सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादि हेतवे।तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।१।
★-अनुवाद:- -
सत् 'चित् और 'आनन्द स्वरूप , विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण एवं तीनों तापों के नाशक भगवान्- श्रीकृष्ण को हम प्रणाम करते हैं।
व्याख्या: - "सच्चिदानन्दरूपाय" श्लोक श्रीमद्भागवत महापुराण के माहात्म्य में वर्णित है। जोकि पद्मपुराण से लिया गया मङ्गलाचरण है । यद्यपि आज मूल पद्मपुराण में यह श्लोक प्राप्त नहीं होता है। परन्तु भागवत माहात्म्य में यह प्रथम श्लोक के रूप में परिगणित किया गया है।
नवीन संशोधित संस्करण-"श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चंवर्णम्"-
"ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रकृतिखण्डःअध्याय"३-
वस्तुत: विष्णु ब्रह्मा और रूद्र त्रिगुण ( सत- रज और तम) नामक प्रकृति के गुणों के प्रतिनिधि हैं। सत और तम प्रकाश और अन्धकार गुणधर्मी हैं सृष्टि उत्पत्ति क्रम में भी सत और तम स्वतन्त्र और सापेक्ष समान महत्व के गुण हैं। केवल स्थिति ही दोंनों की परस्पर विपरीत है। सत और तम दोनों गुणों के मिलने से रजो गुण निर्मित होता है। इस क्रम से रजोगुण के प्रतिनिधि ब्रह्मा भी विष्णु से प्रेरित रूद्र से उत्पन्न होने चाहिए। लिंग पुराण में सायद इस प्रयोग का वर्णन है।
"लिङ्गमहापुराण पूर्वभाग रुद्रोत्पत्तिवर्णनं नामक(२२) वें अध्याय में रूद्र की उत्पत्ति मृत ब्रह्मा की देह से दर्शायी है।
इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो को हम प्रस्तुत करते हैं।
कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना ही इसी तथ्य को सूचित करता है। कि गोपों से श्रेष्ठ इस सृष्टि मैं को ईव दूसरा नहीं है।
अनुवाद:- जब स्वयं कृष्ण राधा की एक सखी बनकर स्वयं ही कृष्ण की राधा से निन्दा करते हैं तब राधा कहती हैं -
"भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण गोपों के घर में प्रकट हुए हैं। फिर तुम हे सखी ! उन आदिपुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।२१-२२।
(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)
गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं।
और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत: इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_
ऋग्वेद में विष्णु के लिए 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं।
जो पुराण वर्णित गोलोक का ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।
इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।
विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ रहती हैं , वहाँ पड़ता है।
"कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।
ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)
शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥
इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड को तीन पगों( कदमों) में नाप लिया है
इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है। "विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान गोलोक ही माना गया है -
"तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।
उस विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य दिखाई देते है। अर्थात तद् विष्णो:( उस विष्णु के)
सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर के (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥
अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं अर्थात- जिस प्रकाशित लोक में अनेक सूर्य गण विस्तारित हैं। जो विस्तृत नेत्रों के समान उस विष्णु के उत्तम से उत्तम स्थान(लोक ) को सदैव देखते हैं।
ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) की ऋचा संख्या (6) में भी नीचे देखें-
सरल अनुवाद व अर्थ:-जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं स्थित अथवा विचरण करती हैं उस स्थानों को - तुम्हारे जाने के लिए जिसे- वास्तव में तुम चाहते भी हो। जो- बहुत प्रकारों से प्रशंसित है जो- सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का उत्कृष्ट (पदम्) -स्थान लोक है जो अत्यन्त उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है उसी के लिए यहाँ हम वर्णन करते हैं ॥६॥
उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है। जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं। और वे विष्णु गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) है)। वस्तुत ऋग्वेद में यहाँ उसी गोलोक का वर्णन है जो ब्रह्म वैवर्त पुराण और देवीभागवतपुराण और गर्ग संहिता आदि में वर्णित गोलोक है ।
विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। परन्तु विष्णु कृष्ण का ही एकाँशी अथवा बह्वाँशी ( बहुत अंशों वाला) रूप है।
सृष्टि में क्रियान्वित रहता है। स्वयं कृष्ण नहीं कृष्ण तो केवल लीला हेतु पृथ्वी लोक पर गोपों के सानिध्य में ही अवतरण करते हैं। क्योंकि गोप मूलत: गोलोक की ही सृष्टि हैं
जब इस यज्ञ के शुभ मुहूर्त (दिन- रात का तीसवाँ भाग) व्यतीत न हो जाये इसी कारण से ब्रह्मा को यज्ञकार्य हेतु तत्काल एक पत्नी की आवशयकता होती है। "होता"यज्ञ में आहुति देनेवाला तथा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालने वाले के रूप में उपस्थित माना जाता है । अत्रि इस "होता" की भूमिका में हैं। सभी सप्तर्षि इस यज्ञ में किसी न किसी भूमिका में हैं।
विशेष—यह चार प्रधान ऋत्विजों में है जो ऋग्वेद के मंत्र पढ़कर देवताओं का आह्वान करता है।
ब्रह्मा की पत्नी सावित्री गृह कार्य में व्यस्त हैं अत: वे यज्ञ- स्थल में आने को तैयार नहीं हैं।अब मुहूर्त का समय निकला जा रहा है। तभी सप्तर्षियों के कहने पर ब्रह्मा अपने यज्ञ कार्य के लिए इन्द्र को एक पत्नी बनाने के लिए कन्या लाने को कहते हैं। तब आभीर कन्या गायत्री को इन्द्र ब्रह्मा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
विष्णु ही इस कन्या के दत्ता( कन्यादान करनेवाले पिता बनकर ) ब्रह्मा से इसका विवाह सम्पन्न कराते हैं।
ये ब्रह्मा की सृष्टि से पृथक थे इसलिए यज्ञ में अपनी सम्पूर्ण सृष्टि के साथ इन्हें ब्रह्मा द्वारा आमन्त्रित नहीं किया गया। ब्रह्मा का यह यज्ञ एक हजार वर्ष तक चला था।
इसलिए अत्रि ने गायत्री को माँ कहकर सम्बोधित किया तब अत्रि को अहीरों का पूर्वज कैसे कहा जा सकता है।?
विदित हो कि वामन अवतार कृष्ण के अंशावतार विष्णु का ही अवतार है नकि स्वयं कृष्ण का अवतार -क्योंकि कृष्ण का साहचर्य सदैव गो और गोपों में ही रहता है।
"कृष्ण हाई वोल्टेज रूप हैं तो विराट और क्षुद्र विराट आदि रूप उनके ही कम वोल्टेज के रूप हैं।
विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि ( इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।
विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड ' ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।
ऋग्वेद 1.22.18) में भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।
विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।
और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु(कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।
"व्यक्ति अपनी भक्ति और तप की शक्ति से गोलोक को प्राप्त कर गोप जाति में जन्म लेता है।
वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।
हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।
अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3-
सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….”एकोऽहम् बहुस्याम.” = एक से मैं बहुत हो जाऊँ"" ईश्वर ने यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुतों में विभक्त करूँ .यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्मांड "ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परमपिता के प्रतिबिम्ब हैं .।
इस भावबोध के जगते ही मनुष्य सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध है और विकास का अनुभव भी होता है.।
उस परमेश्वर का स्वरूप स्वेच्छामय है। वह अपनी इच्छा से ही दो रूपों में प्रकट हो गया। क्योंकि सृष्टि उत्पत्ति के लिए द्वन्द्व आवश्यक था। उनका वामांश स्त्रीरूप में आविर्भूत हुआ और दाहिना भाग पुरुष रूप में।"गोपों की उत्पत्ति विष्णु के द्वारा होने के उपरान्त, उनका वैष्णव वर्ण में समाहित होना, और गोपों के अवान्तर पूर्वज चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट पुरुष( विष्णु) के मन से उत्पन्न होने से वैष्णव वर्ण में होने का वैदिक साक्ष्य व इसी चन्द्रवंश में 'इला और 'बुध नामक बुद्धि सम्पन्न स्त्री- पुरुष के संयोग से उत्पन्न गोप जाति के प्रथम सम्राट पुरुरवा की उत्पत्ति गाथा -
मनस्
समानार्थक: १-चित्त,२-चेतस्,३-हृद्,४- हृदय,५-मनस,-६-मानस्७-स्वान्त।
(अमरकोश- 1।4।31।2।7 )
"गरुडपुराणम् - आचार काण्ड१- अध्याय-(145) श्लोक संख्या-२
नाभिहृदम्बुजादासीद्ब्रह्मा विश्वसृजां पति:।2।
स एवासीदिदं विश्वं कल्पान्तेऽन्यन्न किञ्चन।8। (भागवत पुराण-9/1/8)
"सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्भवो भव ।
महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु॥४८॥
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥
यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट (Crete ) की संस्कृतियों में "मनु" आयॉनिया लोगों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए।
भारतीय संस्कृति की पौराणिक कथाऐं इन्हीं घटनाओं ले अनुप्रेरित हैं।
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भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनन ) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) के मानवीय-करण (personification) रूप है
हिब्रू बाइबिल में नूह का वर्णन:-👇
बाइबिल उत्पत्ति खण्ड (Genesis)- "नूह ने यहोवा (ईश्वर) कहने पर एक वेदी बनायी ;
और सब शुद्ध पशुओं और सब शुद्ध पक्षियों में से कुछ की वेदी पर होम-बलि चढ़ाई।(उत्पत्ति-8:20) ।👇
आश्चर्य इस बात का है कि ..आयॉनियन भाषा का शब्द माइनॉस् तथा वैदिक शब्द मनु: की व्युत्पत्तियाँ (Etymologies)भी समान हैं।
जो कि माइनॉस् और मनु की एकरूपता(तादात्म्य) की सबसे बड़ी प्रमाणिकता है।
यम और मनु को भारतीय पुराणों में सूर्य (अरि) का पुत्र माना गया है।
क्रीट पुराणों में इन्द्र को (Andregeos) के रूप में मनु का ही छोटा भाई और हैलीअॉस् (Helios) का पुत्र कहा है।
इधर चतुर्थ सहस्राब्दी ई०पू० मैसॉपोटामियाँ दजला- और फ़रात का मध्य भाग अर्थात् आधुनिक ईराक की प्राचीन संस्कृति में मेनिस् (Menis)अथवा मेैन (men) के रूप में एक समुद्र का अधिष्ठात्री देवता है।
यहीं से मेनिस का उदय फ्रीजिया की संस्कृति में हुआ था । यहीं की सुमेरीयन सभ्यता में यही मनुस् अथवा नूह के रूप में उदय हुआ, जिसका हिब्रू परम्पराओं नूह के रूप वर्णन में भारतीय आर्यों के मनु के समान है।
मनु की नौका और नूह की क़िश्ती
दोनों प्रसिद्ध हैं।
मन्नुस, रोमन लेखक टैसिटस के अनुसार, जर्मनिक जनजातियों के उत्पत्ति मिथकों में एक व्यक्ति था। रोमन इतिहासकार टैसिटस इन मिथकों का एकमात्र स्रोत है।
जिससे यूरोपीय भाषा परिवार में मैन (Man) शब्द आया ।
मनन शील होने से ही व्यक्ति का मानव संज्ञा प्राप्त हुई है।
श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥४॥
तिस्रो देवीः स्वधया बर्हिरेदमच्छिद्रं पान्तु शरणं निषद्य ॥८॥
तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं स्योनं सरस्वती स्वपसः सदन्तु ॥८॥
अमर कोश-3।3।42।2।2
श्रद्धां हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु ॥४॥
और इस मान:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में है और उर्वशी पुरुरवा के काव्य का मूर्त ( साकार) है। क्यों कि स्वयं पुरुरवा शब्द का मूल अर्थ है। अधिक कविता /स्तुति करने वाला- संस्कृत इसका व्युत्पत्ति विन्यास इस प्रकार है। पुरु- प्रचुरं रौति( कविता करता है) कौति- कविता करता) इति पुरुरवस्- का प्रथमा विभक्ति एक वचन का रूप पुरुरवा अधिक कविता अथवा स्तुति करने के कारण इनका नाम पुरुरवा है। क्योंकि गायत्री के सबस
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥
"अध्याय- तृतीय ★-
"यादवों के आदि पूर्वज पुरुरवा गोप और गोप जातीय कन्या उर्वशी का वैदिक तथा पौराणिक विवरण और उनकी सन्तानों का परिचय-
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः।११।
अध्याय- 26 - पुरुरवा का विवरण-
पुरूरवसः चरित्र एवं वंश वर्णनम्, राज्ञा पुरूरवसेन त्रेताग्नेः सर्जनम्, गन्धर्वाणां लोकप्राप्तिः। |
षडविंशोऽध्यायः
"वैशम्पायन उवाच
बुधस्य तु महाराज विद्वान् पुत्रः पुरूरवाः।
तेजस्वी दानशीलश्च यज्वा विपुलदक्षिणः।१।
अनुवाद:-1. वैशम्पायन ने कहा: - हे महान राजा, बुध- के पुत्र पुरुरवा विद्वान, ऊर्जावान और दानशील स्वभाव के थे। उन्होंने अनेक यज्ञ किये तथा अनेक उपहार दिये।
ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।२।
अनुवाद:-2. वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक यज्ञ किये।
सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव त्रिषु लोकेषु यशसाप्रतिमस्तदा।३।
अनुवाद:-3. वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन भूख पर पूरा नियंत्रण था।उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था।
तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी ।४।
अनुवाद:-4. अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति के रूप में चुना।
तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।
पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत ।५।
वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे ।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे ।६।
उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान् ।
गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे ।७।
एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च ।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।८।
अनुवाद:-5-7. हे भरत के वंशज , राजा पुरुरवा दस साल तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मंदाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल में , उर्वशी के साथ रहे आदि स्थानं पर रहे
सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं।
8. देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया ।
देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते ।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।९।
अनुवाद:-9. वह राजा प्रयाग के पवित्र प्रांत पर शासन करता था , जिसकी महान राजा की ऋषियों ने बहुत प्रशंसा की है ।
तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।
अनुवाद:-10-उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम आयु, धीमान , अमावसु ,।
विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।
अनुवाद:-धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु, वनायु और शतायु थे । इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था।
य: पुरुरवस: पुत्र आयुस्तस्याभवन् सुता:।
नहुषः क्षत्रियवृद्धश्च रजि राभश्च वीर्यवान्॥1।
क्षत्रियवृद्धसुतस्यसं सुहोत्रस्यात्मजस्त्रयः ॥ 2॥
"पद्म-पुराण भूमि-खण्ड में वर्णित -आयुष की जीवन गाथा-
पुरुरवा के पुत्र और नहुष के पिता . आयुष की गाथा-
वंशावली-
विराट विष्णु के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ उस क्रम में उतरते हुए -चन्द्र से -बुध- और बुध से पुरुरवा -'आयुष- आदि का वंश क्रम-
आयुस का जन्म उर्वशी में पुरुरवा से हुआ था . नहुष का जन्म आयुष की पत्नी स्वर्भानवी प्रभा' से हुआ इसका अन्य नाम ही इन्दुमती भी था।
आयुस वह एक राजा था जिसने तपस्या करके महान शक्ति प्राप्त हुई की और संसार का सम्राट बना। (श्लोक 15, अध्याय 296,शान्ति पर्व, महाभारत).
अहिर्बुध्न्यसंहिता नामक ग्रन्थ के अनुसार, आयुष (आयुस) का तात्पर्य "लंबे जीवन" से है, जो पाञ्चरात्र परम्परा से संबंधित है।
'पाञ्चरात्र वैष्णव धर्म की एक परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जहां केवल विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। आयुस ने इस परम्परा का पालन किया।
गोप परम्परा का आदि प्रवर्तक गायत्री माता के परिवार के बाद पुरुरवा ही है।
पुरुरवा को अपनी पत्नी उर्वशी से आयुस, श्रुतायुस,सत्यायुस,राया,विजयाऔर जया छह पुत्र कहे गए । उनमें से सबसे बड़े आयुस के पांच पुत्र थे जिनका नाम है नहुष,क्षत्रवृद्ध,रजि,रम्भ और अनेनास थे। नहुष का ययाति नाम का एक पुत्र था जिससे ,यदु तुरुवसु और अन्य तीन पुत्र पैदा हुए। यदु और पुरु के दो राजवंश (यदुवंश और पुरुवंश) आनुवांशिक परम्परा से उत्पन्न हुए हैं।
नहुष के भाई अनेना: के शुद्ध नामित पुत्र का जन्म हुआ। शुद्ध से शुचि उत्पन्न हुई जिससे त्रिकाकुप उत्पन्न हुआ और त्रिकाकुप से शान्तराय नामित पुत्र का जन्म हुआ।
"पद्म-पुराण भूमि-खण्ड में वर्णित -पार्वती पुत्री अशोक-सुन्दरी( विरजा) की जीवन गाथा-
पद्मपुराण के अनुसार-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।
अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।
सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
श्री देवी पार्वती ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।
इस प्रकार (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।
देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।
अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।
"दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।
एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।
,"विष्णु के अँशावतार नहुष की पत्नी भी कोई साधारण स्त्री नहीं बन सकती यह गोलोक में कृष्ण की पत्नी- विरजा' ही है जो भूलोक पर "अज्यप" पितर की कन्या है। विदित हो कि अज्यप गोपालन और कृषि वृति करने वाले वैश्यों के पितर बताये जाते हैं।
विश्वं बिभर्षि रसरासमलंकरोषि
"वृन्दावनं च परिपूर्णतमः स्वयं त्वम् ॥२४॥
"इत्थं ते मातृशापेन धरणीं वै समागताः ।
प्रियव्रतरथांगानां परिखासु समास्थिताः॥२३॥
"लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलार्णवाः ।
बभूवुः सप्त ते राजन्नक्षोभ्याश्च दुरत्ययाः॥२४॥
"दुर्विगाह्याश्च गम्भीरा आयामं लक्षयोजनात् ।
द्विगुणं द्विगुणं जातं द्वीपे द्वीपे पृथक् पृथक॥२५॥
"अथ पुत्रेषु यातेषु पुत्रस्नेहातिविह्वला ।
स्वप्रियां तां विरहिणीमेत्य कृष्णो वरं ददौ ॥२६॥
"कदा न ते मे विच्छेदो मयि भीरु भविष्यति ।
स्वतेजसा स्वपुत्राणां सदा रक्षां करिष्यसि ॥२७।।
पितृ-वंश
दिव्य पितरों के सात देवताओं में से प्रत्येक की एक मानसी कन्या थी। हिमवत पर्वतराज की पत्नी मैना, वायु की बेटी थी । अच्छोदा , नदी अग्निश्वता की बेटी थी। ऋषि शुक की पत्नी पिवारी बर्हिषद की बेटी थी । नामकरण , नदी सोमापा की बेटी थी। यशोदा हविश्मन की बेटी, विश्वमहंत की पत्नी और दिलीप की माँ थीं। विराजा, राजा नहुष की पत्नी अज्यप की बेटी थी और गो या एकश्रृंगा , ऋषि शुक्र की पत्नी मनसा की बेटी थी ।
- अज्यप पितर इसी तरह पश्चिमी क्षेत्र की रक्षा करें),
मनुस्मृति चारों वर्णों में से प्रत्येक के पूर्वजों की वंशावली का भी वर्णन करती है। इसे कहते हैं,
सोमपा नाम विप्राणां क्षत्रियाणां हविर्भुजः। वैश्याणां अज्यपा नाम शूद्राणां तु सुकालिनाः || 3.197 ||
सोमपास्तु कवेः पुत्रा हविषमन्तोऽङगिरहसुताः।पुलस्त्यस्याज्यपाः पुत्रा वसिष्ठस्य सुकालिनाः || 3.198 ||
सोमपा नाम विप्रणाम क्षत्रियानाम हविर्भुज:। वैश्यानाम अज्यपा नाम शुद्राणाम तु सुकालिनाः।3.197 |
सोमपस्तु कवेः पुत्रा हविष्मन्तोङ्गिरःसुताः।पुलस्त्यस्यज्यपः पुत्र वसिष्ठस्य सुकालिनाः || 3.198 ||
अर्थ: सोमप ब्राह्मणों के, हविर्भुज क्षत्रियों के, अज्यप वैश्यों के और सुकलिन शूद्रों के पूर्वज हैं।
सोमप भृगु के पुत्र हैं, हविष्मंत अंगिरा की संतान हैं, अज्यप पुलस्त्य की संतान हैं और सुकलिन वशिष्ठ की संतान हैं (मनुस्मृति 3.197 )और 3.198)। इसमें आगे कहा गया है कि अग्निदग्धा, अनग्निदग्धा, काव्य, बर्हिषद, अग्निश्वत्त और सौम्य, ब्राह्मणों के पूर्वज हैं (मनुस्मृति 3.199) और, ये पूर्वजों के कुछ कुल हैं और उनमें मौजूद हैं इस संसार में इन पूर्वजों के अनगिनत पुत्र और पौत्र हैं। (मनुस्मृति 3.200)।
परन्तु अज्यप ऋषि विराट परुष से उत्पन्न हैं। इन्हें पुलस्त्य के पुत्र रूप में स्वीकार किया ़।
नहुष (नहुष)।—आयु (स्वर्भानु) और प्रभा के पांच पुत्रों में से प्रथम; अज्यप पितरों की मानस पुत्री विराजा से विवाह; उनके छह मत्स्य-पुराण के अनुसार-) गोलोक में कृष्ण से उत्पन्न ये वही सात पुत्र नहुष के हैं। जिसमें यति सबसे बड़ा था। किन्हीं पुराणों में नहुष के पाँच पुत्र तो किसी में छ: और किसी पुराण सातवाँ ध्रुव बताया है।
विरजा ने अपने सबसे छोटे पुत्र को पहले शाप दिया था अत: छ: पुत्रों के बहुत बाद में सातवें पुत्र ने भी विरजा से पुन: नहुष के पुत्रों के रूप में जन्म लिया।
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 26सती विरजा पुत्र को आश्वासन दे उसे दुलारने लगी। उस समय साक्षात भगवान वहाँ से अंतर्धान हो गये।
भाग 2.2 - शिव के विभिन्न नाम को अन्तर्गत एक नाम "अज्यप" भी है।मत्स्यपुराण के 47 वें अध्याय में शिव के अनेक नामों की स्तुति करते हुए शुक्राचार्य उनको अज्यप कहते हैं।
शुक्राचार्य ने शिव के विभिन्न वास्तुशिल्पियों और विशिष्टताओं का उल्लेख करते हुए उनको अज्यप" और आज्यप" नाम से भी स्तुति की ।
सुतृप्ताय सुवस्त्राय धन्विने भार्गवाय च ।132 ।
सोमपाय, अज्यपाय एव धूमपायोष्मपाय च ।
शुचये परिधानाय सद्योजाताय मृत्यवे ।145 ।
इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽसुरशापो नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ।47।
'ययाति का यदु को देवयानी और शर्मिष्ठा को मारने का आदेश देना ,परन्तु यदु द्वारा ऐसा न करने पर ययाति द्वारा यदु को शाप देने का प्रकरण"
1-2. हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा (ययाति ) ने कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती से विवाह कर लिया, तो उनकी दो पूर्व, पत्नियों, देवयानी और वृषपर्वन् की पुत्री शर्मिष्ठा ने क्या किया ? दोनों का सारा वृत्तान्त बताओ।
सुकर्मन ने कहा :
3-9. जब वह राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गया, तो वह उच्च विचार वाली देवयानी (उसके साथ) बहुत प्रतिद्वन्द्विता करने लगी।"इस कारण उस ययाति ने क्रोध के वशीभूत व्याकुल-मन होकर अपने देवयानी से उत्पन्न दोनों पुत्रों यदु और तुरुवसु को शाप दे दिया " मनस्विनी देवयानी ने शर्मिष्ठा को बुलवाकर अपने साथ घटित सब बाते बतायीं । रूप (सुन्दरता),तेज ,और दान के द्वारा देवयानी और शर्मिष्ठा अश्रुबिन्दुमती के साथ और अधिक प्रतिस्पर्धा करने लगीं। तब काम देव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती को उनकी दुष्टता पूर्ण भावना का पता चला। तभी उस अश्रुबिन्दुमती ने राजा ययाति को सारी बात बता दी, हे तब क्रोधित होकर राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अपनी माता (देवयानी) को मार डालो ।
हे पुत्र, यदि तुम इसे श्रेयकर मानते हो तो मेरा यह प्रिय कार्य करो। ” अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने पिता से कहा, हे राजाओं के स्वामी, :
9-14. “हे सम्माननीय पिता, मैं अपराधबोध से मुक्त निर्दोष इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है।
इसलिए, हे राजा, मैं इन दोनों माताओं को नहीं मारुँगा। हे राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर अनेकों दोष लगें, तो भी उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए।
******
हे पिता जी ! यह जानकर, मैं (इन) दोनों माताओं को कभी नहीं मारूंगा। उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये।
पृथ्वी के स्वामी ययाति ने तब अपने पुत्र को शाप दिया: और कहा "चूंकि तुमने (मेरे) आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश को प्राप्त करो "।
******************
15-19. अपने पुत्र यदु से इस प्रकार बात करते हुए, पृथ्वी के स्वामी, ययाति, महान प्रतापी राजा, ने अपने पुत्र यदु को शाप दे दिया, और पूरी तरह से विष्णु के प्रति समर्पित न होकर , कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के साथ सुख भोगा।
विशेष:- कामवासना मनुष्य को भक्ति और साधना के पथ से भ्रष्ट कर देती है।
आकर्षक नेत्रों वाली और सभी अंगों में सुंदर अश्रुबिन्दुमती ने उसके साथ अपनी इच्छानुसार सभी सुंदर भोगों का आनन्द लिया।
इस प्रकार उस श्रेष्ठ ययाति ने अपना समय व्यतीत किया। अन्य सभी विषय बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के भोगे थे; राजा के अतिरिक्त उस समय सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान में समर्पित थे।
हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से संसार की और अपनी भलाई की।
"पद्म-पुराण सृष्टिखण्ड के अन्तर्गत यदु की वंशावली-
पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-80) |
"कामकन्यां यदा राजा उपयेमे द्विजोत्तम।
किं चक्राते तदा ते द्वे पूर्वभार्ये सुपुण्यके।१।
"अनुवाद- जब राजा ययाति नें कामदेव की पुत्री के साथ विवाह कर लिया; तब राजा की पहले वाली दोनों पत्नियों ने क्या किया।१।
देवयानी महाभागा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
तयोश्चरित्रं तत्सर्वं कथयस्व ममाग्रतः।२।
"अनुवाद- महाभागा देवयानी और शर्मिष्ठा उन दोंनो का सब आचरण ( कर्म) मेरे समक्ष कहो।२।
"सुकर्मोवाच-
यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा ।
अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।३।
"अनुवाद- सुकर्मा ने कहा :- महाराज ययाति जब कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती को अपने घर लाये तो मनस्विनी देवयानी ने उस अश्रुबिन्दुमती के साथ अत्यधिक स्पर्धा ( होड़) की।३।
तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।४।
"अनुवाद- इस कारण से राजा ययाति नें क्रोध से व्याकुल मन होकर देवयानी से उत्पन्न अपने दोनों यदु और तुर्वसु नामक पुत्रों को शाप दे दिया। तब शर्मिष्ठा को बुलाकर यशस्विनी देवयानी नें राजा द्वारा दिए गये शाप की सब बातें कहीं।४।
रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।
"अनुवाद- रूप तेज दान सत्यता , और पुण्य के द्वारा शर्मिष्ठा और देवयानी दोंनो ने उस ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती के साथ स्पर्धा( होड़ )की।५।
दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।
"अनुवाद- तब कामदेव की पुत्री राजा की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती ने देवयानी और शर्मिष्ठा का वह स्पर्धा वाला दूषितभाव जान लिया और राजा ययाति को सब उसी समय बता दिया।६।
****
अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।७।
"अनुवाद- उसके बाद राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बुलाकर कहा। हे यदु तुम जाकर शर्मिष्ठा और देवयानी दोंनो को मार दो।७।
सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा ।८।
"अनुवाद- हे वत्स ! मेरा यह प्रिय कार्य करो यदि तुम इसे सही मानते हो तो, यदु ने इस प्रकार ययाति की ये बातें सुनकर ।८।
प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।९।
"अनुवाद- राजा ययाति उस अपने पिता को उत्तर दिया , हे माननीय पिता जी मैं इन दोंनो निर्दोष माता ओं का बध नहीं करुँगा।९।
मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।१०।
"अनुवाद- वेद के जानने वाले विद्वानों ने माता को मारने का महापाप बताया है। हे महाराज इस लिए मैं इन दोंनो मीताओं का बध नहीं करुँगा।१०।
दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत् ।
भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।११।
"अनुवाद- माता ,बहिन और पुत्री यदि हजारों दोषों से युक्त हो तो भी हे महाराज!।११।
पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।१२।
"अनुवाद- वह पुत्र भाई तथा पिता आदि के द्वारा कभी भी वध करने योग्य नहीं है। इस प्रकार यह सब जानकर मैं अपनी इन दोंनो माताओं का वध नहीं कर सकता हूँ।
यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह ।
शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।१३।
"अनुवाद- यदु की यह बात सुनकर राजा क्रोधित होगया। और इसके बाद ययाति ने यदु को शाप दे दिया।१३।
यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि ।
मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः।१४।
"अनुवाद- तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है। इस कारण तुम पापी हो इस लिए मेरे शाप के कारण पापी बने हुए तुम अपनी माता के अँश को ही प्राप्त करो।१४।
एवमुक्त्वा यदुं पुत्रं ययातिः पृथिवीपतिः ।
पुत्रं शप्त्वा महाराजस्तया सार्द्धं महायशाः।१५।
"अनुवाद- इस प्रकार कह कर पृथ्वीपति ययाति पुत्र यदु को शाप देकर अपनी तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती के साथ वहाँ से चले गये।१५।
रमते सुखभोगेन विष्णोर्ध्याने न तत्परः ।
अश्रुबिन्दुमतीसा च तेन सार्द्धं सुलोचना।१६।
अनुवाद- सुन्दर नेत्रों वाली अश्रुबिन्दुमती के साथ सुखभोग के द्वारा आनन्दित होने पर राजा भगवान विष्णु के ध्यान में भी तत्पर नहीं रह सके।१६।
बुभुजे चारुसर्वांगी पुण्यान्भोगान्मनोनुगान् ।
एवं कालो गतस्तस्य ययातेस्तु महात्मनः।१७।
अनुवाद- सर्वांग सुन्दरी अश्रुबिन्दुमती ने मन के अनुकूल सभी पुण्यमयी -भोगों का भोग करती ,इस तरह महान आत्मा राजा ययाति का बहुत समय व्यतीत हुआ।१७।
अक्षया निर्जराः सर्वा अपरास्तु प्रजास्तथा ।
सर्वे लोका महाभाग विष्णुध्यानपरायणाः।१८।
अनुवाद- विनाश और बुढापे से रहित उनकी अन्य प्रजाऐं आदि सभी लोग भगवान विष्ण के ध्यान में लगे रहते थे।१८।
तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पल ।
सर्वे लोका महाभाग सुखिनः साधुसेवकाः।१९।
सुकर्मा ने कहा- हे महाभाग पिप्पल! तपस्या ,सत्य भाव तथा भगवान विष्णु के ध्यान में लगे सभी लोग सुखी तथा साधु जनों के सेवक थे।१९।
सन्दर्भ:-"इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रेऽशीतितमोऽध्यायः ।८०।
व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यपके | आश्वासन देनेपर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥सन्दर्भ:-"हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व -अध्याय - (55)
भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्यगोपजातौ अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्"पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय-
हिन्दी-अनुवाद-सहित-
"वैशम्पायन उवाच
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः।।१।।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद।
तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः।।२।।
वदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः।
यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम्।।३।।
जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि।
केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम्।।४।।
नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ।
अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।।५।।
विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः।
सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिताबलेः।।६।।
कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् ।
वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत्।।७।।
विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम्।
प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये।।८।।
मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्।
बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्।।९।।
दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम।
मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।।1.55.१०।।
सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः।
क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया।
एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम्।।११।।
सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च।
सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः।।१२।।
कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान्।
तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति।।१३।।
अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया।
अमीषां हि सुरेन्द्राणांहन्तव्या रिपवो युधि।।१४।।
जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः।
सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम।।१५।।
विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः।१६।।
"यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्। तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।।१७।।
"ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।।
यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।।
तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। 1.55.२०।।
पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः।जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।।
अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै।।२२।।
ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति।।२३।।
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः। अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।।२४।।
मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो । चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।।२५।।
कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।।
प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः। त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमागतिः।।२७।।
यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्। न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।।२८।।
यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः। मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।। २९।।
या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम्।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्। 1.55.३०।।
त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान्।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।।
इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।
येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।।
या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।। ३४।।
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।।३५।।
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।।३६।।
तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते।।३७।।
देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।।३८।।
तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।।३९।।
छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।। 1.55.४०।।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले।।४१।।
देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्।।४२।।
गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः।
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।।४३।।
विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति।।४४।।
त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव।।४५।।
वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि।। ४६।।
जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।। ४७।।
अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।।४८।।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।।४९।।
"वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये।
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।। 1.55.५०।।
तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा ।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।।५२।।
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
*हिन्दी अनुवाद:-★
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हरिवंशपर्व सम्पूर्ण।
वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय!भोग और मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों के द्वारा जो एकमात्र वरण करने योग्य हैं।
वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारद की पूर्वोक्त बात सुनकर मुस्कराए और अपनी कल्याण कारी वाणी द्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले ।१।
'नारद ! तुम तीनों लोकों के हित के लिए मुझसे जो कुछ कह रहे हो -तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा देने वाली है। अब तुम उसका उत्तर सुनो !।२।
अब मुझे भली भाँति विदित है कि ये दानव भूतल पर मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि कौन कौन दैत्य किस किस शरीर को धारण करके वैर भाव की पुष्टि कर रहा है।३।
मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेनपुत्र कंस के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है । घोड़े का शरीर धारण करने वाले केशी दैत्य से भी मैं अपरिचित नहीं हूँ।४।
कुवलयापीड हाथी चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल तथा वृषभ रूपधारी दैत्य अरिष्टासुर को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।५।
विप्रवर -खर और प्रलम्ब नामक असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं। राजा बलि की पुत्री पूतना को भी मैं जानता हूँ।६।
यमुना के कुण्ड में रहने वाले कालिया नाग को भी मैं जानता हूँ। जो गरुड के भय से उस कुण्ड में जा घुसा है।७।
मैं उस जरासन्ध से भी परिचित हूँ जो इस समय सभी भूपालों के मस्तक पर खड़ा है। प्राग्य-ज्योतिष पुर में रहने वाले नरकासुर को भी मैं भलीभाँति जानता हूँ।८।
भूतल के मानव लोक में जो मनुष्य रूप धारण कर के उत्पन्न हुआ है। जिसका तेज कुमार कार्तिकेय के समान है।जो शोणितपुर में निवास करता है। और अपनी हजार भुजाओं के कारण देवों के लिए भी अत्यन्त दुर्जेय हो रहा है। उस बलाभिमानी दैत्य वाणासुर को भी मैं जानता हूँ ।
तथा यह भी जानता हूँ कि पृथ्वी पर जो भारती सेना का महान भार बढ़ा हुआ है उसे उतारने का उत्तरदायित्व( भार,) मुझपर ही अवलम्बित है।९-१०।
मैं उन सारी बातों से परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजा लोग आपस में युद्ध करेंगे। भूतल पर उनका किस प्रकार संहार होगा। और पुनर्जन्म से रहित देह धारण करने वाले इन नरेशों को इन्द्र लोक में किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा।– यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने है।११।
मैं भूलोक में पहुँच कर मानव शरीर धारण करके स्वयं तो उद्योग का आश्रय लुँगा ही दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करुँगा।१२।
जिस जिस विधि से जो जो असुर मर सकेगा उस उस उपाय से ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े़ बड़े़ असुरों का वध करुँगा१३।
मैं योग से इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान गतियों को नष्ट कर दुँगा और इस प्रकार युद्ध में इन देवेश्वरों के शत्रुओं का वध कर डालुँगा।१४।
नारद ! पृथ्वी के हित के लिए स्वर्गवासी देवताओं देवर्षियों तथा गन्धर्वों के यहाँ से जो अपने अपने अंश का उत्सर्ग किया है वह सब मेरी अनुमति से हुआ है । क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा निश्चय कर लिया था।
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ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह !अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में और किस जाति जन्म लेकर और किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ?।१६-१७।
ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे-
तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०।
विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।
यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।
तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३।
यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।
प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।
देव ! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?।२६।
ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।
लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।
इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।
इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।
गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।
अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।
महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।
वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।
गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।
जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नाम की इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।
हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९।
मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।
ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही
भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य गोपजातौ अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्"पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय- |
हिन्दी-अनुवाद-सहित-
"वैशम्पायन उवाच
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः।।१।।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद।
तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः।।२।।
वदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः।
यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम्।।३।।
जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि।
केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम्।।४।।
नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ।
अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।।५।।
विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः।
सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिताबलेः।।६।।
कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् ।
वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत्।।७।।
विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम्।
प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये।।८।।
मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्।
बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्।।९।।
दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम।
मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।।1.55.१०।।
सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः।
क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया।
एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम्।।११।।
सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च।
सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः।।१२।।
कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान्।
तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति।।१३।।
अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया।
अमीषां हि सुरेन्द्राणांहन्तव्या रिपवो युधि।।१४।।
जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः।
सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम।।१५।।
विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः।१६।।
"यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्। तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।।१७।।
"ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।।
यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।।
तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। 1.55.२०।।
पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः।जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।।
अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै।।२२।।
ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति।।२३।।
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः। अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।।२४।।
मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो । चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।।२५।।
कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।।
प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः। त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमागतिः।।२७।।
यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्। न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।।२८।।
यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः। मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।। २९।।
या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम्।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्। 1.55.३०।।
त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान्।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।।
इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।
येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।।
या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।। ३४।।
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।।३५।।
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।।३६।।
तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते।।३७।।
देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।।३८।।
तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।।३९।।
छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।। 1.55.४०।।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले।।४१।।
देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्।।४२।।
गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः।
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।।४३।।
विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति।।४४।।
त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव।।४५।।
वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि।। ४६।।
जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।। ४७।।
अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।।४८।।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।।४९।।
"वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये।
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।। 1.55.५०।।
तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा ।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।।५२।।
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
*हिन्दी अनुवाद:-★
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हरिवंशपर्व सम्पूर्ण।
वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय!भोग और मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों के द्वारा जो एकमात्र वरण करने योग्य हैं।
वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारद की पूर्वोक्त बात सुनकर मुस्कराए और अपनी कल्याण कारी वाणी द्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले ।१।
'नारद ! तुम तीनों लोकों के हित के लिए मुझसे जो कुछ कह रहे हो -तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा देने वाली है। अब तुम उसका उत्तर सुनो !।२।
अब मुझे भली भाँति विदित है कि ये दानव भूतल पर मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि कौन कौन दैत्य किस किस शरीर को धारण करके वैर भाव की पुष्टि कर रहा है।३।
मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेनपुत्र कंस के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है । घोड़े का शरीर धारण करने वाले केशी दैत्य से भी मैं अपरिचित नहीं हूँ।४।
कुवलयापीड हाथी चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल तथा वृषभ रूपधारी दैत्य अरिष्टासुर को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।५।
विप्रवर -खर और प्रलम्ब नामक असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं। राजा बलि की पुत्री पूतना को भी मैं जानता हूँ।६।
यमुना के कुण्ड में रहने वाले कालिया नाग को भी मैं जानता हूँ। जो गरुड के भय से उस कुण्ड में जा घुसा है।७।
मैं उस जरासन्ध से भी परिचित हूँ जो इस समय सभी भूपालों के मस्तक पर खड़ा है। प्राग्य-ज्योतिष पुर में रहने वाले नरकासुर को भी मैं भलीभाँति जानता हूँ।८।
भूतल के मानव लोक में जो मनुष्य रूप धारण कर के उत्पन्न हुआ है। जिसका तेज कुमार कार्तिकेय के समान है।जो शोणितपुर में निवास करता है। और अपनी हजार भुजाओं के कारण देवों के लिए भी अत्यन्त दुर्जेय हो रहा है। उस बलाभिमानी दैत्य वाणासुर को भी मैं जानता हूँ ।
तथा यह भी जानता हूँ कि पृथ्वी पर जो भारती सेना का महान भार बढ़ा हुआ है उसे उतारने का उत्तरदायित्व( भार,) मुझपर ही अवलम्बित है।९-१०।
मैं उन सारी बातों से परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजा लोग आपस में युद्ध करेंगे। भूतल पर उनका किस प्रकार संहार होगा। और पुनर्जन्म से रहित देह धारण करने वाले इन नरेशों को इन्द्र लोक में किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा।– यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने है।११।
मैं भूलोक में पहुँच कर मानव शरीर धारण करके स्वयं तो उद्योग का आश्रय लुँगा ही दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करुँगा।१२।
जिस जिस विधि से जो जो असुर मर सकेगा उस उस उपाय से ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े़ बड़े़ असुरों का वध करुँगा१३।
मैं योग से इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान गतियों को नष्ट कर दुँगा और इस प्रकार युद्ध में इन देवेश्वरों के शत्रुओं का वध कर डालुँगा।१४।
नारद ! पृथ्वी के हित के लिए स्वर्गवासी देवताओं देवर्षियों तथा गन्धर्वों के यहाँ से जो अपने अपने अंश का उत्सर्ग किया है वह सब मेरी अनुमति से हुआ है । क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा निश्चय कर लिया था।
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ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह !अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में और किस जाति जन्म लेकर और किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ?।१६-१७।
ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे-
तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०।
विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।
यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।
तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३।
यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।
प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।
देव ! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?।२६।
ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।
लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।
इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।
इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।
गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।
अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।
महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।
वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।
गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।
जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नाम की इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।
हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९।
मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।
ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही
हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२।
'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३।
महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४।
कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।
हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।
वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७।
विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८।
मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९।
वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०।
वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।
उदारबुद्धि वाले भगवान् श्रीहरि विष्णु ने अपने पुरातन विग्रह को (शरीर) को स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने के कार्य में लगा दिया।५२।
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हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२।
'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३।
महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४।
कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।
हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।
वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७।
विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८।
मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९।
वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०।
वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।
उदारबुद्धि वाले भगवान् श्रीहरि विष्णु ने अपने पुरातन विग्रह को (शरीर) को स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने के कार्य में लगा दिया।५२।
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