मंगलवार, 3 दिसंबर 2024
अध्याय-पञ्चम्)-"वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताएं। आत्मानन्द,,
(अध्याय-पञ्चम्)-
"वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताएं।
इस अध्याय में भगवान विष्णु के "वैष्णव वर्ण" तथा ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति के साथ-साथ दोनों वर्णों में प्रमुख अंतर और कुछ मूलभूत विशेषताओं के बारे में बताया गया है।
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:- वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति -:
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ज्ञात हो कि- "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति श्री कृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। जिसमें केवल गोप आते हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु (श्रीकृष्ण ) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है। ४३
इस संबंध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से ही बताई गई है-
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं। वैष्णव वर्ण को ही पञ्चंमवर्ण कहा जाता है। पञ्चंमवर्ण के गोपों की उत्पत्ति सर्वप्रथम गोलोक में स्वराट विष्णु अर्थात श्री कृष्ण के रोम कूपों से हुई है। इस बात को इसके पिछले अध्याय- (चार) में बताया जा चुका है। वहां से विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।
इसके आगे अब हमलोग जानेंगे कि ब्रह्मा जी के "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति कैसे हुई।
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-: ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति :-
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सर्वविदित है कि देवो के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति हुई। इस बात की पुष्टि -विष्णु पुराण के प्रथमांश के छठे अध्याय के श्लोक - (६) से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम ।
पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१/६/६।
अनुवाद:-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।।६।
फिर इसी आधार पर ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र) में विभाजित हो गई। इस बात की पुष्टि पद्मपुराण सृष्टिखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या-(१३०) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम। पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१३०।
अनुवाद- पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।१३०।
इस संबंध में अत्रि संहिता का (१४०) वां श्लोक भी यही सूचित करता है कि -
"जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते॥१४०
अनुवाद:- ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हाेने वाला जन्म से ही 'ब्राह्मण' कहलाता है। फिर उपनयन संस्कार हाे जाने पर वह 'द्विज' कहलाता है और विद्या प्राप्त कर लेने पर वही ब्राह्मण 'विप्र' कहलाता है। इन तीनाें नामाें से युक्त हुआ ब्राह्मण 'श्राेत्रिय' कहा जाता है।१४०।
(विशेष:- श्रुति ( वेद) के ज्ञाता ब्राह्मण ही श्रोत्रिय कहलाता है।)
ज्ञात हो ब्रह्मा जी के इन चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए हुई। इस बात की पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया। ७
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान विष्णु से वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति हुई वहीं दूसरी तरफ ब्रह्मा जी से चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति हुई। अब इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए।
अब ऐसे में उत्पत्ति विशेष के कारण दोनों वर्णों में प्रमुख रूप से (४) प्रकार के युगलान्तर (भेद) देखने को मिलता है। जिसको क्रमशः बिन्दुवार दर्शाया गया है।
[१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
[२] कर्मकाण्ड एवं भक्ति मूलक अन्तर।
[३] भेदभाव एवं समता मूलक अन्तर।
[४] देव यज्ञ मूलक और ईश्वर भक्ति मूलक अन्तर।
जिसमें चारों प्रकार के अंतरों का विस्तार पूर्वक वर्णन नीचे किया गया हैं -
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[१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर
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(क) "ब्राह्मी वर्णव्यवस्था जन्म गत है"
ज्ञात हो कि-चातुर्वर्ण्य व्यवस्था- ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना है, जिसमें जन्म के आधार पर वर्ण -विभाजन की एक सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है।
रूढ़िवादी पुरोहितों की मान्यता है कि पूर्वजन्म के पुण्य- पाप कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्रों के घर में जन्म मिलता है।
यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं तो ब्राह्मण के घर में जन्म मिलेगा और बुरे कर्म किए हैं तो शूद्र के घर में जन्म मिलेगा। कर्मों के अच्छे-बुरे अनुपात से ही व्यक्ति को कभी वैश्य तो कभी क्षत्रिय के घर में जन्म मिलता है। पर ये सिद्धान्त दोषपूर्ण है- क्यों कि जन्म से व्यक्ति की महानता का निश्चय नहीं होता मानव जाति में मनुष्य के व्यक्तित्व ( व्यक्ति के बाह्य और आन्तरिक गुणों) का निर्माण उसका परिवेश और माता - पिता के आनुवांशिक विशेषताएँ करती हैं। यह तो समाज में प्रत्यक्ष देखा जाता है। कि सभी ब्राह्मण जन्म से ही सात्विक प्रवृत्ति वाले और ईश्वर चिन्तक नहीं होते हैं। ब्राह्मणों में बहुतायत लोग तामसिक व राजसी प्रवृत्ति वाले होते हैं। इसी प्रकार स्वयं को परम्परागत रूप से क्षत्रिय कहने वाले लोगों की सन्तान भी वीर तथा साहसी नहीं होती वैश्य और शूद्रों के विषय में इसी प्रकार कहा जा सकता है। हर समाज में हर तरह के व्यक्ति पैदा होते हैं। दो चार व्यक्तियों से ही आप किसी समाज की प्रवृत्तियों का निर्धारण नहीं किया जा सकता।
दूसरी बात यह कि व्यक्ति की प्रवृत्तियों का निर्धारण निश्चय ही व्यक्ति की वृत्ति (व्यवसाय) एवं उसके कर्म से होते हैं न कि जन्म से। कुछ प्रवृत्तियों के निर्धारण माता- पिता के आनुवांशिक गुणों तथा कुछ का पूर्वजन्म के कर्म- संस्कारों से होता है। इस लिए यह कहना महती मूर्खता है कि पूर्व जन्म के पाप और पुण्य कर्मों के अनुसार व्यक्ति को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के घर में जन्म मिलता है।
(ख) वैष्णवर्ण व्यवस्था का आधार जन्मगत नहीं कर्मगत है।
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के विपरीत वैष्णव वर्ण में गुण' प्रवृति (स्वभाव) और कर्म के आधार पर ही वर्ण- विभाजन की सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। यही सत्य और विज्ञान सम्मत है। क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता एक वैष्णव ग्रन्थ है जिसमें वर्ण व्यवस्था को कर्म गत माना है जन्म गत नहीं। इसकी पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता 4.13 से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।
मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा( इच्छा) नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह कभी कर्मोंसे नहीं बँधता। 4/13।
"इच्छाओं से प्रेरित कर्म ही फलदायी होते हैं। और उन अच्छे - बुरे फलों को भोगने के लिए पुनर्जन्म होता है। और यह जन्म व्यक्ति की इच्छा मूलक प्रवृतियों के अनुरूप विभिन्न योनियों ( शरीरों) में होता है। यही इस संसार का सनातन नियम है। भक्ति ज्ञान और कर्म योग के मध्य की अवस्था है। यह सच्चे अर्थों में निष्काम कर्मयोग है । अर्थात् ईश्वर का ईश्वर को समर्पित कर्म- श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश है। इसके लिए नीचे श्लोक- देखें।
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
भावार्थ:-
भगवान कृष्ण कहते हैं ! तेरा कर्म में ही अधिकार है उसके फल में नहीं। अर्थात् ( कर्म मार्ग में ) कर्म करते हुए तेरा फल में कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा( इच्छा ) होगी तो तू कर्मफलप्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफलप्राप्तिका कारण तू मत बन।
क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना( इच्छा) से प्रेरित होकर कर्म करने में लगता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है।
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[२] कर्मकाण्ड एवं भक्ति मूलक अन्तर
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(क)- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था पूरी तरह से कर्मकाण्डों पर
आधारित है। जिसमें कर्मकाण्ड एवं यज्ञ का विधान ब्राह्मण प्रधान चारों वर्णों के लिए ही है। इस बात को पूर्व में बताया जा चुका है कि- चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। जिसकी पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।। ७।।
ब्राम्ही वर्ण व्यवस्था में भक्ती-भजन की अपेक्षा कर्मकांडों एवं यज्ञों का विशेष महत्व होता है। इनके कर्मकाण्डी यज्ञों में सर्वप्रथम पशु बलि का प्रावधान इन्द्र के द्वारा किए गए यज्ञों से ही प्रारंभ हुआ था। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण /अध्यायः १४३ के प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें ऋषियों ने इंद्र से पूछा कि -
सूत उवाच।
ऋषय ऊचुः !
कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।
पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः।१
अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।
कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा।।२
औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।
प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।।३
वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः।
संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।।४
एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्-
"सूत उवाच!
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।। ५
दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।।६
यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।।७
सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।।८
आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।।९
य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये।।१०
अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।।११
***
विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।
अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।।१२
अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।।१३
***
आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।
विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।।१४
अनुवाद- १ से १४
ऋषियों ने पूछ— सूतजी ! पूर्वकालमें स्वायम्भुवमनुके कार्य कालमें त्रेतायुगके प्रारम्भ में किस प्रकार यज्ञ की प्रवृत्ति हुई थी ?
जब कृतयुगके साथ उसकी संध्या (तथा संध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुगकी संधि प्राप्त हुई।
उस समय वृष्टि होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्ता वृत्ति की स्थापना हो गयी। उसके बाद वर्णाश्रमकी स्थापना करके परम्परागत आये हुए मन्त्रोंद्वारा पुनः संहिताओं को एकत्र कर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई?
हम लोगोंके प्रति इसका यथार्थरूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजीने कहा 'आपलोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये ॥1- 14॥
एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः।
एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।१५
**
उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।।
तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणम्।
जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते।।१६
ते तु खिन्ना विवादेन शक्त्या युक्ता महर्षयः।
सन्धाय सममिन्द्रेण पप्रच्छुः खचरं वसुम्।। १७
अनुवाद- १५-१७
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! विश्वभोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने ऐह लौकिक तथा पारलौकिक कमों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया। उनके उस अश्वमेध यज्ञके आरम्भ होने पर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए। उस यज्ञ-कर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रियाको आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्निमें अनेकों प्रकारके हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, सामगान करनेवाले देवगण विश्वासपूर्वक ऊँचे स्वरसे सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वरसे मन्त्रोंका उच्चारण कर रहे थे।
पशुओंका समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवोंका आवाहन हो चुका था। जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे और जो प्रत्येक कल्पके आदिमें उत्पन्न होनेवाले अजानदेव थे, देवगण उनका यजन कर रहे थे।
इसी बीच जब यजुर्वेदके अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलिका उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्रसे पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञकी यह कैसी विधि है ? आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषासे जो जीव-हिंसा करनेके लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है।
सुरश्रेष्ठ! आपके यज्ञमें पशु हिंसाकी यह नवीन विधि दीख रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसाके व्याजसे धर्मका विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं।
यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो वेदविहित धर्मका अनुष्ठान कीजिये।
सुरश्रेष्ठ! वेदविहित विधिके अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्मके पालनसे यज्ञके बीजभूत शिववर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है। इन्द्र ! पूर्वकालमें ब्रह्माने इसीको महान् यज्ञ बतलाया है।' तत्त्वदर्शी ऋषियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी विश्वभोक्ता इन्द्रने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान और मोह से भरे हुए थे।
फिर तो इन्द्र और उन महर्षियों के बीच 'स्थावरों या जङ्गमोंमेंसे किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बातको लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ ।
यद्यपि वे महर्षि शक्तिसम्पन्न थे, तथापि उन्होंने उस विवाद से खिन्न होकर इन्द्र के साथ संधि करके (उसके निर्णयार्थ ) उपरिचर (आकाशचारी राजर्षि) वसुसे प्रश्न किया।१५-१७
"ऋषय ऊचुः।
महाप्राज्ञ! त्वया द्रृष्टः कथं यज्ञविधिर्नृप।
औत्तानपादे प्रब्रूहि संशयं नस्तुद प्रभो!।।१८
अनुवाद- ऋषियों ने पूछा— उत्तानपाद-नन्दन नरेश ! आप तो सामर्थ्यशाली एवं महान् बुद्धिमान् हैं। आपने किस प्रकार की यज्ञ विधि देखी है, उसे बतलाइये और हम लोगोंका संशय दूर कीजिये ।१८
"सूत उवाच।
श्रुत्वा वाक्यं वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम्।वेदशास्त्रमनुस्मृत्य यज्ञतत्त्वमुवाच ह।।१९
यथोपनीतैर्यष्टव्यमिति होवाच पार्थिवः।
यष्टव्यं पशुभिर्मेध्यैरथ मूलफलैरपि।।२०
हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमः।
तथैते भविता मन्त्रा हिंसालिङ्गामहर्षिभिः।।२१
दीर्घेण तपसा युक्तैस्तारकादिनिदर्शिभिः।
तत्प्रमाणं मया चोक्तं तस्माच्छमितुमर्हथ।।२२
यदि प्रमाणं स्वान्येव मन्त्रवाक्यानि वो द्विजाः!।
तथा प्रवर्त्ततां यज्ञो ह्यन्यथा मानृतं वचः।।२३
एवं कृतोत्तरास्ते तु युञ्ज्यात्मानं ततो धिया।
अवश्यम्भाविनं द्रृष्ट्वा तमधोह्यशपंस्तदा।।२४
इत्युक्तमात्रो नृपतिः प्रविवेश रसातलम्।
ऊद्र्ध्वचारी नृपो भूत्वा रसातलचरोऽभवत्।।२५
वसुधातलचारी तु तेन वाक्येन सोऽभवत्।
धर्माणां संशयच्छेत्ता राजा वसुधरो गतः।।२६
अनुवाद- १९-२६
सूतजी कहते हैं। उन ऋषियोंका प्रश्न ! सुनकर महाराज वसु उचित - अनुचितका कुछ भी विचार न कर वेद-शास्त्रों का अनुस्मरण कर यज्ञतत्त्वका वर्णन करने लगे। उन्होंने कहा- 'शक्ति एवं समयानुसार प्राप्त हुए पदार्थों से यज्ञ करना चाहिये।
पवित्र पशुओं और मूल फलोंसे भी यज्ञ किया जा सकता है।
मेरे देखने में तो ऐसा लगता है कि हिंसा यज्ञका स्वभाव ही है। इसी प्रकार तारक आदि मन्त्रोंके ज्ञाता उग्रतपस्वी महर्षियोंने हिंसासूचक मन्त्रोंको उत्पन्न किया है।
उसीको प्रमाण मानकर मैंने ऐसी बात कही है, अतः आपलोग मुझे क्षमा कीजियेगा। द्विजवरो! यदि आप लोगों को वेदों के मन्त्रवाक्य प्रमाणभूत प्रतीत होते हों तो यही कीजिये, अन्यथा यदि आप वेद-वचनको झूठा मानते हों तो मत कीजिये।' वसु-द्वारा ऐसा उत्तर पाकर महर्षियनि अपनी बुद्धिसे विचार किया और अवश्यम्भावी विषयको जानकर राजा वसुको विमानसे नीचे गिर जानेका तथा पातालमें प्रविष्ट होनेका शाप दे दिया।
ऋषियोंकि ऐसा कहते ही राजा वसु रसातलमें चले गये। इस प्रकार जो राजा वसु एक दिन आकाशचारी थे, वे रसातलगामी हो गये। ऋषियोंके शापसे उन्हें पातालचारी होना पड़ा। धर्मविषयक संशयोंका निवारण करने वाले राजा वसु इस प्रकार अधोगतिको प्राप्त हुए।१९-२६
तस्मान्नवाच्यो ह्येकेन बहुज्ञेनापि संशयः।
बहुधारस्य धर्म्मस्य सूक्ष्मा दुरनुगागातिः।।२७
तस्मान्न निश्चयाद्वक्तुं धर्म्मः शक्तो हि केनचित्।देवानृषीनुपादाय स्वायम्भुवमृते मनुम्।।२८
तस्मान्न हिंसा यज्ञे स्याद्यदुक्तमृषिभिः पुरा।ऋषिकोटिसहस्राणि स्वैस्तपोभिर्दिवङ्गताः।।२९
तस्मान्न हिंसा यज्ञञ्च प्रशंसन्ति महर्षयः।
उञ्छो मूलं फलं शाकमुदपात्रे तपोधनाः।।३०
एतद्दत्वा विभवतः स्वर्गलोके प्रतिष्ठिताः।
अद्रोहश्चाप्यलोभश्च दमोभूतदया शमः।।३१
ब्रह्मचर्यं तपः शौचमनुक्रोशं क्षमा धृतिः।
सनातनस्य धर्म्मस्य मूलमेव दुरासदम्।।३२
द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।३३
ब्रह्मणः कर्म्मसंन्यासाद् वैराग्यात्प्रकृतेर्लयम्।
ज्ञानात् प्राप्नोति कैवल्यं पञ्चैता गतयः स्मृताः।।३४
अनुवाद- २७-३४
इसलिये बहुज्ञ (अत्यन्त विद्वान्) होते हुए भी अकेले किसी धार्मिक संशय का निर्णय नहीं करना चाहिये; -क्योंकि अनेक द्वार (मार्ग) वाले धर्मकी गति अत्यन्त सूक्ष्म और दुर्गम है। अतः देवताओं और ऋषियोंके साथ-साथ, स्वायम्भुव मनुके अतिरिक्त अन्य कोई भी अकेला व्यक्ति धर्म के विषयमें निश्चयपूर्वक निर्णय नहीं दे सकता। इसलिये पूर्वकालमें जैसा ऋषियोंने कहा है, उसके अनुसार यज्ञ में जीव- हिंसा नहीं होनी चाहिये।
हजारों करोड़ ऋषि अपने तपोबलसे स्वर्गलोकको गये हैं। इसी कारण महर्षिगण हिंसात्मक यज्ञकी प्रशंसा नहीं करते।
वे तपस्वी अपनी सम्पत्तिके अनुसार उच्छवृत्तिसे प्राप्त हुए अन्न, मूल, फल, शाक और कमण्डलु आदिका दान कर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित हुए हैं। ईर्ष्याहीनता, निर्लोभता, इन्द्रियनिग्रह, जीवोंपर दयाभाव, मानसिक स्थिरता, ब्रह्मचर्य, तप, पवित्रता, करुणा, क्षमा और धैर्य— ये सनातन धर्मके मूल ही हैं,
जो बड़ी कठिनता से प्राप्त किये जा सकते हैं। यज्ञ द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं और तपस्याकी सहायिका समता है। यज्ञोंसे देवताओंकी तथा तपस्यासे विराट् ब्रह्मकी प्राप्ति होती है।
कर्म (फल) का त्याग कर देनेसे ब्रह्म-पदकी प्राप्ति होती है, वैराग्यसे प्रकृतिमें लय होता है और ज्ञानसे कैवल्य (मोक्ष) सुलभ हो जाता है। इस प्रकार ये पाँच गतियाँ बतलायी गयी हैं। २७-३४
कृ प उ
एवं विवादः सुमहान् यज्ञस्यासीत् प्रवर्त्तते।
ऋषीणां देवतानाञ्च पूर्वे स्वायम्भुवेऽन्तरे।।३५
ततस्ते ऋषयो द्रृष्ट्वा हृतं धर्मं बलेन ते।
वसोर्वाक्यमनाद्रृत्य जग्मुस्ते वै यथागतम्।।३६
गतेषु ऋषिसङ्घेषु देवायज्ञमवाप्नुयुः।
श्रूयन्ते हि तपः सिद्धा ब्रह्मक्षत्रादयो नृपाः।।३७
प्रियव्रतोत्तानपादौ ध्रुवो मेधातिथिर्वसुः।
सुधामा विरजाश्चैव शङ्कपाद्राजसस्तथा।।३८
प्राचीनबर्हिः पर्ज्जन्यो हविर्धानादयो नृपाः।
एते चान्ये च बहवस्ते तपोभिर्दिवङ्गताः।।३९
राजर्षयो महात्मानो येषां कीर्त्तिः प्रतिष्ठिताः।तस्माद्विशिष्यते यज्ञात्तपः सर्वैस्तु कारणैः।।४०
ब्रह्मणा तपसा सृष्टं जगद्विश्वमिदं पुरा।
तस्मान्नाप्नोति तद्यज्ञात्तपो मूलमिदं स्मृतम्।।४१
यज्ञप्रवर्तनं ह्येवमासीत् स्वायम्भुवेऽन्तरे।
तदा प्रभृति यज्ञोऽयं युगैः सार्द्धं प्रवर्तितः।।४२
अनुवाद- ३५- ४२
पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञकी प्रथा प्रचलित होनेके अवसरपर देवताओं और ऋषियोंके बीच इस प्रकारका महान् विवाद हुआ था। तदनन्तर जब ऋषियोंने यह देखा कि यहाँ तो बलपूर्वक धर्मका विनाश किया जा रहा है, तब वसुके कथनकी उपेक्षा कर वे जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। उन ऋषियोंके चले जानेपर देवताओंने यज्ञकी सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं। इसके अतिरिक्त इस विषयमें ऐसा भी सुना जाता है कि बहुतेरे ब्राह्मण तथा क्षत्रियनरेश तपस्याके प्रभावसे ही सिद्धि प्राप्त की थी। प्रियव्रत उत्तानपाद, ध्रुव, मेधातिथि, वसु, सुभामा, विरजा, शङ्खपाद, राजस प्राचीनवर्हि, पर्जन्य और हविधान आदि नृपतिगण तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से नरेश तपोबलसे स्वर्गलोक को प्राप्त हुए हैं, जिन महात्मा
राजर्षियोंकी कीर्ति अबतक विद्यमान है अतः तपस्या सभी कारणों से सभी प्रकार यज्ञ से बढ़कर है।
पूर्वकालमें ब्रह्माने तपस्याके प्रभावसे ही इस सारे जगत्को सृष्टि की थी, अतः यज्ञ द्वारा वह बल नहीं प्राप्त हो सकता। उसकी प्राप्ति का मूल कारण तप ही कहा गया है। इस प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञ की प्रथा प्रारम्भ हुई थी। तबसे यह यज्ञ सभी युगों के साथ प्रवर्तित हुआ। ३५-४२
अतः मत्स्यपुराण के उपरोक्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है कि इंद्र के सारे यज्ञ पशु बलि पर ही आधारित थे। जो पशुपालकों के लिए बहुत बड़ी समस्या थी। इसी कारण से गोपालक भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी थी। क्योंकि इंद्र के यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती थी। इसके विकल्प में भगवान श्रीकृष्ण गोवर्धन पूजा का सूत्रपात किया और स्पष्ट रूप से उद्घोषणा किया कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों द्वारा देवों को प्रसन्न किया जाता हो ऐसी देव पूजा व्यर्थ है। क्योंकि भगवान की उपासना में प्रेम और अपनेपन की प्रधानता होती है किसी पूजन विधि या कर्मकाण्ड की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही या पाखण्ड ग्राही नहीं हैं। इस बात को निम्नलिखित तरीके से बताया गया है कि -
(ख) वैष्णव वर्णव्यवस्था- भक्तिमूलक है -
________
सोमवार, 2 दिसंबर 2024
"यज्ञ के प्रकार पशुबलि यज्ञ इन्द्र द्वारा और फल कन्द मूलक यज्ञ ऋषियों द्वारा प्रेरित-
"यज्ञ की प्रवृत्ति तथा विधि का वर्णन-
मत्स्यपुराण-अध्याय (143) -
उस समय वृष्टि होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्ता वृत्तिकी स्थापना हो गयी।३।
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! विश्वभोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्रने ऐहलौकिक तथा पारलौकिक कमोंमें मन्त्रोंको प्रयुक्तकर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया।५।
उनके उस अश्वमेध यज्ञके आरम्भ होनेपर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए।६।
उस यज्ञकर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकारके हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, ।७।
सामगान करनेवाले देवगण विश्वासपूर्वक ऊँचे स्वरसे सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वरसे मन्त्रोंका उच्चारण कर रहे थे।८।
पशुओंका समूह मण्डपके मध्यभागमें लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवोंका आवाहन हो चुका था।९।
जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे।और जो प्रत्येक कल्पके आदिमें उत्पन्न होनेवाले अजानदेव थे, देवगण उनका यजन कर रहे थे।१०।
इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नामके विश्वभोक्ता इन्द्रसे पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञकी यह कैसी विधि है? ।११।
आप धर्म-प्राप्तिकी अभिलाषासे जो जीव-हिंसा करनेके लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है। सुरश्रेष्ठ! आपके यज्ञमें पशु हिंसाकी यह नवीन विधि दीख रही है।१२।
ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसाके व्याजसे धर्मका विनाश करनेके लिये अधर्म करनेपर तुले हुए हैं। यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो आगम विधि से धर्मका अनुष्ठान कीजिये। १३।
सुरश्रेष्ठ! वेदविहित विधिके अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्मके पालनसे यज्ञके बीजभूत शिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है।१४।
इन्द्र ! पूर्वकालमें ब्रह्माने इसीको महान् यज्ञ बतलाया है।' तत्त्वदर्शी ऋषियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी विश्वभोक्ता इन्द्रने उनकी बातोंको अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान और मोहसे भरे हुए थे।१५।
फिर तो इन्द्र और उन महर्षियोंके बीच 'स्थावरों या जङ्गमोंमेंसे किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बातको लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ ।१६।
यद्यपि वे महर्षि शक्तिसम्पन्न थे, तथापि उन्होंने उस विवादसे खिन्न होकर इन्द्रके साथ संधि करके (उसके निर्णयार्थ ) उपरिचर (आकाशचारी राजर्षि) वसुसे प्रश्न किया।१७।
ऋषियोंने पूछा— उत्तानपाद-नन्दन नरेश! आप तो सामर्थ्यशाली एवं महान् बुद्धिमान् हैं। आपने किस प्रकारकी यज्ञ विधि देखो है, उसे बतलाइये और हम लोगोंका संशय दूर कीजिये।१८।
सूतजी कहते हैं। उन ऋषियोंका प्रश्न | सुनकर महाराज वसु उचित - अनुचितका कुछ भी विचार न कर वेद-शास्त्रोंका अनुस्मरण कर यज्ञतत्त्वका वर्णन करने लगे।१९।
उन्होंने कहा- 'शक्ति एवं समयानुसार प्राप्त हुए पदार्थों से यज्ञ करना चाहिये। पवित्र पशुओं और मूल फलोंसे भी यज्ञ किया जा सकता है।२०।
तथैते भविता मन्त्रा हिंसालिङ्गामहर्षिभिः।। 143.21 ।।
मेरे देखने में तो ऐसा लगता है कि हिंसा यज्ञका स्वभाव ही है। इसी प्रकार तारक आदि मन्त्रोंके ज्ञाता उग्रतपस्वी महर्षियों ने हिंसासूचक मन्त्रोंको उत्पन्न किया है।२१।
दीर्घ तपस्या के द्वारा पाप्त युक्ति से उसीको प्रमाण मानकर मैंने ऐसी बात कही है, अतः आपलोग मुझे क्षमा कीजियेगा। २२।***
द्विजवरो! यदि आप लोगोंको वेदोंके मन्त्रवाक्य प्रमाणभूत प्रतीत होते हों तो यही कीजिये, अन्यथा यदि आप वेद-वचनको झूठा मानते हों तो मत कीजिये।'२३।
वसु द्वारा ऐसा उत्तर पाकर महर्षियनि अपनी बुद्धिसे विचार किया और अवश्यम्भावी विषयको जानकर राजा वसुको विमानसे नीचे गिर जानेका तथा पातालमें प्रविष्ट होनेका शाप दे दिया।२४।
ऋषियोंकि ऐसा कहते ही राजा वसु रसातलमें चले गये। इस प्रकार जो राजा वसु एक दिन आकाशचारी थे, वे रसातलगामी हो गये।२५।
ऋषियोंके शापसे उन्हें पातालचारी होना पड़ा। धर्मविषयक संशयोंका निवारण करनेवाले राजा वसु इस प्रकार अधोगतिको प्राप्त हुए । २६ ॥
अतः देवताओं और ऋषियोंके साथ-साथ, स्वायम्भुव मनुके अतिरिक्त अन्य कोई भी अकेला व्यक्ति धर्मके विषयमें निश्चयपूर्वक निर्णय नहीं दे सकता।२८।
इसलिये पूर्वकालमें जैसा ऋषियोंने कहा है, उसके अनुसार यज्ञ में जीव- हिंसा नहीं होनी चाहिये। हजारों करोड़ ऋषि अपने तपोबलसे स्वर्गलोकको गये हैं।२९।
इसी कारण महर्षिगण हिंसात्मक यज्ञकी प्रशंसा नहीं करते। वे तपस्वी अपनी सम्पत्तिके अनुसार उच्छवृत्तिसे प्राप्त हुए अन्न, मूल, फल, शाक और कमण्डलु आदिका दान कर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित हुए हैं।३०।
ईर्ष्याहीनता, निर्लोभता, इन्द्रियनिग्रह, जीवोंपर दयाभाव, मानसिक स्थिरता,।३१।
ब्रह्मचर्य, तप, पवित्रता, करुणा, क्षमा| और धैर्य— ये सनातन धर्म के मूल ही हैं,जो बड़ी कठिनता से प्राप्त किये जा सकते हैं।३२।
यज्ञ द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं और तपस्याकी सहायिका समता है। यज्ञों से देवताओं की तथा तपस्या से विराट् ब्रह्म(परमेश्वर )की प्राप्ति होती है।३३।**
कर्म (फल) का त्याग कर देनेसे ब्रह्म-पदकी प्राप्ति होती है, वैराग्यसे प्रकृतिमें लय होता है और ज्ञानसे कैवल्य (मोक्ष) सुलभ हो जाता है। इस प्रकार ये पाँच गतियाँ बतलायी गयी हैं।३४।
पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञकी प्रथा प्रचलित होनेके अवसरपर देवताओं और ऋषियोंके बीच इस प्रकारका महान् विवाद हुआ था।३५।
तदनन्तर जब ऋषियोंने यह देखा कि यहाँ तो बलपूर्वक धर्मका विनाश किया जा रहा है, तब वसुके कथनकी उपेक्षा कर वे जैसे आये थे, वैसे ही चले गये।३६।
उन ऋषियोंके चले जानेपर देवताओंने यज्ञकी सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं। इसके अतिरिक्त इस विषयमें ऐसा भी सुना जाता है कि बहुतेरे ब्राह्मण तथा क्षत्रियनरेश तपस्याके प्रभावसे ही सिद्धि प्राप्त की थी।३७।
प्रियव्रत उत्तानपाद, ध्रुव, मेधातिथि, वसु, सुभामा, विरजा, शङ्खपाद, राजस।३८।
प्राचीनवर्हि, पर्जन्य और हविधान आदि नृपतिगण तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से नरेश तपोबलसे स्वर्गलोकको प्राप्त हुए हैं।३९।
जिन महात्मा राजर्षियोंकी कीर्ति अबतक विद्यमान है अतः तपस्या सभी कारणोंसे सभी प्रकार यज्ञसे बढ़कर है।४०।
पूर्वकालमें ब्रह्माने तपस्याके प्रभावसे ही इस सारे जगत्को सृष्टि की थी, अतः यद्वारा वह बल नहीं प्राप्त हो सकता। उसकी प्राप्तिका मूल कारण तपही कहा गया है।४१।
हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमः
"यज्ञ की प्रवृत्ति तथा विधि का वर्णन-
मत्स्यपुराण-अध्याय (143) -
उस समय वृष्टि होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्ता वृत्ति( Marketing) की स्थापना हो गयी।३।
उसके बाद वर्णाश्रम की स्थापना करके परम्परागत आये हुए मन्त्रों द्वारा पुनः संहिताओं को एकत्रकर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई? हमलोगों के प्रति इसका यथार्थरूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजी ने कहा 'आप लोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये।४।
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! विश्वभोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने ऐहलौकिक तथा पारलौकिक कमों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया।५।
उनके उस अश्वमेध यज्ञके आरम्भ होनेपर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए।६।
उस यज्ञकर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकारके हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे।७।
सामगान करने वाले देवगण विश्वासपूर्वक ऊँचे स्वर ( उदात्त- स्वर) से सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वर से मन्त्रोंका उच्चारण कर रहे थे।८।
पशुओं का समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवों का आवाहन हो चुका था।९।
जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभाग के भोक्ता थे। और जो प्रत्येक कल्प के आदि में उत्पन्न होनेवाले देव थे, देवगण उनका यजन कर रहे थे।१०।
इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञ की यह कैसी विधि है ?।११।
आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषा से जो जीव-हिंसा करने के लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है। सुरश्रेष्ठ ! आपके यज्ञ में पशु हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है।१२।
ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसा के व्याज से धर्मका विनाश करनेके लिये अधर्म करनेपर तुले हुए हैं। यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो आगम( पुराण) विधि से धर्म का अनुष्ठान कीजिये। १३।
सुरश्रेष्ठ ! शास्त्र-विहित विधिके अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्मके पालनसे यज्ञके बीजभूत शिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है।१४।
इन्द्र ! पूर्वकालमें ब्रह्मा ने इसी को महान् यज्ञ बतलाया है।' तत्त्वदर्शी ऋषियों द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी विश्वभोक्ता इन्द्रने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान और मोहसे भरे हुए थे।१५।
फिर तो इन्द्र और उन महर्षियों के बीच 'स्थावरों या जङ्गमोंमेंसे किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बातको लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ ।१६।
यद्यपि वे महर्षि शक्तिसम्पन्न थे, तथापि उन्होंने उस विवाद से खिन्न होकर इन्द्र के साथ संधि करके (उसके निर्णयार्थ ) उपरिचर (आकाशचारी राजर्षि) वसु से प्रश्न किया।१७।
ऋषियों ने पूछा— उत्तानपाद-नन्दन नरेश ! आप तो सामर्थ्यशाली एवं महान् बुद्धिमान् हैं। आपने किस प्रकार की यज्ञ विधि देखी है, उसे बतलाइये और हम लोगों का संशय दूर कीजिये।१८।
सूतजी कहते हैं! उन ऋषियों का प्रश्न ! सुनकर महाराज वसु उचित - अनुचितका कुछ भी विचार न कर वेद-शास्त्रोंका अनुस्मरण कर यज्ञतत्त्वका वर्णन करने लगे।१९।
उन्होंने कहा- 'शक्ति एवं समयानुसार प्राप्त हुए पदार्थों से यज्ञ करना चाहिये। पवित्र पशुओं और मूल फलों से भी यज्ञ किया जा सकता है।२०।
मेरे देखने में तो ऐसा लगता है कि हिंसा यज्ञ का स्वभाव ही है। इसी प्रकार तारक आदि मन्त्रोंके ज्ञाता उग्रतपस्वी महर्षियों ने हिंसासूचक मन्त्रों को उत्पन्न किया है।२१।
दीर्घ तपस्या के द्वारा प्राप्त युक्ति से उसीको प्रमाण मानकर मैंने ऐसी बात कही है, अतः आपलोग मुझे क्षमा कीजियेगा। २२।***
द्विजवरो ! यदि आप लोगों को वेदों के मन्त्रवाक्य प्रमाणभूत प्रतीत होते हों तो यही कीजिये, अन्यथा यदि आप वेद-वचनको झूठा मानते हों तो मत कीजिये।'२३।
वसु द्वारा ऐसा उत्तर पाकर महर्षि ने अपनी बुद्धि से विचार किया और अवश्यम्भावी विषय को जानकर राजा वसु को विमानसे नीचे गिर जाने का तथा पातालमें प्रविष्ट होनेका शाप दे दिया।२४।
ऋषियों कि ऐसा कहते ही राजा वसु रसातलमें चले गये। इस प्रकार जो राजा वसु एक दिन आकाशचारी थे, वे रसातलगामी हो गये।२५।
ऋषियों के शाप से उन्हें पातालचारी होना पड़ा। धर्मविषयक संशयोंका निवारण करनेवाले राजा वसु इस प्रकार अधोगतिको प्राप्त हुए ।२६ ॥
अतः देवताओं और ऋषियोंके साथ-साथ, स्वायम्भुव मनुके अतिरिक्त अन्य कोई भी अकेला व्यक्ति धर्मके विषयमें निश्चयपूर्वक निर्णय नहीं दे सकता।२८।
इसलिये पूर्वकाल में जैसा ऋषियों ने कहा है, उसके अनुसार यज्ञ में जीव- हिंसा नहीं होनी चाहिये। हजारों करोड़ ऋषि अपने तपोबलसे स्वर्गलोकको गये हैं।२९।
इसी कारण महर्षिगण हिंसात्मक यज्ञ की प्रशंसा नहीं करते। वे तपस्वी अपनी सम्पत्तिके अनुसार उच्छवृत्तिसे प्राप्त हुए अन्न, मूल, फल, शाक और कमण्डलु आदिका दान कर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित हुए हैं।३०।
ईर्ष्याहीनता, निर्लोभता, इन्द्रियनिग्रह, जीवोंपर दयाभाव, मानसिक स्थिरता,।३१।
ब्रह्मचर्य, तप, पवित्रता, करुणा, क्षमा| और धैर्य— ये सनातन धर्म के मूल ही हैं,जो बड़ी कठिनता से प्राप्त किये जा सकते हैं।३२।
यज्ञ द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं और तपस्या की सहायिका समता है। यज्ञों से देवताओं की तथा तपस्या से विराट् ब्रह्म (परमेश्वर )की प्राप्ति होती है।३३।**
कर्म (फल) का त्याग कर देने से ब्रह्म-पद की प्राप्ति होती है, वैराग्य से प्रकृति में लय होता है और ज्ञान से कैवल्य (मोक्ष) सुलभ हो जाता है। इस प्रकार ये पाँच गतियाँ बतलायी गयी हैं।३४।
पूर्वकाल में स्वायम्भुव मन्वन्तर में यज्ञ की प्रथा प्रचलित होने के अवसरपर देवताओं और ऋषियोंके बीच इस प्रकारका महान् विवाद हुआ था।३५।
तदनन्तर जब ऋषियोंने यह देखा कि यहाँ तो बलपूर्वक धर्म का विनाश किया जा रहा है, तब वसु के कथन की उपेक्षा कर वे ऋषिगण जैसे आये थे, वैसे ही चले गये।३६।
उन ऋषियों के चले जाने पर देवताओं ने यज्ञकी सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं। इसके अतिरिक्त इस विषयमें ऐसा भी सुना जाता है कि बहुतेरे ब्राह्मण तथा क्षत्रिय नरेश तपस्या के प्रभाव से ही सिद्धि प्राप्त की थी।३७।
प्रियव्रत उत्तानपाद, ध्रुव, मेधातिथि, वसु, सुभामा, विरजा, शङ्खपाद, राजस।३८।
प्राचीनवर्हि, पर्जन्य और हविधान आदि नृपतिगण तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से नरेश तपोबलसे स्वर्गलोकको प्राप्त हुए हैं।३९।
जिन महात्मा राजर्षियोंकी कीर्ति अबतक विद्यमान है अतः तपस्या सभी कारणोंसे सभी प्रकार यज्ञसे बढ़कर है।४०।
पूर्वकालमें ब्रह्माने तपस्याके प्रभावसे ही इस सारे जगत्को सृष्टि की थी, अतः यद्वारा वह बल नहीं प्राप्त हो सकता। उसकी प्राप्तिका मूल कारण तपही कहा गया है।४१।
श्रीमद्भागवत् में (४।२५।७।८ में) एक यज्ञ के विषय में लिखा है कि हे राजन्! तेरे यज्ञ में जो हज़ारों पशु मारे गये हैं तेरी उस क्रूरता का स्मरण करते हुए क्रोधित होकर तीक्ष्ण हथियारों से तुझे काटने को बैठे हैं।
भागवत पुराण - स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति - अध्याय 25: राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन - श्लोक 7
श्लोक
4.25.7
नारद उवाच
भो भो: प्रजापते राजन् पशून् पश्य त्वयाध्वरे
संज्ञापिताञ्जीवसङ्घान्निर्घृणेन सहस्रश:॥७।
शब्दार्थ:-
नारद: उवाच—नारद मुनि ने उत्तर दिया; भो: भो:—हे, अरे; प्रजा-पते—हे प्रजा के शासक; राजन्—हे राजा; पशून्—पशुओं को; पश्य—देखो; त्वया—तुम्हारे द्वारा; अध्वरे—यज्ञ में; संज्ञापितान्—मारे गये; जीव-सङ्घान्—पशु समूह; निर्घृणेन— निर्दयतापूर्वक; सहस्रश:—हजारों ।.
अनुवाद:-नारद मुनि ने कहा : हे प्रजापति, हे राजन्, तुमने यज्ञस्थल में जिन पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध किया है, उन्हें आकाश में देखो।
तात्पर्य:-चूँकि वेदों में पशु-यज्ञ की संस्तुति है, अत: समस्त धार्मिक अनुष्ठानों में पशुबलि दी जाती है। किन्तु शास्त्रों में दी गई विधि से पशुबलि करके संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। मनुष्य को इन अनुष्ठानों से ऊपर उठकर वास्तविक सत्य—जीवन लक्ष्य—जानने का प्रयत्न करना चाहिए।
श्लोक 7: नारद मुनि ने कहा : हे प्रजापति, हे राजन्, तुमने यज्ञस्थल में जिन पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध किया है, उन्हें आकाश में देखो।
भागवत पुराण » स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति » अध्याय 25: राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन » श्लोक 8
श्लोक
4.25.8
एते त्वां सम्प्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तव
सम्परेतम् अय:कूटैश्छिन्दन्त्युत्थितमन्यव:॥ ८॥
शब्दार्थ
एते—ये सब; त्वाम्—तुम्हारी; सम्प्रतीक्षन्ते—प्रतीक्षा कर रहे हैं; स्मरन्त:—स्मरण करते हुए; वैशसम्—पीड़ा; तव—तुम्हारी; सम्परेतम्—मृत्यु के पश्चात्; अय:—लोहे के; कूटै:—सींगों से; छिन्दन्ति—छेदेंगे; उत्थित—जागृत; मन्यव:—क्रोध ।.
अनुवाद:-ये सारे पशु तुम्हारे मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिससे वे उन पर किये गये आघातों का बदला ले सकें। तुम्हारी मृत्यु के बाद वे अत्यन्त क्रोधपूर्वक तुम्हारे शरीर को लोहे के अपने सींगों से बेध डालेंगे।
रविवार, 1 दिसंबर 2024
शर्मा शब्द की व्युत्पत्ति तथा वैदिक अर्थ-
"शर्मा शब्द का वैदिक इतिहास-
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- "शर्मा और वर्मा आदि सहचर शब्दों का प्राचीनतम रूप हम्हें ऋग्वेद में मिलता है; जिनमें इन शब्दों का मूल अर्थ भी दृष्टिगोचर होता है।
"शर्मा शब्द की उत्पत्ति-- शर्मा शब्द शर्मन् - शब्द का प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप है।
- ऋग्वेद की एक और अन्य ऋचा में शर्मन् शब्द का प्रयोग यज्ञों में पशु को काटकर ( मारकर) हवन करने वाले के अर्थ में हुआ है ।
- "इन्द्र मरुत्व इह पाहि सोमं यथा शार्याते अपिबः सुतस्य ।
तव प्रणीती तव शूर शर्मन्-ना
विवासन्ति कवयः सुयज्ञाः ॥७॥
अनुवाद-
हे इन्द्र , तुम भी यहाँ मरुतों सहित इस उत्सव में सोम का पान करो , जैसे तुमने शर्यातिपुत्र के अर्घ्य का पान किया था। ; तुम्हारे यज्ञ का संस्करण करने वाले पुरोहित तुम्हारे लिए पशुओं का वध करने वाले( शूर) शर्मन- अपनी सुन्दर यज्ञों में अनेक ऋचाऐ (स्तुतियाँ) बुनते हैं।७।
- ऋग्वेदः - मण्डल ३- सूक्त- ५१ ऋचा- ७)
_________________________________
वे + सन् - वेञ् तन्तुसन्ताने भ्वादिः कर्तरि प्रयोगः लट् लकारः परस्मै पदम् 'अन्य पुरुष बहुवचन रूप -विवासन्ति= बुनने की इच्छा करते हैं।
उपर्युक्त ऋचा में शर्मन् शूर शब्द भी परस्पर अर्थ सम्पूरक है।
धातुपाठ- में शूर् धातु हिंसा करना" बध करना आदि अर्थ में है। शूर शब्द - लौकिक संस्कृत में भी हिंसक और घातक के अर्थ में प्रचलित है।
माधवीयधातुवृत्ति, धातु-प्रदीप- और क्षीरतरंगिणी तथा पाणिनीय धातुपाठ में भी शूर्-धातु का अर्थ वध करना ही है।
शूरी{ शूर्) =हिंसा,स्तम्भनयोः
- दिवो वराहमरुषं कपर्दिनं त्वेषं रूपं नमसा नि ह्वयामहे ।
हस्ते बिभ्रद्भेषजा वार्याणि शर्म वर्म च्छर्दिरस्मभ्यं यंसत् ॥५॥ —(ऋग्वेदः १/११४/५)
अनुवाद:-"
उस अरुण रंग के देव वराह रूप कपर्दिन ( जटाधारी) का नम्रता पूर्वक हम आह्वान करते हैं, जो हाथ में भय से उत्पन्न सभी दुर्बलताओं का निवारण करने वाले शस्त्र (शर्मन्) और (वर्मन्)कवच और शरीर को आच्छादित करने वाली ढाल धारण किए हुए है। वह वराह रूप कपर्दिन इन सब (शस्त्र और कवच) को हम्हें प्रदान करते हुए हम्हें अपने कवच से भी आच्छादित करे ।।(ऋ०१/११४/५)
उपर्युक्त ऋचा में शर्म( शर्मन्) शब्द शस्त्र के अर्थ में है।
वैदिक काल में इन्द्र के यज्ञ में पशुओं का वध करने वाला पुरोहित शर्मन् कहलाता था। और इन्द्र सभी यज्ञ पशुओं के वध से सम्पन्न होते थे।
- "उक्षणो हि मे पञ्चदशं साकं पचन्ति विशतिम्।
उत्ताहंमदिम् पीवं इदुभा कुक्षी प्रणन्ति मे विश्वस्मांदिन्द्र ।।
ऋग्वेद 10-/86-/14
[ इंद्र कहते हैं- मेरे याजक पुरोहित मेरे लिए पंद्रह (और) बीस बैल तैयार करते हैं; मैं उन्हें खाता हूं और मोटा हो जाता हूं, वे मेरे पेट के दोनों तरफ कोख में भरते हैं; इंद्र सारी (दुनिया) से ऊपर हैं।
सायण - का भाष्य भी उपर्युक्त ऋचा का यही पशुबलि मूलक अर्थ करता है।
- अथेन्द्रो ब्रवीति = तत्पश्चात इन्द्र कहता है। “मे= मदर्थं ( = मेरे लिए )“पञ्चदश= पञ्चदशसंख्याकान्= पन्द्रह “विंशतिं= बींस। विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः =वृषभान् = बैलों को "साकं= सह = साथ । मम भार्ययेन्द्राण्या = मेरी पत्नी के साथ प्रेरिता =यष्टारः= यज्ञकर्ता । "पचन्ति = पकाते हैं। “उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि= । और मैं अग्नि के द्वारा उसका भक्षण करता हूँ। जग्ध्वा चाहं "पीव इत स्थूल एव भवामीति शेषः । =और उन्हें खाकर मैं पीव( मोटा )“ और स्थूल होता हूँ। किञ्च "मे मम “उभा उभौ “कुक्षी “पृणन्ति = मेरी दोनों कोखें भरती हैं। सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । और याजक सोम का पान कराते हैं। सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः॥ वह मैं इन्द्र सबसे श्रेष्ठ हूँ।
अर्थ :- इंद्र ने कहा - मेरे लिए यज्ञ करने वाले मेरे याजक पुरोहित मेरे लिए 15 - 20 बैल मारकर पकाते हैं वह खाकर मैं पुष्ट (मोटा) होता हूँ। वे मेरे पेट की दोनों कोख सोम ( सुरा) से भी भरते हैं)
- भारोपीय वर्ग की कैन्टम( शतम्) परिवार की भाषाओं में है। प्राप्त oxen- उक्षण- वृषभ का ही वाचक है।
- Ox (बॉल) is the oldest word in the Indo-European language - as -
- 1-Middle English -oxe,2- Old English -oxa "ox" (plural oxan) 3-Proto-Germanic *ukhson 4- Old Norse- oxi, 5-Old Frisian -oxa,6-Middle Dutch- osse, 7-Old High German- ohso,8-German- Ochse, 9-Gothic -auhsa),10-Welsh -ych "ox,11-Middle Irish- oss "stag," 12-Sanskrit -uksa, (उक्ष:) 13-Avestan uxshan- "ox, bull"),
उक्षा मिमाति प्रति यन्ति धेनवः”( ऋ० ९, ६९, ४)। बैल चिल्लाते हैं; गायें निकट जाती हैं:
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वहीं यास्क के निघण्टु के अनुसार शर्मन् को घर ( शरणस्थल) के अर्थ में प्रयोग करते हैं।
वैदिक काल में इन्द्र के यज्ञ में पशुओं की बलि चढ़ाने वाले पुरोहित को शर्मन् ( शृ= हिंसायां+मनिन् कृदन्त प्रत्यय) कहा जाता था।
सम्पूर्ण धातुपाठ में शृ -धातु का एक ही अर्थ है।- कत्ल करना।
विदित हो कि सभी शब्दों का निर्माण धातुओं ( क्रिया मूल) से होता है। ये शब्द धातु कहलाते हैं। पाणिनीय धातुपाठ में लगभग (2200) मूल धातुऐं शामिल हैं जिन्हें द्वितीयक मूलों के विपरीत प्राथमिक मूल कहा जा सकता है। सभी धातुऐं प्राय द्विवर्ण मूलक हैं।
शृ- धातु का एक ही अर्थ हिंसा करना है।
जिससे शर्मन् शब्द बना है।
प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप शर्मा- हुआ।
कृष्ण देव पूजा अथवा यज्ञ मूलक कर्मकाण्डों के विरोधी थे क्योंकि देव- यज्ञ के लिए पशु हिंसा अनिवार्य पूरक क्रिया थी ।
कृष्ण ने ही सर्वप्रथम इन्द्र के पशुहिंसा मूलक यज्ञों को बन्द कराया।
परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि यज्ञों में बलि के नाम पर पशुओं की निर्ममता पूर्वक हत्या लोक कल्याण में नहीं थी।
- ततःप्रभृति लोकेषु यज्ञादौ पशुहिंसनम् ।।बभूव सत्ये तु युगे धर्म आसीत्सनातनः ।। 2.9.9.३० ।।
अनुवाद:उसके बाद, यज्ञ (बलि) और अन्य (धार्मिक) अवसरों पर जानवरों की हत्या को बढ़ावा मिला। केवल सत्य ( कृत ) युग में ही शाश्वत धर्म प्रचलित था।३०।
- कालेन महता सोपि सह देवैः सुराधिपः ।। आराध्य सम्पदं प्राप वासुदेवं प्रभुं मुने ।३१।
अनुवाद-हे ऋषि, लंबे समय के बाद, देवों के स्वामी इंद्र ने देवताओं के साथ मिलकर भगवान वासुदेव को प्रसन्न किया और उनकी समृद्धि पुनः प्राप्त की।३१।
- ततो धर्मनिकेतस्य श्रीपतेः कृपया हरेः। यथापूर्वं च सद्धर्मस्त्रिलोक्यां संप्रवर्त्तत ।३२।
अनुवाद-:तब श्री के भगवान और धर्म के आसन (शरण) हरि की कृपा से, वास्तविक धर्म तीनों लोकों में फैल गया।३२।
- तत्रापि केचिन्मुनयो नृपा देवाश्च मानुषाः ।कामक्रोधरसास्वादलोभोपहतसद्धियः । तमापद्धर्ममद्यापि प्राधान्येनैव मन्वते ।३३।
अनुवाद-:फिर भी कुछ देवता, ऋषि और पुरुष हैं जिनके अच्छे दिमाग काम, क्रोध, लालच और (मांसाहार) स्वाद से प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं, जो आपपद-धर्म (अर्थात संकट के समय में स्वीकार्य प्रथाओं) को प्रमुख धर्म मानते हैं । ३३।
- एकान्तिनो भागवता जितकामादयस्तु ये ।आपद्यपि न तेऽगृह्णंस्तं तदा किमुताऽन्यदा।३४।
अनुवाद:-भगवान के भक्त, जिन्होंने अपनी भावनाओं पर विजय पा ली है, और जो पूरी तरह से भगवान के प्रति समर्पित हैं, दबाव में भी उन्हें (उन प्रथाओं को) नहीं अपनाते हैं। अन्य अवसरों का तो कहना ही क्या! ।३४।
- इत्थं ब्रह्मन्नादिकल्पे हिंस्रयज्ञप्रवर्त्तनम् ।यथासीत्तन्मयाख्यातमापत्कालवशाद्भुवि ।३५।
"अनुवाद:इस प्रकार, हे ब्राह्मण, मैंने तुम्हें बताया है कि पहले कल्प में, हिंसा (हिंसा) से युक्त यज्ञ कैसे प्रचलित हुए।३५।
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- “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है –
- या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे।अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ। योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।। (५.४४-४५)
"शर्मान्तं ब्राह्मणस्य वर्मान्तं क्षत्रियस्य गुप्तान्तं वैश्यस्य भृत्यदासान्तं शूद्रस्य दासान्तमेव वा ।९। -
( बौधायनगृह्यसूत्रम् गृह्यशेषः प्रथमप्रश्ने एकादशोऽध्यायः)
ब्राह्मण के नाम का शर्मा से अन्त, क्षत्रिय नाम का वर्मा से अन्त , वैश्य के नाम का गुप्त से अन्त, शूद्र के नाम का दास से अन्त हो !
शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता च भूभुजः । भूतिर्गुप्तश्च वैश्यस्य दासः शूद्रस्य कारयेत्।।
देव तथा शर्मा विप्र के नामान्त; वर्मा त्राता तथा भूमि के रक्षकों के; भूति, तथा गुप्त वैश्य के तथा दास शूद्र के नाम के अन्त में हो !
इसीलिए भगवान-देव-संस्कृति के विद्रोही पुरुष थे।
उन्होंने वन, पशु और पर्वतों को अपना उपास्य स्वीकार किया।
इसी लिए उनके चरित्र-उपक्रमों में इन्द्र -पूजा का विरोध परिलक्षित होता है ।👇
इसीलिए कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अदेव विशेषण से सम्बोधित भी किया गया है।
जिसका अर्थ है-( देवों को न मानने वाला )
श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं इस बात के प्रमाण के लिए कि "कृष्ण
देव विषयक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं।
कारण यही था कि यज्ञ के नाम पर निर्दोष जीवों की हत्या होती थी।
श्रीमद्भागवतम्
भागवत पुराण स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास अध्याय 5: नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन श्लोक 13
श्लोक 11.5.13 भागवत पुराण
"यद् घ्राणभक्षो विहित: सुराया-
स्तथा पशोरालभनं न हिंसा।
एवं व्यवाय: प्रजया न रत्या
इमं विशुद्धं न विदु: स्वधर्मम् ॥१३॥
शब्दार्थ:- यत्—चूँकि; घ्राण—सूँघ कर; भक्ष:—खाओ; विहित:—वैध है; सुराया:—मदिरा का; तथा—उसी तरह; पशो:—बलि पशु का; आलभनम्—विहित वध; न—नहीं; हिंसा— हिंसा;वध एवम्—इसी प्रकार से; व्यवाय:—यौन; प्रजया—सन्तान उत्पन्न करने के लिए; न—नहीं; रत्यै—इन्द्रिय-भोग के लिए; इमम्—यह (जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है); विशुद्धम्—अत्यन्त शुद्ध; न विदु:—वे नहीं समझ पाते; स्व-धर्मम्—अपने उचित कर्तव्य को ।.
अनुवाद:- वैदिक आदेशों के अनुसार, जब यज्ञोत्सवों में सुरा प्रदान की जाती है, तो उसको पीकर नहीं अपितु सूँघ कर उपभोग किया जाता है। इसी प्रकार यज्ञों में पशु-बलि की अनुमति है, किन्तु व्यापक पशु-हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है। धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तु विवाहोपरान्त सन्तान उत्पन्न करने के लिए, शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं।
किन्तु दुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकतावादी जन यह नहीं समझ पाते कि जीवन में उनके सारे कर्तव्य नितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए।
भागवत पुराण का उपर्युक्त श्लोक यद्यपि कृष्ण के हिंसा वरोधी मत को अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं है। और देवयजन ( यज्ञ)के नाम पर हिंसामूलक यज्ञ का विरोध न करके उससे बचने का तो रास्ता बता रहा है।
परन्तु यह उपर्युक्त कथन मौलिक रूप से कृष्ण का नहीं हैं। अपितु किसी देवयज्ञवादी ने इसे बड़ी चतुराई से भागवत में जोड़ दिया है।
परन्तु कृष्ण देव पूजा के इसी हिंसामूलक उपक्रम के कारण विरोधी भी थे।
तात्पर्य:- पशु-यज्ञ के सम्बन्ध में मध्वाचार्य ने भी देव पूजा का पक्ष बड़ी सहजता से लिया है। उन्होंने निम्नलिखित कथन दिया है—
- "यज्ञेष्वालभनं प्रोक्तं देवतोद्देशत: पशो:।
हिंसानाम तदन्यत्र तस्मात् तां नाचरेद् बुध:॥
यतो यज्ञे मृता ऊर्ध्वं यान्ति देवे च पैतृके।
अतो लाभादालभनं स्वर्गस्य न तु मारणम्॥
भावार्थ:-
इस कथन के अनुसार कभी कभी किसी देवता विशेष की तुष्टि के लिए पशु-यज्ञ करने की पुरोहित संस्तुति करते हैं।
किन्तु यदि कोई व्यक्ति वैदिक नियमों का दृढ़ता से पालन न करते हुए अंधाधुंध पशु-वध करता है, तो ऐसा वध वास्तविक हिंसा है।
आखिर रूढ़िवादी परम्पराओं का भी निर्वहन करना क्या बुद्धि मानी है ? जिसमें जीवों की हत्या के विधान हों।
और इस हिंसामूलक यज्ञों को आज किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।
इन्द्रोपासक पुरोहितों की मान्यता है। कि
"यदि पशु-यज्ञ सही ढंग से सम्पन्न किया जाता है, तो बलि किया गया पशु तुरन्त देवलोक तथा पितृलोक को चला जाता है।
इसलिए ऐसा यज्ञ पशुओं का वध नहीं है, अपितु वैदिक मंत्रों की शक्ति-प्रदर्शन के लिए होता है, जिसकी शक्ति से बलि किया हुआ पशु, तुरन्त उच्च लोकों को प्राप्त होता है।
किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने इस युग में ऐसे पशु-यज्ञ का पूर्ण निषेध किया है,
क्योंकि मंत्रों का उच्चारण करने वाले योग्य ब्राह्मणों का अभाव है और तथाकथित यज्ञशाला सामान्य कसाई-घर का रूप धारण कर लेती है।
इसके पूर्व के युग में जब पाखण्डी लोग वैदिक यज्ञों का गलत अर्थ लगाकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि पशु-वध तथा मांसाहार वैध है, तब विचारणीय प्रश्न यह है कि मुसलमान भी कुरबानी अथवा हलाल कुरान का कलमा पढकर ही करते हैं ।
क्या ईश्वर कुरबानी का भूखा है? अथवा देवता माँस भक्षी हैं क्या?
यद्यपि कृष्ण ने यज्ञ के नाम पर पशु वध का पूर्ण निषेध करते हुए ही देव यज्ञ को बन्द करा दिया था।
अधिकतर यज्ञों में पशुबध अनिवार्य था।
इसी लिए इस बध को बन्द करने के लिए स्वयं भगवान् बुद्ध ने अवतार लिया और उनकी घृणित उक्ति को अस्वीकार किया।
- इसका वर्णन गीत गोविन्द कार जयदेव ने किया है—
"निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।
केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे॥ - अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।
अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी क्यों कि यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।
कृष्ण का समय द्वापर युग का अन्तिम चरण और कलियुग का प्रारम्भिक चरण का मध्य है। अत: कलि युग के लिए विधान - निर्देश कृष्ण ने किया"
- "समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके।अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले ।६१।
अनुवाद:- ★-
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि में भूतल पर कृष्ण ने अन्नकूट का विधान किया।61।
विशेष:- अन्नकूट-एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है । उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं। यह त्यौहार कृष्ण द्वारा वैदिक हिंसा पूर्ण यज्ञों के विरोध में स्थापित किया गया विधान था। - "देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रतिदुःखितः ।
वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् । प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।
अनुवाद:-★
कृष्ण द्वारा स्थापित इस अन्नकूट उत्सव से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण के लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२। - तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्यचागता।६३।
अनुवाद:- ★
तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।
तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्। नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४। - अनुवाद:- ★
तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।
राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।
अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।
अनुवाद:-★
वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं। वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।
वे ही सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।
इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।
शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।
अनुवाद:- ★
यह सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।६६।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।
इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ-★
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विचार विश्लेषण-
इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है।
जिसके साक्ष्य जहाँ -तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।
जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रही था और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।
तब ऐसे समय कृष्ण ने सर्वप्रथम इन अन्ध रूढ़ियों का खण्डन व विरोध किया।
पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञों को समस्त गोप-यादव समाज में रोककर निषिद्ध दिया था।
पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित भी किया ही है। भले ही रूपक-विधेय कोई भी हो-
जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है।
कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों द्वारा देवों को प्रसन्न किया जाता हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है।
कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश के बहाने से रूढ़िवादी देवोपासक पुरोहितों के मन्तव्य को हंसकर कहा जिसका आरोपण चैतन्य के रूप में हुआ है:- कि कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है ।
वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।
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यज्ञ से यद्यपि ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती
यज्ञ केवल देवपूजा की प्रक्रिया है ।
यह देव पूजा के विधान कि सांकेतिक परम्परा मात्र बन रह गयी है।
श्रीमद्भगवत् गीता पाँचवीं सदी में रचित ग्रन्थ में जिसकी कुछ प्रकाशन भी है ।
यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है।
अब कृष्ण जिस वस्तुत का समर्थन करते हैं
मनुःस्मृति उसका विरोध करती है ।
क्योंकि मनुस्मृति ब्राह्मण वादी व्यवस्था का पोषक व समर्थक है।
"प्राचीन काल में यज्ञ की अवधारणा -
"यज्ञ का अर्थ और सांस्कृतिक विधान"
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"यज्ञ" प्राचीन भारतीय देव संस्कृति के आराधकों का एक प्रसिद्ध वैदिक कृत्य था जिसमें वे विभिन्न आयोजनों पर प्रायः देवों को लक्ष्य करके हवन किया करते थे।
यज्ञ देवसंस्कृति के आराधकों की उस अवधारणा का प्रारूप है। जब वे शीत प्रदेशों में जीवन यापन के उपरान्त शीत-प्रभाव को कम करने के लिए नित्य-नैमित्तिक अग्नि को ईश्वरीय रूप में मान कर उसकी उपासना और सानिध्य प्राप्त करते हुए उसका यजन किया करते थे।
यह अग्नि ही भारतीयों का प्रारम्भिक और अग्रदेव है। यही सृष्टि में सर्वप्रथम उत्पन्न होकर आगे चला और सबका नेता बना । संस्कृत कोशकारों नें अग्नि शब्द की उत्पत्ति अनेक प्रकार से उसके भौतिक गुणों और प्रवृत्तियों को दृष्टि गत करके ही की हैं।
"अङ्गति ऊर्द्ध्वं गच्छति अगि--नि नलोपः " = जो नित्य ऊपर को गमन करता है।।
यूरोपीय भाषाओं में अग्नि शब्द सांस्कृतिक रूपों में विद्यमान है।
- लैटिन में इग्निस = (igneous) ओल्ड चर्च और स्लॉवोनिक भाषाओं में ऑग्नि= (ogni,) और रूसी परिवार की लिथुआनियन भाषा में ugnis= (उगनिस) रूप में यह शब्द विद्यमान है।
भारतीयों में अग्नि की महा उपासना आज भी प्रचलित है।
"ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ॥ (ऋग्वेद१/१/१)
अनुवाद:- यज्ञ के पुरोहित, दीप्तिमान्, देवों का आह्वान करने वाले ऋत्विक् और रत्नधारण करने वाले अग्नि की मैं स्तुति करता हूँ।
यज्ञ तत्पर्य्यायः । सवः २ अध्वरः ३ यागः ४ सप्त- तन्तुः ५ मखः ६ क्रतुः ७ । अमरकोश(।२।७।१३)
८ इष्टिः इष्टम् ९ वितानम् १० मन्युः ११ आहवः १२ सवनम् १३ हवः १४ अभिषवः १५ होमः १६ हवनम् १७ महः १८ । इति शब्दरत्नावली ॥
यज्ञः शब्द के पर्याय वाची अथवा समानार्थी शब्द निम्नलिखित हैं।
समानार्थक:१-यज्ञ,२-सव,३-अध्वर,४--याग,५-सप्ततन्तु,६-मख,७-क्रतु,८-इष्टि,९-वितान,१०-स्तोम,११-मन्यु,१२-संस्तर,१३-स्वरु,१४-सत्र,१५-हव-2।7।13।2।1
उपज्ञा ज्ञानमाद्यं स्याज्ज्ञात्वारम्भ उपक्रमः। यज्ञः सवोऽध्वरो यागः सप्ततन्तुर्मखः क्रतुः॥
अवयव : यज्ञस्थानम्,यागादौ_हूयमानकाष्ठम्,यागे_यजमानः,हविर्गेहपूर्वभागे_निर्मितप्रकोष्टः,यागार्थं_ संस्कृतभूमिः,अरणिः,यागवेदिकायाम्_दक्षिणभागे_स्थिताग्निः,अग्निसमिन्धने_प्रयुक्ता_ऋक्, हव्यपाकः,अग्निसंरक्षणाय_ रचितमृगत्वचव्यजनम्,स्रुवादियज्ञपात्राणि, यज्ञपात्रम्,क्रतावभिमन्त्रितपशुः, यज्ञार्थं_पशुहननम्,यज्ञहतपशुः,हविः,अवभृतस्नानम्,क्रतुद्रव्यादिः,यज्ञकर्मः,पूर्तकर्मः,यज्ञशेषः,भोजनशेषः,सोमलताकण्डनम्,अघमर्षणमन्त्रः,
यज्ञोपवीतम्,विपरीतधृतयज्ञोपवीतम्,कण्डलम्बितयज्ञोपवीतम्,यज्ञे_स्तावकद्विजावस्थानभूमिः,यज्ञियतरोः_शाखा,यूपखण्डः
स्वामी : यागे_यजमानः
सम्बन्धित : यूपकटकः,अग्निसमिन्धने_प्रयुक्ता_ऋक्,हव्यपाकः,अग्निसंरक्षणाय_रचितमृगत्वचव्यजनम्,दधिमिशृतघृतम्,क्षीरान्नम्,देवान्नम्,पित्रन्नम्,यज्ञपात्रम्,क्रतावभिमन्त्रितपशुः,यज्ञार्थं_पशुहननम्,यज्ञहतपशुः,हविः,अग्नावर्पितम्,अवभृतस्नानम्,क्रतुद्रव्यादिः,पूर्तकर्मः,यज्ञशेषः,दानम्,अर्घ्यार्थजलम्
वृत्तिवान् : यजनशीलः
: ब्रह्मयज्ञः, देवयज्ञः, मनुष्ययज्ञः, पितृयज्ञः, भूतयज्ञः, दर्शयागः, पौर्णमासयागः पदार्थ-विभागः : , क्रिया
- विशेष—प्राचीन भारतीय देव संस्कृतियों के आराधकों नें यह प्रथा प्रचलित थी कि जब उनके यहाँ जन्म, विवाह या इसी प्रकार का और कोई आयोजन समारंभ होता था, अथवा जब वे किसी मृतक की अंत्येष्टि क्रिया या "पितरों का श्राद्ध आदि करते थे, तब ऋग्वेद के कुछ सूक्तों और अथर्ववेद के मत्रों के द्वारा अनेक प्रकार की प्रार्थनाएँ करते थे।
इसी प्रकार पशुओं का पालन करनेवाले अपने पशुओं की वृद्धि के लिये तथा कृषक लोग अपनी उपज बढ़ाने के लिये अनेक प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान समारंभ करके स्तुति आदि करते थे।
इन अवसरों पर अनेक प्रकार के हवन आदि भी होते थे, जिन्हें उन दिनों 'गृह्यकर्म [सं० गृह्यकर्मन्] गृहस्थ के लिये विहित कर्म, संस्कारादि कहते थे।
इन्हीं गृह्यकर्म से आगे विकसित होकर यज्ञों का रूप प्राप्त किया। पहले इन यज्ञों में घर का मालिक या यज्ञकर्ता, यज्ञमान होने के अतिरिक्त यज्ञपुरोहित भी हुआ करता था।
और प्रायः अपनी सहायता के लिये एक आचार्य, जो '{ब्राह्मण'= मन्त्र-वक्ता} कहलाता था, नियुक्त कर लिया जाता था। इन यज्ञों की आहुति घर के यज्ञकुंड में ही होती थी। इसके अतिरिक्त कुछ धनवान् या राजा ऐसे भी होते थे, जो बड़े ब़ड़े यज्ञ किया करते थे।
जैसे,— वैदिक देवता इंद्र की प्रसन्न करने के लिये सोमयाग किया जाता था। धीरे -धीरे इन यज्ञों के लिये अनेक प्रकार के नियम अथवा विधान पारित होने लगे; और पीछे से उन्हीं नियमों के अनुसार भिन्न भिन्न यज्ञों के लिये भिन्न भिन्न प्रकार की यज्ञभूमियाँ और उनमें पवित्र अग्नि स्थापित करने के लिये अनेक प्रकार के यजकुण्ड बनाये जाने लगे।
ऐस यज्ञों में प्रायः चार मुख्य ऋत्विज हुआ करते थे, जिनकी अधीनता में और भी अनेक ऋत्विज् काम करते थे।
आगे चलकर जब यज्ञ करनेवाले यज्ञमान का काम केवल दक्षिणा बाँटना ही रह गया, तब यज्ञ संबंधी अनेक कृत्य करने के लिये और लोगों की नियुक्ति होने लगी।
१-होता-
मुख्य चार ऋत्विजों में पहला 'होता' नाम से जाना जाता था और वह देवताओं की प्रार्थना करके उन्हें यज्ञ में आने के लिये आह्वान करता था।
२-उद्गाता-
दूसरा ऋत्विज् 'उद्गाता' कहलाता था। जो यज्ञकुंड़ में सोम की आहुति देने के समय़ सामागान करता था।
३-अध्वर्यु-
तीसरा ऋत्विज् 'अध्वर्यु' या यज्ञ करनेवाला होता था; और वह स्वयं अपने मुँह से गद्य मंत्र पढ़ता तथा अपने हाथ से यज्ञ के सब कृत्य करता था।
४-ब्रह्मा-
चौथे ऋत्विज् 'ब्रह्मा' अथवा महापुरोहित कहलाता था जो सब प्रकार के विघ्नों से यज्ञ की रक्षा करनी पड़नी था;
और इसके लिये उसे यज्ञुकुंड़ की दक्षिणा दिशा में स्थान दिया जाता था; क्योकि वही यम की दिशा मानी जाती थी।
और उसी ओर से असुर लोग आया करते थे। इसे इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता था कि कोई किसी मंत्र का अशुद्ध उच्चारण न करे।
इसी लिये 'ब्रह्मा' का तीनों वेदों ऋगवेद- यजुर्वेद और सामवेद - का ज्ञाता होना भी आवश्यक था। जब यज्ञों का प्रचार बहुत बढ़ गया, तब उनके संबंध में अनेक शास्त्र बन गए, और वे शास्त्र 'ब्राह्मण' तथा 'श्रौत सूत्र' कहलाए।
इसी कारण लोग यज्ञों को 'श्रौतकर्म' भी कहने लगे।
इसी के अनुसार यज्ञ अपनी मूल गृह्यकर्म धारा से अलग हो गए, जो केवल स्मरण के आधार पर होते थे। फिर इन गृह्यकर्मों के प्रतिपादक ग्रंथों को 'स्मृति' कहने लगे।
प्रायः सभी वेदी का अधिकांश इन्ही यज्ञसंबंधी बातों से भरा पड़ा है।
पहले तो सभी लोग यज्ञ किया करते थे, पर जब धीरे धीरे यज्ञों का प्रचार घटने लगा, तब अध्वर्यु और होता ही यज्ञ के सब काम करने लगे। पीछे भिन्न भिन्न ऋषियों के नाम पर भिन्न भिन्न नामोंवाले यज्ञ प्रचलित हुए, जिससे ब्राह्मणों का महत्व भी बढ़ने लगा।
इन यज्ञों में अनेक प्रकार के पशुओं की बलि भी दी जाने लगी।, जिससे कुछ लोग असंतुष्ट होने लगे; और परिणाम स्वरूप भागवत(सात्वत्त) आदि नए सम्प्रदाय स्थापित हुए, जिनके कारण कर्मकाण्ड मूलक यज्ञों का प्रचार धीरे धीरे बंद ही गया।
यज्ञ अनेक प्रकार के होते थे। जैसे,— सोमयाग, अश्वमेध यज्ञ, (राजसूय) यज्ञ, ऋतुयाज, अग्निष्टोम, अतिरात्र, महाव्रत, दशरात्र, दशपूर्णामास, पवित्रोष्टि, पृत्रकामोष्टि, चातुर्मास्य सौत्रामणि, दशपेय, पुरुषमेध, आदि, आदि।
"असुर संस्कृति के आराधक आर्यों की ईरानी शाखा में भी यज्ञ प्रचालित रहे जो 'यश्न' नाम जाने जाते थे। इस 'यश्न' से ही फारसी का 'जश्न' शब्द विकसित हुआ है।।
यह यज्ञ वास्तव में एक प्रकार के पुण्योत्सव होते थे । अब भी विवाह, यज्ञोपवीत आदि उत्सवों को कहीं कहीं यज्ञ कहते हैं। यज्ञ का एक नाम विष्णु और अग्नि भी है।
"यज्ञ गुणों को अनुसार सात्विक राजसिक और तामसिक तीन प्रकार हे गये।
पांच महायज्ञ प्रसिद्ध हैं (1) ब्रह्मयज्ञ (2) देवयज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) बलिवैश्व देव यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ। वैदिक परंपरा में, यज्ञ (जिसे महायज्ञ के रूप में भी जाना जाता है) आशीर्वाद, समृद्धि, शुद्धि और आध्यात्मिक विकास के लिए विभिन्न देवताओं या ब्रह्मांडीय शक्तियों के प्रसाद ग्रहण ( कृपा प्राप्ति) के रूप में किया जाता है।
महायज्ञ के दौरान पुजारियों, विद्वानों और भक्तों की भागीदारी के साथ विस्तृत अनुष्ठान और समारोह आयोजित किए जाते हैं। इन अनुष्ठानों में अक्सर वैदिक मंत्रों का जाप, घी, अनाज और जड़ी-बूटियों जैसी विभिन्न वस्तुओं को पवित्र अग्नि (अग्नि) में चढ़ाना और सटीक पाठ के साथ विशिष्ट क्रियाएं करना शामिल होता है। अनुष्ठान प्राचीन वैदिक ग्रंथों में उल्लिखित दिशानिर्देशों और प्रक्रियाओं का सख्ती से पालन करते हुए आयोजित किए जाते हैं।
माना जाता है कि महायज्ञों का प्रभाव शक्तिशाली और दूरगामी होता है। उन्हें निस्वार्थ सेवा और भक्ति का कार्य माना जाता है और माना जाता है कि वे सकारात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं जो प्रतिभागियों और पर्यावरण को बड़े पैमाने पर लाभ पहुंचा सकते हैं।
आधुनिक समय में, महायज्ञ अभी भी भारत और अन्य स्थानों पर जहां भारतीय सनातन धर्म के रूप में सम्पन्न किया जाता है। कुछ महायज्ञ विशिष्ट उद्देश्यों जैसे ग्रह निवारण, शांति या विश्व कल्याण के लिए आयोजित किये जाते हैं। अनुष्ठान का पैमाना और जटिलता अवसर और इसमें शामिल प्रतिभागियों की संख्या के आधार पर भिन्न हो सकता है।
राजकुल के व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ को महायज्ञ की श्रेणी में रखा जाता था। महायज्ञ के संपादन में 17 पुरोहितों की आवश्यकता होती थी। यज्ञ के प्रकार निम्नवत है।
1.राजसु यज्ञ या राज्याभिषेक :-
यह राजा के सिंहासन रोहण से संबंधित यज्ञ था। इस यज्ञ के अवसर पर राजा राजकीय वस्त्रों में सुसज्जित होकर पुरोहित से धनुष बाण लेकर स्वयं को राजा घोषित करता था। यह 1 वर्ष तक चलने वाला यज्ञ था बाद के दिनों में इसे सामान्य अभिषेक तक सीमित कर दिया गया। राजसूय का सर्वप्रथम उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है राजसुय यज्ञ कराने वाले पुरोहित को 24000 गाय तक दान में दी जाती थीं।.
2. बाजपेय यज्ञ:-
बाजपेय का शाब्दिक अर्थ है शक्ति का पान। यह शौर्य प्रदर्शन व प्रजा मनोरंजनार्थ किया जाने वाला यज्ञ था। ये लगभग 17 दिनों तक चलता था।
3.अश्वमेघ यज्ञ:-
अश्वमेघ का शाब्दिक अर्थ घोड़े की बलि है । यह राजनीतिक विस्तार हेतु किया जाने वाला यज्ञ था। इस यज्ञ में एक घोड़े को अभिषेक के पश्चात 1 वर्ष तक स्वतंत्र विचरण के लिए छोड़ दिया जाता था । विचरण के दौरान घोड़े के साथ 400 योद्धा मार्ग में उसकी रक्षा करते थे। विचरण करने वाले सम्पूर्ण भाग पर राजा का अधिपत्य समझ लिया जाता था । अगर किसी राजा द्वारा उस घोड़े को पकड़ लिया जाता था तो उसे राजा से युद्ध करना होता था।
वर्ष के समाप्त होने पर उस घोड़े को राजधानी लाया जाता था और उसकी बलि दी जाती थी। यह यज्ञ महात्मा बुद्ध के द्वारा तीव्र भर्त्सना के कारण कुछ समय तक बंद रहा, परन्तु पुनः इस परम्परा को पुष्यमित्र शुंग द्वारा प्रारम्भ किया गया।
इस यज्ञ का परचलन गुप्त एवं प्रारंभिक चालुक्य वंश तक रहा उसके बाद यह बंद हो गया।.
4. अग्निओष्टम यज्ञ :-
इसे अग्निष्टोमा के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रमुख वैदिक यज्ञ (बलि अनुष्ठान) है जो प्राचीन हिंदू परंपराओं में बहुत महत्व रखता है। यह वैदिक ग्रंथों, विशेषकर यजुर्वेद और तैत्तिरीय संहिता में वर्णित सबसे पुराने और सबसे विस्तृत अनुष्ठानों में से एक है। अग्निष्टोम यज्ञ एक सोम यज्ञ है, जिसका अर्थ है कि इसमें विशिष्ट वैदिक मंत्रों का जाप करते हुए पवित्र अग्नि (अग्नि) में सोम रस निकालना और चढ़ाना शामिल है। अनुष्ठान आम तौर पर कई दिनों तक चलता है और जटिल समारोहों को करने के लिए कुशल पुजारियों टीम की आवश्यकता होती है। अग्निष्टोम का केंद्रीय तत्व सोम पौधा है, जो वैदिक अनुष्ठानों में एक पवित्र पौधा है जिसके बारे में माना जाता है कि इसमें दैवीय गुण हैं और यह भगवान सोम (चंद्र) से जुड़ा है।
सोम रस को पौधे से निकाला जाता है, अन्य पदार्थों के साथ मिलाया जाता है और अग्नि में आहुति दी जाती है। अनुष्ठान के दौरान प्रतिभागी सोम पीते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका शरीर और दिमाग पर शुद्धिकरण और उन्नत प्रभाव पड़ता है। अग्निष्टोम यज्ञ को अत्यधिक शुभ माना जाता है और माना जाता है कि इससे आध्यात्मिक उत्थान, देवताओं का आशीर्वाद और समृद्धि सहित विभिन्न लाभ मिलते हैं। यह एक जटिल और मांगलिक समारोह है, जिसमें सटीक पाठ, प्रसाद और क्रियाएं शामिल होती हैं, और आमतौर पर विशेष अवसरों पर या विशिष्ट उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
शब्दार्थ-
(अस्मिन् चराचरे) इस जंगम स्थावर लोक में (या वेदविहिता हिंसा नियता) जो वेद विहित हिंसा नियत है, (अहिंसां एव तां विद्यात्) उसको अहिंसा ही समझना चाहिये। (वेदात् धर्मः हि निर्बभौ) वेद से ही धर्म उत्पन्न हुआ है।
वह हत्या जो वेद द्वारा अनुमोदित है, इस चर और अचर प्राणियों की दुनिया में शाश्वत है: इसे बिल्कुल भी हत्या नहीं माना जाना चाहिए; चूँकि वेद से ही धर्म प्रकाशित हुआ।(44)
मेधातिथि की टिप्पणी ( मनुभाष्य ):
वेदों में प्राणियों की हत्या का जो विधान किया गया है, वह इस चराचर और स्थावर प्राणियों के संसार में अनादि काल से चला आ रहा है । दूसरी ओर, जो तंत्र और अन्य हिंसा कार्यों में निर्धारित है वह आधुनिक है, और गलत प्रेरणा पर आधारित है। इसलिए केवल पहले वाले को ही 'कोई हत्या नहीं ' माना जाना चाहिए; और यह इस कारण से है कि इसमें दूसरी दुनिया के संदर्भ में कोई पाप शामिल नहीं है। जब इस हत्या को 'कोई हत्या नहीं' कहा जाता है।
तो यह केवल इसके प्रभावों को ध्यान में रखते हुए है, न कि इसके स्वरूप को ध्यान में रखते हुए (जो निश्चित रूप से हत्या का रूप है )।
अब प्रश्न बनता है।
“चूंकि दोनों कृत्य समान रूप से हत्या करने वाले होंगे ; उनके प्रभाव में अंतर कैसे हो सकता है ? ”
इसका उत्तर है—'क्योंकि वेद से ही धर्म प्रकाशित हुआ';—क्या वैध (सही) है और क्या अवैध (गलत) है इसका प्रतिपादन वेद से हुआ; मानवीय अधिकारी बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं हैं। और वास्तव में, वेद यह घोषित करता हुआ पाया जाता है कि कुछ मामलों में, हत्या कल्याण के लिए अनुकूल है। न ही रूप की कोई पूर्ण पहचान है (दोनों प्रकार की हत्याओं के बीच); क्योंकि सबसे पहले तो यह अंतर है कि, जहां एक बलिदान को पूरा करने के लिए किया जाता है, वहीं दूसरा पूरी तरह से व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए किया जाता है; और दूसरी बात आशय में भी अंतर है, अर्थात सामान्य हत्या या तो मांस खाने की इच्छा रखने वालों के द्वारा की जाती है, या उस प्राणी द्वारा (मारे गए प्राणी) से घृणा करने वाले द्वारा की जाती है, जबकि वैदिक हत्या इसलिए की जाती है क्योंकि मनुष्य सोचता है कि 'यह 'शास्त्रों द्वारा आदेश दिया गया है।'
आर्यसमाजीयों का मानना है। कि
यज्ञ में पशुवध वाममार्गियों ने सम्मिलित किया है। अन्यथा वेदों में तो यज्ञ के अर्थ में अध्वर शब्द आता है जिसका अर्थ यह है कि जिसमें कहीं हिंसा न हो " परन्तु गहन अध्ययन से विदित होता है। वेदों में भी हिंसक बलि प्रधान यज्ञ भौतिक उपलब्धियों के लिए कुछ लोगों द्वारा सम्पन्न किए जाते थे।
नीचे स्कन्द पुराण से कुछ सन्दर्भ उद्धृत किए जाते हैं।
स्कन्दपुराण -खण्ड ३ (ब्रह्मखण्डः)
(प्रस्तुति- यादव योगेश रोहि-)