सोमवार, 19 फ़रवरी 2024

ट-वर्ग की उत्पत्ति - मितज्ञु पणि और अशुर जातियों का विवरण- वर्ण सन्धि, वाक्य और भाषा के तत्वों की विवेचना।




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Etymology- Origin of 'T' class characters-
'T' letter is derived From the Etruscan letter 𐌕 (t, “te”),it is too from the Ancient Greek letter Τ (T, “tau”),
 it is too derived from the Phoenician letter 𐤕‎ (t, “taw”), and it is too from the Egyptian hieroglyph 𓏴.
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"वस्तुत: टवर्ग शीत जलवायु के प्रभाव का ही तवर्गीय का रूपान्तरण है । और तवर्ग वैदिक कालिक कवर्ग का रूपान्तरण है "
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S(ta)mbha,''' ‘pillar,’ is found in the [[काठक|Kāṭhaka]] Saṃhitā, and often in the Sūtras. Earlier S(ka)mbha

"। तस्य रथस्योपरि (“स्कम्भासः स्तम्भविशेषाः) “मधुवाहने। मधु वाह्यतेऽनेनेति मधुवाहनः। करणे ल्युट्। विदुः । वेत्तेर्लटि ‘विदो लटो वा' इति झेः उसादेशः। स्कम्भासः। ‘ष्टभि स्कभि गतिप्रतिबन्धे'। 

(फोनिशियन लिपि और भाषा) - (वर्णमाला की उत्पत्ति)

(चीनी में: Chinese字母表 字母表(लियू यू द्वारा अनुवादित)

भारोपीय भाषाओं की मूल वर्णमाला को मिस्र में या उसके आसपास रहने वाले एक सेमिटिक लोगों ने विकसित किया था।




परिवारों को वर्गों में विभक्त किया गया है। 
भारोपीय भाषा- परिवार में (शतम् )और( केन्टुम) ऐसे ही सजातीय वर्ग हैं। 
वर्गों का विभाजन शाखाओं में हुआ है। जैसे शतम् वर्ग की ‘ईरानी’ और ‘भारतीय आर्य’ भाषाओं की प्रमुख शाखाएँ हैं। 
शाखाओं को उपशाखा में भी बाँटा गया है। भाषा वैज्ञानिक "गिरयर्सन" ने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को आन्तरिक (भीतरी) और बाह्य (बाहरी )उपशाखा में विभक्त किया है। 
अतः ये उपशाखाऐं भाषा-समुदायों और समुदाय भाषाओं में बँटते हैं। 
इस तरह भाषा पारिवारिक-वर्गीकरण की इकाई है। इस समय भारोपीय परिवार की भाषाओं का अध्ययन इतना हो चुका है कि यह पूर्ण प्रक्रिया उस पर लागू हो जाती है। 
इन नामों में थोड़ी हेर-फेर हो सकता है, किन्तु इस प्रक्रिया की अवस्थाओं में प्रायः कोई अन्तर नहीं होता।
"वर्गीकरण-
उन्नीसवीं शती में ही विद्वानों का ध्यान संसार की भाषाओं के वर्गीकरण की और आकर्षित हुआ और आज तक समय-समय पर अनेक विद्वानों ने अपने अलग-अलग वर्गीकरण प्रस्तुत किये हैं; किन्तु अभी तक कोई वैज्ञानिक और प्रामाणिक वर्गीकरण प्रस्तुत नहीं हो सका है। 
इस समस्या को लेकर भाषाविदों में बड़ा मतभेद है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर "फेडरिख मूलर " इन परिवारों की संख्या(100 ) तक मानते हैं वहाँ दूसरी ओर "राइस महोदय विश्व की समस्त भाषाओं को केवल एक ही परिवार में रखते हैं।
किन्तु अधिकांश विद्वान् इनकी संख्या बारह या तेरह मानते हैं।

"मुख्य भाषा-परिवार-
दुनिया भर में बोली जाने वाली क़रीब सात हज़ार भाषाओं को कम से कम दस परिवारों में विभाजित किया जाता है जिनमें से प्रमुख परिवारों का वर्णन नीचे है :
विश्व के प्रमुख भाषा-परिवार
भारत-यूरोपीय भाषा-परिवार (भारोपीय भाषा परिवार)
(Indo-European Languages family)
 हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार-
यह समूह भाषाओं का सबसे बड़ा परिवार है और सबसे महत्वपूर्ण भी है क्योंकि 
वैदिक-ग्रीक-लैटिन- संस्कृतअंग्रेज़ी,रूसीप्राचीन फारसीहिन्दीपंजाबीजर्मननेपाली - ये अनेक भाषाएँ इसी समूह से संबंध  हैं। इसे 'भारोपीय भाषा-परिवार' भी कहते हैं। विश्व जनसंख्या के लगभग आधे लोग (४५%) भारोपीय भाषा बोलते हैं।
"संस्कृत,  ग्रीक और लैटिन  जैसी शास्त्रीय भाषाओं का संबंध भी इसी समूह से है।  
लेकिन अरबी एक बिल्कुल विभिन्न परिवार से संबंध रखती है। जो सेमेटिक है  इस परिवार की प्राचीन भाषाएँ बहिर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक (end-inflecting) थीं। 
भारोपीय इसी समूह को पहले आर्य-परिवार भी कहा जाता था। परन्तु आर्य्य शब्द सैमेटिक भाषाओं में एल अथवा  अलि के पूूूूूर्व रूप वैदिक अरि  से विकसित है।
 चीनी-तिब्बती भाषा-परिवार-
(The Sino - Tibetan  Languages Family)
विश्व में जनसंख्या के अनुसार सबसे बड़ी भाषा मन्दारिन (उत्तरी चीनी भाषा) इसी परिवार से संबंध रखती है।  चीन और तिब्बत में बोली जाने वाली कई भाषाओं के अलावा बर्मी भाषा भी इसी परिवार की है। इनकी स्वरलहरीयाँ एक ही अनुनासिक्य है। 
एक ही शब्द अगर ऊँचे या नीचे स्वर में बोला जाय तो शब्द का अर्थ बदल जाता है।
इस भाषा परिवार को'नाग भाषा परिवार'या 
ड्रैगन नाम दिया गया है।और इसे'एकाक्षर परिवार'भी 
कहते हैं।
कारण कि इसके मूल शब्द प्राय: एकाक्षर भी होते हैं।
ये भाषाएँ 
कश्मीर
, 
हिमाचल प्रदेश
, 
उत्तरांचल
, 
नेपाल
,
सिक्किम
, 
पश्चिम बंगाल
, 
भूटान
, 
अरूणाचल प्रदेश
, 
आसाम
, 
नागालैंड
, 
मेघालय
, 
मणिपुर
, 
त्रिपुरा
 और 
मिजोरम
 

सामी-हामी भाषा-परिवार या अफ़्रीकी-एशियाई भाषा-परिवार-
(The Afro - Asiatic family or Semito-Hamitic family)
इसकी प्रमुख भाषाओं में आरामीअसूरीसुमेरीअक्कादी और कनानी वग़ैरह शामिल थीं लेकिन आजकल इस समूह की प्रसिद्धतम् भाषाएँ अरबी और इब्रानी ही हैं। 
मध्य अफ्रीका में रहने वाले अगर लोग सैमेटिक और भारतीय अजरबैजान की आभीर  तथा अवर जन जा य इ से भी सम्बद्ध थे । अफ्रीका नामकरण अगर शब्द से हुआ
 इनकी भाषाओं में मुख्यतः तीन धातु-अक्षर होते हैं और बीच में स्वर घुसाकर इनसे क्रिया और संज्ञाएँ बनायी जाती हैं (अन्तर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक भाषाएँ)।
इन भाषाओं तथा लिपियों के जनक फौनिशियन लोग थे।
"द्रविड़ भाषा-परिवार-
(The Dravidian languages Family)
भाषाओं का द्रविड़ी परिवार इस लिहाज़ से बड़ा दिलचस्प है कि हालाँकि ये भाषाएँ भारत के दक्षिणी प्रदेशों में बोली जाती हैं लेकिन उनका उत्तरी क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं से कोई संबंध नहीं है (संस्कृत से ऋण उधार शब्द लेने के अलावा)।
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परन्तु सत्य पूछा जाय तो ये द्रविड प्राचीन फ्रांस के द्रयूड (Druid) ही थे और इनकी भाषाओं में बहुत से पारिवारिक शब्द आज भी मिलते है । इस पर शोध अपेक्षित है । magan=son शब्द द्रविड ( तमिल ) और ड्रूयड(Druid) केल्टिक में समान है ।
भारत में यह भाषा परिवार नर्मदा और गोदावरी नदियों से कन्याकुमारी अन्तरीप तक फैला है । इसके अतिरिक्त श्रीलंका बलोचिस्तान विहार प्रदेश में भी इन भाषाओं को बोलने वाले मिल जाते हैं । यह परिवार तमिल भी कहलाता है वाक्य तथा स्वर के कारण यह परिवार यूराल-अल्टाई परिवार के निकट पहुँच जाता है । इस परिवार की भाषाएँ तुर्की आदि की भाँति अश्लिष्ट अन्त:योगात्मक हैं-२-मूल शब्द या धातु में  प्रत्यय जुड़ते हैं ।
३-प्रत्यय की स्पष्ट सत्ता रहती है । ४-प्रत्ययों के कारण प्रकृति में कोई विकार नहीं होता।५-निर्जीव शब्द नपुँसक लिंग को माने जाते हैं । वचन दो ही होते हैं । इन भाषाओं में कर्म वाच्य नहीं होता है । 
मूर्धन्य ध्वनियों की प्रधानता है । गणना दश पर आधारित है ।

इस परिवार में मुख्य चौदह भाषाएँ समायोजित हैं जिनका चार विभागों में विभाजन है १-द्रविडपरिवार २-आन्ध्रपरिवार ३-मध्यवर्तीवर्ग ४-ब्राहुईवर्ग द्रविड़ परिवार की भाषाएँ-कन्नड़-तमिल-तुलु-कोडगु-टुडा-मलयालम-तेलुगु-गोंड-कोंड-कुई-कोलामी-कुरुख-माल्टो-।
 का अभाव होता है । तमिऴ द्राविड़ भाषा परिवार की प्राचीनतम भाषा मानी जाती है। इसकी उत्पत्ति के सम्बंध में अभी तक यह निर्णय नहीं हो सका है कि किस समय इस भाषा का प्रारम्भ हुआ। 
विश्व के विद्वानों ने संस्कृतग्रीकलैटिन आदि भाषाओं के समान तमिऴ को भी अति प्राचीन तथा सम्पन्न भाषा माना है। अन्य भाषाओं की अपेक्षा तमिऴ भाषा की विशेषता यह है कि यह अति प्राचीन भाषा होकर भी लगभग २५०० वर्षों से अविरत रूप से आज तक जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यवहृत है। 
तमिऴ भाषा में उपलब्ध ग्रंथों के आधार पर यह निर्विवाद निर्णय हो चुका है कि तमिऴ भाषा ईसा से कई सौ वर्ष पहले ही सुसंस्कृत और सुव्यवस्थित हो गई थी।
मुख्य रूप से यह भारत के दक्षिणी राज्य तमिऴ नाडुश्री लंका के तमिल बहुल उत्तरी भागों, सिंगापुर और मलेशिया के भारतीय मूल के तमिऴों द्वारा बोली जाती है। भारत, श्रीलंका और सिंगापुर में इसकी स्थिति एक आधिकारिक भाषा के रूप में है। इसके अतिरिक्त यह मलेशिया, मॉरिशसवियतनामरियूनियन इत्यादि में भी पर्याप्त संख्या में बोली जाती है। लगभग ७ करोड़ लोग तमिऴ भाषा का प्रयोग मातृ-भाषा के रूप में करते हैं। यह भारत के तमिऴ नाड़ु राज्य की प्रशासनिक भाषा है और यह पहली ऐसी भाषा है जिसे २००४ में भारत सरकार द्वारा शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया।
तमिऴ द्रविड़ भाषा परिवार और भारत की सबसे प्राचीन भाषाओं में गिनी जाती है। 
इस भाषा का इतिहास कम से कम ३००० वर्ष पुराना माना जाता है।

प्राचीन तमिऴ से लेकर आधुनिक तमिऴ में उत्कृष्ट साहित्य की रचना हुयी है। तमिऴ साहित्य कम से कम पिछ्ले दो हज़ार वर्षों से अस्तित्व में है। जो सबसे आरंभिक शिलालेख पाए गए है वे तीसरी शताब्दी ईसापूर्व के आसपास के हैं। तमिऴ साहित्य का आरंभिक काल, संघम साहित्य, ३०० ई॰पू॰ – ३०० ईस्वीं का है।
इस भाषा के नाम को "तमिल" या "तामिल" के रूप में हिन्दी भाषा-भाषी उच्चारण करते हैं। तमिऴ भाषा के साहित्य तथा निघण्टु में तमिऴ शब्द का प्रयोग 'मधुर' अर्थ में हुआ है। कुछ विद्वानों ने संस्कृत भाषा के द्राविड़ शब्द से तमिऴ शब्द की उत्पत्ति मानकर द्राविड़ > द्रविड़ > द्रमिड > द्रमिल > तमिऴ आदि रूप दिखाकर तमिऴ की उत्पत्ति सिद्ध की है, किन्तु तमिऴ के अधिकांश विद्वान इस विचार से सर्वथा असहमत हैं।

"गठन-
तमिऴ, हिंदी तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के विपरीत लिंग-विभेद प्रमुख नहीं होता है।
देवनागरी वर्णमाला के कई अक्षरों के लिये तमिल में एक ही वर्ण का प्रयोग होता है, यथा –
देवनागरी-तमिलक, ख, ग, घ-கच, छ, ज, झ-சट, ठ, ड, ढ-டत, थ, द, ध-தप, फ, ब, भ-ப
तमिऴ भाषा में कुछ और वर्ण होते हैं जिनका प्रयोग सामान्य हिंदी में नहीं होता है। 
उदाहरणार्थ: ள-ळ, ழ-ऴ, ற-ऱ, ன-ऩ।
"लेखन प्रणाली-

तमिऴ भाषा वट्ट एऴुत्तु लिपि में लिखी जाती है। अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में इसमें स्पष्टतः कम अक्षर हैं। 
देवनागरी लिपि की तुलना में (यह तुलना अधिकांश भारतीय भाषाओं पर लागू होती है) इसमें हृस्व ए (ऎ) तथा हृस्व ओ (ऒ) भी हैं।
प्रत्येक वर्ग (कवर्ग, चवर्ग आदि) का केवल पहला और अंतिम अक्षर उपस्थित है,।
बीच के अक्षर नहीं हैं  जबकि(अन्य द्रविड भाषाओं तेलुगु, कन्नड, मलयालम में ये अक्षर उपस्थित हैं)। 

"र" और "ल"  वर्ण के अधिक तीव्र रूप भी हैं। वहीं "न" वर्ण का कोमलतर रूप भी है।
 श, ष, एक ही अक्षर द्वारा निरूपित हैं। तमिऴ भाषा की एक विशिष्ट (प्रतिनिधि) 


ध्वनि ழ (देवनागरी समकक्ष – ऴ, नया जोडा गया) है, जो स्वयं तमिऴ शब्द में प्रयुक्त है (தமிழ் ध्वनिशः – तमिऴ्)।
तमिऴ में वर्गों के बीच के अक्षरों की ध्वनियाँ भी प्रथम अक्षर से निरूपित की जाती हैं, परंतु यह प्रतिचित्रण (mapping) कुछ नियमों के अधीन है।
'तमिऴ-हिन्दी-

संख्याएँ-
ऒऩ्ऱु = एकइरंडू = दोमूऩ्ऱु = तीननाऩ्गु = चारऐन्दु = पाँचआऱु = छेएऴु = सात(ऎट्टु = आठ)ऒऩ्पदु = नौपत्तु = दस

इसलिए  मित्रों ! उर्दू या हिंदी का अंग्रेज़ी या जर्मन भाषा से तो कोई रिश्ता निकल सकता है लेकिन मलयालम भाषा से नहीं।  प्राचीन फ्राँस की गॉल भाषाओंं से है परन्तु  जर्मनी भाषाओं से साम्य नहीं है । जैसे केल्टिक  जर्मन से भिन्न है । केल्टिक जनजातियां कालान्तर में लैटिन वर्ग की भाषा फ्राँसिसी बोलने लगीं -
दक्षिणी भारत और श्रीलंका में द्रविड़ी समूह की कोई 26 भाषाएँ बोली जाती हैं लेकिन उनमें ज़्यादा मशहूर तमिलतेलुगुमलयालम और कन्नड़ हैं। ये अन्त-अश्लिष्ट-योगात्मक भाषाएँ हैं।
"यूराल-अल्टाई परिवार  "
यूराल-अतलाई कुल - यह परिवार यूराल और अल्टाई पर्वतों के निकट है ।
प्रमुख भाषाओं के आधार पर इसके अन्य नाम – ‘तूरानी’, ‘सीदियन’, ‘फोनी-तातारिक’ और ‘तुर्क-मंगोल-मंचू’ कुल आदि  भी हैं।  फिनो-तातारिक स्कीथियन और तू रानी  नाम भी हुए परन्तु तुर्की से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है । भारोपीय परिवार के वाद ये दूसरे नम्बर पर है ये भाषाएँ तुर्की , हंगरी और फिनलेण्डसे लेकर औरबोत्सक सागर तक और भूमध्य सागर से उत्तरी सागर तक फैली हुईं है । यह भाषा  परिवार भाषा कि पारस्परिक समानता के कारण दो वर्गों में विभाजित है ।
एक यूराल परिवार और दूसरा अल्टाई परिवार-
यूराल नामक उपपरिवार में फिनी-उग्री- समोयेदी तथा अल्टाई परिवार में तुर्की, मंगोली और तुगूजी नामक भाषा समूहों की गणना की जाती है । इन दोनों ही उपपरिवारों में धातु-ध्वनि और शब्द-समूहों की दृष्टि से अल्प भेद होने पर भी पर्याप्त साम्य मिलता है ।
१-इस परिवार की भाषाएँ पर-प्रत्यय प्रधान अश्लिष्ट अन्त योगात्मक हैं २-दौनों परिवारों की भाषा में स्वर अनुरूपता मिलती है३-शब्दों में सम्बन्ध वाचक प्रत्यय संयुक्त किया जाता है ।-४-इस परिवार समस्त धातुओं अव्यय के समान हैं । इस परिवार में फिनिश भाषा प्राचीनतम साहित्य सम्पन्न है । तुर्की की लिपि अब अरबी के स्थान पर रोमन है ।
 इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है, किन्तु मुख्यतः साइबेरिया, मंचूरिया और मंगोलिया में हैं। प्रमुख भाषाएँ–तुर्की या तातारी, किरगिज, मंगोली और मंचू है,।
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जिनमे सर्व प्रमुख तुर्की है। साहित्यिक भाषा उस्मानी है। तुर्की पर अरबी और फारसी का बहुत अधिक प्रभाव था किन्तु आजकल इसका शब्दसमूह बहुत कुछ अपना है। 
ध्वनि और शब्दावली की दृष्टि से इस कुल की यूराल और अल्ताई भाषाएँ एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। इसलिए कुछ विद्वान् इन्हें दो पृथक् कुलों में रखने के पक्ष में भी हैं, किन्तु व्याकरणिक साम्य पर निस्सन्देह वे एक ही कुल की भाषाएँ ठहरती हैं। 
प्रत्ययों के योग से शब्द-निर्माण का नियम, धातुओं की अपरिवर्तनीयता, धातु और प्रत्ययों की स्वरानुरूपता आदि एक कुल की भाषाओं की मुख्य विशेषताऐं होती हैं।
 स्वरानुरूपता से अभिप्राय यह है कि(मक प्रत्यय) यज्धातु में लगने पर यज्मक् किन्तु साधारणतया विशाल आकार और अधिक शक्ति की वस्तुओं के बोधक शब्द पुंल्लिंग तथा दुर्बल एंव लघु आकार की वस्तुओं के सूचक शब्द स्त्रीलिंग होते हैं।
 (लिखना) में यज् के अनुरूप रहेगा, किन्तु सेव् में लगने पर, सेवमेक (तुर्की), (प्यार करना) में सेव् के अनुरूप मेक हो जायगा। ।
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"भारत और यूरोप के भाषा-परिवार-
यह यूरेशिया (यूरोप-एशिया)का ही नहीं अपितु विश्व का महत्वपूर्ण ' साहित्यव लिपि सम्पन्न प्राचीनतम परिवार है ।
 इस परिवार की भाषाएँ - भारत-ईरान-आर्मीनिया तथा सम्पूर्ण यूरोप अमेरिका-दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका आधुनिक ऑस्ट्रेलिया आदि में बोली जाती हैं  इसके भाषा-भाषी सर्वाधिक हैं ।
 प्रारम्भिक काल में भारतीय संस्कृत और जर्मन भाषाओं की शाब्दिक और व्याकरण या समानता के कारण इण्डो-जर्मनिक रखा गया  परन्तु इस परिवार में केल्टिक परि परिवार की भाषाएँ भी थी जो  जो जर्मनी वर्ग की भाषाओं से सम्बन्धित नहीं हैं ‌।
 फिर इण्डो-जर्मनिक उचित इन होने से फिर इसका नाम इण्डो-कैल्टिक रखा गया  ।
भारोपीय भाषा परिवार के  अनेक नाम रखे गये जैसे नूह के पुत्र जैफ( याफ्त-अथवा याफ्स) के नाम पर जैफाइट - काकेशस पर्वत के आधार पर काकेशियन, आर्य, और अन्त: में इण्डो-यूरोपियन नाम प्रसिद्ध रहा ।

भारोपीय परिवार की भाषाओं को ‘सप्तम्’ और ‘केंतुम्’ दो वर्गों में रक्खा गया है।  इसके अतिरिक्त इसी के उप परिवार हैं भारोपीय की अन्य शाखाएँ भी हैं
१-कैल्टिक शाखा- २-जर्मन शाखा- ३-इटालिक (लैटिन) शाखा ४-ग्रीक शाखा ५-तोखारी( तुषार जनजाति से सम्बन्धित) ६-अल्बेनियन. ७-लैटो-स्लाविक शाखा८-आर्मेनियन शाखा ९-इण्डो-ईरानी शाखा ।
★-केण्टुम् वर्ग और शतम् वर्ग-★
केंतुम् वर्ग–Centum-
1. केल्टिक - आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व इस शाखा के बोलने वाले मध्य यूरोप, उत्तरी इटली, फ्रांस अब आयरलैण्ड, वेल्स, स्काटलैंड, मानद्वीप और ब्रिटेनी तथा कार्नवाल के ही कुछ भागों में इसका क्षेत्र शेष रह गया है

2. जर्मनिक - यूरोप की दो प्रमुख भाषाएँ अंग्रेज़ी और जर्मनी इसी वर्ग की भाषाएँ हैं। इस शाखा की उत्तरी उपशाखा में स्वीडन, डेनमार्क और नार्वे की भाषाएँ (स्वीडिश, डेनिश और नार्वीजियन) आती हैं। अंग्रेज़ी पश्चिमी उपशाखा की ही भाषा थी, जिसका व्यवहार आंग्ल और सैक्सन नामक जातियाँ करती थीं। इन्होंने इंग्लैंड पर आक्रमण कर उसपर आधिपत्य किया। इसी कारण पुरानी अंग्रेज़ी को एंग्लो-सैक्सन भी कहा जाता था। डच, जर्मन इस शाखा की अन्य प्रमुख भाषाएँ हैं। पूर्वी उपशाखा में पुरानी भाषा गाथिक का नाम उल्लेखनीय है, जिसमें पाँचवीं शताब्दी के लेख मिलते हैं।
यह उपशाखा लुप्तप्राय हैं।
3. लैटिन - इसका नाम इटाली भी है। इसको सबसे पुरानी भाषा लैटिन है, जो आज रोमन कैथलिक सम्प्रदाय की धार्मिक भाषा है। आरम्भ में लैटिन शाखा का प्रधान क्षेत्र इटली में था। 

4. ग्रीक - इस शाखा में कुछ भौगोलिक कारणों से बहुत पहले से छोटे-छोटे राज्य और उनकी बहुत-सी बोलियाँ हो गई हैं। इसके प्राचीन उदाहरण महाकवि होमर के इलियड और ओडिसी महाकाव्यों में मिलते हैं। इनका समय एक हज़ार ई. पू. माना जाता है। ये दोनों महाकाव्य अधिक दिन तक मौखिक रूप में रहने के कारण अपने मूल रूप में आज नहीं मिलते, फिर भी उनसे ग्रीक के पुराने रूप का कुछ पता तो चल ही जाता है। ग्रीक भाषा बहुत-सी बातें में वैदिक संस्कृत से मिलती-जुलती है। 

जब ग्रीस उन्नति पर था होमरिक ग्रीक का विकसित रूप ही साहित्य में प्रयुक्त हुआ। उसकी बोलियाँ भी उसी समय अलग-अलग हो गई।
4. ग्रीक - इस शाखा में कुछ भौगोलिक कारणों से बहुत पहले से छोटे-छोटे राज्य और उनकी बहुत-सी बोलियाँ हो गई हैं। इसके प्राचीन उदाहरण महाकवि 'होमर के 'इलियड' और 'ओडिसी' महाकाव्यों में मिलते हैं। इनका समय एक हज़ार ई. पू. माना जाता है। ये दोनों महाकाव्य अधिक दिन तक मौखिक रूप में रहने के कारण अपने मूल रूप में आज नहीं मिलते, फिर भी उनसे ग्रीक के पुराने रूप का कुछ पता तो चल ही जाता है। ग्रीक भाषा बहुत-सी बातें में वैदिक संस्कृत से मिलती-जुलती है। जब ग्रीक उन्नति पर था होमरिक ग्रीक का विकसित रूप ही साहित्य में प्रयुक्त हुआ। उसकी बोलियाँ भी उसी समय अलग-अलग हो गई।एट्टिक बोली का लगभग चार सौ ई. पू. में बोलबाला था, अत: यही भाषा यहाँ की राज्य भाषा हुई। आगे चलकर इसका नाम ‘कोइने’ हुआ और यह शुद्ध एट्टिक से धीरे-धीरे कुछ दूर पड़ गई और एशिया माइनर तक इसका प्रचार हुआ। उधर मिस्र आदि में भी यह जा पहुंची और स्वभावत: सभी जगह की स्थानीय विशेषताएँ इसमें विकसित होने लगीं।
सतम् वर्ग-Satam-
-शतम् वर्ग-★
"भारोपीय परिवार की सतम् वर्ग की शाखाओं को इस प्रकार दिखाया जा सकता है-
(1). इलीरियन - इस शाखा को ‘अल्बेनियन’ या ‘अल्बेनी’ भी कहते हैं। अल्बेनियन के बोलने वाले अल्बेनिया तथा कुछ ग्रीस में हैं। इसके अन्तर्गत बहुत सी बोलियाँ हैं, जिनके घेघ और टोस्क दो वर्ग बनाये जा सकते हैं। घेघ का क्षेत्र उत्तर में और टोस्क का दक्षिण में है। अल्बेनियन साहित्य लगभग 17वीं सदी से आरम्भ होता है। इसमें कुछ लेख 5वीं सदी में भी मिलते हैं। इधर इसने तुर्की, स्लावोनिक, लैटिन और ग्रीक आदि भाषाओं से बहुत शब्द लिए हैं। अब यह ठीक से पता चलाना असंभव-सा है कि इसके अपने पद कितने हैं। इसका कारण यह है कि ध्वनि-परिवर्तन के कारण बहुत घाल-मेल हो गया है। बहुत दिनों तक विद्वान् इसे इस परिवार की स्वतंत्र शाखा मानने को तैयार नहीं थे किन्तु जब यह किसी से भी   पूर्णत: न मिल सकी तो इसे अलग मानना ही पड़ा
(2). बाल्टिक - इसे लैट्टिक भी कहते हैं। इसमें तीन भाषाएँ आती हैं।  इसका क्षेत्र उत्तर-पूरब में है। यह रूस के पश्चिमी भाग में लेटिवियाव राज्य की भाषा है। 
(3).आर्मेनियन या आर्मीनी - इसे कुछ लोग आर्य परिवार की ईरानी भाषा के अन्तर्गत रखना चाहते हैं। इसका प्रधान कारण यह है कि इसका शब्द-समूह ईरानी शब्दों से भरा है। पर, ये शब्द केवल उधार लिये हुए हैं।  
5वीं सदी में ईरान के युवराज आर्मेनिया के राजा थे, अत: ईरानी शब्द इस भाषा में अधिक आ गये। तुर्की और अरबी शब्द भी इसमें काफ़ी हैं। इस प्रकार आर्य और आर्येतर भाषाओं के प्रभाव इस पर पड़े हैं। इसके व्यंजन आदि संस्कृत से मिलते हैं। जैसे फ़ारसी ‘दह’ और संस्कृत ‘दशन्’ के भाँति 10 के लिए इसमें ‘तस्न’ शब्द है। दूसरी ओर हस्व स्वर ए और ओॉ आदि इसमें अत: इसे आर्य और ग्रीक के बीच में कहा जाता है।
आर्मेनियन के प्रधान दो रूप हैं। एक का प्रयोग एशिया में होता है और दूसरे का यूरोप में। इसका क्षेत्र कुस्तुनतुनिया तथा कृष्ण सागर के पास है। एशिया वाली बोली का नाम अराराट है और यूरोप में बोली जाने वाली का स्तंबुल।

हिन्दी ईरानी या भारत ईरानी -
भारत-ईरानी शाखा भारोपीय परिवार की एक शाखा है। इस शाखा में भारत की आर्य भाषाएँ हैं, दूसरी तरफ ईरान क्षेत्र की भाषाएँ हैं जिनमें फ़ारसी प्रमुख है। इन दोनों को एक वर्ग में रखने का भाषा वैज्ञानिक आधार यही है कि दोनों भाषाओं में काफ़ी निकटता है। क्या दोनों उपशाखाओं की भाषाएँ बोलने वाले कभी एक थे और बाद में उनकी भाषाओं में अधिक अंतर आने लगा? ईरान के निवासी भी आर्य थे। ईरान शब्द ही ‘आर्यों का’ (आर्याणम्) का बदला हुआ रूप लगता है। प्राचीन ईरानी भाषा ‘अवेस्ता’ में आर्य का रूप ‘ऐर्य’ था।

यह संबंध काल्पनिक नहीं है, प्राचीन युग में भारत और ईरान में धर्म का स्वरूप तो विपरीत ही था। परन्तु भाषाई रूप एक था, दोनों की भाषाओं (अवेस्ता और संस्कृत) में बहुत समानता थी। क्या ये लोग किसी तीसरी जगह से आकर इन दोनों क्षेत्रों में अलग-अलग बस गये थे? इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। लेकिन यह बात निर्विवाद है कि भारत और ईरान के आर्य एक ही मूल के नहीं थे। भारत-ईरानी शाखा की तीन उपशाखाएँ मानी जाती थी। 

भारतीय आर्य भाषाएँ 
भारत' ईरानी' दरद
ईरानी-
"भारोपीय परिवार का महत्व-
विश्व के भाषा परिवारों में भारोपीय का सर्वाधिक महत्व हैं। यह विषय, निश्चय ही सन्देह एवं विवाद से परे हैं। इसके महत्व के अनेक कारणों में से सर्वप्रथम, तीन प्रमुख कारण यहाँ उल्लेख है-१-विश्व में इस परिवार के भाषा-भाषियों की संख्या सर्वाधिक है।
२-विश्व में इस परिवार का भौगोलिक विस्तार भी सर्वाधिक है।
३-विश्व में सभ्यता, संस्कृति, साहित्य तथा सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक विकास की दृष्टि से भी इस परिवार की प्रगति सर्वाधिक हुई है।
४-‘तुलनात्मक भषाविज्ञान’ की नींव का आधार भारोपीय परिवार ही है।
५-भाषाविज्ञान के अध्ययन के लिये यह परिवार प्रवेश-द्वार है।
६-विश्व में किसी भी परिवार की भाषाओं का अध्ययन इतना नहीं हुआ है, जितना कि इस परिवार की भाषाओं का हुआ है।
७-भाषाओं के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए इस परिवार में सभी सुविधाएँ हैं। जैसे- (क) व्यापकता, (ख) स्पष्टता, तथा (ग) निश्चयात्मकता। 
८-प्रारम्भ से ही इस परिवार की भाषाओं का भाषा की दृष्टि से, विवेचन होता रहा है, जिससे उनका विकासक्रम स्पष्ट होता है।
९-संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि इस परिवार की भाषाओं का प्रचुर साहित्य उपलब्ध है, जो प्राचीन काल से आज तक इन भाषाओं के विकास का ऐतिहासिक साक्ष्य प्रस्तुत करता है और जिसके कारण इस परिवार के अध्ययन में निश्चयात्मकता रहती है।
१०-अपने राजनीतिक प्रभाव की दृष्टि से भी यह परिवार महत्वपूर्ण है। कारण, प्राचीनकाल में भारत ने तथा आधुनिक काल में यूरोप ने विश्व के अन्य अनेक भू-भागों पर आधिपत्य प्राप्त करके अपनी भाषाओं का प्रचार तथा विकास किया है। 
इस प्रकार उपर्युक्त तथा अन्य अनेक कारणों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि विश्व के भाषा-परिवारों में ‘भारोपीय परिवार’ का महत्व निस्सन्देह सर्वाधिक है।
परिभाषा-इस भाषा परिवार की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं । १- भारोपीय भाषाएँ क्लिष्ट योगात्मक बहिर्मुखी विभक्ति प्रधान होती हैं परन्तु आज ये भाषाएँ अयोगात्मकता की ओर उन्मुख हो रही हैं धातुएँ डेढ़ अक्षर (१+१/२) की होती हैं जैसे -गम् ' go (v.)
Old English gan "to advance, walk; depart, go away; happen, take place; conquer; observe, practice, exercise," 
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from West Germanic *gaian (source also of Old Saxon, 
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Old Frisian gan, 
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Middle Dutch gaen,
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 Dutch gaan,
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Old High German gan, German gehen),
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 from PIE (proto iindo- europion (मूलभारोपीय)- root *ghē- "to release, let go; be released"
 (source also of  गम्यते " by goen,"
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Greek kikhano "I reach, meet with"), but there does not seem to be general agreement on a list of cognates . 
 "नाम शब्द का सम्बन्ध "ज्ञनाम" शब्द से है  -संस्कृत में अन्य धातु णमँ(नम्)=प्रह्वत्वे शब्द च' अर्थात नमन करना और शब्द करना 
It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by:

1-Sanskrit -nama; 
2-Avestan- nama; 
3-Greek -onomaonyma
4-Latin -nomen; 
5-Old Church Slavonic -ime, genitive imene; 
6-Russian -imya; 
7-Old Irish -ainm; 
8-Old Welsh -anu "name;" 
9-Old English -nama, noma, 
10-Old High German -namo,
11-Old Norse- nafn, 
12-Gothic- namo "name."

भारोपीय भाषाओं में शाब्दिक समानता मुख्यतः है ।
प्रत्यय कृदन्त और तद्धितान्त हैं जिनके सहयोग से अनेक शब्दों का निर्माण होता है । इस परिवार में विभिन्न अर्थ सम्बन्धों के प्रकाशन को लिए विभक्ति होती हैं । समास इन भाषाओं में संक्षेप कारण का अद्भुत तत्व है । समास कर देने पर पदों की विभक्ति का लोप हो जाता है । कभी कभी समास युक्त शब्द का अर्थ भी बदल जाता है । भारोपीय भाषाएँ प्रत्यय बहुल हैं क्योंकि ये अनेक स्थानों पर जन्मी हैं।

"अनिश्चित परिवार की भाषाऐं जिनमें भारोपीय सूत्र विद्यमान हैं"। इस वर्ग के अन्तर्गत विश्व की उन भाषाओं का समावेश है" जिनमें मूल भारोपीय तथा अन्य भाषा-मूलक तत्व धूमिल ही हैं। जैसे पूर्वी इटली के मध्य तथा वहीं के उत्तरी प्रान्तों में बोली जाने वाली (एट्रस्कन-भाषा)है ।
 दूसरी सुमेरियन भाषा है - परन्तु सुमेरियन भाषा में ही भारोपीय और सैमेटिक भाषाओं के आधार तत्व विद्यमान हैं ।
 जैसे नवी, अरि,अप्सु,जैसे शब्द सुमेरियन भाषा में भी है । तुर्फरी-जुर्फरी ये शब्द सुमेरियन ही हैं ।
सृ॒ण्ये॑व ज॒र्भरी॑ तु॒र्फरी॑तू नैतो॒शेव॑ तु॒र्फरी॑ पर्फ॒रीका॑ । उ॒द॒न्य॒जेव॒ जेम॑ना मदे॒रू ता मे॑ ज॒राय्व॒जरं॑ म॒रायु॑।।६।। ( ऋ० १०/१०६/६/)

इसके अतिरिक्त आलिगी-विलगी शब्द भी           सुमेरियन अलाय बलाय के रूप हैं ।
मितानी भाषा और जनजाति" -
मितज्ञु जन-जाति वेदों में वर्णित हैं। भारतीयों में प्राचीनत्तम ऐैतिहासिक तथ्यों का एक मात्र श्रोत ऋग्वेद के (2,3,4,5,6,7)मण्डल हैं ।
आर्य समाज के विद्वान् भले ही वेदों में इतिहास न मानते हों। क्योंकि उनके अर्थ पूर्वाग्रह से ग्रस्त धातु अथवा यौगिक है । जो किसी भी माइथोलॉजी के लिए असंगत है ।  वेदों में इतिहास  न देखना और उन्हें पूर्ण रूपेण ईश्वरीय ज्ञान कहना महातामस् ही है। 
यह मत पूर्व-दुराग्रहों से प्रेरित ही है।

यह यथार्थ की असंगत रूप से व्याख्या करने की चेष्टा है परन्तु हमारी मान्यता इससे सर्वथा विपरीत ही है ।
व्यवस्थित मानव सभ्यता के प्रथम प्रकाशक के रूप में  ऋग्वेद के कुछ सूक्त साक्ष्य के रूप में हैं । सच्चे अर्थ में  ऋग्वेद प्राप्त सुलभ  पश्चिमीय एशिया की संस्कृतियों का ऐैतिहासिक दस्ताबेज़  भी है ।

ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के पिच्यानबे वें सूक्त की ऋचा बारह में (7/95/12 ) में  मितन्नी जन-जाति का उल्लेख "मितज्ञु" के रूप में वर्णित है ।

-★ऋग्वेद में 'मितज्ञु जनजाति का वर्णन जो सुमेरियन 'मितन्नी-  जन जाति के रूप में हैं ।

 पदपाठ-' उत। स्या। नः। सरस्वती। जुषाणा। उप । श्रवत्।सुऽभगा।यज्ञे ।अस्मिन् ।     मितज्ञुऽभिः । नमस्यैः । इयाना । राया। युजा । चित् । उत्ऽतरा । सखिऽभ्यः ॥ ४ ॥

सायण भाष्य-★
मितज्ञुभि:-तृतीया बहुवचन रूप अर्थात मितज्ञु ओं के द्वारा) प्रह्व:=प्रहूयते इति स्तोता-नम्र अर्थ सायण ने किया है जो कि असंगत ही है क्योंकि कि सायण ने भी सुमेरियन संस्कृति से अनभिज्ञ होने के कारण ही मितज्ञु शब्द का यह अर्थ किया है । यह खींच तान करके किया गया यौगिक अर्थ है।

प्रह्व: =प्रहूयते इति ।  प्र + ह्वे + “ सर्व्वनिघृष्वरिष्वेति । “  उणा० १ ।  १५३ ।  इति वन् । आलोपश्च । )  नम्रः ।
 इत्युणादिकोषः ॥  (यथा   रघुः ।  १६ ।  ८० । “ विभूषणप्रत्युपहारहस्तमुपस्थितं वीक्ष्य विशाम्पतिस्तम् । सौपर्णमस्त्रं प्रतिसञ्जहार प्रह्वेष्वनिर्बन्धरुषो हि सन्तः ॥ “  ) आसक्तिः ।  इति हेमचन्द्रः ।  ३ ।  ४९ ॥ 
"उत अपि च "(जुषाणा =प्रीयमाणा) "(सुभगा= शोभनधना)(स्या सा =“सरस्वती)(नः=अस्माकम्)“(अस्मिन् “यज्ञे “उप “श्रवत् ।= अस्मदीयाः स्तुतीरुपशृणोतु) । कीदृशी सा। “
मितज्ञुभि:-तृतीया बहुवचन रूप अर्थात मितज्ञुओं के द्वारा)= प्रह्वैर्जानुभिः “(नमस्यैः =नमस्कारैर्देवैः) “इयाना उपगम्यमाना । चिच्छब्दश्चार्थे । “युजा नित्ययुक्तेन (“राया =धनेन )च (संगता =“सखिभ्यः) ("उत्तरा =उत्कृष्टतरा) । ईदृश्यस्मदीयाः स्तुतीरुपशृणोत्वित्यन्वयः ॥
प्रहूयते इति ।  प्र + ह्वे + “ सर्व्वनिघृष्वरिष्वेति । “  उणा० १ ।  १५३ ।  इति वन् । आलोपश्च । )  नम्रः ।  इत्युणादिकोषः ॥  (यथा   रघुः ।  १६ ।  ८० । “ विभूषणप्रत्युपहारहस्तमुपस्थितं वीक्ष्य विशाम्पतिस्तम् । सौपर्णमस्त्रं प्रतिसञ्जहार प्रह्वेष्वनिर्बन्धरुषो हि सन्तः ॥ “  ) आसक्तिः ।  इति हेमचन्द्रः ।  ३ ।  ४९ ॥
मितज्ञु का सायण द्वारा किया गया अर्थ- "आह्वान करने वाला स्तोता अथवा नम्र अर्थ असंगत ही है क्योंकि जब पणियों(फोनिशियों ) का ऋग्वेद में वर्णन है तो उनके सहवर्ती मितज्ञु(मितन्नीयों का वर्णन क्यों नहीं

"उतस्यान: सरस्वती जुषाणो उप श्रवत्सुभगा:यज्ञे अस्मिन् मितज्ञुभि: नमस्यैरि याना राया यूजा:चिदुत्तरा सखिभ्य: ।

ऋग्वेद-(7/95/4
ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ भी है । वैदिक सन्दर्भों में वर्णित मितज्ञु जन-जाति के सुमेरियन पुरातन कथाओं में मितन्नी कहा है ।अब यूरोपीय इतिहास कारों के द्वारा मितन्नी जन-जाति के विषय में  उद्धृत तथ्य --मितानी  हित्ताइट शब्द है जिसे हनीगलबाट भी कहा जाता है । मिस्र के ग्रन्थों में अश्शूर या नाहरिन में, उत्तरी सीरिया में एक तूफान-स्पीकिंग राज्य और समु्द्र से दक्षिण पूर्व अनातोलिया था ।(1500 से 1300) ईसा पूर्व में मिट्टीनी अमोरियों  बाबुल के हित्ती विनाश के बाद एक क्षेत्रीय शक्ति बन गई और अप्रभावी अश्शूर राजाओं की एक श्रृंखला ने मेसोपोटामिया में एक बिजली निर्वात बनाया।
"ऋग्वेद में जिन जन-जातियाें का विवरण है; वो धरा के उन स्थलों से सम्बद्ध हैं जहाँ से विश्व की श्रेष्ठ सभ्यताऐं  पल्लवित , अनुप्राणित एवम् नि:सृत हुईं ।

भारत की प्राचीन धर्म प्रवण जन-जातियाँ स्वयं को कहीं देव संस्कृति की उपासक तो कहीं असुर संस्कृति की उपासक मानती थीं -जैसे देव संस्कृति के अनुयायी भारतीय आर्य तो असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानी आर्य थे।
मितानी का राज्य ई०पू०1500  - 1300 ईसा पूर्व तक
जिसकी 
राजधानी
वसुखानी
भाषा हुर्रियन
(Hurrion)
मितानी अथवा मतन्नी जन-जाति का वर्णन हिब्रू बाइबिल तथा ऋग्वेद में भी मितज्ञु रूप में हुआ है।
अब समस्या यह है कि आर्य शब्द को कुछ पाश्चात्य इतिहास कारों ने पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर जन-जातियों का विशेषण बना दिया ।

वस्तुत आर्य्य शब्द जन-जाति सूचक उपाधि नहीं था।यह तो केवल जीवन क्षेत्रों में यौद्धिक वृत्तियों का द्योतक व विशेषण था ।आर्य शब्द का प्रथम प्रयोग ईरानीयों के लिए तो सर्व मान्य है ही परन्तु कुछ इतिहास कार इसका प्रयोग मितन्नी जन-जाति के हुर्री कबींले के लिए स्वीकार करते हैं ।

परन्तु मेरा मत है कि हुर्री शब्द ईरानी शब्द हुर-(सुर) का ही विकसित रूप है।क्यों कि ईरानीयों की भाषाओं में संस्कृत "स" वर्ण "ह" रूप में परिवर्तित हो जाता है । सुर अथवा देव स्वीडन ,नार्वे आदि स्थलों से सम्बद्ध थे । परन्तु वर्तमान समय में तुर्की "जो  मध्य-एशिया या अनातोलयियो के रूप है । की संस्कृतियों में भी देव संस्कृति के दर्शन होते है।
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ईरानी धर्म ग्रन्थ "अवेस्ता ए जन्द़" में "इन्दर (इन्द्र) वेन्दीदाद् 10,9 (अवेस्ता) में मानव विरोधी और दुष्ट प्रवृत्तियों का प्रतिरूप बताया गया है। 
इसी प्रकार सोर्व (सुर:) तरोमइति , अएम्प तथा तऊर्वी , द्रुज , नओड्ध इत्थ्य , दएव,यस्न संख्या-(27,1,57,18,यस्त 9,4 उपर्युक्त उद्धरणों में इन्द्र , देव आदि शब्द हैं जिन्हें ईरानी आर्य बुरा मानते हैं इसके विपरीत ईरानी धर्म में असुर' दस्यु, दास , तथा वृत्र' पूज्य हैं ।
"भारोपीय परिवार-भारोपीय भाषा परिवार की दो प्रधान शाखाएँ हैं ।(Ahura Mazda)- अवेस्ता एजैन्द में असुर महत् ईश्वरीय सत्ता का वाचक है । और देव दुष्ट तथा बुरी शक्तियों का वाचक है ।
 "Daeva-देवा-दुष्ट और Asur-असुर -श्रेष्ठ और शक्तिशाली ईश्वर का वाचक है।
Daeva = One of the Daevas, Aesma Daeva ("madness") is the demon of lust and anger, wrath and revenge. 

He is the personification of violence, a lover of conflict and war.

Together with the demon of death, Asto Vidatu, he chases the souls of the deceased when they rise to heaven. 
His eternal opponent is Sraosa
देवा = दाएवाओं में से एक, आइस्मा देवा ("पागलपन") वासना और क्रोध, तीव्र रोष, तेज़ गु़स्‍सा या क्रोधोन्‍माद  और बदला का दानव है।
वह हिंसा, लड़ाई और युद्ध का प्रेमी है।
मृत्यु के दानव, एस्टो विदतु के साथ, वह स्वर्ग जाने पर मृतक की आत्माओं का पीछा करता है।
उनका शाश्वत प्रतिद्वंदी सरोसा है
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Ahura Mazda-★- असुर-महत्(वरुण) का वाचक है ।
Ahura Mazdah ("Lord Wisdom") was the supreme god, he who created the heavens and the Earth, and another son of (Zurvan). As leader of the Heavenly Host, the (Amesha Spentas), he battles Ahriman and his followers to rid the world of evil, darkness and deceit. 
 His symbol is the winged disc.
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Ahurani-असुराणी- यह वरुण की पत्नी है जो स्वास्थ्य चिकित्सा और जल की देवी हैं ।
Ahurani is a water goddess from ancient Persian mythology. She watches over rainfall as well as standing water. She was invoked for health, healing, prosperity, and growth. She is either the wife or the daughter of the great god of creation and goodness, Ahura Mazda. Her name means "She who belongs to Ahura".

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"Div या देव ( ़ारसी : Dīv (دیو )ईरानी की पौराणिक कथाओं में देव शब्द दुष्ट प्राणीयों का वाचक  हैं , और जो आर्मेनिया , तुर्क देशों  और अल्बानिया  सहित आसपास की संस्कृतियों में फैले हुए हैं।

मुहावरों या ओग्रेसियों की तुलना में, उनके पास एक मानव के समान एक शरीर है, लेकिन विशाल, दो सींगों के साथ, एक मानव मांस, शक्तिशाली क्रूर और पत्थर के दिल के साथ एक सूअर की तरह दांतों वाला।  उनके शारीरिक आकार के बावजूद, जैसे जिन्न और श्यातिन (दुष्ट आत्माओं के कब्जे और पागलपन का कारण बताए गए हैं। उनके प्राकृतिक विरोधी पेरी हैं , 

शाहनाम - दि अकवन ने रुस्तम को समुद्र में फेंक दिया
मूल-देव शायद से ही शुरू अवेस्तन daeva , में बुराई के सिद्धांत के द्वारा बनाई गई बुरी आत्मााओं 
"jorastrianism , Ahriman  के दौरान इस्लामी अवधि, (daeva) के विचार देव की धारणा के लिए बदल दिया; शारीरिक आकार में राक्षसी जीव, लंबे दांत और पंजे के साथ, अक्सर पश्चिमी ओग्रे की तुलना में । [Translations ] कुरान के पहले अनुवादों का फारसी भाषा में अनुवाद कुरान के दुष्ट जिन्न को देव के रूप में परिवर्तित करता प्रतीत होता है , दोनों अलग-अलग प्रकार के जीवों के कुछ भ्रमों की ओर ले जाता है। बाद में उन्हें इस्लामिक ओटोमन साम्राज्य के बीच कई संस्कृतियों द्वारा अनुकूलित किया गया ।
इस्लाम-

"अलीक़ुली - किंग सोलोमन और देेेव=दुष्ट - वाल्टर W62494B - पूर्ण पृष्ठ

देवदूत या पेरी को पकड़ने वाला देव
टीका-
तबरी के अनुसार , दुर्भावनापूर्ण देवता पूर्व- जीव प्राणियों की एक लंबी श्रृंखला का हिस्सा हैं, जो परोपकारी पेरिस से पहले हैं , जिन्हें वे एक निरंतर लड़ाई लड़ते हैं। हालाँकि, सभी एक्सटेगेट्स इससे सहमत नहीं हैं। इस्लामिक दार्शनिक अल-रज़ी ने अनुमान लगाया कि देव दुष्ट मृतकों की आत्मा हैं, उनकी मृत्यु के बाद देव में बदल गए। 
लोक-साहित्य-
फ़ारसी लोककथाओं में, देवों को जानवरों के सिर और खुरों के साथ सींग वाले पुरुषों की तरह देखा जाता है। कुछ सांप का रूप लेते हैं या कई सिर वाले अजगर  हालाँकि,शेपशिफ्टर्स के रूप में , वे लगभग हर दूसरे रूप को भी ले सकते हैं। वे रात के दौरान डरते हैं, जिस समय वे जागते हैं,  क्योंकि यह कहा जाता है कि अंधेरा उनकी शक्ति को बढ़ाता है। गुलाम हुसैन सा'दी की (अहल-ए-हवा -(हवा के लोग), विभिन्न प्रकार के अलौकिक जीवों के बारे में कई लोककथाओं पर चर्चा करते हुए, उन्हें द्वीपों या रेगिस्तान में रहने वाले लंबे जीवों के रूप में वर्णित करते हैं और उन्हें छूकर मूर्तियों में बदल सकते हैं। 
★-अर्मेनियाई पौराणिक कथाएँ-
में अर्मेनियाई पौराणिक कथाओं और कई विभिन्न अर्मेनियाई लोक कथाओं, देव (में अर्मेनियाई- դեւ) एक वस्तु के रूप में और विशेष रूप से एक दुर्भावनापूर्ण भूमिका में दोनों प्रकट होता है,और एक अर्द्ध दिव्य मूल है। देव अपने कंधों पर एक विशाल सिर के साथ एक बहुत बड़ा है, और मिट्टी के कटोरे जितना बड़ा है।उनमें से कुछ की केवल एक आंख हो सकती है। आमतौर पर, ब्लैक एंड व्हाइट देव होते हैं। हालांकि, वे दोनों या तो दुर्भावनापूर्ण या दयालु हो सकते हैं।
व्हाइट देव में मौजूद है होव्हान्नेस टुमैनयान (की कहानी "Yedemakan Tzaghike"  Եդեմական Ծաղիկը), के रूप में "स्वर्ग का फूल" अनुवाद। कथा में, देव फूल के संरक्षक हैं।जुश्कापरिक, वुश्पकारिक या गधा-पाइरिका एक और चिरामिक प्राणी है जिसका नाम आधा-आसुरी और आधा-पशु होने का संकेत देता है, या एक पायरिका-जो एक महिला देव है जिसमें प्रचंड प्रवृत्ति है - जो एक गधे के रूप में प्रकट हुई और खंडहर में रहती थी।
★-फारसी की पौराणिक कथा-

"तुर्की सियाह क़लम नृत्य देवों का चित्रण-
-★- जिस प्रकार भारतीय पुराणों में असुरों को नकारात्मक व    हेय  रूप में वर्णन किया गया है उसी प्रकार ईरानी  तथा अशीरियन देवों को दुष्ट व व्यभिचारी रूप में वर्णन किया गया है 
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शैतान शब्द स्वयं सुमेरियन ' भारतीय और यूरोपीय आयोनियन संस्कृतियों को मूलत: एक रूपता में दर्शाता है।
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"शैतान भी कभी सन्त था हिब्रू भाषा में शब्द (לְשָׂטָ֣ן) (शैतान) अथवा सैतान  (שָׂטָן ) का अरबी भाषा में शय्यतन(شيطان)‎ रूपान्तरण है । जो कि प्राचीन वैदिक सन्दर्भों में "त्रैतन तथा अवेस्ता ए जन्द़ में "थ्रएतओन"के रूप में है । 
परन्तु अर्वाचीन पहलवी , तथा फारसी भाषाओं में "सेहतन" के रूप में विकसित है ।
यही शब्द ग्रीक पुरातन कथाओं में त्रिटोन है आज विचार करते हैं इसके प्रारम्भिक व परिवर्तित सन्दर्भों पर-

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-"त्रितॉन शब्द की व्युत्पत्ति"त्रितॉन शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट है ।
"त्रैतनु त्रीणि तनूनि यस्य स: इति त्रैतनु"-अर्थात् तीन शरीर हैं जिसके वह त्रैतन है ।
परन्तु यह शब्द आरमेनियन , असीरियन आदि सेमैेटिक भाषाओं में भी अपने पौराणिक रूपों विद्यमान है ।
यह शय्यतन अथवा शैतान शब्द मानव संस्कृतियों की उस एक रूपता को अभिव्यञ्जित करता है ; जो प्रकाशित करती है ; कि प्रारम्भिक दौर में संस्कृतियाँ समान थीं 
सेमैेटिक, हैमेटिक , ईरानी तथा यूनानी और भारत में आगत देव संस्कृतियों के अनुयायी कभी एक स्थान पर सम्मिलित हुए थे ।
"शैतान शब्द आज अपने जिस अर्थ मूलक एवं वर्णमूलक  रूप में विन्यस्त है वह निश्चित ही उसका परिवर्तित और विकसित रूप है   सैमेटिक भाषाओं हिब्रू अ़रबी आदि में  विद्यमान शैतान (शय्यतन शब्द ऋग्वेद के त्रैतन का  रूपान्तरण है "-  
जो ईरानी ग्रन्थ 'अवेस्ता ए जेन्द' में 'थ्रेतॉन–(Traetaona) के रूप में है ; और यहीं से यह
शैतान रूप में परिवर्तित हो गया है ।
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-क्यों कि ? " त्रि " तीन का वाचक संस्कृत शब्द फारसी में "सिह" के रूप में है ।जैसे संस्कृत 'त्रितार -वाद्य यन्त्र को फारसी भाषा में  'सितार' कहा जाता है । इसी भाषायी पद्धति से वैदिक 'त्रैतन - 'सैतन और  फिर सैतान /शय्यतन रूप  परिवर्तित हो जाता है ।
-सितार शब्द की व्युपत्ति -हिन्दी सितार ( सितार ) / उर्दू ستار ( sitār ) का सम्बन्ध , फारसी भाषा के  سهتار ( se-târ) "सि -तार" से है  जिसका शाब्दिक अर्थ है ; " तीन -तार " ) वस्तुत यह तीन ही वायरों से बनता है ।
'सितार( संगीत ) एक हिन्दुस्तानी / भारतीय शास्त्रीय तारों वाला वाद्य- यन्त्र -
"व्युत्पत्ति और इतिहास "-सितार नाम फारसी भाषा से आता है سیتار (sehtar) سیہ seh अर्थ तीन और تار तार का अर्थ स्ट्रिंग है। एक समान उपकरण, 'सितार' का उपयोग इस दिनों ईरान और अफगानिस्तान में किया जाता है, और मूल फारसी नाम का अभी भी उपयोग किया जाता है।
दोनों यन्त्र तुर्की "टैनबूर "तानपूरा से अधिकतर व्युत्पन्न होते हैं, जो एक लंबे, वीणा जैसा यन्त्र है जिसमें कोई  "Tembûr और (sehtar) सेह-तार दोनों को पूर्व इस्लामीयत से फारस में इस्तेमाल किया गया था ;
और आज भी तुर्की में यह उपयोग किया जाता है। 
वैकल्पिक रूप से, रुद्र वीणा नामक एक पुराना भारतीय उपकरण कुछ महत्वपूर्ण मामलों में सितार जैसा दिखता है।
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-ऋग्वेद में  मण्डल 1 अध्याय 22  तथा सूक्त 158 पर देखें 👇
★-न मा गरन् नद्यो  मातृतमा दासा यदींसुसमुब्धमवाधु: शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत् स्वयं दास उरो अंसावपिग्ध।५।। ऋग्वेद-१/१५८/५-                                                                दीर्घ तमामामतेयो जुजुर्वान् दशमे युगेअपामर्थ यतीनां ब्रह्मा भवति सारथि।६।।
ऋग्वेद-१/१५८/६
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-ऋषि - दीर्घ तमा । देवता -अश्विनौ। छन्द- त्रिष्टुप, अनुष्टुप -अर्थ व अनुवाद
हे ! अश्निद्वय ! मातृ रूपी नदीयों का जल भी मुझे न डुबो सके । दस्युओं ने मुझे इस युद्ध में बाँध कर फैंक दिया ।
"त्रैतन दास  ने जब मेरा शिर काटने की चेष्टा की तो वह स्वयं ही कन्धों से आहत हो गया ।5।
ममता का दीर्घतमा दश वर्ष पश्चात् वृद्ध हुआ । 
कर्म फल की इच्छा से स्तुति करने वाले स्तोता (ब्रह्मा) रथ युक्त हुए।6।
"ऋग्वेद मण्डल-1 सूक्त 158 -ऋचा-5-6
"न । मा । गरन् । नद्यः । मातृऽतमाः । दासाः । यत् । ईम् । सुऽसमुब्धम् । अवऽअधुः ।
शिरः । यत् । अस्य । त्रैतनः । विऽतक्षत् । स्वयम् । दासः । उरः । अंसौ । अपि । ग्धेतिग्ध ॥५।।
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“नद्यः नदनशीला: "मातृतमाः मातृवज्जगतां हितकारिण्य आपः “मा मां दीर्घतमसं “गरन् न गिरेयुः निमग्नं मा कुर्युः ॥ ‘ गॄ निगरणे '। लेटि व्यत्ययेन शप् ॥ 
गिरणप्राप्तिं दर्शयति । “यत् यस्मात् “दासाः अस्मदुपक्षपयितारो मदीयगर्भदासाः “ईम् एनं दीर्घतमसं मां “सुसमुब्धं सुष्ठु संकुचितसर्वाङ्गम् ॥ ‘स्वती पूजायाम्' (पा. म. २. २. १८. ४) 
इति प्रादिसमासे अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ “अवाधुः अवाङ्मुखमपातयन् । 
किंच "अस्य मम “शिरः सः “त्रैतनः एतन्नामकः “दासः अत्यन्तनिर्घृणः सन् “यत् यस्मात् “वितक्षत् विविधं तष्टवान् तस्मात् स दासः “स्वयं स्वकीयमेव शिरस्तक्षतु । न केवलं शिर एव अपि तु मदीयम् “उरः वक्षःस्थलम्' “अंसौ च “ग्ध हतवान् विदारितवानित्यर्थः ॥ 
हन्तेर्लुङि छान्दसमेतद्रूपम् ॥ ततः स्वकीयमुरः अंसावपि स्वशस्त्रेणैव तथा कृतवान् । तद्युवयोर्माहात्म्यमिति भावः।
ऋग्वेद में ही अन्यत्र - त्रितोनु के विषय में वर्णन है ।

"अस्य त्रितोन्वोजसा वृधानो विपा वराहम यो अग्रयाहन् ।।6। 
(ऋग्वेद 10/99/6)
अर्थात् इस त्रितोनु ने ओज के द्वारा लोह समान तीक्ष्ण नखों से वराह को मार डाला था ।
आरण्वासो युयुधयोन सत्वनं त्रितं नशन्त प्रशिषन्त इष्टये 
(ऋग्वेद 10/115/4 )
त्रातन -दैत्य विशेष त्रित अप्त्यस्य (ऋग्वेद 1/124/5)
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१४६६ । ६७ पृ० एकतशब्दोक्ते आप्त्ये 
१- देवभेदे ब्रह्मणो मानसपुत्ररूपे २- ऋषिभेदे च त्रिषु क्षित्यादिस्थानेषु तायमानः तायड ।त्रिषु विस्त्रीर्णतमे ३- प्रख्यातकीर्त्तौ च त्रि० ।“यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रं विपर्वमर्द्दयत्” ऋ० १। १८७।१।
त्रित ऋभुक्षा: ,सविता चनो दधे८पां नपादाशहेमा धिया शमि ।6।ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 3 सूक्त 31 ऋचा 6.
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.हे अन्तरिक्ष के देवता अहि, सूर्य, त्रित इन्द्र और सविता हमको अन्न दें ।
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.त्रितो न यान् पञ्च होतृनभिष्टय आववर्त दवराञ्चक्रियावसे ।14।
अभीष्ट सिद्धि के निमित्त प्राण, अपान, समान,ध्यान, और उदान । इन पाँच होताओं को त्रित द्वारा सञ्चालित करते हैं ।
ऋग्वेद मण्डल 1 अध्याय 4 सूक्त 34 ऋचा 14
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"मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्य: स्तोतारं ते शतक्रतो वित्तम् मे अस्य रोदसी ।8।
अमी ये सप्त रश्मयस्तत्रा मे नाभि:आतिता।
त्रितस्यद् वेद आप्त्य: स जामित्ववाय रेभति वित्तं मे अस्य रोदसी ।9।___________
दो सौतिनों द्वारा पति को सताए जाने के समान कुँए की दीवारे मुझे सता रही हैं। हे इन्द्र ! चूहा द्वारा अपने शिश्न को चबाने के समान मेरे मन की पीड़ा मुझे सता रही है। हे रोदसी मेरे दु:ख को समझो ! इन सूर्य की सात किरणों से मेरा पैतृक सम्बन्ध है। इस बात को आप्त्य-(जल)का पुत्र त्रित जानता है । इस लिए वह उन किरणों की स्तुति करता है। हे रोदसी मेरे दु :ख को समझो।
ऋग्वेद के अन्य संस्करणों में क्रम संख्या भिन्न है 
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"शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत् स्वयं दासः” ऋ०१।१५८८ । ५ । “त्रैतन एतन्नामको दासोऽत्यन्तनिर्घृणः” 
★- भाष्य व सरलीकरण-
"अभि स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यतो रघ्वीरिव प्रवणे सस्त्रुरुतय: इन्द्रो यद् वज्री धृषमाणो अन्धसा भिनद् वलस्य परिधीरिव त्रित: ।।5।
अभिमुख  गमन करने वाली नदीयों के समान  वृत्र से युद्ध करने वाले  इन्द्र और उसके सहायक मरुतों को  सोम का आनन्द प्राप्त हुआ ।
तब सोम पान से साहस में बढ़े हुए इन्द्र ने वल की परिधि के समान त्रित को भेद दिया ।
ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 10 सूक्त 54 का 5 वाँ सूक्त ।
"ऋग्वेद के कतिपय स्थलों पर  त्रित तथा पूषण को साथ साथ दर्शाया है ।
ऋषि-अथर्वा । देवता - पूषण -त्रैतन के पाप का वर्णन
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त्रिते देवता अमृजतैत देनस्त्रित एनन्मनुयेषु ममृजे ।
ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे ताँ देवा 
ब्रह्मणानाशयन्तु।१।
मरीचीर्धूमान प्रविशानु पाप्मन्नु दारान्  गच्छोतवानीहारान् नदी नाम फेनानाँ अनुतान् विनश्य भ्रूण हिन्दुस्तान पूषन् दुरितानि मृक्ष्व द्वादशधानिहितं 
त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यै नसानि ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तांते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ।
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"देवताओं ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित के मन में स्थापित किया । त्रित ने इस पाप को सूर्योदय के पश्चात् सोते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित किया।हे  परिविते ! तुझे जो पाप देवी प्राप्त हुई है ।
इसे मन्त्र शक्ति से दूर भगा हे परिवेदन में उत्पन्न पाप तू परिवित्ति त्याग कर  अग्नि और सूर्य के प्रकाश में प्रविष्ट हो । तू धूप में , मेघ के आवरण या कुहरे में प्रवेश कर । हे पाप तू नदीयों के फेन में समा जा । त्रित का वह पाप बारह स्थानों में स्थापित किया गया।वही पाप मनुष्यों में प्रविष्ट हो जाता है। हे मनुष्य यदि तू पिशाची के द्वारा प्रभावित हुआ है तो उसके प्रभाव को पूर्वोक्त देवता और ब्राह्मण इस मन्त्र द्वारा शमन करें !
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अवेस्ता ए जन्द़ में "इन्दर (इन्द्र) वेन्दीदाद् 10,9 (अवेस्ता) में मानव विरोधी और दुष्ट प्रवृत्तियों का बताया गया है ।
इसी प्रकार सोर्व (सुर:) तरोमइति , अएम्प तथा तऊर्वी , द्रुज , नओड्.धइत्थ्य , दएव,
यस्न संख्या-(27,1,57,18,यस्त 9,4 
उपर्युक्त उद्धरणों में इन्द्र , देव आदि शब्द हैं जिन्हें ईरानी आर्य बुरा मानते हैं 
इसके विपरीत असुर दस्यु, दास , तथा वृत्र पूज्य हैं ।
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"(thraetaona )थ्रेतॉन  ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता में वर्णित देव है। इसका सामञ्जस्य वैदिक त्रित -आपत्या के साथ है ।
अवेस्ता में 'यम' को 'यिमा (Yima) के रूप में महिमा- मण्डित किया गया है ।

अवेस्ता में अज़िदाहक को मार डाला जाता है। 
भारतीय वैदिक सन्दर्भों में १-एकत: २-द्वित:और  ३-त्रित: 
के विषय में अनेक रूपक हैं ।👇
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"त्रित: कूपेऽवहितो देवान् हवत ऊतये । तच्छुश्राव बृहस्पति: कृण्वन्नंहूरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी ।
(ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 16 सूक्त 105 ऋचा 17)
"कुए में गिरे हुए त्रित ने रक्षार्थ  देवाह्वान किया ;तब उसे बृहस्पति (ज्यूस) ने सुना और पाप रूप कुऐ से उसे निकाला। हे रोदसी मेरे दु:ख को सुनो  त्रित इस प्रकार आकाश और पृथ्वी से प्रार्थनाकरता है ।
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यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो  अध्यतिष्ठत् ।
गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात् सूरादश्वं वसवो निरतष्ट 2।
असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन ____
"यम के द्वारा दिए गये इस अश्व को त्रित ने जोड़ा इन्द्र ने इस पर प्रथम वार सवारी की ।गन्धर्व ने इस की रास पकड़ी ; हे देवताओं तुमने इसे सूर्य से प्राप्त किया हे अश्व तू यम रूप है।सूर्य रूप है ;और गोपनीय नियम वाला त्रित है ।यही इसका रहस्यवादी सिद्धान्त है ।
मण्डल(1) सूक्त(163) ऋचा संख्या(2-3)
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"त्रित को वैदिक सन्दर्भों में चिकित्सा का देवता मान लिया गया । अंग्रेजी भाषा में प्रचलित ट्रीट (Treat )शब्द वस्तुत त्रित मूलक है  अवेस्ता ए जेन्द़ में त्रिथ  चिकित्सक का वाचक है ।तथा त्रैतन का रूप थ्रैतान फारसी रूप फरीदून प्रद्योन /प्रद्युम्न - चिकित्सक का वाचक है।
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अवेस्ता में वर्णित है कि
"यो ज़नत अजीम् दहाकँम् थ्रित फ़नँम थ्रिक मँरँधँम् क्षृवश् अषीम् हजृडृ़.र  यओक्षीम् अश ओड्. हैम दएवीम् द्रुजँम् अघँम् । गएथाव्यो द्रवँतँन् यॉम् ओजस्तँ माँम्  द्रुजँम्  फ्रच कँरँ तत् अड.गरो मइन्युश् अओइयॉम् अरत्वइतीम् गएथाँम् मइकॉई अषहे गएथनाम् ।।
...(यस्न 9,8 अवेस्ता )--_______
"अर्थात् जिस थ्रएतओन जिसे वैदिक सन्दर्भों में (त्रैतन) या त्रित कहा है । वह  आप्त्य का पुत्र है ।उसने अज़िदाहक (अहि दास) को मारा था। जो अहि तीन जबड़ो वाला ,तीन खोपड़ियों वाला, छ: आँखों वालाहजार युक्तियों वाला बहुत ही शक्तिशाली है । धूर्त ,पापी ,जीवित प्राणीयों को धोखा देने वाला था । जिस बलशाली को अंगिरा मइन्यु ने सृष्टि के विरोधी रूप में अश (सत्य) की सृष्टि के विनाश के लिए  निर्मित किया था वस्तुत उपर्युक्त कथन अहि दास के लिए है ।
प्रस्तुत सन्दर्भ में (त्रिक मूर्धम् ) की तुलना  ऋग्वेद के उस स्थल से कर सकते  हैं । जहाँ इन्द्र के द्वारा प्रेरित त्रित-आप्त्य (थ्रअेतओन) विश्व रूप और तीन शिर वाले वृत्र या अहि का नाश करता है । (ऋग्वेद-10/1/8 देखें👇
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स पित्र्याण्यायुधानि विद्वानिन्द्रे त्रित-आप्त्यो अभ्यध्यत् 
त्रीशीर्षाणं सप्त रश्मिं जघन्वान् (ऋग्वेद-10/1/8)
👇जहाँ इन्द्र के द्वारा प्रेरित त्रित-आप्त्य (थ्रअेतओन) विश्व रूप और तीन शिर वाले वृत्र या अहि का नाश करता है इसके अतिरिक्त अन्य स्थलों पर भी अहि और त्रित एक दूसरे के शत्रुओं के रूप में हैं। जिस प्रकार अहि को मार कर त्रित ऋग्वेद में गायों को स्वतन्त्र करते हैं।👇
उसी प्रकार अवेस्ता ए जन्द़ में थ्रएतओन  सय्यतन द्वारा अज़िदाहक को मार कर दो युवतियों को स्वतन्त्र करने की बात कही गयी है । 
ऋग्वेद में ये सन्दर्भ इन ऋचाओं में वर्णित है-
👉 १३२, १३ १८५९।३३२।६ तथा
३६।८।४ ।१७।१।६।
👇अतः यह सन्दर्भ अ़हि (अज़ि) वृत्र (व्रथ्र) या वल (इबलीश)(evil)के साथ गोओं ,ऊषस् या आप: सम्बन्धी देव शास्त्रीय भूमिका का द्योतन करता है  ऋग्वेद १३२/१८७/१ तथा १/५२/५ 
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नॉर्स  पुरा-कथाओं में (Thridi) थ्रिडी  ओडिइन का पुराना  नाम जिसका साम्य त्रिता के साथ है।
👇और ट्रिथ- समुद्र के लिए एक पुराने आयरिश नाम भी है । ध्वन्यात्मक रूप से इसका साम्य वैदिक त्रित से है । ट्राइटन "Triton"(Τρίτων ) पॉसीडॉन एवं एम्फीट्रीट का पुत्र एक यूनानी  समुद्र का देवता है । जिसका ध्वन्यात्मक साम्य वैदिक त्रिता को रूप में है । वैदिक और ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता के सन्दर्भ समानार्थक रूप में विद्यमान हैं।
(THRIDI)-नॉर्स ज्ञान का देवता इसे "Þriðji" के रूप में भी जाना जाता है । यह एक और अजीब ऋषि है । वह हर  और जफरहर के साथ रहस्यमय-तीन(त्रिक)का तीसरा सदस्य है।
 उनका नाम 'तीसरा' है और जब बैठने की व्यवस्था और स्थिति की बात आती है तो वह तीसरे स्थान पर होता है। लेकिन वह अपने सहयोगियों के रूप में स्पुल के थ्रूडिंग के बारे में उतना ही जानता है। थ्रिडी तथ्य और फिगर

नाम: "THRIDI" उच्चारण: जल्द ही आ रहा है । वैकल्पिक नाम: Þriðji स्थान: स्कैंडिनेविया प्रभारी: ज्ञान देव: ज्ञान
विली (वल ) और वी (वायु)
"ओडिन, विली और वी 19 वीं शताब्दी के चित्रों में लोरेन्ज़ फ्रॉलीच द्वारा ब्रह्मांड बनाते हैं विली और वी (क्रमशः "विली-ए" और "वेय (वायु)", भगवान ओडिन  के दो भाई हैं, जिनके साथ उन्होंने ब्रह्मांड के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई। मध्ययुगीन आइसलैंडिक विद्वान स्नोरी स्टर्लुसन हमें बताता है कि ओडिन, विली और वी पहले सत्य थे जो अस्तित्व में थे।  उनके माता-पिता प्रोटो-गॉड बोर और विशालकाय बेस्टला थे।
तीन भाइयों ने विशाल यमिर को मार डाला, जो अस्तित्व में आया था, और ब्रह्मांड को अपनी शव से बना दिया। 
जबकि स्नोरी आम तौर पर एक विशेष रूप से विश्वसनीय स्रोत नहीं है, इस विशेष जानकारी को पूर्व-ईसाई नोर्स विचारों के प्रामाणिक खाते के रूप में स्वीकार करने के अच्छे कारण हैं, यह देखते हुए कि यह अन्य सबूतों के साथ कितना अच्छा है, जिसे हम नीचे देखेंगे।
विली और वी भी एक अन्य कहानी में शामिल हैं जो हमारे पास आ गया है: जब ओडिन अस्थायी रूप से एस्सार से , अस्सी देवताओं के दिव्य गढ़ को "अमानवीय" जादू का  अभ्यास करने के लिए निर्वासित कर दिया गया था, विली और वी अपनी पत्नी फ्रिग के साथ सो गए थे।
दुर्भाग्यवश, घटनाओं की इस श्रृंखला में उनकी भूमिका के बारे में और अधिक जानकारी नहीं है।पुराने नोर्स साहित्य में 'विली और 'वी के अन्य स्पष्ट संदर्भ ओडिन के भाई के रूप में विली के उत्तीर्ण होने तक सीमित हैं।
स्माररी के प्रोज एडडा में हहर ("हाई"), जफरहरर  ("जस्ट एज़ हाई"), और Þriði ("तीसरा"), जिनकी नाममात्र कथाओं में भूमिका पूरी तरह से व्यावहारिक है, ओडिन, विली, और वी,
लेकिन यह संभावना है कि वे ओडिन तीन अलग-अलग रूपों के तहत हैं, क्योंकि ओल्ड नर्स कविता में अन्य तीन नाम ओडिन पर लागू होते हैं। 
विली और वी के बारे में सबसे अधिक आकर्षक जानकारी उनके नामों में मिल सकती है। पुराने नर्स में , विली का अर्थ है "विल,"और वे का अर्थ "मंदिर"है और यह उन शब्दों के साथ निकटता से निकटता से संबंधित है जो पवित्र के साथ करना है, और विशेष रूप से पवित्र हैं।
दिलचस्प बात यह है कि ओडिन, विली और वी के प्रोटो-जर्मनिक नाम क्रमशः * वुंडानाज़ , * वेल्जोन ,  और * विक्सन थे । यह अलगाव शायद ही संयोगपूर्ण हो सकता है, और सुझाव देता है कि त्रैमासिक समय उस समय की तारीख है जब प्रोटो-जर्मन भाषा बोली जाती थी - लगभग 800 ईस्वी में वाइकिंग एज शुरू होने से पहले, और संभवतः सहस्राब्दी या दो से कम नहीं उस तारीख से पहले।
यद्यपि वे केवल वाइकिंग एज से साहित्य में स्पोराडिक रूप से वर्णित हैं और इसके तुरंत बाद, विली और वी नर्स और अन्य जर्मन लोगों के लिए कम से कम जर्मनिक जनजातियों के समय, और संभवतः बाद में भी प्रमुख महत्व के देवताओं के रूप में होना चाहिए। जर्मन अल्पसंख्यक सक्रिय उपयोग में हजारों सालों के इतने बड़े अनुपात में केवल मामूली महत्व का कोई पौराणिक आंकड़ा बरकरार रखा नहीं गया था, जिसके दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण बदलाव किए थे। तथ्य यह है कि विली और वी ओडिन के भाइयों के रूप में डाले जाते हैं, शायद इस समय के अधिकांश में सबसे ज्यादा जर्मनिक देवता, उनके ऊंचे स्तर का एक और सुझाव है।
दरअसल, ओडिन, विली, और वी - क्रमशः प्रेरणा, चेतना का इरादा, और पवित्र - तीन सबसे बुनियादी ताकतों या विशेषताओं हैं जो अराजकता से किसी भी ब्रह्मांड को अलग करते हैं। इसलिए यह तीन देवताओं थे जो मूल रूप से ब्रह्मांड बनाते थे, और निश्चित रूप से इसके निरंतर रखरखाव और समृद्धि के सबसे आवश्यक स्तंभों में से तीन बने रहे।
उत्तरी पौराणिक कथाओं का शब्दकोश। एंजेला हॉल द्वारा अनुवादित। पृष्ठ। 362।
अर्थात् थ्रिडी ज्ञान का नॉर्स देवता है ।_____
ग्रीक पौराणिक कथाओं में ट्रिटॉन Triton , (Τρίτων) एक मर्मन , समुद्र का देवता है जो वस्तुत वैदिक त्रैतन का प्रतिरूप है ।
"यूनानी पुराणों में  त्रैतन  (Triton) समुद्र के देवता, पोसीडॉन और उसकी पत्नी अम्फिट्राइट (Amphitrite)का पुत्र था। जिन्हें वैदिक सन्दर्भों में क्रमश: पूषन् तथा आप्त्य कहा गया है।
वेदों में पूषण देखें -👇____
"यस्य ते पूषन् त्सख्ये पिपन्यव: कृत्वा चित् सन्तोऽवसा बभ्रुज्रिरे ।तामनु त्वा नवीयसीं नियुतं  राय ईमहे ।
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 हे पूषा ! शीघ्र गामी मनुष्य को मार्ग में उचित दिशा बताने के समान तुम्हें स्तोत्र में प्रेरणा करता हूँ । जिससे तुम हमारे शत्रुओं को दूर करो। मेैं तुम्हारा आह्वान करता हूँ । तुम मुझे युद्ध में बलवान बनाओ।

"पॉसीडॉन (Poseidon) यूनानी पुरा-कथाओं के अनुसार समुद्र और जल का देवता है । जो सूर्य के रूप में भी प्रकट होता है ।
शैतान का प्रारम्भिक रूप एक सन्त अथवा ईश्वरीय सत्ता के रूप में थी  यह तथ्य स्वयं ऋग्वेद में भी विद्यमान हैं ।👇
ऋषि-अथर्वा । देवता - पूषण -त्रैतन के पाप का वर्णन- अथर्ववेद ६/११३ और ११४ सूक्त)
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👇"त्रिते देवा अमृजतैतदेनस्त्रित एनन् मनुष्येषु ममृजे ।
ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥१॥ (6./113/1-अथर्ववेद)
मरीचीर्धूमान् प्र विशानु पाप्मन्न् उदारान् गछोत वा नीहारान् ।
नदीनं फेनामनु तान् वि नश्य भ्रूणघ्नि पूषन् दुरितानि मृक्ष्व ॥२॥ (6./113/2-अथर्ववेद)
द्वादशधा निहितं त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यैनसानि ।
ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥३॥(6./113/3-अथर्ववेद)
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"यद्देवा देवहेडनं देवासश्चकृम वयम् आदित्यास्तस्मान् नो युयमृतस्य ऋतेन मुञ्चत ॥१॥
(अथर्ववेद  6/114/1)
ऋतस्य ऋतेनादित्या यजत्रा मुञ्चतेह नः ।
यज्ञं यद्यज्ञवाहसः शिक्षन्तो नोपशेकिम ॥२॥
(अथर्ववेद  6/114/2)
मेदस्वता यजमानाः स्रुचाज्यानि जुह्वतः ।
अकामा विश्वे वो देवाः शिक्षन्तो नोप शेकिम ॥३॥
(अथर्ववेद  6/114/3)
अर्थात् देवताओं ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित के मन में स्थापित किया ।
 त्रित ने इस पाप को सूर्योदय के पश्चात् सोते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित किया। हे परिविते ! तुझे जो पाप देवी प्राप्त हुई है । इसे मन्त्रशक्ति से दूर भगा ।  हे परिवेदन में उत्पन्न पाप तू परिवित्ति त्याग कर  अग्नि और सूर्य के प्रकाश में प्रविष्ट हो । तू धूप में , मेघ के आवरण या कुहरे में प्रवेश कर । हे पाप तू नदीयों के फेन में समा जा ।
त्रित का वह पाप बारह स्थानों में स्थापित किया गया।वही पाप मनुष्यों में प्रविष्ट हो जाता है।
 हे मनुष्य यदि तू पिशाची के द्वारा प्रभावित हुआ है तो उसके प्रभाव को पूर्वोक्त देवता और ब्राह्मण इस मन्त्र द्वारा शमन करें । 
सम्भवतया  देवताओं के द्वारा त्रित में पाप के स्थापित किए जाने के कारण वह देव विरोधी हो गया ।त्रैतनु अथवा त्रैतन या त्रित सभी एक ही सत्ता के रूप हैं ।
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एक ऋषि तथा देवता । परंतु निरुक्त में इसे एक द्रष्टा कहा है [नि.४.६] । इन्द्र ने त्रित के लिये अर्बुद का वध किया[ऋ..२.११.२०] ।

अस्य।सुवानस्य।मंदिनः।त्रितस्य । नि।अर्बुदं ।ववृधानः ।अस्तरित्यस्तः ।अवर्तयत् । सूर्यः । न। चक्रं । भिनत् । वलं। इंद्रः । अंगिरस्वान् ॥२०॥
(ऋग्वेद २/११/२०)

मंदिनोऽस्य =मदकरमिमं सुवानस्य= सुतवतस्त्रितस्य तीर्णनमस्कस्य महर्षेरर्थं वावृधानः सोमेन वर्धमान इंद्रोऽर्बुदं ।
अम्बूनि ददातीत्यर्बुदो मेघः ।
अनुस्वारस्य रेफश्छांदसः । 
यद्वा नामैतत् । 
अर्बुदाख्यमसुरं न्यस्तः।।
स्तॄ हिंसायामित्यस्य लङि तिपि बहुलं छंदसीति विकरणस्य लुक् । गुणे कृते हलङ्यादिना तिलोपः । नितरामवधीत् । 
महांतं चिदर्बुदं नि क्रमीः पदा ।१.५१.६.।
इत्यादिष्वर्बुदवधः स्पष्टमुक्तः । किंच अंगिरस्वान् अंगिरोभिः सहित इंद्रोऽवर्तयत् । असुरहननार्थं वज्रमभ्रामयत् । सूर्यो न। 
यथा सूर्यश्चक्रं भ्रामयति तद्वत्। यद्वा यस्मादसुराद्भिया सूर्यः स्वकीयं रथचक्रं नावर्तयत् । निषेधार्थीयोऽत्र नकारः  
वर्तयितुं नाशकत् तं( वलं पणीनां प्रभुमसुरं भिनत् । वज्रेणाभिनत्। यद्वा द्विचक्रो हि पूर्वं सूर्यस्य रथः । तस्यैकं चक्रमिंद्रेणापहृतं । 
सूर्य इति शाप सुलुगिति षष्ठ्येकवचनस्य सुः । सूर्यस्य संबंध्यपहृतं तदेकं चक्रमवर्तयत् । रक्षोहननार्थमभ्रामयत् 
तेन चक्रेण वलमभिनच्च । 
नश्चार्थे ॥
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  (अस्य) इसका (सुवानस्य) सुवान का  (मन्दिनः) सबको आनन्द उत्पन्न करनेवाले (त्रितस्य) त्रित का  (अर्बुदम्) अर्बुद  सेनाओं को (वावृधानः) बढ़ाते हुए (अस्तः) (अस्+क्त )युद्धक्रिया में प्रेरणा को प्राप्त (चक्रम्) चक्र को  (सूर्यः) सूर्य ने (न) जैसे  (अवर्त्तयत्) वर्त्ताते हो सो आप जैसे (अङ्गिरस्वान्) अंगिरसों कों  (इन्द्रः) इन्द्र ने (बलम्) बल को (नि,भिनत्) छिन्न-भिन्न करने वैसे वर्त्तो ॥२०॥
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त्रित ने त्रिशीर्ष का [ऋ.१०.८.८] , एवं त्वष्ट्रपुत्र विश्वरुप का वध किया [ऋ.१०.८.९] । 
मरुतों ने युद्ध में त्रित का सामर्थ्य नष्ट नहीं होने दिया [ऋ.८.७.२४]  त्रित ने सोम देकर सूर्य को तेजस्वी बनाया [ऋ.९.३७.४] । त्रित तथा त्रित आप्त्य, एक ही होने के कारण संभव है । त्रिंत को आप्त्य विशेषण लगाया गया है । इसका अर्थ सायण ने उदकपुत्र किया है [ऋ.९.४७.१५] । यह अनेक सूक्तों का द्रष्टा है [ऋ.१.१०५,८.४७,६.३३,३४,१०२,१०.१-७] । 

एक स्थान पर इसने अग्नि की प्रार्थना की है कि, मरुदेश के प्याऊ के समान पूरुओं को धन से तुष्ट करते हो 
[ऋ.१०४] । त्रित शब्द इंद्र के लिये उपयोग में लाया गया है [ऋ.१.१८७.२] । उसी प्रकार इन्द्र के भक्त के रुप में भी इसका उल्लेख है [ऋ.९.३२.२.१०,.८.७-८]  
त्रित तथा गृत्समद कुल का कुछ सम्बन्ध था, ऐसा प्रतीत होता है [ऋ.२.११.१९] ।
-त्रित को विभूवस का पुत्र कहा गया है [ऋ.१०.४६.३] । त्रित अग्नि का नाम हैं [ऋ. ५.४१.४] । त्रित की वरुण तथा सोम के साथ एकता दर्शाई है [ऋ.८.४१.६,९.९५.४] । एक बार यह कुएँ में गिर पडा । वहॉं से छुटकारा हो, इस हेतु से इसने ईश्वर की प्रार्थना की । यह प्रार्थना बृहस्पति ने सुनी तथा त्रित की रक्षा की [ऋ.१.१०५.१७] 
भेडियों के भय से ही त्रित कुएँ में गिरा होगा [ऋ.१.१०५.१८] । इसी ऋचा के भाष्य में, सायण ने शाटयायन ब्राह्मण की एक कथा का उल्लेख किया है ।
"एकत, द्वित तथा त्रित नामक तीन बंधु थे ।
त्रित पानी पीने के लिये कुएँ में उतरा । तब इसके भाईयों ने इसे कुएँ में धक्का दे कर गिरा दिया, तथा कुँआ बंद करके चले गये । 
तब मुक्ति के लिये, त्रित ने ईश्वर की प्रार्थना की 
[ऋ.१.१०५] । यह तीनों बन्धु अग्नि के उदक से उत्पन्न हुएँ थे [श. ब्रा.१.२.१.१-२];[तै.ब्रा ३.२.८.१०-११] 
-महाभारत में, त्रित की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है ।गौतम को "एकत, द्वित तथा त्रित नामक पुत्र थे ।
यह सब ज्ञाता थे । परन्तु कनिष्ठ त्रित तीनों में श्रेष्ठ होने के कारण, सर्वत्र पिता के ही समान उसका सत्कार करना पडता था । इन्हें विशेष द्रव्य भी प्राप्त नहीं होता था एक बार त्रित की सहायता से यज्ञ पूर्ण कर के, इन्होंने काफी गौए प्राप्त की । गौऐं ले कर जब ये सरस्वती के किनारे जा रहे थे, तब त्रित आगे था । दोनों भाई गौओं को हॉंकते हुए पीछे जा रहे थे इन दोनों को गौओं का हरण करने की सूझी । त्रित निःशंक मन से जा रहा था।
इतने में सामने से एक भेडिया आया । 
उससे रक्षा करने के हेतु से त्रित बाजू हटा, तो सरस्वती के किनारे के एक कुएँ में गिर पडा । 
"इसने काफी चिल्लाहट मचाई । परंतु भाईयों ने सुनने पर भी, लोभ के कारण, इसकी ओर ध्यान नहीं दिया । भेडिया का डर तो था ही ।जल-हीन, धूलि-युक्त तथा घास से भरे कुएं में गिरने के बाद, त्रित ने सोचा कि, ‘मृत्यु भय से मैं कुए में गिरा  इसलिये मृत्यु का भय ही नष्ट कर डालना चाहिये’। इस विचार से, कुएँ में लटकनेवाली वल्ली को सोम मान कर इसने यज्ञ किया ।देवताओं ने सरस्वतीं के पानी के द्वारा इसे बाहर निकाला आगे वह कूप ‘त्रित-कूप’ नामक तीर्थ स्थल हो गया घर वापस जाने पर, शाप के द्वारा इसने भाईयों को भेडिया बनाया ।
उनकी सन्तति को इसने बन्दर, रीछ आदि बना दिया ।
"बलराम जब त्रित के कूप के पास आया, उस समय उसे यह पूर्वयुग की कथा सुनाई गयी [म.श.३५];[ भा.१०.७८]
आत्रेय राजा के पुत्र के रुप में, त्रित की यह कथा अन्यत्र भी आई है [स्कंद.७.१.२५७] ।
यूनानी महाकाव्य इलियड में वर्णित त्रेतन (Triton)एक समुद्र का देवता है ।जो पॉसीडन(Poisidon ) तथा एम्फीट्रीट(Amphitrite) का पुत्र है।
"Triton is the a minor seafood Son of the Poisson & Amphitrite " he is the messenger of sea "
"त्रेतन की कथा पारसीयों के धर्म - ग्रन्थ अवेस्ता ए जेन्द़ में थ्रेतॉन के रूप में वर्णित है इनके धर्म-ग्रन्थों में थ्रेतॉन अथव्यय से अजि-दहाक वैदिक अहिदास की लड़ाई हुई यूनानी महाकाव्यों में अहि  (Ophion) के रूप में है ।ऋग्वेद के प्रारम्भिक सूक्तों में त्रेतन समुद्र तथा समुद्र का देवता है । वस्तुत: तीनों लोकों में तनने के कारण तथा समुद्र की यात्रा में नाविकों का कारण करने से होने के कारण इसके यह नाम मिला ।
वेद तथा ईरानी संस्कृति में त्रेतन  तथा त्रित को चिकित्सा का देवता माना गया ----
"यत् सोमम् इन्द्र विष्णवि यद् अघ त्रित आपत्यये---अथर्व०(२०/१५३/५ )
अंगेजी भाषा में प्रचलित शब्द( Treat )लैटिन "Tractare तथा Trahere के रूप संस्कृत भाषा के "त्रातर्" से साम्य रखते है ।
बाद में इसका पद सोम ने ले लिया जिसे ईरानी आर्यों ने साम के रूप में वर्णित किया है। 
परवर्ती वैदिक तालीम संस्कृति में त्रेतन को  दास तथा वाम -मार्गीय घोषित कर दिया गया था ।
देखें--- 
यथा न मा गरन् नद्यो मातृतमा दास अहीं समुब्धम बाधु: ।
शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत स्वयं दास उरो अंसावपिग्ध ।।
ऋग्वेद--१/१५८/५ 
-अर्थात्--हे अश्वनि द्वय माता रूपी समुद्र का जल  भी मुझे न डुबो सके । दस्यु ने युद्ध में बाँध  कर मुझे फैंक दिया .
त्रेतन ने जब मेरा शिर काटने की चेष्टा की तो वह स्वयं ही कन्धों से आहत हो गया ..

वेदों की ये ऋचाऐं संकेत करती हैं कि देव संस्कृति के अनुयायी आर्य  इस समय सुमेरियन" बैबीलॉनियन आदि संस्कृतियों के सानिध्य में थे। क्योंकि सुमेरियन संस्कृति में त्रेतन को शैतान के रूप में वर्णित किया गया है।
 यही से यह त्रेतन पूर्ण रूप से हिब्रू" ईसाई तथा इस्लामीय संस्कृतियों में नकारात्मक तथा अवनत अर्थों को ध्वनित करता है। यहूदी पुरातन कथाओं में ये तथ्य सुमेरियन संस्कृति से ग्रहण किये गये ।
तब सुमेरियन" बैवीलॉनियन" असीरियन तथा फॉनिशियन संस्कृतियों के सानिध्य में ईरानी आर्य थे ।
असीरियन संस्कृति से प्रभावित होकर ही ईरानी आर्यों ने असुर महत् ( अहुर-मज्द़ा)को महत्ता दी निश्चित रूप से यह शब्द यूनानीयों तथा भारतीय आर्यों में समान है। संस्कृत भाषा में प्रचलित शब्द त्रि -(तीन ) फ़ारसी में सिह (सै)हो गया फ़ारसी में जिसका अर्थ होता है =(तीन)
जैसे संस्कृत भाषा का शब्द त्रितार (एक वाद्य) फ़ारसी में सिहतार हो गया है । इसी प्रकार त्रितान, सिहतान हो गया है । क़ुरान शरीफ़ में शय्यतन शब्द का प्रयोग हुआ है।  जो  फारसी सिहतान का रूपांतरण है।
ऋग्वेद में एक स्थान पर त्रेतन के मूल रूप त्रित का वर्णन इस प्रकार हुआ है । कि जब देवों ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित में ही स्थापित कर दिया  तो त्रित- त्रेतन हो गया । अनिष्ट उत्पादन जिसकी प्रवृत्ति बन गयी ।
 देखिए-- त्रित देव "अमृजतैतद् एन: त्रित एनन् मनुष्येषु ममृजे" --- अथर्ववेद --६/२/१५/१६
-अर्थात् त्रित ने स्वयं को पाप रूप में सूर्योदय के ' लेते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित कर दिया वस्तुत: त्रेतन पहले देव था 
हिब्रू परम्पराओं में शैतान /सैतान को अग्नि से उत्पन्न माना है ।और ऋग्वेद में भी त्रित अग्नि का ही पुत्र है ।
-अग्नि ने यज्ञ में गिरे हुए हव्य को  धोने के लिए जल से तीन देव बनाए --एकत ,द्वित तथा त्रित जल (अपस्) से उत्पन्न ये आप्त्य हुए जिसे होमर के महाकाव्यों में (Amphitrite)...कहा गया है ।अर्थात् इस तथ्य को उद्धृत करने का उद्देश्यय ही है कि वेदों का रहस्य असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों के विश्लेषण कर के ही उद्घाटित होगा _____
बाइबिल में शैतान का वर्णन - इस प्रकार है ।👇
परमेश्वर के द्वारा शैतान को एक पवित्र स्वर्गदूत के रूप में रचा गया था।
(यशायाह- 14:12 सम्भवत: शैतान को गिरने से पहले लूसीफर का नाम देता है।
यहेजकेल 28:12-14 उल्लेख करता है कि शैतान को एक करूब के रूप में रचा गया था, जो कि स्वर्गदूतों में सबसे उच्च प्राणी के रूप में दिखाई देता हुआ जान पड़ता था ।
-वह अपनी सुन्दरता और पद के कारण घमण्ड से भर गया और परमेश्वर से भी ऊँचे सिहांसन पर विराजमान होना चाहता था (यशायाह 14:13-14; यहेजकेल 28:15;1 तिमुथियुस 3:6)। यही शैतान का घमण्ड उसके पतन का कारण बना। यशायाह 14:12-15 में दिए हुए कथनानुसार " उसके पाप के कारण, परमेश्वर ने उसे स्वर्ग से निकाल दिया।
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-शैतान इस संसार का हाकिम और वायु की शाक्ति का राजकुमार बन गया (यूहन्ना 12:31; 2 कुरिन्थियों 4:4; इफिसियों 2:2)।
वह दोष लगाने वाला है (प्रकाशितवाक्य 12:10), परीक्षा में डालने वाला है (मत्ती 4:3; 1 थिस्सलुनीकियों 3:5), और धोखा देने वाला है (उत्पत्ति 3; 2 कुरिन्थियों 4:4; प्रकाशितवाक्य 20:3)। उसका नाम ही "शत्रु" है या वह जो "विरोध करता" है। उसके एक और पद, इबलीस है, जिसका अर्थ "निन्दा करने वाला" है।" हांलाकि उसे स्वर्ग से निकाल बाहर किया है, परन्तु वो अभी भी अपने सिहांसन को परमेश्वर से ऊपर लगाना चाहता है। जो कुछ परमेश्वर करता है उस सब की वो नकल, यह आशा करते हुए करता है कि वह संसार की अराधना को प्राप्त कर लेगा और परमेश्वर के राज्य के विरोध में लोगों को उत्साहित करता है।
"शैतान ही सभी तरह की झूठी शिक्षाओं और संसार के धर्मों के पीछे अन्तिम स्त्रोत है।______
"शैतान परमेश्वर और परमेश्वर का अनुसरण करने वालों के विरोध में अपनी शाक्ति में कुछ और सब कुछ करेगा। परन्तु फिर भी, शैतान का गंतव्य –आग की झील में अनन्तकाल के लिए डाल दिए जाने के द्वारा मुहरबन्द कर दिया गया है (प्रकाशित वाक्य 20:10)।_______
"इय्योब नामक काव्य ग्रन्थ में शैतान एक पारलौकिक सत्व है जो ईश्वर के दरबार में इय्योब पर पाखंड का आरोप लगाता है। यहूदियों के निर्वासनकाल के बाद (छठी शताब्दी ई. पू.) शैतान एक पतित देवदूत है जो मनुष्यों को पाप करने के लिए प्रलोभन देता है। बाइबिल के उत्तरार्ध में शैतान बुराई की समष्टिगत अथवा व्यक्तिगत सत्ता का नाम है।उसको पतित देवदूत, ईश्वर का विरोधी, दुष्ट, प्राचीन सर्प, परदार साँप (ड्रैगन), गरजनेवाला सिंह, इहलोक का नायक आदि कहा गया है। 

त्रैतन-★†
अनुवाद-जहाँ मसीह अथवा उनके शिष्य जाते, वहाँ शैतान अधिक सक्रिय बन जाता क्योंकि मसीह उसको पराजित करेंगे और उसका प्रभुत्व मिटा देंगे। किंतु मसीह की वह विजय संसार के अंत में ही पूर्ण हो पाएगी (दे. कयामत)। इतने में शैतान को मसीह और उसके मुक्तिविधान का विरोध करने की छुट्टी दी जाती है। दुष्ट मनुष्य स्वेच्छा से शैतान की सहायता करते हैं। संसार के अंत में जो ख्राीस्त विरोधी (ऐंटी क्राइस्ट) प्रकट होगा वह शैतान की कठपुतली ही है।उस समय शैतान का विरोध अत्यंत सक्रिय रूप धारण कर लेगा किंतु अंततोगत्वा वह सदा के लिए नर्क में डाल दिया जाएगा। ईसा पर अपने विश्वास के कारण ईसाई शैतान के सफलतापूर्वक विरोध करने में समर्थ समझे जाते हैं। बाइबिल के उत्तरार्द्ध तथा चर्च की शिक्षा के अनुसार शैतान प्रतीकात्मक शैली की कल्पना मात्र नहीं है; पतित देवदूतों का अस्तित्व असंदिग्ध है। दूसरी ओर वह निश्चित रूप से ईश्वर द्वारा एक सृष्ट सत्व मात्र है जो ईश्वर के मुक्तिविधान का विरोध करते हुए भी किसी भी तरह से ईश्वर के समकक्ष नहीं रखा जा सकता।
"ग्रीक कवि हेसियोड के अनुसार, ट्राइटन अपने माता-पिता के साथ समुद्र की गहराई में एक सुनहरे महल में रहते था। 
कभी-कभी वह विशिष्ट नहीं था लेकिन कई ट्राइटनों में से एक था। एक मछली की पूँछ के साथ, वह अपने कमर के लिए मानव के रूप में प्रतिनिधित्व किया गया था। ट्राइटन की  विशेषता एक मुड़कर सीशेल- (मछली) थी, जिस पर उसने स्वयं को शान्त होने या लहरों को बढ़ाने के लिए उड़ा दिया।_______
अनुवाद-(Poseidon)पोसीडोन, ग्रीक धर्म में, समुद्र के देवता (और आम तौर पर पानी), भूकम्प और घोड़े के रूप वह है।(Amphitrite)एम्फिट्राइट, यूनानी पौराणिक कथाओं में समुद्र की देवी, भगवान पोसीडॉन की पत्नी ।ग्रीक : Τρίτων Tritōn  ) एक पौराणिक ग्रीक देवता , समुद्र के दूत है । वह क्रमशः समुद्र के देवता और देवी क्रमश: पोसीडोन और एम्फिट्राइट का पुत्र है।और उसके पिता के लिए हेराल्ड है । उन्हें आम तौर पर एक मर्मन के रूप में दर्शाया जाता है जिसमें ओवीड [1 के अनुसार, मानव और पूंँछ, मुलायम पृष्ठीय पंख, स्पाइनी पृष्ठीय पंख, गुदा फिन, श्रोणि पंख और मछली के कौडल फिन का ऊपरी शरीर होता है। ट्रिटॉन की  विशेषता एक मुड़ता हुआ शंख  खोल था, जिस पर उसने शांत होने या लहरों को बढ़ाने के लिए तुरही की तरह स्वयं को उड़ा दिया। इसकी आवाज इतनी शोक थी, कि जब जोर से उड़ाया गया, तो उसने दिग्गजों को उड़ान भर दिया, जिसने इसे एक अंधेरे जंगली जानवर की गर्जना की कल्पना की। शायद 'सूकर के सादृश्य पर --हेसियोड के थेसिस  के अनुसार,  ट्रिटॉन अपने माता-पिता के साथ समुद्र की गहराई में एक सुनहरे महल में रहता था; होमर एगे से पानी में अपना आसन रखता है  त्रिटोनियन झील" ले जाया गया तब से उसका नाम  त्रिटोनियन हुआ।, ट्राइटोनिस झील , जहां ट्राइटन, स्थानीय देवता ने डायोडोरस सिकुलस द्वारा " लीबिया पर शासक" ___
ट्राइटन पल्लस के पिता थे और देवी एथेना के लिए पालक माता-पिता थे।दो देवी के बीच एक विचित्र लड़ाई के दौरान गलती से एथेना ने पल्लस की हत्या कर दी थी। ट्राइटन को कभी-कभी ट्राइटोन , समुद्र के डेमोनों में गुणा किया जा सकता है ।_____
"जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था, वेल्श शब्द twrch त्रुच  का मतलब है "जंगली सूअर, हॉग, तिल है " तो 'Twrch Trwyth का अर्थ है "सूअर Trwyth"। इसका आयरिश संज्ञान ट्रायथ, स्वाइन का राजा (पुरानी आयरिश: ट्रायथ  टॉर्राइड) या लेबर गैबला इरेन में वर्णित टोरक ट्रायथ हो सकता है।को सनस कॉर्माइक में ओल्ड आयरिश ओआरसी ट्रेथ "ट्रायथ्स सूअर" के रूप में भी रिकॉर्ड किया गया है। "राहेल ब्रॉमविच" ने भ्रष्टाचार के रूप में ट्रविथ के रूप में इस रूप का सम्मान किया।प्रारंभिक पाठ हिस्टोरिया ब्रितोनम में, सूअर को ट्रिनट या ट्रॉइट कहा जाता है, जो वेल्श ट्र्वाइड से लैटिनिकरण की संभावना है।प्राचीन ग्रीक पौराणिक कथाओं में एम्फिट्राइट ( æ m f ɪ t r aɪ t iː / ;ग्रीक रूप Ἀμφιτρίτη ) 
एक समुद्री देवी और पोसीडोन की पत्नी यह  समुद्र जगत्  की साम्राज्ञी थी। ओलंपियन पंथ के प्रभाव में, वह केवल पोसीडोन की पत्नी बन गई और समुद्र के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व के लिए कवियों द्वारा इसे वर्णित कर दिया गया। 
रोमन पौराणिक कथाओं में , तुलनात्मक रूप से मामूली आकृति, नेप्च्यून की पत्नी, साल्शिया , खारे पानी की देवी थी। जो संस्कृत शब्द सार अथवा सर से साम्य रखता है ।_____
पौराणिक कथाओं का सन्दर्भ में -"बिस्ली ओथेका" के मुताबिक, एम्फिट्राइट हेरियस की थीगनी के अनुसार, न्यूरियस और टेरीस (और इस प्रकार एक महासागर ) के अनुसार, नेरियस और डोरिस (और इस प्रकार एक नेरीड ) की बेटी थी, जो वास्तव में उसे नीरिड्स और महासागर से सम्बंधित करती हैं । ।दूसरों ने उसे समुद्र के व्यक्तित्व ( नमकीन

पानी ) कहा।  एम्फिट्राइट की संतान में सील  और डॉल्फ़िन शामिल थे। पोसीडॉन और एम्फिट्राइट का एक बेटा था, ट्राइटन जो एक मर्मन था,
और एक बेटी, रोडोस  (यदि यह रोडो वास्तव में हेलिया पर पोसीडॉन(सुमेरियन -पिक्स-नु-वैदिक-विष्णु)  द्वारा नहीं पैदा किया गया था या अन्य लोगों के रूप में (Asopus ) की बेटी नहीं थी) तो भी इनके साम्य सूत्र भारतीयों के सरस्वती , राधा , पूषन्, त्रैतन आदि पौराणिक पात्रों से हैं ।________
बिब्लियोथेका (3.15.4) में पोसीडॉन और एम्फिट्राइट की एक बेटी भी बेंथेशेइक नाम का उल्लेख करती है ।
एम्फिट्राइट कुरिंथ से एक पिनएक्स पर एक ट्राइडेंट (575-550 ईसा पूर्व)
एम्फिट्राइट होमरिक महाकाव्यों में पूरी तरह से व्यक्त नहीं है: "खुले समुद्र में, एम्फिट्राइट के ब्रेकर्स में" ( ओडिसी iii.101), "एम्फिट्राइट moaning" सभी गिनती के पीछे संख्याओं में मछलियों को पोषण "( ओडिसी xii.119)।
वह थियिसिस  के साथ अपने होमरिक एपिथेट हेलोसिडेन ("समुद्री-पोषित")  को कुछ अर्थों में साझा करती है, समुद्र- नीलम दोहराए जाते हैं।
"प्रतिनिधित्व और पंथ :-
यद्यपि एम्फिट्राइट यूनानी संस्कृति में नहीं दिखता है, एक पुरातन अवस्था में वह उत्कृष्ट महत्व का था, क्योंकि होमरिक हिमन से डेलियन अपोलो में, वह ह्यूग जी। एवलिन-व्हाइट के अनुवाद में अपोलो के बीच में दिखाई देती है, "सभी प्रमुख देवियों, दीओन और रिया और इकेनिया और थीम्स और जोर से चिल्लाते हुए एम्फिट्राइट ; " हाल ही के अनुवादकों [9] एक अलग पहचान के रूप में "Ichnae" के इलाज के बजाय "Ichnaean थीम्स" प्रस्तुत करने में सर्वसम्मति से हैं। बैकचलाइड्स के एक टुकड़े के अनुसार, उनके पिता पोसीडॉन के पनडुब्बी हॉल में इनस नेरस की बेटियों को तरल पैर के साथ नृत्य और "अगस्त, बैल आंखों वाले एम्फिट्राइट" को देखा, जिन्होंने उन्हें अपनी शादी की पुष्पांजलि के साथ पुष्पित किया। जेन एलेन हैरिसन ने काव्य उपचार में मान्यता प्राप्त एम्फिट्राइट के शुरुआती महत्व की एक प्रामाणिक गूंज: "पोसीडॉन के लिए अपने बेटे को पहचानना बहुत आसान होता था मिथक पौराणिक कथाओं के शुरुआती स्तर से संबंधित है जब पोसीडोन अभी तक भगवान का देवता नहीं था समुद्र, या, कम से कम, कोई बुद्धिमान सर्वोच्च नहीं - एम्फिट्राइट और नेरीड्स ने अपने नौकरों के साथ ट्राइटन्स के साथ शासन किया। यहां तक ​​कि इतने देर हो चुकी है कि इलियड एम्फिट्राइट अभी तक 'नेप्च्यूनी उक्सर' नहीं है [नेप्च्यून की पत्नी] "हाउस ऑफ नेप्च्यून और एम्फिट्राइट, हरक्यूलिनियम , इटली में एक दीवार पर एक रोमन मोज़ेक एम्फिट्राइट, "तीसरा जो [समुद्र] घेरता है", समुद्र और उसके प्राणियों के प्रति अपने अधिकार में पूरी तरह से सीमित था कि वह पूजा के उद्देश्यों या कार्यों के लिए लगभग अपने पति से कभी जुड़ी नहीं थी कला के अलावा, जब उसे समुद्र को नियंत्रित करने वाले भगवान के रूप में स्पष्ट रूप से माना जाता था।
,एक अपवाद एम्फिट्राइट की पंथ छवि हो सकती है कि पौसानीस ने कुरिंथ के इस्तहमस में पोसीडोन के मंदिर में देखा अपने छठे ओलंपियन ओडे में पिंडार ने पोसीडॉन की भूमिका को "समुद्र के महान देवता, एम्फिट्राइट के पति, सुनहरे स्पिंडल की देवी" के रूप में पहचाना।
बाद के कवियों के लिए, एम्फिट्राइट बस समुद्र के लिए एक रूपक बन गया: साइप्रॉप्स (702) और ओविड , मेटामोर्फोस , (i.14) में यूरिपिड्स।
यूस्टैथीस ने कहा कि पोसीडॉन ने पहली बार नरेक्स में अन्य नेरेड्स के बीच नृत्य किया,  और उसे ले जाया गया। लेकिन मिथक के एक और संस्करण में, वह समुद्र के सबसे दूर के सिरों पर एटलस की प्रगति से भाग गई,  वहां पोसीडॉन के डॉल्फ़िन ने उसे समुद्र के द्वीपों के माध्यम से खोजा, और उसे ढूंढकर, पोसीडोन की तरफ से दृढ़ता से बात की, अगर हम हाइजिनस  पर विश्वास कर सकते हैं और तारों के बीच नक्षत्र डेल्फीनस के रूप में रखा जा रहा है।
"पूषण बारह आदित्यों में से एक हैं 
"आदित्याश्च द्वादश यथोक्तं विष्णुधर्मोत्तरे भारते च “घाता मित्रोऽर्य्यमा रुद्रो वरुणः सूर्य्यएव च  भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमः स्मृतः एकादशस्तथा त्वष्टा विष्णुर्द्वादश उच्यते” इति (विष्णुधर्मोत्तरपुराण) 
ऋ० १० । ५ । ५ । में वर्णन है 
"स्वसॄ॒ररु॑षीर्वावशा॒नो वि॒द्वान्मध्व॒ उज्ज॑भारा दृ॒शे कम् । अ॒न्तर्ये॑मे अ॒न्तरि॑क्षे पुरा॒जा इ॒च्छन्व॒व्रिम॑विदत्पूष॒णस्य॑ ॥
पद पाठ
स॒प्त । स्वसॄः॑ । अरु॑षीः । वा॒व॒शा॒नः । वि॒द्वान् । मध्वः॑ । उत् । ज॒भा॒र॒ । दृ॒शे । कम् । अ॒न्तः । ये॒मे॒ । अ॒न्तरि॑क्षे । पु॒रा॒ऽजाः । इ॒च्छन् । व॒व्रिम् । अ॒वि॒द॒त् । पू॒ष॒णस्य॑ ॥ १०.५.५

(ऋग्वेद १०/५/५)

सायण भाष्य:-वावशानः= कामयमानो वाश्यमानः स्तोतृभिः= स्तूयमानो वा “विद्वान् सर्वं जानानः सोऽग्निः “अरुषीः= अरोचमानाः “सप्त सप्तसंख्याकाः “स्वसॄः= स्वयंसारिणीः ‘ काली कराली च' ( मु. उ. १. २. ४ ) इत्यादिकाः सप्त जिह्वाः “मध्वः= मदकरात् यज्ञात् “(उज्जभार उज्जहार=  ऊर्ध्वं हृतवान् )। यज्ञे स्वतेजसा प्रादुर्भूत इत्यर्थः । किमर्थम् । “कं= सुखेन “दृशे= सर्वेषामेव पदार्थानां दर्शनार्थम् । किंच “पुराजाः पुराजातः सोऽग्निर्द्यावापृथिव्योः “अन्तः मध्ये “अन्तरिक्षे स्थितः ता जिह्वाः “येमे =नियमितवान् । सर्वत्र तेजोयुक्तो वर्तत इत्यर्थः । अपि च “इच्छन्= यजमानान् कामयमानोऽग्निः ( “पूषणस्य =। पूषेति पृथिवीनाम।)
 पार्थिवस्य लोकस्य “वव्रिं =रूपं पृश्निवर्णम् “अविदत् =प्रायच्छत् । यद्वा । ‘मूर्धा भुवो भवति नक्तमग्निस्ततः सूर्यो जायते प्रातरुद्यन्' (ऋ. सं. १०.८८.६ ) इति मन्त्रान्तरे दर्शनादादित्यात्मनाग्निः स्तूयते । कामयमानः सूर्यात्माग्निः सप्तसंख्याकान् स्वसॄ= रश्मीन् मध्वः =समुद्रोदकादुद्धृतवान् । ततोऽन्तरिक्षे विद्युदात्मना स्थित्वा वृष्टिलक्षणं रूपं पृथिव्याः प्रायच्छदिति ॥

अर्थान्वय:- -(विद्वानो! (सप्त स्वसॄः-अरुषीः-वावशानः) सात बहिनों को चाहते हुए जो बिल्कुल न रुचि रखने वाली    (दृशे) संसार में  दृश्य में(मध्वः-उज्जभार कम्)  है (मधु को जल में भरता है ) (येमे)= सात बहनों को नियन्त्रित रखता है (पूषणस्य वव्रिम्-इच्छन्-अविदत्) उन्होंने  पूषण की रूप-को प्रकाशित करने की इच्छा करते हुए जाना ॥ ऋ०१०/५/५

(पूर्व काल में जब बहिन ही पत्नी रूप में थी )( ऋ० १ । ८२ । ६ )हिब्रू शब्द לְשָׂטָ֣ן, शैतान , मूसा द्वारा तौरेत में उपयोग किया जाता है (लगभग 1500 ईसा पूर्व में) विरोधी का मतलब है और मानव व्यवहार का वर्णन करने वाले सामान्य शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है।एक नाम के रूप में यह बाइबिल की कई हिब्रू किताबों में होता है और उसके बाद यूनानी अक्षरों (σαταν), शैतान  में लिप्यंतरित किया जाता है, और इसके बाद 40 ई०सन् और 90 ईस्वी के बीच लिखे गए नए नियम के लेखन में वर्णनात्मक नाम के रूप में उपयोग किया जाता है।
"वेदों की शब्दावली और देव सूची के बहुतायत अँश सुमेरियन और बाबुली संस्कृति के रूपों  की साम्य रखता है ।
विष्णु का सुमेरियन संस्कृति में वर्णन-82 Number. ( INDO-SUMERIAN SEALS DECIPHERED) भारतीय तथा सुमेरियन सील ( उत्कीर्ण )तथ्यों पर.. अर्थ-वत्ता पूर्ण विश्लेषण) 


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डैगन ( फोनीशियन भाषा में  तो  दागुन ; हिब्रू : भाषा में  और डेओजोगोन , तिब्बती  भाषा में दागान  रूपान्तरण है  वस्तुत यह एक मेसोपोटामियन (सुमेरियन) और प्राचीन कनानी देवता है। 
ऐसा लगता है कि इसे एब्ला , अश्शूर (असुर), उगारिट और एमोरियों जन-जातियों में  एक प्रजनन देवता के रूप में  मान्यता दी गई । 
दागोन का प्रारम्भिक क्षेत्र प्राचीन मेसोपोटामिया और प्राचीन कनान देश ही  है ।
इसकी माता शाला या अशेरा और पिता "एल" के रूप में स्वीकृत किया गया हैं।
"शाला अनाज की प्राचीन सुमेरियन देवी और करुण- भावना की प्रतिमूर्ति थी।
अनाज और करुणा के प्रतीकों ने सुमेर की पौराणिक कथाओं में कृषि के महत्व को प्रतिबिंबित करने के लिए गठबंधन किया है, ।
और यह विश्वास है कि एक प्रचुर मात्रा में फसल देवताओं की करुणा का ही कार्य था। कुछ
परम्पराऐं शाला को प्रजनन देवता और दागोन  (विक्सनु )की पत्नी के रूप में पहचानती हैं!
या तूफान देवता हदाद के पत्नी को इश्तर भी कहा जाता है।
प्राचीन चित्रणों में, वह शेर के सिर से सजाए गए डबल-हेड मैस या स्किमिटार रखती है।
कभी-कभी उसे एक या दो शेरों के ऊपर पैदा होने के रूप में चित्रित किया जाता है।
 बहुत शुरुआती समय से, वह नक्षत्र कन्या से जुड़ी हुई है और उसके साथ जुड़े प्रतीकवाद के निवासी, वर्तमान समय के लिए नक्षत्र के प्रतिनिधित्व में बने रहे हैं।
जैसे अनाज के कान, भले ही देवता का नाम संस्कृति से संस्कृति में बदल गया हो।
भारतीय पुराणों में श्री कृषि की अधिष्ठात्री देवी और विष्णु की पत्नी के रूप में वर्णित है ।
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शिल्--क  = शिला ।
गृहीतशस्यात् क्षेत्रात्कणशोमञ्जर्य्या दानरूपायां  ।
१ वृत्तौ उञ्छशब्दे १०७० पृष्ठ दृश्यम् ।
२ पाषाणे
३ द्वाराधःस्थितकाष्ठखण्डे च (गोवराट) स्त्री अमरः ।
४ स्तम्भशीर्षे
५ मनःशिलायां स्त्री मेदि० ६ कर्पूरे राजनि० ।
अर्थात् शिला का अर्थ  अन्न जो खेतों में से बीना जाता है 
वीनस पर एक पर्वत शाला मॉन्स का नाम उसके नाम पर रखा गया है।

जो कि वैदिक शब्द अरि-(ईश्वर) तथा स्त्री के प्रतिरूप हैं यद्यपि स्त्री  ही कालान्ततरण में श्री के रूप में उचित हुआ ।
जिसे ईष्टर भी कहा गया ।
अथिरत (सम्भवतः) हिब्रू बाइबल में उन्हें अश्दोद और गाजा में कहीं और मंदिरों के साथ पलिश्तियों फलिस्तीनियों के राष्ट्रीय देवता के रूप में उल्लेख किया गया है। 
श्री'  स्त्री या अशेरा प्रजनन , कृषि प्रेम आदि की अधिष्ठात्री देवी हैं ।
और अरि लौकिक संस्कृतियों में एल हो गया  । 
"मछली" के लिए एक कनानी शब्द के साथ एक लंबे समय से चलने वाला संगठन (जैसा कि हिब्रू में : दाग , तिब्ब । / Dɔːg / ), शायद लौह युग में वापस जा रहा है, ने "मछली-देवता" के रूप में एक व्याख्या की है, और अश्शूर कला में " मर्मन- (मत्स्य मानव) के  " प्रारूपों का सहयोग (जैसे 1840 के दशक में ऑस्टेन हेनरी लेर्ड द्वारा पाया गया "डैगन" शब्द  में
यद्यपि, भगवान का नाम "अनाज (सेरियस)" के लिए एक शब्द से अधिक सम्भवतः प्राप्त हुआ था, जिसमें यह सुझाव दिया गया था कि वह प्रजनन और कृषि से जुड़ा हुआ था।
इसी प्रकार "विष्णु" नाम सुमेरियन (पिस्क-नु) के बराबर माना जाता है, और " जल के बड़ी मछली (-गोड) को रीलिंग करना; और यह निश्चित रूप से सुमेरियन में उस पूर्ण रूप में पाए जाने पर खोजा जाएगा। 
और ऐसा प्रतीत होता है कि "शुरुआती अवतार" के लिए विष्णु के इस शुरुआती "मछली" का उपदेश भारतीय ब्राह्मणों ने अपने बाद के "अवतारों" में भी सूर्य-देवता को स्वर्ग में सूर्य-देवता के रूप में लागू किया है। ।
वास्तव में "महान मछली" के लिए सुमेरियन मूल रूप पीश या पीस अभी भी संस्कृत में पिसीर "(मछली) के रूप में जीवित है। "यह नाम इस प्रकार कई उदाहरणों में से एक है !
इस संकेत को" वृद्धि हुई मछली "(कुआ-गनु, अर्थात, खाद-गानू, बी, 6925) कहा जाता है, जिसमें उल्लेखनीय रूप से सुमेरियन व्याकरणिक शब्द बंदू जिसका अर्थ है "वृद्धि" जैसा कि संयुक्त संकेतों पर लागू होता है, संस्कृत व्याकरणिक शब्द गत के साथ समान रूप से होता है।
विसारः, पुं० रूप (विशेषेण सरतीति विसार। सृ गतौ + “व्याधिमत्स्यबलेष्विति वक्तव्यम् ” ३ । ३ । १७ ।
इत्यस्य वार्त्तिकोक्त्या घञ् ) मत्स्यः (मछली)।
इति अमर कोश ॥
विसार शब्द ऋग्वेद में आया है ।
जो मत्स्य का वाचक है ।👇
ऋग्वेदे । १ । ७९ । १ । “हिरण्यकेशो रजसो
विसारेऽर्हिर्धुनिर्वात इव ध्रजीमान् ॥
“रजस उदकस्य विसारे विसरणे मेघार्न्निर्गमने ।” इति तद्भाष्ये सायणः ॥)
अमरकोशः में विसार का उल्लेख है ।
विसार पुं० ( मत्स्यः )
समानार्थक:पृथुरोमन्,झष,मत्स्य,मीन,वैसारिण,
अण्डज,विसार,शकुली,अनिमिष
1।10।17।2।1
पृथुरोमा झषो मत्स्यो मीनो वैसारिणोऽण्डजः।
विसारः शकुली चाथ गडकः शकुलार्भकः॥
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क्यों कि रोमन संस्कृति में श्री (सिरी) कृषि अनाज और प्यार की रोमन देवी थी!
जैसे एक मां अपने बच्चे के लिए सहन करती है 'बर कष्ट वैसे ही यह देवी है।
वह शनि (क्रोनॉस) और ओपीएस की बेटी थी,
बृहस्पति की बहन,
और Proserpine की मां। ...
वह मानव जाति की अपनी सेवा के लिए उन्हें फसल का उपहार देने में प्रिय थीं,
श्रीः, स्त्री, (श्रयतीति । श्रि + “क्विप्वचिप्रच्छीति " उणादि सूत्र २ । ५७ । इति क्विप् दीर्घश्च )
लक्ष्मीः (यथा, विष्णुपुराणे । १ । ८ । १३ ।
“श्रियञ्च देव देवस्य पत्नी नारायणस्य च या
  देवता डेगन पहले मारी ग्रंथों में और व्यक्तिगत अमोरेत नामों में 2500 ईसा पूर्व के मौजूदा रिकॉर्ड में प्रकट होता है ।
जिसमें मेसोपोटामियन देवताओं इलु ( Ēl ), दगन और अदद विशेष रूप से आम हैं।
कम से कम 2300 ईसा पूर्व से एब्ला (मार्डिक को बताएें जो बाद में मोलोक या मालिक हुआ ।
भारतीयों में ये मृडीक है ) 🐩में, डगन शहर के देवता के प्रमुख थे, जिनमें 200 देवताओं शामिल थे और बीई - डिंगिर - डिंगिर , "देवताओं के भगवान" और बेकलम , "भूमि के भगवान" ।
उनकी पत्नी को केवल बेलातु, "लेडी" के नाम से जाना जाता था। ईमुल नामक एक बड़े मंदिर परिसर में दोनों की पूजा की गई, "हाउस ऑफ द स्टार"।
इब्ला की एक पूरी तिमाही और उसके द्वारों में से एक का नाम दगन के नाम पर रखा गया था। दगन को टीलू माटाइम , "भूमि का ओस" और बीकानाना , संभवतः " कनान के भगवान" कहा जाता है।
उन्हें कई शहरों के स्वामी कहा जाता था: तुट्टुल , इरिम, मा-ने, ज़राद, उगाश, सिवाद और सिपिशु के। डगन का कभी-कभी सुमेरियन ग्रंथों में उल्लेख किया जाता है लेकिन बाद में असीरो-बेबीलोनियन शिलालेखों में एक शक्तिशाली और युद्ध के संरक्षक के रूप में प्रमुख बन जाता है।
कभी-कभी एनिल के साथ समान होता है।

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डगन की पत्नी कुछ स्रोतों में देवी शाला (जिसे अदद की पत्नी भी कहा जाता था और कभी-कभी निनिल के साथ पहचाना जाता था )।
अन्य ग्रन्थों में, उनकी पत्नी अशेरा है ।
अपने प्रसिद्ध कानून संहिता के प्रस्ताव में, राजा हम्मुराबी ने खुद को "अपने निर्माता" दगान की मदद से फरात के साथ बस्तियों का उपद्रव कहा।
सीडर माउंटेन से नारम-पाप के अभियान के बारे में एक शिलालेख ( एएनईटी , पृष्ठ 268) से संबंधित है: " नारम-पाप ने अरमान और इब्ला को देवता के 'हथियार' के साथ मार डाला जो अपने राज्य को बढ़ाता है।
" 18 वीं शताब्दी ईसा पूर्व , मारी की अदालत में एक अधिकारी और नहर (बाइबिल शहर नाहोर) ( एएनईटी , पी) के एक अधिकारी ने इटुर-असडू द्वारा लिखित, 18 वीं शताब्दी ईसा पूर्व , मारि के राजा जिमरी -लिम को लिखे एक पत्र में एक दिलचस्प प्रारंभिक सन्दर्भ दिया।
  यह "शाका से आदमी" का सपना बताता है जिसमें डैगन दिखाई देता था। सपने में, डैगन ने ज़िमरी-लिम की यमीनाइट्स के राजा को त्यागने में विफलता पर ज़िमरी-लिम की विफलता पर टेकका में दगान को अपने कर्मों की एक रिपोर्ट लाने में विफलता पर दोष डाला । डैगन ने वादा किया कि जब ज़िमरी-लिम ने ऐसा किया है: "मेरे पास मछुआरे के थूक पर यमीनाइट्स [कोओ] के राजा होंगे, और मैं उन्हें आपके सामने रखूंगा।
" 1300 ईसा पूर्व के आसपास उगारिट में , डैगन के पास एक बड़ा मंदिर था और पिता-देवता और Ēl के बाद, और बाईल इपान (वह भगवान हैडु या हदाद / अदद) के बाद पैंथन में तीसरा स्थान मिला था।
यूसुफ फोंटेनेरोस ने पहली बार दिखाया कि, जो भी उनकी गहरी उत्पत्ति, यूगारिट डैगन में कभी-कभी एल के साथ पहचाना गया था, यह बताते हुए कि क्यों डगन , जो उगारिट में एक महत्वपूर्ण मंदिर था, रास शामरा पौराणिक ग्रंथों में इतनी उपेक्षित है, जहां डैगन का पूरी तरह से उल्लेख किया गया है भगवान हदाद (बाल) के पिता के रूप में गुजरते हुए, लेकिन एला , एल की बेटी, बाल की बहन है।
और क्यों यूगारिट में एल का कोई मंदिर नहीं दिखाई दिया। यह संदेह है कि डैगन "एल और अथिरत के सत्तर पुत्र" में से एक था ।
जिसने बाद में हदाद (बाल) को निकाल दिया जो आखिरकार एल की परिषद के दूसरे चरण में खुद को मजबूर करने का प्रयास करेगा (हालांकि वह अन्ततः असफल हो जाएगा इस प्रयास में) कभी-कभी मेसोपोटामियन शाही नामों में डेगन का इस्तेमाल किया जाता था। इसिन के पूर्व-बेबीलोनियन राजवंश के दो राजा इददीन-दगन (सी। 1 974-1954 ईसा पूर्व ) और इश्मे-दगन (सी। 1 9 53-19 35 ईसा पूर्व ) थे। उत्तरार्द्ध का नाम बाद में दो अश्शूर राजाओं द्वारा उपयोग किया गया: इश्मे-दगन
आई (सी। 1782-1742 ईसा पूर्व ) और इश्मे-डगन II (सी। 1610-1594 ईसा पूर्व )।
लौह युग की विचारों का प्रकाशन-
9 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के अश्शूर सम्राट अशरसाइरपाल द्वितीय ( एएनईटी , पृष्ठ 558) का स्टीर अशरसिरपाल को अनु और दगन के पसंदीदा के रूप में संदर्भित करता है।
एक अश्शूर कविता में, डगन मृतकों के न्यायाधीश के रूप में नर्गल और मिशारू के बगल में दिखाई देते हैं।
देर से बेबीलोनियन पाठ उन्हें ईश्वर के भगवान के सात बच्चों के अंडरवर्ल्ड जेल वार्डर बनाता है।
सीदोन (5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व) के राजा एश्मुनजार के कर्कश पर फोनीशियन शिलालेख
(एएनईटी, पृष्ठ 662) से संबंधित है: "इसके अलावा, राजाओं के भगवान ने हमें दागोन की शक्तिशाली भूमि डोर और जोपा दिया, जो कि मैदान के मैदान में हैं शेरोन , मैंने किए गए महत्वपूर्ण कार्यों के अनुसार। " संचुनीथोन ने स्काई यूरेनस (वरुण) और पृथ्वी के दोनों पुत्र क्रोनस के भाई दागोन को बताया, लेकिन वास्तव में हदाद के पिता नहीं थे। स्काई को अपने बेटे castl द्वारा डाला जाने से पहले हदद (डेमारस) एक उपनगरीय पर "स्काई" द्वारा पैदा हुआ था, जहां गर्भवती उपनगरीय दागोन को दिया गया था।
तदनुसार, इस संस्करण में डैगन हदाद के आधे भाई और सौतेले पिता हैं।
बीजान्टिन एटिमोलॉजिक मैगनम ने डैगन को फोएनशियन क्रोनस के रूप में सूचीबद्ध किया है। हिब्रू बाइबिल में देगॉन ।
17 9 3 में फिलिप जेम्स डी लॉउथबर्ग द्वारा डैगन के विनाश का चित्रण।
हिब्रू बाइबिल में , दागोन विशेष रूप से पलिश्तियों का देवता आशेर ( यहोशू 1 9 .27) के गोत्र में बेथ-दगोन में मंदिरों के साथ गाजा ( न्यायाधीश 16.23) में मंदिरों के साथ है, जो जल्द ही सैमसन द्वारा अपने अंतिम कार्य के रूप में मंदिर को नष्ट करने के बाद बताता है )। अश्दोद में स्थित एक और मंदिर,
1 शमूएल 5: 2-7 में और फिर 1 मैकबीबी के रूप में देर से 10.83; 11.4 में उल्लेख किया गया था।

राजा शाऊल का सिर डैगन के एक मंदिर में प्रदर्शित किया गया था।
यहूदा में बेथ-दगोन के नाम से जाना जाने वाला दूसरा स्थान भी था (यहोशू 15.41)। पहली शताब्दी के यहूदी इतिहासकार जोसेफस ने जेरिको के ऊपर डैगन नामक एक जगह का उल्लेख किया ।
जेरोम ने डायस्पोलिस और जामिया के बीच कैफेडोगो का उल्लेख किया।
नब्बलस के दक्षिण-पूर्व में एक आधुनिक बीट देजन भी है। इनमें से कुछ उपनिवेशवादियों को भगवान के बजाय अनाज के साथ करना पड़ सकता है।
1 शमूएल 5.2-7 में यह लेख बताता है कि कैसे पलिश्तियों ने वाचा का सन्दूक पकड़ा और अश्दोद में दागोन के मंदिर में ले जाया गया।
अगली सुबह अश्दोदी लोगों ने सन्दूक के सामने प्रोस्टेट झूठ बोलते हुए डैगन की छवि पाई।
उन्होंने छवि को सीधे सेट किया, लेकिन फिर अगले दिन की सुबह उन्हें पता चला कि यह जहाज के सामने सजग हो गया है, लेकिन इस बार सिर और हाथों से कटा हुआ, मिप्टन पर झूठ बोलने पर "थ्रेसहोल्ड" या "पोडियम" के रूप में अनुवाद किया गया।
खाता गूढ़ शब्द राक दागोन निसार 'अलायव के साथ जारी है, जिसका अर्थ है शाब्दिक रूप से "केवल डैगन उसे छोड़ दिया गया था।" ( सेप्टुआजिंट , पेशीता , और तर्गम "डैगन" या "डैगन का शरीर" के रूप में "डैगन" प्रस्तुत करते हैं, संभवतः उनकी छवि के निचले भाग का जिक्र करते हैं।) इसके बाद हमें बताया जाता है कि न तो याजक और न ही किसी ने कभी अश्दोद में दागोन के मिप्टन पर "आज तक" कदम उठाए। "हमारे पास सफन्या 1:9 में रीति-रिवाज की स्थायीता के उल्लेखनीय सबूत हैं, जहां पलिश्तियों को 'थ्रेसहोल्ड' पर छलांग लगाने वाले, या अधिक सही तरीके से वर्णित किया गया है।
इस कहानी को दुरा-यूरोपोस सभास्थल के भित्तिचित्रों पर चित्रित किया गया है जो कि महायाजक हारून और सुलैमान मंदिर के चित्रण के विपरीत है। मार्नस संपादित करें गाजा के पोर्फीरी का विटा , गाजा के महान देवता का उल्लेख करता है, जिसे मारनास ( अरामाईक मार्न "भगवान") कहा जाता है, जिसे बारिश और अनाज के देवता के रूप में माना जाता था और अकाल के खिलाफ बुलाया जाता था।
गाजा का मार्न हैड्रियन के समय के सिक्का पर दिखाई देता है।
उन्हें गाजा में क्रेटन ज़ियस, ज़ियस क्रेटगेजेन्स के साथ पहचाना गया था। ऐसा लगता है कि मार्नस डैगन की हेलेनिस्टिक अभिव्यक्ति थी। उनके मंदिर, मार्नियन - मूर्तिपूजा के आखिरी जीवित महान पंथ केंद्र- रोमन सम्राट के आदेश के अनुसार रोमन सम्राट के आदेश के अनुसार 402 में स्वर्गीय रोमन साम्राज्य में उत्पीड़न के दौरान जला दिया गया था। अभयारण्य के फ़र्श-पत्थरों पर चलने से मना कर दिया गया था। बाद में ईसाईयों ने सार्वजनिक बाजार को रोकने के लिए इनका उपयोग किया। मछली-देवता परंपरा संपादित करें खोराबाद से "ओन्स" राहत "मछली" व्युत्पत्ति 1 9वीं और 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में छात्रवृत्ति स्वीकार की गई थी। इसने अश्शूर और फोएनशियन कला (जैसे जूलियस वेल्हौसेन , विलियम रॉबर्टसन स्मिथ ) में " मर्मन " प्रारूप के साथ सहयोग किया,
और बेरॉसस (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) द्वारा वर्णित बेबीलोनियन ओन्स (Ὡάννης) के चित्र के साथ। "मछली" व्युत्पत्ति पर संदेह डालने वाला पहला श्मोकेल (1 9 28) था, जिसने सुझाव दिया कि जबकि डेगन मूल रूप से "मछली देवता" नहीं था, समुद्री कनानियों ( फोएनशियन ) के बीच "मछली" के साथ सहयोग से प्रभावित होगा ।
भगवान की iconography।
Fontenrose (1 9 57: 278) अभी भी सुझाव देता है कि बेरॉसोस ओडाकॉन , भाग आदमी और भाग मछली, शायद डेगन का एक गड़बड़ संस्करण था। डैगन को ओन्स के साथ भी समझा गया था। दाग / दाग मछली के साथ संबंध 11 वीं शताब्दी के यहूदी बाइबिल कमेंटेटर राशी द्वारा किया जाता है ।
13 वीं शताब्दी में, डेविड किम्ही ने 1 शमूएल 5.2-7 में अजीब वाक्य की व्याख्या की कि "केवल डैगन को छोड़ दिया गया था" जिसका अर्थ है "केवल मछली का रूप ही छोड़ा गया था", और कहा:
"ऐसा कहा जाता है कि डैगन , उसकी नाभि से नीचे, एक मछली (जहां उसका नाम, दागोन) था, और उसकी नाभि से, एक आदमी के रूप में, जैसा कि कहा जाता है, उसके दो हाथों काट दिया गया था। " 1 शमूएल 5.2-7 का सेप्टुआजिंट टेक्स्ट कहता है कि दागोन की छवि के हाथ और सिर दोनों टूट गए थे। लोकप्रिय संस्कृति मे  लोकप्रिय संस्कृति में डैगन सेमिटिक देवता डैगन लोकप्रिय संस्कृति के कई कार्यों में दिखाई दिया है। उल्लेखनीय उदाहरणों में जॉन मिल्टन की महाकाव्य कविताओं सैमसन एगोनिस्ट्स और पैराडाइज 
लॉस्ट , डैगन और द शैडो ओवर इनसमाउथ द्वारा एचपी लवक्राफ्ट , फ्रेड चैपल द्वारा डैगन , जॉर्ज एलियट द्वारा मिडिलमार्क और किंग ऑफ किंग्स: मालाची मार्टिन द्वारा डेविड ऑफ़ द डेविड का एक उपन्यास शामिल है ।।

ब्रिटानिका ऑनलाइन विश्वकोष प्राचीन मेसोपोटामियन देवताओं और देवियों यहूदी विश्वकोष: डैगन

1531 (ईसा पूर्व लघु कालक्रम)में शहर के हिताइट शेख के बाद उन्होंने बेबीलोनिया पर नियंत्रण प्राप्त किया , और पहले बाबुल में और बाद में (दुर-कुरिगालज़ू) में वंश की स्थापना की । 
कस्साई एक छोटे सैन्य अभिजात वर्ग के सदस्य थे, लेकिन कुशल शासक और स्थानीय रूप से लोकप्रिय थे, 
और उनके ५०० साल के शासनकाल ने बाद के बेबीलोनियन संस्कृति के विकास के लिए एक आवश्यक आधार तैयार किया। 
ये (Kassites) लोग रथ और घोड़े पूजा की जाती है, पहले इस समय बेबिलोनिया में प्रयोग में आया। 
(Kassite) भाषा है जिसे वर्गीकृत नहीं किया गया । परन्तु ये शोध कार्य अपेक्षित है । उनकी भाषा इंडो-यूरोपियन भाषा समूह से संबंधित थी , जिसका परिवर्तित  ही सेमिटिक या अन्य एफ्रो-एशियाटिक भाषाओं हैं ।
हालांकि कुछ भाषाविदों ने एक लिंक का प्रस्ताव दिया है एशिया माइनर की हुरो-उरार्टियन भाषाओं में कुछ आंकड़ों के अनुसार, कसाई लोग हुरियन जनजाति थे। 
 हालांकि, कसाईयों का आगमन भारत-यूरोपीय लोगों के समकालीन ही है जब यूरोपीय  से जुड़ा हुआ है।
 कई कस्सी नेता और देवता इंडो-यूरोपीय नामों से ऊबते हैं,  और यह संभव है कि वे एक इंडो- मितानी के समान यूरोपीय अभिजात वर्ग , जिसने एशिया माइनर के हुरो-उरर्तियन बोलने वाले हुरियानों (-सुर-सर्व) पर शासन किया से सम्बद्ध 
इतिहास-
स्वर्गीय कांस्य युग
मूल-
Kassites की मूल मातृभूमि अच्छी तरह से स्थापित नहीं है, लेकिन प्रतीत होता है कि यह अब ईरान के लोरेस्टन प्रांत के ज़ाग्रोस पर्वत में स्थित है । हालांकि, Kassites थे की तरह Elamites , Gutians और Manneans जो उन्हें-भाषायी पहले असंबंधित को ईरानी -speaking लोगों को जो एक सहस्राब्दी बाद में क्षेत्र पर हावी के लिए आया था। [१३] [१४] वे पहली बार इतिहास के इतिहास में १] वीं शताब्दी ईसा पूर्व में दिखाई दिए, जब उन्होंने सामसु-इलूना के शासनकाल के ९ वें वर्ष में बेबीलोनिया पर आक्रमण किया (१–४ ९ -१ BC१२ ईसा पूर्व)हम्बुराबी । 
 के प्रमाण वर्तमान ग्रंथों की कमी के कारण अल्प हैं।
एनसाइक्लोपीडिया ईरानिका के अनुसार :
(Kassite Gods-
कई कासाइट देवों  के नाम इंडो-यूरोपियन भाषाओं में हैं । 
कुछ नामों को संस्कृत में देवताओं के नामों के साथ 
निकट से पहचाना जा सकता है , विशेष रूप से Kassite Suriash (संस्कृत सूर्यास:); मरुतास: (संस्कृत, )

द मार्ट्स); और संभवतः शिमालिया 
(भारत में हिमालय पर्वत)।
 Kassite तूफान देवता Buriash (Uburiash, 
या Burariash) के साथ पहचान की गई है ।
ग्रीक भगवान बोरेअस, उत्तरी हवा के भगवान। 
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार ,
ईश्वर के कुछ 30 नाम ज्ञात हैं, ।
इनमें से अधिकांश शब्द 14 वीं और 13 वीं शताब्दी
ईसा पूर्व के मेसोपोटामियन ग्रंथों में पाए जाते हैं।
बुगाश-(भग ), संभवतः एक देवता
का नाम, यह भी एक शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है।
Buriash, Ubriash, या Burariash, 
एक तूफान देवता, (= ग्रीक बोरेअस)
Duniash, एक देवता
Gidar, बेबीलोन अदार करने के लिए इसी
हाला, एक देवी, अदार / Nusku की पत्नी शाला देख
Harbe, सब देवताओं का मंदिर के स्वामी, एक पक्षी 
का प्रतीक , बेल, एनिल्ल या अनु हरदाश से संबंधित
, संभवतः एक भगवान।__________
हुडा का नाम , जो बेबीलोन के वायुदेव
इंद्रेश का नाम है। संभवतः संस्कृत इंद्रास: का प्रतिरूप।
कमुल्ला का, जो बेबीलोनियन
ईश्वर काशू का नाम है, (कासु) एक देवता, जिसका नाम 
पूर्वजन्म है। कसाई राजाओं का।
Maruttash, या Muruttash, (संभवत: वैदिक मरुतास:
Maruts , एक बहुवचन रूप के समान) 
Miriash, एक देवी (पृथ्वी की?), शायद अगले एक
Mirizir, एक देवी, Belet के समान, बेबीलोनियन देवी
बेल्टिस, अर्थात ईशर = शुक्र ग्रह; 8 नुकीले स्टार।
ननई, या नन्ना, संभवतः एक बेबीलोनियन नाम, देवी इश्तार
(वीनस स्टार) के साथ एक शिकारी के रूप में, एक सिंहासन पर एक महिला के रूप में कुदुरुस के रूप में दिखाई दिया।
शाह, एक सूर्य देवता, बेबीलोनियन शमाश के लिए, 
और संभवतः संस्कृत साही के लिए।
शाला, एक देवी, जो जौ के डंठल के प्रतीक हैं, जिसे हल 
शिहू भी कहा जाता है।
,मर्दुक शिमलिया के नामों में से एक
,पहाड़ों की देवी, हिमालय का एक रूप,
सेमल, शुमलिया शिपक, एक चाँद भगवान
शुगाब, अंडरवर्ल्ड के
देवता, बेबीलोनियन नैगर्ल शुगुर के लिए,
बाबुलोन मर्दुक शुमालिया के लिए, पर्च पर एक पक्षी
का प्रतीक देवी, देखें। राजाओं
शुक्मुना के निवेश से जुड़े दो देवता , एक देवता ,
जो एक पक्षी का प्रतीक है , जो एक राजा थे, 
जो कि दो राजाओं के निवेश से जुड़े थे, जो कि
बाबुलियन शमश के समान थे, और संभवतः
वैदिक यज्ञ के लिए, एक सूर्य देव भी थे, 
लेकिन यह हो सकता है स्टार सिरिअस होना चाहिए, 
जो एक प्रतीक के रूप में एक तीर है, जो एक देवता
तुर्गु है
ईरान के कैम्ब्रिज इतिहास में इल्या गेर्शेविच ने तर्क दिया है
कि कई नामों में 'अंत' (-) की राख का अर्थ 'पृथ्वी' है,
हालांकि यह बहुत ही सामान्य नाममात्र की विलक्षण है
जो कई इंडो-यूरोपीय भाषाओं में देखी गई है: PIE -os> संस्कृत-ए, एवेस्टन-ए, ग्रीक -ओस, लैटिन -सु, जर्मनिक -s, स्लाविक--, बाल्टिक -स। 
यह आमतौर पर एक मर्दाना अंत के रूप में समझा जाता है, हालांकि यह लैटिन देवी वीनस और पैक्स के नाम पर होता है। इसके अलावा, यह बहुत कम संभावना है
कि 'पृथ्वी' शब्द का अर्थ बुरीश, स्टॉर्म गॉड, या शुरीश, एक सूर्य देवता के नामों का एक घटक होगा। 
वर्तमान तर्क यह है कि कसाईयों की वास्तविक भाषा एक इंडो-यूरोपियन भाषा नहीं थी, 
हालाँकि उनके देवताओं के नामों पर आधारित थी, 
यह कुछ हद तक असंभव है।
प्रकार भारतीय पुराणों में असुरों को नकारात्मक व    हेय  रूप में वर्णन किया गया है उसी प्रकार ईरानी।।।।।भारोपीय भाषा परिवारों के सम्बन्ध में भाषा वैज्ञानिक यह अवधारणा अभिव्यक्त करते हैं कि प्रागैतिहासिक काल में भी ये भाषाएँ दो उपभाषाओं अथवा वि भाषाओं में विभाजित थी इसी कारण इन भाषाओं से नि:सृत भाषाओं में ध्वनियों के भेद दिखाई देते हैं ।
"जैसे ग्रीक लैटिन आदि भाषाओं में प्राचीन मूल भारोपीय भाषाओं  के–प्राचीन चवर्ग –
(च'छ'ज'झ'ञ) ने कवर्ग- (क'ख'ग'घ'ड॒॰) का रूप ग्रहण कर लिया है । तथा
 संस्कृत और ईरानी भाषाओं में वही चवर्ग घर्षक-ऊष्म–(स'श'ष'ह) उदाहरण-के लिया लैटिन में केण्टम्, अक्टो,डिक्टो, पिक्टो– रूप संस्कृत में क्रमश: शतम्'अष्टौ'दिष्ट: पिष्ट यूरोपीय मूर्धन्य ऊष्म वर्गीय मिलते हैं ।
यूरोपीय भाषाओं में संस्कृत अष्ट के रूपांतरण★-
eighte, earlier ehte (c. 1200), from Old English –eahta, æhta, 
from Proto Germanic *akhto .
(source also of Old Saxon -ahto,
Old Frisian -ahta, 
Old Norse- atta,
Swedish -åtta, 
Dutch -acht, 
Old High German -Ahto, 
German -acht,
Gothic -ahtau), 
from PIE *okto(u) "eight"
(source also of Sanskrit- astau, 
Avestan -ashta, 
Greek -okto,
 Latin- octo, 
Old Irish- ocht-n,
 Breton -eiz, 
Old Church Slavonic- osmi, Lithuanian aštuoni). 
From the Latin word come Italian- otto, 
Spanish -ocho, 
Old French-oit, 
Modern French –huit
यूरोपीय दिश्-अतिसर्जनेे-
 (दिशति-त्यागता है )१. भाग्य । २. उपदेश । ३. दारुहरिद्रा  । ४. काल । .

"भाषा उत्पत्ति के सिद्धान्त और सांस्कृतिक एक रूपता- के सूत्र -

It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Sanskrit dist- "
" Greek deiknynai "to show, to prove," dike "custom, usage;" Latin dicere "speak, tell, say," digitus "finger," Old High German zeigon, German zeigen "to show," Old English teon "to accuse," tæcan "to teach."
___ 
संस्कृत द्वारा प्रदान किया गया है दृश्-दिश्–dic-"इंगित करना, दिखाएं" यूनानी(deiknynai )"साबित करने के लिए," (dike)"कस्टम, उपयोग?"
 लैटिन(dicere "बोलना, बताना), (कहना),"
 digitus "उंगली," पुरानी उच्च जर्मन zeigon, जर्मन zeigen "दिखाने के लिए," पुरानी अंग्रेजी teon "दोष लगाने के लिए," (tæcan)- "शिक्षा देने के लिए।"

पिजि पिञ्ज् =वर्णे
- पिङ्क्ते । पिञ्जाते । पिपिञ्जे । पिञ्जरः । पिङ्गलः । पिङ्गली ।। 18 ।।
Sanskrit pimsati "to carve, hew out, cut to measure, adorn;" Greek pikros "bitter, sharp, pointed, piercing, painful," poikilos "spotted, pied, various;" Latin pingere "to embroider, tattoo, paint, picture;" Old Church Slavonic pila "file, saw," pegu "variegated," pisati "to write;" Lithuanian piela "file," piešiu, piešti "to write;" Old High German fehjan "to adorn."
शतम्-Proto-Germanic *hunda-ratha- (source also of Old Frisian hundred, Old Saxon hunderod, Old Norse hundrað, German hundert); first element is Proto-Germanic *hundam "hundred" (cognate with Gothic hund, Old High German hunt), from PIE *km-tom "hundred," reduced from *dkm-tom- (source also of Sanskrit satam, Avestan satem, Greek hekaton, Latin centum, Lithuanian šimtas, Old Church Slavonic suto, Old Irish cet, Breton kant "hundred"), suffixed form of root *dekm- "ten."
दश-१-Sanskrit dasa,२- Avestan dasa, ३-Armenian tasn,४- Greek deka, ५-Latin decem (source of Spanish diez,६- French dix),७- Old Church Slavonic deseti, ८-Lithuanian dešimt, ९-Old Irish deich, १०-Breton dek,११- Welsh deg, १२-Albanian djetu, १३-Old English ten, १४-Old High German zehan, १५-Gothic taihun "ten."
संख्या वाची  शब्द भारोपीय भाषाओं में समान हैं ।
 (सतम् भारोपीय भाषा वर्ग)  †★
1-संस्कृत- शतम् ।
2-अवेस्ता- सतम् ।
3-रूसी - स्ततो ।
4-बुल्गारियन सुतो ।
5-लिथुऑनियन-स्विजम्तास ।
6-प्राकृत-सर्द ।
7-हिन्दी-"सौ ।
8-फारसी-सद ।
†★केण्टुम् भारोपीय भाषा-वर्ग-
1-ग्रीक- Hekaton
2-लैटिन-Centum
-3-इटालियन-Cento
4-फ्रेच-cent
5-केल्टिक-caint(कैण्ट)
6-गैलिक-क्युड
7-तोखारी-कन्ध
8-गॉथिक-खुँद
इस सतम् और केण्टुम्  वर्ग की विशेषता यूरोपीय भाषा वैज्ञानिक अस्कोली ने प्रस्तुत की- इसके पश्चात वान-ब्राडेक ने यह वर्गीकरण प्रस्तुत किया-
इस नियम के अनुसार भारतीय, ईरानी, आर मेनियन' बालटिक-सिलावॉनिक और अल्बानियन भाषाओं का सम्बन्ध सतम् वर्ग से है । और  ग्रीक' इटैलिक 'लैटिन ' बाल्टिक' फ्रांच' ट्योटोनिक(जर्मन) तोखारी तथा सुमेरियन (हिट्टाइट )भाषाओं का सम्बन्ध केण्टुम वर्ग में है ।
इन वर्गों में प्रथम सतम् पूर्वीय तथा एशिया की भाषाओं का है । 
तथा दूसरा केण्टुम वर्ग हिट्टाइट को छोड़कर यूरोपीय भाषाओं का है ।
 संस्कृत, ग्रीक, तथा लिथुआनिया की उप भाषा (Samogitian) में आज तक एकवचन- द्विवचन और बहुवचन मिलते हैं ।
         

व्याकरण-प्रकरण भाग प्रथम-- 

 
"व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्-यन्ते अर्थवत्तया प्रतिपाद्-यन्ते शब्दा येन इति व्याकरणम् 
"जिसके द्वारा अर्थवत्ता के साथ शब्दों की व्युत्पत्ति ( जन्म) प्रतिपादन किया जाता है वह व्याकरण है ।
वि +आ+कृ-करणे + ल्युट् (अन्) = व्याकरणम् ।
___________
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। 
उसने  अपने विचार ,भावनाओं एवं अनुभुतियों को अभिव्यक्त करने के लिए जिन माध्यमों को  चुना वही भाषा हैं । 

मनुष्य कभी शब्दों से तो कभी संकेतों द्वारा संप्रेषणीयता (Communication) का कार्य सदीयों से करता रहा है। अर्थात् अपने मन के मन्तव्य को दूसरों तक पहुँचाता रहा है । 
किन्तु भाषा उसे ही कहते हैं ,जो बोली और सुनी जाती हो,और बोलने का तात्पर्य मूक मनुष्यों या पशु -पक्षियों का नही ,अपितु बोल सकने वाले मनुष्यों से ही लिया जाता है।
इस प्रकार -"भाषा वह साधन है" जिसके माध्यम से हम अपने विचारों को वाणी का स्वरूप देते हुए आवश्यकता मूलक व्यवहार को साधित करते हैं ।
वस्तुत: यह भाषा हृदय के भाव और मन के विचार दोनों को अभिव्यक्त करने का केवल जैविक साधन है । भाषा की पूर्ण इकाई वाक्य  है अथवा शब्द यह भी विचारणीय है परन्तु निष्कर्ष तो यही निकलता है  कि वाक्य ही भाषा कि समग्र इकाई हैं । वाक्य एक शब्द का भी हो सकता है  और अनेक पदों का भी हो सकता है शिशुओं की भाषा के शब्द भी एक समग्र वाक्य का ही भाव व्यक्त करते हैं । जैसे शिशु जब पा- अथवा माँ कहता है तो इन ध्वनि अनुकरण मूलक शब्दों के उच्चारण से भी प्यास  और भूख जैसे भावों का बोध होता है । भाषा रूपी संसार में शब्द पदों के रूप में परिबद्ध होकर वाक्य रूप में पारिवारिक होकर क्रियाओं के साथ दाम्पत्य जीवन का निर्वहन करते हैं  शब्द और अर्थ की सत्ता शरीर और आत्मा के सदृश ही है इसी लिए मानव शरीर में श्रवणेन्द्रिय(कान )और चक्ष्वेन्द्रिय (आँख) की स्थिति उच्च व अपनी शक्ति के रूप में आनुपातिक है वाणी मानवीय चेतना के विकास का प्रत्यक्ष प्रतिमान व सामाजिक प्रतिष्ठा का भी प्रतिमान है । प्राचीन विद्वानों ने वाणी के विषय में उद्गार उत्पन्न किये हैं ★ 👇

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इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि सर्वथावाचामेव प्रसादेन लोकयात्रा प्रवर्तते।१.३।इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि 

अर्थ-★ इस संंसार मेंं शिष्ट और अतिशिष्टों सब की सब।प्रकार सेे लोक यात्रा वाणी के प्रसाद( कृपा) से ही होती है।।                                   ( काव्यादर्श १/३-४)
इदमन्धन्तमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्यदि शब्दाहवयं ज्योतिरासंसारन्न दीप्यते।।१.४
 अर्थ-★-  इस सम्पूर्ण जगत  तीनों  मेें  अन्धकार ही उत्पन्न होता ; यदि हम सब संसार में शब्दों की ज्योति से प्रकाशित न होते। १.४ ।                             
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मनुष्य अपने भावों तथा विचारों को प्राय:तीन प्रकार से ही प्रकट करता है-
 १-बोलकर (मौखिक ) २-लिखकर (लिखित) तथा ३-संकेत  (इशारों )के द्वारा सांकेतिक रूप में। 
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 .१-मौखिक भाषा :- मौखिक भाषा में मनुष्य अपने विचारों या  हृदय के भावों को मुख से बोलकर अथवा उच्चारणमयी विधि से प्रकट करते है।

 मौखिक भाषा का प्रयोग तभी होता है,जब श्रोता और वक्ता आमने-सामने हों।
 इस माध्यम का प्रयोग प्राय: फ़िल्म,नाटक,संवाद एवं भाषण आदि के रूप में अधिक सम्यक् रूप से होता है ।

 २-.लिखित भाषा:-भाषा के लिखित रूप में लिखकर या पढ़कर विचारों एवं हृदय-भावों का आदान-प्रदान किया जाता है। वस्ततु: भावों का सम्बन्ध हृदय से है जो केवल प्रदर्शित ही किये जाते हैैं; जबकि विचार आयात और निर्यात भी किये जाते हैं ।लिखकर अथवा मौखिक रूप से ; लिखित रूप भाषा का स्थायी माध्यम होता है।
पुस्तकें इसी माध्यम में भाषा लिखी जाती है।

 ३.सांकेतिक भाषा :- सांकेतिक भाषा यद्यपि भावार्थ वा विचारों की अभिव्यक्ति का स्पष्ट माध्यम तो नहीं है ; 
परन्तु यह भाषा का आदि -प्रारूप अवश्य है । 
स्थूल भाव अभिव्यक्ति के लिए इसका प्रयोग अवश्य ही सम्यक् (पूर्ण) होता है यह प्रथम जैविक भाषा है जिससे चित्रलिपि का विधान हुआ ।
________ भाषा और बोली (Language and Dialect) 
♣•भाषा:-(Language)
 भाषा के किसी क्षेत्रीय रूप को बोली कहते है।
 कोई भी बोली विकसित होकर साहित्य की भाषा बन जाती है। 
जब कोई भाषा परिनिष्ठित होकर साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन होती है,तो उसके साथ ही लोकभाषा या विभाषा की उपस्थिति भी अनिवार्य होती है ; और
 कालान्तरण में ,यही लोकभाषा  भी फिर परिनिष्ठित एवं उन्नत होकर साहित्यिक भाषा का रूप ग्रहण कर लेती है।
जिसमें व्याकरण भाषा का अनुशासक बनकर उसे एक स्थायित्व प्रदान करता है ।

👇—दूसरे शब्दों में भाषा और बोली को क्रमश: प्रकाश और चमक के अन्तर से भी जान सकते हैं । अथवा सामाजिक रूप में औषधि विक्रेता से चिकित्सक तक का विकास बेलदार से चिनाई मिस्त्री तक का विकास।
भाषा हमारे सभा या समितीय विचार-विमर्शण की संवादीय अभिव्यक्ति है । 
"भाषा हमारे सभा या समितीय विचार-विमर्शण की संवादीय अभिव्यक्ति है" ।
♣•-बोली:-Patios-
जबकि बोली उपभाषा के रूप में हमारे दैनिक गृह-सम्बन्धी आवश्यकता मूलक व्यवहारों की सम्पादिका है।
जो व्याकरण के नियमों में परिबद्ध नहीं होती है । 
यूरोपीय-भाषावैज्ञानिकों ने बोली के लिए स्पैनिश शब्द( patio)  का प्रयोग किया। यह शब्द स्पैनिश मूल का है  (patio) शब्द का स्पेनिश में प्रारम्भिक अर्थ आँगन' था और माना जाता है कि पुराने शब्द पाटी(pati) (या patu-पटु) का अर्थ चारागाह था |
  - एक घर के पीछे की भूमि जहाँ जानवरों को रात में सुरक्षित रखने के लिए पेटीज (आँगन) का इस्तेमाल किया गया था और आधुनिक समाज के विकसित होने के साथ-साथ एक बाहरी रहने वाले कमरे के रूप में इस शब्द का  परम्परागत रूप से इस्तेमाल किया जाने लगा।  यह निश्चित रूप से, बगीचे के प्रांगण के लिए पारम्परिक रूप भूमध्यसागरीय देशों में  प्रयोग में था।
आधुनिक अंग्रेजी और अमेरिकी उद्यानों में 'आँगन' घर के पास एक पक्का क्षेत्र है, जिसका उपयोग बाहरी बैठने और खाने के लिए  भी किया जाता है उसके लिए भी प्रयोग हुआ । जिसमें एक या दो तरफ को इमारत हो सकती है, लेकिन पारंपरिक स्पैनिश आंगन की तरह एक आंतरिक आंगन होने की संभावना नहीं है। इसी से हिन्दी में (पट्टा) खेत के चमड़े या बानात आदि की बद्धी जो कुत्तों, बिल्लियों के गले में पहनाई जाती है का मूल भी यही है ।
संस्कृत में  पट्ट =(पट्+क्त) नेट् ट वा तस्य नेत्त्वम् का अर्थ नगर  चतुष्पथ या चौराहे को भी कहा गया और भूम्यादिकरग्रहणलेख्यपत्र (पाट्टा) को भी  
 वह भूमि संबंधी अधिकारपत्र जो भूमिस्वामी की ओर से असामी को दिया जाता है और जिसमें वे सब शर्तें लिखी होती हैं जिनपर वह अपनी जमीन उसे देता है। 

वस्तुत: पशुचर-भूमि को पाश्चर (pature) कहा गया जो (patio) शब्द से विकसित हुआ। और पाश में बँधे हुए जानवर को ही पशु कहा गया और पाश शब्द ही अन्‍य रूपान्तरण (पाग) पगाह रूप  में  हिन्दी में आया  और अंग्रेज़ी में इसके समानार्थक (pag) भी है जिसका अर्थ भी बाँधना है ।
वस्तुत: (पेशियों- (patios) गृह, ग्राम,व स्थानीय समाज मे बोली जाने वाली भाषा होती है । भाषा के स्थानीय और प्रान्तीय भेदों के अतिरिक्त ऐसे भेद भी  होते हैं जो एक ही स्थान पर रहने पर भी मनुष्य के भिन्न भिन्न समूहों और वर्गों में पाये जाते हैं। 

उसके लिए भी भाषा शब्द का प्रयोग होता है । एक ही स्थान पर रहने वाले अनेक वर्गों में कुछ अपनी जातिगत और वर्ग गत विशेषताऐं होती हैं जैसे एक ही शहर में रहने वाले  मुसलमान अब्बासी( शाकी) तथा पठान में या ब्राह्मण, कायस्थ और पाशी आदि में अपनी एक बोली होती जो उनके वंशानुगत भाषिक तत्त्वों को आत्मसात् किये होती है । 
इसी बोली की उच्चारण शैली पृथक पृथक होती है । तथा कुछ लोकगीत और (तकियाकलामनुमा) शब्द भी पीढी दर पीढ़ी  भाषाओं के साथ  होते हैं ।
परन्तु इतना  सब होते हुए भी एक समाज या वर्ग दूसरे वर्ग की बातों को यथावत् समझ लेता है । वस्तुत: बोली से तात्पर्य एक निश्चित सीमा के अन्तर्गत बोली जाने वाली भाषा से ही है ।
आज जो हिन्दी हम बोलते हैं या लिखते हैं ,वह कभी  खड़ी बोली अथवा उपभाषा  थी।, इसके पूर्व रूप ,"शौरसेनी प्राकृत"अथवा 'ब्रज' 'प्राकृत' 'अवधी'और मैथिली' आदि थे ये बोलियाँ भी  कालान्तरण में परिमार्जित होकर साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन हो जाती हैं। 
विभाषा(Dialect)
विभाषा का क्षेत्रबोली की अपेक्षा कुछ अधिक विस्तृत होता है  विभाषा का रूप परिमार्जित, शिष्ट , एवं साहित्य सम्पन्न होता है एक एक विभाषा के अन्तर्गत अनेक बोलियाँ होती हैं जोकि उच्चारण, व्याकरण और शब्द -प्रयोगों की दृष्टि से भिन्न होने पर भी एक ही उपभाषा के अन्तर्गत समाहित कर ली जाती हैं। किन्तु विभाषा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है। जैसे व्रज विभाषा की बोली डिंगल पिंगल और खड़ीबोली आदि हैं इस विभाषा गत भिन्नता की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। बोली यहा
 ही समय पाकर कभी कभी विभाषा तथा साहित्यिकभाषा तक का पद प्राप्त कर लेती हैं ।

'डिंगल' राजपूताने की वह राजस्थानी भाषा की शैली जिसमें भाट और चारण काव्य और वंशावली आदि लिखते चले आते हैं यह पश्चिमी राजस्थान मेें प्रसारित  हुई।
पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म भी पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा-शैली के उपकरणों को ग्रहण करते हुआ था भरत पुर के आसपास
इस भाषा में चारण परम्परा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।
राजस्थान के अनेक चारण कवियों ने इस नाम का उल्लेख किया है।
उद्भव डॉ. चटर्जी के अनुसार 'अवह' ही राजस्थान में 'पिंगल' नाम से ख्यात थी।
डॉ. तेसीतोरी ने राजस्थान के पूर्वी भाग की भाषा को 'पिंगल अपभ्रंश' नाम दिया।
उनके अनुसार इस भाषा से संबंद्ध क्षेत्र में मेवाती, जयपुरी, आलवी आदि बोलियाँ मानी हैं।
पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली के उपकरणों को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म हुआ, जिसमें चारण- परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।
'पिंगल'  शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है।
पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से  रहा है।
सूरजमल ने इसका क्षेत्र दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है।
इस प्रकार पीछे राजस्थान से इस शब्द का अनिवार्य लगाव नहीं रहा।
यह शब्द 'ब्रजभाषा वाचक हो गया।
गुरु गोविंद सिंह के विचित्र नाटक में "भाषा पिंगल दी " कथन मिलता है। इससे इसका ब्रजभाषा से अभेद स्पष्ट हो जाता है।
'पिंगल' और 'डिंगल' दोनों ही शैलियों के नाम हैं, भाषाओं के नहीं।
'डिंगल' इससे कुछ भिन्न भाषा-शैली थी।
यह भी चारणों  में ही विकसित हो रही थी।
इसका आधार पश्चिमी राजस्थानी बोलियाँ प्रतीत होती है। 'पिंगल' संभवतः 'डिंगल' की अपेक्षा अधिक परिमार्जित थी
और इस पर 'ब्रजभाषा' का अधिक प्रभाव था।
इस शैली को 'अवहट्ठ' और 'राजस्थानी' के मिश्रण से उत्पन्न भी माना जा सकता है।
डिंगल और पिंगल साहित्यिक राजस्थानी के दो प्रकार हैं डिंगल पश्चिमी राजस्थानी का साहित्यिक रूप है इसका अधिकांश साहित्य चारण कवियों द्वारा लिखित है जबकि पिंगल पूर्वि राजस्थानी का साहित्यिक रूप है।
और इसका अधिकांश साहित्य भाट जाति के कवियों द्वारा लिखित है।
♣•-हिन्दी तथा अन्य भाषाएँ :-
संसार में अनेक भाषाएँ बोली जाती है।

जैसे -अंग्रेजी,रूसी,जापानी,चीनी,अरबी,हिन्दी ,उर्दू आदि। हमारे भारत में भी अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं ।
जैसे -बंगला,गुजराती,मराठी,उड़िया ,तमिल,तेलगु मलयालम आदि। हिन्दी अब भारत में सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हिन्दी भाषा को भारतीय-संविधान में राजभाषा का दर्जा भी दिया गया है। _________
लिपि (Script):- लिपि का शाब्दिक अर्थ होता है - लेपन या लीपना पोतना आदि अर्थात् जिस प्रकार चित्रों को बनाने के लिए उनको लीप-पोत कर सम्यक् रूप दिया जाता है लैटिन से "scribere=लिखना" से 'Script' शब्द का विकास हुआ है।

लिपि के द्वारा विचारों को साकार रूप से लिपिबद्ध कर भाषायी रूप  दिया जाता है। 
लिपि का अर्थ- लिखित या चित्रित करना ।
ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है,वही लिपि कहलाती हैं।
प्रत्येक भाषा की अपनी -अलग लिपि होती है।
हिन्दी और संस्कृत की लिपि देवनागरी है।

 हिन्दी के अलावा - मराठी,कोंकणी,नेपाली आदि भाषाएँ भी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है।
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"व्याकरण"(Grammar)
 •व्याकरण ( Grammar):- व्याकरण वह विधा है; जिसके द्वारा किसी भाषा का शुद्ध बोलना , लिखना व पढ़ना जाना जाता है।
व्याकरण भाषा की व्यवस्था को बनाये रखने का काम करता है। यह  नदी रूपी भाषा के किनारे के समान उसे नियमों में बाँधे रहता है ।  व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं अशुद्ध प्रयोगों पर ध्यान देकर उसे शुद्धता प्रदान करता है। इस प्रकार ,हम कह सकते है कि प्रत्येक भाषा के अपने नियम होते है,उस भाषा का  नियम शास्त्र ही व्याकरण हैं जो भाषा को शुद्ध लिखना व बोलना सिखाता है।
"अब व्याकरण पर कुछ व्युत्पत्ति मूलक विश्लेषण"  🔜
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व्याकरण का यूरोपीय भाषाओं में रूपान्तरण ग्रामर शब्द के द्वारा उद्भासित है ।

 🔜 -प्राचीन ग्रीक (γραμμττική ) में         ( व्याकरणिक , " लेखन में कुशल ") क्रियात्मक रूपों से "ग्रामर" शब्द की अवधारणा का जन्म हुआ।

लैटिन व्याकरण से, पुरानी फ्रांसीसी में Gramire ( शास्त्रीय भाषा सीखने " ) से  सम्बंधित है,
 वर्तमान  ग्रामर शब्द मध्य अंग्रेजी के Gramer , gramarye , gramery से विकास हुआ।

γράμμα (grámma , " लेखन की रेखा )
से , प्रोटो-इण्डो-यूरोपीय gerbʰ- वैदिक भाषा में गृभ (नक्काशीदार , खरोंच ) से γράφω  ( ग्रैफो से निकला , जिसका अर्थ :–  लिखें ) से सम्बद्ध।

एक भाषा बोलने और लिखने के लिए नियमों और सिद्धांतों की एक प्रणाली का नाम ग्रामर है।

( अनगिनत , भाषाविज्ञान ) के सन्दर्भों में
शब्दों की आन्तरिक संरचना ( morphology ) का अध्ययन और वाक्यांशों और वाक्य ( वाक्यविन्यास ) के निर्माण में शब्दों का उपयोग मान्य है।

एक भाषा के व्याकरण के नियमों का वर्णन करने वाली एक पुस्तक  ही व्याकरण है।

ग्रामर शब्द का भावार्थ है :- वह ग्रन्थ जो एक औपचारिक प्रणाली के द्वारा एक भाषा के वाक्यविन्यास को निर्दिष्ट करता है।

अधिकतर फ्रैंकिश शब्द ग्रिमा( Grima) ( मुखौटा, तथा जादूगर ) से आते हैं ।

जिससे ग्रिमेस शब्द की उत्पत्ति भी है।
एक अन्य स्रोत इतालवी शब्द रिमेस ("rhymes की पुस्तक") भी हो सकता है।
जो अन्ततः एक कठिन "जीवन" अपनाया क्योंकि यह फ्रांस चले गए।

किसी भी तरह से, फ्रांसीसी शब्द grimaire शब्द के साथ मिलकर शब्द (grammaire)या ( ग्रामर Grámma) शब्द बना ।

इसी के समानान्तरण यूरोपीय भाषाओं में Spell शब्द का प्रयोग मन्त्र बोलने के लिए भी होता है और भाषाओं की वर्तनी के लिए भी क्योंकि दौनों की गतिविधियाँ समान हैं ।
" वैसे भी व्याकरण 'वर्तनी  और उच्चारण' की  नियामक संहिता है  "
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इस शब्द की अवधारणा एक पुरानी व
र्तनी, "लैटिन के अध्ययन" और "गहन और गुप्त विज्ञान" के अर्थ में "व्याकरण" के सुझाव से  भी की  है "।
"ग्रीक भाषा में (gramma) शब्द का अर्थ "letter"( वर्ण)है।
प्राचीन ग्रीक γραμματικός ( व्याकरणिक , " में सीखना और लिखना  ) से पुरानी फ्रांसीसी gramaire से भी अर्वाचीन फ्रांसीसी grimoire में उधार लिया।
"ग्रामर शब्द का प्राचीन अर्थ प्रयोग ,ग्लैमर और व्याकरण दौनो का सन्दर्भित करता था।
जादू या कीमिया के उपयोग में उसके निर्देशों की एक पुस्तक, विशेष रूप से दैवीय शक्तियों  को बुलाने के लिए भी ग्रामा शब्द रूढ़ रहा है।
grammar
/ˈɡramə/


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gram:- noun word-forming element,
"that which is written or marked," from Greek gramma
"that which is drawn; a picture, a drawing; that which is written, a character, an alphabet letter, written letter, piece of writing;" in plural, "letters,"

also "papers, documents of any kind," also "learning," from stem of graphein "to draw or write"

(-graphy). Some words with There are from Greek compounds,
others  modern formations.

Alternative -gramme is a French form.। 

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From Middle English gramergramaryegramery, from Old French gramaire (“classical learning”), from Latin grammatica, from Ancient Greek γραμματική (grammatikḗ, “skilled in writing”), from γράμμα (grámma, “line of writing”), from γράφω (gráphō, “write”), from Proto-Indo-European *gerbʰ- (“to carve, scratch”). Displaced native Old English stæfcræft. -
Proto-Indo-European-
Root 
*gerbʰ-
to carve
Derived terms
► Terms derived from the Proto-Indo-European root *gerbʰ-
*gérbʰ-e-ti (thematic root present)
Germanic: *kerbaną (see there for further descendants)
*gr‌bʰ-é-ti (tudati-type thematic present)
Hellenic: *grəpʰō
Ancient Greek: γράφω (gráphō)
*gr‌bʰ-tó-s
Hellenic: *grəptós
Ancient Greek: γραπτός (graptós)
Unsorted formations:
Balto-Slavic:
Slavic: *žerbъ
Old Church Slavonic: жрѣбъ (žrěbŭ)
Slavic:
Old Church Slavonic: жрѣбии (žrěbii)
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इसी  ग्रामर का अन्‍य विकसित रूप ग्लैमर भी है जो वर्तमान में सम्मोहक ठाठ-बाट जादू के लिए रूढ़ है  ।

"प्र यन्ति यज्ञम् विपयन्ति बर्हिःसोमऽमादः  विदथे। दुध्रऽवाचः नि ऊं इति भ्रियन्ते यशसः  गृभात् आ दूरेऽउपब्दः वृषणः नृऽसाचः ॥२।
(ऋग्वेद ७/२१/२)
★-अन्वयार्थ
-जो (सोममादः) सोम पान कर के उन्मत्त होते है (दुध्रवाचः) दुुुध्र-दुध--बा० रक् दुष्टं वा धारयति =दोषी वाणी वाले। (वृषणः)  साँड़  (नृषाचः)  मनुष्यों से सम्बन्ध करने वाले  (यज्ञम्) यज्ञ को (प्र, यन्ति) प्राप्त होते हैं (विदथे) संग्राम में (बर्हिः) अन्तरिक्ष में (विपयन्ति) विशेषता से जाते हैं (उ) और जो (यशसः) कीर्ति से वा (गृभात्) घर से (आ, भ्रियन्ते) अच्छे प्रकार उत्तमता को धारण करते हैं तथा जिनकी दूर वाणी पहुँचती वे सज्जत्तमता को धारण करते हैं और वे विजय को प्राप्त होते हैं ॥२॥
"जब सोम पान करके उन्मत्त युद्ध में विजय की इच्छा रखने वाले साँड को यज्ञ में बलि करते थे।
 
"यज्ञं “प्र "यन्ति यष्टारः “बर्हिः च “विपयन्ति स्तृणन्ति । विपिः स्तरणकर्मा । “विदथे यज्ञे “सोममादः ग्रावाणश्च “दुध्रवाचः दुर्धरवाचः भवन्ति । अपि च “यशसः यशस्विनः "दूरउपब्दः । दूर उपब्दिः शब्दो येषां ते दूरउपब्दः । “नृषाचः । नॄन्नेतॄनृत्विजः सचन्त इति नृषाचः । “वृषणः (ग्रावाणः “गृभात् गृहात् । गृहमध्यमग्रावा)' । तस्मात् । “आ इति चार्थे । “नि “भ्रियन्ते अभिषववेलायां निगृह्यन्ते । “उ इति 

Etymology Etymology of Glamour (ग्लैमर). 
From Scots glamer, from earlier Scots gramarye (“magic, enchantment, spell”).enchantment -  सम्मोहन)
The Scottish term may either be from Ancient Greek γραμμάριον (grammárion, “gram”), the weight unit of ingredients used to make magic potions, or an alteration of the English word grammar (“any sort of scholarship, especially occult learning”).
A connection has also been suggested with Old Norse glámr =(poet. “moon,” name of a ghost) and glámsýni (“glamour, illusion”, literally “glam-sight”).
"व्याकरण वर्ण-विन्यास की सैद्धांतिक विधि कि  सम्पादन और उदात्त अनुदात्त और त्वरित स्वरमान के अनुरूप उच्चारण विधान का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र है व्याकरण वर्ण विन्यास के सम्यक् निरूपण की सैद्धांतिक शिक्षा शास्त्र का केन्द्रीय भाव है उचित स्वरमान मन्त्र और साम ( Song) की सिद्धि कारक है और  स्वरों का बलाघात  ही अर्थ का  का निश्चायक है" 
व्याकरण वर्ण- विन्यास का सम्यक् रूप से सैद्धांतिक विवेचन करने वाला शास्त्र है ।  जो वर्ण- विन्यास और  उदात्त ,अनुदात्त और स्वरित स्वरमान के अनरूप उच्चारण विधान करने वाला शास्त्र है मन्त्र शक्तिवाग् भी वर्ण-  और उदात्त ,अनुदात्त और स्वरित मान के अनुरूप उच्चारण द्वारा सिद्ध होकर फल देता है । यही संगीत में गायन आधार तत्व है 
 संस्कृत के महानतम व्याकरणविद हुए हैं आचार्य पाणिनी।  जो पणिन् ( फॉनिशियन जनजाति से सम्बन्धित थे विदित हो कि फॉनिशियन लोगों ने संसार को लिपि और भाषाऐं दीं! पाणिनि ने एक श्लोक में उच्चारण की  शुद्धता का महत्व  इस प्रकार समझाया है।
"मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा, मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह। स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति, यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्॥'५२। 
"पाणिनि शिक्षा नवम-खण्ड 52वाँ श्लोक" 

अर्थात् - स्वर (accent) अथवा वर्ण(Grama) विन्यास से भंग उच्चरित हीनमन्त्र उस अर्थ को नहीं कहता (जिसके लिए उसका उच्चारण किया जाता है) । वह  रूपी वज्र यजमान को नष्ट करता है, जैसे स्वर के अपराध से इन्द्रशत्रु ने किया ।
 "त्वष्टा नाम के असुर ने अपने पुत्र वृत्रासुर की वृद्धि के लिए एक यज्ञ किया था, जिसमें “ 
"इन्द्रशत्रुर्वधस्व" के  स्थान पर इन्द्र: शत्रुर्वर्धस्व" का उच्चारण कर दिया जिसका  अर्थ हुआ.( इन्द्र शत्रुु की वृद्धि हो) मन्त्र में इन्द्रशत्रु पद का उच्चारण “इन्द्रः शत्रुर्वर्धस्व” पद के रूप में कर दिया गया, जिससे इन्द्र वृत्रासुर का शत्रु (शद्+त्रुन्) = शद्=शातने मारणे च (मारनेवाला), यह अर्थ प्रकट हो गया । फलतः इन्द्र द्वारा वृत्रासुर मारा गया 
सरल शब्दों में, अशुद्ध उच्चरित मंत्र उस अर्थ को नहीं कहता जिसके लिए उसका उच्चारण किया जाता है। अशुद्ध उच्चारित मंत्र साधक को लाभ के स्थान पर हानि पहुँचा सकता है।

इसी प्रकार गलत उच्चारण के दुष्प्रभाव के अनेकों उदाहरण हमें शास्त्रों में मिल जाते हैं। 
___________
व्याकरण के तीन मुख्य विभाग होते है :-
 यह व्याकरण भाषा के नियमों का विवेचन शास्त्र है । 
 इस व्याकरण के तीन मुख्य विभाग होते है :-
 १.वर्ण -विचार( Orthography) :- इसमे वर्णों के उच्चारण ,रूप ,आकार,भेद,आदि के सम्बन्ध में अध्ययन होता है।  
_______  
वर्ण -विचार.-Orthography-👇
वर्ण विचार (Orthography):–

वर्ण विचार से तात्पर्य वर्णों के रूप में समावेशित स्वर , व्यञ्जन तथा इनके साथ रहने वाले "अयोगवाह "उत्क्षिप्त तथा सभी -संयुक्त स्वर और व्यञ्जन रूपों के क्रमश: ऊर्ध्व विवेचनाओं से है ।
_____
"Ortho" ग्रीक भाषा का शब्द जिसके व्यापक अर्थ हैं :– 1-सीधा ,2-सत्य, 3-सही,4-आयताकार, 5-नियमित, 6-सच्चा, 7-सही, 8-उचित ।
1-straight, 2-true, 3-correct, 4-rectangular" 5-regular,6-upright, , 7-proper,"
8-Ortho
यह शब्द लैटिन में आर्द्वास (arduus) है तो पुरानी आयरिश में आर्द (Old Irish ard "high") जिसका अर्थ होता है :-उच्च ।

आद्य-भारोपीय  भाषाओं में यह शब्द (Eredh)के रूप में है।
दूसरा शब्द ग्राफी है --जो ग्रीक भाषा के "graphos" से निर्मित है ।
ग्रीक ग्राफेन क्रिया "graphein " =to write --जो अन्य यूरोपीय भाषाओं में निम्न प्रकार से है ।👇
1-Dutch -graaf,
2-German -graph,
3-French -graphe,
4-Spanish -grafo).
5-संस्कृत में ग्रस् /ग्रह् तथा वैदिक रूप गृभ् है । __________

वर्ण, मात्रा और उच्चारण (Gramma ,Diacritic and Pronunciation) के सन्दर्भों में
वर्ण-विन्यास - वर्तनी (Spelling)  अथवा (हिज्जे) विचारणीय हैं ।

वर्ण भाषा की उस सबसे छोटी या लघुतम इकाई को कहते हैं, जिसे और खण्डित नहीं किया जा सकता है । जैसे कोई मकान ईंटौं से से बनता है ।
और ईंटौं से दीवारों के रद्दे बनते हैं ।
और उन रद्दौं का व्यवस्थित समूह दीवार है।🐶

जैसे- क्रमश वर्ण ( स्वर तथा व्यञ्जन ) शब्दों निर्माण करते हैं ।

और शब्दों का वह व्यवस्थित समूह जो एक क्रमिक व अपेक्षित अर्थ को व्यक्त करता है वह वाक्य कहलाता है।

जैसे अनेक दीवारें मिलकर मकान या कोई कमरा बनाती हैं ।
और अनेक वर्ण < शब्द < वाक्यांश <उपवाक्य < वाक्य <गद्यांश या पेराग्राफ बनाते हैं और अनेक गद्यांश ही भाषा हैं ।

वस्तुतः किसी भी भाषा को बोलने के लिए प्रयुक्त होने वाली उस मूल ध्वनि को ही वर्ण कहते हैं जिसे और तोड़ा नहीं जा सकता ।
परन्तु भाषा के  विचार अभिव्यक्ति का साधन होने से वर्ण उस अर्थ में भाषा सी इकाई नहीं है क्योंकि ये विचार अभिव्यक्ति नहीं कर सकते हैं । वाक्य ही भाषा कि सार्थक सूक्ष्म इकाई है । जबकि वर्ण भाषा सी भौतिक निर्माण की इकाई है ।
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वर्णमाला (Alphabet) किसी भी भाषा के वर्णों के उस समूह को वर्णमाला कहते हैं, जिसमें उस भाषा में प्रयुक्त होने वाले सारे स्वर व व्यञ्जन व्यवस्थित क्रम से लिखे होते हैं ।

अंग्रेज़ी वर्णमाला में निम्नलिखित वर्णों के समावेश हैं स्वर (Vowels) वाउलस् -----
स्वरों के भेद (Kinds of Vowels) स्वर : अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ ।
विशेष अ स्वर : अऽ – वर्तुल अ या दीर्घ विलम्बित अर्द्ध विवृत पश्च स्वर अ॑ – प्रश्लेष अ या दीर्घ अर्द्धसंवृत मध्य विशेष आ स्वर :
ऑ – अर्द्ध विवृत पश्च स्वर आ॑ – प्रश्लेष आ या अर्द्धसंवृत दीर्घ मध्य स्वर ।
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व्यञ्जन (Consonants) क वर्ग – क् ख् ग् घ् ङ् च वर्ग – च् छ् ज् झ् ञ् ट वर्ग – ट् ठ् ड् ढ् ड़ ढ़ त वर्ग – त् थ् द् ध् न् प वर्ग – प् फ् ब् भ् म् अन्तःस्थ – य् र् ल् व् उष्म व्यञ्जन – स् ह् संयुक्त व्यञ्जन – क्ष त्र ज्ञ श्र

अंग्रेजी अथवा यूरोपीय भाषाओं तवर्ग न होने के कारण "स"  वर्ण बोलना असम्भव है ।

"अं अर्थात अनुस्वार और अः अर्थात विसर्ग दोनों को अयोगवाह भी कहते हैं

 क्योंकि ये न तो स्वर हैं और न ही व्यञ्जन ।
परन्तु अं और अः को पारम्परिक तौर पर स्वरों के वर्ग में शामिल किया जाता रहा है ।
जो कि क्रमशः अनुनासिक और महाप्राण( ह्) के मात्रात्मक रूपान्तरण हैं ।
मूलतः इनका प्रयोग तत्सम शब्दों में स्वर के बाद होता है ।
(घ) अनुस्वार (ं) का प्रयोग ङ् , ञ्, ण् , न् ,म् के बदले में किया जाता है ।


अष्टाध्यायी -व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 हजार सूत्रों में लिपिबद्ध किया है। 
परन्तु यह पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण नहीं है।
इन सूत्रों में भी अभी और संशोधन- अपेक्षित है। परन्तु कदाचित् सन्धि विधान के निमित्त पाणिनि मुनि ने माहेश्वर सूत्रों की संरचना की है ।
यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल )भी न होते  ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं।
इनकी संरचना व व्युत्पत्ति के विषय में नीचे विश्लेषण है 
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पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या( 14) है ;
जो निम्नलिखित हैं: 👇
__________
१. अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।
उपर्युक्त्त (14 )सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार के क्रम से समायोजित किया गया है। पहले दो सूत्रों में मूलस्वर। फिर परवर्ती दोसूत्रों में सन्धि-स्वर फिर अन्त:स्थ वस्तुत: ये अर्द्ध स्वर हैैं तत्पश्चात अनुनासिक वर्ण हैं जो ।अनुस्वार रूपान्तरण हैं  अनुस्वार "म" तथा न " का ही स्वरूप हैै। अत: बहुतायत वर्ण स्वर युुु्क्त ही हैं ।
पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों में जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक वर्ण) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं।
____  
♣•स्वर और व्यञ्जन का मौलिक अन्तर- 
स्वर और व्यञ्जन का मौलिक भेद उसकी दूरस्थ श्रवणीयता है स्वर में यह दूरस्थ श्रवणीयता अधिक होती है व्यञ्जन की अपेक्षा स्वर दूर तक सुनाई देता है । दूसरा मौलिक अन्तर स्वर में नाद प्रवाहिता अधिक होती है।
स्वर का आकार उच्चारण समय पर अवलम्बित है तथा इनके उच्चारण में जिह्वा के और अन्तोमुखीय अंगों का परस्पर स्पर्श और घर्षण भी  नहीं होता है । जबकि व्यञ्जनों के उच्चारण में न्यूनाधिक अन्तोमुखीय अंगों को घर्षण करते हुए भी निकलती है जिसके आधार पर उन व्यञ्जनों को  अल्पप्राण और महाप्राण नाम दिया जाता है । स्वर तन्त्रीयों में उत्पन्न नाद को ही स्वर माना जाता है  स्वर सभी ही नाद अथवा घोष होते हैं। जबकि व्यञ्जनों में कुछ ही नाद यक्त। होते हैं जिनमें स्वर का अनुपात अधिक होता है । कुछ व्यञ्जन प्राण अथवा श्वास से उत्पन्न होते हैं । 
"स्वर की परम्परागत परिभाषा- स्वतो राजन्ते  भासन्ते इति स्वरा: " जो स्वयं प्रकाशित होता है।स्वतन्त्र रूप से उच्चरित ध्वनि स्वर है; जिसको उच्चारण करने में किसी की सहायता नहीं ली जाती है । परन्तु स्वर की वास्तविक परिभाषा यही है कि स्वर वह है जिसके उच्चारण काल में श्वास कहीं कोई अवरोध न हो और व्यञ्जन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण काल में कहीं न कहीं अवरोध अवश्य हो। जैसे- मत्स्य ।वात्स्यायन। कार्त्स्न्य। आदि शब्दों में यद्यपि परम्परागत स्वर इन होते हुए भी  स्पष्ट उच्चारण सम्भव है । म+  त् +स् +य ।वा+त्+स्+यायन। ।का+र+त्+स्+न्+य। अर्थात्  स्वर वे हैं जिनके उच्चारण में ध्वनि मुख के अन्दर किसी भाग में न ठहरकर सरलता से बाहर निकलती है। और व्यञ्जन वे हैं जिनके उच्चारण में श्वास और नादयुक्त अथवा गुञ्जायमान) ध्वनियाँ अन्तोमुखीय उच्चारण अवयवों को स्पर्श करते हुए रुक रुक कर बाहर निकलती हैं ।


___   
जैसे- मत्स्य ।वात्स्यायन।कार्त्स्न्य। आदि शब्दों में यद्यपि परम्परागत स्वर इन होते हुए भी  स्पष्ट उच्चारण सम्भव है । म+  त् +स् +य ।वा+त्+स्+यायन। ।का+र+त्+स्+न्+य। अर्थात्  स्वर वे हैं जिनके उच्चारण में ध्वनि मुख के अन्दर किसी भाग में न ठहरकर सरलता से बाहर निकलती है। और व्यञ्जन वे हैं जिनके उच्चारण में श्वास और नादयुक्त अथवा गुञ्जायमान) ध्वनियाँ अन्तोमुखीय उच्चारण अवयवों को स्पर्श करते हुए रुक रुक कर बाहर निकलती हैं ।

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माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं।
प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे  दर्शाया गया है।
इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र  अन्त:स्थ  व व्यञ्जन  वर्णों की गणना की गयी है।
संक्षेप में स्वर वर्णों को अच्  अन्त:स्थ एवं  व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है।
अच् एवं हल् भी प्रत्याहार ही हैं।
प्रत्याहार की अवधारणा :---
प्रत्याह्रियन्ते संक्षिप्य गृह्यन्ते वर्णां अनेन (प्रति + आ + हृ--करणे + घञ् प्रत्यय )-जिसके द्वारा संक्षिप्त करके वर्णों  को ग्रहण किया जाता है ।
 प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।
अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।
उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।
यह अच् प्रत्याहार अपने आदि वर्ण ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी  वर्णो का बोध कराता है।
अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि वर्ण 'ह' को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम वर्ण (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण
(ण् क्  च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है अत: ये गिनेे नहीं जाऐंगे।
इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है |
अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।
________
अ'इ'उ ऋ'लृ मूल स्वर । 
ए ,ओ ,ऐ,औ ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ है ।
जैसे क्रमश: अ+ इ = ए  तथा अ + उ = ओ संयुक्त स्वरों के रूप में  गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं । अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇
। अ इ उ । ये मूल स्वर भी मूल स्वर "अ" ह्रस्व से विकसित इ और उ स्वर हैं ।  और ये परवर्ती इ तथा उ स्वर भी केवल
'अ' स्वर के उदात्तगुणी ( ऊर्ध्वगामी ) 'उ' ।
तथाअनुदात्तगुणी (निम्न गामी) 'इ' के रूप में हैं ।
और मूल स्वरों में अन्तिम दो 'ऋ तथा 'ऌ स्वर न होकर क्रमश "पार्श्वविक" (Lateral)तथा "आलोडित अथवा उच्छलित ( bouncing  )" रूप हैं ।
जो उच्चारण की दृष्टि से  क्रमश: मूर्धन्य तथा वर्त्स्य  ( दन्तमूलीय रूप ) हैं ।
अब "ह" वर्ण  का विकास  भी इसी ह्रस्व 'अ' से महाप्राण के रूप में हुआ है ।
जिसका उच्चारण स्थान  काकल है ।👉👆👇
★ कवर्ग-क'ख'ग'घ'ड॒॰। से चवर्ग- च'छ'ज'झ'ञ का विकास जिस प्रकार ऊष्मीय करण व तालु घर्षण  के द्वारा हुआ।   फिर तवर्ग से शीत जलवायु के प्रभाव से टवर्ग का विकास हुआ ।  परन्तु  चवर्ग के "ज'  स का धर्मी तो ख' ष' मूर्धन्य का धर्मी है और 'क वर्ण का  त'वर्ण में जैसे वैदिक स्कम्भ का स्तम्भ  और अनुनासिक न' का ल' मे परिवर्तन है । जैसे ताता-दादा- चाचा-काका एक ही शब्द के चार विकसित रूपान्तरण हैं ।
इ हुआ स प्रकार मूलत: ध्वनियों के प्रतीक तो (28)ही हैं 
परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी  ध्वनि वर्णों की रचना दर्शायी है । जो इन्हीं का विकसित रूप  है ।
______
स्वर- मूल केवल पाँच हैं- (अइउऋऌ) ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक  ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )
इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।
क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25
_____
और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन
१-कवर्ग । २-चवर्ग  । ३-टवर्ग ।४-तवर्ग ।५- पवर्ग। = 25।
तेरह  (13) स्फुट वर्ण ( आ' ई 'ऊ' ऋृ'  लृ )  (ए' ऐ 'ओ 'औ )
( य व र ल)  (  चन्द्रविन्दु ँ )

अनुस्वार ( —ं-- )तथा विसर्ग( :) अनुसासिक और महाप्राण ('ह' )के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।
पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा  वर्णा शम्भुमते मता: ।
निस्सन्देह "काकल"  कण्ठ का ही पार्श्ववर्ती भाग है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक व सजातिय बन्धु हैं।
जैसा कि संस्कृत व्याकरण में कहा भी गया है  ।
(अ 'कु 'ह विसर्जनीयीनांकण्ठा: )
अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह"  ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
_________
अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण का ही विकसित रूप है । अ-<हहहहह.... ।
अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।
अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।________
य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।
क्यों कि अन्त: का अर्थ  मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ-- स्थित रहने वाला ।ये अन्त:स्थ वर्ण हैं
ये  अन्तस्थ वर्ण क्रमश: गुण सन्ध्यक्षर  या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 👇
जैसे :-  इ+अ = य   अ+इ =ए
            उ+अ = व  अ+उ= ओ
   _________    

स्पर्श व्यञ्जनों के सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का ही प्रतिनिधित्व करते  हैं ।
स्पर्श व्यञ्जनों के सभी अनुनासिक (ञ'म'ङ'ण'न) अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते  हैं ।
५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।
८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११.

खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३.
शषसर्।  १४. हल्।
उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार का प्रतिनिधित्व करते हैं अतः अंग्रेज़ी में (त थ द ध ) तथा (स) वर्णो को नहीं लिख सकते हैं क्यों कि वहाँ यूरोप की शीतप्रधान जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त- सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की  उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वाय्वीय ही है जो भारतीय जलवायु का गुण है । उष्म  (श, ष, स,) वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार का प्रतिनिधित्व करते हैं अतः "श्" वर्ण  के लिए  (Sh) तथा "ष्" वर्ण के  (SA) वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं ।
तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर यूरोपीय भाषा अंग्रेजी में पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही  हैं ।
 _____

जैसे प
श्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।
यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है ।
टवर्ग के साथ मूर्धन्य ष उष्म वर्ण है ।
तथा तवर्ग के साथ दन्त्य स उष्म वर्ण है ।
_______👇💭
यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है ;वहाँ तवर्ग का अभाव है ।
अतः (त थ द ध ) तथा (स) वर्णो को नहीं लिख सकते हैं ।
केवल टवर्ग( ट'ठ'ड'ढ'ण) से काम चलता है
क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है ।

अतः "श्" वर्ण  के लिए  (Sh) तथा "ष्" वर्ण के ( S) वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं । तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही  हैं ।
_________
अब पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में दो 'ह'  वर्ण होने का तात्पर्य है कि एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है ।
इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप में हैं । वे
मौलिक रूप में केवल (28) वर्ण हैं ।
जो ध्वनि के मूल रूप के द्योतक हैं ।
_________
स्वरयन्त्रामुखी:-  "ह" वर्ण है ।
"ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का विकास होता है ।
जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह"  वर्ण हैं।
"ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।
काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ । घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं। शब्द कोशों में इसका अर्थ :- १. काला कौआ । २. कंठ की मणि या गले की मणि  जहाँ से "ह" का उच्चारण होता है ।
उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का  वर्गीकरण--👇
उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-________
स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा उनके खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।

विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का स्पपर्श  करता है ।
(क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ) और अरबी प्रभाव से युक्त क़ (Qu) ये सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।
________
(च, छ, ज, झ) को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में समायोजित कर लिया गया है।
इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।
_____
मौखिक(Oral) व नासिक्य(Nasal) :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियाँ आती हैं।
हिन्दी में( ङ, ञ, ण, न, म)  व्यञ्जन नासिक्य हैं। इनके उच्चारण में श्वासवायु नासिका से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें 'पञ्चमाक्षर'  व अनुनासिक भी कहा जाता है।
--
इनके स्थान पर हिन्दी में अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।
वस्तुत: ये सभीे प्रत्येक वर्ग के  पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूपान्तरण मात्र हैं ।
परन्तु सभी केवल  स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में आकर "" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।
_______
जैसे :- 
कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
अड्•क, सड्•ख्या ,अड्•ग , लड्•घन ।
चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
कण्टक,  कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।
तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन,  अन्ध ।
पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
पम्प , गुम्फन , अम्बा,  दम्भ ।
________     
इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं। 
उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन: उष्म का अर्थ होता है- "गर्म" जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें ही उष्म व्यञ्जन कहते है।  
इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन केवल मौखिक हैं।

वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप  सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।
तवर्ग - त थ द ध न का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।
और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है।
जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि--
इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण  टवर्ग के साथ आता है ये सभी सजातिय हैं।
जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि
चवर्ग -च छ ज झ ञ का  तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं  और अपने चवर्ग के साथ इनका प्रयोग है।
जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि
इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।  
_______
उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म- वायु से होता हैं। ये भी चार व्यञ्जन ही होते है- श, ष, स, ह।
_________
पार्श्विक- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से एक साथ  निकलती है।
★''  भी ऐसी ही  पार्श्विक ध्वनि है। 
★अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।
★हिन्दी में (य,  और व) ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।
★लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है। हिन्दी में '' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।
★उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें  ऊपर को फैंके हुुुए- उत्क्षिप्त  (Thrown) /(flap) वर्ण कहते हैं ।
 ड़ और ढ़ भी ऐसे ही व्यञ्जन हैं।
जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।
__________
घोष और अघोष वर्ण---
व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में
विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।
जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं।
दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।
स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों  में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है।

_________
घोष   —  अघोष
ग, घ, – ङ,क, ख।
ज,झ, – ञ,च, छ।
ड, ढ, –ण, ड़, ढ़,ट, ठ।
द, ध, –न,त, थ।
ब, भ, –म, प, फ।
य,  र, –ल, व, ह ,श, ष, स ।
_________
प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन 
का वर्गीकरण किया जाता है।
प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु।
जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।
पाँचों वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं।
हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।
वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।
क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।
वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है ।
परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है । अर्थात जिसका अक्षर न हो वह अक्षर है ।
(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।)
___________
भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को  भी कहते  हैं।
किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।
शब्दांश :- शब्द के वह अंश (खण्ड)होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो शब्द की ध्वनियाँ ही बदल जाती हैं।
उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक' ये तीन झटकों में बोला जाता है।
यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से सुने जा सकते हैं।
लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है।
अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं -
'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।
यह क्रिया उच्चारण क्रिया बलाघात पर आधारित है ,
कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. ।
कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे- 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')।
 कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अन्त-अर-राष-ट्रीय')।
एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को "अक्षर"(syllable) कहा जाता है।
______________
इस. 
उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की  इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है।
__________
★-व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है।
★-अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।
★-अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है; और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।
★-उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।
★-यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा। 
★-इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।
________
कतिपय भाषाओं में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
★-अंग्रेजी भाषा में (न, र, ल,)  जैसे- एन(N) ,आर(R),एल,(L) आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ भी स्वरयुक्त उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
__________
★-कतिपय भाषाओं में व्यञ्
जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
अंग्रेजी भाषा में (न, र, ल,)  जैसे एन(N) ,आर(R),एल,(L) आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है।
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(Vowels)-स्वराः स्वर्-धातु-आक्षेपे । इति कविकल्पद्रुमः ॥-(अदन्त-चुरा०-पर०-सक०-सेट्   वकारयुक्तः रेफोपधः । स्वरयत्यतिरुष्टोऽपि न कञ्चन परिग्रहम् - इति हलायुधः  जिसके प्रक्षेपण (उछलने में ओष्ठ भी कोई परिग्रह नहीं करते वह स्वर है ।
(Consonants) - व्यंजनानि-सह स्वरेण विशेषेण अञ्जति इति व्यञ्जन- 

जो स्वरों की सहायता से विशेष रूप से प्रकट होता है वह व्यञ्जन हैं । व्यञ्जन (३३) अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ऌ, ए, ऐ, ओ, औ स्वर(१३) 
अयोगवाह : अनुस्वार (Nasal) (अं) और विसर्गः (Colon) ( अः) अनुनासिक (Semi-Nasal) चन्द्र-बिन्दु:-(ँ) इसका उच्चारण वाक्य और मुख दौंनो के सहयोग से होता है।
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(द्विस्‍वर-Dipthongs)-एक साथ उच्‍चरित दो स्‍वरों से बनी एकल(एक) ध्वनि; अथवा द्विस्‍वर, संधि-स्‍वर, संयुक्त स्‍वर जैसे शब्‍द जैसे 'Fine' में (आइ) की ध्वनि है | (ए ,ऐ ,ओ , औ) ये भी द्विस्‍वर हैं। 
 
मात्रा:-💮
स्वरों की मात्राएँ शब्द निर्माण की प्रक्रिया में जब किसी स्वर का प्रयोग किसी व्यंजन के साथ मिलाकर किया जाता है, तो स्वर का स्वरूप बदल जाता है ।

स्वर के इस बदले हुए स्वरूप को
ही मात्रा कहते हैं ।
अंगिका के स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं ।

मात्रा को स्वरों का विशिष्ट चिन्ह (Diacritic) भी कहते हैं।

अ – कोई मात्रा नहीं आ – ा इ – ि ई – ी उ – ु ऊ – ू ए – े ऐ – ै ओ – ो औ – ौ अं – ं अः – ः अऽ – ़ऽ अ॑ – ॑ ऑ – ॉ आ॑ – 

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 Dependent (मात्रा)- व्यञ्जन वर्णों के साथ स्वरों का परवर्तित रूप मात्रा है। ( ा, ि, ी, ु, ू, ृ, ॄ, े, ै, ो,ौ ) मूल स्वर- अ, इ, उ, ऋ, ऌ  ।
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Dipthongs:-
two vowel sounds that are pronounced together to make one sound, for example the aI sound in ‘fine’
(द्विस्‍वर:-)एक साथ उच्‍चरित दो स्‍वरों से बनी एकल(एक) ध्वनि; अथवा द्विस्‍वर, संधि-स्‍वर, संयुक्त स्‍वर जैसे शब्‍द ‘fine’ में (आइ) की ध्वनि  ए , ऐ , ओ  , औ ।

ह्रस्वाः- अ , इ , उ , ऋ , ऌ , 

दीर्घाः- आ , ई , ऊ , ॠ , ए , ऐ , ओ , औ 

स्पर्श –     २५.  व्यञ्जन ।    
                                  
खर- अथवा कर्कश— वर्ग का प्रथम और द्वितीय वर्ण (खफछठथचटतकपशषस)और श'स'ष'।

 हश्/मृदु  - वर्ग के तृतीय और चतुर्थ वर्ण तथा ह'य'व'र'ल ञम।                       

अनुनासिकाः : Nasal -वर्ग के पञ्चम वर्ण।
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 Guttural/Gorgical:-कण्ठय-  क्   ख्  ग्   घ्  ड्•।।

  Palatal:- तालव्य  —  च्   छ्    ज्     झ्     ञ् ।।

 Cerebrals:- मूर्धन्य—  ट्     ठ्    ड्    ढ्     ण् ।।

 Dentals:- दन्त्य —   त्     थ्      द्    ध्     न् ।।

 Labials:- ओष्ठय  —   प्      फ्   ब्   भ्     म् ।।___________
                                                                     
 (ऊष्म-वर्ण)- Sibilant Consonants:-(श्  ष्  स् )  
 
 अर्द्ध स्वर  :-(Sami Vowels-  )  य्   व्  र्   ल् ।

Combined Consonants-संयुक्त व्यञ्जन = द्य, त्र , क्ष , ज्ञ. श्र. ।
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★-व्याख्या –"सम्यक् कृतम् इति संस्कृतम्"।
सम् उपसर्ग के पश्चात् कृ धातु के मध्य सेट् (स्)आगम हुआ तब शब्द बना "संस्कार" भूतकालिक कर्मणि कृदन्त में हुआ संस्कृतम्।संस्कृतम् भाषा :– संस्कृत की लिपि देवनागरी।  


               (उच्चारण -स्थान)

१- ह्रस्व Short– २-दीर्घ long– 

३-प्लुत longer – (स्वर) 
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★- विवार:- कण्ठः – (अ‚ क्‚ ख्‚ ग्‚ घ्‚ङ् ह्‚

 Mute Consonants -मूक व्यञ्जन ( --ं-) (:)= विसर्ग ) 
 
★-स्पर्श व्यञ्जन तालुः – (इ‚ च्‚ छ्‚ ज्‚ झ्‚ञ् य्‚ श् ) 

 ★-मूर्धा – (ऋ‚ ट्‚ ठ्‚ ड्‚ ढ्‚ ण्‚ र्‚ ष्) 

 ★-दन्तः (लृ‚ त्‚ थ्‚ द्‚ ध्‚ न्‚ ल्‚ स्) 

 ★-ओष्ठः – (उ‚ प्‚ फ्‚ ब्‚ भ्‚ म्‚ - उपध्मानीय :प्‚ :फ्) 

 ★-नासिका  – (म्‚ ञ्‚ण्‚ ङ्, न् ) 

★-कण्ठतालुः – (ए‚ ऐ ) 

★-कण्ठोष्ठम् – (ओ‚ औ) 

★-औष्ठकण्ठ्य – (व)

 ★-जिह्वामूलम् – (जिह्वामूलीय क्' ख्) 

★-नासिका – अनुस्वार (—ं--) अनुस्वार(: )

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संस्कृत की अधिकतर सुप्रसिद्ध रचनाएँ पद्यमय हैं अर्थात् छन्दबद्ध और गेय हैं। ऋग्वेद पद्यमय है
इस लिए यह समझ लेना आवश्यक है कि इन रचनाओं को पढते या बोलते वक्त किन अक्षरों या वर्णों पर ज्यादा भार देना और किन पर कम।
 उच्चारण की इस न्यूनाधिकता को ‘मात्रा’ द्वारा दर्शाया जाता है।

 🌸↔   जिन वर्णों पर कम भार दिया जाता है, वे हृस्व कहलाते हैं, और उनकी मात्रावधि १-गुना होती है।
 अ, इ, उ, लृ, और ऋ ये ह्रस्व स्वर हैं। 

 🌸↔ जिन वर्णों पर अधिक जोर दिया जाता है, वे दीर्घ कहलाते हैं, और उनकी मात्रावधि( २)गुना होती है। आ, ई, ऊ, ॡ, ॠ ये दीर्घ स्वर हैं।

 🌸↔  प्लुत वर्णों का उच्चारण अतिदीर्घ होता है, और उनकी मात्रावधि (३)- गुना होती है जैसे कि, “नाऽस्ति” इस शब्द में ‘नाऽस्’ की ३ मात्रा होगी।

 वैसे हि ‘वाक्पटु’ इस शब्द में ‘वाक्’ की ३ मात्रा होती है। 
वेदों में जहाँ (३)संख्या लिखी होती है , उसके पूर्व का स्वर प्लुत बोला जाता है। जैसे ओ३म् ।
दूर से किसी के सम्बोधन में प्लुत स्वर का प्रयोग होता है 

 🌸↔ संयुक्त वर्णों का उच्चारण उसके पूर्व आये हुए स्वर के साथ करना चाहिए। 

 पूर्व आया हुआ स्वर यदि ह्रस्व हो, तो आगे संयुक्त वर्ण होने से उसकी २ मात्रा हो जाती है; और पूर्व वर्ण यदि दीर्घ वर्ण हो, तो उसकी ३ मात्रा हो जाती है और वह प्लुत कहलाता है। 
 ये अयोगवाह परिवार के सदस्य है ।
  🌸↔  अनुस्वार और विसर्ग – ये स्वराश्रित होने से, जिन स्वरों से वे जुडते हैं उनकी २ मात्रा होती है।

 परन्तु, ये अगर दीर्घ स्वरों से जुडे, तो उनकी मात्रा में कोई अन्तर नहीं पडता।
 🌸↔  ह्रस्व मात्रा का चिह्न ‘।‘ है, और दीर्घ मात्रा का ‘ऽ‘।  
🌸↔  पद्य रचनाओं में, छन्दों के चरण का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पडने पर गुरू मान लिया जाता है। 
 समझने के लिए कहा जाय तो, जितना समय ह्रस्व के लिए लगता है, उससे दुगुना दीर्घ के लिए तथा तीन गुना प्लुत के लिए लगता है।

  नीचे दिये गये उदाहरण देखिए : राम = रा (२) + म (१) = ३  अर्थात्‌ “राम” शब्द की मात्रा (३) हुई।

 वनम् = व (१) + न (१) + म् (०) = २ वर्ण विन्यास – 

 १. राम = र् +आ + म् + अ , २.  सीता = स् + ई +त् +आ, ३. कृष्ण = क् +ऋ + ष् + ण् +अ ।

 माहेश्वर सूत्र  को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है। पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत अर्थात् संस्कारित एवं नियमित करने के उद्देश्य से वैदिक भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को  ध्वनि-विभाग के रूप अर्थात् (अक्षरसमाम्नाय), नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पदों अर्थात् (विभक्ति युक्त वाक्य में प्रयुक्त शब्द , आख्यात(क्रिया), उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है।
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अष्टाध्यायी में ३२ पाद (चरण) हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभाजित हैं।
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 व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग ४००० हजार सूत्रों में किया है। 

 जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं।
 तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को दृष्टि गत रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।
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विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी में ही हुआ ।
 तभी ग्रामीण या जनसाधारण की भाषा बौद्ध काल से पूर्व ई०पू० 563 में भी थी ।

 यह भी वैदिक भाषा (छान्दस्)से विकसित हुई। 
व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है। 
 पुनः विवेचन का अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं। 

जो हिन्दी वर्ण माला का  भी आधार है ।
 माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति----माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शंकर) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से मानी गयी है।
जो कि एक श्रृद्धा प्रवण अतिरञ्जना ही है ।
रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसे आख्यान परक रूप इस प्रकार दिया। 
 👇  
नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्। उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥ 
 क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण से व्युत्पन्न स्वर ही हैं। इनकी संरचना के विषय में नीचे विश्लेषण है । 
 अर्थात्:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया।

 इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।
 " डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ।
 इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है।

 वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में  शिव का ओ३म स्वरूप भी है। 
उमा शिव की ही शक्ति का रूप है , उमा शब्द की व्युत्पत्ति (उ भो मा तपस्यां कुरुवति ।
 यथा, “उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम ” । (ओ अब तपस्या मा- मत कर ) पार्वती की माता ने उनसे कहा -
 इति कुमारोक्तेः(कुमारसम्भव महाकाव्य)। 

 यद्वा ओर्हरस्य मा लक्ष्मीरिव । 
 उं शिवं माति मिमीते वा । आतोऽनुपसर्गेति कः ।
 अजादित्वात् टाप् । अवति ऊयते वा उङ् शब्दे “विभाषा तिलमाषो मेति” । ५।२।४। निपातनात् मक् ) 
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दुर्गा का विशेषण है उमा ।
 परन्तु यह पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण है।
 परन्तु इन सूत्रों में भी अभी और संशोधन- अपेक्षित है। 
यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल) भी न होते! 
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 पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ; जो निम्नलिखित हैं: 👇 __________ 
प्रत्याहार -विधायक -सूत्र  
१.अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।
यथा—
अण्‌ = अ, इ, उ
ऋक्‌ = ऋ, ऌ
अक्‌ = अ, इ, उ, ऋ, ऌ
एङ्‌ = ए, ओ
एच्‌ = ए, ओ, ऐ, औ
झष्‌ = झ, भ, घ, ढ, ध
जश्‌ = ज, ब, ग, ड, द
अच्‌ = अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ओ, ऐ, औ (सर्वे स्वराः)
हल्‌ = सर्वाणि व्यञ्जनानि
अल्‌ = सर्वे वर्णाः (सर्वे स्वराः + सर्वाणि व्यञ्जनानि)
अवधेयम्
स्वराः
अ, इ, उ, ऋ  = एषु प्रत्येकम्‌ अष्टादशानां वर्णानां प्रतिनिधिः (ह्रस्वः, दीर्घः, प्लुतः; उदात्तः, अनुदात्तः, स्वरितः; अनुनासिकः, अननुनासिकः च |
अर्थात् (अइउऋ) इनमें प्रत्येक के रूप हैं अठारह. ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत; उदात्त अनुदात्त स्वरितः; अनुनासिकः, अननुनासिकः।
___________
१--ह्रस्व-(अ) २-।दीर्घ-(आ)। ३-प्लुत-४-(आऽ) और५- उदात्त-(—अ)' ६-अनुदात्त-( अ_  )'तथा ७- स्वरित - (अ–) ८-अनुनासिक -(अँ)'और ९-अननुनासिक- (अं)
___
 3 x 3 x 2 = 18 |) यथा अनुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-अकारः, अननुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-इकारः, अनुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-उकारः, अननुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-ऋकारः तदा पुनः अनुनासिक-स्वरित-ह्रस्व-अकारः, इत्यादीनि रूपाणि |
हिन्‍दी :-१-अनुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-अकारः, 
२-अननुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-इकारः,
 ३-अनुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व उकारः,
४- अननुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-ऋकारः 
और फिर  दुबारा
५- अनुनासिक-स्वरित-ह्रस्व-अकारः,
ऌ = अयं द्वादशानां प्रतिनिधिः (यतः अस्य वर्णस्य दीर्घरूपं नास्ति | अर्थात ् इस 'लृ' स्वर के बारह रूप होते हैं ।
 2 x 3 x 2 = 12 |)
ए, ओ, ऐ, औ = एषु प्रत्येकम्‌ द्वादशानां वर्णानां प्रतिनिधिः  एषां ह्रस्वरूपं नास्ति | 2 x 3 x 2 = 12 |) अर्थात् इनमें प्रत्येक के बारह रूप होते हैं। इसका छोटा( ह्रस्व) रूप नहीं होता है ।

__________
तथा अनुदात्त व (निम्न गामी) इ के रूप में हैं । 
ऋ तथा ऌ स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है।
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 उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है। 
फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों में जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं। 

माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे  दर्शाया गया है।

 इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है। प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र हल् वर्णों की गणना की गयी है। संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।
"परन्तु अन्तस्थ हल् तो हो सकते व्यञ्जन वर्ण नहीं ।क्योंकि इनकी संरचना स्वरों के संक्रमण से ही हुई है । और व्यञ्जन अर्द्ध मात्रा के होते हैं "
 प्रत्याहार की अवधारणा :--- प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

 आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।

 उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।

 यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है।

 अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ। इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। 

फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह। उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क्  च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है। 

इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है ।
अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है। ________ 
अ'इ'उ' ऋ'लृ' मूल स्वर हैं परन्तु (ए ,ओ ,ऐ,औ ) ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ और ये संयुक्त स्वर ही हैं। _____
जैसे क्रमश: अ इ = (ए)  तथा अ उ = (ओ) संयुक्त स्वरों के रूप में  गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं । अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं । 
👇 । अ इ उ । और ये परवर्ती 'इ तथा उ' स्वर भी केवल अ' स्वर के अधोगामी अनुदात्त और ऊर्ध्वगामी उदात्त ( ऊर्ध्वगामी रूप हैं ।।
 👉👆👇-मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं । 
👇। अ इ उ । और ये परवर्ती 'इ' तथा 'उ' स्वर भी केवल 'अ' स्वर के उदात्त व( ऊर्ध्वगामी ) 'उ' । 
तथा अनुदात्त व (निम्न गामी) 'इ' के रूप में हैं । 
ऋ तथा ऌ स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है।
 जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य 
( दन्तमूलीय रूप ) है । अब 'ह' वर्ण महाप्राण है । 
जिसका उच्चारण स्थान  काकल है । जो ह्रस्व स्वर (अ) से विकसित हुआ है ।
 "अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" स्वर का उच्चारण श्रोत समान है । कण्ठ तथा काकल ।
 👉👆👇-मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं । 

परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतुर्षष्ठी वर्णों की रचना दर्शायी है । 

 स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है। 

अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं।
 वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇 _________

 1. कम्पक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं। 

 2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :- 
_______
(क.) नासा ग्रसनी (nasopharynx), (ख.) ग्रसनी  (pharynx), ग. मुख (mouth), (घ.) स्वरयंत्र (larynx), (च.) श्वासनली और श्वसनी (trachea and bronchus) (छ.) फुफ्फुस (फैंफड़ा )(lungs), (ज.) वक्षगुहा (thoracic cavity)। 
______
 3. स्पष्ट उच्चारक (articulators)अवयव :- इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं : 
(क.) जिह्वा (tongue), (ख.) दाँत (teeth), (ग.) ओठ (lips), (घ.) कोमल तालु (soft palate), (च.) कठोर तालु (मूर्धा )(hard palate)। __________
 स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं :- जीवात्मा द्वारा प्रेरित वायु फुफ्फुस में जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है, तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयन्त्र तक पहुंचती है, जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कम्पित होने लगती हैं, जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है।

विशेष— संगीत के आचार्यों के अनुसार आकाश:स्थ अग्नि और मरुत् (वायु) के संयोग से नाद की उत्पत्ति हुई है। जहाँ प्राण (वायु) की स्थिति रहती है उसे ब्रह्मग्रंथि कहते हैं। पण्डित दामोदर ने संगीतदर्पण मे लिखा है कि आत्मा के द्वरा प्रेरित होकर चित्त  देहज अग्नि  पर आघात करता है और अग्नि ब्रह्मग्रंथिकृत प्राण को प्रेरित करती है।  
अग्नि द्वारा प्रेरित प्राण फिर ऊपर चढ़ने लगता है। और नाभि में पहुँचकर वह अति सूक्ष्म हृदय में सूक्ष्म, गलदेश में पुष्ट, शीर्ष में अपुष्ट और मुख में कृत्रिम नाद उत्पन्न करता है। 

संगीत दामोदर में नाद तीन प्रकार का माना गया है—प्राणिभव, अप्राणिभव और उभयसंभव।
जो सुख आदि अंगों से उत्पन्न किया जाता है वह प्राणिभव, जो वीणा आदि से निकलता है वह अप्राणिभव और जो बाँसुरी से निकाला जाता है वह उभय-संभव है। 

नाद के बिना गीत, स्वर, राग आदि कुछ भी संभव नहीं। ज्ञान भी उसके बिना नहीं हो सकता।

 अतः नाद परज्योति वा ब्रह्मरुप है और सारा जगत् नादात्मक है। इस दृष्टि से नाद दो प्रकार का है— आहत और अनाहत। 
अनाहत नाद को केवल योगी ही सुन सकते हैं। हठयोग दीपिका में लिखा है कि जिन मूढों को तत्वबोध न हो सके वे नादोपासना करें।  
अंन्तस्थ नाद सुनने के लिये चाहिए कि एकाग्रचित होकर शांतिपूर्वक आसन जमाकर बैठे। आँख, कान, नाक, मुँह सबका व्यापार बंद कर दे। अभ्यास की अवस्था में पहले तो मेघगर्जन, भेरी आदि की सी गंभीर ध्वनि सुनाई पडे़गी, फिर अभ्यास बढ़ जाने पर क्रमशः वह सूक्ष्म होती जायगी। इन नाना प्रकार की ध्वनियों में से जिसमें चित्त सबसे अधिक रमे उसी में रमावे। इस प्रकार करते करते नादरूपी ब्रह्म में चित्त लीन हो जायगा।
 व्याकरण में नाद वर्ण जिन वर्णों के उच्चारण में एक प्रयत्न जिसमें कंठ न तो बहुत फैलाकर न संकुचित करके वायु निकालनी पड़ती है।  अनुस्वार के समान उच्चारित होनेवाला वर्ण। सानुनासिक स्वर। अर्धचंद्र। 

 ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयन्त्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं।

 इसके उपरान्त उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपान्तरण उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दन्त तथा ओष्ठ आदि करते हैं।
 इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।
 स्वरयंत्र--- अवटु (thyroid) उपास्थि वलथ (Cricoid) उपास्थि स्वर रज्जुऐं ये संख्या में चार होती हैं जो स्वरयन्त्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं। 

 यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थिति स्थापक रेशे भी होते हैं।
 देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है। इसमें ऊपर की दोनों तन्त्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं।
 इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कण्ठ-द्वार (glottis) कहते हैं।

इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बन्द होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है। 
 स्वर की उत्पत्ति में स्वररज्जुओं की गतियाँ (movements)---- श्वसन काल में रज्जुद्वार खुला रहता है और चौड़ा तथा त्रिकोणकार होता है।
श्वाँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा (विस्तृत) तथा श्वाँस छोड़ने में कुछ संकीर्ण (संकुचित) हो जाता है। बोलते समय रज्जुएँ आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं ;और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है।
 जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वारा उतना ही संकीर्ण हो जाता है। __________
 स्वरयन्त्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लम्बाई बढ़ती है ; जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है।
स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं। इसी लिए पुरुषों का स्वर मन्द्र सप्तक पर आधारित है  और स्त्रियों का स्वर तार सप्तक पर आधारित है। _________
स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त --उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन अथवा आकारीय भेद आ जाता है। ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है । स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है नि:सन्देह 'काकल'  'कण्ठ' का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं। 
 जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है  कहा भी गया है । अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा । 

अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह"  ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
 अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । 👇  ________ 

1. प्रबलता (loudness) - यह कम्पन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है। 

 2. तारत्व (Pitch) - यह कम्पन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है। 

 3. गुणता (Quality) - यह गुञ्जनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है; और कम्पन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर करता है।
 "अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" स्वर का उच्चारण श्रोत समान है । कण्ठ तथा काकल । 

_________

 नि:सन्देह 'काकल'  'कण्ठ' का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं। 
 जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है  कहा भी गया है । अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा । 

 अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह"  ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
 अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । ________
२.शब्द -विचार (Morphology) :- 
___________
२.शब्द -विचार (Morphology) :- इसमे शब्दों के भेद ,रूप,प्रयोगों तथा उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है। वर्णों के सार्थक समूह को शब्द कहते हैं हिंदी भाषा में शब्दों के भेद निम्नलिखित चार आधारों पर किए जा सकते हैं :-
1- उत्पत्ति के आधार पर 2- अर्थ के आधार पर नंबर 3- प्रयोग के आधार पर और नंबर 4- बनावट के आधार पर.
"उत्पत्ति के आधार पर आधार भेद"
🌸↔उत्पत्ति के आधार पर( Based on Origin ) उत्पत्ति के आधार पर शब्दों के पाँच भेद निर्धारित किये जैसे हैं । 
(क) ~ तत्सम शब्द Original Words :-  संस्कृत भाषा के मूलक शब्द जो  हिन्दी में यथावत् प्रयोग किये जाते हैं । मुखसेविका । म्रक्षण । लावणी । अग्नि, क्षेत्र, वायु, ऊपर, रात्रि, सूर्य आदि। 

 (ख) ~ तद्भव शब्द Modified Words:-जो शब्द संस्कृत भाषा के मूलक रूप से परिवर्तित हो गये हैं मुसीका ।माखन ।लौनी । जैसे-आग (अग्नि), खेत (क्षेत्र), रात (रात्रि), सूरज (सूर्य) आदि। 

 (ग) ~  देशज शब्द Native Words :- जो शब्द लौकिक ध्वनि-अनुकरण मूलक अथवा भाव मूलक हों जो शब्द क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बनकर प्रचलित हो गए हैं वे देशज कहलाते हैं।
 जैसे-पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट, खटखटाना आदि। 'झाड़ू' 'लोटा' ,हुक्का, आदि । 

 (घ) ~  विदेशी शब्द Foreign Words:-जो शब्द विदेशी भाषाओं से आये हुए हैं ।
 विदेशी जातियों के संपर्क से उनकी भाषा के बहुत से शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे हैं।

 ऐसे शब्द विदेशी अथवा विदेशज कहलाते हैं।
 जैसे-स्कूल, अनार, आम, कैंची, अचार, पुलिस, टेलीफोन, रिक्शा आदि।
 ऐसे कुछ विदेशी शब्दों की सूची नीचे दी जा रही है।

 अंग्रेजी- कॉलेज, पैंसिल, रेडियो, टेलीविजन, डॉक्टर, लैटरबक्स, पैन, टिकट, मशीन, सिगरेट, साइकिल, बोतल , फोटो, डाक्टर स्कूल आदि। 

 फारसी- अनार, चश्मा, जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, नमूना, बीमार, बरफ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, गंदगी, चापलूसी आदि।

 अरबी- औलाद, अमीर, कत्ल, कलम, कानून, खत, फकीर,रिश्वत,औरत,कैदी,मालिक, गरीब आदि। 

 तुर्की- कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा, बहादुर 
आदि।
पुर्तगाली- अचार, आलपीन, कारतूस, गमला, चाबी, तिजोरी, तौलिया, फीता, साबुन, तंबाकू, कॉफी, कमीज आदि। 

 फ्रांसीसी- पुलिस, कार्टून, इंजीनियर, कर्फ्यू, बिगुल आदि। 

 चीनी- तूफान, लीची, चाय, पटाखा आदि।

 यूनानी- टेलीफोन, टेलीग्राफ, ऐटम, डेल्टा आदि।

 जापानी- रिक्शा आदि।

 डच-बम आदि।

 (ग)~  संकर शब्द( mixed words) :- जो शब्द अंग्रेजी और हिन्दी आदि भाषाओं के योग से बने हों ।
 (रेल + गाड़ी ) (लाठी+चार्ज) आदि ... 
"अर्थ के आधार पर शब्द भेद"

 🌸↔अर्थ के आधार पर (Based on meaning) 
 (क) सार्थक शब्द (meaningful Words) :- इनके भी चार भेद हैं :- 1- एकार्थी 2- अनेकार्थी 3- पर्यायवाची 4- विलोम शब्द । 

 (ख) निरर्थक शब्द (meaningless Words):- ये शब्द मनुष्य की गेयता-मूलक तुकान्त प्रवृत्ति के द्योतक हैं । जैसे:- चाय-वाय ।पानी-वानी इत्यादि
"प्रयोग के आधार पर शब्द भेद" 🌸↔प्रयोग के आधार पर( Based on usage) 

 (क ) अविकारी शब्द lndeclinableWords:- क्रिया-विशेषण, सम्बन्ध बोधक , समुच्यबोधक, और विस्मयादिबोधक ।
 अविकारी शब्द : जिन शब्दों के रूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है वे अविकारी शब्द कहलाते हैं। 
जैसे-यहाँ, किन्तु, नित्य और, हे अरे आदि। इनमें क्रिया-विशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक और विस्मयादिबोधक आदि हैं। 

 🌸↔ विकारी शब्द (Declinable words) :- संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, और क्रिया' ।
 विकारी शब्द :- जिन शब्दों का रूप-परिवर्तन होता रहता है वे विकारी शब्द कहलाते हैं। 
जैसे-कुत्ता, कुत्ते, कुत्तों, मैं मुझे, हमें अच्छा, अच्छे खाता है, खाती है, खाते हैं। इनमें संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया विकारी शब्द हैं। _________
"बनावट  के आधार पर शब्द भेद" 🌸-बनावट के आधार पर(Based on Construction):- (क) रूढ़ शब्द :- Traditional words

 (ख) यौगिक शब्द :-Compound Words 

 (ग) योगरूढ़ शब्द:-(CompoundTraditionalWords) व्युत्पत्ति (बनावट) के आधार पर शब्द के निम्नलिखित भेद हैं- रूढ़, यौगिक तथा योगरूढ़।

 - रूढ़-जो शब्द किन्हीं अन्य शब्दों के योग से न बने हों और किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हों तथा जिनके टुकड़ों का कोई अर्थ नहीं होता, वे रूढ़ कहलाते हैं।
 जैसे-कल, पर।

 - यौगिक-जो शब्द कई सार्थक शब्दों के मेल से बने हों, वे यौगिक कहलाते हैं। जैसे-देवालय=देव+आलय, राजपुरुष=राज+पुरुष, हिमालय=हिम+आलय, देवदूत=देव+दूत आदि। ये सभी शब्द दो सार्थक शब्दों के मेल से बने हैं।  

-योगरूढ़- वे शब्द, जो यौगिक तो हैं, किन्तु सामान्य अर्थ को न प्रकट कर किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हैं, योगरूढ़ कहलाते हैं। 
 जैसे-पंकज, दशानन आदि। पंकज=पंक+ज (कीचड़ में उत्पन्न होने वाला) सामान्य अर्थ में प्रचलित न होकर कमल के अर्थ में रूढ़ हो गया है।
 अतः पंकज शब्द योगरूढ़ है। 
 इसी प्रकार दश (दस) आनन (मुख) वाला रावण के अर्थ में प्रसिद्ध है। 
 बच्चा समाज में सामाजिक व्यवहार में आ रहे शब्दों के अर्थ कैसे ग्रहण करता है, इसका अध्ययन भारतीय भाषा चिन्तन में गहराई से हुआ है और अर्थग्रहण की प्रक्रिया को शक्ति के नाम से कहा गया है।

"शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च। वाक्यस्य शेषाद् विवृत्तेर्वदन्ति सान्निध।।

इस प्रकरण में केवल वाक्य विचार पर विशद् विवेचन  किया जाता है।

________
"Syntax -वाक्यविचार" 
"Syntax -वाक्यविचार"  Syn = समान।Greek( tassein "to arrange,"  "व्यवस्था करना 
(Syntax):-इसमें वाक्य निर्माण,उनके विचार भेद,गठन,प्रयोग, विग्रह आदि पर विचार करके उसके स्थान अनु रूप स्थापित किया जाता है।
 वाक्य विचार(Syntax) की परिभाषा:- वह शब्द समूह जिससे पूरी बात समझ में आ जाये, 'वाक्य' कहलाता हैै।
 दूसरे शब्दों में- विचार को पूर्णता से प्रकट करनेवाली एक क्रिया से युक्त पद-समूह को 'वाक्य' कहते हैं।

 सरल शब्दों में- सार्थक शब्दों का व्यवस्थित समूह जिससे अपेक्षित अर्थ प्रकट हो, वाक्य कहलाता है। 
 जैसे- विजय खेल रहा है, बालिका नाच रही हैैै। 


वाक्य के भाग:
वाक्य के भाग:- वाक्य के दो भाग होते है- 
"१-उददेशय-Subject-
"२-विधेय-Predicte-
(1) उद्देश्य (Subject):-वाक्य में जिसके विषय में कुछ कहा जाये उसे उद्देश्य कहते हैं।
 इसके अन्तर्गत कर्ता और संज्ञाओं का समावेश होता 
 सरल शब्दों में- जिसके बारे में कुछ बताया जाता है, उसे उद्देश्य कहते हैं। जैसे-: सौम्या पाठ पढ़ती है।
 मोहन दौड़ता है। 

इस वाक्य में सौम्या और मोहन के विषय में बताया गया है। अतः ये उद्देश्य है।
 इसके अन्तर्गत कर्ता और कर्ता का विस्तार आता है।
 जैसे- 'परिश्रम करने वाला व्यक्ति' सदा सफल होता है।
 इस वाक्य में कर्ता (व्यक्ति) का विस्तार 'परिश्रम करने वाला' है।
 उद्देश्य के भाग- (parts of  Subject) उद्देश्य के दो भाग होते है- (i) कर्ता (Subject) (ii) कर्ता का विशेषण या कर्ता से संबंधित शब्द। 

 (2) विधेय (Predicate):- उद्देश्य के विषय में जो कुछ कहा जाता है, उसे विधेय कहते है।
 जैसे- सौम्या पाठ पढ़ती है। 
 इस वाक्य में 'पाठ पढ़ती' है विधेय है; क्योंकि यह बात  सौम्या (उद्देश्य )के विषय में कही गयी है। 

 दूसरे शब्दों में- वाक्य के कर्ता (उद्देश्य) को अलग करने के बाद वाक्य में जो कुछ भी शेष रह जाता है, वह विधेय कहलाता है। 

 इसके अन्तर्गत विधेय का विस्तार आता है।
 जैसे:-  'नीली नीली आँखों वाली लड़की 'अभी-अभी एक बच्चे के साथ दौड़ते हुए उधर गई' ।

 इस वाक्य में विधेय (गई) का विस्तार 'अभी-अभी' एक बच्चे के साथ दौड़ते हुए उधर' है।

 विशेष:-आज्ञासूचक वाक्यों में विधेय तो होता है किन्तु उद्देश्य छिपा होता है।
 जैसे- वहाँ जाओ। खड़े हो जाओ। 

इन दोनों वाक्यों में जिसके लिए आज्ञा दी गयी है; वह उद्देश्य अर्थात् 'वहाँ न जाने वाला '(तुम) और 'खड़े हो जाओ' (तुम या आप) अर्थात् उद्देश्य दिखाई नहीं पड़ता वरन् छिपा हुआ है। 

विधेय के भाग-(Part of Predicate)- विधेय के छ: भाग होते हैं"
(i)- क्रिया verb 
(ii)- क्रिया के विशेषण Adverb 
(iii) -कर्म Object 
(iv)- कर्म के विशेषण या कर्म से संबंधित शब्द 
(v)- पूरक Complement 
(vi)-पूरक के विशेषण। 
 नीचे की तालिका से उद्देश्य तथा विधेय सरलता से समझा जा सकता है- वाक्य.  १-उद्देश्य +  विधेय. गाय + घास खाती है- सफेद गाय हरी घास खाती है। सफेद -कर्ता विशेषण गाय -कर्ता [उद्देश्य] हरी - विशेषण कर्म घास -कर्म [विधेय] खाती है- क्रिया [विधेय] __________ 
"वाक्य के भेद"  - रचना के आधार पर वाक्य के तीन भेद होते हैं- "There are three kinds of Sentences Based on Structure.
 (i)साधरण वाक्य (Simple Sentence) (ii)मिश्रित वाक्य (Complex Sentence) (iii)संयुक्त वाक्य (Compound Sentence)

 👇(i)साधरण वाक्य या सरल वाक्य:-जिन वाक्य में एक ही "समापिका क्रिया" होती है, और एक कर्ता होता है, वे साधारण वाक्य कहलाते है।

 दूसरे शब्दों में- जिन वाक्यों में केवल एक ही उद्देश्य और एक ही विधेय होता है, उन्हें साधारण वाक्य या सरल वाक्य कहते हैं। इसमें एक 'उद्देश्य' और एक 'विधेय' रहते हैं। जैसे:- सूर्य चमकता है', 'पानी बरसता है। इन वाक्यों में एक-एक उद्देश्य, अर्थात कर्ता और विधेय, अर्थात् क्रिया हैं। 
 अतः, ये साधारण या सरल वाक्य हैं। 

 (ii)मिश्रित वाक्य:-जिस वाक्य में एक से अधिक वाक्य मिले हों किन्तु एक "प्रधान उपवाक्य" (Princeple Clouse ) तथा शेष "आश्रित उपवाक्य" (Sub-OrdinateClouse) हों, वह मिश्रित वाक्य कहलाता है।
 दूसरे शब्दों में- जिस वाक्य में मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक या अधिक समापिका क्रियाएँ हों, उसे 'मिश्रित वाक्य' कहते हैं।
 जैसे:- 'वह कौन-सा मनुष्य है,(जिसने)महाप्रतापी राजा चन्द्रगुप्त मौर्य का नाम न सुना हो ।
 दूसरे शब्दों मेें- जिन वाक्यों में एक प्रधान (मुख्य) उपवाक्य हो और अन्य आश्रित (गौण) उपवाक्य हो तथा जो आपस में 'कि'; 'जो'; 'क्योंकि'; 'जितना'; 'उतना'; 'जैसा'; 'वैसा'; 'जब'; 'तब'; 'जहाँ'; 'वहाँ'; 'जिधर'; 'उधर'; 'अगर/यदि'; 'तो'; 'यद्यपि'; 'तथापि'; आदि से मिश्रित (मिले-जुले) हों उन्हें मिश्रित वाक्य कहते हैं। 
 इनमे एक मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अतिरिक्त एक से अधिक "समापिका क्रियाएँ " होती हैं। जैसे:- मैं जनता हूँ "कि" तुम्हारे वाक्य अच्छे नहीं बनते।
 "जो" लड़का कमरे में बैठा है वह मेरा भाई है। 
 यदि परिश्रम करोगे "तो" उत्तीर्ण हो जाओगे।
 'मिश्र वाक्य' के 'मुख्य उद्देश्य' और 'मुख्य विधेय' से जो वाक्य बनता है, उसे 'मुख्य उपवाक्य' और दूसरे वाक्यों को आश्रित उपवाक्य' कहते हैं।

 पहले को 'मुख्य वाक्य' और दूसरे को 'सहायक वाक्य' भी कहते हैं।
 सहायक वाक्य अपने में पूर्ण या सार्थक नहीं होते, परन्तु मुख्य वाक्य के साथ आने पर उनका अर्थ पूर्ण रूप से निकलता हैं।
 ऊपर जो उदाहरण दिया गया है, उसमें 'वह कौन-सा मनुष्य है' मुख्य वाक्य है और शेष 'सहायक वाक्य'; क्योंकि वह मुख्य वाक्य पर आश्रित है।

 (iii)संयुक्त वाक्य :- जिस वाक्य में दो या दो से अधिक उपवाक्य मिले हों, परन्तु सभी वाक्य प्रधान हो तो ऐसे वाक्य को संयुक्त वाक्य कहते हैं। 
 दूसरे शब्दो में- जिन वाक्यों में दो या दो से अधिक सरल वाक्य योजकों (और, एवं, तथा, या, अथवा, इसलिए, अतः, फिर भी, तो, नहीं तो, किन्तु, परन्तु, लेकिन, पर आदि) से जुड़े हों, उन्हें संयुक्त वाक्य कहते है। सरल शब्दों में- जिस वाक्य में साधारण अथवा मिश्र वाक्यों का मेल "संयोजक अवयवों "द्वारा होता है, उसे संयुक्त वाक्य कहते हैं।
 जैसे:- 'वह सुबह गया और 'शाम को लौट आया। प्रिय बोलो 'परन्तु 'असत्य नहीं। उसने बहुत परिश्रम किया 'किन्तु' सफलता नहीं मिली। संयुक्त वाक्य उस वाक्य-समूह को कहते हैं, जिसमें दो या दो से अधिक सरल वाक्य अथवा मिश्र वाक्य अव्ययों द्वारा संयुक्त हों ।
 इस प्रकार के वाक्य लम्बे और आपस में उलझे होते हैं। 

 👇 जैसे:-'मैं ज्यों ही रोटी खाकर लेटा कि पेट में दर्द होने लगा, और दर्द इतना बढ़ा कि तुरन्त डॉक्टर को बुलाना पड़ा।' इस लम्बे वाक्य में संयोजक 'और' है, जिसके द्वारा दो मिश्र वाक्यों को मिलाकर संयुक्त वाक्य बनाया गया। 
 इसी प्रकार 'मैं आया और वह गया' इस वाक्य में दो सरल वाक्यों को जोड़नेवाला संयोजक 'और' है।
 यहाँ यह याद रखने की बात है कि संयुक्त वाक्यों में प्रत्येक वाक्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाये रखता है, वह एक-दूसरे पर आश्रित नहीं होता, केवल संयोजक अव्यय उन स्वतन्त्र वाक्यों को मिलाते हैं। इन मुख्य और स्वतन्त्र वाक्यों को व्याकरण में 'समानाधिकरण' उपवाक्य "भी कहते हैं। _________

वाक्य के भेद-अर्थ के आधार पर ( Kinds of Sentences -based on meaning)
-अर्थ के आधार पर वाक्य मुख्य रूप से आठ प्रकार के होते हैं:-👇  
 वाक्य के भेद- अर्थ के आधार पर । Kinds of Sentences -based on meaning अर्थ के आधार पर वाक्य मुख्य रूप से आठ प्रकार के होते हैं:-👇
 
1- स्वीकारात्मक वाक्य (Affirmative Sentence)
2-निषेधात्मक वाक्य (Negative Sentence)
3-प्रश्नवाचक वाक्य (Interrogative Sentence)
4-आज्ञावाचक वाक्य (Imperative Sentence)
5-संकेतवाचक वाक्य (Conditional Sentence)
6-विस्मयादिबोधक वाक्य - (Exclamatory Sentence)
 7-विधानवाचक वाक्य (Assertive Sentence)
8-इच्छावाचक वाक्य (illative Sentence)
______
  (i)सरल वाक्य :-वे वाक्य जिनमे कोई बात साधरण ढंग से कही जाती है, सरल वाक्य कहलाते है। 
 जैसे:- राम ने रावण को मारा। सीता खाना बना रही है।

 (ii) निषेधात्मक वाक्य:-जिन वाक्यों में किसी काम के न होने या न करने का बोध हो उन्हें निषेधात्मक वाक्य कहते है। जैसे:- आज वर्षा नही होगी।
 मैं आज घर नहीं जाऊँगा। 

 (iii)प्रश्नवाचक वाक्य:-वे वाक्य जिनमें प्रश्न पूछने का भाव प्रकट हो, प्रश्नवाचक वाक्य कहलाते हैं।
 जैसे:- राम ने रावण को क्यों मारा ? तुम कहाँ रहते हो ?

 (iv) आज्ञावाचक वाक्य :-जिन वाक्यों से आज्ञा प्रार्थना, उपदेश आदि का ज्ञान होता है, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते है। 
जैसे:- । परिश्रम करो। बड़ों का सम्मान करो।

 (v) संकेतवाचक वाक्य:- जिन वाक्यों से शर्त (संकेत) का बोध होता है , अर्थात् एक क्रिया का होना दूसरी क्रिया पर निर्भर होता है, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं।
 जैसे:- यदि तुम परिश्रम करोगे तो अवश्य सफल होगे। पिताजी अभी आते तो अच्छा होता। अगर वर्षा होगी तो फसल भी होगी। 

 (vi)विस्मयादि-बोधक वाक्य:-जिन वाक्यों में आश्चर्य, शोक, घृणा आदि का भाव ज्ञात हो उन्हें विस्मयादि-बोधक वाक्य कहते हैं।
 जैसे- (१)वाह ! तुम आ गये। (२)हाय ! मैं लूट गया। 

 (vii) विधानवाचक वाक्य:- जिन वाक्यों में क्रिया के करने या होने की सूचना मिले, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते है। जैसे- मैंने दूध पिया। वर्षा हो रही है। राम पढ़ रहा है। 

 (viii) इच्छावाचक वाक्य:- जिन वाक्यों से इच्छा, आशीष एवं शुभकामना आदि का भाव होता है, उन्हें इच्छावाचक वाक्य कहते हैं।
 जैसे- 
(१)तुम्हारा कल्याण हो। 
(२)आज तो मैं केवल फल खाऊँगा।
 (३)भगवान तुम्हें लम्बी आयु दे।
 वाक्य के अनिवार्य "तत्व " दार्शनिकों के मतानुसार- वाक्य में निम्नलिखित छ: तत्व अनिवार्य है- ___________ 
(1)Significance (2) Eligibility (3) Aspiration (4) Proximity (5) Grade (6) Unrequited
 ________ 
(1) सार्थकता (2) योग्यता (3) आकांक्षा (4) निकटता (5) पदक्रम (6) अन्वय-
 
(1) सार्थकता- वाक्य में सार्थक पदों का प्रयोग होना चाहिए निरर्थक शब्दों के प्रयोग से भावाभिव्यक्ति नहीं हो पाती है।
 बावजूद इसके कभी-कभी निरर्थक से लगने वाले पद भी भाव अभिव्यक्ति करने के कारण वाक्यों का गठन कर बैठते है।
 जैसे- तुम बहुत बक-बक कर रहे हो।
 चुप भी रहोगे या नहीं ? इस वाक्य में 'बक-बक' निरर्थक-सा लगता है; परन्तु अगले वाक्य से अर्थ समझ में आ जाता है कि क्या कहा जा रहा है।

 (2) योग्यता - वाक्यों की पूर्णता के लिए उसके पदों, पात्रों, घटनाओं आदि का उनके अनुकूल ही होना चाहिए। अर्थात् वाक्य लिखते या बोलते समय निम्नलिखित बातों पर निश्चित रूप से ध्यान देना चाहिए-
👇 (a) पद प्रकृति-विरुद्ध नहीं हो : हर एक पद की अपनी प्रकृति (स्वभाव/धर्म) होती है।
 यदि कोई कहे मैं आग खाता हूँ। हाथी ने दौड़ में घोड़े को पछाड़ दिया।
 उक्त वाक्यों में पदों की "प्रकृतिगत योग्यता" की कमी है। आग खायी नहीं जाती।
 हाथी घोड़े से तेज नहीं दौड़ सकता।
 इसी जगह पर यदि कहा जाय- मैं आम खाता हूँ। 
 घोड़े ने दौड़ में हाथी को पछाड़ दिया।
 तो दोनों वाक्यों में 'योग्यता' आ जाती है। 

 (b) बात- समाज, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि के विरुद्ध न हो : वाक्य की बातें समाज, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि सम्मत होनी चाहिए; ऐसा नहीं कि जो बात हम कह रहे हैं, वह इतिहास आदि के विरुद्ध है। 
जैसे- दानवीर कर्ण द्वारका के राजा थे।
 महाभारत 25 दिन तक चला। भारत के उत्तर में श्रीलंका है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के परमाणु परस्पर मिलकर कार्बनडाई ऑक्साइड बनाते हैं। 

 (3) आकांक्षा- आकांक्षा का अर्थ है- इच्छा। एक पद को सुनने के बाद दूसरे पद को जानने की इच्छा ही 'आकांक्षा' है। यदि वाक्य में आकांक्षा शेष रह जाती है तो उसे अधूरा वाक्य माना जाता है;  क्योंकि उससे अर्थ पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं हो पाता है।
 जैसे- यदि कहा जाय। 'खाता है' तो स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि क्या कहा जा रहा है- किसी के भोजन करने की बात कही जा रही है या बैंक (Bank) के खाते के बारे में ?

 (4) निकटता- बोलते तथा लिखते समय वाक्य के शब्दों में परस्पर निकटता का होना बहुत आवश्यक है, रूक-रूक कर बोले या लिखे गए शब्द वाक्य नहीं बनाते।
 अतः वाक्य के पद निरन्तर प्रवाह में पास-पास बोले या लिखे जाने चाहिए वाक्य को स्वाभाविक एवं आवश्यक बलाघात आदि के साथ बोलना पूर्ण अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है। 

 (5) पदक्रम - वाक्य में पदों का एक निश्चित क्रम होना चाहिए। 'सुहावनी है रात होती चाँदनी' इसमें पदों का क्रम व्यवस्थित न होने से इसे वाक्य नहीं मानेंगे।

 इसे इस प्रकार होना चाहिए- 'चाँदनी रात सुहावनी होती है'। (6) अन्वय - अन्वय का अर्थ है- मेल। वाक्य में लिंग, वचन, पुरुष, काल, कारक आदि का क्रिया के साथ ठीक-ठीक मेल होना चाहिए; जैसे- 'बालक और बालिकाएँ गई', इसमें कर्ता और क्रिया का अन्वय ठीक नहीं है। अतः शुद्ध वाक्य होगा 'बालक और बालिकाएँ गए'। ________  

"वाक्य- विग्रह -Analysis"👇 वाक्य-विग्रह (Analysis)- वाक्य के विभिन्न अंगों को अलग-अलग किये जाने की प्रक्रिया को वाक्य-विग्रह कहते हैं।
 इसे 'वाक्य-विभाजन' या 'वाक्य-विश्लेषण' भी कहा जाता है। सरल वाक्य का विग्रह करने पर एक उद्देश्य और एक विधेय बनते है।

👇 संयुक्त वाक्य में से योजक को हटाने पर दो स्वतन्त्र उपवाक्य (यानी दो सरल वाक्य) बनते हैं। 
 मिश्र वाक्य में से योजक को हटाने पर दो अपूर्ण उपवाक्य बनते है।

👇 सरल वाक्य= 1 उद्देश्य + 1 विधेय संयुक्त वाक्य= सरल वाक्य + सरल वाक्य मिश्र वाक्य= प्रधान उपवाक्य + आश्रित उपवाक्य 1:-Simple Sentence = 1 Objective + 1 Remarkable 2:-Joint (Compound) sentence = simple sentence + simple sentence 3:-Mixed (Complexs)entence = principal clause + dependent clause _________
"वाक्य का रूपान्तर
"वाक्य का रूपान्तरण-- (Transformation of Sentences) किसी वाक्य को दूसरे प्रकार के वाक्य में, बिना अर्थ बदले, परिवर्तित करने की प्रकिया को 'वाक्यपरिवर्तन' कहते हैं।
 हम किसी भी वाक्य को भिन्न-भिन्न वाक्य-प्रकारों में परिवर्तित कर सकते हैं और उनके मूल अर्थ में तनिक विकार या परिवर्तन नहीं आयेगा। हम चाहें तो एक सरल वाक्य को मिश्र या संयुक्त वाक्य में बदल सकते हैं।

👇 सरल वाक्य:- हर तरह के संकटो से घिरा रहने पर भी वह निराश नहीं हुआ। संयुक्त वाक्य:- संकटों ने उसे हर तरह से घेरा, (किन्तु) वह निराश नहीं हुआ। मिश्र वाक्य:- यद्यपि वह हर तरह के संकटों से घिरा था, (तथापि) निराश नहीं हुआ। वाक्य परिवर्तन करते समय एक बात विशेषत: ध्यान में रखनी चाहिए कि वाक्य का मूल अर्थ किसी भी हालत में विकृत ( परिवर्तित )न हो जाय। यहाँ कुछ और उदाहरण देकर विषय को स्पष्ट किया जाता है-

👇 (क) सरल वाक्य से मिश्र वाक्य <>👇
 1-सरल वाक्य- उसने अपने मित्र का मकान खरीदा।
 मिश्र वाक्य- उसने उस मकान को खरीदा, जो उसके मित्र का था। 

 2-सरल वाक्य- अच्छे लड़के परिश्रमी होते हैं। मिश्र वाक्य- जो लड़के अच्छे होते है, वे परिश्रमी होते हैं। 

 3-सरल वाक्य- लोकप्रिय विद्वानों का सम्मान सभी करते हैं। मिश्र वाक्य- जो विद्वान लोकप्रिय होते हैं, उसका सम्मान सभी करते हैं। (ख) सरल वाक्य से संयुक्त वाक्य<>
👇 1- सरल वाक्य- अस्वस्थ रहने के कारण वह परीक्षा में सफल न हो सका। संयुक्त वाक्य- वह अस्वस्थ था और इसलिए परीक्षा में सफल न हो सका। 

 2-सरल वाक्य- सूर्योदय होने पर कुहासा जाता रहा।
 संयुक्त वाक्य- सूर्योदय हुआ और कुहासा जाता रहा।
 3-सरल वाक्य- गरीब को लूटने के अतिरिक्त उसने उसकी हत्या भी कर दी। संयुक्त वाक्य- उसने न केवल गरीब को लूटा, बल्कि उसकी हत्या भी कर दी। 
 (ग) मिश्र वाक्य से सरल वाक्य<>

👇 1-मिश्र वाक्य- उसने कहा कि मैं निर्दोष हूँ। सरल वाक्य- उसने अपने को निर्दोष घोषित किया। 
 2-मिश्र वाक्य- मुझे बताओ कि तुम्हारा जन्म कब और कहाँ हुआ था। सरल वाक्य- तुम मुझे अपने जन्म का समय और स्थान बताओ। 
 3-मिश्र वाक्य- जो छात्र परिश्रम करेंगे, उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी। सरल वाक्य- परिश्रमी छात्र अवश्य सफल होंगे। 
(घ) कर्तृवाचक से कर्मवाचक वाक्य–><
👇 कर्तृवाचक वाक्य- लड़का रोटी खाता है। कर्मवाचक वाक्य- लड़के से रोटी खाई जाती है।
 कर्तृवाचक वाक्य- तुम व्याकरण पढ़ाते हो। 
जैसे कर्मवाचक वाक्य- तुमसे व्याकरण पढ़ाया जाता है। कर्तृवाचक वाक्य- मोहन गीत गाता है। कर्मवाचक वाक्य- मोहन से गीत गाया जाता है। 
 (ड़) विधिवाचक से निषेधवाचक वाक्य👇

 विधिवाचक वाक्य- वह मुझसे बड़ा है। 
 निषेधवाचक- मैं उससे बड़ा नहीं हूँ।
 विधिवाचक वाक्य- अपने देश के लिए हर एक भारतीय अपनी जान देगा। निषेधवाचक वाक्य- अपने देश के लिए कौन भारतीय अपनी जान न देगा ? वाक्य रचना के कुछ सामान्य नियम
दास–
👇 ''व्याकरण-सिद्ध पदों को मेल के अनुसार " यथाक्रम" रखने को ही 'वाक्य-रचना' कहते है।'' 
 वाक्य का एक पद दूसरे से लिंग, वचन, पुरुष, काल आदि का जो संबंध रखता है, उसे ही 'मेल' कहते हैं। जब वाक्य में दो पद एक ही लिंग-वचन-पुरुष-काल और नियम के हों तब वे आपस में (मेल, समानता या सादृश्य) रखने वाले कहे जाते हैं। निर्दोष वाक्य लिखने के कुछ नियम हैं। 

👇 इनकी सहायता से शुद्ध वाक्य लिखने का प्रयास किया जा सकता है। सुन्दर वाक्यों की रचना के लिए निर्देश:-
👇 (क) क्रम (order), (ख) अन्वय (co-ordination) और (ग) प्रयोग (using) से सम्बद्ध कुछ सामान्य नियमों का ज्ञान आवश्यक है। 
 (क) क्रम:-👇 किसी वाक्य के सार्थक शब्दों को यथास्थान रखने की क्रिया को 'क्रम' अथवा 'पदक्रम' कहते हैं। 

इसके कुछ सामान्य नियम इस प्रकार हैं-
 (i) हिंदी वाक्य के आरम्भ में 'कर्ता, मध्य में 'कर्म' और अन्त में 'क्रिया' होनी चाहिए। जैसे- मोहन ने भोजन किया। यहाँ कर्ता 'मोहन', कर्म 'भोजन' और अन्त में किया 'क्रिया' है। 
(ii) उद्देश्य या कर्ता के विस्तार को कर्ता के पहले और विधेय या क्रिया के विस्तार को विधेय के पहले रखना चाहिए।

👇 जैसे-अच्छे लड़के धीरे-धीरे पढ़ते हैं। 
 (iii) कर्ता और कर्म के बीच अधिकरण, अपादान, सम्प्रदान और करण कारक क्रमशः आते हैं। 
जैसे- मोहन ने घर में (अधिकरण) आलमारी से (अपादान) राम के लिए (सम्प्रदान) हाथ से (करण) पुस्तक निकाली।
 (iv) सम्बोधन आरम्भ में आता है। जैसे- हे प्रभु, मुझ पर दया करें।
 (v) विशेषण विशेष्य या संज्ञा के पहले आता है। 
जैसे- मेरी नीली कमीज कहीं खो गयी। 
(vi) क्रियाविशेषण क्रिया के पहले आता है। जैसे- वह तेज दौड़ता है। 
(vii) प्रश्रवाचक पद या शब्द उसी संज्ञा के पहले रखा जाता है, जिसके बारे में कुछ पूछा जाय। 
 जैसे- क्या बालक सो रहा है ? 

टिप्पणी- यदि संस्कृत की तरह हिन्दी में वाक्य रचना के साधारण क्रम का पालन न किया जाय, तो इससे कोई क्षति अथवा अशुद्धि नहीं होती। 
फिर भी, उसमें विचारों का एक तार्किक क्रम ऐसा होता है, जो एक विशेष रीति के अनुसार एक-दूसरे के पीछे आता है। 
(ख) अन्वय (मेल) 'अन्वय' में लिंग, वचन, पुरुष और काल के अनुसार वाक्य के विभित्र पदों (शब्दों) का एक-दूसरे से सम्बन्ध या मेल दिखाया जाता है।
 यह मेल कर्ता और क्रिया का, कर्म और क्रिया का तथा संज्ञा और सर्वनाम का होता हैं। कर्ता और क्रिया का मेल (i) यदि कर्तृवाचक वाक्य में कर्ता विभक्ति रहित है, तो उसकी क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार होंगे। जैसे- करीम किताब पढ़ता है। सोहन मिठाई खाता है। रीता घर जाती है।👇 __________
 ⬇☣⬇🌸 (ii) यदि वाक्य में एक ही लिंग, वचन और पुरुष के अनेक विभक्ति रहित कर्ता हों और अन्तिम कर्ता के पहले 'और' संयोजक आया हो, तो इन कर्ताओं की क्रिया उसी लिंग के बहुवचन में होगी जैसे-👇 
मोहन और सोहन सोते हैं। आशा, उषा और पूर्णिमा स्कूल जाती हैं। 
(iii) यदि वाक्य में दो भिन्न लिंगों के कर्ता हों और दोनों द्वन्द्वसमास के अनुसार प्रयुक्त हों तो उनकी क्रिया पुल्लिंग बहुवचन में होगी। 
जैसे- नर-नारी गये। राजा-रानी आये। स्त्री-पुरुष मिले। माता-पिता बैठे हैं।
 (iv) यदि वाक्य में दो भिन्न-भिन्न विभक्ति रहित एकवचन कर्ता हों और दोनों के बीच 'और' संयोजक आये, तो उनकी क्रिया पुल्लिंग और बहुवचन में होगी। जैसे:- राधा और कृष्ण रास रचते हैं। बाघ और बकरी एक घाट पानी पीते हैं। 
(v) यदि वाक्य में दोनों लिंगों और वचनों के अनेक कर्ता हों, तो क्रिया बहुवचन में होगी और उनका लिंग अन्तिम कर्ता के अनुसार होगा। जैसे-👇
 १-एक लड़का, दो बूढ़े और अनेक लड़कियाँ आती हैं। २-एक बकरी, दो गायें और बहुत-से बैल मैदान में चरते हैं। (vi) यदि वाक्य में अनेक कर्ताओं के बीच विभाजक समुच्चयबोधक अव्यय 'या' अथवा 'वा' रहे तो क्रिया अन्तिम कर्ता के लिंग और वचन के अनुसार होगी। जैसे- ३-घनश्याम की पाँच दरियाँ वा एक कम्बल बिकेगा। ४-हरि का एक कम्बल या पाँच दरियाँ बिकेंगी। ५-मोहन का बैल या सोहन की गायें बिकेंगी। 
(vii) यदि उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष और अन्यपुरुष एक वाक्य में कर्ता बनकर आयें तो क्रिया उत्तमपुरुष के अनुसार होगी। जैसे-👇 
१-वह और हम जायेंगे। २-हरि, तुम और हम सिनेमा देखने चलेंगे। ३-वह, आप और मैं चलूँगा।

 🌸↔विद्वानों का मत है कि वाक्य में पहले मध्यमपुरुष प्रयुक्त होता है, उसके बाद अन्यपुरुष और अन्त में उत्तमपुरुष; जैसे- तुम, वह और मैं जाऊँगा। 
 कर्म और क्रिया
का मेल 
 (i) यदि वाक्य में कर्ता 'ने' विभक्ति से युक्त हो और कर्म की 'को' विभक्ति न हो, तो उसकी क्रिया कर्म के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार ही होगी। जैसे- पिपासा ने पुस्तक पढ़ी। हमने लड़ाई जीती। उसने गाली दी। मैंने रूपये दिये। तुमने क्षमा माँगी। 

 (ii) यदि कर्ता और कर्म दोनों विभक्ति चिह्नों से युक्त हों, तो क्रिया सदा एकवचन पुल्लिंग और अन्यपुरुष में होगी। जैसे- मैंने कृष्ण को बुलाया। तुमने उसे देखा। स्त्रियों ने पुरुषों को ध्यान से देखा। 

 (iii) यदि कर्ता 'को' प्रत्यय से युक्त हो और कर्म के स्थान पर कोई क्रियार्थक संज्ञा आए तो क्रिया सदा पुल्लिंग, एकवचन और अन्यपुरुष में होगी। जैसे- तुम्हें (तुमको) पुस्तक पढ़ना नहीं आता। अलिका को रसोई बनाना नहीं आता। 
 उसे (उसको) समझ कर बात करना नहीं आता।

 (iv) यदि एक ही लिंग-वचन के अनेक प्राणिवाचक विभक्ति रहित कर्म एक साथ आएँ, तो क्रिया उसी लिंग में बहुवचन में होगी। जैसे-

👇 श्याम ने बैल और घोड़ा मोल लिए। तुमने गाय और भैंस मोल ली।
 (v) यदि एक ही लिंग-वचन के अनेक प्राणिवाचक-अप्राणिवाचक अप्रत्यय कर्म एक साथ एकवचन में आयें, तो क्रिया भी एकवचन में होगी। 
 जैसे- मैंने एक गाय और एक भैंस खरीदी। सोहन ने एक पुस्तक और एक कलम खरीदी। मोहन ने एक घोड़ा और एक हाथी बेचा।

 (vi) यदि वाक्य में भित्र-भित्र लिंग के अनेक प्रत्यय कर्म आयें और वे 'और' से जुड़े हों, तो क्रिया अन्तिम कर्म के लिंग और वचन में होगी। जैसे-
👇 मैंने मिठाई और पापड़ खाये। उसने दूध और रोटी खिलाई। संज्ञा और सर्वनाम का मेल- 
 (i) सर्वनाम में उसी संज्ञा के लिंग और वचन होते हैं, जिसके बदले वह आता है; परन्तु कारकों में भेद रहता है।
 जैसे- शेखर ने कहा कि मैं जाऊँगा। 
शीला ने कहा कि मैं यहीं रूकूँगी। 

 (ii) सम्पादक, ग्रन्थ कार, किसी सभा का प्रतिनिधि और बड़े-बड़े अधिकारी अपने लिए 'मैं' की जगह 'हम' का प्रयोग करते हैं। जैसे- हमने पहले अंक में ऐसा कहा था। हम अपने राज्य की सड़कों को स्वच्छ रखेंगे।

 (iii) एक प्रसंग में किसी एक संज्ञा के बदले पहली बार जिस वचन में सर्वनाम का प्रयोग करे, आगे के लिए भी वही वचन रखना उचित है। 
 जैसे- 
🌸↔अंकित ने संजय से कहा कि मैं तुझे कभी परेशान नहीं करूँगा। तुमने हमारी पुस्तक लौटा दी हैं।
 मैं तुमसे बहुत नाराज नहीं हूँ। 

 (अशुद्ध वाक्य है।) पहली बार अंकित के लिए 'मैं' का और संजय के लिए 'तू' का प्रयोग हुआ है तो अगली बार भी 'तुमने' की जगह 'तूने', 'हमारी' की जगह 'मेरी' और 'तुमसे' की जगह 'तुझसे' का प्रयोग होना चाहिए :
👇 
 🌸↔अंकित ने संजय से कहा कि मैं तुझे कभी परेशान नहीं करूँगा। तूने मेरी पुस्तक लौटा दी है। मैं तुझसे बहुत नाराज नहीं हूँ। 
 (शुद्ध वाक्य) 

 (iv) संज्ञाओं के बदले का एक सर्वनाम वही लिंग और वचन लगेंगे जो उनके समूह से समझे जाएँगे। जैसे- शरद और संदीप खेलने गए हैं; परन्तु वे शीघ्र ही आएँगे। श्रोताओं ने जो उत्साह और आनंद प्रकट किया उसका वर्णन नहीं हो सकता।

 (v) 'तू' का प्रयोग अनादर और प्यार के लिए भी होता है। 

जैसे-👇 रे नृप बालक, कालबस बोलत तोहि न संभार। 
धनुही सम त्रिपुरारिधनु विदित सकल संसार।।
 (गोस्वामी तुलसीदास) 

 तोहि- तुझसे अरे मूर्ख ! तू यह क्या कर रहा है ?(अनादर के लिए) अरे बेटा, तू मुझसे क्यों रूठा है ? (प्यार के लिए) तू धार है नदिया की, मैं तेरा किनारा हूँ। 

 (vi) मध्यम पुरुष में सार्वनामिक शब्द की अपेक्षा अधिक आदर सूचित करने लिए किसी संज्ञा के बदले ये प्रयुक्त होते हैं-

👇 (a) पुरुषों के लिए : महाशय, महोदय, श्रीमान्, महानुभाव, हुजूर, हुजुरेवाला, साहब, जनाब इत्यादि।

 (b) स्त्रियों के लिए : श्रीमती, महाशया, महोदया, देवी, बीबीजी मुसम्मात सुश्री आदि।

 (vii) आदरार्थ अन्य पुरुष में 'आप' के बदले ये शब्द आते हैं- 
(a) पुरुषों के लिए : श्रीमान्, मान्यवर, हुजूर आदि। 

 (b) स्त्रियों के लिए : श्रीमती, देवी आदि। 
 संबंध और संबंधी में मेल 

(1) संबंध के चिह्न में वही लिंग-वचन होते हैं, जो संबंधी के। जैसे- रामू का घर श्यामू की बकरी 

 (2) यदि संबंधी में कई संज्ञाएँ बिना समास के आए तो संबंध का चिह्न उस संज्ञा के अनुसार होगा, जिसके पहले वह रहेगा। जैसे- मेरी माता और पिता जीवित हैं।
 (बिना समास के) मेरे माता-पिता जीवित है।
 (समास होने पर) क्रम-संबंधी कुछ अन्य बातें 

 (1) प्रश्नवाचक शब्द को उसी के पहले रखना चाहिए, जिसके विषय में मुख्यतः प्रश्न किया जाता है। जैसे- वह कौन व्यक्ति है ? वह क्या बनाता है ? 

 (2) यदि पूरा वाक्य ही प्रश्नवाचक हो तो ऐसे शब्द (प्रश्नसूचक) वाक्यारंभ में रखना चाहिए। जैसे- क्या आपको यही बनना था ?

 (3) यदि 'न' का प्रयोग आदर के लिए आए तो प्रश्नवाचक का चिह्न नहीं आएगा और 'न' का प्रयोग वाक्य में अन्त में होगा। जैसे- आप बैठिए न। आप मेरे यहाँ पधारिए न। 

 (4) यदि 'न' क्या का अर्थ व्यक्त करे तो अन्त में प्रश्नवाचक चिह्न का प्रयोग करना चाहिए और 'न' वाक्यान्त में होगा। 

जैसे-👇 वह आज-कल स्वस्थ है न ? आप वहाँ जाते हैं न ? (5) पूर्वकालिक क्रिया मुख्य क्रिया के पहले आती है। जैसे-

👇 वह खाकर विद्यालय जाता है। शिक्षक पढ़ाकर घर जाते हैं। 
 (6) विस्मयादिबोधक शब्द प्रायः वाक्यारम्भ में आता है। जैसे- वाह ! आपने भी खूब कहा है। ओह ! यह दर्द सहा नहीं जा रहा है। 
 (ग) वाक्यगत प्रयोग- वाक्य का सारा सौन्दर्य पदों अथवा शब्दों के समुचित प्रयोग पर आश्रित है। 
 पदों के स्वरूप और औचित्य पर ध्यान रखे बिना शिष्ट और सुन्दर वाक्यों की रचना नहीं होती। 

प्रयोग-सम्बन्धी कुछ आवश्यक निर्देश निम्नलिखित हैं-

👇 कुछ आवश्यक निर्देश:– 
 (i) एक वाक्य से एक ही भाव प्रकट हो। 

 (ii) शब्दों का प्रयोग करते समय व्याकरण-सम्बन्धी नियमों का पालन हो। 

 (iii) वाक्यरचना में अधूरे वाक्यों को नहीं रखा जाये। 

 (iv) वाक्य-योजना में स्पष्टता और प्रयुक्त शब्दों में शैली-सम्बन्धी शिष्टता हो। 

 (v) वाक्य में शब्दों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध हो। तात्पर्य यह कि वाक्य में सभी शब्दों का प्रयोग एक ही काल में, एक ही स्थान में और एक ही साथ होना चाहिए। 

 (vi) वाक्य में ध्वनि और अर्थ की संगति पर विशेष ध्यान देना चाहिए। 

 (vii) वाक्य में व्यर्थ शब्द न आने पायें। 

 (viii) वाक्य-योजना में आवश्यकतानुसार जहाँ-तहाँ मुहावरों और कहावतों का भी प्रयोग हो। 
 
(ix) वाक्य में एक ही व्यक्ति या वस्तु के लिए कहीं 'यह' और कहीं 'वह', कहीं 'आप' और कहीं 'तुम', कहीं 'इसे' और कहीं 'इन्हें', कहीं 'उसे' और कहीं 'उन्हें', कहीं 'उसका' और कहीं 'उनका', कहीं 'इनका' और कहीं 'इसका' प्रयोग नहीं होना चाहिए। 

 (x) वाक्य में पुनरुक्तिदोष नहीं होना चाहिए। शब्दों के प्रयोग में औचित्य पर ध्यान देना चाहिए।

 (xi) वाक्य में अप्रचलित शब्दों का व्यवहार नहीं होना चाहिए। __________ 
"परोक्ष कथन (Indirect narration) हिन्दी भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं है"
 (xii) परोक्ष कथन (Indirect narration) हिन्दी भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं है। 
 परन्तु फिर भी इसका प्रयोग कर सकते है । यह वाक्य अशुद्ध है- उसने कहा कि उसे कोई आपत्ति नहीं है। इसमें 'उसे' के स्थान पर 'मुझे' होना चाहिए। 

 अन्य ध्यातव्य बातें (1) 'प्रत्येक', 'किसी', 'कोई' का प्रयोग- ये सदा एकवचन में प्रयुक्त होते है, बहुवचन में प्रयोग अशुद्ध है। जैसे- प्रत्येक- प्रत्येक व्यक्ति जीना चाहता है।
 प्रत्येक पुरुष से मेरा निवेदन है। कोई- मैंने अब तक कोई काम नहीं किया। कोई ऐसा भी कह सकता है।
 किसी- किसी व्यक्ति का वश नहीं चलता। किसी-किसी का ऐसा कहना है। किसी ने कहा था। 

 टिप्पणी- 'कोई' और 'किसी' के साथ 'भी' अव्यय का प्रयोग अशुद्ध है। जैसे- कोई भी होगा, तब काम चल जायेगा। यहाँ 'भी' अनावश्यक है। कोई संस्कृत 'कोऽपि' का तद्भव है। ' कोई' और 'किसी' में 'भी' का भाव वर्तमान है। 

 (2) 'द्वारा' का प्रयोग- किसी व्यक्ति के माध्यम (through) से जब कोई काम होता है, तब संज्ञा के बाद 'द्वारा' का प्रयोग होता है; वस्तु (संज्ञा) के बाद 'से' लगता है। 

जैसे- सुरेश द्वारा यह कार्य सम्पत्र हुआ। युद्ध से देश पर संकट छाता है। 

 (3) 'सब' और 'लोग' का प्रयोग- सामान्यतः दोनों बहुवचन हैं। पर कभी-कभी 'सब' का समुच्चय-रूप में एकवचन में भी प्रयोग होता है।

 जैसे- तुम्हारा सब काम गलत होता है। यदि काम की अधिकता का बोध हो तो 'सब' का प्रयोग बहुवचन में होगा। जैसे- सब यही कहते हैं। हिंदी में 'सब' समुच्चय और संख्या- दोनों का बोध कराता है। 

👇 'लोग' सदा बहुवचन में प्रयुक्त होता है। जैसे- लोग अन्धे नहीं हैं। लोग ठीक ही कहते हैं। कभी-कभी 'सब लोग' का प्रयोग बहुवचन में होता है। 

'लोग' कहने से कुछ व्यक्तियों का और 'सब लोग' कहने से अनगिनत और अधिक व्यक्तियों का बोध होता है। 
जैसे- सब लोगों का ऐसा विचार है। सब लोग कहते है कि गाँधीजी महापुरुष थे। 

 (4) व्यक्तिवाचक संज्ञा और क्रिया का मेल- यदि व्यक्तिवाचक संज्ञा कर्ता है, तो उसके लिंग और वचन के अनुसार क्रिया के लिंग और वचन होंगे।

 जैसे- काशी सदा भारतीय संस्कृति का केन्द्र रही है। यहाँ कर्ता (काशी) स्त्रीलिंग है। पहले कलकत्ता भारत की राजधानी था। यहाँ कर्ता (कलकत्ता) पुल्लिंग है। उसका ज्ञान ही उसकी पूँजी था। यहाँ कर्ता पुल्लिंग है।

 (5) समयसूचक समुच्चय का प्रयोग- ''तीन बजे हैं। आठ बजे हैं।'' इन वाक्यों में तीन और आठ बजने का बोध समुच्चय में हुआ है।

 (6) 'पर' और 'ऊपर' का प्रयोग- 'ऊपर' और 'पर' व्यक्ति और वस्तु दोनों के साथ प्रयुक्त होते हैं। किन्तु 'पर' सामान्य ऊँचाई का और 'ऊपर' विशेष ऊँचाई का बोधक है। जैसे- पहाड़ के ऊपर एक मन्दिर है।

 इस विभाग में मैं सबसे ऊपर हूँ। हिंदी में 'ऊपर' की अपेक्षा 'पर' का व्यवहार अधिक होता है। जैसे- मुझ पर कृपा करो। छत पर लोग बैठे हैं। गोपाल पर अभियोग है। मुझ पर तुम्हारे एहसान हैं। 

 (7) 'बाद' और 'पीछे' का प्रयोग- यदि काल का अन्तर बताना हो, तो 'बाद' का और यदि स्थान का अन्तर सूचित करना हो, तो 'पीछे' का प्रयोग होता है।

जैसे- उसके बाद वह आया- काल का अन्तर। 
 मेरे बाद इसका नम्बर आया- काल का अन्तर। गाड़ी पीछे रह गयी- स्थान का अन्तर। मैं उससे बहुत पीछे हूँ- स्थान का अन्तर। 

(क) नए, नये, नई, नयी का शुद्ध प्रयोग- जिस शब्द का अन्तिम वर्ण 'या' है उसका बहुवचन 'ये' होगा। 'नया' मूल शब्द है, इसका बहुवचन 'नये' और स्त्रीलिंग 'नयी' होगा। 

 (ख) गए, गई, गये, गयी का शुद्ध प्रयोग- मूल शब्द 'गया' है। उपरिलिखित नियम के अनुसार 'गया' का बहुवचन 'गये' और स्त्रीलिंग 'गयी' होगा। 

 (ग) हुये, हुए, हुयी, हुई का शुद्ध प्रयोग- मूल शब्द 'हुआ' है, एकवचन में। इसका बहुवचन होगा 'हुए'; ' हुये' नहीं 'हुए' का स्त्रीलिंग 'हुई' होगा; 'हुयी' नहीं। 

 (घ) किए, किये, का शुद्ध प्रयोग- 'किया' मूल शब्द है; इसका बहुवचन 'किये' होगा। 

 (ड़) लिए, लिये, का शुद्ध प्रयोग- दोनों शुद्ध रूप हैं।
 किन्तु जहाँ अव्यय व्यवहृत होगा वहाँ 'लिए' आयेगा; जैसे- मेरे लिए उसने जान दी।

 क्रिया के अर्थ में 'लिये' का प्रयोग होगा; क्योंकि इसका मूल शब्द 'लिया' है।

 (च) चाहिये, चाहिए का शुद्ध प्रयोग- 'चाहिए' अव्यय है। अव्यय विकृत नहीं होता। इसलिए 'चाहिए' का प्रयोग शुद्ध है; 'चाहिये' का नहीं। 'इसलिए' के साथ भी ऐसी ही बात है। _________

व्याकरण-प्रकरण भाग- द्वित्तीय -- 


सन्धि-विधायक-सूत्र  सन्धि-प्रकरण-
     _________      
-ऊकालोऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः॥ पाणिनि १/२/२७॥
 ऊकालो ऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः॥ पाणिनि १/२/२७॥
संस्कृत विवृत्ति:-उश्च ऊश्च ऊ३श्च वः॑ वां काल इव कालो यस्य सो ऽच् क्रमाद् ह्रस्वदीर्घप्लुतसंज्ञः स्यात्।
स प्रत्येकमुदात्तादि भेदेन त्रिधा।
व्याख्यायित:- १-(उ) २-(ऊ) ३-(ऊ 'उ/ (उ३) यह तीनों उकारें व: कहलाती है !
इन तीनों के उच्चारण में जितना समय लगता है उसके समान ही उपचारण काल वाले स्वरों की क्रमश हृस्व , दीर्घ और प्लुत संज्ञा होती है।

ये इस हृस्व ,दीर्घ , तथा प्लुत संज्ञा उदात्त ,अनुदात्त ,और स्वरित भेद से तीन प्रकार की होती हैं ।
फिर अनुनासिक और निरानुनासिक
दो और भेद होते हैं ।
__________
अब विचार करते हैं वर्णों की मात्राओं पर👇

अर्थात् एकमात्रा वाला ह्रस्व स्वर होता है ;
और दीर्घ मात्रा वाला स्वर दीर्घ तथा तीन मात्रा वाला स्वर प्लुत समझना चाहिए  परन्तु व्यंजएकमात्रो भवेध्रस्व: द्विमात्रो दीर्घ उच्यते।
न तो अर्थ मात्रा का होता है ।
त्रिमात्रक:प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनाञ्चार्धमात्रक।।१।
उच्चारण स्थान की दृष्टि से भेद 👇

अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः ।

इचुयशानां तालु:।

ऋटुरषाणां मूर्धा ।

लृतुलसानां दन्ताः ।

उपूपध्मानायानामोष्ठौ ।

 नासिका च ।

एदैतोःञमङणनानां कण्ठ -तालु ।

ओदौतोः कण्ठोष्ठं ।

वकारस्य दन्तोष्ठं ।

जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलं ।

नासिकानुस्वारस्य ।

कण्ठ, तालु , मूर्धा , दन्त , ओष्ठ और नासिका - ये
मुख्य उच्चारण स्थान हैं ।

यदि  पाणिनी के व्याकरण (अष्टाध्यायी ) के ये
सूत्र याद कर लें 
ये छोटे सूत्र ये हैं :

अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः - अ , आ , ' क' वर्ग के
अक्षर ( क-ख-ग-घ- ङ ) , ह और विसर्ग (:)
इनका उच्चारण स्थान कंठ होता है ।

इचुयशानां तालु - इ , ई , ' च ' वर्ग के अक्षर (च -छ -ज -
झ -ञ ), य और श - इनका उच्चारण स्थान तालु
होता है ।

ऋटुरषाणां मूर्धा - ऋ, ' ट' वर्ग के अक्षर ( ट- ठ- ड -
ढ- ण) र और ष - ये मूर्धा से बोले जाते हैं ।

ॡतुलसानां दन्ताः - ॡ , 'त ' वर्ग के अक्षर (त - थ-
द-ध - न) और स - ये दान्तों से उच्चारित होते हैं -
जब तक हमारी जिह्वा दांतों को नहीं छूती , ये वर्ण
नहीं बोले जा सकते ।

उपूपध्मानायानामोष्ठौ - उ, ऊ 'प ' वर्ग के
अक्षर ( प-फ - ब -भ -म ) और बाँसुरी ( ध्मा)
की आवाज - ये सब ओठों से उच्चारित होते हैं।

ञमङणनानां नासिका च - ङ , ञ , ण, न, म - ये
अपने - अपने वर्ग के अतिरिक्त
नासिका द्वारा भी उच्चारित होते हैं ।

यदि अपने नाक को हम उंगलियों से दबा कर ये
अक्षर बोलें तो ध्वनि नहीं निकलेगी ।

वकारस्य कण्ठोष्ठं - ' व' शब्द कंठ और ओंठों से
बोला जाता है ।
हमारी जिह्वा उच्चारण में विशेष योग देती है,
फिर भी ’ जिह्वा’ या जीभ
को महर्षि पाणिनि ने कोई जगह
नहीं दी क्योंकि अकेली जीभ कोई शब्द
नहीं निकाल सकती  यह एक यन्त्र वत्स है ! ..
.....
ध्वनि भाषा की लघुतम और
अनिवार्य इकाई है । इसके वर्गीकरण का विशेष
महत्व बनता है -

तेषां विभागः पञ्चधा स्मृतः ।
स्वरतः कालतः स्थानात् प्रयत्न अनुदात्तुदानतः ।💐↔
(अष्टाध्यायी - 9.10)

वर्णों के भेद तीन प्रकार के होते हैं –

1-कालकृत -2-उच्चारण-स्थानकृत 3-नासिका कृत ।जिन वर्णों के उच्चारण स्थान और प्रयत्न समान हों वही सवर्ण या सजातीय होते हैं ।

जिनमें तीन प्रमुख है-
(1)स्थान
(2) प्रयत्न
(3) करण

(1) स्थान के आधार पर ध्वनियों का वर्गी करण-

(१-) कण्ठ्य - अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः ।
(अ, ह, कवर्ग और विसर्ग:)

(२-) तालव्य - इचुयशानां तालु । (इ, य, श, चवर्ग)

(३-) मूर्धन्य - ऋटुरषाणां मूर्धा । (ऋ, ष, टवर्ग)

(४-) दन्त्य - लृतुलसानां दन्ताः । (ल, स, तवर्ग)

(५-) ओष्ठ्य - उपुपमाध्मीयानामौष्ठौ ।
(उ,पवर्ग)

(६-)- दन्त्योष्ठ्य - वकारस्य दन्त्योष्ठम् ।

(७-)उभयोष्ठ्य - घ़, ब़, भ़, म़, व़ ।

(८-) जिह्वामूलीय - जिह्वामूलीयस्य

जिह्वामूलम् ।
(2) प्रयत्न के आधार पर ध्वनियों का वर्गीकरण

प्रकृष्टो यत्नः प्रयत्नः
यत्नो द्विविधा - आभ्यान्तरो बाह्यश्च ।

(क) आभ्यान्तर प्रयत्न -
(1) स्पृष्ट (स्पर्श्य) - क से म तक । (25 वर्ण)

(2) ईषत्स्पृष्ट (अन्तस्थ) - यणोऽन्तस्थाम् ।(य, व,
र, ल ।)

(3) विवृत (स्वर) - अच स्वराः । ( स्वर)

(4) ईषत्विवृत (उष्म) - शल उष्मणः । (श, ष, स, ह ।)

(5) संवृत - ह्रस्व अ वर्ण ।

(ख) बाह्य प्रयत्न -
(1) विवार -खरो विवाराः  श्वासा अघोषाश्च ।
( वर्ग के प्रथम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स )

(2) श्वास -खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च ।
( वर्ग के प्रधम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स )

💐↔(3) अघोष -
खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च ।
( वर्ग के
प्रधम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स )

(4) संवार - हशः संवारा नादा घोषाश्च ।
(वर्ग के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा य, र,
ल, व)

💐↔(5) नाद - हशः संवारा नादा घोषाश्च । (वर्ग
के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा य, र, ल, व)

वर्णों के उच्चारण में एक प्रयत्न जिसमें कंठ न तो बहुत फैलाकर न संकुचित करके वायु निकालनी पड़ती है। 
अनुस्वार के समान उच्चारित होनेवाला वर्ण। 
सानुनासिक स्वर।

(6) घोष - हशः संवारा नादा घोषाश्च

(वर्ग के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा य, र, ल, व)
शब्दों के उच्चारण में ११ बाह्य प्रयत्नों में से एक । इस प्रयत्न से वर्ण बोले जाते हैं—ग, घ, ज, झ, ल, ढ द, ध, ब, भ, ङ, ञ ण, न म, य, र, ल, व, और ह ।

(7) अल्पप्राण - वर्गानां प्रथम तृतीय पञ्चम
यणश्चाल्पप्राणाः । (वर्ग के प्रथम, तृतीय,
पञ्चम वर्ण तथा य, र, ल, व)

(8) महाप्राण- वर्गानाम् द्वितीय
चतुर्थ श''ष'स'कारश्च महाप्राणाः ।
 (वर्ग के द्वितीय चतुर्थ वर्ण तथा श, ष, स)
(9) उदात्त - स्वर
(10) अनुदात्त - स्वर
(11) स्वरित - स्वर

कण्ठ ,-तालु और मूर्धा आदि वर्णों के उच्चारण-स्थान के ऊर्ध्व अथवा ऊपरी भाग से जो शब्द या स्वर उच्चरित होते हैं उनकी उदात्त संज्ञा होती है।

जैसे 'इ' का उच्चारण-स्थान -तालु है- और जब 'इ' स्वर का उच्चारण -तालु के ऊपरी भाग से होगा तो 'इ' स्वर उदात्त संज्ञक होगा । और  यदि इस 'इ' स्वर का उच्चारण-तालु के नीचे के भाग से होगा तो'इ'स्वर अनुदात्त संज्ञक होगा।
_____


वास्तव में जैसे हारमॉनियम में स्वरों का दबता -उछलता क्रम जिन्हें कोमल और शुद्ध रूप भी कहते हैं। और यदि ये दोनौं मध्यम स्थिति में हों तो स्वरित संज्ञक होते हैं ।

यह कहे गये स्वर नौ प्रकार के होते हैं ; क्योंकि कि प्रत्येक स्वर पहले हृस्व दीर्घ तथा प्लुत के भेद से तीन प्रकार का होता है- ।

तत्पश्चात् स्थान के आधार पर इन तीनों के तीन तीन भेद और होते हैं
उदात्त , अनुदात्त और स्वरित इस प्रकार स्वर के नौ प्रकार हुए ।

इसके भी पश्चात भी पुन: नौं स्वरों में प्रत्येक के मुख के साथ नासिका के संयोजन वियोजन भेद से अनुनासिक तथा अननुनासिक (निरानुनासिक)दो भेद और हो जाने से  स्वर के  अठारह भेद होते हैं ।

इन स्वरों में  " लृ " स्वर के बारह भेद ही होते हैं


क्योंकि कि इनका दीर्घ नहीं होता ।इसी प्रकार एच् ( एऐओऔ)
सन्धि स्वर भी बारह प्रकार के होते हैं । 
क्योंकि इनमें हृस्व स्वर नहीं होते हैं ।
_________
पाणिनि के अनुसार इस अ' स्वर का उच्चारण कंठ से होता है। उच्चारण के अनुसार संस्कृत में इसके अठारह भेद हैं:-
(१) सानुनासिक :
ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरितदीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरितप्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित
(२) निरनुनासिक :
ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरितदीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरितप्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित
हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अ के प्राय दो ही उच्चारण ह्रस्व तथा दीर्घ होते हैं। केवल पर्वतीय प्रदेशों में, जहाँ दूर से लोगों को बुलाना या संबोधन करना होता है, प्लुत का प्रयोग होता है। इन उच्चारणों को क्रमश अ, अ२ और अ३ से व्यक्त किया जा सकता है। 
_____
अनुनासिकसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्)- मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः 1|1|8||
मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् | तदित्थम्- (अ-इ-उ-ऋ) एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् | एचामपि द्वादश,तेषां ह्रस्वाभावात् | 

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(अनुनासिकसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्)
 - मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः 1|1|8||
मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् | तदित्थम्- अ-इ-उ-ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् |एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् |
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  मुख और नासिका से एक साथ उच्चारित होने वाले वर्ण अनुनासिकसंज्ञक होते हैं।
    वास्तव में वर्णों का उच्चारण तो मुख से ही होता है किंतु ङ्, ञ्, ण्, न्, म् आदि वर्ण और अनुनासिक (अँ, इॅं, उॅं आदि) तथा अनुस्वार (अं, इं, उं आदि) के उच्चारण में नासिका (नाक) की भी सहायता चाहिए | 

नासिका की सहायता से मुख से उच्चारित होने वाले ऐसे वर्ण अनुनासिक कहलाते हैं |
 जो अनुनासिक नहीं है, वे अननुनासिक या निरनुनासिक कहलाते हैं |  
 ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, अनुनासिक ये अचों (स्वरों) में रहने वाले धर्म है | 
अपवाद के रूप में (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) ये व्यंजन होते हुए भी इन्हें अनुनासिक कहा जाता है |  इसी प्रकार (यॅं, वॅं, लॅं) भी अनुनासिक माने जाते हैं और (य्, व्, ल्) के रूप में निरनुनासिक भी हैं | जहाॅं पर अनुनासिक का व्यवहार होगा वहां पर अनुनासिक अच् और (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) ये समझे जाते हैं |
 इस संबंध में आगे यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा आदि सूत्रों का प्रसंग देखना चाहिए। 
  तदित्थम्- (अ-इ-उ-ऋ) एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |
अर्थ • इस प्रकार से (अ, इ, उ और ऋ )इन चार वर्णों के अट्ठारह-अट्ठारह भेद हुए।
   लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् | लृ के दीर्घ न होने से 12 भेद होते हैं।
   एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् | एचों का ह्रस्व नहीं होता है, इसलिए 12 ही भेद होते हैं।
   पहले अच् अर्थात्-( अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ) ये वर्ण ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के कारण प्रत्येक तीन-तीन भेद वाले हो गए किंतु लृ की दीर्घ मात्रा नहीं है, इसलिए लृ के ह्रस्व और प्लुत दो ही भेद हुए |
 इसी प्रकार एच् अर्थात् ( ए, ओ, ऐ, औ )का ह्रस्व नहीं होता, अतः एच् के दीर्घ और प्लुत ही दो-दो भेद हो गए | शेष अ, इ, उ, ऋ ये चारों वर्ण ह्रस्व भी हैं, दीर्घ भी होते हैं और प्लुत भी होते हैं, इसलिए यह तीन-तीन भेद वाले माने जाते हैं।
  इस प्रकार से दो एवं तीन भेद वाले प्रत्येक अच् वर्ण उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से पुनः तीन-तीन प्रकार के हो जाते हैं | 
जैसे प्रत्येक ह्रस्व अच् उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का, ।
दीर्घ अच् वर्ण भी उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का ।
और प्लुत अच् वर्ण भी उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार के हो जाने से कुछ अच् छः प्रकार के और कुछ (9) प्रकार के हो गए | 
 (6) प्रकार के इसलिए कि जिन वर्णों में ह्रस्व या दीर्घ नहीं थे वे दो-दो प्रकार के थे, इसलिए अब उदात्तादि स्वरों के कारण छः-छः प्रकार के हो गए |
 जिन अच् वर्णों के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत तीनों हैं वे उदात्तादि स्वरों के कारण नौ-नौ प्रकार के हो गए | इस प्रकार से अभी तक अचों के 6 या 9 प्रकार के भेद सिद्ध हुए।
  वे ही वर्ण पुनः अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से दो-दो प्रकार के हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप ये 12 और 18 प्रकार के भेद वाले हो जाते हैं | 
इसके पहले जो 6 प्रकार के थे, वे 12 प्रकार के एवं जो 9 प्रकार के थे, वे 18 प्रकार के हो जाते हैं।
 अनुनासिक पक्ष के छः और नौ भेद तथा अननुनासिक पक्ष के भी छः और नौ भेद होते हैं  
इस प्रकार से अ, इ, उ, ऋ के अट्ठारह-अट्ठारह भेद तथा लृ, ए, ओ, ऐ, औ के 12-12 भेद सिद्ध हुए | य्-व्-ल् ये वर्ण अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से दो-दो प्रकार के हैं।
इस विषय को तालिका के माध्यम से समझते हैं-
ह्रस्व-अ, इ, उ, ऋ, लृ
दीर्घ-आ, ई, ऊ, ॠ, ए, ओ, ऐ, औ
प्लुत-अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ
(क)-1. ह्रस्व उदात्त अनुनासिक
2. दीर्घ उदात्त अनुनासिक
3. प्लुत उदात्त अनुनासिक
(ख)1-. ह्रस्व उदात्त अननुनासिक
2- दीर्घ उदात्त अननुनासिक
3-. प्लुत उदात्त अननुनासिक
(ग)1. ह्रस्व अनुदात्त अनुनासिक
2-. दीर्घ अनुदात्त अनुनासिक
3- प्लुत अनुदात्त अनुनासिक
(घ)1-. ह्रस्व स्वरित अननुनासिक
2. दीर्घ स्वरित अननुनासिक
3. प्लुत स्वरित अननुनासिक
____ 
करण के आधार पर ध्वनियों का वर्गीकरण -
मुखगह्वर में स्थित इन्द्रियाँ ही करण हैं ।
स्थान और करण का भेद मूलतः जङ़ता और
गतिशीलता है ।

यद्यपि स्थान और करण
दोनों ही वागेन्द्रियाँ हैं, किन्तु भेद चल और
अचल का है ।

स्थान स्थिर होता है और करण
अस्थिर एवं गतिशील ।
करण में निम्न
इन्द्रियों का समावेश होता है - अधरोष्ठ,
जिह्वा, कोमल तालु, स्वर तंत्री ।...
______

क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है। एक बार बोल कर देखिये |
च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ लालू से लगती है।
एक बार बोल कर देखिये |
ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।

__
त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ( जिह्वा )जीभ दांतों से स्पर्श करती है ।
_______   

स्वर-सन्धि-विधायक-सूत्र  सन्धि-प्रकरण 
 १-दीर्घस्वर सन्धि-।
२- गुण स्वर सन्धि-।
३-वृद्धि स्वर सन्धि-।
४-यण् स्वर सन्धि-।
५-अयादि स्वर सन्धि-। 
६-पूर्वरूप सन्धि-।  
 ७-पररूपसन्धि-।     
 ८-प्रकृतिभाव सन्धि-।
स्वर संधि – अच् संधि-विधान
दीर्घ संधि – अक: सवर्णे दीर्घ:
गुण संधि – आद्गुण:
वृद्धि संधि – वृद्धिरेचि
यण् संधि – इकोयणचि
अयादि संधि – एचोऽयवायाव:
पूर्वरूप संधि – एड॰: पदान्तादति
पररूप संधि – एडि॰ पररूपम्
प्रकृतिभाव संधि – ईदूद्ऐदद्विवचनम् प्रग्रह्यम्

____
__
१-दीर्घ संधि – अक: सवर्णे दीर्घ:, संस्कृत व्याकरणम्
दीर्घ स्वर संधि-
दीर्घ संधि का सूत्र( अक: सवर्णे दीर्घ:) होता है। यह संधि स्वर संधि के भागो में से एक है। 
संस्कृत में स्वर संधियाँ मुुख्यत: आठ प्रकार की होती है। 
दीर्घसंधि, गुण संधि, वृद्धिसंधि, यण् -संधि, अयादिसंधि, पूर्वरूप संधि, पररूपसंधि, प्रकृतिभाव संधि आदि ।
इस पृष्ठ पर हम दीर्घ संधि का अध्ययन करेंगे !
दीर्घ संधि के चार नियम होते हैं!
सूत्र-(अक: सवर्णे दीर्घ:) अर्थात् अक् प्रत्याहार के बाद उसका सवर्ण आये तो दोनों मिलकर दीर्घ बन जाते हैं। ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, ऋ के बाद यदि ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, ऋ आ जाएँ तो दोनों मिलकर दीर्घ आ, ई और ऊ, ॠ हो जाते हैं। जैसे –
(क) अ/आ + अ/आ = आ
अ + अ = आ –> धर्म + अर्थ = धर्मार्थ
अ + आ = आ –> हिम + आलय = हिमालय
अ + आ =आ–> पुस्तक + आलय = पुस्तकालय
आ + अ = आ –> विद्या + अर्थी = विद्यार्थी
आ + आ = आ –> विद्या + आलय = विद्यालय
(ख) इ और ई की संधि= ई
इ + इ = ई –> रवि + इंद्र = रवींद्र ; मुनि + इंद्र = मुनींद्र
इ + ई = ई –> गिरि + ईश = गिरीश ; मुनि + ईश = मुनीश
ई + इ = ई –> मही + इंद्र = महींद्र ; नारी + इंदु = नारींदु
ई + ई = ई –> नदी + ईश = नदीश ; मही + ईश = महीश .
(ग) उ और ऊ की संधि =ऊ
उ + उ = ऊ –> भानु + उदय = भानूदय ; विधु + उदय = विधूदय
उ + ऊ = ऊ –> लघु + ऊर्मि = लघूर्मि ; सिधु + ऊर्मि = सिंधूर्मि
ऊ + उ = ऊ –> वधू + उत्सव = वधूत्सव ; वधू + उल्लेख = वधूल्लेख
ऊ + ऊ = ऊ –> भू + ऊर्ध्व = भूर्ध्व ; वधू + ऊर्जा = वधूर्जा
(घ) ऋ और ॠ की संधि=ऋृ
ऋ + ऋ = ॠ –> पितृ + ऋणम् = पित्रणम्
प्रश्न - स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए । 
उत्तर-  दो स्वरों के मेल से जो विकार या रूप परिवर्तन होता है , उसे स्वर सन्धि कहते हैं ।   जैसे - 
हिम + आलय  = हिमालय (अ +आ = आ )  [ म् +अ = म ] 'म' में 'अ' स्वर जुड़ा हुआ है 
विद्या = आलय = विद्यालय (आ +आ = आ ) 
पो  + अन    =  पवन (ओ  +अ  = अव ) 
[यहाँ पर प्+ओ +अन ( प् +अव् (ओ के स्थान पर )+अन )
प्+अव = पव  
पव +अन = पवन ]
प्रश्न - स्वर सन्धि के कितने  प्रकार हैं ? 
उत्तर - स्वर संधि के प्रमुख पाँच प्रकार हैं - 
दीर्घ स्वर संधि 
गुण स्वर संधि 
वृद्धि स्वर संधि 
यण् स्वर संधि 
अयादि स्वर संधि    
प्रश्न - दीर्घ स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदहारण सहित समझाइए । 
उत्तर - जब दो सवर्ण स्वर आपस में मिलकर दीर्घ हो जाते हैं , तब दीर्घ स्वर संधि होता है ।  यदि     'अ'  'आ'  'इ ' 'ई' 'उ' 'ऊ'  और 'ऋ' के बाद हृस्व या दीर्घ स्वर आए  तो दोनों मिलकर क्रमशः 'आ' 'ई' 'ऊ' और ऋ हो जाते हैं  अर्थात दीर्घ हो जाते हैं ।  

अ + अ = 
उ + उ = 
अ + आ = 
उ + ऊ = 
आ + आ =
ऊ + उ = 
आ + अ = 
ऊ + ऊ = 
इ + इ  = 
ऋ + ऋ = 
इ + ई = 
दीर्घ स्वर संधि के नियम
ई + ई = 
ई + इ = 
जैसे -
 ( अ + अ  = आ ) 
ज्ञान + अभाव  = ज्ञानाभाव   
स्व + अर्थी  =  स्वार्थी  
देव + अर्चन  =  देवार्चन  
मत +  अनुसार  =  मतानुसार 
राम + अयन  =  रामायण 
काल + अन्तर  =  कालान्तर 
कल्प + अन्त  =  कल्पान्त 
कुश  +  अग्र  =  कुशाग्र 
कृत  + अन्त  =  कृतान्त 
कीट  + अणु  =  कीटाणु 
जागृत  + अवस्था  =  जागृतावस्था
देश  + अभिमान  =  देशाभिमान 
देह  + अन्त  =  देहान्त  
कोण  + अर्क  =  कोणार्क 
क्रोध + अन्ध  = क्रोधान्ध 
कोष  + अध्यक्ष  =  कोषाध्यक्ष
ध्यान + अवस्था   = ध्यानावस्था 
मलय +अनिल  = मलयानिल 
स + अवधान = सावधान  
______
( अ + आ  = आ ) 
परम + आत्मा  = परमात्मा  
घन  + आनन्द  =  घनानन्द 
चतुर + आनन  = चतुरानन 
परम +  आनंद  =  परमानंद 
पर + आधीनता = पराधीनता 
पुस्तक  +  आलय  = पुस्तकालय 
हिम +  आलय  = हिमालय 
एक  +  आकार  =  एकाकार 
एक  +  आध  =  एकाध 
एक  + आसन =  एकासन 
कुश  + आसन  =  कुशासन 
कुसुम  +  आयुध  =  कुसुमायुध 
कुठार  +  आघात  =  कुठाराघात 
खग +आसन  =  खगासन
भोजन + आलय = भोजनालय 
भय + आतुर = भयातुर 
भाव + आवेश  = भावावेश 
मरण + आसन्न  = मरणासन्न 
फल + आगम  = फलागम 
रस + आस्वादन = रसास्वादन 
रस + आत्मक = रसात्मक 
रस + आभास = रसाभास 
राम + आधार = रामाधार 
लोप + आमुद्रा = लोपामुद्रा 
वज्र + आघात = वज्राघात 
स + आश्चर्य = साश्चर्य 
साहित्य +आचार्य = साहित्याचार्य 
सिंह + आसन = सिंहासन 
____
( आ + अ   = आ )
विद्या + अर्थी  =  विद्यार्थी    
भाषा + अन्तर = भाषान्तर 
रेखा + अंकित = रेखांकित 
रेखा + अंश = रेखांश 
लेखा + अधिकारी = लेखाधिकारी 
विद्या +अर्थी = विद्यार्थी 
शिक्षा +अर्थी = शिक्षार्थी 
सभा + अध्यक्ष = सभाध्यक्ष 
सीमा + अन्त = सीमान्त 
आशा + अतीत = आशातीत 
कृपा + आचार्य = कृपाचार्य 
कृपा + आकाँक्षी = कृपाकाँक्षी 
तथा + आगत = तथागत 
महा + आत्मा = महात्मा 
_______
( आ + आ  = आ ) 
मदिरा + आलय  = मदिरालय 
महा + आशय = महाशय 
महा +आत्मा = महात्मा 
राजा + आज्ञा = राजाज्ञा 
लीला+ आगार = लीलागार 
वार्ता +आलाप = वार्तालाप 
विद्या +आलय = विद्यालय 
शिला + आसन = शिलासन 
शिक्षा + आलय = शिक्षालय 
क्षुधा + आतुर = क्षुधातुर 
क्षुधा +आर्त = क्षुधार्त 
_______
 ( इ + इ  = ई  ) 
कवि + इन्द्र  = कवीन्द्र
मुनि + इंद्र  = मुनींद्र  
रवि + इंद्र = रवींद्र   
अति + इव = अतीव  
अति + इन्द्रिय = अतीन्द्रिय 
गिरि +  इंद्र = गिरीन्द्र
प्रति + इति = प्रतीत 
हरि  + इच्छा = हरीच्छा 
फणि + इन्द्र  = फणीन्द्र 
यति + इंद्र = यतीन्द्र 
अति + इत  = अतीत 
अभि + इष्ट = अभीष्ट 
प्रति + इति = प्रतीति 
प्रति + इष्ट = प्रतीष्ट
प्रति + इह = प्रतीह    
_______ 
 ( इ  + ई  = ई ) 
गिरि + ईश  = गिरीश   
मुनि + ईश  = मुनीश 
रवि + ईश  = रवीश 
हरि + ईश = हरीश 
कपि+ ईश = कपीश 
कवी + ईश = कवीश 
________
 ( ई + ई  = ई ) 
सती + ईश  = सतीश             
मही + ईश्वर  = महीश्वर  
रजनी + ईश = रजनीश 
________
( ई + इ  = ई ) 
मही + इंद्र   = महीन्द्र   
_______
( उ + उ  = ऊ )         
गुरु + उपदेश = गुरूपदेश      
भानु + उदय  = भानूदय  
विधु + उदय = विधूदय  
सु + उक्ति = सूक्ति 
लघु + उत्तरीय = लघूत्तरीय   
____
  उ  +  = ऊ )
लघु + ऊर्मि = लघूर्मि   
__
( ऊ + उ = ऊ )
वधू  + उत्सव = वधूत्सव  
____
 ( ऊ + ऊ = ऊ )   
भू  + ऊर्जा  = भूर्जा            
भू + ऊर्ध्व  = भूर्ध्व 
 ( ऋ + ऋ = ऋृ ) 
पितृ + ऋण  = पितृण  
मातृ + ऋण  = मातृण  ।
________
गुणसन्धि  अदेङ्गुणःअचि असवर्णे-(इउॠऌ)एषांस्थाने(एओअर् 'अल्') एतेगुणसंज्ञाभवन्ति
गुण_सन्धि:
सूत्र- अदेङ् गुणः ( 1/1/2 )
सूत्रार्थ—यह सूत्र गुण संज्ञा करने वाला सूत्र है । यह सूत्र गुण संज्ञक वर्णों को बताता है ।
(अत् एङ् च गुणसञ्ज्ञः स्यात्)
ह्रस्व अकार और एङ् ( अ, ए, ओ ) वर्ण  गुण संज्ञक वर्ण है।
व्याख्या :-अ या आ के साथ इ या ई के मेल से ‘ए’ , अ या आ के साथ उ या ऊ के मेल से ‘ओ’ तथा अ या आ के साथ ऋ के मेल से ‘अर्’ बनता है ।
यथा :–
१.अ/आ + इ/ई = ए
सुर + इन्द्र: = सुरेन्द्र: ,तरुण+ईशः= तरुणेश:
रामा +ईशः = रमेशः ,स्व + इच्छा = स्वेच्छा,
नेति = न + इति, भारतेन्दु:= भारत + इन्दु:
नर + ईश: = नरेश: , सर्व + ईक्षण: = सर्वेक्षण:
प्रेक्षा = प्र + ईक्षा ,महा + इन्द्र: = महेन्द्र:
यथा +इच्छा = यथेच्छा ,राजेन्द्र: = राजा + इन्द्र:
यथेष्ट = यथा + इष्ट:, राका + ईश: = राकेश:
द्वारका +ईश: = द्वारकेश:, रमेश: = रमा + ईश:
मिथिलेश: = मिथिला + ईश:।
_____
२.अ/आ + उ/ऊ = ओ
पर+उपकार: = परोपकारः, सूर्य + उदय: = सूर्योदय:
प्रोज्ज्वल: = प्र + उज्ज्वल: ,
सोदाहरण: = स +उदाहरण:
अन्त्योदय: = अन्त्य + उदय: ,जल + ऊर्मि: = जलोर्मि:
समुद्रोर्मि: = समुद्र + ऊर्मि:, जलोर्जा = जल + ऊर्जा
महा + उदय:= महोदय: ,यथा+उचित = यथोचित:
शारदोपासक: = शारदा + उपासक:
महोत्सव: = महा + उत्सव:
गंगा + ऊर्मि: = गंगोर्मि: ,महोरू: = महा + ऊरू:।
____
३.अ /आ + ऋ = अर्
देव + ऋषि: = देवर्षि: ,शीत + ऋतु: = शीतर्तु:
सप्तर्षि: = सप्त + ऋषि: ,उत्तमर्ण:= उत्तम + ऋण:
महा + ऋषि: = महर्षि: ,राजर्षि: = राजा + ऋषि: आदि 
प्रश्न - गुण स्वर सन्धि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए ।  
उत्तर -  यदि  'अ'  या 'आ' के बाद 'इ' या 'ई'   'उ' या 'ऊ'  और ऋ आए तो दोनों मिलकर क्रमशः 'ए' 'ओ'  और अर  हो जाता है । इस मेल को गुण स्वर संधि कहते हैं । 

अ + इ = ए
 + उ = ओ
आ  + इ = ए
  +   = 
अ + ई = ए
 + ऋ= अर 
आ + ई = ए
आ + ऋ = अर्
अ + उ = ओ

गुण स्वर संधि के नियम
जैसे -
( अ  + इ = ए ) 
देव + इन्द्र  = देवेन्द्र   
सुर + इंद्र = सुरेंद्र 
भुजग + इन्द्र  = भुजगेन्द्र 
बाल + इंद्र = बालेन्द्र
मृग + इंद्र = मृगेंद्र 
योग + इंद्र = योगेंद्र 
राघव +इंद्र  = राघवेंद्र 
विजय + इच्छा = विजयेच्छा 
शिव + इंद्र = शिवेंद्र 
वीर + इन्द्र = वीरेन्द्र 
शुभ + इच्छा = शुभेच्छा 
ज्ञान + इन्द्रिय = ज्ञानेन्द्रिय 
खग + ईश = खगेश 
खग = इंद्र = खगेन्द्र 
गज + इंद्र = गजेंद्र 

( आ  + इ = ए ) 
महा + इंद्र = महेंद्र 
यथा + इष्ट  = यथेष्ट 
रमा + इंद्र = रमेंद्र 
 राजा + इंद्र = राजेंद्र 

( अ + ई  = ए ) 
गण + ईश  = गणेश         
ब्रज + ईश = ब्रजेश  
भव + ईश  = भवेश
भुवन + ईश्वर  = भुवनेश्वर 
भूत + ईश = भूतेश 
भूत + ईश्वर  = भूतेश्वर 
रमा + ईश  = रमेश 
राम + ईश्वर = रामेश्वर 
लोक +ईश = लोकेश 
वाम + ईश्वर = वामेश्वर 
सर्व + ईश्वर = सर्वेश्वर 
सुर + ईश = सुरेश
ज्ञान + ईश =ज्ञानेश 
ज्ञान+ईश्वर = ज्ञानेश्वर 
उप + ईच्छा = उपेक्षा 
एक + ईश्वर = एकेश्वर 
कमल +ईश = कमलेश  

( आ + ई  = ए ) 
महा + ईश  = महेश 
रमा + ईश  = रमेश  
राका + ईश = राकेश  
लंका + ईश्वर = लंकेश्वर 
उमा = ईश = उमेश     
   
( अ + उ = ओ )
वीर + उचित = वीरोचित 
भाग्य + उदय = भाग्योदय   
मद + उन्मत्त  = मदोन्मत्त 
सूर्य + उदय  = सूर्योदय  
फल + उदय  = फलोदय   
फेन + उज्ज्वल  = फेनोज्ज्वल 
यज्ञ +  उपवीत  = यज्ञोपवीत 
लोक + उक्ति = लोकोक्ति 
लुप्त + उपमा = लुप्तोपमा  
 लोक+उत्तर = लोकोत्तर  
वन + उत्सव = वनोत्सव 
वसंत +उत्सव = वसंतोत्सव 
विकास + उन्मुख = विकासोन्मुख 
विचार + उचित = विचारोचित 
षोड्श + उपचार = षोड्शोपचार 
सर्व + उच्च = सर्वोच्च 
सर्व + उदय = सर्वोदय 
सर्व + उत्तम = सर्वोत्तम 
हर्ष + उल्लास = हर्षोल्लास 
हित + उपदेश = हितोपदेश
आत्म +उत्सर्ग = आत्मोत्सर्ग 
आनन्द + उत्सव = आनन्दोत्सव 
गंगा + उदक = गंगोदक  

( अ  + ऊ  = ओ )
समुद्र + ऊर्मि = समुद्रोर्मि 
( आ  + ऊ  = ओ )
गंगा + ऊर्मि = गंगोर्मि 

( आ + उ = ओ )
महा + उत्सव  = महोत्सव 
महा + उदय = महोदय 
महा = उपदेश = महोपदेश 
यथा + उचित  = यथोचित 
लम्बा + उदर = लम्बोदर 
विद्या + उपार्जन = विद्योपार्जन  

( अ + ऋ = अर् ) 
देव + ऋषि  = देवर्षि        
ब्रह्म +  ऋषि = ब्रह्मर्षि 
सप्त + ऋषि = सप्तर्षि 

 ( आ + ऋ = अर् ) 
महा + ऋषि  = महर्षि 
राजा + ऋषि  = राजर्षि    ।
____
वृद्धिरेचि-वृद्धि_स्वर_सन्धि
वृद्धि हो जाती है  आत् ( अ'आ) के  बाद ऐच् (एऐओऔ) से परे अच् ( स्वर) होने पर।
अर्थात् आ, ऐ, और औ वर्ण वृद्धि संज्ञक वर्ण है ।
_
वृद्धिः आत् ऐच् = वृद्धिरादैच्  अचि।

 वृद्धि_स्वर_संधि*
सूत्र :- (वृद्धिरेचि) ।
वृद्धिः आत् ऐच् = वृद्धिरादैच्  अचि।
वृद्धि हो जाती है  आत् ( अ'आ) के  बाद ऐच् (एऐओऔ) से परे अच् ( स्वर) होने पर।
अर्थात् आ, ऐ, और औ वर्ण वृद्धि संज्ञक वर्ण है ।

व्याख्या :- अ या आ के परे यदि ए या ऐ रहे तो (ऐ) और ओ या औ रहे तो (औ) हो जाता है।
१.अ/आ + ए/ऐ =ऐ
२.अ/आ + ओ/औ = औ
यथा :-
अद्यैव = अद्य + एव
मतैक्यम्= मत + ऐक्यम्
पुत्रैषणा = पुत्र + एषणा
सदैव =सदा + एव
तदैव=तदा+एव
वसुधैव= वसुधा + एव
एकैक:= एक + एक:
महैश्वर्यम्= महा + ऐश्वर्यम्
गंगौघ:= गंगा + ओघ:
महौषधि:= महा +औषधि:
महौजः = महा +ओजः *आदि* ।
प्रश्न - वृद्धि स्वर सन्धि  किसे कहते  हैं ? उदाहरण सहित समझाइए । 
उत्तर- यदि 'अ' या 'आ' के बाद 'ए' या 'ऐ' रहे तो 'ऐ'  एवं  'ओ' और 'औ' रहे तो 'औ' बन जाता है ।  इसे वृध्दि स्वर सन्धि कहते हैं ।  जैसे -

अ + ए  = ऐ
अ + ऐ = ऐ
आ + ए  = ऐ
आ + ऐ  = ऐ
अ  + ओ = औ
आ + ओ = औ
अ + औ = औ
आ + औ = औ

वृद्धि स्वर संधि के नियम
( अ + ए  = ऐ ) 
एक + एक  =  एकैक   
( अ + ऐ = ऐ )      
मत + ऐक्य  = मतैक्य 
हित + ऐषी = हितैषी 
 ( आ + ए  = ऐ ) 
तथा + एव  = तथैव         
सदा  + एव  = सदैव 
वसुधा +एव = वसुधैव   
( आ + ऐ  = ऐ )       
महा + ऐश्वर्य  = महैश्वर्य  
( अ  + ओ = औ ) 
दन्त + ओष्ठ = दँतौष्ठ 
वन + ओषधि = वनौषधि
परम + ओषधि = परमौषधि   
( आ + ओ = औ )   
महा + ओषधि  = महौषधि  
गंगा + ओध = गंगौध 
महा + ओज  = महौज 
( आ + औ = औ ) 
महा + औषध   = महौषध   ।

_____   
यण् सन्धिसम्प्रसारण संज्ञा सूत्र—इग्यणः सम्प्रसारणम्  ( 1/1/45 )
यण_संधि 
3- सम्प्रसारण संज्ञा 
सूत्र—इग्यणः सम्प्रसारणम् ( 1/1/45 )
सूत्रार्थ—यण् का अर्थात् य,र,ल,व के स्थान पर इक् अर्थात् इ,उ,ऋ,लृ हो जाना सम्प्रसारण कहलाता है ।

जहाँ-जहाँ भी सम्प्रसारण का उच्चारण हो , वहाँ-वहाँ यण् के स्थान पर इक् होना समझा जाय।

उदाहरण— वच् धातु   में 'व'  वर्ण का सम्प्रसारण उ' होकर रूप "उक्त" बना।
 (वच्+रक्त= उक्त)
 (यज् + क्त =  इष्ट)
 (वह् + क्त= ऊढ़)
उदाहरण— वच् धातु   में 'व'  वर्ण का सम्प्रसारण उ' होकर रूप "उक्त" बना।
 (यज्+क्त=इष्ट)
(वच्+रक्त= उक्त)
 (वह् + क्त= ऊढ़)
वह-प्रापणे ज्ञानार्थत्वात्  कर्त्तरि क्त (वह् +क्त)

*सूत्र:- इको_यणचि।*
*इक्- इ, उ ,ऋ ,लृ*
| | | |
*यण्- य, व ,र , ल*
*व्यख्या:-*
(क) इ, ई के आगे कोई विजातीय (असमान) स्वर होने पर इ /ई का ‘य्’ हो जाता है।
#यथा:-
यदि + अपि = यद्यपि,
इति + आदि:= इत्यादि:
प्रति +एकम् = प्रत्येकं 
नदी + अर्पणम् = नद्यर्पणम्
वि + आसः = व्यासः
देवी + आगमनम् = देव्यागमनम्।
(ख) उ, ऊ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर उ/ ऊ का ‘व्’ हो जाता है।
यथा:-
अनु + अय:= अन्वय:
सु + आगतम् = स्वागतम्
अनु + एषणम् = अन्वेषणम्
(ग) ‘ऋ’ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर ऋ का ‘र्’ हो जाता है।
यथा:-
मातृ+आदेशः = मात्रादेशः
पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञा
धातृ + अंशः = धात्रंशः
(घ) लृ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर लृ का 'ल'हो जाता है ।
यथा:- लृ +आकृति:=लाकृतिः *आदि।*

प्रश्न - यण  स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए । 
उत्तर - यदि 'इ' या 'ई', 'उ' या 'ऊ'  और ऋ के बाद कोई भिन्न स्वर आये तो 'इ' और 'ई' का 'य' , 'उ' और 'ऊ' का 'व'  तथा ऋ का 'र' हो जाता है । इसे यण स्वर संधि कहते हैं । 

 + अ = य
इ + आ = या
इ + ए  = ये
इ + उ  = यु
 + आ = या
इ + ऊ  = यू 
  +    = यै
उ + अ  = व
उ + आ  = वा
 + आ  = वा
उ + ई   = वी 
उ + इ    = वि
   +     = वे
  +    = वै 
ऋ  + अ  = 
ऋ + आ = रा
ऋ  + इ   = रि


यण स्वर संधि के कुछ नियम
जैसे -
( इ + अ = य )
यदि + अपि = यद्यपि 
वि +अर्थ = व्यर्थ 
आदि + अन्त = आद्यंत 
अति +अन्त = अत्यन्त 
अति + अधिक = अत्यधिक 
अभि + अभागत = अभ्यागत 
गति + अवरोध = गत्यवरोध 
ध्वनि + अर्थ = ध्वन्यर्थ 
( इ + ए  = ये )  
प्रति + एक  = प्रत्येक 
(इ +आ = या  )         
अति + आवश्यक  = अत्यावश्यक 
वि + आपक = व्यापक   
वि + आप्त = व्याप्त
वि+आकुल = व्याकुल 
वि+आयाम = व्यायाम 
वि + आधि  = व्याधि 
वि+ आघात = व्याघात 
अति +आचार = अत्याचार  
इति + आदि = इत्यादि 
गति + आत्मकता  = गत्यात्मकता 
ध्वनि + आत्मक = ध्वन्यात्मक 
(ई +आ = या  ) 
सखी + आगमन = सख्यागमन      
 ( इ + उ  = यु  ) 
अति + उत्तम  = अत्युत्तम 
वि + उत्पत्ति = व्युत्पत्ति
अभि + उदय = अभ्युदय 
ऊपरि + उक्त = उपर्युक्त 
प्रति + उत्तर = प्रत्युत्तर  
 ( इ + ऊ  = यू  )  
वि + ऊह = व्यूह  
नि + ऊन = न्यून 
 ( ई  + ऐ   = यै ) 
देवी + ऐश्वर्य = देव्यैश्वर्य    
( उ + अ  = व ) 
अनु + अव  = अन्वय  
मनु + अन्तर  = मन्वन्तर   
सु + अल्प = स्वल्प 
सु + अच्छ = स्वच्छ          
 ( उ + आ  = वा ) 
सु   + आगत   = स्वागत       
मधु + आचार्य  = मध्वाचार्य 
मधु + आसव  = मध्वासव 
लघु + आहार = लघ्वाहार 
( उ + इ    = वि ) 
अनु + इति  = अन्विति 
( उ + ई   = वी  ) 
अनु + वीक्षण = अनुवीक्षण 
 ( ऊ + आ  = वा ) 
वधू +आगमन = वध्वागमन
 ( उ   + ए    = वे ) 
अनु + एषण = अन्वेषण 
 ( ऊ  + ऐ   = वै ) 
वधू +ऐश्वर्य = वध्वैश्वर्य 
( ऋ  + अ  = र ) 
पितृ +अनुमति = पित्रनुमति 
( ऋ  + आ  = रा ) 
मातृ  + आनंद  = मात्रानन्द 
मातृ + आज्ञा = मात्राज्ञा  
 ( ऋ  + इ   = रि ) 
मातृ + इच्छा = मात्रिच्छा  ।
_
अयादि सन्धि -अयादि_सन्धि: -
सूत्र:-एचोऽयवायावः।
व्याख्या:-*ए, ऐ, ओ, औ के परे अन्य किसी स्वर के मेल पर ‘ए’ के स्थान पर ‘अय्’; ‘ऐ’ के स्थान
पर ‘आय्’; ओ के स्थान पर ‘अव्’ तथा ‘औ’ के स्थान पर ‘आव्’ हो जाता है ।
_______
ए ऐ ओ औ।
| | | |
अय् आय् अव् आव्
____
         -🌿★-🌿 

🌿 *उदाहरणानि :-*
शे + अनम् = शयनम् - (ए + अ = अय् +अ)
ने + अनम् = नयनम् - (ए + अ = अय्+अ)
चे + अनम् = चयनम् - (ए + अ = अय्अ)
शे + आनम् = शयानम् - (ए + आ = अय्अ)
नै + अक: = नायक: - (ऐ + अ = आय्अ)
गै + अक: = गायक: - (ऐ + अ = आय्अ)
गै + इका = गायिका - (ऐ + इ = आय्अ)
पो + अनम् = पवनम् - (ओ + अ = अव्अ)
भो + अनम् =भवनम् - (ओ + अ = अव्अ)
पो + इत्र: = पवित्रः - ( ओ + इ = अव्इ)
पौ + अक: = पावक: - (औ + अ = आव्अ)
शौ + अक: = शावक: - (औ + अ = आव्अ)
भौ + उक: = भावुकः - (औ +उ= आव् उ)
धौ + अक: = धावक: - (औ + अ = आव्अ)
आदि ।
प्रश्न - अयादि संधि किसे कहते हैं ? उदहारण सहित समझाइए । 
उत्तर - यदि 'ए' 'ऐ' 'ओ' 'औ' के बाद कोई भिन्न स्वर आए तो 'ए' का 'अय्', 'ऐ' का 'आय्' , 'ओ' का अव्  तथा 'औ' का 'आव्' हो जाता है । इस परिवर्तन को अयादि सन्धि कहते हैं । 

 ए  + अ  = अय्
ऐ + अ = आय् 
ऐ  + इ   = आयि
ओ  + अ  = अव् 
ओ  + इ  = अव्
ओ + ई  = अवी
औ + अ  = आव्
औ + इ   = आवि
औ + उ  = आवु

अयादि स्वर संधि के कुछ नियम
जैसे - 
( ए  + अ  =अय) 
ने + अन  =  नयन 
शे +अन = शयन   
( ऐ  + अ  = आय )       
नै  + अक  = नायक  
शै +अक = शायक 
गै + अक = गायक 
गै + अन = गायन  
 ( ऐ  + इ   = आयि  ) 
नै + इका = नायिका 
गै + इका = गायिका      
( ओ  + अ  = अव ) 
पो + अन   = पवन          
भो + अन = भवन 
श्रो + अन = श्रवण 
भो + अति = भवति 
( ओ  + इ  = अव ) 
पो + इत्र = पवित्र  
( ओ + ई  = अवी  ) 
गो  + ईश  = गवीश 
( औ + अ  = आव ) 
सौ  + अन   =  सावन      
रौ + अन = रावण 
सौ + अक = शावक 
श्रौ अन = श्रावण 
धौ + अक = धावक 
पौ + अक = पावक 
पौ + अन = पावन
शौ + अक = शावक 
( औ + इ   = आवि ) 
नौ + इक = नाविक 
( औ + उ  = आवु ) 
भौ + उक = भावुक 

___________
पूर्वरूप सन्धि — एङ: पदान्तादति)- संस्कृत व्याकरणम्
एङ पदान्तादति) होता है। यह  स्वर संधि के भागो में से एक है। 

सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही  प्रभाव है 
  नियम-
नियम - पद( क्रिया पद आख्यातिक) अथवा नामिकपद के अन्त में अगर "ए" अथवा "ओ" हो और उसके परे 'अकार' हो तो उस अकार का लोप हो जाता है। लोप होने पर अकार का जो चिन्ह रहता है उसे ( ऽ ) 'लुप्ताकार' या 'अवग्रह' कहते हैं; वह लग जाता है ।
पूर्वरूप  संधि के उदाहरण
ए / ओ + अकार = ऽ --> कवे + अवेहि = कवेऽवेहि
ए / ओ + अकार = ऽ --> प्रभो + अनुग्रहण = प्रभोऽनुग्रहण
ए / ओ + अकार = ऽ --> लोको + अयम् = लोकोSयम् 
ए / ओ + अकार = ऽ --> हरे + अत्र = हरेSत्र

(यह सन्धि आयदि सन्धि का अपवाद भी होती है)।
क्योंकि यहाँ केवल पदान्तों की सन्धि का विधान है    जबकि अयादि में धातु अथवा उपसर्ग आदि अपद रूपों के अन्त में अयादि सन्धि का विधान है ।

 नामिकपदरूप- बालके+ सर्वनामपदरूप-अस्मिन् =बालकेऽस्मिन्
जबकि निम्न सन्धियों में अपद(धातु और प्रत्यय रूप होने से पूर्व रूप सन्धि नहीं हुई है।        
धातु रूप -ने  + प्रत्यय रूप-अनम् =नयनम्
धातु रूप -सौ  + प्रत्यय रूप- अन्   = सावन      
धातु रूप -रौ +  प्रत्यय रूप- अन् = रावण 
धातु रूप - सौ +प्रत्यय रूप- अक: = शावक: 
धातु रूप - श्रौ प्रत्यय रूप- अन् = श्रावण 
धातु रूप - धौ + प्रत्यय रूप-  अक: = धावक: 
धातु रूप - पौ +  प्रत्यय रूप- अक := पावक: 
धातु रूप - पौ + प्रत्यय रूप-  अन् = पावन
धातु रूप -शौ +. प्रत्यय रूप- अक: = शावक: 
__
यदि यहाँ पदों की सन्धि नहीं होती तो पूर्वरूप का विधान ही होगा। क्यों कि 'धातु और 'प्रत्यय अथवा उपसर्ग पद नहीं होते हैं । विशेषत: सन्धि का आधार पूर्व पद ही है क्यों कि -
_____
 यहाँ दोनों पद हैं ।
१-तौ+आगच्छताम्=वे दोनों आयें।
=तावागच्छताम् 
______
२-बालको + अवदत् -बालक बोला।
=बालकोऽवदत् 
_____
★-स:+अथ।
सोऽथ -वह अब।
★-सोऽहम्-वह  मैं हूँ।
पूर्वरूप सन्धि केवल पदान्त में  'एकार अथवा 'ओकार होने पर ही होती है । अन्यथा नहीं -
_____

विशेष -धातुओं से ल्युट् प्रत्यय जोड़ा जाता है। इसका ‘यु’ भाग शेष रह है तथा ‘ल’ और ‘ट्’ का लोप हो जाता है। ‘यु’ के स्थान पर ‘अन’ आदेश हो जाता है। ‘अन’ ही धातुओं के साथ जुड़ता है। (कृत् प्रत्यय) ल्युट् – प्रत्ययान्त शब्द’ प्रायः नपुंसकलिङ्ग में होते हैं
__
पूर्वरूप संधि के हरे+ ए=हरये(ए+ए) अ+इ=ए+ अ+इ वस्तुत: यहाँ गुण सन्धि का ही प्रभाव है ।

हरे+ ए=हरये(ए+ए) अ+इ=ए+ अ+इ वस्तुत: यहाँ गुण सन्धि का ही प्रभाव है ।

सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही  प्रभाव है

सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही  प्रभाव है 

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पररूप सन्धि-एडि पररूपम्, संस्कृत व्याकरण--

इस पृष्ठ पर हम पररूप संधि का विश्लेषण करेंगे !
पररूप संधि के नियम
नियम -  यदि उपसर्ग के अन्त में"अ" अथवा "आ" हो और उसके परे 'एकार/ओकार' हो तो उस उपसर्ग के अ' आकार विलय निर्विकार रूप से  क्रिया के आदि में होता  है। 
पररूप संधि के उदाहरण
प्र + एजते = प्रेजते 
उप + एषते = उपेषते 
परा + ओहति = परोहति 
प्र + ओषति = प्रोषति 
उप + एहि = उपेहि

यह संधि -वृद्धि संधि का अपवाद भी होती है।
क्योंकि यहाँ पूर्व पद में उपसर्ग और उत्तर पद में क्रियापद होता है ।

जबकि वृद्धि सन्धि में केवल प्र उपसर्ग के पश्चात ऋच्छति = में (प्र+ऋ) प्रार्च्छति।  उप+ ऋ)-उपार्च्छति यहाँ पर रूप सन्धि का पूर्व पद उपसर्ग होते हुए भी वृद्धि सन्धि हो जाती है ।

पर रूप सन्धि केवल अकारान्त उपसर्ग होने पर केवल ए-आदि अथवा ओ-आदि क्रिया पदों में ही होती है । अन्यथा वृद्धि सन्धि होगी।
 जैसे प्र+एजते= प्रेजते। उप +ओषति=उपोषति। आदि रूप में पर रूप सन्धि ही है ।
मम+एव=ममैव। (प्र+ऋच्छति)= प्रार्च्छति।

जबकि पूर्वरूप सन्धि का विधान अपदान्त रूपों में ही होता है । और वह भी दो ह्रस्व अ' स्वरों के मध्य में विसर्ग (:) आने पर पूर्व स्वर को ओ' और पश्चात्‌ 
(ऽ) ये प्रश्लेष चिन्ह लगता है ।
___
 प्रकृतिभाव-सन्धि-सूत्र –( ईदूदेेद् -द्विवचनम् प्रगृह्यम्)-
. प्रकृति भाव सन्धि –
सूत्र –( ईदूदेेद् द्विवचनम् प्रगृह्यम्)
ईकारान्त, ऊकारान्त, एकारान्त द्विवचन से परे कोई भी अच् हो तो वहां सन्धि नहीं होती।
मुनी + इमौ = मुनीइमौ
कवी + आगतौ = कवीआगतौ
लते + इमे = लतेइमे
विष्णू + इमौ = विष्णूइमौ
अमू + अश्नीतः = अमूअश्नीतः
कवी + आगच्छतः = कवीआगच्छतः
नेत्रे + आमृशति = नेत्रेआमृशति
वटू + उच्छलतः = वटूउच्छलतः

स्वर संधि - अच् संधि
दीर्घ संधि - अक: सवर्णे दीर्घ:
गुण संधि - आद्गुण:
वृद्धि संधि - वृद्धिरेचि
यण् संधि - इकोऽयणचि
अयादि संधि - एचोऽयवायाव:
पूर्वरूप संधि - एडः पदान्तादति
पररूप संधि - एडि पररूपम्
प्रकृति भाव संधि - ईद्ऊद्ऐद द्विवचनम् प्रग्रह्यम्
_____

💐वृत्ति अनचि च  8|4|47
अच् परस्य यरो द्वे वा स्तो न त्वचि। इति धकारस्य द्वित्व।

अर्थ–अच् -(अ'इ'उ'ऋ'ऌ'ए'ऐ'ओ'औ) से परे यर्—( अन्त:स्थ-यवरल तथा अनुनासिक' वर्ग के प्रथम' द्वितीय'तृतीय'चतुर्थ और उष्म वर्ण)  प्रत्याहार का विकल्प से द्वित्व हो जाता है
यर्(य,व,र,ञ्,म्,ङ्,ण्,न्,झ,भ,घ,ढ,ध,ज,ब,ग,ड,द,ख,फ,छ,ठ,थ,च,ट,त,क,प,श,ष,स) प्रत्याहार हो तो विकल्प से द्वित्व हो जाता है-
 💐★-•परन्तु यदि यर् प्रत्याहार से परे अक् (अ,इ,उ,ऋ,लृ,) प्रत्याहार हो तो द्वित्व नहीं होता है।
  💐- कृष्णः" इत्यत्र ऋकारात् परः यर्-वर्णः षकारः अस्ति । तस्मात् परः स्वरः नास्ति, अतः षकारस्य अनेन सूत्रेण विकल्पेन द्वित्वं भवितुं शक्यते । यथा - कृष्ष्णः ।

सूत्रच्छेदः—अनचि (सप्तम्येकवचनम्) , च (अव्ययम्)अनुवृत्तिःवा  8|4|45 (अव्ययम्) , यरः  8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे  8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः  8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम्  8|2|1> संहितायाम्  8|2|108
सम्पूर्णसूत्र-अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्

_________
सम्पूर्णसूत्रम्अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्
अनुवृत्तिःवा  8|4|45 (अव्ययम्) , यरः  8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे  8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः  8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)
अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम्  8|2|1> संहितायाम्  8|2|108
सम्पूर्णसूत्रम्अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्
________
सूत्रच्छेदःअनचि (सप्तम्येकवचनम्) , च (अव्ययम्)
अनुवृत्तिःवा  8|4|45 (अव्ययम्) , यरः  8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे  8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः  8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)
अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम्  8|2|1> संहितायाम्  8|2|108
सम्पूर्णसूत्रम्अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्
सूत्रार्थः
अचः परस्य यरः अनचि परे विकल्पेन द्वित्वं भवति ।

"अनच्" इत्युक्ते "न अच्" । स्वरात् परस्य यर्-वर्णस्य अग्रे स्वरः नास्ति चेत् विकल्पेन द्वित्वं भवति इत्यर्थः । यथा -👇

वृत्ति:-अच: परस्य यरो द्वे वा स्तो न त्वचि। इति धकारस्य द्वित्वम्।
अर्थ:- अच् से परे
__
यर्(य,व,र,ञ्,म्,ङ्,ण्,न्,झ,भ,घ,ढ,ध,ज,ब,ग,ड,द,ख,फ,छ,ठ,थ,च,ट,त,क,प,श,ष,स) प्रत्याहार हो तो विकल्प से द्वित्व हो जाता है- परन्तु यदि यर् प्रत्याहार से परे अक् (अ,इ,उ,ऋ,लृ,) प्रत्याहार हो तो द्वित्व नहीं होता है।

(1) "कृष्णः" इत्यत्र ऋकारात् परः यर्-वर्णः षकारः अस्ति । तस्मात् परः स्वरः नास्ति, अतः षकारस्य अनेन सूत्रेण विकल्पेन द्वित्वं भवितुं शक्यते । यथा - कृष्ष्णः ।

2) "मति + अत्र" अस्मिन् यण्-सन्धौ इकारस्य यणादेशे कृते "मत्य् + अत्र" इति स्थिते अनेन सूत्रेण तकारस्य विकल्पेन द्वित्वं कृत्वा "मत्यत्र, मत्त्यत्र" एते द्वे रूपे सिद्ध्यतः ।

अत्र वार्त्तिकत्रयम् ज्ञातव्यम् 

यणो मयो द्वे वाच्ये । अस्य वार्त्तिकस्य अर्थद्वयम् भवति -
अ) (यणः इति पञ्चमी, मयः इति षष्ठी इति स्वीकृत्य) - यण्-वर्णात् परस्य मय्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - उल्क्का, वाल्म्मिकी ।

(ब) (यणः इति षष्ठी , मयः इति पञ्चमी इति स्वीकृत्य) - मय्-वर्णात् परस्य यण्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - दध्य्यत्र, मध्व्वत्र ।

(2) शरः खयः द्वे वाच्ये । अस्यापि वार्त्तिकस्य अर्थद्वयम् भवति -
अ) (शरः इति पञ्चमी, खयः इति षष्ठी इति स्वीकृत्य) - शर्-वर्णात् परस्य खय्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - स्थ्थाली, स्थ्थाता ।
ब) (शरः इति षष्ठी , खयः इति पञ्चमी इति स्वीकृत्य) - खय्-वर्णात् परस्य शर्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - क्ष्षीरम्, अप्स्सरा ।

अवसाने च - अवसाने परे हल्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वम् भवति । यथा - रामात्, रामात्त् ।

ज्ञातव्यम् -
1. अस्मिन् सूत्रे निर्दिष्टः स्थानी "यर्" वर्णः अस्ति । यर्-प्रत्याहारे हकारम् विहाय अन्यानि सर्वाणि व्यञ्जनानि समावेश्यन्ते । अतः हकारस्य अनेन सूत्रेण द्वित्वं न विधीयते ।

2. यर्-प्रत्याहारे वस्तुतः रेफः समाविष्टः अस्ति, परन्तु अचो रहाभ्यां द्वे 8|4|46 अचः परः रेफः आगच्छति चेत् तस्मात् परस्य यर्-वर्णस्य द्वित्वं भवति । अतः अचः परस्य रेफस्य अपि अनेन सूत्रेण द्वित्वं न विधीयते ।
3. एकस्य वर्णस्य स्थाने यदा वर्णद्वयं विधीयते, तदा द्वित्वं भवति इति उच्यते । तत्र कोऽपि वर्णः "पूर्ववर्णः" तथा कोऽपि वर्णः "अनन्तरम् आगतः" नास्ति । अतः द्वित्वे कृते "नूतनरूपेण प्रवर्तितः वर्णः कः" तथा "पूर्वं विद्यमानः वर्णः कः" इति प्रश्नः एव अयुक्तः अस्ति । द्वित्व

4. "कृष्ष्ण" इत्यत्र पुनः अनचि च 8|4|47 इत्यनेन षकारस्य द्वित्वं कर्तुम् शक्यते वा? एवं कुर्मश्चेत् अनन्तकालयावत् द्वित्त्वमेव भवेत् इति दोषः उद्भवति । अस्य परिहारार्थम् लक्ष्ये लक्षं सकृदेव प्रवर्तते

अस्याः परिभाषायाः प्रयोगः क्रियते । "लक्ष्य" इत्युक्ते स्थानी । "लक्ष" इत्युक्ते सूत्रम् । "सकृतम्" इत्युक्ते एकवारम् । अतः अनया परिभाषया एतत् ज्ञायते, यत् एकस्मिन् स्थले (इत्युक्ते एकस्य स्थानिनः विषये) कस्यचन सूत्रस्य एकवारमेव प्रयोगः भवितुम् अर्हति । अतःअनचि च 8|4|47 इत्यनेन एकवारं द्वित्वं भवति चेत् पुनः तस्मिन् एव स्थानिनि अनेन सूत्रेण द्वित्वं न भवति ।

काशिकावृत्तिः
अचः इति वर्तते, यरः इति च। अनच्परस्य अच उत्तरस्य यरो द्वे वा भवतः। दद्ध्यत्र। मद्ध्वत्र। अचः इत्येव, स्मितम्। ध्मातम्।

यणो मयो द्वे भवत इति वक्तव्यम्। केचिदत्र यणः इति पञ्चमी, मयः इति षष्ठी इति व्याचक्षते। तेषाम् उल्क्का, वल्म्मीकः इत्युदाहरणम्। अपरे तु मयः इति पञ्चमी, यणः इति षष्ठी इति। तेषाम् दध्य्यत्र, मध्व्वत्र इत्युदाहरणम्। शरः खयो द्वे भवत इति वक्तव्यम्। अत्र अपि यदि शरः इति पञ्चमी, खयः इति षष्ठी, तदा स्त्थाली, स्त्थाता इति उदाहरणम्। अथवा खय उत्तरस्य शरो द्वे भवतः। वत्स्सः। इक्ष्षुः। क्ष्षीरम्। अप्स्सराः। अवसाने च यरो द्वे भवत इति वक्तव्यम्। वाक्क, वाक्। त्वक्क्, त्वक्। षट्ट्, षट्। तत्त्, तत्।

अचः परस्य यरो द्वे वा स्तो न त्वचि। इति धकारस्य द्वित्वेन सुध्ध्य् उपास्य इति जाते॥
महाभाष्यम्
अनचि च ।। द्विर्वचने यणो मयः।। द्विर्वचने यणो मय इति वक्तव्यम्।। किमुदाहरणम्?।। यदि यण इति पञ्चमी मय इति षष्ठी उल्क्का वल्म्मीकमित्युदाहरणम्।। अथ मय इति पञ्चमी यण इति षष्ठी दध्य्यत्र मध्व्यत्रेत्युदाहरणम्?।।शरःखयः।। शरःखय इति वक्तव्यम्।। किमुदाहरणम्?।। यदिशर इति पञ्जमीखयःथ्द्य;ति षष्ठी स्थ्थाली स्थ्थाता इत्युदाहरणम्। अथ खय इति पञ्जमी शर इति षष्ठी स्थ्थाली स्थ्थाता इत्युदाहरणम्। अथ खय इति पञ्चमी शर इति षष्ठी, वत्स्स(र)ः क्ष्षीरम् अपस्सरा इत्युदाहरणम्। ।। अवसाने च।। अवसाने च द्वे भवत इति वक्तव्यम्। वाक्क्। वाक्। त्वक्क् त्वक्। स्रुक्क्स्रुक्।। तत्तर्हि वक्तव्यम्?।। न वक्तव्यम्

  नायं प्रसज्यप्रतिषेधः-अचि नेति।। किं तर्हि?।। पर्युदासोऽयं यदन्यदच इति।।

सूत्रच्छेदःवान्तः (प्रथमैकवचनम्) , यि (सप्तम्येकवचनम्) , प्रत्यये (सप्तम्येकवचनम्)
अनुवृत्तिःएचः  6|1|78 (षष्ठ्येकवचनम्)
अधिकारःसंहितायाम्  6|1|72
_______
💐↔👇वान्तो यि प्रत्यय ।।6/1/79।। एचो८यवायावो वान्तो यि प्रत्यय"

 💐↔👇वान्तो यि प्रत्यय ।।6/1/79।। एचोऽयवायावो वान्तो यि प्रत्यय"
सम्पूर्णसूत्रम् एचोयवायावो यि-प्रत्यये वान्तः
संहियाताम्
 
 वृत्ति—

 :-यकारादौ प्रत्यये परे ओदौतोरव् आव् एतौ स्त:। गत्यम् ।नाव्यम् ।
____       
 अर्थ:- यकार आदि प्रत्यय परेे होने पर (ओ' औ )के स्थान पर क्रमश: अव् और आव् आदेश हो जाता है।
जैसे गो+ यम् = गव्यम् । नौ+ यम् = नाव्यम्

सूत्रार्थः-

ओकार-औकारयोः यकारादि-प्रत्यये परे क्रमेण अव्/आव् आदेशाः भवन्ति ।
अर्थ:- यकार आदि प्रत्यय परेे होने पर ओ औ के स्थान पर क्रमश: अव् और आव् आदेश हो जाता है।
जैसे गो+ यम् = गव्यम् । नौ+ यम् = नाव्यम्
सूत्रार्थः-
ओकार-औकारयोः यकारादि-प्रत्यये परे क्रमेण अव्/आव् आदेशाः भवन्ति ।
__
अस्मिन् सूत्रे यद्यपि "एच्" इत्यस्य अनुवृत्तिः क्रियते, तथापि आदेशः "वान्तः" (= वकारान्तः) अस्ति, अतः केवलं ओकार-औकारयोः विषये एव अस्य सूत्रस्य प्रयोगः भवति ।

यदि ओकारात् / औकारात् परः यकारादि-प्रत्ययः आगच्छति, तर्हि ओकारस्य स्थाने अव्-आदेशः तथा औकारस्य स्थाने आव्-आदेशः विधीयते ।

 यथा -
👇

(1) गो + यत् [गोपसोर्यत् 4|3|160 इत्यनेन यत्-प्रत्ययः]
→ गव् + य [वान्तो यि प्रत्यये 6|1|79 इति ओकारस्य अव्-आदेशः]
→ गव्य

(2) नौ + यत् [नौवयोधर्मविषमूल... 4|4|91 इति यत्-प्रत्ययः]
→ नाव् + यत् [वान्तो यि प्रत्यये 6|1|79 इति औकारस्य आव्-आदेशः]
→ नाव्य

(3) बभ्रु + यञ् [मधुबभ्र्वोर्ब्राह्मणकौशिकयोः 4|1|106 इति यञ्-प्रत्ययः]
→ बाभ्रु + यञ् [तद्धितेष्वचामादेः 7|2|117 इति आदिवृद्धिः ]
→ बाभ्रो + यञ् [ओर्गुणः 6|4|146 इत्यनेन गुणः]
→ बाभ्रव् + य [वान्तो यि प्रत्यये 6|1|79 इति ओकारस्य अव्-आदेशः]
→ बाभ्रव्य

अत्र वार्तिकद्वयं ज्ञातव्यम् । एतौ द्वौ अपि वार्तिकौ "यूति" शब्दस्य विषये वदतः । "यूति" इति शब्दः ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च 3|3|97 अनेन सूत्रेण निपात्यते । यद्यपि अयं शब्दः प्रत्ययः नास्ति, "गो + यूति" इत्यत्र कासुचन स्थितिषु गो-शब्दस्य ओकारस्य अवादेशं कृत्वा "गव्यूति" इति रूपं सिद्ध्यति । अस्यैव विषये एते द्वे वार्तिके वदतः -

1. गोर्यूतौ छन्द स्युपसङ्ख्यानम् । इत्युक्ते, वेदेषु "यूति"-शब्दे परे गो-शब्दस्य ओकारस्य स्थाने अव्-इति वान्तादेशः भवति । यथा - "आ नो मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम्" (ऋग्वेदः - 3.62.16) - अत्र "गव्यूति" इति शब्दः प्रयुक्तः अस्ति । अत्र गव्यूति इत्युक्ते गावः यस्मिन् भूमौ चरन्ति सा ।

2. अध्वपरिमाणे च । इत्युक्ते, मार्गपरिमाणम् (= अन्तरस्य गणना) दर्शयितुम् "गो + युति" इत्यस्य लौकिकसंस्कते अपि वान्तादेशः क्रियते । यथा - "गव्यूतिमात्रम् अध्वानं गतः" (सः केवलं "एकगव्युति" अन्तरं गतवान् - इत्यर्थः । अद्यतनपरिमाणे 4 गव्युतिः = 1 योजनम् = 9.09 miles = 14.6 Km).

ज्ञातव्यम् - "गो + युति" इत्यत्र ओकारस्य अव्-आदेशे कृते लोपः शाकल्यस्य 8|3|19 इत्यनेन प्राप्तः वैकल्पिकः यकारलोपः न भवति । (अस्मिन् विषये भाष्ये किमपि उक्तम् नास्ति । कौमुद्यां दीक्षितः प्रश्लेषस्य आधारं स्वीकृत्य अस्य स्पष्टीकरणं दातुम् प्रयतते । परन्तु अस्मिन् विषये शास्त्रे भिन्नानि मतानि सन्ति ।)
_____ 
An ओकार and an औकार are respectively converted to अव् and आव् when followed by a यकारादि प्रत्यय.
काशिकावृत्तिः

अक्षादूहिन्यामुपसंख्यानम् ।। वार्तिक अक्षौहिणी सैना –
अक्ष शब्द के अन्तिम "अ वर्ण से ऊहिनी शब्द का आदि ऊकार परे होने पर पूर्व तथा पर के स्थान पर वृद्धि का आदेश हो जाता है- ।
तब रूप बनेगा अक्ष+ ऊहिनी =अक्षौहिणी ।

वृत्ति- अच: पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: । गौर्य्यौ।
अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है- यथा -
गौर्य्यौ–गौर + यो =गौर्यौ । इस विग्रह दशा में गौर की गौ में औ अच् है- ।तथा इससे परे रेफ(र्) है- उससे परे यकार है- ।अत: यकार का विकल्प से द्वित्व होगा।
द्वित्व पक्ष में गौर् +य + र्यौ =गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।

💐↔"। वान्तो यि प्रत्यय"

अर्थात्:- यकारादि प्रत्यय परे होने पर 'ओ' औ' के स्थान पर क्रमश:अव् और आव् हो जाता है।

नो + यम् =नाव्यम् ।  इस स्थिति में नो के ओकार को यकारादि  "वान्तो यि प्रत्यये " सूत्र से यम् यकारादि प्रत्यय परे होने से अव् आदेश हुआ।
न्+ ओ+ यम् = परस्पर संयोजन के पश्चात "नव्यम्" रूप बना।

इसी प्रकार नौ + यम् इस स्थिति में नौ के औकार को "वान्तो यि प्रत्यये "सूत्र से यम् यकारादि प्रत्यय परेे होने से आव् आदेश हुआ । परस्पर संयोजन के पश्चात "नाव्यम्" रूप बना।
____
काशिका-वृत्तिः

अचो रहाभ्यां द्वे ८।४।४६

यरः इति वर्तते। अच उत्तरौ यौ रेफहकारौ ताभ्याम् उत्तरस्य यरो द्वे भवतः। अर्क्कः मर्क्कः। ब्रह्म्मा। अपह्न्नुते। अचः इति किम्? किन् ह्नुते। किम् ह्मलयति।
____
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी

अचो रहाभ्यां द्वे ६०, ८।४।४५

अचः पराभ्यां रेफहकाराभ्यां परस्य यरो द्वे वा स्तः। गौर्य्यौ। (न समासे)। वाप्यश्वः॥
______
सिद्धान्त-कौमुदी

अचो रहाभ्यां द्वे २६९, ८।४।४५

अचः पराभ्यां रेफहकाराभ्यां परस्य यरो द्वे वा स्तः । हर्य्यनुभवः । नह्य्यस्ति ॥

न्यासः

अचो रहाभ्यां द्वे। , ८।४।४५

"अच उत्तरौ यौ रेफहकारौ" इति। एतेनाच इति रहोर्विशेषणमिति दर्शयति। "आन्यामुत्तरस्य यरः" इति। अनेनापि रहौ यर्विशेषणमिति। "बर्क्कः" इति। "अर्च पूजायाम्()" (धा।प।२०४),धञ्(), "चजोः कुधिण्णयतोः" ७।३।५२ इति कुत्वम्()। "मर्क्कः" इति। मर्चिः सौत्रो दातुः, तस्मात्? इण्()भीकापाशस्यर्तिमर्चिभ्यः कन्()" (द।उ।३।२१) इति कन्(), "चोः कुः" ८।२।३० इति कुत्वम्()। अत्राकारादुत्तरो रेफः, तस्मादपि परः ककारो यरिति। "ब्राहृआ" इति। अत्राप्यकारादेवाच्च उत्तरो हकारः, तस्मादपि परो मकारो यरिति। "अपह्तुते" इति। अत्राप्यकारादुत्तरो हकारः, पूर्ववच्छपो लुक्(), तस्मात्? परस्य नकारस्य द्विर्वचनम्()। "किन्()ह्नुते" इति। अत्राच उत्तरो हकारो न भवतति नकारो न द्विरुच्यते। "किम्()ह्रलयति" इति। "ह्वल ह्रल सञ्चलने" (धा।पा।८०५,८०६), हेतुमण्णिच। "ज्वलह्वलह्रलनमामनुपसर्गाद्वा" ["ज्वलह्नलह्वल"--प्रांउ।पाठः] (धा।पा।८१७ अनन्तरम्()) इति मित्त्वम्(), "मितां ह्यस्वः" ६।४।९२ इति ह्यस्वत्वम्()॥

___
-बाल मनोरमा
अचो रहाभ्यां द्वे ६०, ८।४।४५

अचो रहाभ्यां द्वे। यरोऽनुनासिक इत्यतो यर इति षष्ठ()न्तं वेति चानुवर्तते। अच इति दिग्योगे पञ्चमी। "पराभ्या"मिति शेषः। रहाभ्यामित्यपि पञ्चमी। "परस्ये"ति शेषः। तदाह--अचः पराभ्यामित्यादिना। हय्र्यनुभव इति। हरेरनुभव इति विग्रहः। हरि-अनुभव इति स्थिते रेफादिकारस्य यण्। तस्य द्वित्वम्। अथ हकारात्परस्योदाहरति--न ह्य्यस्तीति। नहि--अस्तीति स्थिते हकारादिकारस्य यण्। तस्य द्वित्वम्। इहोभयत्र यकारस्य अचः परत्वाऽभावादच्परकत्वाच्च द्वित्वमप्राप्तं विधीयते। अत्राऽनचि चेति रेफहकारयोर्द्वित्वं न भवति। द्वित्वप्रकरणे रहाभ्यामिति रेफत्वेन हकारत्वेन च साक्षाच्छ()तेन निमित्तभावेन तयोर्यर्शब्दबोधितकार्यभाक्त्वबाधात्, "श्रुतानुमितयोः श्रुतं बलीय" इति न्यायात्। हर्? य्? य् अनुभवः, नह् य् य् अस्ति इति स्थिते।
______
तत्त्व-बोधिनी

अचो रहाभ्यां द्वे ।।, ८।४।४५

★-अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है-गौर्य्यौ।
___
वृत्ति- अच: पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: ।गौर्य्यौ।
अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है- यथा -
गौर्य्यौ–गौर + यो =गौर्यौ । इस विग्रह दशा में गौर की गौ में औ अच् है- ।तथा इससे परे रेफ(र्) है- उससे परे यकार है- ।अत: यकार का विकल्प से द्वित्व होगा।
द्वित्व पक्ष में गौर् +य + र्यौ =गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।

सूत्रच्छेदःएति-एधति-ऊठ्सु (सप्तमीबहुवचनम्)
अनुवृत्तिःआत्  6|1|87  (पञ्चम्येकवचनम्) , एचि  6|1|88 (सप्तम्येकवचनम्) , वृद्धिः  6|1|88 (प्रथमैकवचनम्)
अधिकारःसंहितायाम्  6|1|72> एकः पूर्वपरयोः  6|1|84
सम्पूर्णसूत्रम् आत् एचि एति-एधति-ऊठ्सु एकः पूर्वपरयोः वृद्धिः
सूत्रार्थः
अवर्णात् परस्य इण्-धातोः एध्-धातोः एच्-वर्णे परे तथा ऊठ्-शब्दे परे पूर्वपरयोः एकः वृद्धि-आदेशः भवति ।
यदि अकारात् / आकारात् परः -
(1) इण्-धातोः एकारादि /ऐकारादि / ओकारादि /औकारादि रूपम् आगच्छति, अथवा
(2) एध्-धातोः एकारादि /ऐकारादि / ओकारादि /औकारादि रूपम् आगच्छति, अथवा
(3) "ऊठ्" अयम् शब्दः आगच्छति, तर्हि -
पूर्वपरयोः स्थाने एकः वृद्धि-एकादेशः भवति ।

उदाहरणानि -

(1) उप + एति → उपैति ।
एत्येधत्यूठ्सु।।6/1/87।।–वृद्धि: एचि एति एधते ' ऊठसु"
वृत्ति-अवर्णादेजाधोरेत्येधत्योरूठि च परे वृद्धिरेकादेश:स्यात्।पररूप गुणापवाद: उपैति।उपैधते।प्रष्ठौह:।।एजाद्यो: किम्?उपेत: ।मा भवान् प्रेदिधत्।
अर्थ-अ वर्ण से परे यदि एच् प्रत्याहार आदि में वाली 'इण्' तथा एड्• धातु हो अथवा ऊठ हो तो पूर्व एवं पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश होता है ।यथा उपैति।उपैधते प्रष्ठौह:।
____
उपैति –उप+ एति इस विग्रह दशा में अ के पश्चात एजादि 'ए' परे है अत: एडि्•पररूपम् से पर रूप होता है परन्तु उसका अपवाद करके ' एत्येधत्यूठसु' इस सूत्र से पूर्व 'अ और 'ए  के स्थान पर 'ऐ वृद्धि होगयी तत्पश्चात परस्पर संयोजन के बाद उपैति सन्धि-का का पद सिद्ध होता है ।

उपैधते–उप+एधते ,इस अवस्थाओं में अ' के पश्चात ए' परे होने के कारण प्राप्त था।
किन्तु उसका बाधन कर 'एत्येधत्यूठसु' सूत्र द्वारा अ+ए के स्थान पर ऐ वृद्धि एकादेश होता है उप–अ+ए+धते=उप +ऐ+धते ।उपैधते ।संयोजन के उपरीन्त हुआ।
__
प्रष्ठौह–प्रष्ठ+ऊह: इस विग्रह दशा में प्रष्ठ में अन्तिम वर्ण अकार है उससे परे ऊह का ऊकार है । अत: इस स्थान पर अ+ ऊ के स्थान पर आद्गुण: प्राप्त था परन्तु उसे बाध कर एत्येधत्यूठसु' सूत्र से अ+ ऊ के स्थान पर औ वृद्धि एकादेश होता है।प्रष्ठ+अ+ऊ+ह: = प्रष्ठ् +औ+ह: परस्पर संयोजन करने पर प्रष्ठौह: सन्धि-का रूप हुआ।

उपसर्गाद् ऋति धातौ।।6/1/91। अर्थात् उपसर्गाद् ऋति परे वृद्धि: एकादेश ।
वृत्ति–अवर्णान्तादुपसर्गाद् ऋकारादौ धातौ परे वृद्धिरेकादेश: स्यात् । प्रार्च्छति । उपार्च्छति

प्रार्च्छति – प्र+ ऋच्छति विग्रह पद  में प्र' उपसर्ग में अ' अन्त में है ।उससे परे ऋ है ।
अत: उपसर्गाद् ऋति परे ऋति धातौ' सूत्र से परे (अ+ऋ+ च्छति ) इस स्थिति में पूर्व एवं पर अ+ऋ=आर् वृद्धि हुई। प् +र् +आर्+ च्छति संयोजन करने पर प्रार्च्छति सन्धि पद सिद्ध होगा ।

अक्षादूहिन्यामुपसंख्यानम्।। वार्तिक
अक्षौहिणी सेना।
अर्थ:-अक्ष शब्द के अन्तिम अ वर्ण से ऊहिनी शब्द का आदि ऊकार परे होने पर पूर्व तथा पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश होता है।
___

💐↔टि-स(अपवाद)सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’) 

★-•इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है। 
सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’  ) इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है।
शक + अन्धु = शकन्धु (अ का लोप)
पतत् + अञ्जलि = पतञ्जलि (अत् का लोप)
मनस् + ईषा = मनीषा (अस् का लोप)
कर्क + अन्धु = कर्कन्धु (अ का लोप)
सार + अंग = सारंग
सीमा + अन्त = सीमन्त / सीमान्त
हलस् + ईषा = हलीषा
कुल + अटा = कुलटा

_______
-★-अचोन्तयादि टि।। (1/1/64)
वृत्ति:- अचां मध्ये योन्त्य: स आदिर्यस्य तट्टि संज्ञं स्यात् ।
★•अर्थ :- अचों में जो अन्तिम अच् जिसके आदि में है उसकी टि संज्ञा होती है ।
जैसे - मनस् शब्द का नकार में संपृक्त अ है । यह यकार के पूर्व है अतएव अस् की टि संज्ञा प्रस्तुत सूत्र से होगी ।

(27)अचोन्तयादि टि ।। 1/1/64 ।
वृत्ति:- अचां मध्ये यो ८न्त्य: स आदिर्यस्य तट्टि संज्ञं स्यात् ।
अर्थ :- अचों में जो अन्तिम अच् जिसके आदि में है उसकी टि संज्ञा होती है ।जैसे - मनस् शब्द का नकार में संपृक्त अ है । यह यकार के पूर्व है अतएव अस् की टि संज्ञा प्रस्तुत सूत्र से होगी ।

(28) शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम् ।।वार्तिक।
वृत्ति:- तच्च टे शकन्धु: ।कर्कन्धु: । कुलटा। मनीषा ।आकृतिगणो८यम् ।मार्तण्ड:।
अर्थ:-शकन्धु आदि शब्दों में ( उनकी सिद्धि के अनुरूप) पररूप कहना चाहिए वह पररूप टि ' और अच् ' के स्थान पर समझना चाहिए । यथा

शकन्धु:-शक +अन्धु: । इस विग्रह दशा में शक् शब्द के अन्तिम क में अ' स्वर वर्ण है  वह टि' है तथा अन्धु: का अकार परे है । यहाँ (अ+अ)=अ पररूप प्रस्तुत वार्तिक से हुआ। परस्पर संयोजन करने पर
(शक्+ अ+अ+न्धु: ) शकन्धु: सन्धि पद बनेगा  इसी प्रकार कर्कन्धु: बनेगा ।यह दीर्घ स्वर सन्धि का अपवाद है।

मनीषा:- मनस् +ईषा  इस अवस्था में ' अचो८न्यादि टि ' सूत्र से मनस् की मन् +(अस् ) टि को ईषा के ई के स्थान पर' शकन्ध्वादिषु पररूप वाच्यम् ' वार्तिक से ई पररूप एकादेश होता है ।( मन् + अस् + ई+ई +षा ) परस्पर संयोजन करने पर मनीषा पद बना ।

ओम् च आङ् च ओमाङौ, तयोः ॰ इतरेतरद्वन्द्वः॥

अर्थः॥

ओमि आङि च परतः अवर्णात् पूर्वपरयोः स्थाने पररूपमेकादेशः भवति, संहितायां विषये॥

💐↔

कन्या + ओम् = कन्योम् इत्यवोचत्। आ + ऊढा = ओढा, अद्य + ओढा = अद्योढा, कदोढा, तदोढा॥
___
काशिका-वृत्तिः

ओमाङोश् च ६।१।९५

आतित्येव। अवर्णान्तातोमि आङि च परतः पूर्वपरयोः स्थाने पररूपम् एकादेशो भवति। का ओम् इत्यवोचत्, कोम् इत्यवोचत्। योम् इत्यवोचत्। आगि खल्वपि आ ऊढा ओढा। अद्य ओढा अद्योढा। कदा ओढा कदोढा। तदा ओढा तदोढा। वृद्धिरेचि ६।१।८५ इत्यस्य पवादः। इह तु आ ऋश्यातर्श्यात्, अद्य अर्श्यातद्यर्श्यातिति अकः सवर्णे दीर्घत्वं बाधते।
___
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी

ओमाङोश्च ४०, ६।१।९२

ओमि आङि चात्परे पररूपमेकादेशः स्यात्। शिवायोंं नमः। शिव एहि॥
____
सिद्धान्त-कौमुदी

ओमाङोश्च ४०, ६।१।९२

ओमि आङि चात्परे पररूपमेकादेशः स्यात् । शिवायों नमः । शिव एहि । शिवेहि ॥

________
अचो रहाभ्याम् द्वे ।।8/4/46 ।।   
अचो रहाभ्याम् द्वे ।।8/4/46 ।वृत्ति–अच्  पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: । गौर्यौ ।आर्य्य ।।
👇↔ अच् ( स्वर)से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता  है।
यथा :-गौर+ यो  इस विग्रह दशा में -गौर  की गौ में औ अच् है- तथा परे रेफ(र्) इससे परे यकार है- इसलिए यकार को विकल्प से द्वित्व होगा।
द्वितीय पक्ष में गौर्+ य+र्यौ= गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।
💐↔ 
👇वृत्ति–अच्  पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: । गौर्यौ ।आर्य्य ।
👇↔ अच् ( स्वर)से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता  है।
यथा :-गौर+ यो  इस विग्रह दशा में -गौर  की गौ में औ अच् है- तथा परे रेफ(र्) इससे परे यकार है- इसलिए यकार को विकल्प से द्वित्व होगा।
द्वितीय पक्ष में गौर्+ य+र्यौ= गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।

💐↔

 अचः किम्? "ह्लुते" इत्यादौ नकारस्य माभूत्।

8|4|44   SK 112  शात्‌  
सूत्रच्छेदःशात् (पञ्चम्येकवचनम्)
अनुवृत्तिःश्चुः  8|4|40 (प्रथमैकवचनम्) , न  8|4|42 (अव्ययम्) , तोः  8|4|43 (षष्ठ्येकवचनम्)

अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम्  8|2|1> संहितायाम्  8|2|108
सम्पूर्णसूत्रम्शात् तोः श्चुः न
सूत्रार्थः
शकारात् परस्य तवर्गीयवर्णस्य श्चुत्वम् न भवति ।
शकारात् परः तवर्गीयवर्णः आगच्छति चेत् स्तोः श्चुना श्चुः 8|4|41 इत्यनेन निर्दिष्टस्य श्चुत्वस्य अनेन सूत्रेण निषेधः उच्यते ।
यथा - प्रच्छँ (ज्ञीप्सायाम्) धातोः यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ् 3|3|90 अनेन नङ्-प्रत्ययः भवति -
प्रच्छ् + नङ्
→ प्रश् + न [च्छ्वोः शूडनुनासिके च 6|4|19 इति च्छ्-इत्यस्य नकारादेशः]
→ प्रश्न । श्चुना
यह श्चुत्व सन्धि-का अपवाद है- ।

___
अयोगवाह-
अक्षरसमाम्नायसूत्रेषु “अइउण्” इत्यादिषु चतुर्दशसु नास्ति योगः इति अयोग पाठादिरूपः संबन्धो येषां ते तथापि वाहयन्ति षत्वणत्वादिकार्य्यादिकं निष्पादयन्ति वाहेः अच् कर्म्मधारय अयोगवाहअनुस्वारो विसर्गश्च + कँपौ चैव पराश्रितौ । अयोगवाहाविज्ञेया” इति शिक्षाकृदुपदिष्टेषु अनुस्वारविसर्गादिषु ...

जिनका  चौदह माहेश्वर-सूत्रो में योग नहीं है वह फिर भी वहन करते हैं षत्व' णत्व'आदि कार्यों को पूरा करता है अथवा(वाह् + अच्)= वाह करता है 
वह अयोह वाह है ।
______
वह वर्ण जिनका पाठ अक्षरसमाम्नाय सूत्र में नहीं है । विशेषत:—ये किसी किसी के मत से अनुस्वार, विसर्ग जिह्वामूलीयस्य :क   :ख   :प   :फ   ये छै: वर्ण हैं ।अनुस्वार विसर्ग के अतिरिक्त जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय भी अयोगवाह है ।
__________

व्यञ्जन-सन्धि का विधान
व्यञ्जन सन्धि -
प्रतिपादन -💐↔👇
शात् ८।४।४४ ।।
वृत्तिः-शात्‌ परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात्।।
विश्न: । प्रश्न।
व्याख्यायित :-शकार के परवर्ती तवर्ग के स्थान पर चवर्ग नहीं होता है ।
आशय यह कि शकार (श्  वर्ण) से परे तवर्ग ( त थ द ध न ) के स्थान पर स्तो: श्चुनाश्चु: से जो चवर्ग हो सकता है- वह इस सूत्र शात्‌ के कारण नहीं होगा।
अत: यह सूत्र " श्चुत्वं विधि का अपवाद " है-।
__________
काशिका-वृत्तिः
शात् ८।४।४४
तोः इति वर्तते। शकारादुत्तरस्य तवर्गस्य यदुक्तं तन् न भवति। प्रश्नः। विश्नः।
न्यासः
______
💐↔शात् ६३/ ८/४४३ 
"विश्नः, प्रश्नः" इति।
"विच्छ गतौ" (धा।पा।१४२३) "प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्()" (धा।पा।१४१३), पूर्ववन्नङ्(), "च्छ्वोः शूडनुनासिके च" ६।४।१९ इति च्छकारस्य शकारः। यद्यपि

प्रश्ने चासन्नकाले" ३।२।११७ इति निपतनादेव शात्परस्य तदर्गस्य चुत्वं न भवतीत्यैषोऽर्थो लभ्यते, तथापि मन्दधियां प्रतिपत्तिगौरवपरीहारार्थमिदमारभ्यते। अथ वा"अवाधकान्यपि निपातनानि भवन्ति"
(पु।प।वृ।१९) इत्युक्तम्()।
___________
यद्येतन्नारभ्यते, प्रश्ञः, विश्ञ इत्यपि रूपं सम्भाव्येत॥
यदि यह अपवाद नियम नहीं होता तो प्रश्न  का रूप प्रश्ञः और विश्न का रूप विश्ञ होता  
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लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
💐↔शात् ६३, ८।४।४३
शात्परस्य तवर्गस्य चुत्वं न स्यात्। विश्नः। प्रश्नः॥
सिद्धान्त-कौमुदी
शात् ६३, ८।४।४३
शात्परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात् । विश्नः । प्रश्नः ।
________
💐↔न पदान्ताट्टोरनाम् ।।8/4/42 ।।
वृत्ति:-पदान्ताट्टवर्गात्परस्या८नाम: स्तो: ष्टुर्न स्यात्।
पदान्त में  टवर्ग होने पर भी  ष्टुत्व सन्धि का विधान नहीं होता है ।👇
अर्थात् – पद के अन्त में टवर्ग से नाम शब्द  के नकार को छोड़कर अन्य सकार तथा तवर्ग को षकार तथा टवर्ग नहीं होता है ।
पदान्त का विपरीत धात्वान्त /मूलशब्दान्त है ।
आशय यह है कि यदि पदान्त  में टवर्ग आये तथा उसके परे नाम शब्द के नकार के अतिरिक्त सकार या तवर्ग आये तो उसके स्थान पर अर्थात् "स"  के  स्थान पर "ष" और वर्ग के स्थान पर टवर्ग नहीं होगा जैसे 👇
षट् सन्त: ।
षट् ते ।पदान्तात् किम् ईट्टे ।
टे: किम् ? सर्पिष्टम् ।
व्याख्या :- पद के अन्त में टवर्ग से नाम शब्द  के नकार को छोड़कर अन्य सकार तथा तवर्ग को षकार तथा टवर्ग नहीं होता है ।
आशय यह है कि यदि पदान्त  में टवर्ग आये तथा उसके परे नाम के नकार के अतिरिक्त सकार या तवर्ग आये तो उसके स्थान पर अर्थात् स के  स्थान पर ष और तवर्ग के स्थान पर टवर्ग नहीं होगा ।
अर्थात् षट् नाम = "षण्णाम "तो हो जाएगा क्यों कि यह संज्ञा पद है।
प्रस्तुत सूत्र "ष्टुत्व सन्धि का अपवाद है " ।
यथा:-षट्+ सन्त: यहाँ पर पूर्व पदान्त में टवर्ग का "ट" है तथा इसके परे सकार होने से "ष्टुनाष्टु: सूत्र से ष्टुत्व प्राप्त था।
परन्तु प्रस्तुत सूत्र से उसे बाध कर ष्टुत्व कार्य निषेध कर दिया।

परिणाम स्वरूप "षट् सन्त:"  रूप बना रहा।
अब यहाँ समस्या यह है कि वर्तमान सूत्र में पदान्त टवर्ग किस  प्रयोजन से कहा ?
यदि टवर्ग मात्र कहते तो क्या प्रयोजन की सिद्धि नहीं थी।
इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि यदि पदान्त न कहते तो (ईडते) ईट्टे :- मैं स्तुति करता हूँ। के प्रयोग में अशुद्धि हो जाती ।
ईड् + टे इस विग्रह अवस्था में ष्टुत्व का निषेध नहीं होता।और तकार को टकार होकर ईट्टे रूप बना यह क्रिया पद है।
एक अन्य तथ्य यह भी है कि इस सूत्र में तवर्ग का ग्रहण क्यों हुआ है
मात्रा न' पदान्तानाम् कहते तो क्या हानि थी? इसका समाधान यह है कि यदि टवर्ग का ग्रहण नहीं किया जाता तो  पद के अन्त में षकार से परे भी स्तु को ष्ठु होने का निषेध हो जाता।
षट् षण्टरूप बन जाता ।
५:-अनाम्नवति नगरीणामिति वाच्यम्।।
वृत्ति -षष्णाम्। षण्णवतिः। षण्णगरी।
काशिका-वृत्तिः
न पदान्ताट् टोरनाम् ८।४।४२
पदान्ताट् टवर्गादुत्तरस्य स्तोः ष्टुत्वं न भवति नाम् इत्येतद् वर्जयित्वा। श्वलिट् साये। मधुलिट् तरति। पदान्तातिति किम्? ईड स्तुतौ ईट्टे। टोः इति किम्? सर्पिष्टमम्। अनाम् इति किम्? षण्णाम्।
अत्यल्पम् इदम् उच्यते। अनाम्नवतिनगरीणाम् इति वक्तव्यम्। षण्णाम्। षण्णवतिः। षण्णगरी।
वृत्ति:-षष्णाम ।षष्णवति:।षण्णगर्य:।
व्याख्या:- पद के अन्त में तवर्ग से परे नाम ,नवति, और नगरी शब्दों के नकार को त्यागकर स ' तथा तवर्ग को  षकार और टवर्ग हो ।
आशय यह कि पाणिनि मुनि ने 'न' पदान्ताट्टोरनाम् सूत्र में केवल नाम के नकार को ही ष्टुत्व निषेध से अलग किया गया था।
अत: नवति और नगरी शब्दों में ष्टुत्व निषेध प्राप्त होने से दोष पूर्ण सिद्धि  होती थी ।
इस दोष का निवारण करने के लिए वार्तिक कार कात्यायन ने वार्तिक बनाया। कि नाम के नकार को ही ष्टुत्व निषेध से मुक्त नहीं करना चाहिए अपितु नवति और नगरी शब्दों को ही ष्टुत्व निषेध से मुक्त कर देना चाहिए अतएव नाम नवति और नगरी आदि शब्दों में तो ष्टुत्व विधि होनी चाहिए।
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(तो:षि- 8/4/53 )
 तो: षि। 8/4/53 ।
वृत्ति:- तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम् सन्,षष्ठ: यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र का बाधक है।इस लिए षण्षण्ठ नहीं होगा ।
"तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम् सन्,षष्ठ: 
★-यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र का बाधक है। इस लिए षण्षण्ठ नहीं होगा" 

💐↔पूर्व सवर्ण सन्धि:- उद: परयो: स्थास्तम्भो: पूर्वस्य 8/4/61..
वृत्ति:- उद: परयो: स्थास्तम्भो पूर्वसवर्ण: ।
स्था और स्तम्भ को उद् उपसर्ग से परे हो जाने पर पूर्व- सवर्ण होता है।
उत् + स्थान = उत्थान ।
कपि + स्थ = कपित्थ ।
अश्व + स्थ =अश्वत्थ ।
तद् + स्थ = तत्थ । 

काशिका-वृत्तिः
उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य ८।४।६१
सवर्णः इति वर्तते। उदः उत्तरयोः स्था स्तम्भ इत्येतयोः पूर्वसवर्णादेशो भवति। उत्थाता। उत्थातुम्। उत्थातव्यम्। स्तम्भेः खल्वपि उत्तम्भिता।
उत्तम्भितुम्। उत्तम्भितव्यम्। स्थास्तम्भोः इति किम्? उत्स्नाता।
उदः पूर्वसवर्नत्वे स्कन्देश् छन्दस्युपसङ्ख्यानम्।
अग्ने दूरम् उत्कन्दः।
 रोगे च इति वक्तव्यम्। उत्कन्दको नाम रोगः। कन्दतेर् वा धात्वन्तरस्य एतद् रूपम्।
काशिका-वृत्तिः
काशिका-वृत्तिः
झयो हो ऽन्यतरस्याम् ८।४।६२
झयः उत्तरस्य पूर्वसवर्णादेशो भवति अन्यतरस्याम्। वाग्घसति, वाघसति। स्वलिड् ढसति, श्वलिड् हसति। अग्निचिद् धसत्। अग्निचिद् हसति। सोमसुद् धसति, सोमसुद् हसति। त्रिष्टुब् भसति, त्रिष्टुब् हसति। झयः इति किम्? प्राङ् हसति। भवान् हसति।
न्यासः
झयो होऽन्यतरस्याम्?। , ८।४।६१
"वाग्धसति" इत्यादावुदाहरणे हकारस्य महाप्राणस्यान्तरतम्यात्? तादृश एव घकारादयो वर्गचतुर्था भवन्ति। अन्यतरस्यांग्रहणं पूर्वविध्योर्नित्यत्वज्ञापनार्थम्()॥
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१
झयः परस्य हस्य वा पूर्वसवर्णः। नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्गचतुर्थः। वाग्घरिः, वाघरिः॥
सिद्धान्त-कौमुदी
★-झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१
★-झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१
झयः परस्य हस्य पूर्वसवर्णो वा स्यात् । घोषवति नादवतो महाप्राणस्य संवृतकण्ठस्य हस्य तादृशो वर्गचतुर्थं एवादेशः । वाग्घरिः । वाग्घरिः ।।
अर्थात् झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, (८।४।६१)
वृत्ति:- झय: परस्य हस्य वा पूर्व सवर्ण:
नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्ग चतुर्थ:
वाग्घरि : वाग्हरि:।
व्याख्या:- झय्  (झ् भ् घ् ढ् ध् ज्  ब्  ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् व् क् प् ) प्रत्याहार के वर्ण के पश्चात यदि 'ह' वर्ण आये तो उसके स्थान पर विकल्प से पूर्व सवर्ण आदेश हो जाता है ।उसका आशय यह है कि यदि वर्ग का प्रथम , द्वितीय ,तृत्तीय , तथा चतुर्थ वर्ण के बाद 'ह'

आये तो उसके स्थान पर विकल्प से पूर्व सवर्ण हो जाता है । अर्थात् गुणकृत यत्नों के सादृश्य से समान आदेश होगा।
यह पूर्व सवर्ण विधायक सूत्र है यथा–वाक् +'हरि : इस दशा में 'झलांजशो८न्ते' सूत्र से ककार को गकार जश् हुआ तब वाग् + 'हरि रूप बनेगा। फिर  झयो होऽन्यतरस्याम्  सूत्र से वाघरि रूप बना।
काशिका-वृत्तिः
शश्छो ऽटि ८।४।६३
झयः इति वर्तते, अन्यतरस्याम् इति च। झय उत्तरस्य शकारस्य अटि परतः छकरादेशो भवति अन्यतरस्याम्। वाक् छेते, वाक् शेते। अग्निचिच् छेते, अग्निचित् शेते। सोमसुच् छेते, सोमसुत् शेते। श्वलिट् छेते, श्वलिट् शेते। त्रिष्टुप् छेते, त्रिष्टुप् शेते। छत्वममि इति वक्तव्यन्। किं प्रयोजनम्? तच्छ्लोकेन, तच्छ्मश्रुणा इत्येवम् अर्थम्।
न्यासः
__________

↔💐↔शश्छोऽटि। , ८।४।६२( छत्व सन्धि )
वृत्ति:- झय: परस्य शस्य छो वा८टि।
तद् + शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य टकार :-
तच्छिव: तश्चिव:।
व्याख्या:-झय् ( झ् भ् घ् ढ् ध् ज्  ब्  ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् व् क् प ) के वर्ण से परे यदि शकार आये तथा उससे भी परे अट्( अ इ उ ऋ ऌ ए ओ ऐ औ ह य व र )
प्रत्याहार आये तो विकल्प से शकार को छकार हो जाता है अर्थात् शर्त यह है कि पदान्त झय् प्रत्याहार वर्ण से परे शकार आये तो उसे विकल्प से छकार हो जाएगा यदि अट् परेे होगा तब ।
प्रयोग:- यह सूत्र छत्व सन्धि का विधायक सूत्र है यथा तद् + शिव = तच्छिव  तद् + शिव इस विग्रह अवस्था में सर्वप्रथम "स्तो: श्चुना श्चु:" सूत्र प्रवृत्त होता है – तज् +शिव:।तत्पश्चात "खरि च" सूत्र प्रवृत्त होता है तथा शकार से भी परे अट् "इ" है ।
अतएव प्रस्तुत सूत्र द्वारा विकल्प से शकार को छकार हो जाएगा।  तद्+ शिव =तच्छिव ।विकल्प भाव में तच्शिव: रूप बनेगा।
इसी सन्दर्भों में कात्यायन ने एक वार्तिक पूरक के रूप में जोड़ा है 
छत्वममीति वाच्यम्( वार्तिक)"
वृत्ति:-  तच्छलोकेन।
व्याख्या:-यह वार्तिक है इसका आशय है कि पदान्त झय् प्रत्याहार के वर्ण से परे शकार को छकार अट् प्रत्याहार परे होने की अपेक्षा अम् प्रत्याहार ( अ,इ,उ,ऋ,ऌ,ए,ओ,ऐ,औ,ह,य,व,र,ल,ञ् म् ड्• ण्  न् ) परे होने पर छत्व होना चाहिए 
पाणिनि मुनि द्वारा कथित "शश्छोऽटि" सूत्र से तच्छलोकेन आदि की सिद्धि नहीं हो कही थी अतएव इनकी सिद्धि के लिए कात्यायन ने यह वार्तिक बनाया।
प्रयोग:- यह सूत्र पूरक सूत्र है । इसके द्वारा पाणिनि द्वारा छूटे शब्दों की सिद्धि की जाती है ।
"छत्वममीति धक्तव्यण्()" इति। अमि परतश्छत्वं भवतीत्येतदर्थरूपं व्याख्येयमित्यर्थः। तत्रेदं व्याख्यानम्()--"शश्छः" इति योगविभागः क्रियते, तेनाट्प्रत्याहारेऽसन्निविष्टे लकारादावपि भविष्यति, अतोऽटीत्यतिप्रसङ्गनिरासार्थो द्वितीयो योगः--तेनाट()एव परभूते, नान्यनेति। योगवभागकरणसामथ्र्याच्चाम्प्रत्याहारान्तर्गतेऽनट()दि क्वचिद्भवत्येव। अन्यथा योगविभागकरणमनर्थकं स्यात्()। अमीति नोक्तम्(), वैचित्र्यार्थम्()। अत्र "वा पदान्तस्य" ८।४।५८ इत्यतः पदान्तग्रहणमनुवत्र्तते, झयो विशेषणार्थम्()। तेन "शि तुक्()" ८।३।३१ इत्यत्र तुकः पूर्वान्तकरणं छत्वार्थमुपपन्नं भवति; "डः सि धुट्()" (८।३।२९) इत्यतो धुङ्ग्रहणानुवृत्तेः परस्या सिद्धत्वात्? पूर्वान्तकरणमनर्थकं स्यात्()॥
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी-
शश्छोऽटि ७६, ८।४।६२
झयः परस्य शस्य छो वाटि। तद् शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य चकारः। तच्छिवः, तच्शिवः। (छत्वममीति वाच्यम्) तच्छ्लोकेन॥
सिद्धान्त-कौमुदी
शश्छोऽटि ७६, ८।४।६२
पदान्ताज्झयः परस्य शस्य छो वा स्यादटि । दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते--।
बाल-मनोरमा
शश्छोऽटि १२१, ८।४।६२
शश्छोऽटि। "झय" इति पञ्चम्यन्तमनुवर्तते। "श" इति षष्ठ()एकवचनम्। तदाह--झयः परस्येति। "तद्-शिव" इति स्थिते दकारस्य चुत्वेन जकारे कृते जकारस्य चकार इत्यन्वयः।
तत्त्व-बोधिनी
शाश्छोऽटि ९६, ८।४।६२
शाश्छोऽटि। इह पदान्तादित्यनुवत्र्य "पदान्ताज्झय" इति व्याख्येयम्, तेनेह न, "मध्वश्चोतन्त्यभितो विरप्शम्"। विपूर्वाद्रपेरौणादिकः शः।
छत्वममीति। "शश्छोऽटी"ति सूत्रं "शश्छोऽमी"ति पठनीयमित्यर्थः। तच्छ्लोकेनेति। "तच्छ्मश्रुणे"त्याद्यप्युदाहर्तव्यम्॥
काशिका-वृत्तिः
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★-मो राजि समः क्वौ ८।३।२५।
मो राजि समः क्वौ ८।३।२५
वृत्ति:- क्विवन्ते राजतौ परे समो मस्य म एव स्यात् ।
राज+ क्विप् = राज् ।
सम् के मकार को मकार ही होता है  यदि क्विप् प्रत्ययान्त  राज् परे होता है ।आशय यह कि अनुस्वारः नहीं होता ।
प्रयोग:- यह अनुस्वार का निषेध करता है- अतएव अपवाद सूत्र है ।यथा सम्+ राट् = यहाँ सम के मकार को को क्विप् प्रत्ययान्त राज् धातु का राट् है अतएव अनुस्वार नहीं होगा तथा सम्राट् रूप बनेगा ।

वस्तुत राज् का राड् तथा राट् रूप राज् के "र" वर्ण का संक्रमण रूप है ।
समो मकारस्य मकारः आदेशो भवति राजतौ क्विप्प्रत्ययान्ते परतः। सम्राट्। साम्राज्यम्। मकारस्य मकारवचनम् अनुस्वारनिवृत्त्यर्थम्। राजि इति किम्? संयत्। समः इति किम्? किंराट्। क्वौ इति किम्? संराजिता। संराजितुम्। संराजितव्यम्।
खरवसानयोर्विसर्जनीय: 8/3/15
वृत्ति:-खरि अवसाने च पदान्तस्य रेफस्य विसर्ग: ।
व्याख्या :- पद के अन्त में "र" वर्ण ही पदान्त हो तो दौनों स्थितियों "र" हो तथा उससे परे "खर"  प्रत्याहार का वर्ण हो अथवा "र" ही पदान्त हो तो दौनों स्थितियों में "र" वर्ण को विसर्ग हो जाता है;यथा संर + स्कर्त्ता =सं : स्कर्त्ता : ।
________
💐↔षत्व विधान सन्धि :- "विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद ' कु( कखगघड•) 'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई। स्वर 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।
शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 
___
परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।
परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 
___
💐↔षत्व विधान सन्धिइक्कु हयण्सि षत्व :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद ' कु( कखगघड•) ह तथा यण्प्रत्याहार के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  किसी स्वर 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है । 
_____        
शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।
'हरि+ सु = हरिषु । भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।
 :- परन्तु  आ स्वरों के बाद 'स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है ।
___________
💐↔णत्व विधान सन्धि
:- रषऋनि  नस्य णत्वम भवति। अर्थात् मूर्धन्य टवर्गीय रषऋ से परे 'न' वर्ण हो तो 'न'वर्ण का 'ण वर्ण हो जाता है।
यदि र ष और ऋ तथा न के बीच में स्वर कवर्ग पवर्ग य् व् र् ल्  और ह् और अनुस्वार भी आ जाए तो भी 'न '  को 'ण'' हो जाता है । जैसे रामे + न = रामेण । मृगे+ न = मृगेण ।
परन्तु पद के अन्त वाले 'न'को ण नहीं होता है ।जैसे रिपून् ।रामान्। गुरून्। इत्यादि ।
___________
💐↔विसर्ग सन्धि के विधान :-
💐↔विसर्ग सन्धि के विधान :-
यदि विसर्ग के बाद "क" "ख" "प" "फ" वर्ण आऐं
तो विसर्गों (:) के स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । 

अर्थात् विसर्ग यथावत् ही रहते हैं । क्यों कि इन वर्गो के सकार नहीं होते हैं -
 परन्तु इण्को: सूत्र कुछ सन्धियों में षकार हो जाता है ।
जैसे-
कवि: + खादति = कवि: खादति ।
बालक: + पतति = बालक: पतति ।
गुरु : + पाठयति  = गुरु: पाठयति ।
वृक्ष: + फलति = वृक्ष: फलति ।                          मन:+ कामना=मन: कामना।
यदि विसर्ग से पहले "अ " स्वर हो और विसर्ग के बाद भी "अ" स्वर वर्ण हो । विसर्ग के स्थान पर 'ओ' हो जाता है।यह पूर्वरूप सन्धि विधायक सूत्र है
इसमें "अ" स्वर वर्ण के स्थान पर प्रश्लेष(ऽं अथवा ८ ) का चिह्न लगाते हैं ।।
बाल: + अस्ति = __ ।
मूर्ख: + अपि   = मूर्खो८पि।
शिव: + अर्च्य: =शिवो८र्च्य: ।
क: +अपि = को८पि ।
सूत्रम्- 
खरवसानयोर्विसर्जनीय: ।।08/03/15।।
खरि अवसाने च पदान्‍तस्‍य रेफस्‍य विसर्ग: । 

व्‍याख्‍या - 
पदस्‍य अन्तिम 'र्'कारस्‍य अनन्‍तरं खर् (वर्गणां 1, 2, श, ष, स) वर्णा: भवन्‍तु अथवा अवसानं (किमपि न) भवतु चेत् 'र्'कारस्‍य विसर्ग: (:) भवति ।

हिन्‍दी - 
पद के अन्तिम र् से परे यदि खर् प्रत्‍याहार के वर्ण (वर्ग के प्रथम और द्वितीय अक्षर तथा स, श, ष) हों अथवा कि कुछ भी न हो तो 'र्'कार के स्‍थान पर विसर्ग (:) परिवर्तन होता है ।

वार्तिकम् - संपुकानां सो वक्‍तव्‍य: ।।

व्‍याख्‍या - सम्, पुम्, कान् च शब्‍दानां विसर्गस्‍य स्‍थाने 'स्'कार: भवति ।

उदाहरणम् - 
सम् + स्‍कर्ता = संस्‍स्‍कर्ता (सँस्‍स्‍कर्ता) ।।

हिन्‍दी - 
सम्, पुम् और कान् शब्‍दों के विसर्ग के स्‍थान पर 'स्'कार होता है ।

इति

________

💐↔ 
विसर्गस्यलोप -💐↔विसर्ग का लोप ।
-विसर्गस्यलोप - परन्तु यदि विसर्ग से पहले "अ" स्वर वर्ण हो और विसर्ग के बाद "अ" स्वर वर्ण के अतिरिक्त कोई भी अन्य स्वर ( आ, इ,ई,उ,ऊ,ए,ऐ,ओ,औ,) हो तो विसर्गों का सन्धि करने पर  लोप हो जाता है ।
जैसे-•
सूर्य: + आगच्छति = सूर्य आगच्छति।
बालक: + आयाति = बालक आयाति।
चन्द्र: + उदेति = चन्द्र उदेति।
💐↔यदि विसर्गों के पूर्व "अ" हो और बाद में किसी वर्ग का तीसरा ,चौथा व पाँचवाँ वर्ण अथवा अन्त:स्थ वर्ण ( य,र,ल,व) अथवा 'ह' वर्ण हो  तो पूर्व वर्ती "अ"  और विसर्ग से मिलकर 'ओ' बन जाता है। जैसे 👇
बाल:+ गच्छति = बालोगच्छति।
श्याम:+ गच्छति। = श्यामोगच्छति।
मूर्ख: + याति = मूर्खो याति।
धूर्त: + हसति = धूर्तो हसति।
कृष्ण: + नमति =कृष्णो नमति।
लोक: + रुदति= लोको रुदति।
__________
💐↔परन्तु यदि विसर्गों से पूर्व 'आ' और बाद में कोई स्वर वर्ण.(अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ए,ऐ,ओ,औ )अथवा वर्ग का तीसरा, चौथा व पाँचवाँ वर्ण और कोई अन्त:स्थ (य,र,ल,व)अथवा'ह'वर्ण हो तो विसर्गों का लोप हो जाता है।
जैसे- 👇
पुरुषा: +आयान्ति = पुरुषा आयान्ति।
बालका: + गच्छन्ति = बालका गच्छन्ति।
नरा: + नमन्ति =नरा नमन्ति।

विशेष:-देवा:+अवन्ति= देवा अवन्ति फिर पूर्वरूप देवा८वन्ति रूप-
_______       
💐↔परन्तु यदि विसर्गों से पूर्व ( 'इ'  'ई ' उ ' ऊ 'ऋ 'ऋृ 'ए ' ऐ 'ओ 'औ ')आदि में से कोई स्वर हो और विसर्ग के बाद में किसी वर्ग का तीसरा चौथा व पाँचवाँ अथवा कोई स्वर अथवा अन्त:स्थ  (य,र,ल,व )  अथवा 'ह' महाप्राण वर्ण हो तो विसर्ग का ( र् ) वर्ण बन जाता है।
यदि "अ"तथा "आ" स्वरों को छोड़कर कोई अन्य स्वर -(इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ए,ऐ,ओ,औ )के पश्चात्  विसर्ग(:)हो तथा विसर्ग के पश्चात कोई भी स्वर(अ,आ,इ,ई,उ,ऋ,ऋृ,ऌ,ऊ,ए,ऐओ,औ) अथवा कोई वर्ग का तीसरा,चौथा,-(झ-भ-घ-ढ-ध) पाँचवाँ वर्ण-(ञ-म-ङ-ण-न) अथवा कोई अन्त:स्थ-(य-र-ल-व) और "ह" वर्ण हो तो विसर्ग का रेफ(र्) हो जाता है । और सजुष् शब्द के ष् वर्ण का र् (रेफ)वर्ण हो जाता है। यह नियम "ससजुषोरु:" सूत्र का विधायक है ।
जैसे- 
'हरि: + आगच्छति = हरिरागच्छति। (हरिष्+)
कवि: + गच्छति =  कविर्गच्छति। (कविष्+)
गुरो: + आदेश: = गुरोरादेश: । (गुरोष्+)
गौष्+इयम्=गौरियम्। (गौर्+)
हरे:+ दर्शनम्।=हरेर्दर्शनम्। (हरेष्+)
पितुष्+आज्ञया=पितुराज्ञया।(पितु:+)
दुष्+लभ्।=दुर्लभ। (दु:+)
नि:+जन:=निर्जन: ।( निष्+जन:)
निष् +दय:=निर्दय:।(नि:)
दुष्+आराध्य:=दुराराध्य:।
निष्+आश्रित:=निराश्रित:।
कविष्+हसति=कविर्हसति।
मुनिष्+आगत:=मुनिरागत:।
मुनिष्+इव=मुनिरिव।
प्रभोष्+आज्ञा=प्रभोराज्ञा।
विधेष्+आज्ञा=विधेराज्ञा।
रवेष्+दर्शनम्=रवेर्दर्शनम्।
इन्दोष्+उदय:=इन्दोरुदय।
तयोष्+आज्ञा=तयोराज्ञा।
धेनुष्+एषा =धेनुरेषा।
हरिष् +याति=हरिर्याति।
कविष्+अयम् =कविरयम्।
मन:+ कामना= मनस्कामना।
पुर:+ कार= पुरस्कार ।
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विशेष-इण् -
(इण्=इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ,ह्, य्,व, र्, ल्)
 कु(क,ख,ग,घ,ङ्,)से परे "सकार" का "षकार" आदेश हो जाता है इण्को:आदेशप्रत्ययो:८/३५७/५९) इण्को (८-३-५७)-आदेशप्रत्ययो: (८-३-५९) । तस्मात् इण्को परस्य (१) अपदान्तस्य आदेशस्य (२) प्रत्यय अवयवश्च "स: स्थाने मूर्धन्य " आदेश: भवति।(सिद्धान्त कौमुदी)
इण्को: ।५७। वि०-इण्को:५।१। स० इण् च कुश्च एतयो: समाहार:-इण्कु तस्मात् -इण्को: (समाहारद्वन्द्व:)।

संस्कृत-अर्थ-इण्कोरित्यधिकारो८यम् आपादपरिसमाप्ते:।इतो८ग्रे यद् वक्ष्यति इण: कवर्गाच्च परं तद् भवतीति वेदितव्यम्। यथा वक्ष्यति आदेशप्रत्ययो: ८/३/५९/इति उदाहरण :- सिषेव ।सुष्वाप। अग्निषु। वायुषु। कर्तृषु ।गीर्षु ।धूर्षु ।वाक्षु ।त्वक्षु ।

 हिन्दी अर्थ:- इण्को: इण् कु- (क'ख'ग'घ'ड॒॰)तृतीय पाद की समाप्ति पर्यन्त पाणिनि मुनि इससे आगे और परे जो कहेंगे वह इण् और कवर्ग से परे होता है ऐसा जानें जैसाकि आचार्य पाणिनि कहेंगे आदेशप्रत्ययो:८/३/५९/ इण् और कवर्ग से परे आदेश और प्रत्यय के सकार का मूर्धन्य षकार हो जाता है ।
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पूर्वम्: ८।२।६५अनन्तरम्: ८।२।६७
प्रथमावृत्तिः
सूत्रम्॥ ससजुषो रुः॥ ८।२।६६
पदच्छेदः॥ स-सजुषोः ६।२ रुः १।१ पदस्य ६।१ ८।१।१६
समासः॥
सश्च सजुष च स-सजुषौ तयोः ॰ इतरेतरद्वन्द्वः
अर्थः॥
स-कारान्तस्य पदस्य सजुष् इत्येतस्य च रुः भवति
उदाहरणम्॥
सकारान्तस्य - अग्निरत्र, वायुरत्र। सजुषः - सजूरृषिभिः, सजूर्देवेभिः।
काशिका-वृत्तिः
ससजुषो रुः ८।२।६६
सकारान्तस्य पदस्य सजुषित्येतस्य च रुः भवति। सकारान्तस्य अग्निरत्र। वायुरत्र।

सजुषः सजूरृतुभिः। सजूर्देवेभिः। जुषेः क्विपि सपूर्वस्य रुपम् एतत्।
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
समजुषो रुः १०५, ८।२।६६
पदान्तस्य सस्य सजुषश्च रुः स्यात्॥
सश्च सजूश्च ससजुषौ, तयोरिति विग्रहः।
न्यासः
ससजुषो रुः। , ८।२।६६
"सजूः" इति। "जुषी प्रीतिसेवनयोः" (धा।पा।१२८८), सह जषत इति क्विप्(), उपपदसमासः, "सहस्य सः संज्ञायाम्()" ६।३।७७ इति सभावः।
रुत्वे कृते "र्वोरुपधायाः" ८।२।७६ इति दीर्घः। सजुवो ग्रहणमसकारान्तार्थम्()। योगश्चायं जश्त्वापवादः॥
बाल-मनोरमा
ससजुषो रुः १६१, ८।२।६६
ससजुषो रुः। ससजुषो रु रिति छेदः। "रो रि"इति रेफलोपः।
सश्च सजूश्च ससजुषौ, तयोरिति विग्रहः। रुविधौ उकार इत्।
तत्फलं त्वनुपदमेव वक्ष्यते। "स" इति सकारो विविक्षितः।
अकार उच्चारणार्थः। पदस्येत्यधिकृतं सकारेण सजुष्शह्देन च विशेष्यते। ततस्त दन्तविधिः।
सकारान्तं सजुष्()शब्दान्तं च यत् पदं तस्य रुः स्यादित्यर्थः।
सच "अलोऽन्त्ये"त्यन्त्यस्य भवति।
तत्फलितमाह-पदान्तस्य सस्येति।
सजुष्()शब्दस्य चेति। सजुष्शब्दान्तं यत् पदं तदन्तस्य । ततश्च सजुषौ सजुष इत्यत्र षकारस्य न रुत्वम्, पदान्तत्वाभावात्। "सजुष्()शब्दान्तं यत् पदं तदन्तस्य षकारस्येत्यर्थः। ततस्च सजुषौ सजुष इत्यत्र षकारस्य न रुत्वम्, पदान्तत्वाभावात्। "सजुष्शब्दान्तं यत्पद"मिति तदन्तविधिना परमसजूरित्यत्र नाव्याप्तिः।
न च सजूरित्यत्राव्याप्तिः शङ्क्या, व्यपदेशिवद्भावेन तदन्तत्वात्।
व्यपदेशिवद्भावो।ञप्रातिपदिकेन" इति "ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधिर्न" इति च पारिभाषाद्वयं "प्रत्ययग्रहणे यस्मा"दितिविषयं, नतु येन विधिरितिविषयमिति "असमासे निष्कादिभ्यः" इति सूत्रे भाष्ये स्पष्टम्। ननु शिवसिति सकारस्य "झलाञ्जशोन्ते" इति जश्त्वेन दकारः स्यात्, जश्त्वं प्रति रुत्वस्य परत्वेऽपि असिद्धत्वादित्यत आह--जश्त्वापवाद इति। तथा च रुत्वस्य निरवकाशत्वान्नासिदधत्वमिति भावः। तदुक्तं भाष्ये "पूर्वत्रासिद्धे नास्ति विप्रतिषेधोऽभावादुत्तरस्ये"ति , "अपवादो वचनप्रामाण्यादि"ति च।
तत्त्व-वोधिनी
ससजुषो रुः १३२, ८।२।६६
ससजुषो रुः। "पदस्ये"त्यनुवृतं ससजूभ्र्यां विशेष्यते, विशेषणेन तदन्तविधिः। न च सजूःशब्दांशे "ग्रहणवता प्रतिपदिकेन तदन्तविधिर्ने"ति निषेधः शङ्क्यः, तस्य प्रत्ययविधिविषयकत्वात्। सान्तं सजुष्शब्दान्तं च यत्पदं तस्य रुः स्यात्स चाऽलोन्त्यस्य। एवं स्थिते फलितमाह-पदान्तस्य सस्येति। सजुष्शब्दस्येति।
तदन्तस्य पदस्येत्यर्थः। तेन "सुजुषौ" "सजुष" इत्यत्रापि नातिव्याप्तिः। नच "सजू"रित्यत्राऽव्याप्तिः, "व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिदिकेने"ति निषेधादिति वाच्यं, तस्यापि प्रत्ययविधिविषयकत्वात्। अतएव "व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिपदिकेने"ति "ग्रहणवते"ति च परिभाषाद्वयमपि प्रत्ययविधिविषयकमिति "दिव उ"त्सूत्रे हरदत्तेनोक्तम्। कैयटहरदत्ताभ्यामिति तु मनोरमायां स्थितम्। तत्र कैयटेनानुक्तत्वात्कैयटग्रहणं प्रमादपतिततमिति नव्याः। केचित्तु "दिव उ"त्सूत्रं यस्मिन्निति बहुव्रीहिरयं, सूत्रसमुदायश्चान्यपदार्थः। तथाच "दिव उ"त्सूत्रशब्देन "द्वन्द्वे चे"ति सूत्रस्यापि क्रोटीकारात्तत्र च कैयटेनोक्तत्वान्नोक्तदोष इति कुकविकृतिवत्क्लेशेन मनोरमां समर्थयन्ते।
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अधुना अपवादत्रयं वक्तव्यम्‌—
१. रेफान्तानि अव्ययानि
प्रातः इच्छति → प्रात इच्छति = दोषः
“प्रात इच्छति" तु अतः परस्य विसर्जनीयस्य आचि लोपः इति सूत्रम्‌ अनुसृत्य भवति स्म, परन्तु अत्र दोषः |
प्रातः इच्छति → प्रातरिच्छति = साधु
अत्र नियमः यत्‌ यत्र रेफान्तानि अव्ययानि सन्ति, तत्र केवलं भाट्टसूत्रेषु प्रथमसूत्रं कार्यं करोति | 
अन्यत्र सर्वत्र रेफः एव आदिष्टः | 
अतः रेफान्त-अव्ययानां कृते सूत्राणि २ -५ इत्येषां स्थाने रेफः एव भवति |
प्रातः तिष्ठति → प्रातस्तिष्ठति = साधु
इदं उदाहरणं प्रथमसूत्रेण (विसर्जनीयस्य सः खरि कखपफे तु विसर्गः इत्यनेन) प्रवर्तते; अन्यत्र सर्वत्र रेफः |
अव्ययस्य अन्ते विसर्गः अस्ति चेत्‌, तस्य अव्ययस्य प्रातिपदिकं ज्ञेयम्‌ | रेफान्तं प्रातिपदिकम्‌ अस्ति चेत्‌, तर्हि तद्‌ अव्ययम्‌ अपवादभूतम्‌ अस्ति इति धेयम्‌ |
 यथा प्रातः इत्यस्य प्रातिपदिकं प्रातर्‍; पुनः इत्यस्य प्रातिपदिकं पुनर्‍; अन्तः इत्यस्य प्रातिपदिकम्‌ अन्तर् | इमानि अव्ययानि रेफान्तानि अतः अपवादभूतानि | परन्तु प्रातिपदिकं रेफान्तं नास्ति चेत्‌, तर्हि सामान्यैः सूत्रैः क्रमः प्रवर्तते | यथा "अतः" रेफान्तं नास्ति |
अतः इच्छति → "अतरिच्छति" = दोषः
अतः इच्छति → अत इच्छति = साधु (अतः परस्य विसर्जनीयस्य आचि लोपः इति सूत्रम्‌)
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२- एषः सः

सः तिष्ठति → सस्तिष्ठति = दोष:
एषः सः इति द्वि पदे विशेषे | तयोः कृते चतुर्थसूत्रेण अति उत्वं भवति | अन्यत्र सर्वत्र लोप एव |
सः तिष्ठति → स तिष्ठति = साधु
अतः पञ्चमे सोपाने यथा बालः इत्यादयः लघु-अकारान्तशब्दाः, एषः-सः इति द्वयोरपि अत्र विसर्गलोपः 
एषः इच्छति → एष इच्छति*
एषः आगच्छति → एष आगच्छति*
*यथा पञ्चमे सोपाने, अत्रापि अन्यः विकल्पः अस्ति 'एषयिच्छति', 'एषयागच्छति' | 
भोभगोअघोअपूर्वस्य योशि (८.३.१७), लोपः शाकल्यस्य (८.३.१९) इति सूत्राभ्याम्‌ | अयं विकल्पः विरलतया उपयुज्यते |
धेयं यत्‌ एषः सः इति द्वयोः पदयोः कृते अतः परस्य विसर्जनीयस्य अति हशि च उत्वम् इति सूत्रेण अति उत्वं भवति, परन्तु हशि उत्वं न भवति अपि तु लोप एव |
सः गच्छति → सो गच्छति = दोषः
सः गच्छति → स गच्छति = साधु
अत्‌ परे अस्ति चेत्‌, तर्हि अति उत्वं भवति—
सः अपि → सोऽपि = साधु
'सः एषः' इति यथा, तथा 'यः' नास्ति | 'यः' इति शब्दस्य यथासामान्यं भाट्टसूत्रेषु सूत्र-१,४,५ इत्येषां साधारणरूपाणि | यस्तिष्ठति | यो गच्छति | य इच्छति |
____
३. रेफः + रेफः = पूर्वदीर्घत्वं रेफलोपः च
हरिः रमते → हरिर्रमते = दोषः
रेफस्य रेफे परे पूर्वदीर्घत्वं रेफलोपः च | उदाहरणे, पूर्वं यः इकारः अस्ति, तस्य दीर्घत्वं भवति | इ → ई इति |
हरिः रमते → इचः परस्य विसर्जनीयस्य रेफः अखरि इत्यनेन → हरिर्‍ + रमते → रेफस्य लोपः, पूर्वदीर्घत्वम्‌ → हरी + रमते → हरीरमते |
तथैव पुनः रमते → रेफान्तम्‌ अव्ययम् अतः विसर्गसन्धौ रेफादेशः → पुनर्‍ + रमते → पुना + रमते → पुनारमते |
पुनः रेफान्तम्‌ अव्ययम्‌ अतः अत्रापि रेफः आयाति; रेफस्य रेफे परे रेफलोपः पूर्वदीर्घत्वं च इति धेयम्‌ |
इति विसर्गसन्धेः समग्रं चिन्तनम्‌ समाप्तम्‌ | इदं च लौकिकं चिन्तनं, व्यावहारिकं चिन्तन्तम्‌ | सम्प्रति यावत्‌ परिशीलितं व्यवहारे, तत्‌ शास्त्रीयरीत्या कथं सिध्यति इति जानीयाम |
यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ आए तथा बाद में भिन्न स्वर या कोई घोष वर्ण हो तो विसर्ग का लोप (हट जाना) हो जाता है।
रामः + इच्छति = रामिच्छन्ति
सुतः + एव = सुतेव
सूर्यः + उदयति = सूर्युदयति
अर्जुनः + उवाच्च = अर्जुनुवाच्च
नराः + ददन्ति = नराददन्ति
देवाः + अत् = देवात्
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सूत्र – ससजुषोरूः
यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ से भिन्न कोई स्वर हो वह बाद में कोई स्वर या घोष वर्ण हो तो विसर्ग ‘र’ में परिवर्तित हो जाता है।
मुनिः + अत्र = मुनिरत्र
रविः + उदेति = रविरुदेति
निः + बलः = निर्बलः
कविः + याति = कविर्याति
धेनुः + गच्छति = धेनुर्गच्छति
नौरियम् = नौः + इयम्
गौरयम् = गौ + अयम्
श्रीरेषा = श्रीः + ऐसा

____
4. सूत्र – रोरि
यदि पहले शब्द के अन्त में ‘र्’ आए तथा दूसरे शब्द के पूर्व में ‘र्’ आ जाए तो पहले ‘र्’ का लोप हो जाता है तथा उससे पहले जो स्वर हो वह दीर्घ स्वर में परिवर्तित हो जाता है।
निर् + रसः = नीरसः
निर् + रवः = नीरवः
निर् + रजः = नीरजः
प्रातारमते = प्रातर् + रमते
गिरीरम्य = गिरिर् + रम्य
अंताराष्ट्रीय = अंतर् + राष्ट्रीय
शिशूरोदिति = शिशुर् + रोदिति
हरीरक्षति = हरिर् + रक्षति
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5. सूत्र- द्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः
  रेफाकार अथाव ढ़कार से परे यदि ढ़कार हो तो पूर्व ढ़कार से पहले वाला अण्-(अइउ) स्वर दीर्घ हो जाता है तथा पूर्व ‘ढ़्’ का लोप हो जाता है।
लिढ़् + ढः = लीढ़ः
लिढ़् + ढ़ाम् = लीढ़ाम्
अलिढ़् + ढ़ः = अलीढ़ः
लिढ़् + ढ़ेः = लीढ़ेः
____
6. सूत्र- विसर्जनीयस्य स
यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर हो तथा बाद में
च या छ हो तो विसर्ग ‘श’ में परिवर्तित हो जाता है।
त या थ हो तो विसर्ग ‘स’ में परिवर्तित हो जाता है।
ट या ठ हो तो विसर्ग ‘ष’ में परिवर्तित हो जाता है।
कः + चौरः = कश्चौरः
बालकः + चलति = बालकश्चलति
कः + छात्रः = कश्छात्रः
रामः + टीकते = रामष्टीकते
धनुः + टंकारः = धनुष्टंकारः
मनः + तापः = मनस्तापः
नमः + ते = नमस्ते
रामः + तरति = रामस्तरति
पदार्थाः + सप्त = पदार्थास्सप्त
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7. सूत्र- वाशरि
यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर है और बाद में शर् हो तो विकल्प से विसर्ग, विसर्ग ही रहता है।
दुः + शासन = दुःशासन/ दुश्शासन
बालः + शेते = बालःशेते/ बालश्शेते
देवः + षष्ठः = देवःषष्ठः/ देवष्षष्ठः
प्रथर्मः + सर्गः = प्रथर्मःसर्ग/ प्रथर्मस्सर्गः
निः + सन्देह = निःसंदेह/ निस्सन्दह
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एष: और स: के विसर्ग का नियम-💐↔
एष: और स: के विसर्ग का नियम – एष: और स: के विसर्गों का लोप हो जाता है  यदि इन विसर्गों के बाद कोई व्यञ्जन वर्ण  जैसेेे. :-

स: + कथयति = स कथयति।
एष: + क:= एष क:।
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नियम-र्(अथवा) विसर्ग (:) के स्थान पर र् के पश्चात यदि र् आता है तो प्रथम र् का लोप होकर उस र् से पूर्व आने वाले स्वर - (अइउ) की दीर्घ हो जाता है। 
💐↔रोरि ,ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घो८ण: – अर्थ:- "र से र' वर्ण परे होने पर पूर्व 'र लोप होकर(अ,इ,उ) स्वरों का दीर्घ स्वर हो जाता है।
यदि विसर्ग के बाद र् आता है  तो विसर्ग का लोप हो जाता है और विसर्ग का लोप हो जाने के कारण उससे पहले आने वाले ( अ , इ, उ, का दीर्घ रूप आ,ई,ऊ हो जाता है।
जैसे- 
अन्त:+राष्ट्रीय=अन्ताराष्ट्रीय।अन्तर्+
पुनः + रमते = पुनारमते । पुनर्+
कवि: + राजते =कवीराजते ।कविर्+
'हरि+रम्य= हरी रम्य।हरिर्+
शम्भु: + राजते = शम्भूराजते । शम्भुष्+। शम्भुर्+
👇जश्त्व सन्धि विधान :- 
"पदान्त जश्त्व सन्धि"💐↔झलां जशो८न्ते।
जब पद ( क्रियापद) या (संज्ञा पद) अन्त में  वर्गो के पहले, दूसरे,तीसरे,और चौथे वर्ण के बाद कोई भी स्वर या वर्ग का  वर्ण हो जाता है तब "पदान्त जश्त्व सन्धि" होती है ।
अर्थात् पद के अन्त में वर्गो का पहला , दूसरा, तीसरा , और चौथे वर्ण आये अथवा कोई भी स्वर , अथवा कोई अन्त:स्थ आये परन्तु केवल ऊष्म वर्ण  न आयें तो वर्ग का तीसरा वर्ण (जश्= जबगडदश्) हो जाता है।
उदाहरण (Example):-
जगत् + ईश = जगदीश: ।
वाक् + दानम्= वाग्दानम्।
वाक् + ईश : = वागीश ।
अच्+ अन्त = अजन्त ।
एतत् + दानम्= एतद् दानम् ।
तत्+एवम् =तदेवम् ।                                               जगत् +नाथ=जगद्+नाथ=जगन्नाथ ।
💐↔अपादान्त जश्त्व सन्धि - जब अपादान्त  में। अर्थात् (धात्वान्त) अथवा मूूूूल शब्दान्त  में वर्गो के पहले दूसरे और चौथे वर्ण के बाद वर्ग का तीसरा या चौथा वर्ण अथवा अन्त:स्थ ( य,र,ल,व ) में से कोई वर्ण हो तो पहले वर्ण को उसी वर्ग का तीसरा वर्ण हो जाता है ।
उदाहरण( Example )
लभ् + ध : = लब्ध: । (धातुु रूप)
उत् + योग = उद्योग :। (उपसर्ग रूप)
पृथक् +भूमि = पृथग् भूमि: । (मूलशब्द)
महत् + जीवन = महज्जीवनम्।(मूलशब्द)
सम्यक् + लाभ = सम्यग् लाभ :।(मूलशब्द)
क्रुध् + ध: = क्रुद्ध:।(धातुु रूप)
_____   
प्रत्यय लगे हुए वाक्य में प्रयुक्त शब्द अथवा क्रिया  रूप पद कहलाते हैं ।
ये क्रिया पद और  संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि आठ प्रकार के होते हैं ।
संज्ञा
सर्वनाम
विशेषण और
क्रिया।
2. अविकारी-जो शब्द प्रयोगानुसार परिवर्तित नहीं होते, वे शब्द ‘अविकारी शब्द’ कहलाते हैं। धीरे-धीरे, तथा, अथवा, और, किंतु, वाह !, अच्छा ! ये सभी अविकारी शब्द हैं। इनके भी मुख्य रूप से चार भेद हैं :
क्रियाविशेषण
समुच्चयबोधक
संबंधबोधक और
विस्मयादिबोधक।
(विभक्त्यन्तशब्दभेदे “सुप्तिङन्तं पदम्” ) ।
__________
चर्त्व सन्धि विधान-( खरि च)
"झय् का चय् हो जाता है झय् से परे खर् होने पर "।
परिभाषा:- जब वर्ग के पहले, दूसरे , तीसरे और चौथे वर्ण के बाद वर्ग का पहला  दूसरा वर्ण अथवा ऊष्म वर्ण श्  ष्  स्  हो तो पहले वर्ण के स्थान पर उसी वर्ग का पहला वर्ण जाता है तब "चर्त्व सन्धि होती" है ।
लभ् + स्यते  = लप्स्यते ।
उद् + स्थानम् = उत्थानम् ।
उद् + पन्न:=उत्पन्न:।
युयुध्+ सा = युयुत्सा ।
एतत् + कृतम् = एतत् कृतम्।
तत् + पर: =तत्पर: ।
_________
'छत्व सन्धि' विधान:- सूत्र-।शश्छोऽटि।
शश्छोऽटि (८.४.६३) = पदान्तस्य झयः- ( झभघढधजबगडदखफछठथचटतकप) उत्तरस्य शकारस्य अटि-(अइउऋऌएओऐऔहयवर) परे छकारादेशो भवति अन्यतरस्याम्‌ | 
अन्वयार्थ:-शः षष्ठ्यन्तं, छः प्रथमान्तम्‌, अटि सप्तम्यन्तं, त्रिपदमिदं सूत्रम्‌-।
छत्व सन्धि विधान :- 
अर्थ-•यदि पूर्व पद के अन्त में पाँचों वर्गों के  प्रथम, द्वितीय तृतीय और चतुर्थ) का कोई वर्ण हो और उत्तर पद के पूर्व (आदि) में शिकार '(श) और इस श' के पश्चात कोई स्वर अथवा अन्त:स्थ  ल" को छोड़कर महाप्राण 'ह'-(य'व'र' ह)हो तो श वर्ण का छ वर्ण भी हो जाता है । 
वैसे भी तवर्ग का चवर्ग श्चुत्व सन्धि रूप में (स्तो: श्चुना श्चु:) सूत्र हो जाता है  ।
परिभाषा:- यदि त् अथवा न् वर्ण के बाद  "श"  वर्ण आए और "श" के बाद कोई स्वर अथवा कोई अन्त:स्थ (य, र , व , ह )वर्ण हो तो
'श' वर्ण को विकल्प से छकार (छ) हो जाता है  और स्तो: श्चुना श्चु: - सूत्र के नियम से 'त्' को 'च्'  और 'न्' को 'ञ्' हो जाता है जैसे :- 
सत् +शास्त्र = सच्छास्त्र ।
धावन् + शशक: = धावञ्छशक: ।
श्रीमत्+शंकर=श्रीमच्छङ्कर।
१- तत्+शिव= त् के बाद श्  तथा श के बाद 'इ स्वर आने पर श' के स्थान पर 'छ्' वर्ण हो जाता है । रूप होगा सन्धि का तत्छिव  (तत् + छिव) तत्पश्चात ्( श्चुत्व सन्धि) करने पर बनेगा रूप तच्+ छिव (तत्छिव).             

२-एतत्+शान्तम्= त् के बाद श् और श् के बाद 'आ' स्वर आने से  श्'  के स्थान पर छ्' वर्ण हो जाता है। रूप बनेगा एतत् +छान्तम्- तत्पश्चात श्चुत्व सन्धि से आगामी रूप होगा (एतच्छान्तम्)
३-तत् +श्व: पूर्व पद के अन्त में त्  और उसके पश्चात उत्तर पद के प्रारम्भ में श्' और उसके बाद अन्त:स्थ 'व' आने पर श्' के स्थान पर छ' (श्चुत्व सन्धि) से हो जाता है ।  तत् + छ्व: + तत्छव: फिर श्चुत्व सन्धि) से तच्छ्व: रूप होगा।
       (- प्रत्याहार-)
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........माहेश्वर सूत्र कुल १४ हैं, इन सूत्रों से कुल ४१ प्रत्याहार बनते हैं। एक प्रत्याहार उणादि सूत्र ( १.१.१४ ) "ञमन्ताड्डः" से ञम् प्रत्याहार और एक वार्तिक से "चयोः द्वितीयः शरि पौष्करसादेः" ( ८.४.४७ ) से बनता है । इस प्रकार कुल ४३ प्रत्याहार हो जाते हैं।
प्रश्न : ----- "प्रत्याहार" किसे कहते हैं ?
उत्तर : ----- "प्रत्याहार" संक्षेप करने को कहते हैं। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के ७१ वें सूत्र " आदिरन्त्येन सहेता " ( १-१-७१ ) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि मुनिने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता ( १-१-७१ ) :- ( आदिः + अन्त्येन इता + सह )
........आदि वर्ण अन्तिम इत् वर्ण के साथ मिलकर “ प्रत्याहार ” बनाता है । जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए सभी वर्णों का समष्टि रूप में बोध कराता है।
........जैसे "अण्" कहने से अ, इ, उ तीन वर्णों का ग्रहण होता है, "अच्" कहने से "अ" से "च्" तक सभी स्वरों का ग्रहण होता है। "हल्" कहने से सारे व्यञ्जनों का ग्रहण होता है।
इन सूत्रों से सैंकडों प्रत्याहार बन सकते हैं, किन्तु पाणिनि मुनि ने अपने उपयोग के लिए ४१ प्रत्याहारों का ही ग्रहण किया है। प्रत्याहार दो तरह से दिखाए जा सकते हैं --
(०१) अन्तिम अक्षरों के अनुसार और (०२) आदि अक्षरों के अनुसार।
इनमें से अन्तिम अक्षर से प्रत्याहार बनाना अधिक उपयुक्त है और अष्टाध्यायी से अनुसार है।
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अन्तिम अक्षर के अनुसार ४३ प्रत्याहार सूत्र सहित
(क.) अइउण् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।....(०१) " अण् " ----- उरण् रपरः । ( १.१.५० )
(ख.) ऋलृक् ----- इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं ।
........(०२) " अक् " ----- अकः सवर्णे दीर्घः ।                ( ६.१.९७ ), 
........(०३) " इक् " ----- इको गुणवृद्धी । ( १.१.३ ), 
........(०४) " उक् " ----- उगितश्च । ( ४.१.६ )
(ग) एओङ् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।
........(०५) " एङ् " ----- एङि पररूपम् । ( ६.१.९१ )
(घ) ऐऔच् ----- इससे चार प्रत्याहार बनते हैं ।
........(०६) " अच् " ----अचोSन्त्यादि टि । ( १.१.६३ ), 
.......(०७) " इच् " --- इच एकाचोSम्प्रत्ययवच्च । (६.३.६६ ), 
........(०८) " एच् " ----- एचोSयवायावः । ( ६.१.७५ ), 
........(०९) " ऐच् " ----- वृद्धिरादैच् । ( १.१.१ ),
(ङ) हयवरट् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है । 
...(१०) " अट् " ----- शश्छोSटि । ( ८.४.६२ )
(च) लण् ----- इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं ।
........(११) " अण् " ----- अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः । (१.१.६८ ), 
........(१२) " इण् " ----- इण्कोः । ( ८.३.५७ ), 
........(१३) " यण् " ----- इको यणचि । ( ६.१.७४ )

(छ) ञमङणनम् ----- इससे चार प्रत्याहार बनते हैं ।
........(१४) " अम् " ----- पुमः खय्यम्परे । ( ८.३.६ ), 
........(१५) " यम् " ----- हलो यमां यमि लोपः ।               ( ८.४.६३ ), 
........(१६) " ङम् " ----- ङमो ह्रस्वादचि ङमुण् नित्यम् । ( ८.३.३२ ), 
........(१७) " ञम् " ----- ञमन्ताड्डः । ( उणादि सूत्र — १.१.१४ )

(ज) झभञ् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है । 
........(१८) " यञ् " ----- अतो दीर्घो यञि ।                   ( ७.३.१०१ )

(झ) घढधष् ----- इससे दो प्रत्याहार बनते हैं ।
........(१९) "झष् " और 
........(२०) " भष् " ----- एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः । ( ८.२.३७ )

(ञ) जबगडदश् ----- इससे छः प्रत्याहार बनते हैं ।
........(२१) " अश् " ----- भोभगोSघो अपूर्वस्य योSशि । ( ८.३.१७ ), 
........(२२) " हश् " ----- हशि च । ( ६.१.११० ), 
........(२३) " वश् " ----- नेड् वशि कृति । ( ७.२.८ ), 
........(२४) " झश् ", 
........(२५) " जश् " ----- झलां जश् झशि ।                 ( ८.४.५२ ), 
........(२६) " बश् " ----- एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः । ( ८.२.३७ )

(ट) खफछठथचटतव् --- इससे एक प्रत्याहार बनता है । 
........(२७) " छव् " ----- नश्छव्यप्रशान् । ( ८.३.७ )

(ठ) कपय् ----- इससे पाँच प्रत्याहार बनते हैं ।
........(२८) " यय् " ---- अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः ।    ( ८.४.५७ ), 
........(२९) " मय् " ----- मय उञो वो वा । ( ८.३.३३ ), 
........(३०) " झय् " ----- झयो होSन्यतरस्याम् । ( ८.४.६१ ), 
........(३१) " खय् " ----- पुमः खय्यम्परे । ( ८.३.६ ), 
........(३२) " चय् " ----चयो द्वितीयः शरि पौषकरसादेः । (वार्तिकः--- ८.४.४७ ),

(ड) शषसर् ----- इससे पाँच प्रत्याहार बनते हैं ।
........(३३) " यर् " ----- यरोSनुनासिकेSनुनासिको वा । ( ८.४.४४ ), 
........(३४) " झर् " ----- झरो झरि सवर्णे । ( ८.४.६४ ), 
........(३५) " खर् " ----- खरि च । ( ८.४.५४ ), 
........(३६) " चर् " ----- अभ्यासे चर्च । ( ८.४.५३ ), 
........(३७) " शर् " ----- वा शरि । ( ८.३.३६ ),
(ढ) हल् ----- इससे छः प्रत्याहार बनते हैं ।
........(३८) " अल् " ----- अलोSन्त्यात् पूर्व उपधा ।  (१.१.६४ ), 
........(३९) " हल् " ----- हलोSनन्तराः संयोगः ।  (१.१.५७ ), 
........(४०) " वल् " ----- लोपो व्योर्वलि । ( ६.१.६४ ), 
........(४१) " रल् " ----- रलो व्युपधाद्धलादेः सश्च ।  (१.२.२६ ), 
........(४२) " झल् " ----- झलो झलि । ( ८.२.२६ ), 
........(४३) " शल् " ----- शल इगुपधादनिटः क्सः । ( ३.१.४५ )

आदि वर्ण के अनुसार ४३ प्रत्याहार
........(क) अकार से ८ प्रत्याहारः---(१) अण्, (२) अक्, (३) अच्, (४) अट्, (५) अण्, (६) अम्, (७) अश्, (८) अल्,

........(ख) इकार से तीन प्रत्याहारः--(९) इक्, (१०) इच्, (११) इण्,
........(ग) उकार से एक प्रत्याहारः--(१२) उक्,
........(घ) एकार से दो प्रत्याहारः---(१३) एङ्, (१४) एच्,
........(ङ) ऐकार से एकः---(१५) ऐच्,
........(च) हकार से दो---(१६) हश्, (१७) हल्,
........(छ) यकार से पाँच---(१८) यण्, (१९) यम्, (२०) यञ्, (२१) यय्, (२२) यर्,
........(ज) वकार से दो---(२३) वश्, (२४) वल्,
........(झ) रेफ से एक---(२५) रल्,
........(ञ) मकार से एक---(२६) मय्,
........(ट) ङकार से एक---(२७) ङम्,
........(ठ) झकार से पाँच---(२८) झष्, (२९) झश्, (३०) झय्, (३१) झर्, (३२) झल्,
........(ड) भकार से एक---(३३) भष्,
........(ढ) जकार से एक--(३४) जश्,
........(ण) बकार से एक---(३५) बश्,
........(त) छकार से एक---(३६) छव्,
........(थ) खकार से दो---(३७) खय्, (३८) खर्,
........(द) चकार से एक---(३९) चर्,
........(ध) शकार से दो---(४०) शर्, (४१) शल्,

इसके अतिरिक्त 

........(४२) ञम्--- एक उणादि का और 
........(४३) चय्---एक वार्तिक का, 

कुल ४३ प्रत्याहार हुए।
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वर्णविभागः  
वर्णाः द्विविधम् । स्वराः व्यञ्जनानि च इति ।
अर्थ:-(वर्ण दो प्रकार के होते हैं स्वर और व्यञ्जन)
स्वराः 
अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ - इत्येते नव स्वराः । तेषु अ, इ, उ, ऋ - स्वराणां दीर्घरूपाणि सन्ति - आ, ई, ऊ, ॠ । अतः स्वराः त्रयोदश । अ, इ, उ, ऋ, लृ - एते पञ्च ह्रस्वस्वराः । 
अन्ये दीर्घस्वराः। एतेषु- (ए, ऐ, ओ, औ )- एते संयुक्तस्वराः सन्ध्य्क्षराणि इति वा निर्दिश्यन्ते । स्वराणाम् उच्चारणाय स्वीक्रियमाणं कालमितिम् अनुसृत्य स्वराः ह्रस्वः, दीर्घः, प्लुतः इति त्रिधा विभक्ताः सन्ति ।
एकमात्रो भवेद् ह्रस्वो द्विमात्रो दीर्घम् उच्यते । त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनं त्वर्धमात्रकम् ॥१।
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येष
ां स्वराणाम् उच्चारणाय एकमात्रकालः भवति ते ह्रस्वाः स्वराः । उदाहरण।- (अ, इ)
येषां स्वराणाम् उच्चारणाय द्विमात्रकालः भवति ते दीर्घाः स्वराः । उदाहरण - (आ, ई)
येषां स्वराणाम् उच्चारणाय द्विमात्रकालाद् अपेक्षया अधिकः कालः भवति ते प्लुताः स्वराः । उदाहरण।। - (आऽ, ईऽ)
संयुक्ताक्षरं / सन्ध्यक्षरं नाम स्वरद्वयेन अक्षरद्वयेन सम्पन्नः स्वरः अक्षरम् वा । उदाहरण । - (ए = अ + इ) अथवा अ + ई /आ + इ / आ + ई ।
 ऐ = अ + ए / आ + ए, । ओ=अ + उ / अ + ऊ / आ + उ / आ + ऊ, औ = अ + ओ / आ + औ
व्यञ्जनानि-
उपरि दर्शितेषु माहेश्वरसूत्रेषु पञ्चमसूत्रतः अन्तिमसूत्रपर्यन्तं व्यञ्जनानि उक्तानि । व्यञ्जनानि (३३) । तानि वर्गीयव्यञ्जनानि अवर्गीयव्यञ्जनानि इति द्विधा । क्-तः म्-पर्यन्तं वर्गीयव्यञ्जनानि । अन्यानि अवर्गीव्यञ्जनानि ।
वर्गीयव्यञ्जनानि-
१-कण्ठ्यः - क् ख् ग् घ् ङ् - एते कवर्गः - कण्ठ्यः - एतेषाम् उच्चारणस्थानं कण्ठः।
२-तालव्यः -च् छ् ज् झ् ञ् - एते चवर्गः - तालव्यः - एतेषाम् उच्चारणावसरे जिह्वा तालव्यस्थानं स्पृशति।
३-मूर्धन्यः-ट् ठ् ड् ढ् ण् - एते टवर्गः - मूर्धन्यः - एतेषाम् उच्चारणावसरे मूर्धायाः स्थाने भारः भवति।

४-दन्त्यः-त् थ् द् ध् न् - एते तवर्गः - दन्त्यः - एतेषाम् उच्चारणावसरे जिह्वा दन्तान् स्पृशति।
५-औष्ठ्य। प् फ् ब् भ् म् -औष्ठौ एते पवर्गः एतेषाम् उच्चारणावसरे  परस्परं स्पृशतः।
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वर्गीयव्यञ्जनेषु प्रतिवर्गस्य आदिमवर्णद्वयं खर्वर्णाः / कर्कशव्यञ्जनानि ।
(वर्ग के प्रारम्भिक दो वर्ण खर अथवा-
 कर्कश वर्ण होते हैं )
अन्तिमवर्णद्वयं हश्वर्णाः / मृदु व्यञ्जनानि ।
(अन्तिम दो वर्ण ही अथवा मृदु होते हैं )
अवर्गीयव्यञ्जनानि-
(य् र् ल् व्) - अन्तस्थवर्णाः(श् ष् स् ह् )- ऊष्मवर्णाः
अवर्गीयव्यञ्जनेषु श् ष् स् - एते कर्कशव्यञ्जनानि । अवशिष्टानि मृदुव्यञ्जनानि ।

प्रतिवर्गस्य प्रथमं तृतीयं पञ्चमं च व्यञ्जनं य् र् ल् व् च अल्पप्राणाः ।
अर्थ: •प्रत्येक वर्ग का प्रथम तृतीय पञ्चम व्यञ्जन और अन्त:स्थ अल्पप्राण होते हैं ।।
 अवशिष्टाः महाप्राणाः ।अर्थ• अवशेेेष ( बचे हुए) वर्ण महाप्राण हैं ।
प्रत्येकस्य वर्गस्य पञ्चमं व्यञ्जनं (ङ् ञ् ण् न् म्) अनुनासिकम् इति उच्यते । कण्ठादिस्थानं नासिका - इत्येतेषां साहाय्येन अनुनासिकाणाम् उच्चारणं भवति ।
अनुस्वारः, विसर्गः👇। अ इ उ । और ये परवर्ती 'इ' तथा 'उ' स्वर भी केवल 'अ' स्वर के उदात्त व( ऊर्ध्वगामी ) 'उ' । 
तथा अनुदात्त व (निम्न गामी) 'इ' के रूप में हैं । 
ऋ तथा ऌ स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है।

 जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य 
( दन्तमूलीय रूप ) है । अब 'ह' वर्ण महाप्राण है । 
जिसका उच्चारण स्थान  काकल है ।

 👉👆👇-मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं । 
(अं) अम् इत्येषः अनुस्वारः । अस्य चिह्नमस्ति उपरिलिख्यमानः बिन्दुः । अः इत्येषः विसर्गः । अस्य चिह्नमस्ति वर्णस्य पुरतः लिख्यमानं बिन्दुद्वयम् । क् ख् - वर्णयोः पृष्ठतः विद्यमानः विसर्गः जिह्वामूलीयः इति कथ्यते ।
 प् फ् - वर्णयोः पृष्ठतः विद्यमानः विसर्गः उपध्मानीयः इति कथ्यते ।
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संस्कृत व्याकरण के कुछ पारिभाषिक शब्द-
१-विकरण
विकरण- व्याकरण में क्रियारूपों की रचना के समय धातु और कालवाचक लकार प्रत्ययों के मध्य में रखे जानेवाले विंशिष्ट गणद्योतक प्रत्यय 


आगमप्रकरणम् मण्डूकोपनिषद-
ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥१॥
अर्थ:-ओ३म्  अक्षर यह  सर्वस्व है। इसकी स्पष्ट व्याख्या है । जो कुछ अतीत, वर्तमान और भविष्य है, वही "ओ३म्"  ही है । जो समय की त्रिगुणात्मक अवधारणा से परे है, वह भी वास्तव में "ओ३म्"  ही है ।१। (मण्डूकोपनिषद)-
भारतीय संस्कृति मौलिक संस्कृति होते हुए भी विश्व की अन्य  संस्कृतियों की उपजीवी है। जैसे यूरोपीय, सेैमेटिक और हैमेटिक -हिब्रू आदि भारतीय संस्कृति अपने प्रारम्भिक रूप में इनकी सहवर्ती  भी रही है। सम्भवत: इस बात के अधिक साक्ष्य हैं कि विश्व की कभी एक ही  समष्टि संस्कृति थी । जो कालान्तर में जलवायु" देश, परिस्थितियों और प्रव्रजन के परिणाम स्वरुप  व्यतिरेक (वैषम्य) होने से अनेक रूपों में उद्भासित हुई। भारतीय पुराणों में जो  पात्र और देव सूचीयाँ हैं उसका तादात्म्य सुदूर मैसोपोटामिया ( ईरान -ईराक) से लेकर मिश्र , यूनान, जर्मन और उत्तरी ध्रुवीय देश सुदूर नॉर्स तक व्याप्त है। इन्हीं एकरूपतामूलक सांस्कृतिक सन्दर्भों का यहाँ आंशिक रूप से प्रकाशन किया गया है। इस प्रकरण को "ओ३म्" शब्द की व्याख्या से प्रारम्भ करते है।
"ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वेदेवास आगत  दाश्वांसो दाशुषः सुतम्॥७॥ 
अनुवाद:-हे विश्वदेवा ! आप सबकी रक्षा करने वाले, सभी प्राणीयों के आधारभूत और सभी को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं। अत: आप इस सोम युक्त हवि देने वाले यजमान के यज्ञ में पधारें।[ऋग्वेद 1.3.7]
हे विश्वेदेवा ! तुम रक्षक, धारणकर्ता और दाता हो। इसलिए इस हविदाता के यज्ञ को प्राप्त होओ। ऋग्वेद 1/3/7  यजुर्वेद -अध्याय »7 ऋचा » 33 में समान है।
"सायण भाष्य-१-हे “विश्वदेवासः =एतन्नामका देवविशेषाः २-“दाशुषः-दाता का =हविर्दत्तवतो यजमानस्य  ३-“सुतम्= अभिषुतं सोमं प्रति ।
४-“आगत= आगच्छत । ते च देवाः ५-"ओमासः =रक्षकाः ५“चर्षणीधृतः= मनुष्याणां धारकाः ६-“दाश्वांसः =फलस्य दातारः । ‘मनुष्याः' इत्यादिषु पञ्चविंशतिसंख्याकेषु मनुष्यनामसु चर्षणिशब्दः ( नि. २. ३. ८) पठितः।
‘अश्विनौ' इत्यादिष्वेकत्रिंशत्संख्याकेषु देवविशेषनामसु • विश्वेदेवाः साध्याः' (नि, ५. ६. २७ ) इति पठितम् । एतामृचं यास्क एवं व्याख्यातवान्-‘ अवितारो वा अवनीया वा मनुष्यधृतः सर्वे च देवा इहागच्छत दत्तवन्तो दत्तवतः सुतमिति तदेतदेकमेव वैश्वदेवं गायत्रं तृचं दशतयीषु विद्यते यत्तु किंचिद्बहुदैवतं तद्वैश्वदेवानां स्थाने युज्यते यदेव विश्वलिङ्गमिति शाकपूणिः । (निरु.१२.४० ) इति ।

अत्र विश्वशब्दः सर्वशब्दपर्याय इति यास्कस्य मतम् । देवविशेषस्यैवासधारणं लिङ्गमिति शाकपूणेर्मतम् "अवन्ति इति ओमासः देवाः । ‘मन् ' इत्यनुवृत्तौ ‘अविसिवि सिशुषिभ्यः कित्' (उ. सू. १. १४१ ) इति मन्प्रत्ययः"
 ज्वरत्वरस्रिव्यविभवामुपधायाश्च' (पाणिनीय सूक्त ६.४.२०) इति ऊठ्। मनः कित्त्वेऽपि बाहुलकत्वाद्गुणः । ‘आज्ज़सेरसुक्’ (पाणिनीय सू. ७. १.५०) इति जसेः वसु गा अहम् आमन्त्रिताद्युदात्तत्वम्। चर्षणयो मनुष्याः। तान् वृष्टिदानादिना धारयन्तीति चर्षणीधृतः देवाः । पूर्वस्यामन्त्रितस्य सामान्यवचनस्य ‘विभाषितं विशेषवचने बहुवचनम् ' ( पा. सू. ८. १, ७४ ) इति अविद्यमानवत्वप्रतिषेधात् अपादादित्वेन निघातः ननु अत एव विद्यमानवत्वात् ‘सुबामन्त्रिते°'( पाणिनीय सू. २. १. २) इति पराङ्गवत्वेनैकपदीभावात् पदादपरत्वेन कथं निघात इति चेत् , न । ‘वत्करणं स्वाश्रयमपि यथा स्यात् '( पाणिनीय म. ८. १.७२ ) इति वचनात् पदभेदप्रयुक्तस्य । निघातस्याप्युपपत्तेः । ऐकपद्येऽप्याद्युदात्तत्वे ' अनुदात्तं पदमेकवर्जम् ' (पा. सू. ६. १. १५८ ) इति सुतरामेव निघातो भविष्यति। इत्थमेव तर्हि द्रवत्पाणी शुभस्पती' इत्यत्रापि पराङ्गवत्त्वेनैकपद्यादुत्तरस्य शेषनिघातप्रसङ्ग इति चेत्, न । तत्र पराङ्गवद्भावस्य परेण ' आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत् ' ( पा. सू. ८. १. ७२ ) इत्यविद्यमानवद्भावेन बाधितत्वात् । इह पुनः ‘विभाषितं विशेषवचने बहुवचनम् । इत्यविद्यमानवत्त्वस्य निषेधात् । पूर्वस्याप्यामन्त्रितस्य विद्यमानवत्वात् पराङ्गवत्त्वं स्वीकृतमिति वैषम्यम् । विश्वे । पादादित्वादाद्युदात्तः । गणदेवतावचनश्चात्र विश्वशब्दो न सर्वं शब्दपर्याय इति विशेष्यपरतया सामान्यवचनत्वात् "ओमासः इत्यनेन न सामानाधिकरण्यम् । सामानाधिकरण्ये हि पूर्वस्य पादस्य पराङ्गवद्भावे सति ‘मित्रावरुणावृतावृधौ ' इत्यादाविव अत्राप्यामन्त्रिताद्युदात्तता न स्यात् । विश्वे इत्यस्य विशेषणं देवासः इति । दीव्यन्तीति देवाः प्रकाशवन्तः । ननु अवयवप्रसिद्धेः समुदायप्रसिद्धिर्बलीयसी' (परिभा° ९८) इति रूढ एवार्थों देवशब्दस्य ग्राह्यो न यौगिकः । यौगिकत्वे ह्यवयवार्थानुसंधानव्यवधानेन प्रतिपत्तिर्विक्षिप्ता स्यात् । समुदायप्रसिद्धौ तु न विक्षेप इति चेत्, न । समुदायप्रसिद्धौ हि देवशब्दस्य सामान्यपरतया विशेषवचनत्वाभावात् ‘विभाषितं विशेषवचने बहुवचनम्' इत्यनेनानिषिद्धत्वात् विश्वे इत्यस्याविद्यमानवत्वेन शुभस्पती इति पदवत् देवासः इत्यस्यापि आद्युदात्तत्वं स्यात् । स्वरानुसारेण च रूढित्यागेनापि देवशब्दस्य योगस्वीकारो युक्त एव । आ गत आगच्छत । ‘बहुलं छन्दसि' (पा. सू. २. ४. ७३) इति शपो लुकि सति ‘अनुदात्तोपदेश' (पा. सू. ६. ४. ३७ ) इत्यादिना मकारलोपः । आङः पदात्परत्वात् निघातः । दाश्वांसः । ‘दाशृ दाने ' इत्यस्य क्वसौ “ दाश्वान् साह्वान् मीढ्वांश्च ' (पा. सू. ६. १. १२ ) इति निपातनात् क्रादिनियमप्राप्तः इडागमो (पा. सू. ७. २. १३) द्विर्वचनं च न भवति । प्रत्ययस्वरेण क्वसोरुदात्तत्वम् । दाशुष इत्यत्र ‘वसोः संप्रसारणम् ' ( पा. सू. ६. ४. १३१ ) इति संप्रसारणम् । ‘ संप्रसारणाच्च' (पा. सू. ६ १. १०८) इति पूर्वरूपत्वम् । “ आदेशप्रत्यययोः' (पा. सू. ८. ३. ५९ ) इति षत्वम् ॥
 "ओमन्वत् ओमयुक्ते रक्षके “ओमन्वन्तं चक्रथुः सप्त वध्रय” ऋ० १०/३९/९ । 
"उपर्युक्त ऋचाओं में ओमास: और ओमन्वत् पद का अर्थ = रक्षक सायण ने किया है । ओ३म् शब्द प्लुत स्वर से युक्त शब्द है; जिसकी व्युत्पत्ति  अव् - रक्षणे धातु में + मन् उणादि प्रत्यय करने से हुई है। प्लुत स्वर है जिसमें तीन मात्राओं का योग होता है; जिसका प्रयोग किसी को दूर से सम्बोधित करने के लिए होता है। व्याकरण शास्त्र में उच्चारण के काल भेद से वर्ण चार प्रकार के निश्चित किये गये हैं।
"एकमात्रो भवेद् ह्रस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते । त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनं चार्द्धमात्रकम्” 
 " छन्दोमञ्जरी- प्रचीनकारिका । 
अर्थात एक मात्रा का समय ह्रस्व, द्विमात्रा का समय दीर्घ, और तीन मात्रा का समय प्लुत है। और व्यञ्जन की अर्द्ध मात्रा होती है और वे विना स्वर संयोग के बोले नहीं जा सकते हैं। और इसी लिए ओ३म् शब्द के मध्य में(३)का अंक तीन मात्राओं का प्रतीक है।
विदित हो कि "ओ३म्" की रक्षण क्रिया ईश्वरीय सत्ता का मौलिक गुण है। अत: "ओ३म्"  ईश्वर का वाचक है।
" सेल्ट के द्रविड पुरोहितों में "ओ३म्" "ओघम्" के रूप में भाषा और वाणी के देव का वाचक है।-
"ओ३म्" शब्द  की अवधारणा के मूल श्रोत द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना में निहित हैं। प्रख्यात ओघम वर्णमाला के विद्वान (आर•ए•एस मैकलिस्टर) द्वारा प्रस्तुत एक तीसरा सिद्धान्त एक समय में प्रभावशाली था,परन्तु आज विद्वान इसके बहुत कम पक्ष में  हैं। एक विद्वान"मैकलिस्टर का मानना ​​था कि "ओघम" का आविष्कार पहली बार सिसालपाइन गॉल में लगभग 600 ईसा पूर्व में गॉलिश ड्र्यूडों द्वारा हाथ के संकेतों की एक गुप्त

प्रणाली के रूप में किया गया था, और उस समय यह उत्तरी इटली में वर्तमान ग्रीक वर्णमाला के एक रूप से प्रेरित थे। इस सिद्धांत के अनुसार, वर्णमाला को मौखिक रूप में या केवल लकड़ी पर प्रसारित किया गया था, जब तक कि इसे प्रारंभिक ईसाई आयरलैंड में पत्थर के शिलालेखों पर लिखित रूप में नहीं रखा गया था।
(सैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्यमयी अनुष्ठानों में  इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham) शब्द का दृढता से दैवीय उच्चारण विधान किया जाता था । यह बात है कई सहस्राब्दी पूर्व की कि उनका विश्वास था )
"कि इस प्रकार आउमा (Ow-ma) अर्थात् जिसे भारतीय देव संस्कृतियों के अनुयायी ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है
"पशुओं में गाय ही है जो ओ३म् का शुद्ध उचारण करती है।  विदित हो कि सेल्टिक संस्कृति में ओग्मा: भाषण और भाषा का देव है।
इतिहासकार- वेस्ली हूपर के अनुसार ~ "तूता दे दानान "(दनु की सन्तानें) की कहानी में,  हम ऐसे कई सेल्टिक देवी-देवताओं को संज्ञान में लाते हैं। "दग्दा और दनु के कई पुत्र और पुत्रियाँ थीं जिनमें से एक का नाम ओग्मा भी था जो सबसे गोरा था। भारतीय पुराणों में "दनु" का उल्लेख दानवों की माता और कश्यप की पत्नी  रूप में हुआ है। जोकि दक्ष की एक पुत्री है।"दक्षकन्याभेदे सा च कश्यपर्षिपत्नी दानवमाता " दक्ष की कन्या और महर्षि कश्यप की पत्नी दानवों की माता का दनु है। सेल्टिक मिथको के अनुसार "ओघमा" को काव्य- कौशल और लेखन की क्षमता का उपहार मिला था। यह अक्सर कहा जाता था कि उसके बालों से सूरज की किरणें निकली और जैसा कि "पीटर बेरेसफोर्ड एलिस" अपनी किताब" द क्रॉनिकल्स ऑफ द सेल्ट्स " में लिखते हैं, 'उसे सनी काउंटेनेंस का (ओग्मा ग्रियन-एनीएकग) कहा जाता था।' वास्तव में यह देव इतना प्रतिभाशाली था कि उसने मनुष्य के लिए ओघम के नाम पर भाषण लिखने की एक पद्धति का विचार किया। यह उपहार ओग्मा के धूपदार चेहरे की किरणों से अवतरित किया गया। कहा जाता है कि ओग्मा ने कई भाषाओं और कविताओं की सृष्टि की थी जिसमें उन्होंने प्रकाश की किरणों के माध्यम से मनुष्यों को ये सब सिखायी।"ओगमा की इस प्रेरणा को तब से अवेन(Awen)  के रूप में जाना जाता है और अक्सर इसे कवियों और लेखकों द्वारा समान रूप से लागू किया जाता है।  और भारतीय संस्कृति में भी आजतक  "ओ३म्" शब्द का उच्चारण किसी भी धार्मिक पाठ की समाप्ति और प्रारम्भ करने पर धार्मिक ग्रन्थों में अवशिष्ट है। 
"द्रविड-बनाम द्रूइड-(DRUIDS) ओ३म् की व्युत्पत्ति- मूलक व्याख्या 
"ओ३म्" शब्द की व्युत्पत्ति- एक वैश्विक विश्लेषण यादव योगेश कुमार 'रोहि' के द्वारा 
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प्राचीन भारतीय देव संस्कृतियों की मान्यताओं के अनुसार इस ओ३म्' के उच्चारण प्रभाव से  सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति (syllable prosperity) यथावत् रहती है। ओघम् का मूर्त प्रारूप (🌞) सूर्य के आकार या सादृश्य पर था। जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की भी ये मान्यताऐं  हैं। वास्तव में ओघम् (ogham) से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है- जैसे सूर्य से उसका प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही (आमोन् रा) (ammon- ra )के रूप में था। यद्यपि कुछ ईसाई और इस्लामिक विद्वान (अमोन रा) और आमीन का  कोई सम्बन्ध भले ही न मानते हों।
परन्तु अमोन रा का प्रारम्भिक रूप अमोन है जो मिश्र की संस्कृति और सभ्यता का सबसे प्रतिष्ठित देव है । वह मिश्र में भाषा कविता और साहित्य संरक्षण के देव है। जो वस्तुत: भारतीय मिथकों में भी  ओ३म् शब्द का विकास क्रम कुछ ऐसा ही है। ओ३म् एक अनाहत नाद है । जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में  निरन्तर गुञ्जायमान है । सूर्य में  नें निरन्तर यह ओ३म् ध्वनि निनादित है। -़ रवि सूर्रय का विशेषण इसी कारण से है क्यों कि रव नाद का वाचक शब्द है। रवि का  के तादात्मय मिश्र के "रा" से प्रस्तावित है। आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान -प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित "ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है । पाणिनि ने "ओ३म् शब्द को धातुज मानकर उसकी व्युत्पत्ति "अव् धातु से उणादि "मन् प्रत्यय परक की है ।
"अव् धातु के धातुपाठ निम्न (19) अर्थ हैं ।
१-रक्षण,२-गति,३-कान्ति,४-प्रीति,५-तृप्ति,६-अवगम,७-प्रवेश,८-श्रवण,९-स्वाम्यर्थ,१०-याचना,११-क्रिया,१२-इच्छा,१३-दीप्ति,१४-अवाप्ति, १५-आलिङ्गन,१६-हिंसा,१७-दान,१८-भाग,१९- वृद्धिषु। इनमें रक्षण कान्ति दीप्ति अवाप्ति और वृद्धि आदि अर्थ ईश्वरीय सत्ताओं के वाचक हैं। और रवि संज्ञा भी है ।

ओ३म् इस समग्र सृष्टि के आदि में प्रादुर्भूत एक अनाहत निरन्तर अनुनिनादित नाद है । ऐसा लगता कि उस अनन्त सत्ता का जैसे प्रकृति से साक्षात् संवाद है । (ॐ ) शब्द को भारतीयों ने सर्वाधिक पवित्र शब्द तथा ईश्वर का वाचक माना ,उस ईश्वर का वाचक जो अनन्त है । यजुर्वेद के अध्याय ४०की  १७ वीं  ऋचा में कहा गया है "ओम खम् ब्रह्म  ओम ही नाद ब्रह्म है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में सूर्य का वाचक रवि शब्द भी है । मिश्र की संस्कृति में जिसे रा रहा गया है ।
लैटिन भाषा में (omnis) सम्पूर्णता का वाचक है। रविः अदादौ रु शब्दे । रू धातु का परस्मैपदीय प्रथम पुरुष एक वचन का रूप है रौति अर्थात् जो ध्वनि करता है । (रूयते स्तूयते इति  रवि:। रु + “ अच  इः ।“ उणाणि सूत्र ४।१३८। इति इः)  सूर्य्यः अर्कवृक्षः।  इत्यमरःकोश ॥ 
सूर्य्यस्य भोग्यं दिनं वार रूपम् ॥ 
यथा “ रवौ वर्ज्ज्यं चतुःपञ्च सोमे सप्त द्बयं तथा “इत्यादिवारवेलाकथने समयप्रदीपः ॥
पौराणिक ग्रन्थों में रविः शब्द की काल्पनिक व्युपत्ति की गयी है  वह भी अव् धातु से । देखें ''रवि'' ¦ पु॰ (अव्--इन् रुट्च्)१ सूर्य्ये । ज२ अर्कवृक्षे च“अचिरात्तु प्रकाशेन अवनात् स रविः स्मृतः” मत्स्यपुराणतन्नामनिरुक्तिः। अर्थात् मत्स्य पुराण में रवि शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए बताया है कि दीर्घ काल से प्रकाश के द्वारा जो रक्षा करता है वह रवि है ।
अव् धातु का एक अर्थ -रक्षा करना भी है ।
वस्तुत यह व्युत्पत्ति आनुमानिक व काल्पनिक है  वस्तुस्थिति तो यह है कि रवि ध्वनि-परक विशेषण है। रवि संज्ञा का विकास  "रौति इति -रवि  यहशब्द रु-शब्दे धातु से  व्युत्पन्न है । अर्थात्‌ सूर्य के विशेषण ओ३म्'और -रवि ध्वनि अनुकरण मूलक हैं। सैमेटिक -- सुमेरियन ,हिब्रू आदि संस्कृतियों में हैमेटिक "ओमन् शब्द "आमीन के रूप में है। तथा रब़ का अर्थ नेता तथा महान होता हेै। जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है ।अरबी भाषा में रब़ -- ईश्वर का वाचक है। अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक देव  थे। और दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे । मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर (अमॉन रॉ )  में परिवर्तित हो गये और अत्यधिक पूज्य हुए ! क्योंकी प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि (अमोन-रॉ) ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का प्रसारण है। मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु आदि परम्पराओं में निर्यात होकर प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे  । इन्हीं से ईसाईयों में आमेन (Amen ) तथा  ईसाईयों से अ़रबी भाषा में  आमीन् !! (ऐसा ही हो ) एक स्वीकारात्मक अव्यय के रूप में धार्मिक रूप इबादतो में प्रतिष्ठित हो गया।  इतना ही नहीं जर्मन लोग मनु के वंशज ओ३म् का सम्बोधन omi /ovin  के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए  करते थे। क्यों कि वह भी ज्ञान का संरक्षक देव था। जो भारतीयों में  बुध ज्ञान का देवता था इसी बुधः का दूसरा सम्बोधन  जर्मन वर्ग की भाषासओं में (OUVIN ) ऑविन भी था। यही (woden) ही  अंग्रेजी में (Goden) होते हुए अन्त में आज( God ) बन गया है।जिससे कालान्तर में गॉड (god )शब्द बना है। जो फ़ारसी में (ख़ुदा) के रूप में प्रतिष्ठित हैं।यद्यपि कुछ यूरोपीय भाषाविद् गॉड शब्द की व्युत्पत्ति आदि जर्मनिक शब्द -guthan- गुथान से मानते हैं यह उनका अनुमान ही है । ऑक्सफोर्ड एटिमोलॉजी इंग्लिश डिक्शनरी में गॉड(God)  शब्द की व्युत्पत्ति क्रम निम्नलिखित रूप में दर्शाया गया है। "Old English god "supreme being the Christian God word;  from Proto-Germanic word  *guthan (गुथान) its too (source also of Old Saxon, Old Frisian, Dutch god, Old High German got, German Gott, Old Norse guð, Gothic guþ), which is of uncertain origin;  perhaps from Proto Indo Europion- *ghut-घुत "that which is invoked-"जिसका आह्वान किया गया हो  (who has been summoned) जिसे आहूत किया गया हो। (source also of Old Church Slavonic zovo "to call," Sanskrit huta- "invoked," an epithet of Indra) from root *gheu(e)- "to call, invoke." The notion could be "divine entity summoned to a sacrifice."
हिब्रू भाषा का यहोवा शब्द भी सम्भवत: वैदिक यह्व: का प्रतिरूप है। जिसकी व्युत्पत्ति अनिश्चित सी है। सस्कृत कोशकार भी यह्व: शब्द की व्युत्पत्ति का विवरण सन्तोष जनक रूप में उद्धृत नही करते हैं। वाचस्पत्यम् कोशकार यह्व: शब्द को यज्-  धातु परक मानकर यज्ञ धातु में उणादि प्रत्यय वन् लगाकर करता है। जबकि ह्वे-आह्वान करना धातु यह्व में स्पष्ट परिलक्षित है। शब्दकोशीय व्युत्पत्ति देंखे-

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 यह्व: (यजतीति - यज + वन्=  शेवायह्वजिह्वाग्रीवाप्वामीवाः । “ उणादि १ ।  १५४ ।  इति वन्प्रत्ययेन निपातितः । )  यक्षमानः ।  इत्युणादिकोषः ॥  (त्रि  महान् ।  यथा   ऋग्वेदे । ३। १ । १२। “ उदुस्रिया जनिता यो जजानापां गर्भो नृतमो यह्वो अग्निः । “ यह्वो महान् । “  इति तद्भाष्ये सायणः ॥
परन्तु  " यह्व:य ह्वयते -जिस का आह्वान किया गया हो- "त्वं देवानामसि यह्व होता स एनान्यक्षीषितो यजीयान् ॥३॥ ऋग्वेद-10/110/3
"अबो॑ध्य॒ग्निः स॒मिधा॒ जना॑नां॒ प्रति॑ धे॒नुमि॑वाय॒तीमु॒षासं॑ ।य॒ह्वा इ॑व॒ प्र व॒यामु॒ज्जिहा॑नाः॒ प्र भा॒नवः॑ सिस्रते॒ नाक॒मच्छ॑ ॥१।।(ऋग्वेद -5/1/1)
वस्तुत: यहाँ उस यहोवा का वर्णन है जो सिनाई पर्वत पर मूसा को जलती झाड़ियो
में से आवाज देता है। जिसमें अग्नि का भी गुण है और आह्वान करने वाले का भी ।
विदित हो कि गॉड शब्द ; पुरानी इंग्लिश  "सर्वोच्च अस्तित्व, अथवा ईश्वर का वाचक है।; ईसाई गॉड प्रोटो-जर्मनिक ★-guthan- (गुथान) जो कि  (ओल्ड सैक्सन, ओल्ड फ़्रिसियाई, डच में गॉड, है। ओल्ड हाई जर्मन गॉट, जर्मन गॉट, ओल्ड नॉर्स गुड, गॉथिक गुउ का भी स्रोत) , जो अनिश्चित मूल का है; शायद मूल भारोपीय धातु ( मूल) हूत(ह्वे--क्त संप्रसारणम् । "जो आह्वान किया जाता है" से 
(ओल्ड चर्च स्लावोनिक ज़ोवो का स्रोत भी "कॉल करने के लिए," संस्कृत हुता- "आमंत्रित," है जो  इंद्र का एक विशेषण भी है )
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परन्तु गॉड शब्द की यह व्युत्पत्ति भी आनुमानिक व सिद्धान्त विहीन ही है। सम्भव यह भी है कि संस्कृत भाषा मे स्वतस्( स्व+तसिल्-) से फारसी ख़ुदा और खुद शब्द विकसित हुए हों और ख़ुदा ही अंग्रेजी में गॉड हो गया है।
सीरिया की सुरीली संस्कृति में यह  ओ३म् शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है। वेदों में (ओमान्) शब्द बहुतायत से "रक्षक" के रूप में आया है । यद्यपि ओ३म् एक विस्मयादि बोधक अव्यय भी है। इसी का दूसरा नाम प्रणव है।
ओङ्कारः, पुं० (ओम् + कार प्रत्ययः ) प्रणवः । इत्यमरः कोश॥ (यथाह स्मृतिः जेेैसा कि स्मृतिग्रन्थों में कहा है गया है।
“ओङ्कारः पूर्व्वमुच्चार्य्यस्ततो वेदमधीयते” ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा ।
कण्ठं भित्त्वा विनिर्ज्जातौ तस्मान्माङ्गलिकावुभौ”। इति व्याकरणटीकायां दुर्गादासःकृत।
व्याकरण टीकाकार दुर्गादास लिखते है कि  "(ओङ्कार) तथा "(अथ) ये दौनों शब्द पूर्व काल में ब्रह्मा के कण्ठ के भेदन करके उत्पन्न हुए अत: ये मांगलिक हैं। परन्तु यह भारतीय संस्कृति में तो यह भी मान्यता है। कि शिव (ओ३म्) ने ही पाणिनी को ध्वनि समाम्नाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की ! 
जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ ।
पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के ही लोग थे। ये लोग द्रविडों से सम्बद्ध थे। 
और इन्होंने ही देश - दुनिया को भाषाओं का उपहार दिया। वस्तुत: यहाँ इन्हें द्रुज संज्ञा से अभिहित किया गया था । द्रविडों को  कही ड्रूयूड तो कहीं द्रुज भी कहा गया है। यह द्रुज जनजाति प्राचीन इज़राएल जॉर्डन लेबनॉन में तथा सीरिया में आज तक प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताओं को सञ्जोये हुए है।  भले ही ईसाईयत और इस्लामिक प्रभावों से इनमें कुछ भौतिक परिवर्तन हुआ हो। परन्तु द्रुजों की जो प्राचीन मान्यत थी  वह आज भी है कि आत्मा अमर है तथा मनुष्य का  पुनर्जन्म कर्म फल के भोग के लिए होता है ।
ठीक यही मान्यता बाल्टिक सागर के तटवर्ति ( द्रयूड- पुरोहितों( druid prophet,s ) में प्रबल रूप  में मान्य  थी ! विदित हो कि फॉनिशियन ही वैदिक कालीन पणि लोग थे जो समुद्री यात्राओं द्वारा दूर देशों में व्यापार करते थे। द्रविड पहले पुरोहित थे जिन्होंने द्रव अथवा पदार्थ के साथ वृक्षों का भी जीवन विश्लेषण किया।  द्रविड फॉनिशयनों के सहवर्ती या उनसे सम्बन्धित थे। केल्ट ,वेल्स ब्रिटॉनस् आदि ने इस वर्णमाला को द्रविडों से ग्रहण किया था  और द्रविडों ने पणियों अथवा फॉनिशियनें से  ग्रहण किया।
"द्रविड अपने समय के सबसे बडे़ द्रव्य-वेत्ता और तत्व दर्शी थे ! जैसा कि द्रविड नाम से ही उनके नाम की सार्थकता  ध्वनित होती है। 

(द्रविड   द्रव + विद --  समाक्षर लोप से "द्रविड" शब्द का विकास हुआ .) ऊँ एक प्लुत स्वर है जो सृष्टि का आदि कालीन प्राकृतिक ध्वनि रूप है जिसमें सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित है। इसके अवशेष एशिया - माइनर की पार्श्ववर्ती आयोनिया ( प्राचीन यूनान ) की संस्कृति में भी प्राप्त हुए है। यूनानी देव संस्कृति अनुयायी थे ज्यूस( द्यौस) और पॉसीडन ( पूषण अथवा विष्णु) की साधना के अवसर पर अमोनॉस (amonos) का उच्चारण करते थे। दर असल "एम्मोन" मिस्र के संप्रभु सूर्य-देव की ग्रीक और रोमन अवधारणा का नाम (Amun)(शाब्दिक रूप से "छिपा हुआ" कहा जाता है), भी "Amen"-Ra". यह वे जीवन के देवता, मेढा  के सिर वाले देवत्व के साथ भ्रमित थे, जिनकी लीबिया

में एक शानदार अभयारण्य में पूजा की जाती थी। 
ज्यूस( द्योस) बृहस्पति का नामान्तरण है तो पॉसीडन वैदिक देव (पूषण )का नामान्तरण है‌।
पूषण सूर्य का वाचक है। पुराणानुसार बारह अदित्यों में से एक। एक वैदिक देवता जिनकी भावना भिन्न भिन्न रूपों मे पाई जाती है। कहीं वे सूर्य के रूप में (लोकलोचन), कहीं पशुओं के पोषक के रूप में, कहीं धनरक्षक के रूप में ओर कहीं सोम के रूप में पाए जाता है।"इसी प्रकार प्राचीन सेल्टिक सभ्यता के दिशा-निर्देशकों को 'द्रविड' (Druids)  के नाम से अभिहित किया जाता है।  भारत के ब्राह्मणो में एक वर्ग द्राविड़ कहलाता है (देखें- ब्राह्मणों का वर्गीकरण 'पंचगौड़'  एवं 'पञ्चद्राविड़',)। 'द्रविड' (अथवा 'द्रुइड') का सेल्टिक भाषा में अर्थ है- '
ओक या बलूत के जंगलों में घूमने वाले उपदेशक और ओक या बलूत के पेड़ को ही द्रव कहा जाता है ग्रीक भाषा में द्रविड वन्य संस्कृति के प्रसारक   के रूप में कार्य करते थे।ये द्रव को जानते थे इस लिए इनको द्रविद-द्रविड कहा गया।
"ये द्रूड  प्राचीन सेल्टिक सभ्यता के संरक्षक थे। जनता के सभी वर्ग उनका बड़ा सम्मान करते थे।वे ही सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत, सभी प्रकार के विवादों में न्यायकर्ता भी थे । 
वे अपराधियों को दंड भी दे सकते थे। परन्तु वे युद्घ में भाग नहीं लेते थे, न सरकार को कोई कर देते थे।
वर्ष में एक बार ये द्रविड़ आल्पस पर्वत के परम्परागत रूप से उत्तर-पूर्व में किसी पवित्र स्थल पर इकट्ठा होते थे। इस प्रकार के धार्मिक वार्षिक सम्मेलन प्राचीनत्तम फ्रॉन्स( गॉल-Gaul) देश में भी होते थे । जहाँ अनातोलिया से लेकर आयरलैंड तक के द्रविड़ इकट्ठा होकर अपना प्रमुख पुरोहित चुनते थे। वहीं सब प्रतिनिधियों के बीच नीति विषयक बातें होती थीं। समस्त विवादों का, जो उन्हें सौंपे जाते, वे सम्यक्  निर्णय करते थे। ये वैसे ही सम्मेलन थे जैसे भारत में कुंभ मेले के अवसर पर सन्तों मनीषियों द्वारा होते थे।  वे साधारणतया अपने कर्मकाण्ड एवं पठन-पाठन बस्ती से दूर निर्जन जंगल में करते थे। द्रविड़ आत्मा की अनश्वरता और पुनर्जन्म पर दृढ़ विश्वास करते थे ,और मानते थे कि आत्मा एक शरीर से  दूसरे नवीन  शरीर (कलेवर) में प्रवेश करती है। इन देवमूर्तियों का वे पूजन भी करते थे। आंग्ल विश्वकोश के अनुसार- 'बहुत से विद्वान यह विश्वास करते हैं कि भारत के हिंदु ब्राह्मण और पश्चिमी प्राचीन सभ्यता के सेल्टिक 'द्रविड़' एक ही हिंदु-यूरोपीय पुरोहित वर्ग के अवशेष हैं।'
सेल्टिक सभ्यता के द्रविड़ (द्रुइड) के बारे में विद्वानों ने प्रारंभिक खोजों में 'उनके समय, उनकी दंतकथाओं, मान्यताओं, और  धारणाओं आदि के अध्ययन से यही निष्कर्ष निकाला कि वे भारत से आए दार्शनिक पुरोहित थे। वे भारत के ब्राह्मण थे अथवा भारत में यूरोपीय देशों से भारत में आये थे, जो उत्तर में साइबेरिया ('शिविर' देश) रूस से लेकर सुदूर पश्चिम आयरलैंड तक पहुँचे, जिन्होंने भारतीय सभ्यता को पश्चिम के सुदूर छोर तक पहुँचाया।' श्री पुरूषोत्तम नागेश ओक ने अपनी पुस्तक 'वैदिक विश्व-राष्ट्र का इतिहास' में यह संकेत किया है  जो कि उनका अपना पूर्वाग्रह ही है (देखें- अध्याय २३ और २४ पर इनका विवरण दिया है ), हैं।
वे उस समाज के पुरोहित, अध्यापक, गुरू, गणितज्ञ, वैज्ञानिक, पंचांगकर्ता, खगोल ज्योतिषी, भविष्यवेत्ता, मंत्रद्रष्टा, वंदपाठी, धार्मिक क्रियाओं की परिपाटी चलाने वाले; प्रायश्चित आदि का निर्णय लेने वाले गुरूजन थे। यूरोप में उस शब्द का उच्चारण 'द्रुइड' रूढ़ है।'
भारतीय पुराणों में  जिस ओ३म् (ऊँ) शब्द के उच्चारण करने पर शूद्र अथवा निम्न समझी जाने वाली जन-जातियाें की जिह्वा का रूढि वादी परम्पराओं के अनुगामी पुरोहितों  द्वारा उच्छेदन तक करने का विधान पारित किया गया था।  उसी ओ३म् शब्द का प्रादुर्भाव उसी द्रविड संस्कृति से हुआ जो आज शूद्र वर्ण में समाहित कि गयी हैं। जिनके लिए उनका "ओ३म् शब्द के उच्चारण पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया हो । आज हम उस शब्द की जन्म-कुण्डली खोलेंने का प्रयास करेंगे -सर्वप्रथम हम यह प्रकाशिका कर दें कि द्रविड शब्द यूरोपीय इतिहास में ड्रयूड् नाम से  (Druid) हैं। और यही लोग प्राचीनत्तम विश्व में द्रव- ( जल, वायु आकाश , अग्नि और वनस्पति) के विद-वेत्ता थे  तथा वन्य संस्कृतियों के सूत्रधार व जन्मदाता थे ।
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सर्व-प्रथम हम विचार करते हैं "ओ३म्" शब्द के विकास की पृष्ठ-भूमि पर- विश्व इतिहास के सांस्कृतिक अन्वेषणों के उपरान्त कुछ तथ्यों से हम अवगत हुए । जैसे -सैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय धार्मिक अनुष्ठानों में इसी  ओघम (OGHUM) शब्द का हुंकार नुमा उच्चारण आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए  दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था । तो इसी के समानान्तरण मिश्र , असीरिया , असीरिया  स्वीडन या जर्मनिक ,आयोनिया , हिब्रूू सुमेरियन,

बैबीलोनियन आदि में भी कुछ अन्तर के साथ यह शब्द विद्यमान था।
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ड्रयूडस(Druids) संस्कृति के  विश्वास करने वालों का मत था !  कि इस प्रकार आउ-मा (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों  ने "ओ३म्" रूप में साहित्य ,कला और ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया है।
अर्थात्  प्राचीन भारतीय देव संस्कृति के अनुयायीयों की मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति ( syllable prosperity ) ओ३म् के उच्चारण से  यथावत् रहती है ! इसी लिए धार्मिक पास के प्रारम्भ और समापन पर ओ३म् का उच्चारण अनिवार्य है।
ये ड्रयूडस् पुरोहित भी  इसी प्रकार की  भारतीयों के समान मान्यता स्थापित किए हुए थे।
प्राचीनत्तम फ्रॉन्स की संस्कृतियों में 'ओघम्' का मूर्त प्रारूप 🌞 सूर्य के आकार के सादृश्य पर था। जैसा कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं । वास्तव में ओघम् (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार  नि:सृत होती है जैसे सूर्य से उसका प्रकाश । प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में भी द्रविड संस्कृति का यही ऑघम शब्द  (आमोन् -रा) ( ammon - ra ) के रूप में था । जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मयी
रूप में प्रस्तावित है। किसी भी संस्कृत के प्रतिष्ठित वैय्याकरणिक के द्वारा रवि शब्द की व्युत्पत्ति ध्वनि-विवृति मूलक रूप में नहीं की गयी।  'परन्तु हमारी मान्यता तो  रवि ( सूर्य) के ध्वनि अनुकरण मूलक रूप पर आग्रहीत थी।
आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान (नासा)
के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित "ओ३म्" प्लुत स्वर का श्रवण किया है ।
वस्तुत: हर गतिशील चीज में ध्वनि होना स्वाभाविक ही है। सुमेरियन एवं सैमेटिक हिब्रू आदि परम्पराओं  में रब़ अथवा रब्बी शब्द का अर्थ - नेता तथा महान एवं गुरू होता हेै ! जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है। अरबी भाषा में रब़ ईश्वर का वाचक है । क्यों कि  नेता अथवा मार्गदर्शक ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है।जैसा कि अरबी वाक्य- "रब्बुल अल अलामीन" का  मतलब " ईश्वर सम्पूर्ण संसार का रक्षक है ।
अमीन शब्द (अरबी:जुबान में है ( آمین)  आमीन का शाब्दिक अर्थ है "ऐसा हो सकता है" या "ऐसा ही है"। यह भाषाई तौर पर एक "स्वीकृति बोधक अव्यय" है । अरबी हिब्रू और संस्कृत में भी आमीन का यही अर्थ है।
मुसलमानों में शब्द आमिन का प्रयोग आमतौर पर उसी शब्द के साथ किया जाता है जिसका अर्थ है "मुझे जवाब दें", और वाक्यांश "इलाही अमीन" (अरबी: الهی آمین; अर्थ: हे मेरे भगवान ! मुझे जवाब दें) कुरान शरीफ की आयतों को पढ़ते समय इबादत की ताकीद के लिए आमीन ( ऐसा ही हो) का उच्चारण आज तक किया जाता है 
आधुनिक काल में यह आमीन सम्बोधन सैमेटिक परम्पराओं के अनुयायी( यहूदी, ईसाई और इस्लामिक )लोगों के बीच बहुत आम है। 
इसका उपयोग अंग्रेजी में अमेन के रूप में किया जाता है (अर्थ: तो यह हो -it be so)है। वस्तुत: अमेन हिब्रू बाइबिल में वर्णित रूप है ।

शिया  शरीयत  में, प्रार्थनाओं में कुरान 1 (सूर अल-हम्द) को पढ़ने के बाद "अमीन" न कहने पर कि प्रार्थना को शरीयती तौर पर अमान्य कर दिया गया है। इसी लिए "आमीन" कहना अनिवार्य है।
हिब्रू परम्पराओं से ही यह अरब की रबायतों में कायम हुआ। और हिब्रू में, शब्द "अमीन" को सबसे पहले "सही" और "सत्य" नामक विशेषण के रूप में उपयोग किया जाता था,।
लेकिन  ईसाई धर्मगुरु यशायाह की किताब के मुताबिक इसका उपयोग संज्ञा के रूप में किया जाता था। यह शब्द फिर हिब्रू में एक (invariant) ऑपरेटर (अर्थात्, "वास्तव में" और "निश्चित रूप से")के अर्थ में परिवर्तित हो गया। 
"इस आमीन का  उद्धरण  बाइबिल में 30 बार और तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के यूनानी अनुवाद में 33 बार किया गया है।
इतिहास की पहली पुस्तक वेद  और किंग्स बुक्स जैसी पहली पुस्तक में इस शब्द की घटना से पता चलता है। कि यह शब्द यहूदी प्रार्थनाओं और अनुष्ठानों में चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले भी इस्तेमाल किया गया था।
 प्राचीन यहूदी परम्परा में, इस शब्द का उपयोग प्रार्थना की  शुरुआत या प्रार्थना के अन्त में किया गया था। 
अब यहूदी यादवों का ही वैदिक तथा पश्चिमी इतर रूप था । ये लोग गाय और बैल की पूजा करते थे। यहूदियों की प्रार्थनाओं, और भजनों के अन्त में इस आमीन की पुनरावृत्ति प्रासंगिक सामग्रियों की पुष्टि और समर्थन हेतु  दोनों रूपों में थी , और आमीन उम्मीद की अभिव्यक्ति थी कि हर कोई अमेन का उल्लेख करने के दौरान अभ्यास के आशीर्वाद साझा कर सकता है।

अमेन ( आमीन) का मिलान वेल्श संस्कृति के अवेन (Awen)से भी प्रस्तावित है । अमेन के विषय में पूर्व में वर्णन कर चुके हैं ।
तलमूद और अन्य यहूदी परम्पराओं की अवधि में, यह महत्वपूर्ण था कि विभिन्न स्थितियों में  "आमीन" शब्द का उपयोग कैसे किया जाए, और ऐसा माना जाता था कि भगवान की किसी भी प्रार्थना के लिए "आमीन" कहना होता है जो जिससे ईश्वर को सम्बोधित किया जाता है।

ईसाई धर्म में आमीन-–
यहूदी परम्पराओं को ईसाई चर्चों में अपना रास्ता मिला। "अमीन" शब्द का प्रयोग नए नियम में 119 बार किया गया था, जिनमें से 52 मामले यहूदी धर्म में  इसका उपयोग कैसे किया जाता था उससे सम्बन्धित है। 
नए नियम के माध्यम से, आमून शब्द ने दुनिया की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में प्रवेश किया।
शब्द, अमीन, जैसा कि नए नियम में प्रयोग किया गया है, उसमें इसके चार अर्थ हैं -
पावती और अनुमोदन; एक प्रार्थना में समझौता या भागीदारी, और किसी के प्रतिज्ञा की अभिव्यक्ति। दिव्य प्रतिक्रिया का अनुरोध, जिसका अर्थ है: "हे भगवान! स्वीकार करें या जवाब दें !" अर्थात् एवं अस्तु !(निश्चय ही एसा   हो )एक प्रार्थना या प्रतिज्ञा की पुष्टि, जिसका अर्थ है: "तो यह हो" (आज शब्द को दो अर्थों को इंगित करने के लिए प्रार्थनाओं के अंत में उपयोग किया जाता है)।एक विशेषता या यीशु मसीह का नाम ।अरबी में चूंकि इस्लाम के उद्भव से पहले यहूदी धर्म और नाज़रेन ईसाई धर्म दोनों अरब प्रायद्वीप में प्रसारित थे। इसलिए यह संभव है कि मक्का और मदीना समेत अरब, इससे परिचित थे, हालांकि जहालत( अज्ञान) काल की कविताओं में इसका कोई निशान नहीं मिला है।
यह शब्द कुरान में नहीं होता है, लेकिन प्रारंभिक मुस्लिम शब्द से निश्चित रूप से परिचित थे। 
पैगंबर मुहम्मद ने शब्द का प्रयोग किया, लेकिन ऐसा लगता है कि शुरुआती मुस्लिम शब्द के अर्थ के बारे में निश्चित नहीं थे, क्योंकि पैगंबर ने उन्हें एक स्पष्टीकरण और शब्द की व्याख्या दी (यह कहकर कि "अमीन एक है अपने वफादार सेवकों पर दिव्य डाक टिकट ")
और 'अब्द अल्लाह बी. अल-अब्बास " ने शब्द का व्याकरणिक विवरण देने की पहली कोशिश की। कुरान के निष्कर्षों में
यह शब्द कुरान 10:88 और 89 के मंजिलों (उत्थानों) में उल्लिखित है। 
कुरान के लगभग सभी exegetes के अनुसार, जब पैगंबर मूसा (ए) फिरौन को शाप दिया, वह और उसके भाई, भविष्यवक्ता हारून (ए) , शब्द अमेन उद्धृत किया। 'परन्तु मूसा यहूदियों के पैगम्बर थे मुसलमानों के नहीं । मूसा प्रार्थना में आमीन का हवाला देते हुए कहते हैं।
सुन्नी मुस्लिम इस शब्द का हवाला देते हैं, अमीन, प्रार्थना में कुरान 1 को कविता के जवाब के रूप में पढ़ने के बाद, "हमें सही मार्ग दिखाएं", (कुरान, 1: 6)। यदि उपासक अपनी प्रार्थना व्यक्तिगत रूप से कहता है, तो वे स्वयं को इस शब्द का हवाला देते हैं, और यदि वे एक मंडली में प्रार्थना कहते हैं, जब प्रार्थना के नेता कुरान 1 को पढ़ना समाप्त कर देते हैं, तो सभी अनुयायियों ने एक साथ आमीन को  उद्धृत करते हैं। 
शिया न्यायविदों का कहना है कि प्रार्थना में अमीन का हवाला देते हुए यह अमान्य है, क्योंकि यह प्रार्थना में एक विधर्मी अभ्यास है जिसे पैगंबर की परंपरा में पुष्टि नहीं माना जाता है।
टिप्पणियाँ-
↑ यशायाह 65:16
↑ धन्य है यहोवा, इस्राएल का परमेश्वर, अनन्तकाल से अनन्तकाल तक। "तब सभी लोगों ने कहा" 
आमीन! 
पाणिनीय धातु पाठ में अव् धातु के अनेक अर्थ हैं
 अव्-- --१ रक्षक २ गति ३ कान्ति४ प्रीति ५ तृप्ति ६ अवगम ७ प्रवेश ८ श्रवण ९ स्वामी १० अर्थ ११ याचन १२ क्रिया १३ इच्छा १४ दीप्ति १५ अवाप्ति १६ आलिड्.गन १७ हिंसा १८ आदान १९ भाव वृद्धिषु ( १/३९६/  भाषायी रूप में ओ३म् एक अव्यय ( interjection) है ।
जिसका अर्थ है -- ऐसा ही हो ! ( एवमस्तु !) it be so इसका अरबी़ तथा हिब्रू रूप है आमीन् ।

लौकिक संस्कृत में ओमन् ( ऊँ) का अर्थ--- औपचारिकपुष्टि करण अथवा मान्य स्वीकृति का वाचक है ---
मालती माधव ग्रन्थ में १/७५ पृष्ट पर-- ओम इति उच्यताम् अमात्यः" तथा साहित्य दर्पण ---  द्वित्तीयश्चेदोम् इति ब्रूम १/""
ईरानीयों 'ने भी ओ३म्' शब्द को अपने मिथकों में स्थापित किया ।
Yadav Yogesh Kumar "Rohi" ★ 
आमीन के अर्थ सामान्यत:
तथास्तु, पुष्टि की धार्मिक घोषणा
यह लेख विस्मयादिबोधक के बारे में है। अन्य प्रयोगों के लिए, आमीन (बहुविकल्पी) देखें।
आमीन (हिब्रू: אָמֵן, ʾāmēn; प्राचीन यूनानी: ἀμήν, amḗn; शास्त्रीय सिरिएक: ܐܡܝܢ, 'amīn; अरबी: آمين, ʾāmīn) प्रतिज्ञान की एक इब्राहीमी घोषणा है जो पहले हिब्रू बाइबिल में पाई जाती है, और बाद में नई बाइबिल में पाई जाती है। वसीयतनामा। इसका उपयोग यहूदी, ईसाई और मुस्लिम प्रथाओं में समापन शब्द के रूप में या प्रार्थना की प्रतिक्रिया के रूप में किया जाता है। हिब्रू से, इस शब्द को बाद में अरबी धार्मिक शब्दावली में अपनाया गया और अरबी मूल( ء م ن) में

समतल किया गया, जो हिब्रू के समान अर्थ है। विस्मयादिबोधक ईसाई और इस्लामिक शब्दकोशों में होता है, आमतौर पर प्रार्थना में, साथ ही साथ धर्मनिरपेक्ष रूप से, हालांकि कम सामान्य रूप से, ताकि पूर्ण पुष्टि या सम्मान का संकेत दिया जा सके। धार्मिक ग्रंथों में, यह बाइबिल के अरबी अनुवादों में और कुरान के पारंपरिक रूप से पहले अध्याय को पढ़ने के बाद होता है, जो औपचारिक रूप से धार्मिक प्रार्थनाओं के समान है।
कुछ थियोसोफिस्टों के बीच लोकप्रिय, इतिहास के एफ्रोसेंट्रिक सिद्धांतों के समर्थक, और गूढ़ ईसाई धर्म के अनुयायी यह अनुमान है कि आमीन मिस्र के देवता अमुन (जिसे कभी-कभी आमीन भी कहा जाता है) के नाम से व्युत्पन्न है। पूर्वी धर्मों के कुछ अनुयायियों का मानना ​​है कि आमीन की जड़ें हिंदू संस्कृत शब्द ओम् से जुड़ी हैं। ऐसी बाहरी व्युत्पत्तियाँ मानक व्युत्पत्ति संबंधी संदर्भ कार्यों में शामिल नहीं हैं। इब्रानी शब्द, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, एलेफ से शुरू होता है, जबकि मिस्र का नाम योध से शुरू होता है।फ्रेंच में, हिब्रू शब्द "आमीन को कभी-कभी आइंसी सोइट- इल (ainsi soit-il.) इस फ्रेंच वाक्य का अंग्रेजी अनुवाद है।
 - so be it जिसका अर्थ है "ऐसा ही हो।भाषाविद् "घिलाड ज़करमैन" का तर्क है कि, हालेलूजाह के मामले में, आमीन शब्द को आम तौर पर अनुवाद द्वारा प्रतिस्थापित नहीं किया जाता है क्योंकि वक्ता प्रतिष्ठित होने में विश्वास करते हैं, उनकी धारणा है कि ध्वनि के बीच संबंध के बारे में कुछ आंतरिक तारतम्य है।हस्ताक्षरकर्ता (शब्द) और यह क्या दर्शाता है (इसका अर्थ): देखें- हिब्रू बाइबिल अध्याय भजन 62 psalms- (भजन) -
 यह शब्द हिब्रू बाइबिल में 30 बार आया है; अकेले व्यवस्था-विवरण में 12 बार  यह शब्द भजन संहिता 27:15 से शुरू। निश्चित वाक्यांश 'आमीन, आमीन' पांच बार देखा जाता है - भजन संहिता 41:13; 72:19; 89:52; गिनती 5:22; नहेमायाह 8:6. इसका अनुवाद यशायाह 65:16 में दो बार 'सत्य' के रूप में किया गया है। आमीन के तीन अलग-अलग बाइबिल उपयोगों पर ध्यान दिया जा सकता है:
आरंभिक आमीन, दूसरे वक्ता के शब्दों का संदर्भ देना और एक सकारात्मक वाक्य का परिचय देना, उदाहरण 
1 राजा 1:36 
 संदर्भ   क्रॉसरेफ   कॉम   हिब्रू 
श्लोक-यहोयादा के पुत्र बनायाह ने राजा को उत्तर दिया, “आमीन ! मेरे प्रभु राजा का परमेश्वर यहोवा ऐसा ही प्रचार करे। 
अलग अलग प्रकरणों में "आमीन,  शब्द प्रयोग- फिर से दूसरे वक्ता के शब्दों का जिक्र करते हुए लेकिन पूरक सकारात्मक वाक्य के बिना, उदाहरण-
नहेमायाह 5:13 
"फिर मैं ने अपक्की गोद झाड़कर कहा, इसी रीति से जो कोई अपके अपके घर से और परिश्रम से झाड़ता है, जो इस वचन को पूरा न करे, वह इसी रीति से झाड़ा जाए, और छूछा हो जाए। और सारी मण्डली ने कहा, "आमीन ! और यहोवा की स्तुति की। और लोगों ने इस वचन के अनुसार किया। अन्तिम आमीन, वक्ता में कोई बदलाव नहीं, जैसा कि स्तोत्र के पहले तीन खंडों की सदस्यता में है।
"न्यू टेस्टामेंट में, ग्रीक शब्द ἀμήν-आमीन्) का उपयोग विश्वास की अभिव्यक्ति के रूप में या एक पूजन विधि के एक भाग के रूप में किया जाता है। यह एक परिचयात्मक शब्द के रूप में भी प्रकट हो सकता है, विशेष रूप से यीशु के कथनों में। हिब्रू में शुरुआती "आमीन के विपरीत, जो पहले से कही गई किसी बात को संदर्भित करता है, इसका उपयोग यीशु द्वारा इस बात पर जोर देने के लिए किया जाता है कि वह क्या कहने वाला है (ἀμὴν λέγω, "वास्तव में मैं तुमसे कहता हूं"),  ग्रीक भाषा में ये वाक्य अमेन के अर्थ को व्यक्त करते हैं- Ἀμὴν.λέγω=amēnlegō - वास्तविक रूप से मै कहता हूँ।
" रेमंड ब्राउन का कहना है कि चौथे सुसमाचार में आमीन का यीशु का अजीबोगरीब और प्रामाणिक स्मरण इस बात की पुष्टि है कि वह जो कहने जा रहा है -वह पिता की ओर से एक प्रतिध्वनि है। सिनॉप्टिक गोस्पेल्स में यह शब्द 52 बार आया है; जॉन के सुसमाचार में 25 बार हैं। किंग जेम्स बाइबिल में, आमीन शब्द कई संदर्भों में देखा जाता है। उल्लेखनीय लोगों में शामिल हैं:
यहूदी धर्म यह भी देखें: बरखाह § आमीन पढ़ना
हालांकि आमीन, यहूदी धर्म में, आमतौर पर एक आशीर्वाद की प्रतिक्रिया के रूप में उपयोग किया जाता है। यह अक्सर हिब्रू बोलने वालों द्वारा घोषणा के अन्य रूपों (धार्मिक संदर्भ के बाहर सहित) की पुष्टि के रूप में भी उपयोग किया जाता है।
यहूदी रैबिनिकल कानून में एक व्यक्ति को विभिन्न संदर्भों में आमीन कहने की आवश्यकता होती है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के आरंभ में, मंदिर में इकट्ठे हुए यहूदियों ने एक पुजारी द्वारा की गई एक महिमा या अन्य प्रार्थना के अंत में "आमीन" का जवाब दिया। ईसाइयों द्वारा आमीन के इस यहूदी पूजाविधिक उपयोग को अपनाया गया था। लेकिन यहूदी कानून में भी व्यक्तियों को आमीन का जवाब देने की आवश्यकता होती है, जब भी वे एक गैर-विद्रोही सेटिंग में

भी एक आशीर्वाद सुनाते हैं।
तल्मूद सजातीय रूप से सिखाता है कि आमीन शब्द אל מלך נאמן (ʾएल मेलेख नेमैन,- "भगवान, भरोसेमंद राजा") के लिए एक संक्षिप्त शब्द है, वाक्यांश शमा को पढ़ने से पहले एक व्यक्ति द्वारा चुपचाप पढ़ा जाता है।

यहूदी आमतौर पर शब्द के हिब्रू उच्चारण का उपयोग करते हैं: /ɑːˈmɛn/ ah-MEN (इज़राइली और सेफ़र्दी) या /ɔːmeɪn/ a-MAYN (अशकेनाज़ी)।

ईसाई धर्म में आमीन-
"आमीन" का उपयोग आम तौर पर ईसाई पूजा में- प्रार्थनाओं और भजनों के समापन शब्द और मजबूत समझौते की अभिव्यक्ति के रूप में अपनाया गया है।  
आमीन का उपयोग मानक, अंतर्राष्ट्रीय फ्रेंच में भी किया जाता है, लेकिन काजुन फ्रेंच में 'आइंसी सोइट-इल ("ऐसा ही हो")  प्रयोग किया जाता है।
इस्लाम में आमीन -
अरबी में आमीन।( آمين) इस्लामिक इबादत में, ; प्रार्थना का समापन करते समय, विशेष रूप से एक दुआ  के बाद या कुरान की पहली सूरह "अल फातिहा" का पाठ करते हुए किया जाता है, जैसा कि प्रार्थना (सलात) में होता है, और दूसरों की प्रार्थना के लिए एक सहमति के रूप में भी आमीन का प्रयोग होता है।
अरबी शब्दकोष  ʾāmīn को अनिवार्य मौखिक संज्ञा के रूप में परिभाषित करते हैं, जिसका अर्थ  उत्तर है (यानी, किसी की प्रार्थना को पूरा करने के लिए भगवान से प्रार्थना करना)। इसलिए, यह सख्ती से प्रार्थनाओं को समाप्त करने या पुष्टि की घोषणा करने के लिए अंतिम रूप में उपयोग किया जाता है। 
सेल्टिक धर्म में ओघमा-
सेल्टिक धारमिक ग्रन्थों में ओघम अनेक रूपों में परिलक्षित है परन्तु यह मुख्यत: भाषा और वाणी का ही अधिष्ठाता देव है।   
ओग्मा -एक  प्राचीन आयरिश देव जिसे मानव रूप में चित्रित किया गया था। वह भी ओ३म् का प्रतिरूप है। ओग्मा में युद्ध की ललक इतनी तीव्र थी कि उसे सैन्य कार्रवाई के लिए सही समय आने तक अन्य योद्धाओं द्वारा जंजीर में बांधकर रखा जाता था।
"ओघम" नामक एक  लिपि जो आयरिश लेखन प्रणाली के रूप में हैं। जो चौथी शताब्दी ईस्वी से अपनी तिथि निर्धारित करती है।  उनके सेल्टिक समकक्ष ओग्मीऑस(0gmios) की तरह वह वाक्पटुता के देव थे। सेल्टिक(Celtic) धर्म में इसकी प्रवृत्ति से अवगत हों ! 
ओघम लेखन में , ओघम की ओगम  के रूप में भी  वर्तनी  लिखी जाती है,  ओघम वस्तुत: चौथी शताब्दी ईस्वी से वर्णानुक्रमिक आयरलैण्ड की लिपि है। जिसका उपयोग लिखने के लिए उपयोग की जाती है। ओघम शब्द का उपयोग  आयरिश के पत्थर के स्मारकों पर चित्रित भाषाएं आयरिश परंपरा के अनुसार,  लकड़ी के टुकड़ों पर लिखने के लिए भी किया जाता था, लेकिन इसका कोई भौतिक प्रमाण नहीं है। अपने सरलतम रूप में, ओघम में स्ट्रोक( कलम) चलाने के चार सेट या निशान होते हैं , प्रत्येक सेट में एक से पांच स्ट्रोक से बने पांच अक्षर होते हैं, इस प्रकार 20 अक्षर होते हैं। ये एक पत्थर के किनारे पर उकेरे गए थे, अक्सर लंबवत या दाएं से बाएं। पांच प्रतीकों का पांचवां सेट, जिसे आयरिश परंपरा में forfeda ("अतिरिक्त अक्षर"),कहा जाता है ऐसा  प्रतीत होता है कि इसका बाद का विकास है। ओघम की उत्पत्ति विवाद में है
कुछ विद्वान रूनिक और अंततः इट्रस्केन वर्णमाला के साथ  इसका एक संबंध देखते हैं, जबकि अन्य का कहना है कि यह केवल लैटिन वर्णमाला का रूपांतरण है ।
रूनिक  वर्णमालाएँ प्राचीनकालीन यूरोप में कुछ जर्मैनी भाषाओं के लिए इस्तेमाल होने वाली वर्णमालाओं को कहा जाता था जो 'रून' नामक अक्षर प्रयोग करती थीं। समय के साथ जैसे-जैसे यूरोप में ईसाईकरण हुआ और लातिनी भाषा धार्मिक भाषा बन गई तो इन भाषाओं ने रोमन लिपि को अपना लिया और रूनी लिपियों का प्रयोग घटता गया।
इत्रस्की सभ्यता प्राचीन इटली की एक सभ्यता थी जो पश्चिमोत्तरी इटली में सन् ८०० ईसापूर्व से आरम्भ हुई। लगभग २०० वर्षों तक इसका प्रभुत्व रहा और लगभग सन् ४०० ईसापूर्व के बाद इसके रोमन साम्राज्य में विलय हो जाने के संकेत मिलते हैं। 
तथ्य यह है कि इसमें एच और जेड के संकेत हैं, जो आयरिश में उपयोग नहीं किए जाते हैं, विशुद्ध रूप से आयरिश मूल के विपरीत बोलते हैं। ओघम में शिलालेख बहुत ही कम हैं, आमतौर पर जनन मामले में एक नाम और संरक्षक शामिल हैं; वे भाषाई रुचि के हैं क्योंकि वे किसी भी अन्य स्रोत द्वारा प्रमाणित किए जाने की तुलना में आयरिश भाषा के पहले के राज्य को दिखाते हैं और शायद चौथी शताब्दी के विज्ञापन से तारीख. ज्ञात 375 से अधिक ओघम शिलालेखों में से लगभग 300 आयरलैंड से हैं
सेल्टिक धर्म
सेल्ट्स,  प्राचीन इंडो-यूरोपियन लोग, जो चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान अपने प्रभाव और क्षेत्रीय विस्तार के चरम पर पहुंच गए थे । ये लोग ब्रिटेन से एशिया माइनर (तुर्की) तक यूरोप की लंबाई तक फैले हुए थे । तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से उनका इतिहास पतन   और विघटन भरा रहा है, और जूलियस सीज़र की गॉल (58-51 ईसा पूर्व ) की विजय के साथ सेल्टिक स्वतंत्रता यूरोपीय महाद्वीप पर  आकर समाप्त हो

गई। ब्रिटेन और आयरलैंड में यह पतन अधिक धीमी गति से आगे बढ़ा, लेकिन राजनीतिक अधीनता के दबावों के कारण पारम्परिक संस्कृति धीरे-धीरे समाप्त हो गई;  और आज सेल्टिक भाषाएँ केवल पश्चिमी देशों में ही बोली जाती हैं। यूरोप की परिधि , आयरलैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स और ब्रिटनी के प्रतिबंधित क्षेत्रों में   ब्रिटेन (इस अंतिम उदाहरण में मोटे तौर पर चौथी से सातवीं शताब्दी ईस्वी तक सेल्ट भाषा का विस्तार हुआ। ब्रिटेन से आप्रवासन के परिणामस्वरूप यह अन्यत्र भी पहुँची। 
इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि सेल्ट्स के अस्थिर और असमान इतिहास ने उनकी संस्कृति और धर्म के दस्तावेज़ीकरण को प्रभावित किया है ।
ऐतिहासिक-सूत्र- 
दो मुख्य प्रकार के स्रोत सूचना प्रदान करते हैं एक सेल्टिक धर्म: महाद्वीपीय यूरोप और रोमन ब्रिटेन के सेल्ट्स से जुड़े मूर्तिकला स्मारक और दूसरे द्वीपीय सेल्टिक साहित्य जो मध्ययुगीन काल से लेखन में बचे हैं । दोनों स्रोत यद्यपि व्याख्या में समस्याएं पैदा करते हैं।अधिकांश स्मारक और उनके साथ शिलालेख, के हैं रोमन काल-सेल्टिक और रोमन देवताओं के बीच काफी हद तक समन्वयवाद को दर्शाता है:-
Awen isa WelshCornish and Breton word for"inspiration" (and typically poetic inspiration).In Welsh mythologyawen is the inspiration of the poets, or bards; or, in its personification, Awen is the inspirational muse of creative artists in general.
The inspired individual (often a poet or a soothsayer) is described as an awenyddNeo-Druids define awen as "flowing energy," or "a force that flows with the essence of life."In current usage, awen is sometimes ascribed to musicians and poets. It is also used as female given name.It appears in the third stanza of Hen Wlad fy Nhadau, the national anthem of Wales.
Etymology-
Awen derives from the Indo-European Hebrew root *Aw (अव्) meaning 'live', and has the same root as the word awel meaning 'breath ' Inhale, and  in Welsh  'wind' or 'gale' in Cornish.
Historical attestation-
The first recorded attestation of the word occurs in NenniusHistoria Brittonum, a Latin text of c. 796, based in part on earlier writings by the Welsh monk, Gildas. It occurs in the phrase 'Tunic talhaern tat aguen in poemate claret' (Talhaern the father of the muse was then renowned in poetry) where the Old Welsh word aguen (awen) occurs in the Latin text describing poets from the sixth century.
It is also recorded in its current form in (Canu Llywarch Hen) (9th or 10th century ?) where Llywarch says 'I know by my awen' indicating it as a source of instinctive knowledge.
On connections between awen as poetic inspiration and as an infusion from the divine, The Book of Taliesin often implies this. A particularly striking example is contained in the lines:
*ban pan doeth peir
ogyrwen awen teir*

-literally “the three elements of inspiration that came, splendid, out of the cauldron” but implicitly “that came from God” as ‘peir’ (cauldron) can also mean ‘sovereign’ often with the meaning ‘God’.
____
 It is the “three elements” that is cleverly worked in here as awen was sometimes characterised as consisting of three sub-divisions (*‘ogyrwen’) so “the ogyrwen of triune inspiration”, perhaps suggesting the Trinity.
There are fifteen occurrences of the word awen in (The Book of Taliesin) as well as several equivalent words or phrases, such as ogyrven which is used both as a division of the awen (‘Seven score ogyrven which are in awen, shaped in Annwfn’) as well as an alternative word for awen itself.
The poem Armes Prydain (The Prophecies of Britain) begins with the phrase ‘Awen foretells …and it is repeated later in the poem.
 The link between poetic inspiration and divination is implicit in the description of the Awenyddion given by Gerald of Wales in the 12th century and the link between bardic expression and prophecy is a common feature of much early verse in Wales and elsewhere
A poem in The Black Book of Carmarthen by an unidentified bard, but addressed to Cuhelyn Fardd (1100-1130) asks God to allow the awen to flow so that ‘inspired song from Ceridwen will shape diverse and well-crafted verse’. This anticipates much poetry from identified bards of the Welsh princes between circa 1100-1300 which juggles the competing claims of

the Celtic Church with the source of the awen in the Cauldron of Ceridwen.
So Llywarch ap Llywelyn (1173-1220) – also known as ‘Prydydd y Moch’ – can address his patron Llywelyn ap Iorwerth like this:
'I greet my lord, bring awen’s great greeting
Words from Ceridwen I compose
Just like Taliesin when he freed Elffin'.
The same poet also penned the linesThe Lord God grant me sweet awenAs from the Cauldron of Ceridwen' 
Elidr Sais (c. 1195-1246), ‘singing to Christ’, wrote'Brilliant my poetry after MyrddinShining forth from the cauldron
of awen' 
Dafydd Benfras (1220-1258) included both Myrddin (Merlin) and Aneirin in his backward glance:
'Full of awen as Myrddin desiredSinging praise as Aneirin before mewhen he sang of ‘Gododdin’.' 
Later in the Middle Ages the identification of the source of the Awen begins to shift from Ceridwen to more orthodox christian sources such as the Virgin Mary, the saints, or directly from God. A full discussion can be found in Awen y Cynfeirdd a’r Gogynfeirdd by Y Chwaer Bosco. The Bardic Grammars of the later Middle Ages identify ‘The Holy Spirit’ as the proper source of the awen. The 15th century bard Sion Cent argued that God is the only source and dismissed the “lying awen” of bards who thought otherwise as in his dismissive lines
A claimant false this awen is found Born of hell’s furnace underground Such a focus on an unmediated source was picked up by the eighteenth century Unitarian Iolo Morgannwg (Edward Williams, 1747-1826) who was able to invent the awen symbol /|\, suggesting that it was an ancient druidic sign of “the ineffable name of God, being the rays of the rising sun at the equinoxes and solstices, conveying into focus the eye of light”.
Giraldus Cambrensis referred to those inspired by the awen as "awenyddion" in his Description of Wales (1194):
THERE are certain persons in Cambria, whom you will find nowhere else, called Awenyddion, or people inspired; when consulted upon any doubtful event, they roar out violently, are rendered beside themselves, and become, as it were, possessed by a spirit. They do not deliver the answer to what is required in a connected manner; but the person who skilfully observes them, will find, after many preambles, and many nugatory and incoherent, though ornamented speeches, the desired explanation conveyed in some turn of a word: they are then roused from their ecstasy, as from a deep sleep, and, as it were, by violence compelled to return to their proper senses. After having answered the questions, they do not recover till violently shaken by other people; nor can they remember the replies they have given. If consulted a second or third time upon the same point, they will make use of expressions totally different; perhaps they speak by the means of fanatic and ignorant spirits. These gifts are usually conferred upon them in dreams: some seem to have sweet milk or honey poured on their lips; others fancy that a written schedule is applied to their mouths and on awaking they publicly declare that they have received this gift.
(Chapter XVI: Concerning the soothsayers of this nation, and persons as it were possessed) 
In 1694, the Welsh poet Henry Vaughan wrote to his cousin, the antiquary John Aubrey, in response to a request for some information about the remnants of Druidry in existence in Wales at that time, saying
… the antient Bards … communicated nothing of their knowledge, butt by way of tradition: which I suppose to be the reason that we have no account left nor any sort of remains, or other monuments of their learning of way of living. As to the later Bards, you shall have a most curious Account of them. 
This vein of poetrie they called Awen, which in their language signifies rapture, or a poetic furore & (in truth) as many of them as I have conversed with are (as I may say) gifted or inspired with it.

I was told by a very sober, knowing person (now dead) that in his time, there was a young lad fatherless & motherless, soe very poor that he was forced to beg; butt att last was taken up by a rich man, that kept a great stock of sheep upon the mountains not far from the place where I now dwell who cloathed him & sent him into the mountains to keep his sheep. There in Summer time following the sheep & looking to their lambs, he fell into a deep sleep in which he dreamt, that he saw a beautiful young man with a garland of green leafs upon his head, & an hawk upon his fist: with a quiver full of Arrows att his back, coming towards him (whistling several measures or tunes all the way) att last lett the hawk fly att him, which (he dreamt) gott into his mouth & inward parts, & suddenly awaked in a great fear & consternation: butt possessed with such a vein, or gift of poetrie, that he left the sheep & went about the Countrey, making songs upon all occasions, and came to be the most famous Bard in all the Countrey in his time.
— Henry Vaughan, in a letter to John Aubrey, October 1694
Modern Druidic symbol
In some forms of modern Druidism, the term is symbolized by an emblem showing three straight lines that spread apart as they move downward, drawn within a circle or a series of circles of varying thickness, often with a dot, or point, atop each line. The British Druid Order attributes the symbol to Iolo Morganwg; it has been adopted by some Neo-Druids.
According to Jan MorrisIolo Morganwg did in fact create what is now called "The Awen" as a symbol for the Gorsedd Cymru, the secret society of Welsh poets, writers, and musicians that he claimed to have rediscovered, but in fact created himself. Morganwg, whose own beliefs were, according to Marcus Tanner, beliefs were
,__________
 "a compound of Christianity and Druidism, Philosophy and Mysticism", explained the Awen symbol as follows, "And God vocalizing His Name said /|\, and with the Word all the world sprang into being, singing in ecstasy of joy /|\ and repeating the name of the Deity."
__*____★
The Order of Bards, Ovates and Druids (OBOD) describe the three lines as rays emanating from three points of light, with those points representing the triple aspect of deity and, also, the points at which the sun rises on the equinoxes and solstices – known as the Triad of the Sunrises. The emblem as used by the OBOD is surrounded by three circles representing the three circles of creation.
Various modern Druidic groups and individuals have their own interpretation of the awen.              The three lines relate to earth, sea and air; body, mind and spirit; or love, wisdom and truth*.  It is also said that the awen stands for not simply inspiration, but for inspiration of truth; without awen one cannot proclaim truth. The three foundations of awen are the understanding of truth, the love of truth, and the maintaining of truth.
A version of the awen was approved by the United States Department of Veterans Affairs in early 2017 as an emblem for veteran headstones.
_____  
    References सन्दर्भ-
[1]
"Welsh National Anthem"Wales websiteWelsh Government. 2016. Retrieved 23 October 2016.
[2]
Dr Ken George,Gerlyver Meur, Kesva an Taves Kernewek (Cornwall) 1993, p81.
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Canu Llywarch Hen ed. Ifor Williams Cardiff, 1935
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Haycock. Marged (ed)Legendary Poems from the Book of Taliesin (CMCS, Aberystwyth,2007 p.296
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[6]
Armes Prydain  (ed) Ifor Williams and Rachel Bromwich (Dublin, 1982)
[7]
Haycock, Marged (ed)Prophecies from The Book of Taliesin (Aberystwyth, 2013)
[8]
Llyfr Du Caerfyrddin ed. A O H Jarman (Cardiff, 1982)
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'Awen y Cynfeirdd a’r Gogynfeirdd’ by Y Chwaer Bosco, Beirdd a Thywysogion (Cardiff, 1996)
[13]
Gramadegau’r Pencerddiaid ed. G. J. Williams ac E J Jones (Cardiff, 1934)
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Idris Bell, translation of Thomas Parry’s History of Welsh Literature (Oxford, 1955)
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[20]
Marcus Tanner (2004), The Last of the CeltsYale University Press. Page 191.
[21]
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[22]
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[23]
J. Williams Ab Ithel, Ed. "The Barddas of Iolo Morganwg, Vol. I"
[24]
Terrence P. Hunt, "Druid symbol approved for use on veteran headstones", The Wild Hunt, January 24, 2017
Kenneth Jackson, Tradition in Early Irish Prophecy, Man, Vol. 34, (May 1934), pp. 67–70.
___
"Ave-Latin greeting, meaning "hail" or "be well"

This article is about the Roman salutation)
Ave is a Latin word, used by the Romans as a salutation and greeting, meaning  'hailth'=(नमस्कार करना)
It is the singular imperative form of the verb avēre, which meant 'to be well';
 thus one could translate it literally as 'be well' or 'farewell'.
___

"HAVE" Mosaic outside the House of the Faun, Pompeii, reflecting the less formal variant of ave.
Etymology
"Ave" is likely borrowed with an unspelled /h/ from Punic *ḥawe (“live , 2sg. imp.), cognate to Hebrew חוה‎ (“Eve”) and as (avō) from Punic *ḥawū (2pl. imp.), from Semitic root ḥ-w-y (live).

The form might have been contaminated by "avē", the second-person singular present imperative of avēre (first-person aveō), meaning to be well/to fare well. Indeed, its long vowel also ended up short via iambic shortening; this would explain the reluctance to spell the aspirate, as well as its interpretation as a verb form.
Attested since Plautus.
Use-The Classical Latin pronunciation of ave is [ˈaweː]. As far back as the first century AD, the greeting in popular use had the form have (pronounced [ˈhawɛ] or perhaps [ˈhaβ‌ɛ]), with the aspirated initial syllable and the second syllable shortened, for which the most explicit description has been given by Quintilian in his Institutio Oratoria.
While have would be informal in part because it has the non-etymological aspiration, centuries later, any and all aspiration would instead completely disappear from popular speech, becoming an artificial and learned feature.
Ave in Ecclesiastical Latin is [ˈave], and in English, it tends to be pronounced /ˈɑːveɪ/ AH-vay.

The term was notably used to greet .
the Caesar or other authorities. Suetonius recorded that on one occasion, naumachiarii—captives and criminals fated to die fighting during mock naval encounters—addressed Claudius Caesar with the words "Ave Caesar! Morituri te salutant!" ('Hail स्वास्थ्य, Caesar! Those who are about to die salute you !') in an attempt to avoid death. 
The expression is not recorded as being used in Roman times on any other occasion.

The Vulgate version of the Annunciation translates the salute of the angel to Mary, Mother of Jesus as "ave, gratia plena" ('Hail, full of grace'). The phrase "Hail Mary" (Ave Maria) is a Catholic Marian prayer that has inspired authors of religious music.

Fascist regimes during the 20th century also adopted the greeting. It was also distinctly used during the National Socialist Third Reich in the indirect German translation, heil.
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Ave is not to be confused with Latin ave as the vocative singular of avus, अव्वुस- meaning grandfather/forebear, or ave as the ablative singular of (avis= meaning bird.
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Awen is a Welsh, Cornish and Breton word for"inspiration" (and typically poetic inspiration).
In Welsh mythology, awen is the inspiration of the poets, or bards; or, in its personification, Awen is the inspirational muse of creative artists in general.
The inspired individual (often a poet or a soothsayer) is described as an awenydd. Neo-Druids define awen as "flowing energy," or "a force that flows with the essence of life."
In current usage, awen is sometimes ascribed to musicians and poets. 
It is also used as female given name.
It appears in the third stanza of Hen Wlad fy Nhadau, the national anthem of Wales.
Etymology★
Awen derives from the Indo-European Hebrew root *Aw (अव्) meaning 'live', and has the same root as the word awel meaning 'breath ' Inhale, and  in Welsh  'wind' or 'gale' in Cornish.
Historical attestation
The first recorded attestation of the word occurs in Nennius' Historia Brittonum, a Latin text of c. 796, based in part on earlier writings by the Welsh monk, Gildas. 
It occurs in the phrase 'Tunic talhaern tat aguen in poemate claret' (Talhaern the father of the muse was then renowned in poetry) where the Old Welsh word aguen (awen) occurs in the Latin text describing poets from the sixth century.
It is also recorded in its current form in (Canu Llywarch Hen) (9th or 10th century ?) where Llywarch says 'I know by my awen' indicating it as a source of instinctive knowledge.
On connections between awen as poetic inspiration and as an infusion from the divine, The Book of Taliesin often implies this. A particularly striking example is contained in the lines:
*ban pan doeth peir
ogyrwen awen teir*
-literally “the three elements of inspiration that came, splendid, out of the cauldron” but implicitly “that came from God” as ‘peir’ (cauldron) can also mean ‘sovereign’ often with the meaning ‘God’.
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 It is the “three elements” that is cleverly worked in here as awen was sometimes characterised as consisting of three sub-divisions (*‘ogyrwen’) so “the ogyrwen of triune inspiration”, perhaps suggesting the Trinity.
There are fifteen occurrences of the word awen in (The Book of Taliesin) as well as several equivalent words or phrases, such as ogyrven which is used both as a division of the awen (‘Seven score ogyrven which are in awen, shaped in Annwfn’) as well as an alternative word for awen itself.
The poem Armes Prydain (The Prophecies of Britain) begins with the phrase ‘Awen foretells …and it is repeated later in the poem.
The link between poetic inspiration and divination is implicit in the description of the Awenyddion given by Gerald of Wales in the 12th century and the link between bardic expression and prophecy is a common feature of much early verse in Wales and elsewhere
A poem in The Black Book of Carmarthen by an unidentified bard, but addressed to Cuhelyn Fardd (1100-1130) asks God to allow the awen to flow so that ‘inspired song from Ceridwen will shape diverse and well-crafted verse’. This anticipates much poetry from identified bards of the Welsh princes between circa 1100-1300 which juggles the competing claims of the Celtic Church with the source of the awen in the Cauldron of Ceridwen.

 So Llywarch ap Llywelyn (1173-1220) – also known as ‘Prydydd y Moch’ – can address his patron Llywelyn ap Iorwerth like this:

'I greet my lord, bring awen’s great greeting
Words from Ceridwen I compose
Just like Taliesin when he freed Elffin'.
The same poet also penned the lines
'The Lord God grant me sweet awen
As from the Cauldron of Ceridwen' 
___
Elidr Sais (c. 1195-1246), ‘singing to Christ’, wrote

'Brilliant my poetry after Myrddin
Shining forth from the cauldron of awen' 
Dafydd Benfras (1220-1258) included both Myrddin (Merlin) and Aneirin in his backward glance:
'Full of awen as Myrddin desired
Singing praise as Aneirin before me
when he sang of ‘Gododdin’.' 
Later in the Middle Ages the identification of the source of the Awen begins to shift from Ceridwen to more orthodox christian sources such as the Virgin Mary, the saints, or directly from God. A full discussion can be found in Awen y Cynfeirdd a’r Gogynfeirdd by Y Chwaer Bosco. The Bardic Grammars of the later Middle Ages identify ‘The Holy Spirit’ as the proper source of the awen. The 15th century bard Sion Cent argued that God is the only source and dismissed the “lying awen” of bards who thought otherwise as in his dismissive lines

A claimant false this awen is found
Born of hell’s furnace underground
Such a focus on an unmediated source was picked up by the eighteenth century Unitarian Iolo Morgannwg (Edward Williams, 1747-1826) who was able to invent the awen symbol /|\, suggesting that it was an ancient druidic sign of “the ineffable name of God, being the rays of the rising sun at the equinoxes and solstices, conveying into focus the eye of light”.
Giraldus Cambrensis referred to those inspired by the awen as "awenyddion" in his Description of Wales (1194):
THERE are certain persons in Cambria, whom you will find nowhere else, called Awenyddion, or people inspired; when consulted upon any doubtful event, they roar out violently, are rendered beside themselves, and become, as it were, possessed by a spirit. They do not deliver the answer to what is required in a connected manner; but the person who skilfully observes them, will find, after many preambles, and many nugatory and incoherent, though ornamented speeches, the desired explanation conveyed in some turn of a word: they are then roused from their ecstasy, as from a deep sleep, and, as it were, by violence compelled to return to their proper senses. After having answered the questions, they do not recover till violently shaken by other people; nor can they remember the replies they have given. If consulted a second or third time upon the same point, they will make use of expressions totally different; perhaps they speak by the means of fanatic and ignorant spirits. These gifts are usually conferred upon them in dreams: some seem to have sweet milk or honey poured on their lips; others fancy that a written schedule is applied to their mouths and on awaking they publicly declare that they have received this gift.
(Chapter XVI: Concerning the soothsayers of this nation, and persons as it were possessed) 

In 1694, the Welsh poet Henry Vaughan wrote to his cousin, the antiquary John Aubrey, in response to a request for some information about the remnants of Druidry in existence in Wales at that time, saying
 the antient Bards … communicated nothing of their knowledge, butt by way of tradition: which I suppose to be the reason that we have no account left nor any sort of remains, or other monuments of their learning of way of living. As to the later Bards, you shall have a most curious Account of them. 

This vein of poetrie they called Awen, which in their language signifies rapture, or a poetic furore & (in truth) as many of them as I have conversed with are (as I may say) gifted or inspired with it. I was told by a very sober, knowing person (now dead) that in his time, there was a young lad fatherless & motherless, soe very poor that he was forced to beg; butt att last was taken up by a rich man, that kept a great stock of sheep upon the mountains not far from the place where I now dwell who cloathed him & sent him into the mountains to keep his sheep. There in Summer time following the sheep & looking to their lambs, he fell into a deep sleep in which he dreamt, that he saw a beautiful young man with a garland of green leafs upon his head, & an hawk upon his fist: with a quiver full of Arrows att his back, coming towards him (whistling several measures or tunes all the way) att last lett the

hawk fly att him, which (he dreamt) gott into his mouth & inward parts, & suddenly awaked in a great fear & consternation: butt possessed with such a vein, or gift of poetrie, that he left the sheep & went about the Countrey, making songs upon all occasions, and came to be the most famous Bard in all the Countrey in his time.

— Henry Vaughan, in a letter to John Aubrey, October 1694
Modern Druidic symbol

Awen of Iolo Morganwg.
In some forms of modern Druidism, the term is symbolized by an emblem showing three straight lines that spread apart as they move downward, drawn within a circle or a series of circles of varying thickness, often with a dot, or point, atop each line. The British Druid Order attributes the symbol to Iolo Morganwg; it has been adopted by some Neo-Druids.

According to Jan Morris, Iolo Morganwg did in fact create what is now called "The Awen" as a symbol for the Gorsedd Cymru, the secret society of Welsh poets, writers, and musicians that he claimed to have rediscovered, but in fact created himself. Morganwg, whose own beliefs were, according to Marcus Tanner, beliefs were,
 "a compound of Christianity and Druidism, Philosophy and Mysticism", explained the Awen symbol as follows, "And God vocalizing His Name said /|\, and with the Word all the world sprang into being, singing in ecstasy of joy /|\ and repeating the name of the Deity."

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The Order of Bards, Ovates and Druids (OBOD) describe the three lines as rays emanating from three points of light, with those points representing the triple aspect of deity and, also, the points at which the sun rises on the equinoxes and solstices – known as the Triad of the Sunrises. The emblem as used by the OBOD is surrounded by three circles representing the three circles of creation.

Various modern Druidic groups and individuals have their own interpretation of the awen.              The three lines relate to earth, sea and air; body, mind and spirit; or love, wisdom and truth*.  It is also said that the awen stands for not simply inspiration, but for inspiration of truth; without awen one cannot proclaim truth. The three foundations of awen are the understanding of truth, the love of truth, and the maintaining of truth.
A version of the awen was approved by the United States Department of Veterans Affairs in early 2017 as an emblem for veteran headstones.
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References सन्दर्भ-

[1]
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[5]
Haycock, Marged (ed) Legendary Poems from The Book of Taliesin (Aberystwyth, 2007)
[6]
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[7]
Haycock, Marged (ed)Prophecies from The Book of Taliesin (Aberystwyth, 2013)
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Ceri W Lewis ‘Iolo Morgannwg and Strict Metre Poetry’ in A Rattleskull Genius ed. Geraint H Jenkins (Cardiff, 2005)
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Gerald of Wales Description of Wales and the Journey Through Wales trans Lewis Thorpe, Penguin, various editions
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Jan Morris (1984), The Matter of Wales: Epic Views of a Small Country, Oxford University Press. Page 155.
[20]
Marcus Tanner (2004), The Last of the Celts, Yale University Press. Page 191.
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[23]
J. Williams Ab Ithel, Ed. "The Barddas of Iolo Morganwg, Vol. I"
[24]
Terrence P. Hunt, "Druid symbol approved for use on veteran headstones", The Wild Hunt, January 24, 2017
Kenneth Jackson, Tradition in Early Irish Prophecy, Man, Vol. 34, (May 1934), pp. 67–70.
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Ave-Latin greeting, meaning "hail" or "be well" This article is about the Roman salutation. For the Spanish high speed rail network, 
Ave is a Latin word, used by the Romans as a salutation and greeting, meaning 'hailthy'. 

It is the singular imperative form of the verb avēre, which meant 'to be well';
 thus one could translate it literally as 'be well' or 'farewell'.
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"HAVE" Mosaic outside the House of the Faun, Pompeii, reflecting the less formal variant of ave.
Etymology
"Ave" is likely borrowed with an unspelled /h/ from Punic *ḥawe (“live , 2sg. imp.), cognate to Hebrew חוה‎ (“Eve”) and as (avō) from Punic *ḥawū (2pl. imp.), from Semitic root ḥ-w-y (live).
The form might have been contaminated by "avē", the second-person singular present imperative of avēre (first-person aveō), meaning to be well/to fare well. Indeed, its long vowel also ended up short via iambic shortening; this would explain the reluctance to spell the aspirate, as well as its interpretation as a verb form. Attested since Plautus.
Use-
The Classical Latin pronunciation of ave is [ˈaweː]. As far back as the first century AD, the greeting in popular use had the form have (pronounced [ˈhawɛ] or perhaps [ˈhaβ‌ɛ]), with the aspirated initial syllable and the second syllable shortened, for which the most explicit description has been given by Quintilian in his Institutio Oratoria.
While have would be informal in part because it has the non-etymological aspiration, centuries later, any and all aspiration would instead completely disappear from popular speech, becoming an artificial and learned feature.

Ave in Ecclesiastical Latin is [ˈave], and in English, it tends to be pronounced /ˈɑːveɪ/ AH-vay.

The term was notably used to greet .
the Caesar or other authorities. Suetonius recorded that on one occasion, naumachiarii—captives and criminals fated to die fighting during mock naval encounters—addressed Claudius Caesar with the words "Ave Caesar! Morituri te salutant!" ('Hail स्वास्थ्य, Caesar! Those who are about to die salute you !') in an attempt to avoid death. 
The expression is not recorded as being used in Roman times on any other occasion.

The Vulgate version of the Annunciation translates the salute of the angel to Mary, Mother of Jesus as "ave, gratia plena" ('Hail, full of grace'). The phrase "Hail Mary" (Ave Maria) is a Catholic Marian prayer that has inspired authors of religious music.

Fascist regimes during the 20th century also adopted the greeting. It was also distinctly used during the National Socialist Third Reich in the indirect German translation, heil.
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Ave is not to be confused with Latin ave as the vocative singular of avus, अव्वुस- meaning grandfather/forebear, or ave as the ablative singular of (avis= meaning bird.
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एवेन "प्रेरणा" (और आमतौर पर काव्यात्मक प्रेरणा) के लिए एक वेल्श, कोर्निश और ब्रेटन शब्द है।
वेल्श पौराणिक कथाओं में, अवन- कवियों, या बार्डों (भाटों)की प्रेरणा है; या, इसके अवतार में, एवेन सामान्य रूप से रचनात्मक कलाकारों का प्रेरक विचार है।
प्रेरित व्यक्ति (अक्सर एक कवि या भविष्यवक्ता) को एक अजीब व्यक्ति के रूप में वर्णित किया जाता है।

नियो-ड्र्यूड्स एवेन को "प्रवाहित ऊर्जा" या "जीवन के सार के साथ बहने वाली शक्ति" के रूप में परिभाषित करते हैं।
वर्तमान उपयोग में, अवेन को कभी-कभी संगीतकारों और कवियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है।
यह महिला के नाम के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। यह वेल्स के राष्ट्रीय गान (हेन व्लाद फे न्हादाऊ) के तीसरे पद में प्रकट होता है।

( शब्द व्युत्पत्ति)-
एवेन इंडो-यूरोपीय हिब्रू मूल का शब्द है। * ओ Awe- (अव्) धातु से निकला है जिसका अर्थ है 'लाइव',  जीवन धारण करना- और इसका वही मूल शब्द है जो एवेल शब्द का अर्थ है 'साँस लेना', और वेल्श में कोर्निश में 'हवा' या गेल- 'आंधी' का वाचक है।

ऐतिहासिक प्रमाण-
इस शब्द का पहला रिकॉर्ड सत्यापन किया गया  नेनियस के हिस्टोरिया ब्रिटोनम में ,जो 796 ईस्वी सदी का एक लैटिन पाठ है।
यह वेल्श भिक्षु, गिल्डस द्वारा पहले के लेखन पर आधारित है। यह 'ट्यूनिक तालहेर्न टैट( एगुएन) इन पोमेटेट क्लैरट' (म्यूज के पिता तल्हार्न तब कविता में प्रसिद्ध थे) इस वाक्यांश में होता है, जहां छठी शताब्दी के कवियों का वर्णन करने वाले लैटिन पाठ में ओल्ड वेल्श शब्द एगुएन (एवेन) ही होता है।

यह अपने वर्तमान रूप में (कैनू लिलीवार्च हेन) (9 वीं या 10 वीं शताब्दी ?) में भी दर्ज किया गया है, जहां लिलीवार्च कहते हैं, 'मैं अपने अवेन द्वारा जानता हूं' इसे वह  सहज ज्ञान के स्रोत के रूप में इंगित करता है।
काव्यात्मक प्रेरणा के रूप में और परमात्मा से प्रेरणा के रूप में एवेन के बीच संबंधों पर, "द बुक ऑफ टैलिएसिन "का अर्थ अक्सर यही होता है।  उसका एक विशेष रूप से आकर्षक उदाहरण इन पंक्तियों में निहित है:
* पान पान पीर करता है
ऑगिरवेन एवेन टीयर*
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-शाब्दिक रूप से "प्रेरणा के तीन तत्व जो आए, शानदार, कड़ाही से बाहर" लेकिन निहित रूप से "जो भगवान से आया" 'पीर' (कौलड्रॉन) के रूप में 'ईश्वर' के अर्थ के साथ अक्सर 'संप्रभु' का अर्थ भी हो सकता है।
____
यह "तीन तत्व" है जिसे चतुराई से यहां क्रियान्वित किया गया है क्योंकि एवेन को कभी-कभी तीन उप-विभाजनों (* 'ओगिरवेन') के रूप में वर्णित किया गया था, इसलिए एवेन= "त्रिकोणीय प्रेरणा (ओग्यर्वेन)का , शायद ट्रिनिटी का सुझाव दे रहा है।
एवेन शब्द (द बुक ऑफ टैलिएसिन) के साथ-साथ कई समकक्ष शब्दों या वाक्यांशों में पन्द्रह घटनाएं में  हैं, जैसे कि ऑगिरवेन, जो कि एवेन के विभाजन के रूप में दोनों का उपयोग किया जाता है ('सात स्कोर ओग्रिवेन जो एवेन में हैं, ऐनवफन में आकार दिया गया है) ') साथ ही (awen) के लिए एक वैकल्पिक शब्द है।

आर्म्स प्राइडेन (ब्रिटेन की भविष्यवाणियां) कविता 'एवेन भविष्यवाणी करता है ...' वाक्यांश के साथ शुरू होती है और इसे बाद में कविता में दोहराया जाता है।
12 वीं शताब्दी में( जेराल्ड ऑफ वेल्स) द्वारा दिए गए अवेनीडियन के विवरण में काव्यात्मक प्रेरणा और अटकल के बीच की कड़ी निहित है और बर्दिक अभिव्यक्ति और भविष्यवाणी के बीच की कड़ी  तथा वेल्स और अन्य जगहों में बहुत प्रारंभिक कविता की एक सामान्य विशेषता है।

(द ब्लैक बुक ऑफ कार्मार्थन) में एक कविता अज्ञात बार्ड (भाटों) द्वारा लिखी गई है, लेकिन कुहेलिन फर्ड (1100-1130) को संबोधित करते हुए भगवान से जागृति को प्रवाहित करने की अनुमति देने के लिए कहा जाता है।  ताकि 'सेरिडवेन से प्रेरित गीत विविध और अच्छी तरह से तैयार की गई कविता को आकार दे सके'। यह लगभग 1100-1300 के बीच वेल्श राजकुमारों के पहचाने गए चारणों से बहुत कविता का अनुमान लगाता है जो सेरिडवेन के काल्ड्रॉन में एवेन के स्रोत के साथ सेल्टिक चर्च के प्रतिस्पर्धी दावों को तोड़ता है।

बाद में मध्य युग में एवेन के स्रोत की पहचान सेरिडेवेन से अधिक रूढ़िवादी ईसाई स्रोतों जैसे कि वर्जिन मैरी, संतों या सीधे भगवान से स्थानांतरित होने लगती है।
विद्वान- (वाई च्वाएर बोस्को" द्वारा अवेन वाई सिनफीर्ड ए'आर गोगिनफीर्ड) में एक पूर्ण चर्चा पाई जा सकती है। बाद के मध्य युग के बार्डिक व्याकरण( 'द होली स्पिरिट') की पहचान जागरण के उचित स्रोत के रूप में करते हैं। 
15 वीं शताब्दी के (बार्ड सायन सेंट) ने तर्क दिया कि ईश्वर ही एकमात्र स्रोत है और उन चारणों के "झूठ बोलने वाले अवेन" को खारिज कर दिया, जो अन्यथा अपनी खारिज करने वाली पंक्तियों के रूप में सोचते थे।
एक दावेदार झूठा यह अवेन पाया जाता है
भूमिगत नरक की भट्टी से पैदा हुआ एक गैर-मध्यस्थ स्रोत पर इस तरह का ध्यान अठारहवीं शताब्दी के यूनिटेरियन इओलो मॉर्गनवग (एडवर्ड विलियम्स, 1747-1826) द्वारा उठाया गया था।

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 जो एवेन प्रतीक /|\ का आविष्कार करने में सक्षम थे। वे यह सुझाव देते हुए कि यह "अवर्णनीय नाम" का एक प्राचीन भगवान का ड्र्यूडिक संकेत था। उगते सूरज की किरणें होने के नाते विषुव और संक्रांति पर, ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रकाश की आंख ।
जिराल्डस कैंब्रेन्सिस ने अपने  "एकाउण्ट ऑफ (वेल्स वेल्स का विवरण) (1194) में एवेन से प्रेरित लोगों को "एवेनीडियन" के रूप में संदर्भित किया:
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कैम्ब्रिया में कुछ ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें आप कहीं और नहीं पाएंगे, जिन्हें अवेनेडियॉन अथवा  प्रेरित लोग; ​कहा जाता है। जब किसी भी संदिग्ध घटना के बारे में उनसे सलाह ली जाती है, तो वे हिंसक रूप से दहाड़ते हैं, खुद से अलग हो जाते हैं, और मानो किसी आत्मा के वश में हो जाते हैं। वे संबंधित तरीके से जो आवश्यक है उसका उत्तर नहीं देते हैं; लेकिन जो व्यक्ति कुशलता से उनका निरीक्षण करता है, वह कई प्रस्तावनाओं के बाद, और कई बेकार और असंगत, अलंकृत भाषणों के बाद, एक शब्द के किसी मोड़ में व्यक्त की गई वांछित व्याख्या को सही  पाएगा: वे तब से जगे हुए हैं उनका परमानंद, एक गहरी नींद के रूप में, और, जैसा कि हिंसा से उनके उचित होश में लौटने के लिए मजबूर किया गया था। सवालों के जवाब देने के बाद, वे तब तक नहीं उबरते जब तक कि अन्य लोग उन्हें हिंसक रूप से हिला न दें; न ही वे अपने द्वारा दिए गए उत्तरों को याद रख सकते हैं। यदि एक ही बिंदु पर दूसरी या तीसरी बार परामर्श किया जाता है, तो वे पूरी तरह से भिन्न भावों का उपयोग करेंगे; शायद वे कट्टर और अज्ञानी आत्माओं के माध्यम से बोलते हैं। ये उपहार आमतौर पर उन्हें सपनों में दिए जाते हैं:।
 कुछ लोगों को लगता है कि उनके होठों पर मीठा दूध या शहद डाला गया है; दूसरों को लगता है कि उनके मुंह पर एक लिखित अनुसूची लागू की जाती है और जागने पर वे सार्वजनिक रूप से घोषणा करते हैं कि उन्हें यह उपहार ईश्वर से  मिला है।
(अध्याय XVI: इस राष्ट्र के ज्योतिषियों और व्यक्तियों के बारे में जैसा कि यह था)
1694 में, वेल्श कवि 'हेनरी वॉन' ने अपने चचेरे भाई, पुरातनपंथी जॉन ऑब्रे को उस समय वेल्स में मौजूद ड्रुइड्री के अवशेषों के बारे में यह कहते हुए  कुछ जानकारी के अनुरोध के जवाब में लिखा था, "प्राचीन भाटों ने अपने ज्ञान के बारे में कुछ भी नहीं बताया, लेकिन परम्परा के माध्यम से: जो मुझे लगता है कि इसका कारण है यह ह्  हमारे पास कोई विवरण नहीं बचा है और न ही किसी प्रकार के अवशेष, या उनके जीने के तरीके के अन्य स्मारक ही हैं। जहां तक ​​बाद के चारणों का संबंध है, आपके पास उनका सबसे दिलचस्प लेखा-जोखा होगा।
कविता की इस नस को उन्होंने अवेन कहा, जो उनकी भाषा में उत्साह का प्रतीक है।
या एक काव्यात्मक उपद्रव और (सच में) उनमें से कई के साथ मैंने बातचीत की है (जैसा कि मैं कह सकता हूं) उपहार या इससे प्रेरित हैं। मुझे एक बहुत ही शांत, जानकार व्यक्ति (अब मृत) द्वारा बताया गया था कि उनके समय में, एक युवा बालक पिताहीन और मातृहीन था, इतना गरीब था कि उसे भीख माँगने के लिए मजबूर होना पड़ा; लेकिन आखिर में एक अमीर आदमी ने ले लिया, जिसने पहाड़ों पर भेड़ों का एक बड़ा झुंड रखा था, जहां मैं अब रहता हूंउसे कपड़े पहनाए और अपनी भेड़-बकरियाँ रखने के लिए पहाड़ों पर भेज दिया।वहाँ गर्मियों के समय में भेड़ों का पीछा करते हुए और उनके मेमनों को देखते हुए, वह एक गहरी नींद में गिर गया जिसमें उसने सपना देखा, कि उसने एक सुंदर युवक को उसके सिर पर हरी पत्तियों की माला और उसकी मुट्ठी पर एक बाज देखा: तीरों से भरा तरकश उसकी पीठ पर आ रहा है, उसकी ओर आ रहा है (कई सीटी बजा रहा हैउपाय या धुन सभी तरह से) अंत में बाज को उस पर उड़ने दें, जो (उसने सपना देखा) उसके मुंह और अंदरूनी हिस्सों में घुस गया, और अचानक एक बड़े भय और घबराहट में जाग गया: बट ऐसी नस, या कविता के उपहार के साथ , कि वह भेड़ों को छोड़कर देश में फिरने लगा, और सब पर गीत गाने लगाअवसर, और अपने समय में सभी देशों में सबसे प्रसिद्ध बार्ड बन गए।— हेनरी वॉन, जॉन ऑब्रे को लिखे एक पत्र में, अक्टूबर 1694
आधुनिक ड्र्यूडिज़्म के कुछ रूपों में, शब्द को तीन सीधी रेखाओं को दर्शाने वाले प्रतीक द्वारा दर्शाया गया है।, जो नीचे की ओर बढ़ने पर अलग-अलग फैलती हैं, एक वृत्त के भीतर खींची जाती हैं या अलग-अलग मोटाई के घेरे की एक श्रृंखला होती है, अक्सर एक बिंदु या बिंदु के साथ, प्रत्येक रेखा के ऊपर .
 ब्रिटिश ड्र्यूड ऑर्डर प्रतीक को इओलो मॉर्गनग को श्रेय देता है; इसे कुछ नियो-ड्र्यूड्स द्वारा अपनाया गया है।




यद्यपि पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण के सन्दर्भों में जो माहेश्वर सूत्र की रचना की गयी है वह अभी भी संशोधन की अपेक्षा रखता है ।
"और इन सूत्रों में  अभी और संशोधन- अपेक्षित है। यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर ( संयुक्त स्वर)  ए,ऐ,ओ,औ का समावेश कदापि नहीं होता !
तथा अन्त:स्थ वर्ण ( य,व,र,ल ) भी न होते ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं। जिनकी कोई मौलिक व्युत्पत्ति नहींव है:-
जो क्रमश: (इ+अ=य) (उ+अ=व) (ऋ+अ=र)
(ऌ+अ= ल) इसके अतिरिक्त  "" महाप्राण भी ह्रस्व "" का घर्षित गत्यात्मक रूप है ;दौनों कण्ठ से उच्चारित हैं ।
यदि "अ" ह्रस्व स्वर स्पन्दन (धड़कन) है तो "ह" श्वाँस है। समग्र वर्णमाला में अनिवार्य भूमिका है ।
केवल वर्ग के प्रथम  वर्ण  ( कचटतप) ही सघोष अथवा नादित होकर तृतीय रूप में उद्भासित होते हैं । अन्यथा 👇
प्रथम चरण :–
(क्+ह्=ख्) 
(च्+ह् =छ्) 
(ट्+ह्=ठ्)
(त्+ह्=थ्) 
(प्+ह्=फ्) ।
________
द्वित्तीय -चरण:–
♪(क् + नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ग्  )
♪( च्+ नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ज् )
♪(ट्+नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ठ् )
♪( त्+ नाद युक्त निम्न वाही घर्षण =द् )
♪(प् +नाद युक्त निम्न वाही घर्षण =ब् )
_________
तृतीय -चरण:–
(ग्+ह्=घ्) 
(ज्+ह् =झ्) 
(ड्+ह्=ढ्)
(द्+ह्=ध्) 
(ब्+ह्=भ्) ।
और इन स्पर्श - व्यञ्जनों में जो प्रत्येक वर्ग का अनुनासिक वर्ण ( ञ ङ ण न म  ) है
वह वस्तुत: केवल अनुस्वार का अथवा "म"/ "न"
का स्व- वर्गीय रूप है ।
यहाँ केवल "न" का रूपान्तरण है ।
जब यही "न" मूर्धन्य हुआ तो लृ के रूप में स्वर बन गया👇👆यद्यपि "ऋ" तथा "ऌ" स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है ।
(न=ल=र) तीनों वर्णों का विकास "अ" वर्ण का पार्श्वविक आलोडित रूप है जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।
अंग्रेजी में सभी अनुनासिक वर्ण (An) से अनुवादित हैं । अत: स्पर्श व्यञ्जन वर्णों में
क, च ,ट ,त, प, न, ही मूल वर्ण हैं ।
ऊष्म वर्णों में केवल  "स" वर्ण मूल है ।
"ष" और "श" वर्ण तो सकार के क्रमश टवर्गीय और च वर्गीय होने पर बनते हैं ।
अंग्रेजी में अथवा यूरोपीय भाषाओं में तवर्ग का शीत जलवायु के प्रभाव से अभाव है ।
अत: अंग्रेजी में केवल शकार (श)और षकार (ष)
क्रमश "Sh"  और "Sa" का नादानुवाद होंगे।
तवर्ग के न होने से सकार (स) उष्म वर्ण उच्चारित नहीं होगा ।
अब आगे के चरणों में संयुक्त व्यञ्जन वर्णों की व्युत्पत्ति का विवरण है ।👇
सर्वप्रथम पाणिनीय माहेश्वर सूत्रों का विवरण प्रस्तुत कहते हैं ।________
पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ; जो निम्नलिखित हैं: 👇 
१. अइउण्।  २. ॠॡक्।  ३. एओङ्। ४ . ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।  ८.  झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्।  ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।
स्वर वर्ण:–अ इ उ ॠ ॡ एओ ऐ औ य व र ल  ।
अनुनासिक वर्ण:– ञ ङ ण न म।
वर्ग के चतुर्थ वर्ण :- झ भ घ ढ ध  ।
वर्ग के तृतीय वर्ण:–ज ब ग ड द ।
वर्ग के द्वित्तीय वर्ण:- ख फ छ ठ थ ।
वर्ग के प्रथम वर्ण :- च ट त क प ।
अन्त में ऊष्म वर्ण :- श, ष, स ,
महाप्राण  वर्ण :-"ह"
 उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है।
फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं। माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र व्यंजन वर्णों की गणना की गयी है। संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।
प्रत्याहार की अवधारणा :- प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।
अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है। उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।

यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है।
अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क् च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है। इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है |
अर्थात् इनका प्रयोग नहीं होता है। _______
अ इ उ ऋ लृ मूल स्वर हैं परन्तु
अ ही मूल स्वर है यही जब ऊर्ध्व गामी रूप में "उ" होता है तो अधो गामी रूप में "इ" होता है ।
ऋ और ऌ वर्णों के विषय में  हम पहले विश्लेषण कर चुके हैं ।
केवल " अ" स्वर से ही सभी स्वरों का प्रस्फुटन हुआ है ।
परन्तु ए ,ओ ,ऐ,औ ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ है ।
माहेश्वर सूत्रों में समायोजित करने की इनकी कोई आवश्यकता नहीं ।
जैसे क्रमश:(अ+ इ = ए )तथा (अ + उ =ओ )
संयुक्त स्वरों के रूप में गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं ।
अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇
। अ इ उ । और ये परवर्ती इ तथा उ स्वर भी केवल अ स्वर के उदात्त( ऊर्ध्वगामी ) उ । तथा (अधो गामी) इ । के रूप में हैं ।
ऋ तथा ऌ स्वर नहीं होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है । जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।
इनका विकास भी अनुनासिक "न" वर्ण से हुआ है।
अब "ह" वर्ण महाप्राण है । जिसका उच्चारण स्थान काकल है ।
यह भी "अ" का घर्षित गत्यात्मक
काकलीय रूप है ।
तीन स्वर:- अ + इ+ उ ।
छ: व्यञ्जन :-क च ट त प न ।
एक ऊष्म :- स ।
पार्श्वविक तथा आलोडित स्वर वर्ण लृ  ऋ।
ये पार्श्वविक तथा आलोडित वर्ण "न" अनुनासिक के क्रमश वर्त्स्य  और मूर्धन्य रूप है ।
मूल वर्ण तो आठ ही हैं ।
👉👆👇परन्तु पाणिनीय मान्यताओं के विश्लेषण स्वरूप  मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं ।
परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी वर्णों की रचना दर्शायी है ।
२२ अच् ( स्वर) :– अ आ आ३, इ ई ई३, उऊऊ३,
ए ए३, ऐ ऐ३, ओ ओ३ ,औ औ३,  ऋ ऋृ ऋृ३, ऌ ऌ३।
२५ हल् ( व्यञ्जन) :- कवर्ग चवर्ग टवर्ग तवर्ग पवर्ग।
४ अन्त:स्थ ( Interior / Semi Vowel):-
(य र ल व) ।
३ ऊष्म वर्ण :– श , ष , स ।
१ महाप्राण :- "ह"
१ दु: स्पृष्ट वर्ण है :- ळ ।
इस प्रकार हलों की संख्या ३४ है ।
अयोगवाह का पाणिनीय अक्षरसमाम्नाय में कहीं वर्णन नहीं है.
जिनमें चार तो शुद्ध अयोगवाह हैं ।
(अनुस्वार ां , ) (विसर्ग ा: )  (जिह्वया मूलीय ≈क) (उपध्मानीय ≈प )
चार यम संज्ञक :- क्क्न, ख्ख्न ,ग्ग्न,घ्घ्न।
इस प्रकार 22
+34+8+= 63 ।
परन्तु तीन स्वर :– १-उदात्त २-अनुदात्त तथा ३-स्वरित
के सहित पच्चीस हैं ।
पच्चीस स्वर ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )
तो इस प्रकार से स्वरों के 110 रूप हो जाते हैं।22×5
________
इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।
क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25 _______
और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन कवर्ग ।चवर्ग ।टवर्ग ।तवर्ग । पवर्ग। = 25।
तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ ई ऊ ऋृ लृ ) (ए ऐ ओ औ ) ( य व र ल) ( चन्द्रविन्दु ँ ) अनुस्वार तथा विसर्ग।
अनुसासिक के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।
पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा वर्णा शम्भुमते मता: ।
स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है।
अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं।
वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇 ________
1. कम्पक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं।
2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :
(क.) नासा ग्रसनी (nasopharynx),

(ख.) ग्रसनी (pharynx),
(ग.) मुख (mouth),
(घ.) स्वरयंत्र (larynx),
(च.) श्वासनली और श्वसनी (trachea and bronchus)
(छ. )फुफ्फुस (फैंफड़ा )(lungs),
(ज.) वक्षगुहा (thoracic cavity)।
3. स्पष्ट उच्चारक (articulators)अवयव :- इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :
क. जिह्वा (tongue),
ख. दाँत (teeth),
ग. ओठ (lips),
घ. कोमल तालु (soft palate),
च. कठोर तालु (मूर्धा )(hard palate)। __________
दार्शनिक सिन्द्धान्तों के अनुसार 👇
♪ स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं :
जीवात्मा द्वारा प्रेरित वायु फुफ्फुस से नि:सृत होकर जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है।
तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयन्त्र तक पहुंचती है,
जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कम्पित होने लगती हैं,
जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है।
ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयन्त्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं।
इसके उपरान्त उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपान्तरण उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दन्त तथा ओष्ठ आदि अवयव करते हैं।
इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।
स्वरयंत्र--- अवटु (thyroid) उपास्थि वलथ (Cricoid) उपास्थि स्वर रज्जुऐं ये संख्या में चार होती हैं ; जो स्वरयन्त्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं।
यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थिति स्थापक रेशे भी होते हैं।
देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है।
इसमें ऊपर की दोनों तन्त्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं।
इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कण्ठ-द्वार (glottis) कहते हैं।
इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बन्द होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है।
स्वर की उत्पत्ति में स्वररज्जुओं की गतियाँ (movements)-- श्वसन काल में रज्जुद्वार खुला रहता है और चौड़ा तथा त्रिकोणकार होता है।
श्वाँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा (विस्तृत) तथा श्वाँस छोड़ने में कुछ संकीर्ण (संकुचित) हो जाता है।
बोलते समय रज्जुएँ आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं ;और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है।
जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वारा उतना ही संकीर्ण हो जाता है। 
स्वरयन्त्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लंबाई बढ़ती है ; जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है। स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं।
इसी लिए पुरुषों का स्वर मन्द्र सप्तक पर आधारित है और स्त्रियों का स्वर तार सप्तक पर आधारित है। 
स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त -- उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है।
यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन आ जाता है।
ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है ।
स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है :👇 _______ 
1. प्रबलता (loudness) - यह कम्पन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है।
2. तारत्व (Pitch) - यह कम्पन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है।
3. गुणता (Quality) - यह गुञ्जनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है;
और कम्पन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर करता है।
"अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" महाप्राण वर्ण का उच्चारण श्रोत समान है ।
कण्ठ तथा काकल ।________
नि: सन्देह काकल कण्ठ का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं।
जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है ।
अकुह विसर्जनीयीनांकण्ठा ।
अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•)
तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । 👇
अ-<हहहहह... ।
अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।
अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।_______य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।
क्यों कि अन्त: का अर्थ  मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ स्थित रहने वाला ।ये अन्त:स्थ वर्ण क्रमश: गुण सन्ध्याक्षर या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 👇

जैसे :-  इ+अ = य ।  अ+इ =ए ।      उ+अ = व। अ+उ= ओ।    ________  ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। स्पर्श व्यञ्जनों सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते  हैं । ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्।    
उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार क प्रतिनिधित्व करते हैं ।
जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।
यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है।
टवर्ग के साथ मूर्धन्य ष उष्म वर्ण है ।
तथा तवर्ग के साथ दन्त्य स उष्म वर्ण है । _______👇 यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है वहाँ तवर्ग का अभाव है ।
अतः त थ द ध  तथा स वर्णो को नहीं लिख सकते हैं । क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है ।और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है । अतः "श्" वर्ण  के लिए  Sh तथा "ष्" वर्ण के  S वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं ।
तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही  हैं ।  
१४. हल्। तथा पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है । इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप हैं । मौलिक रूप में केवल 28 वर्ण हैं । जो ध्वनि के मुल रूप के द्योतक हैं । ________
1. बाह्योष्ठ्य (exo-labial)
2. अन्तःओष्ठ्य (endo-labial)
3. दन्त्य  (dental)
4. वर्त्स्य  (alveolar)
5.  पश्च वर्त्स्य (post-alveolar)
6. प्रतालव्य( prä-palatal )
7. तालव्य (palatal)
8. मृदुतालव्य (velar)
9. अलिजिह्वीय (uvular)
10.ग्रसनी से (pharyngal)
11.श्वासद्वारीय (glottal)
12.उपजिह्वीय (epiglottal)
13.जिह्वामूलीय (Radical)
14.पश्चपृष्ठीय (postero-dorsal)
15.अग्रपृष्ठीय (antero-dorsal)
16.जिह्वापाग्रीय (laminal)
17.जिह्वाग्रीय (apical)
18.उप जिह्विय( sub-laminal) ________
स्वनविज्ञान के सन्दर्भ में,
 मुख गुहा के उन 'लगभग अचल' स्थानों को उच्चारण बिन्दु (articulation point या place of articulation) कहते हैं; जिनको 'चल वस्तुएँ' छूकर जब ध्वनि मार्ग में बाधा डालती हैं तो उन व्यंजनों का उच्चारण होता है।
उत्पन्न व्यञ्जन की विशिष्ट प्रकृति मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर करती है- उच्चारण स्थान, उच्चारण विधि और स्वनन (फोनेशन)।
मुख गुहा में 'अचल उच्चारक' मुख्यतः मुखगुहा की छत का कोई भाग होता है जबकि 'चल उच्चारक' मुख्यतः जिह्वा, नीचे वाला ओष्ठ (ओठ), तथा श्वाँस -द्वार (ग्लोटिस)आदि  हैं।
व्यञ्जन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण में वायु अबाध गति से न निकलकर मुख के किसी भाग:- (तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि) से या तो पूर्ण अवरुद्ध होकर आगे बढ़ती है या संकीर्ण मार्ग से घर्षण करते हुए या पार्श्व मार्ग से निकलती है ।
इस प्रकार वायु मार्ग में पूर्ण या अपूर्ण अवरोध उपस्थित होता है।
तब व्यञ्जन ध्वनियाँ प्रादुर्भूत ( उत्पन्न) होती हैं ।
हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण---- व्यञ्जनों का वर्गीकरण मुख्य रूप से स्थान और प्रयत्न के आधर पर किया जाता है।
व्यञ्जनों के उत्पन्न होने के स्थान से सम्बन्धित व्यञ्जन को आसानी से पहचाना जा सकता है।
इस दृष्टि से हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है- उच्चारण स्थान (ध्वनि वर्ग) उच्चरित ध्वनि--👇 द्वयोष्ठ्य:- ,प , फ, ब, भ, म दन्त्योष्ठ्य :-,फ़ दन्त्य :-,त, थ, द, ध वर्त्स्य :-न, स, ज़, र, ल, ळ मूर्धन्य :-ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र, ष कठोर :-तालव्य श, च, छ, ज, झ कोमल तालव्य :-क, ख, ग, घ, ञ, ख़, ग़ पश्च-कोमल-तालव्य:-  क़ वर्ण है।
स्वरयन्त्रामुखी:-. "ह" वर्ण है ।
"ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।
जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह"  वर्ण हैं।
"ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।
काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ ।
घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं।
शब्द कोशों में इसका अर्थ :-
१. काला कौआ ।
२. कंठ की मणि या गले की मणि ।
उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का  वर्गीकरण--👇
उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है- स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।

विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का उच्चारण करता है ।
क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ और क़ सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।
च, छ, ज, झ को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में रखा जाता है।
इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।
मौखिक व नासिक्य :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियां आती हैं।
हिन्दी में ङ, ञ, ण, न, म  व्यञ्जन नासिक्य हैं।
इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है।
इन्हें 'पञ्चमाक्षर' भी कहा जाता है।
और अनुनासिक भी  -- इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।
वस्तुत ये सभीे प्रत्येक वर्ग के  पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूप हैं ।
परन्तु सभी केवल अपने स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में आकर "न" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।
जैसे :-  कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- अड्•क, सड्•ख्या ,अड्•ग , लड्•घन ।
चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- कण्टक,  कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।
तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन,  अन्ध ।
पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- पम्प , गुम्फन , अम्बा, दम्भ । ________
इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं।
उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन :- उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें उष्म व्यञ्जन कहते है।
वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप  सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।
तवर्ग - त थ द ध न का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।
और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है। जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि-- इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण ये सभी सजातिय हैं।
जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि चवर्ग -च छ ज झ ञ का  तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं ।
जैसे- जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।
उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
ये भी चार व्यञ्जन होते है- श, ष, स, ह।
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1- पार्श्विक : इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से निकलती है।
'ल' ऐसी ही  पार्श्विक ध्वनि है। अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।
हिन्दी में य, व ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।
2-लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है।
हिन्दी में 'र' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।
3- उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें उत्क्षिप्त कहते हैं।
ड़ और ढ़ ऐसे ही व्यञ्जन हैं। जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।
घोष और अघोष वर्ण– व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।                        जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं। दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है। ________
घोष - अघोष ग, घ,   ङ,क, ख ज,झ,   ञ,च, छ ड, द,   ण, ड़, ढ़,ट, ठ द, ध,   न,त, थ ब, भ,   म, प, फ य,  र,   ल, व, ह ,श, ष, स ।
प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है।
प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु  जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।
पञ्चम् वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं। हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।

वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।
क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।
वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है । परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है ।
(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।________
भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को कहते हैं।
किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।
शब्दांश :- शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो  शब्द की ध्वनियाँ बदल जाती हैं।
उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक'।
यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से देखे जा सकते हैं।
लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है। अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं - 'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।
यह क्रिया उच्चारण बलाघात पर आधारित है ।कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')।
कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अंत-अर-राष-ट्रीय')।
एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है।
इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है। व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है। अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।
अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।
उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।
यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा।
इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।
जिसमें व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। अंग्रेजी भाषा में न, र, ल,  जैसे एन ,आर,एल, आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है। ________
ध्वनि उत्पत्ति- सिद्धान्त----- 👇
मानव एवं अन्य जन्तु ध्वनि को कैसे सुनते हैं?
ध्वनि तरंग कर्णपटल का स्पर्श करती है , कान का पर्दा, कान की वह मेकेनिज्म जो ध्वनि को संकेतों में बदल देती है।
श्रवण तंत्रिकाएँ,  (पर्पल): ध्वनि संकेत का आवृति स्पेक्ट्रम, तन्त्रिका में गया संकेत) ही शब्द है । भौतिक विज्ञान में - ध्वनि (Sound) एक प्रकार का कम्पन या विक्षोभ है जो किसी ठोस, द्रव या गैस से होकर सञ्चारित होती है।
किन्तु मुख्य रूप से उन कम्पनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान (Ear) से सुनायी पडती हैं।
ध्वनि की प्रमुख विशेषताएँ--- ध्वनि एक यान्त्रिक तरंग है न कि विद्युतचुम्बकीय तरंग। (प्रकाश विद्युतचुम्बकीय तरंग है।
ध्वनि के सञ्चरण के लिये माध्यम की जरूरत होती है। ठोस, द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि का सञ्चरण सम्भव है।
निर्वात में ध्वनि का सञ्चरण नहीं हो सकता।
द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि केवल अनुदैर्घ्य तरंग  (longitudenal wave) के रूप में चलती है जबकि ठोसों में यह अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave) के रूप में भी संचरण कर सकती है।
अनुदैर्घ्य तरंग:--- जिस माध्यम में ध्वनि का सञ्चरण होता है यदि उसके कण ध्वनि की गति की दिशा में ही कम्पन करते हैं तो उसे अनुदैर्घ्य तरंग कहते हैं!
अनुप्रस्थ तरंग:- जब माध्यम के कणों का कम्पन ध्वनि की गति की दिशा के लम्बवत होता है तो उसे अनुप्रस्थ तरंग कहते है।
सामान्य ताप व दाब (NTP) पर वायु में ध्वनि का वेग लगभग  343 मीटर प्रति सेकेण्ड होता है।
बहुत से वायुयान इससे भी तेज गति से चल सकते हैं उन्हें सुपरसॉनिक विमान कहा जाता है।
मानव कान लगभग २० हर्ट्स से लेकर २० किलोहर्टस (२०००० हर्ट्स) आवृत्ति की ध्वनि तरंगों को ही सुन सकता है।

बहुत से अन्य जन्तु इससे बहुत अधिक आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं।
जैसे चमकाधड़ एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने पर ध्वनि का परावर्तन एवं अपवर्तन होता है। माइक्रोफोन ध्वनि को विद्युत उर्जा में बदलता है; लाउडस्पीकर विद्युत उर्जा को ध्वनि उर्जा में बदलता है।
किसी भी तरंग (जैसे ध्वनि) के वेग, तरंगदैर्घ्य और आवृत्ति में निम्नलिखित संबन्ध होता है:-
{\displaystyle \lambda ={\frac {v}{f}}} जहाँ v तरंग का वेग, f आवृत्ति तथा : {\displaystyle \lambda } तरंगदर्ध्य है।
आवृत्ति के अनुसार वर्गीकर--- अपश्रव्य (Infrasonic) 20 Hz से कम आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं देती, श्रव्य (sonic) 20 Hz से 20 kHz, के बीच की आवृत्तियों वाली ध्वनि सामान्य मानव को सुनाई देती है।
पराश्रव्य (Ultrasonic) 20 kHz से 1,6 GHz के बीच की आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं पड़ती, अतिध्वनिक (Hypersonic) 1 GHz से अधिक आवृत्ति की ध्वनि किसी माध्यम में केवल आंशिक रूप से ही संचरित (प्रोपेगेट) हो पाती है।
ध्वनि और प्रकाश का सम्बन्ध शब्द और अर्थ के सामान्य या शरीर और आत्मा के समान जैविक सत्ता का आधार है ।
ध्वनि के विषय में दार्शनिक व ऐैतिहासिक मत -
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"सृष्टि के प्रारम्भ में ध्वनि का प्रादुर्भाव ओ३म् के रूप में हुआ ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति"----
एक वैश्विक विश्लेषण करते हैं ओ३म् की अवधारणा द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना है; वे नि: सन्देह फॉनिशियन जन-जाति के सहवर्ती अथवा सजातिय बन्धु रहे होंगे ।
क्यों दौनों का सांस्कृतिक समीकरण है।
द्रविड द्रव (पदार्थ ) अथवा जल तत्व का विद =वेत्ता ( जानकार) द्रव+विद= समाक्षर लोप (Haplology) के द्वारा निर्मित रूप द्रविद -द्रविड है !
ये बाल्टिक सागर के तटवर्ती -संस्कृतियों जैसे प्राचीन फ्रॉञ्च ( गॉल) की सैल्टिक (कैल्टिक) जन-जाति में  द्रूयूद (Druid) रूप में हैं ।
कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham) शब्द का दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था ! कि  उनका विश्वास था !
कि इस प्रकार (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है।
और उनका मान्यता भी थी.. प्राचीन भारतीय आर्य मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति (syllable prosperity) यथावत् रहती है इसके उच्चारण प्रभाव से ओघम् का मूर्त प्रारूप सूर्य के आकार के सादृश्य पर था।
जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं ... वास्तव में ओघम् (ogham से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है . जैसे सूर्य से प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा (ammon- ra) के रूप ने था ..जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है।
आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है।
सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में ओमन् शब्द आमीन के रूप में है ।
तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै ! जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है .. अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे ।दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे।
मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य हुए .. क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण है,  मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे।
इन्हीं से ईसाईयों में (Amen) तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन् ! (ऐसा ही हो ) होगया है इतना ही नहीं जर्मन आर्य ओ३म् का सम्बोधन (omi /ovin )या के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए सम्बोधित करते करते थे जो भारतीयों का बुध ज्ञान का देवता था! इसी बुधः का दूसरा सम्बोधन ouvin ऑविन् भी था यही (woden) अंग्रेजी में (Goden) बन गया था।
जिससे कालान्तर में गॉड(God )शब्द बना है जो फ़ारसी में ख़ुदा के रूप में प्रतिष्ठित हैं ! सीरिया की सुर संस्कृति में यह शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है ; वेदों में ओमान् शब्द बहुतायत से रक्षक ,के रूप में आया है । भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि शिव ( ओ३ म) ने ही पाणिनी को ध्वनि समाम्नाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की !


भाषा उत्पत्ति और सिद्धान्त-४--


जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ । पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के लोग थे ये यद्यपि पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण के सन्दर्भों में जो माहेश्वर सूत्र की रचना की गयी है वह अभी भी संशोधन की अपेक्षा रखता है ।
"और इन सूत्रों में  अभी और संशोधन- अपेक्षित है। यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर ( संयुक्त स्वर)  ए,ऐ,ओ,औ का समावेश कदापि नहीं होता !
तथा अन्त:स्थ वर्ण ( य,व,र,ल ) भी न होते ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं। जिनकी कोई मौलिक व्युत्पत्ति नहींव है:-
जो क्रमश: (इ+अ=य) (उ+अ=व) (ऋ+अ=र)
(ऌ+अ= ल) इसके अतिरिक्त  "" महाप्राण भी ह्रस्व "" का घर्षित गत्यात्मक रूप है ;दौनों कण्ठ से उच्चारित हैं ।
यदि "अ" ह्रस्व स्वर स्पन्दन (धड़कन) है तो "ह" श्वाँस है। समग्र वर्णमाला में अनिवार्य भूमिका है ।
केवल वर्ग के प्रथम  वर्ण  ( कचटतप) ही सघोष अथवा नादित होकर तृतीय रूप में उद्भासित होते हैं । अन्यथा 👇
प्रथम चरण :–
(क्+ह्=ख्) 
(च्+ह् =छ्) 
(ट्+ह्=ठ्)
(त्+ह्=थ्) 
(प्+ह्=फ्) ।
________
द्वित्तीय -चरण:–
♪(क् + नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ग्  )
♪( च्+ नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ज् )
♪(ट्+नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ठ् )
♪( त्+ नाद युक्त निम्न वाही घर्षण =द् )
♪(प् +नाद युक्त निम्न वाही घर्षण =ब् )
_________
तृतीय -चरण:–
(ग्+ह्=घ्) 
(ज्+ह् =झ्) 
(ड्+ह्=ढ्)
(द्+ह्=ध्) 
(ब्+ह्=भ्) ।
और इन स्पर्श - व्यञ्जनों में जो प्रत्येक वर्ग का अनुनासिक वर्ण ( ञ ङ ण न म  ) है
वह वस्तुत: केवल अनुस्वार का अथवा "म"/ "न"
का स्व- वर्गीय रूप है ।
यहाँ केवल "न" का रूपान्तरण है ।
जब यही "न" मूर्धन्य हुआ तो लृ के रूप में स्वर बन गया👇👆यद्यपि "ऋ" तथा "ऌ" स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है ।
(न=ल=र) तीनों वर्णों का विकास "अ" वर्ण का पार्श्वविक आलोडित रूप है जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।
अंग्रेजी में सभी अनुनासिक वर्ण (An) से अनुवादित हैं । अत: स्पर्श व्यञ्जन वर्णों में
क, च ,ट ,त, प, न, ही मूल वर्ण हैं ।
ऊष्म वर्णों में केवल  "स" वर्ण मूल है ।
"ष" और "श" वर्ण तो सकार के क्रमश टवर्गीय और च वर्गीय होने पर बनते हैं ।
अंग्रेजी में अथवा यूरोपीय भाषाओं में तवर्ग का शीत जलवायु के प्रभाव से अभाव है ।
अत: अंग्रेजी में केवल शकार (श)और षकार (ष)
क्रमश "Sh"  और "Sa" का नादानुवाद होंगे।
तवर्ग के न होने से सकार (स) उष्म वर्ण उच्चारित नहीं होगा ।
अब आगे के चरणों में संयुक्त व्यञ्जन वर्णों की व्युत्पत्ति का विवरण है ।👇
सर्वप्रथम पाणिनीय माहेश्वर सूत्रों का विवरण प्रस्तुत कहते हैं ।
________
पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ; जो निम्नलिखित हैं: 👇 
१. अइउण्।  २. ॠॡक्।  ३. एओङ्। ४ . ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।  ८.  झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्।  ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।
स्वर वर्ण:–अ इ उ ॠ ॡ एओ ऐ औ य व र ल  ।
अनुनासिक वर्ण:– ञ ङ ण न म।
वर्ग के चतुर्थ वर्ण :- झ भ घ ढ ध  ।
वर्ग के तृतीय वर्ण:–ज ब ग ड द ।
वर्ग के द्वित्तीय वर्ण:- ख फ छ ठ थ ।
वर्ग के प्रथम वर्ण :- च ट त क प ।
अन्त में ऊष्म वर्ण :- श, ष, स ,
महाप्राण  वर्ण :-"ह"
 उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है।
फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं। माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र व्यंजन वर्णों की गणना की गयी है। संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।
प्रत्याहार की अवधारणा :- प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।
अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है। उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।
यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है।
अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क् च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है। इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है |
अर्थात् इनका प्रयोग नहीं होता है। _______
अ इ उ ऋ लृ मूल स्वर हैं परन्तु
अ ही मूल स्वर है यही जब ऊर्ध्व गामी रूप में "उ" होता है तो अधो गामी रूप में "इ" होता है ।
ऋ और ऌ वर्णों के विषय में  हम पहले विश्लेषण कर चुके हैं ।
केवल " अ" स्वर से ही सभी स्वरों का प्रस्फुटन हुआ है ।
परन्तु ए ,ओ ,ऐ,औ ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ है ।
माहेश्वर सूत्रों में समायोजित करने की इनकी कोई आवश्यकता नहीं ।
जैसे क्रमश:(अ+ इ = ए )तथा (अ + उ =ओ )
संयुक्त स्वरों के रूप में गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं ।
अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇
। अ इ उ । और ये परवर्ती इ तथा उ स्वर भी केवल अ स्वर के उदात्त( ऊर्ध्वगामी ) उ । तथा (अधो गामी) इ । के रूप में हैं ।
ऋ तथा ऌ स्वर नहीं होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है । जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।
इनका विकास भी अनुनासिक "न" वर्ण से हुआ है।
अब "ह" वर्ण महाप्राण है । जिसका उच्चारण स्थान काकल है ।
यह भी "अ" का घर्षित गत्यात्मक
काकलीय रूप है ।
तीन स्वर:- अ + इ+ उ ।
छ: व्यञ्जन :-क च ट त प न ।
एक ऊष्म :- स ।
पार्श्वविक तथा आलोडित स्वर वर्ण लृ  ऋ।
ये पार्श्वविक तथा आलोडित वर्ण "न" अनुनासिक के क्रमश वर्त्स्य  और मूर्धन्य रूप है ।
मूल वर्ण तो आठ ही हैं ।
👉👆👇परन्तु पाणिनीय मान्यताओं के विश्लेषण स्वरूप  मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं ।
परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी वर्णों की रचना दर्शायी है ।
२२ अच् ( स्वर) :– अ आ आ३, इ ई ई३, उऊऊ३,
ए ए३, ऐ ऐ३, ओ ओ३ ,औ औ३,  ऋ ऋृ ऋृ३, ऌ ऌ३।
२५ हल् ( व्यञ्जन) :- कवर्ग चवर्ग टवर्ग तवर्ग पवर्ग।
४ अन्त:स्थ ( Interior / Semi Vowel):-
(य र ल व) ।
३ ऊष्म वर्ण :– श , ष , स ।
१ महाप्राण :- "ह"
१ दु: स्पृष्ट वर्ण है :- ळ ।
इस प्रकार हलों की संख्या ३४ है ।
अयोगवाह का पाणिनीय अक्षरसमाम्नाय में कहीं वर्णन नहीं है.
जिनमें चार तो शुद्ध अयोगवाह हैं ।
(अनुस्वार ां , ) (विसर्ग ा: )  (जिह्वया मूलीय ≈क) (उपध्मानीय ≈प )
चार यम संज्ञक :- क्क्न, ख्ख्न ,ग्ग्न,घ्घ्न।
इस प्रकार 22
+34+8+= 63 ।
परन्तु तीन स्वर :– १-उदात्त २-अनुदात्त तथा ३-स्वरित
के सहित पच्चीस हैं ।
पच्चीस स्वर ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )
तो इस प्रकार से स्वरों के 110 रूप हो जाते हैं।22×5
________
इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।
क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25 _______
और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन कवर्ग ।चवर्ग ।टवर्ग ।तवर्ग । पवर्ग। = 25।
तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ ई ऊ ऋृ लृ ) (ए ऐ ओ औ ) ( य व र ल) ( चन्द्रविन्दु ँ ) अनुस्वार तथा विसर्ग।
  अनुनासिक-  के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।
पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा वर्णा शम्भुमते मता: ।
स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है।
अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं।

वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇 ________
1. कम्पक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं।
2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :
(क.) नासा ग्रसनी (nasopharynx),
(ख.) ग्रसनी (pharynx),
(ग.) मुख (mouth),
(घ.) स्वरयंत्र (larynx),
(च.) श्वासनली और श्वसनी (trachea and bronchus)
(छ. )फुफ्फुस (फैंफड़ा )(lungs),
(ज.) वक्षगुहा (thoracic cavity)।
3. स्पष्ट उच्चारक (articulators)अवयव :- इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :
क. जिह्वा (tongue),
ख. दाँत (teeth),
ग. ओठ (lips),
घ. कोमल तालु (soft palate),
च. कठोर तालु (मूर्धा )(hard palate)। __________
दार्शनिक सिन्द्धान्तों के अनुसार 👇
♪ स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं :
जीवात्मा द्वारा प्रेरित वायु फुफ्फुस से नि:सृत होकर जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है।
तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयन्त्र तक पहुंचती है,
जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कम्पित होने लगती हैं,
जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है।
ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयन्त्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं।
इसके उपरान्त उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपान्तरण उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दन्त तथा ओष्ठ आदि अवयव करते हैं।
इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।
स्वरयंत्र--- अवटु (thyroid) उपास्थि वलथ (Cricoid) उपास्थि स्वर रज्जुऐं ये संख्या में चार होती हैं ; जो स्वरयन्त्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं।
यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थिति स्थापक रेशे भी होते हैं।
देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है।
इसमें ऊपर की दोनों तन्त्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं।
इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कण्ठ-द्वार (glottis) कहते हैं।
इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बन्द होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है।
स्वर की उत्पत्ति में स्वररज्जुओं की गतियाँ (movements)-- श्वसन काल में रज्जुद्वार खुला रहता है और चौड़ा तथा त्रिकोणकार होता है।
श्वाँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा (विस्तृत) तथा श्वाँस छोड़ने में कुछ संकीर्ण (संकुचित) हो जाता है।
बोलते समय रज्जुएँ आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं ;और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है।
जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वारा उतना ही संकीर्ण हो जाता है। 
स्वरयन्त्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लंबाई बढ़ती है ; जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है। स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं।
इसी लिए पुरुषों का स्वर मन्द्र सप्तक पर आधारित है और स्त्रियों का स्वर तार सप्तक पर आधारित है। 
स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त -- उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है।
यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन आ जाता है।
ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है ।
स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है :👇 _______ 
1. प्रबलता (loudness) - यह कम्पन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है।
2. तारत्व (Pitch) - यह कम्पन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है।
3. गुणता (Quality) - यह गुञ्जनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है;
और कम्पन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर करता है।
"अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" महाप्राण वर्ण का उच्चारण श्रोत समान है ।
कण्ठ तथा काकल ।________
नि: सन्देह काकल कण्ठ का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं।
जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है ।
अकुह विसर्जनीयीनांकण्ठा ।
अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•)
तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । 👇
अ-<हहहहह... ।

अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।
अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।_______य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।
क्यों कि अन्त: का अर्थ  मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ स्थित रहने वाला ।ये अन्त:स्थ वर्ण क्रमश: गुण सन्ध्याक्षर या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 👇
जैसे :-  इ+अ = य ।  अ+इ =ए ।      उ+अ = व। अ+उ= ओ।    ________  ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। स्पर्श व्यञ्जनों सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते  हैं । ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्।    
उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार क प्रतिनिधित्व करते हैं ।
जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।
यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है।
टवर्ग के साथ मूर्धन्य ष उष्म वर्ण है ।
तथा तवर्ग के साथ दन्त्य स उष्म वर्ण है । _______👇 यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है वहाँ तवर्ग का अभाव है ।
अतः त थ द ध  तथा स वर्णो को नहीं लिख सकते हैं । क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है ।और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है । अतः "श्" वर्ण  के लिए  Sh तथा "ष्" वर्ण के  S वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं ।
तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही  हैं ।  
१४. हल्। तथा पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है । इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप हैं । मौलिक रूप में केवल 28 वर्ण हैं । जो ध्वनि के मुल रूप के द्योतक हैं । ________
1. बाह्योष्ठ्य (exo-labial)
2. अन्तःओष्ठ्य (endo-labial)
3. दन्त्य  (dental)
4. वर्त्स्य  (alveolar)
5.  पश्च वर्त्स्य (post-alveolar)
6. प्रतालव्य( prä-palatal )
7. तालव्य (palatal)
8. मृदुतालव्य (velar)
9. अलिजिह्वीय (uvular)
10.ग्रसनी से (pharyngal)
11.श्वासद्वारीय (glottal)
12.उपजिह्वीय (epiglottal)
13.जिह्वामूलीय (Radical)
14.पश्चपृष्ठीय (postero-dorsal)
15.अग्रपृष्ठीय (antero-dorsal)
16.जिह्वापाग्रीय (laminal)
17.जिह्वाग्रीय (apical)
18.उप जिह्विय( sub-laminal) ________
स्वनविज्ञान के सन्दर्भ में,
 मुख गुहा के उन 'लगभग अचल' स्थानों को उच्चारण बिन्दु (articulation point या place of articulation) कहते हैं; जिनको 'चल वस्तुएँ' छूकर जब ध्वनि मार्ग में बाधा डालती हैं तो उन व्यंजनों का उच्चारण होता है।
उत्पन्न व्यञ्जन की विशिष्ट प्रकृति मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर करती है- उच्चारण स्थान, उच्चारण विधि और स्वनन (फोनेशन)।
मुख गुहा में 'अचल उच्चारक' मुख्यतः मुखगुहा की छत का कोई भाग होता है जबकि 'चल उच्चारक' मुख्यतः जिह्वा, नीचे वाला ओष्ठ (ओठ), तथा श्वाँस -द्वार (ग्लोटिस)आदि  हैं।
व्यञ्जन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण में वायु अबाध गति से न निकलकर मुख के किसी भाग:- (तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि) से या तो पूर्ण अवरुद्ध होकर आगे बढ़ती है या संकीर्ण मार्ग से घर्षण करते हुए या पार्श्व मार्ग से निकलती है ।
इस प्रकार वायु मार्ग में पूर्ण या अपूर्ण अवरोध उपस्थित होता है।
तब व्यञ्जन ध्वनियाँ प्रादुर्भूत ( उत्पन्न) होती हैं ।
हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण---- व्यञ्जनों का वर्गीकरण मुख्य रूप से स्थान और प्रयत्न के आधर पर किया जाता है।
व्यञ्जनों के उत्पन्न होने के स्थान से सम्बन्धित व्यञ्जन को आसानी से पहचाना जा सकता है।
इस दृष्टि से हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है- उच्चारण स्थान (ध्वनि वर्ग) उच्चरित ध्वनि--👇 द्वयोष्ठ्य:- ,प , फ, ब, भ, म दन्त्योष्ठ्य :-,फ़ दन्त्य :-,त, थ, द, ध वर्त्स्य :-न, स, ज़, र, ल, ळ मूर्धन्य :-ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र, ष कठोर :-तालव्य श, च, छ, ज, झ कोमल तालव्य :-क, ख, ग, घ, ञ, ख़, ग़ पश्च-कोमल-तालव्य:-  क़ वर्ण है।
स्वरयन्त्रामुखी:-. "ह" वर्ण है ।
"ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।
जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह"  वर्ण हैं।
"ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।
काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ ।

घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं।
शब्द कोशों में इसका अर्थ :-
१. काला कौआ ।
२. कंठ की मणि या गले की मणि ।
उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का  वर्गीकरण--👇
उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है- स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।
विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का उच्चारण करता है ।
क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ और क़ सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।
च, छ, ज, झ को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में रखा जाता है।
इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।
मौखिक व नासिक्य :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियां आती हैं।
हिन्दी में ङ, ञ, ण, न, म  व्यञ्जन नासिक्य हैं।
इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है।
इन्हें 'पञ्चमाक्षर' भी कहा जाता है।
और अनुनासिक भी  -- इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।
वस्तुत ये सभीे प्रत्येक वर्ग के  पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूप हैं ।
परन्तु सभी केवल अपने स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में आकर "न" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।
जैसे :-  कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- अड्•क, सड्•ख्या ,अड्•ग , लड्•घन ।
चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- कण्टक,  कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।
तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन,  अन्ध ।
पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- पम्प , गुम्फन , अम्बा, दम्भ । ________
इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं।
उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन :- उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें उष्म व्यञ्जन कहते है।
वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप  सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।
तवर्ग - त थ द ध न का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।
और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है। जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि-- इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण ये सभी सजातिय हैं।
जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि चवर्ग -च छ ज झ ञ का  तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं ।
जैसे- जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।
उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
ये भी चार व्यञ्जन होते है- श, ष, स, ह।
________
1- पार्श्विक : इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से निकलती है।
'ल' ऐसी ही  पार्श्विक ध्वनि है। अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।
हिन्दी में य, व ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।
2-लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है।
हिन्दी में 'र' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।
3- उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें उत्क्षिप्त कहते हैं।
ड़ और ढ़ ऐसे ही व्यञ्जन हैं। जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।
घोष और अघोष वर्ण– व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।                        जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं। दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है। ________

घोष - अघोष ग, घ,   ङ,क, ख ज,झ,   ञ,च, छ ड, द,   ण, ड़, ढ़,ट, ठ द, ध,   न,त, थ ब, भ,   म, प, फ य,  र,   ल, व, ह ,श, ष, स ।
प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है।
प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु  जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।
पञ्चम् वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं। हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।
वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।
क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।
वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है । परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है ।
(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।________
भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को कहते हैं।
किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।
शब्दांश :- शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो  शब्द की ध्वनियाँ बदल जाती हैं।
उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक'।
यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से देखे जा सकते हैं।
लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है। अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं - 'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।
यह क्रिया उच्चारण बलाघात पर आधारित है ।कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')।
कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अंत-अर-राष-ट्रीय')।
एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है।
इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है। व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है। अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।
अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।
उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।
यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा।
इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।
जिसमें व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। अंग्रेजी भाषा में न, र, ल,  जैसे एन ,आर,एल, आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है। ________
ध्वनि उत्पत्ति- सिद्धान्त----- 👇
मानव एवं अन्य जन्तु ध्वनि को कैसे सुनते हैं?
ध्वनि तरंग कर्णपटल का स्पर्श करती है , कान का पर्दा, कान की वह मेकेनिज्म जो ध्वनि को संकेतों में बदल देती है।
श्रवण तंत्रिकाएँ,  (पर्पल): ध्वनि संकेत का आवृति स्पेक्ट्रम, तन्त्रिका में गया संकेत) ही शब्द है । भौतिक विज्ञान में - ध्वनि (Sound) एक प्रकार का कम्पन या विक्षोभ है जो किसी ठोस, द्रव या गैस से होकर सञ्चारित होती है।
किन्तु मुख्य रूप से उन कम्पनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान (Ear) से सुनायी पडती हैं।
ध्वनि की प्रमुख विशेषताएँ--- ध्वनि एक यान्त्रिक तरंग है न कि विद्युतचुम्बकीय तरंग। (प्रकाश विद्युतचुम्बकीय तरंग है।
ध्वनि के सञ्चरण के लिये माध्यम की जरूरत होती है। ठोस, द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि का सञ्चरण सम्भव है।
निर्वात में ध्वनि का सञ्चरण नहीं हो सकता।
द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि केवल अनुदैर्घ्य तरंग  (longitudenal wave) के रूप में चलती है जबकि ठोसों में यह अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave) के रूप में भी संचरण कर सकती है।
अनुदैर्घ्य तरंग:--- जिस माध्यम में ध्वनि का सञ्चरण होता है यदि उसके कण ध्वनि की गति की दिशा में ही कम्पन करते हैं तो उसे अनुदैर्घ्य तरंग कहते हैं!

अनुप्रस्थ तरंग:- जब माध्यम के कणों का कम्पन ध्वनि की गति की दिशा के लम्बवत होता है तो उसे अनुप्रस्थ तरंग कहते है।
सामान्य ताप व दाब (NTP) पर वायु में ध्वनि का वेग लगभग  343 मीटर प्रति सेकेण्ड होता है।
बहुत से वायुयान इससे भी तेज गति से चल सकते हैं उन्हें सुपरसॉनिक विमान कहा जाता है।
मानव कान लगभग २० हर्ट्स से लेकर २० किलोहर्टस (२०००० हर्ट्स) आवृत्ति की ध्वनि तरंगों को ही सुन सकता है।
बहुत से अन्य जन्तु इससे बहुत अधिक आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं।
जैसे चमकाधड़ एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने पर ध्वनि का परावर्तन एवं अपवर्तन होता है। माइक्रोफोन ध्वनि को विद्युत उर्जा में बदलता है; लाउडस्पीकर विद्युत उर्जा को ध्वनि उर्जा में बदलता है।
किसी भी तरंग (जैसे ध्वनि) के वेग, तरंगदैर्घ्य और आवृत्ति में निम्नलिखित संबन्ध होता है:-
{\displaystyle \lambda ={\frac {v}{f}}} जहाँ v तरंग का वेग, f आवृत्ति तथा : {\displaystyle \lambda } तरंगदर्ध्य है।
आवृत्ति के अनुसार वर्गीकर--- अपश्रव्य (Infrasonic) 20 Hz से कम आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं देती, श्रव्य (sonic) 20 Hz से 20 kHz, के बीच की आवृत्तियों वाली ध्वनि सामान्य मानव को सुनाई देती है।
पराश्रव्य (Ultrasonic) 20 kHz से 1,6 GHz के बीच की आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं पड़ती, अतिध्वनिक (Hypersonic) 1 GHz से अधिक आवृत्ति की ध्वनि किसी माध्यम में केवल आंशिक रूप से ही संचरित (प्रोपेगेट) हो पाती है।
ध्वनि और प्रकाश का सम्बन्ध शब्द और अर्थ के सामान्य या शरीर और आत्मा के समान जैविक सत्ता का आधार है ।
ध्वनि के विषय में दार्शनिक व ऐैतिहासिक मत -
_________
"सृष्टि के प्रारम्भ में ध्वनि का प्रादुर्भाव ओ३म् के रूप में हुआ ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति"----
एक वैश्विक विश्लेषण करते हैं ओ३म् की अवधारणा द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना है; वे नि: सन्देह फॉनिशियन जन-जाति के सहवर्ती अथवा सजातिय बन्धु रहे होंगे ।
क्यों दौनों का सांस्कृतिक समीकरण है।
द्रविड द्रव (पदार्थ ) अथवा जल तत्व का विद =वेत्ता ( जानकार) द्रव+विद= समाक्षर लोप (Haplology) के द्वारा निर्मित रूप द्रविद -द्रविड है !
ये बाल्टिक सागर के तटवर्ती -संस्कृतियों जैसे प्राचीन फ्रॉञ्च ( गॉल) की सैल्टिक (कैल्टिक) जन-जाति में  द्रूयूद (Druid) रूप में हैं ।
कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham) शब्द का दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था ! कि  उनका विश्वास था !
कि इस प्रकार (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है।
और उनका मान्यता भी थी.. प्राचीन भारतीय आर्य मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति (syllable prosperity) यथावत् रहती है इसके उच्चारण प्रभाव से ओघम् का मूर्त प्रारूप सूर्य के आकार के सादृश्य पर था।
जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं ... वास्तव में ओघम् (ogham से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है . जैसे सूर्य से प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा (ammon- ra) के रूप ने था ..जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है।
आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है।
सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में ओमन् शब्द आमीन के रूप में है ।
तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै ! जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है .. अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे ।दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे।
मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य हुए .. क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण है,  मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे।
इन्हीं से ईसाईयों में (Amen) तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन् ! (ऐसा ही हो ) होगया है इतना ही नहीं जर्मन आर्य ओ३म् का सम्बोधन (omi /ovin )या के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए सम्बोधित करते करते थे जो भारतीयों का बुध ज्ञान का देवता था! इसी बुधः का दूसरा सम्बोधन ouvin ऑविन् भी था यही (woden) अंग्रेजी में (Goden) बन गया था।

जिससे कालान्तर में गॉड(God )शब्द बना है जो फ़ारसी में ख़ुदा के रूप में प्रतिष्ठित हैं ! सीरिया की सुर संस्कृति में यह शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है ; वेदों में ओमान् शब्द बहुतायत से रक्षक ,के रूप में आया है । भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि शिव ( ओ३ म) ने ही पाणिनी को ध्वनि समाम्नाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की !
जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ । पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के लोग थे 

यादव योगेश कुमार "रोहि" ग्राम - आज़ादपुर-पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---उ०प्र० दूरभाष 80771602

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