नमस्कार मित्रों ! मित्रों इसके पिछले विडियो में हमने यादवों के पूर्वज गोत्र वैष्णव गोत्र के बारे में बताया था कि यादवों का पूर्वज गोत्र -वैष्णव है जिसमें हमने यह भी बताया था कि यादवों का एक वैकल्पिक गोत्र अत्रि भी होता जिसका उद्देश्य केवल पूजा-पाठ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराना होता है। यह वैकल्पिक गोत्र ही गुरु गोत्र के नाम से भी जाना जाता है। परंतु इस वीडियो को देखने के बाद लोगों में भ्रम की स्थिति हो गई परिणाम स्वरूप बहुत सारे कमेंट आने लगे कि- आप कभी यादवों का वर्ण- "वैष्णव" बताते है, तो कभी आप यादवों के गोत्र को भी वैष्णव बताते हैं।
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ऐसे में गोत्र और वर्ण कैसे एक हो सकता है?
इसे हम पारिभाषिक रूप में स्पष्ट करते हैं।
वर्ण-
वर्णः, पुं, (व्रियते इति । वृ + “कॄवृजॄषिद्रुगुपन्य- निस्वपिभ्यो नित् ।” उणा० ३ । १० । इति नः । स च नित् ।) जातिः वर्ण के अन्तर्गत जन्म से प्राप्त प्रवृत्तियों के अनुसार व्यवसाय के वरण (चुनाव से है। ।
वर्ण व्यवस्था में चार वर्ण होते हैं, जबकि जातियों की संख्या हज़ारों में है
वर्ण का आधार व्यक्ति के कर्म और गुण और स्वभाव होते हैं, जबकि जाति का आधार व्यक्ति का जन्म या वंश होता है.
वर्ण व्यवस्था के तहत, व्यवसाय का चुनाव भी किया जाता था.
जाति व्यवस्था के तहत ,वंश परम्परागत व्यवसाय को ही अनिवार्य रूप में करना पड़ता है। लोगों को उनके जन्म के आधार पर समूहों में बांटा जाता था.
जाति-
*** व्यक्ति समूहों की प्रवृति मूलक पहचान है। जैसे मनुष्य समूहों के समाज में अलग अलग देखी जाती -जैसे वणिक( समाज) उनकी वृत्ति ( व्यवसाय) होता है खरीद-फरोख्त करना और उसी अनुसार उनकी (स्वभाव गत गहराई) लोलुपता और मितव्यता यही उनकी जातिगत पहचान है।
इसी तरह से जैसे अहीर जाति की वृत्ति कृषि और पशु पालन यह वृत्ति उन्ही लोगों में हो सकती है जो निडर ( निर्भीक) और साहसी हो । इनकी वृत्ति के अनुसार ही इनकी निर्भीक प्रवृति का विकास जन्म से हुआ यह निडर प्रवृत्ति ही इनकी जाति सूचक पहचान है। इसी लिए इनको आभीर कहा जाता है।
सबसे पहले जाति की बात करते हैं ।
जो एक समुद्र के समान है। जातियों का निर्माण मनुष्यों की प्रवृतियों से निर्धारित हुआ। और प्रवृतियाँ विकसित होती हैं मनुष्यों की वृत्तियो ( व्यवसायों) से ।
वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित व्यययी( कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों( व्यवसायी) वाले समान परिवेश (माहौल) कोर्ट कचहरी दिवानी आदि में पहल करने वाले होते हैं। लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित होते ही हैं। सीमा पर सैनिक तैनात होते हैं उनकी समान प्रवृति होती है।
प्रवृत्ति स्वभाव की गहराई का दूसरा नाम है
जो जन्म से ही सुनिश्चित होती है।
स्वभाव और प्रवृत्ति में वही अन्तर है जो अनुभव और अनुभूति में है।
यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।
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वंश-
व्यक्ति के आनुवांशिक ( ) रक्त प्रवाह से समन्वित जैविक श्रृंखला वंश है। यह पीढियों की सीढियों में प्रवाहित होता।
आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) का प्रयोग करके प्रायः जीवों का डी एन ए परखा जाता है और इस आधार पर उन जीवों को एक जाति का घोषित किया जाता है जिनकी डी•एन•ए छाप एक दूसरे से मिलती हो और दूसरे जीवों से अलग हो।
एक जाति में अनेक वंश होते हैं ।
इसलिए जाति रूपी समुद्र में वंश रूपी अनेक वँश रूपी नदियाँ निकलती हैं।
एक जाति में अनेक वंश होते है।
वंश भी रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखला है। जिसमें अपने पूर्वजों का स्वभाव आनुवंशिक रूप से नदी रूप में प्रवाहित होता है।
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कुल -
तथा इन वंश रूपी नदियों से गोत्र रूपी धाराऐ निकलती हैं। और वंश में अनेक कुल रूपी कुल्याऐं( नालीयाँ ) निकलकर परिवारों का समूह का निर्माण करती है।
एक जाति में अनेक वंश होते हैं । और एक वंश में भी अनेक कुल होते हैं। जैसे महाभारत काल में यदुवंश में एक सौ कुल थे।
"कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।३४.२५५।
अनुवाद:-यादवों( यदुवंश) के एक सौ एक कुल हैं। और वे सब कुल विष्णु के कुल ( वैष्णव कुल ) स्वराट् विष्णु सबमें विद्यमान हैं।
२५५।
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।। ३४.२५६ ।।
अनुवाद:- विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध(बन्धे हुए) हैं।२५६।
इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३४ ।।
अमर कोश मे गोत्र वर्ण का भी वाचक है।
अत:१- वर्ण - २-जाति- -३- वंश -४-गोत्र ५-कुल - ६-परिवार और अन्तिम इकाई ५-व्यक्ति ही होता है।
ये सभी उत्तरोत्तर परस्पर जुड़ी हुई रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखलाऐं हैं। ।
इस लिए यादवों का वर्ण और गोत्र दोनो ही वैष्णव है।
आभीर जाति में यदुवंश का उदय हुआ यह सम्पूर्ण जाति स्वराट् विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न है। अत: इसका वर्ण और पूर्वज गोत्र( जनन गोत्र) भी वैष्णव ही है।
यादव वंश में एक सौ एक कुल महाभारत काल में थे ।
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में गोत्र मूलत: चार ही थे।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- (२९६) के श्लोक- (१७) से होती है। जिसमें - राजा जनक पराशर ऋषि का प्रश्नोत्तर रूप में संवाद है।-
"मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।
अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।१८।
"मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।
अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।१८।
महाभारत शान्ति पर्व का निम्न श्लोक इस बात का संकेत करता है।
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
अनुवाद:
अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं।
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।१८।
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।१८।
"जनक उवाच।
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम।
तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि॥१९॥
अनुवाद:-
जनक ने पूछा - वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम।
तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि॥१९॥
अनुवाद:-
जनक ने पूछा - वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।
यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः ।
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः॥२॥
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः॥२॥
अनुवाद:-
आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्पन्न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्मदाता पिता ही नूतन जन्म धारण करता है।
ऐसी दशा में प्रारम्भ में ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्म हुआ है।२।
ऐसी दशा में प्रारम्भ में ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्म हुआ है।२।
तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ?
तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि
"पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।
अनुवाद:-
जिससे जो जन्म लेता है, उसी का वह स्वरूप होता है तथापि तपस्या की न्यूनता के कारण लोग निकृष्ट जाति को प्राप्त हो गये हैं।३।
तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि
"पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।
अनुवाद:-
जिससे जो जन्म लेता है, उसी का वह स्वरूप होता है तथापि तपस्या की न्यूनता के कारण लोग निकृष्ट जाति को प्राप्त हो गये हैं।३।
उत्तम क्षेत्र( खेत) और उत्तम बीज से जो जन्म होता है, वह पवित्र (उत्तम) ही होता है।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्न संतान की ही उत्पत्ति होती है।४।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्न संतान की ही उत्पत्ति होती है।४।
वक्त्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे।
सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः॥५॥
मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रबन्धवः।
ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः॥६॥
अनुवाद:-तात ! जो मुख से उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्पत्ति हुई।
इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं। इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्म दिया है, तब मनुष्यों के भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।
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"जनक ने पूछा-
ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्पन्न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्व को कैसे प्राप्त हुए ? ।११।
पराशर जी ने कहा -
राजन ! तपस्या से जिनके अन्त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्मा पुरूषों के द्वारा जिस संतान की उत्पत्ति होती है, अथवा वे स्वेच्छा से जहाँ-कहीं भी जन्म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि (जातीय शरीर) से निकृष्ट होने पर भी उसे उत्कृष्ट ही मानना चाहिये ।१२।
नरेश्वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्पन्न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया।१३।
उपरोक्त संवादों से सिद्ध होता है कि - प्रारम्भिक काल में गोत्रों का निर्धारण व्यक्ति के तपोबल एवं उसके कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ करता था। अर्थात् निम्न योनि का व्यक्ति भी अपने तपोबल एवं कर्मों के आधार पर उच्च योनि को प्राप्त कर सकता था।
उसी तरह से उच्च योनि का व्यक्ति निम्न कर्म करने पर निम्न योनि को प्राप्त होता था। किंतु इस सिद्धांत का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और अन्ततोगत्वा ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में गोत्र एवं कुल का निर्धारण कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा। जिसके परिणाम स्वरूप सामाजिक भेदभाव एवं अस्पृश्यता का उदय हुआ। क्योंकि पूर्व काल में जिन चार ऋषियों अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु से जो चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे उनके अतिरिक्त ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अपनी आवश्यकतानुसार अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारिणों में शामिल किया जो किसी न किसी रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए थे। उन सभी को सम्मिलित कर पुरोहितों नें गोत्र निर्धारण का एक नया सिद्धान्त बनाया जो मुख्यतः तीन सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनि जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करती हैं।
ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर सन्तान पूरक गोत्र ( पूर्वज गोत्र)कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि काक संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।
(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात निज की उत्पत्ति किससे हुई है इसका पता ही नहीं हो। तो ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।
(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यन्त किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्ध का संकेत करता है।
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र- गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी अन्य ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनि जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करती हैं।
ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर सन्तान पूरक गोत्र ( पूर्वज गोत्र)कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि काक संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।
(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात निज की उत्पत्ति किससे हुई है इसका पता ही नहीं हो। तो ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।
(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यन्त किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्ध का संकेत करता है।
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र- गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी अन्य ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।
(गुरु गोत्र)
इस सम्बन्ध में बतादें कि- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई।
इसलिए श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है। तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश पौराणिक ग्रन्थों में यादवों के मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।
जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्में ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर यादवों में स्वीकार किए गये है ? यह एक विचारणीय विषय है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज एवं योगेश कुमार रोहि व गोपाचार्य हंस माता प्रसाद जी आदि विचारकों का कहना है कि -
"गोप जाति श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि ऋषि से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण भी यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"
जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्में ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर यादवों में स्वीकार किए गये है ? यह एक विचारणीय विषय है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज एवं योगेश कुमार रोहि व गोपाचार्य हंस माता प्रसाद जी आदि विचारकों का कहना है कि -
"गोप जाति श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि ऋषि से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण भी यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"
विदित हो कि वर्ण और गोत्र दोनों ही शब्द मनुष्य की उत्पत्ति मूलक सम्बन्धों को सूचित करते हैं।
ईसापूर्व पञ्चम सदी के संस्कृत कोश अमर कोश में गोत्र शब्द एक एक पर्याय वर्ण भी है।
गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हंस श्रीमाताप्रसाद योगेश रोहि आदि विद्वानों का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि सम्पन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है"।
गोपों के इस वैकल्पिक गोत्र अत्रि की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर क्षेत्र में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ था। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारों द्वारा संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे।
उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को सम्पन्न कराने का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना था।
अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६) और (१७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६) और (१७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
तो आज इसी तरह के समस्त संशयों का समाधान इस वीडियो में किया गया है कि कैसे यादवों का गोत्र और वर्ण दोनों ही वैष्णव है। किन्तु इसके पहले मेरे उस वीडियो को आपको देखना होगा जिसमें बताया गया है कि यादवों का मुख्य गोत्र- वैष्णव गोत्र है। नहीं तो आपका संशय यो ही बना रहेगा। दूसरी बात यह कि यादवों के गोत्र, जाति और वर्ण को जानने से पहले ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के गोत्र, वर्ण, और जाति व्यवस्था को जानना होगा। क्योंकि यादव ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के भाग नहीं हैं। यह बात भी इस वीडियो में स्वतः सिद्ध हो जायेगा। जिसमें सबसे पहले आप लोगों ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के गोत्र,चातुर्वर्ण्य तथा जाति व्यवस्था को जानते हुए उसी क्रम में यादवों के वैष्णव वर्ण की उन समस्त विशेषताओं को भी जान पाएंगे जिनकी जानकारी न होने से यादव समाज आज तक भ्रम की स्थिति में जी रहा है।
तो चलिए श्रीकृष्ण का नाम लेकर बिना देर किए इन सभी महत्वपूर्ण जानकारियों को प्रारंभ करते हैं।
तो इस सम्बन्ध में बता दें कि किसी भी व्यक्ति का गोत्र मुख्यतः तीन प्रकार का होता है-
(१)- मूल गोत्र
(२)- स्थानमूलक गोत्र
(३)- गुरु गोत्र
अब हमलोग क्रमवार इन तीनों प्रकार के गोत्रों की उत्पत्ति और विशेषताओं को जानेंगे-
(१)- जिसमें पहले नम्बर पर "मूल गोत्र" का नाम आता है। यह गोत्र किसी व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है की किस व्यक्ति की प्रारंभिक उत्पत्ति किससे हुई है। इस मूल गोत्र में व्यक्ति का रक्त संबंध होता है। जैसे गोपों (यादवों) का मूल गोत्र वैष्णव है। क्योंकि यादवों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है। इसके बारे में आगे बताया गया है।
इसी तरह से जो लोग अपने को ब्रह्मा जी की संतान मानते हैं उन सभी का मूल गोत्र- "ब्राह्मी गोत्र" है। जैसे- ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न कुछ ब्राह्मण इत्यादि।
अब आप लोगों यहां पर यह सोच रहे होंगे कि कुछ ही ब्राह्मण क्यों सभी ब्राह्मण क्यों नहीं ? क्या सभी ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न नहीं हैं? तो इसका जवाब है जी हां सभी ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न नहीं हुए हैं। क्योंकि कुछ पौराणिक ग्रंथों में ब्राह्मणों के जन्म को अन्य तरह से भी बताया गया है। किन्तु यहां पर ब्राह्मणों की उत्पत्ति को बताना मेरा उद्देश्य नहीं है। फिर भी यदि कोई यह बात जानना ही चाहता है तो वह स्कन्द पुराण का खण्ड- (३) के अध्याय- ३९ के प्रसंगों को पढ़कर यह जानकारी ले सकता है कि अधिकांश ब्राह्मणों कि जन्म दूसरे तरीके से किस प्रकार बताई गई है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि मूल गोत्र व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है कि व्यक्ति की प्रारंभिक उत्पत्ति जिससे हुई है, उसीके नामानुसार उस व्यक्ति का मूल गोत्र निर्धारित होता है। जैसे- ब्राह्मी गोत्र, वैष्णव गोत्र इत्यादि। जिसमें वैष्णव गोत्र के बारे में आगे विस्तार से बताया हूं।
(२)-दूसरा गोत्र स्थान या स्थानीय गोत्र के नाम से जाना जाता है, जो किसी व्यक्ति के भौगोलिक स्थिति को दर्शाते हुए स्थान विशेष की पहचान कराता है। इस तरह के गोत्र की उत्पत्ति तब होती है जब एक ही जाति वर्ण और वंश के लोग जब किसी परिस्थिति विशेष के कारण अपने मूल निवास स्थान से Migrate कर जाते हैं, अर्थात वे अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर अपने समूह सहित अन्यत्र जाकर बस जातें हैं। तब उनके मूल स्थान के नाम पर उनकी पहचान हेतु एक उपगोत्र बन जाता हैं। इस तरह का स्थानीय गोत्र अधिकांशतः गोपों अर्थात यादवों में देखने को मिलता है। यहीं कारण है कि यादवों में इस तरह के गोत्र बहुतायत पाए जाते हैं। देखा जाए तो भारत के हर प्रांतों में यादवों की पहचान अलग-अलग गोत्रों से होती है। किन्तु उनका मूलगोत्र, जाति एवं वंश पूर्ववत बना रहता है।
यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। पूर्व काल में कंस के अत्याचारों से बहुत से यादव मथुरा छोड़कर यत्र-तत्र सर्वत्र बस गए। इसी तरह से केशी राक्षस के भय से नन्द बाबा के पिता पर्जन्य मथुरा छोड़कर परिवार सहित गोकुल में जा बसे। किन्तु वहां पर पशुओं के लिए अच्छा चारागाह न होने के कारण नन्द बाबा गोकुल को भी छोड़कर श्रीकृष्ण सहित समस्त गोपों के साथ ब्रज के बृंदावन में रहने ल
गे। इसके अतिरिक्त जब श्रीकृष्ण कंस का वध करके मथुरा में रहने लगे तब वहां पर जरासंध के बार बार आक्रमण से तंग आकर श्रीकृष्ण अपने समस्त गोपों के साथ मथुरा को छोड़कर द्वारका नगरी में रहने लगे। कहने का तात्पर्य यह है कि यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। जिसके परिणामस्वरूप उनके स्थान विशेष के नाम पर अनेकों गोत्रों का उदय हुआ। आज वर्तमान समय में यादव हर प्रांतों में अलग-अलग गोत्रों के नाम से जाने जाते हैं। किन्तु उनका मूलगोत्र वैष्णव गोत्र ही। जैसे- ढ़़ढ़ोर, ग्वाल, कृष्नौत, मझरौट, मथुरौट, नारायणी, घोसी, घोष, गोल्ला, गवली, मरट्ठा, मथुवंशी, इत्यादि बहुत से स्थानीय उपगोत्र है उन सभी को बता पाना इतना आसान नहीं है जितना आप सोच रहे होंगे। इसके अतिरिक्त भारत से सटे राज्य नेपाल में भी यादवों के बहुत स्थानीय उपगोत्र है जैसे - सिराहा, धनुषा, सप्तरी, बारा, रौतहट, सरलाही, परसा, महोत्तरी, बांके, सुनहरी इत्यादि। ये सभी यादवों के ही स्थानी उपगोत्र हैं।
अब आते हैं तीसरे प्रकार के गोत्र - गुरु गोत्र पर
(३)- गुरु गोत्र - गोपों के तीसरे प्रकार के उपगोत्र का नाम है। इस प्रकार के गोत्र में व्यक्ति या व्यक्ति समूह किसी ऋषि या अपने पसंद के विश्वासनीय सतनामी गुरु या किसी ऋषि मुनि से- दीक्षा, गुरुमंत्र या गुरूमुख होकर अपने उपगोत्र या वैकल्पिक गोत्र का निर्धारण करते हैं। इसलिए इस प्रकार के गोत्र को "गुरुगोत्र " कहा जाता है, जिसमे गोत्र कर्ता (ऋषि )और उसके अनुयायियों में किसी प्रकार का रक्त संबंध नहीं होता है। इस तरह के गोत्र का मुख्य उद्देश्य- दीक्षा, शिक्षा, पूजा-पाठ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने तक ही सीमित होता है।
गोपों के इस वैकल्पिक "गुरुगोत्र" अत्रि नाम की परम्परा का प्रारंभ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही प्रचलन में आया। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मंत्रोच्चारण से संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे। उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को संपन्न का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक
गुरु गोत्र बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को संपन्न कराना था। अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६ और १७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
वर्ण-
जाति
वंश
कुल खान)
गोत्र ( वैवाहिक विभाजन के लिए ताकि एक ही गोत्र मे विवाह न हो सके)
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