(कर्तव्यकर्मपरिभाषा- २).
कर्तव्यानि सर्वदा सकारात्मकानि भवन्ति।
किन्तु कर्माणि शुभाशुभानि अपि सन्ति।
यदा आत्मा प्रकृत्या सह सम्पृक्ते तदा द्वाभ्याम् ताभ्याम् मनोजातः।
अस्मिन्नेव मनसि अहङ्कारः चैतन्यं ग्राहकः भूत्वा संसारे जीवस्य पृथक्त्वं स्थापितवान्।
अतः अहङ्कारः सक्रियो भूत्वा संकल्परूपेण परिणतः। असौ संकल्पात् च बहवः इच्छा: उत्पन्ना: एवं इच्छाणि अनेकानि कर्माणि जनयन्ति स्म।
इच्छारहितां लोके कर्माणि कदापि न विद्यन्ते, कर्माणि च निश्चितरूपेण परिणामाणि (फलानि) ददति।
तेषां शुभाशुभकर्मणां फलान् भोगार्थं सृष्टिर्जायते पुनः पुनः।
कर्तव्यानि तु कल्याणकारकाणि ये जीवस्य मोक्षाय भवन्ति। कार्यात् कर्तव्यं अधिकं श्रेयकरो भवति।
इच्छाभ्योऽपि आवश्यकताः अधिकाः श्रेयकरा: सन्ति। मनुष्यस्य आवश्यकताः सीमिताः सन्ति, इच्छाः च असीमिताः सन्ति। अतः मनुष्यः सर्वान् कामान् ईश्वरं समर्प्य निःस्वार्थं कार्यं कर्तव्यत्वेन रूपेण कुर्यात् । भक्ति एव दु:खानि निदानास्ति - इच्छा आवश्यकतयोश्च।
इच्छाः अनन्ताः भवेयुः परन्तु आवश्यकताः एव जीवने भोजनवस्त्राश्रयाणि च अत्यावश्यकानि साधनानि भवन्ति।
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अनुवाद:-
कर्तव्य और कर्म की परिभाषा-
कर्तव्य सदैव सकारात्मक होते हैं। परन्तु कर्म अच्छे और बुरे भी होते हैं।
आत्मा का जब प्रकृति के साथ मिलन हुआ तो चित्त का जन्म हुआ। इसी चित्त में चेतना का बोधक अहं उत्पन्न हुआ। जिसने संसार में अपनी पृथकता स्थापित की।
इसी से (अहं) सक्रिय विक्षेपित हुआ तो यह संकल्प रूप में परिवर्तित हुआ। और संकल्प से अनेक इच्छाओं का जन्म हुआ और इस प्रकार इच्छाओं ने अनेक कर्मों को जन्म दिया। विना इच्छाओं के संसार में कोई कर्म नहीं होता, और कर्म अपना फल अवश्य देते हैं। उन्हीं अच्छे-बुरे कर्मों के फलों को भोगने के लिए ही जीव का संसार में पुन: - पुन जन्म होता है।
परन्तु कर्तव्य केवल अच्छे ही होते हैं जो जीव के उद्धार के लिए होते हैं। कर्म की अपेक्षा कर्तव्य श्रेयकर है और इच्छाओं की अपेक्षा आवश्यकताऐं श्रेयकर हैं। मनुष्य की आवश्कताऐं सीमित हैं और इच्छाऐं असीमित हैं। अत: मनुष्य को सभी इच्छाऐं प्रभु को समर्पित कर निष्काम कर्म कर्तव्य रूप मे करना चाहिए।
२-इच्छा और आवश्यकता ।
इच्छाऐं अनन्त हो सकती हैं परन्तु आवश्यकताऐं जीवन यापन के आवश्यक साधन रोटि कपड़ा और मकान हैं।
३-स्वभाव और प्रवृति जैसे अनुभव और अनुभूति-
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