सोमवार, 13 जनवरी 2025

श्रीकृष्ण साराङ्गिणी में गोपार्य हंस योगेश कुमार रोहि का जीवन परिचय-

मजबूरियाँ हालातों के सदीयो से साथ हैं।
जिन्दगी के सफर में हजारों फुटपाथ हैं।।

सम्हल रहे हैं जिन्दगी की दौड़ में गिर करके !
किस्मतों को तराशने वाले तो रोहि  हाथ हैं।

जिन्द़गी के सफर में कुछ कदमों के हमसफर   कोई पड़ाव है और ना ही कोई अपना घर‌

आत्मा का आनन्द और माता का प्रसाद।      योगेश रोहि तीनों अब तक साथ साथ हैं।

"यादव योगेश कुमार रोहि- ( जन्म -10 मार्च 1983 ईस्वी- जन्म-भूमि:- ग्राम दभारा-फरिहा-जिला फिरोजाबाद )

 परन्तु कर्मभूमि ननिहाल में रही - ननिहाल का ग्राम आजादपुर पत्राल़य- पहाड़ीपुर ज़िला अलीगढ़) है।

पिता श्री पुरुषोत्तम सिंह" एक प्राइमरी जूनियर अध्यापक रहे; जो इतिहास" साहित्य और  वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समन्वित थे।  

उन्हीं के  सभी शैक्षिक संस्कार बीज रूप में बचपन में ही योगेश रोहि को प्राप्त  हो गये थे ।  

और इसके अतिरिक्त माता राजेश्वरी देवी एक निर्भीक परन्तु धार्मिक स्वभाव की कारुणिकता से आप्लावित महिला थीं।  उनका साहस भी अतीव प्रभावी था जिनके आनुवंशिक संस्कार साहस" उत्साह और स्वाभिमानी जिजीविषा के रूप में योगेश जी को सहज प्राप्त हुए।

बचपन में जब एक बार भटकाव की हालातों में कहीं से  श्रीमद्भगवद्गीता गीताप्रेस की पुस्तक पढ़ने को अचानक प्राप्त हो गयी थी तब ऐसा लगा कि जीवन की सभी समस्याओं का निदान और असली ज्ञान मिल गया ।

श्रीमद्भगवद्गीता द्वारा सांख्ययोग और भक्तियोग की व्याख्या तथा मन, बुद्धि और आत्मा के स्वरूप की अर्थ समन्वित व्याख्या- यथार्थ के सन्निकट प्रतीत हुई। 

बस तभी से श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति जाग्रत हुई और कृष्ण की ऐतिहासिकता जानने की इच्छा ने यादव योगेश कुमार रोहि को सम्पूर्ण पौराणिक अध्ययन वेद उपनिषद व संस्कृत भाषा के व्याकरणिक ज्ञानार्जन  तथा व्रज की संस्कृति की प्राचीनता जानने के लिए प्रेरित किया।

प्राचीन भारतीय संस्कृति के अन्वेषक, अध्येता होने के साथ साथ भारतीय शास्त्रों में विशेषत: भारतीय दर्शन - वैशेषिक, सांख्य, तथा योग और वेदान्त के सैद्धान्तिक विवेचक के रूप में तथा भारतीय पुराणों का सम्यक् अनुशीलन कर्ता के रूप में रोहि जी ने  महाभारत" वाल्मीकि-रामायण के अतिरिक्त भारतीय आध्यात्मिकता के दिग्दर्शन उपनिषदों के अध्येता के रूप में जीवन का अधिकांश समय व्यतीत किया है।

 "गोपाचार्य हंस योगेश कुमार रोहि" ने दीर्घ काल तक अपने गृह क्षेत्र में ही रहकर भारतीय संस्कृति के अतिरिक्त विश्व की अन्य अन्य संस्कृतियों का सतत् अध्ययन कार्य किया है। 

समय-समय पर संगीत के साथ साथ कविता, गीत-लेखन" गायन और चित्रकारी पर भी अपनी मौलिक अभिव्यक्ति की है‌। जब बचपन में कबूतरवाजी का शौक पारिवैशिकता के अनुरूप व्यक्तित्व को संस्कार रूप में प्राप्त हुआ।

तब इस कारण से जंगल, वृक्षों तथा गाँव के समीपवर्ती काली नदी का प्राकृतिक परिदृश्य के गहन  दृष्टिगोचर करने का अवसर प्राप्त  हुआ तभी से जीवन में आध्यात्मिक विचारों का भी सहज प्रादुर्भाव हो गया। 

परम्परागत एकादिमिक शिक्षा ग्रहण करते हुए संस्कृत भाषा को जानने की इच्छा एक बार मन में उत्पन्‍न हुई उस समय रोही जी "माध्यमिक शिक्षा परिषद, उत्तर प्रदेश से  इण्टमीडिएट की पढ़ाई कर रहे थे ।

इसके बाद स्नातक तथा परास्नातक की पढ़ाई आगरा-विश्वविद्यालय से की परास्नातक के रूप में संस्कृत भाषा- से (Master of Arts) एम.ए की शिक्षा आगरा-विश्वविद्यालय से रेगूलरिटी ग्रहण की इसी समय ही पाणिनि व्याकरण सूत्र - अष्टाध्यायी "पातञ्जल- महाभाष्य तथा भाषाविज्ञान का गहन अनुशीलन करने का सु-अवसर भी  प्राप्त हुआ।   

सम्पूर्ण चारो वेदों का गहन अनुशीलन करने पश्चात यदु और तुर्वसु का वैदिक कालीन विवरण प्रस्तुत किया गया। 

इसी उपरान्त भारोपीय भाषा परिवार की अनेक भाषाओं जैसे ग्रीक, लैटिन, फ्रॉन्स, तथा जर्मन वर्ग की अंग्रेज़ी आदि भाषाओं की शब्द- व्युत्पत्ति पर एक सैद्धान्तिक दृष्टि प्राप्त हुई।

फारसी भाषा के प्राचीन रूप पहलवी (अवेस्ता ए जेन्द) और वैदिक भाषाओं के अनेक शब्दों की जीवन- कुण्डली लिखने का भी अवसर  प्राप्त हुआ। इस शब्दों की संख्या तीन हजार के लगभग थी

संस्कृत "हिन्दी और अंग्रेज़ी आदि वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठितइन तीनों भाषाओं का सरल व्याकरण अपने ब्लॉग पर लिखने का उत्साह भी भाषाविज्ञान के गहन अध्ययन के दौरान उत्पन्न हुआ था।

इनकी सबसे अधिक रुचि संस्कृत भाषा के विशद ज्ञान का अर्जन करने की ही थी क्योंकि भारतीय संस्कृति का प्राचीन रूप तो पुराणों में ही संरक्षित है जो संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध थे ।

पुराणों के वृहद् अध्ययन काल में आभीर जाति के बिखरे पड़े इतिहास को भी संकलित करने का मन में एक संकल्प उत्पन्न हुआ- क्योंकि भारत जैसे देश में जातीय अस्तित्व सदैव से सामाजिक और राजनैतिक पहलुओं को प्रभावित करता रहा है।

 इसी संकल्प के परिणाम स्वरूप "यदुवंशसंहिता" ग्रन्थ अपने विशाल कलेवर में प्राप्त हुआ। 

उत्कृष्ट समाजसेवी तथा "राधाकृष्ण के युगल स्वरूप के अनन्य उपासक  गोपाचार्य हंस "श्री माताप्रसाद" व आत्मानन्द ( यादव सम्मान चैनल प्रॉप्राइटर आत्मानन्द जी भी प्रेरणा श्रोत की भूमिका में रहे।


(कर्तव्यकर्मपरिभाषा- २).
कर्तव्यानि सर्वदा सकारात्मकानि भवन्ति।
किन्तु कर्माणि शुभाशुभानि अपि  सन्ति।

यदा  आत्मा  प्रकृत्या सह सम्पृक्ते तदा द्वाभ्याम् ताभ्याम् मनोजातः।  
अस्मिन्नेव मनसि अहङ्कारः चैतन्यं ग्राहकः भूत्वा  संसारे जीवस्य पृथक्त्वं स्थापितवान्।

अतः अहङ्कारः सक्रियो भूत्वा संकल्परूपेण परिणतः। असौ संकल्पात् च बहवः इच्छा: उत्पन्ना: एवं इच्छाणि अनेकानि कर्माणि जनयन्ति स्म।  
इच्छारहितां लोके कर्माणि कदापि न विद्यन्ते, कर्माणि च निश्चितरूपेण परिणामाणि (फलानि) ददति।
तेषां शुभाशुभकर्मणां फलान् भोगार्थं सृष्टिर्जायते पुनः पुनः। 

कर्तव्यानि तु कल्याणकारकाणि ये जीवस्य मोक्षाय भवन्ति। कार्यात् कर्तव्यं अधिकं श्रेयकरो भवति।

इच्छाभ्योऽपि आवश्यकताः अधिकाः श्रेयकरा: सन्ति।  मनुष्यस्य आवश्यकताः सीमिताः सन्ति, इच्छाः च असीमिताः सन्ति।  अतः मनुष्यः सर्वान् कामान् ईश्वरं समर्प्य निःस्वार्थं कार्यं कर्तव्यत्वेन रूपेण कुर्यात् ।  भक्ति एव दु:खानि निदानास्ति - इच्छा आवश्यकतयोश्च।
इच्छाः अनन्ताः भवेयुः परन्तु आवश्यकताः एव जीवने भोजनवस्त्राश्रयाणि च अत्यावश्यकानि साधनानि भवन्ति। 
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अनुवाद:-

कर्तव्य और  कर्म की परिभाषा-
कर्तव्य सदैव सकारात्मक होते हैं। परन्तु कर्म अच्छे और बुरे भी होते हैं।
आत्मा का जब प्रकृति के साथ मिलन हुआ तो चित्त का जन्म हुआ। इसी चित्त में चेतना का बोधक अहं उत्पन्न हुआ। जिसने संसार में अपनी पृथकता स्थापित की।
इसी से (अहं) सक्रिय  विक्षेपित हुआ तो यह संकल्प रूप में परिवर्तित हुआ।  और संकल्प से अनेक इच्छाओं का जन्म हुआ और इस प्रकार इच्छाओं ने अनेक कर्मों को जन्म दिया। विना इच्छाओं के संसार में कोई कर्म नहीं होता, और कर्म अपना फल अवश्य देते हैं। उन्हीं अच्छे-बुरे  कर्मों के फलों को भोगने के लिए ही जीव का संसार में पुन: - पुन जन्म होता है। 
परन्तु कर्तव्य केवल अच्छे ही होते हैं जो जीव के उद्धार के लिए होते हैं। कर्म की अपेक्षा कर्तव्य श्रेयकर है और इच्छाओं की अपेक्षा आवश्यकताऐं  श्रेयकर हैं।  मनुष्य की आवश्कताऐं सीमित हैं और इच्छाऐं असीमित हैं। अत: मनुष्य को सभी इच्छाऐं प्रभु को समर्पित कर निष्काम कर्म कर्तव्य रूप मे करना चाहिए।

२-इच्छा और आवश्यकता ।
इच्छाऐं अनन्त हो सकती हैं परन्तु आवश्यकताऐं  जीवन यापन के आवश्यक साधन रोटि कपड़ा और मकान हैं।


 

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