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~• सहृदय पाठकों के मर्म को स्पर्श करने वाली. आधुनिक परिप्रेक्ष्य की सार्थक अभिव्यञ्जना . यादव योगेश कुमार "रोहि" की पाठकों को समर्पित
ये काव्यात्मक पंक्तियाँ -----🌺📃📄📜🎄🎄
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•कहाँ आज वह मैत्री मेरापन ?
कहाँ समागम की वेला है !
मानवता कहीं बिखर गयी है .
हर तरफ स्वार्थों का मेला है !
भोगों का उद्दाम ताण्डव .
अब चरित्र बिके कौड़ी धेला है !
सबने सब पर हर पेच चला कर .
यह खेल सभी ने फिर खेला है !!
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यहाँ लोग बहुत हमने देखे .
कोई मोका - परस्त तो
"रोहि" कोई अलवेला है !!
इस पथ पर किए प्रयोग बहुत .
हर वार मुसीबत को झेला है !!
कितनी अब तकनीकि यहाँ हैं !
चेहरे मोहरे करते कुछ बयाँ हैं !
वाणी सुमधुर द़िल मैला है !!
ये दुनियाँ भी रंग-मञ्च बड़ा है !!
हर कला कार पहने कपड़ा है ।।
हर खेल यहाँ सबने खेला भई !!
इन पर इश्क का भूत चढ़ा है ।।
गुज़र गये तूफान आँधियाँ ।
ये अन्धकार में कौन पड़ा है ।।
हर वार मुखोटे भी बदले ये.
कलाकार कितना अलबेला है !
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~ अरे ! सुन्दरता
यहाँ नग्न पड़ी है !
अब प्रेम वासना का चेला है !
यहाँ झूँठा खेल प्रेम का रोहि .
मासूमियत ने सबको छला है !
नज़रे बहकी तन-मन घायल ।
सौन्दर्य पर फिदा रह कोई पगला है ।
यहाँ हुश्न खूब -सूरत ब़ला !!
ये जीवन कामनाओं का रेला है !!
जीवन का मध्य पड़ाब आ गया
इच्छाऐं अब भी वही हैं
सदीयों से है यही दुनियाँ का झमेला है !!
हार गया तन्हा भी हुआ मन !
अब दृष्टा बनके
बैठा हूँ अकेला है !!
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बुधवार, 14 नवंबर 2018
हार गया तन्हा भी हुआ मन ! अब दृष्टा बनके बैठा हूँ अकेला है !!
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