रविवार, 4 नवंबर 2018

मनु स्मृति और महाभारत बौद्ध काल के हैं और क्षत्रिय हैं ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें ।

चंद्रबरदाई लिखते हैं कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के सम्पूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउंट-आबू पर्वत पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, प्रतिहार व सोलंकी आदि राजपूत वंश उत्पन्न हुये।
इसे इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप मे देखते हैं "
जितने भी ठाकुर उपाधि धारक हैं वे राजपूत ब्राह्मणों की इसी परम्पराओं से उत्पन्न हुए हैं।
ब्राह्मणों ने क्षत्रियों अपनी अवैध सन्तान कह कर अपना संरक्षक ही नियुक्त कल दिया !👇
क्षत्रिय हैं ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें --देखें महाभारत में
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त्रिसप्तकृत्व : पृथ्वी कृत्वा नि: क्षत्रियां पुरा ।
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ।४।
तदा नि:क्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति ।
ब्राह्मणान् क्षत्रिया राजन्यकृत सुतार्थिन्य८भिचक्रमु:।५।
ताभ्यां: सहसमापेतुर्ब्राह्मणा: संशितव्रता: ।
ऋतो वृतौ नरव्याघ्र न कामात् अन् ऋतौ यथा ।६।
तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ता: सहस्रश:तत:सुषुविरे राजन्यकृत क्षत्रियान् वीर्यवत्तारान्।७।
कुमारांश्च कुमारीश्च पुन: क्षत्राभिवृद्धये ।
एवं तद् ब्राह्मणै: क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभि:।८।
जातं वृद्धं  च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारो८पि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्ममणोत्तरा: ।९।
          (महाभारत आदि पर्व ६४वाँ अध्याय)
अर्थात् पूर्व काल में परशुराम ने (२१ )वार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर के महेन्द्र पर्वत पर तप किया ।
तब क्षत्रिय नारीयों ने पुत्र पावन के लिए ब्राह्मणों से मिलने की इच्छा की ।
तब ऋतु काल में ब्राह्मण ने उनके साथ संभोग कर उनको गर्भिणी किया ।
तब उन ब्राह्मणों के वीर्य से हजारों क्षत्रिय राजा हुए ।
और चातुर्य वर्ण-व्यवस्था की वृद्धि हुई। उसमें भी ब्राह्मणों को अधिक श्रेष्ठ  माना गया ।
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महाभारत और भागवतपुराण आदि पुराणों के अनुसार ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें हैं । इसे हम नहीं महाभारत कहता है ।
जहाँ के मूसल पर्व से तुम अहीरों द्वारा गोपियोंको के लूटने का प्रमाण देते हो । और ध्यान रखना तुम हम्हें अपना चिर --प्राचीन शत्रु मानते हो ।
तो हम तुमको अपना शत्रु नहीं मानते क्योंकि शत्रु को कोई इतना ज्ञान प्रद सन्देश नहीं देता । हमारे द्वारा ईश्वर ने तुम्हारा अज्ञान तिमिर नष्ट किया है ।
तुम्हें हमारे प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए !

ब्राह्मणों की कल्पना तो देखें कि ये गाय के गोबर से ही मनुष्य उत्पन्न कर देते हैं ।
और पर्वतों का सदीयों से बलात्कार करना भी देख लेते हैं
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महाभारत में एक काल्पनिक कथा सृजित करके महाभारत आदि पर्व के ‘चैत्ररथ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 174 के अनुसार वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के सन्दर्भ में  विश्वामित्र का पराभव को दर्शाते हुए कहा -- कि एकवार जब विश्वामित्र और वशिष्ठ का युद्ध हुआ तो वशिष्ठ की गाय नन्दिनी ने  --

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अपनी पूंछ से बांरबार अगार की भारी वर्षा करते हुए पूंछ से ही पह्रवों की सृष्टि की, थनों से द्रविडों और शकों को उत्‍पन्‍न किया, योनिदेश से यवनों और गोबर से बहुतेरे शबरों को जन्‍म दिया।

कितने ही शबर उसके मूत्र से प्रकट हुए। उसके पार्श्‍वभाग से पौण्‍ड्र, किरात, यवन, सिंहल सि़घल), बर्बर और खसों की सृष्टि की। इसी प्रकार उस गाय ने फेन से चिबुक, पुलिन्‍द, चीन, हूण, केरल आदि बहुत प्रकार के ग्‍लेच्‍छों की सृष्टि की।

उसके द्वारा रचे गये नाना प्रकार के म्लेच्‍छों के गणों की वे विशाल सेनाएं जो अनेक प्रकार के कवच आदि से आच्‍छादित थीं।
सबने भाँति-भाँति के आयुध धारण कर रखे थे और सभी सैनिक क्रोध में भरे हुए थे। उन्‍होंने विश्वामित्र के देखते-देखते उसकी सेना को तितर-बितर कर दिया।
विश्वामित्र के एक-एक सैनिक को म्लेच्‍छ सेना के पांच-पांच, सात-सात योद्धाओं ने घेर रखा था। उस समय अस्‍त्र-शस्‍त्रों की भारी वर्षा से घायल होकर विश्वामित्र की सेना के पांव उखड़ गये और उनके सामने ही वे सभी योद्धा भयभीत हो सब ओर भाग चले।

भरतश्रेष्‍ठ क्रोध में भरे हुए होने पर वशिष्ठ सेना के सैनिक विश्वामित्र के किसी भी योद्धा का प्राण नहीं लेते थे। इस प्रकार नंदिनी गाय ने उनको सारी सेना को दूर भगा दिया।

क्या प्रजनन का यह सिद्धान्त भी प्रमाणित है ।

अन्धों पर शासन करने के लिए कानों (काणों) ने ये कपोल कल्पित कथाऐं बना डाली .

अर्थात् शबर जन-जाति का उल्लेख हिन्दू पौराणिक महाकाव्य महाभारत के आदि पर्व में हुआ है। और लिखा कि यह एक म्लेच्छ जाति थी, जो वशिष्ठ जी की नंदिनी नामक गाय के गोबर तथा गोमूत्र से उत्पन्न हुई थी।

काशी के असी- घाट पर शास्त्रार्थ महारथी
ब्राह्मण विद्वानों के मुखार- बिन्दु सुना है कि महाभारत पञ्चम् वेद है
महाभारत काल्पनिक देवता गणेश ने लिखा !
जो स्वयं पार्वती के शरीर के मैले से पार्वती ने अपने प्रहरी के रूप में बनाया ।
और तो और महाभारत में दार्शनिक मूढ़ता  की मर्यादाऐं भंग होगयी ।" 
वहले तो महाभारत किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है यह पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के काल में रचित रचना है ; जिसका लेखक इसे अपौरुषेय सिद्ध करने के लिए गणेश जी को बना दिया गया ।
अब महाभारत में वर्णित दार्शनिक विवेचनाओं की वैज्ञानिकता ही देखें 👹
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संस्वेदजा अण्डजाश्चोद्भिदश्च
सरीसृपा : कृमयो८थाप्सु मत्स्य:।
तथा अश्मानस्तृण काष्ठं च
सर्वे दिष्टक्षये स्वयं प्रकृतिं भजन्ति ।११।
                 (महाभारत आदि पर्व २९ वाँ अध्याय )
स्वेदज पसीने से उत्पन्न होने वाले
,अण्डज , उद्भिज्ज, सरीसृप, कृमि तथा जल में रहने वाले मत्स्य आदि जीव तथा पर्वत तृण, काष्ठ - ये सभी प्रारब्ध भोग का सर्वथा क्षय होने पर अपनी प्रकृति (मूल रूप)को प्राप्त होते हैं।
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अब यहाँ जड़ पदार्थ भी प्रारब्ध भोग के भागी मान लिये गये ।
परन्तु प्रारब्ध तो जीवन का परिमाण ( मात्रा) तथा कर्म का प्रतिरूप है  ।
और  फिर पत्थर, तिनका तथा लकड़ी का भाग्य से क्या सम्बन्ध ? परन्तु मूढ़ ब्राह्मणों ने यहाँ भी भाग्य को जोड़ दिया ।
परन्तु महाभारत के भीष्म पर्व में जो श्रीमद्भगवत् गीता 700 श्लोकों में वर्णित है ।
उसमें भी केवल 75 शलोक ही कृष्ण के विचारों का अनुमोदन करते हैं
और तो बाद में जोड़े गयीं कल्प - कलाप मात्र हैं
दुर्भाग्य से महाभारत में अच्छी तथा बुरी दौनों बातें का समायोजन हो गया है।
परन्तु अधिकतर सारहीन तथा गल्प मात्र हैं ।

और महाभारत में यह कथन मिथ्या है !
कि स्त्रीयों का दामाद में पुत्र से अधिक स्नेह होता है ।
यह भी सामाजिक व्यवहारिक कषौटी पर खरा नहीं है ।
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अधिका किल नारीणां प्रीतिर्जामातृजा भवेत् ।१२।
(महाभारत आदि पर्व ११४वाँ अध्याय)
स्त्रीयों का दामाद में पुत्र से अधिक स्नेह होना चाहिए ।

वास्तविक रूप में यह स्नेह केवल लड़की के कारण से है ;अन्यथा दामाद तो सुसराल मे पिटते देखे गये हैं ।
और जिस समय ये ग्रन्थ लिखे गये उस समय समाज में राजा सामी विलासी ही अधिक थे । अत: उनके पुरोहित भी इसी प्रकार  के थे ।
कामुकता भी हर चीज में इन्हें नजर आयी ।
देखें--- 👇
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पुरोपवाहिनी तस्य नदीं शुक्तिमतीं गिरि:।
अरोत्सीच्चेतना युक्त:  कामात् कोलाहल: किल ।।३५।।
अर्थात् राजा उपरिचर की राजधानी के समीप शुक्तिमती नदी वहती है। एक समय 'कोलाहल' नामकपर्वत ने  सचेतन होकर  काम (sex) के वश होकर नदी को पकड़ लिया  और उसके साथ बलात्कार कर दिया !
                   (महाभारत आदि पर्व ६३ वाँ अध्याय )
                       
                                      💆
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तस्यां नद्याम् अजनयत् मिथुनं पर्वत: स्वयम् ।
तस्माद्धि विमोक्षणात् प्रीति नदी राज्ञेन्यवेदयत् ।।३७
अर्थात् और उस नदी के साथ बलात्कार करने पर उस पर्वत ने नदी के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या जुँड़वा रूप से उत्पन्न की ।
पर्वत के अवरोध से मुक्त कराने के कारण राजा उपरिचर को नदी ने अपनी दौनो सन्तान भेंट में दे दी ।
अब पर्वत ही बलात्कार करते हैं तो आदमी क्यों नहीं करेगा ?
अब मूसल पर्व में भी देखें---
की सृष्टी का प्रजनन - सिद्धान्त भी कितना अवैज्ञानिक है ।
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व्यजानयन्त खरा गोषु करभा८श्वतरीषु च ।
शुनीष्वापि बिडालश्च मूषिका नकुलीषु च।९।

अर्थात् गायों के पेट से गदहे , तथा खच्चरियों के पेट से हाथी ।और कुतिया से बिलोटा 'और नेवलियों के गर्भ से चूहा उत्पन्न होने लगे ।
                  (महाभारत मूसल पर्व द्वित्तीय अध्याय)
महाभारत मूसल पर्व में कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों का का वर्णन भी है ।
             -षोडश स्त्रीसहस्राणि वासुदेव परिग्रह ।६

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असृजत् पह्लवान् पुच्छात्  प्रस्रवाद् द्रविडाञ्छकान् (द्रविडान् शकान्)।
योनिदेशाच्च यवनान् शकृत: शबरान् बहून् ।३६।
मूत्रतश्चासृजत् कांश्चित् शबरांश्चैव पार्श्वत: ।
पौण्ड्रान् किरातान् यवनान् सिंहलान् बर्बरान् खसान् ।३७।

नन्दनी गाय ने पूँछ से पह्लव उत्पन्न किये । तथा धनों से द्रविड और शकों को ।
योनि से यूनानीयों को  और गोबर से शबर उत्पन्न हुए। कितने ही शबर उसके मूत्र ये उत्पन्न हुए उसके पार्श्व-वर्ती भाग से पौंड्र किरात यवन सिंहल बर्बर और खसों की -सृष्टि ।३७।
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चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान् हूणान् सकेरलान्।
ससरज फेनत: सा गौर् म्लेच्छान् बहुविधानपि ।३८।
इसी प्रकार गाय ने फेन से चिबुक  पुलिन्द चीन हूण केरल आदि बहुत प्रकार के म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई ।
महाभारत आदि पर्व चैत्ररथ पर्व १७४वाँ अध्याय
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भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहद्अट्टाल संवृतम् ।
दृढ़प्राकार निर्यूहं शतघ्नी जालसंवृतम् ।
तोपों से घिरी हुई यह नगरी बड़ी बड़ी अट्टालिका वाली है
महाभारत आदि पर्व विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व ।१९९वाँ अध्याय ।
इतिहास वस्तुतः एकदेशीय अथवा एक खण्ड के रूप में नहीं होता है , बल्कि अखण्ड और सार -भौमिक तथ्य होता है ।
छोटी-मोटी घटनाऐं इतिहास नहीं,
तथ्य- परक विश्लेषण इतिहास कार की आत्मिक प्रवृति है । और निश्पक्षता उस तथ्य परक पद्धति का कवच है
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सत्य के अन्वेषण में प्रमाण ही ढ़ाल हैं ।
जो वितण्डावाद के वाग्युद्ध हमारी रक्षा करता है ।
अथवा हम कहें ;कि विवादों के भ्रमर में प्रमाण पतवार हैं।
अथवा पाँडित्यवाद के संग्राम में सटीक तर्क "रोहि " किसी अस्त्र से कम नहीं हैं।
मैं दृढ़ता से अब भी कहुँगा कि ...
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गतिविधियाँ कभी भी एक-भौमिक नहीं होती है ।
अपितु विश्व-व्यापी होती है !
क्यों कि इतिहास अन्तर्निष्ठ प्रतिक्रिया नहीं है ।
इतिहास एक वैज्ञानिक व गहन विश्लेषणात्मक तथ्यों का निश्पक्ष विवरण है ""
सम्पूर्ण भारतीय इतिहास का प्रादुर्भाव महात्मा बुद्ध के समय से है ।
प्राय: इतिहास के नाम पर ब्राह्मण समुदाय ने  जो केवल कर्म-काण्ड में विश्वास रखता था । उसने काल्पनिक रूप से ही ग्रन्थ रचना की है ।
जिसमें ब्राह्मण स्वार्थों को ध्यान में रखा गया ।
केवल वेदों को छोड़ कर सब बुद्ध के समय का उल्लेख है ।
फिर भी वेदों में यद्यपि पुरुष सूक्त की प्राचीनता सन्दिग्ध है ,
क्योंकि इसकी भाषा पाणिनीय कालिक ई०पू० ५०० के समकक्ष है ।
भारतीय इतिहास एक वर्ग विशेष के लोगों द्वारा पूर्व- आग्रहों से ग्रसित होकर ही लिखा गया ।
आज आवश्यकता है इसके पुनर्लेखन की ।
और हमारा प्रयास भी उसी श्रृंखला की एक कणि है ।
विद्वान् इस तथ्य पर अपनी प्रतिक्रियाऐं अवश्य दें ..
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प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि
सम्पर्क सूत्र --- 8077160219

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