यादवों का व्रज क्षेत्र की परिसीमा करौली का इतिहास---
धर्म्मपाल से लेकर अर्जुन पाल तक ----
प्रस्तुति-करण:-
यादव योगेश कुमार "रोहि"
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१-धर्म्मपाल
२-सिंहपाल
३-जगपाल
४- नरपाल
५-संग्रामपाल
६-कुन्तपाल
७-भौमपाल
८-सोचपाल
९-पोचपाल
१०-ब्रह्मपाल
११-जैतपाल ।
करौली का इतिहास प्रारम्भ होता है विजयपाल से ---
यह बारहवाँ पाल शासक था ---
1030 ई०सन् विजयपाल
१२- विजयपाल (1030)
१३- त्रिभुवनपाल(1000)
१४-धर्मपाल (1090)
१५- कुँवरपाल (1120)
१६-अजयपाल(1150)
१७-हरिपाल ( 1180)
१८-सुघड़पाल(1196)
१९- अनंगपाल(1120 )
२०- पृथ्वी पाल (1242)
२१- राजपाल (1264)
२२- त्रिलोकपाल(1284)
२३-विप्पलपाल(1330)
२४-गुगोलपाल(1352)
२५-अर्जुनपाल(1374)
२६- विक्रमपाल(1396)
२७-अभयन्द्रपाल (1418)
२८- पृथ्वी राज पाल (1440)
२९चन्द्रसेनपाल(1462)
३०-भारतीचन्द्रपाल(1484)
३१-गोपालदास (1506)
३२- द्वारिका दास(1528)
३३-मुकुन्ददास(1550)
३४- युगपाल(1572)
३५-तुलसीपाल (1894)
३६- धर्म्मपाल(1616)
३७-रतनपाल(1638)
३८-आरतीपाल ( 1860)
३९- अजयपाल(1682)
४०-रक्षपाल (1704)
४१-सुधाधरपाल( 1726 )
४२-कँवरपाल(1748 )
४३-श्रीगोपाल( 1770 )
४४-माणिक्यपाल( 1792 )
४५-अमोलपाल(1814 )
४६-हरिपाल ( 1836)
४७-मधुपाल (1856 )
४८-अर्जुन पाल (1879)
उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक अड़तालीस यदुवंशी पाल उपाधि धारक शासकों की शासन सत्ता रही व्रज क्षेत्र कि परिसीमा करौली रियासत में ---👇
करौली के ये शासक अपने नाम- के बाद पाल उपाधि लगाते थे ।
कुछ ने दास उपाधि को भी लगाया।
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दास शब्द और गोप शब्द ऋग्वेद के कई सन्दर्भों में यदु और तुर्वसु के लिए आया है ।
ऋग्वेद 10/62/10
उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च ।।ऋ०10/62/10
वस्तुत ये समग्र समीकरण मूलक प्रमाण अहीरों के पक्ष में हैं कि करौली के शासक स्वयं को पाल अथवा गोपाल या गोपोंं के रूप में ही प्रस्तुत करते हैं ।
प्राचीन काल में यादवों की एक शाखा कुकुर कहलाती थी । ये लोग अन्धक राजा के पुत्र कुकुर के वंशज माने जाते थे । भारतीय पुराणों में यादवों के कुछ कबीलाई नाम अधिक प्रसिद्ध रहे विशेषत: भरतपुर के जाटों , गुज्जर तथा व्रज क्षेत्र के अहीरों में । जैसे दाशार्ह से विकसित रूप देशबाल -दशवार , सात्वत शब्द से विकसित रूप - सावत सोत तथा सूद आदि , कम्बल से कम्बल तथा कमरिया रूप ---जो राजस्थान के भीलबाड़ा क्षेत्र से निर्गत हुए । ये सभीे शब्द कालान्तरण में हिन्दी की व्रज बोली में प्रचलन हुए। इसी प्रकार कुक्कुर शब्द से कुर्रा , कुर्रू ककुरुआ आदि रूपों का विकास हुआ । कुकुरो भजमानश्च शुचिः कम्बलबर्हिषः । “अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरोलभतात्मजान् कुकुरं भजमानं च शमं कम्बलबहिषम्” हरिवंश पुराण ३८ ये वस्तुत यादवों के कबीलागत विशेषण हैं । कुकुर एक प्रदेश था । जहाँ कुक्कुर जाति के यादव रहते थे ; यह प्रदेश राजपूताने के अन्तर्गत था ; जो कभी मत्स्य देश था । और कालान्तरण में उसके वंशजों द्वारा इसका पुन: नामकरण हुआ कुकुरावलि। कुकुर अवलि =कुकुरावलि --कुरावली---करौली _________________________
संस्कृत ग्रन्थों में कुकुर यादवों के विषय में पर्याप्त आख्यान परक विवरण प्राप्त होता है । कोश ग्रन्थों में इस शब्द की व्युत्पत्ति काल्पनिक रूप से इस प्रकार दर्शायी गयी है । जैसे कुम् पृथिवीं कुरति त्यजति स्वामित्वेन इति कुकुर इति कुकुर कथ्यते। अर्थात् दो स्वामित्व से द्वारा अपनी भूमि त्यागता है वह कुकुर है ।। अग्र प्रकरण में पुराणों से उद्धृत ये तथ्य अनुमोदक हैं ।👇 यदुवंशीयनृपभेदे तेषां ययातिशापात् राज्यं नास्तीति पुराणकथा । अर्थात् यदु के वंशज जिनके पूर्वज यदु ने ययाति के शाप से राज्य प्राप्त नहीं किया । “ कुकुरनृपश्चान्धकुकुरः भजमानशुचिकम्बलबर्हिषास्तथान्धकस्य पुत्राः” इति विष्णु पुराण। वारगाथा काल में नल्ह सिंह भाट द्वारा विजय पाल रासो के रचना की गयी । नल्हसिंह भाट कृत इस रचना के केवल '42' छन्द उपलब्ध है। विजयपाल, जिनके विषय में यह रासो काव्य है, विजयगढ़, करौली के 'यादव' राजा थे। इनके आश्रित कवि के रुप में 'नल्ह सिंह' का नाम आता है। रचना की भाषा से यह ज्ञात होता है कि यह रचना 17 वीं शताब्दी से पूर्व की नहीं हो सकती है। और विजयपाल का समय 1030 के समकालिक है ।
अस्तु काल के प्रभाव से मथुरा को त्याग कर जब विजयपाल के वंशज सम्वत् 1052 में बयाने के पास बनी पहाड़ी की उपत्यका में ये जा बसे | क्यों कि बयाना वज्रायन शब्द का तद्भव रूप है । और वज्र कृष्ण के प्रपौत्र (नाती) थे । पुराणों में वज्रनाभ का वर्णन इस प्रकार है :- श्रीकृष्णप्रपौत्त्रः- यथा -“ अनिरुद्धात् सुभद्रायां वज्रो नाम नृपोऽभवत् । प्रतिबाहुर्वज्रसुतश्चारुस्तस्य सुतोऽभवत् ॥ “ इति गरुडपुराण १४४ अध्यायः ॥
अपि च “ प्रद्युम्न आसीत् प्रथमः पितृवद्रुक्मिणीसुतः ।
स रुक्मिणो दुहितरमुपयेमे महारथः ॥
तस्यां ततोऽनिरुद्धोऽभून्नागायुतबलान्वितः स चापि रुक्मिणः
पौत्त्रीं दौहित्रो जगृहे ततः ॥ वज्रस्तस्यामभूद्यस्तु मौषलादवशेषितः । प्रतिबाहुरभूत्तस्मात् सुबाहुस्तस्य चात्मजः ॥ “ इति श्रीभागवते १० स्कन्धे ९० अध्यायः । अर्थात् वज्र अनिरुद्ध और सुभद्रा नामक पत्नी से उत्पन्न थे । _________________________
परन्तु कुछ इतिहास कारों की अवधारणा है कि राजस्थान राज्य के भरतपुर ज़िले में स्थित एक महत्त्वपूर्ण नगर बयाना का नामकरण बाणपुर ये हुआ। कहा जाती है कि इस स्थान का प्राचीन नाम 'बाणपुर' था। इसके अतिरिक्त, इसके अन्य नाम 'वाराणसी', 'श्रीप्रस्थ' या 'श्रीपुर' भी उपलब्ध हैं। 'ऊखा मन्दिर' से प्राप्त 956 ई. के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि यहाँ का राजा उस समय लक्ष्मण सेन था। बयाना आगरा के निकट स्थित होने के कारण इतिहास में बहुत प्रसिद्ध रहा है। यहाँ से गुप्तकालीन सिक्के भी प्राप्त हुए हैं, जो यह साबित करते हैं कि यहाँ गुप्त शासकों का शासन भी रहा था। करौली उत्तर भारत के राजस्थान राज्य का प्रमुख नगर और करौली ज़िले का मुख्यालय है, जो पूर्व में करौली राज्य की राजधानी था। करौली कस्बे की स्थापना 1348 ई. में यादव वंश के राजा अर्जुनपाल ने की थी। इसका मूलत: नाम कल्याणपुरी था, जो कल्याणजी के मन्दिर के कारण प्रसिद्ध था। इसको भद्रावती नदी के किनारे होने के कारण 'भद्रावती नगरी' भी कहा जाता था। जनश्रुतियों के अनुसार इस राज्य का निर्माण 995 ईस्वी सन् में श्री कृष्ण के 88 वें वंशज राजा विजय पाल यादव द्वारा करवाया गया था। हालांकि आधिकारिक तौर पर करौली यदुवंशी, शासक राजा अर्जुनपाल द्वारा 1348 ई. में स्थापित किया गया। परन्तु इसके सूत्रधार विजयपाल ही थे । करौली जयपुर से 160 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ये ज़िला 5530 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। पूर्व में इस स्थान का नाम कल्याणपुरी था। यह नाम यहाँ की एक स्थानीय देवी कल्याणजी के नाम पर रखा गया था। करौली ऊंचे पहाड़ों से घिरा हुआ है राजा विजयपाल के पुत्र त्रिभुवनपाल ने त्रिभुवनगढ़ का किला बनवाया | त्रिभुवनपाल के पुत्र धर्मपाल (द्वितीय) और हरिपाल थे ; जिनका समय संवत् 1227 का है | कृष्ण जी के प्रपौत्र (नाती )वज्र को मथुरा का अधिपति बनाने का प्रसंग श्रीमद भागवत् के दशम स्कन्ध में आता है । यह पुराण बारहवीं सदी की रचना है । कहा जाता है की लगभग सातवीं शताब्दी के आस- पास सिन्ध से कुछ यदुवंशी मथुरा वापिस आ गए और उन्हों ने यह इलाका पुनः विजित कर लिया । इन राजाओं की वंशावली राजा धर्मपाल से शुरू होती है । जो की श्री कृष्ण 77 वीं पीढ़ी के वंशज थे । धर्म्मपाल के बाद बारहवाँ शासक विजयपाल पाल हुआ। जिसका समय 1030 ई०सन् है । भरतपुर के जाट इन्हें अपना पूर्वज मानते हैं । धर्म्मपाल के बाद पैंतालीसवाँ पाल शासक अर्जुन पाल हुआ ।ये सभी पाल शासक पाल उपाधि का ही प्रयोग करते थे ।
क्यों कि इनका विश्वास था कि हमारे पूर्व पुरुष यदु ने गोपालन की वृत्ति को ही स्वीकार किया था ।
अतः पाल उपाधि गौश्चर गोप तथा अभीरों की आज तक है ।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के बासठ में सूक्त की दशवीं ऋचा में देखें-- उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च मामहे।।ऋ०10/62/10 यदु और तुर्वसु नामक दास ---जो गायों से घिरे हुए हैं। ---जो बड़े सौभाग्य की दृष्टि वाले हैं हम उनका प्रशंसा करते हैं । ---जो पहले चरावाहे थे वे कालान्तरण में कृषक हुए । और हिन्दुस्तान में जाट , गुज्जर और अहीरों से बड़ा कोई किशान नहीं ।। ऋ०10/62/10/ इतिहास का एक और समीकरण यह है कि पूर्वोत्तर के पाल वंश के सूत्र और करौली के सूत्र धार समान और एक ही थे ।👇 _________________________
धर्मपाल (७७०-८१० ई.)- गोपाल के बाद उसका पुत्र धर्मपाल ७७० ई. में सिंहासन पर बैठा।
धर्मपाल ने ४० वर्षों तक शासन किया।
धर्मपाल ने कन्नौज के लिए त्रिदलीय संघर्ष में उलझा रहा।
उसने कन्नौज की गद्दी से इंद्रायूध को हराकर चक्रायुध को आसीन किया। चक्रायुध को गद्दी पर बैठाने के बाद उसने एक भव्य दरबार का आयोजन किया तथा उत्तरापथ स्वामिन की उपाधि धारण की। धर्मपाल बौद्ध धर्मावलम्बी था। उसने काफी मठ व बौद्ध विहार बनवाये।
उसने भागलपुर जिले में स्थित विक्रमशिला विश्वविद्यालय का निर्माण करवाया था।
उसके देखभाल के लिए सौ गाँव दान में दिये थे।
उल्लेखनीय है कि प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय एवं राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने धर्मपाल को पराजित किया था। देवपाल (८१०-८५० ई.)- धर्मपाल के बाद उसका पुत्र देवपाल गद्दी पर बैठा। इसने अपने पिता के अनुसार विस्तारवादी नीति का अनुसरण किया।
इसी के शासनकाल में अरब यात्री सुलेमान आया था। उसने मुंगेर को अपनी राजधानी बनाई। उसने पूर्वोत्तर में प्राज्योतिषपुर, उत्तर में नेपाल, पूर्वी तट पर उड़ीसा तक विस्तार किया।
कन्नौज के संघर्ष में देवपाल ने भाग लिया था। उसके शासनकाल में दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे। उसने जावा के शासक बालपुत्रदेव के आग्रह पर नालन्दा में एक विहार की देखरेख के लिए ५ गाँव अनुदान में दिए।
वास्तव में धर्म पाल ब्राहमणों के प्रपञ्च को जानता था अतः वह बौद्धों के प्रति भी उदरवादी था । उसने ब्राह्मणों की वर्ण-बद्ध -जाति-व्यवस्था का कभी अनुमोदक नहीं किया ।
सौभाग्य से दौनों के पिता का नाम गोपाल ही था । _________________________
भागवत पुराण के दशम स्कन्ध में भी यही वर्णन है ।
कि यदुवंशी होने से कृष्ण राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ! परन्तु उग्रसेन पर भी यही नियम लागू होना चाहिए क्यों कि वे भी यदुवंशी थे । परन्तु कृष्ण पल ही यह क्यों लागू हुई ? असंगत बात है ✊✊✊ _________________________________________
पहाड़ों पर बसने वाले डोगरा जन-जाति में भी इन यादवों की कई खांपें मिली हुई हैं ।
वस्तुत डोगर और ढिढोर परस्पर विकसित शब्द हैं । ढिढोर कबीले को अहीर से सम्बद्ध हैं ढढोर ' यदुवंशी अहीरों की एक प्रसिद्ध गोत्र है जिनका निर्गमन राजस्थान के प्रसिद्ध ढूण्ढार क्षेत्र से हुआ है।
करौली के संस्थापक कुकुर यादवों की शाखा के ही लोग थे ; यद्यपि ये लोग चरावाहों की परम्पराओं का निर्वहन यदु के द्वारा स्थापित होने से करते थे । क्यों कि यदु ने कभी भी राज्य स्वीकार नहीं किया ।
वे गोप थे और हमेशा गायों से घिरे रहते थे ।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के 62 वें सूक्त की दशवीं ऋचा में देखें-- " उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च मामहे ।।ऋ०10/62/10 इतिहास लेखक डॉ मोहन लाल गुप्ता के अनुसार करौली के यदुवंशी अपने नाम-के बाद सिंह विशेषण न लगाकर पाल विशेषण लगाते थे क्यों कि ये स्वयं को गोपाल , गोप , तथा आभीर , गौश्चर मानते और बंगाल का पाल वंश भी इन्हीं से सम्बद्ध है ।
भारतीय इतिहास में जादौन ठाकुरों की बात की जाय तो ये स्वयं को पाल अथवा गोपाल या कहें की गोप मानने के पक्ष में कभी नहीं हैं ।
जबकि धर्म पाल विजयपाल तथा अठारहवीं सदी के अर्जुन पाल को अपना पूर्वज बतातें हैं ।
और गोपोंं अथवा अहीरों को तो विदेशी या शूद्र कहकर अपमानित करते रहते हैं धर्म्मपाल स्वयं कृष्ण की 77 वीं पीढ़ी के वंशज हैं ।
---जो स्वयं कृष्ण के गोपालक स्वरूप के उपासक थे । और स्वयं को गोप अथवा पाल ही मानते थे । इनके वंशजों द्वारा कभी भी सिंह अथवा ठाकुर उपाधि नहीं लगायी गयी । हाँ ठाकुर उपाधि का प्रचलन बारहवीं सदी में तुर्को के द्वारा व्यवहृत तक्वुर रूप से हुआ। क्यों कि ठाकुर संस्कृत भाषा का शब्द नहीं है । _________________________
और भारत में जादौन ठाकुर तो जादौन पठानों का छठी सदी में हुआ क्षत्रिय करण रूप है क्योंकि अफगानिस्तान अथवा सिन्धु नदी के मुअाने पर बसे हुए जादौन पठानों का सामन्तीय अथवा जमीदारीय खिताब था तक्वुर जो भारतीय भाषाओं में ठक्कुर - ठाकुर ,टैंगॉर तथा ठाकरे रूपों में प्रकाशित हुआ।
जमीदारी खिताबो के तौर पर भारत में इस शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए सबसे पहले हुआ ---जो तुर्की काल में जागीरों के या भू-खण्डों के मालिक थे । उस समय पश्चिमीय एशिया तथा भारतीय प्राय द्वीप में इस्लामीय विचार धाराओं का भी आग़ाज (प्रारम्भ) नहीं हुआ था। उसके लगभग एक शतक बाद ई०सन् 712 में मौहम्मद बिन-काशिम अरब़ से चल कर ईरान में होता हुआ भारत में सिन्धु के मुहाने पर उपस्थित होता है। उस समय जादौन पठानों के कबीलों में अपने रुतबे का इज़हार करने के लिए सामन्तीय अथवा जमीदारीय खिताब के रूप में तक्वुर( tekvur) शब्द का प्रचलन था तब जादौन पठान ईरानी एवं यहूदी विचार धारा से ओत-प्रोत थे । सर्वत्र ईसाई विचार धारा का बोल-बाला था । यहाँ ठाकुर शब्द की व्युत्पत्ति पर एक प्रमाण :- Origin and meaning of tekvur name.. The Turkish name, Tekfur Saray, means "Palace of the Sovereign" from the Persian word meaning "Wearer of the Crown". It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople. The top story was a vast throne room. The facade was decorated with heraldic symbols of the Palaiologan Imperial dynasty and it was originally called the House of the Porphyrogennetos - which means "born in the Purple Chamber". It was built for Constantine, third son of Michael VIII and dates between 1261 and From Middle Armenian թագւոր (tʿagwor), from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor). Attested in Ibn Bibi's works...... (Classical Persian) /tækˈwuɾ/ (Iranian Persian) /tækˈvoɾ/ تکور • (takvor) (plural تکورا__ن_ हिन्दी उच्चारण ठक्कुरन) (takvorân) or تکورها (takvor-hâ)) alternative form of Persian in Dehkhoda Dictionary.. _________________________ तुर्कों की कुछ शाखाऐं सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से यहाँ आकर बसीं। इससे पहले यहाँ से पश्चिम में आर्य (यवन, हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का बसाव रहा था।
यहाँ हर्षवर्धन (590-647 ई.) प्राचीन भारत में एक राजा था जिसने उत्तरी भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था। उसके राज्यविस्तार के पतन के बाद यहाँ विदेशीयों हूणों कुषाणों तथा तुर्कों एवं सीथियन (Scythian) जन-जातियाें का राजपूतीकरण हुआ ।
मंगोल तथा चीन के इतिहास में चाउ-हुन चीन के प्रथम राजनैतिक वंश और हूणों ( हुनों) का समायोजन रूप है ।
भारतीय इतिहास में सिन्धु और अफगानिस्तान के गादौन / जादौन पठानों की भी संख्या थी। ठाकुर शब्द के मूल रूप के विषय में हम आपको बताऐं!
कि तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर ) परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी।
बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द ही संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द के रूप में उदिय हुआ । संस्कृत शब्दकोशों में इसे ठक्कुर के रूप में लिखा गया है। कुछ समय तक ब्राह्मणों के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता रहा है । क्योंकि ब्राह्मण भी जागीरों के मालिक होते थे । जो उन्हें राजपूतों द्वारा दान रूप में मिलती थी। और आज भी गुजरात तथा पश्चिमीय बंगाल में ठाकुर ब्राह्मणों की ही उपाधि है।
तुर्की ,ईरानी अथवा आरमेनियन भाषाओ का तक्वुर शब्द एक जमींदारों की उपाधि थी समीप वर्ती उस्मान खलीफा के समय का हम इस सन्दर्भों में उल्लेख करते हैं। कि " जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे ; वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे " उसमान खलीफ का समय (644 - 656 ) ई०सन् के समकक्ष रहा है । भारत में यहाँ हर्षवर्धन का शासन तब क्षीण होता जा रहा था उस्मान को शिया लोग ख़लीफा नहीं मानते थे। सत्तर साल के तीसरे खलीफा उस्मान (644-656 राज्य करते रहे हैं) उनको एक धर्म प्रशासक के रूप में निर्वाचित किया गया था। उन्होंने राज्यविस्तार के लिए अपने पूर्ववर्ती शासकों- की नीति प्रदर्शन को जारी रखा ।
इन्हीं के मार्ग दर्शन में तुर्कों ने इस्लामीय मज़हब को स्वीकार किया। ठाकुर शब्द विशेषत तुर्की अथवा ईरानी संस्कृति में अफगानिस्तान के पठान जागीर-दारों में भी प्रचलित था पख़्तून लोक-मान्यता के अनुसार यही जादौन पठान जाति ‘बनी इस्राएल’ यानी यहूदी वंश की है। इस कथा की पृष्ठ-भूमि के अनुसार पश्चिमी एशिया में असीरियन साम्राज्य के समय पर लगभग 2800 साल पहले बनी-इस्राएल के दस कबीलों को देश -निकाला दे दिया गया था। और यही कबीले पख़्तून थे । मुग़ल काल में भी अकबर से लेकर अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र तक , हर मुग़ल शासक अकबर के बाद तक़रीबन सारे बादशाह राजपूत कन्याओ से ही पैदा हुए । - जहाँगीर , शाहजहाँ , औरंगजेब आदि i मुस्लिम काल में हजारों राजपूतो ने इस्लाम स्वीकार किया - जैसे- कायमखानी , खानजादे , मेव ,रांघड , चीता , मेहरात , राजस्थान के रावत जो फिर हिन्दू बन गए आदि सब राजपूत मुस्लमान ही तो है। और जादौन अफगानिस्तान मूल के ईरानी यहूदीयों का कबीला था ।
---जो सातवीं सदी के आसपास कुछ मुसलमान हो गये मणिकार अथवा पण्यचारी का व्यवसाय करने वाले मनिहार तथा बंजारे भी थे ।
---जो हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी अत: राजस्थान के बंजारा समाज में जादौन कबीला भी है । जिनका ऐैतिहासिक विवरण निम्न है :- As Follows (1) Dharawat (2)ghuglot (3)Badawat (4) Boda (5)Malod (6)Ajmera (7) Padya (8)Lakhavat (9) Nulawat... All the above Come under the jadon (jadhav) Sub-Group of the Charan Banjara also called as Gormati in the area. from the same area among the Labhana banjara the following clan are reported : 1- kesharot 2-dhirbashi 3- Gurga 4- Rusawat 5- Meghawat 6- khachkad 7-Pachoriya 8 Alwat 9- khasawat 10 bhokan 11- katakwal 12- Dhobda 13 Machlya 14 -khaseriya 15-Gozal 16- borya 17- Ramawat 18 Bhutiya 19 Bambholya 20 Rethiyo 21-Majawat the Rathor and jadon are Charan banjara are more common in the area Among the sonar Banjara clan names like medran are found but the type is rare. A Sub-Group by name Banjara (the drum -beater are also found in the pusad area having topical clan names like (1) Hivarle, ( 2) karkya (3)Failed (4) Shelar (5) kamble (6) Deopate (7) Dhawale. These clan names unlike the other given above Do not sound akin to Rajput clan names and are similar to those among the pardhan or other lower castes in the area who are traditionally enged in drum- beating at the time marriage or other ceremonies. it is likely that these lower castes were assimilated in the Banjara community as there drum-beater or the lowest in ranks among the Banjara adopted the function along with the clan names/surnames of the local lower castes engaged in the function. Rathod is also used as a clan name among the Gormati Banjaras which is very common another common surname is jadhav which sound akin the Maratha surname in Maharashtra. madren is a clan name reported from the Sonar Banjara.... हिन्दी अनुवाद:---निम्नलिखित के अनुसार (1) धारवत (2) घुह्लोट (3) बदावत (4) बोडा (5) मालोड (6) अजमेरा (7) पद्या (8) लखवत (9) नुलावत ... उपरोक्त सभी चरन बंजारा के जादौन (जाधव) उप-समूह के तहत आते हैं । जिन्हें क्षेत्र में गोर्मती भी कहा जाता है। लैबाना (लभाना) बंजारा के बीच एक ही क्षेत्र से निम्नलिखित कबीलों की सूचना दी गई है: 1- केशारोट 2-धीरबाशी 3- गुड़गा 4- रसवत 5- मेघावत 6- खचकड़ 7-पचोरिया 8 अलवत 9- खसावत 10 भोकन 11- कटकवाल 12- ढोबा 13 मच्छिया 14-चेकेसरिया 15-गोज़ल (गोयल) 16- बोर्य 17- रामावत 18 भूटिया 1 9 बंबोल्या 20 रेथियो 21-माजावत आदि.. राठौर और जादौन क्षेत्र में चारन बंजारा अधिक आम हैं सोनार बंजारा कबीले के नाम जैसे मेद्रान में पाए जाते हैं लेकिन यह प्रकार दुर्लभ है। बंजारा नाम से एक उप-समूह (ड्रम -बीटर नगाड़ा बजाने वाला ) पुसाड क्षेत्र में भी पाए जाते हैं ; जिसमें सामयिक कबीलों के नाम होते हैं (1) हिवरले, (2) करका (3) असफल (4) शेलर (शिलार) (5) कॉम्बले (6) द्योपेत ( 7) धवले। ऊपर दिए गए दूसरे के विपरीत ये कबीले नाम राजपूत कबीले के नामों की तरह नहीं लगते हैं और वे उस क्षेत्र में क्षमा या अन्य निचली जातियों के समान हैं जो पारम्परिक रूप से शादी या अन्य समारोहों में ड्रम को पीटते हैं। यह सम्भावना है कि बंजारा समुदाय में इन निचली जातियों को समेकित (समायोजित) किया गया था । क्योंकि बंजारा के बीच ड्रम-बीटर या सबसे कम रैंक समारोह में लगे स्थानीय निचली जातियों के कबीलों के नामों / उपनामों के साथ समारोह को अपनाया था। राठोड और जादौन गोर्मती के बीच एक कबीले नाम के रूप में भी प्रयोग किया जाता है जो कि आम बात है, एक आमनाम जाधव है ।
जो महाराष्ट्र में मराठा उपनाम जैसा लगता है। जादौन पठान---जो अफगानिस्तानी मूल के उनमें मणिकार अथवा मनिहार भी बंजारा वृत्ति से जीवन यापन करते थे । पश्चिमीय एशिया के यहूदीयों के ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ों में यहूदीयों को सोने - चाँदी तथा हीरे जवाहरात का सफल व्यापारी भी बताया गया है मदर सोनार बंजारा से एक कबीले का नाम है जादौन । मिश्र में कॉप्ट (Copt )यहूदीयों की सोने -चाँदी का व्यवसाय करने वाली शाखा है। जो भारतीय गुप्ता वार्ष्णेय गोयल आदि यदुवंशी वैश्य शाखा से साम्य परिलक्षित करती है। मनिहार-- मनिहार (अंग्रेजी: Manihar) हिन्दुस्तान में पायी जाने वाली एक मुस्लिम बिरादरी की जाति है। इस जाति के लोगों का मुख्य पेशा चूड़ी बेचना है। इसलिये इन्हें कहीं-कहीं चूड़ीहार भी कहा जाता है। मुख्यतः यह जाति उत्तरी भारत और पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में पायी जाती है। यूँ तो नेपाल की तराई क्षेत्र में भी मनिहारों के वंशज मिलते हैं। ये लोग अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द के रूप में अब प्राय: सिद्दीकी ही लगाते हैं। मुसलमान होने से.. मणिकार अथवा पण्यचारि दौनों शब्द कालान्तरण में मनिहार तथा बंजारा रूप में परिवर्तित हुए । उत्पत्ति का इतिहास-- इन जातियों की उत्पत्ति के विषय में दो सिद्धान्त हैं ; एक भारतीय, दूसरा मध्य एशियाई। भारतीय सिद्धान्त के अनुसार ये मूलत: राजपूत थे जो सत्ता को त्याग कर मुसलमान बने।
इसका प्रमाण यह है कि इनकी उपजातियों क़े नाम राजपूत उपजातियों से काफी कुछ मिलते हैं जैसे-भट्टी, सोलंकी, चौहान, बैसवारा, जादौन आदि। इसीलिये इनके रीति रिवाज़ हिन्दुओं से मिलते हैं; दूसरी ओर मध्य एशियाई सिद्धान्त के अनुसार ये वो लोग है जिनका गजनी में शासकों के यहाँ घरेलू काम करना था और इनकी महिलायें हरम की देखभाल करती थी जो 1000 ई० में महमूद गज़नवी क़े साथ भारत आये और फिरोजाबाद के आस-पास नारखी बछिगाँव आदि के क्षेत्रों में बस गये। इन पठानों की कुछ उपजातियाँ --- (1)शेख़ (2) इसहानी, (3) कछानी, (4) लोहानी, (5) शेख़ावत, (6) ग़ोरी, (7) कसाउली, (8) भनोट, (9) चौहान, (10) पाण्ड्या, (11) मुग़ल, (12) सैय्यद, (13) खोखर, (14) बैसवारा और (15) राठी (16) गादौन अथवा जादौन पश्चिमीय पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के पठानों में जादौन पठानों की एक शाखा है । ---जो पश्तो भाषा बोलते हैं -जैसे राजस्थानी पिंगल डिंगल उपभाषाओं के सादृश्य- पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा-- पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा (Theory of Pashtun descent from Israelites) १९वीं सदी के बाद से बहुत पश्चिमी इतिहासकारों में एक विवाद का विषय बनी हुई है। पश्तून लोक मान्यता के अनुसार यह समुदाय इस्राएल के उन दस क़बीलों का वंशज है; जिन्हें लगभग २,८०० साल पहले असीरियाई साम्राज्य के काल में देश-निकाला मिला था। सम्भवत वैदिक सन्दर्भों में दाशराज्ञ वर्णन इसकी संकेत है ।
ऐैतिहासिक विवरण के सन्दर्भों में - पख़्तूनों के बनी इस्राएल होने की बात सोलहवीं सदी ईस्वी में जहाँगीर के काल में लिखी गयी किताब “मगज़ाने अफ़ग़ानी” में भी मिलती है। अंग्रेज़ लेखक अलेक्ज़ेंडर बर्न ने अपनी बुख़ारा की यात्राओं के बारे में सन् १८३५ में भी पख़्तूनों द्वारा ख़ुद को बनी इस्राएल मानने के बारे में लिखा है। यद्यपि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल तो कहते हैं लेकिन धार्मिक रूप से वह मुसलमान हैं, यहूदी नहीं। अलेक्ज़ेंडर बर्न ने ही पुनः १८३७ में लिखा कि जब उसने उस समय के अफ़ग़ान राजा दोस्त मोहम्मद से इसके बारे में पूछा तो उसका जवाब था ; कि उसकी प्रजा बनी इस्राएल है इसमें सन्देह नहीं लेकिन इसमें भी सन्देह नहीं कि वे लोग मुसलमान हैं एवं आधुनिक यहूदियों का समर्थन नहीं करेंगे। विलियम मूरक्राफ़्ट ने भी १८१९ व १८२५ के बीच भारत, पंजाब और अफ़्ग़ानिस्तान समेत कई देशों के यात्रा-वर्णन में लिखा कि पख़्तूनों का रंग, नाक-नक़्श, शरीर आदि सभी यहूदियों जैसा है। यहूदी होने से ये स्वयं को जूडान अथवा जादौन पठान कहते हैं इधर भारतीय जादौन समुदाय भी स्वयं को यदुवंशी कहता है । जे बी फ्रेज़र ने अपनी १८३४ की 'फ़ारस और अफ़्ग़ानिस्तान का ऐतिहासिक और वर्णनकारी वृत्तान्त' नामक किताब में कहा कि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल मानते हैं और इस्लाम अपनाने से पहले भी उन्होंने अपनी धार्मिक शुद्धता को बरकरार रखा था। जोसेफ़ फ़िएरे फ़ेरिएर ने सन् 1858 ईस्वी में अपनी अफ़ग़ान इतिहास के बारे में लिखी किताब में कहा कि वह पख़्तूनों को बनी इस्राएल मानने पर उस समय मजबूर हो गया ;जब उसे यह जानकारी मिली कि नादिरशाह भारत-विजय से पहले जब पेशावर से गुज़रा तो यूसुफ़ज़ाई कबीले के प्रधान ने उसे इब्रानी भाषा (हिब्रू) में लिखी हुई बाइबिल व प्राचीन उपासना में उपयोग किये जाने वाले कई लेख साथ भेंट किये। इन्हें उसके ख़ेमे में मौजूद यहूदियों ने तुरन्त पहचान लिया।
जार्ज मूरे द्वारा इस्राएल की दस खोई हुई जातियों के बारे में जो शोधपत्र (1861) में प्रकाशित किया गया है,
उसमे भी उसने स्पष्ट लिखा है कि बनी इस्राएल की दस खोई हुई जातियों को अफ़ग़ानिस्तान व भारत के अन्य हिस्सों में खोजा जा सकता है । वह लिखता है कि उनके अफ़्गानिस्तान में होने के पर्याप्त सबूत मिलते हैं। वह लिखता है कि पख्तून की सभ्यता संस्कृति, उनका व उनके ज़िलों ,गावों आदि का नामकरण सभी कुछ बनी इस्राएल जैसा ही है। ॠग्वेद के चौथे खंड के 44 वें सूक्त की ऋचाओं में भी पख़्तूनों का वर्णन ‘पृक्त्याकय अर्थात् (पृक्ति आकय) नाम से मिलता है । इसी तरह तीसरे खण्ड का 91 वीं ऋचा में आफ़रीदी क़बीले का ज़िक्र ‘आपर्यतय’ के नाम से मिलता है। भारत में हर्षवर्धन के उपरान्त कोई भी ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं हुआ जिसने भारत के बृहद भाग पर एकछत्र राज्य किया हो। इस युग मे भारत अनेक छोटे बड़े राज्यों में विभाजित हो गया जो आपस मे लड़ते रहते थे। तथा इसी समय के शासक राजपूत कहलाते थे ; तथा सातवीं से बारहवीं शताब्दी के इस युग को राजपूत युग कहा गया है। राजपूतों के दो विशेषण और हैं ठाकुर और क्षत्रिय ये ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त उपाधियाँ हैं। कर्नल टोड व स्मिथ आदि विद्वानों के अनुसार राजपूत वह विदेशी जन-जातियाँ है । जिन्होंने भारत के आदिवासी जन-जातियों पर आक्रमण किया था ; औरअपनी धाक जमाकर कालान्तरण में यहीं जम गये इनकी जमीनों पर कब्जा कर के जमीदार के रूप " और वही उच्च श्रेणी में वर्गीकृत होकर राजपूत कहलाए ब्राह्मणों ने इनके सहयोग से अपनी कर्म काण्ड परक धर्म -व्यवस्था कायम की "चंद्रबरदाई लिखते हैं कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के सम्पूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउंट-आबू पर्वत पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, प्रतिहार व सोलंकी आदि राजपूत वंश उत्पन्न हुये। इसे इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप में देखते हैं "
जितने भी ठाकुर उपाधि धारक हैं वे राजपूत ब्राह्मणों की इसी परम्पराओं से उत्पन्न हुए हैं सत्य का प्रमाणीकरण इस लिए भी है कि ठाकुर शब्द तुर्कों की जमींदारीय उपाधि थी। संस्कृत ग्रन्थ अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठक्कुर: का उपयोग भी किया गया है, जो भगवान कृष्ण के सन्दर्भ में है।
यह समय बारहवीं सदी ही है । इसके कुछ समय बाद पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाने लगी । जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया ।
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रवीं सदी में हुआ है । और यह शब्द का आगमन छठी से बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द के रूप में और भारतीय धरा पर इसका प्रवेश तुर्कों के माध्यम से हुआ ।
महमूद गजनबी ने (1000-1030) र्इ. और मुहम्मद गोरी ने (1175-1205) र्इ. के मध्य भारत पर आक्रमण किए थे ; ये भी मंगोलियन तुर्की थे ।
तभी से तक्वुर ठक्कुर रूप धारण कर संस्कृत भाषा में समाविष्ट हुआ। और इसका प्रचलन विस्तारित तक्वुर (tekvur) खिताब 16 वीं सदी की संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द रूप में ; संस्कृत और फारसी बहिन बहिन होने से जादौन लोगों की बोली
(क्षेत्रिय भाषा) डिंगल और पिंगल प्रभाव वाली राजस्थानी व्रज उपभाषा का ही रूप है ।
जो राजस्थान करौली( कुकुरावली) क्षेत्रों की रही है । और जादौन पठानों की भाषा पश्तो , पहलवी पर जिनका पूरा प्रभाव है ।
जादौन पठान यहूदीयों की शाखा होने से यदुवंशी तो हैं ही ।
विदित हो कि करौली के संस्थापक यादव शासक विजयपाल आदि सभी पाल उपाधि धारक थे ।
---जो चरावाहों अथवा गोपोंं का विशेषण है ।
और वर्तमान जादौन ठाकुर उपाधि धारक जन-जाति का स्वयं को गोपों या अहीरों से स्वयं को सम्बद्ध न मानना इनको जादौन पठानों की भारतीय शाखा सूचित करता है । _________________________
ये कहते हैं कि हमारा गोपों से कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु इतिहास कार अहीरों को ही यादव मानने के पक्ष में । क्योंकि यादव ही सदीयों से गोपालन करने वाले रहे हैं । इसी लिए गोप विशेषण केवल यादवों को रूढ़ हो गया । संस्कृत भाषा में गोप शब्द का अर्थ:- (गां गोजातिं पाति रक्षतीति गोप: । (गो पा कः) जातिविशेषः यादव । गोयल इति हिन्दी भाषा में॥ तत् पर्य्यायः १ गोसंख्यः २ गोधुक् ३ आभीरः ४ वल्लवः ५ गोपालः ६ गोप:। ७ गौश्चर: ८ पाल: इति अमरःकोश ।२।९ ।५७ ॥ हम आप को बताऐं कि अमरकोश संस्कृत के कोशों में अति लोकप्रिय और प्रसिद्ध है। इसे विश्व का पहला समान्तर कोश (थेसॉरस्) कहा जा सकता है। इसके रचनाकार अमरसिंह बताये जाते हैं जो चन्द्रगुप्त द्वितीय (चौथी शब्ताब्दी) के नवरत्नों में से एक थे। कुछ लोग अमरसिंह को विक्रमादित्य (सप्तम शताब्दी) का समकालीन बताते हैं। इस कोश में प्राय: दस हजार नाम हैं, जहाँ मेदिनी में केवल साढ़े चार हजार और हलायुध में आठ हजार हैं। इसी कारण पण्डितों ने इसका आदर किया और इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई। और अमर सिंह ने आभीर तथा गोप परस्पर पर्याय वाची रूप में वर्णित कर यादवों के व्यवसाय परक विशेषण माने हैं । परन्तु हिन्दू समाज की रूढि वादी ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था में तो देखिए! कि यहाँ अहीरों को क्षत्रिय कभी नहीं माना जाना ! निश्चित रूप में यादवों के इतिहास को विकृत करने में हिन्दू धर्म के उन ठेकेदारों का हाथ है । स्मृति-ग्रन्थों का निर्माण रूढि वादी ब्राह्मणों ने की है । जिनमें आँशिक नैतिक मूल्यों की आढ़ में अनेक अनैतिकताओं से पूर्ण बातों का भी समायोजन कर दिया गया है । गोपों की काल्पनिक मनगढ़न्त व्युत्पत्ति का वर्णन स्मृति-ग्रन्थों में भिन्न भिन्न प्रकार से है । कहीं “मणिबन्ध्यां तन्त्रवायात् गोपजातेश्च सम्भवः । ” इति पराशरपद्धतिः ॥ अर्थात् मणि बन्ध्या में तन्त्रवाय्यां से गोप उत्पन्न हुए! तो मनु-स्मृति कार कहीं गोपों का वर्णन बहेलियों , चिड़ीमार ,कैवट , तथा साँप पकड़ने वालों के साथ वनचारियों के रूप में वर्णित किया है। मनुः स्मृति में अध्याय -८ / २६० / “व्याधाञ्छाकुनिकान् गोपान् कैवर्त्तान् मूल खानकान् । व्यालग्राहानुञ्छवृत्तीनन्यांश्च वनचारिणः ) अहीरों या गोपों ने ब्राह्मणों की इस अवैध -व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया । इनकी गुलामी (दासता) स्वीकार न करके दस्यु अथवा विद्रोही बनना स्वीकार कर लिया है ! आइए देखें--- यादवों को कैसे वीर अथवा यौद्धा जन जाति से शूद्र बनाया गया है ? यादव योगेश कुमार 'रोहि' ग्राम-आज़ादपुर पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़-उ०प्र० ब्राह्मण समाज तथा ख़ुद को असली यदुवंशी क्षत्रिय कहने वाले जादौन तथा अन्य राज-पूत सभी अहीरों को यादव नहीं मानते हैं और उन्हें चोर , लुटेरा मानकर परोक्ष रूप में गालियाँ देते रहते हैं अहीरों के विषय में ये कहते हैं कि अहीरों अथवा गोपों ने प्रभास क्षेत्र में यदुवंशी स्त्रीयों सहित अर्जुन को लूट लिया था । इस लिए ये गोप यदुवंशी नहीं होते हैं । अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि गोपों ने प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर गोपिकाओं को क्यों लूट लिया था ? और अहीरों के यदुवंशी न होने के लिए ये इसी बात को प्रमाणों के तौर पर पेश करते हैं । अब हम इसी प्रश्न का पौराणिक सन्दर्भों पर आधारित उत्तर प्रस्तुत करते हैं ! गोपों ने अर्जुन को इसलिए परास्त कर लूटा --- एक दिन जब दुर्योधन श्री कृष्ण से भावी युद्ध के लिए सहायता प्राप्त करने हेतु द्वारिकापुरी जा पहुँचा। जब वह पहुँचा उस समय श्री कृष्ण निद्रा मग्न थे ;अतएव वह उनके सिरहाने जा बैठा ! इसके कुछ ही देर पश्चात पाण्डु पुत्र अर्जुन भी इसी कार्य से उनके पास पहुँचा ! और उन्हें सोया देखकर उनके पैताने बैठ गया। जब श्री कृष्ण की निद्रा टूटी तो पहले उनकी दृष्टि अर्जुन पर पड़ी। पहली दृष्टि का फल---- अर्जुन से कुशल क्षेम पूछने के भगवान कृष्ण ने उनके आगमन का कारण पूछा। अर्जुन ने कहा, “भगवन्! मैं भावी युद्ध के लिये आपसे सहायता लेने आया हूँ।” अर्जुन के इतना कहते ही सिरहाने बैठा हुआ दुर्योधन बोल उठा, “हे कृष्ण! मैं भी आपसे सहायता के लिये आया हूँ। क्योंकि मैं अर्जुन से पहले आया हूँ इसलिये सहायता माँगने का पहला अधिकार मेरा है।” दुर्योधन के वचन सुनकर भगवान कृष्ण ने घूमकर दुर्योधन को देखा और कहा, “हे दुर्योधन! मेरी दृष्टि अर्जुन पर पहले पड़ी है, और तुम कहते हो कि तुम पहले आये हो। अतः मुझे तुम दोनों की ही सहायता करनी पड़ेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूँगा और दूसरे के साथ मैं स्वयं रहूँगा। किन्तु मैं न तो युद्ध करूँगा और न ही शस्त्र धारण करूँगा। अब तुम लोग निश्चय कर लो कि किसे क्या चाहिये ? अर्जुन ने श्री कृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि वह तो श्री कृष्ण की विशाल गोप यौद्धाओं की नारायणी सेना लेने के लिये ही आया था। इस प्रकार श्री कृष्ण ने भावी युद्ध के लिये दुर्योधन को अपनी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना दे दी और स्वयं पाण्डवों के साथ हो गये। अब हम घटना काआगे वर्णन करने से पूर्व एक अक्षौहिणी सेना का मान बताते हैं ---- 21870 रथ तथा 21870 हाथी तथा 65610 अश्वारोहि तथा 109350 पदाति ( पैदल सैनिक ) यह एक अक्षौहिणी सेना का मान होता था । संस्कृत भाषा जिसकी व्युत्पत्ति- इस प्रकार वर्णित है👇
अक्ष ऊहः समूहः संविकल्पकज्ञानं वा सोऽस्यामस्ति इनि, अक्षाणां रथानां सर्व्वेषामिन्द्रियाणाम् “वा ऊहिनीणत्वं वृद्धिश्च । रथगजतुरङ्गपदाति संख्याविशेषान्विते सेनासमूहे । “अक्षौहिण्यामित्यधिकैः सप्तत्या चाष्टभिः शतैः । संयुक्तानि सहस्राणि गजानामेकविंशतिः। एवमेव रथानान्तु संख्यानं कीर्त्तितं बुधैः । पञ्चषष्टिः सहस्राणि षट् शतानि दशैव तु । संख्यातास्तुरगास्तज्ज्ञैर्विना रथ्यतुरङ्गमैः । नॄणां शतसहस्रं तु सहस्राणि न वैवतु । शतानि त्रीणिचान्यानि पञ्चाशच्च पदातय इति । गोपों की अक्षौहिणी सेना में कुछ गोप यौद्धाओं का संहार भी हुआ । और कुछ शेष भी बच गए थे इन्हीं गोपों ने प्रभास क्षेत्र में परास्त कर गोपिकाओं सहित लूट लिया था 👇।
इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ -भागवत पुराण के प्रथम अध्याय स्कन्ध एक में श्लोक संख्या 20 में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना का वर्णन किया गया है । इसे भी देखें---👇
"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ । कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया। और मैं अर्जुन कृष्ण की गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका! (श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०) पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें- इसी बात को महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय में वर्णन किया है परन्तु निश्चित रूप से यहाँ पर युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन ही नहीं है अत: यह प्रक्षिप्त नकली श्लोक हैं। देखें👇
"ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस । आभीरा मन्त्रामासु समेत्यशुभ दर्शना ।। अर्थात् उसके बाद उन सब पाप कर्म करने वाले लोभ से युक्त अशुभ दर्शन अहीरों ने अापस में सलाह करके एकत्रित होकर वृष्णि वंशीयों गोपों की स्त्रीयों सहित अर्जुन को परास्त कर लूट लिया ।। महाभारत मूसल पर्व का अष्टम् अध्याय का यह 47 श्लोक है।
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है। कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है। हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर रूप में ही वर्णन करता है यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ; क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से आज तक अवशिष्ट रूप में मिलती है । अर्जुन के प्रति यादवों का दूसरा बड़ा विरोध का कारण सुभद्रा का हरण था ---- जब एक बार वृष्णि संघ, भोज और अन्धक वंश के समस्त यादव लोगों ने रैवतक पर्वत पर बहुत बड़ा उत्सव मनाया। इस अवसर पर हज़ारों रत्नों और अपार सम्पत्ति का दान -गरीबों को दिया गया। बालक, वृद्ध और स्त्रियाँ सज-धजकर घूम रही थीं। अक्रूर, सारण, गद, वभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारुदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, सात्यकि, हार्दिक्य, उद्धव, बलराम तथा अन्य प्रमुख यदुवंशी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे। गन्धर्व और बंदीजन उनका विरद बखान रहे थे। गाजे-बाजे, नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी। इस उत्सव में कृष्ण और अर्जुन भी बड़े प्रेम से साथ-साथ घूम रहे थे।
वहीं कृष्ण की बहन सुभद्रा भी थीं। उनकी रूप राशि से मोहित होकर अर्जुन एकटक उनकी ओर देखने लगा। कदाचित अर्जुन काम-मोहित हो गया । एक दिन जब सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करने गईं। पूजा के बाद पर्वत की प्रदक्षिणा की। ब्राह्मणों ने मंगल वाचन किया। जब सुभद्रा की सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई, तब अवसर पाकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ में बिठा लिया और अपने नगर की ओर चल दिया। गोप सैनिक सुभद्राहरण का यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए द्वारका की सुधर्मा सभा में गए ! और वहाँ सब हाल कहा। सुनते ही सभापाल ने युद्ध का डंका बजाने का आदेश दे दिया। वह आवाज़ सुनकर भोज, अंधक और वृष्णि वंशों के समस्त यादव योद्धा अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर वहां इकट्ठे होने लगे। सुभद्राहरण का वृत्तान्त सुनकर सभी यादवों की आंखें चढ़ गईं। उनका स्वाभिमान डगमगाने लगा उन्होंने सुभद्रा का हरण करने वाले अर्जुन को उचित दण्ड देने का निश्चय किया। कोई रथ जोतने लगा, कोई कवच बांधने लगा, कोई ताव के मारे ख़ुद घोड़ा जोतने लगा, युद्ध की सामग्री इकट्ठा होने लगी। तब बलराम ने विचार किया कि अभी युद्ध का उचित समय नहीं है । इसलिए बलराम ने गोपों से कहा- "हे वीर योद्धाओ ! कृष्ण की राय सुने बिना ऐसा क्यों कर रहे हो ?" फिर उन्होंने कृष्ण से कहा- "जनार्दन! तुम्हारी इस चुप्पी का क्या अभिप्राय क्या है ? तुम्हारा मित्र समझकर अर्जुन का यहाँ इतना सत्कार किया गया और उसने जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया। यह दुस्साहस करके उसने हम समस्त यादवों को अपमानित किया है। मैं यह कदापि नहीं सह सकता।" तब कृष्ण बोले- भाई बलराम "अर्जुन ने हमारे कुल का अपमान नहीं, सम्मान किया है।
क्योंकि यादवों में तो ये वधू-अपहरण परम्परा है ही उन्होंने हमारे वंश की महत्ता समझकर ही हमारी बहन का हरण किया है। क्योंकि उन्हें स्वयंवर के द्वारा उसके मिलने में संदेह था। उसके साथ संबंध करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। सुभद्रा और अर्जुन की जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी।" कृष्ण की यह बात सुन कर कुछ यादव लोग कसमसाए । और अर्जुन---से बदला लेने के लिए संकल्प बद्ध हो गये वही नारायणी सेना के गोप रूप में यादव यौद्धा ही थे --- जैसा कि हमने ऊपर वर्णन किया है सन्दर्भित ग्रन्थ-- ↑ महाभारत, आदिपर्व, अ0 217-220 ↑ श्रीमद् भागवत, 10।86।1-12 गोप निर्भाक होने से ही अभीर कहलाते थे । गोप यादवों का व्यवसाय परक विशेषण है ; गो-पालक होने से तथा यादव वंशगत विशेषण है । यदु की सन्तान होने से " यदोर्पत्यं इति यादव" और अभीर यादवों का ही स्वभाव गत विशेषण है ।क्योंकि ये कभी किसी से डरते नहीं हैं ।
हिब्रू बाइबिल में भी इनके इसी विशेषण को अबीर रूप में वर्णित किया है जिसका अर्थ है: वीर सामन्त अथवा यौद्धा मार्शलआरट का विशेषज्ञ । संस्कृत भाषा में अभीर शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण इस प्रकार है👇
अ = नहीं भीर: = भीरु अथवा कायर अर्थात् अहीर या अभीर वह है जो कायर न हो इसी का अण् प्रत्यय करने पर आभीर रूप बनता है ---जो समूह अथवा सन्तान वाची है । इसी लिए दुर्योधन ने इन अहीरों(गोपों) का नारायणी सेना के रूप में चुनाव किया ! और समस्त यादव यौद्धा तो अर्जुन से तो पहले से ही क्रुद्ध थे ! यही कारण था कि ; गोपों (अहीरों)ने अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था । क्योंकि नारायणी सेना के ये यौद्धा दुर्योधन के पक्ष में थे और कृष्ण का देहावसान हो गया था और बलदाऊ भी नहीं रहे थे । क्योंकि फिर इनको निर्देशन करने वाले बलराम तथा कृष्ण दौनों में से कोई नहीं था । फिर तो इन यदुवंशी गोपों ने अर्जुन पर तीव्रता से आक्रमण कर तीर कमानों से उसे परास्त कर दिया बहुत से यादव यौद्धा तो पहले ही आपस में लड़ कर मर गये थे । ये केवल कृष्ण से सम्बद्ध थे । नारायणी सेना के इन गोपों ने केवल अर्जुन से ही युद्ध किया था । नकि कृष्ण की रानियों अथवा यदुवंशी गोपिकाओं के रूप में वधूओं को लूटा था ! लूटपाट के वर्णन अतिरञ्जना पूर्ण व अहीरों के प्रति द्वेष भाव को अभिव्यञ्जित करने वाले लेखकों के हैं । केवल यदुवंश की सभी स्त्रीयों को अर्जुन के साथ न जाने के लिये कहा ! परन्तु ---जो साथ चलने के लिए सहमत नहीं हुईं थी उन्हें प्रताडित कर चलने के लिए कहा ! बहुत सी गोपिकाऐं स्वेैच्छिक रूप से गोपों के साथ वृन्दावन तथा हरियाणा में चलीं गयी । यहाँ यह तथ्य भी उद्धरणीय है कि -👇 भगवान कृष्ण ने अपने अवसान काल से पूर्व अर्जुन को निर्देश दिया था कि ---हे अर्जुन आप इन सभी यदु वंशी गोप स्त्रीयों को यादव यौद्धाओं के संहार के पश्चात् अपने साथ ही ले जाना सम्भवत: कृष्ण अर्जुन के साथ गोपियों को जानबूझ कर भेजा था क्योंकि वह इस बात को भली भांति जानते थे कि यादव योद्धा अर्जुन को बिल्कुल भी पसन्द नहीं करते हैं ! जब से उसने सुभद्रा का हरण किया है । किन्तु यादवों के बल पौरुष और प्रभाव को अर्जुन इसीलिए झेल पा रहा था क्योंकि उसके साथ भगवान् कृष्ण थे ! किन्तु अर्जुन यह समझता था कि मैं परम शक्तिशाली हूं मैंने नारायणी सेना को भी परास्त कर दिया है । तो ये अर्जुन का भ्रम था । नारायणी सेना शान्त थी कृष्ण के प्रभाव से क्योंकि वह कृष्ण की ही सेना थी ! आज उनके इसी अहंकार को तोड़ने के लिए भगवान कृष्ण ने अपने शरीरान्त काल में गोपियों को अर्जुन के साथ भेजा था ; ताकि आज उसका यह अहंकार भी खण्ड खण्ड हो जाए कि अहीरों को भी वह हरा सकता है ! कृष्ण इस तथ्य को भली-भांति जानते थे ; कि अहीर योद्धा अर्जुन को युद्ध में अवश्य ही परास्त कर देंगे और गोपियों को अपने साथ उनको ले जाएंगे और प्रभास क्षेत्र में यही हुआ। और अहीरो को अपने यदुवंश का मान रखना था । और इधर कृष्ण का भी मान रखना था । क्योंकि कृष्ण ही नारायणी सेना के अधिपति थे । कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में सर्व-प्रथम सभी के सम्मुख कहा था ये नारायणी सेना अपराजेय है इस पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर सकता ; परन्तु उधर कृष्ण पाण्डवों के भी सारथी थे । कृष्ण के रथेष्ठा अर्जुन को हराना यदुवंश और कृष्ण के ही मान का घटाना था । इसलिए कृष्ण के रहते गोपों ने अर्जुन को कुछ नहीं कहा और अन्त समय में कृष्ण के अवसान काल में गोपों ने अर्जुन का भी मान मर्दन कर दिया और नारायणी सेना के अपराजेयता का संकल्प अहीरों ने अखण्ड बनाए रखा । और फिर यादव अथवा अहीर स्वयं ही ईश्वरीय शक्तियों (देवों) के अंश थे ; गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ; देखें 👇 " अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र , गोपालत्वं करिष्यसि ।१४ अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले ! और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।। वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं ! तब प्रभास क्षेत्र में अर्जुन इनका मुकाबला कैसे कल सकता था ? क्योंकि अहीरों का मुकाबला तो त्रेता युग में राम भी नहीं कर पाये थे । पुष्य-मित्र सुंग कालीन पाखण्डी ब्राह्मणों ने वाल्मीकि-रामायण के युद्ध काण्ड के 22 में सर्ग में राम के द्वारा समु्द्र के कहने पर अहीरों को उत्तर में स्थित द्रुमकुल्य देश में अमोघ वाणों से मार दिया था । ऐसी काल्पनिक मनगढ़न्त कथाओं का समायोजन किया । परन्तु अहीरों को राम फिर भी नहीं मार पाये अत: यह राम की पराजय ही सिद्ध होती है । क्योंकि अहीर तो आज भी जिन्दा हैं।👇 वास्तविक रूप में माना जाय ये सारी काल्पनिक मनगढ़न्त कथाऐं मात्र हैं जो वाल्मीकि-रामायण में अहीरों को आधार करके लिखी गयी हैं। इस कारण से की इन बातों को सत्य का आधार प्राप्त हो सके । यद्यपि अवान्तर काल में बहुत सी काल्पनिक घटनाओं का समायोजन पुराणों के रूप में भी हुआ है ;जो अहीरों को हेय सिद्ध करने के लिए जोड़ा गया । _________________________
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जवाब देंहटाएंVery good ji
जवाब देंहटाएंब्राह्मण,क्षत्रिय, राजपूत ,वैश्य को सवर्ण कहते है|जिसका अर्थ होता है सभी वर्णों का सम्मिश्रण अर्थात् वर्ण शकर लोगों का समूह महा मिलावटी लोग |इन्होने दूसरे शीर्षक मे अहीरों के विरुद्ध जो साक्ष्य दिये हैं|उसका जवाब मेरे द्वारा साक्ष्य सहित दिया गया है|अभी तो बहुत साक्ष्य बाकी हैं |जो मैने लिखे नही है |ऐसे साक्षय हैं जिनका ये जवाब नहीं दे सकते हैं|
जवाब देंहटाएंकृपया अपना मोबाइल नंबर देने की कृपा करें|
जवाब देंहटाएंM L bhoshdi ke tumhare pass कोई साक्ष्य नहीं है, तुम फर्जी आईडी बनाकर bakchodi कर रहा है।
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