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[१]- हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य :-
हल्लीसं और 'रास' नृत्य को जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि हल्लीसं क्या है और इसका मतलब क्या है ? तभी हल्लीसं और 'रास' नृत्य को अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
हल्लीषम् शब्द की ब्युत्पत्ति को देखा जाए तो -
हल्लीषम् शब्द के मूल में निहित हल धातु का मूल अर्थ-
हलहल्लीषम् -विलेखे भ्वादिगणीय परस्मैपदीय सकर्म सेट् धातु से- हलति अहालीत् आदि क्रिया रूप में दृष्टिगोचर होता है-
हलः हालः- हल्यते कृष्यतेऽनेन इति हल्+ घञर्थे करणे (क)। लाङ्गल ( हल) अमरः कोश।
हल वह यन्त्र जिससे कृषि कार्य किया जाए और ईषा- हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठे (लाङ्गलदण्डे)वा हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड - हल और ईषा इन दोनों शब्दों से तद्धित शब्द बनता है- हल्लीषा- हल्लीषक।
अर्थात् कृषि कार्य हेतु वह यंत्र जिसके दो भाग- हल्लीषा यानी हरिष और हल्लीषक यानी हत्था होते हैं। जिसमें हरीश लकड़ी का एक लम्बा दंड होता है तथा उसी में लगा लकड़ी का एक हल्लीषक (हत्था) होता है जिसे हाथ से पकड़ कर किसान खेतों की जुताई करते हैं। इसके संयुक्त रूप को ही हल कहा जाता है।
इसकी खोज द्वापरयुग में बलराम जी द्वारा खेतों की जुताई और फसलों की मड़ाई के लिए मूशल तथा युद्ध के समय शस्त्र के लिए किया था। इस लिए उनका एक नाम हालधर हुआ जो आज हलधर चित्र और नाम दोनों ही किसानों का प्रतीक है।
बलराम जी द्वारा हल और मूशल की खोज किए जाने के बाद उस युग में कृषि क्षेत्र में क्रांति आई। सभी गोप किसान हल को खुशियों और क्रांति का देवता मानकर प्रमुख त्योहारों और उत्सवों पर हल और मूशल को भूमि पर रखकर उसके ईषा (दण्ड) के समानान्तर दृश्य में मण्डलाकार आकृति में नृत्य किया करते थे। तभी से इस विशेष नृत्य का नाम हल्लीषा हुआ।
हल्लीषा नृत्य की पुष्टि हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व /अध्याय- 89/ श्लोक- 68 से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
"जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम्।
हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः।६८।
अनुवाद:-
उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी। नरदेव ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्वारा हल्लीसक नृत्य का आयोजन किया।६८
उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि हल्लीसक अहीरों का सांस्कृतिक नृत्य है। जिसके जनक श्रीकृष्ण और संकर्षण हैं।
इसके अतिरिक्त गोप किसान शादी-विवाह के शुभ अवसरों पर हल, मूशल और ओखली को मण्डप में रखकर शुभ कार्य को सम्पन्न करते थे तथा विशेष आगंतुकों का स्वागत अन्न, दही और मूशल से परीछन कर करते थे। जो आज भी भारतीय संस्कृति में यह विधान देख जाता है जो गोपों की ही देन है।
हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य में कोई विशेष अंतर नहीं है। देखा जाए तो हल्लीसं शरीर है तो रास उसकी आत्मा है।
हल्लीसं आनन्द है तो रास परमानन्द है। अर्थात् जब गोप और गोपियां श्रीकृष्ण को केंद्र बिंदु मानकर हल्लीसं नृत्य करते-करते श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम विभोर होकर परम रस का आनन्द लेने लगते थे तब वहीं हल्लीसं नृत्य रास में बदल जाता था। कुल मिलाकर "हल्लीसं" रास का प्राथमिक स्तर है तथा उसका विस्तार "रास" है जहां पर केवल परमानन्द की अनुमति होती है। जिसमें गोप और गोपियां कृष्ण को केंद्र बिंदु मानकर उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति में वृत्ताकार नर्तन करती हुई परमानन्द की अनुभूति करतीं थीं।
गोपेश्वर श्रीकृष्ण इस तरह की रास अपने गोप-गोपियों के साथ गोलोक और भूलोक दोनों जगहों पर अक्सर किया करते हैं। किंतु दुर्भाग्य है कि रास के इस गूढ़ रहस्य को कम ही लोग जानते हैं और अज्ञानता वश इसकी गलत व्याख्या करते हैं।
ज्ञात हो - श्रीकृष्ण रास क्रीड़ा का आयोजन अधिकांशतः मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को या कार्तिकी पूर्णिमा की आधी रात के समय किया करते थे। इस लिए इन दोनों समयों में की जाने वाली रास लीला को ही मोक्षदायिनी माना गया है। इसकी पुष्टि -
श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक - ८५ से ८९ से होती है। जिसमें कार्तिक पूर्णिमा की रास लीला को मोक्षदायिनी बताया गया है -
कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥ ८५
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥ ८६
गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्दृढाम्॥ ८७
क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो ।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥ ८८
ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥ ८९
अनुवाद- ८५-८९
जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियोंको साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकारके पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है। तथा पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। तव वह भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्यागके अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्युसे सर्वथा रहित हो जाता है। ८५-८९।
अतः उपरोक्त संदर्भों से ज्ञात होता है कि हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य गोपों की संस्कृति रही है। जिसकी छाप आज भी आध्यात्म से लेकर साधारण जनमानस तक देखी जाती है।
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