शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024

-श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चंवर्णम्-वृहद एक भागम्--१★{एक-रूपम्-}★

नवीन संशोधित संस्करण -श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चंवर्णम्- वृहद एक भागम्- { एक-रूपम्-}



"सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादि हेतवे।तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।१।

 ★-अनुवाद:- -

 सत् 'चित् और 'आनन्द स्वरूप , विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण एवं तीनों तापों के नाशक भगवान्- श्रीकृष्ण को हम प्रणाम करते हैं। 

व्याख्या: -  "सच्चिदानन्दरूपाय" श्लोक श्रीमद्भागवत महापुराण के माहात्म्य में वर्णित है। जोकि पद्मपुराण से लिया गया मङ्गलाचरण है । यद्यपि आज मूल पद्मपुराण में यह श्लोक प्राप्त नहीं होता है। परन्तु भागवत माहात्म्य में यह प्रथम श्लोक के रूप में परिगणित किया गया है। 

नवीन संशोधित संस्करण-"श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चंवर्णम्"-


राधेकृष्णाभ्याम्  मित्रो !   मित्रो - इस पुस्तक में आप लोग परम प्रभु श्रीकृष्ण के उन तीन रहस्य पूर्ण प्रसंगों के विषय में तो जानेगे' ही जिन्हें आज तक बहुत ही कम लोग जानते हैं; अथवा कहें कि
 फिर जानते ही नहीं हैं-  और इसके साथ साथ कृष्ण के आध्यात्मिक ,दार्शनिक और योगसिद्धि के सिद्धान्त से भी परिचित होंगे।  आज हम इस युगान्त कारी ज्ञान के आधार पर भगवान् श्रीकृष्ण से सम्बन्धित उन घटनाओं को भी प्रस्तुत करेंगे जिसे जानबूझ कर अथवा कहें अज्ञानता-वश कथाकारों द्वारा अब तक जनसाधारण के समाने प्रस्तुत नहीं किया गया है। 
जिसके परिणाम स्वरूप जनमानस में कृष्ण के वास्तविक चरित्रों (कारनामों)  का प्रचार- प्रसार नहीं हो सका और श्रीकृष्ण के अद्भुत रहस्यों से सारी दुनिया अनिभिज्ञ ही रह गयी ।

कृष्ण के वास्तविक स्वरूप का यथावत् ज्ञान न होने के कारण ही साधारण लोग आज तक भ्रम जाल में भँसकर संसार में विभिन्न प्रकार के प्रलाप करते हुए देखे और सुने जाते हैं-
_____

और इसी भ्रमजाल को दूर करने के लिए अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण के चारित्रिक रहस्यों को सम्पूर्ण सारगर्भित  रूप से बताने के लिए हमने  इस पुस्तक को  प्रमुख रूप से तीन प्रमुख खण्डों( 1-सृष्टि-सर्जन -खण्ड 2- आध्यात्मिक -खण्ड और 3-लोकाचरण-खण्ड  में विभाजित किया हैं ताकि -

आप लोगों को  (क्रमानुसार-)समझ में आ जाय कि कृष्ण यथार्थ  क्या थे  ? और  उनका आध्यात्मिक और सांसारिक जीवन में क्या योगदान था ?- सत्य कहा जाय तो कृष्ण एक समग्र व्यक्तित्व ही थे। एक सम्पूर्ण चेतना थे।
____________________________________


और उस लोक में कौन -कौन से प्राणी रहते हैं , तथा उन लोकों के अधिपति कौन है ? और उन अधिपतियों के भी अधिपति (सुप्रीम -पावर) कौन है ?

इसी सर्वशक्तिमान ईश्वर को , परम-प्रभु, परम-तत्व" इत्यादि नामों से भी तत्वज्ञानी लोग अनुभव व वर्णन किया करते हैं।
(ब्रह्म वैवर्त पुराण-प्रकृतिखण्ड: अध्याय (3) में वर्णन है- कि   परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी श्री राधा से प्रकट विराट स्वरूप बालक ही विराट - विष्णु है।-
____________________________________
नारायण और नारद के संवाद क्रम में सृष्टि उत्पत्ति की कथा है।
भगवान नारायण कहते हैं– नारद ! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्मा की आयु तक वह बालक ब्रह्माण्ड गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा( अचानक) दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया। 

उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा।

माता-पिता उसे त्याग चुके थे। वह निराश्रय होकर जल के अन्दर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी के अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी। अतएव उसका नाम ‘महाविराट’ पड़ा।

जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह  उसके सापेक्ष अत्यन्त स्थूलतम था।

वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।

परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है।

इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगा पाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है। वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते। जैसे जगत के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा" विष्णु और शिव आदि हैं– यह नहीं बताया जा सकता। 

प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव देव त्रयी( त्रिदेव) के रूप में विद्यमान हैं। पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगनित ब्रह्माण्ड बताये गये हैं। अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है ? ऊपर वैकुण्ठलोक है।

यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके भी ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है। 

श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्य स्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्नचास छोटे-छोटे द्वीप हैं। पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है।

सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं। ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं। यही ब्रह्माण्ड का परिचय है। 

पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलेक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मा का लोक ब्रह्मलोक है।  ऐसा प्रकाशमान है, मानो तपाया हुआ सोना चमक रहा हो। ये सभी कृत्रिम हैं। कुछ तो ब्रह्माण्ड के भीतर हैं और कुछ बाहर। नारद! ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर ये सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि पानी के बुलबुले की भाँति यह सारा जगत अनित्य है।
_____________________________,_
गोलोक को नित्य, अविनाशी एवं अकृत्रिम कहा गया है। 
वैकुण्ठलोक,  शिव-लोक की आयु ब्रह्मा के लोक ब्रह्मलोक की अपेक्षा अधिक है।
परन्तु ये दौंनों भी सात्विक और तामसिक होने से प्राकृतिक ही हैं। ये रजोगुणात्मक ब्रह्मा के लोक की अपेक्षा अधिक आयु वाले हैं।

उस विराटमय बालक के प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चित रूप से विद्यमान हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव विराजमान हैं।
वत्स नारद! देवताओं की संख्या  (तीन + तीस) करोड़ है।
__________________
ये सर्वत्र व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र– सभी इसमें सम्मिलित हैं। भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं। जो ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न हैं।  नीचे नागलोक है। चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं।
______
नारद! तदनन्तर वह विराट स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा। वह गोलाकार पिण्ड बिल्कुल खाली था।
दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया।

तब वहीं उसे सनातन ब्रह्म ज्योति के दर्शन प्राप्त हुए। वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनकी दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त-से जान पड़ते थे।पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया। 
कहा- ‘बेटा ! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ।भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलय पर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे। तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ।
देवी भागवत पुराण- प्रकृति खण्ड- स्कन्ध नवम् अध्याय तृतीय) मे ंभी  इस  बालक के विषय में इसी प्रकार का वर्णन है कि -
ब्रह्मपुत्र नारद! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो ! प्रत्येक विश्व में वैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान को अर्पण करते हैं,
उसमें से सोलहवाँ भाग विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित हैं; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट-रूप है। यह बालक ही महाविष्णु है।
शब्दार्थ एवम्- व्याकरणिक विश्लेषण-
 ललाटे- सप्तमी विभक्ति एक वचन - ललाट में -
ब्रह्मण: -  पञ्चमी विभक्ति ब्रह्मणः  ब्रह्मा से ।  एव- ही च और। रूद्रा: -रूद्रगण। एकादश:- ग्यारह । एव- ही। शिवांशेन में तृतीया विभक्ति एक वचन- शिव अंश से । वै - निश्चय ही। सृष्टि सञ्चरणाय-सृष्टि विनाश के लिए । भविष्यन्ति- उत्पन्न होंगे।
अनुवाद:-
और इस प्रकार ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रूद्र तो शिव के अंश से सृष्टि के संहार के लिए उत्पन्न होंगे।४३।
शब्दार्थ एवम्- व्याकरणिक विश्लेषण-
कालाग्नि-रूद्र- तेषु- एक:। विश्व- संहार- कारक =
उनमें कालाग्नि नामक एक  रूद्र  विश्व का संहारक होगा।
पाता= पा धातु - रक्षणे कर्म्मणि + घञ् कृदन्त प्रत्यय पात:  (त्राता) त्रि० मेदिनीकोश -रक्षक विष्णु: का विशेषण रक्षक या पालक होने से "पाता" है। - विषयी=विषयों का भोक्ता।  क्षुद्रांशेन- भविष्यति। क्षुद्र (छोटे) अंश से उत्पन्न होगा।

अनुवाद:-
इन रूद्रों में एक कालाग्नि  नामक रूद्र विश्व का संहारक होगा
विषयों के भोक्ता विष्णु क्षुद्र  अंश से अवतीर्ण होकर  विश्व की रक्षा करने वाले होंगे।४४।

"ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रकृतिखण्डःअध्याय"३-

वस्तुत: विष्णु ब्रह्मा और रूद्र त्रिगुण ( सत- रज और तम) नामक प्रकृति के गुणों के प्रतिनिधि हैं। सत और तम प्रकाश और अन्धकार गुणधर्मी हैं सृष्टि उत्पत्ति क्रम में भी सत और तम स्वतन्त्र और सापेक्ष समान महत्व के गुण हैं। केवल स्थिति ही  दोंनों की परस्पर विपरीत है। सत और तम दोनों गुणों के मिलने से रजो गुण निर्मित होता है। इस क्रम से रजोगुण के प्रतिनिधि ब्रह्मा भी  विष्णु से प्रेरित रूद्र से उत्पन्न होने चाहिए। लिंग पुराण में सायद इस प्रयोग का वर्णन है।

 "लिङ्गमहापुराण पूर्वभाग रुद्रोत्पत्तिवर्णनं नामक(२२) वें अध्याय में रूद्र की उत्पत्ति मृत ब्रह्मा की देह से दर्शायी है।

प्रजाः स्रष्टुमनाश्चक्रे तप उग्रं पितामहः।
तस्यैवं तप्यमानस्य न किञ्चित्समवर्तत।१७ ।
अनुवाद:-
संतान उत्पन्न करने की इच्छा से ब्रह्मा ने कठोर तपस्या की इस प्रकार तप करते समय उस तप से कुछ नहीं हुआ ।22.17 ।

ततो दीर्घेण कालेन दुःखात्क्रोधो ह्यजायत।।
क्रोधाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिन्दवः।१८।
अनुवाद:-
फिर बहुत दिनों के बाद ब्रह्मा के दुःख से क्रोध उत्पन्न हो गया।
क्रोध से आवेशित उसकी आँखों से आँसू की बूँदें गिर पड़ी। 22.18 ।

ततस्तेभ्योऽश्रुबिन्दुभ्यो वातपित्तकफात्मकाः।
महाभागा महासत्त्वाः स्वस्तिकैरप्यलङ्कृताः।१९।
अनुवाद:-
फिर उन आंसू की बूंदों से वायु, पित्त और कफ से युक्त सत्व सम्पन्न महाभाग्यशाली  स्वास्तिक से अलंकृत ।१९। 

प्रकीर्णकेशाः सर्पास्ते प्रादुर्भूता महा विषाः।
सर्पांस्तानग्रजान्दृष्ट्वा ब्रह्मात्मानमनिन्दयत्।२०।
अनुवाद,:-महाविषधर सर्प उत्पन्न हुए।
जिनके केश फैले हुए थे।-19।
अपने सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न हुए उन सर्पों को देखकर  ब्रह्मा ने स्वयं अपनी  निंदा की।20।.

अहो धिक् तपसो मह्यं फलमीदृशकं यदि।
लोकवैनाशिकी जज्ञे आदावेव प्रजा मम।२१।
अनुवाद:-
यदि यह मेरी तपस्या का फल है तो धिक्कार है मुझ पर मेरे प्रजा के आदि में जगत् का नाश करने के सर्प उत्पन्न हुए हैं।21।.
_________
तस्य तीव्राभवन्मूर्च्छा क्रोधामर्षसमुद्भवा।
मूर्च्छाभिपरितापेन जहौ प्राणान्प्रजापतिः।२२।
अनुवाद:-
वह तीव्र मूर्च्छा और क्रोध और अमर्ष- (असहनशीलता) के कारण अत्यधिक बेहोश हो गया और प्रजापति ब्रह्मा ने मूर्च्छा के ताप से  अपने प्राण त्याग दिये ।.22 ।

तस्याप्रतिमवीर्यस्य देहात्कारुण्यपूर्वकम्।
अथैकादश ते रुद्रा रुदन्तोऽभ्यक्रमस्तथा।२३।
अनुवाद:-
तब उस अतुलनीय पराक्रमी पुरुष के शरीर से करुणापूर्वक रोते हुए ग्यारह रुद्र उत्पन्न होकर उनके पास आये ।23 ।

"रोदनात्खलु रुद्रत्वं तेषु वै समजायत।
ये रुद्रास्ते खलु प्राणा ये प्राणास्ते तदात्मकाः।२४।
अनुवाद:-
उनके रुदन करने  से ही वे रुद्र कहलाए वे रुद्र वास्तव में जीवन-शक्ति ( प्राण) हैं और वे जीवन-शक्तियाँ उन्हीं से बनी हैं।24।

प्राणाः प्राणवतां ज्ञेयाः सर्वभूतेष्ववस्थिताः।
अत्युग्रस्य महत्त्वस्य साधुराचरितस्य च।२५।
अनुवाद:-
जीवन देने वाली प्राणों को सभी प्राणियों में निवास के रूप में समझा जाना चाहिए।
वह अत्यंत उग्र और अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा साधु आचरण वाला थे ।25।
_________     

प्राणांस्तस्य ददौ भूयस्त्रिशूली नीललोहितः।
लब्ध्वासून् भगवान्ब्रह्म देवदेवमुमापतिम्।२६।अनुवाद:-
नीले और लाल त्रिशूल धारी ने उस ब्रह्मा को फिर से जीवन देकर जीवित कर दिया।
देवताओं के स्वामी ब्रह्मा  ने प्राणो  को प्राप्त कर  रूद्र रूप में  उमापति को ही प्राप्त कर लिया।26।
__________
श्रीलिङ्गमहापुराण पूर्वभाग रुद्रोत्पत्तिवर्णनं नामक द्वाविंशतितमोऽध्यायः। २२।
यह  लिंग-पुराण के पूर्वी भाग में रुद्र की उत्पत्ति का वर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय है।22।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अतिरिक्त   देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध तृतीय अध्याय- में भी इसी प्रकार का गोलोक से सृष्टि का उत्पत्ति वर्णन है।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने सूक्ष्म अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे।  ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा। शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में जो ‘कालाग्नि’ नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक होंगे।

" हे बालक विष्णु विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे सूक्ष्म अंश से प्रकट होंगे। जिनको  क्षुद्रविराट कहा जाएगा ।

मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी।
उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे। वत्स! अब मैं अपने गोलोक में जाता हूँ। तुम यहीं ठहरो।'

इस प्रकार उस बालक से कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ गोलोक में पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी।

भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा से बोले– 'वत्स! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ।' 

फिर गोपेश्वर कृष्ण ने रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव ! जाओ। महाभाग ! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’

नारद ! जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव– दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये।
 महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं। उनका स्वरूप कृष्ण की अपेक्षा युवा है।
____________
अनुवाद:-
इनकी सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का शरीर है। ये पीताम्बर पहनते हैं। जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे।
सन्दर्भ:-
ब्रह्म वैवर्त पुराण-
प्रकृतिखण्ड: अध्याय(3) तथा देवीभागवत पुराण नवम स्कन्ध अध्याय-(3) 
_____________     
नारद इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी। वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट पुरुष के दर्शन प्राप्त हुए।

महाविराटरोमकूपक में ( क्षीरसागर )के  भीतर जलमय शैय्या पर वे पुरुष  क्षुद्र विराट् शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, तब ब्रह्मा को उन महाविराट पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए। 

साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी दर्शन हुआ। फिर तो उन्हें श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया।

स्वयं भगवान स्वराट् विष्णु (श्रीकृष्ण)  जो गोलोक में अपने मूल कारण कृष्ण रूप में ही विराजमान हैं वही आभीर जाति में मानवरूप में सीधे अवतरित होकर इस पृथ्वी पर आते हैं; 

क्योंकि आभीर(गोप) जाति साक्षात् उनके रोम कूप (शरीर) से उत्पन है जो गुण-धर्म में उन्हीं कृष्ण के समान होती है। 

इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो  को हम प्रस्तुत करते हैं।

कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना ही इसी तथ्य को सूचित करता है। कि गोपों से श्रेष्ठ इस सृष्टि मैं को ईव दूसरा नहीं है।

अनुवाद:- जब स्वयं कृष्ण राधा की एक सखी बनकर  स्वयं ही कृष्ण की राधा से निन्दा करते हैं तब राधा कहती हैं -

"भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण  गोपों के घर में प्रकट हुए हैं। फिर तुम हे सखी ! उन आदिपुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं।                       इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।२१-२२।

(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)

गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं।
और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत:  इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_ 

ऋग्वेद में विष्णु के लिए  'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है।  वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित  विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं। 

जो पुराण वर्णित गोलोक का  ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा  "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।

इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे  ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।

विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप  परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ  रहती हैं , वहाँ पड़ता है।

"कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।

ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।

"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)

शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥

इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड को तीन पगों( कदमों) में नाप लिया है

इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है। "विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान गोलोक ही माना गया है -

"तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।

उस विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य दिखाई देते है। अर्थात तद् विष्णो:( उस विष्णु के)
सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर के  (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥

अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं अर्थात- जिस प्रकाशित लोक में अनेक सूर्य गण विस्तारित हैं। जो  विस्तृत नेत्रों के समान उस विष्णु के उत्तम से उत्तम स्थान(लोक ) को सदैव देखते हैं।

ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) की ऋचा संख्या (6) में भी नीचे देखें-

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि" ऋग्वेद-१/१५४/६।)

सरल अनुवाद व अर्थ:-जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं स्थित  अथवा विचरण करती हैं उस  स्थानों को - तुम्हारे  जाने के लिए जिसे-  वास्तव में तुम चाहते भी हो। जो- बहुत प्रकारों से प्रशंसित है जो- सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का  उत्कृष्ट (पदम्) -स्थान लोक है जो अत्यन्त उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है  उसी के लिए यहाँ हम वर्णन करते हैं ॥६॥

उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है। जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं। और वे विष्णु गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) है)। वस्तुत ऋग्वेद में यहाँ उसी गोलोक का वर्णन है जो ब्रह्म वैवर्त पुराण और देवीभागवतपुराण और गर्ग संहिता आदि  में वर्णित गोलोक है ।

विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। परन्तु विष्णु कृष्ण का ही एकाँशी अथवा बह्वाँशी ( बहुत अंशों वाला) रूप है। 

सृष्टि में क्रियान्वित रहता है। स्वयं कृष्ण नहीं कृष्ण तो केवल लीला हेतु पृथ्वी लोक पर गोपों के सानिध्य में ही अवतरण करते हैं। क्योंकि गोप मूलत:  गोलोक की ही सृष्टि हैं 

"परन्तु पृथ्वी लोक पर गोपों की उत्पत्ति सत्युग में स्वराट् विष्णु के रोमकूपों से ही उसी क्रम में होती है। जैसे गोलोक में कृष्ण से क्योंकि क्षुद्र विष्णु  भी स्वराट् विष्णु के अंश अवतार है।

पृथ्वी पर सत्युग में गोप (आभीर) जन उपस्थित रहते हैं। चातुर्वर्ण की सृष्टि और ऋषि, देवता आदि की सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात् जब ब्रह्मा एक महायज्ञ करते हैं। उसमें ब्रह्मा अपनी सम्पूर्ण सृष्टि के  चातुर्यवर्ण के लोगों को आमन्त्रित करते हैं। गोप ब्रह्मा की सृष्टि न होने से  इस यज्ञ में ब्रह्मा द्वारा आमन्त्रित नहीं किये जाते हैं।

जब इस यज्ञ के शुभ मुहूर्त (दिन- रात का तीसवाँ भाग) व्यतीत न हो जाये इसी कारण से ब्रह्मा को यज्ञकार्य हेतु तत्काल एक पत्नी की आवशयकता होती है। "होता"यज्ञ में आहुति देनेवाला तथा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालने वाले के रूप में उपस्थित माना जाता है । अत्रि इस "होता" की भूमिका में हैं। सभी सप्तर्षि इस यज्ञ में किसी न किसी भूमिका में हैं।

विशेष—यह चार प्रधान ऋत्विजों में है जो ऋग्वेद के मंत्र पढ़कर देवताओं का आह्वान करता है। 

ब्रह्मा की पत्नी सावित्री गृह कार्य में व्यस्त हैं अत: वे यज्ञ- स्थल में आने को तैयार नहीं हैं।अब मुहूर्त का समय निकला जा रहा है। तभी सप्तर्षियों के कहने पर ब्रह्मा अपने यज्ञ कार्य के लिए इन्द्र को एक पत्नी बनाने के लिए कन्या लाने को कहते हैं। तब आभीर कन्या गायत्री को इन्द्र ब्रह्मा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।

विष्णु ही इस कन्या के दत्ता( कन्यादान करनेवाले पिता बनकर ) ब्रह्मा से इसका विवाह सम्पन्न कराते हैं।

"निष्कर्ष:- उपर्युक्त पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय- (१६-१७) में वर्णित गायत्री की कथा से प्रमाणित होता है कि गायत्री के परिवारीजन गोप गोलोक से पृथ्वी पर गोपालन हेतु सतयुग में ही अवतरित हो गये थे।

 ये ब्रह्मा की सृष्टि से पृथक थे इसलिए यज्ञ में अपनी सम्पूर्ण सृष्टि के साथ इन्हें ब्रह्मा द्वारा आमन्त्रित नहीं किया गया। ब्रह्मा का यह यज्ञ एक हजार वर्ष तक चला था।

अत्रि जो सावित्री द्वारा शापित हो गये थे;  गायत्री और ब्रह्मा के विवाह में सहायक होने के कारण उन्हें फिर आभीर कन्या गायत्री द्वारी  ही शाप मुक्त कर वरदान से अनुग्रहीत किया गया।

इसलिए अत्रि ने गायत्री को माँ कहकर सम्बोधित किया तब अत्रि को अहीरों का पूर्वज कैसे कहा जा सकता है।?

 ये कालान्तर में अहीर जाति के पुरोहित बन कर  गोत्र प्रवर्तक  हो गये हों यह सम्भव है परन्तु अहीर जाति अत्रि से उत्पन्न हुई है यह कहना शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत है । 

विदित हो कि वामन अवतार कृष्ण के अंशावतार विष्णु का ही अवतार है नकि स्वयं कृष्ण का अवतार -क्योंकि कृष्ण का साहचर्य सदैव गो और गोपों में ही रहता है।

"कृष्ण हाई वोल्टेज रूप हैं तो विराट और क्षुद्र विराट आदि रूप उनके ही कम वोल्टेज के रूप हैं।

विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि ( इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।

विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड '  ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में  गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।

ऋग्वेद 1.22.18) में  भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।

विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।

आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।

और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु(कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।

"व्यक्ति अपनी भक्ति और तप की शक्ति से गोलोक को प्राप्त कर गोप जाति में जन्म लेता है।

वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।

यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का  पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।

 "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! अभ्युत्थानम्-अधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजामि- अहम्।। 
श्रीमद्भगवद्गीता- ( 4/7) 

हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।

अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।




आज पुन: हम भगवान गोपेश्वर श्रीकृष्ण के यथार्थ जीवन  चरित्र का चित्रण करने का प्रयास कर रहे हैं। इस महान उद्देश्य पूर्ण पावन कार्य में  हमारे सम्बल और कृष्ण भक्ति के प्रसारक,    परम सात्विक, सन्त हृदय श्री "आत्मानन्द" जी जिनकी  पावन प्रेरणाओं से अनुप्रेरित होकर साधक व्यक्तित्व-  श्री माताप्रसाद जी  यादव योगेश कुमार के साथ सहयोगी की भूमिका में उपस्थित हैं। 

इसके अतिरिक्त हमारे ऐतिहासिक अन्वेषण पूर्ण लेखन काल में  सम्बल के रूप में श्रद्धेय आत्मानन्द जी से हमारा अनवरत विमर्श होता रहा है। एतदर्थ वे श्रद्धा और साधुता के पात्र ही नहीं वे हमारे प्रेरणा स्रोत के रूप में भी  उपस्थित रहे हैं।

आज हम पुन: वैष्णव वर्ण और तदनुरूप भागवत धर्म की उपयोगिता मानव की आध्यात्मिक पिपासा की तृप्ति के लिए अति आवश्यक है।

इतिहास के उन बिखरे हुए पन्नों को समेटने का और समाज में व्याप्त भ्रान्तियों को जड़ से मेटने का यह उपक्रम एक अल्प प्रयास के रूप में ही हम प्रारम्भिक चरण में क्रियान्वयन कर रहे हैं ;

प्रस्तावक:-"योगेश कुमार रोहि"
_______________________________

     



"सृष्टि-चक्र अनादि काल से सतत गतिमान है।
भगवान् विष्णु के नाभिकमल पर उत्पन्न ब्रह्मा ने जिस दिन प्रथम बार सृष्टि की सर्जना शुरू की,वह समय  ब्रह्मा के प्रथम परार्ध के प्रथम कल्प के प्रथम मन्वन्तर के प्रथम चतुर्युग के सत्ययुग के प्रथम मास की प्रथम तिथि है। 


भारतीय पौराणिक मान्यता के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति का कालक्रम-  15 नील, 55 खरब, 13 अरब, 33 करोड़, 29 लाख, 49 हज़ार तक निर्धारित होता है। 
"परन्तु भारतीय इतिहास में जन-जातियों का प्रव्रजन (migration) सदैव से होता रहा है।


भारतवर्ष के कालक्रमिक इतिहास के स्पष्ट संकेत पुराणों में प्राप्त होते हैं पुराण जनश्रुतियों की परम्परागत सांस्कृतिक सांस्कृतिक विवरण हैं ।
 
पुराणों में घटनाक्रम की कालबद्ध चर्चा परार्ध, कल्प, मन्वन्तर, युग और संवत्सर में आदि रूपों में प्राप्त होती है। 

सम्पूर्ण पुराणों स्मृति तथा महाभारत आदि ग्रन्थों में कालगणना के इन्हीं मापदण्डों को आधार माना गया है। 

विराट पुरुष से सृष्टि उपक्रम का जो प्रारम्भ गोलोक में हुआ। वह ब्राह्मी कालगणना से सूक्ष्म है। जिसका विवरण हम ब्रह्मा के आयु- दिवस रात्रि आदि के आधार पर ही प्रस्तुत करेगें- ब्रह्माण्डीय सृष्टि के कालगणना क्रम में हम पौराणिक मान्यता के अनुसार ही सृष्टि काल निश्चित करेंगे


भारतीय अंक प्रणाली संख्या अंतरराष्ट्रीय अंक प्रणाली के सामानान्तर प्रस्तुत करते हैं।
इकाई 1 यूनिट(unit)-
दहाई 10 दस(ten)-
सैकड़ा 100 सौ(hundred)-
हजार 1,000 हजार(thousand)-
दस हजार 10,000 दस हजार (ten thousand)-
लाख 1,00,000 एक लाख (one lakh)-
दस लाख 10,00,000 मिलियन(million)-
करोड़ 1,00,00,000 दस मिलियन (ten million)-
दस करोड़ 10,00,00,000 सौ मिलियन (hundred million)-
अरब 1,00,00,00,000 बिलियन (billion)-
दस अरब 10,000,000,000 दस बिलियन (ten billion)-
खरब 1,00,00,00,00,000 सौ बिलियन (hundred billion)-
दस खरब 1,000,000,000,000 ट्रिलियन (trillion)-
नील 1,00,00,00,00,00,000 दस ट्रिलियन(ten trillion)-
दस नील 100,000,000,000,000 सौ ट्रिलियन (hundred trillion)-
पद्म 1,00,00,00,00,00,00,000 क्वॉड्रिलियन (quadrillion)-
दस पद्म  10,000,000,000,000,000 दस क्वॉड्रिलियन (ten quadrillion)-
शंख 1,00,00,00,00,00,00,00,000 सौ क्वॉड्रिलयन (hundred quadrillion)
संख्याओं की सामान्य जानकारी होना भी परमावश्यक है।

15.5513332949125 : ब्रह्माजी द्वारा पृथ्वी आदि महाभूतों तथा अन्य तत्त्वों की उत्पत्ति। ब्रह्माजी द्वारा प्रथम दस मानस-पुत्रों  (प्रजापतियों)— नारद, भृगु, वसिष्ठ, प्रचेता, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरस  और मरीचि का सृजन; देवताओं, दानवों, ऋषियों, दैत्यों, यक्ष, राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, असुर, मनुष्य, पितर, सर्प एवं नागों के विविध गणों की सृष्टि एवं उनके स्थान का निर्धारण। अपने शरीर को दो भागों में विभक्तकर स्वयम्भुव मनु एवं शतरूपा का निर्माण। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण ही वे ‘मानव’ या ‘मनुष्य’ कहलाए।

स्वयम्भुव मनु को स्वयंभू से उत्पन्न मनु कहा गया   पृथिवी पर मानव-सभ्यता का प्रारम्भ
15.5509012949125 (ब्रह्मा के दूसरे अहोरात्र की रात्रि) पृथ्वी पर प्रथम (१) बार नैमित्तिक प्रलय प्रारम्भ-
15.2411572949125 ब्रह्मा का दूसरा(२) वर्ष प्रारम्भ-
14.3080372949125 ब्रह्मा का पाँचवाँ( ५)वर्ष प्रारम्भ
12.7528372949125 ब्रह्मा का दशवाँ (१०)वर्ष प्रारम्भ
11.1976372949125 ब्रह्मा का पन्द्रह (15)वाँ वर्ष प्रारम्भ
10.5755572949125 रुद्र द्वारा ब्रह्मा के पाँचवें मुख का छेदन
9.6424372949125 ब्रह्मा का 20वाँ वर्ष प्रारम्भ-
8.0872372949125 ब्रह्मा का 25 वाँ वर्ष प्रारम्भ-
6.5020372949125 ब्रह्मा का 30वाँ वर्ष प्रारम्भ-
4.9768372949125 ब्रह्मा का 35वाँ वर्ष प्रारम्भ-
3.4216372949125 ब्रह्मा का 40वाँ वर्ष प्रारम्भ-
1.8664372949125 ब्रह्मा का 45वाँ वर्ष प्रारम्भ-

(खरब वर्ष पूर्व)
93.33172949125 ब्रह्मा का 48वाँ वर्ष प्रारम्भ
62.22772949125 ब्रह्मा का 49वाँ वर्ष प्रारम्भ
31.12372949125 ब्रह्मा का 50वाँ वर्ष प्रारम्भ
1.27252949 ब्राह्मकल्प में जगन्माता द्वारा मुर दैत्य और नरकासुर का वध
1.22007605125 विष्णुकल्प के उत्तम मन्वन्तर में भगवती दुर्गा द्वारा महिषासुर-वध


(अरब वर्ष पूर्व)
45.172949 मार्कण्डेयकल्प में शुम्भ-निशुम्भ की उत्पत्ति
10.612949 ब्रह्मा
 के 50 वें वर्ष की अन्तिम सृष्टि (नृसिंहकल्प) के प्रथम सत्ययुग में देवताओं द्वारा वरुण को जल का राजा बनाया गया
1.972949125 ब्रह्मा के 51वें वर्ष के प्रथम मास का प्रथम दिन (‘श्वेतवाराह कल्प’, ब्रह्मा का 18,001वाँ कल्प) प्रारम्भ; मनु : स्वायम्भुव मनु, पत्नी : शतरूपा; इन्द्र : विश्वभुक्; सप्तर्षि : मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, क्रतु, वसिष्ठ, पुलह

1.972949 भगवान् विष्णु का वराह-अवतार
1.955885125 ब्रह्मा द्वारा सृष्टि-निर्माण पूर्ण, ‘सृष्टि-संवत् एक(1)’ का प्रारम्भ-

1.955885125 स्वायम्भुव मनु के ज्येष्ठ पुत्र प्रिय1.9556व्रत के रथ की लीक से सप्तद्वीपों और सप्तसागरों (सप्तसिंधु) की उत्पत्ति
1.9557 जम्बूद्वीपाधिपति आग्नीध्र ने जम्बूद्वीप के 9 विभाग किए
 ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर अजनाभवर्ष का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा

1.662773125 स्वारोचिष मनु से द्वितीय मन्वन्तर का प्रारम्भ; इन्द्र : विद्युति; सप्तर्षि : ऊर्ज, स्तम्भ, वात, प्राण, पृषभ, निरय, परीवान्
1.354325125 उत्तम मनु से तृतीय मन्वन्तर का प्रारम्भ; इन्द्र : विभु; सप्तर्षि : महर्षि वसिष्ठ के सातों पुत्र— कौकुनिधि, कुरुनिधि, दलय, सांख, प्रवाहित, मित एवं सम्मित
1.045877125 तामस मनु से चतुर्थ मन्वन्तर का प्रारम्भ; इन्द्र : प्रभु; सप्तर्षि : ज्योतिर्धामा, पृधु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वनक, पीवर।
1.0458 भगवान् विष्णु का नृसिंह-अवतार, भगवान् विष्णु द्वारा गजेन्द्र-उद्धार

(करोड़ वर्ष पूर्व)
73.7429125 रैवत मनु से पञ्चम मन्वन्तर का प्रारम्भ; इन्द्र : शिखी; सप्तर्षि : हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पर्जन्य, महामुनि
42.8981125 चाक्षुष मनु से छठे मन्वन्तर का प्रारम्भ; इन्द्र : मनोजव; सप्तर्षि : सुमेधा, विरजा, हविष्यमान्, उत्तम, मधु, अतिनामा एवं सहिष्णु
42.89 भगवान् विष्णु का कच्छप-अवतार एवं क्षीरसागर के मन्थन से चन्द्रमा सहित 14 रत्नों की उत्पत्ति; दक्ष प्रजापति द्वारा नवीन प्रजा का सृजन
12.0533125 वैवस्वत मनु से सप्तम मन्वन्तर का प्रारम्भ; भगवान् विष्णु का मत्स्य-अवतार; इन्द्र : ओजस्वी (ऊर्जस्वी); सप्तर्षि : काश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि एवं भरद्वाज
12.0533 वैवस्वत मन्वन्तर के प्रथम सत्ययुग में ब्रह्मा द्वारा उत्पलारण्य में विशाल वारुण यज्ञ का अनुष्ठान।

12.0461 वैवस्वत मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु से सूर्यवंश और पुत्री इला से चन्द्रवंश का प्रारम्भ
11.7509 प्रथम त्रेतायुग में इन्द्र-वृत्र-युद्ध; (भाद्रपद शुक्ल द्वादशी) प्रथम त्रेतायुग में भगवान् विष्णु का वामन-अवतार; प्रथम त्रेतायुग में भगवान् विष्णु का दत्तात्रेय-अवतार 11.6645 प्रथम द्वापर में ब्रह्मा द्वारा वेदों का संपादन
11.2325 दूसरे द्वापर में प्रजापति द्वारा वेदों का संपादन
11.2325 दूसरे द्वापर में महान् सम्राट् शौनहोत्र
10.8005 तीसरे द्वापरयुग में शुक्राचार्य द्वारा वेदों का संपादन
10.3865 चौथे द्वापरयुग में बृहस्पति द्वारा वेदों का संपादन
9.9365 5वें द्वापरयुग में सूर्य के अधिष्ठाता द्वारा वेदों का संपादन
9.5045 6ठे द्वापरयुग में यम द्वारा वेदों का संपादन
9.0725 7वें द्वापरयुग में इन्द्र द्वारा वेदों का संपादन
8.6405 8वें द्वापरयुग में महर्षि वसिष्ठ द्वारा वेदों का संपादन
8.2085 9वें द्वापरयुग में सारस्वत द्वारा वेदों का संपादन
7.9925 10वें त्रेतायुग में ब्रह्मा द्वारा प्रभास क्षेत्र में सोमनाथ-ज्योतिर्लिंग की स्थापना और सभामण्डप का निर्माण
7.7765 10वें द्वापरयुग में त्रिधामा द्वारा वेदों का संपादन
7.3445 11वें द्वापरयुग में त्रिशिख (कृषभ) द्वारा वेदों का संपादन
7.30 12वें सत्ययुग में ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य ऋषि के क्रोध द्वारा (रावण के पिता) विश्रवा की उत्पत्ति
6.9125 12वें द्वापरयुग में सुतेजा द्वारा वेदों का संपादन
6.4805 13वें द्वापरयुग में धर्म (अन्तरिक्ष) द्वारा वेदों का संपादन
6.0485 14वें द्वापरयुग में वर्णी द्वारा वेदों का संपादन
5.6029 15वें त्रेतायुग में सूर्यवंशीय सम्राट् मान्धाता का शासन
5.6165 15वें द्वापरयुग में त्रय्यारुण द्वारा वेदों का संपादन
5.4005 16वें सत्ययुग में महर्षि दीर्घतमा
5.4005 16वें सत्ययुग में चन्द्रवंशीय दुष्यन्त-शकुन्तलापुत्र भरत
5.1845 16वें द्वापरयुग में धनञ्जय द्वारा वेदों का संपादन
4.7525 17वें द्वापरयुग में कृतुञ्जय द्वारा वेदों का संपादन
4.3205 18वें द्वापरयुग में जय द्वारा वेदों का संपादन
3.8855119 19वें त्रेता और द्वापर की सन्धि में भगवान् विष्णु का परशुराम-अवतार
3.8885 19वें द्वापरयुग में महर्षि भरद्वाज द्वारा वेदों का संपादन
3.4565 20वें द्वापरयुग में महर्षि गौतम द्वारा वेदों का संपादन
3.0245 21वें द्वापरयुग में हर्यात्मा (उत्तम) द्वारा वेदों का संपादन
2.5925 22वें द्वापरयुग में वाजश्रवा (नारायण) द्वारा वेदों का संपादन
2.1605 23वें द्वापरयुग में तृणबिन्दु (सोम मुख्यायन) द्वारा वेदों का संपादन
1.8149 24वें त्रेता के अन्त और द्वापर के आदि में महर्षि वाल्मीकि द्वारा वेदों का संपादन, ‘रामायण’ एवं ‘योगवासिष्ठ’ (महारामायण) की रचना
1.8149125 24वें त्रेता और द्वापर की सन्धि में भगवान् विष्णु का रामावतार
1.8138 राम के पुत्र कुश का शासन
1.2965 25वें द्वापरयुग में शक्ति (अर्वाक्) द्वारा वेदों का संपादन

(लाख वर्ष पूर्व)
86.45 26वें द्वापरयुग में पराशर ऋषि द्वारा वेदों का संपादन
43.25 27वें द्वापरयुग में जातुकर्ण द्वारा वेदों का संपादन
38.93125 (वैशाख शुक्ल तृतीया) 28वें सत्ययुग का प्रारम्भ
21.65125 (कार्तिक शुक्ल नवमी) 28वें त्रेतायुग का प्रारम्भ
21.65 28वें त्रेतायुग में ‘सूर्यसिद्धान्त’ की रचना
8.69125 28वें द्वापरयुग का प्रारम्भ
2.21125 28वें द्वापरयुग के तृतीय चरण की समाप्ति के समय संवरण के पुत्र राजा कुरु द्वारा धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र की स्थापना
2.21125-2.09125 कुरु का शासन

(ईसा पूर्व)
3538-3138 द्रोणाचार्य
लगभग 3500-3000 28वें द्वापर के अन्त में भगवान् विष्णु के 20वें अवतार महाभारतकार महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास द्वारा वेदों एवं पुराणों का संपादन; ‘
राजवंश (1168 वर्षों में 25 राजा)
3300 (अनुमानित) जैन-वाङ्मय में वर्णित 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमिनाथ
3229 धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म
3228 (श्रीमुख संवत्सर, 21 जुलाई, बुधवार)28वें द्वापरयुग के अन्त में भगवान् विष्णु का श्रीकृष्णावतार, ‘श्रीकृष्ण-संवत्’ का प्रारम्भ; भीम एवं दुर्योधन का जन्म; भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा शकट-भंजन
3228-3218 भगवान् श्रीकृष्ण का व्रज में निवास
3227 अर्जुन का जन्म; भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा त्रिणिवर्त-वध
3223 भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अघासुर-वध
3222-3122 महात्मा विदुर
3221 (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से सप्तमी) भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन धारणकर इन्द्र का गर्वभंग
3218 (कार्तिक शुक्ल चतुदर्शी) मथुरा में धनुष-यज्ञ
3213 (फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा) पाण्डु का निधन
3193 (फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, रोहिणी नक्षत्र) पाण्डवों का हस्तिनापुर से वारणावत जाने के लिए प्रस्थान
3190 (पौष शुक्ल एकादशी, रोहिणी नक्षत्र) द्रौपदी-स्वयंवर
3155-3138 अभिमन्यु
3153 भीमसेन द्वारा जरासन्ध-वध, मगध में सिंहासन पर जरासन्ध-पुत्र सहदेव का अभिषेक
3152 इन्द्रप्रस्थ में राजसूय-यज्ञ
3152-3139 कौरवों एवं पाण्डवों के मध्य द्यूत-क्रीड़ा, पाण्डवों को 12 वर्षों का वनवास एवं 1 वर्ष का अज्ञातवास
3139 (मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी) भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश
3139-3138 कुरुक्षेत्र में महाभारत-युद्ध
3138 (माघ शुक्ल अष्टमी) भीष्म पितामह का स्वर्गारोहण; (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) धर्मराज युधिष्ठिर का शासन प्रारम्भ, ‘युधिष्ठिर-संवत्’ का प्रवर्तन
3138-3102 धर्मराज युधिष्ठिर का शासन
3118 नागों की माता कद्रू द्वारा सौ वर्ष बाद जनमेजय के नाग-यज्ञ में नागों को भस्म होने का शाप
3102 (बहुधान्य संवत्सर, माघ शुक्ल पूर्णिमा, 18 फरवरी, शुक्रवार) भगवान् श्रीकृष्ण का गोलोकारोहण, 28 वें कलियुग का प्रारम्भ
3102 द्वारका नगरी का पतन
3102 पाण्डवों का परीक्षित को राजगद्दी सौंपकर हिमालय प्रस्थान
3102-3042 परीक्षित का शासन
3102 वज्र यदुवंश का राजा बना
3071 (भाद्रपद शुक्ल नवमी) शुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित को भागवतमहापुराण की कथा सुनानी प्रारम्भ की
3042-2958 जनमेजय का शासन
3018 (भाद्रपद कृष्ण पञ्चमी) जनमेजय का नागयज्ञ स्थगित
2902 (आषाढ़ शुक्ल नवमी) महर्षि गोकर्ण ने धुन्धुकारी को भागवत की कथा सुनानी प्रारम्भ की
2872 (कार्तिक शुक्ल नवमी) सनकादि ने भागवत की कथा सुनानी प्रारम्भ की
2142-2042 जैन-वाङ्मय में वर्णित 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ
2132-1994 मगध में प्रद्योत-राजवंश (138 वर्षों में 5 राजा)
2102 काश्यप-पुत्र कण्व मुनि का जन्म
1994-1634 मगध में शिशुनाग-राजवंश (360 वर्षों में 10 राजा)
1900 (अनु.) भूगर्भिक परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी राजस्थान के मरुस्थल में लुप्त
1887-1807 बौद्ध-वाङ्मय में वर्णित 28वें बुद्ध सिद्धार्थ गौतम
1864-1792 जैन-वाङ्मय में वर्णित 24वें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर
1748 शिशुनाग-वंश के 8वें राजा उदीयन (उदायी, उदयाश्व) द्वारा कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) नगर की स्थापना
1634-1534 मगध में नन्द-राजवंश (100 वर्षों में 9 राजा)
1534-1218 मगध में मौर्य-राजवंश (316 वर्षों में 12 राजा)
1534-1500 चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन
1500-1472 बिन्दुसार का शासन
1472-1436 अशोक का शासन
1294-1234 कनिष्क का शासन, इसी काल में आयुर्वेदाचार्य चरक हुए
1218-918 मगध में शुंग राजवंश (300 वर्षों में 10 राजा)
918-833 मगध में कण्व राजवंश (85 वर्षों में 4 राजा)
833-327 मगध में आंध्र राजवंश (506 वर्षों में 32 राजा)
557-492 कुमारिल भट्ट
509-477 आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य
433-418 आन्ध्रवंशीय नरेश गौतमीपुत्र श्रीशातकर्णि का शासन
327-82 मगध में गुप्त राजवंश (245 वर्षों में 7 राजा)
327-320 चन्द्रगुप्त का शासन
326 सिकन्दर का आक्रमण
320-269 समुद्रगुप्त का शासन
102 सम्राट् शकारि विक्रमादित्य का जन्म
97-85 विक्रमादित्य की तपश्चर्या
96 (चैत्र शुक्ल अष्टमी) महान् खगोलविद् एवं गणितज्ञ वराहमिहिर का जन्म
62-57 भर्तृहरि का शासन
57 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, 22 फरवरी) शकारि विक्रमादित्य द्वारा ‘विक्रम संवत्’ का प्रवर्तन
57 ई.पू.-43 ई. सम्राट् शकारि विक्रमादित्य का शासन
55 हरिस्वामी द्वारा शतपथब्राह्मण पर भाष्य-रचना
35 भर्तृहरि का स्वर्गारोहण
34 कालिदास द्वारा ‘ज्योतिर्विदाभरण’ की रचना

(ईसवी सन्)
43 भरतखण्ड में 18 राज्यों की स्थापना
43-53 विक्रमादित्य के पुत्र देवभक्त का शासन
53-113 विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन का शासन
78 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, 3 मार्च) शालिवाहन द्वारा ‘शालिवाहन-संवत्’ का प्रवर्तन
476-550 आर्यभट I
499 आर्यभट्ट I द्वारा ‘आर्यभटीय’ की रचना
569-603 उदयपुर-नरेश गुहिल
598-668 ब्रह्मगुप्त
606-647 सम्राट् हर्षवर्धन का शासन
643 भारतवर्ष पर प्रथम मुस्लिम-आक्रमण
734-753 उदयपुर-नरेश कालभोज (बाप्पा रावल)
736-754 इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) के तोमर वंश के संस्थापक राजा अनंगपाल
1114-1185 भास्कराचार्य II
1179-1192 दिल्ली के चौहानवंशीय नरेश पृथ्वीराज III चौहान
1192 तराईन के युद्ध में मुहम्मद सहाबुद्दीन गोरी के हाथों पृथ्वीराज III चौहान की पराजय
1192-1757 सम्पूर्ण भारतवर्ष पर विभिन्न मुस्लिम-राजवंशों का शासन (565 वर्ष)
अध्याय चतुर्थ ( आध्यात्मिक खण्ड ) में कालगणना से सम्बन्धित प्रकरण देखें-



__________________________________
लोक में सृष्टि उत्पत्ति के क्रम में सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए।
रूद्र की उत्पत्ति यद्यपि गोलोक गोलोक में विष्णु के सापेक्ष समान महत्व के गुण तमस् से दर्शायी है। "तमस गुण "सतो गुण के विपरीत प्रभाव वाला- परन्तु प्रभाव क्रम में तमोगुण निम्नगामी और सतोगुण ऊर्ध्वगामी( ऊपर जाने वाला) रजोगुण मध्यगामी( बीच का गुण) है।
 *फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। 
इसी क्रम में विष्णु (सतोगुण ऊर्ध्व वर्ती) से निम्न रजोगुण रूप होने से विष्णु से ब्रह्मा का उत्पन्न माना जाना उचित व सैद्धान्तिक है। और रजोगुण से निम्न तमोगुण रूप होने से ब्रह्मा से रूद्र का उत्पन्न होना माना होना उचित व सैद्धान्तिक है।

क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे।  यही नारायण ( क्षीरोदकशायी विष्णु हैं) क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सर्जन किया।
विशेष:- नारायण नाम की व्युत्पत्ति- नार+अयण= दीर्घगुणसन्धि के परिणाम स्वरूप (नारायण) रूप में होती है।
अर्थात् जल में जिसका निवास स्थान है वह नारायण है।

"आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः ।  अयनं तस्य ताः पूर्व्वं तेन नारायणः स्मृतः॥” इति विष्णुपुराणम् ॥ 
नारायणः- पुल्लिंग (नारा जलं अयनं स्थानं यस्य इति नारायण । 

नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक रोमकूपक जल में एक क्षुद्र विराट पुरुष,( छोटा- विष्णु) ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं। 
_______
नारायणाय विप्लेह वासुदेवाय घीमहि तन्नों विष्णुः प्रचोदयात्'। यजुर्वेद के पुरुषसूक्त और उत्तर नारायण सूक्त तथा शतपथ ब्राह्मण (१६। ६। २। १) और शाख्यायन श्रोत सूत्र (१६। १३। १) में नारायण शब्द विष्णु के प्रथम पुरुष के अर्थ में आया है। 

*****************************
ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन् ! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?

'भगवान नारायण बोले– नारद! आत्मा, आकाश, काल, दिशा, गोकुल तथा गोलोकधाम– ये सभी नित्य हैं। कभी इनका अन्त नहीं होता। गोलोकधाम का एक भाग जो उससे नीचे है, वैकुण्ठधाम है। वह भी नित्य है। ऐसे ही प्रकृति को भी नित्य माना जाता है।
सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्त -पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3-

नारद ! अतीत काल की बात है, असंख्य ब्रह्माओं का पतन होने के पश्चात् भी जिनके गुणों का नाश नहीं होता है तथा गुणों में जिनकी समानता करने वाला दूसरा नहीं है; वे भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के आदि में अकेले ही थे। उस समय उनके मन में सृष्टि विषयक संकल्प का उदय हुआ। अपने अंशभूत काल से प्रेरित होकर ही वे प्रभु सृष्टिकर्म के लिये उन्मुख हुए थे। 

 एतरेय -उपनिषद में आता है
‘स इच्छत’ एकोऽहं बहुस्याम्।’  उसने इच्छा करते हुए कहा- मैं एक से बहुत हो जाऊँ  -
हमें लीला करनी है। लीला (खेलना) अकेले में होता नहीं तब दूसरा संकल्प है ‘एकाकी न रमते’ अर्थात अकेले में रमण नहीं होता। तो क्या करें ? ‘स इच्छत, एकोऽहम् बहुस्याम्’ - भगवान ने सृष्टि के प्रारम्भ में संकल्प किया, देखा कि मैं एक बहुत हो जाऊँ। ‘मैं एक ही बहुत हो जाऊँ’ ऐसी जहाँ इच्छा हुई तो जगत की उत्पत्ति हो गयी। 
सन्दर्भ:-(ऐतरेयोपनिषद् 1/3/11)

सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….”एकोऽहम् बहुस्याम.” = एक से मैं बहुत हो जाऊँ"" ईश्वर ने यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुतों में विभक्त करूँ .यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्मांड "ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परमपिता के प्रतिबिम्ब हैं .।

इस भावबोध के जगते ही मनुष्य सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध है और विकास का अनुभव भी होता है.।

उस परमेश्वर का स्वरूप स्वेच्छामय है। वह अपनी इच्छा से ही दो रूपों में प्रकट हो गया। क्योंकि सृष्टि उत्पत्ति के लिए द्वन्द्व आवश्यक था। उनका वामांश स्त्रीरूप में आविर्भूत हुआ और दाहिना भाग पुरुष रूप में।
इसी लिए स्त्री को लोक व्यवहार में 'वामा' भी कहते हैं ।
तत्पश्चात स्त्री पुरुष से मैथुनीय सृष्टि का विकास हुआ।




 "गोपों की उत्पत्ति विष्णु के द्वारा होने के  उपरान्त, उनका वैष्णव वर्ण में समाहित होना, और गोपों के अवान्तर पूर्वज चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट पुरुष( विष्णु) के मन  से उत्पन्न होने  से वैष्णव वर्ण में होने का वैदिक साक्ष्य व इसी चन्द्रवंश में  'इला  और  'बुध नामक बुद्धि सम्पन्न स्त्री- पुरुष  के संयोग से उत्पन्न गोप जाति के प्रथम सम्राट पुरुरवा की उत्पत्ति गाथा - 

भारतीय पुराणों में चन्द्रमा की उत्पत्ति भिन्न- भिन्न विरोधाभासी रूपों में दर्शायी गयी है; जिससे चन्द्रमा की वास्तविक उत्पत्ति का निश्चय नहीं किया जा सकता है। परन्तु पुराणों की अपेक्षा" वेद" प्राचीनतर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक साक्ष्य हैं। अत: वेदों के साक्ष्य पुराणों की अपेक्षा अधिक प्रबल हैं।

ऋग्वेद में "चन्द्रमा" की उत्पत्ति विराट पुरुष ( विष्णु) के मन से बतायी है। इस लिए चन्द्रमा विष्णु से उत्पन्न होने से कारण वैष्णव भी है। चन्द्रमा नाम से जो  ग्रह अथवा नक्षत्र है। उसका अधिष्ठाता  भी  जो वैष्णव आत्मिक सत्ता है उसे ही चन्द्रमा नाम से सम्बोधित किया जाता है।

जिसके कारण उसका पृथ्वी के उपग्रह रूप में समायोजन हुआ। वह सोम: अथवा "चन्द्र:" है। 
चदि (चन्द्)=आह्लादे दीप्तौ वा चदि( चन्द्) +णिच्+रक् = चन्द्र:। चन्द्रमा को देखकर मन को प्रसन्नता होती है इस लिए उसकी चन्द्र संज्ञा है।
 चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश के परावर्तित होने से चमकता है इस लिए भी वह चन्द्र है।
यूरोपीय सास्कृतिक भाषा लैटिन में (candere= "to shine"-चमकना" क्रिया है।
जिसका मूल विकास (from- PIE( proto Indo- Europian root *kand- "to shine"). से सम्बन्ध है। 
*kend-, Proto-Indo-European root meaning "to shine."
Sanskrit cand चन्द- "to give light, shine," candra- "shining, glowing, moon;" Greek kandaros "coal;" Latin candere "to shine;" Welsh cann "white," Middle Irish condud "fuel."
_______________________________              
जिसका अन्य वैदिक नामान्तरण "मान:" भी है।
संस्कृत के सबसे प्राचीन कोश - अमरकोश में मनस् का एक पर्याय हृदय भी है।
मनस् नपुं।
मनस्
समानार्थक: १-चित्त,२-चेतस्,३-हृद्,४- हृदय,५-मनस,-६-मानस्७-स्वान्त।
(अमरकोश- 1।4।31।2।7 )

यह चन्द्रमा विराट विष्णु के मन से अथवा उनके हृदय से उत्पन्न हुआ है अत: इसका एक  नाम मान: हुआ। मान शब्द समय का मानक होने से भी सार्थक है। संस्कृत में मान: शब्द ( मा =मापन करना- धातु से ल्युट्(अन्) तद्धित प्रत्यय करने पर बनता है। 
मान:=(मा+ल्युट् )-कालव्यापारे  येन कारणेन मास गणनाया: निर्धारय्यते इति मान: ) अर्थ:-
काल व्यवहार में जिस कारण से काल गणना का निर्धारण हो वह मान: है।
चन्द्रमा की उत्पत्ति का साक्ष्य ऋग्वेद की निम्न ऋचा में है।
"चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्याऽअजायत । श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥
अनुवाद:-
हे मनुष्यो ! इस विराट पुरुष के (मनसः)-मनन रूप मन से (चन्द्रमाः) (जातः) उत्पन्न हुआ (चक्षोः) आँखों से (सूर्य्यः) सूर्य (अजायत) उत्पन्न हुआ (श्रोत्रात्) श्रोत्र नामक अवकाश रूप सामर्थ्य से (वायुः) वायु (च) तथा आकाश प्रदेश (च) और (प्राणः) जीवन के निमित्त दश प्राण उत्पन्न हुए। और (मुखात्) मुख से (अग्निः) अग्नि (अजायत) उत्पन्न हुआ है, ॥१२॥

ऋग्वेद के इसी विष्णु सूक्त में विराट पुरुष ( विष्णु) से सम्बन्धित अन्य ऋचाओं में विराट पुरुष का वर्णन है, स्पष्ट रूप से हुआ है। पुराणों में वर्णित है कि 
विराट पुरुष( विष्णु) की नाभि से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। जिनसे चातुर्यवर्ण की सृष्टि होती है। जैसे ब्राह्मण - ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं  ब्राह्मण  ही कालान्तरण में चार रूपों में कर्मानुसार चार वर्णों में विभाजित हुए। और कर्म गत रूढि दीर्घकालिक हो जाने से वर्ण - व्यवस्था का विकास हुआ। जो कर्मगत न होकर जन्मगत होगयी। पुराणों में  ब्रह्मा से गोपों की उत्पत्ति नहीं दर्शायी गयी है।
ब्रह्मा को गोपों की स्तुति करते हुए पुराणों में बताया गया है। गोप ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं।

ब्रह्मा की उत्पत्ति के पौराणिक विवरण-
विष्णुनाभ्यब्जतो ब्रह्मा ब्रह्मपुत्रोऽत्रिरिति ।२।
अर्थ:- विष्णु के नाभि से उत्पन्न कमल से ब्रह्मा का जन्म हुआ। और ब्रह्मा के पुत्र अत्रि आदि हुए इस प्रकार-।
"गरुडपुराणम्‎ - आचार काण्ड१- अध्याय-(145) श्लोक संख्या-२ 

 (श्रीमद्भागवत पुराण)-1/3/2 में भी देखें-
यस्यामसि शयानस्य योगनिद्रां वित्तन्वत:।
नाभिहृदम्बुजादासीद्ब्रह्मा विश्वसृजां पति:।2।

तथा -भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय(१-) का आठवाँ श्लोक-
परावरेषां भूतानामात्मा यः पुरुषः परः।
स एवासीदिदं विश्वं कल्पान्तेऽन्यन्न किञ्चन।8। 
(भागवत पुराण-9/1/8)
अनुवाद:-
जो परमपुरुष परमात्मा छोटे-बड़े सभी प्राणियों के आत्मा हैं, प्रलय के समय केवल वही था; यह विश्व तथा और कुछ भी नहीं था।
तस्य नाभेः समभवत् पद्मकोषो हिरण्मयः।
 तस्मिन् जज्ञे महाराज स्वयम्भूःचतुराननः।9। (भागवत पुराण-9/1/9)
अनुवाद:-
उनकी नाभि से एक सुवर्णमय कमलकोष प्रकट हुआ। उसी में चतुर्मुख ब्रह्मा जी का जन्म हुआ।
__________________
ब्रह्मवैवर्त तथा देवी भागवत आदि पुराणों में ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु के नाभिकमल से ही बतायी गयी है।

श्रीभगवानुवाच-सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्‍भवो भव । महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु ।४८।
अर्थ:- श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए  महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।४८।


                 "श्रीभगवानुवाच
"सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्‍भवो भव ।
महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु॥४८॥

अर्थ:-श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए  महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।

उनके नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए, और उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे। फिर भी वे पद्मयोनि ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनाल के अन्ततक नहीं जा सके,हे नारद !तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिन्तातुर हो गये ।53-54॥

ऋग्वेद में भी  इसी विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न है। यही चन्द्रमा गोप- संस्कृति का सांस्कृतिक टॉटम ( प्रतीक ) बन गया। गोप भी स्वराट् - विष्णु के हृदय स्थल पर स्थित रोनकूपों से उत्पन्न हुए। 

★-इसीलिए चन्द्रमा गोपों का सहजाति और सजाति भी है। 

"तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
( ऋग्वेद-10/90/5 )
अनुवाद:- उस विराट पुरुष से  यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ। उसी विराट से ब्रह्मा सहित जीव समुदाय  उत्पन्न हुआ। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया।5।
'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
'नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥14॥( ऋग्वेद-10/90/14
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष  शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं।  इस विराट पुरुष के द्वारा  इसी प्रकार अनेक लोकों को  रचा गया ।14।

वेद की इस उत्पत्ति सिद्धान्त को श्रीमद्भगवद्गीता में भी बताया गया-
श्रीमद्भगवद्-गीता अध्याय (11) श्लोक ( 19)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद - 
आपको मैं  अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते  हुए देख रहा हूँ।11/19.
_________    
इसलिए अहीरों की उत्पत्ति गायत्री से भी पूर्व है।
"चन्द्रमा और वर्णव्यवस्था में- ब्राह्मण उत्पत्ति को एक साथ मानना भी प्रसंग को प्रक्षेपित करता है।
गायत्री का विवाह ब्रह्मा से हुआ  गायत्री ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं ये गोपों(अहीरों) की कन्या थी जो गोप विष्णु के रोमकूप
से उत्पन्न हुए थे। 
_____
और गायत्री के परवर्ती काल में  उत्पन्न पुरुरवा जो  गायत्री का अनन्य  स्तौता- (स्तुति करने वाला पृथ्वी (इला) पर उत्पन्न प्रथम  गोपालक सम्राट था । जिसका साम्राज्य पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक स्थापित है। ऋग्वेद के दशवें मण्डल के 95 वें सूक्त पुरुरवा का एक विशेषण गोष:( घोष:)  है।

पुरुरवा के आयुष-फिर उनके नहुष और नहुष के पुत्र ययाति से यदु, तुर्वसु, पुरु ,अनु ,द्रुह ,आदि पुत्रों का जन्म हुआ। जो सभी आभीर जाति के अन्तर्गत ही थे।

पुराणों में चन्द्रमा के जन्म के विषय में अनेक  कथाऐं है। 
कहीं कहीं चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि ऋषि के नेत्र मल से  बतायी है जिन्हें ब्रह्मा का मानस  पुत्र  कहा है। जबकि अनसुया से भी अत्रि ऋषि चन्द्रमा को उत्पन्न कर सकते थे। परन्तु चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि से काल्पनिक रूप से ही जोड़ी गयी है। अत: यह व्युत्पत्ति शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरी होने से अमान्य है। 
और  तो और  कहीं चन्द्रमा की उत्पत्ति त्रिपुर सुन्दरी की बाईं आँख से उत्पन्न  कर दिया गया है। 

और कहीं  समुद्र मन्थन काल में भी समुद्र से उत्पन्न  चौदह रत्नों में चन्द्रमा भी एक बताया गया है।

अन्य पुराणों में भी -
अत्रेर्वशं प्रवक्ष्यामि तृतीयस्य प्रजापतेः॥२,८.७३॥
अनुवाद:-
मैं तीसरे प्रजापति अत्रि के वंश का वर्णन करूँगा।
तस्य पत्न्यस्तु सुन्दर्यों दशैवासन्पतिव्रताः।
भद्राश्वस्य घृताच्यां वै दशाप्सरसि सूनवः॥ २,८.७४॥
अनुवाद:-
उसकी दस सुन्दर पत्नियाँ थीं जो  पतिव्रता थीं। वे सभी दस दिव्य कन्याऐं भी घृताची अप्सरा में उत्पन्न भद्राश्व की संतान थे ।७४।

भद्रा शूद्रा च मद्रा च शालभा मलदा तथा ।
बला, हला च सप्तैता या च गोचपलाः स्मृताः ॥ २,८.७५ ॥
अनुवाद:-
भद्रा , शूद्रा , मद्रा , शलभा , मलदा , बाला और हला । ये सात (बहुत महत्वपूर्ण थी ) और उनके जैसे अन्य पत्नीयाँ भी अत्रि की थी जैसे गोचपला , 
तथा तामरसा चैव रत्नकूटा च तादृशः ।
तत्र यो वंशकृच्चासौ तस्य नाम प्रभाकरः ॥२,८.७६ ॥

अनुवाद:- ताम्ररसा और रत्नकुटा आदि। 
उनके वंश को कायम रखने वाले उनके पुत्रों में प्रभाकर नाम का एक वंशज था ।

भद्रायां जनयामास सोमं पुत्रं यशस्विनम् ।
स्वर्भानुना हते सूर्ये पतमाने दिवो महीम् ॥ २,८.७७ ॥

अनुवाद:- अत्रि की पत्नी भद्रा  में सोम उत्पन्न हुआ। ****** 

__________________
तमोऽभिभूते लोकेऽस्मिन्प्रभा येन प्रवर्त्तिता ।
स्वस्ति तेस्त्विति चोक्तो वै पतन्निह दिवाकरः ॥ २,८.७८ ॥

ब्रह्मर्षेर्वचनात्तस्य न पपात दिवो महीम् ।
अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः ॥ २,८.७९ ॥

सन्दर्भ:-
ब्रह्माण्ड पुराण अध्याय ब्रह्माण्ड महापुराण वायुप्रोक्त मध्यभाग तृतीय उपोद्धातपाद के अन्तर्गत ऋषिवंशवर्णनं नामक -
अष्टमोऽध्यायः॥ ८॥

📚
चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि की पत्नी भद्रा से मानी जाये अथवा अनसूया से ?
अनसूया प्रजापति कर्दम और देवहूति की 9 कन्याओं में से एक तथा अत्रि मुनि की पत्नी थीं।  जबकि अत्रि ऋषि की भद्रा नाम की पत्नी घृताची अप्सरा में उत्पन्न भद्राश्व की पुत्री थी। अनुसूया और भद्रा दोनों अलग अलग महिलाऐं 
 हैं। 
दोनों के माता पिता भी अलग अलग हैं।
और दोनो से  एक ही सोम( चन्द्रमा) का उत्पन्न होना प्रक्षेप के अतिरिक्त कुछ नहीं है।


अग्नि पुराण में कहा गया है कि
विष्णु की नाभि कमल से ब्रह्मा, ब्रह्मा से अत्रि, अत्रि से सोम और सोम उत्पन्न हुआ।
 ( अग्नि-पुराण ,अध्याय 12)।

.अत्रि और  अनसूया से, सोम, दुर्वासा और दत्तात्रेय योगी का जन्म हुआ ।१२।
 (अग्नि पुराण, अध्याय 20)
सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात् ।
जातस्यासीत् सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥
 तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल ।
 विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥
(भागवत पुराण 9/14/2-3)

अनसूया (अनसूया): - वह पत्नी अत्रि की हैं। अत्रि के आंसुओं से वह गर्भवती हो गईं और उनके सोम, दुर्वासा और दत्तात्रेय नामक तीन पुत्र हुए। 
सन्दर्भ:- ( भागवत पुराण 9.14.3 देखें )
अत्रि माता गायत्री के विवाह में मन्त्रोचारण करने वाले "होता" के रूप में थे इसी कारण अत्रि को गोपों का  गोत्र प्रवतक माना जाता है।

 "अत्रेरनसूयाप्यजीजनत्।
सोमं दुर्वाससं पुत्रं दत्तात्रेयञ्च योगिनम् ।१२ ।
अनुवाद:- अत्रि से अनुसूया में सोम, दुर्वासा, और दत्तात्रेय का जन्म हुआ।१२।
(अग्निपुराण- अध्याय- 20)
___________  


इति श्री ब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमाभागे तृतीय
उपोद्धातपादे भार्गवचरिते त्रिचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ४३॥

__________
चन्द्रमा की व्युत्पत्ति के ये सम्पूर्ण प्रकरण परस्पर विरोधी हैं और बाद में जोड़े गये हैं।
क्योंकि सत्य के निर्धारण में कोई विकल्प नहीं होता है।  यहाँ तो चन्द्रमा की उत्पत्ति के अनेक विकल्प हैं। इसलिए   यहाँ चन्द्रमा की उत्पत्ति के विषय में दार्शनिक सिद्धान्तों के विपरीत अनेक बातें स्वीकार करने योग्य नहीं हैं।
विज्ञान के सिद्धान से चन्द्रमा की उत्पत्ति भी आनुमानिक ही है। 
परन्तु वेदों में चन्द्रमा का उत्पत्ति के पुरातन सन्दर्भ विद्यमान हैं । वही स्वीकार करने योग्य है।
और हमने उन्हें साक्ष्य रूप में प्रस्तुत किया है।
वहाँ पर चन्द्रमा विराटपुरुष- (विष्णु ) के मन से उत्पन्न हुआ बताया है। 
चन्द्रमा की उत्पत्ति का यह प्राचीन प्रसंग विराट पुरुष (महा विष्णु) के मन से हुआ है उसी क्रम में जिस क्रम में जिस क्रम में ब्रह्माण्ड के अनेक रूपों की उत्पत्ति हुई है।  यह सब हम ऊपर विवेचन कर ही चुके हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में कुछ ऋचाऐं वैदिक सिद्धान्तों के विपरीत होने से क्षेपक (नकली) ही हैं। जैसे नीचे दी गयी बारहवीं ऋचा- से जाना जा सकता है।

"ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥
ऋग्वेद में वर्णित उपर्युक्त(12)वीं ऋचा वैदिक सिद्धान्त के विपरीत है  यह ऋचा विराट पुरुष के नाभि कमल से उत्पन्न  ब्रह्मा से सम्बन्धित होने से  परवर्ती व पौराणिक सन्दर्भ है। इसे बाद में जोड़ा गया है।
क्योंकि ब्राह्मण शब्द ब्रह्मा की सन्तान का वाचक है। जैसा कि पाणिनीय अष्टाध्यायी  लिखित है।
"ब्रह्मणो जाताविति ब्राह्मण- ब्रह्मा से उत्पन्न होने से ब्राह्मण” पाणिनीय- सूत्र न टिलोपः की व्याकरणिक  विधि से ब्रह्मन्- शब्द के बाद में अण्- सन्तान वाची तद्धित प्रत्यय करने पर ब्राह्मण शब्द बनता है।

"ब्रह्मणो मुखजातत्वात् ब्रह्मणोऽपत्यम् वा अण्। अर्थात -"ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने से ब्राह्मण कहलाए-

जैसे मनु और श्रृद्धा क्रमश: मस्तिष्क  मनन ( विचार) और हृदय के भावों के प्रतिनिधि हैं।
यहाँ एक इला की भूमिका वाणी ( अथवा ) पृथ्वी के रूप में है।
महाकवि जय शंकर प्रसाद की कामायनी इस दशा में एक नवीन व्याख्या है।

"जिस प्रकार श्रद्धा और मनु के सहयोग से बौद्धिक चेतना के सर्वोच्च आयाम के रूप में मानव  के विकास की गाथा को, रूपक के आवरण में लपेटकर महाकाव्यों में प्रस्तुत किया गया है। उसी प्रकार मान (विचार) से बुध( ज्ञान) और बुध और इला( वाणी ) के संयोग से पुरुरवा( अधिक स्तुति करने वाला कवि) कवि और हृदय की संवेदना( वेदना) उरु + अशी= यण् सन्धि विधान से  उर्वशी  शब्द उत्पन्न होता है। -  उर्वशी  हृदय की अशी( इच्छा) है उसी के अन्तस्  से आयुस् ( जीवन शक्ति) का विकास हुआ। 
उर्वशी निश्चित रूप से उरु (हृदय) की वह अशी (आशा ) है जो आयुस् (जीवन शक्ति) धारण करती है।

भले ही मानव सृष्टि का विकास पूर्व पाषाण काल के क्रमनुसार बौद्धिक विकास प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप ही माना गया हो परन्तु मिथकीय रूपान्तरण की आधार शिला पर संस्कृतियों का विकास हुआ  ही है इसे कभी अमान्य नहीं  किया जा सकता है। 

मानवता के नवयुग के प्रवर्त्तक के रूप में मनु की कथा विश्व की अनेक प्रसिद्ध संस्कृतियों में जैसे मिश्र में "मेनेज- ग्रीक (यूनान) में "मोनोस- उत्तरीय जर्मनी "मेनुस"  और सुमेरियन संस्कृतियों में "नूह" और भारतीय अनुश्रुति में मनु के रूप में दृढ़ता से मान्य है।

यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट (Crete ) की संस्कृतियों में "मनु" आयॉनिया लोगों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए।
भारतीय संस्कृति की पौराणिक कथाऐं इन्हीं घटनाओं ले अनुप्रेरित हैं।
_________________________________________

भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनन ) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) के मानवीय-करण (personification) रूप है 

हिब्रू बाइबिल में नूह का वर्णन:-👇
बाइबिल उत्पत्ति खण्ड (Genesis)- "नूह ने यहोवा (ईश्वर) कहने पर एक वेदी बनायी ;
और सब शुद्ध पशुओं और सब शुद्ध पक्षियों में से कुछ की वेदी पर होम-बलि चढ़ाई।(उत्पत्ति-8:20) ।👇

आश्चर्य इस बात का है कि ..आयॉनियन भाषा का शब्द माइनॉस् तथा वैदिक शब्द मनु: की व्युत्पत्तियाँ (Etymologies)भी समान हैं।

जो कि माइनॉस् और मनु की एकरूपता(तादात्म्य) की सबसे बड़ी प्रमाणिकता है।

यम और मनु को भारतीय पुराणों में सूर्य (अरि) का पुत्र माना गया है।

क्रीट पुराणों में इन्द्र को (Andregeos) के रूप में मनु का ही छोटा भाई और हैलीअॉस् (Helios) का पुत्र कहा है।
इधर चतुर्थ सहस्राब्दी ई०पू० मैसॉपोटामियाँ दजला- और फ़रात का मध्य भाग अर्थात् आधुनिक ईराक की प्राचीन संस्कृति में मेनिस् (Menis)अथवा मेैन (men) के रूप में एक समुद्र का अधिष्ठात्री देवता है।

यहीं से मेनिस का उदय फ्रीजिया की संस्कृति में हुआ था । यहीं की सुमेरीयन सभ्यता में यही मनुस् अथवा नूह के रूप में उदय हुआ, जिसका हिब्रू परम्पराओं नूह के रूप वर्णन में भारतीय आर्यों के मनु के समान है।
मनु की नौका और नूह की क़िश्ती
दोनों प्रसिद्ध हैं।

मन्नुस, रोमन लेखक टैसिटस के अनुसार, जर्मनिक जनजातियों के उत्पत्ति मिथकों में एक व्यक्ति था। रोमन इतिहासकार टैसिटस इन मिथकों का एकमात्र स्रोत है।

जिससे यूरोपीय भाषा परिवार में मैन (Man) शब्द आया ।

मनन शील होने से ही व्यक्ति का मानव संज्ञा प्राप्त हुई है।

ऋग्वेद में इडा का रूपान्तरण कहीं इला तो कहीं इरा के रूप में भी है। का कई जगह उल्लेख मिलता है।

यह प्रजा पति मनु की पथ-प्रदर्शिका, मनुष्यों का शासन करने वाली कही गयी है ।

त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः ।
श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥४॥

"इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते ॥११॥
ऋग्वेदः - मण्डल १
सूक्तं १.३१
 '
इड़ा के संबंध में ऋग्वेद में कई मंत्र मिलते हैं। '
सरस्वती साधयन्ती धियं न इळा देवी भारती विश्वतूर्तिः ।
तिस्रो देवीः स्वधया बर्हिरेदमच्छिद्रं पान्तु शरणं निषद्य ॥८॥
(ऋग्वेद 2-3.8) 
आ नो यज्ञं भारती तूयमेत्विळा मनुष्वदिह चेतयन्ती ।
तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं स्योनं सरस्वती स्वपसः सदन्तु ॥८॥
 (ऋग्वेद—10-110.8)

इन ऋचाओं( श्लोकों) में मध्यमा, वैखरी और पश्यन्ती नामक वाणीयों की प्रतिनिधि भारती, सरस्वती के साथ इड़ा का नाम भी आया है। लौकिक संस्कृत में इड़ा शब्द पृथ्वी , बुद्धि, वाणी आदि का पर्यायवाची है---'गो भूर्वाचत्स्विड़ा इला'- गाय पृथ्वी वाणी सभी का वाचक इला-(इडा) है।--(अमरकोश)।

इडा- स्त्रीलिंग।
समानार्थक:व्याहार,उक्ति,लपित,भाषित,वचन,
वचस्,गो,इडा,इला,इरा
अमर कोश-3।3।42।2।2

इस इडा या वाक् के साथ मनु या मन के एक और विवादात्मक संवाद का भी शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है जिसमें दोनों अपने महत्व के लिए झगड़ते हैं-'अथातोमनसश्च' इत्यादि (4 अध्याय 5 शतपथ-ब्राह्मण)। ऋग्वेद में इड़ा को, बुद्धि का साधन करने वाली; मनुष्य को चेतना प्रदान करने वाली कहा है। 
"व्यक्ति की वाणी की प्रखरता ही उसके बौद्धिक स्तर की मापिका और चेतना की प्रतिबिम्ब है।

बुद्धिवाद के विकास में, अधिक सुख की खोज में, दुख मिलना स्वाभाविक है। यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया है ।

इसीलिए मनु, श्रद्धा और इड़ा  पुरुरवा इत्यादि अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुए, सांकेतिक अर्थ की भी अभिव्यक्ति करते हैं।  

अर्थात् मन के दोनों पक्ष १-हृदय और २-मस्तिष्क का संबंध क्रमशः श्रद्धा और इड़ा से भी सरलता से लग जाता है।
श्रद्धां देवा यजमाना वा आयुगोपा उपासते ।
श्रद्धां हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु ॥४॥
देवा:= देवता लोग (हृदय्यया-आकूत्या) हृदयस्थ भावेच्छा से (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (यजमानाः) यजनशील (आयु नामक गोपा ) उपासना करता है।  (श्रद्धया वसु विन्दते) श्रद्धा से  संसार की सभी वस्तुऐं प्राप्त होती हैं ॥४॥
(ऋग्वेद 10-151-4) 
__________
यूरोपीय भाषाओं में चन्द्रमा का नामान्तरण मून है। जिसका सीधा सम्बन्ध भारोपीय(मूल वैदिक  शब्द मान=(मन+अण्- मनसो जात: चन्द्रमा)  अर्थात मन से उत्पन्न- इस प्रकरण पर हम विस्तृत विश्लेषण आगे क्रमश करते हैं।


कविः पुल्लिंग-(कवते सर्व्वं जानाति सर्व्वं वर्णयति सर्व्वं सर्व्वतो गच्छति वा । (कव् +इन्) । यद्वा कुशब्दे + “अचः इः”। उणादि सूत्र ४।१३८। इति इः।
कवि शब्द शब्दार्थ के विशेषज्ञ का वाचक है।जो कि एक कवि की मौलिक विशेषता होती है।

"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा( मान ) कहलाया  चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से  । यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र  कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं। 

और इस मान:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम  पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में है और उर्वशी पुरुरवा के काव्य का मूर्त ( साकार) है।  क्यों कि स्वयं पुरुरवा शब्द का  मूल अर्थ है। अधिक कविता /स्तुति करने वाला- संस्कृत इसका व्युत्पत्ति विन्यास इस प्रकार है। पुरु- प्रचुरं रौति( कविता करता है) कौति- कविता करता) इति पुरुरवस्- का प्रथमा विभक्ति एक वचन का रूप पुरुरवा अधिक  कविता अथवा स्तुति करने के कारण इनका नाम पुरुरवा है। क्योंकि गायत्री के सबसे
बड़े स्तोता ( स्तुति करने वाले थे) शब्द व्युत्पत्ति का व्याकरणिक विश्लेषण निम्नांकित-
पुरूरवसे - पुरु रौतीति पुरूरवाः । ‘रु = शब्दे( शब्द करना '। अस्मात् औणादिके असुनि ‘पुरसि च पुरूरवाः' (उणादि. सूत्र. ४. ६७१) इति पूर्वपदस्य दीर्घो निपात्यते। 
सुकृते ।‘सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः ' (पाणिनीय. सूत्र.३. २. ८९) इति क्विप् । ततः तुक् ।

इस बात की पुष्टि महाभारत के सन्दर्भों से होती है।
"पुराकाले पुरुरवसेव सदैव गायत्रीयम् प्रति पुरं रौति । तस्मादमुष्य  पुरुरवस्संज्ञा लोकेसार्थकवती।।१।
अनुवाद:-प्राचीन काल में पुरुरवस् (पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।
_______________
वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही  हैं । पुरुरवा ,बुध ,और ,इला की सन्तान था। 
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।

इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।

"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा (मान ) कहलाया  चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से । यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र  कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं। 

और इस मान -( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम  पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में । 

चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है अत: चन्द्रमा भी वैष्णव है। गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उत्पन्‍न हैं। वह तो वैष्णव हैं रही। नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।

"चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥
"नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥

चन्द्रमा की वास्तविक और प्राचीन उत्पत्ति का सन्दर्भ- ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें पुरुष सूक्त की (13) वीं ऋचा में है। जिसको हम उद्धृत कर रहे हैं ।

📚: चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है  मन ही हृदय अथवा प्राण के तुल्य  है। चन्द्रमा भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से  भी वैष्णव है। चन्द्रमा के वैष्णव होने के भी अनेक शास्त्रीय सन्दर्भ हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें सूक्त में विराट पुरुष से विश्व का सृजन होते हुए दर्शाया है। और इसी विराट स्वरूप के दर्शन का कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिखाया जाना श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में वर्णन किया गया है। 

नीचे 'विराट पुरुष' के स्वरूप का वर्णन पहले ऋग्वेद तत्पश्चात श्रीमद्भगवद्गीता में देखें 

"तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
(ऋग्वेद-10/90/5 )
अनुवाद:- उस विराट पुरुष से  यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ। उसी विराट से जीव समुदाय  उत्पन्न हुआ। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया।5।
'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
'नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥14॥
( ऋग्वेद-10/90/14
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष  शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं।  इस विराट पुरुष के द्वारा  इसी प्रकार अनेक लोकों को  रचा गया ।14।

श्रीमद्भगवद्-गीता अध्याय (11) श्लोक ( 19)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद - 
आपको मैं  अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते  हुए देख रहा हूँ।11/19.
__________

गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उनके हृदय से ही  उत्पन्‍न होते हैं। वह तो वैष्णव हैं ही। क्योंकि वे स्वराट- विष्णु के तनु से उत्पन्न उनकी सन्तान हैं।
वेदों में चन्द्रमा को भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न दर्शाया है। और वेदों का साक्ष्य पुराणों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ व प्रबल है।
चन्द्रमा यादवों का आदि वंश द्योतक है।

नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।

ऋग्वेद पुरुष सूक्त में जोड़ी गयी  (12) वीं  ऋचा  ब्रह्मा से सम्बन्धित है।

"चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत॥१३॥

"नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥


ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त ९० ऋचा- १३-१४
📚: उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की सम्पूर्ण (18) ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है।

जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- हैं । अत: पुरुरवा एक गो- पालक राजा ही सम्राट् भी है।

पुरुरवा बुध ग्रह और पृथ्वी ग्रह (इला) ग्रह  से सम्बन्धित होने से इनकी सन्तान माना गया है।
यही व्युत्पत्ति सैद्धान्तिक है।
यदि आध्यात्मिक अथवा काव्यात्मक रूप से इला-वाणी अथवा बुद्धिमती स्त्री और बुध बुद्धिमान पुरुष का भी वाचक है । और पुरुरवा एक शब्द और उसकी अर्थवत्ता के विशेषज्ञ कवि का वाचक है। और उर्वशी उसकी काव्य शक्ति है।
यदि पुरुरवा को बुध ग्रह और इला स्त्री से उत्पन्न भी माना जाय तो इला की ऐतिहासिकता सन्दिग्ध है। परन्तु पुरुरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेद, पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में है। पुरुरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है।

"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र  पुरुरवा को गायें देकर वन को चला गया।४२।
श्रीमद्‍भागवत महापुराण
 नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥

गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् ।  अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर(गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है । गो सेवक अथवा पालक।

वैदिक ऋचाओं में गोष: ( लौकिक संस्कृत में- घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवा करने वाला" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।
______________

वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही  हैं । पुरुरवा ,बुध ,और इला की सन्तान था। 
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।

इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।

पुराकाले पुरुरवसेव सदैव गायत्रीयम् प्रति पुरं रौति । तस्मादमुष्य  पुरुरवस्संज्ञा सार्थकवती।।१।अनुवाद:-
प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता थे । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।

(पुरु प्रचुरं  रौति कौति इति। “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः (महाभारत- ।“३।९०।२२ ।

अत: पुरुरवा गो- पालक सम्राट है।
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे।
इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के  गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" भी कहा गया है। "ययातिपूजनप्रिया" का अर्थ होता है। जिनको ययाति का पूजन प्रिय हो- वह गायत्री यह अर्थ बहुव्रीहि समास के द्वारा निर्धारित होता है।

इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए , स्वयं कृष्ण और संकर्षण (बलराम) शब्द कृषि मूलक हैं कृष्ण और संकर्षण दौनों भाई कृषि पद्धति के जनक थे बलराम ने हल का आविष्कार कर उसे ही अपना शस्त्र स्वीकार किया।  दौनों का सम्बन्ध  आभीर  जाति से था । स्वयं आभीर शब्द  "आर्य के सम्प्रसारण रूप "वीर शब्द का सम्प्रसारण है।

पुरुरवा को ऋग्वेद के दशम मण्डल के 95 वें सूक्त की कुछ ऋचाओं में गोष: और गोपीथ पुरुरवा के गोपालन को दर्शाता है। पुराणों में विशेषत: मत्स्य पुराण में पुरुरवा की पत्नी उर्वशी को आभीर कन्या बताया है। स्पष्ट सी बात है जब दौंनो पत् पत्नी आभीर जाति से सम्बन्धित हैं तो इनकी सन्ताने भी आभीर ही होंगी । उर्वशी शब्द की व्युत्पत्ति को हम नीचे दर्शा रहे हैं।

उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुत सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है। यद्यपि उर्वशी शब्द में यण् सन्धि विधान से (उरु+ अशी ) उरु शब्द का अन्तिम वर्ण और अशी शब्द का प्रारम्भिक  वर्ण का यण् सन्धि रूप होगा- (उ+ र्+(उ+अ)+श+ई)=उर्वशी।
"   "  "  "   उ+र्+(व)+श+ई= उर्वशी।

"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है। वह उर्वशी है। उर्वशी शब्द का यह भाव मूलक अर्थ भी सार्थक है।
नीचे लिखीं कुछ काव्य पंक्तियाँ पुरुरवा, उर्वशी और उनके रूुक को प्रस्तुत करती हैं।
"कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
हृदय सागर की अप्सरा ।
संवेदन लहरों में विकसी।।
एक रस बस ! प्रेमरस सृष्टि 
नहीं कोई काव्य सी !
"प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी और आदि कवि गोपालक पुरुरवा ही है ।  उर्वशी सौन्दर्य अधिष्ठात्री और उस युग की सबसे सुन्दर नारी है पुरुरवा उर्वशी के सौन्दर्य का समर्पित प्रेमी।  यह प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल के (95) वें सूक्त में (18) ऋचाओं में सबसे प्राचीन यह "प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।

सत्य पूछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गया हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है। 
कवि बनने का केवल उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।

और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक (गोष - गोपीथ )आदि के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।

इस प्रकार  पुरुरवा  पृथ्वी के सबसे बुद्धि सम्पन्न अत्यधिक स्तुति करने वाले,  प्रथम सम्राट थे जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य था।

इनकी पत्नी का नाम उर्वशी था जो अत्यधिक सुन्दर थीं। उनकी सुन्दता  प्रभावित अथवा प्रेरित होकर  प्रेम के  सौन्दर्य मूलक काव्य की प्रथम सृष्टि  उर्वशी को आधार मानकर की 
उर्वशी का शाब्दिक यदि निरूपित किया जाय तो उर्वशी शब्द की व्युत्पत्ति (उरसे वष्टि इति उर्वशी) और ये उर्वशी यथार्थ उनके पुरुरवा के हृदय में काव्य रूप वसती थी।
किन्तु वह वास्तव में मानवीय रूप में ही थी जिनका जन्म एक आभीर परिवार में हुआ था जिनके पिता "पद्मसेन" आभीर ही थे जो  बद्रिका वन के पास 'आभीरपल्लि" में रहते थे।
इस बात कि पुष्टि "मत्स्य पुराण तथा लक्ष्मी नारायण संहिता" आदि ग्रन्थों से होती है। इसके अतिरिक्त
उर्वशी के विषय में शास्त्रों में अनेक सन्दर्भ हैं कि ये स्वर्ग की समस्त अप्सराओं की स्वामिनी और सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी थी और सौन्दर्य ही कविता का जनक है । इसका विस्तृत विवरण उर्वशी -प्रकरण में दिया गया है।
अब इसी क्रम में में पुरुरवा जो उर्वशी के पति हैं। उनके भी गोप होने की पुष्टि ऋग्वेद तथा भागवत पुराण से होती है। 
******
इस प्रकार से देखा जाए तो प्रथम गोप सम्राट और उनकी पत्नी  उर्वशी  आभीर जाति सम्बन्धित थे। और इन दोनों से सृष्टि सञ्चालित हुई जिसमें इन दोनों से छ: पुत्र-आयुष् (आयु),मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु आदि  उत्पन्न हुए । इसकी पुष्टि भागवत, पुराण ,हरिवंश और अन्य शास्त्रों में मिलती है। 

विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः।११।

अध्याय- 26 - पुरुरवा का विवरण-

पुरूरवसः चरित्र एवं वंश वर्णनम्, राज्ञा पुरूरवसेन त्रेताग्नेः सर्जनम्, गन्धर्वाणां लोकप्राप्तिः।

               षडविंशोऽध्यायः

             "वैशम्पायन उवाच
बुधस्य तु महाराज विद्वान् पुत्रः पुरूरवाः।
तेजस्वी दानशीलश्च यज्वा विपुलदक्षिणः।१।

अनुवाद:-1. वैशम्पायन ने कहा: - हे महान राजा, बुध- के पुत्र पुरुरवा विद्वान, ऊर्जावान और दानशील स्वभाव के थे। उन्होंने अनेक यज्ञ किये तथा अनेक उपहार दिये।

ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।२।

अनुवाद:-2. वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक यज्ञ किये।

सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव त्रिषु लोकेषु यशसाप्रतिमस्तदा।३।

अनुवाद:-3. वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन भूख पर पूरा नियंत्रण था।उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था।

तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी ।४।

अनुवाद:-4. अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति  के रूप में चुना।

तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।

पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत ।५।

वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे ।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे ।६।

उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान् ।
गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे ।७।

एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च ।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।८।

अनुवाद:-5-7. हे भरत के वंशज , राजा पुरुरवा दस साल तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मंदाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल में , उर्वशी के साथ रहे आदि स्थानं पर रहे

सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक   जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं।

8. देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया ।

देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते ।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।९।

अनुवाद:-9. वह राजा प्रयाग के पवित्र प्रांत पर शासन करता था , जिसकी महान राजा की ऋषियों ने बहुत प्रशंसा की है ।

तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।

अनुवाद:-10-उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम आयु, धीमान , अमावसु ,।

विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।

अनुवाद:-धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु, वनायु और शतायु थे । इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था।



पुरुरवा के  ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे जो गोप जाति में उत्पन्न होकर वैष्णव धर्म का संसार में प्रचार प्रसार करने वाले  हुए,  जिसके वैष्णव धर्म के संसार में प्रचार का वर्णन- पद्मपुराण के भूमि- खण्ड में विस्तृत रूप से दिया गया ।
पद्म पुराण के उन अध्यायों को पुस्तक में अध्याय के ( श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।  नामक प्रकरण में समायोजित किया गया । 

फिर इसी गोप आयुष से वैष्णव वंश परम्परा आगे चली आयुष‌ और उनकी पत्नी इन्दुमती से कालान्तर में अनेक सन्तानें उत्पन्न हुईं जो वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार करने वाली हुईं।

पुरुरवा और उर्वशी दौनों ही आभीर (गोष:) घोष जाति से सम्बन्धित थे। जिनके विस्तृत साक्ष्य यथा स्थान हम आगे देंगे।

पुरुरवा के छह पुत्रों में से एक सबसे बड़ा आयुष  था, आयुष का ही ज्येष्ठ पुत्र नहुष था।
नहुष की माता इन्दुमती जो स्वर्भानु गोप की पुत्री थी। परन्तु कुछ पुराण स्वर्भानु  नामक दानव को इन्दुमती का पिता मानते हैं। लिंगपुराण में इन्दुमती का एक नाम प्रभा भी है। नहुष के समय  अधिकतर दानव दानशील और धर्मज्ञ हुआ करते थे।  नहुष के अन्य कुल चार भाई क्षत्रवृद्ध (वृद्धशर्मन्), रम्भ, रजि और अनेनस् (विषाप्मन्) थे , जो वैष्णव धर्म का पूर्ण पालन करते थे।।

कुछ पुराणों में 'आयुष और 'नहुष तथा 'ययाति की सन्तानों में कुछ भिन्न नाम भी मिलते हैं। जैसे पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार
आयु का विवाह स्वर्भानु की पुत्री  इन्दुमती से हुआ था परन्तु इन्दुमती का अन्य नाम  मत्स्यपुराण, अग्निपुराण आदि में  "प्रभा" भी मिलता है। इन्दुमती से आयुष के पाँच पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत (वृद्धशर्मा), राजभ (गय), रजि, अनेना। 

प्रथम पुत्र नहुष का विवाह पार्वती की पुत्री  अशोकसुन्दरी (विरजा) से हुआ था।  अशोक सुन्दरी का विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टिनिर्मीण खण्ड तथा लिंगपुराण  में मिलता है। अशोक सुनदरी की अपेक्षा विरजा नाम ही अधिक उपयुक्त है। नहुष के  विरजा में अनेक पुत्र हुए जिसमें- सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और(कृति) थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1 महाभारत में एक पुत्र ध्रुव नाम  के पुत्र का भी उल्लेख मिलता है।

ययाति, संयाति, अयाति, यति , ध्रुव, और कृति प्रमुख थे। इन पुत्रों में यति और ययाति प्रिय थे।
पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार नहुष की पत्नी अशोक सुन्दरी  पार्वती और शिव की पुत्री थी। जिससे ययाति आदि पुत्रों की उत्पत्ति हुई है।

सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और कृति थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1

             "श्रीबादरायनिरुवाच
य: पुरुरवस: पुत्र आयुस्तस्याभवन् सुता:।
नहुषः क्षत्रियवृद्धश्च रजि राभश्च वीर्यवान्॥1।

अनेना इति राजपुत्र श्रृणु क्षत्रियवृधोऽन्वयम्।
क्षत्रियवृद्धसुतस्यसं सुहोत्रस्यात्मजस्त्रयः ॥ 2॥
अनुवाद:-
शुकदेव  ने कहा: पुरुरवा से आयु उत्पन्न हुआ, जिससे अत्यंत शक्तिशाली पुत्र नहुष, क्षत्रियवृद्ध, रजि, राभ और अनेना उत्पन्न हुए थे। हे परिक्षित, अब क्षत्रिय वंश के बारे में सुनो।
क्षत्रियवृद्ध के पुत्र सुहोत्र के, काश्य, कुश और गृत्समद नाम के तीन पुत्र थे। गृत्समद से शुनक पैदा हुए, और उन शुनक के, महान संत, ऋग्वेद के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता,  शौनक पैदा हुए।   

"पद्म-पुराण भूमि-खण्ड में वर्णित -आयुष की जीवन गाथा- 

पुरुरवा के पुत्र और नहुष के पिता . आयुष की गाथा-

वंशावली-

विराट विष्णु के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ   उस  क्रम में उतरते हुए -चन्द्र से -बुध- और बुध से पुरुरवा -'आयुष- आदि का वंश क्रम-

आयुस का जन्म उर्वशी में  पुरुरवा से हुआ था . नहुष का जन्म  आयुष की पत्नी स्वर्भानवी  प्रभा' से हुआ इसका अन्य  नाम ही इन्दुमती भी था। 

आयुस वह एक राजा था जिसने तपस्या करके महान शक्ति प्राप्त हुई की और संसार का सम्राट बना। (श्लोक 15, अध्याय 296,शान्ति पर्व, महाभारत).

पुरुरवा के छ: पुत्र-
१-आयुष् (आयु), मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु -हम  पुरुरवा के पुत्रों का विवरण  पूर्व में भी दे चुके हैं । पुरुरवा स्वयं परम वैष्णव था।

अहिर्बुध्न्यसंहिता नामक ग्रन्थ  के अनुसार, आयुष (आयुस) का तात्पर्य "लंबे जीवन" से है, जो पाञ्चरात्र परम्परा से संबंधित है।

'पाञ्चरात्र वैष्णव धर्म की एक परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जहां केवल विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। आयुस ने इस परम्परा का पालन किया।

गोप परम्परा का आदि प्रवर्तक गायत्री माता के परिवार के बाद पुरुरवा ही है।

पुरुरवा को अपनी पत्नी उर्वशी से आयुस, श्रुतायुस,सत्यायुस,राया,विजयाऔर जया छह पुत्र कहे गए । उनमें से सबसे बड़े आयुस के पांच पुत्र थे जिनका नाम है नहुष,क्षत्रवृद्ध,रजि,रम्भ और अनेनास थे। नहुष का ययाति नाम का एक पुत्र था जिससे ,यदु तुरुवसु और अन्य तीन  पुत्र पैदा हुए। यदु और पुरु के दो राजवंश (यदुवंश और पुरुवंश) आनुवांशिक परम्परा से उत्पन्न हुए हैं।

नहुष के भाई अनेना: के शुद्ध नामित पुत्र का जन्म हुआ। शुद्ध से शुचि उत्पन्न हुई जिससे त्रिकाकुप उत्पन्न हुआ और त्रिकाकुप से शान्तराय नामित पुत्र का जन्म हुआ।

"पद्म-पुराण भूमि-खण्ड में वर्णित -पार्वती पुत्री अशोक-सुन्दरी( विरजा) की जीवन गाथा- 

         पद्मपुराण के अनुसार-

                 "श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।

एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।

श्री देवी पार्वती ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :

71-74. इस कल्पद्रुम  के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में  चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।

इस प्रकार (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।

पुरुरवा पुत्र  आयुष को दत्तात्रेय का वरदान है कि आयुष के नहुष नाम से विष्णु का अंश और अवतार होगा।  नीचे के श्लोकों में यही है।
 
देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।

देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।

दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।

अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।

देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।

अनुवाद :- सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन ् यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो ।१३५।

              "दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।

एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।

एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।

,"विष्णु के अँशावतार नहुष की पत्नी भी कोई साधारण स्त्री नहीं बन सकती यह गोलोक में कृष्ण की पत्नी- विरजा' ही है जो भूलोक पर "अज्यप" पितर की कन्या है। विदित हो कि अज्यप गोपालन और कृषि वृति करने वाले वैश्यों  के पितर बताये जाते हैं। 


नहुष की पत्नी विरजा का पूर्व नाम भी विरजा है;  ये गोलोक में कृष्ण की पत्नी हैं।

अनुवाद:- राधा,  श्रीविरजा, और भूदेवी कृष्ण की गोलोक में तीन पत्नियाँ हैं। उनमें राधा सबसे प्रिय श्रीकृष्ण की पत्नी हैं।४।
सन्दर्भ:-श्रीगर्गसंहिता -
वृन्दावनखण्ड अध्यायः॥२६ ॥

भूलोक पर भी कृष्ण के अंशावतार नहुष की पत्नी हैं भी यही विरजा' अज्यप नामक पितर की पुत्री बनकर अवतरित होती हैं।

क्योंकि कृष्ण के अशावतार नहुष की पत्नी  कोई साधारण  स्त्री कैसे  बन सकती है ? कृष्ण गोलोक में  स्वराट् विष्णु के रूप में विद्यमान रहते हैं जिनकी गोपेश्वर श्रीकृष्ण नाम से उपस्थिति होती है।

भूलोक पर कृष्ण अपने लीला अवतरण स्वरूप से पहले ही  पूर्व व्यवस्था की भूमिका के निर्वहन के लिए अपने अंशों को सबसे पहले अवतरित करते हैं। 

विदित हो कि नहुष की विरजा ही अज्यप ऋषि  की पुत्री हैं। अज्यप गोपालन और कृषि वृति करने वालों के एक पितर हैं।  
अज्यपा नाम पितरः कर्दमस्य प्रजा पतेः ।
समुत्पन्नस्य पुलहादुत्पन्नास्तस्य ते सुताः ॥ २,१०.९३॥
लकिषु तेषु वैवर्ताः कामगोषु विहङ्गमाः ।
एतान्वैश्यगणाः श्राद्धे भावयन्ति फलार्थिनः॥ २,१०.९४॥
एतेषां मानसी कन्या विरजा नाम विश्रुता ।
ययातेर्जननी साध्वी पत्नी सा नहुषस्य च॥ २,१०.९५॥ (ब्रह्माण्ड पुराण-)

अत्रेर्वशं प्रवक्ष्यामि तृतीयस्य प्रजापतेः॥२,८.७३॥
अनुवाद:-
मैं तीसरे प्रजापति अत्रि के वंश का वर्णन करूँगा।

तस्य पत्न्यस्तु सुन्दर्यों दशैवासन्पतिव्रताः।
भद्राश्वस्य घृताच्यां वै दशाप्सरसि सूनवः॥ २,८.७४॥
अनुवाद:-
उसकी दस सुन्दर पत्नियाँ थीं जो  पतिव्रता थीं। वे सभी दस दिव्य कन्या घृतसी में उत्पन्न भद्राश्व की संतान थे ।७४।

भद्रा शूद्रा च मद्रा च शालभा मलदा तथा ।
बला, हला च सप्तैता या च गोचपलाः स्मृताः ॥ २,८.७५ ॥
अनुवाद:-
 वे थे भद्रा , शूद्रा , मद्रा , शलभा , मलदा , बाला और हला । ये सात (बहुत महत्वपूर्ण थी ) और उनके जैसे अन्य पत्नीयाँ। गोचपला , 

तथा तामरसा चैव रत्नकूटा च तादृशः ।
तत्र यो वंशकृच्चासौ तस्य नाम प्रभाकरः ॥२,८.७६ ॥

अनुवाद:- ताम्ररसा और रत्नकुटा भी थीं। 
उनके वंश को कायम रखने वाले उनके पुत्रों में प्रभाकर नाम का एक वंशज था ।

भद्रायां जनयामास सोमं पुत्रं यशस्विनम् ।
स्वर्भानुना हते सूर्ये पतमाने दिवो महीम् ॥ २,८.७७ ॥

अनुवाद:- अत्रि की भद्रा नामक पत्नी में सोम उत्पन्न हुआ।******

__________________
तमोऽभिभूते लोकेऽस्मिन्प्रभा येन प्रवर्त्तिता ।
स्वस्ति तेस्त्विति चोक्तो वै पतन्निह दिवाकरः ॥ २,८.७८ ॥

ब्रह्मर्षेर्वचनात्तस्य न पपात दिवो महीम् ।
अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः ॥ २,८.७९ ॥

सन्दर्भ:-
ब्रह्माण्ड पुराण अध्याय ब्रह्माण्ड महापुराण वायुप्रोक्त मध्यभाग तृतीय उपोद्धातपाद के अन्तर्गत ऋषिवंशवर्णनं नामक -
अष्टमोऽध्यायः॥ ८॥




अत्रेर्वशं प्रवक्ष्यामि तृतीयस्य प्रजापतेः॥२,८.७३॥  सन्दर्भ-ब्रह्माण्डपुराण-मध्यभाग- अध्याय (8)
मैं तीसरे प्रजापति अत्रि के वंश का वर्णन करूँगा।७३।
तस्य पत्न्यस्तु सुन्दर्यों दशैवासन्पतिव्रताः।
भद्राश्वस्य घृताच्यां वै दशाप्सरसि सूनवः॥ २,८.७४॥

उन अत्रि की दस सुन्दर पत्नियाँ थीं जो  पतिव्रता थीं। वे सभी दस दिव्य कन्याऐं भी घृताची अप्सरा में उत्पन्न भद्राश्व की संतान थे ।७४।

भद्रा शूद्रा च मद्रा च शालभा मलदा तथा ।
बला, हला च सप्तैता या च गोचपलाः स्मृताः।७५।

भद्रा , शूद्रा , मद्रा , शलभा , मलदा , बाला और हला ।  सात ये  और  इनके अतिरिक्त, गोचपला  (ताम्ररसा और रत्नकुटा  ये तीन और थीं)। 
 
तथा तामरसा चैव रत्नकूटा च तादृशः ।
तत्र यो वंशकृच्चासौ तस्य नाम प्रभाकरः ॥२,८.७६ ॥

"अनुवाद"- ताम्ररसा और रत्नकुटा  ये तीन और थीं।  उनके वंश को कायम रखने वाले उनके पुत्रों में प्रभाकर नाम का एक वंशज था ।


भद्रायां जनयामास सोमं पुत्रं यशस्विनम् ।
स्वर्भानुना हते सूर्ये पतमाने दिवो महीम् ॥ २,८.७७ ॥
अत्रि की पत्नी भद्रा  में सोम उत्पन्न हुआ। राहु के द्वारा सूर्य के हत होकर स्वर्ग की भूमि पर गिर जाने पर  ****** 

__________________
तमोऽभिभूते लोकेऽस्मिन्प्रभा येन प्रवर्त्तिता ।
स्वस्ति तेस्त्विति चोक्तो वै पतन्निह दिवाकरः ॥ २,८.७८ ॥

ब्रह्मर्षेर्वचनात्तस्य न पपात दिवो महीम् ।
अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः ॥ २,८.७९ ॥

सन्दर्भ:-
ब्रह्माण्ड पुराण अध्याय ब्रह्माण्ड महापुराण वायुप्रोक्त मध्यभाग तृतीय उपोद्धातपाद के अन्तर्गत ऋषिवंशवर्णनं नामक -
अष्टमोऽध्यायः॥ ८॥

रुद्रा शूद्रा च भद्रा च मलदा मलहा तथा ।
खलदा चैव राजेन्द्र नलदा सुरसापि च ।
तथा गोचपला तु स्त्रीरत्नकूटा च ता दश ।।११।।

ऋषिर्जातोऽत्रिवंशे तु तासां भर्ता प्रभाकरः ।
रुद्रायां जनयामास सुतं सोमं यशस्विनम् ।।१२।।

स्वर्भानुना हते सूर्ये पतमाने दिवो महीम् ।
तमोऽभिभूते लोके च प्रभा येन प्रवर्तिता ।।१३।।

स्वस्ति तेऽस्त्विति चोक्तो वै पतमानो दिवाकरः ।
वचनात् तस्य विप्रर्षेर्न पपात दिवो महीम् ।।१४।।

अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः ।
यज्ञेष्वत्रेर्धनं चैव सुरैर्यस्य प्रवर्तितम् ।।१५।।

स तासु जनयामास पुत्रिकासु सनामकान् ।
दश पुत्रान् महात्मा स तपस्युग्रे रतान्सदा ।१६।

ते तु गोत्रकरा राजन्नृषयो वेदपारगाः ।
स्वस्त्यात्रेया इति ख्याताः किं त्वत्रिधनवर्जिताः ।। १७।।
सन्दर्भ:-
श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि कुक्षेयुवंशानुकीर्तनं नाम एकत्रिंशोऽध्यायः। ३१।


📚
अनसूया प्रजापति कर्दम और देवहूति की नौ(9) कन्याओं में से एक तथा अत्रि मुनि की पत्नी थीं।  जबकि अत्रि ऋषि की भद्रा नामकी पत्नी घृताची अप्सरा में उत्पन्न भद्राश्व की पुत्री थी।

अनुसूयाऔर भद्रा दोनों अलग अलग महिलाओ
हैं। दोनों के माता पिता भी अलग अलग हैं।
और दोनो से सोम(चन्द्रमा) का उत्पन्न होना प्रक्षेप के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

क्योंकि दो महिलाओं से एक ही व्यक्ति का उत्पन्न होना शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरीत है।

पुराणों में कालान्तर में कुछ बातें इन पुराणों को का पूर्ण अध्ययन किए विना जोड़ी और तोड़ी गयीं। पुराण लिखने वाला कोई अन्य पुरुष था और इन्हें प्रकाशित कराने वाला कोई ओर -
सोम (चन्द्रमा की उत्पत्ति स्वराट् विष्णु के मन अथवा हृदय से उत्पन्न होने का सन्दर्भ वैदिक है।
जबकि बाद में अत्रि ऋषि से उत्पन्न करने का प्रकरण नकली है। पुराणों में अत्रि ऋषि से चन्द्रमा के उत्पन्न होने का प्रकरण भिन्न भिन्न तरीके से है । जो की विना सिद्धान्त के जोड़ना ही है।

अग्नि पुराण में कहा गया है कि
विष्णु की नाभि कमल से ब्रह्मा, हुए और ब्रह्मा से अत्रि, अत्रि से सोम हुआ उत्पन्न हुआ 
(अग्नि-पुराण ,अध्याय 12)।
अनुवाद:-
अत्रि और  अनसूया से, सोम, दुर्वासा और दत्तात्रेय योगी का जन्म हुआ । 
(अग्नि पुराण, अध्याय 20)

सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात् ।
 जातस्यासीत् सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः॥२॥
 
भागवत पुराण में सोम अत्रि ऋषि के नेत्रों से उत्पन्न कर दिया है।

तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल।
 विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥३॥
(भागवत पुराण 9/14/2-3)
अनुवाद:-
अनसूया  - वह पत्नी अत्रि की हैं। अत्रि के आंसुओं से वह गर्भवती हो गईं और उनके सोम, दुर्वासा और दत्तात्रेय नामक तीन पुत्र हुए। ( भागवत पुराण 9.14.3 देखें )


 "अत्रेरनसूयाप्यजीजनत्।
सोमं दुर्वाससं पुत्रं दत्तात्रेयञ्च योगिनम् ।। १२ ।।
अनुवाद:- अत्रि से अनुसूया में सोम दुर्वासा, और दत्तात्रेय का जन्म हुआ।१२।
(अग्निपुराण- अध्याय- 20)

___________  

वसिष्ठ उवाच
अथ कृष्णोऽप्यनुज्ञाप्य शिवं च नगनन्दिनीम् ।
गोलोकं प्रययौ युक्तः श्रीदाम्ना चापि राधया ॥ २,४३.२९ ॥

अथ रामोऽपि धर्मात्मा भवानीं च भवं तथा ।
संपूज्य चाभिवाद्याथ प्रदक्षिणमुपा क्रमीत् ॥ २,४३.३० ॥

गणेशं कार्त्तिकेयं च नत्वापृच्छ्य च भूपते ।
अकृतव्रणसंयुक्तो निश्चक्राम गृहान्तरात् ॥ २,४३.३१ ॥

निष्क्रम्यमाणो रामस्तु नन्दीश्वरमुखैर्गणैः ।
नमस्कृतो ययौ राजन्स्वगृहं परया मुदा ॥ २,४३.३२ ॥

इति श्री ब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमाभागे तृतीय
उपोद्धातपादे भार्गवचरिते त्रिचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ४३॥
📚: 



रक्षणाय च संसादेर्भीतेनैव हि गोकुले।
रामकृष्णौ चेरतुस्तौ गोभिर्गोपालकैः सह ।। १५ ।।

सर्वस्य जगतः पालौ गोपालौ तौ बभूवतुः।
कृष्णश्चोलूखले बद्धो दाम्ना व्यग्रयशोदया । १६ ।।

यमलार्जुनमध्येऽगाद् भग्नौ च यमलार्जुनौ।
परिवृत्तश्च शकटः पादक्षेपात् स्तनार्थिना ।। १७ ।।

पूतना स्तनपानेन सा हता हन्तुमुद्यता।
वृन्दावनगतः कृष्णः कालियं यमुनाह्रदात् ।१८ ।।

जित्वा निः सार्य चाब्धिस्थञ्चकार बलसंस्तुतः।
क्षेमं तालवनं चक्रे हत्वा धेनुकगर्द्दभम् ।। १९ ।।

अरिष्टवृषभं हत्वा केशिनं हयरूपिणम्।
शक्रोत्सवं परित्यज्य कारितो गोत्रयज्ञकः ।२० ।।

पर्वतं घारयित्वा च शक्राद् वृप्टिर्निवारिता।
नमस्कृतो महेन्द्रेण गोविन्दोऽथार्जुनोर्पितः ।२१।

इन्द्रोत्सवस्तु तुष्टेन भूयः कृष्णेन कारितः।
रथस्थो मथुराञ्चागात् कंसोक्ताक्रूरसंस्तुतः ।२२।
  अग्निपुराण-अध्याय- 12


आत्रेयवंशप्रभवा स्तासां भर्ता प्रभाकरः।।
स्वर्भानुपिहिते सूर्ये पतितेस्मिन्दिवो महीम्।। ६३.७१ ।।

तमोऽभिभूते लोकेस्मिन्प्रभा येन प्रवर्तिता।।
स्वस्त्यस्तु हि तवेत्युक्ते पतन्निह दिवाकरः।। ६३.७२ ।।

ब्रह्मर्षेर्वचनात्तस्य पपात न विभुर्दिवः।।
ततः प्रभाकरेत्युक्तः प्रभुरत्रिर्महर्षिभिः।६३.७३।

भद्रायां जनयामास सोमं पुत्रं यशस्विनम्।।
स तासु जनयामास पुनः पुत्रांस्तपोधनः।६३.७४।

स्वस्त्यात्रेया इति ख्याता ऋषयो वेदपारगाः।।
तेषां द्वौ ख्यातयशसौ ब्रह्मिष्ठौ च महौजसौ।। ६३.७५ ।।

दत्तो ह्यत्रिवरो ज्येष्ठो दुर्वासास्तस्य चानुजः।।
यवीयसी स्वसा तेषाममला ब्रह्मवादिनी। ६३.७६।

तस्य गोत्रद्वये जाताश्चत्वारः प्रथिता भुवि।।
श्यावश्च प्रत्वसश्चैव ववल्गुश्चाथ गह्वरः।६३.७७ ।।

आत्रेयाणां च चत्वारः स्मृताः पक्षा महात्मनाम्।।
काश्यपो नारदश्चैव पर्वतानुद्धतस्तथा।। ६३.७८ ।।

श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे देवादिसृष्टिकथनं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः।। ६३।।


अत्रेर्वंशं प्रवक्ष्यामि तृतीयस्य प्रजापतेः।
तस्य पत्न्यश्च सुन्दर्यो दशैवासन्पतिव्रताः ।९.६७।

भद्राश्वस्य घृताच्यां वै दशाप्सरसि सूनवः।
भद्रा शूद्रा च मद्रा च शलदा मलदा तथा ।। ९.६८।

वेला खला च सप्तैता या च गोचपला स्मृता ।
तथा मानरसा चैव रत्नकृटा च ता दश ।। ९.६९ ।।

आत्रेयवंशकृत्तासां भर्त्ता नाम्ना प्रभाकरः।
भद्रायां जनयामास सोमं पुत्रं यशस्विनम् ।९.७०।

स्वर्भानुना हते सूर्ये पतमानो दिवो महीम्।
तमोऽभिभूते लोकेऽस्मिन् प्रभा येन प्रवर्त्तिता ।। ९.७१ ।।

स्वस्ति तेऽस्त्विति चोक्तः स पतन्निह दिवाकरः।
ब्रह्मर्षेर्वचनात्तस्य न पपात दिवो महीम् । ९.७२ ।

अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः ।
यज्ञेष्वत्रिघनश्चैव सुरैर्यश्च प्रवर्त्तितः ।। ९.७३ ।।

स तास्वजनयत् पुत्रानात्मतुल्याननामकान्।
दश तास्वेव महता तपसा भावितप्रभा । ९.७४ ।

स्वस्त्यात्रेया इति ख्याता ऋषयो वेदपारगाः ।
तेषां विख्यातयशसौ ब्रह्मिष्ठौ सुमहौजसौ ।९.७५।

दत्तात्रेयस्तस्य ज्येष्ठो दुर्वासास्तस्य चानुजः ।
यवीयसी सुता तस्या मबला ब्रह्मवादिनी।
अत्राप्युदाहरन्तीमं श्लोकं पौराणिकाः पुरा ।। ९.७६ ।।

अत्रेः पुत्रं महात्मानं शान्तात्मानमकल्मषम्।
दत्तात्रेयं तनुं विष्णोः पुराणज्ञाः प्रचक्षते ।९.७७।

तस्य गोत्रान्वये जाताश्चत्वारः प्रथिता भुवि।
श्यामाश्च मुद्गलाश्चैव बलारकगविष्ठिराः।
एते नृणान्तु चत्वारः स्मृताः पक्षा महौजसाम् ।। ९.७८ ।।

श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते ऋषिवंशानुकीर्त्तनं नाम नवमोऽध्यायः ।। ९ ।। *

भद्रा शूद्रा च मद्रा च शलदा तथा।
खलदा च ततो विप्रा नलदा सुरसापि च॥ १३.७ ॥

तथा गोचपला च स्त्रीरत्नकूटा च ता दश।
ऋषिर्जातोऽत्रिवंशे च तासां भर्त्ता प्रभाकरः॥ १३.८ ॥

भद्रायां जनयामास सुतं सोमं यशस्विनम्।
स्वर्भानुना हते सूर्य्ये पतमाने दिवो महीम्।१३.९ ॥

तमोऽभिभूते लोके च प्रभा येन प्रवर्त्तिता।
स्वस्ति तेऽस्त्विति चोक्त्वा वै पतमानो दिवाकरः॥ १३.१० ॥

वचनात्तस्य विप्रर्षेर्न पपात दिवो महीम्।
अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः॥ १३.११।

यज्ञेष्वत्रेर्बलञ्चैव देवैर्यस्य प्रतिष्ठितम्।
स तासु जनयामास पुत्रिकास्वात्मकामजान्॥ १३.१२ ॥

दश पुत्रान् महासत्त्वांस्तपस्युग्रे रतांस्तथा।
ते तु गोत्रकरा विप्रा ऋषयो वेदपारगाः॥१३.१३ ॥

सन्दर्भ:-ब्रह्मपुराण-अध्यायः(१३)

पद्मपुराण-भूमि खण्ड में  पार्वती ने पारिजात वृक्ष से भी प्राकृतिक रूपधारिका "विरजा" का आह्वान सांसारिक शोक निवारण करने वाली सबसे सुन्दर अशोक सुन्दरी नामक कन्या के रूप में किया ।

तब से यही विरजा अशोक सुन्दरी नाम से भी नामित पार्वती की भी पुत्री है।
अब पार्वती और शिव की पुत्री विरजा-(जो विना रज( पाप) - के उत्पन्न हुई  थी) का पति भी कोई साधारण देवता अथवा दैत्य कैसे हो सकता है? इस विरजा के पति तो स्वराट-विष्णु (कृष्ण) के अंशावतार नहुष ही हो सकते हैं।

क्योंकि पार्वती भी गोलोक में कृष्ण से उत्पन्न उन्हीं कृष्ण की एक आद्या सहचरी भी हैं।

"अंशांशकांशकलयाभिरुताभिराम-
मावेशपूर्णनिचयाभिरतीव युक्तः।
विश्वं बिभर्षि रसरासमलंकरोषि
"वृन्दावनं च परिपूर्णतमः स्वयं त्वम् ॥२४॥
सन्दर्भ:-
(गर्गसंहिता वृन्‍दावनखण्ड- अध्याय- 25/ 21-26।
अनुवाद:-
वास्तव में हे कृष्ण! आप परात्पर परमात्मा ही हैं। अंशांश, अंश, कला, आवेश तथा पूर्ण-समस्त अवतारसमूहों से संयुक्त हो, आप स्वयं परिपूर्णतम परमेश्वर सम्पूर्ण विश्व की रक्षा करते हैं तथा वृन्दावन में सरस रासमण्‍डल को भी अलंकृत करते हैं।
___________________________________
                 'श्रीनारद उवाच -
"इत्थं ते मातृशापेन धरणीं वै समागताः ।
प्रियव्रतरथांगानां परिखासु समास्थिताः॥२३॥

"लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलार्णवाः ।
बभूवुः सप्त ते राजन्नक्षोभ्याश्च दुरत्ययाः॥२४॥

"दुर्विगाह्याश्च गम्भीरा आयामं लक्षयोजनात् ।
द्विगुणं द्विगुणं जातं द्वीपे द्वीपे पृथक् पृथक॥२५॥

"अथ पुत्रेषु यातेषु पुत्रस्नेहातिविह्वला ।
स्वप्रियां तां विरहिणीमेत्य कृष्णो वरं ददौ ॥२६॥

"कदा न ते मे विच्छेदो मयि भीरु भविष्यति ।
स्वतेजसा स्वपुत्राणां सदा रक्षां करिष्यसि ॥२७।।
सन्दर्भ:-
(श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे षड्‌विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥ 
__________________________________
श्रीकृष्ण की गोलोक में तीन प्रसिद्ध पत्‍नी हैं राधा, विरजा और भूदेवी -गोलोक में स्वराट विष्णु ( कृष्ण) का विरजा के साथ विहार; श्रीराधा के भय से विरजा का नदी रूप में परिवर्तित ( बदलना हुआ)  होना, उसके कृष्ण से उत्पन्न सात पुत्रों का उसी के शाप से सात समुद्रों का अधिष्ठात्री  होने का प्रसंग गर्गसंहिता के वृन्दावन खण्ड के (26) वें अध्याय में है। देखें निम्नलिखित प्रसंग-

श्री नारद जी बोले- महामते नरेश ! यह पूर्वकाल में घटित गोलोक का वृत्तांत है, जिसे मैंने भगवान नारायण के मुख से सुना था।
यह सर्वपापहारी पुण्य-प्रसंग तुम मुझसे सुनो। 

श्रीहरि के तीन पत्नियाँ हुई- श्रीराधा, विजया (विरजा) और भूदेवी। 

इन तीनों में महात्मा श्रीकृष्ण को श्रीराधा ही अधिक प्रिय हैं। राजन! एक दिन भगवान श्रीकृष्ण एकांत कुंज में कोटि चन्द्रमाओं की-सी कांति वाली तथा श्रीराधिका-सदृश सुन्दरी विरजा के साथ विहार कर रहे थे।

सखी के मुख से यह सुनकर कि श्रीकृष्ण मेरी सौत के साथ हैं, श्रीराधा मन-ही-मन अत्यंत खिन्न हो उठी। सपत्नी के सौख्य से उनको दु:ख हुआ, 
तब भगवान-प्रिया श्रीराधा सौ योजन विस्तृत, सौ योजन ऊँचे और करोड़ों अश्विनियों से जुते सूर्य तुल्य कांतिमान रथ पर-जो करोड़ों पताकाओं और सुवर्ण-कलशों से मण्डित था तथा जिसमें विचित्र रंग के रत्नों, सुवर्ण और मोतियों की लड़ियाँ लटक रही थीं-आरूढ़ हो, दस अरब वेत्रधारिणी सखियों के साथ तत्काल श्रीहरि को देखने के लिये गयीं।
उस निकुंज के द्वार पर श्रीहरि के द्वारा नियुक्त महाबली श्रीदामा पहरा दे रहा था। उसे देखकर श्रीराधा ने बहुत फटकारा और सखीजनों द्वारा बेंत से पिटवाकर सहसा कुंजद्वार के भीतर जाने को उद्यत हुईं। सखियों का कोलाहल सुनकर श्रीहरि वहाँ से अंतर्धान हो गये ।

श्रीराधा के भय से विरजा सहसा नदी के रूप में परिणत हो, कोटियोजन विस्तृत गोलोक में उसके चारों ओर प्रवाहित होने लगीं। जैसे समुद्र इस भूतल को घेरे हुए है, उसी प्रकार विरजा नदी सहसा गोलोक को अपने घेरे में लेकर बहने लगीं। 

रत्नमय पुष्पों से विचित्र अंगों वाली वह नदी विविध प्रकार के फूलों की छाप से अंकित उष्णीष वस्त्र की भाँति शोभा पाने लगीं- ‘श्रीहरि चले गये और विरजा नदी रूप में परिणत हो गयी’- यह देख श्रीराधिका अपने कुंज को लौट गयीं। नृपेश्वर !

"तदनन्तर नदी रूप में परिणत हुई विरजा को श्रीकृष्ण ने शीघ्र ही अपने वर के प्रभाव से मूर्तिमती एवं विमल वस्त्राभूषणों से विभूषित दिव्य नारी बना दिया।

 इसके बाद वे विरजा-तटवर्ती वन में वृन्दावन के निकुंज में विरजा के साथ स्वयं रास करने लगे। 


सन्दर्भ:-
गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 26

पितृ-वंश

दिव्य पितरों के सात देवताओं में से प्रत्येक की एक मानसी कन्या थी। हिमवत पर्वतराज की पत्नी मैना, वायु की बेटी थी । अच्छोदा , नदी अग्निश्वता की बेटी थी। ऋषि शुक की पत्नी पिवारी बर्हिषद की बेटी थी । नामकरण , नदी सोमापा की बेटी थी। यशोदा हविश्मन की बेटी, विश्वमहंत की पत्नी और दिलीप की माँ थीं। विराजा, राजा नहुष की पत्नी अज्यप की बेटी थी और गो या एकश्रृंगा , ऋषि शुक्र की पत्नी मनसा की बेटी थी । 

  1. अज्यप पितर इसी तरह पश्चिमी क्षेत्र की रक्षा करें),
पितर (पितृ).—पितर देवताओं का एक समूह हैं।ब्रह्मा के पुत्र मनुप्रजापति से मरीचि जैसे सप्तर्षि उत्पन्न हुए और उन्होंने पितरों की रचना की।मारीचि और उनके समूह के अलावा 

विराट पुरुष और ब्रह्मा जैसे कई अन्य लोगों ने पितरों की रचना की है। 
कुछ पुराणों में कहा गया है कि पितृ दैनिक सृजन के होते हैं। प्रारंभ में ब्रह्मा ने आकार वाले पितरों के तीन और तेज वाले चार समूह बनाए, इस प्रकार सात समूह बनाए। शरीरधारी पितरों के तीन समूह अग्निष्वत, बर्हिषद और सोमपास हैं।

 और चार उज्ज्वल पितर यम, अनल, सोम और आर्यमान हैं ।
देखें दसवां स्कन्ध, देवी भागवत पुराण)।

सोमपा ब्राह्मणों के पितर हैं।
हविष्मत क्षत्रियों के पितर हैं।
अज्यप  (गोपालन और कृषि-वृति वाले) गोपों  के पितर हैं।
और सुकालीन शूद्रों के पितर हैं।

मनुस्मृति चारों वर्णों में से प्रत्येक के पूर्वजों की वंशावली का भी वर्णन करती है। इसे कहते हैं,

सोमपा नाम विप्राणां क्षत्रियाणां हविर्भुजः। वैश्याणां अज्यपा नाम शूद्राणां तु सुकालिनाः || 3.197 ||

सोमपास्तु कवेः पुत्रा हविषमन्तोऽङगिरहसुताः।पुलस्त्यस्याज्यपाः पुत्रा वसिष्ठस्य सुकालिनाः || 3.198 ||

सोमपा नाम विप्रणाम क्षत्रियानाम हविर्भुज:। वैश्यानाम अज्यपा नाम शुद्राणाम तु सुकालिनाः।3.197 |

सोमपस्तु कवेः पुत्रा हविष्मन्तोङ्गिरःसुताः।पुलस्त्यस्यज्यपः पुत्र वसिष्ठस्य सुकालिनाः || 3.198 ||

अर्थ: सोमप ब्राह्मणों के, हविर्भुज क्षत्रियों के, अज्यप वैश्यों के और सुकलिन शूद्रों के पूर्वज हैं।

 सोमप भृगु के पुत्र हैं, हविष्मंत अंगिरा की संतान हैं, अज्यप पुलस्त्य की संतान हैं और सुकलिन वशिष्ठ की संतान हैं (मनुस्मृति 3.197 )और 3.198)। इसमें आगे कहा गया है कि अग्निदग्धा, अनग्निदग्धा, काव्य, बर्हिषद, अग्निश्वत्त और सौम्य, ब्राह्मणों के पूर्वज हैं (मनुस्मृति 3.199) और, ये पूर्वजों के कुछ कुल हैं और उनमें मौजूद हैं इस संसार में इन पूर्वजों के अनगिनत पुत्र और पौत्र हैं। (मनुस्मृति 3.200)।

परन्तु अज्यप ऋषि विराट परुष से उत्पन्न हैं। इन्हें  पुलस्त्य के पुत्र रूप में स्वीकार किया ़।

नहुष (नहुष)।—आयु (स्वर्भानु) और प्रभा के पांच पुत्रों में से प्रथम; अज्यप पितरों की मानस पुत्री विराजा से विवाह; उनके छह  मत्स्य-पुराण के अनुसार-) गोलोक में कृष्ण से उत्पन्न ये वही सात पुत्र नहुष के हैं। जिसमें यति सबसे बड़ा था। किन्हीं पुराणों में नहुष के पाँच पुत्र तो किसी में छ: और किसी पुराण में सातवाँ पुत्र  ध्रुव बताया है।

विरजा ने अपने सबसे छोटे पुत्र को पहले शाप दिया था  अत: छ: पुत्रों के बहुत बाद में सातवें पुत्र ने भी विरजा से पुन: नहुष के पुत्रों के रूप में जन्म लिया।

वृन्दावन खण्ड : अध्याय 26

सती विरजा पुत्र को आश्वासन दे उसे दुलारने लगी। उस समय साक्षात भगवान वहाँ से अंतर्धान हो गये। 

तब श्रीकृष्ण के विरह से व्याकुल हो, रोष से अपने उस छोटे  पुत्र को विरजा ने शाप देते हुए  कहा- ‘दुर्बुद्धे ! तू श्रीकृष्ण से वियोग कराने वाला है, अत: जल हो जा; तेरा जल मनुष्य कभी न पीयें।’ 

फिर उसने बड़ों को शाप देते हुए कहा-‘तुम सब-के-सब झगड़ालू हो; अत: पृथ्वी पर जाओ।

भाग 2.2 - शिव के विभिन्न नाम को अन्तर्गत एक नाम "अज्यप" भी है।मत्स्यपुराण के 47 वें अध्याय में शिव के अनेक नामों की स्तुति करते हुए शुक्राचार्य उनको अज्यप कहते हैं।

शुक्राचार्य ने शिव के विभिन्न वास्तुशिल्पियों और विशिष्टताओं का उल्लेख करते हुए उनको अज्यप" और आज्यप" नाम से भी  स्तुति की । 

                  "शुक्र उवाच'
गिरिशाय नमोऽर्काय बलिने आज्यपाय च ।
सुतृप्ताय सुवस्त्राय धन्विने भार्गवाय च ।132 ।

सोमपाय, अज्यपाय एव धूमपायोष्मपाय च ।
शुचये परिधानाय सद्योजाताय मृत्यवे ।145 ।

अनुवाद :-
शुक्राचार्यने कहा— जब शिव की स्तुति करते हैं तब वे उन्हें आज्यप और अज्यप कहकर सम्बोधित करते हैं।
अज्यप- का अर्थ  अजा के दूध से निर्मित घी आदि पीने वाला- अथवा एक विशिष्ट पितरस्वरूप है।
सन्दर्भ:-
इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽसुरशापो नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ।47।


"अध्याय- 80 -ययाति के कहने से जब यदु ने अपनी दौंनो माताओं (देवयानी- और शर्मिष्ठा) को मारने से मना कर दिया तब ययाति ने यदु को शाप दिया ।

 'ययाति का यदु को  देवयानी और शर्मिष्ठा को मारने का आदेश देना ,परन्तु यदु द्वारा ऐसा न करने  पर ययाति द्वारा यदु को शाप देने का प्रकरण" 


              "यदुवंश का विवरण 
                  पिप्पल ने कहा :

1-2. हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा (ययाति ) ने कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती से विवाह कर लिया, तो उनकी दो पूर्व, पत्नियों, देवयानी और वृषपर्वन् की पुत्री शर्मिष्ठा ने क्या किया ? दोनों का सारा वृत्तान्त बताओ।

सुकर्मन ने कहा :

3-9. जब वह राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गया, तो वह उच्च विचार वाली देवयानी (उसके साथ) बहुत प्रतिद्वन्द्विता करने लगी।"इस कारण  उस ययाति  ने क्रोध के वशीभूत व्याकुल-मन  होकर अपने देवयानी से उत्पन्न दोनों पुत्रों  यदु और तुरुवसु को शाप दे दिया " मनस्विनी देवयानी ने  शर्मिष्ठा को बुलवाकर अपने साथ घटित सब बाते बतायीं । रूप (सुन्दरता),तेज ,और  दान  के द्वारा देवयानी और शर्मिष्ठा अश्रुबिन्दुमती के साथ और अधिक   प्रतिस्पर्धा करने लगीं। तब काम देव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती को उनकी दुष्टता पूर्ण भावना का पता चला। तभी उस अश्रुबिन्दुमती  ने राजा ययाति को सारी बात बता दी, हे तब क्रोधित होकर  राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी  अपनी माता (देवयानी) को मार डालो । 

हे पुत्र, यदि तुम इसे श्रेयकर मानते हो  तो मेरा यह प्रिय कार्य करो। ” अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने  पिता से कहा, हे  राजाओं के स्वामी, :

9-14. “हे सम्माननीय पिता, मैं अपराधबोध से मुक्त निर्दोष  इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है। 

इसलिए, हे  राजा, मैं इन दोनों माताओं को नहीं मारुँगा। हे  राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर अनेकों दोष लगें, तो भी उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए।

******

हे पिता जी ! यह जानकर, मैं (इन) दोनों माताओं को कभी नहीं मारूंगा। उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये।

पृथ्वी के स्वामी ययाति ने तब अपने पुत्र को शाप दिया: और कहा "चूंकि तुमने (मेरे) आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश को प्राप्त करो "।

"भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के पृष्ठों में नारी जाति को सबसे अधिक सम्मान , स्वतन्त्रता और उनके यथार्थ गुण 'सहनशीलता और करुणा आदि का गुणगान करने वाले यादवों के आदि- पूर्वज यदु ही थे" 

******************

15-19. अपने पुत्र यदु से इस प्रकार बात करते हुए, पृथ्वी के स्वामी, ययाति, महान प्रतापी राजा, ने अपने पुत्र  यदु को शाप दे दिया, और पूरी तरह से विष्णु के प्रति समर्पित न होकर , कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के  साथ सुख भोगा।

विशेष:- कामवासना मनुष्य को भक्ति और साधना के पथ से भ्रष्ट कर देती है।

आकर्षक नेत्रों वाली और सभी अंगों में सुंदर अश्रुबिन्दुमती ने उसके साथ अपनी इच्छानुसार सभी सुंदर भोगों का आनन्द लिया। 

इस प्रकार उस श्रेष्ठ ययाति ने अपना समय व्यतीत किया। अन्य सभी विषय बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के भोगे थे; राजा के अतिरिक्त उस समय सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान में समर्पित थे।

हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से  संसार की और अपनी भलाई की।

__________

ययाति की तृतीय पत्नी अश्रुबिन्दुमती का  प्राचीन प्रकरण भारतीय पौराणक कोश लक्ष्मीनारायणी संहिता में भी विद्यमान है।

बिन्दुमती रतिपुत्री चाऽप्सरोगणमध्यगा ।
राजपत्नी हि राजानं मोहे चिक्षेप सर्वदा ।।५६।।

कामभोगैश्च वार्धक्यं ह्यवाप नृप एव सः ।
सतृष्णस्याऽन्तिकाद् बिन्दुमती चाऽदृश्यतां ययौ।५७।

राजा शोकं चकाराऽस्याः कृते चापि दिवानिशम् ।
अथ सा ददृशे रात्रौ राजानं प्रति भावुकी ।।५८।।

वृद्धस्त्वं दृश्यसे राजन् नैव योग्योऽसि मत्कृते ।
यौवनं प्राप्य वर्तेथास्त्वां सेविष्ये तदा नृप ।।५९।।

राजा कामातुरः पुत्रानाहूय वाक्यमाह तत् ।
तुरुं यदुं कुरुं पुरुं स्पष्टमाह नृपस्तदा ।।3.73.६०।।

एकोऽपि गृह्यतां पुत्रा जरा मेऽशक्तिकारिणी ।
धीरो भूत्वा ततो नैजं तारुण्यं मम दीयताम् ।६१।

मानसं मेऽतिसन्तप्तं स्त्र्यासक्तं बहुचञ्चलम् ।
जरायाश्चोपग्रहणं करिष्यति सुतस्तु यः ।।६२।।

स भुनक्ति तु मे राज्यं भुवं सन्धारयिष्यति ।
विपुला सन्ततिस्तस्य यशः कीर्तिर्भविष्यति ।।६३।।

श्रुत्वा पुत्रास्तमूचुर्वै भवान् धर्मपरो नृप ।
कस्मात्ते चाऽप्सरोयोगादीदृशी भावनाऽधमा ।।६४।।

ययातिः प्राह मोहान्मे भावना चेदृशी सुताः ।
अवश्यंभाविनो भावा भवन्ति प्रकृतेर्वशाः ।।६५।।


अथ बिन्दुमती प्राह शृणु त्वद्दूषणं नृप ।
शर्मिष्ठा देवयानी च तव भार्ये ह्युभे ह्यपि ।।९६।।

अन्याश्च राजकन्यास्ते भार्याशतं भवत्यपि ।
सापत्नकेन भावेन भवान् भर्ता प्रतिष्ठितः ।।९७।।

ससर्पोऽसि महाराज चन्दनस्य द्रुमो यथा ।
वरमग्निप्रवेशं च शिखरात्पतनं वरम् ।।९८।।

तं वरं नैव पश्यामि सपत्नीविषसंयुतम् ।
अहं राजन् प्रभोक्त्री स्यां तव कायस्य भूपते ।९९।

इत्यर्थे प्रत्ययं देहि मम वै स्वकरे नृप ।
यत्र क्वापि निवासेन नाऽत्र सपत्निकागृहे । 3.73.१००।

राजा ददौ प्रत्ययं च ततो वनादिषु स्वयम् ।
ययौ सार्धं बिन्दुमत्या पर्वतेषु दिगन्तरे ।। १०१ ।।

वै विंशतिसहस्राणि वर्षाण्यस्य गतानि हि ।
अथाऽप्सरोऽभवद् गर्भवती चैच्छद् दिवं प्रति।१ ०२।

गन्तुमिन्द्रगृहं कामगृहं पितुर्निवेशनम् ।
राजानं चापि नेतुं सा महाग्रहं चकार ह । १०३ ।

देवानां दर्शनं राजन् करिष्यसि दिवं व्रज ।
इत्युक्तः स तु राजर्षिः शुशोच वै क्षणं हृदि ।१०४।

स्वर्गं गत्वा च तत्रैव बिन्दुमतीं रतिगृहे ।
निधाय वैष्णवैः साकं विष्णुना चाऽनुमोदितः। 3.73.११०।

ययातिः प्रययौ विष्णोर्वैकुण्ठं वैष्णवैः सह ।
ब्रह्मलोकं ययुः सर्वे पूजिताश्चाऽमरादिभिः ।१११।

एवं भक्तिप्रभावोऽस्ति लक्ष्मि निर्बन्धकृत् सदा ।
अहं नयामि वैकुण्ठं गोलोकं चाऽक्षरं परम् ।१ १२।

यौवनप्रप्तिश्चान्ते वैकुण्ठगमन चेत्यादिभक्तिप्रभाववर्णननामा त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।७३।

यौवनप्रप्तिश्चान्ते वैकुण्ठगमन चेत्यादिभक्तिप्रभाववर्णननामा त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३।



 "पद्म-पुराण सृष्टिखण्ड के अन्तर्गत यदु की वंशावली-  

पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-80)

"कामकन्यां यदा राजा उपयेमे द्विजोत्तम।
किं चक्राते तदा ते द्वे पूर्वभार्ये सुपुण्यके।१।

"अनुवाद- जब राजा ययाति नें कामदेव की पुत्री के साथ विवाह कर लिया; तब राजा की पहले वाली दोनों पत्नियों ने क्या किया।१।

देवयानी महाभागा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
तयोश्चरित्रं तत्सर्वं कथयस्व ममाग्रतः।२।

"अनुवाद- महाभागा देवयानी और शर्मिष्ठा उन  दोंनो का सब आचरण ( कर्म) मेरे समक्ष कहो।२।

               "सुकर्मोवाच-
यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा ।
अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।३।

"अनुवाद- सुकर्मा ने कहा :- महाराज ययाति जब कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती को  अपने घर लाये तो मनस्विनी देवयानी ने उस अश्रुबिन्दुमती के साथ अत्यधिक स्पर्धा ( होड़) की।३।

तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।४।

"अनुवाद- इस कारण से राजा ययाति नें क्रोध से व्याकुल मन होकर देवयानी से उत्पन्न अपने दोनों  यदु और तुर्वसु नामक पुत्रों को शाप दे दिया। तब शर्मिष्ठा को बुलाकर यशस्विनी देवयानी नें राजा द्वारा दिए गये शाप की सब बातें कहीं।४।

रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।

"अनुवाद- रूप तेज दान सत्यता , और पुण्य के द्वारा शर्मिष्ठा और देवयानी दोंनो ने उस ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती के साथ स्पर्धा( होड़ )की।५।

दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।

"अनुवाद-   तब कामदेव की पुत्री राजा की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती ने देवयानी और शर्मिष्ठा का वह स्पर्धा वाला दूषितभाव जान लिया और राजा ययाति को सब उसी समय बता दिया।६।

****
अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।७।

"अनुवाद-  उसके बाद राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बुलाकर कहा। हे यदु तुम जाकर शर्मिष्ठा और देवयानी दोंनो को मार दो।७।

सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा ।८।

"अनुवाद-  हे वत्स !  मेरा यह प्रिय कार्य करो यदि तुम इसे सही मानते हो तो, यदु ने इस प्रकार ययाति की ये बातें सुनकर  ।८।

प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।९।

"अनुवाद- राजा ययाति उस अपने पिता को उत्तर दिया , हे माननीय पिता जी मैं इन दोंनो निर्दोष  माता ओं का बध नहीं करुँगा।९।

मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।१०।

"अनुवाद- वेद के जानने वाले विद्वानों ने माता को मारने का महापाप बताया है। हे महाराज  इस लिए मैं इन दोंनो मीताओं का बध नहीं करुँगा।१०।

दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत् ।
भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।११।

"अनुवाद- माता ,बहिन और पुत्री यदि हजारों दोषों से युक्त हो तो भी हे महाराज!।११।

पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।१२।

"अनुवाद-  वह पुत्र भाई तथा पिता आदि के द्वारा कभी भी वध करने योग्य नहीं है। इस प्रकार यह सब जानकर मैं अपनी इन दोंनो माताओं का वध नहीं कर सकता हूँ।

यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह ।
शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।१३।

"अनुवाद- यदु की यह बात सुनकर राजा क्रोधित होगया। और इसके बाद ययाति ने यदु को शाप दे दिया।१३।

यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि ।
मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः।१४।

"अनुवाद- तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है। इस कारण तुम पापी हो इस लिए मेरे शाप के कारण पापी बने हुए तुम अपनी माता के अँश को ही प्राप्त करो।१४।

एवमुक्त्वा यदुं पुत्रं ययातिः पृथिवीपतिः ।
पुत्रं शप्त्वा महाराजस्तया सार्द्धं महायशाः।१५।

"अनुवाद-  इस प्रकार कह कर पृथ्वीपति ययाति पुत्र यदु को शाप देकर अपनी तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती के साथ वहाँ से चले गये।१५।

रमते सुखभोगेन विष्णोर्ध्याने न तत्परः ।
अश्रुबिन्दुमतीसा च तेन सार्द्धं सुलोचना।१६।

अनुवाद-  सुन्दर नेत्रों वाली अश्रुबिन्दुमती के साथ सुखभोग के द्वारा आनन्दित होने पर राजा भगवान विष्णु के ध्यान में भी तत्पर नहीं रह सके।१६।

बुभुजे चारुसर्वांगी पुण्यान्भोगान्मनोनुगान् ।
एवं कालो गतस्तस्य ययातेस्तु महात्मनः।१७।

अनुवाद-  सर्वांग सुन्दरी अश्रुबिन्दुमती ने मन के अनुकूल सभी पुण्यमयी -भोगों का भोग करती  ,इस तरह महान आत्मा राजा ययाति का बहुत समय व्यतीत हुआ।१७।

अक्षया निर्जराः सर्वा अपरास्तु प्रजास्तथा ।
सर्वे लोका महाभाग विष्णुध्यानपरायणाः।१८।

अनुवाद-  विनाश और बुढापे से रहित उनकी अन्य प्रजाऐं आदि सभी लोग भगवान विष्ण के ध्यान में लगे रहते थे।१८।

तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पल ।
सर्वे लोका महाभाग सुखिनः साधुसेवकाः।१९।

सुकर्मा ने कहा- हे महाभाग पिप्पल! तपस्या ,सत्य भाव तथा भगवान विष्णु के ध्यान में लगे सभी लोग सुखी तथा साधु जनों के सेवक थे।१९।

सन्दर्भ:-




यदु के उनकी तपस्विनी पत्नी यजनशीला  यज्ञवती में  चार पुत्र  हुए जो बड़े प्रसिद्ध थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु। पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय-(13) में  यदु के पाँच पुत्र भी बताये गये हैं।

"यदोर्यज्ञवत्यां  बभूवुश्च पञ्च देवसुतोपमाः पुत्रा ।।९८।।
सहस्रजित्तथा ज्येष्ठः क्रोष्टा नीलोञ्जिको रघुः।
सहस्रजितो दायादः शतजिन्नाम पार्थिवः।।९९।।
अनुवाद:-अनुवाद:-यदु के देवों के समान पाँच पुत्र उत्पन्न हुए।98।
सबसे बड़े थे सहस्रजित , फिर क्रोष्ट्रा , नील , अंजिका और रघु ।99।
 
 राजा सहस्रजीत का पुत्र शतजित था।
 और शतजित के तीन पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। हैहय का धर्म, धर्म का नेत्र, नेत्र का कुन्ति, कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ।

"यदोः पुत्रा बभूवुर्हि पञ्च देवसुतोपमाः। सहस्रजिदथ श्रेष्ठः क्रोष्टुर्नीलो जितो लघुः।१।

यदोः पुत्रा बभूवुर्हि पञ्च देवसुतोपमाः । सहस्रजिदथ श्रेष्ठः क्रोष्टुर्नीलोञ्जिको ।२।.

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद:-

भद्रसेन के दो पुत्र थे- दुर्मद और धनक। धनक के चार पुत्र हुए- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा और कृतौजा। 

कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट् था। उसने भगवान् के अंशावतार श्रीदत्तात्रेय जी से योग विद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट् यज्ञ, दान, तपस्या, योग शस्त्रज्ञान, पराक्रम और विजय आदि गुणों में कृतवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा। 

सहस्रबाहु अर्जुन पचासी हजार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा। उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है, उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था। उसके हजार पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे - जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊर्जित।

जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे ‘तालजंघ’ नामक क्षत्रिय कहलाये।  उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ।

 मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि।*****(१-मधु पुत्र वृष्णि)

 परीक्षित ! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

यदुनन्दन क्रोष्टु के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु।

शशबिन्दु सम्राट- वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था।

परम यशस्वी शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। 

उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे।

उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो।

पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। 

एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली- ‘कपटी! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो ?’ ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्या ने मुसकराकर अपने पति से कहा- ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है।

फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ। 

उसी ने शैव्या( चेैत्रा) की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।

 "भागवत-पुराण नवम स्कन्ध के अन्तर्गत यदु की वंशावली-  

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद:-
विदर्भ के वंश का वर्णन:-
विदर्भ की भोज्या नामक पत्नी से तीन पुत्र हुए- कुश, क्रथ और रोमपाद।

रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए। रोमपाद का पुत्र बभ्रु, बभ्रु का कृति, कृति का उशिक और उशिक का चेदि।
क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह और दशार्ह का व्योम। व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ।

दशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश और कुरुवश से अनु हुए। 

अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु से सात्वत का जन्म हुआ।

सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए-


निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।

देवावृध के पुत्र का नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रु के सम्बन्ध में यह बात कही जाती है- ‘

सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए।

सात्वत के वंश में  वृष्णि के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित्। युधाजित् के शिनि और अनमित्र-ये दो पुत्र थे।
********
अनमित्र से निम्न का जन्म हुआ। सत्रजित् और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी निम्न के ही पुत्र थे। अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि। शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ। इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए। सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ।

अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम वृष्णि था।*****‡‡‡ 
वृष्णि के दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनी। 

उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए- आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु।

इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा। अक्रूर के दो पुत्र थे- देववान् और उपदेव। श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु, विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए-जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं।

सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। 

उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ।

तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः -
उग्रसेन के नौ पुत्र थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान। उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं- कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका। 

इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था।

अंधकानामिमं वंशं यः कीर्तयति नित्यशः
आत्मनो विपुलं वंशं प्रजामाप्नोत्ययं ततः।६९।
69. जो व्यक्ति प्रतिदिन अंधकों के इस परिवार की महिमा करता था , फलस्वरूप उसका परिवार और संतान बहुत समृद्ध हो जाती हैं।
____________
सात्वतों में वृष्णिवंश का विस्तार★
गांधारी चैव माद्री च क्रोष्टोर्भार्ये बभूवतुः
गांधारी जनयामास सुनित्रं मित्रवत्सलम्।७०।
70-. क्रोष्ट्र की दो पत्नियाँ थीं: गांधारी और माद्री थी । गांधारी ने अपने मित्रों से स्नेह करने वाली सुनित्र को जन्म दिया; 
_____________________________
माद्रीं युधाजितं पुत्रं ततो वै देवमीढुषं
अनमित्रं शिनिं चैव पंचात्र कृतलक्षणाः।७१।
71-माद्री ने एक पुत्र युधाजित (नाम से), फिर देवमीढुष , (फिर) अनामित्र और शिनि को जन्म दिया । इन पांचों के शरीर पर शुभ चिन्ह थे।

अनमित्रसुतो निघ्नो निघ्नस्यापि च द्वौ सुतौ
प्रसेनश्च महावीर्यः शक्तिसेनश्च तावुभौ।७२।
72.  अनामित्र का पुत्र निघ्न था; निघ्न के दो बेटे थे:  प्रसेन और बहुत बहादुर शक्तिसेन थे ।
________________
स्यमंतकं प्रसेनस्य मणिरत्नमनुत्तमं
पृथिव्यां मणिरत्नानां राजेति समुदाहृतम्।७३।
73. प्रसेन के पास ' स्यामंतक ' नाम की सर्वोत्तम और अद्वितीय मणि थी । इसे 'दुनिया के सर्वश्रेष्ठ रत्नों का राजा' के रूप में वर्णित किया गया था।

सर्वे च प्रतिहर्तारो रत्नानां जज्ञिरे च ते।
अक्रूराच्छूरसेनायां सुतौ द्वौ कुलनन्दनौ।१०३।

103-अक्रूर ने शूरसेना नामक पत्नी में  देवताओं के समान  दो पुत्र पैदा किए : 

देववानुपदेवश्च जज्ञाते देवसम्मतौ।
अश्विन्यां त्रिचतुः पुत्राः पृथुर्विपृथुरेव च।१०४।
देववान और उपदेव। अक्रूर से अश्विनी में  बारह पुत्र  :१-पृथु २-विपृथु , 

अश्वग्रीवो श्वबाहुश्च सुपार्श्वक गवेषणौ।
रिष्टनेमिः सुवर्चा च सुधर्मा मृदुरेव च।१०५।

अभूमिर्बहुभूमिश्च श्रविष्ठा श्रवणे स्त्रियौ।
इमां मिथ्याभिशप्तिं यो वेद कृष्णस्य बुद्धिमान्।१०६।
अनुवाद:-106-(११)-अभूमि और १२-बहुभूमि ; और दो बेटियाँ: श्रविष्ठा और श्रवणा  उत्पन्न किए।
-एक बुद्धिमान व्यक्ति, जो कृष्ण के इस मिथ्या आरोप के बारे में जान जाता है, उसे कभी भी  भविष्य में कोई मिथ्या श्राप नहीं लग सकता है।

न स मिथ्याभिशापेन अभिगम्यश्च केनचित्
एक्ष्वाकीं सुषुवे पुत्रं शूरमद्भुतमीढुषम्।१०७।।

किसी इक्ष्वाकी से मिथ्या शाप के प्राप्त होने पर एक शूर - मीढुष उत्पन्न हुआ। ****

मीढुषा जज्ञिरे शूरा भोजायां पुरुषा दश
वसुदेवो महाबाहुः पूर्वमानकदुंदुभिः।१०८।
108-.शूर मिढुष द्वारा भोजा नामक पत्नी में दस वीर पुत्र उत्पन्न हुए : पहले वासुदेव का जन्म हुए), जिनका नाम अनकदुन्दुभि भी था ; 

देवभागस्तथा जज्ञे तथा देवश्रवाः पुनः
अनावृष्टिं कुनिश्चैव नन्दिश्चैव सकृद्यशाः।१०९।
इसी प्रकार देवभाग भी उत्पन्न हुआ (मिधुष द्वारा); और देवश्रवस , अनावृष्टि, कुंती, और नंदी और सकृद्यशा, ।

श्यामः शमीकः सप्ताख्यः पंच चास्य वरांगनाः
श्रुतकीर्तिः पृथा चैव श्रुतदेवी श्रुतश्रवाः।११०।
श्यामा, शमीका (भी) जिन्हें सप्त के नाम से जाना जाता है। उनकी पाँच सुंदर पत्नियाँ थीं: श्रुतकीर्ति , पृथा , और श्रुतदेवी और श्रुतश्रवा ।

राजाधिदेवी च तथा पंचैता वीरमातरः
वृद्धस्य श्रुतदेवी तु कारूषं सुषुवे नृपम्।१११।
और राजाधिदेवी । ये पांचों वीरों की माताएं थीं। वृद्ध की पत्नी श्रुतदेवी ने राजा करुष को जन्म दिया।

कैकेयाच्छ्रुतकीर्तेस्तु जज्ञे संतर्दनो नृपः
श्रुतश्रवसि चैद्यस्य सुनीथः समपद्यत।११२।
112. कैकय से श्रुतकीर्ति ने राजा संतर्दन को जन्म दिया । सुनीथा का जन्म श्रुतश्रवस के चैद्य से हुआ था।

राजाधिदेव्याः संभूतो धर्माद्भयविवर्जितः
शूरः सख्येन बद्धोसौ कुंतिभोजे पृथां ददौ।११३।
113. धर्म से भयविवर्जिता का जन्म राजधिदेवी के यहां हुआ। मित्रता के बंधन में बंधे शूर ने पृथा को कुन्तिभोज को गोद दे दिया ।

एवं कुंती समाख्या च वसुदेवस्वसा पृथा
कुंतिभोजोददात्तां तु पाण्डुर्भार्यामनिंदिताम्।११४।
114. इस प्रकार, वासुदेव की बहन पृथा को कुंती भी कहा जाता था । कुन्तिभोज ने उस प्रशंसनीय पृथा को पाण्डु को पत्नी के रूप में दे दिया।
पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय(13-)


चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से शिनि, शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक( ) हुए।

हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा।

अश्मक्यां जनयामास शूरं वै देवमीढुषः ।
महिष्यां जज्ञिरे शूराद् भोज्यायां पुरुषा दश।१७।

वसुदेवो महाबाहुः पूर्वमानकदुन्दुभिः।
जज्ञे यस्य प्रसूतस्य दुन्दुभ्यः प्राणदन् दिवि।१८।

आकानां च संह्रादः सुमहानभवद् दिवि।
पपात पुष्पवर्षं च शूरस्य भवने महत् ।१९।

मनुष्यलोके कृत्स्नेऽपि रूपे नास्ति समो भुवि ।
यस्यासीत्पुरुषाग्र्यस्य कान्तिश्चन्द्रमसो यथा। 1.34.२०।

देवभागस्ततो जज्ञे तथा देवश्रवाः पुनः ।
अनाधृष्टिः कनवको वत्सावानथ गृञ्जिमः।२१।

श्यामः शमीको गण्डूषः पञ्च चास्य वराङ्गनाः ।
पृथुकीर्तिः पृथा चैव श्रुतदेवा श्रुतश्रवाः ।२२।

राजाधिदेवी च तथा पञ्चैता वीरमातरः ।
पृथां दुहितरं वव्रे कुन्तिस्तां कुरुनन्दन ।२३।

शूरः पूज्याय वृद्धाय कुन्तिभोजाय तां ददौ ।
तस्मात्कुन्तीति विख्याता कुन्तिभोजात्मजा पृथा ।२४।
अन्त्यस्य श्रुतदेवायां जगृहुः सुषुवे सुतः ।
श्रुतश्रवायां चैद्यस्य शिशुपालो महाबलः ।२५।

 हरिवंशपुराण हरिवशपर्व अध्याय- (34)

देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।

 ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं- 
पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। 
वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी। 

पृथा का विवाह पाण्डु से हुआ  ! पृथा की छोटी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करुष देश के अधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था। उसके गर्भ से दन्तवक्त्र का जन्म हुआ।

यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्व जन्म में सनकादि ऋषियों के शाप से हिरण्याक्ष हुआ था। कैकय देश के राजा धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति से विवाह किया था। उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए। राजाधिदेवी का विवाह जयसेन से हुआ था। उसके दो पुत्र हुए- विन्द और अनुविन्द।

वे दोनों ही अवन्ती के राजा हुए। चेदिराज दमघोष ने श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया। उसका पुत्र था शिशुपाल ।

वसुदेव जी के भाइयों में से देवभाग की पत्नी कंसा के गर्भ से दो पुत्र हुए- चित्रकेतु और बृहद्बल। देवश्रवा की पत्नी कंसवती से सुवीर और इषुमान नाम के दो पुत्र हुए।
 
आनक की पत्नी कंका के गर्भ से भी दो पुत्र हुए- सत्यजित और पुरुजित।
सृंजय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिका के गर्भ से वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू) नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के भी वृक आदि कई पुत्र हुए। 

वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये।

कंक की पत्नी कर्णिका के गर्भ से दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय।

आनकदुन्दुभि वसुदेव जी की पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं।
 रोहिणी के गर्भ से वसुदेव जी के बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे। पौरवी के गर्भ से उनके बारह पुत्र हुए- भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि।

 नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।

कौसल्या ने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न किया था। उसका नाम था केशी। उसने रोचना से हस्त और हेमांगद आदि तथा इला से उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रों को जन्म दिया।

वसुदेव जी के धृतदेवा के गर्भ से विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र हुआ और शान्तिदेवा से श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए। उपदेवा के पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवा के वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए। देवरक्षिता के गर्भ से गद आदि नौ पुत्र हुए तथा स्वयं धर्म ने आठ वसुओं को उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेव जी ने सहदेवा के गर्भ से पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये।

परम उदार वसुदेव जी ने देवकी के गर्भ से भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिसमें सात के नाम हैं- कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलराम जी।

उन दोनों के आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित! तुम्हारी परासौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी जी की ही कन्या थीं।

परन्तु अन्य पुरणों हरिवंश आदि में सुभद्र बलराम की बहिन थीं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद:-

वसुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुषः परः ।
 जनिष्यते तत्प्रियार्थं संभवन्तु सुरस्त्रियः ॥ २३

(भागवत पुराण-9/1/23)
वसुदेव जी के घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा[1] की सेवा के लिए देवांगनाएँ जन्म ग्रहण करें।


"क्रोष्टा से  देवमीढ़ तक  के गोपों  वंश का विवरण-  

  पद्मपुराणम्/खण्डः(१ )(सृष्टिखण्डम्)अध्यायः (१३)

            (क्रोष्टा वंश वर्णन)
               (पुलस्त्य उवाच)
क्रोष्टोः शृणु त्वं राजेंद्र वंशमुत्तमपूरुषम्
यस्यान्ववाये संभूतो विष्णुर्वृष्णिकुलोद्वहः।१।
1. हे राजेन्द्र !, क्रोष्ट्र के परिवार का (वृत्तांत) सुनो (जिसमें) उत्कृष्ट लोग पैदा हुए थे। उनके परिवार में वृष्णि कुल के संस्थापक विष्णु का जन्म हुआ।

क्रोष्टोरेवाभवत्पुत्रो वृजिनीवान्महायशाः
तस्य पुत्रोभवत्स्वातिः कुशंकुस्तत्सुतोभवत्।२।
2. क्रोष्ट्र से महान् ख्याति प्राप्त वृजिनिवान् का जन्म हुआ । उनका पुत्र स्वाति था , और कुशांकु उनका (अर्थात् स्वाति का) पुत्र था।

कुशंकोरभवत्पुत्रो नाम्ना चित्ररथोस्य तुु।
शशबिन्दुरिति ख्यातश्चक्रवर्ती बभूव ह,।३।
3. कुशनांकु का चित्ररथ नाम का एक पुत्र था ; उसका शशबिन्दु नाम का पुत्र एक संप्रभु सम्राट बन गया।

अत्रानुवंशश्लोकोयं गीतस्तस्य पुराभवत्
शशबिंदोस्तु पुत्राणां शतानामभवच्छतम्।४।
4-उनके विषय में वंशावली तालिका वाला यह पद पहले गाया जाता था। शतबिन्दु के सौ पुत्र थे। 

धीमतां चारुरूपाणां भूरिद्रविणतेजसाम्
तेषां शतप्रधानानां पृथुसाह्वा महाबलाः।५।

पृथुश्रवाः पृथुयशाः पृथुतेजाः पृथूद्भवःः'
पृथुकीर्तिः पृथुमतो राजानः शशबिंदवः।६।
6. पृथुश्रवा , पृथुयश , पृथुतेज, पृथुद्भव, पृथुकीर्ति , पृथुमाता शशबिन्दु के (परिवार में) राजा थे।

शंसंति च पुराणज्ञाः पृथुश्रवसमुत्तमम्
ततश्चास्याभवन्पुत्राः उशना शत्रुतापनः।७।
7-पुराणों के अच्छे जानकार -पृथुश्रवा को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए उनकी प्रशंसा करते हैं। उसके बेटे  उशनों ने शत्रुओं को पीड़ा दी।

पुत्रश्चोशनसस्तस्य शिनेयुर्नामसत्तमः
आसीत्शिनेयोः पुत्रो यःस रुक्मकवचो मतः।८।
8- उशनस के पुत्र का नाम सिनेयु था और वह परम गुणी था। सिनेयु के पुत्र को रुक्मकवच के नाम से जाना जाता था ।

निहत्य रुक्मकवचो युद्धे युद्धविशारदः
धन्विनो विविधैर्बाणैरवाप्य पृथिवीमिमाम्।९।
9-. युद्ध में कुशल रुक्मकवच ने विभिन्न बाणों से धनुर्धारियों को मारकर इस पृथ्वी को प्राप्त कर लिया 
अश्वमेधे ऽददाद्राजा ब्राह्मणेभ्यश्च दक्षिणां
जज्ञे तु रुक्मकवचात्परावृत्परवीरहा।१०।
10-और अश्व मेध-यज्ञ में ब्राह्मणों को दान दिया। रुक्मकवच से प्रतिद्वन्द्वी वीरों का हत्यारा परावृत उत्पन्न हुआ।
____________________
तत्पुत्रा जज्ञिरे पंच महावीर्यपराक्रमाः
रुक्मेषुः पृथुरुक्मश्च ज्यामघः परिघो हरिः।११।
11. उनके पांच पुत्र पैदा हुए जो बहुत शक्तिशाली और वीर थे। रुक्मेशु , पृथुरुक्म , ज्यमाघ , परिघ और हरि ।

परिघं च हरिं चैव विदेहे स्थापयत्पिता
रुक्मेषुरभवद्राजा पृथुरुक्मस्तथाश्रयः।१२।
12.पिता ने परिघ और हरि को विदेह में स्थापित कर दिया । रुक्मेशु राजा बन गया और पृथुरुक्म उसके साथ रहने लगा।

ताभ्यां प्रव्राजितो राज्याज्ज्यामघोवसदाश्रमे
प्रशांतश्चाश्रमस्थस्तु ब्राह्मणेन विबोधितः।१३।
13-. इन दोनों द्वारा राज्य से   निर्वासित ज्यामघ एक आश्रम में रहते थे। वह आश्रम में शांति से रह रहा था और एक ब्राह्मण द्वारा उकसाए जाने पर उसने अपना धनुष उठाया ।

जगाम धनुरादाय देशमन्यं ध्वजी रथी
नर्मदातट एकाकी केवलं वृत्तिकर्शितः।१४।
 14 -और एक ध्वज लेकर और रथ पर बैठकर दूसरे देश में चला गया। नितांत अकेले होने और जीविका के अभाव से व्यथित होने के कारण 

ऋक्षवंतं गिरिं गत्वा मुक्तमन्यैरुपाविशत्
ज्यामघस्याभवद्भार्या शैब्या परिणता सती।१५।
15-वह अन्य लोगों द्वारा छोड़े गए स्थान  नर्मदा के तट पर "ऋक्षवन्त पर्वत पर चले गए और वहीं बैठ गए। ज्यमाघ की शैब्या नाम की   एक पवित्र पत्नी  ( अधिक उम्र में) हुई थी।

अपुत्रोप्यभवद्राजा भार्यामन्यामचिंतयन्
तस्यासीद्विजयो युद्धे तत्र कन्यामवाप्य सः।१६।
16-राजा ने भी पुत्रहीन होने के कारण दूसरी पत्नी लेने का विचार किया। एक युद्ध में उसे विजय प्राप्त हुई और युद्ध में एक कन्या प्राप्त होने पर उसने

भार्यामुवाच संत्रासात्स्नुषेयं ते शुचिस्मिते
एवमुक्त्वाब्रवीदेनं कस्य केयं स्नुषेति वै।१७।
17.  डरते हुए अपनी पत्नी से कहा, "हे उज्ज्वल मुस्कान वाली, यह तुम्हारी पुत्रवधू है।" जब उस ने यह कहा, तो उस ने उस से कहा, वह कौन है ?  किसकी बहू है ?”

                   ( राजोवाच)
यस्ते जनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति
तस्याःसातपसोग्रेण कन्यायाःसंप्रसूयत।१८।
18-. राजा ने उत्तर दिया, “वह तुम्हारे पुत्र की पत्नी होगी।” उस कन्या की कठोर तपस्या के फलस्वरूप उस वृद्ध शैब्या ने  पुत्र को जन्म दिया। 

पुत्रं विदर्भं सुभगं शैब्या परिणता सती
राजपुत्र्यां तु विद्वांसौ स्नुषायां क्रथकौशिकौ।१९।
19-विदर्भ नामक पुत्र को जन्म दिया । सौभाग्यवती शैव्या प्रसन्न हुई ,विदर्भ ने राजकुमारी, (ज्यामघ की पुत्रबधु) में ,दो पुत्र, क्रथ और कौशिक  उत्पन्न किये।।
 
लोमपादं तृतीयं तु पुत्रं परमधार्मिकम्
पश्चाद्विदर्भो जनयच्छूरं रणविशारदम्।२०।
20. और बाद में लोमपाद नाम का तीसरा पुत्र उत्पन्न किया , जो अत्यंत परमधार्मिक, बहादुर और युद्ध में कुशल था।

लोमपादात्मजो बभ्रुर्धृतिस्तस्य तु चात्मजः
कौशिकस्यात्मजश्चेदिस्तस्माच्चैद्यनृपाः स्मृताः।२१।
21. बभ्रु लोमपाद का पुत्र था; और बभ्रु का पुत्र धृति था ; विदर्भ एक पुत्र कौशिक का पुत्र चेदि था और उससे ही चैद्य नाम से जाने जाने वाले राजा उत्पन्न हुए थे।
*******

क्रथो विदर्भपुत्रो यः कुंतिस्तस्यात्मजोभवत्
कुंतेर्धृष्टस्ततो जज्ञे धृष्टात्सृष्टः प्रतापवान्।२२।
22. विदर्भ के पुत्र क्रथ के पुत्र कुंति थे।  कुंती का पुत्र धृष्ट था; उस धृष्ट से वीर सृष्ट का जन्म हुआ।

सृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निवृत्तिः परवीरहा
निवृत्तिपुत्रो दाशार्हो नाम्ना स तु विदूरथः।२३।
23. सृष्ट का पुत्र पवित्र निवृत्ति हुआ वह , प्रतिद्वंद्वी नायकों का हत्यारा था। निवृत्ति के दशार्ह नामक पुत्र  हुआ उसक विदुरथ हुआ था ।

दाशार्हपुत्रो भीमस्तु भीमाज्जीमूत उच्यते
जीमूतपुत्रो विकृतिस्तस्यभीमरथः सुतः।२४।
24-. दशार्ह का पुत्र भीम था ; भीम का पुत्र जिमूत कहा जाता है ; जीमूत का पुत्र विकृति था ;  उनका पुत्र भीमरथ था; 

अथ भीमरथस्यापि पुत्रो नवरथः किल
तस्य चासीद्दशरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।२५।
25-और भीमरथ का पुत्र नवरथ बताया गया । उनके पुत्र दशरथ थे ; उसका पुत्र शकुनि था ।

तस्मात्करंभस्तस्माच्च देवरातो बभूव ह
देवक्षत्रोभवद्राजा देवरातान्महायशाः।२६।
26. उससे करम्भ उत्पन्न हुआ , और उससे देवरात उत्पन्न हुआ ; देवरात से अत्यंत प्रसिद्ध देवक्षेत्र का जन्म हुआ ।

देवगर्भसमो जज्ञे देवक्षत्रस्य नन्दनः
मधुर्नाममहातेजा मधोः कुरुवशः स्मृतः।२७।
27. देवक्षत्र से मधु नामक देवतुल्य एवं अत्यन्त तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। कहा जाता है कि कुरुवश का जन्म मधु से हुआ था।
विशेष:-(मधुपर:« मधुरा « मथुरा- का नामकरण इसी मधु के आधार पर हुआ।

आसीत्कुरुवशात्पुत्रः पुरुहोत्रः प्रतापवान्
अंशुर्जज्ञेथ वैदर्भ्यां द्रवंत्यां पुरुहोत्रतः।२८।
28. कुरुवश से एक वीर पुत्र पुरुहोत्र का जन्म हुआ। पुरुहोत्र से वैदर्भी नामक पत्नी में  अंशु नामक पुत्र  हुआ। 

वेत्रकी त्वभवद्भार्या अंशोस्तस्यां व्यजायत
सात्वतः सत्वसंपन्नः सात्वतान्कीर्तिवर्द्धनः।२९।
29-. अंशु की पत्नी वेत्रकी से   सात्वत  हुआ जो  ऊर्जा से संपन्न और बढ़ती प्रसिद्धि वाला था। 
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।३०।

 30-  महाराज ज्यामघ की. इन  संतानों को जानकर कोई भी सन्तान वाला   व्यक्ति  पुत्र जुड़कर, सोम के साथ एक रूपता प्राप्त करता है। ।


सात्वतान्सत्वसंपन्ना कौसल्यां सुषुवे सुतान्
तेषां सर्गाश्च चत्वारो विस्तरेणैव तान्शृणु।३१।
31-. कौशल्या में  सत्व सम्पन्न सात्वत से  चार पुत्र को जन्म हुआ  उन्हें विस्तार से सुनो

भजमानस्य सृंजय्यां भाजनामा सुतोभवत्
सृंजयस्य सुतायां तु भाजकास्तु ततोभवन्।३२।
32-(जैसा कि मैं तुम्हें बताता हूं): सृंजया नामक पत्नी में  भजमान का भाज नामक पुत्र प्राप्त हुआ। फिर सृंजय की पुत्री सृंजया के गर्भ से भाजक का जन्म हुआ ।

तस्य भाजस्य भार्ये द्वे सुषुवाते सुतान्बहून्
नेमिं चकृकणं चैव वृष्णिं परपुरञ्जयं।३३।
33. उस भाज की दो पत्नियों ने कई पुत्रों को जन्म दिया: नेमिकृकण-और शत्रुओं के नगरों के विजेता वृष्णि

ते भाजकाः स्मृता यस्माद्भजमानाद्वि जज्ञिरे
देवावृधः पृथुर्नाम मधूनां मित्रवर्द्धनः।३४।
34. चूंकि वे भजमान से पैदा हुए थे इसलिए उन्हें भाजक कहा जाने लगा। वहाँ    मधु के  मित्रों का वर्द्धन करने वाले देववृध, का दूसरा नाम पृथु  था।

अपुत्रस्त्वभवद्राजा चचार परमं तपः
पुत्रः सर्वगुणोपेतो मम भूयादिति स्पृहन्।३५।

-35. यह राजा देवावृध  पुत्रहीन था, इसलिए 'मुझे सभी गुणों से संपन्न एक पुत्र मिले' उसने ये  इच्छा करते हुए परम तप किया  ़।

संयोज्य कृष्णमेवाथ पर्णाशाया जलं स्पृशन्
सा तोयस्पर्शनात्तस्य सांनिध्यं निम्नगा ह्यगात्।३६।
36-और केवल कृष्ण पर ध्यान केंद्रित करके और पर्णाशा (नदी) के पानी को स्पर्श कर , उसने बड़ी तपस्या की। उसके पानी छूने से नदी उसके पास आ गयी।
( नदी पर कोई स्त्री मिली होगी उसी भाव को नदी रूप में दर्शाया है एक कन्या सुन्दर पति के लिए तपस्या कर रही थी।

कल्याण चरतस्तस्य शुशोच निम्नगाततः
चिंतयाथ परीतात्मा जगामाथ विनिश्चयम्।३७।
37-तब नदी (नदी के पास स्त्री) को उसकी भलाई की चिंता हुई जो देववृथ तपस्या कर रहा था। चिन्ता से भरे हुए मन से उसने निश्चय किया, 

भूत्वा गच्छाम्यहं नारी यस्यामेवं विधः सुतः
जायेत तस्मादद्याहं भवाम्यस्य सुतप्रदा।३८।
38-मैं नारी उसके पास जाऊँगी, जिससे ऐसा (अर्थात् सर्वगुण सम्पन्न) पुत्र उत्पन्न होगा। इसलिए आज मैं (उसकी पत्नी बन कर) उसे एक पुत्र जनन कर प्रदान करुँगी।'

अथ भूत्वा कुमारी सा बिभ्रती परमं वपुः
ज्ञापयामास राजानं तामियेष नृपस्ततः।३९।
39. तब उस ने कुमारी होकर सुन्दर शरीर धारण करके राजा को (अपने विषय में) समाचार दिया; तब राजा को उसकी लालसा हुई।

अथसानवमेमासिसुषुवेसरितांवरा
पुत्रं सर्वगुणोपेतं बभ्रुं देवावृधात्परम्।४०।
40 फिर नौवें महीने में उस सर्वोत्तम नदी ने देववृध से एक महान पुत्र को जन्म दिया।  जिसका नाम बभ्रु था वह सर्वगुण सम्पन्न था।

अत्र वंशे पुराणज्ञा ब्रुवंतीति परिश्रुतम्
गुणान्देवावृधस्याथ कीर्त्तयंतो महात्मनः।४१।

41. हमने सुना है कि जो लोग पुराणों को जानते हैं, वे महापुरुष देववृध के गुणों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि:

_________
बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः
षष्टिः शतं च पुत्राणां सहस्राणि च सप्ततिः।४२।
42. बभ्रु मनुष्यों में सबसे महान था; देववृध देवताओं के सदृश थे; बभ्रु और देववृध से सत्तर हजार छह सौ पुत्र पैदा हुए और वे अमर हो गये।

एतेमृतत्वं संप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि
यज्ञदानतपोधीमान्ब्रह्मण्यस्सुदृढव्रतः।४३।
43-बभ्रु और देवावृध के अनृत-उपदेश से भी
यज्ञ ,दान और तपस्या में धैर्यसम्पन्न, ब्राह्मण भक्त तथा सुदृढ़ व्रत वाला हो जाता है।

रूपवांश्च महातेजा भोजोतोमृतकावतीम्
शरकान्तस्य दुहिता सुषुवे चतुरः सुतान् ।४४।
44-. बभ्रु से उत्पन्न रूपवान और महातेजस्वी भोज ने शरकान्त की  पुत्री अमृतकावती से विवाह कर चार पुत्र उत्पन्न किए।


कुकुरं भजमानं च श्यामं कंबलबर्हिषम्
कुकुरस्यात्मजो वृष्टिर्वृष्टेस्तु तनयो धृतिः।४५।
"अनुवाद:-45- ये चार पुत्र थे (कुकुर , भजमान, श्याम और कम्बलबर्हिष) ।  कुकुर के पुत्र वृष्टि हुए और वृष्टि के पुत्र धृति थे। 

कपोतरोमा तस्यापि तित्तिरिस्तस्य चात्मजः
तस्यासीद्बहुपुत्रस्तु विद्वान्पुत्रो नरिः किल।४६।
46-उस धृति का पुत्र कपोतारोमा था ; और उसका पुत्र तित्तिर था ; और  उनका पुत्र बाहुपुत्र था । ऐसा कहा जाता है कि उन बाहुपुत्र का विद्वान पुत्र नरि था

ख्यायते तस्य नामान्यच्चंदनोदकदुंदुभिः
अस्यासीदभिजित्पुत्रस्ततो जातः पुनर्वसुः।४७।
47-नरि का  अन्य नाम  (चन्दनोदक और -दुन्दुभि) भी बताया जाता है । चन्दनोदक का पुत्र अभिजित्  था ;और  उसका पुत्र  पुनर्वसु  हुआ। 

अपुत्रोह्यभिजित्पूर्वमृषिभिः प्रेरितो मुदा
अश्वमेधंतुपुत्रार्थमाजुहावनरोत्तमः।४८।
48. अभिजीत पहले पुत्रहीन थे; लेकिन पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ इस (राजा) ने, ऋषियों द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर, पुत्र प्राप्ति के लिए ख़ुशी-ख़ुशी अश्वमेध-यज्ञ किया।

तस्य मध्ये विचरतः सभामध्यात्समुत्थितः
अन्धस्तु विद्वान्धर्मज्ञो यज्ञदाता पुनर्वसु ।४९।।
49. जब वह सभा में (यज्ञ स्थल पर) घूम रहा था तो उसमें से अंधा पुनर्वसु विद्वान, धर्म में पारंगत और यज्ञ देने वाला उत्पन्न हुआ।

तस्यासीत्पुत्रमिथुनं वसोश्चारिजितः किल
आहुकश्चाहुकी चैव ख्याता मतिमतां वर।५०।
50. कहा जाता है कि उस शत्रुविजेता पनर्वसु के दो पुत्र थे। हे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ, वे आहुका और आहुकी के नाम से जाने जाते थे ।
____________________________________
इमांश्चोदाहरंत्यत्र श्लोकांश्चातिरसात्मकान्
सोपासंगानुकर्षाणां तनुत्राणां वरूथिनाम्।५१।
 51- इस विषय में वे बड़ी दिलचस्प उदाहरण रूप में  श्लोक उद्धृत किया जाता हैं। उनके पास दस हजार बख्तरबंद सेनिक थे।, 

रथानां मेघघोषाणां सहस्राणि दशैव तु
नासत्यवादिनोभोजा नायज्ञा गासहस्रदाः।५२।
52.  दशों हजार रथ जो बादलों की तरह गरजते थे और उनके निचले हिस्से में संलग्नक लगे हुए थे। भोज ने कभी झूठ नहीं बोला; वे यज्ञ किये बिना कभी नहीं रहते थे; और कभी एक हजार से कम  गाय दान नहीं करते  थे।

नाशुचिर्नाप्यविद्वांसो न भोजादधिकोभवत्
आहुकां तमनुप्राप्त इत्येषोन्वय उच्यते।५३।
53. भोज से अधिक पवित्र या अधिक विद्वान कोई व्यक्ति कभी नहीं हुआ। कहा जाता है कि इसी  परिवार में आहुका उत्पन्न हुआ था इसी वंश को भोज इस नाम से कहा गया।

आहुकश्चाप्यवंतीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ
आहुकस्यैव दुहिता पुत्रौ द्वौ समसूयत।५४।
54-. और आहुका ने अपनी बहन आहुकी का विवाह ( अवन्ती के राजा ) से कर दिया  और अहुका से ही पहले पुत्री और फिर पुत्र  दो सन्तानें उत्पन्न हुईं।
उपर्युक्त श्लोक का इस प्रकार अनुवाद भी है।

कुछ अनुवादक निम्न अर्थ भी करते हैं।
आहुक ने अपनी बहिन आहुकी का व्याह अवन्ती देश में किया था। 

आहुक की एक पुत्री भी थी, जिसने दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- देवक और उग्रसेन वे दोनों देवकुमारों के समान तेजस्वी हैं।

परन्तु पद्मपुराण सृष्टिखण्ड में  ये उपर्युक्त श्लोक प्रक्षिप्त हैं।   फिर भी सही  वंशावली का निर्धारण करने का हमारा प्रयास रहा है। इस प्रक्षिप्त श्लोक की आपूर्ति मत्स्यपुराण के निम्न श्लोक से की है।

"आहुकश्चाप्यवन्तीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ।
आहुकात् काश्यदुहिता द्वौ पुत्रौ समसूयत। ४४.७०।
:"अनुवाद:- आहुक ने अपनी बहिन आहुकी का विवाह अवन्ति के राजा से कर दिया। और आहुक से काशिराज की पुत्री काश्या में दो पुत्र उत्पन्न हुए।
__________________________

हरिवंश पुराण में वर्णन है। कि आहुक के काशि राज की पुत्री 'काश्या' (शैव्या) से दो पुत्र उत्पन्न हुए
आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातौ ख्यातिमतां वरौ” इत्याहुकोत्- पत्तिमभिधाय “आहुकस्य तु काश्यायां द्वौ पुत्रौ संबमूवतुः। 
देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ । 
नवोग्रसेनस्य सुताः तेषां कंसस्तु पूर्व्वजः
” सन्दर्भ:-हरिवंश पुराण- ३८ अध्याय।

आहुकस्य तु काश्यायां द्वौ पुत्रौ सम्बभूवतुः।
देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ॥ १५.५५ ॥
सन्दर्भ:-
"ब्रह्ममहापुराण अध्याय-। १५।

आहुकश्चाहुकान्धाय स्वसारं त्वाहुकीन्ददौ।
आहुकान्धकस्य दुहिता द्वौ पुत्रौ सम्बभूवतुः । ३४.१२७ ।

देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ ।
देवकस्य सुता वीरा जज्ञिरे त्रिदशोपमाः । ३४.१२८।
सन्दर्भ:-
वायुपुराण- अध्याय- (34)

तित्तिरेस्तु नरः पुत्रस्तस्य चन्दनदुन्दुभिः।
पुनर्वसुस्तस्य पुत्र आहुकश्चाहुकीसुतः।२९।
आहुकाद्देवको जज्ञे उग्रसेनस्ततोऽभवत्।
देववानुपदेवश्च देवकस्य सुताः स्मृता।३०।

आहुकश्चाप्यवन्तीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ।
आहुकात् काश्यदुहिता द्वौ पुत्रौ समसूयत।। ४४.७०।
देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ।
देवकस्य सुता वीरा जज्ञिरे त्रिदशोपमाः। ४४.७१।
सन्दर्भ:-
मत्स्यपुराण- अध्याय- (४४)

तेषां स्वसारः सप्तासन् वसुदेवाय ता ददौ ।३१।

अनुवाद:- 29.तित्तिर  के वंश में नरि  हुआ। नरि के अन्य नाम चंदन और दुंदुभि भी थे।  इसी दुंदुभि के वंश में अभिजित का पुत्र

पुनर्वसु हुआ उसके पुत्र और पुत्री आहुक आहुकी  थे।

30-.आहुका से देवक का जन्म हुआ और फिर उग्रसेन का जन्म हुआ

देववन और उपदेव को देवक के पुत्र माना जाता है। 
उनकी सात बहनें थीं। (देवका ने) उनका विवाह वासुदेव से किया।
सन्दर्भ:-
(अग्निपुराणम्/अध्यायः- २७५)


आहुकाद्देवको जज्ञे उग्रसेनस्ततोऽभवत् ।
देववानुपदेवश्च देवकस्य सुताः स्मृता ।२७५.३०।
सन्दर्भ
अग्निपुराण-/अध्यायः (२७५)

मत्स्यपुराण /अध्यायः (४४) में भी आहुक के पुत्रों का वर्णन है। 
आहुकश्चाप्यवन्तीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ।
आहुकात् काश्यदुहिता द्वौ पुत्रौ समसूयत।। ४४.७० ।।

देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ।
देवकस्य सुता वीरा जज्ञिरे त्रिदशोपमाः।। ४४.७१ ।।

देवानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षितः।
तेषां स्वसारः सप्तासन् वसुदेवाय ता ददौ।। ४४.७२ ।।

देवकी श्रुतदेवी च यशोदा च यशोधरा।
श्री देवी सत्यदेवी च सुतापी चेति सप्तमी।। ४४.७३ ।।
सन्दर्भ:-
मत्स्यपुराण /अध्यायः (४४) नीचे भागवत पुराण से क्रोष्टा की वंशावली उद्धृत है।

क्रोष्टु-- के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु। वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था। परम यशस्वी शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो।

पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली- ‘कपटी! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो?’ ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्या ने मुसकराकर अपने पति से कहा- ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ। उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।

सन्दर्भ:- श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः९/अध्यायः २४

कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः।
अन्धकाद्दुन्दुभिस्तस्मादविद्योतः पुनर्वसुः ।२०।
 (अरिद्योतः पाठभेदः)।

तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ।
देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः ।२१।

देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः।
तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृप ।२२।

शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता।
सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः ।२३।

कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा।
राष्ट्रपालोऽथ धृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः ।२४।

कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्टपालिका।
उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः ।२५।

शूरो विदूरथादासीद्भजमानस्तु तत्सुतः।
शिनिस्तस्मात्स्वयं भोजो हृदिकस्तत्सुतो मतः ।२६।

देवमीढः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः।
देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत् ।२७।

तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्।
वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम् ।२८।

अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई। आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। 
देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।

_____________________
उग्रसेन मथुरा के राजा थे। महाराज उग्रसेन प्रजावत्सल, धर्मात्मा और भगवद्भक्त थे। कंस इन्हीं का पुत्र था, जिसने अपने पिता उग्रसेन को बलपूर्वक राजगद्दी से हटा दिया और स्वयं मथुरा का राजा बन बैठा था। 

जब श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया, तब उसकी अंत्येष्टि के पश्चात् श्रीकृष्ण ने पुन: उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन पर बैठा दिया।
उग्रसेन ने अश्वमेधादि बड़े-बड़े यज्ञ भगवान को प्रसन्न करने के लिये किये। नित्य ही ब्राह्मणों, दीनों, दुःखियों को वे बहुत अधिक दान किया करते थे।
                     ★परिचय★
उग्रसेन यदुवंशीय (कुकुरवंशी) राजा आहुक के पुत्र तथा कंस आदि नौ पुत्रों के पिता थे। उनकी माता काशीराज की पुत्री काश्या थीं, जिनके देवक और उग्रसेन दो पुत्र थे। उग्रसेन के नव पुत्र और पाँच कन्याएँ थीं।

कंस इनका क्षेत्रज पुत्र था और भाइयों में सबसे बड़ा था। इनकी पाँचों पुत्रियाँ वसुदेव के छोटे भाइयों की ब्याही गई थीं।

____________________________________
अब पुन: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के आहुक के बाद के श्लोक प्रस्तुत करते हैं ; जो प्रायः ( अधिकतर) सही हैं।


आहुकश्चाप्यवंतीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ।
आहुकस्यैव दुहिता पुत्रौ द्वौ समसूयत।५४।
पद्म पुराण का यह (५४) वाँ श्लोक प्रक्षिप्त है।
जिसमें आहुक की किसी पुत्री से ही देव और उग्रसेन की उत्पत्ति कर दी गयी है। 

इस के बाद के श्लोक सही हैं। जिन्हें हम नीचे प्रस्तुत करते हैं।

देवकं चोग्रसेनं च देवगर्भसमावुभौ
देवकस्य सुताश्चैव जज्ञिरे त्रिदशोपमाः।५५।
55-(आहुक की पत्नी काश्या ने जन्म  देवक और उग्रसेन को जन्म दिया) जो देवों  के पुत्रों की तरह थे; और देवक से जो पुत्र उत्पन्न हुए वे देवताओं के समान थे।

देववानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षितः
तेषां स्वसारः सप्तैव वसुदेवाय ता ददौ।५६।

56- देववान , उपदेव , सुदेव और देवरक्षित ; उनकी सात बहनें थीं जिन्हें उन्होंने (उग्रासन ने) वामदेव को दे दिया था :


देवकी श्रुतदेवा च यशोदा च श्रुतिश्रवा
श्रीदेवा चोपदेवा च सुरूपा चेति सप्तमी।५७।
57. देवकी , श्रुतदेव , यशोदा , श्रुतिश्रवा, श्रीदेव , उपदेव और सुरूपा सातवीं  थी।

नवोग्रसेनस्य सुताः कंसस्तेषां च पूर्वजः
न्यग्रोधस्तु सुनामा च कंकः शंकुः सुभूश्च यः।५८।
अनुवाद:- 58-. उग्रसेन के नौ बेटे थे और कंस उनमें सबसे बड़ा था: न्यग्रोध , सुनामन , कंक , शंकु , और (वह) जिसे (सुभू कहा जाता था)। 

अन्यस्तु राष्ट्रपालश्च बद्धमुष्टिः समुष्टिकः
तेषां स्वसारः पंचासन्कंसा कंसवती तथा।५९।
अनुवाद:- दूसरा था राष्ट्रपाल ; इसी प्रकार बद्धमुष्टि और समुष्टिक भी  थे। उनकी पाँच बहनें थीं: कंसा , कंसावती ,।

सुरभी राष्ट्रपाली च कंका चेति वरांगनाः
उग्रसेनः सहापत्यो व्याख्यातः कुकुरोद्भवः।६०।
अनुवाद:- 60-सुरभि , राष्ट्रपाली और कंका ; वे सुन्दर महिलाएँ थीं। उग्रसेन अपने बच्चों सहित कुकुर वंश से विख्यात  थे।

भजमानस्य पुत्रोभूद्रथिमुख्यो विदूरथः
राजाधिदेवः शूरश्च विदूरथसुतोभवत्।६१।
अनुवाद:- 61. योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ विदुरथ, भजमान का पुत्र था ।  और   राजाधिदेव  शूर विदुरथ का पुत्र था।

___________

राजाधिदेवस्य सुतौ जज्ञाते वीरसंमतौ
क्षत्रव्रतेतिनिरतौ शोणाश्वः श्वेतवाहनः।६२।

अनुवाद:- 62. राजाधिदेव से जन्मे दो पुत्र शोणश्व और श्वेतवाहन थे । वे शूरवीरों को बहुत पसंद थे, और क्षत्रिय -व्रत को बहुत पसंद थे।
शोणाश्वस्य सुताः पंच शूरा रणविशारदाः
शमी च राजशर्मा च निमूर्त्तः शत्रुजिच्छुचिः।६३।
अनुवाद:- 63. शोणाश्व के युद्ध में कुशल पांच वीर पुत्र थे: शमी , राजशर्मा, निमूर्त, शत्रुजित और शुचि ।

शमीपुत्रः प्रतिक्षत्रः प्रतिक्षत्रस्य चात्मजःप्रतिक्षत्रसुतो भोजो हृदीकस्तस्य चात्मजः
हृदीकस्याभवन्पुत्रा दश भीमपराक्रमाः।६४।
अनुवाद:- 64. प्रतिक्षत्र शमी का पुत्र था और प्रतिक्षत्र का पुत्र भोज था***## और उसका पुत्र हृदिक था । हृदिक के दस भयानक शूरवीर पुत्र थे।

कृतवर्माग्रजस्तेषां शतधन्वा च सत्तमः
देवार्हश्च सुभानुश्च भीषणश्च महाबलः।६५।
अनुवाद:- 65-. उनमें कृतवर्मन सबसे उग्र था और शतधन्वन सात्विक था । (अन्य थे) देवार्हा , सुभानु दौनों , भीषण और महाबली थे , 

अजातश्च विजातश्च करकश्च करंधमः
देवार्हस्य सुतो विद्वान्जज्ञे कंबलबर्हिषः।६६।
अनुवाद:- 66-और अजात , विजता, कारक और करंधमा । देवार्हा से एक पुत्र, कम्बलबर्हिष का जन्म हुआ; (वह) विद्वान था।

असमौजास्ततस्तस्य समौजाश्च सुतावुभौ
अजातपुत्रस्य सुतौ प्रजायेते समौजसौ।६७।
अनुवाद:- 67. कम्बलबर्हिष के  दो पुत्र थे: असमौजा और सामौजा। अजात के पुत्र से दो वीर औजस्वी पुत्र पैदा हुए।

अनुवाद:- समौजः पुत्रा विख्यातास्त्रयः परमधार्मिकाः

सुदंशश्च सुवंशश्च कृष्ण इत्यनुनामतः।६८।
68. सामौजा के तीन प्रसिद्ध और बहुत धार्मिक पुत्र थे। उनके नाम क्रम से थे: सुदंश, सुवंश और कृष्ण।*****#

अंधकानामिमं वंशं यः कीर्तयति नित्यशः
आत्मनो विपुलं वंशं प्रजामाप्नोत्ययं ततः।६९।
अनुवाद:- 69. जो व्यक्ति प्रतिदिन अन्धकों के इस परिवार की महिमा करता था , फलस्वरूप उसका परिवार और संतान बहुत समृद्ध हो जाती हैं।

गांधारी चैव माद्री च क्रोष्टोर्भार्ये बभूवतुः
गांधारी जनयामास सुनित्रं मित्रवत्सलम्।७०।
अनुवाद:- 70-. क्रोष्ट्र की दो पत्नियाँ थीं: गांधारी और माद्री थी । गांधारी ने अपने मित्रों से स्नेह करने वाली सुनित्र को जन्म दिया; 
_____________________________
माद्री युधाजितं पुत्रं ततो वै देवमीढुषं
अनमित्रं शिनिं चैव पंचात्र कृतलक्षणाः।७१।
अनुवाद:- 71-माद्री ने एक पुत्र युधाजित (नाम से), फिर देवमिढुष , (फिर) अनामित्र और शिनि को जन्म दिया । इन पांचों के शरीर पर शुभ चिन्ह थे।

अनमित्रसुतो निघ्नो निघ्नस्यापि च द्वौ सुतौ
प्रसेनश्च महावीर्यः शक्तिसेनश्च तावुभौ।७२।
अनुवाद:- 72.  अनामित्र का पुत्र निघ्न था; निघ्न के दो बेटे थे:  प्रसेन और बहुत बहादुर शक्तिसेन थे ।

________________
स्यमंतकं प्रसेनस्य मणिरत्नमनुत्तमं
पृथिव्यां मणिरत्नानां राजेति समुदाहृतम्।७३।
अनुवाद:- 73. प्रसेन के पास ' स्यामंतक ' नाम की सर्वोत्तम और अद्वितीय मणि थी । इसे 'दुनिया के सर्वश्रेष्ठ रत्नों का राजा' के रूप में वर्णित किया गया था।

हृदि कृत्वा सुबहुशो मणिं तं स व्यराजत
मणिरत्नं ययाचेथ राजार्थं शौरिरुत्तमम्।७४।
अनुवाद:- 74. उस मणि को अनेक बार छाती पर धारण करने से वह बहुत चमका। शौरी ने अपने राजा के लिए वह उत्कृष्ट रत्न माँगा।

गोविंदश्च न तं लेभे शक्तोपि न जहार सः
कदाचिन्मृगयां यातः प्रसेनस्तेन भूषितः।७५।
अनुवाद:- 75. गोविंदा को भी यह नहीं मिला; समर्थ होते हुए भी उसने इसे छीना नहीं। कुछ समय प्रसेन उसे धारण कर शिकार की ओर चला गया।
सर्वे च प्रतिहर्तारो रत्नानां जज्ञिरे च ते।
अक्रूराच्छूरसेनायां सुतौ द्वौ कुलनन्दनौ।१०३।

-अनुवाद:- 103-अक्रूर ने शूरसेना नामक पत्नी में  देवताओं के समान  दो पुत्र पैदा किए : 

देववानुपदेवश्च जज्ञाते देवसम्मतौ।
अश्विन्यां त्रिचतुः पुत्राः पृथुर्विपृथुरेव च।१०४।
अनुवाद:- देववान और उपदेव। अक्रूर से अश्विनी में  बारह पुत्र  :१-पृथु २-विपृथु , 

अश्वग्रीवो श्वबाहुश्च सुपार्श्वक गवेषणौ।
रिष्टनेमिः सुवर्चा च सुधर्मा मृदुरेव च।१०५।

अभूमिर्बहुभूमिश्च श्रविष्ठा श्रवणे स्त्रियौ।
इमां मिथ्याभिशप्तिं यो वेद कृष्णस्य बुद्धिमान्।
१०६।
106-(११)-अभूमि और १२-बहुभूमि ; और दो बेटियाँ: श्रविष्ठा और श्रवणा  उत्पन्न किए।
-एक बुद्धिमान व्यक्ति, जो कृष्ण के इस मिथ्या आरोप के बारे में जान जाता है, उसे कभी भी  भविष्य कोई मिथ्या श्राप नहीं लग सकता है।

न स मिथ्याभिशापेन अभिगम्यश्च केनचित्
एक्ष्वाकीं सुषुवे पुत्रं शूरमद्भुतमीढुषम्।१०७।।
अनुवाद:- किसी इक्ष्वाकी से मिथ्या शाप के प्राप्त होने पर एक शूर - मीढुष उत्पन्न हुआ।****

मीढुषा जज्ञिरे शूरा भोजायां पुरुषा दश
वसुदेवो महाबाहुः पूर्वमानकदुंदुभिः।१०८।
अनुवाद:- 108-.शूर मीढुष द्वारा भोजा नामक पत्नी में दस वीर पुत्र उत्पन्न हुए : पहले वासुदेव का जन्म हुए), जिनका नाम अनकदुन्दुभि भी था ; 

देवभागस्तथा जज्ञे तथा देवश्रवाः पुनः
अनावृष्टिं कुनिश्चैव नन्दिश्चैव सकृद्यशाः।१०९।
अनुवाद:- इसी प्रकार देवभाग भी उत्पन्न हुआ (मिीढुष द्वारा); और देवश्रवस , अनावृष्टि, कुंती, और नंदी और सकृद्यशा, ।

श्यामः शमीकः सप्ताख्यः पंच चास्य वरांगनाः
श्रुतकीर्तिः पृथा चैव श्रुतदेवी श्रुतश्रवाः।११०।
अनुवाद:- श्यामा, शमीका (भी) जिन्हें सप्त के नाम से जाना जाता है। उनकी पाँच सुंदर पत्नियाँ थीं: श्रुतकीर्ति , पृथा , और श्रुतदेवी और श्रुतश्रवा ।

राजाधिदेवी च तथा पंचैता वीरमातरः
वृद्धस्य श्रुतदेवी तु कारूषं सुषुवे नृपम्।१११।
अनुवाद:- और राजाधिदेवी । ये पांचों वीरों की माताएं थीं। वृद्ध की पत्नी श्रुतदेवी ने राजा करुष को जन्म दिया।

कैकेयाच्छ्रुतकीर्तेस्तु जज्ञे संतर्दनो नृपः
श्रुतश्रवसि चैद्यस्य सुनीथः समपद्यत।११२।
अनुवाद:- 112. कैकय से श्रुतकीर्ति ने राजा संतर्दन को जन्म दिया । सुनीथा का जन्म श्रुतश्रवस के चैद्य से हुआ था।

राजाधिदेव्याः संभूतो धर्माद्भयविवर्जितः
शूरः सख्येन बद्धोसौ कुंतिभोजे पृथां ददौ।११३।
अनुवाद:- 113. धर्म से भयविवर्जिता का जन्म राजधिदेवी के यहां हुआ। मित्रता के बंधन में बंधे शूर ने पृथा को कुन्तिभोज को गोद दे दिया ।

एवं कुंती समाख्या च वसुदेवस्वसा पृथा
कुंतिभोजोददात्तां तु पाण्डुर्भार्यामनिंदिताम्।११४।
अनुवाद:- 114. इस प्रकार, वासुदेव की बहन पृथा को कुंती भी कहा जाता था । कुन्तिभोज ने उस प्रशंसनीय पृथा को पाण्डु को पत्नी के रूप में दे दिया।

 देवीभागवत पुराण-स्कन्ध 4, अध्याय 3 

वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्मकी कथा

"देवीभागवतपुराण -स्कन्धः ४

दित्या अदित्यै शापदानम्

             "व्यास उवाच
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥

वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ॥ २॥

एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥ ३ ॥

वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः ॥ ४ ॥

किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥

भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥

मृतवत्सादितिस्तस्माद्‌भविष्यति धरातले ।
कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥

                  "व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः ।
समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥

कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥

जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १० ॥

अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥

कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया।१२॥

धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥

संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥

ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥ १५ ॥

अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥

                   "व्यास उवाच
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥

तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् ।
जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥१८॥

                 "जनमेजय उवाच
कस्माद्दित्या च भगिनी शप्तेन्द्रजननी मुने ।
कारणं वद शापे च शोकस्तु मुनिसत्तम ॥ १९ ॥
                    "सूत उवाच
पारीक्षितेन पृष्टस्तु व्यासः सत्यवतीसुतः ।
राजानं प्रत्युवाचेदं कारणं सुसमाहितः ॥ २०॥

                   "व्यास उवाच
राजन् दक्षसुते द्वे तु दितिश्चादितिरुत्तमे ।
कश्यपस्य प्रिये भार्ये बभूवतुरुरुक्रमे ॥ २१ ॥

अदित्यां मघवा पुत्रो यदाभूदतिवीर्यवान् ।
तदा तु तादृशं पुत्रं चकमे दितिरोजसा ॥ २२ ॥

पतिमाहासितापाङ्गी पुत्रं मे देहि मानद ।
इन्द्रख्यबलं वीरं धर्मिष्ठं वीर्यवत्तमम् ॥ २३ ॥

तामुवाच मुनिः कान्ते स्वस्था भव मयोदिते ।
व्रतान्ते भविता तुभ्यं शतक्रतुसमः सुतः ॥ २४ ॥

सा तथेति प्रतिश्रुत्य चकार व्रतमुत्तमम् ।
निषिक्तं मुनिना गर्भं बिभ्राणा सुमनोहरम् ॥ २५ ॥

भूमौ चकार शयनं पयोव्रतपरायणा ।
पवित्रा धारणायुक्ता बभूव वरवर्णिनी ॥ २६ ॥

एवं जातः सुसंपूर्णो यदा गर्भोऽतिवीर्यवान् ।
शुभ्रांशुमतिदीप्ताङ्गीं दितिं दृष्ट्वा तु दुःखिता॥२७।

मघवत्सदृशः पुत्रो भविष्यति महाबलः ।
दित्यास्तदा मम सुतस्तेजोहीनो भवेत्किल।२८।

इति चिन्तापरा पुत्रमिन्द्रं चोवाच मानिनी ।
शत्रुस्तेऽद्य समुत्पन्नो दितिगर्भेऽतिवीर्यवान् ।२९ ॥

उपायं कुरु नाशाय शत्रोरद्य विचिन्त्य च ।
उत्पत्तिरेव हन्तव्या दित्या गर्भस्य शोभन ॥ ३० ॥

वीक्ष्य तामसितापाङ्गीं सपत्‍नीभावमास्थिताम् ।
दुनोति हृदये चिन्ता सुखमर्मविनाशिनी ॥ ३१ ॥

राजयक्ष्मेव संवृद्धो नष्टो नैव भवेद्‌रिपुः ।
तस्मादङ्कुरितं हन्याद्‌बुद्धिमानहितं किल।३२ ॥

लोहशङ्कुरिव क्षिप्तो गर्भो वै हृदये मम ।
येन केनाप्युपायेन पातयाद्य शतक्रतो ॥ ३३ ॥

सामदानबलेनापि हिंसनीयस्त्वया सुतः ।
दित्या गर्भो महाभाग मम चेदिच्छसि प्रियम् ।३४।

                    "व्यास उवाच
श्रुत्वा मातृवचः शक्रो विचिन्त्य मनसा ततः ।
जगामापरमातुः स समीपममराधिपः ॥ ३५ ॥

ववन्दे विनयात्पादौ दित्याः पापमतिर्नृप ।
प्रोवाच विनयेनासौ मधुरं विषगर्भितम् ॥३६॥

                      "इन्द्र उवाच
मातस्त्वं व्रतयुक्तासि क्षीणदेहातिदुर्बला ।
सेवार्थमिह सम्प्राप्तः किं कर्तव्यं वदस्व मे ॥३७ ॥

पादसंवाहनं तेऽहं करिष्यामि पतिव्रते ।
गुरुशुश्रूषणात्पुण्यं लभते गतिमक्षयाम् ॥ ३८ ॥

न मे किमपि भेदोऽस्ति तथादित्या शपे किल ।
इत्युक्त्वा चरणौ स्पृष्टा संवाहनपरोऽभवत् ॥३९॥

संवाहनसुखं प्राप्य निद्रामाप सुलोचना ।
श्रान्ता व्रतकृशा सुप्ता विश्वस्ता परमा सती ॥४०।

तां निद्रावशमापन्नां विलोक्य प्राविशत्तनुम् ।
रूपं कृत्वातिसूक्ष्मञ्च शस्त्रपाणिः समाहितः॥ ४१॥

उदरं प्रविवेशाशु तस्या योगबलेन वै ।
गर्भं चकर्त वज्रेण सप्तधा पविनायकः ॥ ४२ ॥

रुरोद च तदा बालो वज्रेणाभिहतस्तथा ।
मा रुदेति शनैर्वाक्यमुवाच मघवानमुम् ॥ ४३ ॥

शकलानि पुनः सप्त सप्तधा कर्तितानि च ।
तदा चैकोनपञ्चाशन्मरुतश्चाभवन्नृप ॥ ४४ ॥

तदा प्रबुद्धा सुदती ज्ञात्वा गर्भं तथाकृतम् ।
इन्द्रेण छलरूपेण चुकोप भृशदुःखिता ॥ ४५ ॥

भगिनीकृतं तु सा बुद्ध्वा शशाप कुपिता तदा ।
अदितिं मघवन्तञ्च सत्यव्रतपरायणा ॥ ४६ ॥

यथा मे कर्तितो गर्भस्तव पुत्रेण छद्मना ।
तथा तन्नाशमायातु राज्यं त्रिभुवनस्य तु ॥ ४७ ॥

यथा गुप्तेन पापेन मम गर्भो निपातितः ।
अदित्या पापचारिण्या यथा मे घातितः सुतः।४८ ॥

तस्याः पुत्रास्तु नश्यन्तु जाता जाताः पुनः पुनः ।
कारागारे वसत्वेषा पुत्रशोकातुरा भृशम् ॥ ४९ ।

अन्यजन्मनि चाप्येव मृतापत्या भविष्यति ।
                  "व्यास उवाच
इत्युत्सृष्टं तदा श्रुत्वा शापं मरीचिनन्दनः ॥ ५० ॥

उवाच प्रणयोपेतो वचनं शमयन्निव ।
मा कोपं कुरु कल्याणि पुत्रास्ते बलवत्तराः ॥५१ ॥

भविष्यन्ति सुराः सर्वे मरुतो मघवत्सखाः ।
शापोऽयं तव वामोरु त्वष्टाविंशेऽथ द्वापरे ॥ ५२ ॥

अंशेन मानुषं जन्म प्राप्य भोक्ष्यति भामिनी ।
वरुणेनापि दत्तोऽस्ति शापः सन्तापितेन च ॥५३॥

उभयोः शापयोगेन मानुषीयं भविष्यति ।
                    "व्यास उवाच
पतिनाश्वासिता देवी सन्तुष्टा साभवत्तदा ॥ ५४ ॥

नोवाच विप्रियं किञ्चित्ततः सा वरवर्णिनी ।
इति ते कथितं राजन् पूर्वशापस्य कारणम् ॥५५ ॥

अदितिर्देवकी जाता स्वांशेन नृपसत्तम ॥ ५६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

  1.  इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। - ऋ. ५.६९.२
इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे।
त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसॄणां धिषणानां रेतोधा वि द्युमन्तः ॥२॥

अनुवाद:
“हे मित्र और वरुण !, आपकी (आज्ञा से) गायें दूध से भरपूर होती हैं, और आपकी (इच्छा) से नदियाँ मीठा पानीय देती हैं; आपके आज्ञा से ही तीन दीप्तिमान  वृषभ  तीन क्षेत्रों (स्थानों) में अलग-अलग खड़े हैं।
______________________
हे “वरुण हे “मित्र “वां= युवयोराज्ञया “धेनवः= गावः “इरावतीः- इरा= क्षीरलक्षणा। तद्वत्यो भवन्ति । तथा “सिन्धवः =स्यन्दनशीला मेघा नद्यो वा “मधुमत्= मधुररसमुदकं "दुहे =दुहन्ति । तथा “त्रयः= त्रिसंख्याकाः “वृषभासः= वर्षितारः  “रेतोधाः= वीर्यस्य धारकाः “द्युमन्तः= दीप्तिमन्तोऽग्निवाय्वादित्याः“तिसॄणां= त्रिसंख्याकानां “धिषणानां =स्थानानां [धिषण=  स्थाने] पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकानां स्वामिनः सन्तः “वि= विविधं प्रत्येकं “तस्थुः =तिष्ठन्ति । युवयोरनुग्रहात् त्रयोऽपि देवास्त्रिषु स्थानेषु वर्तन्ते इत्यर्थः ॥

(वाम्) युवाम्  (सिन्धवः) नद्यः (दुह्रे) दोहन्ति    (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वृषभासः) वर्षकाः षण्डा: (तिसृणाम्) त्रिविधानाम् (धिषणानाम्)स्थानानां  (रेतोधाः) यो रेतो वीर्यं दधाति॥२॥
 हिन्दी अनुवाद:-

व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥

अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणीके अवतारोंका कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥

एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥

हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥

व्यासजी बोले- जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥

हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥

अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥

महर्षि कश्यप भी उस लोभ का परित्याग कर सकने में समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥

शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥

संसार में लोभ से बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥

अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।

व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥

उधर कश्यप की भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥

जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19 ॥

सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥

व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही | कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21 ॥

जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥

उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23 ॥

तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥

कश्यपमुनि की बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी। उनके ओज से सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी। 
इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥

[उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दिति के | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥

इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दितिके | गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।

मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥

जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ 32 ॥

हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कील के समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।।

व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपरसे मधुर किंतु भीतरसे विषभरी वाणीमें विनम्रतापूर्वक उससे कहा- ॥ 35-36 ।।

इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ोंकी सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।।

मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आपमें कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।।

पादसंवाहनका सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दितिको नींद आने लगी। वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥

दितिको नींदके वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दितिके शरीरमें प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥

इस प्रकार योगबल द्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥ 42 ॥

उस समय वज्राघातसे दुःखित हो गर्भस्थ
शिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्रने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥ 43 ॥

तत्पश्चात् इन्द्रने पुनः उन सातों टुकड़ोंके सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये ॥ 44 ॥

उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥

यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दितिने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनोंको शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्रने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय। 

जिस प्रकार पापिनी अदितिने गुप्त पापके द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और  मेरे गर्भको नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोकसे अत्यन्त चिन्तित होकर कारागारमें रहेगी।
अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यपने | दितिप्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे। 
वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें तुम्हारा शाप सफल होगा।
उस समय अदिति मनुष्ययोनिमें जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी। 

इसी प्रकार दुःखित वरुणने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापोंके संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥ 

व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यपके | आश्वासन देनेपर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥सन्दर्भ:-"हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व -अध्याय - (55) 

भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य

गोपजातौ अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्"पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय- 

 हिन्दी-अनुवाद-सहित- 

          "वैशम्पायन उवाच
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः।।१।।

त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद।
तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः।।२।।

वदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः।
यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम्।।३।।

जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि।
केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम्।।४।।

नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ।
अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।।५।।

विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः।
सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिताबलेः।।६।।

कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् ।
वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत्।।७।।

विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम्।
प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये।।८।।

मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्।
बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्।।९।।

दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम।
मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।।1.55.१०।।

सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः।
क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया।
एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम्।।११।।

सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च।
सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः।।१२।।

कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान्।
तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति।।१३।।

अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया।
अमीषां हि सुरेन्द्राणांहन्तव्या रिपवो युधि।।१४।।

जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः।
सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम।।१५।।

विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः।१६।।

"यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्।  तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।।१७।।

                  "ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।।

यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि । यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।।

तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। 1.55.२०।।

पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः।जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।।

अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै।।२२।।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति।।२३।।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः। अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।।२४।।

मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो । चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।।२५।।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः। त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमागतिः।।२७।।

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्। न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।।२८।।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः। मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।। २९।।

या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम्।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्। 1.55.३०।।

त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान्।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।।

इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।

येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।।

या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।। ३४।।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।।३५।।

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले 
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।।३६।।

तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते।।३७।।

देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।।३८।।

तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।।३९।।

छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।। 1.55.४०।।

जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः 
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले।।४१।।

देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्।।४२।।

गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः।
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।।४३।।

विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति।।४४।।

त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव।।४५।।

वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि।। ४६।।

जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।। ४७।।

अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।।४८।।

योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।।४९।।

             "वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये।
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां 

दिशम् ।। 1.55.५०।।

तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा ।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।।

पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।।५२।।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।


              *हिन्दी अनुवाद:-★        
____________________________
             हरिवंशपर्व सम्पूर्ण।
वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय!भोग और मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों के द्वारा जो एकमात्र वरण करने योग्य हैं।

वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारद की पूर्वोक्त बात सुनकर मुस्कराए और अपनी कल्याण कारी वाणी द्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले ।१।

'नारद ! तुम तीनों लोकों के हित के लिए मुझसे जो कुछ कह रहे हो -तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा देने वाली है। अब तुम उसका उत्तर सुनो !।२।

अब मुझे भली भाँति विदित है कि ये दानव भूतल पर मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि कौन कौन दैत्य किस किस शरीर को धारण करके वैर भाव की पुष्टि कर रहा है।३।

मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेनपुत्र कंस के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है । घोड़े का शरीर धारण करने वाले केशी दैत्य से भी मैं अपरिचित नहीं हूँ।४।

कुवलयापीड हाथी चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल तथा वृषभ रूपधारी दैत्य अरिष्टासुर को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।५।

विप्रवर -खर और प्रलम्ब नामक असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं। राजा बलि की पुत्री पूतना को भी मैं जानता हूँ।६।

यमुना के कुण्ड में रहने वाले कालिया नाग को भी मैं जानता हूँ। जो गरुड के भय से उस कुण्ड में जा घुसा है।७।

मैं उस जरासन्ध से भी परिचित हूँ जो इस समय सभी भूपालों के मस्तक पर खड़ा है। प्राग्य-ज्योतिष पुर में रहने वाले नरकासुर को भी मैं भलीभाँति जानता हूँ।८।

भूतल के मानव लोक में जो मनुष्य रूप धारण कर के उत्पन्न हुआ है। जिसका तेज कुमार कार्तिकेय के समान है।जो शोणितपुर में निवास करता है। और अपनी हजार भुजाओं के कारण देवों के लिए भी अत्यन्त दुर्जेय हो रहा है। उस बलाभिमानी दैत्य वाणासुर को भी मैं जानता हूँ ।

तथा यह भी जानता हूँ कि पृथ्वी पर जो भारती सेना का महान भार बढ़ा हुआ है उसे उतारने का उत्तरदायित्व( भार,) मुझपर ही अवलम्बित है।९-१०।

मैं उन सारी बातों से परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजा लोग आपस में युद्ध करेंगे। भूतल पर उनका किस प्रकार संहार होगा। और पुनर्जन्म से रहित देह धारण करने वाले इन नरेशों को इन्द्र लोक में किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा।– यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने है।११।

मैं भूलोक में पहुँच कर मानव शरीर धारण करके स्वयं तो उद्योग का आश्रय लुँगा ही दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करुँगा।१२।

जिस जिस विधि से जो जो असुर मर सकेगा उस उस उपाय से ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े़ बड़े़ असुरों का वध करुँगा१३।

मैं योग से इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान गतियों को नष्ट कर दुँगा और इस प्रकार युद्ध में इन देवेश्वरों के शत्रुओं का वध कर डालुँगा।१४।

नारद ! पृथ्वी के हित के लिए स्वर्गवासी देवताओं देवर्षियों तथा गन्धर्वों के यहाँ से जो अपने अपने अंश का उत्सर्ग किया है वह सब मेरी अनुमति से हुआ है । क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा निश्चय कर लिया था।
________________
ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह !अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में और किस जाति जन्म लेकर और किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ?।१६-१७।

ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे- 

तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०।

विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।

यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।

तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३।

यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।

प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।

देव ! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?।२६।

ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।

लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।

इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।

इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।

गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।

अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।

महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।

वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।

गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।

जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नाम की इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।

हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९।

मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।

ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२।

'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे  ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३।

महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४।

कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।

हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।

वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा  ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७।

विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८।

मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९।

वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०।

वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।

उदारबुद्धि वाले भगवान् श्रीहरि विष्णु ने अपने पुरातन विग्रह को (शरीर) को स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने के कार्य में लगा दिया।५२।
_______________________________

 "नारद पुराण में सभी गोपों की पूजा का विधान-
दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।।
वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम् ।८०-५८।

एवं संपूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम्।
यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम् ।८०-५९ ।।

पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।
अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् । ८०-६० ।।

दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः । ८०-६१ ।।

सुविंदा मित्रविंदा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।।
सुशीला च लसद्रम्यचित्रितांबरभूषणा।८०-६२।

ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम्।
नंदगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।

गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।।
ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपांडुरौ।८०-६४।


दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः।
धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।। ८०-६५ ।।

अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी  पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।


       "अध्याय- सप्तम -

'यदुवंशके सनातन विशेषण-आभीर  गोप  और यादव। अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में देवमीढ ही नन्द और वसुदेव दोंनो के पितामह थे । ***

राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धन्वा तथा कृतवर्मा थे ।                       

देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि..👇

"अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम  पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।४८।

(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व -३८ वाँ अध्याय )

यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात्‌ देवमीढ़ हुए।



"यदोर्वंशस्यान्तर्गते देवक्षत्रस्यमहातेजा पुत्रो मधु: तस्यनाम्ना  मधोः पुर वसस्तथा। आसीत् पुरवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः।४४। 

 (मत्स्य- पुराण अध्याय 44 श्लोक 44) 

अनुवाद:-"मथुरा का पूर्व नाम मधुपर यादव राजा देवक्षत्र के पुत्र मधु के नाम पर प्रचलित हुआ" 

देवक्षत्र के  मधु थे । मधु ने ब्रजभूमि में यमुना नदी के दाहिने किनारे पर एक राज्य की स्थापना की, जिसका नाम उनके नाम पर मधुपुर रखा गया। बाद में इसे मथुरा के नाम से जाना गया । उनसे पुरवस नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । बाद वाले पुरुद्वन के पिता थे । पुरुद्वान् का जन्तु नाम का एक पुत्र था । जंतु( अँशु) की पत्नी ऐक्ष्वाकि से सात्वत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । सात्वत मधु के पांचवें उत्तराधिकारी थे। सात्वत के उत्तराधिकारियों को सात्वत के नाम से भी जाना जाता था ।  सात्वत के पुत्र भजिन, भजमान , दिव्य , देववृध, अन्धक , महाभोज , वृष्णि आदि थे।

______________________

तेभ्यः प्रव्राजितो राज्यात् ज्यामघस्तु तदाश्रमे।
प्रशान्तश्चाश्रमस्थश्च ब्राह्मणेनावबोधितः।४४.३०।

जगाम धनुरादाय देशमन्यं ध्वजी रथी।
नर्म्मदां नृप एकाकी केवलं वृत्तिकामतः। ४४.३१।

ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा भुक्तमन्यैरुपाविशत्।
ज्यामघस्याभवद् भार्या चैत्रापरिणतासती।। ४४.३२ ।।

अपुत्रो न्यवसद्राजा भार्यामन्यान्नविन्दत।
तस्यासीद्विजयो युद्धे तत्र कन्यामवाप्य सः।। ४४.३३ ।।

भार्यामुवाच सन्त्रासात् स्नुषेयं ते शुचिस्मिते।
एव मुक्ताब्रवीदेन कस्य चेयं स्नुषेति च।। ४४.३४

राजोवाच।
यस्तेजनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति।
तस्मात् सा तपसोग्रेण कन्यायाः सम्प्रसूयत।। ४४.३५ ।।

पुत्रं विदर्भं सुभगा चैत्रा परिणता सती।
राजपुत्र्यां च विद्वान् स स्नुषायां क्रथ कौशिकौ।।
लोमपादं तृतीयन्तु पुत्रं परमधार्मिकम्।। ४४.३६ ।

तस्यां विदर्भोऽजनयच्छूरान् रणविशारदान्।
लोमपादान्मनुः पुत्रो ज्ञातिस्तस्य तु चात्मजः।। ४४.३७ ।।

कौशिकस्य चिदिः पुत्रो तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः।
क्रथो विदर्भपुत्रस्तु कुन्ति स्तस्यात्मजोऽभवत्।। ४४.३८ ।।

कुन्ते र्धृतः सुतो जज्ञे रणधृष्टः प्रतापवान्।
धृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निर्वृतिः परवीरहा।४४.३९।

तदेको निर्वृतेः पुत्रो नाम्ना स तु विदूरथः।
दशार्हिस्तस्य वै पुत्रो व्योमस्तस्य च वै स्मृतः।।
दाशार्हाच्चैव व्योमात्तु पुत्रो जीमूत उच्यते।। ४४.४० ।।

जीमूतपुत्रो विमलस्तस्य भीमरथः सुतः।
सुतो भीमरथस्यासीत् स्मृतो नवरथः किल।। ४४.४१ ।।

तस्य चासीद् दृढरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।
तस्मात् करम्भः कारम्भि र्देवरातो बभूव ह।। ४४.४२ ।।

देवक्षत्रोऽभवद्राजा दैवरातिर्महायशाः।
देवगर्भसमो जज्ञे देवनक्षत्रनन्दनः।। ४४.४३ ।।

मधुर्नाम महातेजा मधोः पुरवसस्तथा।
आसीत् पुरवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः।। ४४.४४ ।।

जन्तुर्जज्ञेऽथ वैदर्भ्यां भद्रसेन्यां पुरुद्वतः।
ऐक्ष्वाकी चाभवद् भार्या जन्तोस्तस्यामजायत।। ४४.४५ ।।

सात्वतः सत्वसंयुक्तः सात्वतां कीर्तिवर्द्धनः।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः।।
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।। ४४.४६ ।।

सात्वतान् सत्वसम्पन्नान् कौसल्या सुषुवे सुतान्।
भजिनं भजमानन्तु दिव्यं देवावृधं नृप!।। ४४.४७।।

अन्धकञ्च महाभोजं वृष्णिं च यदुनन्दनम्!
तेषां तु सर्गा श्चत्वारो विस्तरेणैव तच्छृणु।। ४४.४८।।

सन्दर्भ:- मत्स्यपुराणम् - अध्यायः (44)

_____________        

नर्म्मदानूप एकाकी मेकलावृत्तिका अपि।
ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा शुक्तिमन्यामथाविशत् ।। ३३.३१ ।।

ज्यामघस्याभवद्भार्या शैब्या बलवती भृशम्।
अपुत्रोऽपि स वै राजा भार्यामन्यां न विन्दति ।। ३३.३२ ।।

तस्यासीद्विजयो युद्धे ततः कन्यामवाप सः।
भार्यामुवाच राजा स स्नुषेति तु नरेश्वरः।३३.३३ ।।

एवमुक्ताब्रवीदेवं काम्ये यन्ते स्नुषेति सा।
यस्ते जनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति ।। ३३.३४ ।।

तस्य सा तपसोग्रेण शैव्या वैशं प्रसूयत ।
पुत्रं विदर्भं सुभगा शैव्या परिणता सती ।३३.३५।

राजपुत्रौ तु विद्वांसौ स्नुषायां क्रथुकैशिकौ।
पुत्रौ विदर्भोऽजनयच्छूरौ रणविशारदौ ।३३.३६ ।

लोमपादं तृतीयन्तु पश्चाज्जज्ञे सुधार्मिकः।
लोम पादात्मजोवस्तुराहृतिस्तस्य चात्मजः ।। ३३.३७ ।।

कैशिकस्य चिदिः पुत्रस्तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः ।
क्रथोर्विदर्भपुत्रस्तु कुन्तिस्तस्यात्मजोऽभवत् ।। ३३.३८ ।।

कुन्तेर्धृष्टसुतो जज्ञे पुरोधृष्टः प्रतापवान् ।
धृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निर्वृतिः परवीरहा ।३३.३९।

तस्य पुत्रो दाशार्हस्तु महाबलपराक्रमः।
दाशार्हस्य सुतो व्योमा ततो जीमूत उच्यते ।। ३३.४० ।।

जीमूतपुत्रो विकृतिस्तस्य भीमरथः सुतः.
अथ भीमरथस्यासीत् पुत्रो रथवरः किल ।। ३३.४१ ।।

दाता धर्म्मरतो नित्यं शीलसत्यपरायणः।
तस्य पुत्रो नवरथस्ततो दशरथः स्मृतः।३३.४२।

तस्य चैकादशरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।
तस्मात् करम्भको धन्वी देवरातोऽभवत्ततः ।। ३३.४३।

देवक्षत्रोऽभवद्राजा देवरातिर्म्महायशाः।
देवक्षत्रसुतो जज्ञे देवनः क्षत्रनन्दनः ।३३.४४ ।।
********
देवनात् स मधुर्जज्ञे यस्य मेधार्थसम्भवः।
मधोश्चापि महातेजा मनुर्मनुवशस्तथा** ।। ३३.४५।

नन्दनश्च महातेजा महापुरुवशस्तथा।
आसीत् पुरुवशात् पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः। ३३.४६ ।


जज्ञे पुरुद्वतः पुत्रो भद्रवत्यां पुरूद्वहः।
ऐक्षाकी त्वभवद्भार्या सत्त्वस्तस्यामजायत।
सत्त्वात् सत्त्वगुणो पेतः सात्त्वतः कीर्तिवर्द्धनः ।३३.४७ ।।

इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः।
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः ।। ३३.४८ ।।
सन्दर्भ:-
इति श्रीमहा पुराणे वायुप्रोक्ते ज्यामघवृत्तान्तकथनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३३ ।। *

तस्य चासीद्दशरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः ।
तस्मात् करम्भः कारम्भिर्देवरातोऽभवन्नृपः।२६।

देवक्षत्रोऽभवत् तस्य दैवक्षत्रिर्महायशाः ।
देवगर्भसमो जज्ञे देवक्षत्रस्य नन्दनः ।। २७ ।।

मधूनां वंशकृद् राजा मधुर्मधुरवागपि ।
मधोर्जज्ञेऽथ वैदर्भो पुत्रो मरुवसास्तथा ।। २८ ।।

आसीन्मरुवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः ।
मधुर्जज्ञेऽथ वैदर्भ्यां भद्रवत्यां कुरूद्वहः ।। २९ ।

ऐक्ष्वाकी चाभवद्भार्या सत्त्वांस्तस्यामजायत ।
सत्त्वान् सर्वगुणोपेतः सात्त्वतां कीर्तिवर्धनः ।। 1.36.३० ।।

इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः ।
युज्यते परया कीर्त्या प्रजावांश्च भवेन्नरः ।। ३१ ।।

सन्दर्भ:-
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः।३६। 

नर्म्मदानूप एकाकी मेकलावृत्तिका अपि।
ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा शुक्तिमन्यामथाविशत् ।। ३३.३१ ।।

ज्यामघस्याभवद्भार्या शैभ्या बलवती भृशम्।
अपुत्रोऽपि स वै राजा भार्यामन्यां न विन्दति ।। ३३.३२ ।।

तस्यासीद्विजयो युद्धे ततः कन्यामवाप सः।
भार्यामुवाच राजा स स्नुषेति तु नरेश्वरः।३३.३३ ।।

एवमुक्ताब्रवीदेवं काम्ये यन्ते स्नुषेति सा।
यस्ते जनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति ।। ३३.३४ ।।

तस्य सा तपसोग्रेण शैब्या वैशं प्रसूयत ।
पुत्रं विदर्भं सुभगा शैब्या परिणता सती ।३३.३५।

राजपुत्रौ तु विद्वांसौ स्नुषायां क्रथुकौशिकौ।
पुत्रौ विदर्भोऽजनयच्छूरौ रणविशारदौ 
। ३३.३६ ।।

लोमपादं तृतीयन्तु पश्चाज्जज्ञे सुधार्मिकः।
लोम पादात्मजोवस्तुराहृतिस्तस्य चात्मजः ।। ३३.३७ ।।

कौशिकस्य चिदिः पुत्रस्तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः ।
क्रथोर्विदर्भपुत्रस्तु कुन्तिस्तस्यात्मजोऽभवत् ।। ३३.३८ ।।

कुन्तेर्धृष्टसुतो जज्ञे पुरोधृष्टः प्रतापवान् ।
धृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निर्वृतिः परवीरहा।३३.३९ ।

तस्य पुत्रो दशार्हस्तु महाबलपराक्रमः।
दीशर्हस्य सुतो व्योमा ततो जीमूत उच्यते ।। ३३.४० ।।

जीमूतपुत्रो विकृतिस्तस्य भीमरथः सुतः.
अथ भीमरथस्यासीत् पुत्रो रथवरः किल ।। ३३.४१ ।।

दाता धर्म्मरतो नित्यं शीलसत्यपरायणः।
तस्य पुत्रो नवरथस्ततो दशरथः स्मृतः ।३३.४२ ।

तस्य चैकादशरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।
तस्मात् करम्भको धन्वी देवरातोऽभवत्ततः ।। ३३.४३ ।।

देवक्षत्रोऽभवद्राजा देवरातिर्म्महायशाः।
देवक्षत्रसुतो जज्ञे देवनः क्षत्रनन्दनः ।। ३३.४४ ।।

देवनात् स मधुर्जज्ञे यस्य मेधार्थसम्भवः।
मधोश्चापि महातेजा **मनुर्मनुवशस्तथा ।३३.४५ ।।******


नन्दनश्च महातेजा महापुरुवशस्तथा।
आसीत् पुरुवशात् पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः ।। ३३.४६ ।।

जज्ञे पुरुद्वतः पुत्रो भद्रवत्यां पुरूद्वहः।
ऐक्षाकी त्वभवद्भार्या सत्त्वस्तस्यामजायत।
सत्त्वात् सत्त्वगुणो पेतः सात्त्वतः कीर्तिवर्द्धनः ।। ३३.४७ ।।

इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः।
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः ।। ३३.४८ ।।
सन्दर्भ-
इति श्रीमहा पुराणे वायुप्रोक्ते ज्यामघवृत्तान्तकथनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ।।३३।। *




आसीत्कुरुवशात्पुत्रः पुरुहोत्रः प्रतापवान्
अंशुर्जज्ञेथ वैदर्भ्यां द्रवंत्यां पुरुहोत्रतः।२८।
28. कुरुवश से एक वीर पुत्र पुरुहोत्र का जन्म हुआ। पुरुहोत्र से वैदर्भी नामक पत्नी में  अंशु नामक पुत्र  हुआ। 


📚:
वेत्रकी त्वभवद्भार्या अंशोस्तस्यां व्यजायत
सात्वतः सत्वसंपन्नः सात्वतान्कीर्तिवर्द्धनः।२९।
29-. अंशु की पत्नी वेत्रकी से  सात्वत  हुआ जो  ऊर्जा से संपन्न और बढ़ती प्रसिद्धि वाला था।

इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।३०।"अनुवाद:-
 30-  महाराज ज्यामघ की. इन  संतानों को जानकर कोई भी सन्तान वाला  व्यक्ति  पुत्र जुड़कर, सोम के साथ एक रूपता प्राप्त करता है। 

सात्वतान्सत्वसंपन्ना कौसल्यां सुषुवे सुतान्
तेषां सर्गाश्च चत्वारो विस्तरेणैव तान्शृणु।३१।
31-. कौशल्या में  सत्व सम्पन्न सात्वत से  चार पुत्रों को जन्म हुआ  उन्हें विस्तार से सुनो
×××××××××

कुकुरं भजमानं च श्यामं कंबलबर्हिषम्
कुकुरस्यात्मजो वृष्टिर्वृष्टेस्तु तनयो धृतिः।४५।
45- ये चार पुत्र थे (कुकुर , भजमान, श्याम और कम्बलबर्हिष) । कुकुर के पुत्र वृष्टि हुए और वृष्टि के पुत्र धृति थे। 

 "सात्वत वंश के यादव"


📚: सात्वत् (सात्वत्)। - यदु वंश के एक राजा और देवक्षत्र के पुत्र, सात्वत के सात पुत्र थे जिनमें -भज, भजी, दिव्य, वृष्णि, देववृध,अन्धक और महाभोज शामिल थे। 

सात्वत:- सात्वों में से एक थे और उनके वंश में सात्वत लोगों को सात्वत कहा जाता है। ( महाभारत-सभा पर्व, अध्याय 2, श्लोक 30)।
__________________________

क्रोष्टा नामक यादव के पौत्र और युधाजित के पुत्र। अन्धक! 

सात्त्वतान् सत्त्वसम्पन्नात् कौशल्यां सुषुवे सुतान् ।
भजिनं भजमानञ्च दिव्यं देवावृधं नृपम् । 

अन्धकञ्च महाबाहुं, वृष्णिञ्च यदुनन्दनम् । तेषां विसर्गाश्चत्वारो विस्तरेणेह तान् शृणु । 

अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरोऽलभ्मतात्मजान् । कुकुरं भजमानञ्च शभं कम्बलवर्हिषम्” । इति हरिवंशे ।३८-वाँ अध्याय ।
 
आयु से सात्वत का जन्म हुआ।

सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए- 

(२-सात्वत के  पुत्र वृष्णि प्रथम )

निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।

 आयु से सात्वत का जन्म हुआ।
सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए-
(२-सात्वत के  पुत्र वृष्णि )

निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।

(३-अनमित्र के  पुत्र वृष्णिद्वितीय )
अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम वृष्णि था।*****‡‡‡ 

सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। 

उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ।

तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और

पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई। 
*********************
आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।
********

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 24-41 का हिन्दी अनुवाद:-

उग्रसेन के नौ पुत्र थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान। उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं- कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका। 

इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था। चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से शिनि, शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए।

हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा।
_____________________________________(२-सात्वत के  पुत्र वृष्णि )

सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। 

उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ।

तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और

पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई। 
*********************
आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।
********
सन्दर्भ:-
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः 

देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।

 ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं- 
पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। 
वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी

देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।

 ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं- 
पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। 
वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी

अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पितामह थे ।

राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धन्वा तथा कृतवर्मा थे ।                       

देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व- 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि..👇

"अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम  पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )

यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात्‌ देवमीढ़ हुए।

यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात्‌ देवमीढ़ हुए।

यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात्‌ देवमीढ़ हुए। ये अन्धक वृष्णि शाखा से सम्बन्धित थे।

देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।

देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇
अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम  पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।।४८। 
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )

यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात्‌ देवमीढ़ हुए 

शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-💐☘

और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।

शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-💐☘

और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।

📚: 

"नन्द के परिवारी जन" ★-

•नन्द के पिता-पर्जन्य- और माता-वरीयसी पितामह- देवमीढ़ और पितामही - गुणवती-थीं। 
अत: कृष्ण के पालक पिता नन्द के होने से जो पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हुए हैं; वह निम्नांकित रूप में हैं ।
नन्द के अन्य  नौ भाई थे -धरानंद, ध्रुवानंद, उपनंद, अभिनंद, .सुनंद, कर्मानंद, धर्मानंद, नंद और वल्लभ।

१- नन्द के पिता पर्जन्य, माता वरीयसी, पितामाह देवमीढ और पितामही गुणवती थीं।

-३-यशोदा के पिता—-सुमुख-( भानुगिरि)। माता–पाटला- और भाई यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव आदि नाम चार थे।

नन्द के बड़े भाई — उपनन्द एवं अभिनन्द दो मुख्य थे तुंगी (उपनन्द की पत्नी),
पीवरी (अभिनन्द की पत्नी) थीं।

नन्द छोटे भाई  — सन्नन्द (सुनन्द) एवं नन्दन थे जिनकी पत्नी क्रमश: कुवलया (सन्नन्द की पत्नी), और अतुल्या (नन्दन की पत्नी) का नाम था ।
इसके अतिरिक्त नन्द बहिनें सुनन्दा और नन्दिनी भीं थी जिनके पतियों का नाम क्रमश:
-महानील एवं सुनील ।

:—सुनन्दा (महानील की पत्नी), और-नन्दिनी-(सुनील की पत्नी) थी।
-कृष्ण के पालक पिता—महाराज नन्द।

यशस्विनी यशोदा की बहिन जिनके पति —मल्ल ना से थे। (एक मत से मौसा का  दूसरा नाम भी नन्द है) ये यशस्वनी भी यशोदा की बहिन थी ।
इसके अतिरिक्त यशोदा की अन्य बहिनें—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा) भी थीं।
📚: 

   "मथुरा शब्द की उत्पत्ति तथा विकास"
 
 ___________________________________

शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥_____________________________________ तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०
_________                                             
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।     
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।६१।
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा  के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।   
                          
 अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।                                                                       
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले  हुए ।६१।

अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !  वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।

अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल।६२॥

अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।

दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥

अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।

कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥

अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।

इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
_____________    

यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।

गोप लोग  कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।

क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है।  पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं 

कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न  ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।

फिर  दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है;  ये आर्य अथवा पशुपालक  गोपालक चरावाहों के  रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।

परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में  प्रचलित हुआ तो तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये !

अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया ! 

गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था।
और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है।

जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।

भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे;  इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकरही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे ।

देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
_____________________

तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥

अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।

अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।

अग्रलिखित सन्दर्भों में हम  चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य " श्री गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन प्रस्तुत करेंगे 

यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-
 ____________________________________
                (अथ कथारम्भ:) 
"यथा-अथ सर्वश्रुतिपुराणादिकृतप्रशंसस्य वृष्णिवंशस्य वतंस: देवमीढनामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास ।

तस्य चार्याणां  शिरोमणेभार्याद्वयासीत् । प्रथमाद्वितिया (क्षत्रिय)वर्णा द्वितिया तु तृतीय (वेैश्य)वर्णेति ।

तयोश्च क्रमेण यथा वदाह्वयं  पुत्रद्वयं प्रथमं बभूव-शूर:, पर्जन्य इति । 

तत्र शूरस्य श्रीवसुदेवाय: समुदयन्ति स्म ।श्रीमान् पर्जन्यस्तु ' मातृ वर्ण -संकर: इति न्यायेन वैश्यताममेवाविश्य ,गवामेवैश्यं वश्यं चकार; बृहद्-वन एव च वासमा चचार । 

स चार्य  बाल्यादेव ब्राह्मण दर्शं पूजयति, मनोरथपूरं देयानि वर्षति, वैष्णववेदं स्नह्यति, यावद्वेदं 

व्यवहरति यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वंशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशां वतंसतया परं शंसनीय:, आभीर विशेषतया सद्भिरुदीरणादेष हि विशेषं भजते स्म ।।२३।।

अर्थ-• समस्त श्रुतियाँ एवं पुराणादि शास्त्र जिनकी भूरि भूरि प्रशंसा करते रहते हैं ; उसी यदुवंश के शिरोमणि और विशिष्ट गुणों के स्थान स्वरूप श्री देवमीढ़ राजा श्री मथुरापुरी में निवास करते थे ; 

उन्हीं क्षत्रिय शिरोमणि महाराजाधिराज के दो पत्नीयाँ  थीं , पहली  (पत्नी) क्षत्रिय वर्ण की,  दूसरी वैश्य वर्ण की थी, दोनों रानियों के क्रम से यथायोग्य दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से एक का नाम शूरसेन दूसरे का नाम पर्जन्य था ;

उन दौनों में से शूरसेन जी के श्री वासुदेव आदि पुत्र उत्पन्न हुए किंतु श्री पर्जन्य बाबा तो  (मातृवद् वर्ण संकर) इस न्याय के कारण वैश्य जाति को प्राप्त होकर गायों के आधिपत्य को ही अधीन कर गए अर्थात् उन्होंने अधिकतर गो- प्रतिपालन रूप धर्म को ही स्वीकार कर लिया एवं वे महावन में ही निवास करते थे ।

और वे बाल्यकाल से ही ब्राह्मणों की दर्शन मात्र से पूजा करते थे एवं उन ब्राह्मणों के मनोरथ पूर्ति पर्यंत देय वस्तुओं की वृष्टि करते थे; वह वैष्णवमात्र को जानकर उस से स्नेह करते थे; 

जितना लाभ होता था उसी के अनुसार व्यवहार करते थे तथा आजीवन श्रीहरि की पूजा करते थे, उनकी माता का वंश भी सब दिशाओं में समस्त वैश्य जाति का भूषण स्वरूप होकर परम प्रशंसनीय था।  

विज्ञपंडित जन भी जिनकी माता के वंश को (आभीर-विशेष) कहकर पुकारते थे; इसीलिए यह माता का वंश उत्कर्ष विशेष को प्राप्त कर गया ।२३।।

तथा च मनुस्मृति:-(१०/१५)-ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतोनाम जायते।आभीरोऽ म्बष्ठकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण:।। इति।। अम्बष्ठस्तु विश: पुत्र्यां ब्राह्ममणाज्जात उच्यते। इति चान्यत्र । अत: पाद्मे सृष्टि खण्डादौ यज्ञं कुर्वता ब्रह्मणापि आभीरपर्याय-गोपकन्याया: पत्नीत्वेन स्वीकार: प्रसिद्ध: । एष एव च गोप वंश:श्रीकृष्णलीलायां सवलनमाप्स्यतीति; सृष्टि खण्ड एव तत्र स्पष्टीकृतमस्ति । तस्मात् परमशंसनीय एवासौ वैश्यान्त:पाति महा-आभीर द्विज वंश: इति।।२४।।

अर्थ•-इस विषय में मनुस्मृति  भी कहती है। यथा (10/15) कि क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्या से उत्पन्न उग्रा कहलाती है ब्राह्मण के द्वारा उसी उग्रा कन्या के गर्भ से आवृत नामक पुत्र उत्पन्न होता है ; ब्राह्मण के द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न  कन्या को अम्बष्ठा कहते हैं उसी अम्बष्ठा के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा आभीर जाति का जन्म होता है शूद्र द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न कन्या को आयोगवी कहते हैं।

उसी आयोगवी के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा धिग्वण का जन्म होता है; अन्यत्र भी देखा जाता है कि वैश्य पुत्री से ब्राह्मण के द्वारा जिस पुत्री का जन्म होता है उसका नाम अम्बष्ठ  होता है । अतः पद्म पुराण में सृष्टि खण्ड के आदि में कहा गया है कि ब्रह्मा जी ने जिस समय यज्ञ किया उस समय उन्होंने आभीर पर्याय गोप कन्या को पत्नी रूप से ग्रहण किया यही बात प्रसिद्ध है यही गोपवंश श्री कृष्ण में सम्मेलन प्राप्त करेगा यह बात भी वही सृष्टि खंड में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। 

इस कारण से वैश्यजाति के अन्तर्गत यह महा-आभीर जाति द्विजवंश हो गई, अत: यह गोपवंश भी परम प्रशंसनीय है।।२४।।

अथ स्निग्धकण्ठेन चान्तश्चिन्तितम्-"एवमपि केचिदहो एषां द्विजतायां सन्देहमपि देहयिष्यन्ति- ये खलु श्रीमद्भागवते ( १०/८/१०) कुरु द्विजातिसंस्कारम् इति गर्ग प्रति श्रीव्रजराजवचने ( भा०१०/२४/२०-२१)वैश्यस्तु वार्तया जीवेत्' इत्यारभ्य कृषि, वाणिज्य-गोरक्षा, कुसीदं तुर्यमुच्यते। वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्।। इति व्रजराजं प्रति श्रीकृष्णवचने, तथैव, (भा०१०/४६/१२) अग्न्यर्कातिथिगो-विप्र' इति श्रीशुककृत-गोपावासवर्णने, व्यतिरेकस्तु धर्मराजचपतायामपि विदुरस्य शूद्रगर्भोद्भवतयान्यथाव्यवहार श्रवणेऽप्यधिकं वधिरायिष्यन्ते" इति  ।२५।।

अर्थ-• तदनंतर स्निग्ध-कंठ ने अपने मन में बेचारा की अहो कैसा आश्चर्य !  का विषय है कि कोई कोई जन तो इन गोपों की द्विजता में भी संदेह बढ़ाते रहेंगे और जो श्रीमद्भागवत में श्री गर्गाचार्य के प्रति नंद जी का वचन है कि आप हमारे दोनों पुत्रों का भी  द्विजाती संस्कार कीजिए तथा वैश्य तो वार्ता द्वारा अपनी जीविका चलाता है यहां से आरंभ करके कृषि ,वाणिज्य ,गोरक्षा और कुसीद अर्थात् ब्याज लेना वैश्य की यह चार प्रकार की वृत्ति होती है उनमें से हम तो निरंतर गौरक्षा वृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं इस प्रकार श्री बृजराज के प्रति श्री कृष्ण के वाक्य में तथा श्री शुकदेव द्वारा गोपावास वर्णन के प्रसंग में सूर्य, अग्नि अतिथि गो ब्राह्मण आदि के पूजन में गोपों का आवास स्थान मनोहर है !

इत्यादि एवं इसके व्यतिरेक से तो पूर्व जन्म में जो धर्मराज में थे वही विदुर जी शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न होकर भी अन्यथा व्यवहार करेंगे अर्थात ज्ञान उपदेश आदि द्वारा लोगों का उद्धार रूप ब्राह्मण का कार्य करेंगे या कर चुके हैं।  

संदेह करने वाले जन इन सब बातों को सुनने में तो बिल्कुल बहरे ही हो जाएंगे अर्थात् विदुर जी के ब्राह्मणत्व सुन भी ना सकेंगे।२५।।

अथ स्फुटमूचे-" ततस्तत:?" ।।२६।।               
अर्थ•- पुन: स्पष्ट बोला भाई !  मधुकण्ठ! आगे की चर्चा सुनाइये।।२६।

मधुकण्ठ उवाच- " स च श्रीमान् पर्जन्य: सौजन्यवर्येणार्जितेन निजैश्वर्येणापि वैश्यन्तरसाधारण्यमतीयाय, तच्चनाश्चर्यम्; यत: स्वाश्रितदेशपालकता-मान्यतया वदान्यतया क्षीरवैभवप्लावितसर्वजनतालब्ध-प्राधान्यतया च पर्जन्य सामान्यतामाप;-य: खलु प्रह्लाद: श्रवसि , ध्रुव: प्रतिश्रुति, पृथुर्महिमनि, भीष्मो दुर्हृदि, शंकर: सुहृदि , स्वम्भूर्गरिमणि, हरिस्तेजसि बभूव ; यस्य च सर्वैरपि कृतगुणेन गुणगणेन वशिता: सहस्रसंख्याभिरप्यनवसिता मातामह महावंशप्रभवा: सर्वथा प्रभवस्ते गोपा: सोपाध्याया:स्वयमेव समाश्रिता बभूवु:; तत्सम्बन्धिवृदानि च वृन्दश:;यं खलु श्रीमदुग्रसेनीय-यदुसंसदग्रण्यस्ते समग्र गुणगरिमण्यग्रगण्यमवलोकयन्त: सकलगोपलोकराजराजतासम्बलकेन तिलकेनसम्भावयामासु:; यस्यच प्रेयसीसकलगुणवरीयसी वरीयसीनामासीत्;। यस्य च  श्रीमदुपनन्दादय:पञ्चनन्दाना जगदेवानन्दयामासु:।" तथा च वन्दिनस्तस्य श्लोकों श्लोकतामानयन्ति-।।२७।। 

अर्थ• मधुकण्ठ बोला- वे ही श्रीमान् पर्जन्य जी उत्तम सौजन्य एवं स्वयं उपार्जित ऐश्वर्य द्वारा अन्यान्य साधारण वैश्यजाति को अतिक्रमण कर गये थे , यह आश्चर्य नहीं क्यों कि देखो-वे अपने देश के पालन करने से सभी के माननीय होकर तथा दानशीलता के कारण दुग्ध सम्पत्ति द्वारा सब लोकों कोआप्लावित करके सबकी अपेक्षा प्रधानता को प्रप्त करके भी मेघ की समानता को प्राप्त कर गये एवं जो निश्चय ही यश में प्रह्लाद, प्रतिज्ञा में ध्रुव महिमा में पृथु शत्रुओं के प्रति भीष्म, मित्रों के प्रति शंकर गौरव में ब्रह्मा तेज में श्रीहरि के तुल्य थे ।

अपिच सभी लोग जिनके गुणों की आवृत्ति करते रहते हैं ऐसे उनके गुणों के वशीभूत होकर हजारों की संख्या से भी  अधिक नाना(मातामह)  के विशाल वंश में उत्पन्न होने वाले ऐश्वर्यशाली गोपगण भी  उपाध्याय के सहित स्वयं ही जिनके आश्रित हो गये थे।

उनके सम्बन्धीय स्वजाति के वृन्द (समूह) भी बहुत से  हैंं निश्चय ही जिनको श्रीमान् उग्रसेन प्रभृति यदि सभा के अग्रगण्य व्यक्तियों ने सम्पूर्ण-गुणगौरव विषय में अग्रगण्य देखते हुए समस्त गोपजनों के सुन्दर राजत्वसूचक तिलक द्वारा सम्मानित किया अर्थात् उग्रसेन आदि सभी यदुवंशियों ने जिनको गोपों का सम्राट बना दिया जिनकी प्रिया भार्या  स्त्रीयों के सभी गुणों में श्रेष्ठ थीं ।

अतएव जिनका (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने  जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- ( तृतीय पूरण)

अन्यस्तु  जल-पर्जन्य: सुखपर्जन्य एष तु।सदा यो धिनुतेसृष्टैरुपनन्दादिभिर्जनम्।।

पर्जन्य: कृषिवृत्तीनां भुवि लक्ष्यो व्यलक्ष्यत।तदेतन्नाद्भुतं स्थूललक्ष्यतां यदसौ गत: ।।२८।।

अर्थ- देखो ! जल पर्जन्य (मेघ) तो दूसरा है किन्तु यह तो सुखपर्जन्य है। कारण यह ! पर्जन्य तो स्वयं उत्पादित उपनन्दादि  पाँच पुत्रों द्वारा सभी जनों को सदैव परितृप्त करना चाहता है परन्तु मेघरूपी पर्जन्य कृषिजीवी सभी  के द्वारा दृष्टिगोचर होकर  भूतल पर देखा जाता है ।

किन्तु यह अद्भुत नहीं है कारण यह पर्जन्य गोपराज तो दानवीरता या बहुदातृता को प्राप्त होकर स्थूल दृष्टि वालों को भी लाखों रूप में दिखाई पढ़ता है ।।२८।।

(उपमान्ति च-उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय: ।यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:।।२९।।

अर्थ-• वन्दीजन श्रीपर्जन्य बाबा की इस प्रकार उपमा भी देते है ; यथा - जिस प्रकार वेदान्त शास्त्र में आनन्दमय परब्रह्म के " प्रिय, आमोद,प्रमोद, आनन्द ,ब्रह्म ये पाँच स्वरूप हैं । उसी प्रकार ये उपनन्द, अभिनन्द, नन्द,सन्ननन्द, और नन्दन इत्यादि  पाँचों भी पिता पर्जन्य के मूर्तिविशेष जानों ।२९। 

उत्प्रेक्ष्यन्ते च-उपनन्दोऽभिनन्दश्च नन्द: सन्नन्द-नन्दनौ । इत्याख्या: कुर्वता पित्रा नन्देरर्थ: सुदण्डित:।।३० ।।

अर्थ- इस विषय में उनकी उत्प्रेक्षा भी करते हैं यथा उपनंद अभिनंद नंदन नंद एवं नंदन इत्यादि नामकरण करते हुए इनके पिता ने समृद्धि अर्थक नंद धातु के आनंद रूप अर्थ को अच्छी प्रकार वश में कर लिया है अर्थात् नंद धातु का अर्थ पर्जन्य बाबा के उपनंद आज पांच पुत्रों के रूप में मूर्तमान दिखाई देता है।३०।।

मधुकण्ठ-उवाच - तदेवं सति नाम्ना केचन गोपानां मुखेन तस्मै परमधन्या कन्या दत्ता,-या खलु स्वगुणवशीकृतस्वजना यशांसि ददाति श्रृण्वद्भ्य:,किमुत् पश्यद्भ्य: किमुततरां भक्तिमद्भ्य: । ततश्च तयो: साम्प्रतेन दाम्पत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत, किमुत मातरपितरादीनाम् ।।३६।।

अर्थ• मधुकण्ठ बोला ! उसके अनंतर गोपों में प्रधान (सुमुख) नामक किसी गोप ने अपनी परमधन्या एक कन्या उन श्रीनंद जी के लिए समर्पित की, वह कन्या अपने गुणों से अपने जनों को वश में करके सुनने वाले को भी यश प्रदान करती हैं एवं जो उनके दर्शन करते हैं उनको भी यश देती हैं तथा जो इस कन्या की भक्ति करते हैं उनको भी यशसमूह प्रदान करती हैं इस विषय में तो कहना ही क्या ?  तदनंतर  उन दोनों के सुयोग्य  दांपत्य संबंधों से सभी लोगों की  सुखसम्पत्ति उत्पन्न होगयी तब उनके माता-पिता की सुखसम्पत्ति का कौन वर्णन कर सकता है ? ।।३६ ।

तदेवमानन्दित-सर्वजन्युर्विगतमन्यु: पर्जन्य: सर्वतो धन्य: स्वयमपि भूय: सुखमवुभूय चाभ्यागारिकतायाम् अभ्यागतम्मन्य: श्रीगोविन्दपदारविन्द-भजनमात्रान्वितां देहयात्रामाभीष्टां मन्यमाना: सर्वज्यायसे ज्यायसे स्वक-कुलतिलकतां दातुं तिलकं दातुमिष्टवान्, श्रीवसुदेवादि नरदेव-गर्गदि भूदेवकृतप्रभां दत्तवांश्च।।३७।।

अर्थ•- इस प्रकार श्री पर्जन्य बाबा ने प्राणी मात्र को आनंदित करते हुए शोक रहित हो एवं सब की अपेक्षा धन्य होकर स्वयं भी अनेक सुखों का अनुभव कर कुटुंब केेेे पालन-पोषण व्यापार में अनासक्त होकर केवल श्री गोविंद पदारविंद के भजन मात्र से युक्त देह यात्रा को ही अपनी अभीष्ट मानते हुए  सबसे बड़े एवं श्रेेेष्ठ

उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि  ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।। 

"स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।

अर्थ•-पश्चात  उन श्री उप नन्द जी ने भी  पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक 

अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।

(तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 
____________________________________

'तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे  इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।।

अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक  पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।। 

तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 
____________________________________ 

योग्य एव परयोग्यताकर,-स्ताद्दशत्वमपि वेदवेदजम्। त्वन्तु वेदविदुषांवरस्तत:, संस्करु द्विजजनुस्तनु अमू ।।६५।  

अर्थ •- योग्य जन ही दूसरे को योग्य बना सकता है  ।दूसरों को योग्य बनाने की योग्यता वेदों के ज्ञान से उत्पन्न होती है ; तिसमें भी आप तो वेदज्ञ विद्वानों में श्रेष्ठ हो । अत: द्वि जों की जाति में प्रकट हैं शरीर जिनका ऐसे इन दोनो बालकों का संस्कार करो ।तात्पर्य-ब्राह्मणक्षत्रियविशस्त्रयो वर्णा द्विजातय:" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों को ही द्विजाति या द्विज कहते हैं तथा देवमीढ़ राजा की वैश्य वर्ण वली पत्नी (गुणवती) से उत्पन्न महावनवासी श्रीपर्जन्य के पुत्र, गोपजाति श्रीनन्द जी का द्विजत्व तीसरे पूरण में श्री रूप स्वामी जी विचारपूर्वक प्रमाण प्रमेय से सिद्ध कर चुके हैं अत: श्रीनन्दजीने द्विजाति संस्कार करने की प्रार्थना की ।।६५।।

गर्ग उवाच---भवन्तो यदुबीज्यत्वेऽपि वैश्यततीज्यमातृवंशान्वयिता तद्गुरुपदव्या-गतैरेव कर्म कारयितव्या: न तु मया।।६६।

अर्थ •- श्री गर्ग-आचार्य बोले --आप सबके यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गणों के पूज्य ,एवं माता के वंश का सम्बन्ध रहने के कारण से आप विशिष्ट वैश्य है। ।अत: जो ब्राह्मण वैश्य गणों के गुरुपद ( पुरोहिताई) पर आरूढ़ है वे ही आपका संस्कार कार्य करेंगे , किन्तु मेरे द्वारा होना उचित नहीं ।।६६।

व्रजराज उवाच- भवेदेवं किन्तु क्वचित्सर्गो ।प्यपवादवर्ग बाधतेऽधिकारिविशेषश्लेषमासाद्य।यथैवाहिंसानिवृत्तकर्मणि बद्धश्रद्धं प्रति यज्ञेऽपि पशुहिंसां तस्माद्भवतां ब्राह्मण-भावादुत्सर्गसिद्धा 

गुरुता श्रृद्धाविशेषवतामस्माकं कुले कथं लघुतामाप्नोतु ? तत्रापि भवत: सर्वप्रमाणत: समधिकता समधिगता; तस्मादन्यथा मा स्म मन्यथा:। एतदुपरिनिजपुरोहिता-नामपि हितमपि-हितमहसा करिष्याम:।।६७।

अर्थ •- श्री बृजराज बोले भगवन आपका कहना ठीक है किंतुु किसी सामान्य विधि भी विशेषविधि को बाध लेती है । जैसे  अहिंसारूप निवृत्तिमार्ग में जो व्यक्ति विशेष श्रृद्धा रखता है, उस व्यक्ति के उद्देश्य में यज्ञकार्यमें भी, अहिंसा द्वारा पशुहिंसा का बाध हो जाता है। अत:
अत: आपका ब्राह्मणता के नाते सामान्य विधि द्वारा सर्वगुरुत्व तो सिद्ध ही है फिर गुरुमात्र के प्रति श्रृद्धा विशेष रखने वाले हमारे कुल में वह गुरुत्व लघुत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है ? उसमें भी सब प्रकार के प्रमाणों से आपकी अधिकता को मैं जान चुका हूँ । अत: आप कोई अन्यथा। विचार न करें । आपके द्वारा नामकरण संस्कार । होते ही अपने पुरोहितों का भी स्पष्ट रूप से उत्सव द्वारा विशेष हित कर कार्य कर देंगे।।६७।

(श्रीगोपालचम्पू- (षष्ठपूरण) शकटभञ्जनादि अध्याय)   

प्रथम १-(वभ्रु, जो पर्जन्य नाम से भी जाने गये । द्वित्तीय २- सुषेण ये अर्जन्य के नाम से जाने गये तथा 

तृत्तीय ३-सभाक्ष हुए जिनको "राजन्य" नाम से लोक में जाना गया हुए ।

देवमीढ की द्वित्तीय रानी अश्मिका के पुत्र शूरसेन हुए जो वसुदेव के पिता थे ।
___________________________

देवमीढात् शूरो नाम्ना पुत्रो८जायत् अश्मिकां पत्न्याम्  तथैव च गुणवत्यां पर्जन्यो वा वभ्रो: ।। तस्या: ज्येष्ठ: पुत्रो नाम्ना उपनन्द:।।

नन्द की माता और पर्जन्य की पत्नी का नाम वरीयसी थी और वसुदेव की अठारह पत्नियाँ थीं।

उपनन्द , नन्द ,अभिनन्द,कर्मनन्द,धर्मनन्द, धरानन्द,सुनन्द, और बल्लभनन्द ये नौ नन्द हैं । उपनन्द बडे़ थे ।
                               
__________________________________   माधवाचार्य ने भागवत पुराण की टीका में लिखा :-माधवाचार्यश्च वैश्य कन्यायाँ वैभात्रेय: भ्रातुर्जातत्वादिति ब्रह्मवाक्यं च शूरतात् सुतस्य वैश्य कन्या प्रथमोऽथ गोप इति प्राहु:।५७।

एवमन्येऽपि गोपा यादवविशेष: एव वैश्योद् भवत्वात् अतएव स्कन्दे मथुराखण्डे (अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका)

अत: माधवाचार्य की टीका तथा स्कन्द पुराण वैष्णव खण्ड मथुरा महात्म्य में तथा श्रीधर टीका , वंशीधरी टीका और अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका आदि में शूरसेन की सौतेली माता चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती से शूर के भाई पर्जन्य आदि उत्पन्न हुए थे ।
_________________

 वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।

हरिवंशपुराण, देवीभागवत के चतुर्थ स्कन्ध में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है । पं०वल्देव शास्त्री ने टीका में लिखा है :-

भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त ब्रह्मवाक्यं ।।५१।

शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं).    _______________

(विष्णु पुराण पञ्चमाँश २४वाँ अध्याय)

आनीय चोग्रसेनाय द्रारवत्यां न्यवेदयत् ।
पराभिभवनिः शङ्क बभूव च यदोः कुलम् ।।५-२४-७ ।।

बलदेवोऽपि मैत्रेय! प्रशान्ताखिलविग्रह- ।
ज्ञातिसन्दर्शनोतूकण्ठः प्रययौ नन्दगौकुलम् । ५-२४-८ ।।

ततो गोपीश्व गोपांश्व यथापूर्व्वममित्रजित् ।
तथैवाभ्यवदत् प्रेमूणा बहुमानपुरःसरम् ।। ५-२४-९ ।।
                            
संस्कृत भाषा के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन व कुल के विषय में वर्णन है ।👇

यदो:कुलवंशं कुल जनपद गोत्रसजातीय गणेपि च।यत्रा यस्मिन्कुले नन्दवसुदेवौ बभूवतुः । इति मेदिनी कोष:)

परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्यता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया ।

और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं सृजित करी गयीं ।

जैसे - अभीर शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।

आभीर अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें 

"आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि -गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं ✍

महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में  नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। 

और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था;  ऐसा वर्णन है । 
 
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ 

जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करते थे आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।

भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे जो दोनों के गोप और यादवों के रूप में अलग अलग- वंश मूलक भाष्य ही करते रहे ।

देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें 

अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
_____________________

तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६० ॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥

अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।

अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।

चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य "गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन किया ।

जिसका यथावत् प्रस्तुति करण करते हैं ;यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है ।

निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-
 _________________________________________
    

उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि  ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।। 

स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।

अर्थ•-पश्चात  उन श्री उप नन्द जी ने भी  पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक 

अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।

(तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 
___________________________________
 
 तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे  इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।।

अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक  पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।। 

तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 

____________________________________ 

हरिवंशपुराण /पर्व २ (विष्णुपर्व)/अध्यायः ०३८।

विकद्रुणा यदोः संततिवर्णनम्, जरासंधस्य आक्रमणानि

अहीर अथवा गोप शूद्र हैं तो वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री शूद्रा क्यों नहीं है ?

गायत्री वेदजननी गायत्री लोकपावनी ।
न गायत्र्याः परं जप्यमेतद् विज्ञाय मुच्यते ।। १४.५९
सन्दर्भ:-
(कूर्म पुराण उत्तर भाग अध्याय १४का ५९वाँ श्लोक)
______________

"अध्याय अष्टम- - आभीर कन्या गायत्री का उपाख्यान-


देखें पद्म पुराण के प्रथम सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ के श्लोक संख्या  में गायत्री माता को  नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या 'गायत्री' के रूप में वर्णित किया गया है ।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १७ में वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री माता  का आख्यान वर्णित है ।

जिसे गोप आभीर और यादवी सम्बोधन से वर्णन किया है-

"एवमाद्यानि चान्यानि कृत्वा शूर्पे वराननाः           सावित्र्या सहिताः सर्वाः संप्राप्ताः सहसा शुभाः।११८।

सावित्रीमागतां दृष्ट्वा भीतस्तत्र पुरंदरः
अधोमुखः स्थितो ब्रह्मा किमेषा मां वदिष्यति।११९।

त्रपान्वितौ विष्णुरुद्रौ सर्वे चान्ये द्विजातयः
सभासदस्तथा भीतास्तथा चान्ये दिवौकसः।१२०।

पुत्राः पौत्रा भागिनेया मातुला भ्रातरस्तथा
ऋभवो नाम ये देवा देवानामपि देवताः।१२१।
___________
वैलक्ष्येवस्थिताः सर्वे सावित्री किं वदिष्यति
ब्रह्मपार्श्वे स्थिता तत्र किंतु वै गोपकन्यका।१२२।

मौनीभूता तु शृण्वाना सर्वेषां वदतां गिरः
अद्ध्वर्युणा समाहूता नागता वरवर्णिनी।१२३।
______________
शक्रेणान्याहृता आभीरा दत्ता सा विष्णुना स्वयम्
अनुमोदिता च रुद्रेण पित्राऽदत्ता स्वयं तथा।१२४।।

कथं सा भविता यज्ञे समाप्तिं वा व्रजेत्कथम्
एवं चिंतयतां तेषां प्रविष्टा कमलालया ।१२५।।
 
वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः।१२६।
____________________________________
पत्नीशालास्थिता गोपी सैणशृंगा समेखला
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्।१२७।।

पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा।१२८।।

द्योतयंती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयंते ऋत्विजस्तथा।।१२९।।

पशूनामिह गृह्णाना भागं स्वस्व चरोर्मुदा
यज्ञभागार्थिनो देवा विलंबाद्ब्रुवते तदा।।१३०।।

कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टः सर्वैर्मनीषिभिः।।१३१।
_______________
प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा।।१३२।

उपहूतेनागते न चाहूतेषु द्विजन्मसु
क्रियमाणे तथा भक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता।।१३३।।
________
उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्।।१३४।।

मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्
न तुल्या पादरजसा ममैषा या शिरः कृता।।१३५।।

यद्वदंति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि।१३६।।

भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्
पुत्रेषु न कृता लज्जा पौत्रेषु च न ते प्रभो।१३७।।

कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः।१३८।।

कथं न ते त्रपा जाता आत्मनः पश्यतस्तनुम्
लोकमध्ये कृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो।१३९।।

यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते
अहं कथं सखीनां तु दर्शयिष्यामि वै मुखम्।।१४०।।

भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे
                  (ब्रह्मोवाच)
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्।।१४१।।
________________________________
पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना ।१४२।।

गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते।।१४३।।

पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते
                    (पुलस्त्य उवाच)
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता।१४४।।

यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च।।१४५।।
________________________________
नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव।।१४६।।

करिष्यंति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्।।१४७।।
______________
भोभोः शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोंतिकम्
यस्मात्ते क्षुद्रकं कर्म तस्मात्वं लप्स्यसे फलम्।।१४८।।

यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्।१४९।।

अकिंचनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः
पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे।।१५०।।
           (पद्म पुराण 1.17.150)

____________________________
         सावित्री द्वारा विष्णु को शाप-
______________
शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत्
भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति।।१५१।।

 भो विष्णो ! भार्या वियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे
हृता ते शत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः।१५२।

न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः
भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः।।१५३।
__________
यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि।।१५४।

तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः
तदा त ॠषयः क्रुद्धाः शापं दास्यंति वै हर।।१५५।।

भोभोः कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि
तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिगं पतिष्यति।।१५६।।
(पद्म पुराण सृष्टि खण्ड 1/17/156)

घोरचारा क्रियासक्ता दारिद्र्यच्छेद कारिणी।      
यादवेन्द्र- कुलोद्भूता तुरीय- पदगामिनी ।।६।।

गायत्री गोमती गङ्गा गौतमी गरुडासना।        गेयगानप्रिया गौरी गोविन्द पदपूजिता।७।।
सन्दर्भ:-
  (श्रीगायत्री अष्टोत्तर शतनाम स्त्रोतम्-)


★-वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं गोपी तो कहीं अभीरू आभीर कन्या तथा कहीं यादवी भी कहा है ।

★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड  में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है।  क्यों कि गोप " आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे  ।
यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है ।
और सावित्री विष्णु को यादव गोप कुल में गायत्री माता के भाई के रूप अवतरित होने का शाप देती हैं । पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के १५-१६-१७-१८ अध्यायों में विष्णु के आभीर कन्या गायत्री के ब्रह्मा के साथ विवाह में सहायक होने से गायत्री सभी देवों तथा विष्णु को गायत्री के यादव कुल में आभीर रूप में अवतरण होने का शाप देती हैं । इसी बात का समर्थन स्कन्दपुराण के नागर खण्ड तथा नान्दीपुराण में है ।
________
प्राचीन काल में जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए सावित्री को बुलाने के लिए इन्द्र को उनके पास भेजते हैं ; तो वे उस समय ग्रह कार्य में संलग्न होने के कारण तत्काल नहीं आ सकती थी परन्तु उन्होंने इन्द्र से कुछ देर बाद आने के लिए कह दिया - 
परन्तु यज्ञ का मुहूर्त न निकल जाए इस कारण से ब्रह्मा जी ने इन्द्र को पृथ्वी लोक से ही यज्ञ हेतु सहचारिणी के होने के लिए किसी  अन्या- कन्या को ही लाने के लिए कहा ! 

तब इन्द्र ने गायत्री नाम की आभीर कन्या को संसार में सबसे सुन्दर और विलक्षण पाकर ब्रह्मा जी की सहचारिणी के रूप में उपस्थित किया !

यज्ञ सम्पन्न होने के कुछ समय पश्चात जब ब्रह्मा जी की पूर्व पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर उपस्थित हुईं तो उन्होंने ने ब्रह्मा जी के साथ गायत्री माता को पत्नी रूप में देखा तो सभी ऋभु नामक देवों  , विष्णु और शिव नीची दृष्टि डाले हुए हो गये परन्तु वह सावित्री समस्त देवताओं की इस कार्य में करतूत जानकर   
उनके प्रति क्रुद्ध होकर  इस यज्ञ कार्य के सहयोगी समस्त देवताओं, शिव और विष्णु को शाप देने लगी और आभीर कन्या गायत्री को अपशब्दों में कहा कि तू गोप, आभीर कन्या होकर किस प्रकार मेरी सपत्नी बन गयी  

तभी अचानक इन्द्र और समस्त देवताओं को सावित्री ने शाप दिया इन्द्र को शाप देकर सावित्री विष्णु को शाप देते हुए बोली तुमने इस पशुपालक  गोप- आभीरों की कन्या को मेरी सौत बनाकर अच्छा नहीं किया तुम भी गोपों के घर में यादव कुल में जन्म ग्रहण करके जीवन में पशुओं के पीछे भागते रहो और तुम्हारी पत्नी लक्ष्मी का तुमसे दीर्घ कालीन वियोग हो जाय । ।

सन्दर्भ : पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १५-१६-१७-१८-
____________     

विष्णु के यादवों के वंश में गोप बन कर आना तथा गायत्री को ही दुर्गा सहस्र नाम में गायत्री और वेद माता तथा यदुवंश समुद्भवा  कहा जाना और फिर गायत्री सहस्रनाम मैं गायत्री को यादवी, माधवी और गोपी कहा जाना यादवों के आभीर और गोप होने का प्रबल शास्त्रीय और पौराणिक सन्दर्भ है ।

यादव गोप ही थे जैसा कि अन्य पुराणों में स्वयं वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है                           -
____________________________________

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सौलह के श्लोकों में देखें

एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं।
स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः।१३१।।

आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।।

न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगना
ददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम् ।१३३।।

संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा
यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित् ।१३४।।

तत्तच्छरीरसंलग्नं तन्वंग्या ददृशे वरम्
तां दृष्ट्वा चिंतयामास यद्येषा कन्यका भवेत्।१३५।
                         -
___________________________________

अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा 
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके 

परन्तु एक (नरेन्द्र सैन) आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर  दंग रह गये।

उसके समान सुन्दर  कोई देवी न कोई गन्धर्वी  न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी ।।

इन्द्र ने तब  ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो  ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ।

उस के शरीर सौन्दर्य से चकित इन्द्र  देखा कि यही कन्या ब्रह्मा जी की यज्ञ सहचारिणी होनी चाहिए ।

और आगे इसी अध्याय में श्लोक संख्या १५६ व १५८ पर गायत्री को गोप कन्या कहा है ।

 👇
"गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमण्डकम्।।१५६।।

गोप कन्या ने कहा वीर मैं यहाँ गोरस बेचने के लिए उपस्थित हूँ यह नवनीत है यह शुद्ध दुग्ध मण्ड से रहित है ।१५६।।निम्न श्लोक में वर्णन है कि विशाल नेत्र वाली गौर वर्ण महान तेज वाली गोप कन्या गायत्री है ।

आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि
गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम् ।१६५
निम्न श्लोक में भी देखें ।

एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।।

उस गोप कन्या को देख कर जो गौर वर्ण और महान तेज वाली थी वह गोप कन्या अपने पिता की आज्ञा के पराधीन होने से भी चिन्तित थी जब तक वह गोप कन्याअपने पिता से आज्ञा नही लेती है किसी की सहचारिणी नहीं बन सकती है।
                           -
तब ब्रह्मा ने हरि ( इन्द्र) को कहा की यज्ञ के लिए शीघ्र कहो ।।१८४।

तब इन्द्र नरेन्द्र सेन अहीर के पास उनकी पुत्री को ब्रह्मा के लिए माँगने जाता है।

गायत्री जिसे गूजर , जाट और अहीर तीनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं। 

गूजर और अहीर दोनों ही गोप हैं यदुवंश से भी उत्पन्न हैं परन्तु आज गूजर एक संघ ही है जिसमें अनेक जातियों का समावेश है ।

गोपों के विषय में जैसा की संस्कृत- साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या  368 पर वर्णित है।👇

अस्त्र हस्ता: च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।

मत्संहनन तुल्यानां  गोपानामर्बुदं महत्।नारायणा इति ख्याता सर्वे संग्रामयोधिन:।18।।

"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय-( 7)

अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम- अथवा पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः का समानार्थक: जैसे १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ८ - गौश्चर: १०- घोष:( वैदिक रूप गोष:)
(2।9।57।2।5)(अमरकोशः) 
                    
हरिवंश पुराण में यदुवंश के विषय में यदु को अपनी पुत्रीयाँ को पत्नी रूप में देने वाले नागराज धूम्रवर्ण 'ने भविष्य वाणी करते हुए कहा कि यदु तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇

"भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।६५।

(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय )

जैसे १-कुक्कुर, २-भोज, ३-अन्धक, ४-यादव ,५-दाशार्ह ,६-भैम  और ७-वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे । 

अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि  कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे क्या यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।
क्योंकि ये भी यदु के वंश में जन्में थे ।

फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से यहाँ आ गया । सरे आम बकवास है ये तो प्रक्षेप !

आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए 

१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।

राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये । माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।
__________________________
                            
परन्तु भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय तैईस के श्लोक संख्या -(१९) से  (३१) तक यदु के पुत्रों का वर्णन भिन्न नामों से और संख्या में भी भिन्न है ।

जिसमें यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित थे ; और क्रमशः उसके बाद क्रोष्टा, नल और रिपु थे

सहस्रजित केे पुुुुुत्र शतजित थे जिनके तीन पुत्र महाहय, वेणुहय और हैहय हुए ।

दुष्यन्त: स पुनर्भेजे स्वंवंशं राज्यकामुक: ।ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ॥ १८ ॥

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नर: श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥ १९ ॥
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: ।

यदो: सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुता:। २०।

चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: ।
महाहयो वेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुता: ॥ २१ ॥

धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्र: कुन्ते: पिता तत: ।
सोहञ्जिरभवत् कुन्तेर्महिष्मान् भद्रसेनक: ॥ २२ ॥
____________________________________ 

             "( नन्द के परिवारी जन) 

जैसे-(नन्द के पिता-पर्जन्य- और माता-वरीयसी पितामह- देवमीढ़ और पितामही - गुणवती-थीं। 
अत: कृष्ण के पालक पिता नन्द के होने से जो पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हुए हैं; वह निम्नांकित रूप में हैं ।
नन्द के अन्य  नौ भाई थे -धरानंद, ध्रुवानंद, उपनंद, अभिनंद, .सुनंद, कर्मानंद, धर्मानंद, नंद और वल्लभ।

१- नन्द के पिता पर्जन्य, माता वरीयसी, पितामाह देवमीढ और पितामही गुणवती थीं।

-३-यशोदा के पिता—-सुमुख-( भानुगिरि)। माता–पाटला- और भाई यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव आदि नाम चार थे।

नन्द के बड़े भाई — उपनन्द एवं अभिनन्द दो मुख्य थे तुंगी (उपनन्द की पत्नी),
पीवरी (अभिनन्द की पत्नी) थीं।

नन्द छोटे भाई  — सन्नन्द (सुनन्द) एवं नन्दन थे जिनकी पत्नी क्रमश: कुवलया (सन्नन्द की पत्नी), और अतुल्या (नन्दन की पत्नी) का नाम था ।
इसके अतिरिक्त नन्द बहिनें सुनन्दा और नन्दिनी भीं थी जिनके पतियों का नाम क्रमश:
-महानील एवं सुनील ।

:—सुनन्दा (महानील की पत्नी), और-नन्दिनी-(सुनील की पत्नी) थी।
-कृष्ण के पालक पिता—महाराज नन्द।

यशस्विनी यशोदा की बहिन जिनके पति —मल्ल ना से थे। (एक मत से मौसा का  दूसरा नाम भी नन्द है) ये यशस्वनी भी यशोदा की बहिन थी ।
इसके अतिरिक्त यशोदा की अन्य बहिनें—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा) भी थीं।
_________________________      

कृष्ण की पारिवारिक चाचा ताऊ के भाई बहिनों की संख्या सैकड़ों हजारों में हैं। परन्तु कुछ के नाम नीचें विवरण रूप में उद्धृत करते हैं।

-अग्रज (बड़े भ्राता)—बलराम (रोहिणीजी के पुत्र) -ताऊ के सम्बन्ध से चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली, भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
ताऊ, चाचा के सम्बन्ध से बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा, श्यामादेवी आदि।

नित्य-सखा — 
(१) सुहृद्वर्ग के सखा—सुहृद्वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं ।
वे सदा साथ रहकर इनकी रक्षा करते हैं । ये सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
 इन सबके अध्यक्ष अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं ।

(२)सखावर्ग के सखा—सखावर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं। 
ये सखा भाँति—भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु नन्दनन्दन पर आक्रमण न कर दे। 
समान आयु के सखा हैं—विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप, मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि तथा श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि। 

(३)प्रियसखावर्ग के सखा—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण (श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र), पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं।
ये प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से, परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध—अभिनय की रचनाकर तथा अन्य अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं।
ये सब शान्त प्रकृति के हैं तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं ।
 इन सबमें मुख्य हैं —श्रीदाम । ये पीठमर्दक (प्रधान नायक के सहायक) सखा हैं।
इन्हें श्रीकृष्ण अत्यन्त प्यार करते हैं ।
इसी प्रकार स्तोककृष्ण( छोटा कन्हैया)भी इन्हें बहुत प्रिय हैं, प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं एवं फिर शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं ।
स्तोककृष्ण देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। वे इन्हें प्यार भी बहुत करते हैं। 
भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।

भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।
(४) प्रिय नर्मसखावर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल,(श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो
,दर्पण की सेवा आदि कार्यों में नियुक्त हैं — दक्ष, सुरंग, भद्रांग, स्वच्छ, सुशील एवं प्रगुण नामक गृहनापित।

कृष्ण का का धनुष भी रहता है तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिंजिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं।
श्रृँग — इनके प्रिय श्रृंग (विषाण) — का नाम ‘मंजुघोष’ है। 

वीणा — इनकी वीणा ‘तरंगिणी’ नाम से विख्यात है।
______
राग — गौड़ी तथा गुर्जरी राग आभीर भैरव नामकी राग- रागिनियाँ श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय हैं।

_____________________________  

 "देवमीढ की तीन पत्नीयों से उत्पन्न सन्तान- तथा  "राधा जी का कुल एवं परिवार)


पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु एवं सुभानु 
फूफा — काश।
बुआ — भानुमुद्रा। 
भ्राता — श्रीदामा।
कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी। 
मातामह — इन्दु।
मातामही — मुखरा।
मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी।
मौसा — कुश।
मौसी — कीर्तिमती।
धात्री — धातकी।
________
(१) सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं। 
(२) नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं। 
(३) प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।

ये सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं। 
(४) प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि—कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं। 
(५) परमप्रेष्ठसखीवर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं — (१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५) चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।
सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि। प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य एवं संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक—कण्ठिका नाम्नी सखियाँ वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं।
विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर प्रिया—प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। 
ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्य—यन्त्रों को बजाती हैं। 
मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी। 

                 कुल-उपास्यदेव —
भगवान् श्री चन्द्रदेव श्रीराधारानी के कुल—उपास्य देवता हैं। परन्तु सूर्यदेव को सृष्टि का प्रकाशक होने से उनकी भी अर्चना ये करती हैं।

वाटिका — कंदर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।
राग — मल्हार और धनाश्री श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
(नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है। 
रुद्रवल्लकी नाम की नृत्य—पटु सहचरी इन्हें अत्यन्त प्रिय है। 

सन्दर्भ-ग्रन्थ:- 
(महाभागा-व्रज की देवीयाँ)  लेखक- सन्तराधाबाबा एवं श्रीकृष्णगणोेश्य दीपिका।।

 ______________________________
 "राधा परिवार परिचय प्रकरण समाप्त "
गोरखपुर गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या 109).

वसुदेव और नन्द ज्ञाति (जाति) बन्धु थे।
.ज्ञाति शब्द से ही जाति शब्द का विकास हुआ है; जैसा कि शास्त्रों में वर्णन है।
भ्रातृपुत्रस्य  पुनर्ज्ञातय: स्मृता ।          गुरुपुत्रस्तथा भ्राता पोष्य: परम बान्धव:।१५८।    
अर्थ •-भाई के पुत्र के पुत्र आदि को पुन: ज्ञाति कहा जाता है गुरुपुत्र तथा भ्राता पोषण करने योग्य और परम बान्धव हैं ।१५८। 
(ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड) अमर-कोश में भी वर्णन है।अमरकोशः ज्ञाति पुल्लिंग। सगोत्रःसमानार्थक:सगोत्र,बान्धव,ज्ञाति,बन्धु,स्व,स्वजन, दायाद -2।6।34।2।3
समानोदर्यसोदर्यसगर्भ्यसहजाः समाः। सगोत्रबान्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः समाः॥
(भागवत पुराण दशम स्कन्ध ४५वाँ अध्याय में वर्णन भी है ।)
यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्।    ज्ञातीन् वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम्।२३।

 " देवमीढ की तीन पत्नीयों से उत्पन्न सन्तान-     "  


"देवमीढस्य तिस्र: पत्न्यो बभूवुर्महामता:।अश्मिकासतप्रभाश्चगुणवत्यो राज्ञ्योरूपाभि:।१।

"अर्थ- - देवमीढ की तीन पत्नियाँ थी रानी रूप में तीनों ही महान विचार वाली थीं । अश्मिका ,सतप्रभा और गुणवती अपने गुणों के अनुरूप ही हुईं थी।१।

"अश्मिकां जनयामास शूरं वै महात्मनम्।सतवत्यां जनयामास सत्यवतीं सुभास्यां।।२।
अर्थ:-अश्मिका ने शूर नामक महानात्मा को जन्म दिया और तीसरी रानी सतवती ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया ।२।

"गुणवत्यांपत्न्याम् जज्ञिरे त्रितयान् पुत्रान् अर्जन्यपर्जन्यौ तथैव च राजन्य:यशस्विना।३।
अर्थ :-गुणवती पत्नी के तीन पुत्र हुए अर्जन्य , पर्जन्य और राजन्य ये यश वाले हुए ।३।

"पर्जन्येण वरीयस्यां जज्ञिरे नवनन्दा:।।           ये गोपालनं कर्तृभ्यः लोके गोपा उच्यन्ते ।४।
अर्थ:-पर्जन्य के द्वारा वरीयसी पत्नी से नौ नन्द हुए ये गोपालन करने से गोप कहे गये ।४।

"गौपालनैर्गोपा: निर्भीकेभ्यश्च आभीरा।           यादवालोकेषु वृत्तिभिर् प्रवृत्तिभिश्चब्रुवन्ति।५।
अर्थ•-गोपालन के द्वारा गोप और निर्भीकता से आभीर यादव ही संसार में गोप और आभीर कहलाते हैं ।५।

"आ समन्तात् भियं राति ददाति  शत्रूणांहृत्सु ते वीराऽऽभीरा:सन्ति।६।
अर्थ •-शत्रुओं के हृदय में भय देने वाले वीर आभीर हैं ।६।

"अरेऽसाम्बभूवार्य: तस्य सम्प्रसारणं वीर :।वीरेवऽऽवीर: तस्य समुद्भवऽऽभीर:बभूव।७। 
अर्थ:-(अरि वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है ) उससे आर्य्य शब्द उत्पन्न हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर  हुआ उससे "आवीर और आवीर  से ही "आभीर "शब्द हुआ।।७।

"ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे शलोके अरे: शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति । भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यत । 
अर्थ:-:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का (९) वाँ श्लोक देखो जो अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है। देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।           
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇
"अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा,विश्वगर्भो महायशा:।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात्‌ देवमीढ़ हुए 
"तस्यतिसृषु भार्याषु दिव्यरूपासु केशव:।        चत्वारोजज्ञिरेपुत्र लोकपालोपमा: शुभा:।४९"
 अर्थ:-देवमीढ के दिव्यरूपा , १-सतप्रभा,२-अष्मिका,और ३-गुणवती ये तीन रानीयाँ थी ।
देवमीढ के शुभ लोकपालों के समान चार पुत्र थे।जिनमें एक अश्मिका के शूरसेन तथा तीन गुणवती के 
"वसु वभ्रु:सुषेणश्च ,सभाक्षश्चैव वीर्यमान् ।       यदु प्रवीण: प्रख्याता लोकपाला इवापरे ।५०
अर्थ:-सत्यप्रभा के सत्यवती कन्या तथा अष्मिका से वसु ( शूरसेन) पर्जन्य, अर्जन्य, और राजन्य हुए       
"देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता।चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना।५२।

नाभागो दिष्ट पुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यतांगत: ।   तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।
अर्थ:-भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य हुआ जो गोकुल का रहने वाला था । 
उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇
श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुःद्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते । पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:।


अब देखें "देवीभागवत" पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गो-पालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है। यह बात हम पूर्व में अनेक बार लिख चुके हैं। परन्तु कृषि और गोपालन तो प्राचीन काल में क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है।  स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप को और स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी गोपालक ही था। निम्न रूप में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वर्णन किया है -
__________
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ।२०।  में प्रस्तुत है वह वर्णन -
एवं नानावतारेऽत्र विष्णुः शापवशंगतः।      करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनःसदैव हि।५२॥
अर्थ •-इस प्रकार अनेक अवतारों के रूप में इस पृथ्वी पर विष्णु शाप वश गये 
जो दैव के अधीन होकर संसार में विविध चेष्टा करते हैं ।५२।
तवाहं कथयिष्यामि कृष्णस्यापि विचेष्टितम् ।
प्रभवं मानुषे लोके देवकार्यार्थसिद्धये ॥५३ ॥
अर्थ•अब मैं तेरे प्रति कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के वारे में कहुँगा । जो मनुष्य लोक में देव कार्य की सिद्धि के लिए ही थे ।
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली॥५४ ॥अर्थ •-प्राचीन  समय की बात है ; यमुना नदी के सुन्दर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै।५५।
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।        वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६।अर्थ(उसके पिता का नाम मधु  था ) वह वरदान पाकर  पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे  महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई।
स तत्र पुष्कराक्षौद्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः।      निवेश्यराज्येमतिमान्काले प्राप्ते दिवंगतः।५७।
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा ।५८ ॥ अर्थ•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए ।५७।
कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।५८।   
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥ ५९ ॥_____________________________________तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा।६०॥_________                                                   वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।       उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।६१।   
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा  के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।    

अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।                                   
 अर्थ •और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले  हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !  वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।६२।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥६३॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तुसुतःश्रीमांस्तव हन्ताभविष्यति।६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥    

यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में "गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेनेवाला होने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग  कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है।  पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं ।कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न  ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं । 
फिर  दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? आर्य शब्द मूलतः योद्धा अथवा वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक  गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं । 
परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में  प्रचलित हुआ तो  ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये  ! अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया ! 
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था। और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है। और जातियों  का निर्धारण जीवविज्ञान में प्रवृतियों से ही होता  आर्य  शब्द  परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।
भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे;  इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकर ही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है जो  वास्तव में वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
_____________________
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। 
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥

अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।

     "अध्याय- नवम"★

" वैष्णव वर्ण की उत्पति और उसकी ब्रह्मा के चारों वर्णों से पृथकता तथा अत्रि ऋषि का शिव के अग्नि स्वरूप से उत्पन्न होने के पौराणिक साक्ष्य- 

📚: ब्रह्मवैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१) में वैष्णव वर्ण का उल्लेख है। जिसका विवरण निम्नलिखित श्लोक में है।
ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में  प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने वैष्णव संज्ञा से नामित है।

"" जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।
अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण भी इस संसार में है ।४३।
(ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय (११) श्लोक संख्या ४३-)

विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अनुवाद:- विष्णु देवता से सम्बन्धित वैष्णव स्त्रीलिंग में( ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी - दुर्गा गायत्री आदि का वाचक ।
___________________

"उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति अथवा वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।

तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते।
ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः।९।

एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः।
तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव।१०।


अनुवाद:-
ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है। जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यंत धन्य हैं।९।

जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।

उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के रोम कूपों से प्रादुर्भूत होने से वैष्णव वर्ण में हैं।
अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप  है। अहीरों का वर्ण ब्रह्मा के  चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है।
शास्त्रों में प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव,गोप अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ही ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्णव्यवस्था में शामिल नहीं माने जाते हैं।  विष्णु से उत्पन्न होने से इनका पृथक वर्ण वैष्णव है।
इसी बात सी पुष्टि अन्यत्र भी पद्मपुराण के उत्तर खण्ड अध्याय (68) में होती है।

महेश्वर उवाच-
शृणु नारद वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् 
यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको  ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।

तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।
तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि साम्प्रतम् ।२।

विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। 
सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते ।३।

अनुवाद:-
वैष्णव का लक्षण और महात्म्य -

महेश्वर ने कहा :
1-9. हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं ।१।

वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।

चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न विष्णु का ही है। इस लिए वह वैष्णव कहलाता है ; सभी वर्णों मे वैष्णव को श्रेष्ठ कहा जाता है।३।

*********************
येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः।
क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज।४।

तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत्।
हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थितामति:।५।

शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः।
तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः।६।

तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः।
धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते।७।

वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः।
उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः।८।

तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते।
ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः।९।

एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः।
तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव ।१०।


अनुवाद:-

  • जिनका आहार (भोजन )( दूध ,दधि, मट्ठा, और घृत आदि से युक्त होने से) अत्यन्त पवित्र होता है। उन्हीं के वंश में वैष्णव उत्पन्न होते हैं। वैष्णव में क्षमा, दया ,तप एवं सत्य ये गुण रहते हैं।४।
  • उन वैष्णवों के दर्शन मात्र से पाप रुई के समान नष्ट हो जाता है। जो हिंसा और अधर्म से रहित तथा भगवान विष्णु में मन लगाता रहता है।५।
  • जो सदा संख "गदा" चक्र एवं पद्म को धारण किए रहता है गले में तुलसी काष्ठ धारण करता है।६।
  • प्रत्येक दिन द्वादश (बारह) तिलक लगाता है। वह लक्षण से वैष्णव कहलाता है।७।
  • जो सदा वेदशास्त्र में लगा रहता है। और सदा यज्ञ करता है। बार- बार चौबीस उत्सवों को करता है।८।
  • ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है। जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यंत धन्य हैं।९।
  • जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।
सन्दर्भ:-(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -(६८)

"विशेष:- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जातियाँ नहीं हैं ये वर्ण हैं जातियाँ वर्णों के अन्तर्गत ही होती है।

"उपर्युक्त श्लोकों में गोपों के वैष्णव वर्ण तथा भागवत धर्म का संकेत है जिसे अन्य जाति के पुरुष गोपों के प्रति श्रृद्धा और कृष्ण भक्ति से प्राप्त कर लेते हैं।। 

"विशेष:-वैष्णव= विष्णोरस्य रोमकूपैर्भवति  अण्सन्तति वाची- विष्णु+ अण् = वैष्णव= विष्णु से उत्पन्न अथवा विष्णु से सम्बन्धित- जन वैष्णव हैं।

अर्थ-वैष्णव= विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न अण्- प्रत्यय सन्तान वाची भी है विष्णु पद में तद्धित अण् प्रत्यय करने पर वैष्णव शब्द निष्पन्न होता है। अत: गोप वैष्णव वर्ण के हैं। 
उपर्युक्त श्लोकों में पञ्चम जाति के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है ।
क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।


 ईरानी धर्म ग्रन्थ- अवेस्ता में "अतर" अग्नि  का वाचक है
सन्दर्भ:-(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय (17), श्लोक 38)।
अत्रि अग्नि की लपटों से वारुणी 


अत: चन्द्रमा के अत्रि से उत्पन्न होने का प्रकरण प्रक्षेप ही है।
चन्द्रमा की वास्तविक और प्राचीन उत्पत्ति का सन्दर्भ- ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें पुरुष सूक्त की (13) वीं ऋचा में है। जिसको हम उद्धृत कर रहे हैं ।

📚: चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है  मन ही हृदय अथवा प्राण के तुल्य  है। चन्द्रमा भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से  भी वैष्णव है। चन्द्रमा के वैष्णव होने के भी अनेक शास्त्रीय सन्दर्भ हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें सूक्त में विराट पुरुष से विश्व का सृजन होते हुए दर्शाया है। और इसी विराट स्वरूप के दर्शन का कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिखाया जाना श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में वर्णन किया गया है। 
नीचे 'विराट पुरुष' के स्वरूप का वर्णन पहले ऋग्वेद तत्पश्चात श्रीमद्भगवद्गीता में देखें 

"तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
(ऋग्वेद-10/90/5 )
अनुवाद:- उस विराट पुरुष से  यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ। उसी विराट से जीव समुदाय  उत्पन्न हुआ। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया।5।
'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
'नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥14॥
( ऋग्वेद-10/90/14
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष  शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं।  इस विराट पुरुष के द्वारा  इसी प्रकार अनेक लोकों को  रचा गया ।14।

श्रीमद्भगवद्-गीता अध्याय (11) श्लोक ( 19)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद - 
आपको मैं  अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते  हुए देख रहा हूँ।11/19.
__________

अब एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि चातुर्यवर्ण व्यवस्था विराट पुरुष से उत्पन्न है।
 अथवा उस विराट पुरुष के नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्मा से उत्पन्न है।

समाधान:- वास्तव में चातुर्य-वर्ण की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही हुई है। जिसमें ब्रह्मा की प्रथम और प्रमुख सन्तान ब्राह्मण हैं। इस बात स
पुष्टि भी अनेक ग्रन्थों में होती है।
पहले सभी ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-

"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-
भृगु ने कहा-ब्राह्मणादिभृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बादमें कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥
सन्दर्भ:-(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--)




ब्राह्मणो विप्रस्य प्रजापतेर्वा अपत्यम् - ब्रह्म वेदस्तमधीते वा सः- (इति भरतः नाट्यशास्त्र) ॥  (ब्रह्मन् + अण् “ ब्राह्मोऽजातौ । “६ । ४ । १७१ । इति नटिलोपः । )  
ब्राह्मणः शब्द पुल्लिंग   ब्रह्मन्  शब्द से सन्तान के अर्थ में  (अण्)  प्रत्यय लगने पर बनता है।
जबकि नपुसंसक लिंग ब्रह्मन् से   ब्राह्मणम्,शब्द बनता है। (ब्रह्मन् + अण् न टिलोपः।) ब्रह्म- संघातः  । वेदभागः । इति मेदिनी ।
ब्राह्मणः शब्द पुल्लिंग   ब्रह्मन्  शब्द से सन्तान के अर्थ में  (अण्)  प्रत्यय लगने पर बनता है।
"ब्राह्मणो विप्रस्य प्रजापतेर्वा अपत्यम् । 
ब्रह्म वेदस्तमधीते वा सः । इति भरतः ॥ (ब्रह्मन् + अण् “ब्राह्मोऽजातौ ।” ६।४ ।१७१। इति नटिलोपः । तत्पर्य्यायः । द्विजातिः २ अग्रजन्मा ३ भूदेवः ४ बाडवः ५ विप्रः ६ । इत्यमरः ॥ २ । ७ । ४ ॥ द्बिजः ७ सूत्र- कण्ठः ८ ज्येष्ठवर्णः ९ अग्रजातकः १० द्विजन्मा ११ वक्त्रजः १२ मैत्रः १३ वेदवासः १४ नयः १५ गुरुः १६ । इति शब्दरत्नाबली ॥

"आ ब्राह्मण ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः सुरऽईषव्योऽतिव्याधि महारथो जायतां दोग्धरी धेनुर्वोदऽनद्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णु रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योग क्षेमो नः कल्पताम् ॥
 (--यजुर्वेद 22, मन्त्र 22:-)

अर्थ :- हमारे राष्ट्र में ब्रह्मवर्चसी ब्राह्मण उत्पन्न हों । हमारे राष्ट्र में शूर, बाणवेधन में कुशल, महारथी क्षत्रिय उत्पन्न हों । यजमान की गायें दूध देने वाली हों, बैल भार ढोने में सक्षम हों, घोड़े शीघ्रगामी हों । स्त्रियाँ सुशील और सर्वगुण सम्पन्न हों । रथवाले, जयशील, पराक्रमी और यजमान पुत्रवान् हों । हमारे राष्ट्र में आवश्यकतानुसार समय-समय पर मेघ वर्षा करें । फ़सलें और औषधियाँ फल-फूल से युक्त होकर परिपक्वता प्राप्त करें । और हमारा योगक्षेम उत्तम रीति से होता रहे ।

व्याख्या :- यहाँ ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी एवं राजाओं के लिए शूरत्व आदि की प्रार्थना आयी है  यदि वेदों में वर्णव्यवस्था कथित गुण कर्मानुरूप होती तो ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी की प्रार्थना उसमें नहीं होती तब वेद में ब्रह्मवर्चस युक्त को ही नाम ब्राह्मण होता एव ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी  प्रार्थना एवं आशिर्वाद ही व्यर्थ होता। 

यह प्रार्थना ही यहाँ जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्धि करती है,

पद्म पुराण के निम्नांकित श्लोक से भी सिद्ध होता है कि ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं।

"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम।
पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः ।१३०।
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्मा चकार ह।
चातुर्वर्ण्यं महाराज यज्ञसाधनमुत्तमम् ।१३१।

पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।
महाराज ! ये चारों वर्ण यज्ञ के उत्तम साधन हैं; अतः ब्रह्माजी ने यज्ञानुष्ठान की सिद्धि के लिये ही इन सबकी सृष्टि की। 
अन्यत्र विष्णु पुराण में भी 


ब्राह्मण= ब्राह्मोऽजातौ (ब्रह्मन्+ अण्)  (अष्टाध्यायी- ६।४।१७१- इस पाणिनि सूत्र से अपत्य एवं जाति में ब्राह्मण शब्द होता है अब अर्थ हुआ कि हे ब्रह्मन्  ! ब्राह्मण ब्रह्मवर्चसी होवें अथवा ब्रह्मन्–ब्राह्मण में (सप्तम्या लुक्) ब्रह्मवर्चसी ब्राह्मण उत्पन्न होवें। 

विशेष—ऋग्वेद के पुरूषसूक्त में ब्राह्मणों की उत्पत्ति विराट् या ब्रह्म के मुख से कही गई है।
यह पूर्णत: प्रक्षेप है। क्यों ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं। परम् ब्रह्म की सन्तान नहीं है।
 दूसरी बात वर्ण व्यवस्था  की यह है कि ब्राह्मण शब्द ब्रह्म+ अण्= ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं जबकि क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र ये किसकी सन्तान हैं। वास्तव में ये बाद के तीन नाम केवल अभिधामूलक हैं। सम्भवत: पहले ब्रह्मा का एक ही वर्ण था  ब्राह्मण परन्तु उसके वही अन्य वृत्ति मूलक रूप क्रमशः क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र हैं। वैदिक काल में शूद्र थे नहीं ऋग्वेद में केवल एक बार शूद्र शब्द आया है ऋग्वेद 10/90/12 पर उद्धृत है। कृष्ण ने स्वयं को गोप और क्षत्रिय रूपों में प्रस्तुत किया।

दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे । उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया। 
________________________
"ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद । 
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः।3/80/ 9 ।•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ । उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले ! 
________
'क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः । यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः। 3/80/10 ।

 •-मैं क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं ; और जानते हैं यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।

'लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा । कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।

 •-मैं तीनों लोगों का पालक तथा सदा ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ। इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11 

इसी पुराण में एक स्थान पर कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।
______
"गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा । गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१। 
___________________________

 •– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ। सम्पूर्ण लोकों का रक्षक( गोप्ता) और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ । हरिवशं पुराण भविष्यपर्व के सौंवें अध्याय का यह इकतालीस वाँ श्लोक (पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण) गोप शब्द की वीरता मूलक व्युत्पत्ति का प्रतिपादन करता है।

अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर थे और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है जो वीरता से रहित है वह क्षत्रिय नहीं हो सकता है भले ही उसका जन्म किसी क्षत्रिय पुरुष से हुआ हो ।  इसमें ब्राह्मण की सन्तान ब्राह्मण होन  की वाध्यता नहीं है। हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व के सौंवे अध्याय में पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर ! देखें उस सन्दर्भ को 

कृष्ण गोपों को क्षत्रियोचित रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। परन्तु रूढ़ि वादी पुरोहित गोपों के गोपालन और कृषि करने वाले होने से वैश्य वर्ण में समायोजित करते है। 

"कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्"।
अब यदि कृष्ण ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था के समर्थक होते तो उनके गोपालक  गोप कभी भी नारायणी सेना के यौद्धा नहीं होते  क्योंकि  गोप गोपालन और कृषि कार्य ही मुख्य रूप से करते हैं । परन्तु गोप  व्यापार नहीं करते यह व्यापार कार्य तो बनिया( वणिक) लोगों का ही व्यवसाय है।
अब कृष्ण स्वयं को क्षत्रिय भी कह रहे हैं और गोप भी कह रहे हैं। 

ब्राह्मण प्रधान वर्णव्यवस्था में तो यह गोपों का युद्ध सम्बन्धित विधान  सम्भव नहीं है।  गोप ब्राह्मण वर्णव्यवस्था से पृथक वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत हैं। जिसमें गोपालन ही श्रेष्ठ वृत्ति है।
परन्तु गोप पशुपालन, युद्ध ईश्वरीय ज्ञानार्जन और कृषि कार्य भी करते हैं।
गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उनके हृदय से ही  उत्पन्‍न होते हैं। वह तो वैष्णव हैं ही। क्योंकि वे स्वराट- विष्णु के तनु से उत्पन्न उनकी सन्तान हैं।
वेदों में चन्द्रमा को भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न दर्शाया है। और वेदों का साक्ष्य पुराणों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ व प्रबल है।
चन्द्रमा यादवों का आदि वंश द्योतक है।

नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।

ऋग्वेद पुरुष सूक्त में जोड़ी गयी  (12) वीं  ऋचा  ब्रह्मा से सम्बन्धित है।

"चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत॥१३॥

"नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥

ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त ९० ऋचा- १३-१४
📚: उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की सम्पूर्ण (18) ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है।

जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- हैं । अत: पुरुरवा एक गो- पालक राजा ही सम्राट् भी है।

पुरुरवा बुध ग्रह और पृथ्वी ग्रह (इला) ग्रह  से सम्बन्धित होने से इनकी सन्तान माना गया है।
यही व्युत्पत्ति सैद्धान्तिक है।
यदि आध्यात्मिक अथवा काव्यात्मक रूप से इला-वाणी अथवा बुद्धिमती स्त्री और बुध बुद्धिमान पुरुष का भी वाचक है । और पुरुरवा एक शब्द और उसकी अर्थवत्ता के विशेषज्ञ कवि का वाचक है। और उर्वशी उसकी काव्य शक्ति है।
यदि पुरुरवा को बुध ग्रह और इला स्त्री से उत्पन्न भी माना जाय तो इला की ऐतिहासिकता सन्दिग्ध है। परन्तु पुरुरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेद, पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में है। पुरुरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है।

"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र  पुरुरवा को गायें देकर वन को चला गया।४२।
श्रीमद्‍भागवत महापुराण
 नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥
_______________
वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही  हैं । पुरुरवा ,बुध ,और इला की सन्तान था। 
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।

इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥

"नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥

यूरोपीय भाषाओं में चन्द्रमा का नामान्तरण मून है। जिसका सीधा सम्बन्ध भारोपीय(मूल वैदिक शब्द मान=(मन+अण्- मनसो जात: चन्द्रमा)  अर्थात मन से उत्पन्न- इस प्रकरण पर हम विस्तृत विश्लेषण आगे क्रमश करते हैं।

मन से मनन( विचार) उत्पन्न होकर निर्णीत होने पर बुध:( ज्ञान) बनता है और इसी ज्ञान(बुध:) के साथ इला ( वाणी) मिलकर परुरवा(कवि) कविः पुल्लिंग-(कवते सर्व्वं जानाति सर्व्वं वर्णयति सर्व्वं सर्व्वतो गच्छति वा । (कव् +इन्) । यद्वा कुशब्दे + “अचः इः” । उणादि सूत्र ४ । १३८ । इति इः ।
कवि शब्द शब्दार्थ के विशेषज्ञ का वाचक है। जो कि एक कवि की मौलिक विशेषता होती है।

"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा( मान ) कहलाया  चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से, यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र  कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं। 

और इस मान -मन्यु:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम  पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में । 

स्वयं पुरुरवा शब्द का  अभिधा मूलक अर्थ है। पुरु- प्रचुरं रौति कौति इति पुरुरवस्-
पुरूरवसे - पुरु रौतीति पुरूरवाः । ‘रुशब्दे '। अस्मात् औणादिके असुनि ‘पुरसि च पुरूरवाः' (उणादि. सू. ४. ६७१) इति पूर्वपदस्य दीर्घो निपात्यते । 
सुकृते । ‘सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः ' (पा. सू. ३. २. ८९) इति क्विप् । ततः तुक् ।

पुराकाले पुरुरवसेव सदैव गायत्रीयम् प्रति पुरं रौति ।तस्मादमुष्य  पुरुरवस्संज्ञा सार्थकवती।।१।अनुवाद:-
प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता थे । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।

(पुरु प्रचुरं  रौति कौति इति। “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः (महाभारत- ।“३।९०।२२ ।

अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे।
इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के  गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।

अत्रि, चन्द्रमा और बुध का सम्बन्ध प्राय: आकाशीय ग्रह, उपग्रह आदि नक्षत्रीय पिण्डों से सम्बन्धित होने से ऐतिहासिक धरातल पर प्रतिष्ठित नहीं होता है। परन्तु पुरुरवा और उर्वशी ऐतिहासिक पात्र हैं। दौनों ही नायक नायिका का वर्ण  एक है। आभीर तथा गोष(घोष) रूप में गोपालक जाति के आदि प्रवर्तक के रूप में इतिहास की युगान्तकारी खोज है।

इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए , स्वयं कृष्ण और संकर्षण(बलराम) कृषि पद्धति के जनक थे बलराम ने हल का आविष्कार कर उसे ही अपना शस्त्र स्वीकार किया। स्वयं आभीर शब्द  "आर्य के सम्प्रसारण "वीर का सम्प्रसारण है।

उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुद सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।

"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है। वह उर्वशी है यह भाव मलक अर्थ भी सार्थक है।

"कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
हृदय सागर की अप्सरा ।
संवेदन लहरों में विकसी।।
एक रस बस ! प्रेमरस सृष्टि 
नहीं कोई काव्य सी !
"प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी और आदि कवि गोपालक पुरुरवा ही है -क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त में 18 ऋचाओं में सबसे प्राचीन यह "प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।

सत्य पछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गया हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है। 
कवि बनने का केवल उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।

और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक (गोष - गोपीथ )आदि के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।

"कालान्तरण पुराणों में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों ने जोड़-तोड़ और तथ्यों को मरोड़ कर अपने स्वार्थ के अनुरूप लिपिबद्ध किया तो परिणाम स्वरूप तथ्यों में परस्पर विरोधाभास और शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत बाते सामने आयीं।

गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् ।  अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर(गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है । गो सेवक अथवा पालक।

वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवा करने वाला" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।

"जज्ञिषे इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥
सायण-भाष्य"-

“इत्था= इत्थं = इस प्रकार इत्थम्भावः इत्थम्भूतः "गोपीथ्याय – गौः =पृथिवी /धेनू। पीथं= पालनम् के लिए । स्वार्थिकस्तद्धितः । भूमे रक्षणीय जज्ञिषे =( जनी धातु मध्यम पुरुष एकवचन लिट् लकार “हि जातोऽसि खलु पुत्ररूपेण । 'आत्मा वै पुत्रनामा ' इति श्रुतेः। पुनस्तदेवाह ।
 हे "पुरूरवः “मे ममोदरे मयि "ओजः अपत्योत्पादनसामर्थ्यं "दधाथ मयि निहितवानसि  "तत् तथास्तु । अथापि स्थातव्यमिति चेत् तत्राह । अहं "विदुषी भावि कार्यं जानती “सस्मिन्नहन् सर्वस्मिन्नहनि त्वया कर्तव्यं "त्वा =त्वाम् "अशासं =शिक्षितवत्यस्मि । त्वं "मे मम वचनं “न “आशृणोः =न शृणोषि। “किं त्वम् "अभुक् =अभोक्तापालयिता प्रतिज्ञातार्थमपालयन् “वदासि हये जाय इत्यादिकरूपं प्रलापम् ।

सतयुग में वर्णव्यवस्था नहीं थी परन्तु एक ही वर्ण था । जिसे हंस नाम से केवल भागवत पुराण में वर्णन किया गया है।

"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥

भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है।  हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों  के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥

पहले सभी ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-

"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-

भृगु ने कहा-ब्राह्मणादिभृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बादमें कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥
सन्दर्भ:-
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--)

निष्कर्षत: चार वर्ण केवल एक ब्राह्मण वर्ण का विस्तार हैं । मूलत: एक वर्ण ब्राह्मण जो ब्रह्मा से उत्पन्न था उसी से अन्य वर्ण रूप विकसित हुए।

मनुस्मृति ने कहा है कि ब्राह्मण को ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत या सत्यानृत इन पाँच साधनों के द्वारा जीविका निर्वाह करना चाहिए।
१-ऋत का अर्थ है भूमि पर पडे़ हुए अनाज के दानों को चुनना (उंछ वृत्ति) या छोडी़ हुई बालों से दाने झाड़ना (शिलवृत्ति)।

बिना माँगे जो कुछ भीख मिल जाय उसे ले लेना २-अमृत वृति है; 
३-भीख माँगने का नाम है मृतवृत्ति। 
४-कृषि 'प्रमृत' वृति है और 
५-वाणिज्य सत्यानृत वृति' है। 

इन्ही वृत्तियों के अनुसार ब्राह्मण चार प्रकार का कहे गए हैं—कुशूलधान्यककुभीधान्यकत्र्यैहिक और अश्वस्तनिक। 
जो तीन वर्ष तक के लिये अन्नादि सामग्री संचित कर रखे उसे कुशलधान्यक, जो एक वर्ष के लिये संचित करे उसे कुंभीधान्यक, जो तीन दिन के लिये रखे, उसे त्र्यैहिक और जो नित्य संग्रह करे ओर नित्य खाय उसे अश्वस्तनिक कहते है। 

चारो में अश्वस्तनिक श्रेष्ठ है। आदिम काल में मंत्रकार या वेदपाठी ऋषि ही ब्राह्मण  कहलाते थे। भ्रमर की तरह निरन्तर ब्रह्- ब्रह्-की ध्वनि करने वाला ब्राह्मण कहा जाता था यह ध्वनि अनुकरण मूलक व्युत्पत्ति है ।
  

      "अध्याय -दशम -★

 - इला का प्रक्षिप्त प्रकरण- और इला नामक बुद्धिमती गोपिका से बुध का विवाह "

वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा-

अध्याय एक – राजा सुद्युम्न का स्त्री बनना (9.1)

"एवं स्त्रीत्वं अनुप्राप्तः सुद्युम्नो मानवो नृपः ।सस्मार स कुलाचार्यं वसिष्ठमिति शुश्रुम ॥३६ ॥

'स तस्य तां दशां दृष्ट्वा कृपया भृशपीडितः ।
 सुद्युम्नस्याशयन् पुंस्त्वं उपाधावत शंकरम् ॥३७॥

"तुष्टस्तस्मै स भगवान् ऋषये प्रियमावहन्।

 स्वां च वाचं ऋतां कुर्वन् इदमाह विशाम्पते॥ ३८॥

'मासं पुमान् स भविता मासं स्त्री तव गोत्रजः ।
 इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम् ॥ ३९ ॥

36 -मैंने विश्वस्त सूत्रों से सुना है कि मनु-पुत्र सुद्युम्न ने इस प्रकार स्त्रीत्व प्राप्त करके अपने कुलगुरु वसिष्ठ का स्मरण किया।

37-सुद्युम्न की इस शोचनीय स्थिति को देखकर वसिष्ठ अत्यधिक दुखी हुए। उन्होंने सुद्युम्न को उसका पुरुषत्व वापस दिलाने की इच्छा से फिर से शिवजी की पूजा प्रारम्भ कर दी।

38-39 हे राजा परीक्षितशिवजी वसिष्ठ पर प्रसन्न हुए। अतएव शिवजी ने उन्हें संतुष्ट करने तथा पार्वती को दिये गये अपने वचन को सत्य रखने के उद्देश्य से उस ऋषि से कहा, “आपका शिष्य मनुपुत्र सुद्युम्न एक मास (महीना) तक नर रहेगा और दूसरे मास (महीना) नारी होगा। इस तरह वह इच्छानुसार जगत पर शासन कर सकेगा।

वाल्मीकिरामायण के उत्तरकाण्ड में यह कथा  कर्दम ऋषि की सन्तान इल से सम्बन्धित है। और भागवत पुराण में वैवस्वत मनु के पुत्र सुद्युम्न के नाम से - अब एक व्यक्ति के दो- दो  मातापिता कैसे हो सकते हैं।

"इला" के माता-पिता कि निर्धारण न होने के कारण और उसके एक महीना नर -और एक महीना नारी होने की घटना के सैद्धांतिक न होने से भी ये कथा प्रक्षिप्त है।

सन्तान जो नौ महीना में गर्भ से भ्रूण और प्रसव पूर्व सन्तान तक निर्मित होती है वह तो एक महीने में सम्भव नहीं है। ।

एवं स राजा पुरुषो मासं भूत्वाथ कार्दमिः ।
त्रैलोक्यसुन्दरी नारी मासमेकमिला ऽभवत् ।। ७.८७.२९ ।।

अनुवाद:-
इस प्रकार कर्दम से वह राजा उत्पन्न हुआ इल, एक महीने के लिए पुरुष अगले महीने इला के नाम पर एक महिला बन गया,(वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड-सर्ग- (87 श्लोक 29)

कुछ पुराणों के अनुसार -

कर्दम ऋषि की उत्पत्ति सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी की छाया से हुई थी।
 ब्रह्मा जी ने उन्हें प्रजा में वृद्धि करने की आज्ञा दी। उनके आदेश का पालन करने के लिये कर्दम ऋषि ने स्वयंभुव मनु की द्वितीय कन्या देवहूति से विवाह कर नौ कन्याओं तथा एक पुत्र की उत्पत्ति की।

कन्याओं के नाम कला, अनुसुइया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरुन्धती और शान्ति थे तथा पुत्र का नाम कपिल था। 

वाल्मिकी रामायण उत्तर काण्ड  के  पर्व 83,3 में प्रजापति कर्दम के पुत्र को बाह्लीकों राजा कहा गया है--'श्रूयते हि पुरा सौम्य कर्दमस्य प्रजापते:, पुत्रो बाह्लीश्वर: श्रीमानिलोनाम सुधारमिक:' जिसकी नाम इल था।

अत: बुध से वैवस्वत मनु की पुत्री इला अथवा कर्दम ऋषि के पुत्र इल का इला होरकर सन्तान उत्पन्न करना काल्पनिक व सिद्धांत हीन है।

ध्रुव महाराज का यक्षों से युद्ध श्रीमद्भागवत - स्कन्ध 4 अध्याय 10-

श्लोक 4.10.2

इलायामपि भार्यायां वायोः पुत्र्यां महाबलः।
पुत्रं उत्कलनामानं योषिद् रत्‍नमजीजनत् ।२।

समानार्थी शब्द:-इल्याम् - अपनी इला द्वारा नियुक्त पत्नी को; अपि - भी; भार्याम् - अपनी पत्नी के प्रति; वायुः - देवता वायु (वायु के नियंत्रक) का; पुत्रीम् – पुत्री को; महा - बलः - शक्तिशाली शक्तिशाली ध्रुव महाराज; पुत्रम् – पुत्र; उत्कल – उत्कल; नामानम् – नाम का; योषित - स्त्री; रत्नम् – रत्न;अजीजानत - उसका जन्म हुआ।

अनुवाद:-महाबली ध्रुवकी दूसरी स्त्री वायुपुत्री इला थी। उससे उनके उत्कल नामके एक पुत्र और एक कन्यारत्नका जन्म हुआ ॥ 2 ॥

श्रीमद्भागवतपुराणम्‎ - स्कन्धः ४ अध्याय१० श्लोक २। 


📚: इस प्रसंग में संस्कृत के पौराणिक कथा-कोश लक्ष्मीनारायण संहिता से उद्धृत निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं। 

कि जब ययाति यदु से उनकी युवावस्था का अधिग्रहण करने को कहते हैं
तब यदु उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।

"यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।७२।    
अनुवाद:-उन ययाति ने यदु से कहा :-कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का भोग करो ।

यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप।
जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।७३।

कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्।
सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।७४।

"अनुवाद:-यदु ने कहा-: हे राजा, मैं अपनी जवानी तुम्हें नहीं दे सकता। शरीर के जरावस्था( जर्जर होने  के पांच कारण होते हैं  १-चिंता और २-वृद्ध महिलाएं ३-खराब खानपान (कदन्न )और ४-नित्य सुरापान करने से पेट में (५-शीतजाठर की पीडा)। मुझे ये जरा( बुढ़ापा) अच्छा नहीं लगता यह मेरा भोग करने का समय है ।७३-।७४।

श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।

"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया  वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।

भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।

"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर  चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।

देहि मे यौवनं पुत्र गृहाण त्वं जरां मम ।
कुरुः प्राह करिष्यामि भजनं श्रीहरेः सदा ।७७।

"अनुवाद:-पुत्र मुझे यौवन देकर तुम मेरा जरा( बुढ़ापा) ग्रहण करो पुरु ( कुरु वंश के जनक) ने कहा  मैं हरि का  सदैव भजन करूँगा।७७।

📚: उर्वशी का  वर्णन अहीर कन्या के नाम से  इतिहास में जुड़ा है। मत्स्यपुराण इसका साक्ष्य है।
"एक आभीर कन्या जिसने भीमदवादशी का पालन किया, और उर्वशी बन गई। 
(मत्स्य-पुराण 69.59.)

"या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते। 
त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।।६९.५९।।
यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।। ६९.६० ।।
कृत्वा च यामप्सरसामधीशा नर्तकीकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
(बद्रिकाान्तिके पद्मसेनाभीरस्य)आभीर कन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।।६९.६१।।
जाताथवा विट्कुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यकामा।।६९.६२।।
  
विवरण:- वीर! तुम्हारे द्वारा इसका अनुष्ठान होनेपर यह व्रत तुम्हारे ही नामसे प्रसिद्ध होगा। इसे लोग भीमद्वादशी' कहेंगे। यह भीमद्वादशी सब पापोंको नाश करनेवाली और शुभकारिणी होगी। प्राचीन कल्पोंमें इस व्रतको 'कल्याणिनी व्रत' कहा जाता था। महान् वीरोंमें श्रेष्ठ वीर भीमसेन! इस वाराहकल्पमें तुम इस व्रतके सर्वप्रथम अनुष्ठानकर्ता बनो। इसका स्मरण और कीर्तनमात्र करनेसे मनुष्यका सारा पाप नष्ट हो जाता है और वह देवताओंका राजा इन्द्र बन जाता है ॥ 51-58 ॥

कालान्तर में एक बद्रिका वन के समीप पद्मसेन अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह नर्तकी अप्सराओं की अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में वह उर्वशी नाम से विख्यात है। 

इसी प्रकार वैश्य कुलमें उत्पन्न हुई, एक दूसरी कन्याने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्रीरूपमें उत्पन्न होकर इन्द्र की पत्नी बनी उसके अनुष्ठान कालमें जो उसको सेविका थी,वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है।

📚: "चन्द्रमा (मान) से बुध( ज्ञान) और बुध और इला ( वाणी) से  काव्यशक्ति ( पुरुरवा - कवि उत्पन्न की दार्शनिक थ्योरी है। 
चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है अत: चन्द्रा़मा भी वैष्णव है। गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उत्पन्‍न हैं। वह तो वैष्णव हैं रही। नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।

'आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।10.21।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय(10)
 अनुवाद:-
द्वादश आदित्यों में मैं विष्णु नामक आदित्य हूँ। प्रकाश करनेवाली ज्योतियों में मैं किरणोंवाला सूर्य हूँ। वायुसम्बन्धी देवताओंके भेदों में मैं मरीचि नामक देवता हूँ और नक्षत्रों में मैं शशी (चन्द्रमा) हूँ।

'पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।९२।
अनुवाद :-
पशुओं जीवों  में  गौ वनों में चन्दन पवित्र करने वालों में  तीर्थ और निशंक अथवा निर्भीकों में वैष्णव हूँ।९२।
विशेष- गोपों की निर्भीक प्रवृत्ति के कारण ही उनको संसार में आभीर भी कहा जाता है और कृष्ण ने स्वयं को इस रूप में स्वीकार किया है।

न वैष्णवात्परः प्राणी मन्मन्त्रोपासकश्च यः।
वृक्षेष्वङ्कुररूपोऽहमाकारः सर्ववस्तुषु ।९३ ।
अनुवाद :-
वैष्णव से बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है। विशेषत: वह जो मेरे मन्त्र की उपासना करता है।वह सर्वश्रेष्ठ हैं। मैं वृक्षों में अंकुर तथा सम्पूर्ण वस्तुओं में उसका आकार हूँ।९३।
_______
श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड  त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३।

ऋग्वेद में चन्द्रमा की उत्पत्ति स्वराट् विष्णु के मन से हुई है। अत: चन्द्रमा वैष्णव सृष्टि है।
"चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥
"नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥
यूरोपीय भाषाओं में चन्द्रमा का नामान्तरण मून है। जिसका सीधा सम्बन्ध भारोपीय मूल वैदिक शब्द मान=(मन+अण्- मनसो जात: चन्द्रमा)  अर्थात मन से उत्पन्न- मान -इस प्रकरण पर हम विस्तृत विश्लेषण आगे क्रमश: करते हैं।

चन्द्रमा (मान) से बुध( ज्ञान) और बुध और इला ( वाणी) से  काव्यशक्ति ( पुरुरवा - कवि उत्पन्न की दार्शनिक थ्योरी है। 

मन से मनन( विचार) उत्पन्न होकर निर्णीत होने पर बुध:( ज्ञान) बनता है और इसी ज्ञान(बुध:) के साथ इला ( वाणी) मिलकर परुरवा(कवि) हैं 

कविः शब्द पुल्लिंग है जिसकी  उत्पत्ति- कु धातु के "कव् रूप से (कवते सर्व्वं जानाति सर्व्वं वर्णयति सर्व्वं सर्व्वतो गच्छति वा । रूप में हुई है।कवि=(कव् +इन्) । यद्वा कुशब्दे + “अचः इः” । उणादि सूत्र ४ । १३८ । इति इः।

कवि शब्द शब्दार्थ के विशेषज्ञ का वाचक है। जो कि एक कवि की मौलिक विशेषता होती है।

"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा( मान ) कहलाया  चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र  कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं। 

और इस मान -मन्यु:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम  पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में । 

स्वयं पुरुरवा शब्द का  अभिधा मूलक अर्थ है। पुरु- प्रचुरं रौति कौति इति पुरुरवस्-
पुरूरवसे - पुरु रौतीति पुरूरवाः । ‘रु शब्दे '। अस्मात् औणादिके असुनि ‘पुरसि च पुरूरवाः' (उणादि. सूत्र  ४. ६७१) इति पूर्वपदस्य दीर्घो निपात्यते की सिद्धि से । 
सुकृते । ‘सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः ' (पाणिनीय सूत्र- ३. २. ८९) इति क्विप् । ततः तुक्  प्रत्यय।

पुरुरवा के जन्म विषय में ऋग्वेद का सन्दर्भ-

"त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः।
श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः॥४॥
(ऋग्वेदः - मण्डल १ सूक्त ३१ ऋचा ४)
सूक्तं १.३१
(अग्ने) हे अग्ने ! (सुकृत्तरः) अत्यन्त सुकृत कर्म करनेवाले (त्वम्)  आप (पुरूरवसे) अधिक स्तुति करने वाले कवि के लिए (मनवे) ज्ञानवान् विद्वान् के लिये (द्याम्) द्यौ लोक को (अवाशयः) - तुम प्रकाशित हुए।
मध्यम अवाशयः
(वश्- प्रकाशित होना- धातु का लङ्लकार मध्यम पुरुष एक वचन कारूप अवाशय:) - तुम प्रकाशित किए हुए हो ।  (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पूर्वसमय में   (अपरम्) इसके आगे (पुनः) बार-बार (अनयन्) आते  हैं।  जो (त्वा) तुझे (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पिछले (अपरम्) अगले  को प्राप्त कराता है (पित्रोः) माता और पिता से तू (पर्यामुच्यसे) सब प्रकार छूट जाता  (आ) अच्छे प्रकार कर ॥ ४ ॥
📚: वश्- प्रकाशित होना- धातु का लङ्लकार मध्यम पुरुष एक वचन का
रूप अवाशय:) - तुम प्रकाशित किए हुए हो ।  (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पूर्वसमय में  (अपरम्) इसके आगे (पुनः) बार-बार (अनयन्) आते  हैं।  जो (त्वा) तुझे (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पिछले (अपरम्) अगले  को प्राप्त कराता है (पित्रोः) माता और पिता से तू (पर्यामुच्यसे) सब प्रकार छूट जाता  (आ) अच्छे प्रकार कर ॥ ४ ॥
"सायण भाष्य-मूलक अर्थ-
हे अग्नि ! तुम मनन शील व्यक्ति (मनु) के लिए स्वर्ग से प्रकाशित हुए।
अच्छे से अच्छा कर्म करने वाले पुरुरवा के उन अच्छे कार्यों के परिणाम स्वरूप  उसके लिए भी प्रकाशित हुए ।
जब अरणियों (लकड़ीयों) के शीघ्र मन्थन से तुम चारो ओर उत्पन्न होते हो। जब अरणियों से उत्पन्न हुए तुम्हें वेदी के पहले स्थान को ले जाते हुए आह्वानीय रूप से स्थापित किया गया और उसके पश्चात पश्चिम स्थान को ले जाते हुए तुम्हें गार्हपत्य रूप में स्थापित किया गया ।(ऋ०१/३१/४)
_______
आपको पता होना चाहिए कि संसार की रचना का आलंकारिक वर्णन शास्त्रों में प्रतिपादित हुआ है। ब्रह्म वैवर्तपुराण में एक स्थान पर चन्द्र उत्पति का वर्णन है 

मरीचेर्मनसो जातः कश्यपश्च प्रजापतिः।।
अत्रेर्नेत्रमलाच्चन्द्रः क्षीरोदे च बभूव ह ।।२।।
प्रचेतसोऽपि मनसो गौतमश्च बभूव ह ।।
पुलस्त्यमानसः पुत्रो मैत्रावरुण एव च ।।३।।

अनुवाद- मरीचि ब्रह्मा के मन से उत्पन्न हुए और मरीचि के मन से कश्यप उत्पन्न हुए। और अत्रि के नेत्रमल-(आँखों के कीचड़) से  समुद्र के जल में हुआ और प्रचेतस भी गौतम के मन से उत्पन्न है।

और पुलस्त्य जो ब्रह्मा के मन से उत्पन्न हुए उन्हीं पुलस्त्य के मन से मैत्रावरुण उत्पन्न हुए।२-।

'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।

'नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥14॥
( ऋग्वेद-10/90/14
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष  शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं।   इस विराट पुरुष के द्वारा  इसी प्रकार अनेक लोकों को  रचा गया ।14।
[1/8, : भगवद् गीता अध्याय 11 श्लोक( 19)

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।

हिंदी अनुवाद - 
आपको मैं  अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते  हुए देख रहा हूँ।
__________
📚: 
उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल के- 95 वें सूक्त की 18 ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- है। अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।
📚: इस प्रसंग में संस्कृत के पौराणिक कथा-कोश लक्ष्मीनारायण संहिता से उद्धृत निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं। 

कि जब ययाति यदु से उनकी युवावस्था का अधिग्रहण करने को कहते हैं
तब यदु उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।

"यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।७२।    
अनुवाद:-उन ययाति ने यदु से कहा :-कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का भोग करो ।

'यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप।
जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।७३।

कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्।
सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।७४।
"अनुवाद:-यदु ने कहा-: हे राजा, मैं अपनी जवानी तुम्हें नहीं दे सकता। शरीर के जरावस्था( जर्जर होने  के पांच कारण होते हैं।

१-चिंता और २-वृद्ध महिलाएं ३-खराब खानपान (कदन्न )और ४-नित्य सुरापान करने से पेट में (५-शीतजाठर की पीडा)। 

मुझे ये जरा( बुढ़ापा) अच्छा नहीं लगता यह मेरा भोग करने का समय है ।७३-।७४।

"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया  वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्त 62 की ऋचा 10 में यदु और तुर्वसु का गोप रूप जानने योग्य है।

भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।

"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर  चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।

देहि मे यौवनं पुत्र गृहाण त्वं जरां मम ।
कुरुः प्राह करिष्यामि भजनं श्रीहरेः सदा ।७७।

"अनुवाद:-पुत्र मुझे यौवन देकर तुम मेरा जरा( बुढ़ापा) ग्रहण करो पुरु ( कुरु वंश के जनक) ने कहा  मैं हरि का  सदैव भजन करूँगा।७७।
📚: इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः 
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ॥३॥

-पदार्थ-
(इषुधेः) =इषु कोश से (असना) =फेंका जाने वाला (इषुः)= बाण (श्रिये न) विजयलक्ष्मी  में समर्थ नहीं होता है, तुझ भार्या  सहयोग के बिना, (रंहिः-न) मैं वेगवान् भी नहीं  (गोषाः-शतसाः)  सैकड़ो गायों का सेवक   (अवीरे) हे आभीरे  ! (उरा क्रतौ) विस्तृत यज्ञकर्म में या संग्रामकर्म में (न विदविद्युतत्) मेरा वेग प्रकाशित नहीं होता  (धुनयः) शत्रुओं को कंपाने वाले मेरे सैनिक (मायुम्) अब आदेश को (न चिन्तयन्त) नहीं मानते हैं ! ॥३॥
सरलार्थ:-
तूणीर( वाणकोश) से फेंका जाने वाले बाण वियश्री  में समर्थ नहीं होते हैं, तुझ भार्या उर्वशी के  सहयोग के बिना,  मैं वेगवान् भी नहीं  हूँ। (गोषाः-शतसाः) मैं सैकड़ो गायों का सेवक    (अवीरे) हे आभीरे  ! विस्तृत कर्म में या संग्रामकर्म में अब मेरा वेग प्रकाशित नहीं होता है। शत्रुओं को कंपाने वाले मेरे सैनिक भी अब मेरे आदेश को नहीं मानते हैं ॥३।
सायण-भाष्य:-
अनया पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं तां प्रति ब्रूते । “इषुधेः । इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः । ततः सकाशात् “इषुः “असना असनायै प्रक्षेप्तुं न भवति “श्रिये विजयार्थम् । त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात् । तथा “रंहिः वेगवानहं शत्रुसकाशात् {“गोषाः= तेषां शत्रूणां ~ गवां संभक्ता} "न अभवम् । लौकिकेषु भाषायां गोष: शब्देव घोष: अभवत् ।

तथा “शतसाः= शतानामपरिमितानां शत्रुधनानां संभक्ता नाभवम् । किंच “अवीरे= वीरवर्जिते( वैदिक रूप में तद्धित पद से पूर्व उपसर्ग विधान नही होने से अवीर (अवि+ईर)= अवीर= अभीर “क्रतौ राजकर्मणि सति “न “वि “दविद्युतत् न विद्योतते मत्सामर्थ्यम् । किंच “धुनयः कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः "उरा उरौ। ‘सुपां सुलुक् ' इति सप्तम्या डादेशः । विस्तीर्णे संग्रामे "मायुम् । मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः शब्दः । 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण् । सिंहनादं “न “चितयन्त न बुध्यन्ते । ‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः । छान्दसो लङ्।३।

"जज्ञिष इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः ।
अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥

“इत्था= इत्थं "गोपीथ्याय । गौः पृथिवी/ धेनु वा । पीथं =पालनम् (गोपालन ) । 
उर्वशी का  वर्णन अहीर कन्या के नाम से  इतिहास में जुड़ा है। मत्स्यपुराण इसका साक्ष्य है।

"एक आभीर कन्या जिसने भीमदवादशी व्रत का पालन किया, और उर्वशी बन गई। (मत्स्य-पुराण 69.59.)

"या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते। त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।६९.५९।

यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।६९.६०।

कृत्वा च यामप्सरसामधीशा नर्तकीकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।(बद्रिकाान्तिके पद्मसेनाभीरस्य)आभीर कन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।६९.६१।

जाताथवा विट्कुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी। तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यकामा।।६९.६२।।

विवरण:- वीर! तुम्हारे द्वारा इसका अनुष्ठान होनेपर यह व्रत तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा। इसे लोग भीमद्वादशी' कहेंगे। 
यह भीमद्वादशी सब पापोंको नाश करनेवाली और शुभकारिणी होगी।

प्राचीन कल्पोंमें इस व्रतको 'कल्याणिनी व्रत' कहा जाता था। महान् वीरोंमें श्रेष्ठ वीर भीमसेन! इस वाराहकल्पमें तुम इस व्रतके सर्वप्रथम अनुष्ठानकर्ता बनो।

इसका स्मरण और कीर्तनमात्र करनेसे मनुष्यका सारा पाप नष्ट हो जाता है और वह देवताओंका राजा इन्द्र बन जाता है ॥ 51-58 ॥

कालान्तर में एक बद्रिका वन के समीप पद्मसेन अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह उर्वशी नर्तकी -अप्सराओं की अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी नाम से विख्यात है। इसी प्रकार वैश्य कुल में उत्पन्न हुई एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्री रूप में उत्पन्न होकर इन्द्र की पत्नी बनी उसके अनुष्ठान काल में जो उसको सेविका थी, वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है।

वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् ।      उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः। ७०।
अनुवाद :- नन्द जी ! को कृष्ण अपने वैष्णव विभूतियों के सन्दर्भ में कहते हैं कि  छन्दों में गायत्री, संपूर्ण शास्त्रों में वेद, जलचरों में उनका राजा वरुण, अप्सराओं में उर्वशी, मेरी विभूति हैं इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनां नन्दादि-
णोकप्रमोचनं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३।

"कृत्वा च यामप्सरसामधीशा नर्तकीकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीर कन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।।६९.६१।।
(मत्स्य पुराण अध्याय 69 श्लोक 59)
अनुवाद :-

जन्मान्तर में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह  स्वर्ग नर्तकी अप्सराओं की अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी नामसे विख्यात है।५९।


        "अध्याय एकादश- 

वैष्णव धर्म के प्राचीन संवाहक पुरुरवा - नहुष और ययाति 

पुरुरवा (पुरूरवस) एक प्राचीन राजा का नाम है, जिसने (अहिर्बुध्न्यसंहिता) के अध्याय:- 47 में वर्णित शांति अनुष्ठान किया था, जो पंचरात्र( भागवत/वैष्णव धर्म )की  परम्परा से संबंधित है, जो धर्मशास्त्र, अनुष्ठान, प्रतिमा विज्ञान, कथा पौराणिक कथाओं और अन्य से संबंधित है।

 तदनुसार, "[यह संस्कार] जब वे संकट में हों तो अत्यंत गौरवशाली संप्रभुओं द्वारा नियोजित किया जाना चाहिए-

,अलर्क, मांधात्र, पुरुरवा, राजोपरिचर, धुंधु, शिबि और श्रुतकीर्तन - पुराने राजाओं ने इसे करने के बाद सार्वभौमिक संप्रभुता प्राप्त की। 

वे रोगमुक्त और शत्रुमुक्त हो गये। उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी और वे निर्दोष थे।”

पञ्चरात्र 
भागवत धर्म की एक परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है जहां  विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है।

वैष्णववाद से संबंधित क्लोज़ले के अनुसार, पंचरात्र साहित्य में कई वैष्णव दर्शनों को समाहित करने वाले विभिन्न आगम और तंत्र शामिल हैं।।

नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म गाथा-
                 "श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
अनुवाद:-

श्री देवी (अर्थात पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :

71-74.-इस कल्पद्रुम  के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में  चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।

इस प्रकार  (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।

वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।

पुरुरवा पुत्र  आयुष को दत्तात्रेय का वरदान कि आयुष के नहुष नाम से विष्णु का अंश- अवतार होगा।  नीचे के श्लोकों में यही है।
 
देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।

देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।

दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।

अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।

देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।

अनुवाद :- सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन ् यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो ।१३५।

               "दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।

एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।

एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।

प्रसंग-

एक बार दत्तात्रेय की सेवा करते करते आयुष को जब कई दिनों का लंबा समय बीत गया, तो उस योगी  दत्तात्रेय ने उन्मत्त  हालत में  राजा से कहा: हे राजन् “जैसा मैं तुमसे कहता हूं वैसा ही करो। मुझे प्याले में दाखमधु दो; और मांस का भोजन जो पक गया है उसे दो।” उनके इन शब्दों को सुनकर, पृथ्वी के स्वामी आयुष ने उत्सुक होकर, तुरन्त एक प्याले में शराब ली, और तुरंत अपने हाथ से अच्छी तरह से पका हुआ मांस काट लिया, और, राजा ने उसे दत्तात्रेय को दे दिया। वह श्रेष्ठ मुनि मन में प्रसन्न हो गये। (आयुष की) भक्ति, पराक्रम और गुरु के प्रति महान सेवा को देखकर, उन्होंने राजाओं के भी राजा उस विनम्र आयुष से कहा:

129. “हे राजन, आपका कल्याण हो, ऐसा वर मांगो जो पृथ्वी पर प्राप्त करना कठिन हो।” अब मैं तुम्हें वह सब कुछ दूँगा जो तुम चाहते हो।”

राजा ने कहा :

130-135. हे मुनिश्रेष्ठ, आप मुझ पर दया करके सचमुच वरदान दे रहे हैं। तो मुझे सद् गुणों से संपन्न, सर्वज्ञ, , देवताओं की शक्ति से युक्त और देवताओं और दैत्यों, क्षत्रियों , दिग्गजों, भयंकर राक्षसों और किन्नरों से अजेय पुत्र दीजिए । (वह केवल ) देवताओं और ब्राह्मणों के प्रति समर्पित होना चाहिए, और (उसे) विशेष रूप से अपनी प्रजा की देखभाल करने वाला , त्यागी, दान का स्वामी (अर्थात् सर्वश्रेष्ठ दाता), शूरवीर, अपने आश्रय पाने वालों के प्रति स्नेही, दाता, भोक्ता, उदार और वेदों तथा पवित्र ग्रंथों का ज्ञाता, धनुर्वेद (अर्थात धनुर्विद्या) में कुशल होना चाहिए। और पवित्र उपदेशों में पारंगत हैं। उसकी बुद्धि (होनी चाहिए) और वह अजेय; बहादुर और युद्धों में अपराजित होना वाला हो। उसमें ऐसे गुण होने चाहिए, वह सुंदर होना चाहिए और ऐसा होना चाहिए जिससे वंश आगे बढ़े। हे महामहिम, यदि आप कृपा करके मुझे एक वरदान देना चाहते हैं, तो हे प्रभु, मुझे मेरे परिवार का भरण-पोषण करने वाला (ऐसा) पुत्र  अवश्य दीजिए।

दत्तात्रेय ने कहा :

136-138- ऐसा ही होगा, हे गौरवशाली राजी! आपके महल में एक पुत्र होगा, जो मेधावी होगा, आपके वंश को कायम रखेगा और सभी जीवित प्राणियों पर दया करेगा। वह  सभी सद्गुणों और विष्णु के अंश से संपन्न होगा। वह, मनुष्यों का स्वामी, इंद्र के बराबर एक संप्रभु सम्राट होगा।

इस प्रकार उसे वरदान देने के बाद, महान ध्यानी योगी दत्तात्रेय ने राजा को एक उत्कृष्ट फल दिया और उससे कहा: "इसे अपनी पत्नी को देना।" इतना कहकर, और उस आयुस् को, जो उसके सामने नतमस्तक हुआ था, दत्तात्रेय  उसे  आशीर्वाद देकर , वह गायब हो गये।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०३।

नहुष चन्द्रवंश का एक प्रसिद्ध राजा था। वह सम्राट आयुष् के पुत्र थे। एक समय तो वह इंद्र भी बन गया थे। अंत में अगस्त्य ऋषि ने उन्हें सर्प बनने का श्राप दे दिया।

परिवार
पिता: आयुष्
माता : इन्दुमती
भाई: क्षत्रियवृद्ध, राभ, अनैना
पत्नी: अशोकसुन्दरी
पुत्र : याति, ययाति , संयाति, अयाति, वियाति, कृति
(नह्यति सर्व्वाणि भूतानि माययेति - जो माया द्वाराजगत के सभी प्राणियों को बाँधता है  वह  विष्णु नहुष हैं।
(महाभारते ।१३।१४९।४७।  “
परन्तु पद्मपुराण भूमि-खण्ड में नहुष शब्द की व्युत्पत्ति {नञ्+ हुष्+घञ्}=नहुष: जो कभी पराजित न हो।

नहुष को स्वर्ग में प्रवेश करने की अनुमति दी गई क्योंकि उसने वैष्णव यज्ञ करके खुद को शुद्ध कर लिया था।
(महाभारत, वन पर्व, अध्याय 257, श्लोक 5)।
महाभारत, सभा पर्व, अध्याय 8, श्लोक 8 

में कहा गया है कि नहुष, मृत्यु के बाद, राजा यम (मृत्यु के देवता) के महल में रहते है।

(9) ऋग्वेद , मण्डल 1, अनुवाक 7, सूक्त 31  की 11वीं ऋचा में पुरुरवा के पुत्र आयुस् वर्णन है और उसके भी पुत्र नहुष के इन्द्र बनने का उल्लेख मिलता है।

त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विश्पतिम् ।
इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते ॥११॥

-हे (अग्ने) तुम  ! (देवाः) देवों ने (नहुषस्य) पुरुरवा के पौत्र की (आयवे) आयुस् के लिये इस (इळाम्) वाणी को (अकृण्वन्) प्रकाशित किया तथा (मनुष्यस्य) मनुष्यमात्र की (शासनीम्) सत्य शिक्षा को (अकृण्वन्) प्रकाशित किया और (यत्) जैसे (ममकस्य) हम लोगों के (पितुः) पिता का  (पुत्रः) (जायते) उत्पन्न होता है।॥ ११ ॥

सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य

नहुष पुरुरवा के पुत्र 'आयुष- का पुत्र था , जिसे इंद्र के रूप में स्वर्ग में पदोन्नत किया गया था । इला( पृथ्वी - गाय) यज्ञ करने के पहले नियमों को साधन बनाती है, इसलिए वह शासनि = धर्मोपदेशकर्तृ, कर्तव्य में वाद्य कर्म की दाता है।



 "(आध्यात्मिक खण्ड)-  

                 

      "अध्याय - प्रथम"-

     "कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र- ऋषिकुमार नचिकेता और यम देव के बीच प्रश्नोत्तरों के रूप में आत्मा की स्थित का कथामयी वर्णन है।

बालक नचिकेता की आध्यात्मिक शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे लौकिक उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य के सम्बन्ध का स्पष्टीकरण करते हैं ।

सम्बन्धित आख्यान में यम देव के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचनसारगर्भित हैं।

"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।

सन्दर्भ:-(कठोपनिषद्,अध्याय-१,वल्ली ३,श्लोक- ३)

अनुवाद:-इस जीवात्मा को तुम रथी, (रथ में सबार ) समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी- (रथ हांकने वाला) और मन को लगाम समझो । (लगाम – इंद्रियों पर नियंत्रण के लिए होता है। अगले श्लोक में उल्लेख है।)

"इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।

सन्दर्भ:-(कठोपनिषद्,अध्याय १,वल्ली ३,श्लोक ४)

अनुवाद:-मनीषियों, (मननशील पुरुषों), ने इन्द्रियों को इस शरीर रूपी-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इन्द्रिय-विषय ही विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है ।

प्राचीन भारतीय विचारकों का चिन्तन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रवृति का रहा है । ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा।

परन्तु उसकी परिवर्तनशील व नश्वरता ने उनका मोह अवश्य खण्डित किया होगा। तत्पश्चात उनका प्रयास रहा  होगा कि वे उसके मिथ्या आकर्षण पर विजय पायें ।

उनकी आध्यात्मिक साधना इसी प्रयास या रूपान्तरण है।

"रथ में सबार यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है। अब यह. प्रेरणा शारीरिक क्रिया तो है नहीं आत्मा रथी के रूप में  रथ के चालक को मात्र  प्रेरणा ही देता है।

वास्तव में रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है ।
रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है।

और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि को रथ हाँकने वाला सारथि जान लें । और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या कहें लगाम है।

अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है। और  बुद्धि मन को नियन्त्रण करता है । और मन इन्द्रियों को-

विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं । और विषय ही मार्ग में आया हुआ उनका  भोजन ( ग्रास) आदि है।

वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है । 
जब उसमे अहं का भाव हो जाय तब यह भोक्ता भाव से युक्त होता है।
स्वत्व आत्मबोध या रूपान्तरण है। परन्तु अहंकार इसके विपरीत आत्मा के अबोध कि रूपान्तरण है। 
अहंकार की भूमि पर संकल्प का बीज इच्छाओं की वल्लरी( वेल) बनता है। जिसपर कर्म रूपी फल लगा हुआ है।
बिना इच्छाओं के कर्म उबले हुए  बीज की तरह अंकुरित ही नहीं हो सकता है।
संसार रूपी बारी में इच्छाओं सी वही वेल चलती फूलती हैं।

इन सबके मूल में  माया रूपी अज्ञानता से जनित प्रतीति है। द्वन्द्व संसार की आत्मा है।
संसार शब्द की व्युत्पत्ति "संसरत्यस्मादिति- संसार ।  सं + सृ गतौ +घञ् ।  जो सम्यक् रूप से सरति(गच्छति) गमन करता है।
 
"आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन् ।
ततः सद्यो विमुच्येत यद् बिभेति स्वयं भयम्।१४।
भागवतपुराण-१/१/१४

आपन्नः – उलझा हुआ; संसृतिम् - जन्म और मृत्यु रूपी चक्र  में ; घोरम् - बहुत जटिल; यत् - जो; नाम -  नाम; विवशः - असमर्थ;  गृणान् - स्तुतियों को ततः -उससे; सद्यः - तुरन्त; विमुच्येत - मुक्ति मिले ; यत् - जो; बिभेति - डरता है ; स्वयंम् – व्यक्तिगत रूप से; भयम् - भय ही। 

अनुवाद:-

जो जीवित प्राणी जन्म और मृत्यु के जटिल चक्र में फंसे हुए हैं, वे अनजाने में भी कृष्ण के पवित्र नाम का जाप करके तुरंत मुक्त हो सकते हैं, जिससे भय भी  भयभीत होता है।  

संसार में फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिये अध्यात्मिक तत्त्वों को प्रकाशित कराने वाला यह एक अद्वितीय दीपक है।

क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं। दु:ख सुख आत्मा का विषय है ही नहीं।

व्यक्ति के मूर्च्छित होने पर दु:ख सुख की प्रतीति( अनुभव) नहीं होता है।
जीव जन्म- मरण के चक्र में वही अनादि काल से घूम रहा है।

दु:ख सुख मन के स्तर पर ही विद्यमान हैं ये  परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं । परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है। यही आत्मा की एक अवस्था व सहज अनुभूति है।
___
सत् - चित् और आनन्द = सच्चिदानन्द ईश्वरीय अस्तित्व का बोधक है।
और यह मूल आत्मा परमात्मा का ही एक इकाई अथवा अंश रूप है।

आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)-आनन्द ) से युक्त है  इसी लिए मनीषियों ने परमात्मा को  सच्चिदानन्द कहा है। 

अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे अवश्य मिलता है । यही क्रम संसार का अनादि काल से चलता-रहता है।

और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है । 
यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में  निरन्तर पीसता रहता  है । _________________________________________________

श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है । वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना ही पड़ेगा । क्यों संसार द्वन्द्व रूप है ।
भगवान कृष्ण ने अपनी विभूतियों के सन्दर्भ में कहा भी है-
👇
अनुवाद :- मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।। 

अर्थात्‌ ये मेरी विभूतियाँ हैं । ये तो सभी भाषाविद् जानते ही हैं कि "भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ" स्वर सबका आधार है। 

"अ" स्वर का ही उदात्त (ऊर्ध्वगामी) रूप "उ" तथा अनुदात्त (अधोगामी) "इ" रूप है।

और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए। 
"अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ । इन दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-(एकरूपता) श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान विद्यमान है ।

"ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण के रूप मे गुम्फित है। और "अ" आत्मा के रूप में ।

"अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है। 
हिब्रू तथा फोंनेशियन आदि सैमेटिक भाषाओं में "अकार का रूपान्तरण "अलेफ" वर्ण है ।
 श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण वचन  " अक्षराणामकारोऽस्मि के पश्चात कहा -

द्वन्द्वः सामासिकस्य च -मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात्‌ द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है । 
स्त्री-पुरुष द्वन्द्व हैं । शीत- और उष्ण(गर्मी) द्वन्द्व हैं।
संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं।

समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है। द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है? 

जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का दौनों में किसी एक का ही होता है। 
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है ।

अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा(शरीर) दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता ? -जैसे माया और ईश्वर ।
परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जैसे कलहंस के लिए नीर और क्षीर-
ये विवेक ( सत्य असत्य को अलग करने का ज्ञान) बुद्धि पर ईश्वरीय प्रकाश है। विवेक निर्णीत ज्ञान है।
वेद लौकिक ज्ञान के उद्भासक हैं।
वेद अध्यात्म की उस गहराई का कभी प्रतिपादन नहीं करते है। जिसका विवेचन भगवान कृष्ण स्वयं श्रीमद्भगवद्गीता में करते हैं।

 ----
श्रीमद्भगवद्गीता -,अध्याय २- का (45-46) 
हे अर्जुुन सारे वेद सत्, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं।  अर्थात्‌ इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों से परे होकर  तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो ! जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर  मनुष्य का छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता है ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ! 

अनुवाद :-
(श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) में स्पष्ट वर्णन है। जब वेदों के सुनने से तेरी बुद्धि विचलित हो गयी है। परन्तु  जब ये समाधि
में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदों का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ;
क्योंकि वेद आध्यात्मिक पथ को प्रशस्त नहीं करते अपितु व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं की प्राप्ति के उपायों का वर्णन या प्रतिपादन ही करते हैं।
 और कृष्ण का दर्शन कामनाओं के समूल त्याग की दीक्षा ( उपदेश) देता है।

"जब व्यक्ति में सत्य का निर्णय करने व उच्च  तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है। तब ही वह भौतिक जगत की ओर आकर्षित होकर भागता है।

     "अध्याय - द्वितीय-"

"संसार की सृष्टि काम उपक्रम और ईश्वरीय अवधारणा -

ब्रह्म वैवर्त पुराण वैष्णव पुराण  में श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताता है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ ही है- ब्रह्म का विवर्त ( परिवर्तन- नृत्य) अथवा विलास- क्रीड़ा या खेल है।

उत्तरमीमांसा (वेदान्त दर्शन)का सबसे विशेष दार्शनिक सिद्धान्त यह है कि जड़ जगत का उपादान( सामग्री) और निमित्त कारण चेतन ब्रह्म ही है।

"ठीक उसी प्रकार जैसे मकड़ी अपने भीतर से उत्पन्न लार से ही जाल बुनकर तानती है, वैसे ही ब्रह्म भी इस जगत्‌ को अपनी ही शक्ति द्वारा उत्पन्न करता है। यही नहीं, वही इसका पालक है और वही इसका संहार भी करता है।

जीव और ब्रह्म का तादात्म्य( एकरूपता) है और इसी लिए अनेक प्रकार के साधनों और उपासनाओं द्वारा वह ब्रह्म के साथ तादात्म्य का अनुभव करके जगत्‌ के कर्म-जाल से और बारम्बार के जन्म और मरण से मुक्त हो जाता है।  तब मुक्तावस्था में परम आनन्द का अनुभव करता है।

संसार की सृष्टि का मूल  स्वत्व है और उसका अहंकार से उत्पन्न रूप संकल्प है। यही संकल्प प्रवाहित होकर इच्छा का रूप धारण करता है।

ये इच्छाओं की आपूर्ति का मूर्त  प्रयास ही कर्म है। ये सम्पूर्ण संसार कर्म से निर्मित हुआ है। यदि व्यक्ति कर्म से हीन हो जाए यदि उसकी इच्छाओं का शमन हो जाए तो संसार उसके लिए निस्सार हो जाता है।

"स्वप्न की सृष्टि( उत्पत्ति) भी प्राय: मन की इच्छाओं के  दमित( दबे हुए)  परिणाम का रूपान्तरण है।  इस लिए स्वप्न के विश्लेषण से सृष्टि उत्पत्ति के  रहस्य को सुलझाया जा सकता है।

परन्तु स्वप्न विश्लेषण व्यक्तिगत अनुभव है। लौकिक उपमा मकड़ी की हा सुबोध्य है।

जिसका प्रस्तुतिकरण हम पुन: करते हैं।

"भूतयोन्यक्षरमित्युक्तम्। तत्कथं भूतयोनित्वमित्युच्यते प्रसिद्धदृष्टान्तैः -
(1.1.7)
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति। यथा सतः पुरुषात्केशलोमानितथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम्।।1.1.7।
1.1.7।
यथा लोके प्रसिद्धम् - ऊर्णनाभिर्लूताकीटः किञ्चित्कारणान्तरमनपेक्ष्य स्वयमेव सृजते स्वशरीराव्यतिरिक्तानेव तन्तून्बहिप्रसारयति पुनस्तानेव गृह्यते च गृह्णाति स्वात्मभावमेवापादयति। यथा च पृथिव्यामोषधयो व्रीह्यादिस्थावरान्ता इत्यर्थः। स्वात्माव्यतिरिक्ता एव प्रभवन्ति। यथा च सतो विद्यमानाञ्जीवतः पुरुषात्केशलोमानि केशाश्च लोमानि च सम्भवन्ति विलक्षणानि।
यथैते दृष्टानातास्तथा विलक्षणं सलक्षणं च निमित्तान्तन्तरानपेक्षाद्यथोक्तलक्षणादक्षरात्सम्भवति समुत्पद्यत इह संसारमण्डले विश्वं समस्तं जगत्। अनेकदृष्टान्तोपादानं तु सुखार्थप्रबोधनार्थम्।1.1.7।

____________

ऊर्णनाभः, पुल्लिंग- (ऊर्णेव तन्तुर्नाभौ यस्य-ऊन के समान तन्तु जिसकी नाभि में हैं वह ऊर्णनाभ है।

अनुवाद:- अक्षर ब्रह्म( नाद- ब्रह्म) का विश्व कारणत्व

पूर्व में इस प्रकार कहा जा चुका है। कि अक्षर ब्रह्म भूतों (प्राणियों) की योनि (जन्मस्थान) है। उसका वह भूत योनित्व किस प्रकार है। वह प्रसिद्ध दृष्टान्त द्वारा बतलाया जाता है।

जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती और फिर निगल जाती है। जैसे पृथ्वी में औषधीयाँ  उत्पन्न होती हैं। जैसे सजीव पुरुषों से जड़ केश तथा लोम उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार उस अक्षर ब्रह्म से  यह विश्व उत्पन्न होता है।

जिस प्रकार संसार में प्रसिद्ध है। कि ऊर्णनाभि (मकड़ी) किसी अन्य उपकरण की अपेक्षा ( इच्छा) न कर स्वयं ही अपने शरीर से अभिन्न तन्तुओं (धागों) को रचती अर्थात उन्हें बाहर फैलाती है। और फिर आवश्यकता समाप्त होने पर उसे ग्रहीत( घरी) भी कर लेती है। यानि अपने शरीर में समाविष्ट कर लेती है । जैसे पृथ्वी में व्रीहि (धान) यव ( जौ)इत्यादि अन्न से लेकर  वृक्ष पर्यन्त ( तक ) सम्पूर्ण औषधीयाँ उससे अभिन्न ही उत्पन्न होती हैं। सत् (चेतनसत्ता)  युक्त पुरुष से भिन्न विलक्षण केश तथा रोम ( लोम) उत्पन्न होते हैं।

जैसा कि यह दृष्टान्त है उसी प्रकार इस संसार मण्डल में इससे विभिन्न और समान लक्षणों वाला यह विश्व-( समस्त जगत्) किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा न करने वाले उस उपर्युक्त लक्षण विशिष्ट अक्षर से ही उत्पन्न होता है।

ये अनेक दृष्टान्त केवल विषय को सरलता से समझने के लिए ही दिए गये हैं।७।

द्वितीयः खण्डः
समाप्तमिदं तृतीयकं मुण्डकम्

___________ 

मुण्डकोपनिषद् की कथा का विवरण इस लेख में प्रस्तुत किया गया है । प्रश्नोपनिषद् के समान, मुण्डकोपनिषद् में भी कथा का अंश बहुत कम है, और सम्भवतः यह भी, कथा न होकर, किसी ऐतिहासिक घटना का वर्णन है । 

मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद की शौनकी शाखा से है इसमें परम-ब्रह्म और उसको प्राप्त करने के मार्ग का सुन्दर उपदेश है । भारत सरकार द्वारा गर्वान्वित उपदेश ’सत्यमेव जयते’ भी इसी उपनिषद् से संग्रहीत  है ।

इसी प्रकार इसके अन्य श्लोकांश भी सुविख्यात दार्शनिकता से पूर्ण हैं । 

इसके कुछ श्लोक कठोपनिषद् में भी पाए जाते हैं यह उपनिषद् तीन अध्यायों में बटा है, जिन्हें मुण्डक कहा जाता है । प्रत्येक मुण्डक में दो-दो खण्ड है, जिनमें कुल ६४ श्लोक हैं ।

अति-स्पष्ट होने से, परातपर ब्रह्म के ज्ञान हेतु यह उपनिषद् अवश्य ही पढ़ना चाहिए ।

उपनिषद् बताता है कि देवों की जो प्रथम सृष्टि हुई, उनमें भी सबसे ज्ञानी ब्रह्मा हुए, जो सबके कर्ता और लोकों के रक्षक हुए (सम्भवतः, उन्होंने मनुष्य-जाति को आगे बढ़ाने में योगदान दिया और धर्म के प्रवचन से सब प्राणियों की रक्षा के निमित्त हुए – यह इसका अर्थ है ।

"इस ’ब्रह्मा’ को परमात्मा-वाची ’ब्रह्म’ कभी नहीं समझना चाहिए – क्योंकि नपुंसकलिंग ’ब्रह्म’ शब्द परमात्मा के लिए प्रयुक्त होता है, और प्रायः पुंल्लिङ्ग शब्द  ’ब्रह्मा’ देव-/मनुष्य-वाची होता है  ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को ब्रह्मविद्या दी । अथर्वा ने अंगिरा ऋषि को इस विद्या का पात्र बनाया ।

 "ब्रह्मन्- बृंहति बर्द्धते निरतिशयमहत्त्व-  लक्षणबृद्धिमान् भवतीत्यर्थः ।  बृहिबृद्धौ + बृंहे- र्नोऽच्च । “  उणादि सूत्र- ४ । १४५ ।  + मनिन् नकार- स्याकारः ।  रत्वञ्च । )  जो परमेश्वर निरन्तर वृद्धि कर रहा है। जिसका कहीं और कभी अन्त ही नहीं हो रहा है।   

_________________________________'

मुण्डकोपनिषद, 1.1.7

"यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः संभवन्ति।
यथा सः पुरुषात् केशलोमनि तथाऽक्षरात् संभवतिः विश्वमृ ॥
"

यथा -  - जैसे । ऊर्णाभिः -  - ऊन से  । सृजते -  - रचना करता है । गृह्णते च - - और संग्रह करता है( समेटता है) । यथा पृथिवीम् --जैसा कि पृथ्वी को  ओषधयः - जड़ी-बूटियाँ ।सम्भवन्ति - उत्पन्न होती हैं।  यथा सतः पुरूषात् -  - जैसे कि एक सत पुरुष से से ।केशलोमानि - सिर और शरीर के बाल  हैं -  तथा इह - वैसे ही यह  अक्षरात् - अक्षर से अपरिवर्तनीय | विश्वम् सम्भवति -  - संसार का जन्म होता है |

श्लोक 1.1.7

जैसे मकड़ी अपने लार से उत्पन्न  जाल को बनाती  और अपने में पुन: निगल लेती  है, जैसे औषधीय पौधे पृथ्वी से उगते हैं, जैसे जीवित व्यक्ति से  निर्जीव आभासी बाल उगते हैं, वैसे ही यह ब्रह्माणड परात्पर ब्रह्म  से विकसित और अन्त में उसमें ही विलय  हो जाता है।



"यह सृष्टि ब्रह्म का वैवर्त है (ब्रह्म -वैवर्त- पुराण -पुरुष और प्रकृति के परिणामों की कथानक मूलक प्रस्तुति करने वाला प्रथम और प्राचीन पुराण है। इसमें कोई सन्देह नहीं है।

अन्य अठारह पुराणों में इसकी गणना उसी रूप में नहीं की जा सकती है जैसे पद्मपुराण, मत्स्य पुराण, अथवा भागवत पुराण की की जाती है ।

पद्मपुराण कि सृष्टि खण्ड अन्य सभी पुराणों में प्राचीनतर है जिसकी तर्ज पर स्कन्द पुराण का लेखन भी किया गया ।-

  वेदान्त के मनीषीयों जैसे रामानुजाचार्य आदि का  मत है कि सृष्टि का आधार सत्कार्यवाद का सिद्धान्त है।

इसकी मान्यता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में विद्यमान रहता है। जैसे एक छोटे से पीपल के बीज में सम्पूर्ण विशाल पीपल के वृक्ष की पूर्ण सम्भावनाऐं समाविष्ट (समाई)  हुई होती हैं। अनुकूल परिस्थितियों के आने पर समय पर सम्पूर्ण पीपल काम विकास हो जाता है। 

यह कारण और कार्य की एकता का अकाट्य सिद्धान्त है। यह सत्कार्यवाद के परिणामवादी रूप को मानता है। 

इसका सिद्धान्त ब्रह्म-परिणामवाद कहलाता है जिसके अनुसार यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्म का, उसके विशेषणांश का परिणाम है।

इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि रामानुज तत्त्वत्रय ईश्वर, चित्त( जीव) और अचित्त( प्रकृति) में विश्वास तो करते हैं। परन्तु अन्त में सबको एक ब्रह्म में तिरोहित ( समाविष्ट) कर देते हैं।

इनमें ईश्वर विशेष्य है तथा चित् एवं अचित् उसके विशेषण हैं।
ईश्वर अंशी है और चिदचित् उसके अंश हैं।
अंश कभी अंशी से पृथक ( अलग) नहीं हो सकता है।
ब्रह्म के विशेषणांश (चिदचित्) का ही यथार्थ रूपान्तरण यह चराचर जगत् है ।

अचित् ज्ञानशून्य (जड़) एवं परिणामी द्रव्य है। और चित् (आत्मा) अपरिवर्तित रूप है।

यह अचित्- तीन प्रकार का है।

      ●  शुद्ध सत्य या नित्य-विभूति

      ●   मिश्र सत्त्व या प्रकृति एवं

      ●    सत्त्वशून्य या काल शुद्ध

"सत्त्वं रजस्तमस्रहित एवं उदात्तीभूत प्रकृति है। यह वह उपादान है जिससे आदर्श जगत् (वैकुण्ठ लोक) की वस्तुएं, ईश्वर तथा मुक्त जीवों के शरीर बनते हैं। सत्त्वशून्य जड़द्रव्य 'काल' है। 

यह भी परिणामी है। 

वाराहमिहिर कृत ‘सूर्य सिद्धान्त’ में तारों, सूर्य, चन्द्रमा और अन्य ग्रहों की गति और गणितीय व्युत्पत्तियों के आधार पर समय के मापन की नौ पद्धतियों का विवेचन किया गया है।
तद्नुसार काल की नौ इकाईयाँ हैं।

१-ब्राह्म’, २‘दिव्य’, ३‘त्रिज्या ४-प्राजापत्य’, ५‘गौरव’, ६‘सौर’, ७‘सावन’, ‘८ चान्द्र’ और -‘आर्क्ष’।
प्रथम छ: इकाइयों ‘ब्राह्म से सौर पर्यन्त’ का प्रयोग ब्रह्माण्ड के आविर्भाव से व्यतीत होने वाले  समय को परिभाषित करने में किया गया है।

चान्द्रमान का उपयोग दैनिन्दिनदर्शिका (पंचांग) के निर्माण में होता है, जिससे विभिन्न संस्कारों तथा त्योहारों का निर्धारण किया जाता है।

सावन दिन (Solar day) और नाक्षत्र दिन (Sidereal day) का उपयोग ग्रहों की गति की गणना में किया जाता है।

सावन दिन:-पूरे एक दिन और एक रात का समय होता। 

एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक के समय को सावन दिन कहा जाता है अर्थात् 60 दंड का  समय । 

विशेष— इस प्रकार के ३० दिनों का एक सावन मास होता है और ऐसे बारह सावन मासों अर्थात् ३६० दिनों का एक सावन वर्ष होता है, मलमासतत्व के अनुसार — 'सौर संवत्सरे दिवस षट्काधिक ? सावनो भवति'।

अर्थात् सौर और सावन वर्ष में लगभग ६ दिनों का अंतर होता है। 

"सवनं यागाङ्गं स्नानं सोमनिष्पीडनं वा तस्येदमण् सावनं - “अहोरात्रेण चैकेन सावनो दिवसः स्मृतः” ब्रह्मसिद्धान्तोक्ते (१) -अहोरात्रात्मके दिवसे, सवनत्रयस्य अहोरात्र- साध्यत्वादह्नस्तत्सम्बन्धित्वम्

______________________________

आधुनिक भौतिक विज्ञान के इस युग में भी हमने समय की इन दो इकाइयों को महत्त्व दिया है।

सावन दिन’ अपनी उपयोगिता के कारण दोनों पद्धतियों (वैशेषिक एवं भौतिकी) में समय  के मापन का ठोस एवं उत्तम आधार तैयार करता है।

प्राचीन भारतीय पद्धति में काल  की इकाई का विभाजन और उपविभाजन अधोलिखित प्रकार से होता है-

60 विपल=1 पल
 60 पल=1 घंटि (नाडी/दण्ड)
 21/2 घंटि=1 होरा (hour)
 24 होरा = 1 सावन दिन
आधुनिक समय में हम काल (समय) का विभाजन तथा उपविभाजन निम्न प्रकार से करते हैं-
६० सैकेण्ड=१ मिनट
६० मिनट=१ घण्टा
२४ घण्टा=१ दिन (सूर्य- दिवस)


भारतीय ज्योतिष में ग्रह, के अर्थ में, जो भी पिण्ड अंतरिक्ष में नक्षत्रों के सापेक्ष हमें गति करते दिखते हैं वे ग्रह कहलाते हैं। ग्रह का शाब्दिक अर्थ प्लैनेट  के रूप में व्यवहार ज्योतिष की दृष्टि से असंगत है।
काल (समय) की इकाई  होरा (जो घण्टा के समतुल्य है) साप्ताहिक दिनों के नामों की व्यवस्था प्रदान करता है। 

काल के विपरीत दिशा- आकाश से अभिन्न है और प्रकृतिजन्य है।

मिश्रसत्त्व में सत्त्व, रजस् एवं तमस्, तीनों गुण रहते हैं। इसे प्रकृति या माया कहते हैं।

रामानुज प्रकृति को ही सृष्टि का मूलभूत कारण कहते हैं।

उल्लेखनीय है कि रामानुज की प्रकृति सांख्य दर्शन की प्रकृति से पूरी तरह  भिन्न भी नहीं है। 

जैसे, सत्व, रजस् एवं तमस् सांख्य की प्रकृति के निर्माणक घटक हैं एवं द्रव्य रूप हैं, जबकि ये रामानुज की प्रकृति के गुण या विशेषण हैं जिससे संसार निर्माण होता है।।

ये उससे अवियोजनीय होते हुए भी मित्र हैं। पुनः, सांख्य की प्रकृति स्वतन्त्र  है जब द्वन्द्व के सापेक्ष हो तब, जबकि रामानुज की प्रकृति ब्रह्म पर आश्रित है। 

रामानुज के दर्शन में बन्धन और मोक्ष -रामानुज के अनुसार ब्रह्म ही संसार का ( उपादान - (कार्य सामग्री) और निमित्त कारण दोनों है। 

ईश्वर के अंशभूत तत्त्व, जीव और प्रकृति, जगत् के उपादान कारण हैं। ईश्वर के संकल्प से सृष्टि का प्रारम्भ होता है। अतः ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण भी है। 

जब ईश्वर अपने संकल्प से जीवों को उनके अतीत कर्मों का फल दिलाने के लिए चित् और प्रकृति का प्रवर्तन करता है तब सृष्टि उत्पन्न होती है। इसी को रामानुज ब्रह्म की लीला कहते हैं।

इस प्रकार रामानुज का ब्रह्मपरिणामवाद लीलावाद है। 

" यह सृष्टि ब्रह्म की लीला है जिसे प्रकार मकड़ी के अन्दर से जाला निकलता है और आवश्यकता समाप्त होने पर वह मकड़ी उस जाले को स्वयं ही निगल लेती है। उसी प्रकार ब्रह्म के अन्दर से सृष्टि निकली है और अन्त में उसी में विलीन हो जाती है।  

ब्रह्म के रूप

ब्रह्म के दो रूप हैं

    ●  कारणावस्था और 

    ●  कार्यावस्था

"ब्रह्म की कार्यावस्था ही सृष्टि है जो कारणरूप ब्रह्म में बीज रूप में सदैव निहित होती है।

यह सृष्टि ब्रह्म का ही यथार्थ रूपांतरण( वैवर्त) है। ईश्वर प्रलयकाल में कारण रूप में रहता है। यह ब्रह्माण्ड अव्यक्त रूप में उसमें निहित होता है। सृष्टि की स्थिति में अव्यक्त रूप ब्रह्माण्ड व्यक्त होता है। 

इस अवधि में सूक्ष्म भूत स्थूल हो जाते हैं और जीव का धर्मभूत ज्ञान विस्तृत होकर अतीत कर्मों के अनुसार उसे भौतिक शरीरों से संयुक्त कर देता है।



"इस प्रकार एकमात्र ईश्वर ही सृष्टि का निमित्त एवं उपादान कारण है।

 उपादान:-वह कारण जो स्वयं कार्य रूप में परिणत हो जाय । वह सामग्री जिससे कोई वस्तु तैयार हो उपादान है ।

 जैसे, घड़े का उपादान कराण मिट्टी है । वैशेषिक में इसी को "समवायिकरण" कहते हैं । सांख्य के मत से उपादान और कार्य एक ही है ।

अर्थात् सृष्टि किसी बाह्य साधन की सहायता के बिना ही उससे स्वतः विकसित होती है। रामानुज के अनुसार यह परिणाम केवल ईश्वर के विशेषणांश में होता है, ईश्वर स्वतः इससे अप्रभावित रहता है। इस प्रकार ब्रह्म इस परिवर्तनशील जगत् का अपरिवर्तनशील केन्द्र है। जैसे किसी चक्र की परिधि और धुरी या सम्बन्ध होता है।

जगत् भी सत् है- 

"मुण्डकोपनिषद्  की मान्यता है कि सत् कारण से उत्पन्न होने के कारण जगत् भी सत् है , संविशेष ब्रह्म की  विभूति होने के कारण जगत् की सत्ता पारमार्थिक है। रामानुज शंकर के इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हैं "कि जगत् केवल व्यावहारिक दृष्टि से सत् है और परमार्थतः( सिद्धान्तत:) असत् है ।

रामानुज की दृष्टि में शंकराचार्य का विचार श्रुति विरोधी है। उन्होंने इस बात का प्रतिपादन किया कि सृष्टि वास्तविक है। यह जगत् उतना ही सत्य है जितना ब्रह्म ।

श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णन है -


ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24।।

अर्थ- जिस यज्ञ में अर्पण भी ब्रह्म है, हवि भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है, जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है।

छान्दोग्योपनिषद (तृतीय प्रपाठक चतुर्दश खण्ड हिंदी भावार्थ सहित) (चतुर्दशः खण्डः)

सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत 
अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके
पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत
॥ ३. १४. १ ॥
 यह ब्रह्म ही सब कुछ है । यह समस्त संसार उत्पत्तिकाल में इसी परम्- ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है और अनंतकाल में इसी में लीन हो जायेगा । ऐसा ही जान कर उपासक को शान्तचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म की सदा उपासना करे। जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मान्तर में वैसा ही हो जाता है।

रामानुज नानात्व का निषेध करने वाले 'नेह नानास्ति किञ्चन्' तथा उनकी एकता को स्वीकार करने वाले 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म', इत्यादि श्रुतिवाक्यों की व्याख्या करते हुए कहते हैं।

कि ये वाक्य विषयों की सत्ता को अस्वीकार नहीं करते हैं। वे केवल यह बताते हैं कि उनमें एक ही ब्रह्म निहित है। जिस प्रकार स्वर्ण के सभी आभूषण स्वर्ण ही हैं उसी प्रकार इन विषयों का आन्तरिक सत्य ब्रह्म ही है।

सृष्टि का विकास क्रम -

रामानुज भी सांख्य दर्शन की तरह प्रकृति से सृष्टि का विकास क्रम दिखाते हैं। 

रामानुज भी सृष्टि का विकास क्रम लगभग सांख्य-जैसा ही मानते हैं। दोनों में प्रमुख अन्तर यह है कि रामानुज उपनिषदों में प्रतिपादित 'पञ्चीकरण की प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं, जबकि सांख्य दर्शन भी  इसे मान्यता तो देता है परन्तु इसका निरूपण नहीं करता है। 

इस प्रक्रिया के अनुसार 'भूतादि अहंकार' से सर्वप्रथम पाँच सूक्ष्म भूतों का इस क्रम से आविर्भाव होता है —

        ◾  आकाश का गुण- ( ध्वनि)

        ◾  वायु का गुण -(स्पर्श)

        ◾ अग्नि का गुण- ( तेज)

        ◾ जल का गुण- (रस )

        ◾ पृथ्वी का गुण-( गन्ध)

इन पाँचों सूक्ष्म भूतों का पुनः पाँच प्रकार से संयोग होता है जिससे पाँच स्थूल महाभूतों का आविर्भाव होता है। पञ्चीकरण सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक स्थूल महाभूत में आधा भाग (1/2) इस महाभूत का अपना होता है और शेष आधे भाग में अन्य महाभूतों के बराबर भाग (1/8) होते हैं।

अभिप्राय  यह है कि पंचीकरण-सिद्धान्त से पाँच स्थूल महाभूतों का आविर्भाव निम्नलिखित क्रम और अनुपात से होता है—

"आकाश महाभूत= 1/2 आकाश+ 1/8 वायु + 1/8 अग्नि+1/8 जल+1/8 पृथ्वी। 

"वायु महाभूत= 1/2वायु + 1/8 आकाश + 1/8 अग्रि + 1/8 जल + 1/8 पृथ्वी

"अग्नि महाभूत = 1/2अग्नि +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 जल + 1/8

 "पृथ्वी जल महाभूत= 1/2 जल +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 अग्नि + 1/8 पृथ्वी ।

"पृथ्वी महाभूत= 1/2 पृथ्वी +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 जल +1/8 अग्नि 

रामानुज के अनुसार सभी सांसारिक पदार्थ जिसमें जीव का शरीर भी शामिल है, इन्हीं पंचमहाभूतों से उत्पन्न होते हैं।

इसीलिए सभी सांसारिक वस्तुओं में पाँचों महाभूतों के तत्त्व पाये जाते हैं। पुनः, रामानुज ब्रह्म एवं जगत् के सम्बन्ध को आत्मा एवं शरीर के सम्बन्ध के समान मानते हैं।

"समालोचना-

हम ब्रह्म के स्वरूप विवेचन में देख चुके हैं कि रामानुज का 'परम यथार्थता' "का सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से भले ही सन्तोषजनक न हो परन्तु दार्शनिक रूप से सार्थक है। 

और उनका लीलावाद का सिद्धान्त एक प्रकार का रहस्यवाद है जिसे बौद्धिक धरातल पर ग्राह्य नहीं माना जा सकता क्यों कि यह रहस्य मानवीय भौतिक बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है।

ईश्वर सृष्टि रचना का संकल्प क्यों करता है? क्या इसमें उसका कोई प्रयोजन निहित है ?

अवश्य प्रयोजन निहित है  लीला विलास उसका उद्देश्य है। सत- चित और आनन्द उस आत्मा की मौलिक सत्ताऐं हैं।

पुनः जगत् को ईश्वर के विशेषणांश या अंश (चिदचित्) का परिणाम बताया जाता है। क्या विशेषणांश के परिवर्तन से विशेष्य अप्रभावित रह सकता है ? क्या अंशों में परिणाम होने पर भी अंशी अपरिणामी बना रह सकता है ? क्या जगत् के दोष ब्रह्म को व्याप्त नहीं करते हैं?

रामानुज इन प्रश्नों का समाधान 'आत्मा-शरीर' एवं 'राजा-प्रजा' की उपमाओं के आधार पर करने का प्रयास करते हैं।

 किन्तु वे इस प्रयास में तर्कतः सफल नहीं होते। वास्तव में, यदि ब्रह्म अंशी है और जगत् अंश है तो जगत् के दोषों से ब्रह्म अक्षुण्ण नहीं रह सकता। इसी लिए उसका दोष पूर्ण रूपान्तरण ही जीवात्मा है।

 विशेषणांश के परिणामी होने पर विशेष्यांश के अपरिणामी बने रहने की बात स्थूल रूप से समझ में नहीं आती। परन्तु द्वन्द्व वाद के विवेचन करने पर यह बात समझ में आ जाती है। जैसे आधेय और आधार केन्द्र और परिधि आदि रूप इसी प्रकार समन्वित हैं।

यह संसार मन में स्वप्न के समान अथवा समुद्र में लहर के समान परिणामी है।

वह एक कृष्ण ही अनेक रूपों में उद्भासित होते हैं। अर्थात् ब्रह्म का रूपान्तर ही उसका वैवर्त  है। 

ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है।

 विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है। 

'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है।

कृष्ण से ही ब्रह्माविष्णु, महेश और प्रकृति का जन्म बताया गया है। उनके दाएं पार्श्व से त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम) उत्पन्न होते हैं। फिर उनसे महत्तत्त्व, अहंकार और पंच तन्मात्र उत्पन्न हुए। फिर नारायण का जन्म हुआ जो श्याम वर्ण, पीताम्बरधारी और वनमाला धारण किए चार भुजाओं वाले थे। पंचमुखी शिव का जन्म कृष्ण के वाम पार्श्व( बगल) से हुआ। नाभि से ब्रह्मा, वक्षस्थल से धर्म, वाम पार्श्व से पुन: लक्ष्मी, मुख से सरस्वती और विभिन्न अंगों से दुर्गा, सावित्रीकामदेव, रति, अग्नि, वरुण, वायु आदि देवी-देवताओं का आविर्भाव हुआ। ये सभी भगवान के 'गोलोक' में स्थित हो गए

जिस प्रकार ब्रह्माण्ड, शरीर और परमाणु परस्पर समष्टि (समूह) और  व्यष्टि (इकाई) के रूप में  सम्बन्धित हैं। उसी प्रकार सृष्टि का भी क्रम है
__________
यह परमाणु भी त्रिगुणात्मक है --सत् धनात्मक तथा तमस् ऋणात्मक तथा रजो गुण न्यूट्रॉन के रूप में मध्यस्थ होने से न्यूट्रल (Neutral ) है जो उदासीन है।  परमाणु को जब और शूक्ष्मत्तम रूप में देखा तो अल्फा, बीटा और गामा कण भी त्रिगुणात्मक ही सिद्ध  होते है।

परन्तु ये सभी पूर्ण नहीं हैं; केवल उसके अवयव रूप हैं परमाणु का मध्य भाग जिसे नाभिक (Nucleus)भी कहते हैं ,उसी में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन उसी प्रकार समायोजित हैं , जैसे सत्य  का समायोजन ब्रह्म से हो। अथवा सतोगुण का समायोजन परम्-ब्रह्म में हो।
क्योंकि परम्- ब्रह्म की प्राप्ति के लिए सतोगुण को तो धारण करना पड़ेगा और अन्त में उसका परित्याग करना ही पड़ता है।

क्वार्क बोसॉन एक प्राथमिक कण है तथा यह पदार्थ का मूल घटक है। क्वार्क एकजुट होकर सम्मिश्रण कण हेड्रान बनाते है। परमाणु के मुख्य अवयव प्रोटॉन व न्यूट्रॉन इनमें से सर्वाधिक स्थिर होते है और बोसॉन जो कि गौड पार्टीकल्स के नाम से मशहूर है , जिससे बिग बैंग का पता चला था , उसी को बोसॉन कहते है ,

विदित हो कि परमाणु के केन्द्र में प्रतिष्ठित प्रोटॉन (Protons) पूर्णतः घन आवेशित कण है और इसी केन्द्र के चारो ओर भिक्षुक के सदृश्य(समान) प्रोटॉन के विपरीत ऋण-आवेशित कण इलैक्ट्रॉन गतिशील हैं।

जो कक्षाओं में निरन्तर चक्कर काटते रहते हैं  इलैक्ट्रान पर भी प्रोटॉन के धन आवेश के बराबर ही ऋण आवेश की संख्या होती है।

अर्थात् परमाणु में इलैक्ट्रॉन की संख्या भी प्रोटॉन की संख्या के बराबर होती है।
इलेक्ट्रॉन ही वस्तु के विद्युतीयकरण के लिए उत्तर दायी  होते हैं। 

परमाणु के द्रव्यमान का 99.94% से अधिक भाग नाभिक में होता है । 
प्रॉटॉन पर सकारात्मक विद्युत आवेश होता है । तथा इलेक्ट्रॉन पर नकारात्मक विद्युत आवेश होता है । और न्यूट्रॉन पर कोई विद्युत आवेश नहीं होता ।
तथा परमाणु का इलेक्ट्रॉन इस विद्युतीय बल द्वारा एक परमाणु के नाभिक में प्रॉटॉन की ओर आकर्षित होता है तथा परमाणु में प्रॉटॉन और न्यूट्रॉन एक अलग बल अर्थात् परमाणु बल के द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करते हैं ।

विद्युत के साथ चुम्बकत्व जुड़ी हुई घटना है।विद्युत आवेश वैद्युतचुम्बकीय क्षेत्र पैदा करते हैं। विद्युत क्षेत्र में रखे विद्युत आवेशों पर बल लगता है।

समस्त विद्युत का आधार इलेक्ट्रॉन हैं। क्योंकि इलेक्ट्रॉन हल्के होने के कारण ही आसानी से स्थानांतरित हो पाते हैं। इलेक्ट्रानों के हस्तानान्तरण के कारण ही कोई वस्तु आवेशित होती है। आवेश की गति की दर विद्युत धारा है। 

आधुनिक शब्द 'इलेक्ट्रॉन' का उपयेग यूनानी भाषा में अंबर के लिए किया जाता है। 'इलेक्ट्रिसिटी' शब्द का उपयोग सन् 1650 में वाल्टर शार्ल्टन (Walter Charlton) ने किया। इसी समय राबर्ट बायल -1627-1691 ई.) ने पता लगाया कि आवेशित वस्तुएँ हल्की वस्तुओं को शून्य में भी आकर्षित करती हैं, अर्थांत् विद्युत के प्रभाव के लिए हवा का माध्यम होना आवश्यक नहीं है।

वस्तुओं की रगड़ के कारण विद्युत दो प्रकार की होती है, घनात्मक एवं ऋणात्मक। पहले इनके क्रमश: काचाभ (vitreous) तथा रेजिनी (resionous) नाम प्रचलित थे।
सन्-1737में डूफे (Du Fay,1699-1739 ने बताया कि सजातीय आवेश एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं तथा विजातीय आकर्षित करते हैं। 
____________________________________
ऐसा ही आकर्षण स्त्री और पुरुष का पारस्परिक रूप से है । परमाणु किसी पदार्थ की सबसे पूर्ण सूक्षत्तम इकाई है।
वस्तुएँ न्यूनतम ऊर्जा विन्यास तक पहुँचने की प्रवृत्ति रखती हैं।
एक अन्य चुंबक उदाहरण, यदि आप दो बार चुंबकों को एक साथ रखते हैं, तो एक चुंबक का उत्तरी ध्रुव दूसरे के दक्षिणी ध्रुव के साथ संरेखित हो जाएगा। यह एक चुंबक के क्षेत्रों को दूसरे की ओर विपरीत दिशा में निर्देशित कर देगा, जिससे अधिकांश क्षेत्र रद्द हो जाएंगे, और इस प्रकार न्यूनतम ऊर्जा उत्पन्न होगी। 
समान ध्रुवों के बीच हमेशा प्रतिकर्षण बल होता है और विपरीत ध्रुवों के बीच में आकर्षण बल होता है।
इसका कारण दौनों ध्रुवों का परस्पर अपूर्णत्व ही है। इस लिए दौंनों मिलकर स्वयं को पूर्ण करना चाहते हैं।
स्त्री पुरुष की भी यही मिलन प्रवृत्ति है।
_पुरुष स्त्री की कोमलता का आकाँक्षी है तो स्त्री उसके पौरुष( परुषता) - या कठोरता की सहज आकाँक्षी है। ______________________________________________ 

   "अध्याय - तृतीय-"

 " आत्मा का अस्तित्व तथा  आध्यात्म के मूल में विद्यमान "आत्मा" शब्द भारत यूरोप की सभी महान संस्कृतियों में विद्यमान- है-


"यूरोपीय पुरातन भाषाओं में विशेषत: जर्मनिक भाषाओं में "आत्मा" शब्द के अनेक वर्ण--विन्यास के रूप विद्यमान हैं👇

 जैसे -
1-पुरानी अंगेजी में--(Aedm)
 2-डच( Dutch) भाषा में (Adem )
 3-प्राचीन उच्च जर्मन में (Atum) = breath अर्थात् प्राण अथवा श्वाँस-- 
4-डच भाषा में इसका एक क्रियात्मक रूप (Ademen )--to breathe श्वाँसों लेना ।परन्तु (Auto) शब्द ग्रीक भाषा का प्राचीन रूप है । जो की (Hotos) रूप में था । 

जो संस्कृत भाषा में स्वत: से समरूपित है । श्री मद्भगवद्गीता में कृष्ण के इस विचार को आत्मा अविनाशिता के रूप में उद्घोषित किया है।👇
मूल श्लोकः

"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।
 (श्रीमद्भगवद्गीता-  2/23)

इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।
 
आत्मा नि:सन्देह अजर ( जीर्ण न होने वाला) और अमर (न मरने वाला ) है  आत्मा में मूलत: अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति और यह स्वयं अनन्त आनन्द स्वरूप है। 
क्योंकि ज्ञान इसका परम स्वभाव है । 
ज्ञान ही शक्ति है और ज्ञान ही आनन्द परन्तु ज्ञान से तात्पर्य सत्य से अन्वय अथवा योग है 
_____
सत्य ज्ञान का गुण है और चेतना भी ज्ञान एक गुण है सत्य और ज्ञान दौनों मिलकर ही आनन्द का स्वरूप धारण करते हैं। जैसे सत्य पुष्प के रूप में हो तो ज्ञान इसकी सुगन्ध और चेतना इसका पराग और आनन्द स्वयं उसका मकरन्द (पुष्प -रस )है ; आत्मा सत्य है । 
क्योंकि इसकी सत्ता शाश्वत है । एक दीपक से अनेक दीपक जैसे जलते हैं ; ठीक उसी प्रकार उस अनन्त सच्चिदानन्द ब्रह्म से अनेक आत्माऐं उद्भासित हैं ।
परन्तु अनादि काल से वह सच्चिदानन्द ब्रह्म लीला रत है ;यह संसार लीला है उसकी जिसमें अविद्या ही निर्देशक है। अज्ञानता ही इस समग्र लीला का कारण है । अज्ञानता सृष्टि का स्वरूप है ; उसका स्वभाव है "यह सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकार उन्मुख है। क्यों कि अन्धकार का तो कोई दृश्य श्रोत नहीं है, परन्तु प्रकाश का प्रत्येक श्रोत दृश्य है।

अन्धकार तमोगुणात्मक है ,तथा प्रकाश सतो गुणात्मक है यही दौनो गुण द्वन्द्व के प्रतिक्रिया रूप में रजो गुण के कारक हैं!

यही द्वन्द्व (दो) की सृष्टि में पुरुष और स्त्री के रूप में विद्यमान है। स्त्री स्वभाव से ही कोमल और भावना प्रधान प्रकृति कि है और पुरुष कठोर तथा विचार प्रधान प्रकृति का है।

वस्तुत: कहना चाहिए कि स्त्री प्रवृत्ति गत रूप से भावनात्मक रूप से प्रबल होती हैं ; और पुरुष विचारात्मक रूप से प्रबल होता है। 
इसके परोक्ष में सृष्टा  का एक सिद्धान्त निहित है  वह भी विज्ञान - संगत क्योंकि व्यक्ति इन्हीं दौनों विचार भावनाओं से पुष्ट होकर ही ज्ञान से संयोजित होता है ।

अन्यथा नहीं , वास्तव में इलैक्ट्रॉन के समान सृष्टि सञ्चालन में स्त्री की ही प्रधानता है।
और संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द का व्यापक अर्थ है :--जो सर्वत्र चराचर में व्याप्त है । 

-आत्मा शब्द द्वन्द्व से रहित ब्रह्म का वाचक भी है और ब्रह्मन्- नपुसंक लिंग शब्द है। और द्वन्द्व से संयोजित जीव का वाचक भी है।

जैसे समुद्र में लहरें उद्वेलित हैं वैसे ही आत्मा में जीव उद्वेलित है ,वास्तव में लहरें समुद्र जल से पृथक् नहीं हैं ,लहरों का कारक तो मात्र एक आवेश या वेग है यह वेग जीवात्मा में मन अथवा चित्त या है ।
ब्रह्म रूपी दीपक से जीवात्मा रूपी अनेक दीपकों में जैसे एक दीपक की अग्नि का रूप अनेक रूपों ही प्रकट हो जाता है ।

इच्छा संकल्प काम ही आवेशात्मक रूपान्तरण है। और आवेश द्वन्द्व के परस्पर घर्षण का परिणाम है जीव अपने में अपूर्णत्व का अनुभव करता है । परन्तु यह अपूर्णत्व किसका अनुभव करता है उसे ज्ञात नहीं :-
********
"ज्ञान दूर है और क्रिया भिन्न !    
श्वाँसें क्षण क्षण होती विच्छिन्न । 

पर खोज अभी तक जारी है । 
अपने स्वरूप से मिलने की । 

हम सबकी अपनी तैयारी है । 
आशा के पढ़ाबों से दूर निकर
संसार में किसी पर मोह न कर।
ये हार का हार स्वीकार न कर ।।
मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है । 

शोक मोह में तू क्यों खिन्न है ।
कुछ पल के रिश्ते सब छिन्न है । 
'ये मतलब की दुनियाँ सारी है ।
मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है । 
 ***********************************

शक्ति , ज्ञान और आनन्द के अभाव में व्यक्ति अनुभव करता है कि उसका कुछ तो खो गया है । जिसे वह जन्म जन्म से प्राप्त करने में संलग्न है । परन्तु परछाँईयों में वह उसे खोजता है।
सबका समाधान और निदान आत्मा का ज्ञान अथवा उसका साक्षात्कार ही है । 
और यह केवल मन के शुद्धिकरण से ही सम्भव है।

 स्व: में आत्म सत्ता का बोध सम्पूर्णत्व के साथ है ; यह सिन्धुत्व का भाव (समु्द्र होने का भाव )है । व्यक्ति के अन्त: करण में स्व: का भाव तो उसका स्वयं के अस्तित्व का बोधक है ।

 परन्तु अहं का भाव केवल मैं ही हूँ ; इस भाव का बोधक है। इसमें अति का भाव ,अज्ञानता है । _________________________________________
अल्पज्ञानी अहं भाव से प्रेरित होकर कार्य करते हैं ; तो ज्ञानी सर्वस्व: के भाव से प्रेरित होकर ,

सम्पूर्ण सृष्टि में जीव की भिन्नता का कारण प्राणी का चित् अथवा मन ही है ।
हमारा चित्त ही हमारी दृष्टि- ज्ञान और वाणी का संवाहक है, हमारी चेतना जितनी प्रखर होगी ,हमारा ज्ञान वाणी और दृष्टि उतनी ही उन्नत होगी।

स्त्री और पुरुष का जो भेद है, वह केवल मन के स्तर पर ही है ।
 
आत्मा के स्तर पर कदापि नहीं है जन्म-जन्मातरण तक यह मन ही हमारे जीवन का दिशा -निर्देशन करता है । 

सुषुप्ति ,जाग्रति और स्वप्न ये मन की ही त्रिगुणात्मक अवस्थाऐं हैं ।
परन्तु चतुरीय (तुरीय) अवस्था आत्मा की अवस्था है।

"प्राणी जीवन का संचालन मन में समायोजित प्रवृत्तियों के द्वारा होता है 
जैसे कम्प्यूटर का संचालन सी.पी.यू.-(केन्द्रिय प्रक्रिया इकाई) के द्वारा होता है । 

जिसमें सॉफ्टवेयर इन्सटॉल्ड (installed)होते हैं उसी प्रकार प्रवृत्तियों के (System Software) तथा (Application Software )हमारे मन /चित्त के (सी. पी.यू.) में समायोजित हैं।
 
जिन्हें हम क्रमश: प्रवृत्ति और स्वभाव कहते हैं । वास्तव में प्रवृत्तियाँ प्राणी की जाति(ज्ञाति)से सम्बद्ध होती हैं । 
और स्वभाव पूर्व-जन्म के कर्म-गत संस्कारों से सम्बन्धित होता है।

जैसे सभी स्त्री और पुरुषों की प्रवृत्तियाँ तो समान होती परन्तु स्वभाव भिन्न भिन्न होते हैं।जिन्हें हम क्रमश: सिष्टम सॉफ्टवेयर और एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर कह सकते है। 

आत्मा का वाचक प्रेत शब्द‌ भारतीय भाषाओं में अपने मूल व प्रारम्भिक अर्थें में प्रेरक- शक्ति का वाचक रहा होगा ।

जो अंग्रजी में स्प्रिट (Spirit) है । 
पुरानी फ्रेंच भाषा में लैटिन प्रभाव से "(espirit)" शब्द है जिसका अर्थ होता है --श्वाँस लेना (Breathing) अथवा (inspiration)----जिसका सम्बन्ध लैटिन क्रिया -(Spirare---to breathe) से है।

भाषा वैज्ञानिक इस शब्द का सम्बन्ध भारोपीय धातु स्पस् (speis)" से निर्धारित करते हैं । 

यद्यपि ईश्वर आदि और अन्त की सीमाओं से सर्वथा परे है। समुद्र बूँद तो नहीं हो सकता परन्तु अपनी इकाई रूप में बूँद अवश्य हो सकती है।

वह अन्तर्यामी ईश्वर व्यापक होते हुए भी अपने एक इकाई रूप से पृथ्वी पर भी अवतरित होता है।
भगवान कृष्ण गोलोक से सीधे भूलोक पर गोपों में ही अवतरित होते हैं।
क्यों वे धर्म की रक्षा के लिए अवतरण करते हैं।

"व्रजोपभोग्या च यथा नागे च दमिते मया ।
सर्वत्र सुखसंचारा सर्वतीर्थसुखाश्रया ।५७।

एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च ।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम् ।।

एनं कदम्बमारुह्य तदेव शिशुलीलया ।
विनिपत्य ह्रदे घोरे दमयिष्यामि कालियम्।५९

एवं कृते बाहुवीर्ये लोके ख्यातिं गमिष्यति। 2.11.६०।
अनुवाद:-मुझे इस नागराज का दमन करना है, जिससे जल देने वाली यह नदी कल्‍याणकारी जल का आश्रय हो सके। इस नाग का मेरे द्वारा दमन हो जाने पर यहाँ की नदी समूचे व्रज के उपभोग में आने योग्‍य हो जायेगी। यहाँ सब ओर सुखपूर्वक विचरण करना सम्‍भव हो जायगा तथा यह नदी समस्‍त तीर्थों और सुखों का आश्रय हो जायगी।

इसीलिये व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिये मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।कुमार्ग पर स्थित हुए इन दुरात्‍माओं का दमन करने के लिये ही यहाँ मेरा अवतार हुआ है। मैं बालकों के खेल-खेल में ही इस कदम्‍ब पर चढ़कर उस घोर ह्नद में कूद पड़ूँगा और कालिय नाग का दमन करूँगा। 

ऐसा करने पर संसार में मेरे बाहुबल की ख्‍याति होगी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में बाललीला के प्रसंग में यमुना वर्णन नामक ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ 
_______
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि बालचरिते यमुनावर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ।११।

     "अध्याय -चतुर्थ".

- ब्रह्मा की सृष्टि तथा वर्ण- व्यवस्था में गोपों  का समाहित न होना"

___
फिर आप लोग पुस्तक के अन्तिम व तीसरे खण्ड में यह भी जान पाएंगे कि ब्रह्मा जी की सृष्टि- रचना  चार वर्णों के अतिरिक्त भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक पाँचवा वर्ण अर्थात वैष्णव वर्ण भी विद्यमान है। 
जो ब्रह्मा जी के चार वर्णो से अलग है और जिसकी उत्पत्ति  सर्वोच्च सत्ता- श्रीकृष्ण अर्थात जिसे (स्वराट- विष्णु ) भी कह सकते हैं  से हुई है।

जिनके  सदस्यगण  व लीला सहचर एक मात्र गोप (अहीर ) ही हैं। जिन अहीरों को ही वास्तविक वैष्णव कहा जाता है । ये स्वराट्- विष्णु से उत्पन्न होने से ही वैष्णव हैं। स्वराट् विष्णु कृष्ण ही अपर नाम है।

श्री भगवान द्वारा सृष्टि के कार्य में नियुक्त ब्रह्माजी कमलकोष में प्रवेश किया और उसके ही भू:, भव:, और सव: तीन भाग किए । जीवों के भोगस्थान के रूप में इन्ही तीन लोकों का शास्त्रों में वर्णन हुआ है। जो निष्काम कर्म करने वाले हैं, उन्हें मह:, तप: जन: और सत्यलोकस्वरूप ब्रहमलोक की प्राप्ति होती है।

विषयों का निरंतर बदलना ही काल का आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष अनादि और अनन्त है। उसी को निमित्त बना कर भगवान खेल खेल में ही अपने आपको सृष्टि के रूप में प्रकट कर देते हैं। पहले यह सारा विश्व भगवान की माया से लीं होकर ब्रह्मरूप से स्थित था। उसी को अव्यक्त मूर्ति काल के द्वारा भगवान ने प्रथक रूप से प्रकट किया है।

यह जगत जैसा अब है पहले भी वैसा ही था और भविष्य में भी ऐसा ही होगा। प्रलयकाल आने पर सृष्टि के सम्पूर्ण विनाश के बाद, भगवान सृष्टि की पुनः रचना करते है। आदि काल से यह चक्र निर्विवाद रूप से विद्यमान है।

जगत की सृष्टि नौ प्रकार की होती है तथा प्राकृत वैकृत भेद से एक दसवीं सृष्टि और भी है । सृष्टि का प्रलयकाल, द्रव्य तथा गुणों के द्वारा तीन प्रकार होता है। दस प्रकार की सृष्टि का भेद निम्न प्रकार के बताया गया है:

छह प्राकृत सृष्टि-

१. पहली सृष्टि महत्व की है। भगवान की कृपा से सत्वआदि गुणो में विषमता होना ही इसका स्वरूप है।

२. दूसरी सृष्टि अहंकार की है। जिससे पृथ्वी आदि पंचभूत ज्ञानेंद्रिय और कर्मइंद्रियों की उत्पत्ति होती है।

३. तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है जिससे पंचमहाभूतों को उत्पन्न करने वाला तन्मात्र वर्ग रहता है।

४. चौथी सृष्टि इंद्रियों की है। यह ज्ञान और क्रिया शक्ति से उत्पन्न होती है।

५. पाँचवी सृष्टि सात्विक अहंकार से उत्पन्न हुए देवताओं इंद्रियाधिष्ठाताओ देवताओं की है, मन भी इसी सृष्टि के अंतर्गत है।

६. छठी सृष्टि अविद्या की है। इसमें तमिस्र, अंधतमिस्र, तम, मोह और महामहिम- यह पाँच गाँठें हैं। यह जीवों की आत्मा का आवरण और विक्षेप करने वाली हैं।

वैकृत सृष्टि-

७. सातवी प्रधान वैकृत सृष्टि छह प्रकार के स्थावर वृक्षों की होती है। इनका संचार नीचे (जड़) से ऊपर की और होता है। इनके ज्ञान शक्ति नहीं होती, यह अंदर ही अंदर केवल स्पर्श का अनुभव करते है, इनमे से प्रत्येक के गुण अलग होते हैं।

– वनस्पति – जो बिना बौर आए ही फलते हैं जैसे गूलर, बड़, पीपल।
– औषधि – जो फलों के पक जाने पर नष्ट हो जाते हैं जैसे धान, गेहूँ, चना ।
– लता – जो किसी का आश्रय ले कर बढ़ते हैं जैसे ब्राह्मी।
– तवकसार – जिनकी छाल बहुत कठोर होती है जैसे बाँस ।
– वीरुध- जिनकी लता पृथ्वी पर ही फैलती है जैसे तरबूज़।
– द्रुम- जिनमे फूल आ कर फिर फूलों के स्थान पर ही फल लगते हैं जैसे जामुन।

८. आठवीं सृष्टि तिर्यग्योनियों (पशु पक्षियों) की है। इन्हें काल का ज्ञान नहीं होता और तमोगुण की अधिकता के कारण यह केवल खाना- पीना मैथुन तथा सोना ही जानते हैं। इन्हें सूँघने मात्र से से वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। इनके मस्तिष्क में विचारशक्ति नहीं होती।

– द्विशफ – दो खुरों वाले पशु जैसे गाय, बकरा, भैंसा, मृग, शूकर, भेद और ऊँट।
– एकशफ – एक खुर वाले पशु जैसे गधा, घोड़ा, खच्चर।
– पञ्च नख – पाँच नखों वाले पशु जैसे कुत्ता, भेड़िया, बाघ, बिल्ली, सिंह, हाथी इत्यादि
– उड़ने वाले जीव – जैसे बगुला, गिध, हंस, मोर, कौवा, सरस उल्लू, इत्यादि

९. मनुष्य – नवी सृष्टि मनुष्यों की है। यह एक ही प्रकार के हैं। परस्पर इनमे कोई भेद नहीं है । इनका आहार ऊपर से नीचे की और होता है। मनुष्य रजोगुण प्रधान, कर्म परायण और दुःख: रूप विषयों में ही सुख मनने वाले होते हैं।

उपरोक्त के अतिरिक्त देव सृष्टि आठ प्रकार की –

देवता-पितर,असुर,

गंधर्व -अप्सरा,

यक्ष – राक्षस,

सिद्ध- चारण-विद्याधर,

भूत- प्रेत-पिशाच और

किन्नर-किम्पपुरुष-अश्वमुख है ।

इस प्रकार सृष्टि करने वाले सत्य संकल्प के रूप श्री हरि ही ब्रह्मा जी के रूप में प्रत्येक कल्प के आदि में रजोगुण से व्याप्त होकर स्वयं ही जगत के रूप में अपनी ही रचना करते हैं।        

सौति कहते हैं– शौनक जी! तब भगवान की आज्ञा के अनुसार तपस्या करके  सृष्टि क्रम में अभीष्ट सिद्धि पाकर ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम मधु और कैटभ के मेद(चर्बी ) से मेदिनी की सृष्टि की।
उन्होंने आठ प्रधान पर्वतों की रचना की। 
वे सब बड़े मनोहर थे। 
उनके बनाये हुए छोटे-छोटे पर्वत तो असंख्य हैं, उनके नाम क्या बताऊँ ? मुख्य-मुख्य पर्वतों की नामावली सुनिये– सुमेरु, कैलास, मलय, हिमालय, उदयाचल, अस्ताचल, सुवेल और गन्धमादन – ये आठ प्रधान पर्वत हैं। फिर ब्रह्मा जी ने सात समुद्रों, अनेकानेक नदों और कितनी ही नदियों की सृष्टि की।

वृक्षों, गाँवों और नगरों का निर्माण किया। समुद्रों के नाम सुनिये– लवण, इक्षुरस, सुरा, घृत, दही, दूध और सुस्वादु जल के वे समुद्र हैं।

उनमें से पहले की लंबाई-चौड़ाई एक लाख योजन की है। बाद वाले उत्तरोत्तर दुगुने होते गये हैं। इन समुद्रों से घिरे हुए सात द्वीप हैं। 

उनके भूमण्डल कमल पत्र की आकृति वाले हैं। उनमें उपद्वीप और मर्यादा पर्वत भी सात-सात ही हैं।

ब्रह्मन! अब आप उन द्वीपों के नाम सुनिये, जिनकी पहले ब्रह्मा जी ने रचना की थी।

वे हैं–जम्बूद्वीप, शाकद्वीप, कुशद्वीप, प्लक्षद्वीप, क्रौंचद्वीप, न्यग्रोध (अथवा शाल्मलि) द्वीप तथा पुष्करद्वीप। 

भगवान ब्रह्मा ने मेरु पर्वत के आठ शिखरों पर आठ लोकपालों के विहार के लिये आठ मनोहर पुरियों का निर्माण किया। उस पर्वत के मूलभाग–पाताल लोक में उन्होंने भगवान अनन्त (शेषनाग) की नगरी बनायी। 

तदनन्तर लोकनाथ ब्रह्मा ने उस पर्वत के ऊपर-ऊपर सात स्वर्गों की सृष्टि की।

शौनक जी ! उन सबके नाम सुनिये– भूर्लोक, भुवर्लोक, परम मनोहर- स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक।

मेरु के सबसे ऊपरी शिखर पर जरा-मृत्यु आदि से रहित ब्रह्मा का लोक ब्रह्मलोक है।
********************************

 उससे भी ऊपर ध्रुवलोक है,( उत्तरीध्रुव) जो सब ओर से अत्यन्त मनोहर है। जगदीश्वर ब्रह्मा जी ने उस पर्वत के निम्न भाग में सात पातालों का निर्माण किया। 
मुने ! वे स्वर्ग की अपेक्षा भी अधिक भोग-साधनों से सम्पन्न हैं और क्रमशः एक से दूसरे उत्तरोत्तर नीचे भाग में स्थित हैं।
 उनके नाम इस प्रकार हैं– अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल तथा रसातल। सबसे नीचे रसातल ही है।

 सात द्वीप, सात स्वर्ग तथा सात पाताल– इन लोकों सहित जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है, वह ब्रह्मा जी के ही अधिकार में है।

शौनक! ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और महाविष्णु के रोमांच-विवरों ( रोमकूपों)में उनकी स्थिति है।

श्रीकृष्ण की माया से प्रत्येक ब्रह्माण्ड में दिक्पाल, ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर हैं, देवता, मनुष्य आदि सभी प्राणी स्थित हैं।

इन ब्रह्माण्डों की गणना करने में न तो लोकनाथ ब्रह्मा, न शंकर, न धर्म और न विष्णु ही समर्थ हैं; फिर और देवता किस गिनती में हैं ?

विप्रवर! कृत्रिम विश्व तथा उसके भीतर रहने वाली जो वस्तुएँ हैं, वे सब अनित्य तथा स्वप्न के समान नश्वर हैं। 

वैकुण्ठ, शिवलोक तथा इन दोनों से परे जो गोलोक है, ये सब नित्य-धाम हैं। इन सबकी स्थिति कृत्रिम विश्व से बाहर है। ठीक उसी तरह, जैसे आत्मा, आकाश और दिशाएँ कृत्रिम जगत से बाहर तथा नित्य हैं।

इसी क्रम में ब्रह्मा सृष्टि करते हुए 
सावित्री से वेद आदि की सृष्टि करते हैं, ब्रह्मा जी से सनकादि की, सस्त्रीक स्वायम्भुव मनु की, रुद्रों की, पुलस्त्यादि मुनियों की तथा नारद की उत्पत्ति, भी सावित्री द्वारा होती है । सावित्री प्रसव की देवी हैं।  इसी उपरान्त नारद को ब्रह्मा का और ब्रह्मा जी को नारद का शाप
 
सौति कहते हैं – तदनन्तर सावित्री ब्रह्मा के संयोग से  चार मनोहर वेदों को प्रकट किया। साथ ही न्याय और व्याकरण आदि नाना प्रकार के शास्त्र-समूह तथा परम मनोहर एवं दिव्य छत्तीस रागिनियाँ उत्पन्न कीं। 

नाना प्रकार के तालों से युक्त छः सुन्दर राग प्रकट किये। सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलहप्रिय कलियुग; वर्ष, मास, ऋतु, तिथि, दण्ड, क्षण आदि; दिन, रात्रि, वार, संध्या, उषा, पुष्टि, मेधा, विजया, जया, छः कृत्तिका, योग, करण, कार्तिकेय प्रिया सती महाषष्ठी देवसेना– जो मातृकाओं में प्रधान और बालकों की इष्ट देवी हैं, इन सबको भी सावित्री ने ही उत्पन्न किया।******
_______________________
 ब्रह्मा, पाद्म और वाराह– ये तीन कल्प माने गये हैं। नित्य, नैमित्तिक, द्विपरार्ध और प्राकृत – ये चार प्रकार के प्रलय हैं। 
इन कल्पों और प्रलयों को तथा काल, मृत्युकन्या एवं समस्त व्याधिगणों को उत्पन्न करके सावित्री ने उन्हें अपना स्तन पान कराया।
_____________________________________
तदनन्तर ब्रह्मा जी के पृष्ठ देश से अधर्म उत्पन्न हुआ। अधर्म से वामपार्श्व से अलक्ष्मी उत्पन्न हुई, जो उसकी पत्नी थी। 

ब्रह्मा जी के नाभि देश से शिल्पियों के गुरु विश्वकर्मा हुए। साथ ही आठ महावसुओं की उत्पत्ति हुई, जो महान बल-पराक्रम से सम्पन्न थे। *******

तत्पश्चात् विधाता के मन से चार कुमार आविर्भूत हुए, जो पाँच वर्ष की अवस्था के-से जान पड़ते थे और ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे। 

उनमें से प्रथम तो सनक थे, दूसरे का नाम सनन्दन था, तीसरे सनातन और चौथे ज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवान सनत्कुमार थे।
____________________________________

इसके बाद ब्रह्मा जी के मुख से सुवर्ण के समान कान्तिमान कुमार उत्पन्न हुआ, जो दिव्य रूपधारी था। उसके साथ उसकी पत्नी भी थी।

वह श्रीमान एवं सुन्दर युवक था। क्षत्रियों का बीजस्वरूप था। उसका नाम था स्वायम्भुव मनु।
___________________________________
जो स्त्री थी, उसका नाम शतरूपा था। वह बड़ी रूपवती थी और लक्ष्मी की कलास्वरूपा थी। पत्नी सहित मनु विधाता की आज्ञा का पालन करने के लिये उद्यत रहते थे।
स्वयं विधाता ने हर्ष भरे पुत्रों से, जो बड़े भगवद्भक्त थे, सृष्टि करने के लिये कहा।
परंतु वे श्रीकृष्ण परायण होने के कारण ‘नहीं’ करके तपस्या करने के लिये चले गये। इससे जगत्पति विधाता को बड़ा क्रोध हुआ।

कोपासक्त ब्रह्मा ब्रह्मतेज से जलने लगे। 
प्रभो! इसी समय उनके ललाट से ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। 

उन्हीं में से एक को संहारकारी 'कालाग्नि रुद्र' कहा गया है। समस्त लोगों में केवल वे ही तामस या तमोगुणी माने गये हैं।
*****************
गोलोकनाथ श्रीकृष्ण निर्गुण हैं; क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं। जो परम अज्ञानी और मूर्ख हैं, वे ही शिव को तामस (तमोगुणी) कहते हैं। वे शुद्ध, सत्त्वस्वरूप, निर्मल तथा वैष्णवों में अग्रगण्य हैं।

अब रुद्रों के वेदोक्त नाम सुनो– महान, महात्मा, मतिमान, भीषण, भयंकर, ऋतुध्वज, ऊर्ध्वकेश, पिंगलाक्ष, रुचि, शुचि तथा कालाग्नि रुद्र। 

ब्रह्मा जी के दायें कान से पुलस्त्य, बायें कान से पुलह, दाहिने नेत्र से अत्रि, वाम नेत्र से क्रतु, नासिका छिद्र से अरणि, मुख से अंगिरा एवं रुचि, वामपार्श्व से भृगु, दक्षिणपार्श्व से दक्ष, छाया से कर्दम, नाभि से पंचशिख, वक्षःस्थल से वोढु, कण्ठ देश से नारद, स्कन्ध देश से मरीचि, गले से अपान्तरतमा, रसना से वसिष्ठ, अधरोष्ठ से प्रचेता, वामकुक्षि से हंस और दक्षिणकुक्षि से यति प्रकट हुए। विधाता ने अपने इन पुत्रों की सृष्टि करने की आज्ञा दी। 
पिता की बात सुनकर नारद ने उनसे कहा। नारद बोले – जगत्पते! पितामह! पहले सनक, सनन्दन आदि ज्येष्ठ पुत्रों को बुलाइये और उनका विवाह कीजिये। तत्पश्चात् हम लोगों से ऐसा करने के लिये कहिये। जब पिता जी! आपने उन्हें तपस्या में लगाया है, तब हमें ही क्यों संसार-बन्धन में डाल रहे हैं? 

अहो ! कितने खेद की बात है कि प्रभु की बुद्धि विपरीत भाव को प्राप्त हो रही है। भगवन! आपने किसी पुत्र को तो अमृत से भी बढ़कर तपस्या का कार्य दिया है और किसी को आप विष से भी अधिक विषम विषय-भोग दे रहे हैं। 
______
पिताजी! जो अत्यन्त निम्न कोटि के भयानक भवसागर में गिरता है, उसका करोड़ों कल्प बीतने पर भी उद्धार नहीं होता। भगवान पुरुषोत्तम ही सबके आदि कारण तथा निस्तार के बीज हैं। वे ही सब कुछ देने वाले, भक्ति प्रदान करने वाले, दास्यसुख देने वाले, सत्य तथा कृपामय हैं। वे ही भक्तों को एकमात्र शरण देने वाले, भक्तवत्सल और स्वच्छ हैं।

भक्तों के प्रिय, रक्षक और उन पर अनुग्रह करने वाले भी वे ही हैं। भक्तों के आराध्य तथा प्राप्य उन परमेश्वर श्रीकृष्ण को छोड़कर कौन मूढ़ विनाशकारी विषय में मन लगायेगा? 

अमृत से भी अधिक प्रिय श्रीकृष्ण सेवा छोड़कर कौन मूर्ख विषय नामक विषम विष का भक्षण (आस्वादन) करेगा?

विषय तो स्वप्न के समान नश्वर, तुच्छ, मिथ्या तथा विनाशकारी है।
मरीचि आदि ब्रह्मकुमारों तथा दक्षकन्याओं की संतति का वर्णन, दक्ष के शाप से पीड़ित चन्द्रमा का भगवान शिव की शरण में जाना, अपनी कन्याओं के अनुरोध पर दक्ष का चन्द्रमा को लौटा लाने के लिये जाना, शिव की शरणागत वत्सलता तथा विष्णु की कृपा से दक्ष को चन्द्रमा की प्राप्ति
 
सौति कहते हैं– विप्रवर शौनक! तदनन्तर ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों को सृष्टि करने की आज्ञा दी। नारद को छोड़कर शेष सभी पुत्र सृष्टि के कार्य में संलग्न हो गये।

मरीचि के मन से प्रजापति कश्यप का प्रादुर्भाव हुआ। 

अत्रि के नेत्रमल से क्षीरसागर में चन्द्रमा प्रकट हुए। प्रचेता के मन से भी गौतम का प्राकट्य हुआ। मैत्रावरुण पुलस्त्य के मानस पुत्र हैं।
__________________________________
मनु से शतरूपा के गर्भ से तीन कन्याओं का जन्म हुआ– आकूति, देवहूति और प्रसूति। 

वे तीनों ही पतिव्रता थीं। मनु-शतरूपा से दो मनोहर पुत्र भी हुए, जिनके नाम थे– प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे।

मनु ने अपनी पुत्री आकूति का विवाह प्रजापति रुचि के साथ तथा प्रसूति का विवाह दक्ष के साथ कर दिया। 
इसी तरह देवहूति का विवाह-सम्बन्ध उन्होंने कर्दम मुनि के साथ किया, जिनके पुत्र साक्षात भगवान कपिल हैं। 

दक्ष के वीर्य और प्रसूति के गर्भ से आठ कन्याओं का जन्म हुआ। उनमें से आठ कन्याओं का विवाह दक्ष ने धर्म के साथ किया, ग्यारह कन्याओं को ग्यारह रुद्रों के हाथ में दे दिया। एक कन्या सती भगवान शिव को सौंप दी। 

तेरह कन्याएँ कश्यप को दे दीं तथा सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को अर्पित कर दीं।

विप्रवर! अब मुझसे धर्म की पत्नियों के नाम सुनिये– शान्ति, पुष्टि, धृति , तुष्टि, क्षमा, श्रद्धा, मति और स्मृति। 

शान्ति का पुत्र संतोष और पुष्टि का पुत्र महान हुआ।
धृति से धैर्य का जन्म हुआ। तुष्टि से दो पुत्र हुए – हर्ष और दर्प। 
क्षमा का पुत्र सहिष्णु था और श्रद्धा का पुत्र धार्मिक। 
मति से ज्ञान नामक पुत्र हुआ और स्मृति से महान जातिस्मर का जन्म हुआ।
********
धर्म की जो पहली पत्नी मूर्ति थी, उससे नर - नारायण नामक दो ऋषि उत्पन्न हुए। 

शौनक जी ! धर्म के ये सभी तीन पुत्र बड़े धर्मात्मा हुए।

अब आप सावधान होकर रुद्र पत्नियों के नाम सुनिये। कला, कलावती, काष्ठा, कालिका, कलहप्रिया, कन्दली, भीषणा, रास्रा, प्रमोचा, भूषणा और शुकी। इन सबके बहुत-से पुत्र हुए, जो भगवान शिव के पार्षद हैं।

दक्षपुत्री सती ने यज्ञ में अपने स्वामी की निन्दा होने पर शरीर को त्याग दिया और पुनः हिमवान की पुत्री पार्वती के रूप में अवतीर्ण हो भगवान शंकर को ही पतिरूप में प्राप्त किया।

धर्मात्मन! अब कश्यप की पत्नियों के नाम सुनिये। देवमाता, अदिति, दैत्यमाता दिति, सर्पमाता कद्रू, पक्षियों की जननी विनता, 
गौओं और भैंसों की माता सुरभि, दानवजननी दनु तथा अन्य पत्नियाँ भी इसी तरह अन्यान्य संतानों की जननी हैं। 
मुने! इन्द्र आदि बारह आदित्य तथा उपेन्द्र (वामन) आदि देवता अदिति के पुत्र कहे गये हैं, जो महान बल-पराक्रम से सम्पन्न हैं।

ब्रह्मन! इन्द्र का पुत्र जयन्त हुआ, जिसका जन्म शची के गर्भ से हुआ था। आदित्य (सूर्य) की पत्नी तथा विश्वकर्मा की पुत्री सर्वणा के गर्भ से शनैश्चर और यम नामक दो पुत्र तथा कालिन्दी नाम वाली एक कन्या हुई। 
____________
उपेन्द्र के वीर्य और पृथ्वी के गर्भ से मंगल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

तदनन्तर भगवान उपेन्द्र अंश और धरणी के गर्भ से मंगल के जन्म का प्रसंग सुनाकर सौति बोले– मंगल की पत्नी मेधा हुई, जिसके पुत्र महान घंटेश्वर और विष्णु तुल्य तेजस्वी व्रणदाता हुए। दिति से महाबली हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक पुत्र तथा सिंहिका नाम वाली कन्या का जन्म हुआ।
सैंहिकेय (राहु) सिंहिका का ही पुत्र है। सिंहिका का दूसरा नाम निर्ऋति भी था। इसीलिये राहु को नैर्ऋत कहते हैं। हिरण्याक्ष को कोई संतान नहीं थी। वह युवावस्था में ही भगवान वाराह के हाथों मारा गया। हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद हुए, जो वैष्णवों में अग्रगण्य माने गये हैं। उनके पुत्र विरोचन हुए और विरोचन के पुत्र साक्षात राजा बलि। बलि का पुत्र बाणासुर हुआ, जो महान योगी, ज्ञानी तथा भगवान शंकर का सेवक था। यहाँ तक दिति का वंश बताया गया।

अब कद्रू के वंश का परिचय सुनिये। अनन्त, वासुकि, कालिय, धनंजय, कर्कोटक, तक्षक, पद्म, ऐरावत, महापद्म, शंकु, शंक, संवरण, धृतराष्ट्र, दुर्धर्ष, दुर्जय, दुर्मुख, बल, गोक्ष, गोकामुख तथा विरूप आदि को कद्रू ने जन्म दिया था।

शौनक जी! जितनी सर्प-जातियाँ हैं, उन सब में प्रधान ये ही हैं। लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई मनसादेवी कद्रू की कन्या हैं। ये तपस्विनी स्त्रियों में श्रेष्ठ, कल्याणस्वरूपा और महातेजस्विनी हैं। इन्हीं का दूसरा नाम जरत्कारु है। इन्हीं के पति मुनिवर जरत्कारु थे, जो नारायण की कला से प्रकट हुए थे। 

विष्णु तुल्य तेजस्वी आस्तीक इन्हीं मनसा देवी के पुत्र हैं। इन सबके नाम मात्र से मनुष्यों का नागों से भय दूर हो जाता है। यहाँ तक कद्रू के वंश का परिचय दिया गया। अब विनता के वंश का वर्णन सुनिये।

विनता के दो पुत्र हुए– अरुण और गरुड़। दोनों ही विष्णु-तुल्य पराक्रमी थे। उन्हीं दोनों से क्रमशः सारी पक्षी-जातियाँ प्रकट हुईं। गाय, बैल और भैंसे – ये सुरभि की श्रेष्ठ संतानें हैं।

समस्त सारमेय (कुत्ते) सरमा के वंशज हैं। दनु के वंश में दानव हुए तथा अन्य स्त्रियों के वंशज अन्यान्य जातियाँ। यहाँ तक कश्यप-वंश का वर्णन किया गया। 

अब चन्द्रमा का आख्यान सुनिये।
पहले चन्द्रमा की पत्नियों के नामों पर ध्यान दीजिये। फिर पुराणों में जो उनका अत्यन्त अपूर्व पुरातन चरित्र है, उसको श्रवण कीजिये। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पूजनीया साध्वी पुनर्वसु, पुष्या, आश्लेषा, मघा, पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी, हस्ता, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा, उत्तरषाढा, श्रवणा, धनिष्ठा, शुभा शतभिषा, पूर्वभाद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा तथा रेवती– ये सत्ताईस चन्द्रमा की पत्नियाँ हैं।
______________________
इनमें रोहिणी के प्रति चन्द्रमा का विशेष आकर्षण होने के कारण चन्द्रमा ने अन्य सब पत्नियों की बड़ी अवहेलना की। तब उन सबने जाकर पिता दक्ष को अपना दुःख सुनाया। दक्ष ने चन्द्रमा को क्षय-रोग से ग्रस्त होने का शाप दे दिया। चन्द्रमा ने दुःखी होकर भगवान शंकर की शरण ली और शंकर ने उन्हें आश्रय देकर अपने मस्तक में स्थान दिया।

तब से उनका ‘चन्द्रशेखर’ हो गया। 
देवताओं तथा अन्य लोगों में शिव से बढ़कर शरणागत पालक दूसरा कोई नहीं है।

अपने पति के रोग मुक्त और शिव के मस्तक में स्थित होने की बात सुनकर दक्ष कन्याएँ बारंबार रोने लगीं और तेजस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ पिता दक्ष की शरण में आयीं। वहाँ जाकर अपने अंगों को बारंबार पीटती हुई वे उच्चस्वर से रोने लगीं तथा दीनानाथ ब्रह्मपुत्र दक्ष से दीनतापूर्वक कातर वाणी में बोलीं।

दक्ष कन्याओं ने कहा- पिताजी! हमें स्वामी का सौभाग्य प्राप्त हो, इसी उद्देश्य को लेकर हमने आपसे अपना दुःख निवेदन किया था। परंतु सौभाग्य तो दूर रहे, हमारे सद्गुणशाली स्वामी ही हमें छोड़कर चल दिये। तात! नेत्रों के रहते हुए भी हमें सारा जगत अन्धकारपूर्ण दिखायी देता है। आज यह बात समझ में आयी है कि स्त्रियों का नेत्र वास्तव में उनका पति ही है। पति ही स्त्रियों की गति है, पति ही प्राण तथा सम्पत्ति है। ****

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का हेतु तथा भवसागर का सेतु भी पति ही है। पति ही स्त्रियों का नारायण है, पति ही उनका व्रत और सनातन धर्म है। जो पति से विमुख हैं उन स्त्रियों का सारा कर्म व्यर्थ है।




तो चलिए इसे भगवान श्री कृष्ण  की स्तुति करके  ग्रन्थ लेखन प्रारम्भ करते हैं।
(श्रीपद्मपुराण उत्तरखण्ड श्रीमद्‌भागवतमाहात्म्य
भक्तिनारदसमागमो नामक प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥)
अनुवाद:-
हे सत् चित्त आनंद! हे संसार की उत्पत्ति के कारण! हे दैहिक, दैविक और भौतिक तीनो तापों का विनाश करने वाले महाप्रभु! हे श्रीकृष्ण! आपको हम कोटि कोटि नमन करते हैं।
_____    
        

   "अध्याय- पञ्चम"

 'पञ्चम वैष्णव वर्ण के गोपों की सृष्टि गोलोक में स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के रोमकूपों से"

स्वयं भगवान स्वराट् विष्णु ( श्रीकृष्ण)  जो गोलोक में अपने मूल कारण कृष्ण रूप में ही विराजमान हैं वही आभीर जाति में मानवरूप में सीधे अवतरित होकर इस पृथ्वी पर आते हैं; 

क्योंकि आभीर(गोप) जाति साक्षात् उनके रोम कूप ( शरीर) से उत्पन है जो गुण-धर्म में उन्हीं कृष्ण के समान होती है। 

इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो  को हम प्रस्तुत करते हैं।

___________________________________

इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो  को हम प्रस्तुत करते हैं।

कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना ही इसी तथ्य को सूचित करता है। कि गोपों से श्रेष्ठ इस सृष्टि मैं को ईव दूसरा नहीं है।

अनुवाद:- जब स्वयं कृष्ण राधा की एक सखी बनकर  स्वयं ही कृष्ण की राधा से निन्दा करते हैं तब राधा कहती हैं -

 "भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण  गोपों के घर में प्रकट हुए हैं। फिर तुम हे सखी ! उन आदिपुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं।                       इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।२१-२२।

(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)

गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं।
और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत:  इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_ 

ऋग्वेद में विष्णु के लिए  'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है।  वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित  विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं। 

जो पुराण वर्णित गोलोक का  ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा  "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।

इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे  ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।

विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप  परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ  रहती हैं , वहाँ पड़ता है।

"कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।

ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।

"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)

शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥

इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी ब्रह्मा को यज्ञकार्य हेतु तत्काल एक पत्नी की आवशयकता होती है। "होता"यज्ञ में आहुति देनेवाला तथा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालने वाले के रूप में उपस्थित माना जाता है । अत्रि इस "होता" की भूमिका में हैं। सभी सप्तर्षि इस यज्ञ में किसी न किसी भूमिका में हैं।

विशेष—यह चार प्रधान ऋत्विजों में है जो ऋग्वेद के मंत्र पढ़कर देवताओं का आह्वान करता है। 

ब्रह्मा की पत्नी सावित्री गृह कार्य में व्यस्त हैं अत: वे यज्ञ- स्थल में आने को तैयार नहीं हैं।अब मुहूर्त का समय निकला जा रहा है। तभी सप्तर्षियों के कहने पर ब्रह्मा अपने यज्ञ कार्य के लिए इन्द्र को एक पत्नी बनाने के लिए कन्या लाने को कहते हैं। तब आभीर कन्या गायत्री को इन्द्र ब्रह्मा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।

विष्णु ही इस कन्या के दत्ता( कन्यादान करनेवाले पिता बनकर ) ब्रह्मा से इसका विवाह सम्पन्न कराते हैं।

"निष्कर्ष:- उपर्युक्त पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय- (१६-१७) में वर्णित गायत्री की कथा से प्रमाणित होता है कि गायत्री के परिवारीजन गोप गोलोक से पृथ्वी पर गोपालन हेतु सतयुग में ही अवतरित हो गये थे।

 ये ब्रह्मा की सृष्टि से पृथक थे इसलिए यज्ञ में अपनी सम्पूर्ण सृष्टि के साथ इन्हें ब्रह्मा द्वारा आमन्त्रित नहीं किया गया। ब्रह्मा का यह यज्ञ एक हजार वर्ष तक चला था।

अत्रि जो सावित्री द्वारा शापित हो गये थे;  गायत्री और ब्रह्मा के विवाह में सहायक होने के कारण उन्हें फिर आभीर कन्या गायत्री द्वारी  ही शाप मुक्त कर वरदान से अनुग्रहीत किया गया।


इसलिए अत्रि ने गायत्री को माँ कहकर सम्बोधित किया तब अत्रि को अहीरों का पूर्वज कैसे कहा जा सकता है।?

 ये कालान्तर में अहीर जाति के पुरोहित बन कर  गोत्र प्रवर्तक  हो गये हों यह सम्भव है परन्तु अहीर जाति अत्रि से उत्पन्न हुई है यह कहना शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत है । 



विदित हो कि वामन अवतार कृष्ण के अंशावतार विष्णु का ही अवतार है नकि स्वयं कृष्ण का अवतार -क्योंकि कृष्ण का साहचर्य सदैव गो और गोपों में ही रहता है।

"कृष्ण हाई वोल्टेज रूप हैं तो विराट और क्षुद्र विराट आदि रूप उनके ही कम वोल्टेज के रूप हैं।

विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि ( इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।

विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड '  ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में  गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।

ऋग्वेद 1.22.18) में  भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।

विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।

आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।

और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु(कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।

"व्यक्ति अपनी भक्ति और तप की शक्ति से गोलोक को प्राप्त कर गोप जाति में जन्म लेता है।

वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।

यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का  पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।

 "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! अभ्युत्थानम्-अधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजामि- अहम्।। 
श्रीमद्भगवद्गीता ( 4/7) 

हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।

अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।

                    "इति समापनम्-


     {लोकाचरण-खण्ड}-

      अध्याय प्रथम  

 गोपों की साँस्कृतिक‌ हल्लीसं नृत्य- परम्परा-  रास नृत्य का विकास क्रम -

"जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम् ।
हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः ।६८।
 

अनुवाद:-
उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी  नरदेव ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्रारा हल्लीसक नृत्य का आयोजन किया।६८।
हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व /अध्याय- 89/ श्लोक-68 
श्री कृष्ण और संकृष्ण( संकर्षण) दौंनो ही महापुरुष अपने युग के महान कृषि पद्धति के जन्मदाता थे । कृष्ण ने संगीत और कलाओं में महारत हासिल की और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार किया उस समय संगीत में स्वरों के स्वरग्राम (सरगम) के सन्धान के लिए वंशी बाँस के वृक्ष से निर्माण कर कृष्ण ने बनायी कृष्ण ने संगीत को सृष्टि ती आदि विद्या और कला मानकर आभीर जाति के नाम पर राग आभीर भी दिया ।

वेदों में ऋग्वेद के प्राचीन होने पर भी संगीत के वेद साम वेद को अपनी विभूति माना  
"वेदानां सामवेदोस्मि देवानामस्मि वासव: । इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।१०/२२। श्रीमद्भगवद्गीता-

मैं वेदोमें सामवेद हूँ ? देवों में वासव हूँ और  इन्द्रियों में संकल्पविकल्पात्मक मन हूँ। सब भूतों- प्राणियोंमें चेतना हूँ। कार्यकरणके समुदायरूप शरीरमें सदा प्रकाशित रहनेवाली जो चिन्तन वृत्ति है ? उसका नाम चेतना है।

वास्तव में रास का प्रारम्भिक रूप हल्लीषक नृत्य है। हललीषक - नृत्य का आधार हल और ईषा-(ईसा) की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही है। मनुष्य जीवन पर्यन्त जिन व्यवहारों का नित्य सम्पादन करता रहता है वह अपने उत्सवों में भी वही अभिनय समन्वित कर आनन्दित होता है। 
वस्तव में उत्सव जीवन की भागदौड़ में एक विश्राम स्थल( पड़ाव) हैं जहाँ जीवन की भाग दौड़ से थका हुआ व्यक्ति कुछ समय के लिए सब भूलकर विश्राम करता है।
कृष्ण का जन्म गोप - आभीर जाति में हुआ जो सनातन काल से गोपालक रही है। गो चारण काल में इन गोपों की आवश्यकता ने पशुओं के चारे घास आदि के  के लिए और स्वयं अपने भोजन के लिए भी कृषि विधि के जन्म दिया । ग्राम शब्द का मूल अर्थ - ग्रास या घास युक्त भूमि से है। जहाँ पशुपालक- अपना पाव डालते थे  धीरे धीरे उनके ये पड़ाव स्थाई होने लगे और ग्रामसभ्यता कै जन्म हुआ। जबकि नगर सभ्यता व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक केन्द्र थे जिन्हे आज हम बाजारवाद कह सकते हैं। जहाँ वणिकों की बस्तियाँ होती थीं।

ग्रामीण जीवन या पालन करने वाली  गोपों की गोप ललनाऐं विशेष उत्सवों पर हल्लीसक नृत्य का आयोजन पुरुषों के सहयोग से करती थीं। और अनेक रागों पर गीत गाती थीं। अहीरों ने संगीत को अनेक लौकिक अवदान दिये ।
हल्लीसक- शब्द पुराणों विशेषत: हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय( 89 )में  वर्णित है।

हल -विलेखे भ्वादिगणीय परस्मैपदीय सकर्म सेट् धातु से  हलति अहालीत् आदि क्रिया रूप बनते हैं। हलः हालः-  हल्यते कृष्यतेऽनेन  इति हल्+ घञर्थे करणे (क) । लाङ्गल ( हल) अमरः कोश। कृषि शब्दे २१९८ पृ० दृश्यम् ।
हल वह यन्त्र जिससे कृषि कार्य किया जाए-

और ईषा -हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठे (लाङ्गलदण्डे)वा हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड - हल और ईषा इन दोनों शब्दों से तद्धित शब्द बनता है। हल्लीषा- हल्लीषक ।

हल्लीषा- एक नृत्य जो हल और उसके ईषा ( दण्ड) के समानांतर दृश्य में आकृति बनाकर किया मण्डलाकार विधि से किया जाता था।

वैसे कृष्ण और संकर्षण शब्द कृषकों के विशेषण हैं। गोपों में जन्म लेने वाले ये दौंनों महानायक कृषि पद्धति के जनक भी थे कृषि करने के लिए हल तथा उस धान्य को पीट कर अन्न पृथक करने के लिए मूसल- का आविष्कार भी कृष्ण के बड़े भाई संकर्षण के द्वारा ही किया गया था। 
इनकी लोक संस्कृति में भी यही आविष्कार प्रदर्शित थे उनका सांस्कृतिक नृत्य हल्लीषम्- हल और ईषा की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही था ।

जिसे पुराणकारों ने श्रृँगार रस में डुबोकर रास के नाम से काव्यात्मक रूप में वर्णन किया है। संकर्षण कि हलधर विशेषण भी उनके कृषक होने का प्रमाण है।
हलधर= हलं धरति आयुधत्वं कृषिसाधनत्व वा धृ +अच् ।  बलराम  कृषक उदाहरण “उन्मूलिता हलधरेण पदावधतैः” उद्भटः ।

इन गोपों कि हल्लीषम् नृत्य (हल्लीश, हल्लीष)= 
नाट्यशास्त्र में वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के रूप में मान्य है।
 विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। 
इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं  जिसे मंडल बाँधकर  जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।

 साहित्यदर्पण(। ६ । ५५५ । )  में इसका लक्षण 
“हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः। वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः। मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः॥


विशेष—पौराणिक परम्परा  इस क्रीड़ा का आरंभ कृष्ण द्वारा  कभी मार्गशीर्ष की पूर्णिमा  को तो कभी  कार्तिकी पूर्णिमा को आधी रात के समय को मानती है।

तब से गोप लोग यह क्रीड़ा करने लगे थे। पीछे से इस क्रीड़ा के साथ कई प्रकार के पूजन आदि मिल गए और यह मोक्षप्रद मानी जाने लगी।
इस अर्थ में यह शब्द प्रायः स्त्रीलिंग बोला जाता है। जैसे  हल्लीषा-

इसमें लास्य नृत्य ( स्त्री नृत्य) की प्रधानता ही होती है इसी लिए इसे रास्य( लास्य) भी कहा जने  लगा।

भारतीय संस्कृति में प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति होती थी। कृष्ण की रासलीला इसका प्रतीक है।
भक्तिकाव्य में रासलीला शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। दरअसल रास एक कलाविधा है।
प्रेम और आनंद की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण की उदात्त प्रेमलीलाओं का भावाभिनय ही रासलीला कहलाता है।

मूलतः यह एक नृत्य है जिसमें कृष्ण को केंद्र में रख गोपियां उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति मैं वृत्ताकार नर्तन करती हैं। 

अष्टछाप के भक्तकवियों नें प्रेमाभिव्यक्ति करने वाले अनेक रासगीतों की रचना की है।
रास में आध्यात्मिकता भी है जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति अनुराग व्यक्त होता है।
वे वृत्ताकार मंडल में प्रेमाभिव्यक्ति करती हैं।
जिसे भविष्य पुराण  कारो ने हल्लीषम् अवश्य कहा-

रासक्रीड़ायाञ्च तल्लक्षणं यथा “पृथुं सुवृत्तं मसृणं वितस्तिमात्रोन्नतं कौ विनिखन्य शङ्कुकम् ।
आक्रम्य पद्भ्यामितरेतरन्तु हस्तैर्भ्रमोऽयं खलु रासगोष्ठी” हरिवंश पुराण टीका नीलकण्ठः शास्त्री।

संस्कृत में हल्लीषम् शब्द अर्थ का विश्लेषण-

एक विद्वान डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल मत है 

कि हल्लीसं शब्द ़यूनानी इलिशियन- नृत्यों ( इलीशियन मिस्ट्री डांस) से विकसित है। इसका विकास ईस्वी सन्  के आसपास माना जाता है।

सन्दर्भ- हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन-पृष्ठ संख्या 33-

वास्तव में हल्लीषम् और इलिशियन दौंनो शब्द पृथक पृथक है।

विशेषण को तौर पर  एलिसियन शब्द एक आनंदमय स्थिति का वर्णन करता है, जैसा कि अधिकांश लोग हवाई छुट्टियों पर आनंद लेने की उम्मीद करते हैं।

एलीसियन शब्द एलीसियन फील्ड्स नामक रमणीय यूनानी पौराणिक स्थान से आया है।

 हालाँकि अब इस शब्द को अक्सर स्वर्ग के साथ समझा जाता है, ग्रीक एलीसियन फील्ड्स वासतव में  मृत्यु के बाद के जीवन में जाने के लिए एक स्वर्गीय विश्राम स्थल था।

 संभवतः इस अवधारणा की कल्पना मूल रूप से युद्ध के दौरान सैनिकों में वीरता को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी। 

आजकल, लोग किसी भी स्वर्गीय दृश्य का वर्णन करने के लिए एलिसियन का उपयोग करते हैं -

एलीसियम -
1590 के दशक, लैटिन एलीसियम से, ग्रीक एलीसियन (पेडियन) से "एलिसियन क्षेत्र", मृत्यु के बाद धन्य लोगों का निवास, जहां नायक और गुणी निवास करते हैं, जो अज्ञात मूल का है, शायद प्री-ग्रीक (एक गैर-आईई सब्सट्रेट भूमध्यसागरीय भाषा) से ). इसका उपयोग पूर्ण प्रसन्नता की स्थिति के लाक्षणिक रूप में भी किया जाता है।
दूसरा लैटिन शब्द इल्युशन भी है 

पुरानी फ्रांसीसी भाष से , लैटिन (illuso) से और (illūdere) से  क्रियाओं विकसित शब्द -
, में (in- में " ) + lūdere -"खेलने के लिए क्रीड़ा करना खेलना ") आदि रूपों से सम्बन्धित है।
यह क्रिया, लैटिन के साथ (ludus)"एक खेल, खेलो, ये सम्बन्धित है।" 
PIE आद्य भारोपीय  रूट -*leid-या*loid- से सम्बंधित है जिसका अर्थ"खेलना,"
 मृगतृष्णा

लैटिन( illusio) से ही  फ्रांसीसी में विकसित (illusion) भ्रम का वाचक है। इस इल्युशन शब्द के मोह माया  जादू आदि अन्य अर्थ भी प्रचलित हैं।
देखा जाय तो संस्कृत में भी 
१-लड्=

विलास करना /क्रीडा करना

२-लड= उपसेवायाम्
३-लड= विकाशे आदि अर्थों की वाचक धातु धातुपाठ में लिखित है।
लल= ईप्सायाम् - लालयते कुं लालयते-कुलालः भ्वादौ लड- विलासे (1250) लडति 155।

जिसे लाड- लाडो, ललन, लीला ,जैसे शब्द विकसित हुए है।

लास्य रूप में प्रचलित रास का मूल रूप है।
इसका विकास संस्कृत धातु -लस=

श्लेषण,क्रीडनयोः
(लसतीत्यादि विलासी) "वौ कषलस''इति तच्छीलादौ घिनुण् न लसः, (अलसः, आलस्यम्)

लस=
शिल्पयोगे च।
अत्र स्वामी शिल्पोपयोगइति पठित्त्वा केचिन्मूर्धन्यान्तं पठन्तीत्याह ( लासयति ) श्लेषणक्रीडनयोर्लसतीति शपि 193
_________________________________
मध्यकाल में इसमें जो आध्यात्मिकता थी वह धीरे धीरे गायब होती गई और विशुद्ध मनोरंजन शैलियों वाली गिरावट इस भक्ति और अध्यात्म को अभिव्यक्त करनेवाली विशिष्ट विधा में भी समा गई। वैसे आज भी बृज की रास मण्डलियां प्रसिद्ध हैं।
कथक से भी रास को जोड़ा जाता है किन्तु कथक की पहचान जहां एकल प्रस्तुति में मुखर होती है वहीं रास सामूहिक प्रस्तुति है। 

अलबत्ता रास शैली का प्रयोग कथक और मणिपुरी जैसी शास्त्रीय नृत्यशैलियों में हुआ है। इसके अलावा गुजरात का जग प्रसिद्ध डांडिया नृत्य रास के नाम से ही जाना जाता है। रास का मुहावरेदार प्रयोग भी बोलचाल की भाषा में खूब होता है। रास रचाना यानी स्त्री-पुरुष में आपसी मेल-जोल बढ़ना। रास-रंग यानी ऐश्वर्य और आमोद-प्रमोद में लीन रहना।

रास शब्द रास् धातु से आ रहा है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है।

इससे बना है रासः जिसमें होहल्ला, किलोल सहित एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे। 

इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है। कुछ कोशों में इसका अर्थ हास्यनाटक भी कहा गया है। 
दरअसल रासलीला जब कला विधा में विकसित हो गई तो वह सिर्फ नृत्य न रहकर नृत्यनाटिका के रूप में सामने आई।
 नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है। 

रासलीला में हंसोड़पात्र भी आते हैं जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं। इसलिए रासकम् को सिर्फ हास्यनाटक कहना उचित नहीं है। मूलतः रास् से बने रासकम् का ही रूप मध्यकालीन साहित्य की एक विधा रासक के रूप में सामने आया। 

रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं।

विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है। र औ ल एक ही वर्णक्रम में आते हैं।  लास्य का ही प्राकृत रूप रास्स होता है। 
 
कतिपय विद्वानों का मानना है कि श्रीकृष्ण के समय रास शब्द प्रचलित नहीं था। वे नृत्य की परिपाटी और श्रीकृष्ण के कलाप्रेम को खारिज नहीं करते हैं। कृष्णचरित से कलाओं को अलग किया ही नहीं जा सकता। मुरलीमनोहर और गोप-गोपियों के मेल ने भारतीय संस्कृति को विविध कलाएं दी हैं। गुप्तकालीन रचना रास पंचाध्यायी से मण्डलाकार नृत्य के लिए रास शब्द का प्रचलन बढ़ा है। निश्चित ही रास ब्रज क्षेत्र का पारम्परिक लोकनृत्य रहा है। कृष्ण चरित से इस शब्द के जुड़ा होने के पीछे की भ्रम की गुंजाइश नहीं है। 
पण्डा शब्द का संदर्भ पोथी-जन्त्री तक ही सीमित है। इस वर्ग का नृत्य या कलाकर्म में कोई दखल नहीं था इसलिए रास शब्द से इन्हें जोड़ना भी ठीक नहीं। 

संलापकं श्रीगदितं शिल्पकं च विलासिका ।
दुर्मल्लिका प्रकरणी हल्लीशो भाणिकेति च ।। सूत्र ६.५ ।। साहित्य दर्पण-

हल्लीशक महाभारत में वर्णित एक नृत्यशैली है। इसका एकमात्र विस्तृत वर्णन महाभारत के खिल्ल भाग हरिवंश (विष्णु पर्व, अध्याय 20) में मिलता है। 
विद्वानों ने इसे रास का पूर्वज माना है साथ ही रासक्रीड़ा का पर्याय भी। आचार्य नीलकंठ ने टीका करते हुए लिखा है - 'हस्लीश क्रेडर्न एकस्य पुंसो बहुभि: स्त्रीभि: क्रीडन सैव रासकीड़'। (हरि. 2.20.36) 'हल्लीशक' का शाब्दिक अर्थ है - 'हल का ईषा- हत्था'।

यह नृत्य स्त्रियों का है जिसमें एक ही पुरुष श्रीकृष्ण होता है। यह दो दो गोपिकाओं द्वारा मंडलाकार बना तथा श्रीकृष्ण को मध्य में रख संपादित किया जाता है। हरिवंश के अनुसार श्रीकृष्ण वंशी, अर्जुन मृदंग, तथा अन्य अप्सराएँ अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बजाते हैं।

इसमें अभिनय के लिए रंभा, हेमा, मिश्रकेशी, तिलोत्तमा, मेनका, आदि अप्सराएँ प्रस्तुत होती हैं। सामूहिक नृत्य, सहगान आदि से मंडित यह कोमल नृत्य श्रीकृष्णलीलाओं के गान से पूर्णता पाता है। इसका वर्णन अन्य किसी पुराण में नहीं आता। 
भासकृत बालचरित्‌ में हल्लीशक का उल्लेख है। अन्यत्र संकेत नहीं मिलता।

शूरसेन या मथुरा मंडल जिसमें श्रीकृष्ण के लीला स्थल विशेष रुप से सम्मिलित है, भक्तिकाल में ब्रज प्रदेश के रुप में प्रसिद्ध हुआ। पुराणकाल में यह क्षेत्र मथुरा मंडल तथा विभिन्न ग्रंथों में शूरसेन जनपद के रुप में विख्यात रहा था। वर्तमान ब्रज क्षेत्र पर यदि ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए तो यह क्षेत्र भी कभी एक सुरम्य वन प्रदेश था, जहाँ प्रमुख रुप से आभीर निवास करते थे। मथुरा राज्य के आदि संस्थापक मधु ने हरिवंश पुराण में स्वयं कहा है कि मेरे राज्य में चारों ओर आभीरों की बस्ती है।

इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि आभीर जाति देव संस्कृति के अनुयायियों से इतर थी और उनकी संस्कृति बहुत समृद्ध थी तथा देव संस्कृति  से उसमें काफी असमानता थी। आभीरों में स्त्री-स्वातंत्र्य देवसंसकृति   की अपेक्षा अधिक था, वे नृत्य-गान में परम प्रवीण और केशो की दो वेणी धारण करने वाली थीं। 'हल्लीश' या 'हल्लीसक नृत्य' इन आभीरों की सामाजिक नृत्य था, जिसमें आभीर नारियाँ अपनी रुचि के किसी भी गोप पुरुष के साथ समूह बनाकर मंडलाकार नाचती थीं। हरिवंश पुराण के हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय में उल्लेख है- कृष्ण की इंद्र पर विजय के उपरांत आभीर रमणियों ने उनके साथ नृत्य करने का प्रस्ताव किया। भाई या पति व अन्य आभीरों के रोकने पर भी वे नहीं रुकीं और कृष्ण को खोजने लगीं-

"ता वार्यमाणा: पतिमि भ्रातृभिर्मातृमिस्तथा।
कृष्ण गोपांगना रात्रो मृगयन्ते रातेप्रिया:।।
- हरिवंश, हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय, श्लोक २४

आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था। नृत्य का स्वरुप स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्र का टीका में अभिनव गुप्त ने कहा है-

"मण्डले च यत स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकंतु तत्।
नेता तत्र भवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।।

इसी नृत्य को श्री कृष्ण ने अपनी कला से सजाया तब वह रास के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण 'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं।

द्वारका के राज दरबार में प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त द्वारका आकर उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रुप से जोड़ा व इसे स्री-समाज को सिखाया और देश देशांतरों में इसे लोकप्रिय बनाया। सारंगदेव ने अपने 'संगीत-रत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। वह लिखते है-

"पार्वतीत्वनु शास्रिस्म, लास्यं वाणात्मामुवाम्।
तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।।७।।
तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:।
एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्।।८।।

इस प्रकार रास की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली। जैन धर्म में रास की विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा, क्योंकि जैनियों के २३वे तीर्थकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही आभीर यदुवंशी थे। उन्हें प्रसन्न करने का रास किया जा सकता है

आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था परन्तु कामुकता नही थी । 

ब्रज का रास भारत के प्राचीनतम नृत्यों में अग्रगण्य है। अत: भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्र में रास को रासक नाम से उप-रुपकों में रखकर इसके तीन रुपों का उल्लेख किया है-

१- मंडल रासक, २-ताल रासक,३- दंडक रासक या लकुट रासक। 

देश में आज जितने भी नृत्य रुप विद्यमान हैं, उन परत्र रास का प्रभाव किसी-न-किसी रुप में पड़ा है।

 गुजरात का 'गरबा', राजस्थान का 'डांडिया' आदि नृत्य, मणिपुर का रास-नृत्य तथा संत ज्ञानदेव के द्वारा स्थापित 'अंकिया नाट' तो पूरी तरह रास से ही प्रभावित नृत्य व नाट्य रुप है।


यह हल्लीसक एक प्रकार का वादन – गान के साथ लोकनृत्य था । यही रास का प्रारम्भिक रूप था । छालिक्य एक समूह गीत था , जिसके अन्तर्गत विभिन्न वाद्यों का वादन एवं नृत्य होता था । विष्णु पर्व के अनुसार इसको विभिन्न ग्रामरागों के अन्तर्गत विविध स्थान तथा मूर्च्छनाओं के साथ गाया जाता था ।
 यह गान शैली अत्यन्त कठिन थी ।

"आधुनिक विद्वानों का मत हैं, 'रास' शब्द कृष्ण-काल में प्रचलित नहीं था ; उसका प्रचलन बहुत बाद में हुआ। 'रास' शब्द के सर्वाधिक प्रचार का श्रेय श्रीमद्भागवत की 'रास-पंचाध्यायी' को है, जिसकी रचना गुप्त काल से पहिले की नहीं मानी जाती है। 

कुछ विद्वान 'रास' का पूर्व रूप 'हल्लीसक' मानते है। 'रास' और 'हल्लीसक' पृथक्-पृथक् परंपराएँ थी। जो बाद में एक-दूसरे से संबंद्ध हो गई थीं। 

इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य-नाट्य का आरंभिक नाम 'हल्लीसक'  था। उसके लिए सदा से 'रास' शब्द ही लोक में प्रचलित नहीं रहा है। ऐसा ज्ञात होता है 'रास' की पहिले मौखिक परंपरा थी, जो प्रचुर काल तक विद्यमान रही थी। उसी मौखिक और लोक प्रचलित शब्द को 'भागवत' कार ने साहित्य में अमर-कर दिया था।


      •अध्याय- द्वितीय★

कृष्णोत्तर काल से मौर्य-पूर्व काल तक की स्थिति।

श्रीकृष्ण द्वारा प्रचलित तथाकथित 'रास' आरंभ में ब्रज का एक लोक-नृत्य अथवा लोक नृत्य-नाट्य था, जो पुरातन ब्रजवासियों के मनोविनोद का साधन था। जब कृष्णोपासना का प्रचार हुआ, तब 'रास' को भी धार्मिक महत्व प्राप्त हो गया था।

 उस समय लोक के साथ धर्म के क्षेत्र में भी रास का प्रवेश हो गया था। कृष्णोपासक भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मो ने 'रास' की धार्मिक महत्व को स्वीकार किया था, और श्रीमद्भागवत ने उसके गौरव को बढ़ाया था।


प्राचीन ब्रज में बुद्ध एवं महावीर द्वारा प्रवर्तित बौद्ध तथा जैन धर्मो का प्रचार हुआ, तब भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मों का प्रभाव कुछ कम हो गया था। 

फलत: कृष्णोपासना तथा 'रास' के धार्मिक महत्व में भी कमी आ गई थी। उसका एक बड़ा कारण यह था कि बौद्ध और जैन धर्म वैराग्य एंव निवृत्ति प्रधान थे; जिनकी धार्मिक मान्यता में कृष्णोपासना एवं 'रास' के लिए कोई समुचित स्थान नहीं था। 

बौद्ध-जैन धर्मों को कुछ समय पश्चात ही अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना पड़ा था। तब उनके द्वारा नृत्य-नाट्य के धार्मिक स्वरूप को प्रश्रय प्रदान किया गया। उस परिवर्तन का प्रभाव प्राचीन ब्रज में दिखलाई देने लगा था। फलत: पौराणिक हिंदू धर्मों के मंदिर-देवालयों की भाँति बौद्ध-जैन धर्मो के उपासनालयों एवं पूजा-गृहों में भी नृत्य-नाट्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। इसका प्रमाण तत्कालीन साहित्यिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक उल्लेखों और स्थापत्य की कलाकृतियों में मिलता है। जहाँ तक 'रास' का संबंध हैं, उसकी स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ कलाकृतियों में उसके रूप का आभास होता है।

नृत्य अहीरों में पहले से  रहा है। उर्वशी का नाम एक खूबसूरत नर्तकी के रूप में लिया जाता था और उस युग में नर्तकियों को अप्सरा कहा जाता था। । पुरुरवा और उर्वशी नाम इतिहास में शामिल करते समय इन दोनों के माता पिताओं का नाम अहीर जाति से सम्बन्धित है।,
तथा उर्वशी भगवान  कृष्ण की विभूति हैं।  पुरुरवा गोप और उर्वशी अहीर का नाम इतिहास में जुड़ा तो बहुत बड़ी महाक्रान्ति होगी।

जितने अपने को चन्द्र वंशी ,सोमवंशी यदुवंशी कुरुवंशी राजपूत क्षत्रिय कहते हैं। वह सब अहीरों से सम्बन्धित शाखाएं हैं। 

यादवों का प्राचीन काल से ही गायन वादन और नृत्य अर्थात संगीत विधा पर पूर्ण स्वामित्व रहा है।
"हल्लिशम नृत्य और आभीर राग अहीरों की मौलिक संगीत सर्जना का प्रमाण है।

भगवान कृष्ण का  जन्म व बाल्यकाल आभीर जाति में हुआ था। आभीरों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति थी, जिसमें पूर्ण नारी- स्वातंत्रय तो था ही, साथ ही वे राग- रंग के भी बड़े प्रेमी थे। उनका लोकनृत्य हल्लीश या हल्लीसक सर्वविख्यात रहा है, जिसका वर्णन अनेक लक्षण ग्रंथों में भी मिल जाता है --

"मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् । तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६।

सरस्वतीकण्ठाभरणम्  /परिच्छेदः (२)
सरस्वतीकण्ठाभरणम्
परिच्छेदः २
भोजराजः

यदाङ्गिकैकनिर्वर्त्यमुज्झितं वाचिकादिभिः ।
नर्तकैरभिधीयेत प्रेक्षणाक्ष्वेडिकादि तत्।२.१४२।

तल्लास्यं ताण्डवं चैव छलिकं संपया सह ।
हल्लीसकं च रासं च षट्‌प्रकारं प्रचक्षते ।२.१४३।
____________________
मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् ।
तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६ ।। (२.१४४)
अर्थ-
मण्डल ( घेरा) में जो गोपस्त्रीयों का नृत्य होता है वह हल्लीसक  कहलाता है ।
उसमें एक गोप सभी गोप- स्त्रीयों का नेतृत्व करने वाला होता है जैसे भगवान कृष्ण होते हैं ।

"अङ्गवाक्सत्वजाहार्यः सामान्यश्चित्र इत्यमी ।
षट् चित्राभिनयास्तद्वदभिनेयं वचो विदुः ।। २.१५७ ।। (२.१४५)

चतस्त्रो विंशतिश्चैताः शब्दालङ्कारजातयः ।
शब्दसन्दर्भमात्रेण हृदयं हर्तुमीशते ।। २.१५८ ।। (२.१४६)
____________________

इति श्रीराजाधिराज भोजदेवेन विरचिते सरस्वतीकण्ठाभरण नाम्नि अलङ्कारशास्त्रेऽलङ्कारनिरूपणं नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।

नाट्यशास्त्र में भी वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के सन्दर्भ में हल्लीसक नृत्य या विवेचन है ।
विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। 
इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं। 
यह गोप संस्कृति का प्राचीन नृत्य है जो उत्सव विशेष पर किया जाता था।

मंडल बाँधकर होनेवाला एक प्रकार का नाच जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।
इसी को नीमान्तरण से लास्य: तो कहीं रास्य या रास भी कहा जाने लगा।

यह हल्लीसक नृत्य एक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें नायिका अनेक किंतु नायक एक ही होता था। इस नृत्य के लिए आभीर स्त्रियाँ उस पराक्रमी पुरुष को अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित करती थीं, तो अतुलित पराक्रम प्रदर्शित करता था।
 हरिवंश पुराण के अनुसार आभीर नारियों ने श्री कृष्ण को इस नृत्य के लिए उस समय आमंत्रित किया था, जब इंद्र- विजय के उपरांत वह महापराक्रमी वीर पुरुष के रुप में प्रतिष्ठित हुए थे।
इन्द्र- विजय के उपरान्त आभीर नारियों के साथ श्री कृष्ण के इस नृत्य का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के हल्लीसक क्रीड़न अध्याय में हुआ है। 
इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सःरास' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।

भगवान कृष्ण के द्वारकाधीश चले जाने पर यह नृत्य कृष्णकाल में द्वारका के यदुवंशियों 
का राष्ट्रीय नृत्य बन गया था। इस नृत्योत्सव का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के "छालिक्य संगीत' अध्याय में उपलब्ध है। शारदातनय का कथन है कि द्वारका में रास के विकास में श्री कृष्ण की पौत्रवधू अनिरुद्ध- पत्नी उषा का बड़ा योगदान था, जो स्वयं नृत्य में पारंगत थी। यह पार्वतीजी की शिष्या थी, जिसने उनसे लास्य- नृत्य की शिक्षा ग्रहण की थी। 
उसने द्वारका के नारी- समाज को विशेष रुप से रास- नृत्य मं प्रशिक्षित किया था। 

द्वारका पहुँचने पर यह रास- नृत्य नाटिकाओं का रुप ले चुका था। जिसमें श्री कृष्ण व बलराम की जीवन की प्रमुख घटनाओं का प्रदर्शन होता था।

भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्र में लोकधर्मी उपरुपकों के अंतर्गत रास के "रासक' और "नाट्य रासक' दो रुपों का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि उस काल में रास के दो रुप अलग- अलग विकसित हो गए थे। "नाट्य रासक' जहाँ नाट्योन्मुख नृत्य- संगीत का प्रतिनिधि था, वहाँ इसका शुद्ध नृत्य रुप "रासक' था। "रासक' के भरतमुनि ने भेद किए हैं --

१. मण्डल रासक 
२. लकुट रासक तथा 
३. ताल रासक। 

मण्डलाकार नृत्य मंडल रासक, हाथों से दंडा बजाकर नृत्य करना लकुट रासक या दंड रासक और हाथों से ताल देकर समूह में नृत्य करना संभवतः ताल रासक था। यह रासक परंपरा बाद में विभिन्न रुपों में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों में विकसित हुई ( जिसका परिचय यहाँ देना संभव नहीं है ) बाद में जैन धर्म में ही रासक परम्परा बाद बहुत लोकप्रिय हुई, क्योंकि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमिनाथजी को जैन धर्म ने अपना २३ वाँ तीर्थंकर स्वीकार कर लिया था। जिन्हें प्रसन्न करने के लिए जैन मंदिरों में भी रास उपासना का अंग बन गया। 

कहने का तात्पर्य यह है कि कृष्णकाल से प्रारम्भ होकर रास की प्राचीन परम्परा विभिन्न उतार- चढ़ावों के मध्य १५ वीं शताब्दी के अन्त तक या १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक आभीर जाति में रही , जबकि वर्तमान रास का पुनर्गठन हुआ, निरन्तर किसी न किसी रुप में विद्यमान रही और उसी के वर्तमान रास- मञ्च उद्भूत हुआ। 
इस प्रकार रास भारत का वह मंच है जो कृष्णकाल से आज तक निरंतर जीवित- जाग्रत रहा है।

भारत में दूसरा कोई ऐसा मंच नहीं जो इतना दीर्घजीवी हुआ हो। इसी के रास की लोकप्रियता और महत्ता स्पष्ट है।

अहीर भैरव एक लोकप्रिय राग है जिसमें कोमल ऋषभ और कोमल निषाद के स्वरों का संयोजन होता है। 
_______________________________
बलरामश्रीकृष्णादीनां यादवानां जलक्रीडा एवं गानादिकानां वर्णनम्-
एकोननवतितमोऽध्यायः

               "वैशम्पायन उवाच
रेमे बलश्चन्दनपङ्कदिग्धः कादम्बरीपानकलः पृथुश्रीः।
रक्तेक्षणो रेवतिमाश्रयित्वा प्रलम्बबाहुर्ललितप्रयातः ।१।

नीलाम्बुदाभे वसने वसानश्चन्द्रांशुगौरो मदिराविलाक्षः ।
रराज रामोऽम्बुदमध्यमेत्य सम्पूर्णबिम्बो भगवानिवेन्दुः ।२।
वामैककर्णामलकुण्डलश्रीः स्मेरं मनोज्ञाब्जकृतावतंसः ।
तिर्यक्कटाक्षं प्रियया मुमोद रामः सुखं चार्वभिवीक्ष्यमाणः ।३।
अथाज्ञया कंसनिकुम्भशत्रोरुदाररूपोऽप्सरसां गणः सः ।
द्रष्टुं मुदा रेवतिमाजगाम वेलालयं स्वर्गसमानमृद्ध्या ।४।
तां रेवतीं चाप्यथ वापि रामं सर्वा नमस्कृत्य वराङ्गयष्ट्यः।
वाद्यानुरूपं ननृतुः सुगात्र्यः समन्ततोऽन्या जगिरे च सम्यक्।५।
चकुस्तथैवाभिनयेन रङ्गं यथावदेषां प्रियमर्थयुक्तम् 
हद्यानुकूलं च बलस्य तस्य तथाज्ञया रेवतराजपुत्र्याः।६।
चक्रुर्हसन्त्यश्च तथैव रासं तद्देशभाषाकृतिवेषयुक्ताः 
सहस्ततालं ललितं सलीलं वराङ्गना मङ्गलसम्भृताङ्ग्यः ।७।
संकर्षणाधोक्षजनन्दनानि संकीर्तयन्त्योऽथ च मङ्गलानि ।
कंसप्रलम्बादिवधं च रम्यं चाणूरघातं च तथैव रङ्गे ।८।
यशोदया च प्रथितं यशोऽथ दामोदरत्वं च जनार्दनस्य ।
वधं तथारिष्टकधेनुकाभ्यां व्रजे च वासं शकुनीवधं च ।९।
तथा च भग्नौ यमलार्जुनौ तौ सृष्टिं वृकाणामपि वत्सयुक्ताम् ।
स कालियो नागपतिर्ह्रदे च कृष्णेन दान्तश्च यथा दुरात्मा ।2.89.१०।
शङ्खहृदादुद्धरणं च वीर पद्मोत्पलानां मधुसूदनेन।
गोवर्द्धनोऽर्थे च गवां धृतोऽभूद् यथा च कृष्णेन जनार्दनेन ।।११।।
कुब्जां यथा गन्धकपीषिकां च कुब्जत्वहीनां कृतवांश्च कृष्णः ।
अवामनं वामनकं च चक्रे कृष्णो यथाऽऽत्मानमजोऽप्यनिन्द्यः।।१२।
सौभप्रमाथं च हलायुधत्वं वधं मुरस्याप्यथ देवशत्रोः ।
गान्धारकन्यावहने नृपाणां रथे तथा योजनमूर्जितानाम् ।। १३ ।
ततः सुभद्राहरणे जयं च युद्धे च बालाहकजम्बुमाले ।
रत्नप्रवेकं च युधाजितैर्यत् समाहृतं शक्रसमक्षमासीत् ।।१४।।
एतानि चान्यानि च चारुरूपा जगुः स्त्रियः प्रीतिकराणि राजन् ।
सङ्कर्षणाधोक्षजहर्षणानि चित्राणि चानेककथाश्रयाणि ।।१५।।
कादम्बरीपानमदोत्कटस्तु बलः पृथुश्रीः स चुकूर्द रामः ।
सहस्ततालं मधुरं समं च स भार्यया रेवतराजपुत्र्या ।। १६ ।।
तं कूर्दमानं मधुसूदनश्च दृष्ट्वा महात्मा च मुदान्वितोऽभूत्।
चुकूर्द सत्यासहितो महात्मा हर्षागमार्थं च बलस्य धीमान् ।। १७ ।।
समुद्रयात्रार्थमथागतश्च चुकूर्द पार्थो नरलोकवीरा ।
कृष्णेन सार्द्धं मुदितश्चुकूर्द सुभद्रया चैव वराङ्गयष्ट्या ।। १८ ।।
गदश्च धीमानथ सारणश्च प्रद्युम्नसाम्बौ नृप सात्यकिश्च ।
सात्राजितीसूनुरुदारवीर्यः सुचारुदेष्णश्च सुचारुरूपः ।। १९ ।।
वीरौ कुमारौ निशठोल्मुकौ च रामात्मजौ वीरतमौ चुकूर्दतुः ।
अक्रूरसेनापतिशंकवश्च तथापरे भैमकुलप्रधानाः ।। 2.89.२० ।।
तद् यानपात्रं ववृधे तदानीं कृष्णप्रभावेण जनेन्द्रपुत्र ।
आपूर्णमापूर्णमुदारकीर्ते चुकूर्दयद्भिर्नप भैममुख्यैः ।। २१ ।।।
तै राससक्तैरतिकूर्दमानैर्यदुप्रवीरैरमरप्रकाशैः ।
हर्षान्वितं वीर जगत् तथाभूच्छेमुश्च पापानि जनेन्द्रसूनो ।। २२ ।।
देवातिथिस्तत्र च नारदोऽथ विप्रः प्रियार्थं मुरकेशिशत्रोः ।
चुकूर्द मध्ये यदुसत्तमानां जटाकलापागलितैकदेशः ।। २३ ।।
रासप्रणेता मुनि राजपुत्र स एव तत्राभवदप्रमेयः ।
मध्ये च गत्वा च चुकूर्द भूयो हेलाविकारैः सविडम्बिताङ्गैः ।।२४ ।।
स सत्यभामामथ केशवं च पार्थं सुभद्रां च बलं च देवम् ।
देवीं तथा रेवतराजपुत्रीं संदृश्य संदृश्य जहास धीमान् ।।२५ ।।
ता हासयामास सुधैर्ययुक्तास्तैस्तैरुपायैः परिहासशीलः ।
चेष्टानुकारैर्हसितानुकारैर्लीलानुकारैरपरैश्च धीमान् । २६ ।।
आभाषितं किंचिदिवोपलक्ष्य नादातिनादान् भगवान् मुमोच ।
हसन् विहासांश्च जहास हर्षाद्धास्यागमे कृष्णविनोदनार्थम् ।। २७ ।
कृष्णाज्ञया सातिशयानि तत्र यथानुरूपाणि ददुर्युवत्यः ।
रत्नानि वस्त्राणि च रूपवन्ति जगत्प्रधानानि नृदेवसूनो ।। २८ ।।
माल्यानि च स्वर्गसमुद्भवानि संतानदामान्यतिमुक्तकानि ।
सर्वर्तुकान्यप्यनयंस्तदानीं ददुर्ह रेरिङ्गितकालतज्ज्ञाः ।।२९।।
रासावसाने त्वथ गृह्य हस्ते महामुनिं नारदमप्रमेयः 
पपात कृष्णो भगवान् समुद्रे सात्राजितीं चार्जुनमेव चाथ ।। 2.89.३० ।।
उवाच चामेयपराक्रमोऽथ शैनेयमीषत्प्रहसन् पृथुश्रीः ।
द्विधा कृतास्मिन् पतताशु भूत्वा क्रीडाजलेनोऽस्तु सहाङ्गनाभिः ।।३१।।
सरेवतीकोऽस्तु बलोऽर्द्धनेता पुत्रा मदीयाश्च सहार्द्धभैमाः ।
भैमार्द्धमेवाथ बलात्मजाश्च मत्पक्षिणः सन्तु समुद्रतोये ।।३२।।
आज्ञापयामास ततः समुद्रं कृष्णः स्मितं प्राञ्जलिनं प्रतीतः ।
सुगन्धतोयो भव मृष्टतोयस्तथा भव ग्राहविवर्जितश्च ।। ३३ ।।
दृश्या च ते रत्नविभूषिता तु सा वेलिका भूरथ पत्सुखा च ।
मनोऽनुकूलं च जनस्य तत्तत् प्रयच्छ विज्ञास्यसि मत्प्रभावात्।।३४।।
भवस्यपेयोऽप्यथ चेष्टपेयो जनस्य सर्वस्य मनोऽनुकूलः ।
वैडूर्यमुक्तामणिहेमचित्रा भवन्तु मत्स्यास्त्वयि सौम्यरूपाः ।। ३५ ।।
बिभृस्व च त्वं कमलोत्पलानि सुगन्धसुस्पर्शरसक्षमाणि ।
षट्पादजुष्टानि मनोहराणि कीलालवर्णैश्च समन्वितानि ।। ३६ ।।
मैरेयमाध्वीकसुरासवानां कुम्भांश्च पूर्णान् स्थपयस्व तोये ।
जाम्बूनदं पाननिमित्तमेषां पात्रं पपुर्येषु ददस्व भैमाः ।। ३७ ।।
पुष्पोच्चयैर्वासितशीततोयो भवाप्रमत्तः खलु तोयराशे ।
यथा व्यलीकं न भवेद् यदूनां सस्त्रीजनानां कुरु तत्प्रयत्नम् ।। ३८।।
इतीदमुक्त्वा भगवान् समुद्रं ततः प्रचिक्रीड सहार्जुनेन ।
सिषेच पूर्वं नृप नारदं तु सात्राजिती कृष्णमुखेङ्गितज्ञा ।। ३९ ।।
ततो मदावर्जितचारुदेहः पपात रामः सलिले सलीलम् ।
साकारमालम्ब्य करं करेण मनोहरां रेवतराजपुत्रीम् ।। 2.89.४० ।।
कृष्णात्मजा ये त्वथ भैममुख्या रामस्य पश्चात् पतिताः समुद्रे ।
विरागवस्त्राभरणाः प्रहृष्टाः क्रीडाभिरामा मदिराविलाक्षाः ।। ४१ ।।
शेषास्तु भैमा हरिमभ्युपेताः क्रीडाभिरामा निशठोल्मुकाद्याः ।
विचित्रवस्त्राभरणाश्च मत्ताः संतानमाल्यावृतकण्ठदेशाः ।। ४२ ।।
वीर्योपपन्नाः कृतचारुचिह्ना विलिप्तगात्रा स्नलपात्रहस्ताः ।
गीतानि तद्वेषमनोहराणि स्वरोपपन्नान्यथ गायमानाः ।।४३ ।।
ततः प्रचक्रुर्जलवादितानि नानास्वराणि प्रियवाद्यघोषाः ।
सहाप्सरोभिस्त्रिदिवालयाभिः कृष्णाज्ञया वेशवधूशतानि ।। ४४ ।।
आकाशगङ्गाजलवादनज्ञाः सदा युवत्यो मदनैकचित्ताः ।
अवादयंस्ता जलदर्दुरांश्च वाद्यानुरूपं जगिरे च हृष्टाः ।। ४५ ।।
कुशेशयाकोशविशालनेत्राः कुशेशयापीडविभूषिताश्च ।
कुशेशयानां रविबोधितानां जह्रुः श्रियं ताः सुरचारुमुख्यः ।। ४६ ।
स्त्रीवक्त्रचन्द्रैः सकलेन्दुकल्पै रराज राजञ्छतशः समुद्रः ।
यदृच्छया दैवविधानतो वा नभो यथा चन्द्रसहस्रकीर्णम् ।। ४७ ।।
समुद्रमेघः स रराज राजञ्च्छतह्रदास्त्रीप्रभयाभिरामः ।
सौदामिनीभिन्न इवाम्बुनाथो देदीप्यमानो नभसीव मेघः ।। ४८ ।।
नारायणश्चैव सनारदश्च सिषेच पक्षे कृतचारुचिह्नः 
बलं सपक्षं कृतचारुचिह्नं स चैव पक्षं मधुसूदनस्य ।। ४९।।
हस्तप्रमुक्तैर्जलयन्त्रकैश्च प्रहृष्टरूपाः सिषिचुस्तदानीम् ।
रागोद्धता वारुणिपानमत्ताः संकर्षणाधोक्षजदेवपत्न्यः ।। 2.89.५० ।।

आरक्तनेत्रा जलमुक्तिसक्ताः स्त्रीणां समक्षं पुरुषायमाणाः ।
ते नोपरेमुः सुचिरं च भैमा मानं वहन्तो मदनं मदं च ।। ५१ ।।
अतिप्रसङ्गं तु विचिन्त्य कृष्णस्तान् वारयामास रथाङ्गपाणिः ।
स्वयं निवृत्तो जलवाद्यशब्दैः सनारदः पार्थसहायवांश्च ।। ५२ ।।
कृष्णेङ्गितज्ञा जलयुद्धसङ्गाद् भैमा निवृत्ता दृढमानिनोऽपि ।
नित्यं तथाऽऽनन्दकराः प्रियाणां प्रियाश्च तेषां ननृतुः प्रतीताः ।। ५३ ।।
नृत्यावसाने भगवानुपेन्द्रस्तत्याज धीमानथ तोयसङ्गान् ।
उत्तीर्य तोयादनुकूललेपं जग्राह दत्त्वा मुनिसत्तमाय ।। ५४ ।
उपेन्द्रमुत्तीर्णमथाशु दृष्ट्वा भैमा हि ते तत्यजुरेव तोयम् ।
विविक्तगात्रास्त्वथ पानभूमिं कृष्णाज्ञया ते ययुरप्रमेयाः ।५५।
यथानुपूर्व्या च यथावयश्च यत्सन्नियोगाश्च तदोपविष्टाः ।
अन्नानि वीरा बुभुजुः प्रतीताः पपुश्च पेयानि यथानुकूलम् ।। ५६ ।।

________
मांसानि पक्वानि फलाम्लकानि चुक्रोत्तरेणाथ च दाडिमेन।
निष्टप्तशूलाञ्छकलान् पशूंश्च तत्रोपजह्रुः शुचयोऽथ सूदाः ।५७।
सुस्विन्नशूल्यान्महिषांश्च बालाञ्छूल्यान्सुनिष्टप्तघृतावसिक्तान्।
वृक्षाम्लसौवर्चलचुक्रपूर्णान् पौरोगवोक्त्या उपजह्रुरेषाम् ।५८।
पौरोगवोक्त्या विधिना मृगाणां मांसानि सिद्धानि च पीवराणि ।
नानाप्रकाराण्युपजह्रुरेषां मृष्टानि पक्वानि च चुक्रचूतैः ।५९।
पार्श्वानि चान्ये शकलानि तत्र ददुः पशूनां घृतमृक्षितानि ।
सामुद्रचूर्णैरवचूर्णितानि चूर्णेन मृष्टेन समारिचेन ।। 2.89.६०।


समूलकैर्दाडिममातुलिङ्गैः पर्णासहिङ्ग्वार्द्रकभूस्तृणैश्च ।
तदोपदंशैः सुमुखोत्तरैस्ते पानानि हृष्टाः पपुरप्रमेयाः । ६१ ।
कट्वाङ्कशूलैरपि पक्षिभिश्च घृताम्लसौवर्चलतैलसिक्तैः।
मैरेयमाध्वीकसुरासवांस्ते पपुः प्रियाभिः परिवार्यमाणाः ।६२।
श्वेतेन युक्तानपि शोणितेन भक्ष्यान्सुगन्धांल्लवणान्वितांश्च।
आर्द्रान्किलादान् घृतपूर्णकांश्च नानाप्रकारानपि खण्डखाद्यान् ।६३।

अपानपाश्चोद्धवभोजमिश्राः शाकैश्च सूपैश्च बहुप्रकारैः।
पेयैश्च दघ्ना पयसा च वीराः स्वन्नानि राजन् बुभुजुः प्रहृष्टाः ।६४।

तथारनालांश्च बहुप्रकारान् पपुः सुगन्धानपि पालवीषु ।
शृतं पयः शर्करया च युक्तं फलप्रकारांश्च बहूंश्च खादन् ।। ६५ ।।
तृप्ताः प्रवृत्ताः पुनरेव वीरास्ते भैममुख्या वनितासहायाः।
गीतानि रम्याणि जगुः प्रहृष्टाः कान्ताभिनीतानि मनोहराणि ।६६।

_____ 
आज्ञापयामास ततः स तस्यां निशि प्रहृष्टो भगवानुपेन्द्रः ।
छालिक्यगेयं बहुसंनिधानं यदेव गान्धर्वमुदाहरन्ति ।६७।
जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम् ।
हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः ।६८।
मृदङ्गवाद्यानपरांश्च वाद्यान् वराप्सरस्ता जगृहुः प्रतीताः ।
आसारितान्तं च ततः प्रतीता रम्भोत्थिता साभिनयार्थतज्ज्ञा ।६९।
तयाभिनीते वरगात्रयष्ट्या तुतोष रामश्च जनार्दनश्च 
अथोर्वशी चारुविशालनेत्रा हेमा च राजन्नथ मिश्रकेशी । 2.89.७०।
तिलोत्तमा चाप्यथ मेनका च एतास्तथान्याश्च हरिप्रियार्थम् ।
जगुस्तथैवाभिनयं च चक्रु रिष्टैश्च कामैर्मनसोऽनुकूलैः ।७१ ।
ता वासुदेवेऽप्यनुरक्तचित्ताः स्वगीतनृत्याभिनयैरुदारैः ।
नरेन्द्रसूनो परितोषितेन ताम्बूलयोगाश्च वराप्सरोभिः ।७२।
तदागताभिर्नृवराहृतास्तु कृष्णेप्सया मानमयास्तथैव।
फलानि गन्धोत्तमवन्ति वीराश्छालिक्यगान्धर्वमथाहृतं च ।७३।

____  

कृष्णेच्छया च त्रिदिवान्नृदेव अनुग्रहार्थं भुवि मानुषाणाम् ।
स्थितं च रम्यं हरितेजसेव प्रयोजयामास स रौक्मिणेयः।७४।
छालिक्यगान्धर्वमुदारबुद्धिस्तेनैव ताम्बूलमथ प्रयुक्तम् ।
प्रयोजितं पञ्चभिरिन्द्रतुल्यैश्छालिक्यमिष्टं सततं नराणाम् ।७५।

शुभावहं वृद्धिकरं प्रशस्तं मङ्गल्यमेवाथ तथा यशस्यम ।
पुण्यं च पुष्ट्यभ्युदयावहं च नारायणस्येष्टमुदारकीर्तेः । ७६ ।
जयावहं धर्मभरावहं च दुःस्वप्ननाशं परिकीर्त्यमानम् ।
करोति पापं च तथा विहन्ति शृण्वन् सुरावासगतो नरेन्द्रः ।७७।

छालिक्यगान्धर्वमुदारकीर्तिर्मेने किलैकं दिवसं सहस्रम् ।
चतुर्युगानां नृप रेवतोऽथ ततः प्रवृत्ता च कुमारजातिः ।७८ ।
गान्धर्वजातिश्च तथापरापि दीपाद् यथा दीपशतानि राजन् ।
विवेद कृष्णश्च स नारदश्च प्रद्युम्नमुख्यैर्नृप भैममुख्यैः । ७९ ।
विज्ञानमेतद्धि परे यथावदुद्देशमात्राच्च जनास्तु लोके ।
जानन्ति छालिक्यगुणोदयानां तोयं नदीनामथवा समुद्रः ।2.89.८० ।
ज्ञातुं समर्थो हि महागिरिर्वा फलाग्रतो वा गुणतोऽथ वापि ।
शक्यं न छालिक्यमृते तपोभिः स्थाने विधानान्यथ मूर्च्छनासु ।८१।
षड्ग्रामरागेपु च तत्तु कार्यं तस्यैकदेशावयवेन राजन् ।
लेशाभिधानां सुकुमारजातिं निष्ठां सुदुःखेन नराः प्रयान्ति । ८२ ।
छालिक्यगान्धर्वगुणोदयेषु ये देवगन्धर्वमहर्षिसंघाः 
निष्ठां प्रयान्तीत्यवगच्छ बुद्ध्या छालिक्यमेवं मधुसूदनेन ।८३।

भैमोत्तमानां नरदेव दत्तं लोकस्य चानुग्रहकाम्ययैव 
गतं प्रतिष्ठाममरोपगेयं बाला युवानश्च तथैव वृद्धाः ।८४.।
क्रीडन्ति भैमाः प्रसवोत्सवेषु पूर्वं तु बालाः समुदावहन्ति ।
वृद्धाश्च पश्चात्प्रतिमानयन्ति स्थानेषु नित्यं प्रतिमानयन्ति । ८५।
मर्त्येषु मर्त्यान् यदवोऽतिवीराः स्ववंशधर्मे समनुस्मरन्तः।
पुरातनं धर्मविधानतज्ज्ञाः प्रीतिः प्रमाणं न वयः प्रमाणम् ।८६।
प्रीतिप्रमाणानि हि सौहृदानि प्रीतिं पुरस्कृत्य हि ते दशार्हाः ।
वृष्ण्यन्धकाः पुत्रसखा बभूवुर्विसर्जिताः केशिविनाशनेन ।८७ ।

स्वर्गे गताश्चाप्सरसां समूहाः कृत्वा प्रणामं मधुकंसशत्रोः ।
प्रहृष्टरूपस्य सुहृष्टरूपा बभूव हृष्टः सुरलोकसङ्घः ।८८ ।


कृष्ण का चरित्रांकन देश और समाज की प्रवृत्तियों के अनुरूप हर काल में भिन्न भिन्न रूप में हुआ। परन्तु कुछ शास्त्रकार ऐसे भी थे जिन्होंने कृष्ण का चरित्रांकन कामशास्त्र के नायक के रूप में किया ये शास्त्रकार कृष्ण को देव संस्कृति के समर्थकों में प्रतिष्ठित करना चाहते थे।
हरिवंश पुराण कार ने रास प्रकरण में काल्पनिक उपादानों को आधार मानकर यही प्रयास किया है।
परन्तु सच्चे अर्थों में कृष्ण देवसंस्कृति के कटु आलोचक तथा इन्द्र यज्ञ और पूजा के प्रबल विरोधी थे।
परन्तु पुष्यमित्र सुँग ने देवयज्ञों प्रारम्भ कराकर पुन: यज्ञों  पशु बलि की पृथा भी प्रारम्भ कराई -

"यह सम्भव है कि  कुछ यादव साकाहारी और कुछ मासाँहारी भी रहे होंगे। जैसा कि आज भी है। 

परन्तु कृष्ण और बलराम जैसे भागवत धर्म के संस्थापकों को मदिरा पान कराकर माँस भक्षण करते हुए दिखाना और अनेक स्त्रीयों के साथ व्यभिचारी की भूमिका में प्रस्तुत करना " श्रीमद् भगवद्गीता के सिद्धान्तों के विपरीत है।

पुराणों में जिस प्रकार ब्राह्मणों की प्रसंग विपरीत होने पर भी अचानक दान और सेवा आदि से संतुष्ट करने की बातें सर्वविदित ही हैं। हरिवंश पुराण से कुछ तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं जो पूर्णत: उनके वास्तविक चरित्र को विपरीत हैं। फिर भी ब्राह्मण शास्त्र कार उन्हें लिखकर कृष्ण के सामाजिक वर्चस्व को समाप्त करना चाहते हैं।

मांसानि पक्वानि फलाम्लकानि चुक्रोत्तरेणाथ च दाडिमेन।
निष्टप्तशूलाञ्छकलान् पशूंश्च तत्रोपजह्रुः शुचयोऽथ सूदाः ।५७।
सुस्विन्नशूल्यान्महिषांश्च बालाञ्छूल्यान्सुनिष्टप्तघृतावसिक्तान्।
वृक्षाम्लसौवर्चलचुक्रपूर्णान् पौरोगवोक्त्या उपजह्रुरेषाम् ।५८।
पौरोगवोक्त्या विधिना मृगाणां मांसानि सिद्धानि च पीवराणि ।
नानाप्रकाराण्युपजह्रुरेषां मृष्टानि पक्वानि च चुक्रचूतैः ।५९।
पार्श्वानि चान्ये शकलानि तत्र ददुः पशूनां घृतमृक्षितानि ।
सामुद्रचूर्णैरवचूर्णितानि चूर्णेन मृष्टेन समारिचेन ।। 2.89.६०।


समूलकैर्दाडिममातुलिङ्गैः पर्णासहिङ्ग्वार्द्रकभूस्तृणैश्च ।
तदोपदंशैः सुमुखोत्तरैस्ते पानानि हृष्टाः पपुरप्रमेयाः । ६१ ।
कट्वाङ्कशूलैरपि पक्षिभिश्च घृताम्लसौवर्चलतैलसिक्तैः।
मैरेयमाध्वीकसुरासवांस्ते पपुः प्रियाभिः परिवार्यमाणाः ।६२।
श्वेतेन युक्तानपि शोणितेन भक्ष्यान्सुगन्धांल्लवणान्वितांश्च।
आर्द्रान्किलादान् घृतपूर्णकांश्च नानाप्रकारानपि खण्डखाद्यान् ।६३।

अपानपाश्चोद्धवभोजमिश्राः शाकैश्च सूपैश्च बहुप्रकारैः।
पेयैश्च दघ्ना पयसा च वीराः स्वन्नानि राजन् बुभुजुः प्रहृष्टाः ।६४।

तथारनालांश्च बहुप्रकारान् पपुः सुगन्धानपि पालवीषु ।
शृतं पयः शर्करया च युक्तं फलप्रकारांश्च बहूंश्च खादन् ।। ६५ ।।
तृप्ताः प्रवृत्ताः पुनरेव वीरास्ते भैममुख्या वनितासहायाः।
गीतानि रम्याणि जगुः प्रहृष्टाः कान्ताभिनीतानि मनोहराणि ।६६।

_____ 
आज्ञापयामास ततः स तस्यां निशि प्रहृष्टो भगवानुपेन्द्रः ।
छालिक्यगेयं बहुसंनिधानं यदेव गान्धर्वमुदाहरन्ति ।६७।
जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम् ।
हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः ।६८।
मृदङ्गवाद्यानपरांश्च वाद्यान् वराप्सरस्ता जगृहुः प्रतीताः ।
आसारितान्तं च ततः प्रतीता रम्भोत्थिता साभिनयार्थतज्ज्ञा ।६९।

"हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय:89 वाँ अध्याय -

 श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद :-श्रीकृष्‍ण के संकेतों को समझने वाले भीमवंशी यादव सुदृढ़ अभिमान से युक्‍त होने पर भी उस जल युद्ध के प्रसंग से निवृत्त हो गये। तदनन्‍तर उन प्रिय पुरुषों को नित्‍य आनन्‍द देने वाली उनकी प्‍यारी वार-वनिताएं विश्‍वस्‍त होकर नृत्‍य करने लगीं। नृत्‍य के अन्‍त में बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्‍ण ने जलक्रीड़ा के प्रसंग त्‍याग दिये।
 उन्‍होंने जल से ऊपर आकर मुनिवर नारद जी को अनुकूल चन्‍दन का लेप देकर फिर स्‍वयं भी उसे ग्रहण किया। भगवान् श्रीकृष्‍ण को जल से बाहर निकला देख अन्‍य यादवों ने भी जलक्रीड़ा त्‍याग दी।

 फिर वे अप्रमेय शक्तिशाली यादव शुद्ध शरीर हो श्रीकृष्‍ण की आज्ञा से पानभूमि ( मदिरालय)में गये। वहाँ वे क्रमश: अवस्‍था और सम्‍बन्‍ध के अनुसार उस समय भोजन के लिये बैठे।
तदनन्‍तर उन प्रख्‍यात वीरों ने अपनी रुचि के अनुकूल अन्‍न खाये और पेय रसों का पान किया।
 पके फलों के गूदे (पका हुआ मांस, खट्टे फल, अधिक खट्टे अनार के साथ शूल में गूँथकर सेके गये महिष का मांस ये सब पदार्थ पवित्र रसोईयों ने उनके लिये परोसे। 

शूल में गूँथकर पकाये गये महिष का मांस नारियल, तपे हुए घी में तले गये अन्‍यान्‍य खाद्य पदार्थ, अमलवेंत, काला नमक और चूक के मेल से बने हुए लेह्य पदार्थ (चटनी)- ये सब वस्‍तुएं पाकशालाध्‍यक्ष के कहने से रसोईयों ने इन यादवों के लिये प्रस्‍तुत कीं। 
"
पाकशालाध्‍यक्ष के बताये अनुसार विधिवत तैयार किये गये मृग के  मोटे-मोटे गूदे, आम की खटाई डालकर बनाये गये नाना प्रकार के विशुद्ध व्‍यंजन भी इनके लिये परोसे गये।

मांसानि पक्वानि फलाम्लकानि चुक्रोत्तरेणाथ च दाडिमेन।
निष्टप्तशूलाञ्छकलान् पशूंश्च तत्रोपजह्रुः शुचयोऽथ सूदाः ।५७।
सुस्विन्नशूल्यान्महिषांश्च बालाञ्छूल्यान्सुनिष्टप्तघृतावसिक्तान्।
वृक्षाम्लसौवर्चलचुक्रपूर्णान् पौरोगवोक्त्या उपजह्रुरेषाम् ।५८।
पौरोगवोक्त्या विधिना मृगाणां मांसानि सिद्धानि च पीवराणि ।
नानाप्रकाराण्युपजह्रुरेषां मृष्टानि पक्वानि च चुक्रचूतैः ।५९।
पार्श्वानि चान्ये शकलानि तत्र ददुः पशूनां घृतमृक्षितानि ।
सामुद्रचूर्णैरवचूर्णितानि चूर्णेन मृष्टेन समारिचेन ।। 2.89.६०।

दूसरे रसोईयों ने पास रखे हुए पोषक शाकों के टुकड़े-टुकड़े करके उन्‍हें घी में तल दिये और उनमें नमक तथा मिर्च के चूर्ण मिलाकर खाने वालों को परोस दिये। मूली, अनार बिजौरा, नीबू, तुलसी, हींग और भूतृण नामक शाक विशेष के साथ सुन्‍दर मुख वाले पानपात्र लेकर उन अप्रमेय शक्तिशाली यादवों ने बड़े हर्ष के साथ पेय रस का पान किया।

कट्वांक अर्थात कटुक परवल, शूलहर (हींग) तथा नमक-खटाई मिलाकर घी और तेल में सेके गये लकुच या बड़हर[2] 

के साथ मैरेय, माध्‍वीक, सुरासव नामक मधु( मदिरा) का उन यादवों ने अपनी प्रियतमाओं से घिरे रहकर पान किया। 

नरेश्‍वर! श्‍वेत रंग के खाद्य पदार्थ मिश्री आदि तथा लाल रंग के फल के साथ नाना प्रकार के सुगन्धित एवं नमकीन भोजन एवं आद्र (रसदार साग), किलाद (भैंस के दूध में पकाये गये खीर आदि), घी से भरे हुए पदार्थ (पुआ-हलुआ आदि) तथा भाँति-भाँति के खण्‍ड-खाद्य (खाँड़ आदि) उन्‍होंने खाये।

 राजन ! उद्धव, भोज आदि श्रेष्‍ठ यादव वीरों ने जो मादक रसों का पान नहीं करते थे, बड़े हर्ष के साथ नाना प्रकार के साग, दाल, पेय-पदार्थ तथा दही-दूध आदि के साथ उत्‍तम अन्‍न का भोजन किया।
___________________
उन्‍होंने प्‍यालों में अनेक प्रकार के सुगन्धित आरनाल (कांजीरस) का पान किया। चीनी मिलाये हुए गरम-गरम दूध पीया और भाँति-भाँति के फल भी खाये। 

खा-पीकर तृप्‍त होने के पश्‍चात वे मुख्‍य-मुख्‍य यदुवंशी वीर पुन: स्त्रियों को साथ लेकर बड़े हर्ष के साथ रमणीय एवं मनोहर गीत गाने लगे।

उनकी प्रेयसी कामिनियाँ अपने हाव-भाव द्वारा उन गीतों के अर्थ का अभिनय करती जाती हैं। तदनन्‍तर हर्ष में भरे हुए भगवान् उपेन्‍द्र ने उस रात में बहुसंख्‍यक मनुष्‍यों द्वारा सम्‍पन्‍न होने वाले उस छालिक्‍य गान के लिये आज्ञा दी, जिसे गान्‍धर्व कहते हैं।

उस समय नारद जी ने अपनी वीणा सँभाली, जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र कर देने वाली थी। 

नरदेव! साक्षात् श्रीकृष्‍ण ने वंशी बजाकर हृल्‍लीसक[4] (रास) नामक नृत्‍य का आयोजन किया। 
_________________    
कुन्‍तीपुत्र अर्जुन ने मृदंग वाद्य ग्रहण किया। अन्‍य वाद्यों को श्रेष्‍ठ अप्‍सराओं ने ग्रहण किया जो उनके वादन कला में प्रख्‍यात थीं। आसारित[5] (प्रथम आसारनर्त की-प्रवेश) के बाद अभिनय के अर्थतत्त्व का ज्ञान रखने वाली रम्भा नामक अप्‍सरा उठी, जो अपनी अभिनय कला के लिये विख्‍यात थी।

अध्याय 90 - यादवों  का रास नृत्य का आयोजन - (जारी) हरिवंश पुराणविष्णु- पर्व--

1. वैशम्पायन ने कहा:- कादम्बर मदिरा पीने के कारण बलराम ने स्वयं पर तथा अपनी गतिविधियों पर सारा नियंत्रण खो दिया था और उसकी आँखें लाल हो गई थीं, चंदन से चिपकी हुई बड़ी भुजाओं वाली अत्यंत सुंदर पत्नी रेवती के साथ वे क्रीड़ा करने लगे ।१।

2. जैसे पूर्णिमा का चंद्रमा बादलों में चमकता है, वैसे ही काले वस्त्र पहने हुए , चंद्रमा की किरणों के समान गोरे और नशे में डूबी आंखों वाले दिव्य बलराम वहां चमक रहे थे ।२।

3. अपने बाएं कान पर केवल कुंडल रखकर और सुंदर कमलों से सुशोभित, मुस्कुराते हुए राम ने अपनी प्यारी पत्नी के पार्श्व-लंबाई रूप से सुशोभित चेहरे को बार-बार देखकर अत्यधिक आनंद प्राप्त किया।

4. तत्पश्चात कंस और निकुंभ के संहारक केशव की आज्ञा से सुंदर अप्सराएं रेवती और बलराम को देखने के लिए स्वर्ग के समान समृद्ध हल धारक के पास पहुंचीं।

5. मनमोहक शारीरिक गठन से युक्त उन सुंदर शरीर वाली अप्सराओं ने रेवती और राम को नमस्कार किया और समय के साथ नृत्य करना शुरू कर दिया। और उनमें से कुछ ने हर प्रकार की भावना को अभिव्यक्त करने वाले इशारों के साथ गाया।

6. बलदेव और रेवत के  राजा की पुत्री की आज्ञा के अनुसार उन्होंने यादवों की इच्छा के अनुसार अपने द्वारा अर्जित विभिन्न हाव-भाव प्रदर्शित करना शुरू कर दिया ।

7. उन दुबली-पतली और सुंदर युवतियों ने यादव देश की स्त्रियों के समान वस्त्र पहनकर उनकी भाषा में मधुर गीत गाए।

7-14. हे वीर, उस सभा से पहले उन्होंने बलराम और केशव की प्रसन्नता के लिए विभिन्न पवित्र प्रसंग गाए, जैसे कंस, प्रलम्व और चाणूर का विनाश ; जनार्दन को ओखली से बांधने की कहानी जिसके कारण यशोदा ने उनकी महिमा स्थापित की और उन्हें दामोदर नाम मिला ; अरिष्टा और धेनुका का विनाश ; व्रज में उनका निवास ; पूतना का विनाश ; उनके द्वारा यमल और अर्जुन वृक्षों को उखाड़ना ; कालांतर में उनके द्वारा भेड़ियों की रचना, झील में कृष्ण द्वारा दुष्ट नागों के राजा कलयानाग का दमन ; उस झील से कमल, कुमुद, शंख और निधियों के साथ मधुसूदन की वापसी ; विश्व कल्याण के स्रोत केशव द्वारा गोकुल की भलाई के लिए गोवर्धन पर्वत को धारण करना ; कैसे कृष्ण ने खुशबूदार चन्द्रन  बेचने वाली कूबड़ वाली महिला को ठीक किया; भगवान के ये वृत्तांत जन्म और अपूर्णताओं से रहित हैं।

अप्सराओं ने यह भी वर्णन किया कि कैसे भगवान ने, यद्यपि स्वयं बौने नहीं थे, अत्यंत वीभत्स बौना रूप धारण किया; सौभ की हत्या कैसे हुई; इन सभी युद्धों में बलदेव ने अपना हल कैसे उठाया; देवताओं के अन्य शत्रुओं का विनाश; गांधार राजकुमारी के विवाह के समय घमंडी राजाओं के साथ युद्ध ; सुभद्रा का हरण; वलहाका और जमवुमाली के साथ युद्ध ; और कैसे उसने इन्द्र  को हराने के बाद उसकी मौजूदगी में ही सारे गहने हरण लिए ।

15-16. हे राजन, जब वे सुंदर स्त्रियाँ संगकर्षण और अधोक्षज के लिए इन सभी और विभिन्न अन्य सुखद और आनंददायक विषयों को गा रही थीं , तो अत्यधिक सुंदर बलराम , कादम्बरीवारी  के नशे में, अपनी पत्नी रेवती के साथ मधुर तालियों के साथ गाने लगे ।

17. राम को इस प्रकार गाते देख बुद्धिमान, उच्चात्मा और अत्यधिक शक्तिशाली मधुसूदन ने उन्हें प्रसन्न करने के लिए सत्य के साथ गाना शुरू किया ।

18. विश्व के महानतम वीर पार्थ , जो समुद्र-यात्रा के लिये वहाँ आये थे, वह भी प्रसन्न होकर सुन्दर सुभद्रा और कृष्ण के साथ गाने लगे।

19-20. हे राजन, बुद्धिमान गद , सरण , प्रद्युम्न , साम्ब- , सात्यकि और सत्राजित के पुत्र, महान शक्तिशाली चारुदेष्ण ने भी वहां समवेत स्वर में गाया। बलराम के पुत्र, सबसे महान वीर, राजकुमार निशाथ और उल्मुख, सेनापति अक्रूर , शंख और अन्य प्रमुख भीमकुल के यादवों ने भी वहां गाया।

21. उस समय, हे राजा, कृष्ण की शक्ति से नावों का आकार बढ़ गया और जनार्दन ने प्रमुख भीमवंशीयों के साथ अपनी पूरी क्षमता से गाना गाया।

23 हे वीर राजकुमार, जब अमर-तुल्य यदु सरदारों ने इस प्रकार गाया तो सारा संसार हर्ष से भर गया और पाप नष्ट हो गये।

23 तब मधु के हत्यारे केशव को प्रसन्न करने के लिए देवताओं के अतिथि नारद ने यादवों के बीच ऐसा गाना शुरू किया कि उनकी जटाओं का एक हिस्सा पिघल गया।

24. हे राजकुमार, अथाह ऊर्जा वाले उस मुनि ने वहां-वहां गीतों की रचना करते हुए उन्हें बार-बार विभिन्न भावों और गतियों के साथ उन्हें  भीम कुल  के यादवों के बीच गाया।

25 तब राजा रेवत की पुत्री रेवती, बलदेव , केशव, पृथा के पुत्र अर्जुन तथा सुभद्रा को देखकर बुद्धिमान ऋषि बार-बार मुस्कुराये।

26. हालाँकि केशव की पत्नियाँ स्वभाव से धैर्यवान थीं, फिर भी बुद्धिमान नारद, जो हमेशा मज़ाक करने के शौकीन थे, अपने हाव-भाव, मुस्कुराहट, चाल और कई अन्य तरीकों से जो उनकी हँसी को उत्तेजित कर सकते थे, उन्हें हँसाते थे।

27. मानो निर्देश दिया गया हो कि दिव्य मुनि नारद ने ऊंचे और नीचे विभिन्न धुनें गाईं और कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए वह जोर-जोर से हंसने लगे और खुशी के आंसू बहाने लगे।

28-29. हे राजकुमार, तब इशारों में निपुण युवा युवतियों ने, कृष्ण के आदेश पर, दुनिया के सबसे अच्छे गहने, सुंदर वस्त्र, स्वर्ग में बनी मालाएं, संतानक(पारिजात) फूल, मोती और सभी मौसमों में पैदा होने वाले अन्य फूल दे दिए।

30. तत्पश्चात् संगीतमय सभा की समाप्ति के बाद दिव्य कृष्ण, महान और अतुलनीय मुनि नारद का हाथ पकड़कर सत्यभामा और अर्जुन के साथ समुद्र में कूद पड़े ।

31-32. अतुलनीय पराक्रम वाले अत्यधिक सुंदर कृष्ण ने थोड़ा मुस्कुराते हुए सिनी के पुत्र से कहा- "आइए हम दो दलों में बंट जाएं और युवतियों के साथ समुद्र के पानी में खेलें। समुद्र के इस पानी में बलदेव और रेवती को साथ रहने दें मेरे बेटे और कुछ भीमवंशी यादव एक पार्टी बनाते हैं और बचे हुए भीमवंशी और बलराम के बेटों को मेरी पार्टी में शामिल होने देते हैं।"

33. बाद में अत्यधिक आश्वस्त केशव ने हाथ जोड़कर सामने खड़े समुद्र से कहा:- "समुद्र, तुम्हारा पानी मीठा हो और घतक मगर आदि से रहित हो।

34. तेरा बिछौना  (समुद्र तल) रत्नों से सुशोभित हो, और तेरे किनारे दोनों पांवों के सुखपूर्वक स्पर्श के योग्य हों। और आप, मेरी शक्ति से, वह सब कुछ दे सकें जो आप मानव जाति के स्वाद के अनुकूल जानते हैं।

35. तू मनुष्यों को मनभावन सब प्रकार का पेय दे, और सोने, नीलमणि और मोतियों से सजी हुई कोमल मछलियां तेरे जल में तैरें।

36. आप रत्नों, सुगन्धित, मनमोहक, लाल कमलों और मधुर स्पर्श वाले कुमुदिनों को धारण करें और मधुमक्खियों से सेवित हों।

______    

37. क्या आपके पास असंख्य घड़े और सोने के बर्तन हैं, जिनमें से भैमस मैरेया , माधविका और आसव आदि  मदिरा हों तो उन्हें पेश करो

38. हे सागर, तुम्हार जल फूलों की सुगन्ध से सुगन्धित ठंडा हो। आप इतना सावधान रहें कि यादवों को अपनी स्त्रियों के साथ कोई असुविधा न हो।''

39 हे राजन, समुद्र से ऐसा कहकर कृष्ण अर्जुन के साथ क्रीड़ा करने लगे। सत्राजित की पुत्री, जो कृष्ण द्वारा दिए गए संकेतों में पारंगत थी, ने नारद के शरीर पर जल छिड़का।

40. तब राम ने नशे में डूबे अपने शरीर को उत्तेजना पूर्वक अपने हाथों से रेवती के हाथों से पकड़ लिया और खेल-खेल में समुद्र के पानी में कूद पड़े।

41-42. राम के पीछे कृष्ण के चंचल पुत्र, नशे में आँखें घुमाते हुए और अन्य प्रमुख भीमवंशी, अपने वस्त्र, और आभूषणों से वंचित होकर, खुशी से समुद्र में कूद पड़े।

निशत, उल्मुक और बलदेव के अन्य पुत्र अपने गले में संतानक फूलों की माला पहने हुए, विभिन्न प्रकार के वस्त्र पहने हुए, नशे में धुत और खेल-कूद में व्यस्त थे, साथ ही शेष भीमवंशी भी केशव की सभा में शामिल हो गए।

43. शक्तिशाली यादव, जिनके चेहरे पर सुंदर निशान और लेप थे, अपने हाथों में मदिरा के पात्र लेकर, मधुर धुनों वाले गीत गाने लगे और उस स्थान के लिए सुंदर रूप से अनुकूल थे।

44 तदनन्तर संगीत में रुचि रखने वाली, सजी-धजी सैकड़ों युवतियाँ, दिव्यलोक में रहने वाली अप्सराओं के साथ मिलकर विभिन्न स्वर बजाने लगीं।

45. वे युवा युवतियाँ, जो अलौकिक गंगा के जल में वाद्ययंत्र बजाने में पारंगत थीं , और जिनका मन पूरी तरह से कामदेव के वश में था, प्रसन्नतापूर्वक   जलदर्दुर[1] बजाती थीं और उसके साथ गीत गाती थीं।

46. ​​उस समय कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाली और कमल के डंठलों से सुशोभित सुंदर दिव्य नृत्य करने वाली लड़कियाँ सूर्य की किरणों से उड़े हुए कमल के समान शोभा पा रही थीं।

47. हे राजा, सैकड़ों पूर्णिमा के चंद्रमाओं के समान दिखने वाली उन महिलाओं के चंद्रमा जैसे चेहरों से भरा हुआ, या तो अपनी इच्छा से या विधि के आदेश के तहत वहां जा रहा थे , समुद्र हजारों चंद्रमाओं से सुशोभित आकाश की तरह दिखाई दे रहा था।

48 हे राजन, मेघरूपी समुद्र स्त्री के समान प्रकाश से सुशोभित हुआ। जल के स्वामी आकाश में बिजली से छितरे हुए बादलों के समान प्रकट हुए।

49. इसके बाद नारायण , जिन्होंने अपने शरीर पर सुंदर निशान लगाए थे, नारद और उनकी सभा के अन्य सदस्यों ने बलदेव और उनकी सभा पर पानी छिड़का, जिन्होंने भी सुंदर निशान लगाए थे। और बाद वाले ने भी पहले वाले पर पानी छिड़का।

"हस्तप्रमुक्तैर्जलयन्त्रकैश्चप्रहृष्टरूपावारुणिपानमत्ता: संकर्षणाधोक्षजदेवपत्न्य:।2/89/50

50. उस समय कृष्ण और संकर्षण की पत्नियाँ वारुणी मदिरा के नशे में चूर होकर और संगीत के साथ प्रसन्न होकर हाथों और जलयंत्रों से एक दूसरे पर पानी फेंकती थीं।

____

51. शराब, कामदेव और स्वाभिमान से युक्त, नशे से लाल आंखों वाले भीमवंशी एक-दूसरे पर पानी फेंकते थे और इस तरह महिलाओं की उपस्थिति के सामने कठोर रवैया अपनाते थे: 

हालांकि वे एक के लिए खेल रहे थे, वे बाज नहीं आए  लंबे समय तक भी।

52. इस प्रकार उनके परिचित कामक्रीडा को देखकर, चक्रधारी कृष्ण ने एक क्षण के लिए सोचा और फिर उन्हें रोक दिया। उन्होंने भी पार्थ और नारद के साथ जल में वाद्ययंत्र बजाने से परहेज किया।

53. भीमवंशी यादव, जो हमेशा अपनी प्रिय महिलाओं को प्रसन्न करते थे, हालांकि वे अत्यधिक संवेदनशील थे, जैसे ही उन्होंने संकेत दिया, तुरंत कृष्ण के इरादे को समझ गए और पानी में खेलना बंद कर दिया: लेकिन युवतियों ने नृत्य करना जारी रखा।

54. नाच पार्टी समाप्त होने के बाद जब अन्य यादव पानी में थे तब भी उपेन्द्र किनारे पर आ गये। इसके बाद उन्होंने नारद को श्रेष्ठ मुनि बनने का अवसर दिया और बाद में स्वयं भी उनका अंग बन गये।

55. फिर उपेन्द्र को जल से बाहर निकलता देख अतुलनीय भींमो ने शीघ्र ही जल छोड़ दिया। फिर वे अपने शरीर को दूबों से शुद्ध करके, कृष्ण की अनुमति से, शाराब के स्थान में चले गए।

56 उन सुप्रसिद्ध वीरों ने अपनी-अपनी आयु तथा स्थिति के अनुसार क्रम से बैठकर नाना प्रकार के भोजन तथा पेय पदार्थों से स्वयं को तरोताजा किया।

57. तब रसोइये बड़े आनन्द से पके हुए मांस, सिरके, अनार और लोहे की छड़ों पर भुना हुआ पशुओं का मांस ले आए।

58. फिर एक युवा भैंस को डंडे पर अच्छी तरह से भूनकर, गर्म करके, घी में भिगोकर, सिरका, सोचल नमक और एसिड मिलाकर परोसा गया।

59. बहुत से मोटे हिरणों का मांस कुशल पकाने की विधि के अनुसार भूनकर, और सिरके में मीठा करके लाया गया।

60. जानवरों की टाँगें, नमक और सरसों के साथ मिलाकर और घी में तलकर भी परोसी जाती थीं।

61. अतुलनीय यादवों ने अरुम कैम्पैनुलटम की जड़ों, अनार, नींबू, हींग, जिंजरेड और अन्य सुगंधित सब्जियों वाले उन व्यंजनों को बड़े आनंद से खाया। फिर उन्होंने सुंदर प्यालों में शराब पी।

62. वे अपनी प्रिय युवतियों के साथ घिरे रहकर मैरेया, माधविका और आसव जैसी विभिन्न मदिरा पीते थे, जो पक्षियों के मांस को मक्खन, अम्ल रस, नमक और खट्टी चीजों के साथ भूनकर तैयार की जाती थी।

63. उन्होंने अन्य व्यंजन, सफेद और लाल रंग के विभिन्न सुगंधित नमकीन खाद्य पदार्थ, दही और घी से बनी चीजें भी खाईं।

64. हे राजा, उद्धव , भोज और अन्य वीर, जो शराब नहीं पीते थे, उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक सब्जियाँ, सब्जी-करी, केक, दही और हलवा लिया।

65. पलावी नामक पीने के बर्तन से, वे विभिन्न सुगंधित पेय, दूध और चीनी के साथ मक्खन पीते थे और विभिन्न प्रकार के फल लेते थे।

66. इस प्रकार वीर भीमों ने भरपेट भोजन करके प्रसन्न हो गये। बाद में, वे, अपनी पत्नियों को अपने साथियों के रूप में रखते हुए, अपनी पत्नियों द्वारा शुरू किए गए आनंद के साथ फिर से संगीत में शामिल हो गए।

67. इसके बाद जब रात होने लगी तो दिव्य उपेन्द्र ने सभा में उपस्थित सभी लोगों से गाना जारी रखने के लिए कहा। 

देवताओं और गंधर्वों द्वारा गाए जाने वाले विभिन्न सुरों के (छालिक्य) ।

68-72. हे राजन, तब नारद ने अपनी वीणा बजाना शुरू किया जो छह ताल और रागों के साथ [2] मन की एकाग्रता लाती है, कृष्ण ने अपनी बांसुरी के संगीत के साथ हल्लीसक नृत्य करना जारी रखा और पार्थ ने अपने मृदंग को बजाना शुरू किया। : [

4] अन्य प्रमुख अप्सराएँ विभिन्न अन्य वाद्ययंत्र बजाती थीं। इसके बाद असरिता के बाद , सुंदर रंभा , एक चतुर अभिनेत्री, उठी, उसने अभिनय किया और बलराम और केशव को प्रसन्न किया। तदनन्तर, हे राजन , सुंदर और विशाल नेत्रों वाली उर्वशी , हेमा , मिश्रकेशी , तिलोत्तमा , मेनका और अन्य दिव्य अभिनेत्रियाँ क्रम से उठीं और गायन और नृत्य से हरि को प्रसन्न किया।

 उनके मनमोहक गायन और नृत्य से आकर्षित होकर वासुदेव ने उन सभी को उनके मन के अनुरूप उपहार देकर प्रसन्न किया। 

हे राजकुमार, उन सम्मानित और प्रमुख अप्सराओं को, जिन्हें वहां लाया गया था, कृष्ण की इच्छा पर पान के पत्तों से  ( वीड़ो)सम्मानित किया गया था।

73-74. हे राजा, इस प्रकार विभिन्न सुगंधित फल और  छालिक्य गीत, जो कृष्ण की इच्छा और मानव जाति के प्रति उनके उपकार से दिव्य क्षेत्र से स्वर्ग से लाए गए थे, केवल रुक्मिणी के बुद्धिमान पुत्र को ही ज्ञात थे। वही उनका उपयोग कर सकता था और वही उस समय पान बांटता था।

75-76.  छालिक्य गीत, नारायण के कल्याण, पोषण और समृद्धि के लिए अनुकूल, गौरवशाली कर्मों का, और जो मानव जाति के लिए महान, शुभ और प्रसिद्धि और धर्मपरायणता का उत्पादक था, इंद्र जैसे कृष्ण, राम, प्रद्युम्न द्वारा समवेत स्वर में गाया गया था। अनुविन्ध और शम्वा।

77-78. यह छालिक्य, जो वहाँ गाया जाता था, पुण्य की धुरी धारण करने में समर्थ तथा दु:ख और पाप का नाश करने वाला था। दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करते हुए और इस चालिक्य गीत को सुनकर प्रतापी राजा रेवत ने चार हजार युगों को एक दिन के रूप में माना।इससे कुमारजाति आदि गंधर्वों के विभिन्न प्रभागों की उत्पत्ति हुई ।

79. हे राजन, जैसे एक ही प्रकाश से सैकड़ों दीप उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार छालिक्य से गंधर्वों की विभिन्न श्रेणियां उत्पन्न हुई हैं। हे राजन, प्रद्युम्न और अन्य प्रमुख भीमों के साथ कृष्ण और नारद यह सब जानते थे।

80-81. झरनों और समुद्र के पानी की तरह इस दुनिया के लोग छालिक्य को केवल दृष्टांत से जानते थे। मुरकाना [5] और चालिक्य के समय को जानने के लिए कठोर तपस्या किए बिना हिमालय के गुणों और वजन को जानना संभव है , लेकिन ऐसा नहीं है ।

82-83. हे राजा, छह तराजू और राग पुरुषों के साथ छालिक्य का क्या, बड़ी कठिनाई के साथ, सुकुमारजति के ग्यारहवें मंडल के अंत तक भी नहीं आ सकता है । हे राजन, यह निश्चित रूप से जान लें कि मधुसूदन ऐसी व्यवस्था की थी कि देवता, गंधर्व और महान ऋषि छालिक्य के गुणों के कारण भक्ति भावना प्राप्त कर सकें।

84-88. भगवान द्वारा, मनुष्यों में, कृष्ण द्वारा, दुनिया पर उपकार दिखाने के लिए भैमों से पहले गाए जाने के कारण, चालिक्य, जिसे केवल अमर लोगों द्वारा गाया जाता था, ऐसी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है,

 जिसे पहले उत्सव के अवसर पर भीम लड़के इस्तेमाल करते थे इसे एक उदाहरण के रूप में उद्धृत करने के लिए। और बड़े-बूढ़े उनकी बात का अनुमोदन करते थे और लड़के, जवान और बूढ़े उसे समवेत स्वर में गाते थे। "प्यार ही कसौटी है, उम्र नहीं" - मनुष्यों को उनकी जाति के इस गुण की याद दिलाने के लिए, प्राचीन धार्मिक संस्कारों के संचालक वीर यादवों ने मनुष्यों की भूमि में ऐसा किया। 

हे राजन, मित्रता प्रेम से जानी जाती है, इसलिए प्रेम को सामने रखते हुए, केशव को छोड़कर अन्य वृष्णि , अंधक और दशार्ह अपने पुत्रों के साथ भी मित्र जैसा व्यवहार करते थे। तत्पश्चात प्रसन्न होकर कंस के हत्यारे मधुसूदन को नमस्कार करते हुए, संतुष्ट अप्सराएँ दिव्य क्षेत्र में लौट आईं, जो भी (तदनुसार) खुशी से भरा हुआ था।

फ़ुटनोट और संदर्भ:

"उपर्युक्त कृष्ण और बलराम को मदिरापान और माँस भक्षण करते हुए व्यभिचारी रूप में दर्शाना है  क्षेपक ही है। भगवद्गीता के वक्ता कृष्ण और भागवत धर्म के संस्थापक बलराम के लिए सम्भव नहीं है।  

पुष्यमित्रकेपरवर्ती काल का है।नि:सन्देह यह कुत्सितपरियोजना इन्द्रोपासकपुरोहित की है।

 हरिवंश पुराण का लेखन काल पुष्यमित्र सुँग के परवर्ती काल का है यद्यपि इसमें बहुत सी बाते कृष्ण चरित्र के अनुकूल सकारात्मक भी हैं  परन्तु पुराणकार पुष्य मित्र के विचारों का पोषक है कृष्ण को आधार बनाकर पुराणकार पुष्य मित्र के उन सभी पृथाओं को कृष्ण पर आरोपित कर रहा है। जो किसी भी अच्छे धर्म में मान्य नही की जाकती हैं रास मण्डली में यादव राजकुमारों के साथ वेश्याओ के समूह को उपस्थित करना सभी यादवों का मदिरा पीकर कामुक व्यवहार करना दिखाना  अपने पुत्रों के सामने ही कृष्ण और बलराम को शराब पीकर स्स्रीयों के साथ सेक्सुअल इण्टरकोर्स में दिखाना वह भी रात्री काल में स्वर्ग से आयी अप्सराओं के साथ राजकुमारों का इन्द्र के समान मदिरा पी पीकर रमण करना इन्द्र के ऐश्वर्य को आदर्श केवरूप में प्रस्तुत करना ही है।  ।  

हरिवंश का कालनिर्णय

हरिवंश के कालनिर्माण तथा महाभारत के साथ सम्बद्ध होने के काल का निर्णय प्रमाणों द्वारा किया जा सकता है-

(क) हरिवंश के साथ सम्मिलित होकर लक्ष श्लोकात्मक रूप धारण करने वाला महाभारत शत साहस्री संहिताके नाम से (454) ईस्वी के गुप्त शिलालेख में उल्लिखित है। 

(ख) अश्वघोष (प्रथमशती) ने अपने वज्रसूची उपनिषद् में हरिवंश के 'प्रेतकल्पप्रकरण से सप्तव्याधा दशार्णेषु’ (हरिवंश 24/20, 21) इत्यादि श्लोकों को प्रमाण रूप से उद्धृत किया है। अतः हरिवंश की रचना प्रथमशती से अर्वाचीन नहीं हो सकती।

(ग) हरिवंश (विष्णु पर्व 55/50) में 'दीनारका उल्लेख उसके रचनाकाल का द्योतक है। रोम साम्राज्य के सोने के सिक्के 'दिनारियसकहलाते थे और उसी शब्द का संस्कृत रूप दीनारहै। इस शब्द का सबसे प्राचीन प्रयोग प्रथमशती के शिलालेखों में उपलब्ध होता है।

(घ) हरिवंश के एक श्लोक में शुंगब्राह्मण राज्य के संस्थापक पुष्यमित्रशुंग द्वारा यज्ञ का उल्लेख भविष्य में होनेवाली घटना के रूप में निर्दिष्ट किया गया है

उपात्तयज्ञो देवेसु ब्राह्मणेषुपपत्स्यते । ‘औद्भिज्जो भविता कश्चित् सेनानी: काश्यपो द्विजः । अश्वमेधं कलियुगे पुनः प्रत्याहरिष्यति । (हरिवंश 3 /2/39-40 )


  • यह तो प्रसिद्ध ही है कि ब्राह्मण सेनापति पुष्पमित्र ने दो बार अश्वमेघ यज्ञ किया थाजिनमें महाभाष्य के रचयिता पतञलि स्वयं ऋत्विक् रूप से उपस्थित थे। 'इह पुष्पमित्रं याजयाम:'-महाभाष्य । पुष्पमित्र ने लगभग 36 वर्षो तक राज्य किया (लगभग ईस्वी पूर्व 187-151) और आरम्भ में वे मौर्य सम्राट् के सेनापति था। इसी प्रसिद्ध सेनानी का निर्देश इस श्लोक में है। फलत: हरिवंश का रचनाकाल इससे पूर्व नहींतो इसके कुछ ही पश्चात् होना चाहिए। 

  • अतएव 'हरिवंशका निर्माण काल ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में मानना सर्वथा सुसंगत होगा 

  • हरिवंश का धार्मिक महत्व सर्वत्र प्रख्यात है । सन्तान के इच्छुक व्यक्तियों के लिये 'हरिवंशके विधिवत् श्रवण का विधान लोक प्रचलित है। शपथ खाने के लिए पुरूषों के हाथ पर हरिवंश की पोथी रखने का प्रचलन नेपाल में उसी प्रकार है जिस प्रकार किसी मुसलमान के हाथ पर कुरान रखने का . 

  • श्रीकृष्ण के चरित के तुलनात्मक अध्ययन के लिए हरिवंश के विष्णुपर्व का परिशीलन नितान्त आवश्यक है। प्राचीन भारत की ललित कलाओं के विषय में हरिवंश बहुत ही उपादेय सामग्री प्रस्तुत करता है। प्राचीन भारत में नाटक के अभिनय प्रकार की जानकारी के लिए यहाँ उपादेय तथ्यों का संकलन है। 
  • सबसे महत्वपूर्ण है हरिवंश में राजनैतिक इतिहास का वर्णनजो किसी भी प्राचीन पुराण के वर्णन से उपादेयता और प्रामाणिकता में किसी प्रकार न्यून नहीं है फलतः प्रथम शती में भारती संस्कृति की रूपरेखा जानने के लिए हरिवंशहमारा विश्वनीय मार्गदर्शक है।

हरिवंशपुराण- हरिवंश का स्वरूप, हरिवंश में तीन पर्व या खण्ड -

  • महाभारत के खिल पर्व होने के कारण हरिवंश की आलोचना अब प्रसंग प्राप्त है। हरिवंश में श्लोकों की संख्या सोलह हजार तीन सौ चौहत्तर (16, 374 श्लोक ) श्रीमद्भागवत की श्लोक संख्या से कुछ ही अधिक है।
  • डॉ० विन्टरनित्स के कथनानुसार यूनानी कवि होमर के दोनों महाकाव्यों 'इलियडऔर 'ओडिसीकी सम्मिलित संख्या से भी यह अधिक हैपरन्तु यह एक लेखक की रचना न होकर अनेक लेखकों के संयुक्त प्रयास का फल है। 
  • हरिवंश का अन्तिम पर्व (ग्रन्थ का तृतीय भाग) तो परिशिष्ट भूत हरिवंश का भी परिशिष्ट है और काल क्रम से सबसे पीछे का निर्मित भाग है। 

हरिवंश में तीन पर्व या खण्ड हैं

(क) हरिवंश पर्व

  •  कृष्ण के वंश वृष्णि-अन्धक की कथा विस्तार से दी गयी है और इस आदिम पर्व के वर्णन के अनन्तर राजा पृथु की कथा विस्तार से दी गयी है ।

  • सूर्यवंशीय राजाओं के प्रसंग में विश्वामित्र तथा वसिष्ठ का भी आख्यान वर्णित है। प्रसंग से पृथक् हटकर प्रेतकल्प ( अन्त्येष्टि एवं श्राद्ध) का वर्णन नौ अध्यायों में (अध्याय- 16-24) विस्तार से निबद्ध है और इसी के अन्तर्गत 21 वें अध्याय में पशुओं की बोली को समझने-बूझने वाले ब्रह्मदत्त की कथा दी गई है चन्द्रवंशीय राजाओं के वर्णन के अवसर पर राजा पुरूरवा और उर्वशी का प्रख्यान से समानता रखता है (अ0 26) । नहुषययाति तथा यदु के वर्णन के पश्चात् विष्णु की अनेक स्तुतियाँ प्रस्तुत की गई हैं। जो एक प्रकार से कृष्ण के पूर्व दैवी इतिहास का परिचय देती हैं।


(ख) विष्णुपर्व -

  • यह समय ग्रन्थ का अतिशय विस्तृत तथा महनीय भाग है। इसमें कृष्णचन्द्र की विविध लीलाओं काविशेषत: बाललीलाओं का बड़ा ही सांगोपांग रूचिर विवरण है श्रीमद्भागवत के वर्णन से तुलना करने पर अनेक स्थल पर पार्थक्य दृष्टिगोचर होता है। कहीं-कहीं अन्य घटनायें भी दी गयी हैं। 

  • कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के जन्मशंबर द्वारा हरणसमुद्र से प्राप्ति तथा मायावती के साथ विवाह आदि प्रख्यात कथाओं का यहाँ उल्लेख हैपरन्तु असुरों के राजा वज्रनाभ की दुहिता प्रभावती के साथ प्रद्युम्न का विवाह और वह भी नितान्त नाटकीय ढंग से एकदम नूतन तथा पर्याप्तरूपेण रोचक है (150 अध्याय)। 

  • इसी प्रकार प्रख्यात रासलीला का हल्लीसक नृत्य के रूप में निर्देश किसी प्राचीन युग की स्मृति दिलाता है। इस पर्व के अन्त में अनिरूद्ध का विवाह बाणासुर की कन्या उषा के साथ बड़े उमंग और उत्साह से वर्णित है और इससे पूर्व 'हरि-हरात्मक स्तव' (अध्याय- 184) द्वारा शिव और विष्णु की एक ही अभिन्न देवता के रूप में सुन्दर स्तुति की गई है। इस पर्व में विषय की एकता और वर्णन की संगति से प्रतीत होता है कि प्राचीन युग में श्रीकृष्ण चरित काव्यके साथ यह अंश सम्बन्ध रखता हैपरन्तु तृतीय भाग के विषय में किसी एकता की कल्पना नहीं की जा सकती।

(ग) भाविष्यपर्व- 

  • यह भाग विविध वृत्तों का पौराणिक शैली में परस्पर असम्बद्ध संकलन है। इस पर्व का नामकरण प्रथम अध्याय के नाम पर हैजहाँ भविष्य में होने वाली घटनाओं का संकेत किया गया है। जनमेजय द्वारा विहित यज्ञों का वर्णन बड़े सुन्दर ढंग से किया गया है (अ) 191-196) । विष्णु के सूकरनृसिहं तथा वामन अवतारों के वर्णन के अनन्तर शिवपूजा तथा विष्णु पूजा के समन्वय की दिशा दिखाई गई है। शिव के दो उपासक हंस तथा डिम्भक की कथा विस्तार से हैजिन्हे कृष्ण ने पराजित किया था। महाभारत के माहात्म्य वर्णन के पश्चात् समग्र हरिवंश का ध्येय हरि की स्तुति में प्रदर्शित किया गया है-

आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते ।

हरिवंश का स्वरूप

एक ओर हरिवंश महाभारत का परिशिष्ट (खिल) माना जाता है और दूसरी ओर यह पुराणनाम से भी अभिहित होता है। इसके पोषक प्रमाणों की कमी नहीं है-

(1) महाभारत के आरम्भ में ग्रन्थ के समग्र पर्वो की संख्या एक सौ परिगणित है (आदि अ0 2) और इसके भीतर हरिवंश भी सम्मिलित किया गया है (आदि 2/82-83)। ध्यान देने की बात तो यह है कि हरिवंश 'खिलसंज्ञित पुराणकहा गया है। (हरिवंशसततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्)। फलत: व्यास की दृष्टि में खिल और पुराण दोनों साथ-साथ होने में कोई वैषम्य नहीं है।

( 2 ) हरिवंश के 20 वें अध्याय में 'यथा ते कथितं पूर्व मया राजर्षिसत्तमके द्वारा याति के चरित की महाभारत में पूर्व स्थिति का स्पष्ट निर्देश है (आदिपर्व अ0 81-88)

(3) हरिवंश के 32 वें अध्याय में अदृश्यवाणी का कथन 'त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तलाके द्वारा महाभारत में शकुन्तलोपाख्यान की ओर स्पष्ट संकेत है तथा 54 अध्याय में कणिक मुनि महाभारत में कणिक मुनि की पूर्व स्थिति बतलाता है (आदिपर्व अ0 140 ) 


(4) हरिवंश का उपक्रम तथा उपसंहार बतलाता है कि हरिवंश महाभारत का ही परस्पर सम्बद्ध खिल पर्व है। उपक्रमाध्याय में भारती कथा सुनने के बाद वृष्णि अन्धक चरित सुनने की इच्छा शौनक ने सौति से जो प्रकट की वह दोनों के सम सम्बन्ध का सूचक है। हरिवंश के 132 वें अध्याय में महाभारत के कथाश्रवण का फल हैजिस कथन की संगति हरिवंश के महाभारत के अन्तर्गत मानने पर ही बैठ सकती हैअन्यथा नहीं ।

(5) बहिरंग प्रमाणों में आनन्दवर्धन का यह कथन साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि महाभारत के अन्त में हरिवंश के वर्णन से समाप्ति करने वाले व्यासजी ने शान्तरस को ही ग्रन्थ का मुख्य रस व्यन्जना के द्वारा अभिव्यक्त किया है। '

फलत: हरिवंश महाभारत का 'खिलपर्व है। साथ ही साथ पञ्च लक्षण से समन्वित होने से यह 'पुराणनाम्ना भी अभिहित किया जाता हैपरन्तु न तो यह महापुराणों में अन्तर्भूत होता है और न उपपुराणों में दोनों से इसकी विशिष्टता पृथक् ही है।


गुजरात: द्वारका में 37000 अहीर महिलाओं के महारास ने रचा इतिहास अखिल भारतीय यादव समाज और अहिरानी महिला मंडल द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम विशाल नंदधाम परिसर में हुआ. सभा में न केवल भारत के विभिन्न हिस्सों से बल्कि दुनिया भर से प्रतिभागी शामिल थे. इस आयोजन में डेढ़ लाख से अधिक अहीर यादव समुदाय के सदस्यों ने भाग लिया.


गुजरात के द्वारका में 23-24 दिसंबर को आयोजित दो दिवसीय महा रास में 37,000 से अधिक महिलाएं एकत्र हुईं. पारंपरिक लाल पोशाक पहने महिलाओं ने भगवान कृष्ण की मूर्ति के चारों ओर घेरे में नृत्य किया. यह आयोजन बाणासुर की बेटी और भगवान कृष्ण की बहू उषा के रास की याद में आयोजित किया गया था.

महिलाओं को गीता पुस्तक के उपहार से सम्मानित किया गया
अखिल भारतीय यादव समाज और अहिरानी महिला मंडल द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम विशाल नंदधाम परिसर में हुआ. सभा में न केवल भारत के विभिन्न हिस्सों से बल्कि दुनिया भर से प्रतिभागी शामिल थे. इस आयोजन में डेढ़ लाख से अधिक अहीर यादव समुदाय के सदस्यों ने भाग लिया. प्रदर्शन के बाद, सभी 37,000 भाग लेने वाली महिलाओं को गीता पुस्तक के उपहार

अनुवाद" 

उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी  नरदेव ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्वारा # हल्लीसक- नृत्य का आयोजन किया।६८। सन्दर्भ:- हरिवंशपुराण-विष्णुपर्व /अध्याय-89/श्लोक-68 

"श्री कृष्ण और संकृष्ण( संकर्षण) दौंनो ही महापुरुष अपने युग के महान कृषि पद्धति के जन्मदाता थे। इनके छोटे भाई कृष्ण ने संगीत और कलाओं में महारत हासिल की और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार किया उस समय संगीत में स्वरों के स्वरग्राम (सरगम) के सन्धान के लिए वंशी -बाँस के वृक्ष से निर्माण कर कृष्ण ने बनायी और कृष्ण ने एक नवीन संगीत की सृष्टि की कृष्ण ने संगीत को जीवन का आधार और सृष्टि की आदि विद्या के रूप प्रतिपादित किया।'

आभीर जाति के नाम पर प्रचलित राग आभीर संगीत के क्षेत्र में अहीरों योगदान को परिलक्षित करता है। वेदों में ऋग्वेद के प्राचीन होने पर भी संगीत के वेद साम वेद को कृष्ण ने अपनी विभूति माना -

"वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव: ।         इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।१०/२२। श्रीमद्भगवद्गीता- मैं वेदोमें सामवेद हूँ ? देवों में वासव हूँ और  इन्द्रियों में संकल्पविकल्पात्मक मन हूँ। सब भूतों- प्राणियोंमें चेतना हूँ। कार्यकरणके समुदायरूप शरीरमें सदा प्रकाशित रहनेवाली जो चिन्तन वृत्ति है ? उसका नाम चेतना है।

वास्तव में रास का प्रारम्भिक रूप हल्लीषक नृत्य है। हल्लीषक - नृत्य का आधार हल और ईषा-(ईसा) की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही है।

वस्तव में उत्सव जीवन की भागदौड़ में एक विश्राम स्थल ( पड़ाव) हैं जहाँ जीवन की भाग दौड़ से थका हुआ व्यक्ति कुछ समय के लिए सब चिन्ता- दु:खों को भूलकर विश्राम करता है।

कृष्ण का जन्म गोप - आभीर जाति में हुआ जो सनातन काल से गोपालक रही है। गो चारण काल में ही इन गोपों की आवश्यकता ने पशुओं के चारे घास आदि के  के लिए और स्वयं अपने भोजन के लिए भी कृषि विधि को जन्म दिया ।


जहाँ पशुपालक- अपना पड़ाव डालते थे  
धीरे धीरे उनके ये पड़ाव स्थाई होने लगे और 
ग्रामसभ्यता कै जन्म हुआ। 

जबकि नगर सभ्यता व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक केन्द्र थे जिन्हे आज हम बाजारवाद कह सकते हैं। जहाँ वणिकों की बस्तियाँ होती थीं।


ग्रामीण जीवनका पालन करने वाले  गोपों की गोप ललनाऐं विशेष उत्सवों पर हल्लीसक नृत्य का आयोजन पुरुषों के सहयोग से करती थीं। और अनेक ऋतु सम्बन्धी रागों पर गीत गाती थीं। अहीरों ने संगीत को अनेक लौकिक अवदान दिये ।

मनुष्य जीवन पर्यन्त जिन व्यवहारों का नित्य. सम्पादन करता रहता है वह अपने उत्सवों में भी वही अभिनय समन्वित कर आनन्दित होता है। -

"ग्राम शब्द का मूल अर्थ - ग्रास या घास युक्त भूमि से है।

"यस्याश्वासः प्रदिशि यस्य गावो यस्य ग्रामा यस्य विश्वे रथासः।
यः सूर्यं य उषसं जजान यो अपां नेता स जनास इन्द्रः ॥७॥
ग्रसतेऽत्रेति ग्रामा = जहाँ ग्रास खाने के लिए मिले वह स्थान- ग्राम है। (ऋग्वेद २/१२/७)

(ग्रस्+ मन्)“ग्रसेरात्  उणादि मन् प्रत्यय।१।१४२। इतिमन्धातोराकारान्तादेशश्च।

हल्लीसक- शब्द पुराणों विशेषत: हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय( 89 )में  वर्णित है।

हल -विलेखे भ्वादिगणीय परस्मैपदीय सकर्म सेट् धातु से  हलति अहालीत् आदि क्रिया रूप बनते हैं। हलः हालः-  हल्यते कृष्यतेऽनेन  इति हल्+ घञर्थे करणे (क) । लाङ्गल ( हल) अमरः कोश। कृषि शब्दे २१९८ पृ० दृश्यम् ।

हल वह यन्त्र जिससे कृषि कार्य किया जाए-

और ईषा -हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठे (लाङ्गलदण्डे)वा हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड - हल और ईषा इन दोनों शब्दों से तद्धित शब्द बनता है। हल्लीषा- हल्लीषक

हल्लीषा- एक नृत्य जो हल और उसके ईषा ( दण्ड) के समानांतर दृश्य में आकृति बनाकर किया मण्डलाकार विधि से किया जाता था।

वैसे कृष्ण और संकर्षण शब्द कृषकों के विशेषण हैं। गोपों में जन्म लेने वाले ये दौंनों महानायक कृषि पद्धति के जनक भी थे कृषि करने के लिए हल तथा उस धान्य को पीट कर अन्न पृथक करने के लिए मूसल- का आविष्कार भी कृष्ण के बड़े भाई संकर्षण के द्वारा ही किया गया था। 

इनकी लोक संस्कृति में भी यही आविष्कार प्रदर्शित थे उनका सांस्कृतिक नृत्य हल्लीषम्- हल और ईषा की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही था ।

जिसे पुराणकारों ने श्रृँगार रस में डुबोकर रास के नाम से काव्यात्मक रूप में वर्णन किया है।संकर्षण कि हलधर विशेषण भी उनके कृषक होने का प्रमाण है।

हलधर= हलं धरति आयुधत्वं कृषिसाधनत्व वा धृ +अच् ।  बलराम  कृषक उदाहरण “उन्मूलिता हलधरेण पदावधतैः” उद्भटः ।

इन गोपों कि हल्लीषम् नृत्य (हल्लीश, हल्लीष)= 

नाट्यशास्त्र में वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के रूप में मान्य है।

विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। 

इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं  जिसे मंडल बाँधकर  जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं। साहित्यदर्पण(। ६ । ५५५ । )  में इसका लक्षण 

हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः। वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः। मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः॥

विशेष—पौराणिक परम्परा  इस क्रीड़ा का आरंभ कृष्ण द्वारा  कभी मार्गशीर्ष की पूर्णिमा  को तो कभी  कार्तिकी पूर्णिमा को आधी रात के समय को मानती है।

तब से गोप लोग यह क्रीड़ा करने लगे थे। पीछे से इस क्रीड़ा के साथ कई प्रकार के पूजन आदि मिल गए और यह मोक्षप्रद मानी जाने लगी। इस अर्थ में यह शब्द प्रायः स्त्रीलिंग जाता है। जैसे  हल्लीषा-

इसमें लास्य नृत्य ( स्त्री नृत्य) की प्रधानता ही होती है इसी लिए इसे रास्य( लास्य) भी कहा जने  लगा।

भारतीय संस्कृति में प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति होती थी। कृष्ण की रासलीला इसका प्रतीक है।

भक्तिकाव्य में रासलीला शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। दरअसल रास एक कलाविधा है।

प्रेम और आनंद की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण की उदात्त प्रेमलीलाओं का भावाभिनय ही रासलीला कहलाता है।

मूलतः यह एक नृत्य है जिसमें कृष्ण को केंद्र में रख गोपियां उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति मैं वृत्ताकार नर्तन करती हैं। 

अष्टछाप के भक्तकवियों नें प्रेमाभिव्यक्ति करने वाले अनेक रासगीतों की रचना की है।

रास में आध्यात्मिकता भी है जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति अनुराग व्यक्त होता है।

वे वृत्ताकार मंडल में प्रेमाभिव्यक्ति करती हैं। जिसे भविष्य पुराण  कारो ने हल्लीषम् अवश्य कहा-

रासक्रीड़ायाञ्च तल्लक्षणं यथा “पृथुं सुवृत्तं मसृणं वितस्तिमात्रोन्नतं कौ विनिखन्य शङ्कुकम् ।

आक्रम्य पद्भ्यामितरेतरन्तु हस्तैर्भ्रमोऽयं खलु रासगोष्ठी” हरिवंश पुराण टीका नीलकण्ठः शास्त्री।

संस्कृत में हल्लीषक का विश्लेषण-

एक विद्वान डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल मत है  कि हल्लीसं शब्द ़यूनानी इलिशियन- नृत्यों (इलीशियन मिस्ट्री डांस) से विकसित है। इसका विकास ईस्वी सन्  के आसपास माना जाता है। 

सन्दर्भ- हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन-पृष्ठ संख्या 33-

वास्तव में हल्लीषम् और इलिशियन दौंनो शब्द पृथक पृथक है।

विशेषण को तौर पर  एलिसियन शब्द एक आनंदमय स्थिति का वर्णन करता है, जैसा कि अधिकांश लोग हवाई छुट्टियों पर आनंद लेने की उम्मीद करते हैं। एलीसियन शब्द एलीसियन फील्ड्स नामक रमणीय यूनानी पौराणिक स्थान से आया है।  हालाँकि अब इस शब्द को अक्सर स्वर्ग के साथ समझा जाता है, ग्रीक एलीसियन फील्ड्स वासतव में  मृत्यु के बाद के जीवन में जाने के लिए एक स्वर्गीय विश्राम स्थल था।

 संभवतः इस अवधारणा की कल्पना मूल रूप से युद्ध के दौरान सैनिकों में वीरता को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी। 

आजकल, लोग किसी भी स्वर्गीय दृश्य का वर्णन करने के लिए एलिसियन का उपयोग करते हैं -

एलीसियन- 1590 के दशक, लैटिन एलीसियम से, ग्रीक एलीसियन (पेडियन) से "एलिसियन क्षेत्र", मृत्यु के बाद धन्य लोगों का निवास, जहां नायक और गुणी निवास करते हैं, जो अज्ञात मूल का है, शायद प्री-ग्रीक (एक गैर-आईई सब्सट्रेट भूमध्यसागरीय भाषा) से ). इसका उपयोग पूर्ण प्रसन्नता की स्थिति के लाक्षणिक रूप में भी किया जाता है।

    यह क्रिया, लैटिन के साथ (ludus)"एक खेल, खेलो, ये सम्बन्धित है।"  PIE आद्य भारोपीय  रूट -*leid-या*loid- से सम्बंधित है जिसका अर्थ"खेलना,"  मृगतृष्णा

    लैटिन (illusio) से ही  फ्रांसीसी में विकसित (illusion) भ्रम का वाचक है। 

    इस इल्युशन शब्द के मोह माया  जादू आदि अन्य अर्थ भी प्रचलित हैं। देखा जाय तो संस्कृत में भी 

      मध्यकाल में इसमें जो आध्यात्मिकता थी वह धीरे धीरे गायब होती गई और विशुद्ध मनोरंजन शैलियों वाली गिरावट इस भक्ति और अध्यात्म को अभिव्यक्त करनेवाली विशिष्ट विधा में भी समा गई। वैसे आज भी बृज की रास मण्डलियां प्रसिद्ध हैं।

      कथक से भी रास को जोड़ा जाता है किन्तु कथक की पहचान जहां एकल प्रस्तुति में मुखर होती है वहीं रास सामूहिक प्रस्तुति है। 

      अलबत्ता रास शैली का प्रयोग कथक और मणिपुरी जैसी शास्त्रीय नृत्यशैलियों में हुआ है। इसके अलावा गुजरात का जग प्रसिद्ध डांडिया नृत्य रास के नाम से ही जाना जाता है। रास का मुहावरेदार प्रयोग भी बोलचाल की भाषा में खूब होता है। रास रचाना यानी स्त्री-पुरुष में आपसी मेल-जोल बढ़ना। रास-रंग यानी ऐश्वर्य और आमोद-प्रमोद में लीन रहना।

      रास शब्द रास् धातु से आ रहा है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है।

      इससे बना है रासः जिसमें होहल्ला, किलोल सहित एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे। 

      इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है। कुछ कोशों में इसका अर्थ हास्यनाटक भी कहा गया है। 

      दरअसल रासलीला जब कला विधा में विकसित हो गई तो वह सिर्फ नृत्य न रहकर नृत्यनाटिका के रूप में सामने आई।

      इसलिए रासकम् को सिर्फ हास्यनाटक कहना उचित नहीं है। मूलतः रास् से बने रासकम् का ही रूप मध्यकालीन साहित्य की एक विधा रासक के रूप में सामने आया। 

      नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है।  रासलीला में हंसोड़पात्र भी आते हैं जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं।

      रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं।

      विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है। र औ ल एक ही वर्णक्रम में आते हैं।  लास्य का ही प्राकृत रूप रास्स होता है। 

       कतिपय विद्वानों का मानना है कि श्रीकृष्ण के समय रास शब्द प्रचलित नहीं था। वे नृत्य की परिपाटी और श्रीकृष्ण के कलाप्रेम को खारिज नहीं करते हैं। कृष्णचरित से कलाओं को अलग किया ही नहीं जा सकता। मुरलीमनोहर और गोप-गोपियों के मेल ने भारतीय संस्कृति को विविध कलाएं दी हैं। गुप्तकालीन रचना रास पंचाध्यायी से मण्डलाकार नृत्य के लिए रास शब्द का प्रचलन बढ़ा है। निश्चित ही रास ब्रज क्षेत्र का पारम्परिक लोकनृत्य रहा है। 

      lascivious  adj.)

      mid-15c., "lustful, inclined to lust," कामुक, वासना की ओर प्रवृत्त,"


      from Medieval Latin lasciviosus (used in a scolding sense by Isidore and other early Church writers),

      मध्यकालीन लैटिन लास्किविओसस से (इसिडोर और अन्य प्रारंभिक चर्च लेखकों द्वारा डांट के अर्थ में प्रयुक्त),

      from Latin lascivia "lewdness, playfulness, fun, frolicsomeness, jolity," from lascivus "lewd, playful, undesigned, frolicsome, wanton."


      लैटिन लास्किविया से "भद्दापन, चंचलता, मौज-मस्ती, उल्लास, उल्लास," लास्किवस से "भद्दा, चंचल, असंयमित, उल्लासपूर्ण, प्रचंड।"

      __________    

      This is from PIE *las-ko-, from the root *las- "to be eager, wanton, or unruly" यह PIE से है *लास-को-, मूल से *लास-"उत्सुक, प्रचंड, या अनियंत्रित होना"

      हल्लीशक महाभारत में वर्णित एक नृत्यशैली है। इसका एकमात्र विस्तृत वर्णन महाभारत के खिल्ल भाग हरिवंश (विष्णु पर्व, अध्याय 20) में मिलता है। 

      विद्वानों ने इसे रास का पूर्वज माना है साथ ही रासक्रीड़ा का पर्याय भी। आचार्य नीलकंठ ने टीका करते हुए लिखा है - 'हस्लीश क्रेडर्न एकस्य पुंसो बहुभि: स्त्रीभि: क्रीडन सैव रासकीड़'। (हरि. 2.20.36) 'हल्लीशक' का शाब्दिक अर्थ है - 'हल का ईषा- हत्था'।

      यह नृत्य स्त्रियों का है जिसमें एक ही पुरुष श्रीकृष्ण होता है। यह दो दो गोपिकाओं द्वारा मंडलाकार बना तथा श्रीकृष्ण को मध्य में रख संपादित किया जाता है। हरिवंश के अनुसार श्रीकृष्ण वंशी, अर्जुन मृदंग, तथा अन्य अप्सराएँ अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बजाते हैं।

      इसमें अभिनय के लिए रंभा, हेमा, मिश्रकेशी, तिलोत्तमा, मेनका, आदि अप्सराएँ प्रस्तुत होती हैं। सामूहिक नृत्य, सहगान आदि से मंडित यह कोमल नृत्य श्रीकृष्णलीलाओं के गान से पूर्णता पाता है। इसका वर्णन अन्य किसी पुराण में नहीं आता। 

      भासकृत बालचरित्‌ में हल्लीशक का उल्लेख है।अन्यत्र संकेत नहीं मिलता।

      शूरसेन या मथुरा मंडल जिसमें श्रीकृष्ण के लीला स्थल विशेष रुप से सम्मिलित है, भक्तिकाल में ब्रज प्रदेश के रुप में प्रसिद्ध हुआ। पुराणकाल में यह क्षेत्र मथुरा मंडल तथा विभिन्न ग्रंथों में शूरसेन जनपद के रुप में विख्यात रहा था। वर्तमान ब्रज क्षेत्र पर यदि ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए तो यह क्षेत्र भी कभी एक सुरम्य वन प्रदेश था, जहाँ प्रमुख रुप से आभीर निवास करते थे। मथुरा राज्य के आदि संस्थापक मधु ने हरिवंश पुराण में स्वयं कहा है कि मेरे राज्य में चारों ओर आभीरों की बस्ती है।

      इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि आभीर जाति देव संस्कृति के अनुयायियों से इतर थी और उनकी संस्कृति बहुत समृद्ध थी तथा देव संस्कृति  से उसमें काफी असमानता थी। आभीरों में स्त्री-स्वातंत्र्य देवसंसकृति   की अपेक्षा अधिक था, वे नृत्य-गान में परम प्रवीण और केशो की दो वेणी धारण करने वाली थीं। 'हल्लीश' या 'हल्लीसक नृत्य' इन आभीरों की सामाजिक नृत्य था, जिसमें आभीर नारियाँ अपनी रुचि के किसी भी गोप पुरुष के साथ समूह बनाकर मंडलाकार नाचती थीं।  हरिवंश पुराण के हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय में उल्लेख है- कृष्ण की इंद्र पर विजय के उपरांत आभीर रमणियों ने उनके साथ नृत्य करने का प्रस्ताव किया। भाई या पति व अन्य आभीरों के रोकने पर भी वे नहीं रुकीं और कृष्ण को खोजने लगीं-

        - हरिवंश, हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय, श्लोक २४

        आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था। नृत्य का स्वरुप स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्र का टीका में अभिनव गुप्त ने कहा है-

        मण्डले च यत स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकंतु तत्। नेता तत्र भवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।।

        इसी नृत्य को श्री कृष्ण ने अपनी कला से सजाया तब वह रास के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण 'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं।

         द्वारका के राज दरबार में प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त द्वारका आकर उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रुप से जोड़ा व इसे स्री-समाज को सिखाया और देश देशांतरों में इसे लोकप्रिय बनाया। सारंगदेव ने अपने 'संगीत-रत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। वह लिखते है-

        पार्वतीत्वनु शास्रिस्म, लास्यं वाणात्मामुवाम्। तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।।७।। तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:। एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्।।८।।

        इस प्रकार रास की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली। जैन धर्म में रास की विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा, क्योंकि जैनियों के २३वे तीर्थकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही आभीर यदुवंशी थे। उन्हें प्रसन्न करने का रास किया जा सकता है

        आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था परन्तु कामुकता नही थी । 

        ब्रज का रास भारत के प्राचीनतम नृत्यों में अग्रगण्य है। अत: भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्र में रास को रासक नाम से उप-रुपकों में रखकर इसके तीन रुपों का उल्लेख किया है-

        १- मंडल रासक, २-ताल रासक,३- दंडक रासक या लकुट रासक। 

        देश में आज जितने भी नृत्य रुप विद्यमान हैं, उन परत्र रास का प्रभाव किसी-न-किसी रुप में पड़ा है।

         गुजरात का 'गरबा', राजस्थान का 'डांडिया' आदि नृत्य, मणिपुर का रास-नृत्य तथा संत ज्ञानदेव के द्वारा स्थापित 'अंकिया नाट' तो पूरी तरह रास से ही प्रभावित नृत्य व नाट्य रुप है।


        यह हल्लीसक एक प्रकार का वादन – गान के साथ लोकनृत्य था । यही रास का प्रारम्भिक रूप था । छालिक्य एक समूह गीत था , जिसके अन्तर्गत विभिन्न वाद्यों का वादन एवं नृत्य होता था । विष्णु पर्व के अनुसार इसको विभिन्न ग्रामरागों के अन्तर्गत विविध स्थान तथा मूर्च्छनाओं के साथ गाया जाता था ।

         यह गान शैली अत्यन्त कठिन थी ।


        "आधुनिक विद्वानों का मत हैं, 'रास' शब्द कृष्ण-काल में प्रचलित नहीं था ; उसका प्रचलन बहुत बाद में हुआ। 'रास' शब्द के सर्वाधिक प्रचार का श्रेय श्रीमद्भागवत की 'रास-पंचाध्यायी' को है, जिसकी रचना गुप्त काल से पहिले की नहीं मानी जाती है। 

        कुछ विद्वान 'रास' का पूर्व रूप 'हल्लीसक' मानते है। 'रास' और 'हल्लीसक' पृथक्-पृथक् परंपराएँ थी। जो बाद में एक-दूसरे से संबंद्ध हो गई थीं। 

        इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य-नाट्य का आरंभिक नाम 'हल्लीसक'  था। उसके लिए सदा से 'रास' शब्द ही लोक में प्रचलित नहीं रहा है। ऐसा ज्ञात होता है 'रास' की पहिले मौखिक परंपरा थी, जो प्रचुर काल तक विद्यमान रही थी। उसी मौखिक और लोक प्रचलित शब्द को 'भागवत' कार ने साहित्य में अमर-कर दिया था।

        कृष्णोत्तर काल से मौर्य-पूर्व काल तक की स्थिति

        विषय सूची

        १नृत्य एवं नाट्य कलाएँ / Dance and Drama

        २कृष्णोत्तर काल से मौर्य-पूर्व काल तक की स्थिति

        ३नृत्यनाट्य का महान ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र'

        ४नाट्य मंडप

        श्रीकृष्ण द्वारा प्रचलित तथाकथित 'रास' आरंभ में ब्रज का एक लोक-नृत्य अथवा लोक नृत्य-नाट्य था, जो पुरातन ब्रजवासियों के मनोविनोद का साधन था। जब कृष्णोपासना का प्रचार हुआ, तब 'रास' को भी धार्मिक महत्व प्राप्त हो गया था।

         उस समय लोक के साथ धर्म के क्षेत्र में भी रास का प्रवेश हो गया था। कृष्णोपासक भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मो ने 'रास' की धार्मिक महत्व को स्वीकार किया था, और श्रीमद्भागवत ने उसके गौरव को बढ़ाया था।

        प्राचीन ब्रज में बुद्ध एवं महावीर द्वारा प्रवर्तित बौद्ध तथा जैन धर्मो का प्रचार हुआ, तब भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मों का प्रभाव कुछ कम हो गया था। 

        फलत: कृष्णोपासना तथा 'रास' के धार्मिक महत्व में भी कमी आ गई थी। उसका एक बड़ा कारण यह था कि बौद्ध और जैन धर्म वैराग्य एंव निवृत्ति प्रधान थे; जिनकी धार्मिक मान्यता में कृष्णोपासना एवं 'रास' के लिए कोई समुचित स्थान नहीं था। 

        बौद्ध-जैन धर्मों को कुछ समय पश्चात ही अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना पड़ा था। तब उनके द्वारा नृत्य-नाट्य के धार्मिक स्वरूप को प्रश्रय प्रदान किया गया। उस परिवर्तन का प्रभाव प्राचीन ब्रज में दिखलाई देने लगा था। फलत: पौराणिक हिंदू धर्मों के मंदिर-देवालयों की भाँति बौद्ध-जैन धर्मो के उपासनालयों एवं पूजा-गृहों में भी नृत्य-नाट्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। इसका प्रमाण तत्कालीन साहित्यिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक उल्लेखों और स्थापत्य की कलाकृतियों में मिलता है। जहाँ तक 'रास' का संबंध हैं, उसकी स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ कलाकृतियों में उसके रूप का आभास होता है।

        नृत्य अहीरों में पहले से  रहा है। उर्वशी का नाम एक खूबसूरत नर्तकी के रूप में लिया जाता था और उस युग में नर्तकियों को अप्सरा कहा जाता था। । पुरुरवा और उर्वशी नाम इतिहास में शामिल करते समय इन दोनों के माता पिताओं का नाम अहीर जाति से सम्बन्धित है।,

        तथा उर्वशी भगवान  कृष्ण की विभूति हैं।  पुरुरवा गोप और उर्वशी अहीर का नाम इतिहास में जुड़ा तो बहुत बड़ी महाक्रान्ति होगी।

        जितने अपने को चन्द्र वंशी ,सोमवंशी यदुवंशी कुरुवंशी राजपूत क्षत्रिय कहते हैं। वह सब अहीरों से सम्बन्धित शाखाएं हैं। 

        यादवों का प्राचीन काल से ही गायन वादन और नृत्य अर्थात संगीत विधा पर पूर्ण स्वामित्व रहा है।

        "हल्लिशम नृत्य और आभीर राग अहीरों की मौलिक संगीत सर्जना का प्रमाण है।

        भगवान कृष्ण का  जन्म व बाल्यकाल आभीर जाति में हुआ था। आभीरों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति थी, जिसमें पूर्ण नारी- स्वातंत्रय तो था ही, साथ ही वे राग- रंग के भी बड़े प्रेमी थे। उनका लोकनृत्य हल्लीश या हल्लीसक सर्वविख्यात रहा है, जिसका वर्णन अनेक लक्षण ग्रंथों में भी मिल जाता है --

        "मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् । तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६।

        सरस्वतीकण्ठाभरणम्  /परिच्छेदः (२)सरस्वतीकण्ठाभरणम्

        परिच्छेदः २

                       भोजराजः

        यदाङ्गिकैकनिर्वर्त्यमुज्झितं वाचिकादिभिः ।नर्तकैरभिधीयेत प्रेक्षणाक्ष्वेडिकादि तत्।२.१४२।

        तल्लास्यं ताण्डवं चैव छलिकं संपया सह ।हल्लीसकं च रासं च षट्‌प्रकारं प्रचक्षते ।२.१४३।

        ____________________

        मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् ।तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६ ।। (२.१४४)

        अर्थ-

        मण्डल ( घेरा) में जो गोपस्त्रीयों का नृत्य होता है वह हल्लीसक  कहलाता है ।उसमें एक गोप सभी गोप- स्त्रीयों का नेतृत्व करने वाला होता है जैसे भगवान कृष्ण होते हैं ।


        "अङ्गवाक्सत्वजाहार्यः सामान्यश्चित्र इत्यमी ।       षट् चित्राभिनयास्तद्वदभिनेयं वचो विदुः ।। २.१५७ ।। (२.१४५)


        चतस्त्रो विंशतिश्चैताः शब्दालङ्कारजातयः ।शब्दसन्दर्भमात्रेण हृदयं हर्तुमीशते ।। २.१५८ ।। (२.१४६)

        ____________________

        इति श्रीराजाधिराज भोजदेवेन विरचिते सरस्वतीकण्ठाभरण नाम्नि अलङ्कारशास्त्रेऽलङ्कारनिरूपणं नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।

        नाट्यशास्त्र में भी वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के सन्दर्भ में हल्लीसक नृत्य या विवेचन है ।

        विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। 

        इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं। 

        यह गोप संस्कृति का प्राचीन नृत्य है जो उत्सव विशेष पर किया जाता था।

        मंडल बाँधकर होनेवाला एक प्रकार का नाच जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।

        इसी को नीमान्तरण से लास्य: तो कहीं रास्य या रास भी कहा जाने लगा।


        यह हल्लीसक नृत्य एक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें नायिका अनेक किंतु नायक एक ही होता था। इस नृत्य के लिए आभीर स्त्रियाँ उस पराक्रमी पुरुष को अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित करती थीं, तो अतुलित पराक्रम प्रदर्शित करता था। हरिवंश पुराण के अनुसार आभीर नारियों ने श्री कृष्ण को इस नृत्य के लिए उस समय आमंत्रित किया था, जब इंद्र- विजय के उपरांत वह महापराक्रमी वीर पुरुष के रुप में प्रतिष्ठित हुए थे।

        इन्द्र- विजय के उपरान्त आभीर नारियों के साथ श्री कृष्ण के इस नृत्य का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के हल्लीसक क्रीड़न अध्याय में हुआ है। 

        इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।

        भगवान कृष्ण के द्वारकाधीश चले जाने पर यह नृत्य कृष्णकाल में द्वारका के यदुवंशियों 

        का राष्ट्रीय नृत्य बन गया था। इस नृत्योत्सव का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के "छालिक्य संगीत' अध्याय में उपलब्ध है। शारदातनय का कथन है कि द्वारका में रास के विकास में श्री कृष्ण की पौत्रवधू अनिरुद्ध- पत्नी उषा का बड़ा योगदान था, जो स्वयं नृत्य में पारंगत थी। यह पार्वतीजी की शिष्या थी, जिसने उनसे लास्य- नृत्य की शिक्षा ग्रहण की थी। उसने द्वारका के नारी- समाज को विशेष रुप से रास- नृत्य मं प्रशिक्षित किया था। 


        द्वारका पहुँचने पर यह रास- नृत्य नाटिकाओं का रुप ले चुका था। जिसमें श्री कृष्ण व बलराम की जीवन की प्रमुख घटनाओं का प्रदर्शन होता था।


        भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्र में लोकधर्मी उपरुपकों के अंतर्गत रास के "रासक' और "नाट्य रासक' दो रुपों का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि उस काल में रास के दो रुप अलग- अलग विकसित हो गए थे। "नाट्य रासक' जहाँ नाट्योन्मुख नृत्य- संगीत का प्रतिनिधि था, वहाँ इसका शुद्ध नृत्य रुप "रासक' था। "रासक' के भरतमुनि ने भेद किए हैं --

        १. मण्डल रासक 

        २. लकुट रासक तथा 

        ३. ताल रासक। 

        मण्डलाकार नृत्य मंडल रासक, हाथों से दंडा बजाकर नृत्य करना लकुट रासक या दंड रासक और हाथों से ताल देकर समूह में नृत्य करना संभवतः ताल रासक था। यह रासक परंपरा बाद में विभिन्न रुपों में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों में विकसित हुई ( जिसका परिचय यहाँ देना संभव नहीं है ) बाद में जैन धर्म में ही रासक परम्परा बाद बहुत लोकप्रिय हुई, क्योंकि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमिनाथजी को जैन धर्म ने अपना २३ वाँ तीर्थंकर स्वीकार कर लिया था। जिन्हें प्रसन्न करने के लिए जैन मंदिरों में भी रास उपासना का अंग बन गया। 

        कहने का तात्पर्य यह है कि कृष्णकाल से प्रारम्भ होकर रास की प्राचीन परम्परा विभिन्न उतार- चढ़ावों के मध्य १५ वीं शताब्दी के अन्त तक या १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक आभीर जाति में रही , जबकि वर्तमान रास का पुनर्गठन हुआ, निरन्तर किसी न किसी रुप में विद्यमान रही और उसी के वर्तमान रास- मञ्च उद्भूत हुआ। 

        इस प्रकार रास भारत का वह मंच है जो कृष्णकाल से आज तक निरंतर जीवित- जाग्रत रहा है।

        भारत में दूसरा कोई ऐसा मंच नहीं जो इतना दीर्घजीवी हुआ हो। इसी के रास की लोकप्रियता और महत्ता स्पष्ट है।

        अहीर भैरव एक लोकप्रिय राग है जिसमें कोमल ऋषभ और कोमल निषाद के स्वरों का संयोजन होता है। 

          (हरिवंशपुराण विष्णु पर्व-अध्याय-89)  →

        बलरामश्रीकृष्णादीनां यादवानां जलक्रीडा एवं गानादिकानां वर्णनम्-एकोननवतितमोऽध्यायः

                       "वैशम्पायन उवाच रेमे बलश्चन्दनपङ्कदिग्धः कादम्बरीपानकलः पृथुश्रीः। रक्तेक्षणो रेवतिमाश्रयित्वा प्रलम्बबाहुर्ललितप्रयातः ।।१।।

        नीलाम्बुदाभे वसने वसानश्चन्द्रांशुगौरो मदिराविलाक्षः । रराज रामोऽम्बुदमध्यमेत्य सम्पूर्णबिम्बो भगवानिवेन्दुः ।। २ ।। वामैककर्णामलकुण्डलश्रीः स्मेरं मनोज्ञाब्जकृतावतंसः । तिर्यक्कटाक्षं प्रियया मुमोद रामः सुखं चार्वभिवीक्ष्यमाणः ।। ३ ।। अथाज्ञया कंसनिकुम्भशत्रोरुदाररूपोऽप्सरसां गणः सः । द्रष्टुं मुदा रेवतिमाजगाम वेलालयं स्वर्गसमानमृद्ध्या ।। ४ ।। तां रेवतीं चाप्यथ वापि रामं सर्वा नमस्कृत्य वराङ्गयष्ट्यः । वाद्यानुरूपं ननृतुः सुगात्र्यः समन्ततोऽन्या जगिरे च सम्यक्।। ५ ।। चकुस्तथैवाभिनयेन रङ्गं यथावदेषां प्रियमर्थयुक्तम् । हद्यानुकूलं च बलस्य तस्य तथाज्ञया रेवतराजपुत्र्याः ।। ६ ।। चक्रुर्हसन्त्यश्च तथैव रासं तद्देशभाषाकृतिवेषयुक्ताः । सहस्ततालं ललितं सलीलं वराङ्गना मङ्गलसम्भृताङ्ग्यः ।। ७ ।। संकर्षणाधोक्षजनन्दनानि संकीर्तयन्त्योऽथ च मङ्गलानि । कंसप्रलम्बादिवधं च रम्यं चाणूरघातं च तथैव रङ्गे ।। ८ ।। यशोदया च प्रथितं यशोऽथ दामोदरत्वं च जनार्दनस्य । वधं तथारिष्टकधेनुकाभ्यां व्रजे च वासं शकुनीवधं च ।। ९ तथा च भग्नौ यमलार्जुनौ तौ सृष्टिं वृकाणामपि वत्सयुक्ताम् । स कालियो नागपतिर्ह्रदे च कृष्णेन दान्तश्च यथा दुरात्मा ।। 2.89.१० ।। शङ्खहृदादुद्धरणं च वीर पद्मोत्पलानां मधुसूदनेन । गोवर्द्धनोऽर्थे च गवां धृतोऽभूद् यथा च कृष्णेन जनार्दनेन ।। ११ ।। कुब्जां यथा गन्धकपीषिकां च कुब्जत्वहीनां कृतवांश्च कृष्णः । अवामनं वामनकं च चक्रे कृष्णो यथाऽऽत्मानमजोऽप्यनिन्द्यः।।१२। सौभप्रमाथं च हलायुधत्वं वधं मुरस्याप्यथ देवशत्रोः । गान्धारकन्यावहने नृपाणां रथे तथा योजनमूर्जितानाम् ।। १३ । ततः सुभद्राहरणे जयं च युद्धे च बालाहकजम्बुमाले । रत्नप्रवेकं च युधाजितैर्यत् समाहृतं शक्रसमक्षमासीत् ।।१४।। एतानि चान्यानि च चारुरूपा जगुः स्त्रियः प्रीतिकराणि राजन् । सङ्कर्षणाधोक्षजहर्षणानि चित्राणि चानेककथाश्रयाणि ।। १५ ।। कादम्बरीपानमदोत्कटस्तु बलः पृथुश्रीः स चुकूर्द रामः । सहस्ततालं मधुरं समं च स भार्यया रेवतराजपुत्र्या ।। १६ ।। तं कूर्दमानं मधुसूदनश्च दृष्ट्वा महात्मा च मुदान्वितोऽभूत्। चुकूर्द सत्यासहितो महात्मा हर्षागमार्थं च बलस्य धीमान् ।। १७ ।। समुद्रयात्रार्थमथागतश्च चुकूर्द पार्थो नरलोकवीरा । कृष्णेन सार्द्धं मुदितश्चुकूर्द सुभद्रया चैव वराङ्गयष्ट्या ।। १८ ।। गदश्च धीमानथ सारणश्च प्रद्युम्नसाम्बौ नृप सात्यकिश्च । सात्राजितीसूनुरुदारवीर्यः सुचारुदेष्णश्च सुचारुरूपः ।। १९ ।। वीरौ कुमारौ निशठोल्मुकौ च रामात्मजौ वीरतमौ चुकूर्दतुः । अक्रूरसेनापतिशंकवश्च तथापरे भैमकुलप्रधानाः ।। 2.89.२० ।। तद् यानपात्रं ववृधे तदानीं कृष्णप्रभावेण जनेन्द्रपुत्र । आपूर्णमापूर्णमुदारकीर्ते चुकूर्दयद्भिर्नप भैममुख्यैः ।। २१ ।।। तै राससक्तैरतिकूर्दमानैर्यदुप्रवीरैरमरप्रकाशैः । हर्षान्वितं वीर जगत् तथाभूच्छेमुश्च पापानि जनेन्द्रसूनो ।। २२ ।। देवातिथिस्तत्र च नारदोऽथ विप्रः प्रियार्थं मुरकेशिशत्रोः । चुकूर्द मध्ये यदुसत्तमानां जटाकलापागलितैकदेशः ।। २३ ।। रासप्रणेता मुनि राजपुत्र स एव तत्राभवदप्रमेयः । मध्ये च गत्वा च चुकूर्द भूयो हेलाविकारैः सविडम्बिताङ्गैः ।।२४ ।। स सत्यभामामथ केशवं च पार्थं सुभद्रां च बलं च देवम् । देवीं तथा रेवतराजपुत्रीं संदृश्य संदृश्य जहास धीमान् ।।२५ ।। ता हासयामास सुधैर्ययुक्तास्तैस्तैरुपायैः परिहासशीलः । चेष्टानुकारैर्हसितानुकारैर्लीलानुकारैरपरैश्च धीमान् । २६ ।। आभाषितं किंचिदिवोपलक्ष्य नादातिनादान् भगवान् मुमोच । हसन् विहासांश्च जहास हर्षाद्धास्यागमे कृष्णविनोदनार्थम् ।। २७ । कृष्णाज्ञया सातिशयानि तत्र यथानुरूपाणि ददुर्युवत्यः । रत्नानि वस्त्राणि च रूपवन्ति जगत्प्रधानानि नृदेवसूनो ।। २८ ।। माल्यानि च स्वर्गसमुद्भवानि संतानदामान्यतिमुक्तकानि । सर्वर्तुकान्यप्यनयंस्तदानीं ददुर्ह रेरिङ्गितकालतज्ज्ञाः ।।२९।। रासावसाने त्वथ गृह्य हस्ते महामुनिं नारदमप्रमेयः । पपात कृष्णो भगवान् समुद्रे सात्राजितीं चार्जुनमेव चाथ ।। 2.89.३० ।। उवाच चामेयपराक्रमोऽथ शैनेयमीषत्प्रहसन् पृथुश्रीः । द्विधा कृतास्मिन् पतताशु भूत्वा क्रीडाजलेनोऽस्तु सहाङ्गनाभिः ।।३१।। सरेवतीकोऽस्तु बलोऽर्द्धनेता पुत्रा मदीयाश्च सहार्द्धभैमाः । भैमार्द्धमेवाथ बलात्मजाश्च मत्पक्षिणः सन्तु समुद्रतोये ।।३२।। आज्ञापयामास ततः समुद्रं कृष्णः स्मितं प्राञ्जलिनं प्रतीतः । सुगन्धतोयो भव मृष्टतोयस्तथा भव ग्राहविवर्जितश्च ।। ३३ ।। दृश्या च ते रत्नविभूषिता तु सा वेलिका भूरथ पत्सुखा च । मनोऽनुकूलं च जनस्य तत्तत् प्रयच्छ विज्ञास्यसि मत्प्रभावात्।।३४।। भवस्यपेयोऽप्यथ चेष्टपेयो जनस्य सर्वस्य मनोऽनुकूलः । वैडूर्यमुक्तामणिहेमचित्रा भवन्तु मत्स्यास्त्वयि सौम्यरूपाः ।। ३५ ।। बिभृस्व च त्वं कमलोत्पलानि सुगन्धसुस्पर्शरसक्षमाणि । षट्पादजुष्टानि मनोहराणि कीलालवर्णैश्च समन्वितानि ।। ३६ ।। मैरेयमाध्वीकसुरासवानां कुम्भांश्च पूर्णान् स्थपयस्व तोये । जाम्बूनदं पाननिमित्तमेषां पात्रं पपुर्येषु ददस्व भैमाः ।। ३७ ।। पुष्पोच्चयैर्वासितशीततोयो भवाप्रमत्तः खलु तोयराशे । यथा व्यलीकं न भवेद् यदूनां सस्त्रीजनानां कुरु तत्प्रयत्नम् ।। ३८।। इतीदमुक्त्वा भगवान् समुद्रं ततः प्रचिक्रीड सहार्जुनेन । सिषेच पूर्वं नृप नारदं तु सात्राजिती कृष्णमुखेङ्गितज्ञा ।। ३९ ।। ततो मदावर्जितचारुदेहः पपात रामः सलिले सलीलम् । साकारमालम्ब्य करं करेण मनोहरां रेवतराजपुत्रीम् ।। 2.89.४० ।। कृष्णात्मजा ये त्वथ भैममुख्या रामस्य पश्चात् पतिताः समुद्रे । विरागवस्त्राभरणाः प्रहृष्टाः क्रीडाभिरामा मदिराविलाक्षाः ।। ४१ ।। शेषास्तु भैमा हरिमभ्युपेताः क्रीडाभिरामा निशठोल्मुकाद्याः । विचित्रवस्त्राभरणाश्च मत्ताः संतानमाल्यावृतकण्ठदेशाः ।। ४२ ।। वीर्योपपन्नाः कृतचारुचिह्ना विलिप्तगात्रा स्नलपात्रहस्ताः । गीतानि तद्वेषमनोहराणि स्वरोपपन्नान्यथ गायमानाः ।।४३ ।। ततः प्रचक्रुर्जलवादितानि नानास्वराणि प्रियवाद्यघोषाः । सहाप्सरोभिस्त्रिदिवालयाभिः कृष्णाज्ञया वेशवधूशतानि ।। ४४ ।। आकाशगङ्गाजलवादनज्ञाः सदा युवत्यो मदनैकचित्ताः । अवादयंस्ता जलदर्दुरांश्च वाद्यानुरूपं जगिरे च हृष्टाः ।। ४५ ।। कुशेशयाकोशविशालनेत्राः कुशेशयापीडविभूषिताश्च । कुशेशयानां रविबोधितानां जह्रुः श्रियं ताः सुरचारुमुख्यः ।। ४६ । स्त्रीवक्त्रचन्द्रैः सकलेन्दुकल्पै रराज राजञ्छतशः समुद्रः । यदृच्छया दैवविधानतो वा नभो यथा चन्द्रसहस्रकीर्णम् ।। ४७ ।। समुद्रमेघः स रराज राजञ्च्छतह्रदास्त्रीप्रभयाभिरामः । सौदामिनीभिन्न इवाम्बुनाथो देदीप्यमानो नभसीव मेघः ।। ४८ ।। नारायणश्चैव सनारदश्च सिषेच पक्षे कृतचारुचिह्नः । बलं सपक्षं कृतचारुचिह्नं स चैव पक्षं मधुसूदनस्य ।। ४९।। हस्तप्रमुक्तैर्जलयन्त्रकैश्च प्रहृष्टरूपाः सिषिचुस्तदानीम् । रागोद्धता वारुणिपानमत्ताः संकर्षणाधोक्षजदेवपत्न्यः ।। 2.89.५० ।। आरक्तनेत्रा जलमुक्तिसक्ताः स्त्रीणां समक्षं पुरुषायमाणाः । ते नोपरेमुः सुचिरं च भैमा मानं वहन्तो मदनं मदं च ।। ५१ ।। अतिप्रसङ्गं तु विचिन्त्य कृष्णस्तान् वारयामास रथाङ्गपाणिः । स्वयं निवृत्तो जलवाद्यशब्दैः सनारदः पार्थसहायवांश्च ।। ५२ ।। कृष्णेङ्गितज्ञा जलयुद्धसङ्गाद् भैमा निवृत्ता दृढमानिनोऽपि । नित्यं तथाऽऽनन्दकराः प्रियाणां प्रियाश्च तेषां ननृतुः प्रतीताः ।। ५३ ।। नृत्यावसाने भगवानुपेन्द्रस्तत्याज धीमानथ तोयसङ्गान् । उत्तीर्य तोयादनुकूललेपं जग्राह दत्त्वा मुनिसत्तमाय ।। ५४ । उपेन्द्रमुत्तीर्णमथाशु दृष्ट्वा भैमा हि ते तत्यजुरेव तोयम् । विविक्तगात्रास्त्वथ पानभूमिं कृष्णाज्ञया ते ययुरप्रमेयाः ।। ५५ ।। यथानुपूर्व्या च यथावयश्च यत्सन्नियोगाश्च तदोपविष्टाः । अन्नानि वीरा बुभुजुः प्रतीताः पपुश्च पेयानि यथानुकूलम् ।। ५६ ।। मांसानि पक्वानि फलाम्लकानि चुक्रोत्तरेणाथ च दाडिमेन । निष्टप्तशूलाञ्छकलान् पशूंश्च तत्रोपजह्रुः शुचयोऽथ सूदाः ।। ५७ । सुस्विन्नशूल्यान्महिषांश्च बालाञ्छूल्यान्सुनिष्टप्तघृतावसिक्तान्। वृक्षाम्लसौवर्चलचुक्रपूर्णान् पौरोगवोक्त्या उपजह्रुरेषाम् ।। ५८ पौरोगवोक्त्या विधिना मृगाणां मांसानि सिद्धानि च पीवराणि । नानाप्रकाराण्युपजह्रुरेषां मृष्टानि पक्वानि च चुक्रचूतैः ।। ५९ ।। पार्श्वानि चान्ये शकलानि तत्र ददुः पशूनां घृतमृक्षितानि । सामुद्रचूर्णैरवचूर्णितानि चूर्णेन मृष्टेन समारिचेन ।। 2.89.६०।। समूलकैर्दाडिममातुलिङ्गैः पर्णासहिङ्ग्वार्द्रकभूस्तृणैश्च । तदोपदंशैः सुमुखोत्तरैस्ते पानानि हृष्टाः पपुरप्रमेयाः ।। ६१ । कट्वाङ्कशूलैरपि पक्षिभिश्च घृताम्लसौवर्चलतैलसिक्तैः । मैरेयमाध्वीकसुरासवांस्ते पपुः प्रियाभिः परिवार्यमाणाः ।। ६२ ।। श्वेतेन युक्तानपि शोणितेन भक्ष्यान्सुगन्धांल्लवणान्वितांश्च। आर्द्रान्किलादान् घृतपूर्णकांश्च नानाप्रकारानपि खण्डखाद्यान् ।। ६३ ।। अपानपाश्चोद्धवभोजमिश्राः शाकैश्च सूपैश्च बहुप्रकारैः । पेयैश्च दघ्ना पयसा च वीराः स्वन्नानि राजन् बुभुजुः प्रहृष्टाः ।। ६४ ।। तथारनालांश्च बहुप्रकारान् पपुः सुगन्धानपि पालवीषु । शृतं पयः शर्करया च युक्तं फलप्रकारांश्च बहूंश्च खादन् ।। ६५ ।। तृप्ताः प्रवृत्ताः पुनरेव वीरास्ते भैममुख्या वनितासहायाः । गीतानि रम्याणि जगुः प्रहृष्टाः कान्ताभिनीतानि मनोहराणि ।। ६६ ।। आज्ञापयामास ततः स तस्यां निशि प्रहृष्टो भगवानुपेन्द्रः । छालिक्यगेयं बहुसंनिधानं यदेव गान्धर्वमुदाहरन्ति ।। ६७ ।। जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम् । हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः ।। ६८।। मृदङ्गवाद्यानपरांश्च वाद्यान् वराप्सरस्ता जगृहुः प्रतीताः । आसारितान्तं च ततः प्रतीता रम्भोत्थिता साभिनयार्थतज्ज्ञा ।। ६९ ।। तयाभिनीते वरगात्रयष्ट्या तुतोष रामश्च जनार्दनश्च । अथोर्वशी चारुविशालनेत्रा हेमा च राजन्नथ मिश्रकेशी ।। 2.89.७०।। तिलोत्तमा चाप्यथ मेनका च एतास्तथान्याश्च हरिप्रियार्थम् । जगुस्तथैवाभिनयं च चक्रु रिष्टैश्च कामैर्मनसोऽनुकूलैः ।। ७१ ।। ता वासुदेवेऽप्यनुरक्तचित्ताः स्वगीतनृत्याभिनयैरुदारैः । नरेन्द्रसूनो परितोषितेन ताम्बूलयोगाश्च वराप्सरोभिः ।। ७२ ।। तदागताभिर्नृवराहृतास्तु कृष्णेप्सया मानमयास्तथैव । फलानि गन्धोत्तमवन्ति वीराश्छालिक्यगान्धर्वमथाहृतं च ।। ७३ ।। कृष्णेच्छया च त्रिदिवान्नृदेव अनुग्रहार्थं भुवि मानुषाणाम् । स्थितं च रम्यं हरितेजसेव प्रयोजयामास स रौक्मिणेयः ।। ७४ ।। छालिक्यगान्धर्वमुदारबुद्धिस्तेनैव ताम्बूलमथ प्रयुक्तम् । प्रयोजितं पञ्चभिरिन्द्रतुल्यैश्छालिक्यमिष्टं सततं नराणाम् ।। ७५ ।। शुभावहं वृद्धिकरं प्रशस्तं मङ्गल्यमेवाथ तथा यशस्यम । पुण्यं च पुष्ट्यभ्युदयावहं च नारायणस्येष्टमुदारकीर्तेः । ७६ ।। जयावहं धर्मभरावहं च दुःस्वप्ननाशं परिकीर्त्यमानम् । करोति पापं च तथा विहन्ति शृण्वन् सुरावासगतो नरेन्द्रः ।। ७७।। छालिक्यगान्धर्वमुदारकीर्तिर्मेने किलैकं दिवसं सहस्रम् । चतुर्युगानां नृप रेवतोऽथ ततः प्रवृत्ता च कुमारजातिः ७८ ।। गान्धर्वजातिश्च तथापरापि दीपाद् यथा दीपशतानि राजन् । विवेद कृष्णश्च स नारदश्च प्रद्युम्नमुख्यैर्नृप भैममुख्यैः ।। ७९ ।। विज्ञानमेतद्धि परे यथावदुद्देशमात्राच्च जनास्तु लोके । जानन्ति छालिक्यगुणोदयानां तोयं नदीनामथवा समुद्रः ।। 2.89.८० ।। ज्ञातुं समर्थो हि महागिरिर्वा फलाग्रतो वा गुणतोऽथ वापि । शक्यं न छालिक्यमृते तपोभिः स्थाने विधानान्यथ मूर्च्छनासु ।। ८१ ।। षड्ग्रामरागेपु च तत्तु कार्यं तस्यैकदेशावयवेन राजन् । लेशाभिधानां सुकुमारजातिं निष्ठां सुदुःखेन नराः प्रयान्ति ।। ८२ ।। छालिक्यगान्धर्वगुणोदयेषु ये देवगन्धर्वमहर्षिसंघाः । निष्ठां प्रयान्तीत्यवगच्छ बुद्ध्या छालिक्यमेवं मधुसूदनेन ।। ८३ ।। भैमोत्तमानां नरदेव दत्तं लोकस्य चानुग्रहकाम्ययैव । गतं प्रतिष्ठाममरोपगेयं बाला युवानश्च तथैव वृद्धाः ।। ८४.।। क्रीडन्ति भैमाः प्रसवोत्सवेषु पूर्वं तु बालाः समुदावहन्ति । वृद्धाश्च पश्चात्प्रतिमानयन्ति स्थानेषु नित्यं प्रतिमानयन्ति ।। ८५ ।। मर्त्येषु मर्त्यान् यदवोऽतिवीराः स्ववंशधर्मे समनुस्मरन्तः । पुरातनं धर्मविधानतज्ज्ञाः प्रीतिः प्रमाणं न वयः प्रमाणम् ।। ८६ ।। प्रीतिप्रमाणानि हि सौहृदानि प्रीतिं पुरस्कृत्य हि ते दशार्हाः । वृष्ण्यन्धकाः पुत्रसखा बभूवुर्विसर्जिताः केशिविनाशनेन ।। ८७ ।। स्वर्गे गताश्चाप्सरसां समूहाः कृत्वा प्रणामं मधुकंसशत्रोः । प्रहृष्टरूपस्य सुहृष्टरूपा बभूव हृष्टः सुरलोकसङ्घः ।। ८८ ।।

         इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि भानुमतीहरणे छालिक्यक्रीडावर्णने एकोननवतितमोऽध्यायः।।८९।।

        कृष्ण का चिरत्रांकन देश और समाज की प्रवृत्तियों के अनुरूप हर काल में भिन्न भिन्न रूप में हुआ। परन्तु कुछ शास्त्रकार ऐसे भी थे जिन्होंने कृष्ण का चरित्रांकन कामशास्त्र के नायक के रूप में किया ये शास्त्रकार कृष्ण को देव संस्कृति के समर्थकों में प्रतिष्ठित करना चाहते थे।

        हरिवंश पुराण कार ने रास प्रकरण में काल्पनिक उपादानों को आधार मानकर यही प्रयास किया है।

        परन्तु सच्चे अर्थों में कृष्ण देवसंस्कृति के कटु आलोचक तथा इन्द्र यज्ञ और पूजा के प्रबल विरोधी थे।

        परन्तु पुष्यमित्र सुँग ने देवयज्ञों प्रारम्भ कराकर पुन: यज्ञों  पशु बलि की पृथा भी प्रारम्भ कराई -

        यह सम्भव है कि  कुछ यादव साकाहारी और कुछ मासाँहारी भी रहे होंगे। जैसा कि आज भी है। परन्तु कृष्ण और बलराम जैसे भागवत धर्म के संस्थापकों को मदिरा पान कराकर माँस भक्षण करते हुए दिखाना और अनेक स्त्रीयों के साथ व्यभिचारी की भूमिका में प्रस्तुत करना " श्रीमद् भगवद्गीता के सिद्धान्तों के विपरीत है। पुराणों में जिस प्रकार ब्राह्मणों की प्रसंग विपरीत होने पर भी अचानक दान और सेवा आदि से संतुष्ट करने की बातें सर्वविदित ही हैं। हरिवंश पुराण से कुछ तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं जो पूर्णत: उनके वास्तविक चरित्र को विपरीत हैं। फिर भी ब्राह्मण शास्त्र कार उन्हें लिखकर कृष्ण के सामाजिक वर्चस्व को समाप्त करना चाहते हैं।

        "हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय:89 वाँ अध्याय -

         श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद :-श्रीकृष्‍ण के संकेतों को समझने वाले भीमवंशी यादव सुदृढ़ अभिमान से युक्‍त होने पर भी उस जल युद्ध के प्रसंग से निवृत्त हो गये। तदनन्‍तर उन प्रिय पुरुषों को नित्‍य आनन्‍द देने वाली उनकी प्‍यारी वारवनिताएं विश्‍वस्‍त होकर नृत्‍य करने लगीं। नृत्‍य के अन्‍त में बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्‍ण ने जलक्रीड़ा के प्रसंग त्‍याग दिये।


         उन्‍होंने जल से ऊपर आकर मुनिवर नारद जी को अनुकूल चन्‍दन का लेप देकर फिर स्‍वयं भी उसे ग्रहण किया। भगवान् श्रीकृष्‍ण को जल से बाहर निकला देख अन्‍य यादवों ने भी जलक्रीड़ा त्‍याग दी। फिर वे अप्रमेय शक्तिशाली यादव शुद्ध शरीर हो श्रीकृष्‍ण की आज्ञा से पानभूमि (रसोई के स्‍थान) में गये। वहाँ वे क्रमश: अवस्‍था और सम्‍बन्‍ध के अनुसार उस समय भोजन के लिये बैठे।

        तदनन्‍तर उन प्रख्‍यात वीरों ने अपनी रुचि के अनुकूल अन्‍न खाये और पेय रसों का पान किया।

        पके फलों के गूदे, खट्टे फल, अधिक खट्टे अनार के साथ शूल में गूँथकर सेके गये कन्‍द या फलों के टुकड़े, पोषक[1]

         तत्त्‍व (अन्‍न)- ये सब पदार्थ पवित्र रसोईयों ने उनके लिये परोसे। 


        शूल में गूँथकर पकाये गये भैंसाकन्‍द तथा अन्‍यान्‍य कन्‍द या मूल-फल, नारियल, तपे हुए घी में तले गये अन्‍यान्‍य खाद्य पदार्थ, अमलवेंत, काला नमक और चूक के मेल से बने हुए लेह्य पदार्थ (चटनी)- ये सब वस्‍तुएं पाकशालाध्‍यक्ष के कहने से रसोईयों ने इन यादवों के लिये प्रस्‍तुत कीं। 


        पाकशालाध्‍यक्ष के बताये अनुसार विधिवत तैयार किये गये मृगनामक कन्‍द विशेष के मोटे-मोटे गूदे, आम की खटाई डालकर बनाये गये नाना प्रकार के विशुद्ध व्‍यंजन भी इनके लिये परोसे गये।


        दूसरे रसोईयों ने पास रखे हुए पोषक शाकों के टुकड़े-टुकड़े करके उन्‍हें घी में तल दिये और उनमें नमक तथा मिर्च के चूर्ण मिलाकर खाने वालों को परोस दिये। मूली, अनार बिजौरा, नीबू, तुलसी, हींग और भूतृण नामक शाक विशेष के साथ सुन्‍दर मुख वाले पानपात्र लेकर उन अप्रमेय शक्तिशाली यादवों ने बड़े हर्ष के साथ पेय रस का पान किया।


         कट्वांक अर्थात कटुक परवल, शूलहर (हींग) तथा नमक-खटाई मिलाकर घी और तेल में सेके गये लकुच या बड़हर[2] 


        के साथ मैरेय, माध्‍वीक, सुरासव नामक मधु का उन यादवों ने अपनी प्रियतमाओं से घिरे रहकर पान किया। 


        नरेश्‍वर! श्‍वेत रंग के खाद्य पदार्थ मिश्री आदि तथा लाल रंग के फल के साथ नाना प्रकार के सुगन्धित एवं नमकीन भोजन एवं आद्र (रसदार साग), किलाद (भैंस के दूध में पकाये गये खीर आदि), घी से भरे हुए पदार्थ (पुआ-हलुआ आदि) तथा भाँति-भाँति के खण्‍ड-खाद्य (खाँड़ आदि) उन्‍होंने खाये।


         राजन ! उद्धव, भोज आदि श्रेष्‍ठ यादव वीरों ने जो मादक रसों का पान नहीं करते थे, बड़े हर्ष के साथ नाना प्रकार के साग, दाल, पेय-पदार्थ तथा दही-दूध आदि के साथ उत्‍तम अन्‍न का भोजन किया।

        ___________________

        उन्‍होंने प्‍यालों में अनेक प्रकार के सुगन्धित आरनाल (कांजीरस) का पान किया। चीनी मिलाये हुए गरम-गरम दूध पीया और भाँति-भाँति के फल भी खाये। 


        खा-पीकर तृप्‍त होने के पश्‍चात वे मुख्‍य-मुख्‍य यदुवंशी वीर पुन: स्त्रियों को साथ लेकर बड़े हर्ष के साथ रमणीय एवं मनोहर गीत गाने लगे।


        उनकी प्रेयसी कामिनियाँ अपने हाव-भाव द्वारा उन गीतों के अर्थ का अभिनय करती जाती हैं। तदनन्‍तर हर्ष में भरे हुए भगवान् उपेन्‍द्र ने उस रात में बहुसंख्‍यक मनुष्‍यों द्वारा सम्‍पन्‍न होने वाले उस छालिक्‍य गान के लिये आज्ञा दी, जिसे गान्‍धर्व कहते हैं।


        उस समय नारद जी ने अपनी वीणा सँभाली, जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र कर देने वाली थी। 


        नरदेव! साक्षात् श्रीकृष्‍ण ने वंशी बजाकर हृल्‍लीसक[4] (रास) नामक नृत्‍य का आयोजन किया। 

        _________________    

        कुन्‍तीपुत्र अर्जुन ने मृदंग वाद्य ग्रहण किया। अन्‍य वाद्यों को श्रेष्‍ठ अप्‍सराओं ने ग्रहण किया जो उनके वादन कला में प्रख्‍यात थीं। आसारित[5] (प्रथम आसारनर्त की-प्रवेश) के बाद अभिनय के अर्थतत्त्व का ज्ञान रखने वाली रम्भा नामक अप्‍सरा उठी, जो अपनी अभिनय कला के लिये विख्‍यात थी।


        अध्याय 90 - यादवों  का खेल (जारी)

        1. वैशम्पायन ने कहा:- कादम्बर मदिरा पीने के कारण बलराम ने स्वयं पर तथा अपनी गतिविधियों पर सारा नियंत्रण खो दिया था और उसकी आँखें लाल हो गई थीं, चंदन से चिपकी हुई बड़ी भुजाओं वाली अत्यंत सुंदर पत्नी रेवती के साथ वे क्रीड़ा करने लगे ।१।

        2. जैसे पूर्णिमा का चंद्रमा बादलों में चमकता है, वैसे ही काले वस्त्र पहने हुए , चंद्रमा की किरणों के समान गोरे और नशे में डूबी आंखों वाले दिव्य बलराम वहां चमक रहे थे ।२।

        3. अपने बाएं कान पर केवल कुंडल रखकर और सुंदर कमलों से सुशोभित, मुस्कुराते हुए राम ने अपनी प्यारी पत्नी के पार्श्व-लंबाई रूप से सुशोभित चेहरे को बार-बार देखकर अत्यधिक आनंद प्राप्त किया।

        4. तत्पश्चात कंस और निकुंभ के संहारक केशव की आज्ञा से सुंदर अप्सराएं रेवती और बलराम को देखने के लिए स्वर्ग के समान समृद्ध हल धारक के पास पहुंचीं।

        5. मनमोहक शारीरिक गठन से युक्त उन सुंदर शरीर वाली अप्सराओं ने रेवती और राम को नमस्कार किया और समय के साथ नृत्य करना शुरू कर दिया। और उनमें से कुछ ने हर प्रकार की भावना को अभिव्यक्त करने वाले इशारों के साथ गाया।

        6. बलदेव और रेवत के  राजा की पुत्री की आज्ञा के अनुसार उन्होंने यादवों की इच्छा के अनुसार अपने द्वारा अर्जित विभिन्न हाव-भाव प्रदर्शित करना शुरू कर दिया ।

        7. उन दुबली-पतली और सुंदर युवतियों ने यादव देश की स्त्रियों के समान वस्त्र पहनकर उनकी भाषा में मधुर गीत गाए।

        7-14. हे वीर, उस सभा से पहले उन्होंने बलराम और केशव की प्रसन्नता के लिए विभिन्न पवित्र प्रसंग गाए, जैसे कंस, प्रलम्व और चाणूर का विनाश ; जनार्दन को ओखली से बांधने की कहानी जिसके कारण यशोदा ने उनकी महिमा स्थापित की और उन्हें दामोदर नाम मिला ; अरिष्टा और धेनुका का विनाश ; व्रज में उनका निवास ; पूतना का विनाश ; उनके द्वारा यमल और अर्जुन वृक्षों को उखाड़ना ; कालांतर में उनके द्वारा भेड़ियों की रचना, झील में कृष्ण द्वारा दुष्ट नागों के राजा कलयानाग का दमन ; उस झील से कमल, कुमुद, शंख और निधियों के साथ मधुसूदन की वापसी ; विश्व कल्याण के स्रोत केशव द्वारा गोकुल की भलाई के लिए गोवर्धन पर्वत को धारण करना ; कैसे कृष्ण ने खुशबूदार चन्द्रन  बेचने वाली कूबड़ वाली महिला को ठीक किया; भगवान के ये वृत्तांत जन्म और अपूर्णताओं से रहित हैं।

        अप्सराओं ने यह भी वर्णन किया कि कैसे भगवान ने, यद्यपि स्वयं बौने नहीं थे, अत्यंत वीभत्स बौना रूप धारण किया; सौभ की हत्या कैसे हुई; इन सभी युद्धों में बलदेव ने अपना हल कैसे उठाया; देवताओं के अन्य शत्रुओं का विनाश; गांधार राजकुमारी के विवाह के समय घमंडी राजाओं के साथ युद्ध ; सुभद्रा का हरण; वलहाका और जमवुमाली के साथ युद्ध ; और कैसे उसने इन्द्र  को हराने के बाद उसकी मौजूदगी में ही सारे गहने हरण लिए ।

        15-16. हे राजन, जब वे सुंदर स्त्रियाँ संगकर्षण और अधोक्षज के लिए इन सभी और विभिन्न अन्य सुखद और आनंददायक विषयों को गा रही थीं , तो अत्यधिक सुंदर बलराम , कादम्बरीवारी  के नशे में, अपनी पत्नी रेवती के साथ मधुर तालियों के साथ गाने लगे ।

        17. राम को इस प्रकार गाते देख बुद्धिमान, उच्चात्मा और अत्यधिक शक्तिशाली मधुसूदन ने उन्हें प्रसन्न करने के लिए सत्य के साथ गाना शुरू किया ।

        18. विश्व के महानतम वीर पार्थ , जो समुद्र-यात्रा के लिये वहाँ आये थे, वह भी प्रसन्न होकर सुन्दर सुभद्रा और कृष्ण के साथ गाने लगे।

        19-20. हे राजन, बुद्धिमान गद , सरण , प्रद्युम्न , साम्ब- , सात्यकि और सत्राजित के पुत्र, महान शक्तिशाली चारुदेष्ण ने भी वहां समवेत स्वर में गाया। बलराम के पुत्र, सबसे महान वीर, राजकुमार निशाथ और उल्मुख, सेनापति अक्रूर , शंख और अन्य प्रमुख भीमकुल के यादवों ने भी वहां गाया।

        21. उस समय, हे राजा, कृष्ण की शक्ति से नावों का आकार बढ़ गया और जनार्दन ने प्रमुख भीमवंशीयों के साथ अपनी पूरी क्षमता से गाना गाया।

        23 हे वीर राजकुमार, जब अमर-तुल्य यदु सरदारों ने इस प्रकार गाया तो सारा संसार हर्ष से भर गया और पाप नष्ट हो गये।

        23 तब मधु के हत्यारे केशव को प्रसन्न करने के लिए देवताओं के अतिथि नारद ने यादवों के बीच ऐसा गाना शुरू किया कि उनकी जटाओं का एक हिस्सा पिघल गया।

        24. हे राजकुमार, अथाह ऊर्जा वाले उस मुनि ने वहां-वहां गीतों की रचना करते हुए उन्हें बार-बार विभिन्न भावों और गतियों के साथ उन्हें  भीम कुल  के यादवों के बीच गाया।

        25 तब राजा रेवत की पुत्री रेवती, बलदेव , केशव, पृथा के पुत्र अर्जुन तथा सुभद्रा को देखकर बुद्धिमान ऋषि बार-बार मुस्कुराये।

        26. हालाँकि केशव की पत्नियाँ स्वभाव से धैर्यवान थीं, फिर भी बुद्धिमान नारद, जो हमेशा मज़ाक करने के शौकीन थे, अपने हाव-भाव, मुस्कुराहट, चाल और कई अन्य तरीकों से जो उनकी हँसी को उत्तेजित कर सकते थे, उन्हें हँसाते थे।

        27. मानो निर्देश दिया गया हो कि दिव्य मुनि नारद ने ऊंचे और नीचे विभिन्न धुनें गाईं और कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए वह जोर-जोर से हंसने लगे और खुशी के आंसू बहाने लगे।

        28-29. हे राजकुमार, तब इशारों में निपुण युवा युवतियों ने, कृष्ण के आदेश पर, दुनिया के सबसे अच्छे गहने, सुंदर वस्त्र, स्वर्ग में बनी मालाएं, संतानक(पारिजात) फूल, मोती और सभी मौसमों में पैदा होने वाले अन्य फूल दे दिए।

        30. तत्पश्चात् संगीतमय सभा की समाप्ति के बाद दिव्य कृष्ण, महान और अतुलनीय मुनि नारद का हाथ पकड़कर , सत्यभामा और अर्जुन के साथ समुद्र में कूद पड़े ।

        31-32. अतुलनीय पराक्रम वाले अत्यधिक सुंदर कृष्ण ने थोड़ा मुस्कुराते हुए सिनी के पुत्र से कहा- "आइए हम दो दलों में बंट जाएं और युवतियों के साथ समुद्र के पानी में खेलें। समुद्र के इस पानी में बलदेव और रेवती को साथ रहने दें मेरे बेटे और कुछ भीमवंशी यादव एक पार्टी बनाते हैं और बचे हुए भीमवंशी और बलराम के बेटों को मेरी पार्टी में शामिल होने देते हैं।"

        33. बाद में अत्यधिक आश्वस्त केशव ने हाथ जोड़कर सामने खड़े समुद्र से कहा:- "समुद्र, तुम्हारा पानी मीठा हो और घतक मगर आदि से रहित हो।

        34. तेरा बिछौना  (समुद्र तल) रत्नों से सुशोभित हो, और तेरे किनारे दोनों पांवों के सुखपूर्वक स्पर्श के योग्य हों। और आप, मेरी शक्ति से, वह सब कुछ दे सकें जो आप मानव जाति के स्वाद के अनुकूल जानते हैं।

        35. तू मनुष्यों को मनभावन सब प्रकार का पेय दे, और सोने, नीलमणि और मोतियों से सजी हुई कोमल मछलियां तेरे जल में तैरें।

        36. आप रत्नों, सुगन्धित, मनमोहक, लाल कमलों और मधुर स्पर्श वाले कुमुदिनों को धारण करें और मधुमक्खियों से सेवित हों।

        ______    

        37. क्या आपके पास असंख्य घड़े और सोने के बर्तन हैं, जिनमें से भैमस मैरेया , माधविका और आसव आदि  मदिरा हों तो उन्हें पेश करो

        38. हे सागर, तुम्हार जल फूलों की सुगन्ध से सुगन्धित ठंडा हो। आप इतना सावधान रहें कि यादवों को अपनी स्त्रियों के साथ कोई असुविधा न हो।

        39 हे राजन, समुद्र से ऐसा कहकर कृष्ण अर्जुन के साथ क्रीड़ा करने लगे। सत्राजित की पुत्री, जो कृष्ण द्वारा दिए गए संकेतों में पारंगत थी, ने नारद के शरीर पर जल छिड़का।

        40. तब राम ने नशे में डूबे अपने शरीर को उत्तेजना पूर्वक अपने हाथों से रेवती के हाथों से पकड़ लिया और खेल-खेल में समुद्र के पानी में कूद पड़े।

        41-42. राम के पीछे कृष्ण के चंचल पुत्र, नशे में आँखें घुमाते हुए और अन्य प्रमुख भीमवंशी, अपने वस्त्र, और आभूषणों से वंचित होकर, खुशी से समुद्र में कूद पड़े।

        निशत, उल्मुक और बलदेव के अन्य पुत्र अपने गले में संतानक फूलों की माला पहने हुए, विभिन्न प्रकार के वस्त्र पहने हुए, नशे में धुत और खेल-कूद में व्यस्त थे, साथ ही शेष भीमवंशी भी केशव की सभा में शामिल हो गए।

        43. शक्तिशाली यादव, जिनके चेहरे पर सुंदर निशान और लेप थे, अपने हाथों में मदिरा के पात्र लेकर, मधुर धुनों वाले गीत गाने लगे और उस स्थान के लिए सुंदर रूप से अनुकूल थे।

        44 तदनन्तर संगीत में रुचि रखने वाली, सजी-धजी सैकड़ों युवतियाँ, दिव्यलोक में रहने वाली अप्सराओं के साथ मिलकर विभिन्न स्वर बजाने लगीं।

        45. वे युवा युवतियाँ, जो अलौकिक गंगा के जल में वाद्ययंत्र बजाने में पारंगत थीं , और जिनका मन पूरी तरह से कामदेव के वश में था, प्रसन्नतापूर्वक   जलदर्दुर[1] बजाती थीं और उसके साथ गीत गाती थीं।

        46. ​​उस समय कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाली और कमल के डंठलों से सुशोभित सुंदर दिव्य नृत्य करने वाली लड़कियाँ सूर्य की किरणों से उड़े हुए कमल के समान शोभा पा रही थीं।

        47. हे राजा, सैकड़ों पूर्णिमा के चंद्रमाओं के समान दिखने वाली उन महिलाओं के चंद्रमा जैसे चेहरों से भरा हुआ, या तो अपनी इच्छा से या विधि के आदेश के तहत वहां जा रहा थे , समुद्र हजारों चंद्रमाओं से सुशोभित आकाश की तरह दिखाई दे रहा था।

        48 हे राजन, मेघरूपी समुद्र स्त्री के समान प्रकाश से सुशोभित हुआ। जल के स्वामी आकाश में बिजली से छितरे हुए बादलों के समान प्रकट हुए।

        49. इसके बाद नारायण , जिन्होंने अपने शरीर पर सुंदर निशान लगाए थे, नारद और उनकी सभा के अन्य सदस्यों ने बलदेव और उनकी सभा पर पानी छिड़का, जिन्होंने भी सुंदर निशान लगाए थे। और बाद वाले ने भी पहले वाले पर पानी छिड़का।

        50. उस समय कृष्ण और संकर्षण की पत्नियाँ वारुणी मदिरा के नशे में चूर होकर और संगीत के साथ प्रसन्न होकर हाथों और जलयंत्रों से एक दूसरे पर पानी फेंकती थीं।

        51. शराब, कामदेव और स्वाभिमान से युक्त, नशे से लाल आंखों वाले भीमवंशी एक-दूसरे पर पानी फेंकते थे और इस तरह महिलाओं की उपस्थिति के सामने कठोर रवैया अपनाते थे: 

        हालांकि वे एक के लिए खेल रहे थे, वे बाज नहीं आए  लंबे समय तक भी।

        52. इस प्रकार उनके परिचित कामक्रीडा को देखकर, चक्रधारी कृष्ण ने एक क्षण के लिए सोचा और फिर उन्हें रोक दिया। उन्होंने भी पार्थ और नारद के साथ जल में वाद्ययंत्र बजाने से परहेज किया।

        53. भीमवंशी यादव, जो हमेशा अपनी प्रिय महिलाओं को प्रसन्न करते थे, हालांकि वे अत्यधिक संवेदनशील थे, जैसे ही उन्होंने संकेत दिया, तुरंत कृष्ण के इरादे को समझ गए और पानी में खेलना बंद कर दिया: लेकिन युवतियों ने नृत्य करना जारी रखा।

        54. नाच पार्टी समाप्त होने के बाद जब अन्य यादव पानी में थे तब भी उपेन्द्र किनारे पर आ गये। इसके बाद उन्होंने नारद को श्रेष्ठ मुनि बनने का अवसर दिया और बाद में स्वयं भी उनका अंग बन गये।

        55. फिर उपेन्द्र को जल से बाहर निकलता देख अतुलनीय भींमो ने शीघ्र ही जल छोड़ दिया। फिर वे अपने शरीर को दूबों से शुद्ध करके, कृष्ण की अनुमति से, शाराब के स्थान में चले गए।

        56 उन सुप्रसिद्ध वीरों ने अपनी-अपनी आयु तथा स्थिति के अनुसार क्रम से बैठकर नाना प्रकार के भोजन तथा पेय पदार्थों से स्वयं को तरोताजा किया।

        57. तब रसोइये बड़े आनन्द से पके हुए मांस, सिरके, अनार और लोहे की छड़ों पर भुना हुआ पशुओं का मांस ले आए।

        58. फिर एक युवा भैंस को डंडे पर अच्छी तरह से भूनकर, गर्म करके, घी में भिगोकर, सिरका, सोचल नमक और एसिड मिलाकर परोसा गया।

        59. बहुत से मोटे हिरणों का मांस कुशल पकाने की विधि के अनुसार भूनकर, और सिरके में मीठा करके लाया गया।

        60. जानवरों की टाँगें, नमक और सरसों के साथ मिलाकर और घी में तलकर भी परोसी जाती थीं।

        61. अतुलनीय यादवों ने अरुम कैम्पैनुलटम की जड़ों, अनार, नींबू, हींग, जिंजरेड और अन्य सुगंधित सब्जियों वाले उन व्यंजनों को बड़े आनंद से खाया। फिर उन्होंने सुंदर प्यालों में शराब पी।

        62. वे अपनी प्रिय युवतियों के साथ घिरे रहकर मैरेया, माधविका और आसव जैसी विभिन्न मदिरा पीते थे, जो पक्षियों के मांस को मक्खन, अम्ल रस, नमक और खट्टी चीजों के साथ भूनकर तैयार की जाती थी।

        63. उन्होंने अन्य व्यंजन, सफेद और लाल रंग के विभिन्न सुगंधित नमकीन खाद्य पदार्थ, दही और घी से बनी चीजें भी खाईं।

        64. हे राजा, उद्धव , भोज और अन्य वीर, जो शराब नहीं पीते थे, उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक सब्जियाँ, सब्जी-करी, केक, दही और हलवा लिया।

        65. पलावी नामक पीने के बर्तन से, वे विभिन्न सुगंधित पेय, दूध और चीनी के साथ मक्खन पीते थे और विभिन्न प्रकार के फल लेते थे।

        66. इस प्रकार वीर भीमों ने भरपेट भोजन करके प्रसन्न हो गये। बाद में, वे, अपनी पत्नियों को अपने साथियों के रूप में रखते हुए, अपनी पत्नियों द्वारा शुरू किए गए आनंद के साथ फिर से संगीत में शामिल हो गए।

        67. इसके बाद जब रात होने लगी तो दिव्य उपेन्द्र ने सभा में उपस्थित सभी लोगों से गाना जारी रखने के लिए कहा। 

        देवताओं और गंधर्वों द्वारा गाए जाने वाले विभिन्न सुरों के (छालिक्य) ।

        68-72. हे राजन, तब नारद ने अपनी वीणा बजाना शुरू किया जो छह ताल और रागों के साथ [2] मन की एकाग्रता लाती है, कृष्ण ने अपनी बांसुरी के संगीत के साथ हल्लीसक नृत्य करना जारी रखा और पार्थ ने अपने मृदंग को बजाना शुरू किया। : [

        4] अन्य प्रमुख अप्सराएँ विभिन्न अन्य वाद्ययंत्र बजाती थीं। इसके बाद असरिता के बाद , सुंदर रंभा , एक चतुर अभिनेत्री, उठी, उसने अभिनय किया और बलराम और केशव को प्रसन्न किया। तदनन्तर, हे राजन , सुंदर और विशाल नेत्रों वाली उर्वशी , हेमा , मिश्रकेशी , तिलोत्तमा , मेनका और अन्य दिव्य अभिनेत्रियाँ क्रम से उठीं और गायन और नृत्य से हरि को प्रसन्न किया।

         उनके मनमोहक गायन और नृत्य से आकर्षित होकर वासुदेव ने उन सभी को उनके मन के अनुरूप उपहार देकर प्रसन्न किया। 

        हे राजकुमार, उन सम्मानित और प्रमुख अप्सराओं को, जिन्हें वहां लाया गया था, कृष्ण की इच्छा पर पान के पत्तों से  ( वीड़ो)सम्मानित किया गया था।

        73-74. हे राजा, इस प्रकार विभिन्न सुगंधित फल और  छालिक्य गीत, जो कृष्ण की इच्छा और मानव जाति के प्रति उनके उपकार से दिव्य क्षेत्र से स्वर्ग से लाए गए थे, केवल रुक्मिणी के बुद्धिमान पुत्र को ही ज्ञात थे। वही उनका उपयोग कर सकता था और वही उस समय पान बांटता था।

        75-76.  छालिक्य गीत, नारायण के कल्याण, पोषण और समृद्धि के लिए अनुकूल, गौरवशाली कर्मों का, और जो मानव जाति के लिए महान, शुभ और प्रसिद्धि और धर्मपरायणता का उत्पादक था, इंद्र जैसे कृष्ण, राम, प्रद्युम्न द्वारा समवेत स्वर में गाया गया था। अनुविन्ध और शम्वा।

        77-78. यह छालिक्य, जो वहाँ गाया जाता था, पुण्य की धुरी धारण करने में समर्थ तथा दु:ख और पाप का नाश करने वाला था। दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करते हुए और इस चालिक्य गीत को सुनकर प्रतापी राजा रेवत ने चार हजार युगों को एक दिन के रूप में माना।इससे कुमारजाति आदि गंधर्वों के विभिन्न प्रभागों की उत्पत्ति हुई ।

        79. हे राजन, जैसे एक ही प्रकाश से सैकड़ों दीप उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार छालिक्य से गंधर्वों की विभिन्न श्रेणियां उत्पन्न हुई हैं। हे राजन, प्रद्युम्न और अन्य प्रमुख भीमों के साथ कृष्ण और नारद यह सब जानते थे।

        80-81. झरनों और समुद्र के पानी की तरह इस दुनिया के लोग छालिक्य को केवल दृष्टांत से जानते थे। मुरकाना [5] और चालिक्य के समय को जानने के लिए कठोर तपस्या किए बिना हिमालय के गुणों और वजन को जानना संभव है , लेकिन ऐसा नहीं है ।

        82-83. हे राजा, छह तराजू और राग पुरुषों के साथ छालिक्य का क्या, बड़ी कठिनाई के साथ, सुकुमारजति के ग्यारहवें मंडल के अंत तक भी नहीं आ सकता है । हे राजन, यह निश्चित रूप से जान लें कि मधुसूदन ऐसी व्यवस्था की थी कि देवता, गंधर्व और महान ऋषि छालिक्य के गुणों के कारण भक्ति भावना प्राप्त कर सकें।

        84-88. भगवान द्वारा, मनुष्यों में, कृष्ण द्वारा, दुनिया पर उपकार दिखाने के लिए भैमों से पहले गाए जाने के कारण, चालिक्य, जिसे केवल अमर लोगों द्वारा गाया जाता था, ऐसी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है,

         जिसे पहले उत्सव के अवसर पर भीम लड़के इस्तेमाल करते थे इसे एक उदाहरण के रूप में उद्धृत करने के लिए। और बड़े-बूढ़े उनकी बात का अनुमोदन करते थे और लड़के, जवान और बूढ़े उसे समवेत स्वर में गाते थे। "प्यार ही कसौटी है, उम्र नहीं" - मनुष्यों को उनकी जाति के इस गुण की याद दिलाने के लिए, प्राचीन धार्मिक संस्कारों के संचालक वीर यादवों ने मनुष्यों की भूमि में ऐसा किया। 

        हे राजन, मित्रता प्रेम से जानी जाती है, इसलिए प्रेम को सामने रखते हुए, केशव को छोड़कर अन्य वृष्णि , अंधक और दशार्ह अपने पुत्रों के साथ भी मित्र जैसा व्यवहार करते थे। तत्पश्चात प्रसन्न होकर कंस के हत्यारे मधुसूदन को नमस्कार करते हुए, संतुष्ट अप्सराएँ दिव्य क्षेत्र में लौट आईं, जो भी (तदनुसार) खुशी से भरा हुआ था।

        फ़ुटनोट और संदर्भ:

        [1] :

        पानी में बजाया जाने वाला एक प्रकार का वाद्ययंत्र।

        [2] :

        संगीत की एक विधा जिसमें से छह की गणना की जाती है। भैरव , मालव सारंगा , हिंडोला , वसंत , दीपका और मेघा : वे काव्य और पौराणिक कथाओं में चित्रित हैं ।

        [3] :

        मुख्य रूप से एक पुरुष और आठ या दस महिला कलाकारों द्वारा गायन और नृत्य का एक छोटा नाटकीय मनोरंजन , एक बैले।

        [4] :

        एक प्रकार का वाद्य यंत्र।

        [5] :

        एक स्वर या अर्धस्वर जो उसके पैमाने में रखा जाता है, ग्राम या पैमाने का सातवाँ भाग।


        हरिवंशपुराण- हरिवंश का स्वरूप, हरिवंश में तीन पर्व या खण्ड 


        महाभारत के खिल पर्व होने के कारण हरिवंश की आलोचना अब प्रसंग प्राप्त है। हरिवंश में श्लोकों की संख्या सोलह हजार तीन सौ चौहत्तर (16, 374 श्लोक ) श्रीमद्भागवत की श्लोक संख्या से कुछ ही अधिक है।

        डॉ० विन्टरनित्स के कथनानुसार यूनानी कवि होमर के दोनों महाकाव्यों 'इलियड' और 'ओडिसी' की सम्मिलित संख्या से भी यह अधिक है, परन्तु यह एक लेखक की रचना न होकर अनेक लेखकों के संयुक्त प्रयास का फल है। 

        हरिवंश का अन्तिम पर्व (ग्रन्थ का तृतीय भाग) तो परिशिष्ट भूत हरिवंश का भी परिशिष्ट है और काल क्रम से सबसे पीछे का निर्मित भाग है। 

        हरिवंश में तीन पर्व या खण्ड हैं

        (क) हरिवंश पर्व

         कृष्ण के वंश वृष्णि-अन्धक की कथा विस्तार से दी गयी है और इस आदिम पर्व के वर्णन के अनन्तर राजा पृथु की कथा विस्तार से दी गयी है ।

        सूर्यवंशीय राजाओं के प्रसंग में विश्वामित्र तथा वसिष्ठ का भी आख्यान वर्णित है। प्रसंग से पृथक् हटकर प्रेतकल्प ( अन्त्येष्टि एवं श्राद्ध) का वर्णन नौ अध्यायों में (अध्याय- 16-24) विस्तार से निबद्ध है और इसी के अन्तर्गत 21 वें अध्याय में पशुओं की बोली को समझने-बूझने वाले ब्रह्मदत्त की कथा दी गई है चन्द्रवंशीय राजाओं के वर्णन के अवसर पर राजा पुरूरवा और उर्वशी का प्रख्यान से समानता रखता है (अ0 26) । नहुष, ययाति तथा यदु के वर्णन के पश्चात् विष्णु की अनेक स्तुतियाँ प्रस्तुत की गई हैं। जो एक प्रकार से कृष्ण के पूर्व दैवी इतिहास का परिचय देती हैं।


        (ख) विष्णुपर्व -

        यह समय ग्रन्थ का अतिशय विस्तृत तथा महनीय भाग है। इसमें कृष्णचन्द्र की विविध लीलाओं का, विशेषत: बाललीलाओं का बड़ा ही सांगोपांग रूचिर विवरण है श्रीमद्भागवत के वर्णन से तुलना करने पर अनेक स्थल पर पार्थक्य दृष्टिगोचर होता है। कहीं-कहीं अन्य घटनायें भी दी गयी हैं। 

        कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के जन्म, शंबर द्वारा हरण, समुद्र से प्राप्ति तथा मायावती के साथ विवाह आदि प्रख्यात कथाओं का यहाँ उल्लेख है, परन्तु असुरों के राजा वज्रनाभ की दुहिता प्रभावती के साथ प्रद्युम्न का विवाह और वह भी नितान्त नाटकीय ढंग से एकदम नूतन तथा पर्याप्तरूपेण रोचक है (150 अध्याय)। 


        इसी प्रकार प्रख्यात रासलीला का हल्लीसक नृत्य के रूप में निर्देश किसी प्राचीन युग की स्मृति दिलाता है। इस पर्व के अन्त में अनिरूद्ध का विवाह बाणासुर की कन्या उषा के साथ बड़े उमंग और उत्साह से वर्णित है और इससे पूर्व 'हरि-हरात्मक स्तव' (अध्याय- 184) द्वारा शिव और विष्णु की एक ही अभिन्न देवता के रूप में सुन्दर स्तुति की गई है। इस पर्व में विषय की एकता और वर्णन की संगति से प्रतीत होता है कि प्राचीन युग में ‘श्रीकृष्ण चरित काव्य' के साथ यह अंश सम्बन्ध रखता है, परन्तु तृतीय भाग के विषय में किसी एकता की कल्पना नहीं की जा सकती।


        (ग) भाविष्यपर्व- 

        यह भाग विविध वृत्तों का पौराणिक शैली में परस्पर असम्बद्ध संकलन है। इस पर्व का नामकरण प्रथम अध्याय के नाम पर है, जहाँ भविष्य में होने वाली घटनाओं का संकेत किया गया है। जनमेजय द्वारा विहित यज्ञों का वर्णन बड़े सुन्दर ढंग से किया गया है (अ) 191-196) । विष्णु के सूकर, नृसिहं तथा वामन अवतारों के वर्णन के अनन्तर शिवपूजा तथा विष्णु पूजा के समन्वय की दिशा दिखाई गई है। शिव के दो उपासक हंस तथा डिम्भक की कथा विस्तार से है, जिन्हे कृष्ण ने पराजित किया था। महाभारत के माहात्म्य वर्णन के पश्चात् समग्र हरिवंश का ध्येय हरि की स्तुति में प्रदर्शित किया गया है-

        ‘आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते ।

        हरिवंशपुराण का स्वरूप:-

        एक ओर हरिवंश महाभारत का परिशिष्ट (खिल) माना जाता है और दूसरी ओर यह ‘पुराण' नाम से भी अभिहित होता है। इसके पोषक प्रमाणों की कमी नहीं है-

        (1) महाभारत के आरम्भ में ग्रन्थ के समग्र पर्वो की संख्या एक सौ परिगणित है (आदि अ0 2) और इसके भीतर हरिवंश भी सम्मिलित किया गया है (आदि 2/82-83)। ध्यान देने की बात तो यह है कि हरिवंश 'खिलसंज्ञित पुराण' कहा गया है। (हरिवंशसततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्)। फलत: व्यास की दृष्टि में खिल और पुराण दोनों साथ-साथ होने में कोई वैषम्य नहीं है।

        ( 2 ) हरिवंश के 20 वें अध्याय में 'यथा ते कथितं पूर्व मया राजर्षिसत्तम' के द्वारा याति के चरित की महाभारत में पूर्व स्थिति का स्पष्ट निर्देश है (आदिपर्व अ0 81-88)।

         

        (3) हरिवंश के 32 वें अध्याय में अदृश्यवाणी का कथन 'त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला' के द्वारा महाभारत में शकुन्तलोपाख्यान की ओर स्पष्ट संकेत है तथा 54 अध्याय में कणिक मुनि महाभारत में कणिक मुनि की पूर्व स्थिति बतलाता है (आदिपर्व अध्याय- 140 ) ।

         

        (4) हरिवंश का उपक्रम तथा उपसंहार बतलाता है कि हरिवंश महाभारत का ही परस्पर सम्बद्ध खिल पर्व है। उपक्रमाध्याय में भारती कथा सुनने के बाद वृष्णि अन्धक चरित सुनने की इच्छा शौनक ने सौति से जो प्रकट की वह दोनों के सम सम्बन्ध का सूचक है। हरिवंश के 132 वें अध्याय में महाभारत के कथाश्रवण का फल है, जिस कथन की संगति हरिवंश के महाभारत के अन्तर्गत मानने पर ही बैठ सकती है, अन्यथा नहीं ।

        (5) बहिरंग प्रमाणों में आनन्दवर्धन का यह कथन साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि महाभारत के अन्त में हरिवंश के वर्णन से समाप्ति करने वाले व्यासजी ने शान्तरस को ही ग्रन्थ का मुख्य रस व्यन्जना के द्वारा अभिव्यक्त किया है। '

        फलत: हरिवंश महाभारत का 'खिल' पर्व है। साथ ही साथ पञ्च लक्षण से समन्वित होने से यह 'पुराण' नाम्ना भी अभिहित किया जाता है, परन्तु न तो यह महापुराणों में अन्तर्भूत होता है और न उपपुराणों में दोनों से इसकी विशिष्टता पृथक् ही है।

        हरिवंश का कालनिर्णय

        हरिवंश के कालनिर्माण तथा महाभारत के साथ सम्बद्ध होने के काल का निर्णय प्रमाणों द्वारा किया जा सकता है-

        (क) हरिवंश के साथ सम्मिलित होकर लक्ष श्लोकात्मक रूप धारण करने वाला महाभारत ‘शत साहस्री संहिता' के नाम से (454) ईस्वी के गुप्त शिलालेख में उल्लिखित है। 

        (ख) अश्वघोष (प्रथमशती) ने अपने वज्रसूची उपनिषद् में हरिवंश के 'प्रेतकल्प' प्रकरण से ‘सप्तव्याधा दशार्णेषु’ (हरिवंश 24/20, 21) इत्यादि श्लोकों को प्रमाण रूप से उद्धृत किया है। अतः हरिवंश की रचना प्रथमशती से अर्वाचीन नहीं हो सकती।

        (ग) हरिवंश (विष्णु पर्व 55/50) में 'दीनार' का उल्लेख उसके रचनाकाल का द्योतक है। रोम साम्राज्य के सोने के सिक्के 'दिनारियस' कहलाते थे और उसी शब्द का संस्कृत रूप दीनार' है। इस शब्द का सबसे प्राचीन प्रयोग प्रथमशती के शिलालेखों में उपलब्ध होता है।

        (घ) हरिवंश के एक श्लोक में शुंगब्राह्मण राज्य के संस्थापक पुष्यमित्रशुंग द्वारा यज्ञ का उल्लेख भविष्य में होनेवाली घटना के रूप में निर्दिष्ट किया गया है

        उपात्तयज्ञो देवेसु ब्राह्मणेषुपपत्स्यते । ‘औद्भिज्जो भविता कश्चित् सेनानी: काश्यपो द्विजः । अश्वमेधं कलियुगे पुनः प्रत्याहरिष्यति । (हरिवंश 3 /2/39-40 )


        यह तो प्रसिद्ध ही है कि ब्राह्मण सेनापति पुष्पमित्र ने दो बार अश्वमेघ यज्ञ किया था, जिनमें महाभाष्य के रचयिता पतञलि स्वयं ऋत्विक् रूप से उपस्थित थे। 'इह पुष्पमित्रं याजयाम:'-महाभाष्य । पुष्पमित्र ने लगभग 36 वर्षो तक राज्य किया (लगभग ईस्वी पूर्व 187-151) और आरम्भ में वे मौर्य सम्राट् के सेनापति था। इसी प्रसिद्ध सेनानी का निर्देश इस श्लोक में है। फलत: हरिवंश का रचनाकाल इससे पूर्व नहीं, तो इसके कुछ ही पश्चात् होना चाहिए। 

        अतएव 'हरिवंश' का निर्माण काल ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में मानना सर्वथा सुसंगत होगा | 

        हरिवंश का धार्मिक महत्व सर्वत्र प्रख्यात है । सन्तान के इच्छुक व्यक्तियों के लिये 'हरिवंश' के विधिवत् श्रवण का विधान लोक प्रचलित है। शपथ खाने के लिए पुरूषों के हाथ पर हरिवंश की पोथी रखने का प्रचलन नेपाल में उसी प्रकार है जिस प्रकार किसी मुसलमान के हाथ पर कुरान रखने का . 

        श्रीकृष्ण के चरित के तुलनात्मक अध्ययन के लिए हरिवंश के विष्णुपर्व का परिशीलन नितान्त आवश्यक है। प्राचीन भारत की ललित कलाओं के विषय में हरिवंश बहुत ही उपादेय सामग्री प्रस्तुत करता है। प्राचीन भारत में नाटक के अभिनय प्रकार की जानकारी के लिए यहाँ उपादेय तथ्यों का संकलन है। 

        सबसे महत्वपूर्ण है हरिवंश में राजनैतिक इतिहास का वर्णन, जो किसी भी प्राचीन पुराण के वर्णन से उपादेयता और प्रामाणिकता में किसी प्रकार न्यून नहीं है फलतः प्रथम शती में भारती संस्कृति की रूपरेखा जानने के लिए हरिवंश' हमारा विश्वनीय मार्गदर्शक है।


        इस प्रकार उन लोगों ने अपने रहने के लिये नगर और अन्य आवास बनाये; उन्होंने कई जोड़ों के लिए घर बनाए रहने के लिए। जैसे पेड़ उनके पहले प्रकार के घर थे, वैसे ही, उन सभी को याद करके, उन लोगों ने अपने घर बनाए। जैसे किसी पेड़ की कुछ शाखाएँ एक दिशा में जाती हैं, और कुछ दूसरी दिशा में जाती हैं, और कुछ ऊपर की ओर उठती हैं और कुछ नीचे की ओर झुकती हैं, वैसे ही उन्होंने अपने घरों में शाखाएँ बनाईं 

        हे सन्तो!, वे शाखाएँ, जो पहले कल्प वृक्ष की शाखाएँ थीं, परिणामस्वरूप उन लोगों के बीच घरों में कमरे बन गईं।


         

          •{लोकाचरण-खण्ड}-

           अध्याय - तृतीय-•

         लोक- आचरण के सूत्र•★   


















         
        एक आवेश हो मन में और चंचलता क्षण क्षण 
        समझो तूफानों का दौर है , होगी जरूर गड़बड़।। 

        ये उमंग और रंगत , लगें मोहक नजारे,
        सयंम की राह हे मन पकड़ ! इधर उधर 'न जारे

        –सच बयान करने वाले मुख नहीं ,
        दुनियाँ में अब महज चहरे होते हैं । 
        केवल शब्दों की ही भाषा सुनने वाले  
        लोग तो अक्सर बहरे होते हैं।।

         अरे तेरी आँखें जो कहती हैं पगले । 
        वो भाव ही असली तेरे होते हैं। 

        उमड़ आते हैं वे एकदम चहरे पर
        बर्षों से दिल में जो कहीं ठहरे होते हैं
         
         दर्द देते हमको वीरानी राहों में "रोहि"
         अक्सर तन्हाई में  जब कहीं बसेरे होते हैं ।
         अपमान हेयता की चोटों के जख़्म , 
        जो न भरने वालेे और बड़े गहरे होते हैं ।। 

        –दान दीन को दीजिए भिक्षा जो मोहताज ।
         और दक्षिणा दक्ष को जिसका श्रममूलक काज।

         परन्तु रीति विपरीत है सब जगह देख लो आज ।
         श्रृंँगार बनाकर असुन्दरी जैसे नैन - मटका वाज।

         जैसे डिग्रीयों में अब नहीं, रही योग्यता की आवाज ।।

        -ये परिस्थियाँ ये अनिवार्यताऐं जीवन की एक सम्पादिका !
         जिनकी वजह से खरीदा और बेका भी बहुत परन्तु अपना कभी चरित्र नहीं बिका ।। 

        प्रवृत्तियाँ जन्म सिद्ध होती जिनसे निर्धारित जातियाँ।
        आदतें व्यवहार सिद्ध ज्योति सुलगती जीवन बातियाँ ।।

        ये कर्म अस्तित्व है जीवन का धड़कने श्वाँस के साँचे।
        समय और परिवर्तन मिलकर जगत् के गीत सब बाँचे ।।

         –क्योंकि जिन्दे पर पूछा नहीं न किया कभी उन्हें याद ! 
        तैरहीं खाने आते हैं वे उसके मरने के वाद ।
         कर्ज लेकर कर इलाज कराया जैसे खुजली में दाद ।
         खेती बाड़ी सभी बिक गयी हो गया गरीब बर्वाद 
        पण्डा , पण्डित गिद्द पाँत में फिर भी ले रहे स्वाद 
         घर की हालत खश्ता इतनी छाया है शोक विषाद 

         किस मूरख ने यह कह डाला ? 
        तैरहीं ब्राह्मणों को प्रसाद !
         आज तुमने धन्यवाद वाद क्या दिया !
         मुझे तुमने धन्य कर दिया साध! 

        धुल गया वो पाप सारा सब क्षमा जघन्य अपराध!
         तभी मुसाफिर आगे बढ़ता ले उन बातों की याद। 
        –अज्ञानता के अँधेरों में हकीकत ग़ुम थी ।
         उजाले इल्म के होंगे ! उन्हें न ये मालुम थी ।।

         –धड़कने थम जाने पर श्वाँसें कब चलती हैं ? 
        –बहारे गुजर जाती जहाँ वहाँ खामोशियाँ मचलती हैं !

         –हम इच्छाओं की खातिर जिन्द़ा ये इच्छा वैशाखी है। 
        दर्द तो दिल में बहुत है लोगों , बस अब सिसकना बाकी है । 

        –वासना लोभ मूलक पास रहने की इच्छा है ।
         जबकि उपासना स्वत्व मूलक पास रहने की इच्छा है ।

         काम अथवा वासना में क्रूरता का समावेश उसी प्रकार सन्निहित है ! –जैसे रति में करुणा- मिश्रित मोह सन्निहित है। 
        जैसे शरद और वसन्त ऋतु दौनों का जन्म समान कुल और पिता से हुआ है । 
        परन्तु जहाँ वसन्त कामोत्पादक है ।
        वहीं शरद वैराग्य व आध्यात्मिक भावों की उत्पादिका ऋतु है ।

         –एक अनजान और अजीव देखा मैंने वह जीव ।
        जीवन की एक किताब पढ़ न पाया तरतीब ।।

         -साहित्य गूँगे इतिहास का वक्ता है ।
         परन्तु इसे नादान कोई नहीं समझता है ।।
         
        साहित्य किसी समय विशेष का प्रतिबिम्ब 
        तथा तात्कालिक परिस्थितियों का खाका है । 
        ये पूर्ण चन्द्र की धवल चाँदनी है जैसे 
        अतीत कोई तमस पूर्ण राका है ।। 

        इतिहास है भूत का एक दर्पण। 
        गुजरा हुआ कल, गुजरा हुआ क्षण -क्षण ।। 

         कोई नहीं किसी का मददगार होता है । 
        आदमी भी मतलब का बस यार होता है ।।

         छोड़ देते हैं सगे भी अक्सर मुसीबत में ।
         मुफ़लिसी में जब कोई लाचार होता है ।। 

        बात ये अबकी नहीं सदीयों पुरानी है । 
        स्वार्थ से लिखी हर जीवन कहानी है ।।

        स्वार्थ है जीवन का वाहक । 
        और अहं जीवन की सत्ता है ।। 

        अहंकार और स्वार्थ ही है । 
        हर प्राणी की गुणवत्ता है ।। 

         विश्वास को भ्रम , और दुष्कर्म को श्रम कह रहे 
        आज लूट के व्यवसाय को , अब कुछ लोग उपक्रम कह रहे।।

        व्यभिचार है,पाखण्ड है , ईमान भी खण्ड खण्ड है 
        संसार जल रहा है हर तरफ से ये वासनाओं की ज्वाला प्रचण्ड है ।

        साधना से हीन साधु सन्त शान्ति से विहीन ।
        दान भी उनको नहीं मिलता जो वास्तव में बने हैं दीन।।

         व्यभिचार में डूबा हुआ । 
        भक्त उसको परम कह रहे । 
        रूढ़ियों जो सड़ गयीं लोग उनके धर्म कह रहे ।।

         - इन्तहा जिसकी नहीं, उसका कहाँ आग़ाज है 
         ना जान पाया तू अभी तक जिन्द़गी क्या राज है 

        - धड़कनों की ताल पर , श्वाँसों की लय में ढ़ाल कर ।
         स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को। 

        साज़ लेकर संवेदनाओं का । 
        दु:ख सुख की ये सरग़में ।
         आहों के आलाप में । ये कुछ सुनाती हैं हम्हें ।। 

        सुने पथ के ओ पथिक ! 
        तुम सीखो जीवन रीति को ।। 
        स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को।

        सिसकियों की तान जिसमें एक राग है अरमान का ।।
        प्राणों के झँकृत तार पर । उस चिर- निनादित गान का ।। 

        विस्तृत मत कर देना तुम , इस दायित पुनीत को  
        स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को  

        ताप न तड़पन रहेगी। जब श्वाँस से धड़कन कहेगी 
        हो जोश में तनकर खड़ा। विद्युत - प्रवाह सी प्रेरणा ।

         बनती हैं सम्बल बड़ा ।। 
        तुम्हेें जीना है अपने ही बल पर ।
         तुम लक्ष्य बनाओं जीत को ।। 
        स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को 

        -खो गये कहीं बेख़ुदी में । हम ख़ुद को ही तलाशते ।।
         लापता हैं मञ्जिलें । 
        अब मिट गये सब रास्ते ।। 
        न तो होश है न ही जोश है ।। 

        ये जिन्द़गी बड़ी खामोश है ।। 
        बिखर गये हैं अरमान मेरे सब बदनशीं के वास्ते । 
        ये दूरियाँ ये फासिले , बेतावीयों के सिलसिले !! 
        एक साद़गी की तलाश में , हम परछाँयियों से आमिले ।। 

        दूर से भी काँच हमको। मणियों जैसे भासते ।।
        सज़दा किया मज्दा किया ।। कुर्बान जिसके वास्ते।। 
        हम मानते उनको ख़ुदा ।। 
        जो कभी न हमारे ख़ास थे ।। 

        किश्ती किनारा पाएगी कहाँ मिल पाया ना ख़ुदा।
         वो खुद होकर हमसे ज़ुदा । 
        ओझल हो गया फिर आस्ते ।। 
        खो गये कहीं बेख़ुदी में । 
        हम ख़ुद को ही तलाशते ।। 

        - जिन्द़गी की किश्ती ! 
        आशाओं के सागर ।। 
        बीच में ही डूब गये ; 
        कुछ लोग तो घबराकर ।।
         किसी आश़िक को पूछ लो । 
        अरे तुम द़िल का हाल जाकर ।।
        दुपहरी सा जल रहा है ; बैचारा तमतमाकर ।। 
         
        असीमित आशाओं के डोर में । 
        बँधी पतंग है जिन्द़गी कोई ।। 
        मञ्जिलों से पहले ही यहाँं , 
        भटक जातों हैं अक्सर बटोही क्यों कि ! बख़्त की राहों पर ! जिन्द़गी वो मुसाफिर है ।। 

        जिसकी मञ्जिल नहीं "रोहि" कहीं । 
        और न कोई सफ़र ही आखिर है ।। 
        आशाओं के कुछ पढ़ाब जरूर हैं 
        वह भी अभी हमसे बहुत दूर हैं ।। 

        बस ! चलते रो चलते रहो " चरैवेति चरैवेति ! 

        - अपनों ने कहा पागल हमको । ग़ैरों ने कहा आवारा है । 
        जिसने भी देखा पास हम्हें । उसने ही हम्हें फटकारा है ।। 

        - कोई तथ्य असित्व में होते हुए भी उसी मूल-रूप में नहीं होता ; जिस रूप में कालान्तरण में उसके अस्तित्व को लोगों द्वारा दर्शाया जाता है । 

        क्यों कि इस परिवर्तित -भिन्नता का कारण लोगों की भ्रान्ति पूर्ण जानकारी, श्रृद्धा प्रवणता तथा अतिरञ्जना कारण है । 
        और परम्पराओं के प्रवाह में यह अस्त-व्यस्त होने की क्रिया स्वाभाविक ही है । 
        देखो ! आप नवीन वस्त्र और उसी का अन्तिम जीर्ण-शीर्ण रूप ! अतः उसके मूल स्वरूप को जानने के लिए केवल अन्त:करण की स्वच्छता व सदाचरण व्रत आवश्यक है क्यों कि दर्पण के स्वच्छ होने पर ज्ञान रूप प्रकाश स्वत: ही परावर्तित होता है ।
         और यह ज्ञान वही प्रकाश है । 

        जिससे वस्तु अथवा तथ्यों का मूल वास्तविक रूप दृष्टि गोचर होता है । और ज्ञान की सिद्धि के लिए अन्त:करण चतुष्टय की शुद्धता परमावश्यक है ।
        फिर आपसे बड़ा कोई ज्ञानी नहीं । 
        समझे ! अभी नहीं समझे !
        अनुभव उम्र की कषौटी है । 
        ज्ञान की मर्यादा उससे कुछ छोटी है । 

        क्योंकि अनुभव प्रयोगों के आधार पर अपने आप में सिद्ध होता है और ज्ञान केवल एक सैद्धान्तिक स्थति है भक्तों आप ही बताइए कि प्रयोग बड़ा होता है या सिद्धांत ! 

        परिस्थितियों के साँचे में । 'रोहि' व्यक्तित्व ढलता है ।
        बदलती है दुनियाँ उनकी , जिनका केवल मन बदलता है। 

        मेरे विचार मेरे भाव यही मेरे ठिकाने हैं ।
        हर कर्म है इनकी व्याख्या ये लोगो को समझाने हैं 

        जन्म जन्मान्तरण के अहंकारों का सञ्चित रूप ही तो नास्तिकता है । 
        आत्मा को छोड़कर दुनियाँ में बस सब-कुछ बिकता है ।

        जो जीवन को निराशाओं के अन्धेरों से आच्छादित कर देती है । और ये आस्तिकता जीने का एक सम्बल देती है ।
         समझने की आवश्यकता है कि क्या नास्तिकता है ? 

        अपने उस अस्तित्व को न मानना जिससे अपनी पता है ।
         क्यों कि लोग अहं में जीते है । 

        जिसमें फजीते ही फजीते हैं । 
        परन्तु यदि वे स्वयं में जी कर देखें तो वे परम आस्तिक हैं और बड़े सुभीते हैं।। 

        बुद्ध ने भी स्व को महत्ता दी अहं को नहीं !
         दर्शन ( Philosophy) से विज्ञान का जन्म हुआ।
         दर्शन वस्तुत सैद्धान्तिक ज्ञान है । 

        और जबकि विज्ञान प्रायौगिक है , --जो किसी वस्तु अथवा तथ्य के विश्लेषण पर आधारित है ।

        ताउम्र बुझती नहीं "रोहि " जिन्द़गी 'वह प्यास है 
        आनन्द की एक बूँद के लिए भी , आदमी इच्छाओं का दास है ।।

        परन्तु दु:ख सुख की मृग मरीचि का में 
        उसका ये सारा प्रयास है।। 

        आस जब तलक छोड़ी नहीं थीं धड़कने और श्वाँस।
         जीवन किसी पहाड़ सा दुर्गम और स्वप्न जैसे झरना कोई खा़स.. 

        ये नींद सरिता की अविरल धारा. 
        जहाँ मिलता नहीं कभी कोई किनारा। 

        हर श्वाँस में है अभी जीने की चाह ... 
        क्योंकि जीवन है अनन्त जन्मों का प्रवाह ....
         शिक्षा का व्यवसायी करण दु:खद व पतनकारी हे भगवन् ! 

        शिक्षा अन्धेरे में दिया इसके विना सूना जीवन । 
        आज के अधिकतर शिक्षा संस्थान (एकेडमी) एक ब्यूटी-पार्लर से अधिक कुछ नहीं हैं । 

        जिनमें केवल डिग्रीयों का श्रृँगार करके विद्या - अरथी नकलते हैं । ये योग्यता या विद्या का अरथी ले जा रहे हों ऐसा लगता है । 

        जिनमें योग्यता रूपी सुन्दरता का प्राय: अभाव ही रहता है केवल आँखों में सबको चूसने का भाव रहता है। इन्हें -जब समझ में आये कि सुन्दरता कोई श्रृँगार नहीं ! -
        जैसे साक्षरता शिक्षाकार नहीं । 
        योग्यता एक तपश्चर्या है । 

        --जो नियम- और संयम के पहरे दारी में रहती है 
         वैसे भी योग्य व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्ति शाली व्यक्ति है । 
        यदि स्त्रीयाँ सुन्दर न हों केवल श्रृँगार सर्जरी कराई कर रुतबा बिखेरती हों तो विद्वानों की दृष्टि में कभी भी सम्माननीया नहीं रहती । 

        जिन्हें अपने संसारी पद का , "रोहि" हद से ज्यादा मद है । 
        सन्त और विद्वान समागम , उनका छोटा क़द है ।

        उनके पास कुछ टुकड़े हैं । क्षण-भङ्गुर चन्द कनक के , 
        उन्मुक्त कर रहे स्वर उनको , बड़ते पैसों की खनक के ।।

        उनकी उपलब्धियों की भी , संसार में यही सरहद है ।
         ये लौकिक यात्रा का साधन धन !
         जिसकी टिकट भी अब तो रद है ।।
         जीवात्मा की अनन्त यात्रा ।
         जिसका पाथेय उपनिषद् है । 
        पढ़ाबों से वही बढ़ पाता है रोहि ।

         --जो राहों का गहन विशारद है .
        .. सच कहने में संकोच खौंच दीवार की आँसे ! 
        व्यक्ति की छोटी शोच , मोच पैरों की नाँसे !!

        बातचीत करके और व्यवहार परख कर चलने वाले कभी नहीं पाते झांसे ! 

        सभी दूध के धुले भी कहाँ निर्विवाद होते हैं । 
        नियमों में भी अक्सर यहाँं अपवाद होते हैं ।। 

        कार्य कारण की बन्दिशें , उसके भी निश्चित दायरे। 
        नियम भी सिद्धान्तों का तभी, अनुवाद होते हैं ।। 

        महानताऐं घूमती हैं "रोहि" गुमनाम अँधेरों में । 
        चमत्कारी तो लोग प्रसिद्धियों के बाद होते हैं ।। 

        भव सागर है कठिन डगर है । 
        हम कर बैठे खुद से समझौते ! 
        डूब न जाए जीवन की किश्ती । 
        यहाँ मोह के भंवर लोभ के गोते ।
         मन का पतवार बीच की धार। 
        रोही उम्र बीत गई रोते-रोते। 
        प्रवृत्तियों के वेग प्रबल हैं । 
        लहरों के भी कितने छल हैं । 

        बस बच गए हैं हम खोते खोते। 
        सद्बुद्धि केवटिया बन जा । 
        इन लहरों पर सीधा तंजा । 

        प्रायश्चित के फेनिल से चमकेगा। 
        रोही अन्तर घट ये धोते-धोते।। 

        तन्हाईयों के सागर में खयालों की बाड़ हैं । 
        जिन्दगी की किश्ती लहरें प्रगाढ़ हैं ।

        पतवार छूट गये मेरे ज्ञान और कर्म के ।
        हर तरफ मेरे मालिक ! 
        घोर स्वार्थो की दहाड़ है । 
        जिसकी दृष्टि में भय मिश्रित छल है। 

        रोही वह निश्चित ही कोई अपराध कर रहा है और उसे अपराध बोध भी है। परन्तु वह दुर्भावनाओं से प्रेरित है । 

        यह मेरा निश्चित मत है और जो व्यक्ति हमसे भयभीत है हम्हें उनसे भी भयभीत रहें।
        क्योंकि यह अपने भय निवारण के लिए हमारा अवसर के अनुकूल अनिष्ट कर सकते हैं। 
        व्यक्तित्व तो रोहि परिस्थितियों के साँचे में ढलते हैं।

        अभावों की आग में तप कर भत्त भी फौलाद में बदलते हैं । अनजान और अजीव , ऐसा था एक जीव ।। 

        वक्त की राहों पर चल पड़ा बेतरतीव ।। 
        शरद और वसन्त ऋतु क्रमश वैराग्य और काम भावों की उत्प्रेरक हैं । वैराग्य और काम एक ही वेग की दो विपरीत धाराऐं हैं ।
         ये हुश़्न भी "कोई " ख़ूबसूरत ब़ला है ! _______________________________

         बड़े बड़े आलिमों को , इसने छला है !!
         इसके आगे ज़ोर किसी चलता नहीं भाई! 

        ना इससे पहले किसी का चला है ! 
        ये आँधी है ,तूफान है ये हर ब़ला है 
        परछाँयियों का खेल ये सदीयों का सिलस़िला है ! 

        आश़िकों को जलाने के लिए इसकी एक च़िगारी काफी है , 
        जलाकर राख कर देना । 

        फिर इसमें ना कोई माफी है । 
        सबको जलाया है इसने , ये बड़ा ज़लज़ला है !!
        इश्क है दुनियाँ की लीला, तो ये हुश़्न उसकी कला है ।।

        ____________________________________

        छोटे या बड़े होने का प्रतिमान यथार्थों की सन्निकटता ही है ।
         क्यों कि ज्ञान सत्य का परावर्तन और सर्वोच्च शक्तियों का विवर्तन ( प्रतिरूप ) है । 
        -वह व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति है ; 
        जो सत्य के समकक्ष उपस्थित है ।
         ज्ञान जान है यह सत्य का प्रतिमान ( पैमाना )है 
        संसार में प्रत्येक व्यक्ति की एक सोच होती है ; 

        जो समानान्तरण उसकी प्रवृत्ति और स्वभाव को प्रतिबिम्बित करती रहती है । 
        उसी के अनुरूप वह जीवन में व्यवसाय क्षेत्रों का चयन करता है। और सत्य पूछा जाय तो इसका मूल कारण उसकी प्रारब्ध है जो जन्म- जमान्तरण के संचित 'कर्म'- संस्कारों से संग्रहीत है जीव संचित' क्रियमाण और प्रारब्ध का प्रतिफलन हैं । 

        प्रारम्भ में सृष्टि में एक अवसर सबको मिलता है ।
        फिर समय उपरान्त वह अपने कर्मों से अपने जीवन की यात्रा निर्धारित करता है । 
        लव तलब मतलब इन हयातों का सबब !

         दुनियाँ की उथल -पुथल दुनियाँ इनसे ये सारी है 
        कर्म जीवन का अस्तित्व कर्म ये कर्म की फुलवारी है ।।

         _____________________________________ 
        रोहि सुधरेगा नहीं , सदियों तक ये देश।।
        अनपढ़ बैठे दे रहे ,  मंचों  पर  उपदेश।।

        मंचों पर उपदेश  पंच बैठे हैं अन्यायी ।
        वारदात के बाद पुलिस लपके से आयी।।

        राजनीति का खेल , विपक्षी बना है द्रोही।
        जुल्मों का ये ग्राफ  क्रम बनता आरोहि ।।
        ___________

        पाखण्डी इस देश में , पाते हैं सम्मान ।
        अन्ध भक्त बैठे हुए, लेते उनसे  ज्ञान ।।

        लेते उनसे ज्ञान  मति गयी उनकी मारी ।
        दौलत के पीछे पड़े, उम्र बीत गयी सारी

        स्वर" ईश्वर बिकते जहाँ ,दुनियाँ ऐसी मण्डी।
        भाँग धतूरा ,कहीं चिलम फूँक रहे पाखण्डी।।
        _______
        रोहि सुधरेगा नहीं ,सदियों तक अपना देश।।
        अनपढ़ बैठे दे रहे  पढने वालों को उपदेश।।

        पढने वालों को उपदेश  राजनीति है गन्दी।
        बेरोजगारी भी बड़ी  और पड़ी देश में मन्दी।।

        अपराधी ज़ालिम बड़े और लड़े  देश में  द्रोही।
        किसी की ना सुनता कोई , जुल्म  बना आरोहि।।

        भाई कमाल के आशिक थे तुम भी 
        मुद्दतों ये मुद्दा  सरफराज करते हैं।
        दिल में  उमड़ते मोहब्बत के बादल 
         आज भी  बयाने अंदाज करते है।।

        बवाल की परम्परा को आप संजोये हुए हैं।
        खाम खां  इश्क में रोये हुए हैं।
        मोहब्बत में कहीं तुम  सहादत न करना 
        उलफत की जंग बहुत तो खोए हुए हैं।

        बवाल की परम्परा को आप संजोये हुए हैं।
        खाम खां  इश्क में रोये हुए हैं।
        मोहब्बत में कहीं तुम  सहादत न करना 
        उलफत की जंग में बहुत तो खोए हुए हैं।
        भक्ति गहराई में उतर कर देखो यहाँ भक्त खुशी में रोये हुए हैं ।

        मजबूरियाँ हालातों के जब से  साथ हैं।
        सफर में सैकड़ों  हजारों   फुटपाथ हैं।।

        सम्हल रहा हूँ जिन्दगी की दौड़ में गिर कर !
        किस्मतों को तराशने वाले भी कुछ हाथ हैं।

        गुरुर्मातृसमो नास्ति नास्ति भार्यासमःसखा।
        नीचावमाननाद्दुःखाद्दुःखं नास्ति यथा परम्।४०। 
        (विष्णु धर्मोत्तर पुराण  अध्याय 305 -)

        अनुवाद:-
        माता को समान गुरु नहीं है और पत्नी को समान सखा नहीं । नीच व्यक्ति द्वारा किया गया अपमान इस दुनियाँ का सबसे बड़ा दु:ख है।

         जीवन की अनन्त विस्तारमयी श्रँखलाओं में से एक कड़ी है वर्तमान जीवन और इस वर्तमान जीवन में घटित पहलू प्रारब्ध द्वारा निर्धारित हो गये है। इस संसार में प्रत्येक प्राणी के जीवन में सभी घटित  घटनाओं और प्राप्त  वस्तुओं का अस्तित्व उद्देश्य पूर्ण और सार्थक ही है। वह नियत है ,निश्चित है। उसके

        भले हीं उस समय  उनकी उपयोगिता हमारे जीवन के अनुकूल हो अथवा  न हो । क्योंकि उसकी घटित वास्तविकता का स्थूल रूप से हम्हें कभी बोध ही नहीं होता है।

        और लोगों को कभी भी भविष्य में स्वयं के द्वारा करने वाले कर्मों के लिए दाबा - और भूल से किए गये गलत कर्मों  के लिए भी पछतावा नहीं करना चाहिए।  क्यों कि भूल से जो कर्म हुआ वह काल से प्रेरित प्रारब्ध का विधान था । 
        बुद्धिमानी इसी में है कि अहंकार से रहित होकर उस परम सत्ता से मार्गदशन का निरन्तर आग्र क्या जाए।

        हाँ भूत काल की घटनाओं से उनके सकारात्मक या नकारात्मक रूप में घटित  परिणामों से मनुष्य को  शिक्षा लेकर भविष्य की  सुधारात्मक परियोजना का अवश्य विचार करना चाहिए। वहाँ  कर्म का दावा तो कभी नहीं करना चाहिए-

        यद्यपि कर्म तो वर्तमान के ही धरातल पर सम्पादित होता है। अत: वर्तमान को ही बहुत सजग तरीके जीना- जीवन है।

        भविष्य की घटित घटनाओं का ज्ञान  स्थूल दृष्टि से तो कोई नहीं कर सकता है।

        परन्तु रात्रि के अन्तिम पहर में देखे हुए स्वप्न भी जीवन में सन्निकट भविष्य में होने वाली कुछ घटनाओं का प्रकाशन अवश्य करते हैं। वास्तव में यह मन में स्फुटित प्रारब्ध का प्रकाशन है।

        ये भविष्य की घटनाएँ कभी प्रतिकूल प्रतीत होते हुए भी अनुकूल स्थितियों का निर्माण करती हैं ।

        और अनुकूल प्रतीत होते हुए भी वाली ये  घटनाएँ  प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण भी कर देती हैं। साधारण लोग इनके गूढ सत्य को नहीं जानते हैं!  ये सब तो प्रारब्ध के विधान ही हैं। 
        कभी कभी हम बचपन में केवल शोक अथवा सनक में ऐसी वस्तुओं का संग्रह कर लेते हैं जो उस समय तो निरर्थक और बेकार सी होती हैं परन्तु भविष्य में कभी उनकी उपयोगिता सार्थक हो जाती है। यही तो प्रारब्ध का विधान है।

        दर-असल प्रारब्ध अनेक जन्मों के मन के  निर्देशन द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों से किए गये कर्मों का सञ्चित रूप में से- एक जीवन के  निर्देशन के लिए विभाजित एक रूप है।

        अर्थात्  ( एक जीवन में फलित परिस्थितियों और उपलब्धियों की सुलभता का नाम प्रारब्ध है । स्वभाव की रवानगी में यही प्रारब्ध ही व्याप्त है। 
        यही प्रारब्ध भाग्य संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है।

        परन्तु जब लोग स्वभाव के विपरीत संयम से कुछ नया करते हैं तब  वह साधना नवीन कर्म संस्कार का निर्माण करती है। यही तपस्या अथवा साधना नवीन सृजन की भी क्रिया या शक्ति है। 
        यह क्रियमाण कर्म है - जिससे आगामी जीवन के प्रारब्ध का निर्माण होता है।

        यही जीवन का सत्य है। हमने जीवन की प्रयोगशाला में यह अनुभव रूपी प्रयोग भी किया है। यह प्रयोगशाला और प्रयोग सबका मौलिक ही होता है। सार्वजनिक कदापि नहीं सबका जीवन अपनी एक निजी प्रयोगशाला है। -

        दुनियाँ के सभी प्राणियों की क्रियाविधि काल के तन्तुओं से निर्मित‌ प्रारब्ध की डोर से नियन्त्रित है।

        परिस्थितियों के वस्त्रों में है डोर या धागा  सबका प्रारब्ध का ही लगा है   इसी वस्त्र से  जीवन आवृत  है।
         
        इसी लिए अहंकार रहित होकर कर्तव्य करने में ही जीवन की सार्थकता है। निष्काम भक्त इस संसार में सबसे बड़ा साधक है।

        धर्म का अधिष्ठाता यम हैं ।

        और यम की दार्शनिक व्याख्या की जाए तो 
        यम स्वाभाविकताऐं जो मन और सम्पूर्ण जीवन का अन्तत: पतन कर देती हैं। 
        उनके  नियमन अथवा ( निरोध) की विधि है।
        योगशास्त्र में प्रथम सूत्र है।

         योग की परिभाषा निरूपित करते हुए ।
        योगश्चितवृत्तिनिरोध:” चित्तवृत्ति के निरोध का नाम योग है | 
        चित्त अर्थात मन वृत्ति ( स्वाभाविक तरंगे) उनका निरोध( यमन - नियन्त्रण) करने के लिए ही जीवन में धर्माचरण आवश्यक है।
        इसी धर्माचरण के ही अन्य नाम व्रत- तपस्या -सदा चरण आदि हैं योग भी मन की वृत्तियों के नियन्त्रण की  क्रिया -विधि है।

         मन की इन्हीं वृत्तियों ( तरंगो) के नियन्त्रण हेतु कतिपय उपाय  आवश्यक होते हैं  जो संख्या में आठ माने जाते हैं। अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंगों में  (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) ‘बहिरंग’ हैं।

         और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) ‘अंतरंग’ नाम से प्रसिद्ध हैं।
        अत: यम बाह्य सदाचरण मूलक साधना है।
        यही धर्म है।

        बहिरंग साधना के यथार्थ रूप से अनुष्ठित या क्रियान्वित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है।

         यम’ और ‘नियम’ वस्तुत: शील और तपस्या के द्योतक हैं। 

        यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार का माना जाता है : (क) अहिंसा, (ख) सत्य, (ग) अस्तेय (चोरी न करना अर्थात्‌ दूसरे के द्रव्य के लिए स्पृहा न रखना) अथवा बिना उनकी अनुमति के उसकी इच्छा न करना।

        सत्य यही है कि व्यक्ति जब सदाचरण और यम की इन प्रक्रियाओं को करता है तो उसका अन्त:करण शुद्ध और मन बुद्ध ( बोध युक्त)हो जाता है बुद्धि चित् या मन की ही बोध शक्ति है।
        यहीं से ईश्वरीय ज्ञान का स्वत: स्फुरण होने लगता है। 
        इसी लिए तो साधक सन्त तपस्वी सबके मन की बात जान लेते हैं और अनेक भविष्य वाणीयाँ भी सटीक करते हैं।

        नास्तिक व्यक्ति आत्म चिन्तन से विमुख तथा मन की स्वाभाविक वासनामूलक वृत्तियों की लहरों में उछलता -डूबता हुआ  कभी भी शान्ति को प्राप्त नहीं होता और जो शान्ति से रहित व्यक्ति   सुखी अथवा आनन्दित कैसे रह सकता है ? आनन्द रहित व्यक्ति नीरस और निराशाओं में जीवन में सदैव अतृप्त ही रह जीवन बिता देता है।

        दर-असल नास्तिकता जन्म - जन्मान्तरों के सञ्चित अहंकार का घनीभूत रूप है। 

        जिसकी गिरफ्त हुआ व्यक्ति कभी भी सत्य का दर्शन नहीं कर सकता यही अहंकार अन्त:करण की मलीनता( गन्दिगी) के लिए उत्तरदायी है।

        अन्त:करण ( मन ,बुद्धि, चित्त ,और स्वत्वबोधकसत्ता का समष्टि रूप ) के शुद्ध होने पर ही सत्य का दर्शन होता है।

        और इस  अहंकार का निरोध ही तो भक्ति है।
        अहंकार व्यक्ति को सीमित और संकुचित दायरे में कैद कर देता है ।

        वह भक्ति जिसमें सत्य को जानकर उसके अनुरूप सम्पूर्ण जीवन के कर्म उस परम शक्ति के प्रति समर्पित करना होता है। जो जन्म और मृत्यु के द्वन्द्व से परे होते हुए भी इन रूपों को अपने लीला हेतु अवलम्बित करता है। वह अनन्त और सनातन है।

        मानवीय बुद्धि उसका एक अनुमान तो कर सकती है परन्तु अन्य पात्रता हीन व्यक्तियों के सामने व्याख्यान नहीं कर सकती हैं।

        संसार में कर्म इच्छओं  से कभी रहित नहीं होता है। 

        कर्म में इच्छा और इच्छाओं के मूल में संकल्प और संकल्प अहंकार का विकार -है।

        भक्ति में कर्म फल को भक्त ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है अत: ईश्वर स्वयं प्रेरणात्मक रूप से उसका मार्गदर्शन करता है ।

        जब एक बार किसी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो जाय तो जनसाधारण उनकी गलत बातों को भी सही मानते हैं। धर्म के क्षेत्र में यही सिद्धान्त लागू है।
        क्योंकि श्रद्धा तर्क विचार और विश्लेषण के द्वार बन्द कर देती है।

        जब जब व्यक्ति अपनी प्राप्तव्य वस्तु के अनुरूप योग्यता अर्जित कर लेता है वह वस्तु उसे प्राप्त हो के ही रहती है।
        देर भले ही हो जाय !

        वासना " तृष्णा " लोभ " मोह " और  लालसा" एक ही परिवार के सदस्य नहीं है। अपितु यह एक भाव ही  सभी अवान्तर भूमिकाओं में भिन्न भिन्न नाम धारण किए हुए है। 
        और "आवश्यकता" (जरूरत) नामक जो भाव है वह  इन सबसे पृथक  जीवन के अस्तित्व का अवधारक है। जरूरतें जैविक अवधान हैं सृष्टा द्वारा निर्धारित जीवन का विधान हैं।

        और जो वस्तु जीवन के लिए आवश्यक है वहीउसी रूप और अनुपात में उतनी ही सुन्दर भी  है।

        यद्यपि प्रत्येक इन्सान में  गुण- दोष होते ही हैं व्यक्ति स्वयं अपने दोषों पर गौर नहीं करता  परन्तु हम्हें तो उसके गुण ही ग्रहण करने चाहिए सायद वे हमारे लिए गुण न हों क्योंकि हम जिसे एक बार शत्रु मान लेते हैं उस व्यक्ति में चाहें कितने भी गुण हों वह हम्हें  दोष ही दिखाई देते हैं। क्यों कि उस शत्रु भाव से हमारे दृष्टि के लेन्स का कलर ही बदल जाता है।

        शत्रुता "ईर्ष्या" घृणा अथवा विरोध सभी भाव मूलत: उस व्यक्ति के हमारी प्रति वैचारिक प्रतिकूलता के प्रतिबिम्बित रूप हैं।
        यहीं से हमारे मस्तिष्क में पूर्वदुराग्रह का जन्म होता है। 
        ऐसी स्थिति में हमारा निर्णय कभी भी निष्पक्ष नहीं होता है।

        व्यक्ति को अपने लम्बे समय से चाहे हुए (आकाँक्षित) अभियान की शुरुआत स्थान को बदलकर ही करनी चाहिए।
         क्योंकि वह जिस स्थान पर दीर्घकाल से रह रहा है। वहाँ के लोगों की दृष्टि में  वह प्रभाव हीन और गुणों से हीन हो गया है। और वे लोग उसको लगातार हतोत्साहित और हीन बनाने के लिए मौके की तलाश में बैठे हैं।
        अच्छा है उस स्थान को बदल ही दिया जाए -

        जैसे कोई वाहन भार से युक्त होने पर आगे गति करते हुए यदि  सिलप होने लगे तो फिर लीख काटकर ही आगे बढ़ पाता है।

        क्योंकि उस वाहन की गति के अवरोधक  तत्व निरन्तर उसकी गति को अवरोधित  अथवा क्षीण करते हुए अपनी अवरोधन क्रिया का विस्तार ही करते ही रहते हैं।

        अन्य  गाँव का जोगिया 
        और गाँव का सिद्ध ।

        बराबर से दिखने लगे 
        लोगों को हंस और गिद्ध ।

        प्रेम धोखा पाई हुई स्त्री उस नागिन के समान  आक्रामक होती है जिसकी खोंटी कर दी गयी हो। और प्रेम में धोखा खाया हुआ पुरुष पागल हो जाता है जैसे उसकी बुद्धि को लकवा मार गया हो ! इस प्रकार का विश्लेषण प्राय हम करते रहते हैं।

        परन्तु ये वास्तव में प्रेम के नाम पर यह केवल सांसारिक स्वार्थ परक वासना मूलक आकर्षण ही है। इसे आप प्रेम नही कह सकते हैं।

        क्योंकि प्रेम कभी आक्रामक हो ही  नहीं सकता  प्रेम तो बलिदान और त्याग  का दूसरा नाम है। 

        स्त्रीयाँ में दर -असल व्यक्तियों के  गुण - वैभव और साहस की आकाँक्षी होती हैं।
         विशेषत: उन चीजों की जो उनके अन्दर नहीं हैं।
        जैसे तर्क " विश्लेषण की शक्ति " विचार अथवा चिन्तन और साहस या कठोरता प्राय: स्त्रियों में कम ही होता है पुरुष के मुकाबले स्त्रियाँ 
        पुरुष के  महज सौन्दर्य की आकाँक्षी कभी नहीं होती हैं।  
        स्त्रियों तथा पुरुषों  की दृष्टि में सौन्दर्य आवश्यकता मूलक दृष्टिकोण या नजरिया है। पुरुष की दृष्टि में स्त्रीयों की कोमलता ही सौन्दर्य है। पुरुष में कोमलता होती नहीं हैं  पुरुष तो परुषता या कठोरता का पुतला है। 

        और स्त्री रबड़ की गुड़िया-
        जैनों एक दूसरे के भावों के तलबदार हैं यही उनके परस्पर आकर्षण और मिलन का कारण भी है।
        यदि पुरुष इश्क कि शहंशाह है तो स्त्री हुश्न की मलिका है दोनों को एक दूसरे की चाह ( इच्छा) है।

        यह उनका एक बहुत महान दृष्टिकोण है। अधिकतर स्त्रीयाँ प्राय: समर्पित" सहनशील और निष्ठावान प्रवृत्ति की  होती हैं।

        आपने स्त्रियों को नास्तिक होते नहीं पाया होगा वे भावनाओं से आप्लावित होती हुई श्रद्धा भावनाओं का घनीभूत रूप है। 

         श्रद्धा भक्ति का ही समर्पण युक्त रूपांतरण है।
         जबकि अहंकार इसके विपरीत  भाव है। अहंकार के  जन्म जन्मातरों का घनीभूत रूप ही नास्तिकता है।

         स्त्रीया" भावनाओं से आप्लावित एक नाव को समान होती हैं।

        महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक जितेन्द्रिया और व्यवस्थापिका होती हैं।

        यह उनके गुण अनुकरणीय हैं।

        परन्तु दु:ख की बात की धर्म शास्त्र लिखने वाले पुरुषों ने स्त्रीयों के दोषों को ही देखा है गुणों को नहीं यही उनका पूर्वदुराग्रह उनकी विद्वत्ता पर कलंक है।


        दर्द जान की पहिचान है।

        मन एक समुद्र जिसमें विचारों की लहरें तब आन्दोलित होती हैं। जब विचारों का परस्पर आघात -प्रत्याघात ही ज्ञान के बुलबुले उत्पन्न करता है। जिसमें सिद्धान्त की ऑक्सीजन (प्राण वायु) समाहित होती है।
        बाल बढ़ाए तीनगुण लोग कहें महाराज ।
         साधक सा जीवन बने  सिद्धों में सरताज।।

         सिद्धों में सरताज  साधना जब हो  सच्ची।
        भोगों - रोगों से रहित ज़िन्दगी सबसे अच्छी ।

        साधना के पथ पर चलें, फाँसे जगत के जाल ।
        सबको सुलझाते रहो , यह याद दिलाते बाल!

        व्यक्ति का कर्म ही उसके उच्च और निम्न स्तर के मानक को सुनिश्चित करता है।
         न कि उसका जन्म ! अभावों और विकटताओं में जन्म लेने वाले भी महान बन जाते हैं और सम्पन्नता और भोग विलास में जीवन यापन करने वाले भी पतित और चरित्रहीन हो जाते हैं।

        "सराफत की दुहाई देने वाले अधिकर दोषी निकले।
        परिवार का जिनको हम समझ रहे वे पड़ोसी निकले।।

        भौतिक उपलब्धियाँ व्यक्ति की हैसियत का मापन तो कर सकती हैं परन्तु उसकी शख्सियत का मापन तो उसके आचरण और विचारों की महानता ही करती है।
        अत: सस्ती लोकप्रियता के बदले अपने विचारों की महानता का समझौता मत करो!

        अनुमान का सत्य के इर्दगिर्द विश्लेषण होता है सत्य केन्द्र है तो अनुमान परिधि !

        ज़िन्दगी के सफर में 
        आशंकाओं के जब ब्रेकर बहुत हो।
        ज़िन्दगी  रेंग रेंग चलती है।
        मंजिल कैसे फतह हो।।

        आशंकाऐ सम्भावी अनहोनीयों के द्वार भी बन्द कर देती हैं। ये इन आशंकओं का सकारात्मक पक्ष है कि ये अनिष्टों के प्रति सदैव सावधान करती हैं। इस प्रकार विधाता ने इनको भी सार्थकता दी है

        संसार में सामाजिक सारोकारों के तीन कारण दिखाई देते हैं। कर्तव्य - मोह और स्वार्थ 
        कर्तव्य निर्देश करता है कि मनुष्य को क्या करना चाहिए ताकि उसका जीवन सफल हो सार्थक हो।

        "भगवद् गीता अध्याय 5 श्लोक 11

        "कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
        योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये।।5.11।।

        हिंदी अनुवाद - कर्मयोगी आसक्तिका त्याग करके केवल (ममतारहित) इन्द्रियाँशरीरमनबुद्धिके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ही कर्म करते हैं।
        मूल श्लोकः
        निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
        शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।4.21।।
         अनुवाद:-जो आशा रहित है तथा जिसने चित्त और आत्मा (शरीर) को संयमित किया है,  जिसने सब परिग्रहों का त्याग किया है,  ऐसा पुरुष शारीरिक कर्म करते हुए भी पाप को नहीं प्राप्त होता है।।


        मन आग्रह ही स्मरण है ।   
        किसी भावों के आवेश से युक्त मन निर्णय उसी के उसी से सम्बन्धित वस्तु के पक्ष में लेता है।

        _________________________________



        जिस प्रकार अग्नि में क्वथित बीज (उबला हुआ बीज) अंकुरित नहीं होता है उसी प्रकार तत्व ज्ञान (यथार्थ ज्ञान) की अग्नि में दग्ध (जला हुआ) अहंकार से रहित  संकल्प और उससे उत्पन्न कामनाओं से रहित कर्म भी कभी फल देने वाला नहीं होता है।

        श्रीमद्भगवद्गीता का निम्न श्लोक कर्म फल की सम्यक् व्याख्या करता है।
        कहने तात्पर्य है कि संसार के हर कर्म के पीछे इच्छाओं का हाथ है। और इच्छाओं का कारण संकल्प ( मन का दृढ़ निश्चय) और संकल्प का कारण व्यक्ति का अहंकार है। और इस अहंकार के पीछे कारण है व्यक्ति का वह अज्ञान जिसके कारण कभी सत्य का पूर्णरूप से बोध नहीं होता है।
        निम्नलिखित श्लोक में कर्म बन्धन से मुक्त होने की विधि का वर्णन है। क्योंकि कर्म बन्धन में
         पड़ा हुआ व्यक्ति द्वन्द्व (दु:ख-सुख) अथवा किस से लगाव -अलगाव आदि परस्पर विरोधी भावों से सदैव समान रूप से प्रभावित रहता है।
        यही संसार का अनवरत चक्र गतिशील रहता है।
        श्रीमद्भगवद्गीता दृश्य ( तमाशा) न बनाकर तमाशा देखने वाला बनने की शिक्षा देती है।
        श्रीमद्भगवद्गीता का वह श्लोक जिसमें कर्म फल से मुक्त होने की विधि का वर्णन है।

        श्रीमद्भगवद्गीता -  4.19  
        "यस्य सर्वे समारम्भाः कर्मा: कामसंकल्पवर्जिताः।
        ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं  तमाहुः पण्डितं बुधाः॥ १९॥
        शब्दार्थ-
        यस्य—जिसके; सर्वे—सभी प्रकार के; समारम्भा:— समान रूप से आरम्भ ; कर्मा: कर्म समूह काम—इच्छा/ ; सङ्कल्प— मन का निश्चय; वर्जिता:—से रहित हैं; ज्ञान— ज्ञान की; अग्नि—अग्नि द्वारा; दग्ध—भस्म हुए; कर्माणम्—जिसका कर्म; तम्—उसको; आहु:—कहते हैं; पण्डितम्—बुद्धिमान्; बुधा:—बोध सम्पन्न ।.
         
        भावार्थ--
        जिस तत्वज्ञानी व्यक्ति के सभी कर्म -अहंकार जनित संकल्पों के प्रवाहात्मिका रूपा कामनाओं(इच्छाओं)  से रहित हो जाऐं  तो वह कभी भी संसार के कर्मफल का भागी नही होता यदि उससे कोई अप्राकृतिक अथवा उन्मादी कृत्य (कर्म) भी हो जाए तो  प्रायश्चित करने पर उसका शुद्धि करण हो जाता है।

        जिस प्रकार अग्नि में क्वथित( उबला हुआ) बीज अंकुरित नहीं होता है। उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि में तप्त कर्म रूपी बीज संकल्प और इच्छाओं के रूप में 
        अंकुरित नहीं होता है। अन्यथा संसारी लोग अहंकार के गुण संकल्प और संकल्प के प्रवाह इच्छाओं के वशीभूत होकर ही कर्म में प्रवृत होते हैं।
        जिनके फल भोग के लिए ही उनका अनेक जीवों के रूप में वृत्ति और प्रवृत्ति के अनुरूप जन्म होता है।
        आज भी वास्तविक अध्यात्म का प्रतिपादक श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद है।

        श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्यायः में  कर्मयोग  का  बड़ा सैद्धान्तिक विवेचन है।

        द्वितीय अध्याय में  श्रीकृष्ण ने श्लोक 11 से श्लोक 30 तक आत्मतत्त्व का विवेचन कर  सांख्ययोग का प्रतिपादन किया ।

        तत्पश्चात्  श्लोक 31 से श्लोक 53 तक समस्त बुद्धिरूप कर्मयोग के द्वारा परमेश्वर को पाये हुए "स्थितप्रज्ञ" सिद्ध पुरुष के लक्षण, आचरण और महत्व का स्वाभाविक  प्रतिपादन किया है।

        इसमें कर्मयोग की महिमा बताते हुए कृष्ण ने 47 तथा 48 वें श्लोक में कर्मयोग का स्वरूप बताकर अर्जुन को कर्म करने को प्रेरित किया है।

        49 वें श्लोक में समत्व बुद्धिरूप कर्मयोग की अपेक्षा सकाम कर्म का स्थान बहुत निम्न बताया है। इसी अध्याय के  50 वें श्लोक में समत्व बुद्धियुक्त पुरुष की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग में संलग्न हो जाने के लिए कहा और 51 वें श्लोक में बताया कि समत्व बुद्धियुक्त ज्ञानी पुरुष को परम पद की प्राप्ति होती है।
        यह प्रसंग सुनकर अर्जुन ठीक से निश्चय नहीं कर पाया कि मुझे क्या करना चाहिए ? (मह्यं किं कर्त्तव्यम्)
        इसलिए कृष्ण से उसका और स्पष्टीकरण कराने तथा अपना निश्चित कल्याण जानने की इच्छा से अर्जुन पुन: कृष्ण से पूछते हैं जिसे तृतीय अध्याय में निर्देशित किया गया है।

                           "अथ तृतीयोऽध्यायः।

                              "अर्जुन उवाच"
        ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
        तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।1।।
        अनुवाद-अर्जुन बोलेः हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?

        व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
        तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।2।।
        अनुवाद-आप मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं | इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ ।

                        'श्रीभगवानुवाच'
        लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
        ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।।
        अनुवाद-श्री भगवनान बोलेः हे निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है | उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है |

        न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
        न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।।
        अनुवाद-मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है!

        न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
        कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
        अनुवाद-निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |

        कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
        इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
        अनुवाद-जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |

        यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
        कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
        अनुवाद-किन्तु हे  अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |

        नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
        शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः।।8।।
        अनुवाद-तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा |

        यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
        तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।।9।।
        अनुवाद-यज्ञ के निमित्त किये जाने कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर |
        ____________________
        सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
        अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिवष्टकामधुक्।।10।।
        अनुवाद-प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो |

        देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
        परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11।।
        अनुवाद-तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें  इस प्रकार निःस्वार्थभाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे!

        इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
        तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः।।12।।
        अनुवाद-यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है |

        यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
        आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।17।।
        अनुवाद-परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है |

        नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
        न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
        अनुवाद-उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |
        ____________________
        तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
        असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।19।।
        अनुवाद-इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भली भाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है !

        कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
        लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।20।।
        अनुवाद-जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे | इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है |

        यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
        स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।21।।
        अनुवाद-श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं | वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसके अनुसार बरतने लग जाता है |

        न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
        नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।22।।
        अनुवाद-हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है न ही कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ |

        यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यन्द्रितः।
        मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।23।।
        अनुवाद-क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए, क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं |

        उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
        संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।24।।
        अनुवाद-इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायें और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ |

        सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
        कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।25।।
        अनुवाद- हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे |

        न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
        जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।26।।
        अनुवाद- परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उन्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे |
        ______________________
        प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
        अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।27।।
        अनुवाद-वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है !

        तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
        गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।28।।
        अनुवाद-परन्तु हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्त्व को जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण-ही-गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता |

        प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
        तानकृत्स्न्नविदो मन्दान्कृत्स्न्नविन्न विचालयेत्।।29।।
        अनुवाद-प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी विचलित न करे |

        सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
        प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।33।।
        अनुवाद-सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करते है| फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा |

        इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
        तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।34।।
        अनुवाद-इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं |

        श्रेयान्स्वधर्मो विगुण परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
        स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।35।।
        अनुवाद-अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है |
        ______________________

                           अर्जुन उवाच
        अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।
        अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।36।।
        अनुवाद-अर्जुन बोलेः हे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है?

                            'श्रीभगवानुवाच
        काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद् भवः
        महाशनो महापाप्मा विद्धेयनमिह वैरिणम्।।37।।
        अनुवाद-श्री भगवान बोलेः रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अर्थात् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान !

        धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
        यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।38।।
        अनुवाद-जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है |

        आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा
        कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।39।।
        अनुवाद-और हे अर्जुन ! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने
        वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है !

        इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
        एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।40।।
        अनुवाद-इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि – ये सब वास स्थान कहे जाते हैं | यह काम( सेक्स प्रवृत्ति) इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है |

        तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
        पाप्मान प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।41।।
        अनुवाद-इसलिए हे अर्जुन ! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल |

        इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
        मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।42।।
        अनुवाद-इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानि श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं | इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है |

        एवं बुद्धेः परं बुद् ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
        जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।43।।
        अनुवाद-इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात् सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल |
        _________________________________
        अर्थात - इस प्रकार हे अर्जुन ! आत्मा को लौकिक बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर संयम रखो और आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी दुर्जेय शत्रु का दमन करो।

        कठोपनिषद् में रथ " रथी तथा सारथी के उपमान विधान  से शरीर" आत्मा और बुद्धि तत्व  की बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है।

        "आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
        बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च। 3।
        इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
        आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः। 4।

        (कठोपनिषद्-1.3.3-4)

        श्रीमद्भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मेविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः |3|
        इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के
        श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'कर्मयोग' नामक तृतीय अध्याय सम्पन्न हुआ |

        आत्मानं रथिनं विद्धि- आत्मा को रथ समझो !
        संसार की कामनाओं में काम ( उपभोग करने की इच्छा-अथवा बुभुक्षा- का समावेश है और ये कामनाऐं अपनी तृप्ति हेतु अनैतिक और पापपूर्ण परिणामों का कारण बनती हैं ।

        इसी पाप का परिणाम संसार की यातना और असंख्य पीड़ाऐं हैं  इन कामनाओं का दिशा परिवर्तन आध्यात्मिक कारणों से ही सम्भव है ।

        कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र ऋषिकुमार नचिकेता और यम देवता के बीच प्रश्नोत्तरों की कथा का आध्यात्मिक वर्णन है ।
        बालक नचिकेता की शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य का सम्बन्ध को स्पष्ट करते हैं ।

        संबंधित आख्यान में यम देव के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन जीवन सार्थक उपमा  के रूप  हैं !
        _________________
         आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
        बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।३।

        (कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
        (आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।)

        इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।
        (लगाम –
        इंद्रियों पर नियंत्रण का हेतु,
        अगले मंत्र में उल्लेख
        __________________
        इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।। ४

        (कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)
        (मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः ।)

        मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं,
        इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ की सबारी  करने वाला बताया है

        प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन  आध्यात्मिकता प्रधान रहा है। ।
        ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा  परन्तु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें जीवन के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कर सकें ।

        उनकी जीवन-पद्धति प्राय:  आधुनिक काल की  भौतिक पद्धति के विपरीत रही ।
        स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं।

        उनके दर्शन के अनुसार मृत्यु से परे आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के अति चेतन चेतन और अवचेतन आदि स्तरों द्वारा करती हैं ।

        मन का संबंध बाहरी जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है ।
        दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ अर्थात्  जननेद्रिय,।

        पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्यायित करता है मन के उसी विकल्प को सुख अथवा दुःख के रूप में जाना जाता है ।

        इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।

        किन विषयों में इंद्रियां विचरण करेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को ग्रहण करेगी  यह मन के उन पर नियंत्रण पर निर्भर करता है ।

        इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से रहा है परन्तु जब मन के वासनाऐं समाप्त होकर बुद्धि में में ईश्वरीय ज्ञान का प्रकाश होता है।

        उपर्युक्त श्लोकों के अनुसार क्या करना चाहिए है और क्या नहीं करना चाहिए इसका निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों को निर्देशित करता है ।

        इन मंत्रों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा बुद्धिरूपी सारथी नियंत्रण रखता है ।
        _______________________________

        रथ:शरीर पुरुष सत्य दृष्टतात्मा नियतेन्द्रियाण्याहुरश्वान् ।
        तैरप्रमत:कुशली सदश्वैर्दान्तै:सुखं याति रथीव धीर:।२३।

        षण्णामात्मनि युक्तानामिन्द्रयाणां प्रमाथिनाम् ।
        यो धीरे धारयेत् रश्मीन् स स्यात् परमसारथि:।२४।

        इन्द्रियाणां प्रसृष्टानां हयानामिव वर्त्मसु धृतिं कुर्वीत सारथ्येधृत्या तानि ध्रुवम् ।२५।

        इन्द्रियाणां विचरतां यनमनोऽनु विधीयते ।
        तदस्य हरते बुदिं नावं वायुरिवाम्भसि ।२६।

        येषु विप्रतिपद्यन्ते षट्सु मोहात् फलागमम्।
        तेष्वध्यवसिताध्यायी विन्दते ध्यानजं फलम् ।२७।

        इति महाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेय समस्या पर्वणि ब्राह्मण व्याधसंवादे एकादशाधिकद्विशततमोऽध्याय:(211 वाँ अध्याय)



        ________________________________

        पुरुष का यह प्रत्‍यक्ष देखने में आने वाला स्‍थूल शरीर रथ के समान है। बुद्धि सारथि है और इन्द्रियों को घोड़े  बताया गया है। जैसे कुशल, सावधान एवं धीर सारथी, उत्तम घोड़ों को अपने वश में रखकर उनके द्वारा सुख पूर्वक मार्ग सुगम्य करता है, उसी प्रकार सावधान, धीर एवं  पुरुष की बुद्धि मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करके सुख से जीवन यात्रा तय  करती है।२३।

        जो धीर पुरुष अपने शरीर में नित्‍य विद्यमान छ: प्रमथनशील इन्द्रिय रुपी अश्वों  की लगाम संभालता है, वही उत्तम सारथी हो सकता है । २४।

        सड़क पर दौड़ने वाले घोड़ों की तरह विषयों में विचरने वाली इन इन्द्रियों को वश में करने के लिये धैर्य पूर्वक प्रयत्‍न करे। धैर्यपूर्वक उद्योग करने वाले को उन पर अवश्‍य विजय प्राप्‍त होती है।२५।

        जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्‍त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ।२६।

        सभी मनुष्‍य इन छ: इन्द्रियों के शब्‍द, रस  आदि विषयों में उनसे प्राप्‍त होने वाले सुखरुप फल पाने के सम्‍बन्‍ध में मोह से संशय में पड़ जाते हैं। परंतु जो उनके दोषों का अनुसंधान करने वाला वीतराग पुरुष है, वह उनका निग्रह करके ध्‍यानजनित आनन्‍द का अनुभव करता है ।२७।
        ___________________         
        इस प्रकार श्री महाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेय समस्‍या पर्व में ब्राह्मण व्‍याध संवाद विषयक दो सौ ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ

        आत्मा को वैदिक सन्दर्भों में "स्वर् अथवा "स्व: कह कर वर्णित किया है। परवर्ती तद्भव रूप में श्वस् धातु भी स्वर् का ही विकसित रूप है ।

        आद्य-जर्मनिक भाषाओं:- swḗsa( स्वेसा ) तथा swījēn( स्वजेन) शब्द आत्म बोधक हैं।
        अर्थात् own, relation प्राचीनत्तम जर्मन- गोथिक में:
        1-swēs (a) 2-`own'; swēs n. (b) `property' 2- पुरानी नॉर्स (Old Norse): svās-s `lieb, traut' 3-Old Danish: Run. dat. sg. suasum 4-Old English: swǟs `lieb, eigen' 5-Old Frisian: swēs `verwandt'; sīa `Verwandter' 6-Old Saxon: swās `lieb' 7-Old High German: { swās ` 8-Middle High German: swās Indo-European Proto- indo European se-, *sow[e] *swe- स्व 9-Old Indian: poss. svá- 10-Avestan: hva-हवा xva- जवा 'eigen, suus', hava- hvāvōya, xvāi Other Iranian: 11-OldPersian huva- 'eigen, suus' 12-Armenian: in-khn, gen. in-khean 'selbst', iur 'sui, sibi' 13-Latin: sibī, sē; sovos (OldLat), suus 14-Proto-Baltic: *sei-, *saw-, *seb- Meaning: self Indo-European etymology 15- Old Lithuanian: sawi, sau.

        संस्कृत भाषाओं में तथा वैदिक भाषाओं में स्व: शब्द आत्म बोधक है। ___________________________________

        "स्वेन स्वभावेन सुखेन, वा तिष्ठति स्था धातु विसर्गलोपः । स्वभावस्थे अर्थात्‌ स्व आत्मनि तिष्ठति स्थायते इति स्वस्थ: अर्थात्‌ --जो स्वयं मे स्थित है 'वह सच्चे अर्थों में स्वस्थ है ।।

        योग स्वास्थ्य का साधक है ।

        पञ्चम् सदी में पुना-रचित श्रीमद्भगवत् गीता मे योग की उत्तम परिभाषा बताया है ।
        भगवद्गीता के अनुसार योग :–👇

        "सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा निष्काम कुरु कर्माणि समत्वं योग उच्चते ।।
        श्रीमद्भगवत् गीता(2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्द्व भावों में सर्वत्र सम होकर निष्काम कर्म कर ! क्यों कि समता ही योग है।

        समता में ही समग्र सृष्टि के विकास और ह्रास की व्याख्या निहित है।

        भगवद्गीता के अनुसार -👇 " तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् " अर्थात् इसलिए योग से जुड़ यह योग ही कर्मों में कुशलता है । कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्म करना चाहिए इस प्रकार का कर्म करने का कौशल ही योग है। पूर्ण श्लोक इस प्रकार है 👇 ____________________________________ बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
        बुद्धि(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। तब यह समता योग है । अतः तू योग(समता) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।।।2.50।। 🌸

        पाप और पुण्य मन की धारणायें हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ मन पर वासनाओं के रूप में अंकित होती हैं।
        --जो जन्म- जन्म का संस्कार बनती हैं ।
        मनरूपी विक्षुब्ध समुद्र के साथ जो व्यक्ति तादात्म्य नहीं करता वह वासनाओं की ऊँची-ऊँची तरंगों के द्वारा न तो ऊपर फेंका जायेगा और न नीचे ही डुबोया जायेगा।

        यहाँ वर्णित मन का बुद्धि के साथ युक्त होना ही बुद्धियुक्त शब्द का अर्थ है। जैसे चक्र के दो अरे होतें हैं ।
        जिनके क्रमश: ऊपर आने और जाने से ही चक्र घूर्णन करता है ।
        और मन ही इस द्वन्द्व रूपी अरों वाले संसार चक्र में घुमाता है ।

        संसार या संसृति चक्र है तो द्वन्द्व रूपी अरे दु :ख -सुख हैं। योग शब्द यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: रोम की प्राचीनत्त भाषाओं लैटिन में यूज (use) के रूप में है । इसमें भी युति( युत् ) इसका मूल रूप है --जो पुरानी लैटिन में उति (oeti) है।👇 ____________________________________use," frequentative form of past participle stem of Latin uti "make use of, profit by, take advantage of, enjoy, apply, consume,"

        पुरानी लैटिन में युति क्रिया है। जिससे यूज शब्द का विकास हुआ; परन्तु अंग्रेज़ी का यूज ( Use) संस्कृत की युज् धातु के अत्यधिक समीप है । जिससे (युज्+घञ् ) इन धातु प्रत्यय के योग से योग शब्द बनता है । ____________________________________ योग स्वास्थ्य की सम्यक् साधना है । 👇
        योग और स्वास्थ्य इन दौनों का पारस्परिक सातत्य समन्वय है ।

        योग’ शब्द ‘युजँ समाधौ’ संयमने च आत्मनेपदीय धातु रूप चुरादिगणीय सेट् उभयपदीय धातु में ‘घञ् " प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।

        इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध।

        और चित्त की वृत्ति क्या हैं मन की चञ्चलता --जो उसके स्वाभाविक 'व्यापार' का स्वरूप है। योग के अनुसार चित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई हैं 👇

        १-क्षिप्त, २-मूढ़ ३-विक्षिप्त, ४-एकाग्र और ५-निरुद्ध। चित्त की वृत्ति का अर्थ चित्त के कार्य (व्यापार) जो स्वभाव जन्य हैं साधारण रूप में चित्त ही हमारी चेतना का संवाहक है ।

        --जो विचार (चिन्तन)और चित्रण (दर्शन) की शक्ति देता है । साँख्य-दर्शन के अनुसार चित्त अन्तःकरण की एक वृत्ति है।

        स्वामी सदानन्द ने वेदान्तसार में अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ वर्णित की हैं— 👇मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ।

        १-संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन कहते हैं । २-निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि (-जब आत्मा का प्रकाश मन पर परावर्तित होता है तब निर्णय शक्ति उत्पन्न होती है।

        और वही बुद्धि है और इन्हीं दोनों मन और बुद्धि के अन्तर्गत चिन्तनात्मक वृत्ति को चित्त और अस्मिता अथवा अहंता वृत्ति को अंहकार कहते हैं।

        ये ही शूक्ष्म शरीर के साथ सम्पृक्त (जुड़े)रहते हैं । योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते ।

        वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे जीव कहते हैं। उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती।
        🌸🌸🌸

        योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है—१:- प्रमाण, २-विपर्यय,३- विकल्प, ४-निद्रा और ५-स्मृति तथा ६-प्रत्यक्ष, ७-अनुमान और ८-शब्दप्रमाण; ये भी चित्त की संज्ञानात्मक वृत्तियाँ-हैं । चित्त की पाँच वृत्तियाँ इसकी पाँच अवस्थाऐं ही हैं ।

        नामकरण में भिन्नता होते हुए भी गुणों में समानताओं के स्तर हैं ।

        १- एक में दूसरे का भ्रम–विपर्यय है २-स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना – विकल्प है ३-सब विषयों के अभाव का बोध निद्रा है ४-और कालान्तरण में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है यह जाग्रति का बोध है ।

        पञ्च-दशी तथा और अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में मन या चित्त का स्थान हृदय या हृत्पझगोलक लिखा है। परन्तु आधुनिक पाश्चात्य जीव-विज्ञान ने अंतःकरण के सारे व्यापारों का स्थान मस्तिष्क में माना है जो सब ज्ञानतन्तुओं का केंद्रस्थान है । खोपड़ी के अंदर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, जिसे मेण्डुला कहते है वहीं विचार और चेतना केन्द्रित है ।

        वही अंतःकरण है और उसी के सूक्ष्म मज्जा-तन्तु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापारी होते हैं ।

        ये तन्तु और कोश प्राणी की कशेरुका या रीढरज्जु से सम्पृक्त हैं ।

        भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- विशेष का नाम है।

        जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है और बड़े जीवों में क्रमशः बढ़ता जाता है इस व्यापार का प्राणरस/ जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) के कुछ विकारों के साथ नित्य सम्बन्ध है।
        जीव-विज्ञानी कोशिका को जीवन का इकाई मानते हैं । मस्तिष्क के ब्रह्म (Bragma) भाग में पीनियल ग्रन्थि ही आत्मा का स्थान है ।

        👂👇👂👂 पीनियल ग्रन्थि (जिसे पीनियल पिण्ड, एपिफ़ीसिस सेरिब्रि, एपिफ़ीसिस या "तीसरा नेत्र" भी कहा जाता है।

        यह पृष्ठवंशी मस्तिष्क में स्थित एक छोटी-सी अंतःस्रावी ग्रंथि है। यह सेरोटोनिन और मेलाटोनिन को सृजन करती है, जोकि जागने/सोने के ढर्रे तथा मौसमी गतिविधियों का नियमन करने वाला हार्मोन का रूप है। ___________________________________
        इसका आकार एक छोटे से पाइन शंकु से मिलता-जुलता है (इसलिए तदनुसार इसका नाम करण हुआ ) और यह मस्तिष्क के केंद्र में दोनों गोलार्धों के बीच, खांचे में सिमटी हुई स्थिति में रहती है, जहां दोनों गोलकार चेतकीय पिंड जुड़ते हैं।

        उपस्थिति मानव में पीनियल ग्रंथी लाल-भूरे रंग की और लगभग चावल के दाने के बराबर आकार वाली (5-8 मिली-मीटर), ऊर्ध्व लघु उभार के ठीक पीछे, पार्श्विक चेतकीय पिण्डों के बीच, स्ट्रैया मेड्युलारिस के पीछे अवस्थित है।
        यह अधिचेतक भाग का अवयव है।

        पीनियल ग्रन्थि एक मध्यवर्ती संरचना है और अक्सर खोपड़ी के मध्य सामान्य एक्स-रे में देखी जा सकती है, क्योंकि प्रायः यह कैल्सीकृत होता है।

        पीनियल ग्रन्थि को आत्मा का आसन भी कहा जाता है ।
        --जो चेतनामय क्रियाओं की सञ्चालक है ।

        वस्तुत चित्त ही जीवात्मा का सञ्चालक रूप है ; और चित्त ही स्व है और स्व का अपने मूल रूप में स्थित होने का भाव ही स्वास्थ्य है ।

        और यह केवल और केवल योग से ही सम्भव है । योग संसार में सदीयों से आध्यात्मिक साधना-पद्धति का सिद्धि-विधायक रूप रहा है । और योग से ही ज्ञान का प्रकाश होता है ।

        और ज्ञान ही जान है ।
        अस्तित्व की पहिचान है ।

        कठोपोपनिषद में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से आत्मा, बुद्धि ,मन तथा इन्द्रीयों के सम्बन्ध का पारस्परिक वर्णन इस किया गया है ।👇 __________________________________

        आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
        बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।। इन्द्रियाणि हयान् आहु: विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियं मनोयुक्तं भोक्ता इति आहुर्मनीषिणा ।। ( कठोपोपनिषद अध्याय १ वल्ली ३ मन्त्र ३-४ ) अर्थात् मनीषियों ने आत्मा को रथेष्ठा( रथ में बैठने वाला ) ही कहा है । अर्थात् --जो (केवल प्रेरक है और जो केवल बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित ही करता है।
        --जो स्वयं चालक नहीं है । यह शरीर रथ है । बुद्धि जिसमें सारथी तथा मन लगाम ( प्रग्रह)–पगाह इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े ।
        और आगे तो आप समझ ही गये होंगे ।

        एक विचारणीय तथ्य है कि आत्मा को प्रेरक सत्ता को रूप में स्वीकार किया जा सकती है ।

        --जो वास्तविक रूप में कर्ता भाव से रहित है । भारोपीय भाषाओं में प्रचलित है ।
        (प्रेत -Spirit ) शब्द आत्मा की प्रेरक सत्ता का ही बोधक है। आत्मा कर्म तो नहीं करता परन्तु प्रेरणा अवश्य करता है।

        और प्रेरणा कोई कर्म-- नहीं ! अत: आत्मा को प्रेत भी इसी कारण से कहा गया ।

        परन्तु कालान्तरण में अज्ञानता के प्रभाव से प्रेत का अर्थ ही बदल गया !

        इसीलिए आत्मा का विशेषण प्रेत शब्द सार्थक होना चाहिए।
        प्रेत शब्द पर हम आगे यथास्थान व्याख्या करेंगे ।
        कठोपोपनिषद का यह श्लोक श्रीमद्भगवत् गीता में भी था ।

        परन्तु उसे हटा दिया गया ।
        यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है ।
        वास्तव में रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है ।
        रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है ।

        और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि तो रथ हाँकने वाला सारथि जानलें । और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या लगाम है।
        अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है।

        जिसका नियन्त्रण बुद्धिके हाथों में मन का नियन्त्रण होता है ।
        विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं ।
        और विषय ही मार्ग में आया हुआ ग्रास आदि । वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है।
        जब मन में अहं का भाव हो जाय ।

        परन्तु यह सब अज्ञानता जनित प्रतीति है । क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं । जो परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं । परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है ।

        आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)-आनन्द ) मनीषियों ने कहा है अर्थात्‌ सच्चिदानन्द। अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे मिलता है ।

        और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है ।
        यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में पीसता है  ___________________________________

        पाँचवीं सदी में कृष्ण के आध्यात्मिक सिद्धान्तों की संग्राहिका उपनिषद् श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है । यद्यपि श्रीमद्भगवद्गीता में आध्यात्मिक ज्ञान से समन्वित श्लोकों को छोड़कर प्राय: श्लोक वर्णव्यवस्था के मण्डन हेतु जोड़े गये हैं । परन्तु गीता के आध्यात्मिक सिद्धान्त सत्य के सन्निकट ही हैं। जो सांख्य और वैदान्त के सिद्धान्तों का ही प्रतिपादन करते हैं।


        वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना पड़ेगा ।
        क्यों संसार द्वन्द्व रूप है ।👇

        "अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।10.33।।
        मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।।

        अर्थात्‌ ये मेरी विभूतियाँ हैं ।
        भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ"।
        अ स्वर का ही उदात्त ऊर्ध्वगामी रूप "उ" तथा अनुदात्त निम्न गामी "इ" रूप है ।
        और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए  "अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ ।
        दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-एकरूपता श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान है ।
        "ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण केरूप मे गुम्फित है । और "अ" आत्मा के रूप में ।
        अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है। हिब्रू संस्कृतियों तथा फोएनशियन आदि सैमेटिक भाषाओं अलेफ है ।

        मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात्‌ द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है । संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं।
        समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है।

        द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है? जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का।
        यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इसकी रचना भी सरल है। अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता?

        -जैसे माया और ईश्वर । परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जितने कि एक वैय्याकरण के लिए द्वन्द्व समास के दो पद। मैं अक्षय काल हूँ पहले भी यह उल्लेख किया जा चुका है कि गणना करने वालों में मैं काल हूँ।

        वहाँ सापेक्षिक काल का निर्देश था ? जबकि यहाँ अनन्त पारमार्थिक काल को इंगित किया गया है। अक्षय काल को ही महाकाल कहते हैं। संक्षेपत दोनों कथनों का तात्पर्य यह है कि मन के द्वारा परिच्छिन्न रूप में अनुभव किया जाने वाला काल तथा अनन्त काल इन दोनों का अधिष्ठान आत्मा है। प्रत्येक क्षणिक काल के भान के बिना सम्पूर्ण काल का ज्ञान असंभव है।

        अत: मैं प्रत्येक काल खण्ड में हूँ? तथा उसी प्रकार? सम्पूर्ण काल का भी अधिष्ठान हूँ।
        मैं धाता हूँ श्रीशंकराचार्य अपने भाष्य में इस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि ईश्वर धाता अर्थात् कर्मफलविधाता है। द्वन्द्व को समझने का माध्यम योग है ।

        उस तराजू को योग करते हैं जिसको दौनों पलड़े बराबर हों ।

          -----------------------------------------------------
        अत: मन को ही आत्मा जब बुद्धि या ज्ञान शक्ति के द्वारा वशीभूत कर , इन्द्रीयों पर नियन्त्रण करती है । तब ही स्व की स्थति स्वास्थ्य है ।
        परन्तु कालान्तरण में -जब लोग अल्पज्ञानी हो गये तब अन्त्र (आँत) को ही आत्मा और उसकी क्रिया-विधि के सकारात्मक रूप को स्वास्थ्य कहने लगे । यानि शरीर की नीरोग अवस्था ।
        परन्तु आधुनिक योग शास्त्र के अनुसार तन ,मन और सामाजिक पृष्ठभूमि पर आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सभ्यता मूलक स्तर पर जो सन्तुष्ट है ; 'वह स्वस्थ है  ___________________________________
        आध्यात्मिक स्तर पर स्वास्थ्य से तात्पर्य है । आत्मा की मूल स्वाभाविक स्थिति" बौद्धमतावलंबी भी जो पुष्य-मित्र सुंग कालीन ब्राह्मणों के द्वारा व्याख्यायित ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, परन्तु योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं।
        क्यों कि योग द्रविड़ो की आध्यात्मिक साधना-पद्धति है ।

        अत: योग पर केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं । बौद्ध ,जैनों आदि सबने योग को स्वीकार किया । यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पतञ्जलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है।

        इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।

        परन्तु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है।

        पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा।
        क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध (फलित भाग्य) दहन हो गया होगा।

        निरोध यदि सम्भव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ?
        योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो।
        विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।

        संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक्‌ रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। क्यों जीवन ही कर्म मय है । 👇

        "न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
        कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।3.5।

        कोई भी मनुष्य कभी किसी भी क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों द्वारा परवश हुए अवश्य ही कर्मों में प्रवृत्त कर दिये जाते हैं। यहाँ सभी प्राणीके साथ अज्ञानी विशेषण ( शब्द )जोड़ना चाहिये क्योंकि आगे के प्रकरण में जो गुणों से विचलित नहीं किया जा सकता इस कथन से ज्ञानियों को अलग किया है ।

        अतः अज्ञानियों के लिये ही कर्मयोग है ज्ञानियों के लिये नहीं। क्योंकि जो गुणों द्वारा विचलित या मोहित नहीं किये जा सकते उन ज्ञानियों में स्वतः क्रियाका अभाव होने से उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है। केवल लीला सदृश्य वे निष्काम कर्म करते हैं ; लोक हित के लिए ।
        परन्तु जब आत्मा से संयुक्त होकर कर्म और प्रारब्ध ही करते हैं जीवन की व्याख्या तब व्यक्ति संसार के चक्र में घूर्णन करता रहता है ।

        कालान्तरण में जब बुद्ध के सिद्धान्तों को समझने वाले बुद्धत्व से हीन हुए दो बुद्ध का मार्ग दो रूपों में विभाजित हुआ ।

        बौद्ध धर्म में प्रमुख सम्प्रदाय बन गये। हीनयान, थेरवाद, महायान, वज्रयान और नवयान, परन्तु बौद्ध धर्म एक ही था एवं सभी बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध के सिद्धान्त को तो मानते परन्तु व्याख्या अपने स्वार्थों के अनुकूल करने लगे।

        हीनयान अथवा 'स्थविरवाद' रूढिवादी बौद्ध परम्पराओं का पालन करने वाला एक सम्प्रदाय बन गया ।
        परिचय संपादित करें प्रथम बौद्ध धर्म की दो ही शाखाएं थीं, हीनयान निम्न वर्ग(गरीबी) और महायान उच्च वर्ग (अमीरी), हीनयान एक व्‍यक्त वादी धर्म था इसका शाब्दिक अर्थ है निम्‍न मार्ग। यह मार्ग केवल भिुक्षुओं के ही लिए ही सम्भव था।

        हीनयान सम्प्रदाय के लोग परिवर्तन अथवा सुधार के विरोधी थे। यह बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों का ज्‍यों त्‍यों बनाए रखना चाहते थे।

        हीनयान सम्प्रदाय के सभी ग्रन्थ पाली भाषा मे लिखे गए हैं। हीनयान बुद्ध की पूजा भगवान के रूप मे न करके बुद्ध को केवल महापुरुष मानते थे।

        हीनयान की साधना अत्‍यंत कठोर थी तथा वे भिक्षुु जीवन के हिमायती थे। हीनयान सम्प्रदाय श्रीलंका, बर्मा, जावा आदि देशों मे फैला हुआ है।
        बाद मे यह संप्रदाय दो भागों मे विभाजित हो गया- १-वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक। इनका वर्णन वादरायण के ब्रह्-सूत्र में है । वैभाषिक मत की उत्‍पत्ति कश्‍मीर में हुई थी तथा सौतान्त्रिक तन्त्र-मन्त्र से संबंधित था।
        सौतांत्रिक संप्रदाय का सिद्धांत मंजूश्रीमूलकल्‍प एवं गुहा सामाज नामक ग्रंथ मे मिलता है।

        थेरवाद' शब्द का अर्थ है 'बड़े-बुज़ुर्गों का कहना'।
        बौद्ध धर्म की इस शाखा में पालि भाषा में लिखे हुए प्राचीन त्रिपिटक धार्मिक ग्रन्थों का पालन करने पर बल दिया जाता है।

        थेरवाद अनुयायियों का कहना है कि इस से वे बौद्ध धर्म को उसके मूल रूप में मानते हैं। इनके लिए गौतम बुद्ध एक गुरू एवं महापुरुष अवश्य हैं लेकिन कोई अवतार या ईश्वर नहीं। वे उन्हें पूजते नहीं और न ही उनके धार्मिक समारोहों में बुद्ध-पूजा होती है।

        जहाँ महायान बौद्ध परम्पराओं में देवी-देवताओं जैसे बहुत से दिव्य जीवों को माना जाता है वहाँ थेरवाद बौद्ध परम्पराओं में ऐसी किसी हस्ती को नहीं पूजा जाता


        थेरवादियों का मानना है कि हर मनुष्य को स्वयं ही निर्वाण का मार्ग ढूंढना होता है।

        इन समुदायों में युवकों के भिक्षु बनने को बहुत शुभ माना जाता है ; और यहाँ यह प्रथा भी है कि युवक कुछ दिनों के लिए भिक्षु बनकर फिर गृहस्थ में लौट जाता है।

        थेरवाद शाखा दक्षिणी एशियाई क्षेत्रों में प्रचलित है, जैसे की श्रीलंका, बर्मा, कम्बोडिया, म्यान्मार, थाईलैंड और लाओस पहले ज़माने में 'थेरवाद' को 'हीनयान शाखा' कहा जाता था।

        बौद्ध धर्म का सबसे विकृत रूप वज्रयान के रूप में वर्णित हुआ ।

        वज्रयान को तांत्रिक बौद्ध धर्म, तंत्रयान मंत्रयान, गुप्त मंत्र, गूढ़ बौद्ध धर्म और विषमकोण शैली या वज्र रास्ता भी कहा जाता है। वज्रयान बौद्ध दर्शन और अभ्यास की एक जटिल और बहुमुखी प्रणाली है जिसका विकास कई सदियों में हुआ।

        वज्रयान संस्कृत शब्द, अर्थात हीरा या तड़ित का वाहन है, जो तांत्रिक बौद्ध धर्म भी कहलाता है तथा भारत व पड़ोसी देशों में  विशेषकर तिब्बत में बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण विकास समझा जाता है। बौद्ध धर्म के इतिहास में वज्रयान का उल्लेख महायान के आनुमानिक चिंतन से व्यक्तिगत जीवन में बौद्ध विचारों के पालन तक की यात्रा के लिये किया गया है।

        ‘वज्र’ शब्द का प्रयोग मनुष्य द्वारा स्वयं अपने व अपनी प्रकृति के बारे में की गई कल्पनाओं के विपरीत मनुष्य में निहित वास्तविक एवं अविनाशी स्वरूप के लिये किया जाता है।

        यान( रास्ता) ‘यान’ वास्तव में अंतिम मोक्ष और अविनाशी तत्त्व को प्राप्त करने की आध्यात्मिक यात्रा है। वज्रयानी ही कालान्तरण में सिद्ध कहलाए यह समय लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी है ।

        सिद्धों की परम्परा में जो वस्तु ब्राह्मण धर्म में बुरी मानी जाती थी, उसे ये अच्छी मानते थे। इनके मत में डोंबी, धोबिन, चांडाली या बालरंडा के साथ भोग करना विहित था।
        सरहपा की उक्तियाँ कण्ह की अपेक्षा अधिक तीखी हैं।
        इन्होंने भस्मपोत आचार्यों, पूजा-पाठ करते पंडितों, जैन क्षपणकों आदि सभी की निंदा की है। एक और परिचय सिद्ध सरहपा (आठवीं शती) हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं।

        उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है।

        एक जनश्रुति सहरसा जिले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है।
        राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्रधन प्रदेश में होने का अनुमान किया है।

        अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है।
        सरहपा का चैरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे।

        उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे।
        ये बुद्ध को मार्ग से पूर्ण रूपेण पृथक हो गये ।

        योग को इन्होंने भोग का माध्यम बना लिया । दुनिया के करीब २ अरब (२९%) लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गये किंतु, अमेरिका के प्यु रिसर्च के अनुसार, विश्व में लगभग ५४ करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, जो दुनिया की आबादी का 7% हिस्सा है। प्यु रिसर्च ने चीन, जापान व वियतनाम देशों के बौद्धों की संख्या बहुत ही कम बताई हैं, हालांकि यह देश सर्वाधिक बौद्ध आबादी वाले शीर्ष के तीन देश हैं। दुनिया के 200 से अधिक देशों में बौद्ध अनुयायी हैं।

        किंतु चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैण्ड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कम्बोडिया, मंगोलिया, लाओस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया समेत कुल 13 देशों में बौद्ध धर्म 'प्रमुख धर्म' धर्म है। भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी लाखों और करोडों बौद्ध अनुयायी हैं। योग को बुद्ध ने जाना इससे पूर्व कृष्ण ने योग को जाना जैनियों के त्रेसठ शलाका पुरुषों में कृष्ण और बलराम का भी वर्णन है ।

        बुद्ध परम्परा में भी कृष्ण को माना ।
        योग सृष्टि के रहस्य को जानने रा सम्यक् विज्ञान है
        योग आत्म-साक्षात्कार की कुञ्जी है । ___________________________________

        यही सृष्टि -सञ्चालन का सिद्धान्त बडा़ अद्भुत कारण है। जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि नहीं समझ सकती है।
        विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है । और आत्मा प्राणी जीवन की , इसी सन्दर्भ में हम सर्व प्रथम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करते हैं !

        सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें ! तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में विशेषत: भारोपीय भाषा परिवार में सदीयों से किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान रहा है।

        और मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होनी भी चाहिए ।
        क्योंकि मानव जीवन का सर्वोपरि मूल्य इसी में निहित है।

        .मैं यादव योगेश कुमार ''रोहि' इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद् घाटित कर रहा हूँ।
        जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्राप्त किए हैं।
        इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ एवं औपनिषदीय साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् गीता तथा अन्य उपनिषदों को उद्धृत किया गया है। यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही अंग है ।

        परन्तु यह महाभारत भी बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में पुष्यमित्र सुंग के विचारों के अनुमोदक ब्राह्मण समुदाय द्वारा समायोजित किया गया। गीता में जो आध्यात्मिक तथ्य हैं ।

        वह कृष्ण के मत के अनुमोदक अवश्य है ; कृष्ण की साक्षात् वाणी कदापि नहीं। वस्तुत वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के बाद की रचना है । जिसमें -परोक्षत: -ब्रह्म-सूत्रपद के आश्रय से बौद्ध कालीन है ।
        श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के वाद की रचना है ।👇 ___________________________________

        दूसरा प्रमाण कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्रपदों का वर्णन है। जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :- १-वैभाषिक २- सौत्रान्तिक ३-योगाचार ४- माध्यमिक का खण्डन है योगाचार और माध्यमिक बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी के समकक्ष "असंग " और वसुबन्धु नामक बौद्ध भाईयों ने किया ।
        -ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं सदी में हुई । द्वन्द्व से मुक्त होने को श्रीमद्भगवत् गीता मे योग कहा । और प्रकृति द्वन्द्व मयी है ।👇 ___________________________________
        "त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
        निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2-46)   यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके . तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: (2-45) -
        ---हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं अर्थात्‌ इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को परे होकर  तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो ! जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता !

        श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।
        (श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) जब वेदों के सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि है। समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदौं का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ; उसमें सत्य का निर्णय करने व किया उच्च  तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है । अब बताऐं कि किस प्रकार गीता और वेद समान हैं कभी नहीं  वस्तुत: गीता का प्रतिपाद्य विषय द्रविड़ो की योग पद्धति है ।
        बुद्ध के मध्यम-मार्ग का अनुमोदन "समता योग उच्यते योग: कर्मसुु कौशलम्"  तथ्य से पूर्ण रूपेण है ।

        योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनञ्जय। सिद्धय-असिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

        योग: कर्मसुु कौशलम्" ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं। विशेषत: मज्झ मग्ग ( मध्य मार्ग) महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं।

        इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है ।

        जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ; उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं। महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे । इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है।

        प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153) देखें---

         अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस।
        गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।’

        महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
        गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ। श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है। दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।

        ईश्वर सार्वजनिक विषय नहीं है । ईश्वर को मानना भी अपने ऊपर आस्थाओं की चादर डालना है।

        उससे केवल मन की उन्मुक्तता और उत्श्रृँखलता पर तो नियन्त्रण किया जा सकता है। परन्तु ईश्वर को नहीं जाना जा सकता है।

        क्योंकि वह निराकार और अनन्त है।  जन साधारण की बुद्धि से परे इसी लिए ईश्वरीय प्रतीक के रूप में मूर्ति या ईश्वर की कल्पित प्रतिमा की स्थापना की गयी जो वस्तुत श्रद्धा केन्द्रित करने का अवलम्बन मात्र थी ।

        "श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
        ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।39। (श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय-)
         
        अनुवाद:- जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञानको प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।

        श्रद्धा से से भी मनस् -शुद्धि द्वारा ज्ञान की ही प्राप्ति होती है।

        जन्म और मृत्यु परिवर्तन के ही प्रवाह हैं! न तो आत्मा जन्म ही लेती है और ना ही मरती है।
        परन्तु मन जो आत्मा और प्रकृति का मिश्रित रूप है
        जागता सोता मरता और जीता है।
        ईश्वर आदि ( प्रारम्भ) और अन्त से रहित असीम अस्तित्व है। जिसकी आँशिक अनुभूति तो सम्भव है परन्तु सम्पूर्ण अस्तित्व का दर्शन सम्भव और अनुभूति गद्य नहीं है।
        फिर जन साधारण के लिए उसकी व्याख्या भी नहीं की जा सकती है।
        अहं( ईगो) जीवन की सत्ता है अहंकार से संकल्प और संकल्प से इच्छाओं का प्रादुर्भाव ही जीवन के लिए उत्तरदायी है।
        परन्तु स्व ( स्वयं) रूप ही आत्मा का अस्तित्व बोधक है।

        अहं से हम और हम के भाव से स्व (आत्मा) की और जीवन के अग्रसर होने के लिए केवल कृष्ण ने निष्काम (कामना अथवा इच्छा रहित -) कर्म की प्रेरणा दी
        अहं जहाँ जीवन को सीमित दायरे में संकुचित और सीमित करता है वहीं स्व का भाव बोध असीम की और अनन्त की अनुभूति का कारण है।

        ___________    

        ज्ञान की स्थिति में मन द्वारा जो संकल्पित कर्म सम्पादित होता है। उसका परिणाम !

        और ज्ञान के अभाव में मन द्वारा संकल्पित  सम्पादित कार्य का परिणाम भिन्न भिन्न प्रभाव वाला होता है।

        श्रद्धा के  केन्द्रीकरण के आयाम सदैव स्थूल अवलम्बन का आश्रय लेते हैं। यही ईश्वर का साकार मान्य प्रतीक है।

        वैदिक काल में भी प्रतिमा शब्द इसी अर्थ में रूढ़ हो गया था।

        "कासीत्प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत्परिधिः क आसीत्।
        छन्दः किमासीत्प्रउगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे ॥३॥ ( ऋग्वेद -१०/१३०/३)

        “{प्रमा= प्रमाणम्} 
        “प्रतिमा = हविष्प्रतियोगित्वेन मीयते निर्मीयते इति प्रतिमा देवता ।

        परन्तु मूर्ति पूजा तो एक श्रद्धा का निमित्ति कारण है। दर-असल ईश्वर को जानना ही श्रेयकर है।

        ईश्वरीय सत्ता का आंशिक ज्ञान भी तभी सम्भव है जब अन्त:करण चतुष्टय पूर्णत: दुर्वासना से रहित हो जाए  ! हमारी वासनाओं के आवेग ही मन में लालच की तरंगे पैंदा करते रहते हैं। जो दर्पण को मलिन करती रहती हैं। 

        अन्त: करण एक दर्पण के समान स्वच्छ हो जाए तो साधक ईश्वरीय आंशिक सत्ता की तात्विक अनुभूति सहज कर लेता है।  ईश्वर की पूर्ण सत्ता का अनुभव तो स्वयं ईश्वर भी नहीं कर पाता है।  यही ईश्वरीय असमर्थता है। ईश्वर नाम से अभिहित तत्व स्वयं में अपरिमेय है।

        उसके अनन्त अस्तित्व तो मापने का  कोई उपमान अथवा मानक  ही नही है।
        पूर्ण ईश्वर को किसी ने नहीं देखा उसको जानने के सिद्धान्त ही शेष रह जाते हैं। साधक भी ईश्वरीय" सत्ता का आँशिक अनुभव करता है।

        वह ईश्वर अपने आप में पूर्ण " अनन्त और अपरिमेय सत्ता है । 

        भारतीय मनीषीयों ने अपने साधना काल में उसकी एक आँशिक झलक अनुभत की थी 
        तब यह कहा -

        "पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते
        पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

        वह ईश्वर अनन्त है, और यह (ब्रह्माण्ड) अनन्त है। अनन्त से अनन्त की प्राप्ति होती है। (तब) अनन्त की अनंतता लेते हुए, भी वह अनंत के रूप में भी अकेला रहता है।

        जिस प्रकार गणितीय प्रक्रिया में शून्य से शून्य को घटाया जाता है तो परिणाम शून्य ही आता है। उसी रूप मे ईश्वरीय अनन्तता को समझा जा सकता है।

        इसी लिए उस अनन्त अपरिमेय आत्मिक सत्ता को सजीव और निर्जीव से भी पृथक शून्य ( ∅ ) रूप में  उपमित किया गया जिसमें अनन्त काल तक आप परिक्रमण करते रहो कोई अवरोध नहीं आयेगा- आप जीवन पर्यन्त निरन्तर चलते रहोगे -पर उसका कभी गन्तव्य अवरोध नहीं आयेगा-

        हमारे सारे धार्मिक उपक्रम मन के शुद्धि करण के उपाय मात्र हैं। यदि यज्ञ अथवा किसी देवता की पूजा करने से अथवा तीर्थ यात्रा अथवा मन्दिर आदि के  द्वारा  मन न शुद्ध हो सके तो ये सारे उपक्रम व्यर्थ ही हैं।

        ईश्वरीय सत्ता के अन्वेषण अथवा अनुभूति के इसलिए साधक को निरन्तर मन के शुद्धि करण हेतु तप "संयम " और योग अभ्यास भी करना चाहिए 
        प्राचीन काल में साधक ही साधु संज्ञा के अधिकारी होते थे। 

        और सन्त भी  पूजा( साधना ) करने वाले होते थे।
        अरबी भाषा में प्रचलित शब्द (सनम) देव मूर्ति का वाचक है। 
        दरअसल जब लोग ईश्वरी सत्ता की परिकल्पना करते थे तो वे किसी इमेज के रूप में मूर्ति भी  बनाते थे।

        अरब  का यह सनम शब्द हिब्रू" अक्काडियन और अनेक सैमेटिक भाषाओं में कही  सनम- तो कहीं  "सलम आदि रूपों में प्रचलित है। 

        वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में षण्-(सन्) धातु भ्वादिगणीय है। और दूसरी धातु सल्(शल्,) भी है जो स्तुति गमन और पार होने के अर्थ में प्रचलित है। षन् धातु का 
        लट् लकार (वर्तमान) में  रूप निम्नलिखित हैं ।

        एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
        प्रथमपुरुषः सनति सनतः सनन्ति
        (वह पूजा करता है/ वे दोनों पूजा करते हैं/ वे सब पूजा करते हैं।

        मध्यमपुरुषः सनसि सनथः सनथ
        ( तू पूजा करता है/ तुम दोनों पूजा करते हो/तुम सब पूजा करते हो/

        उत्तमपुरुषः सनामि सनावः सनामः
        ( मैं पूजा करता हूँ/ हम दोनों पूजा करते हैं/ हम सब पूजा करते हैं/

        मूर्तियों या निर्माण निराकार ईश्वर के साकार प्रतीक के विधान के तौर पर जन साधारण के लिए किया गया था।
        अरबी में 
         صنم فروش ( सनम-फ़रोस- , " मूर्ति विक्रेता )        (
        है।

        सेमिटिक मूल का ‘"सनम’ صنم शब्द बनता है स्वाद-नून-मीम ص ن م तीन वर्णो  से मिलकर यह शब्द बनता है।।

        इस्लाम से पहले सैमेटिक संस्कृति मूर्तिपूजक थी मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति  बुतपरस्ती  के माध्यम से  ही प्रकट होती रही है।

        प्रतीक, प्रतिमा, सनम या बुत तब तक निर्गुण-निराकारवादियों को नहीं खटकते जब तक वे धर्म के सर्वोच्च प्रतीक के तौर पर पूजित न हों।
        मूर्ति पूजा या विधान जनसाधारण के लिए था।

        "सनम" का सन्दर्भ भी प्रतिमा के ऐसे ही रूप का है। कुरान की टीकाओं व अरबी कोशों भी सनम को “ईश्वर के अलावा पूजित वस्तु” के तौर पर ही व्याख्यायित किया गया है।

        अनेक सन्दर्भों से पता चलता है कि "सनम" का व्युत्पत्तिक आधार हिब्रू भाषा का है और वहाँ से अरबी में दाखिल हुआ।

        हिब्रू में यह स-ल-म अर्थात( salem) है  एक स्तुति वाचक शब्द है।

        जिसमें बिम्ब, छाया अथवा प्रतिमा का आशय है। इस्लाम से पहले काबा में पूजी जाने वाली प्रतिमाओं के लिए भी" सनम शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। 

        चूँकि “ईश्वर के अलावा पूजित वस्तु” इस्लाम की मूल भावना के विरुद्ध है इसलिए सनम, सनमक़दा और सनमपरस्ती का उल्लेख इस्लामीय शरीयत  के परवर्ती सन्दर्भों में तिरस्कार के नज़रिये से ही प्रचलित हुआ  है।

        प्राचीन सेमिटिक भाषाओं में अक्काद प्रमुख संस्कृति है जिसकी रिश्तेदारी हिब्रू और अरबी से रही है। 

        उत्तर पश्चिमी अक्काद और उत्तरी अरबी के शिलालेखों में भी सनम का (‘स-ल-म)’ रूप मिलता है। 
        दरअसल न और ल में बदलाव  की प्रवृत्ति भारतीय आर्यभाषाओं में भी होती रही है।

        मिसाल के तौर पर पश्चिमी बोलियों में लूण ऊत्तर-पूर्वी बोलियों में नून, नोन हो जाता है। इसी तरह नील, नीला जैसे उत्तर-पूर्वी उच्चार पश्चिम की राजस्थानी या मराठी में जाकर लील, लीलो हो जाते हैं।
        यही बात सलम के सनम रूपान्तर में सामने आ रही है।

        इस सन्दर्भ में S-l-M से यह भ्रम हो सकता है कि इस्लाम की मूल क्रिया धातु s-l-m और सनम वाला s-l-m भी एक है।

        दरअसल इस्लाम वाले स-ल-म में (सीन-लाम-मीम س ل م‎ है ! 

        जिसमें सर्वव्यापी, सुरक्षित और अखंड सलामती जैसे भाव हैं। जाहिर है ये वही तत्व हैं जिनसे शांति उपजती है।
        अत: सल् ( शल्) पार करना - स्तुति करना आदि अर्थ लेकर संस्कृत धातुपाठ में भी उपस्थित है।

        जबकि प्रतिमा के अर्थ वाले स-ल-म का मूल स्वाद-लाम-मीम है।

        ख़ास बात यह कि प्राचीन सामी सभ्यता में देवी पूजा का बोलबाला था।

        लात, मनात, उज्जा जैसी देवियों की प्रतिमाओं की पूजा प्रचलित थी। इसलिए बतौर सनम अनेक बार इन देवियों की प्रतिमाओं का आशय रहा। 

        बाद के दौर में सनम प्रतिमा के अर्थ में रूढ़ हो गया।

        इस सिलसिले की दिलचस्प बात ये है कि जहाँ बुत, मूर्ति या प्रतिमा जैसे शब्दों का प्रयोग ‘प्रियतम’ के अर्थ में नहीं होता मगर प्रतिमा के अर्थाधार से उठे शब्द में किस तरह प्रियतम का भाव भी समा गया।

        संस्कृत धातु पाठ में सन् - धातु का अर्थ पूजा-करना भी है।

        यहाँ समझने की बात यह है कि भारतीय संस्कृति में ईश्वर आराधना की प्रमुख दो पद्धति रही हैं- पहली है सगुण  अथवा साकार और दूसरी है निर्गुण अथवा निराकार।

        सगुण (साकार)  पद्धति में ईश्वर की उपासना करने वाले समूह में भी प्रतिमा, उस परमशक्ति का रूप नहीं है।
        जिस प्रतीक को परमशक्ति माना गया, उसकी प्रतिमा को  मात्र  ईश्वर की मानकर पूजा जाता है।

        भारतीय पुराणों में ब्राह्मा के चार पुत्र 
        सनत" सनत्कुमार" सनातन" सनन्दन " के नामों में भी यह सन् धातु समाविष्ट है।
        चारो शब्दों की व्युत्पत्ति " सन्= पूजायां धातु परक है।

        सन्त: शब्द के मूल में भी यही सन् धातु समाविष्ट है 
        मत्स्यपुराण के अनुसार सन्त शब्द की निम्न परिभाषा है :

        ब्राह्मणा: श्रुतिशब्दाश्च देवानां व्यक्तमूर्तय:।
        सम्पूज्या ब्रह्मणा ह्येतास्तेन सन्तः प्रचक्षते॥
        अनुवाद:-
        ब्राह्मण ग्रंथ और वेदों के शब्द, ये देवताओं की निर्देशिका मूर्तियां हैं। जिनके अंतःकरण में इनके और ब्रह्म का संयोग बना रहता है, वही सन्त कहलाते हैं।

        मनोज्ञैस्तत्र भावैस्ते सुखिनो ह्युपपेदिरे ।
        अतः शिष्टान्प्रवक्ष्यामि सतः साधूंस्तथैव च ।१९ ।
        सदिति ब्रह्मणः शब्दस्तद्वंतो ये भवंत्युत ।
        साजात्याद्ब्रह्मणस्त्वेते तेन सन्तः प्रचक्षते ।२०। 
        सन्दर्भ:-
        (ब्रह्माण्डपुराण /पूर्वभागः/अध्यायः ३२)

        सन्त' शब्द 'सत्' शब्द के कर्ताकारक का बहुवचन है। इसका अर्थ है - साधु, संन्यासी, विरक्त या त्यागी पुरुष या महात्मा आदि अर्थ है।

        सच्छब्दस्य प्रथमाबहुवचनान्तरूपञ्च ॥  
        (यथा -रघुःवंश महाकाव्य । १।१०। 

        रघुवंशम्-1.10

        श्लोकः-" तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः।
        हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा ॥1.10॥
        अनुवाद:-
        उस वंश को सुनने को सत्य असत्य का निर्णय करने वाले सन्त ही योग्य है। 
        सोने की पवित्रता और कलौंच अग्नि ही में देखी जाती है ॥१.१०॥

        एक अन्य ग्रन्थ विश्वामित्रसंहिता- के अध्याय 27 के श्लोक 42 में "सन्त" की परिभाषा निम्नलिखित है।

        एककालं बलेर्हानौ द्विगुणं च बलिं हरेत् 
        कुर्याच्च पूर्ववच्छेषमिति सन्तः प्रचक्षते ॥ 42॥

        पहले भारत को बुद्ध के द्वारा जाना गया था परन्तु अब भविष्य में कृष्ण के द्वारा भारत को जाना जाएगा इस्कॉन के द्वारा कृष्ण दर्शन यूरोप में प्रतिष्ठित हो गया

        अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ या इस्कॉन (अंग्रेज़ी: International Society for Krishna Consciousness - ISKCON; , को "हरे कृष्ण आन्दोलन" के नाम से भी जाना जाता है। इसे 1966 में न्यूयॉर्क नगर में भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद ने प्रारम्भ किया था।

        ये कायस्थ बंगाली परिवार में जन्में थे।
        इनके माता-पिता: श्रीमन गौड़ मोहन डे तथा श्रीमती रजनी डे थे।

        डे या डे आमतौर पर बंगाली समुदाय द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक उपनाम है। डे/डे अंतिम नाम देब/देव या देवा से लिया गया है।

        उपनाम मुख्य रूप से बंगाली कायस्थों के साथ जुड़ा हुआ है।

        अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (1 सितम्बर 1896 – 14 नवम्बर 1977) जिन्हें स्वामी श्रील भक्तिवेदान्त प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है,सनातन हिन्दू धर्म के एक प्रसिद्ध गौडीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे।

        प्रस्तुतिकरण:- साधक - माताप्रसाद सिंह  व  योगेश कुमार रोहि- सम्पर्क सूत्र-8077160219


        सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
        अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।18.66। 
        सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
         कृष्ण के सन्दर्भ में कुछ तथाकथित नव बौद्ध कहते हैं कि कृष्ण शब्द संस्कृत का है और पाली भाषा में नहीं है।

        परन्तु उनको पता होना चाहिए कि( र) वर्ण पाली भाषा में है।
        जो कि (ऋ+ अ = र) का सन्ध्यक्षर संक्रमण का नवीन रूप है।
        ___________    

        "दातव्यं दानं तु दीयते दीनं दयनीयं वा।
        उच्च दानं दातुः इच्छानुरूपं सुप्रभा।
        भिक्षितव्य भिक्षा भिक्षुकस्य इच्छानुरूपा
        पुण्यरहिता तुच्छा हीना  इयं  किंवा ।१।
        अनुवाद:-
        "दान देना ही कर्तव्य है" - तो दान दीन को देना चाहिए जो दया का पात्र होता है यह दान उच्च और दाता की इच्छा के अनुसार होता है।
        भीख भिखारी की इच्छा के अनुसार और दान की अपेक्षा तुच्छ व हीन होती है इसका कोई पुण्य नही होता है।१।
          आभीर संहिता-
        यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
        भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।
        (श्रीमद्भगवद्गीता-9/25) 
        अनुवाद:-
        देवताओं का पूजन करनेवाले  देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों का पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को ही प्राप्त होते हैं।
        परन्तु  हे अर्जुन!  मेरा पूजन करने वाले वैष्णव भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।




        ________

            (लोकाचरण-खण्ड-)

        हम यहाँ प्रथम रूप से भगवान्- विष्णु के अंशावतार परम वैष्णव नहुष के चरित्र की विशेषताओं को पौराणिक आधार पर मूल्यांकन करेंगे।

        नहुष की पत्नी विरजा का अन्य नाम "अशोक सुन्दरी" भी था जिन्हें  पार्वती ने अपनी पुत्री के रूप में कल्प-द्रुम से प्राप्त किया था हम उस प्रकृति की अंशरूपा विरजा अथवा अशोक सुन्दरी की जन्म गाथा को पद्मपुराण भूमि-खण्ड से प्रस्तुत करते हैं। -

                          "श्रीदेव्युवाच-
        वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
        सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।

        अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
        सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।

        सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
        नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।

        एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
        कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।


        "श्री देवी पार्वती ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :

        .इस कल्पद्रुम  के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से ही मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में  चिन्तन किया। हे भद्रे !, तुझे सौन्दर्य का धन रूपी फल तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। 71।

        तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी , तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो।।72।

         राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष जो इंद्र के समान शक्ति शाली हैं।  चन्द्रवँश में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।73।

        इस प्रकार  पार्वती ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।74।


        इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।

        पुरुरवा पुत्र  आयुष को दत्तात्रेय का वरदान कि हे  आयुष तेरा  नहुष नाम से विष्णु का अंशवतार  पुत्र उत्पन्न होगा।  नीचे के श्लोकों में यह प्रमाण देखें प्रसंग रूप में प्रस्तुत है। ।
         
        देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
        क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।
        "अनुवाद"- देवों के समान शक्तिशाली सुन्दर तेजयुक्त देव और दानवों, क्षत्रिय, राक्षस और दैत्यो तथा किन्नरों  द्वारा भी न जीता जाने वाला अजेय ( पुत्र होने का वरदान दीजिए) ।


        देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
        यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।
        "अनुवाद"- जो विशेष रूप से देवों और ब्रह्मज्ञानी  का भक्त हो तथा वह प्रजापालक, यज्ञकरने वाला दानपति ,शूरवीर, और शरण में आये हुए का रक्षक और स्नेह करने वाला हो।१३२।

        दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
        धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।
        "अनुवाद"- वह दाता भोक्ता महात्मा और वेद शास्त्रों में पारंगत ( विशेषज्ञ) हो वह धनुर्वेद, में निपुण और सभी शास्त्रों के अध्ययन में लगा हुआ होना चाहिए ।१३३।

        अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
        एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।
        "अनुवाद"- संग्राम ( युद्ध) अपराजित  कहीं पर भी चोट न खाने वाला, अधिक धैर्यशाली, रूप वा ने गुणसम्पन्न हो जिससे वंश चल सके ऐसा पुत्र होना चाहिए ।१३४।

        देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
        यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।
        "अनुवाद"- हे भगवन ! मुझे मेरे वंश को धारण करने वाला पुत्र दो । यदि आप  मुझ पर कृपा करके वर ही देना चाहते हो तो दीजिये ।१३५।

                      "दत्तात्रेय उवाच-
        एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
        गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
        "अनुवाद"-दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
        तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर्म करने वाला भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

        एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
        राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
        इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
        सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।

        एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
        भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।
        "अनुवाद" इस प्रकार वरदान देकर महा योगी दत्तात्रेय ने आयुस को एक उत्त
         फल दिया और कहा कि इस फल को अपनी पत्नी को दो-।१३८।

        एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
        आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।
        "अनुवाद" इस प्रकार कहकर उस  नमन करते हुए राजा आयुष  को वही छोड़कर आशीर्वाद से आनन्दित कर दत्तात्रेय अन्तर्ध्यान हो गये।१३९।

        "प्रसंग-

        एक बार दत्तात्रेय की सेवा करते करते आयुष को जब कई दिनों का लंबा समय बीत गया, तो उस योगी  दत्तात्रेय ने उन्मत्तों  जैसा रूप धारण कर  राजा से कहा: हे राजन् “जैसा मैं तुमसे कहता हूं वैसा ही करो। मुझे प्याले में दाखमधु दो; और मांस का भोजन जो पक गया है उसे दो।” उनके इन शब्दों को सुनकर, पृथ्वी के स्वामी आयुष ने उत्सुक होकर, तुरन्त एक प्याले में शराब ली, और तुरंत अपने हाथ से अच्छी तरह से पका हुआ मांस काट लिया, और, राजा ने उसे दत्तात्रेय को दे दिया। वह श्रेष्ठ मुनि मन में प्रसन्न हो गये।

        विशेष- महायोगी दत्तात्रेय राजा आयुष की परीक्षा के लिए ही इस प्रकार का तामस भोजन लाने का आदेश देते हैं। ताकि राजा का दत्तात्रेय के प्रति समर्पण देखा जा सके।
         
        (आयुस की) भक्ति, पराक्रम और गुरु के प्रति महान सेवा को देखकर, महान योगी दत्तात्रेय ने राजाओं के भी राजा उस विनम्र आयुष से कहा:

        129. “हे राजन, आपका कल्याण हो, ऐसा वर मांगो जो पृथ्वी पर प्राप्त करना कठिन हो।” अब मैं तुम्हें वह सब कुछ दूँगा जो तुम चाहते हो।

        राजा ने कहा :

         हे मुनिश्रेष्ठ, आप मुझ पर दया करके सचमुच वरदान दे रहे हैं। तो मुझे सद् गुणों से संपन्न, सर्वज्ञ, , देवताओं की शक्ति से युक्त और देवताओं और दैत्यों, क्षत्रियों , दिग्गजों, भयंकर राक्षसों और किन्नरों से अजेय पुत्र दीजिए । (वह केवल ) देवताओं और ब्राह्मणों के प्रति समर्पित होना चाहिए, और (उसे) विशेष रूप से अपनी प्रजा की देखभाल करने वाला , त्यागी, दान का स्वामी (अर्थात् सर्वश्रेष्ठ दाता), शूरवीर, अपने आश्रय पाने वालों के प्रति स्नेही, दाता, भोक्ता, उदार और वेदों तथा पवित्र ग्रंथों का ज्ञाता, धनुर्वेद (अर्थात धनुर्विद्या) में कुशल होना चाहिए। और पवित्र उपदेशों में पारंगत हैं। उसकी बुद्धि (होनी चाहिए) और वह अजेय; बहादुर और युद्धों में अपराजित होना वाला हो। उसमें ऐसे गुण होने चाहिए, वह सुंदर होना चाहिए और ऐसा होना चाहिए जिससे वंश आगे बढ़े। हे महामहिम, यदि आप कृपा करके मुझे एक वरदान देना चाहते हैं, तो हे प्रभु, मुझे मेरे परिवार का भरण-पोषण करने वाला (ऐसा) पुत्र  अवश्य दीजिए।130-135.

        दत्तात्रेय ने कहा :

        ऐसा ही होगा, हे गौरवशाली राजी! आपके महल में एक पुत्र होगा, जो मेधावी होगा, आपके वंश को कायम रखेगा और सभी जीवित प्राणियों पर दया करेगा। वह  सभी सद्गुणों और विष्णु के अंश से संपन्न होगा। वह, मनुष्यों का स्वामी, इंद्र के बराबर एक संप्रभु सम्राट होगा।

        इस प्रकार उसे वरदान देने के बाद, महान ध्यानी योगी दत्तात्रेय ने राजा को एक उत्कृष्ट फल दिया और उससे कहा: "इसे अपनी पत्नी को देना।" इतना कहकर, और उस आयुस् को, जो उसके सामने नतमस्तक हुआ था, दत्तात्रेय  उसे  आशीर्वाद देकर , वह गायब हो गये।136-138-

        इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः।१०३।

        तावत्पुष्पसुवृष्टिं च चक्रुर्देवाः सुतोपरि ।
        ललितं सुस्वरं गीतं जगुर्गंधर्वकिन्नराः।५६।

        ऋषयो वेदमन्त्रैस्तु स्तुवन्ति नृपनन्दनम् ।
        वशिष्ठस्तं समालोक्य वरं वै दत्तवांस्तदा।५७।

        नहुषेत्येव ते नाम ख्यातं लोके भविष्यति ।
        हुषितो नैव तेनापि बालभावैर्नराधिप।५८।*******

        तस्मान्नहुष ते नाम देवपूज्यो भविष्यसि ।
        जातकर्मादिकं कर्म तस्य चक्रे द्विजोत्तमः।५९।

        व्रतदानं विसर्गं च गुरुशिष्यादिलक्षणम् ।
        वेदं चाधीत्य सम्पूर्णं षडङ्गं सपदक्रमम् ।६०।

        सर्वाण्येव च शास्त्राणि अधीत्य द्विजसत्तमात् ।
        वशिष्ठाच्च धनुर्वेदं सरहस्यं महामतिः।६१।

        शस्त्राण्यस्त्राणि दिव्यानि ग्राहमोक्षयुतानि च ।
        ज्ञानशास्त्रादिकं न्याय राजनीतिगुणादिकान् ।६२।

        वशिष्ठादायुपुत्रश्च शिष्यरूपेण भक्तिमान् ।
        एवं स सर्वनिष्पन्नो नाहुषश्चातिसुन्दरः ।६३।

        वशिष्ठस्य प्रसादाच्च चापबाणधरोभवत् ।६४।
        इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे पञ्चोत्तरशततमोऽध्यायः ।१०५।

        वसिष्ठ ने कहा :

        आप सभी ऋषिगण आकर बालक का दर्शन करें। यह (बालक) किसका है ? रात को इसे मेरे दरवाजे के आँगन में कौन लेकर आया है ? ऋषियों ने उस बालक को देवता या गंधर्व के बालक के समान और करोड़ों कामदेवों के समान सुन्दर देखा होगा।

        वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण  उस महान राजा आयु के पुत्र को देखकर अत्यंत जिज्ञासा और प्रसन्नता से पूर्ण हो गये। उस धर्मात्मा वसिष्ठ ने कुलीन आयु के पुत्र को देखकर उसके (अलौकिक) ज्ञान से यह जान लिया कि यह बालक  आयुष का पुत्र है और (अच्छे) आचरण से सम्पन्न है तथा उन्होंने बालक शत्रु बने  दुष्ट तथा दुष्टात्मा हुण्ड का वृत्तान्त भी यह जान लिया । .

        55-60. जब ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ ने   (उसके लिए) दया करके बालक को अपने हाथों से उठाया, तो देवताओं ने बालक पर पुष्पों की वर्षा की । गंधर्व और किन्नर मनमोहक और मधुर गायन करते थे। ऋषियों ने वैदिक ऋचाओं से उस राजा के पुत्र की स्तुति की। 

        उसे देखकर वसिष्ठ ने उसी समय उसे वरदान दे दिया। “तुम्हारा नाम संसार में नहुष के नाम से प्रसिद्ध होगा । अपनी बालसुलभ भावनाओं के कारण, तुम उस हुण्ड के द्वारा नष्ट नहीं हुए। इसलिये तुम्हारा नाम नहुष होगा, और तुम्हें देवताओं द्वारा सम्मानित  किया जाएगा ।

         वशिष्ठ ने उनके जन्म पर समारोह आयोजित किया, और उन्हें व्रत, दान सिखाया और उन्हें शिक्षक के पास एक शिष्य के रूप में भेज दिया।

        60-63. एक छात्र के रूप में छह अंगों वाले वेदों और पद और क्रम  (उन्हें पढ़ने के तरीके) के साथ पूरी तरह से अध्ययन किया, सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण वशिष्ठ से सभी पवित्र पुस्तकों का अध्ययन किया, अपने रहस्यों के साथ तीरंदाजी, और (उपयोग) दिव्य हथियार और अग्नेयास्त्र के, साथ ही उन्हें पकड़ने और छोड़ने के तरीके, और ज्ञान की विभिन्न शाखाओं, तर्क विज्ञान, राजनीति जैसी उत्कृष्टताएं सीखीं , आयु का सुंदर और समर्पित पुत्र इस प्रकार पूरी तरह से निपुण हो गया। वसिष्ठ की कृपा से वह धनुष-बाण धारक (अर्थात् चलाने में कुशल) हो गया।

        सन्दर्भ:

        [1] :हुषिता-शब्द स्पष्ट नहीं है।

        [2] :पादक्रम- पाद वैदिक शब्दों को एक दूसरे से अलग करना है और क्रमा वैदिक पाठ को पढ़ने का विशेष तरीका है।

        नहुष का विष्णु के अंश से उत्पन्न होना- 


                        "कुञ्जल उवाच-
        गते तस्मिन्महाभागे दत्तात्रेये महामुनौ ।
        आजगाम महाराज आयुश्च स्वपुरं प्रति ।१।

        इन्दुमत्या गृहं हृष्टः प्रविवेश श्रियान्वितम् ।
        सर्वकामसमृद्धार्थमिन्द्रस्य सदनोपमम् ।२।

        राज्यं चक्रे स मेधावी यथा स्वर्गे पुरन्दरः ।
        स्वर्भानुसुतया सार्द्धमिन्दुमत्या द्विजोत्तम।३।

        सा च इन्दुमती राज्ञी गर्भमाप फलाशनात् ।
        दत्तात्रेयस्य वचनाद्दिव्यतेजः समन्वितम् ।४।

        इन्दुमत्या महाभाग स्वप्नं दृष्टमनुत्तमम् ।
        रात्रौ दिवान्वितं तात बहुमङ्गलदायकम् ।५।

        गृहान्तरे विशन्तं च पुरुषं सूर्यसन्निभम् ।
        मुक्तामालान्वितं विप्रं श्वेतवस्त्रेणशोभितम् ।६।

        श्वेतपुष्पकृतामाला तस्य कण्ठे विराजते ।
        सर्वाभरणशोभांगो दिव्यगन्धानुलेपनः ।७।

        चतुर्भुजः शङ्खपाणिर्गदाचक्रासिधारकः ।
        छत्रेण ध्रियमाणेन चन्द्रबिम्बानुकारिणा ।८।

        शोभमानो महातेजा दिव्याभरणभूषितः ।
        हारकङ्कणकेयूर नूपुराभ्यां विराजितः ।९।

        चन्द्रबिम्बानुकाराभ्यां कुण्डलाभ्यां विराजितः ।
        एवंविधो महाप्राज्ञो नरः कश्चित्समागतः ।१०।

        इन्दुमतीं समाहूय स्नापिता पयसा तदा ।
        शङ्खेन क्षीरपूर्णेन शशिवर्णेन भामिनी ।११।

        रत्नकाञ्चनबद्धेन सम्पूर्णेन पुनः पुनः ।
        श्वेतं नागं सुरूपं च सहस्रशिरसं वरम् ।१२।

        महामणियुतं दीप्तं धामज्वालासमाकुलम् ।
        क्षिप्तं तेन मुखप्रान्ते दत्तं मुक्ताफलं पुनः।१३।

        कण्ठे तस्याः स देवेश इन्दुमत्या महायशाः ।
        पद्मं हस्ते ततो दत्वा स्वस्थानं प्रति जग्मिवान् ।१४।

        एवंविधं महास्वप्नं तया दृष्टं सुतोत्तमम् ।
        समाचष्ट महाभागा आयुं भूमिपतीश्वरम् ।१५।

        समाकर्ण्य महाराजश्चिन्तयामास वै पुनः ।
        समाहूय गुरुं पश्चात्कथितं स्वप्नमुत्तमम् ।१६।

        शौनकं सुमहाभागं सर्वज्ञं ज्ञानिनां वरम् ।
        राजोवाच-
        अद्य रात्रौ महाभाग मम पत्न्या द्विजोत्तम ।१७।

        विप्रो गेहं विशन्दृष्टः किमिदं स्वप्नकारणम् ।
                        "शौनक उवाच-
        वरो दत्तस्तु ते पूर्वं दत्तात्रेयेण धीमता ।१८।

        आदिष्टं च फलं राज्ञां सुगुणं सुतहेतवे ।
        तत्फलं किं कृतं राजन्कस्मै त्वया निवेदितम् ।१९।

        सुभार्यायै मया दत्तमिति राज्ञोदितं वचः ।
        श्रुत्वोवाच महाप्राज्ञः शौनको द्विजसत्तमः ।२०।

        दत्तात्रेयप्रसादेन तव गेहे सुतोत्तमः।
        वैष्णवांशेन संयुक्तो भविष्यति न संशयः।२१।

        स्वप्नस्य कारणं राजन्नेतत्ते कथितं मया ।
        इन्द्रोपेन्द्र समः पुत्रो दिव्यवीर्यो भविष्यति ।२२।

        पुत्रस्ते सर्वधर्मात्मा सोमवंशस्य वर्द्धनः ।
        धनुर्वेदे च वेदे च सगुणोसौ भविष्यति ।२३।

        एवमुक्त्वा स राजानं शौनको गतवान्गृहम् ।
        हर्षेण महताविष्टो राजाभूत्प्रियया सह ।२४।

        कुंजल ने कहा :

        1-4. जब वे महामहिम महर्षि दत्तात्रेय चले गये, तब वे महान् राजा आयुष अपने नगर में (वापस) आये। वह प्रसन्न होकर वैभव से संपन्न, सभी वांछित वस्तुओं से संपन्न तथा इंद्र के भवन के समान दिखने वाले इन्दुमती साथ  महल में प्रवेश कर गये। हे श्रेष्ठ ब्राह्मण ,  वह आयुष स्वर्ग में इंद्र की तरह, बुद्धिमान व्यक्ति स्वर्भानु (सूर्य- भानु) की बेटी इन्दुमती(प्रभा) के साथ अपने राज्य पर शासन करते थे। दत्तात्रेय के कहने पर रानी इन्दुमती ने फल खाने के परिणामस्वरूप दिव्य तेज से संपन्न एक पुत्र को जन्म दिया।

        5-14. हे महामहिम, इन्दुमती ने रात के अन्तिम प्रहर-के साथ दिन में (अर्थात प्रातःकाल) बहुत सी शुभ वस्तुएँ देने वाला एक उत्तम स्वप्न देखा।

        (उसने सपने में देखा) कि एक विप्र , जो सूर्य के समान, मोतियों की माला से सुसज्जित और सफेद वस्त्र से सुसज्जित है, उसके घर में प्रवेश कर रहा है। उसके गले में श्वेत पुष्पों से सुसज्जित माला चमक रही थी। उनका शरीर समस्त आभूषणों से सुशोभित और दिव्य चंदन से रंगा हुआ दिख रहा था। उसके चार हाथ थे, उसके हाथ में एक शंख था और एक गदा, एक चक्र और एक तलवार थी। 

        वह महान् कान्ति वाला, दिव्य आभूषणों से सुशोभित, चन्द्रमा के गोले के समान छाते से चमक रहा था, जो छाता (उसके ऊपर) रखा हुआ था। वह हार, कंगन, बाजूबन्द और पायल के साथ बेहद खूबसूरत लग रहे थे। वह (भी) चन्द्रमा की कक्षा के समान कान की बालियों से चमक रहा था। ऐसा ही एक अत्यंत बुद्धिमान व्यक्ति (वहां) आया. उसने इंदुमती को बुलाकर, बार-बार उस सुंदर महिला को  (अर्थात) दूध से भरे ऩस शंख से नहल बाया, जिसका रंग चंद्रमा के समान श्वेत था और जो रत्नों और सोने से सजाया गया था। उस इन्दुमती के मुँह में उस विप्र ने एक हजार फनों से ढका हुआ, मणि से युक्त तथा उज्ज्वल ज्वालाओं से भरा हुआ एक सफेद, सुंदर साँप का प्रवेश कराया । उसके गले में उसने एक मोती भी पहनाया। तब वह परम तेजस्वी विप्र देवराज इन्दुमती के हाथ में कमल देकर अपने स्थान को चले गया।

        15. इस प्रकार उसने एक महान् स्वप्न और सर्वोत्तम पुत्र देखा। इन्दुमती ने इसे राजाओं के स्वामी आयुष को सुनाया।

        16-17. यह सुनकर महान राजा ने फिर सोचा। तब परम तेजस्वी, सर्वज्ञ तथा विद्वानों में श्रेष्ठ अपने गुरु शौनक को बुलाकर उन्हें उत्तम स्वप्न का हाल सुनाया।

        राजा ने कहा :

        17-18. हे महामहिम, हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, आज (देर रात) मेरी पत्नी ने (स्वप्न में) एक साधु को घर में प्रवेश करते हुए देखा। इस सपने का क्या मतलब है? कृपया बताऐं।

        शौनक ने कहा :

        18-23. पूर्ण बुद्धिमान दत्तात्रेय ने तुम्हें वरदान दिया था; और रानी को पुत्र प्राप्ति के लिए एक अत्यंत प्रभावशाली फल देने का निर्देश भी दिया था। हे राजा, तुमने फल के साथ क्या किया? आपने इसे किसको दिया है ?

        शौनक द्वारा कहे गए वचनों को सुनकर, राजा ने कहा -"मैंने उस फल को अपनी अच्छी पत्नी को दे दिया है," परम बुद्धिमान, सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण शौनक ने कहा: "इसमें कोई संदेह नहीं है कि, दत्तात्रेय की कृपा से, विष्णु के अंश से युक्त सबसे अच्छा पुत्र आपके घर में पैदा होगा। 

        हे राजा, मैंने स्वप्न का यह अर्थ तुम्हें बता दिया है।(तुम्हारे घर में) एक दैवीय शक्ति वाला, इंद्र और विष्णु के समान पुत्र पैदा होगा। आपका पुत्र सभी अच्छे आचरणों की आत्मा होगा और  जो चंद्र वंश को कायम रखेगा। वह धनुर्विद्या और (ऋग्- वेद (आदि) के विज्ञान में भी कुशल होगा ।

        24. राजा से इस प्रकार कहकर शौनक अपने आश्रम को चले गये। तब राजा अपनी पत्नी सहित अत्यंत आनंद से परिपूर्ण हो गया था।

        सन्दर्भ:-इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे चतुरधिकशततमोऽध्यायः।१०४।

        _________________________    

          अध्याय-103 पद्मपुराण भूमिखण्ड -

                      "कुञ्जल उवाच-

        अशोकसुन्दरी जाता सर्वयोषिद्वरा तदा।रेमे सुनन्दने पुण्ये सर्वकामगुणान्विते।१।

        सुरूपाभिः सुकन्याभिर्देवानां चारुहासिनी ।सर्वान्भोगान्प्रभुं जाना गीतनृत्यविचक्षणा ।२।

        विप्रचित्तेः सुतो हुण्डो रौद्रस्तीव्रश्च सर्वदा ।स्वेच्छाचारो महाकामी नन्दनं प्रविवेश ह ।३।

        अशोकसुन्दरीं दृष्ट्वा सर्वालङ्कारसंयुताम् ।तस्यास्तु दर्शनाद्दैत्यो विद्धः कामस्य मार्गणैः ४।

        तामुवाच महाकायः का त्वं कस्यासि वा शुभे ।कस्मात्त्वं कारणाच्चात्र आगतासि वनोत्तमम् ।५।

                      "अशोकसुन्दर्युवाच-

        शिवस्यापि सुपुण्यस्य सुताहं शृणु साम्प्रतम् ।स्वसाहं कार्तिकेयस्य जननी गोत्रजापि मे ।६।

        बालभावेन सम्प्राप्ता लीलया नन्दनं वनम् ।भवान्कोहि किमर्थं तु मामेवं परिपृच्छति ।७।

                         'हुण्ड उवाच-

        विप्रचित्तेः सुतश्चाहं गुणलक्षणसंयुतः । हुण्डेति नाम्ना विख्यातो बलवीर्यमदोद्धतः ।८।

        दैत्यानामप्यहं श्रेष्ठो मत्समो नास्ति राक्षसः। देवेषु मर्त्यलोकेषु तपसा यशसा कुले ।९।

        अन्येषु नागलोकेषु धनभोगैर्वरानने ।दर्शनात्ते विशालाक्षि हतः कन्दप्रमार्गैण ।१०।

        शरणं ते ह्यहं प्राप्तः प्रसादसुमुखी भव ।भव स्ववल्लभा भार्या मम प्राणसमा प्रिया ।११।

                        'अशोकसुन्दर्युवाच-

        श्रूयतामभिधास्यामि सर्वसम्बन्धकारणम् ।भवितव्या सुजातस्य लोके स्त्री पुरुषस्य हि ।१२।

        भवितव्यस्तथा भर्ता स्त्रिया यः सदृशो गुणैः ।संसारे लोकमार्गोयं शृणु हुणड यथाविधि ।१३।

        अस्त्येव कारणं चात्र यथा तेन भवाम्यहम् ।सुभार्या दैत्यराजेंद्र शृणुष्व यतमानसः।१४।

        वृक्षराजादहं जाता यदा काले महामते ।  शम्भोर्भावं सुसंगृह्य पार्वत्या कल्पिता ह्यहम् ।१५।

        देवस्यानुमते देव्या सृष्टो भर्ता ममैव हि ।      सोमवंशे महाप्राज्ञः स धर्मात्मा भविष्यति ।१६।

        जिष्णुर्विष्णुर्समो वीर्ये तेजसा पावकोपमः।    सर्वज्ञः सत्यसन्धश्च त्यागे वैष्णवोपमम् ।१७।

        यज्वा दानपतिः सोपि रूपेण मन्मथोपमः।नहुषोनाम धर्मात्मा गुणशील महानिधिः।१८।

        देव्या देवेन मे दत्तःख्यातोभर्ताभविष्यति ।तस्मात्सर्वगुणोपेतं पुत्रमाप्स्यामि सुन्दरम्।१९।

        इन्द्रोपेन्द्र समं लोके ययातिं जनवल्लभम् ।लप्स्याम्यहं रणे धीरं तस्माच्छम्भोः प्रसादतः।२०।

        अहं पतिव्रता वीर परभार्या विशेषतः ।        अतस्त्वं सर्वथा हुणड त्यज भ्रान्तिमितो व्रज ।२१।

        प्रहस्यैव वचो ब्रूते अशोकसुन्दरीं प्रति ।            हुण्ड उवाच-नैव युक्तं त्वया प्रोक्तं देव्या देवेन चैव हि ।२२।

        नहुषोनाम धर्मात्मा सोमवंशे भविष्यति ।        भवती वयसा श्रेष्ठा कनिष्ठो न स युज्यते ।२३।

        कनिष्ठा स्त्री प्रशस्ता तु पुरुषो न प्रशस्यते ।        कदा स पुरुषो भद्रे तव भर्ता भविष्यति।२४।

        तारुण्यं यौवनं चापि नाशमेवं प्रयास्यति ।  यौवनस्य बलेनापि रूपवत्यः सदा स्त्रियः।२५।

        पुरुषाणां वल्लभत्वं प्रयान्ति वरवर्णिनि ।      तारुण्यं हि महामूलं युवतीनां वरानने।२६।

        तस्या धारेण भुञ्जन्ति भोगान्कामान्मनोनुगान् ।कदा सोभ्येष्यते भद्रे आयोः पुत्रः शृणुष्व मे।२७।

        यौवनं वर्ततेऽद्यैव वृथा चैव भविष्यति ।           गर्भत्वं च शिशुत्वं च कौमारं च निशामय ।२८।

        कदासौ यौवनोपेतस्तव योग्यो भविष्यति ।
        यौवनस्य प्रभावेन पिबस्व मधुमाधवीम्।२९।

        मया सह विशालाक्षि रमस्व त्वं सुखेन वै ।
        हुण्डस्य वचनं श्रुत्वा शिवस्य तनया पुनः ।३०।

        उवाच दानवेन्द्रं तं साध्वसेन समन्विता ।
        अष्टाविंशतिके प्राप्ते द्वापराख्ये युगे तदा ।३१।

        शेषावतारो धर्मात्मा वसुदेवसुतो बलः ।
        रेवतस्य सुतां दिव्यां भार्यां स च करिष्यति।३२।

        सापि जाता महाभाग कृताख्ये हि युगोत्तमे ।
        युगत्रयप्रमाणेन सा हि ज्येष्ठा बलादपि ।३३।

        बलस्य सा प्रिया जाता रेवती प्राणसंमिता ।
        भविष्यद्वापरे प्राप्त इह सा तु भविष्यति ।३४।

        मायावती पुरा जाता गन्धर्वतनया वरा ।
        अपहृत्य नियम्यैव शम्बरो दानवोत्तमः ।३५।

        तस्या भर्ता समाख्यातो माधवस्य सुतो बली ।
        प्रद्युम्नो नाम वीरेशो यादवेश्वरनन्दनः ।३६।

        तस्मिन्युगे भविष्येत भाव्यं दृष्टं पुरातनैः ।
        व्यासादिभिर्महाभागैर्ज्ञानवद्भिर्महात्मभिः ।३७।

        एवं हि दृश्यते दैत्य वाक्यं देव्या तदोदितम् ।
        मां प्रति हि जगद्धात्र्या पुत्र्या हिमवतस्तदा ।३८।

        त्वं तु लोभेन कामेन लुब्धो वदसि दुष्कृतम् ।
        किल्बिषेण समाजुष्टं वेदशास्त्रविवर्जितम् ।३९।

        यद्यस्यदिष्टमेवास्ति शुभं वाप्यशुभं दृढम् ।
        पूर्वकर्मानुसारेण तत्तस्य परिजायते ।४०।

        देवानां ब्राह्मणानां च वदने यत्सुभाषितम् ।
        निः सरेद्यदि सत्यं तदन्यथा नैव जायते ।४१।

        मद्भाग्यादेवमाज्ञातं नहुषस्यापि तस्य च ।
        समायोगं विचार्यैवं देव्या प्रोक्तं शिवेन च ।४२।

        एवं ज्ञात्वा शमं गच्छ त्यज भ्रान्तिं मनःस्थिताम् ।
        नैव शक्तो भवान्दैत्य मे मनश्चालितुं ध्रुवम् ।४३।

        पतिव्रता दृढा चित्ते स को मे चालितुं क्षमः ।
        महाशापेन धक्ष्यामि इतो गच्छ महासुर ।४४।

        एवमाकर्ण्य तद्वाक्यं हुण्डो वै दानवो बली ।
        मनसा चिन्तयामास कथं भार्या भवेदियम् ।४५।

        विचिन्त्य हुण्डो मायावी अन्तर्धानं समागतः ।
        ततो निष्क्रम्य वेगेन तस्मात्स्थानाद्विहाय ताम् ।
        अन्यस्मिन्दिवसे प्राप्ते मायां कृत्वा तमोमयीम् ।४६।

        दिव्यं मायामयं रूपं कृत्वा नार्यास्तु दानवः ।
        मायया कन्यका रूपो बभूव मम नन्दन ।४७।

        सा कन्यापि वरारोहा मायारूपागमत्ततः ।
        हास्यलीला समायुक्ता यत्रास्ते भवनन्दिनी ।४८।

        उवाच वाक्यं स्निग्धेव अशोकसुन्दरीं प्रति ।
        कासि कस्यासि सुभगे तिष्ठसि त्वं तपोवने ।४९।

        किमर्थं क्रियते बाले कामशोषणकं तपः ।
        तन्ममाचक्ष्व सुभगे किम्निमित्तं सुदुष्करम् ।५०।

        तन्निशम्य शुभं वाक्यं दानवेनापि भाषितम् ।
        मायारूपेण छन्नेन साभिलाषेण सत्वरम् ।५१।

        आत्मसृष्टि सुवृत्तान्तं प्रवृत्तं तु यथा पुरा ।
        तपसः कारणं सर्वं समाचष्ट सुदुःखिता ।५२।

        उपप्लवं तु तस्यापि दानवस्य दुरात्मनः।
        मायारूपं न जानाति सौहृदात्कथितं तया ।५३।

                        "हुण्ड उवाच-
        पतिव्रतासि हे देवि साधुव्रतपरायणा ।
        साधुशीलसमाचारा साधुचारा महासती ।५४।

        अहं पतिव्रता भद्रे पतिव्रतपरायणा ।
        तपश्चरामि सुभगे भर्तुरर्थे महासती ।५५।

        मम भर्ता हतस्तेन हुण्डेनापि दुरात्मना ।
        तस्य नाशाय वै घोरं तपस्यामि महत्तपः ।५६।

        एहि मे स्वाश्रमे पुण्ये गङ्गातीरे वसाम्यहम् ।
        अन्यैर्मनोहरैर्वाक्यैरुक्ता प्रत्ययकारकैः ।५७।

        हुण्डेन सखिभावेन मोहिता शिवनन्दिनी ।
        समाकृष्टा सुवेगेन महामोहेन मोहिता ।५८।

        आनीतात्मगृहं दिव्यमनौपम्यं सुशोभनम् ।
        मेरोस्तु शिखरे पुत्र वैडूर्याख्यं पुरोत्तमम् ।५९।

        अस्ति सर्वगुणोपेतं काञ्चनाख्यं महाशिवम् ।
        तुङ्गप्रासादसंबाधैः कलशैर्दंडचामरैः ।६०।

        नानवृक्षसमोपेतैर्वनैर्नीलैर्घनोपमैः ।
        वापीकूपतडागैश्च नदीभिस्तु जलाशयैः ।६१।

        शोभमानं महारत्नैः प्राकारैर्हेमसंयतैः ।
        सर्वकामसमृद्धार्थं सम्पूर्णं दानवस्य हि ।६२।

        ददृशे सा पुरं रम्यमशोकसुंदरी तदा ।
        कस्य देवस्य संस्थानं कथयस्व सखे मम ।६३।

        सोवाच दानवेंद्रस्य दृष्टपूर्वस्य वै त्वया ।
        तस्य स्थानं महाभागे सोऽहं दानवपुङ्गवः ।६४।

        मया त्वं तु समानीता मायया वरवर्णिनि ।
        तामाभाष्य गृहं नीता शातकौंभं सुशोभनम् ।६५।

        नानावेश्मैः समाजुष्टं कैलासशिखरोपमम् ।
        निवेश्य सुन्दरीं तत्र दोलायां कामपीडितः ।६६।

        पुनः स्वरूपी दैत्येन्द्रः कामबाणप्रपीडितः ।
        करसम्पुटमाबध्य उवाच वचनं तदा ।६७।

        यं यं त्वं वाञ्छसे भद्रे तं तं दद्मि न संशयः ।
        भज मां त्वं विशालाक्षि भजन्तं कामपीडितम् ।६८।


                          "श्रीदेव्युवाच-
        नैव चालयितुं शक्तो भवान्मां दानवेश्वरः ।
        मनसापि न वै धार्यं मम मोहं समागतम् ।६९।

        भवादृशैर्महापापैर्देवैर्वा दानवाधमैः ।
        दुष्प्राप्याहं न सन्देहो मा वदस्व पुनः पुनः।७०।

        स्कन्दानुजा सा तपसाभियुक्ता जाज्वल्यमाना महता रुषा च ।
        संहर्तुकामा परि दानवं तं कालस्य जिह्वेव यथा स्फुरन्ती ।७१।

        पुनरुवाच सा देवी तमेवं दानवाधमम् ।
        उग्रं कर्म कृतं पाप चात्मनाशनहेतवे ।७२।

        आत्मवंशस्य नाशाय स्वजनस्यास्य वै त्वया ।
        दीप्ता स्वगृहमानीता सुशिखा कृष्णवर्त्मनः ।७३।

        यथाऽशुभः कूटपक्षी सर्वशोकैः समुद्गतः ।
        गृहं तु विशते यस्य तस्य नाशं प्रयच्छति ।७४।

        स्वजनस्य च सर्वस्य सधनस्य कुलस्य च ।
        स द्विजो नाशमिच्छेत विशत्येव यदा गृहम् ।७५।

        तथा तेहं गृहं प्राप्ता तव नाशं समीहती ।
        पुत्राणां धनधान्यस्य तव वंशस्य साम्प्रतम्।७६।

        जीवं कुलं धनं धान्यं पुत्रपौत्रादिकं तव ।
        सर्वं ते नाशयित्वाहं यास्यामि च न संशयः ।७७।

        यथा त्वयाहमानीता चरन्ती परमं तपः ।
        पतिकामा प्रवाञ्च्छन्ती नहुषं चायुनन्दनम् ।७८।

        तथा त्वां मम भर्ता च नाशयिष्यति दानव ।
        मन्निमित्तउपायोऽयं दृष्टो देवेन वै पुरा ।७९।

        सत्येयं लौकिकी गाथा यां गायन्ति विदो जनाः।
        प्रत्यक्षं दृश्यते लोके न विन्दन्ति कुबुद्धयः ।८०।

        येन यत्र प्रभोक्तव्यं यस्माद्दुःखसुखादिकम् ।
        स एव भुञ्जते तत्र तस्मादेव न संशयः ।८१।

        कर्मणोस्य फलं भुङ्क्ष्व  स्वकीयस्य महीतले ।
        यास्यसे निरयस्थानं परदाराभिमर्शनात् ।८२।

        सुतीक्ष्णं हि सुधारं तु सुखड्गं च विघट्टति ।
        अङ्गुल्यग्रेण कोपाय तथा मां विद्धि साम्प्रतम् ।८३।

        सिंहस्य सम्मुखं गत्वा क्रुद्धस्य गर्जितस्य च ।
        को लुनाति मुखात्केशान्साहसाकारसंयुतः ।८४।

        सत्याचारां दमोपेतां नियतां तपसि स्थिताम् ।
        निधनं चेच्छते यो वै स वै मां भोक्तुमिच्छति ।८५।

        समणिं कृष्णसर्पस्य जीवमानस्य साम्प्रतम् ।
        गृहीतुमिच्छते सो हि यथा कालेन प्रेषितः ।८६।

        भवांस्तु प्रेषितो मूढ कालेन कालमोहितः ।
        तदा ते ईदृशी जाता कुमतिः किं नपश्यसि ।८७।

        ऋते तु आयुपुत्रेण समालोकयते हि कः ।
        अन्यो हि निधनं याति ममरूपावलोकनात् ।८८।

        एवमाभाषयित्वा तं गङ्गातीरं गता सती ।
        सशोका दुःखसंविग्ना नियतानि यमान्विता ।८९।

        पूर्वमाचरितं घोरं पतिकामनया तपः ।
        तव नाशार्थमिच्छंती चरिष्ये दारुणं पुनः ।९०।

        यदा त्वां निहतं दुष्टं नहुषेण महात्मना ।
        निशितैर्वज्रसंकाशैर्बाणैराशीविषोपमैः ।९१।

        रणे निपतितं पाप मुक्तकेशं सलोहितम् ।
        गतासुं च प्रपश्यामि तदा यास्याम्यहं पतिम् ।९२।

        एवं सुनियमं कृत्वा गङ्गातीरमनुत्तमम् ।        संस्थिता हुण्डनाशाय निश्चला शिवनन्दिनी ।९३।

        वह्नेर्यथादीप्तिमती शिखोज्ज्वला तेजोभियुक्ता प्रदहेत्सुलोकान् ।
        क्रोधेन दीप्ता विबुधेशपुत्री गङ्गातटे दुश्चरमाचरत्तपः।९४।

        कुञ्जल उवाच-
        एवमुक्ता महाभाग शिवस्य तनया गता ।
        गङ्गााम्बसि ततः स्नात्वा स्वपुरे काञ्चनाह्वये ।९५।

        तपश्चचार तन्वङ्गीहुण्डस्य वधहेतवे ।
        अशोकसुन्दरी बाला सत्येन च समन्विता ।९६।

        हुण्डोपि दुःखितोभूतः शापदग्धेन चेतसा ।
        चिन्तयामास सन्तप्त अतीव वचनानलैः ।९७।

        समाहूय अमात्यं तं कम्पनाख्यमथाब्रवीत् ।
        समाचष्ट स वृत्तान्तं तस्याः शापोद्भवं महत् ।९८।

        शप्तोस्म्यशोकसुन्दर्या शिवस्यापि सुकन्यया ।
        नहुषस्यापि मे भर्त्तुस्त्वं तु हस्तान्मरिष्यसि ।९९।

        नैव जातस्त्वसौ गर्भ आयोर्भार्या च गुर्विणी ।
        यथा सत्याद्व्यलीकस्तु तस्याः शापस्तथा कुरु १००।
                         "कम्पन उवाच-
        अपहृत्य प्रियां तस्य आयोश्चापि समानय ।
        अनेनापि प्रकारेण तव शत्रुर्न जायते ।१०१।

        नो वा प्रपातयस्व त्वं गर्भं तस्याः प्रभीषणैः ।
        अनेनापि प्रकारेण तव शत्रुर्न जायते ।१०२।

        जन्मकालं प्रतीक्षस्व नहुषस्य दुरात्मनः ।
        अपहृत्य समानीय जहि त्वं पापचेतनम् ।१०३।

        एवं सम्मन्त्र्य तेनापि कम्पनेन स दानवः ।
        अभूत्स उद्यमोपेतो नहुषस्य प्रणाशने ।१०४।

                          "विष्णुरुवाच-
        एलपुत्रो महाभाग आयुर्नाम क्षितीश्वरः ।
        सार्वभौमः स धर्मात्मा सत्यव्रतपरायणः ।१०५।

        इन्द्रोपेन्द्रसमो राजा तपसा यशसा बलैः ।
        दानयज्ञैः सुपुण्यैश्च सत्येन नियमेन च ।१०६।

        एकच्छत्रेण वै राज्यं चक्रे भूपतिसत्तमः ।
        पृथिव्यां सर्वधर्मज्ञः सोमवंशस्य भूषणम् ।१०७।

        पुत्रं न विंदते राजा तेन दुःखी व्यजायत ।
        चिन्तयामास धर्मात्मा कथं मे जायते सुतः ।१०८।

        इति चिन्तां समापेदे आयुश्च पृथिवीपतिः ।
        पुत्रार्थं परमं यत्नमकरोत्सुसमाहितः ।१०९।

        अत्रिपुत्रो महात्मा वै दत्तात्रेयो महामुनिः ।
        क्रीडमानः स्त्रिया सार्द्धं मदिरारुणलोचनः ।११०।

        वारुण्या मत्त धर्मात्मा स्त्रीवृन्दैश्च समावृतः ।
        अङ्के युवतिमाधाय सर्वयोषिद्वरां शुभाम् ।१११।

        गायते नृत्यते विप्रः सुरां च पिबते भृशम् ।
        विना यज्ञोपवीतेन महायोगीश्वरोत्तमः ।११२।

        पुष्पमालाभिर्दिव्याभिर्मुक्ताहारपरिच्छदैः ।
        चन्दनागुरुदिग्धाङ्गो राजमानो मुनीश्वरः ।११३।

        तस्याश्रमं नृपो गत्वा तं दृष्ट्वा द्विजसत्तमम् ।
        प्रणाममकरोन्मूर्ध्ना दण्डवत्सुसमाहितः ।११४।

        अत्रिपुत्रः स धर्मात्मा समालोक्य नृपोत्तमम् ।
        आगतं पुरतो भक्त्या अथ ध्यानं समास्थितः ।११५।

        एवं वर्षशतं प्राप्तं तस्य भूपस्य सत्तम ।
        निश्चलं शांतिमापन्नं मानसं भक्तितत्परम् ।११६।

        समाहूय उवाचेदं किमर्थं क्लिश्यसे नृप ।
        ब्रह्माचारेण हीनोस्मि ब्रह्मत्वं नास्ति मे कदा ।।११७।

        सुरामांसप्रलुब्धोऽस्मि स्त्रियासक्तः सदैव हि ।
        वरदाने न मे शक्तिरन्यं शुश्रूष ब्राह्मणम् ।११८।

                          "आयुरुवाच-
        भवादृशो महाभाग नास्ति ब्राह्मणसत्तमः ।
        सर्वकामप्रदाता वै त्रैलोक्ये परमेश्वरः ।११९।

        अत्रिवंशे महाभाग गोविंदः परमेश्वरः ।
        ब्राह्मणस्य स्वरूपेण भवान्वै गरुडध्वजः ।१२०।

        नमोऽस्तु देवदेवेश नमोऽस्तु परमेश्वर ।
        त्वामहं शरणं प्राप्तः शरणागतवत्सल ।१२१।

        उद्धरस्व हृषीकेश मायां कृत्वा प्रतिष्ठसि ।
        विश्वस्थानां प्रजानां तु विद्वांसं विश्वनायकम् ।१२२।

        जानाम्यहं जगन्नाथं भवन्तं मधुसूदनम् ।
        मामेव रक्ष गोविन्द विश्वरूप नमोस्तु ते ।१२३।

        अध्याय -(103) - पार्वती पुत्री अशोक सुंदरी को बचाये जाने  और आयुष को पुत्र का वरदान मिलने का प्रकरण-

        कुञ्जल ने कहा :

        1-2. उस समय अशोकसुंदरी का जन्म सर्वश्रेष्ठ स्त्री के रूप में हुआ था। वह मनमोहक मुस्कान वाली, गायन और नृत्य में कुशल और सभी वांछित वस्तुओं से संपन्न उत्कृष्ट मेधावी कन्या  थी । वह एक बार नंदन वन में सुसज्जित अत्यन्त सुंदर देवताओं की बेटियों के साथ सभी सुखों का आनंद ले रही थी।

        3-4.उसी समय विप्रचित्ति का पुत्र हुण्ड , जो सदैव हिंसक, उतावला और अत्यधिक कामुक रहता था, नन्दन वन में प्रवेश कर गया। सभी आभूषणों से संपन्न अशोकसुंदरी को देखने के बाद, वह अशोक सुन्दरी के देखते ही कामदेव के बाणों से घायल हो गया।

        5. उस विशाल शरीरवाले दानव ने अशोक सुन्दरी से कहा, हे शुभे, तुम कौन हो ? तुम किसकी पुत्री हो ? आप इस उत्तम नन्दन (उद्यान) में किस कारण से आयी हो ?”

        अशोकसुंदरी ने कहा :

        6. अब सुनो. मैं अत्यंत मेधावी शिव की पुत्री हूं । मैं कार्तिकेय की बहन हूं और पार्वती मेरी मां हैं।

        7. बचपन के कारण (अर्थात् बालक होने के कारण) मैं खेल-खेल में नन्दना उपवन में आयी हूँ। परन्तु आप कौन हैं ? आप मुझसे ऐसा क्यों पूछ रहे हैं ?

        हुण्ड ने कहा :

        8-11. मैं विप्रचित्त्ति का पुत्र हूँ, अच्छे गुणों से सम्पन्न हूँ। मैं ताकत और अपने पराक्रम के कारण घमंडी होकर हुण्ड के नाम से वि ख्यात हूँ।

        हे सुंदर मुख वाली, राक्षसों में भी मैं सर्वश्रेष्ठ हूं और मेरे समान देवताओं में, मानवलोक में या नागलोक में  कोई दूसरा राक्षस नहीं है (तपस्या के संबंध में, परिवार में महिमा के संबंध में), या धन और सुख किसी में भी कोई नहीं है।

        हे विशाल नेत्रों वाली, तुम्हें देखते ही मैं कामदेव के बाणों से घायल हो गया हूँ। मैंने आपकी शरण मांगी है. मुझ पर अनुग्रह करने की कृपा करें. मेरी प्रिय पत्नी बनो, मुझे अपने प्राणों के समान प्रिय समझो।

        अशोकसुंदरी ने कहा :

        12-20. सुनो, मैं तुम्हें अच्छे पुरुषों और महिलाओं के बीच सभी संपर्कों का कारण बताता हूं; तो सुनो, हे हुण्ड ! , इस सांसारिक अस्तित्व में यह संसार की रीति है कि एक स्त्री का पति गुणों के संबंध में उसके लिए उपयुक्त होगा। यही एक कारण है कि मैं आपकी योग्य पत्नी नहीं बनूंगी।

         हे दैत्यराजों के स्वामी, शांत मन से सुनो। जब मैं वृक्षों के देवता से उत्पन्न हुई हूँ , तो शिव के मन को ठीक से समझने के बाद, पार्वती ने मेरा ध्यान किया। शिव की सहमति से देवी ने मेरे पति के उत्पन्न होने की भी भविष्य वाणी की है। 

        उसका (जन्म) चन्द्रवंश में होगा। वह बहुत बुद्धिमान और धार्मिक विचारधारा वाला होगा। वह एक विजेता होगा, और वीरता में जिष्णु (अर्थात् विष्णु या अर्जुन ) के समान होगा, और तेज में अग्नि के समान होगा। वह सर्वज्ञ, सत्यवादी और दान में कुबेर के समान होगा । वह यज्ञ करने वाला, ( महान दान देने वाला) होगा और सुन्दरता में कामदेव के समान होगा। उसका नाम नहुष होगा , वह धर्मात्मा होगा और सद्गुणों तथा अच्छे चरित्र का महान खजाना होगा। वह मुझे  देवी (पार्वती) और भगवान (शिव) द्वारा दिया गया है। मेरे पति मशहूर होंगे. और उससे मुझे सर्वगुण सम्पन्न सुन्दर पुत्र प्राप्त होगा। अर्थात-

        शिव की कृपा से मुझे उनसे ययाति नाम का एक पुत्र प्राप्त होगा , जो इंद्र और विष्णु के समान होगा, दुनिया भर के लोगों को प्रिय होगा और युद्ध में बहादुर होगा।

        21. हे वीर हुण्ड, मैं एक पतिव्रता पत्नी हूं, और विशेषकर अब किसी और की पत्नी हूं। इसलिए गलत धारणा को तुम पूरी तरह त्याग दो और यहां से चले जाओ।

        22. वह बस दानव  हँसा और  उसने अशोकसुन्दरी से ये शब्द कहे।

        हुण्ड ने कहा :

        22-30. तुमने जो कहा (कि) देवी और देवता ने (नहुष ​​को तुम्हारे पति के रूप में दिया है) वह उचित नहीं है। नहुष नाम का वह धर्मात्मा चन्द्रवंश में जन्म लेगा। आप उम्र में बड़ी हैं, इसलिए जो छोटा है वह आपका पति बनने के लायक नहीं है। कम उम्र की महिला की (पत्नी बनने के लिए) सराहना की जाती है, न कि कम उम्र के पुरुष (पति बनाने के लिए प्रशंसा किय जाय। हे सुन्दरी, वह पुरूष तेरा पति कब होगा? ज तक तुम्हारी ताजगी और यौवन अवश्य नष्ट हो जायेगा। हे उत्तम वर्ण वाली, सुन्दर स्त्रियाँ अपने यौवन के बल पर सदैव पुरुषों को प्रिय हो जाती हैं। हे सुन्दर मुख वाली, यौवन ही नारियों की महान पूंजी है। इसके सहारे वे इच्छानुसार सुख और वस्तुओं का उपभोग करते हैं। हे अच्छी महिला, आयुस् का वह पुत्र तुम्हारे पास कब आएगा ? मेरी बात सुनो। यौवन आज ही (के लिए) मौजूद है। यह (बाद में) बेकार हो जाएगा. सुनो, उसे गर्भ में रहना, बचपन और किशोरावस्था जैसी स्थितियों से गुजरना होगा। वह कब यौवन के वैभव से सम्पन्न होगा और आपके योग्य होगा ? उसे बहुत समय लगेगा हे विशाल नेत्रों वाली, यौवन के तेज से युक्त, मादक पेय पी लो। मेरे साथ आनंदपूर्वक रमण करो .


        30-38. हुण्ड के वचनों को सुनकर शिव की पुत्री भय से भरकर फिर से राक्षसों के स्वामी से बोली: "जब  अठ्टाइस वाँ द्वापर नामक  युग आएगा, तब धर्मात्मा बल (अर्थात बलराम ), शेष के अवतार और वासुदेव के पुत्र , लेंगे। रेवत की दिव्य पुत्री उनकी पत्नी के रूप में। हे महामहिम, वह पहले से ही कृत नामक सर्वोत्तम युग में पैदा हो चुकी है । वह उनसे तीन युग बड़ी है। वह रेवती बल ( राम ) को अपने प्राणों के समान प्रिय हो गई है । जब भविष्य में द्वापर (युग) आएगा, तब वह यहीं जन्म लेगी।

        पूर्व में वह एक गंधर्व की उत्कृष्ट पुत्री, मायावती के रूप में पैदा हुई थी । श्रेष्ठ दैत्य शंबर ने उसका अपहरण कर बंदी बना लिया। उस युग में, यादवों के स्वामी माधव के पुत्र, सर्वश्रेष्ठ नायक प्रद्युम्न को उनका पति घोषित किया गया है।

        वह उसका पति होगा. इस भविष्य (घटना) को व्यास जैसे प्राचीन प्रतिष्ठित और महान (ऋषियों) ने देखा है । हे राक्षस, उस समय जगत की माता तथा हिमालय की पुत्री देवी ने मेरे विषय में ऐसे ही वचन कहे थे।

        39-42. और तुम लोभ और वासना के कारण ऐसे शब्द बोल रहे हो जो दुष्ट, पाप से भरे हुए और वेदों और धार्मिक ग्रंथों से रहित (अर्थात् समर्थित नहीं) हैं। किसी व्यक्ति के मामले में उसके पूर्व कर्मों के अनुसार जो भी अच्छा या बुरा निश्चित होता है, वही उसके मामले में घटित होता है। यदि देवताओं और ब्राह्मणों के मुख से निकले हुए वचन सत्य हैं, तो वे कभी भी अन्यथा नहीं होंगे। यह मेरे और उस नहुष के भाग्य के कारण नियत है।

        (हम दोनों के) मिलन का ऐसा विचार करके मेरी माता पार्वती देवी तथा शिव ने भी (ऐसा ही) कहा।

        43-44. इस बात को समझते हुए शांत रहें और अपने मन में चल रही गलत धारणा को त्याग दें।हे राक्षस, तुम निश्चय ही मेरे मन को विचलित नहीं कर पाओगे। मैं एक वफादार पत्नी हूं, मन की दृढ़ हूं; कौन मुझे दूर ले जा सकता है? मैं तुम्हें बड़े शाप से भस्म कर दूँगा। हे महान राक्षस, यहाँ से चले जाओ।”

        45-48. उसके ये वचन सुनकर महाबली राक्षस हुण्ड ने मन में सोचा, 'यह मेरी पत्नी कैसे होगी?' ऐसा सोचते हुए धोखेबाज हुंड गायब हो गया। फिर उसे छोड़कर तेजी से वहां से निकल गया और दूसरे दिन वह पाप से भरी हुई माया बनाकर वहां आ गया। हे मेरे बेटे, राक्षस ने एक स्त्री का दिव्य, मायावी रूप धारण कर लिया था, वह माया के माध्यम से एक स्त्री का रूप बन गया (अर्थात् स्वयं को बदल लिया)। उस अत्यंत सुन्दर युवती ने मायावी रूप धारण कर लिया। हँसी-मजाक और खेलकूद में व्यस्त होकर वह उस स्थान पर गई, जहाँ शिव की पुत्री (अर्थात अशोकसुंदरी) रहती थी।

        49-50. मानो (उसके प्रति) स्नेह करते हुए उसने अशोकसुंदरी से (ये) शब्द कहे: “हे धन्य, तुम कौन हो? आप किसके हैं? हे युवती, तुम क्यों तपस्या-कुंज में रहकर अपनी वासना को सुखाने वाली तपस्या करती हो? मुझे बताओ, हे परम भाग्यशाली, किस कारण से (तुम तपस्या कर रही हो) तपस्या करना बहुत कठिन है।

        51-53. उस मायावी राक्षस ने, जिसने अपना मूल रूप छिपा रखा था और जो (उसके प्रति) लालसा रखता था, उसके कहे हुए शुभ वचनों को सुनकर अत्यंत दुःखी हुई उस अशोक सुन्दरी ने शीघ्र ही उसे अपनी सृष्टि का वृत्तांत सुनाया, जैसा कि उसने पहले कहा था। स्थान और तपस्या करने का सारा कारण भी। (उसने) उस दुष्ट राक्षस द्वारा किये गये उत्पीड़न के बारे में भी (उसे बताया)। वह उसके मायावी रूप को नहीं पहचानती थी, अत: स्नेहवश उसने उसे (सब कुछ) बता दिया।

        हुण्ड ने कहा :

        54-57. हे आदरणीय स्त्री, तुम पतिव्रता हो, अच्छे व्रतों में लगी हो। आपका चरित्र और व्यवहार अच्छा है, आपके कार्य पवित्र हैं और आप बहुत पवित्र महिला हैं। हे अच्छी महिला, मैं एक वफादार पत्नी हूं और अपने पति के प्रति समर्पित हूं। मैं एक महान पतिव्रता स्त्री हूँ और अपने पति के लिये तपस्या कर रही हूँ। उस दुष्ट हुण्ड ने मेरे पति को भी मार डाला। उसके नाश के लिये मैं महान् (अर्थात् घोर) तपस्या कर रही हूँ। मेरे पवित्र आश्रम में आओ. मैं गंगा के किनारे रहती हूँ ।

        57-62. शिव की उस पुत्री को उसने (अर्थात हुण्ड ने) अन्य आकर्षक और आश्वस्त करने वाले शब्दों से संबोधित किया और हुण्डा ने मैत्रीपूर्ण भावना से उसे मोहित कर लिया। मूर्खता के कारण मोहित होकर वह बहुत तेजी से उसकी ओर आकर्षित हो गई। वह उसे अपने दिव्य, अतुलनीय और अत्यंत सुंदर घर में ले आया। हे पुत्र, मेरु के शिखर पर एक उत्कृष्ट नगर है, जो वैदूर्य नाम से जाना जाता है , सभी अच्छे गुणों से भरा हुआ है, बहुत शुभ है और काञ्चन नाम से जाना जाता है । राक्षस का पूरा शहर ऊंचे महलों, घड़ों, डंडों और चौरियों से भरा हुआ था। वह बादलों के समान गहरे नीले पेड़ों से भरा हुआ था, और विभिन्न पेड़ों से भरा हुआ था, कुओं, तालाबों और झीलों और नदियों और जलाशयों से भी भरा हुआ था। वह बड़े-बड़े रत्नों से, सोने से सुसज्जित प्राचीरों से, और सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली वस्तुओं से समृद्ध था।

        63. तब अशोकसुन्दरी ने उस सुन्दर नगर को देखा। “हे मित्र, मुझे बताओ कि यह स्थान किस देवता का है।”

        64-65. उसने कहा: “यह राक्षसों के उस सरदार का है जिसे तुम पहले देख चुकी हो। यह उस राक्षस का स्थान है. हे महाबली, मैं वह सर्वश्रेष्ठ राक्षस हूं। हे उत्तम वर्ण वाली, माया से (अर्थात तुम्हें धोखा देकर) मैं तुम्हें (यहाँ) ले आया हूँ।

        65-67. (इस प्रकार) उससे बात करके वह उसे अपने सुनहरे महल में ले गया, जो कई भवनों से भरा हुआ था और कैलास के शिखर के समान था । उन्होंने काम से पीड़ित होकर, उस सुंदर स्त्री को झूले पर बैठाया, अपना मूल रूप धारण किया, और फिर राक्षसों के स्वामी ने, कामदेव के बाणों से पीड़ित होकर, अपने हाथ की हथेलियाँ जोड़ीं, और उससे (ये) शब्द कहे :

        68-70. “हे अच्छी महिला, इसमें कोई संदेह नहीं है कि तुम जो चाहोगी मैं तुम्हें दूँगा। हे विशाल नेत्रों वाले, जो वासना से पीड़ित होकर तुमसे आसक्त हो गया है, मेरा आश्रय लो।

        आदरणीय महिला (अर्थात अशोक सुन्दरी) ने कहा :

        हे राक्षसों के स्वामी, आप मुझे बिल्कुल भी गुमराह नहीं कर सकते। मेरे विषय में (तुम्हारे मन में) जो भ्रम उत्पन्न हो गया है, उसे अपने मन में भी मत लाना। महान पापी नीच राक्षसों से मेरी रक्षा करना कठिन है। इसमें कोई संदेह नहीं है. बार-बार (ऐसी) बात तुम  मत करो.

        71-72. वह देवी, जो स्कंद के बाद उत्पन्न हुई उसकी बहिन थी, तपस्या से संपन्न, अत्यंत क्रोध से जलने वाली, उस राक्षस को नष्ट करने की इच्छा रखने वाली और मृत्यु की जीभ की तरह फड़कती हुई फिर से उस नीच राक्षस से बोली:

        72-79. “हे पापी, तूने स्वयं के विनाश के लिए, अपने परिवार और अपने रिश्तेदारों के विनाश के लिए एक भयंकर कार्य किया है। तू अपने घर में आग की एक जलती हुई, उज्ज्वल लौ लेकर आया है। जैसे एक अशुभ, धोखेबाज पक्षी, सभी प्रकार के दुखों के साथ उठता है, जिसके घर में प्रवेश करता है, उसके घर को नष्ट कर देता है, जैसे वह पक्षी (मनुष्य के) रिश्तेदारों, सभी धन और परिवार के विनाश की कामना करता है। (तब) उसके घर में प्रवेश करो, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे विनाश की इच्छा से तुम्हारे घर में आयी हूँ। निःसंदेह मैं अब तुम्हारा सब कुछ नष्ट कर दूंगी - तुम्हारा धन, धान्य, परिवार, जीवन, पुत्र और पौत्र आदि। हे राक्षस, जब से तुम मेरे पास आए हो जो एक महान (अर्थात गंभीर) तपस्या कर रही थी, मैं एक पति की लालसा कर रही थी। आयुस के पुत्र नहुष से विवाह उपरान्त, मेरा पति तुम्हें नष्ट कर देगा।

        79-88. पहले (केवल) भगवान ने मेरे मामले में यह उपाय देखा था। यह लोकप्रिय श्लोक, (जिसे) बुद्धिमान लोग गाते हैं, सत्य है। यह वास्तव में दुनिया में मनाया जाता है; दुष्ट मन वालों को इसका एहसास नहीं होता। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जिसे किसी एक से दुःख, सुख आदि का अनुभव करना होता है, वह उसी व्यक्ति से अनुभव करता है। तुम (आदमी) के पास जाओगे। कोई अपनी उंगली की नोक से बहुत तेज़, महीन धार वाली, अच्छी तलवार को छूता है। अब जान लो कि मुझे इस तरह छूने से (मुझमें) गुस्सा पैदा हो जाएगा। कौन उतावले होकर क्रोध में और जोर से दहाड़ रहे सिंह के पास जाकर उसके चेहरे के बाल काट देगा ? जो मृत्यु की इच्छा रखता है, वह मेरे साथ व्यभिचार करना चाहता है, जो सत्य आचरण वाला, संयमी और तपस्या में रत रहने वाला है। वह, अब, चूँकि वह मृत्यु से प्रेरित है, एक काले, जीवित नाग के मणि को जब्त करने की इच्छा रखता है; और हे मूर्ख, तू मृत्यु से मोहित होकर मृत्यु के द्वारा भेजा गया है। इसलिये ऐसा दुष्ट विचार (तुम्हारे मन में) उत्पन्न होता है। क्या तुम्हें इसका एहसास नहीं है? आयू के बेटे को छोड़कर, कौन देखता है (यानी मेरी तरफ देखेगा)? मेरे रूप को देखकर कोई भी (आयुस् के बेटे के अलावा) मर जाएगा।

        89-92. वह जो पतिव्रता स्त्री थी, जो दुःखी थी, जो क्लेश से व्याकुल थी, जो वश में थी और जो धार्मिक व्रत का पालन कर रही थी, वह इस प्रकार बोलकर गंगा के तट पर चली गयी। 'मैं, जिसने पहले वर की इच्छा से (प्राप्त करने के लिए) कठोर तपस्या की थी, अब आपके विनाश की इच्छा से फिर से कठिन तपस्या करूंगी। तब मैं अपने पति के पास जाऊँगी, जब मैं तुम्हें विशाल नहुष द्वारा वज्र और सर्पों के समान तीक्ष्ण बाणों से मार डाला हुआ, युद्धभूमि में खुले बालों और रक्त से लथपथ उस पापी को देखूँगी। आपके शरीर से रिस रहा है)।”

        93-94. हुण्ड के विनाश के लिए इतनी बड़ी प्रतिज्ञा करके, शिव की उस दृढ़ पुत्री ने गंगा के उत्कृष्ट तट का सहारा लिया। जिस प्रकार तेज,  अग्नि की लौ, तेज से भरी हुई महान लोकों को जला देगी, देवताओं के स्वामी की बेटी, क्रोध से जलती हुई, गंगा के तट पर,  कठिन तपस्या कर रही थी।

        कुंजल ने कहा :

        95-96. हे महानुभाव, इस प्रकार कहकर शिव की पुत्री गंगा के जल में स्नान करके कांचन नामक अपने नगर में चली गई। दुबले-पतले शरीर वाली और सत्यनिष्ठा से संपन्न उस युवा अशोकसुंदरी ने हुंड की मृत्यु के लिए तपस्या की।

        97-98. हुण्ड भी शाप से जले हुए हृदय से दुःखी हो गया और शब्दों की अग्नि से अत्यन्त पीड़ित होकर सोचने लगा। 

        -उसने कम्पन नामक अपने मंत्री को बुलाकर उससे कहा। उसने उसे उसके श्राप का महत्वपूर्ण समाचार सुनाया:

        99-100. "मुझे शिव की अच्छी बेटी अशोकसुन्दरी ने शाप दिया है: उसने कहा है।कि 'तुम मेरे पति नहुष के हाथों मरोगे।' वह बच्चा (अभी तक) पैदा नहीं हुआ है; लेकिन आयु की पत्नी उसकी माँ होगी । ऐसा कार्य करो कि अभिशाप झूठा निकले।”

        कंपन ने कहा :

        101-104. आयु की पत्नी का अपहरण करके उसे (यहाँ) ले आओ। इस तरह आपका शत्रु पैदा नहीं होगा. या फिर तेज़ (दवाइयों) से उसका गर्भपात करा दो। इस तरह आपका शत्रु भी पैदा नहीं होगा. उस दुष्ट नहुष के जन्म का समय अंकित करो। इसे लेकर (यहाँ )लाओ और पापबुद्धि को मार डालो।

        इस प्रकार कम्पन के साथ परामर्श करने के बाद, राक्षस (हुंड) ने नहुष को नष्ट करने के लिए खुद ही प्रयास किया।

        विष्णु ने कहा :

        105-108. ऐल (पुरुरवा) का गौरवशाली, धर्मात्मा पुत्र , जिसका नाम आयु था, जो सोम कुल का आभूषण था , सर्वश्रेष्ठ राजा और सभी प्रथाओं को जानने वाला संप्रभु सम्राट, सत्य की प्रतिज्ञा में लगा हुआ, इंद्र और विष्णु के समान, एक छत्र के नीचे शासन करता था सार्वभौमिक संप्रभु) पृथ्वी पर तपस्या, महिमा, शक्ति, दान, बलिदान, मेधावी कृत्यों और संयम के माध्यम से। 

        राजा (आयुस्) का कोई पुत्र नहीं था। इसलिए वह दुखी था. धर्मी ने सोचा, 'मेरे यहां पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकता है?'

        109. पृथ्वी के स्वामी आयु ने ऐसा विचार मन में उठाया। शांतचित्त होकर उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिये बहुत प्रयत्न किया।

        110-113. अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय , उच्चात्मा ब्राह्मण , महान ऋषि, जिनकी आँखें शराब पीने के कारण लाल थीं, एक स्त्री के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। उस धर्मात्मा ने शराब के नशे में धुत होकर, एक युवा, शुभ स्त्री, सभी स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ, को अपनी गोद में बिठाया, गाना गाया, नृत्य किया और जमकर शराब पी। महान ध्यान करने वाले संतों में सर्वश्रेष्ठ,  ऋषि, (जो) बिना जनेऊ के थे, (और) अपने शरीर पर चंदन और घृत का लेप लगाए हुए थे, फूलों की दिव्य मालाओं और मोतियों के हार के उपांगों से चमक रहे थे।

        114-118. राजा ने उसके आश्रम में जाकर, श्रेष्ठ ब्राह्मण को देखकर और शांतचित्त होकर, सिर झुकाकर और उसके सामने गिरकर उसे नमस्कार किया। अत्रि के उस धर्मात्मा पुत्र ने अपने सामने आये उस श्रेष्ठ राजा को भक्तिपूर्वक देखकर ध्यान का सहारा लिया। हे श्रेष्ठ, राजा को इसी प्रकार सौ वर्ष बीत गये। जो स्थिर, शान्त और अत्यंत समर्पित था, उसे बुलाकर उसने ये (शब्द) कहे: “हे राजा, तू अपने आप को क्यों कष्ट देता है? मैं ब्राह्मण आचरण से रहित हूँ। मेरे पास कभी नहीं  ब्राह्मणत्व था. मैं शराब और माँस का लालची हूँ और सदैव स्त्रियों में आसक्त रहता हूँ।

        मुझमें वरदान देने की शक्ति नहीं है। (कृपया) किसी अन्य ब्राह्मण की सेवा कर तू।”

        आयुस ने कहा :

        119-123. हे महामहिम, आपके समान कोई अन्य श्रेष्ठ ब्राह्मण नहीं है, जो सभी वांछित वस्तुओं को प्रदान करता है और तीनों लोकों में सबसे महान स्वामी है। हे महामहिम, आप विष्णु हैं, गरुड़ -धारी, सर्वोच्च भगवान, (ब्राह्मण के रूप में अत्रि के परिवार में जन्मे)। हे देवाधिदेवों के प्रधान, हे सर्वोच्च प्रभु, मैं आपको नमस्कार करता हूं। हे तुम जो अपने आप को तुम्हारे अधीन कर देते हो उन पर स्नेह करने वालों, मैंने तुम्हारी शरण मांगी है। हे हृषीकेश , मुझे मुक्ति दो। तुम भ्रम पैदा करके बने रहते हो (अर्थात आनंद लेते हो)। मैं तुम्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में जानता हूं जो ब्रह्मांड में रहने वाले प्राणियों को जानता है, जो ब्रह्मांड का प्रमुख है, जो दुनिया का स्वामी है और (राक्षस) मधु का हत्यारे हैं । हे गोविंद , हे विश्वरूप, आप ही मेरी रक्षा करें। आपको मेरा प्रणाम!

        __________________________    


        दानवं सूदयिष्यामि समरे पापचेतनम् ।
        देवानां च विशेषेण मम मायापचारितम् ।१३।

        एवमुक्ते महावाक्ये नहुषेण महात्मना ।
        अथायातः स्वयं देवः शङ्खचक्रगदाधरः ।१४।*******

        चक्राच्चक्रं समुत्पाट्य सूर्यबिम्बोपमं महत्।
        ज्वलता तेजसा दीप्तं सुवृत्तारं शुभावहम् ।१५।

        नहुषाय ददौ देवो हर्षेण महता किल ।
        तस्मै शूलं ददौ शम्भुः सुतीक्ष्णं तेजसान्वितम्।१६।

        तेन शूलवरेणासौ शोभते समरोद्यतः ।
        द्वितीयः शङ्करश्चासौ त्रिपुरघ्नो यथा प्रभुः।१७।

        ब्रह्मास्त्रं दत्तवान्ब्रह्मा वरुणः पाशमुत्तमम् ।
        चन्द्र तेजःप्रतीकाशं शङ्खं च नादमङ्गलम् ।१८।

        वज्रमिन्द्रस्तथा शक्तिं वायुश्चापं समार्गणम् ।
        आग्नेयास्त्रं तथा वह्निर्ददौ तस्मै महात्मने।१९।

        शस्त्राण्यस्त्राणि दिव्यानि बहूनि विविधानि च ।
        ददुर्देवा महात्मानस्तस्मै राज्ञे महौजसे ।२०।

                          "कुञ्जल उवाच-
        अथ आयुसुतो वीरो दैवतैः परिमानितः ।
        आशीर्भिर्नन्दितश्चापि मुनिभिस्तत्त्ववेदिभिः।२१।

        आरुरोह रथं दिव्यं भास्वरं रत्नमालिनम् ।
        घण्टारवैः प्रणदन्तं क्षुद्रघण्टासमाकुलम् ।२२।

        रथेन तेन दिव्येन शुशुभे नृपनन्दन: ।
        दिविमार्गे यथा सूर्यस्तेजसा स्वेन वै किल ।२३।

        प्रतपंस्तेजसा तद्वद्दैत्यानां मस्तकेषु सः ।
        जगाम शीघ्रं वेगेन यथा वायुः सदागतिः।२४।

        यत्रासौ दानवः पापस्तिष्ठते स्वबलैर्युतः ।
        तेन मातलिना सार्द्धं वाहकेन महात्मना ।२५।

        "अनुवाद"

        इन शब्दों को सुनकर) राजाओं के स्वामी हर्ष के कारण रोमाँचित हो गए (कहा:) "देवताओं के भगवान, उदार वशिष्ठ की कृपा से, मैं युद्ध में एक दुष्ट हृदय के राक्षस को मार डालूँगा, जिसने देवताओं को धोखा दिया था और विशेष रूप से मुझको।"

        14-20. जब नहुष ने ये महान वचन कहे तो शंख, चक्र और गदा धारण किये हुए भगवान विष्णु स्वयं वहाँ आये। भगवान ने अपने चक्र से सूर्य के गोले के समान, ज्वलन्त चमक से चमकने वाली, गोल तीलियों वाली और शुभता लाने वाली एक बड़ी चक्र निकाला, जिसे भगवान ने बहुत खुशी के साथ नहुष को दे दिया।

        **************************

         शिव ने उसे तेजस्विता से युक्त एक अत्यंत तीक्ष्ण भाला दिया। उस उत्कृष्ट भाले से वह युद्ध के लिये तत्पर होकर त्रिपुर के संहारक भगवान शिव के समान चमकने लगा । ब्रह्मा ने उसे ब्रह्मास्त्र दिया । वरुण ने उसे चन्द्रमा के समान कान्ति वाला एक उत्तम पाश और मंगल ध्वनि वाला शंख दिया। इंद्र ने (उसे) वज्र और (एक प्रकार की मिसाइल जिसे शक्ति कहा जाता है) दी । वायु ने (उसे) बाणों सहित एक धनुष दिया। ( अग्नि ) ने उदार अग्नि-प्रक्षेपास्त्र दिया।(इस प्रकार) देवताओं ने उस महान तेजस्वी राजा को विभिन्न प्रकार के दिव्य हथियार और **********

        कुंजल ने कहा :

        21-25. तब आयु के पुत्र, देवताओं द्वारा सम्मानित और ऋषियों द्वारा आशीर्वाद के साथ ब्राह्मण के वास्तविक स्वरूप को जानने वाले नायक , दिव्य, चमकदार, रत्नों से सुसज्जित, घंटियों के कारण बड़ी ध्वनि करने वाले और छोटी-छोटी घंटियों से भरे हुए रथ में चढ़े। . उस दिव्य रथ से राजकुमार दिव्य पथ पर अपनी चमक से सूर्य के समान चमकने लगा। वह उसी के समान अपने तेज से प्रज्वलित होकर, उस उदार सारथी मातलि के साथ, राक्षसों के सिरों की ओर, निरंतर चलने वाले वायु की तरह, तेजी से और तेजी से उस स्थान पर पहुंचे, जहां वह पापी राक्षस हुण्ड अपनी सेना के साथ खड़ा था।

        इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे नहुषाख्याने दशाधिकशततमोऽध्यायः ।११०।

        _____________

        दत्तात्रेयो मुनिश्रेष्ठः साक्षाद्देवो भविष्यति ।
        शुश्रूषितस्त्वया देवि मया च तपसा पुरा ।२६।


        पुत्ररत्नं तेन दत्तं वैष्णवांशप्रधारकम् ।************
        सदा हनिष्यति परं दानवं पापचेतनम् ।२७।

        सर्वदैत्यप्रहर्ता च प्रजापालो महाबलः ।
        दत्तात्रेयेण मे दत्तो वैष्णवाञ्शः सुतोत्तमः ।२८।

        एवं संभाष्य तां देवीं राजा चेन्दुमतीं तदा ।
        महोत्सवं ततश्चक्रे पुत्रस्यागमनं प्रति ।२९।

        हर्षेण महताविष्टो विष्णुं सस्मार वै पुनः ।३०।
        सर्वोपपन्नं सुरवर्गयुक्तमानन्दरूपं परमार्थमेकम् ।
        क्लेशापहं सौख्यप्रदं नराणां सद्वैष्णवानामिह मोक्षदं परम् ।३१। 

        "अनुवाद"

        23-28. उसके शब्दों को सुनकर, राजाओं के स्वामी ने अपनी पत्नी से कहा: "हे गौरवशाली, पहले ऋषि नारद ने मुझसे कहा था: 'हे राजा, तुम्हें अपने बेटे के बारे में कभी चिंता नहीं करनी चाहिए। तुम्हारा पुत्र बड़ी वीरता से उस राक्षस को मारकर आएगा।' मुनि ने पहले जो वचन कहे थे वे सत्य हो गये। हे रानी, ​​उसकी बातें अन्यथा (अर्थात् असत्य) कैसे होंगी? ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ दत्तात्रेय वास्तव में भगवान हैं। पूर्व में, हे रानी, ​​आपने और मैंने तपस्या के माध्यम से उनकी सेवा की थी। उन्होंने विष्णु के अंश से हमें यह पुत्र रत्न दिया है । वह सदैव एक महान दुष्टात्मा राक्षस का वध करेगा। दत्तात्रेय ने मुझे सबसे उत्तम और अत्यंत शक्तिशाली पुत्र दिया है, जो विष्णु का अंश है, सभी राक्षसों का संहार करने वाला है और अपनी प्रजा का पालन-पोषण करेगा।”

        29-31. रानी इन्दुमती से इस प्रकार कहकर राजा ने अपने पुत्र के आगमन पर बड़े उत्सव मनाया। अत्यंत आनंद से परिपूर्ण होकर उसने फिर से सब कुछ से संपन्न, देवताओं के समूहों के साथ, आनंद स्वरूप, एकमात्र सर्वोच्च वस्तु, दर्द को दूर करने वाले, खुशी देने वाले और विष्णु के अच्छे अनुयायियों को मोक्ष देने वाले महान दाता विष्णु को याद किया।

        इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे नहुषाख्याने षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ।११६।



        अब नहुष के पुत्र वैष्णव धर्म के प्रचारक सम्राट ययाति की जीवन गाथा-

        मातलि के द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णु की महिमा का वर्णन, मातलि को विदा करके राजा ययाति का वैष्णवधर्म के प्रचार द्वारा भूलोक को वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययाति के दरबार में कामदेव आदि का नाटक खेलना आदि का प्राचीन प्रसंग-  मूल संस्कृत तथा उसका हिन्दी अनुवाद सहित-

                          'पिप्पल उवाच-
        मातलेश्च वचः श्रुत्वा स राजा नहुषात्मजः।
        किं चकार महाप्राज्ञस्तन्मे विस्तरतो वद ।१।

        सर्वपुण्यमयी पुण्या कथेयं पापनाशिनी ।
        श्रोतुमिच्छाम्यहं प्राज्ञ नैव तृप्यामि सर्वदा ।२।

                        'सुकर्मोवाच-
        सर्वधर्मभृतां श्रेष्ठो ययातिर्नृपसत्तमः ।
        तमुवाचागतं दूतं मातलिं शक्रसारथिम् ।३।

                        "ययातिरुवाच-
        शरीरं नैव त्यक्ष्यामि गमिष्ये न दिवं पुनः ।
        शरीरेण विना दूत पार्थिवेन न संशयः ।४।

        यद्यप्येवं महादोषाः कायस्यैव प्रकीर्तिताः ।
        पूर्वं चापि समाख्यातं त्वया सर्वं गुणागुणम् ।५।

        नाहं त्यक्ष्ये शरीरं वै नागमिष्ये दिवं पुनः ।
        इत्याचक्ष्व इतो गत्वा देवदेवं पुरन्दरम् ।६।

        एकाकिना हि जीवेन कायेनापि महामते ।
        नैव सिद्धिं प्रयात्येवं सांसारिकमिहैव हि ।७।

        नैव प्राणं विना कायो जीवः कायं विना नहि ।
        उभयोश्चापि मित्रत्वं नयिष्ये नाशमिन्द्र न ।८।

        यस्य प्रसादभावाद्वै सुखमश्नाति केवलम् ।
        शरीरस्याप्ययं प्राणो भोगानन्यान्मनोनुगान् ।९।

        एवं ज्ञात्वा स्वर्गभोग्यं न भोज्यं देवदूतक ।
        सम्भवन्ति महादुष्टा व्याधयो दुःखदायकाः ।१०।

        मातले किल्बिषाच्चैव जरादोषात्प्रजायते ।
        पश्य मे पुण्यसंयुक्तं कायं षोडशवार्षिकम् ।११।

        जन्मप्रभृति मे कायः शतार्धाब्दं प्रयाति च ।
        तथापि नूतनो भावः कायस्यापि प्रजायते ।१२।

        मम कालो गतो दूत अब्दा प्रनंत्यमनुत्तमम् ।
        यथा षोडशवर्षस्य कायः पुंसः प्रशोभते ।१३।

        तथा मे शोभते देहो बलवीर्यसमन्वितः ।
        नैव ग्लानिर्न मे हानिर्न श्रमो व्याधयो जरा ।१४।

        मातले मम कायेपि धर्मोत्साहेन वर्द्धते ।
        सर्वामृतमयं दिव्यमौषधं परमौषधम् ।१५।

        पापव्याधिप्रणाशार्थं धर्माख्यं हि कृतम्पुरा ।
        तेन मे शोधितः कायो गतदोषस्तु जायते ।१६।

        हृषीकेशस्य संध्यानं नामोच्चारणमुत्तमम् ।
        एतद्रसायनं दूत नित्यमेवं करोम्यहम् ।१७।

        तेन मे व्याधयो दोषाः पापाद्याः प्रलयं गताः।
        विद्यमाने हि संसारे कृष्णनाम्नि महौषधे ।१८।

        मानवा मरणं यांति पापव्याधि प्रपीडिताः ।
        न पिबन्ति महामूढाः कृष्ण नाम रसायनम् ।१९।

        तेन ध्यानेन ज्ञानेन पूजाभावेन मातले ।
        सत्येन दानपुण्येन मम कायो निरामयः।२०।

        पापर्द्धेरामयाः पीडाः प्रभवन्ति शरीरिणः ।
        पीडाभ्यो जायते मृत्युः प्राणिनां नात्र संशयः ।२१।

        तस्माद्धर्मः प्रकर्तव्यः पुण्यसत्याश्रयैर्नरैः ।
        पञ्चभूतात्मकः कायः शिरासन्धिविजर्जरः।२२।

        एवं सन्धीकृतो मर्त्यो हेमकारीव टंकणैः ।
        तत्र भाति महानग्निर्द्धातुरेव चरः सदा ।२३।

        शतखण्डमये विप्र यः सन्धत्ते सबुद्धिमान् ।
        हरेर्नाम्ना च दिव्येन सौभाग्येनापि पिप्पल ।२४।

        पञ्चात्मका हि ये खण्डाः शतसन्धिविजर्जराः ।
        तेन सन्धारिताः सर्वे कायो धातुसमो भवेत् ।२५।

        हरेः पूजोपचारेण ध्यानेन नियमेन च ।
        सत्यभावेन दानेन नूत्नः कायो विजायते ।२६।

        दोषा नश्यन्ति कायस्य व्याधयः शृणु मातले ।
        बाह्याभ्यन्तरशौचं हि दुर्गंधिर्नैव जायते ।२७।

        शुचिस्ततो भवेत्सूत प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।
        नाहं स्वर्गं गमिष्यामि स्वर्गमत्र करोम्यहम् ।२८।

        तपसा चैव भावेन स्वधर्मेण महीतलम् ।
        स्वर्गरूपं करिष्यामि प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।२९।

        एवं ज्ञात्वा प्रयाहि त्वं कथयस्व पुरन्दरम् ।
                            "सुकर्मोवाच-
        समाकर्ण्य ततः सूतो नृपतेः परिभाषितम् ।३०।

        आशीर्भिरभिनंद्याथ आमन्त्र्य नृपतिं गतः ।
        सर्वं निवेदयामास इन्द्राय च महात्मने ।३१।

        समाकर्ण्य सहस्राक्षो ययातेस्तु महात्मनः ।
        तस्याथ चिन्तयामासानयनार्थं दिवं प्रति ।३२।

        इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरिते द्विसप्ततितमोऽध्यायः ।७२।

        "अनुवाद"

        अध्याय 72 - ययाति की शरीर छोड़ने की अनिच्छा

        पिप्पल ने कहा :

        1-2. हे अत्यंत बुद्धिमान, मुझे विस्तार से बताओ कि मातलि के वचन सुनकर नहुष के पुत्र राजा ययाति ने क्या कहा । हे मुनिवर, यह पापों का नाश करने वाली परम पुण्यमयी कथा है। मुझे इसे सुनने की इच्छा है. मुझे बिल्कुल भी संतुष्टि नहीं हो रही है.

        3. श्रेष्ठ राजा, धर्मपरायण लोगों में सबसे महान, ययाति ने, इंद्र के सारथी, दूत मातलि से, जो (उनके पास) आया था, कहा:

        ययाति ने कहा :

        4-7. हे दूत, मैं अपना शरीर नहीं त्यागूंगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मैं (इस) पार्थिव शरीर के बिना स्वर्ग नहीं जाऊँगा। यद्यपि आपने इस प्रकार शरीर के महान दोषों का वर्णन किया है, और यद्यपि आप पहले ही इसके सभी गुण और दोषों का वर्णन कर चुके हैं, फिर भी मैं अपने शरीर का त्याग नहीं करूंगा, और मैं स्वर्ग में नहीं आऊंगा। देवताओं के राजा इंद्र के पास जाकर उनसे इस प्रकार कहो: “हे अत्यंत बुद्धिमान, कोई व्यक्ति अकेले आत्मा के माध्यम से या केवल शरीर के माध्यम से पूर्णता प्राप्त नहीं करता है। यह शरीर सांसारिक (अस्तित्व) है.

        8-14. शरीर जीवन (अर्थात आत्मा) के बिना नहीं रह सकता, न ही आत्मा शरीर के बिना रह सकती है। हे इन्द्र, उनमें मित्रता है (अर्थात वे परस्पर मित्र हैं)। मैं उस शरीर को नष्ट नहीं करूँगा जिसकी कृपा से आत्मा को अपने मन के अनुसार (अर्थात् इच्छानुसार) अनन्य सुख तथा अन्य सुख प्राप्त होते हैं।” हे देवदूत, स्वर्ग में भोगों को इस प्रकार जानते हुए भी मैं उन्हें नहीं चाहता। हे मातलि, दोषों के कारण कष्टदायक और अत्यंत पापपूर्ण रोग (संक्रमित) होते हैं।

        बुढ़ापा एक दोष के कारण होता है। मेरे धार्मिक गुणों से सम्पन्न और सोलह वर्ष के शरीर का निरीक्षण करें। मेरे जन्म के बाद से मेरा शरीर आधी शताब्दी तक चला गया है (अर्थात् अस्तित्व में है)। अभी भी मेरे शरीर में ताजगी है। मेरा यह (अर्थात् जीवन) काल उत्तम व्यतीत हुआ। जैसे सोलह वर्ष के युवक का शरीर सुन्दर दिखता है, उसी प्रकार शक्ति और वीरता से सम्पन्न मेरा शरीर दिखता है।

        4-16. , मुझे असफलता नहीं है, मुझे थकावट नहीं है; न ही मुझे कोई बीमारी या बुढ़ापा है। हे मातलि, मेरा शरीर भी धर्मपरायणता के उत्साह से भर जाता है; क्योंकि, पुराने दिनों में, औषधि - दिव्य और, महान , अमृत से भरपूर, पापों और रोगों के विनाश के लिए तैयार की जाती है। उससे मेरा शरीर शुद्ध होता है; (इसलिए) यह दोषों से मुक्त है.

        17-24. हे दूत, मैं सदैव अमृत का पान (अर्थात् ग्रहण) करता रहता हूँ। विष्णु का ध्यान और उनके नाम का उत्कृष्ट उच्चारण उससे मेरे सभी रोग और पाप आदि दोष नष्ट हो गए हैं, जब इस सांसारिक अस्तित्व में कृष्ण (अर्थात विष्णु) के नाम जैसी महान (अर्थात् प्रभावी) औषधि है।

         पाप-पूर्ण रोग से पीड़ित मनुष्य मर जाते हैं (क्योंकि) अत्यंत मूर्ख लोग कृष्ण (अर्थात विष्णु) के नाम का अमृत नहीं पीते हैं। हे मातलि, उस ध्यान, ज्ञान, पूजा, सत्यता और दान देने के धार्मिक पुण्य के कारण मेरा शरीर स्वस्थ है। 

        रोग और कष्ट उसे सताते हैं जिनकी सिद्धि पाप है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्राणी यहीं (अर्थात इस संसार में) कष्टों के कारण मरते हैं। इसलिये मनुष्यों को सदाचार और सत्यता का आश्रय लेकर धर्म-कर्म करना चाहिये। शरीर पांच तत्वों से बना है, और नाड़ियों और जोड़ों से जर्जर हो गया है। जैसे एक आभूषण सुनार द्वारा टङ्कण (धातु की चीज में टाँका मारकार जोड़ लगाने का कार्य)   से बनाया जाता है, उसी प्रकार एक मनुष्य को एक साथ रखा जाता है। इसमें सदैव एक महान अग्नि, शरीर का गतिशील हास्य चमकता रहता है, जो सैकड़ों टुकड़ों से बना होता है। हे ब्राह्मण , जो इन टुकड़ों को जोड़ता है वह बुद्धिमान है।

        25-30. हे पिप्पल , पांच तत्वों की प्रकृति के ये सभी टुकड़े (शरीर के) और सैकड़ों जोड़ों से घिसे हुए, विष्णु के दिव्य नाम और सौभाग्य से एक साथ रखे गए हैं। शरीर एक धातु की तरह है. विष्णु की पूजा, ध्यान और संयम, सत्य और दान से शरीर नया हो जाता है। हे मातलि, सुनो, शरीर के दोष-रोग-नाश हो जाते हैं। बाह्य एवं आन्तरिक पवित्रता रहती है तथा दुर्गन्ध नहीं रहती। तब, हे सारथी, चक्रधारी (अर्थात विष्णु) की कृपा से, (शरीर) शुद्ध होगा।

        मैं स्वर्ग नहीं जाऊंगा. मैं यहीं (केवल) स्वर्ग का निर्माण करूंगा। मैं (अपनी) तपस्या, भक्ति, अपने धार्मिक कृत्यों और चक्र-धारक की कृपा से पृथ्वी को स्वर्ग की प्रकृति बना दूंगा। यह जानकर आप (कृपया) जाकर इन्द्र से कह दीजिये।

        सुकर्मन ने कहा :

        30-32. तब वह सारथी राजा के वचन सुनकर और आशीर्वाद देकर राजा से विदा लेकर (स्वर्ग को) चला गया। उसने सारी बात देवराज इन्द्र को बता दी। उदार ययाति का (संदेश) सुनकर इंद्र ने सोचा कि ययाति को स्वर्ग में कैसे लाया जाए।

        _____________

          पद्मपुराण /खण्डः-२ (भूमिखण्डःअध्याय 73 )
                       पिप्पल उवाच-

        गते तस्मिन्महाभागे दूत इंद्रस्य वै पुनः ।
        किं चकार स धर्मात्मा ययातिर्नहुषात्मजः ।१।

                             सुकर्मोवाच-
        तस्मिन्गते देववरस्य दूते स चिंतयामास नरेंद्रसूनुः।आहूय दूतान्प्रवरान्स सत्वरं धर्मार्थयुक्तं वच आदिदेश ।२।

        गच्छन्तु दूताः प्रवराः पुरोत्तमे देशेषु द्वीपेष्वखिलेषु लोके।
        कुर्वंतु वाक्यं मम धर्मयुक्तं व्रजन्तु लोकाः सुपथा हरेश्च ।३।

        भावैः सुपुण्यैरमृतोपमानैर्ध्यानैश्च ज्ञानैर्यजनैस्तपोभिः।
        यज्ञैश्च दानैर्मधुसूदनैकमर्चंतु लोका विषयान्विहाय ।४।

        सर्वत्र पश्यंत्वसुरारिमेकं शुष्केषु चार्द्रेष्वपि स्थावरेषु ।
        अभ्रेषु भूमौ सचराचरेषु स्वीयेषु कायेष्वपि जीवरूपम् ।५।

        देवं तमुद्दिश्य ददंतु दानमातिथ्यभावैः परिपैत्रिकैश्च।
        नारायणं देववरं यजध्वं दोषैर्विमुक्ता अचिराद्भविष्यथ ।६।

        यो मामकं वाक्यमिहैव मानवो लोभाद्विमोहादपि नैव कारयेत् ।
        स शास्यतां यास्यति निर्घृणो ध्रुवं ममापि चौरो हि यथा निकृष्टः ।७।

        आकर्ण्य वाक्यं नृपतेश्च दूताःसंहृष्टभावाः सकलां च पृथ्वीम् ।
        आचख्युरेवं नृपतेः प्रणीतमादेशभावं सकलं प्रजासु ।८।

        विप्रादिमर्त्या अमृतं सुपुण्यमानीतमेवं भुवि तेन राज्ञा ।
        पिबंतु पुण्यं परिवैष्णवाख्यं दोषैर्विहीनं परिणाममिष्टम् ।९।

        श्रीकेशवं क्लेशहरं वरेण्यमानंदरूपं परमार्थमेवम् 
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः ।१०।

        सखड्गपाणिं मधुसूदनाख्यं तं श्रीनिवासं सगुणं सुरेशम् ।
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः।११।

        श्रीपद्मनाथं कमलेक्षणं च आधाररूपं जगतां महेशम् ।
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः ।१२।

        पापापहं व्याधिविनाशरूपमानंददं दानवदैत्यनाशनम् ।
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबन्तु लोकाः ।१३।

        यज्ञांगरूपं चरथांगपाणिं पुण्याकरं सौख्यमनंतरूपम् ।
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः।१४।

        विश्वाधिवासं विमलं विरामं रामाभिधानं रमणं मुरारिम् ।
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः।१५।

        आदित्यरूपं तमसां विनाशं बंधस्यनाशं मतिपंकजानाम् ।
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः।१६।

        नामामृतं सत्यमिदं सुपुण्यमधीत्य यो मानव विष्णुभक्तः।
        प्रभातकाले नियतो महात्मा स याति मुक्तिं न हि कारणं च ।१७।


        अध्याय- 73 - विष्णु के नाम की प्रभावकारिता

        पिप्पल ने कहा :

        1.जब वह तेजस्वी दूत (स्वर्ग के लिए) चला गया, तो नहुष के पुत्र, धार्मिक विचारधारा वाले ययाति ने क्या किया?

        सुकर्मन ने कहा :

        2-7. जब  देवता (अर्थात इंद्र ) का वह दूत चला गया, तो राजा नहुष के पुत्र  ने (अपने मन में) सोचा। तुरंत अपने उत्कृष्ट दूतों को बुलाकर, उन्होंने उन्हें उचित शब्दों में निर्देश दिया: “उत्कृष्ट दूतों को एक उत्कृष्ट शहर, दुनिया के सभी क्षेत्रों और द्वीपों में जायें और वे मेरे वचनों (अर्थात् आदेश) का पालन करें, जो सदाचार से परिपूर्ण है। लोग भक्ति और अत्यंत मेधावी कार्यों, अमृत के समान ध्यान, ज्ञान, बलिदान और तपस्या के माध्यम से विष्णु के अच्छे मार्ग पर चलें 

         वे सांसारिक इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके यज्ञों और उपहारों से केवल विष्णु की ही पूजा करें। वे हर जगह केवल राक्षसों और आत्मा की प्रकृति के शत्रु को ही देखें - सूखे स्थानों पर, गीले और स्थिर स्थानों पर, बादलों में, पृथ्वी पर, गतिशील और स्थिर (वस्तुओं) में और यहां तक ​​कि अपने स्वयं के शरीर में भी। वे अपने मृत पूर्वजों के सम्मान में आतिथ्य और संस्कार के साथ उन्हें उस देवता को समर्पित करते हुए उपहार दे सकते हैं। क्या वे उस सर्वश्रेष्ठ भगवान नारायण (अर्थात् विष्णु) की  उपासना करते हैं ;  वे शीघ्र ही दोषों से मुक्त हो जायेंगे। वह निर्लज्ज मनुष्य जो लोभ या मूर्खता के कारण अभी मेरी ये बातें नहीं मानेेगे, उन्हें निश्चय ही एक नीच चोर के समान दण्ड दिया जाएगा।”

        8. राजा की बातें सुनकर दूत मन से प्रसन्न  सारी पृय्वी पर चले गए, और राजा की आज्ञा सारी प्रजा में प्रगट की।

        _________

        9-16. “हे मनुष्यों, ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों, राजा अत्यंत पुण्यदायी अमृत को पृथ्वी पर लेकर आये हैं। उस वैष्णव नामक गुणकारी (अमृत) को पीजिए , जो दोषों से मुक्त और वांछनीय प्रभाव वाला है। राजा ने पहले ही श्रीकेशव नाम के रूप में दोषों को दूर करने वाला अमृत (पृथ्वी पर) ला दिया है, जो दु:ख को दूर करता है, जो वांछनीय है, जो आनंद का रूप है और जो स्वयं सर्वोच्च सत्य है। लोग इसे पीयें. अच्छे राजा ने पहले से ही अपने नाम के रूप में दोषों को दूर करने वाला अमृत (पृथ्वी पर) ला दिया है, जिसके हाथ में तलवार है, जिसे मधुसूदन कहा जाता है, जो लक्ष्मी का निवास है , और देवताओं का मेधावी स्वामी है। लोग इसे पीयें. अच्छे राजा ने पहले ही कमल जैसी आँखों वाले, संसार के सहारा और महान स्वामी, श्री पद्मनाभ नाम के रूप में, दोषों को दूर करते हुए, अमृत (पृथ्वी पर) ला दिया है। लोग इसे पियें। अच्छे राजा ने पहले ही (विष्णु के) नाम के रूप में दोषों को दूर करने वाला अमृत ला दिया है, जो पापों को नष्ट कर देता है, जो रोगों को दूर कर देता है, जो आनंद देता है, जो दानवों और दैत्यों यानी राक्षसों) को नष्ट कर देता है। लोग इसे पीयें. अच्छा राजा पहले से ही यज्ञीय प्रकृति के विष्णु नाम के रूप में दोषों को दूर करने वाला अमृत लेकर आया है, उसके हाथ में एक चक्र है, जो धार्मिक गुणों की खान है, और अनंत सुख की खान है। लोग इसे पीयें. राजा पहले से ही दोषों को दूर करने वाला, विष्णु के नाम के रूप में, हर चीज का निवास, शुद्ध, अंत (हर चीज का), राम नाम वाला , सुखदायक और मुरारि का  अमृत लेकर आया है । लोग इसे पीयें. अच्छे राजा ने पहले ही अमृत ला दिया है, जो दोषों को दूर करता है, (विष्णु के नाम के रूप में), सूर्य के रूप में, अंधेरे का विनाशक, मन रूपी कमल के बंधन को नष्ट करने वाला। लोग इसे पीयें.

        17. वह श्रेष्ठ, विष्णु का भक्त, स्वयं को संयमित करके, (विष्णु के) नाम के इस सत्य, अत्यंत मेधावी अमृत का अध्ययन (अर्थात् पाठ) करता है, मोक्ष को प्राप्त होता है। (इसके अलावा) कोई (अन्य) प्रतिनिथि नहीं है।”


          पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-74)


                           'सुकर्मोवाच-
        दूतास्तु ग्रामेषु वदन्ति सर्वे द्वीपेषु देशेष्वथ पत्तनेषु 
        लोकाः शृणुध्वं नृपतेस्तदाज्ञां सर्वप्रभावैर्हरिमर्चयंतु ।१।

        दानैश्च यज्ञैर्बहुभिस्तपोभिर्धर्माभिलाषैर्यजनैर्मनोभिः।
        ध्यायन्तु लोका मधुसूदनं तु आदेशमेवं नृपतेस्तु तस्य ।२।

        एवं सुघुष्टं सकलं तु पुण्यमाकर्ण्य तं भूमितलेषु लोकैः।
        तदाप्रभृत्येव यजन्ति विष्णुं ध्यायन्ति गायन्ति जपन्ति मर्त्याः ।३।

        वेदप्रणीतैश्च सुसूक्तमन्त्रैः स्तोत्रैः सुपुण्यैरमृतोपमानैः ।
        श्रीकेशवं तद्गतमानसास्ते व्रतोपवासैर्नियमैश्च दानैः ।४।

        विहाय दोषान्निजकायचित्तवागुद्भवान्प्रेमरताः समस्ताः ।
        लक्ष्मीनिवासं जगतां निवासं श्रीवासुदेवं परिपूजयन्ति।५।

        इत्याज्ञातस्य भूपस्य वर्तते क्षितिमण्डले ।
        वैष्णवेनापि भावेन जनाः सर्वे जयन्ति ते ।६।

        नामभिः कर्मभिर्विष्णुं यजन्ते ज्ञानकोविदाः ।
        तद्ध्यानास्तद्व्यवसिता विष्णुपूजापरायणाः ।७।

        यावद्भूमण्डलं सर्वं यावत्तपति भास्करः ।
        तावद्धि मानवा लोकाः सर्वे भागवता बभुः।८।

        विष्णोर्ध्यानप्रभावेण पूजास्तोत्रेण नामतः ।
        आधिव्याधिविहीनास्ते संजाता मानवास्तदा ।९।

        वीतशोकाश्च पुण्याश्च सर्वे चैव तपोधनाः ।
        सञ्जाता वैष्णवा विप्र प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।१०।

        आमयैश्च विहीनास्ते दोषैरोषैश्च वर्जिताः ।
        सर्वैश्वर्यसमापन्नाः सर्वरोगविवर्जिताः।११।

        प्रसादात्तस्य देवस्य सञ्जाता मानवास्तदा ।
        अमराः निर्जराः सर्वे धनधान्यसमन्विताः ।१२।

        मर्त्या विष्णुप्रसादेन पुत्रपौत्रैरलंकृताः ।        तेषामेव महाभाग गृहद्वारेषु नित्यदा ।१३।

        कल्पद्रुमाः सुपुण्यास्ते सर्वकामफलप्रदाः ।
        सर्वकामदुघा गावः सचिंतामणयस्तथा ।१४।

        सन्ति तेषां गृहे पुण्याः सर्वकामप्रदायकाः ।
        अमरा मानवा जाताः पुत्रपौत्रैरलंकृताः ।१५।

        सर्वदोषविहीनास्ते विष्णोश्चैव प्रसादतः।
        सर्वसौभाग्यसम्पन्नाः पुण्यमंगलसंयुताः।१६।

        सुपुण्या दानसंपन्ना ज्ञानध्यानपरायणाः।
        न दुर्भिक्षं न च व्याधिर्नाकालमरणं नृणाम् ।१७।

        तस्मिञ्शासति धर्मज्ञे ययातौ नृपतौ तदा ।
        वैष्णवा मानवाः सर्वे विष्णुव्रतपरायणाः ।१८।

        तद्ध्यानास्तद्गताः सर्वे संजाता भावतत्पराः।
        तेषां गृहाणि दिव्यानि पुण्यानि द्विजसत्तम।१९।

        पताकाभिः सुशुक्लाभिः शंखयुक्तानि तानि वै ।
        गदांकितध्वजाभिश्च नित्यं चक्रांकितानि च ।२०।

        पद्मांकितानि भासन्ते विमानप्रतिमानि च ।
        गृहाणि भित्तिभागेषु चित्रितानि सुचित्रकैः।२१।

        सर्वत्र गृहद्वारेषु पुण्यस्थानेषु सत्तमाः।
        वनानि संति दिव्यानि शाद्वलानि शुभानि च ।२२।

        तुलस्या च द्विजश्रेष्ठ तेषु केशवमन्दिरैः ।
        भासन्ते पुण्यदिव्यानि गृहाणि प्राणिनां सदा।२३।

        सर्वत्र वैष्णवो भावो मंगलो बहु दृश्यते ।
        शंखशब्दाश्च भूलोके मिथः स्फोटरवैः सखे ।२४।

        श्रूयन्ते तत्र विप्रेंद्र दोषपापविनाशकाः ।
        शंखस्वस्तिकपद्मानि गृहद्वारेषु भित्तिषु ।२५।

        विष्णुभक्त्या च नारीभिर्लिखितानि द्विजोत्तम ।
        गीतरागसुवर्णैश्च मूर्च्छना तानसुस्वरैः।२६।

        गायन्ति केशवं लोका विष्णुध्यानपरायणाः।२७।

        हरिं मुरारिं प्रवदंति केशवं प्रीत्या जितं माधवमेव चान्ये ।
        श्रीनारसिंहं कमलेक्षणं तं गोविंदमेकं कमलापतिं च ।२८।

        कृष्णं शरण्यं शरणं जपन्ति रामं च जप्यैः परिपूजयंति ।
        दण्डप्रणामैः प्रणमन्ति विष्णुं तद्ध्यानयुक्ताः परवैष्णवास्ते ।२९।

        अध्याय 74 - ययाति के शासन के दौरान वैष्णव धर्म की लोकप्रियता

        सुकर्मन ने कहा :

        1-2. सभी दूतों ने द्वीपों, प्रदेशों और नगरों में कहा (अर्थात् प्रचार किया) : “हे प्रजा, राजा की आज्ञा सुनो।” वे अपनी संपूर्ण महिमा के साथ विष्णु की पूजा करते हैं । पुण्य की इच्छा रखने वाले (समर्पित) मन वाले लोग, कई उपहारों, बलिदानों के माध्यम से, विष्णु पर चिंतन करें; तपस्या, और यज्ञ संस्कार।'' ऐसी उस राजा की आज्ञा है.

        3-5. पृथ्वी पर (संदेशवाहकों द्वारा) इस प्रकार सुप्रचारित ये सब गुणात्मक (वचन) लोगों ने सुने। तब से केवल मनुष्य ही विष्णु के (सम्मान में) बलिदान देते हैं,।

         उनका चिंतन करते हैं, उनकी स्तुति गाते हैं और बुदबुदाते हैं (उनके लिए प्रार्थना करते हैं)। सभी मनुष्य व्रत, उपवास, संयम और दान के द्वारा अपने शरीर, मन और वाणी के दोषों को त्याग कर और अपने हृदय से उन पर समर्पित होकर उन श्री केशव, श्री वासुदेव की पूजा करते हैं। लक्ष्मी का निवास , और लोकों का निवास, वेदों द्वारा सिखाए गए बहुत ही मेधावी और अमृतमय भजनों और स्तुतियों के साथ।

        6-11. इस प्रकार उस राजा का आदेश पृथ्वी पर प्रचलित होता है। वे सभी लोग विष्णु की भक्ति के कारण विजयी हुए हैं। जो लोग ज्ञान में पारंगत हैं, और जो उनका ध्यान और चिंतन करते हैं और जो उनकी पूजा करने के इच्छुक हैं, वे विष्णु की (अर्थात् उनके नामों का पाठ करके) और उनके कर्मों से पूजा करते हैं। जब तक पृथ्वी कायम है और सूर्य चमक रहा है तब तक सभी मनुष्य भगवान (विष्णु) के अनुयायी थे (अर्थात बने रहेंगे)। तब विष्णु के ध्यान की शक्ति के कारण, उनकी पूजा और उनकी स्तुति और (उनके) नामों के (पाठ) के कारण मनुष्य मानसिक पीड़ा और शारीरिक रोगों से मुक्त हो गए। हे ब्राह्मण , चक्रधारी (अर्थात विष्णु) की कृपा से विष्णु के सभी भक्त दुःख से मुक्त हो गए, मेधावी बन गए और तपस्या ही उनका धन बन गई। वे रोगों से मुक्त थे, दोष या क्रोध से रहित थे; वे सभी प्रकार के वैभव से संपन्न और सभी रोगों से मुक्त थे।

        12-27. उस देवता की कृपा से उस समय के सभी मनुष्य अजर-अमर हो गये और सभी धन-धान्य से सम्पन्न हो गये। विष्णु की कृपा से प्राणी पुत्रों और पौत्रों से सुशोभित थे। हे महानुभाव, उनके घरों के दरवाज़ों पर (आस-पास के क्षेत्रों में) हमेशा ही उनकी सभी इच्छाओं को पूरा करने वाले फल देने वाले गुणकारी वृक्ष होते थे, और सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली गायें भी होती थीं। विष्णु की कृपा से ही सभी मनुष्य अमर हो गये, पुत्र-पौत्रों से सुशोभित हो गये और सभी दोषों से मुक्त हो गये। वे सौभाग्य, योग्यता एवं शुभता से सम्पन्न थे। वे बड़े मेधावी, दान-पुण्य से सम्पन्न तथा ज्ञान-ध्यान में तत्पर थे। जब राजा ययाति , जो जानते थे कि क्या सही है, शासन कर रहे थे, तब कोई अकाल नहीं था, कोई बीमारी नहीं थी, और मनुष्यों में कोई अकाल मृत्यु नहीं थी। सभी मनुष्य विष्णु के भक्त थे, सभी विष्णु के व्रत (अर्थात उनके लिए पवित्र) के प्रति समर्पित (पालन करने वाले) थे। उन्होंने उस पर ध्यान किया, वे उसके प्रति समर्पित थे, और उनका हृदय उस पर लगा हुआ था। हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, उनके दिव्य और शुभ घर सफेद ध्वजों और शंखों से सुसज्जित थे, और उनके ध्वज गदाओं से चिह्नित थे और चक्रों से चिह्नित थे। कमलों से अंकित और अच्छे चित्रों से रंगी हुई दीवारों वाले घर दिव्य कारों के समान थे। हे श्रेष्ठों, हर जगह - घरों के दरवाजों के पास और पवित्र स्थानों पर पेड़ों की दिव्य झाड़ियाँ और शुभ घास के स्थान थे। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, तुलसी और विष्णु के मंदिरों के कारण (मानव) प्राणियों के शुभ और दिव्य घर हमेशा चमकते रहते हैं। सर्वत्र विष्णु के प्रति मेधावी भक्ति प्रचुर मात्रा में देखी गई। हे मित्र, हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, वहाँ पृथ्वी पर परस्पर टकराने और पाप का नाश करने वाली ध्वनियों के कारण शंख की ध्वनियाँ सुनाई दे रही थीं। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, विष्णु के प्रति भक्ति के कारण स्त्रियों ने घरों के दरवाजों पर शंख, स्वस्तिक , कमल के चित्र बनाए थे ; और संगीत, गाने, अच्छे शब्दों, संगीत के पैमाने के माध्यम से ध्वनियों के विनियमित उत्थान या पतन के साथ विष्णु का ध्यान करने वाले लोग विष्णु की प्रशंसा में गाते हैं।

        28-29. वे हरि , मुरारी , केशव, अजित , माधव के बारे में स्नेहपूर्वक बात करते हैं । वे शरणागत विष्णु के नाम जपते हैं, (जैसे) कमल-नेत्र गोविंद, कमला के स्वामी (अर्थात लक्ष्मी), कृष्ण और राम , और (उनके नाम) जपते हुए पूजा करते हैं। विष्णु के वे महान भक्त, ध्यान में लगे हुए, उनके सामने पूरी तरह से प्रणाम करके उन्हें नमस्कार करते हैं।

        _________________________


                          "सुकर्मोवाच-
        विष्णुं  हरिं रामं कृष्णं मुकुंदं मधुसूदनम् ।
        नारायणं विष्णुरूपं नारसिंहं तमच्युतम् ।१।

        केशवं पद्मनाभं च वासुदेवं च वामनम् ।
        वाराहं कमठं मत्स्यं हृषीकेशं सुराधिपम् ।२।

        विश्वेशं विश्वरूपं च अनंतमनघं शुचिम् ।
        पुरुषं पुष्कराक्षं च श्रीधरं श्रीपतिं हरिम् ।३।

        श्रीनिवासं पीतवासं माधवं मोक्षदं प्रभुम् ।
        इत्येवं हि समुच्चारं नामभिर्मानवाः सदा ।४।

        प्रकुर्वंति नराः सर्वे बालवृद्धाः कुमारिकाः ।
        स्त्रियो हरिं सुगायंति गृहकर्मरताः सदा ।५।

        आसने शयने याने ध्याने वचसि माधवम् ।
        क्रीडमानास्तथा बाला गोविंदं प्रणमंति ते ।६।

        दिवारात्रौ सुमधुरं ब्रुवंति हरिनाम च ।
        विष्णूच्चारो हि सर्वत्र श्रूयते द्विजसत्तम ।७।

        वैष्णवेन प्रभावेण मर्त्या वर्तंति भूतले ।
        प्रासादकलशाग्रेषु देवतायतनेषु च ।८।

        यथा सूर्यस्य बिंबानि तथा चक्राणि भांति च ।वैकुंठे दृश्यते भावस्तद्भावं जगतीतले ।९।

        तेन राज्ञा कृतं विप्र पुण्यं चापि महात्मना ।
        विष्णुलोकस्य समतां तथानीतं महीतलम् ।१०।

        नहुषस्यापि पुत्रेण वैष्णवेन ययातिना ।
        उभयोर्लोकयोर्भावमेकीभूतं महीतलम् ।११।

        भूतलस्यापि विष्णोश्च अंतरं नैव दृश्यते ।
        विष्णूच्चारं तु वैकुंठे यथा कुर्वंति वैष्णवाः ।१२।

        भूतले तादृशोच्चारं प्रकुर्वंति च मानवाः ।
        उभयोर्लोकयोर्विप्र एकभावः प्रदृश्यते ।१३।

        जरारोगभयं नास्ति मृत्युहीना नरा बभुः ।
        दानभोगप्रभावश्च अधिको दृश्यते भुवि ।१४।

        पुत्राणां तु सुखं पुण्यमधिकं पौत्रजं नराः ।
        प्रभुंजंति सुखेनापि मानवा भुवि सत्तम ।१५।

        विष्णोः प्रसाददानेन उपदेशेन तस्य च ।
        सर्वव्याधिविनिर्मुक्ता मानवा वैष्णवाः सदा ।१६।

        स्वर्गलोकप्रभावो हि कृतो राज्ञा महीतले ।
        पंचविंशप्रमाणेन वर्षाणि नृपसत्तम ।१७।

        गदैर्हीना नराः सर्वे ज्ञानध्यानपरायणाः ।
        यज्ञदानपराः सर्वे दयाभावाश्च मानवाः ।१८।

        उपकाररताः पुण्या धन्यास्ते कीर्तिभाजनाः ।
        सर्वे धर्मपरा विप्र विष्णुध्यानपरायणाः ।१९।

        राज्ञा तेनोपदिष्टास्ते संजाता वैष्णवा भुवि ।
                          "विष्णुरुवाच-
        श्रूयतां नृपशार्दूल चरित्रं तस्य भूपतेः ।२०।

        सर्वधर्मपरो नित्यं विष्णुभक्तश्च नाहुषिः ।
        अब्दानां तत्र लक्षं हि तस्याप्येवं गतं भुवि ।२१।

        नूतनो दृश्यते कायः पंचविंशाब्दिको यथा ।
        पंचविंशाब्दिको भाति रूपेण वयसा तदा ।२२।

        प्रबलः प्रौढिसंपन्नः प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।
        मानुषा भुवमास्थाय यमं नैव प्रयांति ते ।२३।

        रागद्वेषविनिर्मुक्ताः क्लेशपाशविवर्जिताः ।
        सुखिनो दानपुण्यैश्च सर्वधर्मपरायणाः ।२४।

        विस्तारं तेजनाः सर्वे संतत्यापि गता नृप ।
        यथा दूर्वावटाश्चैव विस्तारं यांति भूतले ।२५।

        यथा ते मानवाः सर्वे पुत्रपौत्रैः प्रविस्तृताः ।
        मृत्युदोषविहीनास्ते चिरं जीवंति वै जनाः ।२६।

        स्थिरकायाश्च सुखिनो जरारोगविवर्जिताः ।
        पंचविंशाब्दिकाः सर्वे नरा दृश्यंति भूतले ।२७।

        सत्याचारपराः सर्वे विष्णुध्यानपरायणाः ।
        एवं सर्वे च मर्त्यास्ते प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।२८।

        संजाता मानवाः सर्वे दानभोगपरायणाः ।
        मृतो न श्रूयते लोके मर्त्यः कोपि नरोत्तम ।२९।

        शोकं नैव प्रपश्यंति दोषं नैव प्रयांति ते ।
        यद्रूपं स्वर्गलोकस्य तद्रूपं भूतलस्य च ।३०।

        संजातं मानवश्रेष्ठ प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।
        विभ्रष्टा यमदूतास्ते विष्णुदूतैश्च ताडिताः ।३१।

        रुदमाना गताः सर्वे धर्मराजं परस्परम् ।
        तत्सर्वं कथितं दूतैश्चेष्टितं भूपतेस्तु तैः ।३२।

        अमृत्युभूतलं जातं दानभोगेन भास्करे ।
        नहुषस्यात्मजेनापि कृतं देवययातिना ।३३।

        विष्णुभक्तेन पुण्येन स्वर्गरूपं प्रदर्शितम् ।
        एवमाकर्णितं सर्वं धर्मराजेन वै तदा ।३४।

        धर्मराजस्तदा तत्र दूतेभ्यः श्रुतविस्तरः ।
        चिंतयामास सर्वार्थं श्रुत्वैवंनृपचेष्टितम् ।३५।

        इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रे पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ।७५। 

        "अनुवाद"

        अध्याय 75 - विष्णु की कृपा से ययाति की प्रजा अमर हो गई

        सुकर्मन ने कहा :

        1-6. सभी पुरुष, बच्चे, बूढ़े, अविवाहित लड़कियाँ हमेशा विष्णु, कृष्ण , हरि , राम , मुकुंद , मधुसूदन, विष्णु के रूप नारायण, नरसिंह , अच्युत , केशव , पद्मन जैसे नामों का उच्चारण करते थे (अर्थात विष्णु के विभिन्न नामों का जाप करते थे)।

         आभा , वासुदेव , वामन , वराह , कामठ , मत्स्य , हृषिकेश , सुरधिप, विश्वेश, विश्वरूप, अनंत , अनाघ , शुचि , पुरुष , पुष्करक्ष, श्रीधर , श्रीपति , हरि , श्रीनिवास , पीतवास ( अर्थात पीले वस्त्र पहने हुए), माधव , मोक्षदा ( अर्थात मोक्ष दाता) और प्रभु । घरेलू काम में लगी महिलाएँ हमेशा हरि, माधव, (जब वे बैठी होती थीं) (जब वे लेटी हुई होती थीं) (जब वे जा रही होती थीं) वाहन में  प्रचुर मात्रा में गाती थीं (अर्थात् उनके नामों का जप करती थीं)। और ध्यान में. इसी प्रकार बच्चों ने (जबकि) खेलते हुए गोविंद (अर्थात विष्णु) को प्रणाम किया।

        7-16. दिन-रात वे विष्णु के अत्यंत मधुर नाम का उच्चारण करते थे। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , सर्वत्र विष्णु का (नाम का) उच्चारण सुनाई दे रहा था। मनुष्य पृथ्वी पर (केवल) विष्णु की शक्ति से रहते थे। विष्णु का चक्र) के प्रतिबिंब) के रूप में चमकता है। सूर्य के चक्र महलों और मंदिरों के घड़ों के शीर्ष पर चमकते हैं। जो स्थिति वैकुण्ठ में देखी गई वही पृथ्वी पर देखी गई। 

        उस महान राजा नहुष के पुत्र ययाति ने पुण्य का कार्य किया और पृथ्वी को विष्णु  के वैकुण्ठ के समान बना दिया। दोनों लोकों की शक्ल (समान होने से) पृथ्वी एक (विष्णु के वैकुण्ठ के साथ) हो गई थी। पृथ्वी और विष्णु के वैकुण्ठ में कोई अंतर नहीं देखा गया।

        जैसे विष्णु के भक्तों ने वैकुण्ठ में विष्णु के नामों का उच्चारण किया, उसी प्रकार (अर्थात् उसी प्रकार) मनुष्यों ने पृथ्वी पर विष्णु के नामों का उच्चारण किया।

        हे ब्राह्मण, दोनों दुनियाओं के बीच पहचान देखी गई। बुढ़ापे और बीमारियों से कोई डर नहीं था. लोग मृत्यु से मुक्त हो गये। पृथ्वी पर दान और भोग का अधिक वैभव देखने को मिला। 

        हे श्रेष्ठ, पुरुषों ने पुत्रों और पौत्रों से (अर्थात) अधिक आनंद उठाया। सभी मनुष्य - विष्णु के भक्त - विष्णु की कृपा (जो उन्हें प्राप्त हुई) और उनके निर्देश के कारण सभी रोगों से हमेशा मुक्त थे।

        17-20. राजा ने पृथ्वी पर वैकुण्ठ का वैभव लाया। हे श्रेष्ठ राजा, वर्ष पच्चीस वर्ष के थे (अर्थात् बहुत लम्बे थे)। सभी मनुष्य रोगों से मुक्त थे और ज्ञान तथा ध्यान पाने के इच्छुक थे। 

        सभी मनुष्य पूरी तरह से विष्णु यजन करने ) और उपहार देने  में लीन थे और सभी दयालु थे।वे (दूसरों को) उपकृत करने में लगे हुए थे; यश के भंडार वे मेधावी पुरुष धन्य हो गये। 

        हे ब्राह्मण, सभी मनुष्य पूरी तरह से धर्म के प्रति समर्पित थे और पूरी तरह से ध्यान में लीन थे। उस राजा के निर्देश पर, वे पृथ्वी पर विष्णु के प्रति समर्पित हो गये।

        विष्णु ने कहा :

        20-28. हे राजाश्रेष्ठ, उस राजा का वृत्तान्त सुनो।नहुष का वह पुत्र सदैव सभी गुणों में लीन और विष्णु का भक्त था। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वी पर एक लाख वर्ष व्यतीत किये।

         उसका शरीर परिपक्व हो गया था और रूप से पच्चीस वर्ष का प्रतीत होता था। वे मनुष्य (अर्थात् उसकी प्रजा) पृथ्वी का आश्रय लेकर (अर्थात् उस पर रहकर) यम के पास नहीं जाते थे।********

        हे राजा, सभी लोग राग-द्वेष से रहित, कष्ट के पाश से रहित, उपहार देने से प्राप्त पुण्य से प्रसन्न और केवल सभी धार्मिक कार्यों में समर्पित रहने वाले लोगों का सदैव विस्तार होता है ।

        (अर्थात उनकी संख्या बढ़ती है) संतान के संबंध में भी. जैसे दूर्वा (घास) और बरगद के वृक्ष शाखाओं की तरह पृथ्वी पर फैले हुए थे, उसी प्रकार वे सभी मनुष्य पुत्रों और पौत्रों के द्वारा विस्तार (अर्थात संख्या में वृद्धि) करने लगे।

         वे मनुष्य मृत्यु के दोष से मुक्त होकर दीर्घकाल तक जीवित रहे। पृथ्वी पर सब (वे) बलिष्ठ शरीर वाले, बुढ़ापे और रोगों से रहित तथा (अत: प्रसन्न) पुरुष पच्चीस वर्ष के (अर्थात् बहुत युवा) जान पड़ते थे। 

        सभी अच्छे आचरण के प्रति समर्पित थे और विष्णु के ध्यान में लीन थे। इसी लिए वे सभी भौतिक विकारों से परे थे।

        28-34. इस प्रकार सभी नश्वर प्राणी-सभी मनुष्य-उस चक्र-धारक (अर्थात विष्णु) की कृपा के कारण, पूरी तरह से उपहार और भोग के प्रति समर्पित हो गए थे। हे नरश्रेष्ठ, किसी भी मनुष्य को मरा हुआ नहीं सुना गया। उन्होंने दु:ख न देखा  और न ही मिला। वे निर्दोष देखे जाते हैं 

        हे पुरुषश्रेष्ठ, उस चक्रधारी की कृपा से संसार का स्वरूप ठीक वैसा ही हो गया जैसा वैकुण्ठ का स्वरूप था। 

        विष्णु के दूतों द्वारा पीटे गए यम के दूत गायब हो गए। वे सभी एक दूसरे के साथ रोते हुए धर्मराज (अर्थात् यम) के पास गये। 

        दूतों ने (यम को) वह सब बता दिया जो राजा (अर्थात् ययाति) ने किया था। (उन्होंने यम से कहा): “हे सूर्य पुत्र; दान और भोग के कारण पृथ्वी अमर हो गई है। 

        हे भगवान यम , नहुष के पुत्र ययाति ने ऐसा किया है। विष्णु के उस मेधावी भक्त ने (पृथ्वी पर) वैकुण्ठ की प्रकृति का प्रदर्शन किया।

        34-35. उसी समय धर्मराज ने यह सब सुन लिया। तब धर्मराज ने राजा की गतिविधियों को विस्तारपूर्वक सुनकर सारी बात पर विचार किया।

        ***************

        आयुष, नहुष, और ययाति का प्रकरण 

        ( लक्ष्मीनारायण- संहिता खण्ड- तृतीय-3- द्वापरयुग सन्तान अध्याय-(73) 

        पर भी इसी प्रकार पद्मपुराण के समान ययाति का वैष्णव चरित्र वर्णित है। जिसके निम्न दो श्लोकों में ययाति के द्वारा अन्त में गोलोक में जाने का वर्णन है।

        ययातिः प्रययौ विष्णोर्वैकुण्ठं वैष्णवैः सह ।
        ब्रह्मलोकं ययुः सर्वे पूजिताश्चाऽमरादिभिः ।१११।

        एवं भक्तिप्रभावोऽस्ति लक्ष्मि निर्बन्धकृत् सदा 
        अहं नयामि वैकुण्ठं गोलोकं चाऽक्षरं परम् ।१ १२।
        सन्दर्भ:-
         



        पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय (76) प्रारम्भ-)

                          "सुकर्मोवाच-
        सौरिर्दूतैस्तथा सर्वैः सह स्वर्गं जगाम सः।
        द्रष्टुं तत्र सहस्राक्षं देववृंदैः समावृतम् ।१।

        धर्मराजं समायांतं ददर्श सुरराट्तदा ।
        समुत्थाय त्वरायुक्तो दत्वा चार्घमनुत्तमम्।२।

        पप्रच्छागमनं तस्य कथयस्व ममाग्रतः ।
        समाकर्ण्य महद्वाक्यं देवराजस्य भाषितम् ।३।

        धर्मराजोऽब्रवीत्सर्वं ययातेश्चरितं महत् ।
                      "धर्मराज उवाच-
        श्रूयतां देवदेवेश यस्मादागमनं मम।४।

        कथयाम्यहमत्रापि येनाहमागतस्तव ।
        नहुषस्यात्मजेनापि वैष्णवेन महात्मना।५।

        वैष्णवाश्च कृता मर्त्या ये वसन्ति महीतले ।
        वैकुण्ठस्य समं रूपं मर्त्यलोकस्य वै कृतम्।६।

        अमरा मानवा जाता जरारोगविवर्जिताः ।
        पापमेव न कुर्वंति असत्यं न वदंति ते।७।

        कामक्रोधविहीनास्ते लोभमोहविवर्जिताः ।
        दानशीला महात्मानः सर्वे धर्मपरायणाः।८।

        सर्वधर्मैः समर्चन्ति नारायणमनामयम् ।
        तेन वैष्णवधर्मेण मानवा जगतीतले ।९।

        निरामया वीतशोकाः सर्वे च स्थिरयौवनाः ।
        दूर्वा वटा यथा देव विस्तारं यान्ति भूतले ।१०।

        तथा ते विस्तरं प्राप्ताः पुत्रपौत्रैः प्रपौत्रकैः ।
        तेषां पुत्रैः प्रपौत्रैश्च वंशाद्वंशांतरं गताः।११।

        एवं हि वैष्णवः सर्वो जरामृत्युविवर्जितः ।
        मर्त्यलोकः कृतस्तेन नहुषस्यात्मजेन वै।१२।

        पदभ्रष्टोस्मि सञ्जातो व्यापारेण विवर्जितः ।
        एतत्सर्वं समाख्यातं मम कर्मविनाशनम् ।१३।

        एवं ज्ञात्वा सहस्राक्ष लोकस्यास्य हितं कुरु ।
        एतत्ते सर्वमाख्यातं यथापृष्टोस्मि वै त्वया ।१४।

        एतस्मात्कारणादिन्द्र आगतस्तव सन्निधौ ।
                            "इन्द्र उवाच-
        पूर्वमेव मया दूत आगमाय महात्मनः।१५।

        प्रेषितो धर्मराजेन्द्र दूतेनास्यापि भाषितम् ।
        नाहं स्वर्गसुखस्यार्थी नागमिष्ये दिवं पुनः।१६

        स्वर्गरूपं करिष्यामि सर्वं तद्भूमिमंडलम् ।
        इत्याचचक्षे भूपालः प्रजापाल्यं करोति सः।१७।

        तस्य धर्मप्रभावेण भीतस्तिष्ठामि सर्वदा ।
                       "धर्म उवाच-
        येनकेनाप्युपायेन तमानय सुभूपतिम् ।१८।

        देवराज महाभाग यदीच्छसि मम प्रियम् ।
        इत्याकर्ण्य वचस्तस्य धर्मस्यापि सुराधिपः।१९।

        चिन्तयामास मेधावी सर्वतत्वेन भूपते ।
        कामदेवं समाहूय गंधर्वांश्च पुरंदरः।२०।

        मकरन्दं रतिं देव आनिनाय महामनाः ।
        तथा कुरुत वै यूयं यथाऽगच्छति भूपतिः।२१।

        यूयं गच्छन्तु भूर्लोकं मयादिष्टा न संशयः ।
                          "काम उवाच-
        युवयोस्तु प्रियं पुण्यं करिष्यामि न संशयः।२२।

        राजानं पश्य मां चैव स्थितं चैव समा युधि।
        तथेत्युक्त्वा गताः सर्वे यत्र राजा स नाहुषिः।२३।

        नटरूपेण ते सर्वे कामाद्याः कर्मणा द्विज ।
        आशीर्भिरभिनन्द्यैव ते च ऊचुः सुनाटकम् ।२४।

        तेषां तद्वचनं श्रुत्वा ययातिः पृथिवीपतिः ।
        सभां चकार मेधावी देवरूपां सुपण्डितैः। २५।

        समायातः स्वयं भूपो ज्ञानविज्ञानकोविदः ।
        तेषां तु नाटकं राजा पश्यमानः स नाहुषिः।२६।

        चरितं वामनस्यापि उत्पत्तिं विप्ररूपिणः।
        रूपेणाप्रतिमा लोके सुस्वरं गीतमुत्तमम् ।२७।

        गायमाना जरा राजन्नार्यारूपेण वै तदा ।
        तस्या गीतविलासेन हास्येन ललितेन च ।२८।

        मधुरालापतस्तस्य कन्दर्पस्य च मायया ।
        मोहितस्तेन भावेन दिव्येन चरितेन च ।२९।

        बलेश्चैव यथारूपं विंध्यावल्या यथा पुरा ।
        वामनस्य यथारूपं चक्रे मारोथ तादृशम् ।३०।

        सूत्रधारः स्वयं कामो वसंतः पारिपार्श्वकः ।
        नटीवेषधरा जाता सा रतिर्हृष्टवल्लभा।३१।

        नेपथ्यान्तश्चरी राजन्सा तस्मिन्नृत्यकर्मणि ।
        मकरन्दो महाप्राज्ञः क्षोभयामास भूपतिम् ।३२।

        यथायथा पश्यति नृत्यमुत्तमं गीतं समाकर्णति स क्षितीशः ।
        तथातथा मोहितवान्स भूपतिं नटीप्रणीतेन महानुभावः ।३३।


          "अध्याय-76 -धर्मराज बेरोजगार हो गये-

        अनुवाद:-

        सुकर्मन ने कहा :

        1-4. सूर्य के पुत्र ( यम ) अपने सभी दूतों के साथ देवताओं के समूहों से घिरे इंद्र से  मिलने  के लिए स्वर्ग गए । तभी उस देवराज (अर्थात इन्द्र) ने धर्मराज को अपनी सभा में देखा। 

        उसने झट से उठकर उसे उत्तम सम्मानपूर्ण भेंट दी और उससे  उनके आने का कारण पूछा  "मुझे बताओ  (तुम क्यों आए हो)।" देवताओं के राजा के भारी वचनों को सुनकर धर्मराज ने उन्हें ययाति का सारा महान वृत्तान्त कह सुनाया ।

        धर्मराज ने कहा :

        4-11. हे देवराज, सुनो मैं किस लिये आया हूँ। मैं यही  तुम्हें बताऊँगा कि मैं क्यों आया हूँ। विष्णु के भक्त नहुष के कुलीन पुत्र ने पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्यों को विष्णु का भक्त बना दिया है। उन्होंने नश्वर संसार का स्वरूप वैकुण्ठ जैसा बना दिया है । 

        मनुष्य अमर हो गया है और बुढ़ापे तथा रोगों से मुक्त हो गया है। वे न तो कोई पाप करते हैं और न ही झूठ बोलते हैं।

        वे काम और क्रोध से मुक्त हैं, और लोभ और भ्रम से रहित हैं। श्रेष्ठजनों को दान दिया जाता है और वे सभी धर्म के प्रति समर्पित होते हैं। 

        सभी अच्छे कार्यों के साथ वे ध्वनि नारायण की पूजा करते हैं । उस वैष्णव धर्म के  पालन करने के कारण पृथ्वी पर सभी मनुष्य स्वस्थ हैं।, शोक से मुक्त हैं और सभी स्थिर युवा हैं। 

        हे भगवन्, जिस प्रकार दूर्वा (घास) और बून के वृक्ष पृथ्वी पर फैलते हैं, उसी प्रकार वे अपने पुत्र, पौत्र और प्रपौत्रों के कारण विस्तार (अर्थात संख्या में वृद्धि) कर चुके हैं। 

        अपने पुत्रों और प्रपौत्रों के साथ वे एक राजवंश से दूसरे राजवंश में चले गये (अर्थात विभिन्न राजवंशों की शुरुआत की)।

        12-15. इस प्रकार नहुष के पुत्र ने संपूर्ण नश्वर संसार को विष्णु का भक्त  वैष्णव बना दिया और बुढ़ापे और मृत्यु से मुक्त कर दिया। 

        कार्य से मुक्त (अर्थात शून्य) होने के कारण मैं (मानो) अपने पद से वंचित हो गया हूँ।

         इस प्रकार मैंने तुम्हें वह सब कुछ बता दिया है जो मेरे कार्य को समाप्त कर देता है। हे हजार नेत्रों वाले (इंद्र) ऐसा जानकर वही करो जो इस संसार के लिए हितकर हो। जैसा कि आपने मुझसे पूछा था, मैंने यह सब आपको बता दिया है। इसी कारण से, हे इंद्र, मैं आपके समीप (अर्थात आपके पास आया हूं।

        इंद्र ने कहा :

        15-18. हे महान धर्मराज, पहले केवल मैंने ही अपने दूत (अर्थात् मातलि ) को उस महान व्यक्ति के पास  उस महान ययाति को यहाँ लाने के लिए) भेजा था। यहाँ तक कि मेरे दूत ने भी उससे बात की। (लेकिन ययाति ने उससे कहा:) “मुझे स्वर्ग में सुख की इच्छा नहीं है। मैं स्वर्ग में (बिल्कुल नहीं) आऊंगा। मैं पूरे विश्व को स्वर्ग की प्रकृति का बना दूंगा।

        इन्द्र ने कहा हे धर्मराज-

        इस प्रकार राजा ने (मेरे दूत मातलि से) कहा। वह राजा अपनी प्रजा की रक्षा कर रहा है. उसकी धार्मिकता के बल से मैं भी सदैव संकट में रहता हूँ।

        धर्म ने कहा :

        18-19. हे देवताओं के महामहिम स्वामी, यदि आप मुझे प्रिय वस्तु देना चाहते हैं तो उस अच्छे राजा को किसी भी तरह से लालसा देकर (स्वर्ग में) ले आइए।

        19-22. हे राजन, उस धर्मराज के ये वचन सुनकर बुद्धिमान देवराज ने सभी बातों पर तथ्यात्मक दृष्टि से विचार किया। श्रेष्ठ मन वाले भगवान इंद्र ने कामदेव और गंधर्वों को बुलाकर कोयल वसन्त (मकरन्द) और रति को ले आये । (उन्होंने उनसे कहा:) "वह करो जिससे राजा (यहाँ) आये।" मेरी आज्ञा से तुम पृथ्वी पर चले जाओ। (इस बारे में) तुम्हें कोई झिझक नहीं होनी चाहिए।”

         "कामदेव ने कहा :

        22-23. इसमें कोई संदेह नहीं कि मैं वही करूँगा जो आपके अनुकूल एवं जो तुम्हें उचित लगेगा।मुझे और राजा को युद्ध में (एक दूसरे के विपरीत) खड़े हुए देखिये।

        23-24. 'ठीक है' कहकर सभी वहाँ चले गये जहाँ वह राजा नहुष का पुत्र ययाति रहता था। 

        हे ब्राह्मण , उन सभी ने, काम देव आदि ने, अभिनेताओं के रूप में (अर्थात स्वयं को छिपाकर) राजा को आशीर्वाद दिया और अपने अच्छे नाटक के बारे में राजा को बताया (अर्थात अच्छे अभिनय के साथ उनसे बात की)।

        25-33. उनकी ये बातें सुनकर पृथ्वी के बुद्धिमान स्वामी ययाति ने अत्यंत विद्वानों के साथ एक दिव्य सभा की व्यवस्था की। पवित्र तथा अपवित्र विद्या में निपुण राजा स्वयं (वहां) आये। नहुष के पुत्र राजा ने वह नाटक देखा। (उन्होंने देखा) वामन का जीवन , एक ब्राह्मण के रूप में उनका जन्म भी है। 

        उस समय जरा (अर्थात् वृद्धावस्था) ने संसार में सौंदर्य में अद्वितीय स्त्री का रूप धारण करके एक उत्तम, मधुर गीत गाया, हे राजन! उसके गायन के आकर्षण के कारण, उसकी मनोहर हंसी (अर्थात मुस्कान) के कारण, और उसके मीठे शब्दों के कारण, और कामदेव की युक्ति, ढंग और दिव्य व्यवहार के कारण वह राजा मोहित हो गया था। कामदेव का रूप पहले बलि , और विंध्य या वामन की पंक्ति जैसा था। 

        कामदेव स्वयं मुख्य अभिनेता और मंच प्रबंधक बन गए, और  वसन्त रति उनके सहायक थे। वह रति, जिसका पति प्रसन्न था, उस रति ने मुख्य अभिनेत्री की पोशाक पहन ली। उस नृत्य-प्रदर्शन में वह  विश्राम-कक्ष में चली गईं।अत्यंत बुद्धिमान कोयल ने राजा को उत्साहित कर दिया। जैसे ही गौरवशाली राजा ने उत्कृष्ट नृत्य देखा और उत्कृष्ट संगीत सुना, वह मुख्य अभिनेत्री (अर्थात् रति) द्वारा प्रस्तुत (इनसे) मोहित हो गया।

        मकरन्द:- पुष्परस-कामवर्धक पदार्थ- मकरमपि द्यति कामजनकत्वात् दो--अवखण्डने क पृषो० मुम् ।(१)-पुष्पमधौ अमरः कोश ।

        ←  अध्याय 77)

                           'सुकर्मोवाच-
        कामस्य गीतलास्येन हास्येन ललितेन च।
        मोहितो राजराजेंद्रो नटरूपेण पिप्पल ।१।

        कृत्वा मूत्रं पुरीषं च स राजा नहुषात्मजः ।
        अकृत्वा पादयोः शौचमासने उपविष्टवान् ।२।

        तदंतरं तु संप्राप्य संचचार जरा नृपम् ।
        कामेनापि नृपश्रेष्ठ इंद्रकार्यं कृतं हितम् ।३।

        निवृत्ते नाटके तस्मिन्गतेषु तेषु भूपतिः ।
        जराभिभूतो धर्मात्मा कामसंसक्तमानसः।४।

        मोहितः काममोहेन विह्वलो विकलेंद्रियः ।
        अतीव मुग्धो धर्मात्मा विषयैश्चापवाहितः।५।

        एकदा तु गतो राजा मृगया व्यसनातुरः।
        वने च क्रीडते सोपि मोहरागवशं गतः।६।

        सरसं क्रीडमानस्य नृपतेश्च महात्मनः ।
        मृगश्चैकः समायातश्चतुःशृंगो ह्यनौपमः ।७।

        सर्वांगसुंदरो राजन्हेमरूपतनूरुहः।
        रत्नज्योतिः सुचित्रांगो दर्शनीयो मनोहरः।८।

        अभ्यधावत्स वेगेन बाणपाणिर्धनुर्द्धरः।
        इत्यमन्यत मेधावी कोपि दैत्यः समागतः।९।

        मृगेण च स तेनापि दूरमाकर्षितो नृपः ।
        गतः सरथवेगेन श्रमेण परिखेदितः।१०।

        वीक्षमाणस्य तस्यापि मृगश्चांतरधीयत ।
        स पश्यति वनं तत्र नंदंनोपममद्भुतम्।११।

        चारुवृक्षसमाकीर्णं भूतपंचकशोभितम् ।
        गुरुभिश्चंदनैः पुण्यैः कदलीखंडमंडितैः।१२।

        बकुलाशोकपुंनागैर्नालिकेरैश्च तिंदुकैः ।
        पूगीफलैश्च खर्जूरैः कुमुदैः सप्तपर्णकैः।१३।

        पुष्पितैः कर्णिकारैश्च नानावृक्षैः सदाफलैः ।
        पुष्पितामोदसंयुक्तैः केतकैः पाटलैस्ततः।१४।

        वीक्षमाणो महाराज ददर्श सर उत्तमम् ।
        पुण्योदकेन संपूर्णं विस्तीर्णं पंचयोजनम्।१५।

        हंसकारंडवाकीर्णं जलपक्षिविनादितम् ।
        कमलैश्चापि मुदितं श्वेतोत्पलविराजितम्।१६।

        रक्तोत्पलैः शोभमानं हाटकोत्पलमंडितम् ।
        नीलोत्पलैः प्रकाशितं कल्हारैरतिशोभितम् ।१७।

        मत्तैर्मधुकरैश्चपि सर्वत्र परिनादितम् ।
        एवं सर्वगुणोपेतं ददर्श सर उत्तमम् ।१८।

        पंचयोजनविस्तीर्णं दशयोजनदीर्घकम् ।
        तडागं सर्वतोभद्रं दिव्यभावैरलंकृतम् ।१९।

        रथवेगेन संखिन्नः किंचिच्छ्रमनिपीडितः।
        निषसाद तटे तस्य चूतच्छायां सुशीतलाम् ।२०।

        स्नात्वा पीत्वा जलं शीतं पद्मसौगंध्यवासितम् ।
        सर्वश्रमोपशमनममृतोपममेव तत् ।२१।

        वृक्षच्छाये ततस्तस्मिन्नुपविष्टेन भूभृता ।
        गीतध्वनिः समाकर्णि गीयमानो यथा तथा ।२२।

        यथा स्त्री गायते दिव्या तथायं श्रूयते ध्वनिः।
        गीतप्रियो महाराज एव चिंतां परां गतः।२३।

        चिंताकुलस्तु धर्मात्मा यावच्चिंतयते क्षणम् ।
        तावन्नारी वरा काचित्पीनश्रोणी पयोधरा।२४।

        नृपतेः पश्यतस्तस्य वने तस्मिन्समागता ।
        सर्वाभरणशोभांगी शीललक्षणसंपदा।२५।

        तस्मिन्वने समायाता नृपतेः पुरतः स्थिता ।
        तामुवाच महाराजः का हि कस्य भविष्यसि।२६।

        किमर्थं हि समायाता तन्मे त्वं कारणं वद ।
        पृष्टा सती तदा तेन न किंचिदपि पिप्पल।२७।

        शुभाशुभं च भूपालं प्रत्यवोचद्वरानना ।
        प्रहस्यैव गता शीघ्रं वीणादंडकराऽबला।२८।

        विस्मयेनापि राजेंद्रो महता व्यापितस्तदा ।
        मया संभाषिता चेयं मां न ब्रूते स्म सोत्तरम्।२९।

        पुनश्चिंतां समापेदे ययातिः पृथिवीपतिः ।
        यो वै मृगो मया दृष्टश्चतुःशृंगः सुवर्णकः।३०।

        तस्मान्नारी समुद्भूता तत्सत्यं प्रतिभाति मे ।
        मायारूपमिदं सत्यं दानवानां भविष्यति।३१।

        चिंतयित्वा क्षणं राजा ययातिर्नहुषात्मजः ।
        यावच्चिंतयते राजा तावन्नारी महावने।३२।

        अंतर्धानं गता विप्र प्रहस्य नृपनंदनम् ।
        एतस्मिन्नंतरे गीतं सुस्वरं पुनरेव तत्।३३।

        शुश्रुवे परमं दिव्यं मूर्छनातानसंयुतम् ।
        जगाम सत्वरं राजा यत्र गीतध्वनिर्महान्।३४।

        जलांते पुष्करं चैव सहस्रदलमुत्तमम् ।
        तस्योपरि वरा नारी शीलरूपगुणान्विता ।३५।

        दिव्यलक्षणसंपन्ना दिव्याभरणभूषिता ।
        दिव्यैर्भावैः प्रभात्येका वीणादंडकराविला ।३६।

        गायंती सुस्वरं गीतं तालमानलयान्वितम् ।
        तेन गीतप्रभावेण मोहयंती चराचरान् ।३७।

        देवान्मुनिगणान्सर्वान्दैत्यान्गंधर्वकिन्नरान् ।
        तां दृष्ट्वा स विशालाक्षीं रूपतेजोपशालिनीम्।३८।

        संसारे नास्ति चैवान्या नारीदृशी चराचरे ।
        पुरा नटो जरायुक्तो नृपतेः कायमेव हि ।३९।

        संचारितो महाकामस्तदासौ प्रकटोभवत् ।
        घृतं स्पृष्ट्वा यथा वह्नी रश्मिवान्संप्रजायते।४०।

        तां च दृष्ट्वा तथा कामस्तत्कायात्प्रकटोऽभवत् ।
        मन्मथाविष्टचित्तोसौ तां दृष्ट्वा चारुलोचनाम्।४१।

        ईदृग्रूपा न दृष्टा मे युवती विश्वमोहिनी ।
        चिंतयित्वा क्षणं राजा कामसंसक्तमानसः।४२।

        तस्याः सविरहेणापि लुब्धोभून्नृपतिस्तदा ।
        कामाग्निना दह्यमानः कामज्वरेणपीडितः।४३।

        कथं स्यान्मम चैवेयं कथं भावो भविष्यति ।
        यदा मां गूहते बाला पद्मास्या पद्मलोचना।४४।

        यदीयं प्राप्यते तर्हि सफलं जीवितं भवेत् ।
        एवं विचिंत्य धर्मात्मा ययातिः पृथिवीपतिः।४५।

        तामुवाच वरारोहां का त्वं कस्यापि वा शुभे ।
        पूर्वं दृष्टा तु या नारी सा दृष्टा पुनरेव च ।४६।

        तां पप्रच्छ स धर्मात्मा का चेयं तव पार्श्वगा ।
        सर्वं कथय कल्याणि अहं हि नहुषात्मजः।४७।

        सोमवंशप्रसूतोहं सप्तद्वीपाधिपः शुभे ।
        ययातिर्नाम मे देवि ख्यातोहं भुवनत्रये ।४८।

        तव संगमने चेतो भावमेवं प्रवांछते ।
        देहि मे संगमं भद्रे कुरु सुप्रियमेव हि ।४९।

        यं यं हि वांछसे भद्रे तद्ददामि न संशयः ।
        दुर्जयेनापि कामेन हतोहं वरवर्णिनि ।५०।

        तस्मात्त्राहि सुदीनं मां प्रपन्नं शरणं तव ।
        राज्यं च सकलामुर्वीं शरीरमपि चात्मनः ।५१।

        संगमे तव दास्यामि त्रैलोक्यमिदमेव ते ।
        तस्य राज्ञो वचः श्रुत्वा सा स्त्री पद्मनिभानना ।५२।

        विशालां स्वसखीं प्राह ब्रूहि राजानमागतम् ।
        नाम चोत्पत्तिस्थानं च पितरं मातरं शुभे ।५३।

        ममापि भावमेकाग्रमस्याग्रे च निवेदय ।
        तस्याश्च वांछितं ज्ञात्वा विशाला भूपतिं तदा ।५४।

        उवाच मधुरालापैः श्रूयतां नृपनंदन ।
                       "विशालोवाच-
        काम एष पुरा दग्धो देवदेवेन शंभुना ।५५।

        रुरोद सा रतिर्दुःखाद्भर्त्राहीनापि सुस्वरम् ।
        अस्मिन्सरसि राजेंद्र सा रतिर्न्यवसत्तदा ।५६।

        तस्य प्रलापमेवं सा सुस्वरं करुणान्वितम् ।
        समाकर्ण्य ततो देवाः कृपया परयान्विताः ।५७।

        संजाता राजराजेंद्र शंकरं वाक्यमब्रुवन् ।
        जीवयस्व महादेव पुनरेव मनोभवम् ।५८।

        वराकीयं महाभाग भर्तृहीना हि कीदृशी ।
        कामेनापि समायुक्तामस्मत्स्नेहात्कुरुष्व हि ।५९।

        तच्छ्रुत्वा च वचः प्राह जीवयामि मनोभवम् ।
        कायेनापि विहीनोयं पंचबाणो मनोभवः ।६०।

        भविष्यति न संदेहो माधवस्य सखा पुनः ।
        दिव्येनापि शरीरेण वर्तयिष्यति नान्यथा ।६१।

        महादेवप्रसादाच्च मीनकेतुः स जीवितः ।
        आशीर्भिरभिनंद्यैवं देव्याः कामं नरोत्तम ।६२।

        गच्छ काम प्रवर्तस्व प्रियया सह नित्यशः ।
        एवमाह महातेजाः स्थितिसंहारकारकः ।६३।

        पुनः कामः सरःप्राप्तो यत्रास्ते दुःखिता रतिः ।
        इदं कामसरो राजन्रतिरत्र सुसंस्थिता ।६४।

        दग्धे सति महाभागे मन्मथे दुःखधर्षिता ।
        रत्याः कोपात्समुत्पन्नः पावको दारुणाकृतिः ।६५।

        अतीवदग्धा तेनापि सा रतिर्मोहमूर्छिता ।
        अश्रुपातं मुमोचाथ भर्तृहीना नरोत्तम ।६६।

        नेत्राभ्यां हि जले तस्याः पतिता अश्रुबिंदवः।
        तेभ्यो जातो महाशोकः सर्वसौख्यप्रणाशकः।६७।

        जरा पश्चात्समुत्पन्ना अश्रुभ्यो नृपसत्तम ।
        वियोगो नाम दुर्मेधास्तेभ्यो जज्ञे प्रणाशकः ।६८।

        दुःखसंतापकौ चोभौ जज्ञाते दारुणौ तदा ।
        मूर्छा नाम ततो जज्ञे दारुणा सुखनाशिनी ।६९।

        शोकाज्जज्ञे महाराज कामज्वरोथ विभ्रमः ।
        प्रलापो विह्वलश्चैव उन्मादो मृत्युरेव च ।७०।

        तस्याश्च अश्रुबिंदुभ्यो जज्ञिरे विश्वनाशकाः ।
        रत्याः पार्श्वे समुत्पन्नाः सर्वे तापांगधारिणः ।७१।

        मूर्तिमंतो महाराज सद्भावगुणसंयुताः ।
        काम एष समायातः केनाप्युक्तं तदा नृप ।७२।

        महानंदेन संयुक्ता दृष्ट्वा कामं समागतम् ।
        नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां पतिता अश्रुबिन्दवः ।७३।

        अप्सु मध्ये महाराज चापल्याज्जज्ञिरे प्रजाः ।
        प्रीतिर्नाम तदा जज्ञे ख्यातिर्लज्जा नरोत्तम ।७४।

        तेभ्यो जज्ञे महानंद शांतिश्चान्या नृपोत्तम ।
        जज्ञाते द्वे शुभे कन्ये सुखसंभोगदायिके ।७५।

        लीलाक्रीडा मनोभाव संयोगस्तु महान्नृप ।
        रत्यास्तु वामनेत्राद्वै आनंदादश्रुबिंदवः ।७६।

        जलांते पतिता राजंस्तस्माज्जज्ञे सुपंकजम् ।
        तस्मात्सुपंकजाज्जाता इयं नारी वरानना ।७७।

        अश्रुबिंदुमती नाम रतिपुत्री नरोत्तम । तस्याः प्रीत्या सुखं कृत्वा नित्यं वर्त्ते समीपगा।७८।

        सखीभावस्वभावेन संहृष्टा सर्वदा शुभा ।
        विशाला नाम मे ख्यातं वरुणस्य सुता नृप ।७९।

        अस्याश्चांते प्रवर्तामि स्नेहात्स्निग्धास्मि सर्वदा ।
        एतत्ते सर्वमाख्यातमस्याश्चात्मन एव ते ।८०।

        तपश्चचार राजेंद्र पतिकामा वरानना ।
                          -राजोवाच-
        सर्वमेव त्वयाख्यातं मया ज्ञातं शुभे शृणु ।८१।

        मामेवं हि भजत्वेषा रतिपुत्री वरानना ।
        यमेषा वांछते बाला तत्सर्वं तु ददाम्यहम् ।८२।

        तथा कुरुष्व कल्याणि यथा मे वश्यतां व्रजेत् ।
                          विशालोवाच-
        अस्या व्रतं प्रवक्ष्यामि तदाकर्णय भूपते ।८३।

        पुरुषं यौवनोपेतं सर्वज्ञं वीरलक्षणम् ।
        देवराजसमं राजन्धर्माचारसमन्वितम् ।८४।

        तेजस्विनं महाप्राज्ञं दातारं यज्विनां वरम् ।
        गुणानां धर्मभावस्य ज्ञातारं पुण्यभाजनम् ।८५।

        लोक इंद्रसमं राजन्सुयज्ञैर्धर्मतत्परम् ।
        सर्वैश्वर्यसमोपेतं नारायणमिवापरम् ।८६।

        देवानां सुप्रियं नित्यं ब्राह्मणानामतिप्रियम् ।
        ब्रह्मण्यं वेदतत्त्वज्ञं त्रैलोक्ये ख्यातविक्रमम् ।८७।

        एवंगुणैः समुपेतं त्रैलोक्येन प्रपूजितम् ।
        सुमतिं सुप्रियं कांतं मनसा वरमीप्सति ।८८।

                          'ययातिरुवाच-
        एवं गुणैः समुपेतं विद्धि मामिह चागतम् ।
        अस्यानुरूपो भर्त्ताहं सृष्टो धात्रा न संशयः ।८९।

                           'विशालोवाच-
        भवंतं पुण्यसंवृद्धं जाने राजञ्जगत्त्रये ।
        पूर्वोक्ता ये गुणाः सर्वे मयोक्ताः संति ते त्वयि ।९०।

        एकेनापि च दोषेण त्वामेषा हि न मन्यते ।
        एष मे संशयो जातो भवान्विष्णुमयो नृप ।९१।
                             "ययातिरुवाच-
        समाचक्ष्व महादोषं यमेषा नानुमन्यते ।
        तत्त्वेन चारुसर्वांगी प्रसादसुमुखी भव ।९२।

                              विशालोवाच-
        आत्मदोषं न जानासि कस्मात्त्वं जगतीपते ।
        जरया व्याप्तकायस्त्वमनेनेयं न मन्यते ।९३।

        एवं श्रुत्वा महद्वाक्यमप्रियं जगतीपतिः ।
        दुःखेन महताविष्टस्तामुवाच पुनर्नृपः ।९४।

        जरादोषो न मे भद्रे संसर्गात्कस्यचित्कदा ।
        समुद्भूतं ममांगे वै तं न जाने जरागमम् ।९५।

        यं यं हि वांछते चैषा त्रैलोक्ये दुर्लभं शुभे ।
        तमस्यै दातुकामोहं व्रियतां वर उत्तमः ।९६।

                        "विशालोवाच-
        जराहीनो यदा स्यास्त्वं तदा ते सुप्रिया भवेत् ।
        एतद्विनिश्चितं राजन्सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।९७।

        श्रुतिरेवं वदेद्राजन्पुत्रे भ्रातरि भृत्यके ।
        जरा संक्राम्यते यस्य तस्यांगे परिसंचरेत् ।९८।

        तारुण्यं तस्य वै गृह्य तस्मै दत्वा जरां पुनः ।
        उभयोः प्रीतिसंवादः सुरुच्या जायते शुभः।९९।

        यथात्मदानपुण्यस्य कृपया यो ददाति च ।
        फलं राजन्हि तत्तस्य जायते नात्र संशयः।१००।

        दुःखेनोपार्जितं पुण्यमन्यस्मै हि प्रदीयते ।
        सुपुण्यं तद्भवेत्तस्य पुण्यस्य फलमश्नुते।१०१।

        पुत्राय दीयतां राजंस्तस्मात्तारुण्यमेव च ।
        प्रगृह्यैव समागच्छ सुंदरत्वेन भूपते।१०२।

        यदा त्वमिच्छसे भोक्तुं तदा त्वं कुरुभूपते ।
        एवमाभाष्य सा भूपं विशाला विरराम ह ।१०३।

                         "सुकर्मोवाच-
        एवमाकर्ण्य राजेंद्रो विशालामवदत्तदा ।
                           "राजोवाच-
        एवमस्तु महाभागे करिष्ये वचनं तव ।१०४।

        कामासक्तः समूढस्तु ययातिः पृथिवीपतिः ।
        गृहं गत्वा समाहूय सुतान्वाक्यमुवाच ह ।१०५।

        तुरुं पूरुं कुरुं राजा यदुं च पितृवत्सलम्।
        कुरुध्वं पुत्रकाः सौख्यं यूयं हि मम शासनात् ।१०६।

                           "पुत्रा ऊचुः-
        पितृवाक्यं प्रकर्तव्यं पुत्रैश्चापि शुभाशुभम् ।
        उच्यतां तात तच्छीघ्रं कृतं विद्धि न संशयः।१०७।

        एवमाकर्ण्यतद्वाक्यं पुत्राणां पृथिवीपतिः ।
        आचचक्षे पुनस्तेषु हर्षेणाकुलमानसः।१०८।

        अध्याय 77 - ययाति जुनून को जन्म देता है

        सुकर्मन ने कहा :

        1-5. हे पिप्पल , कामदेव के संगीत के आकर्षण, उनकी मनमोहक मुस्कान और एक अभिनेता के रूप में उनके रूप से राजाओं के राजा ययाति मोहित हो गए थे । नहुष का पुत्र राजा ययाति, मल मूत्र त्याग कर  , पैर धोए बिना ही अपने आसन पर बैठ गया। उस अवसर लाभ उठाकर  जरा (अर्थात बुढ़ापा) राजा के पास चला गया। हे श्रेष्ठ राजा,  तभी कामदेव ने भी इंद्र के लिए लाभकारी कार्य पूरा कर दिया।

        जब नाटक समाप्त हो गया और वे चले गए, तो धार्मिक विचारों वाला राजा बुढ़ापे से ग्रस्त हो गया, उसका मन वासना में आसक्त हो गया, कामदेव द्वारा उत्पन्न भ्रम से मोहित हो गया, व्याकुल हो गया, उसके अंग कमजोर हो गए; वह धर्मात्मा (राजा) अत्यंत मूर्च्छित होगया था और इन्द्रिय विषयों से दूर हो गया था।

        6-11. एक बार एक राजा शिकार की इच्छा से (अर्थात् शिकार करने को उत्सुक) जंगल में गया। वह मोह के वशीभूत होकर वन में क्रीड़ा करने लगा। जब वह प्रतापी राजा रुचिपूर्वक खेल रहा था, तभी चार सींगों वाला एक अतुलनीय हिरण (वहां) आया। हे राजन, उसका पूरा शरीर सुंदर था, उसके बाल सुनहरे रंग के थे, उसका शरीर मणि के समान चमक से युक्त था; यह सुंदर और आकर्षक था. धनुर्धर (अर्थात राजा) हाथ में तीर लेकर तेजी से (उसकी ओर) दौड़ा।

         बुद्धिमान (राजा) ने सोचा कि (वहाँ) कोई राक्षस आया है। हिरण ने भी राजा को खींच लिया। वह रथ की गति से (उसके पीछे) चला, और थकावट से पीड़ित हो गया। जब वह देख रहा था, हिरण गायब हो गया।

        11-20. वहाँ उन्होंने इन्द्र की वाटिका के समान एक अद्भुत वन देखा; यह सुंदर पेड़ों से भरा हुआ था, और पांच तत्वों के साथ शानदार लग रहा था, बड़े पवित्र चंदन के पेड़ और केले के पेड़ों के आकर्षक समूहों के साथ, (जैसे) बकुला , अशोक , पुन्नागा , नालिकेरा (यानी कोको-अखरोट के पेड़) के साथ। तिंदुका , पुगीफला (सुपारी के पेड़), खजूर के पेड़, कमल और सप्तपर्ण के पेड़, खिले हुए कर्णिकारा (पेड़), और विभिन्न पेड़ जिन पर हमेशा फल लगते हैं, इसी तरह केतका और पाटल के साथ भी । (इन्हें) देखते समय महान राजा को एक उत्तम झील दिखाई दी। वह पवित्र जल से भरा हुआ था; वह पाँच योजन तक व्यापक (फैला हुआ) था ; उसमें हंसों और बत्तखों की भीड़ थी; वह जलीय पक्षियों से गूँज रहा था; वह कमलों से भी रमणीय था; वह लाल कमलों से आकर्षक लग रही थी, और सुनहरे कमलों से सुशोभित थी; श्वेत कमलों के कारण वह अत्यंत मनमोहक लग रहा था; यह हर जगह नशे में धुत मधुमक्खियों से भी गूंज रहा था। इस प्रकार उन्होंने झील को सभी उत्कृष्टताओं से संपन्न देखा। यह पाँच योजन चौड़ा और दस योजन लम्बा था। झील सब तरफ से शुभ थी; और दिव्य वस्तुओं से सुशोभित था। रथ की गति से थककर और थकान से परेशान होकर वह उसके किनारे एक आम के पेड़ की छाया में बैठ गया।

        21-26. उसमें स्नान करके, अमृत के समान कमल की सुगंध से सुगन्धित उसके शीतल जल को पीकर (अर्थात् पिया) और सारी थकावट दूर कर देता है। पेड़ की छाया में बैठे राजा को किसी तरह (किसी के द्वारा) गाए जा रहे गीत की आवाज सुनाई दी। यह ध्वनि उस गीत के रूप में सुनी गई (यह ध्वनि होगी) जिसे एक दिव्य महिला गाएगी। संगीत प्रेमी वह महान राजा अत्यंत विचारशील हो गया। जब वह कुलीन इस प्रकार चिंतित हुआ और एक क्षण के लिए सोचने लगा, तभी जंगल में एक स्त्री, जिसके नितम्ब और स्तन थे, आ पहुँची, जिसे राजा देख रहे थे। वह, जिसका शरीर सभी आभूषणों से सुंदर लग रहा था, और अच्छे चरित्र और (शुभ) चिह्नों से युक्त थी, जंगल में आई और राजा के सामने खड़ी हुई।

        26-32. राजा ने उससे कहा: “तुम कौन हो? आप किसके हैं? तुम यहाँ क्यों आये हो? मुझे इसका कारण बताओ।” हे पिप्पला, उस उत्कृष्ट मुख वाली स्त्री ने उस समय राजा द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर न तो अच्छा उत्तर दिया और न ही बुरा। वह स्त्री, जिसकी गर्दन हाथ में थी, हँसी और तेजी से चली गई। तब राजा बड़े आश्चर्य से भर गये, 'जब मैंने उससे बात की तो वह उत्तर नहीं दे रही है।' फिर उस राजा ययाति ने सोचा: '(ये) चार सींग जो मैंने देखे थे। मुझे लगता है कि यही सच है. यह वास्तव में राक्षसों का एक कपटपूर्ण रूप होना चाहिए (अर्थात् द्वारा अपनाया गया)।' हे ब्राह्मण , नहुष के पुत्र राजा ययाति ने एक क्षण के लिए (इस प्रकार) सोचा।

        32-38. जब राजा ऐसा सोच रहा था; महिला राजकुमार पर हंसते हुए जंगल में गायब हो गई। इस बीच, उन्होंने फिर से गाना सुना, जो मधुर था, बहुत दिव्य था और संगीत के पैमाने के माध्यम से ध्वनियों के स्वर और नियमित उतार-चढ़ाव के साथ था। राजा उस स्थान पर गया (जहाँ से) गीत की महान ध्वनि आ रही थी। जल में एक हज़ार पंखुड़ियों वाला एक उत्कृष्ट कमल था। उस पर एक उत्कृष्ट महिला थी, जो (अच्छे) चरित्र, सुंदरता और गुणों से संपन्न थी। वह दिव्य चिन्हों से युक्त थी; वह दिव्य आभूषणों से सुसज्जित थी; वह दिव्य वस्तुओं से चमकती थी; उसका हाथ लुटेरे की गर्दन पकड़ने में लगा हुआ था। वह ताल और समय मापने तथा विराम के साथ एक मधुर गीत गा रही थी। उस गाने की शक्ति से उसने जंगम और स्थावर, देवताओं, ऋषियों के समूहों, सभी राक्षसों, गंधर्वों और किन्नरों को भी मोहित कर लिया ।

        38-42. उस (स्त्री को) चौड़ी आंखों वाली, सौंदर्य और तेज से युक्त देखकर (उसने सोचा) कि इस चराचर और स्थावर संसार में उसके समान दूसरी कोई स्त्री नहीं है। पूर्वकाल में अभिनेता महान कामदेव राजा के शरीर में प्रविष्ट हो गये थे; उन्होंने उस समय स्वयं को प्रकट किया। जैसे आग, घी के संपर्क में आने से प्रकाश की किरणें निकालती है (यानी उज्ज्वल होती है), उसी तरह कामदेव (यानी जुनून) उसे देखने के बाद (यानी राजा के बाद) खुद को प्रकट करते हैं। उस मनमोहक नेत्रों वाली स्त्री को देखकर उसके मन पर कामदेव (अर्थात जुनून) हावी हो गया। (उसने सोचा:) 'मैंने (पहले) ऐसी युवा महिला को दुनिया को लुभाते हुए कभी नहीं देखा।'

        42-43. एक पल के लिए सोचने पर राजा का मन कामवासना में बंध गया। उसके वियोग में राजा कामाग्नि से जलकर तथा काम-ज्वर से पीड़ित होकर उसकी लालसा करने लगा।

        44-46. (उसने सोचा:) 'वह मेरी कैसे होगी? उसे (मुझसे) प्रेम कैसे होगा? मेरा जीवन तभी सफल होगा जब कमल के समान मुख वाली तथा कमल के समान नेत्रों वाली यह युवती मुझे गले लगाएगी अथवा मुझे प्राप्त होगी।' इस प्रकार विचार करके उस धर्मात्मा राजा ययाति ने उस सुन्दरी से कहा- हे शुभा आप कौन हैं? आप किसके हैं?” वह महिला जो पहले देखी गई थी वह फिर से (मुझे) दिखाई दी है।

        47-52. धर्मी ने उससे पूछा: “तुम्हारे पास कौन है? हे शुभ, मुझे सब कुछ बताओ। मैं नहुष का पुत्र हूं। हे दयालु, मैं चंद्र वंश में पैदा हुआ हूं और सात द्वीपों का स्वामी हूं। हे आदरणीय महिला, मेरा नाम ययाति है; मैं तीनों लोकों में विख्यात हूँ। इस प्रकार मेरा हृदय आपके साथ मिलन की अभिलाषा रखता है। हे अच्छी महिला, मेरे साथ एकजुट हो जाओ, वह करो जो (मुझे) बहुत प्रिय है। हे अच्छी महिला, इसमें कोई संदेह नहीं है कि मैं तुम्हें वह सब कुछ दूंगा जो तुम चाहोगी। हे उत्कृष्ट रंगरूप वाले आप, मैं अजेय जुनून से अभिभूत हूं। अत: मुझ अत्यंत असहाय और आपकी शरण में आये हुए लोगों की रक्षा कीजिये। तुम्हारे साथ मिलन के लिए (अर्थात बदले में) मैं अपना राज्य, पूरी पृथ्वी या यहां तक ​​कि अपना शरीर भी दे दूंगा। ये तीनों लोक आपके हैं।”

        52-55 राजा के वचन सुनकर कमल के समान मुख वाली उस स्त्री ने अपनी सखी विशाला से कहा- जो राजा यहाँ आये हैं, उन्हें मेरा नाम, मेरा जन्म स्थान, मेरा नाम बताओ। मेरे पिता और माता, हे अच्छी स्त्री! उसे (उसके लिए) मेरे प्यार के बारे में भी बताओ।” उसकी इच्छा को समझकर विशाला ने मीठे शब्दों में राजा से कहा, "हे राजकुमार, सुनो।"

        विशाला ने कहा :

        55-7. इस कामदेव को पहले देवताओं के देवता शम्भु (अर्थात शिव ) ने जला दिया था। वह रति अपने पति से वंचित होकर दुःख के कारण मधुर स्वर में रोने लगी। हे राजाश्रेष्ठ, उस समय वह रति इसी सरोवर में रहती थी। हे राजाओं के राजा, देवताओं ने उसके इस प्रकार दुःख से युक्त मधुर विलाप को सुनकर (उस पर) बड़ी दया की। उन्होंने शंकर से (ये) शब्द कहे : “हे महान देवता, मन में जन्मे (कामदेव) को फिर से जीवित करो। हे महिमामयी, वह किस स्वभाव की होगी (अर्थात उसकी क्या दुर्दशा होगी) जो अपने पति से वंचित होकर असहाय हो गयी है? हमारे प्रति आपके स्नेह के कारण (अर्थात चूँकि आप हमसे प्रेम करते हैं, कृपया) उसे कामदेव से मिला दें।” उन शब्दों को सुनकर (शिव) ने कहा: "मैं कामदेव को पुनर्जीवित करूंगा।" पांच बाणों से युक्त यह मन-जन्मा (अर्थात कामदेव), शरीर न होते हुए भी, फिर से वसंत का मित्र होगा। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है। वह दिव्य शरीर के साथ रहेगा; (और) अन्यथा नहीं (अर्थात् किसी अन्य निकाय के साथ नहीं)।” वह मछली-बैनर वाला देवता (अर्थात कामदेव), महान देवता (अर्थात शिव) की कृपा से जीवित हो गया। हे श्रेष्ठ पुरुष, इस प्रकार आदरणीय महिला (अर्थात रति) की इच्छा को आशीर्वाद के साथ मंजूरी दे दी (शिव ने कहा:) "हे कामदेव, जाओ और हमेशा अपने प्रिय के साथ रहो।" इस प्रकार महान तेज वाले (संसार के) पालन और विनाश के कारण भगवान ने (कामदेव से) कहा। कामदेव फिर से उस झील पर आए जहां दुखी रति रह गई थी। हे राजा, यह (उस झील को कामसरस कहा जाता है) (अर्थात कामदेव से संबंधित) जहां रति अच्छी तरह से बसी हुई है। जब महान कामदेव को (शिव द्वारा) जला दिया गया तो वह दुःख से उबर गई। रति के क्रोध से भयानक रूप वाली अग्नि उत्पन्न हुई। उसने रति को भी बहुत झुलसा दिया और बेहोश हो गई। हे नरश्रेष्ठ, वह अपने पति से वंचित होकर आँसू बहा रही थी। उसकी आँखों से आँसू पानी में गिर गये। उनसे महान् दुःख उत्पन्न हुआ जिसने समस्त सुखों को नष्ट कर दिया। हे श्रेष्ठ राजा, उसके बाद जरा (अर्थात बुढ़ापा) आंसुओं से अस्तित्व में आया। उनमें से मंदबुद्धि विनाशक अर्थात्। अलगाव उभर आया. भयानक दुःख और यातना दोनों भी तब सामने आये। उनसे भयानक और सुख को नष्ट करने वाला भ्रम उत्पन्न हुआ। हे महान राजा, दुःख से जुनून और त्रुटि का बुखार उत्पन्न हुआ। व्यथित विलाप, पागलपन और मृत्यु, सब कुछ नष्ट कर देने वाली, उसके आँसुओं से उत्पन्न हुई।

        71-79. हे महान राजा, रति की ओर से सभी पीड़ा के शरीर को धारण करते हैं और, सभी अच्छी भावनाओं के गुणों से युक्त होकर, अवतार लेते हैं। हे राजा, तभी किसी ने कहा: "यह कामदेव (वह) आया है।" (वहां) आये हुए कामदेव को देखकर वह (अर्थात रति) अत्यंत आनंद से भर गयी। उसकी आँखों से आँसू गिर पड़े। हे महान राजा, जल में प्राणियों की उत्पत्ति शीघ्र हो गयी। हे श्रेष्ठ पुरुष, उस समय लव नाम की (एक महिला) उत्पन्न हुई, उसी प्रकार रेनॉउन और शेम भी। हे श्रेष्ठ राजा, उनमें से (अर्थात आंसुओं से) महान आनंद उत्पन्न हुआ और दूसरा, अर्थात्। शांति। सुख और भोग देने वाली दो मंगलमय कन्याएँ उत्पन्न हुईं। हे राजन, मनोरंजन, खेल और मन की भक्ति का अद्भुत संयोजन था। हे राजन, खुशी के मारे रति की बायीं आंख से आंसू छलक पड़े। उनसे एक उत्तम कमल उत्पन्न हुआ। हे पुरुषश्रेष्ठ, उस अच्छे कमल से रति की पुत्री, अश्रुबिन्दुमती नाम की यह सुंदर स्त्री उत्पन्न हुई। उसके प्रति प्रेम के कारण, मैं उसका मित्र होने के कारण, सदैव प्रसन्न और सदाचारी होकर, उसके निकट रहता हूँ और उसे सुख देता हूँ। मेरा नाम विशाला के नाम से जाना जाता है (अर्थात मुझे इस नाम से जाना जाता है)। हे राजन, मैं वरुण की पुत्री हूं।

        80-81  मैं उसके प्रति सदैव स्नेहशील रहकर उसके प्रेम के द्वारा उसके निकट रहता हूँ। इस प्रकार मैंने तुम्हें उसका (वृत्तान्त) सब बता दिया है और अपना भी। हे राजाओं के स्वामी, इस सुंदरी ने पति की इच्छा से तपस्या की।

        राजा ने कहा :

        81 -83। हे मंगलमयी, तूने जो कुछ मुझसे कहा है, वह सब मैं समझ गया हूँ; सुनो, रति की इस सुन्दर पुत्री को मुझे चुनने दो। मैं इस युवती को वह सब कुछ दूँगा जो वह चाहती है। हे शुभ स्त्री, ऐसा करो जिससे वह मेरे वश में हो जाये।

        विशाला ने कहा :

        83-88. मैं तुम्हें उसका संकल्प बताऊंगा. इसे सुनो, हे राजा! वह अपने दूल्हे के रूप में एक ऐसे पुरुष की इच्छा रखती है, जो यौवन से संपन्न हो; जो सर्वज्ञ है; जिसमें वीर पुरुष के लक्षण हों; जो देवताओं के स्वामी के समान है; जो धर्मात्मा आचरण रखता हो; जो प्रतिभाशाली है; अत्यंत तेजस्वी, दानी तथा यज्ञों में श्रेष्ठ; जो सद्गुणों और धर्म के प्रति समर्पण को जानता है (अर्थात् सराहना करता है); जो धर्म और अच्छे आचरण से युक्त है; जो संसार में इन्द्र के समान है; जो महान बलिदानों के माध्यम से धार्मिक प्रथाओं का इरादा रखता है; जो समस्त वैभव से संपन्न है; जो मानो दूसरा विष्णु है ; जो सदैव देवताओं को अत्यंत प्रिय है और ब्राह्मणों को अत्यंत प्रिय है ; जो ब्राह्मणों का मित्र है; जो वेदों के सत्य को जानता है ; जिनकी वीरता तीनों लोकों में विख्यात है। वह ऐसा ही वर चाहती है

        ययाति ने कहा :

        89. जो लोग यहाँ आये हैं, मुझे इन गुणों से सम्पन्न जानो। इसमें कोई संदेह नहीं कि विधाता ने (मुझमें) उसके योग्य पति उत्पन्न किया है।

        विशाला ने कहा :

        90. हे राजा, मैं जानता हूं कि आप तीनों लोकों में धार्मिक गुणों से समृद्ध हैं। जो गुण मैंने पहले बताये हैं वे आपमें विद्यमान हैं।

        91. केवल एक दोष के कारण वह आपके बारे में अच्छा नहीं सोचती। यह शंका मेरे मन में उत्पन्न हो गई है। (अन्यथा) हे राजा, आप विष्णु से परिपूर्ण हैं।

        ययाति ने कहा :

        92. मुझे वह महान दोष बताओ, जो सभी अंगों में सुंदर है, वास्तव में इसका प्रतिकार नहीं करता। मेरा पक्ष लेने के लिए अच्छी तरह तैयार रहें।

        विशाला ने कहा :

        93. हे जगत के स्वामी, तू अपना दोष क्यों नहीं जानता? तुम्हारा शरीर बुढ़ापे से ढका हुआ है। इस (दोष) के कारण वह तुम्हें पुरस्कार नहीं देती।

        94. इन महान् (महत्वपूर्ण) और अप्रिय वचनों को सुनकर जगत् के स्वामी राजा ने बड़े दुःख से आतुर होकर फिर कहा:

        95. “हे शुभ नारी, मेरे शरीर पर बुढ़ापे का यह दोष किसी के संसर्ग का कारण नहीं है। मैं नहीं जानता कि मेरे शरीर में यह बुढ़ापा (कैसे) आ गया है।

        96. हे मंगलमयी, वह संसार में जो भी कठिन वस्तु प्राप्त करना चाहती है, मैं उसे देने को तैयार हूं। सर्वोत्तम वरदान चुनें।”

        विशाला ने कहा :

        97-100. जब तुम बुढ़ापे से मुक्त हो जाओगे, तब वह तुम्हारी परम प्रिय (पत्नी) होगी। यह निश्चित है, हे राजा; मैं (आपको) सच (और) सच (केवल) बता रहा हूं। जो अपने बेटे, (या) भाई, (या) नौकर से अपनी जवानी छीनकर उसे अपना बुढ़ापा दे देता है, उसके शरीर पर जवानी हावी हो जाती है। अच्छे स्वाद के कारण दोनों के बीच एक सुखद समझौता हो जाता है। हे राजा, उसे उस व्यक्ति के पुण्य के समान ही फल मिलता है जो दया करके स्वयं को अर्पित करता है। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।

        101-103. जब कठिनाई से प्राप्त पुण्य किसी और को दिया जाता है तो उसके पास महान धार्मिक योग्यता होगी। पुण्य का फल (इस प्रकार) प्राप्त होता है। अत: हे राजा, अपने पुत्र को (अपनी वृद्धावस्था) दे दो और उससे (यौवन) प्राप्त करके रूप रूप धारण करके (अर्थात प्राप्त करके) लौट आओ। हे राजन, जब तुम्हें (उसका) आनंद लेने की इच्छा हो तो ऐसा करो।

        इस प्रकार, राजा से बात करते हुए, विशाला ने बोलना बंद कर दिया।

        सुकर्मन ने कहा :

        104. फिर श्रेष्ठ राजा के समान सुनकर विशाला से बोले।

        राजा ने कहा :

        104-106. हे महानुभाव, ऐसा ही हो; मैं आपकी बात मानूंगा (अर्थात जैसा आपने मुझसे कहा है वैसा ही करूंगा)।

        पृथ्वी के उस मूर्ख स्वामी, ययाति ने, जोश से वशीभूत होकर, घर जाकर, अपने पुत्रों तुरु, पुरु , कुरु और यदु को बुलाकर , पिता से प्रेम करते हुए, उनसे (ये) शब्द कहे: "मेरे आदेश पर, हे बेटों, (मेरे लिए) खुशियाँ लाओ।”

        बेटों ने कहा :

        107-108. पिता के शब्द (अर्थात आदेश) - चाहे अच्छे हों या बुरे - पुत्रों को निष्पादित करने पड़ते हैं। हे पिता, शीघ्र बोलो, और जान लो कि इसका (अर्थात आदेश का) पालन किया जाता है। इसमें कोई शक नहीं है।

        पुत्रों की ये बातें सुनकर पृथ्वी के स्वामी हर्ष से अभिभूत होकर फिर उनसे बोले।

        पद्मपुराण /खण्डः २ (भूमिखण्डः)अध्यायः (७८)


        पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डःअध्यायः 78)

                        "ययातिरुवाच-
        एकेन गृह्यतां पुत्रा जरा मे दुःखदायिनी ।
        धीरेण भवतां मध्ये तारुण्यं मम दीयताम् ।१।

        स्वकीयं हि महाभागाः स्वरूपमिदमुत्तमम् ।
        संतप्तं मानसं मेद्य स्त्रियां सक्तं सुचंचलम् ।२।

        भाजनस्था यथा आप आवर्त्तयति पावकः ।
        तथा मे मानसं पुत्राः कामानलसुचालितम् ।३।

        एको गृह्णातु मे पुत्रा जरां दुःखप्रदायिनीम् ।
        स्वकं ददातु तारुण्यं यथाकामं चराम्यहम् ।४।

        यो मे जरापसरणं करिष्यति सुतोत्तमः ।
        स च मे भोक्ष्यते राज्यं धनुर्वंशं धरिष्यति ।५।

        तस्य सौख्यं सुसंपत्तिर्धनं धान्यं भविष्यति ।
        विपुला संततिस्तस्य यशः कीर्तिर्भविष्यति ।६।

                         "पुत्रा ऊचुः-
        भवान्धर्मपरो राजन्प्रजाः सत्येन पालकः ।
        कस्मात्ते हीदृशो भावो जातः प्रकृतिचापलः ।७।

                           "राजोवाच-
        आगता नर्तकाः पूर्वं पुरं मे हि प्रनर्तकाः ।
        तेभ्यो मे कामसंमोहे जातो मोहश्च ईदृशः ।८।

        जरया व्यापितः कायो मन्मथाविष्टमानसः ।
        संबभूव सुतश्रेष्ठाः कामेनाकुलव्याकुलः ।९।

        काचिद्दृष्टा मया नारी दिव्यरूपा वरानना ।
        मया संभाषिता पुत्राः किंचिन्नोवाच मे सती ।१०।

        विशालानाम तस्याश्च सखी चारुविचक्षणा ।
        सा मामाह शुभं वाक्यं मम सौख्यप्रदायकम् ।११।

        जराहीनो यदा स्यास्त्वं तदा ते सुप्रिया भवेत् ।
        एवमंगीकृतं वाक्यं तयोक्तं गृहमागतः ।१२।

        मया जरापनोदार्थं तदेवं समुदाहृतम् ।
        एवं ज्ञात्वा प्रकर्तव्यं मत्सुखं हि सुपुत्रकाः ।१३।

                            "तुरुरुवाच-
        शरीरं प्राप्यते पुत्रैः पितुर्मातुः प्रसादतः ।
        धर्मश्च क्रियते राजञ्शरीरेण विपश्चिता ।१४।

        पित्रोः शुश्रूषणं कार्यं पुत्रैश्चापि विशेषतः ।
        न च यौवनदानस्य कालोऽयं मे नराधिप ।१५।

        प्रथमे वयसि भोक्तव्यं विषयं मानवैर्नृप ।
        इदानीं तन्न कालोयं वर्तते तव सांप्रतम् ।१६।

        जरां तात प्रदत्वा वै पुत्रे तात महद्गताम् ।
        पश्चात्सुखं प्रभोक्तव्यं न तु स्यात्तव जीवितम् ।१७।

        तस्माद्वाक्यं महाराज करिष्ये नैव ते पुनः ।
        एवमाभाषत नृपं तुरुर्ज्येष्ठसुतस्तदा ।१८।

        तुरोर्वाक्यं तु तच्छ्रुत्वा क्रुद्धो राजा बभूव सः ।
        तुरुं शशाप धर्मात्मा क्रोधेनारुणलोचनः ।१९।

        अपध्वस्तस्त्वयाऽदेशो ममायं पापचेतन ।
        तस्मात्पापी भव स्वत्वं सर्वधर्मबहिष्कृतः ।२०।

        शिखया त्वं विहीनश्च वेदशास्त्रविवर्जितः ।
        सर्वाचारविहीनस्त्वं भविष्यसि न संशयः ।२१।

        ब्रह्मघ्नस्त्वं देवदुष्टः सुरापः सत्यवर्जितः ।
        चंडकर्मप्रकर्ता त्वं भविष्यसि नराधमः ।२२।

        सुरालीनः क्षुधी पापी गोघ्नश्च त्वं भविष्यसि ।
        दुश्चर्मा मुक्तकच्छश्च ब्रह्मद्वेष्टा निराकृतिः ।२३।

        परदाराभिगामी त्वं महाचंडः प्रलंपटः ।
        सर्वभक्षश्च दुर्मेधाः सदात्वं च भविष्यसि ।२४।

        सगोत्रां रमसे नारीं सर्वधर्मप्रणाशकः ।
        पुण्यज्ञानविहीनात्मा कुष्ठवांश्च भविष्यसि ।२५।

        तव पुत्राश्च पौत्राश्च भविष्यंति न संशयः ।
        ईदृशाः सर्वपुण्यघ्ना म्लेच्छाः सुकलुषीकृताः ।२६।

        एवं तुरुं सुशप्त्वैव यदुं पुत्रमथाब्रवीत् ।
        जरां वै धारयस्वेह भुंक्ष्व राज्यमकंटकम् ।२७।

        बद्धाञ्जलिपुटो भूत्वा यदू राजानमब्रवीत् ।
                         *** "यदुरुवाच-
        जराभारं न शक्नोमि वोढुं तात कृपां कुरु ।२८।

        शीतमध्वा कदन्नं च वयोतीताश्च योषितः ।
        मनसः प्रातिकूल्यं च जरायाः पञ्चहेतवः ।२९।

        जरादुःखं न शक्नोमि नवे वयसि भूपते ।
        कः समर्थो हि वै धर्तुं क्षमस्व त्वं ममाधुना ।३०।

        यदुं क्रुद्धो महाराजः शशाप द्विजनंदन ।
        राज्यार्हो न च ते वंशः कदाचिद्वै भविष्यति
         ।३१।

        बलतेजः क्षमाहीनः क्षात्रधर्मविवर्जितः 
        भविष्यति न सन्देहो मच्छासनपराङ्मुखः ।३२।

                           "यदुरुवाच-
        निर्दोषोहं महाराज कस्माच्छप्तस्त्वयाधुना 
        कृपां कुरुष्व दीनस्य प्रसादसुमुखो भव ।३३।

                            "राजोवाच-
        महादेवः कुले ते वै स्वांशेनापि हि पुत्रक ।
        करिष्यति विसृष्टिं च तदा पूतं कुलं तव ।३४।

                              "यदुरुवाच-
        अहं पुत्रो महाराज निर्दोषः शापितस्त्वया ।
        अनुग्रहो दीयतां मे यदि मे वर्त्तते दया ।३५।

                               "राजोवाच-
        यो भवेज्ज्येष्ठपुत्रस्तु पितुर्दुःखापहारकः ।
        राज्यदायं सुभुंक्ते च भारवोढा भवेत्स हि ।३६।

        त्वया धर्मं न प्रवृत्तमभाष्योसि न संशयः ।
        भवता नाशिताज्ञा मे महादण्डेन घातिनः ।३७।

        तस्मादनुग्रहो नास्ति यथेष्टं च तथा कुरु ।
                              "यदुरुवाच-
        यस्मान्मे नाशितं राज्यं कुलं रूपं त्वया नृप ।३८।

        तस्माद्दुष्टो भविष्यामि तव वंशपतिर्नृप ।
        तव वंशे भविष्यंति नानाभेदास्तु क्षत्त्रियाः ।३९।

        तेषां ग्रामान्सुदेशांश्च स्त्रियो रत्नानि यानि वै ।
        भोक्ष्यंति च न संदेहो अतिचंडा महाबलाः ।४०।

        मम वंशात्समुत्पन्नास्तुरुष्का म्लेच्छरूपिणः ।
        त्वया ये नाशिताः सर्वे शप्ताः शापैः सुदारुणैः ।४१।

        एवं बभाषे राजानं यदुः क्रुद्धो नृपोत्तम ।
        अथ क्रुद्धो महाराजः पुनश्चैवं शशाप ह ।४२।

        मत्प्रजानाशकाः सर्वे वंशजास्ते शृणुष्व हि ।
        यावच्चंद्रश्च सूर्यश्च पृथ्वी नक्षत्रतारकाः ।४३।

        तावन्म्लेच्छाः प्रपक्ष्यन्ते कुम्भीपाके चरौ रवे ।
        कुरुं दृष्ट्वा ततो बालं क्रीडमानं सुलक्षणम् ।४४।

        समाह्वयति तं राजा न सुतं नृपनन्दनम् ।
        शिशुं ज्ञात्वा परित्यक्तः सकुरुस्तेन वै तदा ।४५।

        शर्मिष्ठायाः सुतं पुण्यं तं पूरुं जगदीश्वरः ।
        समाहूय बभाषे च जरा मे गृह्यतां पुनः ।४६।

        भुंक्ष्व राज्यं मया दत्तं सुपुण्यं हतकंटकम् ।
                             "पूरुरुवाच-
        राज्यं देवे न भोक्तव्यं पित्रा भुक्तं यथा तव ।४७।

        त्वदादेशं करिष्यामि जरा मे दीयतां नृप ।
        तारुण्येन ममाद्यैव भूत्वा सुंदररूपदृक् ।४८।

        भुंक्ष्व भोगान्सुकर्माणि विषयासक्तचेतसा ।
        यावदिच्छा महाभाग विहरस्व तया सह ।४९।

        यावज्जीवाम्यहं तात जरां तावद्धराम्यहम् ।
        एवमुक्तस्तु तेनापि पूरुणा जगतीपतिः ।५०।

        हर्षेण महताविष्टस्तं पुत्रं प्रत्युवाच सः ।
        यस्माद्वत्स ममाज्ञा वै न हता कृतवानिह ।५१।

        तस्मादहं विधास्यामि बहुसौख्यप्रदायकम् ।
        यस्माज्जरागृहीता मे दत्तं तारुण्यकं स्वकम् ।५२।

        तेन राज्यं प्रभुंक्ष्व त्वं मया दत्तं महामते ।
        एवमुक्तः सुपूरुश्च तेन राज्ञा महीपते ।५३।

        तारुण्यंदत्तवानस्मै जग्राहास्माज्जरां नृप ।
        ततः कृते विनिमये वयसोस्तातपुत्रयोः ।५४।

        तस्माद्वृद्धतरः पूरुः सर्वांगेषु व्यदृश्यत ।
        नूतनत्वं गतो राजा यथा षोडशवार्षिकः ।५५।

        रूपेण महताविष्टो द्वितीय इव मन्मथः ।
        धनूराज्यं च छत्रं च व्यजनं चासनं गजम् ।५६।

        कोशं देशं बलं सर्वं चामरं स्यंदनं तथा ।
        ददौ तस्य महाराजः पूरोश्चैव महात्मनः ।५७।

        कामासक्तश्च धर्मात्मा तां नारीमनुचिंतयन् ।
        तत्सरः सागरप्रख्यंकामाख्यं नहुषात्मजः ।५८।

        अश्रुबिंदुमती यत्र जगाम लघुविक्रमः ।
        तां दृष्ट्वा तु विशालाक्षीं चारुपीनपयोधराम् ।५९।

        विशालां च महाराजः कंदर्पाकृष्टमानसः ।
                          "राजोवाच-
        आगतोऽस्मि महाभागे विशाले चारुलोचने।६०।

        जरात्यागःकृतो भद्रे तारुण्येन समन्वितः ।
        युवा भूत्वा समायातो भवत्वेषा ममाधुना ।६१।

        यंयं हि वांछते चैषा तंतं दद्मि न संशयः ।
                            "विशालोवाच-
        यदा भवान्समायातो जरां दुष्टां विहाय च ।६२।

        दोषेणैकेनलिप्तोसि भवंतं नैव मन्यते ।
                              "राजोवाच-
        मम दोषं वदस्व त्वं यदि जानासि निश्चितम् ।६३।तं तु दोषं परित्यक्ष्येगुणरूपंनसंशयः ।६४।

        "अनुवाद"

        अध्याय -78 - पुरु ने अपनी जवानी ययाति को दे दी

        ययाति ने कहा :

        1-4. हे मेरे श्रेष्ठ पुत्रों, तुममें से जो बुद्धिमान है, उसे मेरे इस बुढ़ापे को, जो मुझे कष्ट दे रहा है, ले लेना चाहिए और अपना यौवन तथा उत्तम रूप मुझे दे देना चाहिए; (ताकि) मैं जैसा चाहूँ वैसा व्यवहार करूँ। आज मेरा अत्यंत चंचल मन क्रोधित हो गया है और एक स्त्री में आसक्त हो गया है। जैसे घड़े में भरे हुए पानी के चारों ओर अग्नि घूमती रहती है, उसी प्रकार हे मेरे पुत्रों, काम की अग्नि से मेरा मन अत्यंत कंपित हो रहा है। हे (मेरे) पुत्रों, तुम में से एक को मेरा यह बुढ़ापा जो मुझे दुःख दे रहा है, ले लेना चाहिए और अपनी जवानी (मुझे) दे देनी चाहिए; (ताकि) मैं अपनी इच्छा के अनुसार आचरण करूँ।

        5-6. वह श्रेष्ठ पुत्र, जो अपनी युवावस्था मुझे सौंप देगा, वह मेरे राज्य का आनंद उठाएगा और मेरा धनुष उठाएगा (और मेरी वंशावली को आगे बढ़ाएगा)। उसके पास सुख, प्रचुर धन, ऐश्वर्य और धान्य होगा। उसके बहुत से बच्चे होंगे, उसे यश और कीर्ति प्राप्त होगी।

        बेटों ने कहा :

        7. हे राजन, आप धर्म परायण राजा हैं। आप सच्चाई से अपनी प्रजा की रक्षा कर रहे हैं। आपके मन में यह स्वाभाविक रूप से चंचल विचार किस कारण उत्पन्न हुआ है?

        राजा ने कहा :

        8-10. पूर्व नर्तक, श्रेष्ठ नर्तक, मेरे शहर में आये। उन्हीं के कारण मुझमें ऐसी भ्रांति उत्पन्न हुई है, जब कामदेव ने मुझे मोहित कर लिया था। मेरा शरीर बुढ़ापे से ढका हुआ है; और मेरा मन कामदेव (अर्थात् जोश) से वश में हो गया। हे श्रेष्ठ पुत्रों, मैं क्रोधित था और जोश से वश में था। मैंने एक दिव्य रूप वाली सुन्दर कन्या को देखा। हे पुत्रों, मैं ने उस से बातें कीं; लेकिन अच्छे ने कुछ नहीं कहा.

        11-13. उसकी आकर्षक और चतुर दोस्त का नाम विशाला है। उसने मुझसे अच्छे शब्द कहे, जिससे मुझे खुशी हुई: "जब तुम बुढ़ापे से मुक्त हो जाओगे, तो सबसे प्रिय तुम्हारा होगा।" मैंने उसके कहे हुए इन शब्दों को मान लिया (अर्थात् मान लिया) और (फिर) घर आ गया। मैंने अपने बुढ़ापे को दूर करने के लिये तुमसे ऐसा कहा है (उसने मुझसे कहा था)। हे भले पुत्रों, ऐसा समझकर तुम्हें वही करना चाहिए (जिससे मुझे प्रसन्नता हो)।

        14-18. पिता और माता की कृपा से पुत्रों को शरीर मिलता है। हे राजन, शरीर की सहायता से बुद्धिमान व्यक्ति धार्मिक कार्य करता है। पुत्र को अपने पिता की विशेष सेवा करनी चाहिए। फिर भी, हे राजा, यह मेरे लिए अपनी जवानी तुम्हें देने का समय नहीं है। हे राजन, पुरुषों को युवावस्था में इंद्रियों का सुख भोगना चाहिए। अभी तुम्हारे लिए (इन सुखों को भोगने का) उचित समय नहीं है। (आप कहते हैं) हे पिता, आप उस सुख का आनंद तब उठाएंगे जब आप अपना परिपक्व बुढ़ापा अपने पुत्रों को दे देंगे; लेकिन (तब) आपके पास (इतना) जीवन नहीं होगा (यानी आप इतने लंबे समय तक जीवित नहीं रहेंगे)। इसलिए, हे महान राजा, मैं आपके शब्दों का पालन नहीं करूंगा (अर्थात जैसा आप कहते हैं वैसा ही करूंगा)।

        इस प्रकार ज्येष्ठ पुत्र तुरु ने उस समय उनसे बात की।

        19 तुरु की ये बातें सुनकर राजा को क्रोध आया। धर्मात्मा ने क्रोध से लाल आँखें करके तुरु को श्राप दिया।

        20-26. “हे दुष्ट पुत्र, तू ने मेरी इस आज्ञा का उल्लंघन किया है। अत: सब धर्मों से बहिष्कृत पापी मनुष्य बनो। तुम सिर के मुकुट पर बालों की लट से रहित रहोगे; तुम पवित्र ग्रंथों से वंचित रह जाओगे; तुम सभी शिष्टाचार से रहित हो जाओगे। इसमें कोई संदेह नहीं है. तुम ब्राह्मणों के हत्यारे होगे ; तुम देवताओं द्वारा नष्ट किये जाओगे; तुम शराबी होगे; तुम सत्यता से रहित हो जाओगे; तू भयंकर काम करेगा; तुम सबसे नीच आदमी होगे. तुम्हें शराब पीने की लत लग जायेगी; आप। भूखा, पापी और गौहत्यारा होगा। आपकी त्वचा खराब हो जाएगी; तेरे निचले वस्त्र का आंचल खुला रहेगा; तुम ब्राह्मणों से घृणा करोगे; तुम विकृत हो जाओगे. तू व्यभिचारी होगा; तुम बहुत उग्र होगे; तुम बहुत कामातुर हो जाओगे; तुम सब कुछ खाओगे; तुम सदैव दुष्ट रहोगे. तू अपने ही कुटुम्बी स्त्री के साथ संभोग करेगा; आप सभी धार्मिक प्रथाओं को नष्ट कर देंगे; तुम पवित्र ज्ञान से रहित हो जाओगे; और तुम कुष्ठ रोग से पीड़ित हो जाओगे. तुम्हारे पुत्र और पौत्र भी सभी पवित्र वस्तुओं को नष्ट कर देंगे, बर्बर होंगे और इसी प्रकार (अर्थात् इसी प्रकार) बहुत बिगड़ जायेंगे।”

        27. इस प्रकार तुरु को बहुत बुरी तरह श्राप देने के बाद, उन्होंने (अपने दूसरे) पुत्र, यदु से कहा : "अब (मेरा) बुढ़ापा ले लो, और किसी भी प्रकार की परेशानी से मुक्त होकर राज्य का आनंद लो।"

        28. यदु ने हाथ जोड़कर राजा से कहा:

        यदु ने कहा :

        28-30. हे पिता, मैं (आपके) बुढ़ापे का बोझ सहन करने में असमर्थ हूँ; (कृपया) मुझ पर दया करें (अर्थात् क्षमा करें)। बुढ़ापे के पांच कारण हैं: ठंडक, यात्रा, गलत खान-पान, वृद्ध स्त्री और मन का अरुचि। हे राजन, मैं अपनी युवावस्था में (अर्थात् जवान होते हुए) दुःख सहने में समर्थ नहीं हूँ। बुढ़ापे को कौन रोक सकता है? अब (कृपया) मुझे क्षमा करें।

        31-32. हे ब्राह्मण पुत्र , क्रोधित महान राजा ने यदु को श्राप दिया: “तुम्हारा वंश कभी भी राज्य का हकदार नहीं होगा। यह शक्ति, चमक, सहनशीलता से रहित हो जाएगा और क्षत्रियों के आचरण से वंचित हो जाएगा (क्योंकि आपने) मेरे आदेश से मुंह मोड़ लिया है। इसमें कोई अनिश्चितता नहीं है।”

        यदु ने कहा :

        33. हे राजा, मैं निर्दोष हूं; अब तुमने मुझे क्यों शाप दिया है? (कृपया) उस गरीब (अर्थात मुझ पर) का पक्ष लें। मुझ पर अनुग्रह करने की कृपा करें.

        राजा ने कहा :

        34. हे पुत्र, (जब) ​​महान देवता अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेगा, तब तेरा कुल शुद्ध हो जायेगा।

        यदु ने कहा :

        35. हे राजा, तू ने मुझ निर्दोष पुत्र को शाप दिया है; यदि आपको मुझ पर दया है तो (कृपया) मुझ पर कृपा करें।

        राजा ने कहा :

        36. जो ज्येष्ठ पुत्र हो उसे पिता का दुःख दूर करना चाहिए। वह राज्य की विरासत का अच्छी तरह से आनंद लेता है, और वह (राज्य का) बोझ भी उठाएगा।

        37-38ए. आपने (अपना) कर्तव्य नहीं निभाया है, (इसलिए) आप निश्चित रूप से बात करने के लायक नहीं हैं। तूने मेरे उस आदेश को नष्ट कर दिया है (अर्थात अवज्ञा की है) जिसे मैं महान् (अर्थात् भारी) दण्ड दे सकता हूँ। इसलिए आपका पक्ष नहीं लिया जा सकता, आप जैसा चाहें वैसा करें।

        यदु ने कहा :

        38-42. हे राजा, चूँकि तुमने मेरे राज्य, रूप और परिवार को नष्ट कर दिया है, इसलिए मैं, तुम्हारे परिवार का मुखिया, दुष्ट होगा। आपके परिवार में विभिन्न रूपों वाले (जन्म लेने वाले) क्षत्रिय होंगे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अत्यंत भयंकर और अत्यंत शक्तिशाली (प्राणी) अपने गाँवों, अच्छे क्षेत्रों, अपनी स्त्रियों और उनके पास जो भी रत्न होंगे, उनका आनंद लेंगे। मेरे कुल में बर्बरों के रूप वाले तुरुष्क उत्पन्न होंगे - जो नष्ट हो गए थे और जिन्हें आपने बहुत भयंकर शाप दिया था। हे श्रेष्ठ राजा, क्रोधित यदु ने राजा ( ययाति ) से इस प्रकार कहा।

        42-45. तब क्रोधित महान राजा ने फिर से (यदु) को श्राप दिया: “सुनो, यह जान लो कि तुम्हारे परिवार में जो भी जन्म लेगा वह मेरी प्रजा को नष्ट कर देगा। जब तक चंद्रमा, सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्र और तारे (अंतिम) रहेंगे तब तक म्लेच्छ कुंभीपाक और रौरव (नरक) में भुने रहेंगे । तब राजा ने युवा कुरु को खेलते हुए और अच्छे अंक प्राप्त करते हुए देखकर उस पुत्र को राजकुमार नहीं कहा। कुरु को बालक जानकर राजा वहां से चले गये।

        46-47. तब संसार के स्वामी (अर्थात् ययाति) ने शर्मिष्ठा के मेधावी पुत्र पुरु को बुलाया और उससे कहा: "मेरा बुढ़ापा ले लो और मेरे द्वारा दिए गए उपद्रव के स्रोतों को नष्ट करके, (और) मेरे अत्यंत अच्छे राज्य का आनंद लो ( आपको)।"

        पुरु ने कहा :

        47-49. प्रभु (यदि आप) अपने पिता के समान राज्य का उपभोग करें, तो मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। हे राजा, मेरी जवानी के बदले मुझे अपना बुढ़ापा दे दो। आज केवल सुंदर दिखने वाले, भोग-विलास करने वाले, मन को इंद्रिय विषयों, भोग-विलास और अच्छे कर्मों में आसक्त रखने वाले हैं।

        49-54. हे महानुभाव, जब तक तुम चाहो उसके साथ खेलो। हे पिता, जब तक मैं जीवित हूं, बुढ़ापा कायम रखूंगा।

        उस पुरु के इस प्रकार कहने पर जगत् के स्वामी ने बड़े हर्ष से भरे हुए हृदय से अपने पुत्र से फिर कहा, “हे पुत्र, चूँकि तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया, (इसके विपरीत) उसका पालन किया, इसलिए मैं तुम्हें दूँगा।” तुम्हें बहुत ख़ुशी है. हे परम बुद्धिमान, तू ने मेरा बुढ़ापा ले लिया, और मुझे अपनी जवानी दे दी, इस कारण तू मेरे दिए हुए राज्य का उपभोग कर। हे राजन, राजा द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर उस अच्छे पुरु ने उसे अपनी जवानी दे दी और उससे बुढ़ापा ले लिया।

        54 -60. हे प्रियजन, जब पिता और पुत्र की आयु का आदान-प्रदान हुआ, तो पुरु अपने सभी अंगों में राजा से अधिक उम्र का प्रतीत हुआ। राजा युवावस्था तक पहुँच गया, (और एक आदमी की तरह दिखता था) सोलह साल का, और बहुत आकर्षण रखता था (दिखता था) जैसे कि वह एक और कामदेव था। महान राजा ने उस महान पुरु को सब कुछ दे दिया - (उसका) धनुष, राज्य, छत्र, पंखा, आसन और हाथी, (साथ ही) उसका पूरा खजाना, देश, सेना, चौरी और रथ भी। वह नहुष का धर्मात्मा पुत्र, जो वासना से आसक्त था, उस कन्या के बारे में सोचता हुआ, तेज कदमों से उस काम नामक झील पर गया , जो समुद्र के समान थी, जहाँ अश्रुबिन्दुमति (रखी) थी। बड़े-बड़े नेत्रों वाली तथा सुन्दर एवं मोटे स्तनों वाली उस प्रतिष्ठित कन्या को देखकर कामदेव के प्रति आकर्षित मन वाले महान राजा ने विशाला से कहा:

        राजा ने कहा :

        60-62. हे महान और आकर्षक आँखों वाली प्रतिष्ठित महिला, हे शुभ, मैंने अपना बुढ़ापा त्याग दिया है, और (अब) युवावस्था से संपन्न हूँ। जवान होकर मैं (यहाँ) आया हूँ। अब उसे मेरा होने दो। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह जो चाहेगी मैं उसे दूँगा।

        विशाला ने कहा :

        62-63. जब (अब) तुम दुष्ट बुढ़ापे को त्याग कर आये हो, (फिर भी) तुम पर अब भी एक दोष लगा हुआ है। (इसलिए) वह आपको पुरस्कार नहीं देती।

        राजा ने कहा :

        63-64. यदि तुम निश्चय ही मेरा दोष जानते हो तो (मुझसे) कहो। मैं निःसंदेह उस निम्न प्रकृति के दोष को त्याग दूँगा।


        पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-79)


                       "विशालोवाच-
        शर्मिष्ठा यस्य वै भार्या देवयानी वरानना ।
        सौभाग्यं तत्र वै दृष्टमन्यथा नास्ति भूपते ।१।

        तत्कथं त्वं महाभाग अस्याः कार्यवशो भवेः ।
        सपत्नजेन भावेन भवान्भर्ता प्रतिष्ठितः ।२।

        ससर्पोसि महाराज भूतले चंदनं यथा ।
        सर्पैश्च वेष्टितो राजन्महाचंदन एव हि ।३।

        तथा त्वं वेष्टितः सर्पैः सपत्नीनामसंज्ञकैः ।
        वरमग्निप्रवेशश्च शिखाग्रात्पतनं वरम् ।४।

        रूपतेजः समायुक्तं सपत्नीसहितं प्रियम् ।
        न वरं तादृशं कांतं सपत्नीविषसंयुतम् ।५।

        तस्मान्न मन्यते कांतं भवंतं गुणसागरम् ।
                          राजोवाच-
        देवयान्या न मे कार्यं शर्मिष्ठया वरानने ।६।

        इत्यर्थं पश्य मे कोशं सत्वधर्मसमन्वितम् ।
                         अश्रुबिंदुमत्युवाच-
        अहं राज्यस्य भोक्त्री च तव कायस्य भूपते।७।

        यद्यद्वदाम्यहं भूप तत्तत्कार्यं त्वया ध्रुवम् ।
        इत्यर्थे मम देहि स्वं करं त्वं धर्मवत्सल ।८।

        बहुधर्मसमोपेतं चारुलक्षणसंयुतम् ।
                          राजोवाच-
        अन्य भार्यां न विंदामि त्वां विना वरवर्णिनि ।९।

        राज्यं च सकलामुर्वीं मम कायं वरानने ।
        सकोशं भुंक्ष्व चार्वंगि एष दत्तः करस्तव।१०।

        यदेव भाषसे भद्रे तदेवं तु करोम्यहम्।
        अश्रुबिंदुमत्युवाच-
        अनेनापि महाभाग तव भार्या भवाम्यहम् ।११।

        एवमाकर्ण्य राजेंद्रो हर्षव्याकुललोचनः ।
        गांधर्वेण विवाहेन ययातिः पृथिवीपतिः ।१२।

        उपयेमे सुतां पुण्यां मन्मथस्य नरोत्तम ।
        तया सार्द्धं महात्मा वै रमते नृपनंदनः।१३।

        सागरस्य च तीरेषु वनेषूपवनेषु च ।
        पर्वतेषु च रम्येषु सरित्सु च तया सह ।१४।

        रमते राजराजेंद्रस्तारुण्येन महीपतिः ।
        एवं विंशत्सहस्राणि गतानि निरतस्य च ।१५।

        भूपस्य तस्य राजेंद्र ययातेस्तु महात्मनः।
                        विष्णुरुवाच-
        एवं तया महाराजो ययातिर्मोहितस्तदा ।१६।

        कंदर्पस्य प्रपंचेन इंद्रस्यार्थे महामते ।
                         सुकर्मोवाच-
        एवं पिप्पल राजासौ ययातिः पृथिवीपतिः।१७।

        तस्या मोहनकामेन रतेन ललितेन च ।
        न जानाति दिनं रात्रिं मुग्धः कामस्य कन्यया ।१८।

        एकदा मोहितं भूपं ययातिं कामनंदिनी ।
        उवाच प्रणतं नम्रं वशगं चारुलोचना ।१९।

                      "अश्रुबिंदुमत्युवाच-
        संजातं दोहदं कांत तन्मे कुरु मनोरथम् ।
        अश्वमेधमखश्रेष्ठं यजस्व पृथिवीपते ।२०।

                            "राजोवाच-
        एवमस्तु महाभागे करोमि तव सुप्रियम् ।
        समाहूय सुतश्रेष्ठं राज्यभोगे विनिःस्पृहम् ।२१।

        समाहूतः समायातो भक्त्यानमितकंधरः ।
        बद्धांजलिपुटो भूत्वा प्रणाममकरोत्तदा ।२२।

        तस्याः पादौ ननामाथ भक्त्या नमितकंधरः ।
        आदेशो दीयतां राजन्येनाहूतः समागतः।२३।

        किं करोमि महाभाग दासस्ते प्रणतोस्मि च ।
                             "राजोवाच-
        अश्वमेधस्य यज्ञस्य संभारं कुरु पुत्रक ।२४।

        समाहूय द्विजान्पुण्यानृत्विजो भूमिपालकान् ।
        एवमुक्तो महातेजाः पूरुः परमधार्मिकः।२५।

        सर्वं चकार संपूर्णं यथोक्तं तु महात्मना ।
        तया सार्धं स जग्राह सुदीक्षां कामकन्यया ।२६।

        अश्वमेधयज्ञवाटे दत्वा दानान्यनेकधा ।
        ब्राह्मणेभ्यो महाराज भूरिदानमनंतकम् ।२७।

        दीनेषु च विशेषेण ययातिः पृथिवीपतिः ।
        यज्ञांते च महाराजस्तामुवाच वराननाम् ।२८।

        अन्यत्ते सुप्रियं बाले किं करोमि वदस्व मे ।
        तत्सर्वं देवि कर्तास्मि साध्यासाध्यं वरानने।२९।
                            "सुकर्मोवाच-
        इत्युक्ता तेन सा राज्ञा भूपालं प्रत्युवाच ह ।
        जातो मे दोहदो राजंस्तत्कुरुष्व ममानघ ।३०।

        इंद्रलोकं ब्रह्मलोकं शिवलोकं तथैव च।
        विष्णुलोकं महाराज द्रष्टुमिच्छामि सुप्रियम् ।३१।

        दर्शयस्व महाभाग यदहं सुप्रिया तव ।
        एवमुक्तस्तयाराजातामुवाचससुप्रियाम् ।३२।

        साधुसाधुवरारोहेपुण्यमेवप्रभाषसे ।
        स्त्रीस्वभावाच्चचापल्यात्कौतुकाच्चवरानने ।३३।

        यत्तवोक्तं महाभागे तदसाध्यं विभाति मे।
        तत्साध्यं पुण्यदानेन यज्ञेन तपसापि च ।३४।

        अन्यथा न भवेत्साध्यं यत्त्वयोक्तं वरानने ।
        असाध्यं तु भवत्या वै भाषितं पुण्यमिश्रितम् ।३५।

        मर्त्यलोकाच्छरीरेण अनेनापि च मानवः।
        श्रुतो दृष्टो न मेद्यापि गतः स्वर्गं सुपुण्यकृत् ।३६।

        ततोऽसाध्यं वरारोहे यत्त्वया भाषितं मम ।
        अन्यदेव करिष्यामि प्रियं ते तद्वद प्रिये ।३७।

                        "देव्युवाच-
        अन्यैश्च मानुषै राजन्न साध्यं स्यान्न संशयः ।
        त्वयि साध्यं महाराज सत्यंसत्यं वदाम्यहम् ।३८।

        तपसा यशसा क्षात्रै र्दानैर्यज्ञैश्च भूपते ।
        नास्ति भवादृशश्चान्यो मर्त्यलोके च मानवः ।३९।

        क्षात्रं बलं सुतेजश्च त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
        तस्मादेवं प्रकर्तव्यं मत्प्रियं नहुषात्मज ।४०।
        इति 

         "श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रे एकोनाशीतितमोऽध्यायः ।७९।


        "अनुवाद"

        अध्याय 79 - युवा ययाति अश्रुबिन्दुमति के साथ आनंद लेते हैं

        विशाला ने कहा :

        1-2. वहाँ (अर्थात उस राजा में) ही सौभाग्य देखा जाता है , जिसकी पत्नी शर्मिष्ठा हो और जिसकी पत्नी सुंदर देवयानी हो। हे राजा, यह बात झूठी नहीं हो सकती; तो फिर हे प्रतापी राजा, आप इस युवती के शरीर (सौंदर्य) पर कैसे मोहित हो गए  जबकि आप दो पत्नियों वाले पति के रूप में जाने जाते हैं ?

        3-4. हे राजा, चंदन के समान आपके (चारों ओर) सर्प हैं। हे राजन, जैसे एक विशाल चंदन का वृक्ष सर्पों से घिरा रहता है, उसी प्रकार आप सह-पत्नियों नामक सर्पों से घिरे रहते हैं।

        4-6. अग्नि में प्रवेश करना उत्तम है, (पहाड़ की) चोटी से गिरना उत्तम है, परंतु सुन्दरता और तेज से युक्त आप जैसे  प्रिय पति का होना  सहपत्नियों के साथ -उत्तम नहीं है,  सहपत्नी रूपी विष के साथ रहना उत्तम नहीं है इसलिए वह आपको, गुणों के सागर, अपने प्रेमी के रूप में पुरस्कृत नहीं करती है।

        राजा ने कहा :

        अश्रुबिन्दुमति ने कहा :

        7-9. हे राजन, मैं आपके राज्य और आपके शरीर का भोक्ता बनूंगी। हे राजा, मैं जो कुछ करने को कहूँगी तुम्हें अवश्य ही करना पड़ेगा। इस प्रयोजन के लिए, हे धर्मपरायण लोगों, अनेक गुणों से युक्त और शुभ चिह्नों से युक्त अपना हाथ मुझे दीजिए।

        राजा ने कहा :

        9-11. हे अति सुन्दर रूप वाली, मैं तेरे सिवा कोई दूसरी पत्नी नहीं रखूँगा। हे सुंदर स्त्री, हे मनमोहक शरीर वाली स्त्री, मेरे संपूर्ण राज्य का उसके धन सहित, इसी प्रकार संपूर्ण पृथ्वी और मेरे शरीर का भी आनंद लो। (इसके प्रमाण रूप में) मैंने अपना यह हाथ तुम्हें अर्पित किया है।हे अच्छी महिला, तुम जो कहोगी मैं वही करूंगा।

        अश्रुबिन्दुमति ने कहा :

        11. बस इस (वादे) के साथ, हे महान व्यक्ति, मैं तुम्हारी पत्नी बनूंगी।

        12-16. यह सुनकर, पृथ्वी के स्वामी, राजाओं के राजा, ययाति ने खुशी से भरी आँखों के साथ कामदेव की उस पवित्र पुत्री से गंधर्व विधि से विवाह किया।   देखें नीचे प्रमाण

        एवमाकर्ण्य राजेंद्रो हर्षव्याकुललोचनः ।
        गांधर्वेण विवाहेन ययातिः पृथिवीपतिः ।१२।

        उपयेमे सुतां पुण्यां मन्मथस्य नरोत्तम ।
        तया सार्द्धं महात्मा वै रमते नृपनंदनः।१३।

        राजा नहुष का कुलीन पुत्र  उसके साथ समुद्र तटों, जंगलों और उद्यानों में आनंद लेता था।

        ,वह  राजाओं के स्वामी, युवावस्था में उसके साथ पहाड़ों और सुंदर नदियों में क्रीड़ा करता था। इस प्रकार हे राजन्!, उस महान राजा ययाति को उसके साथ क्रीड़ा करते हुए बीस हजार (वर्ष) बीत गये।

        विष्णु ने कहा :

        16-17. हे अत्यंत बुद्धिमान, उस समय कामदेव के कपटपूर्ण कार्य के माध्यम से, महान राजा ययाति इंद्र के लाभ के लिए उसके द्वारा मोहित हो गए थे।

        सुकर्मन ने कहा :

        17-19. हे पिप्पल , पृथ्वी के स्वामी ययाति को कामदेव की पुत्री के मोहक जोश और मोहक मिलन से मोहित होकर दिन या रात का ज्ञान नहीं रहता था। एक बार आकर्षक नेत्रों वाली कामदेव की पुत्री ने उन स्तब्ध, विनम्र, आज्ञाकारी राजा ययाति को प्रणाम करके कहा:

        अश्रुबिन्दुमति ने कहा :

        20. हे प्रिय, मेरी इच्छा उत्पन्न होती है; अत: मेरी वह इच्छा पूरी करो: सर्वोत्तम यज्ञ करो, अर्थात्। अश्वमेध , हे पृथ्वी के स्वामी!

        राजा ने कहा :

        21-24. हे गौरवशाली, ऐसा ही हो; मैं वही करूंगा जो तुम्हें बहुत पसंद है.

        उन्होंने अपने छोटे श्रेष्ठ बेटे को आमंत्रित किया, जिसे राज्य का आनंद लेने की कोई इच्छा नहीं थी।

        (पुत्र) बुलाये जाने पर भक्तिभाव से गर्दन (अर्थात् सिर) झुकाकर तथा हाथ जोड़कर (ययाति को) प्रणाम करके वहाँ पुरु  आया। उसने भी अपनी गर्दन (अर्थात् सिर) झुकाकर उसके चरणों को प्रणाम किया। “हे राजा, मुझे आज्ञा दीजिए क्योंकि मैं पुरु , जिसे आपके द्वारा बुलाया गया था, मैं आ गया हूं। हे महानुभाव, मुझे क्या करना चाहिए? मैं आपका सेवक हूँ जिसने आपको प्रणाम किया है।”

        राजा ने कहा :

        24-29. हे पुत्र, ब्राह्मणों , यज्ञ करने वाले मेधावी पुरोहितों ,और राजाओं को आमंत्रित करके, अश्व-यज्ञ की तैयारी करो।

        इस प्रकार संबोधित करते हुए, उस अत्यंत तेजस्वी और अत्यधिक धार्मिक पुरु ने महिमावान के कहे अनुसार सब कुछ पूर्ण रूप से किया।कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती  के साथ उन्होंने विधिवत दीक्षा ली (अर्थात स्वयं को यज्ञ के लिए समर्पित कर लिया)। हे महान राजा, पृथ्वी के स्वामी ययाति ने यज्ञ स्थल पर ब्राह्मणों को विभिन्न उपहार दिए, उसी प्रकार विशेष रूप से गरीबों को अनंत, प्रचुर उपहार दिए; और यज्ञ के अंत में उन्होंने उस खूबसूरत महिला अश्रुबिन्दुमती से कहा: “हे युवा महिला, मुझे बताओ कि तुम्हारा प्रिय मुझे और क्या करना चाहिए। हे सुंदरी, मैं वह सब कुछ करूंगा जो प्राप्य है और प्राप्य भी नहीं है।"

        सुकर्मन ने कहा :

        30-37. राजा के इस प्रकार कहने पर वह उत्तर में बोली, “हे राजा, मुझमें एक इच्छा उत्पन्न हुई है; हे भोले, तू इसे कर (अर्थात् संतुष्ट कर)। हे महान राजा, मैं इंद्र, ब्रह्मा , शिव और विष्णु का अत्यंत सुखदायक लोक देखने की इच्छा रखती हूँ । हे कुलीन, यदि मैं तुम्हें बहुत प्रिय हूं तो मुझे दिखाओ।'' उसके इस प्रकार संबोधित करने पर राजा ने उससे, जो उसे बहुत प्रिय थी, कहा: ''हे सुंदरी, अच्छा, तुम न्यायप्रिय हो पवित्र बातें कह रही हो। हे सुंदरी, मुझे लगता है कि स्त्री स्वभाव, चंचलता और जिज्ञासा के कारण आपने जो कहा, वह अप्राप्य है, 

        हे महान महिला !  आपने जो कहा  है वह पवित्र उपहार, त्याग और तपस्या के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है; किसी अन्य माध्यम से, प्राप्त नहीं किया जा सकता है   हे सुन्दर महिला। आपने अभी कुछ ऐसा कहा है जो अप्राप्य है क्योंकि यह धार्मिक गुणों के साथ मिश्रित (अर्थात् जुड़ा हुआ) है। मैंने अभी तक किसी अत्यंत मेधावी व्यक्ति के बारे में नहीं देखा या सुना है जो नश्वर संसार से अपने शरीर के साथ स्वर्ग गया हो । 

        इसलिए, हे सुंदरी, तुमने जो कहा वह मेरे लिए अप्राप्य है। मैं कुछ और कर सकूँ। हे प्रिय मुझे वही बताओ।"

        आदरणीय महिला ने कहा :

        38-40. हे राजन, यह निश्चित रूप से अन्य मनुष्यों के लिए प्राप्य नहीं है; लेकिन यह आपके लिए प्राप्य है; मैं सत्य ही कह रही हूं। हे राजन, इस मृत्युलोक में तपस्या में, यश में, वीरतापूर्वक कार्य करने में, दान देने में और यज्ञ करने में आपके समान कोई दूसरा मनुष्य नहीं है।

         सब कुछ - एक क्षत्रिय की शक्ति , ऊर्जा की आग - आप में स्थापित है। इसलिए, हे नहुष के पुत्र, यह (बात) मुझे प्रिय है  यह कार्य (तुम्हारे द्वारा) किया जाना ही चाहिए।

        सन्दर्भ:-[1] :

        मौजूदा पाठ में "कार्यवशो" का कोई अर्थ नहीं है। इसे "कायवशो" से प्रतिस्थापित करना बेहतर होगा जिसका हमने यहां अनुवाद किया है। 


        ________________________________
        ***           "यदुरुवाच-
        जराभारं न शक्नोमि वोढुं तात कृपां कुरु ।२८।

        शीतमध्वा कदन्नं च वयोतीताश्च योषितः।
        मनसः प्रातिकूल्यं च जरायाः पञ्चहेतवः ।२९।


        जरादुःखं न शक्नोमि नवे वयसि भूपते ।
        कः समर्थो हि वै धर्तुं क्षमस्व त्वं ममाधुना ।३०।

        यदुं क्रुद्धो महाराजः शशाप द्विजनन्दन ।
        राज्यार्हो न च ते वंशः कदाचिद्वै भविष्यति ।३१।

        बलतेजः क्षमाहीनः क्षात्रधर्मविवर्जितः।
        भविष्यति न सन्देहो मच्छासनपराङ्मुखः ।३२।

                         "यदुरुवाच-
        निर्दोषोहं महाराजकस्माच्छप्तस्त्वयाधुना ।
        कृपां कुरुष्व दीनस्य प्रसादसुमुखो भव ।३३।

                         "राजोवाच-
        महादेवः कुले ते वै*** स्वांशेनापि हि पुत्रक ।
        करिष्यति विसृष्टिं च तदा पूतं कुलं तव ।३४।

                          "यदुरुवाच-
        अहं पुत्रो महाराज निर्दोषः शापितस्त्वया ।
        अनुग्रहो दीयतां मे यदि मे वर्त्तते दया ।३५।

        यदु ने कहा :
        33. हे राजा, मैं निर्दोष हूं; अब तुमने मुझे क्यों शाप दिया है? (कृपया) मुझ गरीब  का पक्ष लें। मुझ पर दया करने की कृपा करें.

        राजा ने कहा :

        34- हे पुत्र, (जब) ​​महान देवता (स्वराटविष्णु) अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेगा, तब तेरा कुल शुद्ध हो जायेगा।

                          "राजोवाच-
        यो भवेज्ज्येष्ठपुत्रस्तु पितुर्दुःखापहारकः।
        राज्यदायं सुभुन्क्ते च भारवोढा भवेत्स हि।३६।

        त्वया धर्मं न प्रवृत्तमभाष्योसि न संशयः।
        भवता नाशिताज्ञा मे महादण्डेन घातिनः ।३७।

        तस्मादनुग्रहो नास्ति यथेष्टं च तथा कुरु ।
                            "यदुरुवाच-
        यस्मान्मे नाशितं राज्यं कुलं रूपं त्वया नृप ।३८।

        तस्माद्दुष्टो भविष्यामि तव वंशपतिर्नृप ।
        तव वंशे भविष्यंति नानाभेदास्तु क्षत्त्रियाः ।३९।

        तेषां ग्रामान्सुदेशांश्च स्त्रियो रत्नानि यानि वै ।
        भोक्ष्यन्ति च न संदेहो अतिचणडा महाबलाः ।४०।

        मम वंशात्समुत्पन्नास्तुरुष्का म्लेच्छरूपिणः ।
        त्वया ये नाशिताः सर्वे शप्ताः शापैः सुदारुणैः ।४१।

        एवं बभाषे राजानं यदुः क्रुद्धो नृपोत्तम ।
        अथ क्रुद्धो महाराजः पुनश्चैवं शशाप ह ।४२।

        मत्प्रजानाशकाः सर्वे वंशजास्ते शृणुष्व हि ।
        यावच्चंद्रश्च सूर्यश्च पृथ्वी नक्षत्रतारकाः ।४३।

        तावन्म्लेच्छाः प्रपक्ष्यन्ते कुम्भीपाके चरौ रवे ।
        कुरुं दृष्ट्वा ततो बालं क्रीडमानं सुलक्षणम् ।४४।

        समाह्वयति तं राजा न सुतं नृपनन्दनम् ।
        शिशुं ज्ञात्वा परित्यक्तः सकुरुस्तेन वै तदा ।४५।

        शर्मिष्ठायाः सुतं पुण्यं तं पूरुं जगदीश्वरः।
        समाहूय बभाषे च जरा मे गृह्यतां पुनः ।४६।



        27. इस प्रकार तुरुवसु को बहुत बुरी तरह श्राप देने के बाद, उन्होंने (अपने अन्य) पुत्र,यदु से कहा "अब (मेरा) बुढ़ापा ले लो, और किसी भी प्रकार की कष्टों से मुक्त होकर राज्य का आनंद लो।"

        28. यदु ने हाथ जोड़कर राजा से कहा:



         हे पिता, मैं (आपके) बुढ़ापे का बोझ सहन करने में असमर्थ हूँ; (कृपया) मुझ पर दया करें

         बुढ़ापे के पाँच कारण  हैं।: ठंडक, मदिरा, गलत खान-पान, वृद्ध स्त्री और मन का अरुचि।
        शीतमध्वा कदन्नं च वयोतीताश्च योषितः।
        मनसः प्रातिकूल्यं च जरायाः पञ्चहेतवः
        ________________________________
         हे राजन, मैं अपनी युवावस्था में (अर्थात् जवान होते हुए) दुःख सहने में समर्थ नहीं हूँ। बुढ़ापे को कौन रोक सकता है? अब (कृपया) मुझे क्षमा करें।

        31-32. हे ब्राह्मण पुत्र , क्रोधित महान राजा  ययाति ने यदु को श्राप दिया: “तुम्हारा वंश कभी भी राज्य का हकदार नहीं होगा। यह शक्ति, चमक, सहनशीलता से रहित हो जाएगा और क्षत्रियों के आचरण से वंचित हो जाएगा (क्योंकि आपने) मेरे आदेश से मुंह मोड़ लिया है। इसमें कोई अनिश्चितता नहीं है।”
        _______________
        यदु ने कहा :
        33. हे राजा, मैं निर्दोष हूं; अब तुमने मुझे क्यों शाप दिया है? (कृपया) मुझ गरीब  का पक्ष लें। मुझ पर दया करने की कृपा करें.

        राजा ने कहा :

        34- हे पुत्र, (जब) ​​महान देवता (स्वराटविष्णु) अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेगा, तब तेरा कुल शुद्ध हो जायेगा।

        यदु ने कहा :
        35. हे राजा, तमने मुझ निर्दोष पुत्र को शाप दिया है; यदि आपको मुझ पर दया है तो मुझ पर कृपा करें।

        राजा ने कहा :
        36. जो ज्येष्ठ पुत्र हो उसे पिता का दुःख दूर करना चाहिए। वह राज्य की विरासत का अच्छी तरह से आनंद लेता है, और वह (राज्य का) बोझ भी उठाएगा।

        37-38 आपने (अपना) कर्तव्य नहीं निभाया है, (इसलिए) आप निश्चित रूप से बात करने के लायक नहीं हैं। तूने मेरे उस आदेश को नष्ट कर दिया है (अर्थात अवज्ञा की है) जिसे मैं महान् (अर्थात् भारी) दण्ड दे सकता हूँ। इसलिए आपका पक्ष नहीं लिया जा सकता, आप जैसा चाहें वैसा करें।

        यदु ने कहा :
        38-42ए. हे राजा, चूँकि तुमने मेरे राज्य, रूप और परिवार को नष्ट कर दिया है, इसलिए मैं, तुम्हारे परिवार का मुखिया, दुष्ट होगा। आपके परिवार में विभिन्न रूपों वाले (जन्म लेने वाले) क्षत्रिय होंगे।

         इसमें कोई संदेह नहीं है कि अत्यंत भयंकर और अत्यंत शक्तिशाली (प्राणी) अपने गाँवों, अच्छे क्षेत्रों, अपनी स्त्रियों और उनके पास जो भी रत्न होंगे, उनका आनंद लेंगे।

        मेरे कुल में बर्बरों के रूप वाले तुरुष्क उत्पन्न होंगे - जो नष्ट हो गए थे और जिन्हें आपने बहुत भयंकर शाप दिया था। हे श्रेष्ठ राजा, क्रोधित यदु ने राजा  से इस प्रकार कहा।

        42-45. तब क्रोधित महान राजा ने फिर से (यदु) को श्राप दिया: “सुनो, यह जान लो कि तुम्हारे परिवार में जो भी जन्म लेगा वह मेरी प्रजा को नष्ट कर देगा। जब तक चंद्रमा, सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्र और तारे (अंतिम) रहेंगे तब तक म्लेच्छ कुंभीपाक और रौरव (नरक) में भुने रहेंगे । तब राजा ने युवा कुरु को खेलते हुए और अच्छे अंक प्राप्त करते हुए देखकर उस पुत्र को राजकुमार नहीं कहा। कुरु को बालक जानकर राजा वहां से चले गये।

        46-47. तब संसार के स्वामी (अर्थात् ययाति) ने शर्मिष्ठा के मेधावी पुत्र पुरु को बुलाया और उससे कहा: "मेरा बुढ़ापा ले लो और मेरे द्वारा दिए गए उपद्रव के स्रोतों को नष्ट करके, (और) मेरे अत्यंत अच्छे राज्य का आनंद लो ( आपको)।"

        पुरु ने कहा :
        47-49. प्रभु (यदि आप) अपने पिता के समान राज्य का उपभोग करें, तो मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। हे राजा, मेरी जवानी के बदले मुझे अपना बुढ़ापा दे दो। 

        आज केवल सुंदर दिखने वाले, भोग-विलास करने वाले, मन को इंद्रिय विषयों, भोग-विलास और अच्छे कर्मों में आसक्त रखने वाले हैं।

        49-54. हे महानुभाव, जब तक तुम चाहो उसके साथ खेलो। हे पिता, जब तक मैं जीवित हूं, बुढ़ापा कायम रखूंगा।

        उस पुरु के इस प्रकार कहने पर जगत् के स्वामी ने बड़े हर्ष से भरे हुए हृदय से अपने पुत्र से फिर कहा, “हे पुत्र, चूँकि तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया, (इसके विपरीत) उसका पालन किया, इसलिए मैं तुम्हें राज्य दूँगा।” तुम्हें बहुत ख़ुशी है. हे परम बुद्धिमान, तू ने मेरा बुढ़ापा ले लिया, और मुझे अपनी जवानी दे दी, इस कारण तू मेरे दिए हुए राज्य का उपभोग कर। हे राजन, राजा द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर उस अच्छे पुरु ने उसे अपनी जवानी दे दी और उससे बुढ़ापा ले लिया।


        ← पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-80)

        कामकन्यां यदा राजा उपयेमे द्विजोत्तम ।
        किं चक्राते तदा ते द्वे पूर्वभार्ये सुपुण्यके ।१।

        देवयानी महाभागा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।
        तयोश्चरित्रं तत्सर्वं कथयस्व ममाग्रतः ।२।

                       "सुकर्मोवाच-
        यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा ।
        अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।३।

        तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
        शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।४।

        रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
        शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।

        दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा ।
        राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।

        ****
        अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
        शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।७।

        सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
        एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा ।८।

        प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
        नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।९।

        मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
        तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम् ।१०।

        दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत् ।
        भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।११।

        पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
        एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये ।१२।

        यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह ।
        शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः ।१३।

        यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि ।
        मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः ।१४।

        एवमुक्त्वा यदुं पुत्रं ययातिः पृथिवीपतिः ।
        पुत्रं शप्त्वा महाराजस्तया सार्द्धं महायशाः ।१५।

        रमते सुखभोगेन विष्णोर्ध्यानेन तत्परः ।
        अश्रुबिंदुमतीसा च तेन सार्द्धं सुलोचना ।१६।

        बुभुजे चारुसर्वांगी पुण्यान्भोगान्मनोनुगान् ।
        एवं कालो गतस्तस्य ययातेस्तु महात्मनः ।१७।

        अक्षया निर्जराः सर्वा अपरास्तु प्रजास्तथा ।
        सर्वे लोका महाभाग विष्णुध्यानपरायणाः ।१८।

        तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पल ।
        सर्वे लोका महाभाग सुखिनः साधुसेवकाः ।१९।

        अध्याय- 80 -ययाति के कहने से जब यदु ने अपनी दौंनो माताओं (देवयानी- और शर्मिष्ठा) को मारने से मना कर दिया तब ययाति यदु को शाप दिया ।

        पिप्पला ने कहा :

        1-2. हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा ( ययाति ) ने कामदेव की पुत्री से विवाह किया, तो उनकी दो पूर्व, बहुत शुभ, पत्नियों, अर्थात्। कुलीन देवयानी और वृषपर्वन् की पुत्री शर्मिष्ठा क्या किया ? दोनों का सारा वृत्तान्त बताओ।

        सुकर्मन ने कहा :

        3-9. जब वह राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गया, तो वह उच्च विचार वाली देवयानी (उसके साथ) बहुत प्रतिद्वंद्विता करने लगी। "इस कारण आकुलमन वाले राजा ययाति ने क्रोध के वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) को श्राप दे दिया। जो देवयानी नामक बड़ी रानी से उत्पन्न हुए थे" मनस्विनी देवयानी ने शर्मिष्ठा को बुलाकर उससे सारी बाते कहीं। तब रूप, तेज और दान के द्वारा शर्मिष्ठा और देवयानी  उस अश्रुुबिन्दुमती के साथ अत्यधिक प्रतिस्पर्धा करने लगीं। तब कामदेव की पुत्री ने  उनकी  इस प्रतिस्पर्द्धा को जान लिया। तभी उसने राजा को सारी बात बता दी, हे ब्राह्मण! तब क्रोधित होकर महान राजा ने यदु को बुलाया और उनसे कहा:

         “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी (देवयानी) को मार डालो । 

        हे पुत्र, यदि तुम्हें सुख की परवाह है तो वही करो जो मुझे सबसे प्रिय है।” अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने अपने पिता, राजाओं के स्वामी, को उत्तर दिया:

        9-14. “हे घमंडी पिता, मैं अपराधबोध से मुक्त होकर इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है। 

        इसलिए, हे महान राजा, मैं इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। हे महान राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर सौ दोष लगें, तो उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए।

        यह जानकर, हे महान राजा, मैं (इन) दोनों माताओं को कभी नहीं मारूंगा। उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये।

        पृथ्वी के स्वामी ययाति ने तब अपने पुत्र को शाप दिया: और कहा "चूंकि तुमने (मेरे) आदेश की अवज्ञा की है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का आनंद लो"।

        ******************

        15-19. अपने पुत्र यदु से इस प्रकार बात करते हुए, पृथ्वी के स्वामी, ययाति, महान प्रतापी राजा, ने अपने पुत्र  यदु को शाप दे दिया, और पूरी तरह से विष्णु के प्रति समर्पित न होकर , कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के  साथ सुख भोगा।

        आकर्षक नेत्रों वाली और सभी अंगों में सुंदर अश्रुबिन्दुमती ने उसके साथ अपनी इच्छानुसार सभी सुंदर भोगों का आनंद लिया। 

        इस प्रकार उस श्रेष्ठ ययाति ने अपना समय व्यतीत किया। अन्य सभी विषय बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के थे; सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान के प्रति समर्पित थे।हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से भलाई की।

        __________

        पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डःअध्यायः81-)
          →

                        " सुकर्मोवाच-
        यथेंद्रोसौ महाप्राज्ञः सदा भीतो महात्मनः।
        ययातेर्विक्रमं दृष्ट्वा दानपुण्यादिकं बहु ।१।

        मेनकां प्रेषयामास अप्सरां दूतकर्मणि ।
        गच्छ भद्रे महाभागे ममादेशं वदस्व हि ।२।

        कामकन्यामितो गत्वा देवराजवचो वद।
        येनकेनाप्युपायेन राजानं त्वमिहानय ।३।

        एवं श्रुत्वा गता सा च मेनका तत्र प्रेषिता ।
        समाचष्ट तु तत्सर्वं देवराजस्य भाषितम् ।४।

        एवमुक्ता गता सा च मेनका तत्प्रचोदिता ।
        गतायां मेनकायां तु रतिपुत्री मनस्विनी ।५।

        राजानं धर्मसंकेतं प्रत्युवाच यशस्विनी ।
        राजंस्त्वयाहमानीता सत्यवाक्येन वै पुरा।६।

        स्वकरश्चांतरे दत्तो भवनं च समाहृता ।
        यद्यद्वदाम्यहं राजंस्तत्तत्कार्यं हि वै त्वया।७।

        तदेवं हि त्वया वीर न कृतं भाषितं मम ।
        त्वामेवं तु परित्यक्ष्ये यास्यामि पितृमंदिरम्।८।

                            राजोवाच-
        यथोक्तं हि त्वया भद्रे तत्ते कर्त्ता न संशयः ।
        असाध्यं तु परित्यज्य साध्यं देवि वदस्व मे।९।

                      "अश्रुबिंदुमत्युवाच-
        एतदर्थे महीकांत भवानिह मया वृतः ।
        सर्वलक्षणसंपन्नः सर्वधर्मसमन्वितः।१०।

        सर्वं साध्यमिति ज्ञात्वा सर्वधर्तारमेव च ।
        कर्त्तारं सर्वधर्माणां स्रष्टारं पुण्यकर्मणाम्।११।

        त्रैलोक्यसाधकं ज्ञात्वा त्रैलोक्येऽप्रतिमं च वै।
        विष्णुभक्तमहं जाने वैष्णवानां महावरम् ।१२।

        इत्याशया मया भर्त्ता भवानंगीकृतः पुरा।
        यस्य विष्णुप्रसादोऽस्ति स सर्वत्र परिव्रजेत् ।१३।

        दुर्लभं नास्ति राजेंद्र त्रैलोक्ये सचराचरे ।
        सर्वेष्वेव सुलोकेषु विद्यते तव सुव्रत।१४।

        विष्णोश्चैव प्रसादेन गगने गतिरुत्तमा ।
        मर्त्यलोकं समासाद्य त्वयैव वसुधाधिप।१५।

        जरापलितहीनास्तु मृत्युहीना जनाः कृताः ।
        गृहद्वारेषु सर्वेषु मर्त्यानां च नरर्षभ।१६।

        कल्पद्रुमा अनेकाश्च त्वयैव परिकल्पिताः ।
        येषां गृहेषु मर्त्यानां मुनयः कामधेनवः ।१७।

        त्वयैव प्रेषिता राजन्स्थिरीभूताः सदा कृताः ।
        सुखिनः सर्वकामैश्च मानवाश्च त्वया कृताः।१८।

        गृहैकमध्ये साहस्रं कुलीनानां प्रदृश्यते ।
        एवं वंशविवृद्धिश्च मानवानां त्वया कृता।१९।

        यमस्यापि विरोधेन इंद्रस्य च नरोत्तम।
        व्याधिपापविहीनस्तु मर्त्यलोकस्त्वया कृतः ।२०।

        स्वतेजसाहंकारेण स्वर्गरूपं तु भूतलम् ।
        दर्शितं हि महाराज त्वत्समो नास्ति भूपतिः।२१।

        नरो नैव प्रसूतो हि नोत्पत्स्यति भवादृशः ।
        भवंतमित्यहं जाने सर्वधर्मप्रभाकरम् ।२२।

        तस्मान्मया कृतो भर्ता वदस्वैवं ममाग्रतः ।
        नर्ममुक्त्वा नृपेंद्र त्वं वद सत्यं ममाग्रतः।२३।

        यदि ते सत्यमस्तीह धर्ममस्ति नराधिप ।
        देवलोकेषु मे नास्ति गगने गतिरुत्तमा ।२४।

        सत्यं त्यक्त्वा यदा च त्वं नैव स्वर्गं गमिष्यसि।
        तदा कूटं तव वचो भविष्यति न संशयः।२५।

        पूर्वंकृतं हि यच्छ्रेयो भस्मीभूतं भविष्यति ।
                           "राजोवाच-
        सत्यमुक्तं त्वया भद्रे साध्यासाध्यं न चास्ति मे।२६।

        सर्वंसाध्यं सुलोकं मे सुप्रसादाज्जगत्पते।
        स्वर्गं देवि यतो नैमि तत्र मे कारणं शृणु ।२७।

        आगंतुं तु न दास्यंति लोके मर्त्ये च देवताः ।
        ततो मे मानवाः सर्वे प्रजाः सर्वा वरानने ।२८।

        मृत्युयुक्ता भविष्यंति मया हीना न संशयः ।
        गंतुं स्वर्गं न वाञ्छामि सत्यमुक्तं वरानने ।२९।

                       "देव्युवाच-।
        लोकान्दृष्ट्वा महाराज आगमिष्यसि वै पुनः ।
        पूरयस्व ममाद्यत्वं जातां श्रद्धां महातुलाम् ।३०।

                       "राजोवाच-
        सर्वमेवं करिष्यामि यत्त्वयोक्तं न संशयः ।
        समालोक्य महातेजा ययातिर्नहुषात्मजः ।३१।

        एवमुक्त्वा प्रियां राजा चिंतयामास वै तदा ।
        अंतर्जलचरो मत्स्यः सोपि जाले न बध्यते ।३२।

        मरुत्समानवेगोपि मृगः प्राप्नोति बंधनम् ।
        योजनानां सहस्रस्थमामिषं वीक्षते खगः ।३३।

        सकंठलग्नपाशं च न पश्येद्दैवमोहितः ।
        कालः समविषमकृत्कालः सन्मानहानिदः ।३४।

        परिभावकरः कालो यत्रकुत्रापि तिष्ठतः ।
        नरं करोति दातारं याचितारं च वै पुनः ।३५।

        भूतानि स्थावरादीनि दिवि वा यदि वा भुवि ।
        सर्वं कलयते कालः कालो ह्येक इदं जगत् ।३६।

        अनादिनिधनो धाता जगतः कारणं परम् ।
        लोकान्कालः स पचति वृक्षे फलमिवाहितम् ।३७।

        न मंत्रा न तपो दानं न मित्राणि न बांधवाः ।
        शक्नुवंति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम् ।३८।

        त्रयः कालकृताः पाशाः शक्यंते नातिवर्तितुम् ।
        विवाहो जन्ममरणं यदा यत्र तु येन च ।३९।

        यथा जलधरा व्योम्नि भ्राम्यंते मातरिश्वना ।
        तथेदं कर्मयुक्तेन कालेन भ्राम्यते जगत् ।४०।

                       "सुकर्मोवाच- 
        कालोऽयं कर्मयुक्तस्तु यो नरैः समुपासितः ।
        कालस्तु प्रेरयेत्कर्म न तं कालः करोति सः।४१।

        उपद्रवा घातदोषाः सर्पाश्च व्याधयस्ततः ।
        सर्वे कर्मनियुक्तास्ते प्रचरंति च मानुषे ।४२।

        सुखस्य हेतवो ये च उपायाः पुण्यमिश्रिताः ।
        ते सर्वे कर्मसंयुक्ता न पश्येयुः शुभाशुभम् ।४३।

        कर्मदा यदि वा लोके कर्मसंबधि बांधवाः ।
        कर्माणि चोदयंतीह पुरुषं सुखदुःखयोः ।४४।

        सुवर्णं रजतं वापि यथा रूपं विनिश्चितम् ।
        तथा निबध्यते जंतुः स्वकर्मणि वशानुगः ।४५।

        पंचैतानीह सृज्यंते गर्भस्थस्यैव देहिनः ।
        आयुः कर्म च वित्तं च विद्यानिधनमेव च ।४६।

        यथा मृत्पिंडतः कर्ता कुरुते यद्यदिच्छति ।
        तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।४७।

        देवत्वमथ मानुष्यं पशुत्वं पक्षिता तथा ।
        तिर्यक्त्वं स्थावरत्वं च प्राप्यते च स्वकर्मभिः।४८।

        स एव तत्तथा भुंक्ते नित्यं विहितमात्मना ।
        आत्मना विहितं दुःखं चात्मना विहितं सुखम्। ४९।

        गर्भशय्यामुपादाय भुंजते पूर्वदैहिकम् ।
        संत्यजंति स्वकं कर्म न क्वचित्पुरुषा भुवि।५०।

        बलेन प्रज्ञया वापि समर्थाः कर्तुमन्यथा ।
        सुकृतान्युपभुंजंति दुःखानि च सुखानि च।५१।

        हेतुं प्राप्य नरो नित्यं कर्मबंधैस्तु बध्यते ।
        यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विंदति मातरम्।५२।

        तथा शुभाशुभं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।
        उपभोगादृते यस्य नाश एव न विद्यते ।५३।

        प्राक्तनं बंधनं कर्म कोन्यथा कर्तुमर्हति ।
        सुशीघ्रमपि धावंतं विधानमनुधावति ।५४।

        शेते सह शयानेन पुरा कर्म यथाकृतम् ।
        उपतिष्ठति तिष्ठंतं गच्छंतमनुगच्छति ।५५।

        करोति कुर्वतः कर्मच्छायेवानु विधीयते ।
        यथा छायातपौ नित्यं सुसंबद्धौ परस्परम् ।५६।

        तद्वत्कर्म च कर्ता च सुसंबद्धौ परस्परम् ।
        ग्रहा रोगा विषाः सर्पाः शाकिन्यो राक्षसास्तथा ५७।

        पीडयंति नरं पश्चात्पीडितं पूर्वकर्मणा ।
        येन यत्रोपभोक्तव्यं सुखं वा दुःखमेव वा ।५८।

        स तत्र बद्ध्वा रज्ज्वा वै बलाद्दैवेन नीयते ।
        दैवः प्रभुर्हि भूतानां सुखदुःखोपपादने ।५९।

        अन्यथा चिंत्यते कर्म जाग्रता स्वपतापि वा ।
        अन्यथा स तथा प्राज्ञ दैव एवं जिघांसति ।६०।

        शस्त्राग्नि विष दुर्गेभ्यो रक्षितव्यं च रक्षति ।
        अरक्षितं भवेत्सत्यं तदेवं दैवरक्षितम् ।६१।

        दैवेन नाशितं यत्तु तस्य रक्षा न दृश्यते ।
        यथा पृथिव्यां बीजानि उप्तानि च धनानि च।६२।

        तथैवात्मनि कर्माणि तिष्ठंति प्रभवंति च ।
        तैलक्षयाद्यथा दीपो निर्वाणमधिगच्छति ।६३।

        कर्मक्षयात्तथा जंतुः शरीरान्नाशमृच्छति ।
        कर्मक्षयात्तथा मृत्युस्तत्त्वविद्भिरुदाहृतः।६४।

        विविधाः प्राणिनस्तस्य मृत्यो रोगाश्च हेतवः ।
        तथा मम विपाकोयं पूर्वं कृतस्य नान्यथा ।६५।

        संप्राप्तो नात्र संदेहः स्त्रीरूपोऽयं न संशयः ।
        क्व मे गेहं समायाता नाटका नटनर्तकाः ।६६।

        तेषां संगप्रसंगेन जरा देहं समाश्रिता ।
        सर्वं कर्मकृतं मन्ये यन्मे संभावितं ध्रुवम् ।६७।

        तस्मात्कर्मप्रधानं च उपायाश्च निरर्थकाः ।
        पुरा वै देवराजेन मदर्थे दूतसत्तमः ।६८।

        प्रेषितो मातलिर्नाम न कृतं तस्य तद्वचः ।
        तस्य कर्मविपाकोऽयं दृश्यते सांप्रतं मम ।६९।

        इति चिंतापरो भूत्वा दुःखेन महतान्वितः ।
        यद्यस्याहि वचः प्रीत्या न करोमि हि सर्वथा ।७०।

        सत्यधर्मावुभावेतौ यास्यतस्तौ न संशयः ।
        सदृशं च समायातं यद्दृष्टं मम कर्मणा ।७१।

        भविष्यति न संदेहो दैवो हि दुरतिक्रमः ।
        एवं चिंतापरो भूत्वा ययातिः पृथिवीपतिः। ७२।

        कृष्णं क्लेशापहं देवं जगाम शरणं हरिम् ।
        ध्यात्वा नत्वा ततः स्तुत्वा मनसा मधुसूदनम् ।७३।

        त्राहि मां शरणं प्राप्तस्त्वामहं कमलाप्रिय ।७४।


        अध्याय 81 - नियति अप्रतिरोध्य है

        सुकर्मन ने कहा :

        1-3. अत्यंत बुद्धिमान इंद्र , जो हमेशा कुलीन ययाति से डरते थे , उन्होंने उनके वीरता और उपहार देने जैसे कई सराहनीय कार्यों को देखकर, स्वर्ग की अप्सरा मेनका को एक दूत के रूप में कार्य करने के लिए भेजा

         (उसने उससे कहा:) "हे अच्छे और प्रतिष्ठित व्यक्ति मातलि!, जाओ और मेरा आदेश बताओ । यहां से जाकर कामदेव की पुत्री से देवताओं के स्वामी (मेरे) ये शब्द (अर्थात आदेश) कहो:  वे राजा ययाति को'राजा को किसी भी तरह यहां ले आऐं।''

        4. यह सुनकर वह मेनका (इंद्र द्वारा) भेजी हुई वहां गयी; और जो कुछ देवताओं के प्रभु ने कहा था, वह सब उसे बता दिया।

        5-8. इस प्रकार उसे यह बताने के बाद कि मेनका, उसके द्वारा निर्देशित (यानी कामदेव की बेटी) के पास चली गई  जब मेनका चली गई, और अश्रुबिन्दुमती राजा ययाति के पास गयी तो रति की उस उच्च विचारधारा वाली, गौरवशाली बेटी अश्रुबिन्दुमती ने राजा को वैध समझौते की बात कही: “हे राजा, आपने पहले सच्ची वाणी के साथ मुझे (यहाँ) लाया था; इस बीच तू ने मुझे अपना हाथ दिया, और मुझे अपने निवास में ले आया। हे राजा, तुम्हें यहाँ (अर्थात अभी) वही करना होगा जो मैं तुमसे कहती हूँ। हे वीर, जो मैं ने तुझ से कहा था, वह तू ने नहीं किया; मैं तुम्हें त्याग कर अपने पिता के घर चली जाऊँगी।”

        राजा ने कहा :

        9. हे भद्रे!, जो कुछ तू ने मुझ से कहा है, मैं अवश्य वैसा ही करूंगा। हे आदरणीय नारी, जो अप्राप्य है उसे छोड़कर (अर्थात् न बताना) और जो प्राप्य है वह बताओ।

        अश्रुबिन्दुमति ने कहा :

               "अश्रुबिन्दुमत्युवाच-
        एतदर्थे महीकान्त भवानिह मया वृतः ।
        सर्वलक्षणसंपन्नः सर्वधर्मसमन्वितः ।१०।

        सर्वं साध्यमिति ज्ञात्वा सर्वधर्तारमेव च ।
        कर्त्तारं सर्वधर्माणां स्रष्टारं पुण्यकर्मणाम्।११।

        10-11.  इस प्रयोजन के लिए, हे पृथ्वी के स्वामी, मैं तुम्हें विवाह के लिए चुनती हूँ, यह जानते हुए कि तुम सभी (शुभ) चिह्नों वाले और सभी गुणों से संपन्न हो, और यह जानते हुए कि तुम सब कुछ पूरा करोगे, हर चीज का समर्थन करोगे, सभी अच्छे उपयोग करोगे और सृजन करोगे ( अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान करो, और तीनों लोकों को प्राप्त करोगे, और यह जानोगे कि तुम तीनों लोकों में अतुलनीय हो। मैं जानती हूं कि आप एक भक्त हैं और विष्णु के अनुयायियों में सर्वश्रेष्ठ हैं । इसी आशा से मैंने पहले तुम्हें अपना पति समझ लिया था। जिस पर विष्णु की कृपा होगी वह हर जगह विचरण करेगा। हे राजाओं के स्वामी, ऐसा कुछ भी नहीं है जो (आपके द्वारा) तीनों लोकों में - स्थावर या (स्थिर रहने वाला)- में पूरा न किया जा सके। अच्छे व्रत के कारण आपके लिए सभी लोकों में सब कुछ (प्राप्त करने योग्य) है। विष्णु की कृपा से ही तुम आकाश में स्वतंत्र रूप से विचरण कर सकते हो। नश्वर संसार में आकर, हे पृथ्वी के स्वामी, आपने लोगों को बुढ़ापे, सफ़ेद बालों और मृत्यु से मुक्त किया है। हे राजन, आपने स्वयं ही मनुष्यों के सभी घरों के द्वारों के पास बहुत से इच्छा फल देने वाले वृक्ष लगाए हैं।हे राजन, आपने स्वयं मनुष्यों के घरों में ऋषियों को भेजा है और उनके घरों में इच्छा देने वाली गायों को हमेशा दृढ़ता से बसाया है। तुमने मनुष्यों की सब अभिलाषाएं पूरी करके उन्हें प्रसन्न किया है। एक घर में हजारों कुलीन लोग देखे जाते हैं।

        - 19-26-इस प्रकार तुमने यमराज और इन्द्र के विरोध के बावजूद भी मनुष्य जाति को बढ़ाया है। हे ययाति आपने नश्वर संसार को रोग और पापों से मुक्त कर दिया)। हे महान राजा  आपने अपने पराक्रम और स्वाभिमान से पृथ्वी को स्वर्ग बना दिया- आपके समान इस संसार में दूसरा कोई राजा नहीं हुआ - और ना ही भविष्य में कभी होगा। मैं तुम्हें सम्पूर्ण धर्म का प्रकाशक मानती हूँ। इस लिए मैं कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती तुम्हें अपना पति चुनती हूँ।

         हे राजाओं के स्वामी, मजाक छोड़ कर मेरे सामने सत्य बोलो। हे राजन, यदि तुममें सत्य और धर्मपरायणता है तो सच बोलो। "मैं दिव्य लोकों में विचरण नहीं करती, न ही आकाश में स्वतंत्र रूप से विचरण कर सकती हूँ"। जब तुम सत्य को त्यागकर (ऐसा कहते हो) तो कभी स्वर्ग में नहीं जाओगे; तुम्हारी बातें निश्चय झूठी होंगी; और पहले किए गए सभी अच्छे काम राख में मिल जाएंगे।

        राजा ने कहा :

        26-29. हे सुन्दरी, आपने सच कहा, मेरे लिए अप्राप्य जैसा कुछ भी नहीं है। जगत् के स्वामी की कृपा से मेरे लिए सब कुछ प्राप्य है। हे आदरणीय नारी, मैं  जिस कारण से स्वर्ग नहीं जा रहा हूँ, उसका कारण सुनो।

        वे देवताओं को नश्वर संसार में जाने की अनुमति नहीं देंगे; परिणामस्वरूप सभी मनुष्य-मेरी प्रजा-मेरे द्वारा त्याग दिए जाने पर मृत्यु को प्राप्त होंगे; 

        इसमें कोई संदेह नहीं है, हे सुन्दरी! मुझे स्वर्ग जाने की इच्छा नहीं है; हे सुन्दरी, मैं ने तुझ से सत्य कहा है।

        अश्रुबिन्दुमती ने कहा :

        30. हे राजा, तुम उन सभी लोकों को देखकर फिर  पुन: पृथ्वी पर लौट आएगे। आज मेरी अतुलनीय प्रबल इच्छा पूरी करो.

        राजा ने कहा :

        31-40. आपने जो कुछ कहा है मैं अवश्य वह सब करूँगा। नहुष के पुत्र अत्यंत तेजस्वी राजा ययाति ने (इस प्रकार) देखा और अपनी प्रियतमा से इस प्रकार कहा, फिर सोचा: 'एक मछली पानी में घूमती हुई भी जाल में बंधी हुई है (अर्थात फंसी हुई है)। वायु के समान वेग वाला मृग भी बंधा हुआ है। एक हजार योजन की दूरी पर होने पर भी पक्षी शिकार को देख लेता है । नियति के बहकावे में आकर यह अपनी गर्दन पर लटका हुआ फंदा नहीं देख पाता। नियति अच्छी और बुरी चीजें लेकर आती है। 

        नियति सम्मान को नष्ट कर देती है. नियति जहां चाहे वहाँ  रहकर अपमान भी कराती है। यह मनुष्य को दाता या याचक बनाती है। नियति सब कुछ धारण करती है - सभी गतिहीन और स्वर्ग या पृथ्वी पर रहने वाले अन्य प्राणी। इस संसार का कर्म ही एकमात्र भाग्यविधायक है।

        यह उत्पत्ति और मृत्यु से रहित है और संसार का सबसे बड़ा कारण है।

        नियति दुनिया भर को उसी तरह पकाती है जैसे पेड़ पर लगे फल को समय पकाता है।

        भूतानि स्थावरादीनि दिवि वा यदि वा भुवि ।
        सर्वं कलयते कालः कालो ह्येक इदं जगत् ।३६।

        अनादिनिधनो धाता जगतः कारणं परम् ।
        लोकान्कालः स पचति वृक्षे फलमिवाहितम् ।३७।

        न मन्त्रा न तपो दानं न मित्राणि न बान्धवाः ।
        शक्नुवन्ति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम् ।३८।

        त्रयः कालकृताः पाशाः शक्यन्ते नातिवर्तितुम्।
        विवाहो जन्ममरणं यदा यत्र तु येन च ।३९।

        यथा जलधरा व्योम्नि भ्राम्यन्ते मातरिश्वना ।
        तथेदं कर्मयुक्तेन कालेन भ्राम्यते जगत् ।४०।

                         "सुकर्मोवाच- 
        कालोऽयं कर्मयुक्तस्तु यो नरैः समुपासितः ।
        कालस्तु प्रेरयेत्कर्म न तं कालः करोति सः।४१।

        भजन, तप, दान, मित्र या सम्बन्धी भी भाग्य से पीड़ित मनुष्य की रक्षा करने में समर्थ नहीं होते।नियति के तीन बंधनों पर काबू पाना संभव नहीं है: विवाह, जन्म और मृत्यु - किसी को ये कब और कहाँ मिलेंगे, और किसके साथ या किसके माध्यम से मिलेंगे। 

        जैसे आकाश में बादल हवा से चलते हैं, वैसे ही संसार (प्राणियों के) कर्मों (फलों) के साथ मिलकर भाग्य से चलता है।

        सुकर्मन ने कहा :

        41-67. लेकिन नियति, जो कर्म (कर्म) के साथ संयुक्त है, मनुष्यों द्वारा पूजनीय है, (केवल) कर्म (कर्मों के फल) के लिए आग्रह करती है, और इसे बनाती नहीं है। मानव (संसार) में विपत्तियाँ, विपत्तियाँ, सर्प और बीमारियाँ (किसी के) कर्मों के अनुसार ही चलती हैं। जो सुख के कारण और साधन हैं, वे सब पुण्य से मिश्रित होकर (कर्मों के) फल से संयुक्त हैं। वे शुभ और (क्या है) अशुभ नहीं देखेंगे (अर्थात् इसकी परवाह नहीं करेंगे)।(अस्पष्ट!) कर्मों के फल से जुड़े रिश्तेदार उनका आदान-प्रदान कर सकते हैं [1] ; परन्तु (अकेले) कर्मों का फल ही मनुष्यों को इस संसार में सुख और दुःख की ओर ले जाता है। जिस प्रकार सोने या चांदी का स्वभाव निश्चित होता है, उसी प्रकार जीव अपने कर्मों के अनुसार बंधा होता है। मनुष्य जब (अपनी माँ के) गर्भ में होता है, तब ये पाँच उत्पन्न होते हैं (अर्थात निर्णय लेते हैं): उसका जीवन (अर्थात दीर्घायु), कर्म, धन, विद्या और मृत्यु। जिस प्रकार कुम्हार निर्जीव गांठ से जो चाहे बना देता है, उसी प्रकार पहले किए गए कर्म कर्ता के पीछे चले जाते हैं। कोई अपने कर्मों के अनुसार देवता, या मनुष्य, या जानवर, या पक्षी, या निचला जानवर, या स्थिर वस्तु बन जाता है।वह हमेशा उसी के अनुसार आनंद लेता है जो उसके द्वारा पूरा किया जाता है - दुख उसके अपने कार्यों से उत्पन्न होता है; ख़ुशी व्यक्ति के अपने कर्मों से मिलती है। गर्भ शैया प्राप्त करके वह अपने पूर्व शरीर के कर्मों (अर्थात पूर्व जन्म में किये गये कर्मों) का फल भोगता है। पृथ्वी पर मनुष्य अपने कर्मों का फल कभी नहीं त्यागते (अर्थात् कभी नहीं छोड़ सकते)। वे

        अपनी शक्ति या बुद्धि से उन्हें बदलने में सक्षम नहीं हैं। वे पुण्य कर्मों, दुखों और सुखों का आनंद लेते हैं। किसी कारण तक पहुंचकर (अर्थात् कारण से) मनुष्य सदैव अपने कर्मों के बंधन से बंधा रहता है। 

        जैसे हजारों गायों में से एक बछड़ा अपनी माँ को खोज लेता है, उसी प्रकार शुभ या अशुभ कर्मों का फल - जो 'भोग (या दुःख) के अलावा नष्ट नहीं होता है - अपने कर्ता के पीछे-पीछे जाता है। पूर्व जन्म में किये गये कर्म का फल कौन बदल सकता है? जो बहुत तेज दौड़ता है, उसके कर्म का फल भी उसका पीछा करता है। पूर्व जन्म के कर्मों का फल, जैसा कि किया गया था, सोने वाले के साथ सोता है। यह उसके साथ खड़ा रहता है जो खड़ा रहता है, और जो चलता है उसका अनुसरण करता है। जो कार्य करता है, उसके कर्म का फल; यह उसकी छाया की तरह उसका पीछा करता है।

        जिस प्रकार छाया और प्रकाश सदैव एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं, उसी प्रकार एक कार्य और उसके कर्ता आपस में जुड़े होते हैं। ग्रह, रोग, विषैले साँप, राक्षसियाँ [2] तथा राक्षस सबसे पहले अपने ही कर्मों से पीड़ित मनुष्य को कष्ट देते हैं।जिसे किसी स्थान पर सुख भोगना होता है या दुख भोगना होता है, वह वहां रस्सी से बंधा होता है, भाग्य उसे बलपूर्वक ले जाता है। सुख या दुख देने में भाग्य ही प्राणियों का स्वामी होता है। हे बुद्धिमान, जागते या सोते रहने से एक प्रकार से कर्म की कल्पना की जाती है और नियति उसे दूसरा मोड़ देकर नष्ट कर देती है। 

        यह उसकी रक्षा करता है जिसकी रक्षा की जानी चाहिए (अर्थात जिसकी वह रक्षा करना चाहता है) उसे हथियार, आग, जहर या कठिनाइयों से बचाता है। सचमुच जिसकी रक्षा नहीं की जा सकती, नियति इसी प्रकार उसकी रक्षा करती है।जो नियति द्वारा नष्ट कर दिया जाता है, उसकी रक्षा कभी नहीं की जा सकती। जैसे भूमि में बोए गए बीज और धन पहले (सुप्त) रहते हैं और (फिर) बढ़ते (सक्रिय) होते हैं, उसी प्रकार आत्मा में कर्म (अक्षुण्ण) रहते हैं और (फिर) सक्रिय हो जाते हैं। जैसे तेल के समाप्त हो जाने से अग्नि बुझ जाती है, उसी प्रकार कर्मों के फल के समाप्त हो जाने से जीव अपने शरीर से नाश को प्राप्त हो जाता है (अर्थात् चला जाता है); 

        क्योंकि जो लोग सत्य को जानते हैं वे कहते हैं कि मृत्यु (किसी के) कर्मों के (फलों की) समाप्ति के कारण होती है। उसकी मृत्यु का कारण विभिन्न जीव-जंतु और रोग हैं। 'इस प्रकार यह मेरे पूर्व अस्तित्व के कर्मों का पकना है। यह अन्यथा नहीं है. यह (अब) निश्चित रूप से इस महिला के रूप में (मेरे पास) आया है; इसके बारे में कोई संदेह नहीं है। अभिनेताओं, नर्तकों और बार्डों को मेरे घर आना पड़ता था; उनके सम्पर्क से मेरे शरीर में बुढ़ापा आ गया है। मेरा मानना ​​है कि सब कुछ (अर्थात्) किसी के (पूर्व अस्तित्व में) कर्मों के कारण होता है, क्योंकि यह (अब) निश्चित रूप से उत्पन्न हो चुका है।

        68 (क). इसलिये कर्म ही प्रधान हैं; प्रयास बेकार हैं.

        68 (ख)-74. पूर्वकाल में देवताओं के राजा ने मुझे (स्वर्ग में) ले जाने के लिए मातलि नामक सर्वश्रेष्ठ दूत भेजा था । मैंने उनकी बात (अर्थात जो उन्होंने मुझसे कहा था) वैसा नहीं किया। अब मैं उन कर्मों का पकना देख रहा हूं।' वह (ययाति) इस प्रकार चिंता से भरा हुआ था, और महान दुःख से उबर गया था। (उसने सोचा:) 'यदि मैं ख़ुशी से वह नहीं करूँगा जो वह कहती है, तो सत्यता और धर्मपरायणता दोनों चली जाएँगी (अर्थात नष्ट हो जाएँ); इसके बारे में कोई संदेह नहीं है। मेरे कर्मों के अनुसार जो निश्चय हुआ वह आ गया; (जो पूर्वनिर्धारित है) अवश्य घटित होगा। नियति पर विजय पाना कठिन है।' पृथ्वी के स्वामी ययाति इस प्रकार विचार में लीन थे।उन्होंने संकट हरने वाले कृष्ण , हरि की शरण मांगी , उनका ध्यान करके, उन्हें नमस्कार किया और उनकी स्तुति की: 'हे आप जिन्हें लक्ष्मी प्रिय हैं, मेरी रक्षा करें जिन्होंने आपकी शरण ली है।'

        संदर्भ: टिप्पड़ी

        [1] :"कर्मदायादिवाणोके" संभवतः एक भ्रष्ट वाचन है। (ईडी।)

        [2] :साकिनी - एक प्रकार की महिला, दुर्गा की परिचरिका को राक्षसी या परी माना जाता है।

        _____________________________

          पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डःअध्याय-82 नीचे देखे-)


                      "सुकर्मोवाच-
        एवं चिंतयते यावद्राजा परमधार्मिकः ।
        तावत्प्रोवाच सा देवी रतिपुत्री वरानना ।१।

        किमु चिंतयसे राजंस्त्वमिहैव महामते ।
        प्रायेणापि स्त्रियः सर्वाश्चपलाः स्युर्न संशयः ।२।

        नाहं चापल्यभावेन त्वामेवं प्रविचालये ।
        नाहं हि कारयाम्यद्य भवत्पार्श्वं नृपोत्तम ।३।

        अन्यस्त्रियो यथा लोके चपलत्वाद्वदंति च ।
        अकार्यं राजराजेंद्र लोभान्मोहाच्च लंपटाः ।४।

        लोकानां दर्शनायैव जाता श्रद्धा ममोरसि ।
        देवानां दर्शनं पुण्यं दुर्लभं हि सुमानुषैः ।५।

        तेषां च दर्शनं राजन्कारयामि वदस्व मे ।
        दोषं पापकरं यत्तु मत्संगादिह चेद्भवेत् ।६।

        एवं चिंतयसे दुःखं यथान्यः प्राकृतो जनः ।
        महाभयाद्यथाभीतो मोहगर्ते गतो यथा ।७।

        त्यज चिंतां महाराज न गंतव्यं त्वया दिवि ।
        येन ते जायते दुःखं तन्न कार्यं मया कदा ।८।

        एवमुक्तस्तथा राजा तामुवाच वराननाम् ।
        चिंतितं यन्मया देवि तच्छृणुष्व हि सांप्रतम् ।९।

        मानभंगो मया दृष्टो नैव स्वस्य मनःप्रिये ।
        मयि स्वर्गं गते कांते प्रजा दीना भविष्यति।१०।

        त्रासयिष्यति दुष्टात्मा यमस्तु व्याधिभिः प्रजाः।
        त्वया सार्धं प्रयास्यामि स्वर्गलोकं वरानने ।११।

        एवमाभाष्य तां राजा समाहूय सुतोत्तमम् ।
        पूरुं तं सर्वधर्मज्ञं जरायुक्तं महामतिम् ।१२।

        एह्येहि सर्वधर्मज्ञ धर्मं जानासि निश्चितम् ।
        ममाज्ञया हि धर्मात्मन्धर्मः संपालितस्त्वया ।१३।

        जरा मे दीयतां तात तारुण्यं गृह्यतां पुनः ।
        राज्यं कुरु ममेदं त्वं सकोशबलवाहनम् ।१४।

        आसमुद्रां प्रभुंक्ष्व त्वं रत्नपूर्णां वसुंधराम् ।
        मया दत्तां महाभाग सग्रामवनपत्तनाम् ।१५।

        प्रजानां पालनं पुण्यं कर्तव्यं च सदानघ ।
        दुष्टानां शासनं नित्यं साधूनां परिपालनम् ।१६।

        कर्तव्यं च त्वया वत्स धर्मशास्त्रप्रमाणतः ।
        ब्राह्मणानां महाभाग विधिनापि स्वकर्मणा ।१७।

        भक्त्या च पालनं कार्यं यस्मात्पूज्या जगत्त्रये।
        पंचमे सप्तमे घस्रे कोशं पश्य विपश्चितः।१८।

        बलं च नित्यं संपूज्यं प्रसादधनभोजनैः ।
        चारचक्षुर्भवस्व त्वं नित्यं दानपरो भव ।१९।

        भव स्वनियतो मंत्रे सदा गोप्यः सुपंडितैः ।
        नियतात्मा भव स्वत्वं मा गच्छ मृगयां सुत।२०।

        विश्वासः कस्य नो कार्यः स्त्रीषु कोशे महाबले ।
        पात्राणां त्वं तु सर्वेषां कलानां कुरु संग्रहम्।२१।

        यज यज्ञैर्हृषीकेशं पुण्यात्मा भव सर्वदा ।
        प्रजानां कंटकान्सर्वान्मर्दयस्व दिने दिने ।२२।

        प्रजानां वांछितं सर्वमर्पयस्व दिने दिने ।
        प्रजासौख्यं प्रकर्तव्यं प्रजाः पोषय पुत्रक।२३।

        स्वको वंशः प्रकर्तव्यः परदारेषु मा कृथाः।
        मतिं दुष्टां परस्वेषु पूर्वानन्वेहि सर्वदा ।२४।

        वेदानां हि सदा चिंता शास्त्राणां हि च सर्वदा।
        कुरुष्वैवं सदा वत्स शस्त्राभ्यासरतो भव।२५।

        संतुष्टः सर्वदा वत्स स्वशय्या निरतो भव ।
        गजस्य वाजिनोभ्यासं स्यंदनस्य च सर्वदा ।२६।

        एवमादिश्य तं पुत्रमाशीर्भिरभिनंद्य च ।
        स्वहस्तेन च संस्थाप्य करे दत्तं स्वमायुधम् ।२७।

        स्वां जरां तु समागृह्य दत्त्वा तारुण्यमस्य च ।
        गंतुकामस्ततः स्वर्गं ययातिः पृथिवीपतिः ।२८।

        अध्याय 82 - ययाति ने अपना बुढ़ापा वापस ले लिया

        सुकर्मन ने कहा :

        1-8. जब राजा इस प्रकार सोच में डूबे हुए थे, तब रति की सुंदर पुत्री ने कहा: "हे अत्यंत बुद्धिमान राजा, आप अभी क्या सोच रहे हैं? इसमें कोई शक नहीं कि ज्यादातर महिलाएं चंचल होती हैं। मैं तुम्हें चंचलता से दूर नहीं ले जा रहा हूँ। हे श्रेष्ठ राजा, मैं आज किसी कपटपूर्ण उपाय का उपयोग नहीं कर रही हूं, (बोलकर) जैसा कि अन्य लालची महिलाएं बोलती हैं, कुछ ऐसा जो लालच और भ्रम के माध्यम से नहीं किया जा सकता है। मेरे हृदय में समस्त लोकों को देखने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हो गई है।देवताओं का दर्शन पुण्यदायी है और सज्जनों को भी प्राप्त होना अत्यंत कठिन है। 

        हे राजा, मुझसे कहो कि तुम मुझे देवताओं के दर्शन कराओगे।दूसरे साधारण मनुष्य की भाँति महान् दुःख से भयभीत होकर मोह की खाई में गिरे हुए आप यह सोच रहे हैं कि क्या अब मेरी संगति से कोई महान् पाप होगा। 

        अपनी चिंता छोड़ो; तुम्हें स्वर्ग नहीं जाना चाहिए. मैं ऐसा कभी नहीं करूंगी जिससे तुम्हें दुःख पहुंचे।”

        9-11. राजा ने (उसके द्वारा) संबोधित करते हुए, उस सुंदर महिला से कहा: “हे आदरणीय महिला, अब मैंने जो सोचा है उसे सुनो। मैं (यहाँ) अपना अपमान देखता हूँ, अपने मन की (संतुष्टि) नहीं देखता। हे प्रिय, जब मैं स्वर्ग जाऊंगा, तो मेरी प्रजा असहाय हो जाएगी। दुष्ट मन वाले यमराज मेरी प्रजा को रोगों से परेशान करेंगे। हे सुंदरी, तब  मैं तुम्हारे साथ स्वर्ग क्यों जाऊंगा।

        12-26. इस प्रकार उससे बात करके और अपने सबसे अच्छे बेटे पुरु को बुलाकर , जो वृद्ध और महान बुद्धि वाला था । राजा ने उससे कहा:) "चलो, हे पुरु! तुम जो सभी पारंपरिक अनुष्ठानों को जानते हो, तुम निश्चित रूप से अपना कर्तव्य जानते हो। हे धार्मिक विचारधारा वाले, तुमने मेरे आदेश से धर्मपरायणता बनाए रखी है। हे पुत्र, मुझे (मेरा) बुढ़ापा वापस दे दो, और (अपनी) जवानी वापस ले लो। धन, सेना और वाहनों सहित मेरे इस राज्य की रक्षा करो।

        मेरे द्वारा (तुम्हें) दी गयी रत्नों से भरी पृथ्वी का, गाँवों, वनों और नगरों सहित पालन कर जीवन व्यती करते हुए आनन्द उठाओ।

        हे निष्पाप, तुम्हें पुण्यदायी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए; पवित्र ग्रंथों के आधार पर तुम्हें हमेशा दुष्टों को दंडित करना चाहिए और अच्छे लोगों की रक्षा करनी चाहिए। हे गौरवशाली, आपको अपने कर्मों द्वारा भक्तिपूर्वक और नियमों के अनुसार ब्राह्मणों की रक्षा करनी चाहिए , क्योंकि वे तीनों लोकों में सम्मान के पात्र हैं। हर पांचवें या सातवें दिन खजाने का निरीक्षण करें और विद्वानों से मिलें।तुम्हें हमेशा अपनी सेना का समर्थन करके और उन्हें धन और भोजन देकर उनका सम्मान करना चाहिए। अपने गुप्तचरों को सदैव अपनी आँखें बनाकर काम में लो और सदैव परोपकार में लगे रहो। अपने परामर्श में हमेशा संयमित रहें, क्योंकि इसकी राज्य की रक्षा हमेशा बहुत बुद्धिमान लोगों द्वारा की जाती है। हे पुत्र, तू सदैव अपने ऊपर नियंत्रण रख; शिकार करने मत जाओ. किसी पर भी भरोसा मत करो - महिलाओं पर, खजाने पर या अपनी महान सेना पर भी। 

        सदैव योग्य व्यक्तियों और सभी कलाओं का संग्रह करें। यज्ञों से विष्णु की अवश्य पूजा करो 

        और सदैव सदाचारी रहो। प्रजा में उपद्रव फैलाने वाले स्रोतों को प्रतिदिन कुचल डालो। प्रतिदिन अपनी प्रजा को वह सब कुछ दो जो वह चाहती है। प्रजा को सुख दो, प्रजा का पालन करो, हे पुत्र ! अपने ही परिवार में (केवल एक महिला अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध) रखें; किसी और की पत्नी के साथ ऐसा न करें. दूसरे के धन के बारे में बुरा मत सोचो; सदैव अपने पूर्वजों का अनुसरण करो। 

        सदैव वेदों और पवित्र ग्रंथों का मनन करो; हे बालक, शस्त्र विद्या के अध्ययन में लग जाओ। हे वत्स!, सदैव सन्तुष्ट रहो और अपनी शय्या (अर्थात् पत्नी) के प्रति समर्पित रहो। सदैव हाथियों, घोड़ों और रथों का अध्ययन करो।”

        27-28. इस प्रकार अपने पुत्र को उपदेश देकर,और  आशीर्वाद देकर अभिनन्दन करके, अपने हाथ से उसे (सिंहासन पर बैठाकर) ययाति ने अपना दण्ड उसके हाथ में दे दिया।तब पृथ्वी के स्वामी ययाति ने (पुरु से) उसका बुढ़ापा वापस लेकर (अपनी जवानी) उसे दे दी और गोलोक( वैकुण्ठ का ऊपरी लोक) जाने की इच्छा की।

        अध्याय 83 - ययाति ने दिव्य लोकों का दौरा किया

        सुकर्मन ने कहा :-

        1-5. पृथ्वी के स्वामी ने ययाति ने सभी हिस्सों से सभी प्रजा को बुलाकर अत्यंत प्रसन्नता से कहा, "हे मेरी प्रजा में श्रेष्ठ लोगों सुनो! - ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र , मैं इस महिला के साथ जा रहा हूं।" इंद्र का स्वर्ग, ब्रह्मा का लोक, रुद्र का लोक और फिर विष्णु के वैकुण्ठ में, सभी पापों को नष्ट करके मोक्ष का कारण बनता है। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।

         (अपने) परिवार सहित (तुम) पृथ्वी पर सुखपूर्वक रहो। हे प्रजा, मैंने इस गौरवशाली और बुद्धिमान पुरु को आपका संरक्षक और राजदंडधारी राजा नियुक्त किया है।

        5-13. इस प्रकार संबोधित करते हुए, उन सभी विषयों में राजा से कहा: “हे श्रेष्ठ राजा, (अर्थात्) सभी वेदों और पुराणों में हम धर्म के बारे में सुनते हैं ; लेकिन जैसा कि हमने देखा, किसी ने भी धर्म को नहीं देखा, जैसा कि नहुष के महान घर में पैदा हुआ ययाति  (यानी आप), दस घटकों में से एक, चंद्र वंश में, सत्य से प्यार करने वाले, हाथ, पैर और चेहरे वाला, सभी (अच्छे) का प्रचार करने वाले अभ्यास, आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान से संपन्न, और धार्मिक गुणों का एक बड़ा खजाना, गुणों की खान और सत्य में कुशल, हे महान राजा आप हो।

        सत्यवादी और अत्यधिक तेजस्वी लोग महान गुणों का अभ्यास करते हैं। हमने आप में वह धर्म देखा है, जो वांछनीय रूप (या कामदेव के समान सुंदर), (हमारी) इच्छाओं को पूरा करने वाला और इतना सत्य बोलने वाला है। तीन प्रकार के कृत्यों (अर्थात शरीर, मन और वाणी) के साथ भी हम आपको त्यागने में असमर्थ हैं,।

        आप जहां भी जाएंगे, हम खुशी से और सहमति से आप के साथ  जाएंगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम जहां रहोगे (अर्थात यदि तुम नरक में रहोगे तो) हम नरक में ही होंगे। हे महान राजा, आपके बिना पत्नी, भोग या जीवन का क्या लाभ? हमारा उससे (अर्थात् पत्नी आदि) से कोई लेना-देना नहीं है। हे राजाओं के स्वामी ययाति, हम तो तेरे संग ही चलेंगे; यह अन्यथा नहीं होगा।”

        14-26. प्रजा की ये बातें सुनकर पृथ्वी के स्वामी ययाति ने अत्यंत प्रसन्नता से भरकर प्रजा से कहा, "हे सभी मेधावी लोगों, मेरे साथ आओ।" कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती को लेकर राजा रथ पर चढ़ गये। (वह) नहुष के पुत्र ययाति , देवताओं के स्वामी इंद्र की तरह चमकते थे, उनके रथ का रंग हंसों जैसा और चंद्रमा की कक्षा के समान था; 

        वह चाउरी और प्रशंसकों द्वारा प्रशंसित होने के संकट से मुक्त था (जैसा कि वह था); वह भी उस भाग्यशाली, शुभ और महान ध्वजा से चमक उठा। 

        ऋषि-मुनियों, पंडितों और गायकों के साथ-साथ उनकी प्रजा भी उनकी प्रशंसा करती थी। तब उसकी सारी प्रजा वाहनों में सवार होकर मनुष्यों के स्वामी के पास पहुंची; और वे हाथियों और घोड़ों के साथ (अर्थात् उन पर चढ़कर) वैकुण्ठ की ओर चले गए।

        वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्य सामान्य लोग थे। वे सभी विष्णु के अनुयायी थे और विष्णु के ध्यान में लीन थे । उनके झण्डे श्वेत थे और सुनहरी डंडियों से सुशोभित थे। (वह सभी एक वर्ण वैष्णव के लोग हो गये)

        सभी पर शंख और चक्र अंकित थे और उनके पास दण्ड और ध्वज थे। हवा से प्रेरित बैनर प्रजा की भीड़ के बीच चमक उठे। सभी (प्रजा) ने दिव्य मालाएँ पहन रखी थीं और तुलसी के पत्तों से सुशोभित थे। उनके शरीर पर दिव्य चंदन और (दिव्य काले देवदारु और चन्दन) की लकड़ी का लेप लगाया गया था। वे दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित थे और दिव्य आभूषणों से अलंकृत थे। वे सभी सुन्दर लोग राजा के पीछे चलने लगे। सारी प्रजा - हजारों, सैकड़ों, लाखों और करोड़ों की संख्या में लोग , और अरव , खर्व (अर्थात् 10,000,000,000) जैसी बहुत बड़ी संख्या में लोग (राजा के साथ) चले गए। वे सभी, विष्णु के अनुयायी, मेधावी कार्य करते हुए, विष्णु के ध्यान में, पवित्र नामों के जाप में और दान में राजा के साथ चले गए।

        सुकर्मन ने कहा :

        26-30. हे महान राजा, वे सभी बड़े हर्ष से भरे हुए (राजा के साथ) आगे बढ़े, अपने पुत्र पुरु को अपने सिंहासन पर बैठाया, जिससे पृथ्वी के स्वामी ययाति विष्णु के लोक में चले गए। उनके तेज, धार्मिक गुण और धर्मपरायणता के कारण वे सभी लोग विष्णु के सर्वोत्तम लोक वैकुण्ठ ( गोलोक) में चले गये। तब देवताओं के राजा के साथ, गंधर्वों , किन्नरों और भांडों के साथ देवता उनके सामने आए (उनका स्वागत करने के लिए), हे श्रेष्ठ राजा, उन राजाओं का सम्मान करते हुए।

        इंद्र ने कहा :

        30. हे महान राजा, आपका स्वागत है। मेरे घर में प्रवेश करो.

        31. यहां अपनी इच्छानुसार सभी दिव्य सुखों का आनंद उठायें।

        राजा ने कहा :

        31-40. हे सहस्र नेत्रों वाले, अत्यंत बुद्धिमान भगवान, मैं आपके कमल-सदृश चरणों को नमस्कार कर रहा हूँ। फिर मैं ब्रह्मा के लोक में जाऊंगा।

        देवताओं द्वारा प्रशंसा किये जाने पर वह ब्रह्मा के लोक में चला गया। अत्यंत तेजस्वी ब्रह्मा ने उत्कृष्ट ऋषियों के साथ उनके पैर धोने के लिए जल, आदरपूर्वक प्रसाद और उत्कृष्ट आसन देकर उनका आतिथ्य सत्कार किया; (और) उससे कहा: "अपने कर्मों के बल से विष्णु के वैकुण्ठ में जाओ।" विधाता के इस प्रकार कहने पर वह शिव के घर गया। उमा (अर्थात पार्वती ) के साथ शिव ने उसी राजा का आतिथ्य सत्कार किया और राजा से ये शब्द कहे:

        "कृष्णभक्तोसि राजेंद्र ममापि सुप्रियो भवान् ।
        ततो ययाते राजेंद्र वस त्वं मम मंदिरम्।३६।

        सर्वान्भोगान्प्रभुंक्ष्व त्वं दुःखप्राप्यान्हि मानुषैः ।
        अंतरं नास्ति राजेंद्र मम विष्णोर्न संशयः।३७।

        अनुवाद:-

        हे राजाओं के राजा, आप कृष्ण के भक्त हैं , आप मुझे भी बहुत प्रिय हैं; इसलिए, हे राजाओं के स्वामी ययाति, मेरे लोक में रहो। उन सभी सुखों का आनंद लें जो मनुष्य को प्राप्त करना कठिन है।

        हे राजाओं के स्वामी, विष्णु और मुझमें निश्चित रूप से कोई अंतर नहीं है।

        इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो विष्णु का रूप है वह शिव है, और हे राजा, जो शिव है वह प्राचीन विष्णु है। दोनों में कोई अंतर नहीं है. इसलिये मैं ही (इस प्रकार) बोलता हूँ। मैं विष्णु के एक मेधावी भक्त को (अपने निवास में) स्थान देता हूं। इसलिए, हे निर्दोष महान राजा, आपको यहीं रहना चाहिए।

        40-43. शिव द्वारा इस प्रकार संबोधित किए जाने पर, विष्णु के प्रिय ययाति ने, भक्ति में अपनी गर्दन (अर्थात सिर) झुकाकर, देवताओं के स्वामी शिव को नमस्कार किया, (और उनसे कहा:) "हे महान भगवान, आपने जो कुछ भी कहा है वह उचित है . आप दोनों में कोई अंतर नहीं है. यह दो भागों में विभाजित एक रूप है। मैं विष्णु के पास (वैकुण्ठ) जाने की इच्छा रखता हूँ; मैं आपके चरणों को नमस्कार करता हूँ।” “हे महान राजा, ऐसा ही हो; विष्णु के लोक  को जाओ।”

        43-65. (इस प्रकार) शिव द्वारा निर्देशित, पृथ्वी के स्वामी, विष्णु के बहुत मेधावी भक्तों के साथ, विष्णु के प्रिय राजा - उनके सामने नृत्य करते हुए (विष्णु के लोक की ओर) आगे बढ़े। वह महापापों का नाश करने वाले शंख-ध्वनि और सिंहों की बहुत सी दहाड़ें, बहुत सी (अन्य) ध्वनियों के साथ, अच्छे पंडितों द्वारा पूजे जाने वाले, (उनकी स्तुति) शास्त्रों में कुशल पाठकों द्वारा मधुर स्वर में गाए जाने पर, (आगे बढ़ गए) गाने में उत्सुकता से लगे गंधर्वों ने उनके सामने गाना गाया। ऋषि-मुनियों के साथ-साथ देवताओं की टोली भी उनकी स्तुति कर रही थी। नहुष के उस पुत्र की सेवा सुंदर दिव्य युवतियाँ कर रही थीं। उस महान राजा की प्रशंसा मेधावी और शुभ गंधर्वों, किन्नरों, सिद्धों , साधुओं, साध्यों , विद्याधरों , मरुतों और वसुओं द्वारा की जाती है , साथ ही रुद्र और आदित्यों के समूहों द्वारा, और अभिभावकों और देवताओं द्वारा, और तीनों लोकों द्वारा की जाती है। चारों ओर, विष्णु का अतुलनीय और कुण्ठा रहित लोक वैकुण्ठ( गोलोक) देखा। हे राजा, वह उत्कृष्ट और सर्वश्रेष्ठ नगर स्वर्णिम,  दिव्य यानों  से चमक रहा था, सभी सुंदरता से भरा हुआ था, सौ मंजिला हवेली थी जिसमें हंस, कुंड  (फूल) या चंद्रमा की तरह सफेद महालय( महल) थे, और मेरु और मंदार के समान थे। वे पर्वत जिनकी चोटियाँ स्वर्ग और आकाश को छूती थीं, और जिनके शिखरों पर चमकीले सुनहरे घड़े थे।वह बहुत से तारों वाले आकाश के समान तेज से चमका; धधकती हुई चमक की लपटों के साथ वह मानो आँखों से देख रहा था। हे राजाओं के देव, उस शिव के लोक ने, अनेक रत्नों से युक्त, हँसते हुए दाँत दिखाते हुए, और पत्ते उछालते हुए ध्वज के बहाने, विष्णु के प्रिय, मेधावी भक्तों को आमंत्रित किया। 

        वह हर जगह हवा से उछाले गए आकर्षक बैनरों के शीर्षों, सुनहरे डंडों और घंटियों से सुशोभित था। वह सूर्य की चमक के समान (उज्ज्वल) दिखने वाले द्वारों और निगरानी टावरों से चमक रहा था, सुंदर गोल खिड़कियों, जाली की पंक्तियों और चौड़े मार्गों की चमक वाली खिड़कियों, और सुनहरे प्राचीरों, मेहराबों, अच्छे बैनरों और कई बहुत ही शुभ ध्वनियों के साथ, घड़ों के शीर्षों से युक्त, दर्पण जैसा चक्र जो चमक में सूर्य के गोले के समान होता है, महान शोभा के साथ, पानी से रहित बादलों के समान सैकड़ों निजी कक्षों के साथ, कर्मचारियों और छतरियों और घड़ों से भरे हुए, बरसात के मौसम में बादलों के समान कक्षों के साथ, और (इतने सारे) घड़ों से पृथ्वी ऐसी दिखाई देती थी, मानो आकाश तारों से भरा हो।विष्णु की नगरी बहुत से तारों के समान चमक वाली, शंख या चंद्रमा के समान दिखने वाली, स्फटिक की वस्तुओं के आकार की, शंख या चंद्रमा के समान चमकने वाली, बहुत सी धातुओं से बने सोने के महलों और  की भीड़ के साथ, बहुत सारी छड़ियों और बैनरों से सुंदर लग रही थी, दस करोड़ और हज़ारों करोड़ों की संख्या में दिव्य विमानो के साथ; और सभी आनंद के साथ. वे मनुष्य, विष्णु के भक्त, धार्मिक कर्मों वाले और अपने सभी पापों को धोकर, उनकी कृपा से उन घरों में रहते हैं, जो पूरी तरह से मेधावी, दिव्य और सभी सुखों से समृद्ध हैं।

        65-75. विष्णु का लोक इस प्रकार की उत्कृष्ट (वस्तुओं) से सुशोभित था। वह सर्वत्र नाना प्रकार के वृक्षों से भरा हुआ था, चंदन के वृक्षों से सुशोभित था, सभी वांछित फलों से युक्त था। यह कुओं, तालाबों और सारस से सुशोभित झीलों से चमकता था, उसी प्रकार हंसों और बत्तखों से भरी झीलों से भी, सफेद कमलों से सुशोभित, (अन्य) कमल, बड़े सफेद कमल, (अन्य प्रकार के) कमल और नीले कमल, और (अन्य) से सुशोभित था। ) सुनहरे कमल के समान रंग वाला (अर्थात् सदृश)। वैकुण्ठ (अर्थात विष्णु का लोक) सभी सौंदर्य से समृद्ध था, दिव्य उद्यानों से सुशोभित था, दिव्य आकर्षण से भरा था और विष्णु के भक्तों से सुशोभित था। राजा ने (यह) वैकुण्ठ, मोक्ष का अतुलनीय स्थान देखा। नहुष के पुत्र ययाति ने देवताओं की सेना से भरे हुए और किसी भी प्रकार के भयंकर तीव्र ताप  से मुक्त उस सुंदर शहर में प्रवेश किया। उसने देखा कि विष्णु, सभी कष्टों का नाश करने वाले, किसी भी क्षति से मुक्त, दिव्य विमानो से चमकने वाले, सभी आभूषणों से देदीप्यमान, पीले वस्त्र पहने हुए, श्रीवत्स से चिह्नित , और बहुत चमकदार, श्री के साथ गरुड़ पर चढ़े हुए , सर्वोच्च से भी ऊंचे , - सर्वोच्च देवता, सभी संसारों के आश्रय, (जो) सर्वोच्च आनंद के रूप में पूर्ण वैराग्य के साथ चमकते थे, और विष्णु के महान, बहुत मेधावी भक्तों द्वारा उनकी सेवा की जा रही थी।

        76-79. पृथ्वी के स्वामी ने, अपनी पत्नी के साथ, नारायण (अर्थात विष्णु) को नमस्कार किया, जो देवताओं के समूह से भरे हुए थे, गंधर्वों और दिव्य अप्सराओं के समूहों द्वारा प्रतीक्षा कर रहे थे, जो उदार थे और जिन्होंने सभी कष्टों को दूर कर दिया था। राजा के साथ गए विष्णु के सभी भक्तों ने विष्णु को नमस्कार किया, हे परम बुद्धिमान! हे अत्यंत बुद्धिमान, उन्होंने भक्तिपूर्वक उनके दोनों चरणों को नमस्कार किया। विष्णु ने उस तेजस्वी राजा से कहा, जो तेज से चमक रहा था और जो उसे नमस्कार कर रहा था: “हे अच्छे व्रत वाले, मैं तुमसे प्रसन्न हूं। हे राजाओं के स्वामी, जो वरदान तुम्हारे मन में हो, वह माँग लो; मैं इसे तुम्हें अवश्य प्रदान करूंगा। तुम मेरे भक्त हो, हे अत्यंत बुद्धिमान ययाति।”

        राजा ने कहा :

        80. हे मधुसूदन , हे देवताओं के स्वामी, यदि आप प्रसन्न हैं, तो हे लोकों के स्वामी, मुझे सदैव अपनी दासता प्रदान करें (अर्थात मुझे अपना दास बना लें)।

        विष्णु ने कहा :

        81-83. हे गौरवशाली, ऐसा ही हो; तुम निःसंदेह मेरे भक्त हो; हे महान राजा, इस महिला के साथ आप मेरे वैकुण्ठ अथवा गोलोक में रह सकते हैं।

        पृथ्वी के स्वामी, महान राजा ययाति, इस प्रकार संबोधित करते हुए, उस भगवान की कृपा से, विष्णु के उत्कृष्ट वैकुण्ठ में रहते थे, जो सुशोभित था।


        पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-80)

        "कामकन्यां यदा राजा उपयेमे द्विजोत्तम।
        किं चक्राते तदा ते द्वे पूर्वभार्ये सुपुण्यके।१।

        "अनुवाद- जब राजा ययाति नें कामदेव की पुत्री के साथ विवाह कर लिया; तब राजा की पहले वाली दोनों पत्नियों ने क्या किया।१।

        देवयानी महाभागा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
        तयोश्चरित्रं तत्सर्वं कथयस्व ममाग्रतः।२।

        "अनुवाद- महाभागा देवयानी और शर्मिष्ठा उन  दोंनो का सब आचरण ( कर्म) मेरे समक्ष कहो।२।

                       "सुकर्मोवाच-
        यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा ।
        अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।३।

        "अनुवाद- सुकर्मा ने कहा :- महाराज ययाति जब कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती को  अपने घर लाये तो मनस्विनी देवयानी ने उस अश्रुबिन्दुमती के साथ अत्यधिक स्पर्धा ( होड़) की।३।

        तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
        शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।४।

        "अनुवाद- इस कारण से राजा ययाति नें क्रोध से व्याकुल मन होकर देवयानी से उत्पन्न अपने दोनों  यदु और तुर्वसु नामक पुत्रों को शाप दे दिया। तब शर्मिष्ठा को बुलाकर यशस्विनी देवयानी नें राजा द्वारा दिए गये शाप की सब बातें कहीं।४।

        रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
        शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।

        "अनुवाद- रूप तेज दान सत्यता , और पुण्य के द्वारा शर्मिष्ठा और देवयानी दोंनो ने उस ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती के साथ स्पर्धा( होड़ )की।५।

        दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
        राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।

        "अनुवाद-   तब कामदेव की पुत्री राजा की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती ने देवयानी और शर्मिष्ठा का वह स्पर्धा वाला दूषितभाव जान लिया और राजा ययाति को सब उसी समय बता दिया।६।

        ****
        अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
        शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।७।

        "अनुवाद-  उसके बाद राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बुलाकर कहा। हे यदु तुम जाकर शर्मिष्ठा और देवयानी दोंनो को मार दो।७।

        सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
        एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा ।८।

        "अनुवाद-  हे वत्स !  मेरा यह प्रिय कार्य करो यदि तुम इसे सही मानते हो तो, यदु ने इस प्रकार ययाति की ये बातें सुनकर  ।८।

        प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
        नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।९।

        "अनुवाद- राजा ययाति उस अपने पिता को उत्तर दिया , हे माननीय पिता जी मैं इन दोंनो निर्दोष  माता ओं का बध नहीं करुँगा।९।

        मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
        तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।१०।

        "अनुवाद- वेद के जानने वाले विद्वानों ने माता को मारने का महापाप बताया है। हे महाराज  इस लिए मैं इन दोंनो मीताओं का बध नहीं करुँगा।१०।

        दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत् ।
        भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।११।

        "अनुवाद- माता ,बहिन और पुत्री यदि हजारों दोषों से युक्त हो तो भी हे महाराज!।११।

        पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
        एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।१२।

        "अनुवाद-  वह पुत्र भाई तथा पिता आदि के द्वारा कभी भी वध करने योग्य नहीं है। इस प्रकार यह सब जानकर मैं अपनी इन दोंनो माताओं का वध नहीं कर सकता हूँ।

        यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह ।
        शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।१३।

        "अनुवाद- यदु की यह बात सुनकर राजा क्रोधित होगया। और इसके बाद ययाति ने यदु को शाप दे दिया।१३।

        यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि ।
        मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः।१४।

        "अनुवाद- तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है। इस कारण तुम पापी हो इस लिए मेरे शाप के कारण पापी बने हुए तुम अपनी माता के अँश को ही प्राप्त करो।१४।

        एवमुक्त्वा यदुं पुत्रं ययातिः पृथिवीपतिः ।
        पुत्रं शप्त्वा महाराजस्तया सार्द्धं महायशाः।१५।

        "अनुवाद-  इस प्रकार कह कर पृथ्वीपति ययाति पुत्र यदु को शाप देकर अपनी तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती के साथ वहाँ से चले गये।१५।

        रमते सुखभोगेन विष्णोर्ध्याने न तत्परः ।
        अश्रुबिन्दुमतीसा च तेन सार्द्धं सुलोचना।१६।

        अनुवाद-  सुन्दर नेत्रों वाली अश्रुबिन्दुमती के साथ सुखभोग के द्वारा आनन्दित होने पर राजा भगवान विष्णु के ध्यान में भी तत्पर नहीं रह सके।१६।

        बुभुजे चारुसर्वांगी पुण्यान्भोगान्मनोनुगान् ।
        एवं कालो गतस्तस्य ययातेस्तु महात्मनः।१७।

        अनुवाद-  सर्वांग सुन्दरी अश्रुबिन्दुमती ने मन के अनुकूल सभी पुण्यमयी -भोगों का भोग करती  ,इस तरह महान आत्मा राजा ययाति का बहुत समय व्यतीत हुआ।१७।

        अक्षया निर्जराः सर्वा अपरास्तु प्रजास्तथा ।
        सर्वे लोका महाभाग विष्णुध्यानपरायणाः।१८।

        अनुवाद-  विनाश और बुढापे से रहित उनकी अन्य प्रजाऐं आदि सभी लोग भगवान विष्ण के ध्यान में लगे रहते थे।१८।

        तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पल ।
        सर्वे लोका महाभाग सुखिनः साधुसेवकाः।१९।

        सुकर्मा ने कहा- हे महाभाग पिप्पल! तपस्या ,सत्य भाव तथा भगवान विष्णु के ध्यान में लगे सभी लोग सुखी तथा साधु जनों के सेवक थे।१९।

        सन्दर्भ:-



        कोई टिप्पणी नहीं:

        एक टिप्पणी भेजें