इसी क्रम में इसके अगले भाग- (दो) में
बताया गया है कि भारतीय संस्कृति में गोपों का कितना योगदान रहा है।
वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक प्रशंसा एवं
सांस्कृतिक विरासत।
अध्याय -(७) भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
भाग-[२]
भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक प्रशंसा एवं
सांस्कृतिक विरासत।
अध्याय -(७) भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
भाग-[२]
भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
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हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य में कोई विशेष अन्तर नहीं है। देखा जाए तो हल्लीसं शरीर है तो रास उसकी आत्मा है।
हल्लीसं कला है तो रास प्रभु की लीला है। अर्थात् जब गोप और गोपियां श्रीकृष्ण को केंद्र बिंदु मानकर हल्लीसं नृत्य करते-करते श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम विभोर होकर परम रस का आनन्द लेने लगते थे तब वहीं हल्लीसं नृत्य रास रूप में बदल जाता था। कुल मिलाकर "हल्लीसं" रास का प्राथमिक स्तर है तथा उसका विस्तार "रास" है जहां पर केवल परमानन्द की अनुमति होती है।
हल्लीसं कला है तो रास प्रभु की लीला है। अर्थात् जब गोप और गोपियां श्रीकृष्ण को केंद्र बिंदु मानकर हल्लीसं नृत्य करते-करते श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम विभोर होकर परम रस का आनन्द लेने लगते थे तब वहीं हल्लीसं नृत्य रास रूप में बदल जाता था। कुल मिलाकर "हल्लीसं" रास का प्राथमिक स्तर है तथा उसका विस्तार "रास" है जहां पर केवल परमानन्द की अनुमति होती है।
जिसमें गोप और गोपियां कृष्ण को केंद्र बिंदु मानकर उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति में वृत्ताकार नर्तन करती हुई परमानन्द की अनुभूति करतीं थीं। इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः रास' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।
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गोपेश्वर श्रीकृष्ण इस तरह की रास लीला अपने गोप-गोपियों के साथ गोलोक और भूलोक दोनों स्थानों पर प्राय:( अक्सर) किया करते हैं। किंतु दुर्भाग्य है कि रास के इस गूढ़ रहस्य को लोग भौतिक दृष्टि से देखते हैं । जबकि इसे आध्यात्मिक दृष्टि से ही देखना चाहिए।
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गोपेश्वर श्रीकृष्ण इस तरह की रास लीला अपने गोप-गोपियों के साथ गोलोक और भूलोक दोनों स्थानों पर प्राय:( अक्सर) किया करते हैं। किंतु दुर्भाग्य है कि रास के इस गूढ़ रहस्य को लोग भौतिक दृष्टि से देखते हैं । जबकि इसे आध्यात्मिक दृष्टि से ही देखना चाहिए।
अत: शुद्ध अन्त:करण वाला साधक ही रास के तत्व को राधा जी की कृपा कटाक्ष से ही जान सकता है।
ज्ञात हो - श्रीकृष्ण रास क्रीड़ा का आयोजन अधिकांशतः मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को या कार्तिकी पूर्णिमा की आधी रात के समय को ही किया करते थे। इस लिए इन दोनों समयों में की जाने वाली रास लीला को ही मोक्षदायिनी माना
गया है। इसकी पुष्टि -
श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक - ८५ से ८९ से होती है। जिसमें कार्तिक पूर्णिमा की रास लीला को मोक्षदायिनी बताया गया है -
कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥ ८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥ ८६।
गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्दृढाम्॥८७।
क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो ।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥ ८८।
ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥ ८९।
अनुवाद- ८५-८९
जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियोंको साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकारके पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है। तथा पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। तव वह भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्यागके अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्युसे सर्वथा रहित हो जाता है। ८५-८९।
अतः उपरोक्त संदर्भों से ज्ञात होता है कि हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य गोपों की संस्कृति रही है। जिसकी छाप आज भी आध्यात्म से लेकर साधारण जनमानस तक देखी जाती है।
[२] - कृषि और किसान गोपों की संस्कृति कृषि-:
[५]- अभीर छन्द और राग भैरवी-:
जो भी राग और संगीत के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी रखता होगा वह अभीर छन्द और राग भैरवी को अवश्य जानता होगा। किंतु उसे यह पता नहीं होगा कि इसकी उत्पत्ति कब और कैसे हुई? इसी प्रश्न का समाधान यहां किया गया है।
इस सम्बन्ध में ज्ञात हो कि - अहीर भारत में एक प्राचीन जातीय समूह है जो मुख्य रूप से पशुपालक एवं कृषक हैं।
यह लोग जब भी अपने पशुओं को चराने के लिए समूह में जाते थे तब वे एक निश्चित राग और छ्न्द में गाया करते थे।
चुंकि ये अभीर जाति के थे इस लिए इनकी गायन विधा से जो राग निकला उन्हीं के नामानुसार उस राग का नाम "अहीर" हुआ। जिसकी आज भी संगीत की दुनिया में एक अलग पहचान है।
राग अहीर भैरव दो रागों का मिश्रण है, अहीर और भैरव । अहीर और अहीर भैरव के स्वर एक जैसे हैं, लेकिन उनकी मधुर संरचना में अंतर है।
आभीर एक मात्रिक छन्द का नाम भी है जिसके चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में (११) मात्राएँ होती है और अंत में जगण होता है । जैसे— यमाताराजभानसलगा-
ये छंदों के वार्णिक छंद का अनुक्रम है।
किसी भी वर्णिक छन्द में वर्णों का समूह गण कहलाता है। ये प्रायः तीन वर्णों से मिलकर एक गण का निर्माण करते हैं । इन गणों के नाम इस प्रकार से हैं:-
यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण ।
इनकी मात्राओं के लिए लघु को ‘I ’ और गुरु को ‘s’ कहते हैं ।इस लघु-गुरु का के ही क्रम को याद रखने का एक विशिष्ट सूत्र स्थापित किया गया है जोकि ये है:- यमाताराजभानसलगा
इसमें किसी शब्द में जिस गण की जानकारी पता करनी हो तो उसके वर्ण के बाद इसी सूत्र से अगले दो वर्ण उनकी मात्रा समेत उसके बाद और जोड कर लिखें तो शब्द में कौन सा वार्णिक गण है ये ज्ञात हो जाएगा।
जैसे: एक शब्द "ममता" लिया। तो सूत्र के अनुसार देखे सभी गण को-
यगण – अर्थात- यमाता = ।ऽऽ
मगण – मातारा = ऽऽऽ
तगण – ताराज = ऽऽ।
रगण – राजभा = ऽ।ऽ
जगण – जभान = ।ऽ।
भगण – भानस = ऽ॥
नगण – नसल = ।॥
सगण – सलगा = ॥ऽ
ममता शब्द में वार्णिक छंद का गण "सगण" आता है क्योंकि इस ममता शब्द में प्रथम दो वर्ण लघु और अंतिम वर्ण गुरु है।
यहि बिधि श्री रघुनाथ । गहे भरत के हाथ । पूजत लोग अपार । गए राज दरबार।
इस प्रकार से यह अध्याय- ७ वैष्णव वर्ण के गोपकुल के गोप और गोपियों की पुराणों में की गई भूरी-भूरी प्रसंशाओं और उनकी आध्यात्मिक महत्ता एवं भारतीय संस्कृति में इनके प्रमुख योगदानों को जाना।
इसी क्रम में इसके अगले अध्याय- ८ में भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरित होने के प्रमुख कारणों को जानेंगे।
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