प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3-
सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….”एकोऽहम् बहुस्याम.” = एक से मैं बहुत हो जाऊँ"" ईश्वर ने यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुतों में विभक्त करूँ .यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्मांड "ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परमपिता के प्रतिबिम्ब हैं .।
इस भावबोध के जगते ही मनुष्य सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध है और विकास का अनुभव भी होता है.।
उस परमेश्वर का स्वरूप स्वेच्छामय है। वह अपनी इच्छा से ही दो रूपों में प्रकट हो गया। क्योंकि सृष्टि उत्पत्ति के लिए द्वन्द्व आवश्यक था। उनका वामांश स्त्रीरूप में आविर्भूत हुआ और दाहिना भाग पुरुष रूप में।"गोपों की उत्पत्ति विष्णु के द्वारा होने के उपरान्त, उनका वैष्णव वर्ण में समाहित होना, और गोपों के अवान्तर पूर्वज चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट पुरुष( विष्णु) के मन से उत्पन्न होने से वैष्णव वर्ण में होने का वैदिक साक्ष्य व इसी चन्द्रवंश में इला और बुध नामक बुद्धि सम्पन्न स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न गोप जाति के प्रथम सम्राट पुरुरवा की उत्पत्ति गाथा -
मनस्
समानार्थक: १-चित्त,२-चेतस्,३-हृद्,४- हृदय,५-मनस,-६-मानस्७-स्वान्त।
(अमरकोश- 1।4।31।2।7 )
"गरुडपुराणम् - आचार काण्ड१- अध्याय-(145) श्लोक संख्या-२
नाभिहृदम्बुजादासीद्ब्रह्मा विश्वसृजां पति:।2।
स एवासीदिदं विश्वं कल्पान्तेऽन्यन्न किञ्चन।8। (भागवत पुराण-9/1/8)
"सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्भवो भव ।
महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु॥४८॥
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥
यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट (Crete ) की संस्कृतियों में मनु आयॉनिया लोगों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए।
भारतीय संस्कृति की पौराणिक कथाऐं इन्हीं घटनाओं ले अनुप्रेरित हैं।
_________________________________________
भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनन ) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) के मानवीय-करण (personification) रूप है
हिब्रू बाइबिल में नूह का वर्णन:-👇
बाइबिल उत्पत्ति खण्ड (Genesis)- "नूह ने यहोवा (ईश्वर) कहने पर एक वेदी बनायी ;
और सब शुद्ध पशुओं और सब शुद्ध पक्षियों में से कुछ की वेदी पर होम-बलि चढ़ाई।(उत्पत्ति-8:20) ।👇
आश्चर्य इस बात का है कि ..आयॉनियन भाषा का शब्द माइनॉस् तथा वैदिक शब्द मनु: की व्युत्पत्तियाँ (Etymologies)भी समान हैं।
जो कि माइनॉस् और मनु की एकरूपता(तादात्म्य) की सबसे बड़ी प्रमाणिकता है।
यम और मनु को भारतीय पुराणों में सूर्य (अरि) का पुत्र माना गया है।
क्रीट पुराणों में इन्द्र को (Andregeos) के रूप में मनु का ही छोटा भाई और हैलीअॉस् (Helios) का पुत्र कहा है।
इधर चतुर्थ सहस्राब्दी ई०पू० मैसॉपोटामियाँ दजला- और फ़रात का मध्य भाग अर्थात् आधुनिक ईराक की प्राचीन संस्कृति में मेनिस् (Menis)अथवा मेैन (men) के रूप में एक समुद्र का अधिष्ठात्री देवता है।
यहीं से मेनिस का उदय फ्रीजिया की संस्कृति में हुआ था । यहीं की सुमेरीयन सभ्यता में यही मनुस् अथवा नूह के रूप में उदय हुआ, जिसका हिब्रू परम्पराओं नूह के रूप वर्णन में भारतीय आर्यों के मनु के समान है।
मनु की नौका और नूह की क़िश्ती
दोनों प्रसिद्ध हैं।
मन्नुस, रोमन लेखक टैसिटस के अनुसार, जर्मनिक जनजातियों के उत्पत्ति मिथकों में एक व्यक्ति था। रोमन इतिहासकार टैसिटस इन मिथकों का एकमात्र स्रोत है।
जिससे यूरोपीय भाषा परिवार में मैन (Man) शब्द आया ।
मनन शील होने से ही व्यक्ति का मानव संज्ञा प्राप्त हुई है।
श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥४॥
तिस्रो देवीः स्वधया बर्हिरेदमच्छिद्रं पान्तु शरणं निषद्य ॥८॥
तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं स्योनं सरस्वती स्वपसः सदन्तु ॥८॥
अमर कोश-3।3।42।2।2
श्रद्धां हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु ॥४॥
और इस मान:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में है और उर्वशी पुरुरवा के काव्य का मूर्त ( साकार) है। क्यों कि स्वयं पुरुरवा शब्द का मूल अर्थ है। अधिक कविता /स्तुति करने वाला- संस्कृत इसका व्युत्पत्ति विन्यास इस प्रकार है। पुरु- प्रचुरं रौति( कविता करता है) कौति- कविता करता) इति पुरुरवस्- का प्रथमा विभक्ति एक वचन का रूप पुरुरवा अधिक कविता अथवा स्तुति करने के कारण इनका नाम पुरुरवा है। क्योंकि गायत्री के सबस
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥
अध्याय- 26 - पुरुरवा का विवरण-
पुरूरवसः चरित्र एवं वंश वर्णनम्, राज्ञा पुरूरवसेन त्रेताग्नेः सर्जनम्, गन्धर्वाणां लोकप्राप्तिः। |
षडविंशोऽध्यायः
"वैशम्पायन उवाच
बुधस्य तु महाराज विद्वान् पुत्रः पुरूरवाः।
तेजस्वी दानशीलश्च यज्वा विपुलदक्षिणः।१।
अनुवाद:-
1. वैशम्पायन ने कहा: - हे महान राजा, बुध- के पुत्र पुरुरवा विद्वान, ऊर्जावान और दानशील स्वभाव के थे। उन्होंने अनेक यज्ञ किये तथा अनेक उपहार दिये।
ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।२।
अनुवाद:-
2. वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक यज्ञ किये।
सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव त्रिषु लोकेषु यशसाप्रतिमस्तदा।३।
अनुवाद:-
3. वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन भूख पर पूरा नियंत्रण था।उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था।
तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी ।४।
अनुवाद:-
4. अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति के रूप में चुना।
तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।
पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत ।५।
वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे ।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे ।६।
उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान् ।
गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे ।७।
एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च ।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।८।
अनुवाद:-
5-7. हे भरत के वंशज , राजा पुरुरवा दस साल तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मंदाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल में , उर्वशी के साथ रहे आदि स्थानं पर रहे
सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं।
8. देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया ।
देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते ।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।९।
अनुवाद:-
9. वह राजा प्रयाग के पवित्र प्रांत पर शासन करता था , जिसकी महान राजा की ऋषियों ने बहुत प्रशंसा की है ।
तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।
अनुवाद:-
10-उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम आयु, धीमान , अमावसु ,।
विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।
अनुवाद:-
धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु, वनायु और शतायु थे । इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।
उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।
तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।
आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।
आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।
नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।
उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।
विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।
ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।
देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
य: पुरुरवस: पुत्र आयुस्तस्याभवन् सुता:।
नहुषः क्षत्रियवृद्धश्च रजि राभश्च वीर्यवान्॥1।
क्षत्रियवृद्धसुतस्यसं सुहोत्रस्यात्मजस्त्रयः ॥ 2॥
पुरुरवा के पुत्र और नहुष के पिता . आयुष की गाथा-
वंशावली-
विराट विष्णु के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ उस क्रम में उतरते हुए -चंद्र-बुध- पुरुरवा -'आयुष-।
आयुस का जन्म उर्वशी में पुरुरवा से हुआ था . नहुष का जन्म आयुष की पत्नी स्वर्भानवी से हुआ इसका नाम इन्दुमती भी था।
आयुस वह एक राजा था जिसने तपस्या करके महान शक्ति प्राप्त हुई की। (श्लोक 15, अध्याय 296,शान्ति पर्व, महाभारत).
अहिर्बुध्न्यसंहिता के अनुसार, आयुष (आयुस) का तात्पर्य "लंबे जीवन" से है, जो पंचरात्र परंपरा से संबंधित है, जो धर्मशास्त्र, अनुष्ठान, प्रतिमा विज्ञान, कथा पौराणिक कथाओं और अन्य से संबंधित है। -तदनुसार, "राजा को क्षेत्र, विजय, धन प्राप्त होगा।" लम्बी आयुष और रोगों से मुक्ति। जो राजा नियमित रूप से पूजा करता है, वह सातों खंडों और समुद्र के वस्त्र सहित इस पूरी पृथ्वी को जीत लेगा।
पाञ्चरात्र वैष्णव धर्म की एक परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है जहां केवल विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। आयुस ने इस परम्परा का पालन किया।
गोप परम्परा का आदि प्रवर्तक गायत्री माता के परिवार के बाद पुरुरवा ही है।
पुरुरवा को अपनी पत्नी उर्वशी से आयुस, श्रुतायुस,सत्यायुस,राया,विजयाऔर जया छह पुत्र कहे गए ।
नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बता ये हैं।
"सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।
उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।
तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।
आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।
आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।
नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।
उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।
विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।
ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।
देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।
उनमें से सबसे बड़े पुत्र आयुस के भी पांच पुत्र थे जिनका नाम है नहुष,क्षत्रवृद्ध,रजि,रम्भ और अनेनास थे। नहुष का ययाति नाम का एक पुत्र था जिससे ,यदु तुरुवसु और अन्य तीन पुत्र पैदा हुए। यदु और पुरु के दो राजवंश (यदुवंशऔरपुरुवंश) आनुवांशिक परम्परा से उत्पन्न हुए हैं।
नहुष के भाई अनेना: के शुद्ध नामित पुत्र का जन्म हुआ। शुद्ध से शुचि उत्पन्न हुई जिससे त्रिकाकुप उत्पन्न हुआ और त्रिकाकुप से शान्तराय नामित पुत्र का जन्म हुआ।
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।
अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।
सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
श्री देवी (अर्थात पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।
इस प्रकार (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।
देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।
अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।
"दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।
एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।
"अध्याय- 80 -ययाति के कहने से जब यदु ने अपनी दौंनो माताओं (देवयानी- और शर्मिष्ठा) को मारने से मना कर दिया तब ययाति यदु को शाप दिया ।
' ययाति का यदु को देवयानी और शर्मिष्ठा को मारने का आदेश देना ,परन्तु यदु द्वारा ऐसा न करने पर ययाति द्वारा यदु को शाप देना"
1-2. हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा (ययाति ) ने कामदेव की पुत्री से विवाह किया, तो उनकी दो पूर्व, बहुत शुभ, पत्नियों, अर्थात्। कुलीन देवयानी और वृषपर्वन् की पुत्री शर्मिष्ठा क्या करती हैं? दोनों का सारा वृत्तान्त बताओ।
सुकर्मन ने कहा :
3-9. जब वह राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गया, तो वह उच्च विचार वाली देवयानी (उसके साथ) बहुत प्रतिद्वंद्विता करने लगी।"इस कारण उस ययाति ने क्रोध से वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु )जो देवयानी से उत्पन्न थे उनको श्राप दे दिया।" राजा दूत को बुलाकर उसके द्वारा शर्मिष्ठा से ये शब्द कहे। शर्मिष्ठे देवयानी ने सुंदरता, चमक, दान, सच्चाई और पवित्र व्रत में उसके साथ अश्रुबिन्दुमती के साथ प्रतिस्पर्धा की।तब काम देव की बेटी को उसकी दुष्टता का पता चला। तभी उसने राजा को सारी बात बता दी, हे तब क्रोधित होकर राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अपनी माता (देवयानी) को मार डालो ।
हे पुत्र, यदि तुम्हें सुख की परवाह है तो वही करो जो मुझे सबसे प्रिय है।” अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने पिता से कहा, राजाओं के स्वामी, :
9-14. “हे घमंडी पिता, मैं अपराधबोध से मुक्त होकर इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा।
वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है।
इसलिए, हे राजा, मैं इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। हे राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर सौ दोष लगें, तो उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए।
******
यह जानकर, हे महान राजा, मैं (इन) दोनों माताओं को कभी नहीं मारूंगा। उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये।
पृथ्वी के स्वामी ययाति ने तब अपने पुत्र को शाप दिया: और कहा "चूंकि तुमने (मेरे) आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का आनन्द लो"।
******************
15-19. अपने पुत्र यदु से इस प्रकार बात करते हुए, पृथ्वी के स्वामी, ययाति, महान प्रतापी राजा, ने अपने पुत्र यदु को शाप दे दिया, और पूरी तरह से विष्णु के प्रति समर्पित न होकर , कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के साथ सुख भोगा।
आकर्षक नेत्रों वाली और सभी अंगों में सुंदर अश्रुबिन्दुमती ने उसके साथ अपनी इच्छानुसार सभी सुंदर भोगों का आनंद लिया।
इस प्रकार उस श्रेष्ठ ययाति ने अपना समय व्यतीत किया। अन्य सभी विषय बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के थे; सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान के प्रति समर्पित थे।
हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से भलाई की।
"पद्म-पुराण सृष्टिखण्ड के अन्तर्गत यदु की वंशावली-
पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-80) |
"कामकन्यां यदा राजा उपयेमे द्विजोत्तम।
किं चक्राते तदा ते द्वे पूर्वभार्ये सुपुण्यके।१।
देवयानी महाभागा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
तयोश्चरित्रं तत्सर्वं कथयस्व ममाग्रतः।२।
"सुकर्मोवाच-
यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा ।
अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।३।
तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।४।
रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।
दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।
****
अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।७।
सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा ।८।
प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।९।
मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।१०।
दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत् ।
भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।११।
पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।१२।
यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह ।
शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।१३।
यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि ।
मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः।१४।
एवमुक्त्वा यदुं पुत्रं ययातिः पृथिवीपतिः ।
पुत्रं शप्त्वा महाराजस्तया सार्द्धं महायशाः।१५।
रमते सुखभोगेन विष्णोर्ध्यानेन तत्परः ।
अश्रुबिन्दुमतीसा च तेन सार्द्धं सुलोचना।१६।
बुभुजे चारुसर्वांगी पुण्यान्भोगान्मनोनुगान् ।
एवं कालो गतस्तस्य ययातेस्तु महात्मनः।१७।
अक्षया निर्जराः सर्वा अपरास्तु प्रजास्तथा ।
सर्वे लोका महाभाग विष्णुध्यानपरायणाः।१८।
तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पल ।
सर्वे लोका महाभाग सुखिनः साधुसेवकाः।१९।
एवं चिंतयतां तेषां प्रविष्टा कमलालया ।१२५।।
वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः।१२६।
________
पत्नीशालास्थिता गोपी सैणशृंगा समेखला
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्।१२७।।
पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा।१२८।।
द्योतयंती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयंते ऋत्विजस्तथा।।१२९।।
पशूनामिह गृह्णाना भागं स्वस्व चरोर्मुदा
यज्ञभागार्थिनो देवा विलंबाद्ब्रुवते तदा।।१३०।।
कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टः सर्वैर्मनीषिभिः।।१३१।
___
प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा।।१३२।
उपहूतेनागते न चाहूतेषु द्विजन्मसु
क्रियमाणे तथा भक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता।।१३३।।
____
उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्।।१३४।।
मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्
न तुल्या पादरजसा ममैषा या शिरः कृता।।१३५।।
यद्वदंति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि।१३६।।
भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्
पुत्रेषु न कृता लज्जा पौत्रेषु च न ते प्रभो।१३७।।
कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः।१३८।।
कथं न ते त्रपा जाता आत्मनः पश्यतस्तनुम्
लोकमध्ये कृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो।१३९।।
यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते
अहं कथं सखीनां तु दर्शयिष्यामि वै मुखम्।।१४०।।
भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे
(ब्रह्मोवाच)
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्।।१४१।।
________
पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना ।१४२।।
गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते।।१४३।।
पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते
(पुलस्त्य उवाच)
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता।१४४।।
यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च।।१४५।।
________
नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव।।१४६।।
करिष्यंति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्।।१४७।।
______
भोभोः शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोंतिकम्
यस्मात्ते क्षुद्रकं कर्म तस्मात्वं लप्स्यसे फलम्।।१४८।।
यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्।१४९।।
अकिंचनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः
पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे।।१५०।।
(पद्म पुराण 1.17.150)
________
सावित्री द्वारा विष्णु को शाप-
______
शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत्
भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति।।१५१।।
भो विष्णो ! भार्या वियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे
हृता ते शत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः।१५२।।
न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः
भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः।।१५३।
__
यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि।।१५४।
तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः
तदा त ॠषयः क्रुद्धाः शापं दास्यंति वै हर।।१५५।।
भोभोः कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि
तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिगं पतिष्यति।।१५६।।
(पद्म पुराण सृष्टि खण्ड 1/17/156)
घोरचारा क्रियासक्ता दारिद्र्यच्छेद कारिणी।
यादवेन्द्र- कुलोद्भूता तुरीय- पदगामिनी ।।६।।
गायत्री गोमती गङ्गा गौतमी गरुडासना। गेयगानप्रिया गौरी गोविन्द पदपूजिता।७।।
सन्दर्भ:-
(श्रीगायत्री अष्टोत्तर शतनाम स्त्रोतम्-)
★-वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं गोपी तो कहीं अभीरू आभीर कन्या तथा कहीं यादवी भी कहा है ।
★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है। क्यों कि गोप " आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे ।
यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है ।
"अध्याय -दशम -★
- इला का प्रक्षिप्त प्रकरण- और इला नामक बुद्धिमती गोपिका से बुध का विवाह "
वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा-
अध्याय एक – राजा सुद्युम्न का स्त्री बनना (9.1)
"एवं स्त्रीत्वं अनुप्राप्तः सुद्युम्नो मानवो नृपः ।सस्मार स कुलाचार्यं वसिष्ठमिति शुश्रुम ॥३६ ॥
'स तस्य तां दशां दृष्ट्वा कृपया भृशपीडितः ।
सुद्युम्नस्याशयन् पुंस्त्वं उपाधावत शंकरम् ॥३७॥
"तुष्टस्तस्मै स भगवान् ऋषये प्रियमावहन्।
स्वां च वाचं ऋतां कुर्वन् इदमाह विशाम्पते॥ ३८॥
'मासं पुमान् स भविता मासं स्त्री तव गोत्रजः ।
इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम् ॥ ३९ ॥
36 -मैंने विश्वस्त सूत्रों से सुना है कि मनु-पुत्र सुद्युम्न ने इस प्रकार स्त्रीत्व प्राप्त करके अपने कुलगुरु वसिष्ठ का स्मरण किया।
37-सुद्युम्न की इस शोचनीय स्थिति को देखकर वसिष्ठ अत्यधिक दुखी हुए। उन्होंने सुद्युम्न को उसका पुरुषत्व वापस दिलाने की इच्छा से फिर से शिवजी की पूजा प्रारम्भ कर दी।
38-39 हे राजा परीक्षित, शिवजी वसिष्ठ पर प्रसन्न हुए। अतएव शिवजी ने उन्हें संतुष्ट करने तथा पार्वती को दिये गये अपने वचन को सत्य रखने के उद्देश्य से उस ऋषि से कहा, “आपका शिष्य मनुपुत्र सुद्युम्न एक मास (महीना) तक नर रहेगा और दूसरे मास (महीना) नारी होगा। इस तरह वह इच्छानुसार जगत पर शासन कर सकेगा।
वाल्मीकिरामायण के उत्तरकाण्ड में यह कथा कर्दम ऋषि की सन्तान इल से सम्बन्धित है। और भागवत पुराण में वैवस्वत मनु के पुत्र सुद्युम्न के नाम से - अब एक व्यक्ति के दो- दो मातापिता कैसे हो सकते हैं।
"इला" के माता-पिता कि निर्धारण न होने के कारण और उसके एक महीना नर -और एक महीना नारी होने की घटना के सैद्धांतिक न होने से भी ये कथा प्रक्षिप्त है।
सन्तान जो नौ महीना में गर्भ से भ्रूण और प्रसव पूर्व सन्तान तक निर्मित होती है वह तो एक महीने में सम्भव नहीं है। ।
एवं स राजा पुरुषो मासं भूत्वाथ कार्दमिः ।
त्रैलोक्यसुन्दरी नारी मासमेकमिला ऽभवत् ।। ७.८७.२९ ।।
अनुवाद:-
इस प्रकार कर्दम से वह राजा उत्पन्न हुआ इल, एक महीने के लिए पुरुष अगले महीने इला के नाम पर एक महिला बन गया,(वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड-सर्ग- (87 श्लोक 29)
कुछ पुराणों के अनुसार -
कर्दम ऋषि की उत्पत्ति सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी की छाया से हुई थी।
ब्रह्मा जी ने उन्हें प्रजा में वृद्धि करने की आज्ञा दी। उनके आदेश का पालन करने के लिये कर्दम ऋषि ने स्वयंभुव मनु की द्वितीय कन्या देवहूति से विवाह कर नौ कन्याओं तथा एक पुत्र की उत्पत्ति की।
कन्याओं के नाम कला, अनुसुइया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरुन्धती और शान्ति थे तथा पुत्र का नाम कपिल था।
वाल्मिकी रामायण उत्तर काण्ड के पर्व 83,3 में प्रजापति कर्दम के पुत्र को बाह्लीकों राजा कहा गया है--'श्रूयते हि पुरा सौम्य कर्दमस्य प्रजापते:, पुत्रो बाह्लीश्वर: श्रीमानिलोनाम सुधारमिक:' जिसकी नाम इल था।
अत: बुध से वैवस्वत मनु की पुत्री इला अथवा कर्दम ऋषि के पुत्र इल का इला होरकर सन्तान उत्पन्न करना काल्पनिक व सिद्धांत हीन है।
ध्रुव महाराज का यक्षों से युद्ध श्रीमद्भागवत - स्कन्ध 4 अध्याय 10-
श्लोक 4.10.2
इलायामपि भार्यायां वायोः पुत्र्यां महाबलः।
पुत्रं उत्कलनामानं योषिद् रत्नमजीजनत् ।२।
समानार्थी शब्द:-इल्याम् - अपनी इला द्वारा नियुक्त पत्नी को; अपि - भी; भार्याम् - अपनी पत्नी के प्रति; वायुः - देवता वायु (वायु के नियंत्रक) का; पुत्रीम् – पुत्री को; महा - बलः - शक्तिशाली शक्तिशाली ध्रुव महाराज; पुत्रम् – पुत्र; उत्कल – उत्कल; नामानम् – नाम का; योषित - स्त्री; रत्नम् – रत्न;अजीजानत - उसका जन्म हुआ।
अनुवाद:-महाबली ध्रुवकी दूसरी स्त्री वायुपुत्री इला थी। उससे उनके उत्कल नामके एक पुत्र और एक कन्यारत्नका जन्म हुआ ॥ 2 ॥
श्रीमद्भागवतपुराणम् - स्कन्धः ४ अध्याय१० श्लोक २।
📚: इस प्रसंग में संस्कृत के पौराणिक कथा-कोश लक्ष्मीनारायण संहिता से उद्धृत निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं।
कि जब ययाति यदु से उनकी युवावस्था का अधिग्रहण करने को कहते हैं
तब यदु उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।
"यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।७२।
अनुवाद:-उन ययाति ने यदु से कहा :-कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का भोग करो ।
यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप।
जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।७३।
कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्।
सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।७४।
136-138- ऐसा ही होगा, हे गौरवशाली राजी! आपके महल में एक पुत्र होगा, जो मेधावी होगा, आपके वंश को कायम रखेगा और सभी जीवित प्राणियों पर दया करेगा। वह सभी सद्गुणों और विष्णु के अंश से संपन्न होगा। वह, मनुष्यों का स्वामी, इंद्र के बराबर एक संप्रभु सम्राट होगा।
इस प्रकार उसे वरदान देने के बाद, महान ध्यानी योगी दत्तात्रेय ने राजा को एक उत्कृष्ट फल दिया और उससे कहा: "इसे अपनी पत्नी को देना।" इतना कहकर, और उस आयुस् को, जो उसके सामने नतमस्तक हुआ था, दत्तात्रेय उसे आशीर्वाद देकर , वह गायब हो गये।
इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०३।
नहुष चन्द्रवंश का एक प्रसिद्ध राजा था। वह सम्राट आयुष् के पुत्र थे। एक समय तो वह इंद्र भी बन गया थे। अंत में अगस्त्य ऋषि ने उन्हें सर्प बनने का श्राप दे दिया।
परिवार
पिता: आयुष्
माता : इन्दुमती
भाई: क्षत्रियवृद्ध, राभ, अनैना
पत्नी: अशोकसुन्दरी
पुत्र : याति, ययाति , संयाति, अयाति, वियाति, कृति
(नह्यति सर्व्वाणि भूतानि माययेति - जो माया द्वाराजगत के सभी प्राणियों को बाँधता है वह विष्णु नहुष हैं।
(महाभारते ।१३।१४९।४७। “
परन्तु पद्मपुराण भूमि-खण्ड में नहुष शब्द की व्युत्पत्ति {नञ्+ हुष्+घञ्}=नहुष: जो कभी पराजित न हो।
नहुष को स्वर्ग में प्रवेश करने की अनुमति दी गई क्योंकि उसने वैष्णव यज्ञ करके खुद को शुद्ध कर लिया था।
(महाभारत, वन पर्व, अध्याय 257, श्लोक 5)।
महाभारत, सभा पर्व, अध्याय 8, श्लोक 8
में कहा गया है कि नहुष, मृत्यु के बाद, राजा यम (मृत्यु के देवता) के महल में रहते है।
(9) ऋग्वेद , मण्डल 1, अनुवाक 7, सूक्त 31 की 11वीं ऋचा में पुरुरवा के पुत्र आयुस् वर्णन है और उसके भी पुत्र नहुष के इन्द्र बनने का उल्लेख मिलता है।
त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विश्पतिम् ।
इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते ॥११॥
-हे (अग्ने) तुम ! (देवाः) देवों ने (नहुषस्य) पुरुरवा के पौत्र की (आयवे) आयुस् के लिये इस (इळाम्) वाणी को (अकृण्वन्) प्रकाशित किया तथा (मनुष्यस्य) मनुष्यमात्र की (शासनीम्) सत्य शिक्षा को (अकृण्वन्) प्रकाशित किया और (यत्) जैसे (ममकस्य) हम लोगों के (पितुः) पिता का (पुत्रः) (जायते) उत्पन्न होता है।॥ ११ ॥
सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य
नहुष पुरुरवा के पुत्र 'आयुष- का पुत्र था , जिसे इंद्र के रूप में स्वर्ग में पदोन्नत किया गया था । इला( पृथ्वी - गाय) यज्ञ करने के पहले नियमों को साधन बनाती है, इसलिए वह शासनि = धर्मोपदेशकर्तृ, कर्तव्य में वाद्य कर्म की दाता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें