इसी क्रम में इसके अगले भाग- (दो) में
बताया गया है कि भारतीय संस्कृति में गोपों का कितना योगदान रहा है।
वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक प्रशंसा एवं
सांस्कृतिक विरासत।
अध्याय -(७) भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
भाग-[२]
भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक प्रशंसा एवं
सांस्कृतिक विरासत।
अध्याय -(७) भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
भाग-[२]
भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
[५] - कृषि और किसान शब्द गोपों सहित कृष्ण और संकर्षण की ही देन है-
इसको यदि व्याकरणिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो किसान शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के कृषाण शब्द से हुई है। कृष्ण और संकर्षण कृषि संस्कृति के जनक थे। कृष्ण से ही कृषाण शब्द विकसित हुआ है।
वाचस्पत्यं संस्कृत भाषा कोश के अनुसार :
कृषाण- (कृष्+ आनक्)–
आप्ते के संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष के अनुसार भी कृषाण शब्द कृष् धातु में -आनक्- अथवा किकन् प्रत्यय करने बनता है।
अर्थात् जो कृषि से सम्बन्धित कार्य करे वह किसान है।
ज्ञात हो - कृष्ण शब्द का धातुमूलक अर्थ - कृषक भी है ।
कुल मिलाकर कृष्ण से "कृषाण" और कृषाण से किसान शब्द का विकास हुआ।
भगवान श्रीकृष्ण का नाम भी इसी अनुरूप है क्योंकि वे एक सफल कृषक थे। सबसे पहले वे एक सफल पशु पालक( गोपालक) थे और पशु पालक ही कृषि संस्कृति के जनक थे।
आर्य चरावाहे थे जिन्होंने कालान्तर में कृषि संस्कृति का विकास किया।
और इस बात की पुष्टि- श्रीगर्गसंहिता, गिरिराज खण्ड के अध्याय -(६ ) से होती है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
"श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम्।२६।
अनुवाद- बाबा हमारे गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।।२६।
इसी तरह से गर्गसंहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय (६) में नन्द बाबा के उस समय भी कृषक होने की पुष्टि होती है जब एक बार कुछ गोप लोग वषभानु के दरबार में उपस्थित होकर नन्द और वृषभानु के वैभव की तुलना करते हुए नन्द के विषय में वृषभानु जी कहते हैं कि-
त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित्।
कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः॥७॥
यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः।
सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो।।८।
अनुवाद:-( ७-८)
• यहाँ तक कि राजा नन्द के घर में भी तुम्हारे समान धन और ऐश्वर्य नहीं है। अनेक गायों के स्वामी कृषक राजा नन्द भी तुम्हारी तुलना में दीन-हीन हैं।७।
• हे स्वामी, यदि नन्द का पुत्र वास्तव में भगवान है, तो कृपया उसकी परीक्षा अवश्य लीजिए, जिससे हम सबके देखते हुए उसकी दिव्यता प्रकट हो जाएगी।८।
ज्ञात हो - जिस तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण सदैव गोप वेष( रूप) में रहते हैं, उसी तरह से बलराम जी भी सदैव किसान वेष में ही रहते हैं। चाहे वे कृषि-क्षेत्र में हो अथवा, युद्ध-क्षेत्र में हो, तथा उनके साथ सदैव हल और मूसल रहता।
इस बात की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक -(१३) से भी होती है। जिसमें बलराम जी भू-तल पर अवतरित होने से पहले अपने हल और मूसल को कहते हैं-
हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।।१३।
अनुवाद - हे हल और मूसल ! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूं, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना।१३।
उपर्युक्त सन्दर्भों से स्पष्ट होता है श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ही कृषि संस्कृति के जनक और किसानों के पूर्वज और प्रतीक हैं। क्योंकि अबतक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में इनके जैसा किसान तथा गोपालक भेष( रूप) वाला न तो कोई देवता न किन्नर न गन्धर्व न दैत्य और न ही कोई दानव देखा गया।
आर्य संस्कृति और किसान-:
आर्य और किसान एक सिक्के के दो पहलू हैं। क्योंकि आर्य शब्द भी हल और कृषि से जुड़ा हुआ है। प्रारम्भ में आर्य चरावाहे ही थे जिन्होंने कालान्तर में कृषि संस्कृति का विकास किया। क्योंकि आर्य शब्द जुड़ा है अरि से जिसमें
अरि एक वैदिक देव है। जो सदैव अर (आरा) हाथ में लिए हुए ऋग्वेद में अरि सर्वोच्च ईश्वरीय शक्ति का वाचक है।
जिसकी पुष्टि- ऋग्वेद -(१०/२८/१) से होती है-
"विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात्स्वाशितः पुनरस्तं जगायात् ॥१॥
पदान्वय:- विश्वः । हि । अन्यः । अरिः । आऽजगाम । मम । इत् । अह । श्वशुरः । न । आ । जगाम ।जक्षीयात् । धानाः । उत । सोमम् । पपीयात् । सुऽआशितः । पुनः । अस्तम् । जगायात् ॥१.
ईश्वरोऽप्यरिः” [ निरु० ५। ७]
उपर्युक्त ऋचा ( श्लोक) में अरि शब्द ईश्वर वाची है। यूनानी पुराण कथाओं में इस वैदिक देव का वर्णन अरेस( Ares) के रूप में यूनानी युद्ध देवता के लिए है।
अरेस नाम की व्युत्पत्ति पारम्परिक रूप से ग्रीक शब्द ἀρή (arē) से जुड़ी हुई है, जो डोरिक भाषा के ἀρά (ara) शब्द का आयोनिक( यूनानी) रूप है, जिसका अर्थ- विनाश"
यूरोपीय विद्वान वाल्टर बर्कर्ट का कहना है कि "अरेस स्पष्ट रूप से एक प्राचीन अमूर्त संज्ञा है जिसका अर्थ है लड़ाई, अथवा युद्ध है।
अरि: शब्द कालान्तर में लौकिक संस्कृत में हरि हो गया-
संस्कृत भाषा में "आरा" और "आरि" शब्द आज भी शस्त्र वाली हैं। परन्तु वर्तमान में लौकिक संस्कृत में "अर्" धातु विद्यमान नहीं है।
सम्भव है कि पुराने जमाने में "अर्" धातु
रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो ।
अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु का ही रूपान्तरण, "अर" हो (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है)
संस्कृत व्याकरण में य्, व् र्, ल् अन्त:स्थ वर्णों का इ, उ, ऋ और लृ में परिवर्तन होना। सम्प्रसारण की प्रक्रिया है।
अर् अथवा ऋ धातु का अर्थ होता है-
"हल चलाना"
यह भी सम्भव है कि "हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो ।
"ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य और 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है। ये दोनों शब्द कृदन्त पद हैं। कृदन्त वे पद( शब्द) होते हैं जिनकी व्युत्पत्ति किसी धातु ( क्रिया मूल) से हुई हो।
विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक ही है।
इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।
"आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है। वैश्य शब्द वणिक का वाचक नहीं है।
वैश्य वृत्ति में पशुपालन और कृषि मूलक क्रियाऐं समायोजित होती है। जबकि वाणिज्य में व्यापारिक क्रियाएँ
किसी वणिक( वनिया) को कभी खेत में हल चलाते तथा पशुओं को चराते हुए कभी नहीं देखा गया। और किसी किसान को व्यापारिक या महाजनी क्रियाएँ करते नहीं देखा गया।
दोनो वृत्ति( व्यवसाय) आपस में विरोधी हैं ।
आज व्यापारी और किसान दो विरोधी समुदाय हैं।
अपितु वाणिज्य क्रिया को कालान्तर में वैश्य वृत्ति के अन्तर्गत समाविष्ट कर दिया गया। जिसका पशुपालन और कृषि मूलक वृत्तियों से कोई तालमेल नहीं है।
पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का प्रपल प्रमाण है। कि आर्य लोक वैश्य वृत्ति ( कृषि और पशु पालन ) से सम्बन्धित थे। और स्वामित्व पूर्ण स्थिति में थे।
फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया गया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य- जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है ।
फिर, वाजसनेयी (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णों के नाम-ब्रह्मण, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
हैं निस्सन्देह इस समय तक आर्य शब्द पशुपालन और कृषि मूलक वृत्तियों से युक्त जन समुदाय का वाचक था।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण (कृषि कार्य) ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ "कृषक" कहना युक्ति-विरहित नही।
कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं
गोप- गोचारण करते थे और इतिहास साक्षी है कि चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण (बलराम)
दोनों युग पुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे।
इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे । फिर बनिया ब्राह्मण और अन्य वृत्तियों से युक्त जन समुदाय को आर्य थ्योरी में जोड़ा गया।
क्यों व्यापार अथवा वाणिज्य वृत्ति को कृषि और पशु पालन वृत्ति से जोड़ा गया।
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं। कृषि करना वैश्य का काम है। यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।
किसी वणिक या वन कया
का काम नहीं -
ब्राह्मण के लिए। कृषि वृत्ति निषिद्ध ( मनाई) है।
मनुस्मृति में वर्णन है कि
"वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा। हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83।
अर्थ-• ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य तो कभी न करें अर्थात् इसे यत्न पर्वक त्यागें क्योंकि कि यह हिंसा के अन्तर्गत है।
ब्राह्मण और क्षत्रिय न तो पशुपालन कर सकता हौनऔर न कृषि कार्य तो फिर वह व्यापार ही कर सकता है।
अर्थात कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।
इसी लिए वर्ण-व्यवस्था वादी वणिक कभी हल चलाते या कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा जाता है।
निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है। इसकी पुष्टि - नृसिंह पुराण अध्याय 58 के 11 वें श्लोक से होती है-
दासवद्ब्राह्मणानां च विशेषेण समाचरेत् । अयाचितं प्रदातव्यम् कृषिं वृत्यर्थमाचरेत्।।११।
अनुवाद:-
शूद्र व्यक्ति दासों के समान ब्राह्मणों की विशेष रूप से सेवा करे और विना कुछ माँगे हुए अपनी ही सम्पत्ति का दान करना चाहिए और जीविका उपार्जन के लिए कृषि कर्म करे।११।
परन्तु व्यास, पराशर और वैजयन्ती कोश में एक और कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है। जिन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
इसी काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है जो कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार ने कीनाशों को शूद्र बताया है।
परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के।
फिर भी व्यास स्मृति में वणिक और गोप को शूद्र रूप में वर्णन सिद्ध करता है कि द्वेष और रोष के आवेश में पुरोहित वर्णव्यवस्था की मर्यादा भी भूल गये अन्यथा वणिक् शब्द जो स्वयं वैश्य का पर्याय है। उसको शूद्र धर्मी कभी न कहते। सायद यही कारण है कि-
किसान जो भारत के सभी समाजों के लिए अन्न का उत्पादन करता है और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ;वही किसान जो जीवन के कठिनतम संघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है तथा
दृढ़ता और धैर्य पूर्वक वीरता के गुणों से समन्वित होकर कृषि कार्य करता है। उसे कभी शूद्र तो कभी वैश्य वृत्ति से जोड़ा गया।
किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला सायद ही कोई दूसरा इस संसार में है।
परन्तु उसके बलिदान का कोई प्रतिमान और ना कोई मूल्य है। फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है , कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के फिर दोनों विरोधी समुदायों एक ही वर्ण में क्यों जोड़ा गया।
किसान और वणिक को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने किसान को शूद्र और वैश्य के हल न पकड़ने के विधान बना डाले और अन्ततः वणिक को शूद्र वर्ण में समायोजित कर दिया है।
ग्राम संस्कृति किसानों की देन है -:
व्याकरणिक दृष्टिकोण से ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है..—(ग्रस् मन् ) प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है । जिससे गृह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है ।
इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है ; गृह ही ग्रास है
ज्ञात हो आर्य और 'वीर' शब्द का विकास परस्पर समानता मूलक है। दोनों शब्दों की व्युपत्ति पर एक सम्यक् विश्लेषण -
कुसीदकृषिवाणिज्यं पाशुपाल्यं विशः स्मृतम् ॥शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा द्विजो यज्ञान्न हापयेत् ।96.28॥
(गरुड़ पुराण)
श्रीगरुड महापुराण पूर्वखण्ड प्रथमांशाख्य आचारकाण्ड याज्ञवल्क्योक्तश्राद्धनिरूपणं नाम षण्णवतितमोऽध्यायः ॥96॥
भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु विश्व इतिहास यह उद्घोषणा करता है। कि
कुशल चरावाहों के रूप में सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करने वाले आर्य ही कृषक थे ।
यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था जो अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए ये चरावाहे जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान) देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे। इनके ये पड़ाव स्थाई होते गये और उसी प्रक्रिया के तहत बाद में कालान्तर ग्राम संस्कृति का जन्म व विकास हुआ। ग्राम शब्द (आभीर-पल्लि या गाँव) शब्द का वाचक हो गया।
पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी ऐतिहासिक पुस्तक "अतीत की स्मृति" में प्रमाणों से समन्वित होकर आर्य शब्द का मूल अर्थ कृषक ही लिखते हैं।
"प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण( खेत जोतना- और बौना ही था।
अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। किसी किसी का मत है कि "आर्य" का अर्थ आरि धारण करने वाला है। ज्ञात हो कि आरि ( पशुओं को विशेषत: बैलों को नियन्त्रित करने वाले शस्त्र का नाम था-
अरि ( हल ) और आर ( पशुओं का नियन्त्रण करने वाला यन्त्र) धारण करने वाला ही आर्य था।
वर्ण-व्यवस्था के निर्माण काल में गोपालन और कृषि को निम्न मानते हुए वैश्य वर्ण में समायोजित किया और पशुपालन और कृषि न करने वाले व्यापारीयों को भी कृषि और पशु पालन वृत्ति में जोड़ दिया।
आर्य शब्द का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ वीर अथवा युद्ध के देवता अरि: से सम्बंधित होने के कारण दृढ़ता और धैर्य मूलक प्रवृत्ति होने के कारण श्रेष्ठ व्यक्ति के अर्थ में भी रूढ़ होकर कर्मवीर और धर्मवीर आदि का पर्याय हुआ।
दृढ़ता और धैर्य वीरों का और कृषकों का ही समान मौलिक गुण (प्रवृत्ति) है।
श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न विशेषत:—स्वामी, गुरू और सुहद् आदि को संबोधन करने में भी इस आर्य शब्द का व्यवहार नाट्यशास्त्र में होने लगा । छोटे लोग बड़े को सम्बोधित करते हुए आर्य का प्रयोग करते , —स्त्री पति को सम्बोधित करते हुए आर्य शब्द का प्रयोग करती, और छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु का आर्य या आर्यपुत्र कहकर संबोधित करते हैं ।
नाटकों में भी नटी भी सूत्रधार को आर्य या आर्यपुत्र कहती है।
ज्ञात हो- पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में नायक का वाचक हीरो (Hero) आर्य शब्द का ही रूपान्तरण है।
आपने हेरो (Harrow) शब्द भी सुना होगा और हल दोनों का श्रोत ऋ-अर्-हिंसागतियो: धातु प्रसिद्ध ही है।
इतना सबकुछ होने के बाद भी कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता ब्राह्मण की दृष्टि में निम्न ही बना रहा है। जबकि
हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं इस पर भी विचार कर लेना आवश्यक है।
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