सत् 'चित् और 'आनन्द स्वरूप , विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण एवं तीनों तापों के नाशक भगवान्- श्रीकृष्ण को हम प्रणाम करते हैं।
व्याख्या: - "सच्चिदानन्दरूपाय" श्लोक श्रीमद्भागवत महापुराण के माहात्म्य में वर्णित है। जोकि पद्मपुराण से लिया गया मङ्गलाचरण है । यद्यपि आज मूल पद्मपुराण में यह श्लोक प्राप्त नहीं होता है। परन्तु भागवत माहात्म्य में यह प्रथम श्लोक के रूप में परिगणित किया गया है।
नवीन संशोधित संस्करण-"श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चंवर्णम्"-
राधेकृष्णाभ्याम् मित्रो ! मित्रो - इस पुस्तक में आप लोग परम प्रभु श्रीकृष्ण के उन तीन रहस्य पूर्ण प्रसंगों के विषय में तो जानेगे' ही जिन्हें आज तक बहुत ही कम लोग जानते हैं; अथवा कहें कि
फिर जानते ही नहीं हैं- और इसके साथ साथ कृष्ण के आध्यात्मिक ,दार्शनिक और योगसिद्धि के सिद्धान्त से भी परिचित होंगे। आज हम इस युगान्त कारी ज्ञान के आधार पर भगवान् श्रीकृष्ण से सम्बन्धित उन घटनाओं को भी प्रस्तुत करेंगे जिसे जानबूझ कर अथवा कहें अज्ञानता-वश कथाकारों द्वारा अब तक जनसाधारण के समाने प्रस्तुत नहीं किया गया है।
जिसके परिणाम स्वरूप जनमानस में कृष्ण के वास्तविक चरित्रों (कारनामों) का प्रचार- प्रसार नहीं हो सका और श्रीकृष्ण के अद्भुत रहस्यों से सारी दुनिया अनिभिज्ञ ही रह गयी ।
कृष्ण के वास्तविक स्वरूप का यथावत् ज्ञान न होने के कारण ही साधारण लोग आज तक भ्रम जाल में भँसकर संसार में विभिन्न प्रकार के प्रलाप करते हुए देखे और सुने जाते हैं-
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और इसी भ्रमजाल को दूर करने के लिए अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण के चारित्रिक रहस्यों को सम्पूर्ण सारगर्भित रूप से बताने के लिए हमने इस पुस्तक को प्रमुख रूप से तीन प्रमुख खण्डों( 1-सृष्टि-सर्जन -खण्ड 2- आध्यात्मिक -खण्ड और 3-लोकाचरण-खण्ड में विभाजित किया हैं ताकि -
आप लोगों को (क्रमानुसार-)समझ में आ जाय कि कृष्ण यथार्थ क्या थे ? और उनका आध्यात्मिक और सांसारिक जीवन में क्या योगदान था ?- सत्य कहा जाय तो कृष्ण एक समग्र व्यक्तित्व ही थे। एक सम्पूर्ण चेतना थे।
इसी सर्वशक्तिमान ईश्वर को , परम-प्रभु, परम-तत्व" इत्यादि नामों से भी तत्वज्ञानी लोग अनुभव व वर्णन किया करते हैं।
(ब्रह्म वैवर्त पुराण-प्रकृतिखण्ड: अध्याय (3) में वर्णन है- कि परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी श्री राधा से प्रकट विराट स्वरूप बालक ही विराट - विष्णु है।-
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नारायण और नारद के संवाद क्रम में सृष्टि उत्पत्ति की कथा है।
भगवान नारायण कहते हैं– नारद ! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्मा की आयु तक वह बालक ब्रह्माण्ड गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा( अचानक) दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया।
उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा।
माता-पिता उसे त्याग चुके थे। वह निराश्रय होकर जल के अन्दर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी के अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी। अतएव उसका नाम ‘महाविराट’ पड़ा।
जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह उसके सापेक्ष अत्यन्त स्थूलतम था।
वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।
परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है।
इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगा पाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है। वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते। जैसे जगत के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा" विष्णु और शिव आदि हैं– यह नहीं बताया जा सकता।
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव देव त्रयी( त्रिदेव) के रूप में विद्यमान हैं। पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगनित ब्रह्माण्ड बताये गये हैं। अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है ? ऊपर वैकुण्ठलोक है।
यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके भी ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है।
श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्य स्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्नचास छोटे-छोटे द्वीप हैं।पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है।
सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं। ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं। यही ब्रह्माण्ड का परिचय है।
पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलेक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मा का लोक ब्रह्मलोक है। ऐसा प्रकाशमान है, मानो तपाया हुआ सोना चमक रहा हो। ये सभी कृत्रिम हैं। कुछ तो ब्रह्माण्ड के भीतर हैं और कुछ बाहर। नारद! ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर ये सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि पानी के बुलबुले की भाँति यह सारा जगत अनित्य है।
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गोलोक को नित्य, अविनाशी एवं अकृत्रिम कहा गया है।
वैकुण्ठलोक, शिव-लोक की आयु ब्रह्मा के लोक ब्रह्मलोक की अपेक्षा अधिक है।
परन्तु ये दौंनों भी सात्विक और तामसिक होने से प्राकृतिक ही हैं। ये रजोगुणात्मक ब्रह्मा के लोक की अपेक्षा अधिक आयु वाले हैं।
उस विराटमय बालक के प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चित रूप से विद्यमान हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव विराजमान हैं।
वत्स नारद! देवताओं की संख्या (तीन + तीस) करोड़ है।
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ये सर्वत्र व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र– सभी इसमें सम्मिलित हैं। भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं। जो ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न हैं। नीचे नागलोक है। चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं।
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नारद! तदनन्तर वह विराट स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा। वह गोलाकार पिण्ड बिल्कुल खाली था।
दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया।
तब वहीं उसे सनातन ब्रह्म ज्योति के दर्शन प्राप्त हुए। वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनकी दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त-से जान पड़ते थे।पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया।
कहा- ‘बेटा ! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ।भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलय पर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे। तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ।
देवी भागवत पुराण- प्रकृति खण्ड- स्कन्ध नवम् अध्याय तृतीय) मे ंभी इस बालक के विषय में इसी प्रकार का वर्णन है कि -
ब्रह्मपुत्र नारद! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो ! प्रत्येक विश्व मेंवैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान को अर्पण करते हैं,
उसमें से सोलहवाँ भाग विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित हैं; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट-रूप है।यह बालक ही महाविष्णु है।
विष्णु महाविष्णु और स्वराट् विष्णु में केवल कलाओं अथवा अंशों का ही भेद है ।
अन्यथा ये सब एक ही रूप हैं।
स्वराट् विष्णु ही गोलोक में द्विभुजधारी सदा किशोर-वय श्रीकृष्ण हैं। जो परिपूर्णत्तम साकार ( अपर)ब्रह्म हैं। निराकार होने पर यही परब्रह्म हैं।
संसार में इनके अवतरण भेद को हम छै(6) प्रकार से निरूपण करते हैं।
गर्गसंहिता के वृन्दावन और विश्वजित् - खण्ड में इन कलाओं का निरूपण हुआ है। प्रथम रूप से बहुलाश्व और नारद मुनि का संवाद पिरस्तुत है।
बहुलाश्व ने पूछा- मुनिवर ! संतों की रक्षा के लिये भगवान विष्णु के कितने प्रकार के अवतार होते हैं ? यह मुझे बताने की कृपा करें।१५।
श्रीनारदजी बोले- राजन ! व्यास आदि मुनियों ने १-अंशांश, २-अंश, ३-आवेश, ४-कला, ५-पूर्ण और ६-परिपूर्णतम- ये छ: प्रकार के अवतार बताये हैं।
इनमें से छठा परिपूर्णतम अवतार साक्षात श्रीकृष्ण ही हैं। मरीचि आदि “अंशांशावतार”,है। ब्रह्मा आदि ‘अंशावतार’ है।, कपिल एवं कूर्म प्रभृति ‘कलावतार’ हैं। और परशुराम आदि ‘आवेशावतार’ कहे गये हैं।
नृसिंह, राम, श्वेतद्वीपाधिपति हरि, वैकुण्ठ, यज्ञ और नर नारायण- ये ‘पूर्णावतार’ हैं एवं साक्षात भगवान भगवान श्रीकृष्ण ही ‘परिपूर्णतम’ अवतार हैं।
अंसख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति वे प्रभु गोलोकधाम में विराजते हैं। जो भगवान के दिये सृष्टि आदि कार्यमात्र के अधिकार का पालन करते हैं, वे ब्रह्मा आदि ‘सत’ (सत्स्वरूप भगवान) के अंश हैं। जो उन अंशों के कार्यभार में हाथ बटाते हैं, वे ‘अंशांशावतार’ के नाम से विख्यात हैं। परम बुद्धिमान नरेश ! भगवान विष्णु स्वयं जिनके अंत:करण में आविष्ट हो, अभीष्ट कार्य का सम्पादन करके फिर अलग हो जाते हैं, राजन ! ऐसे नानाविध अवतारों को ‘आवेशावतार’ समझो। ( जिस प्रकार किसी व्यक्ति पर कुछ समय के लिए कोई प्रेत या भूत आवेश उत्पन्न कर फिर शान्त हो जाता है। उसी प्रकार आवेश अवतार है।
और जो प्रत्येक युग में प्रकट हो, युगधर्म को जानकर, उसकी स्थापना करके, पुन: अन्तर्धान( गायब) हो जाते हैं, भगवान के उन अवतारों को ‘कलावतार’ कहा गया है।
जहाँ चार व्यूह प्रकट हों- जैसे श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न एवं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध, तथा जहाँ नौ रसों की अभिव्यक्ति देखी जाती हो एवं जहाँ बल-पराक्रम की भी पराकाष्ठा दृष्टिगोचर होती हो, भगवान के उस अवतार को ‘पूर्णावतार’ कहा गया है।
जिस अवतार में पूर्ण का पूर्ण लक्षण दृष्टिगोचर होता है और मनुष्य जिसे पृथक-पृथक भाव के अनुसार अपने परम प्रिय रूप में देखते हैं, वही यह साक्षात ‘परिपूर्णत्तम’ अवतार है।
[इन सभी लक्षणों से सम्पन्न] स्वयं परिपूर्णत्तम भगवान श्रीकृष्ण ही हैं, दूसरा नहीं; क्योंकि श्रीकृष्ण ने एक कार्य के उद्देश्य से अवतार लेकर अन्यान्य करोड़ों कार्यों का सम्पादन किया है। जो पूर्ण, पुराण पुरुषोत्तमोत्तम एवं परात्पर पुरुष परमेश्वर हैं, उन साक्षात सदानन्दमय, कृपानिधि, गुणों के आकार भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र की मैं शरण लेता हूँ।
श्रीगर्ग-संहिता में गोलोक खण्ड के अन्तदर्गत नारद- बहुलाश्व् संवाद में ‘श्रीकृष्णम माहात्मय का वर्णन’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ।
इसी गर्गसंहिता ग्रन्थ में आगे भी विश्वजित्-खण्ड में राजा-गुणाकर और वामदेव ऋषि के आध्यात्मिक संवाद के रूप में भी कृष्ण के अवतार भेदों का निरूपण हुआ है। दखें- निम्नलिखित श्लोक-
ब्रह्मन ! आप परावर( पराविद्या और अपराविद्या) वेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं; अत: मुझे परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण का लक्षण बताइये।
वामदेवजी बोले-जिनके अपने तेज में अन्य सारे तेज लीन हो जाते हैं, **
उन्हें साक्षात परिपूर्णत्तम परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं। अंशांश, अंश, आवेश, कला तथा पूर्ण अवतार के ये पांच भेद हैं। व्यास आदि महर्षियों ने छठा श्रीकृष्ण को परिपूर्णत्तम अवतार कहा है।
दूसरा नहीं: क्योंकि उन्होंने एक कार्य के लिये आकर करोड़ों कार्य सिद्ध किये हैं।
उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस पर निरन्तर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे। उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी।७।
विदित होना चाहिए कि राम और कृष्ण की किसी प्रकार भी समानता नहीं है।कृष्ण समुद्र हैं तो राम बूँद हैं।
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फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नि दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे।
वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीर की कान्ति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
राम कहाँ 12 कलाओं से अवतार लेते हैं और कृष्ण 16 कलाओं से सेभी अधिक परिपूर्णत्तम परमेश्वर स्वरूप में हैं। राम बूँद हैं तो कृष्ण समुद्र है।
ब्रह्मण: - पञ्चमी विभक्ति ब्रह्मणः ब्रह्मा से । एव- ही च और। रूद्रा: -रूद्रगण। एकादश:- ग्यारह । एव- ही। शिवांशेन में तृतीया विभक्ति एक वचन- शिव अंश से । वै - निश्चय ही। सृष्टि सञ्चरणाय-सृष्टि विनाश के लिए । भविष्यन्ति- उत्पन्न होंगे।
अनुवाद:-
और इस प्रकार ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रूद्र तो शिव के अंश से सृष्टि के संहार के लिए उत्पन्न होंगे।४३।
उनमें कालाग्नि नामक एक रूद्र विश्व का संहारक होगा।
पाता= पा धातु - रक्षणे कर्म्मणि + घञ् कृदन्त प्रत्यय पात: (त्राता) त्रि० मेदिनीकोश -रक्षक विष्णु: का विशेषण रक्षक या पालक होने से "पाता" है। - विषयी=विषयों का भोक्ता। क्षुद्रांशेन- भविष्यति। क्षुद्र (छोटे) अंश से उत्पन्न होगा।
अनुवाद:-
इन रूद्रों में एक कालाग्नि नामक रूद्र विश्व का संहारक होगा
विषयों के भोक्ता विष्णु क्षुद्र अंश से अवतीर्ण होकर विश्व की रक्षा करने वाले होंगे।४४।
वस्तुत: विष्णु ब्रह्मा और रूद्र त्रिगुण ( सत- रज और तम) नामक प्रकृति के गुणों के प्रतिनिधि हैं। सत और तम प्रकाश और अन्धकार गुणधर्मी हैं सृष्टि उत्पत्ति क्रम में भी सत और तम स्वतन्त्र और सापेक्ष समान महत्व के गुण हैं। केवल स्थिति ही दोंनों की परस्पर विपरीत है। सत और तम दोनों गुणों के मिलने से रजो गुण निर्मित होता है। इस क्रम से रजोगुण के प्रतिनिधि ब्रह्मा भी विष्णु से प्रेरित रूद्र से उत्पन्न होने चाहिए। लिंग पुराण में सायद इस प्रयोग का वर्णन है।
"लिङ्गमहापुराण पूर्वभाग रुद्रोत्पत्तिवर्णनं नामक(२२) वें अध्याय में रूद्र की उत्पत्ति मृत ब्रह्मा की देह से दर्शायी है।
प्रजाः स्रष्टुमनाश्चक्रे तप उग्रं पितामहः।
तस्यैवं तप्यमानस्य न किञ्चित्समवर्तत।१७ ।
अनुवाद:-
संतान उत्पन्न करने की इच्छा से ब्रह्मा ने कठोर तपस्या की इस प्रकार तप करते समय उस तप से कुछ नहीं हुआ ।22.17 ।
नीले और लाल त्रिशूल धारी ने उस ब्रह्मा को फिर से जीवन देकर जीवित कर दिया।
देवताओं के स्वामी ब्रह्मा ने प्राणो को प्राप्त कर रूद्र रूप में उमापति को ही प्राप्त कर लिया।26।
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श्रीलिङ्गमहापुराण पूर्वभाग रुद्रोत्पत्तिवर्णनं नामक द्वाविंशतितमोऽध्यायः। २२।
यह लिंग-पुराण के पूर्वी भाग में रुद्र की उत्पत्ति का वर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय है।22।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अतिरिक्त देवी भागवत पुराण केनवम स्कन्ध तृतीय अध्याय- में भी इसी प्रकार का गोलोक से सृष्टि का उत्पत्ति वर्णन है।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने सूक्ष्म अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे। ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा। शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में जो ‘कालाग्नि’ नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक होंगे।
" हे बालक विष्णु विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे सूक्ष्म अंश से प्रकट होंगे। जिनको क्षुद्रविराट कहा जाएगा ।
मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी।
उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे। वत्स! अब मैं अपने गोलोक में जाता हूँ। तुम यहीं ठहरो।'
इस प्रकार उस बालक से कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ गोलोक में पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी।
भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा से बोले– 'वत्स! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ।'
फिर गोपेश्वर कृष्ण ने रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव ! जाओ। महाभाग ! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’
नारद ! जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव– दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये।
महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं। उनका स्वरूप कृष्ण की अपेक्षा युवा है।
इनकी सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का शरीर है। ये पीताम्बर पहनते हैं। जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे।
सन्दर्भ:-
ब्रह्म वैवर्त पुराण-
प्रकृतिखण्ड: अध्याय(3) तथा देवीभागवत पुराण नवम स्कन्ध अध्याय-(3)
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नारद इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी। वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट पुरुष के दर्शन प्राप्त हुए।
महाविराटरोमकूपक में ( क्षीरसागर )के भीतर जलमय शैय्या पर वे पुरुष क्षुद्र विराट् शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, तब ब्रह्मा को उन महाविराट पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए।
साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी दर्शन हुआ। फिर तो उन्हें श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया।
स्वयं भगवान स्वराट् विष्णु (श्रीकृष्ण) जो गोलोक में अपने मूल कारण कृष्ण रूप में ही विराजमान हैं वही आभीर जाति में मानवरूप में सीधे अवतरित होकर इस पृथ्वी पर आते हैं;
क्योंकि आभीर(गोप) जाति साक्षात् उनके रोम कूप (शरीर) से उत्पन है जो गुण-धर्म में उन्हीं कृष्ण के समान होती है।
इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो को हम प्रस्तुत करते हैं।
कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना ही इसी तथ्य को सूचित करता है। कि गोपों से श्रेष्ठ इस सृष्टि मैं को ईव दूसरा नहीं है।
अनुवाद:- जब स्वयं कृष्ण राधा की एक सखी बनकर स्वयं ही कृष्ण की राधा से निन्दा करते हैं तब राधा कहती हैं -
"भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण गोपों के घर में प्रकट हुए हैं। फिर तुम हे सखी ! उन आदिपुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।२१-२२।
(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)
गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं। और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत: इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_
ऋग्वेद में विष्णु के लिए 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं।
जो पुराण वर्णित गोलोक का ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।
इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।
विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ रहती हैं , वहाँ पड़ता है।
"कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।
ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।
शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥
इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड को तीन पगों( कदमों) में नाप लिया है
इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है। "विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान गोलोक ही माना गया है -
उस विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य दिखाई देते है। अर्थात तद् विष्णो:( उस विष्णु के) सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर के (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥
अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं अर्थात- जिस प्रकाशित लोक में अनेक सूर्य गण विस्तारित हैं। जो विस्तृत नेत्रों के समान उस विष्णु के उत्तम से उत्तम स्थान(लोक ) को सदैव देखते हैं।
ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) की ऋचा संख्या (6) में भी नीचे देखें-
सरल अनुवाद व अर्थ:-जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं स्थित अथवा विचरण करती हैं उस स्थानों को - तुम्हारे जाने के लिए जिसे- वास्तव में तुम चाहते भी हो। जो- बहुत प्रकारों से प्रशंसित है जो- सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का उत्कृष्ट (पदम्) -स्थान लोक है जो अत्यन्त उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है उसी के लिए यहाँ हम वर्णन करते हैं ॥६॥
उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है। जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं। और वे विष्णु गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) है)। वस्तुत ऋग्वेद में यहाँ उसी गोलोक का वर्णन है जो ब्रह्म वैवर्त पुराण और देवीभागवतपुराण और गर्ग संहिता आदि में वर्णित गोलोक है ।
विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। परन्तु विष्णु कृष्ण का ही एकाँशी अथवा बह्वाँशी ( बहुत अंशों वाला) रूप है।
सृष्टि में क्रियान्वित रहता है। स्वयं कृष्ण नहीं कृष्ण तो केवल लीला हेतु पृथ्वी लोक पर गोपों के सानिध्य में ही अवतरण करते हैं। क्योंकि गोप मूलत: गोलोक की ही सृष्टि हैं
जब इस यज्ञ के शुभ मुहूर्त (दिन- रात का तीसवाँ भाग) व्यतीत न हो जाये इसी कारण से ब्रह्मा को यज्ञकार्य हेतु तत्काल एक पत्नी की आवशयकता होती है। "होता"यज्ञ में आहुति देनेवाला तथा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालने वाले के रूप में उपस्थित माना जाता है । अत्रि इस "होता" की भूमिका में हैं। सभी सप्तर्षि इस यज्ञ में किसी न किसी भूमिका में हैं।
विशेष—यह चार प्रधान ऋत्विजों में है जो ऋग्वेद के मंत्र पढ़कर देवताओं का आह्वान करता है।
ब्रह्मा की पत्नी सावित्री गृह कार्य में व्यस्त हैं अत: वे यज्ञ- स्थल में आने को तैयार नहीं हैं।अब मुहूर्त का समय निकला जा रहा है। तभी सप्तर्षियों के कहने पर ब्रह्मा अपने यज्ञ कार्य के लिए इन्द्र को एक पत्नी बनाने के लिए कन्या लाने को कहते हैं। तब आभीर कन्या गायत्री को इन्द्र ब्रह्मा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
विष्णु ही इस कन्या के दत्ता( कन्यादान करनेवाले पिता बनकर ) ब्रह्मा से इसका विवाह सम्पन्न कराते हैं।
विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि ( इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।
बहुलाश्व ने पूछा- मुनिवर ! संतों की रक्षा के लिये भगवान विष्णु के कितने प्रकार के अवतार होते हैं ? यह मुझे बताने की कृपा करें।१५।
श्रीनारदजी बोले- राजन ! व्यास आदि मुनियों ने १-अंशांश, २-अंश, ३-आवेश, ४-कला, ५-पूर्ण और ६-परिपूर्णतम- ये छ: प्रकार के अवतार बताये हैं।
इनमें से छठा परिपूर्णतम अवतार साक्षात श्रीकृष्ण ही हैं। मरीचि आदि “अंशांशावतार”,है। ब्रह्मा आदि ‘अंशावतार’ है।, कपिल एवं कूर्म प्रभृति ‘कलावतार’ हैं। और परशुराम आदि ‘आवेशावतार’ कहे गये हैं।
नृसिंह, बलराम, श्वेतद्वीपाधिपति हरि, वैकुण्ठ, यज्ञ और नर नारायण- ये ‘पूर्णावतार’ हैं एवं साक्षात भगवान भगवान श्रीकृष्ण ही ‘परिपूर्णतम’ अवतार हैं।
अंसख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति वे प्रभु गोलोकधाम में विराजते हैं। जो भगवान के दिये सृष्टि आदि कार्यमात्र के अधिकार का पालन करते हैं, वे ब्रह्मा आदि ‘सत’ (सत्स्वरूप भगवान) के अंश हैं। जो उन अंशों के कार्यभार में हाथ बटाते हैं, वे ‘अंशांशावतार’ के नाम से विख्यात हैं। परम बुद्धिमान नरेश ! भगवान विष्णु स्वयं जिनके अंत:करण में आविष्ट हो, अभीष्ट कार्य का सम्पादन करके फिर अलग हो जाते हैं, राजन ! ऐसे नानाविध अवतारों को ‘आवेशावतार’ समझो।
जो प्रत्येक युग में प्रकट हो, युगधर्म को जानकर, उसकी स्थापना करके, पुन: अंतर्धान हो जाते हैं, भगवान के उन अवतारों को ‘कलावतार’ कहा गया है।
जहाँ चार व्यूह प्रकट हों- जैसे श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न एवं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध, तथा जहाँ नौ रसों की अभिव्यक्ति देखी जाती हो एवं जहाँ बल-पराक्रम की भी पराकाष्ठा दृष्टिगोचर होती हो, भगवान के उस अवतार को ‘पूर्णावतार’ कहा गया है।
जिसके अपने तेज में अन्य सम्पूर्ण तेज विलीन हो जाते हैं, भगवान के उस अवतार को श्रेष्ठ विद्वान पुरुष साक्षात ‘परिपूर्णम’ बताते हैं।
जिस अवतार में पूर्ण का पूर्ण लक्षण दृष्टिगोचर होता है और मनुष्य जिसे पृथक-पृथक भाव के अनुसार अपने परम प्रिय रूप में देखते हैं, वही यह साक्षात ‘परिपूर्णतम’ अवतार है।
[इन सभी लक्षणों से सम्पन्न] स्वयं परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण ही हैं, दूसरा नहीं; क्योंकि श्रीकृष्ण ने एक कार्य के उद्देश्य से अवतार लेकर अन्यान्य करोड़ों कार्यों का सम्पादन किया है। जो पूर्ण, पुराण पुरुषोत्तमोत्तम एवं परात्पर पुरुष परमेश्वर हैं, उन साक्षात सदानन्दमय, कृपानिधि, गुणों के आकार भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र की मैं शरण लेता हूँ।
श्रीगर्ग-संहिता में गोलोक खण्ड के अन्तदर्गत नारद- बहुलाश्व् संवाद में ‘श्रीकृष्णम माहात्मय का वर्णन’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ।
ब्रह्मन ! आप परावर( पराविद्या और अपराविद्या) वेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं; अत: मुझे परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण का लक्षण बताइये।
वामदेवजी बोले-जिनके अपने तेज में अन्य सारे तेज लीन हो जाते हैं, **
उन्हें साक्षात परिपूर्णतम परमात्मा श्रीहरि कहते हैं। अंशांश, अंश, आवेश, कला तथा पूर्ण अवतार के ये पांच भेद हैं। व्यास आदि महर्षियों ने छठा परिपूर्णतम तत्व कहा है।
दूसरा नहीं: क्योंकि उन्होंने एक कार्य के लिये आकर करोड़ों कार्य सिद्ध किये हैं।
विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड ' ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।
ऋग्वेद 1.22.18) में भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।
विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।
और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु(कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।
वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! अभ्युत्थानम्-अधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजामि- अहम्।।
श्रीमद्भगवद्गीता- ( 4/7)
हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।
अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
इसके अतिरिक्त हमारे ऐतिहासिक अन्वेषण पूर्ण लेखन काल में सम्बल के रूप में श्रद्धेय आत्मानन्द जी से हमारा अनवरत विमर्श होता रहा है। एतदर्थ वे श्रद्धा और साधुता के पात्र ही नहीं वे हमारे प्रेरणा स्रोत के रूप में भी उपस्थित रहे हैं।
आज हम पुन: वैष्णव वर्ण और तदनुरूप भागवत धर्म की उपयोगिता मानव की आध्यात्मिक पिपासा की तृप्ति के लिए अति आवश्यक है।
इतिहास के उन बिखरे हुए पन्नों को समेटने का और समाज में व्याप्त भ्रान्तियों को जड़ से मेटने का यह उपक्रम एक अल्प प्रयास के रूप में ही हम प्रारम्भिक चरण में क्रियान्वयन कर रहे हैं ;
भगवान् विष्णु के नाभिकमल पर उत्पन्न ब्रह्मा ने जिस दिन प्रथम बार सृष्टि की सर्जना शुरू की,वह समय ब्रह्मा के प्रथम परार्ध के प्रथम कल्प के प्रथम मन्वन्तर के प्रथम चतुर्युग के सत्ययुग के प्रथम मास की प्रथम तिथि है।
भारतवर्ष के कालक्रमिक इतिहास के स्पष्ट संकेत पुराणों में प्राप्त होते हैं पुराण जनश्रुतियों की परम्परागत सांस्कृतिक सांस्कृतिक विवरण हैं ।
पुराणों में घटनाक्रम की कालबद्ध चर्चा परार्ध, कल्प, मन्वन्तर, युग और संवत्सर में आदि रूपों में प्राप्त होती है।
सम्पूर्ण पुराणों स्मृति तथा महाभारत आदि ग्रन्थों में कालगणना के इन्हीं मापदण्डों को आधार माना गया है।
विराट पुरुष से सृष्टि उपक्रम का जो प्रारम्भ गोलोक में हुआ। वह ब्राह्मी कालगणना से सूक्ष्म है। जिसका विवरण हम ब्रह्मा के आयु- दिवस रात्रि आदि के आधार पर ही प्रस्तुत करेगें- ब्रह्माण्डीय सृष्टि के कालगणना क्रम में हम पौराणिक मान्यता के अनुसार ही सृष्टि काल निश्चित करेंगे
भारतीय अंक प्रणाली संख्या अंतरराष्ट्रीय अंक प्रणाली के सामानान्तर प्रस्तुत करते हैं।
इकाई 1 यूनिट(unit)-
दहाई 10 दस(ten)-
सैकड़ा 100 सौ(hundred)-
हजार 1,000 हजार(thousand)-
दस हजार 10,000 दस हजार (ten thousand)-
लाख 1,00,000 एक लाख (one lakh)-
दस लाख 10,00,000 मिलियन(million)-
करोड़ 1,00,00,000 दस मिलियन (ten million)-
दस करोड़ 10,00,00,000 सौ मिलियन (hundred million)-
15.5513332949125 : ब्रह्माजी द्वारा पृथ्वी आदि महाभूतों तथा अन्य तत्त्वों की उत्पत्ति। ब्रह्माजी द्वारा प्रथम दस मानस-पुत्रों (प्रजापतियों)— नारद, भृगु, वसिष्ठ, प्रचेता, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरस और मरीचि का सृजन; देवताओं, दानवों, ऋषियों, दैत्यों, यक्ष, राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, असुर, मनुष्य, पितर, सर्प एवं नागों के विविध गणों की सृष्टि एवं उनके स्थान का निर्धारण। अपने शरीर को दो भागों में विभक्तकर स्वयम्भुव मनु एवं शतरूपा का निर्माण। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण ही वे ‘मानव’ या ‘मनुष्य’ कहलाए।
स्वयम्भुव मनु को स्वयंभू से उत्पन्न मनु कहा गया पृथिवी पर मानव-सभ्यता का प्रारम्भ
15.5509012949125 (ब्रह्मा के दूसरे अहोरात्र की रात्रि) पृथ्वी पर प्रथम (१) बार नैमित्तिक प्रलय प्रारम्भ-
15.2411572949125 ब्रह्मा का दूसरा(२) वर्ष प्रारम्भ-
14.3080372949125 ब्रह्मा का पाँचवाँ( ५)वर्ष प्रारम्भ
12.7528372949125 ब्रह्मा का दशवाँ (१०)वर्ष प्रारम्भ
11.1976372949125 ब्रह्मा का पन्द्रह (15)वाँ वर्ष प्रारम्भ
10.5755572949125 रुद्र द्वारा ब्रह्मा के पाँचवें मुख का छेदन
9.6424372949125 ब्रह्मा का 20वाँ वर्ष प्रारम्भ-
8.0872372949125 ब्रह्मा का 25 वाँ वर्ष प्रारम्भ-
6.5020372949125 ब्रह्मा का 30वाँ वर्ष प्रारम्भ-
4.9768372949125 ब्रह्मा का 35वाँ वर्ष प्रारम्भ-
3.4216372949125 ब्रह्मा का 40वाँ वर्ष प्रारम्भ-
1.8664372949125 ब्रह्मा का 45वाँ वर्ष प्रारम्भ-
(खरब वर्ष पूर्व)
93.33172949125 ब्रह्मा का 48वाँ वर्ष प्रारम्भ
62.22772949125 ब्रह्मा का 49वाँ वर्ष प्रारम्भ
31.12372949125 ब्रह्मा का 50वाँ वर्ष प्रारम्भ
1.27252949 ब्राह्मकल्प में जगन्माता द्वारा मुर दैत्य और नरकासुर का वध
1.22007605125 विष्णुकल्प के उत्तम मन्वन्तर में भगवती दुर्गा द्वारा महिषासुर-वध
के 50 वें वर्ष की अन्तिम सृष्टि (नृसिंहकल्प) के प्रथम सत्ययुग में देवताओं द्वारा वरुण को जल का राजा बनाया गया
1.972949125 ब्रह्मा के 51वें वर्ष के प्रथम मास का प्रथम दिन (‘श्वेतवाराह कल्प’, ब्रह्मा का 18,001वाँ कल्प) प्रारम्भ; मनु : स्वायम्भुव मनु, पत्नी : शतरूपा; इन्द्र : विश्वभुक्; सप्तर्षि : मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, क्रतु, वसिष्ठ, पुलह
1.972949 भगवान् विष्णु का वराह-अवतार
1.955885125 ब्रह्मा द्वारा सृष्टि-निर्माण पूर्ण, ‘सृष्टि-संवत् एक(1)’ का प्रारम्भ-
1.955885125 स्वायम्भुव मनु के ज्येष्ठ पुत्र प्रिय1.9556व्रत के रथ की लीक से सप्तद्वीपों और सप्तसागरों (सप्तसिंधु) की उत्पत्ति
1.9557 जम्बूद्वीपाधिपति आग्नीध्र ने जम्बूद्वीप के 9 विभाग किए
ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर अजनाभवर्ष का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा
1.662773125 स्वारोचिष मनु से द्वितीय मन्वन्तर का प्रारम्भ; इन्द्र : विद्युति; सप्तर्षि : ऊर्ज, स्तम्भ, वात, प्राण, पृषभ, निरय, परीवान्
1.354325125 उत्तम मनु से तृतीय मन्वन्तर का प्रारम्भ; इन्द्र : विभु; सप्तर्षि : महर्षि वसिष्ठ के सातों पुत्र— कौकुनिधि, कुरुनिधि, दलय, सांख, प्रवाहित, मित एवं सम्मित
1.045877125 तामस मनु से चतुर्थ मन्वन्तर का प्रारम्भ; इन्द्र : प्रभु; सप्तर्षि : ज्योतिर्धामा, पृधु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वनक, पीवर।
1.0458 भगवान् विष्णु का नृसिंह-अवतार, भगवान् विष्णु द्वारा गजेन्द्र-उद्धार
(करोड़ वर्ष पूर्व)
73.7429125 रैवत मनु से पञ्चम मन्वन्तर का प्रारम्भ; इन्द्र : शिखी; सप्तर्षि : हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पर्जन्य, महामुनि
42.8981125 चाक्षुष मनु से छठे मन्वन्तर का प्रारम्भ; इन्द्र : मनोजव; सप्तर्षि : सुमेधा, विरजा, हविष्यमान्, उत्तम, मधु, अतिनामा एवं सहिष्णु
42.89 भगवान् विष्णु का कच्छप-अवतार एवं क्षीरसागर के मन्थन से चन्द्रमा सहित 14 रत्नों की उत्पत्ति; दक्ष प्रजापति द्वारा नवीन प्रजा का सृजन
12.0533125 वैवस्वत मनु से सप्तम मन्वन्तर का प्रारम्भ; भगवान् विष्णु का मत्स्य-अवतार; इन्द्र : ओजस्वी (ऊर्जस्वी); सप्तर्षि : काश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि एवं भरद्वाज
12.0533 वैवस्वत मन्वन्तर के प्रथम सत्ययुग में ब्रह्मा द्वारा उत्पलारण्य में विशाल वारुण यज्ञ का अनुष्ठान।
12.0461 वैवस्वत मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु से सूर्यवंश और पुत्री इला से चन्द्रवंश का प्रारम्भ
11.7509 प्रथम त्रेतायुग में इन्द्र-वृत्र-युद्ध; (भाद्रपद शुक्ल द्वादशी) प्रथम त्रेतायुग में भगवान् विष्णु का वामन-अवतार; प्रथम त्रेतायुग में भगवान् विष्णु का दत्तात्रेय-अवतार
11.6645 प्रथम द्वापर में ब्रह्मा द्वारा वेदों का संपादन
11.2325 दूसरे द्वापर में प्रजापति द्वारा वेदों का संपादन
11.2325 दूसरे द्वापर में महान् सम्राट् शौनहोत्र
10.8005 तीसरे द्वापरयुग में शुक्राचार्य द्वारा वेदों का संपादन
10.3865 चौथे द्वापरयुग में बृहस्पति द्वारा वेदों का संपादन
9.9365 5वें द्वापरयुग में सूर्य के अधिष्ठाता द्वारा वेदों का संपादन
9.5045 6ठे द्वापरयुग में यम द्वारा वेदों का संपादन
9.0725 7वें द्वापरयुग में इन्द्र द्वारा वेदों का संपादन
8.6405 8वें द्वापरयुग में महर्षि वसिष्ठ द्वारा वेदों का संपादन
8.2085 9वें द्वापरयुग में सारस्वत द्वारा वेदों का संपादन
7.9925 10वें त्रेतायुग में ब्रह्मा द्वारा प्रभास क्षेत्र में सोमनाथ-ज्योतिर्लिंग की स्थापना और सभामण्डप का निर्माण
7.7765 10वें द्वापरयुग में त्रिधामा द्वारा वेदों का संपादन
7.3445 11वें द्वापरयुग में त्रिशिख (कृषभ) द्वारा वेदों का संपादन
7.30 12वें सत्ययुग में ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य ऋषि के क्रोध द्वारा (रावण के पिता) विश्रवा की उत्पत्ति
6.9125 12वें द्वापरयुग में सुतेजा द्वारा वेदों का संपादन
6.4805 13वें द्वापरयुग में धर्म (अन्तरिक्ष) द्वारा वेदों का संपादन
6.0485 14वें द्वापरयुग में वर्णी द्वारा वेदों का संपादन
5.6029 15वें त्रेतायुग में सूर्यवंशीय सम्राट् मान्धाता का शासन
5.6165 15वें द्वापरयुग में त्रय्यारुण द्वारा वेदों का संपादन
5.4005 16वें सत्ययुग में महर्षि दीर्घतमा
5.4005 16वें सत्ययुग में चन्द्रवंशीय दुष्यन्त-शकुन्तलापुत्र भरत
5.1845 16वें द्वापरयुग में धनञ्जय द्वारा वेदों का संपादन
4.7525 17वें द्वापरयुग में कृतुञ्जय द्वारा वेदों का संपादन
4.3205 18वें द्वापरयुग में जय द्वारा वेदों का संपादन
3.8855119 19वें त्रेता और द्वापर की सन्धि में भगवान् विष्णु का परशुराम-अवतार
3.8885 19वें द्वापरयुग में महर्षि भरद्वाज द्वारा वेदों का संपादन
3.4565 20वें द्वापरयुग में महर्षि गौतम द्वारा वेदों का संपादन
3.0245 21वें द्वापरयुग में हर्यात्मा (उत्तम) द्वारा वेदों का संपादन
2.5925 22वें द्वापरयुग में वाजश्रवा (नारायण) द्वारा वेदों का संपादन
2.1605 23वें द्वापरयुग में तृणबिन्दु (सोम मुख्यायन) द्वारा वेदों का संपादन
1.8149 24वें त्रेता के अन्त और द्वापर के आदि में महर्षि वाल्मीकि द्वारा वेदों का संपादन, ‘रामायण’ एवं ‘योगवासिष्ठ’ (महारामायण) की रचना
1.8149125 24वें त्रेता और द्वापर की सन्धि में भगवान् विष्णु का रामावतार
1.8138 राम के पुत्र कुश का शासन
1.2965 25वें द्वापरयुग में शक्ति (अर्वाक्) द्वारा वेदों का संपादन
(लाख वर्ष पूर्व)
86.45 26वें द्वापरयुग में पराशर ऋषि द्वारा वेदों का संपादन
43.25 27वें द्वापरयुग में जातुकर्ण द्वारा वेदों का संपादन
38.93125 (वैशाख शुक्ल तृतीया) 28वें सत्ययुग का प्रारम्भ
21.65125 (कार्तिक शुक्ल नवमी) 28वें त्रेतायुग का प्रारम्भ
21.65 28वें त्रेतायुग में ‘सूर्यसिद्धान्त’ की रचना
8.69125 28वें द्वापरयुग का प्रारम्भ
2.21125 28वें द्वापरयुग के तृतीय चरण की समाप्ति के समय संवरण के पुत्र राजा कुरु द्वारा धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र की स्थापना
2.21125-2.09125 कुरु का शासन
(ईसा पूर्व)
3538-3138 द्रोणाचार्य
लगभग 3500-3000 28वें द्वापर के अन्त में भगवान् विष्णु के 20वें अवतार महाभारतकार महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास द्वारा वेदों एवं पुराणों का संपादन; ‘
राजवंश (1168 वर्षों में 25 राजा)
3300 (अनुमानित) जैन-वाङ्मय में वर्णित 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमिनाथ
3229 धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म
3228 (श्रीमुख संवत्सर, 21 जुलाई, बुधवार)28वें द्वापरयुग के अन्त में भगवान् विष्णु का श्रीकृष्णावतार, ‘श्रीकृष्ण-संवत्’ का प्रारम्भ; भीम एवं दुर्योधन का जन्म; भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा शकट-भंजन
3228-3218 भगवान् श्रीकृष्ण का व्रज में निवास
3227 अर्जुन का जन्म; भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा त्रिणिवर्त-वध
3223 भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अघासुर-वध
3222-3122 महात्मा विदुर
3221 (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से सप्तमी) भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन धारणकर इन्द्र का गर्वभंग
3218 (कार्तिक शुक्ल चतुदर्शी) मथुरा में धनुष-यज्ञ
3213 (फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा) पाण्डु का निधन
3193 (फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, रोहिणी नक्षत्र) पाण्डवों का हस्तिनापुर से वारणावत जाने के लिए प्रस्थान
3190 (पौष शुक्ल एकादशी, रोहिणी नक्षत्र) द्रौपदी-स्वयंवर
3155-3138 अभिमन्यु
3153 भीमसेन द्वारा जरासन्ध-वध, मगध में सिंहासन पर जरासन्ध-पुत्र सहदेव का अभिषेक
3152 इन्द्रप्रस्थ में राजसूय-यज्ञ
3152-3139 कौरवों एवं पाण्डवों के मध्य द्यूत-क्रीड़ा, पाण्डवों को 12 वर्षों का वनवास एवं 1 वर्ष का अज्ञातवास
3139 (मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी) भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश
3139-3138 कुरुक्षेत्र में महाभारत-युद्ध
3138 (माघ शुक्ल अष्टमी) भीष्म पितामह का स्वर्गारोहण; (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) धर्मराज युधिष्ठिर का शासन प्रारम्भ, ‘युधिष्ठिर-संवत्’ का प्रवर्तन
3138-3102 धर्मराज युधिष्ठिर का शासन
3118 नागों की माता कद्रू द्वारा सौ वर्ष बाद जनमेजय के नाग-यज्ञ में नागों को भस्म होने का शाप
3102 (बहुधान्य संवत्सर, माघ शुक्ल पूर्णिमा, 18 फरवरी, शुक्रवार) भगवान् श्रीकृष्ण का गोलोकारोहण, 28 वें कलियुग का प्रारम्भ
3102 द्वारका नगरी का पतन
3102 पाण्डवों का परीक्षित को राजगद्दी सौंपकर हिमालय प्रस्थान
3102-3042 परीक्षित का शासन
3102 वज्र यदुवंश का राजा बना
3071 (भाद्रपद शुक्ल नवमी) शुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित को भागवतमहापुराण की कथा सुनानी प्रारम्भ की
3042-2958 जनमेजय का शासन
3018 (भाद्रपद कृष्ण पञ्चमी) जनमेजय का नागयज्ञ स्थगित
2902 (आषाढ़ शुक्ल नवमी) महर्षि गोकर्ण ने धुन्धुकारी को भागवत की कथा सुनानी प्रारम्भ की
2872 (कार्तिक शुक्ल नवमी) सनकादि ने भागवत की कथा सुनानी प्रारम्भ की
2142-2042 जैन-वाङ्मय में वर्णित 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ
2132-1994 मगध में प्रद्योत-राजवंश (138 वर्षों में 5 राजा)
2102 काश्यप-पुत्र कण्व मुनि का जन्म
1994-1634 मगध में शिशुनाग-राजवंश (360 वर्षों में 10 राजा)
1900 (अनु.) भूगर्भिक परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी राजस्थान के मरुस्थल में लुप्त
1887-1807 बौद्ध-वाङ्मय में वर्णित 28वें बुद्ध सिद्धार्थ गौतम
1864-1792 जैन-वाङ्मय में वर्णित 24वें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर
1748 शिशुनाग-वंश के 8वें राजा उदीयन (उदायी, उदयाश्व) द्वारा कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) नगर की स्थापना
1634-1534 मगध में नन्द-राजवंश (100 वर्षों में 9 राजा)
1534-1218 मगध में मौर्य-राजवंश (316 वर्षों में 12 राजा)
1534-1500 चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन
1500-1472 बिन्दुसार का शासन
1472-1436 अशोक का शासन
1294-1234 कनिष्क का शासन, इसी काल में आयुर्वेदाचार्य चरक हुए
1218-918 मगध में शुंग राजवंश (300 वर्षों में 10 राजा)
918-833 मगध में कण्व राजवंश (85 वर्षों में 4 राजा)
833-327 मगध में आंध्र राजवंश (506 वर्षों में 32 राजा)
557-492 कुमारिल भट्ट
509-477 आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य
433-418 आन्ध्रवंशीय नरेश गौतमीपुत्र श्रीशातकर्णि का शासन
327-82 मगध में गुप्त राजवंश (245 वर्षों में 7 राजा)
327-320 चन्द्रगुप्त का शासन
326 सिकन्दर का आक्रमण
320-269 समुद्रगुप्त का शासन
102 सम्राट् शकारि विक्रमादित्य का जन्म
97-85 विक्रमादित्य की तपश्चर्या
96 (चैत्र शुक्ल अष्टमी) महान् खगोलविद् एवं गणितज्ञ वराहमिहिर का जन्म
62-57 भर्तृहरि का शासन
57 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, 22 फरवरी) शकारि विक्रमादित्य द्वारा ‘विक्रम संवत्’ का प्रवर्तन
57 ई.पू.-43 ई. सम्राट् शकारि विक्रमादित्य का शासन
55 हरिस्वामी द्वारा शतपथब्राह्मण पर भाष्य-रचना
35 भर्तृहरि का स्वर्गारोहण
34 कालिदास द्वारा ‘ज्योतिर्विदाभरण’ की रचना
(ईसवी सन्)
43 भरतखण्ड में 18 राज्यों की स्थापना
43-53 विक्रमादित्य के पुत्र देवभक्त का शासन
53-113 विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन का शासन
78 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, 3 मार्च) शालिवाहन द्वारा ‘शालिवाहन-संवत्’ का प्रवर्तन
476-550 आर्यभट I
499 आर्यभट्ट I द्वारा ‘आर्यभटीय’ की रचना
569-603 उदयपुर-नरेश गुहिल
598-668 ब्रह्मगुप्त
606-647 सम्राट् हर्षवर्धन का शासन
643 भारतवर्ष पर प्रथम मुस्लिम-आक्रमण
734-753 उदयपुर-नरेश कालभोज (बाप्पा रावल)
736-754 इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) के तोमर वंश के संस्थापक राजा अनंगपाल
1114-1185 भास्कराचार्य II
1179-1192 दिल्ली के चौहानवंशीय नरेश पृथ्वीराज III चौहान
1192 तराईन के युद्ध में मुहम्मद सहाबुद्दीन गोरी के हाथों पृथ्वीराज III चौहान की पराजय
1192-1757 सम्पूर्ण भारतवर्ष पर विभिन्न मुस्लिम-राजवंशों का शासन (565 वर्ष)
अध्याय चतुर्थ ( आध्यात्मिक खण्ड ) में कालगणना से सम्बन्धित प्रकरण देखें-
लोक में सृष्टि उत्पत्ति के क्रम में सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए।
रूद्र की उत्पत्ति यद्यपि गोलोक गोलोक में विष्णु के सापेक्ष समान महत्व के गुण तमस् से दर्शायी है। "तमस गुण "सतो गुण के विपरीत प्रभाव वाला- परन्तु प्रभाव क्रम में तमोगुण निम्नगामी और सतोगुण ऊर्ध्वगामी( ऊपर जाने वाला) रजोगुण मध्यगामी( बीच का गुण) है।
*फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए।
इसी क्रम में विष्णु (सतोगुण ऊर्ध्व वर्ती) से निम्न रजोगुण रूप होने से विष्णु से ब्रह्मा का उत्पन्न माना जाना उचित व सैद्धान्तिक है। और रजोगुण से निम्न तमोगुण रूप होने से ब्रह्मा से रूद्र का उत्पन्न होना माना होना उचित व सैद्धान्तिक है।
क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे। यही नारायण ( क्षीरोदकशायी विष्णु हैं) क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सर्जन किया।
विशेष:- नारायण नाम की व्युत्पत्ति- नार+अयण= दीर्घगुणसन्धि के परिणाम स्वरूप (नारायण) रूप में होती है।
नारायणः- पुल्लिंग (नारा जलं अयनं स्थानं यस्य इति नारायण ।
नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक रोमकूपक जल में एक क्षुद्र विराट पुरुष,( छोटा- विष्णु) ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं।
_______
नारायणाय विप्लेह वासुदेवाय घीमहि तन्नों विष्णुः प्रचोदयात्'। यजुर्वेद के पुरुषसूक्त और उत्तर नारायण सूक्त तथा शतपथ ब्राह्मण (१६। ६। २। १) और शाख्यायन श्रोत सूत्र (१६। १३। १) में नारायण शब्द विष्णु के प्रथम पुरुष के अर्थ में आया है।
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ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन् ! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?
'भगवान नारायण बोले– नारद! आत्मा, आकाश, काल, दिशा, गोकुल तथा गोलोकधाम– ये सभी नित्य हैं। कभी इनका अन्त नहीं होता। गोलोकधाम का एक भाग जो उससे नीचे है, वैकुण्ठधाम है। वह भी नित्य है। ऐसे ही प्रकृति को भी नित्य माना जाता है।
सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्त -पुराण प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3-
नारद ! अतीत काल की बात है, असंख्य ब्रह्माओं का पतन होने के पश्चात् भी जिनके गुणों का नाश नहीं होता है तथा गुणों में जिनकी समानता करने वाला दूसरा नहीं है; वे भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के आदि में अकेले ही थे। उस समय उनके मन में सृष्टि विषयक संकल्प का उदय हुआ। अपने अंशभूत काल से प्रेरित होकर ही वे प्रभु सृष्टिकर्म के लिये उन्मुख हुए थे।
एतरेय -उपनिषद में आता है
‘स इच्छत’एकोऽहं बहुस्याम्।’ उसने इच्छा करते हुए कहा- मैं एक से बहुत हो जाऊँ -
हमें लीला करनी है। लीला (खेलना) अकेले में होता नहीं तब दूसरा संकल्प है ‘एकाकी न रमते’ अर्थात अकेले में रमण नहीं होता। तो क्या करें ? ‘स इच्छत, एकोऽहम् बहुस्याम्’ - भगवान ने सृष्टि के प्रारम्भ में संकल्प किया, देखा कि मैं एक बहुत हो जाऊँ। ‘मैं एक ही बहुत हो जाऊँ’ ऐसी जहाँ इच्छा हुई तो जगत की उत्पत्ति हो गयी।
सन्दर्भ:-(ऐतरेयोपनिषद् 1/3/11)
सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….”एकोऽहम् बहुस्याम.” = एक से मैं बहुत हो जाऊँ"" ईश्वर ने यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुतों में विभक्त करूँ .यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्मांड "ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परमपिता के प्रतिबिम्ब हैं .।
इस भावबोध के जगते ही मनुष्य सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध है और विकास का अनुभव भी होता है.।
उस परमेश्वर का स्वरूप स्वेच्छामय है। वह अपनी इच्छा से ही दो रूपों में प्रकट हो गया। क्योंकि सृष्टि उत्पत्ति के लिए द्वन्द्व आवश्यक था। उनका वामांश स्त्रीरूप में आविर्भूत हुआ और दाहिना भाग पुरुष रूप में।
इसी लिए स्त्री को लोक व्यवहार में 'वामा' भी कहते हैं ।
तत्पश्चात स्त्री पुरुष से मैथुनीय सृष्टि का विकास हुआ।
भारतीय पुराणों में चन्द्रमा की उत्पत्ति भिन्न- भिन्न विरोधाभासी रूपों में दर्शायी गयी है; जिससे चन्द्रमा की वास्तविक उत्पत्ति का निश्चय नहीं किया जा सकता है। परन्तु पुराणों की अपेक्षा" वेद" प्राचीनतर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक साक्ष्य हैं। अत: वेदों के साक्ष्य पुराणों की अपेक्षा अधिक प्रबल हैं।
ऋग्वेद में "चन्द्रमा" की उत्पत्ति विराट पुरुष ( विष्णु) के मन से बतायी है। इस लिए चन्द्रमा विष्णु से उत्पन्न होने से कारण वैष्णव भी है। चन्द्रमा नाम से जो ग्रह अथवा नक्षत्र है। उसका अधिष्ठाता भी जो वैष्णव आत्मिक सत्ता है उसे ही चन्द्रमा नाम से सम्बोधित किया जाता है।
जिसके कारण उसका पृथ्वी के उपग्रह रूप में समायोजन हुआ। वह सोम: अथवा "चन्द्र:" है।
चदि (चन्द्)=आह्लादे दीप्तौ वा चदि( चन्द्) +णिच्+रक् = चन्द्र:। चन्द्रमा को देखकर मन को प्रसन्नता होती है इस लिए उसकी चन्द्र संज्ञा है।
चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश के परावर्तित होने से चमकता है इस लिए भी वह चन्द्र है।
यूरोपीय सास्कृतिक भाषा लैटिन में (candere= "to shine"-चमकना" क्रिया है।
जिसका मूल विकास (from- PIE( proto Indo- Europian root *kand- "to shine"). से सम्बन्ध है।
*kend-, Proto-Indo-European root meaning "to shine."
यह चन्द्रमा विराट विष्णु के मन से अथवा उनके हृदय से उत्पन्न हुआ है अत: इसका एक नाम मान: हुआ। मान शब्द समय का मानक होने से भी सार्थक है। संस्कृत में मान: शब्द ( मा =मापन करना- धातु से ल्युट्(अन्) तद्धित प्रत्यय करने पर बनता है।
हे मनुष्यो ! इस विराट पुरुष के (मनसः)-मनन रूप मन से (चन्द्रमाः) (जातः) उत्पन्न हुआ (चक्षोः) आँखों से (सूर्य्यः) सूर्य (अजायत) उत्पन्न हुआ (श्रोत्रात्) श्रोत्र नामक अवकाश रूप सामर्थ्य से (वायुः) वायु (च) तथा आकाश प्रदेश (च) और (प्राणः) जीवन के निमित्त दश प्राण उत्पन्न हुए। और (मुखात्) मुख से (अग्निः) अग्नि (अजायत) उत्पन्न हुआ है, ॥१२॥
ऋग्वेद के इसी विष्णु सूक्त में विराट पुरुष ( विष्णु) से सम्बन्धित अन्य ऋचाओं में विराट पुरुष का वर्णन है, स्पष्ट रूप से हुआ है। पुराणों में वर्णित है कि
विराट पुरुष( विष्णु) की नाभि से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। जिनसे चातुर्यवर्ण की सृष्टि होती है। जैसे ब्राह्मण - ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं ब्राह्मण ही कालान्तरण में चार रूपों में कर्मानुसार चार वर्णों में विभाजित हुए। और कर्म गत रूढि दीर्घकालिक हो जाने से वर्ण - व्यवस्था का विकास हुआ। जो कर्मगत न होकर जन्मगत होगयी। पुराणों में ब्रह्मा से गोपों की उत्पत्ति नहीं दर्शायी गयी है।
ब्रह्मा को गोपों की स्तुति करते हुए पुराणों में बताया गया है। गोप ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं।
अर्थ:- श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।४८।
अर्थ:-श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।
उनके नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए, और उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे। फिर भी वे पद्मयोनि ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनाल के अन्ततक नहीं जा सके,हे नारद !तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिन्तातुर हो गये ।53-54॥
ऋग्वेद में भी इसी विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न है। यही चन्द्रमा गोप- संस्कृति का सांस्कृतिक टॉटम ( प्रतीक ) बन गया। गोप भी स्वराट् - विष्णु के हृदय स्थल पर स्थित रोनकूपों से उत्पन्न हुए।
★-इसीलिए चन्द्रमा गोपों का सहजाति और सजाति भी है।
"तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
( ऋग्वेद-10/90/5 )
अनुवाद:- उस विराट पुरुष से यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ। उसी विराट से ब्रह्मा सहित जीव समुदाय उत्पन्न हुआ। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया।5।
'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं। इस विराट पुरुष के द्वारा इसी प्रकार अनेक लोकों को रचा गया ।14।
वेद की इस उत्पत्ति सिद्धान्त को श्रीमद्भगवद्गीता में भी बताया गया-
श्रीमद्भगवद्-गीता अध्याय (11) श्लोक ( 19)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद -
आपको मैं अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते हुए देख रहा हूँ।11/19.
_________
इसलिए अहीरों की उत्पत्ति गायत्री से भी पूर्व है।
"चन्द्रमा और वर्णव्यवस्था में- ब्राह्मण उत्पत्ति को एक साथ मानना भी प्रसंग को प्रक्षेपित करता है।
गायत्री का विवाह ब्रह्मा से हुआ गायत्री ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं ये गोपों(अहीरों) की कन्या थी जो गोप विष्णु के रोमकूप
से उत्पन्न हुए थे।
_____
और गायत्री के परवर्ती काल में उत्पन्न पुरुरवा जो गायत्री का अनन्य स्तौता- (स्तुति करने वाला पृथ्वी (इला) पर उत्पन्न प्रथम गोपालक सम्राट था । जिसका साम्राज्य पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक स्थापित है। ऋग्वेद के दशवें मण्डल के 95 वें सूक्त पुरुरवा का एक विशेषण गोष:( घोष:) है।
पुरुरवा के आयुष-फिर उनके नहुष और नहुष के पुत्र ययाति से यदु, तुर्वसु, पुरु ,अनु ,द्रुह ,आदि पुत्रों का जन्म हुआ। जो सभी आभीर जाति के अन्तर्गत ही थे।
पुराणों में चन्द्रमा के जन्म के विषय में अनेक कथाऐं है।
कहीं कहीं चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि ऋषि के नेत्र मल से बतायी है जिन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र कहा है। जबकि अनसुया से भी अत्रि ऋषि चन्द्रमा को उत्पन्न कर सकते थे। परन्तु चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि से काल्पनिक रूप से ही जोड़ी गयी है। अत: यह व्युत्पत्ति शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरी होने से अमान्य है।
और तो और कहीं चन्द्रमा की उत्पत्ति त्रिपुर सुन्दरी की बाईं आँख से उत्पन्न कर दिया गया है।
और कहीं समुद्र मन्थन काल में भी समुद्र से उत्पन्न चौदह रत्नों में चन्द्रमा भी एक बताया गया है।
ब्रह्माण्ड महापुराण वायुप्रोक्त मध्यभाग तृतीय उपोद्धातपाद के अन्तर्गत ऋषिवंशवर्णनं नामक -
अष्टमोऽध्यायः॥ ८॥
📚
चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि की पत्नी भद्रा से मानी जाये अथवा अनसूया से ?
अनसूया प्रजापति कर्दम और देवहूति की 9 कन्याओं में से एक तथा अत्रि मुनि की पत्नी थीं। जबकि अत्रि ऋषि की भद्रा नाम की पत्नी घृताची अप्सरा में उत्पन्न भद्राश्व की पुत्री थी। अनुसूया और भद्रा दोनों अलग अलग महिलाऐं
हैं।
दोनों के माता पिता भी अलग अलग हैं।
और दोनो से एक ही सोम( चन्द्रमा) का उत्पन्न होना प्रक्षेप के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
अग्नि पुराण में कहा गया है कि
विष्णु की नाभि कमल से ब्रह्मा, ब्रह्मा से अत्रि, अत्रि से सोम और सोम उत्पन्न हुआ।
( अग्नि-पुराण ,अध्याय 12)।
.अत्रि और अनसूया से, सोम, दुर्वासा और दत्तात्रेय योगी का जन्म हुआ ।१२।
(अग्नि पुराण, अध्याय 20)
सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात् ।
जातस्यासीत् सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥
तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल ।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥
(भागवत पुराण 9/14/2-3)
अनसूया (अनसूया): - वह पत्नी अत्रि की हैं। अत्रि के आंसुओं से वह गर्भवती हो गईं और उनके सोम, दुर्वासा और दत्तात्रेय नामक तीन पुत्र हुए।
सन्दर्भ:- ( भागवत पुराण 9.14.3 देखें )
अत्रि माता गायत्री के विवाह में मन्त्रोचारण करने वाले "होता" के रूप में थे इसी कारण अत्रि को गोपों का गोत्र प्रवतक माना जाता है।
"अत्रेरनसूयाप्यजीजनत्।
सोमं दुर्वाससं पुत्रं दत्तात्रेयञ्च योगिनम् ।१२ ।
अनुवाद:- अत्रि से अनुसूया में सोम, दुर्वासा, और दत्तात्रेय का जन्म हुआ।१२।
(अग्निपुराण- अध्याय- 20)
___________
इति श्री ब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमाभागे तृतीय
चन्द्रमा की व्युत्पत्ति के ये सम्पूर्ण प्रकरण परस्पर विरोधी हैं और बाद में जोड़े गये हैं।
क्योंकि सत्य के निर्धारण में कोई विकल्प नहीं होता है। यहाँ तो चन्द्रमा की उत्पत्ति के अनेक विकल्प हैं। इसलिए यहाँ चन्द्रमा की उत्पत्ति के विषय में दार्शनिक सिद्धान्तों के विपरीत अनेक बातें स्वीकार करने योग्य नहीं हैं।
विज्ञान के सिद्धान से चन्द्रमा की उत्पत्ति भी आनुमानिक ही है।
परन्तु वेदों में चन्द्रमा का उत्पत्ति के पुरातन सन्दर्भ विद्यमान हैं । वही स्वीकार करने योग्य है।
और हमने उन्हें साक्ष्य रूप में प्रस्तुत किया है।
वहाँ पर चन्द्रमा विराटपुरुष- (विष्णु ) के मन से उत्पन्न हुआ बताया है।
चन्द्रमा की उत्पत्ति का यह प्राचीन प्रसंग विराट पुरुष (महा विष्णु) के मन से हुआ है उसी क्रम में जिस क्रम में जिस क्रम में ब्रह्माण्ड के अनेक रूपों की उत्पत्ति हुई है। यह सब हम ऊपर विवेचन कर ही चुके हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में कुछ ऋचाऐं वैदिक सिद्धान्तों के विपरीत होने से क्षेपक (नकली) ही हैं। जैसे नीचे दी गयी बारहवीं ऋचा- से जाना जा सकता है।
ऋग्वेद में वर्णित उपर्युक्त(12)वीं ऋचा वैदिक सिद्धान्त के विपरीत है यह ऋचा विराट पुरुष के नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्मा से सम्बन्धित होने से परवर्ती व पौराणिक सन्दर्भ है। इसे बाद में जोड़ा गया है।
क्योंकि ब्राह्मण शब्द ब्रह्मा की सन्तान का वाचक है। जैसा कि पाणिनीय अष्टाध्यायी लिखित है।
"ब्रह्मणो जाताविति ब्राह्मण- ब्रह्मा से उत्पन्न होने से ब्राह्मण” पाणिनीय- सूत्र न टिलोपः की व्याकरणिक विधि से ब्रह्मन्- शब्द के बाद में अण्- सन्तान वाची तद्धित प्रत्यय करने पर ब्राह्मण शब्द बनता है।
"ब्रह्मणो मुखजातत्वात् ब्रह्मणोऽपत्यम् वा अण्। अर्थात -"ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने से ब्राह्मण कहलाए-
जैसे मनु और श्रृद्धा क्रमश: मस्तिष्क मनन ( विचार) और हृदय के भावों के प्रतिनिधि हैं।
यहाँ एक इला की भूमिका वाणी ( अथवा ) पृथ्वी के रूप में है।
महाकवि जय शंकर प्रसाद की कामायनी इस दशा में एक नवीन व्याख्या है।
"जिस प्रकार श्रद्धा और मनु के सहयोग से बौद्धिक चेतना के सर्वोच्च आयाम के रूप में मानव के विकास की गाथा को, रूपक के आवरण में लपेटकर महाकाव्यों में प्रस्तुत किया गया है। उसी प्रकार मान (विचार) से बुध( ज्ञान) और बुध और इला( वाणी ) के संयोग से पुरुरवा( अधिक स्तुति करने वाला कवि) कवि और हृदय की संवेदना( वेदना) उरु + अशी= यण् सन्धि विधान से उर्वशी शब्द उत्पन्न होता है। - उर्वशी हृदय की अशी( इच्छा) है उसी के अन्तस् से आयुस् ( जीवन शक्ति) का विकास हुआ।
उर्वशी निश्चित रूप से उरु (हृदय) की वह अशी (आशा ) है जो आयुस् (जीवन शक्ति) धारण करती है।
भले ही मानव सृष्टि का विकास पूर्व पाषाण काल के क्रमनुसार बौद्धिक विकास प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप ही माना गया हो परन्तु मिथकीय रूपान्तरण की आधार शिला पर संस्कृतियों का विकास हुआ ही है इसे कभी अमान्य नहीं किया जा सकता है।
मानवता के नवयुग के प्रवर्त्तक के रूप में मनु की कथा विश्व की अनेक प्रसिद्ध संस्कृतियों में जैसे मिश्र में "मेनेज- ग्रीक (यूनान) में "मोनोस- उत्तरीय जर्मनी "मेनुस" और सुमेरियन संस्कृतियों में "नूह" और भारतीय अनुश्रुति में मनु के रूप में दृढ़ता से मान्य है।
यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट (Crete ) की संस्कृतियों में "मनु" आयॉनिया लोगों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए। भारतीय संस्कृति की पौराणिक कथाऐं इन्हीं घटनाओं ले अनुप्रेरित हैं। _________________________________________
भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनन ) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) के मानवीय-करण (personification) रूप है
हिब्रू बाइबिल में नूह का वर्णन:-👇 बाइबिल उत्पत्ति खण्ड (Genesis)- "नूह ने यहोवा (ईश्वर) कहने पर एक वेदी बनायी ; और सब शुद्ध पशुओं और सब शुद्ध पक्षियों में से कुछ की वेदी पर होम-बलि चढ़ाई।(उत्पत्ति-8:20) ।👇
आश्चर्य इस बात का है कि ..आयॉनियन भाषा का शब्द माइनॉस् तथा वैदिक शब्द मनु: की व्युत्पत्तियाँ (Etymologies)भी समान हैं।
जो कि माइनॉस् और मनु की एकरूपता(तादात्म्य) की सबसे बड़ी प्रमाणिकता है।
यम और मनु को भारतीय पुराणों में सूर्य (अरि) का पुत्र माना गया है।
क्रीट पुराणों में इन्द्र को (Andregeos) के रूप में मनु का ही छोटा भाई और हैलीअॉस् (Helios) का पुत्र कहा है। इधर चतुर्थ सहस्राब्दी ई०पू० मैसॉपोटामियाँ दजला- और फ़रात का मध्य भाग अर्थात् आधुनिक ईराक की प्राचीन संस्कृति में मेनिस् (Menis)अथवा मेैन (men) के रूप में एक समुद्र का अधिष्ठात्री देवता है।
यहीं से मेनिस का उदय फ्रीजिया की संस्कृति में हुआ था । यहीं की सुमेरीयन सभ्यता में यही मनुस् अथवा नूह के रूप में उदय हुआ, जिसका हिब्रू परम्पराओं नूह के रूप वर्णन में भारतीय आर्यों के मनु के समान है। मनु की नौका और नूह की क़िश्ती दोनों प्रसिद्ध हैं।
मन्नुस, रोमन लेखक टैसिटस के अनुसार, जर्मनिक जनजातियों के उत्पत्ति मिथकों में एक व्यक्ति था। रोमन इतिहासकार टैसिटस इन मिथकों का एकमात्र स्रोत है।
जिससे यूरोपीय भाषा परिवार में मैन (Man) शब्द आया ।
मनन शील होने से ही व्यक्ति का मानव संज्ञा प्राप्त हुई है।
ऋग्वेद में इडा का रूपान्तरण कहीं इला तो कहीं इरा के रूप में भी है। का कई जगह उल्लेख मिलता है।
यह प्रजा पति मनु की पथ-प्रदर्शिका, मनुष्यों का शासन करने वाली कही गयी है ।
इन ऋचाओं( श्लोकों) में मध्यमा, वैखरी और पश्यन्ती नामक वाणीयों की प्रतिनिधि भारती, सरस्वती के साथ इड़ा का नाम भी आया है। लौकिक संस्कृत में इड़ा शब्द पृथ्वी , बुद्धि, वाणी आदि का पर्यायवाची है---'गो भूर्वाचत्स्विड़ा इला'- गाय पृथ्वी वाणी सभी का वाचक इला-(इडा) है।--(अमरकोश)।
इडा- स्त्रीलिंग।
समानार्थक:व्याहार,उक्ति,लपित,भाषित,वचन,
वचस्,गो,इडा,इला,इरा अमर कोश-3।3।42।2।2
इस इडा या वाक् के साथ मनु या मन के एक और विवादात्मक संवाद का भी शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है जिसमें दोनों अपने महत्व के लिए झगड़ते हैं-'अथातोमनसश्च' इत्यादि (4 अध्याय 5 शतपथ-ब्राह्मण)। ऋग्वेद में इड़ा को, बुद्धि का साधन करने वाली; मनुष्य को चेतना प्रदान करने वाली कहा है।
"व्यक्ति की वाणी की प्रखरता ही उसके बौद्धिक स्तर की मापिका और चेतना की प्रतिबिम्ब है।
बुद्धिवाद के विकास में, अधिक सुख की खोज में, दुख मिलना स्वाभाविक है। यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया है ।
इसीलिए मनु, श्रद्धा और इड़ा पुरुरवा इत्यादि अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुए, सांकेतिक अर्थ की भी अभिव्यक्ति करते हैं।
अर्थात् मन के दोनों पक्ष १-हृदय और २-मस्तिष्क का संबंध क्रमशः श्रद्धा और इड़ा से भी सरलता से लग जाता है।
देवा:= देवता लोग (हृदय्यया-आकूत्या) हृदयस्थ भावेच्छा से (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (यजमानाः) यजनशील (आयु नामक गोपा ) उपासना करता है। (श्रद्धया वसु विन्दते) श्रद्धा से संसार की सभी वस्तुऐं प्राप्त होती हैं ॥४॥
(ऋग्वेद 10-151-4)
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यूरोपीय भाषाओं में चन्द्रमा का नामान्तरण मून है। जिसका सीधा सम्बन्ध भारोपीय(मूल वैदिक शब्द मान=(मन+अण्- मनसो जात: चन्द्रमा) अर्थात मन से उत्पन्न- इस प्रकरण पर हम विस्तृत विश्लेषण आगे क्रमश करते हैं।
कवि शब्द शब्दार्थ के विशेषज्ञ का वाचक है।जो कि एक कवि की मौलिक विशेषता होती है।
"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा( मान ) कहलाया चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से । यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं।
और इस मान:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में है और उर्वशी पुरुरवा के काव्य का मूर्त ( साकार) है। क्यों कि स्वयं पुरुरवा शब्द का मूल अर्थ है। अधिक कविता /स्तुति करने वाला- संस्कृत इसका व्युत्पत्ति विन्यास इस प्रकार है। पुरु- प्रचुरं रौति( कविता करता है) कौति- कविता करता) इति पुरुरवस्- का प्रथमा विभक्ति एक वचन का रूप पुरुरवा अधिक कविता अथवा स्तुति करने के कारण इनका नाम पुरुरवा है। क्योंकि गायत्री के सबसे
बड़े स्तोता ( स्तुति करने वाले थे) शब्द व्युत्पत्ति का व्याकरणिक विश्लेषण निम्नांकित-
पुरूरवसे - पुरु रौतीति पुरूरवाः । ‘रु = शब्दे( शब्द करना '। अस्मात् औणादिके असुनि ‘पुरसि च पुरूरवाः' (उणादि. सूत्र. ४. ६७१) इति पूर्वपदस्य दीर्घो निपात्यते।
अनुवाद:-प्राचीन काल में पुरुरवस् (पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।
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वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही हैं । पुरुरवा ,बुध ,और ,इला की सन्तान था।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।
"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा (मान ) कहलाया चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से । यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं।
और इस मान -( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में ।
चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है अत: चन्द्रमा भी वैष्णव है। गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न हैं। वह तो वैष्णव हैं रही। नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।
चन्द्रमा की वास्तविक और प्राचीन उत्पत्ति का सन्दर्भ- ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें पुरुष सूक्त की (13) वीं ऋचा में है। जिसको हम उद्धृत कर रहे हैं ।
📚: चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है मन ही हृदय अथवा प्राण के तुल्य है। चन्द्रमा भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से भी वैष्णव है। चन्द्रमा के वैष्णव होने के भी अनेक शास्त्रीय सन्दर्भ हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें सूक्त में विराट पुरुष से विश्व का सृजन होते हुए दर्शाया है। और इसी विराट स्वरूप के दर्शन का कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिखाया जाना श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में वर्णन किया गया है।
नीचे 'विराट पुरुष' के स्वरूप का वर्णन पहले ऋग्वेद तत्पश्चात श्रीमद्भगवद्गीता में देखें
"तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
(ऋग्वेद-10/90/5 )
अनुवाद:- उस विराट पुरुष से यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ। उसी विराट से जीव समुदाय उत्पन्न हुआ। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया।5।
'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं। इस विराट पुरुष के द्वारा इसी प्रकार अनेक लोकों को रचा गया ।14।
श्रीमद्भगवद्-गीता अध्याय (11) श्लोक ( 19)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद -
आपको मैं अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते हुए देख रहा हूँ।11/19.
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गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उनके हृदय से ही उत्पन्न होते हैं। वह तो वैष्णव हैं ही। क्योंकि वे स्वराट- विष्णु के तनु से उत्पन्न उनकी सन्तान हैं।
वेदों में चन्द्रमा को भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न दर्शाया है। और वेदों का साक्ष्य पुराणों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ व प्रबल है।
चन्द्रमा यादवों का आदि वंश द्योतक है।
नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।
ऋग्वेद पुरुष सूक्त में जोड़ी गयी (12) वीं ऋचा ब्रह्मा से सम्बन्धित है।
📚: उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की सम्पूर्ण (18) ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है।
जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- हैं । अत: पुरुरवा एक गो- पालक राजा ही सम्राट् भी है।
पुरुरवा बुध ग्रह और पृथ्वी ग्रह (इला) ग्रह से सम्बन्धित होने से इनकी सन्तान माना गया है।
यही व्युत्पत्ति सैद्धान्तिक है।
यदि आध्यात्मिक अथवा काव्यात्मक रूप से इला-वाणी अथवा बुद्धिमती स्त्री और बुध बुद्धिमान पुरुष का भी वाचक है । और पुरुरवा एक शब्द और उसकी अर्थवत्ता के विशेषज्ञ कवि का वाचक है। और उर्वशी उसकी काव्य शक्ति है।
यदि पुरुरवा को बुध ग्रह और इला स्त्री से उत्पन्न भी माना जाय तो इला की ऐतिहासिकता सन्दिग्ध है। परन्तु पुरुरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेद, पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में है। पुरुरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है।
"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र पुरुरवा को गायें देकर वन को चला गया।४२।
श्रीमद्भागवत महापुराण
नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥
गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर(गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है । गो सेवक अथवा पालक।
वैदिक ऋचाओं में गोष: ( लौकिक संस्कृत में- घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवा करने वाला" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।
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वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही हैं । पुरुरवा ,बुध ,और इला की सन्तान था।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे।
इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" भी कहा गया है। "ययातिपूजनप्रिया" का अर्थ होता है। जिनको ययाति का पूजन प्रिय हो- वह गायत्री यह अर्थ बहुव्रीहि समास के द्वारा निर्धारित होता है।
इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए , स्वयं कृष्ण और संकर्षण (बलराम) शब्द कृषि मूलक हैं कृष्ण और संकर्षण दौनों भाई कृषि पद्धति के जनक थे बलराम ने हल का आविष्कार कर उसे ही अपना शस्त्र स्वीकार किया। दौनों का सम्बन्ध आभीर जाति से था । स्वयं आभीर शब्द "आर्य के सम्प्रसारण रूप "वीर शब्द का सम्प्रसारण है।
पुरुरवा को ऋग्वेद के दशम मण्डल के 95 वें सूक्त की कुछ ऋचाओं में गोष: और गोपीथ पुरुरवा के गोपालन को दर्शाता है। पुराणों में विशेषत: मत्स्य पुराण में पुरुरवा की पत्नी उर्वशी को आभीर कन्या बताया है। स्पष्ट सी बात है जब दौंनो पत् पत्नी आभीर जाति से सम्बन्धित हैं तो इनकी सन्ताने भी आभीर ही होंगी । उर्वशी शब्द की व्युत्पत्ति को हम नीचे दर्शा रहे हैं।
उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुत सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है। यद्यपि उर्वशी शब्द में यण् सन्धि विधान से (उरु+ अशी ) उरु शब्द का अन्तिम वर्ण और अशी शब्द का प्रारम्भिक वर्ण का यण् सन्धि रूप होगा- (उ+ र्+(उ+अ)+श+ई)=उर्वशी।
" " " " उ+र्+(व)+श+ई= उर्वशी।
"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है। वह उर्वशी है। उर्वशी शब्द का यह भाव मूलक अर्थ भी सार्थक है।
नीचे लिखीं कुछ काव्य पंक्तियाँ पुरुरवा, उर्वशी और उनके रूुक को प्रस्तुत करती हैं।
"कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
हृदय सागर की अप्सरा ।
संवेदन लहरों में विकसी।।
एक रस बस ! प्रेमरस सृष्टि
नहीं कोई काव्य सी !
"प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी और आदि कवि गोपालक पुरुरवा ही है । उर्वशी सौन्दर्य अधिष्ठात्री और उस युग की सबसे सुन्दर नारी है पुरुरवा उर्वशी के सौन्दर्य का समर्पित प्रेमी। यह प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के (95) वें सूक्त में (18) ऋचाओं में सबसे प्राचीन यह "प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।
सत्य पूछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गया हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
कवि बनने का केवल उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक (गोष - गोपीथ )आदि के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।
इस प्रकार पुरुरवा पृथ्वी के सबसे बुद्धि सम्पन्न अत्यधिक स्तुति करने वाले, प्रथम सम्राट थे जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य था।
इनकी पत्नी का नाम उर्वशी था जो अत्यधिक सुन्दर थीं। उनकी सुन्दता प्रभावित अथवा प्रेरित होकर प्रेम के सौन्दर्य मूलक काव्य की प्रथम सृष्टि उर्वशी को आधार मानकर की
उर्वशी का शाब्दिक यदि निरूपित किया जाय तो उर्वशी शब्द की व्युत्पत्ति (उरसे वष्टि इति उर्वशी) और ये उर्वशी यथार्थ उनके पुरुरवा के हृदय में काव्य रूप वसती थी।
किन्तु वह वास्तव में मानवीय रूप में ही थी जिनका जन्म एक आभीर परिवार में हुआ था जिनके पिता "पद्मसेन" आभीर ही थे जो बद्रिका वन के पास 'आभीरपल्लि" में रहते थे।
इस बात कि पुष्टि "मत्स्य पुराण तथा लक्ष्मी नारायण संहिता" आदि ग्रन्थों से होती है। इसके अतिरिक्त
उर्वशी के विषय में शास्त्रों में अनेक सन्दर्भ हैं कि ये स्वर्ग की समस्त अप्सराओं की स्वामिनी और सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी थी और सौन्दर्य ही कविता का जनक है । इसका विस्तृत विवरण उर्वशी -प्रकरण में दिया गया है।
अब इसी क्रम में में पुरुरवा जो उर्वशी के पति हैं। उनके भी गोप होने की पुष्टि ऋग्वेद तथा भागवत पुराण से होती है।
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इस प्रकार से देखा जाए तो प्रथम गोप सम्राट और उनकी पत्नी उर्वशी आभीर जाति सम्बन्धित थे। और इन दोनों से सृष्टि सञ्चालित हुई जिसमें इन दोनों से छ: पुत्र-आयुष् (आयु),मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु आदि उत्पन्न हुए । इसकी पुष्टि भागवत, पुराण ,हरिवंश और अन्य शास्त्रों में मिलती है।
अनुवाद:-1. वैशम्पायन ने कहा: - हे महान राजा, बुध- के पुत्र पुरुरवा विद्वान, ऊर्जावान और दानशील स्वभाव के थे। उन्होंने अनेक यज्ञ किये तथा अनेक उपहार दिये।
ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः। आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।२।
अनुवाद:-2. वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक यज्ञ किये।
अनुवाद:-4. अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति के रूप में चुना।
तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च। पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत ।५।
वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे । अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे ।६।
उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान् । गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे ।७।
एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च । उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।८।
अनुवाद:-5-7. हे भरत के वंशज , राजा पुरुरवा दस साल तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मंदाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल में , उर्वशी के साथ रहे आदि स्थानं पर रहे
सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं।
8. देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया ।
देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते । राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।९।
अनुवाद:-9. वह राजा प्रयाग के पवित्र प्रांत पर शासन करता था , जिसकी महान राजा की ऋषियों ने बहुत प्रशंसा की है ।
तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः । दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।
अनुवाद:-10-उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम आयु, धीमान , अमावसु ,।
पुरुरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे जो गोप जाति में उत्पन्न होकर वैष्णव धर्म का संसार में प्रचार प्रसार करने वाले हुए, जिसके वैष्णव धर्म के संसार में प्रचार का वर्णन- पद्मपुराण के भूमि- खण्ड में विस्तृत रूप से दिया गया ।
पद्म पुराण के उन अध्यायों को पुस्तक में अध्याय के ( श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२। नामक प्रकरण में समायोजित किया गया ।
फिर इसी गोप आयुष से वैष्णव वंश परम्परा आगे चली आयुष और उनकी पत्नी इन्दुमती से कालान्तर में अनेक सन्तानें उत्पन्न हुईं जो वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार करने वाली हुईं।
पुरुरवा और उर्वशी दौनों ही आभीर (गोष:) घोष जाति से सम्बन्धित थे। जिनके विस्तृत साक्ष्य यथा स्थान हम आगे देंगे।
पुरुरवा के छह पुत्रों में से एक सबसे बड़ा आयुष था, आयुष का ही ज्येष्ठ पुत्र नहुष था।
नहुष की माता इन्दुमती जो स्वर्भानु गोप की पुत्री थी। परन्तु कुछ पुराण स्वर्भानु नामक दानव को इन्दुमती का पिता मानते हैं। लिंगपुराण में इन्दुमती का एक नाम प्रभा भी है। नहुष के समय अधिकतर दानव दानशील और धर्मज्ञ हुआ करते थे। नहुष के अन्य कुल चार भाई क्षत्रवृद्ध (वृद्धशर्मन्), रम्भ, रजि और अनेनस् (विषाप्मन्) थे , जो वैष्णव धर्म का पूर्ण पालन करते थे।।
कुछ पुराणों में 'आयुष और 'नहुष तथा 'ययाति की सन्तानों में कुछ भिन्न नाम भी मिलते हैं। जैसे पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार
आयु का विवाह स्वर्भानु की पुत्री इन्दुमती से हुआ था परन्तु इन्दुमती का अन्य नाम मत्स्यपुराण, अग्निपुराण आदि में "प्रभा" भी मिलता है। इन्दुमती से आयुष के पाँच पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत (वृद्धशर्मा), राजभ (गय), रजि, अनेना।
प्रथम पुत्र नहुष का विवाह पार्वती की पुत्री अशोकसुन्दरी (विरजा) से हुआ था। अशोक सुन्दरी का विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टिनिर्मीण खण्ड तथा लिंगपुराण में मिलता है। अशोक सुनदरी की अपेक्षा विरजा नाम ही अधिक उपयुक्त है। नहुष के विरजा में अनेक पुत्र हुए जिसमें- सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और(कृति) थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1 महाभारत में एक पुत्र ध्रुव नाम के पुत्र का भी उल्लेख मिलता है।
ययाति, संयाति, अयाति, यति , ध्रुव, और कृति प्रमुख थे। इन पुत्रों में यति और ययाति प्रिय थे।
पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार नहुष की पत्नी अशोक सुन्दरी पार्वती और शिव की पुत्री थी। जिससे ययाति आदि पुत्रों की उत्पत्ति हुई है।
सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और कृति थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1
शुकदेव ने कहा: पुरुरवा से आयु उत्पन्न हुआ, जिससे अत्यंत शक्तिशाली पुत्र नहुष, क्षत्रियवृद्ध, रजि, राभ और अनेना उत्पन्न हुए थे। हे परिक्षित, अब क्षत्रिय वंश के बारे में सुनो।
क्षत्रियवृद्ध के पुत्र सुहोत्र के, काश्य, कुश और गृत्समद नाम के तीन पुत्र थे। गृत्समद से शुनक पैदा हुए, और उन शुनक के, महान संत, ऋग्वेद के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता, शौनक पैदा हुए।
आयुस का जन्म उर्वशी में पुरुरवा से हुआ था . नहुष का जन्म आयुष की पत्नी स्वर्भानवी प्रभा' से हुआ इसका अन्य नाम ही इन्दुमती भी था।
आयुस वह एक राजा था जिसने तपस्या करके महान शक्ति प्राप्त हुई की और संसार का सम्राट बना। (श्लोक 15, अध्याय 296,शान्ति पर्व, महाभारत).
पुरुरवा के छ: पुत्र-
१-आयुष् (आयु), मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु -हम पुरुरवा के पुत्रों का विवरण पूर्व में भी दे चुके हैं । पुरुरवा स्वयं परम वैष्णव था।
अहिर्बुध्न्यसंहिता नामक ग्रन्थ के अनुसार, आयुष (आयुस) का तात्पर्य "लंबे जीवन" से है, जो पाञ्चरात्र परम्परा से संबंधित है।
'पाञ्चरात्र वैष्णव धर्म की एक परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जहां केवल विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। आयुस ने इस परम्परा का पालन किया।
गोप परम्परा का आदि प्रवर्तक गायत्री माता के परिवार के बाद पुरुरवा ही है।
श्री देवी पार्वती ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।
इस प्रकार (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
अनुवाद:- राधा, श्रीविरजा, और भूदेवी कृष्ण की गोलोक में तीन पत्नियाँ हैं। उनमें राधा सबसे प्रिय श्रीकृष्ण की पत्नी हैं।४।
सन्दर्भ:-श्रीगर्गसंहिता -
वृन्दावनखण्ड अध्यायः॥२६ ॥
भूलोक पर भी कृष्ण के अंशावतार नहुष की पत्नी हैं भी यही विरजा' अज्यप नामक पितर की पुत्री बनकर अवतरित होती हैं।
क्योंकि कृष्ण के अशावतार नहुष की पत्नी कोई साधारण स्त्री कैसे बन सकती है ? कृष्ण गोलोक में स्वराट् विष्णु के रूप में विद्यमान रहते हैं जिनकी गोपेश्वर श्रीकृष्ण नाम से उपस्थिति होती है।
भूलोक पर कृष्ण अपने लीला अवतरण स्वरूप से पहले ही पूर्व व्यवस्था की भूमिका के निर्वहन के लिए अपने अंशों को सबसे पहले अवतरित करते हैं।
विदित हो कि नहुष की विरजा ही अज्यप ऋषि की पुत्री हैं। अज्यप गोपालन और कृषि वृति करने वालों के एक पितर हैं।
अज्यपा नाम पितरः कर्दमस्य प्रजा पतेः ।
समुत्पन्नस्य पुलहादुत्पन्नास्तस्य ते सुताः ॥ २,१०.९३॥
ब्रह्माण्ड पुराण अध्याय ब्रह्माण्ड महापुराण वायुप्रोक्त मध्यभाग तृतीय उपोद्धातपाद के अन्तर्गत ऋषिवंशवर्णनं नामक -
अष्टमोऽध्यायः॥ ८॥
📚
अनसूया प्रजापति कर्दम और देवहूति की नौ(9) कन्याओं में से एक तथा अत्रि मुनि की पत्नी थीं। जबकि अत्रि ऋषि की भद्रा नामकी पत्नी घृताची अप्सरा में उत्पन्न भद्राश्व की पुत्री थी।
अनुसूयाऔर भद्रा दोनों अलग अलग महिलाओ
हैं। दोनों के माता पिता भी अलग अलग हैं।
और दोनो से सोम(चन्द्रमा) का उत्पन्न होना प्रक्षेप के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
क्योंकि दो महिलाओं से एक ही व्यक्ति का उत्पन्न होना शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरीत है।
पुराणों में कालान्तर में कुछ बातें इन पुराणों को का पूर्ण अध्ययन किए विना जोड़ी और तोड़ी गयीं। पुराण लिखने वाला कोई अन्य पुरुष था और इन्हें प्रकाशित कराने वाला कोई ओर -
सोम (चन्द्रमा की उत्पत्ति स्वराट् विष्णु के मन अथवा हृदय से उत्पन्न होने का सन्दर्भ वैदिक है।
जबकि बाद में अत्रि ऋषि से उत्पन्न करने का प्रकरण नकली है। पुराणों में अत्रि ऋषि से चन्द्रमा के उत्पन्न होने का प्रकरण भिन्न भिन्न तरीके से है । जो की विना सिद्धान्त के जोड़ना ही है।
अग्नि पुराण में कहा गया है कि
विष्णु की नाभि कमल से ब्रह्मा, हुए और ब्रह्मा से अत्रि, अत्रि से सोम हुआ उत्पन्न हुआ
(अग्नि-पुराण ,अध्याय 12)।
अनुवाद:-
अत्रि और अनसूया से, सोम, दुर्वासा और दत्तात्रेय योगी का जन्म हुआ ।
(अग्नि पुराण, अध्याय 20)
सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात् ।
जातस्यासीत् सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥
भागवत पुराण में सोम अत्रि ऋषि के नेत्रों से उत्पन्न कर दिया है।
तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥
(भागवत पुराण 9/14/2-3)
अनुवाद:-
अनसूया - वह पत्नी अत्रि की हैं। अत्रि के आंसुओं से वह गर्भवती हो गईं और उनके सोम, दुर्वासा और दत्तात्रेय नामक तीन पुत्र हुए। ( भागवत पुराण 9.14.3 देखें )
"अत्रेरनसूयाप्यजीजनत्।
सोमं दुर्वाससं पुत्रं दत्तात्रेयञ्च योगिनम् ।। १२ ।।
अनुवाद:- अत्रि से अनुसूया में सोम दुर्वासा, और दत्तात्रेय का जन्म हुआ।१२।
यज्ञेष्वत्रेर्बलञ्चैव देवैर्यस्य प्रतिष्ठितम्। स तासु जनयामास पुत्रिकास्वात्मकामजान्॥ १३.१२ ॥
दश पुत्रान् महासत्त्वांस्तपस्युग्रे रतांस्तथा। ते तु गोत्रकरा विप्रा ऋषयो वेदपारगाः॥१३.१३ ॥
सन्दर्भ:-ब्रह्मपुराण-अध्यायः(१३)
पद्मपुराण-भूमि खण्ड में पार्वती ने पारिजात वृक्ष से भी प्राकृतिक रूपधारिका "विरजा" का आह्वान सांसारिक शोक निवारण करने वाली सबसे सुन्दर अशोक सुन्दरी नामक कन्या के रूप में किया ।
तब से यही विरजा अशोक सुन्दरी नाम से भी नामित पार्वती की भी पुत्री है।
अब पार्वती और शिव की पुत्री विरजा-(जो विना रज( पाप) - के उत्पन्न हुई थी) का पति भी कोई साधारण देवता अथवा दैत्य कैसे हो सकता है? इस विरजा के पति तो स्वराट-विष्णु (कृष्ण) के अंशावतार नहुष ही हो सकते हैं।
क्योंकि पार्वती भी गोलोक में कृष्ण से उत्पन्न उन्हीं कृष्ण की एक आद्या सहचरी भी हैं।
"अंशांशकांशकलयाभिरुताभिराम-
मावेशपूर्णनिचयाभिरतीव युक्तः। विश्वं बिभर्षि रसरासमलंकरोषि "वृन्दावनं च परिपूर्णतमः स्वयं त्वम् ॥२४॥
सन्दर्भ:-
(गर्गसंहिता वृन्दावनखण्ड- अध्याय- 25/ 21-26।
अनुवाद:-
वास्तव में हे कृष्ण! आप परात्पर परमात्मा ही हैं। अंशांश, अंश, कला, आवेश तथा पूर्ण-समस्त अवतारसमूहों से संयुक्त हो, आप स्वयं परिपूर्णतम परमेश्वर सम्पूर्ण विश्व की रक्षा करते हैं तथा वृन्दावन में सरस रासमण्डल को भी अलंकृत करते हैं।
"कदा न ते मे विच्छेदो मयि भीरु भविष्यति । स्वतेजसा स्वपुत्राणां सदा रक्षां करिष्यसि ॥२७।।
सन्दर्भ:-
(श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
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श्रीकृष्ण की गोलोक में तीन प्रसिद्ध पत्नी हैं राधा, विरजा और भूदेवी -गोलोक में स्वराट विष्णु ( कृष्ण) का विरजा के साथ विहार; श्रीराधा के भय से विरजा का नदी रूप में परिवर्तित ( बदलना हुआ) होना, उसके कृष्ण से उत्पन्न सात पुत्रों का उसी के शाप से सात समुद्रों का अधिष्ठात्री होने का प्रसंग गर्गसंहिता के वृन्दावन खण्ड के (26) वें अध्याय में है। देखें निम्नलिखित प्रसंग-
श्री नारद जी बोले- महामते नरेश ! यह पूर्वकाल में घटित गोलोक का वृत्तांत है, जिसे मैंने भगवान नारायण के मुख से सुना था।
यह सर्वपापहारी पुण्य-प्रसंग तुम मुझसे सुनो।
श्रीहरि के तीन पत्नियाँ हुई- श्रीराधा, विजया (विरजा) और भूदेवी।
इन तीनों में महात्मा श्रीकृष्ण को श्रीराधा ही अधिक प्रिय हैं। राजन! एक दिन भगवान श्रीकृष्ण एकांत कुंज में कोटि चन्द्रमाओं की-सी कांति वाली तथा श्रीराधिका-सदृश सुन्दरी विरजा के साथ विहार कर रहे थे।
सखी के मुख से यह सुनकर कि श्रीकृष्ण मेरी सौत के साथ हैं, श्रीराधा मन-ही-मन अत्यंत खिन्न हो उठी। सपत्नी के सौख्य से उनको दु:ख हुआ,
तब भगवान-प्रिया श्रीराधा सौ योजन विस्तृत, सौ योजन ऊँचे और करोड़ों अश्विनियों से जुते सूर्य तुल्य कांतिमान रथ पर-जो करोड़ों पताकाओं और सुवर्ण-कलशों से मण्डित था तथा जिसमें विचित्र रंग के रत्नों, सुवर्ण और मोतियों की लड़ियाँ लटक रही थीं-आरूढ़ हो, दस अरब वेत्रधारिणी सखियों के साथ तत्काल श्रीहरि को देखने के लिये गयीं।
उस निकुंज के द्वार पर श्रीहरि के द्वारा नियुक्त महाबली श्रीदामा पहरा दे रहा था। उसे देखकर श्रीराधा ने बहुत फटकारा और सखीजनों द्वारा बेंत से पिटवाकर सहसा कुंजद्वार के भीतर जाने को उद्यत हुईं। सखियों का कोलाहल सुनकर श्रीहरि वहाँ से अंतर्धान हो गये ।
श्रीराधा के भय से विरजा सहसा नदी के रूप में परिणत हो, कोटियोजन विस्तृत गोलोक में उसके चारों ओर प्रवाहित होने लगीं। जैसे समुद्र इस भूतल को घेरे हुए है, उसी प्रकार विरजा नदी सहसा गोलोक को अपने घेरे में लेकर बहने लगीं।
रत्नमय पुष्पों से विचित्र अंगों वाली वह नदी विविध प्रकार के फूलों की छाप से अंकित उष्णीष वस्त्र की भाँति शोभा पाने लगीं- ‘श्रीहरि चले गये और विरजा नदी रूप में परिणत हो गयी’- यह देख श्रीराधिका अपने कुंज को लौट गयीं। नृपेश्वर !
"तदनन्तर नदी रूप में परिणत हुई विरजा को श्रीकृष्ण ने शीघ्र ही अपने वर के प्रभाव से मूर्तिमती एवं विमल वस्त्राभूषणों से विभूषित दिव्य नारी बना दिया।
इसके बाद वे विरजा-तटवर्ती वन में वृन्दावन के निकुंज में विरजा के साथ स्वयं रास करने लगे।
दिव्य पितरों के सात देवताओं में से प्रत्येक की एक मानसी कन्या थी। हिमवत पर्वतराज की पत्नी मैना, वायु की बेटी थी । अच्छोदा , नदी अग्निश्वता की बेटी थी। ऋषि शुक की पत्नी पिवारी बर्हिषद की बेटी थी । नामकरण , नदी सोमापा की बेटी थी। यशोदा हविश्मन की बेटी, विश्वमहंत की पत्नी और दिलीप की माँ थीं। विराजा, राजा नहुष की पत्नी अज्यप की बेटी थी और गो या एकश्रृंगा , ऋषि शुक्र की पत्नी मनसा की बेटी थी ।
अज्यप पितर इसी तरह पश्चिमी क्षेत्र की रक्षा करें),
पितर (पितृ).—पितर देवताओं का एक समूह हैं।ब्रह्मा के पुत्र मनुप्रजापति से मरीचि जैसे सप्तर्षि उत्पन्न हुए और उन्होंने पितरों की रचना की।मारीचि और उनके समूह के अलावा
विराट पुरुष और ब्रह्मा जैसे कई अन्य लोगों ने पितरों की रचना की है।
कुछ पुराणों में कहा गया है कि पितृ दैनिक सृजन के होते हैं। प्रारंभ में ब्रह्मा ने आकार वाले पितरों के तीन और तेज वाले चार समूह बनाए, इस प्रकार सात समूह बनाए। शरीरधारी पितरों के तीन समूह अग्निष्वत, बर्हिषद और सोमपास हैं।
और चार उज्ज्वल पितर यम, अनल, सोम और आर्यमान हैं ।
( देखें दसवां स्कन्ध, देवी भागवत पुराण)।
सोमपा ब्राह्मणों के पितर हैं।
हविष्मत क्षत्रियों के पितर हैं।
अज्यप (गोपालन और कृषि-वृति वाले) गोपों के पितर हैं।
और सुकालीन शूद्रों के पितर हैं।
मनुस्मृति चारों वर्णों में से प्रत्येक के पूर्वजों की वंशावली का भी वर्णन करती है। इसे कहते हैं,
सोमपा नाम विप्राणां क्षत्रियाणां हविर्भुजः। वैश्याणां अज्यपा नाम शूद्राणां तु सुकालिनाः || 3.197 ||
सोमपा नाम विप्रणाम क्षत्रियानाम हविर्भुज:। वैश्यानाम अज्यपा नाम शुद्राणाम तु सुकालिनाः।3.197 |
सोमपस्तु कवेः पुत्रा हविष्मन्तोङ्गिरःसुताः।पुलस्त्यस्यज्यपः पुत्र वसिष्ठस्य सुकालिनाः || 3.198 ||
अर्थ: सोमप ब्राह्मणों के, हविर्भुज क्षत्रियों के, अज्यप वैश्यों के और सुकलिन शूद्रों के पूर्वज हैं।
सोमप भृगु के पुत्र हैं, हविष्मंत अंगिरा की संतान हैं, अज्यप पुलस्त्य की संतान हैं और सुकलिन वशिष्ठ की संतान हैं (मनुस्मृति 3.197 )और 3.198)। इसमें आगे कहा गया है कि अग्निदग्धा, अनग्निदग्धा, काव्य, बर्हिषद, अग्निश्वत्त और सौम्य, ब्राह्मणों के पूर्वज हैं (मनुस्मृति 3.199) और, ये पूर्वजों के कुछ कुल हैं और उनमें मौजूद हैं इस संसार में इन पूर्वजों के अनगिनत पुत्र और पौत्र हैं। (मनुस्मृति 3.200)।
परन्तु अज्यप ऋषि विराट परुष से उत्पन्न हैं। इन्हें पुलस्त्य के पुत्र रूप में स्वीकार किया ़।
नहुष (नहुष)।—आयु (स्वर्भानु) और प्रभा के पांच पुत्रों में से प्रथम; अज्यप पितरों की मानस पुत्री विराजा से विवाह; उनके छह मत्स्य-पुराण के अनुसार-) गोलोक में कृष्ण से उत्पन्न ये वही सात पुत्र नहुष के हैं। जिसमें यति सबसे बड़ा था। किन्हीं पुराणों में नहुष के पाँच पुत्र तो किसी में छ: और किसी पुराण में सातवाँ पुत्र ध्रुव बताया है।
विरजा ने अपने सबसे छोटे पुत्र को पहले शाप दिया था अत: छ: पुत्रों के बहुत बाद में सातवें पुत्र ने भी विरजा से पुन: नहुष के पुत्रों के रूप में जन्म लिया।
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 26
सती विरजा पुत्र को आश्वासन दे उसे दुलारने लगी। उस समय साक्षात भगवान वहाँ से अंतर्धान हो गये।
तब श्रीकृष्ण के विरह से व्याकुल हो, रोष से अपने उस छोटे पुत्र को विरजा ने शाप देते हुए कहा- ‘दुर्बुद्धे ! तू श्रीकृष्ण से वियोग कराने वाला है, अत: जल हो जा; तेरा जल मनुष्य कभी न पीयें।’
फिर उसने बड़ों को शाप देते हुए कहा-‘तुम सब-के-सब झगड़ालू हो; अत: पृथ्वी पर जाओ।
1-2. हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा (ययाति ) ने कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती से विवाह कर लिया, तो उनकी दो पूर्व, पत्नियों, देवयानी और वृषपर्वन् की पुत्री शर्मिष्ठा ने क्या किया ? दोनों का सारा वृत्तान्त बताओ।
सुकर्मन ने कहा :
3-9. जब वह राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गया, तो वह उच्च विचार वाली देवयानी (उसके साथ) बहुत प्रतिद्वन्द्विता करने लगी।"इस कारण उस ययाति ने क्रोध के वशीभूत व्याकुल-मन होकर अपने देवयानी से उत्पन्न दोनों पुत्रों यदु और तुरुवसु को शाप दे दिया " मनस्विनी देवयानी ने शर्मिष्ठा को बुलवाकर अपने साथ घटित सब बाते बतायीं । रूप (सुन्दरता),तेज ,और दान के द्वारा देवयानी और शर्मिष्ठा अश्रुबिन्दुमती के साथ और अधिक प्रतिस्पर्धा करने लगीं। तब काम देव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती को उनकी दुष्टता पूर्ण भावना का पता चला। तभी उस अश्रुबिन्दुमती ने राजा ययाति को सारी बात बता दी, हे तब क्रोधित होकर राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अपनी माता (देवयानी) को मार डालो ।
हे पुत्र, यदि तुम इसे श्रेयकर मानते हो तो मेरा यह प्रिय कार्य करो। ” अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने पिता से कहा, हे राजाओं के स्वामी, :
9-14. “हे सम्माननीय पिता, मैं अपराधबोध से मुक्त निर्दोष इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है।
इसलिए, हे राजा, मैं इन दोनों माताओं को नहीं मारुँगा। हे राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर अनेकों दोष लगें, तो भी उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए।
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हे पिता जी ! यह जानकर, मैं (इन) दोनों माताओं को कभी नहीं मारूंगा। उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये।
पृथ्वी के स्वामी ययाति ने तब अपने पुत्र को शाप दिया: और कहा "चूंकि तुमने (मेरे) आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश को प्राप्त करो "।
15-19. अपने पुत्र यदु से इस प्रकार बात करते हुए, पृथ्वी के स्वामी, ययाति, महान प्रतापी राजा, ने अपने पुत्र यदु को शाप दे दिया, और पूरी तरह से विष्णु के प्रति समर्पित न होकर , कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के साथ सुख भोगा।
विशेष:- कामवासना मनुष्य को भक्ति और साधना के पथ से भ्रष्ट कर देती है।
आकर्षक नेत्रों वाली और सभी अंगों में सुंदर अश्रुबिन्दुमती ने उसके साथ अपनी इच्छानुसार सभी सुंदर भोगों का आनन्द लिया।
इस प्रकार उस श्रेष्ठ ययाति ने अपना समय व्यतीत किया। अन्य सभी विषय बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के भोगे थे; राजा के अतिरिक्त उस समय सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान में समर्पित थे।
हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से संसार की और अपनी भलाई की।
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ययाति की तृतीय पत्नी अश्रुबिन्दुमती का प्राचीन प्रकरण भारतीय पौराणक कोश लक्ष्मीनारायणी संहिता में भी विद्यमान है।
"अनुवाद- सुकर्मा ने कहा :- महाराज ययाति जब कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती को अपने घर लाये तो मनस्विनी देवयानी ने उस अश्रुबिन्दुमती के साथ अत्यधिक स्पर्धा ( होड़) की।३।
"अनुवाद- इस कारण से राजा ययाति नें क्रोध से व्याकुल मन होकर देवयानी से उत्पन्न अपने दोनों यदु और तुर्वसु नामक पुत्रों को शाप दे दिया। तब शर्मिष्ठा को बुलाकर यशस्विनी देवयानी नें राजा द्वारा दिए गये शाप की सब बातें कहीं।४।
रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा । शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।
"अनुवाद- रूप तेज दान सत्यता , और पुण्य के द्वारा शर्मिष्ठा और देवयानी दोंनो ने उस ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती के साथ स्पर्धा( होड़ )की।५।
दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा। राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।
"अनुवाद- तब कामदेव की पुत्री राजा की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती ने देवयानी और शर्मिष्ठा का वह स्पर्धा वाला दूषितभाव जान लिया और राजा ययाति को सब उसी समय बता दिया।६।
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