बुधवार, 14 नवंबर 2018

हार गया तन्हा भी हुआ मन ! अब दृष्टा बनके बैठा हूँ अकेला है !!

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~• सहृदय पाठकों के मर्म को स्पर्श करने वाली. आधुनिक परिप्रेक्ष्य की सार्थक अभिव्यञ्जना . यादव योगेश कुमार "रोहि" की पाठकों को समर्पित
ये काव्यात्मक पंक्तियाँ -----🌺📃📄📜🎄🎄
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•कहाँ आज वह मैत्री मेरापन ?
        कहाँ समागम की वेला  है !
मानवता कहीं बिखर गयी है .
      हर तरफ स्वार्थों का मेला है !
भोगों का उद्दाम ताण्डव .
  अब चरित्र बिके कौड़ी धेला है !
सबने सब पर हर पेच चला कर .
   यह खेल सभी ने फिर खेला है !!
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यहाँ लोग बहुत हमने देखे .
कोई मोका - परस्त तो
                  "रोहि" कोई अलवेला है !!
इस पथ पर किए प्रयोग बहुत .
              हर वार मुसीबत को झेला है !!
कितनी अब तकनीकि यहाँ हैं !
चेहरे मोहरे करते कुछ बयाँ हैं !
                     वाणी  सुमधुर द़िल  मैला है !!
ये दुनियाँ भी रंग-मञ्च बड़ा है !!
हर कला कार पहने कपड़ा है ।।
  हर खेल यहाँ सबने खेला भई !!
इन पर इश्क का भूत चढ़ा है ।।
गुज़र गये तूफान आँधियाँ ।
ये अन्धकार में कौन पड़ा है ।।
हर वार मुखोटे भी बदले ये.
कलाकार कितना अलबेला  है !
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~ अरे ! सुन्दरता
             यहाँ नग्न पड़ी है !
अब प्रेम वासना का चेला  है !
यहाँ झूँठा खेल प्रेम का रोहि .
मासूमियत  ने सबको छला है  !
नज़रे बहकी तन-मन घायल ।
सौन्दर्य पर फिदा रह कोई पगला है ।
यहाँ हुश्न खूब -सूरत ब़ला !!
ये जीवन कामनाओं का रेला है !!
जीवन का मध्य पड़ाब आ गया
    इच्छाऐं अब भी वही हैं
           सदीयों से है यही दुनियाँ का झमेला है  !!
हार गया तन्हा भी हुआ मन !
अब दृष्टा बनके
                बैठा हूँ अकेला है  !!
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