[क]- वैष्णव वर्ण (पञ्चंमवर्ण की अवधारणा) ________________________________
देखा जाए तो प्राचीन भारतीय समाज में पञ्च- पञ्चायत और पञ्चजन जैसे शब्द सामाजिक व्यवस्था में पाँच वर्णों की मान्यता व उनके निर्णयों पर आधारित पञ्चप्रथा के ही सूचक थे। जो परम्परागत रूप से आज भी ग्रामीण समाज में पञ्चों द्वारा की गयी पञ्चायतों के रूप में प्रचलित हैं। जिसे भारत की पंचायत राज प्रणाली में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है क्योंकि भारत में पंचायत राज प्रणाली, भारतीय समाज में पारम्परिक ग्राम संस्थाओं पर ही आधारित है। ग्राम पंचायत, गाँव की मंत्रिपरिषद का काम करती है। जिनके सदस्यों का चुनाव जनता करती है और इस जनता मे सभी पाँचों वर्णों के प्रतिनिधि पंच के रूप में उपस्थित होकर अपना निष्पक्ष निर्णय देते हैं।
इस तरह की संकल्पना हमारे समाज में पूर्व काल से ही रही है। जिसकी पुष्टि- सर्वप्रथम ऋग्वेद से होती है जिसमें बताया गया है कि - पञ्चकृष्टी और पञ्चजन शब्द पाँच वर्णों के सूचक पञ्चों के रूपान्तरण है। आ दधिक्राः शवसा पञ्चकृष्टीः सूर्य इव ज्योतिषापस्ततान। सहस्रसाः शतसा वाज्यर्वा पृणक्तु मध्वा समिमा वचांसि ॥१०॥ ऋग्वेद ४/३८/१० तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुराँ अभि देवा असाम । ऊर्जाद उत यज्ञियास: पञ्चजना मम होत्रं जुषध्वम् ॥ ऋग्वेद-१०.५३.४।
पदों का अर्थ- (अद्य) = आज (तद् वाचः प्रथमम्) = उस प्रथम वाणी को (मसीय) = हृदयस्थरूपेण उच्चारण करता हूँ। है (येन) = जिससे (देवाः) = और देव (असुरान्) = आसुरों का (अभि असाम) = अभिभव करते हैं । (ऊर्जादः) = पौष्टिक ही अन्नों का सेवन करनेवाले (उत) = और (यज्ञियासः) = यज्ञशील (पञ्चजना:) = पाँच वर्ण( जाति) ! (मम होत्रम्) = मेरे हवन को (जुषध्वम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करो। उपर्युक्त ऋचाओं में पञ्च पञ्चकृष्टी और पञ्च जन जैसे पद पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। ऋग्वेद में पञ्चजन: और पञ्चकृष्टी संज्ञा पद बताते हैं कि समाज में पांच प्रकार के व्यक्ति थे जिनका समाज में वर्चस्व होता था। ऋग्वेद में उल्लिखित पञ्चजना: शब्द पाँच जातियों के प्रतिनिधियों का ही वाचक है।
इसी तरह से स्पेनिश और पुर्तगाली भाषा में काष्टा शब्द जाति नसल का सूचक है। जो भारोपीय भाषा परिवार के शब्द "काष्टा और कास्ट शब्द से निर्मित वैदिक कृष्टि के रूपान्तरण हैं । संस्कृत में भी कृष्टि शब्द कृषि- फसल (फलस्) और सन्तान आदि का- वाचक है। वेदेषु वर्णिता: पञ्चजना: शब्दपद: पञ्चवर्णानां -प्रतिनिधय: सन्ति । ब्रह्मणरुत्पन्ना ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य शूद्रा: च चत्वारो वर्णा- इति तथा पञ्चमः वर्णो जातिर्वा शास्त्रेषु वैष्णववर्णस्य नाम्ना विष्णू रोमकूपेभ्यिति निर्मिता: गोपानां जातिरूपेण वा वर्णितम् अस्ति। तस्य विष्णुना सह निकटसम्बन्धोऽस्ति। अत एव ते सर्वे वैष्णावा भवन्ति । अनुवाद:- वेदों में लिखित पञ्चजन पाँच वर्णों के प्रतिनिधि पाँच -वर्ण ही हैं। चार वर्ण ब्रह्मा से उत्पन्न हुए - ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य और शूद्रों के रूप में वर्णित हैं। और पाँचवां वर्ण अथवा जाति विष्णु के रोम-कूपों से उत्पन्न गोपों की वैष्णव वर्ण अथवा जाति के रूप में शास्त्रों में वर्णित है। विष्णु से इनका निकट सम्बन्ध है। इस लिए ये वैष्णव है। किंतु पुरोहितों ने चातुर्वर्ण्य की महत्ता कम न हो जाए इसलिए इस महत्वपूर्ण जानकारी को छुपा दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि अधिकांश लोग पञ्चवर्ण (वैष्णव वर्ण) को नहीं जान सके।
ज्ञात हो वैष्णव वर्ण से सम्बन्धित जाति को ही गोप कहा जाता है संसार में यही पाँच वर्ण हैं। किंतु पुराण कारों ने गोपों के अतिरिक्त निषाद और कायस्थ को पाँचवें वर्ण में सम्मिलित कर दिया। किंतु देखा जाए तो ये पाँचवें वर्ण के नहीं है। ये तो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण के ही अन्तर्गत हैं। इसलिए निषाद जाति को पाँचवाँ वर्ण नहीं माना जा सकता है। इसी तरह से कायस्थ जाति को पञ्चम वर्ण में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कायस्थों के आदि पुरुष चित्रगुप्त ब्रह्मा की काया से उत्पन्न होने से ब्राह्मी सृष्टि के अन्तर्गत ही आते हैं। तथा लेखन और गणितीय ज्ञान से सम्पन्न म्पन्न होने के कारण तथा प्राणीयों के चरित्रों का चित्रण करने से भी ये ब्राह्मण वर्ण के समकक्ष हैं। इस लिए कायस्थ जाति भी ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ही हैं। तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिरकार पञ्चम वर्ण में कोन हो सकता है ? तो इसका जवाब वैष्णव धर्म के प्रथम प्रवर्तक एवं संरक्षक गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने ही दिया, जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ के श्लोक- ९२ में कुछ इस प्रकार वर्णित है -
पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च । तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।। ९२
अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूं । और वनों में चंदन हूं। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ। और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ। ९२
("नि:शङ्क शब्द की व्याकरणिक व्युत्पत्ति विश्लेषण- नि:शङ्क- निस् निषेध वाची उपसर्ग+ शङ्क = भय ( त्रास) भीक:अथवा डर। नि:शङ्क पुलिङ्ग शब्द है जिसका अर्थ होता है- निर्भीक अथवा निडर।)
नि:शङ्क का मूल अर्थ निर्भीक है और निर्भीक का अर्थ होता जो भयभीत नही होता हो। अत: नि:शङ्क अथवा निर्भीक विशेषण पद आभीर शब्द का पर्याय है। जो अहीरो (गोपों) की जातिगत प्रवृत्ति है। आभीर लोग वैष्णव वर्ण तथा धर्म के अनुयायी होते ही हैं। अत: ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्मखण्ड का उपरोक्त श्लोक गोप जाति की निर्भीकता प्रवृत्ति का भी संकेत करता है। अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि- "वैष्णव वर्ण" और धर्म की उत्पत्ति श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। जिसमें केवल गोप आते हैं। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि - "ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३। "अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु (श्रीकृष्ण) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है। ४३
और वैष्णव सभी वर्णों में श्रेष्ठ भी है इस बात की पुष्टि - पद्म पुराण के उत्तराखण्ड के अध्याय(६८ ) श्लोक संख्या १-२-३ से होती है जिसमें भगवान शिव नारद से कहते हैं।
महेश्वर उवाच- शृणु नारद! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१। तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मिसाम्प्रतम्।२। विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवःश्रेष्ठ उच्यते ।३। अनुवाद:- १-महेश्वर- उवाच ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं।१।
२-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।
३-चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाते है; और सभी वर्णों मे वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता हैं।३। "पद्म पुराण उत्तराखण्ड अध्याय(६८ श्लोक संख्या १-२-३।
यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को व्याकरणिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में विष्णु से ही वैष्णव शब्द की ब्युत्पत्ति बताई गई है-
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है। कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं। वैष्णव वर्ण को ही पञ्चंमवर्ण भी कहा जाता है। पञ्चंमवर्ण के गोपों की उत्पत्ति सर्वप्रथम गोलोक में स्वराट विष्णु अर्थात श्रीकृष्ण के रोम कूपों से हुई है। गोप वैष्णव वर्ण के प्रमुख सदस्य पति होने के कारण ये ब्रह्मा जी के चतुर्वर्ण से परे हैं। इस बात को इसके पिछले अध्याय- (चार) में बताया जा चुका है। वहां से वैष्णव वर्ण तथा गोपों की उत्पत्ति की विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।
इसी क्रम में अब हमलोग जानेंगे कि ब्रह्मा जी के "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति कैसे हुई। _____________________________
यदि विसर्ग से पहले व बाद में दोनों स्थानों पर हृस्व ‘अ’ आ जाए तो विसर्ग ‘ओ’ में परिवर्तित हो जाता है तथा बाद वाले ‘अ’ के स्थान पर हृस्व अ (ऽ) आ जाता है।
कः + अपि = कोऽपि
सः + अपि = सोऽपि
सः + अहम् = सोऽहम्
देवः + अस्ति = देवोऽस्ति
नरः + अवदत् = नरोऽवदत्
छात्रः + अयम् = छात्रोऽयम्
2. सूत्र – हशि च
यदि विसर्ग से पूर्व हृस्व ‘अ’ आ जाए और बाद में ‘अ’ या वर्ग के तीसरे, चौथे या पांचवें वर्ण या य, र, ल, व आए तो विसर्ग ‘ओ’ में परिवर्तित हो जाता है।
मनः + हरः = मनोहरः
यशः + गानम् = यशोगानम्
छात्रः + हस्ती = छात्रोहस्ती
मनः + विकारः = मनोविकारः
मनः + रथः = मनोरथः
मृगः + धावति = मृगोधावति
कृष्णः + जयति = कृष्णोजयति
कर्णः + ददाति = कर्णोददाति
यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ आए तथा बाद में भिन्न स्वर या कोई घोष वर्ण हो तो विसर्ग का लोप (हट जाना) हो जाता है।
रामः + इच्छति = रामिच्छन्ति
सुतः + एव = सुतेव
सूर्यः + उदयति = सूर्युदयति
अर्जुनः + उवाच्च = अर्जुनुवाच्च
नराः + ददन्ति = नराददन्ति
देवाः + अत् = देवात्
3. सूत्र – ससजुषोरूः
यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ से भिन्न कोई स्वर हो वह बाद में कोई स्वर या घोष वर्ण हो तो विसर्ग ‘र’ में परिवर्तित हो जाता है।
मुनिः + अत्र = मुनिरत्र
रविः + उदेति = रविरुदेति
निः + बलः = निर्बलः
कविः + याति = कविर्याति
धेनुः + गच्छति = धेनुर्गच्छति
नौरियम् = नौः + इयम्
गौरयम् = गौ + अयम्
श्रीरेषा = श्रीः + ऐसा
4. सूत्र – रोरि
यदि पहले शब्द के अन्त में ‘र्’ आए तथा दूसरे शब्द के पूर्व में ‘र्’ आ जाए तो पहले ‘र्’ का लोप हो जाता है तथा उससे पहले जो स्वर हो वह दीर्घ स्वर में परिवर्तित हो जाता है।
निर् + रसः = नीरसः
निर् + रवः = नीरवः
निर् + रजः = नीरजः
प्रातारमते = प्रातर् + रमते
गिरीरम्य = गिरिर् + रम्य
अंताराष्ट्रीय = अंतर् + राष्ट्रीय
शिशूरोदिति = शिशुर् + रोदिति
हरीरक्षति = हरिर् + रक्षति
5. सूत्र- द्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः
ढ़कार से परे यदि ढ़कार हो तो पूर्व ढ़कार से पहले वाला स्वर दीर्घ हो जाता है तथा पूर्व ‘ढ़्’ का लोप हो जाता है।
लिढ़् + ढः = लीढ़ः
लिढ़् + ढ़ाम् = लीढ़ाम्
अलिढ़् + ढ़ः = अलीढ़ः
लिढ़् + ढ़ेः = लीढ़ेः
6. सूत्र- विसर्जनीयस्य स
यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर हो तथा बाद में
च या छ हो तो विसर्ग ‘श’ में परिवर्तित हो जाता है।
त या थ हो तो विसर्ग ‘स’ में परिवर्तित हो जाता है।
ट या ठ हो तो विसर्ग ‘ष’ में परिवर्तित हो जाता है।
कः + चौरः = कश्चौरः
बालकः + चलति = बालकश्चलति
कः + छात्रः = कश्छात्रः
रामः + टीकते = रामष्टीकते
धनुः + टंकारः = धनुष्टंकारः
रामः + ठक्कुरः = रामष्ठक्कुरः
मनः + तापः = मनस्तापः
नमः + ते = नमस्ते
रामः + तरति = रामस्तरति
पदार्थाः + सप्त = पदार्थास्सप्त
7. सूत्र- वाशरि
यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर है और बाद में शर् हो तो विकल्प से विसर्ग, विसर्ग ही रहता है।
अब एक रहस्यमय गुप्त वृत्तान्त प्रकाशित करता हूँ। विराट् ब्रह्म के चरणों से दो तत्त्व की उत्पत्ति हुई थी। एक तो शूद्रवर्ण और दूसरे स्याही के स्वामी, जिनका नाम था – सर्व। यही सर्व बाद में चित्र, और उसके बाद चित्रगुप्त के नाम से कैसे प्रसिद्ध हुए, इसके विषय में वर्णन करता हूँ। जब चित्रगुप्त की नियुक्ति यमराज के यहाँ कर्मलेखक के रूप में हो गयी तो उन्होंने अपने तीन स्वरूप बनाए। आचारनिर्णयतन्त्र में रहस्यकथा है –
सरल शब्दों में इसका अर्थ है कि विराट् ब्रह्म के चरणों से दो की उत्पत्ति हुई – शूद्रवर्ण एवं स्याही के स्वामी ‘सर्व’। इन अपने कुल को प्रकाशित करने वाले, पवित्रताप्रेमी सर्वदेव ने सर्वाणीहृदय नाम वाले ब्राह्मण से बगलामुखी महाविद्या का मन्त्र ग्रहण करके उनकी साधना की और सर्वाणीहृदय मुनि की कृपा से भक्तिपूर्वक (देवी से) तीनों लोकों का आधिपत्य मांगा। फिर उन्होंने गुरु से कहा कि आप ही मेरी बगलामुखी हैं (गुरु और इष्ट में भेद न देखते हुए)। तो गुरु ने कहा कि पहले आप (पृथ्वी में) राज्य का उपभोग करें और उसके बाद तीनों लोकों का आधिपत्य प्राप्त करके सुखी होंगे। गुरु की आज्ञा और ब्राह्मणों का सत्कार करने से वे मसीश (स्याही के स्वामी) सर्वदेव राज्य का उपभोग करने लगे और फिर उस शरीर को छोड़कर उन्होंने अपने तीन स्वरूप बनाए – चित्रगुप्त, चित्रसेन और चित्राङ्गद। इन तीनों रूपों से वे क्रमशः स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल में दीर्घकालिक राज्य करने लगे। इनमें जो चित्रगुप्त थे, उन्होंने मन्त्रबल से अपना वंश बढ़ाने की इच्छा नहीं की, अपितु देवता बनना चाहा एवं वे ‘कुल्ल’ नामक ब्राह्मण से महाविद्या की दीक्षा लेकर यमराज के पास चले गए। वहाँ स्वर्गलोक, मर्त्यलोक तथा पाताललोक के कर्मविवेचक बन गए। दीर्घकाल के शुभ और अशुभ कर्म की विवेचना करके वे सम्पूर्णता से जैसा कहते हैं, उसके ही अनुसार यमराज प्राणियों को कर्म का फलभोग प्रदान करते हैं।
कोशग्रन्थों में अम्बष्ठ शब्द को कायस्थजाति के पर्याय के रूप में बताया गया है। विप्राद्वैश्यायामुत्पन्नः कायस्थजातिविशेषः। ब्राह्मण पुरुष यदि वैश्य वर्ण की स्त्री में सन्तान उत्पन्न करे तो उसे अम्बष्ठ या कायस्थ कहते हैं। महाराज मनु भी यही बात कहते हैं – ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्ठो नाम जायते। फिर इनका कार्य भी वर्णित है – सूतानामश्वसारथ्यमम्बष्ठानां चिकित्सितम्। रथ-घोड़े हांकना सूतजाति का कार्य है और चिकित्साकर्म अम्बष्ठों का है। अम्बष्ठ चिकित्साप्रधान जाति है। कहीं कहीं इनका कर्म महावत (हाथीवान) का भी बताया गया है। जैसा कि श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण भगवान् कुवलयापीड हाथी के महावत को कहते हैं – अम्बष्ठाम्बष्ठ मार्गं नौ देह्यपक्राम मा चिरम्।
अब प्रश्न यह है कि इस प्रकार से अम्बष्ठ अथवा कायस्थ तो वर्णसंकर हुए तो इनके लिए क्या संस्कार विधान है ? तज्जातिव्यपदेशार्थं न संस्कारार्थमिति। जातिव्यतिक्रम होने पर वर्णगत द्विजाति संस्कार तो नहीं होता है। इसमें मनुस्मृति समाधान करती है – सजातिजानन्तरजाः षट्सुता द्विजधर्मिणः। शुद्धवर्ण एवं अनुलोमसंकर की छः जातियां, जो द्विजाति के आपसी संसर्ग से उत्पन्न हुई हैं, अर्थात् ब्राह्मण पिता और क्षत्रिय माता, ब्राह्मण पिता और वैश्य माता, क्षत्रिय पिता और वैश्य माता, ये तीन सन्तान तथा ब्राह्मण-ब्राह्मणी, क्षत्रिय-क्षत्रियाणी, वैश्य-वैश्या से उत्पन्न तीन सन्तान, इन छः का वेदोक्त उपनयन आदि संस्कार होता है।
किन्तु क्या कलियुग में भी ऐसा होगा ? इसपर टीकाकारगण कहते हैं – अम्बष्ठादीनामुपनयनसंस्कारसत्त्वेऽपि इदानीन्तनानां संस्कारलोपेन शूद्रत्वमतएव इदानीं क्षत्रियादीनां शूद्रत्वमेवमम्बष्ठादीनामपि। अम्बष्ठ आदि का जनेऊ आदि में अधिकार होने पर भी, कालक्रम से संस्कार का लोप हो जाने से जैसे क्षत्रिय आदि भी संस्कारहीन होकर शूद्रत्व को प्राप्त हो जाते हैं, वैसे ही अम्बष्ठ आदि भी हो जाते हैं। आगे स्पष्ट किया कि यदि परम्परा से कई पीढ़ियों से संस्कारलोप हो गया हो, तब तो वैदिक यज्ञोपवीत आदि नहीं होगा किन्तु दो-तीन पीढ़ी से बात बिगड़ी है तो व्रात्यदोष आदि का सकुटुम्ब प्रायश्चित्त करके पुनः वैदिक संस्कार में दीक्षित हो सकते हैं – ये तु व्रात्यदोषप्रायश्चित्तमाचरन्ति तेषामुपनयनयोग्यता भवत्येव।
अब बहुत बड़ा प्रश्न यह है कि अम्बष्ठ का पर्याय कायस्थ बताया किन्तु उसका काम या तो चिकित्सक बनना है या फिर महावत जबकि कायस्थों का और स्वयं चित्रगुप्त भगवान् का भी कार्य बहीखाते का है, अतः यहाँ जिस कायस्थ को वर्णसंकर अम्बष्ठ का पर्यायवाची बताया गया है, वो भिन्न है। यह तर्क व्यवहार में युक्तियुक्त भी है, निजी रूप से मैं भी यही मानता हूँ कि जैसे गौ आदि एक ही शब्द अनेकों स्थानों पर गाय और पृथ्वी के नाम से भेदार्थ को धारण करते हैं, वैसे ही कायस्थ शब्द भी भेदार्थ को धारण करता है। अम्बष्ठ वाले प्रकरण में आया कायस्थ शब्द बहीखाते वाले कायस्थ समाज से भिन्न है।
अब मूल प्रश्न यह है कि इनका वर्ण क्या माना जाए ? ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण क्या ब्राह्मण मानें ? इस बात से स्वयं कायस्थ समाज भी सहमत नहीं होगा क्योंकि ऐसे तो पूरा विश्व ही ब्रह्मदेव के किसी न किसी रूप और भाग से ही उत्पन्न हुआ है। क्या क्षत्रिय मान लें ? क्योंकि स्कन्दपुराण में कायस्थ चित्रगुप्त को सूर्यवंशी बताया गया है, ग्रहयज्ञों में सूर्यदेव को कश्यपपुत्र, रक्तवर्ण क्षत्रिय बताया गया है – क्षत्रियं काश्यपं रक्तम्। और सूर्यपुत्र यमराज और चित्रगुप्त सबों पर शासन करते हैं, राजा के समान न्याय करके दण्ड आदि देते हैं, तो कायस्थों को क्षत्रिय मान लिया जाए ? अथवा क्या इन्हें वैश्यवर्ण का माना जाए क्योंकि ये व्यापार आदि का और अन्य विषयों का हिसाब रखते हैं ? या फिर जैसा कि कालान्तर में संस्कारलोप होने से क्षत्रिय एवं अन्य कायस्थोपाख्य अम्बष्ठ आदि शूद्रतुल्य हो गए, स्वयं चित्रगुप्त के मूलरूप सर्वसंज्ञक देवता भी शूद्रवर्ण के साथ ही विराट् ब्रह्म के चरणों से उत्पन्न हुए तो इन्हें शूद्रवर्ण का माना जाए ? यह सब बहुत से प्रश्न कायस्थ बन्धुओं के मन में आते रहते हैं और राजनैतिक विचारधारा वाले लोग भ्रम एवं वैमनस्य बढ़ाते रहते हैं। मैं इसका सप्रमाण विवेचन प्रस्तुत करता हूँ।
भगवान् दत्तात्रेय बोले – महान् प्रज्ञा वाले, त्रिकालदर्शी मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य के पास जाकर शस्त्रधारियों में अग्रणी पितामह भीष्म ने इस प्रकार पूछा – “चारों वर्ण, आश्रम, वर्णसंकर आदि की उत्पत्ति मैंने आपके मुख से विस्तारपूर्वक सुनी। अब मैं आपके मुख से कायस्थों की उत्पत्ति का वर्णन सुनना चाहता हूँ। ये कायस्थ भगवान् विष्णु के भक्त ( वैष्णव), उदार, पूर्वज-पितरों की आराधना करने वाले, अच्छी बुद्धि से युक्त, सभी शास्त्रों के विशेषज्ञ, काव्य-अलंकार को समझने वाले, अपने समाज का भरण पोषण करने वाले और विशेषकर ब्राह्मणों का पालन करने वाले होते हैं। हे महामुनि ! इनके विषय में मैं सुनना चाहता हूँ, आप कृपया बताएं।”
पुलस्त्य मुनि बोले – हे गङ्गापुत्र भीष्म ! मैं कायस्थों की उत्पत्ति का कारण बताता हूँ, सुनो। उसे तुमने पहले नहीं सुना है। जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण विश्व बनाया जाता है, पालन किया जाता है और जिनमें यह पुनः लीन हो जाता है, उन अव्यक्त शान्तपुरुष लोकपितामह ब्रह्मदेव ने जिस प्रकार यह संसार बनाया, वह बताया हूँ। उनके मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य एवं चरणों से शूद्र की उत्पत्ति हुई। दो पैर, चार पैर, छः पैर वाले जीव, उड़ने और रेंगने वाले जीव भी उनसे ही उत्पन्न हुए। एक समय उन्होंने चन्द्रमा और सूर्य आदि ग्रहों का भी निर्माण किया।
इसके बाद ब्रह्मदेव ने कश्यपादि प्रजापतियों को आगे की सृष्टि का विस्तार करने का आदेश दिया और स्वयं समाधि में चले गए। मैं सभी श्लोकों को नहीं लिख रहा हूँ, मात्र प्रधान श्लोकों को ही प्रसङ्गवश लिख रहा हूँ। ग्यारह सहस्र वर्षों तक ब्रह्मदेव समाधि में स्थित रहे। फिर उनके शरीर से हाथों में कलम और दवात लिए हुए एक सांवला पुरुष प्रकट हुआ। उसके नेत्र कमल के समान थे, भुजाएं विशाल थीं, शङ्ख के समान गला और पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखमण्डल था। फिर ब्रह्माजी ने समाधि से निवृत्त होकर उस व्यक्ति को देखा। तब उस व्यक्ति ने ब्रह्मदेव से अपना नाम और काम पूछा।
अपने शरीर से उत्पन्न उस पुरुष की बात सुनकर ब्रह्मदेव बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा – “मेरे शरीर से उत्पन्न होने के कारण तुम्हारी ‘कायस्थ’ संज्ञा होगी। तुम संसार में चित्रगुप्त के नाम से प्रसिद्ध होगे। धर्म और अधर्म के विवेक के लिए तुम धर्मराज के लोक में निवास करोगे। वहाँ मेरी आज्ञा से तुम्हारी अचल स्थिति होगी। तुम्हारे द्वारा क्षत्रियों का धर्म पालन किया जाना चाहिए। हे पुत्र ! संसार में और भी प्रजाओं की उत्पत्ति करो।” ऐसा वरदान देकर ब्रह्मदेव अन्तर्धान हो गए।
पुलस्त्य बोले – चित्रगुप्त के जो वंशज हुए, उनके नाम इस प्रकार हैं – श्रीमद्र, नागर, गौर, श्रीवत्स (श्रीवास्तव), माथुर, अहिफण, सौरसेना, शैवसेना (सेन) आदि। इनमें वर्ण (शुद्ध) भी है और अम्बष्ठ आदि अवर्ण (वर्णसंकर) भी हैं। हे कुरुवंश के वर्द्धक भीष्म ! अब इनके कर्मों को सुनो। चित्रगुप्त ने अपने पुत्रों को पृथ्वी पर स्थापित किया और धर्म तथा अधर्म के विवेक से युक्त महामति चित्रगुप्त ने इन्हें सभी संसाधनों से युक्त उत्तम निवासस्थान देकर कहा –
पूजनं देवतानाञ्च पितॄणां यज्ञसाधनम्। वर्णानां ब्राह्मणानाञ्च सर्वदातिथिसेवनम्॥ प्रजाभ्यः करमादाय धर्माधर्मविलोकनम्। कर्त्तव्यं हि प्रयत्नेन पुत्राः स्वर्गस्य काम्यया॥ या माया प्रकृतिः शक्तिश्चण्डी चण्डप्रमर्द्दिनी। तस्यास्तु पूजनं कार्यं सिद्धिं प्राप्य दिवं गताः॥ स्वर्गाधिकारमासाद्य यतो यज्ञभुजः सदा। भवद्भिः सा सदा पूज्या ध्यातव्या सफलादिभिः॥ भवन्तं सिद्धिदा नित्यं पुत्रदा सा तु चण्डिका। तन्त्रोक्ता न सुरा पेया या न पेया द्विजातिभिः॥ वैष्णवं धर्ममाश्रित्य मद्वाक्यं प्रतिपालय। कर्त्तव्यं हि प्रयत्नेन लोकद्वयहिताय वै॥ अनुशिष्य सुतानेवं चित्रगुप्तो दिवं ययौ। धर्मराजस्याधिकारी चित्रगुप्तो बभूव ह॥
“हे पुत्रों ! देवताओं और पितरों का पूजन करना। यज्ञ आदि करना, ब्राह्मणों और अतिथियों की सेवा करना। स्वर्ग की कामना से धर्म और अधर्म का निरीक्षण करते हुए प्रजा से कर (टैक्स) संग्रह करना। चण्डासुर को मारने वाली चण्डी देवी, जो माया और प्रकृति हैं, उनकी फल आदि से पूजा करते रहना, जिससे प्रसन्न होकर वे तुम्हें कार्यों में सफलता, पुत्र और मरने के बाद स्वर्ग आदि दिव्य लोक प्रदान करेंगी। तन्त्र में जो मदिरा द्विजातियों के लिए पीने नहीं कही गयी है, उसका पान तुम भी मत मरना। विष्णु भगवान् के द्वारा वर्णित सात्विक वैष्णवाचार का आश्रय लेकर लोक और परलोक के हित की कामना से मेरे वचनों का पालन करो”, इस प्रकार से अपने पुत्रों को आदेश देकर भगवान् चित्रगुप्त दिव्यमार्ग से यमराज के यहाँ जाकर उनके अधिकारी बन गए।
पद्मपुराण के पातालखण्ड में चित्रगुप्त के दो स्वरूप बताए गए हैं। चित्र और विचित्र। ये दोनों ब्रह्मदेव के पास जाकर अपना परिचय और वृत्तान्त पूछते हैं, तब ब्रह्मदेव कहते हैं कि प्रथम कल्प के प्रथम सत्ययुग में एक उत्तम ब्राह्मण के यहाँ तुमने बहुत सेवा की थी, जिससे तुम्हें स्वर्ग मिला। फिर स्वर्गभोग करके जब ये पुनः मनुष्य बने तो इन्होंने फिर ब्राह्मणों की बड़ी सेवा की। इस निष्ठा से भगवान् विष्णु बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने वर्तमान कल्प में इन्हें ब्रह्मदेव के शरीर से उत्पन्न करके यमराज के यहाँ दण्डधर्माधिकारी बना दिया। राजनीति में निपुण, दुष्टों को दण्ड देने वाले इन यथार्थवादी कर्मलेखक चित्र और विचित्र से कायस्थों की इक्कीस जातियां निकली हैं। ये सभी कायस्थों के पूर्वज हैं –
इनके पूर्वजन्म की कथा मैंने संक्षेप में ही बता दी है। विस्तारभय से सभी मूल श्लोक मैंने नहीं दिया है। इनमें चित्र के तीन सन्तान हुईं, अथवा यूँ कहें कि चित्र ने अपनी पतिव्रता पत्नी सुभामा के माध्यम से अपने तीन स्वरूप बनाए जिनके नाम मैं बता चुका हूँ। विचित्र को अपनी पतिव्रता पत्नी भामिनी से पांच पुत्र हुए – कलीर, सुसम, सूक्ष्म, सङ्गवान् और कर्मक। ये सब बड़े पराक्रमी, धर्मात्मा और पितृभक्त थे। कश्यप ऋषि ने इन सबके वैदिक नामकरण आदि संस्कार किए, इन्हें पढ़ाया लिखाया भी इसीलिए कायस्थों के मुख्य गोत्र कश्यप के ही नाम से हैं –
इस प्रकार सबों के व्यवहार को जानने वाले आप दोनों क्षत्रियवर्ण के अन्तर्गत श्रेष्ठता को प्राप्त करेंगे। कायस्थ अक्षरजीवी (लेखन की आजीविका) वाले होंगे। आप दोनों महाशय द्विजाति के अन्तर्गत क्षत्रिय होंगे तथा यज्ञोपवीत से सम्पन्न होकर वेदादि शास्त्रों के अधिकारी होंगे। हे चित्र और विचित्र ! पूर्वजन्म के महान् पुण्यबल से आप भगवान् में चित्त को लगाकर सर्वज्ञ हो जाएंगे।
इन चित्र और विचित्र, किंवा एकतन्त्र से भगवान् चित्रगुप्त का क्या कर्म है ? पद्मपुराण के पातालखण्ड में कहते हैं –
श्रीसूतजी कहते हैं – संसार में पापियों के द्वारा दुःख ही दुःख भोगने में आता है। ये सब पापी नरक भेजे जाते हैं। प्राणियों के अच्छे और बुरे कर्म को चित्र एवं विचित्र बिना कुछ जोड़े या घटाए, यथार्थतः लिखते रहते हैं। शरीर के जन्म लेने से मरने तक उस जीव ने जो किया है, उसे ये जीव के सम्पूर्ण जीवन का अवलोकन करके, बिना भेदभाव के स्वतः लिखते रहते हैं।
कायस्थों के लिए व्यापार भी बताया गया है – व्यापारोऽपि प्रकर्त्तव्यः कालिकापि हि सेव्यते। कालिकापूजन भी बताया गया है क्योंकि स्याही-दवात की देवी कालिका ही हैं। राजा सौदास को अपने पाप के कारण नरक की प्राप्ति, फिर चित्रगुप्तपूजन के प्रभाव से उनका उद्धार आदि सब माहात्म्य व्रतकथाओं में विस्तार से मिलते ही रहते हैं, अतः मैं उनका उल्लेख नहीं कर रहा हूँ। पूजाविधि और व्रतकथा प्रचलित विषय है। अब प्रश्न उठता है कि क्या कायस्थों को स्वयं को क्षत्रिय वर्ण के अन्तर्गत मानना चाहिए ? उत्तर है – नहीं।
अब आपको सन्देह हुआ होगा कि अभी तो मैंने स्वयं ब्रह्मदेव के वाक्य से कायस्थों को क्षत्रिय सिद्ध किया, फिर क्या समस्या आ गयी ? मैं समझाता हूँ। आपको आचारनिर्णयतन्त्र का प्रमाण स्मरण होगा, जहाँ बगलामुखी की उपासना के फलस्वरूप राज्यभोग के अनन्तर भगवान् सर्व ने तीनों लोकों पर शासन करने के निमित्त स्वर्गलोक में चित्रगुप्त, मर्त्यलोक में चित्रसेन और पाताललोक में चित्राङ्गद का स्वरूप बनाया था, उस प्रकरण पर वापस आते हैं। महाराज चित्रसेन के बहुत से पुत्र हुए जिसमें बारह प्रधान बताता हूँ –
वसु (बासु), घोष (बोस), गुह, मित्र, दत्त, नाग, नाथ, दास, देव, सेन, पालित (पाल) और सिंह (सिन्हा), ये चित्रसेन के बारह प्रधान शुद्धवंशीय प्रसिद्ध पुत्र हुए। चित्रसेन के ही वंश में आगे महाराज चन्द्रसेन हुए। जब भगवान् परशुराम ने माहिष्मती के राजा कार्तवीर्य सहस्रार्जुन का संहार किया और अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध हेतु समस्त दुष्ट क्षत्रियों के वध का सङ्कल्प किया तो भयभीत होकर सभी क्षत्रिय इधर उधर भागने लगे। इसमें राजा चन्द्रसेन की गर्भवती पत्नी महामुनि दाल्भ्य के आश्रम में शरण हेतु गयी। तब परशुरामजी भी पीछे पीछे गए।
दाल्भ्य ऋषि ने परशुरामजी का सत्कार करके मध्याह्न भोजन कराया और उनके आगमन का कारण पूछा तो परशुरामजी ने कहा कि यहाँ महात्मा राजर्षि चन्द्रसेन की गर्भवती पत्नी आयी है, उसके गर्भ को नष्ट करने आया हूँ। दाल्भ्य ने कहा कि मैं कुछ मांगूंगा तो आप देंगे ? परशुरामजी ने स्वीकृति दे दी तो दाल्भ्य ने उस बच्चे को ही मांग लिया। परशुरामजी ने कहा कि ठीक है, अब जिस बच्चे को मैं मारने आया था, उसे ही आपने मांग लिया है तो मैं उसे नहीं मारूंगा किन्तु फिर मेरी प्रतिज्ञा का क्या होगा ? दाल्भ्य ऋषि ने कहा कि इस बालक को मैं क्षत्रियत्व से बहिष्कृत करके अपने गोत्र में स्थान दूंगा और चित्रगुप्त की व्यवस्था के अन्तर्गत वैश्यवर्ण में इसकी प्रतिष्ठा होगी। परशुरामजी ने कहा कि ठीक है, इस प्रकार मेरी प्रतिज्ञा बच जाएगी। यह बालक माता के शरीर में स्थित हुआ ही आपके द्वारा रक्षित हुआ है तो यह और इसके वंशज अब कायस्थ कहलाएंगे जो चित्रगुप्त के अन्तर्गत होंगे। फिर वे कायस्थ धर्मनिष्ठ, सत्यवादी, सदाचारी, श्रीविष्णु एवं श्रीशिव के उपासक एवं देवता, ब्राह्मण, पितर और अतिथियों की पूजा करने वाले हुए। इस कथा के कुछ आधारभूत श्लोक स्कन्दपुराण के रेणुकामाहात्म्य में देखें –
कायस्थ मसीश (जो बाद में चित्रगुप्त कहलाए), उनका बड़ा विस्तृत समाधान श्रीशिवजी ने आचारनिर्णयतन्त्र के ३७वें पटल में वर्णन किया है। पूरे प्रसङ्ग के सभी श्लोकों को तो लिखना सम्भव नहीं है क्योंकि लेख बहुत बड़ा हो जाएगा किन्तु प्रधान घटनाक्रम और श्लोकों को लिख रहा हूँ।
ब्रह्मदेव के चरणों से उत्पन्न होकर और दिव्य लेखनी तथा स्याही के स्वामी होकर भी मसीशदेव वैदिक लेखन नहीं कर पाते थे तो उन्हें तपस्या करने की इच्छा हुई किन्तु क्या और कैसे करूँ, इसमें कोई निर्णय न ले सकने के कारण वे तपस्वी ब्राह्मणों के पास जाकर सेवा की इच्छा प्रकट करने लगे। कोई ब्राह्मण स्नान, तपस्या आदि करने जाते तो बड़ी भक्ति से हाथ जोडकर उनके पास जाकर भूखे प्यासे खड़े रहते और कहते कि आपके आश्रम तक आसन और सामग्रियों को मैं मस्तक पर ढोकर ले जाऊंगा। किन्तु मसीश देव को कोई ब्राह्मण अपना आसन आदि छूने नहीं देते क्योंकि क्षत्रिय और वैश्यवर्ण के समान होकर भी उन्होंने तबतक द्विजातिविहित वेदोक्त उपनयन आदि की दीक्षा नहीं ली थी। श्लोक देखें –
फिर शिवजी ने बताया कि मसीशदेव ने आलस्य के कारण अपना उपनयन आदि कराकर वेदों का अधिकार प्राप्त नहीं किया था, फलतः दिव्य कलम और स्याही से युक्त होने के बाद भी वे लौकिक लेखन तो कर लेते थे किन्तु वैदिक लेखन नहीं कर पाते थे। सत्ययुग बीत गया, त्रेतायुग और द्वापरयुग भी बीत गया किन्तु वे मसीशदेव ब्राह्मणों की सेवा करने का प्रयास नहीं छोड़ रहे थे। बाद में ब्राह्मणों ने उनकी निष्ठा देखकर कृपा करके उन्हें बगलामुखी महाविद्या का मन्त्र प्रदान किया, जिसके फलस्वरूप उनमें संस्कार का जागरण हुआ और वे आसन आदि मस्तक पर ढोने लगे। इस प्रकार कलियुग में कायस्थ ब्राह्मणों के मार्गदर्शन में चलने लगे। श्लोक देखें –
इस प्रकार सबसे प्रथम कलियुग में मसीशदेव ब्राह्मणों की सेवा करते हुए बगलामुखी की तपस्या में लीन रहे। उसी काल में एक सुयज्ञ नाम के राजा हुए जिन्होंने गोमेध यज्ञ करने हेतु चार योजन के क्षेत्र में रहने वाले सभी ब्राह्मणों को आमन्त्रित किया। इसमें एक समस्या यह हो गयी कि कार्यभार के कारण एक सुतपा नाम के श्रेष्ठ ब्राह्मण को वे निमन्त्रण भेजना भूल गए। सुतपा की पत्नी ने यह जानकर कहा कि लगता है, राजा ने आपको मूर्ख ब्राह्मण समझा होगा, इसीलिए निमन्त्रण नहीं भेजा। आप तो बस मेरे सामने ही पण्डित बने फिरें, बाहर आपकी कोई प्रतिष्ठा नहीं। सबको बुलाया, मात्र मुझे नहीं, यह सोचकर सुतपा को खिन्नता तो हुई किन्तु उन्होंने अपनी पत्नी को समझाते हुए कहा कि देवि ! ब्राह्मण को सन्तोषी होना चाहिए, अधिक की कामना नहीं करनी चाहिए। हमें जीवन चलाने के लिए जितने की आवश्यकता है, उतने का प्रबन्ध तो है ही न। विद्वान् होकर भी सदाचारी न हो तो कैसा विद्वान् ? उससे श्रेष्ठ तो वह मूर्ख है जो अधिक नहीं पढ़ा किन्तु कम से कम सन्ध्याकर्म आदि सदाचार तो करता है।
इसपर उनकी पत्नी ने कहा कि अच्छी बात है। आपकी यह महानता आप ही अपने पास रखें। आप श्रेष्ठ ब्राह्मण बने रहें, मैं आपके सामने ही मरने जा रही हूँ। मेरे ये कांसे के कंगन ही मेरे अन्तिम साथी होंगे। इस गृहक्लेश से व्यथित होकर सुतपा ने कहा कि अभी तुम्हारे मन में धन की तीव्र इच्छा है इसीलिए मेरी बात नहीं समझ रही हो और ऐसा कहकर बिना निमन्त्रण के ही यज्ञ कर रहे राजा सुयज्ञ के पास गए और बोले कि बिना बुलाए कहीं जाना ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए मरण के समान है, फिर भी मैं तुम्हारी सभा में आया हूँ। तुम मेरी बात सुनो, मेरी अवहेलना करने के कारण तुम्हारा यह यज्ञ श्रीहीन और भ्रष्ट हो जाए।
ब्राह्मण्युवाच सुमानुषत्वं ते कान्त सुविप्रत्वं धव त्वयि। तिष्ठत्वेव चिरं विप्र तेऽन्तौ मे मरणं शिवम्॥ कांस्यकङ्कणवलयौ सङ्गिनौ मे मृतावधि। सुतपा उवाच प्रिये ते ह्यधुना तीव्रं धनान्तःकरणं सदा। विना निमन्त्रितेनापि गत्वा चानीयते धनम्॥ इत्युक्त्वा सुतपा कान्तां गत्वा राजसभां प्रिये। रान्तं सुयज्ञं वरणं प्रोवाच नृपतिं द्विजः॥ रे सुयज्ञ विनाह्वानैरगच्छं ते सभामहम्। विप्राणां मरणं राजन् क्षत्रियाणां तथैव च॥ कृतं तदपि नाहं रे त्वया दृष्टः स्वचक्षुषा। भ्रष्टो भवतु ते यज्ञः श्रीश्च यातु स्थलान्तरम्॥
ऐसा शाप देकर सुतपा वहाँ से जाने लगे तो राजा सुयज्ञ भयभीत हो गए। उनका पूरा राज्य, धन, खजाना, सब नष्ट हो गया। उन्हें समझ ही नहीं आया कि क्या हुआ है। अङ्गिरा आदि यज्ञकर्ता महर्षि भी जाने लगे तो राजा सुयज्ञ अत्यन्त विनम्रता से महर्षि सुतपा के पास जाकर बोले कि मैंने जानबूझकर कोई गलती नहीं की है, मुझसे असावधानी में यह अपराध हो गया है कि आपको निमन्त्रण नहीं प्राप्त हो सका। फिर अङ्गिरा आदि ने भी सुतपा मुनि से क्षमा याचना की। राजा सुयज्ञ बोले कि ब्राह्मण तो पृथ्वी के चलते फिरते देवता हैं, साक्षात् करुणा और दया की मूर्ति होते है, आप मेरे इस अज्ञात पाप को क्षमा करें। इस बात पर सुतपा ने कहा कि कोई बात नहीं, राजन् ! आपका कल्याण हो। आप अपने यज्ञ को पूर्ण करें।
फिर राजा सुयज्ञ ने भक्तियुक्त चित्त से अपनी राजसभा में सुतपा का विधिपूर्वक सम्मान करके उन्हें दस हज़ार चांदी के सिक्के निवेदित किए। फिर राजा सुयज्ञ ने कहा कि एक ब्राह्मण के अपमान से इतना अनर्थ हो गया। महाराज ! एक प्रश्न का उत्तर दें। अभी तो घोर कलियुग आने वाला है। उसमें ब्राह्मणों का तो बहुत अपमान होगा। उस समय क्या कोई ब्राह्मणों का सम्मान करेगा ? तब सुतपा ने कहा – “सुयज्ञ ! ये जो तुम्हारे सामने ब्राह्मणों का आसन अपने मस्तक पर लेकर खड़े हैं, इन्हें जानते हो ? ये साक्षात् ब्रह्माजी के शरीराङ्ग चरणों से उत्पन्न मसीशदेव है। इनकी विनम्रता देखो। इनके ही वंशज कायस्थ होंगे जो ब्राह्मणों का ईश्वर के समान सम्मान करेंगे। महाविद्याओं की उपासना करने वाले वे कायस्थ गुण में क्षत्रिय के समान होंगे। पहले क्षत्रियों के अभाव में और फिर वैश्यों के अभाव में ये कायस्थ ही कलियुग में ब्राह्मणों के सम्मान की रक्षा करने वाले होंगे। सुयज्ञ ! इन मसीश कायस्थों की बुद्धि कल्याणकारिणी होगी। ये ब्राह्मणों के प्रिय भक्त होकर महाविद्या की उपासना करते हुए उनकी सेवा और वन्दना करेंगे।
तब सुयज्ञ ने कहा कि मेरे पिताजी ने मुझे बताया था कि परब्रह्म का वास्तविक ज्ञान ब्राह्मण को ही हो सकता है, अन्य जातियों को नहीं। ब्राह्मण तो बिना स्वार्थ के ही सबों के कल्याण की कामना करता हुआ आशीर्वाद देता है। जो ब्राह्मणों की अवहेलना करता है, उनकी बात नहीं मानता, ऐसा व्यक्ति गुरु की अवहेलना का पाप भोगता है। जो ब्राह्मण का सम्मान नहीं करता है, वह व्यक्ति सन्दिग्ध जाति का है। ब्राह्मण संसार का निर्माण और विनाश दोनों ही कर सकते हैं। ब्राह्मण कदाचित् रुष्ट होकर डांटे भी तो उसे अपना कल्याण समझकर सहन करना चाहिए। एक सच्चे ब्राह्मण का लक्षण यही है कि वह लोभरहित होता है। श्रद्धा से लोग उसे जो दे दें, स्वीकार कर लेता है। सच्चा ब्राह्मण वही है जो किसी से कपट नहीं करता है और बिना अपराध के शाप नहीं देता, ब्राह्मण सदैव दयालु होते हैं, यह सब मेरे पिताजी ने बताया था। हे सुतपा मुनि ! आपका मैं अपराधी हूँ, आपको जो उचित लगे, आप वह मेरे साथ करें। इसके बाद प्रसन्न मन वाले सुतपा मुनि ने राजा सुयज्ञ को कोई वरदान मांगने कहा।
सुयज्ञोवाच हे नाथ सुतपो विप्र श्रुतं यन्मेऽङ्गकृन्मुखात्। कृपया शृणु तत्सर्वं ते जातेर्महिमानमु॥ ब्राह्मणो ब्रह्म जानाति नान्यजातिरिति श्रुतिः। ब्रह्मज्ञानी सदा विप्रो न चेद्ब्राह्मणसंज्ञकः॥ विना प्रयुक्तिं यो विप्र उपकारी स्वयं भवेत्। आशीः करोति ब्रूते च क्षत्रादीनां शिवं वचः॥ स एव साक्षाद्ब्रह्मेति विप्राणां जातिलक्षणम्। ब्राह्मणाज्ञावचो ये न गृह्णन्ति पालयन्ति च॥ गुर्वाज्ञालङ्घनं पापं स्पृशेत्तेषां शरीरतः। पित्रेति सकलं चोक्तं ते च सन्दिग्धजातयः॥ वशीकारादि सकलं सृष्टिस्थितिलयञ्च यत्। शक्नुवन्ति हि कर्तुं ते विप्राः पित्रेति चोक्तमु॥ विनायासैर्मुदा यो यद्विप्राय शक्तितो ददत्। मुदा तदेव गृह्णाति विप्राणामिति लक्षणम्॥ केषामपि न कापट्यं कुरुते ब्राह्मणः क्वचित्। विनापराधैर्न शपेदिति तज्जातिलक्षणम्॥ ×××××××××××××××××× दयालुश्च सदा विप्र इति पुत्र हृदि स्मरन्। भीत्या भक्त्या सदा पूज्यः पितेति ब्रूतवांश्च मे॥ ×××××××××××××××××× शृणु पुत्र प्रवक्ष्यामि सावधानं समाचार। घ्नन्तं बहुशपन्तं वा नैव द्रुह्यति भूसुरम्॥ सुतपो नाथ मे पित्रा यद्यदुक्तं तदुक्तवान्। त्वञ्चापि ब्राह्मण ब्रह्म यथारुचि तथा कुरु॥ श्रुत्वैतत् सुतपा विप्र उवाच परमादरम्। राजन् वरं वृणु वृणु यत्ते मनसि वाञ्छितम्॥
राजा सुयज्ञ ने भविष्य को ध्यान में रखकर कहा कि आगे जब परशुरामजी क्षत्रियों का विनाश करेंगे तो वे मुझे भी मारने आएंगे। उस समय मेरी रक्षा हो जाए, ऐसा आप मुझे वरदान दें। सुतपा ने कहा कि चिन्ता मत करो। विन्ध्याचल से नैर्ऋत्य दिशा में स्वर्णदा नदी के मध्य बारह कोश विस्तार का एक टापू है। अपने यज्ञ को पूर्ण करके तुम वहीं चले जाना, वहाँ सुरक्षित रहोगे। भविष्य में जब परशुरामजी तुम्हें मारने आएंगे तो तुम बचे रहोगे। यदि फिर भी वे तुमपर आक्रमण करते हैं तो वे काणे हो जाएंगे। परशुरामजी के शान्त होने पर अगले सत्ययुग में तुम पुनः जम्बूद्वीप के राजा बन जाओगे, तब तक बीजरूप से वहीं निवास करो। मैं तुम्हारी भक्ति से सन्तुष्ट हूँ, कोई और भी इच्छा हो तो वरदान मांग लो।
सुतपा उवाच यज्ञं समाप्य सुखतः प्रगच्छेर्विन्ध्यनैर्ऋतिम्। तत्र वै स्वर्णदानद्या मध्ये द्वीपोऽस्ति सुन्दरः॥ द्वादशक्रोशमानी हि तद्गत्वा वसतिं कुरु। यदा परशुरामस्ते कच्चिच्छेत्ता भविष्यति॥ भविष्यति च काणः स नय ते वाञ्छितं वरम्। ततः पुनः कृते राजन् जम्बूद्वीपेश्वरो भवान्॥ भविष्यतीति त्वं बीजरूपेण तिष्ठ तत्र हि। वरं ते वाञ्छितं गृह्ण तुष्टोऽहं भक्तितस्तव॥
इसके बाद राजा सुयज्ञ ने मात्र उत्तम बुद्धि और विप्रभक्ति का वरदान मांगा और यज्ञ को पूर्ण करके बताए गए सुरक्षित स्थान पर चले गए। वहीं पर फिर मसीशदेव ने पहले बतायी गयी कथा के अनुसार उनका राज्यभार सम्भाला और बाद में स्वयं को स्वर्गलोक के लिए चित्रगुप्त, मर्त्यलोक के लिए चित्रसेन और पाताललोक के लिए चित्राङ्गद, इन तीन रूपों में विभाजित कर लिया। इसमें बगलामुखी का जप करके चित्रगुप्त के स्वर्ग चले जाने और चित्रसेन के पुत्रप्राप्ति के निमित्त बगलामुखी की तपस्या में लग जाने के कारण पृथ्वी का शासन चित्राङ्गद करने लगे। उन्होंने भी बगलामुखी का मन्त्र ग्रहण करके जप करना प्रारम्भ किया किन्तु उनके जप का उद्देश्य ब्राह्मण बनना था।
उन्होंने दूसरे ब्राह्मणों का सत्कार करना छोड़ दिया, यहाँ तक कि सम्मान से देखना भी बन्द कर दिया, गुरु की पूजा भी छोड़ दी। पांच वर्ष तक मात्र शाम को फल खाकर वे जप करते रहे तो इस बात से ब्राह्मणों को बड़ा क्षोभ हुआ और उन्होंने चित्राङ्गद को पाताल जाने का शाप दे दिया। उन्होंने कहा कि तुम अज्ञान के कारण उन्मत्त व्यक्ति के समान यह क्या अधर्म कर रहे हो ? तुम शीघ्र ही पाताल चले जाओ और वहीं बैठकर बगलामुखी को जपते रहना। अपने अपराध का बोध होने पर चित्राङ्गद को बड़ी ग्लानि हुई और उन्होंने अपना दण्ड स्वीकार करके क्षमा मांगी। तब ब्राह्मणों ने कहा कि वत्स ! तुम चिन्ता मत करो। तपस्या के फलस्वरूप वरदान मिलने पर देवत्त्व की प्राप्ति तो हो सकती है किन्तु ब्राह्मणत्व की नहीं। अभी दस हज़ार वर्ष तक तुम पाताल में नागों के राजा बनकर रहो। तुम्हारा जप निष्फल नहीं होगा, उसके बाद जप के प्रभाव से तुम तीनों लोकों के इन्द्रतुल्य शासक बन जाओगे और फिर अन्त में तुम्हारा मोक्ष भी हो जाएगा। हम सदैव तुम्हारे कल्याण की कामना करते हैं।
बगलेति मनुं प्राप्य विप्रोऽस्मि इति वाञ्छया। तपश्चकार पञ्चाब्दं नान्नं किञ्चिद्गृहीतवान्॥ फलमूलादिकं किञ्चित् सायमत्ति यथा मिलेत्। विहाय विप्रस्य गुरोरपि पूजाञ्च पार्वति॥ जपेन्नित्यं हि बगलामन्यविप्रञ्च नेक्षयन्। ज्ञात्वेति ब्राह्मणाः सर्वे ऊचुश्चित्राङ्गदं क्रुधा॥ ×××××××××××××××××× रे चित्राङ्गद ! अज्ञस्त्वं वत्स विप्रत्वमिच्छसि । कदाप्युपानन्मस्तस्थो नैवेति न हि बुध्यसि॥ वत्स शीघ्रमधो गच्छ चिरं कुरु तपो मुदा। ततः श्रुत्वेति शापं स भक्त्यातिशयमानसः॥ चित्राङ्गद उवाच हे ब्राह्मणा हे गुरवो मामेवातिनिरागसम्। कथं शेपुर्भवन्तो हि विप्ररूपा ह ईश्वराः॥ मुखाद्वो श्रुतवान् यद्यत्क्षतिः का तत्समाचरन्। उपास्यो यस्तद्भवितुं सर्वे ह्युद्योगिनः स्युरु॥ जानेऽहं ब्राह्मणो ब्रह्म स्वेच्छया विविधाकृतिः। नानालीलामाचरितुं मानुषाकृतिरप्यभूत्॥ ×××××××××××××××××× ब्रुवन्ति चातिमधुरं क्रन्दन्त इव ते द्विजाः। हे चित्राङ्गद हे विद्वन् दौर्बल्यं त्यज वत्सक॥ दुश्चिन्तां कुरु मा तात भद्रं ते कथयामि ते। जनस्तपोबलेनैव सर्वं भवितुमर्हति॥ नार्हतीशं विना तात ब्राह्मणो भवितुं किल। इतीश्वराज्ञा वेदेऽस्ति प्रतिजानीहि तत्त्वतः॥ वरं प्राप्नोति देवत्वं ब्राह्मणत्वं कदापि न। यथामरत्वमीशेन विना क्वापि न शासने॥ मा दुःखी त्वमधो गच्छ सुखेन बगलां जप। कलेर्दशसहस्राणि नागलोकेश्वरो भव॥ ततस्त्रिलोकनाथस्त्वमिन्द्रतुल्यो भविष्यसि। राज्यं भुक्त्वा ततो नैव पुनरावर्त्तनं तव॥ सदा वयं तव शिवं चिन्तयामो न भीं कुरु। के जानन्तीदृशं त्वां हि भक्तश्रेष्ठं विवेचकम्॥ (आचारनिर्णयतन्त्र, पटल – ३७ के अंश)
भीष्म पितामह को उनके पिता महाराज शान्तनु ने इच्छामृत्यु का वरदान दे तो दिया था किन्तु बिना देवसमर्थन के यह वरदान फलीभूत नहीं होता। अतः पितामह भीष्म ने निम्न मन्त्रों से भगवान् चित्रगुप्त की आराधना की थी –
इन मन्त्रों में चित्रगुप्त को समुद्रमन्थन में लक्ष्मीदेवी के साथ उत्पन्न बताया गया है। अनादिनिधना देवाः उक्ति के अनुसार देवशक्तियों का जन्म और मरण नहीं होता, वे बस समयानुसार विभिन्न निमित्तों से प्रकट होती रहती हैं, अतः यह भी सही है। इसी नियम से श्रीशिवपार्वती के विवाह में गणपतिपूजन भी हुआ था। भगवान् चित्रगुप्त ने भीष्म पितामह को इच्छामृत्यु का वरदान भी दिया –
सर्वप्रथम सर्वनामक मसीशदेव उत्पन्न हुए, जिन्होंने तीनों लोकों के लिए चित्रगुप्त, चित्रसेन और चित्राङ्गद नामक रूप बनाए। इसमें चित्रगुप्त भी चित्र और विचित्र, नामों से प्रसिद्ध हैं। बंगाल के श्रीरामानन्दशर्माकृत कुलदीपिका ग्रन्थ में बंगाल के कायस्थों को शूद्रवर्ण में गिना है क्योंकि कालान्तर में संस्कारभ्रष्ट हो जाने के कारण उनका यज्ञोपवीत, वेदाध्ययन आदि कई पीढ़ियों तक बाधित रहा। मूलतः कायस्थों की गणना क्षत्रियवर्ण में थी किन्तु परशुरामजी के अवतार के बाद आपाततः इन्हें वैश्यवर्ण में अवरोहण करना पड़ा, जैसे महाराज अग्रसेन मूलतः क्षत्रिय होकर भी दयापरक भाव से वैश्यवर्ण में अवरोहण कर गए थे। जिन कायस्थों में यज्ञोपवीत और वेदाध्ययन की परम्परा अभी तक है, वे वैश्यवर्ण में हैं। जिसमें कुछ पीढ़ी पहले थी किन्तु अभी नहीं है, वे विड्बन्धु हैं, व्रात्यशोधन प्रायश्चित्त करके पुनः वैश्यवर्ण में आ सकते हैं। जिनके अज्ञात पीढियों से यज्ञोपवीत आदि लुप्त हो चुके है, ऐसे कायस्थ वेदोक्त कर्म में प्रत्यक्षतः अनधिकृत होकर शूद्रतुल्य गिने जाएंगे, यह मैं समझता हूँ।
अयं कल्लिनाथमते सोमेश्वरमते च षड्रागाणां मध्ये तृतीयरागः । सोमेश्वरमते अस्य गानसमयः शरदृतुः प्रातःकालश्च । कल्लि- नाथमते अस्य रागिण्यः षट् । यथा, त्रिवेणी १ स्तम्भतीर्था २ आभीरी ३ कुकभ् ४ वरारी ५ सावीरी ६ । सोमेश्वरमते तु विभासा १ भूपाली २ कार्णाटी ३ वडहंसिका ४ मालश्रीः ५ पटमञ्जरी ६ । अस्मिन्रागे गान्धार- स्वरस्तीव्रः । ॠषभपञ्चमौ स्वरौ लुप्तौ । षड्ज- स्वरः गृहांशन्यासाः । स च हनूमन्मते भरत- मते च भैरवरागस्याष्टमपुत्त्रः । इति सङ्गीत- शास्त्रम् ॥
प्राचीन भारतीय समाज में पञ्च- पञ्चायत और पञ्चजन जैसे शब्द सामाजिक व्यवस्था में पाँच वर्णों की मान्यता व उनके निर्णयों पर आधारित पञ्चप्रथा के ही सूचक थे।
ऋग्वेद में पञ्चजन: और पञ्चकृष्टी संज्ञा पद बताते हैं । कि समाज में पांच प्रकार के व्यक्ति थे। जिनका समाज में वर्चस्व होता था ऋग्वेद में उल्लिखित पञ्चजना: शब्द पाँच जातियों के प्रतिनिधियों का वाचक है।
वेदों में लिखित पञ्चजन पाँच वर्णों के प्रतिनिधि पाँच -वर्ण ही हैं। चार वर्ण ब्रह्मा से उत्पन्न हुए - ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य और शूद्रों के रूप में वर्णित हैं। और पाँचवां वर्ण अथवा जाति विष्णु के रोम-कूपों से उत्पन्न गोपों की वैष्णव वर्ण अथवा जाति के रूप में शास्त्रों में वर्णित है। विष्णु से इनका निकट सम्बन्ध है। इस लिए ये वैष्णव है।
संसार में इस वैष्णव वर्ण से सम्बन्धित जाति को गोप कहा जाता है संसार में यही पाँच वर्ण हैं। निषाद अथवा कायस्थ कोई नये पाँचवें वर्ण नहीं है। वह तो शूद्र वर्ण के ही अन्तर्गत हैं। इसलिए निषाद जाति को पाँचवाँ वर्ण नहीं माना जा सकता है।
कुछ लोग कायस्थ जाति को पञ्चम वर्ण में स्वीकार करते हैं। कायस्थों के आदि पुरुष चित्रगुप्त ब्रह्मा की काया से उत्पन्न होने से भी ब्राह्मी सृष्टि के अन्तर्गत हैं। लेखन और गणितीय ज्ञान से सम्पन्न होने के कारण तथा प्राणीयों
के चरित्रों का चित्रण करने से भी ये ब्राह्मण वर्ण के समकक्ष हैं। इस लिए ये सदैव ब्राह्मी वर्ण - व्यवस्था के अन्तर्गत हैं।
भारतीय पुराणों में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्रों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण भी विद्यमान (अस्तित्व में) बताया गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में पञ्चम वर्ण के विषय में कहा गाया है।
ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।। ४३।।
अनुवाद:-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति भी इस विश्व में जानी जाती है।४३।
ध्यायन्ति वैष्णवाः शश्वद्गोविन्दपदपङ्कजम्।। ध्यायते तांश्च गोविन्दः शश्वत्तेषां च सन्निधौ।।४४।।
अनुवाद:- वैष्णव जन सदैव भगवान श्रीकृष्ण के चरण- कमलों का ध्यान करते हैं। और गोपेश्वर श्रीकृष्ण भी अपने पास में स्थित उन गोप वैष्णवो का सदैव ध्यान करते रहते हैं।४४।
उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति( वर्ण) के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / गोप- यादव लोगो को स्वीकार किया गया है । क्योंकि वैष्णव शब्द स्वराट् विष्णु (गोपेश्वर श्रीकृष्ण) के रोमकूपों से उत्पन्न वैष्णव हैं ।
सन्दर्भ:-ब्रह्मवैवर्त पुराण- ब्रह्मखण्ड अध्याय११ श्लोक संख्या (४३)
पद्म पुराण के उत्तराखण्ड के अध्याय(६८ ) श्लोक संख्या १-२-३। में भी वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता बतायी गयीं है। और वैष्णवो को संसार में सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। निम्नलिखित श्लोकों में भगवान शिव नारद से कहते हैं।
१-महेश्वर- उवाच ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं।१।
२-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।
३-चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाते है; और सभी वर्णों मे वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता हैं।३।
"पद्म पुराण उत्तराखण्ड अध्याय(६८ श्लोक संख्या १-२-३।
परम्परागत रूप से हम देखते हैं। ग्रामीण समाज में किसी समस्या का समाधान पञ्चों द्वारा की गयी पञ्चायत से ही होता था ।
पञ्चायत की उत्पत्ति भारतीय और नेपाली समाज में पारम्परिक ग्राम संस्थाओं से ही हुई है.
भारत में पंचायत राज प्रणाली, भारतीय समाज में पारम्परिक ग्राम संस्थाओं पर आधारित है.ग्राम पंचायत, गाँव की मंत्रिपरिषद का काम करती है.ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव जनता करती है इस जनता मे सभी पाँचों वर्णों के प्रतिनिधि पंच के रूप में उपस्थित होकर अपना निष्पक्ष निर्णय देते हैं।.
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ऋग्वेद में पञ्चकृष्टी और पञ्चजन शब्द पाँच वर्णों के सूचक पञ्चों के रूपान्तरण है।
आ दधिक्राः शवसा पञ्चकृष्टीः सूर्य इव ज्योतिषापस्ततान। सहस्रसाः शतसा वाज्यर्वा पृणक्तु मध्वा समिमा वचांसि ॥१०॥ ऋग्वेद ४/३८/१०
(अद्य) = आज (तद् वाचः प्रथमम्) = उस प्रथम वाणी को (मसीय) = हृदयस्थरूपेण उच्चारण करता हूँ। है (येन) = जिससे (देवाः) = और देव (असुरान्) = आसुरों का (अभि असाम) = अभिभव करते हैं ।
(ऊर्जादः) = पौष्टिक ही अन्नों का सेवन करनेवाले (उत) = और (यज्ञियासः) = यज्ञशील (पञ्चजना:) = पाँच वर्ण( जाति) ! (मम होत्रम्) = मेरे हवन को (जुषध्वम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करो।
उपर्युक्त ऋचाओं में पञ्च पञ्चकृष्टी और पञ्च जन जैसे पद पर ध्यान केन्द्रित किया गया है।
स्पेनिश और पुर्तगाली भाषा में काष्टा शब्द जाति नसल का सूचक है। जो भारोपीय भाषा परिवार के शब्द "काष्टा और कास्ट शब्द से निर्मित वैदिक कृष्टि के रूपान्तरण हैं । संस्कृत में भी कृष्टि शब्द कृषि- फसल (फलस्) और सन्तान आदि का- वाचक है।
पुस्तिका "श्रीकृष्ण- साराङ्गिणी" को लिखने का एक मात्र उद्देश्य श्रीकृष्ण के जीवन एवं उनके चरित्र-विषयक वार्तालाप के उपरान्त उत्पन्न हुए कुछ प्रश्नों तथा कुछ भ्रान्ति मूलक टिप्पणियों का सम्यक शास्त्रीय विधि से उत्तरों को खोजकर त्वरित समाधान करना ही है। इस उद्देश्य हेतु यह पुस्तिका एक सफल प्रयास है।
इसलिए भी इस पुस्तिका का आकार न बहुत छोटा और न ही बहुत बड़ा ही निर्धारित किया गया है, ताकि इसे आसानी से पाठकगण कहीं भी समाज में ले जाकर जनसाधारण के समक्ष कृष्ण तथा उनके पारिवारिक सदस्य गोपों की उत्पत्ति तथा चरित्र विषयक बोध करा सके। यह "श्रीकृष्ण- साराङ्गिणी" पुस्तिका वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण का शास्त्रीय कलेवर (शरीर) ही है। अत: इस भाव को मन में रखकर भक्त- गण इसे भगवान् श्रीकृष्ण के पूजा- स्थल पर रखकर श्रीकृष्ण की उपस्थिति का आभास भी कर सकते हैं। क्योंकि इसमें श्रीकृष्ण के जीवन के अद्भुत पहलुओं का शास्त्रोचित विधि से वर्णन किया गया है।
इस पुस्तिका के लेखन कार्य से लेकर श्रीकृष्ण जीवन के सारगर्भित चरित्रों के चित्रों का शब्दांकन करने तक प्रेरणा श्रोत बनकर परम श्रद्धेय,सन्त हृदय गोपाचार्य हँस श्री आत्मानन्द जी महाराज भूमि कलत्मक रूप में सदैव उपस्थित रहे हैं। एतदर्थ उनका साधुवाद ! यह पुस्तक अपने बारह अध्यायों में श्रीकृष्ण के अतीव सार-गर्भित चरित्रों के साथ अपने नाम को सार्थक करती हुई उन परमेश्वर श्रीकृष्ण के ही चरणों में समर्पित है।
-:अनुनीत- विनीत :- लेखक गण- गोपाचार्य हंस- योगेश कुमार रोहि- एवं गोपाचार्य हंस- माताप्रसाद -
अनुवाद :- ज्ञान के समुच्चय तथा कुञ्जों में रहने वाले, और कदम्ब वृक्ष के तले मधुर मुरली बजाने वाले, कुरुक्षेत्र में पवित्र गीता का वाचन करने वाले जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।३।
सर्वेचराचरेषु व्याप्नोसि ते सत्ता निर्गुणसगुणयोरुभयोर्रूपयोर्। जानान्ति रहस्यं केशवस्य भक्ता: अन्वेषयति तु कर्मकाण्डेषु घोर:।।४।
अनुवाद :- हे केशव! आप की सत्ता समस्त चराचर (जड़-चेतन, संसार के सभी प्राणियों) में निर्गुण और सगुण दोनों रूप में व्याप्त हैं। आपके इस रहस्य को भक्त भली-भाँति जानते हैं। किन्तु भयानक और मूढ़मति व्यक्ति आपको कर्मकाण्डों में खोजते है।४।
संसृत्यौ सिन्धौ शष्पिता सरणि। वयमाकृण्मभावोर्म्या सम्मध्यता:। न मज्जेद् मम जीवनस्य तरणि" हे मोहन ! तर अत्र लोभमोहावृता:।।५। भाष्य:- हे मोहन ! अयं आत्मा जगतः समुद्रे जीवनस्य नौकायां उपविष्टोऽयं समुद्रं तरितुं इच्छति; परन्तु अत्र कामलोभादिभावानां तरङ्गाः निरन्तरम् उदयमाना एव भवन्ति।
हे मोहन ! अत एव जीवननौकाया मार्गोऽतीव क्लिष्टोऽभवत् । मा भूत् मम नौका तरङ्गजनितसक्तिलोभादिभ्रमणेषु मज्जति; तस्मात् त्वं स्वयमेव एतां नौकां तरेत्।५।
अनुवाद:- -हे मोहन ! संसार रूपी सागर के जीवन रूपी नौका में बैठा हुआ यह जीवात्मा- इस सागर को पार करना चाहता है ; परन्तु यहाँ काम,लोभ आदि की भावना रूपी तरंगे निरन्तर उच्छलती रहती हैं। हे मोहन ! इसी कारण से जीवन रूपी नौका का मार्ग बड़ा जटिल हो गया है। मझधार में लहरों से उत्पन्न मोह-लोभ आदि के भँवरों में कहीं मेरी नौका डूब न जाय ; इसलिए आप ही इस नौका को पार करें।।५। भावसाम्य- उदाहरण- "भव सागर है कठिन डगर है। हम कर बैठे खुद से समझौते ! डूब न जाए जीवन की किश्ती । यहाँ मोह के भंवर लोभ के गोते ।
जले तरङ्गैव नवनीता
पुनीता प्रसूयते दुग्धैव च।
इदं जगद् हिमवद्
वाष्परूपाय प्रभवे नुम:।६।
अनुवाद- जल में तरंगों के समान दुग्ध में नवनीत (मक्खन) के समान और वाष्प से हिम के समान जिस परमेश्वर से यह संसार उत्पन्न हुआ है हम उसे नमस्कार करते हैं।६।
"अनुवाद:- वृन्दावन के लोगों के लिए वन्दनीय और सभी लोगों के द्वारा अभिनन्दन (स्वागत ) करने योग्य भगवान श्रीकृष्ण ही कर्म सिद्धान्त के नियामक हैं। उन्होंने ही सृष्टि के प्रारम्भ में अहं समुच्चय( वयं) से संकल्प और संकल्प से इच्छा उत्पन्न करके संसार में कर्म का अस्तित्व निश्चित किया।१।
"अनुवाद:- भक्तों के भावों में समर्पण के रंग भरने वाले ,राग और रंग के समष्टि रूप, मन को भक्ति में स्नान कराकर उसे शुद्ध करके ज्ञान का प्रकाश भरने वाले, खलों (दुष्टों) को दण्डित करने वाले प्रभु को हम नमस्कार करते हैं।२।
अनुवाद:- हे प्रभु ! मयूर के पंख से निर्मित मुकुट तेरे मस्तक पर और हाथों में सुन्दर और शुभ मुरली है। हे मन मोहन ! तू ज्ञान की किरणें विकीर्ण करने वाला प्रभाकर (सूर्य)है। तू आत्मा का ज्ञान देने वाला गुरु, प्रकृति के तीन गुणों से परे होने पर भी कल्याणकारी गुणों का भण्डार है।३।
अनुवाद:- हे मनमोहन ! मैं आठो पहर तुमको नमन करूँ ! तुम अत्यधिक शोक और कष्टों को हरने वाले हो साक्षात् हरि हो ! संसार के द्वन्द्व मयी बन्धनों से मुझे मुक्त करने वाले और सब भक्तों को प्रिय हे मोहन ! मैं तुझे नमन करता हूँ।४।
अनुवाद:- हे कृष्ण तुम्हारी कान्ति काले बादलों के समान है। हम जीवन के धन रूप आपको प्राप्त करें। तुमने गोलोक में ही पूर्वकाल में सभी गोपों की सृष्टि अपने ही रोम कूपों से की थी। तुम सभी सिद्धियों को स्वयं ही प्राप्त हो।५।
अनुवाद:- कृपा के समुद्र, धर्म का यथार्थ बोध कराने वाले गुरु ! महान कर्मों के कर्ता प्रभु ! हम तुझे नमस्कार करते हैं। तूने इन्द्र का यजन- पूजन बन्द कराये, जो निर्दोष पशुओं की हिंसा का कारण थे ।६।
अनुवाद:- गाय के निवास स्थान की सुन्दर रज( मिट्टी) से स्नान करने वाले, सदैव व्रज( गायों का बाड़ा) में विराजने वाले, गले में वन माला धारण करने वाले, अहीर बालक के रूप में रहने वाले हे प्रभु ! मैं तुम्हें नमस्कार हूँ।७।
अनुवाद:-कृषि कर्म करने में निपुण मस्तक पर मयूर पँख धार किये हुए किसान के रूप में हाथों मे हल तथा किसानों वाले वस्त्र धारण किए हुए हैं हम उन दोनो कृष्ण और बलराम (संकर्षण) को प्रणाम करते हैं।८।
अनुवाद:- हे कृष्ण तुम गोप और गोपियों के अधिनायक ( मार्गदर्शन करने वाले ), वैष्णव वर्ण और धर्म का संसार में विधान करने वाले,तथा भक्तों का पोषण करने वाले हो ! प्रभु तुम्हें हम कोटि -कोटि नमस्कार करते हैं।९।
अनुवाद:- संसार को निष्काम कर्म का उपदेश देने वाले ,बाँसुरी पर सुन्दर तान के द्वारा लय से गायन करने वाले , दीन दु:खीयों की सहायता करने वाले, यादवों के विशेष नेता तुमको हम नमस्कार करते हैं।१०।
अनुवाद:- गोलोक में सदैव किशोर अवस्था में विद्यमान, राग -रंग से सुशोभित, रासधारी, सत्य व्रतों का पालन करने वाले, हे प्रभु! तुम्हारा गीता का अमृतरूपी ज्ञान सेवन करने योग्य है ।११।
अनुवाद:- वनों की सुन्दर माला कण्ठ में धारण करने वाले और सम्पूर्ण व्रज में भ्रमण करने वाले, सुन्दर लीलाओं का विस्तार करने वाले, सुन्दर वैजयन्ती माला धारण करने वाले, भगवान कन्हैया को हम नमस्कार करते हैं।१२।
भगवान्- श्रीकृष्ण की औपचारिक पूजन -विधि- यज्ञ और हवन के समय - उपर्युक्त प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरान्त- ॐ श्रीकृष्णाय नमः प्रभो ! तुभ्यं निजभावंं नैवेद्यं समर्पयामि !
के साथ नैवेद्य अर्पित करें। किन्तु ध्यान रहे उपर्युक्त पाँचों मन्त्रों को किसी पुरोहित से न पढ़वाया जाय और ना ही उनसे कुछ करवाया जाय क्योंकि इन मन्त्रों को केवल कृष्ण भक्त गोप ही सिद्ध और सफल कर सकते हैं बाकी कोई नहीं। [इसके बारे में विस्तृत जानकारी अध्याय- (१) के भाग-(२) में दी गई है पाठकगण वहाँ से अपने संशय का निवारण कर सकते हैं।]
(२)- सुबह-शाम श्रीकृष्ण पूजा, आराधना, या आरती इत्यादि के समय भक्तिभाव से पांचों मंत्रों से श्रीकृष्ण का स्तवन स्वयं करें और प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरान्त "अहं सर्वस्यं श्रीकृष्णाय निविद्यामहे " ( मैं श्रीकृष्ण को अपना सबकुछ समर्पित करता हूँ) के साथ नमस्कार करें। यदि कोई भक्त संस्कृत श्लोक नहीं पढ़ सकता तो वह मंत्रों को भक्तिभाव से हिन्दी अनुवाद को ही पढ़कर श्रीकृष्ण की आराधना व स्तुति कर सकता है। ऐसा करने से उसे कोई दोष नहीं होगा। किन्तु ध्यान रहे फूल, पत्ते इत्यादि को ही उनके चरणों में रखें, बाकी खाद्यान्न इत्यादि पदार्थों को उनके चरणों पर कदापि न रखें। खाद्यान्न पदार्थों को किसी पात्र में रखकर प्रभु के अगल-बगल थोड़ा ऊपर ही रखें।
ध्यान रहे ये सब क्रिया विधि मात्र एक औपचारिकता है। इसको करते समय किसी प्रकार का आडम्बर या भौकाल नहीं होना चाहिये। क्योंकि भगवान- भाव के ग्राही हैं क्रिया ग्राही नहीं। अर्थात् आप क्या कर रहे हैं कैसे कर रहे हैं उससे उनका कोई लेना देना नहीं है। सत्य तो यह है कि - भक्त के द्वारा निःस्वार्थ भाव से- येन -केन प्रकारेण कुछ भी चढ़ाया गया पदार्थ वे सहर्ष स्वीकार कर ही लेते हैं। प्रभु की प्राप्ति के प्रथम अनिवार्यता हृदय की भावनाओं और मन के विचारों की पवित्रता ही है। (३)- अगर भक्त के पास अर्पण के लिए मौके पर कुछ भी उपलब्ध नही है, तो भी वह श्रीकृष्ण की पूजा- अर्चना कर सकता है। इसके लिए भक्त को भक्ति-भाव से मन्त्रोच्चारण कर प्रभु की स्तुति करनी होगा। यहीं भक्ति की प्रारम्भिक क्रिया है। ऐसा बार-बार करने से एक दिन श्रीकृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का भाव जागृत होगा। उसी दिन से वह प्रभु का सच्चा ज्ञानी भक्त हो जाएगा। तब उसके लिए चढ़ावा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रहेगा। वह दिन-रात मस्त मगन होकर प्रभु का सुमिरन यों ही करता रहेगा। क्योंकि अब तो उसे परमेश्वर के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया है कि - " अर्थात् जब परमेश्वर बिना पैरों के चलता है, बिना कान के सुनता है, हाथ न होते हुए भी विभिन्न तरह के कार्य करता है अर्थात यहां बिना किसी कारण के ही कार्य हो रहा है। तब परमेश्वर की भक्ति में तेरे-मेरे, अपना-पराया, विधि-विधान, मेरे या दूसरे द्वारा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि - परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल व आसान है। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में स्वयं कहे हैं कि -
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।। (श्रीमद्भगवद्गीता)
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझ में तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात स्वीकार कर लेता हूं।२६ ।
(अध्याय-) १ - पूजा-अर्चना के विधि- विधान एवं गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणामों का वर्णन। [क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान। [ख]-तेैतीस कोटि देवता में किसकी पूजा करें ? [ग] - श्रीकृष्ण की पूजा के लाभ। [घ] - शिव पूजा के लाभ। [ङ] - विष्णु पूजा के लाभ। [च] - श्रीराम पूजा के लाभ। [छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ। [ज] - श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ? [झ] -गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणाम। [ञ] - एक सच्चे गुरु की पहचान।
२- श्रीकृष्ण का स्वरूप एवं उनके गोलोक का वर्णन
३- श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नहीं है तथा भक्त- भक्ति और भगवान इन तीनों का परस्पर सम्पूरक अस्तित्व हैं।
४- गोलोक में गोप- गोपियों सहित- नारायण,शिव , ब्रह्मा आदि प्रमुख देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का-विस्तार
५- वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताएं- [क] - वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति तथा भारतीय समाज में पञ्च- प्रथा
[ख] - ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति। [ग ] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर- [१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर। [२] यज्ञ मूलक एवं भक्ति मूलक अन्तर। [३] भेदभाव एवं समता मूलक अन्तर।
६- वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व -
[१] गोपों का ब्राह्मणत्व (धर्मज्ञ होने )का कर्म-
(क)- सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर (गोप) हैं। (ख)- अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय (ग)- यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा का परिचय। (घ)- ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय।
[२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म। [३] गोपों का वैश्यत्व कर्म। [४] गोपों का शूद्रत्व कर्म। ७- वैष्णव वर्ण के "गोपों" की पौराणिक - प्रशंसा व गोपों की भारतीय संस्कृति में योगदान-
९- गोप, गोपाल, अहीर और यादव उपाधि धारक कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं, तथा इनका वास्तविक गोत्र कार्ष्ण: है अथवा अत्रि ?
१०- गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय - भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय। भाग-(२) श्रीराधा का परिचय। भाग-(३) पुरूरवा और उर्वशी का परिचय। भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय।
११- गोप( अहीर) जाति के यादव वंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपति - भाग- (१) महाराज यदु का परिचय। भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय। भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज
१२- यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक-गमन भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण के बहेलिए से मारे जाने के मिथकों का खण्डन। भाग- (२)- श्रीकृष्ण का गोलोक गमन। ____________________________________
इस अध्याय के सम्पूर्ण प्रसंगों को क्रमबद्ध पद्धति से जानने व समझने के लिए निम्नलिखित- (दस) प्रमुख शीर्षकों में विभाजित किया गया है -
[क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान। [ख] -तैतीस कोटि देवता में किसकी पूजा करें ? [ग] - श्रीकृष्ण पूजा के लाभ। [घ] - शिव पूजा के लाभ। [ङ] - विष्णु पूजा के लाभ। [च] - श्रीराम पूजा के लाभ। [छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ। [ज] - श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ? [झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणामों का वर्णनटट। [ञ] - सच्चे गुरु की पहचान।
आध्यात्मिक जीवन में कुछ पानें की अपेक्षा उसी से करनी चाहिए जो सक्षम और सामर्थ्यवान हो। अब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जगत में कौन ऐसा सामर्थ्यवान है जिससे सबकुछ प्राप्त हो सकता ? तो इसका जवाब है सर्वशक्तिमान परिपूर्णतम् परब्रह्म, क्योंकि इनके अतिरिक्त और किसी से कुछ पानें की अपेक्षा करना व्यर्थ है। तब पुनः प्रश्न उठता है कि परिपूर्णतम् "परब्रह्म" कौन है ?
तो इस प्रश्न का सही जबाब पाना असम्भव तो नहीं किंतु कठिन अवश्य है। क्योंकि शास्त्रों से लेकर जितने भी धर्मगुरु या धर्म प्रवर्तक हुए सभी ने अपने-अपने हिसाब से उस परमात्मा परिपूर्णतम् "परब्रह्म" की विशेषताएं और परिभाषाएं निर्धारित की हैं। जैसे - १- कोई उसे नूर कहता है तो कोई उसे हुजूर कहता है। २- कोई उसे निर्गुण माना, तो कोई उसे सगुण माना। ३- कोई उसे निराकार मानता है, तो कोई उसे साकार मानता है। ४- कोई उसे साकार और निराकार दोनों ही रूपों में मानता है। ५- तो कोई उसे निर्गुण और सगुण दोनों ही मानता है।
इन उपरोक्त बातों पर यदि विचार किया जाय तो ये सभी बातें परमेश्वर को एक निश्चित दायरे में रखकर कही गईं हैं कि- परमेश्वर निर्गुण हैं, सगुण हैं या दोनों हैं। किंतु परमेश्वर तो सीमाओं से परे अनन्त गुणों वाले हैं। जिनका कोई आदि( प्रारम्भ) है न अन्त है। वे स्थूल से भी स्थूलतम और सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम हैं। उनके लिए सगुण, निर्गुण, निराकार, साकार, निर्विकल्प सविकल्प, निर्लिप्त, लिप्त प्रारम्भ, अन्त, अनन्त, शून्य, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी इत्यादि जितना भी कहा जाय बहुत ही कम है। भगवान् श्रीकृष्ण में ये परिपूर्णताऐं परिलक्षित होती हैं।
तब प्रश्न उठता है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण ही सब-कुछ हैं तो इस माया नगरी में जहाँ अनेकों छद्म- भेषधारी अपनी कथाओं के माध्यम से (३३) करोड़ देवी-देवों को पूजने को कहते हों, और स्वयं को भी अपने भक्तों से पुजवाते हों। तो ऐसी विकट- आडम्बर पूर्ण एवं भ्रान्त स्थिति में अनन्त गुणों वाले परमात्मा को कैसे पहचाना जाय कि यहीं परमप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं ?
✳️ तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसी ग्रन्थ के अध्याय- (दो) और अध्याय (तीन) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि- परम प्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण ही है। उनके अतिरिक्त और कोई परमेश्वर नहीं है। वहाँ से इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
फिर भी यहां पर उससे सम्बन्धित कुछ जानकारी अवश्य दी गई है कि- वास्तव में श्री कृष्ण ही परम प्रभु परमेश्वर हैं। उनको किसी एक गुण से नहीं जाना जा सकता। फिर भी यदि गुणों के आधार पर देखा जाए तो उनके अन्त गुण है और उसमें भी देखा जाए तो वे साकार, निराकार, निर्गुण, सगुण इत्यादि सबकुछ हैं।
जहाँ तक उनको साकार और निराकार होने का प्रश्न है, तो वे ही परमेश्वर प्रलय काल में निराकार रूप में रहते हैं किंतु जब वे सृष्टि का सृजन करतें हैं तो साकार रूप में हो जाते हैं। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय-( ४ ) के श्लोक-( ७) में परमेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७।
अनुवाद:- जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ।
इसी तरह से परमेश्वर को सगुण और निर्गुण इत्यादि होने के सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक- (१२ ) में भी लिखा गया है। जिसमें अर्जुन श्रीकृष्ण क प्रति कहते हैं कि- परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्। पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।।१२।
अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२।
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म, सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि पद-रूपों में तत्वज्ञानी लोग परमेश्वर श्रीकृष्ण को जानते हैं।
परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७), और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन को अपने विषय में बताते हैं कि-
अनुवाद - क्रतु मैं हूं, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूं, औषधि मैं हूं, मंत्र मैं हूं, घृत मैं हूं, अग्नि मैं हूं, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूं। जानने योग्य पवित्र ॐकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूं। इस संपूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूं। (१६-१७-१८)
इसी तरह से श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक- ४२ में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि-
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।४२।
अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है ? मैं अपने किसी एक अंश से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।
इस प्रकार से देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण ही सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है। बाकी- (33) कोटि देवी-देव सभी उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंश- भूत शक्तियाँ, कला और कलांश हैं। इन सभी बातों की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या- (१७-१८)और (१९) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्। परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।१७।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्। ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।१९।
अनुवाद- १७,१८,१९ • द्विभुजधारी, किशोरवय, गोपवेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है, वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं।१७।
• परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति मुनिगणों के साथ करते हैं।१८। • वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षी रूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा हंसी और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।१९।
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक- (४३) में भी लिखी गई है जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण को ही परमेश्वर कहा गया है।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्। ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।४३। अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता और साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ।४३।
कुछ इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय - (३०) के श्लोक- (६ ) से (८) में भगवान श्री कृष्ण को परमप्रभु परमेश्वर बताया गया है। जिसमें मुनि नारायण, नारद को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराट विष्णु इत्यादि श्री कृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं -
सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम् । कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः।८।
अनुवाद - जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर कौन समर्थ है ? तुम भी श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के चरणार्विंद का अत्यंत आदर पूर्वक चिन्तन करो।६।
• नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान (श्रीकृष्ण) की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्माजी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।
• सहस्र शिरों वाले शेषनाग संपूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण करते हैं। वो भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठ हो। वे भगवान कूर्म भी श्रीकृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं।८।
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण- के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (६६) के श्लोक - (५६) में भी लिखी गई है। जो श्रीकृष्ण और राधा संवाद के रूप में है। जिसमें श्रीकृष्ण राधा जी से अपने विषय में कहते हैं कि-
अनुवाद - उस विराट विष्णु के रोम-कूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (शिव) आदि देवता, मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं।५६।
अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों से स्पष्ट होता है कि- परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण ही हैं। बाकी (३३) करोड़ देवी-देवता उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंशभूत शक्तियाँ हैं। उसमें भी जो तीन प्रमुख देव- ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं, वो भी श्रीकृष्ण से उत्पन्न उन्हीं के कला और कलांश हैं।
तब पुनः प्रश्न उठता है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण जो परिपूर्णतम परब्रह्म हैं, सर्व सामर्थ्यवान हैं, तो उनको छोड़कर मनुष्य (३३) करोड़ देवी- देवताओं की पूजा क्यों करता है ? तो इसका जबाब है "अज्ञानता"। क्योंकि मनुष्य इस माया नगरी में पाखण्डवाद के भ्रम जाल में फँसकर यह भेद नहीं कर पाता कि परमेश्वर श्रीकृष्ण की पूजा करें या उनसे उत्पन्न (३३) करोड़ देवी-देवताओं की। इसके साथ ही वह यह भी नहीं जान पाता है कि- किस देवी- देवों की पूजा करने से कौन सा लाभ और पद प्राप्त होता है। और जो मनुष्य इस रहस्य को जान लिया समझो वह परमेश्वर को भी पहचान कर यों ही मोक्ष को प्राप्त कर लिया। इसलिए परमेश्वर श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए। इस बात को प्रमुख देवताओं ने भी स्वीकार किया। जैसे -
शिवजी पार्वती को श्रीकृष्ण की ही आराधना करने को कहते हैं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खंड के अध्याय-(४८)के श्लोक संख्या- (४८) और (४९) में मिलता है। जो शिव पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि -
परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्। सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम्।४९।
अनुवाद- • हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीट पर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८। • केवल त्रिगुणातीत परमब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं। अत: हे पार्वती तुम उन्हीं की आराधना करो।४९।
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो शिव जी स्वयं पार्वती को श्रीकृष्ण की आराधना करने को कहते हैं। क्या इससे भी बड़ी और कोई देव वाणी ब्रह्माण्ड में हो सकती है ? जबाब होगा नहीं।
इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक- (४३) में भी लिखी गई है। जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् । ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।।४३।
अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता के साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ४३।
परन्तु प्रश्न यह है कि क्यों श्रीकृष्ण का ही ध्यान व आराधना करनी चाहिए ? क्या (३३) करोड़ देवी-देवताओं और उसमें भी शिव, विष्णु इत्यादि प्रमुख देवताओं के ध्यान व आराधना से कोई लाभ नहीं ? तो इसका जवाब है लाभ अवश्य है, किंतु सीमित है। कहने का तात्पर्य यह है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होंगे तथा भूतों को पूजनें वाले भूतों और प्रेतों को प्राप्त होगें और जो परमेश्वर को पूजेगा वह निश्चय ही परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राप्त होगा। इस बात को गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता के अध्याय- (७) के श्लोक - (२३) में स्वयं कहें हैं कि -
अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अंत वाला (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।
ऐसी ही बात श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय- (९) के श्लोक संख्या- (२५) में भी लिखी गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। २५
पुनः भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद् भागवत पुराण के अध्याय- १८ के श्लोक -६५ और ६६ में कहते हैं कि -
अनुवाद - (६५-६६) • तू मेरा भक्त हो जा, मुझ में मनवाला हो, तू मेरा पूजन करने वाला हो जा, और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जाएगा। यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूं, क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है। • सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।
और सबसे उचित बात है कि- परमेश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल व आसान है। इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में कहते हैं कि -
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।२६।
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूं अर्थात स्वीकार कर लेता हूं।२६।
व्याख्या - देवताओं की पूजा- अर्चना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परन्तु भगवान (श्रीकृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेम (भक्ति) की, और अपनेपन की प्रधानता है, किसी विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भावग्राही है क्रियाग्राही नहीं।
अन्ततोगत्वा श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- परमेश्वर श्रीकृष्ण की ही भक्ति, आराधना व ध्यान करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव है। इधर-उधर भटकने से नहीं।
तब ऐसे में यह जानना और आवश्यक हो जाता है कि भक्तों के लिए पूजा व आराधना का फल- परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित अन्य देवताओं का कितना होता है? तो इसका विस्तार पूर्वक वर्णन- श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय -(३०) में मिलता है। जिसमें परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित छोटे-बड़े सभी देव-देवताओं की पूजा अर्चना के लाभ व फलों को बड़े ही सारगर्भित ढंग से बताया गया है।
जिसमें सबसे पहले हम लोग श्रीकृष्ण पूजा के लाभों को जानेंगे उसके बाद अन्य देवताओं से मिलने वाले लाभों को जानेंगे।
श्रीकृष्ण भक्तों को उनकी पूजा से जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उसका वर्णन श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ६९ से ७०) और( ८५ से ८९) में मिलता है। जिसमें श्रीकृष्ण भक्तों के बारे में बताया गया है कि -
"करोति भारते यो हि कृष्णजन्माष्टमीव्रतम् । शतजन्मकृतं पापं मुच्यते नात्र संशयः॥६९।
वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश। पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य कृष्णे भक्तिंलभेद् ध्रुवम्॥७०।
अनुवाद - भारतवर्ष में जो मनुष्य श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह अपने सौ जन्मों में किये गये पापों से छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है। और जबतक चौदहों इन्द्रों की स्थिति बनी रहती है, तब-तब वह वैकुण्ठलोक में आनन्द का भोग करता है। इसके बाद वह पुनः उत्तम योनि में जन्म लेकर निश्चित रूप से भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त करता है।६९-७०।
यहाँ पर श्रीकृष्ण भक्तों से सम्बन्धित उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत के उपरान्त पापों से मुक्त होकर दीर्घ काल के लिए गोलोक धाम को तो प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता क्योंकि वे दीर्घ काल के पश्चात पुनः मृत्युलोक में जन्म लेता है। अर्थात् वह अभी भी आवागमन से मुक्त नहीं हो सकता है। तब प्रश्न उठता है कि श्रीकृष्ण भक्त आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष को कैसे प्राप्त करेगा ? तो इसका जवाब इसके अगले श्लोक- (८५ से ८९) में दिया गया है, जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण भक्तों को कैसे मोक्ष की प्राप्ति होगी।
भारतं पुनरागत्य हरिभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।। पुनर्याति च वैकुण्ठं न तस्य पतनं भवेत् ।९५।
अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा (बुढ़ापा) तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है।८५-८९।
यहाँ पर श्रीकृष्ण भक्तों से सम्बन्धित उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्तों के लिए मोक्ष हेतु सबसे उत्तम साधन- "कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा करना ही है। यदि श्रीकृष्ण भक्त ऐसा करते हैं तो निश्चित रूप से वे भक्त, श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होंगे इसमें संदेह नहीं है।
✳️ ज्ञात हो मान्यता है कि श्रीकृष्ण भक्तों द्वारा जहाँ भी रास का आयोजन किया जाता है वहाँ भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा किसी न किसी रूप में अवश्य ही उपस्थित रहते हैं। इसलिए रास को मोक्षप्राप्ति का सबसे आसान और उत्तम साधन माना गया हैं। इसके बारे में विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (७) के भाग- दो में दी गई है।
किन्तु देवी-देवताओं को पूजने वाले कभी नहीं मोक्ष को प्राप्त होते। क्यों नहीं होते ? तो इसको अच्छी तरह से समझने के लिए कुछ प्रमुख देवी-देवताओं के पूजन विधि और उसके लाभ को जानना होगा जैसे -
शिव भक्तों को जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उन सभी का वर्णन श्रीमद्देवीभागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ७१ से ७५ ) में मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -
इहैव भारते वर्षे शिवरात्रिं करोति यः। मोदते शिवलोके स सप्तमन्वन्तरावधि ॥७१।
शिवाय शिवरात्रौ च बिल्वपत्रं ददाति यः। पत्रमानयुगं तत्र मोदते शिवमन्दिरे ॥७२।
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य शिवभक्तिं लभेद्ध्रुवम् । विद्यावान्पुत्रवाञ्छ्रीमान् प्रजावान्भूमिमान्भवेत् ॥७३।
अनुवाद - ७१-७५ और ११०- १११ तक • इस भारतवर्ष में जो मनुष्य शिवरात्रि का व्रत करता है, वह सात मन्वन्तरों के काल तक शिवलोक में आनन्द से रहता है।७१। • जो मनुष्य शिवरात्रि के दिन भगवान् शंकर को बिल्वपत्र (बेलपत्थर) अर्पण करता है, वह बिल्वपत्रों की जितनी संख्या है उतने वर्षों तक उस शिवलोक में आनन्द भोगता है। पुनः श्रेष्ठ योनि प्राप्त करके वह निश्चय ही शिवभक्ति प्राप्त करता है, और विद्या, पुत्र, श्री, प्रजा तथा भूमि- इन सबसे सदा सम्पन्न रहता है।७२-७३।
• जो व्रती चैत्र अथवा माघ में पूरे मासभर, आधे मास, दस दिन अथवा सात दिन तक भगवान् शंकर की पूजा करता है और हाथ में बेंत लेकर भक्तिपूर्वक उनके सम्मुख नर्तन करता है, वह उपासना के दिनों की संख्या के बराबर युगों तक शिवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। ७४-७५।
• जो मनुष्य प्रतिदिन पार्थिव (मिट्टी) का लिंग बनाकर शिव की पूजा करता है और जीवन पर्यन्त इस नियमका पालन करता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है और वह पार्थिव लिंग में विद्यमान रजकणों की संख्या के बराबर वर्षों तक शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहां से पुनः भारतवर्ष में जन्म लेकर वह महान् राजा होता है। ११०- १११।
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाय तो शिव भक्त निश्चित रूप से शिवलोक को प्राप्त होता हैं। किंतु वह उस लोक तक नहीं पहुँच पाता जो शिवलोक से पचास करोड़ ऊपर है। जिसका नाम है "गोलोक" जो नित्य एवं चिरस्थाई है। वहाँ जाने के बाद मनुष्य आवागमन से मुक्त अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। किन्तु शिव भक्त शिवलोक तक ही रह जातें हैं और पुनः मृत्यु लोक में आकर जन्म लेते हैं- (कौन सा लोक कहाँ स्थापित हैं इसकी विस्तृत जानकारी अध्याय- (दो) में दी गई है)।
श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय-(३०) के श्लोक- (१०५) और (१०६) में बताया गया है कि विष्णु की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौनसा स्थान व पद प्राप्त होता है ?
विद्वान्सुचिरजीवी च श्रीमानतुलविक्रमः। यो वक्ति वा ददात्येव हरेर्नामानि भारते॥१०५।
युगं नाम प्रमाणं च विष्णुलोके महीयते । ततः पुनरिहागत्य स सुखी धनवान्भवेत् ॥१०६।
अनुवाद- भारतवर्ष में जो मनुष्य भगवान श्री हरि (विष्णु) के नाम का स्वयं कीर्तन करता है अथवा इसके लिए दूसरों को प्रेरणा देता है वह जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है, और वहां से पुनः इस लोक (मृत्युलोक) में आकर वह सुखी तथा धनवान होता है।१०५-१०६।
[कौन देवता कब, कैसे और कितने अंशों से उत्पन्न हुआ है इसकी विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (४) में दी गई है। वहाँ से इस विषय पर विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है।]
"श्रीराम" भक्तों के बारे में भी श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय -(३०) के श्लोक- (७६) और (७७) में बताया गया है कि श्रीराम की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?
श्रीरामनवमीं यो हि करोति भारते पुमान् । सप्तमन्वन्तरं यावन्मोदते विष्णुमन्दिरे॥७६ ॥
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य रामभक्तिं लभेद्ध्रुवम् । जितेन्द्रियाणां प्रवरो महांश्च धनवान्भवेत्॥७७॥
अनुवाद - जो मनुष्य भारतवर्ष में श्रीरामनवमी का व्रत सम्पन्न करता है, वह विष्णुके धाम में सात मन्वन्तर तक आनन्द करता है। पुनः उत्तम योनि में जन्म पाकर वह निश्चय ही रामकी भक्ति प्राप्त करता है और जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ तथा महान् धनी होता है। ७६- ७७।
अब यहाँ पर श्री राम भक्तों पर विचार किया जाए तो श्रीराम भक्त भी निश्चित रूप से विष्णु लोक को प्राप्त होता हैं। किन्तु वह पुनः मृत्युलोक में उत्तम योनि में जन्म लेता है और महाधनी होता है। श्रीराम भक्तों के बारे में ऐसा ही श्लोक में लिखा गया है। किन्तु यहाँ पर यदि विचार किया जाए तो रामभक्त विष्णु लोक पहुँच कर भी आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति तभी हो सकती है जब मनुष्य परम धाम गोलोक को प्राप्त होता है। जो सभी लोकों से उपर है। वहाँ जाने के बाद मनुष्य को पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
✳️ ज्ञात हो उपर्युक्त श्रीराम भक्तों के श्लोकों से सिद्ध होता है कि श्रीराम और विष्णु में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसी हिसाब से रामभक्त विष्णु लोक तक जाता है। जैसे अन्य देवताओं के भक्त उनके ही लोक तक जातें हैं। जैसे शिव भक्त- शिव लोक को, तथा श्रीकृष्ण भक्त गोलोक को प्राप्त होते हैं। यहीं श्रीकृष्ण और अन्य देवताओं की भक्ति में अन्तर है इसको जानना चाहिए।
इसी अन्तर को ध्यान में रखकर भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय- (९) के श्लोक संख्या- (२५) में अर्जुन को अपने और देवताओं की भक्ति में भेद को बताते हुए कहते हैं कि -
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। २५
और इस बात को अधिकांश लोग नहीं जानते हैं और इसी अज्ञानता वश कहा करते हैं कि श्रीकृष्ण ही विष्णु हैं और विष्णु ही कृष्ण हैं। इसी अज्ञानता वश कभी-कभी श्रीकृष्ण को विष्णु से उत्पन्न करा देते हैं। जबकि वास्तव में देखा जाए तो विष्णु से श्रीराम का अधिक नजदीकी सम्बन्ध है। तभी तो श्रीराम भक्त विष्णु लोक तक जाता है, वह गोलोक में नहीं जाता। इस सम्बन्ध के हिसाब से विष्णु ही राम हैं और राम ही विष्णु हैं
कहना बिल्कुल सत्य है। इसके सापेक्ष श्रीकृष्ण ही विष्णु हैं और विष्णु ही कृष्ण हैं कहना उचित नहीं है। इस तरह के समस्त संशयों का सम्पूर्ण समाधान इस पुस्तक के अध्याय- २- ३- और ४ का अध्ययन करने से हो जाएगा।
अब हमलोग इसी क्रम में कुछ देवियों के पूजा अर्चना से होने वाले लाभों को जानेंगे-
"देवी सावित्री और सरस्वती" जो दोनों ही ब्रह्मा जी की पत्नियां मानीं जाती हैं। जिनकी उत्पत्ति गोलोक में पूर्व काल में श्रीराधा से ही हुई है। जिनका मुख्य स्थान ब्रह्मलोक है। उनके भक्तों के बारे में भी श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय -(३०) के श्लोक- (९७ से ९९) में बताया गया है कि- देवी सावित्री और सरस्वती की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?
"भारतं पुनरागत्य चारोगी श्रीयुतो भवेत् । ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां सावित्रीं यो हि पूजयेत्॥९६।
अनुवाद - ९६-९९ • जो मनुष्य ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को भगवती सावित्री का पूजन करता है, वह सात मन्वन्तरों की अवधि तक ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। पुनः पृथ्वी पर लौटकर वह श्रीमान अतुल पराक्रमी, चिरंजीवी, ज्ञानवान तथा सम्पदा सम्पन्न हो जाता है। ९६-९७।
• जो मनुष्य माघ महीने के शुक्लपक्ष की पञ्चमी तिथि को भक्तिपूर्वक सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों को अर्पण कर सरस्वती की पूजा करता है, वह ब्रह्मा के आयु पर्यन्त मणि द्वीप में दिन-रात प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और पुनः जन्म ग्रहण कर महान् कवि तथा पण्डित होता है।९८-९९।
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो ब्रह्मा जी की दोनों पत्नियों के भक्त लोग ब्रह्मा जी के लोक अर्थात् ब्रह्मलोक को अवश्य प्राप्त होते हैं जो शिव लोक और वैकुण्ठ लोक से बहुत नीचे है। किन्तु इन दोनों देवियों के भक्त मृत्युलोक में पुनः जन्म ग्रहण करते हैं। इस प्रकार से इन देवियों के भक्त भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते। ऐसा ही उपरोक्त श्लोकों में लिखा गया है।
अतः पूजा अर्चना के उपरोक्त सभी श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- देवी- देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही होता है और उनके भक्त उन्हीं को प्राप्त होते हैं और अल्प समय तक उन्हीं के लोक में रहकर पुनः अपने लोक (भूलोक) में वापस आ जाते हैं। अर्थात वे मोक्ष को प्राप्त नहीं होते।
किन्तु परमेश्वर श्रीकृष्ण को पूजने वाला श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति को प्राप्त कर गोलोक में गोप होकर उनका पार्षद हो जाता है। तब वह श्रीकृष्ण के ही रूप व स्वरूप में विलीन हो जाता है, और वह आवागमन से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहा जाता है।
तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठना स्वाभाविक हो जाता है कि जब देवी-देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही है, तो मनुष्य परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण के अतिररिक्त (३३) करोड़ देवी-देवताओं को क्यों पूजते हैं ? तो इसका जबाब है- अज्ञानता। इसके साथ ही कुछ कथावाचकों का परब्रह्म श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान का होना। यह बात बिल्कुल सत्य है।
क्योंकि श्रीकृष्ण ही परिपूर्णतम परब्रह्म हैं, इस गूढ़ रहस्य का सम्पूर्ण ज्ञान केवल तीन लोगों को ही है- पहला पञ्चमुखी शिव, दूसरा- श्री राधा और तीसरा- भूलोक के गोप और गोपियाँ और गोलोकवासी गोप ।
बाकी तैतीस (३३) करोड़ देवी-देवताओं सहित बड़े-बड़े तपस्वियों को श्रीकृष्ण से सम्बन्धित अल्प ज्ञान ही है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२) और (८३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा । किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।।
अनुवाद - ८२-८३ • श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और भूलोकवासी गोप गोपियां ही जानती हैं। प्रस्तुत श्लोक में 'च' अव्यय पद का प्रयोग और अथवा( and) के रूप पदों के समाहार के लिए हुआ है। इस लिए अर्थ होता है" गोपी- गोप और गोलोकवासी " ही कृष्ण की भक्ति तत्व को जानते हैं।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि गोपी और गोप के अतिरिक्त गोलोक वासी कौन हैं।
इसका समुचित उत्तर होगा कि गोलोक वासी से तात्पर्य गोलोक में रहने वाले गोप गणों से ही है। और गोपी- गोप से तात्पर्य भूलोक के गोपीयाँ और गोपों से है।
• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।।
इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -
• गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है।
कमल-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो।९।
तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब श्री कृष्ण के सम्पूर्ण गुणों एवं रहस्यों को जब बड़े-बड़े ऋषि मुनि नहीं जान सके , पुराणों में अल्प वर्णन है, तथा ब्रह्मा और सनत कुमार भी परमात्मा श्री कृष्ण को अल्प ही जानते है। तो श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को कौन बता सकता है ? या कहें कि श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी कौन हो सकता है ?
तो इसका एकमात्र समाधान है - जो श्री कृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को जानता हो, वही इस समस्या का पूर्णतया समाधान कर सकता है। और ऊपर के श्लोकों में स्पष्ट रूप से बताया जा चुका है कि श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को केवल चार लोग- (१)- शिव जी (२)- श्रीराधा (३)- और गोप- गोपियां और गोलोकवासी ही जानते हैं, ( गोलोक के गोपी गोप ही भूलोक के गोपी गोप हैं। इस प्रकार से जानने वालों की संख्या शिव' राधा' और गोपी -गोप चार होती है।
गोलोक वासी सभी गोप गोपी कृष्ण की भक्ति तत्व को जानते हैं। परन्तु भूलोक पर केवल कृष्ण की भक्ति करने वाले ही गोप जानते हैं। अतः इन के अलावा और कोई श्री कृष्ण के गुण रहस्यों और उनकी कथाओं को न तो कह सकता और ना ही जान सकता है। क्योंकि श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान रखने वाला उनके सम्पूर्ण चरित्रों को कैसे बता सकता है?
अब इन सब में देखा जाए तो प्रथम क्रम पर भगवान शिव जी आते हैं, जो श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों एवं गूढ़ रहस्यों को सम्यक रूप से जानते हैं। तो क्या शिव जी भू-तल पर आकर सार्वजनिक रूप से श्रीकृष्ण कथा कहेंगे ? इसका जबाब होगा नहीं। क्योंकि उनको भूतल पर श्री कृष्ण कथा कहते हुए कभी नहीं देखा गया और ना ही शास्त्रों में ऐसा लिखा हुआ मिलता है। फिर भी भगवान शिव, परमात्मा श्रीकृष्ण और श्रीराधा के सम्पूर्ण चरित्रों को केवल पार्वती जी को बताते हैं। वह भी श्रीकृष्ण की अनुमति मिलने पर। इस बात की पुष्टि - ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय - (४८) के प्रमुख श्लोकों में मिलता है।
जो पार्वती -शिव संवाद के रूप में जाने जाते है। जिसमें पार्वती शिव जी से कहतीं हैं कि -
तदुत्पतिं च तद्ध्यानं नाम्नो माहात्म्यमुत्तमम्। पूजाविधानं चरितं स्तोत्रं कवचमुत्तमम्।१४।
आराधनविधानं च पूजापद्धतिमीप्सिताम्। साम्प्रतं ब्रूहि भगवन्मां भक्तां भक्तवत्सल।१५।
कथं न कथितं पूर्वमागमाख्यानकालतः। पार्वतीवचनं श्रुत्वा नम्रवक्त्रो बभूव सः।१६।
मदिष्टदेवकान्ताया राधायाश्चरितं सति । अतीव गोपनीयं च सुखदं कृष्णभक्तिदम्।२१।
जानामि तदहं दुर्गे सर्वं पूर्वापरं वरम् । यज्जानामि रहस्यं च न तद्ब्रह्मा फणीश्वरः ।२२।
अनुवाद - आप श्रीराधा के प्रादुर्भाव, ध्यान, उत्तम नाम- महात्म्य, उत्तम पूजा - विधान, चरित्र, स्तोत्र, उत्तम कवच, आराधना विधि तथा अभीष्ट पूजा -पद्धति का इस समय वर्णन कीजिए। भक्तवत्सल ! मैं आपकी भक्ता हूँ अतः मुझे यह सब बातें अवश्य बताएं। साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालिए कि आपने आगमाख्यान से पहले ही इस प्रसंग का वर्णन क्यों नहीं किया था ? (१४-१५-१६)
• पार्वती का उपर्युक्त वचन सुनकर भगवान पञ्चमुख शिव ने अपना मस्तक नीचा कर लिया। अपना सत्य भंग होने के भय से वे मौन हो गए और चिन्ता में पड़ गए।१७।
• तब उस समय उन्होंने अपने इष्ट देव करुणा निधान भगवान श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) का ध्यान द्वारा स्मरण किया और उनकी आज्ञा पाकर वे अपनी अर्धांगस्वरूपा पार्वती से इस प्रकार बोले- देवी ! आगमाख्यान का आरम्भ करते समय मुझे परमात्मा भगवान श्री कृष्ण ने राधाख्यान के प्रसंग से रोक दिया था।१८-१९।
• परन्तु माहेश्वरी ! तुम तो मेरा आधा अंग हो, अतः स्वरूपतः मुझसे भिन्न नहीं हो। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने इस समय मुझे यह प्रसंग तुम्हें सुनाने की आज्ञा दे दी है।२०-२१।
• अतः इस गोपनीय विषय को भी तुमसे कहता हूँ। दुर्गे ! यह परम अद्भुत रहस्य है मैं इसका कुछ वर्णन करता हूँ सुनो।२२।
(पार्वती को भगवान शिव ने राधाख्यान में क्या बताया उसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक के अध्याय- (दो) में किया गया है। वहाँ से राधाख्यान की कुछ सामान्य जानकारी प्राप्त की जा सकती हैं।)
अतः इस उपर्युक्त प्रसंग से तो यही सिद्ध होता है कि-गोपेश्वर श्री कृष्ण और श्री राधा के सम्पूर्ण चरित्रों को बताने के लिए शिव को भी श्रीकृष्ण से अनुमति लेनी पड़ी थी। तो ऐसे में भगवान शिव भूतल पर सार्वजनिक रूप से श्री कृष्ण कथा कैसे कह सकते हैं ?
अब रही बात दूसरी श्री राधा जी की। क्योंकि श्री कृष्ण के सम्पूर्ण रहस्यों एवं चरित्रों को श्री राधा भी जानती हैं तो क्या श्रीराधा जी इस भूतल पर आकर श्रीकृष्ण कथा कहेंगी ? ऐसा संभव नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण और श्रीराधा में कोई भेद नहीं है। सांसारिक प्रक्रिया के मूलद्वन्द्वात्मक रूप से परे होने पर दोनों मूलत: एक ही ब्रह्म रूप हैं। तो ऐसे में वह अपनी ही कथा स्वयं कैसे कहेंगी। क्योंकि आज तक ऐसा कभी नहीं देखा गया कि कोई अपनी कथा स्वयं कहता हो।
अब रही बात तीसरे क्रम पर गोप और गोपियों की। क्योंकि गोप और गोपियां भी श्रीकृष्ण के सकार्ण चरित्र एवं गूढ़ रहस्यों को भली- भाँति जानते हैं। क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्री कृष्ण और श्री राधा के रोम कूपों से ही हुई हैं। ऐसे में भला ये गोप और गोपियाँ श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को कैसे नहीं जान सकते ? और सबसे बड़ी बात यह है कि श्री कृष्ण की लीला का सहचर बनकर ये गोप और गोपियां सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसी तरह से विद्यमान हैं, जैसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रत्येक ब्रह्माण्ड में विद्यमान है। और भगवान श्री कृष्ण इन्हीं गोप और गोपियों को लेकर अपने लीलाएं किया करते हैं।
(गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा से कैसे और कब हुई ? इस विषय पर सम्पूर्ण जानकारी इस पुस्तक के अध्याय (४) में दी गई है वहाँ से इसकी जानकारी प्राप्त की सकती हैं।)
अतः उपरोक्त तथ्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि - "श्रीकृष्ण कथा" को केवल गोप और गोपियाँ ही भावपूर्ण विधि से कह सकते हैं, जो मानवीय रूप में भूतल पर बहुतायत संख्या में विद्यमान हैं। अतः सम्यक तर्कों से सिद्ध होता है कि- "श्रीकृष्ण कथा कहने के लिए केवल गोप [आभीर] विद्वान ही पात्र हो सकते हैं।
क्योंकि उनके मन- मस्तिष्क में जन्म जन्मान्तर से श्री कृष्ण का संपूर्ण चरित्र एवं गुणों का ज्ञान सुषुप्तावस्था में विद्यमान है। बस आवश्यकता है - उन्हें श्री कृष्ण का ध्यान व योग से उस सुषुप्त ज्ञान को अपने अंदर जगाने की । और जिस क्षण वह ज्ञान, गोप और गोपियों में जागृत होगा, उसी क्षण वह श्री कृष्ण कथा कहने के लिए पात्र हो जाएंगे।
चाहे वह गोप हो या गोपी। इनके अतिरिक्त भू-तल पर सम्पूर्ण श्रीकृष्ण कथा कोई नहीं कह सकता भले ही वह कितना ही बड़ा कथावाचक क्यों न हो जाए। क्योंकि इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४) के श्लोक-(८२)और (८३) में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि -
अनुवाद - ८२,८३ • श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा भूलोकवासी और गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कृष्ण भक्ति का कुछ ही ज्ञान है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।
✳️ किन्तु प्रश्न यह है कि गोलोक के ये गोप और गोपियां श्रीकृष्ण और श्रीराधा की इतनी सारी विशेषताओं को लिए भूतल पर कैसे आये? क्या वास्तव में गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समरूप हैं ? क्या गोलोकवासी गोप ही भूतल के गोप,आभीर और यादव हैं ? गोपों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्पूर्ण श्रीकृष्ण कथा क्यों नहीं कह पाता ? ऐसे ही बहुत सारे प्रश्न और विचार मन में अवश्य उठ रहे होंगे। अतः इन सभी का समाधान किए बिना यह प्रसंग अधूरा रहेगा।
तो इस सम्बन्ध में सबसे पहले गोप और गोपियों की उत्पत्ति और उनके वास्तविक स्वरूप एवं स्थिति इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- ४ में दी गई है, किन्तु उसे संक्षेप में यहां भी बताना आवश्यक है।
गोपों की उत्पत्ति या जन्म के बारे में स्पष्ट रूप से वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या-( ४० और ४२) में मिलता है, जिसमें लिखा गया है कि -
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने। आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद - ४० से ४२ • फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
✳️ ज्ञात हो यह बात गोलोक की है, जहाँ सर्वप्रथम गोप और गोपियों की उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्री राधा के रोम कूपों अर्थात् उनकी सूक्ष्मतम इकाई कोशिकाओं से क्लोन विधि (समरूपण विधि ) से हुई। इसलिए सभी गोप श्रीकृष्ण के समरूप तथा सभी गोपियों श्रीराधा के समरूपणी उत्पन्न हुईं। इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि- समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समान रूप में होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है। इसके साथ ही उसके गुण, ज्ञान और व्यवहार भी उसी के अनुरूप होते हैं। यह ध्रुव सत्य है।
किन्तु सवाल यह है कि- गोलोक के ये गोप और गोपियां भूतल पर कैसे और क्यों आये?
तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि भगवान श्रीकृष्ण गोलोक से जब भी भू-तल पर भूमि भार हरण के लिए अवतरित होते हैं, तो वे अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ ही भूतल पर गोकुल के गोपों के यहाँ ही अवतरित होते हैं।
इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६) से होती है जिसमें देवताओं के निवेदन पर गोलोक में भगवान श्री कृष्ण अपने समस्त गोप-गोपियों को बुलाकर कहते हैं-
जनुर्लभत गोपाश्च गोप्यश्च पृथिवीतले।। गोपानामुत्तमानां च मन्दिरे मन्दिरे शुभे।६९।।
अनुवाद - भगवान श्रीकृष्ण ने कहा -गोप और गोपियों ! तुम सब भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो ।
तब श्रीकृष्ण का आदेश पाकर सभी गोप-गोपियां भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ-शुभ घरों में अवतरित हुए। इसकी पुष्टि- उस समय होती है, जब समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भूमण्डल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े, तब उस समय दन्तवक्र नाम के एक दैत्य से यादवों का भयानक युद्ध हुआ। उसी समय श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-( 11 ) के श्लोक संख्या-(२१और २२) में दन्तवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहा था-
"नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः। गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्भवाः।२१।
अनुवाद- नंदराज साक्षात् द्रोण नामक वसु हैं जो गोकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक के गोपालगण (आभीर) जो साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियां जो श्री राधा के रोम से उत्पन्न हुई हैं। वे सब की सब यहां (भूतल के ) व्रज में उतर आई हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्री कृष्ण को प्राप्त हुई है।२१-२२।
इसी तरह से समस्त गोलोकवासी गोप जो कभी श्रीकृष्ण के अँश से गोलोक में उत्पन्न हुए थे उन सभी को भू-तल पर गोपकुल के यादव वंश में भगवान श्रीकृष्ण के ही अँश रूप में अवतरित या जन्म लेने की पुष्टि- गर्गसंहिता के विश्वजित्खण्ड के अध्याय (२) के श्लोक- ७ से होती है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण यादवों के विश्वजीत युद्ध होने से पहले उग्रसेन से कहते हैं-
अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अँश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।
अतः उपरोक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ कि समस्त गोलोकवासी गोप जो कभी गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण के रोमकूपों (कोशिकाओं ) से या कहें उनके अँश से उत्पन्न हुए थे, वे सभी भूतल पर गोपजाति के यादव वंश में श्रीकृष्ण के ही अँश से प्रकट हुए हैं। ऐसी बात भगवान श्रीकृष्ण ने उपरोक्त श्लोकों में स्वयं कहें हैं कि "समस्त यादव मेरे ही अँश से प्रकट हुए हैं"।
परन्तु कृष्ण का वह प्राचीन रूप स्वराट- विष्णु ही है। कृष्ण उनका अर्वाचीन ( बाद ) का तत्कालीन रूप है।
इतने प्रमाणों के बाद हम्हें लगता है कि अब कोई यह नहीं कहेगा कि गोलोकवासी" गोप-गोपियाँ- भूतल की गोप-गोपियाँ नहीं हैं।
किन्तु एक बात अभी भी कुछ लोग कह सकते है कि- क्या प्रमाण है कि भूतल के गोप-गोपियों को श्रीकृष्ण भक्ति का पूर्णरूपेण ज्ञान है और वे ही लोग श्रीकृष्ण कथा कहने के पात्र हैं?
तो इसका सीधा जवाब है कि जो गोप-गोपियां श्रीकृष्ण और श्रीराधा के अँश से या कहें उनके रोम कूपों अर्थात् उनके क्लोन से उत्पन्न हुए हों और उनका सहचर बनकर सदैव सन्निकट रहते हों, तथा उनके ही साथ भूतल पर आते-जाते हों और उनके प्रत्येक कार्यों में एक साथ मिलकर हाथ बंटाते हों, तो ये गोप-गोपियां श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गुणों और रहस्यों को नहीं जानेंगे, तो क्या ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, देवी देवता या ब्रह्मा जी के- मुख, हाथ, पेट और पैर से उत्पन्न चातुर्वर्ण्य के लोग जानेंगे ? निश्चित रूप से इसका जवाब होगा- नहीं। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि जितना एक पुत्र अपनी माता-पिता के जितने गुणों को लेकर जन्म धारण करता है, और उनके अनुरूप ही व्यवहार करते हुए अपने माता-पिता के गुण, ज्ञान और व्यवहार के बारे में जानता है, शायद ही दूसरा कोई जानता होगा। इसी को विज्ञान की भाषा में आनुवंशिक गुण कहा जाता हैं जो माता-पिता से स्वाभाविक और पैतृक रूप से प्राप्त होता है।
शायद इन्हीं सब कारणों से ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२) और (८३) में लिखा गया है कि-
अनुवाद - ८२-८३ • श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं। • ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।
ज्ञात हो उपरोक्त श्लोक -८२ में गोपों के बारे में जो बात लिखी गई है कि "श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण गोप और गोपियां ही जानती हैं। वह बिल्कुल वैज्ञानिक आधार पर ही लिखी गई है क्योंकि सभी गोप-गोपियां श्रीकृष्ण की कोशिकाओं (रोम कूपों) अर्थात् उनके क्लोन यानी समरूपण से उत्पन्न हुए। इस बात को ऊपर बताया जा चुका है।
श्रीकृष्ण और श्रीराधा के द्वारा समरूपण विधि से उत्पन्न होने से ही सभी गोप-गोपियां रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण और श्रीराधा समान हुए थे ।
परन्तु आज उनमें अनेक संक्रमणों से विकृतियाँ हुईं हैं। परन्तु वे गोप अल्प मनस् -साधनो के द्वारा पात्रता प्राप्त कर सकते हैं।
इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या- ४० और ४२ के आधार पर उपर बताया गया है। इसी गुण विशेष के कारण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२ में यह बात लिखी गई है कि-"श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण गोप और गोपियाँ ही जानतीं हैं। जो वैज्ञानिक आधार पर ध्रुव सत्य है।
श्रीकृष्ण कथा की सभी पात्रताओं से युक्त केवल गोप और गोपियाँ ही हैं। इसलिए श्रीकृष्ण कथा के वास्तविक अधिकारी केवल गोप और गोपियां हैं।
किन्तु इसका मतलब यह नहीं हुआ कि श्रीकृष्ण कथा के लिए सभी गोप-गोपियाँ पात्र हैं। इसका मतलब यह हुआ कि श्रीकृष्ण कथा कहने का केवल वहीं गोप और गोपियाँ पात्र हो सकतीं हैं, जिन्होंने भक्ति, तप और योग साधना से भगवान श्रीकृष्ण के जनेटिक गुणों को अपने अन्दर जागृत कर श्रीकृष्ण का तत्व ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो उनके अन्दर पहले से ही आनुवाँशिक रूप से विद्यमान है। क्योंकि सभी गोप श्रीकृष्ण के क्लोन से उत्पन्न हुए हैं इस लिए उनके अन्दर श्रीकृष्ण का तत्व गुण पहले से ही सुषुप्तावस्था में विद्यमान रहता है, बस उसे जगाने की जरूरत है।
और जो धूर्त, अज्ञानी, पाखण्डी और छद्मवेषधारी, श्रीकृष्ण गुणों से रहित "गोप-गोपियां" हैं वे कभी श्रीकृष्ण कथा के अधिकारी नहीं हो सकते।
फिर भी यदि वे श्रीकृष्ण कथा कहते हैं तो निश्चय ही शास्त्रोचित पाप- दण्ड के भागी होंगे। इस बात को भी इसी अध्याय में आगे बताया गया है। अतः श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी केवल श्रीकृष्ण तत्व ज्ञानी गोप और गोपियां ही हो सकतें हैं, अज्ञानी गोप नहीं। कृष्ण भक्त जो संसार से विरक्त हो गया है। वह भी कृष्ण कृपा से उनकी भक्ति तत्व को जान सकता है। _______
तब पुनः प्रश्न उठता है कि क्या श्रीकृष्ण तत्व ज्ञानी गोपों के अतिरिक्त और कोई श्रीकृष्ण कथा नहीं कह सकता? तो इसका जवाब है अवश्य कह सकता हैं किन्तु वह श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों का वर्णन नहीं कर पाएगा क्योंकि वह जब भी श्रीकृष्ण कथा कहेगा तो वह पुराणों के आधार पर अल्प ज्ञान से ही कथा कहते हुए कभी भगवान श्रीकृष्ण को बहेलिया से मारें जाने की बात कहेगा, तो कभी गान्धारी और ऋषियों द्वारा श्रीकृष्ण को शापित होने की बात बताएगा। इसके अतिरिक्त वह यह भी बताएगा कि- श्रीकृष्ण की उत्पत्ति विष्णु से हुई है। या वह यह कहेगा कि श्रीकृष्ण ही विष्णु हैं और विष्णु ही श्रीकृष्ण हैं। क्योंकि उसे विष्णु और श्रीकृष्ण में भेद का ज्ञान ही नहीं है। इसके अतिरिक्त वह परम प्रभु श्रीकृष्ण के अतिरिक्त तरह-तरह के देवी-देवताओं को पूजने की बात कहेगा। क्योंकि हमने आजतक जिस किसी कथावाचक की कथा सुनी हैं, सभी ने उपरोक्त बातों को ही बताया है। इससे अधिक वे कुछ नहीं बता पाये।
उनकी कथाओं में हमने कभी नही भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के बारे में सुना। जिसे हमने इस पुस्तक के अध्याय २-३ और ४ में शास्त्रीय विधि से बताया है। ऐसे में जो कथावाचक अपनी कथाओं में आधी-अधूरी और अल्प ज्ञान से आवेशित होकर श्रीकृष्ण कथा कहते हैं। उनका अन्ततोगत्वा क्या परिणाम होता है ? इसके लिए अगला प्रसंग देखें।
शास्त्रों में यह विधान किया गया है कि गलत कथा या आधी अधूरी कथा कहने वाले नरक के भागी होते हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड उत्तरार्द्ध- के अध्याय -(८५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो नन्द बाबा और श्रीकृष्ण संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा के पूछे जाने पर, गलत कर्म करने वाले एवं धूर्त कथावाचकों के विषय में कहते हैं कि-
कुष्ठी भवेच्च जन्मैकं कृकलासस्त्रिजन्मसु। जन्मैकं वरलश्चैव ततो वृक्षपिपीलिका।१९३। ततः शूद्रश्च वैश्यश्च क्षत्रियो ब्राह्मणस्तथा। कन्याविक्रयकारी च चतुर्वर्णो हि मानवः।१९४।
सद्यः प्रयाति तामिस्रं यावच्चन्द्रदिवाकरौ। ततौ भवति व्याधश्च मांसविक्रयकारकः।१९५। ततो व्याधि(धो)र्भवेत्पश्चाद्यो यथा पूर्वजन्मनि। मन्नामविक्रयी विप्रो न हि मुक्तो भवेद् ध्रुवम्।१९६।
मृत्युलोके च मन्नामस्मृतिमात्रं न विद्यतेः । पश्चाद्भवेत्स गो योनौ जन्मैकं ज्ञानदुर्बलः।१९७। ततश्चागस्ततो मेषो महिषःसप्तजन्मसु। महाचक्री च कुटिलो धर्महीनस्तु मानवः।१९८।
अनुवाद- (१९२-१९८) • विद्वानों के कवित्व ( विद्वत्ता) पर प्रहार करने वाला सात जन्मों तक मेंढक होता है। और जो झूठे ही अपने को विद्वान कहकर गाँवों की पुरोहितायी और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करता है; वह सात जन्मों तक नेवला होता है। १९२। • और वह एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक गिरगिट होता है, फिर एक जन्म में बर्रे (ततैया) होने के बाद वह वृक्ष की चींटी (माटा/ दींमक) होता है।१९३। • उसके बाद क्रमश: शूद्र ,वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण बनता है, और इन चारो वर्णों मे कन्या बेचने वाला तथा मेरे नाम (श्रीकृष्ण) को बेचने वाला ब्राह्मण (विप्र) भी कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं करता- यह ध्रुव सत्य है।१९४। • तथा मेरे नाम (श्रीकृष्ण) को बेचने वाला (मेरे नाम पर धंधा चलाने वाला) कथावाचक (पुरोहित) शीघ्र ही तामिस्र नरक में जाता है और तब-तक रहता है जब तक सूर्य तथा चन्द्रमा रहते है। उसके बाद मांस बेचने वाला बहेलिया बनता है।१९३। • फिर उसे पूर्व जन्म के कर्म- संस्कारों के कारण बीमारी घेरती है। और मेरे नाम को बेचने वाले (मेरे नाम पर धन्धा चलाने वाले) पुरोहितों (कथावाचकों ) की मुक्ति नहीं होती- यह ध्रुव सत्य है।१९६। • मृत्युलोक में जिसके ध्यान में मेरा नाम (श्रीकृष्ण) आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गाय का बछड़ा बनकर जन्म लेता है।१९७। • इसके बाद बकरा, फिर मेढा और सात जन्मों तक भैंसा होता है। इस प्रकार बहुत से चक्कर लगाते (महचक्री) हुए वह जो षड्यन्त्र रचने में बहुत प्रवीण हो, कुटिल धर्म से हीन मानव बनता है।१९८।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जो अपने आप ही विद्वान समझकर स्वार्थ व धनार्जन के लिए भगवान श्रीकृष्ण की ग़लत व झूठी कथा कहता है, वह अन्ततोगत्वा नरकगामी होता है। ऐसी बात शास्त्रों में लिखी गयी है।
इसीलिए किसी ऐसे गुरु को चुनना चाहिए जो तत्व ज्ञानी हो, श्रीकृष्ण के प्रति भक्तिभाव उत्पन्न करने वाला हो, गुरुमन्त्र नहीं बल्कि कृष्ण मन्त्र देने वाला हो। जो शिष्यों से स्वयं को न पुजवाकर परमेश्वर को पूजने की बात कहता हो, यदि ऐसा गुरु मिल जाए तो उसे गुरु मानकर ज्ञान अवश्य लेना चाहिए। सच्चे गुरु, भाई, बंधु , माता-पिता की कुछ ऐसी ही विशेषताएं देवीभागवतपुराण-स्कन्धः (9) अध्याय (48)- के अध्याय -(४६) में बताईं गई है। जो इस प्रकार है-
यो बन्धुश्चेत्स च पिता हरिवर्त्मप्रदर्शकः। सा गर्भधारिणी या च गर्भावासविमोचनी॥६५।
दयारूपा च भगिनी यमभीतिविमोचनी। विष्णुमन्त्रप्रदाता च स गुरुर्विष्णुभक्तिदः॥६६।
गुरुश्च ज्ञानदो यो हि यज्ज्ञानं कृष्णभावनम्। आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं ततो विश्वं चराचरम्॥ ६७।
तत्त्वानां सारभूतं च हरेरन्यद्विडम्बनम्। दत्तं ज्ञानं मया तुभ्यं स स्वामी ज्ञानदो हि यः॥६९।
ज्ञानात्प्रमुच्यते बन्धात्स रिपुर्यो हि बन्धदः। विष्णुभक्तियुतं ज्ञानं नो ददाति च यो गुरुः॥७०।
स रिपुः शिष्यघाती च यतो बन्धान्न मोचयेत् । जननीं गर्भजक्लेशाद्यमयातनया तथा॥७१।
न मोचयेद्यः स कथं गुरुस्तातो हि बान्धवः। परमानन्दरूपं च कृष्णमार्गमनश्वरम्॥ ७२।
अनुवाद- ६५-७२ भगवत्प्राप्ति का मार्ग दिखाने वाला बन्धु ही सच्चा पिता है। जो आवागमन (गर्भवास ) से मुक्त कर देनेवाली है, वही सच्ची माता है। वही बहन दयास्वरूपिणी है, जो यम के त्रास (भय) से छुटकारा दिला दे। गुरु वही है, जो विष्णु (श्रीकृष्ण) का मन्त्र प्रदान करनेवाला तथा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति उत्पन्न करने वाला हो।६५-६६।
• ज्ञानदाता गुरु वही है, जो भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन कराने वाला ज्ञान प्रदान करे; क्योंकि तृण से लेकर ब्रह्माण्डपर्यन्त चराचर सम्पूर्ण विश्व आविर्भूत (उत्पन्न) होकर पुनः विनष्ट होने वाला है, तो फिर अन्य वस्तु से ज्ञान कैसे हो सकता है ? वेद अथवा यज्ञ से जो भी सारतत्त्व निकलता है, वह भगवान् श्रीहरि की सेवा ही है।६७-६८। • यही हरिसेवा समस्त तत्त्वों का सारस्वरूप है, भगवान् श्रीहरि की सेवा के अतिरिक्त अन्य सब कुछ विडम्बना है। मेरे द्वारा जो ज्ञान तुमको दिया गया है। ज्ञानदाता स्वामी वही है जो ज्ञान के द्वारा बन्धन से मुक्त कर देता है वही बन्धु है। और जो बन्धन में डालता है, वह शत्रु है। जो भगवान् विष्णु में भक्ति उत्पन्न करनेवाला ज्ञान नही देता वह गुरु भी शत्रु ही है।६९-७०। • वह गुरु शत्रु और शिष्यघाती ही है जो बन्धन से मुक्त नहीं करता है। जो जननी के गर्भजनित कष्ट तथा यमयातना से मुक्त न कर सके; उसे गुरु, तात तथा बान्धव कैसे कहा जाय ? जो बन्धन से मुक्त नहीं करे, और जो भगवान् श्रीकृष्ण के परमानन्दस्वरूप सनातन मार्ग का निरन्तर दर्शन नहीं कराता हो।७१-७२।
उपरोक्त श्लोकों में जो गुरु की विशेषताएं बताई गई है- (वह गुरु शिष्य घाती है जो अपने ज्ञान से शिष्यों को मोह-माया के बन्धनमुक्त नहीं करता तथा परमानन्द स्वरूप सनातन मार्ग का निरंतर दर्शन नहीं कराता।) वह बिल्कुल सत्य है। उसी के हिसाब से मनुष्य को गुरु का चयन करना चाहिए। पाखंडी और छद्मवेषधारी गुरुओं को तुरंत त्याग देना चाहिए। इसी में भलाई है नहीं तो फिर जग हंसाई है।
और यादव लोग तो वैसे भी पाखण्ड से सदैव दूर रहते हैं। इस बात की पुष्टि हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय- (२२) के श्लोक (१४) से उस समय होती है जब कंस अपने समस्त यादवों को राज दरबार में बुलाकर कुछ इस प्रकार कहा-
अनुवाद- आप (यादव) सब लोग पाखण्डपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मन्त्रों को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।
अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण कथा कहने का पात्र केवल ज्ञानी गोप और गोपियों ही है। इनके अतिरिक्त और किसी के द्वारा श्री कृष्ण कथा कहने का मतलब श्रीकृष्ण की अधूरी जानकारी देना है। यही कारण है कि गोपों के अतिरिक्त वर्तमान समय में जितने भी कथावाचक हैं, श्री कृष्ण कथा कहते समय श्री कृष्ण के साथ गोप और गोलोक की चर्चा नहीं कर पाते हैं। इसलिए उनके द्वारा की गई श्रीकृष्ण कथा अधुरी मानी जाती है। और इस सम्बन्ध में उपर बताया गया है कि कैसे आधी अधूरी श्रीकृष्ण कथा कहने वाले नरकगामी होते हैं।
इस प्रकार से परमप्रभु परमेश्वर कौन हैं ? पूजा-अर्चना के वास्तविक विधि-विधान क्या है ? वास्तव में किसकी पूजा करनी चाहिए किसकी नहीं ? कथावाचकों द्वारा गलत कथा कहने के दुष्परिणाम तथा सही गुरु का चयन कैसे किया जाए ? इन सभी की जानकारीयों के साथ यह अध्याय समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय- (दो) में जानकारी दी गई है कि- "श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनका गोलोक धाम कैसा है और कहाँ स्थापित है"।
यह अध्याय श्रीकृष्ण भक्तों के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की चर्चा तो करते हैं, किन्तु वे उनके वास्तविक स्वरूप और उनके गोलोक की सूक्ष्म एवं स्थूल स्थिति की चर्चा नहीं करते हैं।
इसके दो ही कारण हो सकते हैं। पहला यह कि या तो उन्हें श्रीकृष्ण और उनके गोलोक का ज्ञान नहीं है, तथा दूसरा यह कि वे लोग अपनी कथाओं में यदि श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप और उनके गोलोक के बारे में बतानें लगेंगे तो उन्हें अपने ३३ करोड़ देवी-देवताओं को पीछे करके श्रीकृष्ण तथा उनके गोपों को आगे करना होगा। किन्तु वे लोग ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि इन्हीं तैतीस (३३) करोड़ देवताओं के भ्रमजाल से अपनी कथाओं में कभी इस देवता को पूजवाते है तो कभी उस देवता को पूजवाते हुए नाना प्रकार के चमत्कार से अपने स्वयं भटकतेे हुए दूसरों को भी भटकाते हैं। ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण भक्तों को श्रीकृष्ण का वास्तविक स्वरूप एवं उनके गोलोक की लौकिक एवं भौतिकी स्थिति को जानना आवश्यक हो जाता है।
गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के विषय में ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय २- के क्रमशः (४ से २१) तक के श्लोकों में कुछ इस तरह से बताया गया है -
अनुवाद- ४-२१ • पुरातन प्रलय काल में केवल ज्योति-पुञ्ज प्रकाशित था। जिसकी प्रभा करोड़ो सूर्यों के समान थी। वही नित्य व शाश्वत ज्योतिर्मण्डल असंख्य विश्वों का कारण बनता है।४।
• वह स्वेच्छामयी,सर्वव्यापी परमात्मा का महान सर्वोज्ज्वल तेज है। उस तेज के आभ्यन्तर (भीतर) मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं।५।
• और उन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक धाम है जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई- चौड़ाई तीन करोड़ योजन तक विस्तारित है। उसका आयतन सभीओर से मण्डलाकार है। ६।
• और उसकी परम- तेज युक्त सुन्दर महान भूमि रत्नों से मड़ी हुई है। वह लोक योगियों के लिए स्वप्न में भी दिखाई देने योग्य नहीं है। वह केवल वैष्णवों (श्रीकृष्ण भक्तों) के लिए ही दृश्य और गम्य (पहुँचने योग्य) है।७।
• वहाँ आधि (मानसिक पीड़ा) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) जरा (बुड़़ापा) मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं है।८।
• रत्न से निर्मित असंख्य मन्दिरों से सुशोभित उस लोक में प्रलय काल में केवल श्री कृष्ण मूल रूप से विद्यमान रहते हैं। और सृष्टि काल में वह लोक गोप-गोपियों से परिपूर्ण रहता है।९।
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक-९ की बात नहीं बाताना चाहतें हैं। अथवा जानते ही नहीं हैं। ]
• और इस गोलोक के नीचे दक्षिण भाग में पचास करोड़ योजन दूर वैकुण्ठ धाम है। और वाम-भाग में इसी के समानान्तर शिवलोक विद्यमान है।१०।
• गोलोक से भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है।१३।
• जो परम आह्लाद जनक तथा नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। वह ज्योति ही परमानन्द दायक है जिसका ध्यान सदैव योगीजन योग के द्वारा ज्ञान नेत्रों से करते हैं।१४।
• ज्योति के भीतर जो अत्यन्त परम मनोहर रूप है। वही निराकार व परात्पर ब्रह्म है; उसका रुप उस ज्योति के भीतर अत्यन्त सुशोभित होता है । १५।
• जो नूतन जलधर (मेघ) के समान श्याम (साँवला) है जिसके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्लित हैं। जिनका निर्मल मुख शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करता है।१६।
• यह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है। उनकी दो भुजाएँ हैं। एक हाथ में मुरली सुशोभित होती है,और उपरोष्ठ एवं अधरोष्ठों पर मुस्कान खेलती रहती है जो पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं। १७।
• वह श्याम सुन्दर पुरुष रत्नमय सिंहासन पर आसीन है और आजानुलम्बिनी (घुटनों तक लटकने वाली) वन माला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परम्-ब्रह्म परमात्मा और सनातन ईश्वर कहते हैं।२०।
• वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक (२१) की बात नहीं बाताना चाहतें हैं।]
भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक का स्वरूप तथा उनके गोप गोपियों - के विषय में ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२८) के कुछ प्रमुख श्लोकों में भी बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। जिसका हम निम्नलिखित श्लोकों में प्रस्तुतिकरण करते हैं।
तत्तेजोमण्डलाकारे सूर्य्यकोटिसमप्रभे । नित्यं स्थलं च प्रच्छन्नं गोलोकाभिधमेव च।।४०।।
ऊर्ध्वं च नित्यवैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनम्। गोगोपगोपीसंयुक्तं कल्पवृक्षसमन्वितम्।।४३।
अनुवाद ( ४०- ४३) • करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान जो मंडलाकार तेज पुंज है, उसके भीतर नित्य धाम छुपा हुआ है जिसका नाम गोलोक है।४०।
• वह मनोहर लोक चारों ओर से लक्ष्य कोटि योजन विस्तृत है। सर्वश्रेष्ठ दिव्य रत्न के सारतत्वों से जिनका निर्माण हुआ है, ऐसे दिव्य भवनों तथा गोपांगनाओं से वह लोक सदा भरा हुआ है।४१।
• चन्द्रमण्डल के समान ही वह गोलाकार है। रत्नेन्द्रसार से निर्मित वह धाम परमात्मा की इच्छा के अनुसार बिना किसी आधार के ही स्थित है। ४२।
• उस नित्य लोक की स्थिति वैकुणठ लोक से पचास करोड़ योजन ऊपर है। वहां गायें, गोप और गोपियां निवास करती हैं। वहाँ कल्पवृक्ष के वन हैं।४३।
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक (४३) की बात नहीं बाताते हैं।]
अनुवाद- (४४-५४) • मुने ! वह वृन्दावन से आच्छन्न और विरजा नदी से आवेष्टित है। वहाँ सैकड़ो शिखरों से सुशोभित गिरिराज विराजमान है। स्वर्ण निर्मित लक्ष्य कोटि के मनोहर आश्रम हैं।४४-४५।
• जिनसे वह अभीष्ट धाम अत्यंत दीप्तिमान एवं श्री संपन्न दिखाई देता है। उन सबके मध्य भाग में एक परम मनोहर आश्रम है जो अकेला ही सौ मन्दिरों से संयुक्त है। वह परकोटों तथा खाइयों से घिरा हुआ तथा पारिजात के वनों से सुशोभित है।४६।
• उस आश्रम के भवनों में जो कलश लगे हैं उनका निर्माण रत्नराज कौस्तुभ मणि से हुआ है। इसलिए वह उत्तम ज्योति पुंज से जाज्वल्यमान रहते हैं।
उन भवनों में जो सीढ़ियां हैं वे दिव्य हीरे के सारतत्व से बनी हुई है। उनसे उन भवनों का सौन्दर्य बहुत बढ़ गया है।४७।
• मणीन्द्रसार से निर्मित वहाँ के किवाड़ों में दर्पण जड़े हुए हैं। नाना प्रकार के चित्र -विचित्र उपकरणों से वह आश्रम भली भाँति सुसज्जित है।४८।
• उसमें सोलह दरवाजे हैं तथा वह आश्रम रत्नमय प्रदीपों से अत्यन्त उद्भासित होता है। वह बहुमूल्य रत्न द्वारा निर्मित है।४९।
• तथा नाना प्रकार के विचित्र चित्रों से चित्रित रमणीय रत्नमय सिंहासन पर सर्वेश्वर श्री कृष्ण बैठे हुए हैं। उनकी अंक कान्ति नवीन मेघमाला के समान श्याम है वे किशोर अवस्था के बालक हैं। ५०।
• उनके नेत्र शरद काल की दोपहरी की सूर्य की प्रभा को छीने लेते हैं।५१।
• उनका मुखमण्डल शरद पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा की शोभा को ढक देता है। उनका सौन्दर्य कोटि कामदेव को लावण्य लीला को तिरस्कृत कर रहा है। उनका पुष्ट श्रीविग्रह करोड़ चन्द्रमाओं की प्रभा से सेवित है।५२।
• उनके मुख पर मुस्कुराहट खेलती रहती है उनके हाथ में मुरली शोभा पाती है। सब ओर से घेरकर खड़ी हुई गोपांगनाएं उन्हें सदा सादर निहारती रहती है।५३।
• वे गोपांगनाएं भी सुस्थिर यौवन से युक्त मन्द मुस्कान से सुशोभित तथा उत्तम रत्न के बने हुए आभूषणों से विभूषित हैं।५४।
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक -५२-५३ की बात नहीं बाताना चाहतें हैं। अथवा जानते नहीं ]
अनुवाद -६१-६५- • मुने ! वैष्णवजन उन निराकार परमात्मा का इस रूप में ध्यान किया करते हैं। वे परमात्मा ईश्वर हम सब लोगों के सदा ही ध्येय हैं। उन्हीं को अविनाशी परब्रह्म कहा गया है। ६१-६२।
• वे ही दिव्य स्वेच्छामय शरीरधारी सनातन भगवान है। वे निर्गुण, निरीह और प्रकृति से परे हैं। सर्वाधार, सर्वबीज, सर्वज्ञ,सर्व स्वरुप है।६३।।
• सर्वेश्वर, सर्वपूज्य तथा संपूर्ण सिद्धियों को हाथ में देने वाले हैं। वे आदि पुरुष भगवान स्वयं ही द्विभुज रूप धारण करके गोलोक में निवास करते हैं।६४।
•उनकी वेशभूषा भी ग्वालों के समान होती है और वे अपने पार्षद गोपालों (गोपों) से घिरे रहते हैं। उन परिपूर्णतम भगवान को श्रीकृष्ण कहते हैं। वे सदा श्रीजी के साथ रहने वाले और श्रीराधिका के प्राणेश्वर हैं।६५।
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोकों (६५) की बात भी नहीं बाताना चाहतें हैं।]
इसके अलावा ऋग्वेद मण्डल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में भी गोलोक का वर्णन मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि- गोलोक में भूरिश्रृंगा गायें रहती है इसीलिए उस परमधाम को गोलोक अर्थात् गायों का लोक कहा जाता है।
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।। पदों के अर्थ व अन्वय:- जिसमें "पदों का अर्थ है:-(यत्र)= जहाँ (अयासः)= प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः)= स्वर्ण युक्त सींगों वाली (गावः)= गायें हैं (ता)= उन ।(वास्तूनि)= स्थानों को (वाम्)= तुम को (गमध्यै)= जाने को लिए (उश्मसि)= इच्छा करते हो। (उरुगायस्य)= बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः)= सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का (परमम्)= उत्कृष्ट (पदम्)= स्थान (भूरिः)= अत्यन्त (अव भाति) =उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्)= उसको (अत्राह)= यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६।
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यही स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं। क्योंकि इस सम्बन्ध में ऐसा ही लिखा गया है कि - "त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८) इस ऋचा के पद-भेद से स्पष्ट होता है कि - (अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्)= धारण करता हुआ । (गोपाः)= गोपालक रूप, (विष्णुः)= संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि)= क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को ।18॥
अर्थात् यह बात वेदों से भी सुनिश्चित हुयी कि - परमेश्वर श्रीकृष्ण का सनातन निवास गोलोक है, जहाँ वे गोप-वेष में अपनी गायों तथा गोपों के साथ रहते हैं और गोप-वेष में ही रहकर धर्म की स्थापना बारम्बार करते है।
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में ऋग्वेद की ऋचा १/२२/१८ की बात नहीं बाताना चाहतें हैं।]
पुराणों में वर्णन है कि गोलोक सुरभि आदि गायों का भी लोक है। भागवत पुराण में भी दशम स्कन्ध के सत्ताईसवें अध्याय में गोवर्द्धन पर्वत पूजन प्रकरण में गोलोक से सुरभि गाय के पृथ्वी पर आने का वर्णन है।
श्रीशुक उवाच -
( अनुष्टुप् वार्णिक छन्द )
गोवर्धने धृते शैले आसाराद् रक्षिते व्रजे ।
गोलोकादाव्रजत् कृष्णं सुरभिः शक्र एव च॥१॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- हे परीक्षित्! जब भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण कर मूसलाधार वर्षा से व्रज की रक्षा की तब गोलोक धाम से सुरभि गाय तथा स्वर्ग से इन्द्र बधाई देने आये।१।
इस प्रकार से यह अध्याय- (दो) भगवान श्रीकृष्ण का सनातन स्वरूप और उनके गोलोक धाम की जानकारी के साथ समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय -(३) में जानेंगे कि श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई परम शक्ति या परमेश्वर नहीं है।
श्री कृष्ण ही एकमात्र परम प्रभु या परमेश्वर है। इस बात की पुष्टि सर्वप्रथम ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (३०) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराट विष्णु इत्यादि श्री कृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं -
ब्रह्मस्वरूपा प्रकृतिर्न भिन्ना यया च सृष्टिं कुरुते सनातनः। श्रियश्च सर्वाः कलया जगत्सु माया च सर्वे च तया विमोहिताः।।१२।
नारायणी सा परमा सनातनी शक्तिश्च पुंसः परमात्मनश्च। आत्मेश्वरश्चापि यया च शक्तिमांस्तया विना स्रष्टुमशक्त एव ।। १३।
अनुवाद - • जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर किसकी सामर्थ्य है ? हे नारद ! तुम भी श्री हरि के चरणारविंद का अत्यंत आदर पूर्वक चिंतन करो। ६।
• नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्मा जी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।
• सहस्र शिरो वाले शेषनाग सम्पूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण अथवा स्थापित करते है। वे भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठ हो। वे भगवान कूर्म भी श्री कृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं।८।
• गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ स्पष्ट रूप से वर्णन नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु (श्रीकृष्ण ) की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान का भजन करो।९।
• सभी ब्रह्माण्डों में सर्वदा सार्वभौम निवास उन परमेश्वर के प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र विद्यमान हैं। इन देवताओं की संख्या असंख्य है और देवता भी उस भगवान के परम - स्वरूप को नहीं जानते हैं। उस परमेश्वर का भजन करो।१०।
अर्थात- जो सृष्टिकर्ता एक नियम से सृष्टि सर्जन करता है वह भी उस शाश्वत प्रकृति का चिन्तन करता है जो ब्रह्माण्ड की जननी है। ब्रह्मा और अन्य तथा सभी प्राकृतिक प्राणीयों को भक्ति प्रदान करने वाली इस भाग्य की देवी की पूजा करते हैं।) प्रकृति ब्रह्मस्वरूप है वह उससे भिन्न नहीं है जिससे नित्य सृष्टि होती है। संसार की सारी सुंदरता और सारी माया उसकी कलाओं से विमोहित हो जाती है।१२।
• नारायणी मनुष्य और परमात्मा की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति है। यहां तक कि आत्मा का स्वामी भी उसके बिना, जो सर्वशक्तिमान है, सृजन करने में असमर्थ है।१३।
भगवान श्रीकृष्ण को सर्वेश्वर एवं ऐश्वर्यशाली होने की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- २१ के श्लोक संख्या- (४३) से भी होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् । ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम् ।।४३। अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही उस परम- सत्ता के प्रतिनिधि हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए ।४३।
और ऐसा ही वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या (१७) से (१८)और (१९) में भी मिलता है -
"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्। परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम्।।१७।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्। ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम्।।१९।
अनुवाद:- • द्विभुजधारी, किशोर वय, गोपवेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है; वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं।१७।
परम्- ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति मुनि गणों के साथ करते हैं।१८।
• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षीरूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा मुस्कान और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।१९।
इन श्लोकों के अतिरिक्त ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६७) के श्लोक संख्या - (४९) से भी कृष्ण की सर्वोपरिता स्वत: सिद्ध होती है जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं राधा से कहते हैं कि-
"आधारश्चाहमाधेयं कार्य च कारणं विना । अये सर्वाणि द्रव्याणि नश्वराणि च सुन्दरि"।४९।
अनुवाद- हे राधे ! मैं आधार और आधेय ,कारण और कार्य दोंनो ही रूपों में हूँ । सभी द्रव्य परिवर्तन शील होने से नाशवान है। श्री कृष्ण संपूर्ण ब्रह्मांड की एकमात्र सर्वोच्च शक्ति हैं वे इसी सत्य को राधा जी से कहते हैं।"
इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-( ११ ) के श्लोक संख्या- (१६) में भगवान श्री कृष्ण की सर्वोच्चता का तुलनात्मक वर्णन मिलता है जो "शौनक और सूत संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें सूत जी शौनक जी कहते है कि-
"नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न च कृष्णात्परः सुरः। न शङ्कराद्वैष्णवश्च न सहिष्णुर्धरा परा।।१६। अनुवाद:- • गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है। कृष्ण से बड़ा कोई देव अथवा ईश्वर नहीं, और शंकर (शिव) से बड़ा कोई सहनशील वैष्णव इस भू-मंडल में नहीं है।१६। इसी तरह से ब्रह्मवैवर्तपुराण -श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (6) के श्लोक संख्या- (४२- ४३- ४४ -४५-४६ -४७) और (४८) में अपनी विभूतियों के विषय में स्वयं गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक में पधारे देवताओं से कहते हैं कि-
"सर्वे नश्यन्ति ब्रह्माण्डानां प्रभवन्ति पुनःपुनः। न मे भक्ताः प्रणश्यन्ति निःशंकाश्च निरापदः।४८।
अनुवाद:- • हे देवो ! मैं काल का भी काल हूँ। विधाता का भी विधाता हूँ। संहारकारी का भी संहारक तथा पालक का भी पालक मैं ही परात्पर परमेश्वर हूँ। ४२।
• और मेरी आज्ञा से ही शिव रूद्र रूप धारण कर संसार का संहार करते हैं इसलिए उनका नाम "हर" सार्थक है। और मेरी आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि सर्जन के लिए उद्यत रहते हैं। इस लिए वे विश्व- स्रष्टा कहलाते हैं। और धर्म के रक्षक देव विष्णु सृष्टि की रक्षा के कारण पालक कहलाते हैं। ४३।
• ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सबका ईश्वर मैं ही हूँ। मैं ही कर्म फल का दाता और कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ। ४४।
• और मैं जिसका संहार करना चाहता हूँ; उनकी रक्षा कौन कर सकता है ? तथा मैं जिसका पालन करने वाला हूँ; उसका विनाश करने वाला कोई नहीं है ।४५। • मूलत: मैं ही सबका सर्जक ,पालक और संहारक हूँ। परन्तु मेरे भक्त नित्यदेही हैं उनका संहार करने में मैं भी समर्थ नहीं हूँ।४६।
• भक्त मेरे अनुयायी (मेरे पीछे-पीछे चलने वाले) हैं; वे सदैव मेरे चरणों की उपासना में तत्पर रहते हैं। इसलिए मैं भी सदा भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिए समर्पित रहता हूँ।४७।
• सभी ब्रह्माण्ड नष्ट होते और पुन: पुन: बनते हैं। परन्तु मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते वे सदैव नि:शंक( डर और शंका रहित) और सभी आपत्तियों से परे रहते हैं। और मैं सदा भक्तों के अधीन रहता हूँ क्योंकि भक्त मेरे अनुयायी हैं।४८। ब्रह्मवैवर्तपुराण के समान ही भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ इसी प्रकार की बातें श्रीमद्भागवत पुराण के नवम- स्कन्ध के चतुर्थ- अध्याय-श्लोक संख्या-(६३-६४) में भी लिखी गई हैं कि- सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करने वाला परमेश्वर केवल अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं कि-
"अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतन्त्र इव द्विज। साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:।६३।
"नाहं आत्मानमाशासे मद्भक्तै: साधुभिर्विना। श्रियंचात्यन्तिकीं ब्रह्मन् ! येषां गति: अहं परा।६४। अनुवाद- • मैं सब प्रकार से भक्तों के अधीन रहता हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधक भक्तों ने मेरे हृदय को अपने वश में कर लिया है। भक्त मुझको प्रिय हैं और मैं उन भक्तों को प्रिय हूँ।६३।
• ब्राह्मण ! मैं अपने भक्तों का एक मात्र आश्रय हूँ। इसलिए मैं अपने साधक भक्तों को छोड़कर न मैं अपने को चाहता हूँ और न ही अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को।६४।
इसी प्रकार गोपेश्वर श्रीकृष्ण के विषय में ब्रह्म वैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय-(२१) के श्लोक संख्या -(४१ और ४२) में लिखा गया है कि -
अनुवाद- • स्थिर यौवन युक्त चारों तरफ आभूषणों से सुसज्जित वे श्रीकृष्ण श्रीराधा जी के वक्ष:स्थल पर स्थित रहते हैं।४१।
• ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवों द्वारा निरन्तर पूजित, वन्दित और जिनकी स्तुति की गयी हो; वे राधा जी के प्रिय श्रीकष्ण जिनकी अवस्था किशोर है। जो शान्त स्वरूप और परात्पर ब्रह्म हैं।४२।
फिर भगवान श्री कृष्ण की सर्वोच्चता उस समय सिद्ध होती है। जब भगवान श्रीकृष्ण एक समय राधा जी को अपने बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताईं थीं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त-पुराण के श्री कृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय -(६६) के श्लोक संख्या -(५० से ५९) तक के श्लोकों में मिलता है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण राधा जी से कहते हैं कि - "आविर्भावाधिकाः कुत्र कुत्रचिन्न्यूनमेव च। ममांशाः केऽपि देवाश्च केचिद्देवाःकलास्तथा। ५०।
अनुवाद - • कहीं किन्हीं पदार्थों का आविष्कार अधिक होता है और कहीं कम मात्रा में कुछ देवता मेरे अंश हैं, कुछ कला हैं और कुछ अंश के भी अंश हैं। मेरी अंश स्वरूपा प्रकृति सूक्ष्मरूपिणी है। उसकी पाँच मूर्तियाँ है ।५०-५१।
• प्रधान मूर्ति तुम राधा,वेदमाता गायत्री,दुर्गा,लक्ष्मी आदि और जितने भी मूर्ति धारी देवता हैं वे सब प्राकृतिक हैं। और मैं उन सबका आत्मा हूँ।५२।।
• और भक्तों के द्वारा ध्यान करने के लिए मैं नित्य देह धारण करके स्थित रहता हूँ। हे राधे ! जो जो प्राकृतिक देह धारी हैं। वे सब प्राकृतिक प्रलय के समय नष्ट हो जाते हैं।
• सबसे पहले मैं वही था और सबके अन्त में भी मैं ही रहुँगा। हे राधे ! जिस प्रकार मैं हूँ ; उसी प्रकार तुम भी हो ! जिस प्रकार दुग्ध और उसका धवलता (सफेदी) में भेद नहीं हैं।५४।
• प्राकृतिक सृष्टि में मैं ही वह महान विराट हूँ। जिसकी रोमावलियों में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान है।५५।
• वह महा विराट् मेरा ही अँश है और तुम अपने अंश से उसकी पत्नी भी हो। जो समिष्टी (समूह) में है वही व्यष्टि (इकाई) में भी है। बाद की सृष्टि में मैं ही वह क्षुद्र विराट् विष्णु भी हूँ जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है।५६।।
• विष्णु के रोम कूपों में मेरा आंशिक निवास है। तुम्ही अपने अंश रूप से उसकी पत्नी हो।५७।।
• उस विराट विष्णु के रोमकूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश( शिव ) आदि देवता मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं।५६।
• हे देवि ! मेरे कला और अंश के द्वारा सम्पूर्ण स्थावर- जंगम (चराचर) जगत में विद्यमान है। वैकुण्ठ में तुम अपने अंश से महालक्ष्मी और मैं चतुर्भुज विष्णु रूप में हूँ।५९।
अतः उपरोक्त श्लोक के आधार पर सिद्ध होता है कि परमात्मा श्रीकृष्ण ही परम परमेश्वर हैं। इन सबके अतिरिक्त गोपेश्वर श्री कृष्ण की सर्वोच्चता का पता उस समय भी चलता है, जब भगवान श्री कृष्ण गोलोक में सृष्टि-सृजन का कार्य करते हैं।
उस समय जो-जो देवता या श्रीकृष्ण की अंशभूत शक्तियां, उनके जिस-जिस भाग व अंश से उत्पन्न होते हैं, वे सभी प्रलय काल में उसी क्रम से श्रीकृष्ण के उसी भाग और अंश में विलीन हो जाते हैं।
इस बात की पुष्टि-ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(३४) के श्लोक संख्या-(५७) (५- ५९ ) और (६०) से होती है। जो राधा-कृष्ण संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा जी से कहते हैं -
सा च कृष्णस्य बुद्धौ च बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता। नारायणांशः स्कन्दश्च लीनो वक्षसि तस्य च।६२।
श्रीकृष्णांशश्च तद्बाहौ देवाधीशो गणेश्वरः। पद्मांशभूता पद्मायां सा राधायां च सुव्रते।६३।
गोप्यश्चापि च तस्यां च सर्वा वै देवयोषितः। कृष्णप्राणाधिदेवी सा तस्य प्राणेषु सा स्थिता ।६४।
सावित्री च सरस्वत्यां वेदशास्त्राणि यानि च । स्थिता वाणी च जिह्वायां तस्यैव परमात्मनः।६५।
गोलोकस्थस्य गोपाश्च विलीनास्तस्य लोमसु। तत्प्राणेषु च सर्वेषां प्राणा वाता हुताशनः।६६।
अनुवाद:- (५७ - ६६) • उस परम्-ब्रह्म परमात्मा के नेत्र - निमीलन (आँखें बन्द करने पर) प्राकृतिक प्रलय हो जाती है। इसके परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण चराचर जगत के प्राणी तथा देवादि गण पहले ब्रह्मा में विलय होते या समा जाते हैं।५७।
•और ब्रह्मा श्रीकृष्ण के अंश रूप क्षुद्रविष्णु के नाभि- कमल में विलय हो जाते हैं। और क्षुद्र-विष्णु भी विराट-विष्णु में और विराट-विष्णु सर्वोच्चत्तम व परिपूर्णत्तम सत्ता स्वराट्-विष्णु में (श्रीकृष्ण) में विलय हो जाते हैं। अर्थात्- इसी क्रम में क्षीरोदशायी विष्णु-नारायण और वैकुण्ठ निवासी चतुर्भुज विष्णु गोपेश्वर श्रीकृष्ण के वामपार्श्व (बाई बगल) में समा जाते हैं।५८।
• रूद्र और भैरव आदि जितने भी शिव के अनुचर हैं। वे मंगलाधार सनातन ज्ञान नन्दन स्वरूप शिव में लीन हो जाते हैं।५९।
• और ज्ञान के अधिष्ठात्री देव परमात्मा शिव उन श्री कृष्ण के ज्ञान में विलीन हो जाते हैं।६०।
• सम्पूर्ण शक्तियाँ विष्णु माया दुर्गा में तिरोहित हो जाती है।६१।
• विष्णु माया दुर्गा भगवान श्री कृष्ण की बुद्धि में स्थान ग्रहण कर लेती है, क्योंकि वे उनकी बुद्धि की अधिष्ठात्री की देवी है। नारायण के अंश स्वामिकार्तिकेय उनके वक्षः स्थल में लीन हो जाते हैं।६२।
• सुब्रते ! गणों के स्वामी देवेश्वर गणेश को भगवान श्रीकृष्ण का अंश माना गया है। वे उनकी दोनों भुजाओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। लक्ष्मी की अंशभूता देवियां लक्ष्मी में तथा लक्ष्मी श्रीराधा में लीन हो जाती हैं।६३।
• गोपियां तथा संपूर्ण देवपत्नियां भी श्रीराधा में ही लीन हो जाती हैं। भगवान श्री कृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी श्रीराधा उनके प्राणों में निवास कर जाती हैं।६४।
• सावित्री, वेद एवं संपूर्ण शास्त्र सरस्वती में प्रवेश कर जाते हैं। और सरस्वती परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा में विलीन हो जाती है।६५।
• गोलोक के संपूर्ण गोप भगवान श्रीकृष्ण के रोम कूपों लीन हो जाते हैं। और उन प्रभु के प्राणों में सम्पूर्ण प्राणियों की प्राण स्वरूप वायु का तथा उनकी जठराग्नि में समस्त अग्नियों का विलय हो जाता है।६६। ########### इसी क्रम में श्रीराम तथा उनके चारो भाइयों सहित सीताजी को भी श्रीकृष्ण के विग्रह में विलीन हो जाने की पुष्टि- गर्गसंहिता के गोलक खंड के अध्याय- (तीन) के श्लोक- (६-७),और (८) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
अनुवाद - ६-८ • वे पूर्ण स्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहां (गोलोक) में पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में सीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। ५-६। • उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था उसपर निरंतर चम्बर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानरयूथपति उनकी रक्षा के कार्यों में संलग्न थे। उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गंभीर ध्वनि निकल रही थी। उसपर लाख ध्वजाएं फहर रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ स्वर्णमय था। उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहां पधारे थे। वह भी श्रीकृष्णचंद्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गए।७-८।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के आदि (प्रारम्भ) और अन्त भी हैं। और यहीं श्रीकृष्ण अपने परात्पर स्वरूप में अनन्त भी हैं। क्योंकि सृष्टि काल में वे ही प्रभु अपने विग्रह ( शरीर) से जिस क्रम में सृष्टि का निर्माण करते हैं, और समय के अनुरूप वे ही प्रभु पुन: प्रलय काल में सम्पूर्ण सृष्टि का अपने विग्रह (शरीर) में विलय भी उसी प्रकार कर लेते हैं। जैसे "मकड़ी अपने शरीर से लार के द्वारा जाला बनाकर उसमे स्थित हो जाती है । और फिर कुछ समय पश्चात वही मकड़ी उस जाले को निगल कर अपने शरीर में समेट लेती है। यही परमात्मा श्री कृष्ण का शाश्वत स्वरूप है जो साकार और निराकार के साथ- साथ आदि, अन्त और अनंत तथा सनातन भी है। वे ही सनातन भगवान श्रीकृष्ण- सृष्टि कर्ता, पालन कर्ता, और संहार कर्ता भी है। यह सृष्टिजगत परमात्मा श्री कृष्ण का ही शाश्वत स्वरूप है। और इन सभी बातों की पुष्टि भगवान शिव ने ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड के अध्याय- (४८) के श्लोक संख्या-(४८) और (४९) में स्वयं कहकर की हैं - जो शिव पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं-
अनुवाद:- • हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८।
• केवल त्रिगुणातीत परम- ब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो। ४९।
फिर भगवान शिव- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्डः अध्याय-(१७ के श्लोक संख्या-६३) में कहते हैं -
"भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्। सर्वेशं सर्वरूपं च सर्वात्मानन्तमीश्वरम।।६३। अनुवाद:- केवल त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा श्रीराधावल्लभ श्रीकृष्ण ही परम सत्य है ; अतः तुम उन्हीं की आराधना करो।६३।
इस प्रकार से भगवान शिव और पार्वती संवाद से भी सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण ही परम प्रभु है, और उनकी ही आराधना करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव हो सकता है। क्योंकि वास्तव में यदि देखा जाए तो परमेश्वर अर्थात् श्रीकृष्ण अपने आप में सबकुछ है। उसमें परस्पर सभी विरोधी रूप सम-भाव में स्थापित है। उनकी परस्पर प्रतिक्रिया स्वरूप विषमता होने पर ही सृष्टि रचना प्रारम्भ होती हैं। इसलिए वे ही प्रथम सृजन कर्ता, हर्ता और भर्ता भी है। इस बात को ब्रह्मवैवर्त पुराण के अध्याय- (३) का यह महत्वपूर्ण श्लोक बारहवाँ दर्शाता हैं कि-
अनुवाद - जो परमात्मा श्रीकृष्ण कामनाओं से रहित अर्थात (निष्काम) और कामदेव के रूप भी हैं। और जो काम -भाव के कारक उसके जन्म दाता भी हैं। सबके ईश्वर , सबके बीज (मूल) और सब-कुछ हैं और वे उत्तम से भी उत्तम हैं उस प्रभु के लिए हम नमस्कार करते हैं।१२।
ध्यान रहे उपरोक्त श्लोक में "अनुत्तमम्"- विशेषण पद से सामान्य जन भ्रमित न हों क्योंकि उसकी व्याकरण सम्मत. विवेचना इस प्रकार से की गई है - अनुत्तमम्=न उत्तमोयस्मात् अत्युत्कृष्टे = जिससे उत्तम नहीं है कोई अर्थात् अत्युकृष्ट ( वाचस्पत्यम्कोश ) इसके अलावा अमर कोश में भी अनुत्तमम् शब्द का अर्थ है - "नहीं है उत्तम जिससे कुछ भी" अर्थात अत्युत्तम। अर्थ हुआ है।
नास्ति उत्तमः उत्कृष्टो यस्मात् सः - यह अर्थ बहुव्रीहि समास के द्वारा निर्धारित होता है। ऐसे ही मनुस्मृति कार ने भी अनुत्तमम् पद का एक अर्थ यही किया है।- नहीं है उत्तम जिससे कुछ भी-
अनुवाद:- दान करने वाला मनुष्य इस लोक में कीर्ति और परलोक में उत्तम से भी उत्तम सुख प्राप्त करता है। ९।
इन सबके अतिरिक्त श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपने बारे में बहुत कुछ कहते हैं और अर्जुन भी श्रीकृष्ण के बारे में बहुत कुछ कहते हैं। जिसे श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद के रूप में जाना जाता है जैसे- श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या- (१२ और ४२ ) में अर्जुन- श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-
अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२। व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म, सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि रूपों में तत्वज्ञानी परमेश्वर श्रीकृष्ण को ही जानते हैं।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।४२।। अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है, जबकि मैं अपने किसी एक अंश से इस संपूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हूँ अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे किसी एक अंश में है।४२।
परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७), और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन को बताते हैं कि-
अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।१६-१७-१८।
अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण ही परम प्रभु है, उनके अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नही है।
भक्त का आध्यात्मिक अभिधेयार्थ (मूल- अर्थ) निष्काम और समर्पण भाव से सेवा करने वाला।
संस्कृत वैदिक भाषा में भज् धातु विद्यमान है।
जिसका एक प्रमुख अर्थ- सेवा करना है।
इसी भज्- प्रत्य धातु से क्त प्रत्यय करने पर भक्त शब्द बनता है।
अब प्रश्न उठता है कि इस संसार में
सेवा किसकी की जाए ? और किस भावना से की जाए ? यह सब कारण ही भक्ति के मानकोंं को निर्धारित करते हैं।
भक्ति सांसारिक सेवा से पूर्णत: भिन्न सेवा है।
दोनों का वेग समान होते हुए भी धारा विपरीत ही है।
सेवा जब ईश्वर परक अथवा भगवान के प्रति आध्यात्मिक भावना मूलक हो जाती है तब वही सेवा भक्ति कहलाती है।
भगवान- भक्त- और भक्ति इस सबके मूल मेंभज् धातु- ही विद्यमान है
भज्- सेवायां +( घ ) प्रत्यय करने पर = भग शब्द बनता है। और भग से सम्पन्न व्यक्ति भगवान पद का अधिकारी है।
व्याकरणिक दृष्टि से भी
भग शब्द में + वतुप् प्रत्यय करने पर = भगवान् शब्द बनता है।
भज् धातु में + (क्त) प्रत्यय करने पर भक्त शब्द (पद) बनता है। और (भगवत् शब्द का ही प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप भगवान् शब्द का है।
अत: मूल शब्द भगवत् ही व्यवहारिक रूप से भगवन् अथवा भगवान् के रूप मेंं सम्बोधित किया जाता है। और भगवद् भक्ति में तल्लीन व्यक्ति है वह भागवत है।
भगवत् शब्द उस परमेश्वर का गुणवाची विशेषण है। जिस परमेश्वर में सभी प्रमुख गुण समाहित होते हैं। जो प्रारम्भ और अन्त की सीमाओं से भी परे है। वही ईश्वरीय सत्ता साकार होने पर भगवान विशेषण से अभिहित होती है। कोश गन्थों तथा व्याकरण में भग शब्द के निम्नलिखित प्रमुख अर्थ वर्णित हैं।
१-धन २- ज्ञान. ३- बल- ४-महात्म्य ( बड़प्पन) और ५- सौन्दर्य ( कान्ति ) अथवा श्री -
इस संसार में भी व्यवहारिक रूप से देखा जाय तो भी क्रमश: बलवान्- धनवान- रूपवान- ( सुन्दर) आयुष्मान-(वयोवृद्ध) और ज्ञानवान इन पाँच व्यक्तियों का ही क्रमोत्तर सम्मान होता है। ये ही महत्वपूर्ण होते हैं ये सभी व्यक्ति इस संसार किसी न किसी रूप में सम्मान के हकदार हैं।
वयोवृद्ध व्यक्ति के पास उसकी आयु के अनुसार अनुभवों का सञ्चय होता है। इसी लिए समाज उसका सम्मान करता है।
अत : उस वयोवृद्ध को भी इस कारण ज्ञानवान के समान सम्मान मिलता ही है।
व्यक्ति जब अपने इन सभी गुणों से सम्पन्न होकर संसार की जब परमार्थ हेतु सेवा करता है। तब वह भगवत् पद का अधिकारी होता है।
अत: सन्तों , महापुरुषों को भी भगवन् कह कर सम्बोधित किया जाता है।
भगवान पद लौकिक और अलौकिक दोनों ईश्वरीय सत्ताओं का वाचक है।
ईश्वर शब्द भी ऐश्वर्य सम्पन्न अलौकिक साकार भगवत् सत्ता का वाचक है।
भगवान की निष्काम और समर्पण भाव से सायुज्य प्राप्त करने हेतु जो व्यक्ति सेवा करता है।
वह ही सच्चे अर्थ में भक्त अथवा भागवत कहलाता है।
दूसरे शब्दों में जब व्यक्ति इन सभी भगवद्गुणों को प्राप्त करने की पात्रता प्राप्त कर लेता है । तब वह भक्त कहलाता है।
भक्त सायुज्य प्राप्त करके भगवद् - रूप ही हो जाता है । जैसे एक जल बिन्दु समुद्र में समाहित होकर स्वयं समुद्रमय हो जाता है।
शास्त्रों में भी भगवान शब्द की व्याख्या निम्नलिखित रूप से की गयी है।
ऐश्वर्य्यस्य समग्रस्य वीर्य्यस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णं भग इत्याङ्गना।११।।
(अग्निपुराण- अध्याय-३७९)
भगवान् =इत्युक्तलक्षणं षडैश्वर्य्यमस्त्यस्येति भग + नित्ययोगे मतुप् मस्य वः =
इसी प्रकार भगवान शब्द की परिभाषा को देवीभागवतपुराण में सुन्दर ढंग से व्यक्त किया गया है
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्योश्चैव सन्नाम भगवान्नीह ।।
विष्णु पुराण-
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसश्श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।७४
विष्णुपुराण /षष्टांशः/अध्यायः (५)
सार रूप से भगवद पद सांसारिक ऐश्वर्य से परे अलौकिक ऐश्वर्य के धारक का पर्याय है। जो भगवान है। जहाँ से यह सम्पूर्ण संसार जन्म लेता है वह ईश्वर भगवान है।
भगोस्ति अस्मिन् इति 'भगवान-
"भगवान छः अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी है- अनन्त शक्ति, अनन्तज्ञान, अनन्तसौंदर्य, कीर्ति, ऐश्वर्य और वैराग्य" भक्त अन्त:करण शुद्ध होने पर प्रभु के इस स्वरूप का अनुभव करता है।
शुद्धे महाविभूत्याख्ये ब्रह्मणि शब्द्यते।
मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७२
अनुवाद व अर्थ
भगवान शब्द उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म शब्द से अभिहित है,वह सब कारणों का भी कारण है। इस सम्पूर्ण जगत या अनन्तानन्त ब्रह्माण्डों के सर्वेसर्वा होने के कारण वह भगवान परब्रह्म कहलाते है।
एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥
श्रीविष्णु पुराण-, ६/५/७६
हे मैत्रेय यह महा शब्द भगवान परम बह्म
_ मय वासुदेव का वाचक है। किसी अन्य का नहीं।
___________
वही परं ब्रह्म अपने एक रूप में साकार होकर लीला हेतु शरीर धारण करता है। अर्थात संसार में अवतार लेता है।
___________
इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेद में ही प्रमाण रूप में तथ्य आते हैं। ऋग्वेद के अनुसार -
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते” इस मन्त्र में ब्रह्म को अजन्मा मान कर फिर यह कहा कि ‘बहुधा विजायते’ अर्थात् फिर ‘जनी प्रादुर्भावे’ का प्रयोग दिया है।
अर्थात् वह परमात्मा अजन्मा होकर भी लीला हेतु शरीर धारण करता है।
परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।
अर्थात
प्रजाओं के पालक भगवान गर्भ के भीतर भी विचरते हैं. अर्थात वे तो स्वयं जन्मरहित हैं, किंतु अनेक प्रकार से अवतरित होकर जन्म ग्रहण करते रहते हैं।
विद्वान पुरुष ही उनके उद्भव स्थान को देखते एवं समझते हैं। जिस समय वह आविर्भूत (अवतरित) होते हैं, उस समय सम्पूर्ण भुवन उन्हीं के आधार पर अवस्थित रहते हैं अर्थात वह सर्वश्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता बनकर लोकों को चलाते रहते हैं।
पदों के अन्वय मूलक अर्थ-
जो (अजायमानः) अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होनेवाला (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक जगदीश्वर है। वह (गर्भे) गर्भस्थ जीवात्मा और (अन्तः) सबके हृदय में (चरति) विचरता है और (बहुधा) बहुत प्रकारों से (वि, जायते) विशेषकर प्रकट होता जन्म लेता (तस्य) उस प्रजापति के जिस (योनिम्) स्वरूप को (धीराः) ध्यानशील विद्वान् जन (परि, पश्यन्ति) सब ओर से देखते हैं (तस्मिन्) उसमें (ह) निश्चय (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (तस्थुः) स्थित हैं ॥१९ ॥
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इस प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए यह अध्याय-(तीन) समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय- (चार) में जानकारी दी गई कि - गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ ?
यह तो सर्वविदित है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना करते हैं। इसलिए उन्हें स्रष्टा भी कहा जाता है। किंतु प्रश्न यह है कि- सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्मा जी को किसने उत्पन्न किया ? क्या ब्रह्मा- जी की सृष्टि रचना से पहले भी कोई सृष्टि रचना थी ? क्या ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग गोप और गोपियां भी हैं ? क्या ब्रह्मा जी के चार वर्णों के अलावा कोई पाँचवाँ वर्ण भी इस भू-मंडल पर है ? इन तमाम प्रश्नों का उत्तर जाने बिना सृष्टि रचना के गूढ़ रहस्यों को जान पाना सम्भव नहीं है।
तो इन सारे प्रश्नों का वास्तविक समाधान करने वाला एकमात्र पुराण है "ब्रह्मवैवर्तपुराण"। क्योंकि यही एक ऐसा प्राचीनतम पुराण है, जो परमात्मा के विवर्त अर्थात् - परिवर्तन मयी विस्तार का वर्णन करता है। इसी विशेषण के कारण इसे ब्रह्मवैवर्तपुराण कहा जाता है। और यही एकमात्र ऐसा पुराण है जो परमात्मा की प्रथम सृष्टि रचना का भी वर्णन करता है। बाकी अन्य पुराण इसके बाद की सृष्टि रचना- जो ब्रह्मा जी द्वारा की गई है उसका वर्णन करते हैं। यहीं कारण है कि ब्रह्मवैवर्तपुराण को प्रथम पुराण माना जाता है।
सृष्टि सर्जन के प्रारम्भिक काल का वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या- (१ से ७) तथा (१८ से ३०) और (३१) में मिलता है। जिसमें सृष्टि के प्रारम्भिक क्रम को दर्शाते हैं।
अनुवाद- १- से ३१ तक- • प्रलय काल के उपरान्त भगवान ने देखा की सम्पूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव जन्तु नहीं है। १।
• तब जगत को इस शून्य अवस्था में देख मन ही मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एक मात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि रचना आरम्भ की।२-३।
• सबसे पहले उन परम पुरुष श्री कृष्ण के दक्षिणपार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्तव, अहंकार, पांच तमन्नाएं तथा रूप, रस, गंध, स्पर्श, और शब्द-ये पांच विषय क्रमशः प्रकट हुए।४-५।
• तदनन्तर श्री कृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ जिनकी अंग-कांति श्याम थी वे नित्य तरुण पीतांबर धारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनकी चार भुजाएं थीं, उन्होंने अपने हाथ में क्रमशः संख, चक्र, गदा, और पद्म धारण कर रखे थे।६-७।
• तत्पश्चात परमात्मा श्री कृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंककांति शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल एवं उज्जवल थी। उनके पाँच मुख थे और दिशाएं ही उनके लिए वस्त्र थी अर्थात् वे निर्वस्त्र थे।१८।
• तत्पश्चात श्री कृष्ण के नाभि कमल से बड़े- बूढ़े महा तपस्वी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु ले रखा था। उनके वस्त्र, दांत और केश सभी सफेद थे। और उनके चार मुख थे। ३०-३१।
इन उपरोक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ है कि सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भिक चरण में भगवान श्री कृष्ण के लोक - गोलोक में परम प्रभु श्री कृष्ण द्वारा नारायण, शिव और ब्रह्मा जी की भी उत्पत्ति हुई है। जिसमें ब्रह्मा जी, श्रीकृष्ण के आदेश पर अन्य लोकों में अपने हिसाब से सृष्टि करते हैं। इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितीयक सृष्टि- कर्ता कहा जाता है। किंतु मूल सृष्टि परमात्मा श्रीकृष्ण (स्वराट-विष्णु) के द्वारा ही होती है। इसीलिए श्रीकृष्ण को प्रथम सृष्टि कर्ता कहा जाता है। क्योंकि सब कुछ उन्हीं से उत्पन्न होता है और अंत में उन्हीं में विलीन हो जाता है।
फिर सृष्टि- सर्जन के उसी क्रम में ब्रह्मा, शिव नारायण आदि की उत्पत्ति के समय ही गोपों की भी उत्पत्ति हुई। जिसका वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(5) के श्लोक संख्या- २५, (४० और ४२) से होती है, जिसमें लिखा गया है कि -
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने। आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२। अनुवाद - गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण के वाम-पार्श्व से वामा के रूप में एक कामनाओं की प्रतिमूर्ति- प्रकृति रूपा कन्या उत्पन्न हुई जो कृष्ण के ही समान किशोर-वय थी।२५।
• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
गोप और गोपियां श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समरूप इसलिए थे, क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्री राधा की सूक्ष्मतम इकाई रूप अर्थात उनके क्लोन से हुई हैं। इसलिए - सभी गोप श्रीकृष्ण के समरूप तथा सभी गोपियों श्रीराधा के समरूप उत्पन्न हुईं।
इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि- समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समरूप होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है।
और विज्ञान के इस समरूप सिद्धान्त से परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा, पूर्व काल में ही अपनी सूक्ष्मतम इकाइयों से समरूपण विधि द्वारा गोलोक में गोप- गोपियों की उत्पत्ति कर चुके हैं।
किन्तु विज्ञान परमात्मा श्रीकृष्ण के उस सिद्धान्त को आज अपनी उपलब्धियाँ मानकर फूले नहीं समा रहा है।
इस प्रकार से सिद्ध होता है कि गोपों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण से तथा गोपियों की उत्पत्ति श्रीराधा से हुई है। इस बात को प्रमुख देवताओं सहित परमात्मा श्रीकृष्ण ने भी स्वीकार किया है।
अब प्रश्न यह भी उत्पन्न हो सकता है ! कि राधा और कृष्ण तो द्वापर युग (आज से लगभग साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए ) और आभीर अथवा गोप जाति तो सतयुग से ही अस्तित्व में है।
तो इसका समाधान यही है कि राधा और कृष्ण का गोलोक वासी रूप सनातन है। उसी से सत्युग के प्रारम्भ में गोलोक में ही गोपीयों और गोपों की उत्पत्ति राधा और कृष्ण से हुई -
जैसे- गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में भगवान शिव ने पूर्व काल में पार्वती को भी ऐसा ही दृष्टान्त सुनाया था। जिसे शिव-वाणी समझ कर इस घटना को पुराणों में सार्वकालिक और सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया जाता है। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक संख्या- (४३) में मिलता है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि- "बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।
अनुवाद -• श्रीराधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है। इस प्रकार से देखा जाए तो शिव जी के कथन से भी यह सिद्ध होता है कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से प्रारम्भिक रूप से गोलोक में ही हुई है।
इसी तरह से गोप-गोपियों की उत्पत्ति को लेकर परम प्रभु परमात्मा श्रीकृष्ण की वे सभी बातें और प्रमाणित कर देती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने अँश से उत्पन्न गोपों की उत्पत्ति के विषय में स्वयं ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६) के श्लोक संख्या -(६२) में राधा जी से कहते हैं- "गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः। मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२। अनुवाद:- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।
और ऐसी ही बात भगवान श्री कृष्ण उस समय भी कहते हैं- जब वे स्वयं भूतल पर गोप जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में अवतरित होते हैं।, और कुछ समय पश्चात कंस का वध करके मथुरा के सिंहासन पर पुन: कंस के पिता उग्रसेन को अभिषिक्त करते हैं।
और इसके कुछ समय पश्चात उग्रसेन, श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ के आयोजन का परामर्श करते हैं।। उसी प्रसंग के क्रम में स्वयं श्रीकृष्ण उग्रसेन से कहते हैं कि- "सभी यादव मेरे अंश हैं"। इस बात की पुष्टि गर्गसंहिता के (विश्वजित्खण्डः) के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- (५-६) और-(७) से होती है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-
"सम्यग्व्यवसितं राजन् भवता यादवेश्वर। यज्ञेन ते जगत्कीर्तिस्त्रिलोक्यां सम्भविष्यति॥५॥
अनुवाद:- • तब श्री कृष्ण ने कहा- राजन् ! यादवेश्वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। ५।
• प्रभो ! सभा में समस्त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाईये।६।
• क्योंकि ये समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।
गोपों की उत्पत्ति के बारे में कुछ ऐसा ही वर्णन उस समय भी मिलता है, जब समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भूमण्डल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े, तब उस समय दन्तवक्र नाम के दैत्य से यादवों का भयानक युद्ध हुआ। उसी समय श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-( 11 ) के श्लोक संख्या-(२१और २२) में दन्तवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहा-
"नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः। गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्भवाः।२१।
"राधारोमोद्भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः। काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परै:।२२। अनुवाद- नन्दराज साक्षात् द्रोण नामक वसु हैं, जो गोकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक में जो गोपालगण( आभीर) हैं, वे साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियों श्री राधा के रोम से उत्पन्न हुई हैं। वे सब की सब यहां ब्रज में उतर आई हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्री कृष्ण को प्राप्त हुई है।२१-२२।
इस प्रकार से इन तमाम पौराणिक साक्ष्यों से स्पष्ट होता है प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्री कृष्ण ही है। उन्होंने अपनी प्रथम सृष्टि रचना में नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति की है। जिसमें से भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों को तो अपनी लीला का सहचर बनाकर अपने साथ ही रहने दिया, और जब भी भूमि का भार हरण करने के लिए भूतल पर उन्हें आना होता हैं, तो वे अपने गोपों के साथ ही आते हैं, और भूमि का भार-हरण कर पुनः गोप-गोपियों सहित अपने धाम- गोलोक को चले जाते हैं।
गोलोक में जब भगवान श्री कृष्ण ब्रह्मा, नारायण, शिव तथा देवताओं की उत्पत्ति कर लेते हैं तब उसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा जी को बुलाकर उनके कर्म- एवं दायित्वों को निश्चित करते हुए ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खंड के अध्याय-(६ ) के श्लोक संख्या-(७१) और-(७२) में कहते हैं-
अनुवाद- • महाभाग विधे ! अर्थात ब्रह्मा जी ! तुम सहस्र दिव्य वर्षों तक मेरी प्रसन्नता के लिए तप करके नाना प्रकार की उत्तम सृष्टि करो।
• ऐसा कह कर श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा जी को एक मनोरमा माला दी। फिर गोप- गोपियों के साथ वे नित्य नूतन दिव्य वृन्दावन में चले गए। (ध्यान रहे गोलोक में भी वृन्दावन है) इसके बाद भगवान श्री कृष्ण का आदेश पाकर ब्रह्मा जी विविध प्रकार की उत्तम सृष्टि रचना का कार्य प्रारंभ करते हैं। इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितीयक सृष्टि रचनाकार भी कहा जाता है, जिसमें ब्रह्मा जी अपनी मर्यादा में रहकर ही सृष्टि की रचना करते हैं। जिसमें वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अनन्त लोकों की रचना करते हुए उनमें जड़, जीव, जगत इत्यादि की सुन्दर रचना किये हैं। उसी क्रम में उन्होंने मानवीय सृष्टि के चातुर्यवर्ण की भी रचना की है। जिसमे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की सामाजिक स्थितियाँ बनी है।
किन्तु ब्रह्मा जी सबसे ऊपर वाले गोलोक और उससे क्रमशः नीचे शिव लोक और वैकुण्ठ लोक तथा गोप और गोपियों की सृष्टि रचना नहीं करते हैं। यहीं कारण है कि गोपों को ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना का भाग नहीं माना जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-५ के श्लोक -१२ से १७ में भी होती है जो इस प्रकार है-
अनुवाद -( १२ से १७ ) तक- ब्रह्मकल्प में मधु-कैटभ के मेद (चर्बी) से मेदिनी ( पृथ्वी ) की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि रचना की थी। फिर वाराह कल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गई थी, तब वाराहरूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्न पूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि रचना की। तत्पश्चात पाद्मकल्प में सृष्टि- कर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि- कमल पर सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी (तीन लोक) है, उसकी रचना की। किंतु उसके ऊपर जो नित्य तीन लोक (शिवलोक, वैकुण्ठलोक, और उससे भी ऊपर गोलोक है ) उसकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।
कुल मिलाकर ब्रह्मा जी सभी की सृष्टि करते हैं किंतु उनकी भी कुछ मर्यादाएं हैं- जैसे वे सत्य सनातन एवं चिर-स्थाई- वैकुण्ठ लोक, शिवलोक, और सबसे ऊपर गोलोक और उसमें रहने वाले गोप और गोपियों की सृष्टि नहीं करते। क्योंकि गोप और गोपियों की उत्पत्ति तो भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा के रोम-कूपों से उसी समय हो जाती है जिस समय नारायण, शिव और ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। तो ऐसे में ब्रह्मा जी, गोपों की उत्पत्ति दुबारा (पुनः) कैसे कर सकते हैं ?
तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि- जब गोप, ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है तो स्पष्ट सी बात है कि वे ब्रह्मा जी की चातुर्वर्ण्य से भी अलग हुए होगें। तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब गोप ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के भाग नहीं हैं तो इनका वर्ण क्या है ? अर्थात् ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र इत्यादि में से क्या हैं ? तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसके अगले अध्याय- पाँच और छः में किया गया है। वहाँ से इस विषय पर सम्पूर्ण जानकारी मिलेगी।
इस प्रकार से यह अध्याय इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं जिनसे सर्वप्रथम गोलोक में नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति हुई जो ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य से अलग हैं।
अब इसके अगले अध्याय- (५) में जानकारी दी गई है कि - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताएं क्या है ?
इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य भगवान विष्णु के "वैष्णव वर्ण" तथा ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति के साथ-साथ दोनों वर्णों में वैचारिक अन्तर और कुछ मूलभूत विशेषताओं को बताना है।
[क] - वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति तथा भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा। [ख] - ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति। [ग] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर- [१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर। [२] यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर। [३] भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।
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देखा जाए तो प्राचीन भारतीय समाज में पञ्च- पञ्चायत और पञ्चजन जैसे शब्द सामाजिक व्यवस्था में पाँच वर्णों की मान्यता व उनके निर्णयों पर आधारित पञ्च - प्रथा के ही सूचक थे। जो परम्परागत रूप से आज भी ग्रामीण समाज में पञ्चों द्वारा की गयी पञ्चायतों के रूप में प्रचलित हैं। जिसे भारत की पंचायत राज प्रणाली में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है क्योंकि भारत में पञ्चायत राज प्रणाली, भारतीय समाज में पारम्परिक ग्राम संस्थाओं पर ही आधारित है। ग्राम पंचायत, गाँव की मन्त्रिपरिषद का काम करती है। जिनके सदस्यों का चुनाव जनता करती है और इस जनता मे सभी पाँचों वर्णों के प्रतिनिधि पंच के रूप में उपस्थित होकर अपना निष्पक्ष निर्णय देते हैं।
इस तरह की संकल्पना हमारे समाज में पूर्व काल से ही रही है। जिसकी पुष्टि- सर्वप्रथम ऋग्वेद से होती है जिसमें बताया गया है कि - पञ्चकृष्टी और पञ्चजन शब्द पाँच वर्णों के सूचक पञ्चों के रूपान्तरण है।
सद्यश्चिद्यः शवसा पञ्च कृष्टीः सूर्य इव ज्योतिषापस्ततान । सहस्रसाः शतसा अस्य रंहिर्न स्मा वरन्ते युवतिं न शर्याम् ॥३॥
शीघ्र ही जो अपने वेग के द्वारा पाँचों वर्णों ( जातियों) के मनुष्यों को सूर्य के समान वर्षा के जल से तृप्त करता है। जैसे सूर्य अपनी ऊष्मा ( ज्योति ) से जल को अवशोषित कर उसको अन्तरिक्ष में फैलाकर हजारों सैकड़ों वाणों के रूप में वेग से जल देता है।
यः) जो (सद्यः-चित्) शीघ्र ही तत्काल ही (शवसा) वेग से (अपः-ततान) जलों को तानता है, (सूर्यः-इव) सूर्य जैसे (ज्योतिषा) ज्योति के द्वारा पृथिवीस्थ जलाशयों से जल खींच कर अन्तरिक्ष में तानता है। ऐसे ही विद्युन्मय वायु तानता है (पञ्चकृष्टीः) अन्तरिक्ष से पाँचों वर्णो -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और वैष्णव के प्रति वृष्टिजलों को पृथिवी पर फैलाता है (अस्य रंहिः) इस की गति (शतसाः सहस्रसाः) शत-सौ स्थानों को प्राप्त होनेवाली (न वरन्ते स्म) इसे कोई रोक नहीं सकते (युवतिं शर्यां न) जैसे धनुष में नियुक्त बलवाली शरयुक्ता बाण को कोई रोक नहीं सकता, ॥३॥
आ दधिक्राः शवसा पञ्चकृष्टीः सूर्य इव ज्योतिषापस्ततान। सहस्रसाः शतसा वाज्यर्वा पृणक्तु मध्वा समिमा वचांसि ॥१०॥ ऋग्वेद ४/३८/१०
पदों का अर्थ- (अद्य) = आज (तद् वाचः प्रथमम्) = उस प्रथम वाणी को (मसीय) = हृदयस्थरूपेण उच्चारण करता हूँ। है (येन) = जिससे (देवाः) = और देव (असुरान्) = आसुरों का (अभि असाम) = अभिभव करते हैं । (ऊर्जादः) = पौष्टिक ही अन्नों का सेवन करनेवाले (उत) = और (यज्ञियासः) = यज्ञशील (पञ्चजना:) = पाँच वर्ण( जाति) ! (मम होत्रम्) = मेरे हवन को (जुषध्वम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करो। उपर्युक्त ऋचाओं में पञ्च पञ्चकृष्टी और पञ्च जन जैसे पद पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। ऋग्वेद में पञ्चजन: और पञ्चकृष्टी संज्ञा पद बताते हैं कि समाज में पाँच प्रकार के व्यक्ति थे जिनका समाज में वर्चस्व होता था। ऋग्वेद में उल्लिखित पञ्चजना: शब्द पाँच जातियों के प्रतिनिधियों का ही वाचक है।
इसी तरह से स्पेनिश और पुर्तगाली भाषा में काष्टा शब्द जाति नसल का सूचक है। जो भारोपीय भाषा परिवार के शब्द "काष्टा और कास्ट शब्द से निर्मित वैदिक कृष्टि के रूपान्तरण हैं । संस्कृत में भी कृष्टि शब्द कृषि- फसल (फलस्) और सन्तान आदि का- वाचक है। वेदेषु वर्णिता: पञ्चजना: शब्दपद: पञ्चवर्णानां -प्रतिनिधय: सन्ति । ब्रह्मणरुत्पन्ना ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य शूद्रा: च चत्वारो वर्णा- इति तथा पञ्चमः वर्णो जातिर्वा शास्त्रेषु वैष्णववर्णस्य नाम्ना विष्णू रोमकूपेभ्यिति निर्मिता: गोपानां जातिरूपेण वा वर्णितम् अस्ति। तस्य विष्णुना सह निकटसम्बन्धोऽस्ति। अत एव ते सर्वे वैष्णावा भवन्ति । अनुवाद:- वेदों में लिखित पञ्चजन पाँच वर्णों के प्रतिनिधि पाँच -वर्ण ही हैं। चार वर्ण ब्रह्मा से उत्पन्न हुए - ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य और शूद्रों के रूप में वर्णित हैं। और पाँचवां वर्ण अथवा जाति विष्णु के रोम-कूपों से उत्पन्न गोपों की वैष्णव वर्ण अथवा जाति के रूप में शास्त्रों में वर्णित है। विष्णु से इनका निकट सम्बन्ध है। इस लिए ये वैष्णव है। किंतु पुरोहितों ने चातुर्वर्ण्य की महत्ता कम न हो जाए इसलिए इस महत्वपूर्ण जानकारी को छुपा दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि अधिकांश लोग पञ्चवर्ण (वैष्णव वर्ण) को नहीं जान सके।
ज्ञात हो वैष्णव वर्ण से सम्बन्धित जाति को ही गोप कहा जाता है संसार में यही पाँच वर्ण हैं। किन्तु पुराणकारों ने गोपों के अतिरिक्त निषाद और कायस्थ को पाँचवें वर्ण में सम्मिलित कर दिया। किंतु देखा जाए तो ये पाँचवें वर्ण के नहीं है। ये तो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण के ही अन्तर्गत हैं। इसलिए निषाद जाति को पाँचवाँ वर्ण नहीं माना जा सकता है। इसी तरह से कायस्थ जाति को पञ्चम वर्ण में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कायस्थों के आदि पुरुष चित्रगुप्त ब्रह्मा की काया से उत्पन्न होने से ब्राह्मी सृष्टि के अन्तर्गत ही आते हैं। तथा लेखन और गणितीय ज्ञान से सम्पन्न म्पन्न होने के कारण तथा प्राणीयों के चरित्रों का चित्रण करने से भी ये ब्राह्मण वर्ण के समकक्ष हैं। इस लिए कायस्थ जाति भी ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ही हैं। तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिरकार पञ्चम वर्ण में कौन हो सकता है ? तो इसका जवाब वैष्णव धर्म के प्रथम प्रवर्तक एवं संरक्षक गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने ही दिया, जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ के श्लोक- ९२ में कुछ इस प्रकार वर्णित है -
पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च । तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।।९२।
अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूं । और वनों में चन्दन हूँ। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ। और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों )में वैष्णव हूँ। ९२।
"नि:शङ्क शब्द की व्याकरणिक व्युत्पत्ति विश्लेषण- नि:शङ्क- निस् निषेध वाची उपसर्ग+ शङ्क = भय (त्रास) भीक:अथवा डर। नि:शङ्क पुलिङ्ग शब्द है जिसका अर्थ होता है- निर्भीक अथवा निडर।)
नि:शङ्क का मूल अर्थ निर्भीक है और निर्भीक का अर्थ होता जो भयभीत नही होता हो। अत: नि:शङ्क अथवा निर्भीक विशेषण पद आभीर शब्द का पर्याय है। जो अहीरो (गोपों) की जातिगत प्रवृत्ति है। आभीर लोग वैष्णव वर्ण तथा धर्म के अनुयायी होते ही हैं। अत: ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्मखण्ड का उपरोक्त श्लोक गोप जाति की निर्भीकता प्रवृत्ति का भी संकेत करता है। अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि- "वैष्णव वर्ण" और धर्म की उत्पत्ति श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। जिसमें केवल गोप आते हैं। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि - "ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३। "अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु (श्रीकृष्ण) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।
और वैष्णव सभी वर्णों में श्रेष्ठ भी है इस बात की पुष्टि - पद्म पुराण के उत्तराखण्ड के अध्याय(६८) श्लोक संख्या १-२-३ से होती है जिसमें भगवान शिव नारद से कहते हैं।
महेश्वर उवाच-
शृणु नारद ! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१। तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मिसाम्प्रतम्।२। विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवःश्रेष्ठ उच्यते ।३। अनुवाद:- १-महेश्वर- उवाच ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं।१।
२-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।
३-चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाते है; और सभी वर्णों मे वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता हैं।३। "पद्म पुराण उत्तराखण्ड अध्याय-(६८ श्लोक संख्या १-२-३।
यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को व्याकरणिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में विष्णु से ही वैष्णव शब्द की ब्युत्पत्ति बताई गई है-
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है। कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं। वैष्णव वर्ण को ही पञ्चंमवर्ण भी कहा जाता है। पञ्चमवर्ण के गोपों की उत्पत्ति सर्वप्रथम गोलोक में स्वराट विष्णु अर्थात श्रीकृष्ण के रोम कूपों से हुई है। गोप वैष्णव वर्ण के प्रमुख सदस्य पति होने के कारण ये ब्रह्मा जी के चतुर्वर्ण से परे हैं। इस बात को इसके पिछले अध्याय- (चार) में बताया जा चुका है। वहां से वैष्णव वर्ण तथा गोपों की उत्पत्ति की विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।
________ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रथम वैष्णववर्ण और वैष्णव धर्म के प्रवर्तक तथा संरक्षक गोपेश्वर श्रीकृष्ण ही हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (७३ के श्लोक- ९२) में स्वयं अपने को वैष्णव होने की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च । तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।।९२।
अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूं । और वनों में चंदन हूं। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ। और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ।९२। "नि:शङ्क शब्द की व्याकरणिक व्युत्पत्ति विश्लेषण- नि:शङ्क- निस् निषेध वाची उपसर्ग + शङ्क = भय (त्रास) भीक:अथवा डर। नि:शङ्क पुलिङ्ग शब्द है जिसका अर्थ होता है- निर्भीक अथवा निडर।)
नि:शङ्क का मूल अर्थ निर्भीक है और निर्भीक का अर्थ होता- जो भयभीत नही होता हो। अत: नि:शङ्क अथवा निर्भीक विशेषण पद आभीर शब्द का पर्याय है। जो अहीरो (गोपों) की जातिगत प्रवृत्ति को सूचित करता है। आभीर लोग वैष्णव वर्ण तथा वैष्णव धर्म के अनुयायी होते ही हैं। अत: ब्रह्मवैवर्तपुराण श्रीकृष्ण जन्मखण्ड का उपरोक्त श्लोक गोप जाति की निर्भीकता प्रवृत्ति का भी संकेत करता है।
अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि- "वैष्णव वर्ण" और धर्म की उत्पत्ति श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। जिसमें केवल गोप जाति के लोग आते हैं। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि - "ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३। "अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु (श्रीकृष्ण) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वह वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।
इस सम्बन्ध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से उत्पन्न ही बताया गया है-
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से सम्बन्धित वैष्णव पद पुल्लिंग रूप में बनता हैं। और स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द रूप- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं। वैष्णव वर्ण को ही पञ्चंवर्ण भी कहा जाता है। पञ्चंमवर्ण के गोपों की उत्पत्ति सर्वप्रथम गोलोक में स्वराट विष्णु अर्थात श्रीकृष्ण के रोम कूपों से हुई है। इस कारण देखा जाए तो यह प्रथम वर्ण भी है। ब्रह्मा की चातुर्यवर्ण की उत्पत्ति इसके बाद हुई है। गोप वैष्णव वर्ण के प्रमुख सदस्य पति होने के कारण से ये ब्रह्मा जी के चातुर्यवर्ण से परे हैं। इस बात को इसके पिछले अध्याय- (चार) में बताया जा चुका है। वहाँ से वैष्णव वर्ण तथा गोपों की उत्पत्ति की विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसके साथ ही गोपों का गोत्र भी वैष्णव ही है इसके बारे में विस्तृत जानकारी अध्याय - (९) में दी गई है।
इसी क्रम में अब हमलोग जानेंगे कि ब्रह्मा जी के "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति कैसे हुई।
[ख]- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति। सर्वविदित है कि देवो के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्यवर्ण" की उत्पत्ति हुई। इस बात की पुष्टि -विष्णु पुराण के प्रथमांश के छठे अध्याय के श्लोक- (६) से होती है। जिसमें बताया गया है कि - ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम । पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१/६/६।
अनुवाद:-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।।६।
फिर इसी जन्मगत आधार पर ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था भी चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र) में विभाजित हो गई। इस बात की पुष्टि
पद्मपुराण सृष्टिखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या-(१३०) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
अनुवाद- पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।१३०।
इस सम्बन्ध में अत्रि संहिता का (१४०) वाँ श्लोक भी यही सूचित करता है कि - "जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते। विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते॥१४०
अनुवाद:- ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हाेने वाला जन्म से ही 'ब्राह्मण' कहलाता है। फिर उपनयन संस्कार हाे जाने पर वह 'द्विज' कहलाता है और विद्या प्राप्त कर लेने पर वही ब्राह्मण 'विप्र' कहलाता है। इन तीनाें नामाें से युक्त हुआ ब्राह्मण 'श्राेत्रिय' कहा जाता है।१४०। (विशेष:- श्रुति (वेद) के ज्ञाता ब्राह्मण ही श्रोत्रिय कहलाता है।) ज्ञात हो ब्रह्मा जी के इन चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए हुई। इस बात की पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि - यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै । चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।७।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान विष्णु से वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति हुई वहीं दूसरी तरफ ब्रह्मा जी से चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति हुई। और इन दोनों वर्णों से दो प्रकार की संस्कृतियों का भी उदय हुआ। एक ब्राह्मणी संस्कृति और दूरी वैष्णवी संस्कृति। जो दोनों ही एक दूसरे के विपरीत विचारधारा वाली संस्कृतियाँ हैं।
[ग ] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर-
इन दोनों के वर्णों अर्थात् संस्कृतियों में प्रमुख रूप से (३) प्रकार के युगलान्तर (भेद) देखने को मिलता है। जिसको क्रमशः बिन्दुवार दर्शाया गया है। [१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर- [२] यज्ञ मूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर- [३] भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर-
[१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर-
(क) "ब्राह्मी वर्णव्यवस्था जन्मगत है" ज्ञात हो कि-चातुर्वर्ण्य व्यवस्था- ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना है, जिसमें जन्म के आधार पर वर्ण -विभाजन की एक सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। रूढ़िवादी पुरोहितों की मान्यता है कि पूर्वजन्म के पुण्य- पाप कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्रों के घर में जन्म मिलता है।
यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं तो ब्राह्मण के घर में जन्म मिलेगा और बुरे कर्म किए हैं तो शूद्र के घर में जन्म मिलेगा। कर्मों के अच्छे-बुरे अनुपात से ही व्यक्ति को कभी वैश्य तो कभी क्षत्रिय के घर में जन्म मिलता है। पर ये सिद्धान्त दोषपूर्ण है- क्यों कि जन्म से व्यक्ति की महानता का निश्चय नहीं होता मानव जाति में मनुष्य के व्यक्तित्व (व्यक्ति के बाह्य और आन्तरिक गुणों) का निर्माण उसका परिवेश और माता-पिता के आनुवांशिक विशेषताएँ ही करती हैं। यह तो समाज में प्रत्यक्ष देखा जाता है कि सभी ब्राह्मण जन्म से ही सात्विक प्रवृत्ति वाले और ईश्वर चिन्तक नहीं होते हैं। ब्राह्मणों में भी बहुतायत लोग तामसिक व राजसी प्रवृत्ति वाले होते हैं। इसी प्रकार स्वयं को परम्परागत रूप से क्षत्रिय कहने वाले लोगों की सन्तान भी वीर तथा साहसी नहीं होती । वैश्य और शूद्रों के विषय में इसी प्रकार कहा जा सकता है। हर समाज में हर तरह के व्यक्ति पैदा होते हैं। दो चार व्यक्तियों से ही किसी समाज की प्रवृत्तियों का निर्धारण नहीं किया जा सकता। दूसरी बात यह कि व्यक्ति की प्रवृत्तियों का निर्धारण अथवा निश्चय व्यक्ति की वृत्ति (व्यवसाय) एवं उसके कर्म से होता हैं न कि जन्म से।
कुछ प्रवृत्तियों का निर्धारण माता-पिता के आनुवांशिक गुणों तथा कुछ का पूर्वजन्म के कर्म- संस्कारों से होता है। इसलिए यह कहना महती मूर्खता है कि पूर्व जन्म के पाप और पुण्य कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के घर में जन्म मिलता है।
कुल मिलाकर - कहने का तात्पर्य यह है कि- ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से जन्मगत अथवा जन्म के आधार पर भेद करते हुए सामाजिक वर्ण व्यवस्था लागू करती है जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार प्रकार के वर्ग समूह होते हैं।
(ख)- वैष्णवी वर्ण व्यवस्था का आधार जन्मगत होते हुए भी कर्म की प्रवृति और वृत्ति द्वारा परिर्तनीय है।
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के जन्मगत आधार के विपरीत वैष्णव वर्ण में गुण' प्रवृति (स्वभाव) और कर्म के आधार पर ही वर्ण- विभाजन की सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। यही सत्य और विज्ञान सम्मत है। क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता एक वैष्णव ग्रन्थ है जिसमें वर्ण व्यवस्था को कर्म गत ही माना है जन्मगत नहीं।
इसकी पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता -(4/13) से होती है जिसमें लिखा गया है कि - "चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।
अनुवाद:- मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फलों में मेरी कोई स्पृहा (इच्छा) नहीं है, इसलिये मुझे कर्म कभी लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कभी कर्मों से नहीं बँधता है ।4/13।
और यही सत्य है क्योंकि इच्छाओं से प्रेरित कर्म ही फलदायी होते हैं। और उन अच्छे - बुरे फलों को भोगने के लिए पुनर्जन्म होता है। और यह जन्म व्यक्ति की इच्छा मूलक प्रवृतियों के अनुरूप विभिन्न योनियों ( शरीरों) में होता है। यही इस संसार का सनातन नियम है। कर्म का फल" फल का भोग। जीवन जगत् का यह संयोग
कर्मा: फलानि उत्पादयन्ते तानि फलानि परिणामानि रूपाणि भोक्तुं प्राणीनि जन्मानि लभन्ते ये च जायन्ते ते अवश्यं म्रियन्ते जन्ममरणं च जगत्। अर्थ:- कर्म फल उत्पन्न करते हैं और उन फलों, परिणामों और रूपों का आनन्द लेने के लिए प्राणियों का जन्म होता है और जो पैदा होते हैं उन्हें मरना ही पड़ता है, और जन्म और मृत्यु ही संसार है। ________
भक्ति- ज्ञानयोग और कर्मयोग के मध्य की अवस्था है।यह सच्चे अर्थों में निष्काम कर्मयोग है। अर्थात् ईश्वर का ईश्वर को समर्पित कर्म ही भक्ति है- श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश है। इसके लिए नीचे श्लोक- देखें।
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।2.47। भावार्थ:- भगवान कृष्ण कहते हैं ! तेरा कर्म में ही अधिकार है उसके फल में नहीं। अर्थात् (कर्म मार्ग में) कर्म करते हुए तेरा फल में कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिये। यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा (इच्छा ) होगी तो तू कर्मफलप्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफलप्राप्तिका कारण तू मत बन। क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना (इच्छा) से प्रेरित होकर कर्म करने में लगता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है।
इसी सिद्धान्त के अनुसार वैष्णव वर्ण व्यवस्था भी स्थापित है जो जन्मगत आधार पर न होकर कर्मगत आधार पर स्थापित है।
________ [२] यज्ञ मूलक एवं भक्ति मूलक अन्तर- ________
(क)- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था पूरी तरह से कर्मकाण्डों एवं यज्ञों आधारित है।
जिसमें कर्मकाण्ड एवं यज्ञ का विधान ब्राह्मण प्रधान चारों वर्णों के लिए ही है। इस बात को पूर्व में बताया जा चुका है कि- चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। जिसकी पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।। ७।।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में भक्ति-भजन की अपेक्षा कर्मकाण्डों एवं यज्ञों पर विशेष महत्व दिया जाता है। इनके कर्मकाण्डी यज्ञों में सर्वप्रथम पशु बलि का प्रावधान इन्द्र के द्वारा किए गए यज्ञों से ही प्रारम्भ हुआ था। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण /अध्यायः १४३ के प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें ऋषियों ने इंद्र से पूछा कि -
औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने। प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।।३।
वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः। संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।।४।
एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्-
अनुवाद- १-४ ऋषियों ने पूछ— सूतजी ! पूर्वकाल में स्वायम्भुवमनु के कार्य काल में त्रेतायुग के प्रारम्भ में किस प्रकार यज्ञ की प्रवृत्ति हुई थी ? जब कृतयुग(सत्युग) के साथ उसकी संध्या (तथा संध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुग की संधि प्राप्त हुई। उस समय वृष्टि(वर्षा) होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्तावृत्ति( बाजार) की स्थापना हो गयी। उसके बाद वर्णाश्रम की स्थापना करके परम्परागत रूप से आये हुए मन्त्रोंद्वारा पुनः संहिताओं को एकत्र कर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई ? हम लोगों के प्रति इसका यथार्थरूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजी ने कहा 'आपलोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये ॥1- 4॥
"सूत उवाच ! मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु। तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।।५।
अनुवाद- ५-१६ सूत जी कहते हैं-ऋषियो ! विश्व-भोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने इहलौकिक तथा पारलौकिक कर्मों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया। उनके उस अश्वमेध यज्ञ के आरम्भ होने पर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए। उस यज्ञ-कर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकार के हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, सामगान करनेवाले देवगण विश्वास पूर्वक ऊँचे स्वर से सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वर से मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे। पशुओंका समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवों का आवाहन हो चुका था। जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे और जो प्रत्येक कल्पके आदिमें उत्पन्न होनेवाले आदिदेव (पूर्वदेव) थे, देवगण उन्हीं अपने पूर्वजों का यजन कर रहे थे। इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ (समूह के समूह) ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओं को देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञ की यह कैसी विधि है ? आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषा से जो जीव-हिंसा करनेके लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है। सुरश्रेष्ठ ! आपके यज्ञ में पशु हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसा के व्याज से धर्म का विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं। यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो आगमविहित धर्म का अनुष्ठान कीजिये। सुरश्रेष्ठ! आगम विहित विधि के अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्म के पालन से यज्ञके बीजभूत त्रिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है। इन्द्र ! पूर्वकाल में ब्रह्मा ने इसी को महान् यज्ञ बतलाया है।'
तत्त्वदर्शी ऋषियों द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भी विश्वभोक्ता इन्द्र ने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे अभिमान और मोह से भरे हुए थे। फिर तो इन्द्र और उन महर्षियों के बीच 'स्थावरों या जङ्गमों में से किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बात को लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ।१५-१६।
किंतु इन्द्र ने शक्ति संपन्न होने की वजह से ऋषियों की एक भी बात नहीं मानी और यज्ञों में पशु बलि को परम्परागत के रूप में जारी रखा। तभी से देव यज्ञों में पशुबलि की परंपरा प्रारंभ हुई। जिसमें पशुओं के मांस को भी खाना परंपरागत रूप से स्वीकार किया गया। जिसमें द्विजों (ब्राह्मणों) को मांस खाने की अनिवार्यता को व्यासस्मृति के अध्याय- (तीन) के श्लोक- (५४) में बड़े ही स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि -
"क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतित द्विज:। मृगयोपार्जितं मासमभ्यर्च पितृदेवता:।५४।
अनुवाद:- यज्ञ और श्राद्ध में जो द्विज मांस नहीं खाता, वह पतित हो जाता है। मृगया (शिकार) से उपार्जित मांस से पितर और देवों की अभ्यर्चना (पूजा) करनी चाहिए।५४।
ऐसी ही बात कूर्मपुराण-उत्तरभाग के अध्याय (१७) के श्लोक (३६ से ४१) में भी कही गई है कि -
मत्स्यान स शल्कान भुत्र्जीयात् मासम् रौरवम् एव च । निवेद्य देवताभ्यः तु ब्राह्मणेभ्यः तु न अन्यथा ।।३६।।
अनुवाद- ३६ से ४१ • शल्क मछली और रूरूमृग (काले हिरन) का मांस देवता और ब्राह्मणों को समर्पित करने योग्य (नैवेद्य) के रूप में भोग कराना चाहिए ।३६। • मोर, तीतर और इसी प्रकार कबूतर, चातक (पपीहा या , कपिञ्जल), गैंडा, बगुला, मछली हंस सभी जानवर शिकार किए हुए खाने योग्य हैं।३७। • शफरी-मछली तथा सिंहतुण्ड (शेर जेसे तुण्ड-वाली एक प्रकार की मछली पाठीन (पढिना),मछली रोहित मछली ये भी खाने के लिए बतायी गयीं है।३८। • धो पौंछ कर ही ब्राह्मण को मांस इच्छानुसार खाना चाहिए। शास्त्र विधि के अनुसार शिकार किए हुए प्राणी के प्राण निकल जाने पर ही उसके मांस का भक्षण करना चाहिए ।३९। • यज्ञ के पश्चात बचा हुआ मांस खाकर व्यक्ति पाप से लिप्त नहीं होता है। औषधि के रूप में अशक्त (कमजोर) व्यक्ति को भी माँस खाना चाहिए। ४०। • यदि पितरों के श्राद्ध अथवा देवों के यज्ञ में आमन्त्रित व्यक्ति मांस को नहीं खाता है, तो वह उतने समय तक नरक में रहता है जितने रोम एक पशु के शरीर पर होते हैं।४१
इन उपरोक्त श्लोक से यह सिद्ध होता है कि पूर्व काल में ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत देव यज्ञों एवं अन्य प्रमुख अवसरों (मौकों) पर पशु बलि एवं मांस खाने और खिलाने की प्रथा विद्यमान थी। जिसमें देवताओं को मांस चढ़ाया जाता था और द्विज (ब्राह्मण) लोग भी उसे खाते थे। और जो मौके पर नहीं खाता, वह नर्कगामी होता था।
उपर्युक्त श्लोक में यज्ञ विधानों के अन्तर्गत जो आगम और निगम शब्द आये हैं - उनका शास्त्रीय अर्थ जानना भी उचित है।
इस सम्बन्ध में तान्त्रिक ग्रन्थों में आगम का लक्षण निम्नलिखित है। ___ आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतञ्च गिरिजानने । मतञ्च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते” अनुवाद:- शिव के मुख से आया हुआ और पार्वती को मुख में पहुँचा हुआ तथा वासुदेव कृष्ण का मत( माना हुआ ) उसी को आगम कहा जाता है।। आगम की ही एक अपर संज्ञा है – तन्त्र। तन्त्रऔर आगम, समानार्थी अर्थों में शास्त्रों में प्रयुक्त होते रहे हैं।
आगम इन सात लक्षणों से समन्वित होता है- सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षट्कर्म, (शान्ति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन तथा मारण) साधन तथा ध्यानयोग। ये आगम ग्रन्थ के लक्षण हैं।
तन्त्रशास्त्र का वह अंग जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, उनका साधन, पुरश्चरण-(हवन आदि के समय किसी विशिष्ट देवता का नाम जप अथवा किसी मंत्र, स्तोत्र आदि को किसी अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये किसी निश्चित समय और परिमाण तक नियमपूर्वक जपना या पाठ करना) और चार प्रकार का ध्यानयोग होता है । आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतञ्च गिरिजान ने। मतञ्च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते” ॥ इति (एतल्लक्षणं यथा -“सृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानां तथार्च्चनं । साधनञ्चैव सर्व्वेषां पुरश्चरणमेव च ॥ षट्कर्म्मसाधनं चैव ध्यानयोगश्चतुर्विधः । सप्तमिर्लक्षणैर्युक्तं त्वागमं तद्विदुर्बुधाः”॥ इति इति यथा रघुवंशे । १० । २६
_______ इसमें ज्ञान, कर्म और उपासना आदि के विषय में बताया गया है। वेद-शास्त्रों को निगम कहते हैं।शास्त्रों के उस स्वरूप को आगम कहते हैं जो व्यवहार अथवा आचरण में उतारने वाले उपायों का रूप होता है।। तन्त्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही मुख्य है।
आगमात् शिववक्त्राद् गतं च गिरिजा मुखम्। सम्मतं वासुदेवेनागमः इति कथ्यते ॥ जिससे अभ्युदय-लौकिक कल्याण और निःश्रेयस-मोक्ष के उपाय बुद्धि में आते हैं, वह आगम कहलाता है। [वाचस्पति मिश्र, योग भाष्य, तत्व वैशारदी व्याख्या] उपास्य देवता की भिन्नता के कारण आगम के तीन प्रकार हैं :- वैष्णव आगम (पंचरात्र तथा वैखानस आगम), शैव आगम (पाशुपत, शैवसिद्धांत, त्रिक आदि) तथा शाक्त आगम। द्वैत, द्वैताद्वैत तथा अद्वैत की दृष्टि से भी इनमें तीन भेद माने जाते हैं। आगम वेदमूलक और सम्पूरक हैं। इनके वक्ता प्रायः भगवान् शिव हैं। यह शास्त्र साधारणतया तन्त्रशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध है। निगमागम मूलक भारतीय संस्कृति का आधार जिस प्रकार निगम (वेद) है, उसी प्रकार आगम (तन्त्र) भी है। दोनों स्वतंत्र होते हुए भी एक दूसरे के पोषक व सन् पूरक भी हैं। ______
निगम कर्म, ज्ञान तथा उपासना का स्वरूप बतलाता है तथा आगम इनके उपायभूत साधनों का वर्णन करता है। अत: (निगम सैद्धान्तिक है तो आगम प्रायौगिक) ___
किन्तु इसके विपरीत वैष्णवी वर्ण व्यवस्था में देव यज्ञों की तरह ना ही कोई यज्ञ का प्रावधान है और ना ही पशु बलि एवं मांस खाने का विधान है।
क्योंकि वैष्णवी वर्ण व्यवस्था कर्मकाण्डो से दूर पूरी पूर्णरूपेण भक्ति पर आधारित है। जिसको नीचे विस्तार पूर्वक बताया गया है।
(ख) वैष्णवी वर्ण व्यवस्था- भक्तिमूलक है - ________ जैसा कि प्रमाण सहित ऊपर बताया जा चुका है कि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सर्वप्रथम इन्द्र के द्वारा हिंसा पूर्ण देव यज्ञों का विधान किया गया था जिसमें पशुओं के मांस खाने का भी विधान था। किंतु इसके विपरीत वैष्णवी व्यवस्था पूर्णतः वैष्णव भक्ति पर आधारित है। क्योंकि यज्ञों में पशु बलि को लेकर मत्स्य पुराण के (१४३) वें अध्याय का (३३) वां श्लोक में देव यज्ञ और भक्ति में भेद करते हुए लिखा गया है कि- यज्ञ और भक्ति का पृथक-पृथक फल होता है।
अनुवाद- द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकने वाले वैष्णव यज्ञ तप के समान ही हैं। परन्तु पशु वध मूलक यज्ञों से देवताओं की प्राप्ति होती है तथा तपस्या एवं भक्ति से विराट् ब्रह्म (परमेश्वर- स्वराट् विष्णु) की प्राप्ति होती है।३३।
इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भगभद्गीता के अध्याय - (४ के श्लोक- २८) से भी होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ का वास्तविक अर्थ बताते हुए यज्ञ के पांच भेद बताए हैं।
व्याख्या :- इस प्रकार बहुत सारे संयमी पुरुष हैं, जो द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ व ज्ञानयज्ञ आदि व्रतों का अनुशासित रूप से पालन करते हैं ।२८।
विशेष :- इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने "यज्ञ" के पाँच भेद बताए गए हैं। जो देव यज्ञों के ठीक विपरीत हैं। (१) द्रव्ययज्ञ :-द्रव्य का अर्थ पदार्थ होता है, इसलिए समाज या लोकहित के लिए सांसारिक साधनों को उपलब्ध करवाना द्रव्य यज्ञ कहलाता है । जैसे- जरूरतमंदों को भोजन, वस्त्र व दवाईयाँ आदि उपलब्ध करवाना ।
(२) तपोयज्ञ :- सभी प्रकार की अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों को सहजता से सहन करते हुए कर्तव्य का पालन करना ही तपोयज्ञ कहलाता है।
(३) योगयज्ञ :- योग साधना द्वारा शरीर व मन पर नियंत्रण पाकर, मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होना योगयज्ञ कहलाता है।
(४) स्वाध्याय यज्ञ :- मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय यज्ञ कहलाता है ।
(५) ज्ञानयज्ञ :- विवेक व वैराग्य आदि सदगुणों का पालन करते हुए साधना मार्ग पर निरन्तर बढ़ते रहना ज्ञानयज्ञ कहलाता है।
देखा जाए तो उपर्युक्त श्लोक में भगवान कृष्ण ने पांच प्रकार के यज्ञों में देव यज्ञों, जिसमें पशु बलि का प्रावधान है उसका वर्णन नहीं किया है। अतः मत्स्यपुराण के उपरोक्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है कि इन्द्र के सारे यज्ञ पशु बलि पर ही आधारित थे। जो पशुपालकों के लिए बहुत दु:खद वपशुसंरक्षण की समस्या थी। इसी कारण से गोपालक एवं पशु-पक्षी प्रेमी भगवान श्रीकृष्ण ने बल पूर्वक सभी देव-यज्ञों को विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी।
क्योंकि इन्द्र के यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती थी। इसके विकल्प में भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पूजा (प्रकृति पूजा) का सूत्रपात किया और स्पष्ट रूप से उद्घोषणा की "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों से देवों को प्रसन्न किया जाता हो ऐसी देव पूजा व्यर्थ ही है।
क्योंकि भगवान की उपासना में प्रेम और आत्मीयता की प्रधानता होती है किसी पूजन विधि या कर्मकाण्ड की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही या पाखण्ड ग्राही नहीं हैं। इसलिए यज्ञ वैष्णव भक्तों अर्थात् गोपों के लिए विहित कर्म नहीं है। क्योंकि गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति के निश्चल भाव से आत्मसमर्ण पूर्वक ईश्वर का भजन एवं संकीर्तन करते हैं; यही वैष्णवों का परम कर्तव्य हैं। इस संबंध में वैष्णवों का मानना है की कर्मकाण्डों से न तो किसी को कोई आत्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और नाहीं संसार से किसी की मुक्ति हुई है।
क्योंकि परमेश्वर किसी नैवेद्य- का भी आकाँक्षी नहीं है। नैवेद्य तो देवों के लिए ही विहित कर्म होता है। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृति खण्ड- अध्याय (३) एवं देवीभागवतपुराण स्कन्ध (९) अध्याय (३) से होती है।
जिसमें गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और राधा से उत्पन्न विराट पुरुष (विराट विष्णु) कहते हैं कि -
"निर्गुणस्य आत्मनः च एव परिपूर्णतमस्य च। नैवेद्येन च कृष्णस्य न हि किञ्चिद् प्रयोजनम् ।।३०।।
"यद्यद्ददाति नैवेद्यं तस्मै देवाय यो जनः। स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीनाथो विराट् तथा॥ ३१॥
"अनुवाद- २८-२९, ३०-३१ • मन्त्र देकर प्रभु ने उसके (विराट पुरुष) के लिए आहार की भी व्यवस्था की। हे ब्रह्मपुत्र उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ। प्रत्येक लोक में वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् विष्णु का होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुष के होते हैं ।।२८-२९॥ • उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उन प्रभु को जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे विराट पुरुष ही ग्रहण करते हैं ॥३०-३१॥
अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि परमेश्वर श्री कृष्ण के लिए किसी भी प्रकार के नैवेद्य या चढ़ावे इत्यादि की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि परमेश्वर श्रीकृष्ण भाव ग्राही है क्रियाग्राही नहीं हैं। इसी वजह से वैष्णव भक्तों के लिए परमेश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल एवं आसान है। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद् गीता में कहते हैं कि - 'अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः। तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।। १४। {श्रीमद्भगवद्गीता- (८/१४) अनुवाद- अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगी के लिए मैं सुलभ अर्थात उसको सरल रूप से प्राप्त हो जाता हूं।१४।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।२६। (श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२६) अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात स्वीकार कर लेता हूँ।२६।
व्याख्या - देवताओं की उपासना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परन्तु भगवान (श्रीकृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेम की,अपनेपन की और मन की पवित्रता की ही प्रधानता है,किसी कर्मकाण्डीय विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही नहीं।
दूसरी बात यह कि वैष्णव भक्त इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि किसकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए ; किसकी नहीं। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों का स्वयं मार्गदर्शन करते हुए कहते हैं कि -
"अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्। देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।। २३। श्रीमद्भगवद्गीता- (७/२३) अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अन्त वाला अर्थात् (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाल-े देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः। भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।२५। (श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२५) अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।
वैष्णव भक्त अपने कर्तव्य पथ से भटक न जाएं इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को सर्वज्ञत्व का उपदेश देते हुए कहते हैं कि-
अहं ही सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्चयवन्ति ते।। २४।। [श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/२४)
अनुवाद- संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूं,। परंतु वे अर्थात् देवताओं को पूजने वाले मुझे तत्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता है।
पुनः भगवान आगे कहते हैं कि - अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्। मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।१६।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः। वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।१७।
अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ मंत्र मैं हूँ घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूं।१६,१७-१८।
अनुवाद:- वे दृढ़ निश्चय वाले भक्त जन निरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी भक्ति प्राप्ति के लिये यत्न करते हुए और मुझ को बार-बार प्रणाम करते हुए सदैव मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं।
भक्ति का वास्तविक भेद भक्त प्रहलाद को अच्छी तरह से ज्ञात था। इस संबंध में भक्त प्रहलाद श्रीमद्भागवत पुराण के स्कंध- {७} अध्याय- {५ }के श्लोक- {२३} में भक्ति के (नौ) प्रकार के भेद को बताते हुए कहते हैं कि-
श्रीप्रह्लाद उवाच - श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।२३। अनुवाद- प्रह्लाद ने कहा- विष्णु (श्रीकृष्ण) की भक्ति के नौ भेद हैं। (१)- भगवान की लीला गुणों का श्रवण। (२)- उनका ही कीर्तन। (३) उनके रूप आदि का स्मरण। (४)- उनके चरणों की सेवा। (५)- पूजा एवं अर्चन (६)- वन्दन। (७)- दास्य (८)- सख्य और (९)- आत्मनिवेदन।
अतः उपरोक्त सभी श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि है कि- वैष्णवी वर्ण व्यवस्था पूर्णतः भक्तिमूलक विचारधारा पर आधारित है। इसमें कर्मकाण्ड, हिंसा मूलक यज्ञ एवं पाखण्डवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके साथ ही ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के विपरीत वैष्णवी वर्ण व्यवस्था भेदभाव से रहित, समता मूलक समाज की स्थापना करती है। इसके लिए नीचे देखें।
________ [३] भेदभाव एवं समता मूलक अन्तर। ________ (क) ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था भेदभाव मूलक है।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से भेदभाव पर आधारित है। जिसमें उंच-नीच का भेद बहुतायत देखने को मिलता है।जिसकी पुष्टि- मनुस्मृति के अध्याय- ८ के श्लोक (२७०) और (२७७) से होती है। जिसमें आचरणगत विधानों के अन्तर्गत शूद्रों के लिए कठोर दण्ड का आदेश दिया है, जो यदि शूद्र वर्ण का व्यक्ति उच्च वर्ण के व्यक्तियों के प्रति अपराध करते है तो उसके लिए सबसे जघन्यतम दण्डों का विधान है। देखें निम्नलिखित श्लोक -
एकजातिर्द्विजातींस्तु वाचा दारुणया क्षिपन्। जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः॥२७०॥
विट्शूद्रयोरेवमेव स्वजातिं प्रति तत्त्वतः। छेदवर्जं प्रणयनं दण्डस्यैति विनिश्चयः॥२७७।।
अनुवाद:- • शूद्र लोग यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को पापी कहे तो उसे जिव्हाछेदन का दण्ड देना चाहिये, क्योंकि उसकी उत्पति जघन्य (सबसे नीचे) के स्थान से है।२७०। • वैश्य और शूद्र भी इस प्रकर आपस में गाली दें तो पूर्वोक्त दण्ड की व्यवस्था करे अर्थात वैश्य शूद्र को गाली दे तो उसे प्रथम साहस और शूद्र वैश्य को गाली दे तो उसे मध्यम साहस का दण्ड दे। ऐसे अवसर पर शूद्र की जीभ न काटना यही दण्ड का निश्चय है।२७७।
कुछ इसी तरह का वर्णन गौतमस्मृति द्वादश- अध्याय- के श्लोक- (१) से (६) में मिलता है। जिसमें भेदभाव पर आधारित दण्ड का प्रावधान किया गया है।
शूद्रो द्विजातीनभिसन्धायाभिहत्य च वाग्दण्ड। पारुष्याभ्यामङ्गमोच्यो येनोपहन्यात् ॥१॥
अनुवाद- १-६ शूद्र यदि द्विजातीय वर्ण के व्यक्ति से अपशब्द बोले तो उसकी जिह्वा खींच लेनी चाहिए जिस अंग से कुछ परुषता( अपराध ) या कठोरता होने पर उसको भी काट देना चाहिए।१।
यदि शूद्र तीनों वर्ण की किसी स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध बनाता है तो उसका लिंग काट देना चाहिए और उसकी सब सम्पत्ति छीन लेनी चाहिए।२।
यदि उसके रक्षक के वध की जिससे अधिक सम्भावना हो तो उनकी भी निगरानी रखनी चाहिए।३।
वेदों को सुनने वाले शूद्रों के कानों में पिघलता हुआ सीसा( lead) धातु उसके कानों में डलवा देना चाहिए।४।
अर्थात्- वैदिक पाठ सुनने के लिए शूद्रों के कानों को पिघले हुए टिन या लाख से भरने का अधिकार है, इस वेद ऋचा को बोलने पर के लिए, उसकी जीभ काट दी जानी चाहिए तथा उसे अंगभंग कर देना चाहिए ।।४।
यदि शूद्र आसन शयन वाणी और मार्ग में बराबरी करता है तो वह दण्ड पाने योग्य है।५।
और यदि वह याद करता है, तो उसके शरीर को अलग कर दिया जाना चाहिए।६।
इसी तरह से मनु ने भी अपनी मनुस्मृति के अध्याय- (८) के श्लोक (३७४) में शूद्रों के लिए इसी प्रकार विधान निर्धारित किया है कि-
अनुवाद- यदि शूद्र किसी असुरक्षित द्विज (ब्राह्मण) स्त्री के साथ संभोग करता है तो उसे अपना अपराधी अंग को खोना पड़ता है, और यदि वह वही अपराध किसी सुरक्षित द्विज स्त्री के साथ सम्भोग करता है तो उसे अपने प्राण गंवाने पड़ते हैं।३७४।
इसी तरह से मनुस्मृति, 2./135 में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता का दावा करते हुए घोषणा की है कि-
अर्थात्- दस साल का ब्राह्मण भी सौ साल के क्षत्रिय के पिता के समान है।१३५।
मनुस्मृति के समान ही कुछ श्लोक मत्स्यपुराण के अध्याय -२७७ में भी मिलता है। जिसमें जातिगत आधार पर भेदभाव करते हुए दंड का प्रावधान किया गया है। इसके लिए नीचे देखें।
अनुवाद- ८४-८५ • यदि कोई नीच जाति वाला व्यक्ति उत्कृष्ट जाति वाले व्यक्ति के साथ आसन पर बैठना चाहता है तो राजा उसकी कमर में एक चिन्ह बनाकर अपने राज्य से निर्वासित कर दे या उसके गुदा (नितम्ब) भाग को कटवा दे।८४। • इसी प्रकार यदि कोई निम्न जाति वाला किसी उच्च जातीय व्यक्ति के केशों को पकड़ता है तो उसके हाथ को बिना विचार किए ही कटवा देना चाहिए। इसी प्रकार का दंड दोनों पैरों, नासिका, गला तथा अण्डकोष (वृषण ) के पकड़ने पर भी देना चाहिए।८५।
ये उपरोक्त सभी बातें ब्राह्मीवर्ण व्यवस्था में देखने को मिलती है। जिसमें सामाजिक एवं जातीय भेद भाव के आधार पर दण्ड का विधान निर्धारित किया गया है। कितु इसके ठीक विपरीत वैष्णव वर्णव्यवस्था- समानता मूलक सिद्धान्त पर आधारित है जिसमें किसी प्रकार का भेद भाव नहीं है। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण अन्तर को नीचे देखें - __
देवी भागवतपुराण में वर्णन है-
यथा शूद्रस्तथा मूर्खो ब्राह्मणो नात्र संशयः।
न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु ॥३३॥
"अनुवाद:- मूर्ख ब्राह्मण शूद्र तुल्य होता है। क्योंकि वह न तो सम्मान (पूजा) के ही योग्य होता है। और न ही वह दान देने का पात्र होता है। वह सभी धार्मिक शुभ कार्यों में निन्दनीय होता है। ।३३।
किसी देश में रहता हुआ वेदशास्त्र विहीन ब्राह्मण कर ( टेक्स) देने वाले शूद्र की भाँति राजा द्वारा समझा जाना चाहिए ।३४।
नासने पितृकार्येषु देवकार्येषु स द्विजः।
मूर्खः समुपवेश्यश्च कार्यश्च फलमिच्छता ॥३५॥
"अनुवाद:-फल की इच्छा रखने वाले साधक को चाहिए कि वह पितृ कार्य और देव पूजा के अवसर पर उस मूर्ख ब्राह्मण को आसन पर न बिठाऐ ।३५।
राज्ञा शूद्रसमो ज्ञेयो न योज्यः सर्वकर्मसु ।
कर्षकस्तु द्विजः कार्यो ब्राह्मणो वेदवर्जितः॥३६॥
"अनुवाद:-राजा भी वेद ज्ञान विहीन ब्राह्मण को शद्रतुल्य समझे और उसे धार्मिक शुभ कार्यों में नियुक्त न करे अपितु उसे खेती बाड़ी के कार्य में लगा दे।३६।
विना विप्रेण कर्तव्यं श्राद्धं कुशचटेन वै।
न तु विप्रेण मूर्खेण श्राद्धं कार्यं कदाचन ॥३७॥
"अनुवाद:-वेद ज्ञाता ब्राह्मण के अभाव कुश के चट से स्वयं श्राद्ध कार्य कर लेना उचित है। किन्तु मूर्ख ब्राह्मण से कभी श्रद्धा कार्य नहीं कराना चाहिए ।३७।
आहारादधिकं चान्नं न दातव्यमपण्डिते ।
दाता नरकमाप्नोति ग्रहीता तु विशेषतः ॥३८॥
"अनुवाद:-मूर्ख ब्राह्मण को भाेजन से अधिक अन्न नहीं देना चाहिए ! क्यों की दान देने वाला व्यक्ति नरक में जाता है। और दान लेने वाला तो घोर नरकों में ही जाती है।३८।
धिग्राज्यं तस्य राज्ञो वै यस्य देशेऽबुधा जनाः।
पूज्यन्ते ब्राह्मणा मूर्खा दानमानादिकैरपि ॥३९॥
"अनुवाद:- उस राजा के राज्य को धिक्कार है जिसके राज्य में मूर्ख लोग निवास करते हैं। और मूर्ख ब्राह्मण भी दान सम्मान आदि से पूजित होते हैं।३९।
आसने पूजने दाने यत्र भेदो न चाण्वपि ।
मूर्खपण्डितयोर्भेदो ज्ञातव्यो विबुधेन वै ॥४०॥
"अनुवाद:- जहाँ मूर्ख और विद्वान के बीच आसन -पूजन और दान में रंचमात्र भी भेद नहीं माना जाता है। अत: विज्ञ पुरुष को चाहिए कि वह ज्ञानी और मूर्ख की अवश्य पहचान कर ले ।३९-४०।
जहाँ दान मान और परिग्रह में मूर्ख व धूर्त लोग महान गौरवशाली माने जाते हैं। उस देश में विद्वानों को किसी भी प्रकार नहीं रहना चाहिए।४१।
असतामुपकाराय दुर्जनानां विभूतयः।
पिचुमन्दः फलाढ्योऽपि काकैरेवोपभुज्यते ॥४२॥
"अनुवाद:- दुर्जन व्यक्तियों की सम्पत्तियाँ दुर्जन व्यक्तियों के उपभोग के लिए ही होती हैं। जैसे नीम के फल ( निबोरीयों) से अधिक लदे हुए नीम के वृक्ष पर बैठकर केवल कौए ही निबोरियाें को खाते हैं।४२।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के ठीक विपरीत वैष्णवी व्यवस्था समतामूलक सामाज पर आधारित है। जिसमें स्त्री-पुरुष, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, अपना-पराया इत्यादि का कोई भेद-भाव नहीं है। इस सम्बन्ध में वैष्णव वर्ण के महा प्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय -( ९ )के श्लोक- (३२) में अर्जुन से कहते हैं कि -
अनुवाद - हे पार्थ ! यदि स्त्री, वैश्य और शूद्र ये जो कोई पापयोनि वाले भी हों, वे भी मुझ पर आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।३२।
इसी प्रकार से भागवत पुराण में वैष्णव धर्म की प्रवृत्ति के बारे में बहुत ही अच्छा लिखा गया है कि वैष्णव धर्म में उँच -नीच एवं जातीय भेद-भाव नहीं है।
भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्। भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्॥२१। (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१४/२१) भगवान् के वचन – मैं सन्तों का प्रिय और आत्मा हूँ, मेरी प्राप्ति श्रद्धा व अनन्य भक्ति से ही होती है । मेरी अनन्य भक्ति में यह सामर्थ्य है कि वह जन्मजात (श्वपाक) चाण्डाल को भी अत्यन्त पवित्र बना देने वाली है।२१।
न यस्य जन्म कर्मभ्याम् न वर्ण आश्रम. जातिभिः। सज्जते अस्मिन् अहंभावः देहे वै स हरेः प्रियः।।५१।।
न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा। सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥५२॥ (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/२/५१,५२)
• भागवत धर्म (वैष्णव वर्ण) में न वर्णाश्रमगत भेद है, न जातिगत भेद ही, न जन्मगत भेद है, न कर्मगत । यहाँ तक कि देह-धर्मों का भी भेद नहीं है । ऐसा सर्वभूत शम ही उत्तम भागवत धर्म है ।५१। • जो धन संपत्ति अथवा शरीर आदि में- "यह अपना है और यह पराया" इस प्रकार का भेदभाव नहीं रखता, समस्त पदार्थ में समस्वरूप परमात्मा को देखता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा संकल्प से विक्षिप्त न होकर शांत रहता है, वह भगवान का उत्तम भक्त है।५२।
न हि भगवन्नघटितमिदं त्वद्दर्शनान् नृणामखिलपापक्षयः । यन्नाम सकृच्छ्रवणात् पुल्कसकोऽपि विमुच्यते संसारात् ॥४४॥ (श्रीमद्भागवत पुराण-१६/६/४४)
भगवान् ! आप के दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के सारे पाप क्षीण हो जाते हैं, यह कोई असम्भव बात नहीं है, क्योंकि आपका नाम एक बार सुनने से ही नीच चांडाल भी संसार से मुक्त हो जाता है।४४।
भगवान श्रीकृष्ण समाज में ऊँच-नीच का भेदभाव रखनें वालों से अपनी भक्ति तथा कृपा से सदैव दूरी बनाकर रखते हैं। और ऐसे लोग जो समाज में भेदभाव पैदा करते हैं उनके लिए दण्ड का प्रावधान करते हुए कहते हैं कि-
यस्यामृतामलयशः श्रवणावगाहः सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः। सोऽहं भवद्भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्तिः छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ॥६॥ (भागवत पुराण- ३/१६/६) अनुवाद:- मेरी निर्मल सुयश सुधा में गोता लगाने से चाण्डाल पर्यन्त सारा जगत तुरन्त पवित्र होकर कुण्ठा रहित हो जाता है। इसलिए मैं विकुण्ठ कहलाता हूँ। किन्तु मुझे यह पवित्र कीर्ति आप भक्तों से ही प्राप्त होती है। इसलिए जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, मैं उसे तत्काल काट डालुँगा चाहें वह मेरी बाहू (भुजा) ही क्यों नहो।६।
और वैष्णव भक्तों की रक्षा तथा वैष्णव धर्म एवं समता मूलक समाज को स्थापित करने के लिए भगवान समय-समय पर भूतल पर अवतरित भी होते हैं।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७। (श्रीमद्भागवत गीता- ४/७) अनुवाद:- जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।७। अनेक सम्प्रदायों और मत-मतान्तरो में भटकते हुए व्यक्ति को कहीं शान्ति और सत्य के दर्शन नहीं होते तो भगवान श्रीकृष्ण यह सार्वजनिक घोषणा करते हैं-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। ६६। (श्रीमद्भागवत गीता (१८/६६) सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, तू चिन्ता मत कर।६६। (व्याख्या)- भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के प्रति यह उद्घोषणा करते हुए कहते हैं कि जिस-जिस धर्म और समाज में भेद-भाव की प्रधानता हो उसे तुरन्त छोड़कर भक्तों को मेरी शरण में आ जाना चाहिए। मैं उन सभी भक्तों को पाखण्डपूर्ण समाज से मुफ्त करके अवश्य उनका कल्याण करूँगा।
सामान्य रूप से देखा जाए तो वैष्णव-वर्ण और चातुर्वर्ण्य में प्रमुख रूप से (६) प्रकार के निम्नलिखित वैचारिक अंतर देखे जाते हैं।
(१) पहला यह की ब्राह्मी वर्णव्यवस्था- में सभी मनुष्य एकसमान अधिकार वाले नहीं हैं। जबकि वैष्णव वर्ण में सभी बराबर हैं। वैष्णव सन्तो का उद्घोष है कि-"हरि को भजे सो हरि को होई ! जाति- पाँति पूछे नहिं कोई"
(२)- दूसरा अंतर विष्णु और ब्रह्मा द्वारा निर्मित वर्णों में यह भी है कि- ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में चारो वर्णों के लोग अपने - अपने ही वंशानुगत कार्यों को अनिवार्य रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी जातीय धर्म समझकर करते हैं, भले ही उनमें इसकी पूर्ण प्रवृत्ति तथा योग्यता हो या नो हो। जैसे- ब्राह्मण का बालक मन्दिरों या देवस्थानों में परम्परागत रूप से चढ़ावा लेने तथा वहाँ की पूजा आदि क्रियाओं करेगा ही चाहें वह संस्कृत भाषा का ज्ञान तथा शास्त्रों का ज्ञान भलें ही न रखता हो- जबकि वैष्णव वर्ण में ऐसी व्यवस्था नहीं है। इस वर्ण में जो जिस योग्यता के अनुरूप होगा वह वही काम करेगा।
(३) - इन दोनों में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में इसके सदस्यों का विभाजन जन्म के आधार पर चार मानव समूहों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र) में होता है। जबकि वैष्णव वर्ण में बिना वर्ग विभाजित हुए इसके सभी सदस्य अपनी योग्यता के अनुसार सभी कर्मों को करने के लिए स्वतन्त्र होते हैं। चाहे वह क्षत्रियोचित कर्म हो या ब्राह्मणत्व कर्म हो।
(४) - चौथा सबसे बड़ा अंतर यह है कि- श्रौत और स्मार्त (श्रुति- वेद मूलक) स्मार्त ( स्मृति- मूलक) ब्राह्मण, (धर्मशास्त्रमूलक) धर्म की कट्टरता को नासमझ लोग भागवत धर्म में घटाने लगते हैं। परन्तु भागवत धर्म ही वैष्णव वर्ण- व्वस्था का आधार है। जबकि स्मृतियाँ- ब्राह्मण वर्णव्यवस्था- का आधार है। (५) पाँचवां इन दोंनो व्यवस्थाओं में अंतर यह है कि- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में विधान है कि- चातुर्वर्ण्य के लोग अपने वर्ण के दायरे में रहकर ही कार्य( जीविका- उपार्जन के व्यवसाय) करते हैं, उससे हट कर दूसरे वर्ग का कार्य नहीं कर सकते। जैसे कोई ब्राह्मण वर्ण का है, तो वह पुरोहित- कर्म ही करेगा क्षत्रियोचित कर्म कदापि नहीं कर सकता। इसी तरह से यह बात चारों वर्णों के लिए लागू होती है। इस बात की पुष्टि- मार्कण्डेय पुराण के अध्याय- (११०) के श्लोक (३०) और (३६) से भी होती है जिसमें ब्रह्मा जी के वर्णव्यवस्था के शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए परिव्राट् मुनि कहते है कि- "त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोऽयं महात्मनः । तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप ॥३०॥ सोऽयं वैश्यत्वमापन्नस्तव पुत्रः सुमन्दधीः। नास्याधिकारो युद्धाय क्षत्रियेण त्वया सह ।३६।
अनुवाद- हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है, और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना वर्ण-गत नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है ।।३०-३६।
विशेष:-मार्कण्डेय पुराण के अनुसार कारुष वंश के एक राजा नाभाग जो दिष्ट के पुत्र थे। विशेष—इनकी कथा उक्त पुराण में इस प्रकार है—जब ये युवावस्था को प्राप्त हुए तब एक वैश्य की कन्या को देखकर मोहित हो गए और उस कन्या के पिता द्धारा अपने पिता से विवाह की आज्ञा माँगी। ऋषियों की सम्मति से पिता ने आज्ञा दी कि पहले एक क्षत्रिय कन्या से विवाह करके तब वैश्य कन्या से विवाह करो तो कोई दोष नहीं। नाभाग ने पिता की बात न मानी।पिता पुत्र में युद्ध छिड़ गया। परिव्राट् मुनि ने यह युद्ध शान्त किया। नाभाग वैश्य कन्या का पाणिग्रहण करके वैश्यत्व को प्राप्त हुए।
इन उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि ब्रह्मा जी के वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण के कर्मों को करना निषिद्ध है।
जबकि वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, वाणिज्य एवं सेवा आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबन्ध के कर सकते हैं। वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कर्मों एवं उनके दायित्वों का वर्णन इसके अगले अध्याय-(छः) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि वैष्णव वर्ण के सदस्य किस प्रकार से - ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, वाणिज्य , एवं सेवा आदि सभी कर्मों को स्वतंत्र रूप से बिना किसी प्रतिबन्ध के करते हैं।
(६)- और अन्त में सबसे महत्वपूर्ण छठवाँ अन्तर यह है कि - ** ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था में दास को सबसे निकृष्ट कर्म करने वाला बताया गया तथा उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा गया। इस बात की पुष्टि- मनुस्मृति- अध्याय २- के श्लोक संख्या- (३१ और ३२) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
अनुवाद- ३१-३२ • ब्राह्मण का नाम शर्मवत्- (यज्ञ में पशु बलि करने से सम्बन्धित अथवा मूलक) होना चाहिए, क्षत्रिय का नाम शक्ति से सम्बन्धित होना चाहिए, वैश्य का नाम धन से सम्बन्धित होना चाहिए, जबकि शूद्र (दास) का नाम घृणित होना चाहिए। ३१। • ब्राह्मण का नाम शर्मवत् , क्षत्रिय का नाम 'रक्षापरक', वैश्य का नाम 'समृद्धिपरक' तथा शूद्र का नाम दासत्व (गुलामीपरक) का बोधक होना चाहिए। ३२।
जबकि इसके विपरीत वैष्णव वर्ण में सभी भक्त अपने आप को भगवान का दास मानते हुए अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझाते हैं।या यूं कहें कि वैष्णव भक्तों को दास ही कहा जाता है जैसे- रैदास, सूरदास, कबीरदास, मलूकदास इत्यादि। और एक सच्चा वैष्णव भक्त जब भी अपनी भक्ति का फल भगवान से मांगता हैं, तो वह केवल भगवान के दासत्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं माँगता।
वास्तव में देखा जाए तो वैष्णव सन्तों में दास पदवी का प्रचलन वैष्णव भक्त राजा ययाति के द्वारा ही हुआ। क्योंकि पूर्वकाल में जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का का ही वर माँगा। इस सत्य की पुष्टि -पद्मपुराण-भूमिखण्ड के अध्याय-( ८३) के श्लोक- (८०) से होती है। "राजोवाच यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन । दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद- राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी ! हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) ही दीजिए। ८०।
अन्ततः दास शब्द की व्याख्या; ऋग्वेद में परमोदार ( दाता ) और दानी के रूप में भी हुई है। दास शब्द दान देने (दासृ =दाने) के अर्थ में है। यथा ऋग्वेद के इस निम्न ऋचा को देख लें-
"(हे अग्निदेव !) उसके यहां एक पुत्र पैदा हो, जो भक्ति में दृढ़ और प्रसाद में उदार हो, जो भोजन की आवश्यकता होने पर आपको यज्ञ द्वारा भोजन प्रदान करता हो, जो आपको लगातार प्रसन्न करने वाला सोमरस देता हो, जो अतिथि के रूप में आपका स्वागत करता हो , और श्रद्धापूर्वक आपको उसके आवास में प्रज्ज्वलित करता हो।" (दास्वान् = दानवान् —सायणभाष्यम्) अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - वैष्णव भक्तों के लिए दास शब्द ही यथार्थ है। जिसका अर्थ- दान कर्ता भी है। जिसमें दास शब्द अपने विकास क्रम में कई अर्थों को धारण करता हुआ आज वैष्णव भक्तों का वाचक है।। इसके विस्तृत ज्ञान के लिए अध्याय -(११) के भाग- (१) महाराज यदु के परिचय में देखा जा सकता है।
इस प्रकार से यह अध्याय-(५) वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताओं की जानकारी के साथ समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय- (६) में बताया गया है कि- वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व क्या है ?
इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य- वैष्णव वर्ण के कुछ प्रमुख आध्यात्मिक पुरुषों का परिचय देते हुए वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य के सदस्यों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी देना है। क्योंकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण के कर्मों को करना निषिद्ध माना गया है। इस बात को पिछले अध्याय- पाँच में बताया जा चुका है।
जबकि इसके विपरीत वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है। इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के बड़े ही गर्व से करते हैं। ऐसा क्यों होता है ? इसको निम्नलिखित शीर्षकों के आधार पर समझा जा सकता है -
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में ब्राह्मणों का प्रमुख कर्म- पूजा-पाठ, यज्ञ कराना, उपदेश देना ही होता है। और ये सभी धार्मिक कर्म करने के लिए वैष्णव वर्ण के अहीर (गोप) किसी ब्राह्मण पुरोहित इत्यादि के आश्रित नहीं हैं। क्योंकि स्वभावत: वैष्णव वर्ण के गोप प्रारम्भ से ही धार्मिक कृत्य करते आए हैं। इस सम्बन्ध में देखा जाए तो सदियों से परम्परागत रूप से चली आ रही सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर ही रहें हैं, जिन्होंने अपनी सत्यनारायण व्रत कथा कथा से कइयों को तार दिया।
गोपों के इसी धर्मज्ञ स्वभाव और धार्मिक कृत्यों की वजह से इन्हें पौराणिक ग्रन्थों में सबसे बड़ा धर्मवत्सल, धार्मिक, सदाचारी, ज्ञानयोगी, और कर्मयोगी माना गया है। ये समय-समय पर शस्त्र और शास्त्र दोनों उठाते हैं। इसके सबसे बड़े उदाहरण गोपेश्वर श्री कृष्ण हैं। इसके अतिरिक्त ज्ञान की देवी अहीर कन्या- गायत्री, यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा तथा ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना इत्यादि इसके उदाहरण हैं जो सभी वैष्णव वर्ण के गोप कुल के प्रारम्भिक सदस्य रहे हैं। इन सभी के बारे में क्रमशः नीचे जानकारी दी गई है की ये सभी कैसे सबसे बड़े धर्मवत्सल एवं धर्मज्ञ हैं।
____°______ सर्वप्रथम भूतल पर गोपों को ही - सबसे बड़ा धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल माना गया। इस संबंध में कई पौराणिक साक्ष्य और प्रसंग सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। उनमें से एक सत्यनारायण व्रत कथा भी है जो श्री स्कन्दपुराण के अवन्ति खण्ड के उपखण्ड रेवाखण्ड के अध्याय-(२३६) से लेकर युगों-युगों से सत्यनारायण अर्थात् भगवान विष्णु की कथा के रूप में प्रचलित रही है। जिसे हम और आप बचपन से ही इस विष्णु कथा को सुनते
आ रहे हैं। किंतु इस बात को कम ही लोग जानते हैं कि इस सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र गोप हैं ही हैं जो इस कथा के माध्यम से अनेकों भक्तों को तारण करते हैं।। इस बात की पुष्टि सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य स्रोत श्री स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड के अध्याय-(२३३) से (२३७ ) पाँच अध्यायों से होती है। जो सत्यनारायण व्रत कथा में अध्याय - (५) के रूप में स्थापित है। जानकारी के लिए उसे नीचे उद्धृत किया गया है।
"सूत उवाच" अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः। आसीत् तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्परः॥१॥
प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप सः। एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान् पशून्॥२॥
"अनुवाद- १-५ • श्रीसूतजी बोले – हे श्रेष्ठ मुनियो ! अब इसके बाद मैं एक अन्य कथा कहूँगा, आप उसे सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर (तैयार रहने वाला) तुङ्गध्वज नाम का एक राजा था।१। • उसने सत्यदेव ( सत्यनारायण) के प्रसाद का परित्याग करके दुःख प्राप्त किया। एक बार वह वन में जाकर और वहाँ बहुत-से पशुओं को मारकर।२। • वह वट वृक्ष के नीचे आया तो वहाँ उसने देखा कि गोपगण (अहीर लोग) बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान् सत्यदेव( सत्यनारायण ) की पूजा करतें हैं।३। • राजा यह देखकर भी अहंकार (दर्प) वश न तो वह राजा वहाँ गया और न उसने भगवान् सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। इसके बाद (पूजन के पश्चात) सभी गोपगण भगवान् सत्य नारायण का प्रसाद राजा के समीप में।४। • रखकर वहाँ से पुन: लौट कर और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान्का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसादका परित्याग करने से बहुत दुःख हुआ॥ ५॥
"अनुवाद ६-९ •उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य हो भगवान् सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है।६।
•इसलिये मुझे वहीं जाना चाहिये जहाँ श्रीसत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों (अहीरों) के समीप गया।७।
•और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान् सत्यदेव की पूजा की।८।
• भगवान् सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों को उपभोगकर अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक)- को चला गया॥९॥
"अनुवाद:- १०- १३ • सूत जी कहते हैं- जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्रीसत्यनारायण के व्रत को करता और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है।१०। • उसे भगवान् सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र के घर में धन हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से छूट जाता है।११। • डरा हुआ व्यक्ति भय से मुक्त हो जाता है-यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। (इस लोक में वह सभी इच्छित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक) को जाता है।१२। • हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान् सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है॥१३॥
विशेषतः कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा। केचित् कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च॥१४॥
व्रतं वैस्तु कृतं पूर्व सत्यनारायणस्य च। तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वराः॥१८॥
"अनुवाद:- १४-१८ • कलियुग में तो भगवान् सत्यदेव (सत्यनारायण) की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान् विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश।१४। • और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान् सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं।१५। • कलियुग में सनातन भगवान् विष्णु ही सत्यव्रत-रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करनेवाले होंगे।१६। • हे श्रेष्ठ मुनियो। जो व्यक्ति नित्य भगवान् सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान् सत्यनारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।१७। • हे मुनीश्वरो ! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान् सत्यनारायण का व्रत किया था, उनके अगले जन्म का वृत्तान्त कहता हूँ, आप लोग उसे सुनें॥१८।
अनुवाद:- १९-२३ • महान् प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण [सत्यनारायणका व्रत करनेके प्रभावसे] दूसरे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।१९। • लकड़हारा भिल्लों का राजा गुहराज हुआ और अगले जन्ममें उसने भगवान् श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया।२०। • महाराज उल्कामुख [दूसरे जन्म में] राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरङ्गनाथ (विष्णु) की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया।२१। • इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु [पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में] मोरध्वज नाम का राजा हुआ। उसने आरे से चीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान् विष्णुको अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया।२२। • महाराज तुङ्गध्वज पूर्व जन्म में स्वायम्भुव मनु के रूप में हुए थे और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। २३। "भूत्वा गोपाश्च ते सर्वे व्रजमण्डलवासिनः। निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः॥२४॥
अनुवाद - और जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करनेवाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वतधाम – गोलोक प्राप्त किया ॥ २४॥
श्लोक २४ का शब्दार्थ :- सत्यनारायण की वन में कथा करने वाले वे सभी गोपगण ही व्रजमण्डल में (भूत्वा = जन्म लेकर /होकर ) गोपा: = गोप गण। ते सर्वे= वे सब। व्रजमण्डलवासिनः= व्रजमण्डल के निवासी। निहत्य= मारकर। राक्षसान् सर्वान् = सभी राक्षसों को ।
किंतु यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि- इस सत्यनारायण व्रत कथा में गोपों से सम्बन्धित सबसे महत्वपूर्ण श्लोक- ।२४। "भूत्वा गोपाश्च ते सर्वे व्रजमण्डलवासिनः। निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः"॥२४।
को स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड के अध्याय-(२३६) से पुरोहितों ने इर्ष्या बस निकलवा दिया है। अब वहां पर (२४) श्लोक न होकर केवल (२३) श्लोक ही शेष रह गए हैं। गोपों के इस (२४) वें महत्वपूर्ण श्लोक को अब वर्तमान समय में गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित "सत्यनारायण व्रत कथा" में मिलता है। इसके अलावा "शब्द कल्पद्रुम" ( खण्ड- ५ पृष्ठ संख्या- २२९) में गोपों का यह महत्वपूर्ण श्लोक आज भी सुरक्षित है।
कुल मिलाकर सत्यनारायण व्रत कथा से यह सिद्ध होता है कि गोप प्रारम्भ से ही धार्मिक, धर्मवत्सल, तथा वैष्णव धर्म के प्रबल प्रचारक रहे हैं। गोपों के इसी गुण विशेष के कारण भगवान श्री कृष्ण के सामने श्रीराधा जी ने गोपों को सबसे बड़ा धर्मवत्सल कहा इस बात की पुष्टि - गर्गसंहिता के वृन्दावन खण्ड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या -२२ से होती है। जिसमें राधा जी श्रीकृष्ण से कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम। प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।
अनुवाद - गोप सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गंगा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़ कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है। इसके अतिरिक्त गोपों के धर्मवत्सल होने के और कई महत्वपूर्ण उदाहरण दिए जा सकते हैं। उनमें से प्रमुख हैं - (१) अहीर कन्या वेदमाता गायत्री। (२) यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा। (३) ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना इत्यादि।
अब हम इन तीनों महत्वपूर्ण गोप कन्याओं को एक-एक करके बताऊंगा की सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में
देवी गायत्री सहित समस्त गोपों को धर्म वत्सल एवं धर्मज्ञ होने की पुष्टि-पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७ के श्लोक- १५-१६ और १७) से होती है जिसमें भगवान विष्णु गोपों की कन्या, गायत्री को ब्रह्मा जी को कन्यादान के उपरान्त गोपों से कहते हैं कि-
अनुवाद - • हे गोपगण ! तुम यहां वृथा प्रलाप मत करो। यह पुण्यवती, सौभाग्यवती तथा कुल एवं बन्धुगण के लिए आनन्दप्रदा है। इस बाला को हम यहां लाए हैं। इसे ब्रह्मा ने अपनी पत्नी बनाया है। इन्होंने भी ब्रह्मा का अवलम्बन किया है। यदि यह पुण्यवती नहीं होती, तब इस सभा में आती क्यों? हे महाभाग! तुम यह सब जानकर अब शोक मत करो। तुम्हारी यह भाग्यशाली कन्या ने ब्रह्मा को प्राप्त किया है। १५। • ज्ञान योगी, कर्मयोगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना भी करके यह स्थान नहीं पाते, तथापि तुम्हारी यह कन्या उस गति को पा गई है।१६। • तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
इन उपरोक्त- तीनों श्लोकों से एक ही साथ चार बातें सिद्ध होती है- • पहला यह कि- देवी गायत्री, गोपों की कन्या हैं अर्थात वह एक गोप कन्या है, जिनका विवाह ब्रह्मा जी से हुआ। जिनके मन्त्रोच्चारण से अर्थात् गायत्री मंत्र के जाप से जगत का कल्याण होता है। जिसमें देवी गायत्री को अहीर (गोप) कन्या होने की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय-१६ के- श्लोक-१५५ से भी होती है। जिसमें देवी गायत्री अपना परिचय देते हुए इन्द्र से कहती है -
अनुवाद- हे वीर! मैं गोप कन्या हूं। यहां दुग्ध विक्रय करने के लिए आई हूं। यह विशुद्ध नवनीत है। यह देखो! यह मण्डराहित दधि है। तुमको यदि मट्ठा या दूध जो आवश्यक हो, कहो तथा यथेष्ट ग्रहण करो। १५५।
• दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि- गोपों से बड़ा कोई धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल नहीं है। इस बात को जानकर ही भगवान विष्णु ने गोपों की कन्या- देवी गायत्री को ब्रह्मा जी को कन्यादान किया। और ब्रह्मा जी ने उसे अपनी पत्नी स्वीकार किया। ब्रह्मा की पत्नी गायत्री केवल यज्ञ सम्पादन और संसार में आध्यात्मिक ज्ञान के प्रसारण के लिए ही है। सांसारिक सृष्टि उत्पादन के लिए नहीं। • तीसरी बात यह सिद्ध होती है कि- आभीर कन्या देवी गायत्री उस स्थान और पद को प्राप्त हुई। जिसे योगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना करने के बाद भी नहीं पाते। अब इससे बड़ा ब्राह्मणत्व कर्म वैष्णव वर्ण के गोपों के लिए और क्या हो सकता है। • चौथी बात यह कि- देवी गायत्री महती विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम अहीर कन्या थी। जिसकी भूरि-भूरि प्रसंशा भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी के यज्ञ-सत्र में की और गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी पद पर नियुक्त किया। जो आज भी यह मान्यता है कि संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री के विषय स्वय भगवान विष्णु गोपों से कहते हैं।
अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये॥१६॥
इसके द्वारा तारे गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवश्य अवतरण करुँगा ।
(अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) भी होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
अनुवाद:-विष्णु ने अहीरों से कहा- मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)।
निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धर्मवत्सल,सदाचारी और सुव्रतज्ञ (अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।
देवी गायत्री का यदि पारिवारिक परिचय देखा जाए तो उनकी माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम "गोविल" था। जो दोनो ही नाम गोलोक से सम्बन्धित है। गायत्री के पिता-गोविल को नन्दसेन,अथवा नरेन्द्र सेन आभीर नाम से भी जाना जाता है। जो आनर्त देश, वर्तमान नाम (गुजरात) के रहने वाले थे। इस बात की पुष्टि- लक्ष्मीनारायणी-संहिता के खण्ड (एक) के अध्याय-(५०९) के प्रमुख श्लोकों से होती है,जो इस प्रकार हैं -
अनुवाद:- • इस ब्रह्मा के यज्ञसत्र को जानकर शुद्ध स्नान करके आयी हुई गोप कन्या नित्य जो शुद्धात्मा और वैष्णव जाति की है।६२। • श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए उस गोप-कन्या को कहा ! सुन प्रिये ! ये बात छिपी हुई नही है कि ये वीराणी जाति से निश्चय ही अहीराणी है।६४। • सुनो ! मैं जानाता हूँ वह वृत ( इतिहास ) कोई अन्य विद्वान नहीं जानता यह सत्य पूर्वकाल में सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण परमात्मा के द्वारा गोलोक में सुघटित हुआ।।६५। • उस परमात्मा के द्वारा अपने ही अंश से सावित्री और दूसरी कन्या को गायत्री नाम से प्रकट किया गया।६६। • सावित्री श्री हरि के द्वारा ही गोलोक में प्रभु के सानिन्ध्य में भूलोक में यज्ञ प्रवाहन के लिए ब्रह्मा जी को प्रदान की गयीं ।६८। • पृथ्वी पर मनुष्य रूप में वहाँ मानव शरीर में ब्रह्मा की पत्नी रूप में यज्ञ कार्य के लिए अवतरित हुईं।६९। • उस कारण से कृष्ण के द्वारा सावित्री को आज्ञा दी गयी। तब द्वित्तीय स्वरूप में तुमको गायत्री नाम से जानना चाहिए।७०।
ज्ञात हो इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी "गोपेश्वरश्रीकृष्णस्य- पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रन्थ में दी गई है जो इस पुस्तिका का ही विस्तार रूप है।
(ग) यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा का परिचय। ________
देवी गायत्री के समान ही गोप कुल की देवी दक्षिणा, देवी स्वाहा और स्वधा भी हैं। जिनका यज्ञ, हवन और पित्र- पूजन के उपरान्त विशेष भूमिका रहती है। जिसमें यज्ञ और हवन के दरम्यान जो स्वाहा नाम के उच्चारण से हवन कुंडों में नैवेद्य अर्पण किया जाता है, और यज्ञ समाप्ति के बाद जो दान दक्षिणा दिया जाता है, वह सब देवी स्वाहा और दक्षिण के माध्यम से ही फलीभूत होता है। और ये देवी स्वाहा और दक्षिगोपोंनों ही गोपेश्वर श्री कृष्ण के गोलोक की गोपी सुशीला के ही अंशावतार है। जो कभी गोलोक में श्री राधा के शाप से गोपी सुशील को भूतल पर स्वाहा, स्वधा और दक्षिणा के रूप में आना पड़ा था।
जिसमें सुशीला के गोपी होने का प्रमाण तथा सुशीला के यज्ञ पुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में उत्पन्न होने का वर्णन देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय- (४५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो इस प्रकार है -
अनुवाद - प्राचीन काल में गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परमधन्या, मान्या तथा मनोहरा वह गोपी भगवती राधा की प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मी के लक्षणों से सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूप से अत्यधिक सम्पन्न थी।२-३।
अनुवाद- वह रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधा के सामने ही भगवान् श्रीकृष्ण के वाम अंक (बगल) में बैठ गयी ॥ ७-८।
कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्कजलोचनाम् । कोपेन कम्पिताङ्गीं च कोपेन स्फुरिताधराम्॥९॥
अनुवाद- तब मधुसूदन श्रीकृष्ण ने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय पत्नी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥९-१०॥
पलायन्तं च कान्तं च विज्ञाय परमेश्वरी। पलायन्तीं सहचरीं सुशीलां च शशाप सा॥ १५॥ अद्यप्रभृति गोलोकं सा चेदायाति गोपिका । सद्यो गमनमात्रेण भस्मसाच्च भविष्यति ॥१६॥
अनुवाद- १५-१६ • परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीला को पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आज से गोलोक में आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी।१५-१६।
अनुवाद - जिसे भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रह से मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट किया और उसका दक्षिणा नाम रखकर उसे ब्रह्मा जी को सौंप दिया। तब ब्रह्मा जी ने यज्ञ संबंधी समस्त कार्यों की संपन्नता के लिए देवी दक्षिणा को यज्ञ पुरुष के हाथ में दे दिया।३७-३८-३९।
तब यज्ञपुरुष ने देवी दक्षिणा के पूर्व काल की बातों का स्मरण दिलाते हुए देवी दक्षिणा से कहा कि- पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा वरा॥ ७१॥ राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिया । अनुवाद - हे महाभागे! तुम पूर्वकाल में गोलोक की एक गोपी थी और गोपियों में परमश्रेष्ठा थीं। श्रीकृष्ण तुमसे अत्यधिक प्रेम करते थे और तुम राधा के समान ही उन श्रीकृष्ण की प्रिय सखी थीं।७१।
कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ॥७२॥ आविर्भूता दक्षिणांसाल्लक्ष्म्याश्च तेन दक्षिणा। पुरा त्वं च सुशीलाख्या ख्याता शीलेन शोभने॥ ७३॥ लक्ष्मीदक्षांसभागात्त्वं राधाशापाच्च दक्षिणा । गोलोकात्त्वं परिभ्रष्टा मम भाग्यादुपस्थिता ॥७४॥ कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु । अनुवाद- एक बार कार्तिक पूर्णिमा को राधामहोत्सव के अवसर पर रासलीला में तुम भगवती लक्ष्मी के दक्षिणांश से प्रकट हो गयी थीं, उसी कारण तुम्हारा नाम दक्षिणा पड़ गया। हे शोभने ! इससे भी पहले अपने उत्तम शील के कारण तुम सुशीला नाम से प्रसिद्ध थी तुम भगवती राधिका के शाप से गोलोक से च्युत( पतित) होकर और पुनः देवी लक्ष्मी के दक्षिणांश से आविर्भूत हो। अब देवी दक्षिणाके रूप में मेरे सौभाग्यसे मुझे प्राप्त हुई हो। हे महाभागे ! मुझपर कृपा करो और मुझे ही अपना स्वामी बना लो॥ ७२,-७४।
फिर यज्ञपुरुष ने उस देवी से कहा- कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु। कर्मिणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा॥७५॥ त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम्। त्वया विना तथा कर्म कर्मिणां च न शोभते॥७६॥ ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च । कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥ ७७॥ अनुवाद- तुम्हीं यज्ञ करने वालों को उनके कर्मों का सदा फल प्रदान करने वाली देवी हो। तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियों का सारा कर्म निष्फल हो जाता है और तुम्हारे बिना अनुष्ठानकर्ताओं का कर्म शोभा नहीं पाता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल आदि भी तुम्हारे बिना प्राणियों को कर्मका फल प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं। ७५-७६-,७७। (गोपकन्या- दक्षिणा ही कर्मों के फलों की विधायिका हैं।) और इस संबंध में सबसे बड़ी बात श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्द के अध्याय-(४३) के श्लोक संख्या-(३८) में लिखी गई है,जिसमें बताया गया है कि यज्ञ, हवन के मध्य गोपी सुशीला की अंशस्वरूपा देवी स्वाहा का कितना महत्व है- दक्षिणाग्निगार्हपत्याहवनीयान् क्रमेण च। ऋषियो मुनयश्चैव ब्राह्मणा: क्षत्रियादय:।३८। स्वाहान्तं मन्त्रमुच्चार्य हविर्दानं च चक्रिरे। स्वाहायुक्तं च मन्त्रं च यो गृह्णाति प्रशस्तकम्।।३९।
अनुवाद - तभी से ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मंत्र के अंत में स्वहा शब्द जोड़कर मंत्रोच्चारण करके अग्नि में हवन करने लगे। और जो मनुष्य स्वाहा युक्त प्रशस्त मंत्र का उच्चारण करता है, उसे सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है।
शतचन्द्रानना धन्या और मान्या गोलोक की एक विदुषी गोपी है जो गोलोक के सोलहवें द्वार की सदैव रक्षा में तत्पर रहती है। गोपी शतचन्द्रानना को ब्रह्माण्ड विदुषी होने का परिचय उस समय मिलता है जब समस्त देवता भगवान नारायण के कहने पर पृथ्वी के भार को दूर करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण के परमधाम गोलोक को प्रस्थान करते हैं। किंतु जब देवता लोग गोलोक के सोलहवें द्वार पर पहुंचे तो वहां द्वार की रक्षा में नियुक्त गोपी शतचन्द्रानना उनसे कुछ प्रश्न पूछकर अंदर जाने से रोक देती हैं। तब देवताओं ने जो कुछ कहा उसका सारा वृत्तांत गर्गसंहिता के गोलोकखण्ड के अध्याय- (२) के प्रमुख श्लोकों में कुछ इस प्रकार मिलता है। तत्र कन्दर्पलावण्याः श्यामसुन्दरविग्रहाः। द्वरि गन्तुं चाभ्यदितान् न्यषेधन् कृष्णपार्षदाः।२०।
अनुवाद - वहाँ कामदेव के समान मनोहर रूप लावण्य शालिनी श्यामसुन्दर विग्रह श्रीकृष्ण पार्षदा (शतचन्द्रानना) द्वारपाल का कार्य करती थीं। देवताओं को द्वारा के भीतर जाने के लिए उद्यत देख उन्होंने मना किया।
"श्रीदेवा ऊचुः लोकपाला वयं सर्वे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। श्रीकृष्णदर्शनार्थाय शक्राद्या आगता इह॥२१॥ अनुवाद - देवता बोले- हम सभी ब्रह्मा" विष्णु शंकर नाम के लोकपाल और इन्द्र आदि देवता हैं भगवान श्री कृष्ण के दर्शनार्थ यहां आए हैं।
अनुवाद - २२-२३ देवताओं की बात सुनकर उन सखियों ने जो श्री कृष्ण की द्वारपालिकाऐं थी, श्रेष्ठ अन्तःपुर में जाकर देवताओं की बात कह सुनाई। तभी एक सखी जो शतचन्द्रानना नाम से विख्यात थी उनके वस्त्र पीले थे और जो हाथ में बेंत की छड़ी लिए थी, बाहर आयी और उन देवताओं से उनका अभीष्ट प्रयोजन पूछा।२२-२३।
अनुवाद - शतचन्द्रानना बोली - यहां पधारे हुए आप सब देवता कि ब्रह्माण्ड के अधिपति हैं, यह शीघ्र बताइये। तब मैं भगवान श्री कृष्ण को सूचित करने के लिए उनके पास जाऊँगी। २४
अनुवाद - तब देवताओं नें कहा - अहो ! यह तो बहुत आश्चर्य की बात है, क्या अन्यान्य ब्रह्माण्ड भी हैं ? हमनें तो उन्हें कभी नहीं देखा। शुभे ! हम तो यही जानते हैं कि एक ही ब्रह्माण्ड है, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं।२५।
नामग्रामं न जानीथ कदा नात्र समागताः। जडबुद्ध्या प्रहृष्यध्वे गृहान्नापि विनिर्गताः॥२७॥
ब्रह्माण्डमेकं जानन्ति यत्र जातास्तथा जनाः। मशका च यथान्तःस्था औदुंबरफलेषु वै॥२८॥
अनुवाद - २६-२८ तब शतचन्द्रानना उन देवताओं से बोलीं - ब्रह्मदेव! यहां (गोलोक) में करोड़ों ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें भी आप जैसे ही पृथक पृथक देवता वास करते हैं। अरे! क्या आप लोग अपना नाम गांव तक नहीं जानते ? जान पड़ता है की कभी यहां आए नहीं है, अपनी थोड़ी सी जानकारी में ही हर्ष से फूल उठे हैं। जान पड़ता है कभी घर से बाहर निकले ही नहीं। जैसे गूलर के फूलों में रहने वाले कीड़े जिस फल में रहते हैं,उसके सिवा दूसरे को नहीं जानते, उसी प्रकार आप जैसे साधारण जन जिसमें उत्पन्न होते हैं, एक मात्र उसी को ब्रह्मांड समझते हैं। २६-२८।
अनुवाद - २९- ३२ • इस प्रकार उपहास के पात्र बने हुए सब देवता चुपचाप खड़े रहे, कुछ बोल ना सके। तब उन्हें चकित से देखकर भगवान विष्णु ने शतचन्द्रानना से कहा- जिस ब्रह्मांड में भगवान पृश्निगर्भ का सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम (विराट रूपधारी वामन) के नख से ब्रह्माण्ड में विवर बन गया है वहीं हम निवास करते हैं।२९-३०। • तब भगवान विष्णु की यह बात सुनकर शतचन्द्रानना ने उनकी भूरि भूरि प्रशंसा की और स्वयं भीतर चली गयी फिर शीघ्र ही आयी और सबको अंतःपुर में पधारने की आज्ञा देकर वापस चली गयी। तदनन्तर संपूर्ण देवताओं ने परम सुन्दर धाम गोलोक का दर्शन किया। वहां गोवर्धन नामक गिरिराज शोभा पर रहे थे। २९-३२।
अतः उपरोक्त प्रसंग से सिद्ध होता है कि गोपी शतचन्द्रानना जैसी विदुषी की तुलना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में किसी अन्य से नही की जा सकती। क्योंकि इसकी विद्वता के सामने ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा समस्त देवताओं को लज्जित होना पड़ा।
इस तरह से देखा जाए तो गोप और गोपियां ही एकमात्र धर्मज्ञ ज्ञान से परिपूर्ण सारे कर्म-विधान और फल के नियामिका हैं। इनके ही माध्यम से ज्ञान की अविरल धारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होती है। और सारे धार्मिक कर्म- विधान इन्हीं के द्वारा सम्पन्न एवं फलित होते हैं, चाहे वह यज्ञ हो या पूजा पाठ में हवन इत्यादि ही क्यों न हो। और इन्हीं गोप- गोपियों को आधार मानकर ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के कर्मकाण्डी ब्राह्मण लोग ब्राह्मणत्व कर्म करते हैं। किंतु उनके सभी कर्मफलों व परिणामों में गोपों की ही भूमिका रहती है। इसीलिए गोपों को श्रेष्ठ व धर्मवत्सल जानकर ही गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड के अध्याय (60) के श्लोक -संख्या (40) में गोपों को पापों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है- य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरे:। मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।।४०। अनुवाद - जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं, तथा यादव गोपों की मुक्ति का वृतान्त पढ़ते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०। और ब्राह्मणत्व कर्म का सबसे बड़ा उदाहरण परमात्मा श्री कृष्ण हैं जिन्होंने कुरुक्षेत्र में विराट रूप धारण कर अर्जुन को ज्ञान का वह उपदेश दिया जो अखिल ब्रह्माण्ड में प्रसिद्ध है, इसे कौन नहीं जानता। भगवान श्री कृष्ण की गोप होने के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी अध्याय- ८ में दी गई है।
वैष्णव वर्ण के गोप जिन्हें यादव व अहीर भी कहा जाता है, वे सभी बिना वर्ण विभाजन के आध्यात्मिक व धार्मिक कर्तव्यों को स्वाभाविक रूप से पालन करते हैं। वैष्णव वर्ण के गोप ही अहीर और यादव हैं, इसका विस्तार पूर्वक वर्णन अध्याय- ९ में किया गया है वहाँ से इस विषय पर जानकारी ली जा सकती है। अब हमलोग गोपों के क्षत्रिय कर्म को जानेंगे की ये लोग ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के क्षत्रिय ना होते हुए भी कैसे क्षत्रिय धर्म को निभाते हुए समय-समय पृथ्वी के भार को भी दूर करते रहते हैं।
वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है। किन्तु ध्यान रहे- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के क्षत्रियों से इनका कोई संबंध नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्री कृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा भूमि-भार हरण के उद्देश्य से किया था। भगवान श्री कृष्ण सहित इस नारायणी सेना का प्रत्येक गोप- सैनिक, क्षत्रियोचित कर्म करते हुए बड़े से बड़े युद्धों में दैत्यों का वध करके भूमि के भार को दूर किया । गोपों को क्षत्रियोचित कर्म करने से ही उन्हें क्षत्रियों में माहाक्षत्रिय कहा जाता है।
इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म करने की वजह से ही अपने को क्षत्रिय कहा हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से।
इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिशाचों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-
अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूं। प्राकृतिक मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।
इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को क्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के जन्मजात क्षत्रियों से। और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के जन्मजात क्षत्रिय वर्ण में नही।
भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- ८ जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहाँ से इस विषय पर पाठकगण विस्तार से जानकारी ले सकते हैं।
भगवान श्री कृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भाँति नन्द बाबा की पुत्री योगमाया- विंध्यवासिनी( एकानंशा) को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि- निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा। विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।।२३।
अनुवाद- समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिया हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐकार एवं वषट्कार हो।
किंतु इस संबंध में ध्यान रहे कि योगमाया- विंध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण की।
क्योंकि योगमाया विन्ध्यवासिनी, गोप नन्द बाबा की एकलौती पुत्री हैं। कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के बनावटी जन्मजात क्षत्रिय। इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शस्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण हैं - दुर्गा, गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना।
अब यहां पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे सम्बन्धित सभी सेनाएं जैसे- "नारायणी सेना" अपराजिता एवं अजेया है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक और परलोक को जीतने की क्षमता हैं। क्योंकि सभी गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उन पर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात् देवता, गन्धर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक संख्या- (७) में भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि- ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:। जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।।७। अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।
इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेया एवं अपराजिता है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय भी कहा जाता है।
ब्रह्मा जी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म-व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप स्वतंत्र रूप से करते हैं। इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किंतु ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है। क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतंत्र हैं। अतः गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर शस्त्र भी उठाते हैं। इसके साथ ही गोप लोग कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं।
जिसमें ये गोप पशुपालन में मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है।
गोपालन एवं कृषि कार्य से गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का सम्बन्ध पूर्व काल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मंडल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में मिलता है- "ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।
इससे सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण सहित गोप वैश्य कर्म के अंतर्गत गोपालन करते थे जिसे आज भी परम्परागत रूप से पशुपालन व कृषिकार्य करते हैं। अर्थात् गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किंतु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-(६) के श्लोक-(२६) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि- कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:। क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।।२६।
अनुवाद- बाबा हम सब गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।२६।
इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी का हल और मूसल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
श्री कृष्ण के पिता वासुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने की पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कन्ध के अध्याय- (२०) के श्लोक-(६०) और (६१) से होती है-
अनुवाद- वहां पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी शूरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहां के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था।६०-६१।
इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अंतर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण भी नंद बाबा से बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि- बाबा हम सभी गोप किसान हैं।
देखा जाए तो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में चौथे पायदान पर शूद्र आते हैं, जिनका मुख्य कर्म सेवा करना निश्चित किया गया है। उससे हटकर शूद्र कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसा ही उन पर प्रतिबंध लगाया गया है। किंतु वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वैष्णव वर्ण के गोप, ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य इत्यादि कर्मों के साथ- साथ सेवा कर्म को भी नि:संकोच और बड़े गर्व के साथ बिना किसी प्रतिबंध के करते आए हैं। जिसमें गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का भी ऐसा ही कर्मगत स्वभाव देखने को मिलता है। क्योंकि पाप और अत्याचार को दूर करने के लिए और समाज सेवा के लिए ही प्रभु भूमि पर अवतरित होते हैं।
भगवान श्री कृष्ण को सेवा कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने की पुष्टि- युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से होती है, जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध (उत्तरार्द्ध ) के अध्याय-(७५) के श्लोक- (४-५)और (६) से होती है। जिसमें उस यज्ञ के बारे में लिखा गया है कि- भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्ष: सुयोधन:। सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने।।४। गुरुशुश्रूषणे जिष्णु: कृष्ण: पदावनेजन। परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामना:।।५। युयुधाननो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादय:। बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादय:।।६।
अनुवाद- भीमसेन भोजनालय की देखभाल करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे सहदेव अभ्यगतों के स्वागत सत्कार में नियुक्त थे। और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे। अर्जुन गुरुजनों की सेवा सुश्रुषा करते थे। और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, आए हुए अतिथियों के पाँव पखारने का काम करते थे। देवी द्रोपदी भोजन परोसने का काम करती थीं। और उदार शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे।४-५-६।
इन उपरोक्त श्लोक को यदि शुद्ध अंतरात्मा से विचार किया जाए, तो गोपेश्वर श्री कृष्ण ने समाज सेवा में वह कार्य किये जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के शूद्र किया करते हैं। जबकि भगवान श्री कृष्ण वैष्णव वर्ण के गोप रूप में पांव- पखार( धोकर) कर यह सिद्ध करते हैं कि- वैष्णव वर्ण के सदस्य ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व,वैश्य कर्म- के साथ-साथ शूद्र (समाज सेवा) का कर्म करने में भी स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं। जबकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से शूद्र- (सेवा) कर्म को निंदनीय माना गया है। ****** जबकि वैष्णव वर्ण में कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसमें वैष्णव जन निःसंकोच सभी कर्मों को बिना किसी प्रतिबंध के करने की आजादी होती है जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में ऐसी नहीं है।
इसीलिए वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक ग्रंथों में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। उनकी सभी प्रसंशाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके अगले अध्याय- (७) में किया गया है। उसे भी इसी अध्याय के साथ जोड़कर पढ़ें।
इस प्रकार से यह अध्याय-(६) वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
पौराणिक ग्रन्थों में वैष्णव वर्ण के गोपों अर्थात यादवों की समय-समय पर भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। जैसे- (१)- ब्रह्मा जी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा जी से होने को सुनिश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या- (१७) में कहते हैं कि- धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरञ्चय ते।।१७।
अनुवाद- तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों जैसा धर्मवत्सल, सदाचारी और धर्मज्ञ भूतल पर ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्मांड में कोई नहीं है।
(२)- गोपों (यादवों) की कुछ इसी तरह की प्रशंसा और विशेषताओं को कंस स्वयं करता है।यादवों को अपने दरबार में बुलाकर उनसे जो कुछ कहा उसका वर्णन- हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -(२२ के १२ से २५ ) तक के श्लोकों में मिलता है। जो इस प्रकार है -
अनुवाद - आप (यादव ) समस्त कर्तव्य कर्मों के ज्ञाता, वेदों के परिनिष्ठित विद्वान, न्यायोचित वार्ताव में कुशल, धर्म, अर्थ, और काम के प्रवर्तक, कर्तव्य पालक, जगत के लिए देवताओं के समान माननीय महान आचार्य विचार में दृढ़ता पूर्वक स्थिर रहने वाले और पर्वत के समान अविचल है। १२-१३। • आप सब लोग पाखंडपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मंत्राओं को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।
• आपके यशस्वी रूप प्रदीप संपूर्ण जगत में अपना प्रकाश फैला रहे हैं। आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ है। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म है, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके आप लोग पारंगत विद्वान है।१५।
• आप लोग उत्तम विधियों के वक्ता, नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक है।१६। • आपके सदाचार में कभी आंच नहीं आने पाई है। आप लोग श्रीसंपन्न हैं तथा श्रेष्ठ पुरुषों की चर्चा होते समय आप लोगों के नाम बारम्बार लिए जाते हैं। आप लोग चाहें तो स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ?।१७। • आपका (यादवों का ) आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रुद्रों के, और तेज अग्नि के समान है।१८। • यह महान यदुकुल जब अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो रहा था, उस समय विख्यात कीर्ति वाले आप जैसे वीरों ने ही इसे मर्यादा में स्थापित किया, ठीक उसी तरह से जैसे पर्वतों ने इस भूतल को दृढ़तापूर्वक धारण कर रखा है।१९।
उपरोक्त श्लोकों में देखा जाए तो यादवों के लिए पांच महत्वपूर्ण बातें निकल कर सामने आती है। वो हैं-
(१)- यादव - पाखण्डपूर्ण वृत्ति से सदैव दूर रहते थे और आज भी दूर रहते हैं। (२)- यादव - वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। तथा आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म है, उन्हें ये लोग भली- भाँति जानते हैं। और चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके ये लोग पारंगत विद्वान है। (३)- यादव - नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं। (४)- यादवों के दृढ़संकल्प की बात करें तो ये स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं, फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ? ये सभी विशेषताएं आज भी यादवों में देखने को मिलती है।
(५)- यादवों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनके आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रूद्रो के, और तेज अग्नि के समान होता है दूसरी बात यह कि- यादवों की इन्हीं विशेषताओं की वजह से जब कालयवन नें नारद जी से पूछा कि इस समय पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन हैं ? इसपर नारद जी विष्णुपुराण के पंचम अंश के अध्याय- २३ के श्लोक संख्या- ६ में नारद जी ने बताया हैं -
स तु वीर्यमदोन्मतः पृथिव्यां बलिनो नृपान्। अपच्छन्नारदस्तस्मै कथयामास यादवान्।।६।
अनुवाद - तदनन्तर वीर्यदोन्मत्त कालयवन ने नारद जी से पूछा कि पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन से हैं ? इस पर नारद जी ने उसे यादवों को ही सबसे अधिक बलशाली बताया।६।
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इसी तरह से गोपकुल की गोपियों के लिए गर्गसंहिता के गोलक खंड के अध्याय- १० के श्लोक संख्या-(८) में नारद जी कंस से कहते हैं कि -
"नन्दाद्या वसव: सर्वे वृषभान्वादय: सरा:।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च सन्ति भूमौ नृपेश्वर।।८।
अनुवाद - नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के अवतार हैं।
नृपेश्वर कंस ! इस "व्रजभूमि में जो गोपियां है, उनके रूप में वेदों की ऋचाएं यहां निवास करती हैं"।
अब इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि गोपियों की उपमा वेदों की ऋचाओं से की जाती है।
(४)- गोपियाँ कोई साधारण स्त्रियाँ नहीं थीं। तभी तो चातुर्वर्ण्य के नियामक व रचयिता ब्रह्मा जी- श्रीमद्भभागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय - (४७) के श्लोक (६१) में गोपियों की चरण धूलि को पाने के लिए तरह-तरह की कल्पना करते हुए मन में विचार करते हैं कि-
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथमं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।।६१।
अनुवाद - मेरे लिए तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृंदावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि बन जाऊं। अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊंगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओं (गोपियों ) की चरण धूलि निरंतर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी।
अब इन गोपकुल की गोपियों लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि ब्रह्मा जी भी इनके चरण धूलि को पाने के लिए झाड़ी और लता तक बन जाने की इच्छा करते हैं।
(५)- इसी तरह से गोपों के बारे में श्री राधा जी, गोपी रूप धारण किए भगवान श्री कृष्ण से- गर्गसंहिता के वृंदावन खंड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या -२२ में कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।
अनुवाद - ग्वाले सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गंगा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुंदर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
(६)- इसी तरह से परम ज्ञानयोगी उद्धव जी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय-(९४) के कुछ प्रमुख श्लोकों में गोपियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-
"धन्यं भारतवर्षं तु पुण्यदं शुभदं वरम् ।
गोपीपादाब्जरजसा पूतं परमनिर्मलम्। ७७।
ततोऽपि गोपिका धन्या सान्या योषित्सु भारते।
नित्यं पश्यन्ति राधायाः पादपद्मं सुपुण्यदम्। ७८।
अनुवाद - इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपीकाएं सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं, क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्री राधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती रहती हैं।७७-७८।
मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् । श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि।। ८५।।
न गोपीभ्यः परो भक्तो हरेश्च परमात्मनः। यादृशीं लेभिरेगोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।८६।।
अनुवाद - • इन्हीं राधिका के चरण -कमल की रज को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था।७९।
• गोलोक- वासिनी राधा जी, जो परा प्रकृति हैं। वहीं भगवान कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे गोलोक में श्रीदामा के शाप से आज-कल भूलोक में वृषभानु की पुत्री राधा के नाम से उपस्थित हैं। और जो-जो श्री कृष्ण के भक्त हैं, वे सभी राधा के भी भक्त हैं। ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की 16 (सोलहवीं) कला की भी समानता नहीं कर सकते। ८०-८१। • श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप से तो योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियाँं ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।
• इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया। यहां गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से मुझे अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई है, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। ८४।
पुनः इसके अगले श्लोक- (८५) और (८६) में उद्धव जी कहते हैं कि- "मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् । श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।।८५।।
न गोपिभ्यः परो भक्तों हरेश्च परमात्मनः। यादृशीं लेभिरे गोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।।८६।।
अनुवाद - • अब मैं मथुरा नहीं जाऊँगा, और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर (दास,सेवक) होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूँगा, क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है वैसी भक्ति दूसरों को प्राप्त नहीं हुई। ८५ - ८६। और यहीं कारण है कि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को गोप और गोपियों की पूजा करने का भी विधान किया गया है। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भेवीभागवत पुराण के नवम् स्कंध के अध्याय -३० के श्लोक संख्या - ८५ से ८९ से होती है जिसमें लिखा गया है कि - _______ "कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्। गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।।८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधाया सह। भारते पूजयेभ्दवत्या चोपचाराणि षोडश।।८६।
अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मंडल संबंधी उत्सव मनाकर शालिग्राम- शिला पर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्ति पूर्वक साधन सहित श्री कृष्ण की पूजा संपन्न करता है, वह ब्रह्मा जी के स्थिति पर्यंत गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्री कृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। फिर भगवान श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मंत्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्री कृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।८५-८९।
इस प्रकार से अध्याय- ७ का भाग (१) वैष्णव वर्ण के गोपकुल के गोप और गोपियों की पुराणों में की गई प्रसंशाओं और उनकी आध्यात्मिक महत्ताओं की जानकारी के साथ समाप्त हुआ। इसी क्रम में इसके अगले भाग- (दो) में बताया गया है कि भारतीय संस्कृति में गोपों का कितना योगदान रहा है।
भारतीय संस्कृति में गोपों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। क्योंकि समय-समय पर गोपों द्वारा कुछ न कुछ विशेष होता रहा है जिसकी छाप भारतीय संस्कृति में आज भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है जैसे -
गोपों के योगदान के कुछ स्थूल बिन्दुओं को निम्न शीर्षकों द्वारा दर्शाया गया है।
जीवन की भागदौड़ में एक विश्राम स्थल (पड़ाव) हैं उत्सव जहाँ जीवन की अनेक भाग- दौड़ों से थका हुआ व्यक्ति कुछ समय के लिए सब- कुछ भूलकर निश्चिन्त विश्राम करता है। वही उत्सव है और इस उत्सव का आवर्तन ( आलोडन) का नाम नृत्य है।
हल्लीसं और 'रास' नृत्य को जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि हल्लीसं क्या है ? और इसका मतलब क्या है ? और रास का क्या मतलब है? तभी हल्लीसं और 'रास' नृत्य को अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
हल्लीषम् शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो -
हल्लीषम् शब्द के मूल में निहित हल्- धातु का मूल अर्थ- खेत जोतना/ हल चलाना है।
हल वह यन्त्र है जिससे खेत की खुदाई ( जुताई) का कृषि कार्य किया जाए और ईषा- (हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठ) अथवा(लाङ्गलदण्ड) अर्थात् हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड है - ईषा
हल और ईषा इन दोनों शब्दों से मिलकर तद्धित शब्द बनता है- हल्लीषा- (हल्लीषक)।
एक कृषक जब खेत में हलचलाता था। तो अनेक स्त्रीयाँ उसके चारो ओर बीज बोने का काम करती थीं। ऐसी कृषि की परम्परा थी।
कृषि पशु पालकों की ही पुरातन देन है
हल और मूसल की खोज व आविष्कार द्वापरयुग में बलराम जी द्वारा खेतों की जुताई और फसलों की मड़ाई के लिए की गयी। हल और मूसल ये दोंनो युद्ध के समय शस्त्र के रूप में भी प्रयोग किए जाते थे।
बलराम इनको धारण करते थे इसलिए उनका एक नाम हलधर हुआ जो आज हलधर चित्र और नाम दोनों ही किसानों का प्रतीक है।
संकर्षण का हलधर विशेषण भी उनके कृषक होने का प्रमाण है। हलधर= "हलं धरति आयुधत्वं कृषिसाधनत्व वा धृ +अच् । बलराम, कृषक उदाहरण “उन्मूलिता हलधरेण पदावधतैः” उद्भटः ।
बलराम जी द्वारा हल और मूसल की खोज किए जाने के बाद उस युग में कृषि क्षेत्र में क्रान्ति आई। इसी लिए बलराम का दूसरा नाम मुसलिन्- भी था अमरकोश में इसका सन्दर्भ दिया गया है।
(मुसलं प्रहरणत्वेनास्यास्तीति -मुसल + इनिः ) बलदेवः- अमरकोश । १ । १ । २५।
सभी गोप किसान हल और मूसल को कृषि समृद्धि का देवता मानकर प्रमुख त्योहारों और उत्सवों पर भूमि पर रखकर उसके ईषा (दण्ड) के समानान्तर दृश्य में हाथ में मुसल दण्ड लेकर मण्डलाकार आकृति में नृत्य किया करते थे। तभी से इस विशेष नृत्य का नाम हल्लीष् हुआ। दाँडिया इसीका देशी रूपान्तरण है।
यदि ग्रीक (यूनानी) शब्द (hallucination) पर विचार किया जाए तो यह शब्द भ्रम की स्थिति का सूचक है। सम्भवत: हल्लीषं का विकास मायानृत्य के रूप में हुआ हो।
परन्तु इस नृत्य में सभी भाव समाहित हैं इसे किसी एक रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है। यह पूर्ण नृत्य है।
_____________
इस प्रकार के हल्लीषं नृत्य की पुष्टि हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व /अध्याय- 89/ श्लोक- (68) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी। नरदेव पार्थ ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्वारा हल्लीसक नृत्य का आयोजन किया।६८।
उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि हल्लीसक अहीरों का सांस्कृतिक नृत्य है। जिसके जनक श्रीकृष्ण और संकर्षण हैं।
इसके अतिरिक्त गोप किसान शादी-विवाह के शुभ अवसरों पर हल, मूसल और ओखली ( उलूखल) को मण्डप में रखकर शुभ कार्य को सम्पन्न करते थे तथा विशेष आगन्तुकों के आने पर अन्न, दही और मूसल से परीक्षण करके स्वागत करते थे। जो आज भी भारतीय संस्कृति में देखी जाती है। व्रज में गोपियाँ होली के अवसर पर आगन्तुक गोपों का मुसल अथवा दण्ड से स्वागत करती हैं यह उसी परम्परा के अवशेष मात्र हैं। यह सब गोपों की ही देन है।
_______
हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य में कोई विशेष अन्तर नहीं है। देखा जाए तो हल्लीसं शरीर है तो रास उसकी आत्मा है। हल्लीसं कला है तो रास प्रभु की लीला है। अर्थात् जब गोप और गोपियां श्रीकृष्ण को केंद्र बिन्दु मानकर हल्लीसं नृत्य करते-करते श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम विभोर होकर परम रस में निमग्न हो आनन्द लेने लगते थे तब वहीं हल्लीसं नृत्य रास रूप में बदल जाता था। कुल मिलाकर "हल्लीसं" रास का प्राथमिक स्तर है तथा उसका विस्तार "रास" है जहां पर केवल परमानन्द की अनुभूति ही शेष रहती है।
हल्लीषं नृत्य में गोप और गोपियां कृष्ण को केंद्र बिंदु मानकर उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति में वृत्ताकार नर्तन करती हुई परमानन्द की अनुभूति करतीं थीं।
इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः रास' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ। _______________________________
गोपेश्वर श्रीकृष्ण इस तरह की रास लीला अपने गोप-गोपियों के साथ गोलोक और भूलोक दोनों स्थानों पर प्राय: (अक्सर) किया करते हैं। किन्तु दुर्भाग्य है कि रास के इस गूढ़ रहस्य को लोग कालान्तर विस्मृत कर गये या भूल गये वे आज रास को केवल भौतिक दृष्टि से देखते हैं । जबकि इसे आध्यात्मिक दृष्टि से ही देखना चाहिए।
अत: शुद्ध अन्त:करण वाला साधक ही रास के तत्व को राधा जी की कृपा कटाक्ष से ही जान सकता है।
ज्ञात हो - श्रीकृष्ण रास क्रीड़ा का आयोजन अधिकांशतः मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को या कार्तिकी पूर्णिमा की आधी रात के समय को ही किया करते थे।
अनुवाद- महीनों में मैं मार्गशीर्ष(अग्रहायन- अगहन) और ऋतुओं ें वसन्त हूँ।
पुराणों में वर्णन है कि सृष्टि का आरम्भ इसी मास में हुआ। वर्ष का यही प्रथम मास है ।
अग्र = प्रथम + हायन = वर्ष ( संवत्सर ) अर्थात् परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोलोक में ही सृष्टि के प्रारम्भ काल में रास नृत्य किया था।
महाभारत-कालमें नव -वर्ष मार्गशीर्षसे ही आरम्भ होता था। इन विशेषताओंके कारण भगवान्ने मार्गशीर्ष को अपनी विभूति बताया है।
इस लिए इन दोनों मासिक समयों में की जमाने वाली रास लीला को ही मोक्षदायिनी माना गया है।
"कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्। गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं
कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मण्डल सम्बन्धी उत्सव मनाकर भगवान श्रीकृष्ण आध्यात्मिक आनन्द की रसानुभूति किया करते थे। यह परम्परा गोपों की चिर पुरातन परम्परा है।
इसके अतिरिक्त इसी बात की समान पुष्टि श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक - ८५ से ८९ से भी होती है।
जिसमें कार्तिक पूर्णिमा की रास लीला को मोक्षदायिनी बताया गया है -
ब्रह्मवैवर्त पुराण और देवी भागवत पुराण में एक समान श्लोक इस बात को दृढ़ता से पुष्ट करते हैं। कि रास की आध्यात्मिक महिमा है। देवी भागवत पुराण में समता-मूलक श्लोक निम्न प्रकार से हैं।
_____
कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥८६।
गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्दृढाम्॥८७।
क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो ।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥८८।
ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥८९।
अनुवाद- (८५-८९)
जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियोंको साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है। तथा पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। तव वह भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है।८५-८९।
अतः उपरोक्त सन्दर्भों से ज्ञात होता है कि हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य गोपों की संस्कृति रही है। जिसकी छाप आज भी आध्यात्म से लेकर भौतिक जगत पर साधारण जनमानस तक देखी जाती है।
रास हल्लीषम नृत्य का आध्यात्मिक पक्ष है। गोलोक में रास अपने शुद्ध आध्यात्मिक रूप में होता है। और भूलोक में हल्लीषं रूप में चरितार्थ होता है।
कृष्ण ने हल्लीषं नृत्य आयोजन एक बार नारद के समक्ष प्रस्तुत किया था।
हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व /अध्याय- 89/ श्लोक-68 श्री कृष्ण और संकृष्ण (संकर्षण) दोनों ही महापुरुष अपने युग के महान कृषि पद्धति के जन्मदाता तो थे ही। कृष्ण और संकृष्ण दोनों महामानव संगीत विद्या के भी अच्छे विशारद थे। उन्होंने संगीत और अन्य ललित कलाओं में महारत हासिल की और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार भी किया था।
उस समय संगीत में स्वरों के स्वरग्राम (सरगम) के सन्धान के लिए वंशी नामक सुषिर वाद्य- का बाँस के वृक्ष से निर्माण करके कृष्ण ने स्वरों को नयी दिशा दी।
कृष्ण ने संगीत को सृष्टि की आदि-विद्या और कला दोनों रूपों में मानकर आभीर जाति के नाम पर राग आभीर भी सर्जन किया । राग आभीर का प्रचलन प्राचीन काल से है।
सम्भवत: फारसी भाषा में प्रचलित शब्द सूराख जो ( छिद्र) का वाचक है। जो वैदिक सुषिर शब्द का ही तद्भव है।
वेदों में ऋग्वेद के प्राचीन होने पर भी संगीत के वेद साम-वेद को ही कृष्ण ने अपनी विभूति माना और उद्घोष किया। "वेदानां सामवेदोऽस्मि (१०/२२। श्रीमद्भगवद्गीता-)
अनुवाद:-मैं वेदो में सामवेद हूँ।
वास्तव में रास का प्रारम्भिक रूप हल्लीषक नृत्य है। हल्लीषक - नृत्य का आधार हल और ईषा-(ईसा) की आकृति पर आधारित है। हल्लीषम्- ईषा-(ईसा) की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही है।
"
कृष्ण का जन्म गोप - आभीर जाति में हुआ था जो सनातन काल से गोपालक रही है। गो चारण काल में इन गोपों की आवश्यकता ने पशुओं के चारे घास आदि के लिए और स्वयं गोपालको के अपने भोजन के लिए भी कृषि विधि को जन्म दिया । अत: ग्राम संस्कृति के जनक और स्वरग्राम= (सरगम) के जनक भी आभीर गोपालक हैं।
हल्लीसक- शब्द पुराणों में विशेषत: हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय (89) में अहीरों के सांस्कृतिक नृत्य के रूप में वर्णित हुआ है।
हल्लीषम् शब्द के मूल में निहित हल धातु का मूल अर्थ- हल -विलेखे भ्वादिगणीय परस्मैपदीय सकर्म सेट् धातु से -हलति अहालीत् आदि क्रिया रूप में दृष्टिगोचर होता है।
इन गोपों कि हल्लीषम् नृत्य (हल्लीश, हल्लीष)= नाट्यशास्त्र में वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के रूप में मान्य है। विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं जिसे मण्डल बाँधकर जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।
साहित्यदर्पण (।६। ५५५।) में इसका लक्षण निम्न प्रकार से है। “हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः। वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः। मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः॥
विशेष—पौराणिक परम्परा इस क्रीड़ा का आरम्भ कृष्ण द्वारा कभी मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को तो कभी कार्तिकी पूर्णिमा को आधी रात के समय को मानती है।
तब से गोप लोग यह क्रीड़ा करने लगे थे। पीछे से इस क्रीड़ा के साथ कई प्रकार के पूजन आदि धार्मिक अनुष्ठान जुड़ गए और यह मोक्षप्रद मानी जाने लगी। इस अर्थ में यह शब्द प्रायः स्त्रीलिंग बोला जाता है। जैसे हल्लीषा-
इसमें लास्य नृत्य ( स्त्री नृत्य) की प्रधानता ही होती है इसी लिए इसे रास्य( लास्य) भी कहा जने लगा।
भारतीय संस्कृति में प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति होती थी। कृष्ण की रासलीला इसका प्रतीक है। भक्तिकाव्य में रासलीला शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। दरअसल रास एक कलाविधा है। प्रेम और आनंद की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण की उदात्त प्रेमलीलाओं का भावाभिनय ही रासलीला कहलाता है।
मूलतः यह एक नृत्य है जिसमें कृष्ण को केंद्र में रख गोपियां उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति में वृत्ताकार नर्तन करती हैं।
अष्टछाप के भक्तकवियों नें प्रेमाभिव्यक्ति करने वाले अनेक रासगीतों की रचना की है। रास में आध्यात्मिकता भी है जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति अनुराग व्यक्त होता है। वे वृत्ताकार मण्डल में प्रेमाभिव्यक्ति करती हैं। जिसे भविष्य-पुराणकार ने "हल्लीषम्" अवश्य कहा-
रासक्रीड़ायाञ्च तल्लक्षणं यथा “पृथुं सुवृत्तं मसृणं वितस्तिमात्रोन्नतं कौ विनिखन्य शङ्कुकम् । आक्रम्य पद्भ्यामितरेतरन्तु हस्तैर्भ्रमोऽयं खलु रासगोष्ठी” (हरिवंश पुराण टीका नीलकण्ठः शास्त्री) "संस्कृत में हल्लीषम् शब्द अर्थ का विश्लेषण- एक विद्वान डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल का मत है "कि हल्लीसं शब्द यूनानी इलिशियन- नृत्यों ( इलीशियन मिस्ट्री डांस) से विकसित है। इसका विकास ईस्वी सन् के आसपास माना जाता है। सन्दर्भ- हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन-पृष्ठ संख्या (33)-
वास्तव में हल्लीषम् और इलिशियन दोनों शब्द पृथक पृथक है। विशेषण को तौर पर एलिसियनशब्द एक आनंदमय स्थिति का वर्णन करता है, जैसा कि अधिकांश लोग स्वर् पर आनंद लेने की उम्मीद करते हैं। एलीसियन शब्द एलीसियन फील्ड्स नामक रमणीय यूनानी पौराणिक स्थान से आया है। हालाँकि अब इस शब्द को अक्सर स्वर्ग के साथ समझा जाता है, ग्रीक एलीसियन फील्ड्स वास्तव में मृत्यु के बाद के जीवन में जाने के लिए एक स्वर्गीय विश्राम स्थल का नाम था। संभवतः इस अवधारणा की कल्पना मूल रूप से युद्ध के दौरान सैनिकों में वीरता को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी। आजकल, लोग किसी भी स्वर्गीय दृश्य का वर्णन करने के लिए एलिसियन का उपयोग करते हैं - एलीसियम - 1590 के दशक, लैटिन एलीसियम से, ग्रीक एलीसियन (पेडियन) से "एलिसियन क्षेत्र", मृत्यु के बाद धन्य लोगों का निवास, जहां नायक और गुणी निवास करते हैं, जो अज्ञात मूल का है, शायद प्री-ग्रीक (एक गैर-आईई सब्सट्रेट भूमध्यसागरीय भाषा) से ). इसका उपयोग पूर्ण प्रसन्नता की स्थिति के लाक्षणिक रूप में भी किया जाता है। दूसरा लैटिन शब्द इल्युशन भी है
पुरानी फ्रांसीसी भाष से , लैटिन (illuso) से और (illūdere) से क्रियाओं विकसित शब्द - , में (in- में " ) + lūdere -"खेलने के लिए क्रीड़ा करना खेलना ") आदि रूपों से सम्बन्धित है। यह क्रिया, लैटिन के साथ (ludus)"एक खेल, खेलो, ये सम्बन्धित है।" PIE-( proto- indo- europian) (आद्य भारोपीय) रूट -*leid-या*loid- से सम्बंधित है जिसका अर्थ है "खेलना," मृगतृष्णा
लैटिन (illusio) से ही फ्रांसीसी में विकसित (illusion) भ्रम का वाचक है। इस इल्युशन शब्द के मोह माया जादू आदि अन्य अर्थ भी प्रचलित हैं। देखा जाय तो संस्कृत में भी १-लड्= विलास करना /क्रीडा करना २-लड= उपसेवायाम् ३-लड= विकाशे आदि अर्थों की वाचक धातु धातुपाठ में लिखित है। लल= ईप्सायाम् - लालयते कुं लालयते-कुलालः भ्वादौ लड- विलासे (1250) लडति 155।
जिससे लाड- लाडो, ललन, लीला ,जैसे शब्द विकसित हुए है। लास्य रूप में प्रचलित रास का ही मूल रूप है।
इसका विकास संस्कृत धातु -लस= श्लेषण,क्रीडनयोः (लसतीत्यादि विलासी) "वौ कषलस''इति तच्छीलादौ घिनुण् न लसः, (अलसः, आलस्यम्) लस= शिल्पयोगे च। अत्र स्वामी शिल्पोपयोगइति पठित्त्वा केचिन्मूर्धन्यान्तं पठन्तीत्याह ( लासयति ) श्लेषणक्रीडनयोर्लसतीति शपि ।193।। _________ मध्यकाल में इसमें जो आध्यात्मिकता थी वह धीरे धीरे गायब होती गई और विशुद्ध मनोरंजन शैलियों वाली गिरावट इस भक्ति और अध्यात्म को अभिव्यक्त करनेवाली विशिष्ट विधा में भी समा गई। वैसे आज भी बृज की रास मण्डलियां प्रसिद्ध हैं। कथक से भी रास को जोड़ा जाता है किन्तु कथक की पहचान जहाँ एकल प्रस्तुति में मुखर होती है वहीं रास सामूहिक प्रस्तुति है।
अलबत्ता रास शैली का प्रयोग कथक और मणिपुरी जैसी शास्त्रीय नृत्यशैलियों में हुआ है। इसके अलावा गुजरात का जग प्रसिद्ध नृत्य रास के नाम से ही जाना जाता है। रास का मुहावरेदार प्रयोग भी बोलचाल की भाषा में खूब होता है। रास रचाना यानी स्त्री-पुरुष में आपसी मेल-जोल बढ़ना। रास-रंग यानी ऐश्वर्य और आमोद-प्रमोद में लीन रहना।
रास शब्द रास् धातु से भी सम्बन्धित किया गया है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है।
एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे।
इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है। कुछ कोशों में इसका अर्थ हास्यनाटक भी कहा गया है। दरअसल रासलीला जब कला विधा में विकसित हो गई तो वह सिर्फ नृत्य न रहकर नृत्यनाटिका के रूप में सामने आयी। नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है।
रासलीला में हंसोड़ पात्र ( विदूषक) भी आते हैं जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं। इसलिए रासकम् को सिर्फ हास्यनाटक कहना उचित नहीं है। मूलतः रास् से बने रासकम् का ही रूप मध्यकालीन साहित्य की एक विधा रासक के रूप में सामने आया। रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं।
विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है। र और ल एक ही वर्णक्रम में आते हैं। लास्य का ही प्राकृत रूप रास्स होता है।
कतिपय विद्वानों का मानना है कि श्रीकृष्ण के समय रास शब्द प्रचलित नहीं था। वे नृत्य की परिपाटी और श्रीकृष्ण के कलाप्रेम को खारिज नहीं करते हैं। कृष्णचरित से कलाओं को अलग किया ही नहीं जा सकता। मुरलीमनोहर और गोप-गोपियों के मेल ने भारतीय संस्कृति को विविध कलाएं दी हैं। गुप्तकालीन रचना रास पंचाध्यायी से मण्डलाकार नृत्य के लिए रास शब्द का प्रचलन बढ़ा है। निश्चित ही रास ब्रज क्षेत्र का पारम्परिक लोकनृत्य रहा है। कृष्ण चरित से इस शब्द के जुड़ा होने के पीछे की भ्रम की गुंजाइश नहीं है। पण्डा शब्द का सन्दर्भ पोथी-जन्त्री तक ही सीमित है। इस वर्ग का नृत्य या कलाकर्म में कोई दखल नहीं था इसलिए रास शब्द से इन्हें जोड़ना भी ठीक नहीं।
संलापकं श्रीगदितं शिल्पकं च विलासिका । दुर्मल्लिका प्रकरणी हल्लीशो भाणिकेति च ।। (सूत्र ६.५ ।। साहित्य दर्पण-)
हल्लीशक महाभारत में वर्णित एक नृत्यशैली है। इसका एकमात्र विस्तृत वर्णन महाभारत के खिल्ल भाग हरिवंश (विष्णु पर्व, अध्याय- 20) में मिलता है। विद्वानों ने इसे रास का पूर्वज माना है साथ ही रासक्रीड़ा का पर्याय भी। आचार्य नीलकंठ ने टीका करते हुए लिखा है - हल्लीषं क्रीडनंएकस्य पुँसो बहुभि: स्त्रीभि: क्रीडनं सैव रासक्रीडा।। (हरिवंश-. 2.20.36) 'हल्लीशक' का शाब्दिक अर्थ है - 'हल का ईषा- हत्था'।
यह नृत्य स्त्रियों का है जिसमें एक ही पुरुष श्रीकृष्ण होता है। यह दो दो गोपिकाओं द्वारा मंडलाकार बना तथा श्रीकृष्ण को मध्य में रख संपादित किया जाता है। हरिवंश के अनुसार श्रीकृष्ण वंशी, अर्जुन मृदंग, तथा अन्य अप्सराएँ अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बजाते हैं।
इसमें अभिनय के लिए रंभा, हेमा, मिश्रकेशी, तिलोत्तमा, मेनका, आदि अप्सराएँ प्रस्तुत होती हैं। सामूहिक नृत्य, सहगान आदि से मंडित यह कोमल नृत्य श्रीकृष्णलीलाओं के गान से पूर्णता पाता है। इसका वर्णन अन्य किसी पुराण में नहीं आता। भासकृत बालचरित् में हल्लीशक का उल्लेख है। अन्यत्र संकेत नहीं मिलता।
शूरसेन या मथुरा मण्डल जिसमें श्रीकृष्ण के लीला स्थल विशेष रुप से सम्मिलित है, भक्तिकाल में व्रज प्रदेश के रुप में प्रसिद्ध हुआ। पुराणकाल में यह क्षेत्र मथुरा मण्डल तथा विभिन्न ग्रंथों में शूरसेन जनपद के रुप में विख्यात रहा था। वर्तमान ब्रज क्षेत्र पर यदि ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए तो यह क्षेत्र भी कभी एक सुरम्य वन प्रदेश था, जहाँ प्रमुख रुप से आभीर निवास करते थे। मथुरा राज्य के आदि संस्थापक मधु ने हरिवंश पुराण में स्वयं कहा है कि मेरे राज्य में चारों ओर आभीरों की बस्ती है।
इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि आभीर जाति देव संस्कृति के अनुयायियों से इतर थी और उनकी संस्कृति बहुत समृद्ध थी तथा देव संस्कृति से उसमें काफी असमानता थी। आभीरों में स्त्री-स्वातंत्र्य देवसंसकृति की अपेक्षा अधिक था, वे नृत्य-गान में परम प्रवीण और केशो की दो वेणी धारण करने वाली थीं। 'हल्लीश' या 'हल्लीसक नृत्य' इन आभीरों की सामाजिक नृत्य परम्परा थी, जिसमें आभीर नारियाँ अपनी रुचि के किसी भी गोप पुरुष के साथ समूह बनाकर मंडलाकार नाचती थीं। हरिवंश पुराण के हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय में उल्लेख है- कृष्ण की इंद्र पर विजय के उपरांत आभीर रमणियों ने उनके साथ नृत्य करने का प्रस्ताव किया। भाई या पति व अन्य आभीरों के रोकने पर भी वे नहीं रुकीं और कृष्ण को खोजने लगीं-
उरणवशी( उर्वशी) भी आभीर कन्या थी जिसे पुराणों में अप्सराओं की स्वामिनी पद पर प्रतिष्ठित किया गया। वह समस्त गायन, वादन और नृत्य की कलाओं पारंगत थी।
उर्वशी का पूर्वनाम उरणवशी था - क्यों कि वह उरणों ( भेड़ो) पालती और प्रेम करती थी।
वंशीध्वनि सुनकर जो गोपियाँ दूध दुह रही थीं, वे अत्यन्त उत्सुकतावश दूध दुहना छोडक़र चल पड़ीं। जो चूल्हे पर दूध औंटा रही थीं वे उफनता हुआ दूध छोडक़र और जो लपसी पका रही थीं वे पकी हुई लपसी बिना उतारे ही ज्यों-की-त्यों छोडक़र चल दीं ॥ ५ ॥
जो भोजन परस रही थीं वे परसना छोडक़र, जो छोटे-छोटे बच्चों को दूध पिला रही थीं वे दूध पिलाना छोडक़र, जो पतियों की सेवा-शुश्रूषा कर रही थीं वे सेवा-शुश्रूषा छोडक़र और जो स्वयं भोजन कर रही थीं वे भोजन करना छोडक़र अपने कृष्णप्यारे के पास चल पड़ीं ॥ ६ ॥
कोई-कोई गोपी अपने शरीरमें अङ्गराग, चन्दन और उबटन लगा रही थीं और कुछ आँखोंमें अंजन लगा रही थीं। वे उन्हें छोडक़र तथा उलटे-पलटे वस्त्र धारणकर श्रीकृष्णके पास पहुँचनेके लिये चल पड़ीं ॥७॥
पिता और पतियों ने, भाई और जाति-बन्धुओं ने उन्हें रोका, उनकी मङ्गलमयी प्रेमयात्रा में विघ्र डाला। परन्तु वे इतनी मोहित हो गयी थीं कि रोकने पर भी न रुकीं, न रुक सकीं। रुकतीं कैसे ? विश्वविमोहन श्रीकृष्णने उनके प्राण, मन और आत्मा सब कुछका अपहरण जो कर लिया था॥ ८ ॥
परीक्षित् ! उस समय कुछ गोपियाँ घरोंके भीतर थीं। उन्हें बाहर निकलनेका मार्ग ही न मिला। तब उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिये और बड़ी तन्मयता से श्रीकृष्णके सौन्दर्य, माधुर्य और लीलाओं का ध्यान करने लगीं ॥ ९ ॥
परीक्षित् ! अपने परम प्रियतम श्रीकृष्णके असह्य विरहकी तीव्र वेदनासे उनके हृदयमें इतनी व्यथा—इतनी जलन हुई कि उनमें जो कुछ अशुभ संस्कारोंका लेशमात्र अवशेष था, वह भस्म हो गया। इसके बाद तुरंत ही ध्यान लग गया। ध्यानमें उनके सामने भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हुए। उन्होंने मन-ही-मन बड़े प्रेमसे, बड़े आवेग से उनका आलिङ्गन किया। उस समय उन्हें इतना सुख, इतनी शान्ति मिली कि उनके सब-के-सब पुण्यके संस्कार एक साथ ही क्षीण हो गये ॥१०॥
परीक्षित् ! यद्यपि उनका उस समय श्रीकृष्णके प्रति जारभाव भी था; तथापि कहीं सत्य वस्तु भी भावकी अपेक्षा रखती है ? उन्होंने जिनका आलिङ्गन किया, चाहे किसी भी भावसे किया हो, वे स्वयं परमात्मा ही तो थे। इसलिये उन्होंने पाप और पुण्यरूप कर्मके परिणामसे बने हुए गुणमय शरीरका परित्याग कर दिया। (भगवान् की लीलामें सम्मिलित होनेके योग्य दिव्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया।) इस शरीरसे भोगे जानेवाले कर्मबन्धन तो ध्यानके समय ही छिन्न-भिन्न हो चुके थे ॥ ११ ॥
आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मण्डलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था। नृत्य का स्वरुप स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्र की टीका में अभिनव गुप्त ने कहा है-
"मण्डले च यत स्त्रीणां, नृत्यं हल्लीसकंतु तत्। नेता तत्र भवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।।
इसी नृत्य को श्री कृष्ण ने अपनी कला से सजाया तब वह रास के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण 'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं। द्वारका के राज दरबार में प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त द्वारका आकर उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रुप से जोड़ा व इसे स्री-समाज को सिखाया और देश देशान्तरों में इसे लोकप्रिय बनाया। सारंगदेव ने अपने 'संगीत-रत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। वह लिखते है-
"पार्वतीत्वनु शास्रिस्म, लास्यं वाणात्मामुवाम्। तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।७। तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:। एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्।८।
इस प्रकार रास की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली। जैन धर्म में रास का विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा, क्योंकि जैनियों के (२३)वे तीर्थकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही आभीर यदुवंशी थे। उन्हें प्रसन्न करने के लिए रास किया जा सकता है आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था परन्तु कामुकता नही थी । व्रज रास भारत के प्राचीनतम नृत्यों में अग्रगण्य है। अत: भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्र में रास को रासक नाम से उप-रुपकों में रखकर इसके तीन रुपों का उल्लेख किया है- १- मण्डल रासक, २-ताल रासक,३- दण्डक रासक या लकुट रासक। देश में आज जितने भी नृत्य रुप विद्यमान हैं, उन पर रास का प्रभाव किसी-न-किसी रुप में पड़ा है। गुजरात का 'गरबा', राजस्थान का 'डांडिया' आदि नृत्य, मणिपुर का रास-नृत्य तथा संत ज्ञानदेव के द्वारा स्थापित 'अंकिया नाट' तो पूरी तरह रास से ही प्रभावित नृत्य व नाट्य रुप है।
यह हल्लीसक एक प्रकार का वादन – गान के साथ लोकनृत्य था । यही रास का प्रारम्भिक रूप था । जिस प्रकार नागरिक शास्त्र राजनीति शास्त्र की शैशवावस्था है। हल्लीषम् रास की शैशवावस्था है।
यह नृत्य छालिक्य एक समूह गीत था , जिसके अन्तर्गत विभिन्न वाद्यों का वादन एवं नृत्य होता था । विष्णु पर्व के अनुसार इसको विभिन्न ग्रामरागों के अन्तर्गत विविध स्थान तथा मूर्च्छनाओं के साथ गाया जाता था । यह गायन शैली अत्यन्त कठिन थी ।
"आधुनिक विद्वानों का मत हैं, 'रास' शब्द कृष्ण-काल में प्रचलित नहीं था ; उसका प्रचलन बहुत बाद में हुआ। 'रास' शब्द के सर्वाधिक प्रचार का श्रेय श्रीमद्भागवत की 'रास-पंचाध्यायी' को है, जिसकी रचना गुप्त काल से पहिले की नहीं मानी जाती है।
______ कुछ विद्वान 'रास' का पूर्व रूप 'हल्लीसक' मानते है। 'रास' और 'हल्लीसक' पृथक्-पृथक् परंपराएँ थी। जो बाद में एक-दूसरे से संबंद्ध हो गई थीं। इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य-नाट्य का आरंभिक नाम 'हल्लीसक' था। उसके लिए सदा से 'रास' शब्द ही लोक में प्रचलित नहीं रहा है। ऐसा ज्ञात होता है 'रास' की पहिले मौखिक परंपरा थी, जो प्रचुर काल तक विद्यमान रही थी। उसी मौखिक और लोक प्रचलित शब्द को 'भागवत' कार ने साहित्य में अमर-कर दिया था।
३-नृत्यनाट्य का महान ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र' ४-नाट्य मण्डप श्रीकृष्ण द्वारा प्रचलित तथाकथित 'रास' आरंभ में व्रज का एक लोक-नृत्य अथवा लोक नृत्य-नाट्य था, जो पुरातन ब्रजवासियों के मनोविनोद का साधन था। जब कृष्णोपासना का प्रचार हुआ, तब 'रास' को भी धार्मिक महत्व प्राप्त हो गया था। उस समय लोक के साथ धर्म के क्षेत्र में भी रास का प्रवेश हो गया था। कृष्णोपासक भागवत भक्तो
ने 'रास' के धार्मिक महत्व को स्वीकार किया था, और श्रीमद्भागवत ने उसके गौरव को बढ़ाया था। प्राचीन "व्रज में बुद्ध एवं महावीर द्वारा प्रवर्तित बौद्ध तथा जैन धर्मो का प्रचार हुआ, तब भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मों का प्रभाव कुछ कम हो गया था। फलत: कृष्णोपासना तथा 'रास' के धार्मिक महत्व में भी कमी आ गई थी। उसका एक बड़ा कारण यह था कि बौद्ध और जैन धर्म वैराग्य एंव निवृत्ति प्रधान थे; जिनकी धार्मिक मान्यता में एवं 'रास' के लिए कोई समुचित स्थान नहीं था।
यद्यपि कृष्ण के समत्व योग उच्यते सिद्धान्त से प्रभावित होकर बुद्ध ने मध्यम मार्ग की स्थापना की थी।
समत्वं योग उच्यते' का अर्थ है, हर परिस्थिति में समान रहना ही योग है. यह वाक्यांश भगवद गीता के दूसरे अध्याय के 48वें श्लोक में है. इस श्लोक में भगवान कृष्ण अर्जुन को योग के अभ्यास में समभाव के महत्व के बारे में बता रहे हैं.इस श्लोक का मतलब है कि:
हे धनञ्जय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।
सफलता और असफलता में समभाव रखना चाहिए.
सफलता मिलने पर प्रसन्नता और असफलता मिलने पर नैराश्य का भाव नहीं होना चाहिए.
योग करने से जीवन में ज़्यादा योग्य बनने की क्षमता आती है.
योग करने से मानसिक और बौद्धिक स्तर पर मानव सशक्त, शांत और ओजस्वी बनता है. इस श्लोक को योग की परिभाषा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है.
___ बौद्ध-जैन धर्मों को कुछ समय पश्चात ही अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना पड़ा था। तब उनके द्वारा नृत्य-नाट्य के धार्मिक स्वरूप को प्रश्रय प्रदान किया गया। उस परिवर्तन का प्रभाव प्राचीन ब्रज में दिखलाई देने लगा था। फलत: पौराणिक हिंदू धर्मों के मंदिर-देवालयों की भाँति बौद्ध-जैन धर्मो के उपासनालयों एवं पूजा-गृहों में भी नृत्य-नाट्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। इसका प्रमाण तत्कालीन साहित्यिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक उल्लेखों और स्थापत्य की कलाकृतियों में मिलता है।जहाँ तक 'रास' का संबंध हैं, उसकी स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ कलाकृतियों में उसके रूप का आभास होता है। यह नृत्य अहीरों में पहले से रहा है। उर्वशी का नाम एक खूबसूरत नर्तकी के रूप में लिया जाता था और उस युग में नर्तकियों को अप्सरा कहा जाता था।
अप्सरा= अपस्= कला सम्पादन करना + सरा= नृत्य करनेवाली( कलात्मक नृत्य करने वाली)
गन्धर्व - जो गायन विद्या में पारंगत थे। इन अप्सराओं के सहयात्री थे। ऋग्वेद में गन्धवों के विषय में कहा गया
सिद्व, पूर्ण, वर्हि, महायशस्वी पूर्णायु, ब्रह्मचारी, रतिगुण, सातवें सुपर्ण, आठवें विश्वावसु, नवे भानु ओर दसवें सुचन्द्र- ये दस देव-गन्धर्व भी प्राधा के ही पुत्र बताये गये हैं। इनके सिवा महाभाग देवी प्राधा ने पहले देवर्षि ( कश्यप) के समागम से इन प्रसिद्व अप्सराओं के शुभ लक्षण वाले समुदाय को उत्पन्न किया था। उनके नाम ये हैं- अलम्बुषा, मिश्रकेशी, विद्युत्पर्णा, तिलोत्तमा, अरूण, रक्षिता, रम्भा, मनोरमा, केशिनी, सुबाहू, सुरता, सुरजा और सुप्रिया। अतिवाहु, सुप्रसिद्व हाहा ओर हूहू तथा तुम्बुरू- ये चार श्रेष्ठ गन्धर्व भी प्राधा के ही पुत्र माने गये हैं।
"हल्लिशम नृत्य और आभीर राग अहीरों की मौलिक संगीत सर्जना का प्रमाण है।
भगवान कृष्ण का जन्म व बाल्यकाल आभीर जाति में हुआ था। आभीरों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति थी, जिसमें पूर्ण नारी- स्वातंत्रय तो था ही, साथ ही वे राग- रंग के भी बड़े प्रेमी थे। उनका लोकनृत्य हल्लीश या हल्लीसक सर्वविख्यात रहा है, जिसका वर्णन अनेक लक्षण ग्रंथों में भी मिल जाता है -- "मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् । तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६। सरस्वतीकण्ठाभरण /परिच्छेदः (२) सरस्वतीकण्ठाभरणम् परिच्छेदः (२) भोजराजः
तल्लास्यं ताण्डवं चैव छलिकं संपया सह । हल्लीसकं च रासं च षट्प्रकारं प्रचक्षते ।२.१४३। ____ मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् । तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६ ।। (२.१४४) अर्थ- मण्डल ( घेरा) में जो गोपस्त्रीयों का नृत्य होता है वह हल्लीसक कहलाता है । उसमें एक गोप सभी गोप- स्त्रीयों का नेतृत्व करने वाला होता है जैसे भगवान कृष्ण होते हैं ।
नाट्यशास्त्र में भी वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के सन्दर्भ में हल्लीसक नृत्य या विवेचन है । विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं। यह गोप संस्कृति का प्राचीन नृत्य है जो उत्सव विशेष पर किया जाता था।
मंडल बाँधकर होनेवाला एक प्रकार का भाव नृत्य जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं। इसी को नामान्तरण से लास्य: तो कहीं रास्य या रास भी कहा जाने लगा।
यह हल्लीसक नृत्य एक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें नायिका अनेक किंतु नायक एक ही होता था। इस नृत्य के लिए आभीर स्त्रियाँ उस पराक्रमी पुरुष को अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित करती थीं, तो अतुलित पराक्रम प्रदर्शित करता था। हरिवंश पुराण के अनुसार आभीर नारियों ने श्री कृष्ण को इस नृत्य के लिए उस समय आमंत्रित किया था, जब इंद्र- विजय के उपरान्त वह महापराक्रमी वीर पुरुष के रुप में प्रतिष्ठित हुए थे। इन्द्र- विजय के उपरान्त आभीर नारियों के साथ श्री कृष्ण के इस नृत्य का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के हल्लीसक क्रीड़न अध्याय में प्राप्त हुआ है। इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः रास' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।
भगवान कृष्ण के द्वारकाधीश चले जाने पर यह नृत्य कृष्णकाल में द्वारका के यदुवंशियों का राष्ट्रीय नृत्य बन गया था। गुजरात के अहीर आज तक इस परम्परा का निर्वहन करते चले आ रहे हैं। इस नृत्योत्सव का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के "छालिक्य संगीत' अध्याय में उपलब्ध है। शारदातनय का कथन है कि द्वारका में रास के विकास में श्री कृष्ण की पौत्रवधू अनिरुद्ध- पत्नी उषा का बड़ा योगदान था, जो स्वयं नृत्य में पारंगत थी। यह पार्वतीजी की शिष्या थी,जिसने उनसे लास्य- नृत्य की शिक्षा ग्रहण की थी। उसने द्वारका के नारी- समाज को विशेष रुप से रास- नृत्य में प्रशिक्षित किया था।
द्वारका पहुँचने पर यह रास- नृत्य नाटिकाओं का रुप ले चुका था। जिसमें श्री कृष्ण व बलराम की जीवन की प्रमुख घटनाओं का प्रदर्शन होता था।
भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्र में लोकधर्मी उपरुपकों के अन्तर्गत रास के "रासक' और "नाट्य रासक' दो रुपों का उल्लेख किया है।इससे प्रतीत होता है कि उस काल में रास के दो रुप अलग- अलग विकसित हो गए थे। "नाट्य रासक' जहाँ नाट्योन्मुख नृत्य- संगीत का प्रतिनिधि था, वहाँ इसका शुद्ध नृत्य रुप "रासक' था। "रासक' के भरतमुनि ने भेद किए हैं --
१. मण्डल रासक २. लकुट रासक तथा ३. ताल रासक।
मण्डलाकार नृत्य मंडल रासक, हाथों से दंडा बजाकर नृत्य करना लकुट रासक या दंड रासक और हाथों से ताल देकर समूह में नृत्य करना संभवतः ताल रासक था।
यह रासक परम्परा बाद में विभिन्न रुपों में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों में विकसित हुई ( जिसका परिचय यहाँ देना संभव नहीं है ) बाद में जैन धर्म में ही रासक परम्परा बाद बहुत लोकप्रिय हुई, क्योंकि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमिनाथजी को जैन धर्म ने अपना २३ वाँ तीर्थंकर स्वीकार कर लिया था। जिन्हें प्रसन्न करने के लिए जैन मंदिरों में भी रास उपासना का अंग बन गया।
कहने का तात्पर्य यह है कि कृष्णकाल से प्रारम्भ होकर रास की प्राचीन परम्परा विभिन्न उतार- चढ़ावों के मध्य (१५) वीं शताब्दी के अन्त तक या १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक आभीर जाति में रही , जबकि वर्तमान रास का पुनर्गठन हुआ, निरन्तर किसी न किसी रुप में विद्यमान रही और उसी के वर्तमान रास- मञ्च उद्भूत हुआ। इस प्रकार रास भारत का वह मंच है जो कृष्णकाल से आज तक निरंतर जीवित- जाग्रत रहा है।
भारत में दूसरा कोई ऐसा मंच नहीं जो इतना दीर्घजीवी हुआ हो। इसी के रास की लोकप्रियता और महत्ता स्पष्ट है।
गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं-
ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)
निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।
"विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा, गायत्री आदि।
अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ( वर्ण) जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति (वर्ण )भी इस संसार में है ।४३।
वैष्णव वर्ण ब्रह्मा के द्वारा निर्मित चार वर्णों से श्रेष्ठ व पृथक इसलिए है । वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत गोप लोगों का व्यवसाय गोपालन और कृषि के अतिरिक्त १-युद्ध करना - २-ज्ञान देना और ३- दीन और वञ्चितों की सेवा करना भी है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में स्वयं गोपों के नायक श्रीकृष्ण ने भोजन के उपरान्त पत्तले भी उठाईं थी और आगन्तुकों के चरणों को भी पखारा या धोया था।
अर्थात ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के सभी वर्णों के काम अकेले गोपों ने ही कर दिया था।
यदि गोप ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत होते तो गो पालक होने से नारायणीयम् सेना के योद्धा कभी नहीं होते ! क्योंकि ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में एक वर्ण का व्यक्ति दूसरे वर्ण के व्यक्ति के व्यवसाय ( कार्य)को कभी नहीं कर सकता है। वैष्णव वर्ण इसी कारण सभी वर्णों से श्रेष्ठ है।
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।
इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।।
दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।
भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण) के उस अविनाशी परमधाम गोलोक का सूर (ज्ञानी जन) निरन्तर दर्शन करते रहते हैं। आकाश में सूर्य के सदृश वे (भगवान्) परम व्योम में चतुर्दिक् संव्याप्त एवं प्रकाशस्वरूप विद्यमान हैं ।।१९।
पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
कौसुम्भवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।२०।
पीले वस्त्र के द्वारा कृष्ण के लिए श्वेत वस्त्र के द्वारा शूलिन ( शिव) के लिए और कौसुम्भ वस्त्र के द्वारा गौरी को लक्ष्य करके दीप- का अर्पण( दान) करना चाहिए । 4.130.२०।।
इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
अर्थानुवाद:-(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५।
(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) स्वर्ण मण्डित सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम (गमध्यै) जाने के लिए (उश्मसि) चाहते हो। जो (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्) उत्कृष्ट (पदम्) स्थान (भूरिः) अत्यन्त (अव भाति) प्रकाशित होता है (तत्) उसको (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६॥
[५] - कृषि और किसान शब्द गोपों सहित कृष्ण और संकर्षण की ही देन है-
इसको यदि व्याकरणिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो किसान शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के कृषाण शब्द से हुई है। कृष्ण और संकर्षण कृषि संस्कृति के जनक थे। कृष्ण से ही कृषाण शब्द विकसित हुआ है।
वाचस्पत्यं संस्कृत भाषा कोश के अनुसार :
कृषाण- (कृष्+ आनक्)–
आप्ते के संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष के अनुसार भी कृषाण शब्द कृष् धातु में -आनक्- अथवा किकन् प्रत्यय करने बनता है।
अर्थात् जो कृषि से सम्बन्धित कार्य करे वह किसान है।
ज्ञात हो - कृष्ण शब्द का धातुमूलक अर्थ - कृषक भी है ।
कुल मिलाकर कृष्ण से "कृषाऩ" और कृषाण से किसान शब्द का विकास हुआ।
भगवान श्रीकृष्ण का नाम भी इसी अनुरूप है क्योंकि वे एक सफल कृषक थे। सबसे पहले वे एक सफल पशु पालक (गोपालक) थे और पशु पालक ही कृषि संस्कृति के जनक थे।
आर्य चरावाहे थे जिन्होंने कालान्तर में कृषि संस्कृति का विकास किया।
और इस बात की पुष्टि- श्रीगर्गसंहिता, गिरिराज खण्ड के अध्याय -(६ ) से होती है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
"श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम्।२६।
अनुवाद- बाबा हमारे गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।।२६।
इसी तरह से गर्गसंहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय (६) में नन्द बाबा के उस समय भी कृषक होने की पुष्टि होती है जब एक बार कुछ गोप लोग वषभानु के दरबार में उपस्थित होकर नन्द और वृषभानु के वैभव की तुलना करते हुए नन्द के विषय में वृषभानु जी कहते हैं कि-
त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित्।
कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः॥७॥
यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः।
सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो।।८।
अनुवाद:-( ७-८)
• यहाँ तक कि राजा नन्द के घर में भी तुम्हारे समान धन और ऐश्वर्य नहीं है। अनेक गायों के स्वामी कृषक राजा नन्द भी तुम्हारी तुलना में दीन-हीन हैं।७।
• हे स्वामी, यदि नन्द का पुत्र वास्तव में भगवान है, तो कृपया उसकी परीक्षा अवश्य लीजिए, जिससे हम सबके देखते हुए उसकी दिव्यता प्रकट हो जाएगी।८।
ज्ञात हो - जिस तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण सदैव गोप वेष (रूप) में रहते हैं, उसी तरह से बलराम जी भी सदैव किसान वेष में ही रहते हैं। चाहे वे कृषि-क्षेत्र में हो अथवा, युद्ध-क्षेत्र में हो, तथा उनके साथ सदैव हल और मूसल रहता।
इस बात की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक -(१३) से भी होती है। जिसमें बलराम जी भू-तल पर अवतरित होने से पहले अपने हल और मूसल को कहते हैं-
हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।।१३।
अनुवाद - हे हल और मूसल ! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूं, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना।१३।
उपर्युक्त सन्दर्भों से स्पष्ट होता है श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ही कृषि संस्कृति के जनक और किसानों के पूर्वज और प्रतीक हैं। क्योंकि अबतक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में इनके जैसा किसान तथा गोपालक भेष( रूप) वाला न तो कोई देवता न किन्नर न गन्धर्व न दैत्य और न ही कोई दानव देखा गया।
आर्य और किसान एक सिक्के के दो पहलू हैं। क्योंकि आर्य शब्द भी हल और कृषि से जुड़ा हुआ है। प्रारम्भ में आर्य चरावाहे ही थे जिन्होंने कालान्तर में कृषि संस्कृति का विकास किया। क्योंकि आर्य शब्द जुड़ा है अरि से जिसमें
अरि एक वैदिक देव है। जो सदैव अर (आरा) हाथ में लिए हुए ऋग्वेद में अरि सर्वोच्च ईश्वरीय शक्ति का वाचक है।
उपर्युक्त ऋचा ( श्लोक) में अरि शब्द ईश्वर वाची है। यूनानी पुराण कथाओं में इस वैदिक देव का वर्णन अरेस( Ares) के रूप में यूनानी युद्ध देवता के लिए है।
अरेस नाम की व्युत्पत्ति पारम्परिक रूप से ग्रीक शब्द ἀρή (arē) से जुड़ी हुई है, जो डोरिक भाषा के ἀρά (ara) शब्द का आयोनिक( यूनानी) रूप है, जिसका अर्थ- विनाश"
यूरोपीय विद्वान वाल्टर बर्कर्ट का कहना है कि "अरेस स्पष्ट रूप से एक प्राचीन अमूर्त संज्ञा है जिसका अर्थ है लड़ाई, अथवा युद्ध है।
श्रीमद्भगवद्गीता में एक स्थानपर आर्य शब्द वीर का विशेषण है।
श्री भगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में यह मोह कहाँ से उत्पन्न हुआ? यह आर्य आचरण के विपरीत न तो स्वर्ग प्राप्ति का साधन ही है और न कीर्ति कराने वाला ही है।।२/२
उपर्युक्त श्लोक में आर्य शब्द का अर्थ वीर ही है जो कायर व्यक्ति के विपरीत आचरण वाला होता है।
निम्नलिखित श्लोक में यशोदा नन्द राय को आर्य कहकर सम्बोधित करती है।
यशोदा त्वब्रवीद् भीता न
आर्य जानामि किं त्विदम्।
दारकेण सहानेन सुप्ता शब्देन बोधिता।३३।
अनुवाद :-यशोदा ने भयभीत होकर नन्द राय जी से कहा - "हे आर्य मैं नहीं जानती हूँ ! कि यह क्या है ! मैं अपने पुत्र के साथ सो रही थी और इस भयंकर ध्वनि से मेरी नींद खुल गई।३३।
(हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय (६)
उपर्युक्त श्लोक में शकटासुर के आतंक का प्रकरण है। और यशोदा माता नन्दबाबा को आर्य कहकर सम्बोधित करती हैं।
यहा आर्य का अर्थ पतिहोते हुए भी कृषक और पशुपालक गोप है।
महाभाष्य द्वितीय अध्याय पस्पशाह्निक में पतञ्जलि ने आर्यों का निवास घोष ( गोप वस्ती) ही निर्देशित किया है। देखे नीचे महाभाष्य से उद्धृत अंश -
क : पुनर् आर्य निवास: ?
आर्यों ( कृषकों) का निवास कहाँ है ? ग्रामो घोषो नगरं संवाह इति ।
ग्राम ( ग्रास क्षेत्र) घोष नगर आदि आर्यों का निवास स्थान है। -( द्वितीय अध्याय पस्पशाह्निक पतञ्जलि महाभाष्य)
उपर्युक्त सन्दर्भों से सिद्ध होता है कि आर्य गोप ही थे जिनका निवास घोष अथवा आभीर पल्लि था।
आर्य शब्द का आधार अरि: शब्द कालान्तर में लौकिक संस्कृत में हरि हो गया- जो वैदिक काल में अरि के रूप में ईश्वर वाची भी था।
संस्कृत भाषा में "आरा" और "आरि" शब्द आज भी शस्त्र वाली हैं। परन्तु वर्तमान में लौकिक संस्कृत में "अर्" धातु विद्यमान नहीं है।
सम्भव है कि पुराने जमाने में "अर्" धातु
रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो ।
अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु का ही रूपान्तरण, "अर" हो (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है)
संस्कृत व्याकरण में य्, व् र्, ल् अन्त:स्थ वर्णों का इ, उ, ऋ और लृ में परिवर्तन होना। सम्प्रसारण की प्रक्रिया है।
अर् अथवा ऋ धातु का अर्थ होता है-
"हल चलाना"
यह भी सम्भव है कि "हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो ।
"ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य और 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है। ये दोनों शब्द कृदन्त पद हैं। कृदन्त वे पद ( शब्द) होते हैं जिनकी व्युत्पत्ति किसी धातु ( क्रिया मूल) से हुई हो।
विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक ही है।
इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।
"आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है। वैश्य शब्द वणिक का वाचक नहीं है।
वैश्य वृत्ति में पशुपालन और कृषि मूलक क्रियाऐं समायोजित होती है। जबकि वाणिज्य में व्यापारिक क्रियाएँ किसी वणिक( बनिया) को कभी खेत में हल चलाते तथा पशुओं को चराते हुए कभी नहीं देखा गया। और किसी किसान को व्यापारिक या महाजनी क्रियाएँ करते नहीं देखा गया। दोनो वृत्ति (व्यवसाय) आपस में विरोधी हैं आज व्यापारी और किसान दो विरोधी समुदाय हैं।
अपितु वाणिज्य क्रिया को कालान्तर में वैश्य वृत्ति के अन्तर्गत समाविष्ट कर दिया गया। जिसका पशुपालन और कृषि मूलक वृत्तियों से कोई तालमेल नहीं है।
पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का प्रपल प्रमाण है। कि आर्य लोक वैश्य वृत्ति ( कृषि और पशु पालन ) से सम्बन्धित थे। और स्वामित्व पूर्ण स्थिति में थे।
फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया गया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य- जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है ।
फिर, वाजसनेयी (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णों के नाम-ब्रह्मण, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
हैं निस्सन्देह इस समय तक आर्य शब्द पशुपालन और कृषि मूलक वृत्तियों से युक्त जन समुदाय का वाचक था।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण (कृषि कार्य) ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ "कृषक" कहना युक्ति-विरहित नही।
कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं
गोप- गोचारण करते थे और इतिहास साक्षी है कि चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण (बलराम)
दोनों युग पुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे।
इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे । फिर बनिया ब्राह्मण और अन्य वृत्तियों से युक्त जन समुदाय को आर्य थ्योरी में जोड़ा गया।
क्यों व्यापार अथवा वाणिज्य वृत्ति को कृषि और पशु पालन वृत्ति से जोड़ा गया।
अर्थ-• ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य तो कभी न करें अर्थात् इसे यत्न पर्वक त्यागें क्योंकि कि यह हिंसा के अन्तर्गत है।
ब्राह्मण और क्षत्रिय न तो पशुपालन कर सकता हौनऔर न कृषि कार्य तो फिर वह व्यापार ही कर सकता है।
अर्थात कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।
इसी लिए वर्ण-व्यवस्था वादी वणिक कभी हल चलाते या कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा जाता है।
निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है। इसकी पुष्टि - नृसिंह पुराण अध्याय 58 के 11 वें श्लोक से होती है-
दासवद्ब्राह्मणानां च विशेषेण समाचरेत् । अयाचितं प्रदातव्यम् कृषिं वृत्यर्थमाचरेत्।।११।
अनुवाद:-
शूद्र व्यक्ति दासों के समान ब्राह्मणों की विशेष रूप से सेवा करे और विना कुछ माँगे हुए अपनी ही सम्पत्ति का दान करना चाहिए और जीविका उपार्जन के लिए कृषि कर्म करे।११।
परन्तु व्यास, पराशर और वैजयन्ती कोश में एक और कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है। जिन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
इसी काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है जो कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार ने कीनाशों को शूद्र बताया है।
परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के।
फिर भी व्यासस्मृति में वणिक और गोप को शूद्र रूप में वर्णन सिद्ध करता है कि द्वेष और रोष के आवेश में पुरोहित वर्णव्यवस्था की मर्यादा भी भूल गये अन्यथा वणिक् शब्द जो स्वयं वैश्य का पर्याय है। उसको शूद्र धर्मी कभी न कहते। सायद यही कारण है कि-
किसान जो भारत के सभी समाजों के लिए अन्न का उत्पादन करता है और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ;वही किसान जो जीवन के कठिनतम संघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है तथा
दृढ़ता और धैर्य पूर्वक वीरता के गुणों से समन्वित होकर कृषि कार्य करता है। उसे कभी शूद्र तो कभी वैश्य वृत्ति से जोड़ा गया।
किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला सायद ही कोई दूसरा इस संसार में है।
परन्तु उसके बलिदान का कोई प्रतिमान और ना कोई मूल्य है। फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है , कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के फिर दोनों विरोधी समुदायों को एक ही वर्ण में क्यों जोड़ा गया।
किसान और वणिक को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने किसान को शूद्र और वैश्य के हल न पकड़ने के विधान बना डाले और अन्ततः वणिक को शूद्र वर्ण में समायोजित कर दिया है।
ग्रास या घास युक्त भूमि से है। जहाँ पशुपालक- अपना पड़ाव डालते थे ;धीरे धीरे उनके ये पड़ाव स्थाई होने लगे और इस प्रकार कालान्तर में ग्राम-सभ्यता का जन्म हुआ।
जबकि नगर सभ्यता व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक केन्द्र के रूप में विकसित हुईं जिन्हे आज हम बाजारवाद कह सकते हैं। जहाँ वणिकों की बस्तियाँ ही बहुतायत में होती हैं।
ग्रामीण जीवन का पालन करने वाले गोपों की गोप- ललनाऐं विशेष उत्सवों पर हल्लीसक नृत्य का आयोजन पुरुषों के सहयोग से करती थीं। और अनेक रागों पर गीत गाती थीं। अहीरों ने संगीत को अनेक लौकिक अवदान दिये।
व्याकरणिक दृष्टिकोण से ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है..—(ग्रस् मन् ) प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है । जिससे गृह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है ।
इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है ; गृह ही ग्रास है
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ज्ञात हो आर्य और 'वीर' शब्द का विकास परस्पर समानता मूलक है। दोनों शब्दों की व्युपत्ति पर एक सम्यक् विश्लेषण -
श्रीगरुड महापुराण पूर्वखण्ड प्रथमांशाख्य आचारकाण्ड याज्ञवल्क्योक्तश्राद्धनिरूपणं नाम षण्णवतितमोऽध्यायः ॥96॥
भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु विश्व इतिहास यह उद्घोषणा करता है। कि
कुशल चरावाहों के रूप में सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करने वाले आर्य ही कृषक थे ।
यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था जो अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए ये चरावाहे जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान) देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे। इनके ये पड़ाव स्थाई होते गये और उसी प्रक्रिया के तहत बाद में कालान्तर ग्राम संस्कृति का जन्म व विकास हुआ। ग्राम शब्द (आभीर-पल्लि या गाँव) शब्द का वाचक हो गया।
पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी ऐतिहासिक पुस्तक "अतीत की स्मृति" में प्रमाणों से समन्वित होकर आर्य शब्द का मूल अर्थ कृषक ही लिखते हैं।
"प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण ( खेत जोतना- और बौना ही था।
अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। किसी किसी का मत है कि "आर्य" का अर्थ आरि धारण करने वाला है। ज्ञात हो कि आरि ( पशुओं को विशेषत: बैलों को नियन्त्रित करने वाले शस्त्र का नाम था-
अरि ( हल ) और आर ( पशुओं का नियन्त्रण करने वाला यन्त्र) धारण करने वाला ही आर्य था।
वर्ण-व्यवस्था के निर्माण काल में गोपालन और कृषि को निम्न मानते हुए वैश्य वर्ण में समायोजित किया और पशुपालन और कृषि न करने वाले व्यापारीयों को भी कृषि और पशु पालन वृत्ति में जोड़ दिया।
आर्य शब्द का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ वीर अथवा युद्ध के देवता अरि: से सम्बंधित होने के कारण दृढ़ता और धैर्य मूलक प्रवृत्ति होने के कारण श्रेष्ठ व्यक्ति के अर्थ में भी रूढ़ होकर कर्मवीर और धर्मवीर आदि का पर्याय हुआ।
दृढ़ता और धैर्य वीरों का और कृषकों का ही समान मौलिक गुण (प्रवृत्ति) है।
श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न विशेषत:—स्वामी, गुरू और सुहद् आदि को संबोधन करने में भी इस आर्य शब्द का व्यवहार नाट्यशास्त्र में होने लगा । छोटे लोग बड़े को सम्बोधित करते हुए आर्य का प्रयोग करते , —स्त्री पति को सम्बोधित करते हुए आर्य शब्द का प्रयोग करती, और छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु का आर्य या आर्यपुत्र कहकर संबोधित करते हैं ।
नाटकों में भी नटी भी सूत्रधार को आर्य या आर्यपुत्र कहती है।
ज्ञात हो- पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में नायक का वाचक हीरो (Hero) आर्य शब्द का ही रूपान्तरण है।
आपने हेरो (Harrow) शब्द भी सुना होगा और हल दोनों का श्रोत ऋ-अर्-हिंसागतियो: धातु प्रसिद्ध ही है।
इतना सबकुछ होने के बाद भी कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्रवेत्ता ब्राह्मण की दृष्टि में निम्न ही बना रहा है। जबकि
हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं इस पर भी विचार कर लेना आवश्यक है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में रागों ने प्राय: लोक धुनों से प्रेरणा ली है, और फिर उन्हें भारतीय राग प्रणाली के सिद्धान्तों के अनुसार औपचारिक रूप दिया है। अहीर भारत में एक प्राचीन जातीय समूह है जो मुख्य रूप से पशुपालक थे।
गायें चराने वालों के रूप में, क्या उनके पास कोई विशिष्ट हस्ताक्षरीय लोक धुन थी ? क्या यहीं से राग अहीर की उत्पत्ति हुई है ? यह सब विचारणीय है।
राग अहीर भैरव दो रागों का मिश्रण है, अहीर और भैरव । अहीर और अहीर भैरव के स्वर एक जैसे हैं, लेकिन उनकी मधुर संरचना में अंतर है।
आभीर एक मात्रिक छन्द का नाम भी है जिसके चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में (११) मात्राएँ होती है और अंत में जगण होता है । जैसे—
यमाताराजभानसलगा-
ये छंदों के वार्णिक छंद का अनुक्रम है।
किसी भी वर्णिक छन्द में वर्णों का समूह गण कहलाता है। ये प्रायः तीन वर्णों से मिलकर एक गण का निर्माण करते हैं । इन गणों के नाम इस प्रकार से हैं:-
यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण ।
इनकी मात्राओं के लिए लघु को ‘I ’ और गुरु को ‘’ऽ' कहते हैं । इस लघु-गुरु का के ही क्रम को याद रखने का एक विशिष्ट सूत्र स्थापित किया गया है जोकि ये है:- यमाताराजभानसलगा
इसमें किसी शब्द में जिस गण की जानकारी पता करनी हो तो उसके वर्ण के बाद इसी सूत्र से अगले दो वर्ण उनकी मात्रा समेत उसके बाद और जोड कर लिखें तो शब्द में कौन सा वार्णिक गण है ये ज्ञात हो जाएगा।
ममता शब्द में वार्णिक छंद का गण "सगण" आता है क्योंकि इस ममता शब्द में प्रथम दो वर्ण लघु और अंतिम वर्ण गुरु है।
यहि बिधि श्री रघुनाथ । गहे भरत के हाथ । पूजत लोग अपार । गए राज दरबार ।
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गोपों की इन्हीं सब आध्यात्मिक विशेषताओं के कारण- उनको पाप से मुक्ति दिलाने वाला कहा जाता है। इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड खण्ड के अध्याय- ६० के श्लोक संख्या- ४० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि- "य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः। मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।
अनुवाद- जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा गोपालक ( गोप) , यादवों की मुक्ति का वृतांत पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।।
कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- (११) के श्लोक संख्या- (४) में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-
"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते। यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परं ब्रह्म निराकृति।।४। अनुवाद - जिसमें श्री कृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने साकार रूप में अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।४।
किंतु वे लोग विशेषकर ऐसे कथावाचक, पापों से मुक्त नहीं हो पाते जो जानबूझकर या स्वार्थवश या लालचवश श्रीकृष्ण कथा में श्रीकृष्ण की आधी -अधुरी जानकारी को बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे कथावाचक कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते। साथ ही वे पाप तथा दण्ड के भागी होते हैं। क्योंकि श्री कृष्ण कथा तभी पूर्ण मानी जाती है जब श्रीकृष्ण के साथ ही उनके पारिवारिक सदस्य गोपों का भी वर्णन किया गया हो। क्योंकि यह बात शास्त्रोचित है कि गोपेश्वर श्री कृष्ण के सहचर गोप हैं जिनके साथ भगवान श्री कृष्ण अपनी लीलाएं करते रहते हैं। इसीलिए बगैर गोपों का वर्णन किये श्रीकृष्ण की कथा अधूरी ही मानी जाती है। जिससे कभी उसके श्रवण का पुण्यफल प्राप्त नहीं हो सकता है।
इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि -"ऐसे छद्म-वेषधारी कथावाचकों से सावधान रहने की आवश्यकता है जो अल्पज्ञान से बिना गोपों का वर्णन किये ही श्रीकृष्ण कथा कहते हों।"
गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणामों की जानकारी अध्याय -१ भाग-(दो) में बतायी जा चुकी है। वहाँ से इस विषय पर विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
इस प्रकार से यह अध्याय-( ७) वैष्णव वर्ण के गोपकुल के गोप और गोपियों की पुराणों में की गई भूरि-भूरि प्रसंशाओं और उनकी आध्यात्मिक महत्ता की कुछ जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
इसी क्रम में इसके अगले अध्याय- ८ में भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरित होने के प्रमुख कारणों को जानेंगे।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७। (श्रीमद्भागवत गीता अध्याय- ४/७) अनुवाद:- भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- "जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूँ अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ"।
इसी सत्य को चरितार्थ करने के लिए परमेश्वर श्रीकृष्ण अपने गोलोक से धरा-धाम पर गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कंध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देव भी नहीं कर सकते। इसी तरह से श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्ध के अध्याय-(६) के श्लोक संख्या -(२३) और (२५) में ब्रह्मा जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि- अवततीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद् रुपमनुत्तमम्। कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः।। २३।
यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरूषोत्तम। शरच्छतं व्यतीताय पंचविंशाधिकं प्रभो।।२५। अनुवाद - आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत् के हित के लिए उदारता और पराक्रम से भरी अनेक लीलाएं कीं ।२३। • पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु ! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये "एक सौ पच्चीस वर्ष" बीत गए हैं।२५।
इसी तरह से हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के अध्याय- (५५) के श्लोक-१७ में गोपेश्वर श्री कृष्ण, ब्रह्मा जी से पूछा कि-आप मुझे यह बताएं कि मैं किस प्रदेश में कैसे प्रकट होकर अथवा किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि में संहार करूंगा ? इस पर ब्रह्मा जी श्लोक संख्या- (१८ से २०) में कहा - नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रृणु मे विभो। भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।। १८। यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि। यादवानां महद वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९। ताश्चासुरान् समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मननो महत्। स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।।२०। अनुवाद - सर्वव्यापी नारायण ! आप मेरे इस उपाय को सुनिए, जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। हे महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे,जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे, वह सब बताता हूँ सुनिए।१८-१९-२०।
इसी तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण को यदुवंश में जन्म लेने की पुष्टि- गर्ग संहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (१४) के श्लोक संख्या- (४१) से होती है। जिसमें त्रेता-युग के रावण का भाई विभीषण जो अमर होकर लंका का राजा द्वापर युग तक बनकर जीवित था। उसी समय यादव अपनी विशाल सेना के साथ विश्वजीत युद्ध के लिए निकले थे। उसी उपरान्त( दरम्यान) दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने विभीषण को बताया कि- असंख्यब्राह्मण्डपतिर्गोलोकेश: परात्पर:। जातस्तयोर्वधाथार्य यदुवंशे हरि: स्वयंम्।।४१। यादवेन्द्रो भूरिलीलो द्वारकायां विराजते। ४२/२
अनुवाद - असंख्य ब्रह्माण्डपति परात्पर गोलोकनाथ श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। वे यादवेंद्र बहुत सी लीलाएं करते हुए इस समय द्वारिका में विराजमान है।४१-४२/२। यादवों के उसी विश्वजीत युद्ध के समय मुनि वामदेव ने राजा गुणाकर को भी भगवान श्री कृष्ण को यादव कुल में उत्पन्न होने की बात बहुत ही अच्छे ढंग से बतायें। जिसका वर्णन गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- (२८) के श्लोक संख्या (४५) व (४६) में कुछ इस प्रकार लिखा गया है- राजंस्त्वं हि न जानसि परिपूर्णतमं हरिम्। सुराणां महदर्थाय जातं यदुकुले स्वयंम्। भुवो भारावताराय भक्तानां रक्षणाय च।।४५। भूत्वा यदुकुले साक्षाद् द्वारकायां विराजते। तेन कृष्णेन पुत्रोऽयं प्रदुम्नो यादवेश्वरः। उग्रसेनमखार्थाय जगज्नेतुं प्रणोदित:।।४६। अनुवाद - राजन ! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्री हरि, देवताओं का महान कार्य सिद्ध करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। पृथ्वी का भार उतरने और भक्तों की रक्षा करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हो वे साक्षात भगवान द्वारिकापुरी में विराजते हैं। उन्हीं श्री कृष्ण ने उग्रसेन के यज्ञ की सिद्धि के लिए संपूर्ण जगत को जीतने के निमित्त अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युम्न को भेजा है।४५- ४६।
यादवों के उसी विश्वजित्- युद्ध के समय जब श्रीकृष्ण के द्वारा महान बलशाली दैत्यराज शकुनि मारा गया तब उसकी पत्नी मदालसा ने हाथ जोड़कर श्री कृष्ण से जो कुछ कहा उससे भी सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण गोप जाति यदुकुल में अवतीर्ण हुए थे। जिसका वर्णन गर्गसंगीता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (४२) के श्लोक संख्या- (६) और (७) में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-
भारावताराय भुवि प्रभो त्वं जातो यदूनां कुल आदिदेव। ग्रसिष्यसे पासि भवं निधाय गुणैर्न लिप्तोऽसि नमामि तुभ्यम्।। ६।
अनुवाद- (६-७) प्रभो ! आदि देव ! आप भूतल का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतरित हुए हैं। आप ही संसार के स्रष्टा एवं पालक है, और प्रलय काल आने पर आप ही इसका संहार भी करते हैं। किंतु आप कभी भी गुणों में लिप्त नहीं होते। मैं आपकी अनुकूलता प्राप्त करने के लिए आपके चरणों को प्रणाम करती हूँ। मेरा पुत्र बहुत डरा हुआ है। आप इसकी रक्षा कीजिए। देव ! इसके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखिए। देवेश ! जगन्निवास ! मेरे पति ने जो अपराध किया है उसे क्षमा कीजिए। इसी तरह से जब सभी देवता मिलकर ब्रह्मा जी का विवाह अहीर कन्या गायत्री से भगवान् विष्णु के निर्देशन में कराते हैं।, तब ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री क्रोध से तिलमिलाकर अहीर कन्या गायत्री सहित देवताओं को शापित करती हैं। उसी समय वहां उपस्थित विष्णु को भी सावित्री शाप दे देती हैं। उसी शाप के विधान से भी गोपेश्वर श्रीकृष्ण को यदुकुल में जन्म लेना पड़ता। इस बात की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७) के श्लोक संख्या-(१६१) से होती है। जिसमें सावित्री विष्णु को शाप देते हुए कहती हैं कि- यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि। पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि ।।१६१। अनुवाद - हे विष्णु ! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बनकर लम्बे समय तक इधर-उधर भ्रमण करते रहोगे।१६१।
इसी तरह से बलराम जी को भी यदुकुल में उत्पन्न होने की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खण्ड के श्लोक संख्या -(१३) और (१४) से होती है। जिसमें बलराम जी स्वयं अपने पार्षदों से कहते हैं कि - हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि। तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।। १३
भो वर्म त्वमपि चाविर्भव। हे मुनयः पाणिन्यादयो हे व्यासादयो हे कुमुदादयो हे कोटिशो रुद्रा हे भवानीनाथ हे एकादश रुद्रा हे गन्धर्वा ! हे वासुक्यादिनागेन्द्रा हे निवातकवचा हे वरुण हे कामधेनो मूम्यां भारतखण्डे यदुकुलेऽवतरन्तं मां यूयं सर्वे सर्वदा एत्य मम दर्शनं कुरुत।।१४।
अनुवाद - हे हल और मुसल! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूँ, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना। हे कवच ! तुम भी वैसे ही प्रकट हो जाना। हे पाणिनि , व्यास तथा कुमुद आदि मुनियों ! हे कोटि-कोटि रूद्रों ! गिरिजापति शंकर जी ! ग्यारह रुद्रों ! गन्धर्वों ! वासुकि आदि नागराजों ! निवातकवच आदि दैत्यों ! हे वरूण और कामधेनु! मैं भूमंडल पर भारतवर्ष में यदुकुल में अवतार लूँगा। तुम सब वहांाँ आकर सदा सर्वदा मेरा दर्शन करना।१३-१४।
उपरोक्त सभी श्लोकों से यह सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण गोप अथवा आभीर जाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में हुआ है। किंतु इस संबंध में ज्ञात हो कि- यदुवंश - वैष्णव वर्ण के गोपजाति का ही प्रमुख वंश है। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण को जब वंश में जन्म लेने की बात कही जाती है तब उनके लिए यदुवंश का नाम लिया जाता है। किंतु जब भगवान श्री कृष्ण को किसी जाति में जन्म लेने की बात कही जाती है तो उनके लिए गोपजाति या आभीर( आहिर) जाति का नाम लिया जाता है। इसमें दोनों तरह से बात एक ही है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण को अनेकों बार यदुवंश के साथ-साथ गोपजाति में भी जन्म लेने की बात कही गई है। जैसे- गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपजाति में जन्म लेने की बात हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में कही गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि- एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च। अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८। अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है ; और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है। भगवान श्री कृष्ण को गोपकुल में अवतीर्ण होने की बात गायत्री संग ब्रह्मा जी के विवाह के समय तब होती है जब इन्द्र गोप कन्या गायत्री को लेकर ब्रह्मा जी से विवाह हेतु यज्ञ स्थल पर ले गए थे। तब सभी गोप अपना मुख्य शस्त्र लकुटि- दण्ड (लाठी- डंडा) के साथ अपनी कन्या गायत्री को खोजते हुए ब्रह्मा जी के यज्ञ स्थल में पहुँचे। वहाँ पहुँच कर गायत्री के माता-पिता ने पूछा कि- मेरी कन्या को कौन यहाँ लाया है ? तब उनकी यह बात सुनकर तथा
उनके क्रोध का अन्दाजा लगाकर वहाँ उपस्थित सभी देवता और ऋषि मुनि भयभीत हो गए। तभी वहाँ उपस्थित विष्णु भगवान् गोपों के सामने उपस्थित हो गए और उस अवसर पर जो कुछ गोपों से कहा उसका वर्णन भी पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७) के श्लोक संख्या -(१६) से (२०) में मिलता है। जिसमें भगवान्- विष्णु यज्ञ- स्थल में सबके समक्ष गोपों से कहते हैं कि - युष्माभिरनया आभीरकन्याया तारितो गच्छ ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६ । अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति। यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७। करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः। युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।। १८।
तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः। करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।।१९। न चास्याभविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्। श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा ।।२०। अनुवाद:- हे आभीरों (गोपों) इस तुम्हारी आभीर कन्या गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों को जाओ तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा।१६। • और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी। उसी समय धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।१७। • तब मैं उनके बीच रहूँगा। तुम्हारी सभी पुत्रियाँ मेरे साथ ही रहेंगी।१८। • तब वहां कोई पाप, द्वेष और ईर्ष्या नहीं होगी। गोप( आभीर) लोग भी किसी को भय नहीं देंगे।१९। • इस कार्य (ब्रह्मा से विवाह करने) के फलस्वरूप इस (तुम्हारी पुत्री को) कोई पाप नहीं लगेगा। विष्णु के ये वचन सुनकर वे सभी उन्हें प्रणाम करके वहां से चले गए।२०।
किंतु जाते समय गोपगणों ने भी विष्णु से यह वादा करवाया कि आप निश्चित रूप से गोपकुल में ही जन्म लेंगे। जिसका वर्णन इसी अध्याय के श्लोक -२१ में है जिसमें गोपगण भगवान-विष्णु से कहते हैं कि - एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे। अवतारः कुलेऽस्माकंं कर्तव्योधर्मसाधनः।। २१। अनुवाद - हे देव ! यही हो। आपने जो वर दिया, वैसा ही हो। आप हमारे कुल में धर्मसाधन के कर्तव्य के लिए अवश्य अवतार लेंगे।२१। तब विष्णु ने भी गोपों को ऐसा ही आश्वासन दिया। तत्पश्चात सभी गोप प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने घर चले गए। उसी समय अहीर कन्या गायत्री ने ब्रह्मा जी की प्रथम पत्नी सावित्री जो विष्णु को यह शाप दे चुकी थी कि - हे विष्णु ! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बन कर लम्बे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। उस शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के अध्याय- (१९३) के श्लोक -(१४) और (१५) में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -
तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यन्ति श्लाघ्यताम्॥ सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥
यत्रयत्र च वत्स्यन्ति मद्वंशप्रभवा नराः॥ तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥ अनुवाद -(१४-१५) आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती है- तुम्हारे रक्त सम्बन्धी (blood,s relative ) वाले गोपगण (सभी अहीर) तुम्हारे द्वारा , विना कुछ किए ही प्रशंसनीय हो जायेंगे। और सभी लोग विशेष रूप से देवता भी उनकी प्रशंसा करेंगे।१४। • पुन: गायत्री विष्णु से कहती हैं- मेरे वंश में उत्पन्न गोप लोग जहाँ भी रहेंगे, वहाँ श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो।१५।
अतः उपरोक्त सभी महत्वपूर्ण श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- धर्म स्थापना हेतु गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म या अवतरण, वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत गोप जाति (अहीर जाति ) के यादव वंश में ही होता है। जहाँ गोपों का सम्बन्ध स्वराट विष्णु के ही रक्त से होता हैं । यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण, चाहे गोलोक में हो या भूलोक में हो, वे सदैव गोपवेष में गोपों के ही साथ ही रहते हैं, और सभी लीलाएं उन्हीं के साथ ही करते हैं। इसीलिए गोपों को श्रीकृष्ण का सहचर (सहगामी) अर्थात् साथ-साथ चलने वाला भी कहा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण को सदैव गोपवेष में गोपों के साथ रहने की पुष्टि - हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय -(३) के श्लोक -(३४) से होती है। जिसमें भगवान श्री कृष्णजन्म लेने से पूर्व योग माया से कहते हैं कि- मोहहित्वा च तं कंसमेका त्वं भोक्ष्यसे जगत्। अहमप्यात्मनो वृत्तिं विधास्ये गोषु गोपवतः।। ३४।
अनुवाद - तुम उस कंस को मोह में डालकर अकेली ही संपूर्ण जगत का उपभोग करोगी। और मैं भी व्रज में गौओं के बीच में रहकर गोपों के समान ही अपना व्यवहार बनाऊंगा। ये तो रही बात भूलोक की। किंतु गोपेश्वर श्री कृष्ण गोलोक में भी अपने गोपों के साथ सदैव गोपवेष में ही रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय (२)- के श्लोक -(२१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि - स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्। किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम्।।२१। अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक(गोलोक) में सदा गोप (आभीर ) भेष में रहते हैं।२१। अतः इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण चाहे गोलोक में हो या भूलोक दोनों स्थानों पर वे सदैव गोपवेष में गोपों के साथ ही रहते हैं। इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- (१००) के श्लोक - (२६) और (४१) में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जहाँ पौण्ड्रक, श्रीकृष्ण के परस्पर युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के मध्य पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहता है कि- स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह। भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६। गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा। गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१।
अनुवाद - ओ यादव! ओ गोपाल! इस समय तुम कहां चले गए थे ? आजकल मैं ही वासुदेव नाम से विख्यात हूं।२६। तब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक से कहा- • राजन मैं सर्वदा गोप हूँ प्राणियों का सदा प्राण दान करने वाला हूँ, तथा संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूँ। ४१
इसी प्रकार से एक बार श्रीकृष्ण की तरह-तरह की अद्भुत लीलाओं को देखकर गोपों को संशय होने लगा कि कृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। ये या तो कोई देवता है या कोई ईश्वरीय शक्ति। और इस रहस्य को श्रीकृष्ण अपने गोपों से गुप्त रखना चाहते थे, ताकि मेरी बाल -लीला बाधित न हो। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण उनके संशय को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय- (२०) के श्लोक- (११) में अपने सजातीय गोपों से कहते हैं कि- मन्यते मां यथा सर्वे भवन्तो भीमविक्रमम्। तथाहं नावमन्तव्यः स्वजातीयोऽस्मि बान्धवः।।११।
अनुवाद - आप सब लोग मुझे जैसा भयानक पराक्रमी समझ रहे हैं, वैसा मानकर मेरा अनादर न करें। मैं तो आप लोगों का सजातीय (गोप जाति का) भाई बंधु ही हूँ। इस प्रकार से यह अध्याय- इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि- गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक और भू-लोक दोनों स्थानों पर सदैव गोपवेष में अपने गोपकुल के गोपों के साथ ही रहते हैं। अब इसके अगले अध्याय- ९ में जानकारी दी गई है कि- गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र अत्रि है या वैष्णव ?
"इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।। हरिवंशपर्व सम्पूर्ण । अध्याय 55 - "अनुवाद:- 17. हे पितामह, क्या तुम्हे कुछ भी मालूम है, कि मैं किस प्रकार, किस देश में उत्पन्न होकर, किस घर में रहकर उनको मार डालूंगा।
18. ब्रह्मा ने कहा: - हे भगवान, हे नारायण , मुझसे सफलता की कुंजी सुनो और पृथ्वी पर तुम्हारे माता-पिता कौन होंगे य।
19. उनके कुल का यश बढ़ाने के लिये तुम्हें यादव कुल में जन्म लेना पड़ेगा ।
20. तुम भलाई के लिये इन असुरों का नाश करके और अपने महान कुल को बढ़ाकर मानवजाति की व्यवस्था स्थापित करोगे। इस विषय में मुझसे सुनो.
21 हे नारायण, प्राचीन काल में, महाबली वरुण के महान यज्ञ में , कश्यप ने यज्ञ के लिए दूध देने वाली सभी गायों को चुरा लिया था।
24. कश्यप की दो पत्नियाँ थीं, अदिति और सुरभि , जो वरुण से गायों को स्वीकार नहीं करना चाहती थीं।
23 तब वरुण मेरे पास आये और सिर झुकाकर प्रणाम करके बोले, “हे श्रद्धेय, गुरु ने मेरी सारी गायें अपहरण कर ली हैं।
24. हे पिता, उस ने अपना काम पूरा करके भी उन गायोंको लौटाने की आज्ञा न दी।। वह अपनी दो पत्नियों अदिति और सुरभि के नियंत्रण में हैं। 25. हे प्रभु, मेरी वे सब गायें जब चाहें तब स्वर्गीय और अनन्त दूध देती हैं। अपनी शक्ति से सुरक्षित होकर वे समुद्र में विचरण करते हैं। 26. वे देवताओं के अमृत के समान सदा दूध उगलते रहते हैं। कश्यप के अलावा कोई और नहीं है जो उन्हें मोहित कर सके। 27. हे ब्रह्मा, गुरु, उपदेशक या कोई भी हो यदि कोई भटक जाता है तो आप उसे नियंत्रित करते हैं। आप हमारे परम आश्रय हैं। 28. हे संसार के गुरु, यदि उन शक्तिशाली व्यक्तियों को दंड नहीं दिया जाएगा जो अपना काम नहीं जानते हैं, तो संसार की व्यवस्था अस्तित्व में नहीं रहेगी। 29. आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। क्या तुम मुझे मेरी गायें दे दो, मैं फिर समुद्र में चला जाऊंगा। 30. ये गायें मेरी आत्मा हैं , वे मेरी अनन्त शक्ति हैं। आपकी समस्त सृष्टि में गाय और ब्राह्मण ऊर्जा के शाश्वत स्रोत हैं। 31. सबसे पहले गाय को बचाना चाहिए. जब वे बच जाते हैं तो वे ब्राह्मणों की रक्षा करते हैं। गौ-ब्राह्मणों की रक्षा से ही संसार कायम है।'' 32. हे अच्युत , जल के राजा वरुण द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर और गायों की चोरी के बारे में वास्तव में सूचित होने पर मैंने कश्यप को श्राप दे दिया। 33. जिस अंश से महामनस्वी कश्यप ने गायों को चुराया था, उस अंश से वह पृथ्वी पर ग्वाले के रूप में जन्म लेगा। 34. उनकी दोनों पत्नियाँ सुरभि और अदिति, जो देवताओं के जन्म के लिये लकड़ी के टुकड़ों के समान हैं, भी उनके साथ जायेंगी।
35-36. वह उनके यहां ग्वाले के रूप में जन्म लेकर वहां सुखपूर्वक रहेगा। उन्हीं के समान शक्तिशाली कश्यप का वह अंश वासुदेव के नाम से जाना जाएगा और पृथ्वी पर गायों के बीच रहेगा। मथुरा के पास गोवर्धन नाम का एक पर्वत है । 37-42. कंस को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए वह गायों से आसक्त होकर वहां रहता है। उनकी दो पत्नियाँ अदिति और सुरभि वासुदेव की देवकी और रोहिणी नाम की दो पत्नियों के रूप में पैदा हुईं । वहाँ दूधवाले के सभी गुणों से युक्त एक लड़के के रूप में जन्म लेने के कारण वह वहीं बड़ा हुआ जैसा कि आप पहले अपने तीन कदमों वाले रूप में करते थे।
फिर अपने आप को (योग के) रूप से कवर करके, हे मधुसूदन, क्या आप दुनिया के कल्याण के लिए वहां जाते हैं। ये सभी देवता आपकी विजय और आशीर्वाद के उद्घोष से आपका स्वागत कर रहे हैं। तुम पृथ्वी पर उतरकर रोहिणी और देवकी से अपना जन्म लेकर उन्हें प्रसन्न करो। सहस्रों दुग्ध दासियाँ भी पृथ्वी पर छा जायेंगी। 43. हे विष्णु , जब आप जंगल में गायों को चराते हुए घूमेंगे तो वे जंगली फूलों की मालाओं से सुशोभित आपके सुंदर रूप को देखेंगे। 44. हे कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाले, हे विशाल भुजाओं वाले नारायण, जब आप बालक बनकर ग्वालबालों के गांवों में जाएंगे तो सभी लोग बालक बन जाएंगे। 45-46. हे कमल नेत्रों वाले, आपके प्रति समर्पित मन वाले ग्वालबाल होने के नाते आपके सभी भक्त आपकी सहायता करेंगे; जंगल में गायें चराते, चरागाहों में दौड़ते और यमुना के जल में स्नान करते हुए वे तुम्हारे प्रति अत्यधिक स्नेह प्राप्त कर लेंगे। और वासुदेव का जीवन धन्य हो जाएगा। 47. तू उसे अपना पिता कहेगा, और वह तुझे अपना पुत्र कहेगा। कश्यप को बचाइये और किसे आप अपने पिता के रूप में स्वीकार कर सकते हैं? 48. हे विष्णु, अदिति को बचाएं और कौन आपको गर्भ धारण कर सकता है? इसलिए, हे मधुसूदन, आप अपने स्वनिर्मित योग द्वारा विजय के लिए आगे बढ़ें। हम भी अपनी-अपनी बस्तियों की मरम्मत करते हैं। 49. वैशम्पायन ने कहा: - देवताओं को दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करने का आदेश देकर भगवान विष्णु दूध के सागर के उत्तरी किनारे पर अपने निवास स्थान पर चले गए। 50. इस क्षेत्र में सुमेरु पर्वत की एक गुफा है जिसे रौंदना कठिन है, जिसकी पूजा संक्रांति के दौरान उनके तीन चरण चिन्हों से की जाती है। 51. वहाँ गुफा में, अपने पुराने शरीर को छोड़कर, सर्वशक्तिमान और बुद्धिमान हरि ने उसकी आत्मा को वासुदेव के घर भेज दिया। ____ भगवान् हरि अपने अंशांश से पृथ्वी पर अवतार लेकर दैत्योंका वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं। इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म की पवित्र कथा कह रहा हूँ। वे साक्षात् भगवान् विष्णु ही यदुवंशमें अवतरित हुए थे ।39-40। _ हे राजन् ! कश्यपमुनि के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्म के शापवश इस जन्ममें गोपालन का काम करते थे। 41। हे महाराज! हे पृथ्वीपते! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नियाँ- अदिति और सुरसा ( नाग माता) ने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था। हे भरतश्रेष्ठ ! उन दोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूपमें जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।
राजा बोले- हे महामते। महर्षि कश्यप ने कौन सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियों सहित शाप मिला इसे मुझे बताइये ।44 ll
वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णु को गोकुलमें जन्म क्यों लेना पड़ा ? ।। 45 ।। सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ युगके आदि तथा सबको धारण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेश से व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थानको छोड़कर मानव-योनिमें जन्म लेकर मनुष्योंकी भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है ।46-47।
भगवान् विष्णु स्वयं मानव-शरीर धारण करके ही मनुष्य जन्म में अनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं ? ।48 ।
काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दुःख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता-ये तथा अन्य भी नाना प्रकारके भाव मनुष्य जन्म में विद्यमान रहते हैँ ।49-51।
दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा । पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम् ॥ ५० ॥
लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा । एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१। "सुरसा रोहिणी के रूप में अवतरित हुईं क्योंकि सुरसा नाग माता हैं और बलराम स्वयं शेषनाग के रूप- इस तर्क से सुरभि न होकर सुरसा सा रोहिणी रूप में अवतरण होना समीचीन और प्राचीन है।
"पिता के मृत्यु के पश्चात -वसुदेव गोप रूप में गोपालन और कृषि करते हुए जीवन यापन किया" शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः । माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥ तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥ वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥६१॥ अनुवाद:-•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए कालान्तरण में पिता की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे ! जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०। _____
अनुवाद: “हे मित्र और वरुण !, आपकी (आज्ञा से) गायें दूध से भरपूर होती हैं, और आपकी (इच्छा) से नदियाँ मीठा पानीय देती हैं; आपके आज्ञा से ही तीन दीप्तिमान वृषभ तीन क्षेत्रों (स्थानों) में अलग-अलग खड़े हैं। ______ हे “वरुण हे “मित्र “वां= युवयोराज्ञया “धेनवः= गावः “इरावतीः- इरा= क्षीरलक्षणा। तद्वत्यो भवन्ति । तथा “सिन्धवः =स्यन्दनशीला मेघा नद्यो वा “मधुमत्= मधुररसमुदकं "दुहे =दुहन्ति । तथा “त्रयः= त्रिसंख्याकाः “वृषभासः= वर्षितारः “रेतोधाः= वीर्यस्य धारकाः “द्युमन्तः= दीप्तिमन्तोऽग्निवाय्वादित्याः“तिसॄणां= त्रिसंख्याकानां “धिषणानां =स्थानानां [धिषण= स्थाने] पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकानां स्वामिनः सन्तः “वि= विविधं प्रत्येकं “तस्थुः =तिष्ठन्ति । युवयोरनुग्रहात् त्रयोऽपि देवास्त्रिषु स्थानेषु वर्तन्ते इत्यर्थः ॥
(वाम्) युवाम् (सिन्धवः) नद्यः (दुह्रे) दोहन्ति (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वृषभासः) वर्षकाः षण्डा: (तिसृणाम्) त्रिविधानाम् (धिषणानाम्)स्थानानां (रेतोधाः) यो रेतो वीर्यं दधाति॥२॥ हिन्दी अनुवाद:- व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥
अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणी के अवतारों का कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥
एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥ तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥
हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनि में जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोक में जन्म लेने पर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥
व्यासजी बोले- जल-जन्तुओं के स्वामी वरुण का यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्मा ने मुनि कश्यप को वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥
हे महाभाग ! न्याय को जानते हुए भी आपने दूसरे के धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥
अहो! लोभ की ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥
महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥
शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥
संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥
अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।
व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥
उधर कश्यप की भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥
जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19 ॥
सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥
व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही | कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21 ॥
जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥
उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23 ॥
तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥
कश्यपमुनि की बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी। उनके ओज से सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी।
इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥
[उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दिति के | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥
इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दितिके | गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।
मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥
जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ 32 ॥
हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कील के समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।।
व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपर से मधुर किंतु भीतर से विषभरी वाणी में विनम्रतापूर्वक उससे कहा- ॥ 35-36 ।।
इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ों की सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।।
मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आपमें कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।।
पादसंवाहन का सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दितिको नींद आने लगी। वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥
दिति को नींद के वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दिति के शरीर में प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥
इस प्रकार योगबलद्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥42 ॥
उस समय वज्राघात से दुःखित हो गर्भस्थ शिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्र ने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥43 ॥
तत्पश्चात् इन्द्र ने पुनः उन सातों टुकड़ों के सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये ॥44 ॥
उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥
यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दिति ने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनों को शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्र ने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय।
जिस प्रकार पापिनी अदिति ने गुप्त पाप के द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और मेरे गर्भ को नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोक से अत्यन्त चिन्तित होकर कारागार में रहेगी। अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यप ने | दितिप्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे। वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुग में तुम्हारा शाप सफल होगा। उस समय अदिति मनुष्ययोनि में जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी।
इसी प्रकार दुःखित वरुण ने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापोंके संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यप के | आश्वासन देने पर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥ जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम-
"हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व -अध्याय - (55) "भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य गोपजातौ अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्"पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय-
*हिन्दी अनुवाद:-★ ________ हरिवंशपर्व सम्पूर्ण। वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय!भोग और मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों के द्वारा जो एकमात्र वरण करने योग्य हैं। वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारद की पूर्वोक्त बात सुनकर मुस्कराए और अपनी कल्याण कारी वाणी द्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले –।१।
'नारद ! तुम तीनों लोकों के हित के लिए मुझसे जो कुछ कह रहे हो -तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा देने वाली है। अब तुम उसका उत्तर सुनो !।२।
अब मुझे भली भाँति विदित है कि ये दानव भूतल पर मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि कौन कौन दैत्य किस किस शरीर को धारण करके वैर भाव की पुष्टि कर रहा है।३।
मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेनपुत्र कंस के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है । घोड़े का शरीर धारण करने वाले केशी दैत्य से भी मैं अपरिचित नहीं हूँ।४।
कुवलयापीड हाथी चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल तथा वृषभ रूपधारी दैत्य अरिष्टासुर को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।५।
विप्रवर -खर और प्रलम्ब नामक असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं। राजा बलि की पुत्री पूतना को भी मैं जानता हूँ।६।
यमुना के कुण्ड में रहने वाले कालिया नाग को भी मैं जानता हूँ। जो गरुड के भय से उस कुण्ड में जा घुसा है।७।
मैं उस जरासन्ध से भी परिचित हूँ जो इस समय सभी भूपालों के मस्तक पर खड़ा है। प्राग्य- ज्योतिष पुर में रहने वाले नरकासुर को भी मैं भलीभाँति जानता हूँ।८।
भूतल के मानव लोक में जो मनुष्य रूप धारण कर के उत्पन्न हुआ है। जिसका तेज कुमार कार्तिकेय के समान है। जो शोणितपुर में निवास करता है। और अपनी हजार भुजाओं के कारण देवों के लिए भी अत्यन्त दुर्जेय हो रहा है। उस बलाभिमानी दैत्य वाणासुर को भी मैं जानता हूँ ।
तथा यह भी जानता हूँ कि पृथ्वी पर जो भारती सेना का महान भार बढ़ा हुआ है उसे उतारने का उत्तरदायित्व( भार,) मुझपर ही अवलम्बित है।९-१०।
मैं उन सारी बातों से परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजा लोग आपस में युद्ध करेंगे। भूतल पर उनका किस प्रकार संहार होगा। और पुनर्जन्म से रहित देह धारण करने वाले इन नरेशों को इन्द्र लोक में किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा।– यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने है।११।
मैं भूलोक में पहुँच कर मानव शरीर धारण करके स्वयं तो उद्योग का आश्रय लुँगा ही दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करुँगा।१२।
जिस जिस विधि से जो जो असुर मर सकेगा उस उस उपाय से ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े़ बड़े़ असुरों का वध करुँगा१३।
मैं योग से इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान गतियों को नष्ट कर दुँगा और इस प्रकार युद्ध में इन देवेश्वरों के शत्रुओं का वध कर डालुँगा।१४।
नारद ! पृथ्वी के हित के लिए स्वर्गवासी देवताओं देवर्षियों तथा गन्धर्वों के यहाँ से जो अपने अपने अंश का उत्सर्ग किया है वह सब मेरी अनुमति से हुआ है । क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा निश्चय कर लिया था। ____ ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह !अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में और किस जाति जन्म लेकर और किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ?।१६-१७।
ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे- तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०।
विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।
यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।
तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३।
यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।
प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।
देव ! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?।२६।
ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।
लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।
इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।
इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।
गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।
अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।
महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।
वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।
गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।
जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नामकी इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।
हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९।
मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।
ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२।
'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३।
महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४।
कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।
हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।
वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७।
विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८।
मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९।
वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०।
वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।
दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः। धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।। ८०-६५ ।। अनुवाद:- इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।
गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश, कुल और गोत्र के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र "अत्रि" है या वैष्णव इस विषय पर अन्तिम निष्कर्ष।
इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य यादवों के जाति, वंश, कुल एवं गोत्रों की वास्तविक जानकारी देना ही है। इसको क्रमबद्ध तरीके से बताने के लिए इस अध्याय को दो भागों में बाँटा गया है-
जिसमें प्रथम भाग में यादवों की जातिगत विशेषताओं को बताते हुए यह भी बताया गया है कि गोप, गोपाल, अहीर, और यादव परस्पर पर्यायवाची व एक ही जाति, वंश एवं कुल के सदस्य नाम हैं। तथा इसके दूसरे भाग में बताया गया है कि- यादवों का मुख्य गोत्र वैष्णव गोत्र है किन्तु विकल्प के रूप में यादव लोग अत्रि गोत्र को भी मानते हैं।
जो भी थोड़ा बहुत पढ़ा- लिखा होगा तथा थोड़ा भी व्याकरण की जानकारी रखता होगा। वह इस बात को अवश्य जानता होगा कि अहीर शब्द के पर्यायवाची - आभीर, गोप, गोपाल, यादव, गोसंख्य, गोधुक, बल्लव, घोष इत्यादि होते हैं।
इस सम्बन्ध में अमरकोश जो गुप्त काल की रचना है। उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूपों में गोप शब्द भी वर्णित हैं, जो इस प्रकार है- १- गोपाल २- गोसङ्ख्य ३- गोधुक, ४- आभीर ५- वल्लव ६- गोविन्द ७- गोप। आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः के समानार्थक: ही है। (श्रोत-अमरकोश- 2/9/57/2/5) आभीर शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची शब्द रूप बनता है। आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन का वाचक है। 'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोशकारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं हैं।
अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप ही प्राकृत भाषा में आहीर तथा अहीर होता है। अब यहाँ पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना आवश्यक हो जाता है। तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते है। ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से भी विकृत होकर हिंदी में आये है, 'तद्भव' कहलाते है। यानी तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किंतु कालांतर में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिंदी में आहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।
जो क्रमशः संस्कृत भाषा के दुग्ध, दधि,अभीर, रत्न,वर्ष,भक्त,स्तन,तथा गृह के तद्भव हैं।
किंतु हमें अहीर,आभीर, और यादव शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना ही अपेक्षित है कि इनका प्रयोग हिंदी और संस्कृत ग्रन्थों में कब कहां और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है।
तो इस सम्बन्ध में सबसे पहले अहीर शब्द को के बारे में जानेंगे कि हिंदी ग्रंथों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ। इसके बाद संस्कृत ग्रन्थों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए समानार्थक रूप में कहाँ-कहाँ प्रयुक्त हुआ। आहीर शब्द का प्रयोग प्रथम बार प्रसिद्ध श्वेताम्वर जैन विद्वान हेमचन्द्र सूरी जिनका जीवन काल 1088-1172 ईस्वी सन् तक है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ऐतिहासिक द्वाश्रय काव्य के द्वितीय सर्ग में आभीर शब्द के प्राकृत भाषा में आहिर शब्द का प्रयोग किया है।
प्राकृत भाषा भारतीय आर्यभाषा का एक प्राचीन रूप है। इसके प्रयोग का समय -(500) ई०पू० से (1000) ईस्वी सन् तक माना जाता है।
हिन्दी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रूप से अहीर शब्द का प्रयोग किया गया है। जैसे-
अहीर शब्द का रसखान कवि ने अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किया हैं।
रसखान का समय (1533 से 1558) ईस्वी सन के लगभग है।
रसखान श्रीकृष्ण को परम ब्रह्म के रूप में देखते है। ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।
धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।। खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी। वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।।
बाँसुरीबारो बड़ो रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।
लाड़लौ छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगौ।।18।।
(रचना सुजान रसखान से उद्धृत)
इसी तरह से भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने 500 साल पहले दो ग्रंथ "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदास जी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।
नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर। हूं चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।। ५८। अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्री कृष्ण) ! आप जगत के तारण तरण (सर्जक) हो, मैं चारण आप श्री हरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुद्र) और दूध से भरा हुआ है।५८।
और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में लिखा है- "सखी री, काके मीत अहीर" ज्ञात हो अहीर नाम का एक राग भी है जो अहीर भैरव नाम से भी जाना जाता है। राग अहीर भैरव का दिन (भोर के समयं) के रागों में एक विशेष स्थान है। यह राग पूर्वांग में राग भैरव के समान है और उत्तरांग में राग काफी के समान है। राग के पूर्वांग का चलन, राग भैरव के समान ही होता है जिसमें ऋषभ पर आंदोलन किया जाता है यथा ग म प ग म रे१ रे१ सा। इसमें मध्यम और कोमल ऋषभ की संगती मधुर होती है, जिसे बार बार लिया जाता है।
इसी राग पर हिंदी फिल्म- "एक दूजे के लिए" का गाना- "बाली उमर को सलाम" गाया गया है "। इससे यह भी सिद्ध होता है कि अहीर जाति की प्राचीनतम एवं अति समृद्धशाली संस्कृति रही है।
इस प्रकार से देखा जाए तो हिंदी ग्रंथों तथा संगीत की दुनिया में अहीर शब्द का प्रयोग केवल यादव, गोप, घोष, और ग्वाला के लिए ही सामान्य रुप से प्रयुक्त किया जाता है, अन्य किसी के लिए नहीं।
अब यह जानना है कि संस्कृत व पौराणिक ग्रंथों में "आभीर" शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से अहीर, गोप, और यादव, के लिए कहाँ-कहाँ किया गया है। ध्यान रहे इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि आभीर संस्कृत शब्द है, जिसका तद्भव रूप आहीर है। तो जाहिर है कि आहीर शब्द संस्कृत में प्रयुक्त नहीं होगा। उसके स्थान पर "आभीर" शब्द ही प्रयुक्त होगा। जैसे -: गर्ग संहिता के विश्वजित् खण्ड के अध्याय (७) के श्लोक संख्या- (१४) में भगवान श्री कृष्ण और नंदबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है। शिशुपाल ने आभीर शब्द का प्रयोग उस समय किया जब संधि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी शिशुपाल के यहां गए। किन्तु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहता है कि-
अनुवाद - • वह (श्रीकृष्ण) पहले नंद नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वासुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं।१४।
• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीतकर भूमण्डल को यादवों से शून्य कर देने के लिए कुशस्थली पर चढ़ाई करूँगा।१६।
इन उपर्युक्त दो श्लोक को यदि देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण सहित सम्पूर्ण अहीर और यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।
इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- (२०) के श्लोक - (६) और (७) में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बंधित थे। भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्। कलिङ्गाः सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।।६।
अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारका , कलिंग सिंहल पराच्य (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६। •अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज, हंस -पथ नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।
इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६,१७ और १८ में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-
अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं।१७-१७। हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। १८
▪इसी तरह से महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है-
अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।
ध्यान रहे ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों को क्षत्रिय होने की भी पुष्टि करती हैं।
इन उपरोक्त श्लोकों से आभीर जाति की प्राचीनतम स्थिति का पता चलता है। ध्यान रहे अहीर का पर्यायवाची शब्द गोप होता है।
इसी तरह से जब भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र की पूजा बंद करवादी, तब इसकी सूचना जब इन्द्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्री कृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को उसने जो कुछ अपशब्द कहा कहा उसका वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय -(२५) के श्लोक - (३) से (५) में मिलता है। जिसमें इन्द्र अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमद्माहात्म्यं गोपानां काननौकसाम् कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।।३।
वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्। कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम्।५।
अनुवाद - ओह, इन जंगली ग्वालों (गोपों ) का इतना घमंड ! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला। ३। • कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५।
इन उपरोक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर, और यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।
इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग गर्गसंहिता के अध्याय- (६२) के श्लोक ३५, में मिलता है। जिसमें जूवा खेलते समय रुक्मी बलराम जी को कहता है कि - नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:। अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।। ३४।
अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले वाले ग्वाले ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।
इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।
जैसे भगवान श्री कृष्ण को तो सभी लोग जानते हैं कि यदुवंश में उत्पन्न होने से उन्हें यादव कहा गया और गोप जाति में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया और गोपालन करने से उन्हें गोपाल कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है। भगवान श्रीकृष्ण को गोपजाति और यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय -(७) में बताया जा चुका है।
भगवान श्री कृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया। जब यज्ञ हेतु सभी लोगों ने श्री कृष्ण को अग्र पूजा के लिए चुना था। किन्तु वहीं पर उपस्थित शिशुपाल इसका विरोध करते हुए भगवान श्री कृष्ण को
यदुवंश शिरोमणि न कहकर उनके लिए ग्वाला (गोप) शब्द से सम्बोधित करते हुए उनका तिरस्कार किया। जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय- (74) के श्लोक संख्या - १८-१९-२० और (३४) में कुछ इस प्रकार है - सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः। नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत्।।१८। अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः। एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।।१९।
अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८। • यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं।१९। • यह सारा विश्व श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्रीकृष्णा ही अग्नि, आहुति और मन्त्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।
भगवान श्री कृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः। यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।।३४। अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ?।३४।
इस श्लोक के अनुसार यदि शिशुपाल के इस कथन पर विचार किया जाए तो उसने श्रीकृष्ण के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहाँ तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्री कृष्ण- गोप, अथवा गोपाल ही हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहे हैं जो इस प्रकार है- एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च। अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८। अनुवाद - इसीलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
अतः शिशुपाल ने भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल या गोप कहा तो कोई गलत नहीं कहा। किन्तु उसने जिस घृणित भावना से भगवान श्री कृष्ण को कौवा और कुलकलंक कहा, यहीं उसने गलत कहा जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्री कृष्ण ने उसका वध कर दिया।
इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्यपर्व के अध्याय- (१००) के श्लोक -(२६ और ४१) में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जहाँ पौण्ड्रक और, श्री कृष्ण के युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहता है कि-
स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह। भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।
अनुवाद- राजा पौंड्रक ने भगवान से कहा- ओ यादव ! ओ गोपाल ! इस समय तुम कहां चले गए थे?।२६। • तब भगवान श्री कृष्ण ने पौंड्रक से कहा - राजन ! मैं सर्वदा गोप हूं , अर्थात प्राणियों का प्राण दान करने वाला हूं , सम्पूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूँ।
देखा जाए तो इन उपयुक्त दो श्लोकों से तीन बातें और सिद्ध होती है। • पहला यह कि- राजा पौंड्रक, भगवान श्रीकृष्ण को यादव और गोप दोनों शब्दों से सम्बोधित करता है। इससे सिद्ध होता है कि यादव और गोप एक ही होते हैं।
• दूसरा यह कि- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने को गोप कहते हुए यह सिद्ध करते हैं कि मैं गोप हूं। • तीसरा यह कि- गोप ही एक ऐसी जाती है जो संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों पर शासन करने वाली है।
इस प्रकार से अध्याय- (९) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं। अब इसके अगले भाग में (दो) में✍️ देखेगें यादवों का वास्तविक गोत्र !
अध्याय- पञ्चम (५) यादवों की जाति, वर्ण, वंश, कुल एवं गोत्र।
इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य जातियों की मौलिकता (Originality of phyla) एवं इसकी उत्पत्ति सिद्धान्त को बताते हुए यादवों की जाति, वर्ण, वंश, कुल एवं गोत्रों की जानकारी देना है। इन सभी बातों की क्रमबद्ध जानकारी के लिए इस अध्याय को निम्नलिखित- (५) भागों में विभाजित किया गया है।
भाग- (१) जातियों की मौलिकता (Originality) एवं (आभीर जाति की उत्पत्ति)
भाग- (२) भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना।
[क]- पञ्चंवर्ण वर्ण की उत्पत्ति। [ख]- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति। [ग] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर- [१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर। [२]- यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर। [३]- भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।
भाग- (३) यादवों का वंश। भाग- (४) यादवों का कुल। भाग- (५) यादवों का गोत्र।
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भाग-(१)
जातियों की मौलिकता (Originality) एवं आभीर जाति की उत्पत्ति-
जातियों का निर्धारण मनुष्य के एक ही तरह के रक्त सम्बन्धी आनुवंशिक प्रवृत्तियों से होता है। जिसमें प्रवृत्तियाँ व्यक्ति की जन्मजात होती हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी उनके जाति समूहों में सञ्चारित होती रहती हैं। इसी जन्मजात प्रवृत्तियों के अनुरूप ही व्यक्ति का स्वभाव और गुण बनता है, जो उस जाति समूह को उसी अनुरूप कार्य करने को प्रेरित करता है। और इसी गुण विशेष के आधार पर जाति का निर्धारण होता है। अर्थात् जन्मजात प्रवृत्ति मूलक आचरण अथवा व्यवहार के आधार पर ही किसी व्यक्ति की जाति का निर्धारण होता है। इसी जन्मजात प्रवृत्तियों के कारण समाज में अलग-अलग जातियों के भिन्न-भिन्न स्वभाव और गुण देखें जातें हैं।
इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जाति व्यक्ति समूहों की प्रवृत्ति मूलक पहचान है जो मनुष्य समूहों में अलग-अलग देखी जाती है। जैसे वणिक समाज का वर्ण "वैश्य" है जिनका वृत्ति (व्यवसाय) खरीद-फरोख्त करना है। और उसी अनुसार उनकी स्वभाव गत गहराई- लोलुपता और मितव्यता है। यहीं उनकी जातिगत और वर्णगत पहचान है। कुल मिलाकर कोई भी जाति अपने समूह की सबसे बड़ी इकाई होती है। और यह ऐसे ही नहीं बनती है। इसके लिए जाति को छोटी-छोटी इकाईयों के विकास क्रमों से गुजरना होता है। जैसे - किसी भी जाति की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति होता है, फिर कई व्यक्तियों के मिलने से एक परिवार बनता है, और कई परिवारों के मिलने से अनेक कुलों या गोत्रों का निर्माण होता है। पुनः कई कुलों के संयोग से उस जाति का एक वंश और वर्ण बनता है। अर्थात् वंश, वर्ण, कुल, गोत्र और परिवार के सामूहिक रूप को जाति कहा जाता है। इसी को जाति का विकास क्रम कहा जाता है।
जाति के लिए जन्तु-मानव शास्त्र में कास्ट" स्पेसीज" रेस " फाइला और ट्राइब जैसे नाम पारिभाषिक रूप में उपलब्ध हैं।
जैसे
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समान आकृति में दिखने वाले जीव समुद्र को स्पेसीज के अन्तर्गत समाहित किया गया- (specere ‘to look’.) species
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Race- समान आचरण अथवा गति वाले जीव समुदाय को रेस के अन्तर्गत समाहित किया है।-
Phylē"पुरुषों की जाति या जनजाति, रक्त और वंश के संबंधों से एकजुट पुरुषों का समूह, एक कबीला" (देखेंphylo-), और अंग्रेजीtribe17वीं शताब्दी से भी इसका प्रयोग किया गया है phylai एथेंसवासियों को जाति के रूप में प्रयोग किया गया।
distribucioun, जैविक समुदाय का प्रवृत्ति मूलक विभाजन पुरानी फ्रांसीसी से सम्बन्धित जो सीधे लैटिन क्रिया ( distribuere) का भूतकालिक कृदन्त संज्ञा रूप
dis- दो" +tribuere-वितरण करन, अनुदान देना," यह भी "जनजातियों के बीच या एक जनजाति को आवंटित करना से सम्बन्धित है ।
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किसी भी जाति के विकास क्रम में मनुष्यों की प्रवृत्तियों की बहुत बड़ी भूमिका रहती है क्योंकि मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियाँ ही विकसित होकर अन्ततोगत्वा वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण (चयन) करती हैं। उनके व्यवसायों के वरण करने से ही उस जाति का वर्ण निर्धारित होता है। व्यवसायों के वरण के आधार पर ही मानव-जातियों के चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हए हैं।
अब यह सब कैसे सम्भव होता है। इसको अच्छी तरह समझने के लिए क्रमशः जाति, वर्ण, वंश, कुल और गोत्र को विस्तार से जानना होगा तभी पूरी बात समझ में आयेगी।
अब इसी क्रम में हमलोग जानेंगे कि आभीर जाति की उत्पत्ति कैसे हुई और किस आधार पर यादवों की जाति "अहीर" हुई ?, जिस- आभीर को गोप, गोपाल, ग्वाल, घोष, वल्लभ, इत्यादि नामों से क्यों जाना जाता है ?
तो इस सम्बन्ध में बता दें कि- अहीर जाति की वृत्ति यानी व्यवसाय पूर्व कल से ही कृषि और पशुपालन रहा है। यह वृत्ति उन्ही प्रवृत्ति वालों में हो सकती है जो निर्भीक और साहसी हों। चूँकि गोपालक अहीर अपने पशुओं को जंगलों, तपती धूप, आँधी तूफान, ठण्ड और बारिश की तमाम प्राकृतिक झञ्झावातों को निर्भीकता पूर्वक झेलते हुए पशुओं के बीच रहते हैं। इसी जन्मजात निर्भीक प्रवृत्ति के कारण ही इनको आभीर (अहीर) कहा गया, तथा वृत्ति (व्यवसाय) गोपालन की वजह से इन्हें - गोप, गोपाल, (ग्वाल) घोष और वल्लभ कहा गया जो कि इनकी वृत्ति यानी व्यवसाय मूलक पहचान हैं।
ये तो रही अहीर जाति की वृत्ति एवं प्रवृत्ति मूलक पहचान। किन्तु जबतक गोप (अहीर) जाति के (Blood relations) रक्त सम्बन्धों को न जान लिया जाए, तबतक अहीर जाति की जानकारी अधूरी ही मानी जाएगी। इसलिए अहीर (गोप) जाति के रक्त सम्बन्धों को जानना आवश्यक है कि अहीर जाति के मूल में किसका प्रारम्भिक रक्त सम्बन्ध विद्यमान है।
तो इसके लिए बता दें कि अहीर जाति के मूल में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का ही रक्त विद्यमान है। इसकी पुष्टि- उस समय होती है जब सावित्री द्वारा विष्णु को दिये गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के अध्याय- १९३ के श्लोक -(१४ और १५) में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -
"तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यन्ति श्लाघ्यताम्॥ सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः॥१४॥
यत्रयत्र च वत्स्यन्ति मद्वंशप्रभवा नराः॥ तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥
अनुवाद -(१४-१५) आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती है- हे विष्णो ! तुम्हारे रक्त सम्बन्धी (blood relative) सभी गोप (अहीर) बिना कुछ किये ही तुम्हारे द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त हो जाऐंगे। और इनकी प्रशंसा विशेषतः देवताओं सहित सभी लोकों में होगी। तथा मेरे गोप वंश (कुल) के लोग जहाँ भी रहेंगे, वहाँ श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो। १४-१५।
अब सवाल यह है कि गायत्री स्वयं अपने को गोप कुल का तथा गोपों को श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्धी (blood relative) किस आधार पर कह रही हैं? तो इसको भी जानना आवश्यक है। चूँकि भूतल पर देवी गायत्री गोप कुल की सनातनी एवं आदि देवी हैं। इसलिए उन्हें स्वयं तथा अपने गोपों की मूल उत्पत्ति का ज्ञान था कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों अर्थात उनके क्लोन से हुई है। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) से है, जिसमें लिखा गया है कि -
"तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
अनुवाद- ४०-४२ • उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं।४०।
• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि - अहीर जाति के मूल में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का ही रक्त विद्यमान है। इसी लिए गोपों अर्थात् आभीरों को श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्धी (blood relative) कहा जाता है।
✴️ आभीर जाति को यदि शब्द व्युत्पत्ति के हिसाब से देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है। अर्थात् आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन रूप है। 'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न प्रकार से व्युत्पत्तियाँ कर दीं हैं। जैसे-
ईसा पूर्व पाँचवी सदी में कोशकार अमरसिंह ने अपने कोश अमरकोश में अहीरों की प्रवृत्ति वीरता (निडरता) को केन्द्रित करके आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की है। नीचे देखें।
पद- विन्यास- आ=समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ( ददाति) आ भीयं राति शत्रुणां हृत्सु इति आभीर: = जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।
किन्तु वहीं पर अमरसिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ नें अपने ग्रन्थ वाचस्पत्यम् कोश में अभीर- जाति की शब्द व्युत्पत्ति को उसकी वृत्ति यानी व्यवसाय के आधार पर गोपालन को केन्द्रित करके की है। नींचे देखें।
"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर: = जो सामने मुख करके चारो-ओर से गायें चराता है या उन्हें घेरता है वह अभीर।
अगर देखा जाय तो उपरोक्त दोनों शब्दकोश में जो अभीर शब्द की व्यत्पत्ति को बताया गया है उनमें बहुत अन्तर नहीं है। क्योंकि एक नें अहीरों की वीरता मूलक प्रवृत्ति( tendentia"झुकाव, झुकाव ) को आधार मानकर शब्द व्युत्पति को दर्शाया है तो वहीं दूसरे नें अहीर जाति को गोपालन वृत्ति अथवा (व्यवसाय) (profation) को आधार मानकर शब्द व्युत्पत्ति को दर्शाया है।
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गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र अत्रि है या वैष्णव ? इस पर एक विश्लेषण आवश्यक है।
सबसे पहले जाति की बात करते हैं ।
जो एक समुद्र के समान है। जातियों का निर्माण मनुष्यों की प्रवृतियों से निर्धारित हुआ। उन प्रवृतियों से जो जन्म से ही उत्पन्न होती हैं।
प्रवृतियाँ विकसित होती हैं मनुष्यों की वृत्तियों ( व्यवसायों) से अनुप्रेरित आनुवांशिक लक्षणों से- वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित- व्यययी (कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों( व्यवसायी) वाले समान परिवेश (माहौल) कोर्ट कचहरी दिवानी आदि में अधिक बोलकर पहल करने वाले होते हैं। और जैसे लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित वृत्ति वाले होते ही हैं।
"यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।
इसलिए जाति रूपी समुद्र में वंश रूपी अनेक नदियाँ प्रवाहित होकर कुल गोत्र रूपी धाराओं दृष्टिगोचर होती हैं। इन वंश में अनेक कुल रूपी कुल्याऐं (नालीयाँ) प्रवाहित होती हैं। सही अर्थों में कुल परिवारों का समूह है।
एक जाति में अनेक वंश होते हैं । और एक वंश में भी अनेक कुल होते हैं। जैसे महाभारत काल में यदुवंश में भी एक सौ से अधिक कुल थे।
नीचे हम कुलों का पौराणिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः। निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः। ३४.२५६।
अनुवाद:- यादवों के एक सौ एक वैष्णव कुल हैं। उन सभी में स्वराट् विष्णु (श्रीकृष्ण) विद्यमान हैं।२५५।
•विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।२५६।
सन्दर्भ:-
इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः। ३४।
तन्निग्रहाय हरिणा प्रोक्ता देवा यदोः कुले ।
अवतीर्णाः कुलशतं तेषां एकाधिकं नृप॥४४॥
अनुवाद :- उन दैत्यों का निग्रह करने के लिए ही यादव वंश के कुलों में हरि के कहने पर देवों ने अवतार लिया।४४।
सन्दर्भ-
________________
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १० उत्तरार्द्ध/अध्यायः (९०)
कुलानां शतमेकं च यादवानां महात्मनाम् ।
सर्वमेतत्कुलं यावद्वर्तते वैष्णवे कुले।28।
विष्णुस्तेषां प्रणेता च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिनस्तस्य कथ्यन्ते सर्वयादवाः।29।
सन्दर्भ-
____________
मत्स्यपुराण अध्यायः (४७)
देवासुरे हता ये तु दैतेयास्मुमहाबलाः। उत्पन्नास्ते मनुष्येषु जनोपद्रवकारिणः॥४७।
तेषामुत्सादनार्थाय भुविदेवा यदो: कुले।
अवतीर्णा: कुलशतं यत्रैकाभ्यधिकं द्विज:।४८।
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।निदेश्षस्थायिनस्तस्य ववृधुस्सर्वयादवाः॥४९।
सन्दर्भ-
विष्णु पुराण चतुर्थांश पञ्चदश(पन्द्रह)वाँ अध्याय।
_________
अनुवाद:-
देवासुर संग्राम में महाबली दैत्यगण मारे गये थे।
वे मनुष्य लोक में उपद्रव करने वाले राजालोग बनकर उत्पन्न हुए।४७।
उनका नाश करने के लिए उनका नाश करने के लिए देवों ने यदुवंश में जन्म लिया उस यदुवंश में एक सौ एक कुल थे।४८।
विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।४९।
________________ अमर कोश मे गोत्र शब्द वर्ण का भी वाचक है।
अत: वर्ण - जाति- गोत्र - वंश - कुल - परिवार और अन्तिम इकाई व्यक्ति ही ये परस्पर रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखला है। ।
इस लिए यादवों का वर्ण और गोत्र दोनो ही वैष्णव है।
आभीर जाति में यदुवंश का उदय हुआ यह सम्पूर्ण जाति स्वराट् विष्णु से उत्पन्न है। अत: इसका वर्ण और पूर्वज गोत्र भी वैष्णव ही है।
यादव वंश में एक सौ एक कुल महाभारत काल में थे ।
ऐसे में गोत्र और वर्ण कैसे एक हो सकता है? इसे हम पारिभाषिक रूप में स्पष्ट करते हैं। वर्ण- वर्णः, पुं, (व्रियते इति । वृ + “कॄवृजॄषिद्रुगुपन्य- निस्वपिभ्यो नित् ।” उणा० ३ । १० । इति नः । स च नित् ।) जातिः वर्ण के अन्तर्गत जन्म से प्राप्त प्रवृत्तियों के अनुसार व्यवसाय के वरण (चुनाव से है। । वर्ण व्यवस्था में चार वर्ण होते हैं, जबकि जातियों की संख्या हज़ारों में है।
वर्ण का आधार व्यक्ति के कर्म और गुण और स्वभाव होते हैं, जबकि जाति का आधार व्यक्ति का जन्म या वंश होता है.
वर्ण व्यवस्था के तहत, व्यवसाय का चुनाव भी किया जाता था. जाति व्यवस्था के तहत ,वंश परम्परागत व्यवसाय को ही अनिवार्य रूप में करना पड़ता है। लोगों को उनके जन्म के आधार पर समूहों में बांटा जाता था।
*** व्यक्ति समूहों की प्रवृति मूलक पहचान है। जैसे मनुष्य समूहों के समाज में अलग अलग देखी जाती -जैसे वणिक( समाज) उनकी वृत्ति ( व्यवसाय) होता है खरीद-फरोख्त करना और उसी अनुसार उनकी (स्वभाव गत गहराई) लोलुपता और मितव्यता यही उनकी जातिगत पहचान है। इसी तरह से जैसे अहीर जाति की वृत्ति कृषि और पशु पालन यह वृत्ति उन्ही लोगों में हो सकती है जो निडर ( निर्भीक) और साहसी हो । इनकी वृत्ति के अनुसार ही इनकी निर्भीक प्रवृति का विकास जन्म से हुआ यह निडर प्रवृत्ति ही इनकी जाति सूचक पहचान है। इसी लिए इनको आभीर कहा जाता है।
सबसे पहले जाति की बात करते हैं । जो एक समुद्र के समान है। जातियों का निर्माण मनुष्यों की प्रवृतियों से निर्धारित हुआ। और प्रवृतियाँ विकसित होती हैं मनुष्यों की वृत्तियो ( व्यवसायों) से । वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित व्यययी( कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों( व्यवसायी) वाले समान परिवेश (माहौल) कोर्ट कचहरी दिवानी आदि में पहल करने वाले होते हैं। लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित होते ही हैं। सीमा पर सैनिक तैनात होते हैं उनकी समान प्रवृति होती है। प्रवृत्ति स्वभाव की गहराई का दूसरा नाम है जो जन्म से ही सुनिश्चित होती है। स्वभाव और प्रवृत्ति में वही अन्तर है जो अनुभव और अनुभूति में है।
यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है। __
व्यक्ति के आनुवांशिक (patrimonial ) रक्त प्रवाह से समन्वित जैविक श्रृंखला ही वंश है। यह पीढियों की सीढियों में प्रवाहित होता। आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) का प्रयोग करके प्रायः जीवों का डी० एन० ए० परखा जाता है और इस आधार पर उन जीवों को एक जाति का घोषित किया जाता है जिनकी डी•एन•ए छाप एक दूसरे से मिलती हो और दूसरे जीवों से अलग हो। एक जाति में अनेक वंश होते हैं ।
इसलिए जाति रूपी समुद्र में वंश रूपी अनेक वँश रूपी नदियाँ निकलती हैं। एक जाति में अनेक वंश होते है। वंश भी रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखला है। जिसमें अपने पूर्वजों का स्वभाव आनुवंशिक रूप से नदी रूप में प्रवाहित होता है।
तथा इन वंश रूपी नदियों से गोत्र रूपी धाराऐ निकलती हैं। और वंश में अनेक कुल रूपी कुल्याऐं( नालीयाँ ) निकलकर परिवारों का समूह का निर्माण करती है।
एक जाति में अनेक वंश होते हैं । और एक वंश में भी अनेक कुल होते हैं। जैसे महाभारत काल में यदुवंश में एक सौ कुल थे।
"कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्। सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।३४.२५५। अनुवाद:-यादवों( यदुवंश)के एक सौ एक कुल हैं। और वे सब कुल विष्णु के कुल ( वैष्णव कुल ) स्वराट् विष्णु सबमें विद्यमान हैं। २५५।
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः । निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।। ३४.२५६ ।। अनुवाद:- विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध(बन्धे हुए) हैं।२५६।
इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३४ ।।
अमर कोश मे गोत्र वर्ण का भी वाचक है। अत:१- वर्ण - २-जाति- -३- वंश -४-गोत्र ५-कुल - ६-परिवार और अन्तिम इकाई ५-व्यक्ति ही होता है। ये सभी उत्तरोत्तर परस्पर जुड़ी हुई रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखलाऐं हैं। । इस लिए यादवों का वर्ण और गोत्र दोनो ही वैष्णव है। आभीर जाति में यदुवंश का उदय हुआ यह सम्पूर्ण जाति स्वराट् विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न है। अत: इसका वर्ण और पूर्वज गोत्र( जनन गोत्र) भी वैष्णव ही है। यादव वंश में एक सौ एक कुल महाभारत काल में विद्यमान थे । ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में गोत्र मूलत: चार ही थे। महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- (२९६) के श्लोक- (१७) से होती है। जिसमें - राजा जनक पराशर ऋषि का प्रश्नोत्तर रूप में संवाद है।-
अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।१८। महाभारत शान्ति पर्व का निम्न श्लोक इस बात का संकेत करता है।
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव। नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८। अनुवाद: अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।१८।
"जनक उवाच। विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम। तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि॥१९॥ अनुवाद:- जनक ने पूछा - वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।
यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः । कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः॥२॥ अनुवाद:- आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्पन्न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्मदाता पिता ही नूतन जन्म धारण करता है। ऐसी दशा में प्रारम्भ में ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्म हुआ है।२।
तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ? तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि "पराशर उवाच। एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः। तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः। अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।
अनुवाद:- जिससे जो जन्म लेता है, उसी का वह स्वरूप होता है तथापि तपस्या की न्यूनता के कारण लोग निकृष्ट जाति को प्राप्त हो गये हैं।३।
उत्तम क्षेत्र( खेत) और उत्तम बीज से जो जन्म होता है, वह पवित्र (उत्तम) ही होता है। यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्न संतान की ही उत्पत्ति होती है।४।
धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।५।
मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रबन्धवः। ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः॥६॥ अनुवाद:- तात ! जो मुख से उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्पत्ति हुई।
इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं। इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्म दिया है, तब मनुष्यों के भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं । *****
"जनक ने पूछा- ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्पन्न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्व को कैसे प्राप्त हुए ? ।११। पराशर जी ने कहा -
राजन ! तपस्या से जिनके अन्त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्मा पुरूषों के द्वारा जिस संतान की उत्पत्ति होती है, अथवा वे स्वेच्छा से जहाँ-कहीं भी जन्म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि (जातीय शरीर) से निकृष्ट होने पर भी उसे उत्कृष्ट ही मानना चाहिये ।१२।
नरेश्वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्पन्न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया।१३।
उपरोक्त संवादों से सिद्ध होता है कि - प्रारम्भिक काल में गोत्रों का निर्धारण व्यक्ति के तपोबल एवं उसके कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ करता था। अर्थात् निम्न योनि का व्यक्ति भी अपने तपोबल एवं कर्मों के आधार पर उच्च योनि को प्राप्त कर सकता था।
उसी तरह से उच्च योनि का व्यक्ति निम्न कर्म करने पर निम्न योनि को प्राप्त होता था। किंतु इस सिद्धांत का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और अन्ततोगत्वा ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में गोत्र एवं कुल का निर्धारण कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा। जिसके परिणाम स्वरूप सामाजिक भेदभाव एवं अस्पृश्यता का उदय हुआ। क्योंकि पूर्व काल में जिन चार ऋषियों अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु से जो चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे उनके अतिरिक्त ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अपनी आवश्यकतानुसार अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारिणों में शामिल किया जो किसी न किसी
रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए थे। उन सभी को सम्मिलित कर पुरोहितों नें गोत्र निर्धारण का एक नया सिद्धान्त बनाया जो मुख्यतः तीन सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनि जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करती हैं।
ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर सन्तान पूरक गोत्र ( पूर्वज गोत्र)कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि काक संतान हूं। ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।
(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात निज की उत्पत्ति किससे हुई है इसका पता ही नहीं हो। तो ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।
(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यन्त किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं। ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं- (१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्ध का संकेत करता है।
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र- गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी अन्य ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा या किसी ऋषि-मुनि से हुई है। (गुरु गोत्र)
इस सम्बन्ध में बतादें कि- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई।
इसलिए श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है। तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश पौराणिक ग्रन्थों में यादवों के मुख्य गोत्र "वैष्णवअथ गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।
जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्में ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर यादवों में स्वीकार किए गये है ? यह एक विचारणीय विषय है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज एवं योगेश कुमार रोहि व गोपाचार्य हंस माता प्रसाद जी आदि विचारकों का कहना है कि - "गोप जाति श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि ऋषि से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण भी यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।" विदित हो कि वर्ण और गोत्र दोनों ही शब्द मनुष्य की उत्पत्ति मूलक सम्बन्धों को सूचित करते हैं। ईसापूर्व पञ्चम सदी के संस्कृत कोश अमर कोश में गोत्र शब्द एक एक पर्याय वर्ण भी है।
गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हंस श्रीमाताप्रसाद , योगेश रोहि आदि विद्वानों का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि सम्पन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है"। रक्त सम्बन्धी गोत्र गोपों का कार्ष्ण: है।
गोपों के इस वैकल्पिक गोत्र अत्रि की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर क्षेत्र में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ था। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारों द्वारा संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे।
उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को सम्पन्न कराने का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना था।
अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६) और (१७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
तो आज इसी तरह के समस्त संशयों का समाधान इस अध्याय में किया गया है कि कैसे यादवों का गोत्र और वर्ण दोनों ही वैष्णव है। किन्तु इसके पहले मेरे उस वीडियो को आपको देखना होगा जिसमें बताया गया है कि यादवों का मुख्य गोत्र- वैष्णव गोत्र है। नहीं तो आपका संशय यो ही बना रहेगा। दूसरी बात यह कि यादवों के गोत्र, जाति और वर्ण को जानने से पहले ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के गोत्र, वर्ण, और जाति व्यवस्था को जानना होगा। क्योंकि यादव ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के भाग नहीं हैं। यह बात भी इस वीडियो में स्वतः सिद्ध हो जायेगा। जिसमें सबसे पहले आप लोगों ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के गोत्र,चातुर्वर्ण्य तथा जाति व्यवस्था को जानते हुए उसी क्रम में यादवों के वैष्णव वर्ण की उन समस्त विशेषताओं को भी जान पाएंगे जिनकी जानकारी न होने से यादव समाज आज तक भ्रम की स्थिति में जी रहा है। तो चलिए श्रीकृष्ण का नाम लेकर बिना देर किए इन सभी महत्वपूर्ण जानकारियों को प्रारंभ करते हैं।
तो इस सम्बन्ध में बता दें कि किसी भी व्यक्ति का गोत्र मुख्यतः तीन प्रकार का होता है- (१)- मूल गोत्र( जनन) गेत्र (२)- स्थानमूलक गोत्र (३)- गुरु गोत्र
अब हमलोग क्रमवार इन तीनों प्रकार के गोत्रों की उत्पत्ति और विशेषताओं को जानेंगे-
(१)- जिसमें पहले नम्बर पर "मूल गोत्र" का नाम आता है। यह गोत्र किसी व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है की किस व्यक्ति की प्रारंभिक उत्पत्ति किससे हुई है। इस मूल गोत्र में व्यक्ति का रक्त संबंध होता है। जैसे गोपों (यादवों) का मूल गोत्र वैष्णव है। क्योंकि यादवों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है। इसके बारे में आगे बताया गया है। इसी तरह से जो लोग अपने को ब्रह्मा जी की संतान मानते हैं उन सभी का मूल गोत्र- "ब्राह्मी गोत्र" है। जैसे- ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न कुछ ब्राह्मण इत्यादि।
अब आप लोगों यहां पर यह सोच रहे होंगे कि कुछ ही ब्राह्मण क्यों सभी ब्राह्मण क्यों नहीं ? क्या सभी ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न नहीं हैं? तो इसका जवाब है जी हां सभी ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न नहीं हुए हैं। क्योंकि कुछ पौराणिक ग्रंथों में ब्राह्मणों के जन्म को अन्य तरह से भी बताया गया है। किन्तु यहां पर ब्राह्मणों की उत्पत्ति को बताना मेरा उद्देश्य नहीं है। फिर भी यदि कोई यह बात जानना ही चाहता है तो वह स्कन्द पुराण का खण्ड- (३) के अध्याय- (३९) के प्रसंगों को पढ़कर यह जानकारी ले सकता है कि अधिकांश ब्राह्मणों कि जन्म दूसरे तरीके से किस प्रकार बताई गई है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि मूल गोत्र व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है कि व्यक्ति की प्रारंभिक उत्पत्ति जिससे हुई है, उसीके नामानुसार उस व्यक्ति का मूल गोत्र निर्धारित होता है। जैसे- ब्राह्मी गोत्र, वैष्णव गोत्र इत्यादि। जिसमें वैष्णव गोत्र के बारे में आगे विस्तार से बताया हूं।
(२)-दूसरा गोत्र स्थान या स्थानीय गोत्र के नाम से जाना जाता है, जो किसी व्यक्ति के भौगोलिक स्थिति को दर्शाते हुए स्थान विशेष की पहचान कराता है। इस तरह के गोत्र की उत्पत्ति तब होती है जब एक ही जाति वर्ण और वंश के लोग जब किसी परिस्थिति विशेष के कारण अपने मूल निवास स्थान से (Migrate) कर जाते हैं, अर्थात वे अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर अपने समूह सहित अन्यत्र जाकर बस जातें हैं। तब उनके मूल स्थान के नाम पर उनकी पहचान हेतु एक उपगोत्र बन जाता हैं। इस तरह का
स्थानीय गोत्र अधिकांशतः गोपों अर्थात यादवों में देखने को मिलता है। यहीं कारण है कि यादवों में इस तरह के गोत्र बहुतायत पाए जाते हैं। देखा जाए तो भारत के हर प्रान्तों में यादवों की पहचान अलग-अलग गोत्रों से होती है। किन्तु उनका मूलगोत्र, जाति एवं वंश पूर्ववत बना रहता है।
यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। पूर्व काल में कंस के अत्याचारों से बहुत से यादव मथुरा छोड़कर यत्र-तत्र सर्वत्र बस गए। इसी तरह से केशी राक्षस के भय से नन्द बाबा के पिता पर्जन्य मथुरा छोड़कर परिवार सहित गोकुल में जा बसे। किन्तु वहां पर पशुओं के लिए अच्छा चारागाह न होने के कारण नन्द बाबा गोकुल को भी छोड़कर श्रीकृष्ण सहित समस्त गोपों के साथ ब्रज के बृंदावन में रहने लगे। इसके अतिरिक्त जब श्रीकृष्ण कंस का वध करके मथुरा में रहने लगे तब वहां पर जरासंध के बार बार आक्रमण से तंग आकर श्रीकृष्ण अपने समस्त गोपों के साथ मथुरा को छोड़कर द्वारका नगरी में रहने लगे। कहने का तात्पर्य यह है कि यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। जिसके परिणामस्वरूप उनके स्थान विशेष के नाम पर अनेकों गोत्रों का उदय हुआ। आज वर्तमान समय में यादव हर प्रांतों में अलग-अलग गोत्रों के नाम से जाने जाते हैं। किन्तु उनका मूलगोत्र वैष्णव गोत्र ही। जैसे- ढ़़ढ़ोर, ग्वाल, कृष्नौत, मझरौट, मथुरौट, नारायणी, घोसी, घोष, गोल्ला, गवली, मरट्ठा, मथुवंशी, इत्यादि बहुत से स्थानीय उपगोत्र है उन सभी को बता पाना इतना आसान नहीं है जितना आप सोच रहे होंगे। इसके अतिरिक्त भारत से सटे राज्य नेपाल में भी यादवों के बहुत स्थानीय उपगोत्र है जैसे - सिराहा, धनुषा, सप्तरी, बारा, रौतहट, सरलाही, परसा, महोत्तरी, बांके, सुनहरी इत्यादि। ये सभी यादवों के ही स्थानी उपगोत्र हैं।
अब आते हैं तीसरे प्रकार के गोत्र - गुरु गोत्र पर
(३)- गुरु गोत्र - गोपों के तीसरे प्रकार के उपगोत्र का नाम है। इस प्रकार के गोत्र में व्यक्ति या व्यक्ति समूह किसी ऋषि या अपने पसंद के विश्वासनीय सतनामी गुरु या किसी ऋषि मुनि से- दीक्षा, गुरुमंत्र या गुरूमुख होकर अपने उपगोत्र या वैकल्पिक गोत्र का निर्धारण करते हैं। इसलिए इस प्रकार के गोत्र को "गुरुगोत्र " कहा जाता है, जिसमे गोत्र कर्ता (ऋषि )और उसके अनुयायियों में किसी प्रकार का रक्त संबंध नहीं होता है। इस तरह के गोत्र का मुख्य उद्देश्य- दीक्षा, शिक्षा, पूजा-पाठ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने तक ही सीमित होता है। गोपों के इस वैकल्पिक "गुरूगोत्र" अत्रि नाम की परम्परा का प्रारंभ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही प्रचलन में आया। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मंत्रोच्चारण से संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे। उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को संपन्न का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक गुरु गोत्र बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को संपन्न कराना था। अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६ और १७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है। वर्ण- जाति वंश कुल खान) गोत्र ( वैवाहिक विभाजन के लिए ताकि एक ही गोत्र मे विवाह न हो सके)
एक समुद्र के समान हैं। जिनसे वंश रूपी नदियाँ निकलकर अन्ततोगत्वा कुल रूपी कुल्याओं (कुलावों) में विभाजित हो जाती हैं।
जातियों का निर्माण मनुष्यों की चिर-पुरातन प्रवृतियों से निर्धारित होता है। उन प्रवृतियों से जो जन्म से ही उत्पन्न होते हुए भी सम्पूर्ण जीवन निर्माण और जीवन सञ्चालन में सहायक होती हैं।
जाति की अवधारणा जन्म मूलक है। शब्द कल्पद्रुम में जाति शब्द जन्- प्रादुर्भावे उत्पन्न होने ) के अर्थ में है।
जातिः---स्त्रीलिंग, (जायतेऽस्यामिति । जन् + अधि- करणे क्तिन् ) -जिसमें जन्म हो । (जन + भावे क्तिन् ।) जन्म। इसी शब्द अमरकोश जाति: शब्द गोत्र के अर्थ में भी है। वस्तुत: जाति और गोत्र जन्म मूलक ही हैं।
संस्कृत के प्राचीन शब्द कोश ( अमर कोश) में भी जाति के पर्याय निम्नलिखित रूप में है।
जाति स्त्री। जननम् समानार्थक:जनुस्,जनन,जन्मन्,जनि,उत्पत्ति,
उद्भव,जाति,भव,भाव 3।3।68।1।2।
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जातियों के मूल में उनकी जन्मगत प्रवृतियाँ व स्थितियाँ सदैव से चित्त में विद्यमान रहती हैं। यह एक सूक्ष्म विवेचना है। साधारण जन इस ज्ञान से वञ्चित हा होते हैं।
संसार में अनेक प्राणी विद्यमान हैं। सबकी प्रवृत्तियाँ और गतियाँ भी भिन्न भिन्न हैं। आगामी जन्म का निर्धारण भी व्यक्ति की प्रवृत्तियों के अनुरूप ही होता है।
एक ही परिवार में माता - पिता और परिवेश भी समान होने पर सन्तानों के स्वभाव में भेद होना प्रवृत्ति मूलक प्रारब्ध ही है।
भारतीय समाज में जातियों की अवधारणा प्रवृत्तियों से सम्बन्धित न होकर वृत्तियों से सम्बन्धित की गयी है। जो पूर्णत: सिद्धान्त के विपरीत है।
वृत्तियों से वर्ण का निर्धारण होना तो सही है।परन्तु इन वृत्तियों से जाति का निर्धारण होना ही गलत है। और भारतीय वर्ण-व्यवस्था में यह गलती जब से हुई है समाज टूटा है। जिसका खामियाजा वह आज तक भुगत रहा है।
वृत्ति आवृत्ति और प्रवृत्ति दर्शन शास्त्र के ये तीन शब्द हमारी व्यावहारिकता की तीन अमूर्त अवस्थाओं को स्थापित करती हैं।
वृत्ति- हमारे उस आचरण का रूपान्तरण है। जिसके द्वारा हम जीविका उपार्जन करते हैं।
- आवृत्ति- हमारे आचरण की अभ्यस्तता (अथवा आदत का रूपान्तरण है। यह स्थापित प्रवृत्ति है। जो मनुष्य द्वारा दोहराए जाने वाले व्यवहार के ढ़ग को प्रदर्शित करती है जो तन्त्रिका मार्गों में अंकित हो जाने से अवचेतन मन से ही स्वत: सञ्चालित होती रहती हैं ।
मानसिक क्रिया का कोई भी क्रम जो बार-बार दोहराया जाता है। आवृत्ति अथवा आदत कहलाता है।
प्रवृत्ति - प्रवृत्ति से तात्पर्य मन का एक सहज झुकाव जो कभी-कभी एक प्रेरक बल के बराबर होता है। प्रवृत्तियाँ हमारे अचेतन मन (चित्त) में सञ्चित जैविक प्रेरणाओं का रूपान्तरण है। प्रवृत्ति स्वभाव की गहराईयों के रूप में होती है।
ये तीनों एक दूसरे के सापेक्ष अवश्य हैं। परन्तु सबका अस्तित्व पृथक पृथक हैं।
यद्यपि प्रवृतियाँ मनुष्यों की वृत्तियों (व्यवसायों व नित्य- नैमित्तिक कर्मों ) को प्रकाशित करती हैं। उसी प्रकार मनुष्य की वृत्तियाँ भी प्रवृत्तियों पर परावर्तित होकर उसे सदैव व्यक्ति के आचरण अथवा कारनामों को प्रभावित करती रहती हैं ।
प्रवृत्ति-
सामान्य अर्थ में प्रवृति किसी जाति के चित्त में संचित जातीय संस्कार है। जो सांसारिक वस्तुओं के प्रति उस व्यक्ति के आग्रह (झुकाव) को निर्देशित करती हैं।
जबकि वृत्ति उसके जीविका उपार्जन के लिए किये गये क्रिया-कलाप को रूपान्तरण करती है।
भारतीय समाज में जातियाँ आनुवांशिक लक्षणों से सुनिश्चित होती हैं। जो किसी जाति में पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित जन्मगत श्रृंखला हैं। सभी जातियों का अपना एक विभिन्न परिवेश होता है। भारतीय समाज की सभी जातियाँ अपने अपने परिवेश में बँधी हुई होकरअपनी विशेष वृत्तियों से जीवन निर्वाह करती हुई देखी जाती हैं।
मनुष्य की वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर कभी कभी जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित- व्यययी (कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों ( व्यवसायी) वाले वाणी-कुशल व वाचालता से परिपूर्ण होते ही हैं।
समान परिवेश (माहौल) में जैसे कोर्ट -कचहरी दिवानी आदि में अधिक बोलकर मुवक्किल के पक्ष में पहल करने वाले वकील बोलने के अभ्यस्त हो होते हैं।
और जैसे लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित वृत्ति वाले होते ही हैं।
वैसे ही डॉक्टर आदि की भी वृत्ति उनके परिवेश से प्रेरित होती हैं।
"यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।
और प्रत्येक प्राणी अपनी जाति मूलक अस्तित्व से ही संसार में पहचाना जाता है। जैसे पुष्प की पहिचान उसकी सुगन्ध से होती है। वैसे ही जाति की पहचान उसकी प्रवृत्ति से होती है।
ईश्वर ने यही वर्गीकरण करके प्राणीयों को इस संसार में क्रमानुगत रूप से उत्पादित किया है।
मानवीय जातियों के उत्तम और अनुत्तम होने का मानक तो प्रकृति के तीन गुण सत' रज और तम का आनुपातिक योग से निश्चित होते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में भी व्यक्ति के कर्म और गुणों के आधार पर ही वर्णों की बात की गयी है। जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण नहीं किया सकता है -जैसे- एक प्रसंग में ब्रह्मा के चातुर्वर्ण्य का निर्देश भगवान कृष्ण ने करते हुए कहते हैं।
सत्त्व रज तम इन तीनों गुणों के विभाग से तथा कर्मों के विभाग से यह चारों वर्ण मुझ ईश्वर के निर्देश से ब्रह्मा द्वारा रचे गये हैं।
क्योंकि वह परमात्मा ही सबकी रचना करने पर भी कर्तापन से रहित रहता है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण तथा देवी भागवत आदि पुराणों में ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु के नाभिकमल से ही बतायी गयी है। और उसी ब्रह्मा को प्रभु ने चारों वर्णों की सृष्टि करने का निर्देश किया।
अर्थ:- श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे ! वत्स ब्रह्मा ! सृष्टि रचना करने के लिए महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।४८।
सन्दर्भ:-ब्रह्मवैवर्तपुराण-(ब्रह्मखण्डः)/अध्याय(6) तथा इसी बात को
नीचे
देवीभागवतपुराण- स्कन्धः (9)अध्यायः (3) - में भी बताया गया है।
"श्रीभगवानुवाच
"सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्भवो भव ।
महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु॥४८॥
अर्थ:-श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।४८।
उनके नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए। उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे। फिर भी वे पद्मयोनि ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनाल के अन्ततक नहीं जा सके, हे नारद !तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिन्तातुर हो गये ।53-54॥
ब्रह्मा ने चातुर्वर्ण्य सृष्टि कृष्ण जी के निर्देश पर ही की परन्तु भगवान कृष्ण ने अपने रोमकूपो ( कोशिकाओं ) से गोपों की सृष्टि पञ्चं वर्ण के रूप में की।
श्रीमद्भगवद्गीता में एक स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण नें प्रकृति के तीनों गुणों का धर्म (प्रभाव) को बताया है। जो संसार की मानव जातियों को सांस्कृतिक रूप से सात्विक राजसिक और तामसिक गुणों के अनुपात से प्रभावित करती रहता है।
अनुवाद : हे महाबाहु अर्जुन ! सात्विक गुण, राजसिक गुण और तामसिक गुण यह तीनों गुण प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों के कारण ही अविनाशी जीवात्मा शरीर में बँध जाती हैं। (५)
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ (६) अनुवाद:- हे निष्पाप अर्जुन ! वहाँ सतोगुण निर्मलता-प्रकाश- और निरोगता का कारण है। यह सुख और ज्ञान के साथ जीव को बाँधता है।
(६)
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ (७)
अनुवाद:- : हे कुन्तीपुत्र ! रजोगुण को रागात्मक समझो! जिससे कामनाओं ( इच्छाओं) का जन्म होता है। जो कर्म के बन्धनों में जीवात्मा को बाँधता है । (७)
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ (८) अनुवाद:- : हे भरतवंशी ! तमोगुण को शरीर के प्रति मोह के कारण अज्ञान से उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण जीव प्रमाद (पागलपन में व्यर्थ के कार्य करने की प्रवृत्ति), आलस्य - किसी कार्य को करने में ढ़ीलापन) और निद्रा (अचेत अवस्था में न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति) द्वारा बँध जाता है। (८)
मनुष्य के सभी कार्य प्रकृति के इन्हीं तीनों गुणों से प्रेरित होते हैं। इन्हीं अनुपात में व्यक्ति की प्रवृत्तियाँ बनती हैं।
योगशास्त्र में वर्णन है कि:– सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगः २.१३ ॥ अर्थात "पूर्व कर्म के अनुसार प्राणियों को जाति, आयु और भोग प्राप्त होते हैं।"
ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥ २.१४।
जो सुख- दु:ख और पाप पण्य
का कारण होते हैं।२/१४। अर्थात
पुण्य और पाप के कारण ये (जन्म, आयु और भोग) सुखदायक और दुःखदायक अनुभव उत्पन्न करते हैं।
"जो मनुष्य धर्मात्माओं के लोकों को प्राप्त होकर तथा वहाँ चिरकाल तक निवास करके योग से च्युत हो गया था, वह पुनः पवित्र और धनवानों के घर में जन्म लेता है।"
अलग-अलग लोग अलग-अलग परिस्थितियों में जन्म लेते हैं, जैसे कि कुछ निर्धन होते हैं, कुछ धनवान होते हैं, कुछ सुंदर होते हैं, कुछ बदसूरत होते हैं। यह भेदभाव क्यों किया जाता है और इसका निर्णय कौन करता है?
कर्म के नियम के अनुसार , आपका सञ्चित कर्म (जो सभी कर्मों का भण्डार है ) तय करता है कि आप कहाँ पैदा होंगे, आपका लिंग क्या होगा, आपका जीवनकाल और आपके जीवन में आपका प्रारब्धक्या होगा।
कर्मप्रवृत्तियों और इच्छाओं के परिणाम हैं।
(5) जन्म के लिए जिम्मेदार कर्म जीवन की अवधि और आयु सुख-दुख के अनुभव को भी निर्धारित करते हैं।
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जीवन की शूक्ष्मताऐं अन्त:करण में समाहित हैं।
अंतःकरण चतुष्टय का मतलब है- मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार. यह वेदान्त दर्शन की एक अवधारणा है।
आत्मा और प्रकृति के मिलन से चित- उत्पन्न होता है। चित्त ही चेतना का कारण बनता है।
मन इस चित्त की ही तीन क्रमिक अवस्थाऐं है
चित्त स्मृतियों व पूर्व जन्म के अनेक जन्मों के संस्कारों का सञ्चय है।
मन के तीन स्तर होते हैं चेतन ( जाग्रत) अव- चेतन ( स्वप्न) और सुषुप्ति ( निद्रा) मन का अचेतन रूप है।
मन की जाग्रत अवस्था को जब अपने अस्तित्व का बोध व आभास होता है तब वह बोध अहंकार कहलाता है।
मन के इस जाग्रत रूप से अहंकार का जन्म होता है और मन इसी अहम् से युक्त होकर
संकल्प और विकल्प करता है।
इन संकल्पों से इच्छाओं का और विकल्पों से निर्णय शक्ति के रूप मे बुद्धि का जन्म होता है।
प्रवृत्तियों का सञ्चय हमारे चित्त में ही होता है।
अतः प्रत्येक प्राणी जन्म से किसी न किसी जाति का होता है। यहाँ यह अन्तर ध्यान देने योग्य ही है।
मनुष्य की सभी जातियाँ सामान्यतः प्रसव आकृति और बाह्य अंग -रंग आदि से तो समान ही दिखती हैं।
परन्तु उनके चित्त में निहित प्रवृत्तियों से ही उनकी जातिय पृथकता सुनिश्चित होती है ।जो सभी मानव समुदायों ( समाजों) की भिन्न भिन्न है।
किसी भी धार्मिक शास्त्र में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि प्रत्येक प्राणी जन्म से किसी न किसी वर्ण का होता है,-
वर्ण का सम्बन्ध व्यक्ति के प्रवृत्तिगत चुनाव ( वरण) से होता है।
वर्ण का सम्बन्ध जन्म से नहीं होता अपितु वृत्ति पर आधारित होता है तथा वृत्ति का चयन प्रवृत्ति के अनुरूप ही होना कल्याणकारी है।
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अब शास्त्रोक्त अर्थ में जाति है क्या ? इसका उत्तर न्यायशास्त्र में गौतम ऋषि ने भी दिया है:– समानप्रसवात्मिका जाति अर्थात "जिसका समान प्रसव (जन्म) हो वह सजाति है।"
समान प्रसव वह है जिनके संयोग से सन्तान का उत्पन्न होना सम्भव है। उदाहरण स्वरूप बैल, गाय एक जाति के हैं परंतु घोड़ा और कुत्ता भिन्न जाति के हैं क्योंकि इनके परस्पर मेल से प्रसव धारण सम्भव नहीं है। एक जाति में भी भिन्न भिन्न स्वरूप एवं लक्षण के जीव हो सकते हैं। ये जातिमूलक प्रवृत्तियाँ उनके आनुवांशिक गुणों की संवाहक हैं।
यह मानव जाति की बात है। जिसमें जातियाँ समानाकृति (species) की तो हैं।
उनकी मनस् प्रवृत्तियों में समानता नहीं है।
परन्तु पशुओं में भी दो भिन्न जातियों के मिश्रण से नयी जाति बनाती है।
जिनकी शारीरिक और प्रवृत्ति मूलक भिन्नता होती है। जैसे
सिंह और बाघ के संयोग से लाइगर, घोड़े–गधे के संयोग से खच्चर इत्यादि मिश्र लक्षण युक्त जीव उत्पन्न होते हैं ।
लाइगर, नर शेर और मादा बाघिन के संकर बच्चे होते हैं. लाइगर, बिल्ली परिवार के सबसे बड़े जानवरों में से एक हैं. ये शेरों की ताकत और बाघों की फुर्ती का मिश्रण होते है।
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व्यक्ति के स्वभाव और प्रवृत्तियों से जातियाँ गुण निर्धारित होते हैं।
एक कुत्ता का जो स्वभाव और प्रवृत्ति होती है ।
वह सहज परिवर्तित नहीं होती है नीतिकारों ने कुता के विषय में बताया-
शुनकः स्वर्णपरिष्कृतगात्रो नृपपीठे विनिवेशित एव ।
अभिषिक्तश्च जलैः सुमुहूर्ते न जहात्येव गुणं खलु पूर्वम् ॥३७९।
(मुक्तिसूक्तवलि- शुनक:पद्धति -- जल्हणकृत )
'
अनुवाद:- कुत्ते को स्वर्ण अलंकारों से विभूषित करके राजसिंहासन पर बैठा कर अच्छे मुहुर्त में जल से अभिषेक करने पर भी कुत्ता
जातिगुण नहीं छोड़ता। अर्थात उसकी प्रवृति उसके परिवेशीय गुणों से समझौता नहीं करती है।
संसार में परिभ्रमण करते हुए लाखों-करोड़ों बार जन्म लेकर असंख्य बार प्राप्त हुई नीच, ऊँच और मध्यम अवस्थाओं को जानकर भी कौन बुद्धिमान जातीय निर्धारण नहीं करेगा ? कर्मवश संसारी प्राणी इन्द्रियों की रचना से उत्पन्न होने वाली विभिन्न जातियों में जन्म लेता रहता है। यह भी उसकी प्रवृत्ति सुनिश्चित करती है।
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अब हम आभीर जाति की बात करते हैं।
अभीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।
अपनी जीवन यात्रा के कई पढावों पर अपने विकास क्रम में कई रूपों को धारण करने वाला शब्द है अहीर -
अहीर आहीर ये दोनों शब्द क्रमशः अभीर और आभीर शब्दों के ही प्राकृतिक रूप है।
विदित हो की "आभीर शब्द "अभीर शब्द का समूह वाची "रूप है।
जो अपने प्रारम्भिक रूप में वीर शब्द से विकसित हुआ है।
यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।
अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
"चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति के सूत्रधार थे। अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है । जो अफ्रीका में अफर" के रूप में थी जिसका प्रारम्भिक निवास मध्य अफ्रीका के जिम्बाब्वे मेें था।
"तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में थे और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थे।
ये सभी मूलत: एक स्थान से ही अन्यत्र गये।
सभी अहीर पशुपालक अथवा चरावाहे थे।
भारतीय संस्कृत भाषा के ग्रन्थों में अभीर और आभीर दो पृथक शब्द प्रतीत होते हैं।
परन्तु यथार्थ में ऐसा कदापि नहीं है।
अभीर शब्द का ही समूहवाची अथवा बहुवचन रूप आभीर है।
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परवर्ती शब्द कोशकारों ने दोनों शब्दों को पृथक- पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही की है।
ईसा पूर्व पञ्चम सदी में कोशकार अमरसिंह ने अपने कोश अमरकोश में अहीरों की प्रवृत्ति वीरता ( निडरता). को केन्द्रित करके की आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की ।
दूसरे कोशकार तारानाथ वाचस्पति ने (1885) के समय में अहीर जाति की वृत्ति ( व्यवसाय) गोपालन को केन्द्रित करके अभीर शब्द की व्युत्पत्ति की-
देखें नीचे क्रमश: दोनों व्युत्पत्तियों का विवरण-
अमरसिंह की व्युत्पत्ति-
१- आ=समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।
- यह उपर्युक्त उत्पत्ति अमरसिंह के शब्द कोश अमरकोश में उद्धृत है।
अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ वाचस्पत्यम् ने भी अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की है।
"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुख करके चारो-ओर गायें चराता है उन्हें घेरता है।
वाचस्पत्य के पूर्ववर्ती कोशकार "अमर सिंह" की व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।
जबकि तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय) ( profation) को अभिव्यक्त करती है ।
और व्यक्तियों की प्रवृति भी वृत्ति ( व्यवसाय-) से निर्मित होती है।
"प्रवृत्तियाँ जातियों अथवा नस्लों की विशेषता है।
प्रवृत्तिाँ स्वभाव की गहरीइयों में मन के अचेतन तल पर संचित जातिगत जैविक आधार है। सभी जातियों क धार प्रवृत्ति है।
और स्वभाव व्यक्ति के पूर्वजन्म के संस्कार का व्यक्तिगत प्रभाव-" जिसका सम्बन्ध व्यक्ति के पूर्व जन्म के कर्म संस्कारों से सम्बन्धित है। स्वभाव जन्म के साथ ही उत्पन्न होता है। सभी जातियों में व्यक्ति के स्वभाव भिन्न होते है। प्रवृत्तियों के सोने पर भी जैसे निडरता अहीर जाति की प्रवृत्ति है।
और उसके अनुरूप कृषि और पशुपालन अहीरों की वृत्ति है।
कम्प्यूटर में सिस्टम सॉफ्टवेयर प्रवृत्ति है। और एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर स्वभाव है। जैसे ब्लूटुठ और शेयरइट का अन्तर ।
वृत्ति-
वृत्ति का अर्थ है, व्यवहारों का एक समूह जो किसी पर्यावरणीय( परिवेशीय) संकेत या आंतरिक प्रेरणा के अनुरूप जीविका -उपार्जन होता है. कोई कामधन्धा-
आवृत्ति( आदत)- ( पुन: पुन:अभ्यास)अथवा आदत का मतलब है, कोई ऐसा व्यवहार जो बिना ज़्यादा सोच के बार-बार दोहराया जाए. आदतें जन्मजात नहीं होतीं, बल्कि सीखी जाती हैं.आदतों का स्वरूप परिवेश, देश और काल स प्रभावित होता है।
मनोविज्ञान में, आदत को किसी भी नियमित रूप से दोहराए जाने वाले व्यवहार के तौर पर परिभाषित किया गया है।
आवृत्ति (आदत) का सम्बन्ध हमारे अवचेतन मन से जुड़ा होता हैं. अवचेतन मन, हमारे सीखे गए व्यवहारों का भण्डार होता है. यह हमारे कार्यों को सचेत जागरूकता के विना भी यथा क्रम संचालित करता है.
एक उदाहरण से समझे उड़ना सभी पक्षियों की प्रवृति है। परन्तु उनके उड़ने के तरीके अलग हैं। यह उनका प्रवृति मूलक अन्तर है। सभी
मानव का वैज्ञानिक संघ कॉर्डेटा (Chordatae) है. मानव का वैज्ञानिक वर्ग स्तनधारी (Mammalia) है और वैज्ञानिक जाति होमो सेपियंस (Homo sapiens) है. मानव को वैज्ञानिक रूप से वर्गीकृत करने के लिए, ये वर्गीकरण भी इस्तेमाल किए जाते हैं: जीववैज्ञानिक वंश - होमो (Homo), जीववैज्ञानिक कुल - होमिनिडाए (Hominidae), जीववैज्ञानिक गण - प्राइमेट (Primate).
मानव को वर्गीकृत करने के लिए इस्तेमाल होने वाले कुछ और वैज्ञानिक वर्गीकरण:
ऐनिमेलिया (Animalia) - जंतु
कोरडेटाए (Chordatae) - रज्जुकी
वर्टेब्रेटा (उपसंघ)
टेट्रापोड़ा (महावर्ग)
थीरिया (उपवर्ग)
प्राइमेट्स (गण)
होमिनिडे (अधिकुल)
मानव जाति विज्ञान, मानव शास्त्र की एक शाखा है. यह मानवों के सजातीय, नस्ली, और/या राष्ट्रीय वर्गों के उद्गमों, वितरण, तकनीकी, धर्म, भाषा, और सामाजिक संरचना का अध्ययन करती है.
परन्तु भारतीय जातियाँ शारीरिक संरचना में समानताऐं होते हुए भी प्रवृत्ति अथव मनसिक स्तर भिन्न भिन्न हैं। इनकी संस्कृति सभ्यता और जनरीतियाँ इनके व्यवसाय ही इनका जातियाँ विभाजन करते हैं।
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जाति, वंश, और कुल ये सभी परिवार से जुड़े शब्द हैं. इनमें स्थूल अन्तर निम्नलिखित प्रकार से है:
सामान्य तौर पर जाति: एक ही धर्म और संस्कृति वाले लोगों का वह समूह है.जिसकी उत्पत्ति किसी एक आदि पुरुष से हुई हो तथा वह समान प्रवृत्ति हो - जाति में कई वंश परिवार शामिल होते हैं.
वंश: पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाला परिवार.जिसमें लोग किसी एक व्यक्ति या पूर्वज के नाम के आधार अपनी पहचान सुनिश्चित करता है.
कुल: एक बड़ा परिवार या रक्तसंबंधी लोगों का समूह. कुल में माता-पिता, पुत्र, दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ- वगैरह शामिल होते हैं। एक वंश में कई कुल होते हैं।
कुल ऐसा समूह होता है जिसके सदस्यों में रक्तसम्बन्ध सन्निकट हो.
एक वंश के सभी वंशज मूल रूप से एक ही पूर्वज से संबंधित होते हैं। जबकि एक ही वंश में कई कुल होते हैं। और एक जाति में कई वंश हो सकत हैं।
[इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य जातियों की मौलिकता (Originality ) एवं इसकी उत्पत्तिमूलक सिद्धान्त को बताते हुए यादवों के वंश, वर्ण, कुल एवं गोत्रों की जानकारी भी देना है।
इन सभी बातों को क्रमबद्ध विधि से बताने के लिए इस अध्याय को निम्नलिखित- (६) उपशीर्षकों में विभाजित किया गया है।
जातियों का निर्धारण मनुष्य की आनुवांशिक प्रवृत्तियों से होता है। उन प्रवृत्तियों से जो जन्मजात होती हैं जो परम्परागत रूप से व्यक्ति की पीढ़ी दर पीढ़ी व्यक्ति समूहों में संचारित होती रहती है। इसी जन्मजात प्रवृत्तियों के अनुरूप ही व्यक्ति का स्वभाव और गुण भी विकसित होता है, जो उस जाति समूह को उसी के अनुरूप कार्य करने को भी प्रेरित करता है। इसी गुण विशेष के आधार पर समाज में जाति का निर्धारण व एक अलग पहचान होती है।
अर्थात् जन्मजात प्रवृत्ति मूलक आचरण अथवा व्यवहार के आधार पर ही किसी व्यक्ति की जाति का निर्धारण होता है और इसी जन्मजात प्रवृत्तियों के कारण समाज में अलग-अलग जातियों के भिन्न-भिन्न स्वभाव और गुण देखें जातें हैं जो उनके वर्ण का निश्चय करते हैं।।
इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जाति व्यक्ति समूहों की प्रवृत्ति मूलक पहचान है जो मनुष्य समूहों में अलग-अलग देखी जाती है। जैसे वणिक जाति का वर्ण "वैश्य" है जिनका वृत्ति (व्यवसाय) क्रय- विक्रय (खरीद-फरोख्त) करना है। और उसी के अनुसार उनकी स्वभावगत गहराई-(प्रवृत्ति) लोलुपता और मितव्यता दृष्टिगोचर होती है। इसी लोलपता के कारण वणिक का एक विशेषण( लाला) भी है। वैसे संस्कृत भाषा में लाला या लालायित शब्द भी है जो लालसा युक्त व्यक्ति को सूचित करता है।
हिन्दू व्यापारियों की एक जाति जो उत्तरी भारत से तमिल देश में आकर बसी थी; एक हिन्दू व्यापारी जो उत्तर से तमिलनाडु में आकर बसा था। उसके लिए लाला का सम्बोधन होता था।
वणिक जाति में लालसा( लोभ ) अधिक होने से भी उनका यह लाला विशेषण है।
यही उनकी जातिगत और वर्णगत पहचान है।
कुल मिलाकर कोई भी जाति अपने समूह की सबसे बड़ी इकाई अथवा समष्टि रूप होती है। और यह ऐसे ही नहीं बनती है। इसके लिए जाति को प्रमुख इकाईयों के बहुत से विकास क्रमों से गुजरना होता है। जैसे - किसी भी जाति की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति होता है, फिर कई व्यक्तियों के मिलने से एक परिवार बनता है, और कई परिवारों के मिलने से अनेक कुलों या गोत्रों का निर्माण होता है। पुनः कई कुलों के संयोग से उस जाति का एक वंश और वर्ण बनता है।
अब यह सब कैसे संभव होता है। इसको अच्छी तरह समझने के लिए क्रमशः जाति, वर्ण, वंश, कुल और गोत्र को विस्तार से जानना होगा तभी पूरी बात समझ में आयेगी।
हमलोग जानेंगे किस आधार पर यादवों की जाति " अहीर अथवा आभीर" हुई़ ?, जिसे- आभीर को गोप, गोपाल, ग्वाल, घोष, वल्लभ, इत्यादि नामों से क्यों जाना जाता है ?
(२)- यादवों की जाति।
तो इस संबंध में बता दें कि- अहीर जाति की वृत्ति यानी व्यवसाय पूर्व कल से ही कृषि और पशु पालन रहा है। यह वृत्ति उन्ही प्रवृत्ति वालों में हो सकती है जो निर्भीक और साहसी हो।
चुँकि गोपालक अहीर अपने पशुओं को जंगलों, तपती धूप, आंधी तूफान, ठंड और बारिश की तमाम प्राकृतिक झंझावातों को निर्भीकता पूर्वक चलाते हुए पशुओं के बीच रहते हैं। इन्हीं परिस्थितियों इनमें अनेक साहसिक गुणों का विकास होता है। इसी जन्मजात निर्भीक प्रवृत्ति के कारण ही इनको आभीर / अभीर(अहीर) कहा गया, तथा वृत्ति (व्यवसाय) गोपालन के कारण से इन्हें - गोप, गोपाल(ग्वाल) घोष और वल्लभ कहा गया जो इनकी वृत्ति यानी व्यवसाय मूलक पहचान हैं।
कुल मिलाकर मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियां ही विकसित होकर वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण अर्थात् चयन करती है।
उसके व्यवसायों के वरण करने से ही उसका वर्ण निर्धारित होता है। व्यवसायों के वरण के आधार पर ही ब्रह्मा मानव जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हुआ है।
(इसके बारे में आगे बताया है कि किस आधार पर आभीरों का वर्ण "वैष्णव" है जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य से अलग है?)
आभीर जाति को यदि शब्द ब्युत्पत्ति के हिसाब से देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है। अर्थात् आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन है।
'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं। जैसे-
ईसा पूर्व पञ्चम सदी में कोशकार अमरसिंह ने अपने कोश अमरकोश में अहीरों की प्रवृत्ति वीरता (निडरता) को केन्द्रित करके आभीर शब्द की व्युत्पत्ति करते है नीचे देखें।
"आ=समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।
किंतु वहीं पर अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ नें अपने ग्रन्थ वाचस्पत्यम् में अभीर- जाति की शब्द व्युत्पत्ति को उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय के आधार पर गोपालन को केन्द्रित करके की है। नीचे देखें।
"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुख करके चारो-ओर गायें चराता है या उन्हें घेरता है।
अगर देखा जाय तो उपरोक्त दोनों शब्दकोश में जो अभीर शब्द की ब्युत्पत्ति को बताया गया है उनमें बहुत अन्तर नही है। क्योंकि एक में अहीरों की वीरता मूलक प्रवृत्ति (aptitude ) को आधार मानकर शब्द ब्युत्पत्ति को दर्शाया है तो वहीं दूसरे ग्रन्थ में अहीर जाति को गोपालन वृत्ति अथवा (व्यवसाय) (profation) को आधार मानकर शब्द ब्युत्पत्ति को दर्शाया है।
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अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप अहीर होता है। अब यहां पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना भी आवश्यक हो जाता है। तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते है। ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर हिंदी में आये है, 'तद्भव' कहलाते है। यानी तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किंतु कालांतर में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिंदी में अहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।
किंतु यहां पर हमें अहीर और आभीर, और शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना है कि इनका प्रयोग हिंदी और संस्कृत ग्रंथों में कब कहां और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है।
तो इस संबंध में सबसे पहले अहीर शब्द को के बारे में जानेंगे कि हिंदी ग्रंथों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ। इसके बाद संस्कृत ग्रंथों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए कहां-कहां प्रयुक्त हुआ।
अहीर शब्द का प्रयोग हिंदी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रूप से किया गया है। जैसे-
अहीर शब्द का रसखान कवि अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किए हैं। जैसे-
"ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।
धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।। खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी।
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।।
इसी तरह से भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने 500 साल पहले दो ग्रंथ "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदासजी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।
नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूं चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।।५८।
अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण (सर्जक) हो, मैं चारण आप श्री हरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर (समुद्र) जल से भरा हुआ है।५८।
और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर के दशम स्कन्ध में लिखा है-
"सखी री काके मीत अहीर।
काहे को भरि-भरि ढारति हो इन नैन राहके नीर।।
आपुन पियतपियावत दुहिदुहिं इन धेनुन के क्षीर। निशिवासर छिन नहिं विसरत है जो यमुना के तीर।। ॥
मेरे हियरे दौं लागति है जारत तनु की चीर । सूरदास प्रभु दुखित जानि कै छाँडि गए वे पीर।।८२॥
अथ श्यामरंग को तरक वदति ॥ मलार ॥✍️
ये उपरोक्त सभी लोक- उदाहरण कृष्ण के अहीर होने के हैं जो हिन्दी साहित्यिक ग्रंथों प्रयुक्त हुए हैं। अब हमलोग आभीर शब्द को जानेंगे जो अहीर का तद्भव रूप है, वह संस्कृत ग्रंथों में कहां-कहां प्रयुक्त हुआ हैं। इसके साथ ही आभीर (अहीर) शब्द के पर्यायवाची शब्द - गोप, गोपाल और यादव को भी जानेंगे कि पौराणिक ग्रंथों में अभीर के ही अर्थ में कैसे प्रयुक्त हुए हैं।
सबसे पहले हम गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय (७) के श्लोक संख्या- (१४) को लेते हैं जिसमें में भगवान श्री कृष्ण और नंदबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग शिशुपाल उस समय किया जब सन्धि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी शिशुपाल के यहां गए। किंतु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहा कि-
आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्तोऽयं गतत्रपः।।१४।
प्रद्युम्नं तस्तुतं जित्वा सबलं यादवैः सह।
कुशस्थलीं गमिश्यामि महीं कर्तुमयादवीम्।।१६।
अनुवाद -
• वह (श्रीकृष्ण) पहले नन्द नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वासुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं। १४।
• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीतकर भूमंडल को यादवों से शून्य कर देने के लिए कुशस्थली पर चढ़ाई करूंगा। १६।
इन उपर्युक्त दोनो श्लोक को यदि देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण सहित संपूर्ण अहीर और यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।
इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- २० के श्लोक - ६ और ७ में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बंधित थे।
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।।६। ।
यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।।७।
अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल पराच्य (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक। ६
• अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज, हंस -पथ नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के अभीर (अहीर) दरद, मद्र, केकय ,तथा एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।
इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६,१७ और १८ में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-
अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं। १७-१७।
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। १८
▪️ इसी तरह से महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है-
अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों (आभीरों) की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
इसी तरह से जब भगवान श्री कृष्ण इंद्र की पूजा बंद करवा दी, तब इसकी सूचना जब इंद्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्री कृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को जो कुछ कहा उसका वर्णन श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय -२५ के श्लोक - ३ से ५ में मिलता है। जिसमें इंद्र अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।। ३
वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ।। ५
अनुवाद - ओह, इन जंगली ग्वालों (गोपों ) का इतना घमंड! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला। ३
• कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५
इन उपरोक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर, और यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।
इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग गर्गसंहिता के अध्याय- ६२ के श्लोक ३५ में मिलता है। जिसमें जूवा खेलते समय रुक्मी बलराम जी को कहता है कि -
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।। ३४।
अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले वाले गोपाल (ग्वाले) ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।
इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसलिए गर्ग संगीता के अनुवाद कर्ता, अनुवाद करते हुए गोपाल शब्द को ग्वाल के रूप में रखा।
इसी तरह से भगवान श्री कृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया। जब यज्ञ हेतु सभी लोगों ने श्री कृष्ण को अग्र पूजा के लिए चुना। किंतु वहीं पर उपस्थित शिशुपाल इसका विरोध करते हुए भगवान श्री कृष्ण को
यदुवंश शिरोमणि न कहकर उनके लिए ग्वाला (गोप) शब्द से संबोधित करते हुए उनका तिरस्कार किया। जिसका वर्णन- श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय 74 के श्लोक संख्या - १८, १९, २० और ३४ में कुछ इस प्रकार है -
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ।। १८।
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।। १९।
यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निनराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः। २०।
अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८
• यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं। १९
• यह सारा विश्व श्री कृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्री कृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्री कृष्णा ही अग्नि, आहुति और मंत्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।
भगवान श्री कृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।। ३४
अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ३४ ।
इस श्लोक के अनुसार यदि शिशुपाल के इस कथन पर विचार किया जाए तो वह श्री कृष्ण के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहां तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्री कृष्ण- गोप, गोपाल और ग्वाला ही हैं। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहे हैं जो इस प्रकार है-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
अतः शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण को गोपाल या गोप कहा कोई गलत नहीं कहा। किंतु वह भगवान श्री कृष्ण को कौवा और कुलकलंक कहा, यहीं उसने गलत कहा जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्री कृष्ण ने उसका वध कर दिया।
इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - २६ और ४१ में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जो पौण्ड्रक, श्री कृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहता है कि-
अनुवाद- राजा पौंड्रक ने भगवान से कहा- ओ यादव! ओ गोपाल ! इस समय तुम कहां चले गए थे? २६
• तब भगवान श्री कृष्ण ने पौंड्रक से कहा - राजन ! मैं सर्वदा गोप हूं , अर्थात प्राणियों का प्राण दान करने वाला हूं , संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूं।
देखा जाए तो इन उपयुक्त दो श्लोकों से तीन बातें और सिद्ध होती है।
• पहला यह कि- राजा पौंड्रक, भगवान श्रीकृष्ण को यादव और गोप दोनों शब्दों से संबोधित करता है। इससे सिद्ध होता है कि यादव और गोप एक ही होते हैं।
• दूसरा यह कि- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने को गोप कहते हुए यह सिद्ध करते हैं कि मैं गोप हूं।
• तीसरा यह कि- गोप ही एक ऐसी जाती है जो संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों पर शासन करने वाली है।
✳️ ज्ञात हो - अहीर, गोप, गोपाल, ग्वाल ये सभी यादव शब्द का ही पर्यायवाची शब्द हैं, चाहे इन्हें अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, यादव कहें ,सब एक ही बात है।
जैसे भगवान श्री कृष्ण को तो सभी लोग जानते हैं कि यदुवंश में उत्पन्न होने से उन्हें यादव कहा गया जो उनकी वंश मूलक पहचान है। तथा उनको गोप जाति में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया जो उनके जाति रूपी पहचान है। इसी क्रम में उन्हें गोपालन करने से उन्हें गोपाल और ग्वाला कहा गया जो उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय मूलक पहचान है। इसी तरह से उनकी जाति मूलक पहचान के लिए उन्हें अभीर या अहीर कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है।
भगवान श्रीकृष्ण को गोपकुल के साथ यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय - (७) में बताया जा चुका है।
फिर भी इनके वंश मूलक पहचान को इस अध्याय में भी संक्षेप में आगे बताया गया है।
: (ख)- यादवों का वर्ण।
जैसा कि हम इस बात को पहले ही बता चुका हूं कि- मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियां ही विकसित होकर वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण अर्थात् चयन करती है। उनके व्यवसायों के वरण करने से ही उनका "वर्ण" निर्धारित होता है। अर्थात् व्यवसायों के वरण के आधार पर ही जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हुआ है।
उसी सिद्धांत के अनुसार यादवों का भी वैष्णव वर्ण निर्धारित हुआ है जिसे पञ्चमवर्ण भी कहा जाता है।
यादवों का वर्ण किस आधार पर "वैष्णव" है ? ये ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य से कैसे अलग होकर स्वतंत्र रूप से चातुर्वर्ण्य के सभी कर्मों को निर्वाध करते हैं? चातुर्वर्ण्य और वैष्णव वर्ण में क्या अन्तर है?
इन सभी बातों को इस पुस्तक के अध्याय (पांच और छः) में विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है। उन्हीं बातों को यहां दुबारा बताना उचित नहीं है। वहां से पाठक गण उपरोक्त सभी जानकारी ले सकते हैं।
अब हमलोग इसी क्रम यादवों के "वंश" के बारे में जानेंगे।
(४)- यादवों का वंश।
जैसा कि जाति के विकास क्रम में इस बात को। हम पहले ही बता चुका हूं कि- किसी भी जाति की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति होता है, फिर कई व्यक्तियों के मिलने से एक परिवार बनता है, और कई परिवारों के मिलने से अनेक कुलों या गोत्रों का निर्माण होता है। पुनः कई कुलों के संयोग से उस जाति का एक वंश और वर्ण बनता है। अर्थात् वंश, वर्ण, कुल, गोत्र और परिवार के सामूहिक रूप को जाति कहा जाता है। अर्थात् जब एक ही प्रवृत्ति वाले जाति के लोग अपने किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम से अपने वंश का निर्धारण करते हैं तव उसी के नाम पर उस जाति का एक वंश बनता है। इस तरह के वंश को द्वितीयक वंश कहा जाता है। जिसमें उस जाति का ब्लड रिलेशन होता है।
वहीं दूसरी तरफ उस जाति का एक आध्यात्मिक वंश होता है जो किसी तारे, ग्रह या उपग्रह के नाम से होता है। इस तरह के वंश को प्राथमिक वंश कहा जाता है, जिसमें उस जाति का किसी भी तरह से ब्लड रिलेशन नहीं होता है।जैसे चंद्रवंश और सूर्यवंश।
हो सकता है कि जो लोग अपने को सूर्यवंशी मानते हों उनका सूर्य से ब्लड रिलेशन होता होगा किंतु जितने चंद्रवंशी हैं उनका चंद्रमा से ब्लड रिलेशन नहीं है। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि तारे और ग्रहों से पुत्र इत्यादि पैदा करके किसी जाति की जन्मगत वंशावली बताकर उनमें ब्लड रिलेशन स्थापित करना महामूर्खता ही होगी। ऐसा वंश केवल आस्था और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही स्वीकार्य किये जा सकतें हैं। इसी आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यादवों का प्रथम वंश "चंद्रवंश है। किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि सभी यादव चंद्रमा से उत्पन्न हुए हैं और उनमें चंद्रमा का ब्लड रिलेशन है।
चंद्रमा से यादवों का चंद्रवंश और यदु से यादव वंश कैसे स्थापित हुआ इसके बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी अध्याय (११) में दी गई है जहां आपको यादवों के आदि पुरुष महाराज यदु का जीवन परिचय एवं यादव वंश की क्रमिक जानकारी मिलेगी।
दूसरी बात यह कि जाति और वंश में बस इतना ही अन्तर है कि जाति एक सामूहिक नाम है और वंश एक व्यक्तिगत नाम है। वंश के लिए कोई जरुरी नहीं है कि वह विशेष व्यक्ति जिसके नाम पर वंश बना है, वह राजा ही हो। क्योंकि ऐसे बहुत से वंश हैं जो किसी ऋषि-मुनि के नाम से ही बनें हैं। जैसे ब्राह्मण जाति में जो वंश बनें हैं वे सभी किसी न किसी ऋषि मुनि के नाम से ही हैं।
जाति के इसी विकास क्रम में यादवों का भी वंश स्थापित हुआ जिसका नाम है यादव वंश जो अभीर जाति का द्वितीयक वंश है तथा इनका प्राथमिक वंश चंद्रवंश है। इस बात की पुष्टि उस समय होती है जब भगवान श्रीकृष्ण मूचुकुन्द को अपना परिचय बताते हुए विष्णु पुराण के पञ्चम अंश के अध्याय-२३ के श्लोक सं- २४ में कहते हैं कि-
कस्त्वमित्याह सोऽप्याह जातोऽहं शशिनः कुले।
वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः।।२४।
अनुवाद - मैं चंद्रवंश के अंतर्गत यदुकुल में वसुदेव जी के पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ हूँ।
• जिस तरह से भगवान श्रीकृष्ण को चंद्रवंश में अवतरित होने की पुष्टि होती है उसी तरह से उनको यादव वंश में भी अवतरित होने की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कंध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।
भाग- (ख) यादवों का वास्तविक गोत्र वैष्णव है या अत्रि ?
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यादवों को अपना वास्तविक गोत्र जानने से पहले गोत्रों की उत्पत्ति को जानना होगा की गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई तथा गोत्र कितने प्रकार के होते हैं ?
तो इस सम्बन्ध में देखा जाए तो पौराणिक ग्रन्थों में गोत्रों की उत्पत्ति मुख्य रूप से उन चार ऋषियों से बतायी गयी है जो इन्द्रिय संयम और तप से ही वेदों के विद्वान तथा समाज में प्रतिष्ठित हुए थे। इसकी पुष्टि- महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- (२९६) के श्लोक- (१७) से होती है। जिसमें - राजा जनक पराशर ऋषि का प्रश्नोत्तर रूप में संवाद है।-
अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।१८।
महाभारत शान्ति पर्व का निम्न श्लोक इस बात का संकेत करता है।
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव। नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
अनुवाद:
अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।१८।
"जनक उवाच। विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम। तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि॥१९॥ अनुवाद:- जनक ने पूछा - वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।
यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः । कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः॥२॥
अनुवाद:-
आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्पन्न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्मदाता पिता ही नूतन जन्म धारण करता है। ऐसी दशा में प्रारम्भ में ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्म हुआ है।२।
तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ? तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि "पराशर उवाच। एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः। तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः। अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।
अनुवाद:- जिससे जो जन्म लेता है, उसी का वह स्वरूप होता है तथापि तपस्या की न्यूनता के कारण लोग निकृष्ट जाति को प्राप्त हो गये हैं।३।
उत्तम क्षेत्र( खेत) और उत्तम बीज से जो जन्म होता है, वह पवित्र (उत्तम) ही होता है। यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्न संतान की ही उत्पत्ति होती है।४।
धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।५।
मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रबन्धवः।
ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः॥६॥
अनुवाद:- तात ! जो मुख से उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्पत्ति हुई।
इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं। इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्म दिया है, तब मनुष्यों के भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं । *************
"जनक ने पूछा-
ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्पन्न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्व को कैसे प्राप्त हुए ? ।११।
पराशर जी ने कहा -
राजन ! तपस्या से जिनके अन्त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्मा पुरूषों के द्वारा जिस संतान की उत्पत्ति होती है, अथवा वे स्वेच्छा से जहाँ-कहीं भी जन्म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि (जातीय शरीर) से निकृष्ट होने पर भी उसे उत्कृष्ट ही मानना चाहिये ।१२।
नरेश्वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्पन्न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया।१३।
उपरोक्त संवादों से सिद्ध होता है कि - प्रारम्भिक काल में गोत्रों का निर्धारण व्यक्ति के तपोबल एवं उसके कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ करता था। अर्थात् निम्न योनि का व्यक्ति भी अपने तपोबल एवं कर्मों के आधार पर उच्च योनि को प्राप्त कर सकता था।
उसी तरह से उच्च योनि का व्यक्ति निम्न कर्म करने पर निम्न योनि को प्राप्त होता था। किंतु इस सिद्धांत का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और अन्ततोगत्वा ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में गोत्र एवं कुल का निर्धारण कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा। जिसके परिणाम स्वरूप सामाजिक भेदभाव एवं अस्पृश्यता का उदय हुआ। क्योंकि पूर्व काल में जिन चार ऋषियों अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु से जो चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे उनके अतिरिक्त ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अपनी आवश्यकतानुसार अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारिणों में शामिल किया जो किसी न किसी रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए थे। उन सभी को सम्मिलित कर पुरोहितों नें गोत्र निर्धारण का एक नया सिद्धान्त बनाया जो मुख्यतः तीन सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनि जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करती हैं।
ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर सन्तान पूरक गोत्र कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि का संतान हूं। ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।
(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात निज की उत्पत्ति किससे हुई है इसका पता ही नहीं हो। तो ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।
(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यन्त किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं। ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं- (१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्ध का संकेत करता है।
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र- गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी अन्य ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।
इस सम्बन्ध में बता दें कि- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई।
इसलिए श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है। तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश पौराणिक ग्रन्थों में यादवों के मुख्य गोत्र कार्ष्ण: गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।
जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "कार्ष्ण गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्में ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर यादवों में स्वीकार किए गये है ? यह एक विचारणीय विषय है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज एवं योगेश कुमार रोहि व गोपाचार्य हंस माता प्रसाद जी का कहना है कि - "गोप जाति श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि ऋषि से। इसलिए रक्त सम्बन्ध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव( कार्ष्णि:) गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"
गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हंस श्रीमाताप्रसाद योगेश रोहि आदि विद्वानों का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि सम्पन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है"।
गोपों के इस वैकल्पिक गोत्र अत्रि की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर क्षेत्र में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ था। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारों द्वारा सम्पन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे।
उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को सम्पन्न कराने का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना था।
अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६) और (१७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
फिर आगे चलकर गोपों की इसी परम्परा को निर्वहन करते हुए भू-तल पर गोप कुल में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण संग श्रीराधा का विवाह भाण्डीर वन में अत्रि के पिता ब्राह्मण देवता ब्रह्मा द्वारा ही संपन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।
अनुवाद- (१२०-१३०) फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मन्त्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - गोपों का वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" केवल पूजा पाठ, यज्ञ और विवाह इत्यादि तक ही सीमित है। अत्रि- गोत्र में गोपों के रक्त सम्बन्धों को स्थापित करना उनके मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के समान होगा।
क्योंकि "गोत्र उत्पत्ति सिद्धान्त के अनुसार यह मान्यता है की प्रारम्भिक काल में जिनकी उत्पत्ति जिससे होती है उसी के नाम पर उसका गोत्र निर्धारित होता है"। इस सिद्धान्त के अनुसार गोप यादवों का "अत्रि गोत्र" तब माना जाता जब इन गोप यादवों की उत्पत्ति ऋषि अत्रि से हुई होती।
किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रारम्भिक काल में यादवों (गोप और गोपियों) की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा से प्रथम कल्प में उसी समय हो जाती है जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पन्न होते हैं। इस बात को विस्तार पूर्वक अध्याय- (४) में बताया गया है कि- गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोपों की उत्पत्ति कैसे हुई है।
फिर भी इस सम्बन्ध में कुछ साक्ष्य यहाँ देना चाहेंगे कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोमकूपों से ही हुई है।
(१)- प्रथम साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक (४३) से है जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-
अनुवाद -• श्रीराधा के रोम कूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।
(२)- द्वितीय साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) से है, जिसमें लिखा गया है कि -
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने। आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद- (४०-४२) • उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
(३)- तृतीय साक्ष्य- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६) के श्लोक- (६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः। मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः।६२।
अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।
(४)- चतुर्थ साक्ष्य - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- (७) से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-
अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।
अब ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि - जब गोपों (यादवों) की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है तो जाहिर सी बात है कि इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार वैष्णव ही होना चाहिए न की अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह गोत्र सिद्धान्त के बिल्कुल विपरीत होगा।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त एवं श्रीकृष्ण चरित्र विश्लेषक- गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोहि जी व गोपाचार्य हंस आत्मानन्द आदि विद्वानों का कथन है कि - "यादवों का अत्रि गोत्र तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति अत्रि से हुई होती। किंतु अत्रि का जन्म तो गोपों की उत्पत्ति से बहुत बाद में भू-तल पर ब्रह्मा जी से हुई है। ऐसे में गोपों का गोत्र- अत्रि कैसे हो सकता है ?"
इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोहि जी के कथन पर विचार किया जाए तो उनका कथन बिल्कुल सत्य है। क्योंकि प्रमुख पौराणिक ग्रंथों में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही बतायी गई है।
मत्स्यपुराण के अध्याय- (१७१) के श्लोक - (२६) और (२७) में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से बताई गई है। जो इस प्रकार है-
विश्वेशं प्रथमः तावन्महातापसमात्मजम्। सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्मं स सृष्टवान।।२६।
अनुवाद-( २६-२७) सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने धर्म नामक पुत्र को प्रकट किया जो विश्व के ईश्वर महान तपस्वी सम्पूर्ण मन्त्रों द्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, "अत्रि", पुलस्त्य, क्रतु , वशिष्ठ, गौतम, भृगु, अंगिरा और मनु को उत्पन्न किया।२६-२७।
इसी प्रकार से मत्स्यपुराण के अध्याय- (१४५) के श्लोक (९० और ९१) में ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में अत्रि को भी बताया गया है।
भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः। मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दशः।।९०।
अनुवाद- (९०-९१) भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ और पुलस्त्य, ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परतत्व से युक्त है, इसीलिए महर्षि माने गए हैं।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - ऋषि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं अर्थात इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई हैं ना की गोपेश्वर श्रीकृष्ण से। तब ऐसे में गोपों का गोत्र -"अत्रि" नाम से कैसे स्थापित हो सकता है ? यह तभी सम्भव हो सकता है जब अत्रि की भी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से हुई होती। किंतु अत्रि तो ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि यादवों के मूल गोत्र- "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के लिए जाने-माने ऋषि अत्रि को निराधार और बेवजह ही घसीट कर यादवों के गोत्र में सम्मिलित किया गया ताकि यादव लोग भ्रमित होकर अपने मूल गोत्र "वैष्णव" को भूलकर ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अत्रि गोत्र का अंग बनकर रह जाए।
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गोपों की उत्पत्ति का विवरण-
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने। आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद- ४०-४२ • उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
(३)- तीसरा साक्ष्य- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६ के श्लोक- ६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-
अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।
अब ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि - जब गोपों (यादवों) की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है तो जाहिर सी बात है कि इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार(कार्ष्ण) वैष्णव ही होना चाहिए न की अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह गोत्र सिद्धांत के बिल्कुल विपरीत होगा।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त एवं श्रीकृष्ण चरित्र विश्लेषक- गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी का कथन है कि - "यादवों का अत्रि गोत्र तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति अत्रि से हुई होती। किंतु अत्रि का जन्म तो गोपों की उत्पत्ति से बहुत बाद में भू-तल पर ब्रह्मा जी से हुई है। ऐसे में गोपों का गोत्र- अत्रि कैसे हो सकता है ?"
इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी के कथन पर विचार किया जाए तो उनका कथन बिल्कुल सत्य है। क्योंकि प्रमुख पौराणिक ग्रंथों में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही बतायी गई है।
मत्स्यपुराण के अध्याय- (१७१) के श्लोक - (२६) और (२७) में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से बताई गई है। जो इस प्रकार है-
विश्वेशं प्रथमः तावन्महातापसमात्मजम्। सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्मं स सृष्टवान।।२६।
अनुवाद- २६-२७ सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने धर्म नामक पुत्र को प्रकट किया जो विश्व के ईश्वर महान तपस्वी सम्पूर्ण मन्त्रों द्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, "अत्रि", पुलस्त्य, क्रतु , वशिष्ठ, गौतम, भृगु, अंगिरा और मनु को उत्पन्न किया।२६-२७।
इसी प्रकार से मत्स्यपुराण के अध्याय- (१४५) के श्लोक (९० और ९१) में ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में अत्रि को भी बताया गया है।
भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः। मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दशः।।९०।
अनुवाद- ९०-९१ भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ और पुलस्त्य, ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परतत्व से युक्त है, इसीलिए महर्षि माने गए हैं।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - ऋषि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं अर्थात इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई हैं ना की गोपेश्वर श्रीकृष्ण से। तब ऐसे में गोपों का गोत्र -"अत्रि" नाम से कैसे स्थापित हो सकता है ? यह तभी संभव हो सकता है जब अत्रि की भी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से हुई होती। किन्तु अत्रि तो ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि यादवों के मूल गोत्र- "कार्ष्ण: गोत्र" को विकृत करने के लिए जाने-माने ऋषि अत्रि को निराधार और बेवजह ही घसीट कर यादवों के गोत्र में सम्मिलित किया गया ताकि यादव लोग भ्रमित होकर अपने मूल गोत्र "वैष्णव" को भूलकर ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अत्रि गोत्र का अंग बनकर रह जाए और अपने मूल गोत्र कार्ष्ण: को सदा-सदा के लिए भूल जाए। और इस सम्बन्ध में मेरा तो मानना है कि पुरोहितों का यह प्रयोग (Experiment) यादवों पर 99% सफल रहा।
इन्हीं सभी बातों को सोच कर कभी-कभी मुझे बहुत दुख होता है कि जिन गोपों की उत्पत्ति परमेश्वर श्री कृष्ण से हुई हो भला वह कैसे ब्रह्मजाल में फंसकर आज अपने मूल गोत्र वैष्णव को ही भूल गया। इस संबंध में यादव समाज से मेरा यही सुझाव और निवेदन है कि जब भी कोई ब्राह्मण पुरोहित पूजा-पाठ या विवाह के अवसर पर आपको अपने गोत्र का नाम लेने को कहे तो आप लोग उस समय अपने मूल गोत्र " कार्ष्ण" का ही नाम ले और उस ब्राह्मण पुरोहित को भी बताएं कि पुरोहित जी आपका गोत्र अत्रि हो सकता है क्योंकि अत्रि ब्राह्मण थे और आप भी ब्राह्मण हैं। किन्तु मेरा मूल गोत्र तो वैष्णव है क्योंकि मेरी उत्पत्ति तो गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से गोलोक में उसी समय हो चुकी थी, जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति हुई थी। इसलिए आप जो भी मेरे लिए कृत्य करें वह सब वैष्णव गोत्र के नाम से ही करें अन्यथा हमारा श्रमसाध्य यह कार्य व्यर्थ ही जाएगा।
[भाग- (२) ऋषि अत्रि को लेकर आश्चर्य तो तब होता है जब यह पता चलता है की ऋषि अत्रि का एक अलग से वंश और गोत्र भी है। जो ब्राह्मणों से सम्बंधित है न कि यादव अथवा गोपों से सम्बन्धित। इसकी पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय- (१९७) के श्लोक- (१-११) से होती है जिसमें भगवान मत्स्य कहते हैं-
"मत्स्य उवाच। अत्रिवंशसमुत्पन्नान् गोत्रकारान्निबोध मे। कर्दमायनशाखेयास्तथा शारायणाश्च ये ।।१।
उद्दालकिः शौणकर्णिरथौ शौक्रतवश्च ये। गौरग्रीवा गौरजिनस्तथा चैत्रायणाश्च ये ।।२।
अनुवाद- १-११ मत्स्यभगवान ने कहा- राजेन्द्र अब मुझसे महर्षि अत्रि के वंश के उत्पन्न हुए कर्दमायन तथा शारायणशाखीय गोत्र कर्ता मुनियों का वर्णन सुनिये ये हैं- उद्दालकि, शीणकर्णिरथ, शौकतव, गौरग्रीव, गौरजिन, चैत्रायण अर्धपण्य, वामरथ्य, गोपन, अस्तकि, बिन्दु, कर्णजिहू, हरप्रीति, लैाणि, शाकलायनि, तैलप, सवैलेय, अत्रि, गोणीपति, जलद, भगपाद, महातपस्वी सौपुष्पि तथा छन्दोगेय— ये शरायण के वंश में कर्दमायनशाखा में उत्पन्न हुए ऋषि हैं। इनके प्रवर श्यावाश्व, अत्रि और आर्चनानश ये तीन हैं। इनमें परस्पर में विवाह नहीं होता। दाक्षि, बलि, पर्णवि, ऊर्णुनाभि, शिलार्दनि, बीजवापी, शिरीष, मौञ्जकेश, गविष्ठिर तथा भलन्दन- इन ऋषियों के अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि-ये तीन ऋषिवर माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह सम्बन्ध निषिद्ध है।
(विशेष - उपर्युक्त वंश एवं गोत्र ऋषि अत्रि के पुत्रों का रहा) अब इसके आगे भगवान मत्स्य - अत्रि की पुत्री "आत्रेयी" के वंश के बारे में बताते हुए कहते हैं- अब मुझसे अत्रि की पुत्रिका आत्रेयी से उत्पन्न प्रवर ऋषियों का विवरण सुनिये- कालेय, वालेय, वामरथ्य, धात्रेय तथा मैत्रेय इन ऋषियोंके अत्रि, वामरथ्य और महर्षि पौत्रि—ये तीन प्रवर ऋषि माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह नहीं होता। राजन्! इस प्रकार मैंने आपको इन अत्रि वंशमें उत्पन्न होनेवाले गोत्रकार महानुभाव ऋषियों का नाम सुना दिया, जिनके नामसंकीर्तनमात्र मनुष्य अपने सभी पाप कर्मों से छुटकारा पा जाता है ॥ १-११
इस प्रकार से देखा जाए तो यादवों के वंश एवं गोत्र में जिस ब्राह्मण अत्रि को शामिल किया जाता है उनका एक वंश है जो पूर्ण रूपेण ब्राह्मणों के वंश एवं गोत्र से संबंधित है।
ऐसे में एक ब्राह्मण (अत्रि) से यादवों के गोत्र एवं वंश को स्थापित करना यादवों के मूल गोत्र "वैष्णव( कार्ष्ण) गोत्र" पर कुठाराघात करने के ही समान है।
ऋषि अत्रि को लेकर दूसरा आश्चर्य तब होता है जब ऋषि अत्रि से चन्द्रमा को उत्पन्न करा कर यादवों के मूल वंश- चन्द्रवंश को भी अत्रि से जोड़ दिया गया। सोचने वाली बात है कि जो अत्रि स्वयं वारूणी यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए हों या ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हों तो वे चन्द्रमा को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ? अर्थात् यह सम्भव नहीं जबकि वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम चन्द्रमा की उत्पत्ति गोलोक में विराट विष्णु से हुई है न कि ब्राह्मण ऋषि अत्रि से।
(ज्ञात हो - विराट विष्णु गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं, जिनकी उत्पत्ति गोलोक में ही परमेश्वर श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से हुई है, इसलिए उन्हें गर्भोदकशायी विष्णु भी कहा जाता है। इन्हीं गर्भोदकशायी विष्णु के अनन्त रोमकूपों से अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुई और उनमें भी उतनें ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश उत्पन्न हुए तथा उतने ही सूर्य और चंद्रमा उत्पन्न हुए। फिर उन प्रत्येक ब्रह्माण्डों में ब्रह्मा जी ने उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण के आदेश पर द्वितीय सृष्टि की रचना की है। द्वितीय सृष्टि रचना में ब्रह्मा के दस मानस पुत्र उत्पन्न हुए, उन दस मानस पुत्रों में अत्रि भी थे। तो इस स्थिति में ऋषि अत्रि अलग से कैसे चन्द्रमा को उत्पन्न कर सकते हैं ?
अर्थात यह संभव नहीं है क्योंकि अत्रि के जन्म की तो बात दूर इनके पिता ब्रह्मा की भी उत्पत्ति से बहुत पहले सूर्य और चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हो चुकी होती है। कुल मिलाकर पौराणिक ग्रन्थों में ऋषि अत्रि से चन्द्रमा की उत्पत्ति बताने का एकमात्र उद्देश्य ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में सम्मिलित करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। ********** विराट विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण से चन्द्रमा की उत्पत्ति की पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (११) के श्लोक- (१९) से होती है जिसमें विराट पुरुष से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उत्पत्ति एवं विलय क्रम में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति को सर्वप्रथम भूतल पर अर्जुन ने उस समय देखा और जाना जब भगवान श्रीकृष्ण अपना विराट रूप का दर्शन अर्जुन को कराया। उसे विराट पुरुष को देखकर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं -
अनुवाद- आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चंद्र और सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुख वाले और अपने तेज से इस संसार को तपाते हुए देख रहा हूं।१९।
इसी प्रकार से विराट विष्णु से चन्द्रमा की उत्पत्ति का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
अनुवाद- महाविष्णु के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य ज्योति, मुख से तेज और अग्नि तथा प्राणों से वायु का प्राकट्य हुआ।१३।
अतः उपरोक्त साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हुई है अत्रि से नहीं।
और यह भी सिद्ध हुआ कि- विष्णु से उत्पन्न होने के नामानुसार चन्द्रमा भी उसी तरह से वैष्णव हुआ जिस तरह से विष्णु से उत्पन्न गोप (यादव) वैष्णव हैं। यह ध्रुव सत्य है।
(विशेष) - किन्तु ध्यान रहे चन्द्रमा कोई मानवी सृष्टि नहीं है वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए उससे कोई पुत्र इत्यादि उत्पन्न होने की कल्पना करना भी महा मूर्खता होगी।
चन्द्रमा के दिन-मान से वैष्णव लोग काल- गणना करते हैं भारतीय पाञ्चांग में यह चान्द्रमास - चैत्र - वैशाख ज्येष्ठ आषाढ आदि का आधार है। तथा अपना प्रथम वंशज और आराध्य देव मानकर वैष्णव गोप चन्द्रमा की सांस्कृतिक पर्व के अवसरों पर पूजा भी करते हैं। इसी परम्परा से वैष्णव वर्ण के गोपों में चन्द्रवंश का उदय हुआ।
और भगवान श्रीकृष्ण जब भी भू-तल पर अवतरित होते हैं तो वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत वैष्णव वर्ण के अभीर जाति यदुवंश आदि में ही अवतरित होते हैं।
गोप कुल में अवतरित होने के सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) में कहते हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च। अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है। गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपों के कुल में अवतरित होने का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके पिछले अध्याय- (८) में किया जा चुका है। वहाँ से पाठकगण विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते है।
इन उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- उत्पत्ति विशेष के कारण गोपों अर्थात् यादवों का मूल गोत्र और वर्ण दोनों ही "वैष्णव" है जो उनके अनुवांशिक गुणों एवं रक्त सम्बन्धों को संकेत करता है। तथा उनका एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" है जिसमें गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है, जिसका उद्देश्य केवल ब्राह्मण पुरोहितों से पूजा पाठ, हवन, विवाह इत्यादि को संपन्न कराना है।
इस प्रकार से अध्याय- (९) भाग -एक और दो इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं।
अब इसके अगले अध्याय- (१०) में गोपकुल के श्रीकृष्ण एवं राधा सहित पुरुरवा और उर्वशी, आयुष, नहुष,ययाति इत्यादि महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे में बताया गया है।
जिनकी उत्पत्ति गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के क्लोन (समरूपण विधि) से उस समय हुई जब गोलोक में श्रीकृष्ण से नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि प्रमुख देवताओं की उत्पत्ति हुई थी। इस वजह से गोप जाति उतनी ही प्राचीनतम है जितना नारायण, शिव एवं ब्रह्मा हैं। (इस बात को अध्याय- (४) में विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है।) इस लिए गोप कुल के उन सभी सदस्यपत्तियों की विस्तृत जानकारी के लिये इस अध्याय को क्रमशः चार भागों में गया है।
भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय ________ ज्ञात हो - परमेश्वर श्रीकृष्ण किसी परिचय के मोहताज (अभावग्रस्त) नहीं है। परमेश्वर का परिचय देना मेरे जैसा एक सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव भी नही है। क्योंकि- जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्मों का वर्णन करने में भू-तल पर कोई सामर्थ्य नहीं है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनकी कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्मा जी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं। जिनकी निर्मल प्रसिद्धि और महिमा बताने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं तथा देवता भी उस भगवान के परम स्वरूप को नहीं जानते हैं। तो उस परमेश्वर का परिचय देना मेरे जैसा तुक्ष (अत्यन्त साधारण) प्राणी के लिए तो और भी सम्भव नहीं है। फिर भी इस असम्भव कार्य को उनके द्वारा ही शौपा गया है यह समझकर ही परमेश्वर के गुणों का वर्णन कर रहा हूं। किंतु ध्यान रहे परमेश्वर श्रीकृष्ण का इस अध्याय में जो परिचय बताया गया है वह भू-तल पर उनके लौकिक जीवन एवं उनकी लीलाओं से ही सम्बंधित है। उनके आध्यात्मिक एवं अलौकिक पहलुओं का वर्णन अध्याय- दो और तीन में किया जा चुका है।
गोपेश्वर श्रीकृष्ण का लौकिक परिचय -: सर्वविदित है कि भूलोक से गोलोक तक श्रीकृष्ण को ही गोप-कुल का प्रथम सदस्यपति माना गया हैं। उन्हें ही परमप्रभु परमेश्वर कहा जाता हैं। वे प्रभु अपने गोलोक में गोप और गोपियों के साथ सदैव गोपवेष में रहते हैं। और वहीं पर समय-समय पर सृष्टि रचना भी किया करते हैं, और समय आने पर वे ही प्रभु समस्त सृष्टि को अपने में समाहित कर लेते हैं। यही उनका शाश्वत सनातन नियम और क्रिया है, और जब-जब प्रभु की सृष्टि रचना में पाप और भय अधिक बढ़ जाता है तब-तब उसको दूर करने के लिए वे प्रभु अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ धरा-धाम पर अपनें ही वर्ण के- गोपकुल (अहीर-जाति) में अवतीर्ण होते हैं। भगवान के इस कार्य हेतु श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक प्रसिद्ध है - "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७। (श्रीमद्भागवत गीता ४/७)
इस कार्य हेतु भगवान श्री कृष्ण गोप कुल में ही अपने सम्पूर्ण अंशों के साथ अवतरित होते हैं। उनको गोपकुल में अवतरित होने की पुष्टि- हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहें हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च। अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है। {भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरण इत्यादि के बारे में अध्याय-(८) में विस्तार पूर्वक बताया गया है।}
भगवान श्री कृष्णा जब भू-तल पर अवतरित होते हैं तो उनकी सारी विशेषताएं वही रहती हैं जो गोलोक में होती हैं। उनकी सभी विशेषताओं का एक-एक करके यहां वर्णन किया गया है। जैसे -
(१) - श्रीकृष्ण के लिए अष्टमी का महत्व :--- भगवान श्रीकृष्ण के लिए भूतल पर अष्टमी का बहुत बड़ा महत्व है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण भाद्रमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन भूतल पर गोपकुल में अवतरित हुए हैं। तभी से वह शुभ मुहूर्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में प्रसिद्ध हुआ। और भगवान श्रीकृष्ण जब 6 वर्ष की उम्र के हो गए तब कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को शुभ मानकर उन्हें पहली बार गावें चराने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इस शुभ मुहूर्त को गोपाष्टमी नाम से जाना जाता है। वहीं दूसरी ओर राधा अष्टमी भगवान श्रीकृष्ण की परमप्रिय राधा रानी का जन्मोत्सव है। यह त्योहार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। इस सम्बन्ध में देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण का अष्टमी से गहरा संबंध है, भाद्रमास कृष्णपक्ष की अष्टमी को भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ तथा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के शुभ मुहूर्त में गोपालन कर्तव्य का सूत्रपात किया। इस बात की पुष्टि श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय- १५ के श्लोक- (१) से होती जिसमें लिखा गया है कि-
अनुवाद- जब भगवान बलराम और भगवान कृष्ण पौगण्ड अवस्था में अर्थात् छठे वर्ष में प्रवेश किया, तब उन्हें गौवें चराने की स्वीकृति मिल गई। वे अपने सखा ग्वाल बालों के साथ गौवें चराते हुए वृंदावन में जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते।१।
(२) कुश्ती लड़ना -:गोपों ( यादवों ) में कुश्ती लड़ने का अनुवांशिक गुण पाया जाता है। इसी गुण विशेष के कारण भगवान श्रीकृष्ण भी बचपन से ही कुश्ती लड़ा करते थे। यह कार्य गौवें चराते समय अपने बाल गोपाल के साथ करते थे। इस बात की पुष्टी - श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय- १५ के श्लोक- (१६ )और (१७) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
अनुवाद - १६-१७ • कभी-कभी स्वयं श्री कृष्ण भी ग्वाल बालों के साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तब किसी सुंदर वृक्ष के नीचे कोमल पत्तों की सेज पर किसी ग्वाल बाल की गोद में सिर रखकर लेट जाते। १६। • उस समय कोई कोई पुण्य के मूर्तिमान स्वरूप ग्वालबाल महात्मा श्री कृष्ण के चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अंगोछियों से पंखा झलने लगते।
(३) श्रीकृष्ण के उपनाम :-
(क)- गोपकृत - गोपेश्वर श्रीकृष्ण के (एक हजार नामों) में गोपकृत भी है। जिसका अर्थ होता है - गोपों को उत्पन्न करने वाला।
(ख)- वंशीधारी - भगवान श्री कृष्ण सदैव एक हाथ में वंशी और सिर पर मोर मुकुट धारण करते हैं। वंशी धारण करने की वजह से ही उनको को वंशीधारी कहा गया। उनकी वंशी का नाम- ‘भुवनमोहिनी’ है। यह ‘महानन्दा’ नाम से भी विख्यात है।
(ग)- मुरलीधारी — कोकिलाओं के हृदयाकर्षक कूजन (पक्षियों के कलरव ) को भी फीका करनेवाली इनकी मधुर मुरली का नाम ‘सरला’ है इसका बचपन में (धन्व:) नामक बाँसुरी विक्रेता से कृष्ण ने प्राप्त किया था। मुरली धारण करने की वजह से श्रीकृष्ण को मुरलीधारी (मुरलीधर) भी कहा गया।
(घ)- शारंगधारी— श्रीकृष्ण के धनुष का नाम 'शारंग' है।जिसे सींग से बनाया गया था। तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिञ्जिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं। सारंग धनुष के धारण करने से ही भगवान श्री कृष्ण को सारंगधारी भी कहा जाता है। युधिष्ठिर ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की प्रसंशा उस समय की थी जब कृष्ण ने जरासंध को हराने के लिए शारंग धनुष को उठाया था।
(ड)- चक्रधारी— भगवान श्री कृष्ण जब भूमि का भार उतारने के लिए रणभूमि में अपनी नारायणी सेना के साथ उतरते हैं, तब वे अपने एक हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करते हैं। उसके धारण करने की वजह से ही उनको चक्रधारी और सुदर्शनधारी कहा गया।
(च)- गोपवेषधारी — भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में हों या भू-लोक में, वह दोनों जगहों पर सदैव गोपों के साथ गोपभेष में ही रहते हैं। इस लिए उनको गोपभेषधारी अथवा गोप भी कहा जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के क्रमशः श्लोक संख्या- २१ से होती है जिसमें श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूपों के बारे में लिखा गया है कि - स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्। किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।।२१। अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१। (छ)- गिरिधारी और गोविन्द- श्रीकृष्ण का गिरधारी और गोविंद नाम भी है। यह दोनों नाम एक ही घटनाक्रम में उस समय पड़े जब गोपों ने इन्द्र पूजा का बहिष्कार कर गो और गोवर्धन पूजा को करना प्रारम्भ किया। जिसके प्रतिशोध में इन्द्र ने गोपों की सभी गौवों को मेघ वर्षा करके मारना चाहा किंतु श्रीकृष्ण ने गोवर्धन (गिरि= पर्वत) को धारण कर गायों की रक्षा की। उसी समय श्रीकृष्ण का गिरिधारी नाम पड़ा। उसी समय वहां उपस्थित इन्द्र शरणागत होकर श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा - अहं किलेन्द्रो देवानां त्वं गवामिन्द्रतां गतः। गोविन्द इति लोकास्त्वां स्तोष्यन्ति भुवि शाश्वतम्।। ४५। (हरिवंश पुराण- २/१९/४५) अनुवाद- मैं देवताओं का इंद्र हूं और आप गौओं के इंद्र हो गए ! आज से इस भूतल पर सब लोग आप सनातन प्रभु को "गोविंद" कहकर आपका स्तवन करेंगे।४५। तभी से श्रीकृष्ण का एक और नाम गोविंद हुआ।
(ज)- केशव- गोपेश्वर श्री कृष्ण का एक नाम केशव भी है। यह नाम मुख्यतः गोपों द्वारा तब दिया गया ज
ब गोपेश्वर श्री कृष्ण ने केशी नामक दैत्य का वध किया। उसी समय गोपों ने श्री कृष्ण की स्तुति करते समय सर्वप्रथम केशव नाम से सम्बोधित किया। तभी से श्री कृष्ण का एक नाम केशव भी हुआ। यशमात्तयैष दुष्टात्मा हतः केशी जनार्दन। तस्मात्केशवनाम्ना त्वं लोके ख्यातो भविष्यसि।।२३। (विष्णु पुराण- ५/१७/२३) अनुवाद- हे जनार्दन ! आपने इस दुष्टात्मा केशी को मारा है इसलिए आप लोकों में केशव नाम से विख्यात होंगे।२३।
(विशेष- केशव नाम गोपों द्वारा दिया गया है।
कृष्ण के केशों की जन्मजात घँघराली सज्जाप्रकृति के कारण ही उन्हें केशव नाम दिया गया।
केशाः प्रशस्ताः सन्त्यस्य
“केशाद्वोऽन्यतरस्माम्” इति केशव-
शब्दकल्पद्रुम कोश में केशव शब्द की व्युत्पत्ति-केशवः - (को ब्रह्मा+ ईशः रुद्रः तौ आत्मनि स्वरूपे+ वयति प्रलये उपाधिरूपमूर्त्तित्रयं मुक्त्वा एकमात्रपरमात्मस्वरूपेणावतिष्ठते इति केशव: ।
अनुवाद:- जो परमात्मा क=( ब्रह्मा)+ ईश=( रूद्र) दोनों को अपने स्वरूप में प्रलय काल में अपनी देवत्रयी - उपाधि से मुक्त करके एकमात्र परमात्मा स्वरूप के द्वारा स्थित होता है। वह परमात्मा केशव है।
हरिवंश पुराण में केशव शब्द की व्युत्पत्ति-केशं= केशिनं वातिं = हन्ति ।( केश + वा + कः) । यथा, हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व । २४/६५- ।
इसलिए जब भी गोप (अहीर) लोग श्री कृष्ण की स्तुति करें केशव नाम से ही करें। क्योंकि यह नाम गोपों के लिए विकट परिस्थितियों से मुक्ति प्रदान करने वाला है)
ये तो रही श्रीकृष्ण की कुछ खास व्यक्तिगत विशेषताएं। किंतु उनकी कुछ सामूहिक व सामाजिक विशेषताएं भी हैं जिनके जानें बगैर श्रीकृष्ण की विशेषताएं अधुरी ही मानी जाएगी। जिसका वर्णन नीचे कुछ इस प्रकार से किया गया है।-
[४] श्रीकृष्ण की सामाजिक व व्यक्तिगत विशेषताएं -:
(क)- श्रीकृष्ण के नित्य-सखा —"श्रीकृष्ण के चार प्रकार के सखा हैं—(A) सुहृद् सखा (B) सखा (C) प्रिय सखा (D) प्रिय नर्मसखा।
(ख) - सुहृद् वर्ग के सखा— इस वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं। वे सदा श्रीकृष्ण के साथ रहकर उनकी रक्षा करते हैं । जिनके नाम हैं - विजयाक्ष, सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं । जिसमें श्रीकृष्ण के इस रक्षक टीम (वर्ग) के अध्यक्ष- अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं। जो श्रीकृष्ण की सुरक्षा को लेकर सतत् चौकन्ना रहते हैं।
(ग)- सखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं। ये सखा भाँति-भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु- नन्द नन्दन पर आक्रमण न कर दे।
• जिसमें समान आयु के सखा हैं— विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप,मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि।
• श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं— मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।
(घ)- प्रियसखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण, पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं। जिसमें भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं। ये सभी प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध-अभिनय की रचना करना, अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं। ये सब शान्त प्रकृति के हैं। तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं।
इन सखाओं में "स्तोककृष्ण" श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र हैं, जो देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। इसीलिए स्तोककृष्ण को छोटा कन्हैया भी कहा जाता है। ये श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं। प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं इसके बाद शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं।
(च)- प्रिय नर्मवर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल, (श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं। ये सभी सखा ऐसे हैं- जिनसे श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो।
राग— संगीत की दुनिया में कुछ प्रमुख राग गोपों (अहिरों) की ही देन (खोज) है। जैसे- गौड़ी, गुर्जरी राग, आभीर भैरव इत्यादि। जिसे भगवान श्रीकृष्ण सहित- गोप (आभीर) लोग समय-समय पर गाते हैं। आभीर भैरव नाम की राग- रागिनियाँ श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय हैं।
• अब हमलोग जानेगें श्रीकृष्ण के पारिवारिक सम्बन्धों को, जिसमें कृष्ण के पारिवारिक चाचा ताऊ के भाई बहिनों की संख्या सैकड़ों हजारों में हैं। उनमें से कुछ के नाम नीचें विवरण रूप में उद्धृत करते हैं।
• श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता— बलराम जी। • श्रीकृष्ण के चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
• श्रीकृष्ण की चचेरी बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा,श्यामादेवी आदि। श्री कृष्ण के साथ यदि श्रीराधा जी की चर्चा नहीं हो तो बात अधुरी ही रहती है। अतः श्रीराधा जी के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस अध्याय के भाग- 2 में दी गई है।
गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।
भाग-(२) श्रीराधा का परिचय ____
श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं, तो राधा पराशक्ति (परमेश्वरी) हैं। ये एक दूसरे से अलग नहीं है। इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखंड के अध्याय -१५ के श्लोक -५८ से -६० में होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा से कहते हैं कि -
त्वं मे प्राणाधिका राधे प्रेयसी च वरानने। यथा त्वं च तथाऽहं च भेदो हि नाऽऽवयोर्ध्रुवम॥ ५८।।
कुलालः स्वर्णकारश्च नहि शक्तः कदाचन। तथा त्वया विना सृष्टिमहं कर्तुं न च क्षमः।।६०।।
अनुवाद- तुम मुझे मेरे स्वयं के प्राणों से भी प्रिय हो, तुम में और मुझ में कोई भेद नहीं है। जैसे पृथ्वी में गंध होती है, उसी प्रकार तुममें मैं नित्य व्याप्त हूँ। जैसे बिना मिट्टी के घड़ा तैयार करने और विना सोने के कुण्डल बनाने में जैसे कुम्हार और सुनार सक्षम नहीं हो सकता उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टिरचना में समर्थ नहीं हो सकता। ५८-६०।
अतः श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण अधूरे हैं और श्री कृष्ण के बिना श्रीराधा अधूरी हैं। इन दोनों से बड़ा ना कोई देवता है ना ही कोई देवी। श्रीराधा की सर्वोच्चता का वर्णन श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय- (एक) के प्रमुख श्लोकों में वर्णन मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -
पञ्चप्राणाधिदेवी या पञ्चप्राणस्वरूपिणी। प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरी परा।।४४।
सर्वयुक्ता च सौभाग्यमानिनी गौरवान्विता। वामाङ्गार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसासमा॥४५।
परावरा सारभूता परमाद्या सनातनी। परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता॥४६।
अनुवाद- जो पञ्चप्राणों की अधिष्ठात्री, पंच प्राणस्वरूपा, सभी शक्तियों में परम सुन्दरी, परमात्मा के लिए प्राणों से भी अधिक प्रियतम, सर्वगुणसंपन्न, सौभाग्यमानिनी, गौरवमयी, श्री कृष्ण की वामांगार्धस्वरुपा और गुण- तेज में परमात्मा के समान ही हैं। वह परावरा, परमा, आदिस्वरूपा, सनातनी, परमानन्दमयी धन्य, मान्य, और पूज्य हैं।४४-४६।
रासेश्वरी सुरसिका रासावासनिवासिनी। गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥४८।
परमाह्लादरूपा च सन्तोषहर्षरूपिणी। निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी॥ ४९।
अनुवाद - वे परमात्मा श्री कृष्ण के रासक्रीडा की अधिष्ठात्री देवी है, रासमण्डल में उनका आविर्भाव हुआ है, वे रासमण्डल से सुशोभित है, वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली, परम आह्लाद स्वरूपा, संतोष तथा हर हर्षरूपा आत्मस्वरूपा, निर्गुण, निराकार और सर्वथा निर्लिप्त हैं। ४७-४९।
यदि उपरोक्त श्लोक संख्या-(४८) पर विचार किया जाय तो उसमें श्रीराधा और श्रीकृष्ण की समानता देखने को मिलती है। वह समानता यह है कि जिस तरह से श्रीकृष्ण सदैव गोपवेष में रहते हैं उसी तरह से श्रीराधा भी सदैव गोपी वेष में रहती हैं। 'रासेश्वरी सुरसिका रासावासनिवासिनी। गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।
अनुवाद -वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली हैं। ४८।
और ऐसी ही वर्णन श्रीकृष्ण के लिए ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के श्लोक- २१ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि - 'स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्। किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१।
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (अहीर)- वेष में रहते हैं।२१।
अतः दोनों ही परात्पर शक्तियां- गोप (अहीर) और गोपी (अहिराणी) भेष में रहते हैं। श्रीराधा जी को भू-तल पर अहिर कन्या होने की पुष्टि - श्रीराधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
अनुवाद- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।८३।
अब हमलोग श्रीराधा के कुल एवं पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में जानेंगे-
• पितामही — सुखदा गोपी (अन्यत्र ‘सुषमा’ नाम का भी उल्लेख मिलता है। • पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु एवं सुभानु। • भ्राता — श्रीदामा, कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी। • फूफा — काश, बुआ — भानुमुद्रा, • मातामह — इन्दु, मातामही — मुखरा। • मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति। • मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी। • मौसा — कुश, मौसी — कीर्तिमती। • धात्री — धातकी। • राधा जी की छाया (प्रतिरूपा) वृन्दा।
• सखियाँ — श्रीराधाजी की आठ प्रकार की सखियाँ हैं। इन सभी की विशेषताएं को नीचे ( ABCD ) क्रम में बताया गया हैं -
(A)- सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं।
(B)- नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं।
(C)- प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
इस वर्ग की सभी सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं।
(D)- प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि-कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं।
(E)- परमप्रेष्ठसखी वर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं — (१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५) चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।
(F)- सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि।
(G)- प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य
(H)- संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक, कण्ठिका, विशाखा और नाम्नी इत्यादि सखियाँ था जो वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं। जिसमें विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर- प्रिया-प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्ययन्त्रों को बजाती हैं।
(I)- मानलीला में सन्धि कराने वाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी।
वाटिका — कन्दर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।
राग — मल्हार (वलहार) और धनाश्री' श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय-रागिनियाँ हैं। वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।
• श्रीराधा जी का विवाह - श्रीराधा का विवाह श्रीकृष्ण से भू-तल पर ब्रह्मा जी के मन्त्रोंचारण से भाण्डीर वन में सम्पन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।
अनुवाद -हे प्राणप्यारी राधे ! तुम गोलोक का वृत्तान्त याद करों। जो वहाँ पर देवसभा में घटित हुआ था, मैनें तुम को वचन दिया था, और आज वह वचन पूरा करने का समय अब आ पहुँचा है। ५७।
ये कथोपकथन (संवाद) अभी हो ही रहा था कि वहाँ पर मुस्कराते हुए ब्रह्माजी सभी देवताओं के संग आ गये। तब ब्रह्मा ने श्रीकृष्ण को प्रणाम कर कहा-- 'कमण्डलुजलेनैव शीघ्रं प्रक्षालितं मुदा। यथागमं प्रतुष्टाव पुटाञ्जलियुतः पुनः।९६।। अनुवाद - उन्होंने श्रीकृष्णजी को प्रणाम किया और राधिका जी के चरणद्वय को अपने कमण्डल से जल लेकर धोया और फिर जल अपनी जटायों पर लगाया।९५।
इसके बाद ब्रह्मा जी विवाह कार्य सम्पन्न कराने हेतु-तत्पर हुए-
अनुवाद - १२-१३०। फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मन्त्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया। अतः उपरोक्त साक्ष्यों से स्पष्ट हुआ कि भू-तल पर श्रीराधा जी का विवाह श्रीकृष्ण से ही हुआ था अन्य किसी से नहीं।
इस प्रकार से अध्याय- (१०) का भाग- (दो) श्रीराधा जी की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसी क्रम में इस अध्याय के भाग -(तीन) में आपलोग जानेंगे कि भू-तल पर गोपकुल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष और सम्राट पुरूरवा कौन था ? तथा उनकी पत्नी गोपी- उर्वशी कौन थी ?
इस भाग में भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक गोप पुरुष पुरूरवा व उनकी पत्नी उर्वशी दोनों के विषय में क्रमशः (क) और (ख) दो भागों में बताया गया है।
[क] - पुरूरवा ____
भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक गोप पुरुष व सम्राट पुरूरवा था। उनकी पत्नी का नाम उर्वशी था। ये दोनों ही वैष्णव वर्ण की अभीर जाति से संबंधित थे। जिनका साम्राज्य भूलोक से स्वर्गलोक तक स्थापित था। इन दोनों को वैष्णव वर्ण के अहीर (गोप) जाति से सम्बन्धित होने की पुष्टि- सर्वप्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल के (९५) वें सूक्त की ऋचा- (३) से होती है, जो पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ हैं। नीचे संदर्भ देखें-
"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः। अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३।। (ऋग्वेद-10/95/3)
अर्थानुवाद: हे गोपिके ! तेरे सहयोग के बिना- तुणीर से फेंका जाने वाला बाण भी विजयश्री में समर्थ नहीं होता। (गोषाः शतसा) मैं सैकड़ो गायों का सेवक तुझ भार्या उर्वशी के सहयोग के बिना वेगवान भी नहीं हूं। (अवीरे) हे आभीरे ! विस्तृत कर्म में या संग्राम में भी अब मेरा वेग (बल) प्रकाशित नहीं होता है। और शत्रुओं को कम्पित करने वाले मेरे सैनिक भी अब मेरे आदेश (वचन अथवा हुंक्कार) को नहीं मानते हैं।३।
ऋग्वेद की उपर्युक्त ऋचा का हम नीचे संस्कृत भाष्य हिन्दी अनुवाद सहित प्रस्तुत कर रहे हैं।
भाष्य- हिन्दी अनुवाद सहित-
"अनया उर्वश्या प्रति पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं ब्रूते। हिन्दी अर्थ- उस उर्वशी के प्रति पुरूरवा अपनी विरह जनित व्याकुलता को कहता है।
“इषुधेः= इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। = (इषुधि पद का पञ्चमी एक वचन का रूप इषुधे:= तीरकोश से ) इषु: - (वाण ) धारण करने वाला निषंग या तीरकोश= इषुधि )
ततः सकाशात् “इषुः= ( उसके पास से वाण) “असना असनायै= प्रक्षेप्तुं न भवति=( फेंकने के लिए नहीं होता)। “श्रिये = विजयार्थम्। ( विजयश्री के लिए) त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात्। (तेरे विरह से युद्ध का बोध करके भी विना निधान (सहारे) के द्वारा तथा “रंहिः= वेगवानहं= (मैं वेगवान्/ बलवान्) नहीं होता। “गोषाः = गोसेवका:( गवां संभक्ता:) =(गायों का भक्त- सेवक) "न अभवम् - भू धातु रूप - कर्तरि प्रयोग लङ् लकार परस्मैपद उत्तम पुरुष एकवचन- (मैं न हुआ)। तथा “शतसाः शतानामपरिमितानां गवां संभक्ता नाभवम् । अर्थात्- (मैं सैकड़ों गायों का सेवक सामर्थ्यवान्- न हो सका)। किञ्च= और तो क्या“ अवीरे = हे अभीरे ! हे गोपिके ! वा हे आभीरे “क्रतौ = यज्ञे कर्मणि वा सति “न “वि “द्विद्युतत्= न विद्योतते मत्सामर्थ्यम्। (यज्ञ या कर्म में भी मेरी सामर्थ्य अब प्रकाशित नहीं होती।) किञ्च संग्रामे धुनयः = कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः =(और तो क्या युद्ध में शत्रुओं को कम्पायमान करने वाले मेरे सैनिक भी ) । मायुम् = मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः। 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण्। सिंहनादं =(मेरी (मायु) हुंक्कार“ न “चितयन्त न बुध्यन्ते वा=(नहीं समझते हैं) ‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्॥
अब हम लोग ऋग्वेद की इस ऋचा में आये दो शब्दों- ***** "गोषा:" और "अवीरे" की व्याकरणीय व्याख्या करके यह जानेंगे कि इन दोनों शब्दों का वैदिक और लौकिक संस्कृत में क्या अर्थ होता है ? जिसमें पहले "गोषा:" शब्द की व्याकरणीय व्याख्या करेंगे उसके बाद "अवीरे" की।
• गोषः शब्द की व्याकरणिक उत्पत्ति- गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् ) धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) = भक्ति करना ,दान करना, पूजा करना + विट् ङा। सनोतेरनः” पाणिनीय षत्वम् सूत्र ।
अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर (गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है। गो सेवक अथवा पालक। गोष: का वैदिक रूप गोषा: है।
उपर्युक्त ऋचाओं में गोषन् तथा गोषा: शब्द गोसेवक के वाचक हैं। वैदिक संस्कृत का यही गोषः शब्द लौकिक संस्कृत में घोष हुआ जो कालान्तर में गोप, गोपाल, अहीर, और यादव का पर्यायवाची शब्द बन गया। क्योंकि ये सभी गोपालक थे।
और जग-जाहिर है कि सभी पुराण लौकिक संस्कृत में लिखे गए हैं। इस हेतु पुराणों में भी देखा जाए तो वैदिक शब्द "गोषः" लौकिक संस्कृत में "घोष" गोपालक अथवा अहीर जाति के लिए आज तक भी प्रयुक्त होता है अन्य किसी जाति के लिए नहीं। पुरूरवा के गोप अथवा गोपालक होने की पुष्टि -श्रीमद्भागवत महापुराण के नवम-स्कन्ध के प्रथम अध्याय के श्लोक संख्या-(४२) से भी होती है जिसमें पुरूरवा के गोप (गोपालक) होने की बात कही गई है -
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र पुरूरवा को गो-समुदाय देकर वन को चला गया।४२।
उपर्युक्त श्लोक में गाम्- संज्ञा पद गो शब्द का ही द्वितीया कर्म कारक रूप है। यहाँ गो पद - गायों के समुदाय का वाचक है।
अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष) शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ वैदिक और लौकिक संस्कृत में - गायों का दान करने वाला तथा गोसेवा करने वाले गोप से ही होता है।
अत: उपरोक्त सन्दर्भों से स्पष्ट होता है कि भू-तल का प्रथम सम्राट पुरूरवा गो-पालक (गोप,आभीर) ही था। जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य स्थापित था।
[ख] - उर्वशी ____ उर्वशी पूर्व काल की एक धन्या और मान्या अहीर कन्या थी। जो कभी अपने तपोबल से स्वर्ग की अप्सराओं की अधिश्वरी हुई। इस ऐतिहासिक अहीर कन्या के धन्या एवं मान्या होने की पुष्टि उस समय होती है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण प्रमुख विभूतियों की तुलना करते हुए ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (७३) में कहते हैं-
अनुवाद:- मैं सभी शास्त्रों में वेद हूँ समुद्र के प्राणीयों में वरुण हूं। अप्सराओं में उर्वशी हूँ। और समुद्रों में जलार्णव हूँ।७०।
वास्तव में उर्वशी एक अहीर कन्या थी इस बात की पुष्टि- ऋग्वेद की ऋचा- 10/95/3 से होती है जिसमें उसके पति पुरुरवा द्वारा उसके लिए अवीरे शब्द से सम्बोधन हुआ है।
"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः। अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३।।
इस ऋचा में आये सम्बोधन पद- 'अवीरे' की व्याकरणीय व्याख्या करके जानेंगे कि "अवीरे" शब्द का वैदिक और लौकिक संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा, पालि आदि भाषाओं में क्या रूप और अर्थ होता है ?
वास्तव में देखा जाए तो उपरोक्त ऋचा में उर्वशी का सम्बोधन अवीरे ! है, जो लौकिक संस्कृत के अभीरे शब्द का ही वैदिक पूर्व रूप है। लौकिक संस्कृत में अभीर तथा आभीर दो रूप परस्पर एक वचन और बहुवचन ( समूह-वाची ) हैं।
वैदिक भाषा का एक नियम है कि उसमें उपसर्ग कभी भी क्रियापद और संज्ञापद के साथ नहीं आते हैं। इसलिए ऋग्वेद में आया हुआ अवीरे सम्बोधन-पद मूल तद्धित विशेषण शब्द है- (अवीर=(अवि+ईर्+अच्)= अवीर: का स्त्रीलिंग रूप अवीरा है, जो सम्बोधन काल में अवीरे ! हो जाता है।)
अत: अवीरा शब्द ही लौकिक संस्कृत में अभीरा हो गया और यही अभीर तथा समूह वाची रूप आभीर प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में अहीर तथा आहीर हो गया। यह सब कैसे हुआ ? यह नीचे सन्दर्भ देखें- *********** वैदिक अवीर शब्द की व्युत्पत्ति ( अवि = गाय, भेड़ आदि पशु + ईर:= चराने वाला। हाँ करने वाला , निर्देशन करने वाला,। अर्थात् गाय आदि पशुओं का पालन करने वाले के रूप में भी अभीर शब्द की व्युत्पत्ति हुई है।
वाचस्पत्यम कोश कार ने तो अभीर की व्युत्पत्ति इसी रूप में की है। अभीर = अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरः अच् । जो चारो तरफ से गायें हाँकता है। परन्तु यह व्युत्पत्ति एक संयोग मात्र ही है। क्योंकि अवीरा शब्द की व्युत्पत्ति ऋग्वेद में प्राप्त लौकिक अवीरा शब्द की व्युत्पत्ति से अलग ही है।
वैदिक ऋचा में अवीर (अवि+ ईर:) शब्द दीर्घ सन्धि के रूप में तद्धित पद है। जबकि लौकिक संस्कृत में अवीर (अ + वीर) के रूप में वीर के पूर्व में अ (नञ्) निषेधवाची उपसर्ग लगाने से बनता है।
वैदिक भाषा नें लौकिक संस्कृत भाषा की व्याकरणिक प्रक्रिया अमान्य ही है।
****" परन्तु कुछ लोग इसी कारण इसका अर्थ- "जो वीर न हो" निकालते हैं। किंतु यह ग़लत है क्योंकि उर्वशी के लिए इस अर्थ में अवीरा शब्द अनुपयुक्त व सिद्धान्त विहीन ही है। अत: अवीरा शब्द को अवि + ईरा के रूप में ही सही माना जाना चाहिए। क्योंकि अवीर शब्द का मूल सहचर हिब्रू भाषा का अबीर(अवीर) शब्द भी है। जो ईश्वर का एक नाम है। हिब्रू भाषा में अबीर शब्द का अर्थ वीर ही होता है।
वैदिक और लौकिक संस्कृत भाषा में अवीर तथा अभीर शब्द अहीरों की पशुपालन वृत्ति ( व्यवसाय) के साथ साथ अहीरों की वीरता प्रवृत्ति को भी सूचित करता है। वीर शब्द ही सम्प्रसारित होकर आर्य बन गया। इस सम्बन्ध में विदित हो आर्य शब्द प्रारम्भिक काल में पशुपालक तथा कृषक का ही वाचक था।
यदि अवीर शब्द का विकास क्रम देखा जाए तो- वैदिक कालीन अवीर शब्द ईसापूर्व सप्तम सदी के आस-पास गाय- भेड़ बकरी पालक के रूप में प्रचलित था। यह वीर अहीरों का वाचक था। परन्तु कालान्तर में ईसापूर्व पञ्चम सदी के समय यही अवीर शब्द अभीर रूप में प्रचलन में रहा और इसी अभीर का समूह वाची अथवा बहुवचन रूप आभीर हुआ जो अहीरों की वीरता प्रवृत्ति का सूचक रहा इसी समय के शब्दकोशकार अमरसिंह ने आभीर शब्द की व्युत्पत्ति अपने अमरकोष में कुछ इस तरह से बतायी है।
आभीरः= पुंल्लिंग (आ= समन्तात् भियं =भयं राति= ददाति (आ+भी+ रा + क:) रा=दाने आत इति कः।) अर्थात "जो चारों तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय दे या भरे। वही आभीर- है । इत्यमरःकोश - आभीर प्राकृत भाषा में आहिर हो गया है। अभीर- अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरः अच् । अर्थात् जो सामने मुख करके या चारो तरफ से गायें हाँकता या चराता है।
और आगे कालक्रम से यही आभीर शब्द एक हजार ईस्वी में अपभ्रष्ट पूर्व हिन्दी भाषा के विकास काल में प्राकृत भाषा के प्रभाव से आहीर हो गया। ज्ञात हो कि लौकिक संस्कृत में जो आभीर शब्द प्रयुक्त होता है उसका तद्भव रुप आहीर ही होता है।
दूसरी बात यह कि- ऋग्वेद में गाय चराने या हाँकने के सन्दर्भ में ईर् धातु का क्रियात्मक लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन का रूप ' ईर्ते ' विद्यमान है। जैसे - 'रुशद्- ईर्त्ते पयो गोः ”प्रकाशित होती हुई( नजर आती हुई- दूध वाली गाय चरती है। (ऋग्वेद-9/91/3 )
यह तो सर्वविदित है ही की "उर्वशी गाय और भेड़ें पालती थी। आभीर कन्या होने के नाते भी उसका इन पशुओं से प्रेम होना स्वाभाविक ही था। इस बात की भी पुष्टि- देवी भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध के अध्याय- (१३) के श्लोक- संख्या-(८) से होती है कि उर्वशी के पास दो भेंड़े भी थीं।
अनुवाद -वह वरांगना इस प्रकार की शर्त रखकर वहीं रहने लगी। उसने पुरूरवा से कहा - हे राजन ! यह दोनों भेंड़ के बच्चे मैं आपके पास धरोहर के रूप में रखती हूं। ध्यान रहे अमरकोश - 2/9/76/2/3 - भेंड़ के पर्याय निम्नांकित बताए गए हैं। "उरण पुं। मेषः" समानार्थक=मेढ्र,उरभ्र,उरण,ऊर्णायु,मेष,वृष्णि,एडक,अवि।अतः सिद्ध होता है कि उर्वशी के पास दो भेंड़ के बच्चे थे।
कुछ समय बाद उर्वशी के दोनों भेड़ के बच्चों के साथ एक घटना घटी जिसमें इन्द्र के कहने पर गन्धर्व उर्वशी के दोनों भेंड़ के बच्चों को चुरा कर आकाश मार्ग से ले जाने लगे, तब दोनों भेंड़ के बच्चे जोर-जोर से चिल्लाने लगे। इस घटना का वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के प्रथम स्कंध के अध्याय- (१३) के श्लोक - (१७ से २०) में कुछ इस प्रकार लिखा हुआ मिलता है।
अनुवाद- १७-२० • तब इन्द्र के ऐसा कहने पर विश्वावसु आदि प्रधान गन्धर्वों ने वहां से जाकर रात्रि के घोर अंधकार में राजा पुरुरवा को बिहार करते देख उन दोनों भेंड़ों को चुरा लिया तब आकाश मार्ग से जाते हुए चुराए गए वे दोनों भेंड़ जोर से चिल्लाने लगे। १७-१८। • अपने पुत्र के समान पाले हुए भेड़ों का क्रंदन( आवाज) सुनते ही उर्वशी ने क्रोधित होकर राजा पुरूरवा से कहा- हे राजन ! मैंने आपके सम्मुख जो पहली शर्त रखी थी, वह टूट गई आपके विश्वास पर मैं धोखे में पड़ी, क्योंकि पुत्र के समान मेरे प्रिय भेंड़ों को चोरों ने चुरा लिया फिर भी आप घर में स्त्री की तरह शयन कर रहे हैं।१९-२०। अतः इन उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि पुरूरवा और उर्वशी दोनों पशुपालक अहीर जाति से सम्बन्धित थे।
उर्वशी को अहिर कन्या होने की पुष्टि- मत्स्यपुराण- के (६९) वें अध्याय के श्लोक- ६१-६२ से भी होती है।
और यही उर्वशी का आभीर कन्या के रूप में वर्णन पद्म पुराण सृृष्टिखण्ड के अध्याय( 23 ) के श्लोक संख्ख (66 )"त्वा च यामप्सरसामधीशा वैश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति। ६६।
जिसमें उर्वशी के द्वारा "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने का प्रसंग है। इसी प्रसंग में भगवान श्री कृष्ण भीम से कल्याणिनी व्रत के बारे में कहते हैं कि -
"त्वा च यामप्सरसामधीशा वैश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु। आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे॥६१।
अनुवाद- ६१-६२ जन्मान्तर में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह वैश्य पुत्री अप्सराओं की अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी( उरणवशी)- भेड़ को प्रेमकरने वाली नाम से विख्यात है। ६१। • इसी प्रकार इसी वैश्य( गोप)कुल में उत्पन्न हुई एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्रीरूप में उत्पन्न होकर इन्द्र की पत्नी बनी। उसके अनुष्ठान काल में जो उसकी सेविका थी,वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है। ६२।
अतः वैदिक और पौराणिक सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है। कि उर्वशी अहीर कन्या थी। जिसके पति का नाम पुरूरवा था वह भी गोप था। उस समय उसके जैसा धर्मवत्सल राजा तीनों लोकों में नहीं था। उन्होंने बहुत काल तक अपनी पत्नी उर्वशी के साथ सुख भोगा। इन सभी बातों की पुष्टि- हरिवंश पुराण के हरिवंशपर्व के अध्याय- (२६) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें पुरूरवा के बारे में लिखा गया है कि -
"ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः। आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।।२।
तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च। पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत।।५।
वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे। अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे।।६।
उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान्। गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे।। ७।
एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च। उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।।८।
देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते। राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।।९।
अनुवाद- २-९ • वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक वैष्णव यज्ञ किये।२। • वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन-भूख (कामवासना) पर पूरा नियंत्रण था। उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था।३। • अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति के रूप में चुना। ४। • राजा पुरूरवा दसवर्षों तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मन्दाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल आदि स्थानों में उर्वशी के साथ रहे। सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक रहे । ५-७। • देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरूरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया। ८। • पृथ्वीपति पुरूरवा ( उर्वशी के साथ ) महर्षियों से प्रशंसित परम पवित्र देश प्रयागराज में राज्य करते थे।९।
इस प्रकार से सिद्ध होता है कि पुरूरवा एक धर्मवत्सल तथा प्रजापालक सम्राट थे। वह अपनी पत्नी उर्वशी के साथ बहुत दिनों तक भू-तल पर सुखपूर्वक रहे
अब हम लोग यह जानेंगे कि पुरूरवा और उर्वशी से किस नाम के कौन-कौन से पुत्र हुए। पुरूरवा और उर्वशी से उत्पन्न पुत्रों का वर्णन हरिवंशपुराण के हरिवंशपर्व के अध्याय -(२६) के प्रमुख श्लोकों में मिलता है। जिसमें वैशम्पायनजी जन्मेजय के पूछने पर कहते हैं कि -
"तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः । दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।
अनुवाद- उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम- आयु , धीमान , अमावसु , धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु , वनायु और शतायु थे। इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था।१०-११।
अतः हरिवंशपुराण के उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि आभीर पुरूरवा की पत्नी उर्वशी( (उरणवशी) से कुल सात देवतुल्य पुत्र हुए। उन सभी का विस्तार पूर्वक वर्णन भाग- (४) में किया गया है।
इस प्रकार से अध्याय- १० का भाग- (३) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष पुरूरवा व उनकी पत्नी उर्वशी दोनों ही वैष्णव वर्ण के गोपकुल के अभीर जाति से संबंधित हैं।
अब इस अध्याय- के अगले भाग -(चतुर्थ भाग ) में आपलोग जानेंगे कि- पुरूरवा और उर्वशी के ज्येष्ठ पुत्र आयु की पीढ़ी में आगे चलकर नहुष और ययाति की वैष्णव वर्ण के गोपकुल में क्या भूमिका रही ?
इस भाग में पुरूरवा, उर्वशी, और ययाति का परिचय क्रमशः (क), (ख), और (ग) में किया गया है।
[क] - आयुष :-
पुरूरवा के सात पुत्रों- (आयुष , अमावसु , विश्वायु , श्रुतायु , दृढ़ायु , वनायु और शतायु ) में ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे; जिनका सम्बन्ध गोप जाति से ही है। क्योंकि इनके पिता- पुरुरवा और माता उर्वशी पूर्व ही गोप जातीय थे। अतः उनसे उत्पन्न पुत्र गोप ही होगें। अतः इस नियमानुसार आयुष भी गोप ही हुए। (पुरूरवा और उर्वशी को गोप होने के बारे में इसके पिछले खण्ड -(३) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है।)
गोप पुरूरवा एवं गोपी (अहीराणी) उर्वशी के सात पुत्रों में विशेष रूप से आयुष को ही लेकर आगे तक वर्णन किया जाएगा क्योंकि इनकी ही पीढ़ी में आगे चलकर यादव वंश का उदय हुआ जिसमें भगवान श्रीकृष्ण का भी अवतरण हुआ, जिनका संबंध गोलोक के साथ ही भू-तल पर भी गोप जाति से ही रहा है। (भगवान श्रीकृष्ण को सदैव गोप होने के बारे में अध्याय- (आठ) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है )
आभीर कन्या उर्वशी के ज्येष्ठ पुत्र- आयुष(आयु ) का विवाह स्वर्भानु (सूर्यभानु) गोप की पुत्री इन्दुमती से हुआ था। इन्दुमती का दूसरा नाम- लिंगपुराण आदि में "प्रभा" भी मिलता है। ज्ञात हो कि इन्दुमती के पिता स्वर्भानु गोप वहीं हैं जो भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक में सदैव तीसरे द्वार के द्वारपाल रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के चतुर्थ श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय-५ के श्लोक- (१२) और (१३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
अनुवाद - देवता लोग तीसरे उत्तम द्वार पर गए, जो दूसरे से भी अधिक सुन्दर ,विचित्र तथा मणियों के तेज से प्रकाशित था। नारद ! वहाँ द्वारा की रक्षा में नियुक्त सूर्यभानु नामक द्वारपाल दिखाई दिए, जो दो भुजाओं से युक्त मुरलीधारी, किशोर, श्याम एवं सुंदर थे। उनके दोनों गालों पर दो मणियय कुण्डल झलमला रहे थे। रत्नकुण्डलधारी सूर्यभानु श्री राधा और श्री कृष्ण के परम प्रिय एवं श्रेष्ठ सेवक थे। १२-१३
इसी सुर्यभानु गोप की पुत्री- इन्दुमती (प्रभा) का विवाह भू-तल पर गोप पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष से हुआ था। इस बात की पुष्टि लिंग पुराण के (६६ )वें अध्याय के श्लोक संख्या- (५९) और (६०) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि - "आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः। स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।। ५९। अनुवाद - आयुष के पांच वीर और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए। इन नहुष आदि पाँचो राजाओं का जन्म आयुष की पत्नी स्वर्भानु (सूर्यभानु ) की पुत्री प्रभा की कुक्षा (उदर) से हुआ था।५९।
[ख] - नहुष :-
उपर्युक्त श्लोक से ज्ञात होता है कि आयुष के पुत्र "नहुष" थे। जिनका विवाह पार्वती की पुत्री अशोकसुन्दरी ( विरजा ) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टि निर्माण खण्ड में तथा लिंगपुराण में भी मिलता है।
ज्ञात हो कि नहुष श्रीकृष्ण के अंशावतार थे। अतः इनका भी सम्बन्ध वैष्णव वर्ण के गोप कुल से ही था। जिसमें नहुष को श्रीकृष्ण का अंशावतार होने की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय संख्या -(१०३) से होती है जिसमें नहुष के पिता- आयुष (आयु ) की तपस्या से प्रसन्न होकर दत्तात्रेय ने वर दिया कि तेरे घर में विष्णु के अंश वाला पुत्र होगा। उस प्रसंग को नीचे देखें।
'देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम्। यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो।१३५।
एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः। राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः।१३७।
अनुवाद- • सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो।१३५। • दत्तात्रेय ने कहा - ऐसा ही हो ! तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य-कर्मा और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६। • जो इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त-सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा।१३७।
अतः उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि नहुष भगवान श्रीकृष्ण के ही अंशावतार थे। वहीं दूसरी तरफ नहुष की पत्नी विरजा (अशोक सुन्दरी) भी गोलोक की गोपी तथा भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी थी। इस विरजा और श्रीकृष्ण से गोलोक में कुल सात पुत्र उत्पन्न हुए थे।
इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता- वृन्दावनखण्ड के अध्याय-२६ के श्लोक - (१७)से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
विरजायां सप्त सुता बभूवुः कृष्णतेजसा। निकुञ्जं ते ह्यलंचक्रुः शिशवो बाललीलया॥१७। अनुवाद - श्रीकृष्ण के तेज से विरजा के गर्भ से सात पुत्र उत्पन्न हुए। वे सातों शिशु अपनी बाल- क्रीड़ा से निकुंज की शोभा बढ़ाने लगे।१७।
ज्ञात हो कि श्रीकृष्ण की प्रेयसी गोलोक की विरजा कालान्तर में भू-तल पर अशोक सुन्दरी नाम से पार्वती जी के अंश से पुत्री रूप में प्रकट हुई। फिर उसका विवाह भू-तल पर किसी और से नहीं बल्कि श्रीकृष्ण के अंश नहुष से ही हुआ।
इन सभी बातों की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमिखण्ड के अध्याय संख्या -(१०२) के श्लोक संख्या - (७१ से ७४) में होती है। जिसमें पार्वती जी अपनी पुत्री अशोक सुंदरी (विरजा) को वरदान देते हुए कहती हैं कि -
अनुवाद- पार्वती ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा- इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे ! तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्वसौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी। राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्र वंशीय परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही तुम्हारे पति होंगे।७१-७४।
इस प्रकार पार्वती ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं। इन श्लोकों से एक बात और स्पष्ट होकर सामने आती है कि - पार्वती जी के वरदान के अनुसार अशोक सुंदरी का विवाह चंद्रवंशी सम्राट नहुष से होना सुनिश्चित हआ ।
अतः यहाँ सिद्ध होता है कि "नहुष" गोप- कुल के चंद्रवंशी सम्राट थे। यह बात उस समय की है कि- जब भू-तल पर उस समय तक यादवंश का उदय नहीं हुआ था। किंतु श्रीकृष्ण अंश नहुष को चंद्रवंशी होने का प्रमाण यहाँ मिलता है। और चंद्रवंश के अंतर्गत आनेवाला यादव वंश अब बहुत दूर नहीं रहा, जल्द ही उसका क्रम भी आएगा।
अब आगे श्रीकृष्ण अंश नहुष और विरजा (अशोक सुन्दरी) से गोलोक की ही भांति भू-तल पर भी कुल छह पुत्र हुए। जिसकी पुष्टि - भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय -१८ के श्लोक (१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
अनुवाद- जैसे शरीरधारियों के छः इंद्रियां होती हैं, वैसे ही नहुष के छः पुत्र थे। उनके नाम थे- यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति, और कृति। १।
जिसमें ययाति सबसे छोटे थे। फिर भी नहुष ने ययाति को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और राजा बनाया। (ज्ञात हो कि ययाति ने भी अपने पिता नहुष की इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने छोटे पुत्र- पुरु को राजा बनाया था। इसका विवरण आगे दिया गया है।)
[ग] - ययाति :-
ययाति श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र थे और उनकी माता "विरजा" गोलोक की गोपी थीं। ऐसे में ययाति अपने माता-पिता के गुणों एवं (रक्त-सम्बन्धों) ब्लड रिलेशन से गोप ही थे। इसी वजह से वे राजा होते हुए भी बड़े पैमाने पर गोपालन किया करते थे। और यज्ञ आदि के समय अधिक से अधिक गायों का भी दान किया करते थे। ययाति और उनके पिता नहुष को एक ही साथ गोपालक होने की पुष्टि- महाभारत अनुशासनपर्व के अध्याय -८१ के श्लोक संख्या-५-६ से भी होती है।
अनुवाद - युवनाश्व के पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति- ये सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे; इससे वह उन उत्तम स्थानों को प्राप्त हुऐ हैं, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। अर्थात् वे सब गोलोक को चले गये।५-६। अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र "ययाति" भी गोप थे। ययाति की तीन पत्नियां थीं, जिनके क्रमशः नाम हैं - देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमति। उसमें देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री थी और शर्मिष्ठा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री थी। तथा अश्रुबिन्दुमति कामदेव की पुत्री थी। जिसमें ययाति की दो पत्नियों का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- १८ के श्लोक- ४ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
अनुवाद -ययाति अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्य राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे।४।
(ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमति कब ययाति की पत्नी हुईं इस बात को इसी प्रसंग में आगे बताया गया है।)
आगे ययाति की इन दो पत्नियों से कुल पांच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्यु, अनु, और पुरु हुए। किंतु अश्रुबिंदुमति सदा पुत्रहीन रही।
ज्ञात हो कि - ययाति अपनी तीनों पत्नियों में कभी सामंजस्य नहीं बैठा पाए। क्योंकि ये तीनों आपसी रूप सौतें होने की वजह से हमेशा एक दूसरे से (ईर्ष्या) करती थीं। विशेष रूप से अश्रुबिंदुमति से तो देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों और अधिक ईर्ष्या करती थीं। जिसका परिणाम यह हुआ कि कलह बढ़ता ही गया, अन्ततोगत्वा ययाति ने क्रुद्ध होकर अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बेवजह (बिनाकारण) देवयानी की वजह से ही शाप दे दिया। किंतु पिता का यही शाप आगे चलकर यदु के लिए वरदान भी सिद्ध हुआ। वह शाप कैसा था ? और क्यों दिया गया ? इसका विस्तार पूर्वक वर्णन पद्मपुराण के दूसरे खण्ड भूमिखण्ड के अध्याय- (८०) के श्लोक -(३) से लेकर (१४) तक मिलता है। जिसका श्लोक और अनुवाद दोनों नीचे दिया गया है।
अनुवाद- (३- से १४ तक) • सुकर्मा ने कहा– जब वह राजा ( ययाति) कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गये, तो उच्च विचार वाली देवयानी उसके साथ बहुत प्रतिद्वन्द्विता करने लगी।३।
•इस कारण उस ययाति ने क्रोध के वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) जो देवयानी से उत्पन्न थे; उनको शाप दे दिया। और राजा ने दूत के द्वारा शर्मिष्ठा को बुलाकर ये शब्द कहे। ४। • शर्मिष्ठा और देवयानी दोनों रूप , तेज और दान के द्वारा उस अश्रु-बिन्दुमती के साथ प्रतिस्पर्धा करती हैं। ५ • तब कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती ने उन दोनों के दुष्टभाव को जाना तो उसने राजा को वह सब बातें उसी समय कह सुनायीं।६। • तब क्रोधित होकर राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अर्थात अपनी माता (देवयानी) को मार डालो।७। • हे पुत्र तुम मेरा प्रिय करो यदि तुम इसे कल्याण कारी मानते हो ! अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने पिता से कहा। ८।
• मान्यवर ! पिता श्री ! मैं निर्दोष दोनों माताओं को नहीं मारुँगा। ९। • वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है। इस लिए महाराज ! मैं इन दोनों माताओं का बध नहीं करुँगा। १०।
• हे राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक पुत्री पर हजार दोष लगें हो। ११। • तो भी उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए ! यह जानकर महाराज मैं दोनों माताओ को नहीं मारुँगा। १२। • उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये इसके बाद पृथ्वी के स्वामी ययाति ने अपने पुत्र को शाप दे दिया।१३। • चूंकि तुमने आज मेरे आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का ही भजन (भक्ति ) करो।१४।
पिता की इतनी बातें सुनने के बाद यदु ने अपने पिता राजा ययाति से विनम्रता पूर्वक उस राज्य का नागरिक होने के नाते से पूछा था-
हे महाराजा! मैं तो निर्दोष हूं, फिर भी तुमने मुझे क्यों शाप दिया है ? कृपया मुझ निर्दोष का पक्ष लें और मुझ पर दया करने की कृपा करें।
- पद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय- ७८ के श्लोक संख्या-३३ और ३४ में यदु और ययाति के संवाद रूप में दो श्लोक विशेष महत्व के हैं। जिसमें यदु अपने पिता से कहते हैं -
'निर्दोषोहं महाराज कस्माच्छप्तस्त्वयाधुना। कृपां कुरुष्व दीनस्य प्रसादसुमुखो भव।।३३।
"राजोवाच- 'महादेवः कुले ते वै स्वांशेनापि हि पुत्रक। करिष्यति विसृष्टिं च तदा पूतं कुलं तव।।३४।
अनुवाद - हे महाराजा! मैं तो निर्दोष हूं, फिर भी तुमने मुझे क्यों शाप दिया है ? कृपया मुझ निर्दोष का पक्ष लें और मुझ पर दया करने की कृपा करें।
तब राजा ने कहा- हे पुत्र ! जब महान देवता (स्वराट विष्णु) अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेंगे तब तेरा कुल शुद्ध हो जाएगा।३३-३४।
(ज्ञात हो- अनन्त ब्रह्माण्ड में अनन्त छोटे विष्णु, ब्रह्मा, और महेश हैं। किंतु स्वराट विष्णु एक हैं जिन्हें परमेश्वर कहा जाता है। जो सभी देवताओं के भी ईश्वर और महान देवता हैं। उनका निवास स्थान सभी लोकों से ऊपर है। उसका नाम है गोलोक, उसी गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) रहते है। इस बात की संपूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय दो और तीन को अवश्य देखें।)
और आगे चलकर ययाति का यही शाप यदु के लिए वरदान सिद्ध हुआ, क्योंकि ययाति के कथनानुसार कालान्तर में यदु के वंश में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ। इस बात की संपूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय- ८ को देखें।
इस प्रकार से अध्याय- (१०) गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों के परिचय के साथ समाप्त हुआ। जिसमें आप लोगों ने वैष्णव वर्ण के गोप राजाओं (आयुष, नहुष, ययाति) तथा उनकी पत्नियों व पुत्रों इत्यादि को भी जाना। इसी क्रम में इसके अगले अध्याय-(११) में- "यदुवंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपत्तियों के बारे में बताया गया है। उसे भी इस अध्याय के साथ जोड़ कर अवश्य पढ़ें।
भाग- (१) महाराज यदु का परिचय _________ महाराज यदु , यादवों के आदि पुरुष या कहें, पूर्वज थे। इस बात को श्रीकृष्ण भी स्वीकार करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण के (११) वें स्कन्ध के अध्याय - (७) के श्लोक- (३१) में कहते हैं कि -
अनुवाद- हमारे "पूर्वज महाराज यदु" की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्रह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी।३१।
अब ऐसे में जब महाराज "यदु" यादवों के पूर्वज है, तब यदु के बारे में और विस्तार से जानना आवश्यक हो जाता है कि यदु कौन हैं, तथा "यदु" नाम की सार्थकता क्या है ? तथा यदु शब्द की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? इत्यादि इन सभी बातों का समाधान इस अध्याय में किया गया है।
यदु शब्द की ब्युत्पत्ति के बारे में देखा जाए तो यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। सम्भवतः इसी कारण से लौकिक संस्कृत में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है। इसी लिए संस्कृत भाषा के कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं। जिससे यदु शब्द की व्युत्पत्ति पुल्लिंग रूप में होती है। जैसे- संस्कृत भाषा में 'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल + उणादि प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर- 'पृषोदर प्रकरण' के नियम से "जस्य दत्वं" अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द बनता है। [ ज्ञात हो- पाणिनीय व्याकरण में "पृषोदरादीनि एक पारिभाषिक शब्द है। पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' (६.३.१०८) इस पाणिनीय सूत्र से यज्- धातु के अन्तिम वर्ण "जकार को दकार" आदेश हो जाने से ही यदु शब्द बनता है। ]
ये तो रही यदु शब्द की व्युत्पत्ति अब हमलोग जानेंगे यदु शब्द के अर्थ को - जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि यदु शब्द की व्युत्पत्ति "यज्" धातु से हुई है, जिसमें यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं। [यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु ] इसको साधारण भाषा में इस तरह से समझा जा सकता है ।
विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में उपरोक्त तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक रूप से समावेश था। जैसे- महाराज यदु - (१)-हिंसा से रहित नित्य वैष्णव यज्ञ किया करते थे। (२)- वे सबका यथोचित न्याय किया करते थे। (३)- और वे दान के क्षेत्र में निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा (बुद्धि ) भी प्रखर हो गयी थी।
तभी तो भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत पुराण के (११)वें स्कन्ध के अध्याय (७) के श्लोक- (३१) में उद्धव जी से कहते हैं कि 'श्रीभगवानुवाच। यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा। पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।३१। अनुवाद:- भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव ! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी।
उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे।३१।
महाराज यदु के इन्हीं सब विशेषताओं के कारण ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- (६२) की ऋचा-(१०) में ऋषियों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ऋग्वेद की वह ऋचा नीचे उद्धृत है -
अनुवाद:- और वे दोनों यदु और तुर्वसु दास -( दाता) कल्याण कारी दृष्टि वाले, स्नान आदि क्रियाओं से युक्त होकर नित्य गायों का पालन पोषण और दान भी करते हैं। हम उनकी स्तुति करते हैं। (ऋ०१०/६२/१०)
ऋग्वेद की उपरोक्त ऋचा का सम्यग्भाष्य- करने पर यदु के सम्पूर्ण चरित्रों का बोध होता है। सम्यग्भाष्य के लिए नीचे देखें - १- उत = अत्यर्थेच अपि च= और भी २- स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ= वे दोनों कल्याण कारी दृष्टि वाले। ३- गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ = गायों से घिरे हुए अथवा गायें जिनके चारो ओर हैं। ४- दासा = दासतः दानकुरुत: = दान करने वाले वे दोनों (यदु और तुर्वसु)। (ज्ञात हो- "दासा" द्विवचन शब्द है जो यदु और तुर्वसु के लिए प्रयुक्त है।
५- गोपरीणसा= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ = गायों से घिरे हुए वे दोंनो यदु और तुर्वसु। (इसके साथ ही यहां यह भी सिद्ध होता है कि यदु गोपालक अर्थात गोप थे।)
[ वैदिक शब्द निघण्टु में दासा द्विवचन में दाता का वाचक है।३।१] पाणिनीय धातुपाठ में दास् धातु = दान करना अर्थ में है। दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता। अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाया जाता हैं। महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे" ) है। अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता ( दानी ) के अर्थ में चरितार्थ था।
समय और परिस्थिति के साथ-साथ दास शब्द के अर्थ में भी उसी तरह परिवर्तन हुआ जैसे वैदिक काल में घृणा शब्द के अर्थ मै परिवर्तन हुआ है। वैदिक काल में घृणा शब्द दया भाव का वाचक था किन्तु आज घृणा शब्द का अर्थ नफ़रत हो गया है। ठीक उसी तरह से वैदिक काल के दास शब्द के अर्थ में भी बड़ी तेजी से परिवर्तन हुआ। ज्ञात हो कि वैदिक काल में दास शब्द का अर्थ - "दाता" था। उस समय दास शब्द एक प्रतिष्ठा और सम्मान का पद था। इसीलिए उस समय ऋषिगण भी दासों की स्तुतियाँ और प्रशंसा किया करते थे। जैसा कि ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- (६२) की ऋचा-(१०) में यदु और तुर्वसु की दास (दाता) के रूप में स्तुतियां की गई है। इस बात को ऊपर बताया जा चुका है।
वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम में आते-आते पौराणिक काल में "वैष्णव" के वाचक के रूप में स्थापित हुआ। इस बात की पुष्टि - पद्मपुराण के भूमि खण्ड अध्यायः(८३) से होती है। जिसमें दास शब्द वैष्णव वाचक के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रसंग में दासत्व प्राप्ति के लिए वैष्णव राजा "ययाति" भगवान विष्णु से वर मांगते हैं कि- हे प्रभु मुझे दासत्व प्रदान करो !। इसके लिए देखें निम्नलिखित श्लोक- देखें-
अनुवाद- राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) दो।८०।।
'विष्णुरुवाच- एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः। लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह।८१।।
अनुवाद:- विष्णु ने कहा- ऐसा ही हो तू मेरा भक्त हो इसमें सन्देह नहीं। अपनी पत्नी के साथ तुम मेरे लोक में निवास करो।८१।।
यदि उपरोक्त श्लोक- (८१) को देखा जाए तो उसमें एक शब्द (दासत्वं ) आया है जिसका अर्थ है- दासत्व अर्थात वैष्णव भक्ति, यानी उस समय जो वैष्णव (विष्णु) भक्त थे, वे अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझता थे। और भक्तिकाल से लेकर आज तक जन-समुदाय में उसकी पहचान दास के रूप में ही थी। जैसे - तुलसीदास, सूरदास रैदास इत्यादि इसके उदाहरण हैं।। किन्तु यहीं दास शब्द मध्यकाल में पुरोहितवाद की चपेट में आकर शूद्र और असुर का पर्याय भी बन गया। इसी समय के दास शब्दार्थ के आधार पर कुछ अज्ञानी लोग यादवों के पुर्वज यदु को दास अथवा शूद्र कहते हैं। जबकि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि जब यदु शूद्र थे, तो उनकी स्तुति ऋषियों के द्वारा क्यों की गई ? क्या पुरोहितवादी व्यवस्था में कोई ऋषि कभी शूद्र की स्तुति किया था ? जबाब होगा नहीं। अतः मध्यकाल के दास के अर्थ में यदु को शूद्र कहना सरासर ग़लत है। व वैदिक अर्थ को विपरीत है।
और वैसे भी देखा जाए तो गोपों (यादवों) का वर्ण "वैष्णव" है। इस बात को गोप कुल में जन्मे भगवान श्री कृष्ण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (७३) के श्लोक- (९२) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपने को वैष्णव होने की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च । तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।।९२।
अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूं । और वनों में चंदन हूं। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ। और निशंकों ( अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ।९२।
अतः वैष्णव वर्ण के गोपों को ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इत्यादि में स्थापित करना सिद्धान्त विहीन होगा, क्योंकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के सिद्धान्तानुसार- ब्राह्मण- ब्रह्मा जी के मुख से, क्षत्रिय- भुजा से, वैश्य - उदर से, और शूद्र - पैर से उत्पन्न होते हैं। जबकि गोप और गोपियां गोलोक में श्री कृष्ण और श्री राधा के रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अतः गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, और जब ये ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, तो इनको ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य में शूद्र या वैश्य या और कुछ कहना भी निराधार होगा [इस बात को विस्तार पूर्वक इस पुस्तक के अध्याय- (५) में बताया जा चुका है कि कैसे गोप ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य से अलग वैष्णव वर्ण के सदस्य हैं।]
अब वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम को पूरा करते हुए आधुनिक समय में आकर "नौकर" (servant) के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। जिसका कुछ सम्मान जनक शब्द नौकरी (job) है। चाहे वह नौकर (सरकारी हो या प्राइवेट) किंतु कर्म के अनुसार वह निश्चित रूप से दास ही है। जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बिना भेदभाव के यह कर्म (job) करते हैं। यह बड़ी अच्छी बात है कि दास शब्द वर्तमान समय में सबके लिए बिना भेदभाव के समभाव को प्राप्त हो गया है। इसलिए अब दास शब्द को लेकर बहुत ज्यादा उतावले होने की जरूरत नहीं है। आप कबीर दास या सूरदास को ही याद कर लो !
अब आते हैं पुनः यदु के जीवन परिचय पर, तो इस सम्बन्ध में ज्ञात हो कि- यादवों के पूर्वज यदु का जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षमय रहा। यदु के संघर्षों की कहानी उनके गृहस्थान से ही प्रारम्भ होती है। जिसका वर्णन कुछ इस प्रकार है - यदु के पिता ययाति की कुल तीन पत्नियाँ- देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमती नाम की थीं। उनमें से दो पत्नियों से कुल पांच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्य, अनु,और पुरु हुए। ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती सदैव पुत्रहीन रही। राजा ययाति अपने पांच पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र यदु को शाप देकर राज्यपद से वञ्चित कर पशुपालक होने का शाप दिया और सबसे छोटे पुत्र पुरु को राजपद दिया। इस बात की पुष्टि - लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः( ३ )अध्याय- (७३) के श्लोक (७५-७६) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः। तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः।।७५।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम। इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
अनुवाद- यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगे।७५।।
पुनः राजा ने कहा तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै। यदु ! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर राजा (ययाति) ने पुरु से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
यहीं से यदु के जीवन का कठिन दौर प्रारम्भ हुआ। पिता के शाप और राजपद से वञ्चित "यदु" ने अपने पूर्वजों की तरह ही गोपालन से अपना जीविकोपार्जन करना प्रारम्भ किया और कठिन से कठिन परिस्थितियों का मुकाबला करते हुए अपने बल एवं पौरुष से राजतंत्र के विकल्प में मुक्त प्रजातंत्र( गणतन्त्र) की स्थापना की और प्रजातान्त्रिक ढंग से राजा बनकर अपने वंश एवं कुल का विस्तार कर जगत में कीर्तिमान स्थापित किया। ध्यान रहे - राजा ययाति नें यदु को यह शाप दे दिया था कि- तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे। अतः यदु के सामने यह एक बहुत बड़ी समस्या थी। और समस्या ही आविष्कार की जननी होती है। अतः यदु नें राजतंत्र के विकल्प में प्रजातंत्र की खोज लिया और प्रजातांत्रिक तरीके से वे राजा हुए। इसीलिए यदु को प्रजातंत्र का जनक माना जाता है।
आगे चलकर इसी यदु से समुद्र के समान विशाल यादववंश का उदय हुआ। जिसके सदस्यपतियों को यादव कहा गया। इस संबंध में यदि देखा जाए तो जिस तरह से ब्रह्मन् शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय लगाने से ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ति होती है, वैसे ही यदु नें अण् प्रत्यय पश्चात लगाने पर यादव शब्द की भी उत्पत्ति होती है।
[यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द की उत्पत्ति होती है। (यदु + अण् = यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज।]
यदु के संघर्षमय जीवन में हमसफ़र( सहयात्री) के रूप में यदु की पत्नी यज्ञवती हुई। जो यदु नाम के अनुरूप ही जगत विख्यात थी। जो कभी गोलोक में सुशीला गोपी नाम से प्रसिद्ध थी। वही कालान्तर में यज्ञपुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में भू-तल पर अवतरित हुई।जिसमें यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होने का प्रकरण पौराणिक है। जिसका वर्णन-देवीभागवतपुराण- स्कन्धः नवम के अध्याय (४५) तथा ब्रह्मवैवर्त्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड के बयालीसवें अध्याय में मिलता है।[ इस प्रकरण का विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक के सहवर्ती महा ग्रन्थ "श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चंवर्णम् "में किया गया है। वहाँ से पाठकगण यदु पत्नी यज्ञवती के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।]
आगे चलकर यदु और उनकी पत्नी यज्ञवती से प्रमुख चार धर्मवत्सल पुत्र पैदा हुए। जिनके क्रमशः नाम हैं - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। जिसमें सहस्रजित यदु के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराज यदु के चार पुत्रों का वर्णन अन्य पुराणों तथा श्रीमद्भागवत पुराण के स्कन्ध (९ )के अध्याय- (२३) में भी मिलता है। उसके लिए कुछ श्लोक नीचे प्रस्तुत है -
अनुवाद- महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।१९।
इस वंश में स्वयं भगवान परब्रह्म श्रीकृष्ण मनुष्य के रूप में अवतार लेते हैं।। यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे - महाहय, वेणुहय, और हैहय।२०-२१।
इस प्रकार से यह अध्याय- ११ का भाग-(१) यदु के सम्पूर्ण चरित्रों व पुत्रों इत्यादि की सामान्य जानकारी के साथ समाप्त हुआ। इसके अगले भाग-(२) में विस्तार से जानकारी दी गई है कि यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित से हैहय वंशी यादवों की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? जिसमें सहस्राजित के वंशज सहस्रबाहु अर्जुन के बारे में विशेष जानकारी दी गई है।
_____ जैसा की इसके पिछले अध्याय में बताया जा चुका है कि यदु के चार प्रमुख पुत्र - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु नाम से थे। जिसमें सहस्रजित यदु के पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ थे। उसके आगे- सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे - महाहय, वेणुहय और हैहय। जिसमें यदु के प्रपौत्र हैहय से धनक हुए और धनक के कुल चार पुत्र- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा, और कृतौजा हुए। कृतवीर्य के पुत्र - सहस्त्रबाहु अर्जुन हुए। सहस्त्रबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय की दसवीं पीढ़ी में माता पद्मिनी के गर्भ से हुआ था। राजा कृतवीर्य की संतान होने के कारण इन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान दत्तात्रेय से हजार बाहुबल के वरदान के उपरान्त उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन कहा गया। महाराज कार्तवीर्य अर्जुन का जन्म कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। इसी तिथि को उनकी जयन्ती मनाई जाती है। इसके साथ ही कार्तवीर्य अर्जन सुदर्शन चक्र के अवतार भी हैं। इसके बारे में आगे बताया गया है। सहस्रबाहु अर्जुन अपने समय के सबसे
बलशाली, धर्मवत्सल, कुशल कृषक, प्रजापालक और गोपालक चक्रवर्ती अहीर सम्राट थे। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय-(४३) के- (१८ से २८) तक के श्लोकों से होती है। जिसमें कार्तवीर्यार्जुन के महत्व को एक नारद नामक गंधर्व नें उनके यज्ञ में कुछ इस प्रकार गुणगान किया था -
अनुवाद- १८-२८ भावी क्षत्रिय नरेश निश्चय ही यज्ञ, दान, तप, पराक्रम और शास्त्रज्ञान के द्वारा कार्तवीर्यार्जुन की समकक्षता को नहीं प्राप्त होंगे। योगी कार्तवीर्यार्जुन रथ पर आरूढ़ हो हाथ में खङ्ग,( तलवार) चक्र और धनुष धारण करके सातों दीपों में भ्रमण करता हुआ चोरों ओर से- डाकुओं पर कड़ी दृष्टि रखता था। राजा कार्तवीर्यार्जुन पच्चासी हजार वर्षों तक भू-तल पर शासन करके समस्त रत्नों से परिपूर्ण हो चक्रवर्ती सम्राट बना रहा। राजा कार्तवीर्यार्जुन ही अपने योग बल से पशुपालक (गोप) था। वहीं खेतों का भी रक्षक था और वही समयानुसार मेघ बनकर वृष्टि भी करता था। प्रत्यञ्चा के आघात से कठोर हुई त्वचाओं वाली अपनी सहस्रों भुजाओं से वह उसी प्रकार शोभा पाता था, जिस प्रकार सहस्रों किरणों से युक्त शारदीय सूर्य शोभित होते हैं।१८-२८।
ज्ञात हो- अयोध्यापति श्रीराम, लंकापति रावण और महिष्मतिपुरी (आधुनिक नाम मध्यप्रदेश का महेश्वर जो नर्मदा नदी के किनारे स्थित है।) के चक्रवर्ती अहीर सम्राट कार्तवीर्यार्जुन लगभग एक ही समय के राजा थे।
और जिस रावण को वश में करने और परास्त करने के लिए श्री राम ने सम्पूर्ण जीवन दाँव पर लगा दिया था, उस रावण को अभीर सम्राट कार्तवीर्यार्जुन ने मात्र पाँच वाणो में परास्त कर बन्दी बना लिया था। अब आप कार्तवीर्य अर्जुन की शक्ति का अनुमान लगा सकते हैं। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय-(४३) के- (३७ से ३९) तक के श्लोकों से होती है। जिसमें एक नारद नाम का एक गंधर्व कार्तवीर्यार्जुन का गुणगान करते हुए कहा -
अनुवाद- ३७-३९ इसी प्रकार अर्जुन ने एक बार लंका में जाकर अपने पाँच बाणों द्वारा सेना सहित रावण को मोहित कर दिया, और उसे बलपूर्वक जीत कर अपने धनुष की प्रत्यंचा में बांध लिया, फिर माहिष्मती पुरी में लाकर उसे बंदी बना लिया। यह सुनकर महर्षि पुलस्त्य (रावण के पितामह) ने माहिष्मती पुरी में जाकर अर्जुन को अनेकों प्रयास से समझा बुझाकर प्रसन्न किया। तब सहस्रबाहु- अर्जुन ने महर्षि पुलस्त्य को सांत्वना देकर उनके पौत्र राक्षस राज रावण को बंधन मुक्त कर दिया।३७-३९।
कार्तवीर्यार्जुन कोई साधारण पुरुष नहीं थे। वे साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के अवतार थे। इस बात की पुष्टि- नारदपुराणम्- पूर्वभाग अध्यायः (७६) के श्लोक-( ४ ) से होती है। जिसमें नारद जी कार्तवीर्यार्जुन के बारे में कहते हैं कि -
अनुवाद- ये (कार्तवीर्यार्जुन) पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया। ४
कार्तवीर्यार्जुन सुदर्शन चक्र का अवतार होने के साथ-साथ दत्तात्रेय का वर पाकर अजेय हो गये थे। उस समय कार्तवीर्यार्जुन और परशुराम से कई बार युद्ध हुआ। जिसमें दिव्य शक्ति संपन्न कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम का बध भी कर दिया था। किंतु यह बात पुरोहितों को बर्दाश्त नहीं हुई। परिणामतः इसके उलट कार्तवीर्यार्जुन को ही परशुराम द्वारा वध करने की पुराणों में एक नई कहानी जोड़ दिया।
कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम का वध किया कि परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन का वध किया, इसकी सच्चाई तभी उजागर हो सकती है जब दोनों के बीच युद्धों का निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए।
क्योंकि कि इसमें बहुत घाल- मेल किया गया है। दोनों के बीच हुए युद्धों का वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड के अध्याय- (४०) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसको नीचे उद्धत किया जा रहा है -
अनुवाद- ३ से ७२ तक • सहस्राक्ष के धरा पर गिर जाने पर महाबली कार्तवीर्यार्जुन दो लाख अक्षौहिणी सेना के साथ स्वयं युद्ध करने के लिए आया।
•वह रत्ननिर्मित खोल से आच्छादित स्वर्णमय रथपर सवार हो अपने चारों ओर नाना प्रकार के अस्त्रों को सुसज्जित करके रण के मुहाने पर डटकर खड़ा हो गया।
• इसके बाद वहां दोनों सेनाओं में युद्ध होने लगा तब परशुराम के शिष्य तथा उसके महाबली भाई कार्तवीर्य के वाणों से पीड़ित होकर भाग खड़े हुए।
•उस समय उनके सारे अंग घायल हो गए थे। राजा के बाणसमूह से अच्छादित होने के कारण शास्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम को अपनी तथा राजा की सेना भी नहीं दिख रही थी।
• फिर तो परस्पर घोर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा। अंतमें राजा (कार्तवीर्य) ने दत्तात्रेय के दिए हुए अमोघ शूल को यथाविधि मन्त्रों का पाठ करके परशुराम पर छोड़ दिया।
• उस सैकड़ों सूर्य के समान प्रभावशाली एवं प्रलयाग्नि की शिखा के सदृश शूल के लगते ही परशुराम धराशायी हो गये।
• तदनन्तर भगवान शिव ने वहां जाकर परशुराम को पुनर्जीवनदान दिया (पुनः जीवित किया)।
• इसी समय वहां युद्ध स्थल में भक्तवत्सल कृपालु भगवान दत्तात्रेय अपने शिष्य (कार्तवीर्य) की रक्षा करने के लिए आ पहुंचे। फिर परशुराम ने क्रुद्ध होकर पाशुपतास्त्र हाथ में लिया, परंतु दत्तात्रेय की दृष्टि पड़ने से वह (परशुराम) पाशुपत अस्त्र सहित रणभूमि में स्तंभित (जड़वत्) हो गये।
• तब रण के मुहाने पर स्तंभित हुए परशुराम ने देखा कि जिनके शरीर की कान्ति नूतन जलधार के सदृश्य है, जो हाथ में वंशी लिए बजा रहे हैं, सैकड़ो गोप जिनके साथ हैं, जो मुस्कुराते हुए राजा कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा के लिए अपने प्रज्वलित सुदर्शन चक्र को निरन्तर घुमा रहे हैं। ********************" •और अनेकों पार्षदों से गिरे हुए हैं, एवं ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर जिनका स्तवन कर रहे हैं, वे गोपवेषधारी श्रीकृष्ण युद्ध क्षेत्र में राजा (कार्तवीर्य) की रक्षा कर रहे हैं।
• इसी समय वहां यूं आकाशवाणी हुई - दत्तात्रेय के द्वारा दिया हुआ परमात्मा श्री कृष्ण का कवच उत्तम रतन की गुटका के साथ राजा की दाहिनी भुजा पर बँधा हुआ है, अतः योगियों के गुरु शंकर भिक्षारूप से जब उस कवच को मांग लेंगे, तभी परशुराम राजा कार्तवीर्यार्जुन का वध करने में समर्थ हो सकेंगे।
• नारद ! उस आकाशवाणी को सुनकर शंकर एक ब्राह्मण का रूप धारण करके गए और राजा से याचना करके उसका कवच मांग लाये। फिर शंभू ने श्री कृष्ण का वह कवच परशुराम को दे दिया।
• तत्पश्चात परशुराम ने श्री हरि का स्मरण करते हुए ब्रह्मास्त्र द्वारा राजा की सेना का सफाया कर दिया और फिर लीलापूर्वक पशुपतास्त्र का प्रयोग करके राजा कार्तवीर्यार्जुन की जीवन लीला समाप्त कर दी।
(युद्ध विश्लेषण व समीक्षा)
यदि उपर्युक्त श्लोक संख्या- (२५ से २८) पर विचार किया जाए तो रणभूमि में कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा परमेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं अपने सैकड़ो गोपों एवं पार्षदों के साथ कर रहे होते हैं। तो उस स्थिति में ब्रह्माण्ड का न दैत्य, न देवता, न किन्नर, न गंधर्व, और ना ही कोई मनुष्य कार्तवीर्यार्जुन का बाल बांका कर सकता था। परशुराम की बात करना तो बहुत दूर है।
• दूसरी बात यह कि- श्लोक संख्या - (१८ से २०) में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि- युद्ध में कार्तवीर्यार्जुन के भयंकर शूल के आघात से परशुराम मारे जाते हैं। किंतु शिव जी द्वारा उन्हें पुनः जीवित कर दिया जाता है।
यहां सोचने वाली बात है कि क्या कोई मरने के बाद पुनः जीवित होता है ? इसका जवाब होगा नहीं। तो फिर परशुराम कैसे जीवित हो गये ? यह बात भी हजम नहीं होती।
• तीसरी बात यह कि- श्लोक संख्या (२८ से २९) में लिखा गया है कि- परमात्मा श्री कृष्ण का कवच जो कार्तवीर्यार्जुन की दाहिनी भुजा पर बंधा हुआ था उसी से कार्तवीर्यार्जुन की रणभूमि में रक्षा हो रही होती है, और उसे शिव जी ब्राह्मण वेश में आकर भिक्षा के रूप में मांगते हैं और राजा कार्तवीर्यार्जुन उस कवच को सहर्ष दे देते हैं।
यहां पर विचारणीय बात यह है कि- क्या राजा को उस समय इतना ज्ञान नहीं था कि युद्धभूमि में अचानक एक ब्रह्मण भिखारी भिक्षा में धन दौलत न मांगकर रक्षा कवच क्यों मांग रहा है ? और सोचने वाली बात यह है की जिस कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा स्वयं भगवान श्री कृष्ण कर रहे हों उस समय कोई भिखारी उसके प्राणों के समान कवच मांगे और अन्तर्यामी भगवान मूकदर्शक बने रहें। यह सम्भव नहीं लगता ? और ना ही यह बात किसी भी तरह से हजम हो सकती है।
अतः इन तमाम तर्कों के आधार पर सिद्ध होता है कि निश्चय ही कार्तवीर्यार्जुन नें परशुराम का वध कर दिया था। किंतु यह बात ब्राह्मण कथाकारों को गले से नीचे नहीं उतरी। परिणाम यह हुआ कि कथाकारों नें एक नई कहानी जोड़कर इसके उलट कार्तवीर्यार्जुन का वध परशुराम से करा दिया।
• चौथी बात यह कि- अगर कार्तवीर्यार्जुन का वध हुआ होता तो शास्त्रों में उनकी पूजा का विधान कभी नहीं होता। *****
जबकि कार्तवीर्यार्जुन का विधिवत पूजा करने का शास्त्रों में विधान किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि सहस्रबाहु अर्जुन का बध नहीं हुआ था। पुराणों में सहस्रबाहू अर्जुन की पूजा करने के विधान की पुष्टि- श्रीबृहन्नारदीयपुराण पूर्वभागे बृहदुपाख्यान तृतीयपाद कार्तवीर्यमाहात्म्यमन्त्रदीपकथनं नामक - (७६) वें अध्याय से होती है। परन्तु परशुराम कि पूजा का विधान किसी पुराण में नहीं है।
नारद पूराण में सहस्रबाहु अर्जुन की पूजा करने का विधान नारद और सनत्कुमार संवाद के रूप में जाना जाता है। जिसमें नारद के पूछे जाने पर सनत्कुमार जी कहते हैं-
तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः। समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम्।। २। अनुवाद:- • देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने कर्मानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं। • तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है। १-२।
अनुवाद:- सनत्कुमार ने कहा ! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय (सेव्यमान) कहे गये हैं सुनो ! ।३।
अनुवाद:- ४ से ६ • ये सहस्रबाहु अर्जुन पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया। हे नारद ! कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से ही पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।
• कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है।४ से ६।
अनुवाद- ७ से १८ इनकी कान्ति (आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के (500) दक्षिणी हाथों में वाण और (500) उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र (लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।
• इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है (यह मूल में "श" तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्यम् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से
कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर (लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।७-१८।
अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि कार्तवीर्यार्जुन का वध एक कपोल-कल्पित मात्र है। जिसे बाद में जोड़कर एक नई कहानी उसी तरह से गढ़ दी गई जैसे भगवान श्रीकृष्ण को एक बहेलिया से मारे जाने की रची गई है। अगर परशुराम द्वारा कार्तवीर्यार्जुन के वध की धटना सत्य होती तो पुराणों में कार्तवीर्यार्जुन के पूजा का विधान नहीं किया जाता और नाही कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को उनकी जयंती मनाई जाती।
उपर्युक्त रूप से दर्शायी गयी ब्रह्मवैवर्तपुराण की पौराणिक घटना को समान तथ्य अन्य पौराणिक ग्रन्थ- लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः (४५८) में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार किया गया है। वहां से भी इसकी जानकारी ली जा सकती है।
इस प्रकार से अध्याय- (११) का भाग- (२) यदु के ज्येष्ठ पुत्र से उत्पन्न हैहय वंशी अहीर चक्रवर्ती सम्राट कार्तवीर्यार्जुन की महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ समाप्त हुआ। अब इस अध्याय के अगले भाग-(३) में महाराज यदु के पुत्र क्रोष्टा की पीढ़ी में आगे चलकर महान अन्धक और वृष्णि यादवों की उत्पत्ति कैसे हुई ! और उसमें आगे चलकर वृष्णि कुल में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण कैसे हुआ इत्यादि इत्यादि घटनाओं को बताया गया है।।
इस अध्याय के भाग- (३) का मुख्य उद्देश्य यादव वंश की चारित्रिक वंशावली का व्याख्यान करते हुए गोपेश्वर श्रीकृष्ण के लौकिक चरित्र को भी स्पष्ट करना है।
तो उसके लिए यदु के पुत्र क्रोष्टा को ही लेकर चलेंगे जहां क्रोष्टा की ही पीढ़ी में आगे चलकर अंधक और वृष्णि नामक दो महान विभूतियों का उदय हुआ। जिसमें वृष्णि के वंशजों में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ तथा अंधक के वंशजों में गोपेश्वर श्रीकृष्ण की ननिहाल( माता का कुल हुआ)।
इसके पिछले भाग में यदु के प्रथम व ज्येष्ठ पुत्र हैहय वंशी यादवों के बारे में बताया जा चुका है। उसी क्रम में यदु के दूसरे पुत्र- क्रोष्टा के पुत्र वृजिनीवान हुए। इसी वृजिनीवान की पीढ़ी में में आगे चलकर ज्यमाघ हुए जिनकी पत्नी शैव्या से विदर्भ हुए। फिर विदर्भ की पत्नी भोज्या से तीन पुत्र - कुश, क्रथ और रोमपाद हुए। जिसमें रोमपाद के दो पुत्र - बभ्रु और कृति हुए। इनमें से कृति के पुत्र- चेदि हुए जिनसे यादवों की शाखा में चेदि वंश का उदय हुआ। फिर इसी चेदि की पीढ़ी में दमघोष हुए। जिनका विवाह श्री कृष्ण की बुआ श्रुतिश्रवा से हुआ था। फिर इसी श्रुतिश्रवा और दमघोष से शिशुपाल का जन्म हुआ जो भगवान श्री कृष्ण का प्रतिद्वन्द्वी था।
अब हम लोग विदर्भ के दूसरे पुत्र- क्रथ को लेकर आगे बढ़ेंगे। तो विदर्भ के दूसरे पुत्र - क्रथ के कुन्ति हुए। फिर कुन्ति के वृष्णि (प्रथम) हुए। फिर वृष्णि के निवृत्ति, निवृत्ति के दशार्ह हुए। दशार्ह के व्योम, व्योम के जीमूत, जीमूत के पुत्र विकृति हुए, विकृति के भीमरथ, भीमरथ के नवरथ, नवरथ के दशरथ, दशरथ के शकुनि, शकुनि के करम्भ, करम्भि के पुत्र देवरात हुए, देवरात के मधु, मधु के कुरुवश, कुरुवश के अनु, अनु के पुरूहोत्र, पुरूहोत्र के आयु (सत्वत) हुए। इस सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अन्धक, और महाभोज हुए।
देखा जाए तो यादव वंश में कुल चार वृष्णि थे। जिनको इस तरह से भी समझा जा सकता है -
(१)- प्रथम वृष्णि- हैहय वंशी यादवों के सहस्रबाहु के पुत्र जयध्वज के वंशज मधु के ज्येष्ठ पुत्र थे।
(२)- द्वितीय वृष्णि- विदर्भ के पौत्र कुन्ति के एक पुत्र का नाम भी वृष्णि था। यह सात्वत से पूर्व के यादव वृष्णि हैं।
(३)- तृतीय वृष्णि- सात्वत के कनिष्ठ (सबसे छोटे) पुत्र का नाम वृष्णि था। यह वृष्णि अन्धक के ही भाई थे। (विदित हो सातवीं पीढ़ी पर गोत्र बदल जाता है।)
(४)- चतुर्थ वृष्णि- सात्वत पुत्र वृष्णि के पौत्र (नाती) थे । अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम भी वृष्णि ही था यही अन्तिम वृष्णि सात्वत शाखा में थे।
इन चारो वृष्णियों में से हम प्रमुख रूप से सात्वत पुत्र वृष्णि (तृतीय) को ही लेकर आगे चलेंगे जो क्रोष्टा की पीढ़ी में सात्वत पुत्र वृष्णि (द्वितीय) है। इनके पूर्व सहस्रबाहु के पुत्र जयध्वज के वंशजों में मधु यादव राजा हुए। सौ पुत्रों में वृष्णि नाम से भी एक राजा हुए। तभी यादव माधव और वार्ष्णेय यादवों का विशेषण हुआ और उन्हीं के नाम और मधु के गुणों तथा यदु के कारण यादव वंश के सदस्यपत्तियों को यादव, माधव और वार्ष्णेय नाम से जाना गया। इसकी पुष्टि- भागवत पुराण - (9/23/30) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिताः। यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो वृजिनवांस्ततः॥३०।
अनुवाद- परीक्षित् ! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।३०।
पुनः सात्वत के सात पुत्रों में वृष्णि (द्वितीय) के दो पुत्र- सुमित्र और युद्धाजित हुए। जिसमें युद्धाजित के शिनि और अनमित्र दो पुत्र हुए। फिर अनमित्र के तीन पुत्र - निघ्न, शिनि (द्वितीय), और वृष्णि (तृतीय) हुए। इस तृतीय वृष्णि के भी दो पुत्र- श्वफलक और चित्ररथ हुए। जिसमें श्वफलक की पत्नी गान्दिनी से अक्रूर जी का जन्म हुआ जो यादवों की सुरक्षा को लेकर सदैव तत्पर रहते थे। उसी क्रम में श्वफलक के भाई चित्ररथ के भी दो पुत्र - पथ और विदुरथ हुए। फिर इस विदुरथ के शूर, हुए। शूर के भजमान (द्वितीय), भजमान (द्वितीय) के शिनि (तृतीय), शिनि (तृतीय) के स्वयमभोज, हुए और स्वयमभोज के हृदीक, तथा हृदीक के देवमीढ हुए।
देवमीढ की तीन पत्नियां थी - अश्मिका, सतप्रभा और गुणवती थीं। जिसमें देवमीढ की पत्नी अश्मिका से शूरसेन का जन्म हुआ। इस शूरसेन की पत्नी का नाम मारिषा था, जिससे कुल दस पुत्र हुए। उन्हीं दस पुत्रों में धर्मवत्सल वसुदेव जी भी थे। जिसमें वसुदेव जी की बहुत सी पत्नियां थीं किन्तु मुख्य रूप से दो ही पत्नियां- देवकी और रोहिणी प्रसिद्ध थीं। जिसमें वसुदेव और देवकी से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। तथा वासुदेव जी की दूसरी
पत्नी रोहिणी से बलराम जी का जन्म हुआ। इस प्रकार से हम लोग भक्तिभाव के साथ गोपेश्वर श्रीकृष्ण के यहां पहुंच गए।
किंतु बिना नन्दबाबा के यहां पहुंचे श्रीकृष्ण की बात अधूरी ही रहेगी। तो नन्दबाबा के यहां पहुंचने के लिए हमें पुनः देवमीढ की दूसरी पत्नी गुणवती तक जाना होगा। किन्तु इसके पहले देवमीढ की तीसरी पत्नी सतप्रभा को भी जान लें कि- देवमीढ की पत्नी सतप्रभा से एक कन्या- सतवती हुई।
अब हम पुनः देवमीढ की पत्नी गुणवती की तरफ रुख करते हैं जहां नन्दबाबा मिलेंगे। तो देवमीढ की तीसरी पत्नी गुणवती से- अर्जन्य, पर्जन्य और राजन्य नामक तीन पुत्र हुए। इन पुत्रों में से हम पर्जन्य को ही लेकर आगे बढ़ेंगे।
तो पर्जन्य की पत्नी का नाम वरियसी था। इसी वरियसी और पर्जन्य से कुल पांच पुत्र - उपनन्द, अभिनन्द, नन्द (नन्दबाबा), सुनन्द, और नन्दन हुए।
परन्तु नाभादास विरचित ऐतिहासिक ग्रन्थ भक्तमाल इसका रचना काल सं. (१५६०) और (१६८०) के बीच माना जा सकता है उसमें पर्जन्य के नो पुत्रों का विवरण है।
"इत: श्लोक द्वे इन्द्रवज्रावृतम्-
श्रीदेवमीढस्य बभुवतुर्त्रय भार्या हि गुणवत्यश्मिका सत्प्रभा च।
पर्जन्यनामाजनि गुणवत्या अश्मिकयापि च शुरसेन:।१।
श्रीशूरसेनाद् वसुदेवनामा भार्याभवद् यस्य च देवकीति।
पर्जन्यनाम्नोऽपि च गोपराजान्नन्दादयो वै नव सम्बभूवु:।।२।
अनुवाद:- देवमीढ की तीन पत्नियाँ हुईं- गुणवती अश्मिका और सत्प्रभा हुईं जिसमें गुणवती रानी से पर्जन्य आदि और अश्मिका रानी से शूरसेन का जन्म हुआ।
शूरसेन से वसुदेव आदि का जन्म हुआ जिनकी पत्नी का नाम देवकी था। और देवमीढ के पर्जन्य नाम से जो गोपराज थे उनसे नव पुत्रों का जन्म हुआ। जैसे १-उपनन्द- २-नन्द ३- अभिनन्द ४- कर्मानन्द ५-धर्मानन्द
६-धरानन्द ७-ध्रुवनन्द ८-सुनन्द ९-वल्लभनन्द।।१-२।
पर्जन्य के इन पुत्रों में मझले पुत्र नन्दबाबा अधिक लोकप्रिय थे। पारिवारिक दृष्टिकोण से नन्दबाबा और वासुदेव जी आपस के भाई ही थे, क्योंकि ये दोनों देवमीढ के परिवार से ही सम्बन्धित थे ।
नन्दबाबा की पत्नी का नाम यशोदा था। जिससे विंध्यवासिनी (योगमाया) अथवा एकानँशा नाम की एक अद्भुत कन्या का जन्म हुआ। इसकी पुष्टि- श्रीमार्कण्डेय पुराण के देवीमाहात्म्य अध्याय- (११) के श्लोक- (४१-४२) से होती है। जिसमें योगमाया स्वयं अपने जन्म के बारे में कहती हैं कि -
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा । ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ॥ ४२॥
अनुवाद- ४१-४२ • वैवस्वत मन्वन्तर में अठाईसवां द्वापर युग आने पर शुम्भ और निशुम्भ जैसे दूसरे महासुर उत्पन्न होंगे । • तब नन्दगोप के घर में यशोदा के गर्भ से उत्पन्न हो विन्ध्याचल निवासिनी के रूप में उन दोनों का नाश करुँगी।
योगमाया के जन्म लेते ही वसुदेव जी अपने नवजात शिशु श्रीकृष्ण को योगमाया के स्थान पर रखकर योगमाया को लेकर बन्दीगृह में पुनः पहुँच गए। और जब कँस को यह पता चला कि देवकी को आठवीं संतान पैदा हो चुकी है तो उसने बन्दीगृह में पहुंच कर योगमाया को ही देवकी का आठवां पुत्र समझकर पत्थर पर पटक कर मारना चाहा, किंतु योगमाया उसके हाथ से छुटकर कंस को यह कहते हुए आकाश मार्ग से विंध्याचल पर्वत पर चली गई कि- तुझे मारने वाला पैदा हो चुका है। वही योगमाया विंध्याचल पर्वत पर आज भी यादवों की प्रथम कुल देवी के रूप विराजमान है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री माता प्रसाद जी कहना है कि- "कुलदेवी या कुल देवता उसी को कहा जाता है जो कुल की रक्षा करते हैं।
योगमाया विंध्यवासिनी को श्रीकृष्ण सहित समस्त यादवों की रक्षा करने वाली कुल देवी और श्रीकृष्ण को कुल देवता होने की पुष्टि -हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय- (४) के श्लोक- ४६-४७ और (४८) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि - सा कन्या ववृधे तत्र वृष्णिसंघसुपूजिता। पुत्रवत् पाल्यमाना सा वसुदेवाज्ञया तदा।४६ ।
अनुवाद- ४६ से ४८ • वहां (विंध्याचल पर्वतपर) वृष्णी वंशी यादवों के समुदाय से भलीभांति पूजित हो वह कन्या बढ़ने लगी। वसुदेव की आज्ञा से उसका पुत्रवत् पालन होने लगा। • इस देवी (विंध्यवासिनी) को प्रजा पालक भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुई समझो। वह एक होती हुई अनंंशा (अंश रहित) अर्थात अविभक्त थी, इसीलिए एकानंशा कहलाती थी। योगबल से कन्या रूप में प्रकट हुई वह देवी भगवान श्री कृष्ण की रक्षा के लिए आविर्भूत हुई थी। • यदुकुल में उत्पन्न सभी लोग उस देवी का आराध्य देव के समान पूजन करते थे, क्योंकि उसने अपनी दिव्यदेह से श्रीकृष्ण की भी रक्षा की थी तभी से समस्त यादव समाज विंध्यवासिनी योगमाया को प्रथम कुल देवी तथा गोपेश्वर श्रीकृष्ण को कुल देवता मानकर परंपरागत रूप से पूजने लगे। (ज्ञात हो - नन्दबाबा को योगमाया विंध्यवासिनी के अतिरिक्त एक भी पुत्र नहीं हुआ। इसलिए उनका वंश आगे तक नहीं चल सका।) इस लिए किसी को नन्दवंशी यादव कहना उचित नहीं है।
सात्वत वंश में चतुर्थ वृष्णि- सात्वत पुत्र वृष्णि के पौत्र (नाती) थे । अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम भी वृष्णि ही था यही अन्तिम वृष्णि सात्वत शाखा में थे। यही नन्द और वसुदेव के पूर्व- पितामह थे।
यदुवंश के वृष्णि कुल में देवमीण जी के पुत्र पर्जन्य नाम से थे। जो बहुत ही शिष्ट और अत्यन्त महान समस्त व्रज समुदाय के लिए थे। वे पर्जन्य श्रीकृष्ण के पितामह अर्थात नन्द बाबा के पिता थे।१।
अनुवाद:- प्राचीन काल में नन्दीश्वर प्रदेश में गोपों के साथ रहते हुए वे पर्जन्य यतियों के जीवन धारण करके स्वराट्- विष्णु का तप करते थे।२।
तपसानेन धन्येन भाविन: पुत्रा वरीयान्। पञ्च ते मध्यमस्तेषां नन्दनाम्ना जजान।३।
"अनुवाद:- महान तपस्या के द्वारा उनके श्रेष्ठ पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। जिनमें मध्यम पुत्र नन्द नाम से थे।३।
तुष्टस्तत्र वसन्नत्र प्रेक्ष्य केशिनमागतं।
परीवारै: समं सर्वैर्ययौ भीतो गोकुलं।।४।
"अनुवाद:- वहाँ सन्तोष पूर्ण रहते हुए केशी नामक असुर को आया हुआ देखकर परिवार के साथ पर्जन्य जी भय के कारण नन्दीश्वर को छोड़कर गोकुल (महावन) को चले गये।४।
कृष्णस्य पितामही महीमान्या कुसुम्भाभा हरित्पटा।
वरीयसीतिवर्षीयसी विख्याता खर्वा: क्षीराभ लट्वा।५।
"अनुवाद:- कृष्ण की दादी( पिता की माता) वरीयसी जो सम्पूर्ण गोकुल में बहुत सम्मानित थीं ; कुसुम्भ की आभा वाले हरे वस्त्रों को धारण करती थीं। वह छोटे कद की और दूध के समान बालों वाली और अधिक वृद्धा थीं।५।
भ्रातरौ पितुरुर्जन्यराजन्यौ च सिद्धौ गोषौ ।
सुवेर्जना सुभ्यर्चना वा ख्यापि पर्जन्यस्य सहोदरा।६।
"अनुवाद:- नन्द के पिता पर्जन्य के दो भाई अर्जन्य और राजन्य प्रसिद्ध गोप थे। सुभ्यर्चना नाम से उनकी एक बहिन भी थी।६।
गुणवीर: पति: सुभ्यर्चनया: सूर्यस्याह्वयपत्तनं।
निवसति स्म हरिं कीर्तयन्नित्यनिशिवासरे।।७।
"अनुवाद:- सुभ्यर्चना के पति का नाम गुणवीर था। जो सूर्य-कुण्ड नगर के रहने वाले थे। जो नित्य दिन- रात हरि का कीर्तन करते थे।७।
उपनन्दानुजो नन्दो वसुदेवस्य सुहृत्तम:।
नन्दयशोदे च कृष्णस्य पितरौ व्रजेश्वरौ।८।
"अनुवाद:- उपनन्द के भाई नन्द वसुदेव के सुहृद थे और कृष्ण के माता- पिता के रूप में नन्द और यशोदा दोनों व्रज के स्वामी थे। ८।
वसुदेवोऽपि वसुभिर्दीव्यतीत्येष भण्यते।
यथा द्रोणस्वरूपाञ्श: ख्यातश्चानक दुन्दुभ:।९।
"अनुवाद:-वसु शब्द पुण्य ,रत्न ,और धन का वाचक है। वसु के द्वारा देदीप्यमान(प्रकाशित) होने के कारण श्रीनन्द के मित्र वसुदेव कहलाते हैं। अथवा विशुद्ध सत्वगुण को वसुदेव कहते हैं।
इस अर्थ नें शुद्ध सत्व गुण सम्पन्न होने से इनका नाम वसुदेव है। ये द्रोण नामक वसु के स्वरूपाञ्श हैं। ये आनक दुन्दुभि नाम से भी प्रसिद्ध हैं।९।
वसु= (वसत्यनेनेति वस + “शॄस्वृस्निहीति ।” उणाणि १ । ११ । इति उः) – रत्नम् । धनम् । इत्यमरःकोश ॥ (यथा, रघुः । ८ । ३१ । “बलमार्त्तभयोपशान्तये विदुषां सत्कृतये
यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
"गर्गसंहिता-( ३/५/७ )
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
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श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥
"विशेष- यशोदा का वर्ण (रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका के साक्ष्यों से सिद्ध है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं।
प्रसंग:- श्रृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज था ; जो जय-विजय की तरह गोलोक से नीचे वैकुण्ठ में द्वारपाल था। जिसका नाम सुभद्र था जिसने लक्ष्मी के शाप से भ्रष्ट हेकर पृथ्वी पर जन्म लिया। उसी श्रृगाल की कृष्ण के प्रति शत्रुता की सूचना देने के लिए एक ब्राह्मण कृष्ण की सुधर्मा सभा में आता है और वह उस श्रृगाल मण्डलेश्वर के कहे हुए शब्दों को कृष्ण से कहता है।
हे प्रभु आपके प्रति श्रृँगाल ने कहा :-
श्लोक का अनुवाद:-
"वसुदेव का पुत्र कृष्ण वैश्य जाति का है; वह अहंकारी क्षत्रिय भी है।"
वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इसलिए वह मायावी और ठग है ।६।
"अनुवाद:- आदि पुराण में वर्णित नन्द की पत्नी यशोदा का नाम देवकी भी है। इस लिए शूरसेन के पुत्र वसुदेव की पत्नी देवकी के साथ नाम की भी समानता होने के कारण स्वाभाविक रूप में यशोदा का सख्य -भाव भी है।१२।
उपनन्दोऽभिनन्दश्च पितृव्यौ पूर्वजौ पितु:।
पितृव्यौ तु कनीयांसौ स्यातां सनन्द नन्दनौ।१३।
"अनुवाद:- श्री नन्द के उपनन्द और अभिनन्दन बड़े भाई तथा सनन्द और नन्दन नाम हे दो छोटे भाई भी हैं। ये सब कृष्ण के पितृव्य (ताऊ-चाचा) हैं।१३।
"आद्य: सितारुणरुचिर्दीर्घकूचौ हरित्पट:।
तुङ्गी प्रियास्य सारङ्गवर्णा सारङ्गशाटिका।।१४।
"अनुवाद:- सबसे बड़े भाई उपनन्द की अंग कान्ति धवल ( सफेद) और अरुण( उगते हुए सूर्य) के रंग के मिश्रण अर्थात- गुलाबी रंग जैसी है। इनकी दाढ़ी बहुत लम्बी और वस्त्र हरे रंग के हैं । इनकी पत्नी का नाम तुंगी है। जिनकी अंग कन्ति तथा साड़ी का रंग सारंग( पपीहे- के रंग जैसा है।१४।
द्वितीयो भ्रातुरभिनन्दनस्य भार्या पीवरी ख्याता।
पाटलविग्रहा नीलपटा लम्बकूर्चोऽसिताम्बरा:।१५।
"अनुवाद:- दूसरे भाई श्री -अभिनन्द की अंग कान्ति शंख के समान गौर वर्ण है। और दाढ़ी लम्बी है। ये काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। इनकी पत्नी का नाम पीवरी जो नीले रंग के वस्त्र धारण करती हैं। तथा जिनकी अंग कान्ति पाटल ( गुलाब) रंग की है।१५।
सुनन्दापरपर्याय: सनन्दस्य च पाण्डव:।
श्यामचेल: सितद्वित्रिकेशोऽयं केशवप्रिय:।१६।
"अनुवाद:- आनन्द का दूसरा नाम सन नन्द है। इनकी अंग कान्ति पीला पन लिए हुए सफेद रंग की तथा वस्त्र काले रंग के हैं। इनके शिर के सम्पूर्ण बालों में केवल दो या तीन बाल ही सफेद हुए हैं। ये केशव- कृष्ण के परम प्रिय है।१६।
कण्ठ जैसी तथा वस्त्र चण्डात (करवीर) पुष्प के समान है। श्रीनन्दन अपने पिता ( श्री पर्जन्य जी के साथ ही इकट्ठे निवास करते हैं। श्रीहरि के प्रति इनका कोमल प्रेम है। नन्दन जी की पत्नी का नाम अतुल्या है। जिनकी अंगकान्ति बिजली के समान रंग वाली है। तथा वस्त्र मेघ की तरह श्याम रंग के हैं।१८।
सानन्दा नन्दिनी चेति पितुरेते सहोदरे।
कल्माषवसने रिक्तदन्ते च फेनरोचिषी।१९।
"अनुवाद:-( कृष्ण के पिता नन्द की सानन्दा और नन्दिनी नाम की दो बहिने हैं। ये अनेक प्रकार के रंग- विरंगे) वस्त्र धारण करती हैं। इनकी दन्तपंक्ति रिक्त अर्थात इनके बहुत से दाँत नहीं हैं। इनकी अंगकान्ति फेन( झाग) की तरह सफेद है।१९।
"अनुवाद:-सानन्दा के पति का नाम महानील और नन्दिनी के पति का नाम सुनील है। ये दोंनो श्रीकृष्ण के फूफा अर्थात् (नन्द) के बहनोई हैं।२०।
पितुराद्यभ्रातुः पुत्रौ कण्डवदण्डवौ नाम्नो:
सुबले मुदमाप्तौ सौ ययोश्चारु मुखाम्बुजम्।।२१।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के पिता नन्द बड़े भाई श्री उपनन्द के कण्डव और दण्डव नाम के दो पुत्र हैं।
दोंनो सुबह के संग में बहुत प्रसन्न रहते हैं। तथ
दोंनो का मनोहर मुख कमल के समान सुन्दर है।२१।
राजन्यौ यौ तु पुत्रौ नाम्ना तौ चाटु- वाटुकौ।
दधिस्सारा- हविस्सारे सधर्मिण्यौ क्रमात्तयो:।।२२।
"अनुवाद:- श्रीनन्द जी के दो चचेरे भाई जो उनके चाचा राजन्य के पुत्र हैं। उनका नाम चाटु और वाटु है उनकी पत्नीयाँ का नाम इसी क्रम से दधिस्सारा और हविस्सारा है।२२।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के नाना (मातामह) का नाम सुमुख है। ये बहुत उद्यमी और उत्साही हैं। इनकी लम्बी दाढ़ी शंख के समान सफेद तथा अंगकान्ति पके हुए जामुन के फल जैसी ( श्यामल) है।२३।
अनुवाद:- ब्रह्म वैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अन्तर्गत नारायण -और नारद संवाद में कृष्ण का अन्न प्राशनन नामक तेरहवें अध्याय में यशोदा के माता-पिता का नाम पद्मावती और गिरिभानु है।२४।
यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
"गर्गसंहिता- (३/५/७)
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
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श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
"विशेष- यशोदा का वर्ण (रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका में भी लिखी हुई है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं।
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।
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मातामही तु महिषी दधिपाण्डर कुन्तला।
पाटला पाटलीपुष्पपटलाभा हरित्पटा।२७।
"अनुवाद:- कृष्ण की नानी (मातामही) का नाम पाटला है ये व्रज की रानी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके केश देखने में गाय के दूध से बने दही के समान पीले, अंगकान्ति पाटल पुष्प के समान हल्के गुलाबी रंग जैसी तथा वस्त्र हरे रंग के है।२७।
नाम की एक गोपी प्रिय सखी है। वह पाटला के प्रति इतनी स्नेह-शील है कि कभी- कभी
पाटला के व्यस्त होने पर व्रज की ईश्वरी पाटला
की पुत्री यशोदा को अपना स्तन-पान तक भी करा देती थी।२८।
सुमुखस्यानुजश्चारुमुखोऽञ्जनभिच्छवि:।
भार्यास्य कुलटीवर्णा बलाका नाम्नो बल्लवी।२९।
"अनुवाद:- सुमुख( गिरिभानु) के छोटे भाई की नाम चारुमुख है। इनकी अंगकान्ति काजल की तरह है। इनकी पत्नी का नाम बलाका है। जिनकी अंगकान्ति कुलटी( गहरे नीले रंग की एक प्रकार की दाल जो काजल ( अञ्जन) रे रंग जैसी होती है।२९
गोलो मातामही भ्राता धूमलो वसनच्छवि:।
हसितो य: स्वसुर्भर्त्रा सुमुखेन क्रुधोद्धुर:।३०।
"अनुवाद:-मातामही( नानी ) पाटला के भाई का नाम गोल है। तथा वे धूम्र( ललाई लिए हुए काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। बहिन के पति-( बहनोई) सुमुख द्वारा हंसी मजाक करने पर गोल विक्षिप्त हो जाते हैं।३०।
"अनुवाद:- दुर्वासा ऋषि की उपासना के परिणाम स्वरूप इन्हें व्रज के उज्ज्वल वंश में जन्म ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गोल की पत्नी का नाम जटिला है। यह जटिला कौए जैसे रंग वाली तथा स्थूलोदरी (मोटे पेट वाली ) है।३१।
यशोदाया: त्रिभ्रातरो यशोधरो यशोदेव: सुदेवस्तु।
अतसी पुष्परुचय: पाण्डराम्बर-संवृता:।३२।
"अनुवाद:-यशोदा के तीन भाई हैं जिनके नाम हैं यशोधर" यशोदेव और सुदेव – इन सबकी अंगकान्ति अलसी के फूल के समान है । ये सब हल्का सा पीलापन लिए हुए सफेद रंग के वस्त्र धारण करते हैं।३२।
येषां धूम्रपटा भार्या कर्कटी-कुसुमित्विष:।।
रेमा रोमा सुरेमाख्या: पावनस्य पितृव्यजा:।।३३।
"अनुवाद:-इन सब तीनों भाइयों की पत्नीयाँ पावन( विशाखा के पिता) के चाचा( पितृव्य )की कन्याऐं हैं। जिनके नाम क्रमश: रेमा, रोमा और सुरेमा हैं। ये सब काले वस्त्र पहनती हैं। इनकी अंगकान्ति कर्कटी(सेमल) के पुष्प जैसी है।३३।
यशोदेवी- यशस्विन्यावुभे मातुर्यशोदया: सहोदरे।
दधि:सारा हवि:सारे इत्यन्ये नामनी तयो:।३४।
"अनुवाद:- यशोदेवी और यशस्विनी श्रीकृष्ण की माता यशोदा की सहोदरा बहिनें हैं। ये दोंनो क्रमश दधिस्सारा और हविस्सारा नाम से भी जानी जाती हैं। बड़ी बहिन यशोदेवी की अंगकान्ति श्याम वर्ण-(श्यामली) है।३४।
अनुवाद:- दधिस्सारा और हविस्सारा पहले कहे हुए राजन्य गोप के पुत्रों चाटु और वाटु की पत्नियाँ हैं। सुमुख के भाई चारुमख का सुचारु नामक एक सुन्दर पुत्र है।३५।
गोलस्य भ्रातु: सुता नाम्ना तुलावती या सुचारोर्भार्या ।३६।
"अनुवाद:-गोल की भतीजी तुलावती चारुमख के पुत्र सुचारु की पत्नी है।३६।
पौर्णमासी भगवती सर्वसिद्धि विधायनी।
काषायवसना गौरी काशकेशी दरायता।३७।
"अनुवाद:- भगवती पौर्णमासी सभी सिद्धियों का विधान करने वाली है। उसके वस्त्र काषाय ( गेरुए) रंग के हैं। उसकी अंगकान्ति गौरवर्ण की और केश काश नामक घास के पुष्प के समान सफेद हैं; ये आकार में कुछ लम्बी हैं।
"अनुवाद:-इन आठ वरिष्ठ सखीयों में ललिता देवी सर्वश्रेष्ठ हैं यह अपनी प्रिया सखी राधा से सत्ताईस दिन बड़ी हैं।४१।
अनुराधा तया ख्याता वामप्रखरतां गता।
गोरोचना निभाङ्गी सा शिखिपिच्छनिभाम्बरा।।४२।
"अनुवाद:- श्री ललिता अनुराधा नाम से विख्यात तथा वामा और प्रखरा नायिकाओं के गुणों से विभूषित हैं। ललिता की अंगकान्ति गोरोचना के समान तथा वस्त्र मयूर पंख जैसे हैं।४२।
ललिता जाता मातरि सारद्यां पितुरेषा विशोकत:।
पतिर्भैरव नामास्या: सखा गोवर्द्धनस्य य: ।४३।
"अनुवाद:- श्री ललिता की माता का नाम सारदी और पिता का नाम विशोक है। ललिता के पति का नाम भैरव है जो गोवर्द्धन गोप के सखा हैं।४३।
सम्मोहनतन्त्रस्य ग्रन्थानुसार राधया: सख्योऽष्ट
कलावती रेवती श्रीमती च सुधामुखी।
विशाखा कौमुदी माधवी शारदा चाष्टमी स्मृता।४४।
"अनुवाद:-सम्मोहन तन्त्र के अनुसार राधा की आठ सखियाँ हैं।–कलावती, रेवती,श्रीमती, सुधामुखी, विशाखा, कौमुदी, माधवी,शारदा।४४।
श्रीमधुमङ्गल ईषच्छ्याम वर्णोऽपि भवेत्।
वसनं गौरवर्णाढ्यं वनमाला विराजित:।।४५।
"अनुवाद:- श्रीमान्- मधुमंगल कुछ श्याम वर्ण के हैं। इनके वस्त्र गौर वर्ण के हैं। तथा वन- मालाओं
से सुशोभित हैं।४५।
पिता सान्दीपनिर्देवो माता च सुमुखी सती।
नान्दीमुखी च भगिनी पौर्णमासी पितामही।।४६।
"अनुवाद:-मधुमंगल के पिता सान्दीपनि ऋषि तथा माता का नीम सुमुखी है। जो बड़ी पतिव्रता है। नान्दीमुखी मधु मंगल की बहिन और पौर्णमासी दादी है। ४६।
पौर्णमास्या: पिता सुरतदेवश्च माता चन्द्रकला सती। प्रबलस्तु पतिस्तस्या महाविद्या यशस्करी।४७।
"अनुवाद:- पौर्णमासी के पिता का नाम सुरतदेव तथा माता का नाम चन्द्रकला है। पौर्णमासी के पति का नाम प्रबल है। ये महाविद्या में प्रसिद्धा और सिद्धा हैं।४७।
"अनुवाद:- पौर्णमासी का भाई देवप्रस्थ है। ये पौर्णमासी व्रज में सिद्धा में शिरोमणि हैं।
पौर्णमासी अनेक अनुसन्धान करके कार्यों में कुशल तथा श्रीराधा-कृष्ण दोंनो का मेल कराने वाली है।४८।
आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।४९।
"अनुवाद:- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि सख्यियाँ श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।४९।
तब भगवान कृष्ण जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले।
श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि ! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है।
वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ।
वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी।
सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में हे वृन्दे ! तुम पुन: राधा की वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता होओगी।
उस समय मेरे कलांश से ही उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे।
फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे पुन: प्राप्त करोगी।
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स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह मनु के पौत्र केदार की पुत्री वृन्दा " से हुआ था। जो राधाच्छाया के रूप में व्रज में उपस्थित थी।
जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी।
हे वृन्दे ! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही पाणि-ग्रहण करेंगे;
परन्तु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे।
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उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरी हृदय स्थल में रहती हैं !
इस प्रकार भगवान कृष्ण के वचन के सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये।
उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौंदर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर को श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।
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सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः-( ८६ )
"अनुवाद:- राधा की प्रतिच्छाया रूपा वृन्दा के श्वशुर -वृकगोप देवर- दुर्मद नाम से जाने जाते थे। और सास- का नाम जटिला और पति अभिमन्यु - पति का अभिमान करने वाला था। हर समय दूसरे के दोंषों को खोजने वाली ननद का नाम कुटिला था।१७४।
और निम्न श्लोक में राधा रानी सहित अन्य गोपियों को भी आभीर ही लिखा है...
और चैतन्श्रीय परम्परा के सन्त श्रीलरूप गोस्वामी द्वारा रचित श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश-दीपिका नामक ग्रन्थ में श्लोकः १३४ में राधा जी को आभीर कन्या कहा ।
अर्थ:-अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण(श्रीकृष्ण)! आप जगत के तारण तरण(सर्जक) हो, मैं चारण (आप श्री हरि के) गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुंदर) और दूध से भरा हुआ है।
भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने मुख्यतः 2 ग्रंथ लिखे हैं "हरिरस" और "देवयान"।
यह आजसे (500) साल पहले ईशरदासजी द्वारा लिखे गए एक दुहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर(यादव) कुल में हुआ था।
सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में "सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया!!
तिरुपति बालाजी मंदिर का पुनर्निर्माण विजयनगर नगर के शासक वीर नरसिंह देव राय यादव और राजा कृष्णदेव राय ने किया था।
विजयनगर के राजाओं ने बालाजी मंदिर के शिखर को स्वर्ण कलश से सजाया था।
विजयनगर के यादव राजाओं ने मंदिर में नियमित पूजा, भोग, मंदिर के चारों ओर प्रकाश तथा तीर्थ यात्रियों और श्रद्धालुओं के लिए मुफ्त प्रसाद की व्यवस्था कराई थी।तिरुपति बालाजी (भगवान वेंकटेश) के प्रति यादव राजाओं की निःस्वार्थ सेवा के कारण मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार यादव जाति को दिया गया है।
तब ऐसे में आभीरों को शूद्र कहना युक्तिसंगत नहीं गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृत- साहित्य का इतिहास नामक पुस्तक में पृष्ठ संख्या- (368) पर वर्णित है।👇
अस्त्र हस्ताश्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते।।१।
और गर्ग सहिता
में भी लिखा है !
यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते।।102।
अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं।१।
जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप-तापों से मुक्त हो जाता है।।१०२।
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विरोधीयों का दूसरा दुराग्रह भी बहुत दुर्बल है
कि गाय पालने से ही यादव गोप के रूप में वैश्य हो गये परन्तु
महाभारत की यह सूक्ति वेदों का भावानुवाद है जिसका अर्थ है कि गाय विश्व की माता है !
और विश्व की इस माता का पालन करना किस प्रकार तुच्छ या वैश्य वृत्ति का कारण हो सकता है
इस प्रकार से अब तक हम लोग यदुवंश के अन्तर्गत क्रोष्टा की पीढ़ी की कठिन डगर को पार करते हुए वसुदेव जी तथा उनके भाई नन्दबाबा के यहाँ से होते हुए श्रीकृष्ण, बलराम और योगमाया विन्ध्यवासिनी के यहाँ पहुँच गये हैं।
अब हम लोग यदुवँश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के ननिहाल को जानेंगे कि- क्रोष्टा की किस पीढ़ी में श्रीकृष्ण का ननिहाल था?
तो इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि -सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अन्धक, और महाभोज हुए। जिसमें हमलोग सात्वत के पुत्र वृष्णि (द्वितीय) के कुल में उत्पन्न श्रीकृष्ण को जाना। अब हमलोग सात्वत के पुत्र- अन्धक के कुल को जानेंगे जहां भगवान श्रीकृष्ण की ननिहाल मिलेगी।
सात्वत पुत्र अन्धक के कुल चार पुत्र- कुकुर, भजमान, सुचि और कम्बलबर्हिष हुए। जिसमें अन्धक के ज्येष्ठ पुत्र वह्नि थे। इस वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा, कपोतरोमा के अनु और अनु के अन्धक (द्वितीय) हुए। इस अन्धक (द्वितीय) के दुन्दुभि हुए और दुन्दुभि के अरिहोत्र, अरिहोत्र के पुनर्वसु हुए।
फिर इस पुनर्वसु के एक पुत्र आहुक तथा एक पुत्री आहुकी नाम की थी। जिसमें पुनर्वसु के पुत्र आहुक की पत्नी का नाम शैव्या था। इसी पुनर्वसु और शैव्या से दो पुत्र उग्रसेन और देवक।
इसी आहुक और शैव्या (काश्या) से दो पुत्र - देवक और उग्रसेन हुए।
इन्हीं देवक की पुत्री देवकी के उदरगर्भ से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। इस तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण का ननिहाल मथुरा के राजा उग्रसेन के पुत्र देवक के यहाँ था।
कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः।
अन्धकाद्दुन्दुभिस्तस्मादविद्योतः पुनर्वसुः।२०।
(अरिद्योतः पाठभेदः)
तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ।
देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः।२१।
देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः।
तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृप।२२।
शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता।
सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः।२३।
कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा।
राष्ट्रपालोऽथ धृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः।२४।
कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्टपालिका।
उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः।२५।
अनुवाद:-
पुनर्वसु के एक पुत्र और एक पुत्री थे, जिनका नाम क्रमशः आहुक और आहुकी था, और आहुक के दो पुत्र थे, जिनका नाम देवक और उग्रसेन था। देवक के चार पुत्र थे, जिनका नाम देववान, उपदेव, सुदेव और देववर्धन था, और उनकी सात पुत्रियाँ भी थीं, जिनका नाम शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा, देवकी और धृतदेवा था।
धृतदेवा सबसे बड़ी थीं। कृष्ण के पिता वसुदेव ने इन सभी बहनों से विवाह किया था।
कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहु, राष्ट्रपाल, धृष्टि और तुष्टिमान उग्रसेन के पुत्र थे।
कंस, कंसावती, कंका, सूरभू और राष्ट्रपालिका उग्रसेन की पुत्रियाँ थीं।
वे वसुदेव के छोटे भाइयों की पत्नियाँ बनीं।
वसुदेव से देवकी के उदरगर्भ से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। इस तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण का ननिहाल मथुरा के राजा उग्रसेन के भाई देवक के यहाँ था। अर्थात् इसी देवक के सगे भाई उग्रसेन थे, जो मथुपुरा के प्रजापालक राजा थे। उनकी पत्नी का नाम पद्मावती था। इसी पद्मावती और उग्रसेन से महत्वाकांक्षी कंस का जन्म हुआ। कंस अपने पिता अग्रसेन को बंदी बनाकर स्वयं मथुरा का राजा बना और प्रजा पर नाना प्रकार का अत्याचार करने लगा। कंस बल और पराक्रम में अजेय था। वह अपने समय में बड़े-बड़े दैत्यों को पराजित कर अधिक शक्ति सम्पन्न होकर उसने समस्त देवताओं को भी जीत लिया था। उस समय भूतल पर उसके जैसा बलवान राजा कोई नहीं था। किंतु जब कंस के पापों का घड़ा भर गया, तब किशोर श्रीकृष्ण ने उसके ही दरबार में उसका वध करके पुनः अग्रसेन को मथुरा का राजा बनाकर स्वयं मथुरा की रक्षा करते हुए पृथ्वी के भार को दूर किया।
इस प्रकार से यह - अध्याय-(११) का भाग- (तीन) यादव वंश के अंतर्गत क्रोष्टा कुल के भगवान श्रीकृष्ण सहित प्रमुख सदस्यपतियों तथा उनके वंश क्रम की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय-(१२) के भाग- (१)- में यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन तथा भाग- (२) में श्रीकृष्ण का गोलोक गमन इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया है।
इस पुस्तक का यह अन्तिमवां व सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है। जिसका मुख्य उद्देश्य- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता को बताना तथा श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जानें का खण्डन करते हुए श्रीकृष्ण के गोलोक गमन की वास्तविक घटनाक्रम को बताना है। इन सभी जानकारियों को क्रमबद्ध तरीके से बताने के लिए इसे मुख्यतः दो भागों में बांटा गया है -
भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
------------------------------------------------------------- समाज में आये दिन यह बात सुनने को मिलती है कि- गांधारी और ऋषियों के शाप के कारण मौसल युद्ध में यादवों का अन्त तथा एक बहेलिए से मारे जाने से श्रीकृष्ण का भी अन्त हो गया। लेकिन यह कथन कितना सत्य और कितना असत्य है। इसका समाधान इस भाग में किया गया है।
इस कार्य हेतु कारक कभी देवताओ को बनाया गया तो कभी ऋषियों को, तो कभी तपस्या विहीन पुत्रमोह से पीड़ित गान्धारी जैसी स्त्री को भी । किंतु परमेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) इस तरह के खेल में कभी शामिल नहीं हुए। इस सम्बन्ध में देखा जाए तो श्री कृष्ण की सबसे बड़ी विशेषता रही कि- उन्होंने आशीर्वाद के अतिरिक्त कभी किसी को शाप नहीं दिया। इसीलिए उन्हें पालनहार कहा गया, यह ब्रह्म सत्य है। किंतु यह विडम्बना ही है कि कथाकारों ने जिनकी शक्ति से शाप और आशीर्वाद जैसे प्रभावी कारकोंं का सर्जन किया और उन्हीं श्रीकृष्ण को शाप के मकड़जाल में फँसा कर एक बहेलिया से भी मरवा दिया। जबकि इस संबंध में ज्ञात हो कि भगवान श्रीकृष्ण को कोई बहेलिया अथवा सृष्टि का प्राणी नहीं मार सकता था।
भगवान श्री कृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के पश्चात अपने गोप- गोपियों के साथ स्वेच्छा से बड़े ही ऐश्वर्य रुप से अपने गोलोक धाम को गये थे। क्योंकि वे कर्म बन्धन से रहित सभी भौतिक अभौतिक इच्छाओं से परे थे। इस बात को विस्तार पूर्वक वर्णन इसी अध्याय के दूसरे भाग में किया गया है।
ये शाप और आशीर्वाद का खेल किस परिस्थिति में प्रभावी और निष्प्रभावी होता है इसको अच्छी तरह से जानना होगा तभी इसकी सच्चाई पकड़ में आ सकती है अन्यथा नहीं।
कोई भी शाप कब प्रभावी और कब निष्प्रभावी होता है इसको इस तरह से समझा जा सकता है जैसे- • किसी का शाप तभी प्रभावी होता है जब उसपर परमेश्वर की कृपा हो तथा वह उस योग्य हो, और सदैव सत्य के मार्ग पर चलने वाला हो, जिसमें तनिक भी पापबुद्धि एवं व्यक्तिगत हित न हो। ऐसे व्यक्ति को यदि कोई जानबूझकर क्षति पहुंचाया हो या पहुंचाने का प्रयास कर रहा हो।
ऐसे में यदि वह व्यक्ति निष्पक्ष भाव से व्यक्तिगत हित को त्याग कर उसे शाप देता है तो उसके शाप को निश्चय ही परमेश्वर प्रभावी कर देते हैं।
इसके विपरीत यदि शाप देने वाला व्यक्ति पूर्वाग्रह से ग्रसित किसी निर्दोष को दोषी मानकर अपने स्वार्थ और व्यक्तिगत हित के लिए शाप देता है, तो उसके शाप को परमेश्वर निष्प्रभावी कर देते हैं। साथ ही उसकी सारी तपस्या और पुण्य को सदा-सदा के लिए समाप्त कर देते हैं ताकि वह इसका दुरुपयोग न कर सके।
महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व के अध्याय- (५३) के कुछ प्रमुख श्लोकों में इसका उदाहरण मिलता है।
"उदङ्कोवाच !
स पृष्टः कुशलं तेन सम्पूज्य मधुसूदनम्।
उदङ्को ब्राह्मणश्रेष्ठस्ततः पप्रच्छ माधवम्।।९।
कच्चिच्छौरे त्वया गत्वा कुरुपाण्डवसद्म तत्।
कृतं सौभ्रात्रमचलं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।।१०।
अपि सन्धाय तान्वीरानुपावृत्तोसि केशव।
सम्बन्दिनःक स्वदयितान्सततं वृष्णिपुङ्गव।। ११।
कच्चित्पाण्डुसुताः पञ्च धृतराष्ट्रस्य चात्मजाः।
लोकेषु विहरिष्यन्ति त्वया सह परंतप।।१२।
स्वराष्ट्रे ते च राजानः कच्चित्प्राप्स्यन्ति वै सुखम्।
कौरवेषु प्रशान्तेषु त्वया नाथेन केशव।।१३।
या मे सम्भावना तात त्वयि नित्यमवर्तत।
अपि सा सफला तात कृता ते भरतान्प्रति।।१४।
अनुवाद:-
इस प्रकार मरुभूमि के समतल प्रदेश में पहुँचकर महाबाहु श्रीकृष्ण ने अमित तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ उत्तंक का दर्शन किया। विशाल नेत्रों वाले तेजस्वी श्रीकृष्ण उत्तंक मुनि की पूजा करके स्वयं भी उनके द्वारा पूजित हुए। तत्पश्चात् उन्होंने मुनि का कुशल समाचार पूछा। उनके कुशल मंगल पूछने पर
विप्रवर उत्तंक ने भी मधुसूदन माधव की पूजा करके उनसे इस प्रकार प्रश्न किया- ‘शूरनन्दन! क्या तुम कौरवों और पाण्डवों के घर जाकर उनमें अविचल भ्रातभाव स्थापित कर आये? यह बात मुझे विस्तार के साथ बताओ। केशव! क्या तुम उन वीरों में संधि कराकर ही लौट रहे हो? वृष्णिपंगुव! वे कौरव, पाण्डव तुम्हारे संबंधी तथा तुम्हें सदा ही परम प्रिय रहे हैं। ‘परंतप! क्या पाण्डु के पाँचों पुत्र और धृतराष्ट्र के भी सभी आत्मज संसार में तुम्हारे साथ सुखपूर्वक विचर सकेंगे? ‘केशव! तुम जैसे रक्षक एवं स्वामी के द्वारा कौरवों के शान्त कर दिये जाने पर अब पाण्डवनरेशों को अपने राज्य में सुख तो मिलेगा न? ‘तात! मैं सदा तुमसे इस बात की संभावना करता था कि तुम्हारे प्रयत्न से कौरव-पाण्डवों में मेल हो जायेगा। मेरी जो वह सम्भावना थी, भरतवंशियों के संबंध में तुमने वह सफल तो किया है न? ।९-१४।
अनुवाद- १४-१५ • उतंक ऋषि ने श्रीकृष्ण से कहा- तात ! मैं सदा तुमसे इस बात की सम्भावना करता था कि तुम्हारे प्रयत्न से कौरव-पाण्डवों में मेल हो जायगा। मेरी जो वह सम्भावना थी, भरतवंशियों के सम्बन्ध में तुमने उस सम्भावना को सफल तो किया है न ? ॥ १४ ।। • श्रीभगवान ने कहा— महर्षे ! मैंने पहले कौरवों के पास जाकर उन्हें शान्त करने के लिये बड़ा प्रयत्न किया, परंतु वे किसी तरह सन्धि के लिये तैयार न किये जा सके। जब उन्हें समतापूर्ण मार्ग में स्थापित करना असम्भव हो गया, तब वे सब-के-सब अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित युद्ध में मारे गये॥१५॥
उत्तङ्क उवाच यस्माच्छक्तेन ते कृष्ण न त्राताः कुरुपुङ्गवाः। सम्बन्धिनः प्रियास्तस्माच्छप्स्येऽहं त्वामसंशयम् ॥ २० ॥
न च ते प्रसभं यस्मात् ते निगृह्य निवारिताः। तस्मान्मन्युपरीतस्त्वां शप्स्यामि मधुसूदन ॥२१॥
शृणु मे विस्तरेणेदं यद् वक्ष्ये भृगुनन्दन। गृहाणानुनयं चापि तपस्वी ह्यसि भार्गव ॥ २३ ॥
श्रुत्वा च मे तदध्यात्मं मुञ्चेथाः शापमद्य वै। न च मां तपसाल्पेन शक्तोऽभिभवितुं पुमान् ॥२४॥ न च ते तपसो नाशमिच्छामि तपतां वर। तपस्ते सुमहद्दीप्तं गुरवश्चापि तोषिताः ॥ २५ ॥
कौमारं ब्रह्मचर्यं ते जानामि द्विजसत्तम। दुःखार्जितस्य तपसस्तस्मान्नेच्छामि ते व्ययम् ॥ २६ ॥
अनुवाद - १९-२६ • भगवान् श्रीकृष्ण के इतना कहते ही उत्तंक मुनि अत्यन्त क्रोधसे जल उठे और रोष से आँखें फ़ाड़- फाड़कर देखने लगे। उन्होंने श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा॥१९॥ श्रीकृष्ण ! कौरव तुम्हारे प्रिय सम्बन्धी थे, तथापि शक्ति रखते हुए भी तुमने उनकी रक्षा न की। इसलिये मैं तुम्हें अवश्य शाप दूँगा॥२०॥ • मधुसूदन! तुम उन्हें जबर्दस्ती पकड़कर रोक सकते थे, पर ऐसा नहीं किया। इसलिये मैं क्रोध में भरकर तुम्हें शाप दूँगा॥२१॥ • श्रीकृष्ण ने कहा— भृगु नन्दन ! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे विस्तारपूर्वक सुनिये। भार्गव! आप तपस्वी हैं, इसलिये मेरी अनुनय-विनय स्वीकार कीजिये॥२३॥ • मैं आपको आध्यात्म तत्व सुना रहा हूँ। उसे सुनने के पश्चात् यदि आपकी इच्छा हो तो आज मुझे शाप दीजियेगा। तपस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ महर्षे! आप यह याद रखिये कि कोई भी पुरुष थोड़ी-सी तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता। और मैं नहीं चाहता कि आपकी तपस्या भी नष्ट हो जाय॥२४॥ • आपका तप और तेज बहुत बढ़ा हुआ है। आपनें गुरुजनों को भी सेवा से संतुष्ट किया है। द्विज श्रेष्ठ ! आपने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्यका पालन किया है। ये सारी बातें मुझे अच्छी तरह ज्ञात हैं। इसलिये अत्यन्त कष्ट सहकर संचित किये हुए आपके तप का मैं नाश कराना नहीं चाहता हूं॥२५-२६।
यदि उपरोक्त श्लोक संख्या- (२४) को देखा जाए तो उसमें भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि - "कोई भी पुरुष तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता।" इसके आगे भगवान श्रीकृष्ण श्लोक संख्या- (२६) में कहते हैं कि- यदि मैं चाहूं तो आपकी सभी तपस्या के फलों का नाश कर सकता हूं। किन्तु मैं ऐसा नहीं करना चाहता क्योंकि आपने इन्हें अत्यन्त कष्ट सहकर संचित किया हैं।
इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि - "तपस्याओं का फल परमात्मा श्री कृष्ण की ही उपज है। क्योंकि उनकी इच्छा से ही शाप प्रभावी और निष्प्रभावी होते हैं। किंतु परमेश्वर शाप-ताप से परे निर्लिप्त और निर्विकल्प हैं। अतः उनको कोई शाप नहीं लगता और नाही कोई उन्हें शाप दे सकता है।"
किन्तु गान्धारी ने श्रीकृष्ण को महाभारत युद्ध का दोषी ठहराते हुए तथा युद्ध में मारे गए अपने पुत्रों के दु:ख से पीड़ित होकर ही यह शाप दिया कि - जिस प्रकार मेरी गोद सूनी हो गई है और जिस प्रकार कुरुकुल का संहार हो चुका है उसी प्रकार तुम्हारे यादव कुल का संहार होगा। वे आपस में एक दूसरे से लड़कर अपना ही संहार कर लेंगे। हे केशव! तुमने दूसरों का वध किया है इसलिए तुम्हारा भी वध होगा और अधर्म से होगा।
अब देखा जाए तो गान्धारी ने जिस आधार पर श्रीकृष्ण को शाप दिया उसका कोई औचित्य ही नहीं बनता। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध रोकने के लिए बहुत प्रयास किए थे किन्तु दुर्योधन की हठधर्मीता के कारण भगवान का प्रयास सफल नहीं हो सका। फिर भी गांधारी अपने पुत्र को दोषी न मानकर श्रीकृष्ण को ही दोषी ठहराते हुए शाप देती है।
इससे सिद्ध होता है कि गांधारी के शाप में नेक नियति नहीं थी। दूसरी बात यह की गांधारी के शाप में निजी स्वार्थ था क्योंकि गांधारी के पुत्रों के ही समान अनेकों पुत्र महाभारत युद्ध में मारे गए थे, उनका दु:ख गांधारी को नहीं था, वह केवल अपने पुत्र शोक से क्रुद्ध होकर श्रीकृष्ण को शाप देती है। गान्धारी के शाप में तीसरी बात यह है कि - गान्धारी जब श्री कृष्ण को व्यक्तिगत रूप से दोषी मान चुकी थी तो फिर अपने शाप में निर्दोष यादवों को क्यों आड़े हाथ लिया जिनका युद्ध से कोई लेना-देना नहीं था। दूसरी ओर भगवान श्रीकृष्ण की नारायणी सेना दुर्योधन के ही पक्ष में युद्ध कर रही थी। जिसके समस्त योद्धा यादव थे। उनो भी अपने शाप में घसीट लिया। अतः ऐसे शापों को परमेश्वर कभी नहीं प्रभावी होने देते। किंतु इसी शाप को आधार बनाकर पौराणिक ग्रंथों में यादव वंश के संपूर्ण विनाश और श्रीकृष्ण को एक बहेलिए से मारे जाने की एक मनगढ़ंत कहानी लिखी गई। इस बात को आगे विस्तार से बताया गया है। ★★★
किंतु उसके पहले यह भी जान लीजिए कि यादवों को एक और शाप मिला था जिसका वर्णन श्रीमद् भागवत महापुराण के स्कन्ध -(११,) के अध्याय- (१) के प्रमुख श्लोकों में किया गया है। जिसमें बड़े-बड़े ऋषि मुनियों द्वारा निर्दोष यादव बालकों को शाप देने का काल्पनिक घटनाक्रम बनाया गया। उसको जानकारी के लिए नीचे उद्धृत किया गया है-
विश्वामित्रोऽसित: कण्वो दुर्वासा भृगुरंगिराः। कश्यपो वामदेवोऽत्रिर्वसिष्ठो नारदादयः।।१२। अनुवाद - विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्री, वशिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारिका के पास ही पिण्डारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे।१२।
क्रीडन्तस्तानुपव्रज्य कुमार यदुनन्दनाः । उपसंगृह्य पप्रच्छुरविनीता विनीतवत्।।१३।
ते वेषयित्वा स्त्रीवेषैः साम्बं जाम्बवतीसुतम। एषा पृच्छति वो विप्रा अन्तर्वत्न्यसितेक्षणा।।१४।
अनुवाद- (१३- १६) • एक दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले, उन्होंने बनावटी नम्रता से उनके चरणों में प्रणाम करके प्रश्न किया।१३।
• वे जामवन्ती नन्दन साम्ब को स्त्री के भेष में सजा कर ले गए और कहने लगे, ब्राह्मण ! यह कजरारी आंखों वाली सुंदरी गर्भवती है। यह आपसे एक बात पूछना चाहती है। परन्तु स्वयं पूछने में सकुचाती है। आप लोगों का ज्ञान अमोघ- अबाध है, आप सर्वज्ञ है। इसे पुत्र की बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय निकट आ गया है। आप लोग बताइए यह कन्या जनेगी या पुत्र ?।१४-१५। • परीक्षित! जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि मुनियों को धोखा देना चाहा, तब वे क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा मूर्ख यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी जो तुम्हारे कुल का नाश करने वाला होगा।
अब इन ऋषियों को देखा जाए तो इनकी गणना बड़े-बड़े ऋषि मुनियों में होती है। किंतु इनमें जरा भी सद्बुद्धि और सन्त स्वभाव नहीं था। क्योंकि सन्त का पहला स्वभाव- दया एवं क्षमाशीलता होती है। किंतु उस समय इन ऋषियों में संत स्वभाव का थोड़ा भी गुण नहीं दिखा। परिणाम यह हुआ कि सभी ने मिलकर खेल रहे अबोध एवं निर्दोष बालकों को उदण्ड कहकर भयंकर शाप दे दिया। इनको सन्त कैसे कहा जा सकता है, जिन्हें इतना समझ नहीं कि ये बालक खेल के दरम्यान ही ऐसा व्यवहार कर रहे हैं उनमें तनिक भी पाप बुद्धि नही है। ऐसे में उन ऋषियों को चाहिए था कि उन्हें बालक बुद्धि समझ कर क्षमा कर दें। किंतु इन ऋषियों ने बालकों को क्षमा करना तो दूर रहा उन्हें भयंकर शाप दे दिया।
देखा जाए तो इन ऋषि- मुनि और देवताओं का शाप केवल भोली-भाली जनता के लिए ही होता है, रावण, कंस तथा बड़े-बड़े बलशाली असुर और दैत्यों के लिए नहीं होता। क्या आपने कभी सुना है कि रावण, कंस, तथा बड़े-बड़े दैत्यों इत्यादि को किसी ऋषि मुनि या कोई देवता कभी शाप दिया है ? नहीं।
इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी महाराज का कथन है कि- "शाप दिया नहीं जाता, शाप वास्तविक स्थिति में अंतरात्मा से स्वत उत्पन्न होता है, जो परमेश्वर की कृपा से प्रभावी होता है।
शाप दु:ख निवृत्ति की प्रतिक्रियात्मक प्रवाह है। दु:खी व्यक्ति ही शाप दे सकता है। सुखी अथवा आनन्दित व्यक्ति शाप नहीं दे सकता है।"
निर्दोष ही दोषी को शाप दे सकता है।
न कि कोई दोषी या कामुक व्यक्ति किसी निर्दोष को शाप दे सकता है।
इस शाप के बारे में संत शिरोमणि कबीर दास जी का भी कुछ ऐसा ही कहना हैं कि- "दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय। मुई खाल की स्वाँस सो, सार भसम है जाय।।
भावार्थ- संत कबीर जी यह संदेश दे रहे है कि हमे कभी भी किसी कमजोर या दुर्बल इंसान को सताना नहीं चाहिए। यदि हम किसी दुर्बल को परेशान करेंगे तो वह दु:खी होकर हमें शाप दे सकता है तथा दुर्बल की हाय बहुत प्रभावशाली होती है जैसे मरे हुए किसी जानवर की चमड़ी से बनाई गई भांथी (धौंकनी) की स्वांस लेने और छोड़ने से लोहा तक भस्म हो जाता है।
किन्तु शाप और वरदान के मकड़जाल से कथाकार ग्रंथों में कहानियों की दिशा और दशा तय करते हैं,। जिसमें वे कभी घोड़ी से बकरा और बकरी से घोड़ा पैदा करवाते हैं। तो कभी बालकों के पेट से मूसल पैदा करवा कर यादवों के विनाश और श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने की कहानी रचते हैं। जो हास्यास्पद और वास्तविकता से कोसों दूर है।
क्योंकि संसार की प्रत्येक घटना प्राकृतिक विधानों के ही अनुरूप घटित होती है। किसी के वरदान अथवा शाप के प्रभाव से अग्नि शीतल नहीं हो सकती है। ताप अथवा ऊष्मा तो उसका मौलिक गुण है। वह तो जलाऐगी ही।
जहाँ तक बात है यादवों के विनाश की, तो यादवों का विनाश अवश्य हुआ, किंतु सम्पूर्ण यादवों का नहीं केवल आंशिक हुआ। उसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण अपने धाम अवश्य गए। किन्तु उनके धाम जाने में गांधारी का शाप व बहेलिए से मारे जाने की घटना को उनके साथ जोड़ना निराधार एवं कपोल-कल्पित है।
क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के सभी कार्यक्रम पूर्व निर्धारित होते हैं। उसके लिए गीता के अध्याय-(४) का यह श्लोक प्रसिद्ध है। "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।७।।
अनुवाद - जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।
इसी को चरितार्थ करने के लिए ही गोपेश्वर श्रीकृष्ण अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ धरा धाम पर अपने ही गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं।
और कार्य पूर्ण होने के पश्चात अपने समस्त गोप और गोपियों के साथ पुनः अपने धाम को चले जाते हैं। यही उनका सत्य सनातन नियम है। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६) से होती है जिसमें देवताओं के निवेदन पर भगवान श्री कृष्ण ने कहा-
जनुर्लभत गोपाश्च गोप्यश्च पृथिवीतले ।। गोपानामुत्तमानां च मंदिरे मंदिरे शुभे।६९।।
अनुवाद - ६१-६९ • देवताओं ! मैं पृथ्वी पर जाऊंगा। अब तुम लोग भी अपने स्थान को पधारो और शीघ्र ही अपने अंश से भूतल पर अवतार लो। • ऐसा कहकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने गोपों और गोपियों को बुलाकर मधुर, सत्य एवं समयोचित बातें कहीं- गोपों और गोपियों ! सुनो। तुम सब के सब नंदराय जी का जो उत्कृष्ट व्रज है वहां जाओ। (उस व्रज में अवतार ग्रहण) करो। राधिके ! तुम भी शीघ्र ही वृषभानु के घर पधारो। वृषभानु की प्यारी पत्नी बड़ी साध्वी है। उनका नाम कलावती है। वे सुबल की पुत्री है। और लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई है। • यह सुनकर श्री राधा प्रेम से विह्वल होकर वहां रो पड़ी और अपनें नेत्रचकोरों द्वारा श्री हरि के मुख चंद्र की सौंदर्य सुधा का पान करने लगी। पुनः भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - गोपों और गोपियों ! तुम भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो। ६१-६९।
अनुवाद- १२०-१३० •इसके बाद भगवान श्री कृष्ण लक्ष्मी से बोले-सनातनी देवी तुम नाना रत्न से संपन्न भीष्मक के राज भवन में जाओ और वहां विदर्भ देश की महारानी के उधर से जन्म धारण करो। साध्वी देवी! मैं स्वयं कुण्डिनपुर में जाकर तुम्हारा पाणिग्रहण करुंगा। • जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने वहां पार्वती (दुर्गा) से कहा- सृष्टि और संहार करने वाली कल्याणमयी महामाया स्वरुपिणी देवी ! शुभे ! तुम अंशरूप से नंद के ब्रज में जाओ और वहां नंद के घर
यशोदा के गर्भ में जन्म धारण करो। मैं भूतलपर गांव गांव में तुम्हारी पूजा करवाऊंगा। समस्त भूमंडल में नगरों और वनों में मनुष्य वहां की अधिष्ठात्री देवी (विंध्यवासिनी ) के रूप में भक्ति भाव से तुम्हारी पूजा करेंगे और आनंदपूर्वक नाना प्रकार के द्रव्य तथा दिव्य उपहार तुम्हें अर्पित करेंगे। शिवे ! तुम ज्यों ही भूतल का स्पर्श करोगी, त्यों ही मेरे पिता वसुदेव यशोदा के सूतिकागार में जाकर मुझे वहां स्थापित कर देंगे और तुम्हें लेकर चले जाएंगे। कंस का साक्षात्कार होने मात्र से तुम पुनः शिव के समीप चली जाओगी और मैं भूतल का भार उतर कर अपने धाम में आऊंगा। १२०-१३०।
़उपर्युक्त श्लोकों से स्पष्ट होता है कि गोपेश्वर श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के लिए अपने समस्त गोप- गोपियों के साथ भू-तल पर अवतरित होते हैं, और भूमि का भार उतारने के पश्चात पुनः गोप और गोपियों के साथ अपने धाम को चले जाते हैं। यहीं उनका सत्य सनातन नियम है। भूतल पर भगवान के साथ आए गोप और गोपियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सभी गोप अपार शक्ति सम्पन्न तथा सभी कार्यों में दक्ष होते हैं। और उसी हिसाब से ये सभी अपनी-अपनी योग्यताओं और क्षमताओं के हिसाब से भगवान श्री कृष्ण के निर्धारित कार्यों में लग जाते हैं। इसीलिए गोपों को भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं सहचर (साथी) कहा जाता है।
चुंकि ये गोप भगवान श्रीकृष्ण के पार्षद होते हैं इसलिए ये दैवीय और मानवीय शाप, ताप से मुक्त होते हैं। इसके साथ ही ये गोप संपूर्ण ब्रह्मांड में अजेय एवं अपराजित हैं।
इन्हें न कोई देवता न दानव न गंधर्व और नाही कोई मनुष्य पराजित कर सकता है। इस बात को भगवान श्री कृष्ण स्वयं- श्रीमद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध, अध्याय-(एक) के श्लोक संख्या- (४) में कहते हैं कि - "नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत्कथञ्चिन् मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम्। अन्तः कलिं यदुकुलस्य विधाय वेणु स्तम्बस्य वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम॥४॥
"व्याकरण मूलक शब्दार्थ व अन्वय विश्लेषण-
१- न एव अन्तः परिभवः अस्य= नहीं किसी अन्य के द्वारा इस यदुवंश का परिभव ( पराजय/ विनाश) २- भवेत् = हो सकता है । ३- कथञ्चिद् = किसी प्रकार भी। ४- मत्संश्रयस्य विभव = मेरे आश्रम में इसका वैभव है। ५- उन्नहनस्य नित्यम् = यह सदैव बन्धनों से रहित है। ६- अन्तः कलिं यदुकुलस्य = आपस में ही लड़ने पर यदुवंश का नाश (शमन) होगा। ७- विधाय वेणु स्तम्बस्य वह्निमिव = जैसे बाँसों का समूह आपस में टकराकर घर्षण द्वारा उत्पन्न आग से शान्त हो जाता है। ८-उपैमि धाम= फिर मैं भी अपने गोलोकधाम को जाऊँगा। ॥४॥ अनुवाद:- इसका (यदुवंश का) किसी के द्वारा किसी प्रकार भी नाश नहीं हो सकता है। (यह स्वयं कृष्ण उद्धव से कहते हैं।) फिर इसके विनाश में ऋषि -मुनि अथवा देवों की क्या शक्ति है ? कृष्ण कहते हैं- यह यदुवंश मेरे आश्रित है एवं सभी बन्धनों से रहित है। अतः जैसे बाँसों का समूह आपस में टकराकर घर्षण द्वारा उत्पन्न आग से शान्त हो जाता है। उसी प्रकार इस यदुवंश में भी परस्पर कलह से ही इसका शमन (नाश) होगा। शान्ति स्थापित करने के उपरान्त मैं अपने गोलोक-धाम को जाऊंगा ॥४॥
कहने का तात्पर्य यह है कि पृथ्वी पर धर्म स्थापना के पश्चात् श्रीकृष्ण और उनके गोप-गोपियों का कार्य समाप्त हो जाता है। इसके बाद भगवान स्वयं तथा अपने प्रमुख गोप गोपियों के साथ गोलोक प्रस्थान की तैयारी में लग जाते हैं। इसके लिए सबसे पहले श्रीकृष्ण जो अजेय एवं अपराजित गोप हैं, उनको आपस में ही युद्ध करा कर उनकी आत्मा को ग्रहण कर लेते हैं। क्योंकि यह सर्वविदित है कि सशरीर कोई गोलोक में नहीं जा सकता। इसलिए उनकी आत्मा को लेने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण नें मौसल युद्ध की लीला रची और उस युद्ध में मारे गए वीर जांबाज यादव (गोपों) की आत्माओं को लेकर बाकी अन्य गोपों की आत्माओं को लेनें के लिए प्रभु दूसरी योजना बनाई। जिसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस अध्याय के भाग- (२) में किया गया है।
इसके पिछले भाग में बताया जा चुका है कि गोपों को संपूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई पराजित नहीं कर सकता ना ही उनका कोई वध कर सकता और ना ही उन्हें कोई शापित कर सकता है। तब भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा से वे मौसल युद्ध में आपस में ही लड़कर नश्वर शरीर को त्याग देते हैं। तब भगवान श्रीकृष्ण उनकी शुद्ध आत्मा को गोलोक में ले जाने के लिए ग्रहण कर लेते हैं। (ज्ञात हो- कोई भी सशरीर गोलोक में नहीं जा सकता)
तत्पश्चात बाकी बचे हुए गोप और गोपियों के नश्वर शरीर से आत्मा लेने के लिए भगवान श्रीकृष्ण जो कुछ किया उसका वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्री कृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय-(१२७) में मिलता है। जिसको संक्षेप में नीचे उद्धृत किया गया है।
अन्ये गोपाश्च गोप्यश्च बान्धवाः सुहृदस्तथा। तानुवाच स गोविन्दो यथार्थ्यं समयोचितम्।।४।।
अनुवाद - १-४ श्री नारायण कहते हैं- नारद ! जहां पहले ब्राह्मण पत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्न दिया था ; उस भाण्डीर वट की छाया में श्री कृष्ण स्वयं विराजमान हुए और वहीं समस्त गोपों को बुलावा भेजा। श्रीहरि के वाम भाग में राधिका देवी, दक्षिण भाग में यशोदा सहित नन्द, और नंद के दाहिने वृषभानु और वृषभानु के बाएं कलावती तथा अन्यान्य गोप, गोपियाँ भाई- बंधु तथा मित्रों ने आसन ग्रहण किया। तब गोविंद ने उन सब से समयोचित यथार्थ वचन कहा।१-४।
अनुवाद- अब कर्म की जड़ काट देने वाले कलयुग का आगमन सन्निकट है अतः तुम सभी शीघ्र ही गोकुल वासियों के साथ गोलोक को चले जाओ । ११। एतस्मिन्नन्तरे विप्र रथमेव मनोहरम् । चतुर्योजनविस्तीर्णमूर्ध्वे च पञ्चयोजनम् ।।३७।।
अनुवाद - ३७-४९ • इसी बीच वहां व्रज में लोगों ने सहसा गोलोक से आए हुए एक मनोहर रथ को देखा। वह रथ चार योजन विस्तृत और पांच योजन ऊंचा था, बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से उसका निर्माण हुआ था। • उसमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े उसका भार वहन कर रहे थे तथा उसपर सूक्ष्म वस्त्र का आवरण पड़ा हुआ था एवं वह करोड़ों गोपियों से सामवृत( घिरा हुआ) था। • नारद! राधा और धन्यवाद की पात्रा कलावती देवी का जन्म किसी के गर्भ से नहीं हुआ था। यहां तक की गोलक से जितनी भी गोपियां आईं थीं, वह सभी आयोनिजा थीं। उनके रूप में श्रुति पत्नियां ही अपने शरीर से प्रकट हुई थीं। वे सभी श्रीकृष्ण की आज्ञा से अपने नश्वर शरीर का त्याग करके उस रथपर सवार हो उत्तम गोलोक को चली गईं। साथ ही राधा भी गोकुल वासियों के साथ गोलोक को प्रस्थित हुई। ३७-४९
फिर इसके आगे की घटना का वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्री कृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय-(१२८) में मिलता है। जिसको संक्षेप में नीचे उद्धृत किया जा रहा है।
अनुवाद - १ से ५ तक नारद ! परिपूर्णतम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण वहाँ तत्काल ही गोकुल वासियों के सालोक्य मोक्ष को देखकर भाण्डीर वन में वट वृक्ष के नीचे पांच गोपों के साथ ठहर गए। वहां उन्होंने देखा कि सारा गोकुल तथा गो- समुदाय व्याकुल है। रक्षकों के न रहने से वृंदावन शून्य तथा अस्त-व्यस्त हो गया है। तब उन कृपा सागर को दया आ गई। फिर तो उन्होंने योगधारणा द्वारा अमृत की वर्षा करके वृंदावन को मनोहर, सुरम्य और गोपों तथा गोपियों से व्रज को पुन: परिपूर्ण कर दिया (पुनः जीवित कर दिया) साथ ही गोकुलवासी गोपों को ढाढस भी बंधाया। तत्पश्चात वे हितकर नीतियुक्त दुर्लभ मधुर वचन बोले- *********** "श्री भगवानुवाच हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव । रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।।६।।
तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने । अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।।७।। अनुनाद -६-७ • हे गोपगण ! हे बन्धो ! तुम लोग सुख का उपभोग करते हुए शांतिपूर्वक यहाँ भूलोक में निवास करो, क्योंकि प्रिया के साथ विहार सुरम्य रासमण्डल और वृन्दावन नामक पूण्यवन में मुझ श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक रहेगा जब तक संसार में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति रहेगी। ६-७।
विशेष:- वर्तमान में जो गोप (अहीर) हैं वे सब गोलोकवासी गोपों के ही वंशज हैं।
अनुवाद - ८६, ८७ और ९८ • वहां उपस्थित पार्वती ने कहा- प्रभो ! गोलोकस्थित रासमण्डल में मैं ही अपने एक राधिका रूप से रहती हूँ। इस समय गोलोक रासशून्य हो गया है, अतः आप मुक्ता और माणिक्य से विभूषित रथ पर आरूढ हो वहाँ जाइए और उसे परिपूर्ण कीजिए।८६-८७।
• नारद ! पार्वती के वचन सुनकर रसिकेश्वर रासधारी श्रीकृष्ण हंसे और रत्न-निर्मित विमान पर सवार हो उत्तम गोलोक को चले गए।९८।
▪️इसके अलावा भगवान श्रीकृष्ण को गोलोक जाने का वर्णन गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड के अध्याय- (६०) में भी मिलता है। जिसको जाने बिना श्रीकृष्ण के गोलक गमन का प्रसंग अधूरा ही रह जाएगा। इसलिए उसको भी जानना आवश्यक है।
अनुवाद - बलराम जी मानव शरीर को छोड़कर अपने धाम को चले गए। वहाँ देवताओं को आया देख श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गए। ब्रज में जाकर श्रीहरि नन्द, यशोदा, राधिका तथा गोपियों सहित गोपों से मिले और उन प्रेमी भगवान ने अपने प्रिय जनों से प्रेम पूर्वक इस प्रकार कहा।१३-१४
किंतु भगवान श्रीकृष्ण के अगले कथन को बताने से पहले यहाँ कुछ बताना चाहेंगे कि- देवताओं के आने पर गोपेश्वर श्रीकृष्ण क्यों अन्तर्धान हो गए ?
तो उस समय गोपेश्वर श्रीकृष्ण तीन कारणों से देवताओं के आने पर अंतर्धान हो गए।
******* (१)- पहला कारण यह कि - गोलोक के आवागमन की अलौकिक घटनाक्रम में गोपों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्मिलित नहीं हो सकता। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण वहाँ से अन्तर्धान हो गये। (२)- दूसरा कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण भूमि का भार दूर करने के लिए गोलोक से अपने गोप और गोपियों के साथ आते हैं और कार्य पूर्ण हो जाने पर भगवान पुन: उन्हीं गोप और गोपियों को लेकर गोलोक को चले जाते हैं। इस घटनाक्रम से देवताओं का कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए वहाँ पर देवताओं के आनें पर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये।
(३)- तीसरी कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण सहित गोपों की यह आवागमन की धटना गुप्त एवं रहस्य पूर्ण है। इसे केवल गोप और गोपियाँ ही जानते हैं। और इस घटना को गोपेश्वर श्री कृष्ण सदैव गुप्त ही रखना चाहते हैं। इसीलिए गोपेश्वर श्री कृष्ण देवताओं के आने पर वहां से अन्तर्धान हो गए।
उपर्युक्त तीनों कारणों से भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक गमन की वास्तविकता को गोपों के अतिरिक्त पूर्ण रूप से न तो देवता और न ही ऋषि-मुनि जानते हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४) के श्लोक- (८२) और (८३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर शिव, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं। • ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।
इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय - (३०) के श्लोक - (९ )से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -
गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो। ९।
यहीं कारण है कि - पुराणों में भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक गमन के प्रसंग में श्रीकृष्ण को बहेलिए से मरवा कर गोलोक गमन की हास्यास्पद कथा लिखी गई है।
अब हम पुनः अपने मूल प्रसंग पर आते हैं- वहाँ उपस्थित नन्द आदि गोपों से भगवान कहते हैं।-
क्षीरोदं प्रययौ शीघ्रं रथमारुह्य सुंदरम् । तथा च विष्णुरूपेण श्रीकृष्णो भगवान् हरिः ॥२३॥
अनुवाद - १५-२३ • श्रीकृष्ण बोले - नन्द और यशोदे ! अब तुम मुझमें पुत्र बुद्धि छोड़कर समस्त गोकुल वासियों के साथ मेरे परमधाम गोलोक को जाओ। क्योंकि अब आगे सबको दु:ख देने वाला घोर कलयुग आएगा, जिसमें मनुष्य प्राय: पापी हो जाएंगे इसमें संशय नहीं है।१५-१६। • श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि गोलोक से एक परम अद्भुत रथ उतर आया जिसे गोपों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ देखा। उसका विस्तार पांच योजन का था और ऊंचाई भी उतनी ही थी। वह बज्रमणि (हीरे) के समान निर्मित और मुक्ता - रत्नों से विभूषित था। उसमें नौ लाख मंदिर थे और उन घरों में मणिमय दीप जल रहे थे। उस रथ में दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े जुते हुए थे। उस रथपर महीन वस्त्र का पर्दा पड़ा था। करोड़ों सखियां उसे घेरे हुए थीं। १८- २०- १/२।
•राजन ! इसी समय श्री कृष्ण के शरीर से करोड़ों कामदेवों के समान सुंदर चारभुजा धारी विष्णु प्रकट हुए, जिन्होंने शंख और चक्र धारण कर रखे थे। वे जगदीशपुर श्रीमान विष्णु लक्ष्मी के साथ एक सुंदर रथ पर आरूढ़ हो शीघ्र ही क्षीरसागर को चल दिए।२१-२३।
अनुवाद - २४-२८ • इसी प्रकार नारायण रूपधारी भगवान श्रीकृष्ण हरि महालक्ष्मी के साथ गरुण पर बैठकर वैकुंठ धाम को चले गए। नरेश्वर ! इसके बाद श्रीकृष्ण हरि नर और नारायण दो ऋषियों के रूप में विभक्त हो मानव के कल्याणार्थ बद्री का आश्रम को चले गए तदनंतर साक्षात परिपूर्तम जगतपति भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ गोलोक से आए हुए रथ पर आरूढ़ हुए। • नन्द आदि समस्त गोप तथा यशोदा आदि व्रजांगनाएं सब के - सब वहां भौतिक शरीरों का त्याग करके दिव्यदेहधारी हो गए। तब गोपाल भगवान श्रीहरि नन्द आदि को उस दिव्य रथपर बिठाकर गोकुल के साथ ही शीघ्र गोलोक धाम को चले गए। ब्रह्मांडों से बाहर जाकर उन सब ने विरजा नदी को देखा साथ ही शेषनाग की गोद में महा लोक गोलोक दृष्टिगोचर हुआ, जो दुखों का नाशक तथा परम सुखदायक है। २३- २८. १/२
दृष्ट्वा रथात्समुत्तीर्य सार्धं गोकुलवासिभिः॥२९॥
विवेश राधया कृष्णः पश्यन्न्यग्रोधमक्षयम् । शतशृङ्गं गिरिवरं तथा श्रीरासमण्डलम्॥३०॥
नद्या यमुनया युक्तं वसंतानिलमण्डितम् । पुष्पकुञ्जनिकुञ्जं च गोपीगोपजनैर्वृतम्॥३२ ॥
तदा जयजयारावः श्रीगोलोके बभूव ह । शून्यीभूते पुरा धाम्नि श्रीकृष्णे च समागते॥३३॥
अनुवाद -उसे देखकर गोकुल वासियों सहित श्रीकृष्ण उस रथ से उतर पड़े और श्रीराधा के साथ अक्षयवट का दर्शन करते हुए उस परमधाम में प्रविष्ट हुए। गिरिवर सतश्रृंग तथा श्रीरासमण्डल को देखते हुए वह कुछ दूर स्थित वृन्दावन में गए, जो बारह वनों से संयुक्त तथा कामपूरक वृक्षों से भरा हुआ था। • यमुना नदी उसे छूकर बह रही थी। वसन्त ऋतु और मलयानिल उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। वहां फूलों से भरे कितने ही कुंज और निकुञ्ज थे। वह वन गोप और गोपियों से भरा हुआ था। जो पहले सूना- सा लगता था, उस गोलोक धाम में श्रीकृष्ण के पधारने से जय- जयकर की ध्वनि गूंज उठी।२९-३३। ************* ज्ञात हो कि -भगवान श्रीकृष्ण धर्मस्थापना हेतु भूतल पर- (१२५) वर्ष तक रहे। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध -१०, अध्याय- (६) के श्लोक- (२५) से होती है। जिसमें ब्रह्मा जी भगवान श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-
अनुवाद - पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किया एक-सौ पच्चीस वर्ष बीत गए हैं।२५।
इसी प्रकार श्रीकृष्ण की आयु (भूतल पर रहने के समय) का प्रमाण ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय- (१२९) में भी मिलता हैं। जिसमें ब्रह्मा जी स्वयं श्रीकृष्ण से कहते हैं कि-
"ब्रह्मवाच- "यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम्। त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम्।१८।। अनुवाद:- ब्रह्मा जी बोले ! हे प्रभु ! इस पृथ्वी पर क्रीड़ा करते आपके एक सौ पच्चीस वर्ष बीत गये। विरह से आतुर रोती हुई पृथ्वी को छोड़कर अपने गोलोक धाम को पधार रहे हैं।१८।
इस प्रकार से इस अध्याय के दोनों खण्डों के साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि- "जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही श्रीकृष्ण धर्म की पुनः स्थापना के लिए अपने समस्त गोप और गोपियों के साथ भूतलपर अवतरित होते हैं। और धर्म स्थापना के उपरांत पुनः गोप और गोपियों के साथ अपने धाम- गोलोक को चले जाते हैं।
यही गोपेश्वर श्री कृष्ण का सत्य सनातन नियम है। इस कार्य में ना तो गान्धारी के शाप की कोई भूमिका है और ना ही किसी ऋषि मुनि के शाप का सम्बन्ध है और नहीं भगवान श्रीकृष्ण को बहेलिया से मारे जाने की कोई सच्चाई है। यह सब भगवान श्री कृष्ण की पूर्व निर्धारित लीला का ही परिणाम है। इसमें शाप और आशीर्वाद को लाना भगवान श्रीकृष्ण की वास्तविक जानकारियों से लोगों को भ्रमित करना है। इसीलिए कहा जाता है कि जो भगवान श्रीकृष्ण और उनके गोपों के गोलोक जाने की "सत्य कथाओं" को सुनता है वह निश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त होता है।" बाकी भ्रामक एवं असत्य कथा कहने व सुनने वाले को कभी भी पापों से मुक्ति नहीं मिलती। इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता के अश्वमेध खंड अध्याय- (७) के श्लोक संख्या- (४१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि- _____ यः शृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः । मुक्तिं यदूनां गोपानां सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४१ ॥ अनुवाद:- जो श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र तथा यादव (गोपों) की मुक्ति का वृतान्त सुनते हैं वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४१।
किन्तु यहां पर उन लोगों को जानकारी देना आवश्यक हो जाता है जो अक्सर कुछ अधूरी जानकारी रखते हैं। वे कहा करते हैं कि- मौसल युद्ध में सम्पूर्ण यादवों का विनाश हो गया था। किंतु ऐसा वे लोग कहते हैं जिनको इस बात की जानकारी नहीं है कि संपूर्ण यादवों का विनाश नहीं हुआ था। क्योंकि उस युद्ध के उपरांत बहुत सी स्त्रियां, बच्चे और बूढ़े यादव तथा भगवान श्री कृष्ण के पौत्र वज्रनाभ आदि बच गए थे। इन सभी बातों की पुष्टि- श्रीविष्णु पुराण के पञ्चम अंश के अध्याय- (३७) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण दारूक से संदेश भिजवाते समय कहते हैं कि-
अनुवाद - ५७-६३ •इस प्रकार बलराम जी का प्रयाण ( गोलोकगमन) देखकर श्रीकृष्णचन्द्र ने सारथि दारूक से कहा- तुम यह सब वृतांत उग्रसेन और वसुदेव जी से जाकर कहो।५७।
•बलभद्रजी का निर्याण , प्रमुख यादवों का क्षय और मैं भी योगस्थ होकर नश्वर शरीर को छोड़कर अपने धाम को जाऊँगा। यह सब समाचार भी वसुदेव जी और उग्रसेन को जाकर सुनाओ।५८।
• संपूर्ण द्वारिका वासी और आहुक (उग्रसेन) से कहना कि अब इस सम्पूर्ण नगरी को समुद्र डुबो देगा।५९।
इसलिए आप सब केवल अर्जुन के आगमन की प्रतिक्षा और करें तथा अर्जुन के यहाँ से लौटते ही फिर कोई भी व्यक्ति द्वारिका में न रहे, जहाँ वे कुन्ति नन्दन जाए वही सब लोग चले जायं। ६०-६१।
कुंती पुत्र अर्जुन से तुम मेरी ओर से कहना कि- अपने सामर्थ्य अनुसार तुम मेरे परिवार के लोगों की रक्षा करना।६२।
•और तुम द्वारिका वासी सभी लोगों को लेकर अर्जुन के साथ चले जाना। हमारे पीछे वज्रनाभ ही यदुवंश का राजा-होगा।६३।
ये तो रही बात मौसल युद्ध में कुछ खास बचे हुए यादवों की जिसमें भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ भी हैं। इसके अलावा भगवान श्रीकृष्ण वृंदावन में समस्त गोप और गोपियों की मृत शरीर को पुनः जीवित कर देते हैं वे सभी गोप़ यादव ही थे।
"अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् । योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः।।३।।
गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः। तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।।४।। अनुवाद:- उन्हें जीवित करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा- हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव । रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।।६ ।
तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने । अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।।७।। ( ब्रह्मवैवर्तपुराण/ श्रीकृष्णजन्मखण्ड/१२८) ******** अनुवाद - हे गोपगण ! हे बन्धो ! तुम लोग सुख का उपभोग करते हुए शान्तिपूर्वक यहां व्रज में ही निवास करो, क्योंकि प्रिया के साथ विहार सुरम्य रासमण्डल और वृंदावन नामक पूण्यवन में श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक ही रहेगा जब तक सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति रहेगी। ६-७।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता हैं कि- लाख ऋषि मुनियों और गान्धारी के शाप के बावजूद भी यदुवंश का अन्त नहीं हो सका। और यहाँ पर यह भी सिद्ध हुआ कि- इस यदुवंश को शाप के मकडजाल में फंसा कर यदुवंश के विनाश की झूठी कहानियां रची गई। हद तो तब हो गई जब पौराणिक कथाकारों ने परमेश्वर श्रीकृष्ण को भी बहेलिए से मरवाकर उनकी परम् प्रभुता को छिन्न-भिन्न करने का अथक प्रयास किया है। किन्तु ध्यान रहे ऐसे लोगों को परमप्रभु परमेश्वर कभी क्षमा नहीं करते जो झूठी कथा कहते हैं और लिखते हैं।
"कृष्ण का आध्यात्मिक व दार्शनिक दृष्टिकोण-
श्रीमद्भगवदगीता के कुछ मौलिक अध्याय जीवन और जगत् की दार्शनिक व वैज्ञानिक विवेचना प्रस्तुत करते हैं।
"श्रीमद्भगवद्गीता के प्रतिपादित विषय:
समता योग :
·मनुष्य को सभी प्रकार के राग-द्वेष , मान- सम्मान सफलता-असफलता, सुख-दु:ख को सृष्टि का द्वन्द्वात्मक विधान मानकर उसमें आसक्त नहीं होना चाहिए- हमें अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों को समान रूप से स्वीकार करना सीखना चाहिए। गीता में ऐसी समता को योग ' कहा गया है।
हे धनञ्जय अर्जुन ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मों को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
"ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।15/7।
अनुवाद
मनसहित इन्द्रियोंको अपना माननेके कारण जीवात्मा किस प्रकार उनको साथ लेकर अनेक योनियों में घूमता है -- कृष्ण दृष्टान्तसहित इसका वर्णन करते हैं।
"जीव में ईश्वर का ही एक अंश "आत्मा" है। लेकिन इस प्राणी ने अपने क्षणिक भौतिक सुखों के लिए इस संसार को नष्ट करने वाले नाशवान प्राकृतिक पदार्थों के साथ अपना झूठा संबंध को स्वीकार कर लिया है।,
·जिससे वह जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में पड़ जाता है, और ईश्वर से विमुख हो जाता है।
इस शरीर को त्यागने और उसी संसार में दूसरे शरीर में पुनर्जन्म भी इच्छा युक्त कर्मों के परिणाम स्वरूप निश्चित है।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।2/ 22।
अनुवाद-
मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही( जीवात्मा) पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में चला जाता है।
·मनुष्य की मृत्यु तभी होती है जब यह निश्चय हो जाता है कि उसे अगले जन्म में किस प्रकार का शरीर प्राप्त होगा।
गीता ज्ञान-
· गीता सिर्फ एक तरफा प्रवचन मात्र नहीं है। यह कृष्ण और अर्जुन के संवादों का एक संग्रह है।
अर्जुन द्वारा पूछे गए प्रश्नों और कृष्ण द्वारा दिए गए उत्तरों की संगत में ही श्रीमद्भगवद्गीता का सौन्दर्य निहित है।
· गीता में अर्जुन एक शिष्य के रूप में और कृष्ण एक सद्- गुरु के रूप में उपदेश देते हुए उपस्थित हैं। और अर्जुन बिना किसी वाद -विवाद और भेद के कृष्ण की सभी शिक्षाओं को स्वीकार करता है।
योग मार्ग:
श्रीमद्भगवद्गीता तीन योग मार्गों का वर्णन करती है - कर्मयोग- ज्ञानयोग और भक्तियोग।
1. कर्म योग:
स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का संसार से अभिन्न सम्बन्ध है।
तीनों को निस्वार्थ भाव से दीन - दु:खी और वञ्चितों की सेवा में लगाओ - यही कर्म योग है।
वैसे भी मनुष्य विना कर्म किए हुए कभी नहीं रह सकता है।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।
अनुवाद
अठारहवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भी कहा है कि संसार से अपना सम्बन्ध मानते हुए कोई भी मनुष्य कर्मों का सम्पूर्णता से त्याग नहीं कर सकता-
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः। यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।18.11।
जो पुरुष कर्माधिकारी है और शरीर में आत्माभिमान(मैं हूँ का भाव) रखनेवाला होने के कारण देहधारी अज्ञानी ही है ? आत्मविषयक कर्तृत्वज्ञान नष्ट न होनेके कारण जो मैं करता हूँ ऐसी निश्चित बुद्धिवाला है उससे कर्म का अशेष त्याग होना असम्भव होनेके कारण? उसका कर्मफलत्याग के सहित विहित कर्मोंके अनुष्ठानमें ही अधिकार है? उनके त्याग में नहीं। यह अभिप्राय दिखलानेके लिये कहते हैं --, देहधारीदेहको धारण करे सो देहधारी? इस व्युत्पत्तिके अनुसार शरीरमें आत्माभिमान रखनेवाला देहभृत् कहा जाता है ? विवेकी नहीं। क्योंकि वेदाविनाशिनम् इत्यादि श्लोकोंसे वह ( विवेकी होने पर) कर्तापन के अधिकारसे अलग कर दिया गया है।
सम्बन्ध-- पीछे के श्लोक में यह कहा ही गया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। इस पर यह शंका हो सकती है कि मनुष्य इन्द्रियों की क्रियाओं को हठपूर्वक रोककर भी तो अपने को अक्रिय मान सकता है। इसका समाधान करने के लिये आगे का श्लोक प्रस्तुत हैं।
"तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।3.28।।
अनुवाद:-
हे महाबाहो! गुण-विभाग और कर्म-विभाग को तत्त्व से जानने वाला महापुरुष 'सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं' -- ऐसा मानकर उनमें आसक्त( संलग्न) नहीं होता। तभी वह कर्म के परिणामों से बच सकता है।
अन्यथा नहीं कर्म में जब अहं, संकल्प और इच्छाऐं विद्यमान हैं तो कर्म अपना फल देगा ही।
शरीर से अनेक कर्मों को करते हुए मन को प्रभु में लगाने वाला मोह से मुक्त होकर कर्तव्य करते हुए संसार के सभी द्वन्द्व (दो परस्पर विरोधी भावों ) पर विजय प्राप्त कर लेता है।
2. ज्ञान योग:
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3.3।
श्रीकृष्ण ने कहा हे निष्पाप (अनघ) अर्जुन ! इस श्लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है ज्ञानियों की (सांख्यानां) सांख्य दर्शन वेत्ताओं की ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से सम्बन्धित है।
3. भक्ति योग:
सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा--ये दोनों साधकों की अपनी निष्ठाएँ ( विश्वास- अथवा स्थिति ) हैं; परन्तु भगवन्निष्ठा साधकों की अपनी निष्ठा नहीं है। कारण कि सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठामें साधकको 'मैं हूँ' और 'संसार है'--इसका अनुभव होता है; अतः ज्ञानयोगी संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूपमें स्थित होता है और कर्मयोगी संसार की वस्तु-(शरीरादि-) को मोह से रहित बिना की किसी कामना के होकर कर्तव्य रूप में संसार की ही सेवा में स्वयं को लगाकर संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करता है। भक्ति वास्तव में ज्ञान और कर्म का समन्वय ( मेल) है। भक्तियोग सबसे श्रेष्ठ मार्ग है
गीता-अमृत:
मनुष्य शरीर :-
·हमारा यह शरीर नष्ट होने वाला( नश्वर) है। यह मन अनेक दुर्वासनाओं से भरा है। हमारे पास न केवल आध्यात्मिक ज्ञान की कमी है,अपितु इस भौतिक जगत् का भी पूर्ण ज्ञान है।
अपने वर्तमान जीवन में भी हम कभी भी एक जैसे नहीं होते हैं। हमारा शरीर हर पल बदलता रहता है । हमारा शरीर बचपन से यौवन, यौवन से प्रौढ़, और प्रौढ़ से वृद्धावस्था में और फिर मृत्यु में कब बदल जाता है इसका हमें पता तक नहीं चलता क्योंकि शरीर प्राकृतिक तत्वों का समन्वय है । और परिवर्तन प्रकृति का स्वभाव व नियम है।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा l
,तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।2-13।
(श्रीमद्भगवद्गीता )
· जीव -विज्ञान- ( biology )कहता है कि शरीर के भीतर की कोशिकाओं का कायाकल्प होता है—पुरानी और मृत कोशिकाओं के स्थान पर नई कोशिकाएं निर्माण होती हैं ।
अर्थात काम , क्रोध और लोभ -- ये तीनों आत्मा का अधःपतन करने वाले साक्षात् नरक के द्वार हैं। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को इन तीनों को त्याग देना चाहिए।
कृष्ण ने वासना मूलक काम के विषय में कहा-
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।3.43।।
अनुवाद:-
इन्द्रियों को (स्थूलशरीरसे) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियों से पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है औऱ जो बुद्धि से भी पर है वह (काम) है। इस तरह बुद्धि से पर - (काम-) को जानकर अपने द्वारा अपने-आप को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल।
निष्कर्ष के रूप में श्रीकृष्ण इस पर बल देकर कहते हैं कि हमें आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी शत्रु का संहार करना चाहिए। क्योंकि आत्मा भगवान का अंश है और यह दिव्य शक्ति है इसलिए दिव्य पदार्थों से ही अलौकिक आनन्द प्राप्त हो सकता है जबकि संसार के सभी पदार्थ भौतिक हैं। ये भौतिक पदार्थ आत्मा की स्वाभाविक उत्कंठा को कभी पूरा नहीं कर सकते इसलिए इनको प्राप्त करने की कामना करना व्यर्थ ही है। इसलिए परिश्रम करते हुए हमें बुद्धि को तदानुसार क्रियाशील होने का प्रशिक्षण देना चाहिए और फिर मन और इन्द्रियों को नियंत्रित रखने के लिए इसका प्रयोग करना चाहिए।
कठोपनिषद् में रथ के सादृश्य से इसे अति विस्तृअध्याय- समझाया गया है:
यह उपनिषद् वर्णन करता है कि यह शरीर एक रथ है जिसे पांच इन्द्रिय रूपी घोड़े हाँक रहे हैं। उन घोड़ों के मुख में मन रूपी लगाम पड़ी है। यह लगाम रथ के बुद्धि रूपी सारथी के हाथ में है और रथ के पीछे आसन पर (जीवात्मा) यात्री बैठा हुआ है। यात्री को चाहिए कि वह सारथी को उचित निर्देश दे जो लगाम को नियंत्रित कर घोड़ों को उचित दिशा की ओर जाने का मार्गदर्शन दे सके।
इस सादृश्य में रथ मनुष्य का शरीर है, घोड़े पाँच इन्द्रियाँ हैं और घोड़ों के मुख में पड़ी लगाम मन है और सारथी बुद्धि है और रथ में बैठा यात्री शरीर में वास करने वाली आत्मा है। इन्द्रियाँ (घोड़े) अपनी पसंद के पदार्थों की कामना करती हैं। मन (लगाम) इन्द्रियों को मनमानी करने से रोकने में अभ्यस्त नहीं होता। बुद्धि (सारथी) मन (लगाम) के समक्ष आत्मसमर्पण कर देती है। इस प्रकार मायाबद्ध अवस्था में सम्मोहित आत्मा बुद्धि को उचित दिशा में चलने का निर्देश नहीं देती।
"कर्मयोग सिद्धान्त
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ,
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।2/ 47।
अनुवाद:-
कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।
"अनासक्त कर्म-
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।5.2।।
अनुवाद:-
अर्जुन के प्रश्न से श्रीकृष्ण समझ गये किस तुच्छ अज्ञान की स्थिति में अर्जुन पड़ा हुआ है।
वह कर्मसंन्यास और कर्मयोग इन दो मार्गों को भिन्नभिन्न मानकर यह समझ रहा था कि वे साधक को दो भिन्न लक्ष्यों तक पहुँचाने के साधन थे।
मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति निष्क्रियता की ओर होती है। यदि मनुष्यों को अपने स्वभाव पर छोड़ दिया जाय तो अधिकांश लोग केवल यही चाहेंगे कि जीवन में कम से कम परिश्रम और अधिक से अधिक आराम के साथ भोजन आदि प्राप्त हो जाय। इस अनुत्पादक अकर्मण्यता से उसे क्रियाशील बनाना उसके विकास की प्रथम अवस्था है। यह कार्य मनुष्य की सुप्त इच्छाओं को जगाने से सम्पादित किया जा सकता है। विकास की इस प्रथमावस्था में स्वार्थ से प्रेरित कर्म उसकी मानसिक एवं बौद्धिक शिथिलता को दूर करके उसे अत्यन्त क्रियाशील बना देते हैं।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।8.5।।
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
इस प्रकार से इस पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण व अन्तिमवां अध्याय अपने दोनों खण्डों में "श्रीकृष्ण सहित गोप-गोपियों के गोलक गमन" की जानकारी के साथ समाप्त हुआ। ____________________ इस पुस्तक के सभी प्रसंगों का विस्तृत वर्णन- "गोपेश्वर श्रीकृष्णस्य पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रन्थ में किया गया है। विस्तृत जानकारी के लिए उस वृहद्- ग्रन्थ का भी अध्ययन अवश्य करें।