायी विष्णु के अनंत रोम कूपों से अनंत ब्रह्मांडों की उत्पत्ति हुई और उनमें भी उतनें ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश उत्पन्न हुए तथा उतने ही सूर्य और चंद्रमा उत्पन्न हुए। फिर उन प्रत्येक ब्रह्मांडों में ब्रह्मा जी उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण के आदेश पर द्वितीय सृष्टि की रचना की है। द्वितीय सृष्टि रचना में ब्रह्मा के  दस मानस पुत्र उत्पन्न हुए, उन दस मानस पुत्रों में अत्रि भी थे। तो इस स्थिति में ऋषि अत्रि अलग से कैसे चंद्रमा को उत्पन्न कर सकते हैं ? 

अर्थात यह संभव नहीं है क्योंकि अत्रि के जन्म की तो बात दूर इनके पिता ब्रह्मा की भी उत्पत्ति

से बहुत पहले सूर्य और चंद्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हो चुकी होती है। कुल मिलाकर पौराणिक ग्रंथों  में ऋषि अत्रि से चंद्रमा की उत्पत्ति बताने का एकमात्र उद्देश्य ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में सम्मिलित करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।

 विराट विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण से चंद्रमा की उत्पत्ति की पुष्टि-  श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ११ के श्लोक- (१९) से होती है जिसमें विराट पुरुष से सम्पूर्ण ब्रह्मांड उत्पत्ति एवं विलय क्रम में सूर्य और चंद्रमा की स्थिति को सर्वप्रथम भूतल पर अर्जुन ने उस समय देखा और जाना जब भगवान श्रीकृष्ण अपना विराट रूप का दर्शन अर्जुन को कराया। उसे विराट पुरुष को देखकर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं -

"अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।
              (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१९)

अनुवाद- आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चंद्र और सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुख वाले और अपने तेज से इस संसार को तपाते हुए देख रहा हूं।१९।
  
 इसी प्रकार से विराट विष्णु से चंद्रमा की उत्पत्ति का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -

चन्द्रमा मनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च  प्रणाद्वायुरजायत।।१३।

अनुवाद- महा विष्णु के मन से चंद्रमा, नेत्रों से सूर्य ज्योति, मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।

 अतः उपरोक्त साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- चंद्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हुई है अत्रि से नहीं।

और यह भी सिद्ध हुआ कि- विष्णु से उत्पन्न होने के नामानुसार चंद्रमा भी उसी तरह से वैष्णव हुआ जिस तरह से विष्णु से उत्पन्न गोप (यादव) वैष्णव हैं। यह ध्रुव सत्य है।

 ( विशेष) - किंतु ध्यान रहे चंद्रमा कोई मानवी सृष्टि नहीं है वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए उससे कोई पुत्र इत्यादि उत्पन्न होने की कल्पना करना भी माहा मूर्खता होगी।

चंद्रमा के दिन-मान से वैष्णव लोग काल- गणना करते हैं तथा अपना प्रथम वंशज और आराध्य देव मानकर पूजा करते हैं। इसी परंपरा से वैष्णव वर्ण के गोपों में चंद्रवंश का उदय हुआ।
और भगवान श्रीकृष्ण जब भी भू-तल पर अवतरित होते हैं तो वे चंद्रवंश के अंतर्गत वैष्णव वर्ण के अभीर जाति यदुवंश आदि में ही अवतरित होते हैं।
      
गोप कुल में अवतरित होने के संबंध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) में कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपों के कुल में अवतरित होने का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके पिछले अध्याय- (८) में किया जा चुका है। वहां से विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।

 इन उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- उत्पत्ति विशेष के कारण गोपों अर्थात् यादवों का मूल गोत्र और वर्ण  दोनों ही "वैष्णव" है जो उनके अनुवांशिक गुणों एवं रक्त संबंधों को संकेत करता है। तथा उनका एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" है जिसमें गोपों का कोई रक्त संबंध नहीं है, जिसका उद्देश्य केवल ब्राह्मण पूरोहितों से पूजा पाठ, हवन, विवाह इत्यादि को संपन्न कराना है।

इस प्रकार से अध्याय- (९) भाग एक और दो इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं।

अब इसके अगले अध्याय- (१०) में गोपकुल के श्रीकृष्ण एवं राधा सहित पुरुरवा और उर्वशी, आयुष, नहुष,ययाति इत्यादि महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे में बताया गया है।

अध्याय- १०
[भाग- १]✓✓ ✓

गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान  पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।



यादव वंश गोप जाति का एक ऐसा रक्त समूह है जिनकी उत्पत्ति गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के क्लोन (समरूपण विधि) से उस समय हुई जब गोलोक में श्रीकृष्ण से नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि प्रमुख देवताओं की उत्पत्ति हुई थी। इस वजह से गोप जाति उतनी ही प्राचीनतम है जितना नारायण, शिव एवं ब्रह्मा हैं।
(इस बात को अध्याय- (४) में विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है।)  इस लिए गोप कुल के उन सभी सदस्यपत्तियों की विस्तृत जानकारी के लिये इस अध्याय को क्रमशः चार भागों में गया है।

भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय
भाग-(२) श्रीराधा का परिचय
भाग-(३) पुरुरवा और उर्वशी का परिचय
भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय



             भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय
                         ________
ज्ञात हो - परमेश्वर श्रीकृष्ण किसी परिचय के मोहताज (अभावग्रस्त) नहीं है। परमेश्वर का परिचय देना मेरे जैसा एक सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव भी नही है। क्योंकि-
जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्मों का वर्णन करने में भू-तल पर कोई सामर्थ्य नहीं है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनकी कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्मा जी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।
जिनकी निर्मल प्रसिद्धि और महिमा बताने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं तथा देवता भी उस भगवान के परम स्वरूप को नहीं जानते हैं। तो उस परमेश्वर का परिचय देना मेरे जैसा तुक्ष (अत्यन्त साधारण) प्राणी के लिए तो और भी सम्भव नहीं है। फिर भी इस असम्भव कार्य को उनके द्वारा ही शौपा गया है यह समझकर ही परमेश्वर के गुणों का वर्णन कर रहा हूं।
किंतु ध्यान रहे परमेश्वर श्रीकृष्ण का इस अध्याय में जो परिचय बताया गया है वह भू-तल पर उनके लौकिक जीवन एवं उनकी लीलाओं से ही सम्बंधित है। उनके आध्यात्मिक एवं अलौकिक पहलुओं का वर्णन अध्याय- दो और तीन में किया जा चुका है।

        गोपेश्वर श्रीकृष्ण का लौकिक परिचय -: सर्वविदित है कि भूलोक से गोलोक तक श्रीकृष्ण को ही गोप-कुल का प्रथम सदस्यपति माना गया हैं। उन्हें ही परमप्रभुप परमेश्वर कहा जाता हैं। वे प्रभु अपने गोलोक में गोप और गोपियों के साथ सदैव गोपभेष में रहते हैं। और वहीं पर समय-समय पर सृष्टि रचना भी किया करते हैं, और समय आने पर वे ही प्रभु समस्त सृष्टि को अपने में समाहित कर लेते हैं। यही उनका शाश्वत सनातन नियम और क्रिया है, और जब-जब प्रभु की सृष्टि रचना में पाप और भय अधिक बढ़ जाता है तब-तब उसको दूर करने के लिए वे प्रभु अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ धरा-धाम पर अपनें ही वर्ण के- गोपकुल (अहीर-जाति) में अवतीर्ण होते हैं। भगवान के इस कार्य हेतु श्रीमद्भागवत गीता का यह श्लोक प्रसिद्ध है -
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७
                        (श्रीमद्भागवत गीता ४/७)

इस कार्य हेतु भगवान श्री कृष्ण गोप कुल में ही अपने सम्पूर्ण अंशों के साथ अवतरित होते हैं। उनको गोपकुल में अवतरित होने की पुष्टि- हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहें हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
{भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरण इत्यादि के बारे में अध्याय-(८) में विस्तार पूर्वक बताया गया है।}

भगवान श्री कृष्णा जब भू-तल पर अवतरित होते हैं तो उनकी सारी विशेषताएं वही रहती हैं जो गोलोक में होती हैं। उनकी सभी विशेषताओं का एक-एक करके यहां वर्णन किया गया है। जैसे -

(१) - श्रीकृष्ण के लिए अष्टमी का महत्व :---
         भगवान श्रीकृष्ण के लिए भूतल पर अष्टमी का बहुत बड़ा महत्व है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण भाद्रमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन भूतल पर गोपकुल में अवतरित हुए हैं। तभी से वह शुभ मुहूर्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
और भगवान श्रीकृष्ण जब 6 वर्ष की उम्र के हो गए तब
कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को शुभ मानकर उन्हें पहली बार गावें चराने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इस शुभ मुहूर्त को गोपाष्टमी नाम से जाना जाता है।
वहीं दूसरी ओर राधा अष्टमी भगवान श्रीकृष्ण की परमप्रिय राधा रानी का जन्मोत्सव है। यह त्योहार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है।
इस संबंध में देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण का अष्टमी से गहरा संबंध है, भाद्रमास कृष्णपक्ष की अष्टमी को भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ तथा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के शुभ मुह

ूर्त में गोपालन कर्तव्य का सूत्रपात किया। इस बात की पुष्टि श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय- १५ के श्लोक- (१) से होती जिसमें लिखा गया है कि-

ततश्च पौगण्डवयः श्रितौ व्रजे बभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ।
गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैर् वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः ।। १

अनुवाद- जब भगवान बलराम और भगवान कृष्ण पौगण्ड अवस्था में अर्थात् छठे वर्ष में प्रवेश किया, तब उन्हें गौवें चराने की स्वीकृति मिल गई। वे अपने सखा ग्वाल बालों के साथ गौवें चराते हुए वृंदावन में जाते और अपने चरणों से वृंदावन को अत्यंत पावन करते। १
  
(२) कुस्ती लड़ना -:
       गोपों ( यादवों ) में कुश्ती लड़ने का अनुवांशिक गुण पाया जाता है। इसी गुण विशेष के कारण भगवान श्रीकृष्ण भी बचपन से ही कुश्ती लड़ा करते थे। यह कार्य गौवें चराते समय अपने बाल गोपाल के साथ करते थे। इस बात की पुष्टी - श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय- १५ के श्लोक- १६ और १७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

क्वचित् पल्लवतल्पेषु नियुध्दश्रमकर्शितः।
वृक्षमूलाश्रयः    शेते    गोपोत्संगोपबर्हणः।। १६

पादसंवाहनं चक्रुः केचित्तस्य महात्मनः।
अपरे हतपाप्मानो व्यजनैः  समवीजयन्।। १७

अनुवाद - १६-१७
• कभी-कभी स्वयं श्री कृष्ण भी ग्वाल बालों के साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तब किसी सुंदर वृक्ष के नीचे कोमल पत्तों की सेज पर किसी ग्वाल बाल की गोद में सिर रखकर लेट जाते। १६
• उस समय कोई कोई पुण्य के मूर्तिमान स्वरूप ग्वालबाल महात्मा श्री कृष्ण के चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अंगोछियों से पंखा झलने लगते।


(३) श्रीकृष्ण के उपनाम :-

(क)- गोपकृत - गोपेश्वर श्रीकृष्ण के (एक हजार नामों) में  गोपकृत भी है। जिसका अर्थ होता है - गोपों को उत्पन्न करने वाला।

(ख)- वंशीधारी - भगवान श्री कृष्ण सदैव एक हाथ में वंशी और सिर पर मोर मुकुट धारण करते हैं। वंशी धारण करने की वजह से ही उनको को वंशीधारी कहा गया। उनकी वंशी का नाम- ‘भुवनमोहिनी’ है। यह ‘महानन्दा’ नाम से भी विख्यात है।

(ग)- मुरलीधारी — कोकिलाओं के हृदयाकर्षक कूजन (पक्षियों के कलरव ) को भी फीका करनेवाली इनकी मधुर मुरली का नाम ‘सरला’ है इसका बचपन में (धन्व:) नामक बाँसुरी विक्रेता से कृष्ण ने प्राप्त किया था। मुरली धारण करने की वजह से श्रीकृष्ण को मुरलीधारी (मुरलीधर) भी कहा गया।

(घ)- शारंगधारी— श्रीकृष्ण के धनुष का नाम 'शारंग' है।जिसे सींग से बनाया गया था। तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिञ्जिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं। सारंग धनुष के धारण करने से ही भगवान श्री कृष्ण को  सारंगधारी भी कहा जाता है। युधिष्ठिर ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की प्रसंशा उस समय की थी जब कृष्ण ने जरासंध को हराने के लिए शारंग धनुष को उठाया था।

(ड)- चक्रधारी— भगवान श्री कृष्ण जब भूमि का भार उतारने के लिए रणभूमि में अपनी नारायणी सेना के साथ उतरते हैं, तब वे अपने एक हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करते हैं। उसके धारण करने की वजह से ही उनको  चक्रधारी और सुदर्शनधारी कहा गया।

(च)- गोपभेषधारी — भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में हों या भू-लोक में, वह दोनों जगहों पर सदैव गोपों के साथ गोपभेष में ही रहते हैं। इस लिए उनको गोपभेषधारी अथवा गोप भी कहा जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के क्रमशः श्लोक संख्या- २१ से होती है जिसमें श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूपों के बारे में लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१।
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।
(छ)-  गिरधारी और गोविंद- श्री कृष्ण का गिरधारी और गोविंद नाम भी है। यह दोनों नाम एक ही घटनाक्रम में उस समय पड़ा जब गोपों ने इंद्र पूजा का बहिष्कार कर गोवर्धन पूजा को करना प्रारंभ किया। जिसके प्रतिशोध में इंद्र ने गोपों की सभी गौवों को मेघ वर्षा करके मारना चाहा किंतु श्रीकृष्ण ने गोवर्धन (गिर पर्वत) को धारण कर गौवों की रक्षा की। उसी समय श्रीकृष्ण का गिरधारी नाम पड़ा।
उसी समय वहां उपस्थित इंद्र शरणागत होकर श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा -
अहं   किलेन्द्रो   देवानां   त्वं  गवामिन्द्रतां   गतः।
गोविंद इति लोकास्त्वां स्तोष्यन्ति भुवि शाश्वतम्।। ४५
                    (हरिवंश पुराण- २/१९/४५)
     अनुवाद- मैं देवताओं का इंद्र हूं और आप गौओं के इंद्र हो गए ! आज से इस भूतल पर सब लोग आप सनातन प्रभु को "गोविंद" कहकर आपका स्तवन करेंगे। ४५
          तभी से श्रीकृष्ण का एक और नाम गोविंद हुआ।

(ज)- केशव- गोपेश्वर श्री कृष्ण का एक नाम केशव भी है। यह नाम मुख्यतः गोपों द्वारा तब दिया गया ज

ब गोपेश्वर श्री कृष्ण ने केशी नामक दैत्य का वध किया। उसी समय गोपों ने श्री कृष्ण की स्तुति करते समय सर्वप्रथम केशव नाम से संबोधित किया। तभी से श्री कृष्ण का एक नाम केशव भी हुआ।
यशमात्तयैष दुष्टात्मा हतः केशी जनार्दन।
तस्मात्केशवनाम्ना त्वं लोके ख्यातो भविष्यसि।।२३
            (विष्णु पुराण- ५/१७/२३)
अनुवाद- हे जनार्दन ! आपने इस दुष्टात्मा केशी को मारा है इसलिए आप लोकों में केशव नाम से विख्यात होंगे।

     (विशेष- केशव नाम गोपों द्वारा दिया गया है इसलिए जब भी गोप (अहीर) लोग श्री कृष्ण की स्तुति करें केशव नाम से ही करें। क्योंकि यह नाम गोपों के लिए विकट परिस्थितियों से मुक्ति प्रदान करने वाला है)

ये तो रही श्रीकृष्ण की कुछ खास व्यक्तिगत विशेषताएं। किंतु उनकी कुछ सामुहिक व सामाजिक विशेषताएं भी हैं जिनके जानें बगैर श्रीकृष्ण की विशेषताएं अधुरी ही मानी जाएगी। जिसका वर्णन नीचे कुछ इस प्रकार से किया गया है।-

  [४] श्रीकृष्ण की सामाजिक व व्यक्तिगत विशेषताएं -:

(क)- श्रीकृष्ण के नित्य-सखा —"श्रीकृष्ण के चार प्रकार के सखा हैं—(A) सुहृद् सखा (B)  सखा (C) प्रिय सखा (D) प्रिय नर्मसखा।

(ख) - सुहृद् वर्ग के सखा— इस वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं। वे सदा श्रीकृष्ण के साथ रहकर उनकी रक्षा करते हैं ।
जिनके नाम हैं - विजयाक्ष, सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
जिसमें श्रीकृष्ण के इस रक्षक टीम (वर्ग) के अध्यक्ष- अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं। जो श्रीकृष्ण की सुरक्षा को लेकर सतत् चौकन्ना रहते हैं।

(ग)- सखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं। ये सखा भाँति-भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु- नन्द नन्दन पर आक्रमण न कर दे।
• जिसमें समान आयु के सखा हैं—
 विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप,मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि।

• श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—
   मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।

(घ)- प्रियसखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण, पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं। जिसमें भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं। ये सभी प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध-अभिनय की रचना करना, अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं। ये सब शान्त प्रकृति के हैं। तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं।

इन सखाओं में "स्तोककृष्ण" श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र हैं, जो देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। इसीलिए  स्तोककृष्ण को छोटा कन्हैया भी कहा जाता है। ये श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं। प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं इसके बाद शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं।

(च)-  प्रिय नर्मवर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल,
         (श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
ये सभी सखा ऐसे हैं- जिनसे श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो।

राग— संगीत की दुनिया में कुछ प्रमुख राग गोपों (अहिरों) की ही देन (खोज) है। जैसे- गौड़ी, गुर्जरी राग, आभीर भैरव इत्यादि। जिसे भगवान श्रीकृष्ण सहित- गोप (आभीर) लोग समय-समय पर गाते हैं। आभीर भैरव नाम की राग- रागिनियाँ श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय हैं।

•  अब हमलोग जानेगें श्रीकृष्ण के पारिवारिक सम्बन्धों को। जिसमें कृष्ण के पारिवारिक चाचा ताऊ के भाई बहिनों की संख्या सैकड़ों हजारों में हैं। उनमें से कुछ के नाम नीचें विवरण रूप में उद्धृत करते हैं।

• श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता— बलराम जी।
• श्रीकृष्ण के चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
  
• श्रीकृष्ण की चचेरी बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा,श्यामादेवी आदि। श्री कृष्ण के साथ यदि श्रीराधा जी की चर्चा नहीं हो तो बात अधुरी ही रहती है। अतः श्रीराधा जी के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस अध्याय के भाग- 2 में दी गई है।

अध्याय- १०
[भाग- २]✓✓✓

गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान  पौराणिक व्यक्तियों का परिचय। 


               भाग-(२) श्रीराधा का परिचय
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श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं, तो राधा पराशक्ति (परमेश्वरी) हैं। ये एक दूसरे से अलग नहीं है। इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखंड के अध्याय -१५ के श्लोक -५८ से ६० में होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा से कहते हैं कि -

त्वं मे  प्राणाधिका  राधे   प्रेयसी   च   वरानने।
यथा त्वं च तथाऽहं च भेदो हि नाऽऽवयोर्ध्रुवम॥ ५८।।

यथा पृथिव्यां गन्धश्च तथाऽहं त्वयि संततम्।
विना मृदा घटं कर्तुं विना स्वर्णेन कुण्डलम्।। ५९।।

कुलालः स्वर्णकारश्च नहि शक्तः कदाचन।
तथा त्वया विना सृष्टिमहं कर्तुं न च क्षमः।।६०।।

अनुवाद- तुम मुझे मेरे स्वयं के प्राणों से भी प्रिय हो, तुम में और मुझ में कोई भेद नहीं है। जैसे पृथ्वी में गंध होती है, उसी प्रकार तुममें मैं नित्य व्याप्त हूँ। जैसे बिना मिट्टी के घड़ा तैयार करने और विना सोने के कुण्डल बनाने में जैसे कुम्हार और सुनार सक्षम नहीं हो सकता उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टिरचना में समर्थ नहीं हो सकता। ५८-६०।
               
अतः  श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण अधूरे हैं और श्री कृष्ण के बिना श्रीराधा अधूरी हैं। इन दोनों से बड़ा ना कोई देवता है ना ही कोई देवी। श्रीराधा की सर्वोच्चता का वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय- (एक) के प्रमुख श्लोकों में वर्णन मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -

पञ्चप्राणाधिदेवी या पञ्चप्राणस्वरूपिणी।
प्राणाधिकप्रियतमा  सर्वाभ्यः  सुन्दरी  परा।। ४४।

सर्वयुक्ता च सौभाग्यमानिनी गौरवान्विता।
वामाङ्‌गार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसासमा॥४५।

परावरा   सारभूता   परमाद्या   सनातनी।
परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता॥४६।
      
अनुवाद- जो पंचप्राणों की अधिष्ठात्री, पंच प्राणस्वरूपा, सभी शक्तियों में परम सुंदरी, परमात्मा के लिए प्राणों से भी अधिक प्रियतम, सर्वगुणसंपन्न, सौभाग्यमानिनी, गौरवमयी, श्री कृष्ण की वामांगार्धस्वरुपा और गुण- तेज में परमात्मा के समान ही हैं।  वह परावरा, परमा, आदिस्वरूपा, सनातनी, परमानन्दमयी धन्य, मान्य, और पूज्य हैं। ४४-४६।

रासक्रीडाधिदेवी श्रीकृष्णस्य परमात्मनः।
रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता॥ ४७।

रासेश्वरी  सुरसिका  रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।

परमाह्लादरूपा  च  सन्तोषहर्षरूपिणी।
निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी॥ ४९।
अनुवाद - वे परमात्मा श्री कृष्ण के रासक्रिडा की अधिष्ठात्री देवी है, रासमण्डल में उनका आविर्भाव हुआ है, वे रासमण्डल से सुशोभित है, वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली, परम आह्लाद स्वरूपा, संतोष तथा हर हर्षरूपा आत्मस्वरूपा, निर्गुण, निराकार और सर्वथा निर्लिप्त हैं। ४७-४९।
         
यदि उपरोक्त श्लोक संख्या-(४८) पर विचार किया जाय तो उसमें श्रीराधा और श्रीकृष्ण की समानता देखने को मिलती है। वह समानता यह है कि जिस तरह से श्रीकृष्ण सदैव गोपवेष में रहते हैं उसी तरह से श्रीराधा भी सदैव गोपी वेष में रहती हैं।
'रासेश्वरी  सुरसिका  रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।
           
अनुवाद -वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली हैं। ४८।
          
और ऐसी ही वर्णन श्रीकृष्ण के लिए ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के श्लोक- २१ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
'स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
 किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१।
        
 अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (अहीर)- वेष में रहते हैं।२१।   
       
अतः दोनों ही परात्पर शक्तियां- गोप (अहीर) और गोपी (अहिराणी) भेष में रहते हैं।
श्रीराधा जी को भू-तल पर अहिर कन्या होने की पुष्टि -
श्रीराधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
आभीरसुभ्रुवां  श्रेष्ठा   राधा  वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।८३।
           
अनुवाद- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।८३।

अब हमलोग श्रीराधा के कुल एवं पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में जानेंगे-

• पिता- वृषभानु, माता- कीर्तिदा
• पितामह- महिभानु गोप (आभीर)

• पितामही — सुखदा गोपी (अन्यत्र ‘सुषमा’ नाम का भी उल्लेख मिलता है।
• पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु एवं सुभानु।
• भ्

राता — श्रीदामा, कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी।
• फूफा — काश, बुआ — भानुमुद्रा,
• मातामह — इन्दु, मातामही — मुखरा।
• मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
• मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी।
• मौसा — कुश, मौसी — कीर्तिमती।
• धात्री — धातकी।
• राधा जी की छाया (प्रतिरूपा) वृन्दा।

• सखियाँ — श्रीराधाजी की आठ प्रकार की सखियाँ हैं।
 इन सभी की विशेषताएं को नीचे ( ABCD ) क्रम में बताया गया हैं -

(A)- सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं।

(B)- नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं।

(C)- प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
       
इस वर्ग की सभी सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं।

(D)- प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि-कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं।

(E)- परमप्रेष्ठसखी वर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं —
(१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५)   चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।

(F)- सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि।

(G)- प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य

(H)- संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक, कण्ठिका, विशाखा और नाम्नी इत्यादि सखियाँ था जो वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं। जिसमें विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर- प्रिया-प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्ययन्त्रों को बजाती हैं।

(I)- मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी।

वाटिका — कंदर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।

राग — मल्हार (वलहार) और धनाश्री' श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय-रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।

नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।

• श्रीराधा जी का विवाह -
श्रीराधा का विवाह श्रीकृष्ण से भू-तल पर ब्रह्मा जी के मन्त्रोंचारण से भाण्डीर वन में सम्पन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।

'राधे  स्मरसि  गोलोकवृत्तान्तं   सुरसंसदि।
अद्य पूर्णं करिष्यामि स्वीकृतं यत्पुरा प्रिये। ५७

अनुवाद -हे प्राणप्यारी राधे ! तुम गोलोक का वृत्तान्त याद करों। जो वहाँ पर देवसभा में घटित हुआ था, मैनें तुम को वचन दिया था, और आज वह वचन पूरा करने का समय अब आ पहुँचा है। ५७।
                  
ये कथोपकथन(  संवाद) अभी हो ही रहा था कि वहाँ पर मुस्कराते हुए ब्रह्माजी सभी देवताओं के संग आ गये।
तब ब्रह्मा ने  श्रीकृष्ण को प्रणाम कर कहा--
'कमण्डलुजलेनैव शीघ्रं प्रक्षालितं मुदा।
यथागमं प्रतुष्टाव पुटाञ्जलियुतः पुनः। ९६।।
 अनुवाद - उन्होंने श्रीकृष्णजी को प्रणाम किया और राधिका जी के चरणद्वय को अपने कमण्डल से जल लेकर धोया और फिर जल अपनी जटायों पर लगाया।९५।
                              
इसके बाद ब्रह्मा जी विवाह कार्य सम्पन्न कराने हेतु - तत्पर हुए-

'पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।

हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।

ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।

कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।

प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।

वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।

श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।

पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।

प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।

तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।

पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्र

ांश्च नारद ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः। 4.15.१३०।

अनुवाद - १२-१३०
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मंत्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।         
अतः उपरोक्त साक्ष्यों से स्पष्ट हुआ कि भू-तल पर श्रीराधा जी का विवाह श्रीकृष्ण से ही हुआ था अन्य किसी से नहीं।
इस प्रकार से अध्याय- १० का भाग- (दो) श्रीराधा जी की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

अब इसी क्रम में इस अध्याय के भाग -(तीन) में आपलोग जानेंगे कि भू-तल पर गोपकुल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष और सम्राट पुरूरवा कौन था ? तथा उनकी पत्नी गोपी- उर्वशी कौन थी ?

अध्याय- १०
[भाग -३] ✓✓✓  

गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय। 
    
         भाग-(३) पुरुरवा और उर्वशी का परिचय

इस भाग में भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष पुरूरवा व उनकी पत्नी उर्वशी दोनों के बारे में क्रमशः (क) और (ख) दो भागों में बताया गया है।

                     [क] - पुरुरवा
                              ____

भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष व सम्राट पुरूरवा था। उनकी पत्नी का नाम उर्वशी था। ये दोनों ही वैष्णव वर्ण की अभीर जाति से संबंधित थे। जिनका साम्राज्य भूलोक से स्वर्गलोक तक स्थापित था। इन दोनों को वैष्णव वर्ण के अहीर (गोप) जाति से सम्बन्धित होने की पुष्टि- सर्वप्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल के (९५) वें सूक्त की ऋचा- (३) से होती है, जो पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ हैं। नीचे संदर्भ देखें-

"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३।।
 (ऋग्वेद-10/95/3)
             
अर्थानुवाद: हे गोपिके ! तेरे सहयोग के बिना- तुणीर से फेंका जाने वाला बाण भी विजयश्री में समर्थ नहीं होता। (गोषाः शतसा) मैं सैकड़ो गायों का सेवक तुझ भार्या उर्वशी के सहयोग के बिना वेगवान भी नहीं हूं। (अवीरे) हे आभीरे ! विस्तृत कर्म में या संग्राम में भी अब मेरा वेग (बल) प्रकाशित नहीं होता है। और शत्रुओं को कम्पित करने वाले मेरे सैनिक भी अब मेरे आदेश (वचन अथवा हुंक्कार) को नहीं मानते हैं।३।

ऋग्वेद की उपर्युक्त ऋचा का हम नीचे संस्कृत भाष्य हिन्दी अनुवाद सहित प्रस्तुत कर रहे हैं।

भाष्य- हिन्दी अनुवाद सहित-

"अनया उर्वश्या प्रति पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं ब्रूते।
हिन्दी अर्थ- उस उर्वशी के प्रति पुरूरवा अपनी विरह जनित व्याकुलता को कहता है।

“इषुधेः। इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। = (इषुधि पद का पञ्चमी एक वचन का रूप इषुधे:= तीरकोश से )
इषु: - (वाण ) धारण करने वाला निषंग या तीरकोश। इषुधि )

ततः सकाशात् “इषुः= ( उसके पास से वाण) “असना असनायै= प्रक्षेप्तुं न भवति=( फेंकने के लिए नहीं होता)। “श्रिये = विजयार्थम्। ( विजयश्री के लिए) त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात्। (तेरे विरह से युद्ध का बोध करके भी विना निधान (सहारे) के द्वारा  तथा “रंहिः= वेगवानहं= (मैं वेगवान्/ बलवान्) नहीं होता। “गोषाः = गोसेवका:( गवां संभक्ता:) =(गायों का भक्त- सेवक) "न अभवम् - भू धातु रूप - कर्तरि प्रयोग लङ् लकार परस्मैपद उत्तम पुरुष एकवचन- (मैं न हुआ)। तथा “शतसाः शतानामपरिमितानां गवां संभक्ता नाभवम् । अर्थात्- (मैं सैकड़ों गायों का सेवक सामर्थ्य वान न हो सका)। किञ्च= और तो क्या“ अवीरे = अभीरे !   हे गोपिके ! वा  हे आभीरे “क्रतौ = यज्ञे कर्मणि वा  सति “न “वि “द्विद्युतत्= न विद्योतते मत्सामर्थ्यम्। (यज्ञ या  कर्म में भी मेरी सामर्थ्य अब प्रकाशित नहीं होती।) किञ्च संग्रामे धुनयः = कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः =(और तो क्या युद्ध में शत्रुओं को कम्पायमान करने वाले मेरे सैनिक भी )  ।
मायुम् = मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः। 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण्। सिंहनादं =(मेरी (मायु) हुंक्कार“ न “चितयन्त न बुध्यन्ते वा=(नहीं समझते हैं) ‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्॥

अब हम लोग ऋग्वेद की इस रिचा में आये दो शब्दों-
*****
 "गोषा:" और "अवीरे" की व्याकरणीय व्याख्या करके यह जानेंगे कि इन दोनों शब्दों का वैदिक और लौकिक संस्कृत में क्या अर्थ होता है ? जिसमें पहले "गोषा:" शब्द की व्याकरणीय व्याख्या करेंगे उसके बाद "अवीरे" की।

• गोषः शब्द की व्याकरणिक उत्पत्ति-
गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् ) धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) = भक्ति करना दान करना पूजा करना  + विट् ङा। सनोतेरनः” पाणिनीय षत्वम् सूत्र । 

अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर (गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है। गो सेवक अथवा पालक।
गोष: का वैदिक रूप गोषा: है।
            
उपर्युक्त ऋचाओं में गोषन् तथा गोषा: शब्द गोसेवक के वाचक हैं। वैदिक संस्कृत का यही गोषः शब्द लौकिक संस्कृत में घोष हुआ जो कालान्तर में गोप, गोपाल, अहीर, और यादव का पर्यायवाची शब्द बन गया। क्योंकि ये सभी गोपालक थे।
और जग जाहिर है कि सभी पुराण लौकिक संस्कृत में लिखे गए हैं। इस हेतु पुराणों में भी देखा जाए तो वैदिक शब्द "गोषः" लौकिक संस्कृत में "घोष" गोपालक अथवा अहीर जाति के लिए ही प्रयुक्त होता है  अन्य किसी जाति के लिए नहीं।
पुरूरवा के गोप अथवा गोपालक होने की पुष्टि 
 -श्रीमद्‍भागवत महापुराण के नवम-स्कन्ध के प्रथम अध्याय के श्लोक संख्या-(४२) से भी होती है जिसमें पुरूरवा के गोप (गोपालक) होने की बात कही गई है -

"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः।
पु

रूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२।

अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र  पुरूरवा को गो-समुदाय देकर वन को चला गया।४२।

उपर्युक्त श्लोक में गाम्- संज्ञा पद गो शब्द का ही द्वितीया कर्म कारक रूप है।
यहाँ गो पद - गायों के समुदाय का वाचक है।   

अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष) शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ वैदिक और लौकिक संस्कृत में - गायों का दान करने वाला तथा गोसेवा करने वाला होता है।

अत: उपरोक्त सन्दर्भों से स्पष्ट होता है कि भू-तल का प्रथम सम्राट पुरूरवा गो-पालक (गोप,आभीर) ही था। जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य स्थापित था।


                       [ख] -  उर्वशी 
                               ____
उर्वशी पूर्व काल की एक धन्या और मान्या अहीर कन्या थी। जो कभी अपने तपोबल से स्वर्ग की अप्सराओं की अधिश्वरी हुई। इस ऐतिहासिक अहीर कन्या के धन्या एवं मान्या होने की पुष्टि उस समय होती है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण प्रमुख विभूतियों की तुलना करते हुए ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ में कहते हैं-

वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् ।
उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः ।७०।

अनुवाद:-  मैं सभी शास्त्रों में वेद हूँ समुद्र के प्राणीयों में  वरुण हूं। अप्सराओं में उर्वशी हूँ। समुद्रों में जलार्णव हूँ।७०।
         
वास्तव में उर्वशी एक अहीर कन्या थी इस बात की पुष्टि- ऋग्वेद की ऋचा- 10/95/3 से होती है जिसमें उसके पति पुरुरवा द्वारा उसके लिए अवीरे शब्द से संबोधन हुआ है।

"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३।।

     इस ऋचा में आये सम्बोधन पद- 'अवीरे' की व्याकरणीय व्याख्या करके जानेंगे कि "अवीरे" शब्द का वैदिक और लौकिक संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा, पालि आदि भाषाओं में क्या रूप और अर्थ होता है ?

वास्तव में देखा जाए तो उपरोक्त ऋचा में उर्वशी का सम्बोधन अवीरे ! है, जो लौकिक संस्कृत के अभीरा शब्द का ही वैदिक पूर्व रूप है। लौकिक संस्कृत में अभीर तथा आभीर दो रूप परस्पर एक वचन और बहुवचन ( समूह-वाची ) हैं।

वैदिक भाषा का एक नियम है कि उसमें उपसर्ग कभी भी क्रियापद और संज्ञापद के साथ नहीं आते हैं। इसलिए ऋग्वेद में आया हुआ अवीरे सम्बोधन-पद मूल तद्धित विशेषण शब्द है-
(अवीर=(अवि+ईर्+अच्)= अवीर: की स्त्रीलिंग रूप अवीरा है, जो सम्बोधन काल में अवीरे ! हो जाता है।)

अत: अवीरा शब्द ही लौकिक संस्कृत में अभीरा हो गया और यही अभीर तथा समूह वाची रूप आभीर प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में अहीर तथा आहीर हो गया। यह सब कैसे हुआ ? यह नीचे संदर्भ देखें-
         
वैदिक अवीर शब्द की व्युत्पत्ति ( अवि = गाय, भेड़ आदि पशु + ईर:=  चराने वाला। हाँ करने वाला , निर्देशन करने वाला, के रूप में हुई है।
परन्तु यह व्युत्पत्ति एक संयोग मात्र  ही है। क्योंकि अवीरा शब्द की व्युत्पत्ति ऋग्वेद में प्राप्त लौकिक अवीरा शब्द की व्युत्पत्ति से अलग ही है।

वैदिक ऋचा में अवीर (अवि+ ईर:) शब्द दीर्घ सन्धि  के रूप में तद्धित पद है। जबकि लौकिक संस्कृत में अवीर (अ + वीर) के रूप में वीर के पूर्व में अ (नञ्) निषेधवाची उपसर्ग लगाने से बनता है।
वैदिक भाषा नें लौकिक संस्कृत भाषा सी व्याकरणिक प्रक्रिया अमान्य ही है।
परन्तु कुछ लोग इसी कारण इसका अर्थ- "जो वीर न हो" निकालते हैं। किंतु यह ग़लत है क्योंकि उर्वशी के लिए इस अर्थ में अवीरा शब्द अनुपयुक्त व सिद्धान्त विहीन ही है। अत: अवीरा शब्द को अवि + ईरा के रूप में ही सही माना जाना चाहिए। क्योंकि अवीर शब्द का मूल सहचर हिब्रू भाषा का अबीर(अवीर) शब्द है। जो ईश्वर का एक नाम है। हिब्रू भाषा में अबीर अर्थ वीर ही होता है।

वैदिक और लौकिक संस्कृत भाषा में अवीर तथा अभीर शब्द अहीरों की पशुपालन वृत्ति( व्यवसाय) के साथ साथ अहीरों की वीरता प्रवृत्ति को भी सूचित करता है। वीरशब्द ही सम्प्रसारित होकर आर्य बन गया। इस संबन्ध में विदित हो आर्य शब्द प्रारम्भिक काल में पशुपालक तथा कृषक का ही वाचक था। 

यदि अवीर शब्द का विकास क्रम देखा जाए तो-
वैदिक कालीन अवीर शब्द ईसापूर्व सप्तम सदी के आस-पास गाय भेड़ बकरी पालक के रूप में प्रचलित था।
यह वीर अहीरों का वाचक था। परन्तु कालान्तर में ईसापूर्व पञ्चम सदी के समय यही अवीर शब्द अभीर रूप में प्रचलन में रहा और इसी अभीर का समूह वाची अथवा बहुवचन रूप आभीर हुआ जो अहीरों की वीरता प्रवृत्ति का सूचक रहा इसी समय के शब्दकोशकार  अमरसिंह ने आभीर शब्द की व्युत्पत्ति अपने अमरकोष में कुछ इस तरह से बतायी है।

 आभीरः= पुंल्लिंग (आ समन्तात् भियं राति (आ+भी+ रा + क:) रा=दाने आत इति कः।)
अर्थात जो चारों तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय दे या भरे। आभीर- गोपः । इत्यमरःकोश - आभीर प्राकृत भाषा

में आहिर हो गया है। अभीर- अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरः अच् । अर्थात् जो सामने मुख करके गायें हाँकता या चराता है। 

और आगे कालक्रम से यही आभीर शब्द एक हजार ईस्वी में अपभ्रष्ट पूर्व हिन्दी भाषा के विकास काल में प्राकृत भाषा के प्रभाव से आहीर हो गया। ज्ञात हो कि लौकिक संस्कृत में जो आभीर शब्द प्रयुक्त होता है उसका तद्भव रुप आहीर होता है।

दूसरी बात यह कि- ऋग्वेद में गाय चराने या हाँकने के सन्दर्भ में ईर् धातु का क्रियात्मक लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन का  रूप ' ईर्ते ' विद्यमान है। जैसे -
'रुशद्- ईर्त्ते पयो गोः ”प्रकाशित होती हुई दूध वाली गाय करती है। (ऋग्वेद-9/91/3 )

यह तो सर्वविदित है ही की "उर्वशी गाय और भेड़ें पालती थी। आभीर कन्या होने के नाते भी उसका इन पशुओं से प्रेम स्वाभाविक ही था। इस बात की भी पुष्टि- देवी भागवत पुराण  के प्रथम स्कन्ध के अध्याय- (१३) के श्लोक- संख्या-(८) से होती है कि उर्वशी के पास दो भेंड़े भी थीं।

"समयं चेदृशं कृत्वा स्थिता तत्र वराङ्गना ।
एतावुरणकौ राजन्न्यस्तौ रक्षस्व मानद ॥८।
 
अनुवाद -वह वरांगना इस प्रकार की शर्त रखकर वहीं रहने लगी। उसने पुरूरवा से कहा - हे राजन ! यह दोनों भेंड़ के बच्चे मैं आपके पास धरोहर के रूप में रखती हूं।
ध्यान रहे अमरकोश - 2/9/76/2/3 - भेंड़ के पर्याय निम्नांकित बताए गए हैं। "उरण पुं। मेषः"
समानार्थक- मेढ्र,उरभ्र,उरण,ऊर्णायु,मेष,वृष्णि,एडक,अवि
अतः सिद्ध होता है कि उर्वशी के पास दो भेंड़ के बच्चे थे।
              
कुछ समय बाद उर्वशी के दोनों भेड़ के बच्चों के साथ एक घटना घटी जिसमें इंद्र के कहने पर गंधर्वों ने उर्वशी के दोनों भेंड़ के बच्चों को चुरा कर आकाश मार्ग से ले जाने लगे, तब दोनों भेंड़ के बच्चे जोर-जोर से चिल्लाने लगे। इस घटना का वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के प्रथम स्कंध के अध्याय- (१३) के  श्लोक - १७ से २० में कुछ इस प्रकार लिखा हुआ मिलता है।

इत्युक्तास्तेऽथ गन्धर्वा विश्वावसुपुरोगमाः।
ततो गत्वा महागाढे तमसि  प्रत्युपस्थिते॥१७।।

जह्रुस्तावुरणौ देवा रममाणं विलोक्य तम्।
चक्रन्दतुस्तदा तौ तु ह्रियमाणौ विहायसा॥१८।।

उर्वशी   तदुपाकर्ण्य  क्रन्दितं  सुतयोरिव।
कुपितोवाच राजानं समयोऽयं कृतो मया॥ १९।।

नष्टाहं  तव  विश्वासाद्धृतौ  चोरैर्ममोरणौ।
राजन्पुत्रसमावेतौ त्वं किं शेषे स्त्रिया समः॥२०।।

अनुवाद- १७-२०
• तब इंद्र के ऐसा कहने पर विश्वावसु आदि प्रधान गंधर्वों ने वहां से जाकर रात्रि के घोर अंधकार में राजा पुरुरवा को बिहार करते देख उन दोनों भेंड़ों को चुरा लिया तब आकाश मार्ग से जाते हुए चुराए गए वे दोनों भेंड़ जोर से चिल्लाने लगे। १७-१८।
• अपने पुत्र के समान पाले हुए भेड़ों का क्रंदन सुनते ही उर्वशी ने क्रोधित होकर राजा पुरूरवा से कहा-  हे राजन ! मैंने आपके सम्मुख जो पहली शर्त रखी थी, वह टूट गई आपके विश्वास पर मैं धोखे में पड़ी, क्योंकि पुत्र के समान मेरे प्रिय भेंड़ों को चोरों ने चुरा लिया फिर भी आप घर में स्त्री की तरह शयन कर रहे हैं।१९-२०।

अतः इन उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि पुरूरवा और उर्वशी दोनों पशुपालक अहीर जाति से सम्बन्धित थे।

उर्वशी को अहिर कन्या होने की पुष्टि- मत्स्यपुराण- के (६९) वें अध्याय के श्लोक- ६१-६२ से भी होती है। जिसमें उर्वशी के द्वारा  "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने का प्रसंग है। इसी प्रसंग में भगवान श्री कृष्ण भीम से कल्याणिनी व्रत के बारे में कहते हैं कि -

"त्वा च यामप्सरसामधीशा वैश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे॥ ६१

जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यकामा॥६२
           
अनुवाद- ६१-६२
जन्मान्तर में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह वैश्य  पुत्री अप्सराओं की अधीश्वरी हुई।  वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी नाम से विख्यात है। ६१।
• इसी प्रकार इसी वैश्यकुल में उत्पन्न हुई एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्रीरूप में उत्पन्न होकर इन्द्र की पत्नी बनी। उसके अनुष्ठान काल में जो उसकी सेविका थी,वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है। ६२

         अतः वैदिक और पौराणिक सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है। कि उर्वशी अहीर कन्या थी। जिसके पति का नाम पुरुरवा था वह भी गोप था। उस समय उसके जैसा धर्मवत्सल राजा तीनों लोकों में नहीं था। उन्होंने बहुत काल तक अपनी पत्नी उर्वशी के साथ सुख भोगा। इन सभी बातों की पुष्टि- हरिवंश पुराण के हरिवंशपर्व के अध्याय- (२६) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें पुरूरवा के बारे में लिखा गया है कि -

"ब्रह्मवादी  पराक्रान्तः  शत्रुभिर्युधि  दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।।२।



त्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव  त्रिषु  लोकेषु  यशसाप्रतिमस्तदा।।३।

तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी।।४।

तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।
पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत।।५।

वने चैत्ररथे   रम्ये   तथा   मन्दाकिनीतटे।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे।। ६।

उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान्।
गन्धमादनपादेषु       मेरुपृष्ठे      तथोत्तरे।। ७।

एतेषु   वनमुख्येषु     सुरैराचरितेषु    च।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।। ८।

देशे   पुण्यतमे   चैव    महर्षिभिरभिष्टुते।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।। ९।


अनुवाद-  २-९
• वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक यज्ञ किये। २।
• वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन-भूख( कामवासना) पर पूरा नियंत्रण था। उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था। ३।
•  अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति  के रूप में चुना। ४।
•  राजा पुरुरवा दस साल तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मंदाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल आदि स्थानों में उर्वशी के साथ रहे।
 सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक   जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं। ५-७।
•  देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया। ८।
• पृथ्वीपति पुरूरवा ( उर्वशी के साथ ) महर्षियों से प्रशंसित परम पवित्र देश प्रयागराज में राज्य करते थे। ९।
 
इस प्रकार से सिद्ध होता है कि पुरूरवा एक धर्मवत्सल तथा प्रजापालक सम्राट थे। वह अपनी पत्नी उर्वशी के साथ बहुत दिनों तक भू-तल पर सुखपूर्वक रहे
           
अब हम लोग यह जानेंगे कि पुरूरवा और उर्वशी से किस नाम के कौन-कौन से पुत्र हुए।
पुरुरवा और उर्वशी से उत्पन्न पुत्रों का वर्णन हरिवंशपुराण के हरिवंशपर्व के अध्याय -२६ के प्रमुख श्लोकों में मिलता है। जिसमें वैशम्पायनजी जन्मेजय के पूछने पर कहते हैं कि -

"तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।

विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।

अनुवाद- उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम- आयु , धीमान , अमावसु , धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु , वनायु और शतायु थे। इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था। १०-११।

अतः हरिवंशपुराण के उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि आभीर पुरुरवा की पत्नी उर्वशी से कुल सात देवतुल्य पुत्र हुए। उन सभी का विस्तार पूर्वक वर्णन भाग- (४) में किया गया है।

इस प्रकार से अध्याय- १० का भाग- (३) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष
पुरूरवा व उनकी पत्नी उर्वशी दोनों ही वैष्णव वर्ण के गोपकुल के अभीर जाति से संबंधित हैं।
           अब इस अध्याय- के अगले भाग -(चार) में आपलोग जानेंगे कि- पुरूरवा और उर्वशी के ज्येष्ठ पुत्र आयु की पीढ़ी में आगे चलकर नहुष और ययाति की वैष्णव वर्ण के गोपकुल में क्या भूमिका रही ?

अध्याय- १०
[भाग-४]✓✓✓
गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।

     भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय

इस भाग में पुरुरवा, उर्वशी, और ययाति का परिचय क्रमशः क, ख, और ग में किया गया है।

           ‌‌            [क] - आयुष :-

पुरूरवा के  सात पुत्रों-  (आयुष , अमावसु , विश्वायु , श्रुतायु , दृढ़ायु , वनायु और शतायु ) में ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे; जिनका सम्बन्ध गोप जाति से ही है। क्योंकि इनके पिता- पुरुरवा और माता उर्वशी गोप जातीय थे। अतः उनसे उत्पन्न पुत्र गोप ही होगें। अतः इस नियमानुसार आयुष भी गोप ही हुए। (पुरूरवा और उर्वशी को गोप होने के बारे में इसके पिछले खण्ड -(३) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है।)
          
गोप पुरूरवा एवं गोपी( अहीराणी) उर्वशी के सात पुत्रों में विशेष रूप से आयुष को ही लेकर आगे तक वर्णन किया जाएगा क्योंकि इनकी ही पीढ़ी में आगे चलकर यादव वंश का उदय हुआ जिसमें भगवान श्रीकृष्ण का भी अवतरण हुआ, जिनका संबंध गोलोक के साथ ही भू-तल पर भी गोप जाति से ही रहा है।
(भगवान श्रीकृष्ण को सदैव गोप होने के बारे में अध्याय- (आठ) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है )
          
आभीर कन्या उर्वशी के ज्येष्ठ पुत्र- आयुष (आयु ) का विवाह स्वर्भानु( सूर्यभानु) गोप की पुत्री इन्दुमती से हुआ था। इन्दुमती का दूसरा नाम- लिंगपुराण आदि  में "प्रभा" भी मिलता है।
ज्ञात हो कि इन्दुमती के पिता स्वर्भानु गोप वहीं हैं जो भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक में सदैव तीसरे द्वार के द्वारपाल रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के चतुर्थ  श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय-५ के श्लोक- १२ और १३ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

'द्वारे नियुक्तं ददृशुः  सूर्यभानुं  च  नारद ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं श्यामसुन्दरम् ।। १२।

मणिकुण्डलयुग्मेन कपोलस्थलराजितम् ।
रत्नदण्डकरं श्रेष्ठं  प्रेष्यं  राधेशयोः परम्।। १३।

अनुवाद - देवता लोग तीसरे उत्तम द्वार पर गए, जो दूसरे से भी अधिक सुन्दर ,विचित्र तथा मणियों के तेज से प्रकाशित था। नारद ! वहाँ द्वारा की रक्षा में नियुक्त सूर्यभानु नामक द्वारपाल दिखाई दिए, जो दो भुजाओं से युक्त मुरलीधारी, किशोर, श्याम एवं सुंदर थे। उनके दोनों गालों पर दो मणियय कुण्डल झलमला रहे थे। रत्नकुण्डलधारी सूर्यभानु श्री राधा और श्री कृष्ण के  परम प्रिय एवं श्रेष्ठ सेवक थे। १२-१३
            
इसी सुर्यभानु गोप की पुत्री- इन्दुमती (प्रभा) का विवाह भू-तल पर गोप पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष से हुआ था। इस बात की पुष्टि लिंग पुराण के (६६ )वें अध्याय के श्लोक संख्या- ५९ और ६० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।। ५९।

 अनुवाद - आयुष के पांच वीर और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए। इन नहुष आदि पाँचो राजाओं का जन्म आयुष की पत्नी स्वर्भानु (सूर्यभानु ) की पुत्री प्रभा की कुक्षा (उदर) से हुआ था। ५९।


                           [ख] -  नहुष :-
                   

उपर्युक्त श्लोक से ज्ञात होता है कि आयुष के पुत्र "नहुष" थे। जिनका विवाह पार्वती की पुत्री  अशोकसुन्दरी ( विरजा ) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टि निर्माण खण्ड में तथा लिंगपुराण में भी मिलता है।
          
ज्ञात हो कि नहुष श्रीकृष्ण के अंशावतार थे। अतः इनका भी सम्बन्ध वैष्णव वर्ण के गोप कुल से ही था। जिसमें नहुष को श्रीकृष्ण का अंशावतार होने की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय संख्या -(१०३) से होती है जिसमें नहुष के पिता- आयुष (आयु ) की तपस्या से प्रसन्न होकर दत्तात्रेय ने वर दिया कि तेरे घर में विष्णु के अंश वाला पुत्र होगा। उस प्रसंग को नीचे देखें।

'देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो। १३५।
              
               'दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः।
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः।१३७।

अनुवाद- 
• सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो। १३५।
• दत्तात्रेय ने कहा - ऐसा ही हो ! तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य-कर्मा और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।
•  जो इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त-सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा।१३७।
          
अतः उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि नहुष भगवान श्रीकृष्ण के ही अंशावतार थे। वहीं दूसरी तरफ नहुष की पत्नी विरजा (अशोक सुंदरी) भी गोलोक की गोपी तथा भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी थी। इस विरजा और श्रीकृष्ण से गोलोक में कुल सात पुत्र उत्पन्न हुए थे। 

इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता- वृन्दावनखण्ड के अध्याय-२६ के श्लोक - १७

से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

विरजायां सप्त सुता बभूवुः कृष्णतेजसा।
निकुञ्जं ते ह्यलंचक्रुः शिशवो बाललीलया॥ १७।
अनुवाद - श्री कृष्ण के तेज से विरजा के गर्भ से सात पुत्र उत्पन्न हुए। वे सातों शिशु अपनी बाल- क्रीड़ा से निकुंज की शोभा बढ़ाने लगे।
       
ज्ञात हो कि श्रीकृष्ण की प्रेयसी गोलोक की विरजा कालान्तर में भू-तल पर अशोक सुन्दरी नाम से पार्वती जी के अंश से पुत्री रूप में प्रकट हुई। फिर उसका विवाह भू-तल पर किसी और से नहीं बल्कि श्रीकृष्ण के अंश नहुष से ही हुआ।

इन सभी बातों की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमिखण्ड के अध्याय संख्या -(१०२) के श्लोक संख्या - (७१ से ७४) में होती है। जिसमें पार्वती जी अपनी पुत्री अशोक सुंदरी (विरजा) को वरदान देते हुए कहती हैं कि -

"वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः।। ७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति।। ७३।

एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता।। ७४।

अनुवाद- पार्वती  ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा-  इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे ! तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी। राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्र वंशीय परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही तुम्हारे पति होंगे।७१-७४।

 इस प्रकार पार्वती ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
 इन श्लोकों से एक बात और निकल कर सामने आती है कि - पार्वती जी के वरदान के अनुसार अशोक सुंदरी का विवाह चंद्रवंशी सम्राट नहुष से होने की बात निश्चित होती है।

अतः यहां सिद्ध होता है कि "नहुष" गोप- कुल के चंद्रवंशी सम्राट थे। यह बात उस समय की है कि- जब भू-तल पर उस समय तक यादवंश का उदय नहीं हुआ था। किंतु  श्रीकृष्ण अंश नहुष को चंद्रवंशी होने का प्रमाण यहां मिलता है। और चंद्रवंश के अंतर्गत आनेवाला यादव वंश अब बहुत दूर नहीं रहा, जल्द ही उसका क्रम भी आएगा।

अब आगे श्रीकृष्ण अंश नहुष और विरजा (अशोक सुन्दरी) से गोलोक की ही भांति भू-तल पर भी कुल छह पुत्र हुए। जिसकी पुष्टि - भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय -१८ के श्लोक (१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

'यतिर्यायातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः।
षडिमे नहुषस्यासन्निद्रयाणीव  देहिनः।।१।

अनुवाद- जैसे शरीरधारियों के छः इंद्रियां होती हैं, वैसे ही नहुष के छः पुत्र थे। उनके नाम थे- यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति, और कृति। १

जिसमें ययाति सबसे छोटे थे। फिर भी नहुष ने ययाति को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और राजा बनाया।
 ( ज्ञात हो कि ययाति अपने पिता नहुष के इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने छोटे पुत्र- पुरु को राजा बनाया था। इसका विवरण आगे दिया गया है।)


           ‌‌             [ग] -  ययाति :-

ययाति श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र थे और उनकी माता "विरजा" गोलोक की गोपी थीं। ऐसे में ययाति अपने माता-पिता के गुणों एवं ब्लड रिलेशन से गोप ही थे। इसी वजह से वे राजा होते हुए भी बड़े पैमाने पर गोपालन किया करते थे। और यज्ञ आदि के समय अधिक से अधिक गायों का भी दान किया करते थे। ययाति और उनके पिता नहुष को एक ही साथ गोपालक होने की पुष्टि- महाभारत अनुशासनपर्व के अध्याय -८१ के श्लोक संख्या-५-६ से भी होती है।

"मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।।५।

गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।। ६।

 अनुवाद - युवनाश्‍व के पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति- ये सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे; इससे वह उन उत्तम स्थानों को प्राप्त हुऐ हैं, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। अर्थात् गोलोक को चले गये। ५-६।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र "ययाति" भी गोप थे। ययाति की तीन पत्नियां थीं, जिनके क्रमशः नाम हैं - देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमति। उसमें देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री थी और शर्मिष्ठा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री थी। तथा अश्रुबिन्दुमति कामदेव की पुत्री थी।  जिसमें ययाति की दो पत्नियों का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- १८ के श्लोक- ४ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
 
'चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातृन् भ्राता यवीयशः।
कृतदारो जुगोपोर्वी काव्यस्य वृषपर्वणः।। ४।

अनुवाद -

ययाति अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्य राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे।४।
                
(ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिंदुमति कब ययाति की पत्नी हुईं इस बात को इसी प्रसंग में आगे बताया गया है।)
        
आगे ययाति की इन दो पत्नियों से कुल पांच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्यु, अनु, और पुरु हुए।  किंतु अश्रुबिंदुमति सदा पुत्रहीन रही।
        
 ज्ञात हो कि - ययाति अपनी तीनों पत्नियों में कभी सामंजस्य नहीं बैठा पाए। क्योंकि ये तीनों आपसी सौत होने की वजह से हमेशा एक दूसरे से (ईर्ष्या) करती थीं। विशेष रूप से अश्रुबिंदुमति से तो देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों और अधिक ईर्ष्या करती थीं। जिसका परिणाम यह हुआ कि कलह बढ़ता ही गया, अन्ततोगत्वा ययाति ने क्रुद्ध होकर अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बेवजह( बिनाकारण)  ही शाप दे दिया। किंतु पिता का यही शाप आगे चलकर यदु के लिए वरदान सिद्ध हुआ। वह शाप कैसा था और क्यों दिया गया ? इसका विस्तार वर्णन पद्मपुराण  के दूसरे खण्ड भूमिखण्ड के अध्याय- (८०) के श्लोक -३ से लेकर १४ तक  मिलता है। जिसका श्लोक और अनुवाद दोनों नीचे दिया गया है।

• यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा।
 अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।। ३।

• तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
 शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।। ४।

• रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
  शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।। ५।

• दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
  राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।। ६।

• अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
  शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।। ७।

• सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
  एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा।। ८।

• प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं  पितरं  प्रति   मानद ।
   नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।। ९।

• मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
  तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।। १०।

• दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत्।
  भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।। ११।

• पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
  एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।। १२।

• यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह।
  शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।।१३।

• यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि।
  मातुरंशं भजस्व त्वं  मच्छापकलुषीकृतः।।१४।

  अनुवाद- (३- से १४ तक)
• सुकर्मा ने कहा– जब वह राजा ( ययाति)  कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गये, तो उच्च विचार वाली देवयानी उसके साथ बहुत प्रतिद्वन्द्विता करने लगी।३।

•इस कारण उस ययाति  ने क्रोध के वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) जो देवयानी से उत्पन्न थे; उनको शाप दे दिया।  और राजा ने दूत के द्वारा शर्मिष्ठा को  बुलाकर  ये शब्द कहे। ४।
• शर्मिष्ठा और  देवयानी दोनों रूप , तेज और दान के द्वारा उस अश्रु- बिन्दुमती के साथ  प्रतिस्पर्धा करती हैं। ५
• तब काम देव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती ने उन दोनों के दुष्टभाव को जाना तो उसने राजा को वह  सब बातें उसी समय कह सुनायीं।६।
• तब क्रोधित होकर  राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अर्थात अपनी माता (देवयानी) को मार डालो।७।
• हे पुत्र तुम मेरा प्रिय करो  यदि तुम इसे कल्याण कारी मानते हो ! अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने  पिता से कहा। ८।

• मान्य वर ! पिता श्री ! मैं निर्दोष दोनों माताओं को नहीं मारुँगा। ९।
• वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है।  इस लिए महाराज ! मैं इन दोनों माताओं का बध नहीं करुँगा। १०।

• हे राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक पुत्री पर हजार दोष लगें हो। ११।
• तो भी उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए ! यह जानकर महाराज मैं दोनों माताओ को नहीं मारुँगा। १२।
• उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये इसके बाद पृथ्वी के स्वामी ययाति ने अपने पुत्र को शाप दे दिया। १३।
• चूंकि तुमने आज मेरे आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का ही भजन (भक्ति ) करो।१४।

पिता की इतनी बातें सुनने के बाद यदु ने अपने पिता राजा ययाति से विनम्रता पूर्वक उस राज्य का नागरिक होने के नाते से पूछा था-

हे महाराजा! मैं तो निर्दोष हूं, फिर भी तुमने मुझे क्यों शाप दिया है ? कृपया मुझ निर्दोष का पक्ष लें और मुझ पर दया करने की कृ

पा करें।

- पद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय- ७८ के श्लोक संख्या-३३ और ३४ में यदु और ययाति के संवाद रूप में  दो श्लोक  विशेष महत्व के हैं। जिसमें  यदु अपने पिता से कहते हैं -

'निर्दोषोहं महाराज कस्माच्छप्तस्त्वयाधुना।
कृपां कुरुष्व दीनस्य प्रसादसुमुखो भव।। ३३।

                    "राजोवाच-
'महादेवः कुले ते वै स्वांशेनापि हि पुत्रक।
करिष्यति विसृष्टिं च तदा पूतं कुलं तव।। ३४।

अनुवाद - हे महाराजा! मैं तो निर्दोष हूं, फिर भी तुमने मुझे क्यों शाप दिया है ? कृपया मुझ निर्दोष का पक्ष लें और मुझ पर दया करने की कृपा करें।

तब राजा ने कहा- हे पुत्र!  जब महान देवता (स्वराट विष्णु) अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेंगे तब तेरा कुल शुद्ध हो जाएगा। ३३-३४।

(ज्ञात हो- अनंत ब्रह्मांड में अनंत छोटे विष्णु, ब्रह्मा, और महेश हैं। किंतु स्वराट विष्णु एक हैं जिन्हें परमेश्वर कहा जाता है। जो सभी देवताओं के भी ईश्वर और महान देवता हैं। उनका निवास स्थान सभी लोकों से ऊपर है। उसका नाम है गोलोक, उसी गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) रहते है। इस बात की संपूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय दो और तीन को अवश्य देखें।)
    
और आगे चलकर ययाति का यहीं शाप यदु के लिए वरदान सिद्ध हुआ, क्योंकि ययाति के कथनानुसार कालान्तर में यदु के वंश में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ। इस बात की संपूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय- ८ को देखें।

 इस प्रकार से अध्याय- (१०) गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों के परिचय के साथ समाप्त हुआ। जिसमें आप लोगों ने वैष्णव वर्ण के गोप राजाओं (आयुष, नहुष, ययाति) तथा उनकी पत्नियों व पुत्रों इत्यादि को भी जाना।
               इसी क्रम में इसके अगले अध्याय-(११) में-
"यदुवंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपत्तियों के बारे में बताया गया है। उसे भी इस अध्याय के साथ जोड़ कर अवश्य पढ़ें।

अध्याय- ११
[भाग-१]✓✓✓

गोप कुल के यादव वंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपति।


इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य गोप कुल के प्रमुख सदस्यों के चरित्रों एवं विशेषताओं को बताते हुए यादवों के वंश वृक्ष को विधिवत बताना है। इसलिए इस अध्याय को  प्रमुख रूप से तीन भागों में बांटकर विस्तृत जानकारी दी गई है -
भाग- (१) महाराज यदु का परिचय
भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज

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           भाग- (१) महाराज यदु का परिचय
                          _________
महाराज यदु , यादवों के आदि पुरुष या कहें, पूर्वज थे। इस बात को श्रीकृष्ण भी स्वीकार करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण के (११) वें स्कंध के अध्याय - (७) के श्लोक- (३१) में कहते हैं कि -
 
  यदुनैवं  महाभागो  ब्रह्मण्येन   सुमेधसा।
  पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।। ३१।

अनुवाद-  हमारे "पूर्वज महाराज यदु" की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्रह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। ३१।

अब ऐसे में जब महाराज "यदु" यादवों के पूर्वज है, तब यदु के बारे में और विस्तार से जानना आवश्यक हो जाता है कि यदु कौन हैं, तथा "यदु" नाम की सार्थकता क्या है ? तथा यदु शब्द की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? इत्यादि इन सभी बातों का समाधान इस अध्याय में किया गया है।

यदु शब्द की ब्युत्पत्ति के बारे में देखा जाए तो यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। सम्भवतः इसी कारण से लौकिक संस्कृत में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है। 
इसी लिए संस्कृत भाषा के कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं।  जिससे यदु शब्द की व्युत्पत्ति पुल्लिंग रूप में होती है। 
जैसे-
संस्कृत भाषा में  'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल +  उणादि  प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर- 'पृषोदर प्रकरण' के नियम से "जस्य दत्वं"  अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द बनता है।
 [ ज्ञात हो- पाणिनीय व्याकरण में  "पृषोदरादीनि  एक पारिभाषिक शब्द है। पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' 
(६.३.१०८)  इस पाणिनीय सूत्र से यज्- धातु के अन्तिम वर्ण  "जकार को दकार" आदेश हो जाने से ही यदु शब्द बनता है। ]
       
ये तो रही यदु शब्द की ब्युत्पत्ति अब हमलोग जानेंगे यदु शब्द के अर्थ को -
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि यदु शब्द की व्युत्पत्ति "यज्" धातु से हुई है, जिसमें यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं। 
[यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु ]
          इसको साधारण भाषा में इस तरह से समझा जा 
          सकता है -
यज् = १- यजन करना।
          २- न्याय (संगतिकरण) करना।
          ३- दान करना।
विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में उपरोक्त तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक रूप से समावेश था। जैसे- महाराज यदु -
(१)- हिंसा से रहित नित्य वैष्णव यज्ञ किया करते थे।
(२)- वे  सबका यथोचित न्याय किया करते थे।
(३)- और वे दान के क्षेत्र में निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा (बुद्धि ) भी प्रखर हो गयी थी। 

तभी तो भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत पुराण के ११वें स्कन्ध के अध्याय (७) के श्लोक- श्लोक- ३१ में उद्धव जी से कहते हैं कि
             'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ।३१।
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी।
 उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे।३१।

               महाराज यदु के इन्हीं सब विशेषताओं के कारण ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- ६२ की ऋचा-१०
में ऋषियों ने उनकी भूरी-भूरी प्रशंसा की है। ऋग्वेद की वह ऋचा नीचे उद्धृत है -
"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे"
     
अनुवाद:- और वे दोनों यदु और तुर्वसु दास -( दाता)  कल्याण कारी दृष्टि वाले, स्नान आदि क्रियाओं से युक्त होकर नित्य गायों का पालन पोषण और दान भी करते हैं। हम उनकी स्तुति करते हैं। (ऋ०१०/६२/१०)
                 
ऋग्वेद की उपरोक्त ऋचा का सम्यग्भाष्य- करने पर यदु के सम्पूर्ण चरित्रों का बोध होता है। सम्यग्भाष्य के लिए नीचे देखें -
१- उत = अत्यर्थेच  अपि च। और भी
२- स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ। वे दोनों कल्याण कारी दृष्टि
    वाले।
३- गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ । गायों से घिरे हुए अथवा गायें जिनके चारो ओर हैं।
४- दासा = दासतः दानकुरुत: =  दान करने वाले वे दोनों  
    (यदु और तुर्वसु)।
     (ज्ञात हो- "दासा" बहुवचन शब्द है जो यदु  
  और तुर्वसु के लिए प्रयुक्त  है।


- गोपरीणसा= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ =
गायों से घिरे हुए वे दोंनो यदु और तुर्वसु। (इसके साथ ही यहां यह भी सिद्ध होता है कि यदु गोपालक अर्थात गोप थे।)

 [ वैदिक शब्द निघण्टु में दासा   
  द्विवचन में दाता का वाचक है। ३।१]
पाणिनीय धातुपाठ में दास् धातु = दान करना अर्थ में है।
दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता। 
अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाया जाता हैं।
 महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे" ) है।
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता 
 ( दानी ) के अर्थ में चरितार्थ था।

समय और परिस्थिती के साथ-साथ दास शब्द के अर्थ में भी उसी तरह परिवर्तन हुआ जैसे वैदिक काल में घृणा शब्द के अर्थ मै परिवर्तन हुआ। वैदिक काल में घृणा शब्द दया भाव का वाचक था किन्तु आज घृणा शब्द का अर्थ नफ़रत हो गया है।
          ठीक उसी तरह से वैदिक काल के दास शब्द के अर्थ में भी बड़ी तेजी से परिवर्तन हुआ। ज्ञात हो कि वैदिक काल में दास शब्द का अर्थ - "दाता" था। उस समय दास शब्द एक प्रतिष्ठा और सम्मान का पद था। इसीलिए उस समय ऋषिगण भी दासों की स्तुतियां और प्रशंसा किया करते थे। जैसा कि ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- ६२ की ऋचा-१० में यदु और तुर्वसु को दास (दाता) के रूप में स्तुतियां की गई है। इस बात को ऊपर बताया जा चुका है।

       वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम में आते-आते पौराणिक काल में "वैष्णव" वाचक के रूप में स्थापित हुआ। इस बात की पुष्टि - पद्मपुराण के भूमि खण्ड अध्यायः(८३) से होती से होती है। जिसमें दास शब्द वैष्णव वाचक के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रसंग में दासत्व प्राप्ति के लिए राजा "ययाति" वैष्णव भगवान विष्णु से वर मांगते हैं कि- हे प्रभु मुझे दासत्व प्रदान करो!। इसके लिए देखें निम्नलिखित श्लोक-

                   विष्णूवाच-
"वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।।७९।।

अनुवाद:- भगवान विष्णु नें कहा - हे राजाओं के स्वामी! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है। वह सब तुमको मैं दुँगा तुम मेरे भक्त हो।।७९।।

                     राजोवाच-
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
  
अनुवाद- 
राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।।

                 'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।।

अनुवाद:- विष्णु ने कहा- ऐसा ही हो तू मेरा भक्त हो इसमें सन्देह नहीं। अपनी पत्नी के साथ तुम मेरे लोक में निवास करो। ८१।।

 यदि उपरोक्त श्लोक- ८१ को देखा जाए तो उसमें एक शब्द (दासत्वं ) आया है जिसका अर्थ है- दासत्व अर्थात वैष्णव भक्त, यानी उस समय जो वैष्णव (विष्णु) भक्त थे, वे अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझता थे। और जन-समुदाय में उसकी पहचान दास के रूप में ही थी। जैसे - तुलसीदास, सूरदास रैदास  इत्यादि इसके उदाहरण हैं।।
             किंतु यहीं दास शब्द मध्यकाल में पुरोहित वाद की चपेट में आकर शूद्र और असुर का पर्याय बन गया। इसी समय के दास शब्दार्थ के आधार पर कुछ अज्ञानी लोग यादवों के पुर्वज यदु को  दास अथवा शूद्र  कहते हैं। जबकि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि जब यदु शूद्र थे, तो उनकी स्तुति ऋषियों के द्वारा क्यों की गई ? क्या पुरोहितवादी व्यवस्था में कोई ऋषि कभी शूद्र की स्तुति किया था ? जबाब होगा नहीं। अतः मध्यकाल के दास के अर्थ में यदु को शूद्र कहना सरासर ग़लत है।
        और वैसे भी देखा जाए तो गोपों (यादवों) का वर्ण "वैष्णव" है। इस बात को गोप कुल में जन्मे भगवान श्री कृष्ण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ के श्लोक- ९२ में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपने को वैष्णव होने की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-

पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।। ९२

अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूं । और वनों में चंदन हूं।
पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ। और निशंकों ( अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ। ९२

अतः वैष्णव वर्ण के गोपों को ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इत्यादि में स्थापित करना सिद्धांत विहीन होगा, क्योंकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के  सिद्धांतानुसार-  ब्राह्मण- ब्रह्मा जी के मुख से, क्षत्रिय- भुजा से, वैश्य - उदर से, और शूद्र - पैर से उत्पन्न होते हैं। जबकि गोप और गोपियां गोलोक में श्री कृष्ण और श्री राधा के रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अतः गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, और जब ये ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, तो इनको ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य में शूद्र या और कुछ कहना निराधार होगा।
          [इस बात को विस्तार पूर्वक इस पुस्तक के अध्याय- (५)

में बताया जा चुका है कि कैसे गोप ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य से अलग वैष्णव वर्ण के सदस्य हैं।]

        अब वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम को पूरा करते हुए आधुनिक समय में आकर "नौकर" (servant) के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। जिसका कुछ सम्मान जनक शब्द नौकरी (job) है। चाहे वह नौकर (सरकारी हो या प्राइवेट) किंतु कर्म के अनुसार वह निश्चित रूप से दास ही है। जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र बिना भेदभाव के यह कर्म (job) करते हैं। यह बड़ी अच्छी बात है कि दास शब्द वर्तमान समय में सबके लिए बिना भेदभाव के समभाव को प्राप्त हो गया है।
इसलिए अब दास शब्द को लेकर बहुत ज्यादा उतावले होने की जरूरत नहीं है। आप कबीर दास या सूरदास को ही याद कर लो!

अब आते हैं पुनः यदु के जीवन परिचय पर, तो इस सम्बन्ध में ज्ञात हो कि- यादवों के पूर्वज यदु का जीवन प्रारंभ से ही संघर्षमय रहा। यदु के संघर्षों की कहानी उनके घर से ही प्रारंभ होती है। जिसका वर्णन कुछ इस प्रकार है -
यदु के पिता ययाति की कुल तीन पत्नियां- देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमती नाम  की थीं। उनमें से दो पत्नियों से कुल पांच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्य, अनु,और पुरु हुए। ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती सदैव पुत्रहीन रही। राजा ययाति अपने पांच पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र यदु को शाप देकर राज्यपद से वंचित कर पशुपालक होने का शाप दिया और सबसे छोटे पुत्र पुरु को राजपद दिया। इस बात की पुष्टि - लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः( ३ )अध्याय- (७३) के श्लोक (७५-७६) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

"श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः।। ७५।

भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं  प्राह  शर्मिष्ठाबालकं  नृपः।७६।

 अनुवाद- यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगे।७५।।

पुनः राजा ने कहा तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै। यदु ! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर राजा (ययाति) ने पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे। ७६।

यहीं से यदु के जीवन का कठिन दौर प्रारंभ हुआ।
पिता के शाप और राजपद से वंचित "यदु" ने अपने पूर्वजों की तरह ही गोपालन से अपना जीविकोपार्जन करना प्रारंभ किया और कठिन से कठिन परिस्थितियों का मुकाबला करते हुए अपने बल एवं पौरुष से राजतंत्र के विकल्प में मुक्त प्रजातंत्र की स्थापना की और प्रजातांत्रिक ढंग से राजा बनकर अपने वंश एवं कुल का विस्तार कर जगत में कीर्तिमान स्थापित किया।
            ध्यान रहे - राजा ययाति नें यदु को यह शाप दे रखा था कि- तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे। अतः यदु के सामने यह एक बहुत बड़ी समस्या थी। और समस्या ही आविष्कार की जननी होती है। अतः यदु नें राजतंत्र के विकल्प में प्रजातंत्र की खोज किया और प्रजातांत्रिक तरीके से वे राजा हुए। इसीलिए यदु को प्रजातंत्र का जनक माना जाता है।
              
आगे चलकर इसी यदु से समुद्र के समान विशाल यादवंश का उदय हुआ। जिसके सदस्यपत्तियों को यादव कहा गया। इस संबंध में यदि देखा जाए तो जिस तरह से ब्रह्मन् शब्द में अण् प्रत्यय लगाने से ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ति होती है, वैसे ही यदु नें अण् प्रत्यय पश्चात लगाने पर  यादव शब्द की भी उत्पत्ति होती है। 

 [यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द की उत्पत्ति होती है। (यदु + अण् = यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज।]

यदु के संघर्षमय जीवन में हमसफ़र के रूप में यदु की पत्नी यज्ञवती हुई। जो यदु नाम के अनुरूप ही जगत  विख्यात थी। जो कभी गोलोक में सुशीला गोपी नाम से प्रसिद्ध थी। वही कालान्तर में यज्ञपुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में भू-तल पर अवतरित हुई। जिसमें यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होने का प्रकरण पौराणिक है। जिसका वर्णन-देवीभागवतपुराण-‎ स्कन्धः नवम के अध्याय (४५) तथा ब्रह्मवैवर्त्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड के बयालीसवें अध्याय में  मिलता है।
          [ इस प्रकरण का विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक का सहवर्ती ग्रन्थ "श्री कृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चंवर्णं "में किया गया है। वहां से पाठकगण यदु पत्नी यज्ञवती के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।]

आगे चलकर यदु और उनकी पत्नी यज्ञवती से प्रमुख चार धर्मवत्सल पुत्र पैदा हुए। जिनके क्रमशः नाम हैं - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। जिसमें सहस्रजित यदु के ज्येष्ठ पुत्र थ

े।
महाराज यदु के चार पुत्रों का वर्णन अन्य पुराणों तथा  श्रीमद्भागवत पुराण के स्कंघ- ९ के अध्याय- २३ में भी मिलता है। उसके लिए कुछ श्लोक नीचे प्रस्तुत है -

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१९॥

यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः ।
यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः ॥२०॥

चत्वारः सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मजः ।
महाहयो रेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुताः ॥२१॥

धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्रः कुन्तेः पिता ततः ।
सोहञ्जिरभवत् कुन्तेः महिष्मान् भद्रसेनकः॥२२॥

अनुवाद- महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।१९।

इस वंश में स्वयं भगवान परब्रह्म श्री कृष्ण ने मनुष्य के रूप में अवतार लेते  हैं।। यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे - महाहय, वेणुहय, और हैहय। ।२०-२१।

      इस प्रकार से यह अध्याय- ११ का भाग-(१) यदु के सम्पूर्ण चरित्रों व पुत्रों इत्यादि की सामान्य जानकारी के साथ समाप्त हुआ। 
इसके अगले भाग-(२) में विस्तार से जानकारी दी गई है कि यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित से हैहय वंशी यादवों की उत्पत्ति कब और कैसे हुई। जिसमें  सहस्राजित के वंशज सहस्रबाहु अर्जुन के बारे में विशेष जानकारी दी गई है।

अध्याय- ११ 
[भाग- २]✓✓✓

यादवंश का उदय एवं उसके प्रमुख  सदस्यपति।


      भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
                          _____

जैसा की इसके पिछले अध्याय में बताया जा चुका है कि
यदु के चार प्रमुख पुत्र - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु नाम से थे। जिसमें सहस्रजित यदु के पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ थे। उसके आगे- सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे - महाहय, वेणुहय और हैहय। जिसमें यदु के प्रपौत्र हैहय से धनक हुए और धनक के कुल चार पुत्र- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा, और कृतौजा हुए। कृतवीर्य के पुत्र - सहस्त्रबाहु अर्जुन हुए। सहस्त्रबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय की दसवीं पीढ़ी में माता पद्मिनी के गर्भ से हुआ था। राजा कृतवीर्य की संतान होने के कारण इन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान दत्तात्रेय से हजार बाहुबल के वरदान के उपरांत उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन कहा गया।   
 महाराज कार्तवीर्य अर्जुन का जन्म कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। इसी तिथि को उनकी जयंती मनाई जाती है। इसके साथ ही कार्तवीर्य अर्जन सुदर्शन चक्र के अवतार भी हैं। इसके बारे में आगे बताया गया है।       
सहस्त्रबाहु अर्जुन अपने समय के सबसे बलशाली,  धर्मवत्सल, कुशल कृषक, प्रजापालक और गोपालक चक्रवर्ती अहीर सम्राट थे। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय-४३ के- १८ से २८ तक के श्लोकों से होती है। जिसमें कार्तवीर्यार्जुन के महत्व को एक नारद नामक गंधर्व नें उनके यज्ञ में कुछ इस प्रकार गुणगान किया था -

'तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।
समोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता।।१८।।

जज्ञे बाहुसहस्रं वै इच्छत स्तस्य धीमतः।
रथो ध्वजश्च सञ्जज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः।।१९ ।।

दशयज्ञसहस्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा।
निरर्गला निवृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः।। २० ।।

सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः।
सर्वेकाञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः।।२१।।

सर्वे देवैः समं प्राप्तै र्विमानस्थैरलङ्कृताः।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः।२ ।

तस्य यो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा।
कार्तवीर्य्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य सः।।२३ ।।

न नूनं कार्तवीर्य्यस्य गतिं यास्यन्ति क्षत्रियाः।
यज्ञैर्दानै स्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च।।२४ ।।

स हि सप्तसु द्वीपेषु, खड्गी चक्री शरासनी।
रथीद्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान्।।२५।।

पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः।
स सर्वरत्नसम्पूर्ण श्चक्रवर्त्ती बभूव ह।२६ ।।

स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि।
स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्ज्जुनोऽभवत्।२७।

योऽसौ बाहु सहस्रेण ज्याघात कठिनत्वचा।
भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनैव भास्करः।। २८ ।।

 अनुवाद- १८-२८
भावी क्षत्रिय नरेश निश्चय ही यज्ञ, दान, तप,  पराक्रम और शास्त्रज्ञान के द्वारा कार्तवीर्यार्जुन की समकक्षता को नहीं प्राप्त 
होंगे। योगी कार्तवीर्यार्जुन रथ पर आरूढ़ हो हाथ में खङ्ग, चक्र और धनुष धारण करके सातों दीपों में भ्रमण करता हुआ चोरों- डाकुओं पर कड़ी दृष्टि रखता था। राजा कार्तवीर्यार्जुन पच्चासी हजार वर्षों तक भू-तल पर शासन करके समस्त रत्नों से परिपूर्ण हो चक्रवर्ती सम्राट बना रहा। राजा कार्तवीर्यार्जुन ही अपने योग बल से पशुपालक (गोप) था। वहीं खेतों का भी रक्षक था और वही समयानुसार मेघ बनकर वृष्टि भी करता था। प्रत्यंचा के आघात से कठोर हुई त्वचाओं वाली अपनी सहस्रों भुजाओं से वह उसी प्रकार शोभा पता था, जिस प्रकार सहस्रों किरणों से युक्त शारदीय सूर्य शोभित होते हैं। १८-२८।
          
ज्ञात हो- अयोध्यापति श्रीराम, लंकापति रावण और महिष्मतिपुरी (आधुनिक नाम मध्यप्रदेश का महेश्वर जो नर्मदा नदी के किनारे स्थित है।) के चक्रवर्ती अहीर सम्राट कार्तवीर्यार्जुन लगभग एक ही समय के राजा थे। और
जिस रावण को वश में करने और परास्त करने के लिए श्री राम ने सम्पूर्ण जीवन दाँव पर लगा दिया था, उस रावण को अभीर सम्राट कार्तवीर्यार्जुन ने मात्र पाँच वाणो में परास्त कर बन्दी बना लिया था।

इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय-(४३) के- (३७ से ३९) तक के श्लोकों से होती है। जिसमें एक नारद नाम का एक गंधर्व कार्तवीर्यार्जुन का गुणगान करते हुए कहा -

एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।। ३७।   
                              
निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो  गत्वा   पुलस्त्यस्तु अर्जुनं  संप्रसादयत्।। ३८।    
                         
मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।    तस्य   बाहुसहस्रेण   बभूव  ज्यातलस्वनः।।३९।

अनुवाद- ३७-३९
इसी प्रकार अर्जुन ने एक बार लंका में जाकर अपने पांच बाणों द्वारा सेना सहित रावण को मोहित कर दिया, और उसे बलपूर्वक जीत कर

अपने धनुष की प्रत्यंचा में बांध लिया, फिर माहिष्मती पुरी में लाकर उसे बंदी बना लिया। यह सुनकर महर्षि पुलस्त्य (रावण के पितामह) ने माहिष्मती पुरी में जाकर अर्जुन को अनेकों प्रयास से समझा बुझाकर प्रसन्न किया। तब सहस्रबाहु- अर्जुन ने  महर्षि पुलस्त्य को सांत्वना देकर उनके पौत्र  राक्षस राज रावण को बंधन मुक्त कर दिया।३७-३९।                
                  
कार्तवीर्यार्जुन कोई साधारण पुरुष नहीं थे। वे साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के अवतार थे। इस बात की पुष्टि- नारदपुराणम्- पूर्वभाग अध्यायः (७६) के श्लोक-( ४ ) से होती है। जिसमें नारद जी कार्तवीर्यार्जुन के बारे में कहते हैं कि -

यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।। ४।

अनुवाद- ये (कार्तवीर्यार्जुन) पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया। ४

कार्तवीर्यार्जुन सुदर्शन चक्र का अवतार होने के साथ-साथ दत्तात्रेय का वर पाकर अजेय हो गये थे। उस समय कार्तवीर्यार्जुन और परशुराम से कई बार युद्ध हुआ। जिसमें दिव्य शक्ति संपन्न कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम का बध भी कर दिया था। 
किंतु यह बात पुरोहितों को बर्दाश्त नहीं हुई। परिणामतः  इसके उलट कार्तवीर्यार्जुन को ही परशुराम द्वारा वध करने की पुराणों में एक नई कहानी जोड़ दिया।
       
कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम का वध किया कि परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन का वध किया, इसकी सच्चाई तभी उजागर हो सकती है जब दोनों के बीच युद्धों का निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए।

 क्योंकि कि इसमें बहुत घाल- मेल किया गया है। दोनों के बीच हुए युद्धों का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के गगपतिखण्ड के अध्याय- ४० के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसको नीचे उद्धत किया जा रहा है -

"पतिते तु सहस्राक्षे कार्तवीर्य्यार्जुनः स्वयम्।।
आजगाम महावीरो द्विलक्षाक्षौहिणीयुतः।।३।।

सुवर्णरथमारुह्य रत्नसारपरिच्छदम् ।।
नानास्त्रं परितः कृत्वा तस्थौ समरमूर्द्धनि।।४।।

समरे तं परशुरामो राजेन्द्रं च ददर्श ह ।।
रत्नालंकारभूषाढ्यै राजेन्द्राणां च कोटिभिः ।।५।।

रत्नातपत्रभूषाढ्यं रत्नालंकारभूषितम् ।।
चन्दनोक्षितसर्वांगं सस्मितं सुमनोहरम् ।। ६ ।।

राजा दृष्ट्वा मुनीन्द्रं तमवरुह्म रथादहो ।।
प्रणम्य रथमारुह्य तस्थौ नृपगणैः सह ।। ७ ।।

ददौ शुभाशिषं तस्मै रामश्च समयोचितम् ।।
प्रोवाच च गतार्थं तं स्वर्गं गच्छेति सानुगः।।८।।

उभयोः सेनयोर्युद्धमभवत्तत्र नारद।
पलायिता रामशिष्या भ्रातरश्च महाबलाः ।।
क्षतविक्षतसर्वाङ्गाः कार्त्तवीर्य्यप्रपीडिताः।।९।

नृपस्य शरजालेन रामः शस्त्रभृतां वरः ।।
न ददर्श स्वसैन्यं च राजसैन्यं तथैव च ।। 3.40.१० ।।

चिक्षेप रामश्चाग्नेयं बभूवाग्निमयं रणे ।।
निर्वापयामास राजा वारुणेनैव लीलया ।।११।।

चिक्षेप रामो गान्धर्वं शैलसर्पसमन्वितम् ।।
वायव्येन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।१२।

चिक्षेप रामो नागास्त्रं दुर्निवार्य्यं भयंकरम् ।।
गारुडेन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।।१३।

माहेश्वरं च भगवांश्चिक्षेप भृगुनन्दनः ।।
निर्वापयामास राजा वैष्णवास्त्रेण लीलया ।।१४ ।।

ब्रह्मास्त्रं चिक्षिपे रामो नृपनाशाय नारद ।।
ब्रह्मास्त्रेण च शान्तं तत्प्राणनिर्वापणं रणे ।। १५ ।।

दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम् ।।
जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे ।। १६ ।।

शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दि रि नि वाक्य सुरैरपि ।। १७ ।।

पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।।
मूर्च्छामवाप स भृगुः पपात च हरिं स्मरन् ।।१८।।

पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः ।।
आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।।१९।

शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया ।।
ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया ।। 3.40.२० ।।

भृगुश्च चेतनां प्राप्य ददर्श पुरतः सुरान् ।।
प्रणनाम परं भक्त्या लज्जानम्रात्मकन्धरः।।२१ ।।

राजा दृष्ट्वा सुरेशांश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।।
प्रणम्य शिरसा मूर्ध्ना तुष्टाव च सुरेश्वरान् ।।२२।

तत्राजगाम भगवान्दत्तात्रेयो रणस्थलम् ।।
शिष्यरक्षानिमित्तेन कृपालुर्भक्तवत्सलः ।२३।

भृगुः पाशुपतास्त्रं च सोऽग्रहीत्कोपसंयुतः ।।
दत्तदत्तेन दृष्टेन बभूव स्तम्भितो भृगुः ।।२४।।

ददर्श स्तम्भितो रामो राजानं रणमूर्द्धनि ।।
नानापार्षदयुक्तेन कृष्णेनाऽऽरक्षितं रणे ।।२५।।

सुदर्शनं प्रज्वलन्तं भ्रमणं कुर्वता सदा ।।
सस्मितेन स्तुतेनैव ब्रह्मविष्णुमहेश्वरैः ।।२६।

गोपालशतयुक्तेन गोपवेषविधारिणा ।।
नवीनजलदाभेन वंशीहस्तेन गायता ।२७।

एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी ।।
दत्तेन दत्तं कवचं कृष्णस्य परमात्मनः ।। २८ ।।

राज्ञोऽस्ति दक्षिणे बाहौ सद्रत्नगुटिकान्वितम् ।।
गृहीतकवचे शम्भौ भिक्षया योगिनां गुरौ ।।२९ ।।

तदा हन्तुं नृपं शक्तो भृगुश्चेति च नारद ।।
श्रुत्वाऽशरीरिणीं वाणीं शङ्करो द्विजरूपधृक्।। ३०।



भिक्षां कृत्वा तु कवचमानीय च नृपस्य च।।
शम्भुना भृगवे दत्तं कृष्णस्य कवचं च यत् ।। ३१।।

रामस्ततो राजसैन्यं ब्रह्मास्त्रेण जघान ह ।।
नृपं पाशुपतेनैव लीलया श्रीहरिं स्मरन् ।।७२ ।।

अनुवाद- ३ से ७२ तक
• सहस्राक्ष के गिर जाने पर महाबली कार्तवीर्यार्जुन दो लाख अक्षौहिणी सेना के साथ स्वयं युद्ध करने के लिए आया। 

•वह रत्ननिर्मित खोल से आच्छादित स्वर्णमय रथपर सवार हो अपने चारों ओर नाना प्रकार के अस्त्रों को सुसज्जित करके रण के मुहाने पर डटकर खड़ा हो गया।

• इसके बाद वहां दोनों सेनाओं में युद्ध होने लगा तब परशुराम के शिष्य तथा उसके महाबली भाई कार्तवीर्य से पीड़ित होकर भाग खड़े हुए।

•उस समय उनके सारे अंग घायल हो गए थे। राजा के बाणसमूह से अच्छादित होने के कारण शास्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम को अपनी तथा राजा की सेना भी नहीं दिख रही थी।

• फिर तो परस्पर घोर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा। अंतमें राजा (कार्तवीर्य) ने दत्तात्रेय के दिए हुए अमोघ शूल को यथाविधि मंत्रों का पाठ करके परशुराम पर छोड़ दिया।

• उस सैकड़ों सूर्य के समान प्रभावशाली एवं प्रलयाग्नि की शिखा के सदृश शूल के लगते ही परशुराम धराशायी हो गये।

• तदनंतर भगवान शिव ने वहां जाकर परशुराम को पुनर्जीवनदान दिया (पुनः जीवित किया)।

• इसी समय वहां युद्ध स्थल में भक्तवत्सल कृपालु भगवान दत्तात्रेय अपने शिष्य (कार्तवीर्य) की रक्षा करने के लिए आ पहुंचे। फिर परशुराम ने क्रुद्ध होकर पाशुपतास्त्र हाथ में लिया, परंतु दत्तात्रेय की दृष्टि पड़ने से वह (परशुराम) पाशुपत अस्त्र सहित रणभूमि में स्तंभित (जड़वत्) हो गये।

• तब रणके मुहाने पर स्तंभित हुए परशुराम ने देखा कि जिनके शरीर की कांति नूतन जलधार के सदृश्य है, जो हाथ में वंशी लिए बजा रहे हैं, सैकड़ो गोप जिनके साथ हैं, जो मुस्कुराते हुए राजा कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा के लिए अपने प्रज्वलित सुदर्शन चक्र को निरंतर घुमा रहे हैं।

•और अनेकों पार्षदों से गिरे हुए हैं, एवं ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर जिनका स्तवन कर रहे हैं, वे गोपवेषधारी श्रीकृष्ण युद्ध क्षेत्र में राजा (कार्तवीर्य) की रक्षा कर रहे हैं।

• इसी समय वहां यूं आकाशवाणी हुई - दत्तात्रेय के द्वारा दिया हुआ परमात्मा श्री कृष्ण का कवच उत्तम रतन की गुटका के साथ राजा की दाहिनी भुजा पर बंधा हुआ है, अतः योगियो के गुरु शंकर भिक्षारूप से जब उस कवच को मांग लेंगे, तभी परशुराम राजा कार्तवीर्यार्जुन का वध करने में समर्थ हो सकेंगे।

• नारद ! उस आकाशवाणी को सुनकर शंकर  एक ब्राह्मण का रूप धारण करके गए और राजा से याचना करके उसका कवच मांग लाये। फिर शंभू ने श्री कृष्ण का वह कवच परशुराम को दे दिया।

• तत्पश्चात परशुराम ने श्री हरि का स्मरण करते हुए ब्रह्मास्त्र द्वारा राजा की सेना का सफाया कर दिया और फिर लीलापूर्वक पशुपतास्त्र का प्रयोग करके राजा कार्तवीर्यार्जुन की जीवन लीला समाप्त कर दी।
    
                       (युद्ध विश्लेषण)

 यदि उपर्युक्त श्लोक संख्या- (२५ से २८) पर विचार किया जाए तो रणभूमि में कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा परमेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं अपने सैकड़ो गोपों एवं पार्षदों के साथ कर रहे होते हैं। तो उस स्थिति में ब्रह्मांड का न दैत्य, न देवता, न किन्नर, न गंधर्व, और ना ही कोई मनुष्य कार्तवीर्यार्जुन का बाल बांका कर सकता था। परशुराम की बात करना तो बहुत दूर है।

• दूसरी बात यह कि- श्लोक संख्या - (१८ से २०) में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि- युद्ध में कार्तवीर्यार्जुन के भयंकर शूल के आघात से परशुराम मारे जाते हैं। किंतु शिव जी द्वारा उन्हें पुनः जीवित कर दिया जाता है। 

यहां सोचने वाली बात है कि क्या कोई मरने के बाद पुनः जीवित होता है ? इसका जवाब होगा नहीं। तो फिर परशुराम कैसे जीवित हो गये ? यह बात भी हजम नहीं होती।

• तीसरी बात यह कि- श्लोक संख्या (२८ से २९) में लिखा गया है कि- परमात्मा श्री कृष्ण का कवच जो कार्तवीर्यार्जुन की दाहिनी भुजा पर बंधा हुआ था उसी से कार्तवीर्यार्जुन की रणभूमि में रक्षा हो रही होती है, और उसे शिव जी ब्राह्मण वेश में आकर भिक्षा के रूप में मांगते हैं और राजा कार्तवीर्यार्जुन उस कवच को सहर्ष दे देते हैं।

यहां पर विचारणीय बात यह है कि- क्या राजा को उस समय इतना ज्ञान नहीं था कि युद्धभूमि में अचानक एक ब्रह्मण भिखारी भिक्षा में धन दौलत न मांगकर रक्षा कवच क्यों मांग रहा है ? और सोचने वाली बात यह है की जिस कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा स्वयं भगवान श्री कृष्ण कर रहे हों उस समय कोई भिखारी उसके प्राणों के समान कवच मांगे और अंतर्यामी भगवान मूकदर्शक बने रहें। यह सम्भव नहीं लगता ? और ना ही यह बात किसी भी तरह से हजम हो सकती है।
        
अतः इन तमाम तर्कों के आधार पर सिद्ध होता है कि निश्चय ही कार्तवीर्यार्जुन नें परशुराम का वध कर दिया था। किंतु यह बात ब्राह्मण कथाकारों को गले स

े नीचे नहीं उतरी। परिणाम यह हुआ कि कथाकारों नें एक नई कहानी जोड़कर इसके उलट कार्तवीर्यार्जुन का वध परशुराम से करा दिया।

• चौथी बात यह कि- अगर कार्तवीर्यार्जुन का वध हुआ होता तो शास्त्रों में उनकी पूजा का विधान कभी नहीं होता।  जबकि कार्तवीर्यार्जुन का विधिवत पूजा करने का शास्त्रों में विधान किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि सहस्रबाहु अर्जुन का बध नहीं हुआ था। पूराणों में सहस्रबाहू अर्जुन की पूजा करने के विधान की पुष्टि- श्रीबृहन्नारदीयपुराण पूर्वभागे बृहदुपाख्यान तृतीयपाद कार्तवीर्यमाहात्म्यमन्त्रदीपकथनं नामक - (७६) वें अध्याय से होती है। परन्तु परशुराम कि पूजा का विधान किसी पुराण में नहीं है।

नारद पूराण में सहस्रबाहू अर्जुन की पूजा करने का विधान 
 नारद और सनत्कुमार संवाद के रूप में जाना जाता है। जिसमें नारद के पूछे जाने पर सनत्कुमार जी कहते हैं-

                  "नारद उवाच।
"कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि।
जायन्तेऽथ प्रलीयन्ते स्वस्वकर्मानुसारतः।। १।

तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः।
समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम्।। २।
अनुवाद:-
• देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने कर्मानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं।
• तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है। १-२।

                  "सनत्कुमार उवाच"
श्रृणु  नारद !  वक्ष्यामि सन्देहविनिवृत्तये।
यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि।।३

अनुवाद:- सनत्कुमार ने कहा ! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय (सेव्यमान) कहे गये हैं सुनो ! । ३। 

यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः  पृथिवीतले।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।। ४।

तस्य  क्षितीश्वरेंद्रस्य   स्मरणादेव   नारद।
शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम्।। ५।

तेनास्य मन्त्रपूजादि   सर्वतन्त्रेषु   गोपितम्।
तुभ्यं प्रकाबशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम्।। ६।

अनुवाद:- ४ से ६
• ये सहस्रबाहु अर्जुन पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया। 
 हे नारद ! कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से ही पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।

• कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है। ४ से ६।

वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नींदुशान्तियुक्।वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिंदुयुक्।। ७।

पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीपदम्।
रेफोवा द्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ।। ८।

मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः।
ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः।। ९।

दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम्।
कार्तवीर्यार्जुनो देवो  बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत्।। १०।

शेषाढ्यबीजयुग्मेन   हृदयं    विन्यसेदधः।
शान्तियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम्। ११।

इन्द्वाढ्यं   वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया।शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत्।।१२।

वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः।
हृदये    जठरे    नाभौ   जठरे   गुह्यदेशतः।। १३।

दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जङ्घयोः। विन्यसेद्बीजदशकं  प्रणवद्वयमध्यगम् ।।१४ ।।

ताराद्यानथ   शेषार्णान्मस्तके   च   ललाटके।
भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके ।।१५ ।।

सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः।
सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम् ।। १६।।

उद्यद्रर्कसहस्राभं  सर्वभूपतिवन्दितम् ।
दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च।।१७ ।।

दधतं स्वर्णमालाढ्यं  रक्तवस्त्रसमावृतम्।
चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।१८।

अनुवाद- ७ से १८
इनकी कान्ति (आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के (500) दक्षिणी हाथों में वाण और (500) उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र (लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।

• इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है‌ (यह मूल में श तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें।  शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्य
म् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से

कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर ( लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।७-१८।

अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि कार्तवीर्यार्जुन का वध एक कपोल-कल्पित मात्र है। 
जिसे बाद में जोड़कर एक नई कहानी उसी तरह से गढ़ दी गई जैसे भगवान श्रीकृष्ण को एक बहेलिया से मारे जाने की रची गई है। 
अगर परशुराम द्वारा कार्तवीर्यार्जुन के वध की धटना सत्य होती तो पुराणों में कार्तवीर्यार्जुन के पूजा का विधान नहीं किया जाता और नाही कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को उनकी जयंती मनाई जाती।
        
उपर्युक्त रूप से दर्शायी गयी ब्रह्मवैवर्तपुराण की पौराणिक घटना को समान तथ्य अन्य पौराणिक ग्रन्थ-
 लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः (४५८ ) में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार किया गया है। वहां से भी इसकी जानकारी ली जा सकती है।

           इस प्रकार से अध्याय- (११) का भाग- (२) यदु के ज्येष्ठ पुत्र से उत्पन्न हैहय वंशी अहीर चक्रवर्ती सम्राट कार्तवीर्यार्जुन की महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ समाप्त हुआ।
        अब इस अध्याय के अगले भाग-(३) में महाराज यदु के पुत्र क्रोष्टा की पीढ़ी में आगे चलकर महान अन्धक और वृष्णि यादवों की उत्पत्ति कैसे हुई ! और उसमें आगे चलकर वृष्णि कुल में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण कैसे हुआ इत्यादि इत्यादि घटनां को बताया गया है।।

अध्याय- ११

[भाग ३]✓✓✓

यादवंश का उदय एवं उसके प्रमुख  सदस्यपति।
   
      भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज
                               ___

इस अध्याय के भाग- (३) का मुख्य उद्देश्य यादव वंश की चारित्रिक वंशावली का व्याख्यान करते हुए गोपेश्वर श्रीकृष्ण के लौकिक चरित्र को भी स्पष्ट करना है। तो उसके लिए यदु के पुत्र क्रोष्टा को ही लेकर चलेंगे जहां क्रोष्टा की ही पीढ़ी में आगे चलकर अंधक और वृष्णि नामक दो महान विभूतियों का उदय हुआ। जिसमें वृष्णि के वंशजों में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ तथा अंधक के वंशजों  में गोपेश्वर श्रीकृष्ण की ननिहाल( माता का कुल हुआ)।
      
       इसके पिछले भाग में यदु के प्रथम व ज्येष्ठ पुत्र हैहय वंशी यादवों के बारे में बताया जा चुका है। उसी क्रम में यदु के दूसरे पुत्र- क्रोष्टा के पुत्र वृजिनीवान हुए। इसी वृजिनीवान की पीढ़ी में में आगे चलकर ज्यमाघ हुए  जिनकी पत्नी शैब्या से विदर्भ हुए। फिर विदर्भ की पत्नी भोज्या से तीन पुत्र - कुश, क्रथ और रोमपाद हुए। जिसमें रोमपाद के दो पुत्र  - बभ्रु  और कृति हुए। इनमें से कृति के  पुत्र- चेदि हुए जिनसे यादवों की शाखा में चेदि वंश का उदय हुआ। फिर इसी चेदि की पीढ़ी में दमघोष हुए। जिनका विवाह श्री कृष्ण की बुआ श्रुतिश्रवा से हुआ था। फिर इसी श्रुतिश्रवा और दमघोष से शिशुपाल का जन्म हुआ जो भगवान श्री कृष्ण का प्रतिद्वन्द्वी  था। 
   
              अब हम लोग विदर्भ के दूसरे पुत्र- क्रथ को लेकर आगे बढ़ेंगे। तो विदर्भ के दूसरे पुत्र - क्रथ के कुन्ति हुए। फिर कुन्ति के वृष्णि (प्रथम) हुए। फिर वृष्णि के निवृत्ति, निवृत्ति के दशार्ह हुए। दशार्ह के व्योम, व्योम के जीमूत, जीमूत के पुत्र विकृति हुए, विकृति के भीमरथ, भीमरथ के नवरथ, नवरथ के दशरथ, दशरथ के शकुनि, शकुनि के करम्भ, करम्भि के पुत्र देवरात हुए, देवरात के मधु, मधु के कुरुवश, कुरुवश के अनु, अनु के पुरूहोत्र, पुरूहोत्र के आयु (सत्वत) हुए। इस सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अन्धक, और महाभोज हुए।

 देखा जाए तो यादव वंश में कुल चार वृष्णि थे। जिनको इस तरह से भी समझा जा सकता है -

(१)- प्रथम वृष्णि- हैहय वंशी यादवों के सहस्रबाहु के पुत्र जयध्वज के वंशज मधु के ज्येष्ठ पुत्र थे।

(२)- द्वितीय वृष्णि- विदर्भ के पौत्र कुन्ति के एक पुत्र का नाम भी वृष्णि था। यह सात्वत से पूर्व के यादव वृष्णि हैं।

३- तृतीय वृष्णि- सात्वत के कनिष्ठ (सबसे छोटे) पुत्र का नाम वृष्णि था। यह वृष्णि अन्धक के ही भाई थे।
    (विदित हो सातवीं पीढ़ी पर गोत्र बदल जाता है।)

४- चतुर्थ वृष्णि- सात्वत पुत्र वृष्णि के पौत्र (नाती) थे । अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम भी वृष्णि ही था यही अन्तिम वृष्णि सात्वत शाखा में थे।

इन चारो वृष्णियों में से हम प्रमुख रूप से सात्वत पुत्र वृष्णि (तृतीय) को ही लेकर आगे चलेंगे जो क्रोष्टा की पीढ़ी में सात्वत पुत्र वृष्णि (द्वितीय) है।
इनके पूर्व सहस्रबाहु के पुत्र जयध्वज के वंशजों में मधु यादव राजा हुए। सौ पुत्रों में वृष्णि नाम से भी एक राजा हुए। तभी यादव माधव और वार्ष्णेय यादवों का विशेषण  हुआ और उन्हीं के नाम और मधु के गुणों तथा यदु के कारण यादव वंश के सदस्यपत्तियों को यादव, माधव और वार्ष्णेय नाम से जाना गया। इसकी पुष्टि- भागवत पुराण - (9/23/30) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिताः।
यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो वृजिनवांस्ततः॥

अनुवाद- परीक्षित् ! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।३०।   
  
पुनः सात्वत के सात पुत्रों में वृष्णि (द्वितीय) के दो पुत्र- सुमित्र और युद्धाजित हुए। जिसमें युद्धाजित के शिनि और अनमित्र दो पुत्र हुए। फिर अनमित्र के तीन पुत्र - निघ्न, शिनि (द्वितीय), और वृष्णि (तृतीय) हुए। इस तृतीय वृष्णि के भी दो पुत्र- श्वफलक और चित्ररथ हुए। 
जिसमें श्वफलक की पत्नी गान्दिनी से अक्रूर जी का जन्म हुआ जो यादवों की सुरक्षा को लेकर सदैव तत्पर रहते थे। उसी क्रम में श्वफलक के भाई चित्ररथ के भी दो पुत्र - पथ और विदुरथ हुए। फिर इस विदुरथ के शूर, हुए। शूर के भजमान (द्वितीय), भजमान (द्वितीय) के शिनि (तृतीय), शिनि (तृतीय) के स्वयमभोज, स्वयमभोज के हृदीक, हृदीक के देवमीढ हुए।
             
देवमीढ की तीन पत्नियां थी - अश्मिका, सतप्रभा और गुणवती थीं। जिसमें देवमीढ की पत्नी अश्मिका से शूरसेन का जन्म हुआ। इस शूरसेन की पत्नी का नाम मारिषा था, जिससे कुल दस पुत्र हुए। उन्हीं दस पुत्रों में धर्मवत्सल वसुदेव जी भी थे। जिसमें वसुदेव जी की बहुत सी पत्नियां थीं किन्तु मुख्य रूप से दो ही पत्नियां- देवकी और रोहिणी प्रसिद्ध थीं। जिसमें वसुदेव और देवकी से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। तथा वासुदेव जी की दूसरी

पत्नी रोहिणी से बलराम जी का जन्म हुआ।
इस प्रकार से हम लोग भक्तिभाव के साथ गोपेश्वर श्रीकृष्ण के यहां पहुंच गए।

किंतु बिना नन्दबाबा के यहां पहुंचे श्रीकृष्ण की बात अधूरी ही रहेगी। तो नन्दबाबा के यहां पहुंचने के लिए हमें पुनः देवमीढ की दूसरी पत्नी गुणवती तक जाना होगा। किन्तु इसके पहले देवमीढ की दूसरी पत्नी सतप्रभा को भी जान लें कि- देवमीढ की पत्नी सतप्रभा से एक कन्या- सतवती हुई।
      
अब हम पुनः देवमीढ की पत्नी गुणवती की तरफ रुख करते हैं जहां नन्दबाबा मिलेंगे। तो देवमीढ की तीसरी पत्नी गुणवती से- अर्जन्य, पर्जन्य और राजन्य नामक तीन पुत्र हुए। इन पुत्रों में से हम पर्जन्य को ही लेकर आगे बढ़ेंगे।

तो पर्जन्य की पत्नी  का नाम वरियसी था। इसी वरियसी और पर्जन्य से कुल पांच पुत्र - उपनन्द, अभिनन्द, नन्द (नन्दबाबा), सुनन्द, और नन्दन हुए।
पर्जन्य के कुल पांच पुत्रों में नन्दबाबा अधिक लोकप्रिय थे। पारिवारिक दृष्टिकोण से नन्दबाबा और वासुदेव जी आपस के भाई ही थे, क्योंकि ये दोनों देवमीढ के परिवार से ही सम्बन्धित  थे । नन्दबाबा की पत्नी का नाम यशोदा था। जिससे विंध्यवासिनी (योगमाया) अथवा एकानशा नाम की एक अद्भुत कन्या का जन्म हुआ। इसकी पुष्टि- श्रीमार्कण्डेय पुराण के देवीमाहात्म्य अध्याय- ११ के श्लोक- ४१-४२ से होती है। जिसमें योगमाया स्वयं अपने जन्म के बारे में कहती हैं कि -

वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ ॥४१॥

नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ॥ ४२॥

अनुवाद- ४१-४२
• वैवस्वत मन्वन्तर में अठाईसवां द्वापर युग आने पर शुम्भ और निशुम्भ जैसे दूसरे महासुर उत्पन्न होंगे । 
• तब नन्दगोप के घर में यशोदा के गर्भ से उत्पन्न हो विन्ध्याचल निवासिनी के रूप में उन दोनों का नाश करुँगी।

      योगमाया को जन्म लेते ही वसुदेव जी अपने नवजात शिशु श्रीकृष्ण को योगमाया के स्थान पर रखकर योगमाया को लेकर  बन्दीगृह में पुनः पहुंच गए। और जब कंस को यह पता चला कि देवकी को आठवीं संतान पैदा हो चुकी है तो वह बन्दीगृह में पहुंच कर योगमाया को ही देवकी का आठवां पुत्र समझकर पत्थर पर पटक कर मारना चाहा, किंतु योगमाया उसके हाथ से छुटकर कंस को यह कहते हुए आकाश मार्ग से विंध्याचल पर्वत पर चली गई कि- तुझे मारने वाला पैदा हो चुका है। वही योगमाया विंध्याचल पर्वत पर आज भी यादवों की प्रथम कुल देवी के रूप विराजमान है।
        
      इस संबंध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री माता प्रसाद जी कहना है कि- "कुलदेवी या कुल देवता उसी को कहा जाता है जो कुल की रक्षा करते हैं। 

योगमाया विंध्यवासिनी को श्रीकृष्ण सहित समस्त यादवों की रक्षा करने वाली कुल देवी और श्रीकृष्ण को कुल देवता होने की पुष्टि - हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय- ४ के श्लोक- ४६, ४७ और ४८ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

सा कन्या ववृधे तत्र वृष्णिसंघसुपूजिता ।
पुत्रवत् पाल्यमाना सा वसुदेवाज्ञया तदा।४६ ।

विद्धि चैनामथोत्पन्नामंशाद् देवीं प्रजापतेः ।
एकानंशां योगकन्यां रक्षार्थं केशवस्य तु ।४७ ।

तां वै सर्वे सुमनसः पूजयन्ति स्म यादवाः ।
देववद् दिव्यवपुषा कृष्णः संरक्षितो यया ।४८।

अनुवाद- ४६ से ४८
• वहां (विंध्याचल पर्वतपर) वृष्णी वंशी यादवों के समुदाय से भलीभांति पूजित हो वह कन्या बढ़ने लगी। वसुदेव की आज्ञा से उसका पुत्रवत पालन होने लगा।
• इस देवी (विंध्यवासिनी) को प्रजा पलक भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुई समझो। वह एक होती हुई अनंंशा (अंश रहित) अर्थात अविभक्त थी, इसीलिए एकानंशा कहलाती थी। योग बल से कन्या रूप में प्रकट हुई वह देवी भगवान श्री कृष्ण की रक्षा के लिए आविर्भूत हुई थी।
• यदुकुल में उत्पन्न सभी लोग उस देवी का आराध्य देव के समान पूजन करते थे, क्योंकि उसने अपनी दिव्यदेह से श्रीकृष्ण की भी रक्षा की थी।

              तभी से समस्त यादव समाज विंध्यवासिनी योगमाया को प्रथम कुल देवी तथा गोपेश्वर श्रीकृष्ण को कुल देवता मानकर परंपरागत रूप से पूजने लगे।
(ज्ञात हो - नन्दबाबा को योगमाया विंध्यवासिनी के अतिरिक्त एक भी पुत्र नहीं हुआ। इसलिए उनका वंश आगे तक नहीं चल सका।) इस लिए किसी को नन्दवंशी यादव कहना उचित नहीं है।
         
इस प्रकार से अब तक हम लोग क्रोष्टा के पीढ़ी की कठिन डगर को पार करते हुए वसुदेव जी तथा उनके भाई नन्दबाबा के यहां से होते हुए श्रीकृष्ण, बलराम और योगमाया विंध्यवासिनी के यहां पहुंच गये।
         
अब हमलोग यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के ननिहाल को जानेंगे कि- क्रोष्टा की किस पीढ़ी में श्रीकृष्ण का ननिहाल था।

 तो इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि - सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अंधक, और महाभोज हुए। 
जिसमें हमलोग सात्वत के पुत्र वृष्णि (द्वितीय) के कुल में उत्पन्न श्री

कृष्ण को जाना। अब हमलोग सात्वत के पुत्र- अंधक के कुल को जानेंगे जहां भगवान श्रीकृष्ण का ननिहाल मिलेगा।
 
          सात्वत पुत्र अंधक के कुल चार पुत्र- कुकुर, भजमान, सुचि और कम्बलबर्हिष हुए। जिसमें अंधक के ज्येष्ठ पुत्र वह्नि थे। इस वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा, कपोतरोमा के अनु और अनु के अंधक (द्वितीय) हुए। इस अंधक (द्वितीय) के दुन्दुभि हुए और दुन्दुभि के अरिहोत्र, अरिहोत्र के पुनर्वसु हुए।

        फिर पुनर्वसु के एक पुत्र आहुक तथा एक पुत्री आहुकी नाम की थी। जिसमें पुनर्वसु के पुत्र आहुक की पत्नी का नाम शैव्या था। इसी पुनर्वसु और शैव्या से दो पुत्र - देवक और उग्रसेन हुए। जिसमें पुनर्वसु के पुत्र देवक की सात कन्याएं - पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी थीं। देवी तुल्य इन सातो पुत्रियों का विवाह वृष्णिवंशी वासुदेव जी से हुआ था।

इन्हीं सातों में से देवकी के उदरगर्भ से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। इस तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण का ननिहाल मथुरा के राजा उग्रसेन के पुत्र देवक के यहां था। और इसी देवक के सगे भाई उग्रसेन थे, जो मथुपुरा के प्रजापालक राजा थे। उनकी की पत्नी का नाम पद्मावती था। इसी पद्मावती और उग्रसेन से महत्वाकांक्षी कंस का जन्म हुआ। कंस अपने पिता अग्रसेन को बंदी बनाकर स्वयं मथुरा का राजा बना और प्रजा पर नाना प्रकार का अत्याचार करने लगा। कंस बल और पराक्रम में अजेय था। वह अपने समय में बड़े-बड़े दैत्य को पराजित कर अधिक शक्ति संपन्न होकर समस्त देवताओं को भी जीत लिया था।
उस समय भूतल पर उसके जैसा बलवान राजा कोई नहीं था। किंतु जब कंस के पापों का घड़ा भर गया, तब किशोर श्रीकृष्ण उसके ही दरबार में उसका वध करके पुनः अग्रसेन को मथुरा का राजा बनकर स्वयं मथुरा की रक्षा करते हुए पृथ्वी के भार को दूर किया।
     
             इस प्रकार से यह अध्याय- अध्याय-(११) का भाग- (तीन) यादव वंश के अंतर्गत क्रोष्टा कुल के भगवान श्रीकृष्ण सहित प्रमुख सदस्यपतियों तथा उनके वंश क्रम की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
          अब इसके अगले अध्याय-(१२) के भाग- (१)-  में यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन तथा भाग- (२) में श्रीकृष्ण का गोलोक गमन इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया है।

अध्याय- १२
[भाग 1]✓✓✓

यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।



इस पुस्तक का यह अंतिमवां व सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है। जिसका मुख्य उद्देश्य- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता को बताना तथा श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जानें का खण्डन करते हुए श्रीकृष्ण के गोलोक गमन की वास्तविक घटनाक्रम को बताना है। इन सभी जानकारियों को क्रमबद्ध तरीके से बताने के लिए इसे मुख्यतः दो भागों में बांटा गया है -

भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता
       एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।

भाग- (२)- श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।

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                      [भाग- १]-

यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
       
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          समाज में आये दिन यह बात सुनने को मिलती है कि- गांधारी और ऋषियों के शाप के कारण मौसल युद्ध में यादवों का अंत तथा एक बहेलिए से मारे जाने से श्रीकृष्ण का भी अंत हो गया। यह कथन कितना सत्य और कितना असत्य है। इसका समाधान इस भाग में किया गया है।
          
          इस बात को तो सभी जानते हैं कि पौराणिक कथाओं में शाप और आशीर्वाद को आधार बनाकर सभी अप्राकृतिक अथवा असैद्धान्तिक बातों को सत्य  बनाया जाता है। परन्तु आध्यात्मिक और दार्शनिक मानकों में दोषी व्यक्ति कभी किसी निर्दोष को शाप नहीं दे सकता है।
और जहाँ दोषी व्यक्ति किसी निर्दोष को शाप देने का भय दिखाकर उसके साथ गलत व्यवहार करे अथवा उसे शापित करे तो समझना चाहिए वह घटना ही झूँठी है। 

 इस कार्य हेतु कारक कभी देवताओं को आधार बनाया गया तो कभी ऋषियों को, तो कभी तपस्या विहीन पुत्र मोह से पीड़ित गांधारी जैसी स्त्री को भी ।
         किंतु परमेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) इस तरह के खेल में कभी शामिल नहीं हुए। इस सम्बन्ध में देखा जाए तो श्री कृष्ण की सबसे बड़ी विशेषता रही कि- उन्होंने आशीर्वाद के अतिरिक्त कभी किसी को शाप नहीं दिया। 
इसीलिए उन्हें पालनहार कहा गया, यह ब्रह्म सत्य है। किंतु यह विडम्बना ही है कि कथाकारों ने जिनकी शक्ति से शाप और आशीर्वाद प्रभावी होता है उन्हीं श्रीकृष्ण को शाप के मकड़जाल में फसा कर एक बहेलिया से भी मरवा दिया। जबकि इस संबंध में ज्ञात हो कि भगवान श्रीकृष्ण को कोई बहेलिया अथवा सृष्टि का प्राणी नहीं मार सकता था।

भगवान श्री कृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के पश्चात अपने गोप- गोपियों के साथ स्वेच्छा से बड़े ही ऐश्वर्य रुप से अपने गोलोक धाम को गये थे। क्योंकि वे कर्म बन्धन से रहित सभी भौतिक अभौतिक इच्छाओं से परे थे।
इस बात को विस्तार पूर्वक वर्णन इसी अध्याय के दूसरे भाग में किया गया है।

ये शाप और आशीर्वाद का खेल किस परिस्थिति में प्रभावी और निष्प्रभावी होता है इसको अच्छी तरह से जानना होगा तभी इसकी सच्चाई पकड़ में आ सकती है अन्यथा नहीं। 

कोई भी शाप कब प्रभावी और कब निष्प्रभावी होता है इसको इस तरह से समझा जा सकता है जैसे-
• किसी का शाप तभी प्रभावी होता है जब उसपर परमेश्वर की कृपा हो तथा वह उस योग्य हो, और सदैव सत्य के मार्ग पर चलने वाला हो, जिसमें तनिक भी पापबुद्धि  एवं व्यक्तिगत हित न हो। ऐसे व्यक्ति को यदि कोई जानबूझकर क्षति पहुंचाया हो या पहुंचाने का प्रयास कर रहा हो। ऐसे में यदि वह व्यक्ति निष्पक्ष भाव से व्यक्तिगत हित को त्याग कर उसे शाप देता है तो उसके शाप को निश्चय ही परमेश्वर प्रभावी कर देते हैं।

इसके विपरीत यदि शाप देने वाला पूर्वाग्रह से ग्रसित किसी निर्दोष को दोषी मानकर अपने स्वार्थ और व्यक्तिगत हित के लिए शाप देता है, तो उसके शाप को परमेश्वर निष्प्रभावी कर कर देते हैं। साथ ही उसकी सारी तपस्या और पुण्य को सदा-सदा के लिए समाप्त कर देते हैं ताकि वह इसका गलत प्रयोग न कर सके।
 महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व के अध्याय- (५३) के कुछ प्रमुख श्लोकों में इसका उदाहरण मिलता है जब उत्तंक ऋषि भगवान श्रीकृष्ण को महाभारत युद्ध न रोक पाने की वजह से उन्हें दोषी ठहराते हुए शाप देने के लिए उद्धत (उत्तेजित) हो जाते हैं। किंतु भगवान श्री कृष्ण उन्हें ज्ञान की बातें बता कर उन्हें शाप देने से रोक देते हैं।

"या मे सम्भावना तात त्वयि नित्यमवर्तत।
अपि सा सफला तात कृता ते भरतान् प्रति॥१४॥

               "श्रीभगवान उवाच"
कृतो यत्नो मया पूर्वं सौशाम्ये कौरवान् प्रति।
नाशक्यन्त यदा साम्ये ते स्थापयितुमञ्जसा ॥१५॥

ततस्ते निधनं प्राप्ताः सर्वे ससुतबान्धवाः।

अनुवाद- १४-१५
•  उतंक  ऋषि ने श्रीकृष्ण से कहा- तात ! मैं सदा तुमसे इस बातकी सम्भावना करता था कि तुम्हारे प्रयत्न से कौरव-पाण्डवों में मेल हो जायगा। मेरी जो वह सम्भावना थी, भरतवंशियों के सम्बन्ध में तुमने वह सफल तो

किया है न ? ॥ १४ ।।
• श्रीभगवान ने कहा— महर्षे ! मैंने पहले कौरवों के पास जाकर उन्हें शान्त करने के लिये बड़ा प्रयत्न किया, परंतु वे किसी तरह सन्धि के लिये तैयार न किये जा सके। जब उन्हें समतापूर्ण मार्ग में स्थापित करना असम्भव हो गया, तब वे सब-के-सब अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित युद्ध में मारे गये॥१५॥

"इत्युक्तवचने कृष्णे भृशं क्रोधसमन्वितः।
उत्तङ्क इत्युवाचैनं रोषादुत्फुल्ललोचनः ॥१९॥

                उत्तङ्क उवाच
यस्माच्छक्तेन ते कृष्ण न त्राताः कुरुपुङ्गवाः।
सम्बन्धिनः प्रियास्तस्माच्छप्स्येऽहं त्वामसंशयम् ॥ २० ॥

न च ते प्रसभं यस्मात् ते निगृह्य निवारिताः।
तस्मान्मन्युपरीतस्त्वां शप्स्यामि मधुसूदन ॥२१॥

शृणु मे विस्तरेणेदं यद् वक्ष्ये भृगुनन्दन।
गृहाणानुनयं चापि तपस्वी ह्यसि भार्गव ॥ २३ ॥

श्रुत्वा च मे तदध्यात्मं मुञ्चेथाः शापमद्य वै।
न च मां तपसाल्पेन शक्तोऽभिभवितुं पुमान् ॥२४॥
न च ते तपसो नाशमिच्छामि तपतां वर।
तपस्ते सुमहद्दीप्तं गुरवश्चापि तोषिताः ॥ २५ ॥

कौमारं ब्रह्मचर्यं ते जानामि द्विजसत्तम।
दुःखार्जितस्य तपसस्तस्मान्नेच्छामि ते व्ययम् ॥ २६ ॥
             
  अनुवाद - १९-२६
• भगवान् श्रीकृष्ण के इतना कहते ही उत्तंक मुनि अत्यन्त क्रोधसे जल उठे और रोष से आँखें  फ़ाड़- फाड़कर देखने लगे। उन्होंने श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा॥१९॥
श्रीकृष्ण ! कौरव तुम्हारे प्रिय सम्बन्धी थे, तथापि शक्ति रखते हुए भी तुमने उनकी रक्षा न की। इसलिये मैं तुम्हें अवश्य शाप दूँगा॥२०॥
• मधुसूदन! तुम उन्हें जबर्दस्ती पकड़कर रोक सकते थे, पर ऐसा नहीं किया। इसलिये मैं क्रोध में भरकर तुम्हें शाप दूँगा॥२१॥
• श्रीकृष्ण ने कहा— भृगु नन्दन ! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे विस्तारपूर्वक सुनिये। भार्गव! आप तपस्वी हैं, इसलिये मेरी अनुनय-विनय स्वीकार कीजिये॥२३॥
• मैं आपको आध्यात्म तत्व सुना रहा हूँ। उसे सुनने के पश्चात् यदि आपकी इच्छा हो तो आज मुझे शाप दीजियेगा। तपस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ महर्षे! आप यह याद रखिये कि कोई भी पुरुष थोड़ी-सी तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता। और मैं नहीं चाहता कि आपकी तपस्या भी नष्ट हो जाय॥२४॥
• आपका तप और तेज बहुत बढ़ा हुआ है। आपनें गुरुजनों को भी सेवा से संतुष्ट किया है। द्विज श्रेष्ठ ! आपने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्यका पालन किया है। ये सारी बातें मुझे अच्छी तरह ज्ञात हैं। इसलिये अत्यन्त कष्ट सहकर संचित किये हुए आपके तप का मैं नाश कराना नहीं चाहता हूं॥२५-२६॥

        यदि उपरोक्त श्लोक संख्या- (२४) को देखा जाए तो उसमें भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि - "कोई भी पुरुष तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता।"
इसके आगे भगवान श्रीकृष्ण श्लोक संख्या- (२६) में कहते हैं
कि- यदि मैं चाहूं तो आपकी सभी तपस्या के फलों का नाश कर सकता हूं। किन्तु मैं ऐसा नहीं करना चाहता क्योंकि आपने इन्हें अत्यन्त कष्ट सहकर संचित किया हैं।
         
इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि -
"तपस्याओं का फल परमात्मा श्री कृष्ण की ही उपज है। क्योंकि उनकी इच्छा से ही शाप प्रभावी और निष्प्रभावी होते हैं। किंतु परमेश्वर शाप-ताप से परे निर्लिप्त और निर्विकल्प हैं। अतः उनको कोई शाप नहीं लगता और नाही कोई उन्हें शाप दे सकता है।"
       किंतु गांधारी ने श्रीकृष्ण को महाभारत युद्ध का दोषी ठहराते हुए तथा युद्ध में मारे गए अपने पुत्रों के दुख से पीड़ित होकर ही यह शाप दिया कि - जिस प्रकार मेरी गोद सूनी हो गई है और जिस प्रकार कुरुकुल का संहार हो चुका है उसी प्रकार तुम्हारे यादव कुल का संहार होगा। वे आपस में एक दूसरे से लड़कर अपना ही संहार कर लेंगे।
हे केशव! तुमने दूसरों का वध किया है इसलिए तुम्हारा भी वध होगा और अधर्म से होगा।

       अब देखा जाए तो गांधारी जिस आधार पर श्रीकृष्ण को श्राप दिया उसका कोई औचित्य ही नहीं बनता। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध रोकने के लिए बहुत प्रयास किए थे किंतु  दुर्योधन की हठधर्मीता के कारण भगवान का प्रयास सफल नहीं हो सका।
फिर भी गांधारी अपने पुत्र को दोषी न मानकर श्रीकृष्ण को ही दोषी ठहराते हुए शाप दे दी। इससे सिद्ध होता है कि गांधारी के शाप में नेक नियति नहीं थी।
दूसरी बात यह की गांधारी के शाप में निजी स्वार्थ था क्योंकि गांधारी के पुत्रों के ही समान अनेकों पुत्र महाभारत युद्ध में मारे गए थे, उनका दुख गांधारी को नहीं था, वह केवल अपने पुत्र शोक से क्रुद्ध होकर श्रीकृष्ण को शाप दी थी।
गांधारी के शाप में तीसरी बात यह है कि - गांधारी जब श्री कृष्ण को व्यक्तिगत रूप से दोषी मान चुकी थी तो फिर अपने शाप में निर्दोष यादवों को क्यों आड़े हाथ लिया जिनका युद्ध से कोई लेना-देना नहीं था। दूसरी ओर भगवान श्रीकृष्ण की नारायणी सेना दुर्योधन के ही पक्ष में युद्ध कर रही थी जिसके समस्त योद्धा यादव थे। उनक

ो भी अपने शाप में घसीट लिया।
अतः ऐसे श्रापों को परमेश्वर कभी नहीं प्रभावी होने देते।
         किंतु इसी शाप को आधार बनाकर पौराणिक ग्रंथों में यादव वंश के संपूर्ण विनाश और श्रीकृष्ण को एक बहेलिए से मारे जाने की एक मनगढ़ंत कहानी लिखी गई। इस बात को आगे विस्तार से बताया गया है।

         किंतु उसके पहले यह भी जान लीजिए कि यादवों को एक और श्राप मिला था जिसका वर्णन श्रीमद् भागवत महापुराण स्कंध -(११,) अध्याय- (१) के प्रमुख श्लोकों में किया गया है। जिसमें बड़े-बड़े ऋषि मुनियों द्वारा निर्दोष यादव बालकों को श्राप देने का कार्य किया गया था। उसको जानकारी के लिए नीचे उद्धृत किया गया है-

विश्वामित्रोऽसित: कण्वो दुर्वासा भृगुरंगिराः।
कश्यपो वामदेवोऽत्रिर्वसिष्ठो नारदादयः ।।१२।

अनुवाद -
विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा,  भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्री, वशिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारिका के पास ही पिण्डारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे। १२।

क्रीडन्तस्तानुपव्रज्य कुमार यदुनन्दनाः ।
उपसंगृह्य पप्रच्छुरविनीता विनीतवत्।। १३।

ते वेषयित्वा स्त्रीवेषैः साम्बं जाम्बवतीसुतम।
एषा पृच्छति वो विप्रा अन्तर्वत्न्यसितेक्षणा।।१४।

प्रष्टुं  विलज्जती  साक्षात्   प्रब्रूतामोघदर्शनाः।
प्रसोष्यन्ती पुत्रकामा किंस्वित् संजनयिष्यति।। १५।

एवं प्रलब्धा   मुनयस्तानूचुः  कुपिता नृप।
जनयिष्यति वो मन्दा मूसलं कुलनाशनम्।। १६।

              अनुवाद- १३- १६
• एक दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले, उन्होंने बनावटी नम्रता से उनके चरणों में प्रणाम करके प्रश्न किया। १३।

• वे जामवन्ती नन्दन साम्ब को स्त्री के भेष में सजा कर ले गए और कहने लगे, ब्राह्मण ! यह कजरारी आंखों वाली सुंदरी गर्भवती है। यह आपसे एक बात पूछना चाहती है। परंतु स्वयं पूछने में सकुचाती है। आप लोगों का ज्ञान अमोघ- अबाध है, आप सर्वज्ञ है। इसे पुत्र की बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय निकट आ गया है। आप लोग बताइए यह कन्या जनेगी या पुत्र ? ।१४-१५।
• परीक्षित! जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि मुनियों को धोखा देना चाहा, तब वे क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा मूर्ख यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी जो तुम्हारे कुल का नाश करने वाला होगा।

 अब इन ऋषियों को देखा जाए तो इनकी गणना बड़े-बड़े ऋषि मुनियों में होती है। किंतु इनमें जरा भी सद्बुद्धि और संत स्वभाव नहीं था। क्योंकि संत का पहला स्वभाव- दया एवं क्षमाशीलता होती है। किंतु उस समय इन ऋषियों में संत स्वभाव का थोड़ा भी गुण नहीं दिखा। परिणाम यह हुआ कि सभी ने मिलकर खेल रहे अबोध एवं निर्दोष बालकों को उदण्ड कहकर भयंकर शाप दे दिया। इनको संत कैसे कहा जा सकता है, जिन्हें इतना समझ नहीं कि ये बालक खेल के दरम्यान ही ऐसा व्यवहार कर रहे हैं उनमें तनिक भी पाप बुद्धि नही है। ऐसे में उन ऋषियों को चाहिए था कि उन्हें बालक बुद्धि समझ कर क्षमा कर दें। किंतु इन ऋषियों ने बालकों को क्षमा करना तो दूर रहा उन्हें भयंकर शाप दे दिया।
             देखा जाए तो  इन ऋषि- मुनि और देवताओं का श्राप केवल भोली-भाली  जनता के लिए ही होता है, रावण, कंस तथा बड़े-बड़े बलशाली असुर और दैत्यों के लिए नहीं होता। क्या आपने कभी सुना है कि रावण, कंस, तथा बड़े-बड़े दैत्यों इत्यादि को किसी ऋषि मुनि या कोई देवता कभी शाप दिया है ? नहीं।

इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी महाराज का कथन है कि-
"शाप दिया नहीं जाता, शाप वास्तविक स्थिति में अंतरात्मा से स्वत उत्पन्न होता है, जो परमेश्वर की कृपा से प्रभावी होता है। शाप दु:ख निवृत्ति की प्रतिक्रियात्मक प्रवाह है। दु:खी व्यक्ति ही शाप दे सकता है। सुखी अथवा आनन्दित व्यक्ति शाप नहीं दे सकता है।"
      इस शाप के बारे में संत शिरोमणि कबीर दास जी का भी  कुछ ऐसा ही कहना हैं कि-
"दुर्बल  को न  सताइए,   जाकी  मोटी   हाय।
मुई खाल की स्वाँस सो, सार भसम है जाय।।

भावार्थ-
संत कबीर जी यह संदेश दे रहे है कि हमे कभी भी किसी कमजोर या दुर्बल इंसान को सताना नहीं चाहिए। यदि हम किसी दुर्बल को परेशान करेंगे तो वह दुखी होकर हमें शाप दे सकता है तथा दुर्बल की हाय बहुत प्रभावशाली होती है जैसे मरे हुए किसी जानवर की चमड़ी से बनाई गई भांथी (धौंकनी) की स्वांस लेने और छोड़ने से लोहा तक भस्म हो जाता है।

किन्तु शाप और वरदान  के मकड़जाल से कथाकार ग्रंथों में कहानियों की दिशा और दशा तय करते हैं,।  जिसमें वे कभी घोड़ी से बकरा और बकरी से घोड़ा पैदा करवाते हैं। तो कभी बालकों के पेट से मूसल पैदा करवा कर यादवों के विनाश और श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने की कहानी रचते हैं। जो हास्यास्पद और वास्तविकता से कोसों दूर है।

क्योंकि संसार की प्रत्येक घटना प्राकृतिक विधानों के ही अनुरूप घटित होती है। 
किसी के वरदान अथवा शाप के प्रभाव से अग्नि शीतल नहीं हो सकती है। ताप अ

थवा ऊष्मा तो उसका मौलिक गुण है। वह तो जलाऐगी ही।
         जहां तक बात है यादवों के विनाश की, तो यादवों का विनाश अवश्य हुआ, किंतु सम्पूर्ण नहीं केवल आंशिक हुआ। उसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण अपने धाम अवश्य गए। किन्तु उनके धाम जाने में गांधारी का शाप व बहेलिए से मारे जाने की घटना को उनके साथ जोड़ना निराधार एवं कपोल-कल्पित है।

       क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के सभी कार्यक्रम पूर्व निर्धारित होते हैं। उसके लिए गीता के अध्याय-(४) का यह  श्लोक प्रसिद्ध है।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। ७ ।।
        
       अनुवाद - जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।
        इसी को चरितार्थ करने के लिए ही गोपेश्वर श्रीकृष्ण अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ धरा धाम पर अपने ही गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं। 

और कार्य पूर्ण होने के पश्चात अपने समस्त गोप और गोपियों के साथ पुनः अपने धाम को चले जाते हैं। यही उनका सत्य सनातन नियम है। इस बात की पुष्टि- 
ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६) से होती है जिसमें देवताओं के निवेदन पर भगवान श्री कृष्ण ने कहा-

यास्यामि पृथिवीं देवा यात यूयं स्वमालयम् ।।
यूयं चैवांशरूपेण शीघ्रं गच्छत भूतलम् ।।६१ ।।

इत्युक्त्वा जगतां नाथो गोपाना हूय गोपिकाः ।।
उवाच मधुरं वाक्यं सत्यं यत्समयोचितम् ।।६२ ।।

गोपा गोप्यश्च शृणुतयात नंदव्रजं परम् ।।
वृषभानुगृहे क्षिप्रं गच्छ त्वमपि राधिके ।। ६३ ।।

वृषभानुप्रिया साध्वी नंदगोपकलावती ।।
सुबलस्य सुता सा च कमलांशसमुद्भवा ।।६४ ।।

पितॄणां मानसी कन्या धन्या मान्या च योषिताम् ।।
पुरा दुर्वाससः शापाज्जन्म तस्या व्रजे गृहे ।।६५।।

तस्या गृहे जन्म लभ शीघ्रं नंदव्रजं व्रज ।।
त्वामहं बालरूपेण गृह्णामि कमलानने ।। ६६ ।।

त्वं मे प्राणाधिका राधे तव प्राणाधिकोऽप्यहम्।।
न किंचिदावयोर्भिन्नमेकांगं सर्वदैव हि ।।६७।।

श्रुत्वैवं राधिका तत्र रुरोद प्रेमविह्वला ।।
पपौ चक्षुश्चकोराभ्यां मुखचंद्रं हरेर्मुने ।।६८।।

जनुर्लभत गोपाश्च गोप्यश्च पृथिवीतले ।।
गोपानामुत्तमानां च मंदिरे मंदिरे शुभे ।।६९।।

अनुवाद - ६१-६९
• देवताओं ! मैं पृथ्वी पर जाऊंगा। अब तुम लोग भी अपने स्थान को पधारो और शीघ्र ही अपने अंश से भूतल पर अवतार लो।
• ऐसा कहकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने गोपों और गोपियों को बुलाकर मधुर, सत्य एवं समयोचित बातें कहीं-
गोपों और गोपियों ! सुनो। तुम सब के सब नंदराय जी का जो उत्कृष्ट ब्रज है वहां जाओ। (उस ब्रज में अवतार ग्रहण) करो। राधिके ! तुम भी शीघ्र ही वृषभानु के घर पधारो। वृषभानु की प्यारी पत्नी बड़ी साध्वी है। उनका नाम कलावती है। वे सुबल की पुत्री है। और लक्ष्मी के अंश से
प्रकट हुई है।
• यह सुनकर श्री राधा प्रेम से विह्वल होकर वहां रो पड़ी और अपनें नेत्रचकोरों द्वारा श्री हरि के मुख चंद्र की सौंदर्य सुधा का पान करने लगी।
पुनः भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - गोपों और गोपियों ! तुम भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो। ६१-६९

उवाच कमलां कृष्णः स्मेराननसरोरुहः ।।
त्वं गच्छ भीष्मकगृहं नानारत्नसमन्वितम् ।१२०।

वैदर्भ्या उदरे जन्म लभ देवि सना तनि ।।
तव पाणिं ग्रहीष्यामि गत्वाऽहं कुंडिनं सति।१२१।

ता देव्यः पार्वतीं दृष्ट्वा समुत्थाय त्वरान्विताः ।।
रत्नसिंहासने रम्ये वासयामासुरीश्वरीम् ।। १२२।।

विप्रेंद्र पार्वतीलक्ष्मीवागधिष्ठातृदेवताः ।।
तस्थुरेकासने तत्र संभाष्य च यथोचि तम् ।।१२३।।

ताश्च संभाषयामासुः संप्रीत्या गोपकन्यकाः ।।
ऊचुर्गोपालिकाः काश्चिन्मुदा तासां च संनिधौ ।। १२४ ।।

श्रीकृष्णः पार्वतीं तत्र समुवाच जगत्पतिः ।।
देवि त्वमंशरूपेण जन नंदव्रजे शुभे ।। १२५ ।।

उदरे च यशोदायाः कल्याणी नंदरेतसा ।।
लभ जन्म महामाये सृष्टिसंहारकारिणि ।। १२६ ।।

ग्रामे ग्रामे च पूजां ते कारयिष्यामि भूतले ।।
कृत्स्ने महीतले भक्त्या नगरेषु वनेषु च ।।१२७ ।।

तत्राधिष्ठातृदेवीं त्वां पूजयिष्यंति मानवाः ।।
द्रव्यैर्नानाविधैर्दिव्यैर्बलिभिश्च मुदाऽन्विताः ।।१२८।।

त्वद्भूमिस्पर्शमात्रेण सूतिकामंदिरे शिवे ।।
पिता मां तत्र संस्थाप्य त्वामादाय गमिष्यति।१२९।

कंसदर्शन मात्रेण गमिष्यसि शिवांतिकम् ।।
भारावतरणं कृत्वा गमिष्यामि स्वमाश्रमम् ।१३०।

अनुवाद- १२०-१३०
• इसके बाद भगवान श्री कृष्ण लक्ष्मी से बोले- सनातनी देवी तुम नाना रत्न से संपन्न भीष्मक के राज भवन में जाओ और वहां विदर्भ देश की महारानी के उधर से जन्म धारण करो। साध्वी देवी! मैं स्वयं कुण्डिनपुर में जाकर तुम्हारा पाणिग्रहण करुंगा।
• जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने वहां पार्वती( दुर्गा) से कहा-  सृष्टि और संहार करने वाली कल्याणमयी महामाया स्वरुपिणी देवी ! शुभे ! तुम अंशरूप से नंद के ब्रज में जाओ और वहां नंद के घर

यशोदा के गर्भ में जन्म धारण करो। मैं भूतलपर गांव गांव में तुम्हारी पूजा करवाऊंगा। समस्त भूमंडल में नगरों और वनों में मनुष्य वहां की अधिष्ठात्री देवी (विंध्यवासिनी ) के रूप में भक्ति भाव से तुम्हारी पूजा करेंगे और आनंदपूर्वक नाना प्रकार के द्रव्य तथा दिव्य उपहार तुम्हें अर्पित करेंगे। शिवे ! तुम ज्यों ही भूतल का स्पर्श करोगी, त्यों ही मेरे पिता वसुदेव यशोदा के सूतिकागार में जाकर मुझे वहां स्थापित कर देंगे और तुम्हें लेकर चले जाएंगे। कंस का साक्षात्कार होने मात्र से तुम पुनः शिव के समीप चली जाओगी और मैं भूतल का भार उतर कर अपने धाम में आऊंगा। १२०-१३०।
     
        उपर्युक्त  श्लोकों से स्पष्ट होता है कि गोपेश्वर श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के लिए अपने समस्त गोप- गोपियों के साथ भू-तल पर अवतरित होते हैं, और भूमि का भार उतारने के पश्चात पुनः गोप और गोपियों के साथ अपने धाम को चले जाते हैं। यहीं उनका सत्य सनातन नियम है।
 भूतल पर भगवान के साथ आए गोप और गोपियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सभी गोप अपार शक्ति सम्पन्न तथा सभी कार्यों में दक्ष होते हैं। और उसी हिसाब से ये सभी अपनी-अपनी योग्यताओं और क्षमताओं के हिसाब से भगवान श्री कृष्ण के निर्धारित कार्यों में लग जाते हैं। इसीलिए गोपों को भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं सहचर (साथी) कहा जाता है।
       चुंकि ये गोप भगवान श्रीकृष्ण के पार्षद होते हैं इसलिए ये दैवीय और मानवीय शाप, ताप से मुक्त होते हैं। इसके साथ ही ये गोप संपूर्ण ब्रह्मांड में अजेय एवं अपराजित हैं। इन्हें न कोई देवता न दानव न गंधर्व और नाही कोई मनुष्य पराजित कर सकता है। इस बात को भगवान श्री कृष्ण स्वयं- श्रीमद् भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध, अध्याय-(एक) के श्लोक संख्या- (४) में कहते हैं कि -
"नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत्कथञ्चिन्
मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम् ।
अन्तः कलिं यदुकुलस्य विधाय वेणु
स्तम्बस्य वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम ॥४॥

"व्याकरण मूलक शब्दार्थ व अन्वय विश्लेषण-
१- न एव अन्तः परिभवः अस्य=  नहीं किसी अन्य के द्वारा इस यदुवंश का परिभव ( पराजय/ विनाश) 
२- भवेत् =  हो सकता है ।
३- कथञ्चिद् =  किसी प्रकार भी।
४- मत्संश्रयस्य विभव = मेरे आश्रम में इसका वैभव है।
५- उन्नहनस्य  नित्यम् = यह सदैव बन्धनों से रहित है।
६- अन्तः कलिं यदुकुलस्य = आपस में ही लड़ने पर यदुवंश का नाश (शमन) होगा।
७- विधाय वेणु स्तम्बस्य वह्निमिव = जैसे बाँसों का समूह आपस में टकराकर घर्षण द्वारा उत्पन्न आग से शान्त हो जाता है।
८-उपैमि धाम= फिर मैं भी अपने गोलोकधाम को जाऊँगा।
॥४॥
अनुवाद:-
इसका ( यदुवंश का ) किसी के द्वारा किसी प्रकार भी नाश नहीं हो सकता है। (यह स्वयं कृष्ण उद्धव से कहते हैं।) फिर इसके विनाश में ऋषि -मुनि अथवा देवों की क्या शक्ति है ?
कृष्ण कहते हैं- यह यदुवंश मेरे आश्रित है एवं सभी बन्धनों से रहित है। अतः जैसे बाँसों का समूह आपस में टकराकर घर्षण द्वारा उत्पन्न आग से शान्त हो जाता है। उसी प्रकार इस यदुवंश में भी परस्पर कलह से ही इसका शमन (नाश) होगा। शांति स्थापित करने के उपरांत मैं अपने  गोलोक-धाम को जाऊंगा ॥४॥
    कहने का तात्पर्य यह है कि पृथ्वी पर धर्म स्थापना के उपरांत श्रीकृष्ण और उनके गोप-गोपियों का कार्य समाप्त हो जाता है। इसके बाद भगवान स्वयं तथा अपने समस्त गोप गोपियों के साथ गोलोक प्रस्थान की तैयारी में लग जाते हैं। इसके लिए सबसे पहले श्रीकृष्ण जो अजेय एवं अपराजित गोप हैं,  उनको आपस में ही युद्ध करा कर उनकी आत्मा को ग्रहण कर लेते हैं। क्योंकि यह  सर्वविदित है कि सशरीर कोई गोलोक में नहीं जा सकता। इसलिए उनकी आत्मा को लेने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण नें मौसल युद्ध की लीला रची और उस युद्ध में मारे गए वीर जांबाज यादव (गोपों) की आत्माओं को लेकर बाकी अन्य गोपों की आत्माओं को लेनें के लिए प्रभु दूसरी योजना बनाई। जिसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस अध्याय के भाग- (२) में किया गया है।

अध्याय- १२
[भाग २]✓✓✓

यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक गमन


          [भाग- २] - श्रीकृष्ण का गोलक गमन।

इसके पिछले भाग में बताया जा चुका है कि गोपों को संपूर्ण ब्रह्मांड में कोई पराजित नहीं कर सकता ना ही उनका कोई वध कर सकता और ना ही उन्हें कोई शापित कर सकता है। तब भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा से वे मौसल युद्ध में आपस में ही लड़कर नश्वर शरीर को त्याग देते हैं। तब भगवान श्रीकृष्ण उनकी शुद्ध आत्मा को गोलोक में ले जाने के लिए ग्रहण कर लेते हैं।
(ज्ञात हो- कोई भी सशरीर गोलोक में नहीं जा सकता)
           तत्पश्चात बाकी बचे हुए गोप और गोपियों के नश्वर शरीर से आत्मा लेने के लिए भगवान श्रीकृष्ण जो कुछ किया उसका वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्री कृष्ण जन्म  खंड के अध्याय-१२७ में मिलता है। जिसको संक्षेप में नीचे उद्धृत किया गया है।

              "नारायण उवाच
श्रीकृष्णश्च समाह्वानं गोपांश्चापि चकार सः।
भाण्डीरे   वटमूले  च   तत्र  स्वयमुवास  ह ।।१।।

पुराऽन्नं च ददौ तस्मै यत्रैव ब्राह्मणीगणः।
उवास राधिका देवी   वामपार्श्वे  हरेरपि ।।२।।

दक्षिणे नन्दगोपश्च   यशोदासहितस्तथा ।
तद्दक्षिणो वृषभानस्तद्वामे सा कलावती ।।३।।

अन्ये गोपाश्च गोप्यश्च बान्धवाः सुहृदस्तथा ।
तानुवाच स गोविन्दो यथार्थ्यं  समयोचितम्।।४।।

अनुवाद - १-४
श्री नारायण कहते हैं- नारद ! जहां पहले ब्राह्मण पत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्न दिया था ; उस भाण्डीर वट की छाया में श्री कृष्ण स्वयं विराजमान हुए और वहीं समस्त गोपों को बुलावा भेजा। श्रीहरि के वाम भाग में राधिका देवी, दक्षिण भाग में यशोदा सहित नन्द, और नंद के दाहिने वृषभानु और वृषभानु के बाएं कलावती तथा अन्यान्य गोप, गोपियाँ भाई- बंधु तथा मित्रों ने आसन ग्रहण किया। तब गोविंद ने उन सब से समयोचित यथार्थ वचन कहा। १-४

गोलोकं गच्छ शीघ्रं त्वं सार्धं गोकुलवासिभिः।
आरात्कलेरागमनं   कर्ममूलनिकृन्तनम् ।।११।।

अनुवाद- अब कर्म की जड़ काट देने वाले कलयुग का आगमन सन्निकट है अतः तुम सभी शीघ्र ही गोकुल वासियों के साथ गोलोक को चले जाओ । ११।

एतस्मिन्नन्तरे विप्र रथमेव मनोहरम् ।
चतुर्योजनविस्तीर्णमूर्ध्वे च पञ्चयोजनम् ।।३७।।

शुद्धस्फटिकसंकाशं रत्नेन्द्रसारनिर्मितम्।
अम्लानपारिजातानां मालाजालविराजितम्।।३८।।

मणीनां कौस्तुभानां च भूषणेन विभूषितम् ।
अमूल्यरत्नकलशं हीरहारविलम्बितम् ।।३९।।

मनोहरैः परिष्वक्तं सहस्रकोटिमन्दिरैः ।
सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।।४०।।

सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च गोपीकोटीभिरावृतम् ।
गोलोकादागतं तूर्णं ददृशुः सहसा व्रजे ।।४१।।

कृष्णाज्ञया तमारुह्य ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।
राधा कलावती देवीधन्या चायोनिसंभवा।।४२।।

गोलोकादगता गोप्यश्चायोनिसंभवाश्च ताः ।
श्रुतिपत्न्यश्च ताः सर्वाः स्वशरीरेण नारद।।४३।।

सर्वे त्यक्त्वा शरीराणि नश्वराणि सुनिश्चितम् ।
गोलोकं च ययौ राधा सार्घं गोकुलवासिभिः।।४४।

ददर्श विरजातीर्र नानारत्नविभूषितम् ।
तदुत्तीर्य ययौ विप्र शतशृङ्गं च पर्वतम् ।।४५।।

नानामणिगणाकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
ततो ययौ कियद्दूरं पुण्यं वृन्दावनं वनम्।।४६ ।।

सा ददर्शाक्षयवटमूर्ध्वे त्रिशतयोजनम् ।
शतयोजनविस्तीर्णं शाखाकोटिसमावृतम् ।।४७ ।।

रक्तवर्णैः फलौघैश्च स्थूलैरपि विभूषितम् ।
गोपीकोटिसहस्रैश्च सार्धं वृन्दा मनोहरा ।।४८ ।।

अनुव्रजं सादरं च सस्मिता सा समाययौ ।
अवरुङ्य रथात्तूर्णं राधां सा प्रणनाम च ।।४९ ।।

अनुवाद - ३७-४९
• इसी बीच वहां ब्रज में लोगों ने सहसा गोलोक से आए हुए एक मनोहर रथ को देखा। वह रथ चार योजन विस्तृत और पांच योजन ऊंचा था, बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से उसका निर्माण हुआ था।
• उसमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े उसका भार वहन कर रहे थे तथा उसपर सूक्ष्म वस्त्र का आवरण पड़ा हुआ था एवं वह करोड़ों गोपियों से सामवृत( घिरा हुआ) था।
• नारद! राधा और धन्यवाद की पात्रा कलावती देवी का जन्म किसी के गर्भ से नहीं हुआ था। यहां तक की गोलक से जितनी भी गोपियां आईं थीं, वह सभी आयोनिजा थीं। उनके रूप में श्रुति पत्नियां ही अपने शरीर से प्रकट हुई थीं। वे सभी श्रीकृष्ण की आज्ञा से अपने नश्वर शरीर का त्याग करके उस रथपर सवार हो उत्तम गोलोक को चली गईं। साथ ही राधा भी गोकुल वासियों के साथ गोलोक को प्रस्थित हुई। ३७-४९

       फिर इसके आगे की घटना का वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्री कृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय-(१२८) में मिलता है। जिसको संक्षेप में नीचे उद्धृत किया जा रहा है।

                 "नारायण उवाच
श्रीकृष्णो  भगवांस्तत्र    परिपूर्णतम: प्रभुः।
दृष्ट्वा सारोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम् ।। १।।

उवास पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके ।
ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा ।। २।

अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।
योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः ।। ३।

गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः


तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।। ४।

गोकुलस्थाश्च गोपाश्च समाश्वासं चकार सः ।
उवाच मधुरं वाक्यं हितं नीतं च दुर्लभम् ।। ५ ।

अनुवाद - १ से ५ तक
नारद! परिपूर्णतम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण वहां तत्काल ही गोकुल वासियों के सालोक्य मोक्ष को देखकर भाण्डीर वन में वट वृक्ष के नीचे पांच गोपों के साथ ठहर गए। वहां उन्होंने देखा कि सारा गोकुल तथा गो- समुदाय व्याकुल है।
रक्षकों के न रहने से वृंदावन शून्य तथा अस्त-व्यस्त हो गया है। तब उन कृपा सागर को दया आ गई। फिर तो उन्होंने योगधारणा द्वारा अमृत की वर्षा करके वृंदावन को मनोहर, सुरम्य और गोपों तथा गोपियों से व्रज को पुन: परिपूर्ण कर दिया (पुनः जीवित कर दिया)
साथ ही गोकुलवासी गोपों को ढाढस भी बंधाया।
तत्पश्चात वे हितकर नीतियुक्त दुर्लभ मधुर वचन बोले-

                    "श्री भगवानुवाच
हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव ।
रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।। ६ ।।

तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।
अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ७ ।।
अनुनाद - ६-७
• हे गोपगण ! हे बन्धो ! तुम लोग सुख का उपभोग करते हुए शांतिपूर्वक यहां निवास करो, क्योंकि प्रिया के साथ विहार सुरम्य रासमण्डल और वृंदावन नामक पूण्यवन में मुझ श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक रहेगा जब तक संसार में सूर्य और चंद्रमा की स्थिति रहेगी। ६-७।
विशेष:-  वर्तमान में जो गोप (अहीर) हैं वे सब गोलोकवासी गोपों के ही वंशज हैं।

                     "पार्वत्युवाच
एकाऽहं राधिकारूपा गोलोके रासमण्डले ।
रासशून्यं च गोलोकं परिपूर्ण कुरु प्रभो ।। ८६ ।।

गच्छ त्वं रथमारुह्य मुक्तामाणिक्यभूषितम् ।
परिबूर्णतमाऽहं च तव वङः स्थलस्थिता ।। ८७ ।।

पार्वतीवचनं श्रुत्वा प्रहस्य रसिकेश्वरः ।
रत्नयानं समारुह्य ययौ गोलोकमुत्तमम् ।। ९८ ।।

अनुवाद - ८६, ८७ और ९८
• वहां उपस्थित पार्वती ने कहा- प्रभो !  गोलोकस्थित रासमण्डल में मैं ही अपने एक राधिका रूप से रहती हूं। इस समय गोलोक रासशून्य हो गया है, अतः आप मुक्ता और माणिक्य से विभूषित रथ पर अरुण हो वहां जाइए और उसे परिपूर्ण कीजिए।८६-८७।

• नारद ! पार्वती के वचन सुनकर रसिकेश्वर रासधारी श्रीकृष्ण हंसे और रत्न-निर्मित विमानपर सवार हो उत्तम गोलोक को चले गए। ९८

▪️इसके अलावा भगवान श्रीकृष्ण को गोलोक जाने का वर्णन गर्गसंहिता के अश्वमेधखंड के अध्याय- (६०) में भी मिलता है। जिसको जाने बिना श्रीकृष्ण के गोलक गमन का प्रसंग अधूरा ही रह जाएगा। इसलिए उसको भी जानना आवश्यक है।

बलः शरीरं मानुष्यं त्यक्त्वा धाम जगाम ह ।
देवाँस्तत्रागतान्दृष्ट्वा हरिरंतरधीयत ॥ १३ ॥

व्रजे गत्वा हरिर्नंदं यशोदां राधिकां तथा ।
गोपान्गोपीर्मिलित्वाऽऽह प्रेम्णा प्रेमी प्रियान्स्वकान् ॥ १४।

अनुवाद - बलराम जी मानव शरीर को छोड़कर अपने धाम को चले गए। वहां देवताओं को आया देख श्रीकृष्ण अंतर्धान हो गए। ब्रज में जाकर श्रीहरि नन्द, यशोदा, राधिका तथा गोपियों सहित गोपों से मिले और उन प्रेमी भगवान ने अपने प्रिय जनों से प्रेम पूर्वक इस प्रकार कहा। १३-१४

      किंतु भगवान श्रीकृष्ण के अगले कथन को बताने से पहले यहां कुछ बताना चाहुंगा कि- देवताओं के आने पर गोपेश्वर श्रीकृष्ण क्यों अंतर्धान हो गए ?

तो उस समय गोपेश्वर श्रीकृष्ण तीन कारणों से देवताओं के आने पर अंतर्धान हो गए।
(१)- पहला कारण यह कि - गोलोक के आवागमन की अलौकिक घटनाक्रम में गोपों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्मिलित नहीं हो सकता। इस लिए भगवान श्रीकृष्ण वहां से अंतर्धान हो गये।
(२)- दूसरी कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण भूमि का भार दूर करने के लिए गोलोक से अपने गोप और गोपियों के साथ आते हैं और कार्य पूर्ण हो जाने पर भगवान उन्हीं गोप और गोपियों को लेकर पुनः गोलोक को चले जाते हैं। इस घटनाक्रम से देवताओं का कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए वहां पर देवताओं के आनें पर भगवान श्रीकृष्ण अंतर्धान हो गये।
(३)- तीसरी कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण सहित गोपों के इस आवागमन की धटना गुप्त एवं रहस्य पूर्ण है। इसे केवल गोप और गोपियां ही जानते हैं। और इस घटना को गोपेश्वर श्री कृष्ण सदैव गुप्त ही रखना चाहते हैं। इसीलिए गोपेश्वर श्री कृष्ण देवताओं के आने पर वहां से अंतर्धान हो गए।
      उपरोक्त तीनों कारणों से भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक गमन की वास्तविकता को गोपों के अतिरिक्त पूर्ण रूप से न तो देवता और न ही ऋषि-मुनी जानते हैं।
इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- ९४ के श्लोक- ८२ और ८३ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये ।८२।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।                                         
अनुवाद - ८२-८३
श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म

पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं।
•  ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८३।
                   
        इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -

गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो। ९।

        यहीं कारण है कि - पुराणों में भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक गमन के प्रसंग में श्रीकृष्ण को बहेलिए से मरवा कर गोलोक गमन की हास्यास्पद कथा लिखी गई है।
        
अब हम पुनः अपने मूल प्रसंग पर आते हैं- वहां उपस्थित नन्द आदि गोपों से भगवान कहे-
    
              "श्रीकृष्ण उवाच -
गच्छ नन्द यशोदे त्वं पुत्रबुद्धिं विहाय च ।
गोलोकं परमं धाम सार्धं गोकुलवासिभिः ॥ १५ ॥

अग्रे कलियुगो घोरश्चागमिष्यति दुःखदः ।
यस्मिन्वै पापिनो मर्त्या भविष्यंति न संशयः।१६।

स्त्रीपुंसोर्नियमो नास्ति वर्णानां च तथैव च ।
तस्माद्‌गच्छाशु मद्धाम जरामृत्युहरं परम् ॥१७ ॥

इति ब्रुवति श्रीकृष्णे रथं च परमाद्‌भुतम् ।
पञ्चयोजनविस्तीर्णं पञ्चयोजनमूर्ध्वगम् ॥ १८ ॥

वज्रनिर्मलसंकाशं मुक्तारत्‍नविभूषितम् ।
मन्दिरैर्नवलक्षैश्च दीपैर्मणिमयैर्युतम् ॥ १९ ॥

सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च सखीकोटिभिरावृतम्॥ २०॥

गोलोकादागतं गोपा ददृशुस्ते मुदान्विताः।
एतस्मिन्नन्तरे तत्र कृष्णदेहाद्विनिर्गतः।। २१ ।।

देवश्चचतुर्भजो राजन् कोटिमन्मथसन्निभः।
शंखचक्रधरः श्रीमाँल्लक्ष्म्या सार्धं जगत्पतिः ॥२२॥

क्षीरोदं प्रययौ शीघ्रं रथमारुह्य सुंदरम् ।
तथा च विष्णुरूपेण श्रीकृष्णो भगवान् हरिः ॥२३॥

अनुवाद - १५-२३
• श्री कृष्ण बोले - नंद और यशोदे ! अब तुम मुझमें पुत्र बुद्धि छोड़कर समस्त गोकुल वासियों के साथ मेरे परमधाम गोलोक को जाओ। क्योंकि अब आगे सबको दु:ख देने वाला घोर कलयुग आएगा, जिसमें मनुष्य प्राय: पापी हो जाएंगे इसमें संशय नहीं है। १५-१६
• श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि गोलोक से एक परम अद्भुत रथ उतर आया जिसे गोपों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ देखा। उसका विस्तार पांच योजन का था और ऊंचाई भी उतनी ही थी। वह बज्रमणि (हीरे) के समान निर्मित और मुक्ता - रत्नों से विभूषित था। उसमें नौ लाख मंदिर थे और उन घरों में मणिमय दीप जल रहे थे। उस रथ में दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े जुते हुए थे। उस रथपर महीन वस्त्र का पर्दा पड़ा था। करोड़ों सखियां उसे घेरे हुए थीं। १८- २०- १/२।

• राजन ! इसी समय श्री कृष्ण के शरीर से करोड़ों कामदेवों के समान सुंदर चारभुजा धारी विष्णु प्रकट हुए, जिन्होंने शंख और चक्र धारण कर रखे थे। वे जगदीशपुर श्रीमान विष्णु लक्ष्मी के साथ एक सुंदर रथ पर आरूढ़ हो शीघ्र ही क्षीरसागर को चल दिए। २१-२३,

लक्ष्म्या गरुडमारुह्य वैकुण्ठं प्रययौ नृप ।
ततो भूत्वा हरिः कृष्णो नरनारायणावृषी ॥२४ ॥

कल्याणार्थं नराणां च प्रययौ बद्रिकाश्रमम् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो राधया युतः ॥ २५ ॥

गोलोकादागतं यानमारुरोह जगत्पतिः ।
सर्वे गोपाश्च नन्दाद्या यशोदाद्या व्रजस्त्रियः ॥ २६।

त्यक्त्वा तत्र शरीराणि दिव्यदेहाश्च तेऽभवन् ।
स्थापयित्वा रथे दिव्ये नन्दादीन् भगवान् हरिः।।२७।

गोलोकं प्रययौ शीध्रं गोपालो गोकुलान्वितः।
ब्रह्माणडेभ्यो बहिर्गत्वा ददर्श विरजां नदीम्।। २८।

 अनुवाद - २४-२८
• इसी प्रकार नारायण रूपधारी भगवान श्रीकृष्ण हरि महालक्ष्मी के साथ गरुण पर बैठकर वैकुंठ धाम को चले गए। नरेश्वर ! इसके बाद श्रीकृष्ण हरि नर और नारायण दो ऋषियों के रूप में विभक्त हो मानव के कल्याणार्थ बद्री का आश्रम को चले गए तदनंतर साक्षात परिपूर्तम जगतपति भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ गोलोक से आए हुए रथ पर आरूढ़ हुए।
• नंद आदि समस्त गोप तथा यशोदा आदि व्रजांगनाएं सब के - सब वहां भौतिक शरीरों का त्याग करके दिव्यदेहधारी हो गए। तब गोपाल भगवान श्रीहरि नन्द आदि को उस दिव्य रथपर बिठाकर गोकुल के साथ ही शीघ्र गोलोक धाम को चले गए। ब्रह्मांडों से बाहर जाकर उन सब ने विरजा नदी को देखा साथ ही शेषनाग की गोद में महा लोक गोलोक दृष्टिगोचर हुआ, जो दुखों का नाशक तथा परम सुखदायक है। २३- २८. १/२

दृष्ट्वा रथात्समुत्तीर्य सार्धं गोकुलवासिभिः ॥२९॥

विवेश राधया कृष्णः पश्यन्न्यग्रोधमक्षयम् ।
शतशृङ्गं गिरिवरं तथा श्रीरासमण्डलम् ॥ ३० ॥

ततो ययौ कियद्‌दूरं श्रीमद्‌वृन्दावनं वनम् ।
वनैर्द्वादशभिर्युक्तं द्रुमैः कामदुघैर्वृतम् ॥ ३१ ॥

नद्या यमुनया युक्तं वसंतानिल

मंडितम् ।
पुष्पकुञ्जनिकुञ्जं च गोपीगोपजनैर्वृतम् ॥ ३२ ॥

तदा जयजयारावः श्रीगोलोके बभूव ह ।
शून्यीभूते पुरा धाम्नि श्रीकृष्णे च समागते ॥३३ ॥

अनुवाद - उसे देखकर गोकुल वासियों सहित श्रीकृष्ण उस रथ से उतर पड़े और श्रीराधा के साथ अक्षयवट का दर्शन करते हुए उस परमधाम में प्रविष्ट हुए।  गिरिवर सतश्रृंग तथा श्रीरासमंडल को देखते हुए वह कुछ दूर स्थित  वृन्दावन  में गए, जो बारह वनों से संयुक्त तथा कामपूरक वृक्षों से भरा हुआ था।
• यमुना नदी उसे छूकर बह रही थी। वसंत ऋतु और मलयानिल उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। वहां फूलों से भरे कितने ही कुंज और निकुंज थे। वह वन गोप और गोपियों से भरा हुआ था। जो पहले सूना- सा लगता था, उस गोलोक धाम में श्रीकृष्ण के पधारने से जय- जयकर की ध्वनि गूंज उठी। २९-३३।
   
ज्ञात हो कि - भगवान श्रीकृष्ण धर्मस्थापना हेतु भूतल पर- (१२५) वर्ष तक रहे। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध -१०, अध्याय- ६ के श्लोक- २५ से होती है। जिसमें ब्रह्मा जी भगवान श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-

यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरुषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पञ्चविञ्शाधिकं प्रभो।। २५
 अनुवाद - पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किया एक-सौ पच्चीस वर्ष बीत गए हैं।२५।

इसी प्रकार श्रीकृष्ण की आयु (भूतल पर रहने के समय) का प्रमाण ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय- (१२९) में भी मिलता हैं। जिसमें ब्रह्मा जी स्वयं श्रीकृष्ण से कहते हैं कि-

                     "ब्रह्मवाच-
" यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् ।
त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम् ।१८ ।।
 अनुवाद:-
ब्रह्मा जी बोले ! हे प्रभु ! इस पृथ्वी पर क्रीड़ा करते आपके एक सौ पच्चीस वर्ष बीत गये। विरह से आतुर रोती हुई पृथ्वी को छोड़कर अपने गोलोक धाम को पधार रहे हैं।१८।

           इस प्रकार से इस अध्याय के दोनों खण्डों के साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि- "जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही श्रीकृष्ण धर्म की पुनः स्थापना के लिए अपने समस्त गोप और गोपियों के साथ भूतलपर अवतरित होते हैं। और धर्म स्थापना के उपरांत पुनः गोप और गोपियों के साथ अपने धाम- गोलोक को चले जाते हैं। 

यही गोपेश्वर श्री कृष्ण का सत्य सनातन नियम है। इस कार्य में ना तो गांधारी के शाप की कोई भूमिका है और ना ही किसी ऋषि मुनि के शाप का सम्बन्ध है और नही भगवान श्रीकृष्ण को बहेलिया से मारे जाने की कोई सच्चाई है। यह सब भगवान श्री कृष्ण की पूर्व निर्धारित लीला का ही परिणाम है। इसमें शाप और आशीर्वाद को लाना भगवान श्रीकृष्ण की वास्तविक जानकारियों से लोगों को भ्रमित करना है।

         इसीलिए कहा जाता है कि जो भगवान श्रीकृष्ण और उनके गोपों के गोलोक जाने की "सत्य कथाओं" को सुनता है वह निश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त होता है।" बाकी भ्रामक एवं असत्य कथा कहने व सुनने वाले को कभी भी पापों से मुक्ति नहीं मिलती।
इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता के अश्वमेध खंड अध्याय- (७) के श्लोक संख्या- ४१ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

यः शृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः ।
मुक्तिं यदूनां गोपानां सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४१ ॥
अनुवाद:-
जो श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा यादव (गोपों) की मुक्ति का वृतांत पढ़ते हैं वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। ४१ ।

 किंतु यहां पर उन लोगों को जानकारी देना आवश्यक हो जाता है जो अक्सर कुछ अधूरी जानकारी रखते हैं। वे  कहा करते हैं कि- मौसल युद्ध में सम्पूर्ण यादवों का विनाश हो गया था।
किंतु ऐसा वे लोग कहते हैं जिनको इस बात की जानकारी नहीं है कि संपूर्ण यादवों का विनाश नहीं हुआ था। क्योंकि उस युद्ध के उपरांत  बहुत सी स्त्रियां, बच्चे और बूढ़े यादव
तथा भगवान श्री कृष्ण के पौत्र वज्रनाभ  बच गए थे।
 इन सभी बातों की पुष्टि-
श्रीविष्णु पुराण के पंचम अंश के अध्याय- (३७) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण दारूक से संदेश भिजवाते समय कहते हैं कि-

"दृष्ट्वा बलस्य निर्याणं दारुकं प्राह केशवः ।
इदं सर्वं   समाचक्ष्व  वसुदेवोग्रसेनयोः ।। ५७ ।

निर्याणं बलभद्र स्य यादवानां तथा क्षयम् ।
योगे स्थित्वाहमप्येतत्परित्यक्ष्ये कलेवरम् ।। ५८ ।

वाच्यश्च द्वारकावासी जनस्सर्वस्तथाहुकः ।
यथेमां नगरीं सर्वां समुद्र: ! प्लावयिष्यति ।। ५९ ।

तस्माद्भवद्भिस्सर्वैस्तु प्रतीक्ष्यो ह्यर्जुनागमः ।
न स्थेयं द्वारकामध्ये निष्क्रान्ते तत्र पाण्डवे ।। ६०।

तेनैव सह गन्तव्यं यत्र याति स कौरवः ।। ६१।

गत्वा च ब्रूहि कौन्तेयमर्जुनं वचनान्मम ।
पालनीयस्त्वया शक्त्या जनोऽयं मत्परिग्रहः।। ६२।

त्वमर्जुनेन सहितो द्वारवत्यां तथा जनम् ।
गृहीत्वा यादि वज्रश्च यदुराजो भविष्यति ।। ६३।


अनुवाद - ५७-६३
• इस प्रकार बलराम जी का प्रयाण( गोलोकगमन) देखकर श्रीकृष्णचंद्र ने 

सारथि दारूक से कहा- तुम यह सब वृतांत उग्रसेन और वसुदेव जी से जाकर कहो। ५७।

• बलभद्रजी का निर्याण, यादवों का क्षय और मैं भी योगस्थ होकर नश्वर शरीर को छोड़कर अपने धाम को जाऊंगा। यह सब समाचार भी वसुदेव जी और उग्रसेन को जाकर सुनाओ। ५८।

• संपूर्ण द्वारिका वासी और आहुक (उग्रसेन) से कहना कि अब इस संपूर्ण नगरी को समुद्र डुबो देगा।५९।
• इसलिए आप सब केवल अर्जुन के आगमन की प्रतिक्षा और करें तथा अर्जुन के यहां से लौटते ही फिर कोई भी व्यक्ति द्वारिका में न रहे, जहां वे कुंती नंदन जाए वही सब लोग चले जायं। ६०-६१।
कुंती पुत्र अर्जुन से तुम मेरी ओर से कहना कि- अपने सामर्थ्य अनुसार तुम मेरे परिवार के लोगों की रक्षा करना। ६२।
• और तुम द्वारिका वासी सभी लोगों को लेकर अर्जुन के साथ चले जाना। हमारे पीछे वज्रनाभ ही यदुवंश का राजा-होगा। ६३।

  ये तो रही बात मौसल युद्ध में कुछ खास बचे हुए यादवों की जिसमें भगवान श्री कृष्ण के पौत्र वज्रनाभ भी हैं। इसके अलावा भगवान श्रीकृष्ण  वृंदावन में समस्त गोप और गोपियों की मृत शरीर को पुनः जीवित कर दिया था वे सभी यादव ही थे।

"अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।
योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः ।। ३ ।।

गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः ।
तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।। ४ ।।
अनुवाद:-
उन्हें जीवित करने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने उनसे कहा-
हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव ।
रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।। ६ ।

तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।
अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ७ ।।
      ( ब्रह्मवैवर्तपुराण/ श्रीकृष्णजन्मखंड/१२८)
********
अनुवाद - हे गोपगण ! हे बन्धो ! तुम लोग सुख का उपभोग करते हुए शांतिपूर्वक यहां व्रज में     निवास करो, क्योंकि प्रिया के साथ विहार सुरम्य रासमण्डल और वृंदावन नामक पूण्यवन में श्रीकृष्ण का निरंतर निवास तब तक ही रहेगा जब तक सूर्य और चंद्रमा की स्थिति रहेगी। ६-७।

 अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता हैं कि- लाख ऋषि मुनियों और गांधारी के शाप के बावजूद भी  यदुवंश का अंत नहीं हो सका। और यहां पर यह भी सिद्ध हुआ कि- इस यदुवंश को श्राप के मकडजाल में फंसा कर यदुवंश के विनाश की झूठी कहानियां रची गई। हद तो तब हो गई जब  पौराणिक कथाकारों ने परमेश्वर श्रीकृष्ण को भी बहेलिए से मरवाकर उनकी परम् प्रभुता को छिन्न-भिन्न करने का अथक प्रयास किया है। किंतु ध्यान रहे ऐसे लोगों को परमप्रभु परमेश्वर कभी क्षमा नहीं करते जो झूठी कथा कहते हैं और लिखते हैं।
   
इस प्रकार से इस पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण व अन्तिमवां अध्याय अपने दोनों खण्डों में "श्रीकृष्ण सहित गोप-गोपियों के गोलक गमन" की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
          
इस पुस्तक के सभी प्रसंगों का विस्तृत वर्णन- "गोपेश्वर श्रीकृष्णस्य पञ्चंवर्णम्"  नामक ग्रंथ में किया गया है। विस्तृत जानकारी के लिए उस पुस्तक का भी अध्ययन अवश्य करें।
                      "जय श्रीकृष्ण ! 🙏

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