हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः ।।
विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।। ७५-१०६।
अनुवाद:- हनुमान की भक्ति से आसक्त सुधीजन कार्तवीर्य अर्जुन की आराधना प्रारम्भ कर जैसा कगा है लैसा ही फ।।१०६।
सन्दर्भ :- नारदपुराण पूर्वभाग 75 वाँ अध्याय :-
जो सत्य हम कहेंगे वह कोई नहीं नहीं कहेगा-
एक स्थान पर परशुराम ने स्वयं- कार्तवीर्य्य अर्जुन के द्वारा वध अपना वध होने से पूर्व सहस्रबाहू की प्रशंसा करते हुए कहा-
हे राजन्!
(प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है ; और ना ही आगे होगा।
पुराणों के अतिरिक्त संहिता ग्रन्थ भी इस आख्यान का वर्णन करते हैं।
लक्ष्मीनारायणसंहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड के समान ही हैं। प्रस्तुत करते हैं।
लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः (४५८ ) में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार है।
दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् ।जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।
अर्थ:-परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को भी कार्तवीर्य ने स्तम्भित(जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित हो गये।
श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
अर्थ:- जब परशुराम ने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित राजा सहस्रबाहू को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण द्वारा प्रदत्त कवच) को भी परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९।
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तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः।
ददौ शूलं हि परशुरामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च।८५।।
अर्थ- उसके बाद अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन्होंने आकर परशुराम के विनाश के लिए अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म (काला-कवच) प्रदान किया।८५।
विशेष :- यदि परशुराम विष्णु का अवतरण थे तो विष्णु के ही अंशावतार दत्तात्रेय ने परशुराम के वध के निमित्त सहस्रबाहू को शूल और कृष्ण वर्म क्यों प्रदान किया ?
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"जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप परशुरामकन्धरे।मूर्छामवाप रामः सःपपात श्रीहरिं स्मरन्।८६।
अर्थ:-तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत्त शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का नाम लेते हुए परशुराम मूर्छित हो गिर गये।।८६।
परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये और कोहराम मच गया , उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।
इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं-
यदि परशुराम हरि (विष्णु) के अवतार थे तो उन्होंने मूर्च्छित होकर मरते समय विष्णु अथवा हरि को क्यो नाम लिया। यदि वे स्वयं विष्णु के अवतार थे तो इसका अर्थ यही है कि परशुराम हरि अथवा विष्णु का अवतार नही थे।
उन्हें बाद में पुरोहितों ने अवतार बना दिया
वास्तव में सहस्रबाहू ने परशुराम का वध कर दिया था।
परन्तु परशुराम का वध जातिवादी पुरोहित वर्ग का वर्चस्व समाप्त हो जाना ही था। इसीलिए इसी समस्या के निदान के लिए पुरोहितों ने ब्रह्मवैवर्त- पुराण में निम्न श्लोक बनाकर जोड़ दिया कि परशुराम को मरने बाद शिव द्वारा जीवित करना बता दिया गया ।
और इस घटना को चमत्कारिक बना दिया गया। यह ब्राह्मण युक्ति थी । परन्तु सच्चाई यही है कि मरने के व़बाद कभी कोई जिन्दा ही नहीं हुआ।
विशेष :- उपर्युक्त श्लोक में कृष्ण रूप में भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सहस्रबाहू की परशुराम से युद्ध होने पर रक्षा कर रहे हैं तो सहस्रबाहू को परशुराम कैसे मार सकते हैं ।
यदि शास्त्रकार सहस्रबाहू को परशुराम द्वारा मारा जाना वर्णन करते हैं तो भी उपर्युक्त श्लोक में विष्णु को शक्तिहीन और साधारण होना ही सूचित करते हैं जोकि शास्त्रीय सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत ही है। जबकि विष्णु सर्वशक्तिमान हैं।
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जिस प्रकार पुराणों में बाद में यह आख्यान जोड़ा गया कि परशुराम ने
"गर्भस्थ शिशुओं की हत्या की और क्षत्रियों पत्नीयों क्या तक को मार डाला। यह कृत्य करना विष्णु के अवतारी का गुण हो सकता है। ? कभी नहीं।
महाभारत शान्तिपर्व में वर्णन है कि - परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ? यह सर्वविदित ही है। इस सन्दर्भ में देखें निम्न श्लोक
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"स पुनस्ताञ्जघान् आशु बालानपि नराधिप गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ति पुनरेवाभवत्तदा ।62।
"जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह। अरक्षंश्च सुतान्कान्श्चित्तदाक्षत्रिय योषितः।63।
"त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।
सन्दर्भ:-(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय- ४८)
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"अर्थ-
"नरेश्वर! परशुराम ने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक को शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी।
राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् (स्रुवा) लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
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(ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय (४०)
में भी वर्णन है कि (२१) बार पृथ्वी से क्षत्रिय को नष्ट कर दिया और उन क्षत्रियों की पत्नीयों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर दी ! यह आख्यान भी परशुराम को विष्णु का अवतार सिद्ध नहीं करता-
क्योंकि विष्णु कभी भी निर्दोष गर्भस्थ शिशुओं का वध नहीं करेंगे।
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"एवं त्रिस्सप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुन्धराम् ।।
रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन्।७३
"गर्भस्थं मातुरङ्कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमम्।
जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै।७४।
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गीताप्रेस- गोरखपुर संस्करण)
महाभारत: वनपर्व:
सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः(117) श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद :-
रेणुका स्नान करने के लिए गंगा नदी तट पर गयी। राजन! जब वह स्नान करके लौटने लगी, उस समय अकस्मात उसकी दृष्टी मार्तिकावत देश के राजा चित्ररथ पर पड़ी, जो कमलों की माला धारण करके अपनी पत्नी के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था।
उस समृद्धिशाली नरेश को उस अवस्था में देखकर रेणुका ने उसकी इच्छा की।
उस समय इस मानसिक विकार से द्रवित हुई रेणुका जल में बेहोश-सी हो गयी। फिर त्रस्त होकर उसने आश्रम के भीतर प्रवेश किया। परन्तु ऋषि उसकी सब बातें जान गये। उसे धैर्य से च्युत और ब्रह्मतेज से वंचित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली महर्षि ने धिक्कारपूर्ण वचनों द्वारा उसकी निन्दा की।
इसी समय जमदग्नि के ज्येष्ठ पुत्र रुमणवान वहाँ आ गये। फिर क्रमश: सुशेण, वसु और विश्वावसु भी आ पहूंचे। भगवान जमदग्नि ने बारी-बारी से उन सभी पुत्रों को यह आज्ञा दी कि 'तुम अपनी माता का वध कर डालो',
परंतु मातृस्नेह उमड़ आने से वे कुछ भी बोल न सके, बेहोश-से खड़े रहे। तब महर्षि ने कुपित हो उन सब पुत्रों को शाप दे दिया।
शापग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना( होश) खो बैठे और तुरन्त मृग एवं पक्षियों के समान जड़-बुद्धि हो गये।
"महाभारत: वनपर्व: अध्याय: (११७ )वाँ श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद
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तदनन्तर शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने वाले परशुराम सबसे पीछे आश्रम पर आये। उस समय महातपस्वी महाबाहु जमदग्नि ने उनसे कहा-‘बेटा ! अपनी इस पापिनी माता को अभी मार डालो और इसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद न करो। तब परशुराम ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला।
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कालिका पुराण में भी महाभारत वन पर्व के समान कथा है।
"एकदा तस्य जननी स्नानार्थं रेणुका गता।
गङ्गातोये ह्यथापश्यन्नाम्ना चित्ररथं नृपम्।८३.८।
अनुवाद:-
एक बार परशुराम की माता रेणुका स्नान के लिए गयीं तभी गंगा के जल में स्नान करते हुए चित्ररथ नामक एक राजा को देखा।८।
"भार्याभिः सदृशीभिश्च जलक्रीडारतं शुभम्।
सुमालिनं सुवस्त्रं तं तरुणं चन्द्रमालिनम्। ८३.९ ।।
अनुवाद:-
वह अपनी सुन्दर पत्नीयों के साथ शुभ जल क्रीडा में रत था। वह राजा सुन्दर मालाओं सुन्दर वस्त्र से युक्त युवा चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहा था।९।
"तथाविधं नृपं दृष्ट्वा सञ्जातमदना भृशम्।
रेणुका स्पृहयामास तस्मै राज्ञे सुवर्चसे। ८३.१० ।
अनुवाद:-
उस प्रकार राजा को देखकर वह रेणुका अत्यधिक काम से पीडित हो गयी और रेणुका ने उस वर्चस्व शाली राजा की इच्छा की।१०।
"स्पृहायुतायास्तस्यास्तु संक्लेदः समजायत।
विचेतनाम्भसा क्लिन्ना त्रस्ता सा स्वाश्रमं ययौ। ८३.११ ।।
अनुवाद:-
राजा की इच्छा करती हुई वह रज:स्रवित हो गयी
और चेतना हीन रज स्राव के जल से भीगी हुई डरी हुई अपने आश्रम को गयी।।११।
"अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृतां तथा।
धिग् धिक्काररतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः। ८३.१२ ।।
अनुवाद:-
उस रेणुका को जमदग्नि ने विकृत अवस्था में जानकर उसकी सब प्रकार से निन्दा की और उस रति पीडिता को धिक्कारा।१२।
"ततः स तनयान् प्राह चतुरः प्रथमं मुनिः।
रुषण्वत्प्रमुखान् सर्वानेकैकं क्रमतो द्रुतम्।८३.१३।
अनुवाद:-
तब क्रोधित जमदग्नि ने अपने रुषणवत् आदि चारों पुत्रों से एक एक से कहा। १३।
"छिन्धीमां पापनिरतां रेणुकां व्यभिचारिणीम्।
ते तद्वचो नैव चक्रुर्मूकाश्चासन् जडा इव।८३.१४।
अनुवाद:-
जल्दी ही पाप में निरत इस रेणुका को काट दो
लेकिन पुत्र उनकी बात न मान कर मूक और जड़ ही बने रहे।१४।
कुपितो जमदग्निस्ताञ्छशापेति विचेतसः।
भवध्वं यूयमाचिराज्जडा गोबुद्धिर्गर्द्धिता:।
८३.१५ ।।अनुवाद:-
क्रोधित जमदग्नि ने उन सबको शाप दिया की सभी जड़ बुद्धि हो जाएं । कि तुम सब सदैव के लिए घृणित जड़ गो बुद्धि को प्राप्त हो जाओ।१५।
अथाजगाम चरमो जामदग्न्येऽतिवीर्यवान्।।
तं च रामं पिता प्राह पापिष्ठां छिन्धि मातरम्।
८३.१६ ।।
अनुवाद:-
तभी जमदग्नि के अन्तिम पुत्र शक्तिशाली परशुराम आये जमदग्नि ने परशुराम से कहा पापयुक्ता इस माता को तुम काट दो।१६।
स भ्रातृंश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा ज्ञानविवर्जितान्।।
पित्रा शप्तान् महातेजाः प्रसूं परशुनाच्छिनत्।
८३.१७ ।।
अनुवाद:-
पिता के द्वारा शापित ज्ञान से शून्य अपने भाइयों को देखकर उस परशुराम ने अपनी माता रेणुका का शिर फरसा से काट दिया ।
"रामेण रेणुकां छिन्नां दृष्ट्वा विक्रोधनोऽभवत्।।
जमदग्निः प्रसन्नः सन्निति वाचमुवाच ह।८३.१८ ।।
अनुवाद:-
परशुराम के द्वारा कटी हुई रेणुका को देखकर
जमदग्नि क्रोधरहित हो गये। और जमदग्नि प्रसन्न होते हुए यह वचन बोले!।१८।
"प्रीतोऽस्मि पुत्र भद्र ते यत् त्वया मद्वचः कृतम्।। ८३.१८- १/२।
अनुवाद:-
मैं प्रसन्न हूँ। पुत्र तेरा कल्याण हो ! तू मुझसे कुछ माँग ले!।१९।
"श्रीकालिकापुराणे त्र्यशीतितमोऽध्यायः।८३।
शास्त्रों के कुछ गले और दोगले विधान जो जातीय द्वेष की परिणित थे। -
उनसे प्रभावित पुरोहितों नें पुराणों में कालान्तर में लेखन कार्य जोड़ दिए-
सहस्रबाहु की कथा को विपरीत अर्थ -विधि से लिखा गया
परशुराम ने कभी भी पृथ्वी से २१ बार क्षत्रिय हैहयवंशीयों का वध किया ही नहीं।
परन्तु इस अस्तित्व हीन बात को बड़ा- चढ़ाकर बाद में लिखा गया।
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अब प्रश्न यह भी उठता है !
कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह वर्णन है ।
देखें निम्न श्लोक -
भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि
"तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
_______________
मनुस्मृति- में भी देखें निम्न श्लोक
यथा त्रयाणां वर्णानां द्वयोरात्मास्य जायते ।आनन्तर्यात्स्वयोन्यां तु तथा बाह्येष्वपि क्रमात् ।।10/28
अर्थ- जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी समान उत्पन्न होता है उसी तरह आनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।१०/२८
न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः ।कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते 3/14
__________________
महाभारत के उपर्युक्त अनुशासन पर्व से उद्धृत और आदिपर्व से उद्धृत क्षत्रियों के नाश के वाद क्षत्राणीयों में बाह्मणों के संयोग से उत्पन्न पुत्र- पुत्री क्षत्रिय किस विधान से हुई दोनों तथ्य परस्पर विरोधी होने से क्षत्रिय उत्पत्ति का प्रसंग काल्पनिक व मनगड़न्त ही सिद्ध करते हैं ।
मिध्यावादीयों ने मिथकों की आड़ में अपने स्वार्थ को दृष्टि गत करते हुए आख्यानों की रचना की ---
कौन यह दावा कर सकता है ? कि ब्राह्मणों से क्षत्रिय-पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ?
किस सिद्धांत की अवहेलना करके ! क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य हो जाएगा ?
"प्रधानता बीज की होती है नकि खेत की
क्यों कि दृश्य जगत में फसल का निर्धारण बीज के अनुसार ही होता है नकि स्त्री रूपी खेत के अनुसार--
सहस्रबाहु की पूजा का विधान ( नारदपुराण-पूर्वाद्ध- में किया गया है।
शास्त्रों में भगवान की पूजा का विधान तो हुआ है दुष्ट या व्यभिचारी की पूजा का विधान तो नही
हुआ है।
बुद्धिमान कार्तवीर्य अर्जुन हनुमान की पूजा से जुड़ा हुए हैं
विशेष रूप से देवता की पूजा करनी चाहिए और ऊपर बताए अनुसार फल प्राप्त करना चाहिए 75-106।
यह श्री बृहन्नारायण पुराण के पूर्वी भाग में बृहदुपाख्यान के तीसरे भाग का पचहत्तरवाँ अध्याय है, जिसका शीर्षक दीपक की विधि का विवरण है।।75।।
अनेन मनुना मन्त्री ग्रहग्रस्तं प्रमार्जयेत् ।।
आक्रंदंस्तं विमुच्याथ ग्रहः शीघ्रं पलायते ।। ७५-१०४।
मनवोऽमी सदागोप्या न प्रकाश्या यतस्ततः ।।
परीक्षिताय शिष्याय देया वा निजसूनवे । ७५-१०५ ।
हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः ।।
विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।। ७५-१०६।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे दीपविधिनिरूपणं नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७५ ।।
नारदपुराणम्- पूर्वार्द्ध अध्यायः ७६
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"नारद उवाच।
कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि ।
जायन्तेऽथ प्रलीयन्ते स्वस्वकर्मानुसारतः ।।१।।
अनुवाद:-
देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने कर्मानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं। १-।
तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः ।।
समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम् ।।२ ।।
अनुवाद:-
तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है।
"सनत्कुमार उवाच"
श्रृणु नारद वक्ष्यामि संदेहविनिवृत्तये।।
यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि।३।
अनुवाद:-
सनत्कुमार ने कहा! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय( सेव्यमान) कहे गये हैं।३।
यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।४।
अनुवाद:-
ये पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया।४।*******
तस्य क्षितीश्वरेंद्रस्य स्मरणादेव नारद ।।
शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम् ।।५।।****
अनुवाद:-
हे नारद कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।५।
तेनास्य मन्त्रपूजादि सर्वतन्त्रेषु गोपितम् ।।
तुभ्यं प्रकाशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।६ ।
अनुवाद:-
कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है।६।
वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नींदुशांतियुक् ।।
वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिंदुयुक् ।७।
पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीपदम् ।
रेफोवा द्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ।८।
मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः ।।
ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः ।९ ।
दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।।
कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत् ।१०।
शेषाढ्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेदधः ।।
शांतियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम् ।।११ ।।
इन्द्वाढ्यं वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया ।।
शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ।१२।।
वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः ।।
हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशतः ।।१३ ।।
दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जंघयोः ।।
विन्यसेद्बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ।।१४ ।।
ताराद्यानथ शेषार्णान्मस्तके च ललाटके ।।
भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके ।।१५ ।।
सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः ।।
सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम् ।। १६ ।।
इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है( यह मूल में श्लोक संख्या 7- से 9 तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्यम् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर ( लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।७-१६।
उद्यद्रर्कसहस्राभं सर्वभूपतिवन्दितम् ।।
दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च ।१७ ।।
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दधतं स्वर्णमालाढ्यं रक्तवस्त्रसमावृतम् ।।
चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।१८ ।।
अनुवाद:-
ध्यान :- इनकी कान्ति (आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के 500 दक्षिणी हाथों में वाण और 500 उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र( लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।१७-१८।
__________________
लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।।
सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजत्तुतम् ।१९ ।
षट्कोणेषु षडंगानि ततो दिक्षु विविक्षु च ।।
चौरमदविभञ्जनं मारीमदविभंजनम् ।२०।।
अरिमदविभंजनं दैत्यमदविभंजनम् ।।
दुष्टनाशं दुःखनाशं दुरितापद्विनाशकम् ।२१।
दिक्ष्वष्टशक्तयः पूज्याः प्राच्यादिष्वसितप्रभाः ।।
क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च यशस्करी ।२२।
आयुः करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः।
धनकर्यष्टमी पश्चाल्लोकेशा अस्त्रसंयुताः ।२३।
अनुवाद:-ध्यान के उपरांत एक लाख और जप के उपरान्त होम तिल चावल तथा पायस( खीर ) से पूजा करके विष्णु पीठ पर इनका पूजन करें । उसके बाद षट्कोण में पूजा करके दिक् विदिक् में षडंगदेवगण की पूजा करें।
इसमें चौरमद नारीमद शत्रुमद दैत्यमद का और दुष्ट का और दु:ख का तथा पाप का नाश होता है।
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