सोमवार, 12 फ़रवरी 2024

परशुराम कथाओं के सत्य की समीक्षा-


अनुवाद:- हनुमान की भक्ति से आसक्त सुधीजन कार्तवीर्य अर्जुन की आराधना प्रारम्भ कर मन चाहा फल प्राप्त करें।१०६।
सन्दर्भ :- नारदपुराण पूर्वभाग 75 वाँ अध्याय।



(महाभारत के  अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्ण-संकर जाति कथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -)
कहता है कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
(पृष्ठ संख्या( ५६२४) गीता प्रेस का संस्करण)


 किसी भी वृक्ष का बीज कहीं भी बोया जाय चाहें रेतीली भूमि में या गाढ़( काली मिट्टी युक्त भूमि में) खेत की मिट्टी की उर्वरकता ( उपजाऊ पन के) अनुसार ही बीज की किस्म के अनुरूप ही वृक्ष विकसित होगा ।
शास्त्रों में स्त्रीयों को खेत ही माना गया है। वंश पुरुष केवआधार पर निर्धारित होता है।
__________________
हम बात करते हैं ब्राह्मण की कितनी पत्नीयों 
से ब्राह्मण सन्तान होती है और कितनी पत्नीयों  से पत्नी की जाति की सन्तान- इसके लिए देखें निम्न श्लोक - देखें 
______

(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)

ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से तो सन्तान केवल  ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
_____
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान  होंगी  वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की (वैश्य तथा शूद्र ) ही समझी जाएगी --।।४।।
इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि 
"तिस्र:क्षत्रियसम्बन्धाद्  द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ;
वह क्षत्रिय वर्ण का होता है तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले  शूद्र पुत्र/ पुत्री उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र) का कथन है।७।
सन्दर्भ:-
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण) _
________________

अब हम उस आख्यान का वर्णन करते हैं जिसमें कहा गया है।  जब परशुराम ने (२१) बार पृथ्वी को क्षत्रिय शून्य किया था  और फिर उन क्षत्रियों की विधवाऐं ब्राह्मणों के पास ऋतु दान के लिए आयीं थी  तो उनसे उत्पन्न सन्तानें क्षत्रिय हुईं।

(तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ता: सहस्रश:तत:सुषुविरे राजन्यकृत क्षत्रियान् वीर्यवत्तारान् ) महाभारत आदिपर्व-अध्याय-(64)
समस्या यह कि इसी महाभारत में दो तरह की विपरीत बातें किस ने लिख दीं।
एक जगह लिख दिया कि ब्राह्मण से क्षत्राणी में उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण ही होगी। और इस आदिपर्व में परशुराम के प्रकरण में ब्राह्मण से विधवा क्षत्राणी में क्षत्रिय उत्पन्न कर दिये ।ब्राह्मण क्यों नहीं किए
वाह ! 
अपने बचाव के लिए सिद्धान्त को भी समेट कर घरी कर लिया।

परन्तु नीचे (महाभारत के आदि पर्व के- ६४वें अध्याय) में अनुशासन पर्व के विपरीत श्लोक कहता है। ये हमने ऊपर दिखाया।

"त्रिसप्तकृत्व : पृथ्वी कृत्वा नि: क्षत्रियां पुरा ।
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ।४।
महाभारत आदिपर्व-अध्याय-(64)
 

"तदा नि:क्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति ।
ब्राह्मणान् क्षत्रिया राजन्यकृत 
सुतार्थिन्यऽभिचक्रमु:।५।

"ताभ्यां: सहसमापेतुर्ब्राह्मणा: संशितव्रता: ।
ऋतो वृतौ नरव्याघ्र न कामात् अन् ऋतौ यथा ।६।
_______________
"तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ता: सहस्रश:तत:सुषुविरे राजन्यकृत क्षत्रियान् वीर्यवत्तारान्।७।

"कुमारांश्च कुमारीश्च पुन: क्षत्राभिवृद्धये ।
एवं तद् ब्राह्मणै: क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभि:।८।

"जातं वृद्धं  च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारो८पि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्ममणोत्तरा: ।९।

(महाभारत आदि पर्व(६४)वाँ अध्याय)
अनुवाद:-
अर्थात् पूर्व काल में परशुराम ने (२१ )वार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर के महेन्द्र पर्वत पर तप किया ।
तब क्षत्रिय नारीयों ने पुत्र पाने के लिए ब्राह्मणों से मिलने की इच्छा की ।
_________________
तब ऋतु काल में ब्राह्मण ने उनके साथ संभोग कर उनको गर्भिणी किया ।
तब उन ब्राह्मणों के वीर्य से हजारों क्षत्रिय राजा हुए और चातुर्य वर्ण-व्यवस्था की वृद्धि हुई।
___________________

विशेष :- जब अनुशासन पर्व कहता है कि ब्राह्मण के द्वारा क्षत्रिया वर्ण की पत्नी में उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण होगी ।
परन्तु  यहाँ  आदि पर्व में  क्षत्राणीयों के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा क्षत्रिय कैसे हो गये ? यह बात शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत होने से खारिज है।
महाभारत के आदि पर्व तथा अन्य पुराणों में परशुराम की काल्पनिक कथा बाद जोड़ दी गयी।
___________ 
परशुराम की प्रक्षिप्त कथा का सृजन करते हुए आगे महाभारत के आदि पर्व के वर्णन में भी ब्राह्मणों को अधिक श्रेष्ठ माना गया ।

सत्य तो यह होना चाहिए 
 कि क्षत्रिया स्त्री में ब्राह्मण से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण ही होगी।

अत: परशुराम द्वारा (२१)बार क्षत्रिय विनाश  वाली घटना कल्पना और शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरीत है। बिल्कुल मिथ्या है।

मन्त्रमहोदधि तरङ्ग -१७ में कार्त्तवीर्यार्जुन के मन्त्र, दीपदान विधि आदि के द्वारा पूजा करने का विधान  वर्णन है। 

क्या किसी के द्वारा मारे गये व्यक्ति की पूजा करने का विधान पुराणों हो सकता है ? कभी नहीं।
परन्तु कार्तवीर्य अर्जुन की पूजा का विधान है और वह भी कई पुराणों में 
प्राचीन काल में शास्त्रों में वर्णन मिलता है ।
कि कार्तवीर्य अर्जुन की लोग पूजा करते थे।
और भारतीय शास्त्रों में उसकी पूजा के विधान के यत्र- तत्र सूत्र मिलते भी हैं।
भारतीय संस्कृति में पूजा भगवान की ही होती है।किसी दुष्ट अथवा व्यभिचारी की नहीं होती है।


भारतीय शास्त्रों - महाभारत  एवम्  वेदों आदि के उद्भट् भाष्यकार आचार्य महीधर ने मन्त्रमहोदधि ग्रन्थ में कार्त्तवीर्यार्जुन की पूजा करने के विधान शास्त्रों से प्राचीन सूत्र वर्णित किए है।

नारद पुराण में भी सहस्रबाहु कार्तवीर्य की पूजा का विधान है।
दोनो ग्रन्थों को उद्धरण हम क्रमशः प्रस्तुत करेंगे।

 "मन्त्रमहोदधिसप्तदश:तरङ्गः"
मन्त्रमहोदधि – सप्तदश तरङ्ग(सत्रहवां तरंग) अरित्र---
"अथेष्टदान् मनून वक्ष्ये कार्तवीर्यस्य गोपितान् । यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः क्षितिमण्डले सुदर्शन: स्वमेव विष्णु:॥१॥ 

शंकराचार्य आदि आचार्यो के द्वारा अब तक अप्रकाशित अभीष्ट फलदायक कार्तवीर्य के मन्त्रों का आख्यान करता हूँ। जो कार्तवीर्यार्जुन भूमण्डल पर सुदर्शनचक्र के अवतार माने जाते हैं जो स्वयं विष्णु का रूप हैं। ॥१॥

अभीष्टसिद्धिदः कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रःवहिनतारयुतारौद्रीलक्ष्मीरग्नीन्दुशान्तियुक् । वेधाधरेन्दुशान्त्याढ्यो निद्रा(शाग्निबिन्दुयुक् ॥२॥

पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रेकार्तवीपदम् ।रेफो वाय्वासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ॥ ३॥

मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदन्तिकः।ऊनविंशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः ॥ ४ ॥

अब कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र का उद्धार कहते हैं – वह्नि (र) एवं तार सहित रौद्री (फ) अर्थात् (फ्रो), इन्दु एवं शान्ति सहित लक्ष्मी (व) अर्थात् (व्रीं),धरा, (हल) इन्दु, (अनुस्वार) एवं शान्ति (ईकार) सहित वेधा (क) अर्थात् (क्लीं), अर्धीश (ऊकार), अग्नि (र) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित निद्रा (भ) अर्थात् (भ्रूं), फिर क्रमशः पाश (आं), माया (ह्रीं), अंकुश (क्रों), पद्म (श्रीं), वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), फिर ‘कार्तवी पद, वायवासन,(य्), अनन्ता (आ) से युक्त रेफ (र) अर्थात् (र्या), कर्ण (उ) सहित वह्नि (र) और (ज्) अर्थात् (र्जु) सदीर्घ (आकार युक्त) मेष (न) अर्थात् (ना), फिर पवन (य) इसमें हृदय (नमः) जोडने से १९ अक्षरों का कार्तवीर्यर्जुन मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के प्रारम्भ में तार (ॐ) जोड देने पर यह २० अक्षरों का हो जाता है ॥२-४॥

विमर्श – ऊनविंशतिवर्णात्मक मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – (ॐ) फ्रों व्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ॥२-४॥

अस्य मन्त्रस्य न्यासकथनपूर्वकपूजाप्रकारदत्तात्रेयो मुनिश्चास्य च्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजं शक्तिधुवश्च हृत् ॥ ५॥

इस मन्त्र के दत्तात्रेय मुनि हैं, अनुष्टुप छन्द है, कार्तवीर्याजुन देवता हैं, ध्रुव (ॐ) बीज है तथा हृद (नमः) शक्ति है ॥५॥

शेषाद्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेद् बुधः ।शान्तियुक्त चतुर्थेन कामादयेन शिरोङ्गकम् ।६

इन्द्वात्यवामकर्णाढ्य माययार्घीशयुक्तया ।शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ॥ ७॥

वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं चरेत् ।

बुद्धिमान पुरुष, शेष (आ) से युक्त प्रथम दो बीज आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, शान्ति (ई) से युक्त चतुर्थ बीज भ्रूं जिसमें काम बीज (क्लीं) भी लगा हो, उससे शिर अर्थात् ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, इन्दु (अनुस्वार) वामकर्ण उकार के सहित अर्घीश माया (ह) अर्थात् हुं से शिखा पर न्यास करना चाहिए । वाक् सहित अंकुश्य (क्रैं) तथा पद्म (श्रैं) से कवच का, वर्म और अस्त्र (हुं फट्) से अस्त्र न्यास करना चाहिए । तदनन्तर शेष कार्तवीर्यार्जुनाय नमः  से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥६-८॥_

______

विमर्श – न्यासविधि –  आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः,  ई क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा,
__
हुं शिखायै वषट्   क्रैं श्रैं कवचाय हुम्,    हुँ फट्‍ अस्त्राय फट् ।

इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास कर कार्तवीर्यार्जुनाय नमः’ से सर्वाङ्गन्यास करना चाहिए ॥६-७॥

उद्यत्सूर्यसहस्रकान्तिरखिलक्षोणीधवैर्वन्दितो
हस्तानां शतपञ्चकेन च दधच्चापानिपूंस्तावता ।

कण्ठे हाटकमालया परिवृतश्चक्रावतारो हरेःपायात् स्यन्दनगोरुणाभवसनः श्रीकार्तवीर्यो नृपः ॥ १२ ॥

अब कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान कहते हैं –
उदीयमान सहस्त्रों सूर्य के समान कान्ति वाले, सभी राजाओं से वन्दित अपने ५०० हाथों में धनुष तथा ५०० हाथों में वाण धारण किए हुये सुवर्णमयी माला से विभूषित कण्ठ वाले, रथ पर बैठे हुये, साक्षात् सुदर्शनावतार कार्यवीर्य हमारी रक्षा करें ॥१२॥

लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजेत्तु तम् ॥ १३॥

वक्ष्यमाणे दशदले वृत्तभूपुरसंयुते ।           सम्पूज्य वैष्णवीः शक्तीस्तत्रावाद्यार्चयेन् नृपम् ॥१४॥

इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । तिलों से तथा चावल होम करे, तथा वैष्णव पीठ पर इनकी पूजा करे । वृत्ताकार कर्णिका, फिर वक्ष्यमाण दक्ष दल तथा उस पर बने भूपुर से युक्त वैष्णव यन्त्र पर वैष्णवी शक्तियों का पूजन कर उसी पर इनका पूजन करना चाहिए ॥१३-१४॥______
वे भगवान् सहस्रबाहू विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए थे । और स्वयं दत्तात्रेय ने उनकी तपस्या से प्रभावित होकर उन्हें स्वेक्षा से वरदान दिया था। 
दस वरदान जिन भगवान् दत्तात्रेय ने  कार्तवीर्यार्जुन को प्रदान किये थे वे इस प्रकार है।
1- ऐश्वर्य शक्ति प्रजा पालन के योग्य हो, किन्तु अधर्म न बन जावे।
2- दूसरो के मन की बात जानने का ज्ञान हो।
3- युद्ध में कोई सामना न कर सके।
4- युद्ध के समय उनकी सहत्र भुजाये प्राप्त हो, उनका भार  न लगे 
5- पर्वत 'आकाश" जल" पृथ्वी और पाताल में अविहत गति हो।
6-मेरी मृत्यु अधिक श्रेष्ठ हाथो से हो।
7-कुमार्ग में प्रवृत्ति होने पर सन्मार्ग का उपदेश प्राप्त हो।
8- श्रेष्ठ अतिथि की निरंतर प्राप्ति होती रहे।
9- निरंतर दान से धन न घटे।
10- स्मरण मात्र से धन का आभाव दूर हो जाऐं एवं भक्ति बनी रहे। 
मांगे गए वरदानों से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि सहस्त्रबाहु-अर्जुन अर्थात् कार्तवीर्यार्जुन-ऐश्वर्यशाली, प्रजापालक, धर्मानुसार आचरण करने  वाले, शत्रु के मन की बात जान लेने वाले, हमेशा सन्मार्ग में विचरण करने वाले, अतिथि सेवक, दानी महापुरुष थे, जिन्होंने अपने शौर्य पराक्रम से पूरे विश्व को जीत लिया और चक्रवर्ती सम्राट बने।

पृथ्वी लोक मृत लोक है, यहाँ जन्म लेने वाला कोई भी अमरत्व को प्राप्त नहीं है, यहाँ तक की दुसरे समाज के लोग जो परशुराम को भगवान् की संज्ञा प्रदान करते है और सहस्त्रबाहु को कुछ और की संज्ञा प्रदान कर रहे है, परशुराम द्वारा निसहाय लोगों अथवा क्षत्रियों के अबोध शिशुओ का अनावश्यक बध करना जैसे कृत्यों से ही क्षुब्ध होकर त्रेतायुग में भगवान् राम ने उनसे अमोघ शक्ति वापस ले ली थी।


और उन्हें तपस्या हेतु वन जाना पड़ा, वे भी अमरत्व को प्राप्त नहीं हुए। भगवान् श्री रामचंद्र द्वारा अमोघ शक्ति वापस ले लेना ही सिद्ध करता है की, परशुराम  सन्मार्ग पर स्वयं नहीं चल रहे थे।
एक समाज द्वारा दुसरे समाज के लोगो की भावनाओं को कुरेदना तथा भड़काना सभ्य समाज के प्राणियों, विद्वानों को शोभा नहीं देता है। 

महाराज कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन हमारे लिए पूज्यनीय थे, पूज्यनीय रहेंगे। 
          
परशुराम ने केवल उनकी सहस्र भुजाओं का उच्छेदन भले ही कर दिया हो परन्तु उनका वध कभी नहीं हुआ महाराज सहस्रार्जुन का वध नही हुआ। अन्त समय में उन्होंने समाधि ले ली।
इसकी व्याख्या कई पौराणिक कथाओ में की गयी है।
 साक्ष्य के रूप मे माहेश्वर स्थित श्री राजराजेश्वर समाधि मन्दिर, प्रामाणिक साक्ष्य है ; जो वर्तमान में है।
"श्री राजराजेश्वर कार्तवीर्यार्जुन मंदिर" में समाधि पर अनंत काल से (11) अखंड दीपक प्रज्ज्वलित  करने की पृथा है। यहाँ शिवलिंग स्थापित है जिसमें श्री कार्तवीर्यार्जुन की आत्म-ज्योति ने प्रवेश किया था। उनके पुत्र जयध्वज के राज्याभिषेक के बाद उन्होने यहाँ योग समाधि ली थी। "मन्त्रमहोदधि" ग्रन्थ के अनुसार श्री कार्तवीर्यार्जुन को दीपकप्रिय हैं इसलिए समाधि के पास 11अखंड दीपक जलाए जाते रहे हैं। दूसरी ओर दीपक जलने से यह भी सिद्ध होता है की यह समाधि श्री कार्तवीर्यार्जुन की है। भारतीय समाज में स्मारक को पूजने की परम्परा नही है परन्तु महेश्वर के मन्दिर में अनंत काल से पूजन परंपरा और अखंड दीपक जलते रहे हैं। अतएव कार्तवीर्यार्जुन के वध की मान्यता निरधार व मन:कल्पित है।
____________________________________
त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा।जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे।4।
"महाभारत ग्रन्थ और भारतीय पुराणों में वर्णित जिन क्षत्रियों को परशुराम द्वारा मारने की बात हुई है वे मुख्यतः सहस्रबाहू के वंशज हैहय वंश के यादव ही थे। 
भार्गवों- जमदग्नि, परशुराम आदि और हैहयवंशी यादवों की शत्रुता का कारण बहुत गूढ़ है । 
कथा के मूल में यह अवधारणा भी विद्यमान है कि जमदग्नि और सहस्रबाहू परस्पर श्यालिबोढ़्री (साढू अथवा हमजुल्फ -) थे।  जिनके प्रारंभिक दौर में परिवार सदृश सम्बन्ध थे। 

ब्रह्मवैवर्त- पुराण में एक प्रसंग के अनुसार सहस्रबाहू अर्जुन से -'परशुराम ने कहा-★ हे ! धर्मिष्ठ राजेन्द्र! तुम तो चन्द्रवंश में उत्पन्न हुए हो और विष्णु के अंशभूत बुद्धिमान दत्तात्रेय के शिष्य हो। 
श्रुणु राजेन्द्र ! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव।  विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।५४। 
यद्पि विष्णु का अञ्शभूत"  तो सहस्रबाहू भी थे। परन्तु उपर्युक्त श्लोक में विष्णोरंश दत्तात्रेय का सम्बोधन है। परन्तु सहस्रबाहू भी विष्णु के सुदर्शन चक्र रूप को अवतार होने से विष्णु हीअञ्श थे ।

 परन्तु कालान्तर में सत्य का तिरोभाव हुआ। जिसमें शास्त्रीय मर्यादाओं का विध्वंसन भी हुआ।
 
सन्दर्भ- ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपति खण्ड अध्याय (
 
          
एक स्थान पर परशुराम ने  स्वयं- कार्तवीर्य्य अर्जुन के द्वारा वध होने से पूर्व सहस्रबाहू की प्रशंसा करते हुए कहा-
(प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है और न आगे होगा। 
पुराणों अतिरिक्त संहिता ग्रन्थ भी इस आख्यान कि वर्णन करते हैं। निम्न संहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड के समान ही हैं। प्रस्तुत करते हैं।
लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम          (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः ४५८ में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार है। 
        
             ★श्रीनारायण उवाच★
शृणु लक्ष्मि! माधवांशः परशुराम उवाच तम् ।
कार्तवीर्य रणमध्ये धर्मभृतं वचो यथा ।१।

शृणु राजेन्द्र! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव ।
विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।२।

कथे दुर्बुद्धिमाप्तस्त्वमहनो वृद्धभूसुरम् ।
ब्राह्मणी शोकसन्तप्ता भर्त्रा सार्धे गता सती।३।

किं भविष्यति ते भूप परत्रैवाऽनयोर्वधात् ।
क्वगता कपिलासा तेकीदृक्कूलंभविष्यति।४।

यत्कृतं तु त्वया राजन् हालिको न करिष्यति।
सत्कीर्तिश्चाथदुष्कीर्तिःकथामात्राऽवशेषिता।५।

त्वया कृतो घोरतरस्त्वन्यायस्तत्फलं लभ ।
उत्तरं देहि राजेन्द्र समाजे रणमूर्धनि ।६।

कार्तवीर्याऽर्जुनः श्रुत्वा प्रवक्तुमुपचक्रमे।
शृणु राम हरेरंशस्त्वमप्यसि न संशयः।७।

सद्बुद्ध्या कर्मणा ब्रह्मभावनां करोति यः ।
स्वधर्मनिरतः शुद्धो ब्राह्मणः स प्रकीर्त्यते ।८।

अन्तर्बहिश्च मननात् कुरुते फलदां क्रियाम् ।
मौनी शश्वद् वदेत् काले हितकृन्मुनिरुच्यते।९।

स्वर्णे लोष्टे गृहेऽरण्ये पंके सुस्निग्धचन्दने ।
रामवृत्तिः समभावो योगी यथार्थ उच्यते ।। 1.458.10।

सर्वजीवेषु यो विष्णुं भावयेत् समताधिया।
हरौ करोति भक्तिं च हरिभक्तः स उच्यते।११।

राष्ट्रीयाः शतशश्चापि महाराष्ट्राश्च वंगजाः।
गौर्जराश्च कलिंगाश्च रामेण व्यसवः कृताः।५२।

द्वादशाक्षौहिणीः रामो जघान त्रिदिवानिशम् ।
तावद्राजा कार्तवीर्यः श्रीलक्ष्मीकवचं करे ।।५३।।

बद्ध्वा शस्त्रास्त्रसम्पन्नो रथमारुह्य चाययौ ।
युयुधे विविधैरस्त्रैर्जघान ब्राह्मणान् बहून्।५४।
_________________________________
तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः।
ददौ शूलं हि रामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च।८५।।
अर्थ- उसके बाद अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन्होंने आकर परशुराम के विनाश के लिए अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म (काला-कवच) प्रदान किया।८५। 

विशेष :- यदि परशुराम विष्णु का अवतरण थे तो विष्णु के ही अंश दत्तात्रेय ने परशुराम के वध के निमित्त सहस्रबाहू को शूल और कृष्ण वर्म क्यों प्रदान किया ?
_____________________________   

अर्थ:-तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत्त शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था  परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का स्मरण करते हुए परशुराम मूर्छित हो गये।।

परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये , उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।

इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं-
यदि परशुराम हरि (विष्णु) के अवतार थे तो उन्होंने मूर्च्छित होकर मरते समय विष्णु अथवा हरि को क्यो स्मरण किया। यदि वे स्वयं विष्णु के अवतार थे तो ।

वास्तव में सहस्रबाहू ने परशुराम का बोध कर दिया था ।

 परन्तु परशुराम का बध जाति वादी पुरोहित वर्ग का वर्चस्व समाप्त हो जाना ही था इसी लिए इसी समस्या के निदान के लिए निम्न श्लोक बनाकर जोड़ दिया पुराणों और परशुराम को मरने बाद शिव द्वारा जीवित करना बता दिया गया । 

और इस घटना को चमत्कारिक बना दिया गया। यह ब्राह्मण युक्ति थी । 
देखें इस सन्दर्भ में निम्न श्लोक -
ब्राह्मणं जीवयामास शंभुर्नारायणाज्ञया ।
चेतनां प्राप्य च रामोऽग्रहीत् पाशुपतं यदा।८७।
अर्थ:-  नारायण की आज्ञा से  शिव ने अपने महाज्ञान द्वारा लीला पूर्वक ब्राह्मण परशुराम को पुन: जीवित कर दिया चेतना पाकर परशुराम ने "पाशुपत" अस्त्र को ग्रहण किया।

दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् ।जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।
अर्थ:-परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को भी कार्तवीर्य ने स्तम्भित(जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित हो गये।
श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
अर्थ:- जब परशुराम ने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित राजा सहस्रबाहू को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण द्वारा प्रदत्त कवच) को भी परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९। 

विशेष :- उपर्युक्त श्लोक में कृष्ण रूप भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सहस्रबाहू की परशुराम से युद्ध होने पर रक्षा कर रहे हैं तो सहस्रबाहू को परशुराम कैसे मार सकते हैं ।

यदि शास्त्रकार सहस्रबाहू को परशुराम द्वारा मारा जाना वर्णन करते हैं तो उपर्युक्त श्लोक में विष्णु को शक्तिहीन और साधारण होना ही सूचित करते हैं जोकि शास्त्रीय सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत ही है।  विष्णु सर्वशक्तिमान हैं।



________
वैसे भी परशुराम का स्वभाव ब्राह्मण ऋषि जमदग्नि से नहीं अपितु सहस्रबाहु से मेल खाता है परन्तु प्राय: शास्त्र परशुराम के द्वारा सहस्रबाहू की गुण स्तुति का ही वर्णन दर्शाते हैं।

परशुराम को यदि हम ब्राह्मण मान भी मान लें तो भी उनकी वृत्ति और प्रवृत्ति परशुराम की सहस्रबाहू से साम्य रखती है।  विज्ञान  की भाषा में इसे ही जेनेटिक कोड अथवा आनुवंशिक गुण कहते हैं ।
शास्त्र में विरोधाभास होना कालांतर में विपरीत सिद्धांत का आरोपण किया गया।
_________
विदित हो कि सहस्रबाहु की पत्नी "वेणुका और परशुराम की माता तथा पिता जमदग्नि की पत्नी "रेणुका सगी बहिनें थी।
रेणुका सहस्रबाहू के पौरुष और पराक्रम पर आसक्त और उसकी भक्त थी । 
जबकि जमदग्नि ऋषि निरन्तर साधना में संलग्न रहते थे। वे अपनी पत्नी को कभी पत्नी का सुख नहीं दे पाते थे ।

राजा रेणु की पुत्री होने से रेणुका में रजोगुण की अधिकता होने के कारण से भी वह रजोगुण प्रधान रति- तृष्णा से पीड़ित रहती थी । और सहस्रबाहु से प्रणय निवेदन जब कभी करती रहती थी परन्तु सहस्रबाहू एक धर्मात्मा राजा  ही नहीं सम्राट भी था।


 परन्तु पूर्वज ययाति की कथाओं ने उन्हें भी सहमत कर दिया जब शर्मिष्ठा दासी ने उन ययाति से एकान्त में प्रणय निवेदन किया था और उसे पीड़ा निवारक बताया था ।

 उसी के परिणाम स्वरूप रेणुका का एकान्त प्रणय निवेदन सहस्रबाहू ने भी स्वीकार कर लिया परिणाम स्वरूप परशुराम की उत्पत्ति हुई  "इस प्रकार की समभावनामूलक किंवदन्तियाँ भी प्रचलित हैं। परशुराम अपने चार भाईयों सबसे छोटे थे ।
_____________
रेणुका राजा प्रसेनजित अथवा राजा रेणु की कन्या थीं जो क्षत्रिय राजा था । जो परशुराम की माता और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थीं, जिनके पाँच पुत्र थे।
"रुमणवान "सुषेण "वसु "विश्वावसु "परशुराम
विशेष—रेणुका विदर्भराज की कन्या और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थी।

एक बार ये गंगास्नान करने गई। वहा राजा चित्ररथ को स्त्रियों के साथ जलक्रीड़ा करते हुए देख रेणुका ने देख लिए तो रेणुका के मन में रति -पिपासा( मेैंथुन की इच्छा) जाग्रत हो गयी।

 चित्ररथ भी एक यदुवंश के राजा थे  ; जो विष्णु पुराण के अनुसार (रुषद्रु) और भागवत के अनुसार (विशदगुरु) के पुत्र थे।
_____________________________    
एक बार ऋतु काल में सद्यस्नाता रेणुका राजा चित्ररथ पर मुग्ध हो गयी। 

उसके आश्रम पहुँचने पर  जमदग्नि  मुनि को रेणुका और चित्ररथ की  समस्त घटना ज्ञात हो गयी। 
उन्होंने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चार बेटों को माँ की हत्या करने का आदेश दिया। किंतु कोई भी तैयार नहीं हुआ। 
अन्त में परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन किया। जमदग्नि ने प्रसन्न होकर उसे वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने पहले वर से माँ का पुनर्जीवन माँगा और फिर अपने भाईयों को क्षमा कर देने के लिए कहा।

जमदग्नि ऋषि ने परशुराम से कहा कि वो अमर रहेगा। कहते हैं कि यह रेणुका (पद्म) कमल से उत्पन्न अयोनिजा थीं। प्रसेनजित इनके पोषक पिता थे।
 सन्दर्भ- (महाभारत-  अरण्यपर्व- अध्याय-११६ )
___________________
"परन्तु  उपर्युक्त आख्यानक के कुछ पहलू भी विचारणीय  हैं। जैसे कि रेणुका का कमल से उत्पन्न होना, और जमदग्नि के द्वारा उसका पुनर्जीवित करना ! दोनों ही घटनाऐं  प्रकृति के सिद्धान्त के विरुद्ध होने से काल्पनिक हैं।

यदि जमदग्नि के पास संजीवनी विद्या थी तो वह उन्होंने अपने पुत्रों को भी दी होगी तब उनके पुत्रों ने उन्हें जीवित क्यों नही किया। जमदग्नि मारे ही गये
______ 
और तृतीय आख्यानक यह है  कि "भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को परशुराम का उत्पन्न होना है। इससे तो परशुराम इन्द्र के अंश हुए
____________________________________
जिस प्रकार पुराणों में बाद में यह आख्यान जोड़ा गया कि परशुराम ने 
"गर्भस्थ शिशुओं की हत्या की क्या यह कृत्य करना विष्णु के अवतारी का गुण  हो सकता है। ? कभी नहीं।

महाभारत शान्तिपर्व में परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ? यह सर्वविदित ही है। इस सन्दर्भ में देखें निम्न श्लोक
____________________________________ 
"मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि।भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः।59।
"सा पुनःक्षत्रियशतैःपृथिवी सर्वतः स्तृता।परावसोर्वचःश्रुत्वा शस्त्रं जग्राह भार्गवः।60।
"ततो ये क्षत्रिया राजञ्शतशस्तेन वर्जिताः।        ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन्।61।
"स पुनस्ताञ्जघान् आशु बालानपि नराधिप गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ति पुनरेवाभवत्तदा ।62।)
"जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह।        अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदाक्षत्रिय योषितः।63।
"त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।

सन्दर्भ:-(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ४८)
_________________
"अर्थ- मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये हैं। राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे। 

"नरेश्वर! उन्होंने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे।उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी।
राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् (स्रुवा)लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
____________________________________
(ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय (४०)
में भी वर्णन है कि (२१) बार पृथ्वी से क्षत्रिय को नष्ट कर दिया और उन क्षत्रियों की पत्नीयों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर दी ! यह आख्यान भी परशुराम को विष्णु  का अवतार सिद्ध नहीं करता-
____________________________________
"एवं त्रिस्सप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुन्धराम् ।।
रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन्।७३
"गर्भस्थं मातुरङ्कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमम्।
जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै।७४। __________________
सन्दर्भ- कालिकापुराण अध्यायः (८३) मेेंं परशुराम जन्म की कथा वर्णित है।   

    "कालिकापुराणम्।  "त्र्यशीतितमोऽध्यायः।83।
                    "और्व्व उवाच"
"अथ काले व्यतीते तु जमदग्निर्महातपाः।
विदर्भराजस्य सुतां प्रयत्नेन जितां स्वयम्।१।

"भार्यार्थं प्रतिजग्राह रेणुकां लक्षणान्विताम्।
सा तस्मात् सुषुवे षत्रांश्चतुरो वेदसम्मितान्।2।

"रुषण्वन्तं सुषेणां च वसुं विश्वावसुं तथा।
पश्चात् तस्यां स्वयं जज्ञे भगवान् परशुराम:।३।

"कार्तवीर्यवधायाशु शक्राद्यैः सकलैः सुरैः।
याचितः पंचमः सोऽभूत् रामाह्वयस्तु सः।४।

"भारावतरणार्थाय जातः परशुना सह।
सहजं परशुं तस्य न जहाति कदाचन।५।
___________
"अयं निजपितामह्याश्चरुभुक्तिविपर्ययात्।
ब्राह्मणःक्षत्रियाचारो रामोऽभूतक्रूरकर्मकृत्।६।

"स वेदानखिलान् ज्ञात्वा धनुर्वेदं च सर्वशः।
सततं कृतकृत्योऽभूद् वेदविद्याविशारदः।७।
____________________________
"एकदा तस्य जननी स्नानार्थं रेणुका गता।
गङ्गातोये ह्यथापश्यन्नाम्ना चित्ररथं नृपम्।८।

"भार्याभिः सदृशीभिश्च जलक्रीडारतं शुभम्।
सुमालिनं सुवस्त्रं तं तरुणं चन्द्रमालिनम्।९।
________________________________
"तथाविधं नृपं दृष्ट्वा सञ्जातमदना भृशम्।
रेणुका स्पृहयामास तस्मै राज्ञे सुवर्चसे।१०।

"स्पृहायुतायास्तस्यास्तु संक्लेदःसमजायत।
विचेतनाम्भसाक्लिन्ना त्रस्ता सास्वाश्रमं ययौ।११।
____________________________________
"अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृतां तथा।
धिग् धिक्काररतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः।१२।

"ततः स तनयान् प्राह चतुरः प्रथमं मुनिः।
रुषण्वत्प्रमुखान् सर्वानेकैकं क्रमतो द्रुतम्।१३।
____________________________________
"छिन्धीमां पापनिरतां रेणुकां व्यभिचारिणीम्।
ते तद्वचो नैव चक्रुर्मूकाश्चासन् जडा इव।१४।

"कुपितो जमदग्निस्ताञ्छशापेति विचेतसः।
गाधिं नृपतिशार्दूलं स चोवाच नृपो मुनिम्।१५।

"भवध्वं यूयमाचिराज्जडा गोबुद्धिगर्धिताः।अथाजगाम चरमो जामदग्न्येऽतिवीर्यवान्।। ८३.१६ ।।

"तं च रामं पिता प्राह पापिष्ठां छिन्धि मातरम्।     स भ्रातृंश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा ज्ञानविवर्जितान्।१७।

 "पित्रा शप्तान् महातेजाःप्रसूं परशुनाच्छिनत्। रामेण रेणुकां छिन्नां दृष्ट्वाविक्रोधनोऽभवत्।१८।

"जमदग्निः प्रसन्नःसन्निति वाचमुवाच ह।
प्रीतोऽस्मिपुत्रभद्र ते यत्त्वया मद्वचःकृतम्।१९।
____________________________________
"तस्मादिष्टान् वरान् कामांस्त्वं वै वरय साम्प्रतम्।
स तु रामो वरान् वव्रे मातुरुत्थानमादितः।२०।

वधस्यास्मरणं तस्या भ्रातृणां शपमोचनम्।
मातृहत्याव्यपनयं युद्धे सर्वत्र वै जयम्।२१।

आयुः कल्पान्तपर्यन्तं क्रमाद् वै नृपसत्तम।
सर्वान् वरान् स प्रददौ जमदग्निर्महातपाः।२२। 
_______________
"सुप्तोत्यितेव जननी रेणुका च तदाभवत्।
वधं न चापि सस्मार सहजा प्रकृतिस्थिता।२३।

युद्धे जयं चिरायुष्यं लेभे रामस्तदैव हि।
मातृहत्याव्यपोहाय पिता तं वाक्यमव्रवीत्।२४।

न पुत्र वरदानेन मातृहत्यापगच्छति।
तस्मात् त्वं ब्रह्मकुण्डायगच्छस्नातुं च तज्जले।२५।

तत्र स्नात्वा मुक्तपापो नचिरात् पुनरेष्यसि।
जगद्धिताय पुत्र त्वं ब्रह्मकुण्डं व्रज द्रुतम्।२६।

स तस्य वचन श्रुत्वा रामः परशुधृक् तदा।
उपदेशात् पितुर्घातो ब्रह्मकुण्डं वृषोदकम्।२७।

तत्र स्नानं च विधिवत् कृत्वा धौतपरश्वधः।
शरीरान्निःसृतां मातृहत्यां सम्यग् व्यलोकयत्।२८।

जातसंप्रत्ययः सोऽथ तीर्थमासाद्य तद्वरम्।
वीथीं परशुना कृत्वा ब्रह्मपुत्रमवाहयत्।२९ ।
___________________________________
ब्रह्मकुण्डात् सृतःसोऽथ कासारे लोहिताह्वये।
कैलासोपत्यकायां तु न्यपतद् ब्रह्मणःसुतः।३०।

तस्यापि सरसस्तीरे समुत्थाय महाबलः।
कुठारेण दिशं पूर्वामनयद् ब्रह्मणः सुतम्।३१।

ततः परत्रापि गिरिं हेमशृङ्गं विभिद्य च।
कामरूपान्तरं पीठमावहद्यदमुं हरिः।३२।

तस्य नाम स्वयं चक्रे विधिर्लोहितगङ्गकम्।
लोहितात् सरसो जातो लोहिताख्यस्ततोऽभवत्।३३।
स कामरूपमखिलं पीठमाप्लाव्य वारिणा।
गोपयन् सर्वतीर्थानि दक्षिणं याति सागरम्।३४।

प्रागेव दिव्ययमुनां स त्यक्त्वा ब्रह्मणः सुतः।
पुनः पतति लौहित्ये गत्वा द्वादशयोजनम्।३५।

 चैत्रे मासि सिताष्टम्यां यो नरो नियतेन्द्रियः।        चैत्रं तु सकलं मासं शुचिः प्रयतमानसः।३६।

 स्नाति लौहित्यतोये तु स याति ब्रह्मणः पदम्।  लौहित्यतोये यः स्नाति स कैवल्यमवाप्नुयात्।३७ ।

इति ते कथितं राजन् यदर्थं मातरं पुरा।          अहन् वीरोजामदग्न्यो यस्माद् वाक्रूरकर्मकृत्।३८।

इदं तु महदाख्यानं यः शृणोति दिने दिने।        
स दीर्घायुः प्रमुदितो बलवानभिजायते।३९। 

 इति ते कथितं राजञ्छरीरार्धं यथाद्रिजा।शम्भोर्जहार वेतालभैरवौ च यथाह्वयौ।४०।   
    
यस्य वा तनयौ जातौ यथा यातौ गणेशताम्।किमन्यत् कथये तुभ्यं तद्वदस्व नृपोत्तम।४१।

             ★मार्कण्डेय उवाच★
इत्यौर्व्वस्य च संवादः सगरेम महात्मना।
योऽसौ कायार्धहरणं शम्भोर्गिरिजया कृतः।४२।

सर्वोऽद्य कथितो विप्राः पृष्टं यच्चान्यदुत्तमम्।
सिद्धस्य भैरवाख्यस्य पीठानां च विनिर्णयम्।४३।

भृङ्गिणश्च यथोत्पत्तिर्महाकालस्य चैव हि।
उक्तं हि वः किमन्यत् तु पृच्छन्तु द्विजसत्तमाः।४४।

इति सकलसुतन्त्रं तन्त्रमन्त्रावदातं बहुतरफलकारि  प्राज्ञविश्रामकल्पम्।
उपनिषदमवेत्य ज्ञानमार्गेकतानं स्रवतिस इह नित्यं यः पठेत् तन्त्रमेतत्।८३.४५ ।

"इति श्रीकालिकापुराणेत्र्यशीतितमोऽध्यायः।८३।

____________________________________ 
"महाभारत के अरण्यपर्व वनपर्व के अनुसार  परशुराम का जन्म"

              ★वैशम्पायन उवाच★
स तत्र तामुषित्वैकां रजनीं पृथिवीपतिः।             तापसानां परं चक्रे सत्कारं भ्रातृभिः सह।1।लोमशस्तस्य तान्सर्वानाचख्यौ तत्र तापसान्।भृगूनङ्गिरसश्चैव वसिष्ठानथ काश्यपान् ।2।तान्समेत्य सा राजर्षिरभिवाद्य कृताञ्जलिः।   रामस्यानुचरं वीरमपृच्छदकृतव्रणम् ।3।           कदा नु रामो भगवांस्तापसो दर्शयिष्यति।तमहं तपसा युक्तं द्रष्टुमिच्छामि भार्गवम् ।4।   

                  „अकृतव्रण उवाच„
आयानेवासि विदितो रामस्य विदितात्मनः।         प्रीतिस्त्वयि च रामस्य क्षिप्रं त्वां दर्शयिष्यति ।5।चतुर्दशीमष्टमीं च रामं पश्यन्ति तापसाः।      अस्यां रात्र्यां व्यतीतायां भवित्री श्वश्चतुर्दशी।6।ततो द्रक्ष्यसि रामं त्वं कृष्णाजिनजटाधरम्'।7।

                  ★युधिष्ठिर उवाच★
भवाननुगतो रामं जामदग्न्यं महाबलम्।           प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य पूर्ववृत्तस्य कर्मणः ।7।         स भवान्कथयत्वद्य यथा रामेण निर्जिताः।       आहवे क्षत्रियाः सर्वे कथं केन च हेतुना ।8।   
                     अकृतव्रण उवाच
[हन्त ते कथयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम्।          भृगूणां राजशार्दूल वंशे जातस्य भारत ।9।  रामस्य जामदग्न्यस्य चरितं देवसम्मितम्।    हैहयाधिपतेश्चैव कार्तवीर्यस् भारत।10।        रामेण चार्जुनो नाम हैहयाधिपतिर्हतिः।                तस्य बाहुशतान्यासंस्त्रीणि सप्त च पाण्डव।11। दत्तात्रेयप्रसादेन विमानं काञ्चनं तथा।          ऐश्वर्यं सर्वभूतेषु पृथिव्यां पृथिवीपते ।12।अव्घाहतगतिश्चैव रथस्तस्य महात्मनः।            रथेन तेन तु सदावरदानेन वीर्यवान् ।13। 
ममर्द देवान्यक्षांश्च ऋषींश्चैव समन्ततः।        भूतांश्चैव स सर्वांस्तु पीडयामास सर्वतः।14।    ततो देवाः समेत्याहुर्ऋषयश्च महाव्रताः।        देवदेवं सुरारिघ्नं विष्णुं सत्यपराक्रमम्।भगवन्भूतरार्थमर्जुनं जहि वै प्रभो ।15।
 विमानेन च दिव्येन हैहयाधिपतिः प्रभुः। शचीसहायं क्रीडन्तं धर्षयामास वासवम्।16।ततस्तु भगवान्देवः शक्रेण सहितस्तदा।कार्तवीर्यविनाशार्थं मन्त्रयामास भारत ।17।यत्तद्भूतहितं कार्यं सुरेन्द्रेण निवेदितम्।          संप्रतिश्रुत्य तत्सर्वं भगवाँल्लोकपूजितः।        जगाम बदरीं रम्यां स्वमेवाश्रममण्डलम् ।18।
एतस्मिन्नेव काले तु पृथिव्यां पृथिवीपतिः।]
कान्यकुब्जे महानासीत्पार्थिवः सुमहाबलः।    गाधीति विश्रुतो लोके वनवासं जगाम ह ।19। 
वने तु तस्य वसतः कन्या जज्ञेऽप्सरःसमा। ऋचीको भार्गवस्तां च वरयामास भारत ।20।       
तमुवाच ततो गाधिर्ब्राह्मणं संशितव्रतम्।        उचितं नः कुले किंचित्पूर्वैर्यत्संप्रवर्तितम् ।21।  एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्।       सहस्रं वाजिनां शुक्लमिति विद्धि द्विजोत्तम ।22।
न चापि भगवान्वाच्योदीयतामिति भार्गव।देया मे दुहिता चैव त्वद्विधाय महात्मने ।23।
                    "ऋचीक उवाच!                      एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्।दास्याम्यश्वसहस्रं ते मम भार्या सुताऽस्तु ते ।24।
                   "गाधिरुवाच।                    ददास्यश्वसहस्रं मे तव भार्या सुताऽस्तु मे' ।-25।
                  "अकृतव्रण उवाच। 
स तथेति प्रतिज्ञाय राजन्वरुणमब्रवीत्।          एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्।सहस्रं वाजिनामेकं शुल्कार्थं प्रतिदीयताम्।26।तस्मै प्रादात्सहस्रं वै वाजिनां वरुणस्तदा।तदश्वतीर्थं विख्यातमुत्थिता यत्र ते हयाः।27।गङ्गायां कान्यकुब्जे वै ददौ सत्यवतीं तदा।          ततो गाधिः सुतां चास्मै जन्याश्चासन्सुरास्तदा।28।लब्धं हयसहस्रं तु तां च दृष्ट्वा दिवौकसः।    विस्मयं परमं जग्मुस्तमेव दिवि संस्तुवन्।29।
धर्मेण लब्ध्वा तां भार्यामृचीको द्विजसत्तमः।यथाकामं यथाजोषं तया रेमे सुमध्यया ।30।        तं विवाहे कृतेराजन्सभार्यमवलोककः।      आजगाम भृगुश्रेष्ठः पुत्रं दृष्ट्वा ननन्द च ।31
भार्यापती तमासीनं भृगुं सुरगणार्चितम्।    अर्चित्वा पर्युपासीनौ प्राञ्जली तस्थतुस्तदा ।32। ततः स्नुषां स भगवान्प्रहृष्टो भृगुरब्रवीत्।       
वरं वृणीष्वसुभगे दाता ह्यस्मितवेप्सितम्।33।
सा वै प्रसादयाभास तं गुरुं पुत्रकारणात्।आत्मनश्चैव मातुश्च प्रसादं च चकार सः ।34।                          "भृगुरुवाच".                          
ऋतौ त्वं चैव माता च स्नाते पुंसवनाय वै।आलिङ्गेतां पृथग्वृक्षौ साऽस्वत्थं त्वमुदुम्बरम् ।35।चरुद्वयमिदं भद्रे जनन्याश्च तवैव च।विश्वमावर्तयित्वा तु मया यत्नेन साधितम् ।36।प्राशितव्यं प्रयत्नेन तेत्युक्त्वाऽदर्शनं गतः।आलिङ्गने चरौ चैव चक्रतुस्ते विपर्ययम् ।37।    ततः पुन स भगवान्काले बहुतिथे गते।     दिव्यज्ञानाद्विदित्वा तु भगवानागतः पुनः ।38।अथोवाच महातेजा भृगुःसत्यवतीं श्नुषाम्।39।
उपयुक्तश्चरुर्भद्रे वृक्षे चालिङ्गनं कृतम्।             विपरीतेन ते सुभ्रूर्मात्रा चैवासि वञ्चिता ।40।
क्षत्रियो ब्राह्मणाचारो मातुस्तव सुतो महान्।        भविष्यतिमहावीर्यःसाधूनां मार्गमास्थितः।41।
ततः प्रसादयामास श्वशुरं सा पुनःपुनः।           
 न मे पुत्रो भवेदीदृक्कामं पौत्रो भवेदिति ।42।
एवमस्त्विति सा तेनपाण्डव प्रतिनन्दिता।       कालं प्रतीक्षती गर्भं धारयामास यत्नतः।43।
जमदग्निं ततः पुत्रं जज्ञे सा काल आगते।        तेजसा वर्चसा चैव युक्तं भार्गवनन्दनम् ।44।
स वर्धमानस्तेजस्वी वेदस्याध्ययनेन च। बहूनृषीन्महातेजाः पाण्डवेयात्यवर्तत ।45।
तं तु कृत्स्नो धनुर्वेदः प्रत्यभाद्भरतर्षभ। चतुर्विधानि चास्त्राणि भास्करोपमवर्चसम् ।46।  
       "इति श्रीमन्महाभारते           अरण्यपर्वणितीर्थयात्रापर्वणि      पञ्चादशाधिकशततमोऽध्यायः।115


महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी ;-


अनुवाद देखे नीचें-
अकृतव्रण के द्वारा युधिष्‍ठि‍र से परशुराम जी के उपाख्यान के प्रसंग में ऋचीक मुनि का गाधिकन्या के साथ विवाह और भृगु ऋषि‍ की कृपा से जमदग्नि की उत्पति का वर्णन ।।
वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! उस पर्वत पर एक रात निवास करके भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर ने तपस्वी मुनियों का बहुत सत्कार किया। लोमश जी ने युधिष्ठिर से उन सभी तपस्वी महात्माओं का परिचय कराया।                    उनमें भृगु, अंगिरा, वसिष्ठ तथा कश्यप गोत्र के अनेक संत महात्मा थे। 
उन सबसे मिलकर राजर्षि‍ युधिष्ठि‍र ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और परशुराम जी के सेवक वीरवर अकृतव्रण से पूछा- ‘भगवन परशुराम जी इन तपस्वी महात्माओं को कब दर्शन देंगे? उसी निमित्त से मैं भी उन भगवन भार्गव का दर्शन करना चाहता हूँ।'  अकृतव्रण ने कहा- राजन! आत्मज्ञानी परशुराम  को पहले ही यह ज्ञात हो गया था कि आप आ रहे हैं। आप पर उनका बहुत प्रेम है, अत: वे शीध्र ही आपको दर्शन देंगे। ये तपस्वी लोग प्रत्येक चतुर्दशी ओर अष्‍टमी को परशुराम जी का दर्शन करते हैं। आज की रात बीत जाने पर कल सबेरे चतुर्दशी हो जायेगी। युधिष्ठिर ने पूछा- मुने ! आप महाबली परशुराम जी के अनुगत भक्त हैं। उन्होंने पहले जो-जो कार्य किये हैं, उन सबको आपने प्रत्यक्ष देखा है। अत: हम आपसे जानना चाहते हैं कि परशुराम जी ने किस प्रकार ओर किस कारण से समस्त क्षत्रियों को युद्ध में पराजित किया था। आप वह वृत्तांत आज मुझे बताइये। अकृतव्रण ने कहा- भरतकुलभुषण नृपश्रेष्‍ट युधिष्ठिर! भृगुवंशी परशुराम जी की कथा बहुत बड़ी और उत्तम है, मैं आपसे उसका वर्णन करूँगा। भारत ! जमदग्रिकुमार परशुराम तथा हैहयराज कार्तवीर्य का चरित्र देवताओं के तुल्य है। पाण्डुनन्दन! परशुराम  ने अर्जुन नाम से प्रसिद्ध जिस हैहयराज कार्तवीर्य का वध किया था, उसके एक हजार भुजाएं थीं। पृथ्वीपते ! श्रीदत्तात्रेय  की कृपा से उसे एक सोने का विमान मिला था और भूतल के सभी प्राणीयों पर उसका प्रभुत्व था। महामना कार्तवीर्य के रथ की गति को कोई भी रोक नहीं सकता था। उस रथ और वर के प्रभाव से शक्ति सम्पन्न हुआ कार्तवीर्य अर्जुन सब ओर घूमकर सदा देवताओं, यक्षों तथा ऋषि‍यों को रौंदता फिरता था और सम्पूर्ण प्राणीयों को भी सब प्रकार से पीड़ा देता था।
कार्तवीर्य का ऐसा अत्याचार देख देवता तथा महान व्रत का पालन करने वाले ऋषि‍ मिलकर दैत्यों का विनाश करने वाले सत्यपराक्रमी देवाधिदेव भगवान विष्णु के पास जा इस प्रकार बोले- ‘भगवन! आप समस्त प्राणीयों की रक्षा के लिए कृतवीर्यकुमार अर्जुन का वध कीजिये।‘ एक दिन शक्तिशाली हैहयराज ने दिव्य विमान द्वारा शची के साथ क्रीड़ा करते हुए देवराज इन्द्र पर आक्रमण किया। भारत! 
__________________     
तब भगवान विष्‍णु ने कार्तवीर्य अर्जुन का नाश करने के सम्बंध में इन्द्र के साथ विचार-विनिमय किया।
समस्त प्राणीयों के हित के लिये जो कार्य करना आवश्यक था, उसे देवेन्द्र ने बताया। तत्पश्चात विश्ववन्दित भगवान विष्‍णु ने वह सब कार्य करने की प्रतिज्ञा करके अत्यन्त रमणीय बदरीतीर्थ की यात्रा की जहाँ उनका विशाल आश्रम था।
महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद
इसी समय इस भूतल पर कान्यकुब्ज देश में एक महाबली महाराज शासन करते थे, जो गाधि के नाम से विख्यात थे। वे राजधानी छोड़कर वन में गये और वहीं रहने लगे। उनके वनवास काल में ही एक कन्या उत्पन्न हुई, जो अप्सरा के समान सुन्दरी थी। भारत! विवाह योग्य होने पर भृगुपुत्र ऋचीक मुनि ने उसका वरण किया। उस समय राजा गाधि ने कठोर व्रत का पालन करने वाले ब्रह्मर्षि‍ ऋचीक से कहा- ‘दिजश्रेष्‍ठ! हमारे कुल में पूर्वजों ने जो कुछ शुल्क लेने का नियम चला रखा है, उसका पालन करना हम लोगों के लिए भी उचित है। अत: आप यह जान लें, इस कन्या के लिए एक सहस्र वेगशाली अश्व शुल्क रूप में देने पड़ेंगे, जिनके शरीर का रंग तो सफेद और पीला मिला हुआ-सा और कान एक ओर से काले रंग के हों। भृगुनन्दन! आप कोई निन्दनीय तो हैं नहीं, यह शुल्क चुका दीजिये, फिर आप जैसे महात्मा को में अवश्य अपनी कन्या ब्याह दूंगा’।
ऋचीक बोले- राजन! मैं आपको एक ओर से श्याम कर्ण वाले पाण्डु रंग के वेगशाली अश्व एक हजार की संख्या में अर्पित करूँगा। आपकी पुत्री मेरी धर्मपत्नी बने।
अकृतव्रण कहते हैं- राजन! इस प्रकार शुल्क देने की प्रतिज्ञा करके ऋचीक मुनि ने वरुण ने के पास जाकर कहा- देव! मुझे शुल्क में देने के लिए एक हजार ऐसे अश्व प्रदान करें, जिनके शरीर का रंग पाण्डुर और कान एक ओर से श्याम हों। साथ ही वे सभी अश्व तीव्रगामी होने चाहिये।‘ उस समय वरुण ने उनकी इच्छा के अनुसार एक हजार श्याम कर्ण के घोड़े दे दिये। जहाँ वे श्याम कर्ण के घोड़े प्रकट हुए थे, वह स्थान अश्वतीर्थ नाम से विख्यात हुआ। तत्पश्चात राजा गाधि ने शुल्क रूप में एक हजार श्याम कर्ण घोड़े प्राप्त करके गंगातट पर कान्यकुब्ज नगर में ऋचीक मुनि को अपनी पुत्री सत्यवती ब्याह दी। उस समय देवता बराती बने थे। देवता उन सबको देखकर वहाँ से चले गये।" विप्रवर ऋचीक ने धर्मपूर्वक सत्यवती को पत्नी के रूप में प्राप्त करके उस सुन्दरी के साथ अपनी इच्छा के अनुसार सुखपूर्वक रमण किया।
राजन! विवाह करने के पश्चात पत्नी सहित ऋचीक को देखने के लिए महर्षि‍ भृगु उनके आश्रम पर आये अपने श्रेष्‍ठ पुत्र को विवाहित देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। उन दोनों पति-पत्नि ने पवित्र आसन पर विराजमान देववृन्दवन्दित गुरु (पिता एवं श्वसुर) का पूजन किया और उनकी उपासना में संलग्न हो वे हाथ जोड़े खड़े रहे। भगवान भृगु ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपनी पुत्रवधु से कहा- ‘सौभाग्यवती वधु ! कोई वर मांगो, मैं तुम्हारी इच्छा के अनुरूप वर प्रदान करूँगा’। सत्यवती ने श्वसुर को अपने और अपनी माता के लिये पुत्र-प्राप्ति का उद्देश्‍य रखकर प्रसन्न किया। तब भृगु जी ने उस पर कृपादृष्‍टि‍ की। भृगु जी बोले- 'वधु ! ऋतुकाल में स्नान करने के पश्चात तुम और तुम्हारी माता पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से दो भिन्न-भिन्न वृक्षों का आलिगंन करो। तुम्हारी माता पीपल का और तुम गूलर का आलिंगन करना।'
महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 36-45 का हिन्दी अनुवाद-
'भद्रे ! मैंने विराट पुरुष परमात्मा का चिन्तन करके तुम्हारे और तुम्हारी माता के लिये यत्नपूर्वक दो चरु तैयार किये हैं। तुम दोनों प्रयन्तपूर्वक अपने-अपने चरु का भक्षण करना।' ऐसा कहकर भृगु अन्तर्धान हो गये। इधर सत्यवती और उसकी माता ने वृक्षों के आलिंगन और चरु-भक्षण में उलट-फेर कर दिया।
तदनन्तर बहुत दिन बीतने पर भगवान भृगु अपनी दिव्य ज्ञानशक्ति से सब बातें जानकर पुन: वहाँ आये। उस समय महातेजस्वी भृगु अपनी पुत्रवधु सत्यवती से बोले- ‘भद्रे! तुमने चरु-भक्षण और वृक्षों का आलिगंन किया है, उसमें उलट-फेर करके तुम्हारी माता ने तुम्हें ठग लिया। सुभ्र ! इस भूल के कारण तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण होकर भी क्षत्रियोचित आचार-विचार वाला होगा और तुम्हारी माता का पुत्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणोचित आचार-विचार का पालन करने वाला होगा।
वह पराक्रमी बालक साधु-महात्माओं के मार्ग का अवलम्बन करेगा’। तब सत्यवती ने बार-बार प्रार्थना करके पुन: अपने श्वसुर को प्रसन्न किया और कहा- ‘भगवन! मेरा पुत्र ऐसा न हो। भले ही, पौत्र क्षत्रिय स्वभाव का हो जाये’।
पाण्डुनन्दन! तब ‘एवमस्तु’ कहकर भृगु  ने अपनी पुत्रवधु का अभिनन्दन किया। तत्पश्चात प्रसव का समय आने पर सत्यवती ने जमदग्नि नामक पुत्र को जन्म दिया। भार्गवनन्दन जमदग्रि तेज और ओज (बल) दोनों से सम्पन्न थे।
युधिष्ठिर ! बड़े होने पर महातेजस्वी जमदग्रि मुनि‍ वेदाध्ययन द्वारा अन्य बहुत-से ऋषि‍यों से आगे बढ़ गये। भरतश्रेष्‍ठ ! सूर्य के समान तेजस्वी जमदग्रि की बुद्धि में सम्पूर्ण धनुर्वेद और चारों प्रकार के अस्त्र स्वत: स्फुरित हो गये।
"इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में कार्तवीर्योपाख्यान विषयक एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
__________________________________
               "अकृतव्रण उवाच"
स वेदाध्ययने युक्तो जमदग्निर्महातपाः।
तपस्तेपे ततो देवान्नियमाद्वशमानयत् ।1।
स प्रसेनजितं राजन्नधिगम्य नराधिपम्।
रेणुकां वरयामास स च तस्मै ददौ नृपः।2।
रेणुकां त्वथ संप्राप्य भार्यां भार्गवनन्दनः।
आश्रमस्थस्तया सार्धं तपस्तेपेऽनुकूलया ।।3।
तस्याः कुमाराश्चत्वारो जज्ञिरे रामपञ्चमाः।
सर्वेषामजघन्यस्तु राम आसीञ्जघन्यजः ।4।
फलाहारेषु सर्वेषु गतेष्वथ सुतेषु वै।
रेणुका स्नातुमगमत्कदाचिन्नियतव्रता ।5।
सा तु चित्ररथं नाम मार्तिकावतकं नृपम्।
ददर्श रेणुका राजन्नागच्छन्ती यदृच्छया ।6।
क्रीडन्तं सलिले दृष्ट्वा सभार्यं पद्ममालिनम्।
ऋद्धिमन्तं ततस्तस्य स्पृहयामास रेणुका ।7।
व्यभिचाराच्च तस्मात्सा क्लिन्नाम्भसि विचेतना।
अन्तरिक्षान्निपतिता नर्मदायां महाह्रदे ।8।
उतीर्य चापि सा यत्नाज्जगाम भरतर्षभ'।
प्रविवेशाश्रमं त्रस्ता तां वै भर्तान्वबुध्यत ।9।
स तां दृष्ट्वाच्युतांधैर्याद्ब्राह्म्या लक्ष्म्या विवर्जिताम्।
श्रिक्‌शब्देन महातेजा गर्हयामास वीर्यवान्।10।
ततो ज्येष्ठो जामदग्न्यो रुमण्वान्नाम नामतः।
आजगाम सुषेणश्च वसुर्विश्वावसुस्तथा ।11।
तानानुपूर्व्याद्भगवान्वधे मातुरचोदयत्।
न च ते जातसंमोहाः किंचिदूचुर्विचेतसः ।12।
ततः शशाप तान्क्रोधात्ते शप्ताश्चैतनां जहुः।
मृगपक्षिसधर्माणः क्षिप्रमासञ्जडोपमाः ।13।
ततो रामोऽभ्ययात्पश्चादाश्रमं परवीरहा।
तमुवाच महामन्युर्जमदग्निर्महातपाः ।14।
जहीमां मातरं पापां मा च पुत्र व्यथां कृथाः।
तत आदाय परशुं रामो मातु शिरोऽहरत् ।15।
ततस्तस्य महाराज जमदग्नेर्महात्मनः।
कोपोऽभ्यगच्छत्सहसा प्रसन्नश्चाब्रवीदिदम् ।16।
ममेदं वचनात्तात कृतं ते कर्म दुष्करम्।
वृणीष्व कामान्धर्मज्ञ यावतो वाञ्छसे हृदा ।17।
स वव्रे मातुरुत्थानमस्मृतिं च वधस्य वै।
पापेन तेन चास्पर्शं भ्रातॄणां प्रकृतिं तथा ।18।
अप्रतिद्वन्द्वतां युद्धे दीर्घमायुश्च भारत।
ददौ च सर्वान्कामांस्ताञ्जमदग्निर्महातपाः।19।
कदाचित्तु तथैवास्य विनिष्क्रान्ताः सुताः प्रभो।
अथानूपपतिर्वीरः कार्तवीर्योऽभ्यवर्तत ।20।
तमाश्रमपदं प्राप्तमृषिरर्ध्यात्समार्चयत्।
स युद्धमदसंमत्तो नाभ्यनन्दत्तथाऽर्चनम् ।21।
प्रमथ्य चाश्रमात्तस्माद्धोमधेनोस्ततोबलात्।
जहार वत्सं क्रोशन्त्या बभञ्ज च महाद्रुमान् 22।
आगताय च रामाय तदाचष्ट पिता स्वयम्।
गां च रोरुदतीं दृष्ट्वा कोपो रामं समाविशत्।
स मन्युवशमापन्नः कार्तवीर्यमुपाद्रवत् ।23।
तस्याथ युधि विक्रम्य भार्गवः परवीरहा।
चिच्छेद निशितैर्भल्लैर्बाहून्परिघसंनिभान् ।24।
सहस्रसंमितान्राजन्प्रगृह्य रुचिरं धनुः।
अभिभूतः स रामेण संयुक्तः कालधर्मणा ।25।
अर्जुनस्याथ दायादा रामेण कृतमन्यवः।
आश्रमस्थं विना रामं जमदग्निमुपाद्रवन् ।26।
ते तं जघ्नुर्महावीर्यमयुध्यन्तं तपस्विनम्।
असकृद्रामरामेति विक्रोशन्तमनाथवत् ।27।
कार्तवीर्यस्य पुत्रास्तु जमदग्निं युधिष्ठिर।
घातयित्वा शरैर्जग्मुर्यथागतमरिंदमाः ।28।
अपक्रान्तेषु वै तेषु जमदग्नौ तथा गते।
समित्पाणिरुपागच्छदाश्रमं भृगुनन्दनः ।29।
स दृष्ट्वा पितरं वीरस्तदा मृत्युवशं गतम्।
अनर्हं तं तथाभूतं विललाप सुदुःखितः।30।
इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि
तीर्थयात्रापर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः ।117।
यहाँ कुछ प्रतियों में ‘देवान् कर्मकारक द्वितीया विभक्ति बहुवचन’ की जगह ‘वेदान्पाकर्मकारक द्वितीया विभक्ति बहुवचन’ पाठ मिलता है। उस दशा में यह अर्थ होगा कि ‘वेदों को वश में कर लिया। परंतु वेदों को वश में करने की बात असंगत-सी लगती है।
 देवताओं को वश में करना ही सुसंगत जान पड़ता है, इसलिये हमने ‘देवान्’ यही पाठ रखा है। काश्मीर की देवनागरी लिपि वाली हस्त लिखित पुस्तक में यहाँ तीन श्लोक अधिक मिलते हैं। उनसे भी ‘देवान्’ पाठ का ही समर्थन होता है। वे श्लोक इस प्रकार हैं-
तं तप्यमानं ब्रह्मर्षिमूचुर्देवा: सबांधवा:।
किमर्थ तप्य से ब्रह्मन क: काम: प्रार्थितस्तव॥१।
एवमुक्त: प्रत्युवाच देवान्‌ ब्रह्मर्षिसत्तम:।
स्वर्गहेतोस्तपस्तप्ये लोकाश्व स्युर्ममाक्षया:॥२।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य तदा देवास्तमूचिरे।
नासंततेर्भवेल्लोक: कृत्वा धर्मशतान्यपि॥३।
स श्रुत्वा वचनं तेषां त्रिदशानां कुरूद्वह॥
इन श्लोकों द्वारा देवताओं के प्रकट होकर वरदान देने का प्रसंग सूचित होता है, अत: 'ततो देवान्‌ नियनाद्‌ वशमानयत्‌' वही पाठ ठीक है।
 (सन्दर्भ- गीताप्रेस- गोरखपुर संस्करण)
                  महाभारत: वनपर्व:  सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद :-

पिता की आज्ञा से परशुराम जी का अपनी माता का मस्तक काटना और उन्हीं के वरदान से पुन: जिलाना, परशुराम जी द्वारा कार्तवीर्य अर्जुन का वध और उसके पुत्रों द्वारा जमदग्नि मुनि की हत्या अकृतव्रण कहते हैं- राजन! महातपस्वी जमदग्नि ने वेदाध्ययन में तत्पर होकर तपस्या आरम्भ की।

 तदनन्तर शौच-संतोषदि नियमों का पालन करते हुए उन्होंने सम्पूर्ण देवताओं को अपने वश में कर लिया।
युधिष्ठिर ! फिर राजा प्रसेनजित के पास जाकर जमदग्नि मुनि ने उनकी पुत्री रेणुका के लिए याचना की ओर राजा ने मुनि को अपनी कन्या ब्याह दी। 

भृगुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले जमदग्नि राजकुमारी रेणुका को पत्नी रूप में पाकर आश्रम पर ही रहते हुए उसके साथ तपस्या करने लगे।

रेणुका सदा सब प्रकार से पति के अनुकूल चलने वाली स्त्री थी। उसके गर्भ से क्रमश: चार पुत्र हुए, फिर पांचवें पुत्र परशुराम जी का जन्म हुआ।

अवस्था की दृष्‍टि‍ से भाइयों में छोटे होने पर भी वे गुणों में उन सबसे बढ़े-चढ़े थे। एक दिन जब सब पुत्र फल लाने के लिये वन में चले गये, तब नियमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाली रेणुका स्नान करने के लिए गंगा नदी तट पर गयी। राजन! जब वह स्नान करके लौटने लगी, उस समय अकस्मात उसकी दृष्टी मार्तिकावत देश के राजा चित्ररथ पर पड़ी, जो कमलों की माला धारण करके अपनी पत्नी के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था। 

उस समृद्धिशाली नरेश को उस अवस्था में देखकर रेणुका ने उसकी इच्छा की। 

उस समय इस मानसिक विकार से द्रवित हुई रेणुका जल में बेहोश-सी हो गयी।  फिर त्रस्त होकर उसने आश्रम के भीतर प्रवेश किया।  परन्तु ऋषि उसकी सब बातें जान गये।  उसे धैर्य से च्युत और ब्रह्मतेज से वंचित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली महर्षि‍ ने धिक्कारपूर्ण वचनों द्वारा उसकी निन्दा की। 

इसी समय जमदग्नि के ज्येष्‍ठ पुत्र रुमणवान वहाँ आ गये। फिर क्रमश: सुशेण, वसु और विश्वावसु भी आ पहूंचे। भगवान जमदग्नि ने बारी-बारी से उन सभी पुत्रों को यह आज्ञा दी कि 'तुम अपनी माता का वध कर डालो', 

परंतु मातृस्नेह उमड़ आने से वे कुछ भी बोल न सके, बेहोश-से खड़े रहे। तब महर्षि‍ ने कुपित हो उन सब पुत्रों को शाप दे दिया। 

शापग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना( होश) खो बैठे और तुरन्त मृग एवं पक्षि‍यों के समान जड़-बुद्धि हो गये।

तदनन्तर शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने वाले परशुराम सबसे पीछे आश्रम पर आये। उस समय महातपस्वी महाबाहु जमदग्नि ने उनसे कहा-‘बेटा ! अपनी इस पापीनी माता को अभी मार डालो और इसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद न करो। तब परशुराम ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला। 

महाराज ! इससे महात्मा जमदग्नि का क्रोध सहसा शान्त हो गया और उन्होंने प्रसन्न होकर कहा- ‘तात ! तुमने मेरे कहने पर वह कार्य किया है, जिसे करना दूसरों के लिये बहुत कठिन है।

तुम धर्म के ज्ञाता हो। तुम्हारे मन में जो-जो कामनाऐं हों, उन सबको मांग लो।‘ तब परशुराम ने कहा-‘पिताजी, मेरी माता जीवित हो उठें, उन्हें मेरे द्वारा मारे जाने की बात याद न रहे, वह मानस पाप उनका स्पर्श न कर सके, मेरे चारों भाई स्वस्थ हो जायें, युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई न हो और मैं बड़ी आयु प्राप्त करूँ।‘ भारत ! महातेजस्वी जमदग्नि ने वरदान देकर उनकी वे सभी कामनाएं पूर्ण कर दीं ।

 युधिष्ठिर ! एक दिन इसी तरह उनके सब पुत्र बाहर गये हुए थे। उसी समय (अनूपदेश) का वीर कार्तवीर्य अर्जुन उधर आ निकला। आश्रम में आने पर ऋषि‍-पत्नी रेणुका ने उसका यथोचित आथित्य सत्कार किया। कार्तवीर्य अर्जुन युद्ध के मद से उन्मत्त हो रहा था। उसने उस सत्कार को आदरपूर्वक ग्रहण नहीं किया। उल्टे मुनि के आश्रम को तहस-नहस करके वहाँ से डकराती हुई होमधेनु के बछड़े को बलपूर्वक हर लिया और आश्रम के बड़े-बड़े वृक्षों को भी तोड़ डाला। जब परशुराम आश्रम में आये, तब स्वयं जमदग्नि ने उनसे सारी बातें कहीं। बारंबार डकराती हुई होम की धेनु पर उनकी दृष्‍टि‍ पड़ी। इससे वे अत्यन्त कुपित हो उठे और काल के वशीभूत हुए कार्तवीर्य अर्जुन पर धावा बोल दिया। शत्रुवीरों का संहार करने वाले भृगुनन्दन परशुराम  ने अपना सुन्दर धनुष ले युद्ध में महान पराक्रम दिखाकर पैने बाणों द्वारा उसकी परिघ सदृश सहस्र भुजाओं को काट डाला। इस प्रकार परशुराम  से परास्त हो कार्तवीर्य अर्जुन काल के गाल में चला गया।  पिता के मारे जाने से अर्जुन के पुत्र परशुराम पर कुपित हो उठे और एक दिन परशुराम की अनुपस्थिति में जब आश्रम पर केवल जमदग्नि ही रह गये थे, वे उन्हीं पर चढ़ आये। यद्यपि जमदग्नि महान शक्तिशाली थे तो भी तपस्वी ब्राह्मण होने के कारण युद्ध में प्रवृत्त नहीं हुए।

इस दशा में भी कार्तवीर्य के पुत्र उन पर प्रहार करने लगे। युधिष्ठि‍र! वे महर्षि‍ अनाथ की भाँति ‘राम! राम!‘ की रट लगा रहे थे, उसी अवस्था में कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्रों ने उन्हें बाणों से घायल करके मार डाला। इस प्रकार मुनि की हत्या करके वे शत्रुसंहारक क्षत्रिय जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट गये। जमदग्नि के इस तरह मारे जाने के बाद वे कार्तवीर्यपुत्र भाग गये। तब भृगुनन्दन परशुराम  हाथों में समिधा लिये आश्रम में आये। वहाँ अपने पिता को इस प्रकार दुर्दशापूर्वक मरा देख उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। उनके पिता इस प्रकार मारे जाने के योग्‍य कदापि नहीं थे, परशुराम  उन्हें याद करके विलाप करने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में कार्तवीर्योपाख्यान में जमदग्निवध विषयक एकसौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणितीर्थयात्रापर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।117।


______
अनुवाद:-
एक बार परशुराम की माता रेणुका स्नान के लिए गयीं तभी  गंगा के जल में स्नान करते हुए  चित्ररथ नामक एक राजा को देखा।८।

वह अपनी सुन्दर पत्नीयों के साथ शुभ जल क्रीडा में रत था। वह राजा सुन्दर मालाओं  सुन्दर वस्त्र  से युक्त युवा चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहा था।९।

अनुवाद:-
उस प्रकार राजा को देखकर वह रेणुका अत्यधिक काम से पीडित हो गयी और रेणुका ने उस वर्चस्व शाली राजा की इच्छा की।१०।
और चेतना हीन रज स्राव के जल से भीगी हुई डरी हुई अपने आश्रम को गयी।।११।

"अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृतां तथा।
धिग् धिक्काररतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः। ८३.१२ ।। )दा

अनुवाद:-
उस रेणुका को जमदग्नि ने विकृत अवस्था में जानकर  उसकी सब प्रकार से निन्दा की और उस रति पीडिता को धिक्कारा।१२।

"ततः स तनयान् प्राह चतुरः प्रथमं मुनिः।
रुषण्वत्प्रमुखान् सर्वानेकैकं क्रमतो द्रुतम्।८३.१३। 

अनुवाद:-
तब  क्रोधित जमदग्नि ने अपने रुषणवत् आदि चारों पुत्रों से एक एक से कहा। १३।

जल्दी ही पाप में निरत इस  रेणुका को  काट दो 
लेकिन  पुत्र उनकी बात न मान कर मूक और जड़ ही बने रहे।१४।

कुपितो जमदग्निस्ताञ्छशापेति विचेतसः।
भवध्वं यूयमाचिराज्जडा गोबुद्धिर्गर्द्धिता:।
 ८३.१५ ।।अनुवाद:-

क्रोधित जमदग्नि ने उन सबको शाप दिया की सभी जड़ बुद्धि हो जाएं । कि तुम सब  सदैव के लिए घृणित   जड़ गो बुद्धि को प्राप्त हो जाओ।१५।

अथाजगाम चरमो जामदग्न्येऽतिवीर्यवान्।।
तं च रामं पिता प्राह पापिष्ठां छिन्धि मातरम्।
 ८३.१६ ।।अनुवाद:-
तभी जमदग्नि के अन्तिम पुत्र शक्तिशाली परशुराम आये  जमदग्नि ने परशुराम से कहा पापयुक्ता इस माता को तुम काट दो।१६।

स भ्रातृंश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा ज्ञानविवर्जितान्।। 
पित्रा शप्तान् महातेजाः प्रसूं परशुनाच्छिनत्।
८३.१७ ।।अनुवाद:-

पिता के  द्वारा  शापित ज्ञान से शून्य अपने भाइयों को देखकर उस परशुराम ने अपनी माता रेणुका का शिर फरसा से काट दिया ।


अनुवाद:-
परशुराम के द्वारा कटी हुई रेणुका को देखकर 
जमदग्नि क्रोधरहित हो गये। और जमदग्नि प्रसन्न होते हुए यह वचन बोले!।१८।


अनुवाद:-
मैं प्रसन्न हूँ। पुत्र तेरा कल्याण हो !  तू मुझसे कुछ माँग ले!।१९।




शास्त्रों के कुछ गले और दोगले विधान जो जातीय द्वेष की परिणित थे। -
उनसे प्रभावित पुरोहितों नें पुराणों कालान्तर में लेखन कार्य किया-

सहस्रबाहु की कथा को विपरीत  अर्थ -विधि से लिखा गया

परशुराम कभी भी पृथ्वी से २१ बार क्षत्रिय हैहयवंशीयों का वध किया ही नहीं।
परन्तु इस अस्तित्व हीन बात को बड़ा- चढ़ाकर लिखा गया।

त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा।
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे।4।
•-पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी। 4।

तदा निःक्षत्रिये लोकेभार्गवेण कृते सति।
ब्राह्मणााान्क्षत्रियाराजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।5।
•-उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी। 5।
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा।6।

•-वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे;।राजन ! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया।6।

 •-ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से  हजारों वीर्यवान् क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। 7।

कुमारांश्च कुमारीश्च पुनः क्षत्राभिवृद्धये।
एवं तद्ब्राह्मणैः क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभिः।8।

•-पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया।8।

जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारोऽपि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्मणोत्तराः।9।

•-तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए। ये सब दीर्घजीवी धर्म पूर्वक बुढ़ापे को प्राप्त करते ।9।

अभ्यगच्छन्नृतौ नारीं न कामान्नानृतौ तथा।
तथैवान्यानि भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि।10।

•-उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नि समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे। इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे।
10।

ऋतौ दारांश्च गच्छन्ति तत्तथा भरतर्षभ।
ततोऽवर्धन्त धर्मेण सहस्रशतजीविनः।11।

•-भरतश्रेष्ठ! उस ऋतुकाल में स्त्रीसंभोग समय के अनुरूप धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे।11।

ताः प्रजाः पृथिवीपाल धर्मव्रतपरायणाः।
आधिभिर्व्याधिभिश्चैव विमुक्ताः सर्वशो नराः।12।
•-भूपाल! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे।12।

अथेमां सागरोपान्तां गां गजेन्द्रगताखिलाम्।
अध्यतिष्ठत्पुनः क्षत्रं सशैलवनपत्तनाम्।13।

•-गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया। 13।

प्रशासति पुनःक्षत्रे धर्मेणेमां वसुन्धराम्।
ब्राह्मणाद्यास्ततो वर्णा लेभिरे मुदमुत्तमाम्।14।
जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। 14।

कामक्रोधोद्भवान्दोषान्निरस्य च नराधिपाः।
धर्मेण दण्डं दण्डेषु प्रणयन्तोऽन्वपालयन्।15।
•-उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे। 15।

तथा धर्मपरे क्षत्रे सहस्राक्षः शतक्रतुः।
स्वादु देशे च काले च ववर्षाप्याययन्प्रजाः।16।
•-इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा। 
उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे। 16।

न बाल एव म्रियते तदा कश्चिज्जनाधिप।
नचस्त्रियंप्रजानाति कश्चिदप्राप्तयौवनाम्।17।

•-राजन! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था।17।

एवमायुष्मतीभिस्तु प्रजाभिर्भरतर्षभ।
इयं सागरपर्यन्ता ससापूर्यत मेदिनी।18।
•-ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी।। 18।

ईजिरे च महायज्ञैः क्षत्रिया बहुदक्षिणैः।
साङ्गोपनिषदान्वेदान्विप्राश्चाधीयते तदा।19।

•-क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे। 19।
महाभारत आदिपर्व अंशावतरण नामक उपपर्व का(64) वाँ अध्‍याय: 
____________________________________
अब प्रश्न यह भी उठता है  !
कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं 
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह  वर्णन है ।
देखें निम्न श्लोक -
भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)

कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी  वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि 
"तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद्  द्वयोरात्मास्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।

अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले  शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
_______________
मनुस्मृति- में भी देखें निम्न श्लोक
यथा त्रयाणां वर्णानां द्वयोरात्मास्य जायते ।आनन्तर्यात्स्वयोन्यां तु तथा बाह्येष्वपि क्रमात् ।।10/28

अर्थ- जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी समान उत्पन्न होता है उसी तरह आनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।१०/२८
न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः ।कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते 3/14
__________________
महाभारत के उपर्युक्त अनुशासन पर्व से उद्धृत और आदिपर्व  से उद्धृत क्षत्रियों के नाश के वाद क्षत्राणीयों में बाह्मणों के संयोग से उत्पन्न पुत्र- पुत्री क्षत्रिय किस विधान से हुई  दोनों तथ्य परस्पर विरोधी होने से क्षत्रिय उत्पत्ति का प्रसंग काल्पनिक व मनगड़न्त ही सिद्ध करते हैं ।

मिध्यावादीयों ने मिथकों की आड़ में अपने स्वार्थ को दृष्टि गत करते हुए आख्यानों की रचना की ---

कौन यह दावा कर सकता है ? कि ब्राह्मणों से क्षत्रिय-पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ? 
किस सिद्धांत की अवहेलना करके  ! क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य हो जाएगा ?

तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति।
ब्राह्मणााान्क्षत्रियाराजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।5।

ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा।।6।

तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।7।

पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी। 
उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी। 
नर- शार्दूल ! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; " राजन" उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थी। श्लोक - (5-6-7)


सहस्रबाहु की पूजा का विधान ( नारदपुराण-पूर्वाद्ध-


अनुवाद:-ये मन्त्र हमेशा गुप्त रहते हैं और कहीं से भी प्रकट नहीं होने चाहिए।
यह किसी ऐसे शिष्य को दिया जाना चाहिए जिसकी परीक्षा हुई हो या जो अपना पुत्र हो।। 75-105।।

बुद्धिमान कार्तवीर्य अर्जुन हनुमान की पूजा से जुड़ा हुआ है
विशेष रूप से देवता की पूजा करनी चाहिए और ऊपर बताए अनुसार फल प्राप्त करना चाहिए 75-106।

यह श्री बृहन्नारायण पुराण के पूर्वी भाग में बृहदुपाख्यान के तीसरे भाग का पचहत्तरवाँ अध्याय है, जिसका शीर्षक दीपक की विधि का विवरण है।।75।।



अनेन मनुना मन्त्री ग्रहग्रस्तं प्रमार्जयेत् ।।
आक्रंदंस्तं विमुच्याथ ग्रहः शीघ्रं पलायते ।। ७५-१०४।

मनवोऽमी सदागोप्या न प्रकाश्या यतस्ततः ।।
परीक्षिताय शिष्याय देया वा निजसूनवे । ७५-१०५ ।

हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः ।।
विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।। ७५-१०६।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे दीपविधिनिरूपणं नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७५ ।।


नारदपुराणम्- पूर्वार्द्ध अध्यायः ७६
_____________________

                "नारद उवाच।
कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि ।
जायन्तेऽथ प्रलीयन्ते स्वस्वकर्मानुसारतः ।।१।।
अनुवाद:-
देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने कर्मानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं। १-।

तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः ।।
समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम् ।।२ ।।
अनुवाद:-
तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है।


             "सनत्कुमार उवाच"
श्रृणु नारद वक्ष्यामि संदेहविनिवृत्तये।।
यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि।३।
सनत्कुमार ने कहा! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय( सेव्यमान) कहे गये हैं।३।

यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।४।
ये पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया।४।

तस्य क्षितीश्वरेंद्रस्य स्मरणादेव नारद ।।
शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम् ।।५।।
अनुवाद:-
हे नारद कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।५।

तेनास्य मन्त्रपूजादि सर्वतन्त्रेषु गोपितम् ।।
तुभ्यं प्रकाशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।६ ।
अनुवाद:-
कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है।६।

वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नींदुशांतियुक् ।।
वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिंदुयुक् ।७।

पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीपदम् ।
रेफोवा द्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ।८।

मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः ।।
ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः ।९ ।

दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।।
कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत् ।१०।

शेषाढ्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेदधः ।।
शांतियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम् ।।११ ।।

इन्द्वाढ्यं वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया ।।
शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ।१२।।

वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः ।।
हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशतः ।।१३ ।।

दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जंघयोः ।।
विन्यसेद्बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ।।१४ ।।

ताराद्यानथ शेषार्णान्मस्तके च ललाटके ।।
भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके ।।१५ ।।

सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः ।।
सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम् ।। १६ ।।

इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है‌( यह मूल में श्लोक संख्या 7- से 9 तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा  इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा  शक्ति है हृत् - शेषाढ्य  बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्यम् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर ( लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।७-१६।


उद्यद्रर्कसहस्राभं सर्वभूपतिवन्दितम् ।।
दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च ।१७ ।।
_________________
दधतं स्वर्णमालाढ्यं रक्तवस्त्रसमावृतम् ।।
चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।१८ ।।
अनुवाद:-
ध्यान :- इनकी कान्ति( आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के 500 दक्षिणी हाथों में वाण और  500 उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र( लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।१७-१८।

__________________

लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।।
सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजत्तुतम् ।१९ ।

षट्कोणेषु षडंगानि ततो दिक्षु विविक्षु च ।।
चौरमदविभञ्जनं मारीमदविभंजनम् ।२०।।

अरिमदविभंजनं दैत्यमदविभंजनम् ।।
दुष्टनाशं दुःखनाशं दुरितापद्विनाशकम् ।२१।

दिक्ष्वष्टशक्तयः पूज्याः प्राच्यादिष्वसितप्रभाः ।।
क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च यशस्करी ।२२।

आयुः करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः।
धनकर्यष्टमी पश्चाल्लोकेशा अस्त्रसंयुताः ।२३।

अनुवाद:-ध्यान के उपरांत एक लाख और  जप के उपरान्त होम तिल  चावल तथा पायस( खीर ) से पूजा करके  विष्णु पीठ पर इनका पूजन करें । उसके बाद षट्कोण में पूजा करके दिक् विदिक् में  षडंगदेवगण की पूजा करें। इसमें चौरमद नारीमद शत्रुमद दैत्यमद का और दुष्ट का और र दु:ख का तथा पाप का नाश होता है। पूर्वादिक्( पूर्व दिशा) में आठ कृष्ण वर्ण प्रभा शक्ति की पूजा करें । ये लोक पालिका शक्ति है। क्षेमकरी वश्यकरी" श्रीकरी यशस्करी आयुष्करी  प्रज्ञाकरी विद्याकरी तथा धर्मकार्याष्टमी तथा अस्त्रों के साथ लोकपाल गण की पूजा करनी चाहिए-।१९-२३।

एवं संसाधितो मंत्रः प्रयोगार्हः प्रजायते ।।
कार्तवीर्यार्जुनस्याथ पूजायंत्रमिहोच्यते ।२४।

स्वबीजानंगध्रुववाक्कर्णिकं दिग्दलं लिखेत् ।।
तारादिवर्मांतदलं शेषवर्णदलांतरम् ।२५।

ऊष्मान्त्यस्वरकिंजल्कं शेषार्णैः परिवेष्टितम् ।।
कोणालंकृतभूतार्णभूगृहं यन्त्रमीशितुः ।२६ ।
अनुवाद:-इस प्रकारइस प्रकार मन्त्र सिद्ध करके प्रयोग के लिए वह साधक कार्य करे अब कार्तवीर्य भगवान् की पूजा का यन्त्र कहा जाता है।२४।
बीज काम ध्रुव वाक् कर्णिका से युक्त दिक्पत्र अंकित करें । स्वर वर्ण  कमल का अन्तिम पत्र होगा शेष वर्ण अन्य पत्र पर होंगें। श" ष" स" ह" औ" केसर हैं। वह बाकी वर्णों से घिरा है। कोण से सज्जित चतुर्दश वर्णात्मक भृगु ह यन्त्र ही कार्तवीर्य है। २५-२६।

शुद्धभूमावष्टगन्धैर्लिखित्वा यन्त्रमादरात् ।।
तत्र कुंभं प्रतिष्ठाप्य तत्रावाह्यार्चयेन्नृपम् ।२७।

स्पृष्ट्वा कुंभं जपेन्मन्त्रं सहस्रं विजितेंद्रियः ।।
अभिषिं चेत्तदंभोभिः प्रियं सर्वेष्टसिद्धये ।२८ ।

पुत्रान्यशो रोगनाशमायुः स्वजनरंजनम् ।।
वाक्सिद्धिं सुदृशः कुम्भाभिषिक्तो लभते नरः ।२९।

शत्रूपद्रव आपन्ने ग्रामे वा पुटभेदने ।।
संस्थापंयेदिदं यन्त्रं शत्रुभीतिनिवृत्तये ।३०।

सर्षपारिष्टलशुनकार्पासैर्मार्यते रिपुः ।।
धत्तूरैः स्तभ्यते निम्बैर्द्वेष्यते वश्यतेंऽबुजैः ।३१।

उच्चाटने विभीतस्य समिद्भिः खदिरस्य च ।।
कटुतैलमहिष्याज्यैर्होमद्रव्यांजनं स्मृतम् ।३२।

यवैर्हुते श्रियः प्राप्तिस्तिलैराज्यैरघक्षयः।
तिलतंडुलसिद्धार्थजालैर्वश्यो नृपो भवेत् ।३३।

अपामार्गार्कदूर्वाणां होमो लक्ष्मीप्रदोऽघनुत् ।।
स्त्रीवश्यकृत्प्रियंगूणां मुराणां भूतशांतिदः ।३४।

अश्वत्थोदुंबरप्लक्षवटबिल्वसमुद्भवाः ।।
समिधो लभते हुत्वा पुत्रानायुर्द्धनं सुखम् ।३५।

निर्मोकहेमसिद्धार्थलवणैश्चौरनाशनम् ।।
रोचनागोमयैस्तंभो भूप्राप्तिः शालिभिर्हुतैः ।३६।

होमसंख्या तु सर्वत्र सहस्रादयुतावधि ।।
प्रकल्पनीया मन्त्रज्ञैः कार्य्यगौरवलाघवात् ।३७।

कार्तवीर्य्यस्य मन्त्राणामुच्यते लक्षणं बुधाः ।।
कार्तवीर्यार्जुनं ङेंतं सर्वमंत्रेषु योजयेत् ।३८ ।

स्वबीजाद्यो दशार्णोऽसौ अन्ये नवशिवाक्षराः ।।
आद्यबीजद्वयेनासौ द्वितीयो मन्त्र ईरितः ।३९ ।।

स्वकामाभ्यां तृतीयोऽसौ स्वभ्रूभ्यां तु चतुर्थकः ।।
स्वपाशाभ्यां पञ्चमोऽसौ षष्टः स्वेन च मायया ।४०।

स्वांकुशाभ्यां सप्तमः स्यात्स्वरमाभ्यामथाष्टमः ।।
स्ववाग्भवाभ्यां नवमो वर्मास्त्राभ्यामथांतिमः ।४१।

द्वितीयादिनवांतेषु बीजयोः स्याद्व्यतिक्रमः ।।
मंत्रे तु दशमे वर्णा नववर्मास्त्रमध्यगाः ।४२।

एतेषु मंत्रवर्येषु स्वानुकूलं मनुं भजेत् ।।
एषामाद्ये विराट्छदोऽन्येषु त्रिष्टुबुदाहृतम् ।७६-४३।

दश मंत्रा इमे प्रोक्ता यदा स्युः प्रणवादिकाः ।।
तदादिमः शिवार्णः स्यादन्ये तु द्वादशाक्षराः ।४४।

त्रिष्टुपूछन्दस्तथाद्ये स्यादन्येषु जगती मता ।।
एवं विंशतिमंत्राणां यजनं पूर्ववन्मतम ।४५।
_________


दीर्घाढ्यमूलबीजेन कुर्यादेषां षडंगकम् ।।
तारो हृत्कार्तवीर्यार्जुनाय वर्मास्त्रठद्वयम् ।४६।

चतुर्दशार्णो मंत्रोऽयमस्येज्या पूर्ववन्मता।
भूनेत्रसमनेत्राक्षिवर्णेरस्यांगपंचकम् ।४७।

तारो हृद्भगवान् ङेंतः कार्तवीर्यार्जुनस्तथा ।।
वर्मास्त्राग्निप्रियामंत्रः प्रोक्तो ह्यष्टादशार्णकः ।४८।

त्रिवेदसप्तयुग्माक्षिवर्णैः पंचांगकं मनोः ।
नमो भगवते श्रीति कार्तवीर्यार्जुनाय च ।४९ ।

सर्वदुष्टांतकायेति तपोबलपराक्रमः ।।
परिपालितसप्तांते द्वीपाय सर्वरापदम् ।५० ।

जन्यचूडामणांते ये महाशक्तिमते ततः ।।
सहस्रदहनप्रांते वर्मास्त्रांतो महामनुः ।५१।

त्रिषष्टिवर्णवान्प्रोक्तः स्मरमात्सर्वविघ्नहृत् ।।
राजन्यक्रवर्ती च वीरः शूरस्तृतीयकः ।५२ ।

माहिष्मतीपतिः पश्चाञ्चतुर्थः समुदीरितः ।।
रेवाम्बुपरितृप्तश्च काणो हस्तप्रबाधितः ।५३।

दशास्येति च षड्भिः स्यात्पदैर्ङेतैः षडंगकम् ।।
सिंच्यमानं युवतिभिः क्रीडंतं नर्मदाजले ।५४।

हस्तैर्जलौधं रुंधंतं ध्यायेन्मत्तं नृपोत्तमम् ।।
एवं ध्यात्वायुतं मंत्रं पजेदन्यत्तु पूर्ववत् ।५५।।

अनुवाद:-ये दीर्घमन्त्रात्मक है। इनका षडंग न्यास मूल बीज से करें ऊँ नम: कार्तवीर्यायार्जुनाय हुम् फट्। यह 14 अक्षरों का मन्त्र है तो भी गिनने में 13 ही होते हैं इसकी उपासना पूर्ववत् करें 9 अक्षर से इसका पंचांग न्यास करें ।
"नमो भगवते श्रीकार्तवीरायार्जुनाय सर्वदुष्टान्तक तपोबलपराक्रम परिपालित सप्तद्वीपाय सर्वराजन्य चूड़ामणि महाशक्तिमते सहस्रदहन हुं फट्। यह 63 अक्षरात्मक मन्त्र है। इसके स्मरण से सभी लौकिक विघ्न नष्ट हो जाते हैं। अब राजन्य" चक्रवर्ती" शूर" माहिष्मतिपति" रेवाम्बुपरितृप्त" काणों हस्तप्राबाधित इन 6 मन्त्रपद  द्वारा  षडंगन्यासोपरान्त  ध्यान करें ध्यान का विषय है :- नर्मदा के जल में स्नान रत कार्तवीर्य पत्नीगणों से जलक्रीड़ा कर रहे हैं तथा उन पर जल उत्षेचन कर रहे हैं। वे अपने सहस्रबाहुओं से नर्मदा का जल प्रवाह रोक रहे हैं। इस ध्यान के उपरान्त इन मन्त्र पदों का दस हजार बार जप करें  पहले एक लाख जप करें शेष कार्य पूजादि यथापूर्व होगा ।।46-55।।

पूर्वं तु प्रजपेल्लक्षं पूजायोगश्च पूर्ववत् ।।
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान् ।५६ ।

तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च संवदेत् ।।
लभ्यते मंत्रवर्योऽयं द्वात्रिंशद्वर्णसंयुतः ।५७।

पादैः सर्वेण पंचांगं ध्यानपूजादि पूर्ववत् ।।
कार्तवीर्याय शब्दांते विद्महे पदमुञ्चरेत् ।५८।

महावीर्याय वर्णांते धीमहीति पदं वदेत् ।
तन्नोऽर्जुनः प्रवर्णांते चोदयात्पदमीरयेत् ।५९ ।

गायत्र्येषार्जुन स्योक्ता प्रयोगादौ जपेत्तु ताम् ।।
अनुष्टुभं मनुं रात्रौ जपतां चौरसंचयाः ।६०।

पलायन्ते गृहाद्दूरं तर्पणाद्ध्रवनादपि ।।
अथो दीपविधिं वक्ष्ये कार्तवीर्यप्रियंकरम् ।६१ ।

वैशाखे श्रावणे मार्गे कार्तिकाश्विनपौषतः ।।
माघफाल्गुनयोर्मासोर्दीपारंभं समाचरेत् ।६२ ।।

तिथौ रिक्ताविहीनायां वारे शनिकुजौ विना ।।
हस्तोत्तराश्विरौद्रेयपुष्यवैष्णववायुभे ।६३ ।।

द्विदैवते च रोहिण्यां दीपारंभो हितावहः ।।
चरमे च व्यतीपाते धृतौ वृद्धौ सुकर्मणि ।६४ ।।

प्रीतौ हर्षं च सौभाग्ये शोभनायुष्मतोरपि ।।
करणे विष्टिरहिते ग्रहणेऽर्द्धोदयादिषु ।६५ ।।

योगेषु रात्रौ पूर्वाह्णे दीपारंभः कृतः शुभः ।।
कार्तिके शुक्लसप्तम्यां निशीथेऽतीव शोभनः ।६६।

यदि तत्र रवेर्वारः श्रवणं भं च दुर्लभम् ।।
अत्यावश्यककार्येषु मासादीनां न शोधनम् ।६७।

आद्ये ह्युपोष्य नियतो ब्रह्मचारी सपीतकैः ।।
प्रातः स्नात्वा शुद्धभूमौ लिप्तायां गोमयोदकैः ।६८।

प्राणानायम्य संकल्प्य न्यासान्पूर्वोदितांश्चरेत् ।।
षट्कोणं रचयेद्भूमौ रक्तचंदनतंडुलैः ।६९ ।

अतः स्मरं समालिख्य षट्कोणेषु समालिखेत् ।।
नवार्णैर्वेष्टयेत्तञ्च त्रिकोणं तद्बहिः पुनः ।७० ।

एवं विलिखिते यन्त्रे निदध्याद्दीपभाजनम् ।।
स्वर्णजं रजतोत्थं वा ताम्रजं तदभावतः ।७१ ।।

कांस्यपात्रं मृण्मयं च कनिष्ठं लोहजं मृतौ ।।
शांतये मुद्गचूर्णोत्थं संधौ गोधूमचूर्णजम् ।७२ ।।

आज्ये पलसहस्रे तु पात्रं शतपलं स्मृतम् ।।
आज्येऽयुतपले पात्रं पलपंचशता स्मृतम् ।७३ ।।

पंचसप्ततिसंख्ये तु पात्रं षष्टिपलं स्मृतम् ।।
त्रिसाहस्री घृतपले शर्करापलभाजनम् ।७४ ।।

द्विसाहख्त्र्यां द्विशतमितं च भाजनमिष्यते ।।
शतेऽक्षिचरसंश्यातमेवमन्यत्र कल्पयेत् ।७५ ।।

नित्यदीपे वह्निपलं पात्रमाज्यं पलं स्मृतम् ।।
एवं पात्रं प्रतिष्ठाप्य वर्तीः सूत्रोत्थिताः क्षिपेत् ।७६ ।।

एका तिस्रोऽथवा पंचसप्ताद्या विषमा अपि।
तिथिमानादासहस्रं तंतुसंख्या विनिर्मिता ।७७।

गोघृतं प्रक्षिपेत्तत्र शुद्धवस्त्रविशोधितम् ।।
सहस्रपलसंख्यादिदशांशं कार्यगौरवात् ।७८ ।।

सुवर्णादिकृतां रम्यां शलाकां षोडशांगुलाम् ।।
तदर्द्धां वा तदर्द्धां वा सूक्ष्माग्रां स्थूलमूलिकाम् ७९ ।।

विमुंचेद्दक्षिणे पात्रमध्ये चाग्रे कृताग्रिकाम् ।।
पात्रदक्षिणदिग्देशे मुक्त्वां गुलचतुष्टयम् ।८० ।।

अधोग्रां दक्षिणाधारां निखनेच्छुरिकां शुभाम् ।।
दीपं प्रज्वालयेत्तत्र गणेशस्मृतिपूर्वकम् ।८१।

दीपात्पूर्वत्र दिग्भागे सर्वतोभद्रमंडले ।।
तंडुलाष्टदले वापि विधिवत्स्थापयेद्धूटम् ।८२।

तत्रावाह्य नृपाधीशं पूजयेत्पूर्ववत्सुधीः ।।
जलाक्षतान्समादाय दीपं संकल्पयेत्ततः ।८३।

दीपसंकल्पमंत्रोऽयं कथ्यते द्वीषुभूमितः ।।
प्रणवः पाशमाये च शिखा कार्ताक्षराणि च ।८४।

वीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय सहस्र च।
बाहवे इति वर्णांते सहस्रपदमुच्चरेत् ।८५।

क्रतुदीक्षितहस्ताय दत्तात्रेयप्रियाय च ।।
आत्रेयायानुसूयांते गर्भरत्नाय तत्परम् ।८६ ।

नमो ग्रीवामकर्णेंदुस्थितौ पाश इमं ततः ।।
दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष पदं पुनः ।८७ ।।

दुष्टान्नाशययुग्मं स्यात्तथा पातय घातय ।।
शत्रून् जहिद्वयं माया तारः स्वं बीजमात्मभूः ।८८ ।

वह्नीप्रिया अनेनाथ दीपवर्येण पश्चिमा ।।
भिमुखेनामुकं रक्ष अमुकांते वरप्रद ।८९ ।

मायाकाशद्वयं वामनेत्रचंद्रयुतं शिवा ।।
वेदादिकामचामुंडाः स्वाहा तु पूसबिंदुकौ ।९०।।

प्रणवोऽग्निप्रिया मंत्रो नेत्रबाणाधराक्षरः ।।
दत्तात्रेयो मुनिर्मालामंत्रस्य परिकीर्तितः ।९१।

छन्दोऽमितं कार्तवीर्युर्जुनो देवोऽखिलाप्तिकृत् ।।
चामुण्डया षडंगानि चरेत्षड्दीर्घयुक्तया ।९२।

ध्यात्वा देवं ततो मंत्रं पठित्वांते क्षिपेज्जजलम् ।।
गोविंदाढ्यो हली सेंदुश्चामुंडाबीजमीरितम् ९३।

ततो नवाक्षरं मंत्रं सहस्रं तत्पुरो जपेत् ।।
तारोऽनंतो बिंदुयुक्तो मायास्वं वामनेत्रयुक् ।९४।

कूर्माग्नी शांतिबिंद्वाढ्यौ वह्नि जायांकुशं ध्रुवम् ।।
ऋषिः पूर्वोदितोनुष्टुप्छंदोऽन्यत्पूर्ववत्पुनः ।९५।

सहस्रं मंत्रराजं च जपित्वा कवचं पठेत् ।।
एवं दीपप्रदानस्य कर्ताप्नोत्यखिलेऽप्सितम् ।९६ ।

दीपप्रबोधकाले तु वर्जयेदशुभां गिरम् ।।
विप्रस्य दर्शनं तत्र शुभदं परिकीर्तितम् ।९७ ।

शूद्राणां प्रध्यमं प्रोक्तं म्लेच्छस्य वधबन्धनम् ।।
आख्वोत्वोर्दर्शनं दुष्टं गवाश्वस्य सुखावहम् ।९८।

दीपज्वाला समा सिद्ध्यै वक्रा निशविधायिनी ।।
शब्दा भयदा कर्तुरुज्ज्वला सुखदा मता ।९९ ।

कृष्णा शत्रुभयोत्पत्त्ये वमंती पशुनाशिनी ।।
कृते दीपे यदा पात्रं भग्नं दृश्यते दैवतः ।१००।

पक्षादर्वाक्तदा गच्छेद्यजमानो यमालयम् ।
वर्त्यतरं यदा कुर्यात्कार्यं सिद्ध्येद्विलंबतः ।१०१ ।।

नेत्रहीनो भवेत्कर्ता तस्मिन्दीपांतरे कृते ।।
अशुचिस्पर्‌शने व्याधिर्दीपनाशे तु चौरभीः। १०२ ।

श्वमार्जाराखुसंस्पर्शे भवेद्भूपतितो भयम् ।।
पात्रारंभे वसुपलैः कृतो दीपोऽखिलेष्टदः ।१०३।

तस्माद्दीपः प्रयत्नेन रक्षणीयोंऽतरायतः ।।
आसमाप्तेः प्रकुर्वीत ब्रह्मचर्यं च भूशयः ।१०४।
__________________
स्त्रीशूद्रपतितादीनां संभाषामपि वर्जयेत् ।।
जपेत्सहस्रं प्रत्येकं मंत्रराजं नवाक्षरम् ।१०५।

स्तोत्रपाठं प्रतिदिनं निशीथिन्यां विशेषतः ।।
एकपादेन दीपाग्रे स्थित्वा यो मंत्रनायकम् ।१०६ ।

सहस्रं प्रजपेद्वात्रौ सोऽभीष्टं क्षिप्रमाप्नुयात् ।।
समाप्य शोभनदिने संभोज्य द्विजसत्तमान् ।१०७।

कुंभोदकेन कर्तारमभिषिंचन्मनुं जपेत्।
कर्ता तु दक्षिणां दद्यात्पुष्कलां तोषहेतवे ।१०८।

गुरौ तुष्टे ददातीष्टं कृतवीर्यसुतो नृपः ।
गुर्वाज्ञया स्वयं कुर्याद्यदि वा कारयेद्गुरुः ।१०९।

दत्त्वा धनादिकं तस्मै दीपदानाय नारद ।।
गुर्वाज्ञामन्तरा कुर्याद्यो दीपं स्वेष्टसिद्धये ।११०।

सिद्धिर्न जायते तस्य हानिरेव पदे पदे ।
उत्तमं गोघृतं प्रोक्तं मध्यमं महषीभवम् ।१११ ।

तिलतैलं तु तादृक् स्यात्कनीयोऽजादिजं घृतम् 
आस्यरोगे सुगंधेन दद्यात्तैलेन दीपकम् ।११२।
______________________

सिद्ध्वार्थसंभवेनाथ द्विषतां नाशनाय च ।।
सहस्रेण पलैर्दीपे विहिते च न दृश्यते ।११३ ।।

कार्यसिद्धस्तदा कुर्यात्र्रिवारं दीपजं विधिम्।
तदा सुदुर्लभमपि कार्य्यं सिद्ध्व्येन्न संशयः।११४।

दीपप्रियः कार्तवीर्यो मार्तंडो नतिवल्लभः ।।
स्तुतिप्रोयो महाविष्णुर्गणेश स्तपर्णप्रियः ।११५।

दुर्गार्चनप्रिया नूनमभिषेकप्रियः शिवः ।।
तस्मात्तेषां प्रतोषाय विदध्यात्तत्तदादरात् ।११६।
____________________
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे कार्तवीर्यमाहात्म्यमन्त्रदीपकथनं नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः । ७६।

हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः ।।
विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।। ७५-१०६।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे दीपविधिनिरूपणं नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७५ ।।


अनुवाद:- हनुमान की भक्ति से आसक्त सुधीजन कार्तवीर्य अर्जुन की आराधना प्रारम्भ करें।।१०६। सन्दर्भ :- नारदपुराण पूर्वभाग 75 वाँ अध्याय :-

____________________________________
प्रस्तुति करण :- यादव योगेश कुमार रोहि-
सम्पर्क सूत्र :- 8077160219


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें