गुरुवार, 29 फ़रवरी 2024
अरे मन इस संसार में भाँति भाँति के लोग, कुछ तो औषधि तुल्य हैं कुछ कैंसर जैसे रोग डर मनुष्य को सावधान करता है। और शंकाऐं चिन्तित !
बुधवार, 28 फ़रवरी 2024
कर्म और पूरक -
Complement पूरक - और Object कर्म
व्याकरण में पूरक और कर्म की विवेचना; ...
व्याकरण में पूरक और कर्म में मुख्य अन्तर :-
व्याकरण में कर्म और पूरक के बीच प्राय: भ्रमात्मक स्थिति बनी रहती है।
कर्म वह है जो पूरक होते हुए विषय ( कर्ता )की कार्रवाई से प्रभावित होता है; अर्थात कर्ता की क्रिया का प्रभाव जिस पर पड़ता है वही कर्म होता है ।
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और पूरक वस्तुत: विशेषण का एक भाग है जो आमतौर पर कर्ता या कर्म की अतिरिक्त विशेषता बताता है अर्थात् विषय या कर्म के बारे में अधिक जानकारी जोड़ता है।
भाषा के व्याकरण और वाक्य रचना में, हम इन्हें विभिन्न रूपों में पाते हैं।
व्याकरण में कर्म और पूरक दो ऐसे शब्द हैं जो स्थूलत: समानार्थक से प्रतीत होते है । क्योंकि ये दोनों वाक्य में कर्ता के प्रभावित बिन्दुओं पर आधारित हैं।
अधिकांश भाषा उपयोग-कर्ता इन निर्देशों के बारे में प्राय: भ्रमित हो जाते हैं।
1. व्याकरण में एक कर्म क्या है - परिभाषा और
उदाहरण ।
2. व्याकरण में एक पूरक क्या है - परिभाषा और
उदाहरण।
3. व्याकरण में कर्म और पूरक के बीच संबंध क्या है -
4. व्याकरण में कर्म और पूरक के बीच अंतर क्या है - प्रमुख अंतर की तुलनात्मक मुख्य शर्तें-
इन चार चरणों में हम कर्म और पूरक का स्पष्टीकरण करेंगे -
अब अंग्रेजी भाषा के व्याकरण के आधार पर कर्म और पूरक की विवेचना प्रस्तुत है :-
कैम्ब्रिज डिक्शनरी के अनुसार " अंग्रेजी व्याकरण में एक "कर्म" को एक संज्ञा या संज्ञा वाक्यांश के रूप में परिभाषित किया जाता है जो क्रिया' की कार्रवाई से प्रभावित होता है "।
संक्षेप में, एक कर्म वह है जो विषय (कर्ता) की कार्रवाई से प्रभावित होता है।
अंग्रेजी व्याकरण में मूल वाक्य-विन्यास या वाक्य संरचना इस प्रकार है -
विषय + क्रिया + कर्म।
तो कर्म वह है जो वाक्य के कर्ता के बाद के अधिकांश "विधेय" भाग पर आता है, आमतौर पर क्रिया के बाद यह देखा गया ।
उदाहरण के लिए:- मेरे भाई ने यह पत्र लिखा था।
एक कर्म एक संज्ञा, सर्वनाम या एक उपवाक्य भी हो सकता है।
उपरोक्त वाक्य में, कर्म "यह पत्र ", एक संज्ञा है।
किसी वाक्य में ऑब्जेक्ट (कर्म) को पहचानने का सबसे आसान तरीका है ;कि वाक्य के क्रिया के साथ 'क्या' अथवा किसको पूछें।
उपरोक्त वाक्य में उदाहरण के लिए, क्या लिखा ? उत्तर -यह पत्र ।
हालाँकि, ऐसे वाक्य भी हैं जो किसी कर्म को प्रयुक्त क्रिया के रूप के अनुसार नहीं ले जाते हैं। यह विशेष रूप से अनियमित और अकर्मक क्रियाओं के साथ ही होता है।
उदाहरण के लिए:-
1- वह तेजी से भागी। (अकर्मक क्रिया)
2-अभी वह गा रहा था।
3-जोरदार बारिश होने लगी।
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इसके अलावा, निष्क्रिय (कर्मवाचय) को एक सक्रिय वाक्य (कर्तृवाच्य) बनाने के लिए, एक कर्म एक आवश्यकता बन जाता है।
उदाहरण के लिए:-
•वह चावल खाता है - चावल को उसके द्वारा खाया जाता है।
उसने इस कृति को चित्रित किया - यह कृति उसके द्वारा चित्रित की गई ।
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कर्म पूरक और विषय पूरक ।
•-कर्म पूरक एक ऐसा उपवाक्य है जो अतिरिक्त जानकारी को प्रत्यक्ष कर्म में जोड़ता है।
लेकिन इसे अप्रत्यक्ष कर्म के साथ समायोजित कर के भ्रमित न हों,
कर्म-पूरक एक संज्ञा या एक सर्वनाम होगा।
कर्म पूरक:- आमतौर पर एक क्रिया विशेषण या विशेषण आदि का एक हिस्सा होता है ।👇
उदाहरण के लिए:- उन्होंने गेंद को लात मारी; जिसे लाल और नीले रंग में रंगा गया था ।
(यहाँ उपवाक्य कर्म 'गेंद' के बारे में अधिक जानकारी जोड़ता वाला भाग "जिसे लाल और नीले रंग में रंगा गया" कर्म का पूरक है ।
•मॉनिटर ने छात्रों के नाम लिखे "जिन्होंने ड्रिल में भाग नहीं लिया (यहाँ कर्म पूरक "छात्रों के नाम" के बारे में अतिरिक्त जानकारी जोड़ता है- जिन्होंने ड्रिल में भाग नहीं लिया"
•उसने मुझे व्याकुल पाया
(क्रिया विशेषण कर्म की स्थिति का वर्णन करता है जो कर्म का पूरक बन जाता है 'मुझे व्याकुल' )
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विषय (कर्ता) पूरक:- विषय (कर्ता )पू्रक एक उपवाक्य है जो कर्ता की विशेषताओं की जानकारी देता है।
आमतौर पर, इन वाक्यों में स्पष्ट कर्म नहीं होता, बल्कि एक कर्ता पूरक होता है।
उदाहरण के लिए:- वह धीमे से भागी ।
( इसमें क्रिया विशेषण वाले उपवाक्य में इस विषय पर अधिक जानकारी दी गई है कि विषय 'उसने' किस प्रकार चलाने की क्रिया की है)
यह पार्क है शाम को बहुत शांत और आकर्षक !
(यह उपवाक्य इस बारे में अधिक व्याख्या करने वाले विषय को योग्य बनाता है)
कर्म और पूरक के बीच संबंध :-चूंकि पूरक क्रिया का अनुसरण करता है ।
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कर्म और पूरक के बीच अन्तर:- परिभाषा
एक कर्म वह है जो विषय ( कर्ता )से प्रभावित होती है जबकि "पूरक" क्रिया के बाद एक उपवाक्य का एक हिस्सा होता है " जो विषय या वाक्य की कर्म के बारे में अतिरिक्त जानकारी जोड़ता है। अर्थात् पूरक क्रिया को पूरा करता है।
व्याकरण में कर्म एक वाक्य के मुख्य भागों में से एक है, जबकि पूरक एक वाक्य का एक मौलिक हिस्सा नहीं बनता है।
हालाँकि, यह पूरक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अधिक जानकारी जोड़ता है और इस प्रकार वाक्य को योग्य बनाता है।
कर्म मुख्य रूप से एक संज्ञा, एक सर्वनाम या एक उपवाक्य है जबकि एक पूरक एक उपवाक्य का एक हिस्सा है जिसमें संज्ञा, क्रिया विशेषण, विशेषण आदि शामिल हैं।
प्रस्तुतिकरण :- यादव योगेश कुमार "रोहि"
मंगलवार, 27 फ़रवरी 2024
use to about to - एबाउट टू का प्रयोग-
अबाउट टु (about to) का इस्तेमाल फ्यूचर रेफरेंस ( भविष्य में होने वाली स्थिति को सूचित करने के लिए किया जाता है।
इसके जरिए भविष्य में घटने वाली किसी घटना या कार्य की जानकारी होती है.
इंग्लिश ग्रामर के मौलिक नियम (Basic Rules of English Grammar ) के मुताबिक, ‘about to’ के साथ to be के फॉर्म्स is, am, are, was, were और be का इस्तेमाल किया जाता है (About to Meaning).
अबाउट टु का इस्तेमाल उन वाक्यों में किया जाता है, जिनके आखिर में वाला है, वाली है, वाली हूं, वाला था, को है, को हूं, को थी, को थे, को था आदि शब्द आते हैं.
इस तरह के वाक्यों से आमतौर पर भविष्य में होने वाली किसी घटना का इशारा मिलता है. जो काम कुछ देर में होने वाला है, उसकी जानकारी के लिए About to का इस्तेमाल किया जाता है।
सोमवार, 26 फ़रवरी 2024
भगवतः विष्णोः वाराहः, नृसिंहः, वामनः, दत्तात्रेयः, परशुरामः, श्रीरामः, श्रीकृष्णः, व्यासः एवं कल्कि अवताराणां संक्षिप्त कथा
भगवतः विष्णोः वाराहः, नृसिंहः, वामनः, दत्तात्रेयः, परशुरामः, श्रीरामः, श्रीकृष्णः, व्यासः एवं कल्कि अवताराणां संक्षिप्त कथा |
एकचत्वारिंशोऽध्यायः
वैशम्पायन उवाच
प्रश्नभारो महांस्तात त्वयोक्तः शार्ङ्गधन्वनि ।
यथाशक्ति तु वक्ष्यामि श्रूयतां वैष्णवं यशः ।१।
विष्णोः प्रभावश्रवणे दिष्ट्या ते मतिरुत्थिता ।
हन्त विष्णोः प्रवृत्तिं च शृणु दिव्या मयेरिताम् ।।२।।
सहस्राक्षं सहस्रास्यं सहस्रचरणं च यम् ।
सहस्रशिरसं देवं सहस्रकरमव्ययम् ।। ३ ।।
सहस्रजिह्वं भास्वन्तं सहस्रमुकुटं प्रभुम् ।
सहस्रदं सहस्रादिं सहस्रभुजमव्ययम् ।। ४ ।।
सवनं हवनं चैव हव्यं होतारमेव च ।
पात्राणि च पवित्राणि वेदिं दीक्षां चरुं स्रुवम् ।। ५ ।।
स्रुक्सोमं शूर्पमुसलं प्रोक्षणं दक्षिणायनम् ।
अध्वर्युं सामगं विप्रं सदस्यं सदनं सदः ।। ६ ।।
यूपं समित्कुशं दर्वीं चमसोलूखलानि च ।
प्राग्वंशं यज्ञभूमिं च होतारं चयनं च यत् ।। ७ ।।
ह्रस्वान्यतिप्रमाणानि चराणि स्थावराणि च ।
प्रायश्चित्तानि चार्थं च स्थण्डिलानि कुशांस्तथा ।। ८।।
मन्त्रं यज्ञवहं वह्निं भागं भागवहं च यत् ।
अग्रेभुजं सोमभुजं घृतार्चिषमुदायुधम् ।। ९ ।।
आहुर्वेदविदो विप्रा यं यज्ञे शाश्वतं विभुम् ।
तस्य विष्णोः सुरेशस्य श्रीवत्साङ्कस्य धीमतः ।। 1.41.१० ।।
प्रादुर्भावसहस्राणि अतीतानि न संशयः ।
भूयश्चैव भविष्यन्तीत्येवमाह प्रजापतिः ।। ११ ।।
यत्पृच्छसि महाराज पुण्यां दिव्यां कथां शुभाम् ।
यदर्थं भगवान् विष्णुः सुरेशो रिपुसूदनः ।
देवलोकं समुत्सृज्य वसुदेवकुलेऽभवत् ।। १२ ।।
तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि शृणु सर्वमशेषतः ।
वासुदेवस्य माहात्म्यं चरितं च महाद्युतेः ।। १३ ।।
हितार्थं सुरमर्त्यानां लोकानां प्रभवाय च ।
बहुशः सर्वभूतात्मा प्रादुर्भवति कार्यतः ।। १४ ।।
प्रादुर्भावांश्च वक्ष्यामि पुण्यान् दिव्यगुणैर्युतान् ।
छान्दसीभिरुदाराभिः श्रुतिभिः समलंकृतान् ।। १५।।
शुचिः प्रयतवाग् भूत्वा निबोध जनमेजय ।
इदं पुराणं परमं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम् ।। १६।।
हन्त ते कथयिष्यामि विष्णोर्दिव्यां कथां शृणु ।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
धर्मसंस्थापनार्थाय तदा सम्भवति प्रभुः।।१७।।
तस्य ह्येका महाराज मूर्तिर्भवति सत्तमा ।
नित्यं दिविष्ठा या राजंस्तपश्चरति दुश्चरम् ।। १८ ।।
द्वितीया चास्य शयने निद्रायोगमुपाययौ ।
प्रजासंहारसर्गार्थं किमध्यात्मविचिन्तकम् ।। १९ ।।
सुप्त्वा युगसहस्रं स प्रादुर्भवति कार्यवान् ।
पूर्णे युगसहस्रे तु देवदेवो जगत्पतिः ।। 1.41.२० ।।
पितामहो लोकपालाश्चन्द्रादित्यौ हुताशनः ।
ब्रह्मा च कपिलश्चैव परमेष्ठी तथैव च ।। २१ ।।
देवाः सप्तर्षयश्चैव त्र्यम्बकश्च महायशाः ।
वायुः समुद्राः शैलाश्च तस्य देहं समाश्रिताः ।। २२ ।।
सनत्कुमारश्च महानुभावो मनुर्महात्मा भगवान् प्रजाकरः ।
पुराणदेवोऽथ पुराणि चक्रे प्रदीप्तवैश्वानरतुल्यतेजाः ।। २३ ।।
येन चार्णवमध्यस्थौ नष्टे स्थावरजङ्गमे ।
नष्टे देवासुरगणे प्रणष्टोरगराक्षसे ।। २४ ।।
योद्धुकामौ सुदुर्धर्षौ दानवौ मधुकैटभौ ।
हतौ प्रभवता तेन तयोर्दत्त्वामितं वरम् ।। २५ ।।
पुरा कमलनाभस्य स्वपतः सागराम्भसि ।
पुष्करे यत्र सम्भूता देवाः सर्षिगणाः पुरा ।। २६ ।।
एष पौष्करको नाम प्रादुर्भावो महात्मनः ।
पुराणे कथ्यते यत्र वेदः श्रुतिसमाहितः ।। २७ ।।
वाराहस्तु श्रुतिमुखः प्रादुर्भावो महात्मनः ।
यत्र विष्णुः सुरश्रेष्ठो वाराहं रूपमास्थितः ।
महीं सागरपर्यन्तां सशैलवनकाननाम् ।। २८ ।।
वेदपादो यूपदंष्ट्रः क्रतुदन्तश्चितीमुखः ।
अग्निजिह्वो दर्भरोमा ब्रह्मशीर्षो महातपाः ।। २९ ।।
अहोरात्रेक्षणो दिव्यो वेदाङ्गः श्रुतिभूषणः ।
आज्यनासः स्रुवतुण्डः सामघोषस्वनो महान् ।1.41.३०।।
धर्मसत्यमयः श्रीमान् क्रमविक्रमसत्कृतः ।
प्रायश्चित्तनखो धीरः पशुजानुर्महाभुजः ।। ३१ ।।
उद्गात्रन्त्रो होमलिङ्गः फलबीजमहौषधिः ।
वाय्वन्तरात्मा मन्त्रस्फिग्विकृतः सोमशोणितः ।। ३२ ।।
वेदिस्कन्धो हविर्गन्धो हव्यकव्यातिवेगवान् ।
प्राग्वंशकायो द्युतिमान् नानादीक्षाभिराचितः ।। ३३ ।।
दक्षिणाहृदयो योगी महासत्रमयो महान् ।
उपाकर्मोष्ठरुचकः प्रवर्ग्यावर्तभूषणः ।। ३४ ।।
नानाछन्दोगतिपथो गुह्योपनिषदासनः ।
छायापत्नीसहायो वै मेरुशृङ्ग इवोच्छ्रितः ।। ३५ ।।
महीं सागरपर्यन्तां सशैलवनकाननाम्।
एकार्णवजले भ्रष्टामेकार्णवगतः प्रभुः ।। ३६ ।।
दंष्ट्रया यः समुद्धृत्य लोकानां हितकाम्यया ।
सहस्रशीर्षो देवादिश्चकार पृथिवीं पुनः ।। ३७ ।।
एवं यज्ञवराहेण भूत्वा भूतहितार्थिना ।
उद्धृता पृथिवी सर्वा सागराम्बुधरा पुरा ।। ३८ ।।
वाराह एष कथितो नारसिंहमतः शृणु ।
यत्र भूत्वा मृगेन्द्रेण हिरण्यकशिपुर्हतः ।। ३९ ।।
पुरा कृतयुगे राजन् सुरारिर्बलदर्पितः ।
दैत्यानामादिपुरुषश्चचार तप उत्तमम् ।1.41.४० ।।
दश वर्षसहस्राणि शतानि दश पञ्च च ।
जपोपवासनिरतः स्थानमौनदृढव्रतः ।। ४१ ।।
ततः शमदमाभ्यां च ब्रह्मचर्येण चानघ ।
ब्रह्मा प्रीतोऽभवत् तस्य तपसा नियमेन च ।। ४२ ।।
तं वै स्वयम्भूर्भगवान् स्वयमागत्य भूपते ।
विमानेनार्कवर्णेन हंसयुक्तेन भास्वता ।। ४३ ।।
आदित्यैर्वसुभिः साध्यैर्मरुद्भिर्दैवतैः सह ।
रुद्रैर्विश्वसहायैश्च यक्षराक्षसकिंनरैः ।। ४४ ।।
दिशाभिर्विदिशाभिश्च नदीभिः सागरैस्तथा ।
नक्षत्रैश्च मुहूर्तैश्च खेचरैश्च महाग्रहैः ।। ४५ ।।
देवर्षिभिस्तपोवृद्धैः सिद्धैः सप्तर्षिभिस्तथा ।
राजर्षिभिः पुण्यतमैर्गन्धर्वैश्चाप्सरोगणैः ।। ४६ ।।
चराचरगुरुः श्रीमान् वृतः सर्वैः सुरैस्तथा ।
ब्रह्मा ब्रह्मविदां श्रेष्ठो दैत्यं वचनमब्रवीत् ।। ४७ ।।
प्रीतोऽस्मि तव भक्तस्य तपसानेन सुव्रत ।
वरं वरय भद्रं ते यथेष्टं काममाप्नुहि ।। ४८ ।।
हिरण्यकशिपुरुवाच
न देवासुरगन्धर्वा न यक्षोरगराक्षसाः ।
न मानुषाः पिशाचाश्च निहन्युर्मां कथंचन ।। ४९ ।।
ऋषयो वा न मां शापैः क्रुद्धा लोकपितामह ।
शपेयुस्तपसा युक्ता वरमेतं वृणोम्यहम् ।। 1.41.५० ।।
न शस्त्रेण न चास्त्रेण गिरिणा पादपेन वा ।
न शुष्केण न चार्द्रेण स्यान्न चान्येन मे वधः ।। ५१ ।।
पाणिप्रहारेणैकेन सभृत्यबलवाहनम् ।
यो मां नाशयितुं शक्तः स मे मृत्युर्भविष्यति ।। ५२ ।।
भवेयमहमेवार्कः सोमो वायुर्हुताशनः ।
सलिलं चान्तरिक्षं च नक्षत्राणि दिशो दश ।। ५३ ।।
अहं क्रोधश्च कामश्च वरुणो वासवो यमः ।
धनदश्च धनाध्यक्षो यक्षः किंपुरुषाधिपः ।। ५४ ।।
एवमुक्तस्तु दैत्येन स्वयम्भूर्भगवांस्तदा ।
उवाच दैत्यराजं तं प्रहसन् नृपसत्तम ।। ५५ ।।
ब्रह्मोवाच
एते दिव्या वरास्तात मया दत्तास्तवाद्भुताः ।
सर्वान् कामानिमांस्तात प्राप्स्यसि त्वं न संशयः ।। ५६।।
एवमुक्त्वा तु भगवाञ्जगामाकाशमेव हि ।
वैराजं ब्रह्मसदनं ब्रह्मर्षिगणसेवितम् ।। ५७ ।।
ततो देवाश्च नागाश्च गन्धर्वा मुनयस्तथा ।
वरप्रदानं श्रुत्वा ते पितामहमुपस्थिताः ।। ५८ ।।
विभुं विज्ञापयामासुर्देवा इन्द्रपुरोगमाः ।। ५९॥
देवा ऊचुः
वरेणानेन भगवन् बाधयिष्यति नोऽसुरः ।
ततः प्रसीद भगवन्वधोऽप्यस्य विचिन्त्यताम्।। 1.41.६० ।।
भवान् हि सर्वभूतानां स्वयम्भूरादिकृद् विभुः ।
स्रष्टा च हव्यकव्यानामव्यक्तप्रकृतिर्ध्रुवः ।। ६१ ।।
ततो लोकहितं वाक्यं श्रुत्वा देवः प्रजापतिः ।
प्रोवाच भगवान् वाक्यं सर्वान् देवगणांस्तदा ।। ६२ ।।
अवश्यं त्रिदशास्तेन प्राप्तव्यं तपसः फलम् ।
तपसोऽन्तेऽस्य भगवान् वधं विष्णुः करिष्यति ।।६३।।
एतच्छ्रुत्वा सुराः सर्वे वाक्यं पङ्कजसम्भवात् ।
स्वानि स्थानानि दिव्यानि जग्मुस्ते वै मुदान्विताः ।। ६४ ।।
लब्धमात्रे वरे चापि सर्वाः सोऽबाधत प्रजाः ।
हिरण्यकशिपुर्दैत्यो वरदानेन दर्पितः । ६५ ।।
आश्रमेषु महाभागान् मुनीन् वै शंसितव्रतान् ।
सत्यधर्मरतान् दान्तान् पुरा धर्षितवांस्तु सः ।। ६६ ।।
देवांस्त्रिभुवनस्थांस्तु पराजित्य महासुरः ।
त्रैलोक्यं वशमानीय स्वर्गे वसति दानवः ।। ६७ ।।
यदा वरमदोन्मत्तो न्यवसद् दानवो दिवि ।
यज्ञियान् कृतवान्दैत्यान्देवांश्चैवाप्ययज्ञियान् ।६८।
आदित्याश्च ततो रुद्रा विश्वे च मरुतस्तथा ।
शरण्यं शरणं विश्वमुपाजग्मुर्महाबलम् ।। ६९ ।
वेदयज्ञमयं ब्रह्म ब्रह्मदेवं सनातनम् ।
भूतं भव्यं भविष्यं च प्रभुं लोकनमस्कृतम् ।
नारायणं विभुं देवाः शरणं शरणागताः ।। 1.41.७० ।।
देवा ऊचुः
त्रायस्व नोऽद्य देवेश हिरण्यकशिपोर्भयात्।
त्वं हि नः परमो धाता ब्रह्मादीनां सुरोत्तम ।। ७१ ।।
त्वं हि नः परमो देवस्त्वं हि नः परमो गुरुः ।
उत्फुल्लाम्बुजपत्राक्षः शत्रुपक्षभयंकरः ।
क्षयाय दितिवंशस्य शरण्यस्त्वं भवस्व नः ।। ७२ ।
विष्णुरुवाच
भयं त्यजध्वममरा ह्यभयं वो ददाम्यहम् ।
तथैवं त्रिदिवं देवाः प्रतिपत्स्यथ माचिरम् ।। ७३ ।।
एष तं सगणं दैत्यं वरदानेन दर्पितम् ।
अवध्यममरेन्द्राणां दानवेन्द्रं निहन्म्यहम् ।। ७४ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्त्वा स भगवान् विसृज्य त्रिदशेश्वरान् ।
हिरण्यकशिपो राजन्नाजगाम् हरिः सभाम् ।। ७५।।
नरस्य कृत्वार्धतनुं सिंहस्यार्धतनुं प्रभुः ।
नारसिंहेण वपुषा पाणिं निष्पिष्य पाणिना ।। ७६।।
जीमूतघनसंकाशो जीमूतघननिःस्वनः ।
जीमूतघनदीप्तौजा जीमूत इव वेगवान् ।। ७७ ।।
दैत्यं सोऽतिबलं दीप्तं दृप्तशार्दूलविक्रमम् ।
दृप्तैर्दैत्यगणैर्गुप्तं हतवानेकपाणिना ।। ७८ ।।
नृसिंह एष कथितो भूयोऽयं वामनोऽपरः ।
यत्र वामनमाश्रित्य रूपं दैत्यविनाशकृत् ।। ७९ ।।
बलेर्बलवतो यज्ञे बलिना विष्णुना पुरा ।
विक्रमैस्त्रिभिरक्षोभ्याः क्षोभितास्ते महासुराः ।। 1.41.८० ।।
पर्वकालब्धं सबशक्तिमान्भगवान्वाझारूपधाण-
विप्रचित्तिः शिबिः शङ्कुरयःशङ्कुस्तथैव च ।
अयःशिरा शङ्कुशिरा हयग्रीवश्च वीर्यवान् ।। ८१ ।।
वेगवान् केतुमानुग्रः सोमव्यग्रो महासुरः ।
पुष्करः पुष्कलश्चैव वेपनश्च महारथः ।। ८२ ।।
बृहत्कीर्तिर्महाजिह्वः साश्वोऽश्वपतिरेव च ।
प्रह्लादोऽश्वशिराः कुम्भः संह्रादो गगनप्रियः ।
अनुह्रादो हरिहरौ वराहः शंकरो रुजः ।। ८३ ।।
शरभः शलभश्चैव कुपनः कोपनः क्रथः ।
बृहत्कीर्तिर्महाजिह्वः शङ्कुकर्णो महास्वनः ।। ८४ ।।
दीर्घजिह्वोऽर्कनयनो मृदुचापो मृदुप्रियः ।
बायुर्यविष्ठो नमुचिः शम्बरो विज्वरो महान् ।। ८५ ।।
चन्द्रहन्ता क्रोधहन्ता क्रोधवर्धन एव च ।
कालकः कालकेयश्च वृत्रः क्रोधो विरोचनः ।। ८६ ।।
गरिष्ठश्च वरिष्ठश्च प्रलम्बनरकावुभौ ।
इन्द्रतापनवातापी केतुमान् बलदर्पितः ।। ८७ ।।
असिलोमा पुलोमा च वाक्कलः प्रमदो मदः ।
खसृमः कालवदनः करालः कैशिकः शरः ।। ८८ ।।
एकाक्षश्चन्द्रहा राहुः संह्रादः सृमरः खनः ।
शतघ्नीचक्रहस्ताश्च तथा परिघपाणयः ।। ८९ ।।
महाशिलाप्रहरणाः शूलहस्ताश्च दानवाः ।
अस्मयन्त्रायुधोपेता भिन्दिपालायुधास्तथा ।। 1.41.९० ।।
शूलोलूखलहस्ताश्च परश्वधधरास्तथा ।
पाशमुद्गरहस्ता वै तथा मुसलपाणयः ।। ९१
नानाप्रहरणा घोरा नानावेषा महाजवाः ।
कृर्मकुक्कुटवक्त्राश्च शशोलूकमुखास्तथा ।। ९२ ।।
खरोष्ट्रवदनाश्चैव वराहवदनास्तथा ।
भीमा मकरवक्त्राश्च क्रोष्टुवक्त्राश्च दानवाः ।
आखुदर्दुरवक्त्राश्च घोरा वृकमुखास्तथा ।। ९३ ।।
मार्जारगजवक्त्राश्च महावक्त्रास्तथापरे ।
नक्रमेषाननाः शूरा गोऽजाविमहिषाननाः ।। ९४ ।।
गोधाशल्यकवक्त्राश्च क्रौञ्चवक्त्राश्च दानवाः ।
गरुडाननाः खड्गमुखा मयूरवदनास्तथा ।। ९५ ।।
गजेन्द्रचर्मवसनास्तथा कृष्णाजिनाम्बराः ।
चीरसंवृतदेहाश्च तथा वल्कलवाससः ।। ९६ ।।
उष्णीषिणो मुकुटिनस्तथा कुण्डलिनोऽसुराः ।
किरीटिनो लम्बशिखाः कम्बुग्रीवाः सुवर्चसः ।
नानावेषधरा दैत्या नानामाल्यसुलेपनाः ।। ९७ ।।
स्वान्यायुधानि संगृह्य प्रदीप्तान्यतितेजसा ।
क्रममाणं हृषीकेशमुपावर्तन्त सर्वशः ।। ९८ ।।
प्रमथ्य सर्वान् दैतेयान् पादहस्ततलैः प्रभुः ।
रूपं कृत्वा महाभीमं जहाराशु स मेदिनीम् ।।९९ ।।
तस्य विक्रमतो भूमिं चन्द्रादित्यौ स्तनान्तरे ।
नभः प्रक्रममाणस्य नाभ्यां किल समास्थितौ ।।1.41.१००।।
परं प्रक्रममाणस्य जानुदेशे स्थितावुभौ ।
विष्णोरतुलवीर्यस्य वदन्त्येवं द्विजातयः ।।१०१।।
हृत्वा स पृथिवीं कृत्स्नां जित्वा चासुरपुंगवान् ।
ददौ शक्राय त्रिदिवं विष्णुर्बलवतां वरः ।।१०२।।
एष ते वामनो नाम प्रादुर्भावो महात्मनः ।
वेदविद्भिद्विजैरेव कथ्यते वैष्णवं यशः ।।१०३।।
भूयो भूतात्मनो विष्णोः प्रादुर्भावो महात्मनः ।
दत्तात्रेय इति ख्यातः क्षमया परया युतः ।।१०४।।
तेन नष्टेषु वेदेषु प्रक्रियासु मखेषु च ।
चातुर्वर्ण्ये तु संकीर्णे धर्मे शिथिलतां गते ।। १०५।।
अभिवर्धति चाधर्मे सत्ये नष्टेऽनृते स्थिते ।
प्रजासु शीर्यमाणासु धर्मे चाकुलतां गते ।।१०६।।
सहयज्ञक्रिया वेदाः प्रत्यानीता हि तेन वै ।
चातुर्वर्ण्यमसंकीर्णं कृतं तेन महात्मना ।। १०७।।
तेन हैहयराजस्य कार्तवीर्यस्य धीमतः ।
वरदेन वरो दत्तो दत्तात्रेयेण धीमता ।। १०८।।
एतद् वाहुद्वयं यत्ते मृधे मम कृतेऽनघ ।
शतानि दश बाहूनां भविष्यन्ति न संशयः ।। १०९।।
पालयिष्यसि कृत्स्नां च वसुधां वसुधाधिप ।
दु्र्निरीक्ष्योऽरिवृन्दानां धर्मज्ञश्च भविष्यसि ।। 1.41.११०।।
एष ते वैष्णवः श्रीमान् प्रादुर्भावोऽद्भुतः शुभः ।
कथितो वै महाराज यथाश्रुतमरिंदम ।।। १११ ।।
भूयश्च जामदग्न्योऽयं प्रादुर्भावो महात्मनः ।
यत्र बाहुसहस्रेण विस्मितं दुर्जयं रणे ।
रामोऽर्जुनमनीकस्थं जघान नृपतिं प्रभुः ।।११२।।
रथस्थं पार्थिवं रामः पातयित्वार्जुनं भुवि ।
धर्षयित्वा यथाकामं क्रोशमानं च मेघवत् ।। ११३।।
कृत्स्नं बाहुसहस्रं च चिच्छेद भृगुनन्दनः ।
परश्वधेन दीप्तेन ज्ञातिभिः सहितस्य वै ।। ११४।।
कीर्णा क्षत्रियकोटीभिर्मेरुमन्दरभूषणा ।
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी तेन निःक्षत्रिया कृता ।। ११५।।
कृत्वा निःक्षत्रियां चैव भार्गवः सुमहातपाः ।
सर्वपापविनाशाय वाजिमेधेन चेष्टवान् ।। ११६।।
तस्मिन् यज्ञे महादाने दक्षिणां भृगुनन्दनः ।
मारीचाय ददौ प्रीतः कश्यपाय वसुंधराम् ।। ११७।
वारुणांस्तुरगाञ्छीघ्रान् रथं च रथिनां वरः ।
हिरण्यमक्षयं धेनूर्गजेन्द्रांश्च महामनाः ।
ददौ तस्मिन् महायज्ञे वाजिमेधे महायशाः ।। ११८।।
अद्यापि च हितार्थाय लोकानां भृगुनन्दनः ।
चरमाणस्तपो दीप्तं जामदग्न्यः पुनः पुनः ।
तिष्ठते देववद् धीमान् महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ।।११९।।
एष विष्णोः सुरेशस्य शाश्वतस्याव्ययस्य च ।
जामदग्न्य इति ख्यातः प्रादुर्भावो महात्मनः ।। 1.41.१२० ।।
चतुर्विंशे युगे चापि विश्वामित्रपुरस्सरः ।
राज्ञो दशरथस्याथ पुत्रः पद्मायतेक्षणः ।। १२१।।
कृत्वाऽऽत्मानं महाबाहुश्चतुर्धा प्रभुरीश्वरः ।
लोके राम इति ख्यातस्तेजसा भास्करोपमः ।। १२२।।
प्रसादनार्थं लोकस्य रक्षसां निधनाय च ।
धर्मस्य च विवृद्धद्यर्थं जज्ञे तत्र महायशाः ।। १२३।।
तमप्याहुर्मनुष्येन्द्रं सर्वभूतपतेस्तनुम् ।
यस्मै दत्तानि चास्त्राणि विश्वामित्रेण धीमता ।। १२४।।
वधार्थं देवशत्रूणां दुर्धराणि सुरैरपि ।
यज्ञविध्नकरो येन मुनीनां भावितात्मनाम् ।। १२५।।
मारीचश्च सुबाहुश्च बलेन बलिनां वरौ ।
निहतौ च निराशी च कृतौ तेन महात्मना ।। १२६।।
वर्तमाने मखे येन जनकस्य महात्मनः ।
भग्नं माहेश्वरं चापं क्रीडता लीलया पुरा ।। १२७।
यः समाः सर्वधर्मज्ञश्चतुर्दश वनेऽवसत् ।
लक्ष्मणानुचरो रामः सर्वभूतहिते रतः ।। १२८।।
रूपिणी यस्य पार्श्वस्था सीतेति प्रथिता जनैः ।
पूर्वोचिता तस्य लक्ष्मीर्भर्तारमनुगच्छति ।। १२९।।
चतुर्दश तपस्तप्त्वा वने वर्षाणि राघवः ।
जनस्थाने वसन् कार्यं त्रिदशानां चकार ह ।। 1.41.१३०।।
सीतायाः पदमन्विच्छल्लँक्ष्मणानुचरो विभुः ।
विराधं च कबन्धं च राक्षसौ भीमविक्रमौ ।
जघान पुरुषव्याघ्रौ गन्धर्वौ शापवीक्षितौ ।। १३१।।
हुताशनार्केन्दुतडिद्घनाभैः प्रतप्तजाम्बूनदचित्रपुङ्खैः ।
महेन्द्रवज्राशनितुल्यसारैः शरैः शरीरेण वियोजितौ बलात् ।। १३२।।
सुग्रीवस्य कृते येन वानरेन्द्रो महाबलः ।
वाली विनिहतो युद्धे सुग्रीवश्चाभिषेचितः ।। १३३।।
देवासुरगणानां हि यक्षगन्धर्वभोगिनाम् ।
अवध्यं राक्षसेन्द्रं तं रावणं युद्धदुर्मदम् ।। १३४।।
युक्तं राक्षसकोटीभिर्नीलाञ्जनचयोपमम् ।
त्रैलोक्यरावणं घोरं रावणं राक्षसेश्वरम् ।। १३५।।
दुर्जयं दुर्धरं दृप्तं शार्दूलसमविक्रमम् ।
दुर्निरीक्ष्यं सुरगणैर्वरदानेन दर्पितम् ।।१३६।।
जघान सचिवैः सार्द्धं ससैन्यं रावणं युधि ।
महाभ्रघनसंकाशं महाकायं महाबलम् ।। १३७।।
तमागस्कारिणं घोरं पौलस्त्यं युधि दुर्जयम् ।
सभ्रातृपुत्रसचिवं ससैन्यं क्रूरनिश्चयम् ।। १३८ ।।
रावणं निजघानाशु रामो भूतपतिः पुरा ।
मधोश्च तनयो दृप्तो लवणो नाम दानवः ।।१३९।।
हतो मधुवने वीरो वरदृप्तो महासुरः ।
समरे युद्धशौण्डेन तथा चान्येऽपि राक्षसाः ।।1.41.१४०।।
एतानि कृत्वा कर्माणि रामो धर्मभृतां वरः ।
दशाश्वमेधाञ्जारूथ्यानाजहार निरर्गलान् ।।१४१।।
नाश्रूयन्ताशुभा वाचो नाकुलं मारुतो ववौ ।
न वित्तहरणं त्वासीद् रामे राज्यं प्रशासति ।। १४२।।
पर्यदेवन्न विधवा नानर्थास्ताभवंस्तदा ।
सर्वमासीज्जगद् दान्तं रामे राज्यं प्रशासति ।। १४३ ।।
न प्राणिनां भयं चापि जलानलनिघातजम् ।
न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते ।। १४४।।
ब्रह्म पर्यचरत् क्षत्र विशः क्षत्रमनुव्रताः ।
शूद्राश्चैव हि वर्णांस्त्रीञ्छुश्रूषन्त्यनहंकृताः ।
नार्यो नात्यचरन्भर्तॄन् भार्यां नात्यचरत् पतिः।। १४५।।
सर्वमासीञ्जगद् दान्तं निर्दस्युरभवन्मही ।
राम एकोऽभवद् भर्त्ता रामः पालयिताभवत्।।१४६।।
आयुर्वर्षसहस्राणि तथा पुत्रसहस्रिणः ।
अरोगाः प्राणिनश्चासन् रामे राज्यं प्रशासति ।।१४७।।
देवतानामृषीणां च मनुष्याणां च सर्वशः ।
पृथिव्यां समवायोऽभूद्रामे राज्यं प्रशासति ।। १४८।।
गाथा अप्यत्र गायन्ति ये पुराणविदो जनाः ।
रामे निबद्धतत्त्वार्था माहात्म्यं तस्य धीमतः ।।१४९।।
श्यामो युवा लोहिताक्षो दीप्तास्यो मितभाषिता ।
आजानुबाहुः सुमुखः सिंहस्कन्धो महाभुजः ।। 1.41.१५०।।
दश वर्षसहस्राणि दश वर्षशतानि च ।
अयोध्याधिपतिर्भूत्वा रामो राज्यमकारयत् ।। १५१।।
ऋक्सामयजुषां घोषो ज्याघोषश्च महात्मनः ।
अव्युच्छिन्नोऽभवद्राज्ये दीयतां भुज्यतामिति ।। १५२।।
सत्त्ववान् गुणसम्पन्नो दीप्यमानः स्वतेजसा ।
अति चन्द्रं च सूर्यं च रामो दाशरथिर्बभौ ।।१५३।।
ईजे क्रतुशतैः पुण्यैः समाप्तवरदक्षिणैः ।
हित्वायोध्यां दिवं यातो राघवः समहाबलः ।।१५४।।
एवमेष महाबाहुरिक्ष्वाकुकुलनन्दनः ।
रावणं सगणं हत्वा दिवमाचक्रमे प्रभुः ।। १५५।।
वैशम्पायन उवाच
अपरः केशवस्यायं प्रादुर्भावो महात्मनः ।
विख्यातो माथुरे कल्पे सर्वलोकहिताय वै ।। १५६।।
यत्र शाल्वं च मैन्दं च द्विविदं कंसमेव च ।
अरिष्टमृषभं केशिं पूतनां दैत्यदारिकाम् ।।१५७।।
नागं कुवलयापीडं चाणूरं मुष्टिकं तथा ।
दैत्यान् मानुषदेहस्थान्सूदयामास वीर्यवान् ।।१५८।।
छिन्नं बाहुसहस्रं च बाणस्याद्भुतकर्मणः ।
नरकश्च हतः संख्ये यवनश्च महाबलः ।।१५९।।।
हृतानि च महीपानां सर्वरत्नानि तेजसा ।
दुराचाराश्च निहताः पार्थिवाश्च महीतले ।।1.41.१६०।।
नवमे द्वापरे विष्णुरष्टाविंशे पुराभवत् ।
वेदव्यासस्तथा जज्ञे जातूकर्ण्यपुरस्सरः ।।१६१।।
एको वेदश्चतुर्धा तु कृतस्तेन महात्मना ।
जनितो भारतो वंशः सत्यवत्याः सुतेन च ।। १६२।।
एते लोकहितार्थाय प्रादुर्भावा महात्मनः ।
अतीताः कथिता राजन्कथ्यन्ते चाप्यनागताः ।। १६३।।
कल्किर्विष्णुयशा नाम शम्भले ग्रामके द्विजः ।
सर्वलोकहितार्थाय भूयश्चोत्पत्स्यते प्रभुः ।। १६४।।
दशमे भाव्यसम्पन्नो याज्ञवल्क्यपुरस्सरः ।
क्षपयित्वा च तान्सर्वान्भाविनार्थेन चोदितान् ।।१६५।।
गङ्गायमुनयोर्मध्ये निष्ठां प्राप्स्यति सानुगः ।
ततः कुले व्यतीते तु सामात्ये सहसैनिके ।।१६६।।
नृपेष्वथ प्रणष्टेषु तदा त्वप्रग्रहाः प्रजाः ।
रक्षणे विनिवृत्ते च हत्वा चान्योन्यमाहवे ।।१६७।।
परस्परहृतस्वाश्च निराक्रन्दाः सुदुःखिताः ।
एवं कष्टमनुप्राप्ताः कलिसंध्यांशके तदा ।
प्रजाः क्षयं प्रयास्यन्ति सार्द्धं कलियुगेन ह ।। १६८।।
क्षीणे कलियुगे तस्मिंस्ततः कृतयुगं पुनः ।
प्रपत्स्यते यथान्यायं स्वभावादेव नान्यथा ।।१६९।।
एते चान्ये च बहवो दिव्या देवगुणैर्युताः ।
प्रादुर्भावाः पुराणेषु गीयन्ते ब्रह्मवादिभिः ।।1.41.१७०।।
यत्र देवाश्च मुह्यन्ति प्रादुर्भावानुकीर्तने ।
पुराणं वर्तते यत्र वेदश्रुतिसमाहितम् ।। १७१।।
एतदुद्देशमात्रेण प्रादुर्भावानुकीर्तनम् ।
कीर्तितं कीर्तनीयस्य सर्वलोकगुरोः प्रभोः ।।१७२।।
प्रीयन्ते पितरस्तस्य प्रादुर्भावानुकीर्तनात् ।
विष्णोरतुलवीर्यस्य यः शृणोति कृताञ्जलिः ।। १७३।।
एतास्तु योगेश्वरयोगमायाः श्रुत्वा नरो मुच्यति सर्वपापैः ।
ऋद्धिं समृद्धिं विपुलांश्च भोगान् प्राप्नोति सर्वं भगवत्प्रसादात् ।। १७४।।
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि प्रादुर्भावानुसंग्रहो नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ।। ४१ ।।
वराहावतारवर्णनम्
मुनय ऊचुः
अहो कृष्णस्य माहात्म्यमद्भुतं चातिमानुषम्।
रामस्य च मुनिश्रेष्ठ त्वयोक्तं भुवि दुर्लभम्।। २१३.१ ।।
न तृप्तिमधिगच्छामः श्रृण्वन्तो भगवत्कथाम्।
तस्माद्ब्रूहि महाभाग भूयो देवस्य चेष्टितम्।। २१३.२ ।।
प्रादुर्भावः पुराणेषु विष्णोरमिततेजसः।
सतां कथयतामेष वराह इति नः श्रुतम्।। २१३.३ ।।
न जानीमोऽस्य चरितं न विधिं च च विस्तरम्।
न कर्मगुणसद्भावं न हेतुत्वमनीषितम्।। २१३.४ ।।
किमात्मको वराहोऽसौ का मूर्तिः का च देवता।
किमाचारप्रभावो वा किंवा तेन तदा कृतम्।। २१३.५ ।।
यज्ञार्थे समवेतानां मिषतां च द्विजन्मनाम्।
महावराहचरितं सर्वलोकसुखावहम्।। २१३.६ ।।
यथा नारायणो ब्रह्मन्वाराहं रूपमास्थितः।
दंष्ट्रया गां समुद्रस्थमुज्जहारारिमर्दनः।। २१३.७ ।।
विस्तरेणैव कर्माणि सर्वाणि रिपुघातिनः।
श्रोतुं नो वर्तते बुद्धिर्हरेः कृष्णस्य धीमतः।। २१३.८ ।।
कर्मणामानुपूर्व्या च प्रादुर्भावाश्च ये विभोः।
या वाऽस्य प्रकृतिर्ब्रह्मंस्ताश्चाऽऽख्यातुं त्वमर्हसि।। २१३.९ ।।
व्यास उवाच
प्रश्नभारो महानेष भविद्भिः समुदाहृतः।
यथाशक्त्या तु वक्ष्यामि श्रुयतां वैष्णवं यशः।। २१३.१० ।।
विष्णोः प्रभावश्रवणे दिष्ट्या वो मतिरुत्थिता।
तस्माद्विष्णोः समस्ता वै शृणुध्वं या प्रवृत्तयः।। २१३.११ ।।
सहस्रास्यं सहस्राक्षं सहस्रचरणं च यम्।
सहस्रशिरसं देवं सहस्रकरमव्ययम्।। २१३.१२ ।।
सहस्रजिह्वं भास्वन्तं सहस्रमुकुटं प्रभुम्।
सहस्रदं सहस्रादिं सहस्रभुजमव्ययम्।। २१३.१३ ।।
हवनं सवनं चैव होतारं हव्यमेव च।
पात्राणि च पवित्राणि वेदिं दीक्षां समित्स्रुवम्।। २१३.१४ ।।
स्रुक्सोमसूर्यमुशलं प्रोक्षणीं दक्षिणायनम्।
अध्वर्युं सामगं विप्रं सदस्यं सदनं सदः।। २१३.१५ ।।
?Bयूपं चक्रं ध्रुवां दर्वीं चरुंश्चोलूखलानि च।
प्राग्वंशं यज्ञभूमीं च होतारं च परं च यत्।। २१३.१६ ।।
हस्वाण्यतिप्रमाणानि स्थावराणि चराणि च।
प्रायश्चित्तानि वाऽर्घ्यं च स्थाण्डिलानि कुशास्तथा।। २१३.१७ ।।
मन्त्रयज्ञवहं वह्निं भागं भागवहं च यत्।
अग्रासिनं सोमभुजं हुतार्चिषमुदायुधम्।। २१३.१८ ।।
आहुर्वेदविदो विप्रा यं यज्ञे शाश्वतं प्रभुम्।
तस्य विष्णो सुरेशस्य श्रीवत्साङ्कस्य धीमतः।। २१३.१९ ।।
प्रादुर्भवसहस्राणि समतीतान्यनेकशः।
भूयश्चैव भविष्यन्ति ह्येवमाह पितामहः।। २१३.२० ।।
यत्पृच्छध्वं महाभागा दिव्यां पुण्यामिमां कथाम्।
प्रादुर्भावाश्रितां विष्णोः सर्वपापहरां शिवाम्।। २१३.२१ ।।
शृणुध्वं तां महाभागास्तद्गतेनान्तरात्मना।
प्रवक्ष्याम्यानुपूर्व्येण यत्पृच्छध्वं ममानघाः।। २१३.२२ ।।
वासुदेवस्य माहात्म्यं चरितं च महामतेः।
हितार्थं सुरमर्त्यानां लोकानां प्रभवाय च।। २१३.२३ ।।
बहुशः सर्वभूतात्मा प्रादुर्भवति वीर्यवान्।
प्रादुर्भावांश्च वक्ष्यामि पुण्यान्दिव्यान्गुणान्वितान्।। २१३.२४ ।।
सुप्तो युगसहस्रं यः प्रादुर्भवति कार्यतः।
पूर्णे युगसहस्रेऽथ देवदेवो जगत्पतिः।। २१३.२५ ।।
ब्रह्म च कपिश्चैव त्र्यम्बकस्त्रिदशास्तथा।
देवाः सप्तर्षयश्चैव नागाश्चाप्सरसस्तथा।। २१३.२६ ।।
सनत्कुमारश्च महानुभावो, मनुर्महात्मा भगवान्प्रजाकरः।
पुराणदेवोऽथ पुराणि चक्रे प्रदीप्तवैश्वानरतुल्यतेजा।। २१३.२७ ।।
योऽसौ चार्णवमध्यस्थो नष्टे स्थावरजङ्गमे।
नष्टे देवासुरनरे प्रनष्टोरगराक्षसे।। २१३.२८ ।।
योद्धुकामौ दुराधर्षौ तावुभौ मधुकेटभौ।
हतौ भगवता तेन तयोर्दत्त्वाऽमितं वरम्।। २१३.२९ ।।
पुरा कमलनाभस्य स्वपतः सागराम्भसि।
पुष्करे तत्र संभूता देवाः सर्षिगणास्तथा।। २१३.३० ।।
एष पौष्करको नाम प्रादुर्भावो महात्मनः।
पुराणं कथ्यते यत्र देवश्रुतिसमाहितम्।। २१३.३१ ।।
वाराहस्तु श्रुतिमुखः प्रादुर्भावो महात्मनः।
यत्र विष्णुः सुरश्रेष्ठो वाराहं रुपमास्थितः।। २१३.३२ ।।
वेदपादो यूपदंष्ट्रः क्रतुदन्तश्चितीमुखः।
अग्निजिह्वो दर्भरोमा ब्रह्मशीर्षो महातपाः।। २१३.३३ ।।
अहोरात्रेक्षणो दिव्यो वेदाङ्गः श्रुतिभूषणः।
आज्यनासः स्रुवतुण्डः सामघोषस्वरो महान्।। २१३.३४ ।।
सत्यधर्ममयः श्रीमान्क्रमविक्रमसत्कृतः।
प्रायश्चित्तनखौ मन्त्रस्फिग्विकृतः सोमशोणितः।। २१३.३५ ।।
उद्गातान्त्रो होमलिङ्गो बीजौषधिमहाफलः।
वाद्यान्तरात्मा मन्त्रस्फिग्विकृतः सोमशोणितः।। २१३.३६ ।।
वेदिस्कन्धो हविर्गन्धो हव्यकव्यातिवेगवान्।
प्राग्वंशकायो द्युतिमान्नानादीक्षाभिरन्वितः।। २१३.३७ ।।
दक्षिणाहृदयो योगी महासत्रमयो महान्।
उपाकर्माष्टरुचकः प्रवर्गावर्तभूषणः।। २१३.३८ ।।
नानाच्छन्दोगतिपथो गृह्योपनिषदासनः।
छायापत्नीसहायोऽसौ मणिश्रृङ्ग इवोत्थितः।। २१३.३९ ।।
महीं सागरपर्यन्तां सशैलवनकाननाम्।
एकार्णवजलभ्रण्टामेकार्णवगतः प्रभुः।। २१३.४० ।।
दंष्ट्रया यः समुद्धृत्य लोकानां हितकाम्यया।
सहस्रशीर्षो लोकादिश्चकार जगतीं पुनः।। २१३.४१ ।।
एवं यज्ञवराहेण भूत्वा भूतहितार्थिना।
उद्धृता पृथिवी देवी सागराम्बुधरा पुरा।। २१३.४२ ।।
वाराह एष कथितो नारसिंहस्ततो द्विजाः।
यत्र भूत्वा मृगन्द्रेण हिरण्यकशिपुर्हतः।। २१३.४३ ।।
पुरा कृतयुगे नाम सुरारिर्बलर्पितः।
दैत्यानामादिपुरुषश्चकार सुमहत्तपः।। २१३.४४ ।।
दश वर्षसहस्राणि शतानि दश पञ्च च।
जपोपवासनिरतस्तस्थौ मौनव्रतस्थितः।। २१३.४५ ।।
ततः शमदमाभ्यां च ब्रह्मचर्येण चैव हि।
प्रीतोऽभवत्ततस्तस्य तपसा नियमेन च।। २१३.४६ ।।
तं वै स्वयंभूर्भगवान्स्वयमागम्य भो द्विजाः।
विमानेनार्कवर्णेन हंसयुक्तेन भास्वता।। २१३.४७ ।।
आदित्यैर्वसुभिः सार्धं मरुद्भिर्दैवतैस्तथा।
रुद्रैर्विश्वसहायैश्च यक्षराक्षसकिंनरैः।। २१३.४८ ।।
दिशाभिः प्रदिशाभिश्च नदीभिः सागरैस्तथा।
नक्षत्रैश्च मुहूर्तैश्च खेचरैश्च महाग्रहैः।। २१३.४९ ।।
देवर्षिभिस्तपोवृद्धैः सिद्धैर्विद्वद्भिरेव च।
राजर्षिभिः पुण्यतमैर्गन्धर्वैरप्सरोगणैः।। २१३.५० ।।
चराचरगुरुः श्रीमान्वृतः सर्वैः सुरैस्तथा।
ब्रह्मा ब्रह्मविदां श्रेष्ठो दैत्यं वचनमब्रवीत्।। २१३.५१ ।।
ब्रह्मोवाच
प्रीतोऽस्मि तव भक्तस्य तपसाऽनेन सुव्रत।
वरं वरय भद्रं ते यथेष्टं काममाष्नुहि।। २१३.५२ ।।
हिरण्यकशिपुरुवाच
न देवासुरगन्धर्वा न यक्षोरगराक्षसाः।
ऋषयो वाऽथ मां शापैः क्रुद्धा लोकपितामह।। २१३.५३ ।।
शपेयुस्तपसा युक्ता शर एष वृतो मया।
न शस्त्रेण न वाऽस्त्रेण गिरिणा पादपेन वा।। २१३.५४ ।।
न शुष्केण न चाऽऽर्द्रेण न चैवोर्ध्वं न चाप्यधः।
पाणिप्रहारेणैकेन सभृत्यबलवाहनम्।। २१३.५५ ।।
यो मां नाशयितुं शक्तः स मे मृत्युर्भविष्यति।
भवेयमहमेवार्कः सोमो वायुर्हुताशनः।। २१३.५६ ।।
सलिलं चान्तरिक्षं च आकाशं चैव सर्वशः।
अहं क्रोधश्च कामश्च वरुणो वासवो यमः।।
धनदश्च धनाध्यक्षो यक्षः किंपुरुषाधिपः।। २१३.५७ ।।
ब्रह्मोवाच
एते दिव्या शरास्तात मया दत्तास्तवाद्भुताः।
सर्वान्कामानिमांस्तात प्राप्स्यसि त्वं न संशयः।। २१३.५८ ।।
व्यास उवाच
एवमुक्त्वा तु भगवाञ्जगामाऽऽशु पितामहः।
वैराजं ब्रह्मसदनं ब्रह्मर्षिगणसेवितम्।। २१३.५९ ।।
अतो देवाश्च नागाश्च गन्धर्वा मुनयस्तथा।
वरप्रदानं श्रुत्वैव पितामहमुपस्थिताः।। २१३.६० ।।
देवा ऊचुः
वरेणानेन भगवन्बाधिष्यति स नोऽसुरः।
तत्प्रसीदाऽऽशु भगवन्वधोऽप्यस्य विचिन्त्यताम्।। २१३.६१ ।।
भगवन्सर्वभूतानां स्वयंभूरादिकृत्प्रभुः।
स्रष्टा च हव्यकव्यानामव्यक्तं प्रकृतिर्ध्रुवम्।। २१३.६२ ।।
व्यास उवाच
ततो लोकहितं वाक्यं श्रुत्वा देवः प्रजापितः।
प्रोवाच भगवान्वाक्यं सर्वदेवगणांस्तथा।। २१३.६३ ।।
ब्रह्मोवाच
अवश्यं त्रिदशास्तेन प्राप्तव्यं तपसः फलम्।
तपसोऽन्ते च भगवान्वधं विष्णुः करिष्यति।। २१३.६४ ।।
व्यास उवाच
एतछ्रुत्वा सुराः सर्वे वाक्यं पङ्कजजन्मनः।
स्वानि स्थानानि दिव्यानि जग्मुस्ते वै मुदान्विताः।। २१३.६५ ।।
लब्धमत्रे वरे चापि सर्वाः सोऽबाधत प्रजाः।
हिरण्यकशिपुर्दैत्यो वरदानेन दर्पितः।। २१३.६६ ।।
आश्रमेषु महाभागान्मुनीन्वै संशितव्रतान्।
सत्यधर्मरतान्दान्तांस्तदा धर्षितवांस्तथा।। २१३.६७ ।।
त्रिदिवस्थांस्तथा देवान्पराजित्य महाबलः।
त्रैलोक्यं वशमानीय स्वर्गे वसति सोऽसुरः।। २१३.६८ ।।
यदा वरमदोन्मत्तो विचरन्दानवो भुवि।
यज्ञीयानकरोद्दैत्यानयज्ञीयाश्च देवताः।। २१३.६९ ।।
आदित्या वसवः साध्या विश्वे च मरुतस्तथा।
शरण्यं विष्णुमुपतस्थुर्महाबलम्।। २१३.७० ।।
देवब्रह्मयं यज्ञं ब्रह्मदेवं सनातनम्।
भूतं भव्यं भविष्यं च प्रभुं लोकनमस्कृतम्।।
नारायणं विभुं देवं शरण्यं शरणं गताः।। २१३.७१ ।।
देवा ऊचुः
त्रायस्व नोऽद्य देवेश हिरण्यकशिपोर्भयात्।
त्वं हि नः परमो देवस्त्वं हि नः परमो गुरुः।। २१३.७२ ।।
त्वं हि नः परमो धाता ब्रह्मादीनां सुरोत्तम।
उत्फुल्लामलपत्राक्ष शत्रुपक्षक्षयंकर।।
क्षयाय दितिवंशस्य शरणं त्वं भवस्व नः।। २१३.७३ ।।
वासुदेव उवाच
भयं त्यजध्वममरा अभयं वो ददाम्यहम्।
तथैव त्रिदिवं देवाः प्रतिलप्स्यथ मा चिरम्।। २१३.७४ ।।
एषोऽहं सगणं दैत्यं वरदानेन दर्पितम्।
अवध्यममरेन्द्राणां दानवेन्द्रं निहन्मि तम्।। २१३.७५ ।।
व्यास उवाच
एवमुक्त्वा तु भगवान्विसृज्य त्रिदशेश्वरान्।
हिरण्यकशिपोः स्थानमाजगाम महाबलः।। २१३.७६ ।।
नरस्यार्धतनुं कृत्वा सिंहस्यार्धतनुं प्रभुः।
नारसिंहेन वपुषा पाणिं संस्पृश्य पाणिना।। २१३.७७ ।।
घनजीमूतसंकाशो घनजीमूतनिस्वनः।
घनजीमूतदीप्तौजा जीमूत इव वेगवान्।। २१३.७८ ।।
दैत्यं सोऽतिबलं दृष्ट्वा दृप्तशार्दूलविक्रमः।
दृप्तैर्दैत्यगणैर्गुप्तं हतवानेकपाणिना।। २१३.७९ ।।
नृसिंह एष कथितो भूयोऽयं वामनः परः।
यत्र वामनमास्थाय रूपं दैत्यविनाशनम्।। २१३.८० ।।
बलेर्बलवतो यज्ञे बलिना विष्णुना पुरा।
विक्रमैस्त्रिभिरक्षोभ्याः क्षोभितास्ते महासुराः।। २१३.८१ ।।
विप्रचित्तिः शिवः शङ्कुरयःशङ्कुस्तथैव च।
अयः शिरा अश्वशिरा हयग्रीवश्च वीर्यवान्।। २१३.८२ ।।
वेगवान्केतुमानुग्रः सोग्रव्यग्रो महासुरः।
पुष्करः पुष्कलश्चैव शा(सा)श्वोऽश्वपतिरेव च।। २१३.८३ ।।
प्रह्लादोऽश्वपतिः कुम्भः संह्रादो गमनप्रियः।
अनुह्रादो हरिहयो वाराहः संहरोऽनुजः।। २१३.८४ ।।
शरभः शलभश्चैव कुपथः क्रोधनः क्रथः।
बृहत्कीर्तिर्महाजिह्वः शङ्कुकर्णो महास्वनः।। २१३.८५ ।।
दीप्तजिह्वोऽर्कनयनो मृगपादो मृगप्रियः।
वायुर्गरिष्ठो नमुचिः सम्बरो विस्करो महान्।। २१३.८६ ।।
चन्द्रहन्ता क्रोधहन्ता क्रोधवर्धन एव च।
कालकः कालकोपश्च वृत्रः क्रोधो विरोचनः।। २१३.८७ ।।
गरिष्ठश्च वरिष्ठश्च प्रलम्बनरकावुभौ।
इन्द्रतापनवातापी केतुमान्बलदर्पितः।। २१३.८८ ।।
असिलोमा पुलोमा च बाष्कलः प्रमदो मदः।
स्वमिश्रः कालवदनः करालः केशिरेव च।। २१३.८९ ।।
एकाक्षश्चन्द्रमा राहुः संह्रादः सम्बरः स्वनः।
शतघ्नीचक्रहस्ताश्च तथा मुशलपाणयः।। २१३.९० ।।
अश्वयन्त्रायुधोपेता भिन्दिपालायुधास्तथा।
शूलोलूखलहस्ताश्च परश्वधधरास्तथा।। २१३.९१ ।।
पाशमुद्गरहस्ताश्च तथा परिघपाणयः।
महाशिलाप्रहरणाः शूलहस्ताश्च दानवाः।। २१३.९२ ।।
नानाप्रहरणा घोरा नानावेशा महाबलाः।
कूर्मकुक्कुटवक्त्राश्च शशोलूकमुखास्तथा।। २१३.९३ ।।
खरोष्ट्रवदनाश्चैव वराहवदनास्तथा।
मार्जारशिखिवक्त्राश्च महावक्त्रास्तथा परे।। २१३.९४ ।।
नक्रमेषाननाः शूरा गोजाविमहिषाननाः गोधाशल्लकिवक्त्राश्च क्रोष्टुवक्त्राश्च दानवाः।। २१३.९५ ।।
आखुदर्दुरवक्त्राश्च घोरा वृकमुखास्तथा।
भींमा मकरवक्त्राश्च क्रोष्टुवक्त्राश्च दानवाः।। २१३.९६ ।।
अश्वाननाः खरमुखा मयूरवदनास्तथा।
गजेन्द्रचर्मवसनास्तथा कृष्णाजिनाम्बराः।। २१३.९७ ।।
चीरसंवृतगात्राश्च तथा नीलकवाससः।
उष्णीषिणो मुकुटिनस्तथा कुण्डलिनोऽसुराः।। २१३.९८ ।।
किरीटिनो लम्बशिखाः कम्बुग्रीवाः सुवर्चसः।
नानावेशधरा दैत्या नानामाल्यानुलेपनाः।। २१३.९९ ।।
स्वान्यायुधानि संगृह्य प्रदीप्तानि च तेजसा।
क्रममाणं हृषीकेशमुपावर्तन्त सर्वशः।। २१३.१०० ।।
प्रमथ्य सर्वान्दैतेयान्पादहस्ततलैर्विभुः।
रूपं कृत्वा महाभीमं जहाराऽऽशु स मेदिनीम्।। २१३.१०१ ।।
तस्य विक्रमतो भूमिं चन्द्रादित्यौ स्तनान्तरे।
नभः प्रक्रममाणस्य नाभ्यां किल तथा स्थितौ।। २१३.१०२ ।।
परमाक्रममाणस्य जानुदेशे व्यवस्थितौ।
विष्णोरमितवीर्यस्य वदन्त्येवं द्विजातयः।। २१३.१०३ ।।
हृत्वा स मेदिनीं कृत्स्नां हत्वा चासुरपुंगवान्।
ददौ शक्राय वसुधां विष्णुर्बलवतां वरः।। २१३.१०४ ।।
एष वो वामनो नाम प्रादुर्भावो महात्मनः।
वेदविद्भिर्द्विजैरेतत्कथ्यते वैष्णवं यशः।। २१३.१०५ ।।
भूयो भूतात्मनो विष्णोः प्रादुर्भावो महात्मनः।।
दत्तात्रेय इति ख्यातः क्षमया परया युतः।। २१३.१०६ ।।
तेन नष्टेषु वेदेषु प्रक्रियासु मखेषु च।
चातुर्वर्ण्ये च संकीर्णे धर्मे शिथिलतां गते।। २१३.१०७ ।।
अतिवर्धति चाधर्मे सत्ये नष्टेऽनृते स्तिते।
प्रजासु शीर्यमाणासु धर्मे चाऽऽकुलतां गते।। २१३.१०८ ।।
सयज्ञाः सक्रिया वेदाः प्रत्यानीता हि तेन वै।
चातुर्वर्ण्यमसंकीर्णं कृतं तेन महात्मना।। २१३.१०९ ।।
तेन हैहयराजस्य कार्तवीर्यस्य धीमतः।
वरदेन वरो दत्तो दत्तात्रेयेण धीमता।। २१३.११० ।।
एतद्बाहुद्वयं यत्ते तत्ते मम कृते नृप।
शतानि दश बाहूनां भविष्यन्ति न संशयः।। २१३.१११ ।।
पालयिष्यसि कृत्स्नां च वसुधां वसुधेश्वर।
दुर्निरीक्ष्योऽरिवृन्दानां युद्धस्थश्च भविष्यसि।। २१३.११२ ।।
एष वो वैष्णवः श्रीमान्प्रादुर्भावोऽद्भुतः शुभः।
भूयश्च जामदग्न्योऽयं प्रादुर्भावो महात्मनः।। २१३.११३ ।।
यत्र बाहुसहस्रेण द्विषतां दुर्जयं रणे।
रामोऽर्जुनमनीकस्थं जघान नृपतिं प्रभुः।। २१३.११४ ।।
रथस्थं पार्थिवं रामः पातयित्वाऽर्जुनं भुवि।
धर्षयित्वाऽर्जुनं रामः क्रोशमानं च मेघवत्।। २१३.११५ ।।
कृत्स्नं बाहुसहस्रं च चिच्छेद भृगुनन्दनः।
परश्वधेव दीप्तेन ज्ञातिभिः सहितस्य वै।। २१३.११६ ।।
कीर्णा क्षत्रियकटीभिर्मेरुमन्दरभूषणा।
त्रिः सप्तकृत्वः पृथिवी तेन निःक्षत्रिय कृता।। २१३.११७ ।।
कृत्वा निःक्षत्रियां चैनां भार्गवः सुमहायशाः।
सर्वपापविनाशाय वाजिमेधेन चेष्टवान्।। २१३.११८ ।।
यस्मिन्यज्ञे महादाने दक्षिणां भृगुनन्दनः।
मारीचाय ददौ प्रीतः कश्यपाय वसुंधराम्।। २१३.११९ ।।
वारणांस्तुरगाञ्शुभ्रान्रथांश्च रथिनां वरः।
हिरण्यमक्षयं धेनुर्गजेन्द्रांश्च महीपतिः। २१३.१२० ।।
ददौ तस्मिन्महायज्ञे वाजिमेधे महायशाः।
अद्यापि च हितार्थाय लोकानां भृगुनन्दनः।। २१३.१२१ ।।
चरमाणस्तपो घोरं जामदग्न्यः पुनः प्रभुः।
आस्ते वै देववच्छ्रीमान्महेन्द्रे पर्वतोत्तमे।। २१३.१२२ ।।
एष विष्णोः सुरेशस्य शाश्वतस्याव्ययस्य च।
जामदग्न्य इति ख्यातः प्रादुर्भावो महात्मनः।। २१३.१२३ ।।
चतुर्विंशे युगे वाऽपि विश्वामित्रपुरःसरः।
जज्ञे दशरथस्याथ पुत्रः पद्मयतेक्षणः।। २१३.१२४ ।।
कृत्वाऽत्मानं महाबाहुश्चतुर्धा प्रभुरीश्वरः।
लोके राम इति ख्यातस्तेजसा भास्करोपमः।। २१३.१२५ ।।
प्रसादनार्थं लोकस्य रक्षसां निग्रहाय च।
धर्मस्य च विवृद्ध्यर्थं जज्ञे तत्र महयशाः।। २१३.१२६ ।।
तमप्याहुर्मनुष्येन्द्रं सर्वभूतहिते रतम्।
यः समाः सर्वधर्मज्ञश्चतुर्दश वनेऽवसत्।। २१३.१२७ ।।
लक्ष्मणानुचरो रामः सर्वभूतहिते रतः।
चतुर्दश वने तप्त्वा तपो वर्षणि राघवः।। २१३.१२८ ।।
रूपिणी तस्य पार्श्वस्था सीतेति प्रथिता जने।
पूर्वोदिता तु या लक्ष्मीर्भर्तारमनुगच्छति।। २१३.१२९ ।।
जनस्थाने वसन्कार्यं त्रिदशानां चकार सः।
तस्यापकारिणं क्रूरं पौलस्त्यं मनुजर्षभः।। २१३.१३० ।।
सीतायाः पदमन्विच्छन्निजघान महायशाः।
देवासुरगणानां च यक्षराक्षसभोगिनाम्।। २१३.१३१ ।।
यत्रावध्यं राक्षसेन्द्रं रावणं युधि दुर्जयम्।
युक्तं राक्षसकोटीभिर्नीलाञ्जनचयोपमम्।। २१३.१३२ ।।
त्रैलाक्यद्रावणं क्रूरं रावणं राक्षसेश्वरम्।
दुर्जयं दुर्धरं दृप्तं शार्दूलसमविक्रमम्।। २१३.१३३ ।।
दुर्निरीक्ष्यं सुरगणैर्वरदानेन दर्पितम्।
जघान सचिवैः सार्धं ससैन्यं रावणं युधि।। २१३.१३४ ।।
महाभ्रगणसंकाशं महाकायं महाबलम्।
रावणं निजघानाऽऽशु रामो भूतपतिः पुरा।। २१३.१३५ ।।
सुग्रीवस्य कृते येन वानरेन्द्रो महाबलः।
वाली विनिहतः संख्ये सुग्रीवश्चाभिषेचितः।। २१३.१३६ ।।
मधोश्च तनयो दृप्तो लवणो नाम दानवः।
हतो मधुवने वीरो वरमत्तो महासुरः।। २१३.१३७ ।।
यज्ञविघ्नकरौ येन मुनीनां भावितात्मनाम्।
मारीचश्च सुबाहुश्च बलेन बलिनां वरौ।। २१३.१३८ ।।
निहतौ च निराशौ च कृतौ तेन महात्मना।
समरे युद्धशौण्डेन तथाऽन्ये चापि राक्षसाः।। २१३.१३९ ।।
विराधश्च कबन्धश्च राक्षसौ भीमविक्रमौ।
जघान पुरुषव्याघ्रो गन्धवौ शापमोहितौ।। २१३.१४० ।।
हुताशनार्कांशुतडिद्गुणाभैः प्रतप्तजाम्बूनदचित्रपुङ्खैः।
महेन्द्रवज्राशनितुल्यसारै रिपून्स रामः समरे निजघ्ने।। २१३.१४१ ।।
तस्मै दत्तानि शस्त्राणि विश्वामित्रेण धीमता।
वधार्थं देवशत्रूणां दुर्धर्षाणां सुरैरपि।। २१३.१४२ ।।
वर्तमाने मखे येन जनकस्य महात्मनः।
भग्नं माहेश्वरं चापं क्रीडता लीलया पुरा।। २१३.१४३ ।।
एतानि कृत्वा कर्माणि रामो धर्मभृतां वरः।
दशाश्वमेधाञ्जारूथ्यानाजहार निर्गलान्।। २१३.१४४ ।।
नाश्रूयन्ताशुभा वाचो नाऽऽकुलं मारुतो ववौ।
न वित्तहरणं चाऽऽसीद्रामे राज्यं प्रशासति।। २१३.१४५ ।।
परिदेवन्ति विधवा नानर्थाश्च कदाचन।
सर्वमासीच्छुभं तत्र रामे राज्यं प्रशासति।। २१३.१४६ ।।
न प्राणिनां भयंम चाऽऽसीज्जलाग्न्यनिलघातजम्।
न चापि वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि चक्रिरे।। २१३.१४७ ।।
ब्रह्मचर्यपरं क्षत्रं विशस्तु क्षत्रिये रताः।
शूद्राश्चैव हि वर्णास्त्रीञ्शुश्रूषन्त्यनहंकृताः।। २१३.१४८ ।।
नार्यो नात्यचरन्भर्तॄन्भार्यां नात्यचरत्पतिः।
सर्वमासीज्जगद्दान्तं निर्दस्युरभवन्मही।। २१३.१४९ ।।
राम एकोऽभवद्भर्ता रामः पालयिताऽभवत्।
आसन्वर्षसहस्राणि तथा पुत्रसहस्रिणः।। २१३.१५० ।।
अरोगाः प्राणिनश्चाऽऽसन्रामे राज्यं प्रशासति।
देवतानामृषीणां च मनुष्याणां च सर्वशः।। २१३.१५१ ।।
पृथिव्यां समवायोऽभूद्रामे राज्यं प्रशासति।
गाथामप्यत्र गायन्ति ये पुराणविदो जनाः।। २१३.१५२ ।।
रामे निबद्धतत्त्वार्था माहात्म्यं तस्य धीमतः।
श्यामो युवा लोहिताक्षो दीप्तास्यो मितभाषितः।। २१३.१५३ ।।
आजानुबाहुः सुमुखः सिंहस्कन्धो महाभुजः
दश वर्षसहस्राणि रामो राज्यमकारयत्।। २१३.१५४ ।।
ऋक्सामयजुषां घोषो ज्याघोषश्च महात्मनः।
अव्युच्छिन्नोऽभवद्राष्ट्रे दीयतां भुज्यतामिति।। २१३.१५५ ।।
सत्त्ववान्गुणसंपन्नो दीप्यमानः स्वतेजसा।
अतिचन्द्रं च सूर्यं च रामो दाशरथिर्बभौ।। २१३.१५६ ।।
ईजे क्रतुशतैः पुण्यैः समाप्तवरदक्षिणैः।
हित्वाऽयोध्यां दिवं यातो राघवो हि महाबलः।। २१३.१५७ ।।
एवमेव महाबाहुरिक्ष्वाकुकुलनन्दनः।
रावणं सगणं हत्वा दिवमाक्रमे विभुः।। २१३.१५८ ।।
अपरः केशवस्यायं प्रादुर्भावो महात्मनः।
विख्यातो माथुरे कल्पे सर्वलोकहिताय वै।। २१३.१५९ ।।
यत्र शाल्वं च चैद्यं च कंसं द्विविदमेव च।
अरिष्टं वृषभं केशिं पूतनां दैत्यदारिकाम्।। २१३.१६० ।।
नागं कुवलयापीडं चाणूरं मुष्टिकं तथा।
दैत्यान्मानुषदेहेन सूदयामास वीर्यवान्।। २१३.१६१ ।।
छिन्नं बाहुसहस्रं च बाणस्याद्भुतकर्मणः।
नरकश्च हतः संख्ये यवनश्च महाबलः।। २१३.१६२ ।।
हृतानि च महीपानां सर्वरत्नानि तेजसा।
दुराचाराश्च निहिताः पार्थिवा ये महीतले।। २१३.१६३ ।।
एष लोकहितार्थाय प्रदुर्भावो महात्मनः।
कल्की विष्णुयशा नाम शम्भलग्रामसंभवः।। २१३.१६४ ।।
सर्वलोकहितार्थाय भूयो देवो महायशाः।
एते चान्ये च बहवो दित्या देवगणैर्वृतः।। २१३.१६५ ।।
प्रादुर्भावः पुराणेषु गीयन्ते ब्रह्मवादिभिः।
यत्र देवा विमुह्यन्ति प्रादुर्भावानुकीर्तने।। २१३.१६६ ।।
पुराणं वर्तते यत्र वेदश्रुतिसमाहितम्।
एतदुद्देशमात्रेण प्रादुर्भावानुकीर्तनम्।। २१३.१६७ ।।
कीर्तितं कीर्तनीयस्य सर्वलोकगुरोर्विभोः।
पीयन्ते पितरस्तस्य प्रादुर्भावानुकीर्तनात्।। २१३.१६८ ।।
विष्णोरमितवीर्यस्य यः श्रृणोति कृताञ्जलिः।। २१३.१६९ ।।
एताश्च योगेश्वरयोगमायाः श्रुत्वा नरो मुच्यति सर्वपापैः।
ऋद्धिं समृद्धिं विपुलांश्च भोगान्प्राप्नोति शीघ्रं भगवत्प्रसादात्।। २१३.१७० ।।
एवं मया मुनिश्रेष्ठा विष्णोरमिततेजसः।
सर्वपापहराः पुण्याः प्रादुर्भावाः प्रकीर्तिताः।। २१३.१७१ ।।
इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे विष्णोः प्रादुर्भावानुकीर्तनं नाम त्रयोदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। २१३ ।।
सूत उवाच ।
त्रिधन्वा राजपुत्रस्तु धर्मेणापालयन्महीम् ।
तस्य पुत्रोऽभवद् विद्वांस्त्रय्यारुण इति स्मृतः ।। २१.१
तस्य सत्यव्रतो नाम कुमारोऽभून्महाबलः ।
भार्या सत्यधना नाम हरिश्चन्द्रमजीजनत् ।। २१.२
हरिश्चन्द्रस्य पुत्रोऽभूद् रोहितो नाम वीर्यवान् ।
रोहितस्य वृकः पुत्रः तस्मात्बाहुरजायत।।२१.३
हरितो रोहितस्याथ धुन्धुस्तस्य सुतोऽभवत् ।
विजयश्च सुदेवश्च धुन्धुपुत्रौ बभूवतुः ।
विजयस्याभवत् पुत्रः कारुको नाम वीर्यवान् ।
सगरस्तस्य पुत्रौऽभूद् राजा परमधार्मिकः ।
द्वे भार्ये सगरस्यापि प्रभा भानुमती तथा ।२१.४
ताभ्यामाराधितः वह्निः प्रादादौ वरमुत्तमम् ।
एकं भानुमती पुत्रमगृह्णादसमञ्जसम् ।२१.५
प्रभा षष्टिसहस्त्रं तु पुत्राणां जगृहे शुभा ।
असमञ्सस्य तनयो ह्यंशुमान् नाम पार्थिवः ।२१.६
तस्य पुत्रो दिलीपस्तु दिलीपात् तु भगीरथः ।
येन भागीरथी गङ्गा तपः कृत्वाऽवतारिता ।२१.७
प्रसादाद् देवदेवस्य महादेवस्य धीमतः ।
भगीरथस्य तपसा देवः प्रीतमना हरः ।२१.८
बभार शिरसा गङ्गां सोमान्ते सोमभूषणः ।
भगीरथसुतश्चापि श्रुतो नाम बभूव ह ।२१.९
नाभागस्तस्य दायादः सिन्धुद्वीपस्ततोऽभवत् ।
अयुतायुः सुतस्तस्य ऋतुपर्णस्तु तत्सुतः ।२१.१०
ऋतुपर्णस्य पुत्रोऽभूत् सुदासो नाम धार्मिकाः ।
सौदासस्तस्य तनयः ख्यातः कल्माषपादकः ।। २१.११
वसिष्ठस्तु महातेजाः क्षेत्रे कल्माषपादके ।
अश्मकं जनयामसा तमिक्ष्वाकुकुलध्वजम् ।। २१.१२
अश्मकस्योत्कलायां तु नकुलो नाम पार्थिवः ।
स हि रामभयाद् राजा वनं प्राप सुदुः खितः ।। २१.१३
विभ्रत् स नारीकवचं तस्माच्छतरथोऽभवत् ।
तस्माद् बिलिबिलिः श्रीमान्वृद्धशर्माचतत्सुतः ।। २१.१४
तस्माद् विश्वसहस्तस्मात् खट्वाङ्ग इति विश्रुतः ।
दीर्घबाहुः सुतस्तस्य रघुस्तस्मादजायत ।। २१.१५
रघोरजः समुत्पन्नो राजा दशरथस्ततः ।
रामो दाशरथिर्वोरो धर्मज्ञो लोकविश्रुतः ।। २१.१६
भरतो लक्ष्मणश्चैव शत्रुघ्नश्च महाबलः ।
सर्वे शक्रसमा युद्धे विष्णुशक्तिसमन्विताः ।२१.१७
जज्ञे रावणनाशार्थं विष्णुरंशेन विश्वकृत् ।
रामस्य सुभगा भार्या जनकस्यात्मजा शुभा ।२१.१८
सीता त्रिलोकविख्याता शीलौदार्यगुणान्विता ।
तपसा तोषिता देवी जनकेन गिरीन्द्रजा ।२१.१९
प्रायच्छज्जानकीं सीतां राममेवाश्रितां पतिम् ।
प्रीतश्च भगवानीशस्त्रिशूली नीललोहितः ।२१.२०
प्रददौ शत्रुनाशार्थं जनकायाद्भुतं धनुः ।।
स राजा जनको विद्वान् दातुकामः सुतामिमाम् ।२१.२१
अघोषयदमित्रघ्नो लोकेऽस्मिन् द्विजपुंगवाः ।
इदं धनुः समादातुं यः शक्नोति जगत्त्रये ।२१.२२
देवो वा दानवो वाऽपि स सीतां लब्धुमर्हति ।
विज्ञाय रामो बलवान् जनकस्य गृहं प्रभुः ।२१.२३
भञ्जयामास चादाय गत्वाऽसौ लीलयैव हि ।
उद्ववाह च तां कन्यां पार्वतीमिव शंकरः ।२१.२४
रामः परमधर्मात्मा सेनामिव च षण्मुखः ।
ततो बहुतिथे काले राजा दशरथः स्वयम् ।२१.२५
रामं ज्येष्ठं सुतं वीरं राजानं कर्तुमारभत् ।
तस्याथ पत्नी सुभगा कैकेयी चारुभाषिणी ।२१.२६
निवारयामास पतिं प्राह संभ्रान्तमानसा ।
मत्सुतं भरतं वीरं राजानं कर्त्तुमर्हसि ।२१.२७
पूर्वमेव वरो यस्माद् दत्तो मे भवता यतः ।
स तस्या वचनं श्रुत्वा राजा दुःखितमानसः ।२१.२८
बाढमित्यब्रवीद् वाक्यं तथा रामोऽपि धर्मवित् ।
प्रणम्याथ पितुः पादौ लक्ष्मणेन सहाच्युतः ।२१.२९
ययौ वनं सपत्नीकः कृत्वा समयमात्मवान् ।
संवत्सराणां चत्वारि दश चैव महाबलः ।२१.३०
उवास तत्र मतिमान् लक्ष्मणेन सह प्रभुः ।
कदाचिद् वसतोऽरण्ये रावणो नाम राक्षसः ।२१.३१
परिव्राजकवेषेण सीतां हृत्वा ययौ पुरीम् ।।
अदृष्ट्वा लक्ष्मणो रामः सीतामाकुलितेन्द्रियौ ।२१.३२
दुः खशोकाभिसंतप्तौ बभूवतुररिंदमौ ।
ततः कदाचित् कपिना सुग्रीवेण द्विजोत्तमाः ।२१.३३
वानराणामभूत् सख्यं रामस्याक्लिष्टकर्मणः ।।
सुग्रीवस्यानुगो वीरो हनुमान्नाम वानरः ।२१.३४
वायुपुत्रौ महातेजा रामस्यासीत् प्रियः सदा ।
स कृत्वा परमं धैर्यं रामाय कृतनिश्चयः ।२१.३५
आनयिष्यामि तां सीतामित्युक्त्वा विचचार ह ।
महीं सागरपर्यन्तां सीतादर्शनतत्परः ।२१.३६
जगाम रावणपुरीं लङ्कां सागरसंस्थिताम् ।
तत्राथ निर्जने देशे वृक्ष्मूले शुचिस्मिताम् ।२१.३७
अपश्यदमलां सीतां राक्षसीभिः समावृताम् ।
अश्रुपूर्णेक्षणां हृद्यां संस्मरन्तीमनिन्दिताम् ।२१.३८
राममिन्दीवरश्यामं लक्ष्मणं चात्मसंस्थितम् ।
निवेदयित्वा चात्मानं सीतायै रहसि स्वयम् ।२१.३९
असंशयाय प्रददावस्यै रामाङ्गुलीयकम् ।
दृष्ट्वाऽङ्गुलीयकं सीता पत्युः परमशोभनम् ।२१.४०
मेने समागतं रामं प्रीतिविस्फारितेक्षणा ।
समाश्वास्य तदा सीतां दृष्ट्वा रामस्य चान्तिकम् ।२१.४१
नयिष्ये त्वां महाबाहुरुक्त्वा रामं ययौ पुनः ।
निवेदयित्वा रामाय सीतादर्शनमात्मवान् ।२१.४२
तस्थौ रामेण पुरतो लक्ष्मणेन च पूजितः ।
ततः स रामो बलवान् सार्द्धं हनुमता स्वयम् ।२१.४३
लक्ष्मणेन च युद्धाय बुद्धिं चक्रे हि रक्षसाम् ।
कृत्वाऽथ वानरशतैर्लङ्कामार्गं महोदधेः ।२१.४४
सेतुं परमधर्मात्मा रावणं हतवान् प्रभुः ।
सपत्नीकं च ससुतं सभ्रातृकमरिन्दमः ।२१.४५
आनयामास तां सीतां वायुपुत्रसहायवान् ।
सेतुमध्ये महादेवमीशानं कृत्तिवाससम् ।२१.४६
स्थापयामास लिङ्गस्थं पूजयामास राघवः ।
तस्य देवो महादेवः पार्वत्या सह शंकरः ।२१.४७
प्रत्यक्षमेव भगवान् दत्तवान् वरमुत्तमम् ।
यत् त्वया स्थापितं लिङ्गं द्रक्ष्यन्तीह द्विजातयः ।२१.४८
महापातकसंयुक्तास्तेषां पापं विनंक्ष्यति ।
अन्यानि चैव पापानि स्नातस्यात्र महोदधौ ।२१.४९
दर्शनादेव लिङ्गस्य नाशं यान्ति न संशयः ।
यावत् स्थास्यन्ति गिरयो यावदेषा च मेदिनी ।२१.५०
यावत् सेतुश्च तावच्च स्थास्याम्यत्र तिरोहितः ।
स्नानं दानं जपः श्राद्धं भविष्यत्यक्षयं महत् ।२१.५१
स्मरणादेव लिङ्गस्य दिनपापं प्रणश्यति ।
इत्युक्त्वा भगवाञ्छंभुः परिष्वज्य तु राघवम् ।२१.५२
सनन्दी सगणो रुद्रस्तत्रैवान्तरधीयत ।
रामोऽपि पालयामास राज्यं धर्मपरायणः ।२१.५३
अभिषिक्तो महातेजा भरतेन महाबलः ।
विशेषाढ् ब्राह्मणान् सर्वान् पूजयामसचेश्वरम् ।२१.५४
यज्ञेन यज्ञहन्तारमश्वमेधेन शंकरम् ।
रामस्य तनयो जज्ञे कुश इत्यभिविश्रुतः ।२१.५५
लवश्च सुमहाभागः सर्वतत्त्वार्थवित् सुधीः ।
अतिथिस्तु कुशाज्जज्ञे निषधस्तत्सुतोऽभवत् ।२१.५६
नलस्तु निषधस्याभून्नभास्तमादजायत ।
नभसः पुण्डरीकाक्षः क्षेमधन्वा च तत्सुतः ।२१.५७
तस्य पुत्रोऽभवद् वीरो देवानीकः प्रतापवान् ।
अहीनगुस्तस्य सुतो सहस्वांस्तत्सुतोऽभवत् ।२१.५८
तस्माच्चन्द्रावलोकस्तु तारापीडस्तु तत्सुतः ।
तारापीडाच्चन्द्रगिरिर्भानुवित्तस्ततोऽभवत् ।२१.५९
श्रुतायुरभवत् तस्मादेते इक्ष्वाकुवंशजाः ।
सर्वे प्राधान्यतः प्रोक्ताः समासेन द्विजोत्तमाः ।। २१.६०
य इमं श्रृणुयान्नित्यमिक्ष्वाकोर्वंशमुत्तमम् ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो स्वर्गलोके महीयते ।। २१.६१
इति श्रीकूर्मपुराणे षट्साहस्त्र्यां संहितायां पूर्वविभागे एकविशोऽध्यायः।।
वक्ष्यामि तान्पुरस्तात्तु विस्तरेण यथाक्रमम् ।
प्रथमं सर्वशास्त्राणां पुराणं ब्रह्मणा श्रुतम् ॥ १,१.४० ॥
अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः ।
अङ्गानि धर्मशास्त्रं च व्रतानि नियमास्तथा ॥ १,१.४१ ॥
वसिष्ठ उवाच
तस्मिन्पुरे सन्तुलितामरेद्रपुरीप्रभावे मुनिवर्यधेनुः ।
विनिर्ममे तेषु गृहेषु पश्चात्तद्योग्यनारीनरवृन्दजातम् ॥ २,२७.१ ॥
विचित्रवेषाभरणप्रसूनगन्धांशुकालङ्कृतविग्रहाभिः ।
सहावभावाभिरुदारचेष्टाश्रीकान्तिसौन्दर्यगुणान्विताभिः ॥ २,२७.२ ॥
मन्दस्फुरद्दन्तमरीचिजाल विद्योतिताननसरोजजितेन्दुभाभिः ।
प्रत्यग्रयौवनभरासवल्गुगीर्भिः स प्रेममन्थरकटाक्षनिरीक्षणाभिः ॥ २,२७.३ ॥
प्रीतिप्रसन्नहृदयाभिरतिप्रभाभिः शृङ्गारकल्पतरुपुष्पविभूषिताभिः ।
देवाङ्गनातुलितसौभगसौकुमार्यरूपाभिलाषमधुराकृतिरञ्जिताभिः ॥ २,२७.४ ॥
उत्तप्तहेमकलशोपमचारुपीनवक्षोरुहद्वयभरानतमध्यमाभिः ।
श्रोणीभराक्रमणखेदपरिश्रितास्मृगारक्तपावकरसारुणिताङ्घ्रिभूभिः ॥ २,२७.५ ॥
केयूरहारमणिकङ्कणहेम कण्ठसूत्रामलश्रवणमण्डलमण्डिताभिः ।
स्रग्दामचुम्बितसकुन्तलकेशपाशकाञ्चीकलापपरिशिञ्जितनूपुराभिः ॥ २,२७.६ ॥
आमृष्टरोषपरिसांत्वननर्महासकेलीप्रियालपनभर्त्सनरोषणेषु ।
भावेषु पार्थिवनिजप्रियधैर्यबन्धसर्वापहारचतुरेषु कृतान्तराभिः ॥ २,२७.७ ॥
तन्त्रीस्वनोपमितमञ्जुलसौम्यगेयगन्धर्वतारमधुरारवभाषिणीभिः ।
वीणाप्रवीणतरपाणितलाङ्गुलीभिर्गंभीरचक्रचटुवादरतोत्सुकाभिः ॥ २,२७.८ ॥
स्त्रीभिर्मदालस तराभिरतिप्रगल्भभावाभिराकुलितकामुकमानसाभिः ।
कामप्रयोगनिपुणाभिरहीनसंपदौदार्यरूपगुणशीलसमन्विताभिः ॥ २,२७.९ ॥
संख्यातिगाभिरनिशं गृहकृत्यकर्मव्यग्रात्मकाभिरपि तत्परिचारिकाभिः ।
पुंभिश्च तद्गुणगणोचितरूपशोभैरुद्भासितैर्गृहचरैः परितः परीतम् ॥ २,२७.१० ॥
सराजमार्गापणसौधसद्मसोपानदेवालयचत्वरेषु ।
पौरैरशेषार्थगुणैः समन्तादध्यास्यमानं परिपूर्णकामैः ॥ २,२७.११ ॥
अनेक रत्नोज्ज्वलितैर्विचित्रैः प्रासादसंघैरतुलैरसंख्यैः ।
रथाश्वमातङ्गखरोष्ट्रगोजायोग्यैरनेकैरपि मन्दिरैश्च ॥ २,२७.१२ ॥
नरेद्रसामन्तनिषादिसादिपदातिसेनपतिनायकानाम् ।
विप्रादिकानां रथिसारथीनां गृहैस्तथा मागधबन्दिनां च ॥ २,२७.१३ ॥
विविक्तरथ्यापणचित्रचत्वरैरनेकवस्तुक्रयविक्रयैश्च ।
महाधनोपस्करसाधुनिर्मितैर्गृहैश्च शुभ्रैर्गणिकाजनानाम् ॥ २,२७.१४ ॥
महार्हरत्नोज्ज्वलतुङ्गगोपुरैः सह श्वगृध्रव्रजनर्तनालयैः ।
चित्रैर्ध्वचैश्चापि पताकिकाभिः शुभ्रैः पटैर्मण्डपिकाभिरुन्नतैः ॥ २,२७.१५ ॥
कह्लारकञ्जकुमुदोत्पलरेणुवासितैश्चकाह्वहंसकुररीबकसारसानाम् ।
नानारवाढ्यरमणीयतटाकवापीसरोवरैश्चापि जलोपपन्नैः ॥ २,२७.१६ ॥
चूतप्रियालपनसाम्रमधूकजंबूप्लक्षैर्नवैश्च तरुभिश्च कृतालवालैः ।
पर्यन्तरोपितमनोरमनागकेतकीपुन्नागचंपकवनैश्च पतत्रिजुष्टैः ॥ २,२७.१७ ॥
मन्दारकुन्दकरवीरमनोज्ञयूथिकाजात्यादिकैर्विविधपुष्पफलैश्च वृक्षैः ।
संलक्ष्यमाणपरितोपवनालिभिश्च संशोभितं जगति विस्मयनीयरूपैः ॥ २,२७.१८ ॥
सर्वर्त्तुकप्रवरसौरभवायुमन्दमन्दप्रचारिभर्त्सितधर्मकालम् ।
इत्थ सुरासुरमनोरमभोगसंपद्विस्पष्टमानविभवं नगरं नरेद्र ॥ २,२७.१९ ॥
सौभाग्यभोगममितं मुनिहोमधेनुः सद्यो विधाय विनिवेदयदाशु तस्मै ।
ज्ञात्वा ततो मुनिवरो द्विजहोमधेन्वा संपादितं नरपते रुचिरातिथेयम् ॥ २,२७.२० ॥
आहूय कञ्चन तदन्तिक मात्मशिष्यं प्रास्थापयत्सगुणशालिनमाशु राजन् ।
गत्वा विशामधिपतेस्तरसा समीपं संप्रश्रयं मुनिसुतस्तमिदं बभाषे ॥ २,२७.२१ ॥
आतिथ्यमस्मदुपपादितमाशु राज्ञा संभावनीयमिति नः कुलदेशिकाज्ञा ।
राजा ततो मुनिवरेण कृताभ्यनुज्ञः संप्राविशत्पुरवरं स्वकृते कृतं तत् ॥ २,२७.२२ ॥
सर्वोपभोग्यनिलयं मुनिहोमधेनुसामर्थ्यसूचकमशोषबलैः समेतः ।
अन्तः प्रविश्य नगरर्द्धिमशेषलोकसंमोहिनीं भिसमीक्ष्य स राजवर्यः ॥ २,२७.२३ ॥
प्रीतिप्रसन्नवदनः सबलस्तु दानी धीरोऽपि विस्मयमवाप भृशं तदानीम् ।
गच्छन्सुरस्त्रीनयना लियूथपानैकपात्रोचितचारुमूर्त्तिः ॥ २,२७.२४ ॥
रेमे स हैहयपतिः पुरराजमार्गे शक्रः कुबेरवसताविव सामरौघः ।
तं प्रस्थितं राजपथात्समन्तात्पौराङ्गनाश्चन्दनवारिसिक्तैः ॥ २,२७.२५ ॥
प्रसूनलाजाप्रकरैरजस्रमवीपृषन्सौधगताः सुत्दृद्यैः ।
अभ्यागतार्हणसमुत्सुकपौरकान्ता हस्तारविन्दगलितामललाजवर्षैः ॥ २,२७.२६ ॥
कालेयपङ्कसुरभीकृतनन्दनोत्थशुभ्रप्रसूननिकरैरलिवृन्दगीतैः ।
तत्रत्यपौरवनिताञ्जनरत्नसारमुक्ताभिरप्यनुपदं प्रविकीर्यमामः ॥ २,२७.२७ ॥
व्यभ्राजतावनिपतिर्विशदैः समन्ताच्छीतांशुरश्मिनिकरैरिव मन्दराद्रिः ।
ब्राह्मीं तपःश्रिय मुदारगणमचिन्त्यां लोकेषु दुर्लभतरां स्पृहणीयशोभाम् ॥ २,२७.२८ ॥
पश्यन्विशामधिपतिः पुरसंपदं तामुच्चैः शशंस मनसा वचसेव राजन् ।
मेने च हैहयपतिर्भुवि दुर्लभेयं क्षात्री मनोहरतरा महिता हि संपत् ॥ २,२७.२९ ॥
अस्याः शतांशतुलनामपि नोपगन्तुं विप्रशियः प्रभवतीति सुरार्चितायाः ।
मध्येपुरं पुरजनोपचितां विभूतिमालोकयन्सह पुरोहितमन्त्रिसार्थैः ॥ २,२७.३० ॥
गच्छत्स्वपार्श्वचर दर्शितवर्णसौधो लेभे मुदं पुरजनैः परिपूज्यमानः ।
राजा ततो मुनिवरोपचितां सपर्यामात्मानुरूपमिह सानुचरो लभस्व ॥ २,२७.३१ ॥
इत्यश्रमेण नृपतिर्विनिवर्त्तयित्वा स्वार्थं प्राल्पितगृहाभिमुखो जगाम ।
पौरेः समेत्य विविधार्हणपाणिभिश्च मार्गे मुदा विरचिताजलिभिः समन्तात् ॥ २,२७.३२ ॥
संभावितोभ्यनुपदं जयशब्दघोषैस्तूर्यारवैश्च बधिरीकृतदिग्विभागैः ।
कक्षान्तराणि नृपतिः शनकैरतीत्य त्रीणि क्रमेण च ससंभ्रमकञ्चुकीनि ॥ २,२७.३३ ॥
दूरप्रसारितपृथग्जनसंकुलानि सद्माविवेश सचिवादरदत्तहृस्तः ।
तत्र प्रदीपदधिदर्पणगन्धपुष्पदूर्वाक्षतादिभिरलं पुरकामिनीभिः ॥ २,२७.३४ ॥
निर्याय राजभवनान्तरतः सलीलमानन्दितो नरपतिर्बहुमान पूर्वकम् ।
ताभिः समाभिविनिवेशितमाशु नानारत्नप्रवेकरुचिजालविराजमानम् ॥ २,२७.३५ ॥
सूक्ष्मोत्तरच्छदमुदारयशा मनोज्ञमध्या रुरोह कनकोत्तरविष्टरं तम् ।
तस्मिन्गृहे नृप तदीयपुरन्ध्रिवर्गः स्वासीनमाशु नृपतिर्विविधार्हणाभिः ॥ २,२७.३६ ॥
वाद्यादिभिस्तदनुभूषणगन्धपुष्पवस्त्राद्यलङ्कृतिभिरग्र्यमुदं ततान ।
तस्मिन्नशेषदिवसोचितकर्म सर्वं निर्वर्त्य हैहयपतिः स्वमतानुसारम् ॥ २,२७.३७ ॥
नाना विधालयननर्मविचित्रकेलीसंप्रेक्षितैर्दिनमशेषमलं निनाय ।
कृत्वा दिनान्तसमयोचितकर्म चैव राजा स्वमन्त्रिसचिवानुगतः समन्तात् ॥ २,२७.३८ ॥
आसन्नभृत्यकरसंस्थितदीपकौधसंशान्तसंतमसमाशु सदः प्रपेदे ।
तत्रासने समुपविश्य पुरोधमन्त्रिसामन्तनायकशतैः समुपास्यमानः ॥ २,२७.३९ ॥
अन्वास्त राजसमितौ विविधैर्विनोदैर्हृष्टः सुरेद्र इव देवगणैरुपेतः ।
ततश्चिरं विविधवाद्यविनोदनृत्तप्रेक्षाप्रवृत्तहसनादिकथाप्रसंगः ॥ २,२७.४० ॥
आसांचकार गणिकाजन्नर्महासक्रीडाविलासपरितोषितचित्तवृत्तिः ।
इत्थं विशामधिपतिर्भृशमानिशार्द्धं नानाविहारविभवानुभवैरनेकैः ॥ २,२७.४१ ॥
स्थित्वानुगान्नरपतीनपि तन्निवासं प्रस्थाप्य वासभवनं स्वयमप्ययासीत् ।
तद्राजसैन्यमखिलं निजवीर्यशौर्यसंपत्प्रभावमहिमानुगुणं गृहेषु ॥ २,२७.४२ ॥
आत्मानुरुपविभवेषु महार्हवस्त्रस्रग्भूषणादिभिरलं मुदितं बभूव ।
सैन्यानि तानि नृपतेर्विविधान्नपानसद्भक्ष्यभोज्यमधुमांसपयोघृताद्यैः ॥ २,२७.४३ ॥
तृप्तान्यवात्सुरखिलानि सुखोपभौगैस्तस्यां नरेद्रपुरि देवगणा दिवीव ।
एवं तदा नरपतेरनुयायिनस्ते नानाविधोचितसुखानुभवप्रतीताः ॥ २,२७.४४ ॥
अन्योन्यमूचुरिति गेहधनादिभिर्वा किं साध्यते वयमिहैव वसाम सर्वे ।
राजापि शार्वरविधानमथो विधाय निर्वर्त्य वासभवने शयनीयमग्र्यम् ।
अध्यास्य रत्ननिकरैरति शैभि भद्रं निद्रामसेवत नरेद्र चिरं प्रतीतः ॥ २,२७.४५ ॥
इति श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यभागे तृतीय
उपोद्धातपादेर्ऽजुनोपाख्याने सप्तविंशतितमोऽध्यायः ॥ २७॥
वसिष्ठ उवाच
स्वपन्तमेत्य राजानं सूतमागधवन्दिनः ।
प्रवोधयितुमव्यग्रा जगुरुच्चैर्निशात्यये ॥ २,२८.१ ॥
वीणावेणुरवोन्मिश्रकलतालततानुगम् ।
समस्तश्रुतिसुश्राव्यप्रशस्तमधुरस्वरम् ॥ २,२८.२ ॥
स्निग्धकण्ठाः सुविस्पष्टमूर्च्छनाग्रामसूचितम् ।
जगुर्गेयं मनोहारि तारमन्द्रलयान्वितम् ॥ २,२८.३ ॥
ऊचुश्च तं महात्मानं राजानं सूतमागधाः ।
स्वपन्तं विविधा वाचो बुबोधयिषवः शनेः ॥ २,२८.४ ॥
पस्यायमस्तमभ्येति राजेन्द्रेन्दुः पराजितः ।
विवर्द्धमानया नूनं तव वक्त्रांबुजश्रिया ॥ २,२८.५ ॥
द्रष्टुं त्वदान नांभोजं समुत्सुक इवाधुना ।
तमांसि भिन्दन्नादित्यः संप्राप्तो ह्युदयं विभो ॥ २,२८.६ ॥
राजन्नखिलशीतांशुवंशमौलिशिखामणे ।
निद्रया लं महाबुद्धे प्रतिवुध्यस्व सांप्रतम् ॥ २,२८.७ ॥
इति तेषां वचः शृण्वन्नबुध्यत महीपतिः ।
क्षीराब्दौ शेषशयनाद्यथापङ्कजलोचनः ॥ २,२८.८ ॥
विनिद्राक्षः समुत्थाय कर्म नैत्यकमादरात् ।
चकारावहितः सम्यग्जयादिकमशेषतः ॥ २,२८.९ ॥
देवतामभिवन्द्येष्टां गां दिव्यस्रग्गन्धभूषणः ।
कृत्वा दूर्वाञ्जनादर्शमङ्गल्यालम्बनानि च ॥ २,२८.१० ॥
दत्त्वा दानानि चार्थिभ्यो नत्वा गोब्रह्मणानपि ।
निष्क्रम्य च पुरात्तस्मादुपतस्थे च भास्करम् ॥ २,२८.११ ॥
तावदभ्याययुः सर्वं मन्त्रिसामन्तनायकाः ।
रचिताञ्जलयो राजन्नेमुश्च नृपसत्तमम् ॥ २,२८.१२ ॥
ततः स तैः परिवृतः समुपेत्य तपोनिधिम् ।
ननाम पादयोस्तस्य किरीटेनार्कवर्चसा ॥ २,२८.१३ ॥
आशीर्भिरभिनन्द्याथ राजानं मुनिपुङ्गवः ।
प्रश्रयावनतं साम्ना तमुवाचास्यतामिति ॥ २,२८.१४ ॥
तमासीनं नरपतिं महार्षिः प्रीतमानसः ।
उवाच रजनी व्युष्टा सुखेन तव किं नृप ॥ २,२८.१५ ॥
अस्माकमेव राजेन्द्र वने वन्येन जीवताम् ।
शक्यं मृगसधर्माणां येन केनापि वर्त्तितुम् ॥ २,२८.१६ ॥
अरण्ये नागराणां तु स्थितिरत्यन्तदुःसहा ।
अनभ्यस्तं हि राजेन्द्र ननु सर्वं हि दुष्करम् ॥ २,२८.१७ ॥
वनवासपरिक्लेशं भवान्यत्सानुगोऽसकृत् ।
आप्तस्तु भवतो नूनं सा गौरवसमुन्नतिः ॥ २,२८.१८ ॥
इत्युक्तस्तेन मुनिना स राजा प्रीतिपूर्वकम् ।
प्रहसन्निव तं भूयो वचनं प्रत्यभाषत ॥ २,२८.१९ ॥
ब्रह्मन्किमनया ह्युक्त्या दृष्टस्ते यादृशो महान् ।
अस्माभिमहिमा येन विस्मितं सकलं जगत् ॥ २,२८.२० ॥
भवत्प्रभावसंजातविभवाहतचेतसः ।
इतो न गन्तुमिच्छन्ति सैनिका मे महामुने ॥ २,२८.२१ ॥
त्वादृशानां जगन्तीह प्रभावैस्तपसां विभो ।
ध्रियन्ते सर्वदा नूनमचिन्त्यं ब्रह्मवर्चसम् ॥ २,२८.२२ ॥
नैव चित्रं तव विभो शक्रोति तपसा भवान् ।
ध्रुवं कर्त्तुं हि लोकानामवस्थात्रितयं क्रमात् ॥ २,२८.२३ ॥
सुदृष्टा ते तपःसिद्धिर्महती लोकपूजिता ।
गमिष्यामि पुरीं ब्रह्मन्ननुजानातु मां भवान् ॥ २,२८.२४ ॥
वसिष्ठ उवाच
इत्युक्तस्तेनस मुनिः कार्त्तवीर्येण सादरम् ।
संभावयित्वा नितरां तथेति प्रत्यभाषत ॥ २,२८.२५ ॥
मुनिना समनुज्ञातो विनिष्क्रम्य तदाश्रमात् ।
सैन्यैः परिवृतः सर्वैः संप्रतस्थे पुरीं प्रति ॥ २,२८.२६ ॥
स गच्छंश्चिन्तयामास मनसा पथि पार्थिवः ।
अहोऽस्य तपसः सिद्धिर्लोक विस्मयदायिनी ॥ २,२८.२७ ॥
यया लब्धेदृशी धेनुः सर्वकामदुहां वरा ।
किं मे सकलराज्येन योगर्द्ध्या वाप्यनल्पया ॥ २,२८.२८ ॥
गोरत्नभूता यदियं धेनुर्मुनिवरे स्थिता ।
अनयोत्पादिता नूनं संपत्स्वर्गसदामपि ॥ २,२८.२९ ॥
ऋद्धमैन्द्रमपि व्यक्तं पदं त्रैलोक्यपूजितम् ।
अस्या धेनोरहं मन्ये कलां नार्हति षोडशीम् ॥ २,२८.३० ॥
इत्येवं चिन्तयानं तं पश्चादभ्येत्य पार्थिवम् ।
चन्द्रगुप्तोऽब्रवीन्मन्त्री कृताञ्जलि पुटस्तदा ॥ २,२८.३१ ॥
किमर्थं राजशार्दूल पुरीं प्रतिगमिष्यसि ।
रक्षितेन च राज्येन पुर्या वा किं फलं तव ॥ २,२८.३२ ॥
गोरत्नभूता नृपतेर्यावर्धेनुर्न चालये ।
वर्त्तते नार्द्धमपि ते राज्यं शून्यं तव प्रभो ॥ २,२८.३३ ॥
अन्यच्च दृष्टमाश्चर्यं मया राजञ्छृणुष्व तत् ।
भवनानि मनोज्ञानि मनोज्ञाश्च तथा स्त्रियः ॥ २,२८.३४ ॥
प्रासादा विविधाकारा धनं चादृष्टसंक्षयम् ।
धेनो तस्यां क्षणेनैव विलीनं पश्यतो मम ॥ २,२८.३५ ॥
तत्तपोवनमेवासीदिदानीं राजसत्तम ।
एवंप्रभावा सा यस्य तस्य किं दुर्लं भवेत् ॥ २,२८.३६ ॥
तस्माद्रत्नार्हसत्त्वेन स्वीकर्त्तव्या हि गौस्त्वया ।
यदि तेऽनुमतं कृत्यमाख्येयमनुजीविभिः ॥ २,२८.३७ ॥
राजोवाच ।
एवमेवाहमप्येनां न जानामीत्यसांप्रतम् ।
ब्रह्मस्वं नापहर्तव्यमिति मे शङ्कते मनः ॥ २,२८.३८ ॥
एवं ब्रुवन्तं राजानमिदमाह पुरोहितः ।
गर्गो मतिमतां श्रेष्ठो गर्हयन्निव भूपते ॥ २,२८.३९ ॥
ब्रह्मस्वं नापहर्त्तव्यमापद्यपि कथञ्चन ।
ब्रह्मस्वसदृशं लोके दुर्जरं नेह विद्यते ॥ २,२८.४० ॥
विषं हन्त्युपयोक्तारं लक्ष्यभूतं तु हैहय ।
कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावकः ॥ २,२८.४१ ॥
अनिवार्यमिदं लोके ब्रह्मस्वन्दुर्जरं विषम् ।
पुत्रपौत्रान्तफलदं विपाककटु पार्थिव ॥ २,२८.४२ ॥
एश्वर्यमूढं हि मनः प्रभूममसदात्मनाम् ।
किन्नामासन्न कुरुते नेत्रास द्विप्रलोभितम् ॥ २,२८.४३ ॥
वेदान्यस्त्वामृते कोऽन्यो विना दानान्नृपोत्तम ।
आदानं चिन्तयानो हि बाह्मणेष्वभिवाञ्छति ॥ २,२८.४४ ॥
ईदृशस्त्वं महाबाहो कर्म सज्जननिन्दितम् ।
मा कृथास्तद्धि लोकेषु यशोहानिकरं तव ॥ २,२८.४५ ॥
वंशे महति जातस्त्वं वदान्यानां प्रहीभुजाम् ।
यशांशि कर्मणानेन संप्रतं माव्यनीवशः ॥ २,२८.४६ ॥
अहोऽनुजीविनः किञ्चिद्भर्तारं व्यसनार्णवे ।
तत्प्रसादसमुन्नद्धा मज्जयं त्यनयोन्मुखाः ॥ २,२८.४७ ॥
श्रिया विकुर्वन्पुरुषकृत्यचिन्त्ये विचेतनः ।
तन्मतानुप्रवृत्तिश्च राजा सद्यो विषीदति ॥ २,२८.४८ ॥
अज्ञातमुनयो मन्त्री राजानमनयांबुधौ ।
आत्मना सह दुर्बुद्धिर्लोहनौरिव मज्जयेत् ॥ २,२८.४९ ॥
तस्मात्त्वं राजशार्दूल मूढस्य नयवर्त्मनि ।
मतमस्य सुदुर्बुद्धेर्नानुवर्त्तितुमर्हसि ॥ २,२८.५० ॥
एवं हि वदतस्तस्य स्वामिश्रेयस्करं वचः ।
आक्षिप्य मन्त्री राजानमिदं भूयो ह्यभाषत ॥ २,२८.५१ ॥
ब्राह्मणोऽयं स्वजातीयहितमेव समीक्षते ।
महान्ति राजकार्याणि द्विजैर्वेत्तुं न शक्यते ॥ २,२८.५२ ॥
राज्ञैव राजकार्याणि वेद्यानि स्वमनीषया ।
विना वै भोजनादाने कार्यं विप्रो न विन्दति ॥ २,२८.५३ ॥
ब्राह्मणो नावमन्तव्यो वन्दनीयश्च नित्यशः ।
प्रतिसंग्राहयणीयश्च नाधिकं साधितं क्वचित् ॥ २,२८.५४ ॥
तस्मात्स्वीकृत्य तां धेनुं प्रयाहि स्वपुरं नृप ।
नोचेद्राज्यं परित्यज्य गच्छस्वतपसे वनम् ॥ २,२८.५५ ॥
क्षमावत्त्वं ब्राह्मणानां दण्डः क्षत्रस्य पार्थिव ।
प्रसह्य हरणे वापि नाधर्मस्ते भविष्यति ॥ २,२८.५६ ॥
प्रसह्य हरणे दोषं यदि संपश्यसे नृप ।
दत्त्वा मूल्यं गवाश्वाद्यमृषेर्थेनुः प्रगृह्यताम् ॥ २,२८.५७ ॥
स्वीकर्तव्या हि सा धेनुस्त्वया त्वं रत्नभागयतः ।
तपोधनानां हि कुतो रत्नसंग्रहणादरः ॥ २,२८.५८ ॥
तपोधन बलः शान्तः प्रीतिमान्स नृप त्वयि ।
तस्मात्ते सर्वथा धेनुं याचितः संप्रदास्यति ॥ २,२८.५९ ॥
अथ वा गोहिरण्यद्यं यदन्यदभिवाञ्छितम् ।
संगृह्य वित्तं विपुलं धेनुं तां प्रतिदास्यति ॥ २,२८.६० ॥
अनुपेक्ष्यं महद्रत्नं राज्ञा वै भूतिमिच्छता ।
इति मे वर्त्तते बुद्धिः कथं वा मन्यते भवान् ॥ २,२८.६१ ॥
राजोवाच ।
गत्वा त्वमेव तं विप्रं प्रसाद्य च विशेषतः ।
दत्त्वा चाभीप्सितं तस्मै तां गामानय मन्त्रिक ॥ २,२८.६२ ॥
वसिष्ठ उवाच
एवमुक्तस्ततोराज्ञा स मन्त्री विधिचोदितः ।
निवृत्य प्रययौ शीघ्रं जमदग्नेरथाश्रमम् ॥ २,२८.६३ ॥
गते तु नृपतौ तस्मिन्नकृतव्रणसंयुतः ।
समिदानयनार्थाय रामोऽपि प्रययौ वनम् ॥ २,२८.६४ ॥
ततः स मन्त्री सबलः समासाद्य तदाश्रमम् ।
प्रणम्य मुनिशार्दूलमिदं वचनमब्रवीत् ॥ २,२८.६५ ॥
चन्द्रगुप्त उवाच
ब्रह्मन्नृपतिनाज्ञप्तं राजा तु भुवि रत्नभाक् ।
रत्नभूता च धेनुः सा भुवि दोग्ध्रीष्वनुत्तमा ॥ २,२८.६६ ॥
तस्माद्रत्नंसुवर्णं वा मूल्यमुक्त्वा यथोचितम् ।
आदाय गोरत्नभूतां धेनुं मे दातुमर्हसि ॥ २,२८.६७ ॥
जमदग्निरुवाच
होमधेनुरियं मह्यं न दातव्या हि कस्यचित् ।
राजा वदान्यः स कथं ब्रह्मस्वमभिवाञ्छति ॥ २,२८.६८ ॥
मन्त्र्युवाच
रत्नभाक्त्वंन नृपतिर्द्धेनुं ते प्रतिकाङ्क्षति ।
गवायुतेन तस्मात्त्वं तस्मै तां दातुमर्हसि ॥ २,२८.६९ ॥
जमदग्निरुवाच
क्रयविक्रययोर्नाहं कर्त्ता जातु कथञ्चन ।
हविर्धानीं च वै तस्मान्नोत्सहे दातुमञ्जसा ॥ २,२८.७० ॥
मन्त्र्युवाच
राज्यार्धेनाथ वा ब्रह्मन्सकलेनापि भूभृतः ।
देहि धेनुमिमामेकां तत्ते श्रेयो भविष्यति ॥ २,२८.७१ ॥
जमदग्निरुवाच
जीवन्नाहं तु दास्यामि वासवस्यापि दुर्मते ।
गुरुणा याचितं किं ते वचसा नृपतेः पुनः ॥ २,२८.७२ ॥
मन्त्र्युवाच
त्वमेव स्वेच्छया राज्ञे देहि धेनुं सुहृत्तया ।
यथा बलेन नीतायां तस्यां त्वं किं करिष्यसि ॥ २,२८.७३ ॥
जमदग्निरुवाच
दाता द्विजानां नृपतिः स यद्यप्याहरिष्यति ।
विप्रोऽहं किं करिष्यामि स्वेच्छावितरणं विना ॥ २,२८.७४ ॥
वसिष्ठ उवाच
इत्येवमुक्तः संक्रुद्धः स मन्त्री पापचेतनः ।
प्रसह्य नेतुमारेभे मुनेस्तस्य पयस्विनीम् ॥ २,२८.७५ ॥
इति श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वोयुप्रोक्ते मध्यभागे तृतीय
उपोद्धातपादेऽष्टाविंशतितमोऽध्यायः ॥ २८॥
वसिष्ठ उवाच
एव मुक्तो ह्यगस्त्येन रामः शत्रुनिबर्हणः ।
नमस्कृत्य मुनीं शान्तं निर्जगामाश्रमाद्बहिः ॥ २,३७.८ ॥
पुनस्तेनैव मार्गेण संप्राप्तस्तत्र सत्वरम् ।
यत्रोत्तरात्पदन्यासान्निर्गता स्वर्णदी नृप ॥ २,३७.९ ॥
तत्र वासं प्रकल्प्यासावकृतव्रणसंयुतः ।
समभ्यस्यत्स्तवं दिव्यं कृष्मप्रेमामृताभिधम् ॥ २,३७.१० ॥
नित्यं व्रजपतेस्तस्य स्तोत्रं तुष्टोऽभवद्धरिः ।
जगाम दर्शनं तस्य जामदग्न्यस्य भूपते ॥ २,३७.११ ॥
चतुर्व्यूहाधिपः साक्षात्कृष्णः कमललोचनः ।
किरीटंनार्कवर्णेन कुण्डलाभ्यां च राजितः ॥ २,३७.१२ ॥
कौस्तुभोद्भासितोरस्कः पीतवासा धनप्रभः ।
मुरलीवादनपरः साक्षान्मोहनरूपधृक् ॥ २,३७.१३ ॥
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय जामदग्न्यो मुदान्वितः ।
प्रणम्य दण्डवद्भमौ तुष्टाव प्रयतो विभुम् ॥ २,३७.१४ ॥
परशुरामुवाच
नमो नमः कारणविग्रहाय प्रपन्नपालाय सुरार्त्तिहारिणे ।
ब्रह्मेशविष्ण्विद्रमुखस्तुताय नतोऽस्मि नित्यं परमेश्वराय ॥ २,३७.१५ ॥
यं वेदवादैर्विविधप्रकारैर्निर्णेतुमीशानमुखा न शक्नुयुः ।
तं त्वामनिर्देश्यमचं पुराममनन्तमीडे भव मे दयापरः ॥ २,३७.१६ ॥
यस्त्वेक ईशो निजवाञ्च्छितप्रदो धत्ते तनूर्लोकविहार रक्षणे ।
नाना विधा देवमनुष्यतिर्यग्यादः सु भूमेर्भरवारणाय ॥ २,३७.१७ ॥
तं त्वामहं भक्तजनानुरक्तं विरक्तमत्यन्तमपीन्दिरादिषु ।
स्वयं समक्षंव्यभिचारदुष्टचित्तास्वपि प्रेमनिबद्धमानसम् ॥ २,३७.१८ ॥
यं वै प्रसन्ना असुराः सुरा नराः सकिन्नरास्तिर्यकेयोनयोऽपि हि ।
गताः स्वरूपं निखलं विहाय ते देहस्त्र्यपत्यार्थममत्वमीश्वर ॥ २,३७.१९ ॥
तं देवदेवं भजतामभीप्सितप्रदं निरीहं गुणवर्जितं च ।
अचिन्त्यमव्यक्तमघौघनाशनं प्राप्तोऽरणं प्रेमनिधानमादरात् ॥ २,३७.२० ॥
तपन्ति तापैर्विविधैः स्वदेहमन्ये तु यज्ञैर्विविधैर्यजन्ति ।
स्वप्नेऽपि ते रूपमलौकिकंविभो पश्यन्ति नैवार्थनिबद्धवासनाः ॥ २,३७.२१ ॥
ये वै त्वदीयं चरणं भवश्रमान्निर्विण्मचित्ता विधिवत्स्मरन्ति ।
नमन्ति भक्त्याथ समर्चयन्ति वै परस्परं संसदि वर्णयन्ति ॥ २,३७.२२ ॥
तेनैकजन्मोद्भवपङ्कभेदनप्रसक्तचित्ता भवतोंऽघ्रिपद्मे ।
तरन्ति चान्यानपि तारयन्ति हि भवौषधं नाम सुधा तवेश ॥ २,३७.२३ ॥
अहं प्रभो कामनिबद्धचित्तो भवन्तमार्यं विविधप्रयत्नैः ।
आराधयं नाथ भवानभिज्ञः किं ते ह विज्ञाप्यमिहास्ति लोके ॥ २,३७.२४ ॥
वसिष्ठ उवाच
इत्येवं जामदग्न्यं तु स्तुवन्तं प्रणतं पुरः ।
उवाचागाधया वाचा मोहयन्निव मायया ॥ २,३७.२५ ॥
कृष्ण उवाच
हन्त राम महाभाग सिद्धं ते कार्यमुत्तमम् ।
कवचस्य स्तवस्यापि प्रभावादवधारय ॥ २,३७.२६ ॥
हत्वा तं कार्त्तवीर्यं हि राजानं दृप्तमानसम् ।
साधयित्वा पितुर्वैरं कुरु निःक्षत्रियां महीम् ॥ २,३७.२७ ॥
मम चक्रावतारो हि कार्त्तवीर्यो धरातले ।
कृतकार्यो द्विजश्रेष्ट तं समापय मानद ॥ २,३७.२८ ॥
अद्य प्रभृति लोकेऽस्मिन्नंशावेशेन मे भवान् ।
चरिष्यति यथा कालं कर्त्ता हर्त्ता स्वयं प्रभुः ॥ २,३७.२९ ॥
चतुर्विशे युगे वत्स त्रेतायां रघुवंशजः ।
रामो नाम भविष्यामि चतुर्व्यूहः सनातनः ॥ २,३७.३० ॥
कौसल्यानन्दजनको राज्ञो दशरथादहम् ।
तदा कौशिकयज्ञं तु साधयित्वा सलक्ष्मणः ॥ २,३७.३१ ॥
गमिष्यामि महाभाग जनकस्य पुर महत् ।
तत्रेशचापं निर्भज्य परिणीय विदेहजाम् ॥ २,३७.३२ ॥
तदा यास्यन्नयोध्यां ते हरिष्ये तेज उन्मदम् ।
वसिष्ठ उवाच
कृष्ण एवं समदिश्य जामदग्न्यं तपोनिधिम् ।
पश्यतोंऽतर्दधे तत्र रामस्य मुमहात्मनः ॥ २,३७.३३ ॥
इति श्रीब्रहामाण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यभागे तृतीय
उपोद्धातपादे भर्गवचरिते सप्तत्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३७॥
रविवार, 25 फ़रवरी 2024
अष्ट्री- भय सावधानी का दूसरा नाम है। सम्बल से चलने पर मिलता मुकाम है।।
"ऋजु,से राजा शब्द और ड्रेस से एड्रेस की उत्पति का इतिहास-
पोशाक (वि.)
"dresser/drecier", व्यवस्थित करनाकरने वाला, सीधा करने वाला," लैटिन क्रिया dirigere ( Dis( संस्कृत- द्विस्+ +regere ऋज-- ( -अलग निर्देशित करना, मार्गदर्शन करना, सीधाकरना आदि अर्थों को प्रकाशित करती है। अंग्रेज़ी के Directus शब्द , - प्रत्यक्ष-सीधा जैसे अर्थ को प्रकाशित करने के रूप में प्रचलित हैं।
मूल भारत- योरोपीय भाषा में *reg-"एक सीधी रेखा में आगे बढ़ना")के अर्थ को सूचित करता है। dress शब्द का "सजाना" का अर्थ 14 वीं सदी के उत्तरार्ध से प्रचलित हुआ है, जैसा कि "कपड़े पहनना" का है।
सेना में पुरानी भावना जीवित रहती है-dress ranks"सैनिकों के स्तंभों को संरेखित करना।" Dress शब्द पुरुषों की, पतलून में यौन अंग की स्थिति के संदर्भ में, 1961 तक प्रचलित रहा ।
Dress up"विस्तृत पोशाक, सबसे अच्छे कपड़े पहनना"
1670 के दशक का है;dress down"उम्मीद से कम औपचारिक कपड़े पहनना"
1960 तक है। dress शब्द का सकर्मक उपयोग dress (someone) down,"डाँटना, डाँटना," 1876 तक है, पहले सरल शब्दों में dress(1769), जिसमें भाव व्यंग्यात्मक है। मध्य अंग्रेजी में आते आते ,dress upमतलब हुआ "उठना" और dress down मतलब "घुटने टेकना।"
पोशाक (सं.)
1600, "एक परिधान या कपड़ों का संयोजन," मूल रूप से कोई भी कपड़ा, विशेष रूप से जो रैंक या किसी समारोह के लिए उपयुक्त हो; "महिला के परिधान जिसमें स्कर्ट और कमर शामिल है" का विशिष्ट अर्थ 1630 के दशक में दर्ज किया गया है। जिसमें "केवल कपड़े पहनने के लिए नहीं बल्कि सजाने के लिए बनाया गया है।"Dress rehearsal पहली बार 1828 में रिकॉर्ड किया गया।
Dressing-gown"मेकअप करते समय या बाल बनाते समय पहना जाने वाला एक ढीला और आसान वस्त्र" 1777 से प्रमाणित है;
dressing-room"ड्रेसिंग के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला कमरा" 1670 के दशक का है।Dressing-up"शैली और फैशन पर ध्यान देकर स्वयं को तैयार करने का कार्य या तथ्य" 1852 तक है।Dressing-down(एन.) "एक फटकार" 1839 का है, अमेरिकी अंग्रेजी, मूल रूप से "एक पिटाई", शायद विडंबनापूर्ण या लगभग 19सी से विस्तारित। यांत्रिक या व्यावसायिक अर्थ।
14 वीं सदी की शुरुआत में, पुराने फ़्रेंच से आयातित अर्थ Drees से विकसित Address का अर्थ परिवर्तित हुआ "मार्गदर्शन, लक्ष्य या निर्देशन करना" adrecier"सीधे जाना; सीधा करना, दाहिनी ओर सेट करना; बिंदु, सीधा करना" (13सी.), वल्गर लैटिन से*addirectiare"सीधे बनाओ" (स्रोत स्पैनिश भाषा में भी हैaderezar, इटालियनaddirizzare), सेad"देखने के लिएad-)+*directiareलैटिन से "सीधा बनाओ"।directus"सीधा, प्रत्यक्ष" भूत कृदंतdirigere"सीधे सेट करें," सेdis-"अलग" (देखेंdis-)+regere"निर्देशित करना, मार्गदर्शन करना, सीधे रहना" (पीआईई रूट से)।*reg-"एक सीधी रेखा में आगे बढ़ें")। तुलना करनाdress(वि.)).
ऋज--गत्यादिषु रन् नि० । १ नायके उज्ज्वल० । २ ऋजुगामिनि त्रि० । “स्यू मन्थू ऋज्रा वातस्याश्वा” ऋ० १, १७४, ५ । “ऋज्रा ऋजुगामिनौ” भा० । “ऋज्रा वाजं न गध्यम्” ऋ० ४, १६, ११ ।
- राज--इन् वा ङीप् । १ श्रेण्याम् पङ्क्तौ २ रेखायां च मेदि० । खार्थे क । रेखायाम् । राजते राज--ण्वुल् । राजिका राजसर्षपे स्त्री मेदि० ।
शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2024
निज वाचक सर्वनाम और दृढ़ता सूचक सर्वनाम-
Reflexive pronouns निजवाचक सर्वनाम -
singular | plural | |
First person | myself- | ourselves |
Second person | yourself- | yourselves |
Thard person (masculine) | himself- | themselves |
3rd person (feminine) | herself- | |
3rd person (neutral) | itself- |
सर्वनाम के कितने भेद होते है एवं इसके उदाहरण
स्वागत है आपका आज के इस लेख में हम जानेंगे सर्वनाम के कितने भेद होते है इसके बारें में चर्चा की जाएगी अतः आप से निवेदन है कि यह लेख अंत तक जरूर पढ़ें.
सर्वनाम किसे कहते हैं –
संज्ञा के स्थान जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है, उसे सर्वनाम कहते है। किसी वस्तु, स्थान या जीव के नाम को हम संज्ञा कहते है। संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले सर्वनाम शब्द जैसे- हम, तुम, वे, वह, उसका, उसके आदि। सर्वनाम का शाब्दिक अर्थ “सबका का नाम” होता है।
सर्वनाम क्या हैं? –
सर्वनाम, जो संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले शब्द हैं, उन शब्दों के रूप में परिभाषित किए जाते हैं जो सभी नामों की जगह लेते हैं। सर्वनाम में (मैं, आप, हम, वे, आप, आदि) जैसे शब्द शामिल हैं।
सर्वनाम के कितने भेद होते हैं
सर्वनाम के 6 भेद होते हैं –
- पुरुषवाचक सर्वनाम
- निश्चयवाचक सर्वनाम
- अनिश्चयवाचक सर्वनाम
- सम्बन्धवाचक सर्वनाम
- प्रश्नवाचक सर्वनाम
- निजवाचक सर्वनाम
पुरुषवाचक सर्वनाम-
जो पुरुषों जिसमे (स्त्री और पुरुष ) के नाम के बदले आते हैं, उन्हें पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। यह सर्वनाम तीन प्रकार के होते हैं, उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष, और अन्य पुरुष। वक्ता (बोलने वाले) या लेखक (लिखने वाले) के लिए उत्तम पुरुष का प्रयोग किया जाता हैं।
पुरुषवाचक सर्वनाम के तीन भेद है
- उत्तम पुरुष
- मध्यम पुरुष
- अन्य पुरुष
उत्तम पुरुष – बोलने वाला व्यक्ति स्वयं अपने लिए जिन सर्वनामों का प्रयोग करता है, उत्तम पुरुष सर्वनाम कहते है जैसे – मै, मेरा, मुझे, हम, हमारा, हमें आदि ।
उतम पुरुष के उदाहरण –
मैं पढ़ता हूँ।
मैं स्कूल जाऊँगा।
हम पढ़ते हैं।
मैं खाना बना रही हूँ।
मध्यम पुरुष – जो सर्वनाम शब्द सुनने वाले के लिए प्रयुक्त किये जाते है, उन्हें मध्यम पुरुष सर्वनाम कहते है । जैसे – तू, तुम, तेरा, तुझे, आदि।
मध्यम पुरुष के उदाहरण –
तू पढ़ता है।
तुम पढ़ते हो।
तुम खेल रहे हो।
अन्य पुरुष – जिन सर्वनाम शब्दों का प्रयोग बोलने वाला व्यक्ति अपने अथवा सुनने वाले व्यक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के लिए करता है, उन्हें अन्य पुरुष सर्वनाम कहते है । जैसे – वह, वे, उसे, उनके आदि।
अन्य पुरुष के उदाहरण –
वह क्रिकेट बहुत अच्छा खेलता है।
मैंने आपको कुछ बताया था|
निश्चयवाचक सर्वनाम –
निश्चयवाचक सर्वनाम: जिन सर्वनाम शब्दों से किसी दर के या समीप वस्तु, व्यक्ति प्राणियों, निश्चितता का जिक्र हो, उन शब्दों को निश्चयवाचक सर्वनाम कहा जाता हैं। जैसे- यह, ये, उस, इस, वे आदि।
निश्चयवाचक सर्वनाम के उदाहरण-
वह गाड़ी जो खड़ी है, वह मेरी है।
ये हमारा वाला खाना है और वह तुम्हारा वाला।
अनिश्चयवाचक सर्वनाम: ऐसे शब्द जिनमें स्थान, व्यक्ति, वस्तु आदि के द्वारा निश्चितता का बोध न होता हो अर्थात् वह शब्द जो वस्तु या पदार्थ के निश्चित होने का बोध नहीं करवाता हो, वे शब्द अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। जैसे कुछ, किसी, कोई आदि।
अनिश्चयवाचक सर्वनाम के उदाहरण
- कोई आया था और आपके लिए कुछ लाया था।
- कोई कुछ रख कर यहां चला गया है।
- देखने में कुछ ज्यादा लग रहा है।
सम्बन्धवाचक सर्वनाम –
सम्बन्धवाचक सर्वनाम: जिन सर्वनाम शब्दों का प्रयोग किसी वस्तु या व्यक्ति का सम्बन्ध बताने के लिए किया जाए, वे शब्द “सम्बन्धवाचक सर्वनाम” कहलाते हैं।
संबंधवाचक सर्वनाम के उदाहरण –
जो मेहनत करेगा उसको सफलता मिलेगी ।
मेरा वह गिफ्ट कही खो गया जो मुझे जन्मदिन पर मिला था।
निजवाचक सर्वनाम –
जो सर्वनाम तीनों पुरूषों (उत्तम, मध्यम और अन्य) में निजत्व का बोध कराता है, उसे निजवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- मैं खुद लिख लूँगा। तुम अपने आप चले जाना। वह स्वयं गाडी चला सकती है। उपर्युक्त वाक्यों में खुद, अपने आप और स्वयं शब्द निजवाचक सर्वनाम हैं।
निजवाचक सर्वनाम के उदाहरण –
मैं अपना कार्य स्वयं करता हूं।
मेरी माता भोजन अपने आप बनाती है।
मैं अपनी गाड़ी से जाऊंगा
प्रश्नवाचक सर्वनाम –
जो सर्वनाम संज्ञा शब्दों के स्थान पर तो आते ही हैं किंतु वाक्य को प्रश्नवाचक भी बनाते हैं उन्हें हम प्रश्नवाचक सर्वनाम कहते हैं।
सरल भाषा में कहें तो जिन भी वाक्य में आपको अंत में प्रश्नवाचक चिन्ह दिखे उसे हम प्रश्नवाचक कहेंगे।
प्रश्नवाचक सर्वनाम के उदाहरण –
- तुम यहां क्या कर रहे हो?
- मुझे अब क्या करना चाहिए?
- तुम कौन सी किताब पढ़ रहे हो?
FAQ –
Ques- सर्वनाम की सामान्य परिभाषा क्या है।
Ans- सर्वनाम की यह परिभाषा है कि वे शब्द जो संज्ञा के स्थान पर काम आते हैं उन्हें सर्वनाम कहते हैं।
Ques- किसी भी वाक्य में सर्वनाम का क्या मुख्य कार्य होता है?
Ans- किसी वाक्य में सर्वनाम के मुख्य कार्य की बात की जाए तो इसका मुख्य कार्य होता है कि यह संज्ञा के पुनरावृति को रोककर उसके स्थान पर अपना का प्रयोग करें।
Ques- आधुनिक हिंदी में सर्वनामो की संख्या कितनी मानी गई है?
Ans-आधुनिक हिंदी में सर्वनाम ओं की संख्या 11 मानी गई है।
Ques- आधुनिक हिंदी के 11 सर्वनाम कौन कौन से हैं?
Ans-आधुनिक हिंदी के 11 सर्वनाम अधोलिखित हैं : मैं, तुम, आप, यह, वह, कुछ, कोई, जो, सो, कौन, क्या।
Ques- आधुनिक हिंदी में संज्ञा और सर्वनाम में क्या अंतर है?
Ans-संज्ञा का अर्थ किसी व्यक्ति, वस्तु, जाती, स्थान के नाम से होता है