★-(श्रीकृष्ण-चरित्रसाराङ्गिणी-★अद्यतन संशोधित संस्करण-( ★-भाग प्रथम व द्वितीय -★
(श्रीकृष्ण-स्तुति)
"वन्दे वृन्दावन-वन्दनीयम्। सर्व लोकैरभिनन्दनीयम्।कर्मस्य फलं इति ते नियम। कर्मेच्छा सङ्कल्पो वयम्।।१।।
भक्त-भावं सुरञ्जनम् । राग-रङ्गं त्वं सञ्जनम्।। बोध -शोधं मनमञ्जनम्। नमस्कार खलं-भञ्जनम्।२।
"वन्दे वृन्दावन-वन्दनीयम्। सर्व लोकैरभिनन्दनीयम्।कर्मस्य फलं इति ते नियम। कर्मेच्छा सङ्कल्पो वयम्।।१।।
भक्त-भावं सुरञ्जनम् । राग-रङ्गं त्वं सञ्जनम्।। बोध -शोधं मनमञ्जनम्। नमस्कार खलं-भञ्जनम्।२।
मयूर पक्ष तव मस्तकम्। मुरलि मञ्जु शुभ हस्तकम्।। ज्ञान रश्मि त्वं प्रभाकरम्। गुणातीत गुरु-गुणाकरम्।३।
नमामि याम: त्वमष्टकम्-। हरि-शोकं अति कष्टकम्।। भव-बन्धं मम मोचनम् । सर्व भक्तगणं रोचनम्।४।
कृष्ण श्याम त्वं मेघनम्, लभेमहि जीवन धनम्। रोमैभ्यो गोपा: सर्जकम्। सकल सिद्धी: त्वमर्जकम्।५।
कृपा- सिन्धु गुरु-धर्मकम्। नमामि प्रभु उरु-कर्मकम्।।
इन्द्र-यजन त्वं निवारणम्। पशु-हिंसा तस्या कारणम्।६।
स्नातकं प्रभु- सुगोरजम् । सदा विराजसे त्वं व्रजम्।। दधान ग्रीवायां मालकम्। नमामि-आभीर बालकम्।७।
कृषि कर्मणेषु प्रवीणम् । ते आपीड केकी-पणम्।। कृषाणु शाण हल कर्पणम्। वन्दे संकर्षणं च कृष्णम्।८।
गोप-गोपयोरधिनायकम्। वैष्णव धर्मस्य विधायकम्।। व्रज रज ते प्रभु भूषणम् । नमामि कोटिश: पूषणम्।९।
निष्काम कर्मं निर्णायकम्। सुतान वेणु लय-गायकम्।।दीन बन्धो: सदा सहायकम्। नमामि यादव विनायकम्।१०।
किशोर वय- सुव्यञ्जितम्। राग-रङ्गं शोभितं नितम्।।
नमस्कार प्रभु सद्-व्रतम्। "पेय ज्ञानं गीतामृतम्।११।
वन्यमाल कण्ठे धारिणम्।नमामि व्रज- विहारिणम्।। वैजयन्ती लालित्य हारिणं। लीला विलोल विस्तारिणं।१२।
"अनुवाद:-
वृन्दावन के लोगों के लिए वन्दनीय और सभी लोगों के द्वारा अभिनन्दन (स्वागत ) करने योग्य भगवान श्रीकृष्ण ही कर्म सिद्धान्त के नियामक हैं। उन्होंने ही सृष्टि के प्रारम्भ में अहं समुच्चय( वयं) से संकल्प और संकल्प से इच्छा उत्पन्न करके संसार में कर्म का अस्तित्व निश्चित किया।१।
"अनुवाद:-
भक्तों के भावों में समर्पण के रंग भरने वाले ,राग और रंग के समष्टि रूप, मन को भक्ति में स्नान कराकर उसे शुद्ध करके ज्ञान का प्रकाश भरने वाले, खलों (दुष्टों) को दण्डित करने वाले प्रभु को हम नमस्कार करते हैं।२।
अनुवाद:- हे प्रभु ! मयूर के पंख से निर्मित मुकुट तेरे मस्तक पर और हाथों में सुन्दर और शुभ मुरली है। हे मन मोहन ! तू ज्ञान की किरणें विकीर्ण करने वाला प्रभाकर (सूर्य)है। तू आत्मा का ज्ञान देने वाला गुरु, प्रकृति के तीन गुणों से परे होने पर भी कल्याणकारी गुणों का भण्डार है।३।
अनुवाद:- हे मनमोहन ! मैं आठो पहर तुमको नमन करूँ ! तुम अत्यधिक शोक और कष्टों को हरने वाले हो साक्षात् हरि हो ! संसार के द्वन्द्व मयी बन्धनों से मुझे मुक्त करने वाले और सब भक्तों को प्रिय हे मोहन ! मैं तुझे नमन करता हूँ।४।
अनुवाद:- हे कृष्ण तुम्हारी कान्ति काले बादलों के समान है। हम जीवन के धन रूप आपको प्राप्त करें। तुमने गोलोक में ही पूर्वकाल में सभी गोपों की सृष्टि अपने ही रोम कूपों से की थी। तुम सभी सिद्धियों को स्वयं ही प्राप्त हो।५।
अनुवाद:- कृपा के समुद्र, धर्म का यथार्थ बोध कराने वाले गुरु ! महान कर्मों के कर्ता प्रभु ! हम तुझे नमस्कार करते हैं। तूने इन्द्र का यजन- पूजन बन्द कराये, जो निर्दोष पशुओं की हिंसा का कारण थे ।६।
अनुवाद:- गाय के निवास स्थान की सुन्दर रज( मिट्टी) से स्नान करने वाले, सदैव व्रज( गायों का बाड़ा) में विराजने वाले, गले में वन माला धारण करने वाले, अहीर बालक के रूप में रहने वाले हे प्रभु ! मैं तुम्हें नमस्कार हूँ।७।
अनुवाद:- हे कृष्ण तुम गोप और गोपियों के अधिनायक ( मार्गदर्शन करने वाले ), वैष्णव वर्ण और धर्म का संसार में विधान करने वाले,तथा भक्तों का पोषण करने वाले हो ! प्रभु तुम्हें हम कोटि -कोटि नमस्कार करते हैं।९।
अनुवाद:- संसार को निष्काम कर्म का उपदेश देने वाले ,बाँसुरी पर सुन्दर तान के द्वारा लय से गायन करने वाले , दीन दु:खीयों की सहायता करने वाले, यादवों के विशेष नेता तुमको हम नमस्कार करते हैं। १०।
अनुवाद:- गोलोक में सदैव किशोर अवस्था में विद्यमान, राग -रंग से सुशोभित, रासधारी, सत्य व्रतों का पालन करने वाले, हे प्रभु! तुम्हारा गीता का अमृतरूपी ज्ञान सेवन करने योग्य है ।११।
अनुवाद:- वनों की सुन्दर माला कण्ठ में धारण करने वाले और सम्पूर्ण व्रज में भ्रमण करने वाले, सुन्दर लीलाओं का विस्तार करने वाले, सुन्दर वैजयन्ती माला धारण करने वाले, भगवान कन्हैया को हम नमस्कार करते हैं।१२।
"श्रीकृष्ण साराङ्गिणी "
विषय सूची
[छवि -118]
(अध्याय-)
१ - पूजा-अर्चना के विधि- विधान एवं गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणाम।
[क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
[ख]-तेैतीस कोटि देवता में किसकी पूजा करें ?
[ग] - श्रीकृष्ण की पूजा के लाभ।
[घ] - शिव पूजा के लाभ।
[ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।
[च] - श्रीराम पूजा के लाभ।
[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।
[ज] - श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?
[झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणाम।
[ञ] - एक सच्चे गुरु की पहचान।
२- श्रीकृष्ण का स्वरूप एवं उनके गोलोक का वर्णन
३- श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नहीं है।
४- गोलोक में गोप- गोपियों सहित- नारायण,शिव , ब्रह्मा आदि प्रमुख देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का-विस्तार
५- वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों मे मूलभूत अन्तर एवं विशेषताएं-
[क] - वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति।
[ख] - ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
[ग ] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अंतर-
[१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
[२] यज्ञ मूलक एवं भक्ति मूलक अन्तर।
[३] भेदभाव एवं समता मूलक अन्तर।
६- वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व -
[१] गोपों का ब्राह्मणत्व (धर्मज्ञ होने )का कर्म-
(क)- सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर( गोप) हैं।
(ख)- अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
(ग)- यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा का परिचय।
(घ)- ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय।
[२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म।
[३] गोपों का वैश्य कर्म।
[४] गोपों का शूद्र कर्म।
७- वैष्णव वर्ण के "गोपों" की पौराणिक - प्रशंसा
८- भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण
९- गोप, गोपाल, अहीर और यादव उपाधि धारक कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं, तथा इनका वास्तविक गोत्र वैष्णव है या अत्रि ?
१०- गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय -
भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय।
भाग-(२) श्रीराधा का परिचय।
भाग-(३) पुरूरवा और उर्वशी का परिचय।
भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय।
११- गोप जाति के यादव वंश का उदय एवं उसके प्रमुख
सदस्यपति -
भाग- (१) महाराज यदु का परिचय।
भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज
१२- यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक-गमन
भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण के बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
भाग- (२)- श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।
(★प्राक्कथन★)
पुस्तिका "श्रीकृष्ण- साराङ्गिणी" को लिखने का एक मात्र उद्देश्य श्रीकृष्ण के जीवन एवं उनके चरित्र-विषयक वार्तालाप के उपरान्त उत्पन्न हुए कुछ प्रश्नों तथा कुछ भ्रान्ति मूलक टिप्पणियों का सम्यक शास्त्रीय उत्तरों को त्वरित खोजकर समाधान करना ही है। इस उद्देश्य हेतु यह पुस्तिका एक सफल प्रयास है।
इस पुस्तिका का आकार न बहुत छोटा और न ही बहुत बड़ा इसलिए भी निर्धारित किया गया है, ताकि इसे आसानी से पाठकगण कहीं भी समाज में ले जाकर जनसाधारण को कृष्ण तथा उनके पारिवारिक सदस्य गोपों की उत्पत्ति तथा चरित्रों का बोध करा सके।
यह "श्रीकृष्ण- साराङ्गिणी" पुस्तिका वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण का शास्त्रीय कलेवर (शरीर) ही है। अत: इस भाव को मन में रखकर भक्त- गण इसे भगवान् श्रीकृष्ण के पूजा- स्थल पर रखकर श्रीकृष्ण की उपस्थिति का आभास भी कर सकते हैं। क्योंकि इसमें श्रीकृष्ण के जीवन के अद्भुत पहलुओं का शास्त्रोचित विधि से वर्णन किया गया है।
इस पुस्तिका के लेखन कार्य से लेकर श्रीकृष्ण जीवन के सारगर्भित चरित्रों के चित्रों का शब्दांकन करने तक प्रेरणा श्रोत बनकर परम श्रद्धेय,सन्त हृदय गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज उपस्थित रहे हैं।
यह पुस्तक अपने बारह अध्यायों में श्रीकृष्ण के अतीव सार-गर्भित चरित्रों के साथ अपने नाम को सार्थक करती हुई परमेश्वर श्रीकृष्ण के ही चरणों में समर्पित है।
-:अनुनीत- विनीत :-
लेखक गण-
गोपाचार्य हंस- योगेशरोहि
एवं
गोपाचार्य हंस- माता प्रसाद
फोटो- [ १ ] फोटो -[ २ ] फोटो -[ ३ ] लेखक- आत्मानन्द लेखक-
________
"श्रीकृष्ण- अभ्यर्चना"
________
'हे केशव मया भवते
नमतो भक्त्या अर्प्यते।
यत्किमपि अस्मिन् भवे
नमनानि तुभ्यं भगवते।।१।
अनुवाद:- हे केशव ! आपको नमन करते हुए इस संसार में जो भी कुछ मेरा है वह सब मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किया जाता है। हे भगवन् मैं तुमको अनेकों नमन करता हूँ।१।
जड-जङ्गम चेतन स्थावरम्
आद्यन्ताश्च न्यूनञ्च पुरुम्।
अमूनि सर्वाणि तवेव
त्वमेव सहर्षेण स्वीकुरु।।२।
अनुवाद :- जड़ -चेतन, चल-अचल , आदि-अन्त,
कम-ज्यादा, सब कुछ तुम्हारा ही है। उसे तुम सहर्ष स्वीकार करो।
ज्ञानपुञ्जं प्रवासिकुञ्जम्
मुरलीमधुरं यत्र कदम्ब द्रुम।
गीतां पुनीतां सुवक्तारम्
अहं वन्दे कृष्णं जगद्गुरुम्।।३।।
अनुवाद :- ज्ञान के समुच्चय तथा कुञ्जों में रहने वाले, और कदम्ब वृक्ष के तले मधुर मुरली बजाने वाले, कुरुक्षेत्र में पवित्र गीता का वाचन करने वाले जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।३।
सर्वेचराचरेषु व्याप्नोसि ते सत्ता
निर्गुणसगुणयोरुभयोर्रूपयोर्।
जानान्ति रहस्यं केशवस्य भक्ता:
अन्वेषयति तु कर्मकाण्डेषु घोर:।।४।
अनुवाद :- हे केशव! आप की सत्ता समस्त चराचर (जड़-चेतन, संसार के सभी प्राणियों) में निर्गुण और सगुण दोनों रूप में व्याप्त हैं। आपके इस रहस्य को भक्त भली-भाँति जानते हैं। किंतु भयानक और मूढ़मति व्यक्ति आपको कर्मकाण्डों में खोजते है।४।
संसृत्यौ सिन्धौ शष्पिता सरणि।
वयमाकृण्म भावोर्म्या सम्मध्यता:।
न मज्जेद् मम जीवनस्य तरणि"
हे मोहन ! तर अत्र लोभमोहावृता:।।५।
भाष्य:- हे मोहन ! अयं आत्मा जगतः समुद्रे जीवनस्य नौकायां उपविष्टोऽयं समुद्रं तरितुं इच्छति; परन्तु अत्र कामलोभादिभावानां तरङ्गाः निरन्तरम् उदयमाना एव भवन्ति। हे मोहन ! अत एव जीवननौकाया मार्गोऽतीव क्लिष्टोऽभवत् । मा भूत् मम नौका तरङ्गजनितसक्तिलोभादिभ्रमणेषु मज्जति; तस्मात् त्वं स्वयमेव एतां नौकां तरेत्।५।
अनुवाद:- -हे मोहन ! संसार रूपी सागर के जीवन रूपी नौका में बैठा हुआ यह जीवात्मा- इस सागर को पार करना चाहता है ; परन्तु यहाँ काम,लोभ आदि की भावना रूपी तरंगे निरन्तर उच्छलती रहती हैं। हे मोहन ! इसी कारण से जीवन रूपी नौका का मार्ग बड़ा जटिल हो गया हैं। मझधार में लहरों से उत्पन्न मोह-लोभ आदि के भँवरों में कहीं मेरी नौका डूब न जाय ; इसलिए आप ही इस नौका को पार करें।।५।
भावसाम्य-
उदाहरण-
"भव सागर है कठिन डगर है।
हम कर बैठे खुद से समझौते !
डूब न जाए जीवन की किश्ती ।
यहाँ मोह के भंवर लोभ के गोते ।
____
(अध्याय- १
(|) ✓✓ ✓
भगवान्- श्रीकृष्ण की औपचारिक पूजन -विधि-
यज्ञ और हवन के समय - उपर्युक्त प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरान्त-
ॐ श्रीकृष्णाय नमः
प्रभो ! तुभ्यं निजभावंं नैवेद्यं समर्पयामि !
के साथ नैवेद्य अर्पित करें। किंतु ध्यान रहे उपर्युक्त पांचों मंत्रों को किसी पुरोहित से न पढ़वाया जाय और ना ही उनसे कुछ करवाया जाय क्योंकि इन मंत्रों को केवल कृष्ण भक्त गोप ही सिद्ध और सफल कर सकते हैं बाकी कोई नहीं।
[इसके बारे में विस्तृत जानकारी अध्याय- (१) के भाग-(२) में दी गई है पाठकगण वहां से अपने संशय का निवारण कर सकते हैं।]
(२)- सुबह-शाम श्रीकृष्ण पूजा, आराधना, या आरती इत्यादि के समय भक्तिभाव से पांचों मंत्रों से श्रीकृष्ण का स्तवन स्वयं करें और प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरान्त "अहं सर्वस्यं श्रीकृष्णाय समर्पयामि" ( मैं श्रीकृष्ण को अपना सबकुछ समर्पित करता हूँ) के साथ नमस्कार करें। यदि कोई भक्त संस्कृत श्लोक नहीं पढ़ सकता तो वह मंत्रों को भक्तिभाव से हिंदी अनुवाद को ही पढ़कर श्रीकृष्ण की आराधना व स्तुति कर सकता है। ऐसा करने से उसे कोई दोष नहीं होगा। किंतु ध्यान रहे फूल, पत्ते इत्यादि को ही उनके चरणों में रखें, बाकी खाद्यान्न इत्यादि पदार्थों को उनके चरणों पर कदापि न रखें। खाद्यान्न पदार्थों को किसी पात्र में रखकर प्रभु के अगल-बगल थोड़ा ऊपर ही रखें।
ध्यान रहे ये सब क्रिया विधि मात्र एक औपचारिकता है। इसको करते समय किसी प्रकार का आडम्बर या भौकाल नहीं होना चाहिये। क्योंकि भगवान- भाव के ग्राही हैं क्रिया ग्राही नहीं। अर्थात् आप क्या कर रहे हैं कैसे कर रहे हैं उससे उनका कोई लेना देना नहीं है। सत्य तो यह है कि -
भक्त के द्वारा निःस्वार्थ भाव से- येन -केन प्रकारेण कुछ भी चढ़ाया गया पदार्थ वे सहर्ष स्वीकार कर ही लेते हैं।
(३)- अगर भक्त के पास अर्पण के लिए मौके पर कुछ भी उपलब्ध नही है, तो भी वह श्रीकृष्ण की पूजा- अर्चना कर सकता है। इसके लिए भक्त को भक्तिभाव से मंत्रोच्चारण कर प्रभु की स्तुति करनी होगा। यहीं भक्ति की प्रारंभिक क्रिया है। ऐसा बार-बार करने से एक दिन श्रीकृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का भाव जागृत होगा। उसी दिन से वह प्रभु का सच्चा ज्ञानी भक्त हो जाएगा। तब उसके लिए चढ़ावा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रहेगा।
वह दिन-रात मस्त मगन होकर प्रभु का सुमिरन यों ही करता रहेगा। क्योंकि अब तो उसे परमेश्वर के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया है कि -
"
अर्थात् जब परमेश्वर बिना पैरों के चलता है, बिना कान के सुनता है, हाथ न होते हुए भी विभिन्न तरह के कार्य करता है अर्थात यहां बिना किसी कारण के ही कार्य हो रहा है।
तब परमेश्वर की भक्ति में तेरे-मेरे, अपना-पराया, विधि-विधान, मेरे या दूसरे द्वारा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रहइसीलिए कहा जाता है कि - परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल व आसान है। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में स्वयं कहे हैं कि -
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।। (श्रीमद्भगवद्गीता)
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझ में तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात स्वीकार कर लेता हूं। २६ ।
[क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
समाज में एक कहावत प्रचलित है - "मांगो उसी से जो दे-दे खुशी से" अर्थात् कुछ पानें की अपेक्षा उसी से करनी चाहिए जो देने में सक्षम हो। ठीक यहीं बात अध्यात्म- जगत में भी लागू होती है कि पूजा या अर्चना उसी की करनी चाहिए जो सबकुछ देने में सामर्थ्यवान एवं सक्षम हो। अब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जगत में कौन ऐसा सामर्थ्यवान है जिससे मांगने पर सबकुछ मिल सकता ? तो इसका जवाब है "परमेश्वर"। तब फिर प्रश्न उठता है कि परमेश्वर कौन है ?
तो इस प्रश्न का सही जबाब पाना असम्भव तो नहीं किंतु कठिन अवश्य है। क्योंकि शास्त्रों से लेकर जितने भी धर्मगुरु या धर्म प्रवर्तक हुए सभी ने अपने-अपने हिसाब से परमात्मा की विशेषताएं और परिभाषाएं निर्धारित की हैं। जैसे -
१- कोई उसे नूर कहता है तो कोई उसे हुजूर कहता है।
२- कोई उसे निर्गुण माना, तो कोई उसे सगुण माना।
३- कोई उसे निराकार मानता है, तो कोई उसे साकार मानता है।
४- कोई उसे साकार और निराकार दोनों ही रूपों में मनता है।
५- तो कोई उसे निर्गुण और सगुण दोनों ही मानता है।
इन उपरोक्त बातों पर यदि विचार किया जाय तो ये सभी बातें परमेश्वर को एक निश्चित दायरे में रखकर कही गई हैं कि- परमेश्वर निर्गुण हैं, सगुण हैं या दोनों हैं। किंतु परमेश्वर तो सीमाओं से परे अनंत गुणों वाले हैं। जिनका कोई आदि है न अंत है। वे स्थूल से भी स्थूलतम और सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम हैं। उनके लिए सगुण, निर्गुण, निराकार, साकार, निर्विकल्प, निर्लिप्त, प्रारंभ, अंत, अनंत, शून्य, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी इत्यादि जितना भी कहा जाय ये तो ये सब बहुत कम ही विशेषण पद है।
तब प्रश्न उठता है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण ही सबकुछ हैं तो इस माया नगरी मे जहां अनेकों छद्म- भेषधारी अपनी कथाओं के माध्यम से (३३) करोड़ देवी-देवता को पूजने को कहते हों, और स्वयं को भी अपने भक्तों से पुजवाते हों, ऐसी विकट और आडम्बर पूर्ण व भ्रान्त स्थिति में अनंत गुणों वाले परमात्मा को कैसे पहचाना जाय कि यहीं परमप्रभु परमेश्वर हैं ?
( तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसी ग्रन्थ के अध्याय- (दो) और अध्याय (तीन) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि- परमप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण ही है। उनके अतिरिक्त और कोई परमेश्वर नहीं है। वहां से इस संबंध में विस्तार पूर्वक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।)
फिर भी यहां पर उससे सम्बन्धित कुछ जानकारी अवश्य दी गई है कि- वास्तव में श्री कृष्ण ही परमप्रभु परमेश्वर हैं। उनको किसी एक गुण से नहीं जाना जा सकता। फिर भी यदि उसको गुणों के आधार पर देखा जाए तो उनके अनंत गुण है। उसमें भी देखा जाए तो वे साकार, निराकार, निर्गुण, सगुण इत्यादि सबकुछ हैं।
जहां तक उनको साकार और निराकार होने का प्रश्न है तो परमेश्वर प्रलय काल में निराकार रूप में रहते हैं किंतु जब वे सृष्टि करतें हैं तो साकार रूप में हो जाते हैं।
इस बात की पुष्टि- श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय-( ४ ) के श्लोक-( ७) में परमेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७।
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।
इसी तरह से परमेश्वर को सगुण और निर्गुण इत्यादि होने के संबंध में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक- (१२ ) में भी लिखा गया है। जिसमें अर्जुन श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।।१२।
अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२।
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म,
सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि पद-रूपों में तत्वज्ञानी लोग परमेश्वर श्रीकृष्ण को जानते हैं।
परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७), और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन को अपने बारे में बताते हैं कि-
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।।१६।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। १८।
अनुवाद - क्रतु मैं हूं, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूं, औषधि मैं हूं, मंत्र मैं हूं, घृत मैं हूं, अग्नि मैं हूं, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूं। जानने योग्य पवित्र ॐकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूं। इस संपूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूं। (१६-१७-१८)
इसी तरह से श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक- ४२ में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि-
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।४२।।
अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है? मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।
इस प्रकार से देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण ही सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है। बाकी- (33) कोटि देवी-देवता तो उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंश- भूत शक्तियां, कला और कलांश हैं। इन सभी बातों की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या (१७-१८)और (१९) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।।१७।
स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम् ।।१८।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।।१९।
अनुवाद- द्विभुजधारी, किशोरवय, गोपवेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है, वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं।१७।
• परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति- मुनि गणों के साथ करते हैं।१८।
• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षी रूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा हंसी और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।१९।
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक- (४३) में भी लिखी गई है जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण को ही परमेश्वर इत्यादि कहा गया है।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।।४३।
अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता और साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ।४३।
कुछ इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय - (३०)के श्लोक- (६ )से (८) में भगवान श्री कृष्ण को परमप्रभु परमेश्वर बताया गया है। जिसमें मुनि नारायण, नारद को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराट विष्णु इत्यादि श्री कृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं -
चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः।
त्वं चापि नारद मुने परमादरेण सञ्चिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम् ।।६।
यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः।
कलाविशेषा भवपारमुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः।।७।
सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम् ।
कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः।।८।
अनुवाद - जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर कौन समर्थ है ? तुम भी श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के चरणार्विंद का अत्यंत आदर पूर्वक चिंतन करो। ६।
• नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान (श्रीकृष्ण) की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्माजी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।
• सहस्र शिरों वाले शेषनाग संपूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण करते हैं। वो भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठ हो। वे भगवान कूर्म भी श्रीकृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं।८।
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण- के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (६६) के श्लोक - (५६) में भी लिखी गई है। जो श्रीकृष्ण और राधा संवाद के रूप में है। जिसमें श्रीकृष्ण राधा जी से अपने विषय में कहते हैं कि-
"अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।। ५६
अनुवाद - उस विराट विष्णु के रोम कूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (शिव) आदि देवता, मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं। ५६।
अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों से स्पष्ट होता है कि- परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण ही हैं। बाकी ३३ करोड़ देवी-देवता उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंशभूत शक्तियां हैं। उसमें भी जो तीन प्रमुख देवता- ब्रह्मा, विष्णु और महेश है, वो भी श्रीकृष्ण से उत्पन्न उन्हीं के कला और कलांश हैं।
[ख] -३३ कोटि देवता में किसकी पूजा करें ?
तब पुनः प्रश्न उठता है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण जो परिपूर्णतम परब्रह्म हैं, सर्व सामर्थ्यवान हैं, तो उनको छोड़कर मनुष्य (३३) करोड़ देवी- देवताओं की पूजा क्यों करता है ? तो इसका जबाब है "अज्ञानता"। क्योंकि मनुष्य इस माया नगरी में पाखंडवाद के भ्रम जाल में फंसकर यह भेद नहीं कर पाता कि परमेश्वर श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए या उनसे उत्पन्न (३३ ) करोड़ देवी-देवताओं की।
इसके साथ ही वह यह भी नहीं जान पाता कि- किस देवी देवों की पूजा करने से कौन सा लाभ और पद प्राप्त होता है। और जिस मनुष्य इस रहस्य को जान लिया समझो वह परमेश्वर को भी पहचान कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इसलिए परमेश्वर श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए।
परम-प्रभु श्रीकृष्ण की ही सर्वदा ध्यान व पूजा अर्चना करने की शिफारिश प्रमुख देवताओं ने भी की है।
जैसे -
शिवजी पार्वती को श्रीकृष्ण की ही आराधना करने को कहते हैं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खंड के अध्याय-(४८)के श्लोक संख्या- (४८) और (४९) में मिलता है।
जो शिव पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि -
"आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।४८।
परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम्।४९।
अनुवाद-
• हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीट पर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८।
• केवल त्रिगुणातीत परमब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं। अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो।४९।
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो शिव जी स्वयं पार्वती को श्रीकृष्ण की आराधना करने को कहते हैं। और यह शिव वाणी है। क्या इससे भी बड़ी कोई वाणी ब्रह्माण्ड में हो सकती है ? जबाब होगा नहीं
इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक- (४३) में भी लिखी गई है। जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।।४३।
अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता के साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ४३।
मगर सवाल यह है कि क्यों श्रीकृष्ण का ही ध्यान व आराधना करनी चाहिए ? क्या (३३) करोड़ देवी-देवताओं और उसमें भी शिव, विष्णु इत्यादि प्रमुख देवताओं के ध्यान व आराधना से कोई लाभ नहीं ? तो इसका जवाब है लाभ अवश्य है किंतु सीमित है। कहने का तात्पर्य यह है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होंगे तथा भूतों को पूजने वाला भूतों और प्रेतों को प्राप्त होगें और जो परमेश्वर को पूजता है वह परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राप्त होता है। इस बात को गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता के अध्याय- (७) के श्लोक - (२३) में स्वयं कहें हैं कि -
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।। २३।
अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अंत वाला (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।
ऐसी ही बात श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय- (९) के श्लोक संख्या- (२५) में भी लिखी गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन
से कहते हैं कि -
"यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।9.25।।
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। २५
पुनः भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद् भागवत पुराण के अध्याय- १८ के श्लोक -६५ और ६६ में कहते हैं कि -
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।। ६५।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। ६६।
अनुवाद - ६५-६६
• तू मेरा भक्त हो जा, मुझ में मनवाला हो, तू मेरा पूजन करने वाला हो जा, और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जाएगा। यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूं, क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है।
• संपूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत कर।
और सबसे उचित बात है कि- परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति भी बहुत ही सरल व आसान है। इस संबंध में भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में कहते हैं कि -
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।२६।
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूं अर्थात स्वीकार कर लेता हूं।२६।
व्याख्या - देवताओं की पूजा- अर्चना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परंतु भगवान (श्री कृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेम ( भक्ति) की, और अपनेपन की प्रधानता है, किसी विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भावग्राही है क्रियाग्राही नहीं।
अन्ततोगत्वा श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- परमेश्वर श्रीकृष्ण की ही भक्ति, आराधना व ध्यान करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव है। इधर -उधर भटकने से नहीं।
तब ऐसे में यह जानना और आवश्यक हो जाता है कि भक्तों के लिए पूजा व आराधना का फल- परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित अन्य देवताओं का कितना होता है। तो इसका विस्तार पूर्वक वर्णन- श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय -(३०) में मिलता है। जिसमें परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित छोटे-बड़े सभी देव-देवताओं की पूजा अर्चना के लाभ व फलों को बड़े ही सारगर्भित ढंग से बताया गया है।
जिसमें सबसे पहले हम लोग श्रीकृष्ण पूजा के लाभों को जानेंगे उसके बाद अन्य देवताओं से मिलने वाले लाभों को जानेंगे।
[ ग]- की पूजा के लाभ ]
श्रीकृष्ण भक्तों को उनकी पूजा से जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उसका वर्णन श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ६९ से ७०) और( ८५ से ८९) में मिलता है। जिसमें श्रीकृष्ण भक्तों के बारे में बताया गया है कि -
"करोति भारते यो हि कृष्णजन्माष्टमीव्रतम् ।
शतजन्मकृतं पापं मुच्यते नात्र संशयः॥६९।
वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश।
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य कृष्णे भक्तिंलभेद् ध्रुवम्॥७०।
अनुवाद - भारतवर्ष में जो मनुष्य श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह अपने सौ जन्मों में किये गये पापों छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है। और जबतक चौदहों इन्द्रों की स्थिति बनी रहती है, तब-तब वह वैकुण्ठलोक में आनन्द का भोग करता है। इसके बाद वह पुनः उत्तम योनि में जन्म लेकर निश्चित रूप से भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त करता है।६९-७०।
यहां पर श्रीकृष्ण भक्तों से संबंधित उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत के उपरान्त पापों से मुक्त होकर दीर्घ काल के लिए गोलोक धाम को तो प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता क्योंकि वे दीर्घ काल के पश्चात पुनः मृत्युलोक में जन्म लेता है।
अर्थात् वह अभी आवागमन से मुक्त नहीं हो सकता है। तब प्रश्न उठता है कि श्रीकृष्ण भक्त आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष को कैसे प्राप्त करेगा ? तो इसका जवाब इसके अगले श्लोक- (८५ से ८९) में दिया गया है, जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण भक्तों को कैसे मोक्ष की प्राप्ति होगी।
'कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥ ८६।
गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्दृढाम्॥८७।
क्रमेण सुदृढांभक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो ।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥ ८८।
ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥८९।
अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है।
पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है।
तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा (बुढ़ापा) तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है।८५-८९।
यहां पर श्रीकृष्ण भक्तों से संबंधित उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्तों के लिए मोक्ष हेतु सबसे उत्तम साधन- "कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियोंको साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा करना ही है। यदि श्रीकृष्ण भक्त ऐसा करता है तो निश्चित रूप से भक्त श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होगा इसमें संदेह नहीं है।
किंतु देवी-देवताओं को पूजने वाले कभी नहीं मोक्ष को प्राप्त होते। क्यों नहीं होते ? तो इसको अच्छी तरह से समझने के लिए कुछ प्रमुख देवी-देवताओं के पूजन विधि और उसके लाभ को जानना होगा जैसे -
(अध्याय- १
(||) ✓✓ ✓
[घ] - शिव पूजा के लाभ।
शिव भक्तों को जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उन सभी का वर्णन श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ७१ से ७५ ) में मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -
इहैव भारते वर्षे शिवरात्रिं करोति यः।
मोदते शिवलोके स सप्तमन्वन्तरावधि ॥७१।
शिवाय शिवरात्रौ च बिल्वपत्रं ददाति यः।
पत्रमानयुगं तत्र मोदते शिवमन्दिरे ॥ ७२।
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य शिवभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
विद्यावान्पुत्रवाञ्छ्रीमान् प्रजावान्भूमिमान्भवेत् ॥७३।
चैत्रमासेऽथवा माघे शङ्करं योऽर्चयेद्व्रती ।
करोति नर्तनं भक्त्या वेत्रपाणिर्दिवानिशम् ॥ ७४।
मासं वाप्यर्धमासं वा दश सप्त दिनानि च ।
दिनमानयुगं सोऽपि शिवलोके महीयते ॥७५।
शिवं यः पूजयेन्नित्यं कृत्वा लिङ्गं च पार्थिवम्।
यावज्जीवनपर्यन्तं स याति शिवमन्दिरम् ॥ ११०।
मृदो रेणुप्रमाणाब्दं शिवलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य राजेन्द्रो भारते भवेत्॥ १११।
अनुवाद - ७१-७५ और ११०- १११ तक
• इस भारतवर्ष में जो मनुष्य शिवरात्रि का व्रत करता है, वह सात मन्वन्तरों के काल तक शिवलोक में आनन्द से रहता है।७१।
• जो मनुष्य शिवरात्रि के दिन भगवान् शंकर को बिल्वपत्र( बेलपत्थर) अर्पण करता है, वह बिल्वपत्रों की जितनी संख्या है उतने वर्षों तक उस शिवलोक में आनन्द भोगता है। पुनः श्रेष्ठ योनि प्राप्त करके वह निश्चय ही शिवभक्ति प्राप्त करता है और विद्या, पुत्र, श्री, प्रजा तथा भूमि- इन सबसे सदा सम्पन्न रहता है।७२-७३।
• जो व्रती चैत्र अथवा माघ में पूरे मासभर, आधे मास, दस दिन अथवा सात दिन तक भगवान् शंकर की पूजा करता है और हाथ में बेंत लेकर भक्तिपूर्वक उनके सम्मुख नर्तन करता है, वह उपासना के दिनों की संख्या के बराबर युगों तक शिवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। ७४-७५।
• जो मनुष्य प्रतिदिन पार्थिव( मिट्टी) का लिंग बनाकर शिव की पूजा करता है और जीवन पर्यन्त इस नियमका पालन करता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है और वह पार्थिव लिंग में विद्यमान रजकणों की संख्या के बराबर वर्षों तक शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहां से पुनः भारतवर्ष में जन्म लेकर वह महान् राजा होता है। ११०- १११।
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाय तो शिव भक्त निश्चित रूप से शिवलोक को प्राप्त होता हैं। किंतु वह उस लोक तक नहीं पहुंच पाता जो शिवलोक से पचास करोड़ उपर है। जिसका नाम है "गोलोक" जो नित्य एवं चिरस्थाई है।
वहाँ जाने के बाद मनुष्य आवागमन से मुक्त अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। किंतु शिव भक्त शिवलोक तक ही रह जातें हैं और पुनः मृत्यु लोक में आकर जन्म लेते हैं- (कौन सा लोक कहां स्थापित हैं इसकी विस्तृत जानकारी अध्याय- (दो) में दी गई है।)
[ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।
श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय-(३०) के श्लोक- १०५ और १०६ में बताया गया है कि विष्णु की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौनसा स्थान व पद प्राप्त होता है ?
विद्वान्सुचिरजीवी च श्रीमानतुलविक्रमः ।
यो वक्ति वा ददात्येव हरेर्नामानि भारते ॥१०५।
युगं नाम प्रमाणं च विष्णुलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य स सुखी धनवान्भवेत् ॥ १०६।
अनुवाद- भारतवर्ष में जो मनुष्य भगवान श्री हरि (विष्णु) के नाम का स्वयं कीर्तन करता है अथवा इसके लिए दूसरों को प्रेरणा देता है वह जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है और वहां से पुनः इस लोक (मृत्युलोक) में आकर वह सुखी तथा धनवान होता है।१०५-१०६।
विष्णु भक्तों से संबंधित उपरोक्त श्लोकों पर विचार किया जाए तो विष्णु भक्त भी निश्चित रूप से विष्णुलोक को प्राप्त होता है और वह विष्णु के जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में निवास भी करता है। इसके बाद जब उसके जपे हुए नाम की संख्या पूरी हो जाती है तब उसे पुनः मृत्यु लोक में आना पड़ता है। अर्थात वह विष्णु लोक प्राप्त होने के बाद भी मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता है।
"यहां पर कुछ लोगों को संशय हो सकता है कि विष्णु और श्रीकृष्ण एक ही है। किन्तु ऐसी बात नहीं है क्योंकि श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश से विराट पुरुष (विराट विष्णु) और विराट विष्णु के एक अंश से अनंत विष्णु अनंत ब्रह्मांड में रहते हैं, जो श्रीकृष्ण के कुछ अंशों से श्रीकृष्ण का प्रतिनिधित्व किया करते हैं।
**
इस बात को कम ही लोग जानते हैं। इसी अज्ञानता के कारण है अधिकांश- कथावाचक और कुछ पुराण भी श्री कृष्ण को विष्णु से उत्पन्न बताते हैं जो ज्ञान की उल्टी धारा बहाने के समान है [कौन देवता कब, कैसे और कितने अंशों से उत्पन्न हुआ है इसकी विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (४) में दी गई है।
वहां से इस विषय पर विस्तृत जानकारी ली जा सकती है]
[च] - श्रीराम पूजा के लाभ।
"श्रीराम" भक्तों के बारे में भी श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय -(३०) के श्लोक- (७६) और (७७) में बताया गया है कि श्रीराम की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?
श्रीरामनवमीं यो हि करोति भारते पुमान् ।
सप्तमन्वन्तरं यावन्मोदते विष्णुमन्दिरे॥७६ ॥
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य रामभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो महांश्च धनवान्भवेत्॥७७॥
अनुवाद - जो मनुष्य भारतवर्ष में श्रीरामनवमी का व्रत सम्पन्न करता है, वह विष्णुके धाम में सात मन्वन्तर तक आनन्द करता है। पुनः उत्तम योनि में जन्म पाकर वह निश्चय ही रामकी भक्ति प्राप्त करता है और जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ तथा महान् धनी होता है। ७६- ७७।
अब यहां पर श्री राम भक्तों पर विचार किया जाए तो श्रीराम भक्त भी निश्चित रूप से विष्णु लोक को प्राप्त होता हैं। किंतु वह पुनः मृत्युलोक में उत्तम योनि में जन्म लेता है और महाधनी होता है।
श्रीराम भक्तों के बारे में ऐसा ही श्लोक में लिखा गया है। किंतु यहां विचार किया जाए तो रामभक्त विष्णु लोक पहुंचे कर भी आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति तभी हो सकती है जब मनुष्य परम धाम गोलोक को प्राप्त होता है। जो सभी लोकों से उपर है। वहां जाने के बाद मनुष्य को पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।
"देवी सावित्री और सरस्वती" जो दोनों ही ब्रह्मा जी की पत्नियां मानीं जाती हैं जिनकी उत्पत्ति पूर्व काल में श्रीराधा से ही हुई है। जिनका मुख्य स्थान ब्रह्मलोक है। उनके भक्तों के बारे में भी श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय -(३० ) के श्लोक- (९७ से ९९ ) में बताया गया है कि देवी सावित्री और सरस्वती की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?
"भारतं पुनरागत्य चारोगी श्रीयुतो भवेत् ।
ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां सावित्रीं यो हि पूजयेत्॥ ९६।
महीयते ब्रह्मलोके सप्तमन्वन्तरावधि ।
पुनर्महीं समागत्य श्रीमानतुलविक्रमः ॥ ९७।
चिरजीवी भवेत्सोऽपि ज्ञानवान्सम्पदा युतः ।
माघस्य शुक्लपञ्चम्यां पूजयेद्यः सरस्वतीम् ॥९८।
संयतो भक्तितो दत्त्वा चोपचाराणि षोडश ।
महीयते मणिद्वीपे यावद्ब्रह्म दिवानिशम् ॥ ९९।
अनुवाद - ९६-९९
• जो मनुष्य ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को भगवती सावित्री का पूजन करता है, वह सात मन्वन्तरों की अवधि तक ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। पुनः पृथ्वी पर लौटकर वह श्रीमान अतुल पराक्रमी, चिरंजीवी, ज्ञानवान तथा सम्पदा सम्पन्न हो जाता है। ९६-९७।
• जो मनुष्य माघ महीने के शुक्लपक्ष की पञ्चमी
तिथि को भक्तिपूर्वक सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों को अर्पण कर सरस्वती को पूजा करता है, वह ब्रह्माके आयु पर्यन्त मणि द्वीप में दिन-रात प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और पुनः जन्म ग्रहण कर महान् कवि तथा पण्डित होता है।९८-९९।
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो ब्रह्मा जी की दोनों पत्नियों के भक्त ब्रह्मा जी के लोक अर्थात् ब्रह्मलोक को अवश्य प्राप्त होते है जो शिव लोक और बैकुण्ठ लोक से बहुत नीचे है। किंतु इन दोनों देवियों के भक्त मृत्युलोक में पुनः जन्म ग्रहण करते हैं। इस प्रकार से इन देवियों के भक्त भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते। ऐसा ही उपरोक्त श्लोकों में लिखा गया है।
अतः पूजा अर्चना के उपरोक्त सभी श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- देवी- देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही होता है और उनके भक्त उन्हीं को प्राप्त होते हैं।
किंतु परमेश्वर श्रीकृष्ण को पूजने वाला श्रीकृष्ण को प्राप्त होकर गोलोक में गोप होकर उनका पार्षद हो जाता है। तब वह श्रीकृष्ण के ही रूप व स्वरूप में विलीन हो जाता है। इसी को मोक्ष कहा जाता है।
[ज]- श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?
तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठना स्वाभाविक हो जाता है कि जब देवी-देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही है तो मनुष्य परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण के अतिररिक्त ३३ करोड़ देवी-देवताओं को क्यों पूजते हैं ? तो इसका एकमात्र जबाब है- अज्ञानता। इसके साथ ही कुछ कथावाचकों का परब्रह्म श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान का होना। यह बात बिल्कुल सत्य है।
क्योंकि श्रीकृष्ण ही परिपूर्णतम परब्रह्म हैं, इस गूढ़ रहस्य का सम्पूर्ण ज्ञान केवल तीन लोगों को ही है- पहला पंचमुखी शिव, दूसरा- श्री राधा और तीसरा- गोप और गोपियां।
बाकी ३३ करोड़ देवी-देवताओं सहित बड़े-बड़े तपस्वियों को श्रीकृष्ण से संबंधित अल्प ज्ञान ही है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२) और (८३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये ।८२।
किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।
अनुवाद - ८२-८३
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं।
• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८३।
इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -
• गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो।९।
तब ऐसे में यह निर्णय कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है कि- जब परमेश्वर श्री कृष्ण के गुणों एवं रहस्यों का ज्ञान बड़े-बड़े ऋषि मुनि को नहीं है, पुराणों में अल्प वर्णन है, ब्रह्मा और सनत्कुमार भी परमात्मा श्री कृष्ण को अल्प ही जानते है।
तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब श्री कृष्ण के सम्पूर्ण गुणों रहस्यों को जब बड़े-बड़े ऋषि मुनि नहीं जान सके , पुराणों में अल्प वर्णन है, तथा ब्रह्मा और सनत कुमार भी परमात्मा श्री कृष्ण को अल्प ही जानते है। तो श्रीकृष्ण के संपूर्ण चरित्रों को कौन बता सकता है या कहें कि श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी कौन हो सकता है ?
तो इसका एकमात्र समाधान है - जो श्री कृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को पूर्ण रूप से जानता हो, वहीं इस समस्या का पूर्णतया समाधान कर सकता है। और ऊपर के श्लोकों में स्पष्ट रूप से बताया जा चुका है कि श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को केवल तीन लोग- (१) - शिव जी (२) - श्रीराधा (३) - और गोप- गोपियां ही जानते हैं, बाकी कोई नहीं। अतः इन तीन के अलावा और कोई श्री कृष्ण के गुण रहस्यों और उनकी कथाओं को न तो कर सकता और ना ही बता सकता है। क्योंकि श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान रखने वाला उनके सम्पूर्ण चरित्रों को कैसे बता सकता है।
अब इन तीनों में देखा जाए तो पहले नम्बर पर भगवान शिव जी आते हैं, जो श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों एवं गूढ़ रहस्यों को जानते हैं। तो क्या शिव जी भू-तल पर आकर सार्वजनिक रूप से श्री कृष्ण कथा कहेंगे ? इसका जबाब होगा नहीं। क्योंकि उनको भूतल पर श्री कृष्ण कथा कहते हुए शिव जी को कभी नहीं देखा गया और ना ही शास्त्रों में ऐसा लिखा हुआ मिलता है।
फिर भी भगवान शिव, परमात्मा श्री कृष्ण और श्रीराधा के सम्पूर्ण चरित्रों को केवल पार्वती जी को बताएं हैं, वो भी श्रीकृष्ण की अनुमति मिलने पर।
इस बात की पुष्टि - ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय - (४८) के प्रमुख श्लोकों में मिलता है। जो पार्वती शिव संवाद के रूप में जाना जाता है। जिसमें पार्वती शिव जी से कहतीं हैं कि -
तदुत्पतिं च तद्ध्यानं नाम्नो माहात्म्यमुत्तमम् ।
पूजाविधानं चरितं स्तोत्रं कवचमुत्तमम् ।१४।
आराधनविधानं च पूजापद्धतिमीप्सिताम्।
साम्प्रतं ब्रूहि भगवन्मां भक्तां भक्तवत्सल ।१५।
कथं न कथितं पूर्वमागमाख्यानकालतः।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा नम्रवक्त्रो बभूव सः ।१६।
पञ्चवक्त्रश्च भगवाञ्छुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ।
स्वसत्यभङ्गभीतश्च मौनीभूय विचिन्तयन् ।१७।
सस्मार कृष्णं ध्यानेनाभीष्टदेवं कृपानिधिम् ।
तदनुज्ञां च संप्राप्य स्वार्द्धाङ्गां तामुवाच सः ।१८।
निषिद्धोऽहं भगवता कृष्णेन परमात्मना ।
आगमारम्भसमये राधाख्यानप्रसंगतः ।१९।
मदर्द्धांगस्वरूपा त्वं न मद्भिन्ना स्वरूपतः ।
अतोऽनुज्ञां ददौ कृष्णो मह्यं वक्तुं महेश्वरि । २०।
मदिष्टदेवकान्ताया राधायाश्चरितं सति ।
अतीव गोपनीयं च सुखदं कृष्णभक्तिदम् ।२१।
जानामि तदहं दुर्गे सर्वं पूर्वापरं वरम् ।
यज्जानामि रहस्यं च न तद्ब्रह्मा फणीश्वरः ।२२।
अनुवाद - आप श्रीराधा के प्रादुर्भाव, ध्यान, उत्तम नाम- महात्म्य, उत्तम पूजा - विधान, चरित्र, स्तोत्र, उत्तम कवच, आराधना विधि तथा अभीष्ट पूजा -पद्धति का इस समय वर्णन कीजिए।
भक्तवत्सल! मैं आपकी भक्त हूं अतः मुझे यह सब बातें अवश्य बताएं। साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालिए कि आपने आगमाख्यान से पहले ही इस प्रसंग का वर्णन क्यों नहीं किया था ? (१४-१५-१६)
• पार्वती का उपर्युक्त वचन सुनकर भगवान पंचमुख शिव ने अपना मस्तक नीचा कर लिया। अपना सत्य भंग होने के भय से वे मौन हो गए और चिंता में पड़ गए।१७।
• तब उस समय उन्होंने अपने इष्ट देव
करुणा निधान भगवान श्रीकृष्ण(स्वराट्- विष्णु) का ध्यान द्वारा स्मरण किया और उनकी आज्ञा पाकर वे अपने अर्धांग स्वरूपा पार्वती से इस प्रकार बोले- देवी ! आगमाख्यान का आरम्भ करते समय मुझे परमात्मा भगवान श्री कृष्ण ने राधाख्यान के प्रसंग से रोक दिया था। १८-१९।
• परन्तु माहेश्वरी ! तुम तो मेरा आधा अंग हो, अतः स्वरुपतः मुझसे भिन्न नहीं हो। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने इस समय मुझे यह प्रसंग तुम्हें सुनाने की आज्ञा दे दी है। २०-२१।
• अतः इस गोपनीय विषय को भी तुमसे कहता हूं। दुर्गे ! यह परम अद्भुत रहस्य है मैं इसका कुछ वर्णन करता हूं सुनो।२२।
(पार्वती को भगवान शिव ने राधाख्यान में क्या बताया उसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक के अध्याय- (दो) में किया गया है। वहां से राधाख्यान की कुछ सामान्य जानकारी प्राप्त की जा सकती हैं।)
अतः इस प्रसंग से यह सिद्ध होता है कि-गोपेश्वर श्री कृष्ण और श्री राधा के संपूर्ण चरित्रों को बताने के लिए शिव को भी श्रीकृष्ण से अनुमति लेनी पड़ी थी। तो ऐसे में भगवान शिव भूतल पर सार्वजनिक रूप से श्री कृष्ण कथा कैसे कह सकते हैं ?
अब रही बात दूसरी श्री राधा जी की। क्योंकि श्री कृष्ण के संपूर्ण रहस्यों एवं चरित्रों को श्री राधा भी जानती हैं। तो क्या श्रीराधा जी इस भूतल पर आकर श्रीकृष्ण कथा कहेंगी ? ऐसा संभव नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण और श्रीराधा में कोई भेद नहीं है। सांसारिक प्रक्रिया के मूल द्वन्द्वात्मक रूप से परे होने पर दोनों मूलत: एक ही ब्रह्म रूप हैं।
तो ऐसे में वह अपनी ही कथा स्वयं कैसे कहेंगी। क्योंकि आज तक ऐसा कभी नहीं देखा गया कि कोई अपनी कथा स्वयं कहता हो।
अब रही बात तीसरे क्रम पर गोप और गोपियों की। क्योंकि गोप और गोपियां भी श्रीकृष्ण के संपूर्ण चरित्र एवं गूढ़ रहस्यों को भलि भांति जानते हैं। क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्री कृष्ण और श्री राधा के रोम कूपों से ही हुई हैं। ऐसे में भला ये गोप और गोपियां श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों को कैसे नहीं जान सकते ? और सबसे बड़ी बात यह है कि श्री कृष्ण की लीला का सहचर बनकर ये गोप और गोपियां संपूर्ण ब्रह्मांड में उसी तरह से विद्यमान हैं, जैसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रत्येक ब्रह्मांड में विद्यमान है।
और भगवान श्री कृष्ण इन्हीं गोप और गोपियों को लेकर अपने लीलाएं किया करते हैं।
(गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा से कैसे और कब हुई ? इस विषय पर संपूर्ण जानकारी इस पुस्तक के अध्याय (४) में दी गई है वहां से इसकी जानकारी प्राप्त की सकती हैं।)
अतः उपरोक्त तथ्यों के आधर पर सिद्ध होता है कि - श्रीकृष्ण कथा केवल गोप और गोपियां ही कह सकते हैं, जो मानवीय रूप में भूतल पर बहुतायत संख्या में विद्यमान हैं।
"श्रीकृष्ण कथा कहने के लिए केवल गोप [आभीर] विद्वान ही पात्र हैं।
और उनके मन- मस्तिष्क में जन्म जन्मान्तर से श्री कृष्ण का संपूर्ण चरित्र एवं गुणों का ज्ञान सुषुप्तावस्था में विद्यमान है। ****
बस उसे श्री कृष्ण की आराधना करके जगाने की जरूरत है। और जिस क्षण वह ज्ञान, गोप और गोपियों में जागा, उसी क्षण वह श्री कृष्ण कथा कहने के लिए पात्र हो जाएंगे।
चाहे वह गोप हो या गोपी। इनके अतिरिक्त भू-तल पर श्रीकृष्ण कथा कोई नहीं कह सकता भले ही वह कितना ही बड़ा कथावाचक क्यों न हो।
क्योंकि इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (९४) के श्लोक-(८२)और (८३) में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि -
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये। ८२।
किंचित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।८३।
अनुवाद - ८२,८३
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।
_____
[अध्याय- (१)
(|||)✓✓✓
[शास्त्रोचित पूजा-अर्चना के विधि विधान एवं गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणाम ]
[झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणाम।
ऐसे में यदि इन तीन - (शिव जी, श्रीराधा, और गोप-गोपियों ) के अतिरिक्त कोई दूसरा अपने को विद्वान बताकर श्री कृष्ण कथा कहता है तो निश्चित रूप से वह श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों का वर्णन नहीं कर पायेगा। और शास्त्रों में यह विधान किया गया है कि गलत कथा या आधी अधूरी कथा कहने वाले नरक के भागी होते हैं।
इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड उत्तरार्द्ध- के अध्याय -(८५)
के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो नन्द बाबा और श्रीकृष्ण संवाद के रूप में है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा के पूछे जाने पर, गलत कर्म करने वाले एवं धुर्त कथावाचकों के बारे में कहते हैं कि-
कविः प्रहर्ता विदुषां माण्डूकः सप्तजन्मसु। असत्कविर्ग्रामविप्रो नकुलः सप्तजन्मसु।१९२।
कुष्ठी भवेच्च जन्मैकं कृकलासस्त्रिजन्मसु।
जन्मैकं वरलश्चैव ततो वृक्षपिपीलिका।१९३।
ततः शूद्रश्च वैश्यश्च क्षत्रियो ब्राह्मणस्तथा।
कन्याविक्रयकारी च चतुर्वर्णो हि मानवः।१९४।
सद्यः प्रयाति तामिस्रं यावच्चन्द्रदिवाकरौ।
ततौ भवति व्याधश्च मांसविक्रयकारकः। १९५।
"ततो व्याधि(धो)र्भवेत्पश्चाद्यो यथा पूर्वजन्मनि । मन्नामविक्रयी विप्रो न हि मुक्तो भवेद् ध्रुवम्।१९६।
मृत्युलोके च मन्नामस्मृतिमात्रं न विद्यतेः पश्चाद्भवेत्स गो योनौ जन्मैकं ज्ञानदुर्बलः।१९७।
ततश्चागस्ततो मेषो महिषःसप्तजन्मसु।
महाचक्री च कुटिलो धर्महीनस्तु मानवः।१९८।
अनुवाद- (१९२-१९८)
• विद्वानों के कवित्व (विद्वत्ता) पर प्रहार करने वाला सात जन्मों तक मेंढक होता है। और जो झूठे ही अपने को विद्वान कहकर गाँवों की पुरोहितायी और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करता है; वह सात जन्मों तक नेवला होता है। १९२।
• और वह एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक गिरगिट होता है, फिर एक जन्म में बर्र ( ततैया) होने के बाद वह वृक्ष की चींटी (माटा/ दींमक) होता है।१९३।
• उसके बाद क्रमश: शूद्र , वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण बनता है, और इन चारो वर्णों मे कन्या बेचने वाला तथा मेरे नाम को बेचने वाला ब्राह्मण ( विप्र) भी कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं करता- यह ध्रुव सत्य है।१९४।
• तथा मेरे नाम को बेचने वाला (मेरे नाम पर धंधा चलाने वाला) कथावाचक (पुरोहित) शीघ्र ही तामिस्र नरक में जाता है और तब-तक रहता है जब तक सूर्य तथा चन्द्रमा रहते है। उसके बाद मांस बेचने वाला बहेलिया बनता है।१९३।
• फिर उसे पूर्व जन्म के कर्म- संस्कारों के कारण बीमारी घेरती है। और मेरे नाम को बेचने वाले ( मेरे नाम पर धंधा चलाने वाले) पुरोहितों (कथावाचकों) की मुक्ति नहीं होती- यह ध्रुव सत्य है।१९६।
• मृत्युलोक में जिसके ध्यान में मेरा नाम आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गाय का बछड़ा बनकर जन्म लेता है। १९७।
• इसके बाद बकरा, फिर मेढा और सात जन्मों तक भैंसा होता है। इस प्रकार बहुत से चक्कर लगाते (महचक्री) हुए वह जो षड्यन्त्र रचने में बहुत प्रवीण हो। कुटिल धर्म से हीन मानव बनता है।१९८।
[ञ] - सच्चे गुरु की पहचान।
इसीलिए किसी ऐसे गुरु को चुनना चाहिए जो तत्व ज्ञानी हो, श्रीकृष्ण के प्रति भक्तिभाव उत्पन्न करने वाला हो, गुरुमंत्र नहीं वल्कि कृष्ण मंत्र देने वाला हो, जो शिष्यों से स्वं को न पुजवाकर परमेश्वर को पूजने की बात कहता हो। यदि ऐसा गुरु मिल जाए तो उसे गुरु मानकर ज्ञान अवश्य लेना चाहिए। सच्चे गुरु, भाई, बंधु , माता-पिता की कुछ ऐसी ही विशेषताएं देवीभागवतपुराण-स्कन्धः (9) अध्याय (48)- के अध्याय -(४६) में बताईं गई है। जो इस प्रकार है-
यो बन्धुश्चेत्स च पिता हरिवर्त्मप्रदर्शकः।
सा गर्भधारिणी या च गर्भावासविमोचनी॥६५।
दयारूपा च भगिनी यमभीतिविमोचनी।
विष्णुमन्त्रप्रदाता च स गुरुर्विष्णुभक्तिदः॥६६।
गुरुश्च ज्ञानदो यो हि यज्ज्ञानं कृष्णभावनम्।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं ततो विश्वं चराचरम्॥ ६७।
आविर्भूतं तिरोभूतं किं वा ज्ञानं तदन्यतः।
वेदजं यज्ञजं यद्यत्तत्सारं हरिसेवनम्॥ ६८।
तत्त्वानां सारभूतं च हरेरन्यद्विडम्बनम्।
दत्तं ज्ञानं मया तुभ्यं स स्वामी ज्ञानदो हि यः॥६९।
ज्ञानात्प्रमुच्यते बन्धात्स रिपुर्यो हि बन्धदः।
विष्णुभक्तियुतं ज्ञानं नो ददाति च यो गुरुः॥७०।
स रिपुः शिष्यघाती च यतो बन्धान्न मोचयेत् ।
जननीं गर्भजक्लेशाद्यमयातनया तथा॥७१।
न मोचयेद्यः स कथं गुरुस्तातो हि बान्धवः।
परमानन्दरूपं च कृष्णमार्गमनश्वरम्॥ ७२।
अनुवाद- ६५-७२
भगवत्प्राप्ति का मार्ग दिखाने वाला बन्धु ही सच्चा पिता है। जो आवागमन (गर्भवास ) से मुक्त कर देनेवाली है, वही सच्ची माता है। वही बहन दयास्वरूपिणी है, जो यम के त्रास (भय) से छुटकारा दिला दे। गुरु वही है, जो विष्णु का मन्त्र प्रदान करनेवाला तथा भगवान् विष्णु के प्रति भक्ति उत्पन्न करने वाला हो।६५-६६।
• ज्ञानदाता गुरु वही है, जो भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन कराने वाला ज्ञान प्रदान करे; क्योंकि तृण से लेकर ब्रह्माण्डपर्यन्त चराचर सम्पूर्ण विश्व आविर्भूत( उत्पन्न) होकर पुनः विनष्ट होने वाला है, तो फिर अन्य वस्तु से ज्ञान कैसे हो सकता है ? वेद अथवा यज्ञ से जो भी सारतत्त्व निकलता है, वह भगवान् श्रीहरि की सेवा ही है।६७-६८।
• यही हरिसेवा समस्त तत्त्वों का सारस्वरूप है, भगवान् श्रीहरि की सेवा के अतिरिक्त अन्य सब कुछ विडम्बना ( जग- हँसाई) मात्र है। मेरे द्वारा जो ज्ञान तुमको दिया गया है। ज्ञानदाता स्वामी वही है जो ज्ञान के द्वारा बन्धन से मुक्त कर देता है वही बन्धु है ! और जो बन्धन में डालता है, वह शत्रु है। जो भगवान् विष्णु में भक्ति उत्पन्न करनेवाला ज्ञान नही देता वह गुरु भी शत्रु ही है। ६९-७०।
• वह गुरु शत्रु और शिष्यघाती ही है जो बन्धन से मुक्त नहीं करता है। जो जननी के गर्भजनित कष्ट तथा यमयातना से मुक्त न कर सके; उसे गुरु, तात तथा बान्धव कैसे कहा जाय ? जो बन्धन से मुक्त नहीं करे। और जो भगवान् श्रीकृष्ण के परमानन्दस्वरूप सनातन मार्ग का निरन्तर दर्शन नहीं कराता हो। ७१-७२।
उपरोक्त श्लोकों में जो गुरु की विशेषताएं बताई गई है- ("वह गुरु शिष्य घाती है जो अपने ज्ञान से शिष्यों को मोह-माया के बंधनमुक्त नहीं करता तथा परमानन्द स्वरूप सनातन मार्ग का निरंतर दर्शन नहीं कराता"।) वह बिल्कुल सत्य है। उसी के हिसाब से मनुष्य को गुरु का चयन करना चाहिए। पाखंडी और छद्मवेषधारी गुरुओं को तुरंत त्याग देना चाहिए। इसी में भलाई है नहीं तो फिर जग हंसाई है।
और यादव लोग तो वैसे भी पाखण्डवाद से सदैव दूर रहते हैं। इस बात की पुष्टि हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय- (२२) के श्लोक (१४) से उस समय होती है जब कंस अपने समस्त यादवों को राज दरबार में बुलाकर कुछ इस प्रकार कहा-
अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः ।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः ।।१४ ।।
अनुवाद- आप (यादव) सब लोग पाखंडपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मंत्राओं को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।
अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण कथा कहने का पात्र केवल गोप और गोपियों ही है। इनके अतिरिक्त और किसी के द्वारा श्री कृष्ण कथा कहने का मतलब श्रीकृष्ण की अधूरी जानकारी देना है।
*****
यही कारण है कि गोपों के अतिरिक्त वर्तमान समय में जितने भी कथावाचक हैं श्री कृष्ण कथा कहते समय श्री कृष्ण के साथ गोपों की चर्चा नहीं कर पाते हैं।
इस प्रकार से परमप्रभु परमेश्वर कौन हैं ? पूजा-अर्चना के वास्तविक विधि-विधान क्या है ? वास्तव में किसकी पूजा करनी चाहिए किसकी नहीं ? कथावाचकों द्वारा गलत कथा कहने के दुष्परिणाम तथा सही गुरु का चयन कैसे किया जाए इन सभी की जानकारी के साथ यह अध्याय समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय- (दो) में जानकारी दी गई है कि- "श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनका गोलोक धाम कैसा है और कहां स्थापित है"।
[ अध्याय - द्वितीय]
🙏
[ अध्याय- [ २ ] ✓✓✓
श्रीकृष्ण का स्वरूप एवं उनके गोलोक का वर्णन ]
गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का वास्तविक स्वरूप और उनके गोलोक का वर्णन मुख्यतः ब्रह्मवैवर्तपुराण और गर्गसंहिता में मिलता है। जिसमें सबसे पहले हमलोग गोपेश्वर श्री कृष्ण के स्वरूप को जानेंगे, इसके बाद गोलोक की लौकिक एवं भौतिक स्थिति को जानेंगे।
जिसमें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय २- के क्रमशः श्लोक संख्या- ४ से २१ में श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूपों के बारे में लिखा गया है कि -
ज्योतिः समूहं प्रलये पुराऽऽसीत्केवलं द्विज।
सूर्य्यकोटिप्रभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम्।४।
स्वेच्छामयस्य च विभोस्तज्ज्योतिरुज्ज्वलं महत्।।
ज्योतिरभ्यन्तरे लोकत्रयमेव मनोहरम् ।५।
तेषामुपरि गोलोकं नित्यमीश्वरवद् द्विज ।।त्रिकोटियोजनायामविस्तीर्णं मण्डलाकृति।६।
तेजःस्वरूपं सुमहद्रत्नभूमिमयं परम्।।
अदृश्यं योगिभिः स्वप्ने दृश्यं गम्यं च वैष्णवैः।७।
आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितम्।८।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण-(ब्रह्मखण्डः)अध्यायः (२) के आठवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)
सद्रत्नरचितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितम्।।
लये कृष्णयुतं सृष्टौ गोपगोपीभिरावृतम्।९।
तदधो दक्षिणे सव्ये पञ्चाशत्कोटियोजनान् ।।
वैकुण्ठं शिवलोकं तु तत्समं सुमनोहरम्।१०।
गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम् ।१३।
( ब्रह्मवैवर्तपुराण-(ब्रह्मखण्डः) अध्यायः (२)के तेरहवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)
परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारकम् ।।
ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा।१४।
तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम् ।।
तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम् ।१५।
नवीननीरदश्यामं रक्तपङ्कजलोचनम् ।।शारदीयपार्वणेन्दुशोभितं चामलाननम् ।१६।
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोरमम् ।।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् ।१७।
रत्नसिंहासनस्थं च वनमालाविभूषितम् ।।
तदेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।२०।
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।२१।
अनुवाद-
• पुरातन प्रलय काल में केवल ज्योति-पुञ्ज प्रकाशित था। जिसकी प्रभा करोड़ो सूर्यों के समान थी। वही नित्य व शाश्वत ज्योतिर्मण्डल असंख्य विश्वों का कारण बनता है।४।
• वह स्वेच्छामयी,सर्वव्यापी परमात्मा का महान सर्वोज्ज्वल तेज है। उस तेज के आभ्यन्तर (भीतर) मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं।५।
• और उन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक धाम है जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई- चौड़ाई तीन करोड़ योजन तक विस्तारित है। उसका आयतन सभी और से मण्डलाकार है। ६।
• और उसकी परम- तेज युक्त सुन्दर महान भूमि रत्नों से मड़ी हुई है। वह लोक योगियों के लिए स्वप्न में भी दिखाई देने योग्य नहीं है। वह केवल वैष्णवों के लिए ही दृश्य और गम्य (पहुँचने योग्य) है।७।
• वहाँ आधि (मानसिक पीड़ा) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) जरा (बुड़़ापा) मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं है।८।
• रत्न से निर्मित असंख्य मन्दिरों से सुशोभित उस लोक में प्रलय काल में केवल श्री कृष्ण मूल रूप से विद्यमान रहते हैं। और सृष्टि काल में वही गोप-गोपियों से परिपूर्ण रहता है।९।
• और इस गोलोक के नीचे दक्षिण भाग में पचास करोड़ योजन दूर वैकुण्ठ धाम है। और वाम-भाग में इसी के समानान्तर शिवलोक विद्यमान है।१०।
• गोलोक से भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है।१३।
• जो परम आह्लाद जनक तथा नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। वह ज्योति ही परमानन्द दायक है जिसका ध्यान सदैव योगीजन योग के द्वारा ज्ञान नेत्रों से करते हैं।१४।
• ज्योति के भीतर जो अत्यन्त परम मनोहर रूप है। वही निराकार व परात्पर ब्रह्म है; उसका रुप उस ज्योति के भीतर अत्यन्त सुशोभित होता है । १५।
• जो नूतन जलधर (मेघ) के समान श्याम (साँवला) है जिसके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्लित हैं। जिनका निर्मल मुख शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करता है।१६।
• यह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है। उनकी दो भुजाएँ हैं। एक हाथ में मुरली सुशोभित होती है,और उपरोष्ठ एवं अधरोष्ठों पर मुस्कान खेलती रहती है जो पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं। १७।
• वह श्याम सुन्दर पुरुष रत्नमय सिंहासन पर आसीन है और आजानुलम्बिनी (घुटनों तक लटकने वाली) वन माला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परम्-ब्रह्म परमात्मा और सनातन ईश्वर कहते हैं।२०।
• वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।
भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक का स्वरूप तथा उनके गोप गोपियों - के विषय में ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२८) के कुछ प्रमुख श्लोकों में भी बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। जिसका हम निम्नलिखित श्लोकों में प्रस्तुतिकरण करते हैं।
****
तत्तेजोमण्डलाकारे सूर्य्यकोटिसमप्रभे ।
नित्यं स्थलं च प्रच्छन्नं गोलोकाभिधमेव च। ४०।।
लक्षकोट्या योजनानां चतुरस्रं मनोहरम् ।।
रत्नेन्द्रसारनिर्माणैर्गोपीभिश्चावृतं सदा ।।४१।।
सुदृश्यं वर्तुलाकारं यथा चन्द्रस्य मण्डलम्।।
नानारत्नैश्च खचितं निराधारं तदिच्छया ।।४२।
ऊर्ध्वं च नित्यवैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनम्।
गोगोपगोपीसंयुक्तं कल्पवृक्षसमन्वितम् ।।४३।
अनुवाद ( ४०- ४३)
• करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान जो मंडलाकार तेज पुंज है, उसके भीतर नित्य धाम छुपा हुआ है जिसका नाम गोलोक है।४०।
• वह मनोहर लोक चारों ओर से लक्ष्य कोटि योजन विस्तृत है। सर्वश्रेष्ठ दिव्य रत्न के सारतत्वों से जिनका निर्माण हुआ है, ऐसे दिव्य भवनों तथा गोपांगनाओं से वह लोक सदा भरा हुआ है। ४१।
• चन्द्रमण्डल के समान ही वह गोलाकार है। रत्नेन्द्रसार से निर्मित वह धाम परमात्मा की इच्छा के अनुसार बिना किसी आधार के ही स्थित है। ४२।
• उस नित्य लोक की स्थिति वैकुणठ लोक से पचास करोड़ योजन ऊपर है। वहां गायें, गोप और गोपियां निवास करती हैं। वहां कल्पवृक्ष के वन हैं।४३।
वृन्दावनवनाच्छत्रं विरजावेष्टितं मुने।४४।।
शतशृङ्गं शातकुम्भैः सुदीप्तं श्रीमदीप्सितम्।।
लक्षकोट्या परिमितैराश्रमैः सुमनोहरैः।४५।।
शतमन्दिरसंयुक्तमाश्रमं सुमनोहरम्।।
प्राकारपरिखायुक्तं पारिजातवनान्वितम्।४६।
कौस्तुभेन्द्रेण मणिना राजितं परमोज्ज्वलम् ।।
हीरसारसुसंक्लृप्तसोपानैश्चातिसुन्दरैः।४७।।
मणीन्द्रसाररचितैः कपाटैर्दर्पणान्वितैः ।।
नानाचित्रविचित्राढ्यैराश्रमं च सुसंस्कृतम्।४८।।
षोडशद्वारसंयुक्तं सुदीप्तं रत्नदीपकैः।
रत्नसिंहासने रम्ये महार्घमणिनिर्मिते ।४९।
नानाचित्रविचित्राढ्ये वसन्तं वरमीश्वरम्।
नवीननीरदश्यामं किशोरवयसं शिशुम् ।५०।
शरन्मध्याह्नमार्त्तण्डप्रभामोचकलोचनम् ।
शरत्पार्वणपूर्णेन्दुशुभदीप्तिमदाननम्।५१ ।
कोटिकन्दर्पलावण्यलीलानिन्दितमन्मथम् ।
कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टं पुष्टं श्रीयुक्तविग्रहम्।५२।
सस्मितं मुरलीहस्तं सुप्रशस्तं सुमङ्गलम् ।
परमोत्तमपीतांशुकयुगेन समुज्ज्वलम्।५३ ।
वीक्षितं गोपिकाभिश्च वेष्टिताभिस्समन्ततः।
स्थिरयौवनयुक्ताभिः सस्मिताभिश्च सादरम्। ५४।
अनुवाद- (४४-५४)
• मुने ! वह वृंदावन से आच्छन्न और विरजा नदी से आवेष्टित है। वहां सैकड़ो शिखरों से सुशोभित गिरिराज विराजमान है। स्वर्ण निर्मित लक्ष्य कोटि के मनोहर आश्रम है।४४-४५।
• जिनसे वह अभीष्ट धाम अत्यंत दीप्तिमान एवं श्री संपन्न दिखाई देता है। उन सबके मध्य भाग में एक परम मनोहर आश्रम है जो अकेला ही सौ मन्दिरों से संयुक्त है। वह परकोटों तथा खाइयों से घिरा हुआ तथा पारिजात के वनों से सुशोभित है।४६।
• उस आश्रम के भवनों में जो कलश लगे हैं उनका निर्माण रत्नराज कौस्तुभ मणि से हुआ है।
इसलिए वह उत्तम ज्योति पुंज से जाज्वल्यमान रहते हैं।
उन भवनों में जो सीढ़ियां हैं वे दिव्य हीरे के सारतत्व से बनी हुई है। उनसे उन भवनों का सौंदर्य बहुत बढ़ गया है।४७।
• मणीन्द्रसार से निर्मित वहां के किवाड़ों में दर्पण जड़े हुए हैं। नाना प्रकार के चित्र -विचित्र उपकरणों से वह आश्रम भली भांति सुसज्जित है।४८।
• उसमें सोलह दरवाजे हैं तथा वह आश्रम रत्नमय प्रदीपों से अत्यंत उद्भासित होता है। वह बहुमूल्य रत्न द्वारा निर्मित है।४९।
• तथा नाना प्रकार के विचित्र चित्रों से चित्रित रमणीय रत्नमय सिंहासन पर सर्वेश्वर श्री कृष्ण बैठे हुए हैं। उनकी अंक कांति नवीन मेघमाला के समान श्याम है वे किशोर अवस्था के बालक हैं। ५०।
• उनके नेत्र शरद काल की दोपहरी की सूर्य की प्रभा को छीने लेते हैं।५१
• उनका मुखमंडल शरद पूर्णिमा के पूर्ण चंद्रमा की शोभा को ढक देता है। उनका सौंदर्य कोटी कामदेव को लावण्य लीला को तिरस्कृत कर रहा है। उनका पुष्ट श्रीविग्रह करोड़ चंद्रमाओं की प्रभा से सेवित है।५२।
• उनके मुख पर मुस्कुराहट खेलती रहती है उनके हाथ में मुरली शोभा पाती है। सब ओर से घेरकर खड़ी हुई गोपांगनाएं उन्हें सदा सादर निहारती रहती है।५३।
• वे गोपांगनाएं भी सुस्थिर यौवन से युक्त मंद मुस्कान से सुशोभित तथा उत्तम रत्न के बने हुए आभूषणों से विभूषित हैं।५४।
भूषिताभिश्च सद्रत्ननिर्मितैर्भूषणैः परम्।
एवंरूपमरूपं तं मुने ध्यायन्ति वैष्णवाः।६१ ।
सततं ध्येयमस्माकं परमात्मानमीश्वरम् ।।
अक्षरं परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम्।६२ ।।
स्वेच्छामयं निर्गुणं च निरीहं प्रकृतेः परम् ।।
सर्वाधारं सर्वबीजं सर्वज्ञं सर्वमेव च।६३ ।।
सर्वेश्वरं सर्वपूज्यं सर्वसिद्धिकरं प्रदम्।।
स एव भगवानादिर्गोलोके द्विभुजः स्वयम् ।६४।
गोपवेषश्च गोपालैः पार्षदैः परिवेष्टितः।।
परिपूर्णतमः श्रीमान् श्रीकृष्णो राधिकेश्वरः।६५।
अनुवाद -६१-६५-
• मुने ! वैष्णवजन उन निराकार परमात्मा का इस रूप में ध्यान किया करते हैं। वे परमात्मा ईश्वर हम सब लोगों के सदा ही ध्येय हैं। उन्हीं
को अविनाशी परब्रह्म कहा गया है। ६१-६२।
• वे ही दिव्य स्वेच्छामय शरीरधारी सनातन भगवान है। वे निर्गुण, निरीह और प्रकृति से परे हैं। सर्वाधार, सर्वबीज, सर्वज्ञ,सर्व स्वरुप है।६३।।
• सर्वेश्वर, सर्वपूज्य तथा संपूर्ण सिद्धियों को हाथ में देने वाले हैं। वे आदि पुरुष भगवान स्वयं ही द्विभुज रूप धारण करके गोलोक में निवास करते हैं।६४।
•उनकी वेशभूषा भी ग्वालों के समान होती है और वे अपने पार्षद गोपालों(गोपों ) से घिरे रहते हैं। उन परिपूर्णतम भगवान को श्रीकृष्ण कहते हैं। वे सदा श्रीजी के साथ रहने वाले और श्रीराधिका के प्राणेश्वर हैं।६५।
इसके अलावा ऋग्वेद मण्डल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में भी गोलोक का वर्णन मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि- गोलोक में भूरिश्रृंगा गायें रहती है इसीलिए उस परमधाम को गोलोक अर्थात् गायों का लोक कहा जाता है।
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
पदों के अर्थ व अन्वय:-
जिसमें "पदों का अर्थ है:-(यत्र)= जहाँ (अयासः)= प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः)= स्वर्ण युक्त सींगों वाली (गावः)= गायें हैं (ता)= उन ।(वास्तूनि)= स्थानों को (वाम्)= तुम को (गमध्यै)= जाने को लिए (उश्मसि)= इच्छा करते हो। (उरुगायस्य)= बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः)= सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्)= उत्कृष्ट (पदम्)= स्थान (भूरिः)= अत्यन्त (अव भाति) =उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्)= उसको (अत्राह)= यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६।
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यही स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं। क्योंकि इस सम्बन्ध में ऐसा ही लिखा गया है कि -
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
(ऋग्वेद १/२२/१८)
इस ऋचा के पद-भेद से स्पष्ट होता है कि -
(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्)= धारण करता हुआ । (गोपाः)= गोपालक रूप, (विष्णुः)= संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि)= क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को ।18॥
अर्थात् यह बात वेदों से भी सुनिश्चित हुयी कि -
परमेश्वर श्रीकृष्ण का सनातन निवास गोलोक है, जहां वे गोप-वेष में अपने गौवें तथा गोपों के साथ रहते हैं और गोप-वेष में ही रहकर धर्म की स्थापना बारम्बार करते है।
इस प्रकार से यह अध्याय- (दो) भगवान श्रीकृष्ण का सनातन स्वरूप और उनके गोलोक धाम की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय -(३) में जानेंगे कि श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई परम शक्ति या परमेश्वर नहीं है।
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[ अध्याय - तृतीय]
[अध्याय- ३ (|)✓✓✓]
[श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नही है।
श्री कृष्ण ही एकमात्र परम प्रभु या परमेश्वर है। इस बात की पुष्टि सर्वप्रथम ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (३०) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है।
जिसमें नारायण मुनि नारद जी को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराट विष्णु इत्यादि श्री कृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं -
"चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः।
त्वं चापि नारद मुने परमादरेण सञ्चिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम्।।६।
यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः।
कलाविशेषा भवपारमुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः।। ७।
सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम् ।।
कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः ।।८।
गोलोकनाथस्य विभोर्यशोऽमलं श्रुतौ पुराणे नहि किञ्चन स्फुटम्।
न पाद्ममुख्याः कथितुं समर्थाः सर्वेश्वरं तं भज पाद्ममुख्यम् ।। ९।
विश्वेषु सर्वेषु च विश्वधाम्नः सन्त्येव शश्वद्विधिविष्णुरुद्राः ।।
तेषां च संख्याः श्रुतयश्च देवाः परं न जानन्ति तमीश्वरं भज ।। १०।
करोति सृष्टिं स विधेर्विधाता विधाय नित्यां प्रकृतिं जगत्प्रसूम्।
ब्रह्मादयः प्राकृतिकाश्च सर्वे भक्तिप्रदां श्रीप्रकृतिं भजन्ति ।। ११।
ब्रह्मस्वरूपा प्रकृतिर्न भिन्ना यया च सृष्टिं कुरुते सनातनः।
श्रियश्च सर्वाः कलया जगत्सु माया च सर्वे च तया विमोहिताः।।१२।
नारायणी सा परमा सनातनी शक्तिश्च पुंसः परमात्मनश्च।
आत्मेश्वरश्चापि यया च शक्तिमांस्तया विना स्रष्टुमशक्त एव ।। १३।
अनुवाद -
• जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर किसकी सामर्थ्य है ? हे नारद ! तुम भी श्री हरि के चरणारविंद का अत्यंत आदर पूर्वक चिंतन करो। ६।
• नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्मा जी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।
• सहस्र शिरो वाले शेषनाग संपूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण अथवा स्थापित करते है। वे भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठ हो। वे भगवान कूर्म भी श्री कृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं। ८।
• गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ स्पष्ट रूप से वर्णन नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु (श्रीकृष्ण ) की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान का भजन करो।९।
• सभी ब्रह्माण्डों में सर्वदा सार्वभौम निवास उन परमेश्वर के प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र विद्यमान हैं।
इन देवताओं की संख्या असंख्य है और देवता भी उस भगवान के परम - स्वरूप को नहीं जानते हैं। उस परमेश्वर का भजन करो।१०।
(अर्थात- जो सृष्टिकर्ता एक नियम से सृष्टि सर्जन करता है वह भी उस शाश्वत प्रकृति का चिन्तन करता है जो ब्रह्माण्ड की जननी है। ब्रह्मा और अन्य तथा सभी प्राकृतिक प्राणीयों को भक्ति प्रदान करने वाली इस भाग्य की देवी की पूजा करते हैं।)
प्रकृति ब्रह्मस्वरूप है वह उससे भिन्न नहीं है जिससे नित्य सृष्टि होती है। संसार की सारी सुंदरता और सारी माया उसकी कलाओं से विमोहित हो जाती है।१२।
• नारायणी मनुष्य और परमात्मा की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति है। यहां तक कि आत्मा का स्वामी भी उसके बिना, जो सर्वशक्तिमान है, सृजन करने में असमर्थ है।१३।
भगवान श्रीकृष्ण को सर्वेश्वर एवं ऐश्वर्यशाली होने की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- २१ के श्लोक संख्या- (४३) से भी होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम् ।।४३।
अनुवाद -
• वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही उस परम- सत्ता के प्रतिनिधि हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए ।४३।
और ऐसा ही वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या (१७) से (१८)और (१९) में भी मिलता है -
"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम्।।१७।
स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम्।।१८।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम्।।१९।
अनुवाद:-
• द्विभुजधारी, किशोर वय, गोपवेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है; वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं।१७।
परम्- ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति मुनि गणों के साथ करते हैं।१८।
• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षीरूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा मुस्कान और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।१९।
इन श्लोकों के अतिरिक्त ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६७) के श्लोक संख्या - (४९) से भी कृष्ण की सर्वोपरिता स्वत: सिद्ध होती है जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं राधा से कहते हैं कि-
"आधारश्चाहमाधेयं कार्य च कारणं विना ।
अये सर्वाणि द्रव्याणि नश्वराणि च सुन्दरि"।४९।
अनुवाद- हे राधे ! मैं आधार और आधेय ,कारण और कार्य दोंनो ही रूपों में हूँ । सभी द्रव्य परिवर्तन शील होने से नाशवान है। श्री कृष्ण संपूर्ण ब्रह्मांड की एकमात्र सर्वोच्च शक्ति हैं वे इसी सत्य को राधा जी से कहते हैं।"
इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-( ११ ) के श्लोक संख्या- (१६) में भगवान श्री कृष्ण की सर्वोच्चता का तुलनात्मक वर्णन मिलता है जो "शौनक और सूत संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें सूत जी शौनक जी कहते है कि-
"नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न च कृष्णात्परः सुरः।
न शङ्कराद्वैष्णवश्च न सहिष्णुर्धरा परा।।१६।
अनुवाद:-
• गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है। कृष्ण से बड़ा कोई देव अथवा ईश्वर नहीं, और शंकर (शिव) से बड़ा कोई सहनशील वैष्णव इस भू-मंडल में नहीं है।१६।
इसी तरह से ब्रह्मवैवर्तपुराण -श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (6) के श्लोक संख्या- (४२- ४३- ४४ -४५-४६ -४७) और (४८) में अपनी विभूतियों के विषय में स्वयं गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक में पधारे देवताओं से कहते हैं कि-
"देवाः कालस्य कालोऽहं विधाता धातुरेव च।
संहारकर्तुः संहर्ता पातुः पाता परात्परः।।४२।
"ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।
त्वं विश्वसृट् सृष्टिहेतोः पाता धर्मस्य रक्षणात्।। ४३।
"ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।
स्वकर्मफलदाताऽहं कर्मनिर्मूलकारकः।।४४।
"अहं यान्संहरिष्यामि कस्तेषामपि रक्षिता ।
यानहं पालयिष्यामि तेषां हन्ता न कोऽपि वा। ४५।
"सर्वेषामपि संहर्ता स्रष्टा पाताऽहमेव च ।
नाहं शक्तश्च भक्तानां संहारे नित्यदेहिनाम् ।।४६।
"भक्ता ममानुगा नित्यं मत्पादार्चनतत्पराः।
अहं भक्तान्तिके शाश्वत्तेषां रक्षणहेतव ।४७।
"सर्वे नश्यन्ति ब्रह्माण्डानां प्रभवन्ति पुनःपुनः।
न मे भक्ताः प्रणश्यन्ति निःशंकाश्च निरापदः।४८।
अनुवाद:-
• हे देवो ! मैं काल का भी काल हूँ। विधाता का भी विधाता हूँ। संहारकारी का भी संहारक तथा पालक का भी पालक मैं ही परात्पर परमेश्वर हूँ। ४२।
• और मेरी आज्ञा से ही शिव रूद्र रूप धारण कर संसार का संहार करते हैं इसलिए उनका नाम "हर" सार्थक है। और मेरी आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि सर्जन के लिए उद्यत रहते हैं। इस लिए वे विश्व- स्रष्टा कहलाते हैं। और धर्म के रक्षक देव विष्णु सृष्टि की रक्षा के कारण पालक कहलाते हैं। ४३।
• ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सबका ईश्वर मैं ही हूँ। मैं ही कर्म फल का दाता और कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ। ४४।
• और मैं जिसका संहार करना चाहता हूँ; उनकी रक्षा कौन कर सकता है ? तथा मैं जिसका पालन करने वाला हूँ; उसका विनाश करने वाला कोई नहीं है ।४५।
• मूलत: मैं ही सबका सर्जक ,पालक और संहारक हूँ। परन्तु मेरे भक्त नित्यदेही हैं उनका संहार करने में मैं भी समर्थ नहीं हूँ।४६।
• भक्त मेरे अनुयायी (मेरे पीछे-पीछे चलने वाले) हैं; वे सदैव मेरे चरणों की उपासना में तत्पर रहते हैं। इसलिए मैं भी सदा भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिए समर्पित रहता हूँ।४७।
• सभी ब्रह्माण्ड नष्ट होते और पुन: पुन: बनते हैं। परन्तु मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते वे सदैव नि:शंक( डर और शंका रहित) और सभी आपत्तियों से परे रहते हैं। और मैं सदा भक्तों के अधीन रहता हूँ क्योंकि भक्त मेरे अनुयायी हैं।४८।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के समान ही भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ इसी प्रकार की बातें श्रीमद्भागवत पुराण के नवम- स्कन्ध के चतुर्थ- अध्याय-श्लोक संख्या-(६३-६४) में भी लिखी गई हैं कि- सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करने वाला परमेश्वर केवल अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं कि-
"अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतन्त्र इव द्विज। साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:।६३।
"नाहं आत्मानमाशासे मद्भक्तै: साधुभिर्विना। श्रियंचात्यन्तिकीं ब्रह्मन् ! येषां गति: अहं परा।६४।
अनुवाद-
• मैं सब प्रकार से भक्तों के अधीन रहता हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधक भक्तों ने मेरे हृदय को अपने वश में कर लिया है। भक्त मुझको प्रिय हैं और मैं उन भक्तों को प्रिय हूँ।६३।
• ब्राह्मण ! मैं अपने भक्तों का एक मात्र आश्रय हूँ। इसलिए मैं अपने साधक भक्तों को छोड़कर न मैं अपने को चाहता हूँ और न ही अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को।६४।
इसी प्रकार गोपेश्वर श्रीकृष्ण के विषय में ब्रह्म वैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय-(२१) के श्लोक संख्या -(४१ और ४२) में लिखा गया है कि -
स्थिरयौवनयुक्ताभिर्वेष्टिताभिश्च सन्ततम्।। भूषणैर्भूषिताभिश्च राधावक्षःस्थलस्थितम्।४१।।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च पूजितं वन्दितं स्तुतम्।
किशोरं राधिकाकान्तं शान्तरूपं परात्परम्।४२।।
अनुवाद-
• स्थिर यौवन युक्त चारों तरफ आभूषणों से सुसज्जित वे श्रीकृष्ण श्रीराधा जी के वक्ष:स्थल पर स्थित रहते हैं।४१।
• ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवों द्वारा निरन्तर पूजित, वन्दित और जिनकी स्तुति की गयी हो; वे राधा जी के प्रिय श्रीकष्ण जिनकी अवस्था किशोर है। जो शान्त स्वरूप और परात्पर ब्रह्म हैं।४२।
फिर भगवान श्री कृष्ण की सर्वोच्चता उस समय सिद्ध होती है। जब भगवान श्रीकृष्ण एक समय राधा जी को अपने बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताईं थीं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त-पुराण के श्री कृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय -(६६) के श्लोक संख्या -(५० से ५९) तक के श्लोकों में मिलता है।
जिसमें भगवान श्री कृष्ण राधा जी से कहते हैं कि -
"आविर्भावाधिकाः कुत्र कुत्रचिन्न्यूनमेव च।
ममांशाः केऽपि देवाश्च केचिद्देवाःकलास्तथा।। ५०।
केचित्कलाः कलांशांशास्तदंशांशाश्च केचन ।
मदंशा प्रकृतिः सूक्ष्मा साच मूर्त्याच पञ्चधा।५१।।
सरस्वती च कमला दुर्गा त्वं चापि वेदसूः।
सर्वे देवाः प्राकृतिका यावन्तो मूर्तिधारिणः।५२।।
अहमात्मा नित्यदेही भक्तध्यानानुरोधतः ।
ये ये प्रकृतिका राधे ते नष्टाः प्राकृते लये।५३।।
अहमेवाऽऽसमेवाग्रे पश्चादप्यहमेव च।
यथाऽहं च तथा त्वं च यथा धावल्यदुग्धयोः।५४।।
भेदः कदाऽपि न भवेन्निश्चितं च तथाऽऽवयोः।
अहं महान्विराट् सृष्टौ विश्वानि यस्य लोमसु ।। ५५।
अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।५६।।
अयं विष्णोर्लोमकूपे वासो मे चांशतः सति ।
तस्य स्त्री त्वं च बृहती स्वांशेन सुभगा तथा । ५७।
तस्य विश्वे च प्रत्येकं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
ब्रह्मविष्णुशिवा अंशाश्चान्ये चापि च मत्कलाः ।५८।।
मत्कलांशांशकलया सर्वे देवि चराचराः।
वैकुण्ठे त्वं महालक्ष्मीरहं तत्र चतुर्भुजः।५९।।
अनुवाद -
• कहीं किन्हीं पदार्थों का आविष्कार अधिक होता है और कहीं कम मात्रा में कुछ देवता मेरे अंश हैं, कुछ कला हैं और कुछ अंश के भी अंश हैं। मेरी अंश स्वरूपा प्रकृति सूक्ष्मरूपिणी है। उसकी पाँच मूर्तियाँ है ।५०-५१।
• प्रधान मूर्ति तुम राधा,वेदमाता गायत्री,दुर्गा,लक्ष्मी आदि और जितने भी मूर्ति धारी देवता हैं वे सब प्राकृतिक हैं। और मैं उन सबका आत्मा हूँ।५२।।
• और भक्तों के द्वारा ध्यान करने के लिए मैं नित्य देह धारण करके स्थित रहता हूँ। हे राधे ! जो जो प्राकृतिक देह धारी हैं। वे सब प्राकृतिक प्रलय के समय नष्ट हो जाते हैं।
• सबसे पहले मैं वही था और सबके अन्त में भी मैं ही रहुँगा। हे राधे ! जिस प्रकार मैं हूँ ; उसी प्रकार तुम भी हो ! जिस प्रकार दुग्ध और उसका धवलता (सफेदी) में भेद नहीं हैं।५४।
• प्राकृतिक सृष्टि में मैं ही वह महान विराट हूँ। जिसकी रोमावलियों में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान है।५५।
• वह महा विराट् मेरा ही अँश है और तुम अपने अंश से उसकी पत्नी भी हो। जो समिष्टी (समूह) में है वही व्यष्टि (इकाई) में भी है। बाद की सृष्टि में मैं ही वह क्षुद्र विराट् विष्णु भी हूँ जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है।५६।।
• विष्णु के रोम कूपों में मेरा आंशिक निवास है। तुम्ही अपने अंश रूप से उसकी पत्नी हो।५७।।
• उस विराट विष्णु के रोम कूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश( शिव ) आदि देवता मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं।५६।
• हे देवि ! मेरे कला और अंश के द्वारा सम्पूर्ण स्थावर- जंगम (चराचर) जगत में विद्यमान है। वैकुण्ठ में तुम अपने अंश से महालक्ष्मी और मैं चतुर्भुज विष्णु रूप में हूँ।५९।
अतः उपरोक्त श्लोक के आधार पर सिद्ध होता है कि परमात्मा श्रीकृष्ण ही परम परमेश्वर हैं।
इन सबके अतिरिक्त गोपेश्वर श्री कृष्ण की सर्वोच्चता का पता उस समय भी चलता है, जब भगवान श्री कृष्ण गोलोक में सृष्टि-सृजन का कार्य करते हैं।
उस समय जो-जो देवता या श्रीकृष्ण की अंशभूत शक्तियां, उनके जिस-जिस भाग व अंश से उत्पन्न होते हैं, वे सभी प्रलय काल में उसी क्रम से श्रीकृष्ण के उसी भाग और अंश में विलीन हो जाते हैं।
इस बात की पुष्टि-ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(३४) के श्लोक संख्या-(५७) (५- ५९ ) और (६०) से होती है। जो राधा-कृष्ण संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा जी से कहते हैं -
"चक्षुर्निमीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः।
प्रलये प्राकृताः सर्वे देवाद्याश्च चराचराः।५७।।
"लीना धातरि धाता च श्रीकृष्णे नाभिपङ्कजे।
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः।५८।
"रुद्राद्या भैरवाद्याश्च यावन्तश्च शिवानुगाः।
शिवाधारे शिवे लीना ज्ञानानन्दे सनातने ।५९।
"ज्ञानाधिदेवः कृष्णस्य महादेवस्य चात्मनः।
तस्य ज्ञाने विलीनश्च बभूवाथ क्षणं हरेः।६०।
"तस्य ज्ञाने विलीनश्च बभूवाथ क्षणं हरेः।
दुर्गायां विष्णुमायायां विलीनाः सर्व शक्तयः।६१।
सा च कृष्णस्य बुद्धौ च बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता।
नारायणांशः स्कन्दश्च लीनो वक्षसि तस्य च।६२।
श्रीकृष्णांशश्च तद्बाहौ देवाधीशो गणेश्वरः।
पद्मांशभूता पद्मायां सा राधायां च सुव्रते।६३।
गोप्यश्चापि च तस्यां च सर्वा वै देवयोषितः।
कृष्णप्राणाधिदेवी सा तस्य प्राणेषु सा स्थिता ।६४।
सावित्री च सरस्वत्यां वेदशास्त्राणि यानि च ।
स्थिता वाणी च जिह्वायां तस्यैव परमात्मनः।६५।
गोलोकस्थस्य गोपाश्च विलीनास्तस्य लोमसु।
तत्प्राणेषु च सर्वेषां प्राणा वाता हुताशनः।६६।
अनुवाद:- (५७ - ६६)
• उस परम्-ब्रह्म परमात्मा के नेत्र - निमीलन (आँखें बन्द करने पर) प्राकृतिक प्रलय हो जाती है। इसके परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण चराचर जगत के प्राणी तथा देवादि गण पहले ब्रह्मा में विलय होते या समा जाते हैं।५७।
•और ब्रह्मा श्रीकृष्ण के अंश रूप क्षुद्रविष्णु के नाभि- कमल में विलय हो जाते हैं। और क्षुद्र-विष्णु भी विराट-विष्णु में और विराट-विष्णु सर्वोच्चत्तम व परिपूर्णत्तम सत्ता स्वराट्-विष्णु में (श्रीकृष्ण) में विलय हो जाते हैं। अर्थात्- इसी क्रम में क्षीरोदशायी विष्णु-नारायण और वैकुण्ठ निवासी चतुर्भुज विष्णु गोपेश्वर श्रीकृष्ण के वामपार्श्व (बाई बगल) में समा जाते हैं।५८।
• रूद्र और भैरव आदि जितने भी शिव के अनुचर हैं। वे मंगलाधार सनातन ज्ञान नन्दन स्वरूप शिव में लीन हो जाते हैं।५९।
• और ज्ञान के अधिष्ठात्री देव परमात्मा शिव उन श्री कृष्ण के ज्ञान में विलीन हो जाते हैं।६०।
• संपूर्ण शक्तियां विष्णु माया दुर्गा में तिरोहित हो जाती है।६१।
• विष्णु माया दुर्गा भगवान श्री कृष्ण की बुद्धि में स्थान ग्रहण कर लेती है, क्योंकि वे उनकी बुद्धि की अधिष्ठात्री की देवी है। नारायण के अंश स्वामिकार्तिकेय उनके वक्षः स्थल में लीन हो जाते हैं।६२।
• सुब्रते ! गणों के स्वामी देवेश्वर गणेश को भगवान श्रीकृष्ण का अंश माना गया है। वे उनकी दोनों भुजाओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। लक्ष्मी की अंशभूता देवियां लक्ष्मी में तथा लक्ष्मी श्रीराधा में लीन हो जाती हैं।६३।
• गोपियां तथा संपूर्ण देवपत्नियां भी श्रीराधा में ही लीन हो जाती हैं। भगवान श्री कृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी श्रीराधा उनके प्राणों में निवास कर जाती हैं।६४।
• सावित्री, वेद एवं संपूर्ण शास्त्र सरस्वती में प्रवेश कर जाते हैं।और सरस्वती परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा में विलीन हो जाती है।६५।
• गोलोक के संपूर्ण गोप भगवान श्रीकृष्ण के रोम कूपों लीन हो जाते हैं। और उन प्रभु के प्राणों में सम्पूर्ण प्राणियों की प्राण स्वरूप वायु का तथा उनकी जठराग्नि में समस्त अग्नियों का विलय हो जाता है।६६।
इसी क्रम में श्रीराम तथा उनके चारो भाइयों सहित सीताजी को भी श्रीकृष्ण के विग्रह में विलीन हो जाने की पुष्टि- गर्गसंहिता के गोलक खंड के अध्याय- (तीन) के श्लोक- (६-७),और (८) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
"तदैव चागतः साक्षाद्रामो राजीवलोचनः।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः॥ ६॥
*दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे।
असंख्यवानरेन्द्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने॥ ७॥
"लक्षध्वजे लक्षहये शातकौम्भे स्थितस्ततः ।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः सम्प्रलीनो बभूव ह॥ ८॥
अनुवाद - ६-८ • वे पूर्ण स्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहां (गोलोक) में पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में सीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। ५-६।
• उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था उसपर निरंतर चम्बर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानरयूथपति उनकी रक्षा के कार्यों में संलग्न थे। उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गंभीर ध्वनि निकल रही थी। उसपर लाख ध्वजाएं फहर रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ स्वर्णमय था। उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहां पधारे थे। वह भी श्रीकृष्णचंद्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गए।७-८।
[ अध्याय - तृतीय]
[अध्याय- ३ (।।)✓✓✓]
("श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नही है।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के आदि (प्रारम्भ) और अन्त भी हैं। और यहीं श्रीकृष्ण अपने परात्पर स्वरूप में अनन्त भी हैं। क्योंकि सृष्टि काल में वे ही प्रभु अपने विग्रह ( शरीर) से जिस क्रम में सृष्टि का निर्माण करते हैं, और समय के अनुरूप वे ही प्रभु पुन: प्रलय काल में सम्पूर्ण सृष्टि का अपने विग्रह (शरीर) में विलय भी उसी प्रकार कर लेते हैं। जैसे "मकड़ी अपने शरीर से लार के द्वारा जाला बनाकर उसमे स्थित हो जाती है । और फिर कुछ समय पश्चात वही मकड़ी उस जाले को निगल कर अपने शरीर में समेट लेती है।
यही परमात्मा श्री कृष्ण का शाश्वत स्वरूप है जो साकार और निराकार के साथ- साथ आदि, अन्त और अनंत तथा सनातन भी है। वे ही सनातन भगवान श्रीकृष्ण- सृष्टि कर्ता, पालन कर्ता, और संहार कर्ता भी है।
यह सृष्टिजगत परमात्मा श्री कृष्ण का ही शाश्वत स्वरूप है। और इन सभी बातों की पुष्टि भगवान शिव ने ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड के अध्याय- (४८) के श्लोक संख्या-(४८) और (४९) में स्वयं कहकर की हैं - जो शिव पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं-
"आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् ।४८।
परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम् ।४९।
अनुवाद:-
• हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८।
• केवल त्रिगुणातीत परम- ब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो। ४९।
फिर भगवान शिव- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्डः अध्याय-(१७ के श्लोक संख्या-६३) में कहते हैं -
"भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।
सर्वेशं सर्वरूपं च सर्वात्मानन्तमीश्वरम।।६३।
अनुवाद:- केवल त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा श्रीराधावल्लभ श्रीकृष्ण ही परम सत्य है ; अतः तुम उन्हीं की आराधना करो।६३।
इस प्रकार से भगवान शिव और पार्वती संवाद से भी सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण ही परम प्रभु है, और उनकी ही आराधना करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव हो सकता है। क्योंकि वास्तव में यदि देखा जाए तो परमेश्वर अर्थात् श्रीकृष्ण अपने आप में सबकुछ है। उसमें परस्पर सभी विरोधी रूप सम-भाव में स्थापित है। उनकी परस्पर प्रतिक्रिया स्वरूप विषमता होने पर ही सृष्टि रचना प्रारम्भ होती हैं। इसलिए वे ही प्रथम सृजन कर्ता, हर्ता और भर्ता भी है। इस बात को ब्रह्मवैवर्त पुराण के अध्याय- (३) का यह महत्वपूर्ण श्लोक बारहवाँ दर्शाता हैं कि-
"निष्कामं कामरूपं च कामघ्नं कामकारणम्।
सर्वं सर्वेश्वरं सर्वं बीजरूपमनुत्तमम् तस्मै प्रभवे नम:।१२।।
अनुवाद -
जो परमात्मा श्रीकृष्ण कामनाओं से रहित अर्थात (निष्काम) और कामदेव के रूप भी हैं। और जो काम -भाव के कारक उसके जन्म दाता भी हैं। सबके ईश्वर , सबके बीज (मूल) और सब-कुछ हैं और वे उत्तम से भी उत्तम हैं उस प्रभु के लिए हम नमस्कार करते हैं।१२।
ध्यान रहे उपरोक्त श्लोक में "अनुत्तमम्"- विशेषण पद से सामान्य जन भ्रमित न हों क्योंकि उसकी व्याकरण सम्मत. विवेचना इस प्रकार से की गई है -
अनुत्तमम्= न उत्तमोयस्मात् अत्युत्कृष्टे = जिससे उत्तम नहीं है कोई अर्थात् अत्युकृष्ट ( वाचस्पत्यम्कोश ) इसके अलावा अमर कोश में भी अनुत्तमम् शब्द का अर्थ है - "नहीं है उत्तम जिससे कुछ भी" अर्थात अत्युत्तम। अर्थ हुआ है।
नास्ति उत्तमः उत्कृष्टो यस्मात् सः - यह अर्थ बहुव्रीहि समास के द्वारा निर्धारित होता है।
ऐसे ही मनुस्मृति कार ने भी अनुत्तमम् पद का एक अर्थ यही किया है।- नहीं है उत्तम जिससे कुछ भी-
‘"इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्।’
(स्रोत - मनुस्मृति अध्याय- २ श्लोक संख्या-९)
अनुवाद:- दान करने वाला मनुष्य इस लोक में कीर्ति और परलोक में उत्तम से भी उत्तम सुख प्राप्त करता है। ९।
इन सबके अतिरिक्त श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपने बारे में बहुत कुछ कहते हैं और अर्जुन भी श्रीकृष्ण के बारे में बहुत कुछ कहते हैं। जिसे श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद के रूप में जाना जाता है जैसे- श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या- (१२ और ४२ ) में अर्जुन- श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-
"परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।।१२।।
अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२।
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म,
सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि रूपों में तत्वज्ञानी परमेश्वर श्रीकृष्ण को ही जानते हैं।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।४२।।
अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है, जबकि मैं अपने किसी एक अंश से इस संपूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हूँ अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे किसी एक अंश में है।४२।
परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७), और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन को बताते हैं कि-
"अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।।१६।
"पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।
"गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। १८।
अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।१६-१७-१८।
अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण ही परम प्रभु है, उनके अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नही है।
इस प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए यह अध्याय-(तीन) समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय- (चार) में जानकारी दी गई कि -
गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ ?
[ अध्याय - चतुर्थ]
[अध्याय- (४)
[ गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार।]
यह तो सर्वविदित है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना करते हैं। इसलिए उन्हें स्रष्टा भी कहा जाता है। किंतु प्रश्न यह है कि- सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्मा जी को किसने उत्पन्न किया ? क्या ब्रह्मा- जी की सृष्टि रचना से पहले भी कोई सृष्टि रचना थी ? क्या ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग गोप और गोपियां भी हैं ? क्या ब्रह्मा जी के चार वर्णों के अलावा कोई पाँचवाँ वर्ण भी इस भू-मंडल पर है ? इन तमाम प्रश्नों का उत्तर जाने बिना सृष्टि रचना के गूढ़ रहस्यों को जान पाना सम्भव नहीं है।
तो इन सारे प्रश्नों का वास्तविक समाधान करने वाला एकमात्र पुराण है "ब्रह्मवैवर्तपुराण"। क्योंकि यही एक ऐसा प्राचीनतम पुराण है, जो परमात्मा के विवर्त अर्थात् - परिवर्तन मयी विस्तार का वर्णन करता है। इसी विशेषण के कारण इसे ब्रह्मवैवर्तपुराण कहा जाता है। और यही एकमात्र ऐसा पुराण है जो परमात्मा की प्रथम सृष्टि रचना का भी वर्णन करता है। बाकी अन्य पुराण इसके बाद की सृष्टि रचना- जो ब्रह्मा जी द्वारा की गई है उसका वर्णन करते हैं। यहीं कारण है कि ब्रह्मवैवर्तपुराण को प्रथम पुराण माना जाता है।
सृष्टि सर्जन के प्रारम्भिक काल का वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या- (१ से ७) तथा (१८ से ३०) और (३१) में मिलता है। जिसमें सृष्टि के प्रारम्भिक क्रम को दर्शाते हैं।
"दृष्ट्वा शून्यमयं विश्वं गोलोकं च भयङ्करम्।
निर्जन्तु निर्जलं घोरं निर्वातं तमसा वृतम् ।।१।
आलोच्य मनसा सर्वमेक एवासहायवान् ।
स्वेच्छया स्रष्टुमारेभे सृष्टिं स्वेच्छामयः प्रभुः।।३।
आविर्बभूवुः सर्गादौ पुंसो दक्षिणपार्श्वतः ।
भवकारणरूपाश्च मूर्तिमन्तस्त्रयो गुणाः।।४।
ततो महानहङ्कारः पञ्चतन्मात्र एव च।
रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाश्चैवेतिसंज्ञकाः।।५।
आविर्बभूव पश्चात्स्वयं नारायणः प्रभुः ।
श्यामो युवा पीतवासा वनमाली चतुर्भुजः।।६।
शंखचक्रगदापद्मधरः स्मेरमुखाम्बुजः।।
रत्नभूषणभूषाढ्यः शार्ङ्गी कौस्तुभभूषणः।।७।
आविर्बभूव तत्पश्चादात्मनो वामपार्श्वतः।
शुद्धस्फटिकसङ्काशः पञ्चवक्त्रो दिगम्बरः।। १८।
आविर्वभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात्।
महातपस्वी वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः।३०।
शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः।३१।
अनुवाद- १- से ३१ तक-
• प्रलय काल के उपरान्त भगवान ने देखा की सम्पूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव जन्तु नहीं है। १।
• तब जगत को इस शून्य अवस्था में देख मन ही मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एक मात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि रचना आरम्भ की।२-३।
• सबसे पहले उन परम पुरुष श्री कृष्ण के दक्षिणपार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्तव, अहंकार, पांच तमन्नाएं तथा रूप, रस, गंध, स्पर्श, और शब्द-ये पांच विषय क्रमशः प्रकट हुए।४-५।
• तदनन्तर श्री कृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ जिनकी अंग-कांति श्याम थी वे नित्य तरुण पीतांबर धारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनकी चार भुजाएं थीं, उन्होंने अपने हाथ में क्रमशः संख, चक्र, गदा, और पद्म धारण कर रखे थे।६-७।
• तत्पश्चात परमात्मा श्री कृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंककांति शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल एवं उज्जवल थी। उनके पांच मुख थे और दिशाएं ही उनके लिए वस्त्र थी अर्थात् वे निर्वस्त्र थे।१८।
• तत्पश्चात श्री कृष्ण के नाभि कमल से बड़े- बूढ़े महा तपस्वी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु ले रखा था। उनके वस्त्र, दांत और केश सभी सफेद थे। और उनके चार मुख थे। ३०-३१।
इन उपरोक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ है कि सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भिक चरण में भगवान श्री कृष्ण के लोक - गोलोक में परम प्रभु श्री कृष्ण द्वारा नारायण, शिव और ब्रह्मा जी की भी उत्पत्ति हुई है। जिसमें ब्रह्मा जी, श्रीकृष्ण के आदेश पर अन्य लोकों में अपने हिसाब से सृष्टि करते हैं। इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितीयक सृष्टि- कर्ता कहा जाता है। किंतु मूल सृष्टि परमात्मा श्रीकृष्ण (स्वराट-विष्णु) के द्वारा ही होती है। इसीलिए श्रीकृष्ण को प्रथम सृष्टि कर्ता कहा जाता है। क्योंकि सब कुछ उन्हीं से उत्पन्न होता है और अंत में उन्हीं में विलीन हो जाता है।
फिर सृष्टि- सर्जन के उसी क्रम में ब्रह्मा, शिव नारायण आदि की उत्पत्ति के समय ही गोपों की भी उत्पत्ति हुई। जिसका वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(5) के श्लोक संख्या- २५, (४० और ४२) से होती है, जिसमें लिखा गया है कि -
"आविर्बभूव कन्यैका कृष्णस्य वामपार्श्वतः।
धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्घ्यं प्रभोः पदे।२५।
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद -
गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण के वाम-पार्श्व से वामा के रूप में एक कामनाओं की प्रतिमूर्ति- प्रकृति रूपा कन्या उत्पन्न हुई जो कृष्ण के ही समान किशोर-वय थी।२५।
• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे। ४२।
गोप और गोपियां श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समरूप इसलिए थे, क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्री राधा की सूक्ष्मतम इकाई रूप अर्थात उनके क्लोन से हुई हैं। इसलिए - सभी गोप श्रीकृष्ण के समरूप तथा सभी गोपियों श्रीराधा के समरूप उत्पन्न हुईं।
इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि- समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समरूप होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है।
और विज्ञान के इस समरूप सिद्धान्त से परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा, पूर्व काल में ही अपनी सूक्ष्मतम इकाइयों से समरूपण विधि द्वारा गोलोक में गोप- गोपियों की उत्पत्ति कर चुके हैं।
किंतु विज्ञान परमात्मा श्रीकृष्ण के उस सिद्धांत को आज अपनी उपलब्धियां मानकर फूले नहीं समा रहा है।
इस प्रकार से सिद्ध होता है कि गोपों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण से तथा गोपियों की उत्पत्ति श्रीराधा से हुई है। इस बात को प्रमुख देवताओं सहित परमात्मा श्रीकृष्ण ने भी स्वीकार किया है।
अब प्रश्न यह भी उत्पन्न हो सकता है ! कि राधा और कृष्ण तो द्वापर युग (आज से लगभग साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए ) और आभीर अथवा गोप जाति तो सतयुग से ही अस्तित्व में है।
तो इसका समाधान यही है कि राधा और कृष्ण का गोलोक वासी रूप सनातन है। उसी से
सत्युग के प्रारम्भ में गोलोक में ही गोपीयों और गोपों की उत्पत्ति राधा और कृष्ण से हुई -
जैसे- गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में भगवान शिव ने पूर्व काल में पार्वती को भी ऐसा ही दृष्टान्त सुनाया था। जिसे शिव-वाणी समझ कर इस घटना को पुराणों में सार्वकालिक और सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया जाता है। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक संख्या- (४३) में मिलता है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-
"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।
अनुवाद -• श्रीराधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।
इस प्रकार से देखा जाए तो शिव जी के कथन से भी यह सिद्ध होता है कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से प्रारम्भिक रूप से गोलोक में ही हुई है।
इसी तरह से गोप-गोपियों की उत्पत्ति को लेकर परम प्रभु परमात्मा श्रीकृष्ण की वे सभी बातें और प्रमाणित कर देती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने अँश से उत्पन्न गोपों की उत्पत्ति के विषय में स्वयं ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६) के श्लोक संख्या -(६२) में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।
अनुवाद:-
हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।
और ऐसी ही बात भगवान श्री कृष्ण उस समय भी कहते हैं- जब वे स्वयं भूतल पर गोप जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में अवतरित होते हैं।, और कुछ समय पश्चात कंस का वध करके मथुरा के सिंहासन पर पुन: कंस के पिता उग्रसेन को अभिषिक्त करते हैं।
और इसके कुछ समय पश्चात उग्रसेन, श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ के आयोजन का परामर्श करते हैं।। उसी प्रसंग के क्रम में स्वयं श्रीकृष्ण उग्रसेन से कहते हैं कि-
"सभी यादव मेरे अंश हैं"। इस बात की पुष्टि गर्गसंहिता के (विश्वजित्खण्डः) के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- (५ -६) और-(७ ) से होती है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-
"सम्यग्व्यवसितं राजन् भवता यादवेश्वर।
यज्ञेन ते जगत्कीर्तिस्त्रिलोक्यां सम्भविष्यति ॥५॥
आहूय यादवान्साक्षात्सभां कृत्वथ सर्वतः।
ताम्बूलबीटिकां धृत्वा प्रतिज्ञां कारय प्रभो ॥६॥
ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥
अनुवाद:-
• तब श्री कृष्ण ने कहा- राजन् ! यादवेश्वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। ५।
• प्रभो ! सभा में समस्त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाईये।६।
• क्योंकि ये समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।
गोपों की उत्पत्ति के बारे में कुछ ऐसा ही वर्णन उस समय भी मिलता है, जब समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भूमण्डल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े, तब उस समय दन्तवक्र नाम के दैत्य से यादवों का भयानक युद्ध हुआ।
उसी समय श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने गर्गसंहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय-( 11 ) के श्लोक संख्या-(२१और २२) में दन्तवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहा-
"नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः। गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्भवाः।२१।
"राधारोमोद्भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः।
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परै:।२२।
अनुवाद-
नंदराज साक्षात् द्रोण नामक वसु हैं, जो गोकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक में जो गोपालगण( आभीर) हैं, वे साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियों श्री राधा के रोम से उत्पन्न हुई हैं। वे सब की सब यहां ब्रज में उतर आई हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्री कृष्ण को प्राप्त हुई है।२१-२२।
इस प्रकार से इन तमाम पौराणिक साक्ष्यों से स्पष्ट होता है प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्री कृष्ण ही है। उन्होंने अपनी प्रथम सृष्टि रचना में नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति की है। जिसमें से भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों को तो अपनी लीला का सहचर बनाकर अपने साथ ही रहने दिया, और जब भी भूमि का भार हरण करने के लिए भूतल पर उन्हें आना होता हैं, तो वे अपने गोपों के साथ ही आते हैं, और भूमि का भार-हरण कर पुनः गोप-गोपियों सहित अपने धाम- गोलोक को चले जाते हैं।
गोलोक में जब भगवान श्री कृष्ण ब्रह्मा, नारायण, शिव तथा देवताओं की उत्पत्ति कर लेते हैं तब उसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा जी को बुलाकर उनके कर्म- एवं दायित्वों को निश्चित करते हुए ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खंड के अध्याय-(६ ) के श्लोक संख्या-(७१) और-(७२) में कहते हैं-
"मदीयं च तपः कृत्वा दिव्यं वर्षसहस्रकम् ।
सृष्टिं कुरु महाभाग विधे नानाविधां पराम् ।७१।
इत्युक्त्वा ब्रह्मणे कृष्णो ददौ मालां मनोरमाम्।
जगाम सार्द्धं गोपीभिर्गोपैर्वृन्दावनं वनम् ।७२।
अनुवाद-
• महाभाग विधे ! अर्थात ब्रह्मा जी ! तुम सहस्र दिव्य वर्षों तक मेरी प्रसन्नता के लिए तप करके नाना प्रकार की उत्तम सृष्टि करो।
• ऐसा कह कर श्री कृष्ण ने ब्रह्मा जी को एक मनोरम माला दी। फिर गोप- गोपियों के साथ वे नित्य नूतन दिव्य वृन्दावन में चले गए।
(ध्यान रहे गोलोक में भी वृंदावन है)
इसके बाद भगवान श्री कृष्ण का आदेश पाकर ब्रह्मा जी विविध प्रकार की उत्तम सृष्टि रचना का कार्य प्रारंभ करते हैं।
इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितीयक सृष्टि रचनाकार भी कहा जाता है, जिसमें ब्रह्मा जी अपनी मर्यादा में रहकर ही सृष्टि की रचना करते हैं। जिसमें वे संपूर्ण ब्रह्मांड में अनंत लोकों रचना करते हुए उनमें जड़, जीव, जगत इत्यादि की सुन्दर रचना किये हैं। उसी क्रम में उन्होंने मानवीय सृष्टि के चातुर्यवर्ण की भी रचना की है। जिसमे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की सामाजिक स्थितियां बनी है।
किंतु ब्रह्मा जी सबसे ऊपर वाले गोलोक और उससे क्रमशः नीचे शिव लोक और वैकुण्ठ लोक तथा गोप और गोपियों की सृष्टि रचना नहीं करते हैं। यहीं कारण है कि गोपों को ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना का भाग नहीं माना जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय-५ के श्लोक -१२ से १७ में भी होती है
जो इस प्रकार है-
"ब्राह्मवाराहपाद्माश्च त्रयः कल्पा निरूपिताः।
कल्पत्रये यथा सृष्टिः कथयामि निशामय।१२।
"ब्राह्मे च मेदिनीं सृष्ट्वा स्रष्टा सृष्टिं चकार सः।
मधुकैटभयोश्चैव मेदसा चाज्ञया प्रभोः।१३।।
"वाराहे तां समुद्धृत्य लुप्तां मग्नां रसातलात् ।
विष्णोर्वराहरूपस्य द्वारा चातिप्रयत्नतः।१४ ।
"पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे ।।
त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना।१५।
'एतत्तु कालसंख्यानमुक्तं सृष्टिनिरूपणे।।
किंचिन्निरूपणं सृष्टे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।१६।
"अतः परं किं चकार भगवान्सात्वतांपतिः ।।
एतान्सृष्ट्वा किं चकार तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ।। १७ ।।
अनुवाद -( १२ से १७ ) तक-
ब्रह्मकल्प में मधु-कैटभ के मेद (चर्बी) से मेदिनी ( पृथ्वी ) की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि रचना की थी। फिर वाराह कल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गई थी, तब वाराहरूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्न पूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि रचना की।
तत्पश्चात पाद्मकल्प में सृष्टि- कर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि- कमल पर सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी (तीन लोक) है, उसकी रचना की। किंतु उसके ऊपर जो नित्य तीन लोक (शिवलोक, वैकुण्ठलोक, और उससे भी ऊपर गोलोक है ) उसकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।
कुल मिलाकर ब्रह्मा जी सभी की सृष्टि करते हैं किंतु उनकी भी कुछ मर्यादाएं हैं- जैसे वे सत्य सनातन एवं चिरस्थाई- वैकुण्ठ लोक, शिवलोक, और सबसे ऊपर गोलोक और उसमें रहने वाले गोप और गोपियों की सृष्टि नहीं करते।
क्योंकि गोप और गोपियों की उत्पत्ति तो भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा के रोम-कूपों से उसी समय हो जाती है जिस समय नारायण, शिव और ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। तो ऐसे में ब्रह्मा जी, गोपों की उत्पत्ति दुबारा (पुनः) कैसे कर सकते हैं ?
तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि- जब गोप, ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है तो स्पष्ट सी बात है कि वे ब्रह्मा जी की चातुर्वर्ण्य से भी अलग हुए होगें। तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब गोप ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के भाग नहीं हैं तो इनका वर्ण क्या है ? अर्थात् ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र इत्यादि में से क्या हैं ? तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसके अगले अध्याय- पांच और छः में किया गया है। वहां से इस विषय पर संपूर्ण जानकारी मिलेगी।
इस प्रकार से यह अध्याय इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं जिनसे सर्वप्रथम गोलोक में नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति हुई जो ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य से अलग हैं।
अब इसके अगले अध्याय- (५) में जानकारी दी गई है कि - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताएं क्या है ?
[ अध्याय-पञ्चम्-]
🙏
[ अध्याय- [ ५ ] (l )✓✓✓
"वैष्णववर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताएं।
इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य भगवान विष्णु के "वैष्णव वर्ण" तथा ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति के साथ-साथ दोनों वर्णों में वैचारिक अंतर और कुछ मूलभूत विशेषताओं को बताना है।
इसके लिए प्रमुख - (तीन) शीर्षकों और उप शीर्षकों में विभाजित किया गया है -
[क] - वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति।
[ख] - ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
[ग ] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अंतर-
[१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
[२] यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
[३] भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।
_______
[क]-वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति। ________
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रथम वैष्णववर्ण और वैष्णव धर्म के प्रवर्तक तथा संरक्षक गोपेश्वर श्रीकृष्ण ही हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (७३ के श्लोक- ९२) में स्वयं अपने को वैष्णव होने की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।।९२।
अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूं । और वनों में चंदन हूं। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ। और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ।९२।
"नि:शङ्क शब्द की व्याकरणिक व्युत्पत्ति विश्लेषण-
नि:शङ्क- निस् निषेध वाची उपसर्ग + शङ्क = भय (त्रास) भीक:अथवा डर।
नि:शङ्क पुलिङ्ग शब्द है जिसका अर्थ होता है- निर्भीक अथवा निडर।)
नि:शङ्क का मूल अर्थ निर्भीक है और निर्भीक का अर्थ होता- जो भयभीत नही होता हो।
अत: नि:शङ्क अथवा निर्भीक विशेषण पद आभीर शब्द का पर्याय है। जो अहीरो (गोपों) की जातिगत प्रवृत्ति को सूचित करता है।
आभीर लोग वैष्णव वर्ण तथा वैष्णव धर्म के अनुयायी होते ही हैं।
अत: ब्रह्मवैवर्तपुराण श्रीकृष्ण जन्मखण्ड का उपरोक्त श्लोक गोप जाति की निर्भीकता प्रवृत्ति का भी संकेत करता है।
अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि- "वैष्णव वर्ण" और धर्म की उत्पत्ति श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। जिसमें केवल गोप जाति के लोग आते हैं। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु (श्रीकृष्ण) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वह वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।
इस सम्बन्ध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से उत्पन्न ही बताया गया है-
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव पद पुल्लिंग रूप में बनता हैं। और स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द रूप- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं। वैष्णव वर्ण को ही पञ्चंवर्ण भी कहा जाता है। पञ्चंमवर्ण के गोपों की उत्पत्ति सर्वप्रथम गोलोक में स्वराट विष्णु अर्थात श्रीकृष्ण के रोम कूपों से हुई है। इस कारण देखा जाए तो यह प्रथम वर्ण भी है। ब्रह्मा की चातुर्यवर्ण की उत्पत्ति इसके बाद हुई है। गोप वैष्णव वर्ण के प्रमुख सदस्य पति होने के कारण से ये ब्रह्मा जी के चातुर्यवर्ण से परे हैं। इस बात को इसके पिछले अध्याय- (चार) में बताया जा चुका है। वहाँ से वैष्णव वर्ण तथा गोपों की उत्पत्ति की विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
इसी क्रम में अब हमलोग जानेंगे कि ब्रह्मा जी के "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति कैसे हुई।
_________
[क]- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति।
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सर्वविदित है कि देवो के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्यवर्ण" की उत्पत्ति हुई। इस बात की पुष्टि -विष्णु पुराण के प्रथमांश के छठे अध्याय के श्लोक- (६) से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम ।
पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१/६/६।
अनुवाद:-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।।६।
फिर इसी जन्मगत आधार पर ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था भी चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र) में विभाजित हो गई। इस बात की पुष्टि
पद्मपुराण सृष्टिखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या-(१३०) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम। पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१३०।
अनुवाद- पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।१३०।
इस सम्बन्ध में अत्रि संहिता का (१४०) वाँ श्लोक भी यही सूचित करता है कि -
"जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते॥१४०
अनुवाद:- ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हाेने वाला जन्म से ही 'ब्राह्मण' कहलाता है। फिर उपनयन संस्कार हाे जाने पर वह 'द्विज' कहलाता है और विद्या प्राप्त कर लेने पर वही ब्राह्मण 'विप्र' कहलाता है। इन तीनाें नामाें से युक्त हुआ ब्राह्मण 'श्राेत्रिय' कहा जाता है।१४०।
(विशेष:- श्रुति (वेद) के ज्ञाता ब्राह्मण ही श्रोत्रिय कहलाता है।)
ज्ञात हो ब्रह्मा जी के इन चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए हुई। इस बात की पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।७।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान विष्णु से वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति हुई वहीं दूसरी तरफ ब्रह्मा जी से चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति हुई।
और इन दोनों वर्णों से दो प्रकार की संस्कृतियों का भी उदय हुआ। एक ब्राह्मणी संस्कृति और दूरी वैष्णवी संस्कृति। जो दोनों ही एक दूसरे के विपरीत विचारधारा वाली संस्कृतियाँ हैं।
[ग ] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर-
इन दोनों के वर्णों अर्थात् संस्कृतियों में प्रमुख रूप से (३) प्रकार के युगलान्तर (भेद) देखने को मिलता है। जिसको क्रमशः बिन्दुवार दर्शाया गया है।
[१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर-
[२] यज्ञ मूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
[३] भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।
________
[१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर
________
(क) "ब्राह्मी वर्णव्यवस्था जन्मगत है"
ज्ञात हो कि-चातुर्वर्ण्य व्यवस्था- ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना है, जिसमें जन्म के आधार पर वर्ण -विभाजन की एक सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है।
रूढ़िवादी पुरोहितों की मान्यता है कि पूर्वजन्म के पुण्य- पाप कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्रों के घर में जन्म मिलता है।
यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं तो ब्राह्मण के घर में जन्म मिलेगा और बुरे कर्म किए हैं तो शूद्र के घर में जन्म मिलेगा। कर्मों के अच्छे-बुरे अनुपात से ही व्यक्ति को कभी वैश्य तो कभी क्षत्रिय के घर में जन्म मिलता है। पर ये सिद्धान्त दोषपूर्ण है- क्यों कि जन्म से व्यक्ति की महानता का निश्चय नहीं होता मानव जाति में मनुष्य के व्यक्तित्व (व्यक्ति के बाह्य और आन्तरिक गुणों) का निर्माण उसका परिवेश और माता-पिता के आनुवांशिक विशेषताएँ ही करती हैं। यह तो समाज में प्रत्यक्ष देखा जाता है कि सभी ब्राह्मण जन्म से ही सात्विक प्रवृत्ति वाले और ईश्वर चिन्तक नहीं होते हैं। ब्राह्मणों में भी बहुतायत लोग तामसिक व राजसी प्रवृत्ति वाले होते हैं। इसी प्रकार स्वयं को परम्परागत रूप से क्षत्रिय कहने वाले लोगों की सन्तान भी वीर तथा साहसी नहीं होती ।
वैश्य और शूद्रों के विषय में इसी प्रकार कहा जा सकता है। हर समाज में हर तरह के व्यक्ति पैदा होते हैं। दो चार व्यक्तियों से ही किसी समाज की प्रवृत्तियों का निर्धारण नहीं किया जा सकता।
दूसरी बात यह कि व्यक्ति की प्रवृत्तियों का निर्धारण अथवा निश्चय व्यक्ति की वृत्ति (व्यवसाय) एवं उसके कर्म से होता हैं न कि जन्म से।
कुछ प्रवृत्तियों का निर्धारण माता-पिता के आनुवांशिक गुणों तथा कुछ का पूर्वजन्म के कर्म- संस्कारों से होता है। इसलिए यह कहना महती मूर्खता है कि पूर्व जन्म के पाप और पुण्य कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के घर में जन्म मिलता है।
कुल मिलाकर - कहने का तात्पर्य यह है कि- ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से जन्मगत अथवा जन्म के आधार पर भेद करते हुए सामाजिक वर्ण व्यवस्था लागू करती है जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार प्रकार के वर्ग समूह होते हैं।
(ख)- वैष्णवी वर्ण व्यवस्था का आधार जन्मगत नहीं कर्मगत है।
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के जन्मगत आधार के विपरीत वैष्णव वर्ण में गुण' प्रवृति (स्वभाव) और कर्म के आधार पर ही वर्ण- विभाजन की सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। यही सत्य और विज्ञान सम्मत है।
क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता एक वैष्णव ग्रन्थ है जिसमें वर्ण व्यवस्था को कर्म गत ही माना है जन्मगत नहीं।
इसकी पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता -(4/13) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।
अनुवाद:-
मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फलों में मेरी कोई स्पृहा (इच्छा) नहीं है, इसलिये मुझे कर्म कभी लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कभी कर्मों से नहीं बँधता है ।4/13।
और यही सत्य है क्योंकि इच्छाओं से प्रेरित कर्म ही फलदायी होते हैं। और उन अच्छे - बुरे फलों को भोगने के लिए पुनर्जन्म होता है। और यह जन्म व्यक्ति की इच्छा मूलक प्रवृतियों के अनुरूप विभिन्न योनियों ( शरीरों) में होता है। यही इस संसार का सनातन नियम है।
कर्म का फल" फल का भोग।
जीवन जगत् का यह संयोग
कर्मा: फलानि उत्पादयन्ते तानि फलानि परिणामानि रूपाणि भोक्तुं प्राणीनि जन्मानि लभन्ते ये च जायन्ते ते अवश्यं म्रियन्ते जन्ममरणं च जगत्।
अर्थ:-
कर्म फल उत्पन्न करते हैं और उन फलों, परिणामों और रूपों का आनंद लेने के लिए प्राणियों का जन्म होता है और जो पैदा होते हैं उन्हें मरना ही पड़ता है, और जन्म और मृत्यु ही संसार है।
________
भक्ति- ज्ञानयोग और कर्मयोग के मध्य की अवस्था है। यह सच्चे अर्थों में निष्काम कर्मयोग है। अर्थात् ईश्वर का ईश्वर को समर्पित कर्म ही भक्ति है- श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश है। इसके लिए नीचे श्लोक- देखें।
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
भावार्थ:-
भगवान कृष्ण कहते हैं ! तेरा कर्म में ही अधिकार है उसके फल में नहीं। अर्थात् (कर्म मार्ग में ) कर्म करते हुए तेरा फल में कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा ( इच्छा ) होगी तो तू कर्मफलप्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफलप्राप्तिका कारण तू मत बन।
क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना (इच्छा) से प्रेरित होकर कर्म करने में लगता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है।
इसी सिद्धांत के अनुसार वैष्णव वर्ण व्यवस्था भी स्थापित है जो जन्मगत आधार पर न होकर कर्मगत आधार पर स्थापित है।
________
[२] यज्ञ मूलक एवं भक्ति मूलक अन्तर।
________
(क)- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था पूरी तरह से कर्मकाण्डों एवं यज्ञों आधारित है। जिसमें कर्मकाण्ड एवं यज्ञ का विधान ब्राह्मण प्रधान चारों वर्णों के लिए ही है। इस बात को पूर्व में बताया जा चुका है कि- चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। जिसकी पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।। ७।।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में भक्ति-भजन की अपेक्षा कर्मकाण्डों एवं यज्ञों पर विशेष महत्व दिया जाता है। इनके कर्मकाण्डी यज्ञों में सर्वप्रथम पशु बलि का प्रावधान इन्द्र के द्वारा किए गए यज्ञों से ही प्रारम्भ हुआ था। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण /अध्यायः १४३ के प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें ऋषियों ने इंद्र से पूछा कि -
सूत उवाच।
ऋषय ऊचुः!
कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।
पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः।१।
अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।
कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा।।२।
औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।
प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।।३।
वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः।
संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।।४।
एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्-
अनुवाद- १-४
ऋषियों ने पूछ— सूतजी ! पूर्वकाल में स्वायम्भुवमनु के कार्य काल में त्रेतायुग के प्रारम्भ में किस प्रकार यज्ञ की प्रवृत्ति हुई थी ?
जब कृतयुग( सत्युग) के साथ उसकी संध्या (तथा संध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुग की संधि प्राप्त हुई।
उस समय वृष्टि( वर्षा) होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्तावृत्ति( बाजार) की स्थापना हो गयी। उसके बाद वर्णाश्रम की स्थापना करके परम्परागत रूप से आये हुए मन्त्रोंद्वारा पुनः संहिताओं को एकत्र कर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई ?
हम लोगों के प्रति इसका यथार्थरूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजी ने कहा 'आपलोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये ॥1- 4॥
"सूत उवाच !
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।।५।
दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।।६।
यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।।७।
सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।।८।
आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।।९।
य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये।।१०।
अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।।११।
***
विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।
अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।।१२।
अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।।१३।
**
आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।
विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।।१४।
एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः।
एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।१५।
**
उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।।
तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणम्।
जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते।।१६।
अनुवाद- ५-१६
सूत जी कहते हैं-ऋषियो ! विश्व-भोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने इहलौकिक तथा पारलौकिक कर्मों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया।
उनके उस अश्वमेध यज्ञ के आरम्भ होने पर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए। उस यज्ञ-कर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकार के हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, सामगान करनेवाले देवगण विश्वास पूर्वक ऊँचे स्वर से सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वर से मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे।
पशुओंका समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवोंका आवाहन हो चुका था। जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे और जो प्रत्येक कल्पके आदिमें उत्पन्न होनेवाले आदिदेव (पूर्वदेव) थे, देवगण उन्हीं अपने पूर्वजों का यजन कर रहे थे।
इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ (समूह के समूह) ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओं को देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञ की यह कैसी विधि है ? आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषा से जो जीव-हिंसा करनेके लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है।
सुरश्रेष्ठ ! आपके यज्ञ में पशु हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसा के व्याज से धर्म का विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं।
यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो आगमविहित धर्म का अनुष्ठान कीजिये।
सुरश्रेष्ठ! आगम विहित विधि के अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्म के पालन से यज्ञके बीजभूत त्रिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है। इन्द्र ! पूर्वकाल में ब्रह्मा ने इसी को महान् यज्ञ बतलाया है।'
तत्त्वदर्शी ऋषियों द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भी विश्वभोक्ता इन्द्र ने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे अभिमान और मोह से भरे हुए थे।
फिर तो इन्द्र और उन महर्षियों के बीच 'स्थावरों या जङ्गमों में से किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बात को लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ।१५-१६।
किंतु इंद्र ने शक्ति संपन्न होने की वजह से ऋषियों की एक भी बात नहीं मानी और यज्ञों में पशु बलि को परंपरागत के रूप में जारी रखा। तभी से देव यज्ञों में पशुबलि की परंपरा प्रारंभ हुई। जिसमें पशुओं के मांस को भी खाना परंपरागत रूप से स्वीकार किया गया। जिसमें द्विजों (ब्राह्मणों) को मांस खाने की अनिवार्यता को व्यासस्मृति के अध्याय- (तीन) के श्लोक- (५४) में बड़े ही स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि -
"क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतित द्विज:। मृगयोपार्जितं मासमभ्यर्च पितृदेवता:।५४।
अनुवाद:- यज्ञ और श्राद्ध में जो द्विज मांस नहीं खाता, वह पतित हो जाता है। मृगया (शिकार) से उपार्जित मांस से पितर और देवों की अभ्यर्चना (पूजा) करनी चाहिए।५४।
ऐसी ही बात कूर्मपुराण-उत्तरभाग के अध्याय (१७) के श्लोक (३६ से ४१) में भी कही गई है कि -
मत्स्यान स शल्कान भुत्र्जीयात् मासम् रौरवम् एव च ।
निवेद्य देवताभ्यः तु ब्राह्मणेभ्यः तु न अन्यथा ।।३६।।
मयूरं तित्तिरं चैव कपोतं च कपिञ्जलम्।
वाध्रीणसं वकं भक्ष्यं मीनहंसपराजिता:।। ३७।।
शफरम् सिंहतुण्डम् च तथा पाठीनरोहितौ ।
मत्स्याः च एते समुद्दिष्टा भक्षणाय द्विजोत्तमाः ।।३८।।
प्रोक्षितं भक्षयेदेषां मांसं च द्विजकाम्यया।
यथाविधि नियुक्तं च प्राणानामपि चात्यये।।३९।।
भक्षयेन्नैव मांसानि शेषभोजी न लिप्यते।
औषधार्थमशक्तौ वां नियोगाद् यजकारणात्।। ४०।।
आमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे दैवे वा मांसमूत्सृजेत ।
यावन्ति पशुरोमाणि तावतो नरकान् व्रजेत् ॥४१॥
अनुवाद- ३६ से ४१
• शल्क मछली और रूरूमृग (काले हिरन) का मांस देवता और ब्राह्मणों को समर्पित करने योग्य (नैवेद्य) के रूप में भोग कराना चाहिए ।३६।
• मोर, तीतर और इसी प्रकार कबूतर, चातक (पपीहा या , कपिञ्जल), गैंडा, बगुला, मछली हंस सभी जानवर शिकार किए हुए खाने योग्य हैं।३७।
• शफरी-मछली तथा सिंहतुण्ड (शेर जेसे तुण्ड-वाली एक प्रकार की मछली पाठीन (पढिना),मछली रोहित मछली ये भी खाने के लिए बतायी गयीं है।३८।
• धो पौंछ कर ही ब्राह्मण को मांस इच्छानुसार खाना चाहिए। शास्त्र विधि के अनुसार शिकार किए हुए प्राणी के प्राण निकल जाने पर ही उसके मांस का भक्षण करना चाहिए ।३९।
• यज्ञ के पश्चात बचा हुआ मांस खाकर व्यक्ति पाप से लिप्त नहीं होता है। औषधि के रूप में अशक्त (कमजोर) व्यक्ति को भी माँस खाना चाहिए। ४०।
• यदि पितरों के श्राद्ध अथवा देवों के यज्ञ में आमन्त्रित व्यक्ति मांस को नहीं खाता है, तो वह उतने समय तक नरक में रहता है जितने रोम एक पशु के शरीर पर होते हैं।४१
इन उपरोक्त श्लोक से यह सिद्ध होता है कि पूर्व काल में ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत देव यज्ञों एवं अन्य प्रमुख अवसरों(मौकों) पर पशु बलि एवं मांस खाने और खिलाने की प्रथा विद्यमान थी। जिसमें देवताओं को मांस चढ़ाया जाता था और द्विज (ब्राह्मण) लोग भी उसे खाते थे। और जो मौके पर नहीं खाता, वह नर्कगामी होता था।
तान्त्रिक ग्रन्थों में आगम का लक्षण निम्नलिखित है।
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आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतञ्च गिरिजानने ।
मतञ्च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते”
अनुवाद:- शिव के मुख से आया हुआ और पार्वती को मुख में पहुँचा हुआ तथा वासुदेव कृष्ण का मत( माना हुआ) उसी को आगम कहा जाता है।।
आगम की ही एक अपर संज्ञा है – तंत्र। तंत्र और आगम, समानार्थी अर्थों में शास्त्रों में प्रयुक्त होते रहे हैं।
आगम इन सात लक्षणों से समन्वित होता है :- सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षट्कर्म, (शांति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन तथा मारण) साधन तथा ध्यानयोग। ये आगम ग्रन्थ के लक्षण हैं।
तन्त्रशास्त्र का वह अंग जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, उनका साधन, पुरश्चरण-(हवन आदि के समय किसी विशिष्ट देवता का नाम जप अथवा किसी मंत्र, स्तोत्र आदि को किसी अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये किसी निश्चित समय और परिमाण तक नियमपूर्वक जपना या पाठ करना) और चार प्रकार का ध्यानयोग होता है ।
आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतञ्च गिरिजान
ने। मतञ्च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते” ॥
इति (एतल्लक्षणं यथा -“सृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानां तथार्च्चनं । साधनञ्चैव सर्व्वेषां पुरश्चरणमेव च ॥ षट्कर्म्मसाधनं चैव ध्यानयोगश्चतुर्विधः । सप्तमिर्लक्षणैर्युक्तं त्वागमं तद्विदुर्बुधाः”॥ इति इति यथा रघुवंशे । १० । २६
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इसमें ज्ञान, कर्म और उपासना आदि के विषय में बताया गया है। वेद-शास्त्रों को निगम कहते हैं।शास्त्रों के उस स्वरूप को आगम कहते हैं जो व्यवहार अथवा आचरण में उतारने वाले उपायों का रूप होता है।। तन्त्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही मुख्य है।
आगमात् शिववक्त्राद् गतं च गिरिजा मुखम्। सम्मतं वासुदेवेनागमः इति कथ्यते ॥
जिससे अभ्युदय-लौकिक कल्याण और निःश्रेयस-मोक्ष के उपाय बुद्धि में आते हैं, वह आगम कहलाता है। [वाचस्पति मिश्र, योग भाष्य, तत्व वैशारदी व्याख्या]
उपास्य देवता की भिन्नता के कारण आगम के तीन प्रकार हैं :- वैष्णव आगम (पंचरात्र तथा वैखानस आगम), शैव आगम (पाशुपत, शैवसिद्धांत, त्रिक आदि) तथा शाक्त आगम।
द्वैत, द्वैताद्वैत तथा अद्वैत की दृष्टि से भी इनमें तीन भेद माने जाते हैं।
आगम वेदमूलक और सम्पूरक हैं। इनके वक्ता प्रायः भगवान् शिव हैं।
यह शास्त्र साधारणतया तंत्रशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध है। निगमागम मूलक भारतीय संस्कृति का आधार जिस प्रकार निगम (वेद) है, उसी प्रकार आगम (तंत्र) भी है।
दोनों स्वतंत्र होते हुए भी एक दूसरे के पोषक व सन् पूरक भी हैं।
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निगम कर्म, ज्ञान तथा उपासना का स्वरूप बतलाता है तथा आगम इनके उपायभूत साधनों का वर्णन करता है।
(निगम सैद्धांतिक है तो आगम प्रायौगिक)
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किंतु इसके विपरीत वैष्णवीवर्ण व्यवस्था में देव यज्ञों की तरह ना ही कोई यज्ञ का प्रावधान है और ना ही पशु बलि एवं मांस खाने का विधान है।
क्योंकि वैष्णवी वर्ण व्यवस्था कर्मकाण्डो से दूर पूरी पूर्णरूपेण भक्ति पर आधारित है। जिसको नीचे विस्तार पूर्वक बताया गया है।
(ख) वैष्णवी वर्ण व्यवस्था- भक्तिमूलक है -
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जैसा कि प्रमाण सहित ऊपर बताया जा चुका है कि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सर्वप्रथम इंद्र के द्वारा हिंसा पूर्ण देव यज्ञों का विधान किया गया था जिसमें पशुओं के मांस खाने का भी विधान था। किंतु इसके विपरीत वैष्णवी व्यवस्था पूर्णतः वैष्णव भक्ति पर आधारित है। क्योंकि यज्ञों में पशु बलि को लेकर मत्स्य पुराण के (१४३) वें अध्याय का (३३) वां श्लोक में देव यज्ञ और भक्ति में भेद करते हुए लिखा गया है कि- यज्ञ और भक्ति का पृथक-पृथक फल होता है।
द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।३३
अनुवाद- द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकने वाले वैष्णव यज्ञ तप के समान ही हैं। परन्तु पशु वध मूलक यज्ञों से देवताओं की प्राप्ति होती है तथा तपस्या एवं भक्ति से विराट् ब्रह्म (परमेश्वर- स्वराट् विष्णु) की प्राप्ति होती है।३३।
इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भगभद्गीता के अध्याय - (४ के श्लोक- २८) से भी होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ का वास्तविक अर्थ बताते हुए यज्ञ के पांच भेद बताए हैं।
"द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।२८।
व्याख्या :- इस प्रकार बहुत सारे संयमी पुरुष हैं, जो द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ व ज्ञानयज्ञ आदि व्रतों का अनुशासित रूप से पालन करते हैं ।२८।
विशेष :- इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने "यज्ञ" के पांच भेद बताए गए हैं। जो देव यज्ञों के ठीक विपरीत हैं।
(१) द्रव्ययज्ञ :-द्रव्य का अर्थ पदार्थ होता है, इसलिए समाज या लोकहित के लिए सांसारिक साधनों को उपलब्ध करवाना द्रव्य यज्ञ कहलाता है । जैसे- जरूरतमंदों को भोजन, वस्त्र व दवाईयाँ आदि उपलब्ध करवाना ।
(२) तपोयज्ञ :- सभी प्रकार की अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों को सहजता से सहन करते हुए कर्तव्य का पालन करना ही तपोयज्ञ कहलाता है।
(३) योगयज्ञ :- योग साधना द्वारा शरीर व मन पर नियंत्रण पाकर, मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होना योगयज्ञ कहलाता है।
(४) स्वाध्याय यज्ञ :- मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय यज्ञ कहलाता है ।
(५) ज्ञानयज्ञ :- विवेक व वैराग्य आदि सदगुणों का पालन करते हुए साधना मार्ग पर निरन्तर बढ़ते रहना ज्ञानयज्ञ कहलाता है।
[अध्याय-पञ्चम ] (।।)√√√•
देखा जाए तो उपर्युक्त श्लोक में भगवान कृष्ण ने पांच प्रकार के यज्ञों में देव यज्ञों, जिसमें पशु बलि का प्रावधान है उसका वर्णन नहीं किया है।
अतः मत्स्यपुराण के उपरोक्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है कि इंद्र के सारे यज्ञ पशु बलि पर ही आधारित थे। जो पशुपालकों के लिए बहुत दु:खद वपशुसंरक्षण की समस्या थी। इसी कारण से गोपालक एवं पशु-पक्षी प्रेमी भगवान श्रीकृष्ण ने बल पूर्वक सभी देव-यज्ञों को विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी।
क्योंकि इन्द्र के यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती थी। इसके विकल्प में भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पूजा (प्रकृति पूजा) का सूत्रपात किया और स्पष्ट रूप से उद्घोषणा की "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों से देवों को प्रसन्न किया जाता हो ऐसी देव पूजा व्यर्थ ही है।
क्योंकि भगवान की उपासना में प्रेम और आत्मीयता की प्रधानता होती है किसी पूजन विधि या कर्मकाण्ड की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही या पाखण्ड ग्राही नहीं हैं। इसलिए यज्ञ वैष्णव भक्तों अर्थात् गोपों के लिए विहित कर्म नहीं है। क्योंकि गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति के निश्चल भाव से आत्मसमर्ण पूर्वक ईश्वर का भजन एवं संकीर्तन करते हैं; यही वैष्णवों का परम कर्तव्य हैं। इस संबंध में वैष्णवों का मानना है की कर्मकाण्डों से न तो किसी को कोई आत्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और नाहीं संसार से किसी की मुक्ति हुई है।
क्योंकि परमेश्वर किसी नैवेद्य- का भी आकाँक्षी नहीं है। नैवेद्य तो देवों के लिए ही विहित कर्म होता है। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृति खण्ड- अध्याय (३) एवं देवीभागवतपुराण स्कन्ध (९) अध्याय (३) से होती है।
जिसमें गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और राधा से उत्पन्न विराट पुरुष (विराट विष्णु) कहते हैं कि -
"मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै विभुः।
श्रूयतां तद् ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते॥२८॥
"प्रतिविश्वं यन्नैवेद्यं ददाति वैष्णवो जनः।
तत्षोडशांशो विषयिणो विष्णोः पज्वदशास्य वै॥२९॥
"निर्गुणस्य आत्मनः च एव परिपूर्णतमस्य च।
नैवेद्येन च कृष्णस्य न हि किञ्चिद् प्रयोजनम् ।।३०।।
"यद्यद्ददाति नैवेद्यं तस्मै देवाय यो जनः।
स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीनाथो विराट् तथा॥ ३१॥
"अनुवाद- २८-२९, ३०-३१
• मन्त्र देकर प्रभु ने उसके (विराट पुरुष) के लिए आहार की भी व्यवस्था की। हे ब्रह्मपुत्र उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ। प्रत्येक लोक में वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् विष्णु का होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुष के होते हैं ।।२८-२९॥
• उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उन प्रभु को जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे विराट पुरुष ही ग्रहण करते हैं ॥३०-३१॥
अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि परमेश्वर श्री कृष्ण के लिए किसी भी प्रकार के नैवेद्य या चढ़ावे इत्यादि की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि परमेश्वर श्रीकृष्ण भाव ग्राही है क्रियाग्राही नहीं हैं। इसी वजह से वैष्णव भक्तों के लिए परमेश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल एवं आसान है। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद् गीता में कहते हैं कि -
'अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।। १४।
{श्रीमद्भगवद्गीता- (८/१४)
अनुवाद- अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगी के लिए मैं सुलभ अर्थात उसको सरल रूप से प्राप्त हो जाता हूं।१४।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।२६।
श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२६)
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात स्वीकार कर लेता हूँ।२६।
व्याख्या - देवताओं की उपासना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परन्तु भगवान (श्रीकृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेम की,अपनेपन की और मन की पवित्रता की ही प्रधानता है,किसी कर्मकाण्डीय विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही नहीं।
दूसरी बात यह कि वैष्णव भक्त इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि किसकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए ; किसकी नहीं। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों का स्वयं मार्गदर्शन करते हुए कहते हैं कि -
"अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।। २३।
श्रीमद्भगवद्गीता- (७/२३)
अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अन्त वाला अर्थात् (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाल-े देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।२५।
श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२५)
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।
वैष्णव भक्त अपने कर्तव्य पथ से भटक न जाएं इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को सर्वज्ञत्व का उपदेश देते हुए कहते हैं कि-
अहं ही सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्चयवन्ति ते।। २४।।
[श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/२४)
अनुवाद- संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूं,। परंतु वे अर्थात् देवताओं को पूजने वाले मुझे तत्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता है।
पुनः भगवान आगे कहते हैं कि -
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।१६।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।१७।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।१८।
[श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/१६,१७,१८)
अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ मंत्र मैं हूँ घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूं। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूं।१६,१७-१८।
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥२५॥
[श्रीमद्भगवद्गीता- (१३/२५)
अनुवाद- जो मनुष्य तत्त्वज्ञ" जीवन्मुक्त महापुरुषों से सुनकर उपासना करते हैं, ऐसे वे सुनने के परायण हुए मनुष्य मृत्यु को तर जाते हैं।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता: ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।१४।
{श्रीमद्भगवद्गीता- (१३/१४)
अनुवाद:- वे दृढ़ निश्चय वाले भक्त जन निरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी भक्ति प्राप्ति के लिये यत्न करते हुए और मुझ को बार-बार प्रणाम करते हुए सदैव मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं।
भक्ति का वास्तविक भेद भक्त प्रहलाद को अच्छी तरह से ज्ञात था। इस संबंध में भक्त प्रहलाद श्रीमद्भागवत पुराण के स्कंध- {७} अध्याय- {५ }के श्लोक- {२३} में भक्ति के (नौ) प्रकार के भेद को बताते हुए कहते हैं कि-
"श्रीप्रह्राद उवाच -
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।२३।
अनुवाद- प्रह्लाद ने कहा- विष्णु (श्रीकृष्ण) की भक्ति के नौ भेद हैं। (१)- भगवान की लीला गुणों का श्रवण। (२)- उनका ही कीर्तन। (३) उनके रूप आदि का स्मरण। (४)- उनके चरणों की सेवा। (५)- पूजा एवं अर्चन (६)- वन्दन। (७)- दास्य (८)- सख्य और (९)- आत्मनिवेदन।
अतः उपरोक्त सभी श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि है कि- वैष्णवी वर्ण व्यवस्था पूर्णतः भक्तिमूलक विचारधारा पर आधारित है। इसमें कर्मकाण्ड, हिंसा मूलक यज्ञ एवं पाखण्डवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके साथ ही ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के विपरीत वैष्णवी वर्ण व्यवस्था भेदभाव से रहित, समता मूलक समाज की स्थापना करती है। इसके लिए नीचे देखें।
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[३] भेदभाव एवं समता मूलक अन्तर।
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(क) ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था भेदभाव मूलक है।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से भेदभाव पर आधारित है। जिसमें उंच-नीच का भेद बहुतायत देखने को मिलता है।जिसकी पुष्टि- मनुस्मृति के अध्याय- ८ के श्लोक (२७०) और (२७७) से होती है। जिसमें आचरणगत विधानों के अन्तर्गत शूद्रों के लिए कठोर दंड का आदेश दिया है, जो यदि शूद्र वर्ण का व्यक्ति उच्च वर्ण के व्यक्तियों के प्रति अपराध करते है तो उसके लिए सबसे जघन्यतम दण्डों का विधान है। देखें निम्नलिखित श्लोक -
एकजातिर्द्विजातींस्तु वाचा दारुणया क्षिपन्।
जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः॥२७०॥
विट्शूद्रयोरेवमेव स्वजातिं प्रति तत्त्वतः।
छेदवर्जं प्रणयनं दण्डस्यैति विनिश्चयः॥२७७।।
अनुवाद:-
• शूद्र लोग यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को पापी कहे तो उसे जिव्हाछेदन का दण्ड देना चाहिये, क्योंकि उसकी उत्पति जघन्य (सबसे नीचे) के स्थान से है।२७०।
• वैश्य और शूद्र भी इस प्रकर आपस में गाली दें तो पूर्वोक्त दण्ड की व्यवस्था करे अर्थात वैश्य शूद्र को गाली दे तो उसे प्रथम साहस और शूद्र वैश्य को गाली दे तो उसे मध्यम साहस का दण्ड दे। ऐसे अवसर पर शूद्र की जीभ न काटना यही दण्ड का निश्चय है।२७७।
कुछ इसी तरह का वर्णन गौतमस्मृति द्वादश- अध्याय- के श्लोक- (१) से (६) में मिलता है। जिसमें भेदभाव पर आधारित दण्ड का प्रावधान किया गया है।
शूद्रो द्विजातीनभिसंधायाभिहत्य च वाग्दण्ड।
पारुष्याभ्यामङगमोच्यो येनोपहन्यात् ॥१॥
आर्यस्त्र्यभिगमने लिङ्गोद्धारः स्वहरणं च ॥२॥
गोप्ता चेद्वधोऽधिकः॥३॥
अथ हास्य वेदमुपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूर।
णमुदाहरणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः॥४॥
आसनशयनवाक्पथिषु समप्रेप्सुर्दण्डयः ॥५॥
शतं क्षत्र्त्रियो ब्राह्मणाक्रोशे ॥६॥
अनुवाद- १-६
वैदिक पाठ सुनने के लिए शूद्रों के कानों को पिघले हुए टिन या लाख से भरने का अधिकार है, इसे दोहराने के लिए, उसकी जीभ काट दी जानी चाहिए और यदि वह याद करता है, तो उसके शरीर को अलग कर दिया जाना चाहिए।
इसी तरह से मनु ने भी अपनी मनुस्मृति के अध्याय- (८) के श्लोक (३७४) में निर्धारित किया है कि-
शूद्रो गुप्तं अगुप्तं वा द्वैजातं वर्णं आवसन् ।
अगुप्तं अङ्गसर्वस्वैर्गुप्तं सर्वेण हीयते।३७४।
अनुवाद- यदि शूद्र किसी असुरक्षित द्विज (ब्राह्मण) स्त्री के साथ संभोग करता है तो उसे अपना अपराधी अंग को खोना पड़ता है, और यदि वह वही अपराध किसी सुरक्षित द्विज स्त्री के साथ करता है तो उसे अपने प्राण गंवाने पड़ते हैं।
इसी तरह से मनुस्मृति, 2./135 में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता का दावा करते हुए घोषणा की है कि-
ब्राह्मणं दशवर्षं तु शतवर्षं तु भूमिपम् ।
पितापुत्रौ विजानीयाद् ब्राह्मणस्तु तयोः पिता ॥135॥
अर्थात्- दस साल का ब्राह्मण भी सौ साल के क्षत्रिय के पिता के समान है।
मनुस्मृति के समान ही कुछ श्लोक मत्स्यपुराण के अध्याय -२७७ में भी मिलता है। जिसमें जातिगत आधार पर भेदभाव करते हुए दंड का प्रावधान किया गया है। इसके लिए नीचे देखें।
सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः ।
कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वाप्यस्य कर्तयेत्।८४।
केशेषु गृह्णतो हस्तं छेदयेदविचारयन्।
पादयोर्नासिकायाञ्च ग्रीवायां वृषणेषु च।८५।
अनुवाद- ८४-८५
• यदि कोई नीच जाति वाला व्यक्ति उत्कृष्ट जाति वाले व्यक्ति के साथ आसन पर बैठना चाहता है तो राजा उसकी कमर में एक चिन्ह बनाकर अपने राज्य से निर्वासित कर दे या उसके गुदा (नितम्ब) भाग को कटवा दे।८४।
• इसी प्रकार यदि कोई निम्न जाति वाला किसी उच्च जातीय व्यक्ति के केशों को पकड़ता है तो उसके हाथ को बिना विचार किए ही कटवा देना चाहिए। इसी प्रकार का दंड दोनों पैरों, नासिका, गला तथा अण्डकोष (वृषण ) के पकड़ने पर भी देना चाहिए।८५।
ये उपरोक्त सभी बातें ब्राह्मीवर्ण व्यवस्था में देखने को मिलती है। जिसमें सामाजिक एवं जातीय भेद भाव के आधार पर दण्ड का विधान निर्धारित किया गया है। कितु इसके ठीक विपरीत वैष्णव वर्णव्यवस्था- समानता मूलक सिद्धान्त पर आधारित है जिसमें किसी प्रकार का भेद भाव नहीं है। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण अन्तर को नीचे देखें -
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अध्याय (5)-पञ्चम(।।।)√√√•
(ख)- वैष्णवी वर्ण- व्यवस्था समतामूलक है।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के ठीक विपरीत वैष्णवी व्यवस्था समतामूलक सामाज पर आधारित है। जिसमें स्त्री-पुरुष, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, अपना-पराया इत्यादि का कोई भेद-भाव नहीं है। इस सम्बन्ध में वैष्णव वर्ण के महा प्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय -( ९ )के श्लोक- (३२) में अर्जुन से कहते हैं कि -
'मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।३२।।
अनुवाद - हे पार्थ ! यदि स्त्री, वैश्य और शूद्र ये जो कोई पापयोनि वाले भी हों, वे भी मुझ पर आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।३२।
इसी प्रकार से भागवत पुराण में वैष्णव धर्म की प्रवृत्ति के बारे में बहुत ही अच्छा लिखा गया है कि वैष्णव धर्म में उँच -नीच एवं जातीय भेद-भाव नहीं है।
भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्॥२१।
(श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१४/२१)
भगवान् के वचन – मैं सन्तों का प्रिय और आत्मा हूँ, मेरी प्राप्ति श्रद्धा व अनन्य भक्ति से ही होती है । मेरी अनन्य भक्ति में यह सामर्थ्य है कि वह जन्मजात (श्वपाक) चाण्डाल को भी अत्यन्त पवित्र बना देने वाली है।२१।
न यस्य जन्म कर्मभ्याम् न वर्ण आश्रम. जातिभिः। सज्जते अस्मिन् अहंभावः देहे वै स हरेः प्रियः।।५१।।
न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥५२॥
(श्रीमद्भागवत पुराण- ११/२/५१,५२)
• भागवत धर्म (वैष्णव वर्ण) में न वर्णाश्रमगत भेद है, न जातिगत भेद ही, न जन्मगत भेद है, न कर्मगत । यहाँ तक कि देह-धर्मों का भी भेद नहीं है । ऐसा सर्वभूत शम ही उत्तम भागवत धर्म है ।५१।
• जो धन संपत्ति अथवा शरीर आदि में- "यह अपना है और यह पराया" इस प्रकार का भेदभाव नहीं रखता, समस्त पदार्थ में समस्वरूप परमात्मा को देखता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा संकल्प से विक्षिप्त न होकर शांत रहता है, वह भगवान का उत्तम भक्त है।५२।
न हि भगवन्नघटितमिदं त्वद्दर्शनान् नृणामखिलपापक्षयः ।यन्नाम सकृच्छ्रवणात् पुल्कसकोऽपि विमुच्यते संसारात् ॥ ४४ ॥
(श्रीमद्भागवत पुराण-१६/६/४४)
भगवान् ! आप के दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के सारे पाप क्षीण हो जाते हैं, यह कोई असम्भव बात नहीं है, क्योंकि आपका नाम एक बार सुनने से ही नीच चांडाल भी संसार से मुक्त हो जाता है।४४।
भगवान श्रीकृष्ण समाज में ऊँच-नीच का भेदभाव रखनें वालों से अपनी भक्ति तथा कृपा से सदैव दूरी बनाकर रखते हैं। और ऐसे लोग जो समाज में भेदभाव पैदा करते हैं उनके लिए दण्ड का प्रावधान करते हुए कहते हैं कि-
यस्यामृतामलयशः श्रवणावगाहः सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः।
सोऽहं भवद्भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्तिः छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ॥६॥
(भागवत पुराण- ३/१६/६)
अनुवाद:-
मेरी निर्मल सुयश सुधा में गोता लगाने से चाण्डाल पर्यन्त सारा जगत तुरन्त पवित्र होकर कुण्ठा रहित हो जाता है। इसलिए मैं विकुण्ठ कहलाता हूँ। किन्तु मुझे यह पवित्र कीर्ति आप भक्तों से ही प्राप्त होती है। इसलिए जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, मैं उसे तत्काल काट डालुँगा चाहें वह मेरी बाहू (भुजा) ही क्यों नहो।६।
और वैष्णव भक्तों की रक्षा तथा वैष्णव धर्म एवं समता मूलक समाज को स्थापित करने के लिए भगवान समय-समय पर भूतल पर अवतरित भी होते हैं।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।
(श्रीमद्भागवत गीता- ४/७)
अनुवाद:-
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।७।
अनेक सम्प्रदायों और मत-मतान्तरो में भटकते हुए व्यक्ति को कहीं शान्ति और सत्य के दर्शन नहीं होते तो भगवान श्रीकृष्ण यह सार्वजनिक घोषणा करते हैं-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। ६६।
(श्रीमद्भागवत गीता (१८/६६)
सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, तू चिन्ता मत कर।६६।
(व्याख्या)- भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के प्रति यह उद्घोषणा करते हुए कहते हैं कि जिस-जिस धर्म और समाज में भेद-भाव की प्रधानता हो उसे तुरन्त छोड़कर भक्तों को मेरी शरण में आ जाना चाहिए। मैं उन सभी भक्तों को पाखण्डपूर्ण समाज से मुफ्त करके अवश्य उनका कल्याण करूँगा।
सामान्य रूप से देखा जाए तो वैष्णव-वर्ण और चातुर्वर्ण्य में प्रमुख रूप से (६) प्रकार के निम्नलिखित वैचारिक अंतर देखे जाते हैं।
(१) पहला यह की ब्राह्मी वर्णव्यवस्था- में सभी मनुष्य एकसमान अधिकार वाले नहीं हैं। जबकि वैष्णव वर्ण में सभी बराबर हैं।
वैष्णव सन्तो का उद्घोष है कि-"हरि को भजे सो हरि को होई ! जाति- पाँति पूछे नहिं कोई"
(२)- दूसरा अंतर विष्णु और ब्रह्मा द्वारा निर्मित वर्णों में यह भी है कि- ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में चारो वर्णों के लोग अपने - अपने ही वंशानुगत कार्यों को अनिवार्य रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी जातीय धर्म समझकर करते हैं, भले ही उनमें इसकी पूर्ण प्रवृत्ति तथा योग्यता हो या नो हो।
जैसे- ब्राह्मण का बालक मन्दिरों या देवस्थानों में परम्परागत रूप से चढ़ावा लेने तथा वहाँ की पूजा आदि क्रियाओं करेगा ही चाहें वह संस्कृत भाषा का ज्ञान तथा शास्त्रों का ज्ञान भलें ही न रखता हो- जबकि वैष्णव वर्ण में ऐसी व्यवस्था नहीं है। इस वर्ण में जो जिस योग्यता के अनुरूप होगा वह वही काम करेगा।
(३) - इन दोनों में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में इसके सदस्यों का विभाजन जन्म के आधार पर चार मानव समूहों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र) में होता है।
जबकि वैष्णव वर्ण में बिना वर्ग विभाजित हुए इसके सभी सदस्य अपनी योग्यता के अनुसार सभी कर्मों को करने के लिए स्वतन्त्र होते हैं। चाहे वह क्षत्रियोचित कर्म हो या ब्राह्मणत्व कर्म हो।
(४) - चौथा सबसे बड़ा अंतर यह है कि- श्रौत और स्मार्त (श्रुति- वेद मूलक) स्मार्त ( स्मृति- मूलक) ब्राह्मण, (धर्मशास्त्रमूलक) धर्म की कट्टरता को नासमझ लोग भागवत धर्म में घटाने लगते हैं। परन्तु भागवत धर्म ही वैष्णव वर्ण- व्वस्था का आधार है। जबकि स्मृतियाँ- ब्राह्मण वर्णव्यवस्था- का आधार है।
(५) पाँचवां इन दोंनो व्यवस्थाओं में अंतर यह है कि- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में विधान है कि- चातुर्वर्ण्य के लोग अपने वर्ण के दायरे में रहकर ही कार्य( जीविका- उपार्जन के व्यवसाय) करते हैं, उससे हट कर दूसरे वर्ग का कार्य नहीं कर सकते। जैसे कोई ब्राह्मण वर्ण का है, तो वह पुरोहित- कर्म ही करेगा क्षत्रियोचित कर्म कदापि नहीं कर सकता। इसी तरह से यह बात चारों वर्णों के लिए लागू होती है।
इस बात की पुष्टि- मार्कण्डेय पुराण के अध्याय- (११०) के श्लोक (३०) और (३६) से भी होती है जिसमें ब्रह्मा जी के वर्णव्यवस्था के शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए परिव्राट् मुनि कहते है कि-
"त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोऽयं महात्मनः ।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप ॥३०॥
सोऽयं वैश्यत्वमापन्नस्तव पुत्रः सुमन्दधीः।
नास्याधिकारो युद्धाय क्षत्रियेण त्वया सह ।३६।
अनुवाद- हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है, और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना वर्ण-गत नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है ।।३०-३६।
विशेष:-मार्कण्डेय पुराण के अनुसार कारुष वंश के एक राजा नाभाग जो दिष्ट के पुत्र थे। विशेष—इनकी कथा उक्त पुराण में इस प्रकार है—जब ये युवावस्था को प्राप्त हुए तब एक वैश्य की कन्या को देखकर मोहित हो गए और उस कन्या के पिता द्धारा अपने पिता से विवाह की आज्ञा माँगी। ऋषियों की सम्मति से पिता ने आज्ञा दी कि पहले एक क्षत्रिय कन्या से विवाह करके तब वैश्य कन्या से विवाह करो तो कोई दोष नहीं। नाभाग ने पिता की बात न मानी। पिता पुत्र में युद्ध छिड़ गया। परिव्राट् मुनि ने यह युद्ध शान्त किया। नाभाग वैश्य कन्या का पाणिग्रहण करके वैश्यत्व को प्राप्त हुए।
इन उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि ब्रह्मा जी के वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण के कर्मों को करना निषिद्ध है।
जबकि वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, वाणिज्य एवं सेवा आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबन्ध के कर सकते हैं। वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कर्मों एवं उनके दायित्वों का वर्णन इसके अगले अध्याय-(छः) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि वैष्णव वर्ण के सदस्य किस प्रकार से - ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, वाणिज्य , एवं सेवा आदि सभी कर्मों को स्वतंत्र रूप से बिना किसी प्रतिबन्ध के करते हैं।
(६)- और अन्त में सबसे महत्वपूर्ण छठवाँ अन्तर यह है कि -
**
ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था में दास को सबसे निकृष्ट कर्म करने वाला बताया गया तथा उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा गया। इस बात की पुष्टि- मनुस्मृति- अध्याय २- के श्लोक संख्या- (३१ और ३२) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥३१।
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम् ।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥३२।
अनुवाद- ३१-३२
• ब्राह्मण का नाम शर्मवत्- (यज्ञ में पशु बलि करने से सम्बन्धित अथवा मूलक) होना चाहिए, क्षत्रिय का नाम शक्ति से सम्बन्धित होना चाहिए, वैश्य का नाम धन से सम्बन्धित होना चाहिए, जबकि शूद्र (दास) का नाम घृणित होना चाहिए। ३१।
• ब्राह्मण का नाम शर्मवत् , क्षत्रिय का नाम 'रक्षापरक', वैश्य का नाम 'समृद्धिपरक' तथा शूद्र का नाम दासत्व (गुलामीपरक) का बोधक होना चाहिए। ३२।
जबकि इसके विपरीत वैष्णव वर्ण में सभी भक्त अपने आप को भगवान का दास मानते हुए अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझाते हैं। या यूं कहें कि वैष्णव भक्तों को दास ही कहा जाता है जैसे- रैदास, सूरदास, कबीरदास, मलूकदास इत्यादि। और एक सच्चा वैष्णव भक्त जब भी अपनी भक्ति का फल भगवान से मांगता हैं, तो वह केवल भगवान के दासत्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं माँगता।
वास्तव में देखा जाए तो वैष्णव सन्तों में दास पदवी का प्रचलन वैष्णव भक्त राजा ययाति के द्वारा ही हुआ।
क्योंकि पूर्वकाल में जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का का ही वर माँगा।
इस सत्य की पुष्टि -पद्मपुराण-भूमिखण्ड के अध्याय-( ८३) के श्लोक- (८०) से होती है।
"राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद- राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी ! हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) ही दीजिए। ८०।
अन्ततः दास शब्द की व्याख्या; ऋग्वेद में परमोदार ( दाता ) और दानी के रूप में भी हुई है। दास शब्द दान देने (दासृ =दाने) के अर्थ में है। यथा ऋग्वेद के इस निम्न ऋचा को देख लें-
यस्ते भरादन्नियते चिदन्नं निशिषन्मन्द्रमतिथिमुदीरत् ।
आ देवयुरिनधते दुरोणे तस्मिन्रयिर्ध्रुवो अस्तु दास्वान् ॥७॥
(ऋग्वेदः सूक्तं ४/२/७)
"(हे अग्निदेव !) उसके यहां एक पुत्र पैदा हो, जो भक्ति में दृढ़ और प्रसाद में उदार हो, जो भोजन की आवश्यकता होने पर आपको यज्ञ द्वारा भोजन प्रदान करता हो, जो आपको लगातार प्रसन्न करने वाला सोमरस देता हो, जो अतिथि के रूप में आपका स्वागत करता हो , और श्रद्धापूर्वक आपको उसके आवास में प्रज्ज्वलित करता हो।" (दास्वान् = दानवान् —सायणभाष्यम्)
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - वैष्णव भक्तों के लिए दास शब्द ही यथार्थ है। जिसका अर्थ- दान कर्ता भी है। जिसमें दास शब्द अपने विकास क्रम में कई अर्थों को धारण करता हुआ आज वैष्णव भक्तों का वाचक है।। इसके विस्तृत ज्ञान के लिए अध्याय -(११) के भाग- (१) महाराज यदु के परिचय में देखा जा सकता है।
इस प्रकार से यह अध्याय-(५) वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताओं की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय- (६) में बताया गया है कि- वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व क्या है ?
अध्याय (6)-षष्ठम्(।)√√√•
वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व
इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य- वैष्णव वर्ण के कुछ प्रमुख आध्यात्मिक पुरुषों का परिचय देते हुए वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य के सदस्यों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी देना है। क्योंकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण के कर्मों को करना निषिद्ध माना गया है। इस बात को पिछले अध्याय- पाँच में बताया जा चुका है।
जबकि इसके विपरीत वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है। इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के बड़े ही गर्व से करते हैं। ऐसा क्यों होता है ? इसको निम्नलिखित शीर्षकों के आधार पर समझा जा सकता है -
[१] गोपों का ब्राह्मणत्व (धर्मज्ञा) कर्म-
(क)- सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर हैं।
(ख)- अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
(ग)- यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा का परिचय।
(घ)- ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय।
[२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म।
[३] गोपों का वैश्य कर्म।
[४] गोपों का शूद्र कर्म।
[१] गोपों का ब्राह्मणत्व कर्म
___*___
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में ब्राह्मणों का प्रमुख कर्म- पूजा-पाठ, यज्ञ कराना, उपदेश देना ही होता है। और ये सभी धार्मिक कर्म करने के लिए वैष्णव वर्ण के अहीर (गोप) किसी ब्राह्मण पुरोहित इत्यादि के आश्रित नहीं हैं। क्योंकि स्वभावत: वैष्णव वर्ण के गोप प्रारम्भ से ही धार्मिक कृत्य करते आए हैं। इस सम्बन्ध में देखा जाए तो सदियों से परम्परागत रूप से चली आ रही सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर ही रहें हैं, जिन्होंने अपनी सत्यनारायण व्रत कथा कथा से कइयों को तार दिया।
गोपों के इसी धर्मज्ञ स्वभाव और धार्मिक कृत्यों की वजह से इन्हें पौराणिक ग्रन्थों में सबसे बड़ा धर्मवत्सल, धार्मिक, सदाचारी, ज्ञानयोगी, और कर्मयोगी माना गया है। ये समय-समय पर शस्त्र और शास्त्र दोनों उठाते हैं। इसके सबसे बड़े उदाहरण गोपेश्वर श्री कृष्ण हैं। इसके अतिरिक्त ज्ञान की देवी अहीर कन्या- गायत्री, यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा तथा ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना इत्यादि इसके उदाहरण हैं जो सभी वैष्णव वर्ण के गोप कुल के प्रारम्भिक सदस्य रहे हैं। इन सभी के बारे में क्रमशः नीचे जानकारी दी गई है की ये सभी कैसे सबसे बड़े धर्मवत्सल एवं धर्मज्ञ हैं।
(क) "सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर हैं"
____°______
सर्वप्रथम भूतल पर गोपों को ही - सबसे बड़ा धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल माना गया। इस संबंध में कई पौराणिक साक्ष्य और प्रसंग सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। उनमें से एक सत्यनारायण व्रत कथा भी है जो श्री स्कन्दपुराण के अवन्ति खण्ड के उपखण्ड रेवाखण्ड के अध्याय-(२३६) से लेकर युगों-युगों से सत्यनारायण अर्थात् भगवान विष्णु की कथा के रूप में प्रचलित रही है। जिसे हम और आप बचपन से ही इस विष्णु कथा को सुनते
आ रहे हैं। किंतु इस बात को कम ही लोग जानते हैं कि इस सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र गोप हैं ही हैं जो इस कथा के माध्यम से अनेकों भक्तों को तारण करते हैं।। इस बात की पुष्टि सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य स्रोत श्री स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड के अध्याय-(२३३) से (२३७ ) पाँच अध्यायों से होती है। जो सत्यनारायण व्रत कथा में अध्याय - (५) के रूप में स्थापित है। जानकारी के लिए उसे नीचे उद्धृत किया गया है।
"सूत उवाच"
अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः।
आसीत् तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्परः॥१॥
प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप सः।
एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान् पशून्॥२॥
आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम्।
गोपाः कुर्वन्ति संतुष्टा भक्तियुक्ताः सबान्धवाः॥३॥
राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम सः।
ततो गोपगणाः सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ ॥४॥
संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वे यथेप्सितम्।
ततः प्रसादं संत्यज्य राजा दुःखमवाप सः॥५॥
"अनुवाद- १-५
• श्रीसूतजी बोले – हे श्रेष्ठ मुनियो ! अब इसके बाद मैं एक अन्य कथा कहूँगा, आप उसे सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर (तैयार रहने वाला) तुङ्गध्वज नाम का एक राजा था।१।
• उसने सत्यदेव ( सत्यनारायण) के प्रसाद का परित्याग करके दुःख प्राप्त किया। एक बार वह वन में जाकर और वहाँ बहुत-से पशुओं को मारकर।२।
• वह वट वृक्ष के नीचे आया तो वहाँ उसने देखा कि गोपगण (अहीर लोग) बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान् सत्यदेव( सत्यनारायण ) की पूजा करतें हैं।३।
• राजा यह देखकर भी अहंकार (दर्प) वश न तो वह राजा वहाँ गया और न उसने भगवान् सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। इसके बाद (पूजन के पश्चात) सभी गोपगण भगवान् सत्य नारायण का प्रसाद राजा के समीप में।४।
• रखकर वहाँ से पुन: लौट कर और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान्का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसादका परित्याग करने से बहुत दुःख हुआ॥ ५॥
तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत्।
सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम्॥६॥
अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम्।
मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥७॥
ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणैः सह।
भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृपः॥८॥
सत्यदेवेन प्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् ।
इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ॥ ९॥
"अनुवाद ६-९
•उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य हो भगवान् सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है।६।
•इसलिये मुझे वहीं जाना चाहिये जहाँ श्रीसत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों (अहीरों) के समीप गया।७।
•और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान् सत्यदेव की पूजा की।८।
• भगवान् सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों को उपभोगकर अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक)- को चला गया॥९॥
य इदं कुरुते सत्यव्रतं परमदुर्लभम्
शृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तः फलप्रदाम् ॥१०॥
धनधान्यादिकं तस्य भवेत् सत्यप्रसादतः।
दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत् बन्धनात्॥ ११॥
भीतो भयात् प्रमुच्येत् सत्यमेव न संशयः।
ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत्॥ १२॥
इति वः कथितं विप्राः सत्यनारायणव्रतम्।
यत् कृत्वा सर्वदुः खेभ्यो मुक्तो भवति मानवः॥१३॥
"अनुवाद:- १०- १३
• सूत जी कहते हैं- जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्रीसत्यनारायण के व्रत को करता और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है।१०।
• उसे भगवान् सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र के घर में धन हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से छूट जाता है।११।
• डरा हुआ व्यक्ति भय से मुक्त हो जाता है-यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। (इस लोक में वह सभी इच्छित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक) को जाता है।१२।
• हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान् सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है॥१३॥
विशेषतः कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा।
केचित् कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च॥१४॥
सत्यनारायणं केचित् सत्यदेवं तथापरे।
नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥१५॥
भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातनः।
श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१६॥
य इदं पठेत् नित्यं शृणोति मुनिसत्तमाः।
तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादतः॥१७॥
व्रतं वैस्तु कृतं पूर्व सत्यनारायणस्य च।
तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वराः॥१८॥
"अनुवाद:- १४-१८
• कलियुग में तो भगवान् सत्यदेव (सत्यनारायण) की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान् विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश।१४।
• और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान् सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं।१५।
• कलियुग में सनातन भगवान् विष्णु ही सत्यव्रत-रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करनेवाले होंगे।१६।
• हे श्रेष्ठ मुनियो। जो व्यक्ति नित्य भगवान् सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान् सत्यनारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।१७।
• हे मुनीश्वरो ! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान् सत्यनारायण का व्रत किया था, उनके अगले जन्म का वृत्तान्त कहता हूँ, आप लोग उसे सुनें॥१८।
"शतानन्दो महाप्राज्ञः सुदामा ब्राह्मणो ह्यभूत्। तस्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह ॥१९॥
"काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह।
तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै ॥२०॥
"उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत्।
श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥२१॥
"धार्मिकः सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत्।
देहार्धं क्रकचैश्छित्त्वा दत्त्वा मोक्षमवाप ह ॥२२॥
"तुङ्गध्वजो महाराजः स्वायम्भुवोऽभवत् किल।
सर्वान् भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्॥ २३॥
अनुवाद:- १९-२३
• महान् प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण [सत्यनारायणका व्रत करनेके प्रभावसे] दूसरे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।१९।
• लकड़हारा भिल्लों का राजा गुहराज हुआ और अगले जन्ममें उसने भगवान् श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया।२०।
• महाराज उल्कामुख [दूसरे जन्म में] राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरङ्गनाथ ( विष्णु) की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया।२१।
• इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु [पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में] मोरध्वज नाम का राजा हुआ। उसने आरे से चीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान् विष्णुको अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया।२२।
• महाराज तुङ्गध्वज पूर्व जन्म में स्वायम्भुव मनु के रूप में हुए थे और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। २३।
"भूत्वा गोपाश्च ते सर्वे व्रजमण्डलवासिनः।
निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः॥२४॥
अनुवाद -
और जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करनेवाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वतधाम – गोलोक प्राप्त किया ॥ २४॥
श्लोक २४ का शब्दार्थ :-
सत्यनारायण की वन में कथा करने वाले वे सभी गोपगण ही व्रजमण्डल में (भूत्वा = जन्म लेकर /होकर )
गोपा: = गोप गण। ते सर्वे= वे सब। व्रजमण्डलवासिनः= व्रजमण्डल के निवासी।
निहत्य= मारकर। राक्षसान् सर्वान् = सभी राक्षसों को ।
किंतु यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि- इस सत्यनारायण व्रत कथा में गोपों से सम्बन्धित सबसे महत्वपूर्ण श्लोक- ।२४।
"भूत्वा गोपाश्च ते सर्वे व्रजमण्डलवासिनः।
निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः"॥२४।
को स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड के अध्याय-(२३६) से पुरोहितों ने इर्ष्या बस निकलवा दिया है। अब वहां पर (२४) श्लोक न होकर केवल (२३) श्लोक ही शेष रह गए हैं। गोपों के इस (२४) वें महत्वपूर्ण श्लोक को अब वर्तमान समय में गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित "सत्यनारायण व्रत कथा" में मिलता है। इसके अलावा "शब्द कल्पद्रुम" ( खण्ड- ५ पृष्ठ संख्या- २२९) में गोपों का यह महत्वपूर्ण श्लोक आज भी सुरक्षित है।
कुल मिलाकर सत्यनारायण व्रत कथा से यह सिद्ध होता है कि गोप प्रारम्भ से ही धार्मिक, धर्मवत्सल, तथा वैष्णव धर्म के प्रबल प्रचारक रहे हैं।
गोपों के इसी गुण विशेष के कारण भगवान श्री कृष्ण के सामने श्रीराधा जी ने गोपों को सबसे बड़ा धर्मवत्सल कहा इस बात की पुष्टि - गर्गसंहिता के वृन्दावन खण्ड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या -२२ से होती है। जिसमें राधा जी श्रीकृष्ण से कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।
अनुवाद - गोप सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गंगा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़ कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
इसके अतिरिक्त गोपों के धर्मवत्सल होने के और कई महत्वपूर्ण उदाहरण दिए जा सकते हैं। उनमें से प्रमुख हैं -
(१) अहीर कन्या वेदमाता गायत्री।
(२) यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा।
(३) ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना इत्यादि।
अब हम इन तीनों महत्वपूर्ण गोप कन्याओं को एक-एक करके बताऊंगा की सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में इनसे बड़ा धर्मवत्सल व धर्मज्ञ कोई नहीं है।
(ख) अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
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देवी गायत्री सहित समस्त गोपों को धर्म वत्सल एवं धर्मज्ञ होने की पुष्टि-पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७ के श्लोक- १५-१६ और १७) से होती है जिसमें भगवान विष्णु गोपों की कन्या, गायत्री को ब्रह्मा जी को कन्यादान के उपरान्त गोपों से कहते हैं कि-
भोभोगोपसदाचारनत्वंशोचितुमर्हसि।
कन्यााषतेमहाभागाप्राप्तादेवंविरिञ्चिनम्।।१५।
योगिनियोंगयुक्तायेब्राह्मणाबेदपारगा:।
नलभन्तेप्रार्थयन्तस्ताङ्गतिन्दुहितागता।।१६।
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरंचयते।।१७।
अनुवाद -
• हे गोपगण ! तुम यहां वृथा प्रलाप मत करो। यह पुण्यवती, सौभाग्यवती तथा कुल एवं बन्धुगण के लिए आनंदप्रदा है। इस बाला को हम यहां लाए हैं। इसे ब्रह्मा ने अपनी पत्नी बनाया है। इन्होंने भी ब्रह्मा का अवलम्बन किया है। यदि यह पुण्यवती नहीं होती, तब इस सभा में आती क्यों? हे महाभाग! तुम यह सब जानकर अब शोक मत करो। तुम्हारी यह भाग्यशाली कन्या ने ब्रह्मा को प्राप्त किया है। १५।
• ज्ञान योगी, कर्मयोगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना भी करके यह स्थान नहीं पाते, तथापि तुम्हारी यह कन्या उस गति को पा गई है।१६।
• तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
इन उपरोक्त- तीनों श्लोकों से एक ही साथ चार बातें सिद्ध होती है-
• पहला यह कि- देवी गायत्री, गोपों की कन्या हैं अर्थात वह एक गोप कन्या है, जिनका विवाह ब्रह्मा जी से हुआ। जिनके मन्त्रोच्चारण से अर्थात् गायत्री मंत्र के जाप से जगत का कल्याण होता है।
जिसमें देवी गायत्री को अहीर (गोप) कन्या होने की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय-१६ के- श्लोक-१५५ से भी होती है। जिसमें देवी गायत्री अपना परिचय देते हुए इन्द्र से कहती है -
गोपकन्यात्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम् ।
नवनीतमिदमं शुद्धं दधि चेदं विमण्डकम् ।।१५५।
अनुवाद- हे वीर! मैं गोप कन्या हूं। यहां दुग्ध विक्रय करने के लिए आई हूं। यह विशुद्ध नवनीत है। यह देखो! यह मण्डराहित दधि है। तुमको यदि मट्ठा या दूध जो आवश्यक हो, कहो तथा यथेष्ट ग्रहण करो। १५५।
• दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि- गोपों से बड़ा कोई धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल नहीं है। इस बात को जानकर ही भगवान विष्णु ने गोपों की कन्या- देवी गायत्री को ब्रह्मा जी को कन्यादान किया। और ब्रह्मा जी ने उसे अपनी पत्नी स्वीकार किया।
ब्रह्मा की पत्नी गायत्री केवल यज्ञ सम्पादन और संसार में आध्यात्मिक ज्ञान के प्रसारण के लिए ही है। सांसारिक सृष्टि उत्पादन के लिए नहीं।
• तीसरी बात यह सिद्ध होती है कि- आभीर कन्या देवी गायत्री उस स्थान और पद को प्राप्त हुई। जिसे योगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना करने के बाद भी नहीं पाते। अब इससे बड़ा ब्राह्मणत्व कर्म वैष्णव वर्ण के गोपों के लिए और क्या हो सकता है।
• चौथी बात यह कि- देवी गायत्री महती विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम अहीर कन्या थी। जिसकी भूरि-भूरि प्रसंशा भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी के यज्ञ-सत्र में की और गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी पद पर नियुक्त किया। जो आज भी यह मान्यता है कि संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
देवी गायत्री का यदि पारिवारिक परिचय देखा जाए तो उनकी माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम "गोविल" था। जो दोनो ही नाम गोलोक से सम्बन्धित है। गायत्री के पिता-गोविल को नन्दसेन,अथवा नरेन्द्र सेन आभीर नाम से भी जाना जाता है। जो आनर्त देश, वर्तमान नाम (गुजरात) के रहने वाले थे। इस बात की पुष्टि-
लक्ष्मीनारायणी-संहिता के खण्ड (एक) के अध्याय-(५०९) के प्रमुख श्लोकों से होती है,जो इस प्रकार हैं -
"ब्रह्मणं यज्ञमिमं ज्ञात्वा शुद्धः स्नात्वा समागतः।
गोपकन्या नित्यं या शुद्धात्मा वैष्णव जातिका।।६२।।
श्री विष्णो वै तमुवाच प्रत्युत्तरं शृणु प्रिये ।
जाल्म एषाऽस्ति वीराण्याभीराणी जातितोऽस्ति वै ।।६४।।
शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्येतद्विदः।
पुरा सृष्टे समारम्भे गोलोके श्रीकृष्णेन परात्मना सुघटिता।६५।
अमुना स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता।
अथ द्वितीया रूपा कन्या च गायत्र्याभिधा कृता।।६६।
सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ।
अथ भूलोके यज्ञप्रवाहार्थं ब्रह्माणं ववल्हे।।६८।
पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता बभूव।। ६९।
हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह गायत्री नाम्ना।। ७०।
Yadav Yogesh Kumar Rohi:
अनुवाद:-
• इस ब्रह्मा के यज्ञसत्र को जानकर शुद्ध स्नान करके आयी हुई गोप कन्या नित्य जो शुद्धात्मा और वैष्णव जाति की है।६२।
• श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए उस गोप-कन्या को कहा ! सुन प्रिये ! ये बात छिपी हुई नही है कि ये वीराणी जाति से निश्चय ही अहीराणी है।६४।
• सुनो ! मैं जानाता हूँ वह वृत( इतिहास) कोई अन्य विद्वान नहीं जानता यह सत्य पूर्वकाल में सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण परमात्मा के द्वारा गोलोक में सुघटित हुआ।। ६५।
• उस परमात्मा के द्वारा अपने ही अंश से सावित्री और दूसरी कन्या को गायत्री नाम से प्रकट किया गया।६६।
• सावित्री श्री हरि के द्वारा ही गोलोक में प्रभु के सानिन्ध्य में भूलोक में यज्ञ प्रवाहन के लिए ब्रह्मा जी को प्रदान की गयीं ।६८।
• पृथ्वी पर मनुष्य रूप में वहाँ मानव शरीर में ब्रह्मा की पत्नी रूप में यज्ञ कार्य के लिए अवतरित हुईं।६९।
• उस कारण से कृष्ण के द्वारा सावित्री को आज्ञा दी गयी। तब द्वित्तीय स्वरूप में तुमको गायत्री नाम से जानना चाहिए।७०।
ज्ञात हो इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी "गोपेश्वरश्रीकृष्णस्य- पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रंथ में दी गई है जो इस पुस्तिका का ही विस्तार रूप है।
(ग) यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा का परिचय।
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देवी गायत्री के समान ही गोप कुल की देवी दक्षिणा, देवी स्वाहा और स्वधा भी हैं। जिनका यज्ञ, हवन और पित्र- पूजन के उपरान्त विशेष भूमिका रहती है। जिसमें यज्ञ और हवन के दरम्यान जो स्वाहा नाम के उच्चारण से हवन कुंडों में नैवेद्य अर्पण किया जाता है, और यज्ञ समाप्ति के बाद जो दान दक्षिणा दिया जाता है, वह सब देवी स्वाहा और दक्षिण के माध्यम से ही फलीभूत होता है। और ये देवी स्वाहा और दक्षिगोपोंनों ही गोपेश्वर श्री कृष्ण के गोलोक की गोपी सुशीला के ही अंशावतार है। जो कभी गोलोक में श्री राधा के शाप से गोपी सुशील को भूतल पर स्वाहा, स्वधा और दक्षिणा के रूप में आना पड़ा था।
जिसमें सुशीला के गोपी होने का प्रमाण तथा सुशीला के यज्ञ पुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में उत्पन्न होने का वर्णन
देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- (४५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो इस प्रकार है -
गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः।
राधा प्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा।२।
अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ।
विद्यावती गुणवती चातिरूपवती सती॥३।
अनुवाद - प्राचीन काल में गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परमधन्या, मान्या तथा मनोहरा वह गोपी भगवती राधा की प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मी के लक्षणों से सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूप से अत्यधिक सम्पन्न थी।२-३।
रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ।
उवासादक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा ॥७॥
सम्बभूवानम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ।
दृष्ट्वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरोत्तमाम् ॥८।
अनुवाद- वह रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधा के सामने ही भगवान् श्रीकृष्ण के वाम अंक (बगल) में बैठ गयी ॥ ७,८
कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्कजलोचनाम् ।
कोपेन कम्पिताङ्गीं च कोपेन स्फुरिताधराम्॥९॥
वेगेन तां तु गच्छन्तीं विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं चकार सः॥१०॥
अनुवाद- तब मधुसूदन श्रीकृष्ण ने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय पत्नी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥९-१०॥
पलायन्तं च कान्तं च विज्ञाय परमेश्वरी।
पलायन्तीं सहचरीं सुशीलां च शशाप सा॥ १५॥
अद्यप्रभृति गोलोकं सा चेदायाति गोपिका ।
सद्यो गमनमात्रेण भस्मसाच्च भविष्यति ॥१६॥
अनुवाद- १५-१६
• परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीला को पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आज से गोलोक में आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी।१५-१६।
दर्शनं देहि रमण दीना विरहदुःखिता ।
अथ सा दक्षिणा देवी ध्वस्ता गोलोकतो मुने॥३५।
अनुवाद - हे मुने ! इसके बाद राधा जी के द्वारा गोलोक से पलायित सुशीला नामक की वह गोपी दक्षिणा नाम से प्रसिद्ध हुई।३५।
अध्याय (6)-षष्ठम्(।।)√√√•
इस सम्बन्ध में ज्ञात होगा कि भगवान नारायण ने ही उस सुशीला का नाम दक्षिणा रखा इस संबंध में नीचे के ये श्लोक कुछ इसी प्रकार का संकेत दे रहे हैं-
नालभंस्ते फलं तेषां विषण्णाः प्रययुर्विधिम्।
विधिर्निवेदनं श्रुत्वा देवादीनां जगत्पतिम्॥३७॥
दध्यौ च सुचिरं भक्त्या प्रत्यादेशमवाप सः।
नारायणश्च भगवान् महालक्ष्याश्च देहतः॥३८॥
विनिष्कृष्य मर्त्यलक्ष्मीं ब्रह्मणे दक्षिणां ददौ।
ब्रह्मा ददौ तां यज्ञाय पूरणार्थं च कर्मणाम्॥ ३९॥
अनुवाद - जिसे भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रह से मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट किया और उसका दक्षिणा नाम रखकर उसे ब्रह्मा जी को सौंप दिया। तब ब्रह्मा जी ने यज्ञ संबंधी समस्त कार्यों की संपन्नता के लिए देवी दक्षिणा को यज्ञ पुरुष के हाथ में दे दिया।३७-३८-३९।
तब यज्ञपुरुष ने देवी दक्षिणा के पूर्व काल की बातों का स्मरण दिलाते हुए देवी दक्षिणा से कहा कि-
पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा वरा॥ ७१॥
राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिया ।
अनुवाद - हे महाभागे! तुम पूर्वकाल में गोलोक की एक गोपी थी और गोपियों में परमश्रेष्ठा थीं। श्रीकृष्ण तुमसे अत्यधिक प्रेम करते थे और तुम राधा के समान ही उन श्रीकृष्ण की प्रिय सखी थीं।७१।
कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ॥७२॥
आविर्भूता दक्षिणांसाल्लक्ष्म्याश्च तेन दक्षिणा।
पुरा त्वं च सुशीलाख्या ख्याता शीलेन शोभने॥ ७३॥
लक्ष्मीदक्षांसभागात्त्वं राधाशापाच्च दक्षिणा ।
गोलोकात्त्वं परिभ्रष्टा मम भाग्यादुपस्थिता ॥७४॥
कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु ।
अनुवाद- एक बार कार्तिक पूर्णिमा को राधामहोत्सव के अवसर पर रासलीला में तुम भगवती लक्ष्मी के दक्षिणांश से प्रकट हो गयी थीं, उसी कारण तुम्हारा नाम दक्षिणा पड़ गया। हे शोभने ! इससे भी पहले अपने उत्तम शील के कारण तुम सुशीला नाम से प्रसिद्ध थी तुम भगवती राधिका के शाप से गोलोक से च्युत( पतित) होकर और पुनः देवी लक्ष्मी के दक्षिणांश से आविर्भूत हो। अब देवी दक्षिणाके रूप में मेरे सौभाग्यसे मुझे प्राप्त हुई हो। हे महाभागे ! मुझपर कृपा करो और मुझे ही अपना स्वामी बना लो॥ ७२,-७४।
फिर यज्ञपुरुष ने उस देवी से कहा-
कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु।
कर्मिणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा॥७५॥
त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम्।
त्वया विना तथा कर्म कर्मिणां च न शोभते॥७६॥
ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च ।
कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥ ७७॥
अनुवाद- तुम्हीं यज्ञ करनेवालों को उनके कर्मों का सदा फल प्रदान करने वाली देवी हो। तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियों का सारा कर्म निष्फल हो जाता है और तुम्हारे बिना अनुष्ठानकर्ताओं का कर्म शोभा नहीं पाता है।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल आदि भी तुम्हारे बिना प्राणियों को कर्मका फल प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं। ७५-७६-,७७।
(गोपकन्या- दक्षिणा ही कर्मों के फलों की विधायिका हैं।)
और इस संबंध में सबसे बड़ी बात श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्द के अध्याय-(४३) के श्लोक संख्या-(३८) में लिखी गई है,जिसमें बताया गया है कि यज्ञ, हवन के मध्य गोपी सुशीला की अंशस्वरूपा देवी स्वाहा का कितना महत्व है-
दक्षिणाग्निगार्हपत्याहवनीयान् क्रमेण च।
ऋषियो मुनयश्चैव ब्राह्मणा: क्षत्रियादय:।३८।
स्वाहान्तं मन्त्रमुच्चार्य हविर्दानं च चक्रिरे।
स्वाहायुक्तं च मन्त्रं च यो गृह्णाति प्रशस्तकम्।।३९।
अनुवाद - तभी से ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मंत्र के अंत में स्वहा शब्द जोड़कर मंत्रोच्चारण करके अग्नि में हवन करने लगे। और जो मनुष्य स्वाहा युक्त प्रशस्त मंत्र का उच्चारण करता है, उसे सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है।
(घ) ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय
______
शतचन्द्रानना धन्या और मान्या गोलोक की एक विदुषी गोपी है जो गोलोक के सोलहवें द्वार की सदैव रक्षा में तत्पर रहती है। गोपी शतचन्द्रानना को ब्रह्माण्ड विदुषी होने का परिचय उस समय मिलता है जब समस्त देवता भगवान नारायण के कहने पर पृथ्वी के भार को दूर करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण के परमधाम गोलोक को प्रस्थान करते हैं। किंतु जब देवता लोग गोलोक के सोलहवें द्वार पर पहुंचे तो वहां द्वार की रक्षा में नियुक्त गोपी शतचन्द्रानना उनसे कुछ प्रश्न पूछकर अंदर जाने से रोक देती हैं। तब देवताओं ने जो कुछ कहा उसका सारा वृत्तांत गर्गसंहिता के गोलोकखण्ड के अध्याय- (२) के प्रमुख श्लोकों में कुछ इस प्रकार मिलता है।
तत्र कन्दर्पलावण्याः श्यामसुन्दरविग्रहाः।
द्वरि गन्तुं चाभ्यदितान् न्यषेधन् कृष्णपार्षदाः।२०।
अनुवाद - वहां कामदेव के समान मनोहर रूप लावण्य शालिनी श्यामसुंदर विग्रह श्रीकृष्ण पार्षदा (शतचन्द्रानना) द्वारपाल का कार्य करती थीं। देवताओं को द्वारा के भीतर जाने के लिए उद्यत देख उन्होंने मना किया।
"श्रीदेवा ऊचुः
लोकपाला वयं सर्वे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।
श्रीकृष्णदर्शनार्थाय शक्राद्या आगता इह॥२१॥
अनुवाद - देवता बोले- हम सभी ब्रह्मा" विष्णु शंकर नाम के लोकपाल और इन्द्र आदि देवता हैं भगवान श्री कृष्ण के दर्शनार्थ यहां आए हैं।
तच्छ्रुत्वा तदभिप्रायं श्रीकृष्णाय सखीजनाः।
ऊचुर्देवप्रतीहारा गत्वा चान्तःपुरं परम्॥२२॥
तदा विनिर्गता काचिच्छतचन्द्रानना सखी।
पीतांबरा वेत्रहस्ता सापृच्छद्वाञ्छितं सुरान्॥ २३॥
अनुवाद - २२-२३
देवताओं की बात सुनकर उन सखियों ने जो श्री कृष्ण की द्वारपालिकाऐं थी, श्रेष्ठ अन्तःपुर में जाकर देवताओं की बात कह सुनाई। तभी एक सखी जो शतचन्द्रानना नाम से विख्यात थी उनके वस्त्र पीले थे और जो हाथ में बेंत की छड़ी लिए थी, बाहर आयी और उन देवताओं से उनका अभीष्ट प्रयोजन पूछा।२२-२३।
श्रीशतचन्द्राननोवाच -
कस्याण्डस्याधिपा देवा यूयं सर्वे समागताः।
वदताशु गमिष्यामि तस्मै भगवते ह्यहम् ॥२४॥
अनुवाद - शतचन्द्रानना बोली - यहां पधारे हुए आप सब देवता कि ब्रह्माण्ड के अधिपति हैं, यह शीघ्र बताइये। तब मैं भगवान श्री कृष्ण को सूचित करने के लिए उनके पास जाऊँगी। २४
"श्रीदेवा ऊचुः -
अहो अण्डान्युतान्यानि नास्माभिर्दर्शितानि च।
एकमण्डं प्रजानीमोऽथोऽपरं नास्ति नः शुभे॥२५॥
अनुवाद - तब देवताओं नें कहा - अहो ! यह तो बहुत आश्चर्य की बात है, क्या अन्यान्य ब्रह्माण्ड भी हैं ? हमनें तो उन्हें कभी नहीं देखा। शुभे ! हम तो यही जानते हैं कि एक ही ब्रह्माण्ड है, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं।२५।
"श्रीशतचन्द्राननोवाच -
ब्रह्मदेव लुठन्तीह कोटिशो ह्यण्डराशयः।
तेषां यूयं यथा देवास्तथाण्डेऽण्डे पृथक् पृथक्॥ २६॥
नामग्रामं न जानीथ कदा नात्र समागताः।
जडबुद्ध्या प्रहृष्यध्वे गृहान्नापि विनिर्गताः॥२७॥
ब्रह्माण्डमेकं जानन्ति यत्र जातास्तथा जनाः।
मशका च यथान्तःस्था औदुंबरफलेषु वै॥२८॥
अनुवाद - २६-२८
तब शतचन्द्रानना उन देवताओं से बोलीं - ब्रह्मदेव! यहां (गोलोक) में करोड़ों ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें भी आप जैसे ही पृथक पृथक देवता वास करते हैं। अरे! क्या आप लोग अपना नाम गांव तक नहीं जानते ? जान पड़ता है की कभी यहां आए नहीं है, अपनी थोड़ी सी जानकारी में ही हर्ष से फूल उठे हैं। जान पड़ता है कभी घर से बाहर निकले ही नहीं। जैसे गूलर के फूलों में रहने वाले कीड़े जिस फल में रहते हैं, उसके सिवा दूसरे को नहीं जानते, उसी प्रकार आप जैसे साधारण जन जिसमें उत्पन्न होते हैं, एक मात्र उसी को ब्रह्मांड समझते हैं। २६-२८।
"श्रीनारद उवाच -
उपहास्यं गता देवा इत्थं तूष्णीं स्थिताः पुनः।
चकितानिव तान् दृष्ट्वा विष्णुर्वचनमब्रवीत्॥२९॥
श्रीविष्णुरुवाच -
यस्मिन्नण्डे पृश्निगर्भोऽवतारोऽभूत्सनातन।
त्रिविक्रमनखोद्भिन्ने तस्मिन्नण्डे स्थिता वयम्॥ ३०॥
"श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा तं च संश्लाघ्य शीघ्रमन्तःपुरं गता
पुनरागत्य देवेभ्योऽप्याज्ञां दत्त्वा गताः पुरम्॥३१॥
अथ देवगणाः सर्वे गोलोकं ददृशुः परम् ।
तत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते॥३२॥
अनुवाद - २९- ३२
• इस प्रकार उपहास के पात्र बने हुए सब देवता चुपचाप खड़े रहे, कुछ बोल ना सके। तब उन्हें चकित से देखकर भगवान विष्णु ने शतचन्द्रानना से कहा- जिस ब्रह्मांड में भगवान पृश्निगर्भ का सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम (विराट रूपधारी वामन) के नख से ब्रह्माण्ड में विवर बन गया है वहीं हम निवास करते हैं।२९-३०।
• तब भगवान विष्णु की यह बात सुनकर शतचन्द्रानना ने उनकी भूरि भूरि प्रशंसा की और स्वयं भीतर चली गयी फिर शीघ्र ही आयी और सबको अंतःपुर में पधारने की आज्ञा देकर वापस चली गयी। तदनन्तर संपूर्ण देवताओं ने परम सुन्दर धाम गोलोक का दर्शन किया। वहां गोवर्धन नामक गिरिराज शोभा पर रहे थे। २९-३२।
अतः उपरोक्त प्रसंग से सिद्ध होता है कि गोपी शतचन्द्रानना जैसी विदुषी की तुलना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में किसी अन्य से नही की जा सकती। क्योंकि इसकी विद्वता के सामने ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा समस्त देवताओं को लज्जित होना पड़ा।
इस तरह से देखा जाए तो गोप और गोपियां ही एकमात्र धर्मज्ञ ज्ञान से परिपूर्ण सारे कर्म-विधान और फल के नियामिका हैं। इनके ही माध्यम से ज्ञान की अविरल धारा संपूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होती है। और सारे धार्मिक कर्म- विधान इन्हीं के द्वारा सम्पन्न एवं फलित होते हैं, चाहे वह यज्ञ हो या पूजा पाठ में हवन इत्यादि ही क्यों न हो। और इन्हीं गोप- गोपियों को आधार मानकर ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के कर्मकाण्डी ब्राह्मण लोग ब्राह्मणत्व कर्म करते हैं। किंतु उनके सभी कर्मफलों व परिणामों में गोपों की ही भूमिका रहती है। इसीलिए गोपों को श्रेष्ठ व धर्मवत्सल जानकर ही गर्गसंहिता के अश्वमेधखंड खंड के अध्याय 60 के श्लोक
संख्या 40 में गोपों को पापों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है-
य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरे:।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।।४०।
अनुवाद - जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं, तथा यादव गोपों की मुक्ति का वृतान्त पढ़ते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।
और ब्राह्मणत्व कर्म का सबसे बड़ा उदाहरण परमात्मा श्री कृष्ण हैं जिन्होंने कुरुक्षेत्र में विराट रूप धारण कर अर्जुन को ज्ञान का वह उपदेश दिया जो अखिल ब्रह्माण्ड में प्रसिद्ध है, इसे कौन नहीं जानता। भगवान श्री कृष्ण की गोप होने के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी अध्याय- ८ में दी गई है।
वैष्णव वर्ण के गोप जिन्हें यादव व अहीर भी कहा जाता है, वे सभी बिना वर्ण विभाजन के आध्यात्मिक व धार्मिक कर्तव्यों को स्वाभाविक रूप से पालन करते हैं। वैष्णव वर्ण के गोप ही अहीर और यादव हैं, इसका विस्तार पूर्वक वर्णन अध्याय- ९ में किया गया है वहां से इस विषय पर जानकारी ली जा सकती है।
अब हमलोग गोपों के क्षत्रिय कर्म को जानेंगे की ये लोग ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के क्षत्रिय ना होते हुए भी कैसे क्षत्रिय धर्म को निभाते हुए समय-समय पृथ्वी के भार को भी दूर करते रहते हैं।
[२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म
वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है। किंतु ध्यान रहे- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के क्षत्रियों से इनका कोई संबंध नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्री कृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा भूमि-भार हरण के उद्देश्य से किया था। भगवान श्री कृष्ण सहित इस नारायणी सेना का प्रत्येक गोप- सैनिक, क्षत्रियोचित कर्म करते हुए बड़े से बड़े युद्धों में दैत्यों का वध करके भूमि के भार को दूर किया । गोपों को क्षत्रियोचित कर्म करने से ही उन्हें क्षत्रियों में माहाक्षत्रिय कहा जाता है।
इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म करने की वजह से ही अपने को क्षत्रिय कहा हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से।
इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिशाचों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-
क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्या: प्रकृतिस्थिता:।
यदुवंशे समुत्पन्न: क्षात्रं वृत्तमनुष्ठित:।।१०।
अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूं। प्राकृतिक मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूं, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।
इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को क्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के जन्मजात क्षत्रियों से।
और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के जन्मजात क्षत्रिय वर्ण में नही।
भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- ८ जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहाँ से इस विषय पर पाठकगण विस्तार से जानकारी ले सकते हैं।
भगवान श्री कृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भाँति नन्द बाबा की पुत्री योगमाया- विंध्यवासिनी( एकानंशा) को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।।२३।
अनुवाद- समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिया हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐकार एवं वषट्कार हो।
किंतु इस संबंध में ध्यान रहे कि योगमाया- विंध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण की।
क्योंकि योगमाया विन्ध्यवासिनी, गोप नन्द बाबा की एकलौती पुत्री हैं।
कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के बनावटी जन्मजात क्षत्रिय।
इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शस्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण हैं - दुर्गा, गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना।
अब यहां पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे सम्बन्धित सभी सेनाएं जैसे- "नारायणी सेना" अपराजिता एवं अजेया है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक और परलोक को जीतने की क्षमता हैं। क्योंकि सभी गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उन पर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात् देवता, गन्धर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक संख्या- (७) में भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।।७।
अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।
इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेया एवं अपराजिता है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय भी कहा जाता है।
[३] गोपों का वैश्य कर्म
ब्रह्मा जी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म-व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप स्वतंत्र रूप से करते हैं। इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किंतु ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है। क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतंत्र हैं। अतः गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर शस्त्र भी उठाते हैं। इसके साथ ही गोप लोग कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं।
जिसमें ये गोप पशुपालन में मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है।
गोपालन एवं कृषि कार्य से गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का सम्बन्ध पूर्व काल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मंडल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में मिलता है-
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।
इससे सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण सहित गोप वैश्य कर्म के अंतर्गत गोपालन करते थे जिसे आज भी परम्परागत रूप से पशुपालन व कृषिकार्य करते हैं।
अर्थात् गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किंतु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-(६) के श्लोक-(२६) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।।२६।
अनुवाद- बाबा हम सब गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।२६।
इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी का हल और मूसल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
श्री कृष्ण के पिता वासुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने की पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कन्ध के अध्याय- (२०) के श्लोक-(६०) और (६१) से होती है-
"तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।।६०।
वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१।
अनुवाद- वहां पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी शूरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहां के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था।६०-६१।
इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अंतर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण भी नंद बाबा से बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि- बाबा हमारे सभी गोप किसान हैं।
[४] गोपों का शूद्र कर्म।
देखा जाए तो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में चौथे पायदान पर शूद्र आते हैं, जिनका मुख्य कर्म सेवा करना निश्चित किया गया है। उससे हटकर शूद्र कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसा ही उन पर प्रतिबंध लगाया गया है।
किंतु वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वैष्णव वर्ण के गोप, ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य इत्यादि कर्मों के साथ- साथ सेवा कर्म को भी नि:संकोच और बड़े गर्व के साथ बिना किसी प्रतिबंध के करते आए हैं। जिसमें गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का भी ऐसा ही कर्मगत स्वभाव देखने को मिलता है। क्योंकि पाप और अत्याचार को दूर करने के लिए और समाज सेवा के लिए ही प्रभु भूमि पर अवतरित होते हैं।
भगवान श्री कृष्ण को सेवा कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने की पुष्टि- युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से होती है, जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध (उत्तरार्द्ध ) के अध्याय-(७५) के श्लोक- (४-५)और (६) से होती है। जिसमें उस यज्ञ के बारे में लिखा गया है कि-
भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्ष: सुयोधन:।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने।।४।
गुरुशुश्रूषणे जिष्णु: कृष्ण: पदावनेजन।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामना:।।५।
युयुधाननो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादय:।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादय:।।६।
अनुवाद- भीमसेन भोजनालय की देखभाल करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे सहदेव अभ्यगतों के स्वागत सत्कार में नियुक्त थे। और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे। अर्जुन गुरुजनों की सेवा सुश्रुषा करते थे। और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, आए हुए अतिथियों के पाँव पखारने का काम करते थे। देवी द्रोपदी भोजन परोसने का काम करती थीं। और उदार शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे।४-५-६।
इन उपरोक्त श्लोक को यदि शुद्ध अंतरात्मा से विचार किया जाए, तो गोपेश्वर श्री कृष्ण ने समाज सेवा में वह कार्य किये जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के शूद्र किया करते हैं। जबकि भगवान श्री कृष्ण वैष्णव वर्ण के गोप रूप में पांव- पखार( धोकर) कर यह सिद्ध करते हैं कि- वैष्णव वर्ण के सदस्य ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व,वैश्य कर्म- के साथ-साथ शूद्र (समाज सेवा) का कर्म करने में भी स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं। जबकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से शूद्र- (सेवा) कर्म को निंदनीय माना गया है।
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जबकि वैष्णव वर्ण में कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसमें वैष्णव जन निःसंकोच सभी कर्मों को बिना किसी प्रतिबंध के करने की आजादी होती है जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में ऐसी नहीं है।
इसीलिए वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक ग्रंथों में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। उनकी सभी प्रसंशाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके अगले अध्याय- (७) में किया गया है। उसे भी इसी अध्याय के साथ जोड़कर पढ़ें।
इस प्रकार से यह अध्याय-(६) वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अध्याय- (७)✓✓✓
वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में प्रशंसा।
आत्मानन्द जी:
योगेश रोहि -
पौराणिक ग्रन्थों में वैष्णव वर्ण के गोपों अर्थात यादवों की समय-समय पर भूरी-भूरी प्रशंसा की गई है। जैसे-
(१)- ब्रह्मा जी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा जी से होने को सुनिश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या- १७ में कहते हैं कि-
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरञ्चयते।। १७।
अनुवाद- तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों जैसा धर्मवत्सल, सदाचारी और धर्मज्ञ भूतल पर ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्मांड में कोई नहीं है।
(२)- गोपों (यादवों) की कुछ इसी तरह की प्रशंसा और विशेषताओं को कंस स्वयं करता है।यादवों को अपने दरबार में बुलाकर उनसे जो कुछ कहा उसका वर्णन- हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -(२२ के १२ से २५ ) तक के श्लोकों में मिलता है। जो इस प्रकार है -
"भवन्तः सर्वकार्यज्ञा वेदेषु परिनिष्ठिताः।
न्यायवृत्तान्तकुशलास्त्रिवर्गस्य प्रवर्तकाः।।१२।
कर्तव्यानां च कर्तारो लोकस्य विबुधोपमाः।
तस्थिवांसो महावृत्ते निष्कम्पा इव पर्वताः।।१३।।
अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः।।१४ ।।
यशः प्रदीपा लोकानां वेदार्थानां विवक्षवः।
आश्रमाणां निसर्गज्ञा वर्णानां क्रमपारगाः।।१५।।
प्रवक्तारः सुनियतां नेतारो नयदर्शिनाम् ।
भेत्तारः परराष्ट्राणां त्रातारः शरणार्थिनाम्।।१६।।
एवमक्षतचारित्रैः श्रीमद्भिरुदितोदितैः।
द्यौरप्यनुगृहीता स्याद्भवद्भिः किं पुनर्मही।। १७।।
ऋषीणामिव वो वृत्तं प्रभावो मरुतामिव ।
रुद्राणामिव वः क्रोधो दीप्तिरङ्गिरसारमिव।।१८।।
व्यावर्तमानं सुमहद् भवद्भिः ख्यात कीर्तिभिः ।
धृतं यदुकुलं वीरैर्भूतलं पर्वतैरिव।।१९।।
अनुवाद -
आप (यादव ) समस्त कर्तव्य कर्मों के ज्ञाता, वेदों के परिनिष्ठित विद्वान, न्यायोचित वर्ताव में कुशल, धर्म, अर्थ, और काम के प्रवर्तक, कर्तव्य पालक, जगत के लिए देवताओं के समान माननीय महान आचार- विचार में दृढ़ता पूर्वक स्थिर रहने वाले और पर्वत के समान अविचल है।१२-१३।
• आप सब लोग पाखण्डपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मंत्राओं को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।
• आपके यशस्वी रूप प्रदीप संपूर्ण जगत में अपना प्रकाश फैला रहे हैं। आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ है। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म है, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके आप लोग पारंगत विद्वान है।१५।
• आप लोग उत्तम विधियों के वक्ता, नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक है।१६।
• आपके सदाचार में कभी आंच नहीं आने पाई है। आप लोग श्रीसम्पन्न हैं तथा श्रेष्ठ पुरुषों की चर्चा होते समय आप लोगों के नाम बारम्बार लिए जाते हैं। आप लोग चाहें तो स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ? ।१७।
• आपका (यादवों का) आचारण ऋषियों के समान, प्रभाव मरुद्गणों के समान, क्रोध रूद्रो के समान, और तेज अग्नि के समान है।१८।
• यह महान यदुकुल जब अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो रहा था, उस समय विख्यात कीर्ति वाले आप जैसे वीरों ने ही इसे मर्यादा में स्थापित किया, ठीक उसी तरह से जैसे पर्वतों ने इस भूतल को दृढ़तापूर्वक धारण कर रखा है।१९।
उपरोक्त श्लोकों में देखा जाए तो यादवों के लिए
पांच महत्वपूर्ण बातें निकल कर सामने आती है। वो हैं-
(१)- यादव - पाखंडपूर्ण वृत्ति से सदैव दूर रहते थे और आज भी दूर रहते हैं।
(२)- यादव - वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। तथा आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म है, उन्हें ये लोग भली- भाँति जानते हैं। और चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके भी ये लोग पारंगत विद्वान है।
(३)- यादव - नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं।
(४)- यादवों के दृढ़संकल्प की बात करें तो ये स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं, फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ? ये सभी विशेषताएं आज भी यादवों में देखने को मिलती है।
(५)- यादवों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनके आचार ऋषियों के समान, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रूद्रों के समान, और तेज अग्नि के समान होता है दूसरी बात यह कि- यादवों की इन्हीं विशेषताओं की वजह से जब कालयवन नें नारद जी से पूछा कि इस समय पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन हैं ? इसपर नारद जी विष्णुपुराण के पंचम अंश के अध्याय- २३ के श्लोक संख्या- ६ में नारद जी बताते हैं -
स तु वीर्यमदोन्मतः पृथिव्यां बलिनो नृपान् ।
अपच्छन्नारदस्तस्मै कथयामास यादवान्।६।
अनुवाद - तदनन्तर वीर्यदोन्मत्त कालयवन ने नारद जी से पूछा कि पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन से हैं ? इस पर नारद जी ने उसे यादवों को ही सबसे अधिक बलशाली बताया।६।
इसी तरह से गोपकुल की गोपियों के लिए गर्गसंहिता के गोलक खंड के अध्याय- १० के श्लोक संख्या-(८) में नारद जी कंस से कहते हैं कि -
"नन्दाद्या वसव: सर्वे बृषभान्वादय: सरा:।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च सन्ति भूमौ नृपेश्वर।।८।
अनुवाद - नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के अवतार हैं।
नृपेश्वर कंस ! इस "व्रजभूमि में जो गोपियां है, उनके रूप में वेदों की ऋचाएं यहां निवास करती हैं"।
अब इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि गोपियों की उपमा वेदों की ऋचाओं से की जाती है।
(४)- गोपियाँ कोई साधारण स्त्रियाँ नहीं थीं। तभी तो चातुर्वर्ण्य के नियामक व रचयिता ब्रह्मा जी- श्रीमद्भभागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय - (४७) के श्लोक (६१) में गोपियों की चरण धूलि को पाने के लिए तरह-तरह की कल्पना करते हुए मन में विचार करते हैं कि-
"आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथमं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।।६१।
अनुवाद - मेरे लिए तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृंदावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि बन जाऊं। अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊंगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओं (गोपियों ) की चरण धूलि निरंतर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी।
अब इन गोपकुल की गोपियों लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि ब्रह्मा जी भी इनके चरण धूलि को पाने के लिए झाड़ी और लता तक बन जाने की इच्छा करते हैं।
(५)- इसी तरह से गोपों के बारे में श्री राधा जी, गोपी रूप धारण किए भगवान श्री कृष्ण से- गर्गसंहिता के वृंदावन खंड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या -२२ में कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।
अनुवाद - ग्वाले सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गंगा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुंदर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
(६)- इसी तरह से परम ज्ञानयोगी उद्धव जी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय-(९४) के कुछ प्रमुख श्लोकों में गोपियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-
"धन्यं भारतवर्षं तु पुण्यदं शुभदं वरम् ।
गोपीपादाब्जरजसा पूतं परमनिर्मलम्। ७७।
ततोऽपि गोपिका धन्या सान्या योषित्सु भारते।
नित्यं पश्यन्ति राधायाः पादपद्मं सुपुण्यदम्। ७८।
अनुवाद - इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपीकाएं सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं, क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्री राधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती रहती हैं।७७-७८।
पुनः उद्धव जी कहते हैं कि -
"षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं च ब्रह्मणा ।
राधिकापादपद्मस्य रेणूनामुपलब्धये ।।७९।
गोलोकवासिनी राधा कृष्णप्राणाधिका परा ।
तत्र श्रीदामशापेन वृषभानसुताऽधुना ।।८०।
ये ये भक्ताश्च कृष्णस्य देवा ब्रह्मादयस्तथा।
राधायाश्चापि गोपीनांकरां नार्हन्ति षोडशीम्।।८१।
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।।
किंचित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।। ८३।।
धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमागतो गोकुलं यतः ।
गोपिकाभयो गुरुभ्यश्च हरिभक्तिं लभेऽचलाम् ।। ८४ ।।
मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि।। ८५ ।।
न गोपीभ्यः परो भक्तो हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरेगोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।८६।।
अनुवाद -
• इन्हीं राधिका के चरण -कमल की रज को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था।७९।
• गोलोक- वासिनी राधा जी, जो परा प्रकृति हैं। वहीं भगवान कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे गोलोक में श्रीदामा के शाप से आज-कल भूलोक में वृषभानु की पुत्री राधा के नाम से उपस्थित हैं। और जो-जो श्री कृष्ण के भक्त हैं, वे सभी राधा के भी भक्त हैं। ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की 16 (सोलहवीं) कला की भी समानता नहीं कर सकते। ८०-८१।
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप से तो योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियाँं ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।
• इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया। यहां गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से मुझे अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई है, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। ८४।
पुनः इसके अगले श्लोक- (८५) और (८६) में उद्धव जी कहते हैं कि-
"मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।।८५।।
न गोपिभ्यः परो भक्तों हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरे गोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।।८६।।
अनुवाद -
• अब मैं मथुरा नहीं जाऊँगा, और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर (दास,सेवक) होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूँगा, क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है वैसी भक्ति दूसरों को प्राप्त नहीं हुई। ८५ - ८६।
और यहीं कारण है कि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को गोप और गोपियों की पूजा करने का भी विधान किया गया है। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भेवीभागवत पुराण के नवम् स्कंध के अध्याय -३० के श्लोक संख्या - ८५ से ८९ से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।।८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधाया सह।
भारते पूजयेभ्दवत्या चोपचाराणि षोडश।।८६।
गोलोक वसते सोऽपि यावद्वै ब्राह्मणो वय।
भारतं पुनरागत्य कृत्यो भक्तिं लभेद् दृढाम।।८७।
क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देवं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।।८८।
ततः कृष्णस्य सारुपयं पार्षदप्रवरो भवेत्।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत।।८९।
अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मंडल संबंधी उत्सव मनाकर शालिग्राम- शिला पर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्ति पूर्वक साधन सहित श्री कृष्ण की पूजा संपन्न करता है, वह ब्रह्मा जी के स्थिति पर्यंत गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्री कृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। फिर भगवान श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मंत्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्री कृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।८५-८९।
गोपों की इन्हीं सब आध्यत्मिक विशेषताओं के कारण- गोपों (यादवों) को पाप से मुक्ति दिलाने वाला कहा जाता है। इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड खण्ड के अध्याय- ६० के श्लोक संख्या- ४० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।
अनुवाद- जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा गोपालक( गोप) , यादवों की मुक्ति का वृतांत पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।।
कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- (११) के श्लोक संख्या- (४) में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-
"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परं ब्रह्म निराकृति।।४।
अनुवाद - जिसमें श्री कृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने साकार रूप में अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।४।
किंतु वे लोग विशेषकर ऐसे कथावाचक, पापों से मुक्त नहीं हो पाते जो जानबूझकर या स्वार्थवश या लालचवश श्रीकृष्ण कथा में श्रीकृष्ण की आधी -अधुरी जानकारी को बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे कथावाचक कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते। साथ ही वे पाप तथा दण्ड के भागी होते हैं। क्योंकि श्री कृष्ण कथा तभी पूर्ण मानी जाती है जब श्रीकृष्ण के साथ ही उनके पारिवारिक सदस्य गोपों का भी वर्णन किया गया हो। क्योंकि यह बात शास्त्रोचित है कि गोपेश्वर श्री कृष्ण के सहचर गोप हैं जिनके साथ भगवान श्री कृष्ण अपनी लीलाएं करते रहते हैं। इसीलिए बगैर गोपों का वर्णन किये श्रीकृष्ण की कथा अधूरी ही मानी जाती है। जिससे कभी उसके श्रवण का पुण्यफल प्राप्त नहीं हो सकता है।
इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि -"ऐसे छद्म-वेषधारी कथावाचकों से सावधान रहने की आवश्यकता है जो अल्पज्ञान से बिना गोपों का वर्णन किये ही श्रीकृष्ण कथा कहते हों।"
गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणामों
की जानकारी अध्याय -१ भाग-(दो) में बतायी जा चुकी है। वहाँ से इस विषय पर विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
इस प्रकार से यह अध्याय- ७ वैष्णव वर्ण के गोपकुल के गोप और गोपियों की पुराणों
में की गई भूरि-भूरि प्रसंशाओं और उनकी आध्यात्मिक महत्ता की कुछ जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
इसी क्रम में इसके अगले अध्याय- ८ में भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरित होने के प्रमुख कारणों को जानेंगे।
(अध्याय- (८) ✓✓✓
"भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण- जीवन के (125) वर्ष पूर्ण होने का पौराणिक साक्ष्य "
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।
(श्रीमद्भागवत गीता अध्याय- ४/७)
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- "जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूँ अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ"।
इसी सत्य को चरितार्थ करने के लिए परमेश्वर श्रीकृष्ण अपने गोलोक से धरा-धाम पर गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं।
इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कंध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान् शूद्रान कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते।।२२।
अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।
इसी तरह से श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्ध के अध्याय-(६) के श्लोक संख्या -(२३) और (२५) में ब्रह्मा जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि-
अवततीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद् रुपमनुत्तमम्।
कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः।। २३।
यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरूषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पंचविंशाधिकं प्रभो।।२५।
अनुवाद - आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत् के हित के लिए उदारता और पराक्रम से भरी अनेक लीलाएं कीं ।२३।
• पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु ! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये "एक सौ पच्चीस वर्ष" बीत गए हैं।२५।
इसी तरह से हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के अध्याय- (५५) के श्लोक-१७ में गोपेश्वर श्री कृष्ण, ब्रह्मा जी से पूछा कि-आप मुझे यह बताएं कि मैं किस प्रदेश में कैसे प्रकट होकर अथवा किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि में संहार करूंगा ? इस पर ब्रह्मा जी श्लोक संख्या- (१८ से २०) में कहा -
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रृणु मे विभो।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।। १८।
यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।
यादवानां महद वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।
ताश्चासुरान् समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मननो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।।२०।
अनुवाद - सर्वव्यापी नारायण ! आप मेरे इस उपाय को सुनिए, जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। हे महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे,जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे, वह सब बताता हूँ सुनिए।१८-१९-२०।
इसी तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण को यदुवंश में जन्म लेने की पुष्टि- गर्ग संहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (१४) के श्लोक संख्या- (४१) से होती है। जिसमें त्रेता-युग के रावण का भाई विभीषण जो अमर होकर लंका का राजा द्वापर युग तक बनकर जीवित था। उसी समय यादव अपनी विशाल सेना के साथ विश्वजीत युद्ध के लिए निकले थे। उसी उपरान्त( दरम्यान)
दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने विभीषण को बताया कि-
असंख्यब्राह्मण्डपतिर्गोलोकेश: परात्पर:।
जातस्तयोर्वधाथार्य यदुवंशे हरि: स्वयंम्।।४१।
यादवेन्द्रो भूरिलीलो द्वारकायां विराजते। ४२/२
अनुवाद - असंख्य ब्रह्माण्डपति परात्पर गोलोकनाथ श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। वे यादवेंद्र बहुत सी लीलाएं करते हुए इस समय द्वारिका में विराजमान है।४१-४२/२।
यादवों के उसी विश्वजीत युद्ध के समय मुनि वामदेव ने राजा गुणाकर को भी भगवान श्री कृष्ण को यादव कुल में उत्पन्न होने की बात बहुत ही अच्छे ढंग से बतायें। जिसका वर्णन गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- (२८) के श्लोक संख्या (४५) व (४६) में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-
राजंस्त्वं हि न जानसि परिपूर्णतमं हरिम्।
सुराणां महदर्थाय जातं यदुकुले स्वयंम्।
भुवो भारावताराय भक्तानां रक्षणाय च।।४५।
भूत्वा यदुकुले साक्षाद् द्वारकायां विराजते।
तेन कृष्णेन पुत्रोऽयं प्रदुम्नो यादवेश्वरः।
उग्रसेनमखार्थाय जगज्नेतुं प्रणोदित:।।४६।
अनुवाद - राजन ! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्री हरि, देवताओं का महान कार्य सिद्ध करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। पृथ्वी का भार उतरने और भक्तों की रक्षा करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हो वे साक्षात भगवान द्वारिकापुरी में विराजते हैं। उन्हीं श्री कृष्ण ने उग्रसेन के यज्ञ की सिद्धि के लिए संपूर्ण जगत को जीतने के निमित्त अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युम्न को भेजा है।४५- ४६।
यादवों के उसी विश्वजित्- युद्ध के समय जब श्रीकृष्ण के द्वारा महान बलशाली दैत्यराज शकुनि मारा गया तब उसकी पत्नी मदालसा ने हाथ जोड़कर श्री कृष्ण से जो कुछ कहा उससे भी सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण गोप जाति यदुकुल में अवतीर्ण हुए थे। जिसका वर्णन गर्गसंगीता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (४२) के श्लोक संख्या- (६) और (७) में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-
भारावताराय भुवि प्रभो त्वं जातो यदूनां कुल आदिदेव।
ग्रसिष्यसे पासि भवं निधाय गुणैर्न लिप्तोऽसि नमामि
तुभ्यम्।। ६।
मदात्मजं पालय भीत-भीतममुष्य हस्तं कुरु शीर्षि्ण देव।
भर्त्रा कृते में किल तेऽपराधं क्षमस्व देवेश जगन्निवास।। ७।
अनुवाद- (६-७)
प्रभो ! आदि देव ! आप भूतल का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतरित हुए हैं। आप ही संसार के स्रष्टा एवं पालक है, और प्रलय काल आने पर आप ही इसका संहार भी करते हैं। किंतु आप कभी भी गुणों में लिप्त नहीं होते। मैं आपकी अनुकूलता प्राप्त करने के लिए आपके चरणों को प्रणाम करती हूँ। मेरा पुत्र बहुत डरा हुआ है। आप इसकी रक्षा कीजिए। देव ! इसके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखिए। देवेश ! जगन्निवास ! मेरे पति ने जो अपराध किया है उसे क्षमा कीजिए।
इसी तरह से जब सभी देवता मिलकर ब्रह्मा जी का विवाह अहीर कन्या गायत्री से भगवान् विष्णु के निर्देशन में कराते हैं।, तब ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री क्रोध से तिलमिलाकर अहीर कन्या गायत्री सहित देवताओं को शापित करती हैं। उसी समय वहां उपस्थित विष्णु को भी सावित्री शाप दे देती हैं। उसी शाप के विधान से भी गोपेश्वर श्रीकृष्ण को यदुकुल में जन्म लेना पड़ता। इस बात की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७) के श्लोक संख्या-(१६१) से होती है। जिसमें सावित्री विष्णु को शाप देते हुए कहती हैं कि-
यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि ।।१६१।
अनुवाद - हे विष्णु ! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बनकर लम्बे समय तक इधर-उधर भ्रमण करते रहोगे।१६१।
इसी तरह से बलराम जी को भी यदुकुल में उत्पन्न होने की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खण्ड के श्लोक संख्या -(१३) और (१४) से होती है। जिसमें बलराम जी स्वयं अपने पार्षदों से कहते हैं कि -
हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।। १३
भो वर्म त्वमपि चाविर्भव। हे मुनयः पाणिन्यादयो हे व्यासादयो हे कुमुदादयो हे कोटिशो रुद्रा हे भवानीनाथ
हे एकादश रुद्रा हे गन्धर्वा ! हे वासुक्यादिनागेन्द्रा हे निवातकवचा हे वरुण हे कामधेनो मूम्यां भारतखण्डे यदुकुलेऽवतरन्तं मां यूयं सर्वे सर्वदा एत्य मम दर्शनं कुरुत।।१४।
अनुवाद - हे हल और मुसल! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूँ, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना।
हे कवच ! तुम भी वैसे ही प्रकट हो जाना। हे पाणिनि , व्यास तथा कुमुद आदि मुनियों ! हे कोटि-कोटि रूद्रों ! गिरिजापति शंकर जी ! ग्यारह रुद्रों ! गन्धर्वों ! वासुकि आदि नागराजों ! निवातकवच आदि दैत्यों! हे वरूण और कामधेनु! मैं भूमंडल पर भारतवर्ष में यदुकुल में अवतार लूँगा। तुम सब वहांाँ आकर सदा सर्वदा मेरा दर्शन करना।१३-१४।
उपरोक्त सभी श्लोकों से यह सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण गोप अथवा आभीर जाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में हुआ है। किंतु इस संबंध में ज्ञात हो कि- यदुवंश - वैष्णव वर्ण के गोपजाति का ही प्रमुख वंश है। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण को जब वंश में जन्म लेने की बात कही जाती है तब उनके लिए यदुवंश का नाम लिया जाता है। किंतु जब भगवान श्री कृष्ण को किसी जाति में जन्म लेने की बात कही जाती है तो उनके लिए गोपजाति या आभीर( आहिर) जातिका नाम लिया जाता है। इसमें दोनों तरह से बात एक ही है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण को अनेकों बार यदुवंश के साथ-साथ गोपजाति में भी जन्म लेने की बात कही गई है। जैसे-
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपजाति में जन्म लेने की बात हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में कही गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
भगवान श्री कृष्ण को गोपकुल में अवतीर्ण होने की बात गायत्री संग ब्रह्मा जी के विवाह के समय तब होती है जब इन्द्र गोप कन्या गायत्री को लेकर ब्रह्मा जी से विवाह हेतु यज्ञ स्थल पर ले गए थे। तब सभी गोप अपना मुख्य शस्त्र लकुटि- दण्ड (लाठी- डंडा) के साथ अपनी कन्या गायत्री को खोजते हुए ब्रह्मा जी के यज्ञ स्थल में पहुँचे। वहाँ पहुँच कर गायत्री के माता-पिता ने पूछा कि- मेरी कन्या को कौन यहाँ लाया है ? तब उनकी यह बात सुनकर तथा
उनके क्रोध का अन्दाजा लगाकर वहाँ उपस्थित सभी देवता और ऋषि मुनि भयभीत हो गए। तभी वहाँ उपस्थित विष्णु भगवान् गोपों के सामने उपस्थित हो गए और उस अवसर पर जो कुछ गोपों से कहा उसका वर्णन भी पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७) के श्लोक संख्या -(१६) से (२०) में मिलता है। जिसमें भगवान्- विष्णु यज्ञ- स्थल में सबके समक्ष गोपों से कहते हैं कि -
युष्माभिरनया आभीरकन्याया
तारितो गच्छ ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६ ।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।। १८।
तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः।
करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।।१९।
न चास्याभविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्।
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा ।।२०।
अनुवाद:- हे आभीरों (गोपों) इस तुम्हारी आभीर कन्या गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों को जाओ तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा।१६।
• और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी। उसी समय धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।१७।
• तब मैं उनके बीच रहूँगा। तुम्हारी सभी पुत्रियाँ मेरे साथ ही रहेंगी।१८।
• तब वहां कोई पाप, द्वेष और ईर्ष्या नहीं होगी। गोप( आभीर) लोग भी किसी को भय नहीं देंगे।१९।
• इस कार्य (ब्रह्मा से विवाह करने) के फलस्वरूप इस (तुम्हारी पुत्री को) कोई पाप नहीं लगेगा। विष्णु के ये वचन सुनकर वे सभी उन्हें प्रणाम करके वहां से चले गए।२०।
किंतु जाते समय गोपगणों ने भी विष्णु से यह वादा करवाया कि आप निश्चित रूप से गोपकुल में ही जन्म लेंगे। जिसका वर्णन इसी अध्याय के श्लोक -२१ में है जिसमें गोपगण भगवान-विष्णु से कहते हैं कि -
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे।
अवतारः कुलेऽस्माकंं कर्तव्योधर्मसाधनः।। २१।
अनुवाद - हे देव ! यही हो। आपने जो वर दिया, वैसा ही हो। आप हमारे कुल में धर्मसाधन के कर्तव्य के लिए अवश्य अवतार लेंगे।२१।
तब विष्णु ने भी गोपों को ऐसा ही आश्वासन दिया। तत्पश्चात सभी गोप प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने घर चले गए।
उसी समय अहीर कन्या गायत्री ने ब्रह्मा जी की प्रथम पत्नी सावित्री जो विष्णु को यह शाप दे चुकी थी कि - हे विष्णु! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बन कर लम्बे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। उस शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के अध्याय- १९३ के श्लोक -(१४) और (१५) में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -
तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यन्ति श्लाघ्यताम्॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥
यत्रयत्र च वत्स्यंन्ति मद्वं शप्रभवानराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥
अनुवाद -(१४-१५)
आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती है- तुम्हारे इस प्रकार रक्त सम्बन्धी (blood relation ) वाले गोप (अहीर) तुम्हारी प्राप्ति कर , विना कुछ कर्म के भी प्रशंसनीय पद प्राप्त कर जायेंगे। और सभी लोग विशेष रूप से देवता भी उनकी प्रशंसा करेंगे। १४।
• पुन: गायत्री विष्णु से कहती हैं- मेरे गोप वंश के लोग जहां भी रहेंगे, वहां श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो।१५।
अतः उपरोक्त सभी महत्वपूर्ण श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- धर्म स्थापना हेतु गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म या अवतरण, वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत गोप जाति (अहीर जाति ) के यादव वंश में ही होता है अन्य किसी जाति या वंश में नहीं।
यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण, चाहे गोलोक में हो या भूलोक में हो, वे सदैव गोपवेष में गोपों के ही साथ ही रहते हैं, और सभी लीलाएं उन्हीं के साथ ही करते हैं। इसीलिए गोपों को श्रीकृष्ण का सहचर (सहगामी) अर्थात् साथ-साथ चलने वाला भी कहा जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण को सदैव गोपवेष में गोपों के साथ रहने की पुष्टि - हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय -(३) के श्लोक -(३४) से होती है। जिसमें भगवान श्री कृष्णजन्म लेने से पूर्व योग माया से कहते हैं कि-
मोहहित्वा च तं कंसमेका त्वं भोक्ष्यसे जगत्।
अहमप्यात्मनो वृत्तिं विधास्ये गोषु गोपवतः।। ३४।
अनुवाद - तुम उस कंस को मोह में डालकर अकेली ही संपूर्ण जगत का उपभोग करोगी। और मैं भी ब्रज में गौओं के बीच में रहकर गोपों के समान ही अपना व्यवहार बनाऊंगा।
ये तो रही बात भूलोक की। किंतु गोपेश्वर श्री कृष्ण गोलोक में भी अपने गोपों के साथ सदैव गोपवेष में ही रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय
(२)- के श्लोक -(२१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम्।।२१।
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक(गोलोक) में सदा गोप (आभीर ) भेष में रहते हैं।२१।
अतः इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण चाहे गोलोक में हो या भूलोक दोनों स्थानों पर वे सदैव गोपवेष में गोपों के साथ ही रहते हैं।
इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- (१००) के श्लोक - (२६) और (४१) में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जहाँ पौण्ड्रक, श्रीकृष्ण के परस्पर युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के मध्य पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहता है कि-
स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१।
अनुवाद - ओ यादव! ओ गोपाल! इस समय तुम कहां चले गए थे ? आजकल मैं ही वासुदेव नाम से विख्यात हूं।२६।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक से कहा-
• राजन मैं सर्वदा गोप हूँ प्राणियों का सदा प्राण दान करने वाला हूँ, तथा संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूँ। ४१
इसी प्रकार से एक बार श्रीकृष्ण की तरह-तरह की अद्भुत लीलाओं को देखकर गोपों को संशय होने लगा कि कृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। ये या तो कोई देवता है या कोई ईश्वरीय शक्ति। और इस रहस्य को श्रीकृष्ण अपने गोपों से गुप्त रखना चाहते थे, ताकि मेरी बाल -लीला बाधित न हो। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण उनके संशय को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय- (२०) के श्लोक- (११) में अपने सजातीय गोपों से कहते हैं कि-
मन्यते मां यथा सर्वे भवन्तो भीमविक्रमम्।
तथाहं नावमन्तव्यः स्वजातीयोऽस्मि बान्धवः।।११।
अनुवाद - आप सब लोग मुझे जैसा भयानक पराक्रमी समझ रहे हैं, वैसा मानकर मेरा अनादर न करें। मैं तो आप लोगों का सजातीय (गोप जाति का) भाई बंधु ही हूँ।
इस प्रकार से यह अध्याय- इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि- गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक और भू-लोक दोनों स्थानों पर सदैव गोपवेष में अपने गोपकुल के गोपों के साथ ही रहते हैं।
अब इसके अगले अध्याय- ९ में जानकारी दी गई है कि-
गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र अत्रि है या वैष्णव ?
"हरिवंश पुराण तथा देवीभागवत पुराण में वसुदेव का गोप जाति में कश्यप के अँश से जन्म लेने का प्रसंग-
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यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्
तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह ।१७।
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"ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति ।१८।
यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।१९।
तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।
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पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।
अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु। प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।२२।
ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।२४।
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"मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।२५।
कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।
प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः ।२७।
यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।२८।
यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।२९।
या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।1.55.३०।
त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।
____
"इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।३२ ।।
येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।३३।
या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।३४।
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।३५।
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः। ३६।
तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।३७।
देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।३८।
तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा। ३९।
छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन। 1.55.४०।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले ।४१।
देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।४२।
"गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः ।४३।
विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति ।४४।
त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव ।४५।
"वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः ।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि ।४६।
जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति ।४७।
अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।४८।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।४९।
वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।1.55.५०।
"तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता ।५१।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।५२।
"इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
हरिवंशपर्व सम्पूर्ण ।
अध्याय 55 -
"अनुवाद:-
17. हे पितामह, क्या तुझे कुछ भी मालूम है, कि मैं किस प्रकार, किस देश में उत्पन्न होकर, किस घर में रहकर उनको मार डालूंगा।
18. ब्रह्मा ने कहा: - हे भगवान, हे नारायण , मुझसे सफलता की कुंजी सुनो और पृथ्वी पर तुम्हारे माता-पिता कौन होंगे।
19. उनके कुल का यश बढ़ाने के लिये तुम्हें यादव कुल में जन्म लेना पड़ेगा ।
20. तुम भलाई के लिये इन असुरों का नाश करके और अपने महान कुल को बढ़ाकर मानवजाति की व्यवस्था स्थापित करोगे। इस विषय में मुझसे सुनो.
21 हे नारायण, प्राचीन काल में, महाबली वरुण के महान यज्ञ में , कश्यप ने यज्ञ के लिए दूध देने वाली सभी गायों को चुरा लिया था।
24. कश्यप की दो पत्नियाँ थीं, अदिति और सुरभि , जो वरुण से गायों को स्वीकार नहीं करना चाहती थीं।
23 तब वरुण मेरे पास आये और सिर झुकाकर प्रणाम करके बोले, “हे श्रद्धेय, गुरु ने मेरी सारी गायें अपहरण कर ली हैं।
24. हे पिता, उस ने अपना काम पूरा करके भी उन गायोंको लौटाने की आज्ञा न दी।। वह अपनी दो पत्नियों अदिति और सुरभि के नियंत्रण में हैं।
25. हे प्रभु, मेरी वे सब गायें जब चाहें तब स्वर्गीय और अनन्त दूध देती हैं। अपनी शक्ति से सुरक्षित होकर वे समुद्र में विचरण करते हैं।
26. वे देवताओं के अमृत के समान सदा दूध उगलते रहते हैं। कश्यप के अलावा कोई और नहीं है जो उन्हें मोहित कर सके।
27. हे ब्रह्मा, गुरु, उपदेशक या कोई भी हो यदि कोई भटक जाता है तो आप उसे नियंत्रित करते हैं। आप हमारे परम आश्रय हैं।
28. हे संसार के गुरु, यदि उन शक्तिशाली व्यक्तियों को दंड नहीं दिया जाएगा जो अपना काम नहीं जानते हैं, तो संसार की व्यवस्था अस्तित्व में नहीं रहेगी।
29. आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। क्या तुम मुझे मेरी गायें दे दो, मैं फिर समुद्र में चला जाऊंगा।
30. ये गायें मेरी आत्मा हैं , वे मेरी अनन्त शक्ति हैं। आपकी समस्त सृष्टि में गाय और ब्राह्मण ऊर्जा के शाश्वत स्रोत हैं।
31. सबसे पहले गाय को बचाना चाहिए. जब वे बच जाते हैं तो वे ब्राह्मणों की रक्षा करते हैं। गौ-ब्राह्मणों की रक्षा से ही संसार कायम है।''
32. हे अच्युत , जल के राजा वरुण द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर और गायों की चोरी के बारे में वास्तव में सूचित होने पर मैंने कश्यप को श्राप दे दिया।
33. जिस अंश से महामनस्वी कश्यप ने गायों को चुराया था, उस अंश से वह पृथ्वी पर ग्वाले के रूप में जन्म लेगा।
34. उनकी दोनों पत्नियाँ सुरभि और अदिति, जो देवताओं के जन्म के लिये लकड़ी के टुकड़ों के समान हैं, भी उनके साथ जायेंगी।
35-36. वह उनके यहां ग्वाले के रूप में जन्म लेकर वहां सुखपूर्वक रहेगा। उन्हीं के समान शक्तिशाली कश्यप का वह अंश वासुदेव के नाम से जाना जाएगा और पृथ्वी पर गायों के बीच रहेगा। मथुरा के पास गोवर्धन नाम का एक पर्वत है ।
37-42. कंस को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए वह गायों से आसक्त होकर वहां रहता है। उनकी दो पत्नियाँ अदिति और सुरभि वासुदेव की देवकी और रोहिणी नाम की दो पत्नियों के रूप में पैदा हुईं । वहाँ दूधवाले के सभी गुणों से युक्त एक लड़के के रूप में जन्म लेने के कारण वह वहीं बड़ा हुआ जैसा कि आप पहले अपने तीन कदमों वाले रूप में करते थे।
फिर अपने आप को (योग के) रूप से कवर करके, हे मधुसूदन, क्या आप दुनिया के कल्याण के लिए वहां जाते हैं। ये सभी देवता आपकी विजय और आशीर्वाद के उद्घोष से आपका स्वागत कर रहे हैं। तुम पृथ्वी पर उतरकर रोहिणी और देवकी से अपना जन्म लेकर उन्हें प्रसन्न करो। सहस्रों दुग्ध दासियाँ भी पृथ्वी पर छा जायेंगी।
43. हे विष्णु , जब आप जंगल में गायों को चराते हुए घूमेंगे तो वे जंगली फूलों की मालाओं से सुशोभित आपके सुंदर रूप को देखेंगे।
44. हे कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाले, हे विशाल भुजाओं वाले नारायण, जब आप बालक बनकर ग्वालबालों के गांवों में जाएंगे तो सभी लोग बालक बन जाएंगे।
45-46. हे कमल नेत्रों वाले, आपके प्रति समर्पित मन वाले ग्वालबाल होने के नाते आपके सभी भक्त आपकी सहायता करेंगे; जंगल में गायें चराते, चरागाहों में दौड़ते और यमुना के जल में स्नान करते हुए वे तुम्हारे प्रति अत्यधिक स्नेह प्राप्त कर लेंगे।और वासुदेव का जीवन धन्य हो जाएगा।
47. तू उसे अपना पिता कहेगा, और वह तुझे अपना पुत्र कहेगा। कश्यप को बचाइये और किसे आप अपने पिता के रूप में स्वीकार कर सकते हैं?
48. हे विष्णु, अदिति को बचाएं और कौन आपको गर्भ धारण कर सकता है? इसलिए, हे मधुसूदन, आप अपने स्वनिर्मित योग द्वारा विजय के लिए आगे बढ़ें। हम भी अपनी-अपनी बस्तियों की मरम्मत करते हैं।
49. वैशम्पायन ने कहा: - देवताओं को दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करने का आदेश देकर भगवान विष्णु दूध के सागर के उत्तरी किनारे पर अपने निवास स्थान पर चले गए।
50. इस क्षेत्र में सुमेरु पर्वत की एक गुफा है जिसे रौंदना कठिन है, जिसकी पूजा संक्रांति के दौरान उनके तीन चरण चिन्हों से की जाती है।
51. वहाँ गुफा में, अपने पुराने शरीर को छोड़कर, सर्वशक्तिमान और बुद्धिमान हरि ने उसकी आत्मा को वासुदेव के घर भेज दिया।
____
भगवान् हरि अपने अंशांशसे पृथ्वीपर अवतार लेकर दैत्योंका वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं।
इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म की पवित्र कथा कह रहा हूँ। वे साक्षात् भगवान् विष्णु ही यदुवंशमें अवतरित हुए थे ।39-40।
_
हे राजन् ! कश्यपमुनि के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्म के शापवश इस जन्ममें गोपालन का काम करते थे। 41।
हे महाराज! हे पृथ्वीपते! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नियाँ- अदिति और सुरसा ( नाग माता) ने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था।
हे भरतश्रेष्ठ ! उन दोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूपमें जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।
राजा बोले- हे महामते। महर्षि कश्यपने कौन सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियों सहित शाप मिला इसे मुझे बताइये ।44 ll
वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णु को गोकुलमें जन्म क्यों लेना पड़ा ? ।। 45 ।।
सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ युगके आदि तथा सबको धारण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेश से व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थानको छोड़कर मानव-योनिमें जन्म लेकर मनुष्योंकी भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है ।46-47।
भगवान् विष्णु स्वयं मानव-शरीर धारण करके ही मनुष्य जन्म में अनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं ? ।48 ।
काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दुःख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता-ये तथा अन्य भी नाना प्रकारके भाव मनुष्य जन्म में विद्यमान रहते हैँ ।49-51।
दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥ ३९।
तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥ ४० ॥
कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥ ४१ ॥
"कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥४२॥
___
देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥ ४३ ॥
"राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥ ४४ ॥
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६ ॥
स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥ ४७ ॥
प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि ॥ ४८ ॥
कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥ ४९ ॥
दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम् ॥ ५० ॥
लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१।
"सुरसा रोहिणी के रूप में अवतरित हुईं क्योंकि सुरसा नाग माता हैं और बलराम स्वयं शेषनाग के रूप- इस तर्क से सुरभि न होकर सुरसा सा रोहिणी रूप में अवतरण होना समीचीन और प्राचीन है।
"पिता के मृत्यु के पश्चात -वसुदेव गोप रूप में गोपालन और कृषि करते हुए "
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥६१॥
अनुवाद:-•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए कालान्तरण में पिता की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे ! जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ
सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।
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कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः॥४१॥
कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥४२ ॥
देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥४३।
"राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते॥ ४४॥
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः॥४५ ॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६।
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥
चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२।
("देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत) में वसुदेव और देवकी तथा रोहिणी के पूर्व जन्म की कथा- वसुदेव का यदुवंश में जन्म लेकर गोपालन करना-)
स्कन्ध 4, अध्याय 3 -
वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्मकी कथा
"देवीभागवतपुराणम् स्कन्धः (४)
दित्या अदित्यै शापदानम्
"व्यास उवाच
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥
वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ॥ २॥
एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥ ३ ॥
वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः ॥ ४ ॥
किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥
भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥
मृतवत्सादितिस्तस्माद्भविष्यति धरातले ।
कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥
"व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः ।
समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥
कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥
जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १० ॥
अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥
कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया।१२॥
धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥
संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥
ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥ १५ ॥
अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥
"व्यास उवाच
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥
तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् ।
जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥१८॥
"जनमेजय उवाच
कस्माद्दित्या च भगिनी शप्तेन्द्रजननी मुने ।
कारणं वद शापे च शोकस्तु मुनिसत्तम ॥ १९ ॥
"सूत उवाच
पारीक्षितेन पृष्टस्तु व्यासः सत्यवतीसुतः ।
राजानं प्रत्युवाचेदं कारणं सुसमाहितः ॥ २०॥
"व्यास उवाच
राजन् दक्षसुते द्वे तु दितिश्चादितिरुत्तमे ।
कश्यपस्य प्रिये भार्ये बभूवतुरुरुक्रमे ॥ २१ ॥
अदित्यां मघवा पुत्रो यदाभूदतिवीर्यवान् ।
तदा तु तादृशं पुत्रं चकमे दितिरोजसा ॥ २२ ॥
पतिमाहासितापाङ्गी पुत्रं मे देहि मानद ।
इन्द्रख्यबलं वीरं धर्मिष्ठं वीर्यवत्तमम् ॥ २३ ॥
तामुवाच मुनिः कान्ते स्वस्था भव मयोदिते ।
व्रतान्ते भविता तुभ्यं शतक्रतुसमः सुतः ॥ २४ ॥
सा तथेति प्रतिश्रुत्य चकार व्रतमुत्तमम् ।
निषिक्तं मुनिना गर्भं बिभ्राणा सुमनोहरम् ॥ २५ ॥
भूमौ चकार शयनं पयोव्रतपरायणा ।
पवित्रा धारणायुक्ता बभूव वरवर्णिनी ॥ २६ ॥
एवं जातः सुसंपूर्णो यदा गर्भोऽतिवीर्यवान् ।
शुभ्रांशुमतिदीप्ताङ्गीं दितिं दृष्ट्वा तु दुःखिता॥२७।
मघवत्सदृशः पुत्रो भविष्यति महाबलः ।
दित्यास्तदा मम सुतस्तेजोहीनो भवेत्किल।२८।
इति चिन्तापरा पुत्रमिन्द्रं चोवाच मानिनी ।
शत्रुस्तेऽद्य समुत्पन्नो दितिगर्भेऽतिवीर्यवान् ।२९ ॥
उपायं कुरु नाशाय शत्रोरद्य विचिन्त्य च ।
उत्पत्तिरेव हन्तव्या दित्या गर्भस्य शोभन ॥ ३० ॥
वीक्ष्य तामसितापाङ्गीं सपत्नीभावमास्थिताम् ।
दुनोति हृदये चिन्ता सुखमर्मविनाशिनी ॥ ३१ ॥
राजयक्ष्मेव संवृद्धो नष्टो नैव भवेद्रिपुः ।
तस्मादङ्कुरितं हन्याद्बुद्धिमानहितं किल।३२ ॥
लोहशङ्कुरिव क्षिप्तो गर्भो वै हृदये मम ।
येन केनाप्युपायेन पातयाद्य शतक्रतो ॥ ३३ ॥
सामदानबलेनापि हिंसनीयस्त्वया सुतः ।
दित्या गर्भो महाभाग मम चेदिच्छसि प्रियम् ।३४।
"व्यास उवाच
श्रुत्वा मातृवचः शक्रो विचिन्त्य मनसा ततः ।
जगामापरमातुः स समीपममराधिपः ॥ ३५ ॥
ववन्दे विनयात्पादौ दित्याः पापमतिर्नृप ।
प्रोवाच विनयेनासौ मधुरं विषगर्भितम् ॥३६॥
"इन्द्र उवाच
मातस्त्वं व्रतयुक्तासि क्षीणदेहातिदुर्बला ।
सेवार्थमिह सम्प्राप्तः किं कर्तव्यं वदस्व मे ॥३७ ॥
पादसंवाहनं तेऽहं करिष्यामि पतिव्रते ।
गुरुशुश्रूषणात्पुण्यं लभते गतिमक्षयाम् ॥ ३८ ॥
न मे किमपि भेदोऽस्ति तथादित्या शपे किल ।
इत्युक्त्वा चरणौ स्पृष्टा संवाहनपरोऽभवत् ॥३९॥
संवाहनसुखं प्राप्य निद्रामाप सुलोचना ।
श्रान्ता व्रतकृशा सुप्ता विश्वस्ता परमा सती ॥४०।
तां निद्रावशमापन्नां विलोक्य प्राविशत्तनुम् ।
रूपं कृत्वातिसूक्ष्मञ्च शस्त्रपाणिः समाहितः॥ ४१॥
उदरं प्रविवेशाशु तस्या योगबलेन वै ।
गर्भं चकर्त वज्रेण सप्तधा पविनायकः ॥ ४२ ॥
रुरोद च तदा बालो वज्रेणाभिहतस्तथा ।
मा रुदेति शनैर्वाक्यमुवाच मघवानमुम् ॥ ४३ ॥
शकलानि पुनः सप्त सप्तधा कर्तितानि च ।
तदा चैकोनपञ्चाशन्मरुतश्चाभवन्नृप ॥ ४४ ॥
तदा प्रबुद्धा सुदती ज्ञात्वा गर्भं तथाकृतम् ।
इन्द्रेण छलरूपेण चुकोप भृशदुःखिता ॥ ४५ ॥
भगिनीकृतं तु सा बुद्ध्वा शशाप कुपिता तदा ।
अदितिं मघवन्तञ्च सत्यव्रतपरायणा ॥ ४६ ॥
यथा मे कर्तितो गर्भस्तव पुत्रेण छद्मना ।
तथा तन्नाशमायातु राज्यं त्रिभुवनस्य तु ॥ ४७ ॥
यथा गुप्तेन पापेन मम गर्भो निपातितः ।
अदित्या पापचारिण्या यथा मे घातितः सुतः।४८ ॥
तस्याः पुत्रास्तु नश्यन्तु जाता जाताः पुनः पुनः ।
कारागारे वसत्वेषा पुत्रशोकातुरा भृशम् ॥ ४९ ।
अन्यजन्मनि चाप्येव मृतापत्या भविष्यति ।
"व्यास उवाच
इत्युत्सृष्टं तदा श्रुत्वा शापं मरीचिनन्दनः ॥ ५० ॥
उवाच प्रणयोपेतो वचनं शमयन्निव ।
मा कोपं कुरु कल्याणि पुत्रास्ते बलवत्तराः ॥५१ ॥
भविष्यन्ति सुराः सर्वे मरुतो मघवत्सखाः ।
शापोऽयं तव वामोरु त्वष्टाविंशेऽथ द्वापरे ॥ ५२ ॥
अंशेन मानुषं जन्म प्राप्य भोक्ष्यति भामिनी ।
वरुणेनापि दत्तोऽस्ति शापः सन्तापितेन च ॥५३॥
उभयोः शापयोगेन मानुषीयं भविष्यति ।
"व्यास उवाच
पतिनाश्वासिता देवी सन्तुष्टा साभवत्तदा ॥ ५४ ॥
नोवाच विप्रियं किञ्चित्ततः सा वरवर्णिनी ।
इति ते कथितं राजन् पूर्वशापस्य कारणम् ॥५५ ॥
अदितिर्देवकी जाता स्वांशेन नृपसत्तम ॥ ५६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
↑ इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। - ऋ. ५.६९.२
इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे।
त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसॄणां धिषणानां रेतोधा वि द्युमन्तः ॥२॥
अनुवाद:
“हे मित्र और वरुण !, आपकी (आज्ञा से) गायें दूध से भरपूर होती हैं, और आपकी (इच्छा) से नदियाँ मीठा पानीय देती हैं; आपके आज्ञा से ही तीन दीप्तिमान वृषभ तीन क्षेत्रों (स्थानों) में अलग-अलग खड़े हैं।
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हे “वरुण हे “मित्र “वां= युवयोराज्ञया “धेनवः= गावः “इरावतीः- इरा= क्षीरलक्षणा। तद्वत्यो भवन्ति । तथा “सिन्धवः =स्यन्दनशीला मेघा नद्यो वा “मधुमत्= मधुररसमुदकं "दुहे =दुहन्ति । तथा “त्रयः= त्रिसंख्याकाः “वृषभासः= वर्षितारः “रेतोधाः= वीर्यस्य धारकाः “द्युमन्तः= दीप्तिमन्तोऽग्निवाय्वादित्याः“तिसॄणां= त्रिसंख्याकानां “धिषणानां =स्थानानां [धिषण= स्थाने] पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकानां स्वामिनः सन्तः “वि= विविधं प्रत्येकं “तस्थुः =तिष्ठन्ति । युवयोरनुग्रहात् त्रयोऽपि देवास्त्रिषु स्थानेषु वर्तन्ते इत्यर्थः ॥
(वाम्) युवाम् (सिन्धवः) नद्यः (दुह्रे) दोहन्ति (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वृषभासः) वर्षकाः षण्डा: (तिसृणाम्) त्रिविधानाम् (धिषणानाम्)स्थानानां (रेतोधाः) यो रेतो वीर्यं दधाति॥२॥
हिन्दी अनुवाद:-
व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥
अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणीके अवतारोंका कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥
एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥
हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥
व्यासजी बोले- जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥
हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥
अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥
महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥
शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥
संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥
अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।
व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥
उधर कश्यप की भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥
जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19 ॥
सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥
व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही | कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21 ॥
जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥
उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23 ॥
तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥
कश्यपमुनि की बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी। उनके ओज से सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी।
इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥
[उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दिति के | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥
इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दितिके | गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।
मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥
जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ 32 ॥
हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कील के समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।।
व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपरसे मधुर किंतु भीतरसे विषभरी वाणीमें विनम्रतापूर्वक उससे कहा- ॥ 35-36 ।।
इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ोंकी सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।।
मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आपमें कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।।
पादसंवाहनका सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दितिको नींद आने लगी। वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥
दितिको नींदके वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दितिके शरीरमें प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥
इस प्रकार योगबलद्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥ 42 ॥
उस समय वज्राघातसे दुःखित हो गर्भस्थ
शिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्रने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥ 43 ॥
तत्पश्चात् इन्द्रने पुनः उन सातों टुकड़ोंके सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये ॥ 44 ॥
उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥
यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दितिने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनोंको शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्रने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय।
जिस प्रकार पापिनी अदितिने गुप्त पापके द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और मेरे गर्भको नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोकसे अत्यन्त चिन्तित होकर कारागारमें रहेगी।
अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यपने | दितिप्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे।
वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें तुम्हारा शाप सफल होगा।
उस समय अदिति मनुष्ययोनिमें जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी।
इसी प्रकार दुःखित वरुणने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापोंके संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यपके | आश्वासन देनेपर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥
जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम-
"हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व -अध्याय - (55)
"भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य
गोपजातौ अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्"पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय-
"वैशम्पायन उवाच
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः।।१।।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद।
तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः।।२।।
विदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः।
यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम्।।३।।
जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि।
केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम्।।४।।
नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ।
अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।।५।।
विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः।
सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिताबलेः।।६।।
कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् ।
वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत्।।७।।
विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम्।
प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये।।८।।
मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्।
बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्।।९।।
दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम।
मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।।1.55.१०।।
सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः।
क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया।
एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम्।।११।।
सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च।
सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः।।१२।।
कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान्।
तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति।।१३।।
अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया ।
अमीषां हि सुरेन्द्राणांहन्तव्या रिपवो युधि।।१४।।
जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः।
सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम।।१५।।
विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः।१६।।
"यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्। तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।।१७।।
"ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।।
यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।।
तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। 1.55.२०।।
पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः।जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।।
अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै।।२२।।
ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति।।२३।।
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।।२४।।
मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।।२५।।
कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।।
प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः। त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमागतिः।।२७।।
यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्। न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।।२८।।
यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।। २९।।
या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम्।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्। 1.55.३०।।
अनुवाद:-
• इस ब्रह्मा के यज्ञसत्र को जानकर शुद्ध स्नान करके आयी हुई गोप कन्या नित्य जो शुद्धात्मा और वैष्णव जाति की है।६२।
• श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए उस गोप-कन्या को कहा ! सुन प्रिये ! ये बात छिपी हुई नही है कि ये वीराणी जाति से निश्चय ही अहीराणी है।६४।
• सुनो ! मैं जानाता हूँ वह वृत( इतिहास) कोई अन्य विद्वान नहीं जानता यह सत्य पूर्वकाल में सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण परमात्मा के द्वारा गोलोक में सुघटित हुआ।। ६५।
• उस परमात्मा के द्वारा अपने ही अंश से सावित्री और दूसरी कन्या को गायत्री नाम से प्रकट किया गया।६६।
• सावित्री श्री हरि के द्वारा ही गोलोक में प्रभु के सानिन्ध्य में भूलोक में यज्ञ प्रवाहन के लिए ब्रह्मा जी को प्रदान की गयीं ।६८।
• पृथ्वी पर मनुष्य रूप में वहाँ मानव शरीर में ब्रह्मा की पत्नी रूप में यज्ञ कार्य के लिए अवतरित हुईं।६९।
• उस कारण से कृष्ण के द्वारा सावित्री को आज्ञा दी गयी। तब द्वित्तीय स्वरूप में तुमको गायत्री नाम से जानना चाहिए।७०।
ज्ञात हो इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी "गोपेश्वरश्रीकृष्णस्य- पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रंथ में दी गई है जो इस पुस्तिका का ही विस्तार रूप है।
(ग) यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा का परिचय।
________
देवी गायत्री के समान ही गोप कुल की देवी दक्षिणा, देवी स्वाहा और स्वधा भी हैं। जिनका यज्ञ, हवन और पित्र- पूजन के उपरान्त विशेष भूमिका रहती है। जिसमें यज्ञ और हवन के दरम्यान जो स्वाहा नाम के उच्चारण से हवन कुंडों में नैवेद्य अर्पण किया जाता है, और यज्ञ समाप्ति के बाद जो दान दक्षिणा दिया जाता है, वह सब देवी स्वाहा और दक्षिण के माध्यम से ही फलीभूत होता है। और ये देवी स्वाहा और दक्षिगोपोंनों ही गोपेश्वर श्री कृष्ण के गोलोक की गोपी सुशीला के ही अंशावतार है। जो कभी गोलोक में श्री राधा के शाप से गोपी सुशील को भूतल पर स्वाहा, स्वधा और दक्षिणा के रूप में आना पड़ा था।
जिसमें सुशीला के गोपी होने का प्रमाण तथा सुशीला के यज्ञ पुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में उत्पन्न होने का वर्णन
देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- (४५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो इस प्रकार है -
गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः।
राधा प्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा।२।
अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ।
विद्यावती गुणवती चातिरूपवती सती॥३।
अनुवाद - प्राचीन काल में गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परमधन्या, मान्या तथा मनोहरा वह गोपी भगवती राधा की प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मी के लक्षणों से सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूप से अत्यधिक सम्पन्न थी।२-३।
रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ।
उवासादक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा ॥७॥
सम्बभूवानम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ।
दृष्ट्वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरोत्तमाम् ॥८।
अनुवाद- वह रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधा के सामने ही भगवान् श्रीकृष्ण के वाम अंक (बगल) में बैठ गयी ॥ ७,८
कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्कजलोचनाम् ।
कोपेन कम्पिताङ्गीं च कोपेन स्फुरिताधराम्॥९॥
वेगेन तां तु गच्छन्तीं विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं चकार सः॥१०॥
अनुवाद- तब मधुसूदन श्रीकृष्ण ने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय पत्नी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥९-१०॥
पलायन्तं च कान्तं च विज्ञाय परमेश्वरी।
पलायन्तीं सहचरीं सुशीलां च शशाप सा॥ १५॥
अद्यप्रभृति गोलोकं सा चेदायाति गोपिका ।
सद्यो गमनमात्रेण भस्मसाच्च भविष्यति ॥१६॥
अनुवाद- १५-१६
• परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीला को पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आज से गोलोक में आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी।१५-१६।
दर्शनं देहि रमण दीना विरहदुःखिता ।
अथ सा दक्षिणा देवी ध्वस्ता गोलोकतो मुने॥३५।
अनुवाद - हे मुने ! इसके बाद राधा जी के द्वारा गोलोक से पलायित सुशीला नामक की वह गोपी दक्षिणा नाम से प्रसिद्ध हुई।३५।
अध्याय (6)-षष्ठम्(।।)√√√•
इस सम्बन्ध में ज्ञात होगा कि भगवान नारायण ने ही उस सुशीला का नाम दक्षिणा रखा इस संबंध में नीचे के ये श्लोक कुछ इसी प्रकार का संकेत दे रहे हैं-
नालभंस्ते फलं तेषां विषण्णाः प्रययुर्विधिम्।
विधिर्निवेदनं श्रुत्वा देवादीनां जगत्पतिम्॥३७॥
दध्यौ च सुचिरं भक्त्या प्रत्यादेशमवाप सः।
नारायणश्च भगवान् महालक्ष्याश्च देहतः॥३८॥
विनिष्कृष्य मर्त्यलक्ष्मीं ब्रह्मणे दक्षिणां ददौ।
ब्रह्मा ददौ तां यज्ञाय पूरणार्थं च कर्मणाम्॥ ३९॥
अनुवाद - जिसे भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रह से मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट किया और उसका दक्षिणा नाम रखकर उसे ब्रह्मा जी को सौंप दिया। तब ब्रह्मा जी ने यज्ञ संबंधी समस्त कार्यों की संपन्नता के लिए देवी दक्षिणा को यज्ञ पुरुष के हाथ में दे दिया।३७-३८-३९।
तब यज्ञपुरुष ने देवी दक्षिणा के पूर्व काल की बातों का स्मरण दिलाते हुए देवी दक्षिणा से कहा कि-
पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा वरा॥ ७१॥
राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिया ।
अनुवाद - हे महाभागे! तुम पूर्वकाल में गोलोक की एक गोपी थी और गोपियों में परमश्रेष्ठा थीं। श्रीकृष्ण तुमसे अत्यधिक प्रेम करते थे और तुम राधा के समान ही उन श्रीकृष्ण की प्रिय सखी थीं।७१।
कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ॥७२॥
आविर्भूता दक्षिणांसाल्लक्ष्म्याश्च तेन दक्षिणा।
पुरा त्वं च सुशीलाख्या ख्याता शीलेन शोभने॥ ७३॥
लक्ष्मीदक्षांसभागात्त्वं राधाशापाच्च दक्षिणा ।
गोलोकात्त्वं परिभ्रष्टा मम भाग्यादुपस्थिता ॥७४॥
कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु ।
अनुवाद- एक बार कार्तिक पूर्णिमा को राधामहोत्सव के अवसर पर रासलीला में तुम भगवती लक्ष्मी के दक्षिणांश से प्रकट हो गयी थीं, उसी कारण तुम्हारा नाम दक्षिणा पड़ गया। हे शोभने ! इससे भी पहले अपने उत्तम शील के कारण तुम सुशीला नाम से प्रसिद्ध थी तुम भगवती राधिका के शाप से गोलोक से च्युत( पतित) होकर और पुनः देवी लक्ष्मी के दक्षिणांश से आविर्भूत हो। अब देवी दक्षिणाके रूप में मेरे सौभाग्यसे मुझे प्राप्त हुई हो। हे महाभागे ! मुझपर कृपा करो और मुझे ही अपना स्वामी बना लो॥ ७२,-७४।
फिर यज्ञपुरुष ने उस देवी से कहा-
कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु।
कर्मिणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा॥७५॥
त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम्।
त्वया विना तथा कर्म कर्मिणां च न शोभते॥७६॥
ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च ।
कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥ ७७॥
अनुवाद- तुम्हीं यज्ञ करनेवालों को उनके कर्मों का सदा फल प्रदान करने वाली देवी हो। तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियों का सारा कर्म निष्फल हो जाता है और तुम्हारे बिना अनुष्ठानकर्ताओं का कर्म शोभा नहीं पाता है।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल आदि भी तुम्हारे बिना प्राणियों को कर्मका फल प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं। ७५-७६-,७७।
(गोपकन्या- दक्षिणा ही कर्मों के फलों की विधायिका हैं।)
और इस संबंध में सबसे बड़ी बात श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्द के अध्याय-(४३) के श्लोक संख्या-(३८) में लिखी गई है,जिसमें बताया गया है कि यज्ञ, हवन के मध्य गोपी सुशीला की अंशस्वरूपा देवी स्वाहा का कितना महत्व है-
दक्षिणाग्निगार्हपत्याहवनीयान् क्रमेण च।
ऋषियो मुनयश्चैव ब्राह्मणा: क्षत्रियादय:।३८।
स्वाहान्तं मन्त्रमुच्चार्य हविर्दानं च चक्रिरे।
स्वाहायुक्तं च मन्त्रं च यो गृह्णाति प्रशस्तकम्।।३९।
अनुवाद - तभी से ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मंत्र के अंत में स्वहा शब्द जोड़कर मंत्रोच्चारण करके अग्नि में हवन करने लगे। और जो मनुष्य स्वाहा युक्त प्रशस्त मंत्र का उच्चारण करता है, उसे सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है।
(घ) ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय
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शतचन्द्रानना धन्या और मान्या गोलोक की एक विदुषी गोपी है जो गोलोक के सोलहवें द्वार की सदैव रक्षा में तत्पर रहती है। गोपी शतचन्द्रानना को ब्रह्माण्ड विदुषी होने का परिचय उस समय मिलता है जब समस्त देवता भगवान नारायण के कहने पर पृथ्वी के भार को दूर करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण के परमधाम गोलोक को प्रस्थान करते हैं। किंतु जब देवता लोग गोलोक के सोलहवें द्वार पर पहुंचे तो वहां द्वार की रक्षा में नियुक्त गोपी शतचन्द्रानना उनसे कुछ प्रश्न पूछकर अंदर जाने से रोक देती हैं। तब देवताओं ने जो कुछ कहा उसका सारा वृत्तांत गर्गसंहिता के गोलोकखण्ड के अध्याय- (२) के प्रमुख श्लोकों में कुछ इस प्रकार मिलता है।
तत्र कन्दर्पलावण्याः श्यामसुन्दरविग्रहाः।
द्वरि गन्तुं चाभ्यदितान् न्यषेधन् कृष्णपार्षदाः।२०।
अनुवाद - वहां कामदेव के समान मनोहर रूप लावण्य शालिनी श्यामसुंदर विग्रह श्रीकृष्ण पार्षदा (शतचन्द्रानना) द्वारपाल का कार्य करती थीं। देवताओं को द्वारा के भीतर जाने के लिए उद्यत देख उन्होंने मना किया।
"श्रीदेवा ऊचुः
लोकपाला वयं सर्वे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।
श्रीकृष्णदर्शनार्थाय शक्राद्या आगता इह॥२१॥
अनुवाद - देवता बोले- हम सभी ब्रह्मा" विष्णु शंकर नाम के लोकपाल और इन्द्र आदि देवता हैं भगवान श्री कृष्ण के दर्शनार्थ यहां आए हैं।
तच्छ्रुत्वा तदभिप्रायं श्रीकृष्णाय सखीजनाः।
ऊचुर्देवप्रतीहारा गत्वा चान्तःपुरं परम्॥२२॥
तदा विनिर्गता काचिच्छतचन्द्रानना सखी।
पीतांबरा वेत्रहस्ता सापृच्छद्वाञ्छितं सुरान्॥ २३॥
अनुवाद - २२-२३
देवताओं की बात सुनकर उन सखियों ने जो श्री कृष्ण की द्वारपालिकाऐं थी, श्रेष्ठ अन्तःपुर में जाकर देवताओं की बात कह सुनाई। तभी एक सखी जो शतचन्द्रानना नाम से विख्यात थी उनके वस्त्र पीले थे और जो हाथ में बेंत की छड़ी लिए थी, बाहर आयी और उन देवताओं से उनका अभीष्ट प्रयोजन पूछा।२२-२३।
श्रीशतचन्द्राननोवाच -
कस्याण्डस्याधिपा देवा यूयं सर्वे समागताः।
वदताशु गमिष्यामि तस्मै भगवते ह्यहम् ॥२४॥
अनुवाद - शतचन्द्रानना बोली - यहां पधारे हुए आप सब देवता कि ब्रह्माण्ड के अधिपति हैं, यह शीघ्र बताइये। तब मैं भगवान श्री कृष्ण को सूचित करने के लिए उनके पास जाऊँगी। २४
"श्रीदेवा ऊचुः -
अहो अण्डान्युतान्यानि नास्माभिर्दर्शितानि च।
एकमण्डं प्रजानीमोऽथोऽपरं नास्ति नः शुभे॥२५॥
अनुवाद - तब देवताओं नें कहा - अहो ! यह तो बहुत आश्चर्य की बात है, क्या अन्यान्य ब्रह्माण्ड भी हैं ? हमनें तो उन्हें कभी नहीं देखा। शुभे ! हम तो यही जानते हैं कि एक ही ब्रह्माण्ड है, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं।२५।
"श्रीशतचन्द्राननोवाच -
ब्रह्मदेव लुठन्तीह कोटिशो ह्यण्डराशयः।
तेषां यूयं यथा देवास्तथाण्डेऽण्डे पृथक् पृथक्॥ २६॥
नामग्रामं न जानीथ कदा नात्र समागताः।
जडबुद्ध्या प्रहृष्यध्वे गृहान्नापि विनिर्गताः॥२७॥
ब्रह्माण्डमेकं जानन्ति यत्र जातास्तथा जनाः।
मशका च यथान्तःस्था औदुंबरफलेषु वै॥२८॥
अनुवाद - २६-२८
तब शतचन्द्रानना उन देवताओं से बोलीं - ब्रह्मदेव! यहां (गोलोक) में करोड़ों ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें भी आप जैसे ही पृथक पृथक देवता वास करते हैं। अरे! क्या आप लोग अपना नाम गांव तक नहीं जानते ? जान पड़ता है की कभी यहां आए नहीं है, अपनी थोड़ी सी जानकारी में ही हर्ष से फूल उठे हैं। जान पड़ता है कभी घर से बाहर निकले ही नहीं। जैसे गूलर के फूलों में रहने वाले कीड़े जिस फल में रहते हैं, उसके सिवा दूसरे को नहीं जानते, उसी प्रकार आप जैसे साधारण जन जिसमें उत्पन्न होते हैं, एक मात्र उसी को ब्रह्मांड समझते हैं। २६-२८।
"श्रीनारद उवाच -
उपहास्यं गता देवा इत्थं तूष्णीं स्थिताः पुनः।
चकितानिव तान् दृष्ट्वा विष्णुर्वचनमब्रवीत्॥२९॥
श्रीविष्णुरुवाच -
यस्मिन्नण्डे पृश्निगर्भोऽवतारोऽभूत्सनातन।
त्रिविक्रमनखोद्भिन्ने तस्मिन्नण्डे स्थिता वयम्॥ ३०॥
"श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा तं च संश्लाघ्य शीघ्रमन्तःपुरं गता
पुनरागत्य देवेभ्योऽप्याज्ञां दत्त्वा गताः पुरम्॥३१॥
अथ देवगणाः सर्वे गोलोकं ददृशुः परम् ।
तत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते॥३२॥
अनुवाद - २९- ३२
• इस प्रकार उपहास के पात्र बने हुए सब देवता चुपचाप खड़े रहे, कुछ बोल ना सके। तब उन्हें चकित से देखकर भगवान विष्णु ने शतचन्द्रानना से कहा- जिस ब्रह्मांड में भगवान पृश्निगर्भ का सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम (विराट रूपधारी वामन) के नख से ब्रह्माण्ड में विवर बन गया है वहीं हम निवास करते हैं।२९-३०।
• तब भगवान विष्णु की यह बात सुनकर शतचन्द्रानना ने उनकी भूरि भूरि प्रशंसा की और स्वयं भीतर चली गयी फिर शीघ्र ही आयी और सबको अंतःपुर में पधारने की आज्ञा देकर वापस चली गयी। तदनन्तर संपूर्ण देवताओं ने परम सुन्दर धाम गोलोक का दर्शन किया। वहां गोवर्धन नामक गिरिराज शोभा पर रहे थे। २९-३२।
अतः उपरोक्त प्रसंग से सिद्ध होता है कि गोपी शतचन्द्रानना जैसी विदुषी की तुलना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में किसी अन्य से नही की जा सकती। क्योंकि इसकी विद्वता के सामने ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा समस्त देवताओं को लज्जित होना पड़ा।
इस तरह से देखा जाए तो गोप और गोपियां ही एकमात्र धर्मज्ञ ज्ञान से परिपूर्ण सारे कर्म-विधान और फल के नियामिका हैं। इनके ही माध्यम से ज्ञान की अविरल धारा संपूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होती है। और सारे धार्मिक कर्म- विधान इन्हीं के द्वारा सम्पन्न एवं फलित होते हैं, चाहे वह यज्ञ हो या पूजा पाठ में हवन इत्यादि ही क्यों न हो। और इन्हीं गोप- गोपियों को आधार मानकर ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के कर्मकाण्डी ब्राह्मण लोग ब्राह्मणत्व कर्म करते हैं। किंतु उनके सभी कर्मफलों व परिणामों में गोपों की ही भूमिका रहती है। इसीलिए गोपों को श्रेष्ठ व धर्मवत्सल जानकर ही गर्गसंहिता के अश्वमेधखंड खंड के अध्याय 60 के श्लोक
संख्या 40 में गोपों को पापों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है-
य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरे:।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।।४०।
अनुवाद - जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं, तथा यादव गोपों की मुक्ति का वृतान्त पढ़ते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।
और ब्राह्मणत्व कर्म का सबसे बड़ा उदाहरण परमात्मा श्री कृष्ण हैं जिन्होंने कुरुक्षेत्र में विराट रूप धारण कर अर्जुन को ज्ञान का वह उपदेश दिया जो अखिल ब्रह्माण्ड में प्रसिद्ध है, इसे कौन नहीं जानता। भगवान श्री कृष्ण की गोप होने के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी अध्याय- ८ में दी गई है।
वैष्णव वर्ण के गोप जिन्हें यादव व अहीर भी कहा जाता है, वे सभी बिना वर्ण विभाजन के आध्यात्मिक व धार्मिक कर्तव्यों को स्वाभाविक रूप से पालन करते हैं। वैष्णव वर्ण के गोप ही अहीर और यादव हैं, इसका विस्तार पूर्वक वर्णन अध्याय- ९ में किया गया है वहां से इस विषय पर जानकारी ली जा सकती है।
अब हमलोग गोपों के क्षत्रिय कर्म को जानेंगे की ये लोग ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के क्षत्रिय ना होते हुए भी कैसे क्षत्रिय धर्म को निभाते हुए समय-समय पृथ्वी के भार को भी दूर करते रहते हैं।
[२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म
वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है। किंतु ध्यान रहे- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के क्षत्रियों से इनका कोई संबंध नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्री कृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा भूमि-भार हरण के उद्देश्य से किया था। भगवान श्री कृष्ण सहित इस नारायणी सेना का प्रत्येक गोप- सैनिक, क्षत्रियोचित कर्म करते हुए बड़े से बड़े युद्धों में दैत्यों का वध करके भूमि के भार को दूर किया । गोपों को क्षत्रियोचित कर्म करने से ही उन्हें क्षत्रियों में माहाक्षत्रिय कहा जाता है।
इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म करने की वजह से ही अपने को क्षत्रिय कहा हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से।
इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिशाचों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-
क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्या: प्रकृतिस्थिता:।
यदुवंशे समुत्पन्न: क्षात्रं वृत्तमनुष्ठित:।।१०।
अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूं। प्राकृतिक मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूं, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।
इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को क्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के जन्मजात क्षत्रियों से।
और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के जन्मजात क्षत्रिय वर्ण में नही।
भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- ८ जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहाँ से इस विषय पर पाठकगण विस्तार से जानकारी ले सकते हैं।
भगवान श्री कृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भाँति नन्द बाबा की पुत्री योगमाया- विंध्यवासिनी( एकानंशा) को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।।२३।
अनुवाद- समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिया हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐकार एवं वषट्कार हो।
किंतु इस संबंध में ध्यान रहे कि योगमाया- विंध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण की।
क्योंकि योगमाया विन्ध्यवासिनी, गोप नन्द बाबा की एकलौती पुत्री हैं।
कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के बनावटी जन्मजात क्षत्रिय।
इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शस्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण हैं - दुर्गा, गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना।
अब यहां पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे सम्बन्धित सभी सेनाएं जैसे- "नारायणी सेना" अपराजिता एवं अजेया है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक और परलोक को जीतने की क्षमता हैं। क्योंकि सभी गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उन पर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात् देवता, गन्धर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक संख्या- (७) में भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।।७।
अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।
इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेया एवं अपराजिता है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय भी कहा जाता है।
[३] गोपों का वैश्य कर्म
ब्रह्मा जी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म-व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप स्वतंत्र रूप से करते हैं। इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किंतु ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है। क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतंत्र हैं। अतः गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर शस्त्र भी उठाते हैं। इसके साथ ही गोप लोग कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं।
जिसमें ये गोप पशुपालन में मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है।
गोपालन एवं कृषि कार्य से गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का सम्बन्ध पूर्व काल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मंडल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में मिलता है-
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।
इससे सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण सहित गोप वैश्य कर्म के अंतर्गत गोपालन करते थे जिसे आज भी परम्परागत रूप से पशुपालन व कृषिकार्य करते हैं।
अर्थात् गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किंतु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-(६) के श्लोक-(२६) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।।२६।
अनुवाद- बाबा हम सब गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।२६।
इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी का हल और मूसल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
श्री कृष्ण के पिता वासुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने की पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कन्ध के अध्याय- (२०) के श्लोक-(६०) और (६१) से होती है-
"तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।।६०।
वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१।
अनुवाद- वहां पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी शूरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहां के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था।६०-६१।
इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अंतर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण भी नंद बाबा से बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि- बाबा हमारे सभी गोप किसान हैं।
[४] गोपों का शूद्र कर्म।
देखा जाए तो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में चौथे पायदान पर शूद्र आते हैं, जिनका मुख्य कर्म सेवा करना निश्चित किया गया है। उससे हटकर शूद्र कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसा ही उन पर प्रतिबंध लगाया गया है।
किंतु वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वैष्णव वर्ण के गोप, ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य इत्यादि कर्मों के साथ- साथ सेवा कर्म को भी नि:संकोच और बड़े गर्व के साथ बिना किसी प्रतिबंध के करते आए हैं। जिसमें गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का भी ऐसा ही कर्मगत स्वभाव देखने को मिलता है। क्योंकि पाप और अत्याचार को दूर करने के लिए और समाज सेवा के लिए ही प्रभु भूमि पर अवतरित होते हैं।
भगवान श्री कृष्ण को सेवा कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने की पुष्टि- युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से होती है, जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध (उत्तरार्द्ध ) के अध्याय-(७५) के श्लोक- (४-५)और (६) से होती है। जिसमें उस यज्ञ के बारे में लिखा गया है कि-
भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्ष: सुयोधन:।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने।।४।
गुरुशुश्रूषणे जिष्णु: कृष्ण: पदावनेजन।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामना:।।५।
युयुधाननो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादय:।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादय:।।६।
अनुवाद- भीमसेन भोजनालय की देखभाल करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे सहदेव अभ्यगतों के स्वागत सत्कार में नियुक्त थे। और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे। अर्जुन गुरुजनों की सेवा सुश्रुषा करते थे। और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, आए हुए अतिथियों के पाँव पखारने का काम करते थे। देवी द्रोपदी भोजन परोसने का काम करती थीं। और उदार शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे।४-५-६।
इन उपरोक्त श्लोक को यदि शुद्ध अंतरात्मा से विचार किया जाए, तो गोपेश्वर श्री कृष्ण ने समाज सेवा में वह कार्य किये जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के शूद्र किया करते हैं। जबकि भगवान श्री कृष्ण वैष्णव वर्ण के गोप रूप में पांव- पखार( धोकर) कर यह सिद्ध करते हैं कि- वैष्णव वर्ण के सदस्य ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व,वैश्य कर्म- के साथ-साथ शूद्र (समाज सेवा) का कर्म करने में भी स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं। जबकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से शूद्र- (सेवा) कर्म को निंदनीय माना गया है।
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जबकि वैष्णव वर्ण में कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसमें वैष्णव जन निःसंकोच सभी कर्मों को बिना किसी प्रतिबंध के करने की आजादी होती है जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में ऐसी नहीं है।
इसीलिए वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक ग्रंथों में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। उनकी सभी प्रसंशाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके अगले अध्याय- (७) में किया गया है। उसे भी इसी अध्याय के साथ जोड़कर पढ़ें।
इस प्रकार से यह अध्याय-(६) वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अध्याय- (७)✓✓✓
वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में प्रशंसा।
आत्मानन्द जी:
योगेश रोहि -
पौराणिक ग्रन्थों में वैष्णव वर्ण के गोपों अर्थात यादवों की समय-समय पर भूरी-भूरी प्रशंसा की गई है। जैसे-
(१)- ब्रह्मा जी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा जी से होने को सुनिश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या- १७ में कहते हैं कि-
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरञ्चयते।। १७।
अनुवाद- तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों जैसा धर्मवत्सल, सदाचारी और धर्मज्ञ भूतल पर ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्मांड में कोई नहीं है।
(२)- गोपों (यादवों) की कुछ इसी तरह की प्रशंसा और विशेषताओं को कंस स्वयं करता है।यादवों को अपने दरबार में बुलाकर उनसे जो कुछ कहा उसका वर्णन- हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -(२२ के १२ से २५ ) तक के श्लोकों में मिलता है। जो इस प्रकार है -
"भवन्तः सर्वकार्यज्ञा वेदेषु परिनिष्ठिताः।
न्यायवृत्तान्तकुशलास्त्रिवर्गस्य प्रवर्तकाः।।१२।
कर्तव्यानां च कर्तारो लोकस्य विबुधोपमाः।
तस्थिवांसो महावृत्ते निष्कम्पा इव पर्वताः।।१३।।
अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः।।१४ ।।
यशः प्रदीपा लोकानां वेदार्थानां विवक्षवः।
आश्रमाणां निसर्गज्ञा वर्णानां क्रमपारगाः।।१५।।
प्रवक्तारः सुनियतां नेतारो नयदर्शिनाम् ।
भेत्तारः परराष्ट्राणां त्रातारः शरणार्थिनाम्।।१६।।
एवमक्षतचारित्रैः श्रीमद्भिरुदितोदितैः।
द्यौरप्यनुगृहीता स्याद्भवद्भिः किं पुनर्मही।। १७।।
ऋषीणामिव वो वृत्तं प्रभावो मरुतामिव ।
रुद्राणामिव वः क्रोधो दीप्तिरङ्गिरसारमिव।।१८।।
व्यावर्तमानं सुमहद् भवद्भिः ख्यात कीर्तिभिः ।
धृतं यदुकुलं वीरैर्भूतलं पर्वतैरिव।।१९।।
अनुवाद -
आप (यादव ) समस्त कर्तव्य कर्मों के ज्ञाता, वेदों के परिनिष्ठित विद्वान, न्यायोचित वर्ताव में कुशल, धर्म, अर्थ, और काम के प्रवर्तक, कर्तव्य पालक, जगत के लिए देवताओं के समान माननीय महान आचार- विचार में दृढ़ता पूर्वक स्थिर रहने वाले और पर्वत के समान अविचल है।१२-१३।
• आप सब लोग पाखण्डपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मंत्राओं को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।
• आपके यशस्वी रूप प्रदीप संपूर्ण जगत में अपना प्रकाश फैला रहे हैं। आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ है। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म है, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके आप लोग पारंगत विद्वान है।१५।
• आप लोग उत्तम विधियों के वक्ता, नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक है।१६।
• आपके सदाचार में कभी आंच नहीं आने पाई है। आप लोग श्रीसम्पन्न हैं तथा श्रेष्ठ पुरुषों की चर्चा होते समय आप लोगों के नाम बारम्बार लिए जाते हैं। आप लोग चाहें तो स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ? ।१७।
• आपका (यादवों का) आचारण ऋषियों के समान, प्रभाव मरुद्गणों के समान, क्रोध रूद्रो के समान, और तेज अग्नि के समान है।१८।
• यह महान यदुकुल जब अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो रहा था, उस समय विख्यात कीर्ति वाले आप जैसे वीरों ने ही इसे मर्यादा में स्थापित किया, ठीक उसी तरह से जैसे पर्वतों ने इस भूतल को दृढ़तापूर्वक धारण कर रखा है।१९।
उपरोक्त श्लोकों में देखा जाए तो यादवों के लिए
पांच महत्वपूर्ण बातें निकल कर सामने आती है। वो हैं-
(१)- यादव - पाखंडपूर्ण वृत्ति से सदैव दूर रहते थे और आज भी दूर रहते हैं।
(२)- यादव - वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। तथा आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म है, उन्हें ये लोग भली- भाँति जानते हैं। और चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके भी ये लोग पारंगत विद्वान है।
(३)- यादव - नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं।
(४)- यादवों के दृढ़संकल्प की बात करें तो ये स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं, फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ? ये सभी विशेषताएं आज भी यादवों में देखने को मिलती है।
(५)- यादवों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनके आचार ऋषियों के समान, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रूद्रों के समान, और तेज अग्नि के समान होता है दूसरी बात यह कि- यादवों की इन्हीं विशेषताओं की वजह से जब कालयवन नें नारद जी से पूछा कि इस समय पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन हैं ? इसपर नारद जी विष्णुपुराण के पंचम अंश के अध्याय- २३ के श्लोक संख्या- ६ में नारद जी बताते हैं -
स तु वीर्यमदोन्मतः पृथिव्यां बलिनो नृपान् ।
अपच्छन्नारदस्तस्मै कथयामास यादवान्।६।
अनुवाद - तदनन्तर वीर्यदोन्मत्त कालयवन ने नारद जी से पूछा कि पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन से हैं ? इस पर नारद जी ने उसे यादवों को ही सबसे अधिक बलशाली बताया।६।
इसी तरह से गोपकुल की गोपियों के लिए गर्गसंहिता के गोलक खंड के अध्याय- १० के श्लोक संख्या-(८) में नारद जी कंस से कहते हैं कि -
"नन्दाद्या वसव: सर्वे बृषभान्वादय: सरा:।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च सन्ति भूमौ नृपेश्वर।।८।
अनुवाद - नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के अवतार हैं।
नृपेश्वर कंस ! इस "व्रजभूमि में जो गोपियां है, उनके रूप में वेदों की ऋचाएं यहां निवास करती हैं"।
अब इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि गोपियों की उपमा वेदों की ऋचाओं से की जाती है।
(४)- गोपियाँ कोई साधारण स्त्रियाँ नहीं थीं। तभी तो चातुर्वर्ण्य के नियामक व रचयिता ब्रह्मा जी- श्रीमद्भभागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय - (४७) के श्लोक (६१) में गोपियों की चरण धूलि को पाने के लिए तरह-तरह की कल्पना करते हुए मन में विचार करते हैं कि-
"आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथमं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।।६१।
अनुवाद - मेरे लिए तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृंदावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि बन जाऊं। अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊंगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओं (गोपियों ) की चरण धूलि निरंतर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी।
अब इन गोपकुल की गोपियों लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि ब्रह्मा जी भी इनके चरण धूलि को पाने के लिए झाड़ी और लता तक बन जाने की इच्छा करते हैं।
(५)- इसी तरह से गोपों के बारे में श्री राधा जी, गोपी रूप धारण किए भगवान श्री कृष्ण से- गर्गसंहिता के वृंदावन खंड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या -२२ में कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।
अनुवाद - ग्वाले सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गंगा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुंदर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
(६)- इसी तरह से परम ज्ञानयोगी उद्धव जी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय-(९४) के कुछ प्रमुख श्लोकों में गोपियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-
"धन्यं भारतवर्षं तु पुण्यदं शुभदं वरम् ।
गोपीपादाब्जरजसा पूतं परमनिर्मलम्। ७७।
ततोऽपि गोपिका धन्या सान्या योषित्सु भारते।
नित्यं पश्यन्ति राधायाः पादपद्मं सुपुण्यदम्। ७८।
अनुवाद - इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपीकाएं सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं, क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्री राधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती रहती हैं।७७-७८।
पुनः उद्धव जी कहते हैं कि -
"षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं च ब्रह्मणा ।
राधिकापादपद्मस्य रेणूनामुपलब्धये ।।७९।
गोलोकवासिनी राधा कृष्णप्राणाधिका परा ।
तत्र श्रीदामशापेन वृषभानसुताऽधुना ।।८०।
ये ये भक्ताश्च कृष्णस्य देवा ब्रह्मादयस्तथा।
राधायाश्चापि गोपीनांकरां नार्हन्ति षोडशीम्।।८१।
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।।
किंचित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।। ८३।।
धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमागतो गोकुलं यतः ।
गोपिकाभयो गुरुभ्यश्च हरिभक्तिं लभेऽचलाम् ।। ८४ ।।
मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि।। ८५ ।।
न गोपीभ्यः परो भक्तो हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरेगोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।८६।।
अनुवाद -
• इन्हीं राधिका के चरण -कमल की रज को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था।७९।
• गोलोक- वासिनी राधा जी, जो परा प्रकृति हैं। वहीं भगवान कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे गोलोक में श्रीदामा के शाप से आज-कल भूलोक में वृषभानु की पुत्री राधा के नाम से उपस्थित हैं। और जो-जो श्री कृष्ण के भक्त हैं, वे सभी राधा के भी भक्त हैं। ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की 16 (सोलहवीं) कला की भी समानता नहीं कर सकते। ८०-८१।
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप से तो योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियाँं ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।
• इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया। यहां गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से मुझे अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई है, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। ८४।
पुनः इसके अगले श्लोक- (८५) और (८६) में उद्धव जी कहते हैं कि-
"मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।।८५।।
न गोपिभ्यः परो भक्तों हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरे गोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।।८६।।
अनुवाद -
• अब मैं मथुरा नहीं जाऊँगा, और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर (दास,सेवक) होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूँगा, क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है वैसी भक्ति दूसरों को प्राप्त नहीं हुई। ८५ - ८६।
और यहीं कारण है कि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को गोप और गोपियों की पूजा करने का भी विधान किया गया है। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भेवीभागवत पुराण के नवम् स्कंध के अध्याय -३० के श्लोक संख्या - ८५ से ८९ से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।।८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधाया सह।
भारते पूजयेभ्दवत्या चोपचाराणि षोडश।।८६।
गोलोक वसते सोऽपि यावद्वै ब्राह्मणो वय।
भारतं पुनरागत्य कृत्यो भक्तिं लभेद् दृढाम।।८७।
क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देवं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।।८८।
ततः कृष्णस्य सारुपयं पार्षदप्रवरो भवेत्।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत।।८९।
अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मंडल संबंधी उत्सव मनाकर शालिग्राम- शिला पर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्ति पूर्वक साधन सहित श्री कृष्ण की पूजा संपन्न करता है, वह ब्रह्मा जी के स्थिति पर्यंत गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्री कृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। फिर भगवान श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मंत्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्री कृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।८५-८९।
गोपों की इन्हीं सब आध्यत्मिक विशेषताओं के कारण- गोपों (यादवों) को पाप से मुक्ति दिलाने वाला कहा जाता है। इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड खण्ड के अध्याय- ६० के श्लोक संख्या- ४० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।
अनुवाद- जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा गोपालक( गोप) , यादवों की मुक्ति का वृतांत पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।।
कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- (११) के श्लोक संख्या- (४) में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-
"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परं ब्रह्म निराकृति।।४।
अनुवाद - जिसमें श्री कृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने साकार रूप में अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।४।
किंतु वे लोग विशेषकर ऐसे कथावाचक, पापों से मुक्त नहीं हो पाते जो जानबूझकर या स्वार्थवश या लालचवश श्रीकृष्ण कथा में श्रीकृष्ण की आधी -अधुरी जानकारी को बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे कथावाचक कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते। साथ ही वे पाप तथा दण्ड के भागी होते हैं। क्योंकि श्री कृष्ण कथा तभी पूर्ण मानी जाती है जब श्रीकृष्ण के साथ ही उनके पारिवारिक सदस्य गोपों का भी वर्णन किया गया हो। क्योंकि यह बात शास्त्रोचित है कि गोपेश्वर श्री कृष्ण के सहचर गोप हैं जिनके साथ भगवान श्री कृष्ण अपनी लीलाएं करते रहते हैं। इसीलिए बगैर गोपों का वर्णन किये श्रीकृष्ण की कथा अधूरी ही मानी जाती है। जिससे कभी उसके श्रवण का पुण्यफल प्राप्त नहीं हो सकता है।
इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि -"ऐसे छद्म-वेषधारी कथावाचकों से सावधान रहने की आवश्यकता है जो अल्पज्ञान से बिना गोपों का वर्णन किये ही श्रीकृष्ण कथा कहते हों।"
गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणामों
की जानकारी अध्याय -१ भाग-(दो) में बतायी जा चुकी है। वहाँ से इस विषय पर विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
इस प्रकार से यह अध्याय- ७ वैष्णव वर्ण के गोपकुल के गोप और गोपियों की पुराणों
में की गई भूरि-भूरि प्रसंशाओं और उनकी आध्यात्मिक महत्ता की कुछ जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
इसी क्रम में इसके अगले अध्याय- ८ में भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरित होने के प्रमुख कारणों को जानेंगे।
(अध्याय- (८) ✓✓✓
"भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण- जीवन के (125) वर्ष पूर्ण होने का पौराणिक साक्ष्य "
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।
(श्रीमद्भागवत गीता अध्याय- ४/७)
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- "जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूँ अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ"।
इसी सत्य को चरितार्थ करने के लिए परमेश्वर श्रीकृष्ण अपने गोलोक से धरा-धाम पर गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं।
इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कंध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान् शूद्रान कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते।।२२।
अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।
इसी तरह से श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्ध के अध्याय-(६) के श्लोक संख्या -(२३) और (२५) में ब्रह्मा जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि-
अवततीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद् रुपमनुत्तमम्।
कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः।। २३।
यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरूषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पंचविंशाधिकं प्रभो।।२५।
अनुवाद - आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत् के हित के लिए उदारता और पराक्रम से भरी अनेक लीलाएं कीं ।२३।
• पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु ! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये "एक सौ पच्चीस वर्ष" बीत गए हैं।२५।
इसी तरह से हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के अध्याय- (५५) के श्लोक-१७ में गोपेश्वर श्री कृष्ण, ब्रह्मा जी से पूछा कि-आप मुझे यह बताएं कि मैं किस प्रदेश में कैसे प्रकट होकर अथवा किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि में संहार करूंगा ? इस पर ब्रह्मा जी श्लोक संख्या- (१८ से २०) में कहा -
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रृणु मे विभो।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।। १८।
यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।
यादवानां महद वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।
ताश्चासुरान् समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मननो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।।२०।
अनुवाद - सर्वव्यापी नारायण ! आप मेरे इस उपाय को सुनिए, जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। हे महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे,जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे, वह सब बताता हूँ सुनिए।१८-१९-२०।
इसी तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण को यदुवंश में जन्म लेने की पुष्टि- गर्ग संहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (१४) के श्लोक संख्या- (४१) से होती है। जिसमें त्रेता-युग के रावण का भाई विभीषण जो अमर होकर लंका का राजा द्वापर युग तक बनकर जीवित था। उसी समय यादव अपनी विशाल सेना के साथ विश्वजीत युद्ध के लिए निकले थे। उसी उपरान्त( दरम्यान)
दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने विभीषण को बताया कि-
असंख्यब्राह्मण्डपतिर्गोलोकेश: परात्पर:।
जातस्तयोर्वधाथार्य यदुवंशे हरि: स्वयंम्।।४१।
यादवेन्द्रो भूरिलीलो द्वारकायां विराजते। ४२/२
अनुवाद - असंख्य ब्रह्माण्डपति परात्पर गोलोकनाथ श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। वे यादवेंद्र बहुत सी लीलाएं करते हुए इस समय द्वारिका में विराजमान है।४१-४२/२।
यादवों के उसी विश्वजीत युद्ध के समय मुनि वामदेव ने राजा गुणाकर को भी भगवान श्री कृष्ण को यादव कुल में उत्पन्न होने की बात बहुत ही अच्छे ढंग से बतायें। जिसका वर्णन गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- (२८) के श्लोक संख्या (४५) व (४६) में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-
राजंस्त्वं हि न जानसि परिपूर्णतमं हरिम्।
सुराणां महदर्थाय जातं यदुकुले स्वयंम्।
भुवो भारावताराय भक्तानां रक्षणाय च।।४५।
भूत्वा यदुकुले साक्षाद् द्वारकायां विराजते।
तेन कृष्णेन पुत्रोऽयं प्रदुम्नो यादवेश्वरः।
उग्रसेनमखार्थाय जगज्नेतुं प्रणोदित:।।४६।
अनुवाद - राजन ! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्री हरि, देवताओं का महान कार्य सिद्ध करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। पृथ्वी का भार उतरने और भक्तों की रक्षा करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हो वे साक्षात भगवान द्वारिकापुरी में विराजते हैं। उन्हीं श्री कृष्ण ने उग्रसेन के यज्ञ की सिद्धि के लिए संपूर्ण जगत को जीतने के निमित्त अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युम्न को भेजा है।४५- ४६।
यादवों के उसी विश्वजित्- युद्ध के समय जब श्रीकृष्ण के द्वारा महान बलशाली दैत्यराज शकुनि मारा गया तब उसकी पत्नी मदालसा ने हाथ जोड़कर श्री कृष्ण से जो कुछ कहा उससे भी सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण गोप जाति यदुकुल में अवतीर्ण हुए थे। जिसका वर्णन गर्गसंगीता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (४२) के श्लोक संख्या- (६) और (७) में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-
भारावताराय भुवि प्रभो त्वं जातो यदूनां कुल आदिदेव।
ग्रसिष्यसे पासि भवं निधाय गुणैर्न लिप्तोऽसि नमामि
तुभ्यम्।। ६।
मदात्मजं पालय भीत-भीतममुष्य हस्तं कुरु शीर्षि्ण देव।
भर्त्रा कृते में किल तेऽपराधं क्षमस्व देवेश जगन्निवास।। ७।
अनुवाद- (६-७)
प्रभो ! आदि देव ! आप भूतल का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतरित हुए हैं। आप ही संसार के स्रष्टा एवं पालक है, और प्रलय काल आने पर आप ही इसका संहार भी करते हैं। किंतु आप कभी भी गुणों में लिप्त नहीं होते। मैं आपकी अनुकूलता प्राप्त करने के लिए आपके चरणों को प्रणाम करती हूँ। मेरा पुत्र बहुत डरा हुआ है। आप इसकी रक्षा कीजिए। देव ! इसके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखिए। देवेश ! जगन्निवास ! मेरे पति ने जो अपराध किया है उसे क्षमा कीजिए।
इसी तरह से जब सभी देवता मिलकर ब्रह्मा जी का विवाह अहीर कन्या गायत्री से भगवान् विष्णु के निर्देशन में कराते हैं।, तब ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री क्रोध से तिलमिलाकर अहीर कन्या गायत्री सहित देवताओं को शापित करती हैं। उसी समय वहां उपस्थित विष्णु को भी सावित्री शाप दे देती हैं। उसी शाप के विधान से भी गोपेश्वर श्रीकृष्ण को यदुकुल में जन्म लेना पड़ता। इस बात की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७) के श्लोक संख्या-(१६१) से होती है। जिसमें सावित्री विष्णु को शाप देते हुए कहती हैं कि-
यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि ।।१६१।
अनुवाद - हे विष्णु ! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बनकर लम्बे समय तक इधर-उधर भ्रमण करते रहोगे।१६१।
इसी तरह से बलराम जी को भी यदुकुल में उत्पन्न होने की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खण्ड के श्लोक संख्या -(१३) और (१४) से होती है। जिसमें बलराम जी स्वयं अपने पार्षदों से कहते हैं कि -
हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।। १३
भो वर्म त्वमपि चाविर्भव। हे मुनयः पाणिन्यादयो हे व्यासादयो हे कुमुदादयो हे कोटिशो रुद्रा हे भवानीनाथ
हे एकादश रुद्रा हे गन्धर्वा ! हे वासुक्यादिनागेन्द्रा हे निवातकवचा हे वरुण हे कामधेनो मूम्यां भारतखण्डे यदुकुलेऽवतरन्तं मां यूयं सर्वे सर्वदा एत्य मम दर्शनं कुरुत।।१४।
अनुवाद - हे हल और मुसल! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूँ, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना।
हे कवच ! तुम भी वैसे ही प्रकट हो जाना। हे पाणिनि , व्यास तथा कुमुद आदि मुनियों ! हे कोटि-कोटि रूद्रों ! गिरिजापति शंकर जी ! ग्यारह रुद्रों ! गन्धर्वों ! वासुकि आदि नागराजों ! निवातकवच आदि दैत्यों! हे वरूण और कामधेनु! मैं भूमंडल पर भारतवर्ष में यदुकुल में अवतार लूँगा। तुम सब वहांाँ आकर सदा सर्वदा मेरा दर्शन करना।१३-१४।
उपरोक्त सभी श्लोकों से यह सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण गोप अथवा आभीर जाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में हुआ है। किंतु इस संबंध में ज्ञात हो कि- यदुवंश - वैष्णव वर्ण के गोपजाति का ही प्रमुख वंश है। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण को जब वंश में जन्म लेने की बात कही जाती है तब उनके लिए यदुवंश का नाम लिया जाता है। किंतु जब भगवान श्री कृष्ण को किसी जाति में जन्म लेने की बात कही जाती है तो उनके लिए गोपजाति या आभीर( आहिर) जातिका नाम लिया जाता है। इसमें दोनों तरह से बात एक ही है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण को अनेकों बार यदुवंश के साथ-साथ गोपजाति में भी जन्म लेने की बात कही गई है। जैसे-
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपजाति में जन्म लेने की बात हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में कही गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
भगवान श्री कृष्ण को गोपकुल में अवतीर्ण होने की बात गायत्री संग ब्रह्मा जी के विवाह के समय तब होती है जब इन्द्र गोप कन्या गायत्री को लेकर ब्रह्मा जी से विवाह हेतु यज्ञ स्थल पर ले गए थे। तब सभी गोप अपना मुख्य शस्त्र लकुटि- दण्ड (लाठी- डंडा) के साथ अपनी कन्या गायत्री को खोजते हुए ब्रह्मा जी के यज्ञ स्थल में पहुँचे। वहाँ पहुँच कर गायत्री के माता-पिता ने पूछा कि- मेरी कन्या को कौन यहाँ लाया है ? तब उनकी यह बात सुनकर तथा
उनके क्रोध का अन्दाजा लगाकर वहाँ उपस्थित सभी देवता और ऋषि मुनि भयभीत हो गए। तभी वहाँ उपस्थित विष्णु भगवान् गोपों के सामने उपस्थित हो गए और उस अवसर पर जो कुछ गोपों से कहा उसका वर्णन भी पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७) के श्लोक संख्या -(१६) से (२०) में मिलता है। जिसमें भगवान्- विष्णु यज्ञ- स्थल में सबके समक्ष गोपों से कहते हैं कि -
युष्माभिरनया आभीरकन्याया
तारितो गच्छ ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६ ।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।। १८।
तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः।
करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।।१९।
न चास्याभविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्।
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा ।।२०।
अनुवाद:- हे आभीरों (गोपों) इस तुम्हारी आभीर कन्या गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों को जाओ तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा।१६।
• और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी। उसी समय धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।१७।
• तब मैं उनके बीच रहूँगा। तुम्हारी सभी पुत्रियाँ मेरे साथ ही रहेंगी।१८।
• तब वहां कोई पाप, द्वेष और ईर्ष्या नहीं होगी। गोप( आभीर) लोग भी किसी को भय नहीं देंगे।१९।
• इस कार्य (ब्रह्मा से विवाह करने) के फलस्वरूप इस (तुम्हारी पुत्री को) कोई पाप नहीं लगेगा। विष्णु के ये वचन सुनकर वे सभी उन्हें प्रणाम करके वहां से चले गए।२०।
किंतु जाते समय गोपगणों ने भी विष्णु से यह वादा करवाया कि आप निश्चित रूप से गोपकुल में ही जन्म लेंगे। जिसका वर्णन इसी अध्याय के श्लोक -२१ में है जिसमें गोपगण भगवान-विष्णु से कहते हैं कि -
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे।
अवतारः कुलेऽस्माकंं कर्तव्योधर्मसाधनः।। २१।
अनुवाद - हे देव ! यही हो। आपने जो वर दिया, वैसा ही हो। आप हमारे कुल में धर्मसाधन के कर्तव्य के लिए अवश्य अवतार लेंगे।२१।
तब विष्णु ने भी गोपों को ऐसा ही आश्वासन दिया। तत्पश्चात सभी गोप प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने घर चले गए।
उसी समय अहीर कन्या गायत्री ने ब्रह्मा जी की प्रथम पत्नी सावित्री जो विष्णु को यह शाप दे चुकी थी कि - हे विष्णु! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बन कर लम्बे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। उस शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के अध्याय- १९३ के श्लोक -(१४) और (१५) में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -
तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यन्ति श्लाघ्यताम्॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥
यत्रयत्र च वत्स्यंन्ति मद्वं शप्रभवानराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥
अनुवाद -(१४-१५)
आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती है- तुम्हारे इस प्रकार रक्त सम्बन्धी (blood relation ) वाले गोप (अहीर) तुम्हारी प्राप्ति कर , विना कुछ कर्म के भी प्रशंसनीय पद प्राप्त कर जायेंगे। और सभी लोग विशेष रूप से देवता भी उनकी प्रशंसा करेंगे। १४।
• पुन: गायत्री विष्णु से कहती हैं- मेरे गोप वंश के लोग जहां भी रहेंगे, वहां श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो।१५।
अतः उपरोक्त सभी महत्वपूर्ण श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- धर्म स्थापना हेतु गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म या अवतरण, वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत गोप जाति (अहीर जाति ) के यादव वंश में ही होता है अन्य किसी जाति या वंश में नहीं।
यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण, चाहे गोलोक में हो या भूलोक में हो, वे सदैव गोपवेष में गोपों के ही साथ ही रहते हैं, और सभी लीलाएं उन्हीं के साथ ही करते हैं। इसीलिए गोपों को श्रीकृष्ण का सहचर (सहगामी) अर्थात् साथ-साथ चलने वाला भी कहा जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण को सदैव गोपवेष में गोपों के साथ रहने की पुष्टि - हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय -(३) के श्लोक -(३४) से होती है। जिसमें भगवान श्री कृष्णजन्म लेने से पूर्व योग माया से कहते हैं कि-
मोहहित्वा च तं कंसमेका त्वं भोक्ष्यसे जगत्।
अहमप्यात्मनो वृत्तिं विधास्ये गोषु गोपवतः।। ३४।
अनुवाद - तुम उस कंस को मोह में डालकर अकेली ही संपूर्ण जगत का उपभोग करोगी। और मैं भी ब्रज में गौओं के बीच में रहकर गोपों के समान ही अपना व्यवहार बनाऊंगा।
ये तो रही बात भूलोक की। किंतु गोपेश्वर श्री कृष्ण गोलोक में भी अपने गोपों के साथ सदैव गोपवेष में ही रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय
(२)- के श्लोक -(२१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम्।।२१।
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक(गोलोक) में सदा गोप (आभीर ) भेष में रहते हैं।२१।
अतः इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण चाहे गोलोक में हो या भूलोक दोनों स्थानों पर वे सदैव गोपवेष में गोपों के साथ ही रहते हैं।
इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- (१००) के श्लोक - (२६) और (४१) में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जहाँ पौण्ड्रक, श्रीकृष्ण के परस्पर युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के मध्य पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहता है कि-
स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१।
अनुवाद - ओ यादव! ओ गोपाल! इस समय तुम कहां चले गए थे ? आजकल मैं ही वासुदेव नाम से विख्यात हूं।२६।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक से कहा-
• राजन मैं सर्वदा गोप हूँ प्राणियों का सदा प्राण दान करने वाला हूँ, तथा संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूँ। ४१
इसी प्रकार से एक बार श्रीकृष्ण की तरह-तरह की अद्भुत लीलाओं को देखकर गोपों को संशय होने लगा कि कृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। ये या तो कोई देवता है या कोई ईश्वरीय शक्ति। और इस रहस्य को श्रीकृष्ण अपने गोपों से गुप्त रखना चाहते थे, ताकि मेरी बाल -लीला बाधित न हो। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण उनके संशय को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय- (२०) के श्लोक- (११) में अपने सजातीय गोपों से कहते हैं कि-
मन्यते मां यथा सर्वे भवन्तो भीमविक्रमम्।
तथाहं नावमन्तव्यः स्वजातीयोऽस्मि बान्धवः।।११।
अनुवाद - आप सब लोग मुझे जैसा भयानक पराक्रमी समझ रहे हैं, वैसा मानकर मेरा अनादर न करें। मैं तो आप लोगों का सजातीय (गोप जाति का) भाई बंधु ही हूँ।
इस प्रकार से यह अध्याय- इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि- गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक और भू-लोक दोनों स्थानों पर सदैव गोपवेष में अपने गोपकुल के गोपों के साथ ही रहते हैं।
अब इसके अगले अध्याय- ९ में जानकारी दी गई है कि-
गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र अत्रि है या वैष्णव ?
"हरिवंश पुराण तथा देवीभागवत पुराण में वसुदेव का गोप जाति में कश्यप के अँश से जन्म लेने का प्रसंग-
____
यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्
तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह ।१७।
____
"ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति ।१८।
यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।१९।
तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।
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पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।
अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु। प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।२२।
ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।२४।
____
"मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।२५।
कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।
प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः ।२७।
यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।२८।
यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।२९।
या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।1.55.३०।
त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।
____
"इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।३२ ।।
येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।३३।
या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।३४।
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।३५।
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः। ३६।
तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।३७।
देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।३८।
तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा। ३९।
छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन। 1.55.४०।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले ।४१।
देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।४२।
"गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः ।४३।
विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति ।४४।
त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव ।४५।
"वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः ।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि ।४६।
जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति ।४७।
अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।४८।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।४९।
वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।1.55.५०।
"तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता ।५१।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।५२।
"इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
हरिवंशपर्व सम्पूर्ण ।
अध्याय 55 -
"अनुवाद:-
17. हे पितामह, क्या तुझे कुछ भी मालूम है, कि मैं किस प्रकार, किस देश में उत्पन्न होकर, किस घर में रहकर उनको मार डालूंगा।
18. ब्रह्मा ने कहा: - हे भगवान, हे नारायण , मुझसे सफलता की कुंजी सुनो और पृथ्वी पर तुम्हारे माता-पिता कौन होंगे।
19. उनके कुल का यश बढ़ाने के लिये तुम्हें यादव कुल में जन्म लेना पड़ेगा ।
20. तुम भलाई के लिये इन असुरों का नाश करके और अपने महान कुल को बढ़ाकर मानवजाति की व्यवस्था स्थापित करोगे। इस विषय में मुझसे सुनो.
21 हे नारायण, प्राचीन काल में, महाबली वरुण के महान यज्ञ में , कश्यप ने यज्ञ के लिए दूध देने वाली सभी गायों को चुरा लिया था।
24. कश्यप की दो पत्नियाँ थीं, अदिति और सुरभि , जो वरुण से गायों को स्वीकार नहीं करना चाहती थीं।
23 तब वरुण मेरे पास आये और सिर झुकाकर प्रणाम करके बोले, “हे श्रद्धेय, गुरु ने मेरी सारी गायें अपहरण कर ली हैं।
24. हे पिता, उस ने अपना काम पूरा करके भी उन गायोंको लौटाने की आज्ञा न दी।। वह अपनी दो पत्नियों अदिति और सुरभि के नियंत्रण में हैं।
25. हे प्रभु, मेरी वे सब गायें जब चाहें तब स्वर्गीय और अनन्त दूध देती हैं। अपनी शक्ति से सुरक्षित होकर वे समुद्र में विचरण करते हैं।
26. वे देवताओं के अमृत के समान सदा दूध उगलते रहते हैं। कश्यप के अलावा कोई और नहीं है जो उन्हें मोहित कर सके।
27. हे ब्रह्मा, गुरु, उपदेशक या कोई भी हो यदि कोई भटक जाता है तो आप उसे नियंत्रित करते हैं। आप हमारे परम आश्रय हैं।
28. हे संसार के गुरु, यदि उन शक्तिशाली व्यक्तियों को दंड नहीं दिया जाएगा जो अपना काम नहीं जानते हैं, तो संसार की व्यवस्था अस्तित्व में नहीं रहेगी।
29. आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। क्या तुम मुझे मेरी गायें दे दो, मैं फिर समुद्र में चला जाऊंगा।
30. ये गायें मेरी आत्मा हैं , वे मेरी अनन्त शक्ति हैं। आपकी समस्त सृष्टि में गाय और ब्राह्मण ऊर्जा के शाश्वत स्रोत हैं।
31. सबसे पहले गाय को बचाना चाहिए. जब वे बच जाते हैं तो वे ब्राह्मणों की रक्षा करते हैं। गौ-ब्राह्मणों की रक्षा से ही संसार कायम है।''
32. हे अच्युत , जल के राजा वरुण द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर और गायों की चोरी के बारे में वास्तव में सूचित होने पर मैंने कश्यप को श्राप दे दिया।
33. जिस अंश से महामनस्वी कश्यप ने गायों को चुराया था, उस अंश से वह पृथ्वी पर ग्वाले के रूप में जन्म लेगा।
34. उनकी दोनों पत्नियाँ सुरभि और अदिति, जो देवताओं के जन्म के लिये लकड़ी के टुकड़ों के समान हैं, भी उनके साथ जायेंगी।
35-36. वह उनके यहां ग्वाले के रूप में जन्म लेकर वहां सुखपूर्वक रहेगा। उन्हीं के समान शक्तिशाली कश्यप का वह अंश वासुदेव के नाम से जाना जाएगा और पृथ्वी पर गायों के बीच रहेगा। मथुरा के पास गोवर्धन नाम का एक पर्वत है ।
37-42. कंस को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए वह गायों से आसक्त होकर वहां रहता है। उनकी दो पत्नियाँ अदिति और सुरभि वासुदेव की देवकी और रोहिणी नाम की दो पत्नियों के रूप में पैदा हुईं । वहाँ दूधवाले के सभी गुणों से युक्त एक लड़के के रूप में जन्म लेने के कारण वह वहीं बड़ा हुआ जैसा कि आप पहले अपने तीन कदमों वाले रूप में करते थे।
फिर अपने आप को (योग के) रूप से कवर करके, हे मधुसूदन, क्या आप दुनिया के कल्याण के लिए वहां जाते हैं। ये सभी देवता आपकी विजय और आशीर्वाद के उद्घोष से आपका स्वागत कर रहे हैं। तुम पृथ्वी पर उतरकर रोहिणी और देवकी से अपना जन्म लेकर उन्हें प्रसन्न करो। सहस्रों दुग्ध दासियाँ भी पृथ्वी पर छा जायेंगी।
43. हे विष्णु , जब आप जंगल में गायों को चराते हुए घूमेंगे तो वे जंगली फूलों की मालाओं से सुशोभित आपके सुंदर रूप को देखेंगे।
44. हे कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाले, हे विशाल भुजाओं वाले नारायण, जब आप बालक बनकर ग्वालबालों के गांवों में जाएंगे तो सभी लोग बालक बन जाएंगे।
45-46. हे कमल नेत्रों वाले, आपके प्रति समर्पित मन वाले ग्वालबाल होने के नाते आपके सभी भक्त आपकी सहायता करेंगे; जंगल में गायें चराते, चरागाहों में दौड़ते और यमुना के जल में स्नान करते हुए वे तुम्हारे प्रति अत्यधिक स्नेह प्राप्त कर लेंगे।और वासुदेव का जीवन धन्य हो जाएगा।
47. तू उसे अपना पिता कहेगा, और वह तुझे अपना पुत्र कहेगा। कश्यप को बचाइये और किसे आप अपने पिता के रूप में स्वीकार कर सकते हैं?
48. हे विष्णु, अदिति को बचाएं और कौन आपको गर्भ धारण कर सकता है? इसलिए, हे मधुसूदन, आप अपने स्वनिर्मित योग द्वारा विजय के लिए आगे बढ़ें। हम भी अपनी-अपनी बस्तियों की मरम्मत करते हैं।
49. वैशम्पायन ने कहा: - देवताओं को दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करने का आदेश देकर भगवान विष्णु दूध के सागर के उत्तरी किनारे पर अपने निवास स्थान पर चले गए।
50. इस क्षेत्र में सुमेरु पर्वत की एक गुफा है जिसे रौंदना कठिन है, जिसकी पूजा संक्रांति के दौरान उनके तीन चरण चिन्हों से की जाती है।
51. वहाँ गुफा में, अपने पुराने शरीर को छोड़कर, सर्वशक्तिमान और बुद्धिमान हरि ने उसकी आत्मा को वासुदेव के घर भेज दिया।
____
भगवान् हरि अपने अंशांशसे पृथ्वीपर अवतार लेकर दैत्योंका वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं।
इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म की पवित्र कथा कह रहा हूँ। वे साक्षात् भगवान् विष्णु ही यदुवंशमें अवतरित हुए थे ।39-40।
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हे राजन् ! कश्यपमुनि के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्म के शापवश इस जन्ममें गोपालन का काम करते थे। 41।
हे महाराज! हे पृथ्वीपते! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नियाँ- अदिति और सुरसा ( नाग माता) ने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था।
हे भरतश्रेष्ठ ! उन दोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूपमें जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।
राजा बोले- हे महामते। महर्षि कश्यपने कौन सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियों सहित शाप मिला इसे मुझे बताइये ।44 ll
वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णु को गोकुलमें जन्म क्यों लेना पड़ा ? ।। 45 ।।
सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ युगके आदि तथा सबको धारण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेश से व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थानको छोड़कर मानव-योनिमें जन्म लेकर मनुष्योंकी भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है ।46-47।
भगवान् विष्णु स्वयं मानव-शरीर धारण करके ही मनुष्य जन्म में अनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं ? ।48 ।
काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दुःख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता-ये तथा अन्य भी नाना प्रकारके भाव मनुष्य जन्म में विद्यमान रहते हैँ ।49-51।
दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥ ३९।
तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥ ४० ॥
कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥ ४१ ॥
"कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥४२॥
___
देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥ ४३ ॥
"राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥ ४४ ॥
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६ ॥
स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥ ४७ ॥
प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि ॥ ४८ ॥
कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥ ४९ ॥
दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम् ॥ ५० ॥
लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१।
"सुरसा रोहिणी के रूप में अवतरित हुईं क्योंकि सुरसा नाग माता हैं और बलराम स्वयं शेषनाग के रूप- इस तर्क से सुरभि न होकर सुरसा सा रोहिणी रूप में अवतरण होना समीचीन और प्राचीन है।
"पिता के मृत्यु के पश्चात -वसुदेव गोप रूप में गोपालन और कृषि करते हुए "
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥६१॥
अनुवाद:-•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए कालान्तरण में पिता की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे ! जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ
सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।
_____
कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः॥४१॥
कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥४२ ॥
देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥४३।
"राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते॥ ४४॥
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः॥४५ ॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६।
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥
चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२।
("देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत) में वसुदेव और देवकी तथा रोहिणी के पूर्व जन्म की कथा- वसुदेव का यदुवंश में जन्म लेकर गोपालन करना-)
स्कन्ध 4, अध्याय 3 -
वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्मकी कथा
"देवीभागवतपुराणम् स्कन्धः (४)
दित्या अदित्यै शापदानम्
"व्यास उवाच
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥
वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ॥ २॥
एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥ ३ ॥
वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः ॥ ४ ॥
किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥
भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥
मृतवत्सादितिस्तस्माद्भविष्यति धरातले ।
कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥
"व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः ।
समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥
कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥
जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १० ॥
अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥
कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया।१२॥
धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥
संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥
ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥ १५ ॥
अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥
"व्यास उवाच
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥
तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् ।
जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥१८॥
"जनमेजय उवाच
कस्माद्दित्या च भगिनी शप्तेन्द्रजननी मुने ।
कारणं वद शापे च शोकस्तु मुनिसत्तम ॥ १९ ॥
"सूत उवाच
पारीक्षितेन पृष्टस्तु व्यासः सत्यवतीसुतः ।
राजानं प्रत्युवाचेदं कारणं सुसमाहितः ॥ २०॥
"व्यास उवाच
राजन् दक्षसुते द्वे तु दितिश्चादितिरुत्तमे ।
कश्यपस्य प्रिये भार्ये बभूवतुरुरुक्रमे ॥ २१ ॥
अदित्यां मघवा पुत्रो यदाभूदतिवीर्यवान् ।
तदा तु तादृशं पुत्रं चकमे दितिरोजसा ॥ २२ ॥
पतिमाहासितापाङ्गी पुत्रं मे देहि मानद ।
इन्द्रख्यबलं वीरं धर्मिष्ठं वीर्यवत्तमम् ॥ २३ ॥
तामुवाच मुनिः कान्ते स्वस्था भव मयोदिते ।
व्रतान्ते भविता तुभ्यं शतक्रतुसमः सुतः ॥ २४ ॥
सा तथेति प्रतिश्रुत्य चकार व्रतमुत्तमम् ।
निषिक्तं मुनिना गर्भं बिभ्राणा सुमनोहरम् ॥ २५ ॥
भूमौ चकार शयनं पयोव्रतपरायणा ।
पवित्रा धारणायुक्ता बभूव वरवर्णिनी ॥ २६ ॥
एवं जातः सुसंपूर्णो यदा गर्भोऽतिवीर्यवान् ।
शुभ्रांशुमतिदीप्ताङ्गीं दितिं दृष्ट्वा तु दुःखिता॥२७।
मघवत्सदृशः पुत्रो भविष्यति महाबलः ।
दित्यास्तदा मम सुतस्तेजोहीनो भवेत्किल।२८।
इति चिन्तापरा पुत्रमिन्द्रं चोवाच मानिनी ।
शत्रुस्तेऽद्य समुत्पन्नो दितिगर्भेऽतिवीर्यवान् ।२९ ॥
उपायं कुरु नाशाय शत्रोरद्य विचिन्त्य च ।
उत्पत्तिरेव हन्तव्या दित्या गर्भस्य शोभन ॥ ३० ॥
वीक्ष्य तामसितापाङ्गीं सपत्नीभावमास्थिताम् ।
दुनोति हृदये चिन्ता सुखमर्मविनाशिनी ॥ ३१ ॥
राजयक्ष्मेव संवृद्धो नष्टो नैव भवेद्रिपुः ।
तस्मादङ्कुरितं हन्याद्बुद्धिमानहितं किल।३२ ॥
लोहशङ्कुरिव क्षिप्तो गर्भो वै हृदये मम ।
येन केनाप्युपायेन पातयाद्य शतक्रतो ॥ ३३ ॥
सामदानबलेनापि हिंसनीयस्त्वया सुतः ।
दित्या गर्भो महाभाग मम चेदिच्छसि प्रियम् ।३४।
"व्यास उवाच
श्रुत्वा मातृवचः शक्रो विचिन्त्य मनसा ततः ।
जगामापरमातुः स समीपममराधिपः ॥ ३५ ॥
ववन्दे विनयात्पादौ दित्याः पापमतिर्नृप ।
प्रोवाच विनयेनासौ मधुरं विषगर्भितम् ॥३६॥
"इन्द्र उवाच
मातस्त्वं व्रतयुक्तासि क्षीणदेहातिदुर्बला ।
सेवार्थमिह सम्प्राप्तः किं कर्तव्यं वदस्व मे ॥३७ ॥
पादसंवाहनं तेऽहं करिष्यामि पतिव्रते ।
गुरुशुश्रूषणात्पुण्यं लभते गतिमक्षयाम् ॥ ३८ ॥
न मे किमपि भेदोऽस्ति तथादित्या शपे किल ।
इत्युक्त्वा चरणौ स्पृष्टा संवाहनपरोऽभवत् ॥३९॥
संवाहनसुखं प्राप्य निद्रामाप सुलोचना ।
श्रान्ता व्रतकृशा सुप्ता विश्वस्ता परमा सती ॥४०।
तां निद्रावशमापन्नां विलोक्य प्राविशत्तनुम् ।
रूपं कृत्वातिसूक्ष्मञ्च शस्त्रपाणिः समाहितः॥ ४१॥
उदरं प्रविवेशाशु तस्या योगबलेन वै ।
गर्भं चकर्त वज्रेण सप्तधा पविनायकः ॥ ४२ ॥
रुरोद च तदा बालो वज्रेणाभिहतस्तथा ।
मा रुदेति शनैर्वाक्यमुवाच मघवानमुम् ॥ ४३ ॥
शकलानि पुनः सप्त सप्तधा कर्तितानि च ।
तदा चैकोनपञ्चाशन्मरुतश्चाभवन्नृप ॥ ४४ ॥
तदा प्रबुद्धा सुदती ज्ञात्वा गर्भं तथाकृतम् ।
इन्द्रेण छलरूपेण चुकोप भृशदुःखिता ॥ ४५ ॥
भगिनीकृतं तु सा बुद्ध्वा शशाप कुपिता तदा ।
अदितिं मघवन्तञ्च सत्यव्रतपरायणा ॥ ४६ ॥
यथा मे कर्तितो गर्भस्तव पुत्रेण छद्मना ।
तथा तन्नाशमायातु राज्यं त्रिभुवनस्य तु ॥ ४७ ॥
यथा गुप्तेन पापेन मम गर्भो निपातितः ।
अदित्या पापचारिण्या यथा मे घातितः सुतः।४८ ॥
तस्याः पुत्रास्तु नश्यन्तु जाता जाताः पुनः पुनः ।
कारागारे वसत्वेषा पुत्रशोकातुरा भृशम् ॥ ४९ ।
अन्यजन्मनि चाप्येव मृतापत्या भविष्यति ।
"व्यास उवाच
इत्युत्सृष्टं तदा श्रुत्वा शापं मरीचिनन्दनः ॥ ५० ॥
उवाच प्रणयोपेतो वचनं शमयन्निव ।
मा कोपं कुरु कल्याणि पुत्रास्ते बलवत्तराः ॥५१ ॥
भविष्यन्ति सुराः सर्वे मरुतो मघवत्सखाः ।
शापोऽयं तव वामोरु त्वष्टाविंशेऽथ द्वापरे ॥ ५२ ॥
अंशेन मानुषं जन्म प्राप्य भोक्ष्यति भामिनी ।
वरुणेनापि दत्तोऽस्ति शापः सन्तापितेन च ॥५३॥
उभयोः शापयोगेन मानुषीयं भविष्यति ।
"व्यास उवाच
पतिनाश्वासिता देवी सन्तुष्टा साभवत्तदा ॥ ५४ ॥
नोवाच विप्रियं किञ्चित्ततः सा वरवर्णिनी ।
इति ते कथितं राजन् पूर्वशापस्य कारणम् ॥५५ ॥
अदितिर्देवकी जाता स्वांशेन नृपसत्तम ॥ ५६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
↑ इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। - ऋ. ५.६९.२
इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे।
त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसॄणां धिषणानां रेतोधा वि द्युमन्तः ॥२॥
अनुवाद:
“हे मित्र और वरुण !, आपकी (आज्ञा से) गायें दूध से भरपूर होती हैं, और आपकी (इच्छा) से नदियाँ मीठा पानीय देती हैं; आपके आज्ञा से ही तीन दीप्तिमान वृषभ तीन क्षेत्रों (स्थानों) में अलग-अलग खड़े हैं।
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हे “वरुण हे “मित्र “वां= युवयोराज्ञया “धेनवः= गावः “इरावतीः- इरा= क्षीरलक्षणा। तद्वत्यो भवन्ति । तथा “सिन्धवः =स्यन्दनशीला मेघा नद्यो वा “मधुमत्= मधुररसमुदकं "दुहे =दुहन्ति । तथा “त्रयः= त्रिसंख्याकाः “वृषभासः= वर्षितारः “रेतोधाः= वीर्यस्य धारकाः “द्युमन्तः= दीप्तिमन्तोऽग्निवाय्वादित्याः“तिसॄणां= त्रिसंख्याकानां “धिषणानां =स्थानानां [धिषण= स्थाने] पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकानां स्वामिनः सन्तः “वि= विविधं प्रत्येकं “तस्थुः =तिष्ठन्ति । युवयोरनुग्रहात् त्रयोऽपि देवास्त्रिषु स्थानेषु वर्तन्ते इत्यर्थः ॥
(वाम्) युवाम् (सिन्धवः) नद्यः (दुह्रे) दोहन्ति (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वृषभासः) वर्षकाः षण्डा: (तिसृणाम्) त्रिविधानाम् (धिषणानाम्)स्थानानां (रेतोधाः) यो रेतो वीर्यं दधाति॥२॥
हिन्दी अनुवाद:-
व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥
अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणीके अवतारोंका कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥
एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥
हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥
व्यासजी बोले- जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥
हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥
अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥
महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥
शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥
संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥
अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।
व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥
उधर कश्यप की भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥
जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19 ॥
सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥
व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही | कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21 ॥
जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥
उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23 ॥
तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥
कश्यपमुनि की बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी। उनके ओज से सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी।
इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥
[उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दिति के | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥
इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दितिके | गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।
मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥
जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ 32 ॥
हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कील के समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।।
व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपरसे मधुर किंतु भीतरसे विषभरी वाणीमें विनम्रतापूर्वक उससे कहा- ॥ 35-36 ।।
इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ोंकी सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।।
मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आपमें कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।।
पादसंवाहनका सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दितिको नींद आने लगी। वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥
दितिको नींदके वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दितिके शरीरमें प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥
इस प्रकार योगबलद्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥ 42 ॥
उस समय वज्राघातसे दुःखित हो गर्भस्थ
शिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्रने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥ 43 ॥
तत्पश्चात् इन्द्रने पुनः उन सातों टुकड़ोंके सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये ॥ 44 ॥
उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥
यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दितिने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनोंको शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्रने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय।
जिस प्रकार पापिनी अदितिने गुप्त पापके द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और मेरे गर्भको नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोकसे अत्यन्त चिन्तित होकर कारागारमें रहेगी।
अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यपने | दितिप्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे।
वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें तुम्हारा शाप सफल होगा।
उस समय अदिति मनुष्ययोनिमें जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी।
इसी प्रकार दुःखित वरुणने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापोंके संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यपके | आश्वासन देनेपर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥
जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम-
"हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व -अध्याय - (55)
"भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य
गोपजातौ अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्"पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय-
हिन्दी-अनुवाद-सहित-
"वैशम्पायन उवाच
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः।।१।।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद।
तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः।।२।।
विदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः।
यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम्।।३।।
जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि।
केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम्।।४।।
नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ।
अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।।५।।
विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः।
सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिताबलेः।।६।।
कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् ।
वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत्।।७।।
विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम्।
प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये।।८।।
मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्।
बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्।।९।।
दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम।
मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।।1.55.१०।।
सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः।
क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया।
एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम्।।११।।
सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च।
सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः।।१२।।
कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान्।
तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति।।१३।।
अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया ।
अमीषां हि सुरेन्द्राणांहन्तव्या रिपवो युधि।।१४।।
जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः।
सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम।।१५।।
विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः।१६।।
"यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्। तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।।१७।।
"ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।।
यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।।
तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। 1.55.२०।।
पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः।जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।।
अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै।।२२।।
ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति।।२३।।
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।।२४।।
मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।।२५।।
कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।।
प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः। त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमागतिः।।२७।।
यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्। न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।।२८।।
यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।। २९।।
या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम्।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्। 1.55.३०।।
त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान्।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।।
इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।
येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।।
या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।। ३४।।
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।।३५।।
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।।३६।।
तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते।।३७।।
देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।।३८।।
तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।।३९।।
छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।। 1.55.४०।।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले।।४१।।
देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्।।४२।।
गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः।
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।।४३।।
विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति।।४४।।
त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव।।४५।।
वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि।। ४६।।
जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।। ४७।।
अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।।४८।।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।।४९।।
"वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।। 1.55.५०।।
तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा ।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।।५२।।
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
*हिन्दी अनुवाद:-★
________
हरिवंशपर्व सम्पूर्ण।
वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय!भोग और मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों के द्वारा जो एकमात्र वरण करने योग्य हैं।
वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारद की पूर्वोक्त बात सुनकर मुस्कराए और अपनी कल्याण कारी वाणी द्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले –।१।
'नारद ! तुम तीनों लोकों के हित के लिए मुझसे जो कुछ कह रहे हो -तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा देने वाली है। अब तुम उसका उत्तर सुनो !।२।
अब मुझे भली भाँति विदित है कि ये दानव भूतल पर मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि कौन कौन दैत्य किस किस शरीर को धारण करके वैर भाव की पुष्टि कर रहा है।३।
मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेनपुत्र कंस के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है । घोड़े का शरीर धारण करने वाले केशी दैत्य से भी मैं अपरिचित नहीं हूँ।४।
कुवलयापीड हाथी चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल तथा वृषभ रूपधारी दैत्य अरिष्टासुर को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।५।
विप्रवर -खर और प्रलम्ब नामक असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं। राजा बलि की पुत्री पूतना को भी मैं जानता हूँ।६।
यमुना के कुण्ड में रहने वाले कालिया नाग को भी मैं जानता हूँ। जो गरुड के भय से उस कुण्ड में जा घुसा है।७।
मैं उस जरासन्ध से भी परिचित हूँ जो इस समय सभी भूपालों के मस्तक पर खड़ा है। प्राग्य- ज्योतिष पुर में रहने वाले नरकासुर को भी मैं भलीभाँति जानता हूँ।८।
भूतल के मानव लोक में जो मनुष्य रूप धारण कर के उत्पन्न हुआ है। जिसका तेज कुमार कार्तिकेय के समान है।जो शोणितपुर में निवास करता है। और अपनी हजार भुजाओं के कारण देवों के लिए भी अत्यन्त दुर्जेय हो रहा है। उस बलाभिमानी दैत्य वाणासुर को भी मैं जानता हूँ ।
तथा यह भी जानता हूँ कि पृथ्वी पर जो भारती सेना का महान भार बढ़ा हुआ है उसे उतारने का उत्तरदायित्व( भार,) मुझपर ही अवलम्बित है।९-१०।
मैं उन सारी बातों से परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजा लोग आपस में युद्ध करेंगे। भूतल पर उनका किस प्रकार संहार होगा। और पुनर्जन्म से रहित देह धारण करने वाले इन नरेशों को इन्द्र लोक में किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा।– यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने है।११।
मैं भूलोक में पहुँच कर मानव शरीर धारण करके स्वयं तो उद्योग का आश्रय लुँगा ही दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करुँगा।१२।
जिस जिस विधि से जो जो असुर मर सकेगा उस उस उपाय से ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े़ बड़े़ असुरों का वध करुँगा१३।
मैं योग से इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान गतियों को नष्ट कर दुँगा और इस प्रकार युद्ध में इन देवेश्वरों के शत्रुओं का वध कर डालुँगा।१४।
नारद ! पृथ्वी के हित के लिए स्वर्गवासी देवताओं देवर्षियों तथा गन्धर्वों के यहाँ से जो अपने अपने अंश का उत्सर्ग किया है वह सब मेरी अनुमति से हुआ है । क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा निश्चय कर लिया था।
____
ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह !अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में और किस जाति जन्म लेकर और किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ?।१६-१७।
ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे-
तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०।
विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।
यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।
तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३।
यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।
प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।
देव ! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?।२६।
ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।
लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।
इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।
इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।
गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।
अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।
महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।
वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।
गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।
जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नामकी इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।
हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९।
मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।
ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२।
'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३।
महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४।
कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।
हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।
वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७।
विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८।
मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९।
वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०।
वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।
उदारबुद्धि वाले भगवान् श्रीहरि विष्णु ने अपने पुरातन विग्रह को (शरीर) को स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने के कार्य में लगा दिया।५२।
__________
"इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी का वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ।५५।
नारद पुराण में सभी गोपों की पूजा का विधान-
दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।।
वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम् ।। ८०-५८।
एवं सम्पूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम्।
यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम् ।। ८०-५९ ।।
पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।
अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।। ८०-६० ।।
दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः ।। ८०-६१ ।।
सुविन्दा मित्रविन्दा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।।
सुशीला च लसद्रम्यचित्रितांबरभूषणा ।८०-६२।
ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम्।
नंदगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।
गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।।
ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपाण्डुरौ।८०-६४।
दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः।
धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।। ८०-६५ ।।
अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।
येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।।
या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।। ३४।।
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।।३५।।
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।।३६।।
तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते।।३७।।
देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।।३८।।
तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।।३९।।
छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।। 1.55.४०।।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले।।४१।।
देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्।।४२।।
गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः।
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।।४३।।
विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति।।४४।।
त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव।।४५।।
वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि।। ४६।।
जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।। ४७।।
अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।।४८।।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।।४९।।
"वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।। 1.55.५०।।
तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा ।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।।५२।।
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
*हिन्दी अनुवाद:-★
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हरिवंशपर्व सम्पूर्ण।
वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय!भोग और मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों के द्वारा जो एकमात्र वरण करने योग्य हैं।
वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारद की पूर्वोक्त बात सुनकर मुस्कराए और अपनी कल्याण कारी वाणी द्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले –।१।
'नारद ! तुम तीनों लोकों के हित के लिए मुझसे जो कुछ कह रहे हो -तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा देने वाली है। अब तुम उसका उत्तर सुनो !।२।
अब मुझे भली भाँति विदित है कि ये दानव भूतल पर मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि कौन कौन दैत्य किस किस शरीर को धारण करके वैर भाव की पुष्टि कर रहा है।३।
मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेनपुत्र कंस के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है । घोड़े का शरीर धारण करने वाले केशी दैत्य से भी मैं अपरिचित नहीं हूँ।४।
कुवलयापीड हाथी चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल तथा वृषभ रूपधारी दैत्य अरिष्टासुर को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।५।
विप्रवर -खर और प्रलम्ब नामक असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं। राजा बलि की पुत्री पूतना को भी मैं जानता हूँ।६।
यमुना के कुण्ड में रहने वाले कालिया नाग को भी मैं जानता हूँ। जो गरुड के भय से उस कुण्ड में जा घुसा है।७।
मैं उस जरासन्ध से भी परिचित हूँ जो इस समय सभी भूपालों के मस्तक पर खड़ा है। प्राग्य- ज्योतिष पुर में रहने वाले नरकासुर को भी मैं भलीभाँति जानता हूँ।८।
भूतल के मानव लोक में जो मनुष्य रूप धारण कर के उत्पन्न हुआ है। जिसका तेज कुमार कार्तिकेय के समान है।जो शोणितपुर में निवास करता है। और अपनी हजार भुजाओं के कारण देवों के लिए भी अत्यन्त दुर्जेय हो रहा है। उस बलाभिमानी दैत्य वाणासुर को भी मैं जानता हूँ ।
तथा यह भी जानता हूँ कि पृथ्वी पर जो भारती सेना का महान भार बढ़ा हुआ है उसे उतारने का उत्तरदायित्व( भार,) मुझपर ही अवलम्बित है।९-१०।
मैं उन सारी बातों से परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजा लोग आपस में युद्ध करेंगे। भूतल पर उनका किस प्रकार संहार होगा। और पुनर्जन्म से रहित देह धारण करने वाले इन नरेशों को इन्द्र लोक में किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा।– यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने है।११।
मैं भूलोक में पहुँच कर मानव शरीर धारण करके स्वयं तो उद्योग का आश्रय लुँगा ही दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करुँगा।१२।
जिस जिस विधि से जो जो असुर मर सकेगा उस उस उपाय से ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े़ बड़े़ असुरों का वध करुँगा१३।
मैं योग से इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान गतियों को नष्ट कर दुँगा और इस प्रकार युद्ध में इन देवेश्वरों के शत्रुओं का वध कर डालुँगा।१४।
नारद ! पृथ्वी के हित के लिए स्वर्गवासी देवताओं देवर्षियों तथा गन्धर्वों के यहाँ से जो अपने अपने अंश का उत्सर्ग किया है वह सब मेरी अनुमति से हुआ है । क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा निश्चय कर लिया था।
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ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह !अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में और किस जाति जन्म लेकर और किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ?।१६-१७।
ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे-
तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०।
विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।
यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।
तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३।
यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।
प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।
देव ! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?।२६।
ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।
लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।
इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।
इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।
गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।
अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।
महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।
वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।
गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।
जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नामकी इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।
हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९।
मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।
ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२।
'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३।
महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४।
कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।
हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।
वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७।
विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८।
मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९।
वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०।
वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।
उदारबुद्धि वाले भगवान् श्रीहरि विष्णु ने अपने पुरातन विग्रह को (शरीर) को स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने के कार्य में लगा दिया।५२।
__________
"इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी का वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ।५५।
नारद पुराण में सभी गोपों की पूजा का विधान-
दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।।
वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम् ।। ८०-५८।
एवं सम्पूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम्।
यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम् ।। ८०-५९ ।।
पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।
अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।। ८०-६० ।।
दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः ।। ८०-६१ ।।
सुविन्दा मित्रविन्दा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।।
सुशीला च लसद्रम्यचित्रितांबरभूषणा ।८०-६२।
ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम्।
नंदगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।
गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।।
ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपाण्डुरौ।८०-६४।
दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः।
धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।। ८०-६५ ।।
अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।
"अध्याय- (९)
[भाग -१] ✓✓ ✓
गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश, कुल और गोत्र के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र "अत्रि" है या वैष्णव इस विषय पर अन्तिम निष्कर्ष।
इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य यादवों के जाति, वंश, कुल एवं गोत्रों की वास्तविक जानकारी देना ही है। इसको क्रमबद्ध तरीके से बताने के लिए इस अध्याय को दो भागों में बाँटा गया है-
भाग- (क) यादवों की जातिगत विशेषताऐं।
भाग- (ख) यादवों का वास्तविक गोत्र वैष्णव है या अत्रि ?
जिसमें प्रथम भाग में यादवों की जातिगत विशेषताओं को बताते हुए यह भी बताया गया है कि गोप, गोपाल, अहीर, और यादव परस्पर पर्यायवाची व एक ही जाति, वंश एवं कुल के सदस्य नाम हैं। तथा इसके दूसरे भाग में बताया गया है कि- यादवों का मुख्य गोत्र वैष्णव गोत्र है किन्तु विकल्प के रूप में यादव लोग अत्रि गोत्र को भी मानते हैं।
______________________________________
भाग- (क) यादवों की जातिगत विशेषताऐं।
_______________________________________
जो भी थोड़ा बहुत पढ़ा- लिखा होगा तथा थोड़ा भी व्याकरण की जानकारी रखता होगा। वह इस बात को अवश्य जानता होगा कि अहीर शब्द के पर्यायवाची - आभीर, गोप, गोपाल, यादव, गोसंख्य, गोधुक, बल्लव, घोष इत्यादि होते हैं।
इस सम्बन्ध में अमरकोश जो गुप्त काल की रचना है। उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूपों में गोप शब्द भी वर्णित हैं, जो इस प्रकार है-
१- गोपाल २- गोसङ्ख्य ३- गोधुक, ४- आभीर ५- वल्लव ६- गोविन्द ७- गोप।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः के समानार्थक: ही है।
(श्रोत-अमरकोश- 2/9/57/2/5)
आभीर शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची शब्द रूप बनता है।
आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन का वाचक है। 'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोशकारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं हैं।
अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप ही प्राकृत भाषा में आहीर तथा अहीर होता है।
अब यहाँ पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना आवश्यक हो जाता है। तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते है। ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से भी विकृत होकर हिंदी में आये है, 'तद्भव' कहलाते है। यानी तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किंतु कालांतर में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिंदी में आहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।
१- गोपाल २- गोसङ्ख्य ३- गोधुक, ४- आभीर ५- वल्लव ६- गोविन्द ७- गोप।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः के समानार्थक: ही है।
(श्रोत-अमरकोश- 2/9/57/2/5)
आभीर शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची शब्द रूप बनता है।
आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन का वाचक है। 'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोशकारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं हैं।
अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप ही प्राकृत भाषा में आहीर तथा अहीर होता है।
अब यहाँ पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना आवश्यक हो जाता है। तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते है। ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से भी विकृत होकर हिंदी में आये है, 'तद्भव' कहलाते है। यानी तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किंतु कालांतर में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिंदी में आहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।
जो क्रमशः संस्कृत भाषा के दुग्ध, दधि,अभीर, रत्न,वर्ष,भक्त,स्तन,तथा गृह के तद्भव हैं।
किंतु हमें अहीर,आभीर, और यादव शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना ही अपेक्षित है कि इनका प्रयोग हिंदी और संस्कृत ग्रन्थों में कब कहां और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है।
तो इस संबंध में सबसे पहले अहीर शब्द को के बारे में जानेंगे कि हिंदी ग्रंथों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ। इसके बाद संस्कृत ग्रन्थों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए समानार्थक रूप में कहाँ-कहाँ प्रयुक्त हुआ।
आहीर शब्द का प्रयोग प्रथम बार प्रसिद्ध श्वेताम्वर जैन विद्वान हेमचन्द्र सूरी जिनका जीवन काल 1088-1172 ईस्वी सन् तक है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ऐतिहासिक द्वाश्रय काव्य के द्वितीय सर्ग में आभीर शब्द के प्राकृत भाषा में आहिर शब्द का प्रयोग किया है।
प्राकृत भाषा भारतीय आर्यभाषा का एक प्राचीन रूप है। इसके प्रयोग का समय -(500) ई०पू० से (1000) ईस्वी सन् तक माना जाता है।
हिन्दी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रूप से अहीर शब्द का प्रयोग किया गया है। जैसे-
अहीर शब्द का रसखान कवि ने अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किया हैं।
रसखान का समय (1533 से 1558) ईस्वी सन के लगभग है।
रसखान श्रीकृष्ण को परम ब्रह्म के रूप में देखते है।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।
धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।। खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी।
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।।
इसी तरह से भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने 500 साल पहले दो ग्रंथ "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदास जी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।
नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूं चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।। ५८।
अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्री कृष्ण) ! आप जगत के तारण तरण (सर्जक) हो, मैं चारण आप श्री हरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुद्र) और दूध से भरा हुआ है।५८।
और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में लिखा है-
"सखी री, काके मीत अहीर"
ज्ञात हो अहीर नाम का एक राग भी है जो अहीर भैरव नाम से भी जाना जाता है। राग अहीर भैरव का दिन (भोर के समयं) के रागों में एक विशेष स्थान है। यह राग पूर्वांग में राग भैरव के समान है और उत्तरांग में राग काफी के समान है। राग के पूर्वांग का चलन, राग भैरव के समान ही होता है जिसमें ऋषभ पर आंदोलन किया जाता है यथा ग म प ग म रे१ रे१ सा। इसमें मध्यम और कोमल ऋषभ की संगती मधुर होती है, जिसे बार बार लिया जाता है।
इसी राग पर हिंदी फिल्म- "एक दूजे के लिए" का गाना- "बाली उमर को सलाम" गाया गया है "। इससे यह भी सिद्ध होता है कि अहीर जाति की प्राचीनतम एवं अति समृद्धशाली संस्कृति रही है।
इस प्रकार से देखा जाए तो हिंदी ग्रंथों तथा संगीत की दुनिया में अहीर शब्द का प्रयोग केवल यादव, गोप, घोष, और ग्वाला के लिए ही सामान्य रुप से प्रयुक्त किया जाता है, अन्य किसी के लिए नहीं।
अब यह जानना है कि संस्कृत व पौराणिक ग्रंथों में "आभीर" शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से अहीर, गोप, और यादव, के लिए कहाँ-कहाँ किया गया है। ध्यान रहे इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि आभीर संस्कृत शब्द है, जिसका तद्भव रूप आहीर है। तो जाहिर है कि आहीर शब्द संस्कृत में प्रयुक्त नहीं होगा। उसके स्थान पर "आभीर" शब्द ही प्रयुक्त होगा।
जैसे -:
गर्ग संहिता के विश्वजित् खण्ड के अध्याय (७) के श्लोक संख्या- (१४) में भगवान श्री कृष्ण और नंदबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है। शिशुपाल ने आभीर शब्द का प्रयोग उस समय किया जब संधि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी
शिशुपाल के यहां गए। किन्तु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहता है कि-
"आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्तोऽयं गतत्रपः।१४।
प्रद्युम्नं तस्तुतं जित्वा सबलं यादवैःसह।
कुशस्थलीं गमिश्यामि महीं कर्तुमयादवीम्। १६।
अनुवाद -
• वह (श्रीकृष्ण) पहले नंद नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वासुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं।१४।
• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीतकर भूमण्डल को यादवों से शून्य कर देने के लिए कुशस्थली पर चढ़ाई करूँगा।१६।
इन उपर्युक्त दो श्लोक को यदि देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण सहित सम्पूर्ण अहीर और यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।
इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- (२०) के श्लोक - (६) और (७) में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बंधित थे।
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।।६।
यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
शूरसेनाश्च दरदा मद्रकेकयाः।।७।
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।।६।
यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
शूरसेनाश्च दरदा मद्रकेकयाः।।७।
अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारका , कलिंग सिंहल पराच्य (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।
•अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज, हंस -पथ नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।
इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६,१७ और १८ में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-
"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः ।16।
सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः।मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा ।17।
आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः।।18।
अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं।१७-१७।
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। १८
▪इसी तरह से महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है-
"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।
अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।
•अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज, हंस -पथ नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।
इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६,१७ और १८ में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-
"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः ।16।
सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः।मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा ।17।
आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः।।18।
अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं।१७-१७।
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। १८
▪इसी तरह से महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है-
"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।
अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।
ध्यान रहे ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों को क्षत्रिय होने की भी पुष्टि करती हैं।
इन उपरोक्त श्लोकों से आभीर जाति की प्राचीनतम स्थिति का पता चलता है। ध्यान रहे अहीर का पर्यायवाची शब्द गोप होता है।
इसी तरह से जब भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र की पूजा बंद करवादी, तब इसकी सूचना जब इन्द्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्री कृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को उसने जो कुछ अपशब्द कहा कहा उसका वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय -(२५) के श्लोक - (३) से (५) में मिलता है। जिसमें इन्द्र अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।।३।
वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम्।५।
अनुवाद - ओह, इन जंगली ग्वालों (गोपों ) का इतना घमंड ! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला। ३।
• कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५।
• कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५।
इन उपरोक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर, और यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।
इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग गर्गसंहिता के अध्याय- (६२) के श्लोक ३५, में मिलता है। जिसमें जूवा खेलते समय रुक्मी बलराम जी को कहता है कि -
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।। ३४।
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।। ३४।
अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले वाले ग्वाले ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।
इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।
जैसे भगवान श्री कृष्ण को तो सभी लोग जानते हैं कि यदुवंश में उत्पन्न होने से उन्हें यादव कहा गया और गोप जाति में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया और गोपालन करने से उन्हें गोपाल कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है।
भगवान श्रीकृष्ण को गोपजाति और यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय -(७) में बताया जा चुका है।
भगवान श्रीकृष्ण को गोपजाति और यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय -(७) में बताया जा चुका है।
भगवान श्री कृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया। जब यज्ञ हेतु सभी लोगों ने श्री कृष्ण को अग्र पूजा के लिए चुना था। किन्तु वहीं पर उपस्थित शिशुपाल इसका विरोध करते हुए भगवान श्री कृष्ण को
यदुवंश शिरोमणि न कहकर उनके लिए ग्वाला (गोप) शब्द से सम्बोधित करते हुए उनका तिरस्कार किया। जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय- (74) के श्लोक संख्या - १८-१९-२० और (३४) में कुछ इस प्रकार है -
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत्।।१८।
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।।१९।
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत्।।१८।
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।।१९।
यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निनराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः।। २०।
अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८।
• यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं।१९।
• यह सारा विश्व श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्रीकृष्णा ही अग्नि, आहुति और मन्त्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।
भगवान श्री कृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।।३४।
अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ?।३४।
इस श्लोक के अनुसार यदि शिशुपाल के इस कथन पर विचार किया जाए तो उसने श्रीकृष्ण के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहाँ तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्री कृष्ण- गोप, अथवा गोपाल ही हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहे हैं जो इस प्रकार है-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
अतः शिशुपाल ने भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल या गोप कहा तो कोई गलत नहीं कहा। किन्तु उसने जिस घृणित भावना से भगवान श्री कृष्ण को कौवा और कुलकलंक कहा, यहीं उसने गलत कहा जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्री कृष्ण ने उसका वध कर दिया।
इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्यपर्व के अध्याय- (१००) के श्लोक -(२६ और ४१) में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जहाँ पौण्ड्रक और, श्री कृष्ण के युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहता है कि-
स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१।
अनुवाद- राजा पौंड्रक ने भगवान से कहा- ओ यादव ! ओ गोपाल ! इस समय तुम कहां चले गए थे?।२६।
• तब भगवान श्री कृष्ण ने पौंड्रक से कहा - राजन ! मैं सर्वदा गोप हूं , अर्थात प्राणियों का प्राण दान करने वाला हूं , संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूँ।
देखा जाए तो इन उपयुक्त दो श्लोकों से तीन बातें और सिद्ध होती है।
• पहला यह कि- राजा पौंड्रक, भगवान श्रीकृष्ण को यादव और गोप दोनों शब्दों से सम्बोधित करता है। इससे सिद्ध होता है कि यादव और गोप एक ही होते हैं।
स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१।
अनुवाद- राजा पौंड्रक ने भगवान से कहा- ओ यादव ! ओ गोपाल ! इस समय तुम कहां चले गए थे?।२६।
• तब भगवान श्री कृष्ण ने पौंड्रक से कहा - राजन ! मैं सर्वदा गोप हूं , अर्थात प्राणियों का प्राण दान करने वाला हूं , संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूँ।
देखा जाए तो इन उपयुक्त दो श्लोकों से तीन बातें और सिद्ध होती है।
• पहला यह कि- राजा पौंड्रक, भगवान श्रीकृष्ण को यादव और गोप दोनों शब्दों से सम्बोधित करता है। इससे सिद्ध होता है कि यादव और गोप एक ही होते हैं।
• दूसरा यह कि- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने को गोप कहते हुए यह सिद्ध करते हैं कि मैं गोप हूं।
• तीसरा यह कि- गोप ही एक ऐसी जाती है जो संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों पर शासन करने वाली है।
इस प्रकार से अध्याय- (९) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं।
अब इसके अगले भाग में (दो) में✍️
"अध्याय- (९)
[भाग -२] (।)✓✓ ✓
अध्याय- ९ भाग- २
(|) ✓✓✓
गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र अत्रि है या वैष्णव ?
सबसे पहले जाति की बात करते हैं ।
जो एक समुद्र के समान है। जातियों का निर्माण मनुष्यों की प्रवृतियों से निर्धारित हुआ। और प्रवृतियाँ विकसित होती हैं मनुष्यों की वृत्तियो ( व्यवसायों) से ।
वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित्र व्यययी( कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों( व्यवसायी) वाले समान परिवेश (माहौल) कोर्ट कचहरी दिवानी आदि में पहल करने वाले होते हैं। लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित होते ही हैं।
यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।
इसलिए जाति रूपी समुद्र में वंश रूपी अनेक गोत्र रूपी नदियाँ तथा इन गोत्र रूपी नदियों से वंश रूपी धाराऐ निकलती हैं। और वंश में अनेक कुल रूपी कुल्याऐं( नालीयाँ ) यही कुल परिवारों का समूह है।
एक जाति में अनेक वंश होते हैं । और एक वंश में भी अनेक कुल होते हैं। जैसे महाभारत काल में यदुवंश में एक सौ कुल थे।
कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।३४.२५५।
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।। ३४.२५६ ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।। ३४.२५६ ।
अनुवाद:-
यादवों के एक सौ एक वैष्णव कुल हैं। उन सभी में स्वराट् विष्णु (श्रीकृष्ण) विद्यमान हैं। २५५।
यादवों के एक सौ एक वैष्णव कुल हैं। उन सभी में स्वराट् विष्णु (श्रीकृष्ण) विद्यमान हैं। २५५।
• विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।२५।
इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३४ ।।
अमर कोश मे गोत्र वर्ण का भी वाचक है।
अत: वर्ण - जाति- गोत्र - वंश - कुल - परिवार और अन्तिम इकाई व्यक्ति ही ये परस्पर रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखला है। ।
इस लिए यादवों का वर्ण और गोत्र दोनो ही वैष्णव है।
आभीर जाति में यदुवंश का उदय हुआ यह सम्पूर्ण जाति स्वराट् विष्णु से उत्पन्न है। अत: इसका वर्ण और पूर्वज गोत्र भी वैष्णव ही है।
यादव वंश में एक सौ एक कुल महाभारत काल में थे ।
ऐसे में गोत्र और वर्ण कैसे एक हो सकता है?
इसे हम पारिभाषिक रूप में स्पष्ट करते हैं।
वर्ण-
वर्णः, पुं, (व्रियते इति । वृ + “कॄवृजॄषिद्रुगुपन्य- निस्वपिभ्यो नित् ।” उणा० ३ । १० । इति नः । स च नित् ।) जातिः वर्ण के अन्तर्गत जन्म से प्राप्त प्रवृत्तियों के अनुसार व्यवसाय के वरण (चुनाव से है। ।
वर्ण व्यवस्था में चार वर्ण होते हैं, जबकि जातियों की संख्या हज़ारों में है
वर्ण का आधार व्यक्ति के कर्म और गुण और स्वभाव होते हैं, जबकि जाति का आधार व्यक्ति का जन्म या वंश होता है.
वर्ण व्यवस्था के तहत, व्यवसाय का चुनाव भी किया जाता था.
जाति व्यवस्था के तहत ,वंश परम्परागत व्यवसाय को ही अनिवार्य रूप में करना पड़ता है। लोगों को उनके जन्म के आधार पर समूहों में बांटा जाता था.
जाति-
*** व्यक्ति समूहों की प्रवृति मूलक पहचान है। जैसे मनुष्य समूहों के समाज में अलग अलग देखी जाती -जैसे वणिक( समाज) उनकी वृत्ति ( व्यवसाय) होता है खरीद-फरोख्त करना और उसी अनुसार उनकी (स्वभाव गत गहराई) लोलुपता और मितव्यता यही उनकी जातिगत पहचान है।
इसी तरह से जैसे अहीर जाति की वृत्ति कृषि और पशु पालन यह वृत्ति उन्ही लोगों में हो सकती है जो निडर ( निर्भीक) और साहसी हो । इनकी वृत्ति के अनुसार ही इनकी निर्भीक प्रवृति का विकास जन्म से हुआ यह निडर प्रवृत्ति ही इनकी जाति सूचक पहचान है। इसी लिए इनको आभीर कहा जाता है।
सबसे पहले जाति की बात करते हैं ।
जो एक समुद्र के समान है। जातियों का निर्माण मनुष्यों की प्रवृतियों से निर्धारित हुआ। और प्रवृतियाँ विकसित होती हैं मनुष्यों की वृत्तियो ( व्यवसायों) से ।
वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित व्यययी( कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों( व्यवसायी) वाले समान परिवेश (माहौल) कोर्ट कचहरी दिवानी आदि में पहल करने वाले होते हैं। लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित होते ही हैं। सीमा पर सैनिक तैनात होते हैं उनकी समान प्रवृति होती है।
प्रवृत्ति स्वभाव की गहराई का दूसरा नाम है
जो जन्म से ही सुनिश्चित होती है।
स्वभाव और प्रवृत्ति में वही अन्तर है जो अनुभव और अनुभूति में है।
यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।
__
वंश-
व्यक्ति के आनुवांशिक (patrimonial ) रक्त प्रवाह से समन्वित जैविक श्रृंखला ही वंश है। यह पीढियों की सीढियों में प्रवाहित होता।
आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) का प्रयोग करके प्रायः जीवों का डी एन ए परखा जाता है और इस आधार पर उन जीवों को एक जाति का घोषित किया जाता है जिनकी डी•एन•ए छाप एक दूसरे से मिलती हो और दूसरे जीवों से अलग हो।
एक जाति में अनेक वंश होते हैं ।
इसलिए जाति रूपी समुद्र में वंश रूपी अनेक वँश रूपी नदियाँ निकलती हैं।
एक जाति में अनेक वंश होते है।
वंश भी रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखला है। जिसमें अपने पूर्वजों का स्वभाव आनुवंशिक रूप से नदी रूप में प्रवाहित होता है।
_______
कुल -
तथा इन वंश रूपी नदियों से गोत्र रूपी धाराऐ निकलती हैं। और वंश में अनेक कुल रूपी कुल्याऐं( नालीयाँ ) निकलकर परिवारों का समूह का निर्माण करती है।
एक जाति में अनेक वंश होते हैं । और एक वंश में भी अनेक कुल होते हैं। जैसे महाभारत काल में यदुवंश में एक सौ कुल थे।
"कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।३४.२५५।
अनुवाद:-यादवों( यदुवंश)के एक सौ एक कुल हैं। और वे सब कुल विष्णु के कुल ( वैष्णव कुल ) स्वराट् विष्णु सबमें विद्यमान हैं।
२५५।
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।। ३४.२५६ ।।
अनुवाद:- विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध(बन्धे हुए) हैं।२५६।
इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३४ ।।
अमर कोश मे गोत्र वर्ण का भी वाचक है।
अत:१- वर्ण - २-जाति- -३- वंश -४-गोत्र ५-कुल - ६-परिवार और अन्तिम इकाई ५-व्यक्ति ही होता है।
ये सभी उत्तरोत्तर परस्पर जुड़ी हुई रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखलाऐं हैं। ।
इस लिए यादवों का वर्ण और गोत्र दोनो ही वैष्णव है।
आभीर जाति में यदुवंश का उदय हुआ यह सम्पूर्ण जाति स्वराट् विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न है। अत: इसका वर्ण और पूर्वज गोत्र( जनन गोत्र) भी वैष्णव ही है।
यादव वंश में एक सौ एक कुल महाभारत काल में थे ।
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में गोत्र मूलत: चार ही थे।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- (२९६) के श्लोक- (१७) से होती है। जिसमें - राजा जनक पराशर ऋषि का प्रश्नोत्तर रूप में संवाद है।-
इसे हम पारिभाषिक रूप में स्पष्ट करते हैं।
वर्ण-
वर्णः, पुं, (व्रियते इति । वृ + “कॄवृजॄषिद्रुगुपन्य- निस्वपिभ्यो नित् ।” उणा० ३ । १० । इति नः । स च नित् ।) जातिः वर्ण के अन्तर्गत जन्म से प्राप्त प्रवृत्तियों के अनुसार व्यवसाय के वरण (चुनाव से है। ।
वर्ण व्यवस्था में चार वर्ण होते हैं, जबकि जातियों की संख्या हज़ारों में है
वर्ण का आधार व्यक्ति के कर्म और गुण और स्वभाव होते हैं, जबकि जाति का आधार व्यक्ति का जन्म या वंश होता है.
वर्ण व्यवस्था के तहत, व्यवसाय का चुनाव भी किया जाता था.
जाति व्यवस्था के तहत ,वंश परम्परागत व्यवसाय को ही अनिवार्य रूप में करना पड़ता है। लोगों को उनके जन्म के आधार पर समूहों में बांटा जाता था.
जाति-
*** व्यक्ति समूहों की प्रवृति मूलक पहचान है। जैसे मनुष्य समूहों के समाज में अलग अलग देखी जाती -जैसे वणिक( समाज) उनकी वृत्ति ( व्यवसाय) होता है खरीद-फरोख्त करना और उसी अनुसार उनकी (स्वभाव गत गहराई) लोलुपता और मितव्यता यही उनकी जातिगत पहचान है।
इसी तरह से जैसे अहीर जाति की वृत्ति कृषि और पशु पालन यह वृत्ति उन्ही लोगों में हो सकती है जो निडर ( निर्भीक) और साहसी हो । इनकी वृत्ति के अनुसार ही इनकी निर्भीक प्रवृति का विकास जन्म से हुआ यह निडर प्रवृत्ति ही इनकी जाति सूचक पहचान है। इसी लिए इनको आभीर कहा जाता है।
सबसे पहले जाति की बात करते हैं ।
जो एक समुद्र के समान है। जातियों का निर्माण मनुष्यों की प्रवृतियों से निर्धारित हुआ। और प्रवृतियाँ विकसित होती हैं मनुष्यों की वृत्तियो ( व्यवसायों) से ।
वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित व्यययी( कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों( व्यवसायी) वाले समान परिवेश (माहौल) कोर्ट कचहरी दिवानी आदि में पहल करने वाले होते हैं। लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित होते ही हैं। सीमा पर सैनिक तैनात होते हैं उनकी समान प्रवृति होती है।
प्रवृत्ति स्वभाव की गहराई का दूसरा नाम है
जो जन्म से ही सुनिश्चित होती है।
स्वभाव और प्रवृत्ति में वही अन्तर है जो अनुभव और अनुभूति में है।
यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।
__
वंश-
व्यक्ति के आनुवांशिक (patrimonial ) रक्त प्रवाह से समन्वित जैविक श्रृंखला ही वंश है। यह पीढियों की सीढियों में प्रवाहित होता।
आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) का प्रयोग करके प्रायः जीवों का डी एन ए परखा जाता है और इस आधार पर उन जीवों को एक जाति का घोषित किया जाता है जिनकी डी•एन•ए छाप एक दूसरे से मिलती हो और दूसरे जीवों से अलग हो।
एक जाति में अनेक वंश होते हैं ।
इसलिए जाति रूपी समुद्र में वंश रूपी अनेक वँश रूपी नदियाँ निकलती हैं।
एक जाति में अनेक वंश होते है।
वंश भी रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखला है। जिसमें अपने पूर्वजों का स्वभाव आनुवंशिक रूप से नदी रूप में प्रवाहित होता है।
_______
कुल -
तथा इन वंश रूपी नदियों से गोत्र रूपी धाराऐ निकलती हैं। और वंश में अनेक कुल रूपी कुल्याऐं( नालीयाँ ) निकलकर परिवारों का समूह का निर्माण करती है।
एक जाति में अनेक वंश होते हैं । और एक वंश में भी अनेक कुल होते हैं। जैसे महाभारत काल में यदुवंश में एक सौ कुल थे।
"कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।३४.२५५।
अनुवाद:-यादवों( यदुवंश)के एक सौ एक कुल हैं। और वे सब कुल विष्णु के कुल ( वैष्णव कुल ) स्वराट् विष्णु सबमें विद्यमान हैं।
२५५।
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।। ३४.२५६ ।।
अनुवाद:- विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध(बन्धे हुए) हैं।२५६।
इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३४ ।।
अमर कोश मे गोत्र वर्ण का भी वाचक है।
अत:१- वर्ण - २-जाति- -३- वंश -४-गोत्र ५-कुल - ६-परिवार और अन्तिम इकाई ५-व्यक्ति ही होता है।
ये सभी उत्तरोत्तर परस्पर जुड़ी हुई रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखलाऐं हैं। ।
इस लिए यादवों का वर्ण और गोत्र दोनो ही वैष्णव है।
आभीर जाति में यदुवंश का उदय हुआ यह सम्पूर्ण जाति स्वराट् विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न है। अत: इसका वर्ण और पूर्वज गोत्र( जनन गोत्र) भी वैष्णव ही है।
यादव वंश में एक सौ एक कुल महाभारत काल में थे ।
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में गोत्र मूलत: चार ही थे।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- (२९६) के श्लोक- (१७) से होती है। जिसमें - राजा जनक पराशर ऋषि का प्रश्नोत्तर रूप में संवाद है।-
"मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।
अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।१८।
महाभारत शान्ति पर्व का निम्न श्लोक इस बात का संकेत करता है।
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
अनुवाद:
अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं।
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।१८।
"जनक उवाच।
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम।
तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि॥१९॥
अनुवाद:-
जनक ने पूछा - वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।
यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः ।
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः॥२॥
अनुवाद:-
आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्पन्न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्मदाता पिता ही नूतन जन्म धारण करता है।
ऐसी दशा में प्रारम्भ में ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्म हुआ है।२।
तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ?
तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि
"पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।
अनुवाद:-
जिससे जो जन्म लेता है, उसी का वह स्वरूप होता है तथापि तपस्या की न्यूनता के कारण लोग निकृष्ट जाति को प्राप्त हो गये हैं।३।
उत्तम क्षेत्र( खेत) और उत्तम बीज से जो जन्म होता है, वह पवित्र (उत्तम) ही होता है।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्न संतान की ही उत्पत्ति होती है।४।
वक्त्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे।
सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः॥५॥
धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।५।
मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रबन्धवः।
ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः॥६॥
अनुवाद:-
तात ! जो मुख से उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्पत्ति हुई।
इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं। इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्म दिया है, तब मनुष्यों के भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।
*****
"जनक ने पूछा-
ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्पन्न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्व को कैसे प्राप्त हुए ? ।११।
पराशर जी ने कहा -
राजन ! तपस्या से जिनके अन्त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्मा पुरूषों के द्वारा जिस संतान की उत्पत्ति होती है, अथवा वे स्वेच्छा से जहाँ-कहीं भी जन्म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि (जातीय शरीर) से निकृष्ट होने पर भी उसे उत्कृष्ट ही मानना चाहिये ।१२।
नरेश्वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्पन्न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया।१३।
उपरोक्त संवादों से सिद्ध होता है कि - प्रारम्भिक काल में गोत्रों का निर्धारण व्यक्ति के तपोबल एवं उसके कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ करता था। अर्थात् निम्न योनि का व्यक्ति भी अपने तपोबल एवं कर्मों के आधार पर उच्च योनि को प्राप्त कर सकता था।
उसी तरह से उच्च योनि का व्यक्ति निम्न कर्म करने पर निम्न योनि को प्राप्त होता था। किंतु इस सिद्धांत का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और अन्ततोगत्वा ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में गोत्र एवं कुल का निर्धारण कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा। जिसके परिणाम स्वरूप सामाजिक भेदभाव एवं अस्पृश्यता का उदय हुआ। क्योंकि पूर्व काल में जिन चार ऋषियों अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु से जो चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे उनके अतिरिक्त ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अपनी आवश्यकतानुसार अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारिणों में शामिल किया जो किसी न किसी
रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए थे। उन सभी को सम्मिलित कर पुरोहितों नें गोत्र निर्धारण का एक नया सिद्धान्त बनाया जो मुख्यतः तीन सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनि जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करती हैं।
ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर सन्तान पूरक गोत्र ( पूर्वज गोत्र)कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि काक संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।
(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात निज की उत्पत्ति किससे हुई है इसका पता ही नहीं हो। तो ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।
(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यन्त किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्ध का संकेत करता है।
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र- गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी अन्य ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।
(गुरु गोत्र)
इस सम्बन्ध में बतादें कि- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई।
इसलिए श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है। तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश पौराणिक ग्रन्थों में यादवों के मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।
जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्में ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर यादवों में स्वीकार किए गये है ? यह एक विचारणीय विषय है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज एवं योगेश कुमार रोहि व गोपाचार्य हंस माता प्रसाद जी आदि विचारकों का कहना है कि -
"गोप जाति श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि ऋषि से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण भी यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"
विदित हो कि वर्ण और गोत्र दोनों ही शब्द मनुष्य की उत्पत्ति मूलक सम्बन्धों को सूचित करते हैं।
ईसापूर्व पञ्चम सदी के संस्कृत कोश अमर कोश में गोत्र शब्द एक एक पर्याय वर्ण भी है।
गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हंस श्रीमाताप्रसाद योगेश रोहि आदि विद्वानों का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि सम्पन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है"।
गोपों के इस वैकल्पिक गोत्र अत्रि की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर क्षेत्र में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ था। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारों द्वारा संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे।
उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को सम्पन्न कराने का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना था।
अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६) और (१७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
तो आज इसी तरह के समस्त संशयों का समाधान इस वीडियो में किया गया है कि कैसे यादवों का गोत्र और वर्ण दोनों ही वैष्णव है। किन्तु इसके पहले मेरे उस वीडियो को आपको देखना होगा जिसमें बताया गया है कि यादवों का मुख्य गोत्र- वैष्णव गोत्र है। नहीं तो आपका संशय यो ही बना रहेगा। दूसरी बात यह कि यादवों के गोत्र, जाति और वर्ण को जानने से पहले ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के गोत्र, वर्ण, और जाति व्यवस्था को जानना होगा। क्योंकि यादव ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के भाग नहीं हैं। यह बात भी इस वीडियो में स्वतः सिद्ध हो जायेगा। जिसमें सबसे पहले आप लोगों ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के गोत्र,चातुर्वर्ण्य तथा जाति व्यवस्था को जानते हुए उसी क्रम में यादवों के वैष्णव वर्ण की उन समस्त विशेषताओं को भी जान पाएंगे जिनकी जानकारी न होने से यादव समाज आज तक भ्रम की स्थिति में जी रहा है।
तो चलिए श्रीकृष्ण का नाम लेकर बिना देर किए इन सभी महत्वपूर्ण जानकारियों को प्रारंभ करते हैं।
तो इस सम्बन्ध में बता दें कि किसी भी व्यक्ति का गोत्र मुख्यतः तीन प्रकार का होता है-
(१)- मूल गोत्र
(२)- स्थानमूलक गोत्र
(३)- गुरु गोत्र
अब हमलोग क्रमवार इन तीनों प्रकार के गोत्रों की उत्पत्ति और विशेषताओं को जानेंगे-
(१)- जिसमें पहले नम्बर पर "मूल गोत्र" का नाम आता है। यह गोत्र किसी व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है की किस व्यक्ति की प्रारंभिक उत्पत्ति किससे हुई है। इस मूल गोत्र में व्यक्ति का रक्त संबंध होता है। जैसे गोपों (यादवों) का मूल गोत्र वैष्णव है। क्योंकि यादवों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है। इसके बारे में आगे बताया गया है।
इसी तरह से जो लोग अपने को ब्रह्मा जी की संतान मानते हैं उन सभी का मूल गोत्र- "ब्राह्मी गोत्र" है। जैसे- ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न कुछ ब्राह्मण इत्यादि।
अब आप लोगों यहां पर यह सोच रहे होंगे कि कुछ ही ब्राह्मण क्यों सभी ब्राह्मण क्यों नहीं ? क्या सभी ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न नहीं हैं? तो इसका जवाब है जी हां सभी ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न नहीं हुए हैं। क्योंकि कुछ पौराणिक ग्रंथों में ब्राह्मणों के जन्म को अन्य तरह से भी बताया गया है। किन्तु यहां पर ब्राह्मणों की उत्पत्ति को बताना मेरा उद्देश्य नहीं है। फिर भी यदि कोई यह बात जानना ही चाहता है तो वह स्कन्द पुराण का खण्ड- (३) के अध्याय- ३९ के प्रसंगों को पढ़कर यह जानकारी ले सकता है कि अधिकांश ब्राह्मणों कि जन्म दूसरे तरीके से किस प्रकार बताई गई है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि मूल गोत्र व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है कि व्यक्ति की प्रारंभिक उत्पत्ति जिससे हुई है, उसीके नामानुसार उस व्यक्ति का मूल गोत्र निर्धारित होता है। जैसे- ब्राह्मी गोत्र, वैष्णव गोत्र इत्यादि। जिसमें वैष्णव गोत्र के बारे में आगे विस्तार से बताया हूं।
(२)-दूसरा गोत्र स्थान या स्थानीय गोत्र के नाम से जाना जाता है, जो किसी व्यक्ति के भौगोलिक स्थिति को दर्शाते हुए स्थान विशेष की पहचान कराता है। इस तरह के गोत्र की उत्पत्ति तब होती है जब एक ही जाति वर्ण और वंश के लोग जब किसी परिस्थिति विशेष के कारण अपने मूल निवास स्थान से Migrate कर जाते हैं, अर्थात वे अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर अपने समूह सहित अन्यत्र जाकर बस जातें हैं। तब उनके मूल स्थान के नाम पर उनकी पहचान हेतु एक उपगोत्र बन जाता हैं। इस तरह का
स्थानीय गोत्र अधिकांशतः गोपों अर्थात यादवों में देखने को मिलता है। यहीं कारण है कि यादवों में इस तरह के गोत्र बहुतायत पाए जाते हैं। देखा जाए तो भारत के हर प्रांतों में यादवों की पहचान अलग-अलग गोत्रों से होती है। किन्तु उनका मूलगोत्र, जाति एवं वंश पूर्ववत बना रहता है।
यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। पूर्व काल में कंस के अत्याचारों से बहुत से यादव मथुरा छोड़कर यत्र-तत्र सर्वत्र बस गए। इसी तरह से केशी राक्षस के भय से नन्द बाबा के पिता पर्जन्य मथुरा छोड़कर परिवार सहित गोकुल में जा बसे। किन्तु वहां पर पशुओं के लिए अच्छा चारागाह न होने के कारण नन्द बाबा गोकुल को भी छोड़कर श्रीकृष्ण सहित समस्त गोपों के साथ ब्रज के बृंदावन में रहने ल
गे। इसके अतिरिक्त जब श्रीकृष्ण कंस का वध करके मथुरा में रहने लगे तब वहां पर जरासंध के बार बार आक्रमण से तंग आकर श्रीकृष्ण अपने समस्त गोपों के साथ मथुरा को छोड़कर द्वारका नगरी में रहने लगे। कहने का तात्पर्य यह है कि यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। जिसके परिणामस्वरूप उनके स्थान विशेष के नाम पर अनेकों गोत्रों का उदय हुआ। आज वर्तमान समय में यादव हर प्रांतों में अलग-अलग गोत्रों के नाम से जाने जाते हैं। किन्तु उनका मूलगोत्र वैष्णव गोत्र ही। जैसे- ढ़़ढ़ोर, ग्वाल, कृष्नौत, मझरौट, मथुरौट, नारायणी, घोसी, घोष, गोल्ला, गवली, मरट्ठा, मथुवंशी, इत्यादि बहुत से स्थानीय उपगोत्र है उन सभी को बता पाना इतना आसान नहीं है जितना आप सोच रहे होंगे। इसके अतिरिक्त भारत से सटे राज्य नेपाल में भी यादवों के बहुत स्थानीय उपगोत्र है जैसे - सिराहा, धनुषा, सप्तरी, बारा, रौतहट, सरलाही, परसा, महोत्तरी, बांके, सुनहरी इत्यादि। ये सभी यादवों के ही स्थानी उपगोत्र हैं।
अब आते हैं तीसरे प्रकार के गोत्र - गुरु गोत्र पर
(३)- गुरु गोत्र - गोपों के तीसरे प्रकार के उपगोत्र का नाम है। इस प्रकार के गोत्र में व्यक्ति या व्यक्ति समूह किसी ऋषि या अपने पसंद के विश्वासनीय सतनामी गुरु या किसी ऋषि मुनि से- दीक्षा, गुरुमंत्र या गुरूमुख होकर अपने उपगोत्र या वैकल्पिक गोत्र का निर्धारण करते हैं। इसलिए इस प्रकार के गोत्र को "गुरुगोत्र " कहा जाता है, जिसमे गोत्र कर्ता (ऋषि )और उसके अनुयायियों में किसी प्रकार का रक्त संबंध नहीं होता है। इस तरह के गोत्र का मुख्य उद्देश्य- दीक्षा, शिक्षा, पूजा-पाठ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने तक ही सीमित होता है।
गोपों के इस वैकल्पिक "गुरुगोत्र" अत्रि नाम की परम्परा का प्रारंभ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही प्रचलन में आया। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मंत्रोच्चारण से संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे। उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को संपन्न का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक
गुरु गोत्र बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को संपन्न कराना था। अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६ और १७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
वर्ण-
जाति
वंश
कुल खान)
गोत्र ( वैवाहिक विभाजन के लिए ताकि एक ही गोत्र मे विवाह न हो सके)
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।
अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।१८।
महाभारत शान्ति पर्व का निम्न श्लोक इस बात का संकेत करता है।
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
अनुवाद:
अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं।
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।१८।
"जनक उवाच।
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम।
तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि॥१९॥
अनुवाद:-
जनक ने पूछा - वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।
यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः ।
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः॥२॥
अनुवाद:-
आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्पन्न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्मदाता पिता ही नूतन जन्म धारण करता है।
ऐसी दशा में प्रारम्भ में ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्म हुआ है।२।
तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ?
तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि
"पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।
अनुवाद:-
जिससे जो जन्म लेता है, उसी का वह स्वरूप होता है तथापि तपस्या की न्यूनता के कारण लोग निकृष्ट जाति को प्राप्त हो गये हैं।३।
उत्तम क्षेत्र( खेत) और उत्तम बीज से जो जन्म होता है, वह पवित्र (उत्तम) ही होता है।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्न संतान की ही उत्पत्ति होती है।४।
वक्त्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे।
सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः॥५॥
धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।५।
मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रबन्धवः।
ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः॥६॥
अनुवाद:-
तात ! जो मुख से उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्पत्ति हुई।
इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं। इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्म दिया है, तब मनुष्यों के भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।
*****
"जनक ने पूछा-
ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्पन्न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्व को कैसे प्राप्त हुए ? ।११।
पराशर जी ने कहा -
राजन ! तपस्या से जिनके अन्त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्मा पुरूषों के द्वारा जिस संतान की उत्पत्ति होती है, अथवा वे स्वेच्छा से जहाँ-कहीं भी जन्म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि (जातीय शरीर) से निकृष्ट होने पर भी उसे उत्कृष्ट ही मानना चाहिये ।१२।
नरेश्वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्पन्न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया।१३।
उपरोक्त संवादों से सिद्ध होता है कि - प्रारम्भिक काल में गोत्रों का निर्धारण व्यक्ति के तपोबल एवं उसके कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ करता था। अर्थात् निम्न योनि का व्यक्ति भी अपने तपोबल एवं कर्मों के आधार पर उच्च योनि को प्राप्त कर सकता था।
उसी तरह से उच्च योनि का व्यक्ति निम्न कर्म करने पर निम्न योनि को प्राप्त होता था। किंतु इस सिद्धांत का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और अन्ततोगत्वा ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में गोत्र एवं कुल का निर्धारण कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा। जिसके परिणाम स्वरूप सामाजिक भेदभाव एवं अस्पृश्यता का उदय हुआ। क्योंकि पूर्व काल में जिन चार ऋषियों अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु से जो चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे उनके अतिरिक्त ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अपनी आवश्यकतानुसार अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारिणों में शामिल किया जो किसी न किसी
रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए थे। उन सभी को सम्मिलित कर पुरोहितों नें गोत्र निर्धारण का एक नया सिद्धान्त बनाया जो मुख्यतः तीन सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनि जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करती हैं।
ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर सन्तान पूरक गोत्र ( पूर्वज गोत्र)कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि काक संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।
(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात निज की उत्पत्ति किससे हुई है इसका पता ही नहीं हो। तो ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।
(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यन्त किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्ध का संकेत करता है।
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र- गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी अन्य ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।
(गुरु गोत्र)
इस सम्बन्ध में बतादें कि- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई।
इसलिए श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है। तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश पौराणिक ग्रन्थों में यादवों के मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।
जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्में ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर यादवों में स्वीकार किए गये है ? यह एक विचारणीय विषय है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज एवं योगेश कुमार रोहि व गोपाचार्य हंस माता प्रसाद जी आदि विचारकों का कहना है कि -
"गोप जाति श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि ऋषि से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण भी यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"
विदित हो कि वर्ण और गोत्र दोनों ही शब्द मनुष्य की उत्पत्ति मूलक सम्बन्धों को सूचित करते हैं।
ईसापूर्व पञ्चम सदी के संस्कृत कोश अमर कोश में गोत्र शब्द एक एक पर्याय वर्ण भी है।
गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हंस श्रीमाताप्रसाद योगेश रोहि आदि विद्वानों का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि सम्पन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है"।
गोपों के इस वैकल्पिक गोत्र अत्रि की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर क्षेत्र में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ था। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारों द्वारा संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे।
उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को सम्पन्न कराने का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना था।
अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६) और (१७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
तो आज इसी तरह के समस्त संशयों का समाधान इस वीडियो में किया गया है कि कैसे यादवों का गोत्र और वर्ण दोनों ही वैष्णव है। किन्तु इसके पहले मेरे उस वीडियो को आपको देखना होगा जिसमें बताया गया है कि यादवों का मुख्य गोत्र- वैष्णव गोत्र है। नहीं तो आपका संशय यो ही बना रहेगा। दूसरी बात यह कि यादवों के गोत्र, जाति और वर्ण को जानने से पहले ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के गोत्र, वर्ण, और जाति व्यवस्था को जानना होगा। क्योंकि यादव ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के भाग नहीं हैं। यह बात भी इस वीडियो में स्वतः सिद्ध हो जायेगा। जिसमें सबसे पहले आप लोगों ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के गोत्र,चातुर्वर्ण्य तथा जाति व्यवस्था को जानते हुए उसी क्रम में यादवों के वैष्णव वर्ण की उन समस्त विशेषताओं को भी जान पाएंगे जिनकी जानकारी न होने से यादव समाज आज तक भ्रम की स्थिति में जी रहा है।
तो चलिए श्रीकृष्ण का नाम लेकर बिना देर किए इन सभी महत्वपूर्ण जानकारियों को प्रारंभ करते हैं।
तो इस सम्बन्ध में बता दें कि किसी भी व्यक्ति का गोत्र मुख्यतः तीन प्रकार का होता है-
(१)- मूल गोत्र
(२)- स्थानमूलक गोत्र
(३)- गुरु गोत्र
अब हमलोग क्रमवार इन तीनों प्रकार के गोत्रों की उत्पत्ति और विशेषताओं को जानेंगे-
(१)- जिसमें पहले नम्बर पर "मूल गोत्र" का नाम आता है। यह गोत्र किसी व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है की किस व्यक्ति की प्रारंभिक उत्पत्ति किससे हुई है। इस मूल गोत्र में व्यक्ति का रक्त संबंध होता है। जैसे गोपों (यादवों) का मूल गोत्र वैष्णव है। क्योंकि यादवों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है। इसके बारे में आगे बताया गया है।
इसी तरह से जो लोग अपने को ब्रह्मा जी की संतान मानते हैं उन सभी का मूल गोत्र- "ब्राह्मी गोत्र" है। जैसे- ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न कुछ ब्राह्मण इत्यादि।
अब आप लोगों यहां पर यह सोच रहे होंगे कि कुछ ही ब्राह्मण क्यों सभी ब्राह्मण क्यों नहीं ? क्या सभी ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न नहीं हैं? तो इसका जवाब है जी हां सभी ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न नहीं हुए हैं। क्योंकि कुछ पौराणिक ग्रंथों में ब्राह्मणों के जन्म को अन्य तरह से भी बताया गया है। किन्तु यहां पर ब्राह्मणों की उत्पत्ति को बताना मेरा उद्देश्य नहीं है। फिर भी यदि कोई यह बात जानना ही चाहता है तो वह स्कन्द पुराण का खण्ड- (३) के अध्याय- ३९ के प्रसंगों को पढ़कर यह जानकारी ले सकता है कि अधिकांश ब्राह्मणों कि जन्म दूसरे तरीके से किस प्रकार बताई गई है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि मूल गोत्र व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है कि व्यक्ति की प्रारंभिक उत्पत्ति जिससे हुई है, उसीके नामानुसार उस व्यक्ति का मूल गोत्र निर्धारित होता है। जैसे- ब्राह्मी गोत्र, वैष्णव गोत्र इत्यादि। जिसमें वैष्णव गोत्र के बारे में आगे विस्तार से बताया हूं।
(२)-दूसरा गोत्र स्थान या स्थानीय गोत्र के नाम से जाना जाता है, जो किसी व्यक्ति के भौगोलिक स्थिति को दर्शाते हुए स्थान विशेष की पहचान कराता है। इस तरह के गोत्र की उत्पत्ति तब होती है जब एक ही जाति वर्ण और वंश के लोग जब किसी परिस्थिति विशेष के कारण अपने मूल निवास स्थान से Migrate कर जाते हैं, अर्थात वे अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर अपने समूह सहित अन्यत्र जाकर बस जातें हैं। तब उनके मूल स्थान के नाम पर उनकी पहचान हेतु एक उपगोत्र बन जाता हैं। इस तरह का
स्थानीय गोत्र अधिकांशतः गोपों अर्थात यादवों में देखने को मिलता है। यहीं कारण है कि यादवों में इस तरह के गोत्र बहुतायत पाए जाते हैं। देखा जाए तो भारत के हर प्रांतों में यादवों की पहचान अलग-अलग गोत्रों से होती है। किन्तु उनका मूलगोत्र, जाति एवं वंश पूर्ववत बना रहता है।
यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। पूर्व काल में कंस के अत्याचारों से बहुत से यादव मथुरा छोड़कर यत्र-तत्र सर्वत्र बस गए। इसी तरह से केशी राक्षस के भय से नन्द बाबा के पिता पर्जन्य मथुरा छोड़कर परिवार सहित गोकुल में जा बसे। किन्तु वहां पर पशुओं के लिए अच्छा चारागाह न होने के कारण नन्द बाबा गोकुल को भी छोड़कर श्रीकृष्ण सहित समस्त गोपों के साथ ब्रज के बृंदावन में रहने ल
गे। इसके अतिरिक्त जब श्रीकृष्ण कंस का वध करके मथुरा में रहने लगे तब वहां पर जरासंध के बार बार आक्रमण से तंग आकर श्रीकृष्ण अपने समस्त गोपों के साथ मथुरा को छोड़कर द्वारका नगरी में रहने लगे। कहने का तात्पर्य यह है कि यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। जिसके परिणामस्वरूप उनके स्थान विशेष के नाम पर अनेकों गोत्रों का उदय हुआ। आज वर्तमान समय में यादव हर प्रांतों में अलग-अलग गोत्रों के नाम से जाने जाते हैं। किन्तु उनका मूलगोत्र वैष्णव गोत्र ही। जैसे- ढ़़ढ़ोर, ग्वाल, कृष्नौत, मझरौट, मथुरौट, नारायणी, घोसी, घोष, गोल्ला, गवली, मरट्ठा, मथुवंशी, इत्यादि बहुत से स्थानीय उपगोत्र है उन सभी को बता पाना इतना आसान नहीं है जितना आप सोच रहे होंगे। इसके अतिरिक्त भारत से सटे राज्य नेपाल में भी यादवों के बहुत स्थानीय उपगोत्र है जैसे - सिराहा, धनुषा, सप्तरी, बारा, रौतहट, सरलाही, परसा, महोत्तरी, बांके, सुनहरी इत्यादि। ये सभी यादवों के ही स्थानी उपगोत्र हैं।
अब आते हैं तीसरे प्रकार के गोत्र - गुरु गोत्र पर
(३)- गुरु गोत्र - गोपों के तीसरे प्रकार के उपगोत्र का नाम है। इस प्रकार के गोत्र में व्यक्ति या व्यक्ति समूह किसी ऋषि या अपने पसंद के विश्वासनीय सतनामी गुरु या किसी ऋषि मुनि से- दीक्षा, गुरुमंत्र या गुरूमुख होकर अपने उपगोत्र या वैकल्पिक गोत्र का निर्धारण करते हैं। इसलिए इस प्रकार के गोत्र को "गुरुगोत्र " कहा जाता है, जिसमे गोत्र कर्ता (ऋषि )और उसके अनुयायियों में किसी प्रकार का रक्त संबंध नहीं होता है। इस तरह के गोत्र का मुख्य उद्देश्य- दीक्षा, शिक्षा, पूजा-पाठ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने तक ही सीमित होता है।
गोपों के इस वैकल्पिक "गुरुगोत्र" अत्रि नाम की परम्परा का प्रारंभ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही प्रचलन में आया। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मंत्रोच्चारण से संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे। उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को संपन्न का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक
गुरु गोत्र बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को संपन्न कराना था। अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६ और १७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
वर्ण-
जाति
वंश
कुल खान)
गोत्र ( वैवाहिक विभाजन के लिए ताकि एक ही गोत्र मे विवाह न हो सके)
भाग- (ख) यादवों का वास्तविक गोत्र वैष्णव है या अत्रि ?
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यादवों को अपना वास्तविक गोत्र जानने से पहले गोत्रों की उत्पत्ति को जानना होगा की गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई तथा गोत्र कितने प्रकार के होते हैं ?
धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।५।
तात ! जो मुख से उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्पत्ति हुई।
इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं। इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्म दिया है, तब मनुष्यों के भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।
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"जनक ने पूछा-
इस सम्बन्ध में बता दें कि- संपूर्ण ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई।
इसलिए श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है। तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद- ४०-४२
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
(३)- तीसरा साक्ष्य- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६ के श्लोक- ६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।
अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।
(४)- चतुर्थ साक्ष्य - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- ७ से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-
ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥
अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।
अब ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि - जब गोपों (यादवों) की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है तो जाहिर सी बात है कि इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार वैष्णव ही होना चाहिए न की अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह गोत्र सिद्धांत के बिल्कुल विपरीत होगा।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त एवं श्रीकृष्ण चरित्र विश्लेषक- गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी का कथन है कि - "यादवों का अत्रि गोत्र तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति अत्रि से हुई होती। किंतु अत्रि का जन्म तो गोपों की उत्पत्ति से बहुत बाद में भू-तल पर ब्रह्मा जी से हुई है। ऐसे में गोपों का गोत्र- अत्रि कैसे हो सकता है ?"
इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी के कथन पर विचार किया जाए तो उनका कथन बिल्कुल सत्य है। क्योंकि प्रमुख पौराणिक ग्रंथों में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही बतायी गई है।
मत्स्यपुराण के अध्याय- (१७१) के श्लोक - (२६) और (२७) में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से बताई गई है। जो इस प्रकार है-
विश्वेशं प्रथमः तावन्महातापसमात्मजम्।
सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्मं स सृष्टवान।।२६।
दक्षं मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
वसिष्टं गौतमं चैव भृगुमङ्गिरसं मनुम्।।२७।
अनुवाद- २६-२७
सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने धर्म नामक पुत्र को प्रकट किया जो विश्व के ईश्वर महान तपस्वी सम्पूर्ण मन्त्रों द्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, "अत्रि", पुलस्त्य, क्रतु , वशिष्ठ, गौतम, भृगु, अंगिरा और मनु को उत्पन्न किया।२६-२७।
इसी प्रकार से मत्स्यपुराण के अध्याय- (१४५) के श्लोक (९० और ९१) में ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में अत्रि को भी बताया गया है।
भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः।
मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दशः।।९०।
ब्राह्मणो मानसा ह्येते उत्पन्नाः स्वयमीश्वराः।
परत्वेनर्षयो यस्मान्तास्तस्मान्महर्षयः।।९१।
अनुवाद- ९०-९१
भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ और पुलस्त्य, ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परतत्व से युक्त है, इसीलिए महर्षि माने गए हैं।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - ऋषि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं अर्थात इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई हैं ना की गोपेश्वर श्रीकृष्ण से। तब ऐसे में गोपों का गोत्र -"अत्रि" नाम से कैसे स्थापित हो सकता है ? यह तभी संभव हो सकता है जब अत्रि की भी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से हुई होती। किंतु अत्रि तो ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि यादवों के मूल गोत्र- "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के लिए जाने-माने ऋषि अत्रि को निराधार और बेवजह ही घसीट कर यादवों के गोत्र में सम्मिलित किया गया ताकि यादव लोग भ्रमित होकर अपने मूल गोत्र "वैष्णव" को भूलकर ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अत्रि गोत्र का अंग बनकर रह जाए और अपने मूल गोत्र वैष्णव को सदा-सदा के लिए भूल जाए। और इस सम्बन्ध में मेरा तो मानना है कि पुरोहितों का यह प्रयोग (Experiment) यादवों पर 99% सफल रहा।
इन्हीं सभी बातों को सोच कर कभी-कभी मुझे बहुत दुख होता है कि जिन गोपों की उत्पत्ति परमेश्वर श्री कृष्ण से हुई हो भला वह कैसे ब्रह्मजाल में फंसकर आज अपने मूल गोत्र वैष्णव को ही भूल गया।
इस संबंध में यादव समाज से मेरा यही सुझाव और निवेदन है कि जब भी कोई ब्राह्मण पुरोहित पूजा-पाठ या विवाह के अवसर पर आपको अपने गोत्र का नाम लेने को कहे तो आप लोग उस समय अपने मूल गोत्र "वैष्णव" का ही नाम ले और उस ब्राह्मण पुरोहित को भी बताएं कि पुरोहित जी आपका गोत्र अत्रि हो सकता है क्योंकि अत्रि ब्राह्मण थे और आप भी ब्राह्मण हैं। किंतु मेरा मूल गोत्र तो वैष्णव है क्योंकि मेरी उत्पत्ति तो गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से गोलोक में उसी समय हो चुकी थी, जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति हुई थी। इसलिए आप जो भी मेरे लिए कृत्य करें वह सब वैष्णव गोत्र के नाम से ही करें अन्यथा हमारा श्रमसाध्य यह कार्य व्यर्थ ही जाएगा।
"अध्याय- (९)
अध्याय- (९)
[भाग- २ (||ऋषि अत्रि को लेकर आश्चर्य तो तब होता है जब यह पता चलता है की ऋषि अत्रि का एक अलग से वंश और गोत्र भी है। जो ब्राह्मणों से सम्बंधित है न कि यादव अथवा गोपों से सम्बन्धित। इसकी पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय- (१९७) के श्लोक- (१-११) से होती है जिसमें भगवान मत्स्य कहते हैं-
।मत्स्य उवाच।
अत्रिवंशसमुत्पन्नान् गोत्रकारान्निबोध मे।
कर्दमायनशाखेयास्तथा शारायणाश्च ये ।।१।
उद्दालकिः शौणकर्णिरथौ शौक्रतवश्च ये।
गौरग्रीवा गौरजिनस्तथा चैत्रायणाश्च ये ।।२।
अर्द्धपण्या वामरथ्या गोपनास्तकि बिन्दवः।
कणजिह्वो हरप्रीति र्नैद्राणिः शाकलायनिः ।।३।
तैलपश्च सवैलेय अत्रिर्गोणीपतिस्तथा।
जलदो भगपादश्च सौपुष्पिश्च महातपाः ।।४।
छन्दो गेयस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः।
श्यावाश्वश्च तथा त्रिश्च आर्चनानश एव च ।।५।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः।
दाक्षिर्बलिः पर्णविश्च ऊर्णनाभिः शिलार्दनिः ।।६।
वीजवापी शिरीषश्च मौञ्जकेशो गविष्ठिरः।
भलन्दनस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः ।।७।
अत्रिर्गविष्ठिरश्चैव तथा पूर्वातिथिः स्मृतः।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः ।।८।
आत्रेयपुत्रिकापुत्रानत ऊर्ध्वं निबोध मे।
कालेयाश्च सवालेया वासरथ्यास्तथैव च ।।९।
धात्रेयाश्चैव मैत्रेयास्त्र्यार्षेयाः परिकीर्तिताः।
अत्रिश्च वामरथ्यश्च पौत्रिश्चैवमहानृषिः ।।१०।
इत्यत्रिवंशप्रभवास्तवाह्या महानुभावा नृपगोत्रकाराः।
येषां तु नाम्ना परिकीर्तितेन पापं समग्रं पुरुषो जहाति।। ११।
अनुवाद- १-११
मत्स्यभगवान ने कहा- राजेन्द्र अब मुझसे महर्षि अत्रि के वंश के उत्पन्न हुए कर्दमायन तथा शारायणशाखीय गोत्र कर्ता मुनियों का वर्णन सुनिये ये हैं- उद्दालकि, शीणकर्णिरथ, शौकतव, गौरग्रीव, गौरजिन, चैत्रायण अर्धपण्य, वामरथ्य, गोपन, अस्तकि, बिन्दु, कर्णजिहू, हरप्रीति, लैाणि, शाकलायनि, तैलप, सवैलेय, अत्रि, गोणीपति, जलद, भगपाद, महातपस्वी सौपुष्पि तथा छन्दोगेय— ये शरायण के वंश में कर्दमायनशाखा में उत्पन्न हुए ऋषि हैं। इनके प्रवर श्यावाश्व, अत्रि और आर्चनानश ये तीन हैं। इनमें परस्पर में विवाह नहीं होता। दाक्षि, बलि, पर्णवि, ऊर्णुनाभि, शिलार्दनि, बीजवापी, शिरीष, मौञ्जकेश, गविष्ठिर तथा भलन्दन- इन ऋषियों के अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि-ये तीन ऋषिवर माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह सम्बन्ध निषिद्ध है।
(विशेष - उपर्युक्त वंश एवं गोत्र ऋषि अत्रि के पुत्रों का रहा)
अब इसके आगे भगवान मत्स्य - अत्रि की पुत्री "आत्रेयी" के वंश के बारे में बताते हुए कहते हैं-
अब मुझसे अत्रि की पुत्रिका आत्रेयी से उत्पन्न प्रवर ऋषियों का विवरण सुनिये- कालेय, वालेय, वामरथ्य, धात्रेय तथा मैत्रेय इन ऋषियोंके अत्रि, वामरथ्य और महर्षि पौत्रि—ये तीन प्रवर ऋषि माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह नहीं होता।
राजन्! इस प्रकार मैंने आपको इन अत्रि वंशमें उत्पन्न होनेवाले गोत्रकार महानुभाव ऋषियों का नाम सुना दिया, जिनके नामसंकीर्तनमात्र मनुष्य अपने सभी पाप कर्मों से छुटकारा पा जाता है ॥ १-११
इस प्रकार से देखा जाए तो यादवों के वंश एवं गोत्र में जिस ब्राह्मण अत्रि को शामिल किया जाता है उनका एक वंश है जो पूर्ण रूपेण ब्राह्मणों के वंश एवं गोत्र से संबंधित है।
ऐसे में एक ब्राह्मण (अत्रि) से यादवों के गोत्र एवं वंश को स्थापित करना यादवों के मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" पर कुठाराघात करने के ही समान है।
ऋषि अत्रि को लेकर दूसरा आश्चर्य तब होता है जब ऋषि अत्रि से चन्द्रमा को उत्पन्न करा कर यादवों के मूल वंश- चन्द्रवंश को भी अत्रि से जोड़ दिया गया। सोचने वाली बात है कि जो अत्रि स्वयं वारूणी यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए हों या ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हों तो वे चन्द्रमा को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ? अर्थात् यह सम्भव नहीं जबकि वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम चन्द्रमा की उत्पत्ति गोलोक में विराट विष्णु से हुई है न कि ब्राह्मण ऋषि अत्रि से।
(ज्ञात हो - विराट विष्णु गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं, जिनकी उत्पत्ति गोलोक में ही परमेश्वर श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से हुई है, इसलिए उन्हें गर्भोदकशायी विष्णु भी कहा जाता है। इन्हीं गर्भोदकशायी विष्णु के अनन्त रोमकूपों से अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुई और उनमें भी उतनें ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश उत्पन्न हुए तथा उतने ही सूर्य और चंद्रमा उत्पन्न हुए। फिर उन प्रत्येक ब्रह्माण्डों में ब्रह्मा जी ने उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण के आदेश पर द्वितीय सृष्टि की रचना की है। द्वितीय सृष्टि रचना में ब्रह्मा के दस मानस पुत्र उत्पन्न हुए, उन दस मानस पुत्रों में अत्रि भी थे। तो इस स्थिति में ऋषि अत्रि अलग से कैसे चन्द्रमा को उत्पन्न कर सकते हैं ?
अर्थात यह संभव नहीं है क्योंकि अत्रि के जन्म की तो बात दूर इनके पिता ब्रह्मा की भी उत्पत्ति से बहुत पहले सूर्य और चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हो चुकी होती है। कुल मिलाकर पौराणिक ग्रन्थों में ऋषि अत्रि से चन्द्रमा की उत्पत्ति बताने का एकमात्र उद्देश्य ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में सम्मिलित करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।
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विराट विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण से चन्द्रमा की उत्पत्ति की पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (११) के श्लोक- (१९) से होती है जिसमें विराट पुरुष से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उत्पत्ति एवं विलय क्रम में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति को सर्वप्रथम भूतल पर अर्जुन ने उस समय देखा और जाना जब भगवान श्रीकृष्ण अपना विराट रूप का दर्शन अर्जुन को कराया। उसे विराट पुरुष को देखकर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं -
"अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।
(श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१९)
अनुवाद- आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चंद्र और सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुख वाले और अपने तेज से इस संसार को तपाते हुए देख रहा हूं।१९।
इसी प्रकार से विराट विष्णु से चन्द्रमा की उत्पत्ति का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
"चन्द्रमा मनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्रणाद्वायुरजायत।।१३।
अनुवाद- महाविष्णु के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य ज्योति, मुख से तेज और अग्नि तथा प्राणों से वायु का प्राकट्य हुआ।१३।
अतः उपरोक्त साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हुई है अत्रि से नहीं।
और यह भी सिद्ध हुआ कि- विष्णु से उत्पन्न होने के नामानुसार चन्द्रमा भी उसी तरह से वैष्णव हुआ जिस तरह से विष्णु से उत्पन्न गोप (यादव) वैष्णव हैं। यह ध्रुव सत्य है।
(विशेष) - किन्तु ध्यान रहे चन्द्रमा कोई मानवी सृष्टि नहीं है वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए उससे कोई पुत्र इत्यादि उत्पन्न होने की कल्पना करना भी महा मूर्खता होगी।
चन्द्रमा के दिन-मान से वैष्णव लोग काल- गणना करते हैं भारतीय पाञ्चांग में यह चान्द्रमास - चैत्र - वैशाख ज्येष्ठ आषाढ आदि का आधार है। तथा अपना प्रथम वंशज और आराध्य देव मानकर वैष्णव गोप चन्द्रमा की सांस्कृतिक पर्व के अवसरों पर पूजा भी करते हैं। इसी परम्परा से वैष्णव वर्ण के गोपों में चन्द्रवंश का उदय हुआ।
और भगवान श्रीकृष्ण जब भी भू-तल पर अवतरित होते हैं तो वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत वैष्णव वर्ण के अभीर जाति यदुवंश आदि में ही अवतरित होते हैं।
गोप कुल में अवतरित होने के सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) में कहते हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपों के कुल में अवतरित होने का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके पिछले अध्याय- (८) में किया जा चुका है। वहाँ से पाठकगण विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते है।
इन उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- उत्पत्ति विशेष के कारण गोपों अर्थात् यादवों का मूल गोत्र और वर्ण दोनों ही "वैष्णव" है जो उनके अनुवांशिक गुणों एवं रक्त सम्बन्धों को संकेत करता है। तथा उनका एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" है जिसमें गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है, जिसका उद्देश्य केवल ब्राह्मण पुरोहितों से पूजा पाठ, हवन, विवाह इत्यादि को संपन्न कराना है।
इस प्रकार से अध्याय- (९) भाग -एक और दो इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं।
अब इसके अगले अध्याय- (१०) में गोपकुल के श्रीकृष्ण एवं राधा सहित पुरुरवा और उर्वशी, आयुष, नहुष,ययाति इत्यादि महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे में बताया गया है।
"अध्याय- (१०)
गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।
यादव वंश गोप जाति का एक ऐसा रक्त समूह है जिनकी उत्पत्ति गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के क्लोन (समरूपण विधि) से उस समय हुई जब गोलोक में श्रीकृष्ण से नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि प्रमुख देवताओं की उत्पत्ति हुई थी। इस वजह से गोप जाति उतनी ही प्राचीनतम है जितना नारायण, शिव एवं ब्रह्मा हैं।
(इस बात को अध्याय- (४) में विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है।) इस लिए गोप कुल के उन सभी सदस्यपत्तियों की विस्तृत जानकारी के लिये इस अध्याय को क्रमशः चार भागों में गया है।
(भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय
भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय
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ज्ञात हो - परमेश्वर श्रीकृष्ण किसी परिचय के मोहताज (अभावग्रस्त) नहीं है। परमेश्वर का परिचय देना मेरे जैसा एक सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव भी नही है। क्योंकि-
जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्मों का वर्णन करने में भू-तल पर कोई सामर्थ्य नहीं है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनकी कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्मा जी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।
जिनकी निर्मल प्रसिद्धि और महिमा बताने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं तथा देवता भी उस भगवान के परम स्वरूप को नहीं जानते हैं। तो उस परमेश्वर का परिचय देना मेरे जैसा तुक्ष (अत्यन्त साधारण) प्राणी के लिए तो और भी सम्भव नहीं है। फिर भी इस असम्भव कार्य को उनके द्वारा ही शौपा गया है यह समझकर ही परमेश्वर के गुणों का वर्णन कर रहा हूं।
किंतु ध्यान रहे परमेश्वर श्रीकृष्ण का इस अध्याय में जो परिचय बताया गया है वह भू-तल पर उनके लौकिक जीवन एवं उनकी लीलाओं से ही सम्बंधित है। उनके आध्यात्मिक एवं अलौकिक पहलुओं का वर्णन अध्याय- दो और तीन में किया जा चुका है।
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
{भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरण इत्यादि के बारे में अध्याय-(८) में विस्तार पूर्वक बताया गया है।}
भगवान श्री कृष्णा जब भू-तल पर अवतरित होते हैं तो उनकी सारी विशेषताएं वही रहती हैं जो गोलोक में होती हैं। उनकी सभी विशेषताओं का एक-एक करके यहां वर्णन किया गया है। जैसे -
(१) - श्रीकृष्ण के लिए अष्टमी का महत्व :---
भगवान श्रीकृष्ण के लिए भूतल पर अष्टमी का बहुत बड़ा महत्व है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण भाद्रमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन भूतल पर गोपकुल में अवतरित हुए हैं। तभी से वह शुभ मुहूर्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
और भगवान श्रीकृष्ण जब 6 वर्ष की उम्र के हो गए तब
कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को शुभ मानकर उन्हें पहली बार गावें चराने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इस शुभ मुहूर्त को गोपाष्टमी नाम से जाना जाता है।
वहीं दूसरी ओर राधा अष्टमी भगवान श्रीकृष्ण की परमप्रिय राधा रानी का जन्मोत्सव है। यह त्योहार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है।
इस सम्बन्ध में देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण का अष्टमी से गहरा संबंध है, भाद्रमास कृष्णपक्ष की अष्टमी को भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ तथा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के शुभ मुहूर्त में गोपालन कर्तव्य का सूत्रपात किया। इस बात की पुष्टि श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय- १५ के श्लोक- (१) से होती जिसमें लिखा गया है कि-
ततश्च पौगण्डवयः श्रितौ व्रजे बभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ।
गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैर् वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः ।।१।
अनुवाद- जब भगवान बलराम और भगवान कृष्ण पौगण्ड अवस्था में अर्थात् छठे वर्ष में प्रवेश किया, तब उन्हें गौवें चराने की स्वीकृति मिल गई। वे अपने सखा ग्वाल बालों के साथ गौवें चराते हुए वृंदावन में जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते।१।
(२) कुश्ती लड़ना -:गोपों ( यादवों ) में कुश्ती लड़ने का अनुवांशिक गुण पाया जाता है। इसी गुण विशेष के कारण भगवान श्रीकृष्ण भी बचपन से ही कुश्ती लड़ा करते थे। यह कार्य गौवें चराते समय अपने बाल गोपाल के साथ करते थे। इस बात की पुष्टी - श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय- १५ के श्लोक- (१६ )और (१७) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
क्वचित् पल्लवतल्पेषु नियुध्श्म श्रम ककिर्शितः।
वृक्षमूलाश् शेते गोपोत्संगोपबर्हणः।। १६।
पादसंवाहनं चक्रुः केचित्तस्य महात्मनः।
अपरे हतपाप्मानो व्यजनैः समवीजयन्।। १७।
अनुवाद - १६-१७
• कभी-कभी स्वयं श्री कृष्ण भी ग्वाल बालों के साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तब किसी सुंदर वृक्ष के नीचे कोमल पत्तों की सेज पर किसी ग्वाल बाल की गोद में सिर रखकर लेट जाते। १६।
• उस समय कोई कोई पुण्य के मूर्तिमान स्वरूप ग्वालबाल महात्मा श्री कृष्ण के चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अंगोछियों से पंखा झलने लगते।
(३) श्रीकृष्ण के उपनाम :-
(क)- गोपकृत - गोपेश्वर श्रीकृष्ण के (एक हजार नामों) में गोपकृत भी है। जिसका अर्थ होता है - गोपों को उत्पन्न करने वाला।
(ख)- वंशीधारी - भगवान श्री कृष्ण सदैव एक हाथ में वंशी और सिर पर मोर मुकुट धारण करते हैं। वंशी धारण करने की वजह से ही उनको को वंशीधारी कहा गया। उनकी वंशी का नाम- ‘भुवनमोहिनी’ है। यह ‘महानन्दा’ नाम से भी विख्यात है।
(ग)- मुरलीधारी — कोकिलाओं के हृदयाकर्षक कूजन (पक्षियों के कलरव ) को भी फीका करनेवाली इनकी मधुर मुरली का नाम ‘सरला’ है इसका बचपन में (धन्व:) नामक बाँसुरी विक्रेता से कृष्ण ने प्राप्त किया था। मुरली धारण करने की वजह से श्रीकृष्ण को मुरलीधारी (मुरलीधर) भी कहा गया।
(घ)- शारंगधारी— श्रीकृष्ण के धनुष का नाम 'शारंग' है।जिसे सींग से बनाया गया था। तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिञ्जिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं। सारंग धनुष के धारण करने से ही भगवान श्री कृष्ण को सारंगधारी भी कहा जाता है। युधिष्ठिर ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की प्रसंशा उस समय की थी जब कृष्ण ने जरासंध को हराने के लिए शारंग धनुष को उठाया था।
(ड)- चक्रधारी— भगवान श्री कृष्ण जब भूमि का भार उतारने के लिए रणभूमि में अपनी नारायणी सेना के साथ उतरते हैं, तब वे अपने एक हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करते हैं। उसके धारण करने की वजह से ही उनको चक्रधारी और सुदर्शनधारी कहा गया।
(च)- गोपवेषधारी — भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में हों या भू-लोक में, वह दोनों जगहों पर सदैव गोपों के साथ गोपभेष में ही रहते हैं। इस लिए उनको गोपभेषधारी अथवा गोप भी कहा जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के क्रमशः श्लोक संख्या- २१ से होती है जिसमें श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूपों के बारे में लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।।२१।
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।
(छ)- गिरिधारी और गोविन्द- श्रीकृष्ण का गिरधारी और गोविंद नाम भी है। यह दोनों नाम एक ही घटनाक्रम में उस समय पड़े जब गोपों ने इन्द्र पूजा का बहिष्कार कर गो और गोवर्धन पूजा को करना प्रारम्भ किया। जिसके प्रतिशोध में इन्द्र ने गोपों की सभी गौवों को मेघ वर्षा करके मारना चाहा किंतु श्रीकृष्ण ने गोवर्धन (गिरि= पर्वत) को धारण कर गायों की रक्षा की। उसी समय श्रीकृष्ण का गिरिधारी नाम पड़ा।
उसी समय वहां उपस्थित इन्द्र शरणागत होकर श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा -
अहं किलेन्द्रो देवानां त्वं गवामिन्द्रतां गतः।
गोविन्द इति लोकास्त्वां स्तोष्यन्ति भुवि शाश्वतम्।। ४५।
(हरिवंश पुराण- २/१९/४५)
अनुवाद- मैं देवताओं का इंद्र हूं और आप गौओं के इंद्र हो गए ! आज से इस भूतल पर सब लोग आप सनातन प्रभु को "गोविंद" कहकर आपका स्तवन करेंगे।४५।
तभी से श्रीकृष्ण का एक और नाम गोविंद हुआ।
(ज)- केशव- गोपेश्वर श्री कृष्ण का एक नाम केशव भी है। यह नाम मुख्यतः गोपों द्वारा तब दिया गया ज
ब गोपेश्वर श्री कृष्ण ने केशी नामक दैत्य का वध किया। उसी समय गोपों ने श्री कृष्ण की स्तुति करते समय सर्वप्रथम केशव नाम से सम्बोधित किया। तभी से श्री कृष्ण का एक नाम केशव भी हुआ।
यशमात्तयैष दुष्टात्मा हतः केशी जनार्दन।
तस्मात्केशवनाम्ना त्वं लोके ख्यातो भविष्यसि।।२३।
(विष्णु पुराण- ५/१७/२३)
अनुवाद- हे जनार्दन ! आपने इस दुष्टात्मा केशी को मारा है इसलिए आप लोकों में केशव नाम से विख्यात होंगे।२३।
(विशेष- केशव नाम गोपों द्वारा दिया गया है।
अध्याय- (१०)
गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।
भाग-(२) श्रीराधा का परिचय
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श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं, तो राधा पराशक्ति (परमेश्वरी) हैं। ये एक दूसरे से अलग नहीं है। इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखंड के अध्याय -१५ के श्लोक -५८ से -६० में होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा से कहते हैं कि -
त्वं मे प्राणाधिका राधे प्रेयसी च वरानने।
यथा त्वं च तथाऽहं च भेदो हि नाऽऽवयोर्ध्रुवम॥ ५८।।
यथा पृथिव्यां गन्धश्च तथाऽहं त्वयि सन्ततम्।
विना मृदा घटं कर्तुं विना स्वर्णेन कुण्डलम्।। ५९।।
कुलालः स्वर्णकारश्च नहि शक्तः कदाचन।
तथा त्वया विना सृष्टिमहं कर्तुं न च क्षमः।।६०।।
अनुवाद- तुम मुझे मेरे स्वयं के प्राणों से भी प्रिय हो, तुम में और मुझ में कोई भेद नहीं है। जैसे पृथ्वी में गंध होती है, उसी प्रकार तुममें मैं नित्य व्याप्त हूँ। जैसे बिना मिट्टी के घड़ा तैयार करने और विना सोने के कुण्डल बनाने में जैसे कुम्हार और सुनार सक्षम नहीं हो सकता उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टिरचना में समर्थ नहीं हो सकता। ५८-६०।
अतः श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण अधूरे हैं और श्री कृष्ण के बिना श्रीराधा अधूरी हैं। इन दोनों से बड़ा ना कोई देवता है ना ही कोई देवी। श्रीराधा की सर्वोच्चता का वर्णन श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय- (एक) के प्रमुख श्लोकों में वर्णन मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -
पञ्चप्राणाधिदेवी या पञ्चप्राणस्वरूपिणी।
प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरी परा।।४४।
सर्वयुक्ता च सौभाग्यमानिनी गौरवान्विता।
वामाङ्गार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसासमा॥४५।
परावरा सारभूता परमाद्या सनातनी।
परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता॥४६।
अनुवाद- जो पञ्चप्राणों की अधिष्ठात्री, पंच प्राणस्वरूपा, सभी शक्तियों में परम सुन्दरी, परमात्मा के लिए प्राणों से भी अधिक प्रियतम, सर्वगुणसंपन्न, सौभाग्यमानिनी, गौरवमयी, श्री कृष्ण की वामांगार्धस्वरुपा और गुण- तेज में परमात्मा के समान ही हैं। वह परावरा, परमा, आदिस्वरूपा, सनातनी, परमानन्दमयी धन्य, मान्य, और पूज्य हैं।४४-४६।
रासक्रीडाधिदेवी श्रीकृष्णस्य परमात्मनः।
रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता॥४७।
रासेश्वरी सुरसिका रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥४८।
परमाह्लादरूपा च सन्तोषहर्षरूपिणी।
निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी॥ ४९।
अनुवाद - वे परमात्मा श्री कृष्ण के रासक्रीडा की अधिष्ठात्री देवी है, रासमण्डल में उनका आविर्भाव हुआ है, वे रासमण्डल से सुशोभित है, वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली, परम आह्लाद स्वरूपा, संतोष तथा हर हर्षरूपा आत्मस्वरूपा, निर्गुण, निराकार और सर्वथा निर्लिप्त हैं। ४७-४९।
यदि उपरोक्त श्लोक संख्या-(४८) पर विचार किया जाय तो उसमें श्रीराधा और श्रीकृष्ण की समानता देखने को मिलती है। वह समानता यह है कि जिस तरह से श्रीकृष्ण सदैव गोपवेष में रहते हैं उसी तरह से श्रीराधा भी सदैव गोपी वेष में रहती हैं।
'रासेश्वरी सुरसिका रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।
अनुवाद -वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली हैं। ४८।
और ऐसी ही वर्णन श्रीकृष्ण के लिए ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के श्लोक- २१ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
'स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१।
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (अहीर)- वेष में रहते हैं।२१।
अतः दोनों ही परात्पर शक्तियां- गोप (अहीर) और गोपी (अहिराणी) भेष में रहते हैं।
श्रीराधा जी को भू-तल पर अहिर कन्या होने की पुष्टि -
श्रीराधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।८३।
अनुवाद- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।८३।
अब हमलोग श्रीराधा के कुल एवं पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में जानेंगे-
• पिता- वृषभानु, माता- कीर्तिदा
• पितामह- महिभानु गोप (आभीर)
• पितामही — सुखदा गोपी (अन्यत्र ‘सुषमा’ नाम का भी उल्लेख मिलता है।
• पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु एवं सुभानु।
• भ्राता — श्रीदामा, कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी।
• फूफा — काश, बुआ — भानुमुद्रा,
• मातामह — इन्दु, मातामही — मुखरा।
• मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
• मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी।
• मौसा — कुश, मौसी — कीर्तिमती।
• धात्री — धातकी।
• राधा जी की छाया (प्रतिरूपा) वृन्दा।
• सखियाँ — श्रीराधाजी की आठ प्रकार की सखियाँ हैं।
इन सभी की विशेषताएं को नीचे ( ABCD ) क्रम में बताया गया हैं -
(A)- सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं।
(B)- नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं।
(C)- प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
इस वर्ग की सभी सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं।
(D)- प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि-कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं।
(E)- परमप्रेष्ठसखी वर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं —
(१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५) चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।
(F)- सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि।
(G)- प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य
(H)- संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक, कण्ठिका, विशाखा और नाम्नी इत्यादि सखियाँ था जो वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं। जिसमें विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर- प्रिया-प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्ययन्त्रों को बजाती हैं।
(I)- मानलीला में सन्धि कराने वाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी।
वाटिका — कन्दर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।
राग — मल्हार (वलहार) और धनाश्री' श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय-रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।
• श्रीराधा जी का विवाह -
श्रीराधा का विवाह श्रीकृष्ण से भू-तल पर ब्रह्मा जी के मन्त्रोंचारण से भाण्डीर वन में सम्पन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।
'राधे स्मरसि गोलोकवृत्तान्तं सुरसंसदि।
अद्य पूर्णं करिष्यामि स्वीकृतं यत्पुरा प्रिये।५७।
अनुवाद -हे प्राणप्यारी राधे ! तुम गोलोक का वृत्तान्त याद करों। जो वहाँ पर देवसभा में घटित हुआ था, मैनें तुम को वचन दिया था, और आज वह वचन पूरा करने का समय अब आ पहुँचा है। ५७।
ये कथोपकथन (संवाद) अभी हो ही रहा था कि वहाँ पर मुस्कराते हुए ब्रह्माजी सभी देवताओं के संग आ गये।
तब ब्रह्मा ने श्रीकृष्ण को प्रणाम कर कहा--
'कमण्डलुजलेनैव शीघ्रं प्रक्षालितं मुदा।
यथागमं प्रतुष्टाव पुटाञ्जलियुतः पुनः।९६।।
अनुवाद - उन्होंने श्रीकृष्णजी को प्रणाम किया और राधिका जी के चरणद्वय को अपने कमण्डल से जल लेकर धोया और फिर जल अपनी जटायों पर लगाया।९५।
इसके बाद ब्रह्मा जी विवाह कार्य सम्पन्न कराने हेतु-तत्पर हुए-
'पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।
हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।
ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।
कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।
प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।
वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।
श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।
पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।
तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।
पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः। 4.15.१३०।
अनुवाद - १२-१३०।
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मन्त्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।
अतः उपरोक्त साक्ष्यों से स्पष्ट हुआ कि भू-तल पर श्रीराधा जी का विवाह श्रीकृष्ण से ही हुआ था अन्य किसी से नहीं।
इस प्रकार से अध्याय- (१०) का भाग- (दो) श्रीराधा जी की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसी क्रम में इस अध्याय के भाग -(तीन) में आपलोग जानेंगे कि भू-तल पर गोपकुल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष और सम्राट पुरूरवा कौन था ? तथा उनकी पत्नी गोपी- उर्वशी कौन थी ?
अध्याय- (१०)
गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।
[क] - पुरूरवा
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भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक गोप पुरुष व सम्राट पुरूरवा था। उनकी पत्नी का नाम उर्वशी था। ये दोनों ही वैष्णव वर्ण की अभीर जाति से संबंधित थे। जिनका साम्राज्य भूलोक से स्वर्गलोक तक स्थापित था। इन दोनों को वैष्णव वर्ण के अहीर (गोप) जाति से सम्बन्धित होने की पुष्टि- सर्वप्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल के (९५) वें सूक्त की ऋचा- (३) से होती है, जो पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ हैं। नीचे संदर्भ देखें-
"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३।।
(ऋग्वेद-10/95/3)
अर्थानुवाद: हे गोपिके ! तेरे सहयोग के बिना- तुणीर से फेंका जाने वाला बाण भी विजयश्री में समर्थ नहीं होता। (गोषाः शतसा) मैं सैकड़ो गायों का सेवक तुझ भार्या उर्वशी के सहयोग के बिना वेगवान भी नहीं हूं। (अवीरे) हे आभीरे ! विस्तृत कर्म में या संग्राम में भी अब मेरा वेग (बल) प्रकाशित नहीं होता है। और शत्रुओं को कम्पित करने वाले मेरे सैनिक भी अब मेरे आदेश (वचन अथवा हुंक्कार) को नहीं मानते हैं।३।
ऋग्वेद की उपर्युक्त ऋचा का हम नीचे संस्कृत भाष्य हिन्दी अनुवाद सहित प्रस्तुत कर रहे हैं।
भाष्य- हिन्दी अनुवाद सहित-
"अनया उर्वश्या प्रति पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं ब्रूते।
हिन्दी अर्थ- उस उर्वशी के प्रति पुरूरवा अपनी विरह जनित व्याकुलता को कहता है।
“इषुधेः= इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। = (इषुधि पद का पञ्चमी एक वचन का रूप इषुधे:= तीरकोश से )
इषु: - (वाण ) धारण करने वाला निषंग या तीरकोश= इषुधि )
ततः सकाशात् “इषुः= ( उसके पास से वाण) “असना असनायै= प्रक्षेप्तुं न भवति=( फेंकने के लिए नहीं होता)। “श्रिये = विजयार्थम्। ( विजयश्री के लिए) त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात्। (तेरे विरह से युद्ध का बोध करके भी विना निधान (सहारे) के द्वारा तथा “रंहिः= वेगवानहं= (मैं वेगवान्/ बलवान्) नहीं होता। “गोषाः = गोसेवका:( गवां संभक्ता:) =(गायों का भक्त- सेवक) "न अभवम् - भू धातु रूप - कर्तरि प्रयोग लङ् लकार परस्मैपद उत्तम पुरुष एकवचन- (मैं न हुआ)। तथा “शतसाः शतानामपरिमितानां गवां संभक्ता नाभवम् । अर्थात्- (मैं सैकड़ों गायों का सेवक सामर्थ्यवान्- न हो सका)। किञ्च= और तो क्या“ अवीरे = हे अभीरे ! हे गोपिके ! वा हे आभीरे “क्रतौ = यज्ञे कर्मणि वा सति “न “वि “द्विद्युतत्= न विद्योतते मत्सामर्थ्यम्। (यज्ञ या कर्म में भी मेरी सामर्थ्य अब प्रकाशित नहीं होती।) किञ्च संग्रामे धुनयः = कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः =(और तो क्या युद्ध में शत्रुओं को कम्पायमान करने वाले मेरे सैनिक भी ) ।
मायुम् = मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः। 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण्। सिंहनादं =(मेरी (मायु) हुंक्कार“ न “चितयन्त न बुध्यन्ते वा=(नहीं समझते हैं) ‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्॥
अब हम लोग ऋग्वेद की इस ऋचा में आये दो शब्दों-
*****
"गोषा:" और "अवीरे" की व्याकरणीय व्याख्या करके यह जानेंगे कि इन दोनों शब्दों का वैदिक और लौकिक संस्कृत में क्या अर्थ होता है ? जिसमें पहले "गोषा:" शब्द की व्याकरणीय व्याख्या करेंगे उसके बाद "अवीरे" की।
• गोषः शब्द की व्याकरणिक उत्पत्ति-
गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् ) धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) = भक्ति करना ,दान करना, पूजा करना + विट् ङा। सनोतेरनः” पाणिनीय षत्वम् सूत्र ।
अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर (गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है। गो सेवक अथवा पालक।
गोष: का वैदिक रूप गोषा: है।
उपर्युक्त ऋचाओं में गोषन् तथा गोषा: शब्द गोसेवक के वाचक हैं। वैदिक संस्कृत का यही गोषः शब्द लौकिक संस्कृत में घोष हुआ जो कालान्तर में गोप, गोपाल, अहीर, और यादव का पर्यायवाची शब्द बन गया। क्योंकि ये सभी गोपालक थे।
और जग-जाहिर है कि सभी पुराण लौकिक संस्कृत में लिखे गए हैं। इस हेतु पुराणों में भी देखा जाए तो वैदिक शब्द "गोषः" लौकिक संस्कृत में "घोष" गोपालक अथवा अहीर जाति के लिए आज तक भी प्रयुक्त होता है अन्य किसी जाति के लिए नहीं।
पुरूरवा के गोप अथवा गोपालक होने की पुष्टि
-श्रीमद्भागवत महापुराण के नवम-स्कन्ध के प्रथम अध्याय के श्लोक संख्या-(४२) से भी होती है जिसमें पुरूरवा के गोप (गोपालक) होने की बात कही गई है -
"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२।
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र पुरूरवा को गो-समुदाय देकर वन को चला गया।४२।
उपर्युक्त श्लोक में गाम्- संज्ञा पद गो शब्द का ही द्वितीया कर्म कारक रूप है।
यहाँ गो पद - गायों के समुदाय का वाचक है।
अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष) शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ वैदिक और लौकिक संस्कृत में - गायों का दान करने वाला तथा गोसेवा करने वाले गोप से ही होता है।
अत: उपरोक्त सन्दर्भों से स्पष्ट होता है कि भू-तल का प्रथम सम्राट पुरूरवा गो-पालक (गोप,आभीर) ही था। जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य स्थापित था।
[ख] - उर्वशी
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उर्वशी पूर्व काल की एक धन्या और मान्या अहीर कन्या थी। जो कभी अपने तपोबल से स्वर्ग की अप्सराओं की अधिश्वरी हुई। इस ऐतिहासिक अहीर कन्या के धन्या एवं मान्या होने की पुष्टि उस समय होती है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण प्रमुख विभूतियों की तुलना करते हुए ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (७३) में कहते हैं-
वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् ।
उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः ।७०।
अनुवाद:- मैं सभी शास्त्रों में वेद हूँ समुद्र के प्राणीयों में वरुण हूं। अप्सराओं में उर्वशी हूँ। और समुद्रों में जलार्णव हूँ।७०।
वास्तव में उर्वशी एक अहीर कन्या थी इस बात की पुष्टि- ऋग्वेद की ऋचा- 10/95/3 से होती है जिसमें उसके पति पुरुरवा द्वारा उसके लिए अवीरे शब्द से सम्बोधन हुआ है।
"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३।।
इस ऋचा में आये सम्बोधन पद- 'अवीरे' की व्याकरणीय व्याख्या करके जानेंगे कि "अवीरे" शब्द का वैदिक और लौकिक संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा, पालि आदि भाषाओं में क्या रूप और अर्थ होता है ?
वास्तव में देखा जाए तो उपरोक्त ऋचा में उर्वशी का सम्बोधन अवीरे ! है, जो लौकिक संस्कृत के अभीरे शब्द का ही वैदिक पूर्व रूप है। लौकिक संस्कृत में अभीर तथा आभीर दो रूप परस्पर एक वचन और बहुवचन ( समूह-वाची ) हैं।
वैदिक भाषा का एक नियम है कि उसमें उपसर्ग कभी भी क्रियापद और संज्ञापद के साथ नहीं आते हैं। इसलिए ऋग्वेद में आया हुआ अवीरे सम्बोधन-पद मूल तद्धित विशेषण शब्द है-
(अवीर=(अवि+ईर्+अच्)= अवीर: का स्त्रीलिंग रूप अवीरा है, जो सम्बोधन काल में अवीरे ! हो जाता है।)
अत: अवीरा शब्द ही लौकिक संस्कृत में अभीरा हो गया और यही अभीर तथा समूह वाची रूप आभीर प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में अहीर तथा आहीर हो गया। यह सब कैसे हुआ ? यह नीचे सन्दर्भ देखें-
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वैदिक अवीर शब्द की व्युत्पत्ति ( अवि = गाय, भेड़ आदि पशु + ईर:= चराने वाला। हाँ करने वाला , निर्देशन करने वाला,। अर्थात् गाय आदि पशुओं का पालन करने वाले के रूप में भी अभीर शब्द की व्युत्पत्ति हुई है।
वैदिक भाषा नें लौकिक संस्कृत भाषा की व्याकरणिक प्रक्रिया अमान्य ही है।
जह्रुस्तावुरणौ देवा रममाणं विलोक्य तम्।
चक्रन्दतुस्तदा तौ तु ह्रियमाणौ विहायसा॥१८।।
उर्वशी तदुपाकर्ण्य क्रन्दितं सुतयोरिव।
कुपितोवाच राजानं समयोऽयं कृतो मया॥ १९।।
नष्टाहं तव विश्वासाद्धृतौ चोरैर्ममोरणौ।
राजन्पुत्रसमावेतौ त्वं किं शेषे स्त्रिया समः॥२०।।
अनुवाद- १७-२०
• तब इन्द्र के ऐसा कहने पर विश्वावसु आदि प्रधान गन्धर्वों ने वहां से जाकर रात्रि के घोर अंधकार में राजा पुरुरवा को बिहार करते देख उन दोनों भेंड़ों को चुरा लिया तब आकाश मार्ग से जाते हुए चुराए गए वे दोनों भेंड़ जोर से चिल्लाने लगे। १७-१८।
• अपने पुत्र के समान पाले हुए भेड़ों का क्रंदन( आवाज) सुनते ही उर्वशी ने क्रोधित होकर राजा पुरूरवा से कहा- हे राजन ! मैंने आपके सम्मुख जो पहली शर्त रखी थी, वह टूट गई आपके विश्वास पर मैं धोखे में पड़ी, क्योंकि पुत्र के समान मेरे प्रिय भेंड़ों को चोरों ने चुरा लिया फिर भी आप घर में स्त्री की तरह शयन कर रहे हैं।१९-२०।
अतः इन उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि पुरूरवा और उर्वशी दोनों पशुपालक अहीर जाति से सम्बन्धित थे।
उर्वशी को अहिर कन्या होने की पुष्टि- मत्स्यपुराण- के (६९) वें अध्याय के श्लोक- ६१-६२ से भी होती है।
"इसलिए इस अध्याय को प्रमुख रूप से तीन भागों में बांटकर विस्तृत जानकारी दी गई है -
भाग- (१) महाराज यदु का परिचय
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महाराज यदु , यादवों के आदि पुरुष या कहें, पूर्वज थे। इस बात को श्रीकृष्ण भी स्वीकार करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण के (११) वें स्कन्ध के अध्याय - (७) के श्लोक- (३१) में कहते हैं कि -
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।। ३१।
अनुवाद- हमारे "पूर्वज महाराज यदु" की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्रह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी।३१।
अब ऐसे में जब महाराज "यदु" यादवों के पूर्वज है, तब यदु के बारे में और विस्तार से जानना आवश्यक हो जाता है कि यदु कौन हैं, तथा "यदु" नाम की सार्थकता क्या है ? तथा यदु शब्द की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? इत्यादि इन सभी बातों का समाधान इस अध्याय में किया गया है।
यदु शब्द की ब्युत्पत्ति के बारे में देखा जाए तो यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। सम्भवतः इसी कारण से लौकिक संस्कृत में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है।
इसी लिए संस्कृत भाषा के कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं। जिससे यदु शब्द की व्युत्पत्ति पुल्लिंग रूप में होती है।
जैसे-
संस्कृत भाषा में 'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल + उणादि प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर- 'पृषोदर प्रकरण' के नियम से "जस्य दत्वं" अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द बनता है।
[ ज्ञात हो- पाणिनीय व्याकरण में "पृषोदरादीनि एक पारिभाषिक शब्द है। पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्'
(६.३.१०८) इस पाणिनीय सूत्र से यज्- धातु के अन्तिम वर्ण "जकार को दकार" आदेश हो जाने से ही यदु शब्द बनता है। ]
ये तो रही यदु शब्द की व्युत्पत्ति अब हमलोग जानेंगे यदु शब्द के अर्थ को -
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि यदु शब्द की व्युत्पत्ति "यज्" धातु से हुई है, जिसमें यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं।
[यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु ]
इसको साधारण भाषा में इस तरह से समझा जा
सकता है ।
विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में उपरोक्त तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक रूप से समावेश था। जैसे- महाराज यदु -
(१)-हिंसा से रहित नित्य वैष्णव यज्ञ किया करते थे।
(२)- वे सबका यथोचित न्याय किया करते थे।
(३)- और वे दान के क्षेत्र में निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा (बुद्धि ) भी प्रखर हो गयी थी।
तभी तो भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत पुराण के (११)वें स्कन्ध के अध्याय (७) के श्लोक- (३१) में उद्धव जी से कहते हैं कि
'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।३१।
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव ! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी।
"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे"।(ऋ० १०/६२/१०)
अनुवाद:- और वे दोनों यदु और तुर्वसु दास -( दाता) कल्याण कारी दृष्टि वाले, स्नान आदि क्रियाओं से युक्त होकर नित्य गायों का पालन पोषण और दान भी करते हैं। हम उनकी स्तुति करते हैं। (ऋ०१०/६२/१०)
ऋग्वेद की उपरोक्त ऋचा का सम्यग्भाष्य- करने पर यदु के सम्पूर्ण चरित्रों का बोध होता है। सम्यग्भाष्य के लिए नीचे देखें -
१- उत = अत्यर्थेच अपि च= और भी
२- स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ= वे दोनों कल्याण कारी दृष्टि वाले।
३- गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ = गायों से घिरे हुए अथवा गायें जिनके चारो ओर हैं।
४- दासा = दासतः दानकुरुत: = दान करने वाले वे दोनों (यदु और तुर्वसु)।
(ज्ञात हो- "दासा" द्विवचन शब्द है जो यदु
और तुर्वसु के लिए प्रयुक्त है।अध्याय- (११)
यादववंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपति।
भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
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जैसा की इसके पिछले अध्याय में बताया जा चुका है कि
यदु के चार प्रमुख पुत्र - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु नाम से थे। जिसमें सहस्रजित यदु के पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ थे। उसके आगे- सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे - महाहय, वेणुहय और हैहय। जिसमें यदु के प्रपौत्र हैहय से धनक हुए और धनक के कुल चार पुत्र- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा, और कृतौजा हुए। कृतवीर्य के पुत्र - सहस्त्रबाहु अर्जुन हुए। सहस्त्रबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय की दसवीं पीढ़ी में माता पद्मिनी के गर्भ से हुआ था। राजा कृतवीर्य की संतान होने के कारण इन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान दत्तात्रेय से हजार बाहुबल के वरदान के उपरान्त उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन कहा गया।
महाराज कार्तवीर्य अर्जुन का जन्म कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। इसी तिथि को उनकी जयन्ती मनाई जाती है। इसके साथ ही कार्तवीर्य अर्जन सुदर्शन चक्र के अवतार भी हैं। इसके बारे में आगे बताया गया है।
सहस्त्रबाहु अर्जुन अपने समय के सबसे बलशाली, धर्मवत्सल, कुशल कृषक, प्रजापालक और गोपालक चक्रवर्ती अहीर सम्राट थे। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय-(४३) के- (१८ से २८) तक के श्लोकों से होती है। जिसमें कार्तवीर्यार्जुन के महत्व को एक नारद नामक गंधर्व नें उनके यज्ञ में कुछ इस प्रकार गुणगान किया था -
'तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।
समोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता।।१८।।
जज्ञे बाहुसहस्रं वै इच्छत स्तस्य धीमतः।
रथो ध्वजश्च सञ्जज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः।।१९ ।।
दशयज्ञसहस्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा।
निरर्गला निवृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः।।२०।
सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः।
सर्वेकाञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः।।२१।।
सर्वे देवैः समं प्राप्तै र्विमानस्थैरलङ्कृताः।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः।२।
तस्य यो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा।
कार्तवीर्य्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य सः।२३।
न नूनं कार्तवीर्य्यस्य गतिं यास्यन्ति क्षत्रियाः।
यज्ञैर्दानै स्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च।।२४ ।।
स हि सप्तसु द्वीपेषु, खड्गी चक्री शरासनी।
रथीद्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान्।२५।।
पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः।
स सर्वरत्नसम्पूर्ण श्चक्रवर्त्ती बभूव ह।२६ ।।
स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि।
स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्ज्जुनोऽभवत्।२७।
योऽसौ बाहु सहस्रेण ज्याघात कठिनत्वचा।
भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनैव भास्करः।२८ ।।
अनुवाद- १८-२८
भावी क्षत्रिय नरेश निश्चय ही यज्ञ, दान, तप, पराक्रम और शास्त्रज्ञान के द्वारा कार्तवीर्यार्जुन की समकक्षता को नहीं प्राप्त होंगे। योगी कार्तवीर्यार्जुन रथ पर आरूढ़ हो हाथ में खङ्ग,( तलवार) चक्र और धनुष धारण करके सातों दीपों में भ्रमण करता हुआ चोरों ओर से- डाकुओं पर कड़ी दृष्टि रखता था। राजा कार्तवीर्यार्जुन पच्चासी हजार वर्षों तक भू-तल पर शासन करके समस्त रत्नों से परिपूर्ण हो चक्रवर्ती सम्राट बना रहा। राजा कार्तवीर्यार्जुन ही अपने योग बल से पशुपालक (गोप) था। वहीं खेतों का भी रक्षक था और वही समयानुसार मेघ बनकर वृष्टि भी करता था। प्रत्यञ्चा के आघात से कठोर हुई त्वचाओं वाली अपनी सहस्रों भुजाओं से वह उसी प्रकार शोभा पाता था, जिस प्रकार सहस्रों किरणों से युक्त शारदीय सूर्य शोभित होते हैं।१८-२८।
ज्ञात हो- अयोध्यापति श्रीराम, लंकापति रावण और महिष्मतिपुरी (आधुनिक नाम मध्यप्रदेश का महेश्वर जो नर्मदा नदी के किनारे स्थित है।) के चक्रवर्ती अहीर सम्राट कार्तवीर्यार्जुन लगभग एक ही समय के राजा थे।
• नारद ! उस आकाशवाणी को सुनकर शंकर एक ब्राह्मण का रूप धारण करके गए और राजा से याचना करके उसका कवच मांग लाये। फिर शंभू ने श्री कृष्ण का वह कवच परशुराम को दे दिया।
• तत्पश्चात परशुराम ने श्री हरि का स्मरण करते हुए ब्रह्मास्त्र द्वारा राजा की सेना का सफाया कर दिया और फिर लीलापूर्वक पशुपतास्त्र का प्रयोग करके राजा कार्तवीर्यार्जुन की जीवन लीला समाप्त कर दी।
(युद्ध विश्लेषण व समीक्षा)
यदि उपर्युक्त श्लोक संख्या- (२५ से २८) पर विचार किया जाए तो रणभूमि में कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा परमेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं अपने सैकड़ो गोपों एवं पार्षदों के साथ कर रहे होते हैं। तो उस स्थिति में ब्रह्माण्ड का न दैत्य, न देवता, न किन्नर, न गंधर्व, और ना ही कोई मनुष्य कार्तवीर्यार्जुन का बाल बांका कर सकता था। परशुराम की बात करना तो बहुत दूर है।
• दूसरी बात यह कि- श्लोक संख्या - (१८ से २०) में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि- युद्ध में कार्तवीर्यार्जुन के भयंकर शूल के आघात से परशुराम मारे जाते हैं। किंतु शिव जी द्वारा उन्हें पुनः जीवित कर दिया जाता है।
यहां सोचने वाली बात है कि क्या कोई मरने के बाद पुनः जीवित होता है ? इसका जवाब होगा नहीं। तो फिर परशुराम कैसे जीवित हो गये ? यह बात भी हजम नहीं होती।
• तीसरी बात यह कि- श्लोक संख्या (२८ से २९) में लिखा गया है कि- परमात्मा श्री कृष्ण का कवच जो कार्तवीर्यार्जुन की दाहिनी भुजा पर बंधा हुआ था उसी से कार्तवीर्यार्जुन की रणभूमि में रक्षा हो रही होती है, और उसे शिव जी ब्राह्मण वेश में आकर भिक्षा के रूप में मांगते हैं और राजा कार्तवीर्यार्जुन उस कवच को सहर्ष दे देते हैं।
यहां पर विचारणीय बात यह है कि- क्या राजा को उस समय इतना ज्ञान नहीं था कि युद्धभूमि में अचानक एक ब्रह्मण भिखारी भिक्षा में धन दौलत न मांगकर रक्षा कवच क्यों मांग रहा है ? और सोचने वाली बात यह है की जिस कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा स्वयं भगवान श्री कृष्ण कर रहे हों उस समय कोई भिखारी उसके प्राणों के समान कवच मांगे और अन्तर्यामी भगवान मूकदर्शक बने रहें। यह सम्भव नहीं लगता ? और ना ही यह बात किसी भी तरह से हजम हो सकती है।
अतः इन तमाम तर्कों के आधार पर सिद्ध होता है कि निश्चय ही कार्तवीर्यार्जुन नें परशुराम का वध कर दिया था। किंतु यह बात ब्राह्मण कथाकारों को गले से नीचे नहीं उतरी। परिणाम यह हुआ कि कथाकारों नें एक नई कहानी जोड़कर इसके उलट कार्तवीर्यार्जुन का वध परशुराम से करा दिया।
• चौथी बात यह कि- अगर कार्तवीर्यार्जुन का वध हुआ होता तो शास्त्रों में उनकी पूजा का विधान कभी नहीं होता। *****
तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी ।।
बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नन्दश्च वल्लभः।२६।।
अब इसके अगले अध्याय-(१२) के भाग- (१)- में यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन तथा भाग- (२) में श्रीकृष्ण का गोलोक गमन इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया है।
इस कार्य हेतु कारक कभी देवताओ को बनाया गया तो कभी ऋषियों को, तो कभी तपस्या विहीन पुत्रमोह से पीड़ित गान्धारी जैसी स्त्री को भी ।
किंतु परमेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) इस तरह के खेल में कभी शामिल नहीं हुए। इस सम्बन्ध में देखा जाए तो श्री कृष्ण की सबसे बड़ी विशेषता रही कि- उन्होंने आशीर्वाद के अतिरिक्त कभी किसी को शाप नहीं दिया।
इसीलिए उन्हें पालनहार कहा गया, यह ब्रह्म सत्य है। किंतु यह विडम्बना ही है कि कथाकारों ने जिनकी शक्ति से शाप और आशीर्वाद जैसे प्रभावी कारकोंं का सर्जन किया और उन्हीं श्रीकृष्ण को शाप के मकड़जाल में फँसा कर एक बहेलिया से भी मरवा दिया। जबकि इस संबंध में ज्ञात हो कि भगवान श्रीकृष्ण को कोई बहेलिया अथवा सृष्टि का प्राणी नहीं मार सकता था।
भगवान श्री कृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के पश्चात अपने गोप- गोपियों के साथ स्वेच्छा से बड़े ही ऐश्वर्य रुप से अपने गोलोक धाम को गये थे। क्योंकि वे कर्म बन्धन से रहित सभी भौतिक अभौतिक इच्छाओं से परे थे।
इस बात को विस्तार पूर्वक वर्णन इसी अध्याय के दूसरे भाग में किया गया है।
ये शाप और आशीर्वाद का खेल किस परिस्थिति में प्रभावी और निष्प्रभावी होता है इसको अच्छी तरह से जानना होगा तभी इसकी सच्चाई पकड़ में आ सकती है अन्यथा नहीं।
कोई भी शाप कब प्रभावी और कब निष्प्रभावी होता है इसको इस तरह से समझा जा सकता है जैसे-
• किसी का शाप तभी प्रभावी होता है जब उसपर परमेश्वर की कृपा हो तथा वह उस योग्य हो, और सदैव सत्य के मार्ग पर चलने वाला हो, जिसमें तनिक भी पापबुद्धि एवं व्यक्तिगत हित न हो। ऐसे व्यक्ति को यदि कोई जानबूझकर क्षति पहुंचाया हो या पहुंचाने का प्रयास कर रहा हो।
महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व के अध्याय- (५३) के कुछ प्रमुख श्लोकों में इसका उदाहरण मिलता है।
इस शाप के बारे में संत शिरोमणि कबीर दास जी का भी कुछ ऐसा ही कहना हैं कि-
"दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
मुई खाल की स्वाँस सो, सार भसम है जाय।।
भावार्थ-
संत कबीर जी यह संदेश दे रहे है कि हमे कभी भी किसी कमजोर या दुर्बल इंसान को सताना नहीं चाहिए। यदि हम किसी दुर्बल को परेशान करेंगे तो वह दु:खी होकर हमें शाप दे सकता है तथा दुर्बल की हाय बहुत प्रभावशाली होती है जैसे मरे हुए किसी जानवर की चमड़ी से बनाई गई भांथी (धौंकनी) की स्वांस लेने और छोड़ने से लोहा तक भस्म हो जाता है।
किन्तु शाप और वरदान के मकड़जाल से कथाकार ग्रंथों में कहानियों की दिशा और दशा तय करते हैं,। जिसमें वे कभी घोड़ी से बकरा और बकरी से घोड़ा पैदा करवाते हैं। तो कभी बालकों के पेट से मूसल पैदा करवा कर यादवों के विनाश और श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने की कहानी रचते हैं। जो हास्यास्पद और वास्तविकता से कोसों दूर है।
क्योंकि संसार की प्रत्येक घटना प्राकृतिक विधानों के ही अनुरूप घटित होती है।
किसी के वरदान अथवा शाप के प्रभाव से अग्नि शीतल नहीं हो सकती है। ताप अथवा ऊष्मा तो उसका मौलिक गुण है। वह तो जलाऐगी ही।
चुंकि ये गोप भगवान श्रीकृष्ण के पार्षद होते हैं इसलिए ये दैवीय और मानवीय शाप, ताप से मुक्त होते हैं। इसके साथ ही ये गोप संपूर्ण ब्रह्मांड में अजेय एवं अपराजित हैं।
१- न एव अन्तः परिभवः अस्य= नहीं किसी अन्य के द्वारा इस यदुवंश का परिभव ( पराजय/ विनाश)
२- भवेत् = हो सकता है ।
३- कथञ्चिद् = किसी प्रकार भी।
४- मत्संश्रयस्य विभव = मेरे आश्रम में इसका वैभव है।
५- उन्नहनस्य नित्यम् = यह सदैव बन्धनों से रहित है।
६- अन्तः कलिं यदुकुलस्य = आपस में ही लड़ने पर यदुवंश का नाश (शमन) होगा।
७- विधाय वेणु स्तम्बस्य वह्निमिव = जैसे बाँसों का समूह आपस में टकराकर घर्षण द्वारा उत्पन्न आग से शान्त हो जाता है।
८-उपैमि धाम= फिर मैं भी अपने गोलोकधाम को जाऊँगा।
॥४॥
अनुवाद:-
इसका (यदुवंश का) किसी के द्वारा किसी प्रकार भी नाश नहीं हो सकता है। (यह स्वयं कृष्ण उद्धव से कहते हैं।) फिर इसके विनाश में ऋषि -मुनि अथवा देवों की क्या शक्ति है ?
कृष्ण कहते हैं- यह यदुवंश मेरे आश्रित है एवं सभी बन्धनों से रहित है। अतः जैसे बाँसों का समूह आपस में टकराकर घर्षण द्वारा उत्पन्न आग से शान्त हो जाता है। उसी प्रकार इस यदुवंश में भी परस्पर कलह से ही इसका शमन (नाश) होगा। शान्ति स्थापित करने के उपरान्त मैं अपने गोलोक-धाम को जाऊंगा ॥४॥
विशेष:- वर्तमान में जो गोप (अहीर) हैं वे सब गोलोकवासी गोपों के ही वंशज हैं।
"पार्वत्युवाच
एकाऽहं राधिकारूपा गोलोके रासमण्डले।
रासशून्यं च गोलोकं परिपूर्ण कुरु प्रभो।८६ ।
गच्छ त्वं रथमारुह्य मुक्तामाणिक्यभूषितम् ।
परिबूर्णतमाऽहं च तव वङः स्थलस्थिता।८७।।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा प्रहस्य रसिकेश्वरः ।
रत्नयानं समारुह्य ययौ गोलोकमुत्तमम्।।९८।।
अनुवाद - ८६, ८७ और ९८
• वहां उपस्थित पार्वती ने कहा- प्रभो ! गोलोकस्थित रासमण्डल में मैं ही अपने एक राधिका रूप से रहती हूँ। इस समय गोलोक रासशून्य हो गया है, अतः आप मुक्ता और माणिक्य से विभूषित रथ पर आरूढ हो वहाँ जाइए और उसे परिपूर्ण कीजिए।८६-८७।
• नारद ! पार्वती के वचन सुनकर रसिकेश्वर रासधारी श्रीकृष्ण हंसे और रत्न-निर्मित विमान पर सवार हो उत्तम गोलोक को चले गए।९८।
▪️इसके अलावा भगवान श्रीकृष्ण को गोलोक जाने का वर्णन गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड के अध्याय- (६०) में भी मिलता है। जिसको जाने बिना श्रीकृष्ण के गोलक गमन का प्रसंग अधूरा ही रह जाएगा। इसलिए उसको भी जानना आवश्यक है।
बलः शरीरं मानुष्यं त्यक्त्वा धाम जगाम ह ।
देवाँस्तत्रागतान्दृष्ट्वा हरिरंतरधीयत ॥१३ ॥
व्रजे गत्वा हरिर्नंदं यशोदां राधिकां तथा ।
गोपान्गोपीर्मिलित्वाऽऽह प्रेम्णा प्रेमी प्रियान्स्वकान् ॥१४।
अनुवाद - बलराम जी मानव शरीर को छोड़कर अपने धाम को चले गए। वहाँ देवताओं को आया देख श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गए। ब्रज में जाकर श्रीहरि नन्द, यशोदा, राधिका तथा गोपियों सहित गोपों से मिले और उन प्रेमी भगवान ने अपने प्रिय जनों से प्रेम पूर्वक इस प्रकार कहा।१३-१४
किंतु भगवान श्रीकृष्ण के अगले कथन को बताने से पहले यहाँ कुछ बताना चाहेंगे कि- देवताओं के आने पर गोपेश्वर श्रीकृष्ण क्यों अन्तर्धान हो गए ?
तो उस समय गोपेश्वर श्रीकृष्ण तीन कारणों से देवताओं के आने पर अंतर्धान हो गए।
(३)- तीसरी कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण सहित गोपों की यह आवागमन की धटना गुप्त एवं रहस्य पूर्ण है। इसे केवल गोप और गोपियाँ ही जानते हैं। और इस घटना को गोपेश्वर श्री कृष्ण सदैव गुप्त ही रखना चाहते हैं। इसीलिए गोपेश्वर श्री कृष्ण देवताओं के आने पर वहां से अन्तर्धान हो गए।
श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर शिव, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं।
• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।
इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय - (३०) के श्लोक - (९ )से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -
गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो। ९।
• इसलिए आप सब केवल अर्जुन के आगमन की प्रतिक्षा और करें तथा अर्जुन के यहाँ से लौटते ही फिर कोई भी व्यक्ति द्वारिका में न रहे, जहाँ वे कुन्ति नन्दन जाए वही सब लोग चले जायं। ६०-६१।
कुंती पुत्र अर्जुन से तुम मेरी ओर से कहना कि- अपने सामर्थ्य अनुसार तुम मेरे परिवार के लोगों की रक्षा करना।६२।
•और तुम द्वारिका वासी सभी लोगों को लेकर अर्जुन के साथ चले जाना। हमारे पीछे वज्रनाभ ही यदुवंश का राजा-होगा।६३।
ये तो रही बात मौसल युद्ध में कुछ खास बचे हुए यादवों की जिसमें भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ भी हैं। इसके अलावा भगवान श्रीकृष्ण वृंदावन में समस्त गोप और गोपियों की मृत शरीर को पुनः जीवित कर देते हैं वे सभी गोप़ यादव ही थे।
"अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।
योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः।।३।।
गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः।
तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।।४।।
अनुवाद:-
उन्हें जीवित करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-
हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव ।
रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।।६ ।
तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।
अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।।७।।
( ब्रह्मवैवर्तपुराण/ श्रीकृष्णजन्मखण्ड/१२८)
********
अनुवाद - हे गोपगण ! हे बन्धो ! तुम लोग सुख का उपभोग करते हुए शान्तिपूर्वक यहां व्रज में ही निवास करो, क्योंकि प्रिया के साथ विहार सुरम्य रासमण्डल और वृंदावन नामक पूण्यवन में श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक ही रहेगा जब तक सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति रहेगी। ६-७।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता हैं कि- लाख ऋषि मुनियों और गान्धारी के शाप के बावजूद भी यदुवंश का अन्त नहीं हो सका। और यहाँ पर यह भी सिद्ध हुआ कि- इस यदुवंश को शाप के मकडजाल में फंसा कर यदुवंश के विनाश की झूठी कहानियां रची गई। हद तो तब हो गई जब पौराणिक कथाकारों ने परमेश्वर श्रीकृष्ण को भी बहेलिए से मरवाकर उनकी परम् प्रभुता को छिन्न-भिन्न करने का अथक प्रयास किया है। किन्तु ध्यान रहे ऐसे लोगों को परमप्रभु परमेश्वर कभी क्षमा नहीं करते जो झूठी कथा कहते हैं और लिखते हैं।
इस प्रकार से इस पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण व अन्तिमवां अध्याय अपने दोनों खण्डों में "श्रीकृष्ण सहित गोप-गोपियों के गोलक गमन" की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
____________________
इस पुस्तक के सभी प्रसंगों का विस्तृत वर्णन- "गोपेश्वर श्रीकृष्णस्य पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रन्थ में किया गया है। विस्तृत जानकारी के लिए उस पुस्तक का भी अध्ययन अवश्य करें।
"जय श्रीकृष्ण ! 🙏
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यादवों को अपना वास्तविक गोत्र जानने से पहले गोत्रों की उत्पत्ति को जानना होगा की गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई तथा गोत्र कितने प्रकार के होते हैं ?
तो इस सम्बन्ध में देखा जाए तो पौराणिक ग्रन्थों में गोत्रों की उत्पत्ति मुख्य रूप से उन चार ऋषियों से बतायी गयी है जो इन्द्रिय संयम और तप से ही वेदों के विद्वान तथा समाज में प्रतिष्ठित हुए थे। इसकी पुष्टि- महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- (२९६) के श्लोक- (१७) से होती है। जिसमें - राजा जनक पराशर ऋषि का प्रश्नोत्तर रूप में संवाद है।-
"मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।
अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।१८।
"मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।
अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।१८।
महाभारत शान्ति पर्व का निम्न श्लोक इस बात का संकेत करता है।
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
अनुवाद:
अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं।
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।१८।
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।१८।
"जनक उवाच।
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम।
तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि॥१९॥
अनुवाद:-
जनक ने पूछा - वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम।
तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि॥१९॥
अनुवाद:-
जनक ने पूछा - वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।
यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः ।
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः॥२॥
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः॥२॥
अनुवाद:-
आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्पन्न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्मदाता पिता ही नूतन जन्म धारण करता है।
ऐसी दशा में प्रारम्भ में ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्म हुआ है।२।
ऐसी दशा में प्रारम्भ में ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्म हुआ है।२।
तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ?
तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि
"पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।
अनुवाद:-
जिससे जो जन्म लेता है, उसी का वह स्वरूप होता है तथापि तपस्या की न्यूनता के कारण लोग निकृष्ट जाति को प्राप्त हो गये हैं।३।
तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि
"पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।
अनुवाद:-
जिससे जो जन्म लेता है, उसी का वह स्वरूप होता है तथापि तपस्या की न्यूनता के कारण लोग निकृष्ट जाति को प्राप्त हो गये हैं।३।
उत्तम क्षेत्र( खेत) और उत्तम बीज से जो जन्म होता है, वह पवित्र (उत्तम) ही होता है।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्न संतान की ही उत्पत्ति होती है।४।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्न संतान की ही उत्पत्ति होती है।४।
वक्त्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे।
सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः॥५॥
मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रबन्धवः।
ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः॥६॥
अनुवाद:-तात ! जो मुख से उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्पत्ति हुई।
इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं। इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्म दिया है, तब मनुष्यों के भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।
*************
"जनक ने पूछा-
ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्पन्न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्व को कैसे प्राप्त हुए ? ।११।
पराशर जी ने कहा -
राजन ! तपस्या से जिनके अन्त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्मा पुरूषों के द्वारा जिस संतान की उत्पत्ति होती है, अथवा वे स्वेच्छा से जहाँ-कहीं भी जन्म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि (जातीय शरीर) से निकृष्ट होने पर भी उसे उत्कृष्ट ही मानना चाहिये ।१२।
नरेश्वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्पन्न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया।१३।
उपरोक्त संवादों से सिद्ध होता है कि - प्रारम्भिक काल में गोत्रों का निर्धारण व्यक्ति के तपोबल एवं उसके कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ करता था। अर्थात् निम्न योनि का व्यक्ति भी अपने तपोबल एवं कर्मों के आधार पर उच्च योनि को प्राप्त कर सकता था।
उसी तरह से उच्च योनि का व्यक्ति निम्न कर्म करने पर निम्न योनि को प्राप्त होता था। किंतु इस सिद्धांत का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और अन्ततोगत्वा ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में गोत्र एवं कुल का निर्धारण कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा। जिसके परिणाम स्वरूप सामाजिक भेदभाव एवं अस्पृश्यता का उदय हुआ। क्योंकि पूर्व काल में जिन चार ऋषियों अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु से जो चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे उनके अतिरिक्त ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अपनी आवश्यकतानुसार अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारिणों में शामिल किया जो किसी न किसी रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए थे। उन सभी को सम्मिलित कर पुरोहितों नें गोत्र निर्धारण का एक नया सिद्धान्त बनाया जो मुख्यतः तीन सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनि जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करती हैं।
ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर सन्तान पूरक गोत्र कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि का संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।
(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात निज की उत्पत्ति किससे हुई है इसका पता ही नहीं हो। तो ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।
(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यन्त किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्ध का संकेत करता है।
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र- गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी अन्य ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनि जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करती हैं।
ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर सन्तान पूरक गोत्र कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि का संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।
(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात निज की उत्पत्ति किससे हुई है इसका पता ही नहीं हो। तो ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।
(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यन्त किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्ध का संकेत करता है।
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र- गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी अन्य ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।
इस सम्बन्ध में बता दें कि- संपूर्ण ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई।
इसलिए श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है। तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश पौराणिक ग्रन्थों में यादवों के मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।
जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्में ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर यादवों में स्वीकार किए गये है ? यह एक विचारणीय विषय है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज एवं योगेश कुमार रोहि व गोपाचार्य हंस माता प्रसाद जी का कहना है कि -
"गोप जाति श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि ऋषि से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"
गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हंस श्रीमाताप्रसाद योगेश रोहि आदि विद्वानों का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि सम्पन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है"।
गोपों के इस वैकल्पिक गोत्र अत्रि की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर क्षेत्र में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ था। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारों द्वारा संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे।
जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्में ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर यादवों में स्वीकार किए गये है ? यह एक विचारणीय विषय है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज एवं योगेश कुमार रोहि व गोपाचार्य हंस माता प्रसाद जी का कहना है कि -
"गोप जाति श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि ऋषि से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"
गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हंस श्रीमाताप्रसाद योगेश रोहि आदि विद्वानों का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि सम्पन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है"।
गोपों के इस वैकल्पिक गोत्र अत्रि की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर क्षेत्र में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ था। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारों द्वारा संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे।
उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को सम्पन्न कराने का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना था।
अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६) और (१७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
फिर आगे चलकर गोपों की इसी परम्परा को निर्वहन करते हुए भू-तल पर गोप कुल में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण संग श्रीराधा का विवाह भाण्डीर वन में अत्रि के पिता ब्राह्मण देवता ब्रह्मा द्वारा ही संपन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।
"पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।
हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।
ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।
कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।
प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।
वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।
श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।
पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।
तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।
पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः।।१३०।
अनुवाद- (१२०-१३०)
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मन्त्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - गोपों का वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" केवल पूजा पाठ, यज्ञ और विवाह इत्यादि तक ही सीमित है। अत्रि- गोत्र में गोपों के रक्त सम्बन्धों को स्थापित करना उनके मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के समान होगा।
क्योंकि "गोत्र उत्पत्ति सिद्धान्त के अनुसार यह मान्यता है की प्रारम्भिक काल में जिनकी उत्पत्ति जिससे होती है उसी के नाम पर उसका गोत्र निर्धारित होता है"। इस सिद्धान्त के अनुसार गोप यादवों का "अत्रि गोत्र" तब माना जाता जब इन गोप यादवों की उत्पत्ति ऋषि अत्रि से हुई होती।
किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रारम्भिक काल में यादवों (गोप और गोपियों) की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा से प्रथम कल्प में उसी समय हो जाती है जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पन्न होते हैं। इस बात को विस्तार पूर्वक अध्याय- (४) में बताया गया है कि- गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोपों की उत्पत्ति कैसे हुई है।
फिर भी इस सम्बन्ध में कुछ साक्ष्य यहाँ देना चाहेंगे कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोमकूपों से ही हुई है।
(१)- पहला साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक (४३) से है जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-
"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।
अनुवाद -• श्रीराधा के रोम कूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।
(२)- दूसरा साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) से है, जिसमें लिखा गया
है कि -
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद- (४०-४२)
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
(३)- तीसरा साक्ष्य- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६) के श्लोक- (६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः।६२।
अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।
(४)- चौथा साक्ष्य - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- (७) से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-
ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥
अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।
अब ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि - जब गोपों (यादवों) की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है तो जाहिर सी बात है कि इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार वैष्णव ही होना चाहिए न की अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह गोत्र सिद्धान्त के बिल्कुल विपरीत होगा।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त एवं श्रीकृष्ण चरित्र विश्लेषक- गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी व गोपाचार्य हंस आत्मानन्द आदि विद्वानों का कथन है कि - "यादवों का अत्रि गोत्र तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति अत्रि से हुई होती। किंतु अत्रि का जन्म तो गोपों की उत्पत्ति से बहुत बाद में भू-तल पर ब्रह्मा जी से हुई है। ऐसे में गोपों का गोत्र- अत्रि कैसे हो सकता है ?"
इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी के कथन पर विचार किया जाए तो उनका कथन बिल्कुल सत्य है। क्योंकि प्रमुख पौराणिक ग्रंथों में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही बतायी गई है।
मत्स्यपुराण के अध्याय- (१७१) के श्लोक - (२६) और (२७) में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से बताई गई है। जो इस प्रकार है-
विश्वेशं प्रथमः तावन्महातापसमात्मजम्।
सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्मं स सृष्टवान।।२६।
दक्षं मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
वसिष्टं गौतमं चैव भृगुमङ्गिरसं मनुम्।। २७।
अनुवाद-( २६-२७)
सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने धर्म नामक पुत्र को प्रकट किया जो विश्व के ईश्वर महान तपस्वी सम्पूर्ण मन्त्रों द्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, "अत्रि", पुलस्त्य, क्रतु , वशिष्ठ, गौतम, भृगु, अंगिरा और मनु को उत्पन्न किया।२६-२७।
इसी प्रकार से मत्स्यपुराण के अध्याय- (१४५) के श्लोक (९० और ९१) में ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में अत्रि को भी बताया गया है।
भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः।
मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दशः।।९०।
ब्राह्मणो मानसा ह्येते उत्पन्नाः स्वयमीश्वराः।
परत्वेनर्षयो यस्मान्तास्तस्मान्महर्षयः।।९१।
अनुवाद- (९०-९१)
भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ और पुलस्त्य, ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परतत्व से युक्त है, इसीलिए महर्षि माने गए हैं।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - ऋषि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं अर्थात इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई हैं ना की गोपेश्वर श्रीकृष्ण से।
तब ऐसे में गोपों का गोत्र -"अत्रि" नाम से कैसे स्थापित हो सकता है ? यह तभी सम्भव हो सकता है जब अत्रि की भी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से हुई होती। किंतु अत्रि तो ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि यादवों के मूल गोत्र- "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के लिए जाने-माने ऋषि अत्रि को निराधार और बेवजह ही घसीट कर यादवों के गोत्र में सम्मिलित किया गया ताकि यादव लोग भ्रमित होकर अपने मूल गोत्र "वैष्णव" को भूलकर ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अत्रि गोत्र का अंग बनकर रह जाए।
अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६) और (१७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
फिर आगे चलकर गोपों की इसी परम्परा को निर्वहन करते हुए भू-तल पर गोप कुल में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण संग श्रीराधा का विवाह भाण्डीर वन में अत्रि के पिता ब्राह्मण देवता ब्रह्मा द्वारा ही संपन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।
"पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।
हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।
ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।
कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।
प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।
वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।
श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।
पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।
तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।
पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः।।१३०।
अनुवाद- (१२०-१३०)
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मन्त्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - गोपों का वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" केवल पूजा पाठ, यज्ञ और विवाह इत्यादि तक ही सीमित है। अत्रि- गोत्र में गोपों के रक्त सम्बन्धों को स्थापित करना उनके मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के समान होगा।
क्योंकि "गोत्र उत्पत्ति सिद्धान्त के अनुसार यह मान्यता है की प्रारम्भिक काल में जिनकी उत्पत्ति जिससे होती है उसी के नाम पर उसका गोत्र निर्धारित होता है"। इस सिद्धान्त के अनुसार गोप यादवों का "अत्रि गोत्र" तब माना जाता जब इन गोप यादवों की उत्पत्ति ऋषि अत्रि से हुई होती।
किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रारम्भिक काल में यादवों (गोप और गोपियों) की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा से प्रथम कल्प में उसी समय हो जाती है जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पन्न होते हैं। इस बात को विस्तार पूर्वक अध्याय- (४) में बताया गया है कि- गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोपों की उत्पत्ति कैसे हुई है।
फिर भी इस सम्बन्ध में कुछ साक्ष्य यहाँ देना चाहेंगे कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोमकूपों से ही हुई है।
(१)- पहला साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक (४३) से है जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-
"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।
अनुवाद -• श्रीराधा के रोम कूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।
(२)- दूसरा साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) से है, जिसमें लिखा गया
है कि -
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद- (४०-४२)
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
(३)- तीसरा साक्ष्य- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६) के श्लोक- (६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः।६२।
अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।
(४)- चौथा साक्ष्य - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- (७) से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-
ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥
अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।
अब ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि - जब गोपों (यादवों) की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है तो जाहिर सी बात है कि इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार वैष्णव ही होना चाहिए न की अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह गोत्र सिद्धान्त के बिल्कुल विपरीत होगा।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त एवं श्रीकृष्ण चरित्र विश्लेषक- गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी व गोपाचार्य हंस आत्मानन्द आदि विद्वानों का कथन है कि - "यादवों का अत्रि गोत्र तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति अत्रि से हुई होती। किंतु अत्रि का जन्म तो गोपों की उत्पत्ति से बहुत बाद में भू-तल पर ब्रह्मा जी से हुई है। ऐसे में गोपों का गोत्र- अत्रि कैसे हो सकता है ?"
इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी के कथन पर विचार किया जाए तो उनका कथन बिल्कुल सत्य है। क्योंकि प्रमुख पौराणिक ग्रंथों में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही बतायी गई है।
मत्स्यपुराण के अध्याय- (१७१) के श्लोक - (२६) और (२७) में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से बताई गई है। जो इस प्रकार है-
विश्वेशं प्रथमः तावन्महातापसमात्मजम्।
सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्मं स सृष्टवान।।२६।
दक्षं मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
वसिष्टं गौतमं चैव भृगुमङ्गिरसं मनुम्।। २७।
अनुवाद-( २६-२७)
सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने धर्म नामक पुत्र को प्रकट किया जो विश्व के ईश्वर महान तपस्वी सम्पूर्ण मन्त्रों द्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, "अत्रि", पुलस्त्य, क्रतु , वशिष्ठ, गौतम, भृगु, अंगिरा और मनु को उत्पन्न किया।२६-२७।
इसी प्रकार से मत्स्यपुराण के अध्याय- (१४५) के श्लोक (९० और ९१) में ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में अत्रि को भी बताया गया है।
भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः।
मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दशः।।९०।
ब्राह्मणो मानसा ह्येते उत्पन्नाः स्वयमीश्वराः।
परत्वेनर्षयो यस्मान्तास्तस्मान्महर्षयः।।९१।
अनुवाद- (९०-९१)
भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ और पुलस्त्य, ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परतत्व से युक्त है, इसीलिए महर्षि माने गए हैं।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - ऋषि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं अर्थात इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई हैं ना की गोपेश्वर श्रीकृष्ण से।
तब ऐसे में गोपों का गोत्र -"अत्रि" नाम से कैसे स्थापित हो सकता है ? यह तभी सम्भव हो सकता है जब अत्रि की भी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से हुई होती। किंतु अत्रि तो ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि यादवों के मूल गोत्र- "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के लिए जाने-माने ऋषि अत्रि को निराधार और बेवजह ही घसीट कर यादवों के गोत्र में सम्मिलित किया गया ताकि यादव लोग भ्रमित होकर अपने मूल गोत्र "वैष्णव" को भूलकर ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अत्रि गोत्र का अंग बनकर रह जाए।
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गोपों की उत्पत्ति का विवरण-
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद- ४०-४२
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
(३)- तीसरा साक्ष्य- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६ के श्लोक- ६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।
अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।
(४)- चतुर्थ साक्ष्य - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- ७ से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-
ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥
अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।
अब ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि - जब गोपों (यादवों) की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है तो जाहिर सी बात है कि इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार वैष्णव ही होना चाहिए न की अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह गोत्र सिद्धांत के बिल्कुल विपरीत होगा।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त एवं श्रीकृष्ण चरित्र विश्लेषक- गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी का कथन है कि - "यादवों का अत्रि गोत्र तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति अत्रि से हुई होती। किंतु अत्रि का जन्म तो गोपों की उत्पत्ति से बहुत बाद में भू-तल पर ब्रह्मा जी से हुई है। ऐसे में गोपों का गोत्र- अत्रि कैसे हो सकता है ?"
इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी के कथन पर विचार किया जाए तो उनका कथन बिल्कुल सत्य है। क्योंकि प्रमुख पौराणिक ग्रंथों में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही बतायी गई है।
मत्स्यपुराण के अध्याय- (१७१) के श्लोक - (२६) और (२७) में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से बताई गई है। जो इस प्रकार है-
विश्वेशं प्रथमः तावन्महातापसमात्मजम्।
सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्मं स सृष्टवान।।२६।
दक्षं मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
वसिष्टं गौतमं चैव भृगुमङ्गिरसं मनुम्।।२७।
अनुवाद- २६-२७
सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने धर्म नामक पुत्र को प्रकट किया जो विश्व के ईश्वर महान तपस्वी सम्पूर्ण मन्त्रों द्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, "अत्रि", पुलस्त्य, क्रतु , वशिष्ठ, गौतम, भृगु, अंगिरा और मनु को उत्पन्न किया।२६-२७।
इसी प्रकार से मत्स्यपुराण के अध्याय- (१४५) के श्लोक (९० और ९१) में ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में अत्रि को भी बताया गया है।
भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः।
मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दशः।।९०।
ब्राह्मणो मानसा ह्येते उत्पन्नाः स्वयमीश्वराः।
परत्वेनर्षयो यस्मान्तास्तस्मान्महर्षयः।।९१।
अनुवाद- ९०-९१
भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ और पुलस्त्य, ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परतत्व से युक्त है, इसीलिए महर्षि माने गए हैं।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - ऋषि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं अर्थात इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई हैं ना की गोपेश्वर श्रीकृष्ण से। तब ऐसे में गोपों का गोत्र -"अत्रि" नाम से कैसे स्थापित हो सकता है ? यह तभी संभव हो सकता है जब अत्रि की भी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से हुई होती। किंतु अत्रि तो ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि यादवों के मूल गोत्र- "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के लिए जाने-माने ऋषि अत्रि को निराधार और बेवजह ही घसीट कर यादवों के गोत्र में सम्मिलित किया गया ताकि यादव लोग भ्रमित होकर अपने मूल गोत्र "वैष्णव" को भूलकर ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अत्रि गोत्र का अंग बनकर रह जाए और अपने मूल गोत्र वैष्णव को सदा-सदा के लिए भूल जाए। और इस सम्बन्ध में मेरा तो मानना है कि पुरोहितों का यह प्रयोग (Experiment) यादवों पर 99% सफल रहा।
इन्हीं सभी बातों को सोच कर कभी-कभी मुझे बहुत दुख होता है कि जिन गोपों की उत्पत्ति परमेश्वर श्री कृष्ण से हुई हो भला वह कैसे ब्रह्मजाल में फंसकर आज अपने मूल गोत्र वैष्णव को ही भूल गया।
इस संबंध में यादव समाज से मेरा यही सुझाव और निवेदन है कि जब भी कोई ब्राह्मण पुरोहित पूजा-पाठ या विवाह के अवसर पर आपको अपने गोत्र का नाम लेने को कहे तो आप लोग उस समय अपने मूल गोत्र "वैष्णव" का ही नाम ले और उस ब्राह्मण पुरोहित को भी बताएं कि पुरोहित जी आपका गोत्र अत्रि हो सकता है क्योंकि अत्रि ब्राह्मण थे और आप भी ब्राह्मण हैं। किंतु मेरा मूल गोत्र तो वैष्णव है क्योंकि मेरी उत्पत्ति तो गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से गोलोक में उसी समय हो चुकी थी, जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति हुई थी। इसलिए आप जो भी मेरे लिए कृत्य करें वह सब वैष्णव गोत्र के नाम से ही करें अन्यथा हमारा श्रमसाध्य यह कार्य व्यर्थ ही जाएगा।
"अध्याय- (९)
[भाग -२] ✓✓ ✓
अध्याय- (९)[भाग- २ (||ऋषि अत्रि को लेकर आश्चर्य तो तब होता है जब यह पता चलता है की ऋषि अत्रि का एक अलग से वंश और गोत्र भी है। जो ब्राह्मणों से सम्बंधित है न कि यादव अथवा गोपों से सम्बन्धित। इसकी पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय- (१९७) के श्लोक- (१-११) से होती है जिसमें भगवान मत्स्य कहते हैं-
।मत्स्य उवाच।
अत्रिवंशसमुत्पन्नान् गोत्रकारान्निबोध मे।
कर्दमायनशाखेयास्तथा शारायणाश्च ये ।।१।
उद्दालकिः शौणकर्णिरथौ शौक्रतवश्च ये।
गौरग्रीवा गौरजिनस्तथा चैत्रायणाश्च ये ।।२।
अर्द्धपण्या वामरथ्या गोपनास्तकि बिन्दवः।
कणजिह्वो हरप्रीति र्नैद्राणिः शाकलायनिः ।।३।
तैलपश्च सवैलेय अत्रिर्गोणीपतिस्तथा।
जलदो भगपादश्च सौपुष्पिश्च महातपाः ।।४।
छन्दो गेयस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः।
श्यावाश्वश्च तथा त्रिश्च आर्चनानश एव च ।।५।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः।
दाक्षिर्बलिः पर्णविश्च ऊर्णनाभिः शिलार्दनिः ।।६।
वीजवापी शिरीषश्च मौञ्जकेशो गविष्ठिरः।
भलन्दनस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः ।।७।
अत्रिर्गविष्ठिरश्चैव तथा पूर्वातिथिः स्मृतः।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः ।।८।
आत्रेयपुत्रिकापुत्रानत ऊर्ध्वं निबोध मे।
कालेयाश्च सवालेया वासरथ्यास्तथैव च ।।९।
धात्रेयाश्चैव मैत्रेयास्त्र्यार्षेयाः परिकीर्तिताः।
अत्रिश्च वामरथ्यश्च पौत्रिश्चैवमहानृषिः ।।१०।
इत्यत्रिवंशप्रभवास्तवाह्या महानुभावा नृपगोत्रकाराः।
येषां तु नाम्ना परिकीर्तितेन पापं समग्रं पुरुषो जहाति।। ११।
अनुवाद- १-११
मत्स्यभगवान ने कहा- राजेन्द्र अब मुझसे महर्षि अत्रि के वंश के उत्पन्न हुए कर्दमायन तथा शारायणशाखीय गोत्र कर्ता मुनियों का वर्णन सुनिये ये हैं- उद्दालकि, शीणकर्णिरथ, शौकतव, गौरग्रीव, गौरजिन, चैत्रायण अर्धपण्य, वामरथ्य, गोपन, अस्तकि, बिन्दु, कर्णजिहू, हरप्रीति, लैाणि, शाकलायनि, तैलप, सवैलेय, अत्रि, गोणीपति, जलद, भगपाद, महातपस्वी सौपुष्पि तथा छन्दोगेय— ये शरायण के वंश में कर्दमायनशाखा में उत्पन्न हुए ऋषि हैं। इनके प्रवर श्यावाश्व, अत्रि और आर्चनानश ये तीन हैं। इनमें परस्पर में विवाह नहीं होता। दाक्षि, बलि, पर्णवि, ऊर्णुनाभि, शिलार्दनि, बीजवापी, शिरीष, मौञ्जकेश, गविष्ठिर तथा भलन्दन- इन ऋषियों के अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि-ये तीन ऋषिवर माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह सम्बन्ध निषिद्ध है।
(विशेष - उपर्युक्त वंश एवं गोत्र ऋषि अत्रि के पुत्रों का रहा)
अब इसके आगे भगवान मत्स्य - अत्रि की पुत्री "आत्रेयी" के वंश के बारे में बताते हुए कहते हैं-
अब मुझसे अत्रि की पुत्रिका आत्रेयी से उत्पन्न प्रवर ऋषियों का विवरण सुनिये- कालेय, वालेय, वामरथ्य, धात्रेय तथा मैत्रेय इन ऋषियोंके अत्रि, वामरथ्य और महर्षि पौत्रि—ये तीन प्रवर ऋषि माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह नहीं होता।
राजन्! इस प्रकार मैंने आपको इन अत्रि वंशमें उत्पन्न होनेवाले गोत्रकार महानुभाव ऋषियों का नाम सुना दिया, जिनके नामसंकीर्तनमात्र मनुष्य अपने सभी पाप कर्मों से छुटकारा पा जाता है ॥ १-११
इस प्रकार से देखा जाए तो यादवों के वंश एवं गोत्र में जिस ब्राह्मण अत्रि को शामिल किया जाता है उनका एक वंश है जो पूर्ण रूपेण ब्राह्मणों के वंश एवं गोत्र से संबंधित है।
ऐसे में एक ब्राह्मण (अत्रि) से यादवों के गोत्र एवं वंश को स्थापित करना यादवों के मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" पर कुठाराघात करने के ही समान है।
ऋषि अत्रि को लेकर दूसरा आश्चर्य तब होता है जब ऋषि अत्रि से चन्द्रमा को उत्पन्न करा कर यादवों के मूल वंश- चन्द्रवंश को भी अत्रि से जोड़ दिया गया। सोचने वाली बात है कि जो अत्रि स्वयं वारूणी यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए हों या ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हों तो वे चन्द्रमा को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ? अर्थात् यह सम्भव नहीं जबकि वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम चन्द्रमा की उत्पत्ति गोलोक में विराट विष्णु से हुई है न कि ब्राह्मण ऋषि अत्रि से।
(ज्ञात हो - विराट विष्णु गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं, जिनकी उत्पत्ति गोलोक में ही परमेश्वर श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से हुई है, इसलिए उन्हें गर्भोदकशायी विष्णु भी कहा जाता है। इन्हीं गर्भोदकशायी विष्णु के अनन्त रोमकूपों से अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुई और उनमें भी उतनें ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश उत्पन्न हुए तथा उतने ही सूर्य और चंद्रमा उत्पन्न हुए। फिर उन प्रत्येक ब्रह्माण्डों में ब्रह्मा जी ने उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण के आदेश पर द्वितीय सृष्टि की रचना की है। द्वितीय सृष्टि रचना में ब्रह्मा के दस मानस पुत्र उत्पन्न हुए, उन दस मानस पुत्रों में अत्रि भी थे। तो इस स्थिति में ऋषि अत्रि अलग से कैसे चन्द्रमा को उत्पन्न कर सकते हैं ?
अर्थात यह संभव नहीं है क्योंकि अत्रि के जन्म की तो बात दूर इनके पिता ब्रह्मा की भी उत्पत्ति से बहुत पहले सूर्य और चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हो चुकी होती है। कुल मिलाकर पौराणिक ग्रन्थों में ऋषि अत्रि से चन्द्रमा की उत्पत्ति बताने का एकमात्र उद्देश्य ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में सम्मिलित करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।
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विराट विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण से चन्द्रमा की उत्पत्ति की पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (११) के श्लोक- (१९) से होती है जिसमें विराट पुरुष से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उत्पत्ति एवं विलय क्रम में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति को सर्वप्रथम भूतल पर अर्जुन ने उस समय देखा और जाना जब भगवान श्रीकृष्ण अपना विराट रूप का दर्शन अर्जुन को कराया। उसे विराट पुरुष को देखकर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं -
"अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।
(श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१९)
अनुवाद- आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चंद्र और सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुख वाले और अपने तेज से इस संसार को तपाते हुए देख रहा हूं।१९।
इसी प्रकार से विराट विष्णु से चन्द्रमा की उत्पत्ति का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
"चन्द्रमा मनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्रणाद्वायुरजायत।।१३।
अनुवाद- महाविष्णु के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य ज्योति, मुख से तेज और अग्नि तथा प्राणों से वायु का प्राकट्य हुआ।१३।
अतः उपरोक्त साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हुई है अत्रि से नहीं।
और यह भी सिद्ध हुआ कि- विष्णु से उत्पन्न होने के नामानुसार चन्द्रमा भी उसी तरह से वैष्णव हुआ जिस तरह से विष्णु से उत्पन्न गोप (यादव) वैष्णव हैं। यह ध्रुव सत्य है।
(विशेष) - किन्तु ध्यान रहे चन्द्रमा कोई मानवी सृष्टि नहीं है वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए उससे कोई पुत्र इत्यादि उत्पन्न होने की कल्पना करना भी महा मूर्खता होगी।
चन्द्रमा के दिन-मान से वैष्णव लोग काल- गणना करते हैं भारतीय पाञ्चांग में यह चान्द्रमास - चैत्र - वैशाख ज्येष्ठ आषाढ आदि का आधार है। तथा अपना प्रथम वंशज और आराध्य देव मानकर वैष्णव गोप चन्द्रमा की सांस्कृतिक पर्व के अवसरों पर पूजा भी करते हैं। इसी परम्परा से वैष्णव वर्ण के गोपों में चन्द्रवंश का उदय हुआ।
और भगवान श्रीकृष्ण जब भी भू-तल पर अवतरित होते हैं तो वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत वैष्णव वर्ण के अभीर जाति यदुवंश आदि में ही अवतरित होते हैं।
गोप कुल में अवतरित होने के सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) में कहते हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपों के कुल में अवतरित होने का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके पिछले अध्याय- (८) में किया जा चुका है। वहाँ से पाठकगण विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते है।
इन उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- उत्पत्ति विशेष के कारण गोपों अर्थात् यादवों का मूल गोत्र और वर्ण दोनों ही "वैष्णव" है जो उनके अनुवांशिक गुणों एवं रक्त सम्बन्धों को संकेत करता है। तथा उनका एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" है जिसमें गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है, जिसका उद्देश्य केवल ब्राह्मण पुरोहितों से पूजा पाठ, हवन, विवाह इत्यादि को संपन्न कराना है।
इस प्रकार से अध्याय- (९) भाग -एक और दो इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं।
अब इसके अगले अध्याय- (१०) में गोपकुल के श्रीकृष्ण एवं राधा सहित पुरुरवा और उर्वशी, आयुष, नहुष,ययाति इत्यादि महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे में बताया गया है।
"अध्याय- (१०)
[भाग -१] ✓✓ ✓
गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।
यादव वंश गोप जाति का एक ऐसा रक्त समूह है जिनकी उत्पत्ति गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के क्लोन (समरूपण विधि) से उस समय हुई जब गोलोक में श्रीकृष्ण से नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि प्रमुख देवताओं की उत्पत्ति हुई थी। इस वजह से गोप जाति उतनी ही प्राचीनतम है जितना नारायण, शिव एवं ब्रह्मा हैं।
(इस बात को अध्याय- (४) में विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है।) इस लिए गोप कुल के उन सभी सदस्यपत्तियों की विस्तृत जानकारी के लिये इस अध्याय को क्रमशः चार भागों में गया है।
(भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय
भाग-(२) श्रीराधा का परिचय
भाग-(३) पुरुरवा और उर्वशी का परिचय
भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय
भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय
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ज्ञात हो - परमेश्वर श्रीकृष्ण किसी परिचय के मोहताज (अभावग्रस्त) नहीं है। परमेश्वर का परिचय देना मेरे जैसा एक सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव भी नही है। क्योंकि-
जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्मों का वर्णन करने में भू-तल पर कोई सामर्थ्य नहीं है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनकी कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्मा जी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।
जिनकी निर्मल प्रसिद्धि और महिमा बताने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं तथा देवता भी उस भगवान के परम स्वरूप को नहीं जानते हैं। तो उस परमेश्वर का परिचय देना मेरे जैसा तुक्ष (अत्यन्त साधारण) प्राणी के लिए तो और भी सम्भव नहीं है। फिर भी इस असम्भव कार्य को उनके द्वारा ही शौपा गया है यह समझकर ही परमेश्वर के गुणों का वर्णन कर रहा हूं।
किंतु ध्यान रहे परमेश्वर श्रीकृष्ण का इस अध्याय में जो परिचय बताया गया है वह भू-तल पर उनके लौकिक जीवन एवं उनकी लीलाओं से ही सम्बंधित है। उनके आध्यात्मिक एवं अलौकिक पहलुओं का वर्णन अध्याय- दो और तीन में किया जा चुका है।
गोपेश्वर श्रीकृष्ण का लौकिक परिचय -: सर्वविदित है कि भूलोक से गोलोक तक श्रीकृष्ण को ही गोप-कुल का प्रथम सदस्यपति माना गया हैं। उन्हें ही परमप्रभु परमेश्वर कहा जाता हैं। वे प्रभु अपने गोलोक में गोप और गोपियों के साथ सदैव गोपवेष में रहते हैं। और वहीं पर समय-समय पर सृष्टि रचना भी किया करते हैं, और समय आने पर वे ही प्रभु समस्त सृष्टि को अपने में समाहित कर लेते हैं। यही उनका शाश्वत सनातन नियम और क्रिया है, और जब-जब प्रभु की सृष्टि रचना में पाप और भय अधिक बढ़ जाता है तब-तब उसको दूर करने के लिए वे प्रभु अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ धरा-धाम पर अपनें ही वर्ण के- गोपकुल (अहीर-जाति) में अवतीर्ण होते हैं। भगवान के इस कार्य हेतु श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक प्रसिद्ध है -
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।
(श्रीमद्भागवत गीता ४/७)
इस कार्य हेतु भगवान श्री कृष्ण गोप कुल में ही अपने सम्पूर्ण अंशों के साथ अवतरित होते हैं। उनको गोपकुल में अवतरित होने की पुष्टि- हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहें हैं कि-
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।
(श्रीमद्भागवत गीता ४/७)
इस कार्य हेतु भगवान श्री कृष्ण गोप कुल में ही अपने सम्पूर्ण अंशों के साथ अवतरित होते हैं। उनको गोपकुल में अवतरित होने की पुष्टि- हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहें हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
{भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरण इत्यादि के बारे में अध्याय-(८) में विस्तार पूर्वक बताया गया है।}
भगवान श्री कृष्णा जब भू-तल पर अवतरित होते हैं तो उनकी सारी विशेषताएं वही रहती हैं जो गोलोक में होती हैं। उनकी सभी विशेषताओं का एक-एक करके यहां वर्णन किया गया है। जैसे -
(१) - श्रीकृष्ण के लिए अष्टमी का महत्व :---
भगवान श्रीकृष्ण के लिए भूतल पर अष्टमी का बहुत बड़ा महत्व है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण भाद्रमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन भूतल पर गोपकुल में अवतरित हुए हैं। तभी से वह शुभ मुहूर्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
और भगवान श्रीकृष्ण जब 6 वर्ष की उम्र के हो गए तब
कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को शुभ मानकर उन्हें पहली बार गावें चराने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इस शुभ मुहूर्त को गोपाष्टमी नाम से जाना जाता है।
वहीं दूसरी ओर राधा अष्टमी भगवान श्रीकृष्ण की परमप्रिय राधा रानी का जन्मोत्सव है। यह त्योहार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है।
इस सम्बन्ध में देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण का अष्टमी से गहरा संबंध है, भाद्रमास कृष्णपक्ष की अष्टमी को भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ तथा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के शुभ मुहूर्त में गोपालन कर्तव्य का सूत्रपात किया। इस बात की पुष्टि श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय- १५ के श्लोक- (१) से होती जिसमें लिखा गया है कि-
ततश्च पौगण्डवयः श्रितौ व्रजे बभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ।
गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैर् वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः ।।१।
अनुवाद- जब भगवान बलराम और भगवान कृष्ण पौगण्ड अवस्था में अर्थात् छठे वर्ष में प्रवेश किया, तब उन्हें गौवें चराने की स्वीकृति मिल गई। वे अपने सखा ग्वाल बालों के साथ गौवें चराते हुए वृंदावन में जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते।१।
(२) कुश्ती लड़ना -:गोपों ( यादवों ) में कुश्ती लड़ने का अनुवांशिक गुण पाया जाता है। इसी गुण विशेष के कारण भगवान श्रीकृष्ण भी बचपन से ही कुश्ती लड़ा करते थे। यह कार्य गौवें चराते समय अपने बाल गोपाल के साथ करते थे। इस बात की पुष्टी - श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय- १५ के श्लोक- (१६ )और (१७) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
क्वचित् पल्लवतल्पेषु नियुध्श्म श्रम ककिर्शितः।
वृक्षमूलाश् शेते गोपोत्संगोपबर्हणः।। १६।
पादसंवाहनं चक्रुः केचित्तस्य महात्मनः।
अपरे हतपाप्मानो व्यजनैः समवीजयन्।। १७।
अनुवाद - १६-१७
• कभी-कभी स्वयं श्री कृष्ण भी ग्वाल बालों के साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तब किसी सुंदर वृक्ष के नीचे कोमल पत्तों की सेज पर किसी ग्वाल बाल की गोद में सिर रखकर लेट जाते। १६।
• उस समय कोई कोई पुण्य के मूर्तिमान स्वरूप ग्वालबाल महात्मा श्री कृष्ण के चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अंगोछियों से पंखा झलने लगते।
(३) श्रीकृष्ण के उपनाम :-
(क)- गोपकृत - गोपेश्वर श्रीकृष्ण के (एक हजार नामों) में गोपकृत भी है। जिसका अर्थ होता है - गोपों को उत्पन्न करने वाला।
(ख)- वंशीधारी - भगवान श्री कृष्ण सदैव एक हाथ में वंशी और सिर पर मोर मुकुट धारण करते हैं। वंशी धारण करने की वजह से ही उनको को वंशीधारी कहा गया। उनकी वंशी का नाम- ‘भुवनमोहिनी’ है। यह ‘महानन्दा’ नाम से भी विख्यात है।
(ग)- मुरलीधारी — कोकिलाओं के हृदयाकर्षक कूजन (पक्षियों के कलरव ) को भी फीका करनेवाली इनकी मधुर मुरली का नाम ‘सरला’ है इसका बचपन में (धन्व:) नामक बाँसुरी विक्रेता से कृष्ण ने प्राप्त किया था। मुरली धारण करने की वजह से श्रीकृष्ण को मुरलीधारी (मुरलीधर) भी कहा गया।
(घ)- शारंगधारी— श्रीकृष्ण के धनुष का नाम 'शारंग' है।जिसे सींग से बनाया गया था। तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिञ्जिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं। सारंग धनुष के धारण करने से ही भगवान श्री कृष्ण को सारंगधारी भी कहा जाता है। युधिष्ठिर ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की प्रसंशा उस समय की थी जब कृष्ण ने जरासंध को हराने के लिए शारंग धनुष को उठाया था।
(ड)- चक्रधारी— भगवान श्री कृष्ण जब भूमि का भार उतारने के लिए रणभूमि में अपनी नारायणी सेना के साथ उतरते हैं, तब वे अपने एक हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करते हैं। उसके धारण करने की वजह से ही उनको चक्रधारी और सुदर्शनधारी कहा गया।
(च)- गोपवेषधारी — भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में हों या भू-लोक में, वह दोनों जगहों पर सदैव गोपों के साथ गोपभेष में ही रहते हैं। इस लिए उनको गोपभेषधारी अथवा गोप भी कहा जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के क्रमशः श्लोक संख्या- २१ से होती है जिसमें श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूपों के बारे में लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।।२१।
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।
(छ)- गिरिधारी और गोविन्द- श्रीकृष्ण का गिरधारी और गोविंद नाम भी है। यह दोनों नाम एक ही घटनाक्रम में उस समय पड़े जब गोपों ने इन्द्र पूजा का बहिष्कार कर गो और गोवर्धन पूजा को करना प्रारम्भ किया। जिसके प्रतिशोध में इन्द्र ने गोपों की सभी गौवों को मेघ वर्षा करके मारना चाहा किंतु श्रीकृष्ण ने गोवर्धन (गिरि= पर्वत) को धारण कर गायों की रक्षा की। उसी समय श्रीकृष्ण का गिरिधारी नाम पड़ा।
उसी समय वहां उपस्थित इन्द्र शरणागत होकर श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा -
अहं किलेन्द्रो देवानां त्वं गवामिन्द्रतां गतः।
गोविन्द इति लोकास्त्वां स्तोष्यन्ति भुवि शाश्वतम्।। ४५।
(हरिवंश पुराण- २/१९/४५)
अनुवाद- मैं देवताओं का इंद्र हूं और आप गौओं के इंद्र हो गए ! आज से इस भूतल पर सब लोग आप सनातन प्रभु को "गोविंद" कहकर आपका स्तवन करेंगे।४५।
तभी से श्रीकृष्ण का एक और नाम गोविंद हुआ।
(ज)- केशव- गोपेश्वर श्री कृष्ण का एक नाम केशव भी है। यह नाम मुख्यतः गोपों द्वारा तब दिया गया ज
ब गोपेश्वर श्री कृष्ण ने केशी नामक दैत्य का वध किया। उसी समय गोपों ने श्री कृष्ण की स्तुति करते समय सर्वप्रथम केशव नाम से सम्बोधित किया। तभी से श्री कृष्ण का एक नाम केशव भी हुआ।
यशमात्तयैष दुष्टात्मा हतः केशी जनार्दन।
तस्मात्केशवनाम्ना त्वं लोके ख्यातो भविष्यसि।।२३।
(विष्णु पुराण- ५/१७/२३)
अनुवाद- हे जनार्दन ! आपने इस दुष्टात्मा केशी को मारा है इसलिए आप लोकों में केशव नाम से विख्यात होंगे।२३।
(विशेष- केशव नाम गोपों द्वारा दिया गया है।
कृष्ण के केशों की जन्मजात घँघराली सज्जाप्रकृति के कारण ही उन्हें केशव नाम दिया गया।
केशाः प्रशस्ताः सन्त्यस्य
“केशाद्वोऽन्यतरस्माम्” इति केशव-शब्दकल्पद्रुम कोश में केशव शब्द की व्युत्पत्ति-केशवः - (को ब्रह्मा+ ईशः रुद्रः तौ आत्मनि स्वरूपे+ वयति प्रलये उपाधिरूपमूर्त्तित्रयं मुक्त्वा एकमात्रपरमात्मस्वरूपेणावतिष्ठते इति केशव: ।
अनुवाद:- जो परमात्मा क=( ब्रह्मा)+ ईश=( रूद्र) दोनों को अपने स्वरूप में प्रलय काल में अपनी देवत्रयी - उपाधि से मुक्त करके एकमात्र परमात्मा स्वरूप के द्वारा स्थित होता है। वह परमात्मा केशव है।
हरिवंश पुराण में केशव शब्द की व्युत्पत्ति-केशं= केशिनं वातिं = हन्ति ।( केश + वा + कः) । यथा, हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व । २४/६५- ।
"यस्मात् त्वया हतः केशी तस्मान्मच्छासनं शृणु ।
केशवो नाम नाम्ना त्वं ख्यातो लोके भविष्यसि ।।६५।।
केशवो नाम नाम्ना त्वं ख्यातो लोके भविष्यसि ।।६५।।
इसलिए जब भी गोप (अहीर) लोग श्री कृष्ण की स्तुति करें केशव नाम से ही करें। क्योंकि यह नाम गोपों के लिए विकट परिस्थितियों से मुक्ति प्रदान करने वाला है)
ये तो रही श्रीकृष्ण की कुछ खास व्यक्तिगत विशेषताएं। किंतु उनकी कुछ सामूहिक व सामाजिक विशेषताएं भी हैं जिनके जानें बगैर श्रीकृष्ण की विशेषताएं अधुरी ही मानी जाएगी। जिसका वर्णन नीचे कुछ इस प्रकार से किया गया है।-
[४] श्रीकृष्ण की सामाजिक व व्यक्तिगत विशेषताएं -:
(क)- श्रीकृष्ण के नित्य-सखा —"श्रीकृष्ण के चार प्रकार के सखा हैं—(A) सुहृद् सखा (B) सखा (C) प्रिय सखा (D) प्रिय नर्मसखा।
(ख) - सुहृद् वर्ग के सखा— इस वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं। वे सदा श्रीकृष्ण के साथ रहकर उनकी रक्षा करते हैं ।
जिनके नाम हैं - विजयाक्ष, सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
जिसमें श्रीकृष्ण के इस रक्षक टीम (वर्ग) के अध्यक्ष- अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं। जो श्रीकृष्ण की सुरक्षा को लेकर सतत् चौकन्ना रहते हैं।
(ग)- सखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं। ये सखा भाँति-भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु- नन्द नन्दन पर आक्रमण न कर दे।
• जिसमें समान आयु के सखा हैं—
विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप,मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि।
• श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—
मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।
(घ)- प्रियसखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण, पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं। जिसमें भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं। ये सभी प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध-अभिनय की रचना करना, अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं। ये सब शान्त प्रकृति के हैं। तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं।
इन सखाओं में "स्तोककृष्ण" श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र हैं, जो देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। इसीलिए स्तोककृष्ण को छोटा कन्हैया भी कहा जाता है। ये श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं। प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं इसके बाद शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं।
(च)- प्रिय नर्मवर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल, (श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
ये सभी सखा ऐसे हैं- जिनसे श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो।
राग— संगीत की दुनिया में कुछ प्रमुख राग गोपों (अहिरों) की ही देन (खोज) है। जैसे- गौड़ी, गुर्जरी राग, आभीर भैरव इत्यादि। जिसे भगवान श्रीकृष्ण सहित- गोप (आभीर) लोग समय-समय पर गाते हैं। आभीर भैरव नाम की राग- रागिनियाँ श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय हैं।
• अब हमलोग जानेगें श्रीकृष्ण के पारिवारिक सम्बन्धों को, जिसमें कृष्ण के पारिवारिक चाचा ताऊ के भाई बहिनों की संख्या सैकड़ों हजारों में हैं। उनमें से कुछ के नाम नीचें विवरण रूप में उद्धृत करते हैं।
• श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता— बलराम जी।
• श्रीकृष्ण के चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
• श्रीकृष्ण की चचेरी बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा,श्यामादेवी आदि। श्री कृष्ण के साथ यदि श्रीराधा जी की चर्चा नहीं हो तो बात अधुरी ही रहती है। अतः श्रीराधा जी के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस अध्याय के भाग- 2 में दी गई है।
ये तो रही श्रीकृष्ण की कुछ खास व्यक्तिगत विशेषताएं। किंतु उनकी कुछ सामूहिक व सामाजिक विशेषताएं भी हैं जिनके जानें बगैर श्रीकृष्ण की विशेषताएं अधुरी ही मानी जाएगी। जिसका वर्णन नीचे कुछ इस प्रकार से किया गया है।-
[४] श्रीकृष्ण की सामाजिक व व्यक्तिगत विशेषताएं -:
(क)- श्रीकृष्ण के नित्य-सखा —"श्रीकृष्ण के चार प्रकार के सखा हैं—(A) सुहृद् सखा (B) सखा (C) प्रिय सखा (D) प्रिय नर्मसखा।
(ख) - सुहृद् वर्ग के सखा— इस वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं। वे सदा श्रीकृष्ण के साथ रहकर उनकी रक्षा करते हैं ।
जिनके नाम हैं - विजयाक्ष, सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
जिसमें श्रीकृष्ण के इस रक्षक टीम (वर्ग) के अध्यक्ष- अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं। जो श्रीकृष्ण की सुरक्षा को लेकर सतत् चौकन्ना रहते हैं।
(ग)- सखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं। ये सखा भाँति-भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु- नन्द नन्दन पर आक्रमण न कर दे।
• जिसमें समान आयु के सखा हैं—
विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप,मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि।
• श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—
मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।
(घ)- प्रियसखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण, पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं। जिसमें भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं। ये सभी प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध-अभिनय की रचना करना, अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं। ये सब शान्त प्रकृति के हैं। तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं।
इन सखाओं में "स्तोककृष्ण" श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र हैं, जो देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। इसीलिए स्तोककृष्ण को छोटा कन्हैया भी कहा जाता है। ये श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं। प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं इसके बाद शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं।
(च)- प्रिय नर्मवर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल, (श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
ये सभी सखा ऐसे हैं- जिनसे श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो।
राग— संगीत की दुनिया में कुछ प्रमुख राग गोपों (अहिरों) की ही देन (खोज) है। जैसे- गौड़ी, गुर्जरी राग, आभीर भैरव इत्यादि। जिसे भगवान श्रीकृष्ण सहित- गोप (आभीर) लोग समय-समय पर गाते हैं। आभीर भैरव नाम की राग- रागिनियाँ श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय हैं।
• अब हमलोग जानेगें श्रीकृष्ण के पारिवारिक सम्बन्धों को, जिसमें कृष्ण के पारिवारिक चाचा ताऊ के भाई बहिनों की संख्या सैकड़ों हजारों में हैं। उनमें से कुछ के नाम नीचें विवरण रूप में उद्धृत करते हैं।
• श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता— बलराम जी।
• श्रीकृष्ण के चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
• श्रीकृष्ण की चचेरी बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा,श्यामादेवी आदि। श्री कृष्ण के साथ यदि श्रीराधा जी की चर्चा नहीं हो तो बात अधुरी ही रहती है। अतः श्रीराधा जी के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस अध्याय के भाग- 2 में दी गई है।
अध्याय- (१०)
[भाग -{२}√√√-
गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।
भाग-(२) श्रीराधा का परिचय
____
श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं, तो राधा पराशक्ति (परमेश्वरी) हैं। ये एक दूसरे से अलग नहीं है। इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखंड के अध्याय -१५ के श्लोक -५८ से -६० में होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा से कहते हैं कि -
त्वं मे प्राणाधिका राधे प्रेयसी च वरानने।
यथा त्वं च तथाऽहं च भेदो हि नाऽऽवयोर्ध्रुवम॥ ५८।।
यथा पृथिव्यां गन्धश्च तथाऽहं त्वयि सन्ततम्।
विना मृदा घटं कर्तुं विना स्वर्णेन कुण्डलम्।। ५९।।
कुलालः स्वर्णकारश्च नहि शक्तः कदाचन।
तथा त्वया विना सृष्टिमहं कर्तुं न च क्षमः।।६०।।
अनुवाद- तुम मुझे मेरे स्वयं के प्राणों से भी प्रिय हो, तुम में और मुझ में कोई भेद नहीं है। जैसे पृथ्वी में गंध होती है, उसी प्रकार तुममें मैं नित्य व्याप्त हूँ। जैसे बिना मिट्टी के घड़ा तैयार करने और विना सोने के कुण्डल बनाने में जैसे कुम्हार और सुनार सक्षम नहीं हो सकता उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टिरचना में समर्थ नहीं हो सकता। ५८-६०।
अतः श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण अधूरे हैं और श्री कृष्ण के बिना श्रीराधा अधूरी हैं। इन दोनों से बड़ा ना कोई देवता है ना ही कोई देवी। श्रीराधा की सर्वोच्चता का वर्णन श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय- (एक) के प्रमुख श्लोकों में वर्णन मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -
पञ्चप्राणाधिदेवी या पञ्चप्राणस्वरूपिणी।
प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरी परा।।४४।
सर्वयुक्ता च सौभाग्यमानिनी गौरवान्विता।
वामाङ्गार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसासमा॥४५।
परावरा सारभूता परमाद्या सनातनी।
परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता॥४६।
अनुवाद- जो पञ्चप्राणों की अधिष्ठात्री, पंच प्राणस्वरूपा, सभी शक्तियों में परम सुन्दरी, परमात्मा के लिए प्राणों से भी अधिक प्रियतम, सर्वगुणसंपन्न, सौभाग्यमानिनी, गौरवमयी, श्री कृष्ण की वामांगार्धस्वरुपा और गुण- तेज में परमात्मा के समान ही हैं। वह परावरा, परमा, आदिस्वरूपा, सनातनी, परमानन्दमयी धन्य, मान्य, और पूज्य हैं।४४-४६।
रासक्रीडाधिदेवी श्रीकृष्णस्य परमात्मनः।
रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता॥४७।
रासेश्वरी सुरसिका रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥४८।
परमाह्लादरूपा च सन्तोषहर्षरूपिणी।
निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी॥ ४९।
अनुवाद - वे परमात्मा श्री कृष्ण के रासक्रीडा की अधिष्ठात्री देवी है, रासमण्डल में उनका आविर्भाव हुआ है, वे रासमण्डल से सुशोभित है, वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली, परम आह्लाद स्वरूपा, संतोष तथा हर हर्षरूपा आत्मस्वरूपा, निर्गुण, निराकार और सर्वथा निर्लिप्त हैं। ४७-४९।
यदि उपरोक्त श्लोक संख्या-(४८) पर विचार किया जाय तो उसमें श्रीराधा और श्रीकृष्ण की समानता देखने को मिलती है। वह समानता यह है कि जिस तरह से श्रीकृष्ण सदैव गोपवेष में रहते हैं उसी तरह से श्रीराधा भी सदैव गोपी वेष में रहती हैं।
'रासेश्वरी सुरसिका रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।
अनुवाद -वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली हैं। ४८।
और ऐसी ही वर्णन श्रीकृष्ण के लिए ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के श्लोक- २१ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
'स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१।
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (अहीर)- वेष में रहते हैं।२१।
अतः दोनों ही परात्पर शक्तियां- गोप (अहीर) और गोपी (अहिराणी) भेष में रहते हैं।
श्रीराधा जी को भू-तल पर अहिर कन्या होने की पुष्टि -
श्रीराधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।८३।
अनुवाद- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।८३।
अब हमलोग श्रीराधा के कुल एवं पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में जानेंगे-
• पिता- वृषभानु, माता- कीर्तिदा
• पितामह- महिभानु गोप (आभीर)
• पितामही — सुखदा गोपी (अन्यत्र ‘सुषमा’ नाम का भी उल्लेख मिलता है।
• पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु एवं सुभानु।
• भ्राता — श्रीदामा, कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी।
• फूफा — काश, बुआ — भानुमुद्रा,
• मातामह — इन्दु, मातामही — मुखरा।
• मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
• मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी।
• मौसा — कुश, मौसी — कीर्तिमती।
• धात्री — धातकी।
• राधा जी की छाया (प्रतिरूपा) वृन्दा।
• सखियाँ — श्रीराधाजी की आठ प्रकार की सखियाँ हैं।
इन सभी की विशेषताएं को नीचे ( ABCD ) क्रम में बताया गया हैं -
(A)- सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं।
(B)- नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं।
(C)- प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
इस वर्ग की सभी सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं।
(D)- प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि-कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं।
(E)- परमप्रेष्ठसखी वर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं —
(१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५) चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।
(F)- सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि।
(G)- प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य
(H)- संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक, कण्ठिका, विशाखा और नाम्नी इत्यादि सखियाँ था जो वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं। जिसमें विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर- प्रिया-प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्ययन्त्रों को बजाती हैं।
(I)- मानलीला में सन्धि कराने वाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी।
वाटिका — कन्दर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।
राग — मल्हार (वलहार) और धनाश्री' श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय-रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।
• श्रीराधा जी का विवाह -
श्रीराधा का विवाह श्रीकृष्ण से भू-तल पर ब्रह्मा जी के मन्त्रोंचारण से भाण्डीर वन में सम्पन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।
'राधे स्मरसि गोलोकवृत्तान्तं सुरसंसदि।
अद्य पूर्णं करिष्यामि स्वीकृतं यत्पुरा प्रिये।५७।
अनुवाद -हे प्राणप्यारी राधे ! तुम गोलोक का वृत्तान्त याद करों। जो वहाँ पर देवसभा में घटित हुआ था, मैनें तुम को वचन दिया था, और आज वह वचन पूरा करने का समय अब आ पहुँचा है। ५७।
ये कथोपकथन (संवाद) अभी हो ही रहा था कि वहाँ पर मुस्कराते हुए ब्रह्माजी सभी देवताओं के संग आ गये।
तब ब्रह्मा ने श्रीकृष्ण को प्रणाम कर कहा--
'कमण्डलुजलेनैव शीघ्रं प्रक्षालितं मुदा।
यथागमं प्रतुष्टाव पुटाञ्जलियुतः पुनः।९६।।
अनुवाद - उन्होंने श्रीकृष्णजी को प्रणाम किया और राधिका जी के चरणद्वय को अपने कमण्डल से जल लेकर धोया और फिर जल अपनी जटायों पर लगाया।९५।
इसके बाद ब्रह्मा जी विवाह कार्य सम्पन्न कराने हेतु-तत्पर हुए-
'पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।
हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।
ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।
कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।
प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।
वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।
श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।
पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।
तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।
पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः। 4.15.१३०।
अनुवाद - १२-१३०।
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मन्त्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।
अतः उपरोक्त साक्ष्यों से स्पष्ट हुआ कि भू-तल पर श्रीराधा जी का विवाह श्रीकृष्ण से ही हुआ था अन्य किसी से नहीं।
इस प्रकार से अध्याय- (१०) का भाग- (दो) श्रीराधा जी की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसी क्रम में इस अध्याय के भाग -(तीन) में आपलोग जानेंगे कि भू-तल पर गोपकुल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष और सम्राट पुरूरवा कौन था ? तथा उनकी पत्नी गोपी- उर्वशी कौन थी ?
अध्याय- (१०)
[भाग -{३}√√√-
गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।
(भाग-(३) पुरूरवा और उर्वशी का परिचय -
इस भाग में भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक गोप पुरुष पुरूरवा व उनकी पत्नी उर्वशी दोनों के विषय में क्रमशः (क) और (ख) दो भागों में बताया गया है।[क] - पुरूरवा
____
भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक गोप पुरुष व सम्राट पुरूरवा था। उनकी पत्नी का नाम उर्वशी था। ये दोनों ही वैष्णव वर्ण की अभीर जाति से संबंधित थे। जिनका साम्राज्य भूलोक से स्वर्गलोक तक स्थापित था। इन दोनों को वैष्णव वर्ण के अहीर (गोप) जाति से सम्बन्धित होने की पुष्टि- सर्वप्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल के (९५) वें सूक्त की ऋचा- (३) से होती है, जो पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ हैं। नीचे संदर्भ देखें-
"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३।।
(ऋग्वेद-10/95/3)
अर्थानुवाद: हे गोपिके ! तेरे सहयोग के बिना- तुणीर से फेंका जाने वाला बाण भी विजयश्री में समर्थ नहीं होता। (गोषाः शतसा) मैं सैकड़ो गायों का सेवक तुझ भार्या उर्वशी के सहयोग के बिना वेगवान भी नहीं हूं। (अवीरे) हे आभीरे ! विस्तृत कर्म में या संग्राम में भी अब मेरा वेग (बल) प्रकाशित नहीं होता है। और शत्रुओं को कम्पित करने वाले मेरे सैनिक भी अब मेरे आदेश (वचन अथवा हुंक्कार) को नहीं मानते हैं।३।
ऋग्वेद की उपर्युक्त ऋचा का हम नीचे संस्कृत भाष्य हिन्दी अनुवाद सहित प्रस्तुत कर रहे हैं।
भाष्य- हिन्दी अनुवाद सहित-
"अनया उर्वश्या प्रति पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं ब्रूते।
हिन्दी अर्थ- उस उर्वशी के प्रति पुरूरवा अपनी विरह जनित व्याकुलता को कहता है।
“इषुधेः= इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। = (इषुधि पद का पञ्चमी एक वचन का रूप इषुधे:= तीरकोश से )
इषु: - (वाण ) धारण करने वाला निषंग या तीरकोश= इषुधि )
ततः सकाशात् “इषुः= ( उसके पास से वाण) “असना असनायै= प्रक्षेप्तुं न भवति=( फेंकने के लिए नहीं होता)। “श्रिये = विजयार्थम्। ( विजयश्री के लिए) त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात्। (तेरे विरह से युद्ध का बोध करके भी विना निधान (सहारे) के द्वारा तथा “रंहिः= वेगवानहं= (मैं वेगवान्/ बलवान्) नहीं होता। “गोषाः = गोसेवका:( गवां संभक्ता:) =(गायों का भक्त- सेवक) "न अभवम् - भू धातु रूप - कर्तरि प्रयोग लङ् लकार परस्मैपद उत्तम पुरुष एकवचन- (मैं न हुआ)। तथा “शतसाः शतानामपरिमितानां गवां संभक्ता नाभवम् । अर्थात्- (मैं सैकड़ों गायों का सेवक सामर्थ्यवान्- न हो सका)। किञ्च= और तो क्या“ अवीरे = हे अभीरे ! हे गोपिके ! वा हे आभीरे “क्रतौ = यज्ञे कर्मणि वा सति “न “वि “द्विद्युतत्= न विद्योतते मत्सामर्थ्यम्। (यज्ञ या कर्म में भी मेरी सामर्थ्य अब प्रकाशित नहीं होती।) किञ्च संग्रामे धुनयः = कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः =(और तो क्या युद्ध में शत्रुओं को कम्पायमान करने वाले मेरे सैनिक भी ) ।
मायुम् = मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः। 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण्। सिंहनादं =(मेरी (मायु) हुंक्कार“ न “चितयन्त न बुध्यन्ते वा=(नहीं समझते हैं) ‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्॥
अब हम लोग ऋग्वेद की इस ऋचा में आये दो शब्दों-
*****
"गोषा:" और "अवीरे" की व्याकरणीय व्याख्या करके यह जानेंगे कि इन दोनों शब्दों का वैदिक और लौकिक संस्कृत में क्या अर्थ होता है ? जिसमें पहले "गोषा:" शब्द की व्याकरणीय व्याख्या करेंगे उसके बाद "अवीरे" की।
• गोषः शब्द की व्याकरणिक उत्पत्ति-
गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् ) धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) = भक्ति करना ,दान करना, पूजा करना + विट् ङा। सनोतेरनः” पाणिनीय षत्वम् सूत्र ।
अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर (गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है। गो सेवक अथवा पालक।
गोष: का वैदिक रूप गोषा: है।
उपर्युक्त ऋचाओं में गोषन् तथा गोषा: शब्द गोसेवक के वाचक हैं। वैदिक संस्कृत का यही गोषः शब्द लौकिक संस्कृत में घोष हुआ जो कालान्तर में गोप, गोपाल, अहीर, और यादव का पर्यायवाची शब्द बन गया। क्योंकि ये सभी गोपालक थे।
और जग-जाहिर है कि सभी पुराण लौकिक संस्कृत में लिखे गए हैं। इस हेतु पुराणों में भी देखा जाए तो वैदिक शब्द "गोषः" लौकिक संस्कृत में "घोष" गोपालक अथवा अहीर जाति के लिए आज तक भी प्रयुक्त होता है अन्य किसी जाति के लिए नहीं।
पुरूरवा के गोप अथवा गोपालक होने की पुष्टि
-श्रीमद्भागवत महापुराण के नवम-स्कन्ध के प्रथम अध्याय के श्लोक संख्या-(४२) से भी होती है जिसमें पुरूरवा के गोप (गोपालक) होने की बात कही गई है -
"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२।
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र पुरूरवा को गो-समुदाय देकर वन को चला गया।४२।
उपर्युक्त श्लोक में गाम्- संज्ञा पद गो शब्द का ही द्वितीया कर्म कारक रूप है।
यहाँ गो पद - गायों के समुदाय का वाचक है।
अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष) शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ वैदिक और लौकिक संस्कृत में - गायों का दान करने वाला तथा गोसेवा करने वाले गोप से ही होता है।
अत: उपरोक्त सन्दर्भों से स्पष्ट होता है कि भू-तल का प्रथम सम्राट पुरूरवा गो-पालक (गोप,आभीर) ही था। जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य स्थापित था।
[ख] - उर्वशी
____
उर्वशी पूर्व काल की एक धन्या और मान्या अहीर कन्या थी। जो कभी अपने तपोबल से स्वर्ग की अप्सराओं की अधिश्वरी हुई। इस ऐतिहासिक अहीर कन्या के धन्या एवं मान्या होने की पुष्टि उस समय होती है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण प्रमुख विभूतियों की तुलना करते हुए ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (७३) में कहते हैं-
वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् ।
उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः ।७०।
अनुवाद:- मैं सभी शास्त्रों में वेद हूँ समुद्र के प्राणीयों में वरुण हूं। अप्सराओं में उर्वशी हूँ। और समुद्रों में जलार्णव हूँ।७०।
वास्तव में उर्वशी एक अहीर कन्या थी इस बात की पुष्टि- ऋग्वेद की ऋचा- 10/95/3 से होती है जिसमें उसके पति पुरुरवा द्वारा उसके लिए अवीरे शब्द से सम्बोधन हुआ है।
"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३।।
इस ऋचा में आये सम्बोधन पद- 'अवीरे' की व्याकरणीय व्याख्या करके जानेंगे कि "अवीरे" शब्द का वैदिक और लौकिक संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा, पालि आदि भाषाओं में क्या रूप और अर्थ होता है ?
वास्तव में देखा जाए तो उपरोक्त ऋचा में उर्वशी का सम्बोधन अवीरे ! है, जो लौकिक संस्कृत के अभीरे शब्द का ही वैदिक पूर्व रूप है। लौकिक संस्कृत में अभीर तथा आभीर दो रूप परस्पर एक वचन और बहुवचन ( समूह-वाची ) हैं।
वैदिक भाषा का एक नियम है कि उसमें उपसर्ग कभी भी क्रियापद और संज्ञापद के साथ नहीं आते हैं। इसलिए ऋग्वेद में आया हुआ अवीरे सम्बोधन-पद मूल तद्धित विशेषण शब्द है-
(अवीर=(अवि+ईर्+अच्)= अवीर: का स्त्रीलिंग रूप अवीरा है, जो सम्बोधन काल में अवीरे ! हो जाता है।)
अत: अवीरा शब्द ही लौकिक संस्कृत में अभीरा हो गया और यही अभीर तथा समूह वाची रूप आभीर प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में अहीर तथा आहीर हो गया। यह सब कैसे हुआ ? यह नीचे सन्दर्भ देखें-
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वैदिक अवीर शब्द की व्युत्पत्ति ( अवि = गाय, भेड़ आदि पशु + ईर:= चराने वाला। हाँ करने वाला , निर्देशन करने वाला,। अर्थात् गाय आदि पशुओं का पालन करने वाले के रूप में भी अभीर शब्द की व्युत्पत्ति हुई है।
वाचस्पत्यम कोश कार ने तो अभीर की व्युत्पत्ति इसी रूप में की है। अभीर = अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरः अच् । जो चारो तरफ से गायें हाँकता है।
परन्तु यह व्युत्पत्ति एक संयोग मात्र ही है। क्योंकि अवीरा शब्द की व्युत्पत्ति ऋग्वेद में प्राप्त लौकिक अवीरा शब्द की व्युत्पत्ति से अलग ही है।
वैदिक ऋचा में अवीर (अवि+ ईर:) शब्द दीर्घ सन्धि के रूप में तद्धित पद है। जबकि लौकिक संस्कृत में अवीर (अ + वीर) के रूप में वीर के पूर्व में अ (नञ्) निषेधवाची उपसर्ग लगाने से बनता है।
परन्तु यह व्युत्पत्ति एक संयोग मात्र ही है। क्योंकि अवीरा शब्द की व्युत्पत्ति ऋग्वेद में प्राप्त लौकिक अवीरा शब्द की व्युत्पत्ति से अलग ही है।
वैदिक ऋचा में अवीर (अवि+ ईर:) शब्द दीर्घ सन्धि के रूप में तद्धित पद है। जबकि लौकिक संस्कृत में अवीर (अ + वीर) के रूप में वीर के पूर्व में अ (नञ्) निषेधवाची उपसर्ग लगाने से बनता है।
वैदिक भाषा नें लौकिक संस्कृत भाषा की व्याकरणिक प्रक्रिया अमान्य ही है।
****"
परन्तु कुछ लोग इसी कारण इसका अर्थ- "जो वीर न हो" निकालते हैं। किंतु यह ग़लत है क्योंकि उर्वशी के लिए इस अर्थ में अवीरा शब्द अनुपयुक्त व सिद्धान्त विहीन ही है। अत: अवीरा शब्द को अवि + ईरा के रूप में ही सही माना जाना चाहिए। क्योंकि अवीर शब्द का मूल सहचर हिब्रू भाषा का अबीर(अवीर) शब्द भी है। जो ईश्वर का एक नाम है। हिब्रू भाषा में अबीर शब्द का अर्थ वीर ही होता है।
वैदिक और लौकिक संस्कृत भाषा में अवीर तथा अभीर शब्द अहीरों की पशुपालन वृत्ति ( व्यवसाय) के साथ साथ अहीरों की वीरता प्रवृत्ति को भी सूचित करता है। वीर शब्द ही सम्प्रसारित होकर आर्य बन गया। इस सम्बन्ध में विदित हो आर्य शब्द प्रारम्भिक काल में पशुपालक तथा कृषक का ही वाचक था।
यदि अवीर शब्द का विकास क्रम देखा जाए तो-
वैदिक कालीन अवीर शब्द ईसापूर्व सप्तम सदी के आस-पास गाय- भेड़ बकरी पालक के रूप में प्रचलित था।
यह वीर अहीरों का वाचक था। परन्तु कालान्तर में ईसापूर्व पञ्चम सदी के समय यही अवीर शब्द अभीर रूप में प्रचलन में रहा और इसी अभीर का समूह वाची अथवा बहुवचन रूप आभीर हुआ जो अहीरों की वीरता प्रवृत्ति का सूचक रहा इसी समय के शब्दकोशकार अमरसिंह ने आभीर शब्द की व्युत्पत्ति अपने अमरकोष में कुछ इस तरह से बतायी है।
आभीरः= पुंल्लिंग (आ= समन्तात् भियं =भयं राति= ददाति (आ+भी+ रा + क:) रा=दाने आत इति कः।)
अर्थात "जो चारों तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय दे या भरे। वही आभीर- है । इत्यमरःकोश - आभीर प्राकृत भाषा में आहिर हो गया है। अभीर- अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरः अच् । अर्थात् जो सामने मुख करके या चारो तरफ से गायें हाँकता या चराता है।
और आगे कालक्रम से यही आभीर शब्द एक हजार ईस्वी में अपभ्रष्ट पूर्व हिन्दी भाषा के विकास काल में प्राकृत भाषा के प्रभाव से आहीर हो गया। ज्ञात हो कि लौकिक संस्कृत में जो आभीर शब्द प्रयुक्त होता है उसका तद्भव रुप आहीर ही होता है।
दूसरी बात यह कि- ऋग्वेद में गाय चराने या हाँकने के सन्दर्भ में ईर् धातु का क्रियात्मक लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन का रूप ' ईर्ते ' विद्यमान है। जैसे -
'रुशद्- ईर्त्ते पयो गोः ”प्रकाशित होती हुई( नजर आती हुई- दूध वाली गाय चरती है। (ऋग्वेद-9/91/3 )
यह तो सर्वविदित है ही की "उर्वशी गाय और भेड़ें पालती थी। आभीर कन्या होने के नाते भी उसका इन पशुओं से प्रेम होना स्वाभाविक ही था। इस बात की भी पुष्टि- देवी भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध के अध्याय- (१३) के श्लोक- संख्या-(८) से होती है कि उर्वशी के पास दो भेंड़े भी थीं।
"समयं चेदृशं कृत्वा स्थिता तत्र वराङ्गना ।
एतावुरणकौ राजन्न्यस्तौ रक्षस्व मानद ॥८।
अनुवाद -वह वरांगना इस प्रकार की शर्त रखकर वहीं रहने लगी। उसने पुरूरवा से कहा - हे राजन ! यह दोनों भेंड़ के बच्चे मैं आपके पास धरोहर के रूप में रखती हूं।
ध्यान रहे अमरकोश - 2/9/76/2/3 - भेंड़ के पर्याय निम्नांकित बताए गए हैं। "उरण पुं। मेषः"
समानार्थक=मेढ्र,उरभ्र,उरण,ऊर्णायु,मेष,वृष्णि,एडक,अवि।अतः सिद्ध होता है कि उर्वशी के पास दो भेंड़ के बच्चे थे।
कुछ समय बाद उर्वशी के दोनों भेड़ के बच्चों के साथ एक घटना घटी जिसमें इन्द्र के कहने पर गन्धर्व उर्वशी के दोनों भेंड़ के बच्चों को चुरा कर आकाश मार्ग से ले जाने लगे, तब दोनों भेंड़ के बच्चे जोर-जोर से चिल्लाने लगे। इस घटना का वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के प्रथम स्कंध के अध्याय- (१३) के श्लोक - (१७ से २०) में कुछ इस प्रकार लिखा हुआ मिलता है।
इत्युक्तास्तेऽथ गन्धर्वा विश्वावसुपुरोगमाः।
ततो गत्वा महागाढे तमसि प्रत्युपस्थिते॥१७।।
परन्तु कुछ लोग इसी कारण इसका अर्थ- "जो वीर न हो" निकालते हैं। किंतु यह ग़लत है क्योंकि उर्वशी के लिए इस अर्थ में अवीरा शब्द अनुपयुक्त व सिद्धान्त विहीन ही है। अत: अवीरा शब्द को अवि + ईरा के रूप में ही सही माना जाना चाहिए। क्योंकि अवीर शब्द का मूल सहचर हिब्रू भाषा का अबीर(अवीर) शब्द भी है। जो ईश्वर का एक नाम है। हिब्रू भाषा में अबीर शब्द का अर्थ वीर ही होता है।
वैदिक और लौकिक संस्कृत भाषा में अवीर तथा अभीर शब्द अहीरों की पशुपालन वृत्ति ( व्यवसाय) के साथ साथ अहीरों की वीरता प्रवृत्ति को भी सूचित करता है। वीर शब्द ही सम्प्रसारित होकर आर्य बन गया। इस सम्बन्ध में विदित हो आर्य शब्द प्रारम्भिक काल में पशुपालक तथा कृषक का ही वाचक था।
यदि अवीर शब्द का विकास क्रम देखा जाए तो-
वैदिक कालीन अवीर शब्द ईसापूर्व सप्तम सदी के आस-पास गाय- भेड़ बकरी पालक के रूप में प्रचलित था।
यह वीर अहीरों का वाचक था। परन्तु कालान्तर में ईसापूर्व पञ्चम सदी के समय यही अवीर शब्द अभीर रूप में प्रचलन में रहा और इसी अभीर का समूह वाची अथवा बहुवचन रूप आभीर हुआ जो अहीरों की वीरता प्रवृत्ति का सूचक रहा इसी समय के शब्दकोशकार अमरसिंह ने आभीर शब्द की व्युत्पत्ति अपने अमरकोष में कुछ इस तरह से बतायी है।
आभीरः= पुंल्लिंग (आ= समन्तात् भियं =भयं राति= ददाति (आ+भी+ रा + क:) रा=दाने आत इति कः।)
अर्थात "जो चारों तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय दे या भरे। वही आभीर- है । इत्यमरःकोश - आभीर प्राकृत भाषा में आहिर हो गया है। अभीर- अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरः अच् । अर्थात् जो सामने मुख करके या चारो तरफ से गायें हाँकता या चराता है।
और आगे कालक्रम से यही आभीर शब्द एक हजार ईस्वी में अपभ्रष्ट पूर्व हिन्दी भाषा के विकास काल में प्राकृत भाषा के प्रभाव से आहीर हो गया। ज्ञात हो कि लौकिक संस्कृत में जो आभीर शब्द प्रयुक्त होता है उसका तद्भव रुप आहीर ही होता है।
दूसरी बात यह कि- ऋग्वेद में गाय चराने या हाँकने के सन्दर्भ में ईर् धातु का क्रियात्मक लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन का रूप ' ईर्ते ' विद्यमान है। जैसे -
'रुशद्- ईर्त्ते पयो गोः ”प्रकाशित होती हुई( नजर आती हुई- दूध वाली गाय चरती है। (ऋग्वेद-9/91/3 )
यह तो सर्वविदित है ही की "उर्वशी गाय और भेड़ें पालती थी। आभीर कन्या होने के नाते भी उसका इन पशुओं से प्रेम होना स्वाभाविक ही था। इस बात की भी पुष्टि- देवी भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध के अध्याय- (१३) के श्लोक- संख्या-(८) से होती है कि उर्वशी के पास दो भेंड़े भी थीं।
"समयं चेदृशं कृत्वा स्थिता तत्र वराङ्गना ।
एतावुरणकौ राजन्न्यस्तौ रक्षस्व मानद ॥८।
अनुवाद -वह वरांगना इस प्रकार की शर्त रखकर वहीं रहने लगी। उसने पुरूरवा से कहा - हे राजन ! यह दोनों भेंड़ के बच्चे मैं आपके पास धरोहर के रूप में रखती हूं।
ध्यान रहे अमरकोश - 2/9/76/2/3 - भेंड़ के पर्याय निम्नांकित बताए गए हैं। "उरण पुं। मेषः"
समानार्थक=मेढ्र,उरभ्र,उरण,ऊर्णायु,मेष,वृष्णि,एडक,अवि।अतः सिद्ध होता है कि उर्वशी के पास दो भेंड़ के बच्चे थे।
कुछ समय बाद उर्वशी के दोनों भेड़ के बच्चों के साथ एक घटना घटी जिसमें इन्द्र के कहने पर गन्धर्व उर्वशी के दोनों भेंड़ के बच्चों को चुरा कर आकाश मार्ग से ले जाने लगे, तब दोनों भेंड़ के बच्चे जोर-जोर से चिल्लाने लगे। इस घटना का वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के प्रथम स्कंध के अध्याय- (१३) के श्लोक - (१७ से २०) में कुछ इस प्रकार लिखा हुआ मिलता है।
इत्युक्तास्तेऽथ गन्धर्वा विश्वावसुपुरोगमाः।
ततो गत्वा महागाढे तमसि प्रत्युपस्थिते॥१७।।
जह्रुस्तावुरणौ देवा रममाणं विलोक्य तम्।
चक्रन्दतुस्तदा तौ तु ह्रियमाणौ विहायसा॥१८।।
उर्वशी तदुपाकर्ण्य क्रन्दितं सुतयोरिव।
कुपितोवाच राजानं समयोऽयं कृतो मया॥ १९।।
नष्टाहं तव विश्वासाद्धृतौ चोरैर्ममोरणौ।
राजन्पुत्रसमावेतौ त्वं किं शेषे स्त्रिया समः॥२०।।
अनुवाद- १७-२०
• तब इन्द्र के ऐसा कहने पर विश्वावसु आदि प्रधान गन्धर्वों ने वहां से जाकर रात्रि के घोर अंधकार में राजा पुरुरवा को बिहार करते देख उन दोनों भेंड़ों को चुरा लिया तब आकाश मार्ग से जाते हुए चुराए गए वे दोनों भेंड़ जोर से चिल्लाने लगे। १७-१८।
• अपने पुत्र के समान पाले हुए भेड़ों का क्रंदन( आवाज) सुनते ही उर्वशी ने क्रोधित होकर राजा पुरूरवा से कहा- हे राजन ! मैंने आपके सम्मुख जो पहली शर्त रखी थी, वह टूट गई आपके विश्वास पर मैं धोखे में पड़ी, क्योंकि पुत्र के समान मेरे प्रिय भेंड़ों को चोरों ने चुरा लिया फिर भी आप घर में स्त्री की तरह शयन कर रहे हैं।१९-२०।
अतः इन उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि पुरूरवा और उर्वशी दोनों पशुपालक अहीर जाति से सम्बन्धित थे।
उर्वशी को अहिर कन्या होने की पुष्टि- मत्स्यपुराण- के (६९) वें अध्याय के श्लोक- ६१-६२ से भी होती है।
जिसमें उर्वशी के द्वारा "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने का प्रसंग है। इसी प्रसंग में भगवान श्री कृष्ण भीम से कल्याणिनी व्रत के बारे में कहते हैं कि -
"त्वा च यामप्सरसामधीशा वैश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे॥६१।
जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यकामा॥६२।
अनुवाद- ६१-६२
जन्मान्तर में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह वैश्य पुत्री अप्सराओं की अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी( उरणवशी)- भेड़ को प्रेमकरने वाली नाम से विख्यात है। ६१।
• इसी प्रकार इसी वैश्य( गोप)कुल में उत्पन्न हुई एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्रीरूप में उत्पन्न होकर इन्द्र की पत्नी बनी। उसके अनुष्ठान काल में जो उसकी सेविका थी,वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है। ६२।
"त्वा च यामप्सरसामधीशा वैश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे॥६१।
जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यकामा॥६२।
अनुवाद- ६१-६२
जन्मान्तर में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह वैश्य पुत्री अप्सराओं की अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी( उरणवशी)- भेड़ को प्रेमकरने वाली नाम से विख्यात है। ६१।
• इसी प्रकार इसी वैश्य( गोप)कुल में उत्पन्न हुई एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्रीरूप में उत्पन्न होकर इन्द्र की पत्नी बनी। उसके अनुष्ठान काल में जो उसकी सेविका थी,वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है। ६२।
अतः वैदिक और पौराणिक सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है। कि उर्वशी अहीर कन्या थी। जिसके पति का नाम पुरूरवा था वह भी गोप था। उस समय उसके जैसा धर्मवत्सल राजा तीनों लोकों में नहीं था। उन्होंने बहुत काल तक अपनी पत्नी उर्वशी के साथ सुख भोगा। इन सभी बातों की पुष्टि- हरिवंश पुराण के हरिवंशपर्व के अध्याय- (२६) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें पुरूरवा के बारे में लिखा गया है कि -
"ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।।२।
सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव त्रिषु लोकेषु यशसाप्रतिमस्तदा।।३।
तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी।।४।
तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।
पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत।।५।
वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे।।६।
उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान्।
गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे।। ७।
एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।।८।
देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।।९।
अनुवाद- २-९
• वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक वैष्णव यज्ञ किये।२।
• वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन-भूख (कामवासना) पर पूरा नियंत्रण था। उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था।३।
• अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति के रूप में चुना। ४।
• राजा पुरूरवा दसवर्षों तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मन्दाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल आदि स्थानों में उर्वशी के साथ रहे। सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक रहे । ५-७।
• देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरूरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया। ८।
• पृथ्वीपति पुरूरवा ( उर्वशी के साथ ) महर्षियों से प्रशंसित परम पवित्र देश प्रयागराज में राज्य करते थे।९।
इस प्रकार से सिद्ध होता है कि पुरूरवा एक धर्मवत्सल तथा प्रजापालक सम्राट थे। वह अपनी पत्नी उर्वशी के साथ बहुत दिनों तक भू-तल पर सुखपूर्वक रहे
अब हम लोग यह जानेंगे कि पुरूरवा और उर्वशी से किस नाम के कौन-कौन से पुत्र हुए।
पुरूरवा और उर्वशी से उत्पन्न पुत्रों का वर्णन हरिवंशपुराण के हरिवंशपर्व के अध्याय -(२६) के प्रमुख श्लोकों में मिलता है। जिसमें वैशम्पायनजी जन्मेजय के पूछने पर कहते हैं कि -
"तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।
विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।
अनुवाद- उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम- आयु , धीमान , अमावसु , धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु , वनायु और शतायु थे। इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था।१०-११।
अतः हरिवंशपुराण के उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि आभीर पुरूरवा की पत्नी उर्वशी( (उरणवशी) से कुल सात देवतुल्य पुत्र हुए। उन सभी का विस्तार पूर्वक वर्णन भाग- (४) में किया गया है।
इस प्रकार से अध्याय- १० का भाग- (३) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष
पुरूरवा व उनकी पत्नी उर्वशी दोनों ही वैष्णव वर्ण के गोपकुल के अभीर जाति से संबंधित हैं।
"ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।।२।
सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव त्रिषु लोकेषु यशसाप्रतिमस्तदा।।३।
तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी।।४।
तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।
पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत।।५।
वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे।।६।
उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान्।
गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे।। ७।
एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।।८।
देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।।९।
अनुवाद- २-९
• वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक वैष्णव यज्ञ किये।२।
• वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन-भूख (कामवासना) पर पूरा नियंत्रण था। उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था।३।
• अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति के रूप में चुना। ४।
• राजा पुरूरवा दसवर्षों तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मन्दाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल आदि स्थानों में उर्वशी के साथ रहे। सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक रहे । ५-७।
• देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरूरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया। ८।
• पृथ्वीपति पुरूरवा ( उर्वशी के साथ ) महर्षियों से प्रशंसित परम पवित्र देश प्रयागराज में राज्य करते थे।९।
इस प्रकार से सिद्ध होता है कि पुरूरवा एक धर्मवत्सल तथा प्रजापालक सम्राट थे। वह अपनी पत्नी उर्वशी के साथ बहुत दिनों तक भू-तल पर सुखपूर्वक रहे
अब हम लोग यह जानेंगे कि पुरूरवा और उर्वशी से किस नाम के कौन-कौन से पुत्र हुए।
पुरूरवा और उर्वशी से उत्पन्न पुत्रों का वर्णन हरिवंशपुराण के हरिवंशपर्व के अध्याय -(२६) के प्रमुख श्लोकों में मिलता है। जिसमें वैशम्पायनजी जन्मेजय के पूछने पर कहते हैं कि -
"तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।
विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।
अनुवाद- उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम- आयु , धीमान , अमावसु , धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु , वनायु और शतायु थे। इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था।१०-११।
अतः हरिवंशपुराण के उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि आभीर पुरूरवा की पत्नी उर्वशी( (उरणवशी) से कुल सात देवतुल्य पुत्र हुए। उन सभी का विस्तार पूर्वक वर्णन भाग- (४) में किया गया है।
इस प्रकार से अध्याय- १० का भाग- (३) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष
पुरूरवा व उनकी पत्नी उर्वशी दोनों ही वैष्णव वर्ण के गोपकुल के अभीर जाति से संबंधित हैं।
अब इस अध्याय- के अगले भाग -(चतुर्थ भाग ) में आपलोग जानेंगे कि- पुरूरवा और उर्वशी के ज्येष्ठ पुत्र आयु की पीढ़ी में आगे चलकर नहुष और ययाति की वैष्णव वर्ण के गोपकुल में क्या भूमिका रही ?
अध्याय- (१०)
गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।
अध्याय- (१०)
[भाग -{४}√√√-
गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।
इस भाग में पुरूरवा, उर्वशी, और ययाति का परिचय क्रमशः (क), (ख), और (ग) में किया गया है।
[क] - आयुष :-
पुरूरवा के सात पुत्रों- (आयुष , अमावसु , विश्वायु , श्रुतायु , दृढ़ायु , वनायु और शतायु ) में ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे; जिनका सम्बन्ध गोप जाति से ही है। क्योंकि इनके पिता- पुरुरवा और माता उर्वशी पूर्व ही गोप जातीय थे। अतः उनसे उत्पन्न पुत्र गोप ही होगें। अतः इस नियमानुसार आयुष भी गोप ही हुए। (पुरूरवा और उर्वशी को गोप होने के बारे में इसके पिछले खण्ड -(३) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है।)
गोप पुरूरवा एवं गोपी (अहीराणी) उर्वशी के सात पुत्रों में विशेष रूप से आयुष को ही लेकर आगे तक वर्णन किया जाएगा क्योंकि इनकी ही पीढ़ी में आगे चलकर यादव वंश का उदय हुआ जिसमें भगवान श्रीकृष्ण का भी अवतरण हुआ, जिनका संबंध गोलोक के साथ ही भू-तल पर भी गोप जाति से ही रहा है।
(भगवान श्रीकृष्ण को सदैव गोप होने के बारे में अध्याय- (आठ) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है )
आभीर कन्या उर्वशी के ज्येष्ठ पुत्र- आयुष (आयु ) का विवाह स्वर्भानु (सूर्यभानु) गोप की पुत्री इन्दुमती से हुआ था। इन्दुमती का दूसरा नाम- लिंगपुराण आदि में "प्रभा" भी मिलता है।
ज्ञात हो कि इन्दुमती के पिता स्वर्भानु गोप वहीं हैं जो भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक में सदैव तीसरे द्वार के द्वारपाल रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के चतुर्थ श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय-५ के श्लोक- (१२) और (१३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
'द्वारे नियुक्तं ददृशुः सूर्यभानुं च नारद ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं श्यामसुन्दरम् ।।१२।
मणिकुण्डलयुग्मेन कपोलस्थलराजितम् ।
रत्नदण्डकरं श्रेष्ठं प्रेष्यं राधेशयोः परम्।।१३।
अनुवाद - देवता लोग तीसरे उत्तम द्वार पर गए, जो दूसरे से भी अधिक सुन्दर ,विचित्र तथा मणियों के तेज से प्रकाशित था। नारद ! वहाँ द्वारा की रक्षा में नियुक्त सूर्यभानु नामक द्वारपाल दिखाई दिए, जो दो भुजाओं से युक्त मुरलीधारी, किशोर, श्याम एवं सुंदर थे। उनके दोनों गालों पर दो मणियय कुण्डल झलमला रहे थे। रत्नकुण्डलधारी सूर्यभानु श्री राधा और श्री कृष्ण के परम प्रिय एवं श्रेष्ठ सेवक थे। १२-१३
इसी सुर्यभानु गोप की पुत्री- इन्दुमती (प्रभा) का विवाह भू-तल पर गोप पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष से हुआ था। इस बात की पुष्टि लिंग पुराण के (६६ )वें अध्याय के श्लोक संख्या- (५९) और (६०) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
"आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।। ५९।
अनुवाद - आयुष के पांच वीर और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए। इन नहुष आदि पाँचो राजाओं का जन्म आयुष की पत्नी स्वर्भानु (सूर्यभानु ) की पुत्री प्रभा की कुक्षा (उदर) से हुआ था।५९।
[ख] - नहुष :-
उपर्युक्त श्लोक से ज्ञात होता है कि आयुष के पुत्र "नहुष" थे। जिनका विवाह पार्वती की पुत्री अशोकसुन्दरी ( विरजा ) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टि निर्माण खण्ड में तथा लिंगपुराण में भी मिलता है।
ज्ञात हो कि नहुष श्रीकृष्ण के अंशावतार थे। अतः इनका भी सम्बन्ध वैष्णव वर्ण के गोप कुल से ही था। जिसमें नहुष को श्रीकृष्ण का अंशावतार होने की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय संख्या -(१०३) से होती है जिसमें नहुष के पिता- आयुष (आयु ) की तपस्या से प्रसन्न होकर दत्तात्रेय ने वर दिया कि तेरे घर में विष्णु के अंश वाला पुत्र होगा। उस प्रसंग को नीचे देखें।
'देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम्।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो।१३५।
'दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः।१३६।
एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः।
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः।१३७।
अनुवाद-
• सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो।१३५।
• दत्तात्रेय ने कहा - ऐसा ही हो ! तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य-कर्मा और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।
• जो इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त-सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा।१३७।
अतः उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि नहुष भगवान श्रीकृष्ण के ही अंशावतार थे। वहीं दूसरी तरफ नहुष की पत्नी विरजा (अशोक सुन्दरी) भी गोलोक की गोपी तथा भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी थी। इस विरजा और श्रीकृष्ण से गोलोक में कुल सात पुत्र उत्पन्न हुए थे।
इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता- वृन्दावनखण्ड के अध्याय-२६ के श्लोक - (१७)से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
विरजायां सप्त सुता बभूवुः कृष्णतेजसा।
निकुञ्जं ते ह्यलंचक्रुः शिशवो बाललीलया॥१७।
अनुवाद - श्रीकृष्ण के तेज से विरजा के गर्भ से सात पुत्र उत्पन्न हुए। वे सातों शिशु अपनी बाल- क्रीड़ा से निकुंज की शोभा बढ़ाने लगे।१७।
ज्ञात हो कि श्रीकृष्ण की प्रेयसी गोलोक की विरजा कालान्तर में भू-तल पर अशोक सुन्दरी नाम से पार्वती जी के अंश से पुत्री रूप में प्रकट हुई। फिर उसका विवाह भू-तल पर किसी और से नहीं बल्कि श्रीकृष्ण के अंश नहुष से ही हुआ।
इन सभी बातों की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमिखण्ड के अध्याय संख्या -(१०२) के श्लोक संख्या - (७१ से ७४) में होती है। जिसमें पार्वती जी अपनी पुत्री अशोक सुंदरी (विरजा) को वरदान देते हुए कहती हैं कि -
"वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा।७१।
अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः।।७२।
सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति।।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता।।७४।
अनुवाद- पार्वती ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा- इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे ! तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्वसौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी। राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्र वंशीय परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही तुम्हारे पति होंगे।७१-७४।
इस प्रकार पार्वती ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
इन श्लोकों से एक बात और स्पष्ट होकर सामने आती है कि - पार्वती जी के वरदान के अनुसार अशोक सुंदरी का विवाह चंद्रवंशी सम्राट नहुष से होना सुनिश्चित हआ ।
अतः यहाँ सिद्ध होता है कि "नहुष" गोप- कुल के चंद्रवंशी सम्राट थे। यह बात उस समय की है कि- जब भू-तल पर उस समय तक यादवंश का उदय नहीं हुआ था। किंतु श्रीकृष्ण अंश नहुष को चंद्रवंशी होने का प्रमाण यहाँ मिलता है। और चंद्रवंश के अंतर्गत आनेवाला यादव वंश अब बहुत दूर नहीं रहा, जल्द ही उसका क्रम भी आएगा।
अब आगे श्रीकृष्ण अंश नहुष और विरजा (अशोक सुन्दरी) से गोलोक की ही भांति भू-तल पर भी कुल छह पुत्र हुए। जिसकी पुष्टि - भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय -१८ के श्लोक (१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
'यतिर्यायातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः।
षडिमे नहुषस्यासन्निद्रयाणीव देहिनः।।१।
अनुवाद- जैसे शरीरधारियों के छः इंद्रियां होती हैं, वैसे ही नहुष के छः पुत्र थे। उनके नाम थे- यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति, और कृति। १।
जिसमें ययाति सबसे छोटे थे। फिर भी नहुष ने ययाति को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और राजा बनाया।
(ज्ञात हो कि ययाति ने भी अपने पिता नहुष की इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने छोटे पुत्र- पुरु को राजा बनाया था। इसका विवरण आगे दिया गया है।)
[ग] - ययाति :-
ययाति श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र थे और उनकी माता "विरजा" गोलोक की गोपी थीं। ऐसे में ययाति अपने माता-पिता के गुणों एवं (रक्त-सम्बन्धों) ब्लड रिलेशन से गोप ही थे। इसी वजह से वे राजा होते हुए भी बड़े पैमाने पर गोपालन किया करते थे। और यज्ञ आदि के समय अधिक से अधिक गायों का भी दान किया करते थे। ययाति और उनके पिता नहुष को एक ही साथ गोपालक होने की पुष्टि- महाभारत अनुशासनपर्व के अध्याय -८१ के श्लोक संख्या-५-६ से भी होती है।
"मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।।५।
गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।।६।
अनुवाद - युवनाश्व के पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति- ये सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे; इससे वह उन उत्तम स्थानों को प्राप्त हुऐ हैं, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। अर्थात् वे सब गोलोक को चले गये।५-६।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र "ययाति" भी गोप थे। ययाति की तीन पत्नियां थीं, जिनके क्रमशः नाम हैं - देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमति। उसमें देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री थी और शर्मिष्ठा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री थी। तथा अश्रुबिन्दुमति कामदेव की पुत्री थी। जिसमें ययाति की दो पत्नियों का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- १८ के श्लोक- ४ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
'चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातृन् भ्राता यवीयशः।
कृतदारो जुगोपोर्वी काव्यस्य वृषपर्वणः।।४।
अनुवाद -ययाति अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्य राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे।४।
(ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमति कब ययाति की पत्नी हुईं इस बात को इसी प्रसंग में आगे बताया गया है।)
आगे ययाति की इन दो पत्नियों से कुल पांच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्यु, अनु, और पुरु हुए। किंतु अश्रुबिंदुमति सदा पुत्रहीन रही।
ज्ञात हो कि - ययाति अपनी तीनों पत्नियों में कभी सामंजस्य नहीं बैठा पाए। क्योंकि ये तीनों आपसी रूप सौतें होने की वजह से हमेशा एक दूसरे से (ईर्ष्या) करती थीं। विशेष रूप से अश्रुबिंदुमति से तो देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों और अधिक ईर्ष्या करती थीं। जिसका परिणाम यह हुआ कि कलह बढ़ता ही गया, अन्ततोगत्वा ययाति ने क्रुद्ध होकर अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बेवजह (बिनाकारण) देवयानी की वजह से ही शाप दे दिया। किंतु पिता का यही शाप आगे चलकर यदु के लिए वरदान भी सिद्ध हुआ। वह शाप कैसा था ? और क्यों दिया गया ? इसका विस्तार पूर्वक वर्णन पद्मपुराण के दूसरे खण्ड भूमिखण्ड के अध्याय- (८०) के श्लोक -(३) से लेकर (१४) तक मिलता है। जिसका श्लोक और अनुवाद दोनों नीचे दिया गया है।
• यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा।
अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।। ३।
• तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।। ४।
• रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।। ५।
• दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।। ६।
• अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।। ७।
• सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा।।८।
• प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।।९।
• मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।। १०।
• दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत्।
भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।। ११।
• पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।।१२।
• यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह।
शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।।१३।
• यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि।
मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः।।१४।
अनुवाद- (३- से १४ तक)
• सुकर्मा ने कहा– जब वह राजा ( ययाति) कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गये, तो उच्च विचार वाली देवयानी उसके साथ बहुत प्रतिद्वन्द्विता करने लगी।३।
•इस कारण उस ययाति ने क्रोध के वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) जो देवयानी से उत्पन्न थे; उनको शाप दे दिया। और राजा ने दूत के द्वारा शर्मिष्ठा को बुलाकर ये शब्द कहे। ४।
• शर्मिष्ठा और देवयानी दोनों रूप , तेज और दान के द्वारा उस अश्रु-बिन्दुमती के साथ प्रतिस्पर्धा करती हैं। ५
• तब कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती ने उन दोनों के दुष्टभाव को जाना तो उसने राजा को वह सब बातें उसी समय कह सुनायीं।६।
• तब क्रोधित होकर राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अर्थात अपनी माता (देवयानी) को मार डालो।७।
• हे पुत्र तुम मेरा प्रिय करो यदि तुम इसे कल्याण कारी मानते हो ! अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने पिता से कहा। ८।
• मान्यवर ! पिता श्री ! मैं निर्दोष दोनों माताओं को नहीं मारुँगा। ९।
• वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है। इस लिए महाराज ! मैं इन दोनों माताओं का बध नहीं करुँगा। १०।
• हे राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक पुत्री पर हजार दोष लगें हो। ११।
• तो भी उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए ! यह जानकर महाराज मैं दोनों माताओ को नहीं मारुँगा। १२।
• उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये इसके बाद पृथ्वी के स्वामी ययाति ने अपने पुत्र को शाप दे दिया।१३।
• चूंकि तुमने आज मेरे आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का ही भजन (भक्ति ) करो।१४।
पिता की इतनी बातें सुनने के बाद यदु ने अपने पिता राजा ययाति से विनम्रता पूर्वक उस राज्य का नागरिक होने के नाते से पूछा था-
हे महाराजा! मैं तो निर्दोष हूं, फिर भी तुमने मुझे क्यों शाप दिया है ? कृपया मुझ निर्दोष का पक्ष लें और मुझ पर दया करने की कृपा करें।
- पद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय- ७८ के श्लोक संख्या-३३ और ३४ में यदु और ययाति के संवाद रूप में दो श्लोक विशेष महत्व के हैं। जिसमें यदु अपने पिता से कहते हैं -
'निर्दोषोहं महाराज कस्माच्छप्तस्त्वयाधुना।
कृपां कुरुष्व दीनस्य प्रसादसुमुखो भव।।३३।
"राजोवाच-
'महादेवः कुले ते वै स्वांशेनापि हि पुत्रक।
करिष्यति विसृष्टिं च तदा पूतं कुलं तव।।३४।
अनुवाद - हे महाराजा! मैं तो निर्दोष हूं, फिर भी तुमने मुझे क्यों शाप दिया है ? कृपया मुझ निर्दोष का पक्ष लें और मुझ पर दया करने की कृपा करें।
तब राजा ने कहा- हे पुत्र ! जब महान देवता (स्वराट विष्णु) अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेंगे तब तेरा कुल शुद्ध हो जाएगा।३३-३४।
(ज्ञात हो- अनन्त ब्रह्माण्ड में अनन्त छोटे विष्णु, ब्रह्मा, और महेश हैं। किंतु स्वराट विष्णु एक हैं जिन्हें परमेश्वर कहा जाता है। जो सभी देवताओं के भी ईश्वर और महान देवता हैं। उनका निवास स्थान सभी लोकों से ऊपर है। उसका नाम है गोलोक, उसी गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) रहते है। इस बात की संपूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय दो और तीन को अवश्य देखें।)
और आगे चलकर ययाति का यही शाप यदु के लिए वरदान सिद्ध हुआ, क्योंकि ययाति के कथनानुसार कालान्तर में यदु के वंश में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ। इस बात की संपूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय- ८ को देखें।
इस प्रकार से अध्याय- (१०) गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों के परिचय के साथ समाप्त हुआ। जिसमें आप लोगों ने वैष्णव वर्ण के गोप राजाओं (आयुष, नहुष, ययाति) तथा उनकी पत्नियों व पुत्रों इत्यादि को भी जाना।
इसी क्रम में इसके अगले अध्याय-(११) में-
"यदुवंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपत्तियों के बारे में बताया गया है। उसे भी इस अध्याय के साथ जोड़ कर अवश्य पढ़ें।
अध्याय- (११)
गोप कुल के यादव वंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपति।
इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य गोप कुल के प्रमुख सदस्यों के चरित्रों एवं विशेषताओं को बताते हुए यादवों के वंश वृक्ष को विधिवत बताना है।
[क] - आयुष :-
पुरूरवा के सात पुत्रों- (आयुष , अमावसु , विश्वायु , श्रुतायु , दृढ़ायु , वनायु और शतायु ) में ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे; जिनका सम्बन्ध गोप जाति से ही है। क्योंकि इनके पिता- पुरुरवा और माता उर्वशी पूर्व ही गोप जातीय थे। अतः उनसे उत्पन्न पुत्र गोप ही होगें। अतः इस नियमानुसार आयुष भी गोप ही हुए। (पुरूरवा और उर्वशी को गोप होने के बारे में इसके पिछले खण्ड -(३) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है।)
गोप पुरूरवा एवं गोपी (अहीराणी) उर्वशी के सात पुत्रों में विशेष रूप से आयुष को ही लेकर आगे तक वर्णन किया जाएगा क्योंकि इनकी ही पीढ़ी में आगे चलकर यादव वंश का उदय हुआ जिसमें भगवान श्रीकृष्ण का भी अवतरण हुआ, जिनका संबंध गोलोक के साथ ही भू-तल पर भी गोप जाति से ही रहा है।
(भगवान श्रीकृष्ण को सदैव गोप होने के बारे में अध्याय- (आठ) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है )
आभीर कन्या उर्वशी के ज्येष्ठ पुत्र- आयुष (आयु ) का विवाह स्वर्भानु (सूर्यभानु) गोप की पुत्री इन्दुमती से हुआ था। इन्दुमती का दूसरा नाम- लिंगपुराण आदि में "प्रभा" भी मिलता है।
ज्ञात हो कि इन्दुमती के पिता स्वर्भानु गोप वहीं हैं जो भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक में सदैव तीसरे द्वार के द्वारपाल रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के चतुर्थ श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय-५ के श्लोक- (१२) और (१३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
'द्वारे नियुक्तं ददृशुः सूर्यभानुं च नारद ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं श्यामसुन्दरम् ।।१२।
मणिकुण्डलयुग्मेन कपोलस्थलराजितम् ।
रत्नदण्डकरं श्रेष्ठं प्रेष्यं राधेशयोः परम्।।१३।
अनुवाद - देवता लोग तीसरे उत्तम द्वार पर गए, जो दूसरे से भी अधिक सुन्दर ,विचित्र तथा मणियों के तेज से प्रकाशित था। नारद ! वहाँ द्वारा की रक्षा में नियुक्त सूर्यभानु नामक द्वारपाल दिखाई दिए, जो दो भुजाओं से युक्त मुरलीधारी, किशोर, श्याम एवं सुंदर थे। उनके दोनों गालों पर दो मणियय कुण्डल झलमला रहे थे। रत्नकुण्डलधारी सूर्यभानु श्री राधा और श्री कृष्ण के परम प्रिय एवं श्रेष्ठ सेवक थे। १२-१३
इसी सुर्यभानु गोप की पुत्री- इन्दुमती (प्रभा) का विवाह भू-तल पर गोप पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष से हुआ था। इस बात की पुष्टि लिंग पुराण के (६६ )वें अध्याय के श्लोक संख्या- (५९) और (६०) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
"आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।। ५९।
अनुवाद - आयुष के पांच वीर और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए। इन नहुष आदि पाँचो राजाओं का जन्म आयुष की पत्नी स्वर्भानु (सूर्यभानु ) की पुत्री प्रभा की कुक्षा (उदर) से हुआ था।५९।
[ख] - नहुष :-
उपर्युक्त श्लोक से ज्ञात होता है कि आयुष के पुत्र "नहुष" थे। जिनका विवाह पार्वती की पुत्री अशोकसुन्दरी ( विरजा ) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टि निर्माण खण्ड में तथा लिंगपुराण में भी मिलता है।
ज्ञात हो कि नहुष श्रीकृष्ण के अंशावतार थे। अतः इनका भी सम्बन्ध वैष्णव वर्ण के गोप कुल से ही था। जिसमें नहुष को श्रीकृष्ण का अंशावतार होने की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय संख्या -(१०३) से होती है जिसमें नहुष के पिता- आयुष (आयु ) की तपस्या से प्रसन्न होकर दत्तात्रेय ने वर दिया कि तेरे घर में विष्णु के अंश वाला पुत्र होगा। उस प्रसंग को नीचे देखें।
'देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम्।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो।१३५।
'दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः।१३६।
एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः।
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः।१३७।
अनुवाद-
• सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो।१३५।
• दत्तात्रेय ने कहा - ऐसा ही हो ! तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य-कर्मा और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।
• जो इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त-सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा।१३७।
अतः उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि नहुष भगवान श्रीकृष्ण के ही अंशावतार थे। वहीं दूसरी तरफ नहुष की पत्नी विरजा (अशोक सुन्दरी) भी गोलोक की गोपी तथा भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी थी। इस विरजा और श्रीकृष्ण से गोलोक में कुल सात पुत्र उत्पन्न हुए थे।
इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता- वृन्दावनखण्ड के अध्याय-२६ के श्लोक - (१७)से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
विरजायां सप्त सुता बभूवुः कृष्णतेजसा।
निकुञ्जं ते ह्यलंचक्रुः शिशवो बाललीलया॥१७।
अनुवाद - श्रीकृष्ण के तेज से विरजा के गर्भ से सात पुत्र उत्पन्न हुए। वे सातों शिशु अपनी बाल- क्रीड़ा से निकुंज की शोभा बढ़ाने लगे।१७।
ज्ञात हो कि श्रीकृष्ण की प्रेयसी गोलोक की विरजा कालान्तर में भू-तल पर अशोक सुन्दरी नाम से पार्वती जी के अंश से पुत्री रूप में प्रकट हुई। फिर उसका विवाह भू-तल पर किसी और से नहीं बल्कि श्रीकृष्ण के अंश नहुष से ही हुआ।
इन सभी बातों की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमिखण्ड के अध्याय संख्या -(१०२) के श्लोक संख्या - (७१ से ७४) में होती है। जिसमें पार्वती जी अपनी पुत्री अशोक सुंदरी (विरजा) को वरदान देते हुए कहती हैं कि -
"वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा।७१।
अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः।।७२।
सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति।।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता।।७४।
अनुवाद- पार्वती ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा- इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे ! तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्वसौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी। राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्र वंशीय परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही तुम्हारे पति होंगे।७१-७४।
इस प्रकार पार्वती ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
इन श्लोकों से एक बात और स्पष्ट होकर सामने आती है कि - पार्वती जी के वरदान के अनुसार अशोक सुंदरी का विवाह चंद्रवंशी सम्राट नहुष से होना सुनिश्चित हआ ।
अतः यहाँ सिद्ध होता है कि "नहुष" गोप- कुल के चंद्रवंशी सम्राट थे। यह बात उस समय की है कि- जब भू-तल पर उस समय तक यादवंश का उदय नहीं हुआ था। किंतु श्रीकृष्ण अंश नहुष को चंद्रवंशी होने का प्रमाण यहाँ मिलता है। और चंद्रवंश के अंतर्गत आनेवाला यादव वंश अब बहुत दूर नहीं रहा, जल्द ही उसका क्रम भी आएगा।
अब आगे श्रीकृष्ण अंश नहुष और विरजा (अशोक सुन्दरी) से गोलोक की ही भांति भू-तल पर भी कुल छह पुत्र हुए। जिसकी पुष्टि - भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय -१८ के श्लोक (१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
'यतिर्यायातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः।
षडिमे नहुषस्यासन्निद्रयाणीव देहिनः।।१।
अनुवाद- जैसे शरीरधारियों के छः इंद्रियां होती हैं, वैसे ही नहुष के छः पुत्र थे। उनके नाम थे- यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति, और कृति। १।
जिसमें ययाति सबसे छोटे थे। फिर भी नहुष ने ययाति को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और राजा बनाया।
(ज्ञात हो कि ययाति ने भी अपने पिता नहुष की इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने छोटे पुत्र- पुरु को राजा बनाया था। इसका विवरण आगे दिया गया है।)
[ग] - ययाति :-
ययाति श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र थे और उनकी माता "विरजा" गोलोक की गोपी थीं। ऐसे में ययाति अपने माता-पिता के गुणों एवं (रक्त-सम्बन्धों) ब्लड रिलेशन से गोप ही थे। इसी वजह से वे राजा होते हुए भी बड़े पैमाने पर गोपालन किया करते थे। और यज्ञ आदि के समय अधिक से अधिक गायों का भी दान किया करते थे। ययाति और उनके पिता नहुष को एक ही साथ गोपालक होने की पुष्टि- महाभारत अनुशासनपर्व के अध्याय -८१ के श्लोक संख्या-५-६ से भी होती है।
"मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।।५।
गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।।६।
अनुवाद - युवनाश्व के पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति- ये सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे; इससे वह उन उत्तम स्थानों को प्राप्त हुऐ हैं, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। अर्थात् वे सब गोलोक को चले गये।५-६।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र "ययाति" भी गोप थे। ययाति की तीन पत्नियां थीं, जिनके क्रमशः नाम हैं - देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमति। उसमें देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री थी और शर्मिष्ठा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री थी। तथा अश्रुबिन्दुमति कामदेव की पुत्री थी। जिसमें ययाति की दो पत्नियों का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- १८ के श्लोक- ४ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
'चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातृन् भ्राता यवीयशः।
कृतदारो जुगोपोर्वी काव्यस्य वृषपर्वणः।।४।
अनुवाद -ययाति अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्य राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे।४।
(ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमति कब ययाति की पत्नी हुईं इस बात को इसी प्रसंग में आगे बताया गया है।)
आगे ययाति की इन दो पत्नियों से कुल पांच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्यु, अनु, और पुरु हुए। किंतु अश्रुबिंदुमति सदा पुत्रहीन रही।
ज्ञात हो कि - ययाति अपनी तीनों पत्नियों में कभी सामंजस्य नहीं बैठा पाए। क्योंकि ये तीनों आपसी रूप सौतें होने की वजह से हमेशा एक दूसरे से (ईर्ष्या) करती थीं। विशेष रूप से अश्रुबिंदुमति से तो देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों और अधिक ईर्ष्या करती थीं। जिसका परिणाम यह हुआ कि कलह बढ़ता ही गया, अन्ततोगत्वा ययाति ने क्रुद्ध होकर अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बेवजह (बिनाकारण) देवयानी की वजह से ही शाप दे दिया। किंतु पिता का यही शाप आगे चलकर यदु के लिए वरदान भी सिद्ध हुआ। वह शाप कैसा था ? और क्यों दिया गया ? इसका विस्तार पूर्वक वर्णन पद्मपुराण के दूसरे खण्ड भूमिखण्ड के अध्याय- (८०) के श्लोक -(३) से लेकर (१४) तक मिलता है। जिसका श्लोक और अनुवाद दोनों नीचे दिया गया है।
• यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा।
अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।। ३।
• तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।। ४।
• रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।। ५।
• दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।। ६।
• अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।। ७।
• सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा।।८।
• प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।।९।
• मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।। १०।
• दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत्।
भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।। ११।
• पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।।१२।
• यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह।
शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।।१३।
• यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि।
मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः।।१४।
अनुवाद- (३- से १४ तक)
• सुकर्मा ने कहा– जब वह राजा ( ययाति) कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गये, तो उच्च विचार वाली देवयानी उसके साथ बहुत प्रतिद्वन्द्विता करने लगी।३।
•इस कारण उस ययाति ने क्रोध के वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) जो देवयानी से उत्पन्न थे; उनको शाप दे दिया। और राजा ने दूत के द्वारा शर्मिष्ठा को बुलाकर ये शब्द कहे। ४।
• शर्मिष्ठा और देवयानी दोनों रूप , तेज और दान के द्वारा उस अश्रु-बिन्दुमती के साथ प्रतिस्पर्धा करती हैं। ५
• तब कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती ने उन दोनों के दुष्टभाव को जाना तो उसने राजा को वह सब बातें उसी समय कह सुनायीं।६।
• तब क्रोधित होकर राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अर्थात अपनी माता (देवयानी) को मार डालो।७।
• हे पुत्र तुम मेरा प्रिय करो यदि तुम इसे कल्याण कारी मानते हो ! अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने पिता से कहा। ८।
• मान्यवर ! पिता श्री ! मैं निर्दोष दोनों माताओं को नहीं मारुँगा। ९।
• वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है। इस लिए महाराज ! मैं इन दोनों माताओं का बध नहीं करुँगा। १०।
• हे राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक पुत्री पर हजार दोष लगें हो। ११।
• तो भी उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए ! यह जानकर महाराज मैं दोनों माताओ को नहीं मारुँगा। १२।
• उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये इसके बाद पृथ्वी के स्वामी ययाति ने अपने पुत्र को शाप दे दिया।१३।
• चूंकि तुमने आज मेरे आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का ही भजन (भक्ति ) करो।१४।
पिता की इतनी बातें सुनने के बाद यदु ने अपने पिता राजा ययाति से विनम्रता पूर्वक उस राज्य का नागरिक होने के नाते से पूछा था-
हे महाराजा! मैं तो निर्दोष हूं, फिर भी तुमने मुझे क्यों शाप दिया है ? कृपया मुझ निर्दोष का पक्ष लें और मुझ पर दया करने की कृपा करें।
- पद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय- ७८ के श्लोक संख्या-३३ और ३४ में यदु और ययाति के संवाद रूप में दो श्लोक विशेष महत्व के हैं। जिसमें यदु अपने पिता से कहते हैं -
'निर्दोषोहं महाराज कस्माच्छप्तस्त्वयाधुना।
कृपां कुरुष्व दीनस्य प्रसादसुमुखो भव।।३३।
"राजोवाच-
'महादेवः कुले ते वै स्वांशेनापि हि पुत्रक।
करिष्यति विसृष्टिं च तदा पूतं कुलं तव।।३४।
अनुवाद - हे महाराजा! मैं तो निर्दोष हूं, फिर भी तुमने मुझे क्यों शाप दिया है ? कृपया मुझ निर्दोष का पक्ष लें और मुझ पर दया करने की कृपा करें।
तब राजा ने कहा- हे पुत्र ! जब महान देवता (स्वराट विष्णु) अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेंगे तब तेरा कुल शुद्ध हो जाएगा।३३-३४।
(ज्ञात हो- अनन्त ब्रह्माण्ड में अनन्त छोटे विष्णु, ब्रह्मा, और महेश हैं। किंतु स्वराट विष्णु एक हैं जिन्हें परमेश्वर कहा जाता है। जो सभी देवताओं के भी ईश्वर और महान देवता हैं। उनका निवास स्थान सभी लोकों से ऊपर है। उसका नाम है गोलोक, उसी गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) रहते है। इस बात की संपूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय दो और तीन को अवश्य देखें।)
और आगे चलकर ययाति का यही शाप यदु के लिए वरदान सिद्ध हुआ, क्योंकि ययाति के कथनानुसार कालान्तर में यदु के वंश में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ। इस बात की संपूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय- ८ को देखें।
इस प्रकार से अध्याय- (१०) गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों के परिचय के साथ समाप्त हुआ। जिसमें आप लोगों ने वैष्णव वर्ण के गोप राजाओं (आयुष, नहुष, ययाति) तथा उनकी पत्नियों व पुत्रों इत्यादि को भी जाना।
इसी क्रम में इसके अगले अध्याय-(११) में-
"यदुवंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपत्तियों के बारे में बताया गया है। उसे भी इस अध्याय के साथ जोड़ कर अवश्य पढ़ें।
अध्याय- (११)
[भाग -१] ✓✓ ✓
गोप कुल के यादव वंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपति।
इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य गोप कुल के प्रमुख सदस्यों के चरित्रों एवं विशेषताओं को बताते हुए यादवों के वंश वृक्ष को विधिवत बताना है।
"इसलिए इस अध्याय को प्रमुख रूप से तीन भागों में बांटकर विस्तृत जानकारी दी गई है -
भाग- (१) महाराज यदु का परिचय
भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज________________________________________
भाग- (१) महाराज यदु का परिचय
_________
महाराज यदु , यादवों के आदि पुरुष या कहें, पूर्वज थे। इस बात को श्रीकृष्ण भी स्वीकार करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण के (११) वें स्कन्ध के अध्याय - (७) के श्लोक- (३१) में कहते हैं कि -
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।। ३१।
अनुवाद- हमारे "पूर्वज महाराज यदु" की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्रह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी।३१।
अब ऐसे में जब महाराज "यदु" यादवों के पूर्वज है, तब यदु के बारे में और विस्तार से जानना आवश्यक हो जाता है कि यदु कौन हैं, तथा "यदु" नाम की सार्थकता क्या है ? तथा यदु शब्द की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? इत्यादि इन सभी बातों का समाधान इस अध्याय में किया गया है।
यदु शब्द की ब्युत्पत्ति के बारे में देखा जाए तो यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। सम्भवतः इसी कारण से लौकिक संस्कृत में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है।
इसी लिए संस्कृत भाषा के कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं। जिससे यदु शब्द की व्युत्पत्ति पुल्लिंग रूप में होती है।
जैसे-
संस्कृत भाषा में 'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल + उणादि प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर- 'पृषोदर प्रकरण' के नियम से "जस्य दत्वं" अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द बनता है।
[ ज्ञात हो- पाणिनीय व्याकरण में "पृषोदरादीनि एक पारिभाषिक शब्द है। पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्'
(६.३.१०८) इस पाणिनीय सूत्र से यज्- धातु के अन्तिम वर्ण "जकार को दकार" आदेश हो जाने से ही यदु शब्द बनता है। ]
ये तो रही यदु शब्द की व्युत्पत्ति अब हमलोग जानेंगे यदु शब्द के अर्थ को -
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि यदु शब्द की व्युत्पत्ति "यज्" धातु से हुई है, जिसमें यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं।
[यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु ]
इसको साधारण भाषा में इस तरह से समझा जा
सकता है ।
विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में उपरोक्त तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक रूप से समावेश था। जैसे- महाराज यदु -
(१)-हिंसा से रहित नित्य वैष्णव यज्ञ किया करते थे।
(२)- वे सबका यथोचित न्याय किया करते थे।
(३)- और वे दान के क्षेत्र में निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा (बुद्धि ) भी प्रखर हो गयी थी।
तभी तो भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत पुराण के (११)वें स्कन्ध के अध्याय (७) के श्लोक- (३१) में उद्धव जी से कहते हैं कि
'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।३१।
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव ! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी।
उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे।३१।
महाराज यदु के इन्हीं सब विशेषताओं के कारण ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- (६२) की ऋचा-(१०) में ऋषियों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ऋग्वेद की वह ऋचा नीचे उद्धृत है -
महाराज यदु के इन्हीं सब विशेषताओं के कारण ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- (६२) की ऋचा-(१०) में ऋषियों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ऋग्वेद की वह ऋचा नीचे उद्धृत है -
"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे"।(ऋ० १०/६२/१०)
अनुवाद:- और वे दोनों यदु और तुर्वसु दास -( दाता) कल्याण कारी दृष्टि वाले, स्नान आदि क्रियाओं से युक्त होकर नित्य गायों का पालन पोषण और दान भी करते हैं। हम उनकी स्तुति करते हैं। (ऋ०१०/६२/१०)
ऋग्वेद की उपरोक्त ऋचा का सम्यग्भाष्य- करने पर यदु के सम्पूर्ण चरित्रों का बोध होता है। सम्यग्भाष्य के लिए नीचे देखें -
१- उत = अत्यर्थेच अपि च= और भी
२- स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ= वे दोनों कल्याण कारी दृष्टि वाले।
३- गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ = गायों से घिरे हुए अथवा गायें जिनके चारो ओर हैं।
४- दासा = दासतः दानकुरुत: = दान करने वाले वे दोनों (यदु और तुर्वसु)।
(ज्ञात हो- "दासा" द्विवचन शब्द है जो यदु
और तुर्वसु के लिए प्रयुक्त है।
५- गोपरीणसा= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ =
गायों से घिरे हुए वे दोंनो यदु और तुर्वसु। (इसके साथ ही यहां यह भी सिद्ध होता है कि यदु गोपालक अर्थात गोप थे।)
[ वैदिक शब्द निघण्टु में दासा
द्विवचन में दाता का वाचक है।३।१]
पाणिनीय धातुपाठ में दास् धातु = दान करना अर्थ में है।
दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।
अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाया जाता हैं।
महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे" ) है।
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता
( दानी ) के अर्थ में चरितार्थ था।
समय और परिस्थिति के साथ-साथ दास शब्द के अर्थ में भी उसी तरह परिवर्तन हुआ जैसे वैदिक काल में घृणा शब्द के अर्थ मै परिवर्तन हुआ है। वैदिक काल में घृणा शब्द दया भाव का वाचक था किन्तु आज घृणा शब्द का अर्थ नफ़रत हो गया है।
ठीक उसी तरह से वैदिक काल के दास शब्द के अर्थ में भी बड़ी तेजी से परिवर्तन हुआ। ज्ञात हो कि वैदिक काल में दास शब्द का अर्थ - "दाता" था। उस समय दास शब्द एक प्रतिष्ठा और सम्मान का पद था। इसीलिए उस समय ऋषिगण भी दासों की स्तुतियाँ और प्रशंसा किया करते थे। जैसा कि ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- (६२) की ऋचा-(१०) में यदु और तुर्वसु की दास (दाता) के रूप में स्तुतियां की गई है। इस बात को ऊपर बताया जा चुका है।
वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम में आते-आते पौराणिक काल में "वैष्णव" के वाचक के रूप में स्थापित हुआ। इस बात की पुष्टि - पद्मपुराण के भूमि खण्ड अध्यायः(८३) से होती है। जिसमें दास शब्द वैष्णव वाचक के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रसंग में दासत्व प्राप्ति के लिए वैष्णव राजा "ययाति" भगवान विष्णु से वर मांगते हैं कि- हे प्रभु मुझे दासत्व प्रदान करो !। इसके लिए देखें निम्नलिखित श्लोक- देखें-
विष्णूवाच-
"वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।।७९।।
अनुवाद:- भगवान विष्णु नें कहा - हे राजाओं के स्वामी! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है। वह सब तुमको मैं दुँगा तुम मेरे भक्त हो।।७९।।
"राजोवाच-
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद-
राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) दो।८०।।
'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह।८१।।
अनुवाद:- विष्णु ने कहा- ऐसा ही हो तू मेरा भक्त हो इसमें सन्देह नहीं। अपनी पत्नी के साथ तुम मेरे लोक में निवास करो।८१।।
यदि उपरोक्त श्लोक- (८१) को देखा जाए तो उसमें एक शब्द (दासत्वं ) आया है जिसका अर्थ है- दासत्व अर्थात वैष्णव भक्ति, यानी उस समय जो वैष्णव (विष्णु) भक्त थे, वे अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझता थे। और भक्तिकाल से लेकर आज तक जन-समुदाय में उसकी पहचान दास के रूप में ही थी। जैसे - तुलसीदास, सूरदास रैदास इत्यादि इसके उदाहरण हैं।।
किन्तु यहीं दास शब्द मध्यकाल में पुरोहितवाद की चपेट में आकर शूद्र और असुर का पर्याय भी बन गया। इसी समय के दास शब्दार्थ के आधार पर कुछ अज्ञानी लोग यादवों के पुर्वज यदु को दास अथवा शूद्र कहते हैं। जबकि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि जब यदु शूद्र थे, तो उनकी स्तुति ऋषियों के द्वारा क्यों की गई ? क्या पुरोहितवादी व्यवस्था में कोई ऋषि कभी शूद्र की स्तुति किया था ? जबाब होगा नहीं। अतः मध्यकाल के दास के अर्थ में यदु को शूद्र कहना सरासर ग़लत है। व वैदिक अर्थ को विपरीत है।
गायों से घिरे हुए वे दोंनो यदु और तुर्वसु। (इसके साथ ही यहां यह भी सिद्ध होता है कि यदु गोपालक अर्थात गोप थे।)
[ वैदिक शब्द निघण्टु में दासा
द्विवचन में दाता का वाचक है।३।१]
पाणिनीय धातुपाठ में दास् धातु = दान करना अर्थ में है।
दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।
अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाया जाता हैं।
महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे" ) है।
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता
( दानी ) के अर्थ में चरितार्थ था।
समय और परिस्थिति के साथ-साथ दास शब्द के अर्थ में भी उसी तरह परिवर्तन हुआ जैसे वैदिक काल में घृणा शब्द के अर्थ मै परिवर्तन हुआ है। वैदिक काल में घृणा शब्द दया भाव का वाचक था किन्तु आज घृणा शब्द का अर्थ नफ़रत हो गया है।
ठीक उसी तरह से वैदिक काल के दास शब्द के अर्थ में भी बड़ी तेजी से परिवर्तन हुआ। ज्ञात हो कि वैदिक काल में दास शब्द का अर्थ - "दाता" था। उस समय दास शब्द एक प्रतिष्ठा और सम्मान का पद था। इसीलिए उस समय ऋषिगण भी दासों की स्तुतियाँ और प्रशंसा किया करते थे। जैसा कि ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- (६२) की ऋचा-(१०) में यदु और तुर्वसु की दास (दाता) के रूप में स्तुतियां की गई है। इस बात को ऊपर बताया जा चुका है।
वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम में आते-आते पौराणिक काल में "वैष्णव" के वाचक के रूप में स्थापित हुआ। इस बात की पुष्टि - पद्मपुराण के भूमि खण्ड अध्यायः(८३) से होती है। जिसमें दास शब्द वैष्णव वाचक के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रसंग में दासत्व प्राप्ति के लिए वैष्णव राजा "ययाति" भगवान विष्णु से वर मांगते हैं कि- हे प्रभु मुझे दासत्व प्रदान करो !। इसके लिए देखें निम्नलिखित श्लोक- देखें-
विष्णूवाच-
"वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।।७९।।
अनुवाद:- भगवान विष्णु नें कहा - हे राजाओं के स्वामी! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है। वह सब तुमको मैं दुँगा तुम मेरे भक्त हो।।७९।।
"राजोवाच-
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद-
राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) दो।८०।।
'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह।८१।।
अनुवाद:- विष्णु ने कहा- ऐसा ही हो तू मेरा भक्त हो इसमें सन्देह नहीं। अपनी पत्नी के साथ तुम मेरे लोक में निवास करो।८१।।
यदि उपरोक्त श्लोक- (८१) को देखा जाए तो उसमें एक शब्द (दासत्वं ) आया है जिसका अर्थ है- दासत्व अर्थात वैष्णव भक्ति, यानी उस समय जो वैष्णव (विष्णु) भक्त थे, वे अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझता थे। और भक्तिकाल से लेकर आज तक जन-समुदाय में उसकी पहचान दास के रूप में ही थी। जैसे - तुलसीदास, सूरदास रैदास इत्यादि इसके उदाहरण हैं।।
किन्तु यहीं दास शब्द मध्यकाल में पुरोहितवाद की चपेट में आकर शूद्र और असुर का पर्याय भी बन गया। इसी समय के दास शब्दार्थ के आधार पर कुछ अज्ञानी लोग यादवों के पुर्वज यदु को दास अथवा शूद्र कहते हैं। जबकि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि जब यदु शूद्र थे, तो उनकी स्तुति ऋषियों के द्वारा क्यों की गई ? क्या पुरोहितवादी व्यवस्था में कोई ऋषि कभी शूद्र की स्तुति किया था ? जबाब होगा नहीं। अतः मध्यकाल के दास के अर्थ में यदु को शूद्र कहना सरासर ग़लत है। व वैदिक अर्थ को विपरीत है।
और वैसे भी देखा जाए तो गोपों (यादवों) का वर्ण "वैष्णव" है। इस बात को गोप कुल में जन्मे भगवान श्री कृष्ण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (७३) के श्लोक- (९२) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपने को वैष्णव होने की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।।९२।
अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूं । और वनों में चंदन हूं। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ। और निशंकों ( अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ।९२।
अतः वैष्णव वर्ण के गोपों को ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इत्यादि में स्थापित करना सिद्धान्त विहीन होगा, क्योंकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के सिद्धान्तानुसार- ब्राह्मण- ब्रह्मा जी के मुख से, क्षत्रिय- भुजा से, वैश्य - उदर से, और शूद्र - पैर से उत्पन्न होते हैं। जबकि गोप और गोपियां गोलोक में श्री कृष्ण और श्री राधा के रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अतः गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, और जब ये ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, तो इनको ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य में शूद्र या वैश्य या और कुछ कहना भी निराधार होगा [इस बात को विस्तार पूर्वक इस पुस्तक के अध्याय- (५) में बताया जा चुका है कि कैसे गोप ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य से अलग वैष्णव वर्ण के सदस्य हैं।]
अब वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम को पूरा करते हुए आधुनिक समय में आकर "नौकर" (servant) के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। जिसका कुछ सम्मान जनक शब्द नौकरी (job) है। चाहे वह नौकर (सरकारी हो या प्राइवेट) किंतु कर्म के अनुसार वह निश्चित रूप से दास ही है। जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बिना भेदभाव के यह कर्म (job) करते हैं। यह बड़ी अच्छी बात है कि दास शब्द वर्तमान समय में सबके लिए बिना भेदभाव के समभाव को प्राप्त हो गया है।
इसलिए अब दास शब्द को लेकर बहुत ज्यादा उतावले होने की जरूरत नहीं है। आप कबीर दास या सूरदास को ही याद कर लो !
अब आते हैं पुनः यदु के जीवन परिचय पर, तो इस सम्बन्ध में ज्ञात हो कि- यादवों के पूर्वज यदु का जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षमय रहा। यदु के संघर्षों की कहानी उनके गृहस्थान से ही प्रारम्भ होती है। जिसका वर्णन कुछ इस प्रकार है -
यदु के पिता ययाति की कुल तीन पत्नियाँ- देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमती नाम की थीं। उनमें से दो पत्नियों से कुल पांच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्य, अनु,और पुरु हुए। ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती सदैव पुत्रहीन रही। राजा ययाति अपने पांच पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र यदु को शाप देकर राज्यपद से वञ्चित कर पशुपालक होने का शाप दिया और सबसे छोटे पुत्र पुरु को राजपद दिया। इस बात की पुष्टि - लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः( ३ )अध्याय- (७३) के श्लोक (७५-७६) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः।।७५।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
अनुवाद- यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगे।७५।।
पुनः राजा ने कहा तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै। यदु ! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर राजा (ययाति) ने पुरु से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
यहीं से यदु के जीवन का कठिन दौर प्रारम्भ हुआ।
पिता के शाप और राजपद से वंचित "यदु" ने अपने पूर्वजों की तरह ही गोपालन से अपना जीविकोपार्जन करना प्रारम्भ किया और कठिन से कठिन परिस्थितियों का मुकाबला करते हुए अपने बल एवं पौरुष से राजतंत्र के विकल्प में मुक्त प्रजातंत्र( गणतन्त्र) की स्थापना की और प्रजातान्त्रिक ढंग से राजा बनकर अपने वंश एवं कुल का विस्तार कर जगत में कीर्तिमान स्थापित किया।
ध्यान रहे - राजा ययाति नें यदु को यह शाप दे दिया था कि- तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे। अतः यदु के सामने यह एक बहुत बड़ी समस्या थी। और समस्या ही आविष्कार की जननी होती है। अतः यदु नें राजतंत्र के विकल्प में प्रजातंत्र की खोज लिया और प्रजातांत्रिक तरीके से वे राजा हुए। इसीलिए यदु को प्रजातंत्र का जनक माना जाता है।
आगे चलकर इसी यदु से समुद्र के समान विशाल यादववंश का उदय हुआ। जिसके सदस्यपतियों को यादव कहा गया। इस संबंध में यदि देखा जाए तो जिस तरह से ब्रह्मन् शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय लगाने से ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ति होती है, वैसे ही यदु नें अण् प्रत्यय पश्चात लगाने पर यादव शब्द की भी उत्पत्ति होती है।
[यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द की उत्पत्ति होती है। (यदु + अण् = यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज।]
यदु के संघर्षमय जीवन में हमसफ़र( सहयात्री) के रूप में यदु की पत्नी यज्ञवती हुई। जो यदु नाम के अनुरूप ही जगत विख्यात थी। जो कभी गोलोक में सुशीला गोपी नाम से प्रसिद्ध थी। वही कालान्तर में यज्ञपुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में भू-तल पर अवतरित हुई।जिसमें यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होने का प्रकरण पौराणिक है। जिसका वर्णन-देवीभागवतपुराण- स्कन्धः नवम के अध्याय (४५) तथा ब्रह्मवैवर्त्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड के बयालीसवें अध्याय में मिलता है।[ इस प्रकरण का विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक के सहवर्ती महा ग्रन्थ "श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चंवर्णम् "में किया गया है। वहाँ से पाठकगण यदु पत्नी यज्ञवती के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।]
आगे चलकर यदु और उनकी पत्नी यज्ञवती से प्रमुख चार धर्मवत्सल पुत्र पैदा हुए। जिनके क्रमशः नाम हैं - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। जिसमें सहस्रजित यदु के ज्येष्ठ पुत्र थे।
महाराज यदु के चार पुत्रों का वर्णन अन्य पुराणों तथा श्रीमद्भागवत पुराण के स्कंघ- (९ )के अध्याय- (२३) में भी मिलता है। उसके लिए कुछ श्लोक नीचे प्रस्तुत है -
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१९॥
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः ।
यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः॥२०॥
चत्वारः सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मजः ।
महाहयो रेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुताः॥२१॥
धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्रः कुन्तेः पिता ततः ।
सोहञ्जिरभवत् कुन्तेः महिष्मान् भद्रसेनकः॥२२॥
अनुवाद- महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।१९।
इस वंश में स्वयं भगवान परब्रह्म श्रीकृष्ण मनुष्य के रूप में अवतार लेते हैं।। यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे - महाहय, वेणुहय, और हैहय।२०-२१।
पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।।९२।
अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूं । और वनों में चंदन हूं। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ। और निशंकों ( अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ।९२।
अतः वैष्णव वर्ण के गोपों को ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इत्यादि में स्थापित करना सिद्धान्त विहीन होगा, क्योंकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के सिद्धान्तानुसार- ब्राह्मण- ब्रह्मा जी के मुख से, क्षत्रिय- भुजा से, वैश्य - उदर से, और शूद्र - पैर से उत्पन्न होते हैं। जबकि गोप और गोपियां गोलोक में श्री कृष्ण और श्री राधा के रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अतः गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, और जब ये ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, तो इनको ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य में शूद्र या वैश्य या और कुछ कहना भी निराधार होगा [इस बात को विस्तार पूर्वक इस पुस्तक के अध्याय- (५) में बताया जा चुका है कि कैसे गोप ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य से अलग वैष्णव वर्ण के सदस्य हैं।]
अब वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम को पूरा करते हुए आधुनिक समय में आकर "नौकर" (servant) के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। जिसका कुछ सम्मान जनक शब्द नौकरी (job) है। चाहे वह नौकर (सरकारी हो या प्राइवेट) किंतु कर्म के अनुसार वह निश्चित रूप से दास ही है। जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बिना भेदभाव के यह कर्म (job) करते हैं। यह बड़ी अच्छी बात है कि दास शब्द वर्तमान समय में सबके लिए बिना भेदभाव के समभाव को प्राप्त हो गया है।
इसलिए अब दास शब्द को लेकर बहुत ज्यादा उतावले होने की जरूरत नहीं है। आप कबीर दास या सूरदास को ही याद कर लो !
अब आते हैं पुनः यदु के जीवन परिचय पर, तो इस सम्बन्ध में ज्ञात हो कि- यादवों के पूर्वज यदु का जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षमय रहा। यदु के संघर्षों की कहानी उनके गृहस्थान से ही प्रारम्भ होती है। जिसका वर्णन कुछ इस प्रकार है -
यदु के पिता ययाति की कुल तीन पत्नियाँ- देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमती नाम की थीं। उनमें से दो पत्नियों से कुल पांच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्य, अनु,और पुरु हुए। ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती सदैव पुत्रहीन रही। राजा ययाति अपने पांच पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र यदु को शाप देकर राज्यपद से वञ्चित कर पशुपालक होने का शाप दिया और सबसे छोटे पुत्र पुरु को राजपद दिया। इस बात की पुष्टि - लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः( ३ )अध्याय- (७३) के श्लोक (७५-७६) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः।।७५।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
अनुवाद- यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगे।७५।।
पुनः राजा ने कहा तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै। यदु ! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर राजा (ययाति) ने पुरु से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
यहीं से यदु के जीवन का कठिन दौर प्रारम्भ हुआ।
पिता के शाप और राजपद से वंचित "यदु" ने अपने पूर्वजों की तरह ही गोपालन से अपना जीविकोपार्जन करना प्रारम्भ किया और कठिन से कठिन परिस्थितियों का मुकाबला करते हुए अपने बल एवं पौरुष से राजतंत्र के विकल्प में मुक्त प्रजातंत्र( गणतन्त्र) की स्थापना की और प्रजातान्त्रिक ढंग से राजा बनकर अपने वंश एवं कुल का विस्तार कर जगत में कीर्तिमान स्थापित किया।
ध्यान रहे - राजा ययाति नें यदु को यह शाप दे दिया था कि- तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे। अतः यदु के सामने यह एक बहुत बड़ी समस्या थी। और समस्या ही आविष्कार की जननी होती है। अतः यदु नें राजतंत्र के विकल्प में प्रजातंत्र की खोज लिया और प्रजातांत्रिक तरीके से वे राजा हुए। इसीलिए यदु को प्रजातंत्र का जनक माना जाता है।
आगे चलकर इसी यदु से समुद्र के समान विशाल यादववंश का उदय हुआ। जिसके सदस्यपतियों को यादव कहा गया। इस संबंध में यदि देखा जाए तो जिस तरह से ब्रह्मन् शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय लगाने से ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ति होती है, वैसे ही यदु नें अण् प्रत्यय पश्चात लगाने पर यादव शब्द की भी उत्पत्ति होती है।
[यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द की उत्पत्ति होती है। (यदु + अण् = यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज।]
यदु के संघर्षमय जीवन में हमसफ़र( सहयात्री) के रूप में यदु की पत्नी यज्ञवती हुई। जो यदु नाम के अनुरूप ही जगत विख्यात थी। जो कभी गोलोक में सुशीला गोपी नाम से प्रसिद्ध थी। वही कालान्तर में यज्ञपुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में भू-तल पर अवतरित हुई।जिसमें यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होने का प्रकरण पौराणिक है। जिसका वर्णन-देवीभागवतपुराण- स्कन्धः नवम के अध्याय (४५) तथा ब्रह्मवैवर्त्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड के बयालीसवें अध्याय में मिलता है।[ इस प्रकरण का विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक के सहवर्ती महा ग्रन्थ "श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चंवर्णम् "में किया गया है। वहाँ से पाठकगण यदु पत्नी यज्ञवती के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।]
आगे चलकर यदु और उनकी पत्नी यज्ञवती से प्रमुख चार धर्मवत्सल पुत्र पैदा हुए। जिनके क्रमशः नाम हैं - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। जिसमें सहस्रजित यदु के ज्येष्ठ पुत्र थे।
महाराज यदु के चार पुत्रों का वर्णन अन्य पुराणों तथा श्रीमद्भागवत पुराण के स्कंघ- (९ )के अध्याय- (२३) में भी मिलता है। उसके लिए कुछ श्लोक नीचे प्रस्तुत है -
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१९॥
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः ।
यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः॥२०॥
चत्वारः सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मजः ।
महाहयो रेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुताः॥२१॥
धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्रः कुन्तेः पिता ततः ।
सोहञ्जिरभवत् कुन्तेः महिष्मान् भद्रसेनकः॥२२॥
अनुवाद- महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।१९।
इस वंश में स्वयं भगवान परब्रह्म श्रीकृष्ण मनुष्य के रूप में अवतार लेते हैं।। यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे - महाहय, वेणुहय, और हैहय।२०-२१।
इस प्रकार से यह अध्याय- ११ का भाग-(१) यदु के सम्पूर्ण चरित्रों व पुत्रों इत्यादि की सामान्य जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
इसके अगले भाग-(२) में विस्तार से जानकारी दी गई है कि यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित से हैहय वंशी यादवों की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? जिसमें सहस्राजित के वंशज सहस्रबाहु अर्जुन के बारे में विशेष जानकारी दी गई है।
इसके अगले भाग-(२) में विस्तार से जानकारी दी गई है कि यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित से हैहय वंशी यादवों की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? जिसमें सहस्राजित के वंशज सहस्रबाहु अर्जुन के बारे में विशेष जानकारी दी गई है।
अध्याय- (११)
[भाग -२]√ ✓✓
यादववंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपति।
भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
_____
जैसा की इसके पिछले अध्याय में बताया जा चुका है कि
यदु के चार प्रमुख पुत्र - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु नाम से थे। जिसमें सहस्रजित यदु के पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ थे। उसके आगे- सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे - महाहय, वेणुहय और हैहय। जिसमें यदु के प्रपौत्र हैहय से धनक हुए और धनक के कुल चार पुत्र- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा, और कृतौजा हुए। कृतवीर्य के पुत्र - सहस्त्रबाहु अर्जुन हुए। सहस्त्रबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय की दसवीं पीढ़ी में माता पद्मिनी के गर्भ से हुआ था। राजा कृतवीर्य की संतान होने के कारण इन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान दत्तात्रेय से हजार बाहुबल के वरदान के उपरान्त उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन कहा गया।
महाराज कार्तवीर्य अर्जुन का जन्म कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। इसी तिथि को उनकी जयन्ती मनाई जाती है। इसके साथ ही कार्तवीर्य अर्जन सुदर्शन चक्र के अवतार भी हैं। इसके बारे में आगे बताया गया है।
सहस्त्रबाहु अर्जुन अपने समय के सबसे बलशाली, धर्मवत्सल, कुशल कृषक, प्रजापालक और गोपालक चक्रवर्ती अहीर सम्राट थे। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय-(४३) के- (१८ से २८) तक के श्लोकों से होती है। जिसमें कार्तवीर्यार्जुन के महत्व को एक नारद नामक गंधर्व नें उनके यज्ञ में कुछ इस प्रकार गुणगान किया था -
'तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।
समोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता।।१८।।
जज्ञे बाहुसहस्रं वै इच्छत स्तस्य धीमतः।
रथो ध्वजश्च सञ्जज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः।।१९ ।।
दशयज्ञसहस्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा।
निरर्गला निवृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः।।२०।
सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः।
सर्वेकाञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः।।२१।।
सर्वे देवैः समं प्राप्तै र्विमानस्थैरलङ्कृताः।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः।२।
तस्य यो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा।
कार्तवीर्य्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य सः।२३।
न नूनं कार्तवीर्य्यस्य गतिं यास्यन्ति क्षत्रियाः।
यज्ञैर्दानै स्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च।।२४ ।।
स हि सप्तसु द्वीपेषु, खड्गी चक्री शरासनी।
रथीद्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान्।२५।।
पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः।
स सर्वरत्नसम्पूर्ण श्चक्रवर्त्ती बभूव ह।२६ ।।
स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि।
स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्ज्जुनोऽभवत्।२७।
योऽसौ बाहु सहस्रेण ज्याघात कठिनत्वचा।
भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनैव भास्करः।२८ ।।
अनुवाद- १८-२८
भावी क्षत्रिय नरेश निश्चय ही यज्ञ, दान, तप, पराक्रम और शास्त्रज्ञान के द्वारा कार्तवीर्यार्जुन की समकक्षता को नहीं प्राप्त होंगे। योगी कार्तवीर्यार्जुन रथ पर आरूढ़ हो हाथ में खङ्ग,( तलवार) चक्र और धनुष धारण करके सातों दीपों में भ्रमण करता हुआ चोरों ओर से- डाकुओं पर कड़ी दृष्टि रखता था। राजा कार्तवीर्यार्जुन पच्चासी हजार वर्षों तक भू-तल पर शासन करके समस्त रत्नों से परिपूर्ण हो चक्रवर्ती सम्राट बना रहा। राजा कार्तवीर्यार्जुन ही अपने योग बल से पशुपालक (गोप) था। वहीं खेतों का भी रक्षक था और वही समयानुसार मेघ बनकर वृष्टि भी करता था। प्रत्यञ्चा के आघात से कठोर हुई त्वचाओं वाली अपनी सहस्रों भुजाओं से वह उसी प्रकार शोभा पाता था, जिस प्रकार सहस्रों किरणों से युक्त शारदीय सूर्य शोभित होते हैं।१८-२८।
ज्ञात हो- अयोध्यापति श्रीराम, लंकापति रावण और महिष्मतिपुरी (आधुनिक नाम मध्यप्रदेश का महेश्वर जो नर्मदा नदी के किनारे स्थित है।) के चक्रवर्ती अहीर सम्राट कार्तवीर्यार्जुन लगभग एक ही समय के राजा थे।
और जिस रावण को वश में करने और परास्त करने के लिए श्री राम ने सम्पूर्ण जीवन दाँव पर लगा दिया था, उस रावण को अभीर सम्राट कार्तवीर्यार्जुन ने मात्र पाँच वाणो में परास्त कर बन्दी बना लिया था।
अब आप कार्तवीर्य अर्जुन की शक्ति का अनुमान लगा सकते हैं।
इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय-(४३) के- (३७ से ३९) तक के श्लोकों से होती है। जिसमें एक नारद नाम का एक गंधर्व कार्तवीर्यार्जुन का गुणगान करते हुए कहा -
एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।। ३७।
निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।। ३८।
मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्। तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।।३९।
अनुवाद- ३७-३९
इसी प्रकार अर्जुन ने एक बार लंका में जाकर अपने पाँच बाणों द्वारा सेना सहित रावण को मोहित कर दिया, और उसे बलपूर्वक जीत कर
अपने धनुष की प्रत्यंचा में बांध लिया, फिर माहिष्मती पुरी में लाकर उसे बंदी बना लिया। यह सुनकर महर्षि पुलस्त्य (रावण के पितामह) ने माहिष्मती पुरी में जाकर अर्जुन को अनेकों प्रयास से समझा बुझाकर प्रसन्न किया। तब सहस्रबाहु- अर्जुन ने महर्षि पुलस्त्य को सांत्वना देकर उनके पौत्र राक्षस राज रावण को बंधन मुक्त कर दिया।३७-३९।
कार्तवीर्यार्जुन कोई साधारण पुरुष नहीं थे। वे साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के अवतार थे। इस बात की पुष्टि- नारदपुराणम्- पूर्वभाग अध्यायः (७६) के श्लोक-( ४ ) से होती है। जिसमें नारद जी कार्तवीर्यार्जुन के बारे में कहते हैं कि -
यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।।४।
अनुवाद- ये (कार्तवीर्यार्जुन) पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया। ४
कार्तवीर्यार्जुन सुदर्शन चक्र का अवतार होने के साथ-साथ दत्तात्रेय का वर पाकर अजेय हो गये थे। उस समय कार्तवीर्यार्जुन और परशुराम से कई बार युद्ध हुआ। जिसमें दिव्य शक्ति संपन्न कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम का बध भी कर दिया था।
किंतु यह बात पुरोहितों को बर्दाश्त नहीं हुई। परिणामतः इसके उलट कार्तवीर्यार्जुन को ही परशुराम द्वारा वध करने की पुराणों में एक नई कहानी जोड़ दिया।
कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम का वध किया कि परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन का वध किया, इसकी सच्चाई तभी उजागर हो सकती है जब दोनों के बीच युद्धों का निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए।
क्योंकि कि इसमें बहुत घाल- मेल किया गया है। दोनों के बीच हुए युद्धों का वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड के अध्याय- (४०) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसको नीचे उद्धत किया जा रहा है -
"पतिते तु सहस्राक्षे कार्तवीर्य्यार्जुनः स्वयम्।।
आजगाम महावीरो द्विलक्षाक्षौहिणीयुतः।।३।।
सुवर्णरथमारुह्य रत्नसारपरिच्छदम् ।।
नानास्त्रं परितः कृत्वा तस्थौ समरमूर्द्धनि।।४।।
समरे तं परशुरामो राजेन्द्रं च ददर्श ह ।।
रत्नालंकारभूषाढ्यै राजेन्द्राणां च कोटिभिः।।५।।
रत्नातपत्रभूषाढ्यं रत्नालंकारभूषितम् ।।
चन्दनोक्षितसर्वांगं सस्मितं सुमनोहरम् ।। ६ ।।
राजा दृष्ट्वा मुनीन्द्रं तमवरुह्म रथादहो ।।
प्रणम्य रथमारुह्य तस्थौ नृपगणैः सह ।। ७ ।।
ददौ शुभाशिषं तस्मै रामश्च समयोचितम् ।।
प्रोवाच च गतार्थं तं स्वर्गं गच्छेति सानुगः।।८।।
उभयोः सेनयोर्युद्धमभवत्तत्र नारद।
पलायिता रामशिष्या भ्रातरश्च महाबलाः।।
क्षतविक्षतसर्वाङ्गाः कार्त्तवीर्य्यप्रपीडिताः।।९।
नृपस्य शरजालेन रामः शस्त्रभृतां वरः ।।
न ददर्श स्वसैन्यं च राजसैन्यं तथैव च ।। 3.40.१० ।।
चिक्षेप रामश्चाग्नेयं बभूवाग्निमयं रणे ।।
निर्वापयामास राजा वारुणेनैव लीलया ।।११।।
चिक्षेप रामो गान्धर्वं शैलसर्पसमन्वितम् ।।
वायव्येन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।१२।
चिक्षेप रामो नागास्त्रं दुर्निवार्य्यं भयंकरम् ।।
गारुडेन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।।१३।
माहेश्वरं च भगवांश्चिक्षेप भृगुनन्दनः ।।
निर्वापयामास राजा वैष्णवास्त्रेण लीलया ।।१४ ।।
ब्रह्मास्त्रं चिक्षिपे रामो नृपनाशाय नारद ।।
ब्रह्मास्त्रेण च शान्तं तत्प्राणनिर्वापणं रणे।।१५ ।।
दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम् ।।
जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे ।।१६ ।।
शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दि रि नि वाक्य सुरैरपि ।। १७ ।।
पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।।
मूर्च्छामवाप स भृगुः पपात च हरिं स्मरन्।।१८।।
पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः ।।
आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।।१९।
शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया ।।
ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया।। 3.40.२० ।।
भृगुश्च चेतनां प्राप्य ददर्श पुरतः सुरान् ।।
प्रणनाम परं भक्त्या लज्जानम्रात्मकन्धरः।।२१।।
राजा दृष्ट्वा सुरेशांश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।।
प्रणम्य शिरसा मूर्ध्ना तुष्टाव च सुरेश्वरान् ।।२२।
तत्राजगाम भगवान्दत्तात्रेयो रणस्थलम् ।।
शिष्यरक्षानिमित्तेन कृपालुर्भक्तवत्सलः।२३।
भृगुः पाशुपतास्त्रं च सोऽग्रहीत्कोपसंयुतः ।।
दत्तदत्तेन दृष्टेन बभूव स्तम्भितो भृगुः।।२४।।
ददर्श स्तम्भितो रामो राजानं रणमूर्द्धनि ।।
नानापार्षदयुक्तेन कृष्णेनाऽऽरक्षितं रणे।।२५।।
सुदर्शनं प्रज्वलन्तं भ्रमणं कुर्वता सदा ।।
सस्मितेन स्तुतेनैव ब्रह्मविष्णुमहेश्वरैः।।२६।
गोपालशतयुक्तेन गोपवेषविधारिणा।।
नवीनजलदाभेन वंशीहस्तेन गायता ।२७।
एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी ।।
दत्तेन दत्तं कवचं कृष्णस्य परमात्मनः ।।२८।।
राज्ञोऽस्ति दक्षिणे बाहौ सद्रत्नगुटिकान्वितम्।।
गृहीतकवचे शम्भौ भिक्षया योगिनां गुरौ।।२९।।
तदा हन्तुं नृपं शक्तो भृगुश्चेति च नारद ।।
श्रुत्वाऽशरीरिणीं वाणीं शङ्करो द्विजरूपधृक्।।३०।।
भिक्षां कृत्वा तु कवचमानीय च नृपस्य च।।
शम्भुना भृगवे दत्तं कृष्णस्य कवचं च यत्।। ३१।।
रामस्ततो राजसैन्यं ब्रह्मास्त्रेण जघान ह।।
नृपं पाशुपतेनैव लीलया श्रीहरिं स्मरन्।।७२ ।।
अनुवाद- ३ से ७२ तक
• सहस्राक्ष के धरा पर गिर जाने पर महाबली कार्तवीर्यार्जुन दो लाख अक्षौहिणी सेना के साथ स्वयं युद्ध करने के लिए आया।
•वह रत्ननिर्मित खोल से आच्छादित स्वर्णमय रथपर सवार हो अपने चारों ओर नाना प्रकार के अस्त्रों को सुसज्जित करके रण के मुहाने पर डटकर खड़ा हो गया।
• इसके बाद वहां दोनों सेनाओं में युद्ध होने लगा तब परशुराम के शिष्य तथा उसके महाबली भाई कार्तवीर्य के वाणों से पीड़ित होकर भाग खड़े हुए।
•उस समय उनके सारे अंग घायल हो गए थे। राजा के बाणसमूह से अच्छादित होने के कारण शास्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम को अपनी तथा राजा की सेना भी नहीं दिख रही थी।
• फिर तो परस्पर घोर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा। अंतमें राजा (कार्तवीर्य) ने दत्तात्रेय के दिए हुए अमोघ शूल को यथाविधि मन्त्रों का पाठ करके परशुराम पर छोड़ दिया।
• उस सैकड़ों सूर्य के समान प्रभावशाली एवं प्रलयाग्नि की शिखा के सदृश शूल के लगते ही परशुराम धराशायी हो गये।
• तदनन्तर भगवान शिव ने वहां जाकर परशुराम को पुनर्जीवनदान दिया (पुनः जीवित किया)।
• इसी समय वहां युद्ध स्थल में भक्तवत्सल कृपालु भगवान दत्तात्रेय अपने शिष्य (कार्तवीर्य) की रक्षा करने के लिए आ पहुंचे। फिर परशुराम ने क्रुद्ध होकर पाशुपतास्त्र हाथ में लिया, परंतु दत्तात्रेय की दृष्टि पड़ने से वह (परशुराम) पाशुपत अस्त्र सहित रणभूमि में स्तंभित (जड़वत्) हो गये।
• तब रण के मुहाने पर स्तंभित हुए परशुराम ने देखा कि जिनके शरीर की कान्ति नूतन जलधार के सदृश्य है, जो हाथ में वंशी लिए बजा रहे हैं, सैकड़ो गोप जिनके साथ हैं, जो मुस्कुराते हुए राजा कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा के लिए अपने प्रज्वलित सुदर्शन चक्र को निरन्तर घुमा रहे हैं।
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•और अनेकों पार्षदों से गिरे हुए हैं, एवं ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर जिनका स्तवन कर रहे हैं, वे गोपवेषधारी श्रीकृष्ण युद्ध क्षेत्र में राजा (कार्तवीर्य) की रक्षा कर रहे हैं।
• इसी समय वहां यूं आकाशवाणी हुई - दत्तात्रेय के द्वारा दिया हुआ परमात्मा श्री कृष्ण का कवच उत्तम रतन की गुटका के साथ राजा की दाहिनी भुजा पर बँधा हुआ है, अतः योगियों के गुरु शंकर भिक्षारूप से जब उस कवच को मांग लेंगे, तभी परशुराम राजा कार्तवीर्यार्जुन का वध करने में समर्थ हो सकेंगे।
अब आप कार्तवीर्य अर्जुन की शक्ति का अनुमान लगा सकते हैं।
इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय-(४३) के- (३७ से ३९) तक के श्लोकों से होती है। जिसमें एक नारद नाम का एक गंधर्व कार्तवीर्यार्जुन का गुणगान करते हुए कहा -
एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।। ३७।
निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।। ३८।
मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्। तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।।३९।
अनुवाद- ३७-३९
इसी प्रकार अर्जुन ने एक बार लंका में जाकर अपने पाँच बाणों द्वारा सेना सहित रावण को मोहित कर दिया, और उसे बलपूर्वक जीत कर
अपने धनुष की प्रत्यंचा में बांध लिया, फिर माहिष्मती पुरी में लाकर उसे बंदी बना लिया। यह सुनकर महर्षि पुलस्त्य (रावण के पितामह) ने माहिष्मती पुरी में जाकर अर्जुन को अनेकों प्रयास से समझा बुझाकर प्रसन्न किया। तब सहस्रबाहु- अर्जुन ने महर्षि पुलस्त्य को सांत्वना देकर उनके पौत्र राक्षस राज रावण को बंधन मुक्त कर दिया।३७-३९।
कार्तवीर्यार्जुन कोई साधारण पुरुष नहीं थे। वे साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के अवतार थे। इस बात की पुष्टि- नारदपुराणम्- पूर्वभाग अध्यायः (७६) के श्लोक-( ४ ) से होती है। जिसमें नारद जी कार्तवीर्यार्जुन के बारे में कहते हैं कि -
यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।।४।
अनुवाद- ये (कार्तवीर्यार्जुन) पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया। ४
कार्तवीर्यार्जुन सुदर्शन चक्र का अवतार होने के साथ-साथ दत्तात्रेय का वर पाकर अजेय हो गये थे। उस समय कार्तवीर्यार्जुन और परशुराम से कई बार युद्ध हुआ। जिसमें दिव्य शक्ति संपन्न कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम का बध भी कर दिया था।
किंतु यह बात पुरोहितों को बर्दाश्त नहीं हुई। परिणामतः इसके उलट कार्तवीर्यार्जुन को ही परशुराम द्वारा वध करने की पुराणों में एक नई कहानी जोड़ दिया।
कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम का वध किया कि परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन का वध किया, इसकी सच्चाई तभी उजागर हो सकती है जब दोनों के बीच युद्धों का निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए।
क्योंकि कि इसमें बहुत घाल- मेल किया गया है। दोनों के बीच हुए युद्धों का वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड के अध्याय- (४०) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसको नीचे उद्धत किया जा रहा है -
"पतिते तु सहस्राक्षे कार्तवीर्य्यार्जुनः स्वयम्।।
आजगाम महावीरो द्विलक्षाक्षौहिणीयुतः।।३।।
सुवर्णरथमारुह्य रत्नसारपरिच्छदम् ।।
नानास्त्रं परितः कृत्वा तस्थौ समरमूर्द्धनि।।४।।
समरे तं परशुरामो राजेन्द्रं च ददर्श ह ।।
रत्नालंकारभूषाढ्यै राजेन्द्राणां च कोटिभिः।।५।।
रत्नातपत्रभूषाढ्यं रत्नालंकारभूषितम् ।।
चन्दनोक्षितसर्वांगं सस्मितं सुमनोहरम् ।। ६ ।।
राजा दृष्ट्वा मुनीन्द्रं तमवरुह्म रथादहो ।।
प्रणम्य रथमारुह्य तस्थौ नृपगणैः सह ।। ७ ।।
ददौ शुभाशिषं तस्मै रामश्च समयोचितम् ।।
प्रोवाच च गतार्थं तं स्वर्गं गच्छेति सानुगः।।८।।
उभयोः सेनयोर्युद्धमभवत्तत्र नारद।
पलायिता रामशिष्या भ्रातरश्च महाबलाः।।
क्षतविक्षतसर्वाङ्गाः कार्त्तवीर्य्यप्रपीडिताः।।९।
नृपस्य शरजालेन रामः शस्त्रभृतां वरः ।।
न ददर्श स्वसैन्यं च राजसैन्यं तथैव च ।। 3.40.१० ।।
चिक्षेप रामश्चाग्नेयं बभूवाग्निमयं रणे ।।
निर्वापयामास राजा वारुणेनैव लीलया ।।११।।
चिक्षेप रामो गान्धर्वं शैलसर्पसमन्वितम् ।।
वायव्येन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।१२।
चिक्षेप रामो नागास्त्रं दुर्निवार्य्यं भयंकरम् ।।
गारुडेन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।।१३।
माहेश्वरं च भगवांश्चिक्षेप भृगुनन्दनः ।।
निर्वापयामास राजा वैष्णवास्त्रेण लीलया ।।१४ ।।
ब्रह्मास्त्रं चिक्षिपे रामो नृपनाशाय नारद ।।
ब्रह्मास्त्रेण च शान्तं तत्प्राणनिर्वापणं रणे।।१५ ।।
दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम् ।।
जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे ।।१६ ।।
शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दि रि नि वाक्य सुरैरपि ।। १७ ।।
पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।।
मूर्च्छामवाप स भृगुः पपात च हरिं स्मरन्।।१८।।
पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः ।।
आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।।१९।
शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया ।।
ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया।। 3.40.२० ।।
भृगुश्च चेतनां प्राप्य ददर्श पुरतः सुरान् ।।
प्रणनाम परं भक्त्या लज्जानम्रात्मकन्धरः।।२१।।
राजा दृष्ट्वा सुरेशांश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।।
प्रणम्य शिरसा मूर्ध्ना तुष्टाव च सुरेश्वरान् ।।२२।
तत्राजगाम भगवान्दत्तात्रेयो रणस्थलम् ।।
शिष्यरक्षानिमित्तेन कृपालुर्भक्तवत्सलः।२३।
भृगुः पाशुपतास्त्रं च सोऽग्रहीत्कोपसंयुतः ।।
दत्तदत्तेन दृष्टेन बभूव स्तम्भितो भृगुः।।२४।।
ददर्श स्तम्भितो रामो राजानं रणमूर्द्धनि ।।
नानापार्षदयुक्तेन कृष्णेनाऽऽरक्षितं रणे।।२५।।
सुदर्शनं प्रज्वलन्तं भ्रमणं कुर्वता सदा ।।
सस्मितेन स्तुतेनैव ब्रह्मविष्णुमहेश्वरैः।।२६।
गोपालशतयुक्तेन गोपवेषविधारिणा।।
नवीनजलदाभेन वंशीहस्तेन गायता ।२७।
एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी ।।
दत्तेन दत्तं कवचं कृष्णस्य परमात्मनः ।।२८।।
राज्ञोऽस्ति दक्षिणे बाहौ सद्रत्नगुटिकान्वितम्।।
गृहीतकवचे शम्भौ भिक्षया योगिनां गुरौ।।२९।।
तदा हन्तुं नृपं शक्तो भृगुश्चेति च नारद ।।
श्रुत्वाऽशरीरिणीं वाणीं शङ्करो द्विजरूपधृक्।।३०।।
भिक्षां कृत्वा तु कवचमानीय च नृपस्य च।।
शम्भुना भृगवे दत्तं कृष्णस्य कवचं च यत्।। ३१।।
रामस्ततो राजसैन्यं ब्रह्मास्त्रेण जघान ह।।
नृपं पाशुपतेनैव लीलया श्रीहरिं स्मरन्।।७२ ।।
अनुवाद- ३ से ७२ तक
• सहस्राक्ष के धरा पर गिर जाने पर महाबली कार्तवीर्यार्जुन दो लाख अक्षौहिणी सेना के साथ स्वयं युद्ध करने के लिए आया।
•वह रत्ननिर्मित खोल से आच्छादित स्वर्णमय रथपर सवार हो अपने चारों ओर नाना प्रकार के अस्त्रों को सुसज्जित करके रण के मुहाने पर डटकर खड़ा हो गया।
• इसके बाद वहां दोनों सेनाओं में युद्ध होने लगा तब परशुराम के शिष्य तथा उसके महाबली भाई कार्तवीर्य के वाणों से पीड़ित होकर भाग खड़े हुए।
•उस समय उनके सारे अंग घायल हो गए थे। राजा के बाणसमूह से अच्छादित होने के कारण शास्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम को अपनी तथा राजा की सेना भी नहीं दिख रही थी।
• फिर तो परस्पर घोर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा। अंतमें राजा (कार्तवीर्य) ने दत्तात्रेय के दिए हुए अमोघ शूल को यथाविधि मन्त्रों का पाठ करके परशुराम पर छोड़ दिया।
• उस सैकड़ों सूर्य के समान प्रभावशाली एवं प्रलयाग्नि की शिखा के सदृश शूल के लगते ही परशुराम धराशायी हो गये।
• तदनन्तर भगवान शिव ने वहां जाकर परशुराम को पुनर्जीवनदान दिया (पुनः जीवित किया)।
• इसी समय वहां युद्ध स्थल में भक्तवत्सल कृपालु भगवान दत्तात्रेय अपने शिष्य (कार्तवीर्य) की रक्षा करने के लिए आ पहुंचे। फिर परशुराम ने क्रुद्ध होकर पाशुपतास्त्र हाथ में लिया, परंतु दत्तात्रेय की दृष्टि पड़ने से वह (परशुराम) पाशुपत अस्त्र सहित रणभूमि में स्तंभित (जड़वत्) हो गये।
• तब रण के मुहाने पर स्तंभित हुए परशुराम ने देखा कि जिनके शरीर की कान्ति नूतन जलधार के सदृश्य है, जो हाथ में वंशी लिए बजा रहे हैं, सैकड़ो गोप जिनके साथ हैं, जो मुस्कुराते हुए राजा कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा के लिए अपने प्रज्वलित सुदर्शन चक्र को निरन्तर घुमा रहे हैं।
********************"
•और अनेकों पार्षदों से गिरे हुए हैं, एवं ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर जिनका स्तवन कर रहे हैं, वे गोपवेषधारी श्रीकृष्ण युद्ध क्षेत्र में राजा (कार्तवीर्य) की रक्षा कर रहे हैं।
• इसी समय वहां यूं आकाशवाणी हुई - दत्तात्रेय के द्वारा दिया हुआ परमात्मा श्री कृष्ण का कवच उत्तम रतन की गुटका के साथ राजा की दाहिनी भुजा पर बँधा हुआ है, अतः योगियों के गुरु शंकर भिक्षारूप से जब उस कवच को मांग लेंगे, तभी परशुराम राजा कार्तवीर्यार्जुन का वध करने में समर्थ हो सकेंगे।
• नारद ! उस आकाशवाणी को सुनकर शंकर एक ब्राह्मण का रूप धारण करके गए और राजा से याचना करके उसका कवच मांग लाये। फिर शंभू ने श्री कृष्ण का वह कवच परशुराम को दे दिया।
• तत्पश्चात परशुराम ने श्री हरि का स्मरण करते हुए ब्रह्मास्त्र द्वारा राजा की सेना का सफाया कर दिया और फिर लीलापूर्वक पशुपतास्त्र का प्रयोग करके राजा कार्तवीर्यार्जुन की जीवन लीला समाप्त कर दी।
(युद्ध विश्लेषण व समीक्षा)
यदि उपर्युक्त श्लोक संख्या- (२५ से २८) पर विचार किया जाए तो रणभूमि में कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा परमेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं अपने सैकड़ो गोपों एवं पार्षदों के साथ कर रहे होते हैं। तो उस स्थिति में ब्रह्माण्ड का न दैत्य, न देवता, न किन्नर, न गंधर्व, और ना ही कोई मनुष्य कार्तवीर्यार्जुन का बाल बांका कर सकता था। परशुराम की बात करना तो बहुत दूर है।
• दूसरी बात यह कि- श्लोक संख्या - (१८ से २०) में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि- युद्ध में कार्तवीर्यार्जुन के भयंकर शूल के आघात से परशुराम मारे जाते हैं। किंतु शिव जी द्वारा उन्हें पुनः जीवित कर दिया जाता है।
यहां सोचने वाली बात है कि क्या कोई मरने के बाद पुनः जीवित होता है ? इसका जवाब होगा नहीं। तो फिर परशुराम कैसे जीवित हो गये ? यह बात भी हजम नहीं होती।
• तीसरी बात यह कि- श्लोक संख्या (२८ से २९) में लिखा गया है कि- परमात्मा श्री कृष्ण का कवच जो कार्तवीर्यार्जुन की दाहिनी भुजा पर बंधा हुआ था उसी से कार्तवीर्यार्जुन की रणभूमि में रक्षा हो रही होती है, और उसे शिव जी ब्राह्मण वेश में आकर भिक्षा के रूप में मांगते हैं और राजा कार्तवीर्यार्जुन उस कवच को सहर्ष दे देते हैं।
यहां पर विचारणीय बात यह है कि- क्या राजा को उस समय इतना ज्ञान नहीं था कि युद्धभूमि में अचानक एक ब्रह्मण भिखारी भिक्षा में धन दौलत न मांगकर रक्षा कवच क्यों मांग रहा है ? और सोचने वाली बात यह है की जिस कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा स्वयं भगवान श्री कृष्ण कर रहे हों उस समय कोई भिखारी उसके प्राणों के समान कवच मांगे और अन्तर्यामी भगवान मूकदर्शक बने रहें। यह सम्भव नहीं लगता ? और ना ही यह बात किसी भी तरह से हजम हो सकती है।
अतः इन तमाम तर्कों के आधार पर सिद्ध होता है कि निश्चय ही कार्तवीर्यार्जुन नें परशुराम का वध कर दिया था। किंतु यह बात ब्राह्मण कथाकारों को गले से नीचे नहीं उतरी। परिणाम यह हुआ कि कथाकारों नें एक नई कहानी जोड़कर इसके उलट कार्तवीर्यार्जुन का वध परशुराम से करा दिया।
• चौथी बात यह कि- अगर कार्तवीर्यार्जुन का वध हुआ होता तो शास्त्रों में उनकी पूजा का विधान कभी नहीं होता। *****
जबकि कार्तवीर्यार्जुन का विधिवत पूजा करने का शास्त्रों में विधान किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि सहस्रबाहु अर्जुन का बध नहीं हुआ था। पुराणों में सहस्रबाहू अर्जुन की पूजा करने के विधान की पुष्टि- श्रीबृहन्नारदीयपुराण पूर्वभागे बृहदुपाख्यान तृतीयपाद कार्तवीर्यमाहात्म्यमन्त्रदीपकथनं नामक - (७६) वें अध्याय से होती है। परन्तु परशुराम कि पूजा का विधान किसी पुराण में नहीं है।
नारद पूराण में सहस्रबाहु अर्जुन की पूजा करने का विधान
नारद और सनत्कुमार संवाद के रूप में जाना जाता है। जिसमें नारद के पूछे जाने पर सनत्कुमार जी कहते हैं-
"नारद उवाच।
"कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि।
जायन्तेऽथ प्रलीयन्ते स्वस्वकर्मानुसारतः।।१।
तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः।
समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम्।। २।
अनुवाद:-
• देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने कर्मानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं।
• तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है। १-२।
"सनत्कुमार उवाच"
श्रृणु नारद ! वक्ष्यामि सन्देहविनिवृत्तये।
यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि।।३।
अनुवाद:- सनत्कुमार ने कहा ! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय (सेव्यमान) कहे गये हैं सुनो ! ।३।
यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।।४।
तस्य क्षितीश्वरेंद्रस्य स्मरणादेव नारद।
शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम्।।५।
तेनास्य मन्त्रपूजादि सर्वतन्त्रेषु गोपितम्।
तुभ्यं प्रकाबशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम्।। ६।
अनुवाद:- ४ से ६
• ये सहस्रबाहु अर्जुन पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया।
हे नारद ! कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से ही पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।
• कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है।४ से ६।
वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नींदुशान्तियुक्।वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिंदुयुक्।।७।
पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीपदम्।
रेफोवा द्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ।।८।
मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः।
ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः।।९।
दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम्।
कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत्।।१०।
शेषाढ्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेदधः।
शान्तियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम्।११।
इन्द्वाढ्यं वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया।शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत्।।१२।
वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः।
हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशतः।।१३।
दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जङ्घयोः। विन्यसेद्बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ।।१४ ।।
ताराद्यानथ शेषार्णान्मस्तके च ललाटके।
भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके।।१५।।
सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः।
सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम् ।।१६।।
उद्यद्रर्कसहस्राभं सर्वभूपतिवन्दितम् ।
दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च।।१७ ।।
दधतं स्वर्णमालाढ्यं रक्तवस्त्रसमावृतम्।
चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।१८।
अनुवाद- ७ से १८
इनकी कान्ति (आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के (500) दक्षिणी हाथों में वाण और (500) उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र (लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।
• इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है (यह मूल में "श" तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्य
म् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से
कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर (लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।७-१८।
अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि कार्तवीर्यार्जुन का वध एक कपोल-कल्पित मात्र है।
जिसे बाद में जोड़कर एक नई कहानी उसी तरह से गढ़ दी गई जैसे भगवान श्रीकृष्ण को एक बहेलिया से मारे जाने की रची गई है।
अगर परशुराम द्वारा कार्तवीर्यार्जुन के वध की धटना सत्य होती तो पुराणों में कार्तवीर्यार्जुन के पूजा का विधान नहीं किया जाता और नाही कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को उनकी जयंती मनाई जाती।
उपर्युक्त रूप से दर्शायी गयी ब्रह्मवैवर्तपुराण की पौराणिक घटना को समान तथ्य अन्य पौराणिक ग्रन्थ- लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः (४५८) में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार किया गया है। वहां से भी इसकी जानकारी ली जा सकती है।
इस प्रकार से अध्याय- (११) का भाग- (२) यदु के ज्येष्ठ पुत्र से उत्पन्न हैहय वंशी अहीर चक्रवर्ती सम्राट कार्तवीर्यार्जुन की महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ समाप्त हुआ।
अब इस अध्याय के अगले भाग-(३) में महाराज यदु के पुत्र क्रोष्टा की पीढ़ी में आगे चलकर महान अन्धक और वृष्णि यादवों की उत्पत्ति कैसे हुई ! और उसमें आगे चलकर वृष्णि कुल में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण कैसे हुआ इत्यादि इत्यादि घटनाओं को बताया गया है।।
नारद पूराण में सहस्रबाहु अर्जुन की पूजा करने का विधान
नारद और सनत्कुमार संवाद के रूप में जाना जाता है। जिसमें नारद के पूछे जाने पर सनत्कुमार जी कहते हैं-
"नारद उवाच।
"कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि।
जायन्तेऽथ प्रलीयन्ते स्वस्वकर्मानुसारतः।।१।
तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः।
समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम्।। २।
अनुवाद:-
• देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने कर्मानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं।
• तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है। १-२।
"सनत्कुमार उवाच"
श्रृणु नारद ! वक्ष्यामि सन्देहविनिवृत्तये।
यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि।।३।
अनुवाद:- सनत्कुमार ने कहा ! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय (सेव्यमान) कहे गये हैं सुनो ! ।३।
यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।।४।
तस्य क्षितीश्वरेंद्रस्य स्मरणादेव नारद।
शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम्।।५।
तेनास्य मन्त्रपूजादि सर्वतन्त्रेषु गोपितम्।
तुभ्यं प्रकाबशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम्।। ६।
अनुवाद:- ४ से ६
• ये सहस्रबाहु अर्जुन पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया।
हे नारद ! कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से ही पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।
• कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है।४ से ६।
वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नींदुशान्तियुक्।वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिंदुयुक्।।७।
पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीपदम्।
रेफोवा द्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ।।८।
मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः।
ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः।।९।
दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम्।
कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत्।।१०।
शेषाढ्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेदधः।
शान्तियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम्।११।
इन्द्वाढ्यं वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया।शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत्।।१२।
वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः।
हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशतः।।१३।
दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जङ्घयोः। विन्यसेद्बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ।।१४ ।।
ताराद्यानथ शेषार्णान्मस्तके च ललाटके।
भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके।।१५।।
सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः।
सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम् ।।१६।।
उद्यद्रर्कसहस्राभं सर्वभूपतिवन्दितम् ।
दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च।।१७ ।।
दधतं स्वर्णमालाढ्यं रक्तवस्त्रसमावृतम्।
चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।१८।
अनुवाद- ७ से १८
इनकी कान्ति (आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के (500) दक्षिणी हाथों में वाण और (500) उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र (लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।
• इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है (यह मूल में "श" तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्य
म् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से
कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर (लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।७-१८।
अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि कार्तवीर्यार्जुन का वध एक कपोल-कल्पित मात्र है।
जिसे बाद में जोड़कर एक नई कहानी उसी तरह से गढ़ दी गई जैसे भगवान श्रीकृष्ण को एक बहेलिया से मारे जाने की रची गई है।
अगर परशुराम द्वारा कार्तवीर्यार्जुन के वध की धटना सत्य होती तो पुराणों में कार्तवीर्यार्जुन के पूजा का विधान नहीं किया जाता और नाही कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को उनकी जयंती मनाई जाती।
उपर्युक्त रूप से दर्शायी गयी ब्रह्मवैवर्तपुराण की पौराणिक घटना को समान तथ्य अन्य पौराणिक ग्रन्थ- लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः (४५८) में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार किया गया है। वहां से भी इसकी जानकारी ली जा सकती है।
इस प्रकार से अध्याय- (११) का भाग- (२) यदु के ज्येष्ठ पुत्र से उत्पन्न हैहय वंशी अहीर चक्रवर्ती सम्राट कार्तवीर्यार्जुन की महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ समाप्त हुआ।
अब इस अध्याय के अगले भाग-(३) में महाराज यदु के पुत्र क्रोष्टा की पीढ़ी में आगे चलकर महान अन्धक और वृष्णि यादवों की उत्पत्ति कैसे हुई ! और उसमें आगे चलकर वृष्णि कुल में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण कैसे हुआ इत्यादि इत्यादि घटनाओं को बताया गया है।।
अध्याय- ११
[भाग ३]✓✓✓
यादवंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपति।
भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज
___
इस अध्याय के भाग- (३) का मुख्य उद्देश्य यादव वंश की चारित्रिक वंशावली का व्याख्यान करते हुए गोपेश्वर श्रीकृष्ण के लौकिक चरित्र को भी स्पष्ट करना है। तो उसके लिए यदु के पुत्र क्रोष्टा को ही लेकर चलेंगे जहां क्रोष्टा की ही पीढ़ी में आगे चलकर अंधक और वृष्णि नामक दो महान विभूतियों का उदय हुआ। जिसमें वृष्णि के वंशजों में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ तथा अंधक के वंशजों में गोपेश्वर श्रीकृष्ण की ननिहाल( माता का कुल हुआ)।
इसके पिछले भाग में यदु के प्रथम व ज्येष्ठ पुत्र हैहय वंशी यादवों के बारे में बताया जा चुका है। उसी क्रम में यदु के दूसरे पुत्र- क्रोष्टा के पुत्र वृजिनीवान हुए। इसी वृजिनीवान की पीढ़ी में में आगे चलकर ज्यमाघ हुए जिनकी पत्नी शैव्या से विदर्भ हुए। फिर विदर्भ की पत्नी भोज्या से तीन पुत्र - कुश, क्रथ और रोमपाद हुए। जिसमें रोमपाद के दो पुत्र - बभ्रु और कृति हुए। इनमें से कृति के पुत्र- चेदि हुए जिनसे यादवों की शाखा में चेदि वंश का उदय हुआ। फिर इसी चेदि की पीढ़ी में दमघोष हुए। जिनका विवाह श्री कृष्ण की बुआ श्रुतिश्रवा से हुआ था। फिर इसी श्रुतिश्रवा और दमघोष से शिशुपाल का जन्म हुआ जो भगवान श्री कृष्ण का प्रतिद्वन्द्वी था।
अब हम लोग विदर्भ के दूसरे पुत्र- क्रथ को लेकर आगे बढ़ेंगे। तो विदर्भ के दूसरे पुत्र - क्रथ के कुन्ति हुए। फिर कुन्ति के वृष्णि (प्रथम) हुए। फिर वृष्णि के निवृत्ति, निवृत्ति के दशार्ह हुए। दशार्ह के व्योम, व्योम के जीमूत, जीमूत के पुत्र विकृति हुए, विकृति के भीमरथ, भीमरथ के नवरथ, नवरथ के दशरथ, दशरथ के शकुनि, शकुनि के करम्भ, करम्भि के पुत्र देवरात हुए, देवरात के मधु, मधु के कुरुवश, कुरुवश के अनु, अनु के पुरूहोत्र, पुरूहोत्र के आयु (सत्वत) हुए। इस सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अन्धक, और महाभोज हुए।
देखा जाए तो यादव वंश में कुल चार वृष्णि थे। जिनको इस तरह से भी समझा जा सकता है -
(१)- प्रथम वृष्णि- हैहय वंशी यादवों के सहस्रबाहु के पुत्र जयध्वज के वंशज मधु के ज्येष्ठ पुत्र थे।
(२)- द्वितीय वृष्णि- विदर्भ के पौत्र कुन्ति के एक पुत्र का नाम भी वृष्णि था। यह सात्वत से पूर्व के यादव वृष्णि हैं।
३- तृतीय वृष्णि- सात्वत के कनिष्ठ (सबसे छोटे) पुत्र का नाम वृष्णि था। यह वृष्णि अन्धक के ही भाई थे।
(विदित हो सातवीं पीढ़ी पर गोत्र बदल जाता है।)
४- चतुर्थ वृष्णि- सात्वत पुत्र वृष्णि के पौत्र (नाती) थे । अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम भी वृष्णि ही था यही अन्तिम वृष्णि सात्वत शाखा में थे।
इन चारो वृष्णियों में से हम प्रमुख रूप से सात्वत पुत्र वृष्णि (तृतीय) को ही लेकर आगे चलेंगे जो क्रोष्टा की पीढ़ी में सात्वत पुत्र वृष्णि (द्वितीय) है।
इनके पूर्व सहस्रबाहु के पुत्र जयध्वज के वंशजों में मधु यादव राजा हुए। सौ पुत्रों में वृष्णि नाम से भी एक राजा हुए। तभी यादव माधव और वार्ष्णेय यादवों का विशेषण हुआ और उन्हीं के नाम और मधु के गुणों तथा यदु के कारण यादव वंश के सदस्यपत्तियों को यादव, माधव और वार्ष्णेय नाम से जाना गया। इसकी पुष्टि- भागवत पुराण - (9/23/30) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिताः।
यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो वृजिनवांस्ततः॥३०।
अनुवाद- परीक्षित् ! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।३०।
पुनः सात्वत के सात पुत्रों में वृष्णि (द्वितीय) के दो पुत्र- सुमित्र और युद्धाजित हुए। जिसमें युद्धाजित के शिनि और अनमित्र दो पुत्र हुए। फिर अनमित्र के तीन पुत्र - निघ्न, शिनि (द्वितीय), और वृष्णि (तृतीय) हुए। इस तृतीय वृष्णि के भी दो पुत्र- श्वफलक और चित्ररथ हुए।
जिसमें श्वफलक की पत्नी गान्दिनी से अक्रूर जी का जन्म हुआ जो यादवों की सुरक्षा को लेकर सदैव तत्पर रहते थे। उसी क्रम में श्वफलक के भाई चित्ररथ के भी दो पुत्र - पथ और विदुरथ हुए। फिर इस विदुरथ के शूर, हुए। शूर के भजमान (द्वितीय), भजमान (द्वितीय) के शिनि (तृतीय), शिनि (तृतीय) के स्वयमभोज, हुए और स्वयमभोज के हृदीक, तथा हृदीक के देवमीढ हुए।
देवमीढ की तीन पत्नियां थी - अश्मिका, सतप्रभा और गुणवती थीं। जिसमें देवमीढ की पत्नी अश्मिका से शूरसेन का जन्म हुआ। इस शूरसेन की पत्नी का नाम मारिषा था, जिससे कुल दस पुत्र हुए। उन्हीं दस पुत्रों में धर्मवत्सल वसुदेव जी भी थे। जिसमें वसुदेव जी की बहुत सी पत्नियां थीं किन्तु मुख्य रूप से दो ही पत्नियां- देवकी और रोहिणी प्रसिद्ध थीं। जिसमें वसुदेव और देवकी से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। तथा वासुदेव जी की दूसरी
पत्नी रोहिणी से बलराम जी का जन्म हुआ।
इस प्रकार से हम लोग भक्तिभाव के साथ गोपेश्वर श्रीकृष्ण के यहां पहुंच गए।
किंतु बिना नन्दबाबा के यहां पहुंचे श्रीकृष्ण की बात अधूरी ही रहेगी। तो नन्दबाबा के यहां पहुंचने के लिए हमें पुनः देवमीढ की दूसरी पत्नी गुणवती तक जाना होगा। किन्तु इसके पहले देवमीढ की तीसरी पत्नी सतप्रभा को भी जान लें कि- देवमीढ की पत्नी सतप्रभा से एक कन्या- सतवती हुई।
अब हम पुनः देवमीढ की पत्नी गुणवती की तरफ रुख करते हैं जहां नन्दबाबा मिलेंगे। तो देवमीढ की तीसरी पत्नी गुणवती से- अर्जन्य, पर्जन्य और राजन्य नामक तीन पुत्र हुए। इन पुत्रों में से हम पर्जन्य को ही लेकर आगे बढ़ेंगे।
तो पर्जन्य की पत्नी का नाम वरियसी था। इसी वरियसी और पर्जन्य से कुल पांच पुत्र - उपनन्द, अभिनन्द, नन्द (नन्दबाबा), सुनन्द, और नन्दन हुए।
[भाग ३]✓✓✓
यादवंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपति।
भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज
___
इस अध्याय के भाग- (३) का मुख्य उद्देश्य यादव वंश की चारित्रिक वंशावली का व्याख्यान करते हुए गोपेश्वर श्रीकृष्ण के लौकिक चरित्र को भी स्पष्ट करना है। तो उसके लिए यदु के पुत्र क्रोष्टा को ही लेकर चलेंगे जहां क्रोष्टा की ही पीढ़ी में आगे चलकर अंधक और वृष्णि नामक दो महान विभूतियों का उदय हुआ। जिसमें वृष्णि के वंशजों में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ तथा अंधक के वंशजों में गोपेश्वर श्रीकृष्ण की ननिहाल( माता का कुल हुआ)।
इसके पिछले भाग में यदु के प्रथम व ज्येष्ठ पुत्र हैहय वंशी यादवों के बारे में बताया जा चुका है। उसी क्रम में यदु के दूसरे पुत्र- क्रोष्टा के पुत्र वृजिनीवान हुए। इसी वृजिनीवान की पीढ़ी में में आगे चलकर ज्यमाघ हुए जिनकी पत्नी शैव्या से विदर्भ हुए। फिर विदर्भ की पत्नी भोज्या से तीन पुत्र - कुश, क्रथ और रोमपाद हुए। जिसमें रोमपाद के दो पुत्र - बभ्रु और कृति हुए। इनमें से कृति के पुत्र- चेदि हुए जिनसे यादवों की शाखा में चेदि वंश का उदय हुआ। फिर इसी चेदि की पीढ़ी में दमघोष हुए। जिनका विवाह श्री कृष्ण की बुआ श्रुतिश्रवा से हुआ था। फिर इसी श्रुतिश्रवा और दमघोष से शिशुपाल का जन्म हुआ जो भगवान श्री कृष्ण का प्रतिद्वन्द्वी था।
अब हम लोग विदर्भ के दूसरे पुत्र- क्रथ को लेकर आगे बढ़ेंगे। तो विदर्भ के दूसरे पुत्र - क्रथ के कुन्ति हुए। फिर कुन्ति के वृष्णि (प्रथम) हुए। फिर वृष्णि के निवृत्ति, निवृत्ति के दशार्ह हुए। दशार्ह के व्योम, व्योम के जीमूत, जीमूत के पुत्र विकृति हुए, विकृति के भीमरथ, भीमरथ के नवरथ, नवरथ के दशरथ, दशरथ के शकुनि, शकुनि के करम्भ, करम्भि के पुत्र देवरात हुए, देवरात के मधु, मधु के कुरुवश, कुरुवश के अनु, अनु के पुरूहोत्र, पुरूहोत्र के आयु (सत्वत) हुए। इस सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अन्धक, और महाभोज हुए।
देखा जाए तो यादव वंश में कुल चार वृष्णि थे। जिनको इस तरह से भी समझा जा सकता है -
(१)- प्रथम वृष्णि- हैहय वंशी यादवों के सहस्रबाहु के पुत्र जयध्वज के वंशज मधु के ज्येष्ठ पुत्र थे।
(२)- द्वितीय वृष्णि- विदर्भ के पौत्र कुन्ति के एक पुत्र का नाम भी वृष्णि था। यह सात्वत से पूर्व के यादव वृष्णि हैं।
३- तृतीय वृष्णि- सात्वत के कनिष्ठ (सबसे छोटे) पुत्र का नाम वृष्णि था। यह वृष्णि अन्धक के ही भाई थे।
(विदित हो सातवीं पीढ़ी पर गोत्र बदल जाता है।)
४- चतुर्थ वृष्णि- सात्वत पुत्र वृष्णि के पौत्र (नाती) थे । अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम भी वृष्णि ही था यही अन्तिम वृष्णि सात्वत शाखा में थे।
इन चारो वृष्णियों में से हम प्रमुख रूप से सात्वत पुत्र वृष्णि (तृतीय) को ही लेकर आगे चलेंगे जो क्रोष्टा की पीढ़ी में सात्वत पुत्र वृष्णि (द्वितीय) है।
इनके पूर्व सहस्रबाहु के पुत्र जयध्वज के वंशजों में मधु यादव राजा हुए। सौ पुत्रों में वृष्णि नाम से भी एक राजा हुए। तभी यादव माधव और वार्ष्णेय यादवों का विशेषण हुआ और उन्हीं के नाम और मधु के गुणों तथा यदु के कारण यादव वंश के सदस्यपत्तियों को यादव, माधव और वार्ष्णेय नाम से जाना गया। इसकी पुष्टि- भागवत पुराण - (9/23/30) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिताः।
यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो वृजिनवांस्ततः॥३०।
अनुवाद- परीक्षित् ! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।३०।
पुनः सात्वत के सात पुत्रों में वृष्णि (द्वितीय) के दो पुत्र- सुमित्र और युद्धाजित हुए। जिसमें युद्धाजित के शिनि और अनमित्र दो पुत्र हुए। फिर अनमित्र के तीन पुत्र - निघ्न, शिनि (द्वितीय), और वृष्णि (तृतीय) हुए। इस तृतीय वृष्णि के भी दो पुत्र- श्वफलक और चित्ररथ हुए।
जिसमें श्वफलक की पत्नी गान्दिनी से अक्रूर जी का जन्म हुआ जो यादवों की सुरक्षा को लेकर सदैव तत्पर रहते थे। उसी क्रम में श्वफलक के भाई चित्ररथ के भी दो पुत्र - पथ और विदुरथ हुए। फिर इस विदुरथ के शूर, हुए। शूर के भजमान (द्वितीय), भजमान (द्वितीय) के शिनि (तृतीय), शिनि (तृतीय) के स्वयमभोज, हुए और स्वयमभोज के हृदीक, तथा हृदीक के देवमीढ हुए।
देवमीढ की तीन पत्नियां थी - अश्मिका, सतप्रभा और गुणवती थीं। जिसमें देवमीढ की पत्नी अश्मिका से शूरसेन का जन्म हुआ। इस शूरसेन की पत्नी का नाम मारिषा था, जिससे कुल दस पुत्र हुए। उन्हीं दस पुत्रों में धर्मवत्सल वसुदेव जी भी थे। जिसमें वसुदेव जी की बहुत सी पत्नियां थीं किन्तु मुख्य रूप से दो ही पत्नियां- देवकी और रोहिणी प्रसिद्ध थीं। जिसमें वसुदेव और देवकी से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। तथा वासुदेव जी की दूसरी
पत्नी रोहिणी से बलराम जी का जन्म हुआ।
इस प्रकार से हम लोग भक्तिभाव के साथ गोपेश्वर श्रीकृष्ण के यहां पहुंच गए।
किंतु बिना नन्दबाबा के यहां पहुंचे श्रीकृष्ण की बात अधूरी ही रहेगी। तो नन्दबाबा के यहां पहुंचने के लिए हमें पुनः देवमीढ की दूसरी पत्नी गुणवती तक जाना होगा। किन्तु इसके पहले देवमीढ की तीसरी पत्नी सतप्रभा को भी जान लें कि- देवमीढ की पत्नी सतप्रभा से एक कन्या- सतवती हुई।
अब हम पुनः देवमीढ की पत्नी गुणवती की तरफ रुख करते हैं जहां नन्दबाबा मिलेंगे। तो देवमीढ की तीसरी पत्नी गुणवती से- अर्जन्य, पर्जन्य और राजन्य नामक तीन पुत्र हुए। इन पुत्रों में से हम पर्जन्य को ही लेकर आगे बढ़ेंगे।
तो पर्जन्य की पत्नी का नाम वरियसी था। इसी वरियसी और पर्जन्य से कुल पांच पुत्र - उपनन्द, अभिनन्द, नन्द (नन्दबाबा), सुनन्द, और नन्दन हुए।
परन्तु नाभादास विरचित ऐतिहासिक ग्रन्थ भक्तमाल इसका रचना काल सं. (१५६०) और (१६८०) के बीच माना जा सकता है उसमें पर्जन्य के नो पुत्रों का विवरण है।
"इत: श्लोक द्वे इन्द्रवज्रावृतम्-
श्रीदेवमीढस्य बभुवतुर्त्रय भार्या हि गुणवत्यश्मिका सत्प्रभा च।
पर्जन्यनामाजनि गुणवत्या अश्मिकयापि च शुरसेन:।१।
श्रीशूरसेनाद् वसुदेवनामा भार्याभवद् यस्य च देवकीति।
पर्जन्यनाम्नोऽपि च गोपराजान्नन्दादयो वै नव सम्बभूवु:।।२।
(पज्झटिकावृत्तम्)
उपनन्दो नन्दोऽभिनन्द: कर्मानन्दो धर्मानन्द:।
धरानन्दध्रुवनन्दसुनन्दा वल्लभनन्द इमे नवनन्दा:।३।
अनुवाद:- देवमीढ की तीन पत्नियाँ हुईं- गुणवती अश्मिका और सत्प्रभा हुईं जिसमें गुणवती रानी से पर्जन्य आदि और अश्मिका रानी से शूरसेन का जन्म हुआ।
शूरसेन से वसुदेव आदि का जन्म हुआ जिनकी पत्नी का नाम देवकी था। और देवमीढ के पर्जन्य नाम से जो गोपराज थे उनसे नव पुत्रों का जन्म हुआ। जैसे १-उपनन्द - २-नन्द ३- अभिनन्द ४- कर्मानन्द ५-धर्मानन्द
६-धरानन्द ७-ध्रुवनन्द ८-सुनन्द ९-वल्लभनन्द।।१-२।
पर्जन्य के इन पुत्रों में मझले पुत्र नन्दबाबा अधिक लोकप्रिय थे। पारिवारिक दृष्टिकोण से नन्दबाबा और वासुदेव जी आपस के भाई ही थे, क्योंकि ये दोनों देवमीढ के परिवार से ही सम्बन्धित थे ।
नन्दबाबा की पत्नी का नाम यशोदा था। जिससे विंध्यवासिनी (योगमाया) अथवा एकानँशा नाम की एक अद्भुत कन्या का जन्म हुआ। इसकी पुष्टि- श्रीमार्कण्डेय पुराण के देवीमाहात्म्य अध्याय- (११) के श्लोक- (४१-४२) से होती है। जिसमें योगमाया स्वयं अपने जन्म के बारे में कहती हैं कि -
"वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ ॥४१॥
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ॥ ४२॥
अनुवाद- ४१-४२
• वैवस्वत मन्वन्तर में अठाईसवां द्वापर युग आने पर शुम्भ और निशुम्भ जैसे दूसरे महासुर उत्पन्न होंगे ।
• तब नन्दगोप के घर में यशोदा के गर्भ से उत्पन्न हो विन्ध्याचल निवासिनी के रूप में उन दोनों का नाश करुँगी।
योगमाया के जन्म लेते ही वसुदेव जी अपने नवजात शिशु श्रीकृष्ण को योगमाया के स्थान पर रखकर योगमाया को लेकर बन्दीगृह में पुनः पहुँच गए। और जब कँस को यह पता चला कि देवकी को आठवीं संतान पैदा हो चुकी है तो उसने बन्दीगृह में पहुंच कर योगमाया को ही देवकी का आठवां पुत्र समझकर पत्थर पर पटक कर मारना चाहा, किंतु योगमाया उसके हाथ से छुटकर कंस को यह कहते हुए आकाश मार्ग से विंध्याचल पर्वत पर चली गई कि- तुझे मारने वाला पैदा हो चुका है। वही योगमाया विंध्याचल पर्वत पर आज भी यादवों की प्रथम कुल देवी के रूप विराजमान है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री माता प्रसाद जी कहना है कि- "कुलदेवी या कुल देवता उसी को कहा जाता है जो कुल की रक्षा करते हैं।
योगमाया विंध्यवासिनी को श्रीकृष्ण सहित समस्त यादवों की रक्षा करने वाली कुल देवी और श्रीकृष्ण को कुल देवता होने की पुष्टि -हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय- (४) के श्लोक- ४६-४७ और (४८) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
सा कन्या ववृधे तत्र वृष्णिसंघसुपूजिता।
पुत्रवत् पाल्यमाना सा वसुदेवाज्ञया तदा।४६ ।
विद्धि चैनामथोत्पन्नामंशाद् देवीं प्रजापतेः।
एकानंशां योगकन्यां रक्षार्थं केशवस्य तु ।४७ ।
तां वै सर्वे सुमनसः पूजयन्ति स्म यादवाः।
देववद् दिव्यवपुषा कृष्णः संरक्षितो यया ।४८।
अनुवाद- ४६ से ४८
• वहां (विंध्याचल पर्वतपर) वृष्णी वंशी यादवों के समुदाय से भलीभांति पूजित हो वह कन्या बढ़ने लगी। वसुदेव की आज्ञा से उसका पुत्रवत् पालन होने लगा।
• इस देवी (विंध्यवासिनी) को प्रजा पालक भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुई समझो। वह एक होती हुई अनंंशा (अंश रहित) अर्थात अविभक्त थी, इसीलिए एकानंशा कहलाती थी। योगबल से कन्या रूप में प्रकट हुई वह देवी भगवान श्री कृष्ण की रक्षा के लिए आविर्भूत हुई थी।
• यदुकुल में उत्पन्न सभी लोग उस देवी का आराध्य देव के समान पूजन करते थे, क्योंकि उसने अपनी दिव्यदेह से श्रीकृष्ण की भी रक्षा की थी तभी से समस्त यादव समाज विंध्यवासिनी योगमाया को प्रथम कुल देवी तथा गोपेश्वर श्रीकृष्ण को कुल देवता मानकर परंपरागत रूप से पूजने लगे।
(ज्ञात हो - नन्दबाबा को योगमाया विंध्यवासिनी के अतिरिक्त एक भी पुत्र नहीं हुआ। इसलिए उनका वंश आगे तक नहीं चल सका।) इस लिए किसी को नन्दवंशी यादव कहना उचित नहीं है।
"वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ ॥४१॥
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ॥ ४२॥
अनुवाद- ४१-४२
• वैवस्वत मन्वन्तर में अठाईसवां द्वापर युग आने पर शुम्भ और निशुम्भ जैसे दूसरे महासुर उत्पन्न होंगे ।
• तब नन्दगोप के घर में यशोदा के गर्भ से उत्पन्न हो विन्ध्याचल निवासिनी के रूप में उन दोनों का नाश करुँगी।
योगमाया के जन्म लेते ही वसुदेव जी अपने नवजात शिशु श्रीकृष्ण को योगमाया के स्थान पर रखकर योगमाया को लेकर बन्दीगृह में पुनः पहुँच गए। और जब कँस को यह पता चला कि देवकी को आठवीं संतान पैदा हो चुकी है तो उसने बन्दीगृह में पहुंच कर योगमाया को ही देवकी का आठवां पुत्र समझकर पत्थर पर पटक कर मारना चाहा, किंतु योगमाया उसके हाथ से छुटकर कंस को यह कहते हुए आकाश मार्ग से विंध्याचल पर्वत पर चली गई कि- तुझे मारने वाला पैदा हो चुका है। वही योगमाया विंध्याचल पर्वत पर आज भी यादवों की प्रथम कुल देवी के रूप विराजमान है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री माता प्रसाद जी कहना है कि- "कुलदेवी या कुल देवता उसी को कहा जाता है जो कुल की रक्षा करते हैं।
योगमाया विंध्यवासिनी को श्रीकृष्ण सहित समस्त यादवों की रक्षा करने वाली कुल देवी और श्रीकृष्ण को कुल देवता होने की पुष्टि -हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय- (४) के श्लोक- ४६-४७ और (४८) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
सा कन्या ववृधे तत्र वृष्णिसंघसुपूजिता।
पुत्रवत् पाल्यमाना सा वसुदेवाज्ञया तदा।४६ ।
विद्धि चैनामथोत्पन्नामंशाद् देवीं प्रजापतेः।
एकानंशां योगकन्यां रक्षार्थं केशवस्य तु ।४७ ।
तां वै सर्वे सुमनसः पूजयन्ति स्म यादवाः।
देववद् दिव्यवपुषा कृष्णः संरक्षितो यया ।४८।
अनुवाद- ४६ से ४८
• वहां (विंध्याचल पर्वतपर) वृष्णी वंशी यादवों के समुदाय से भलीभांति पूजित हो वह कन्या बढ़ने लगी। वसुदेव की आज्ञा से उसका पुत्रवत् पालन होने लगा।
• इस देवी (विंध्यवासिनी) को प्रजा पालक भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुई समझो। वह एक होती हुई अनंंशा (अंश रहित) अर्थात अविभक्त थी, इसीलिए एकानंशा कहलाती थी। योगबल से कन्या रूप में प्रकट हुई वह देवी भगवान श्री कृष्ण की रक्षा के लिए आविर्भूत हुई थी।
• यदुकुल में उत्पन्न सभी लोग उस देवी का आराध्य देव के समान पूजन करते थे, क्योंकि उसने अपनी दिव्यदेह से श्रीकृष्ण की भी रक्षा की थी तभी से समस्त यादव समाज विंध्यवासिनी योगमाया को प्रथम कुल देवी तथा गोपेश्वर श्रीकृष्ण को कुल देवता मानकर परंपरागत रूप से पूजने लगे।
(ज्ञात हो - नन्दबाबा को योगमाया विंध्यवासिनी के अतिरिक्त एक भी पुत्र नहीं हुआ। इसलिए उनका वंश आगे तक नहीं चल सका।) इस लिए किसी को नन्दवंशी यादव कहना उचित नहीं है।
विदित हो सातवीं पीढ़ी पर गोत्र बदल जाता है ।
सात्वत वंश में चतुर्थ वृष्णि- सात्वत पुत्र वृष्णि के पौत्र (नाती) थे । अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम भी वृष्णि ही था यही अन्तिम वृष्णि सात्वत शाखा में थे। यही नन्द और वसुदेव के पूर्व- पितामह थे।
अनुवाद:-
यदुवंश के वृष्णि कुल में देवमीण जी के पुत्र पर्जन्य नाम से थे। जो बहुत ही शिष्ट और अत्यन्त महान समस्त व्रज समुदाय के लिए थे। वे पर्जन्य श्रीकृष्ण के पितामह अर्थात नन्द बाबा के पिता थे।१।
अनुवाद:- प्राचीन काल में नन्दीश्वर प्रदेश में गोपों के साथ रहते हुए वे पर्जन्य यतियों के जीवन धारण करके स्वराट्- विष्णु का तप करते थे।२।
तपसानेन धन्येन भाविन: पुत्रा वरीयान्। पञ्च ते मध्यमस्तेषां नन्दनाम्ना जजान।३।
"अनुवाद:- महान तपस्या के द्वारा उनके श्रेष्ठ पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। जिनमें मध्यम पुत्र नन्द नाम से थे।३।
तुष्टस्तत्र वसन्नत्र प्रेक्ष्य केशिनमागतं।
परीवारै: समं सर्वैर्ययौ भीतो गोकुलं।।४।
"अनुवाद:- वहाँ सन्तोष पूर्ण रहते हुए केशी नामक असुर को आया हुआ देखकर परिवार के साथ पर्जन्य जी भय के कारण नन्दीश्वर को छोड़कर गोकुल (महावन) को चले गये।४।
कृष्णस्य पितामही महीमान्या कुसुम्भाभा हरित्पटा।
वरीयसीति वर्षीयसी विख्याता खर्वा: क्षीराभ लट्वा।५।
"अनुवाद:- कृष्ण की दादी( पिता की माता) वरीयसी जो सम्पूर्ण गोकुल में बहुत सम्मानित थीं ; कुसुम्भ की आभा वाले हरे वस्त्रों को धारण करती थीं। वह छोटे कद की और दूध के समान बालों वाली और अधिक वृद्धा थीं।५।
भ्रातरौ पितुरुर्जन्यराजन्यौ च सिद्धौ गोषौ ।
सुवेर्जना सुभ्यर्चना वा ख्यापि पर्जन्यस्य सहोदरा।६।
"अनुवाद:- नन्द के पिता पर्जन्य के दो भाई अर्जन्य और राजन्य प्रसिद्ध गोप थे। सुभ्यर्चना नाम से उनकी एक बहिन भी थी।६।
गुणवीर: पति: सुभ्यर्चनया: सूर्यस्याह्वयपत्तनं।
निवसति स्म हरिं कीर्तयन्नित्यनिशिवासरे।।७।
"अनुवाद:- सुभ्यर्चना के पति का नाम गुणवीर था। जो सूर्य-कुण्ड नगर के रहने वाले थे। जो नित्य दिन- रात हरि का कीर्तन करते थे।७।
उपनन्दानुजो नन्दो वसुदेवस्य सुहृत्तम:।
नन्दयशोदे च कृष्णस्य पितरौ व्रजेश्वरौ।८।
"अनुवाद:- उपनन्द के भाई नन्द वसुदेव के सुहृद थे और कृष्ण के माता- पिता के रूप में नन्द और यशोदा दोनों व्रज के स्वामी थे। ८।
वसुदेवोऽपि वसुभिर्दीव्यतीत्येष भण्यते।
यथा द्रोणस्वरूपाञ्श: ख्यातश्चानक दुन्दुभ:।९।
"अनुवाद:-वसु शब्द पुण्य ,रत्न ,और धन का वाचक है। वसु के द्वारा देदीप्यमान(प्रकाशित) होने के कारण श्रीनन्द के मित्र वसुदेव कहलाते हैं। अथवा विशुद्ध सत्वगुण को वसुदेव कहते हैं।
इस अर्थ नें शुद्ध सत्व गुण सम्पन्न होने से इनका नाम वसुदेव है। ये द्रोण नामक वसु के स्वरूपाञ्श हैं। ये आनक दुन्दुभि नाम से भी प्रसिद्ध हैं।९।
वसु= (वसत्यनेनेति वस + “शॄस्वृस्निहीति ।” उणाणि १ । ११ । इति उः) – रत्नम् । धनम् । इत्यमरःकोश ॥ (यथा, रघुः । ८ । ३१ । “बलमार्त्तभयोपशान्तये विदुषां सत्कृतये
बहुश्रुतम् । वसु तस्य विभोर्न केवलं गुणवत्तापि परप्रयोजनम् ॥) वृद्धौषधम् । श्यामम् । इति मेदिनीकोश । हाटकम् । इति विश्वःकोश ॥ जलम् । इति सिद्धान्त- कौमुद्यामुणादिवृत्तिः ॥
__________________________________
नामेदं नन्दस्य गारुडे प्रोक्तं मथुरामहिमक्रमे।
वृषभानुर्व्रजे ख्यातो यस्य प्रियसुहृदर:।।१०।
"अनुवाद:- नन्द के ये नाम गरुडपुराण के मथुरा महात्म्य में कहे गये हैं। व्रज में विख्यात श्री वृषभानु जी नन्द के परम मित्र हैं।१०।
माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।
गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥
यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
"गर्गसंहिता-( ३/५/७ )
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
*****
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥
"विशेष- यशोदा का वर्ण (रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका के साक्ष्यों से सिद्ध है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं।
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।
शास्त्रों गोपों की वीरता सर्वत्र प्रतिध्वनित है।
प्रसंग:- श्रृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज था ; जो जय-विजय की तरह गोलोक से नीचे वैकुण्ठ में द्वारपाल था। जिसका नाम सुभद्र था जिसने लक्ष्मी के शाप से भ्रष्ट हेकर पृथ्वी पर जन्म लिया। उसी श्रृगाल की कृष्ण के प्रति शत्रुता की सूचना देने के लिए एक ब्राह्मण कृष्ण की सुधर्मा सभा में आता है और वह उस श्रृगाल मण्डलेश्वर के कहे हुए शब्दों को कृष्ण से कहता है।
हे प्रभु आपके प्रति श्रृँगाल ने कहा :-
श्लोक का अनुवाद:-
"वसुदेव का पुत्र कृष्ण वैश्य जाति का है; वह अहंकारी क्षत्रिय भी है।"
वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इसलिए वह मायावी और ठग है ।६।
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{ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय
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आदिपुराणे प्रोक्तं द्वे नाम्नी नन्दभार्याया यशोदा देवकी-इति च।।
अत: सख्यमभूत्तस्या देवक्या: शौरिजायया।।१२।
"अनुवाद:- आदि पुराण में वर्णित नन्द की पत्नी यशोदा का नाम देवकी भी है। इस लिए शूरसेन के पुत्र वसुदेव की पत्नी देवकी के साथ नाम की भी समानता होने के कारण स्वाभाविक रूप में यशोदा का सख्य -भाव भी है।१२।
उपनन्दोऽभिनन्दश्च पितृव्यौ पूर्वजौ पितु:।
पितृव्यौ तु कनीयांसौ स्यातां सनन्द नन्दनौ।१३।
"अनुवाद:- श्री नन्द के उपनन्द और अभिनन्दन बड़े भाई तथा सनन्द और नन्दन नाम हे दो छोटे भाई भी हैं। ये सब कृष्ण के पितृव्य (ताऊ-चाचा) हैं।१३।
"आद्य: सितारुणरुचिर्दीर्घकूचौ हरित्पट:।
तुङ्गी प्रियास्य सारङ्गवर्णा सारङ्गशाटिका।।१४।
"अनुवाद:- सबसे बड़े भाई उपनन्द की अंग कान्ति धवल ( सफेद) और अरुण( उगते हुए सूर्य) के रंग के मिश्रण अर्थात- गुलाबी रंग जैसी है। इनकी दाढ़ी बहुत लम्बी और वस्त्र हरे रंग के हैं । इनकी पत्नी का नाम तुंगी है। जिनकी अंग कन्ति तथा साड़ी का रंग सारंग( पपीहे- के रंग जैसा है।१४।
द्वितीयो भ्रातुरभिनन्दनस्य भार्या पीवरी ख्याता।
पाटलविग्रहा नीलपटा लम्बकूर्चोऽसिताम्बरा:।।१५।
"अनुवाद:- दूसरे भाई श्री -अभिनन्द की अंग कान्ति शंख के समान गौर वर्ण है। और दाढ़ी लम्बी है। ये काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। इनकी पत्नी का नाम पीवरी जो नीले रंग के वस्त्र धारण करती हैं। तथा जिनकी अंग कान्ति पाटल ( गुलाब) रंग की है।१५।
सुनन्दापरपर्याय: सनन्दस्य च पाण्डव:।
श्यामचेल: सितद्वित्रिकेशोऽयं केशवप्रिय:।१६।
"अनुवाद:- आनन्द का दूसरा नाम सन नन्द है। इनकी अंग कान्ति पीला पन लिए हुए सफेद रंग की तथा वस्त्र काले रंग के हैं। इनके शिर के सम्पूर्ण बालों में केवल दो या तीन बाल ही सफेद हुए हैं। ये केशव- कृष्ण के परम प्रिय है।१६।
सनन्दस्य भार्या कुवलया नाम्न: ख्याता।
रक्तरङ्गाणि वस्त्राणि धारयति तस्या: कुवलयच्छवि:।१७।
"अनुवाद:-सनन्द की पत्नी का नाम कुवलया है।
जो कुवलय( नीले और हल्के लाल के मिश्रण जैसे ) वस्त्रों को धारण करने वाली तथा कुवलय अंक कान्ति वाली हैं।१७।
नन्दन: शिकिकण्ठाभश्चण्डातकुसुमाम्बर:।
अपृथग्वसति: पित्रा सह तरुण प्रणयी हरौ।
अतुल्यास्य प्रिया विद्युतकान्तिरभ्रनिभाम्बरा।१८।
"अनुवाद:- नंदन की अंग कान्ति मयूर के
कण्ठ जैसी तथा वस्त्र चण्डात (करवीर) पुष्प के समान है। श्रीनन्दन अपने पिता ( श्री पर्जन्य जी के साथ ही इकट्ठे निवास करते हैं। श्रीहरि के प्रति इनका कोमल प्रेम है। नन्दन जी की पत्नी का नाम अतुल्या है। जिनकी अंगकान्ति बिजली के समान रंग वाली है। तथा वस्त्र मेघ की तरह श्याम रंग के हैं।१८।
सानन्दा नन्दिनी चेति पितुरेते सहोदरे।
कल्माषवसने रिक्तदन्ते च फेनरोचिषी।१९।
"अनुवाद:-( कृष्ण के पिता नन्द की सानन्दा और नन्दिनी नाम की दो बहिने हैं। ये अनेक प्रकार के रंग- विरंगे) वस्त्र धारण करती हैं। इनकी दन्तपंक्ति रिक्त अर्थात इनके बहुत से दाँत नहीं हैं। इनकी अंगकान्ति फेन( झाग) की तरह सफेद है।१९।
सानन्दा नन्दिन्यो: पत्येतयो: क्रमाद्महानील: सुनीलश्च तौ कृष्णस्य वपस्वसृपती शुद्धमती।
२०।
"अनुवाद:-सानन्दा के पति का नाम महानील और नन्दिनी के पति का नाम सुनील है। ये दोंनो श्रीकृष्ण के फूफा अर्थात् (नन्द) के बहनोई हैं।२०।
पितुराद्यभ्रातुः पुत्रौ कण्डवदण्डवौ नाम्नो:
सुबले मुदमाप्तौ सौ ययोश्चारु मुखाम्बुजम्।।२१।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के पिता नन्द बड़े भाई श्री उपनन्द के कण्डव और दण्डव नाम के दो पुत्र हैं।
दोंनो सुबह के संग में बहुत प्रसन्न रहते हैं। तथ
दोंनो का मनोहर मुख कमल के समान सुन्दर है।२१।
राजन्यौ यौ तु पुत्रौ नाम्ना तौ चाटु- वाटुकौ।
दधिस्सारा- हविस्सारे सधर्मिण्यौ क्रमात्तयो:।।२२।
"अनुवाद:- श्रीनन्द जी के दो चचेरे भाई जो उनके चाचा राजन्य के पुत्र हैं। उनका नाम चाटु और वाटु है उनकी पत्नीयाँ का नाम इसी क्रम से दधिस्सारा और हविस्सारा है।२२।
महामहो महोत्साहो स्यादस्य सुमुखाभिध:।
लम्बकम्बुसमश्रु: पक्वजम्बूफलच्छवि:।।२३।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के नाना (मातामह) का नाम सुमुख है। ये बहुत उद्यमी और उत्साही हैं। इनकी लम्बी दाढ़ी शंख के समान सफेद तथा अंगकान्ति पके हुए जामुन के फल जैसी ( श्यामल) है।२३।
"श्रीब्रह्मवैवर्ते पुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे कृष्णान्नप्राशन वर्णननामकरणप्रस्तावो नाम त्रयोदशोऽध्याये यशोदया: पित्रोर्नामनी पद्मावतीगिरिभानू उक्तौ।२४।
अनुवाद:- ब्रह्म वैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अन्तर्गत नारायण -और नारद संवाद में कृष्ण का अन्न प्राशनन नामक तेरहवें अध्याय में यशोदा के माता-पिता का नाम पद्मावती और गिरिभानु है।२४।
सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः ।
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।२५।
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।२५।
अनुवाद:- गोप रूपी कमलों के गिरिभानु सूर्य हैं।
और उनकी पत्नी पद्मावती लक्ष्मी के समान सती है।२५।
तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी ।।
बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नन्दश्च वल्लभः।२६।।
अनुवाद:- उस पद्मावती की कन्या यशोदा तुम यश को बढ़ाने वाली हो। गोपों में श्रेष्ठ नन्द तुमको पति रूप में प्राप्त हुए हैं।२६।
माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।
गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥
यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
"गर्गसंहिता- (३/५/७)
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
*****
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
"विषेश- यशोदा का वर्ण (रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं।
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।
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मातामही तु महिषी दधिपाण्डर कुन्तला।
पाटला पाटलीपुष्पपटलाभा हरित्पटा।२७।
"अनुवाद:- कृष्ण की नानी (मातामही) का नाम पाटला है ये व्रज की रानी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके केश देखने में गाय के दूध से बने दही के समान पीले, अंगकान्ति पाटल पुष्प के समान हल्के गुलाबी रंग जैसी तथा वस्त्र हरे रंग के है।२७।
प्रिया सहचरी तस्या मुखरा नाम बल्लवी।
व्रजेश्वर्यै ददौ स्तन्यं सखी स्नहभरेण या।२८।
"अनुवाद:- मातामही( नानी) पाटला की मुखरा
नाम की एक गोपी प्रिय सखी है। वह पाटला के प्रति इतनी स्नेह-शील है कि कभी- कभी
पाटला के व्यस्त होने पर व्रज की ईश्वरी पाटला
की पुत्री यशोदा को अपना स्तन-पान तक भी करा देती थी।२८।
सुमुखस्यानुजश्चारुमुखोऽञ्जनभिच्छवि:।
भार्यास्य कुलटीवर्णा बलाका नाम्नो बल्लवी।२९।
"अनुवाद:- सुमुख( गिरिभानु) के छोटे भाई की नाम चारुमुख है। इनकी अंगकान्ति काजल की तरह है। इनकी पत्नी का नाम बलाका है। जिनकी अंगकान्ति कुलटी( गहरे नीले रंग की एक प्रकार की दाल जो काजल ( अञ्जन) रे रंग जैसी होती है।२९
गोलो मातामही भ्राता धूमलो वसनच्छवि:।
हसितो य: स्वसुर्भर्त्रा सुमुखेन क्रुधोद्धुर:।३०।
"अनुवाद:-मातामही( नानी ) पाटला के भाई का नाम गोल है। तथा वे धूम्र( ललाई लिए हुए काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। बहिन के पति-( बहनोई) सुमुख द्वारा हंसी मजाक करने पर गोल विक्षिप्त हो जाते हैं।३०।
दुर्वाससमुपास्यैव कुलं लेभे व्रजोज्ज्वलम्।।गोलस्य भार्या जटिला ध्वाङ्क्ष वर्णा महोदरी।३१।
"अनुवाद:- दुर्वासा ऋषि की उपासना के परिणाम स्वरूप इन्हें व्रज के उज्ज्वल वंश में जन्म ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गोल की पत्नी का नाम जटिला है। यह जटिला कौए जैसे रंग वाली तथा स्थूलोदरी (मोटे पेट वाली ) है।३१।
यशोदाया: त्रिभ्रातरो यशोधरो यशोदेव: सुदेवस्तु।
अतसी पुष्परुचय: पाण्डराम्बर-संवृता:।३२।
"अनुवाद:-यशोदा के तीन भाई हैं जिनके नाम हैं यशोधर" यशोदेव और सुदेव – इन सबकी अंगकान्ति अलसी के फूल के समान है । ये सब हल्का सा पीलापन लिए हुए सफेद रंग के वस्त्र धारण करते हैं।३२।
येषां धूम्रपटा भार्या कर्कटी-कुसुमित्विष:।।
रेमा रोमा सुरेमाख्या: पावनस्य पितृव्यजा:।।३३।
"अनुवाद:-इन सब तीनों भाइयों की पत्नीयाँ पावन( विशाखा के पिता) के चाचा( पितृव्य )की कन्याऐं हैं। जिनके नाम क्रमश: रेमा, रोमा और सुरेमा हैं। ये सब काले वस्त्र पहनती हैं। इनकी अंगकान्ति कर्कटी(सेमल) के पुष्प जैसी है।३३।
यशोदेवी- यशस्विन्यावुभे मातुर्यशोदया: सहोदरे।
दधि:सारा हवि:सारे इत्यन्ये नामनी तयो:।३४।
"अनुवाद:- यशोदेवी और यशस्विनी श्रीकृष्ण की माता यशोदा की सहोदरा बहिनें हैं। ये दोंनो क्रमश दधिस्सारा और हविस्सारा नाम से भी जानी जाती हैं। बड़ी बहिन यशोदेवी की अंगकान्ति श्याम वर्ण-(श्यामली) है।३४।
चाटुवाटुकयोर्भार्ये ते राजन्यतनुजयो: ़
सुमुखस्य भ्राता चारुमुखस्यैक: पुत्र: सुचारुनाम्।३५ ।
अनुवाद:- दधिस्सारा और हविस्सारा पहले कहे हुए राजन्य गोप के पुत्रों चाटु और वाटु की पत्नियाँ हैं। सुमुख के भाई चारुमख का सुचारु नामक एक सुन्दर पुत्र है।३५।
गोलस्य भ्रातु: सुता नाम्ना तुलावती या सुचारोर्भार्या ।३६।
"अनुवाद:-गोल की भतीजी तुलावती चारुमख के पुत्र सुचारु की पत्नी है।३६।
पौर्णमासी भगवती सर्वसिद्धि विधायनी।
काषायवसना गौरी काशकेशी दरायता।३७।
"अनुवाद:- भगवती पौर्णमासी सभी सिद्धियों का विधान करने वाली है। उसके वस्त्र काषाय ( गेरुए) रंग के हैं। उसकी अंगकान्ति गौरवर्ण की और केश काश नामक घास के पुष्प के समान सफेद हैं; ये आकार में कुछ लम्बी हैं।
मान्या व्रजेश्वरादीनां सर्वेषां व्रजवासिनां। नारदस्य प्रियशिष्येयमुपदेशेन तस्य या।३८।
"अनुवाद:- पौर्णमसी व्रज में नन्द आदि सभी व्रजवासियों की पूज्या और देवर्षि नारद की प्रिया शिष्या है नारद के उपदेश के अनुसार जिसने।३८।
सान्दीपनिं सुतं प्रेष्ठं हित्वावन्तीपुरीमपि।
स्वाभीष्टदैवतप्रेम्ना व्याकुला गोकुलं गता।३९।
"अनुवाद:- अपने सबसे प्रिय पुत्र सान्दीपनि को उज्जैन(अवन्तीपरी) में छोड़कर अपने अभीष्ट देव श्रीकृष्ण के प्रेम में वशीभूत होकर गोकुल में गयी।३९।
राधया अष्ट सख्यो ललिता च विशाखा च चित्रा।
चम्पकवल्लिका तुङ्गविद्येन्दुलेखा च रङ्गदेवी सुदेविका।४०।
"अनुवाद:- राधा जी की आठ सखीयाँ ललिता, विशाखा,चित्रा,चम्पकलता, तुंगविद्या,इन्दुलेखा,रंग देवी,और सुदेवी हैं।४०।
******
तत्राद्या ललितादेवी स्यादाष्टासु वरीयसी प्रियसख्या भवेज्ज्येष्ठा सप्तविञ्शतिवासरे।४१।
"अनुवाद:-इन आठ वरिष्ठ सखीयों में ललिता देवी सर्वश्रेष्ठ हैं यह अपनी प्रिया सखी राधा से सत्ताईस दिन बड़ी हैं।४१।
अनुराधा तया ख्याता वामप्रखरतां गता।
गोरोचना निभाङ्गी सा शिखिपिच्छनिभाम्बरा।।४२।
"अनुवाद:- श्री ललिता अनुराधा नाम से विख्यात तथा वामा और प्रखरा नायिकाओं के गुणों से विभूषित हैं। ललिता की अंगकान्ति गोरोचना के समान तथा वस्त्र मयूर पंख जैसे हैं।४२।
ललिता जाता मातरि सारद्यां पितुरेषा विशोकत:।
पतिर्भैरव नामास्या: सखा गोवर्द्धनस्य य: ।४३।
"अनुवाद:- श्री ललिता की माता का नाम सारदी और पिता का नाम विशोक है। ललिता के पति का नाम भैरव है जो गोवर्द्धन गोप के सखा हैं।४३।
सम्मोहनतन्त्रस्य ग्रन्थानुसार राधया: सख्योऽष्ट
कलावती रेवती श्रीमती च सुधामुखी।
विशाखा कौमुदी माधवी शारदा चाष्टमी स्मृता।४४।
"अनुवाद:-सम्मोहन तन्त्र के अनुसार राधा की आठ सखियाँ हैं।–कलावती, रेवती,श्रीमती, सुधामुखी, विशाखा, कौमुदी, माधवी,शारदा।४४।
श्रीमधुमङ्गल ईषच्छ्याम वर्णोऽपि भवेत्।
वसनं गौरवर्णाढ्यं वनमाला विराजित:।।४५।
"अनुवाद:- श्रीमान्- मधुमंगल कुछ श्याम वर्ण के हैं। इनके वस्त्र गौर वर्ण के हैं। तथा वन- मालाओं
से सुशोभित हैं।४५।
पिता सान्दीपनिर्देवो माता च सुमुखी सती।
नान्दीमुखी च भगिनी पौर्णमासी पितामही।।४६।
"अनुवाद:-मधुमंगल के पिता सान्दीपनि ऋषि तथा माता का नीम सुमुखी है। जो बड़ी पतिव्रता है। नान्दीमुखी मधु मंगल की बहिन और पौर्णमासी दादी है। ४६।
पौर्णमास्या: पिता सुरतदेवश्च माता चन्द्रकला सती। प्रबलस्तु पतिस्तस्या महाविद्या यशस्करी।४७।
"अनुवाद:- पौर्णमासी के पिता का नाम सुरतदेव तथा माता का नाम चन्द्रकला है। पौर्णमासी के पति का नाम प्रबल है। ये महाविद्या में प्रसिद्धा और सिद्धा हैं।४७।
पौर्णमास्या भ्रातापि देवप्रस्थश्च व्रजे सिद्धा शिरोमणि: । नानासन्धानकुशला द्वयो: सङ्गमकारिणी।।४८।
"अनुवाद:- पौर्णमासी का भाई देवप्रस्थ है। ये पौर्णमासी व्रज में सिद्धा में शिरोमणि हैं।
पौर्णमासी अनेक अनुसन्धान करके कार्यों में कुशल तथा श्रीराधा-कृष्ण दोंनो का मेल कराने वाली है।४८।
आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।४९।
"अनुवाद:- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि सख्यियाँ श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।४९।
चन्द्रावली च पद्मा च श्यामा शैव्या च भद्रिका।
तारा विचित्रा गोपाली पालिका चन्द्रशालिका।५०।
"अनुवाद:- चन्दावलि, पद्मा, श्यामा,शैव्या,भद्रिका, तारा, विचित्रा, गोपली, पालिका ,चन्द्रशालिका,
मङ्गला विमला लीला तरलाक्षी मनोरमा
कन्दर्पो मञ्जरी मञ्जुभाषिणी खञ्जनेक्षणा।।५१
"अनुवाद:-मंगला ,विमला, नीला,तरलाक्षी,मनोरमा,कन्दर्पमञजरी, मञ्जुभाषिणी, खञ्जनेक्षणा
कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा,। शङ्करी, कुङ्कुङ्मा,कृष्णासारङ्गीन्द्रावलि, शिवा।।५२।
"अनुवाद:-कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा, शंकरी, कुंकुमा,कृष्णा, सारंगी,इन्द्रावलि, शिवा आदि ।
तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी।
हारावली,चकोराक्षी, भारती, कमलादय:।।५३।
"अनुवाद:तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी,हारावली,चकोराक्षी, भारती, और कमला आदि गोपिकाऐं कृष्ण की उपासिका व आराधिका हैं।
आसां यूथानि शतश: ख्यातान्याभीर सुताम्।
लक्षसङ्ख्यातु कथिता यूथे- यूथे वराङ्गना।।५४।
"अनुवाद:- इन आभीर कन्याओं के सैकड़ों यूथ( समूह) हैं और इन यूथों में बंटी हुई वरागंनाओं की संख्या भी लाखों में है।५४।
अब इसी प्रकरण की समानता के लिए देखें नीचे
"अनुवाद:- श्री राधा के पिता वृषभानु वृष राशि में स्थित भानु( सूर्य ) के समान उज्ज्वल हैं।१६८-(ख)
श्री राधा जी की माता का नाम कीर्तिदा है। ये पृथ्वी पर रत्नगर्भा- के नाम से प्रसिद्ध हैं।१६९।(क)
राधा जी के पिता का नाम महीभानु तथा नाना का नाम इन्दु है। राधा जी दादी का नाम सुखदा और नानी का नाम मुखरा है।१७०।(क)
अनुवाद:-भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्र मामा:। और मेनका , षष्ठी , गौरी धात्री और धातकी ये राधा की पाँच मामीयाँ हैं।१७१/।
"अनुवाद:- श्रीराधा जी की माता की बहिन का नाम कीर्तिमती,और भानुमुद्रा पिता की बहिन ( बुआ) का नाम है। फूफा का नाम "काश और मौसा जी का नाम कुश है।
"अनुवाद:- श्री राधा जी के बड़े भाई का नाम श्रीदामन्- तथा छोटी बहिन का नाम श्री अनंगमञ्जरी है।१७३।(क)
रायाणस्य परिणीता वृन्दा वृन्दावनस्य अधिष्ठात्री । इयं केदारस्य सुता कृष्णाञ्शस्य भक्ते: सुपात्री। १।
ब्रह्मवैवर्तपुराणस्य श्रीकृष्णजन्मखण्डस्य षडाशीतितमोऽध्यायस्य अनतर्निहिते । सप्तत्रिंशताधिकं शतमे श्लोके रायाणस्य पत्नी वृन्दया: वर्णनमस्ति।।२।
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उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४
श्रीभगवानुवाच-
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।१३५ ।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।१३६ ।
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मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।१३८।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति। १३९।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।
च गोकुले ।१४० ।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नारि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया वृन्दा रायाणकामिनी ।१४१।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसन्निभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् । १४२।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३ ।
उपर्युक्त संस्कृत श्लोकों का नीचे अनुवाद देखें-
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तब भगवान कृष्ण जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले।
श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है।
वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ।
वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी।
सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में हे वृन्दे ! तुम पुन: राधा की वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता होओगी।
उस समय मेरे कलांश से ही उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे।
फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे पुन: प्राप्त करोगी।
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स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह मनु के पौत्र केदार की पुत्री वृन्दा " से हुआ था। जो राधाच्छाया के रूप में व्रज में उपस्थित थी।
जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी।
हे वृन्दे ! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही पाणि-ग्रहण करेंगे;
परन्तु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे।
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उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरी हृदय स्थल में रहती हैं !
इस प्रकार भगवान कृष्ण के वचन के सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये।
उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौंदर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर को श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।
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सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः-( ८६ )
राधाया: प्रतिच्छाया वृन्दया: श्वशुरो वृकगोपश्च देवरो दुर्मदाभिध:।१७३।(ख)
श्वश्रूस्तु जटिला ख्याता पतिमन्योऽभिमन्युक:।
ननन्दा कुटिला नाम्नी सदाच्छिद्रविधायनी।१७४।
"अनुवाद:- राधा की प्रतिच्छाया रूपा वृन्दा के श्वशुर -वृकगोप देवर- दुर्मद नाम से जाने जाते थे। और सास- का नाम जटिला और पति अभिमन्यु - पति का अभिमान करने वाला था। हर समय दूसरे के दोंषों को खोजने वाली ननद का नाम कुटिला था।१७४।
और निम्न श्लोक में राधा रानी सहित अन्य गोपियों को भी आभीर ही लिखा है...
और चैतन्श्रीय परम्परा के सन्त श्रीलरूप गोस्वामी द्वारा रचित श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश-दीपिका नामक ग्रन्थ में श्लोकः १३४ में राधा जी को आभीर कन्या कहा ।
/लघु भाग/श्रीकृष्णस्य प्रेयस्य:/श्री राधा/श्लोकः १३४
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आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |
अस्या : सख्यश्च ललिता विशाखाद्या:सुविश्रुता:।।
भावार्थ:- सुंदर भ्रुकटियों वाली ब्रज की आभीर कन्याओं में वृंदावनेश्वरी श्री राधा और इनकी प्रधान सखियां ललिता और विशाखा सर्वश्रेष्ठ व विख्यात हैं।
सन्दर्भ:- श्री-श्री-राधागणोद्देश्यदीपिका( लघुभाग- श्री-कृष्णस्य प्रेयस्य: प्रकरण- रूपादिकम्
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अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक:
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप।
(2।9।57।2।5)
अमरकोशः)
रसखान ने भी गोपियों को आभीर ही कहा है-
""ताहि अहीर की छोहरियाँ...""
करपात्री स्वामी भी भक्ति सुधा और गोपी गीत में गोपियों को आभीरा ही लिखते हैं
500 साल पहले कृष्णभक्त चारण इशरदास रोहडिया जी ने पिंगल डिंगल शैली में श्री कृष्ण को दोहे में अहीर लिख दिया:--
दोहा इस प्रकार है:-
"नारायण नारायणा, तारण तरण अहीर, हुँ चारण हरिगुण चवां, वो तो सागर भरियो क्षीर।"
अर्थ:-अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण(श्रीकृष्ण)! आप जगत के तारण तरण(सर्जक) हो, मैं चारण (आप श्री हरि के) गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुंदर) और दूध से भरा हुआ है।
भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने मुख्यतः 2 ग्रंथ लिखे हैं "हरिरस" और "देवयान"।
यह आजसे (500) साल पहले ईशरदासजी द्वारा लिखे गए एक दुहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर(यादव) कुल में हुआ था।
सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में "सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया!!
तिरुपति बालाजी मंदिर का पुनर्निर्माण विजयनगर नगर के शासक वीर नरसिंह देव राय यादव और राजा कृष्णदेव राय ने किया था।
विजयनगर के राजाओं ने बालाजी मंदिर के शिखर को स्वर्ण कलश से सजाया था।
विजयनगर के यादव राजाओं ने मंदिर में नियमित पूजा, भोग, मंदिर के चारों ओर प्रकाश तथा तीर्थ यात्रियों और श्रद्धालुओं के लिए मुफ्त प्रसाद की व्यवस्था कराई थी।तिरुपति बालाजी (भगवान वेंकटेश) के प्रति यादव राजाओं की निःस्वार्थ सेवा के कारण मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार यादव जाति को दिया गया है।
तब ऐसे में आभीरों को शूद्र कहना युक्तिसंगत नहीं गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृत- साहित्य का इतिहास नामक पुस्तक में पृष्ठ संख्या- (368) पर वर्णित है।👇
अस्त्र हस्ताश्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते।।१।
और गर्ग सहिता
में भी लिखा है !
यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते।।102।
अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं।१।
जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप-तापों से मुक्त हो जाता है।।१०२।
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विरोधीयों का दूसरा दुराग्रह भी बहुत दुर्बल है
कि गाय पालने से ही यादव गोप के रूप में वैश्य हो गये परन्तु
"गावो विश्वस्य मातरो मातर: सर्वभूतानां गाव: सर्वसुखप्रदा:।।
महाभारत की यह सूक्ति वेदों का भावानुवाद है जिसका अर्थ है कि गाय विश्व की माता है !
और विश्व की इस माता का पालन करना किस प्रकार तुच्छ या वैश्य वृत्ति का कारण हो सकता है
इस प्रकार से अब तक हम लोग यदुवंश के अन्तर्गत क्रोष्टा की पीढ़ी की कठिन डगर को पार करते हुए वसुदेव जी तथा उनके भाई नन्दबाबा के यहाँ से होते हुए श्रीकृष्ण, बलराम और योगमाया विन्ध्यवासिनी के यहाँ पहुँच गये हैं।
अब हम लोग यदुवँश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के ननिहाल को जानेंगे कि- क्रोष्टा की किस पीढ़ी में श्रीकृष्ण का ननिहाल था?
तो इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि -सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अन्धक, और महाभोज हुए।
जिसमें हमलोग सात्वत के पुत्र वृष्णि (द्वितीय) के कुल में उत्पन्न श्रीकृष्ण को जाना। अब हमलोग सात्वत के पुत्र- अन्धक के कुल को जानेंगे जहां भगवान श्रीकृष्ण की ननिहाल मिलेगी।
सात्वत पुत्र अन्धक के कुल चार पुत्र- कुकुर, भजमान, सुचि और कम्बलबर्हिष हुए। जिसमें अन्धक के ज्येष्ठ पुत्र वह्नि थे। इस वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा, कपोतरोमा के अनु और अनु के अन्धक (द्वितीय) हुए। इस अन्धक (द्वितीय) के दुन्दुभि हुए और दुन्दुभि के अरिहोत्र, अरिहोत्र के पुनर्वसु हुए।
फिर इस पुनर्वसु के एक पुत्र आहुक तथा एक पुत्री आहुकी नाम की थी। जिसमें पुनर्वसु के पुत्र आहुक की पत्नी का नाम शैव्या था। इसी पुनर्वसु और शैव्या से दो पुत्र उग्रसेन और देवक।
अब हम लोग यदुवँश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के ननिहाल को जानेंगे कि- क्रोष्टा की किस पीढ़ी में श्रीकृष्ण का ननिहाल था?
तो इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि -सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अन्धक, और महाभोज हुए।
जिसमें हमलोग सात्वत के पुत्र वृष्णि (द्वितीय) के कुल में उत्पन्न श्रीकृष्ण को जाना। अब हमलोग सात्वत के पुत्र- अन्धक के कुल को जानेंगे जहां भगवान श्रीकृष्ण की ननिहाल मिलेगी।
सात्वत पुत्र अन्धक के कुल चार पुत्र- कुकुर, भजमान, सुचि और कम्बलबर्हिष हुए। जिसमें अन्धक के ज्येष्ठ पुत्र वह्नि थे। इस वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा, कपोतरोमा के अनु और अनु के अन्धक (द्वितीय) हुए। इस अन्धक (द्वितीय) के दुन्दुभि हुए और दुन्दुभि के अरिहोत्र, अरिहोत्र के पुनर्वसु हुए।
फिर इस पुनर्वसु के एक पुत्र आहुक तथा एक पुत्री आहुकी नाम की थी। जिसमें पुनर्वसु के पुत्र आहुक की पत्नी का नाम शैव्या था। इसी पुनर्वसु और शैव्या से दो पुत्र उग्रसेन और देवक।
इसी आहुक और शैव्या (काश्या) से दो पुत्र - देवक और उग्रसेन हुए।
इन्हीं देवक की पुत्री देवकी के उदरगर्भ से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। इस तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण का ननिहाल मथुरा के राजा उग्रसेन के पुत्र देवक के यहाँ था।
कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः।
अन्धकाद्दुन्दुभिस्तस्मादविद्योतः पुनर्वसुः।२०।
(अरिद्योतः पाठभेदः)
तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ।
देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः।२१।
देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः।
तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृप।२२।
शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता।
सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः।२३।
कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा।
राष्ट्रपालोऽथ धृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः।२४।
कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्टपालिका।
उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः।२५।
अनुवाद:-
पुनर्वसु के एक पुत्र और एक पुत्री थे, जिनका नाम क्रमशः आहुक और आहुकी था, और आहुक के दो पुत्र थे, जिनका नाम देवक और उग्रसेन था। देवक के चार पुत्र थे, जिनका नाम देववान, उपदेव, सुदेव और देववर्धन था, और उनकी सात पुत्रियाँ भी थीं, जिनका नाम शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा, देवकी और धृतदेवा था।
धृतदेवा सबसे बड़ी थीं। कृष्ण के पिता वसुदेव ने इन सभी बहनों से विवाह किया था।
कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहु, राष्ट्रपाल, धृष्टि और तुष्टिमान उग्रसेन के पुत्र थे।
कंस, कंसावती, कंका, सूरभू और राष्ट्रपालिका उग्रसेन की पुत्रियाँ थीं।
वे वसुदेव के छोटे भाइयों की पत्नियाँ बनीं।
वसुदेव से देवकी के उदरगर्भ से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। इस तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण का ननिहाल मथुरा के राजा उग्रसेन के भाई देवक के यहाँ था। अर्थात् इसी देवक के सगे भाई उग्रसेन थे, जो मथुपुरा के प्रजापालक राजा थे। उनकी पत्नी का नाम पद्मावती था। इसी पद्मावती और उग्रसेन से महत्वाकांक्षी कंस का जन्म हुआ। कंस अपने पिता अग्रसेन को बंदी बनाकर स्वयं मथुरा का राजा बना और प्रजा पर नाना प्रकार का अत्याचार करने लगा। कंस बल और पराक्रम में अजेय था। वह अपने समय में बड़े-बड़े दैत्यों को पराजित कर अधिक शक्ति सम्पन्न होकर उसने समस्त देवताओं को भी जीत लिया था।
उस समय भूतल पर उसके जैसा बलवान राजा कोई नहीं था। किंतु जब कंस के पापों का घड़ा भर गया, तब किशोर श्रीकृष्ण ने उसके ही दरबार में उसका वध करके पुनः अग्रसेन को मथुरा का राजा बनाकर स्वयं मथुरा की रक्षा करते हुए पृथ्वी के भार को दूर किया।
इस प्रकार से यह - अध्याय-(११) का भाग- (तीन) यादव वंश के अंतर्गत क्रोष्टा कुल के भगवान श्रीकृष्ण सहित प्रमुख सदस्यपतियों तथा उनके वंश क्रम की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
उस समय भूतल पर उसके जैसा बलवान राजा कोई नहीं था। किंतु जब कंस के पापों का घड़ा भर गया, तब किशोर श्रीकृष्ण ने उसके ही दरबार में उसका वध करके पुनः अग्रसेन को मथुरा का राजा बनाकर स्वयं मथुरा की रक्षा करते हुए पृथ्वी के भार को दूर किया।
इस प्रकार से यह - अध्याय-(११) का भाग- (तीन) यादव वंश के अंतर्गत क्रोष्टा कुल के भगवान श्रीकृष्ण सहित प्रमुख सदस्यपतियों तथा उनके वंश क्रम की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय-(१२) के भाग- (१)- में यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन तथा भाग- (२) में श्रीकृष्ण का गोलोक गमन इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया है।
इस पुस्तक का यह अन्तिमवां व सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है। जिसका मुख्य उद्देश्य- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता को बताना तथा श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जानें का खण्डन करते हुए श्रीकृष्ण के गोलोक गमन की वास्तविक घटनाक्रम को बताना है। इन सभी जानकारियों को क्रमबद्ध तरीके से बताने के लिए इसे मुख्यतः दो भागों में बांटा गया है -
भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता
एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
भाग- (२)- श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।
-------------------------------------------------------------
[भाग- १]-
यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
-------------------------------------------------------------
समाज में आये दिन यह बात सुनने को मिलती है कि- गांधारी और ऋषियों के शाप के कारण मौसल युद्ध में यादवों का अन्त तथा एक बहेलिए से मारे जाने से श्रीकृष्ण का भी अन्त हो गया। लेकिन यह कथन कितना सत्य और कितना असत्य है। इसका समाधान इस भाग में किया गया है।
भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता
एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
भाग- (२)- श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।
-------------------------------------------------------------
[भाग- १]-
यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
-------------------------------------------------------------
समाज में आये दिन यह बात सुनने को मिलती है कि- गांधारी और ऋषियों के शाप के कारण मौसल युद्ध में यादवों का अन्त तथा एक बहेलिए से मारे जाने से श्रीकृष्ण का भी अन्त हो गया। लेकिन यह कथन कितना सत्य और कितना असत्य है। इसका समाधान इस भाग में किया गया है।
इस कार्य हेतु कारक कभी देवताओ को बनाया गया तो कभी ऋषियों को, तो कभी तपस्या विहीन पुत्रमोह से पीड़ित गान्धारी जैसी स्त्री को भी ।
किंतु परमेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) इस तरह के खेल में कभी शामिल नहीं हुए। इस सम्बन्ध में देखा जाए तो श्री कृष्ण की सबसे बड़ी विशेषता रही कि- उन्होंने आशीर्वाद के अतिरिक्त कभी किसी को शाप नहीं दिया।
इसीलिए उन्हें पालनहार कहा गया, यह ब्रह्म सत्य है। किंतु यह विडम्बना ही है कि कथाकारों ने जिनकी शक्ति से शाप और आशीर्वाद जैसे प्रभावी कारकोंं का सर्जन किया और उन्हीं श्रीकृष्ण को शाप के मकड़जाल में फँसा कर एक बहेलिया से भी मरवा दिया। जबकि इस संबंध में ज्ञात हो कि भगवान श्रीकृष्ण को कोई बहेलिया अथवा सृष्टि का प्राणी नहीं मार सकता था।
भगवान श्री कृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के पश्चात अपने गोप- गोपियों के साथ स्वेच्छा से बड़े ही ऐश्वर्य रुप से अपने गोलोक धाम को गये थे। क्योंकि वे कर्म बन्धन से रहित सभी भौतिक अभौतिक इच्छाओं से परे थे।
इस बात को विस्तार पूर्वक वर्णन इसी अध्याय के दूसरे भाग में किया गया है।
ये शाप और आशीर्वाद का खेल किस परिस्थिति में प्रभावी और निष्प्रभावी होता है इसको अच्छी तरह से जानना होगा तभी इसकी सच्चाई पकड़ में आ सकती है अन्यथा नहीं।
कोई भी शाप कब प्रभावी और कब निष्प्रभावी होता है इसको इस तरह से समझा जा सकता है जैसे-
• किसी का शाप तभी प्रभावी होता है जब उसपर परमेश्वर की कृपा हो तथा वह उस योग्य हो, और सदैव सत्य के मार्ग पर चलने वाला हो, जिसमें तनिक भी पापबुद्धि एवं व्यक्तिगत हित न हो। ऐसे व्यक्ति को यदि कोई जानबूझकर क्षति पहुंचाया हो या पहुंचाने का प्रयास कर रहा हो।
ऐसे में यदि वह व्यक्ति निष्पक्ष भाव से व्यक्तिगत हित को त्याग कर उसे शाप देता है तो उसके शाप को निश्चय ही परमेश्वर प्रभावी कर देते हैं।
इसके विपरीत यदि शाप देने वाला व्यक्ति पूर्वाग्रह से ग्रसित किसी निर्दोष को दोषी मानकर अपने स्वार्थ और व्यक्तिगत हित के लिए शाप देता है, तो उसके शाप को परमेश्वर निष्प्रभावी कर देते हैं। साथ ही उसकी सारी तपस्या और पुण्य को सदा-सदा के लिए समाप्त कर देते हैं ताकि वह इसका दुरुपयोग न कर सके।
इसके विपरीत यदि शाप देने वाला व्यक्ति पूर्वाग्रह से ग्रसित किसी निर्दोष को दोषी मानकर अपने स्वार्थ और व्यक्तिगत हित के लिए शाप देता है, तो उसके शाप को परमेश्वर निष्प्रभावी कर देते हैं। साथ ही उसकी सारी तपस्या और पुण्य को सदा-सदा के लिए समाप्त कर देते हैं ताकि वह इसका दुरुपयोग न कर सके।
महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व के अध्याय- (५३) के कुछ प्रमुख श्लोकों में इसका उदाहरण मिलता है।
"उदङ्कोवाच !
स पृष्टः कुशलं तेन सम्पूज्य मधुसूदनम्।
उदङ्को ब्राह्मणश्रेष्ठस्ततः पप्रच्छ माधवम्।।९।
कच्चिच्छौरे त्वया गत्वा कुरुपाण्डवसद्म तत्।
कृतं सौभ्रात्रमचलं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।।१०।
अपि सन्धाय तान्वीरानुपावृत्तोसि केशव।
सम्बन्दिनःक स्वदयितान्सततं वृष्णिपुङ्गव।। ११।
कच्चित्पाण्डुसुताः पञ्च धृतराष्ट्रस्य चात्मजाः।
लोकेषु विहरिष्यन्ति त्वया सह परंतप।।१२।
स्वराष्ट्रे ते च राजानः कच्चित्प्राप्स्यन्ति वै सुखम्।
कौरवेषु प्रशान्तेषु त्वया नाथेन केशव।।१३।
या मे सम्भावना तात त्वयि नित्यमवर्तत।
अपि सा सफला तात कृता ते भरतान्प्रति।।१४।
अनुवाद:-
इस प्रकार मरुभूमि के समतल प्रदेश में पहुँचकर महाबाहु श्रीकृष्ण ने अमित तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ उत्तंक का दर्शन किया। विशाल नेत्रों वाले तेजस्वी श्रीकृष्ण उत्तंक मुनि की पूजा करके स्वयं भी उनके द्वारा पूजित हुए। तत्पश्चात् उन्होंने मुनि का कुशल समाचार पूछा। उनके कुशल मंगल पूछने पर
विप्रवर उत्तंक ने भी मधुसूदन माधव की पूजा करके उनसे इस प्रकार प्रश्न किया- ‘शूरनन्दन! क्या तुम कौरवों और पाण्डवों के घर जाकर उनमें अविचल भ्रातभाव स्थापित कर आये? यह बात मुझे विस्तार के साथ बताओ। केशव! क्या तुम उन वीरों में संधि कराकर ही लौट रहे हो? वृष्णिपंगुव! वे कौरव, पाण्डव तुम्हारे संबंधी तथा तुम्हें सदा ही परम प्रिय रहे हैं। ‘परंतप! क्या पाण्डु के पाँचों पुत्र और धृतराष्ट्र के भी सभी आत्मज संसार में तुम्हारे साथ सुखपूर्वक विचर सकेंगे? ‘केशव! तुम जैसे रक्षक एवं स्वामी के द्वारा कौरवों के शान्त कर दिये जाने पर अब पाण्डवनरेशों को अपने राज्य में सुख तो मिलेगा न? ‘तात! मैं सदा तुमसे इस बात की संभावना करता था कि तुम्हारे प्रयत्न से कौरव-पाण्डवों में मेल हो जायेगा। मेरी जो वह सम्भावना थी, भरतवंशियों के संबंध में तुमने वह सफल तो किया है न? ।९-१४।
"
"श्रीभगवान उवाच"
कृतो यत्नो मया पूर्वं सौशाम्ये कौरवान् प्रति।
नाशक्यन्त यदा साम्ये ते स्थापयितुमञ्जसा॥१५॥
ततस्ते निधनं प्राप्ताः सर्वे ससुतबान्धवाः।
अनुवाद- १४-१५
• उतंक ऋषि ने श्रीकृष्ण से कहा- तात ! मैं सदा तुमसे इस बात की सम्भावना करता था कि तुम्हारे प्रयत्न से कौरव-पाण्डवों में मेल हो जायगा। मेरी जो वह सम्भावना थी, भरतवंशियों के सम्बन्ध में तुमने उस सम्भावना को सफल तो किया है न ? ॥ १४ ।।
• श्रीभगवान ने कहा— महर्षे ! मैंने पहले कौरवों के पास जाकर उन्हें शान्त करने के लिये बड़ा प्रयत्न किया, परंतु वे किसी तरह सन्धि के लिये तैयार न किये जा सके। जब उन्हें समतापूर्ण मार्ग में स्थापित करना असम्भव हो गया, तब वे सब-के-सब अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित युद्ध में मारे गये॥१५॥
"इत्युक्तवचने कृष्णे भृशं क्रोधसमन्वितः।
उत्तङ्क इत्युवाचैनं रोषादुत्फुल्ललोचनः ॥१९॥
उत्तङ्क उवाच
यस्माच्छक्तेन ते कृष्ण न त्राताः कुरुपुङ्गवाः।
सम्बन्धिनः प्रियास्तस्माच्छप्स्येऽहं त्वामसंशयम् ॥ २० ॥
न च ते प्रसभं यस्मात् ते निगृह्य निवारिताः।
तस्मान्मन्युपरीतस्त्वां शप्स्यामि मधुसूदन ॥२१॥
शृणु मे विस्तरेणेदं यद् वक्ष्ये भृगुनन्दन।
गृहाणानुनयं चापि तपस्वी ह्यसि भार्गव ॥ २३ ॥
श्रुत्वा च मे तदध्यात्मं मुञ्चेथाः शापमद्य वै।
न च मां तपसाल्पेन शक्तोऽभिभवितुं पुमान् ॥२४॥
न च ते तपसो नाशमिच्छामि तपतां वर।
तपस्ते सुमहद्दीप्तं गुरवश्चापि तोषिताः ॥ २५ ॥
कौमारं ब्रह्मचर्यं ते जानामि द्विजसत्तम।
दुःखार्जितस्य तपसस्तस्मान्नेच्छामि ते व्ययम् ॥ २६ ॥
अनुवाद - १९-२६
• भगवान् श्रीकृष्ण के इतना कहते ही उत्तंक मुनि अत्यन्त क्रोधसे जल उठे और रोष से आँखें फ़ाड़- फाड़कर देखने लगे। उन्होंने श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा॥१९॥
श्रीकृष्ण ! कौरव तुम्हारे प्रिय सम्बन्धी थे, तथापि शक्ति रखते हुए भी तुमने उनकी रक्षा न की। इसलिये मैं तुम्हें अवश्य शाप दूँगा॥२०॥
• मधुसूदन! तुम उन्हें जबर्दस्ती पकड़कर रोक सकते थे, पर ऐसा नहीं किया। इसलिये मैं क्रोध में भरकर तुम्हें शाप दूँगा॥२१॥
• श्रीकृष्ण ने कहा— भृगु नन्दन ! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे विस्तारपूर्वक सुनिये। भार्गव! आप तपस्वी हैं, इसलिये मेरी अनुनय-विनय स्वीकार कीजिये॥२३॥
• मैं आपको आध्यात्म तत्व सुना रहा हूँ। उसे सुनने के पश्चात् यदि आपकी इच्छा हो तो आज मुझे शाप दीजियेगा। तपस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ महर्षे! आप यह याद रखिये कि कोई भी पुरुष थोड़ी-सी तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता। और मैं नहीं चाहता कि आपकी तपस्या भी नष्ट हो जाय॥२४॥
• आपका तप और तेज बहुत बढ़ा हुआ है। आपनें गुरुजनों को भी सेवा से संतुष्ट किया है। द्विज श्रेष्ठ ! आपने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्यका पालन किया है। ये सारी बातें मुझे अच्छी तरह ज्ञात हैं। इसलिये अत्यन्त कष्ट सहकर संचित किये हुए आपके तप का मैं नाश कराना नहीं चाहता हूं॥२५-२६।
"श्रीभगवान उवाच"
कृतो यत्नो मया पूर्वं सौशाम्ये कौरवान् प्रति।
नाशक्यन्त यदा साम्ये ते स्थापयितुमञ्जसा॥१५॥
ततस्ते निधनं प्राप्ताः सर्वे ससुतबान्धवाः।
अनुवाद- १४-१५
• उतंक ऋषि ने श्रीकृष्ण से कहा- तात ! मैं सदा तुमसे इस बात की सम्भावना करता था कि तुम्हारे प्रयत्न से कौरव-पाण्डवों में मेल हो जायगा। मेरी जो वह सम्भावना थी, भरतवंशियों के सम्बन्ध में तुमने उस सम्भावना को सफल तो किया है न ? ॥ १४ ।।
• श्रीभगवान ने कहा— महर्षे ! मैंने पहले कौरवों के पास जाकर उन्हें शान्त करने के लिये बड़ा प्रयत्न किया, परंतु वे किसी तरह सन्धि के लिये तैयार न किये जा सके। जब उन्हें समतापूर्ण मार्ग में स्थापित करना असम्भव हो गया, तब वे सब-के-सब अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित युद्ध में मारे गये॥१५॥
"इत्युक्तवचने कृष्णे भृशं क्रोधसमन्वितः।
उत्तङ्क इत्युवाचैनं रोषादुत्फुल्ललोचनः ॥१९॥
उत्तङ्क उवाच
यस्माच्छक्तेन ते कृष्ण न त्राताः कुरुपुङ्गवाः।
सम्बन्धिनः प्रियास्तस्माच्छप्स्येऽहं त्वामसंशयम् ॥ २० ॥
न च ते प्रसभं यस्मात् ते निगृह्य निवारिताः।
तस्मान्मन्युपरीतस्त्वां शप्स्यामि मधुसूदन ॥२१॥
शृणु मे विस्तरेणेदं यद् वक्ष्ये भृगुनन्दन।
गृहाणानुनयं चापि तपस्वी ह्यसि भार्गव ॥ २३ ॥
श्रुत्वा च मे तदध्यात्मं मुञ्चेथाः शापमद्य वै।
न च मां तपसाल्पेन शक्तोऽभिभवितुं पुमान् ॥२४॥
न च ते तपसो नाशमिच्छामि तपतां वर।
तपस्ते सुमहद्दीप्तं गुरवश्चापि तोषिताः ॥ २५ ॥
कौमारं ब्रह्मचर्यं ते जानामि द्विजसत्तम।
दुःखार्जितस्य तपसस्तस्मान्नेच्छामि ते व्ययम् ॥ २६ ॥
अनुवाद - १९-२६
• भगवान् श्रीकृष्ण के इतना कहते ही उत्तंक मुनि अत्यन्त क्रोधसे जल उठे और रोष से आँखें फ़ाड़- फाड़कर देखने लगे। उन्होंने श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा॥१९॥
श्रीकृष्ण ! कौरव तुम्हारे प्रिय सम्बन्धी थे, तथापि शक्ति रखते हुए भी तुमने उनकी रक्षा न की। इसलिये मैं तुम्हें अवश्य शाप दूँगा॥२०॥
• मधुसूदन! तुम उन्हें जबर्दस्ती पकड़कर रोक सकते थे, पर ऐसा नहीं किया। इसलिये मैं क्रोध में भरकर तुम्हें शाप दूँगा॥२१॥
• श्रीकृष्ण ने कहा— भृगु नन्दन ! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे विस्तारपूर्वक सुनिये। भार्गव! आप तपस्वी हैं, इसलिये मेरी अनुनय-विनय स्वीकार कीजिये॥२३॥
• मैं आपको आध्यात्म तत्व सुना रहा हूँ। उसे सुनने के पश्चात् यदि आपकी इच्छा हो तो आज मुझे शाप दीजियेगा। तपस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ महर्षे! आप यह याद रखिये कि कोई भी पुरुष थोड़ी-सी तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता। और मैं नहीं चाहता कि आपकी तपस्या भी नष्ट हो जाय॥२४॥
• आपका तप और तेज बहुत बढ़ा हुआ है। आपनें गुरुजनों को भी सेवा से संतुष्ट किया है। द्विज श्रेष्ठ ! आपने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्यका पालन किया है। ये सारी बातें मुझे अच्छी तरह ज्ञात हैं। इसलिये अत्यन्त कष्ट सहकर संचित किये हुए आपके तप का मैं नाश कराना नहीं चाहता हूं॥२५-२६।
यदि उपरोक्त श्लोक संख्या- (२४) को देखा जाए तो उसमें भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि - "कोई भी पुरुष तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता।"
इसके आगे भगवान श्रीकृष्ण श्लोक संख्या- (२६) में कहते हैं
कि- यदि मैं चाहूं तो आपकी सभी तपस्या के फलों का नाश कर सकता हूं। किन्तु मैं ऐसा नहीं करना चाहता क्योंकि आपने इन्हें अत्यन्त कष्ट सहकर संचित किया हैं।
इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि -
"तपस्याओं का फल परमात्मा श्री कृष्ण की ही उपज है। क्योंकि उनकी इच्छा से ही शाप प्रभावी और निष्प्रभावी होते हैं। किंतु परमेश्वर शाप-ताप से परे निर्लिप्त और निर्विकल्प हैं। अतः उनको कोई शाप नहीं लगता और नाही कोई उन्हें शाप दे सकता है।"
इसके आगे भगवान श्रीकृष्ण श्लोक संख्या- (२६) में कहते हैं
कि- यदि मैं चाहूं तो आपकी सभी तपस्या के फलों का नाश कर सकता हूं। किन्तु मैं ऐसा नहीं करना चाहता क्योंकि आपने इन्हें अत्यन्त कष्ट सहकर संचित किया हैं।
इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि -
"तपस्याओं का फल परमात्मा श्री कृष्ण की ही उपज है। क्योंकि उनकी इच्छा से ही शाप प्रभावी और निष्प्रभावी होते हैं। किंतु परमेश्वर शाप-ताप से परे निर्लिप्त और निर्विकल्प हैं। अतः उनको कोई शाप नहीं लगता और नाही कोई उन्हें शाप दे सकता है।"
किन्तु गान्धारी ने श्रीकृष्ण को महाभारत युद्ध का दोषी ठहराते हुए तथा युद्ध में मारे गए अपने पुत्रों के दु:ख से पीड़ित होकर ही यह शाप दिया कि - जिस प्रकार मेरी गोद सूनी हो गई है और जिस प्रकार कुरुकुल का संहार हो चुका है उसी प्रकार तुम्हारे यादव कुल का संहार होगा। वे आपस में एक दूसरे से लड़कर अपना ही संहार कर लेंगे।
हे केशव! तुमने दूसरों का वध किया है इसलिए तुम्हारा भी वध होगा और अधर्म से होगा।
हे केशव! तुमने दूसरों का वध किया है इसलिए तुम्हारा भी वध होगा और अधर्म से होगा।
अब देखा जाए तो गान्धारी ने जिस आधार पर श्रीकृष्ण को शाप दिया उसका कोई औचित्य ही नहीं बनता। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध रोकने के लिए बहुत प्रयास किए थे किन्तु दुर्योधन की हठधर्मीता के कारण भगवान का प्रयास सफल नहीं हो सका।
फिर भी गांधारी अपने पुत्र को दोषी न मानकर श्रीकृष्ण को ही दोषी ठहराते हुए शाप देती है।
फिर भी गांधारी अपने पुत्र को दोषी न मानकर श्रीकृष्ण को ही दोषी ठहराते हुए शाप देती है।
इससे सिद्ध होता है कि गांधारी के शाप में नेक नियति नहीं थी।
दूसरी बात यह की गांधारी के शाप में निजी स्वार्थ था क्योंकि गांधारी के पुत्रों के ही समान अनेकों पुत्र महाभारत युद्ध में मारे गए थे, उनका दु:ख गांधारी को नहीं था, वह केवल अपने पुत्र शोक से क्रुद्ध होकर श्रीकृष्ण को शाप देती है।
गान्धारी के शाप में तीसरी बात यह है कि - गान्धारी जब श्री कृष्ण को व्यक्तिगत रूप से दोषी मान चुकी थी तो फिर अपने शाप में निर्दोष यादवों को क्यों आड़े हाथ लिया जिनका युद्ध से कोई लेना-देना नहीं था। दूसरी ओर भगवान श्रीकृष्ण की नारायणी सेना दुर्योधन के ही पक्ष में युद्ध कर रही थी। जिसके समस्त योद्धा यादव थे। उनो भी अपने शाप में घसीट लिया।
अतः ऐसे शापों को परमेश्वर कभी नहीं प्रभावी होने देते।
किंतु इसी शाप को आधार बनाकर पौराणिक ग्रंथों में यादव वंश के संपूर्ण विनाश और श्रीकृष्ण को एक बहेलिए से मारे जाने की एक मनगढ़ंत कहानी लिखी गई। इस बात को आगे विस्तार से बताया गया है।
★★★
दूसरी बात यह की गांधारी के शाप में निजी स्वार्थ था क्योंकि गांधारी के पुत्रों के ही समान अनेकों पुत्र महाभारत युद्ध में मारे गए थे, उनका दु:ख गांधारी को नहीं था, वह केवल अपने पुत्र शोक से क्रुद्ध होकर श्रीकृष्ण को शाप देती है।
गान्धारी के शाप में तीसरी बात यह है कि - गान्धारी जब श्री कृष्ण को व्यक्तिगत रूप से दोषी मान चुकी थी तो फिर अपने शाप में निर्दोष यादवों को क्यों आड़े हाथ लिया जिनका युद्ध से कोई लेना-देना नहीं था। दूसरी ओर भगवान श्रीकृष्ण की नारायणी सेना दुर्योधन के ही पक्ष में युद्ध कर रही थी। जिसके समस्त योद्धा यादव थे। उनो भी अपने शाप में घसीट लिया।
अतः ऐसे शापों को परमेश्वर कभी नहीं प्रभावी होने देते।
किंतु इसी शाप को आधार बनाकर पौराणिक ग्रंथों में यादव वंश के संपूर्ण विनाश और श्रीकृष्ण को एक बहेलिए से मारे जाने की एक मनगढ़ंत कहानी लिखी गई। इस बात को आगे विस्तार से बताया गया है।
★★★
किंतु उसके पहले यह भी जान लीजिए कि यादवों को एक और शाप मिला था जिसका वर्णन श्रीमद् भागवत महापुराण के स्कन्ध -(११,) के अध्याय- (१) के प्रमुख श्लोकों में किया गया है। जिसमें बड़े-बड़े ऋषि मुनियों द्वारा निर्दोष यादव बालकों को शाप देने का काल्पनिक घटनाक्रम बनाया गया। उसको जानकारी के लिए नीचे उद्धृत किया गया है-
विश्वामित्रोऽसित: कण्वो दुर्वासा भृगुरंगिराः।
कश्यपो वामदेवोऽत्रिर्वसिष्ठो नारदादयः।।१२।
अनुवाद -
विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्री, वशिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारिका के पास ही पिण्डारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे।१२।
क्रीडन्तस्तानुपव्रज्य कुमार यदुनन्दनाः ।
उपसंगृह्य पप्रच्छुरविनीता विनीतवत्।।१३।
ते वेषयित्वा स्त्रीवेषैः साम्बं जाम्बवतीसुतम।
एषा पृच्छति वो विप्रा अन्तर्वत्न्यसितेक्षणा।।१४।
प्रष्टुं विलज्जती साक्षात् प्रब्रूतामोघदर्शनाः।
प्रसोष्यन्ती पुत्रकामा किंस्वित् संजनयिष्यति।। १५।
एवं प्रलब्धा मुनयस्तानूचुः कुपिता नृप।
जनयिष्यति वो मन्दा मूसलं कुलनाशनम्।। १६।
अनुवाद- (१३- १६)
• एक दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले, उन्होंने बनावटी नम्रता से उनके चरणों में प्रणाम करके प्रश्न किया।१३।
• वे जामवन्ती नन्दन साम्ब को स्त्री के भेष में सजा कर ले गए और कहने लगे, ब्राह्मण ! यह कजरारी आंखों वाली सुंदरी गर्भवती है। यह आपसे एक बात पूछना चाहती है। परन्तु स्वयं पूछने में सकुचाती है। आप लोगों का ज्ञान अमोघ- अबाध है, आप सर्वज्ञ है। इसे पुत्र की बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय निकट आ गया है। आप लोग बताइए यह कन्या जनेगी या पुत्र ?।१४-१५।
• परीक्षित! जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि मुनियों को धोखा देना चाहा, तब वे क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा मूर्ख यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी जो तुम्हारे कुल का नाश करने वाला होगा।
अब इन ऋषियों को देखा जाए तो इनकी गणना बड़े-बड़े ऋषि मुनियों में होती है। किंतु इनमें जरा भी सद्बुद्धि और सन्त स्वभाव नहीं था। क्योंकि सन्त का पहला स्वभाव- दया एवं क्षमाशीलता होती है। किंतु उस समय इन ऋषियों में संत स्वभाव का थोड़ा भी गुण नहीं दिखा। परिणाम यह हुआ कि सभी ने मिलकर खेल रहे अबोध एवं निर्दोष बालकों को उदण्ड कहकर भयंकर शाप दे दिया। इनको सन्त कैसे कहा जा सकता है, जिन्हें इतना समझ नहीं कि ये बालक खेल के दरम्यान ही ऐसा व्यवहार कर रहे हैं उनमें तनिक भी पाप बुद्धि नही है। ऐसे में उन ऋषियों को चाहिए था कि उन्हें बालक बुद्धि समझ कर क्षमा कर दें। किंतु इन ऋषियों ने बालकों को क्षमा करना तो दूर रहा उन्हें भयंकर शाप दे दिया।
विश्वामित्रोऽसित: कण्वो दुर्वासा भृगुरंगिराः।
कश्यपो वामदेवोऽत्रिर्वसिष्ठो नारदादयः।।१२।
अनुवाद -
विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्री, वशिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारिका के पास ही पिण्डारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे।१२।
क्रीडन्तस्तानुपव्रज्य कुमार यदुनन्दनाः ।
उपसंगृह्य पप्रच्छुरविनीता विनीतवत्।।१३।
ते वेषयित्वा स्त्रीवेषैः साम्बं जाम्बवतीसुतम।
एषा पृच्छति वो विप्रा अन्तर्वत्न्यसितेक्षणा।।१४।
प्रष्टुं विलज्जती साक्षात् प्रब्रूतामोघदर्शनाः।
प्रसोष्यन्ती पुत्रकामा किंस्वित् संजनयिष्यति।। १५।
एवं प्रलब्धा मुनयस्तानूचुः कुपिता नृप।
जनयिष्यति वो मन्दा मूसलं कुलनाशनम्।। १६।
अनुवाद- (१३- १६)
• एक दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले, उन्होंने बनावटी नम्रता से उनके चरणों में प्रणाम करके प्रश्न किया।१३।
• वे जामवन्ती नन्दन साम्ब को स्त्री के भेष में सजा कर ले गए और कहने लगे, ब्राह्मण ! यह कजरारी आंखों वाली सुंदरी गर्भवती है। यह आपसे एक बात पूछना चाहती है। परन्तु स्वयं पूछने में सकुचाती है। आप लोगों का ज्ञान अमोघ- अबाध है, आप सर्वज्ञ है। इसे पुत्र की बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय निकट आ गया है। आप लोग बताइए यह कन्या जनेगी या पुत्र ?।१४-१५।
• परीक्षित! जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि मुनियों को धोखा देना चाहा, तब वे क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा मूर्ख यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी जो तुम्हारे कुल का नाश करने वाला होगा।
अब इन ऋषियों को देखा जाए तो इनकी गणना बड़े-बड़े ऋषि मुनियों में होती है। किंतु इनमें जरा भी सद्बुद्धि और सन्त स्वभाव नहीं था। क्योंकि सन्त का पहला स्वभाव- दया एवं क्षमाशीलता होती है। किंतु उस समय इन ऋषियों में संत स्वभाव का थोड़ा भी गुण नहीं दिखा। परिणाम यह हुआ कि सभी ने मिलकर खेल रहे अबोध एवं निर्दोष बालकों को उदण्ड कहकर भयंकर शाप दे दिया। इनको सन्त कैसे कहा जा सकता है, जिन्हें इतना समझ नहीं कि ये बालक खेल के दरम्यान ही ऐसा व्यवहार कर रहे हैं उनमें तनिक भी पाप बुद्धि नही है। ऐसे में उन ऋषियों को चाहिए था कि उन्हें बालक बुद्धि समझ कर क्षमा कर दें। किंतु इन ऋषियों ने बालकों को क्षमा करना तो दूर रहा उन्हें भयंकर शाप दे दिया।
देखा जाए तो इन ऋषि- मुनि और देवताओं का शाप केवल भोली-भाली जनता के लिए ही होता है, रावण, कंस तथा बड़े-बड़े बलशाली असुर और दैत्यों के लिए नहीं होता। क्या आपने कभी सुना है कि रावण, कंस, तथा बड़े-बड़े दैत्यों इत्यादि को किसी ऋषि मुनि या कोई देवता कभी शाप दिया है ? नहीं।
इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी महाराज का कथन है कि-
"शाप दिया नहीं जाता, शाप वास्तविक स्थिति में अंतरात्मा से स्वत उत्पन्न होता है, जो परमेश्वर की कृपा से प्रभावी होता है।
इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी महाराज का कथन है कि-
"शाप दिया नहीं जाता, शाप वास्तविक स्थिति में अंतरात्मा से स्वत उत्पन्न होता है, जो परमेश्वर की कृपा से प्रभावी होता है।
शाप दु:ख निवृत्ति की प्रतिक्रियात्मक प्रवाह है। दु:खी व्यक्ति ही शाप दे सकता है। सुखी अथवा आनन्दित व्यक्ति शाप नहीं दे सकता है।"
निर्दोष ही दोषी को शाप दे सकता है।
न कि कोई दोषी या कामुक व्यक्ति किसी निर्दोष को शाप दे सकता है।
इस शाप के बारे में संत शिरोमणि कबीर दास जी का भी कुछ ऐसा ही कहना हैं कि-
"दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
मुई खाल की स्वाँस सो, सार भसम है जाय।।
भावार्थ-
संत कबीर जी यह संदेश दे रहे है कि हमे कभी भी किसी कमजोर या दुर्बल इंसान को सताना नहीं चाहिए। यदि हम किसी दुर्बल को परेशान करेंगे तो वह दु:खी होकर हमें शाप दे सकता है तथा दुर्बल की हाय बहुत प्रभावशाली होती है जैसे मरे हुए किसी जानवर की चमड़ी से बनाई गई भांथी (धौंकनी) की स्वांस लेने और छोड़ने से लोहा तक भस्म हो जाता है।
किन्तु शाप और वरदान के मकड़जाल से कथाकार ग्रंथों में कहानियों की दिशा और दशा तय करते हैं,। जिसमें वे कभी घोड़ी से बकरा और बकरी से घोड़ा पैदा करवाते हैं। तो कभी बालकों के पेट से मूसल पैदा करवा कर यादवों के विनाश और श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने की कहानी रचते हैं। जो हास्यास्पद और वास्तविकता से कोसों दूर है।
क्योंकि संसार की प्रत्येक घटना प्राकृतिक विधानों के ही अनुरूप घटित होती है।
किसी के वरदान अथवा शाप के प्रभाव से अग्नि शीतल नहीं हो सकती है। ताप अथवा ऊष्मा तो उसका मौलिक गुण है। वह तो जलाऐगी ही।
जहाँ तक बात है यादवों के विनाश की, तो यादवों का विनाश अवश्य हुआ, किंतु सम्पूर्ण यादवों का नहीं केवल आंशिक हुआ। उसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण अपने धाम अवश्य गए। किन्तु उनके धाम जाने में गांधारी का शाप व बहेलिए से मारे जाने की घटना को उनके साथ जोड़ना निराधार एवं कपोल-कल्पित है।
क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के सभी कार्यक्रम पूर्व निर्धारित होते हैं। उसके लिए गीता के अध्याय-(४) का यह श्लोक प्रसिद्ध है।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।७।।
अनुवाद - जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।
क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के सभी कार्यक्रम पूर्व निर्धारित होते हैं। उसके लिए गीता के अध्याय-(४) का यह श्लोक प्रसिद्ध है।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।७।।
अनुवाद - जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।
इसी को चरितार्थ करने के लिए ही गोपेश्वर श्रीकृष्ण अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ धरा धाम पर अपने ही गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं।
और कार्य पूर्ण होने के पश्चात अपने समस्त गोप और गोपियों के साथ पुनः अपने धाम को चले जाते हैं। यही उनका सत्य सनातन नियम है। इस बात की पुष्टि-
ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६) से होती है जिसमें देवताओं के निवेदन पर भगवान श्री कृष्ण ने कहा-
यास्यामि पृथिवीं देवा यात यूयं स्वमालयम् ।।
यूयं चैवांशरूपेण शीघ्रं गच्छत भूतलम् ।।६१।।
इत्युक्त्वा जगतां नाथो गोपाना हूय गोपिकाः ।
उवाच मधुरं वाक्यं सत्यं यत्समयोचितम् ।।६२।
गोपा गोप्यश्च शृणुतयात नंदव्रजं परम् ।।
वृषभानुगृहे क्षिप्रं गच्छ त्वमपि राधिके ।।६३ ।
वृषभानुप्रिया साध्वी नंदगोपकलावती ।।
सुबलस्य सुता सा च कमलांशसमुद्भवा ।।६४।
पितॄणां मानसी कन्या धन्या मान्या च योषिताम् ।।
पुरा दुर्वाससः शापाज्जन्म तस्या व्रजे गृहे ।६५।।
तस्या गृहे जन्म लभ शीघ्रं नंदव्रजं व्रज ।।
त्वामहं बालरूपेण गृह्णामि कमलानने ।६६ ।।
त्वं मे प्राणाधिका राधे तव प्राणाधिकोऽप्यहम्।।
न किंचिदावयोर्भिन्नमेकांगं सर्वदैव हि ।६७।।
श्रुत्वैवं राधिका तत्र रुरोद प्रेमविह्वला।।
पपौ चक्षुश्चकोराभ्यां मुखचंद्रं हरेर्मुने ।।६८।।
जनुर्लभत गोपाश्च गोप्यश्च पृथिवीतले ।।
गोपानामुत्तमानां च मंदिरे मंदिरे शुभे।६९।।
अनुवाद - ६१-६९
• देवताओं ! मैं पृथ्वी पर जाऊंगा। अब तुम लोग भी अपने स्थान को पधारो और शीघ्र ही अपने अंश से भूतल पर अवतार लो।
• ऐसा कहकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने गोपों और गोपियों को बुलाकर मधुर, सत्य एवं समयोचित बातें कहीं-
गोपों और गोपियों ! सुनो। तुम सब के सब नंदराय जी का जो उत्कृष्ट व्रज है वहां जाओ। (उस व्रज में अवतार ग्रहण) करो। राधिके ! तुम भी शीघ्र ही वृषभानु के घर पधारो। वृषभानु की प्यारी पत्नी बड़ी साध्वी है। उनका नाम कलावती है। वे सुबल की पुत्री है। और लक्ष्मी के अंश से
प्रकट हुई है।
• यह सुनकर श्री राधा प्रेम से विह्वल होकर वहां रो पड़ी और अपनें नेत्रचकोरों द्वारा श्री हरि के मुख चंद्र की सौंदर्य सुधा का पान करने लगी।
पुनः भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - गोपों और गोपियों ! तुम भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो। ६१-६९।
उवाच कमलां कृष्णः स्मेराननसरोरुहः।।
त्वं गच्छ भीष्मकगृहं नानारत्नसमन्वितम्।१२०।
वैदर्भ्या उदरे जन्म लभ देवि सना तनि।।
तव पाणिं ग्रहीष्यामि गत्वाऽहं कुंडिनं सति।१२१।
ता देव्यः पार्वतीं दृष्ट्वा समुत्थाय त्वरान्विताः ।।
रत्नसिंहासने रम्ये वासयामासुरीश्वरीम् ।।१२२।।
विप्रेंद्र पार्वतीलक्ष्मीवागधिष्ठातृदेवताः।।
तस्थुरेकासने तत्र संभाष्य च यथोचि तम्।।१२३।।
ताश्च संभाषयामासुः संप्रीत्या गोपकन्यकाः।।
ऊचुर्गोपालिकाः काश्चिन्मुदा तासां च संनिधौ।। १२४ ।।
श्रीकृष्णः पार्वतीं तत्र समुवाच जगत्पतिः।।
देवि त्वमंशरूपेण जन नंदव्रजे शुभे ।।१२५ ।।
उदरे च यशोदायाः कल्याणी नंदरेतसा ।।
लभ जन्म महामाये सृष्टिसंहारकारिणि ।।१२६ ।।
ग्रामे ग्रामे च पूजां ते कारयिष्यामि भूतले ।।
कृत्स्ने महीतले भक्त्या नगरेषु वनेषु च ।।१२७ ।।
तत्राधिष्ठातृदेवीं त्वां पूजयिष्यंति मानवाः।।
द्रव्यैर्नानाविधैर्दिव्यैर्बलिभिश्च मुदाऽन्विताः।।१२८।।
त्वद्भूमिस्पर्शमात्रेण सूतिकामंदिरे शिवे ।।
पिता मां तत्र संस्थाप्य त्वामादाय गमिष्यति।१२९।
कंसदर्शन मात्रेण गमिष्यसि शिवांतिकम् ।।
भारावतरणं कृत्वा गमिष्यामि स्वमाश्रमम् ।१३०।
अनुवाद- १२०-१३०
•इसके बाद भगवान श्री कृष्ण लक्ष्मी से बोले- सनातनी देवी तुम नाना रत्न से संपन्न भीष्मक के राज भवन में जाओ और वहां विदर्भ देश की महारानी के उधर से जन्म धारण करो। साध्वी देवी! मैं स्वयं कुण्डिनपुर में जाकर तुम्हारा पाणिग्रहण करुंगा।
• जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने वहां पार्वती (दुर्गा) से कहा- सृष्टि और संहार करने वाली कल्याणमयी महामाया स्वरुपिणी देवी ! शुभे ! तुम अंशरूप से नंद के ब्रज में जाओ और वहां नंद के घर
यशोदा के गर्भ में जन्म धारण करो। मैं भूतलपर गांव गांव में तुम्हारी पूजा करवाऊंगा। समस्त भूमंडल में नगरों और वनों में मनुष्य वहां की अधिष्ठात्री देवी (विंध्यवासिनी ) के रूप में भक्ति भाव से तुम्हारी पूजा करेंगे और आनंदपूर्वक नाना प्रकार के द्रव्य तथा दिव्य उपहार तुम्हें अर्पित करेंगे। शिवे ! तुम ज्यों ही भूतल का स्पर्श करोगी, त्यों ही मेरे पिता वसुदेव यशोदा के सूतिकागार में जाकर मुझे वहां स्थापित कर देंगे और तुम्हें लेकर चले जाएंगे। कंस का साक्षात्कार होने मात्र से तुम पुनः शिव के समीप चली जाओगी और मैं भूतल का भार उतर कर अपने धाम में आऊंगा। १२०-१३०।
़उपर्युक्त श्लोकों से स्पष्ट होता है कि गोपेश्वर श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के लिए अपने समस्त गोप- गोपियों के साथ भू-तल पर अवतरित होते हैं, और भूमि का भार उतारने के पश्चात पुनः गोप और गोपियों के साथ अपने धाम को चले जाते हैं। यहीं उनका सत्य सनातन नियम है।
भूतल पर भगवान के साथ आए गोप और गोपियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सभी गोप अपार शक्ति सम्पन्न तथा सभी कार्यों में दक्ष होते हैं। और उसी हिसाब से ये सभी अपनी-अपनी योग्यताओं और क्षमताओं के हिसाब से भगवान श्री कृष्ण के निर्धारित कार्यों में लग जाते हैं। इसीलिए गोपों को भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं सहचर (साथी) कहा जाता है।
और कार्य पूर्ण होने के पश्चात अपने समस्त गोप और गोपियों के साथ पुनः अपने धाम को चले जाते हैं। यही उनका सत्य सनातन नियम है। इस बात की पुष्टि-
ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६) से होती है जिसमें देवताओं के निवेदन पर भगवान श्री कृष्ण ने कहा-
यास्यामि पृथिवीं देवा यात यूयं स्वमालयम् ।।
यूयं चैवांशरूपेण शीघ्रं गच्छत भूतलम् ।।६१।।
इत्युक्त्वा जगतां नाथो गोपाना हूय गोपिकाः ।
उवाच मधुरं वाक्यं सत्यं यत्समयोचितम् ।।६२।
गोपा गोप्यश्च शृणुतयात नंदव्रजं परम् ।।
वृषभानुगृहे क्षिप्रं गच्छ त्वमपि राधिके ।।६३ ।
वृषभानुप्रिया साध्वी नंदगोपकलावती ।।
सुबलस्य सुता सा च कमलांशसमुद्भवा ।।६४।
पितॄणां मानसी कन्या धन्या मान्या च योषिताम् ।।
पुरा दुर्वाससः शापाज्जन्म तस्या व्रजे गृहे ।६५।।
तस्या गृहे जन्म लभ शीघ्रं नंदव्रजं व्रज ।।
त्वामहं बालरूपेण गृह्णामि कमलानने ।६६ ।।
त्वं मे प्राणाधिका राधे तव प्राणाधिकोऽप्यहम्।।
न किंचिदावयोर्भिन्नमेकांगं सर्वदैव हि ।६७।।
श्रुत्वैवं राधिका तत्र रुरोद प्रेमविह्वला।।
पपौ चक्षुश्चकोराभ्यां मुखचंद्रं हरेर्मुने ।।६८।।
जनुर्लभत गोपाश्च गोप्यश्च पृथिवीतले ।।
गोपानामुत्तमानां च मंदिरे मंदिरे शुभे।६९।।
अनुवाद - ६१-६९
• देवताओं ! मैं पृथ्वी पर जाऊंगा। अब तुम लोग भी अपने स्थान को पधारो और शीघ्र ही अपने अंश से भूतल पर अवतार लो।
• ऐसा कहकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने गोपों और गोपियों को बुलाकर मधुर, सत्य एवं समयोचित बातें कहीं-
गोपों और गोपियों ! सुनो। तुम सब के सब नंदराय जी का जो उत्कृष्ट व्रज है वहां जाओ। (उस व्रज में अवतार ग्रहण) करो। राधिके ! तुम भी शीघ्र ही वृषभानु के घर पधारो। वृषभानु की प्यारी पत्नी बड़ी साध्वी है। उनका नाम कलावती है। वे सुबल की पुत्री है। और लक्ष्मी के अंश से
प्रकट हुई है।
• यह सुनकर श्री राधा प्रेम से विह्वल होकर वहां रो पड़ी और अपनें नेत्रचकोरों द्वारा श्री हरि के मुख चंद्र की सौंदर्य सुधा का पान करने लगी।
पुनः भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - गोपों और गोपियों ! तुम भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो। ६१-६९।
उवाच कमलां कृष्णः स्मेराननसरोरुहः।।
त्वं गच्छ भीष्मकगृहं नानारत्नसमन्वितम्।१२०।
वैदर्भ्या उदरे जन्म लभ देवि सना तनि।।
तव पाणिं ग्रहीष्यामि गत्वाऽहं कुंडिनं सति।१२१।
ता देव्यः पार्वतीं दृष्ट्वा समुत्थाय त्वरान्विताः ।।
रत्नसिंहासने रम्ये वासयामासुरीश्वरीम् ।।१२२।।
विप्रेंद्र पार्वतीलक्ष्मीवागधिष्ठातृदेवताः।।
तस्थुरेकासने तत्र संभाष्य च यथोचि तम्।।१२३।।
ताश्च संभाषयामासुः संप्रीत्या गोपकन्यकाः।।
ऊचुर्गोपालिकाः काश्चिन्मुदा तासां च संनिधौ।। १२४ ।।
श्रीकृष्णः पार्वतीं तत्र समुवाच जगत्पतिः।।
देवि त्वमंशरूपेण जन नंदव्रजे शुभे ।।१२५ ।।
उदरे च यशोदायाः कल्याणी नंदरेतसा ।।
लभ जन्म महामाये सृष्टिसंहारकारिणि ।।१२६ ।।
ग्रामे ग्रामे च पूजां ते कारयिष्यामि भूतले ।।
कृत्स्ने महीतले भक्त्या नगरेषु वनेषु च ।।१२७ ।।
तत्राधिष्ठातृदेवीं त्वां पूजयिष्यंति मानवाः।।
द्रव्यैर्नानाविधैर्दिव्यैर्बलिभिश्च मुदाऽन्विताः।।१२८।।
त्वद्भूमिस्पर्शमात्रेण सूतिकामंदिरे शिवे ।।
पिता मां तत्र संस्थाप्य त्वामादाय गमिष्यति।१२९।
कंसदर्शन मात्रेण गमिष्यसि शिवांतिकम् ।।
भारावतरणं कृत्वा गमिष्यामि स्वमाश्रमम् ।१३०।
अनुवाद- १२०-१३०
•इसके बाद भगवान श्री कृष्ण लक्ष्मी से बोले- सनातनी देवी तुम नाना रत्न से संपन्न भीष्मक के राज भवन में जाओ और वहां विदर्भ देश की महारानी के उधर से जन्म धारण करो। साध्वी देवी! मैं स्वयं कुण्डिनपुर में जाकर तुम्हारा पाणिग्रहण करुंगा।
• जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने वहां पार्वती (दुर्गा) से कहा- सृष्टि और संहार करने वाली कल्याणमयी महामाया स्वरुपिणी देवी ! शुभे ! तुम अंशरूप से नंद के ब्रज में जाओ और वहां नंद के घर
यशोदा के गर्भ में जन्म धारण करो। मैं भूतलपर गांव गांव में तुम्हारी पूजा करवाऊंगा। समस्त भूमंडल में नगरों और वनों में मनुष्य वहां की अधिष्ठात्री देवी (विंध्यवासिनी ) के रूप में भक्ति भाव से तुम्हारी पूजा करेंगे और आनंदपूर्वक नाना प्रकार के द्रव्य तथा दिव्य उपहार तुम्हें अर्पित करेंगे। शिवे ! तुम ज्यों ही भूतल का स्पर्श करोगी, त्यों ही मेरे पिता वसुदेव यशोदा के सूतिकागार में जाकर मुझे वहां स्थापित कर देंगे और तुम्हें लेकर चले जाएंगे। कंस का साक्षात्कार होने मात्र से तुम पुनः शिव के समीप चली जाओगी और मैं भूतल का भार उतर कर अपने धाम में आऊंगा। १२०-१३०।
़उपर्युक्त श्लोकों से स्पष्ट होता है कि गोपेश्वर श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के लिए अपने समस्त गोप- गोपियों के साथ भू-तल पर अवतरित होते हैं, और भूमि का भार उतारने के पश्चात पुनः गोप और गोपियों के साथ अपने धाम को चले जाते हैं। यहीं उनका सत्य सनातन नियम है।
भूतल पर भगवान के साथ आए गोप और गोपियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सभी गोप अपार शक्ति सम्पन्न तथा सभी कार्यों में दक्ष होते हैं। और उसी हिसाब से ये सभी अपनी-अपनी योग्यताओं और क्षमताओं के हिसाब से भगवान श्री कृष्ण के निर्धारित कार्यों में लग जाते हैं। इसीलिए गोपों को भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं सहचर (साथी) कहा जाता है।
चुंकि ये गोप भगवान श्रीकृष्ण के पार्षद होते हैं इसलिए ये दैवीय और मानवीय शाप, ताप से मुक्त होते हैं। इसके साथ ही ये गोप संपूर्ण ब्रह्मांड में अजेय एवं अपराजित हैं।
इन्हें न कोई देवता न दानव न गंधर्व और नाही कोई मनुष्य पराजित कर सकता है। इस बात को भगवान श्री कृष्ण स्वयं- श्रीमद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध, अध्याय-(एक) के श्लोक संख्या- (४) में कहते हैं कि -
"नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत्कथञ्चिन्
मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम्।
अन्तः कलिं यदुकुलस्य विधाय वेणु
स्तम्बस्य वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम॥४॥
"व्याकरण मूलक शब्दार्थ व अन्वय विश्लेषण-
"नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत्कथञ्चिन्
मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम्।
अन्तः कलिं यदुकुलस्य विधाय वेणु
स्तम्बस्य वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम॥४॥
"व्याकरण मूलक शब्दार्थ व अन्वय विश्लेषण-
१- न एव अन्तः परिभवः अस्य= नहीं किसी अन्य के द्वारा इस यदुवंश का परिभव ( पराजय/ विनाश)
२- भवेत् = हो सकता है ।
३- कथञ्चिद् = किसी प्रकार भी।
४- मत्संश्रयस्य विभव = मेरे आश्रम में इसका वैभव है।
५- उन्नहनस्य नित्यम् = यह सदैव बन्धनों से रहित है।
६- अन्तः कलिं यदुकुलस्य = आपस में ही लड़ने पर यदुवंश का नाश (शमन) होगा।
७- विधाय वेणु स्तम्बस्य वह्निमिव = जैसे बाँसों का समूह आपस में टकराकर घर्षण द्वारा उत्पन्न आग से शान्त हो जाता है।
८-उपैमि धाम= फिर मैं भी अपने गोलोकधाम को जाऊँगा।
॥४॥
अनुवाद:-
इसका (यदुवंश का) किसी के द्वारा किसी प्रकार भी नाश नहीं हो सकता है। (यह स्वयं कृष्ण उद्धव से कहते हैं।) फिर इसके विनाश में ऋषि -मुनि अथवा देवों की क्या शक्ति है ?
कृष्ण कहते हैं- यह यदुवंश मेरे आश्रित है एवं सभी बन्धनों से रहित है। अतः जैसे बाँसों का समूह आपस में टकराकर घर्षण द्वारा उत्पन्न आग से शान्त हो जाता है। उसी प्रकार इस यदुवंश में भी परस्पर कलह से ही इसका शमन (नाश) होगा। शान्ति स्थापित करने के उपरान्त मैं अपने गोलोक-धाम को जाऊंगा ॥४॥
कहने का तात्पर्य यह है कि पृथ्वी पर धर्म स्थापना के पश्चात् श्रीकृष्ण और उनके गोप-गोपियों का कार्य समाप्त हो जाता है। इसके बाद भगवान स्वयं तथा अपने प्रमुख गोप गोपियों के साथ गोलोक प्रस्थान की तैयारी में लग जाते हैं। इसके लिए सबसे पहले श्रीकृष्ण जो अजेय एवं अपराजित गोप हैं, उनको आपस में ही युद्ध करा कर उनकी आत्मा को ग्रहण कर लेते हैं। क्योंकि यह सर्वविदित है कि सशरीर कोई गोलोक में नहीं जा सकता। इसलिए उनकी आत्मा को लेने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण नें मौसल युद्ध की लीला रची और उस युद्ध में मारे गए वीर जांबाज यादव (गोपों) की आत्माओं को लेकर बाकी अन्य गोपों की आत्माओं को लेनें के लिए प्रभु दूसरी योजना बनाई। जिसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस अध्याय के भाग- (२) में किया गया है।
(अध्याय- १२
यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक गमन
[भाग- २] - श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।
इसके पिछले भाग में बताया जा चुका है कि गोपों को संपूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई पराजित नहीं कर सकता ना ही उनका कोई वध कर सकता और ना ही उन्हें कोई शापित कर सकता है। तब भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा से वे मौसल युद्ध में आपस में ही लड़कर नश्वर शरीर को त्याग देते हैं। तब भगवान श्रीकृष्ण उनकी शुद्ध आत्मा को गोलोक में ले जाने के लिए ग्रहण कर लेते हैं।
(ज्ञात हो- कोई भी सशरीर गोलोक में नहीं जा सकता)
(अध्याय- १२
[भाग २]✓✓✓
यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक गमन
[भाग- २] - श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।
इसके पिछले भाग में बताया जा चुका है कि गोपों को संपूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई पराजित नहीं कर सकता ना ही उनका कोई वध कर सकता और ना ही उन्हें कोई शापित कर सकता है। तब भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा से वे मौसल युद्ध में आपस में ही लड़कर नश्वर शरीर को त्याग देते हैं। तब भगवान श्रीकृष्ण उनकी शुद्ध आत्मा को गोलोक में ले जाने के लिए ग्रहण कर लेते हैं।
(ज्ञात हो- कोई भी सशरीर गोलोक में नहीं जा सकता)
तत्पश्चात बाकी बचे हुए गोप और गोपियों के नश्वर शरीर से आत्मा लेने के लिए भगवान श्रीकृष्ण जो कुछ किया उसका वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्री कृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय-(१२७) में मिलता है। जिसको संक्षेप में नीचे उद्धृत किया गया है।
"नारायण उवाच
श्रीकृष्णश्च समाह्वानं गोपांश्चापि चकार सः।
भाण्डीरे वटमूले च तत्र स्वयमुवास ह।।१।।
पुराऽन्नं च ददौ तस्मै यत्रैव ब्राह्मणीगणः।
उवास राधिका देवी वामपार्श्वे हरेरपि।।२।।
दक्षिणे नन्दगोपश्च यशोदासहितस्तथा ।
तद्दक्षिणो वृषभानस्तद्वामे सा कलावती।।३।।
अन्ये गोपाश्च गोप्यश्च बान्धवाः सुहृदस्तथा।
तानुवाच स गोविन्दो यथार्थ्यं समयोचितम्।।४।।
अनुवाद - १-४
श्री नारायण कहते हैं- नारद ! जहां पहले ब्राह्मण पत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्न दिया था ; उस भाण्डीर वट की छाया में श्री कृष्ण स्वयं विराजमान हुए और वहीं समस्त गोपों को बुलावा भेजा। श्रीहरि के वाम भाग में राधिका देवी, दक्षिण भाग में यशोदा सहित नन्द, और नंद के दाहिने वृषभानु और वृषभानु के बाएं कलावती तथा अन्यान्य गोप, गोपियाँ भाई- बंधु तथा मित्रों ने आसन ग्रहण किया। तब गोविंद ने उन सब से समयोचित यथार्थ वचन कहा।१-४।
गोलोकं गच्छ शीघ्रं त्वं सार्धं गोकुलवासिभिः।
आरात्कलेरागमनं कर्ममूलनिकृन्तनम् ।।११।।
अनुवाद- अब कर्म की जड़ काट देने वाले कलयुग का आगमन सन्निकट है अतः तुम सभी शीघ्र ही गोकुल वासियों के साथ गोलोक को चले जाओ । ११।
एतस्मिन्नन्तरे विप्र रथमेव मनोहरम् ।
चतुर्योजनविस्तीर्णमूर्ध्वे च पञ्चयोजनम् ।।३७।।
शुद्धस्फटिकसंकाशं रत्नेन्द्रसारनिर्मितम्।
अम्लानपारिजातानां मालाजालविराजितम्।।३८।।
मणीनां कौस्तुभानां च भूषणेन विभूषितम् ।
अमूल्यरत्नकलशं हीरहारविलम्बितम् ।।३९।।
मनोहरैः परिष्वक्तं सहस्रकोटिमन्दिरैः ।
सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।।४०।।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च गोपीकोटीभिरावृतम् ।
गोलोकादागतं तूर्णं ददृशुः सहसा व्रजे ।।४१।।
कृष्णाज्ञया तमारुह्य ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।
राधा कलावती देवीधन्या चायोनिसंभवा।।४२।।
गोलोकादगता गोप्यश्चायोनिसंभवाश्च ताः ।
श्रुतिपत्न्यश्च ताः सर्वाः स्वशरीरेण नारद।।४३।।
सर्वे त्यक्त्वा शरीराणि नश्वराणि सुनिश्चितम् ।
गोलोकं च ययौ राधा सार्घं गोकुलवासिभिः।।४४।
ददर्श विरजातीर्र नानारत्नविभूषितम् ।
तदुत्तीर्य ययौ विप्र शतशृङ्गं च पर्वतम् ।।४५।।
नानामणिगणाकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
ततो ययौ कियद्दूरं पुण्यं वृन्दावनं वनम्।।४६।।
सा ददर्शाक्षयवटमूर्ध्वे त्रिशतयोजनम् ।
शतयोजनविस्तीर्णं शाखाकोटिसमावृतम् ।।४७ ।।
रक्तवर्णैः फलौघैश्च स्थूलैरपि विभूषितम् ।
गोपीकोटिसहस्रैश्च सार्धं वृन्दा मनोहरा।।४८।।
अनुव्रजं सादरं च सस्मिता सा समाययौ ।
अवरुङ्य रथात्तूर्णं राधां सा प्रणनाम च।।४९ ।
अनुवाद - ३७-४९
• इसी बीच वहां व्रज में लोगों ने सहसा गोलोक से आए हुए एक मनोहर रथ को देखा। वह रथ चार योजन विस्तृत और पांच योजन ऊंचा था, बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से उसका निर्माण हुआ था।
• उसमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े उसका भार वहन कर रहे थे तथा उसपर सूक्ष्म वस्त्र का आवरण पड़ा हुआ था एवं वह करोड़ों गोपियों से सामवृत( घिरा हुआ) था।
• नारद! राधा और धन्यवाद की पात्रा कलावती देवी का जन्म किसी के गर्भ से नहीं हुआ था। यहां तक की गोलक से जितनी भी गोपियां आईं थीं, वह सभी आयोनिजा थीं। उनके रूप में श्रुति पत्नियां ही अपने शरीर से प्रकट हुई थीं। वे सभी श्रीकृष्ण की आज्ञा से अपने नश्वर शरीर का त्याग करके उस रथपर सवार हो उत्तम गोलोक को चली गईं। साथ ही राधा भी गोकुल वासियों के साथ गोलोक को प्रस्थित हुई। ३७-४९
फिर इसके आगे की घटना का वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्री कृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय-(१२८) में मिलता है। जिसको संक्षेप में नीचे उद्धृत किया जा रहा है।
"नारायण उवाच
श्रीकृष्णो भगवांस्तत्र परिपूर्णतम: प्रभुः।
दृष्ट्वा सारोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम्।१।
उवास पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके ।
ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा।।२।
अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।
योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः।।३।
गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः।
तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम्।।४।
गोकुलस्थाश्च गोपाश्च समाश्वासं चकार सः।
उवाच मधुरं वाक्यं हितं नीतं च दुर्लभम्।।५ ।
अनुवाद - १ से ५ तक
नारद ! परिपूर्णतम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण वहाँ तत्काल ही गोकुल वासियों के सालोक्य मोक्ष को देखकर भाण्डीर वन में वट वृक्ष के नीचे पांच गोपों के साथ ठहर गए। वहां उन्होंने देखा कि सारा गोकुल तथा गो- समुदाय व्याकुल है।
रक्षकों के न रहने से वृंदावन शून्य तथा अस्त-व्यस्त हो गया है। तब उन कृपा सागर को दया आ गई। फिर तो उन्होंने योगधारणा द्वारा अमृत की वर्षा करके वृंदावन को मनोहर, सुरम्य और गोपों तथा गोपियों से व्रज को पुन: परिपूर्ण कर दिया (पुनः जीवित कर दिया)
साथ ही गोकुलवासी गोपों को ढाढस भी बंधाया।
तत्पश्चात वे हितकर नीतियुक्त दुर्लभ मधुर वचन बोले-
***********
"श्री भगवानुवाच
हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव ।
रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।।६।।
तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।
अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।।७।।
अनुनाद -६-७
• हे गोपगण ! हे बन्धो ! तुम लोग सुख का उपभोग करते हुए शांतिपूर्वक यहाँ भूलोक में निवास करो, क्योंकि प्रिया के साथ विहार सुरम्य रासमण्डल और वृन्दावन नामक पूण्यवन में मुझ श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक रहेगा जब तक संसार में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति रहेगी। ६-७।
"नारायण उवाच
श्रीकृष्णश्च समाह्वानं गोपांश्चापि चकार सः।
भाण्डीरे वटमूले च तत्र स्वयमुवास ह।।१।।
पुराऽन्नं च ददौ तस्मै यत्रैव ब्राह्मणीगणः।
उवास राधिका देवी वामपार्श्वे हरेरपि।।२।।
दक्षिणे नन्दगोपश्च यशोदासहितस्तथा ।
तद्दक्षिणो वृषभानस्तद्वामे सा कलावती।।३।।
अन्ये गोपाश्च गोप्यश्च बान्धवाः सुहृदस्तथा।
तानुवाच स गोविन्दो यथार्थ्यं समयोचितम्।।४।।
अनुवाद - १-४
श्री नारायण कहते हैं- नारद ! जहां पहले ब्राह्मण पत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्न दिया था ; उस भाण्डीर वट की छाया में श्री कृष्ण स्वयं विराजमान हुए और वहीं समस्त गोपों को बुलावा भेजा। श्रीहरि के वाम भाग में राधिका देवी, दक्षिण भाग में यशोदा सहित नन्द, और नंद के दाहिने वृषभानु और वृषभानु के बाएं कलावती तथा अन्यान्य गोप, गोपियाँ भाई- बंधु तथा मित्रों ने आसन ग्रहण किया। तब गोविंद ने उन सब से समयोचित यथार्थ वचन कहा।१-४।
गोलोकं गच्छ शीघ्रं त्वं सार्धं गोकुलवासिभिः।
आरात्कलेरागमनं कर्ममूलनिकृन्तनम् ।।११।।
अनुवाद- अब कर्म की जड़ काट देने वाले कलयुग का आगमन सन्निकट है अतः तुम सभी शीघ्र ही गोकुल वासियों के साथ गोलोक को चले जाओ । ११।
एतस्मिन्नन्तरे विप्र रथमेव मनोहरम् ।
चतुर्योजनविस्तीर्णमूर्ध्वे च पञ्चयोजनम् ।।३७।।
शुद्धस्फटिकसंकाशं रत्नेन्द्रसारनिर्मितम्।
अम्लानपारिजातानां मालाजालविराजितम्।।३८।।
मणीनां कौस्तुभानां च भूषणेन विभूषितम् ।
अमूल्यरत्नकलशं हीरहारविलम्बितम् ।।३९।।
मनोहरैः परिष्वक्तं सहस्रकोटिमन्दिरैः ।
सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।।४०।।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च गोपीकोटीभिरावृतम् ।
गोलोकादागतं तूर्णं ददृशुः सहसा व्रजे ।।४१।।
कृष्णाज्ञया तमारुह्य ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।
राधा कलावती देवीधन्या चायोनिसंभवा।।४२।।
गोलोकादगता गोप्यश्चायोनिसंभवाश्च ताः ।
श्रुतिपत्न्यश्च ताः सर्वाः स्वशरीरेण नारद।।४३।।
सर्वे त्यक्त्वा शरीराणि नश्वराणि सुनिश्चितम् ।
गोलोकं च ययौ राधा सार्घं गोकुलवासिभिः।।४४।
ददर्श विरजातीर्र नानारत्नविभूषितम् ।
तदुत्तीर्य ययौ विप्र शतशृङ्गं च पर्वतम् ।।४५।।
नानामणिगणाकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
ततो ययौ कियद्दूरं पुण्यं वृन्दावनं वनम्।।४६।।
सा ददर्शाक्षयवटमूर्ध्वे त्रिशतयोजनम् ।
शतयोजनविस्तीर्णं शाखाकोटिसमावृतम् ।।४७ ।।
रक्तवर्णैः फलौघैश्च स्थूलैरपि विभूषितम् ।
गोपीकोटिसहस्रैश्च सार्धं वृन्दा मनोहरा।।४८।।
अनुव्रजं सादरं च सस्मिता सा समाययौ ।
अवरुङ्य रथात्तूर्णं राधां सा प्रणनाम च।।४९ ।
अनुवाद - ३७-४९
• इसी बीच वहां व्रज में लोगों ने सहसा गोलोक से आए हुए एक मनोहर रथ को देखा। वह रथ चार योजन विस्तृत और पांच योजन ऊंचा था, बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से उसका निर्माण हुआ था।
• उसमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े उसका भार वहन कर रहे थे तथा उसपर सूक्ष्म वस्त्र का आवरण पड़ा हुआ था एवं वह करोड़ों गोपियों से सामवृत( घिरा हुआ) था।
• नारद! राधा और धन्यवाद की पात्रा कलावती देवी का जन्म किसी के गर्भ से नहीं हुआ था। यहां तक की गोलक से जितनी भी गोपियां आईं थीं, वह सभी आयोनिजा थीं। उनके रूप में श्रुति पत्नियां ही अपने शरीर से प्रकट हुई थीं। वे सभी श्रीकृष्ण की आज्ञा से अपने नश्वर शरीर का त्याग करके उस रथपर सवार हो उत्तम गोलोक को चली गईं। साथ ही राधा भी गोकुल वासियों के साथ गोलोक को प्रस्थित हुई। ३७-४९
फिर इसके आगे की घटना का वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्री कृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय-(१२८) में मिलता है। जिसको संक्षेप में नीचे उद्धृत किया जा रहा है।
"नारायण उवाच
श्रीकृष्णो भगवांस्तत्र परिपूर्णतम: प्रभुः।
दृष्ट्वा सारोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम्।१।
उवास पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके ।
ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा।।२।
अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।
योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः।।३।
गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः।
तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम्।।४।
गोकुलस्थाश्च गोपाश्च समाश्वासं चकार सः।
उवाच मधुरं वाक्यं हितं नीतं च दुर्लभम्।।५ ।
अनुवाद - १ से ५ तक
नारद ! परिपूर्णतम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण वहाँ तत्काल ही गोकुल वासियों के सालोक्य मोक्ष को देखकर भाण्डीर वन में वट वृक्ष के नीचे पांच गोपों के साथ ठहर गए। वहां उन्होंने देखा कि सारा गोकुल तथा गो- समुदाय व्याकुल है।
रक्षकों के न रहने से वृंदावन शून्य तथा अस्त-व्यस्त हो गया है। तब उन कृपा सागर को दया आ गई। फिर तो उन्होंने योगधारणा द्वारा अमृत की वर्षा करके वृंदावन को मनोहर, सुरम्य और गोपों तथा गोपियों से व्रज को पुन: परिपूर्ण कर दिया (पुनः जीवित कर दिया)
साथ ही गोकुलवासी गोपों को ढाढस भी बंधाया।
तत्पश्चात वे हितकर नीतियुक्त दुर्लभ मधुर वचन बोले-
***********
"श्री भगवानुवाच
हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव ।
रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।।६।।
तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।
अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।।७।।
अनुनाद -६-७
• हे गोपगण ! हे बन्धो ! तुम लोग सुख का उपभोग करते हुए शांतिपूर्वक यहाँ भूलोक में निवास करो, क्योंकि प्रिया के साथ विहार सुरम्य रासमण्डल और वृन्दावन नामक पूण्यवन में मुझ श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक रहेगा जब तक संसार में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति रहेगी। ६-७।
विशेष:- वर्तमान में जो गोप (अहीर) हैं वे सब गोलोकवासी गोपों के ही वंशज हैं।
"पार्वत्युवाच
एकाऽहं राधिकारूपा गोलोके रासमण्डले।
रासशून्यं च गोलोकं परिपूर्ण कुरु प्रभो।८६ ।
गच्छ त्वं रथमारुह्य मुक्तामाणिक्यभूषितम् ।
परिबूर्णतमाऽहं च तव वङः स्थलस्थिता।८७।।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा प्रहस्य रसिकेश्वरः ।
रत्नयानं समारुह्य ययौ गोलोकमुत्तमम्।।९८।।
अनुवाद - ८६, ८७ और ९८
• वहां उपस्थित पार्वती ने कहा- प्रभो ! गोलोकस्थित रासमण्डल में मैं ही अपने एक राधिका रूप से रहती हूँ। इस समय गोलोक रासशून्य हो गया है, अतः आप मुक्ता और माणिक्य से विभूषित रथ पर आरूढ हो वहाँ जाइए और उसे परिपूर्ण कीजिए।८६-८७।
• नारद ! पार्वती के वचन सुनकर रसिकेश्वर रासधारी श्रीकृष्ण हंसे और रत्न-निर्मित विमान पर सवार हो उत्तम गोलोक को चले गए।९८।
▪️इसके अलावा भगवान श्रीकृष्ण को गोलोक जाने का वर्णन गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड के अध्याय- (६०) में भी मिलता है। जिसको जाने बिना श्रीकृष्ण के गोलक गमन का प्रसंग अधूरा ही रह जाएगा। इसलिए उसको भी जानना आवश्यक है।
बलः शरीरं मानुष्यं त्यक्त्वा धाम जगाम ह ।
देवाँस्तत्रागतान्दृष्ट्वा हरिरंतरधीयत ॥१३ ॥
व्रजे गत्वा हरिर्नंदं यशोदां राधिकां तथा ।
गोपान्गोपीर्मिलित्वाऽऽह प्रेम्णा प्रेमी प्रियान्स्वकान् ॥१४।
अनुवाद - बलराम जी मानव शरीर को छोड़कर अपने धाम को चले गए। वहाँ देवताओं को आया देख श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गए। ब्रज में जाकर श्रीहरि नन्द, यशोदा, राधिका तथा गोपियों सहित गोपों से मिले और उन प्रेमी भगवान ने अपने प्रिय जनों से प्रेम पूर्वक इस प्रकार कहा।१३-१४
किंतु भगवान श्रीकृष्ण के अगले कथन को बताने से पहले यहाँ कुछ बताना चाहेंगे कि- देवताओं के आने पर गोपेश्वर श्रीकृष्ण क्यों अन्तर्धान हो गए ?
तो उस समय गोपेश्वर श्रीकृष्ण तीन कारणों से देवताओं के आने पर अंतर्धान हो गए।
*******
(१)- पहला कारण यह कि - गोलोक के आवागमन की अलौकिक घटनाक्रम में गोपों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्मिलित नहीं हो सकता। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण वहाँ से अन्तर्धान हो गये।
(२)- दूसरा कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण भूमि का भार दूर करने के लिए गोलोक से अपने गोप और गोपियों के साथ आते हैं और कार्य पूर्ण हो जाने पर भगवान पुन: उन्हीं गोप और गोपियों को लेकर गोलोक को चले जाते हैं। इस घटनाक्रम से देवताओं का कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए वहाँ पर देवताओं के आनें पर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये।
(१)- पहला कारण यह कि - गोलोक के आवागमन की अलौकिक घटनाक्रम में गोपों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्मिलित नहीं हो सकता। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण वहाँ से अन्तर्धान हो गये।
(२)- दूसरा कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण भूमि का भार दूर करने के लिए गोलोक से अपने गोप और गोपियों के साथ आते हैं और कार्य पूर्ण हो जाने पर भगवान पुन: उन्हीं गोप और गोपियों को लेकर गोलोक को चले जाते हैं। इस घटनाक्रम से देवताओं का कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए वहाँ पर देवताओं के आनें पर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये।
(३)- तीसरी कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण सहित गोपों की यह आवागमन की धटना गुप्त एवं रहस्य पूर्ण है। इसे केवल गोप और गोपियाँ ही जानते हैं। और इस घटना को गोपेश्वर श्री कृष्ण सदैव गुप्त ही रखना चाहते हैं। इसीलिए गोपेश्वर श्री कृष्ण देवताओं के आने पर वहां से अन्तर्धान हो गए।
उपर्युक्त तीनों कारणों से भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक गमन की वास्तविकता को गोपों के अतिरिक्त पूर्ण रूप से न तो देवता और न ही ऋषि-मुनि जानते हैं।
इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४) के श्लोक- (८२) और (८३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।
किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।
अनुवाद - ८२-८३
इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४) के श्लोक- (८२) और (८३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।
किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।
अनुवाद - ८२-८३
श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर शिव, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं।
• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।
इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय - (३०) के श्लोक - (९ )से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -
गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो। ९।
यहीं कारण है कि - पुराणों में भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक गमन के प्रसंग में श्रीकृष्ण को बहेलिए से मरवा कर गोलोक गमन की हास्यास्पद कथा लिखी गई है।
अब हम पुनः अपने मूल प्रसंग पर आते हैं- वहाँ उपस्थित नन्द आदि गोपों से भगवान कहते हैं।-
"श्रीकृष्ण उवाच -
गच्छ नन्द यशोदे त्वं पुत्रबुद्धिं विहाय च ।
गोलोकं परमं धाम सार्धं गोकुलवासिभिः॥१५॥
अग्रे कलियुगो घोरश्चागमिष्यति दुःखदः।
यस्मिन्वै पापिनो मर्त्या भविष्यंति न संशयः।१६।
स्त्रीपुंसोर्नियमो नास्ति वर्णानां च तथैव च ।
तस्माद्गच्छाशु मद्धाम जरामृत्युहरं परम्॥१७॥
इति ब्रुवति श्रीकृष्णे रथं च परमाद्भुतम् ।
पञ्चयोजनविस्तीर्णं पञ्चयोजनमूर्ध्वगम्॥ १८॥
वज्रनिर्मलसंकाशं मुक्तारत्नविभूषितम् ।
मन्दिरैर्नवलक्षैश्च दीपैर्मणिमयैर्युतम् ॥१९॥
सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च सखीकोटिभिरावृतम्॥ २०॥
गोलोकादागतं गोपा ददृशुस्ते मुदान्विताः।
एतस्मिन्नन्तरे तत्र कृष्णदेहाद्विनिर्गतः।।२१।।
देवश्चचतुर्भजो राजन् कोटिमन्मथसन्निभः।
शंखचक्रधरः श्रीमाँल्लक्ष्म्या सार्धं जगत्पतिः॥२२॥
क्षीरोदं प्रययौ शीघ्रं रथमारुह्य सुंदरम् ।
तथा च विष्णुरूपेण श्रीकृष्णो भगवान् हरिः ॥२३॥
अनुवाद - १५-२३
• श्रीकृष्ण बोले - नन्द और यशोदे ! अब तुम मुझमें पुत्र बुद्धि छोड़कर समस्त गोकुल वासियों के साथ मेरे परमधाम गोलोक को जाओ। क्योंकि अब आगे सबको दु:ख देने वाला घोर कलयुग आएगा, जिसमें मनुष्य प्राय: पापी हो जाएंगे इसमें संशय नहीं है।१५-१६।
• श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि गोलोक से एक परम अद्भुत रथ उतर आया जिसे गोपों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ देखा। उसका विस्तार पांच योजन का था और ऊंचाई भी उतनी ही थी। वह बज्रमणि (हीरे) के समान निर्मित और मुक्ता - रत्नों से विभूषित था। उसमें नौ लाख मंदिर थे और उन घरों में मणिमय दीप जल रहे थे। उस रथ में दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े जुते हुए थे। उस रथपर महीन वस्त्र का पर्दा पड़ा था। करोड़ों सखियां उसे घेरे हुए थीं। १८- २०- १/२।
• राजन ! इसी समय श्री कृष्ण के शरीर से करोड़ों कामदेवों के समान सुंदर चारभुजा धारी विष्णु प्रकट हुए, जिन्होंने शंख और चक्र धारण कर रखे थे। वे जगदीशपुर श्रीमान विष्णु लक्ष्मी के साथ एक सुंदर रथ पर आरूढ़ हो शीघ्र ही क्षीरसागर को चल दिए।२१-२३।
लक्ष्म्या गरुडमारुह्य वैकुण्ठं प्रययौ नृप ।
ततो भूत्वा हरिः कृष्णो नरनारायणावृषी॥२४॥
कल्याणार्थं नराणां च प्रययौ बद्रिकाश्रमम् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो राधया युतः॥ २५॥
गोलोकादागतं यानमारुरोह जगत्पतिः।
सर्वे गोपाश्च नन्दाद्या यशोदाद्या व्रजस्त्रियः॥२६।
त्यक्त्वा तत्र शरीराणि दिव्यदेहाश्च तेऽभवन् ।
स्थापयित्वा रथे दिव्ये नन्दादीन् भगवान् हरिः।।२७।
गोलोकं प्रययौ शीध्रं गोपालो गोकुलान्वितः।
ब्रह्माणडेभ्यो बहिर्गत्वा ददर्श विरजां नदीम्।।२८।
अनुवाद - २४-२८
• इसी प्रकार नारायण रूपधारी भगवान श्रीकृष्ण हरि महालक्ष्मी के साथ गरुण पर बैठकर वैकुंठ धाम को चले गए। नरेश्वर ! इसके बाद श्रीकृष्ण हरि नर और नारायण दो ऋषियों के रूप में विभक्त हो मानव के कल्याणार्थ बद्री का आश्रम को चले गए तदनंतर साक्षात परिपूर्तम जगतपति भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ गोलोक से आए हुए रथ पर आरूढ़ हुए।
• नन्द आदि समस्त गोप तथा यशोदा आदि व्रजांगनाएं सब के - सब वहां भौतिक शरीरों का त्याग करके दिव्यदेहधारी हो गए। तब गोपाल भगवान श्रीहरि नन्द आदि को उस दिव्य रथपर बिठाकर गोकुल के साथ ही शीघ्र गोलोक धाम को चले गए। ब्रह्मांडों से बाहर जाकर उन सब ने विरजा नदी को देखा साथ ही शेषनाग की गोद में महा लोक गोलोक दृष्टिगोचर हुआ, जो दुखों का नाशक तथा परम सुखदायक है। २३- २८. १/२
दृष्ट्वा रथात्समुत्तीर्य सार्धं गोकुलवासिभिः॥२९॥
विवेश राधया कृष्णः पश्यन्न्यग्रोधमक्षयम् ।
शतशृङ्गं गिरिवरं तथा श्रीरासमण्डलम्॥३०॥
ततो ययौ कियद्दूरं श्रीमद्वृन्दावनं वनम् ।
वनैर्द्वादशभिर्युक्तं द्रुमैः कामदुघैर्वृतम्॥३१॥
नद्या यमुनया युक्तं वसंतानिलमण्डितम् ।
पुष्पकुञ्जनिकुञ्जं च गोपीगोपजनैर्वृतम्॥३२ ॥
तदा जयजयारावः श्रीगोलोके बभूव ह ।
शून्यीभूते पुरा धाम्नि श्रीकृष्णे च समागते॥३३॥
अनुवाद -उसे देखकर गोकुल वासियों सहित श्रीकृष्ण उस रथ से उतर पड़े और श्रीराधा के साथ अक्षयवट का दर्शन करते हुए उस परमधाम में प्रविष्ट हुए। गिरिवर सतश्रृंग तथा श्रीरासमण्डल को देखते हुए वह कुछ दूर स्थित वृन्दावन में गए, जो बारह वनों से संयुक्त तथा कामपूरक वृक्षों से भरा हुआ था।
• यमुना नदी उसे छूकर बह रही थी। वसन्त ऋतु और मलयानिल उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। वहां फूलों से भरे कितने ही कुंज और निकुञ्ज थे। वह वन गोप और गोपियों से भरा हुआ था। जो पहले सूना- सा लगता था, उस गोलोक धाम में श्रीकृष्ण के पधारने से जय- जयकर की ध्वनि गूंज उठी।२९-३३।
*************
ज्ञात हो कि -भगवान श्रीकृष्ण धर्मस्थापना हेतु भूतल पर- (१२५) वर्ष तक रहे। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध -१०, अध्याय- (६) के श्लोक- (२५) से होती है। जिसमें ब्रह्मा जी भगवान श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-
यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरुषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पञ्चविञ्शाधिकं प्रभो।।२५।
अब हम पुनः अपने मूल प्रसंग पर आते हैं- वहाँ उपस्थित नन्द आदि गोपों से भगवान कहते हैं।-
"श्रीकृष्ण उवाच -
गच्छ नन्द यशोदे त्वं पुत्रबुद्धिं विहाय च ।
गोलोकं परमं धाम सार्धं गोकुलवासिभिः॥१५॥
अग्रे कलियुगो घोरश्चागमिष्यति दुःखदः।
यस्मिन्वै पापिनो मर्त्या भविष्यंति न संशयः।१६।
स्त्रीपुंसोर्नियमो नास्ति वर्णानां च तथैव च ।
तस्माद्गच्छाशु मद्धाम जरामृत्युहरं परम्॥१७॥
इति ब्रुवति श्रीकृष्णे रथं च परमाद्भुतम् ।
पञ्चयोजनविस्तीर्णं पञ्चयोजनमूर्ध्वगम्॥ १८॥
वज्रनिर्मलसंकाशं मुक्तारत्नविभूषितम् ।
मन्दिरैर्नवलक्षैश्च दीपैर्मणिमयैर्युतम् ॥१९॥
सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च सखीकोटिभिरावृतम्॥ २०॥
गोलोकादागतं गोपा ददृशुस्ते मुदान्विताः।
एतस्मिन्नन्तरे तत्र कृष्णदेहाद्विनिर्गतः।।२१।।
देवश्चचतुर्भजो राजन् कोटिमन्मथसन्निभः।
शंखचक्रधरः श्रीमाँल्लक्ष्म्या सार्धं जगत्पतिः॥२२॥
क्षीरोदं प्रययौ शीघ्रं रथमारुह्य सुंदरम् ।
तथा च विष्णुरूपेण श्रीकृष्णो भगवान् हरिः ॥२३॥
अनुवाद - १५-२३
• श्रीकृष्ण बोले - नन्द और यशोदे ! अब तुम मुझमें पुत्र बुद्धि छोड़कर समस्त गोकुल वासियों के साथ मेरे परमधाम गोलोक को जाओ। क्योंकि अब आगे सबको दु:ख देने वाला घोर कलयुग आएगा, जिसमें मनुष्य प्राय: पापी हो जाएंगे इसमें संशय नहीं है।१५-१६।
• श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि गोलोक से एक परम अद्भुत रथ उतर आया जिसे गोपों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ देखा। उसका विस्तार पांच योजन का था और ऊंचाई भी उतनी ही थी। वह बज्रमणि (हीरे) के समान निर्मित और मुक्ता - रत्नों से विभूषित था। उसमें नौ लाख मंदिर थे और उन घरों में मणिमय दीप जल रहे थे। उस रथ में दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े जुते हुए थे। उस रथपर महीन वस्त्र का पर्दा पड़ा था। करोड़ों सखियां उसे घेरे हुए थीं। १८- २०- १/२।
• राजन ! इसी समय श्री कृष्ण के शरीर से करोड़ों कामदेवों के समान सुंदर चारभुजा धारी विष्णु प्रकट हुए, जिन्होंने शंख और चक्र धारण कर रखे थे। वे जगदीशपुर श्रीमान विष्णु लक्ष्मी के साथ एक सुंदर रथ पर आरूढ़ हो शीघ्र ही क्षीरसागर को चल दिए।२१-२३।
लक्ष्म्या गरुडमारुह्य वैकुण्ठं प्रययौ नृप ।
ततो भूत्वा हरिः कृष्णो नरनारायणावृषी॥२४॥
कल्याणार्थं नराणां च प्रययौ बद्रिकाश्रमम् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो राधया युतः॥ २५॥
गोलोकादागतं यानमारुरोह जगत्पतिः।
सर्वे गोपाश्च नन्दाद्या यशोदाद्या व्रजस्त्रियः॥२६।
त्यक्त्वा तत्र शरीराणि दिव्यदेहाश्च तेऽभवन् ।
स्थापयित्वा रथे दिव्ये नन्दादीन् भगवान् हरिः।।२७।
गोलोकं प्रययौ शीध्रं गोपालो गोकुलान्वितः।
ब्रह्माणडेभ्यो बहिर्गत्वा ददर्श विरजां नदीम्।।२८।
अनुवाद - २४-२८
• इसी प्रकार नारायण रूपधारी भगवान श्रीकृष्ण हरि महालक्ष्मी के साथ गरुण पर बैठकर वैकुंठ धाम को चले गए। नरेश्वर ! इसके बाद श्रीकृष्ण हरि नर और नारायण दो ऋषियों के रूप में विभक्त हो मानव के कल्याणार्थ बद्री का आश्रम को चले गए तदनंतर साक्षात परिपूर्तम जगतपति भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ गोलोक से आए हुए रथ पर आरूढ़ हुए।
• नन्द आदि समस्त गोप तथा यशोदा आदि व्रजांगनाएं सब के - सब वहां भौतिक शरीरों का त्याग करके दिव्यदेहधारी हो गए। तब गोपाल भगवान श्रीहरि नन्द आदि को उस दिव्य रथपर बिठाकर गोकुल के साथ ही शीघ्र गोलोक धाम को चले गए। ब्रह्मांडों से बाहर जाकर उन सब ने विरजा नदी को देखा साथ ही शेषनाग की गोद में महा लोक गोलोक दृष्टिगोचर हुआ, जो दुखों का नाशक तथा परम सुखदायक है। २३- २८. १/२
दृष्ट्वा रथात्समुत्तीर्य सार्धं गोकुलवासिभिः॥२९॥
विवेश राधया कृष्णः पश्यन्न्यग्रोधमक्षयम् ।
शतशृङ्गं गिरिवरं तथा श्रीरासमण्डलम्॥३०॥
ततो ययौ कियद्दूरं श्रीमद्वृन्दावनं वनम् ।
वनैर्द्वादशभिर्युक्तं द्रुमैः कामदुघैर्वृतम्॥३१॥
नद्या यमुनया युक्तं वसंतानिलमण्डितम् ।
पुष्पकुञ्जनिकुञ्जं च गोपीगोपजनैर्वृतम्॥३२ ॥
तदा जयजयारावः श्रीगोलोके बभूव ह ।
शून्यीभूते पुरा धाम्नि श्रीकृष्णे च समागते॥३३॥
अनुवाद -उसे देखकर गोकुल वासियों सहित श्रीकृष्ण उस रथ से उतर पड़े और श्रीराधा के साथ अक्षयवट का दर्शन करते हुए उस परमधाम में प्रविष्ट हुए। गिरिवर सतश्रृंग तथा श्रीरासमण्डल को देखते हुए वह कुछ दूर स्थित वृन्दावन में गए, जो बारह वनों से संयुक्त तथा कामपूरक वृक्षों से भरा हुआ था।
• यमुना नदी उसे छूकर बह रही थी। वसन्त ऋतु और मलयानिल उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। वहां फूलों से भरे कितने ही कुंज और निकुञ्ज थे। वह वन गोप और गोपियों से भरा हुआ था। जो पहले सूना- सा लगता था, उस गोलोक धाम में श्रीकृष्ण के पधारने से जय- जयकर की ध्वनि गूंज उठी।२९-३३।
*************
ज्ञात हो कि -भगवान श्रीकृष्ण धर्मस्थापना हेतु भूतल पर- (१२५) वर्ष तक रहे। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध -१०, अध्याय- (६) के श्लोक- (२५) से होती है। जिसमें ब्रह्मा जी भगवान श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-
यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरुषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पञ्चविञ्शाधिकं प्रभो।।२५।
अनुवाद - पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किया एक-सौ पच्चीस वर्ष बीत गए हैं।२५।
इसी प्रकार श्रीकृष्ण की आयु (भूतल पर रहने के समय) का प्रमाण ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय- (१२९) में भी मिलता हैं। जिसमें ब्रह्मा जी स्वयं श्रीकृष्ण से कहते हैं कि-
"ब्रह्मवाच-
"यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम्।
त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम्।१८।।
अनुवाद:-
ब्रह्मा जी बोले ! हे प्रभु ! इस पृथ्वी पर क्रीड़ा करते आपके एक सौ पच्चीस वर्ष बीत गये। विरह से आतुर रोती हुई पृथ्वी को छोड़कर अपने गोलोक धाम को पधार रहे हैं।१८।
इसी प्रकार श्रीकृष्ण की आयु (भूतल पर रहने के समय) का प्रमाण ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय- (१२९) में भी मिलता हैं। जिसमें ब्रह्मा जी स्वयं श्रीकृष्ण से कहते हैं कि-
"ब्रह्मवाच-
"यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम्।
त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम्।१८।।
अनुवाद:-
ब्रह्मा जी बोले ! हे प्रभु ! इस पृथ्वी पर क्रीड़ा करते आपके एक सौ पच्चीस वर्ष बीत गये। विरह से आतुर रोती हुई पृथ्वी को छोड़कर अपने गोलोक धाम को पधार रहे हैं।१८।
इस प्रकार से इस अध्याय के दोनों खण्डों के साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि- "जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही श्रीकृष्ण धर्म की पुनः स्थापना के लिए अपने समस्त गोप और गोपियों के साथ भूतलपर अवतरित होते हैं। और धर्म स्थापना के उपरांत पुनः गोप और गोपियों के साथ अपने धाम- गोलोक को चले जाते हैं।
यही गोपेश्वर श्री कृष्ण का सत्य सनातन नियम है। इस कार्य में ना तो गान्धारी के शाप की कोई भूमिका है और ना ही किसी ऋषि मुनि के शाप का सम्बन्ध है और नहीं भगवान श्रीकृष्ण को बहेलिया से मारे जाने की कोई सच्चाई है। यह सब भगवान श्री कृष्ण की पूर्व निर्धारित लीला का ही परिणाम है। इसमें शाप और आशीर्वाद को लाना भगवान श्रीकृष्ण की वास्तविक जानकारियों से लोगों को भ्रमित करना है।
इसीलिए कहा जाता है कि जो भगवान श्रीकृष्ण और उनके गोपों के गोलोक जाने की "सत्य कथाओं" को सुनता है वह निश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त होता है।" बाकी भ्रामक एवं असत्य कथा कहने व सुनने वाले को कभी भी पापों से मुक्ति नहीं मिलती।
इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता के अश्वमेध खंड अध्याय- (७) के श्लोक संख्या- (४१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
_____
यः शृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः ।
मुक्तिं यदूनां गोपानां सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४१ ॥
अनुवाद:-
जो श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र तथा यादव (गोपों) की मुक्ति का वृतान्त सुनते हैं वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४१।
किन्तु यहां पर उन लोगों को जानकारी देना आवश्यक हो जाता है जो अक्सर कुछ अधूरी जानकारी रखते हैं। वे कहा करते हैं कि- मौसल युद्ध में सम्पूर्ण यादवों का विनाश हो गया था।
किंतु ऐसा वे लोग कहते हैं जिनको इस बात की जानकारी नहीं है कि संपूर्ण यादवों का विनाश नहीं हुआ था। क्योंकि उस युद्ध के उपरांत बहुत सी स्त्रियां, बच्चे और बूढ़े यादव
तथा भगवान श्री कृष्ण के पौत्र वज्रनाभ आदि बच गए थे। इन सभी बातों की पुष्टि-
श्रीविष्णु पुराण के पञ्चम अंश के अध्याय- (३७) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण दारूक से संदेश भिजवाते समय कहते हैं कि-
"दृष्ट्वा बलस्य निर्याणं दारुकं प्राह केशवः ।
इदं सर्वं समाचक्ष्व वसुदेवोग्रसेनयोः।।५७ ।
निर्याणं बलभद्र स्य यादवानां तथा क्षयम् ।
योगे स्थित्वाहमप्येतत्परित्यक्ष्ये कलेवरम् ।।५८।
वाच्यश्च द्वारकावासी जनस्सर्वस्तथाहुकः।
यथेमां नगरीं सर्वां समुद्र:! प्लावयिष्यति।।५९।
तस्माद्भवद्भिस्सर्वैस्तु प्रतीक्ष्यो ह्यर्जुनागमः ।
न स्थेयं द्वारकामध्ये निष्क्रान्ते तत्र पाण्डवे ।।६०।
तेनैव सह गन्तव्यं यत्र याति स कौरवः ।।६१।
गत्वा च ब्रूहि कौन्तेयमर्जुनं वचनान्मम ।
पालनीयस्त्वया शक्त्या जनोऽयं मत्परिग्रहः।। ६२।
त्वमर्जुनेन सहितो द्वारवत्यां तथा जनम् ।
गृहीत्वा यादि वज्रश्च यदुराजो भविष्यति ।।६३।
अनुवाद - ५७-६३
•इस प्रकार बलराम जी का प्रयाण ( गोलोकगमन) देखकर श्रीकृष्णचन्द्र ने
सारथि दारूक से कहा- तुम यह सब वृतांत उग्रसेन और वसुदेव जी से जाकर कहो।५७।
•बलभद्रजी का निर्याण , प्रमुख यादवों का क्षय और मैं भी योगस्थ होकर नश्वर शरीर को छोड़कर अपने धाम को जाऊँगा। यह सब समाचार भी वसुदेव जी और उग्रसेन को जाकर सुनाओ।५८।
• संपूर्ण द्वारिका वासी और आहुक (उग्रसेन) से कहना कि अब इस सम्पूर्ण नगरी को समुद्र डुबो देगा।५९।
यही गोपेश्वर श्री कृष्ण का सत्य सनातन नियम है। इस कार्य में ना तो गान्धारी के शाप की कोई भूमिका है और ना ही किसी ऋषि मुनि के शाप का सम्बन्ध है और नहीं भगवान श्रीकृष्ण को बहेलिया से मारे जाने की कोई सच्चाई है। यह सब भगवान श्री कृष्ण की पूर्व निर्धारित लीला का ही परिणाम है। इसमें शाप और आशीर्वाद को लाना भगवान श्रीकृष्ण की वास्तविक जानकारियों से लोगों को भ्रमित करना है।
इसीलिए कहा जाता है कि जो भगवान श्रीकृष्ण और उनके गोपों के गोलोक जाने की "सत्य कथाओं" को सुनता है वह निश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त होता है।" बाकी भ्रामक एवं असत्य कथा कहने व सुनने वाले को कभी भी पापों से मुक्ति नहीं मिलती।
इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता के अश्वमेध खंड अध्याय- (७) के श्लोक संख्या- (४१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
_____
यः शृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः ।
मुक्तिं यदूनां गोपानां सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४१ ॥
अनुवाद:-
जो श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र तथा यादव (गोपों) की मुक्ति का वृतान्त सुनते हैं वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४१।
किन्तु यहां पर उन लोगों को जानकारी देना आवश्यक हो जाता है जो अक्सर कुछ अधूरी जानकारी रखते हैं। वे कहा करते हैं कि- मौसल युद्ध में सम्पूर्ण यादवों का विनाश हो गया था।
किंतु ऐसा वे लोग कहते हैं जिनको इस बात की जानकारी नहीं है कि संपूर्ण यादवों का विनाश नहीं हुआ था। क्योंकि उस युद्ध के उपरांत बहुत सी स्त्रियां, बच्चे और बूढ़े यादव
तथा भगवान श्री कृष्ण के पौत्र वज्रनाभ आदि बच गए थे। इन सभी बातों की पुष्टि-
श्रीविष्णु पुराण के पञ्चम अंश के अध्याय- (३७) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण दारूक से संदेश भिजवाते समय कहते हैं कि-
"दृष्ट्वा बलस्य निर्याणं दारुकं प्राह केशवः ।
इदं सर्वं समाचक्ष्व वसुदेवोग्रसेनयोः।।५७ ।
निर्याणं बलभद्र स्य यादवानां तथा क्षयम् ।
योगे स्थित्वाहमप्येतत्परित्यक्ष्ये कलेवरम् ।।५८।
वाच्यश्च द्वारकावासी जनस्सर्वस्तथाहुकः।
यथेमां नगरीं सर्वां समुद्र:! प्लावयिष्यति।।५९।
तस्माद्भवद्भिस्सर्वैस्तु प्रतीक्ष्यो ह्यर्जुनागमः ।
न स्थेयं द्वारकामध्ये निष्क्रान्ते तत्र पाण्डवे ।।६०।
तेनैव सह गन्तव्यं यत्र याति स कौरवः ।।६१।
गत्वा च ब्रूहि कौन्तेयमर्जुनं वचनान्मम ।
पालनीयस्त्वया शक्त्या जनोऽयं मत्परिग्रहः।। ६२।
त्वमर्जुनेन सहितो द्वारवत्यां तथा जनम् ।
गृहीत्वा यादि वज्रश्च यदुराजो भविष्यति ।।६३।
अनुवाद - ५७-६३
•इस प्रकार बलराम जी का प्रयाण ( गोलोकगमन) देखकर श्रीकृष्णचन्द्र ने
सारथि दारूक से कहा- तुम यह सब वृतांत उग्रसेन और वसुदेव जी से जाकर कहो।५७।
•बलभद्रजी का निर्याण , प्रमुख यादवों का क्षय और मैं भी योगस्थ होकर नश्वर शरीर को छोड़कर अपने धाम को जाऊँगा। यह सब समाचार भी वसुदेव जी और उग्रसेन को जाकर सुनाओ।५८।
• संपूर्ण द्वारिका वासी और आहुक (उग्रसेन) से कहना कि अब इस सम्पूर्ण नगरी को समुद्र डुबो देगा।५९।
• इसलिए आप सब केवल अर्जुन के आगमन की प्रतिक्षा और करें तथा अर्जुन के यहाँ से लौटते ही फिर कोई भी व्यक्ति द्वारिका में न रहे, जहाँ वे कुन्ति नन्दन जाए वही सब लोग चले जायं। ६०-६१।
कुंती पुत्र अर्जुन से तुम मेरी ओर से कहना कि- अपने सामर्थ्य अनुसार तुम मेरे परिवार के लोगों की रक्षा करना।६२।
•और तुम द्वारिका वासी सभी लोगों को लेकर अर्जुन के साथ चले जाना। हमारे पीछे वज्रनाभ ही यदुवंश का राजा-होगा।६३।
ये तो रही बात मौसल युद्ध में कुछ खास बचे हुए यादवों की जिसमें भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ भी हैं। इसके अलावा भगवान श्रीकृष्ण वृंदावन में समस्त गोप और गोपियों की मृत शरीर को पुनः जीवित कर देते हैं वे सभी गोप़ यादव ही थे।
"अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।
योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः।।३।।
गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः।
तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।।४।।
अनुवाद:-
उन्हें जीवित करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-
हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव ।
रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।।६ ।
तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।
अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।।७।।
( ब्रह्मवैवर्तपुराण/ श्रीकृष्णजन्मखण्ड/१२८)
********
अनुवाद - हे गोपगण ! हे बन्धो ! तुम लोग सुख का उपभोग करते हुए शान्तिपूर्वक यहां व्रज में ही निवास करो, क्योंकि प्रिया के साथ विहार सुरम्य रासमण्डल और वृंदावन नामक पूण्यवन में श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक ही रहेगा जब तक सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति रहेगी। ६-७।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता हैं कि- लाख ऋषि मुनियों और गान्धारी के शाप के बावजूद भी यदुवंश का अन्त नहीं हो सका। और यहाँ पर यह भी सिद्ध हुआ कि- इस यदुवंश को शाप के मकडजाल में फंसा कर यदुवंश के विनाश की झूठी कहानियां रची गई। हद तो तब हो गई जब पौराणिक कथाकारों ने परमेश्वर श्रीकृष्ण को भी बहेलिए से मरवाकर उनकी परम् प्रभुता को छिन्न-भिन्न करने का अथक प्रयास किया है। किन्तु ध्यान रहे ऐसे लोगों को परमप्रभु परमेश्वर कभी क्षमा नहीं करते जो झूठी कथा कहते हैं और लिखते हैं।
"कृष्ण का आध्यात्मिक व दार्शनिक दृष्टिकोण-
श्रीमद्भगवदगीता के कुछ मौलिक अध्याय जीवन और जगत् की दार्शनिक व वैज्ञानिक विवेचना प्रस्तुत करते हैं।
"श्रीमद्भगवद्गीता के प्रतिपादित विषय:
समता योग :
·मनुष्य को सभी प्रकार के राग-द्वेष , मान- सम्मान सफलता-असफलता, सुख-दु:ख को सृष्टि का द्वन्द्वात्मक विधान मानकर उसमें आसक्त नहीं होना चाहिए- हमें अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों को समान रूप से स्वीकार करना सीखना चाहिए। गीता में ऐसी समता को योग ' कहा गया है।
"योगस्थः कुरु कर्माणि सिद्ध्यसिद्ध्योः सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2/48। (श्रीमद्भगवद्गीता )
अनुवाद-
हे धनञ्जय अर्जुन ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मों को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
"ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।15/7।
अनुवाद
मनसहित इन्द्रियोंको अपना माननेके कारण जीवात्मा किस प्रकार उनको साथ लेकर अनेक योनियों में घूमता है -- कृष्ण दृष्टान्तसहित इसका वर्णन करते हैं।
"जीव में ईश्वर का ही एक अंश "आत्मा" है। लेकिन इस प्राणी ने अपने क्षणिक भौतिक सुखों के लिए इस संसार को नष्ट करने वाले नाशवान प्राकृतिक पदार्थों के साथ अपना झूठा संबंध को स्वीकार कर लिया है।,
·जिससे वह जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में पड़ जाता है, और ईश्वर से विमुख हो जाता है।
इस शरीर को त्यागने और उसी संसार में दूसरे शरीर में पुनर्जन्म भी इच्छा युक्त कर्मों के परिणाम स्वरूप निश्चित है।
“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।2/ 22।
अनुवाद-
मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही( जीवात्मा) पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में चला जाता है।
·मनुष्य की मृत्यु तभी होती है जब यह निश्चय हो जाता है कि उसे अगले जन्म में किस प्रकार का शरीर प्राप्त होगा।
गीता ज्ञान-
· गीता सिर्फ एक तरफा प्रवचन मात्र नहीं है। यह कृष्ण और अर्जुन के संवादों का एक संग्रह है।
अर्जुन द्वारा पूछे गए प्रश्नों और कृष्ण द्वारा दिए गए उत्तरों की संगत में ही श्रीमद्भगवद्गीता का सौन्दर्य निहित है।
· गीता में अर्जुन एक शिष्य के रूप में और कृष्ण एक सद्- गुरु के रूप में उपदेश देते हुए उपस्थित हैं। और अर्जुन बिना किसी वाद -विवाद और भेद के कृष्ण की सभी शिक्षाओं को स्वीकार करता है।
योग मार्ग:
श्रीमद्भगवद्गीता तीन योग मार्गों का वर्णन करती है - कर्मयोग- ज्ञानयोग और भक्तियोग।
1. कर्म योग:
· स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का संसार से अभिन्न संबंध है।
· तीनों को निस्वार्थ भाव से दीन - दु:खी और वञ्चितों की सेवा में लगाओ - यही कर्म योग है।
वैसे भी मनुष्य विना कर्म किए हुए कभी नहीं रह सकता है।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।
अनुवाद
अठारहवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भी कहा है कि संसार से अपना सम्बन्ध मानते हुए कोई भी मनुष्य कर्मों का सम्पूर्णता से त्याग नहीं कर सकता-
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः। यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।18.11।
जो पुरुष कर्माधिकारी है और शरीर में आत्माभिमान(मैं हूँ का भाव) रखनेवाला होने के कारण देहधारी अज्ञानी ही है ? आत्मविषयक कर्तृत्वज्ञान नष्ट न होनेके कारण जो मैं करता हूँ ऐसी निश्चित बुद्धिवाला है उससे कर्म का अशेष त्याग होना असम्भव होनेके कारण? उसका कर्मफलत्याग के सहित विहित कर्मोंके अनुष्ठानमें ही अधिकार है? उनके त्याग में नहीं। यह अभिप्राय दिखलानेके लिये कहते हैं --, देहधारीदेहको धारण करे सो देहधारी? इस व्युत्पत्तिके अनुसार शरीरमें आत्माभिमान रखनेवाला देहभृत् कहा जाता है ? विवेकी नहीं। क्योंकि वेदाविनाशिनम् इत्यादि श्लोकोंसे वह ( विवेकी होने पर) कर्तापन के अधिकारसे अलग कर दिया गया है।
सम्बन्ध-- पीछे के श्लोक में यह कहा ही गया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। इस पर यह शंका हो सकती है कि मनुष्य इन्द्रियों की क्रियाओं को हठपूर्वक रोककर भी तो अपने को अक्रिय मान सकता है। इसका समाधान करने के लिये आगे का श्लोक प्रस्तुत हैं।
"तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।3.28।।
अनुवाद:-
हे महाबाहो! गुण-विभाग और कर्म-विभाग को तत्त्व से जानने वाला महापुरुष 'सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं' -- ऐसा मानकर उनमें आसक्त( संलग्न) नहीं होता। तभी वह कर्म के परिणामों से बच सकता है।
अन्यथा नहीं कर्म में जब अहं, संकल्प और इच्छाऐं विद्यमान हैं तो कर्म अपना फल देगा ही।
"कायया कर्माण्यनेकानि क्रियमाणा । मन: प्रभोर्मनने सज्यते। निर्मुह्य मात्रं कर्त्तव्यं कुर्वन्तदा जन: सर्वे द्वन्द्वानां विजयते।।
शरीर से अनेक कर्मों को करते हुए मन को प्रभु में लगाने वाला मोह से मुक्त होकर कर्तव्य करते हुए संसार के सभी द्वन्द्व (दो परस्पर विरोधी भावों ) पर विजय प्राप्त कर लेता है।
2. ज्ञान योग:
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3.3।
श्रीकृष्ण ने कहा हे निष्पाप (अनघ) अर्जुन ! इस श्लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है ज्ञानियों की (सांख्यानां) सांख्य दर्शन वेत्ताओं की ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से सम्बन्धित है।
3. भक्ति योग:
सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा--ये दोनों साधकों की अपनी निष्ठाएँ ( विश्वास- अथवा स्थिति ) हैं; परन्तु भगवन्निष्ठा साधकों की अपनी निष्ठा नहीं है। कारण कि सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठामें साधकको 'मैं हूँ' और 'संसार है'--इसका अनुभव होता है; अतः ज्ञानयोगी संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूपमें स्थित होता है और कर्मयोगी संसार की वस्तु-(शरीरादि-) को मोह से रहित बिना की किसी कामना के होकर कर्तव्य रूप में संसार की ही सेवा में स्वयं को लगाकर संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करता है। भक्ति वास्तव में ज्ञान और कर्म का समन्वय ( मेल) है। भक्तियोग सबसे श्रेष्ठ मार्ग है
गीता-अमृत:
मनुष्य शरीर :-
·हमारा यह शरीर नष्ट होने वाला( नश्वर) है। यह मन अनेक दुर्वासनाओं से भरा है। हमारे पास न केवल आध्यात्मिक ज्ञान की कमी है,अपितु इस भौतिक जगत् का भी पूर्ण ज्ञान है।
· अपने वर्तमान जीवन में भी हम कभी भी एक जैसे नहीं होते हैं। हमारा शरीर हर पल बदलता रहता है । हमारा शरीर बचपन से यौवन, यौवन से प्रौढ़, और प्रौढ़ से वृद्धावस्था में और फिर मृत्यु में कब बदल जाता है इसका हमें पता तक नहीं चलता क्योंकि शरीर प्राकृतिक तत्वों का समन्वय है । और परिवर्तन प्रकृति का स्वभाव व नियम है।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा l
,तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।2-13।
(श्रीमद्भगवद्गीता )
· जीव -विज्ञान- ( biology )कहता है कि शरीर के भीतर की कोशिकाओं का कायाकल्प होता है—पुरानी और मृत कोशिकाओं के स्थान पर नई कोशिकाएं निर्माण होती हैं ।
“त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनं:।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेत्तत्रयं त्यजेत “।। ( 16—21)
अर्थात काम , क्रोध और लोभ -- ये तीनों आत्मा का अधःपतन करने वाले साक्षात् नरक के द्वार हैं। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को इन तीनों को त्याग देना चाहिए।
कृष्ण ने वासना मूलक काम के विषय में कहा-
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।3.43।।
इन्द्रियों को (स्थूलशरीरसे) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियों से पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है औऱ जो बुद्धि से भी पर है वह (काम) है। इस तरह बुद्धि से पर - (काम-) को जानकर अपने द्वारा अपने-आप को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल।
निष्कर्ष के रूप में श्रीकृष्ण इस पर बल देकर कहते हैं कि हमें आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी शत्रु का संहार करना चाहिए। क्योंकि आत्मा भगवान का अंश है और यह दिव्य शक्ति है इसलिए दिव्य पदार्थों से ही अलौकिक आनन्द प्राप्त हो सकता है जबकि संसार के सभी पदार्थ भौतिक हैं। ये भौतिक पदार्थ आत्मा की स्वाभाविक उत्कंठा को कभी पूरा नहीं कर सकते इसलिए इनको प्राप्त करने की कामना करना व्यर्थ ही है। इसलिए परिश्रम करते हुए हमें बुद्धि को तदानुसार क्रियाशील होने का प्रशिक्षण देना चाहिए और फिर मन और इन्द्रियों को नियंत्रित रखने के लिए इसका प्रयोग करना चाहिए।
कठोपनिषद् में रथ के सादृश्य से इसे अति विशद ढंग से समझाया गया है:
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयां स्तेषु गोचरान्।आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।। (कठोपनिषद्-1.3.3-4)
यह उपनिषद् वर्णन करता है कि यह शरीर एक रथ है जिसे पांच इन्द्रिय रूपी घोड़े हाँक रहे हैं। उन घोड़ों के मुख में मन रूपी लगाम पड़ी है। यह लगाम रथ के बुद्धि रूपी सारथी के हाथ में है और रथ के पीछे आसन पर (जीवात्मा) यात्री बैठा हुआ है। यात्री को चाहिए कि वह सारथी को उचित निर्देश दे जो लगाम को नियंत्रित कर घोड़ों को उचित दिशा की ओर जाने का मार्गदर्शन दे सके।
इस सादृश्य में रथ मनुष्य का शरीर है, घोड़े पाँच इन्द्रियाँ हैं और घोड़ों के मुख में पड़ी लगाम मन है और सारथी बुद्धि है और रथ में बैठा यात्री शरीर में वास करने वाली आत्मा है। इन्द्रियाँ (घोड़े) अपनी पसंद के पदार्थों की कामना करती हैं। मन (लगाम) इन्द्रियों को मनमानी करने से रोकने में अभ्यस्त नहीं होता। बुद्धि (सारथी) मन (लगाम) के समक्ष आत्मसमर्पण कर देती है। इस प्रकार मायाबद्ध अवस्था में सम्मोहित आत्मा बुद्धि को उचित दिशा में चलने का निर्देश नहीं देती।
कर्मयोग सिद्धान्त
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ,
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि “-(2- 47)
कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।
अनासक्त कर्म-
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।5.2।।
अर्जुन के प्रश्न से श्रीकृष्ण समझ गये किस तुच्छ अज्ञान की स्थिति में अर्जुन पड़ा हुआ है।
वह कर्मसंन्यास और कर्मयोग इन दो मार्गों को भिन्नभिन्न मानकर यह समझ रहा था कि वे साधक को दो भिन्न लक्ष्यों तक पहुँचाने के साधन थे।
मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति निष्क्रियता की ओर होती है। यदि मनुष्यों को अपने स्वभाव पर छोड़ दिया जाय तो अधिकांश लोग केवल यही चाहेंगे कि जीवन में कम से कम परिश्रम और अधिक से अधिक आराम के साथ भोजन आदि प्राप्त हो जाय। इस अनुत्पादक अकर्मण्यता से उसे क्रियाशील बनाना उसके विकास की प्रथम अवस्था है। यह कार्य मनुष्य की सुप्त इच्छाओं को जगाने से सम्पादित किया जा सकता है। विकास की इस प्रथमावस्था में स्वार्थ से प्रेरित कर्म उसकी मानसिक एवं बौद्धिक शिथिलता को दूर करके उसे अत्यन्त क्रियाशील बना देते हैं।
·अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।8.5।।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
इस प्रकार से इस पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण व अन्तिमवां अध्याय अपने दोनों खण्डों में "श्रीकृष्ण सहित गोप-गोपियों के गोलक गमन" की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
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इस पुस्तक के सभी प्रसंगों का विस्तृत वर्णन- "गोपेश्वर श्रीकृष्णस्य पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रन्थ में किया गया है। विस्तृत जानकारी के लिए उस पुस्तक का भी अध्ययन अवश्य करें।
"जय श्रीकृष्ण ! 🙏
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