शनिवार, 23 मार्च 2024

लोकाचरण-खण्ड}-" सम्पूर्ण खण्ड" संशोधित-पाठ - कॉपीड-


{लोकाचरण-खण्ड}- सम्पूर्ण खण्ड-" संशोधित-पाठ

अनुवाद:-
उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी।  नरदेव ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्वारा हल्लीसक नृत्य का आयोजन किया।६८।
हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व /अध्याय- 89/ श्लोक-68 
श्री कृष्ण और संकृष्ण (संकर्षण) दोनों ही महापुरुष अपने युग के महान कृषि पद्धति के जन्मदाता थे। कृष्ण ने संगीत और कलाओं में महारत हासिल की और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार किया उस समय संगीत में स्वरों के स्वरग्राम (सरगम) के सन्धान के लिए वंशी नामक सुषिर वाद्य- का बाँस के वृक्ष से निर्माण कर कृष्ण ने बनाया। कृष्ण ने संगीत को सृष्टि की आदि-विद्या और कला मानकर आभीर जाति के नाम पर राग आभीर भी दिया 
सम्भवत: फारसी भाषा में प्रचलित शब्द सूराख जो ( छिद्र) का वाचक है। सुषिर का ही तद्भव है।

वेदों में ऋग्वेद के प्राचीन होने पर भी संगीत के वेद  साम-वेद को कृष्ण ने अपनी विभूति माना और उद्घोष किया।

"वेदानां सामवेदोस्मि देवानामस्मि वासव: । इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।१०/२२। श्रीमद्भगवद्गीता-

मैं वेदो में सामवेद हूँ ? देवों में वासव हूँ और  इन्द्रियों में संकल्पविकल्पात्मक मन हूँ। सब भूतों- (प्राणियों) में चेतना हूँ। कार्यकरण के समुदायरूप शरीर में सदा प्रकाशित रहने वाली जो चिन्तन वृत्ति है ? उसका नाम चेतना है।

वास्तव में रास का प्रारम्भिक रूप हल्लीषक नृत्य है। हल्लीषक - नृत्य का आधार हल और ईषा-(ईसा) की आकृति है। वास्तव इनमें  हल्लीषम्- ईषा-(ईसा) की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही है। मनुष्य जीवन पर्यन्त जिन व्यवहारों का नित्य सम्पादन करता रहता है अपने उत्सवों में भी मनुष्य वही अभिनय समन्वित कर आनन्दित होता रहता है। 
वस्तव में उत्सव जीवन की भागदौड़ में एक विश्राम स्थल (पड़ाव) हैं जहाँ जीवन की भाग दौड़ से थका हुआ व्यक्ति कुछ समय के लिए सब- कुछ भूलकर विश्राम करता है।
कृष्ण का जन्म गोप - आभीर जाति में हुआ था जो सनातन काल से गोपालक रही है। गो चारण काल में इन गोपों की आवश्यकता ने पशुओं के चारे घास आदि के  लिए और स्वयं गोपाल क अ के अपने भोजन के लिए भी कृषि विधि को जन्म दिया । 
ग्राम शब्द का मूल अर्थ - ग्रास या घास युक्त भूमि से है। जहाँ पशुपालक- अपना पड़ाव डालते थे ;धीरे धीरे उनके ये पड़ाव स्थाई होने लगे और ग्राम-सभ्यता का जन्म हुआ। जबकि नगर सभ्यता व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक केन्द्र के रूप में विकसित हुईं जिन्हे आज हम बाजारवाद कह सकते हैं। जहाँ वणिकों की बस्तियाँ ही बहुतायत में होती हैं।

ग्रामीण जीवन का पालन करने वाले गोपों की गोप- ललनाऐं विशेष उत्सवों पर हल्लीसक नृत्य का आयोजन पुरुषों के सहयोग से करती थीं। और अनेक रागों पर गीत गाती थीं। अहीरों ने संगीत को अनेक लौकिक अवदान दिये ।
हल्लीसक- शब्द पुराणों विशेषत: हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय (89) में  अहीरों के सांस्कृतिक नृत्य के रूप में  वर्णित है।

हल्लीषम् शब्द के मूल में निहित हल धातु का मूल अर्थ-
हल -विलेखे भ्वादिगणीय परस्मैपदीय सकर्म सेट् धातु से  -हलति अहालीत् आदि क्रिया रूप बनते हैं। हलः हालः-  हल्यते कृष्यतेऽनेन  इति हल्+ घञर्थे करणे (क)। लाङ्गल ( हल) अमरः कोश। कृषि शब्दे २१९८ पृ० दृश्यम् ।
हल वह यन्त्र जिससे कृषि कार्य किया जाए-

और ईषा -हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठे (लाङ्गलदण्डे)वा हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड - हल और ईषा इन दोनों शब्दों से तद्धित शब्द बनता है। हल्लीषा- हल्लीषक ।

हल्लीषा- एक नृत्य जो हल और उसके ईषा ( दण्ड) के समानान्तर दृश्य में आकृति बनाकर  मण्डलाकार विधि से किया जाता था।

वैसे कृष्ण और संकर्षण शब्द कृषकों के विशेषण हैं। गोपों में जन्म लेने वाले ये दोनों महानायक कृषि पद्धति के जनक भी थे कृषि करने के लिए हल तथा उस धान्य को पीट कर अन्न पृथक करने के लिए मूसल- का आविष्कार भी कृष्ण के बड़े भाई संकर्षण के द्वारा ही किया गया था। 
इनकी लोक संस्कृति में भी यही आविष्कार प्रदर्शित थे उनका सांस्कृतिक नृत्य हल्लीषम्- हल और ईषा की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही था ।

जिसे पुराणकारों ने श्रृँगार रस में डुबोकर रास के नाम से काव्यात्मक रूप में वर्णन किया है।संकर्षण का हलधर विशेषण भी उनके कृषक होने का प्रमाण है।
हलधर= हलं धरति आयुधत्वं कृषिसाधनत्व वा धृ +अच् ।  बलराम  कृषक उदाहरण “उन्मूलिता हलधरेण पदावधतैः” उद्भटः ।

इन गोपों कि हल्लीषम् नृत्य (हल्लीश, हल्लीष)= 
नाट्यशास्त्र में वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के रूप में मान्य है।
 विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। 
इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं  जिसे मंडल बाँधकर  जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।

साहित्यदर्पण (।६। ५५५।) में इसका लक्षण निम्न प्रकार से है।
“हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः। वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः। मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः॥

विशेष—पौराणिक परम्परा  इस क्रीड़ा का आरंभ कृष्ण द्वारा  कभी मार्गशीर्ष की पूर्णिमा  को तो कभी  कार्तिकी पूर्णिमा को आधी रात के समय को मानती है।

तब से गोप लोग यह क्रीड़ा करने लगे थे। पीछे से इस क्रीड़ा के साथ कई प्रकार के पूजन आदि मिल गए और यह मोक्षप्रद मानी जाने लगी।
इस अर्थ में यह शब्द प्रायः स्त्रीलिंग बोला जाता है। जैसे  हल्लीषा-

इसमें लास्य नृत्य ( स्त्री नृत्य) की प्रधानता ही होती है इसी लिए इसे रास्य( लास्य) भी कहा जने  लगा।

भारतीय संस्कृति में प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति होती थी। कृष्ण की रासलीला इसका प्रतीक है।
भक्तिकाव्य में रासलीला शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। दरअसल रास एक कलाविधा है।
प्रेम और आनंद की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण की उदात्त प्रेमलीलाओं का भावाभिनय ही रासलीला कहलाता है।

मूलतः यह एक नृत्य है जिसमें कृष्ण को केंद्र में रख गोपियां उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति मैं वृत्ताकार नर्तन करती हैं। 

अष्टछाप के भक्तकवियों नें प्रेमाभिव्यक्ति करने वाले अनेक रासगीतों की रचना की है।
रास में आध्यात्मिकता भी है जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति अनुराग व्यक्त होता है।
वे वृत्ताकार मण्डल में प्रेमाभिव्यक्ति करती हैं।
जिसे भविष्य-पुराणकार ने हल्लीषम् अवश्य कहा-

रासक्रीड़ायाञ्च तल्लक्षणं यथा “पृथुं सुवृत्तं मसृणं वितस्तिमात्रोन्नतं कौ विनिखन्य शङ्कुकम् ।
आक्रम्य पद्भ्यामितरेतरन्तु हस्तैर्भ्रमोऽयं खलु रासगोष्ठी” 
(हरिवंश पुराण टीका नीलकण्ठः शास्त्री)

"संस्कृत में हल्लीषम् शब्द अर्थ का विश्लेषण-

एक विद्वान डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल का मत है "कि हल्लीसं शब्द यूनानी इलिशियन- नृत्यों ( इलीशियन मिस्ट्री डांस) से विकसित है। इसका विकास ईस्वी सन् के आसपास माना जाता है।

सन्दर्भ- हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन-पृष्ठ संख्या 33-

वास्तव में हल्लीषम् और इलिशियन दोनों शब्द पृथक पृथक है।

विशेषण को तौर पर एलिसियन शब्द एक आनंदमय स्थिति का वर्णन करता है, जैसा कि अधिकांश लोग स्वर् पर आनंद लेने की उम्मीद करते हैं।

एलीसियन शब्द एलीसियन फील्ड्स नामक रमणीय यूनानी पौराणिक स्थान से आया है।

हालाँकि अब इस शब्द को अक्सर स्वर्ग के साथ समझा जाता है, ग्रीक एलीसियन फील्ड्स वास्तव में मृत्यु के बाद के जीवन में जाने के लिए एक स्वर्गीय विश्राम स्थल का नाम था।

संभवतः इस अवधारणा की कल्पना मूल रूप से युद्ध के दौरान सैनिकों में वीरता को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी। 

आजकल, लोग किसी भी स्वर्गीय दृश्य का वर्णन करने के लिए एलिसियन का उपयोग करते हैं -

एलीसियम -
1590 के दशक, लैटिन एलीसियम से, ग्रीक एलीसियन (पेडियन) से "एलिसियन क्षेत्र", मृत्यु के बाद धन्य लोगों का निवास, जहां नायक और गुणी निवास करते हैं, जो अज्ञात मूल का है, शायद प्री-ग्रीक (एक गैर-आईई सब्सट्रेट भूमध्यसागरीय भाषा) से ). इसका उपयोग पूर्ण प्रसन्नता की स्थिति के लाक्षणिक रूप में भी किया जाता है।
दूसरा लैटिन शब्द इल्युशन भी है 

पुरानी फ्रांसीसी भाष से , लैटिन (illuso) से और (illūdere) से  क्रियाओं विकसित शब्द -
, में (in- में " ) + lūdere -"खेलने के लिए क्रीड़ा करना खेलना ") आदि रूपों से सम्बन्धित है।
यह क्रिया, लैटिन के साथ (ludus)"एक खेल, खेलो, ये सम्बन्धित है।" 
PIE-( proto- indo- europian) (आद्य भारोपीय)  रूट -*leid-या*loid- से सम्बंधित है जिसका अर्थ है "खेलना,"
मृगतृष्णा

लैटिन (illusio) से ही फ्रांसीसी में विकसित (illusion) भ्रम का वाचक है। इस इल्युशन शब्द के मोह माया  जादू आदि अन्य अर्थ भी प्रचलित हैं। देखा जाय तो संस्कृत में भी 
१-लड्=

विलास करना /क्रीडा करना

२-लड= उपसेवायाम्
३-लड= विकाशे आदि अर्थों की वाचक धातु धातुपाठ में लिखित है।
लल= ईप्सायाम् - लालयते कुं लालयते-कुलालः भ्वादौ लड- विलासे (1250) लडति 155।

जिससे लाड- लाडो, ललन, लीला ,जैसे शब्द विकसित हुए है।

लास्य रूप में प्रचलित रास का मूल रूप है।
इसका विकास संस्कृत धातु -लस=

श्लेषण,क्रीडनयोः
(लसतीत्यादि विलासी) "वौ कषलस''इति तच्छीलादौ घिनुण् न लसः, (अलसः, आलस्यम्)

लस=
शिल्पयोगे च।
अत्र स्वामी शिल्पोपयोगइति पठित्त्वा केचिन्मूर्धन्यान्तं पठन्तीत्याह ( लासयति ) श्लेषणक्रीडनयोर्लसतीति शपि 193
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मध्यकाल में इसमें जो आध्यात्मिकता थी वह धीरे धीरे गायब होती गई और विशुद्ध मनोरंजन शैलियों वाली गिरावट इस भक्ति और अध्यात्म को अभिव्यक्त करनेवाली विशिष्ट विधा में भी समा गई। वैसे आज भी बृज की रास मण्डलियां प्रसिद्ध हैं।
कथक से भी रास को जोड़ा जाता है किन्तु कथक की पहचान जहां एकल प्रस्तुति में मुखर होती है वहीं रास सामूहिक प्रस्तुति है। 

अलबत्ता रास शैली का प्रयोग कथक और मणिपुरी जैसी शास्त्रीय नृत्यशैलियों में हुआ है। इसके अलावा गुजरात का जग प्रसिद्ध डांडिया नृत्य रास के नाम से ही जाना जाता है। रास का मुहावरेदार प्रयोग भी बोलचाल की भाषा में खूब होता है। रास रचाना यानी स्त्री-पुरुष में आपसी मेल-जोल बढ़ना। रास-रंग यानी ऐश्वर्य और आमोद-प्रमोद में लीन रहना।

रास शब्द रास् धातु से आ रहा है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है।

इससे बना है रासः जिसमें होहल्ला, किलोल सहित एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे। 

इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है। कुछ कोशों में इसका अर्थ हास्यनाटक भी कहा गया है। 
दरअसल रासलीला जब कला विधा में विकसित हो गई तो वह सिर्फ नृत्य न रहकर नृत्यनाटिका के रूप में सामने आयी।
नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है। 

रासलीला में हंसोड़पात्र ( विदूषक) भी आते हैं जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं। इसलिए रासकम् को सिर्फ हास्यनाटक कहना उचित नहीं है। मूलतः रास् से बने रासकम् का ही रूप मध्यकालीन साहित्य की एक विधा रासक के रूप में सामने आया। 

रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं।

विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है। र औ ल एक ही वर्णक्रम में आते हैं।  लास्य का ही प्राकृत रूप रास्स होता है। 
 
कतिपय विद्वानों का मानना है कि श्रीकृष्ण के समय रास शब्द प्रचलित नहीं था। वे नृत्य की परिपाटी और श्रीकृष्ण के कलाप्रेम को खारिज नहीं करते हैं। कृष्णचरित से कलाओं को अलग किया ही नहीं जा सकता। मुरलीमनोहर और गोप-गोपियों के मेल ने भारतीय संस्कृति को विविध कलाएं दी हैं। गुप्तकालीन रचना रास पंचाध्यायी से मण्डलाकार नृत्य के लिए रास शब्द का प्रचलन बढ़ा है। निश्चित ही रास ब्रज क्षेत्र का पारम्परिक लोकनृत्य रहा है। कृष्ण चरित से इस शब्द के जुड़ा होने के पीछे की भ्रम की गुंजाइश नहीं है। 
पण्डा शब्द का संदर्भ पोथी-जन्त्री तक ही सीमित है। इस वर्ग का नृत्य या कलाकर्म में कोई दखल नहीं था इसलिए रास शब्द से इन्हें जोड़ना भी ठीक नहीं। 

संलापकं श्रीगदितं शिल्पकं च विलासिका ।
दुर्मल्लिका प्रकरणी हल्लीशो भाणिकेति च ।। सूत्र ६.५ ।। साहित्य दर्पण-

हल्लीशक महाभारत में वर्णित एक नृत्यशैली है। इसका एकमात्र विस्तृत वर्णन महाभारत के खिल्ल भाग हरिवंश (विष्णु पर्व, अध्याय 20) में मिलता है। 
विद्वानों ने इसे रास का पूर्वज माना है साथ ही रासक्रीड़ा का पर्याय भी। आचार्य नीलकंठ ने टीका करते हुए लिखा है - 'हस्लीश क्रेडर्न एकस्य पुंसो बहुभि: स्त्रीभि: क्रीडन सैव रासकीड़'। (हरि. 2.20.36) 'हल्लीशक' का शाब्दिक अर्थ है - 'हल का ईषा- हत्था'।

यह नृत्य स्त्रियों का है जिसमें एक ही पुरुष श्रीकृष्ण होता है। यह दो दो गोपिकाओं द्वारा मंडलाकार बना तथा श्रीकृष्ण को मध्य में रख संपादित किया जाता है। हरिवंश के अनुसार श्रीकृष्ण वंशी, अर्जुन मृदंग, तथा अन्य अप्सराएँ अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बजाते हैं।

इसमें अभिनय के लिए रंभा, हेमा, मिश्रकेशी, तिलोत्तमा, मेनका, आदि अप्सराएँ प्रस्तुत होती हैं। सामूहिक नृत्य, सहगान आदि से मंडित यह कोमल नृत्य श्रीकृष्णलीलाओं के गान से पूर्णता पाता है। इसका वर्णन अन्य किसी पुराण में नहीं आता। 
भासकृत बालचरित्‌ में हल्लीशक का उल्लेख है। अन्यत्र संकेत नहीं मिलता।

शूरसेन या मथुरा मंडल जिसमें श्रीकृष्ण के लीला स्थल विशेष रुप से सम्मिलित है, भक्तिकाल में व्रज प्रदेश के रुप में प्रसिद्ध हुआ। पुराणकाल में यह क्षेत्र मथुरा मंडल तथा विभिन्न ग्रंथों में शूरसेन जनपद के रुप में विख्यात रहा था। वर्तमान ब्रज क्षेत्र पर यदि ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए तो यह क्षेत्र भी कभी एक सुरम्य वन प्रदेश था, जहाँ प्रमुख रुप से आभीर निवास करते थे। मथुरा राज्य के आदि संस्थापक मधु ने हरिवंश पुराण में स्वयं कहा है कि मेरे राज्य में चारों ओर आभीरों की बस्ती है।

इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि आभीर जाति देव संस्कृति के अनुयायियों से इतर थी और उनकी संस्कृति बहुत समृद्ध थी तथा देव संस्कृति  से उसमें काफी असमानता थी। आभीरों में स्त्री-स्वातंत्र्य देवसंसकृति   की अपेक्षा अधिक था, वे नृत्य-गान में परम प्रवीण और केशो की दो वेणी धारण करने वाली थीं। 'हल्लीश' या 'हल्लीसक नृत्य' इन आभीरों की सामाजिक नृत्य था, जिसमें आभीर नारियाँ अपनी रुचि के किसी भी गोप पुरुष के साथ समूह बनाकर मंडलाकार नाचती थीं। हरिवंश पुराण के हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय में उल्लेख है- कृष्ण की इंद्र पर विजय के उपरांत आभीर रमणियों ने उनके साथ नृत्य करने का प्रस्ताव किया। भाई या पति व अन्य आभीरों के रोकने पर भी वे नहीं रुकीं और कृष्ण को खोजने लगीं-

"ता वार्यमाणा: पतिमि भ्रातृभिर्मातृमिस्तथा।
कृष्ण गोपांगना रात्रो मृगयन्ते रातेप्रिया:।।
-हरिवंश, हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय, श्लोक २४

आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था। नृत्य का स्वरुप स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्र का टीका में अभिनव गुप्त ने कहा है-

"मण्डले च यत स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकंतु तत्।
नेता तत्र भवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।।

इसी नृत्य को श्री कृष्ण ने अपनी कला से सजाया तब वह रास के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण 'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं।

द्वारका के राज दरबार में प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त द्वारका आकर उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रुप से जोड़ा व इसे स्री-समाज को सिखाया और देश देशांतरों में इसे लोकप्रिय बनाया। सारंगदेव ने अपने 'संगीत-रत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। वह लिखते है-

"पार्वतीत्वनु शास्रिस्म, लास्यं वाणात्मामुवाम्।
तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।७।
तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:।
एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्।८।

इस प्रकार रास की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली। जैन धर्म में रास की विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा, क्योंकि जैनियों के २३वे तीर्थकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही आभीर यदुवंशी थे। उन्हें प्रसन्न करने का रास किया जा सकता है

आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था परन्तु कामुकता नही थी । व्रज रास भारत के प्राचीनतम नृत्यों में अग्रगण्य है। अत: भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्र में रास को रासक नाम से उप-रुपकों में रखकर इसके तीन रुपों का उल्लेख किया है-

१- मंडल रासक, २-ताल रासक,३- दंडक रासक या लकुट रासक। 

देश में आज जितने भी नृत्य रुप विद्यमान हैं, उन परत्र रास का प्रभाव किसी-न-किसी रुप में पड़ा है।

 गुजरात का 'गरबा', राजस्थान का 'डांडिया' आदि नृत्य, मणिपुर का रास-नृत्य तथा संत ज्ञानदेव के द्वारा स्थापित 'अंकिया नाट' तो पूरी तरह रास से ही प्रभावित नृत्य व नाट्य रुप है।


यह हल्लीसक एक प्रकार का वादन – गान के साथ लोकनृत्य था । यही रास का प्रारम्भिक रूप था । छालिक्य एक समूह गीत था , जिसके अन्तर्गत विभिन्न वाद्यों का वादन एवं नृत्य होता था । विष्णु पर्व के अनुसार इसको विभिन्न ग्रामरागों के अन्तर्गत विविध स्थान तथा मूर्च्छनाओं के साथ गाया जाता था ।
 यह गान शैली अत्यन्त कठिन थी ।

"आधुनिक विद्वानों का मत हैं, 'रास' शब्द कृष्ण-काल में प्रचलित नहीं था ; उसका प्रचलन बहुत बाद में हुआ। 'रास' शब्द के सर्वाधिक प्रचार का श्रेय श्रीमद्भागवत की 'रास-पंचाध्यायी' को है, जिसकी रचना गुप्त काल से पहिले की नहीं मानी जाती है। 

कुछ विद्वान 'रास' का पूर्व रूप 'हल्लीसक' मानते है। 'रास' और 'हल्लीसक' पृथक्-पृथक् परंपराएँ थी। जो बाद में एक-दूसरे से संबंद्ध हो गई थीं। 

इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य-नाट्य का आरंभिक नाम 'हल्लीसक'  था। उसके लिए सदा से 'रास' शब्द ही लोक में प्रचलित नहीं रहा है। ऐसा ज्ञात होता है 'रास' की पहिले मौखिक परंपरा थी, जो प्रचुर काल तक विद्यमान रही थी। उसी मौखिक और लोक प्रचलित शब्द को 'भागवत' कार ने साहित्य में अमर-कर दिया था।

      •अध्याय- द्वितीय★

कृष्णोत्तर काल से मौर्य-पूर्व काल तक की स्थिति में "रास" का स्वरूप।

श्रीकृष्ण द्वारा प्रचलित तथाकथित 'रास' आरंभ में व्रज का एक लोक-नृत्य अथवा लोक नृत्य-नाट्य था, जो पुरातन ब्रजवासियों के मनोविनोद का साधन था। जब कृष्णोपासना का प्रचार हुआ, तब 'रास' को भी धार्मिक महत्व प्राप्त हो गया था।

उस समय लोक के साथ धर्म के क्षेत्र में भी रास का प्रवेश हो गया था। कृष्णोपासक भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मो ने 'रास' की धार्मिक महत्व को स्वीकार किया था, और श्रीमद्भागवत ने उसके गौरव को बढ़ाया था।


प्राचीन "व्रज  में बुद्ध एवं महावीर द्वारा प्रवर्तित बौद्ध तथा जैन धर्मो का प्रचार हुआ, तब भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मों का प्रभाव कुछ कम हो गया था। 

फलत: कृष्णोपासना तथा 'रास' के धार्मिक महत्व में भी कमी आ गई थी। उसका एक बड़ा कारण यह था कि बौद्ध और जैन धर्म वैराग्य एंव निवृत्ति प्रधान थे; जिनकी धार्मिक मान्यता में कृष्णोपासना एवं 'रास' के लिए कोई समुचित स्थान नहीं था। 

बौद्ध-जैन धर्मों को कुछ समय पश्चात ही अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना पड़ा था। तब उनके द्वारा नृत्य-नाट्य के धार्मिक स्वरूप को प्रश्रय प्रदान किया गया। उस परिवर्तन का प्रभाव प्राचीन ब्रज में दिखलाई देने लगा था। फलत: पौराणिक हिंदू धर्मों के मंदिर-देवालयों की भाँति बौद्ध-जैन धर्मो के उपासनालयों एवं पूजा-गृहों में भी नृत्य-नाट्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। इसका प्रमाण तत्कालीन साहित्यिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक उल्लेखों और स्थापत्य की कलाकृतियों में मिलता है।जहाँ तक 'रास' का संबंध हैं, उसकी स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ कलाकृतियों में उसके रूप का आभास होता है।

नृत्य अहीरों में पहले से  रहा है। उर्वशी का नाम एक खूबसूरत नर्तकी के रूप में लिया जाता था और उस युग में नर्तकियों को अप्सरा कहा जाता था। । पुरुरवा और उर्वशी नाम इतिहास में शामिल करते समय इन दोनों के माता पिताओं का नाम अहीर जाति से सम्बन्धित है।,
तथा उर्वशी भगवान  कृष्ण की विभूति हैं।  पुरुरवा गोप और उर्वशी अहीर का नाम इतिहास में जुड़ा तो बहुत बड़ी महाक्रान्ति होगी।

जितने अपने को चन्द्र वंशी ,सोमवंशी यदुवंशी कुरुवंशी राजपूत क्षत्रिय कहते हैं। वह सब अहीरों से सम्बन्धित शाखाएं हैं। 

यादवों का प्राचीन काल से ही गायन वादन और नृत्य अर्थात संगीत विधा पर पूर्ण स्वामित्व रहा है।
"हल्लिशम नृत्य और आभीर राग अहीरों की मौलिक संगीत सर्जना का प्रमाण है।

भगवान कृष्ण का  जन्म व बाल्यकाल आभीर जाति में हुआ था। आभीरों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति थी, जिसमें पूर्ण नारी- स्वातंत्रय तो था ही, साथ ही वे राग- रंग के भी बड़े प्रेमी थे। उनका लोकनृत्य हल्लीश या हल्लीसक सर्वविख्यात रहा है, जिसका वर्णन अनेक लक्षण ग्रंथों में भी मिल जाता है --

"मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् । तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६।

सरस्वतीकण्ठाभरणम्  /परिच्छेदः (२)
सरस्वतीकण्ठाभरणम्
परिच्छेदः २
भोजराजः

यदाङ्गिकैकनिर्वर्त्यमुज्झितं वाचिकादिभिः ।
नर्तकैरभिधीयेत प्रेक्षणाक्ष्वेडिकादि तत्।२.१४२।

तल्लास्यं ताण्डवं चैव छलिकं संपया सह ।
हल्लीसकं च रासं च षट्‌प्रकारं प्रचक्षते ।२.१४३।
____________________
मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् ।
तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६ ।। (२.१४४)
अर्थ-
मण्डल ( घेरा) में जो गोपस्त्रीयों का नृत्य होता है वह हल्लीसक  कहलाता है ।
उसमें एक गोप सभी गोप- स्त्रीयों का नेतृत्व करने वाला होता है जैसे भगवान कृष्ण होते हैं ।

"अङ्गवाक्सत्वजाहार्यः सामान्यश्चित्र इत्यमी ।
षट् चित्राभिनयास्तद्वदभिनेयं वचो विदुः ।। २.१५७ ।। (२.१४५)

चतस्त्रो विंशतिश्चैताः शब्दालङ्कारजातयः ।
शब्दसन्दर्भमात्रेण हृदयं हर्तुमीशते ।। २.१५८ ।। (२.१४६)
____________________

इति श्रीराजाधिराज भोजदेवेन विरचिते सरस्वतीकण्ठाभरण नाम्नि अलङ्कारशास्त्रेऽलङ्कारनिरूपणं नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।

नाट्यशास्त्र में भी वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के सन्दर्भ में हल्लीसक नृत्य या विवेचन है ।
विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। 
इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं। 
यह गोप संस्कृति का प्राचीन नृत्य है जो उत्सव विशेष पर किया जाता था।

मंडल बाँधकर होनेवाला एक प्रकार का नाच जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।
इसी को नीमान्तरण से लास्य: तो कहीं रास्य या रास भी कहा जाने लगा।

यह हल्लीसक नृत्य एक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें नायिका अनेक किंतु नायक एक ही होता था। इस नृत्य के लिए आभीर स्त्रियाँ उस पराक्रमी पुरुष को अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित करती थीं, तो अतुलित पराक्रम प्रदर्शित करता था। हरिवंश पुराण के अनुसार आभीर नारियों ने श्री कृष्ण को इस नृत्य के लिए उस समय आमंत्रित किया था, जब इंद्र- विजय के उपरांत वह महापराक्रमी वीर पुरुष के रुप में प्रतिष्ठित हुए थे।
इन्द्र- विजय के उपरान्त आभीर नारियों के साथ श्री कृष्ण के इस नृत्य का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के हल्लीसक क्रीड़न अध्याय में प्राप्त हुआ है। 
इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः रास' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।

भगवान कृष्ण के द्वारकाधीश चले जाने पर यह नृत्य कृष्णकाल में द्वारका के यदुवंशियों 
का राष्ट्रीय नृत्य बन गया था।  गुजरात के अहीर आज तक इस परम्परा का निर्वहन करते चले आ रहे हैं। इस नृत्योत्सव का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के "छालिक्य संगीत' अध्याय में उपलब्ध है। 
शारदातनय का कथन है कि द्वारका में रास के विकास में श्री कृष्ण की पौत्रवधू अनिरुद्ध- पत्नी उषा का बड़ा योगदान था, जो स्वयं नृत्य में पारंगत थी। यह पार्वतीजी की शिष्या थी, जिसने उनसे लास्य- नृत्य की शिक्षा ग्रहण की थी। 
उसने द्वारका के नारी- समाज को विशेष रुप से रास- नृत्य में प्रशिक्षित किया था। 

द्वारका पहुँचने पर यह रास- नृत्य नाटिकाओं का रुप ले चुका था। जिसमें श्री कृष्ण व बलराम की जीवन की प्रमुख घटनाओं का प्रदर्शन होता था।

भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्र में लोकधर्मी उपरुपकों के अंतर्गत रास के "रासक' और "नाट्य रासक' दो रुपों का उल्लेख किया है।इससे प्रतीत होता है कि उस काल में रास के दो रुप अलग- अलग विकसित हो गए थे। "नाट्य रासक' जहाँ नाट्योन्मुख नृत्य- संगीत का प्रतिनिधि था, वहाँ इसका शुद्ध नृत्य रुप "रासक' था। "रासक' के भरतमुनि ने भेद किए हैं --

१. मण्डल रासक 
२. लकुट रासक तथा 
३. ताल रासक। 

मण्डलाकार नृत्य मंडल रासक, हाथों से दंडा बजाकर नृत्य करना लकुट रासक या दंड रासक और हाथों से ताल देकर समूह में नृत्य करना संभवतः ताल रासक था। यह रासक परंपरा बाद में विभिन्न रुपों में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों में विकसित हुई ( जिसका परिचय यहाँ देना संभव नहीं है ) बाद में जैन धर्म में ही रासक परम्परा बाद बहुत लोकप्रिय हुई, क्योंकि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमिनाथजी को जैन धर्म ने अपना २३ वाँ तीर्थंकर स्वीकार कर लिया था। जिन्हें प्रसन्न करने के लिए जैन मंदिरों में भी रास उपासना का अंग बन गया। 

कहने का तात्पर्य यह है कि कृष्णकाल से प्रारम्भ होकर रास की प्राचीन परम्परा विभिन्न उतार- चढ़ावों के मध्य १५ वीं शताब्दी के अन्त तक या १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक आभीर जाति में रही , जबकि वर्तमान रास का पुनर्गठन हुआ, निरन्तर किसी न किसी रुप में विद्यमान रही और उसी के वर्तमान रास- मञ्च उद्भूत हुआ। 
इस प्रकार रास भारत का वह मंच है जो कृष्णकाल से आज तक निरंतर जीवित- जाग्रत रहा है।

भारत में दूसरा कोई ऐसा मंच नहीं जो इतना दीर्घजीवी हुआ हो। इसी के रास की लोकप्रियता और महत्ता स्पष्ट है।

अहीर भैरव एक लोकप्रिय राग है जिसमें कोमल ऋषभ और कोमल निषाद के स्वरों का संयोजन होता है। 
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बलरामश्रीकृष्णादीनां यादवानां जलक्रीडा एवं गानादिकानां वर्णनम्-
एकोननवतितमोऽध्यायः

               "वैशम्पायन उवाच
रेमे बलश्चन्दनपङ्कदिग्धः कादम्बरीपानकलः पृथुश्रीः।
रक्तेक्षणो रेवतिमाश्रयित्वा प्रलम्बबाहुर्ललितप्रयातः ।१।

नीलाम्बुदाभे वसने वसानश्चन्द्रांशुगौरो मदिराविलाक्षः ।
रराज रामोऽम्बुदमध्यमेत्य सम्पूर्णबिम्बो भगवानिवेन्दुः ।२।
वामैककर्णामलकुण्डलश्रीः स्मेरं मनोज्ञाब्जकृतावतंसः ।
तिर्यक्कटाक्षं प्रियया मुमोद रामः सुखं चार्वभिवीक्ष्यमाणः ।३।
अथाज्ञया कंसनिकुम्भशत्रोरुदाररूपोऽप्सरसां गणः सः।
द्रष्टुं मुदा रेवतिमाजगाम वेलालयं स्वर्गसमानमृद्ध्या ।४।
तां रेवतीं चाप्यथ वापि रामं सर्वा नमस्कृत्य वराङ्गयष्ट्यः।
वाद्यानुरूपं ननृतुः सुगात्र्यः समन्ततोऽन्या जगिरे च सम्यक्।५।
चकुस्तथैवाभिनयेन रङ्गं यथावदेषां प्रियमर्थयुक्तम् 
हद्यानुकूलं च बलस्य तस्य तथाज्ञया रेवतराजपुत्र्याः।६।
चक्रुर्हसन्त्यश्च तथैव रासं तद्देशभाषाकृतिवेषयुक्ताः 
सहस्ततालं ललितं सलीलं वराङ्गना मङ्गलसम्भृताङ्ग्यः ।७।
संकर्षणाधोक्षजनन्दनानि संकीर्तयन्त्योऽथ च मङ्गलानि ।
कंसप्रलम्बादिवधं च रम्यं चाणूरघातं च तथैव रङ्गे ।८।
यशोदया च प्रथितं यशोऽथ दामोदरत्वं च जनार्दनस्य ।
वधं तथारिष्टकधेनुकाभ्यां व्रजे च वासं शकुनीवधं च ।९।
तथा च भग्नौ यमलार्जुनौ तौ सृष्टिं वृकाणामपि वत्सयुक्ताम् ।
स कालियो नागपतिर्ह्रदे च कृष्णेन दान्तश्च यथा दुरात्मा ।2.89.१०।
शङ्खहृदादुद्धरणं च वीर पद्मोत्पलानां मधुसूदनेन।
गोवर्द्धनोऽर्थे च गवां धृतोऽभूद् यथा च कृष्णेन जनार्दनेन ।।११।।
कुब्जां यथा गन्धकपीषिकां च कुब्जत्वहीनां कृतवांश्च कृष्णः ।
अवामनं वामनकं च चक्रे कृष्णो यथाऽऽत्मानमजोऽप्यनिन्द्यः।।१२।
सौभप्रमाथं च हलायुधत्वं वधं मुरस्याप्यथ देवशत्रोः ।
गान्धारकन्यावहने नृपाणां रथे तथा योजनमूर्जितानाम् ।। १३ ।
ततः सुभद्राहरणे जयं च युद्धे च बालाहकजम्बुमाले ।
रत्नप्रवेकं च युधाजितैर्यत् समाहृतं शक्रसमक्षमासीत् ।।१४।।
एतानि चान्यानि च चारुरूपा जगुः स्त्रियः प्रीतिकराणि राजन् ।
सङ्कर्षणाधोक्षजहर्षणानि चित्राणि चानेककथाश्रयाणि ।।१५।।
कादम्बरीपानमदोत्कटस्तु बलः पृथुश्रीः स चुकूर्द रामः ।
सहस्ततालं मधुरं समं च स भार्यया रेवतराजपुत्र्या ।। १६ ।।
तं कूर्दमानं मधुसूदनश्च दृष्ट्वा महात्मा च मुदान्वितोऽभूत्।
चुकूर्द सत्यासहितो महात्मा हर्षागमार्थं च बलस्य धीमान् ।। १७ ।।
समुद्रयात्रार्थमथागतश्च चुकूर्द पार्थो नरलोकवीरा ।
कृष्णेन सार्द्धं मुदितश्चुकूर्द सुभद्रया चैव वराङ्गयष्ट्या ।। १८ ।।
गदश्च धीमानथ सारणश्च प्रद्युम्नसाम्बौ नृप सात्यकिश्च ।
सात्राजितीसूनुरुदारवीर्यः सुचारुदेष्णश्च सुचारुरूपः ।। १९ ।।
वीरौ कुमारौ निशठोल्मुकौ च रामात्मजौ वीरतमौ चुकूर्दतुः ।
अक्रूरसेनापतिशंकवश्च तथापरे भैमकुलप्रधानाः ।। 2.89.२० ।।
तद् यानपात्रं ववृधे तदानीं कृष्णप्रभावेण जनेन्द्रपुत्र ।
आपूर्णमापूर्णमुदारकीर्ते चुकूर्दयद्भिर्नप भैममुख्यैः ।। २१ ।।।
तै राससक्तैरतिकूर्दमानैर्यदुप्रवीरैरमरप्रकाशैः ।
हर्षान्वितं वीर जगत् तथाभूच्छेमुश्च पापानि जनेन्द्रसूनो ।। २२ ।।
देवातिथिस्तत्र च नारदोऽथ विप्रः प्रियार्थं मुरकेशिशत्रोः ।
चुकूर्द मध्ये यदुसत्तमानां जटाकलापागलितैकदेशः ।। २३ ।।
रासप्रणेता मुनि राजपुत्र स एव तत्राभवदप्रमेयः ।
मध्ये च गत्वा च चुकूर्द भूयो हेलाविकारैः सविडम्बिताङ्गैः ।।२४ ।।
स सत्यभामामथ केशवं च पार्थं सुभद्रां च बलं च देवम् ।
देवीं तथा रेवतराजपुत्रीं संदृश्य संदृश्य जहास धीमान् ।।२५ ।।
ता हासयामास सुधैर्ययुक्तास्तैस्तैरुपायैः परिहासशीलः ।
चेष्टानुकारैर्हसितानुकारैर्लीलानुकारैरपरैश्च धीमान् ।२६ ।।
आभाषितं किंचिदिवोपलक्ष्य नादातिनादान् भगवान् मुमोच ।
हसन् विहासांश्च जहास हर्षाद्धास्यागमे कृष्णविनोदनार्थम् ।। २७ ।
कृष्णाज्ञया सातिशयानि तत्र यथानुरूपाणि ददुर्युवत्यः ।
रत्नानि वस्त्राणि च रूपवन्ति जगत्प्रधानानि नृदेवसूनो ।। २८ ।।
माल्यानि च स्वर्गसमुद्भवानि संतानदामान्यतिमुक्तकानि ।
सर्वर्तुकान्यप्यनयंस्तदानीं ददुर्ह रेरिङ्गितकालतज्ज्ञाः ।।२९।।
रासावसाने त्वथ गृह्य हस्ते महामुनिं नारदमप्रमेयः 
पपात कृष्णो भगवान् समुद्रे सात्राजितीं चार्जुनमेव चाथ ।। 2.89.३० ।।
उवाच चामेयपराक्रमोऽथ शैनेयमीषत्प्रहसन् पृथुश्रीः ।
द्विधा कृतास्मिन् पतताशु भूत्वा क्रीडाजलेनोऽस्तु सहाङ्गनाभिः ।।३१।।
सरेवतीकोऽस्तु बलोऽर्द्धनेता पुत्रा मदीयाश्च सहार्द्धभैमाः ।
भैमार्द्धमेवाथ बलात्मजाश्च मत्पक्षिणः सन्तु समुद्रतोये ।।३२।।
आज्ञापयामास ततः समुद्रं कृष्णः स्मितं प्राञ्जलिनं प्रतीतः ।
सुगन्धतोयो भव मृष्टतोयस्तथा भव ग्राहविवर्जितश्च ।। ३३ ।।
दृश्या च ते रत्नविभूषिता तु सा वेलिका भूरथ पत्सुखा च ।
मनोऽनुकूलं च जनस्य तत्तत् प्रयच्छ विज्ञास्यसि मत्प्रभावात्।।३४।।
भवस्यपेयोऽप्यथ चेष्टपेयो जनस्य सर्वस्य मनोऽनुकूलः ।
वैडूर्यमुक्तामणिहेमचित्रा भवन्तु मत्स्यास्त्वयि सौम्यरूपाः ।। ३५ ।।
बिभृस्व च त्वं कमलोत्पलानि सुगन्धसुस्पर्शरसक्षमाणि ।
षट्पादजुष्टानि मनोहराणि कीलालवर्णैश्च समन्वितानि ।। ३६ ।।
मैरेयमाध्वीकसुरासवानां कुम्भांश्च पूर्णान् स्थपयस्व तोये ।
जाम्बूनदं पाननिमित्तमेषां पात्रं पपुर्येषु ददस्व भैमाः ।। ३७ ।।
पुष्पोच्चयैर्वासितशीततोयो भवाप्रमत्तः खलु तोयराशे ।
यथा व्यलीकं न भवेद् यदूनां सस्त्रीजनानां कुरु तत्प्रयत्नम् ।। ३८।।
इतीदमुक्त्वा भगवान् समुद्रं ततः प्रचिक्रीड सहार्जुनेन ।
सिषेच पूर्वं नृप नारदं तु सात्राजिती कृष्णमुखेङ्गितज्ञा ।। ३९ ।।
ततो मदावर्जितचारुदेहः पपात रामः सलिले सलीलम् ।
साकारमालम्ब्य करं करेण मनोहरां रेवतराजपुत्रीम् ।। 2.89.४० ।।
कृष्णात्मजा ये त्वथ भैममुख्या रामस्य पश्चात् पतिताः समुद्रे ।
विरागवस्त्राभरणाः प्रहृष्टाः क्रीडाभिरामा मदिराविलाक्षाः ।। ४१ ।।
शेषास्तु भैमा हरिमभ्युपेताः क्रीडाभिरामा निशठोल्मुकाद्याः ।
विचित्रवस्त्राभरणाश्च मत्ताः संतानमाल्यावृतकण्ठदेशाः ।। ४२ ।।
वीर्योपपन्नाः कृतचारुचिह्ना विलिप्तगात्रा स्नलपात्रहस्ताः ।
गीतानि तद्वेषमनोहराणि स्वरोपपन्नान्यथ गायमानाः ।।४३ ।।
ततः प्रचक्रुर्जलवादितानि नानास्वराणि प्रियवाद्यघोषाः ।
सहाप्सरोभिस्त्रिदिवालयाभिः कृष्णाज्ञया वेशवधूशतानि ।। ४४ ।।
आकाशगङ्गाजलवादनज्ञाः सदा युवत्यो मदनैकचित्ताः ।
अवादयंस्ता जलदर्दुरांश्च वाद्यानुरूपं जगिरे च हृष्टाः ।। ४५ ।।
कुशेशयाकोशविशालनेत्राः कुशेशयापीडविभूषिताश्च ।
कुशेशयानां रविबोधितानां जह्रुः श्रियं ताः सुरचारुमुख्यः ।। ४६ ।
स्त्रीवक्त्रचन्द्रैः सकलेन्दुकल्पै रराज राजञ्छतशः समुद्रः ।
यदृच्छया दैवविधानतो वा नभो यथा चन्द्रसहस्रकीर्णम् ।। ४७ ।।
समुद्रमेघः स रराज राजञ्च्छतह्रदास्त्रीप्रभयाभिरामः ।
सौदामिनीभिन्न इवाम्बुनाथो देदीप्यमानो नभसीव मेघः ।। ४८ ।।
नारायणश्चैव सनारदश्च सिषेच पक्षे कृतचारुचिह्नः 
बलं सपक्षं कृतचारुचिह्नं स चैव पक्षं मधुसूदनस्य ।। ४९।।
हस्तप्रमुक्तैर्जलयन्त्रकैश्च प्रहृष्टरूपाः सिषिचुस्तदानीम् ।
रागोद्धता वारुणिपानमत्ताः संकर्षणाधोक्षजदेवपत्न्यः ।। 2.89.५० ।।

आरक्तनेत्रा जलमुक्तिसक्ताः स्त्रीणां समक्षं पुरुषायमाणाः ।
ते नोपरेमुः सुचिरं च भैमा मानं वहन्तो मदनं मदं च ।। ५१ ।।
अतिप्रसङ्गं तु विचिन्त्य कृष्णस्तान् वारयामास रथाङ्गपाणिः ।
स्वयं निवृत्तो जलवाद्यशब्दैः सनारदः पार्थसहायवांश्च ।। ५२ ।।
कृष्णेङ्गितज्ञा जलयुद्धसङ्गाद् भैमा निवृत्ता दृढमानिनोऽपि ।
नित्यं तथाऽऽनन्दकराः प्रियाणां प्रियाश्च तेषां ननृतुः प्रतीताः ।। ५३ ।।
नृत्यावसाने भगवानुपेन्द्रस्तत्याज धीमानथ तोयसङ्गान् ।
उत्तीर्य तोयादनुकूललेपं जग्राह दत्त्वा मुनिसत्तमाय ।५४ ।
उपेन्द्रमुत्तीर्णमथाशु दृष्ट्वा भैमा हि ते तत्यजुरेव तोयम् ।
विविक्तगात्रास्त्वथ पानभूमिं कृष्णाज्ञया ते ययुरप्रमेयाः ।५५।
यथानुपूर्व्या च यथावयश्च यत्सन्नियोगाश्च तदोपविष्टाः ।
अन्नानि वीरा बुभुजुः प्रतीताः पपुश्च पेयानि यथानुकूलम् ।। ५६ ।।

________
मांसानि पक्वानि फलाम्लकानि चुक्रोत्तरेणाथ च दाडिमेन।
निष्टप्तशूलाञ्छकलान् पशूंश्च तत्रोपजह्रुः शुचयोऽथ सूदाः ।५७।
सुस्विन्नशूल्यान्महिषांश्च बालाञ्छूल्यान्सुनिष्टप्तघृतावसिक्तान्।
वृक्षाम्लसौवर्चलचुक्रपूर्णान् पौरोगवोक्त्या उपजह्रुरेषाम् ।५८।
पौरोगवोक्त्या विधिना मृगाणां मांसानि सिद्धानि च पीवराणि ।
नानाप्रकाराण्युपजह्रुरेषां मृष्टानि पक्वानि च चुक्रचूतैः ।५९।
पार्श्वानि चान्ये शकलानि तत्र ददुः पशूनां घृतमृक्षितानि ।
सामुद्रचूर्णैरवचूर्णितानि चूर्णेन मृष्टेन समारिचेन ।। 2.89.६०।


समूलकैर्दाडिममातुलिङ्गैः पर्णासहिङ्ग्वार्द्रकभूस्तृणैश्च ।
तदोपदंशैः सुमुखोत्तरैस्ते पानानि हृष्टाः पपुरप्रमेयाः । ६१ ।
कट्वाङ्कशूलैरपि पक्षिभिश्च घृताम्लसौवर्चलतैलसिक्तैः।
मैरेयमाध्वीकसुरासवांस्ते पपुः प्रियाभिः परिवार्यमाणाः ।६२।
श्वेतेन युक्तानपि शोणितेन भक्ष्यान्सुगन्धांल्लवणान्वितांश्च।
आर्द्रान्किलादान् घृतपूर्णकांश्च नानाप्रकारानपि खण्डखाद्यान् ।६३।

अपानपाश्चोद्धवभोजमिश्राः शाकैश्च सूपैश्च बहुप्रकारैः।
पेयैश्च दघ्ना पयसा च वीराः स्वन्नानि राजन् बुभुजुः प्रहृष्टाः ।६४।

तथारनालांश्च बहुप्रकारान् पपुः सुगन्धानपि पालवीषु ।
शृतं पयः शर्करया च युक्तं फलप्रकारांश्च बहूंश्च खादन् ।।६५ ।।
तृप्ताः प्रवृत्ताः पुनरेव वीरास्ते भैममुख्या वनितासहायाः।
गीतानि रम्याणि जगुः प्रहृष्टाः कान्ताभिनीतानि मनोहराणि ।६६।

_____ 
आज्ञापयामास ततः स तस्यां निशि प्रहृष्टो भगवानुपेन्द्रः ।
छालिक्यगेयं बहुसंनिधानं यदेव गान्धर्वमुदाहरन्ति ।६७।
जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम् ।
हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः।६८।
मृदङ्गवाद्यानपरांश्च वाद्यान् वराप्सरस्ता जगृहुः प्रतीताः।
आसारितान्तं च ततः प्रतीता रम्भोत्थिता साभिनयार्थतज्ज्ञा ।६९।
तयाभिनीते वरगात्रयष्ट्या तुतोष रामश्च जनार्दनश्च 
अथोर्वशी चारुविशालनेत्रा हेमा च राजन्नथ मिश्रकेशी । 2.89.७०।
तिलोत्तमा चाप्यथ मेनका च एतास्तथान्याश्च हरिप्रियार्थम् ।
जगुस्तथैवाभिनयं च चक्रु रिष्टैश्च कामैर्मनसोऽनुकूलैः ।७१ ।
ता वासुदेवेऽप्यनुरक्तचित्ताः स्वगीतनृत्याभिनयैरुदारैः ।
नरेन्द्रसूनो परितोषितेन ताम्बूलयोगाश्च वराप्सरोभिः ।७२।
तदागताभिर्नृवराहृतास्तु कृष्णेप्सया मानमयास्तथैव।
फलानि गन्धोत्तमवन्ति वीराश्छालिक्यगान्धर्वमथाहृतं च ।७३।

____  

कृष्णेच्छया च त्रिदिवान्नृदेव अनुग्रहार्थं भुवि मानुषाणाम् ।
स्थितं च रम्यं हरितेजसेव प्रयोजयामास स रौक्मिणेयः।७४।
छालिक्यगान्धर्वमुदारबुद्धिस्तेनैव ताम्बूलमथ प्रयुक्तम् ।
प्रयोजितं पञ्चभिरिन्द्रतुल्यैश्छालिक्यमिष्टं सततं नराणाम् ।७५।

शुभावहं वृद्धिकरं प्रशस्तं मङ्गल्यमेवाथ तथा यशस्यम ।
पुण्यं च पुष्ट्यभ्युदयावहं च नारायणस्येष्टमुदारकीर्तेः ।७६ ।
जयावहं धर्मभरावहं च दुःस्वप्ननाशं परिकीर्त्यमानम् ।
करोति पापं च तथा विहन्ति शृण्वन् सुरावासगतो नरेन्द्रः ।७७।

छालिक्यगान्धर्वमुदारकीर्तिर्मेने किलैकं दिवसं सहस्रम् ।
चतुर्युगानां नृप रेवतोऽथ ततः प्रवृत्ता च कुमारजातिः ।७८ ।
गान्धर्वजातिश्च तथापरापि दीपाद् यथा दीपशतानि राजन् ।
विवेद कृष्णश्च स नारदश्च प्रद्युम्नमुख्यैर्नृप भैममुख्यैः ।७९ ।
विज्ञानमेतद्धि परे यथावदुद्देशमात्राच्च जनास्तु लोके ।
जानन्ति छालिक्यगुणोदयानां तोयं नदीनामथवा समुद्रः ।2.89.८० ।
ज्ञातुं समर्थो हि महागिरिर्वा फलाग्रतो वा गुणतोऽथ वापि ।
शक्यं न छालिक्यमृते तपोभिः स्थाने विधानान्यथ मूर्च्छनासु।८१।
षड्ग्रामरागेपु च तत्तु कार्यं तस्यैकदेशावयवेन राजन् ।
लेशाभिधानां सुकुमारजातिं निष्ठां सुदुःखेन नराः प्रयान्ति ।८२ ।
छालिक्यगान्धर्वगुणोदयेषु ये देवगन्धर्वमहर्षिसंघाः 
निष्ठां प्रयान्तीत्यवगच्छ बुद्ध्या छालिक्यमेवं मधुसूदनेन ।८३।

भैमोत्तमानां नरदेव दत्तं लोकस्य चानुग्रहकाम्ययैव 
गतं प्रतिष्ठाममरोपगेयं बाला युवानश्च तथैव वृद्धाः ।८४.।
क्रीडन्ति भैमाः प्रसवोत्सवेषु पूर्वं तु बालाः समुदावहन्ति ।
वृद्धाश्च पश्चात्प्रतिमानयन्ति स्थानेषु नित्यं प्रतिमानयन्ति । ८५।
मर्त्येषु मर्त्यान् यदवोऽतिवीराः स्ववंशधर्मे समनुस्मरन्तः।
पुरातनं धर्मविधानतज्ज्ञाः प्रीतिः प्रमाणं न वयः प्रमाणम् ।८६।
प्रीतिप्रमाणानि हि सौहृदानि प्रीतिं पुरस्कृत्य हि ते दशार्हाः ।
वृष्ण्यन्धकाः पुत्रसखा बभूवुर्विसर्जिताः केशिविनाशनेन ।८७ ।

स्वर्गे गताश्चाप्सरसां समूहाः कृत्वा प्रणामं मधुकंसशत्रोः ।
प्रहृष्टरूपस्य सुहृष्टरूपा बभूव हृष्टः सुरलोकसङ्घः ।८८।


कृष्ण का चरित्रांकन देश और समाज की प्रवृत्तियों के अनुरूप हर काल में भिन्न भिन्न रूप में हुआ। परन्तु कुछ शास्त्रकार ऐसे भी थे जिन्होंने कृष्ण का चरित्रांकन कामशास्त्र के नायक के रूप में किया ये शास्त्रकार कृष्ण को देव संस्कृति के समर्थकों में प्रतिष्ठित करना चाहते थे।
हरिवंश पुराण कार ने रास प्रकरण में काल्पनिक उपादानों को आधार मानकर यही प्रयास किया है।
परन्तु सच्चे अर्थों में कृष्ण देवसंस्कृति के कटु आलोचक तथा इन्द्र यज्ञ और पूजा के प्रबल विरोधी थे।
परन्तु पुष्यमित्र सुँग ने देवयज्ञों प्रारम्भ कराकर पुन: यज्ञों  पशु बलि की पृथा भी प्रारम्भ कराई -

"यह सम्भव है कि  कुछ यादव साकाहारी और कुछ मासाँहारी भी रहे होंगे। जैसा कि आज भी है। 

परन्तु कृष्ण और बलराम जैसे भागवत धर्म के संस्थापकों को मदिरा पान कराकर माँस भक्षण करते हुए दिखाना और अनेक स्त्रीयों के साथ व्यभिचारी की भूमिका में प्रस्तुत करना " श्रीमद् भगवद्गीता के सिद्धान्तों के विपरीत है।

पुराणों में जिस प्रकार ब्राह्मणों का प्रसंग न होने पर भी विना किसी कारण के अचानक दान और सेवा आदि से संतुष्ट करने की बातें सर्वविदित ही हैं। हरिवंश पुराण से कुछ तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं जो पूर्णत: उनके वास्तविक चरित्र के विपरीत हैं।

फिर भी ब्राह्मण शास्त्रकार उन्हें लिखकर कृष्ण के सामाजिक वर्चस्व को समाप्त करना चाहते हैं।

मांसानि पक्वानि फलाम्लकानि चुक्रोत्तरेणाथ च दाडिमेन।
निष्टप्तशूलाञ्छकलान् पशूंश्च तत्रोपजह्रुः शुचयोऽथ सूदाः ।५७।
सुस्विन्नशूल्यान्महिषांश्च बालाञ्छूल्यान्सुनिष्टप्तघृतावसिक्तान्।
वृक्षाम्लसौवर्चलचुक्रपूर्णान् पौरोगवोक्त्या उपजह्रुरेषाम् ।५८।
पौरोगवोक्त्या विधिना मृगाणां मांसानि सिद्धानि च पीवराणि ।
नानाप्रकाराण्युपजह्रुरेषां मृष्टानि पक्वानि च चुक्रचूतैः ।५९।
पार्श्वानि चान्ये शकलानि तत्र ददुः पशूनां घृतमृक्षितानि ।
सामुद्रचूर्णैरवचूर्णितानि चूर्णेन मृष्टेन समारिचेन ।। 2.89.६०।

समूलकैर्दाडिममातुलिङ्गैः पर्णासहिङ्ग्वार्द्रकभूस्तृणैश्च ।
तदोपदंशैः सुमुखोत्तरैस्ते पानानि हृष्टाः पपुरप्रमेयाः । ६१ ।
कट्वाङ्कशूलैरपि पक्षिभिश्च घृताम्लसौवर्चलतैलसिक्तैः।
मैरेयमाध्वीकसुरासवांस्ते पपुः प्रियाभिः परिवार्यमाणाः ।६२।
श्वेतेन युक्तानपि शोणितेन भक्ष्यान्सुगन्धांल्लवणान्वितांश्च।
आर्द्रान्किलादान् घृतपूर्णकांश्च नानाप्रकारानपि खण्डखाद्यान् ।६३।

अपानपाश्चोद्धवभोजमिश्राः शाकैश्च सूपैश्च बहुप्रकारैः।
पेयैश्च दघ्ना पयसा च वीराः स्वन्नानि राजन् बुभुजुः प्रहृष्टाः ।६४।

तथारनालांश्च बहुप्रकारान् पपुः सुगन्धानपि पालवीषु ।
शृतं पयः शर्करया च युक्तं फलप्रकारांश्च बहूंश्च खादन् ।६५।
तृप्ताः प्रवृत्ताः पुनरेव वीरास्ते भैममुख्या वनितासहायाः।
गीतानि रम्याणि जगुः प्रहृष्टाः कान्ताभिनीतानि मनोहराणि ।६६।

_____ 
आज्ञापयामास ततः स तस्यां निशि प्रहृष्टो भगवानुपेन्द्रः।
छालिक्यगेयं बहुसंनिधानं यदेव गान्धर्वमुदाहरन्ति।६७।
जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम् ।
हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः ।६८।
मृदङ्गवाद्यानपरांश्च वाद्यान् वराप्सरस्ता जगृहुः प्रतीताः।
आसारितान्तं च ततः प्रतीता रम्भोत्थिता साभिनयार्थतज्ज्ञा।६९।

"हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय:89 वाँ अध्याय -

 श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद :-श्रीकृष्‍ण के संकेतों को समझने वाले भीमवंशी यादव सुदृढ़ अभिमान से युक्‍त होने पर भी उस जल युद्ध के प्रसंग से निवृत्त हो गये। तदनन्‍तर उन प्रिय पुरुषों को नित्‍य आनन्‍द देने वाली उनकी प्‍यारी वार-वनिताएं विश्‍वस्‍त होकर नृत्‍य करने लगीं। नृत्‍य के अन्‍त में बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्‍ण ने जलक्रीड़ा के प्रसंग त्‍याग दिये।
उन्‍होंने जल से ऊपर आकर मुनिवर नारद जी को अनुकूल चन्‍दन का लेप देकर फिर स्‍वयं भी उसे ग्रहण किया। भगवान् श्रीकृष्‍ण को जल से बाहर निकला देख अन्‍य यादवों ने भी जलक्रीड़ा त्‍याग दी।

फिर वे अप्रमेय शक्तिशाली कुछ यादव शुद्ध शरीर हो श्रीकृष्‍ण की आज्ञा से  पानभूमि ( जलपानगृह) में गये। वहाँ वे क्रमश: अवस्‍था और सम्‍बन्‍ध के अनुसार उस समय भोजन के लिये बैठे।
तदनन्‍तर उन प्रख्‍यात वीरों ने अपनी रुचि के अनुकूल अन्‍न खाये और पेय रसों का पान किया।
 पके फलों के गूदे (पका हुआ मांस, खट्टे फल, अधिक खट्टे अनार के साथ शूल में गूँथकर सेके गये महिष का मांस ये सब पदार्थ पवित्र रसोईयों ने उनके लिये परोसे। 

शूल में गूँथकर पकाये गये महिष का मांस नारियल, तपे हुए घी में तले गये अन्‍यान्‍य खाद्य पदार्थ, अमलवेंत, काला नमक और चूक के मेल से बने हुए लेह्य पदार्थ (चटनी)- ये सब वस्‍तुएं पाकशालाध्‍यक्ष के कहने से रसोईयों ने इन यादवों के लिये प्रस्‍तुत कीं। 
"पाकशालाध्‍यक्ष के बताये अनुसार विधिवत तैयार किये गये मृग के  मोटे-मोटे गूदे, आम की खटाई डालकर बनाये गये नाना प्रकार के विशुद्ध व्‍यंजन भी इनके लिये परोसे गये।

मांसानि पक्वानि फलाम्लकानि चुक्रोत्तरेणाथ च दाडिमेन।
निष्टप्तशूलाञ्छकलान् पशूंश्च तत्रोपजह्रुः शुचयोऽथ सूदाः ।५७।
सुस्विन्नशूल्यान्महिषांश्च बालाञ्छूल्यान्सुनिष्टप्तघृतावसिक्तान्।
वृक्षाम्लसौवर्चलचुक्रपूर्णान् पौरोगवोक्त्या उपजह्रुरेषाम् ।५८।
पौरोगवोक्त्या विधिना मृगाणां मांसानि सिद्धानि च पीवराणि ।
नानाप्रकाराण्युपजह्रुरेषां मृष्टानि पक्वानि च चुक्रचूतैः ।५९।
पार्श्वानि चान्ये शकलानि तत्र ददुः पशूनां घृतमृक्षितानि ।
सामुद्रचूर्णैरवचूर्णितानि चूर्णेन मृष्टेन समारिचेन ।। 2.89.६०।

दूसरे रसोईयों ने पास रखे हुए पोषक शाकों के टुकड़े-टुकड़े करके उन्‍हें घी में तल दिये और उनमें नमक तथा मिर्च के चूर्ण मिलाकर खाने वालों को परोस दिये। मूली, अनार बिजौरा, नीबू, तुलसी, हींग और भूतृण नामक शाक विशेष के साथ सुन्‍दर मुख वाले पानपात्र लेकर उन अप्रमेय शक्तिशाली यादवों ने बड़े हर्ष के साथ पेय रस का पान किया।

कट्वांक अर्थात कटुक परवल, शूलहर (हींग) तथा नमक-खटाई मिलाकर घी और तेल में सेके गये लकुच या बड़हर[2] 

के साथ मैरेय, माध्‍वीक, सुरासव नामक मधु( मदिरा) का उन यादवों ने अपनी प्रियतमाओं से घिरे रहकर पान किया। 

नरेश्‍वर ! श्‍वेत रंग के खाद्य पदार्थ मिश्री आदि तथा लाल रंग के फल के साथ नाना प्रकार के सुगन्धित एवं नमकीन भोजन एवं आद्र (रसदार साग), किलाद (भैंस के दूध में पकाये गये खीर आदि), घी से भरे हुए पदार्थ (पुआ-हलुआ आदि) तथा भाँति-भाँति के खण्‍ड-खाद्य (खाँड़ आदि) उन्‍होंने खाये।

 राजन ! उद्धव, भोज आदि श्रेष्‍ठ यादव वीरों ने जो मादक रसों का पान नहीं करते थे, बड़े हर्ष के साथ नाना प्रकार के साग, दाल, पेय-पदार्थ तथा दही-दूध आदि के साथ उत्‍तम अन्‍न का भोजन किया।
___________________
उन्‍होंने प्‍यालों में अनेक प्रकार के सुगन्धित आरनाल (कांजीरस) का पान किया। चीनी मिलाये हुए गरम-गरम दूध पीया और भाँति-भाँति के फल भी खाये। 

खा-पीकर तृप्‍त होने के पश्‍चात वे मुख्‍य-मुख्‍य यदुवंशी वीर पुन: स्त्रियों को साथ लेकर बड़े हर्ष के साथ रमणीय एवं मनोहर गीत गाने लगे।

उनकी प्रेयसी कामिनियाँ अपने हाव-भाव द्वारा उन गीतों के अर्थ का अभिनय करती जाती हैं। तदनन्‍तर हर्ष में भरे हुए भगवान् उपेन्‍द्र ने उस रात में बहुसंख्‍यक मनुष्‍यों द्वारा सम्‍पन्‍न होने वाले उस छालिक्‍य गान के लिये आज्ञा दी, जिसे गान्‍धर्व कहते हैं।

उस समय नारद जी ने अपनी वीणा सँभाली, जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र कर देने वाली थी। 

नरदेव ! साक्षात् श्रीकृष्‍ण ने वंशी बजाकर हृल्‍लीसक[4] (रास) नामक नृत्‍य का आयोजन किया। 
_________________    
कुन्‍तीपुत्र अर्जुन ने मृदंग वाद्य ग्रहण किया। अन्‍य वाद्यों को श्रेष्‍ठ अप्‍सराओं ने ग्रहण किया जो उनके वादन कला में प्रख्‍यात थीं। आसारित[5] (प्रथम आसारनर्त की-प्रवेश) के बाद अभिनय के अर्थतत्त्व का ज्ञान रखने वाली रम्भा नामक अप्‍सरा उठी, जो अपनी अभिनय कला के लिये विख्‍यात थी।

अध्याय 90 - यादवों  का रास नृत्य का आयोजन - (जारी) हरिवंश पुराणविष्णु- पर्व--

1. वैशम्पायन ने कहा:- कादम्बर मदिरा पीने के कारण बलराम ने स्वयं पर तथा अपनी गतिविधियों पर सारा नियंत्रण खो दिया था और उसकी आँखें लाल हो गई थीं, चंदन से चिपकी हुई बड़ी भुजाओं वाली अत्यंत सुंदर पत्नी रेवती के साथ वे क्रीड़ा करने लगे ।१।

2. जैसे पूर्णिमा का चंद्रमा बादलों में चमकता है, वैसे ही काले वस्त्र पहने हुए , चंद्रमा की किरणों के समान गोरे और नशे में डूबी आंखों वाले दिव्य बलराम वहां चमक रहे थे ।२।

3. अपने बाएं कान पर केवल कुंडल रखकर और सुंदर कमलों से सुशोभित, मुस्कुराते हुए राम ने अपनी प्यारी पत्नी के पार्श्व-लंबाई रूप से सुशोभित चेहरे को बार-बार देखकर अत्यधिक आनंद प्राप्त किया।

4. तत्पश्चात कंस और निकुंभ के संहारक केशव की आज्ञा से सुंदर अप्सराएं रेवती और बलराम को देखने के लिए स्वर्ग के समान समृद्ध हल धारक के पास पहुंचीं।

5. मनमोहक शारीरिक गठन से युक्त उन सुंदर शरीर वाली अप्सराओं ने रेवती और राम को नमस्कार किया और समय के साथ नृत्य करना शुरू कर दिया। और उनमें से कुछ ने हर प्रकार की भावना को अभिव्यक्त करने वाले इशारों के साथ गाया।

6. बलदेव और रेवत के  राजा की पुत्री की आज्ञा के अनुसार उन्होंने यादवों की इच्छा के अनुसार अपने द्वारा अर्जित विभिन्न हाव-भाव प्रदर्शित करना शुरू कर दिया ।

7. उन दुबली-पतली और सुंदर युवतियों ने यादव देश की स्त्रियों के समान वस्त्र पहनकर उनकी भाषा में मधुर गीत गाए।

7-14. हे वीर, उस सभा से पहले उन्होंने बलराम और केशव की प्रसन्नता के लिए विभिन्न पवित्र प्रसंग गाए, जैसे कंस, प्रलम्व और चाणूर का विनाश ; जनार्दन को ओखली से बांधने की कहानी जिसके कारण यशोदा ने उनकी महिमा स्थापित की और उन्हें दामोदर नाम मिला ; अरिष्टा और धेनुका का विनाश ; व्रज में उनका निवास ; पूतना का विनाश ; उनके द्वारा यमल और अर्जुन वृक्षों को उखाड़ना ; कालांतर में उनके द्वारा भेड़ियों की रचना, झील में कृष्ण द्वारा दुष्ट नागों के राजा कलयानाग का दमन ; उस झील से कमल, कुमुद, शंख और निधियों के साथ मधुसूदन की वापसी ; विश्व कल्याण के स्रोत केशव द्वारा गोकुल की भलाई के लिए गोवर्धन पर्वत को धारण करना ; कैसे कृष्ण ने खुशबूदार चन्द्रन  बेचने वाली कूबड़ वाली महिला को ठीक किया; भगवान के ये वृत्तांत जन्म और अपूर्णताओं से रहित हैं।

अप्सराओं ने यह भी वर्णन किया कि कैसे भगवान ने, यद्यपि स्वयं बौने नहीं थे, अत्यंत वीभत्स बौना रूप धारण किया; सौभ की हत्या कैसे हुई; इन सभी युद्धों में बलदेव ने अपना हल कैसे उठाया; देवताओं के अन्य शत्रुओं का विनाश; गांधार राजकुमारी के विवाह के समय घमंडी राजाओं के साथ युद्ध ; सुभद्रा का हरण; वलहाका और जमवुमाली के साथ युद्ध ; और कैसे उसने इन्द्र  को हराने के बाद उसकी मौजूदगी में ही सारे गहने हरण लिए ।

15-16. हे राजन, जब वे सुंदर स्त्रियाँ संगकर्षण और अधोक्षज के लिए इन सभी और विभिन्न अन्य सुखद और आनंददायक विषयों को गा रही थीं , तो अत्यधिक सुंदर बलराम , कादम्बरीवारी  के नशे में, अपनी पत्नी रेवती के साथ मधुर तालियों के साथ गाने लगे ।

17. राम को इस प्रकार गाते देख बुद्धिमान, उच्चात्मा और अत्यधिक शक्तिशाली मधुसूदन ने उन्हें प्रसन्न करने के लिए सत्य के साथ गाना शुरू किया ।

18. विश्व के महानतम वीर पार्थ , जो समुद्र-यात्रा के लिये वहाँ आये थे, वह भी प्रसन्न होकर सुन्दर सुभद्रा और कृष्ण के साथ गाने लगे।

19-20. हे राजन, बुद्धिमान गद , सरण , प्रद्युम्न , साम्ब- , सात्यकि और सत्राजित के पुत्र, महान शक्तिशाली चारुदेष्ण ने भी वहां समवेत स्वर में गाया। बलराम के पुत्र, सबसे महान वीर, राजकुमार निशाथ और उल्मुख, सेनापति अक्रूर , शंख और अन्य प्रमुख भीमकुल के यादवों ने भी वहां गाया।

21. उस समय, हे राजा, कृष्ण की शक्ति से नावों का आकार बढ़ गया और जनार्दन ने प्रमुख भीमवंशीयों के साथ अपनी पूरी क्षमता से गाना गाया।

23 हे वीर राजकुमार, जब अमर-तुल्य यदु सरदारों ने इस प्रकार गाया तो सारा संसार हर्ष से भर गया और पाप नष्ट हो गये।

23 तब मधु के हत्यारे केशव को प्रसन्न करने के लिए देवताओं के अतिथि नारद ने यादवों के बीच ऐसा गाना शुरू किया कि उनकी जटाओं का एक हिस्सा पिघल गया।

24. हे राजकुमार, अथाह ऊर्जा वाले उस मुनि ने वहां-वहां गीतों की रचना करते हुए उन्हें बार-बार विभिन्न भावों और गतियों के साथ उन्हें  भीम कुल  के यादवों के बीच गाया।

25 तब राजा रेवत की पुत्री रेवती, बलदेव , केशव, पृथा के पुत्र अर्जुन तथा सुभद्रा को देखकर बुद्धिमान ऋषि बार-बार मुस्कुराये।

26. हालाँकि केशव की पत्नियाँ स्वभाव से धैर्यवान थीं, फिर भी बुद्धिमान नारद, जो हमेशा मज़ाक करने के शौकीन थे, अपने हाव-भाव, मुस्कुराहट, चाल और कई अन्य तरीकों से जो उनकी हँसी को उत्तेजित कर सकते थे, उन्हें हँसाते थे।

27. मानो निर्देश दिया गया हो कि दिव्य मुनि नारद ने ऊंचे और नीचे विभिन्न धुनें गाईं और कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए वह जोर-जोर से हंसने लगे और खुशी के आंसू बहाने लगे।

28-29. हे राजकुमार, तब इशारों में निपुण युवा युवतियों ने, कृष्ण के आदेश पर, दुनिया के सबसे अच्छे गहने, सुंदर वस्त्र, स्वर्ग में बनी मालाएं, संतानक(पारिजात) फूल, मोती और सभी मौसमों में पैदा होने वाले अन्य फूल दे दिए।

30. तत्पश्चात् संगीतमय सभा की समाप्ति के बाद दिव्य कृष्ण, महान और अतुलनीय मुनि नारद का हाथ पकड़कर सत्यभामा और अर्जुन के साथ समुद्र में कूद पड़े ।

31-32. अतुलनीय पराक्रम वाले अत्यधिक सुंदर कृष्ण ने थोड़ा मुस्कुराते हुए सिनी के पुत्र से कहा- "आइए हम दो दलों में बंट जाएं और युवतियों के साथ समुद्र के पानी में खेलें। समुद्र के इस पानी में बलदेव और रेवती को साथ रहने दें मेरे बेटे और कुछ भीमवंशी यादव एक पार्टी बनाते हैं और बचे हुए भीमवंशी और बलराम के बेटों को मेरी पार्टी में शामिल होने देते हैं।"

33. बाद में अत्यधिक आश्वस्त केशव ने हाथ जोड़कर सामने खड़े समुद्र से कहा:- "समुद्र, तुम्हारा पानी मीठा हो और घतक मगर आदि से रहित हो।

34. तेरा बिछौना  (समुद्र तल) रत्नों से सुशोभित हो, और तेरे किनारे दोनों पांवों के सुखपूर्वक स्पर्श के योग्य हों। और आप, मेरी शक्ति से, वह सब कुछ दे सकें जो आप मानव जाति के स्वाद के अनुकूल जानते हैं।

35. तू मनुष्यों को मनभावन सब प्रकार का पेय दे, और सोने, नीलमणि और मोतियों से सजी हुई कोमल मछलियां तेरे जल में तैरें।

36. आप रत्नों, सुगन्धित, मनमोहक, लाल कमलों और मधुर स्पर्श वाले कुमुदिनों को धारण करें और मधुमक्खियों से सेवित हों।

______    

37. क्या आपके पास असंख्य घड़े और सोने के बर्तन हैं, जिनमें से भैमस मैरेया , माधविका और आसव आदि  मदिरा हों तो उन्हें पेश करो

38. हे सागर, तुम्हार जल फूलों की सुगन्ध से सुगन्धित ठंडा हो। आप इतना सावधान रहें कि यादवों को अपनी स्त्रियों के साथ कोई असुविधा न हो।''

39 हे राजन, समुद्र से ऐसा कहकर कृष्ण अर्जुन के साथ क्रीड़ा करने लगे। सत्राजित की पुत्री, जो कृष्ण द्वारा दिए गए संकेतों में पारंगत थी, ने नारद के शरीर पर जल छिड़का।

40. तब राम ने नशे में डूबे अपने शरीर को उत्तेजना पूर्वक अपने हाथों से रेवती के हाथों से पकड़ लिया और खेल-खेल में समुद्र के पानी में कूद पड़े।

41-42. राम के पीछे कृष्ण के चंचल पुत्र, नशे में आँखें घुमाते हुए और अन्य प्रमुख भीमवंशी, अपने वस्त्र, और आभूषणों से वंचित होकर, खुशी से समुद्र में कूद पड़े।

निशत, उल्मुक और बलदेव के अन्य पुत्र अपने गले में संतानक फूलों की माला पहने हुए, विभिन्न प्रकार के वस्त्र पहने हुए, नशे में धुत और खेल-कूद में व्यस्त थे, साथ ही शेष भीमवंशी भी केशव की सभा में शामिल हो गए।

43. शक्तिशाली यादव, जिनके चेहरे पर सुंदर निशान और लेप थे, अपने हाथों में मदिरा के पात्र लेकर, मधुर धुनों वाले गीत गाने लगे और उस स्थान के लिए सुंदर रूप से अनुकूल थे।

44 तदनन्तर संगीत में रुचि रखने वाली, सजी-धजी सैकड़ों युवतियाँ, दिव्यलोक में रहने वाली अप्सराओं के साथ मिलकर विभिन्न स्वर बजाने लगीं।

45. वे युवा कन्याऐं, जो अलौकिक गंगा के जल में वाद्ययंत्र बजाने में पारंगत थीं , और जिनका मन पूरी तरह से कामदेव के वश में था, प्रसन्नतापूर्वक   जलदर्दुर[1] बजाती थीं और उसके साथ गीत गाती थीं।

46. ​​उस समय कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाली और कमल के डंठलों से सुशोभित सुंदर दिव्य नृत्य करने वाली लड़कियाँ सूर्य की किरणों से उड़े हुए कमल के समान शोभा पा रही थीं।

47. हे राजा, सैकड़ों पूर्णिमा के चंद्रमाओं के समान दिखने वाली उन महिलाओं के चंद्रमा जैसे चेहरों से भरा हुआ, या तो अपनी इच्छा से या विधि के आदेश के तहत वहां जा रहा थे , समुद्र हजारों चंद्रमाओं से सुशोभित आकाश की तरह दिखाई दे रहा था।

48 हे राजन, मेघरूपी समुद्र स्त्री के समान प्रकाश से सुशोभित हुआ। जल के स्वामी आकाश में बिजली से छितरे हुए बादलों के समान प्रकट हुए।

49. इसके बाद नारायण , जिन्होंने अपने शरीर पर सुंदर निशान लगाए थे, नारद और उनकी सभा के अन्य सदस्यों ने बलदेव और उनकी सभा पर पानी छिड़का, जिन्होंने भी सुंदर निशान लगाए थे। और बाद वाले ने भी पहले वाले पर पानी छिड़का।

"हस्तप्रमुक्तैर्जलयन्त्रकैश्चप्रहृष्टरूपावारुणिपानमत्ता: संकर्षणाधोक्षजदेवपत्न्य:।2/89/50

50. उस समय कृष्ण और संकर्षण की पत्नियाँ वारुणी मदिरा के नशे में चूर होकर और संगीत के साथ प्रसन्न होकर हाथों और जलयंत्रों से एक दूसरे पर पानी फेंकती थीं।

____

51. शराब, कामदेव और स्वाभिमान से युक्त, नशे से लाल आंखों वाले भीमवंशी एक-दूसरे पर पानी फेंकते थे और इस तरह महिलाओं की उपस्थिति के सामने कठोर रवैया अपनाते थे: 

हालांकि वे एक के लिए खेल रहे थे, वे बाज नहीं आए  लंबे समय तक भी।

52. इस प्रकार उनके परिचित कामक्रीडा को देखकर, चक्रधारी कृष्ण ने एक क्षण के लिए सोचा और फिर उन्हें रोक दिया। उन्होंने भी पार्थ और नारद के साथ जल में वाद्ययंत्र बजाने से परहेज किया।

53. भीमवंशी यादव, जो हमेशा अपनी प्रिय महिलाओं को प्रसन्न करते थे, हालांकि वे अत्यधिक संवेदनशील थे, जैसे ही उन्होंने संकेत दिया, तुरंत कृष्ण के इरादे को समझ गए और पानी में खेलना बंद कर दिया: लेकिन युवतियों ने नृत्य करना जारी रखा।

54. नाच पार्टी समाप्त होने के बाद जब अन्य यादव पानी में थे तब भी उपेन्द्र किनारे पर आ गये। इसके बाद उन्होंने नारद को श्रेष्ठ मुनि बनने का अवसर दिया और बाद में स्वयं भी उनका अंग बन गये।

55. फिर उपेन्द्र को जल से बाहर निकलता देख अतुलनीय भींमो ने शीघ्र ही जल छोड़ दिया। फिर वे अपने शरीर को दूबों से शुद्ध करके, कृष्ण की अनुमति से, शाराब के स्थान में चले गए।

56 उन सुप्रसिद्ध वीरों ने अपनी-अपनी आयु तथा स्थिति के अनुसार क्रम से बैठकर नाना प्रकार के भोजन तथा पेय पदार्थों से स्वयं को तरोताजा किया।

57. तब रसोइये बड़े आनन्द से पके हुए मांस, सिरके, अनार और लोहे की छड़ों पर भुना हुआ पशुओं का मांस ले आए।

58. फिर एक युवा भैंस को डंडे पर अच्छी तरह से भूनकर, गर्म करके, घी में भिगोकर, सिरका, सोचल नमक और एसिड मिलाकर परोसा गया।

59. बहुत से मोटे हिरणों का मांस कुशल पकाने की विधि के अनुसार भूनकर, और सिरके में मीठा करके लाया गया।

60. जानवरों की टाँगें, नमक और सरसों के साथ मिलाकर और घी में तलकर भी परोसी जाती थीं।

61. अतुलनीय यादवों ने अरुम कैम्पैनुलटम की जड़ों, अनार, नींबू, हींग, जिंजरेड और अन्य सुगंधित सब्जियों वाले उन व्यंजनों को बड़े आनंद से खाया। फिर उन्होंने सुंदर प्यालों में शराब पी।

62. वे अपनी प्रिय युवतियों के साथ घिरे रहकर मैरेया, माधविका और आसव जैसी विभिन्न मदिरा पीते थे, जो पक्षियों के मांस को मक्खन, अम्ल रस, नमक और खट्टी चीजों के साथ भूनकर तैयार की जाती थी।

63. उन्होंने अन्य व्यंजन, सफेद और लाल रंग के विभिन्न सुगंधित नमकीन खाद्य पदार्थ, दही और घी से बनी चीजें भी खाईं।

64. हे राजा, उद्धव , भोज और अन्य वीर, जो शराब नहीं पीते थे, उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक सब्जियाँ, सब्जी-करी, केक, दही और हलवा लिया।

65. पलावी नामक पीने के बर्तन से, वे विभिन्न सुगंधित पेय, दूध और चीनी के साथ मक्खन पीते थे और विभिन्न प्रकार के फल लेते थे।

66. इस प्रकार वीर भीमों ने भरपेट भोजन करके प्रसन्न हो गये। बाद में, वे, अपनी पत्नियों को अपने साथियों के रूप में रखते हुए, अपनी पत्नियों द्वारा शुरू किए गए आनंद के साथ फिर से संगीत में शामिल हो गए।

67. इसके बाद जब रात होने लगी तो दिव्य उपेन्द्र ने सभा में उपस्थित सभी लोगों से गाना जारी रखने के लिए कहा। 

देवताओं और गंधर्वों द्वारा गाए जाने वाले विभिन्न सुरों के साथ (छालिक्य) नाट्य का रूप ।

68-72. हे राजन, तब नारद ने अपनी वीणा बजाना शुरू किया जो छह ताल और रागों के साथ [2] मन की एकाग्रता लाती है, कृष्ण ने अपनी बांसुरी के संगीत के साथ हल्लीसक नृत्य करना जारी रखा और पार्थ ने अपने मृदंग को बजाना शुरू किया। 

4] अन्य प्रमुख अप्सराएँ विभिन्न अन्य वाद्ययंत्र बजाती थीं। इसके बाद असरिता के बाद , सुंदर रंभा , एक चतुर अभिनेत्री, उठी, उसने अभिनय किया और बलराम और केशव को प्रसन्न किया। तदनन्तर, हे राजन , सुंदर और विशाल नेत्रों वाली उर्वशी , हेमा , मिश्रकेशी , तिलोत्तमा , मेनका और अन्य दिव्य अभिनेत्रियाँ क्रम से उठीं और गायन और नृत्य से हरि को प्रसन्न किया।

 उनके मनमोहक गायन और नृत्य से आकर्षित होकर वासुदेव ने उन सभी को उनके मन के अनुरूप उपहार देकर प्रसन्न किया। 

हे राजकुमार, उन सम्मानित और प्रमुख अप्सराओं को, जिन्हें वहां लाया गया था, कृष्ण की इच्छा पर पान के पत्तों से  ( वीड़ो)सम्मानित किया गया था।

73-74. हे राजा, इस प्रकार विभिन्न सुगंधित फल और  छालिक्य गीत, जो कृष्ण की इच्छा और मानव जाति के प्रति उनके उपकार से दिव्य क्षेत्र से स्वर्ग से लाए गए थे, केवल रुक्मिणी के बुद्धिमान पुत्र को ही ज्ञात थे। वही उनका उपयोग कर सकता था और वही उस समय पान बांटता था।

75-76.  छालिक्य गीत, नारायण के कल्याण, पोषण और समृद्धि के लिए अनुकूल, गौरवशाली कर्मों का, और जो मानव जाति के लिए महान, शुभ और प्रसिद्धि और धर्मपरायणता का उत्पादक था, इंद्र जैसे कृष्ण, राम, प्रद्युम्न द्वारा समवेत स्वर में गाया गया था। अनुविन्ध और शम्वा।

77-78. यह छालिक्य, जो वहाँ गाया जाता था, पुण्य की धुरी धारण करने में समर्थ तथा दु:ख और पाप का नाश करने वाला था। दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करते हुए और इस चालिक्य गीत को सुनकर प्रतापी राजा रेवत ने चार हजार युगों को एक दिन के रूप में माना।इससे कुमारजाति आदि गंधर्वों के विभिन्न प्रभागों की उत्पत्ति हुई ।

79. हे राजन, जैसे एक ही प्रकाश से सैकड़ों दीप उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार छालिक्य से गंधर्वों की विभिन्न श्रेणियां उत्पन्न हुई हैं। हे राजन, प्रद्युम्न और अन्य प्रमुख भीमों के साथ कृष्ण और नारद यह सब जानते थे।

80-81. झरनों और समुद्र के पानी की तरह इस दुनिया के लोग छालिक्य को केवल दृष्टांत से जानते थे। मुरकाना [5] और चालिक्य के समय को जानने के लिए कठोर तपस्या किए बिना हिमालय के गुणों और वजन को जानना संभव है , लेकिन ऐसा नहीं है ।

82-83. हे राजा, छह तराजू और राग पुरुषों के साथ छालिक्य का क्या, बड़ी कठिनाई के साथ, सुकुमारजति के ग्यारहवें मंडल के अंत तक भी नहीं आ सकता है । हे राजन, यह निश्चित रूप से जान लें कि मधुसूदन ऐसी व्यवस्था की थी कि देवता, गंधर्व और महान ऋषि छालिक्य के गुणों के कारण भक्ति भावना प्राप्त कर सकें।

84-88. भगवान द्वारा, मनुष्यों में, कृष्ण द्वारा, दुनिया पर उपकार दिखाने के लिए भैमों से पहले गाए जाने के कारण, चालिक्य, जिसे केवल अमर लोगों द्वारा गाया जाता था, ऐसी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है,

 जिसे पहले उत्सव के अवसर पर भीम लड़के इस्तेमाल करते थे इसे एक उदाहरण के रूप में उद्धृत करने के लिए। और बड़े-बूढ़े उनकी बात का अनुमोदन करते थे और लड़के, जवान और बूढ़े उसे समवेत स्वर में गाते थे। "प्यार ही कसौटी है, उम्र नहीं" - मनुष्यों को उनकी जाति के इस गुण की याद दिलाने के लिए, प्राचीन धार्मिक संस्कारों के संचालक वीर यादवों ने मनुष्यों की भूमि में ऐसा किया। 

हे राजन, मित्रता प्रेम से जानी जाती है, इसलिए प्रेम को सामने रखते हुए, केशव को छोड़कर अन्य वृष्णि , अंधक और दाशार्ह अपने पुत्रों के साथ भी मित्र जैसा व्यवहार करते थे। तत्पश्चात प्रसन्न होकर कंस के हत्यारे मधुसूदन को नमस्कार करते हुए, संतुष्ट अप्सराएँ दिव्य क्षेत्र में लौट आईं, जो भी (तदनुसार) खुशी से भरा हुआ था।

फ़ुटनोट और संदर्भ:

"उपर्युक्त कृष्ण और बलराम को मदिरापान और माँस भक्षण करते हुए व्यभिचारी रूप में दर्शाना यहाँ  क्षेपक ही है। हरिवंश पुराण में यह काल्पनिक प्रकरण गुप्तकाल के बाद जोड़ा गया कृष्ण और बलराम चरित्र की ये बातें भगवद्गीता के वक्ता कृष्ण और भागवत धर्म के संस्थापक बलराम के लिए यह धर्मविरुद्ध हैं उन महापुरुषों द्वारा यह धर्मनऔर नीति विरुद्ध आचरण सम्भव नहीं है।  

यह सब प्रक्षेप पुष्यमित्र के परवर्ती काल का है। नि:सन्देह यह कुत्सितपरियोजना इन्द्रोपासक पुरोहितों की है।

[1] :पानी में बजाया जाने वाला एक प्रकार का वाद्ययंत्र।

[2] :संगीत की एक विधा जिसमें से छह की गणना की जाती है। भैरव , मालव सारंगा , हिंडोला , वसंत , दीपका और मेघा : वे काव्य और पौराणिक कथाओं में चित्रित हैं ।

[3] :मुख्य रूप से एक पुरुष और आठ या दस महिला कलाकारों द्वारा गायन और नृत्य का एक छोटा नाटकीय मनोरंजन , एक बैले।

[4] :एक प्रकार का वाद्य यंत्र।

[5] :एक स्वर या अर्धस्वर जो उसके पैमाने में रखा जाता है, ग्राम या पैमाने का सातवाँ भाग।


 हरिवंश पुराण का लेखन काल पुष्यमित्र सुँग के परवर्ती काल का है यद्यपि इसमें बहुत सी बाते कृष्ण चरित्र के अनुकूल सकारात्मक भी हैं  परन्तु पुराणकार पुष्य मित्र के विचारों का पोषक है कृष्ण को आधार बनाकर पुराणकार पुष्य मित्र के उन सभी पृथाओं को कृष्ण पर आरोपित कर रहा है। कृष्ण ने जिसके विरोध करने हेतु भागवत धर्म की स्थापना की थी-

 ऐसी अनैतिक बातें किसी भी अच्छे धर्म में मान्य नही की जाकती हैं! रास मण्डली में यादव राजकुमारों के साथ वेश्याओ के समूह को उपस्थित करना सभी यादवों का मदिरा पीकर कामुक व्यवहार करते हुए दिखाना,  अपने पुत्रों के सामने ही कृष्ण और बलराम को शराब पीकर स्त्रीयों के साथ "सेक्सुअल इण्टरकोर्स" में दिखाना- वह भी रात्रिकाल में स्वर्ग से आयी अप्सराओं के साथ राजकुमारों का इन्द्र के समान मदिरा पी पीकर रमण करना इन्द्र के ऐश्वर्य को आदर्श के रूप में प्रस्तुत करने का  ही उपक्रम है।   

इस सन्दर्भ में हम हरिवंश के लेखन की काल विवेचना करते हैं।

हरिवंश के निर्माण तथा महाभारत के साथ सम्बद्ध होने के काल का निर्णय प्रमाणों द्वारा किया जा सकता है-

(क) हरिवंश के साथ सम्मिलित होकर लक्ष श्लोकात्मक रूप धारण करने वाला महाभारत शत साहस्री संहिताके नाम से (454) ईस्वी के गुप्त शिलालेख में उल्लिखित है। 

(ख) अश्वघोष (प्रथमशती) ने अपने वज्रसूची उपनिषद् में हरिवंश के 'प्रेतकल्पप्रकरण से सप्तव्याधा दशार्णेषु’ (हरिवंश 24/20, 21) इत्यादि श्लोकों को प्रमाण रूप से उद्धृत किया है। अतः हरिवंश की रचना प्रथमशती से अर्वाचीन नहीं हो सकती।

(ग) हरिवंश (विष्णु पर्व 55/50) में 'दीनारका उल्लेख उसके रचनाकाल का द्योतक है। रोम साम्राज्य के सोने के सिक्के 'दिनारियसकहलाते थे और उसी शब्द का संस्कृत रूप दीनारहै। इस शब्द का सबसे प्राचीन प्रयोग प्रथमशती के शिलालेखों में उपलब्ध होता है।

(घ) हरिवंश के एक श्लोक में शुंगब्राह्मण राज्य के संस्थापक पुष्यमित्रशुंग द्वारा यज्ञ का उल्लेख भविष्य में होनेवाली घटना के रूप में निर्दिष्ट किया गया है

उपात्तयज्ञो देवेसु ब्राह्मणेषुपपत्स्यते । ‘औद्भिज्जो भविता कश्चित् सेनानी: काश्यपो द्विजः । अश्वमेधं कलियुगे पुनः प्रत्याहरिष्यति । (हरिवंश 3 /2/39-40 )

  • यह तो प्रसिद्ध ही है कि ब्राह्मण सेनापति पुष्पमित्र ने दो बार अश्वमेघ यज्ञ किया थाजिनमें महाभाष्य के रचयिता पतञलि स्वयं ऋत्विक् रूप से उपस्थित थे। 'इह पुष्पमित्रं याजयाम:'-महाभाष्य । पुष्पमित्र ने लगभग 36 वर्षो तक राज्य किया (लगभग ईस्वी पूर्व 187-151) और आरम्भ में वे मौर्य सम्राट् के सेनापति था। इसी प्रसिद्ध सेनानी का निर्देश इस श्लोक में है। फलत: हरिवंश का रचनाकाल इससे पूर्व नहींतो इसके कुछ ही पश्चात् होना चाहिए। 

  • अतएव 'हरिवंशका निर्माण काल ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में मानना सर्वथा सुसंगत होगा 

  • हरिवंश का धार्मिक महत्व सर्वत्र प्रख्यात है । सन्तान के इच्छुक व्यक्तियों के लिये 'हरिवंशके विधिवत् श्रवण का विधान लोक प्रचलित है। शपथ खाने के लिए पुरूषों के हाथ पर हरिवंश की पोथी रखने का प्रचलन नेपाल में उसी प्रकार है जिस प्रकार किसी मुसलमान के हाथ पर कुरान रखने का . 

  • श्रीकृष्ण के चरित के तुलनात्मक अध्ययन के लिए हरिवंश के विष्णुपर्व का परिशीलन नितान्त आवश्यक है।प्राचीन भारत की ललित कलाओं के विषय में हरिवंश बहुत ही उपादेय सामग्री प्रस्तुत करता है। प्राचीन भारत में नाटक के अभिनय प्रकार की जानकारी के लिए यहाँ उपादेय तथ्यों का संकलन है। 
  • सबसे महत्वपूर्ण है हरिवंश में राजनैतिक इतिहास का वर्णनजो किसी भी प्राचीन पुराण के वर्णन से उपादेयता और प्रामाणिकता में किसी प्रकार न्यून नहीं है फलतः प्रथम शती में भारती संस्कृति की रूपरेखा जानने के लिए हरिवंशहमारा विश्वनीय मार्गदर्शक है।

हरिवंशपुराण- हरिवंश का स्वरूप, हरिवंश में तीन पर्व या खण्ड -

  • महाभारत के खिल पर्व होने के कारण हरिवंश की आलोचना अब प्रसंग प्राप्त है। हरिवंश में श्लोकों की संख्या सोलह हजार तीन सौ चौहत्तर (16, 374 श्लोक ) श्रीमद्भागवत की श्लोक संख्या से कुछ ही अधिक है।
  • डॉ० विन्टरनित्स के कथनानुसार यूनानी कवि होमर के दोनों महाकाव्यों 'इलियडऔर 'ओडिसीकी सम्मिलित संख्या से भी यह अधिक हैपरन्तु यह एक लेखक की रचना न होकर अनेक लेखकों के संयुक्त प्रयास का फल है। 
  • हरिवंश का अन्तिम पर्व (ग्रन्थ का तृतीय भाग) तो परिशिष्ट भूत हरिवंश का भी परिशिष्ट है और काल क्रम से सबसे पीछे का निर्मित भाग है। 

हरिवंश में तीन पर्व या खण्ड हैं

(क) हरिवंश पर्व

  •  कृष्ण के वंश वृष्णि-अन्धक की कथा विस्तार से दी गयी है और इस आदिम पर्व के वर्णन के अनन्तर राजा पृथु की कथा विस्तार से दी गयी है ।

  • सूर्यवंशीय राजाओं के प्रसंग में विश्वामित्र तथा वसिष्ठ का भी आख्यान वर्णित है। प्रसंग से पृथक् हटकर प्रेतकल्प ( अन्त्येष्टि एवं श्राद्ध) का वर्णन नौ अध्यायों में (अध्याय- 16-24) विस्तार से निबद्ध है और इसी के अन्तर्गत 21 वें अध्याय में पशुओं की बोली को समझने-बूझने वाले ब्रह्मदत्त की कथा दी गई है चन्द्रवंशीय राजाओं के वर्णन के अवसर पर राजा पुरूरवा और उर्वशी का प्रख्यान से समानता रखता है (अ0 26) । नहुषययाति तथा यदु के वर्णन के पश्चात् विष्णु की अनेक स्तुतियाँ प्रस्तुत की गई हैं। जो एक प्रकार से कृष्ण के पूर्व दैवी इतिहास का परिचय देती हैं।

(ख) विष्णुपर्व -

  • यह समय ग्रन्थ का अतिशय विस्तृत तथा महनीय भाग है। इसमें कृष्णचन्द्र की विविध लीलाओं काविशेषत: बाललीलाओं का बड़ा ही सांगोपांग रूचिर विवरण है श्रीमद्भागवत के वर्णन से तुलना करने पर अनेक स्थल पर पार्थक्य दृष्टिगोचर होता है। कहीं-कहीं अन्य घटनायें भी दी गयी हैं। 

  • कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के जन्मशंबर द्वारा हरणसमुद्र से प्राप्ति तथा मायावती के साथ विवाह आदि प्रख्यात कथाओं का यहाँ उल्लेख हैपरन्तु असुरों के राजा वज्रनाभ की दुहिता प्रभावती के साथ प्रद्युम्न का विवाह और वह भी नितान्त नाटकीय ढंग से एकदम नूतन तथा पर्याप्तरूपेण रोचक है (150 अध्याय)। 

  • इसी प्रकार प्रख्यात रासलीला का हल्लीसक नृत्य के रूप में निर्देश किसी प्राचीन युग की स्मृति दिलाता है। इस पर्व के अन्त में अनिरूद्ध का विवाह बाणासुर की कन्या उषा के साथ बड़े उमंग और उत्साह से वर्णित है और इससे पूर्व 'हरि-हरात्मक स्तव' (अध्याय- 184) द्वारा शिव और विष्णु की एक ही अभिन्न देवता के रूप में सुन्दर स्तुति की गई है। इस पर्व में विषय की एकता और वर्णन की संगति से प्रतीत होता है कि प्राचीन युग में श्रीकृष्ण चरित काव्यके साथ यह अंश सम्बन्ध रखता हैपरन्तु तृतीय भाग के विषय में किसी एकता की कल्पना नहीं की जा सकती।

(ग) भाविष्यपर्व- 

  • यह भाग विविध वृत्तों का पौराणिक शैली में परस्पर असम्बद्ध संकलन है। इस पर्व का नामकरण प्रथम अध्याय के नाम पर हैजहाँ भविष्य में होने वाली घटनाओं का संकेत किया गया है। जनमेजय द्वारा विहित यज्ञों का वर्णन बड़े सुन्दर ढंग से किया गया है (अ) 191-196) । विष्णु के सूकरनृसिहं तथा वामन अवतारों के वर्णन के अनन्तर शिवपूजा तथा विष्णु पूजा के समन्वय की दिशा दिखाई गई है। शिव के दो उपासक हंस तथा डिम्भक की कथा विस्तार से हैजिन्हे कृष्ण ने पराजित किया था। महाभारत के माहात्म्य वर्णन के पश्चात् समग्र हरिवंश का ध्येय हरि की स्तुति में प्रदर्शित किया गया है-

आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते ।

हरिवंश का स्वरूप

एक ओर हरिवंश महाभारत का परिशिष्ट (खिल) माना जाता है और दूसरी ओर यह पुराणनाम से भी अभिहित होता है। इसके पोषक प्रमाणों की कमी नहीं है-

(1) महाभारत के आरम्भ में ग्रन्थ के समग्र पर्वो की संख्या एक सौ परिगणित है (आदि अ0 2) और इसके भीतर हरिवंश भी सम्मिलित किया गया है (आदि 2/82-83)। ध्यान देने की बात तो यह है कि हरिवंश 'खिलसंज्ञित पुराणकहा गया है। (हरिवंशसततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्)। फलत: व्यास की दृष्टि में खिल और पुराण दोनों साथ-साथ होने में कोई वैषम्य नहीं है।

( 2 ) हरिवंश के 20 वें अध्याय में 'यथा ते कथितं पूर्व मया राजर्षिसत्तमके द्वारा याति के चरित की महाभारत में पूर्व स्थिति का स्पष्ट निर्देश है (आदिपर्व अध्याय- 81-88)

(3) हरिवंश के 32 वें अध्याय में अदृश्यवाणी का कथन 'त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तलाके द्वारा महाभारत में शकुन्तलोपाख्यान की ओर स्पष्ट संकेत है तथा 54 अध्याय में कणिक मुनि महाभारत में कणिक मुनि की पूर्व स्थिति बतलाता है (आदिपर्व अध्याय- 140 ) 

(4) हरिवंश का उपक्रम तथा उपसंहार बतलाता है कि हरिवंश महाभारत का ही परस्पर सम्बद्ध खिल पर्व है। उपक्रमाध्याय में भारती कथा सुनने के बाद वृष्णि- अन्धक चरित सुनने की इच्छा शौनक ने सौति से जो प्रकट की वह दोनों के सम सम्बन्ध का सूचक है। हरिवंश के 132 वें अध्याय में महाभारत के कथाश्रवण का फल हैजिस कथन की संगति हरिवंश के महाभारत के अन्तर्गत मानने पर ही बैठ सकती हैअन्यथा नहीं ।

(5) बहिरंग प्रमाणों में आनन्दवर्धन का यह कथन साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि महाभारत के अन्त में हरिवंश के वर्णन से समाप्ति करने वाले व्यासजी ने शान्तरस को ही ग्रन्थ का मुख्य रस व्यन्जना के द्वारा अभिव्यक्त किया है। '

फलत: हरिवंश महाभारत का 'खिलपर्व है। साथ ही साथ पञ्च लक्षण से समन्वित होने से यह 'पुराणनाम्ना भी अभिहित किया जाता हैपरन्तु न तो यह महापुराणों में अन्तर्भूत होता है और न उपपुराणों में दोनों से इसकी विशिष्टता पृथक् ही है।


गुजरात: द्वारका में 37000 अहीर महिलाओं के महारास ने रचा इतिहास" अखिल भारतीय यादव समाज और अहिरानी महिला मंडल द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम विशाल नंदधाम परिसर में सम्पन्न हुआ. सभा में न केवल भारत के विभिन्न हिस्सों से बल्कि दुनिया भर से प्रतिभागी शामिल थे. इस आयोजन में डेढ़ लाख से अधिक अहीर यादव समुदाय के सदस्यों ने भाग लिया.


गुजरात के द्वारका में 23-24 दिसंबर को आयोजित दो दिवसीय महा रास में 37,000 से अधिक महिलाएं एकत्र हुईं. पारंपरिक लाल पोशाक पहने महिलाओं ने भगवान कृष्ण की मूर्ति के चारों ओर घेरे में नृत्य किया. यह आयोजन बाणासुर की बेटी और भगवान कृष्ण की बहू उषा के रास की याद में आयोजित किया गया था.

"महिलाओं को गीता पुस्तक के उपहार से सम्मानित किया गया"
अखिल भारतीय यादव समाज और अहिरानी महिला मंडल द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम विशाल नंदधाम परिसर में हुआ. सभा में न केवल भारत के विभिन्नहिस्सों से बल्कि दुनिया भर से प्रतिभागी शामिल थे.

इस आयोजन में डेढ़ लाख से अधिक अहीर यादव समुदाय के सदस्यों ने भाग लिया. प्रदर्शन के बाद, सभी 37,000 भाग लेने वाली महिलाओं को गीता पुस्तक के उपहार से सम्मानित किया गया.


यात्राधाम द्वारका में अखिल भारतीय अहिरानी महा रास में जामनगर सांसद पूनम बेन माडमने अपने पारपरिक ड्रेस के साथ रास गरबा किया. गुजरात भर से अदाजित 37 हजार से अधिक अहीर बहनों ने अपनी पारंपरिक पोशाक पहनकर कृष्ण भक्ति में लीन होकर कालिया ठाकोर की राजधानी द्वारका में रास गरबा का आयोजन किया.।

रास का विवरण हरिवंश पुराण में "हल्लीसक" के रूप में भी हुआ है।

अनुवाद" 

उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी  नरदेव ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्वारा # हल्लीसक- नृत्य का आयोजन किया।६८। सन्दर्भ:- हरिवंशपुराण-विष्णुपर्व /अध्याय-89/श्लोक-68 

"श्री कृष्ण और संकृष्ण( संकर्षण) दौंनो ही महापुरुष अपने युग के महान कृषि पद्धति के जन्मदाता थे। इनके छोटे भाई कृष्ण ने संगीत और कलाओं में महारत हासिल की और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार किया उस समय संगीत में स्वरों के स्वरग्राम (सरगम) के सन्धान के लिए वंशी -बाँस के वृक्ष से निर्माण कर कृष्ण ने बनायी और कृष्ण ने एक नवीन संगीत की सृष्टि की कृष्ण ने संगीत को जीवन का आधार और सृष्टि की आदि विद्या के रूप प्रतिपादित किया।'

आभीर जाति के नाम पर प्रचलित राग आभीर संगीत के क्षेत्र में अहीरों योगदान को परिलक्षित करता है। वेदों में ऋग्वेद के प्राचीन होने पर भी संगीत के वेद साम वेद को कृष्ण ने अपनी विभूति माना -

"वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव: ।         इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।१०/२२। श्रीमद्भगवद्गीता- मैं वेदोमें सामवेद हूँ ? देवों में वासव हूँ और  इन्द्रियों में संकल्पविकल्पात्मक मन हूँ। सब भूतों- प्राणियोंमें चेतना हूँ। कार्यकरणके समुदायरूप शरीरमें सदा प्रकाशित

रहनेवाली जो चिन्तन वृत्ति है ? उसका नाम चेतना है।

वास्तव में रास का प्रारम्भिक रूप हल्लीषक नृत्य है। हल्लीषक - नृत्य का आधार हल और ईषा-(ईसा) की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही है।

वस्तव में उत्सव जीवन की भागदौड़ में एक विश्राम स्थल ( पड़ाव) हैं जहाँ जीवन की भाग दौड़ से थका हुआ व्यक्ति कुछ समय के लिए सब चिन्ता- दु:खों को भूलकर विश्राम करता है।

कृष्ण का जन्म गोप - आभीर जाति में हुआ जो सनातन काल से गोपालक रही है। गो चारण काल में ही इन गोपों की आवश्यकता ने पशुओं के चारे घास आदि के  के लिए और स्वयं अपने भोजन के लिए भी कृषि विधि को जन्म दिया ।

जहाँ पशुपालक- अपना पड़ाव डालते थे  
धीरे धीरे उनके ये पड़ाव स्थाई होने लगे और 
ग्रामसभ्यता कै जन्म हुआ। 

जबकि नगर सभ्यता व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक केन्द्र थे जिन्हे आज हम बाजारवाद कह सकते हैं। जहाँ वणिकों की बस्तियाँ होती थीं।


ग्रामीण जीवनका पालन करने वाले  गोपों की गोप ललनाऐं विशेष उत्सवों पर हल्लीसक नृत्य का आयोजन पुरुषों के सहयोग से करती थीं। और अनेक ऋतु सम्बन्धी रागों पर गीत गाती थीं। अहीरों ने संगीत को अनेक लौकिक अवदान दिये ।

मनुष्य जीवन पर्यन्त जिन व्यवहारों का नित्य. सम्पादन करता रहता है वह अपने उत्सवों में भी वही अभिनय समन्वित कर आनन्दित होता है। -

"ग्राम शब्द का मूल अर्थ - ग्रास या घास युक्त भूमि से है।

"यस्याश्वासः प्रदिशि यस्य गावो यस्य ग्रामा यस्य विश्वे रथासः।
यः सूर्यं य उषसं जजान यो अपां नेता स जनास इन्द्रः ॥७॥
ग्रसतेऽत्रेति ग्रामा = जहाँ ग्रास खाने के लिए मिले वह स्थान- ग्राम है। (ऋग्वेद २/१२/७)

(ग्रस्+ मन्)“ग्रसेरात्  उणादि मन् प्रत्यय।१।१४२। इतिमन्धातोराकारान्तादेशश्च।

हल्लीसक- शब्द पुराणों विशेषत: हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय( 89 )में  वर्णित है।

हल -विलेखे भ्वादिगणीय परस्मैपदीय सकर्म सेट् धातु से  हलति अहालीत् आदि क्रिया रूप बनते हैं। हलः हालः-  हल्यते कृष्यतेऽनेन  इति हल्+ घञर्थे करणे (क) । लाङ्गल ( हल) अमरः कोश। कृषि शब्दे २१९८ पृ० दृश्यम् ।

हल वह यन्त्र जिससे कृषि कार्य किया जाए-

और ईषा -हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठे (लाङ्गलदण्डे)वा हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड - हल और ईषा इन दोनों शब्दों से तद्धित शब्द बनता है। हल्लीषा- हल्लीषक

हल्लीषा- एक नृत्य जो हल और उसके ईषा ( दण्ड) के समानांतर दृश्य में आकृति बनाकर किया मण्डलाकार विधि से किया जाता था।

वैसे कृष्ण और संकर्षण शब्द कृषकों के विशेषण हैं। गोपों में जन्म लेने वाले ये दौंनों महानायक कृषि पद्धति के जनक भी थे कृषि करने के लिए हल तथा उस धान्य को पीट कर अन्न पृथक करने के लिए मूसल- का आविष्कार भी कृष्ण के बड़े भाई संकर्षण के द्वारा ही किया गया था। 

इनकी लोक संस्कृति में भी यही आविष्कार प्रदर्शित थे उनका सांस्कृतिक नृत्य हल्लीषम्- हल और ईषा की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही था ।

जिसे पुराणकारों ने श्रृँगार रस में डुबोकर रास के नाम से काव्यात्मक रूप में वर्णन किया है।संकर्षण कि हलधर विशेषण भी उनके कृषक होने का प्रमाण है।

हलधर= हलं धरति आयुधत्वं कृषिसाधनत्व वा धृ +अच् ।  बलराम  कृषक उदाहरण “उन्मूलिता हलधरेण पदावधतैः” उद्भटः ।

इन गोपों कि हल्लीषम् नृत्य (हल्लीश, हल्लीष)= 

नाट्यशास्त्र में वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के रूप में मान्य है।

विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और प्राय: नृत्य की प्रधानता रहती है। 

इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं  जिसे मंडल बाँधकर  जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं। साहित्यदर्पण(। ६ । ५५५ । )  में इसका लक्षण 

हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः। वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः। मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः॥

विशेष—पौराणिक परम्परा  इस क्रीड़ा का आरंभ कृष्ण द्वारा  कभी मार्गशीर्ष की पूर्णिमा  को तो कभी  कार्तिकी पूर्णिमा को आधी रात के समय को मानती है।

तब से गोप लोग यह क्रीड़ा करने लगे थे। पीछे से इस क्रीड़ा के साथ कई प्रकार के पूजन आदि मिल गए और यह मोक्षप्रद मानी जाने लगी। इस अर्थ में यह शब्द प्रायः स्त्रीलिंग जाता है। जैसे  हल्लीषा-

इसमें लास्य नृत्य ( स्त्री नृत्य) की प्रधानता ही होती है इसी लिए इसे रास्य( लास्य) भी कहा जने  लगा।

भारतीय संस्कृति में प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति होती थी। कृष्ण की रासलीला इसका प्रतीक है।

भक्तिकाव्य में रासलीला शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। दरअसल रास एक कलाविधा है।

प्रेम और आनंद की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण की उदात्त प्रेमलीलाओं का भावाभिनय ही रासलीला कहलाता है।

मूलतः यह एक नृत्य है जिसमें कृष्ण को केंद्र में रख गोपियां उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति मैं वृत्ताकार नर्तन करती हैं। 

अष्टछाप के भक्तकवियों नें प्रेमाभिव्यक्ति करने वाले अनेक रासगीतों की रचना की है।

रास में आध्यात्मिकता भी है जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति अनुराग व्यक्त होता है।

वे वृत्ताकार मंडल में प्रेमाभिव्यक्ति करती हैं। जिसे भविष्य पुराण  कारो ने हल्लीषम् अवश्य कहा-

रासक्रीड़ायाञ्च तल्लक्षणं यथा “पृथुं सुवृत्तं मसृणं वितस्तिमात्रोन्नतं कौ विनिखन्य शङ्कुकम् ।

आक्रम्य पद्भ्यामितरेतरन्तु हस्तैर्भ्रमोऽयं खलु रासगोष्ठी” हरिवंश पुराण टीका नीलकण्ठः शास्त्री।

संस्कृत में हल्लीषक का विश्लेषण-

एक विद्वान डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल मत है  कि हल्लीसं शब्द ़यूनानी इलिशियन- नृत्यों (इलीशियन मिस्ट्री डांस) से विकसित है। इसका विकास ईस्वी सन्  के आसपास माना जाता है। 

सन्दर्भ- हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन-पृष्ठ संख्या 33-

वास्तव में हल्लीषम् और इलिशियन दौंनो शब्द पृथक पृथक है।

विशेषण को तौर पर  एलिसियन शब्द एक आनंदमय स्थिति का वर्णन करता है, जैसा कि अधिकांश लोग हवाई छुट्टियों पर आनंद लेने की उम्मीद करते हैं। एलीसियन शब्द एलीसियन फील्ड्स नामक रमणीय यूनानी पौराणिक स्थान से आया है।  हालाँकि अब इस शब्द को अक्सर स्वर्ग के साथ समझा जाता है, ग्रीक एलीसियन फील्ड्स वासतव में  मृत्यु के बाद के जीवन में जाने के लिए एक स्वर्गीय विश्राम स्थल था।

संभवतः इस अवधारणा की कल्पना मूल रूप से युद्ध के दौरान सैनिकों में वीरता को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी। 

आजकल, लोग किसी भी स्वर्गीय दृश्य का वर्णन करने के लिए एलिसियन का उपयोग करते हैं -

एलीसियन- 1590 के दशक, लैटिन एलीसियम से, ग्रीक एलीसियन (पेडियन) से "एलिसियन क्षेत्र", मृत्यु के बाद धन्य लोगों का निवास, जहां नायक और गुणी निवास करते हैं, जो अज्ञात मूल का है, शायद प्री-ग्रीक (एक गैर-आईई सब्सट्रेट भूमध्यसागरीय भाषा) से ). इसका उपयोग पूर्ण प्रसन्नता की स्थिति के लाक्षणिक रूप में भी किया जाता है।

    यह क्रिया, लैटिन के साथ (ludus)"एक खेल, खेलो, ये सम्बन्धित है।"  PIE आद्य भारोपीय  रूट -*leid-या*loid- से सम्बंधित है जिसका अर्थ"खेलना,"  मृगतृष्णा

    लैटिन (illusio) से ही  फ्रांसीसी में विकसित (illusion) भ्रम का वाचक है। 

    इस इल्युशन शब्द के मोह माया  जादू आदि अन्य अर्थ भी प्रचलित हैं। देखा जाय तो संस्कृत में भी 

      मध्यकाल में इसमें जो आध्यात्मिकता थी वह धीरे धीरे गायब होती गई और विशुद्ध मनोरंजन शैलियों वाली गिरावट इस भक्ति और अध्यात्म को अभिव्यक्त करनेवाली विशिष्ट विधा में भी समा गई। वैसे आज भी बृज की रास मण्डलियां प्रसिद्ध हैं।

      कथक से भी रास को जोड़ा जाता है किन्तु कथक की पहचान जहां एकल प्रस्तुति में मुखर होती है वहीं रास सामूहिक प्रस्तुति है। 

      अलबत्ता रास शैली का प्रयोग कथक और मणिपुरी जैसी शास्त्रीय नृत्यशैलियों में हुआ है। इसके अलावा गुजरात का जग प्रसिद्ध डांडिया नृत्य रास के नाम से ही जाना जाता है। रास का मुहावरेदार प्रयोग भी बोलचाल की भाषा में खूब होता है। रास रचाना यानी स्त्री-पुरुष में आपसी मेल-जोल बढ़ना। रास-रंग यानी ऐश्वर्य और आमोद-प्रमोद में लीन रहना।

      रास शब्द रास् धातु से आ रहा है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है।

      इससे बना है रासः जिसमें होहल्ला, किलोल सहित एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे। 

      इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है। कुछ कोशों में इसका अर्थ हास्यनाटक भी कहा गया है। 

      दरअसल रासलीला जब कला विधा में विकसित हो गई तो वह सिर्फ नृत्य न रहकर नृत्यनाटिका के रूप में सामने आई।

      इसलिए रासकम् को सिर्फ हास्यनाटक कहना उचित नहीं है। मूलतः रास् से बने रासकम् का ही रूप मध्यकालीन साहित्य की एक विधा रासक के रूप में सामने आया। 

      नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है।  रासलीला में हंसोड़पात्र भी आते हैं जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं।

      रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं।

      विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के "लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है। र' औ ल' एक ही वर्णक्रम में आते हैं।  लास्य का ही प्राकृत रूप 'रास्स होता है। 

      कतिपय विद्वानों का मानना है कि श्रीकृष्ण के समय रास शब्द प्रचलित नहीं था। वे नृत्य की परिपाटी और श्रीकृष्ण के कलाप्रेम को खारिज नहीं करते हैं। कृष्णचरित से कलाओं को अलग किया ही नहीं जा सकता। मुरलीमनोहर और गोप-गोपियों के मेल ने भारतीय संस्कृति को विविध कलाएं दी हैं। गुप्तकालीन रचना रास पंचाध्यायी से मण्डलाकार नृत्य के लिए रास शब्द का प्रचलन बढ़ा है। निश्चित ही रास ब्रज क्षेत्र का पारम्परिक लोकनृत्य रहा है। 

      lascivious  adj.)

      mid-15c., "lustful, inclined to lust," कामुक, वासना की ओर प्रवृत्त,"

      from Medieval Latin lasciviosus (used in a scolding sense by Isidore and other early Church writers),

      मध्यकालीन लैटिन लास्किविओसस से (इसिडोर और अन्य प्रारंभिक चर्च लेखकों द्वारा डांट के अर्थ में प्रयुक्त),

      from Latin lascivia "lewdness, playfulness, fun, frolicsomeness, jolity," from lascivus "lewd, playful, undesigned, frolicsome, wanton."

      लैटिन लास्किविया से "भद्दापन, चंचलता, मौज-मस्ती, उल्लास, उल्लास," लास्किवस से "भद्दा, चंचल, असंयमित, उल्लासपूर्ण, प्रचंड।"

      __________    

      This is from PIE *las-ko-, from the root *las- "to be eager, wanton, or unruly" यह PIE से है *लास-को-, मूल से *लास-"उत्सुक, प्रचंड, या अनियंत्रित होना"

      हल्लीशक महाभारत में वर्णित एक नृत्यशैली है। इसका एकमात्र विस्तृत वर्णन महाभारत के खिल्ल भाग हरिवंश (विष्णु पर्व, अध्याय 20) में मिलता है। 


        - हरिवंश, हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय, श्लोक २४

        आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था। नृत्य का स्वरुप स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्र का टीका में अभिनव गुप्त ने कहा है-

        मण्डले च यत स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकंतु तत्। नेता तत्र भवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।।

        इसी नृत्य को श्री कृष्ण ने अपनी कला से सजाया तब वह रास के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण 'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं।

         द्वारका के राज दरबार में प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त द्वारका आकर उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रुप से जोड़ा व इसे स्री-समाज को सिखाया और देश देशांतरों में इसे लोकप्रिय बनाया। सारंगदेव ने अपने 'संगीत-रत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। वह लिखते है-

        पार्वतीत्वनु शास्रिस्म, लास्यं वाणात्मामुवाम्। तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।।७।। तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:। एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्।।८।।

        इस प्रकार रास की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली। जैन धर्म में रास की विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा, क्योंकि जैनियों के २३वे तीर्थकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही आभीर यदुवंशी थे। उन्हें प्रसन्न करने का रास किया जा सकता है

        आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था परन्तु कामुकता नही थी । 

        ब्रज का रास भारत के प्राचीनतम नृत्यों में अग्रगण्य है। अत: भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्र में रास को रासक नाम से उप-रुपकों में रखकर इसके तीन रुपों का उल्लेख किया है-

        १- मंडल रासक, २-ताल रासक,३- दंडक रासक या लकुट रासक। 

        देश में आज जितने भी नृत्य रुप विद्यमान हैं, उन परत्र रास का प्रभाव किसी-न-किसी रुप में पड़ा है।

        गुजरात का 'गरबा', राजस्थान का 'डांडिया' आदि नृत्य, मणिपुर का रास-नृत्य तथा संत ज्ञानदेव के द्वारा स्थापित 'अंकिया नाट' तो पूरी तरह रास से ही प्रभावित नृत्य व नाट्य रुप है।


        यह हल्लीसक एक प्रकार का वादन – गान के साथ लोकनृत्य था । यही रास का प्रारम्भिक रूप था । छालिक्य एक समूह गीत था , जिसके अन्तर्गत विभिन्न वाद्यों का वादन एवं नृत्य होता था । विष्णु पर्व के अनुसार इसको विभिन्न ग्रामरागों के अन्तर्गत विविध स्थान तथा मूर्च्छनाओं के साथ गाया जाता था। यह गान शैली अत्यन्त कठिन थी ।

        "आधुनिक विद्वानों का मत हैं, 'रास' शब्द कृष्ण-काल में प्रचलित नहीं था ; उसका प्रचलन बहुत बाद में हुआ। 'रास' शब्द के सर्वाधिक प्रचार का श्रेय श्रीमद्भागवत की 'रास-पंचाध्यायी' को है, जिसकी रचना गुप्त काल से पहिले की नहीं मानी जाती है। 

        कुछ विद्वान 'रास' का पूर्व रूप 'हल्लीसक' मानते है। 'रास' और 'हल्लीसक' पृथक्-पृथक् परंपराएँ थी। जो बाद में एक-दूसरे से संबंद्ध हो गई थीं। 

        इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य-नाट्य का आरंभिक नाम 'हल्लीसक'  था। उसके लिए सदा से 'रास' शब्द ही लोक में प्रचलित नहीं रहा है। ऐसा ज्ञात होता है 'रास' की पहिले मौखिक परंपरा थी, जो प्रचुर काल तक विद्यमान रही थी। उसी मौखिक और लोक प्रचलित शब्द को 'भागवत' कार ने साहित्य में अमर-कर दिया था।


















         
        एक आवेश हो मन में और चंचलता क्षण क्षण 
        समझो तूफानों का दौर है , होगी जरूर गड़बड़।। 

        ये उमंग और रंगत , लगें मोहक नजारे,
        सयंम की राह हे मन पकड़ ! इधर उधर 'न जारे

        –सच बयान करने वाले मुख नहीं ,
        दुनियाँ में अब महज चहरे होते हैं । 
        केवल शब्दों की ही भाषा सुनने वाले  
        लोग तो अक्सर बहरे होते हैं।।

         अरे तेरी आँखें जो कहती हैं पगले । 
        वो भाव ही असली तेरे होते हैं। 

        उमड़ आते हैं वे एकदम चहरे पर
        बर्षों से दिल में जो कहीं ठहरे होते हैं
         
         दर्द देते हमको वीरानी राहों में "रोहि"
         अक्सर तन्हाई में  जब कहीं बसेरे होते हैं ।
         अपमान हेयता की चोटों के जख़्म , 
        जो न भरने वालेे और बड़े गहरे होते हैं ।। 

        –दान दीन को दीजिए भिक्षा जो मोहताज ।
         और दक्षिणा दक्ष को जिसका श्रममूलक काज।

         परन्तु रीति विपरीत है सब जगह देख लो आज ।
         श्रृंँगार बनाकर असुन्दरी जैसे नैन - मटका वाज।

         जैसे डिग्रीयों में अब नहीं, रही योग्यता की आवाज ।।

        -ये परिस्थियाँ ये अनिवार्यताऐं जीवन की एक सम्पादिका !
         जिनकी वजह से खरीदा और बेका भी बहुत परन्तु अपना कभी चरित्र नहीं बिका ।। 

        प्रवृत्तियाँ जन्म सिद्ध होती जिनसे निर्धारित जातियाँ।
        आदतें व्यवहार सिद्ध ज्योति सुलगती जीवन बातियाँ ।।

        ये कर्म अस्तित्व है जीवन का धड़कने श्वाँस के साँचे।
        समय और परिवर्तन मिलकर जगत् के गीत सब बाँचे ।।

         –क्योंकि जिन्दे पर पूछा नहीं न किया कभी उन्हें याद ! 
        तैरहीं खाने आते हैं वे उसके मरने के वाद ।
         कर्ज लेकर कर इलाज कराया जैसे खुजली में दाद ।
         खेती बाड़ी सभी बिक गयी हो गया गरीब बर्वाद 

        पण्डा , पण्डित गिद्द पाँत में फिर भी ले रहे स्वाद 
         घर की हालत खश्ता इतनी छाया है शोक विषाद 

         किस मूरख ने यह कह डाला ? 
        तैरहीं ब्राह्मणों को प्रसाद !
         आज तुमने धन्यवाद वाद क्या दिया !
         मुझे तुमने धन्य कर दिया साध! 

        धुल गया वो पाप सारा सब क्षमा जघन्य अपराध!
         तभी मुसाफिर आगे बढ़ता ले उन बातों की याद। 
        –अज्ञानता के अँधेरों में हकीकत ग़ुम थी ।
         उजाले इल्म के होंगे ! उन्हें न ये मालुम थी ।।

         –धड़कने थम जाने पर श्वाँसें कब चलती हैं ? 
        –बहारे गुजर जाती जहाँ वहाँ खामोशियाँ मचलती हैं !

         –हम इच्छाओं की खातिर जिन्द़ा ये इच्छा वैशाखी है। 
        दर्द तो दिल में बहुत है लोगों , बस अब सिसकना बाकी है । 

        –वासना लोभ मूलक पास रहने की इच्छा है ।
         जबकि उपासना स्वत्व मूलक पास रहने की इच्छा है ।

         काम अथवा वासना में क्रूरता का समावेश उसी प्रकार सन्निहित है ! –जैसे रति में करुणा- मिश्रित मोह सन्निहित है। 
        जैसे शरद और वसन्त ऋतु दौनों का जन्म समान कुल और पिता से हुआ है । 
        परन्तु जहाँ वसन्त कामोत्पादक है ।
        वहीं शरद वैराग्य व आध्यात्मिक भावों की उत्पादिका ऋतु है ।

         –एक अनजान और अजीव देखा मैंने वह जीव ।
        जीवन की एक किताब पढ़ न पाया तरतीब ।।

         -साहित्य गूँगे इतिहास का वक्ता है ।
         परन्तु इसे नादान कोई नहीं समझता है ।।
         
        साहित्य किसी समय विशेष का प्रतिबिम्ब 
        तथा तात्कालिक परिस्थितियों का खाका है । 
        ये पूर्ण चन्द्र की धवल चाँदनी है जैसे 
        अतीत कोई तमस पूर्ण राका है ।। 

        इतिहास है भूत का एक दर्पण। 
        गुजरा हुआ कल, गुजरा हुआ क्षण -क्षण ।। 

         कोई नहीं किसी का मददगार होता है । 
        आदमी भी मतलब का बस यार होता है ।।

         छोड़ देते हैं सगे भी अक्सर मुसीबत में ।
         मुफ़लिसी में जब कोई लाचार होता है ।। 

        बात ये अबकी नहीं सदीयों पुरानी है । 
        स्वार्थ से लिखी हर जीवन कहानी है ।।

        स्वार्थ है जीवन का वाहक । 
        और अहं जीवन की सत्ता है ।। 

        अहंकार और स्वार्थ ही है । 
        हर प्राणी की गुणवत्ता है ।। 

         विश्वास को भ्रम , और दुष्कर्म को श्रम कह रहे 
        आज लूट के व्यवसाय को , अब कुछ लोग उपक्रम कह रहे।।

        व्यभिचार है,पाखण्ड है , ईमान भी खण्ड खण्ड है 
        संसार जल रहा है हर तरफ से ये वासनाओं की ज्वाला प्रचण्ड है ।

        साधना से हीन साधु सन्त शान्ति से विहीन ।
        दान भी उनको नहीं मिलता जो वास्तव में बने हैं दीन।।

         व्यभिचार में डूबा हुआ । 
        भक्त उसको परम कह रहे । 
        रूढ़ियों जो सड़ गयीं लोग उनके धर्म कह रहे ।।

         - इन्तहा जिसकी नहीं, उसका कहाँ आग़ाज है 
         ना जान पाया तू अभी तक जिन्द़गी क्या राज है 

        - धड़कनों की ताल पर , श्वाँसों की लय में ढ़ाल कर ।
         स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को। 

        साज़ लेकर संवेदनाओं का । 
        दु:ख सुख की ये सरग़में ।
         आहों के आलाप में । ये कुछ सुनाती हैं हम्हें ।। 

        सुने पथ के ओ पथिक ! 
        तुम सीखो जीवन रीति को ।। 
        स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को।

        सिसकियों की तान जिसमें एक राग है अरमान का ।।
        प्राणों के झँकृत तार पर । उस चिर- निनादित गान का ।। 

        विस्तृत मत कर देना तुम , इस दायित पुनीत को  
        स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को  

        ताप न तड़पन रहेगी। जब श्वाँस से धड़कन कहेगी 
        हो जोश में तनकर खड़ा। विद्युत - प्रवाह सी प्रेरणा ।

         बनती हैं सम्बल बड़ा ।। 
        तुम्हेें जीना है अपने ही बल पर ।
         तुम लक्ष्य बनाओं जीत को ।। 
        स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को 

        -खो गये कहीं बेख़ुदी में । हम ख़ुद को ही तलाशते ।।
         लापता हैं मञ्जिलें । 
        अब मिट गये सब रास्ते ।। 
        न तो होश है न ही जोश है ।। 

        ये जिन्द़गी बड़ी खामोश है ।। 
        बिखर गये हैं अरमान मेरे सब बदनशीं के वास्ते । 
        ये दूरियाँ ये फासिले , बेतावीयों के सिलसिले !! 
        एक साद़गी की तलाश में , हम परछाँयियों से आमिले ।। 

        दूर से भी काँच हमको। मणियों जैसे भासते ।।
        सज़दा किया मज्दा किया ।। कुर्बान जिसके वास्ते।। 
        हम मानते उनको ख़ुदा ।। 
        जो कभी न हमारे ख़ास थे ।। 

        किश्ती किनारा पाएगी कहाँ मिल पाया ना ख़ुदा।
         वो खुद होकर हमसे ज़ुदा । 
        ओझल हो गया फिर आस्ते ।। 
        खो गये कहीं बेख़ुदी में । 
        हम ख़ुद को ही तलाशते ।। 

        - जिन्द़गी की किश्ती ! 
        आशाओं के सागर ।। 
        बीच में ही डूब गये ; 
        कुछ लोग तो घबराकर ।।
         किसी आश़िक को पूछ लो । 
        अरे तुम द़िल का हाल जाकर ।।
        दुपहरी सा जल रहा है ; बैचारा तमतमाकर ।। 
         
        असीमित आशाओं के डोर में । 
        बँधी पतंग है जिन्द़गी कोई ।। 
        मञ्जिलों से पहले ही यहाँं , 
        भटक जातों हैं अक्सर बटोही क्यों कि ! बख़्त की राहों पर ! जिन्द़गी वो मुसाफिर है ।। 

        जिसकी मञ्जिल नहीं "रोहि" कहीं । 
        और न कोई सफ़र ही आखिर है ।। 
        आशाओं के कुछ पढ़ाब जरूर हैं 
        वह भी अभी हमसे बहुत दूर हैं ।। 

        बस ! चलते रो चलते रहो " चरैवेति चरैवेति ! 

        - अपनों ने कहा पागल हमको । ग़ैरों ने कहा आवारा है । 
        जिसने भी देखा पास हम्हें । उसने ही हम्हें फटकारा है ।। 

        - कोई तथ्य असित्व में होते हुए भी उसी मूल-रूप में नहीं होता ; जिस रूप में कालान्तरण में उसके अस्तित्व को लोगों द्वारा दर्शाया जाता है । 

        क्यों कि इस परिवर्तित -भिन्नता का कारण लोगों की भ्रान्ति पूर्ण जानकारी, श्रृद्धा प्रवणता तथा अतिरञ्जना कारण है । 
        और परम्पराओं के प्रवाह में यह अस्त-व्यस्त होने की क्रिया स्वाभाविक ही है । 
        देखो ! आप नवीन वस्त्र और उसी का अन्तिम जीर्ण-शीर्ण रूप ! अतः उसके मूल स्वरूप को जानने के लिए केवल अन्त:करण की स्वच्छता व सदाचरण व्रत आवश्यक है क्यों कि दर्पण के स्वच्छ होने पर ज्ञान रूप प्रकाश स्वत: ही परावर्तित होता है ।
         और यह ज्ञान वही प्रकाश है । 

        जिससे वस्तु अथवा तथ्यों का मूल वास्तविक रूप दृष्टि गोचर होता है । और ज्ञान की सिद्धि के लिए अन्त:करण चतुष्टय की शुद्धता परमावश्यक है ।
        फिर आपसे बड़ा कोई ज्ञानी नहीं । 
        समझे ! अभी नहीं समझे !
        अनुभव उम्र की कषौटी है । 
        ज्ञान की मर्यादा उससे कुछ छोटी है । 

        क्योंकि अनुभव प्रयोगों के आधार पर अपने आप में सिद्ध होता है और ज्ञान केवल एक सैद्धान्तिक स्थति है भक्तों आप ही बताइए कि प्रयोग बड़ा होता है या सिद्धांत ! 

        परिस्थितियों के साँचे में । 'रोहि' व्यक्तित्व ढलता है ।
        बदलती है दुनियाँ उनकी , जिनका केवल मन बदलता है। 

        मेरे विचार मेरे भाव यही मेरे ठिकाने हैं ।
        हर कर्म है इनकी व्याख्या ये लोगो को समझाने हैं 

        जन्म जन्मान्तरण के अहंकारों का सञ्चित रूप ही तो नास्तिकता है । 
        आत्मा को छोड़कर दुनियाँ में बस सब-कुछ बिकता है ।

        जो जीवन को निराशाओं के अन्धेरों से आच्छादित कर देती है । और ये आस्तिकता जीने का एक सम्बल देती है ।
         समझने की आवश्यकता है कि क्या नास्तिकता है ? 

        अपने उस अस्तित्व को न मानना जिससे अपनी पता है ।
         क्यों कि लोग अहं में जीते है । 

        जिसमें फजीते ही फजीते हैं । 
        परन्तु यदि वे स्वयं में जी कर देखें तो वे परम आस्तिक हैं और बड़े सुभीते हैं।। 

        बुद्ध ने भी स्व को महत्ता दी अहं को नहीं !
         दर्शन (Philosophy) से विज्ञान का जन्म हुआ।
         दर्शन वस्तुत सैद्धान्तिक ज्ञान है । 

        और जबकि विज्ञान प्रायौगिक है , --जो किसी वस्तु अथवा तथ्य के विश्लेषण पर आधारित है ।

        ताउम्र बुझती नहीं "रोहि " जिन्द़गी 'वह प्यास है 
        आनन्द की एक बूँद के लिए भी , आदमी इच्छाओं का दास है ।।

        परन्तु दु:ख सुख की मृग मरीचि का में 
        उसका ये सारा प्रयास है।। 

        आस जब तलक छोड़ी नहीं थीं धड़कने और श्वाँस।
        जीवन किसी पहाड़ सा दुर्गम और स्वप्न जैसे झरना कोई खा़स.. 

        ये नींद सरिता की अविरल धारा. 
        जहाँ मिलता नहीं कभी कोई किनारा। 

        हर श्वाँस में है अभी जीने की चाह ... 
        क्योंकि जीवन है अनन्त जन्मों का प्रवाह ....
         शिक्षा का व्यवसायी करण दु:खद व पतनकारी हे भगवन् ! 

        शिक्षा अन्धेरे में दिया इसके विना सूना जीवन । 
        आज के अधिकतर शिक्षा संस्थान (एकेडमी) एक ब्यूटी-पार्लर से अधिक कुछ नहीं हैं । 

        जिनमें केवल डिग्रीयों का श्रृँगार करके विद्या - अरथी नकलते हैं । ये योग्यता या विद्या का अरथी ले जा रहे हों ऐसा लगता है । 

        जिनमें योग्यता रूपी सुन्दरता का प्राय: अभाव ही रहता है केवल आँखों में सबको चूसने का भाव रहता है। इन्हें -जब समझ में आये कि सुन्दरता कोई श्रृँगार नहीं ! -
        जैसे साक्षरता शिक्षाकार नहीं । 
        योग्यता एक तपश्चर्या है । 

        --जो नियम- और संयम के पहरे दारी में रहती है 
         वैसे भी योग्य व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्ति शाली व्यक्ति है । 
        यदि स्त्रीयाँ सुन्दर न हों केवल श्रृँगार सर्जरी कराई कर रुतबा बिखेरती हों तो विद्वानों की दृष्टि में कभी भी सम्माननीया नहीं रहती । 

        जिन्हें अपने संसारी पद का ,"रोहि" हद से ज्यादा मद है । 
        सन्त और विद्वान समागम , उनका छोटा क़द है ।

        उनके पास कुछ टुकड़े हैं । क्षण-भङ्गुर चन्द कनक के , 
        उन्मुक्त कर रहे स्वर उनको , बड़ते पैसों की खनक के ।।

        उनकी उपलब्धियों की भी , संसार में यही सरहद है ।
         ये लौकिक यात्रा का साधन धन !
         जिसकी टिकट भी अब तो रद है ।।
         जीवात्मा की अनन्त यात्रा ।
         जिसका पाथेय उपनिषद् है । 
        पढ़ाबों से वही बढ़ पाता है रोहि ।

         --जो राहों का गहन विशारद है .
        .. सच कहने में संकोच खौंच दीवार की आँसे ! 
        व्यक्ति की छोटी शोच , मोच पैरों की नाँसे !!

        बातचीत करके और व्यवहार परख कर चलने वाले कभी नहीं पाते झांसे ! 

        सभी दूध के धुले भी कहाँ निर्विवाद होते हैं । 
        नियमों में भी अक्सर यहाँं अपवाद होते हैं ।। 

        कार्य कारण की बन्दिशें , उसके भी निश्चित दायरे। 
        नियम भी सिद्धान्तों का तभी, अनुवाद होते हैं ।। 

        महानताऐं घूमती हैं "रोहि" गुमनाम अँधेरों में । 
        चमत्कारी तो लोग प्रसिद्धियों के बाद होते हैं ।। 

        भव सागर है कठिन डगर है । 
        हम कर बैठे खुद से समझौते ! 
        डूब न जाए जीवन की किश्ती । 
        यहाँ मोह के भंवर लोभ के गोते ।
         मन का पतवार बीच की धार। 
        रोही उम्र बीत गई रोते-रोते। 
        प्रवृत्तियों के वेग प्रबल हैं । 
        लहरों के भी कितने छल हैं । 

        बस बच गए हैं हम खोते खोते। 
        सद्बुद्धि केवटिया बन जा । 
        इन लहरों पर सीधा तंजा । 

        प्रायश्चित के फेनिल से चमकेगा। 
        रोही अन्तर घट ये धोते-धोते।। 

        तन्हाईयों के सागर में खयालों की बाड़ हैं । 
        जिन्दगी की किश्ती लहरें प्रगाढ़ हैं ।

        पतवार छूट गये मेरे ज्ञान और कर्म के ।
        हर तरफ मेरे मालिक ! 
        घोर स्वार्थो की दहाड़ है । 
        जिसकी दृष्टि में भय मिश्रित छल है। 

        रोही वह निश्चित ही कोई अपराध कर रहा है और उसे अपराध बोध भी है। परन्तु वह दुर्भावनाओं से प्रेरित है । 

        यह मेरा निश्चित मत है और जो व्यक्ति हमसे भयभीत है हम्हें उनसे भी भयभीत रहें।
        क्योंकि यह अपने भय निवारण के लिए हमारा अवसर के अनुकूल अनिष्ट कर सकते हैं। 
        व्यक्तित्व तो रोहि परिस्थितियों के साँचे में ढलते हैं।

        अभावों की आग में तप कर भत्त भी फौलाद में बदलते हैं । अनजान और अजीव , ऐसा था एक जीव ।। 

        वक्त की राहों पर चल पड़ा बेतरतीव ।। 
        शरद और वसन्त ऋतु क्रमश वैराग्य और काम भावों की उत्प्रेरक हैं । वैराग्य और काम एक ही वेग की दो विपरीत धाराऐं हैं ।
         ये हुश़्न भी "कोई " ख़ूबसूरत ब़ला है ! _______________________________

         बड़े बड़े आलिमों को , इसने छला है !!
         इसके आगे ज़ोर किसी चलता नहीं भाई! 

        ना इससे पहले किसी का चला है ! 
        ये आँधी है ,तूफान है ये हर ब़ला है 
        परछाँयियों का खेल ये सदीयों का सिलस़िला है ! 

        आश़िकों को जलाने के लिए इसकी एक च़िगारी काफी है , 
        जलाकर राख कर देना । 

        फिर इसमें ना कोई माफी है । 
        सबको जलाया है इसने , ये बड़ा ज़लज़ला है !!
        इश्क है दुनियाँ की लीला, तो ये हुश़्न उसकी कला है ।।

        ____________________________________

        छोटे या बड़े होने का प्रतिमान यथार्थों की सन्निकटता ही है ।
         क्यों कि ज्ञान सत्य का परावर्तन और सर्वोच्च शक्तियों का विवर्तन ( प्रतिरूप ) है । 
        -वह व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति है ; 
        जो सत्य के समकक्ष उपस्थित है ।
         ज्ञान जान है यह सत्य का प्रतिमान ( पैमाना )है 
        संसार में प्रत्येक व्यक्ति की एक सोच होती है ; 

        जो समानान्तरण उसकी प्रवृत्ति और स्वभाव को प्रतिबिम्बित करती रहती है । 
        उसी के अनुरूप वह जीवन में व्यवसाय क्षेत्रों का चयन करता है। और सत्य पूछा जाय तो इसका मूल कारण उसकी प्रारब्ध है जो जन्म- जमान्तरण के संचित 'कर्म'- संस्कारों से संग्रहीत है जीव संचित' क्रियमाण और प्रारब्ध का प्रतिफलन हैं । 

        प्रारम्भ में सृष्टि में एक अवसर सबको मिलता है ।
        फिर समय उपरान्त वह अपने कर्मों से अपने जीवन की यात्रा निर्धारित करता है । 
        लव तलब मतलब इन हयातों का सबब !

        दुनियाँ की उथल -पुथल दुनियाँ इनसे ये सारी
         है 
        कर्म जीवन का अस्तित्व कर्म ये कर्म की फुलवारी है ।।

         _____________________________________ 
        रोहि सुधरेगा नहीं , सदियों तक ये देश।।
        अनपढ़ बैठे दे रहे ,  मंचों  पर  उपदेश।।

        मंचों पर उपदेश  पंच बैठे हैं अन्यायी ।
        वारदात के बाद पुलिस लपके से आयी।।

        राजनीति का खेल , विपक्षी बना है द्रोही।
        जुल्मों का ये ग्राफ  क्रम बनता आरोहि ।।
        ___________

        पाखण्डी इस देश में , पाते हैं सम्मान ।
        अन्ध भक्त बैठे हुए, लेते उनसे  ज्ञान ।।

        लेते उनसे ज्ञान  मति गयी उनकी मारी ।
        दौलत के पीछे पड़े, उम्र बीत गयी सारी

        स्वर" ईश्वर बिकते जहाँ ,दुनियाँ ऐसी मण्डी।
        भाँग धतूरा ,कहीं चिलम फूँक रहे पाखण्डी।।
        _______
        रोहि सुधरेगा नहीं ,सदियों तक अपना देश।।
        अनपढ़ बैठे दे रहे  पढने वालों को उपदेश।।

        पढने वालों को उपदेश  राजनीति है गन्दी।
        बेरोजगारी भी बड़ी  और पड़ी देश में मन्दी।।

        अपराधी ज़ालिम बड़े और लड़े  देश में  द्रोही।
        किसी की ना सुनता कोई , जुल्म  बना आरोहि।।



        मजबूरियाँ हालातों के जब से  साथ हैं।
        सफर में सैकड़ों  हजारों   फुटपाथ हैं।।

        सम्हल रहा हूँ जिन्दगी की दौड़ में गिर कर !
        किस्मतों को तराशने वाले भी कुछ हाथ हैं।

        गुरुर्मातृसमो नास्ति नास्ति भार्यासमःसखा।
        नीचावमाननाद्दुःखाद्दुःखं नास्ति यथा परम्।४०। 
        (विष्णु धर्मोत्तर पुराण  अध्याय 305 -)

        अनुवाद:-
        माता को समान गुरु नहीं है और पत्नी को समान सखा नहीं । नीच व्यक्ति द्वारा किया गया अपमान इस दुनियाँ का सबसे बड़ा दु:ख है।

         जीवन की अनन्त विस्तारमयी श्रँखलाओं में से एक कड़ी है वर्तमान जीवन और इस वर्तमान जीवन में घटित पहलू प्रारब्ध द्वारा निर्धारित हो गये है। इस संसार में प्रत्येक प्राणी के जीवन में सभी घटित  घटनाओं और प्राप्त  वस्तुओं का अस्तित्व उद्देश्य पूर्ण और सार्थक ही है। वह नियत है ,निश्चित है। उसके

        भले हीं उस समय  उनकी उपयोगिता हमारे जीवन के अनुकूल हो अथवा  न हो । क्योंकि उसकी घटित वास्तविकता का स्थूल रूप से हम्हें कभी बोध ही नहीं होता है।

        और लोगों को कभी भी भविष्य में स्वयं के द्वारा करने वाले कर्मों के लिए दाबा - और भूल से किए गये गलत कर्मों  के लिए भी पछतावा नहीं करना चाहिए।  क्यों कि भूल से जो कर्म हुआ वह काल से प्रेरित प्रारब्ध का विधान था । 
        बुद्धिमानी इसी में है कि अहंकार से रहित होकर उस परम सत्ता से मार्गदशन का निरन्तर आग्र क्या जाए।

        हाँ भूत काल की घटनाओं से उनके सकारात्मक या नकारात्मक रूप में घटित  परिणामों से मनुष्य को  शिक्षा लेकर भविष्य की  सुधारात्मक परियोजना का अवश्य विचार करना चाहिए। वहाँ  कर्म का दावा तो कभी नहीं करना चाहिए-

        यद्यपि कर्म तो वर्तमान के ही धरातल पर सम्पादित होता है। अत: वर्तमान को ही बहुत सजग तरीके जीना- जीवन है।

        भविष्य की घटित घटनाओं का ज्ञान  स्थूल दृष्टि से तो कोई नहीं कर सकता है।

        परन्तु रात्रि के अन्तिम पहर में देखे हुए स्वप्न भी जीवन में सन्निकट भविष्य में होने वाली कुछ घटनाओं का प्रकाशन अवश्य करते हैं। वास्तव में यह मन में स्फुटित प्रारब्ध का प्रकाशन है।

        ये भविष्य की घटनाएँ कभी प्रतिकूल प्रतीत होते हुए भी अनुकूल स्थितियों का निर्माण करती हैं ।

        और अनुकूल प्रतीत होते हुए भी वाली ये  घटनाएँ  प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण भी कर देती हैं। साधारण लोग इनके गूढ सत्य को नहीं जानते हैं!  ये सब तो प्रारब्ध के विधान ही हैं। 
        कभी कभी हम बचपन में केवल शोक अथवा सनक में ऐसी वस्तुओं का संग्रह कर लेते हैं जो उस समय तो निरर्थक और बेकार सी होती हैं परन्तु भविष्य में कभी उनकी उपयोगिता सार्थक हो जाती है। यही तो प्रारब्ध का विधान है।

        दर-असल प्रारब्ध अनेक जन्मों के मन के  निर्देशन द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों से किए गये कर्मों का सञ्चित रूप में से- एक जीवन के  निर्देशन के लिए विभाजित एक रूप है।

        अर्थात्  ( एक जीवन में फलित परिस्थितियों और उपलब्धियों की सुलभता का नाम प्रारब्ध है । स्वभाव की रवानगी में यही प्रारब्ध ही व्याप्त है। 
        यही प्रारब्ध भाग्य संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है।

        परन्तु जब लोग स्वभाव के विपरीत संयम से कुछ नया करते हैं तब  वह साधना नवीन कर्म संस्कार का निर्माण करती है। यही तपस्या अथवा साधना नवीन सृजन की भी क्रिया या शक्ति है। 
        यह क्रियमाण कर्म है - जिससे आगामी जीवन के प्रारब्ध का निर्माण होता है।

        यही जीवन का सत्य है। हमने जीवन की प्रयोगशाला में यह अनुभव रूपी प्रयोग भी किया है। यह प्रयोगशाला और प्रयोग सबका मौलिक ही होता है। सार्वजनिक कदापि नहीं सबका जीवन अपनी एक निजी प्रयोगशाला है। -

        दुनियाँ के सभी प्राणियों की क्रियाविधि काल के तन्तुओं से निर्मित‌ प्रारब्ध की डोर से नियन्त्रित है।

        परिस्थितियों के वस्त्रों में है डोर या धागा  सबका प्रारब्ध का ही लगा है   इसी वस्त्र से  जीवन आवृत  है।
         
        इसी लिए अहंकार रहित होकर कर्तव्य करने में ही जीवन की सार्थकता है। निष्काम भक्त इस संसार में सबसे बड़ा साधक है।

        धर्म का अधिष्ठाता यम हैं ।

        और यम की दार्शनिक व्याख्या की जाए तो 
        यम स्वाभाविकताऐं जो मन और सम्पूर्ण जीवन का अन्तत: पतन कर देती हैं। 
        उनके  नियमन अथवा ( निरोध) की विधि है।
        योगशास्त्र में प्रथम सूत्र है।

         योग की परिभाषा निरूपित करते हुए ।
        योगश्चितवृत्तिनिरोध:” चित्तवृत्ति के निरोध का नाम योग है | 
        चित्त अर्थात मन वृत्ति ( स्वाभाविक तरंगे) उनका निरोध( यमन - नियन्त्रण) करने के लिए ही जीवन में धर्माचरण आवश्यक है।
        इसी धर्माचरण के ही अन्य नाम व्रत- तपस्या -सदा चरण आदि हैं योग भी मन की वृत्तियों के नियन्त्रण की  क्रिया -विधि है।

         मन की इन्हीं वृत्तियों ( तरंगो) के नियन्त्रण हेतु कतिपय उपाय  आवश्यक होते हैं  जो संख्या में आठ माने जाते हैं। अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंगों में  (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) ‘बहिरंग’ हैं।

         और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) ‘अंतरंग’ नाम से प्रसिद्ध हैं।
        अत: यम बाह्य सदाचरण मूलक साधना है।
        यही धर्म है।

        बहिरंग साधना के यथार्थ रूप से अनुष्ठित या क्रियान्वित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है।

         यम’ और ‘नियम’ वस्तुत: शील और तपस्या के द्योतक हैं। 

        यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार का माना जाता है : (क) अहिंसा, (ख) सत्य, (ग) अस्तेय (चोरी न करना अर्थात्‌ दूसरे के द्रव्य के लिए स्पृहा न रखना) अथवा बिना उनकी अनुमति के उसकी इच्छा न करना।

        सत्य यही है कि व्यक्ति जब सदाचरण और यम की इन प्रक्रियाओं को करता है तो उसका अन्त:करण शुद्ध और मन बुद्ध ( बोध युक्त)हो जाता है बुद्धि चित् या मन की ही बोध शक्ति है।
        यहीं से ईश्वरीय ज्ञान का स्वत: स्फुरण होने लगता है। 
        इसी लिए तो साधक सन्त तपस्वी सबके मन की बात जान लेते हैं और अनेक भविष्य वाणीयाँ भी सटीक करते हैं।

        नास्तिक व्यक्ति आत्म चिन्तन से विमुख तथा मन की स्वाभाविक वासनामूलक वृत्तियों की लहरों में उछलता -डूबता हुआ  कभी भी शान्ति को प्राप्त नहीं होता और जो शान्ति से रहित व्यक्ति   सुखी अथवा आनन्दित कैसे रह सकता है ? आनन्द रहित व्यक्ति नीरस और निराशाओं में जीवन में सदैव अतृप्त ही रह जीवन बिता देता है।

        दर-असल नास्तिकता जन्म - जन्मान्तरों के सञ्चित अहंकार का घनीभूत रूप है। 

        जिसकी गिरफ्त हुआ व्यक्ति कभी भी सत्य का दर्शन नहीं कर सकता यही अहंकार अन्त:करण की मलीनता( गन्दिगी) के लिए उत्तरदायी है।

        अन्त:करण (मन ,बुद्धि, चित्त ,और स्वत्वबोधकसत्ता का समष्टि रूप ) के शुद्ध होने पर ही सत्य का दर्शन होता है।

        और इस  अहंकार का निरोध ही तो भक्ति है।
        अहंकार व्यक्ति को सीमित और संकुचित दायरे में कैद कर देता है ।

        वह भक्ति जिसमें सत्य को जानकर उसके अनुरूप सम्पूर्ण जीवन के कर्म उस परम शक्ति के प्रति समर्पित करना होता है। जो जन्म और मृत्यु के द्वन्द्व से परे होते हुए भी इन रूपों को अपने लीला हेतु अवलम्बित करता है। वह अनन्त और सनातन है।

        मानवीय बुद्धि उसका एक अनुमान तो कर सकती है परन्तु अन्य पात्रता हीन व्यक्तियों के सामने व्याख्यान नहीं कर सकती हैं।

        संसार में कर्म इच्छओं से कभी रहित नहीं होता है। 

        कर्म में इच्छा और इच्छाओं के मूल में संकल्प और संकल्प अहंकार का विकार -है।

        भक्ति में कर्म फल को भक्त ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है अत: ईश्वर स्वयं प्रेरणात्मक रूप से उसका मार्गदर्शन करता है ।

        जब एक बार किसी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो जाय तो जनसाधारण उनकी गलत बातों को भी सही मानते हैं। धर्म के क्षेत्र में यही सिद्धान्त लागू है।
        क्योंकि श्रद्धा तर्क विचार और विश्लेषण के द्वार बन्द कर देती है।

        जब जब व्यक्ति अपनी प्राप्तव्य वस्तु के अनुरूप योग्यता अर्जित कर लेता है वह वस्तु उसे प्राप्त हो के ही रहती है।
        देर भले ही हो जाय !

        वासना " तृष्णा " लोभ " मोह " और  लालसा" एक ही परिवार के सदस्य नहीं है। अपितु यह एक भाव ही  सभी अवान्तर भूमिकाओं में भिन्न भिन्न नाम धारण किए हुए है। 
        और "आवश्यकता" (जरूरत) नामक जो भाव है वह  इन सबसे पृथक  जीवन के अस्तित्व का अवधारक है। जरूरतें जैविक अवधान हैं सृष्टा द्वारा निर्धारित जीवन का विधान हैं।

        और जो वस्तु जीवन के लिए आवश्यक है वहीउसी रूप और अनुपात में उतनी ही सुन्दर भी  है।

        यद्यपि प्रत्येक इन्सान में  गुण- दोष होते ही हैं व्यक्ति स्वयं अपने दोषों पर गौर नहीं करता  परन्तु हम्हें तो उसके गुण ही ग्रहण करने चाहिए सायद वे हमारे लिए गुण न हों क्योंकि हम जिसे एक बार शत्रु मान लेते हैं उस व्यक्ति में चाहें कितने भी गुण हों वह हम्हें  दोष ही दिखाई देते हैं। क्यों कि उस शत्रु भाव से हमारे दृष्टि के लेन्स का कलर ही बदल जाता है।

        शत्रुता "ईर्ष्या" घृणा अथवा विरोध सभी भाव मूलत: उस व्यक्ति के हमारी प्रति वैचारिक प्रतिकूलता के प्रतिबिम्बित रूप हैं।
        यहीं से हमारे मस्तिष्क में पूर्वदुराग्रह का जन्म होता है। 
        ऐसी स्थिति में हमारा निर्णय कभी भी निष्पक्ष नहीं होता है।

        व्यक्ति को अपने लम्बे समय से चाहे हुए (आकाँक्षित) अभियान की शुरुआत स्थान को बदलकर ही करनी चाहिए।
         क्योंकि वह जिस स्थान पर दीर्घकाल से रह रहा है। वहाँ के लोगों की दृष्टि में  वह प्रभाव हीन और गुणों से हीन हो गया है। और वे लोग उसको लगातार हतोत्साहित और हीन बनाने के लिए मौके की तलाश में बैठे हैं।
        अच्छा है उस स्थान को बदल ही दिया जाए -

        जैसे कोई वाहन भार से युक्त होने पर आगे गति करते हुए यदि  सिलप होने लगे तो फिर लीख काटकर ही आगे बढ़ पाता है।

        क्योंकि उस वाहन की गति के अवरोधक  तत्व निरन्तर उसकी गति को अवरोधित  अथवा क्षीण करते हुए अपनी अवरोधन क्रिया का विस्तार ही करते ही रहते हैं।

        अन्य  गाँव का जोगिया 
        और गाँव का सिद्ध ।

        बराबर से दिखने लगे 
        लोगों को हंस और गिद्ध ।

        प्रेम धोखा पाई हुई स्त्री उस नागिन के समान  आक्रामक होती है जिसकी खोंटी कर दी गयी हो। और प्रेम में धोखा खाया हुआ पुरुष पागल हो जाता है जैसे उसकी बुद्धि को लकवा मार गया हो ! इस प्रकार का विश्लेषण प्राय हम करते रहते हैं।

        परन्तु ये वास्तव में प्रेम के नाम पर यह केवल सांसारिक स्वार्थ परक वासना मूलक आकर्षण ही है। इसे आप प्रेम नही कह सकते हैं।

        क्योंकि प्रेम कभी आक्रामक हो ही  नहीं सकता  प्रेम तो बलिदान और त्याग  का दूसरा नाम है। 

        स्त्रीयाँ में दर -असल व्यक्तियों के  गुण - वैभव और साहस की आकाँक्षी होती हैं।
         विशेषत: उन चीजों की जो उनके अन्दर नहीं हैं।
        जैसे तर्क " विश्लेषण की शक्ति " विचार अथवा चिन्तन और साहस या कठोरता प्राय: स्त्रियों में कम ही होता है पुरुष के मुकाबले स्त्रियाँ 
        पुरुष के  महज सौन्दर्य की आकाँक्षी कभी नहीं होती हैं।  
        स्त्रियों तथा पुरुषों  की दृष्टि में सौन्दर्य आवश्यकता मूलक दृष्टिकोण या नजरिया है। पुरुष की दृष्टि में स्त्रीयों की कोमलता ही सौन्दर्य है। पुरुष में कोमलता होती नहीं हैं  पुरुष तो परुषता या कठोरता का पुतला है। 

        और स्त्री रबड़ की गुड़िया-
        जैनों एक दूसरे के भावों के तलबदार हैं यही उनके परस्पर आकर्षण और मिलन का कारण भी है।
        यदि पुरुष इश्क कि शहंशाह है तो स्त्री हुश्न की मलिका है दोनों को एक दूसरे की चाह ( इच्छा) है।

        यह उनका एक बहुत महान दृष्टिकोण है। अधिकतर स्त्रीयाँ प्राय: समर्पित" सहनशील और निष्ठावान प्रवृत्ति की  होती हैं।

        आपने स्त्रियों को नास्तिक होते नहीं पाया होगा वे भावनाओं से आप्लावित होती हुई श्रद्धा भावनाओं का घनीभूत रूप है। 

         श्रद्धा भक्ति का ही समर्पण युक्त रूपांतरण है।
         जबकि अहंकार इसके विपरीत  भाव है। अहंकार के  जन्म जन्मातरों का घनीभूत रूप ही नास्तिकता है।

         स्त्रीया" भावनाओं से आप्लावित एक नाव को समान होती हैं।

        महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक जितेन्द्रिया और व्यवस्थापिका होती हैं।
        यह उनके गुण अनुकरणीय हैं।

        परन्तु दु:ख की बात की धर्म शास्त्र लिखने वाले पुरुषों ने स्त्रीयों के दोषों को ही देखा है गुणों को नहीं यही उनका पूर्वदुराग्रह उनकी विद्वत्ता पर कलंक है।


        दर्द जान की पहिचान है।

        मन एक समुद्र जिसमें विचारों की लहरें तब आन्दोलित होती हैं। जब विचारों का परस्पर आघात -प्रत्याघात ही ज्ञान के बुलबुले उत्पन्न करता है। जिसमें सिद्धान्त की ऑक्सीजन (प्राण वायु) समाहित होती है।
        बाल बढ़ाए तीनगुण लोग कहें महाराज ।
         साधक सा जीवन बने  सिद्धों में सरताज।।

         सिद्धों में सरताज  साधना जब हो  सच्ची।
        भोगों - रोगों से रहित ज़िन्दगी सबसे अच्छी ।

        साधना के पथ पर चलें, फाँसे जगत के जाल ।
        सबको सुलझाते रहो , यह याद दिलाते बाल!

        व्यक्ति का कर्म ही उसके उच्च और निम्न स्तर के मानक को सुनिश्चित करता है।
         न कि उसका जन्म ! अभावों और विकटताओं में जन्म लेने वाले भी महान बन जाते हैं और सम्पन्नता और भोग विलास में जीवन यापन करने वाले भी पतित और चरित्रहीन हो जाते हैं।

        "सराफत की दुहाई देने वाले अधिकर दोषी निकले।
        परिवार का जिनको हम समझ रहे वे पड़ोसी निकले।।

        भौतिक उपलब्धियाँ व्यक्ति की हैसियत का मापन तो कर सकती हैं परन्तु उसकी शख्सियत का मापन तो उसके आचरण और विचारों की महानता ही करती है।
        अत: सस्ती लोकप्रियता के बदले अपने विचारों की महानता का समझौता मत करो!

        अनुमान का सत्य के इर्दगिर्द विश्लेषण होता है सत्य केन्द्र है तो अनुमान परिधि !

        ज़िन्दगी के सफर में 
        आशंकाओं के जब ब्रेकर बहुत हो।
        ज़िन्दगी  रेंग रेंग चलती है।
        मंजिल कैसे फतह हो।।

        आशंकाऐ सम्भावी अनहोनीयों के द्वार भी बन्द कर देती हैं। ये इन आशंकओं का सकारात्मक पक्ष है कि ये अनिष्टों के प्रति सदैव सावधान करती हैं। इस प्रकार विधाता ने इनको भी सार्थकता दी है

        संसार में सामाजिक सारोकारों के तीन कारण दिखाई देते हैं। कर्तव्य - मोह और स्वार्थ 
        कर्तव्य निर्देश करता है कि मनुष्य को क्या करना चाहिए ताकि उसका जीवन सफल हो सार्थक हो।

        "भगवद् गीता अध्याय 5 श्लोक 11

        "कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
        योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये।।5.11।।

        हिंदी अनुवाद - कर्मयोगी आसक्तिका त्याग करके केवल (ममतारहित) इन्द्रियाँशरीरमनबुद्धिके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ही कर्म करते हैं।
        मूल श्लोकः
        निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
        शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।4.21।।
         अनुवाद:-जो आशा रहित है तथा जिसने चित्त और आत्मा (शरीर) को संयमित किया है,  जिसने सब परिग्रहों का त्याग किया है,  ऐसा पुरुष शारीरिक कर्म करते हुए भी पाप को नहीं प्राप्त होता है।।


           मन का आग्रह ही स्मरण है ।   
        किसी भावों के आवेश से युक्त मन निर्णय उसी के उसी से सम्बन्धित वस्तु के पक्ष में लेता है।



        रविवार, 24 मार्च 2024

        १-


        _____  
                       चतुर्थ अध्याय-
              अध्याय-103 पद्मपुराण भूमिखण्ड -
                      "कुञ्जल उवाच-
        अशोकसुन्दरी जाता सर्वयोषिद्वरा तदा।
        रेमे सुनन्दने पुण्ये सर्वकामगुणान्विते।१।
        सुरूपाभिः सुकन्याभिर्देवानां चारुहासिनी ।
        सर्वान्भोगान्प्रभुं जाना गीतनृत्यविचक्षणा ।२।
        विप्रचित्तेः सुतो हुण्डो रौद्रस्तीव्रश्च सर्वदा ।
        स्वेच्छाचारो महाकामी नन्दनं प्रविवेश ह ।३।
        अशोकसुन्दरीं दृष्ट्वा सर्वालङ्कारसंयुताम् ।
        तस्यास्तु दर्शनाद्दैत्यो विद्धः कामस्य मार्गणैः ४।
        तामुवाच महाकायः का त्वं कस्यासि वा शुभे ।
        कस्मात्त्वं कारणाच्चात्र आगतासि वनोत्तमम् ।५।
                      "अशोकसुन्दर्युवाच-
        शिवस्यापि सुपुण्यस्य सुताहं शृणु साम्प्रतम् ।
        स्वसाहं कार्तिकेयस्य जननी गोत्रजापि मे ।६।
        बालभावेन सम्प्राप्ता लीलया नन्दनं वनम् ।
        भवान्कोहि किमर्थं तु मामेवं परिपृच्छति ।७।
                         'हुण्ड उवाच-
        विप्रचित्तेः सुतश्चाहं गुणलक्षणसंयुतः ।
         हुण्डेति नाम्ना विख्यातो बलवीर्यमदोद्धतः ।८।
        दैत्यानामप्यहं श्रेष्ठो मत्समो नास्ति राक्षसः।
         देवेषु मर्त्यलोकेषु तपसा यशसा कुले ।९।
        अन्येषु नागलोकेषु धनभोगैर्वरानने ।
        दर्शनात्ते विशालाक्षि हतः कन्दप्रमार्गैण ।१०।
        शरणं ते ह्यहं प्राप्तः प्रसादसुमुखी भव ।
        भव स्ववल्लभा भार्या मम प्राणसमा प्रिया ।११।
                        'अशोकसुन्दर्युवाच-
        श्रूयतामभिधास्यामि सर्वसम्बन्धकारणम् ।
        भवितव्या सुजातस्य लोके स्त्री पुरुषस्य हि ।१२।
        भवितव्यस्तथा भर्ता स्त्रिया यः सदृशो गुणैः ।
        संसारे लोकमार्गोयं शृणु हुणड यथाविधि ।१३।
        अस्त्येव कारणं चात्र यथा तेन भवाम्यहम् ।
        सुभार्या दैत्यराजेंद्र शृणुष्व यतमानसः।१४।
        वृक्षराजादहं जाता यदा काले महामते ।  
        शम्भोर्भावं सुसंगृह्य पार्वत्या कल्पिता ह्यहम् ।१५।
        देवस्यानुमते देव्या सृष्टो भर्ता ममैव हि ।      
        सोमवंशे महाप्राज्ञः स धर्मात्मा भविष्यति ।१६।
        जिष्णुर्विष्णुर्समो वीर्ये तेजसा पावकोपमः।  
          सर्वज्ञः सत्यसन्धश्च त्यागे वैष्णवोपमम् ।१७।
        यज्वा दानपतिः सोपि रूपेण मन्मथोपमः।
        नहुषोनाम धर्मात्मा गुणशील महानिधिः।१८।
        देव्या देवेन मे दत्तःख्यातोभर्ताभविष्यति ।
         पुत्रमाप्स्यामि सुन्दरम्।१९।
        इन्द्रोपेन्द्र समं लोके ययातिं जनवल्लभम् ।
        लप्स्याम्यहं रणे धीरं तस्माच्छम्भोः प्रसादतः।२०।
        अहं पतिव्रता वीर परभार्या विशेषतः ।      
          अतस्त्वं सर्वथा हुणड त्यज भ्रान्तिमितो व्रज ।२१।
        प्रहस्यैव वचो ब्रूते अशोकसुन्दरीं प्रति ।            हुण्ड उवाच-नैव युक्तं त्वया प्रोक्तं देव्या देवेन चैव हि ।२२।
        नहुषोनाम धर्मात्मा सोमवंशे भविष्यति ।        भवती वयसा श्रेष्ठा कनिष्ठो न स युज्यते ।२३।
        कनिष्ठा स्त्री प्रशस्ता तु पुरुषो न प्रशस्यते ।        कदा स पुरुषो भद्रे तव भर्ता भविष्यति।२४।
        तारुण्यं यौवनं चापि नाशमेवं प्रयास्यति ।  यौवनस्य बलेनापि रूपवत्यः सदा स्त्रियः।२५।
        पुरुषाणां वल्लभत्वं प्रयान्ति वरवर्णिनि ।      तारुण्यं हि महामूलं युवतीनां वरानने।२६।
        तस्या धारेण भुञ्जन्ति भोगान्कामान्मनोनुगान् ।कदा सोभ्येष्यते भद्रे आयोः पुत्रः शृणुष्व मे।२७।
        यौवनं वर्ततेऽद्यैव वृथा चैव भविष्यति ।           गर्भत्वं च शिशुत्वं च कौमारं च निशामय ।२८।
        कदासौ यौवनोपेतस्तव योग्यो भविष्यति ।
        यौवनस्य प्रभावेन पिबस्व मधुमाधवीम्।२९।
        मया सह विशालाक्षि रमस्व त्वं सुखेन वै ।
        हुण्डस्य वचनं श्रुत्वा शिवस्य तनया पुनः ।३०।
        उवाच दानवेन्द्रं तं साध्वसेन समन्विता ।
        अष्टाविंशतिके प्राप्ते द्वापराख्ये युगे तदा ।३१।
        शेषावतारो धर्मात्मा वसुदेवसुतो बलः ।
        रेवतस्य सुतां दिव्यां भार्यां स च करिष्यति।३२।
        सापि जाता महाभाग कृताख्ये हि युगोत्तमे ।
        युगत्रयप्रमाणेन सा हि ज्येष्ठा बलादपि ।३३।
        बलस्य सा प्रिया जाता रेवती प्राणसंमिता ।
        भविष्यद्वापरे प्राप्त इह सा तु भविष्यति ।३४।
        मायावती पुरा जाता गन्धर्वतनया वरा ।
        अपहृत्य नियम्यैव शम्बरो दानवोत्तमः ।३५।
        तस्या भर्ता समाख्यातो माधवस्य सुतो बली ।
        प्रद्युम्नो नाम वीरेशो यादवेश्वरनन्दनः ।३६।
        तस्मिन्युगे भविष्येत भाव्यं दृष्टं पुरातनैः ।
        व्यासादिभिर्महाभागैर्ज्ञानवद्भिर्महात्मभिः ।३७।
        एवं हि दृश्यते दैत्य वाक्यं देव्या तदोदितम् ।
        मां प्रति हि जगद्धात्र्या पुत्र्या हिमवतस्तदा ।३८।
        त्वं तु लोभेन कामेन लुब्धो वदसि दुष्कृतम् ।
        किल्बिषेण समाजुष्टं वेदशास्त्रविवर्जितम् ।३९।
        यद्यस्यदिष्टमेवास्ति शुभं वाप्यशुभं दृढम् ।
        पूर्वकर्मानुसारेण तत्तस्य परिजायते ।४०।
        देवानां ब्राह्मणानां च वदने यत्सुभाषितम् ।
        निः सरेद्यदि सत्यं तदन्यथा नैव जायते ।४१।

        मद्भाग्यादेवमाज्ञातं नहुषस्यापि तस्य च ।
        समायोगं विचार्यैवं देव्या प्रोक्तं शिवेन च ।४२।
        एवं ज्ञात्वा शमं गच्छ त्यज भ्रान्तिं मनःस्थिताम् ।
        नैव शक्तो भवान्दैत्य मे मनश्चालितुं ध्रुवम् ।४३।
        पतिव्रता दृढा चित्ते स को मे चालितुं क्षमः ।
        महाशापेन धक्ष्यामि इतो गच्छ महासुर ।४४।
        एवमाकर्ण्य तद्वाक्यं हुण्डो वै दानवो बली ।
        मनसा चिन्तयामास कथं भार्या भवेदियम् ।४५।
        विचिन्त्य हुण्डो मायावी अन्तर्धानं समागतः ।
        ततो निष्क्रम्य वेगेन तस्मात्स्थानाद्विहाय ताम् ।
        अन्यस्मिन्दिवसे प्राप्ते मायां कृत्वा तमोमयीम् ।४६।
        दिव्यं मायामयं रूपं कृत्वा नार्यास्तु दानवः ।
        मायया कन्यका रूपो बभूव मम नन्दन ।४७।
        सा कन्यापि वरारोहा मायारूपागमत्ततः ।
        हास्यलीला समायुक्ता यत्रास्ते भवनन्दिनी ।४८।
        उवाच वाक्यं स्निग्धेव अशोकसुन्दरीं प्रति ।
        कासि कस्यासि सुभगे तिष्ठसि त्वं तपोवने ।४९।
        किमर्थं क्रियते बाले कामशोषणकं तपः ।
        तन्ममाचक्ष्व सुभगे किम्निमित्तं सुदुष्करम् ।५०।
        तन्निशम्य शुभं वाक्यं दानवेनापि भाषितम् ।
        मायारूपेण छन्नेन साभिलाषेण सत्वरम् ।५१।
        आत्मसृष्टि सुवृत्तान्तं प्रवृत्तं तु यथा पुरा ।
        तपसः कारणं सर्वं समाचष्ट सुदुःखिता ।५२।
        उपप्लवं तु तस्यापि दानवस्य दुरात्मनः।
        मायारूपं न जानाति सौहृदात्कथितं तया ।५३।
                        "हुण्ड उवाच-
        पतिव्रतासि हे देवि साधुव्रतपरायणा ।
        साधुशीलसमाचारा साधुचारा महासती ।५४।
        अहं पतिव्रता भद्रे पतिव्रतपरायणा ।
        तपश्चरामि सुभगे भर्तुरर्थे महासती ।५५।
        मम भर्ता हतस्तेन हुण्डेनापि दुरात्मना ।
        तस्य नाशाय वै घोरं तपस्यामि महत्तपः ।५६।
        एहि मे स्वाश्रमे पुण्ये गङ्गातीरे वसाम्यहम् ।
        अन्यैर्मनोहरैर्वाक्यैरुक्ता प्रत्ययकारकैः ।५७।
        हुण्डेन सखिभावेन मोहिता शिवनन्दिनी ।
        समाकृष्टा सुवेगेन महामोहेन मोहिता ।५८।
        आनीतात्मगृहं दिव्यमनौपम्यं सुशोभनम् ।
        मेरोस्तु शिखरे पुत्र वैडूर्याख्यं पुरोत्तमम् ।५९।
        अस्ति सर्वगुणोपेतं काञ्चनाख्यं महाशिवम् ।
        तुङ्गप्रासादसंबाधैः कलशैर्दंडचामरैः ।६०।
        नानवृक्षसमोपेतैर्वनैर्नीलैर्घनोपमैः ।
        वापीकूपतडागैश्च नदीभिस्तु जलाशयैः ।६१।
        शोभमानं महारत्नैः प्राकारैर्हेमसंयतैः ।
        सर्वकामसमृद्धार्थं सम्पूर्णं दानवस्य हि ।६२।
        ददृशे सा पुरं रम्यमशोकसुंदरी तदा ।
        कस्य देवस्य संस्थानं कथयस्व सखे मम ।६३।
        सोवाच दानवेंद्रस्य दृष्टपूर्वस्य वै त्वया ।
        तस्य स्थानं महाभागे सोऽहं दानवपुङ्गवः ।६४।
        मया त्वं तु समानीता मायया वरवर्णिनि ।
        तामाभाष्य गृहं नीता शातकौंभं सुशोभनम् ।६५।
        नानावेश्मैः समाजुष्टं कैलासशिखरोपमम् ।
        निवेश्य सुन्दरीं तत्र दोलायां कामपीडितः ।६६।
        पुनः स्वरूपी दैत्येन्द्रः कामबाणप्रपीडितः ।
        करसम्पुटमाबध्य उवाच वचनं तदा ।६७।
        यं यं त्वं वाञ्छसे भद्रे तं तं दद्मि न संशयः ।
        भज मां त्वं विशालाक्षि भजन्तं कामपीडितम् ।६८।

                          "श्रीदेव्युवाच-
        नैव चालयितुं शक्तो भवान्मां दानवेश्वरः ।
        मनसापि न वै धार्यं मम मोहं समागतम् ।६९।
        भवादृशैर्महापापैर्देवैर्वा दानवाधमैः ।
        दुष्प्राप्याहं न सन्देहो मा वदस्व पुनः पुनः।७०।
        स्कन्दानुजा सा तपसाभियुक्ता जाज्वल्यमाना महता रुषा च ।
        संहर्तुकामा परि दानवं तं कालस्य जिह्वेव यथा स्फुरन्ती ।७१।
        पुनरुवाच सा देवी तमेवं दानवाधमम् ।
        उग्रं कर्म कृतं पाप चात्मनाशनहेतवे ।७२।
        आत्मवंशस्य नाशाय स्वजनस्यास्य वै त्वया ।
        दीप्ता स्वगृहमानीता सुशिखा कृष्णवर्त्मनः ।७३।
        यथाऽशुभः कूटपक्षी सर्वशोकैः समुद्गतः ।
        गृहं तु विशते यस्य तस्य नाशं प्रयच्छति ।७४।
        स्वजनस्य च सर्वस्य सधनस्य कुलस्य च ।
        स द्विजो नाशमिच्छेत विशत्येव यदा गृहम् ।७५।
        तथा तेहं गृहं प्राप्ता तव नाशं समीहती ।
        पुत्राणां धनधान्यस्य तव वंशस्य साम्प्रतम्।७६।
        जीवं कुलं धनं धान्यं पुत्रपौत्रादिकं तव ।
        सर्वं ते नाशयित्वाहं यास्यामि च न संशयः ।७७।
        यथा त्वयाहमानीता चरन्ती परमं तपः ।
        पतिकामा प्रवाञ्च्छन्ती नहुषं चायुनन्दनम् ।७८।
        तथा त्वां मम भर्ता च नाशयिष्यति दानव ।
        मन्निमित्तउपायोऽयं दृष्टो देवेन वै पुरा ।७९।
        सत्येयं लौकिकी गाथा यां गायन्ति विदो जनाः।
        प्रत्यक्षं दृश्यते लोके न विन्दन्ति कुबुद्धयः ।८०।
        येन यत्र प्रभोक्तव्यं यस्माद्दुःखसुखादिकम् ।
        स एव भुञ्जते तत्र तस्मादेव न संशयः ।८१।
        कर्मणोस्य फलं भुङ्क्ष्व  स्वकीयस्य महीतले ।
        यास्यसे निरयस्थानं परदाराभिमर्शनात् ।८२।
        सुतीक्ष्णं हि सुधारं तु सुखड्गं च विघट्टति ।
        अङ्गुल्यग्रेण कोपाय तथा मां विद्धि साम्प्रतम् ।८३।
        सिंहस्य सम्मुखं गत्वा क्रुद्धस्य गर्जितस्य च ।
        को लुनाति मुखात्केशान्साहसाकारसंयुतः ।८४।
        सत्याचारां दमोपेतां नियतां तपसि स्थिताम् ।

        निधनं चेच्छते यो वै स वै मां भोक्तुमिच्छति ।८५।
        समणिं कृष्णसर्पस्य जीवमानस्य साम्प्रतम् ।
        गृहीतुमिच्छते सो हि यथा कालेन प्रेषितः ।८६।
        भवांस्तु प्रेषितो मूढ कालेन कालमोहितः ।
        तदा ते ईदृशी जाता कुमतिः किं नपश्यसि ।८७।
        ऋते तु आयुपुत्रेण समालोकयते हि कः ।
        अन्यो हि निधनं याति ममरूपावलोकनात् ।८८।
        एवमाभाषयित्वा तं गङ्गातीरं गता सती ।
        सशोका दुःखसंविग्ना नियतानि यमान्विता ।८९।
        पूर्वमाचरितं घोरं पतिकामनया तपः ।
        तव नाशार्थमिच्छंती चरिष्ये दारुणं पुनः ।९०।
        यदा त्वां निहतं दुष्टं नहुषेण महात्मना ।
        निशितैर्वज्रसंकाशैर्बाणैराशीविषोपमैः ।९१।
        रणे निपतितं पाप मुक्तकेशं सलोहितम् ।
        गतासुं च प्रपश्यामि तदा यास्याम्यहं पतिम् ।९२।
        एवं सुनियमं कृत्वा गङ्गातीरमनुत्तमम् ।     
         संस्थिता हुण्डनाशाय निश्चला शिवनन्दिनी ।९३।
        वह्नेर्यथादीप्तिमती शिखोज्ज्वला तेजोभियुक्ता प्रदहेत्सुलोकान् 
        क्रोधेन दीप्ता विबुधेशपुत्री गङ्गातटे दुश्चरमाचरत्तपः।९४।
        कुञ्जल उवाच-
        एवमुक्ता महाभाग शिवस्य तनया गता ।
        गङ्गााम्बसि ततः स्नात्वा स्वपुरे काञ्चनाह्वये ।९५।
        तपश्चचार तन्वङ्गीहुण्डस्य वधहेतवे ।
        अशोकसुन्दरी बाला सत्येन च समन्विता ।९६।
        हुण्डोपि दुःखितोभूतः शापदग्धेन चेतसा ।
        चिन्तयामास सन्तप्त अतीव वचनानलैः ।९७।
        समाहूय अमात्यं तं कम्पनाख्यमथाब्रवीत् ।
        समाचष्ट स वृत्तान्तं तस्याः शापोद्भवं महत् ।९८।
        शप्तोस्म्यशोकसुन्दर्या शिवस्यापि सुकन्यया ।
        नहुषस्यापि मे भर्त्तुस्त्वं तु हस्तान्मरिष्यसि ।९९।
        नैव जातस्त्वसौ गर्भ आयोर्भार्या च गुर्विणी ।
        यथा सत्याद्व्यलीकस्तु तस्याः शापस्तथा कुरु १००।
                         "कम्पन उवाच-
        अपहृत्य प्रियां तस्य आयोश्चापि समानय ।
        अनेनापि प्रकारेण तव शत्रुर्न जायते ।१०१।
        नो वा प्रपातयस्व त्वं गर्भं तस्याः प्रभीषणैः ।
        अनेनापि प्रकारेण तव शत्रुर्न जायते ।१०२।
        जन्मकालं प्रतीक्षस्व नहुषस्य दुरात्मनः ।
        अपहृत्य समानीय जहि त्वं पापचेतनम् ।१०३।
        एवं सम्मन्त्र्य तेनापि कम्पनेन स दानवः ।
        अभूत्स उद्यमोपेतो नहुषस्य प्रणाशने ।१०४।
                          "विष्णुरुवाच-
        एलपुत्रो महाभाग आयुर्नाम क्षितीश्वरः ।
        सार्वभौमः स धर्मात्मा सत्यव्रतपरायणः ।१०५।
        इन्द्रोपेन्द्रसमो राजा तपसा यशसा बलैः ।
        दानयज्ञैः सुपुण्यैश्च सत्येन नियमेन च ।१०६।
        एकच्छत्रेण वै राज्यं चक्रे भूपतिसत्तमः ।
        पृथिव्यां सर्वधर्मज्ञः सोमवंशस्य भूषणम् ।१०७।
        पुत्रं न विंदते राजा तेन दुःखी व्यजायत ।
        चिन्तयामास धर्मात्मा कथं मे जायते सुतः ।१०८।
        इति चिन्तां समापेदे आयुश्च पृथिवीपतिः ।
        पुत्रार्थं परमं यत्नमकरोत्सुसमाहितः ।१०९।
        अत्रिपुत्रो महात्मा वै दत्तात्रेयो महामुनिः ।
        क्रीडमानः स्त्रिया सार्द्धं मदिरारुणलोचनः ।११०।
        वारुण्या मत्त धर्मात्मा स्त्रीवृन्दैश्च समावृतः ।
        अङ्के युवतिमाधाय सर्वयोषिद्वरां शुभाम् ।१११।
        गायते नृत्यते विप्रः सुरां च पिबते भृशम् ।
        विना यज्ञोपवीतेन महायोगीश्वरोत्तमः ।११२।
        पुष्पमालाभिर्दिव्याभिर्मुक्ताहारपरिच्छदैः ।
        चन्दनागुरुदिग्धाङ्गो राजमानो मुनीश्वरः ।११३।
        तस्याश्रमं नृपो गत्वा तं दृष्ट्वा द्विजसत्तमम् ।
        प्रणाममकरोन्मूर्ध्ना दण्डवत्सुसमाहितः ।११४।
        अत्रिपुत्रः स धर्मात्मा समालोक्य नृपोत्तमम् ।
        आगतं पुरतो भक्त्या अथ ध्यानं समास्थितः ।११५।
        एवं वर्षशतं प्राप्तं तस्य भूपस्य सत्तम ।
        निश्चलं शांतिमापन्नं मानसं भक्तितत्परम् ।११६।
        समाहूय उवाचेदं किमर्थं क्लिश्यसे नृप ।
        ब्रह्माचारेण हीनोस्मि ब्रह्मत्वं नास्ति मे कदा ।।११७।
        सुरामांसप्रलुब्धोऽस्मि स्त्रियासक्तः सदैव हि ।
        वरदाने न मे शक्तिरन्यं शुश्रूष ब्राह्मणम् ।११८।
                          "आयुरुवाच-
        भवादृशो महाभाग नास्ति ब्राह्मणसत्तमः ।
        सर्वकामप्रदाता वै त्रैलोक्ये परमेश्वरः ।११९।
        अत्रिवंशे महाभाग गोविंदः परमेश्वरः ।
        ब्राह्मणस्य स्वरूपेण भवान्वै गरुडध्वजः ।१२०।
        नमोऽस्तु देवदेवेश नमोऽस्तु परमेश्वर ।
        त्वामहं शरणं प्राप्तः शरणागतवत्सल ।१२१।
        उद्धरस्व हृषीकेश मायां कृत्वा प्रतिष्ठसि ।
        विश्वस्थानां प्रजानां तु विद्वांसं विश्वनायकम् ।१२२।
        जानाम्यहं जगन्नाथं भवन्तं मधुसूदनम् ।
        मामेव रक्ष गोविन्द विश्वरूप नमोस्तु ते ।१२३।

        अध्याय -(103) - पार्वती पुत्री अशोक सुंदरी को बचाये जाने
          और आयुष को पुत्र का वरदान मिलने का प्रकरण-
        कुञ्जल ने कहा :
        1-2. उस समय अशोकसुंदरी का जन्म सर्वश्रेष्ठ स्त्री के रूप में हुआ था। वह मनमोहक मुस्कान वाली, गायन और नृत्य में कुशल और सभी वांछित वस्तुओं से संपन्न उत्कृष्ट मेधावी कन्या  थी । वह एक बार नंदन वन में सुसज्जित अत्यन्त सुंदर देवताओं की बेटियों के साथ सभी सुखों का आनंद ले रही थी।

        3-4.उसी समय विप्रचित्ति का पुत्र हुण्ड , जो सदैव हिंसक, उतावला और अत्यधिक कामुक रहता था, नन्दन वन में प्रवेश कर गया। सभी आभूषणों से संपन्न अशोकसुंदरी को देखने के बाद, वह अशोक सुन्दरी के देखते ही कामदेव के बाणों से घायल हो गया।
        5. उस विशाल शरीरवाले दानव ने अशोक सुन्दरी से कहा, हे शुभे, तुम कौन हो ? तुम किसकी पुत्री हो ? आप इस उत्तम नन्दन (उद्यान) में किस कारण से आयी हो ?”
        अशोकसुंदरी ने कहा :
        6. अब सुनो. मैं अत्यंत मेधावी शिव की पुत्री हूं । मैं कार्तिकेय की बहन हूं और पार्वती मेरी मां हैं।
        7. बचपन के कारण (अर्थात् बालक होने के कारण) मैं खेल-खेल में नन्दना उपवन में आयी हूँ। परन्तु आप कौन हैं ? आप मुझसे ऐसा क्यों पूछ रहे हैं ?
        हुण्ड ने कहा :
        8-11. मैं विप्रचित्त्ति का पुत्र हूँ, अच्छे गुणों से सम्पन्न हूँ। मैं ताकत और अपने पराक्रम के कारण घमंडी होकर हुण्ड के नाम से वि ख्यात हूँ।
        हे सुंदर मुख वाली, राक्षसों में भी मैं सर्वश्रेष्ठ हूं और मेरे समान देवताओं में, मानवलोक में या नागलोक में  कोई दूसरा राक्षस नहीं है (तपस्या के संबंध में, परिवार में महिमा के संबंध में), या धन और सुख किसी में भी कोई नहीं है।
        हे विशाल नेत्रों वाली, तुम्हें देखते ही मैं कामदेव के बाणों से घायल हो गया हूँ। मैंने आपकी शरण मांगी है. मुझ पर अनुग्रह करने की कृपा करें. मेरी प्रिय पत्नी बनो, मुझे अपने प्राणों के समान प्रिय समझो।
        अशोकसुंदरी ने कहा :
        12-20. सुनो, मैं तुम्हें अच्छे पुरुषों और महिलाओं के बीच सभी संपर्कों का कारण बताता हूं; तो सुनो, हे हुण्ड ! , इस सांसारिक अस्तित्व में यह संसार की रीति है कि एक स्त्री का पति गुणों के संबंध में उसके लिए उपयुक्त होगा। यही एक कारण है कि मैं आपकी योग्य पत्नी नहीं बनूंगी।
         हे दैत्यराजों के स्वामी, शांत मन से सुनो। जब मैं वृक्षों के देवता से उत्पन्न हुई हूँ , तो शिव के मन को ठीक से समझने के बाद, पार्वती ने मेरा ध्यान किया। शिव की सहमति से देवी ने मेरे पति के उत्पन्न होने की भी भविष्य वाणी की है। 
        उसका (जन्म) चन्द्रवंश में होगा। वह बहुत बुद्धिमान और धार्मिक विचारधारा वाला होगा। वह एक विजेता होगा, और वीरता में जिष्णु (अर्थात् विष्णु या अर्जुन ) के समान होगा, और तेज में अग्नि के समान होगा। वह सर्वज्ञ, सत्यवादी और दान में कुबेर के समान होगा । वह यज्ञ करने वाला, ( महान दान देने वाला) होगा और सुन्दरता में कामदेव के समान होगा। उसका नाम नहुष होगा , वह धर्मात्मा होगा और सद्गुणों तथा अच्छे चरित्र का महान खजाना होगा। वह मुझे  देवी (पार्वती) और भगवान (शिव) द्वारा दिया गया है। मेरे पति मशहूर होंगे. और उससे मुझे सर्वगुण सम्पन्न सुन्दर पुत्र प्राप्त होगा। अर्थात-
        शिव की कृपा से मुझे उनसे ययाति नाम का एक पुत्र प्राप्त होगा , जो इंद्र और विष्णु के समान होगा, दुनिया भर के लोगों को प्रिय होगा और युद्ध में बहादुर होगा।
        21. हे वीर हुण्ड, मैं एक पतिव्रता पत्नी हूं, और विशेषकर अब किसी और की पत्नी हूं। इसलिए गलत धारणा को तुम पूरी तरह त्याग दो और यहां से चले जाओ।
        22. वह बस दानव  हँसा और  उसने अशोकसुन्दरी से ये शब्द कहे।
        हुण्ड ने कहा :
        22-30. तुमने जो कहा (कि) देवी और देवता ने (नहुष ​​को तुम्हारे पति के रूप में दिया है) वह उचित नहीं है। नहुष नाम का वह धर्मात्मा चन्द्रवंश में जन्म लेगा। आप उम्र में बड़ी हैं, इसलिए जो छोटा है वह आपका पति बनने के लायक नहीं है। कम उम्र की महिला की (पत्नी बनने के लिए) सराहना की जाती है, न कि कम उम्र के पुरुष (पति बनाने के लिए प्रशंसा किय जाय। हे सुन्दरी, वह पुरूष तेरा पति कब होगा? ज तक तुम्हारी ताजगी और यौवन अवश्य नष्ट हो जायेगा। हे उत्तम वर्ण वाली, सुन्दर स्त्रियाँ अपने यौवन के बल पर सदैव पुरुषों को प्रिय हो जाती हैं। हे सुन्दर मुख वाली, यौवन ही नारियों की महान पूंजी है। इसके सहारे वे इच्छानुसार सुख और वस्तुओं का उपभोग करते हैं। हे अच्छी महिला, आयुस् का वह पुत्र तुम्हारे पास कब आएगा ? मेरी बात सुनो। यौवन आज ही (के लिए) मौजूद है। यह (बाद में) बेकार हो जाएगा. सुनो, उसे गर्भ में रहना, बचपन और किशोरावस्था जैसी स्थितियों से गुजरना होगा। वह कब यौवन के वैभव से सम्पन्न होगा और आपके योग्य होगा ? उसे बहुत समय लगेगा हे विशाल नेत्रों वाली, यौवन के तेज से युक्त, मादक पेय पी लो। मेरे साथ आनंदपूर्वक रमण करो .
        30-38. हुण्ड के वचनों को सुनकर शिव की पुत्री भय से भरकर फिर से राक्षसों के स्वामी से बोली: "जब  अठ्टाइस वाँ द्वापर नामक  युग आएगा, तब धर्मात्मा बल (अर्थात बलराम ), शेष के अवतार और वासुदेव के पुत्र , लेंगे। रेवत की दिव्य पुत्री उनकी पत्नी के रूप में। हे महामहिम, वह पहले से ही कृत नामक सर्वोत्तम युग में पैदा हो चुकी है । वह उनसे तीन युग बड़ी है। वह रेवती बल ( राम ) को अपने प्राणों के समान प्रिय हो गई है । जब भविष्य में

        द्वापर (युग) आएगा, तब वह यहीं जन्म लेगी।
        पूर्व में वह एक गंधर्व की उत्कृष्ट पुत्री, मायावती के रूप में पैदा हुई थी । श्रेष्ठ दैत्य शंबर ने उसका अपहरण कर बंदी बना लिया। उस युग में, यादवों के स्वामी माधव के पुत्र, सर्वश्रेष्ठ नायक प्रद्युम्न को उनका पति घोषित किया गया है।
        वह उसका पति होगा. इस भविष्य (घटना) को व्यास जैसे प्राचीन प्रतिष्ठित और महान (ऋषियों) ने देखा है । हे राक्षस, उस समय जगत की माता तथा हिमालय की पुत्री देवी ने मेरे विषय में ऐसे ही वचन कहे थे।
        39-42. और तुम लोभ और वासना के कारण ऐसे शब्द बोल रहे हो जो दुष्ट, पाप से भरे हुए और वेदों और धार्मिक ग्रंथों से रहित (अर्थात् समर्थित नहीं) हैं। किसी व्यक्ति के मामले में उसके पूर्व कर्मों के अनुसार जो भी अच्छा या बुरा निश्चित होता है, वही उसके मामले में घटित होता है। यदि देवताओं और ब्राह्मणों के मुख से निकले हुए वचन सत्य हैं, तो वे कभी भी अन्यथा नहीं होंगे। यह मेरे और उस नहुष के भाग्य के कारण नियत है।
        (हम दोनों के) मिलन का ऐसा विचार करके मेरी माता पार्वती देवी तथा शिव ने भी (ऐसा ही) कहा।
        43-44. इस बात को समझते हुए शांत रहें और अपने मन में चल रही गलत धारणा को त्याग दें।हे राक्षस, तुम निश्चय ही मेरे मन को विचलित नहीं कर पाओगे। मैं एक वफादार पत्नी हूं, मन की दृढ़ हूं; कौन मुझे दूर ले जा सकता है? मैं तुम्हें बड़े शाप से भस्म कर दूँगा। हे महान राक्षस, यहाँ से चले जाओ।”
        45-48. उसके ये वचन सुनकर महाबली राक्षस हुण्ड ने मन में सोचा, 'यह मेरी पत्नी कैसे होगी?' ऐसा सोचते हुए धोखेबाज हुंड गायब हो गया। फिर उसे छोड़कर तेजी से वहां से निकल गया और दूसरे दिन वह पाप से भरी हुई माया बनाकर वहां आ गया। हे मेरे बेटे, राक्षस ने एक स्त्री का दिव्य, मायावी रूप धारण कर लिया था, वह माया के माध्यम से एक स्त्री का रूप बन गया (अर्थात् स्वयं को बदल लिया)। उस अत्यंत सुन्दर युवती ने मायावी रूप धारण कर लिया। हँसी-मजाक और खेलकूद में व्यस्त होकर वह उस स्थान पर गई, जहाँ शिव की पुत्री (अर्थात अशोकसुंदरी) रहती थी।
        49-50. मानो (उसके प्रति) स्नेह करते हुए उसने अशोकसुंदरी से (ये) शब्द कहे: “हे धन्य, तुम कौन हो? आप किसके हैं? हे युवती, तुम क्यों तपस्या-कुंज में रहकर अपनी वासना को सुखाने वाली तपस्या करती हो? मुझे बताओ, हे परम भाग्यशाली, किस कारण से (तुम तपस्या कर रही हो) तपस्या करना बहुत कठिन है।
        51-53. उस मायावी राक्षस ने, जिसने अपना मूल रूप छिपा रखा था और जो (उसके प्रति) लालसा रखता था, उसके कहे हुए शुभ वचनों को सुनकर अत्यंत दुःखी हुई उस अशोक सुन्दरी ने शीघ्र ही उसे अपनी सृष्टि का वृत्तांत सुनाया, जैसा कि उसने पहले कहा था। स्थान और तपस्या करने का सारा कारण भी। (उसने) उस दुष्ट राक्षस द्वारा किये गये उत्पीड़न के बारे में भी (उसे बताया)। वह उसके मायावी रूप को नहीं पहचानती थी, अत: स्नेहवश उसने उसे (सब कुछ) बता दिया।
        हुण्ड ने कहा :
        54-57. हे आदरणीय स्त्री, तुम पतिव्रता हो, अच्छे व्रतों में लगी हो। आपका चरित्र और व्यवहार अच्छा है, आपके कार्य पवित्र हैं और आप बहुत पवित्र महिला हैं। हे अच्छी महिला, मैं एक वफादार पत्नी हूं और अपने पति के प्रति समर्पित हूं। मैं एक महान पतिव्रता स्त्री हूँ और अपने पति के लिये तपस्या कर रही हूँ। उस दुष्ट हुण्ड ने मेरे पति को भी मार डाला। उसके नाश के लिये मैं महान् (अर्थात् घोर) तपस्या कर रही हूँ। मेरे पवित्र आश्रम में आओ. मैं गंगा के किनारे रहती हूँ ।
        57-62. शिव की उस पुत्री को उसने (अर्थात हुण्ड ने) अन्य आकर्षक और आश्वस्त करने वाले शब्दों से संबोधित किया और हुण्डा ने मैत्रीपूर्ण भावना से उसे मोहित कर लिया। मूर्खता के कारण मोहित होकर वह बहुत तेजी से उसकी ओर आकर्षित हो गई। वह उसे अपने दिव्य, अतुलनीय और अत्यंत सुंदर घर में ले आया। हे पुत्र, मेरु के शिखर पर एक उत्कृष्ट नगर है, जो वैदूर्य नाम से जाना जाता है , सभी अच्छे गुणों से भरा हुआ है, बहुत शुभ है और काञ्चन नाम से जाना जाता है । राक्षस का पूरा शहर ऊंचे महलों, घड़ों, डंडों और चौरियों से भरा हुआ था। वह बादलों के समान गहरे नीले पेड़ों से भरा हुआ था, और विभिन्न पेड़ों से भरा हुआ था, कुओं, तालाबों और झीलों और नदियों और जलाशयों से भी भरा हुआ था। वह बड़े-बड़े रत्नों से, सोने से सुसज्जित प्राचीरों से, और सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली वस्तुओं से समृद्ध था।
        63. तब अशोकसुन्दरी ने उस सुन्दर नगर को देखा। “हे मित्र, मुझे बताओ कि यह स्थान किस देवता का है।”
        64-65. उसने कहा: “यह राक्षसों के उस सरदार का है जिसे तुम पहले देख चुकी हो। यह उस राक्षस का स्थान है. हे महाबली, मैं वह सर्वश्रेष्ठ राक्षस हूं। हे उत्तम वर्ण वाली, माया से (अर्थात तुम्हें धोखा देकर) मैं तुम्हें (यहाँ) ले आया हूँ।

        65-67. (इस प्रकार) उससे बात करके वह उसे अपने सुनहरे महल में ले गया, जो कई भवनों से भरा हुआ था और कैलास के शिखर के समान था । उन्होंने काम से पीड़ित होकर, उस सुंदर स्त्री को झूले पर बैठाया, अपना मूल रूप धारण किया, और फिर राक्षसों के स्वामी ने, कामदेव के बाणों से पीड़ित होकर, अपने हाथ की हथेलियाँ जोड़ीं, और उससे (ये) शब्द कहे :
        68-70. “हे अच्छी महिला, इसमें कोई संदेह नहीं है कि तुम जो चाहोगी मैं तुम्हें दूँगा। हे विशाल नेत्रों वाले, जो वासना से पीड़ित होकर तुमसे आसक्त हो गया है, मेरा आश्रय लो।
        आदरणीय महिला (अर्थात अशोक सुन्दरी) ने कहा :
        हे राक्षसों के स्वामी, आप मुझे बिल्कुल भी गुमराह नहीं कर सकते। मेरे विषय में (तुम्हारे मन में) जो भ्रम उत्पन्न हो गया है, उसे अपने मन में भी मत लाना। महान पापी नीच राक्षसों से मेरी रक्षा करना कठिन है। इसमें कोई संदेह नहीं है. बार-बार (ऐसी) बात तुम  मत करो.
        71-72. वह देवी, जो स्कंद के बाद उत्पन्न हुई उसकी बहिन थी, तपस्या से संपन्न, अत्यंत क्रोध से जलने वाली, उस राक्षस को नष्ट करने की इच्छा रखने वाली और मृत्यु की जीभ की तरह फड़कती हुई फिर से उस नीच राक्षस से बोली:
        72-79. “हे पापी, तूने स्वयं के विनाश के लिए, अपने परिवार और अपने रिश्तेदारों के विनाश के लिए एक भयंकर कार्य किया है। तू अपने घर में आग की एक जलती हुई, उज्ज्वल लौ लेकर आया है। जैसे एक अशुभ, धोखेबाज पक्षी, सभी प्रकार के दुखों के साथ उठता है, जिसके घर में प्रवेश करता है, उसके घर को नष्ट कर देता है, जैसे वह पक्षी (मनुष्य के) रिश्तेदारों, सभी धन और परिवार के विनाश की कामना करता है। (तब) उसके घर में प्रवेश करो, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे विनाश की इच्छा से तुम्हारे घर में आयी हूँ। निःसंदेह मैं अब तुम्हारा सब कुछ नष्ट कर दूंगी - तुम्हारा धन, धान्य, परिवार, जीवन, पुत्र और पौत्र आदि। हे राक्षस, जब से तुम मेरे पास आए हो जो एक महान (अर्थात गंभीर) तपस्या कर रही थी, मैं एक पति की लालसा कर रही थी। आयुस के पुत्र नहुष से विवाह उपरान्त, मेरा पति तुम्हें नष्ट कर देगा।
        79-88. पहले (केवल) भगवान ने मेरे मामले में यह उपाय देखा था। यह लोकप्रिय श्लोक, (जिसे) बुद्धिमान लोग गाते हैं, सत्य है। यह वास्तव में दुनिया में मनाया जाता है; दुष्ट मन वालों को इसका एहसास नहीं होता। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जिसे किसी एक से दुःख, सुख आदि का अनुभव करना होता है, वह उसी व्यक्ति से अनुभव करता है। तुम (आदमी) के पास जाओगे। कोई अपनी उंगली की नोक से बहुत तेज़, महीन धार वाली, अच्छी तलवार को छूता है। अब जान लो कि मुझे इस तरह छूने से (मुझमें) गुस्सा पैदा हो जाएगा। कौन उतावले होकर क्रोध में और जोर से दहाड़ रहे सिंह के पास जाकर उसके चेहरे के बाल काट देगा ? जो मृत्यु की इच्छा रखता है, वह मेरे साथ व्यभिचार करना चाहता है, जो सत्य आचरण वाला, संयमी और तपस्या में रत रहने वाला है। वह, अब, चूँकि वह मृत्यु से प्रेरित है, एक काले, जीवित नाग के मणि को जब्त करने की इच्छा रखता है; और हे मूर्ख, तू मृत्यु से मोहित होकर मृत्यु के द्वारा भेजा गया है। इसलिये ऐसा दुष्ट विचार (तुम्हारे मन में) उत्पन्न होता है। क्या तुम्हें इसका एहसास नहीं है? आयू के बेटे को छोड़कर, कौन देखता है (यानी मेरी तरफ देखेगा)? मेरे रूप को देखकर कोई भी (आयुस् के बेटे के अलावा) मर जाएगा।
        89-92. वह जो पतिव्रता स्त्री थी, जो दुःखी थी, जो क्लेश से व्याकुल थी, जो वश में थी और जो धार्मिक व्रत का पालन कर रही थी, वह इस प्रकार बोलकर गंगा के तट पर चली गयी। 'मैं, जिसने पहले वर की इच्छा से (प्राप्त करने के लिए) कठोर तपस्या की थी, अब आपके विनाश की इच्छा से फिर से कठिन तपस्या करूंगी। तब मैं अपने पति के पास जाऊँगी, जब मैं तुम्हें विशाल नहुष द्वारा वज्र और सर्पों के समान तीक्ष्ण बाणों से मार डाला हुआ, युद्धभूमि में खुले बालों और रक्त से लथपथ उस पापी को देखूँगी। आपके शरीर से रिस रहा है)।”
        93-94. हुण्ड के विनाश के लिए इतनी बड़ी प्रतिज्ञा करके, शिव की उस दृढ़ पुत्री ने गंगा के उत्कृष्ट तट का सहारा लिया। जिस प्रकार तेज,  अग्नि की लौ, तेज से भरी हुई महान लोकों को जला देगी, देवताओं के स्वामी की बेटी, क्रोध से जलती हुई, गंगा के तट पर,  कठिन तपस्या कर रही थी।
        कुंजल ने कहा :
        95-96. हे महानुभाव, इस प्रकार कहकर शिव की पुत्री गंगा के जल में स्नान करके कांचन नामक अपने नगर में चली गई। दुबले-पतले शरीर वाली और सत्यनिष्ठा से संपन्न उस युवा अशोकसुंदरी ने हुंड की मृत्यु के लिए तपस्या की।

        97-98. हुण्ड भी शाप से जले हुए हृदय से दुःखी हो गया और शब्दों की अग्नि से अत्यन्त पीड़ित होकर सोचने लगा। 
        -उसने कम्पन नामक अपने मंत्री को बुलाकर उससे कहा। उसने उसे उसके श्राप का महत्वपूर्ण समाचार सुनाया:
        99-100. "मुझे शिव की अच्छी बेटी अशोकसुन्दरी ने शाप दिया है: उसने कहा है।कि 'तुम मेरे पति नहुष के हाथों मरोगे।' वह बच्चा (अभी तक) पैदा नहीं हुआ है; लेकिन आयु की पत्नी उसकी माँ होगी । ऐसा कार्य करो कि अभिशाप झूठा निकले।”
        कंपन ने कहा :
        101-104. आयु की पत्नी का अपहरण करके उसे (यहाँ) ले आओ। इस तरह आपका शत्रु पैदा नहीं होगा. या फिर तेज़ (दवाइयों) से उसका गर्भपात करा दो। इस तरह आपका शत्रु भी पैदा नहीं होगा. उस दुष्ट नहुष के जन्म का समय अंकित करो। इसे लेकर (यहाँ )लाओ और पापबुद्धि को मार डालो।
        इस प्रकार कम्पन के साथ परामर्श करने के बाद, राक्षस (हुंड) ने नहुष को नष्ट करने के लिए खुद ही प्रयास किया।
        विष्णु ने कहा :
        105-108. ऐल (पुरुरवा) का गौरवशाली, धर्मात्मा पुत्र , जिसका नाम आयु था, जो सोम कुल का आभूषण था , सर्वश्रेष्ठ राजा और सभी प्रथाओं को जानने वाला संप्रभु सम्राट, सत्य की प्रतिज्ञा में लगा हुआ, इंद्र और विष्णु के समान, एक छत्र के नीचे शासन करता था सार्वभौमिक संप्रभु) पृथ्वी पर तपस्या, महिमा, शक्ति, दान, बलिदान, मेधावी कृत्यों और संयम के माध्यम से। 
        राजा (आयुस्) का कोई पुत्र नहीं था। इसलिए वह दुखी था. धर्मी ने सोचा, 'मेरे यहां पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकता है?'
        109. पृथ्वी के स्वामी आयु ने ऐसा विचार मन में उठाया। शांतचित्त होकर उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिये बहुत प्रयत्न किया।
        110-113. अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय , उच्चात्मा ब्राह्मण , महान ऋषि, जिनकी आँखें शराब पीने के कारण लाल थीं, एक स्त्री के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। उस धर्मात्मा ने शराब के नशे में धुत होकर, एक युवा, शुभ स्त्री, सभी स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ, को अपनी गोद में बिठाया, गाना गाया, नृत्य किया और जमकर शराब पी। महान ध्यान करने वाले संतों में सर्वश्रेष्ठ,  ऋषि, (जो) बिना जनेऊ के थे, (और) अपने शरीर पर चंदन और घृत का लेप लगाए हुए थे, फूलों की दिव्य मालाओं और मोतियों के हार के उपांगों से चमक रहे थे।
        114-118. राजा ने उसके आश्रम में जाकर, श्रेष्ठ ब्राह्मण को देखकर और शांतचित्त होकर, सिर झुकाकर और उसके सामने गिरकर उसे नमस्कार किया। अत्रि के उस धर्मात्मा पुत्र ने अपने सामने आये उस श्रेष्ठ राजा को भक्तिपूर्वक देखकर ध्यान का सहारा लिया। हे श्रेष्ठ, राजा को इसी प्रकार सौ वर्ष बीत गये। जो स्थिर, शान्त और अत्यंत समर्पित था, उसे बुलाकर उसने ये (शब्द) कहे: “हे राजा, तू अपने आप को क्यों कष्ट देता है? मैं ब्राह्मण आचरण से रहित हूँ। मेरे पास कभी नहीं  ब्राह्मणत्व था. मैं शराब और माँस का लालची हूँ और सदैव स्त्रियों में आसक्त रहता हूँ।
        मुझमें वरदान देने की शक्ति नहीं है। (कृपया) किसी अन्य ब्राह्मण की सेवा कर तू।”
        आयुष ने कहा :
        119-123. हे महामहिम, आपके समान कोई अन्य श्रेष्ठ ब्राह्मण नहीं है, जो सभी वांछित वस्तुओं को प्रदान करता है और तीनों लोकों में सबसे महान स्वामी है। हे महामहिम, आप विष्णु हैं, गरुड़ -धारी, सर्वोच्च भगवान, (ब्राह्मण के रूप में अत्रि के परिवार में जन्मे)। हे देवाधिदेवों के प्रधान, हे सर्वोच्च प्रभु, मैं आपको नमस्कार करता हूं। हे तुम जो अपने आप को तुम्हारे अधीन कर देते हो उन पर स्नेह करने वालों, मैंने तुम्हारी शरण मांगी है। हे हृषीकेश , मुझे मुक्ति दो। तुम भ्रम पैदा करके बने रहते हो (अर्थात आनंद लेते हो)। मैं तुम्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में जानता हूं जो ब्रह्मांड में रहने वाले प्राणियों को जानता है, जो ब्रह्मांड का प्रमुख है, जो दुनिया का स्वामी है और (राक्षस) मधु का हत्यारे हैं । हे गोविंद , हे विश्वरूप, आप ही मेरी रक्षा करें। आपको मेरा प्रणाम!
        ______    

        दानवं सूदयिष्यामि समरे पापचेतनम् ।
        देवानां च विशेषेण मम मायापचारितम् ।१३।
        एवमुक्ते महावाक्ये नहुषेण महात्मना ।
        अथायातः स्वयं देवः शङ्खचक्रगदाधरः ।१४।***
        चक्राच्चक्रं समुत्पाट्य सूर्यबिम्बोपमं महत्।
        ज्वलता तेजसा दीप्तं सुवृत्तारं शुभावहम् ।१५।
        नहुषाय ददौ देवो हर्षेण महता किल ।
        तस्मै शूलं ददौ शम्भुः सुतीक्ष्णं तेजसान्वितम्।१६।
        तेन शूलवरेणासौ शोभते समरोद्यतः ।
        द्वितीयः शङ्करश्चासौ त्रिपुरघ्नो यथा प्रभुः।१७।
        ब्रह्मास्त्रं दत्तवान्ब्रह्मा वरुणः पाशमुत्तमम् ।
        चन्द्र तेजःप्रतीकाशं शङ्खं च नादमङ्गलम् ।१८।
        वज्रमिन्द्रस्तथा शक्तिं वायुश्चापं समार्गणम् ।

        आग्नेयास्त्रं तथा वह्निर्ददौ तस्मै महात्मने।१९।
        शस्त्राण्यस्त्राणि दिव्यानि बहूनि विविधानि च ।
        ददुर्देवा महात्मानस्तस्मै राज्ञे महौजसे ।२०।
                          "कुञ्जल उवाच-
        अथ आयुसुतो वीरो दैवतैः परिमानितः ।
        आशीर्भिर्नन्दितश्चापि मुनिभिस्तत्त्ववेदिभिः।२१।
        आरुरोह रथं दिव्यं भास्वरं रत्नमालिनम् ।
        घण्टारवैः प्रणदन्तं क्षुद्रघण्टासमाकुलम् ।२२।
        रथेन तेन दिव्येन शुशुभे नृपनन्दन: ।
        दिविमार्गे यथा सूर्यस्तेजसा स्वेन वै किल ।२३।
        प्रतपंस्तेजसा तद्वद्दैत्यानां मस्तकेषु सः ।
        जगाम शीघ्रं वेगेन यथा वायुः सदागतिः।२४।
        यत्रासौ दानवः पापस्तिष्ठते स्वबलैर्युतः ।
        तेन मातलिना सार्द्धं वाहकेन महात्मना ।२५।
        "अनुवाद"
        इन शब्दों को सुनकर) राजाओं के स्वामी हर्ष के कारण रोमाँचित हो गए (कहा:) "देवताओं के भगवान, उदार वशिष्ठ की कृपा से, मैं युद्ध में एक दुष्ट हृदय के राक्षस को मार डालूँगा, जिसने देवताओं को धोखा दिया था और विशेष रूप से मुझको।"
        14-20. जब नहुष ने ये महान वचन कहे तो शंख, चक्र और गदा धारण किये हुए भगवान विष्णु स्वयं वहाँ आये। भगवान ने अपने चक्र से सूर्य के गोले के समान, ज्वलन्त चमक से चमकने वाली, गोल तीलियों वाली और शुभता लाने वाली एक बड़ी चक्र निकाला, जिसे भगवान ने बहुत खुशी के साथ नहुष को दे दिया।
        ******
         शिव ने उसे तेजस्विता से युक्त एक अत्यंत तीक्ष्ण भाला दिया। उस उत्कृष्ट भाले से वह युद्ध के लिये तत्पर होकर त्रिपुर के संहारक भगवान शिव के समान चमकने लगा । ब्रह्मा ने उसे ब्रह्मास्त्र दिया । वरुण ने उसे चन्द्रमा के समान कान्ति वाला एक उत्तम पाश और मंगल ध्वनि वाला शंख दिया। इंद्र ने (उसे) वज्र और (एक प्रकार की मिसाइल जिसे शक्ति कहा जाता है) दी । वायु ने (उसे) बाणों सहित एक धनुष दिया। ( अग्नि ) ने उदार अग्नि-प्रक्षेपास्त्र दिया।(इस प्रकार) देवताओं ने उस महान तेजस्वी राजा को विभिन्न प्रकार के दिव्य हथियार और **
        कुंजल ने कहा :
        21-25. तब आयु के पुत्र, देवताओं द्वारा सम्मानित और ऋषियों द्वारा आशीर्वाद के साथ ब्राह्मण के वास्तविक स्वरूप को जानने वाले नायक , दिव्य, चमकदार, रत्नों से सुसज्जित, घंटियों के कारण बड़ी ध्वनि करने वाले और छोटी-छोटी घंटियों से भरे हुए रथ में चढ़े। . उस दिव्य रथ से राजकुमार दिव्य पथ पर अपनी चमक से सूर्य के समान चमकने लगा। वह उसी के समान अपने तेज से प्रज्वलित होकर, उस उदार सारथी मातलि के साथ, राक्षसों के सिरों की ओर, निरंतर चलने वाले वायु की तरह, तेजी से और तेजी से उस स्थान पर पहुंचे, जहां वह पापी राक्षस हुण्ड अपनी सेना के साथ खड़ा था।
        इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे नहुषाख्याने दशाधिकशततमोऽध्यायः ।११०।
        _____
        दत्तात्रेयो मुनिश्रेष्ठः साक्षाद्देवो भविष्यति ।
        शुश्रूषितस्त्वया देवि मया च तपसा पुरा ।२६।

        पुत्ररत्नं तेन दत्तं वैष्णवांशप्रधारकम् ।****
        सदा हनिष्यति परं दानवं पापचेतनम् ।२७।
        सर्वदैत्यप्रहर्ता च प्रजापालो महाबलः ।
        दत्तात्रेयेण मे दत्तो वैष्णवाञ्शः सुतोत्तमः ।२८।
        एवं संभाष्य तां देवीं राजा चेन्दुमतीं तदा ।
        महोत्सवं ततश्चक्रे पुत्रस्यागमनं प्रति ।२९।
        हर्षेण महताविष्टो विष्णुं सस्मार वै पुनः ।३०।
        सर्वोपपन्नं सुरवर्गयुक्तमानन्दरूपं परमार्थमेकम् ।
        क्लेशापहं सौख्यप्रदं नराणां सद्वैष्णवानामिह मोक्षदं परम् ।३१। 
        "अनुवाद"
        23-28. उसके शब्दों को सुनकर, राजाओं के स्वामी ने अपनी पत्नी से कहा: "हे गौरवशाली, पहले ऋषि नारद ने मुझसे कहा था: 'हे राजा, तुम्हें अपने बेटे के बारे में कभी चिंता नहीं करनी चाहिए। तुम्हारा पुत्र बड़ी वीरता से उस राक्षस को मारकर आएगा।' मुनि ने पहले जो वचन कहे थे वे सत्य हो गये। हे रानी, ​​उसकी बातें अन्यथा (अर्थात् असत्य) कैसे होंगी? ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ दत्तात्रेय वास्तव में भगवान हैं। पूर्व में, हे रानी, ​​आपने और मैंने तपस्या के माध्यम से उनकी सेवा की थी। उन्होंने विष्णु के अंश से हमें यह पुत्र रत्न दिया है । वह सदैव एक महान दुष्टात्मा राक्षस का वध करेगा। दत्तात्रेय ने मुझे सबसे उत्तम और अत्यंत शक्तिशाली पुत्र दिया है, जो विष्णु का अंश है, सभी राक्षसों का संहार करने वाला है और अपनी प्रजा का पालन-पोषण करेगा।”
        29-31. रानी इन्दुमती से इस प्रकार कहकर राजा ने अपने पुत्र के आगमन पर बड़े उत्सव मनाया। अत्यंत आनंद से परिपूर्ण होकर उसने फिर से सब कुछ से संपन्न, देवताओं के समूहों के साथ, आनंद स्वरूप, एकमात्र सर्वोच्च वस्तु, दर्द को दूर करने वाले, खुशी देने वाले और विष्णु के अच्छे अनुयायियों को मोक्ष देने वाले महान दाता विष्णु को याद किया।
        इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे नहुषाख्याने षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ।११६।



         "ययाति की जीवन गाथा-
        अब नहुष के पुत्र वैष्णव धर्म के प्रचारक सम्राट ययाति की जीवन गाथा-
        मातलि के द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णु की महिमा का वर्णन, मातलि को विदा करके राजा ययाति का वैष्णवधर्म के प्रचार द्वारा भूलोक को वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययाति के दरबार में कामदेव आदि का नाटक खेलना आदि का प्राचीन प्रसंग-  मूल संस्कृत तथा उसका हिन्दी अनुवाद सहित-
                          'पिप्पल उवाच-
        मातलेश्च वचः श्रुत्वा स राजा नहुषात्मजः।
        किं चकार महाप्राज्ञस्तन्मे विस्तरतो वद ।१।
        सर्वपुण्यमयी पुण्या कथेयं पापनाशिनी ।
        श्रोतुमिच्छाम्यहं प्राज्ञ नैव तृप्यामि सर्वदा ।२।
                        'सुकर्मोवाच-
        सर्वधर्मभृतां श्रेष्ठो ययातिर्नृपसत्तमः ।
        तमुवाचागतं दूतं मातलिं शक्रसारथिम् ।३।
                        "ययातिरुवाच-
        शरीरं नैव त्यक्ष्यामि गमिष्ये न दिवं पुनः ।
        शरीरेण विना दूत पार्थिवेन न संशयः ।४।
        यद्यप्येवं महादोषाः कायस्यैव प्रकीर्तिताः ।
        पूर्वं चापि समाख्यातं त्वया सर्वं गुणागुणम् ।५।
        नाहं त्यक्ष्ये शरीरं वै नागमिष्ये दिवं पुनः ।
        इत्याचक्ष्व इतो गत्वा देवदेवं पुरन्दरम् ।६।
        एकाकिना हि जीवेन कायेनापि महामते ।
        नैव सिद्धिं प्रयात्येवं सांसारिकमिहैव हि ।७।
        नैव प्राणं विना कायो जीवः कायं विना नहि ।
        उभयोश्चापि मित्रत्वं नयिष्ये नाशमिन्द्र न ।८।
        यस्य प्रसादभावाद्वै सुखमश्नाति केवलम् ।
        शरीरस्याप्ययं प्राणो भोगानन्यान्मनोनुगान् ।९।
        एवं ज्ञात्वा स्वर्गभोग्यं न भोज्यं देवदूतक ।
        सम्भवन्ति महादुष्टा व्याधयो दुःखदायकाः ।१०।
        मातले किल्बिषाच्चैव जरादोषात्प्रजायते ।
        पश्य मे पुण्यसंयुक्तं कायं षोडशवार्षिकम् ।११।
        जन्मप्रभृति मे कायः शतार्धाब्दं प्रयाति च ।
        तथापि नूतनो भावः कायस्यापि प्रजायते ।१२।
        मम कालो गतो दूत अब्दा प्रनंत्यमनुत्तमम् ।
        यथा षोडशवर्षस्य कायः पुंसः प्रशोभते ।१३।
        तथा मे शोभते देहो बलवीर्यसमन्वितः ।
        नैव ग्लानिर्न मे हानिर्न श्रमो व्याधयो जरा ।१४।
        मातले मम कायेपि धर्मोत्साहेन वर्द्धते ।
        सर्वामृतमयं दिव्यमौषधं परमौषधम् ।१५।
        पापव्याधिप्रणाशार्थं धर्माख्यं हि कृतम्पुरा ।
        तेन मे शोधितः कायो गतदोषस्तु जायते ।१६।
        हृषीकेशस्य संध्यानं नामोच्चारणमुत्तमम् ।
        एतद्रसायनं दूत नित्यमेवं करोम्यहम् ।१७।
        तेन मे व्याधयो दोषाः पापाद्याः प्रलयं गताः।
        विद्यमाने हि संसारे कृष्णनाम्नि महौषधे ।१८।
        मानवा मरणं यांति पापव्याधि प्रपीडिताः ।
        न पिबन्ति महामूढाः कृष्ण नाम रसायनम् ।१९।

        तेन ध्यानेन ज्ञानेन पूजाभावेन मातले ।
        सत्येन दानपुण्येन मम कायो निरामयः।२०।
        पापर्द्धेरामयाः पीडाः प्रभवन्ति शरीरिणः ।
        पीडाभ्यो जायते मृत्युः प्राणिनां नात्र संशयः ।२१।
        तस्माद्धर्मः प्रकर्तव्यः पुण्यसत्याश्रयैर्नरैः ।
        पञ्चभूतात्मकः कायः शिरासन्धिविजर्जरः।२२।
        एवं सन्धीकृतो मर्त्यो हेमकारीव टंकणैः ।
        तत्र भाति महानग्निर्द्धातुरेव चरः सदा ।२३।
        शतखण्डमये विप्र यः सन्धत्ते सबुद्धिमान् ।
        हरेर्नाम्ना च दिव्येन सौभाग्येनापि पिप्पल ।२४।
        पञ्चात्मका हि ये खण्डाः शतसन्धिविजर्जराः ।
        तेन सन्धारिताः सर्वे कायो धातुसमो भवेत् ।२५।
        हरेः पूजोपचारेण ध्यानेन नियमेन च ।
        सत्यभावेन दानेन नूत्नः कायो विजायते ।२६।
        दोषा नश्यन्ति कायस्य व्याधयः शृणु मातले ।
        बाह्याभ्यन्तरशौचं हि दुर्गंधिर्नैव जायते ।२७।
        शुचिस्ततो भवेत्सूत प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।
        नाहं स्वर्गं गमिष्यामि स्वर्गमत्र करोम्यहम् ।२८।
        तपसा चैव भावेन स्वधर्मेण महीतलम् ।
        स्वर्गरूपं करिष्यामि प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।२९।
        एवं ज्ञात्वा प्रयाहि त्वं कथयस्व पुरन्दरम् ।
                            "सुकर्मोवाच-
        समाकर्ण्य ततः सूतो नृपतेः परिभाषितम् ।३०।
        आशीर्भिरभिनंद्याथ आमन्त्र्य नृपतिं गतः ।
        सर्वं निवेदयामास इन्द्राय च महात्मने ।३१।
        समाकर्ण्य सहस्राक्षो ययातेस्तु महात्मनः ।
        तस्याथ चिन्तयामासानयनार्थं दिवं प्रति ।३२।
        इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरिते द्विसप्ततितमोऽध्यायः ।७२।
        "अनुवाद"
        अध्याय 72 - ययाति की शरीर छोड़ने की अनिच्छा
        पिप्पल ने कहा :
        1-2. हे अत्यंत बुद्धिमान, मुझे विस्तार से बताओ कि मातलि के वचन सुनकर नहुष के पुत्र राजा ययाति ने क्या कहा । हे मुनिवर, यह पापों का नाश करने वाली परम पुण्यमयी कथा है। मुझे इसे सुनने की इच्छा है. मुझे बिल्कुल भी संतुष्टि नहीं हो रही है.
        3. श्रेष्ठ राजा, धर्मपरायण लोगों में सबसे महान, ययाति ने, इंद्र के सारथी, दूत मातलि से, जो (उनके पास) आया था, कहा:
        ययाति ने कहा :
        4-7. हे दूत, मैं अपना शरीर नहीं त्यागूंगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मैं (इस) पार्थिव शरीर के बिना स्वर्ग नहीं जाऊँगा। यद्यपि आपने इस प्रकार शरीर के महान दोषों का वर्णन किया है, और यद्यपि आप पहले ही इसके सभी गुण और दोषों का वर्णन कर चुके हैं, फिर भी मैं अपने शरीर का त्याग नहीं करूंगा, और मैं स्वर्ग में नहीं आऊंगा। देवताओं के राजा इंद्र के पास जाकर उनसे इस

        प्रकार कहो: “हे अत्यंत बुद्धिमान, कोई व्यक्ति अकेले आत्मा के माध्यम से या केवल शरीर के माध्यम से पूर्णता प्राप्त नहीं करता है। यह शरीर सांसारिक (अस्तित्व) है.
        8-14. शरीर जीवन (अर्थात आत्मा) के बिना नहीं रह सकता, न ही आत्मा शरीर के बिना रह सकती है। हे इन्द्र, उनमें मित्रता है (अर्थात वे परस्पर मित्र हैं)। मैं उस शरीर को नष्ट नहीं करूँगा जिसकी कृपा से आत्मा को अपने मन के अनुसार (अर्थात् इच्छानुसार) अनन्य सुख तथा अन्य सुख प्राप्त होते हैं।” हे देवदूत, स्वर्ग में भोगों को इस प्रकार जानते हुए भी मैं उन्हें नहीं चाहता। हे मातलि, दोषों के कारण कष्टदायक और अत्यंत पापपूर्ण रोग (संक्रमित) होते हैं।
        बुढ़ापा एक दोष के कारण होता है। मेरे धार्मिक गुणों से सम्पन्न और सोलह वर्ष के शरीर का निरीक्षण करें। मेरे जन्म के बाद से मेरा शरीर आधी शताब्दी तक चला गया है (अर्थात् अस्तित्व में है)। अभी भी मेरे शरीर में ताजगी है। मेरा यह (अर्थात् जीवन) काल उत्तम व्यतीत हुआ। जैसे सोलह वर्ष के युवक का शरीर सुन्दर दिखता है, उसी प्रकार शक्ति और वीरता से सम्पन्न मेरा शरीर दिखता है।
        4-16. , मुझे असफलता नहीं है, मुझे थकावट नहीं है; न ही मुझे कोई बीमारी या बुढ़ापा है। हे मातलि, मेरा शरीर भी धर्मपरायणता के उत्साह से भर जाता है; क्योंकि, पुराने दिनों में, औषधि - दिव्य और, महान , अमृत से भरपूर, पापों और रोगों के विनाश के लिए तैयार की जाती है। उससे मेरा शरीर शुद्ध होता है; (इसलिए) यह दोषों से मुक्त है.
        17-24. हे दूत, मैं सदैव अमृत का पान (अर्थात् ग्रहण) करता रहता हूँ। विष्णु का ध्यान और उनके नाम का उत्कृष्ट उच्चारण उससे मेरे सभी रोग और पाप आदि दोष नष्ट हो गए हैं, जब इस सांसारिक अस्तित्व में कृष्ण (अर्थात विष्णु) के नाम जैसी महान (अर्थात् प्रभावी) औषधि है।
         पाप-पूर्ण रोग से पीड़ित मनुष्य मर जाते हैं (क्योंकि) अत्यंत मूर्ख लोग कृष्ण (अर्थात विष्णु) के नाम का अमृत नहीं पीते हैं। हे मातलि, उस ध्यान, ज्ञान, पूजा, सत्यता और दान देने के धार्मिक पुण्य के कारण मेरा शरीर स्वस्थ है। 
        रोग और कष्ट उसे सताते हैं जिनकी सिद्धि पाप है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्राणी यहीं (अर्थात इस संसार में) कष्टों के कारण मरते हैं। इसलिये मनुष्यों को सदाचार और सत्यता का आश्रय लेकर धर्म-कर्म करना चाहिये। शरीर पांच तत्वों से बना है, और नाड़ियों और जोड़ों से जर्जर हो गया है। जैसे एक आभूषण सुनार द्वारा टङ्कण (धातु की चीज में टाँका मारकार जोड़ लगाने का कार्य)   से बनाया जाता है, उसी प्रकार एक मनुष्य को एक साथ रखा जाता है। इसमें सदैव एक महान अग्नि, शरीर का गतिशील हास्य चमकता रहता है, जो सैकड़ों टुकड़ों से बना होता है। हे ब्राह्मण , जो इन टुकड़ों को जोड़ता है वह बुद्धिमान है।
        25-30. हे पिप्पल , पांच तत्वों की प्रकृति के ये सभी टुकड़े (शरीर के) और सैकड़ों जोड़ों से घिसे हुए, विष्णु के दिव्य नाम और सौभाग्य से एक साथ रखे गए हैं। शरीर एक धातु की तरह है. विष्णु की पूजा, ध्यान और संयम, सत्य और दान से शरीर नया हो जाता है। हे मातलि, सुनो, शरीर के दोष-रोग-नाश हो जाते हैं। बाह्य एवं आन्तरिक पवित्रता रहती है तथा दुर्गन्ध नहीं रहती। तब, हे सारथी, चक्रधारी (अर्थात विष्णु) की कृपा से, (शरीर) शुद्ध होगा।
        मैं स्वर्ग नहीं जाऊंगा. मैं यहीं (केवल) स्वर्ग का निर्माण करूंगा। मैं (अपनी) तपस्या, भक्ति, अपने धार्मिक कृत्यों और चक्र-धारक की कृपा से पृथ्वी को स्वर्ग की प्रकृति बना दूंगा। यह जानकर आप (कृपया) जाकर इन्द्र से कह दीजिये।
             सुकर्मन ने कहा -
        30-32. तब वह सारथी राजा के वचन सुनकर और आशीर्वाद देकर राजा से विदा लेकर (स्वर्ग को) चला गया। उसने सारी बात देवराज इन्द्र को बता दी। उदार ययाति का (संदेश) सुनकर इंद्र ने सोचा कि ययाति को स्वर्ग में कैसे लाया जाए।
        _____
         
         पद्मपुराण /खण्डः-२ (भूमिखण्डःअध्याय 73 )
                       पिप्पल उवाच-
        गते तस्मिन्महाभागे दूत इंद्रस्य वै पुनः ।
        किं चकार स धर्मात्मा ययातिर्नहुषात्मजः ।१।
                             सुकर्मोवाच-
        तस्मिन्गते देववरस्य दूते स चिंतयामास नरेंद्रसूनुः।आहूय दूतान्प्रवरान्स सत्वरं धर्मार्थयुक्तं वच आदिदेश ।२।
        गच्छन्तु दूताः प्रवराः पुरोत्तमे देशेषु द्वीपेष्वखिलेषु लोके।
        कुर्वंतु वाक्यं मम धर्मयुक्तं व्रजन्तु लोकाः सुपथा हरेश्च ।३।
        भावैः सुपुण्यैरमृतोपमानैर्ध्यानैश्च ज्ञानैर्यजनैस्तपोभिः।
        यज्ञैश्च दानैर्मधुसूदनैकमर्चंतु लोका विषयान्विहाय ।४।
        सर्वत्र पश्यंत्वसुरारिमेकं शुष्केषु चार्द्रेष्वपि स्थावरेषु ।

        अभ्रेषु भूमौ सचराचरेषु स्वीयेषु कायेष्वपि जीवरूपम् ।५।
        देवं तमुद्दिश्य ददंतु दानमातिथ्यभावैः परिपैत्रिकैश्च।
        नारायणं देववरं यजध्वं दोषैर्विमुक्ता अचिराद्भविष्यथ ।६।
        यो मामकं वाक्यमिहैव मानवो लोभाद्विमोहादपि नैव कारयेत् ।
        स शास्यतां यास्यति निर्घृणो ध्रुवं ममापि चौरो हि यथा निकृष्टः ।७।
        आकर्ण्य वाक्यं नृपतेश्च दूताःसंहृष्टभावाः सकलां च पृथ्वीम् ।
        आचख्युरेवं नृपतेः प्रणीतमादेशभावं सकलं प्रजासु ।८।
        विप्रादिमर्त्या अमृतं सुपुण्यमानीतमेवं भुवि तेन राज्ञा ।
        पिबंतु पुण्यं परिवैष्णवाख्यं दोषैर्विहीनं परिणाममिष्टम् ।९।
        श्रीकेशवं क्लेशहरं वरेण्यमानंदरूपं परमार्थमेवम् 
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः ।१०।
        सखड्गपाणिं मधुसूदनाख्यं तं श्रीनिवासं सगुणं सुरेशम् ।
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः।११।
        श्रीपद्मनाथं कमलेक्षणं च आधाररूपं जगतां महेशम् ।
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः ।१२।
        पापापहं व्याधिविनाशरूपमानंददं दानवदैत्यनाशनम् ।
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबन्तु लोकाः ।१३।
        यज्ञांगरूपं चरथांगपाणिं पुण्याकरं सौख्यमनंतरूपम् ।
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः।१४।
        विश्वाधिवासं विमलं विरामं रामाभिधानं रमणं मुरारिम् ।
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः।१५।
        आदित्यरूपं तमसां विनाशं बंधस्यनाशं मतिपंकजानाम् ।
        नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः।१६।
        नामामृतं सत्यमिदं सुपुण्यमधीत्य यो मानव विष्णुभक्तः।
        प्रभातकाले नियतो महात्मा स याति मुक्तिं न हि कारणं च ।१७।
        "इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने पितृतीर्थवर्णने ययातिचरिते त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३"।

        "अनुवाद"
        अध्याय- 73 - विष्णु के नाम की प्रभावकारिता
        पिप्पल ने कहा :
        1.जब वह तेजस्वी दूत (स्वर्ग के लिए) चला गया, तो नहुष के पुत्र, धार्मिक विचारधारा वाले ययाति ने क्या किया?
        सुकर्मन ने कहा :
        2-7. जब  देवता (अर्थात इंद्र ) का वह दूत चला गया, तो राजा नहुष के पुत्र  ने (अपने मन में) सोचा। तुरंत अपने उत्कृष्ट दूतों को बुलाकर, उन्होंने उन्हें उचित शब्दों में निर्देश दिया: “उत्कृष्ट दूतों को एक उत्कृष्ट शहर, दुनिया के सभी क्षेत्रों और द्वीपों में जायें और वे मेरे वचनों (अर्थात् आदेश) का पालन करें, जो सदाचार से परिपूर्ण है। लोग भक्ति और अत्यंत मेधावी कार्यों, अमृत के समान ध्यान, ज्ञान, बलिदान और तपस्या के माध्यम से विष्णु के अच्छे मार्ग पर चलें 
         वे सांसारिक इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके यज्ञों और उपहारों से केवल विष्णु की ही पूजा करें। वे हर जगह केवल राक्षसों और आत्मा की प्रकृति के शत्रु को ही देखें - सूखे स्थानों पर, गीले और स्थिर स्थानों पर, बादलों में, पृथ्वी पर, गतिशील और स्थिर (वस्तुओं) में और यहां तक ​​कि अपने स्वयं के शरीर में भी। वे अपने मृत पूर्वजों के सम्मान में आतिथ्य और संस्कार के साथ उन्हें उस देवता को समर्पित करते हुए उपहार दे सकते हैं। क्या वे उस सर्वश्रेष्ठ भगवान नारायण (अर्थात् विष्णु) की  उपासना करते हैं ;  वे शीघ्र ही दोषों से मुक्त हो जायेंगे। वह निर्लज्ज मनुष्य जो लोभ या मूर्खता के कारण अभी मेरी ये बातें नहीं मानेेगे, उन्हें निश्चय ही एक नीच चोर के समान दण्ड दिया जाएगा।”
        8. राजा की बातें सुनकर दूत मन से प्रसन्न  सारी पृय्वी पर चले गए, और राजा की आज्ञा सारी प्रजा में प्रगट की।
        _____
        9-16. “हे मनुष्यों, ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों, राजा अत्यंत पुण्यदायी अमृत को पृथ्वी पर लेकर आये हैं। उस वैष्णव नामक गुणकारी (अमृत) को पीजिए , जो दोषों से मुक्त और वांछनीय प्रभाव वाला है। राजा ने पहले ही श्रीकेशव नाम के रूप में दोषों को दूर करने वाला अमृत (पृथ्वी पर) ला दिया है, जो दु:ख को दूर करता है, जो वांछनीय है, जो आनंद का रूप है और जो स्वयं सर्वोच्च सत्य है। लोग इसे पीयें. अच्छे राजा ने पहले से ही अपने नाम के रूप में दोषों को दूर करने वाला अमृत (पृथ्वी पर) ला दिया है, जिसके हाथ में तलवार है, जिसे मधुसूदन कहा जाता है, जो लक्ष्मी का निवास है , और देवताओं का मेधावी स्वामी है। लोग इसे पीयें. अच्छे राजा ने पहले ही कमल जैसी आँखों वाले, संसार के सहारा और महान स्वामी, श्री पद्मनाभ नाम के रूप में, दोषों को दूर करते हुए, अमृत (पृथ्वी पर) ला दिया है। लोग इसे पियें। अच्छे राजा ने पहले ही (विष्णु के) नाम के रूप में दोषों को दूर करने वाला अमृत ला दिया है, जो पापों को नष्ट कर देता है, जो रोगों को दूर कर देता है, जो आनंद देता है, जो दानवों और दैत्यों यानी राक्षसों) को नष्ट कर देता है। लोग इसे पीयें. अच्छा राजा पहले से ही यज्ञीय प्रकृति के विष्णु नाम के रूप में दोषों को दूर करने वाला अमृत लेकर आया है, उसके हाथ में एक चक्र है, जो धार्मिक गुणों की खान है, और अनंत सुख की खान है। लोग इसे

        पीयें. राजा पहले से ही दोषों को दूर करने वाला, विष्णु के नाम के रूप में, हर चीज का निवास, शुद्ध, अंत (हर चीज का), राम नाम वाला , सुखदायक और मुरारि का  अमृत लेकर आया है । लोग इसे पीयें. अच्छे राजा ने पहले ही अमृत ला दिया है, जो दोषों को दूर करता है, (विष्णु के नाम के रूप में), सूर्य के रूप में, अंधेरे का विनाशक, मन रूपी कमल के बंधन को नष्ट करने वाला। लोग इसे पीयें.
        17. वह श्रेष्ठ, विष्णु का भक्त, स्वयं को संयमित करके, (विष्णु के) नाम के इस सत्य, अत्यंत मेधावी अमृत का अध्ययन (अर्थात् पाठ) करता है, मोक्ष को प्राप्त होता है। (इसके अलावा) कोई (अन्य) प्रतिनिथि नहीं है।”

          पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-74)


                           'सुकर्मोवाच-
        दूतास्तु ग्रामेषु वदन्ति सर्वे द्वीपेषु देशेष्वथ पत्तनेषु 
        लोकाः शृणुध्वं नृपतेस्तदाज्ञां सर्वप्रभावैर्हरिमर्चयंतु ।१।
        दानैश्च यज्ञैर्बहुभिस्तपोभिर्धर्माभिलाषैर्यजनैर्मनोभिः।
        ध्यायन्तु लोका मधुसूदनं तु आदेशमेवं नृपतेस्तु तस्य ।२।
        एवं सुघुष्टं सकलं तु पुण्यमाकर्ण्य तं भूमितलेषु लोकैः।
        तदाप्रभृत्येव यजन्ति विष्णुं ध्यायन्ति गायन्ति जपन्ति मर्त्याः ।३।
        वेदप्रणीतैश्च सुसूक्तमन्त्रैः स्तोत्रैः सुपुण्यैरमृतोपमानैः ।
        श्रीकेशवं तद्गतमानसास्ते व्रतोपवासैर्नियमैश्च दानैः ।४।
        विहाय दोषान्निजकायचित्तवागुद्भवान्प्रेमरताः समस्ताः ।
        लक्ष्मीनिवासं जगतां निवासं श्रीवासुदेवं परिपूजयन्ति।५।
        इत्याज्ञातस्य भूपस्य वर्तते क्षितिमण्डले ।
        वैष्णवेनापि भावेन जनाः सर्वे जयन्ति ते ।६।
        नामभिः कर्मभिर्विष्णुं यजन्ते ज्ञानकोविदाः ।
        तद्ध्यानास्तद्व्यवसिता विष्णुपूजापरायणाः ।७।
        यावद्भूमण्डलं सर्वं यावत्तपति भास्करः ।
        तावद्धि मानवा लोकाः सर्वे भागवता बभुः।८।
        विष्णोर्ध्यानप्रभावेण पूजास्तोत्रेण नामतः ।
        आधिव्याधिविहीनास्ते संजाता मानवास्तदा ।९।
        वीतशोकाश्च पुण्याश्च सर्वे चैव तपोधनाः ।
        सञ्जाता वैष्णवा विप्र प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।१०।
        आमयैश्च विहीनास्ते दोषैरोषैश्च वर्जिताः ।
        सर्वैश्वर्यसमापन्नाः सर्वरोगविवर्जिताः।११।
        प्रसादात्तस्य देवस्य सञ्जाता मानवास्तदा ।
        अमराः निर्जराः सर्वे धनधान्यसमन्विताः ।१२।
        मर्त्या विष्णुप्रसादेन पुत्रपौत्रैरलंकृताः ।        तेषामेव महाभाग गृहद्वारेषु नित्यदा ।१३।
        कल्पद्रुमाः सुपुण्यास्ते सर्वकामफलप्रदाः ।
        सर्वकामदुघा गावः सचिंतामणयस्तथा ।१४।
        सन्ति तेषां गृहे पुण्याः सर्वकामप्रदायकाः ।
        अमरा मानवा जाताः पुत्रपौत्रैरलंकृताः ।१५।
        सर्वदोषविहीनास्ते विष्णोश्चैव प्रसादतः।
        सर्वसौभाग्यसम्पन्नाः पुण्यमंगलसंयुताः।१६।
        सुपुण्या दानसंपन्ना ज्ञानध्यानपरायणाः।
        न दुर्भिक्षं न च व्याधिर्नाकालमरणं नृणाम् ।१७।
        तस्मिञ्शासति धर्मज्ञे ययातौ नृपतौ तदा ।
        वैष्णवा मानवाः सर्वे विष्णुव्रतपरायणाः ।१८।
        तद्ध्यानास्तद्गताः सर्वे संजाता भावतत्पराः।
        तेषां गृहाणि दिव्यानि पुण्यानि द्विजसत्तम।१९।
        पताकाभिः सुशुक्लाभिः शंखयुक्तानि तानि वै ।
        गदांकितध्वजाभिश्च नित्यं चक्रांकितानि च ।२०।
        पद्मांकितानि भासन्ते विमानप्रतिमानि च ।
        गृहाणि भित्तिभागेषु चित्रितानि सुचित्रकैः।२१।
        सर्वत्र गृहद्वारेषु पुण्यस्थानेषु सत्तमाः।
        वनानि संति दिव्यानि शाद्वलानि शुभानि च ।२२।
        तुलस्या च द्विजश्रेष्ठ तेषु केशवमन्दिरैः ।
        भासन्ते पुण्यदिव्यानि गृहाणि प्राणिनां सदा।२३।
        सर्वत्र वैष्णवो भावो मंगलो बहु दृश्यते ।
        शंखशब्दाश्च भूलोके मिथः स्फोटरवैः सखे ।२४।
        श्रूयन्ते तत्र विप्रेंद्र दोषपापविनाशकाः ।
        शंखस्वस्तिकपद्मानि गृहद्वारेषु भित्तिषु ।२५।
        विष्णुभक्त्या च नारीभिर्लिखितानि द्विजोत्तम ।
        गीतरागसुवर्णैश्च मूर्च्छना तानसुस्वरैः।२६।
        गायन्ति केशवं लोका विष्णुध्यानपरायणाः।२७।
        हरिं मुरारिं प्रवदंति केशवं प्रीत्या जितं माधवमेव चान्ये ।
        श्रीनारसिंहं कमलेक्षणं तं गोविंदमेकं कमलापतिं च ।२८।
        कृष्णं शरण्यं शरणं जपन्ति रामं च जप्यैः परिपूजयंति ।
        दण्डप्रणामैः प्रणमन्ति विष्णुं तद्ध्यानयुक्ताः परवैष्णवास्ते ।२९।

        "इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रे चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ।७४।
        "अनुवाद"
        अध्याय 74 - ययाति के शासन के दौरान वैष्णव धर्म की लोकप्रियता
        सुकर्मन ने कहा :
        1-2. सभी दूतों ने द्वीपों, प्रदेशों और नगरों में कहा (अर्थात् प्रचार किया) : “हे प्रजा, राजा की आज्ञा सुनो।” वे अपनी संपूर्ण महिमा के साथ विष्णु की पूजा करते हैं । पुण्य की इच्छा रखने वाले (समर्पित) मन वाले लोग, कई उपहारों, बलिदानों के माध्यम से, विष्णु पर चिंतन करें; तपस्या, और यज्ञ संस्कार।'' ऐसी उस राजा की आज्ञा है.

        3-5. पृथ्वी पर (संदेशवाहकों द्वारा) इस प्रकार सुप्रचारित ये सब गुणात्मक (वचन) लोगों ने सुने। तब से केवल मनुष्य ही विष्णु के (सम्मान में) बलिदान देते हैं,।
         उनका चिंतन करते हैं, उनकी स्तुति गाते हैं और बुदबुदाते हैं (उनके लिए प्रार्थना करते हैं)। सभी मनुष्य व्रत, उपवास, संयम और दान के द्वारा अपने शरीर, मन और वाणी के दोषों को त्याग कर और अपने हृदय से उन पर समर्पित होकर उन श्री केशव, श्री वासुदेव की पूजा करते हैं। लक्ष्मी का निवास , और लोकों का निवास, वेदों द्वारा सिखाए गए बहुत ही मेधावी और अमृतमय भजनों और स्तुतियों के साथ।
        6-11. इस प्रकार उस राजा का आदेश पृथ्वी पर प्रचलित होता है। वे सभी लोग विष्णु की भक्ति के कारण विजयी हुए हैं। जो लोग ज्ञान में पारंगत हैं, और जो उनका ध्यान और चिंतन करते हैं और जो उनकी पूजा करने के इच्छुक हैं, वे विष्णु की (अर्थात् उनके नामों का पाठ करके) और उनके कर्मों से पूजा करते हैं। जब तक पृथ्वी कायम है और सूर्य चमक रहा है तब तक सभी मनुष्य भगवान (विष्णु) के अनुयायी थे (अर्थात बने रहेंगे)। तब विष्णु के ध्यान की शक्ति के कारण, उनकी पूजा और उनकी स्तुति और (उनके) नामों के (पाठ) के कारण मनुष्य मानसिक पीड़ा और शारीरिक रोगों से मुक्त हो गए। हे ब्राह्मण , चक्रधारी (अर्थात विष्णु) की कृपा से विष्णु के सभी भक्त दुःख से मुक्त हो गए, मेधावी बन गए और तपस्या ही उनका धन बन गई। वे रोगों से मुक्त थे, दोष या क्रोध से रहित थे; वे सभी प्रकार के वैभव से संपन्न और सभी रोगों से मुक्त थे।
        12-27. उस देवता की कृपा से उस समय के सभी मनुष्य अजर-अमर हो गये और सभी धन-धान्य से सम्पन्न हो गये। विष्णु की कृपा से प्राणी पुत्रों और पौत्रों से सुशोभित थे। हे महानुभाव, उनके घरों के दरवाज़ों पर (आस-पास के क्षेत्रों में) हमेशा ही उनकी सभी इच्छाओं को पूरा करने वाले फल देने वाले गुणकारी वृक्ष होते थे, और सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली गायें भी होती थीं। विष्णु की कृपा से ही सभी मनुष्य अमर हो गये, पुत्र-पौत्रों से सुशोभित हो गये और सभी दोषों से मुक्त हो गये। वे सौभाग्य, योग्यता एवं शुभता से सम्पन्न थे। वे बड़े मेधावी, दान-पुण्य से सम्पन्न तथा ज्ञान-ध्यान में तत्पर थे। जब राजा ययाति , जो जानते थे कि क्या सही है, शासन कर रहे थे, तब कोई अकाल नहीं था, कोई बीमारी नहीं थी, और मनुष्यों में कोई अकाल मृत्यु नहीं थी। सभी मनुष्य विष्णु के भक्त थे, सभी विष्णु के व्रत (अर्थात उनके लिए पवित्र) के प्रति समर्पित (पालन करने वाले) थे। उन्होंने उस पर ध्यान किया, वे उसके प्रति समर्पित थे, और उनका हृदय उस पर लगा हुआ था। हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, उनके दिव्य और शुभ घर सफेद ध्वजों और शंखों से सुसज्जित थे, और उनके ध्वज गदाओं से चिह्नित थे और चक्रों से चिह्नित थे। कमलों से अंकित और अच्छे चित्रों से रंगी हुई दीवारों वाले घर दिव्य कारों के समान थे। हे श्रेष्ठों, हर जगह - घरों के दरवाजों के पास और पवित्र स्थानों पर पेड़ों की दिव्य झाड़ियाँ और शुभ घास के स्थान थे। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, तुलसी और विष्णु के मंदिरों के कारण (मानव) प्राणियों के शुभ और दिव्य घर हमेशा चमकते रहते हैं। सर्वत्र विष्णु के प्रति मेधावी भक्ति प्रचुर मात्रा में देखी गई। हे मित्र, हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, वहाँ पृथ्वी पर परस्पर टकराने और पाप का नाश करने वाली ध्वनियों के कारण शंख की ध्वनियाँ सुनाई दे रही थीं। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, विष्णु के प्रति भक्ति के कारण स्त्रियों ने घरों के दरवाजों पर शंख, स्वस्तिक , कमल के चित्र बनाए थे ; और संगीत, गाने, अच्छे शब्दों, संगीत के पैमाने के माध्यम से ध्वनियों के विनियमित उत्थान या पतन के साथ विष्णु का ध्यान करने वाले लोग विष्णु की प्रशंसा में गाते हैं।
        28-29. वे हरि , मुरारी , केशव, अजित , माधव के बारे में स्नेहपूर्वक बात करते हैं । वे शरणागत विष्णु के नाम जपते हैं, (जैसे) कमल-नेत्र गोविंद, कमला के स्वामी (अर्थात लक्ष्मी), कृष्ण और राम , और (उनके नाम) जपते हुए पूजा करते हैं। विष्णु के वे महान भक्त, ध्यान में लगे हुए, उनके सामने पूरी तरह से प्रणाम करके उन्हें नमस्कार करते हैं।
        _____

                          "सुकर्मोवाच-
        विष्णुं  हरिं रामं कृष्णं मुकुंदं मधुसूदनम् ।
        नारायणं विष्णुरूपं नारसिंहं तमच्युतम् ।१।
        केशवं पद्मनाभं च वासुदेवं च वामनम् ।
        वाराहं कमठं मत्स्यं हृषीकेशं सुराधिपम् ।२।
        विश्वेशं विश्वरूपं च अनंतमनघं शुचिम् ।
        पुरुषं पुष्कराक्षं च श्रीधरं श्रीपतिं हरिम् ।३।

        श्रीनिवासं पीतवासं माधवं मोक्षदं प्रभुम् ।
        इत्येवं हि समुच्चारं नामभिर्मानवाः सदा ।४।
        प्रकुर्वंति नराः सर्वे बालवृद्धाः कुमारिकाः ।
        स्त्रियो हरिं सुगायंति गृहकर्मरताः सदा ।५।
        आसने शयने याने ध्याने वचसि माधवम् ।
        क्रीडमानास्तथा बाला गोविंदं प्रणमंति ते ।६।
        दिवारात्रौ सुमधुरं ब्रुवंति हरिनाम च ।
        विष्णूच्चारो हि सर्वत्र श्रूयते द्विजसत्तम ।७।
        वैष्णवेन प्रभावेण मर्त्या वर्तंति भूतले ।
        प्रासादकलशाग्रेषु देवतायतनेषु च ।८।
        यथा सूर्यस्य बिंबानि तथा चक्राणि भांति च ।वैकुंठे दृश्यते भावस्तद्भावं जगतीतले ।९।
        तेन राज्ञा कृतं विप्र पुण्यं चापि महात्मना ।
        विष्णुलोकस्य समतां तथानीतं महीतलम् ।१०।
        नहुषस्यापि पुत्रेण वैष्णवेन ययातिना ।
        उभयोर्लोकयोर्भावमेकीभूतं महीतलम् ।११।
        भूतलस्यापि विष्णोश्च अंतरं नैव दृश्यते ।
        विष्णूच्चारं तु वैकुंठे यथा कुर्वंति वैष्णवाः ।१२।
        भूतले तादृशोच्चारं प्रकुर्वंति च मानवाः ।
        उभयोर्लोकयोर्विप्र एकभावः प्रदृश्यते ।१३।
        जरारोगभयं नास्ति मृत्युहीना नरा बभुः ।
        दानभोगप्रभावश्च अधिको दृश्यते भुवि ।१४।
        पुत्राणां तु सुखं पुण्यमधिकं पौत्रजं नराः ।
        प्रभुंजंति सुखेनापि मानवा भुवि सत्तम ।१५।
        विष्णोः प्रसाददानेन उपदेशेन तस्य च ।
        सर्वव्याधिविनिर्मुक्ता मानवा वैष्णवाः सदा ।१६।
        स्वर्गलोकप्रभावो हि कृतो राज्ञा महीतले ।
        पंचविंशप्रमाणेन वर्षाणि नृपसत्तम ।१७।
        गदैर्हीना नराः सर्वे ज्ञानध्यानपरायणाः ।
        यज्ञदानपराः सर्वे दयाभावाश्च मानवाः ।१८।
        उपकाररताः पुण्या धन्यास्ते कीर्तिभाजनाः ।
        सर्वे धर्मपरा विप्र विष्णुध्यानपरायणाः ।१९।
        राज्ञा तेनोपदिष्टास्ते संजाता वैष्णवा भुवि ।
                          "विष्णुरुवाच-
        श्रूयतां नृपशार्दूल चरित्रं तस्य भूपतेः ।२०।
        सर्वधर्मपरो नित्यं विष्णुभक्तश्च नाहुषिः ।
        अब्दानां तत्र लक्षं हि तस्याप्येवं गतं भुवि ।२१।
        नूतनो दृश्यते कायः पंचविंशाब्दिको यथा ।
        पंचविंशाब्दिको भाति रूपेण वयसा तदा ।२२।
        प्रबलः प्रौढिसंपन्नः प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।
        मानुषा भुवमास्थाय यमं नैव प्रयांति ते ।२३।
        रागद्वेषविनिर्मुक्ताः क्लेशपाशविवर्जिताः ।
        सुखिनो दानपुण्यैश्च सर्वधर्मपरायणाः ।२४।
        विस्तारं तेजनाः सर्वे संतत्यापि गता नृप ।
        यथा दूर्वावटाश्चैव विस्तारं यांति भूतले ।२५।
        यथा ते मानवाः सर्वे पुत्रपौत्रैः प्रविस्तृताः ।
        मृत्युदोषविहीनास्ते चिरं जीवंति वै जनाः ।२६।
        स्थिरकायाश्च सुखिनो जरारोगविवर्जिताः ।
        पंचविंशाब्दिकाः सर्वे नरा दृश्यंति भूतले ।२७।
        सत्याचारपराः सर्वे विष्णुध्यानपरायणाः ।
        एवं सर्वे च मर्त्यास्ते प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।२८।
        संजाता मानवाः सर्वे दानभोगपरायणाः ।
        मृतो न श्रूयते लोके मर्त्यः कोपि नरोत्तम ।२९।
        शोकं नैव प्रपश्यंति दोषं नैव प्रयांति ते ।
        यद्रूपं स्वर्गलोकस्य तद्रूपं भूतलस्य च ।३०।
        संजातं मानवश्रेष्ठ प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।
        विभ्रष्टा यमदूतास्ते विष्णुदूतैश्च ताडिताः ।३१।
        रुदमाना गताः सर्वे धर्मराजं परस्परम् ।
        तत्सर्वं कथितं दूतैश्चेष्टितं भूपतेस्तु तैः ।३२।
        अमृत्युभूतलं जातं दानभोगेन भास्करे ।
        नहुषस्यात्मजेनापि कृतं देवययातिना ।३३।
        विष्णुभक्तेन पुण्येन स्वर्गरूपं प्रदर्शितम् ।
        एवमाकर्णितं सर्वं धर्मराजेन वै तदा ।३४।
        धर्मराजस्तदा तत्र दूतेभ्यः श्रुतविस्तरः ।
        चिंतयामास सर्वार्थं श्रुत्वैवंनृपचेष्टितम् ।३५।
        इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रे पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ।७५। 
        "अनुवाद"
        अध्याय 75 - विष्णु की कृपा से ययाति की प्रजा अमर हो गई
        सुकर्मन ने कहा :
        1-6. सभी पुरुष, बच्चे, बूढ़े, अविवाहित लड़कियाँ हमेशा विष्णु, कृष्ण , हरि , राम , मुकुंद , मधुसूदन, विष्णु के रूप नारायण, नरसिंह , अच्युत , केशव , पद्मन जैसे नामों का उच्चारण करते थे (अर्थात विष्णु के विभिन्न नामों का जाप करते थे)।
         आभा , वासुदेव , वामन , वराह , कामठ , मत्स्य , हृषिकेश , सुरधिप, विश्वेश, विश्वरूप, अनंत , अनाघ , शुचि , पुरुष , पुष्करक्ष, श्रीधर , श्रीपति , हरि , श्रीनिवास , पीतवास ( अर्थात पीले वस्त्र पहने हुए), माधव , मोक्षदा ( अर्थात मोक्ष दाता) और प्रभु । घरेलू काम में लगी महिलाएँ हमेशा हरि, माधव, (जब वे बैठी होती थीं) (जब वे लेटी हुई होती थीं) (जब वे जा रही होती थीं) वाहन में  प्रचुर मात्रा में गाती थीं (अर्थात् उनके नामों का जप करती थीं)। और ध्यान में. इसी प्रकार बच्चों ने (जबकि) खेलते हुए गोविंद (अर्थात विष्णु) को प्रणाम किया।
        7-16. दिन-रात वे विष्णु के अत्यंत मधुर नाम का उच्चारण करते थे। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , सर्वत्र विष्णु का (नाम का) उच्चारण सुनाई दे रहा था। मनुष्य पृथ्वी पर (केवल) विष्णु की शक्ति से रहते थे। विष्णु का चक्र) के प्रतिबिंब) के रूप में चमकता है। सूर्य के चक्र महलों और मंदिरों के घड़ों के शीर्ष पर चमकते हैं। जो स्थिति वैकुण्ठ में देखी गई वही पृथ्वी पर देखी गई। 

        उस महान राजा नहुष के पुत्र ययाति ने पुण्य का कार्य किया और पृथ्वी को विष्णु  के वैकुण्ठ के समान बना दिया। दोनों लोकों की शक्ल (समान होने से) पृथ्वी एक (विष्णु के वैकुण्ठ के साथ) हो गई थी। पृथ्वी और विष्णु के वैकुण्ठ में कोई अंतर नहीं देखा गया।
        जैसे विष्णु के भक्तों ने वैकुण्ठ में विष्णु के नामों का उच्चारण किया, उसी प्रकार (अर्थात् उसी प्रकार) मनुष्यों ने पृथ्वी पर विष्णु के नामों का उच्चारण किया।
        हे ब्राह्मण, दोनों दुनियाओं के बीच पहचान देखी गई। बुढ़ापे और बीमारियों से कोई डर नहीं था. लोग मृत्यु से मुक्त हो गये। पृथ्वी पर दान और भोग का अधिक वैभव देखने को मिला। 
        हे श्रेष्ठ, पुरुषों ने पुत्रों और पौत्रों से (अर्थात) अधिक आनंद उठाया। सभी मनुष्य - विष्णु के भक्त - विष्णु की कृपा (जो उन्हें प्राप्त हुई) और उनके निर्देश के कारण सभी रोगों से हमेशा मुक्त थे।
        17-20. राजा ने पृथ्वी पर वैकुण्ठ का वैभव लाया। हे श्रेष्ठ राजा, वर्ष पच्चीस वर्ष के थे (अर्थात् बहुत लम्बे थे)। सभी मनुष्य रोगों से मुक्त थे और ज्ञान तथा ध्यान पाने के इच्छुक थे। 
        सभी मनुष्य पूरी तरह से विष्णु यजन करने ) और उपहार देने  में लीन थे और सभी दयालु थे।वे (दूसरों को) उपकृत करने में लगे हुए थे; यश के भंडार वे मेधावी पुरुष धन्य हो गये। 
        हे ब्राह्मण, सभी मनुष्य पूरी तरह से धर्म के प्रति समर्पित थे और पूरी तरह से ध्यान में लीन थे। उस राजा के निर्देश पर, वे पृथ्वी पर विष्णु के प्रति समर्पित हो गये।
        विष्णु ने कहा :
        20-28. हे राजाश्रेष्ठ, उस राजा का वृत्तान्त सुनो।नहुष का वह पुत्र सदैव सभी गुणों में लीन और विष्णु का भक्त था। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वी पर एक लाख वर्ष व्यतीत किये।
         उसका शरीर परिपक्व हो गया था और रूप से पच्चीस वर्ष का प्रतीत होता था। वे मनुष्य (अर्थात् उसकी प्रजा) पृथ्वी का आश्रय लेकर (अर्थात् उस पर रहकर) यम के पास नहीं जाते थे।****
        हे राजा, सभी लोग राग-द्वेष से रहित, कष्ट के पाश से रहित, उपहार देने से प्राप्त पुण्य से प्रसन्न और केवल सभी धार्मिक कार्यों में समर्पित रहने वाले लोगों का सदैव विस्तार होता है ।
        (अर्थात उनकी संख्या बढ़ती है) संतान के संबंध में भी. जैसे दूर्वा (घास) और बरगद के वृक्ष शाखाओं की तरह पृथ्वी पर फैले हुए थे, उसी प्रकार वे सभी मनुष्य पुत्रों और पौत्रों के द्वारा विस्तार (अर्थात संख्या में वृद्धि) करने लगे।
         वे मनुष्य मृत्यु के दोष से मुक्त होकर दीर्घकाल तक जीवित रहे। पृथ्वी पर सब (वे) बलिष्ठ शरीर वाले, बुढ़ापे और रोगों से रहित तथा (अत: प्रसन्न) पुरुष पच्चीस वर्ष के (अर्थात् बहुत युवा) जान पड़ते थे। 
        सभी अच्छे आचरण के प्रति समर्पित थे और विष्णु के ध्यान में लीन थे। इसी लिए वे सभी भौतिक विकारों से परे थे।
        28-34. इस प्रकार सभी नश्वर प्राणी-सभी मनुष्य-उस चक्र-धारक (अर्थात विष्णु) की कृपा के कारण, पूरी तरह से उपहार और भोग के प्रति समर्पित हो गए थे। हे नरश्रेष्ठ, किसी भी मनुष्य को मरा हुआ नहीं सुना गया। उन्होंने दु:ख न देखा  और न ही मिला। वे निर्दोष देखे जाते हैं 
        हे पुरुषश्रेष्ठ, उस चक्रधारी की कृपा से संसार का स्वरूप ठीक वैसा ही हो गया जैसा वैकुण्ठ का स्वरूप था। 
        विष्णु के दूतों द्वारा पीटे गए यम के दूत गायब हो गए। वे सभी एक दूसरे के साथ रोते हुए धर्मराज (अर्थात् यम) के पास गये। 
        दूतों ने (यम को) वह सब बता दिया जो राजा (अर्थात् ययाति) ने किया था। (उन्होंने यम से कहा): “हे सूर्य पुत्र; दान और भोग के कारण पृथ्वी अमर हो गई है। 
        हे भगवान यम , नहुष के पुत्र ययाति ने ऐसा किया है। विष्णु के उस मेधावी भक्त ने (पृथ्वी पर) वैकुण्ठ की प्रकृति का प्रदर्शन किया।
        34-35. उसी समय धर्मराज ने यह सब सुन लिया। तब धर्मराज ने राजा की गतिविधियों को विस्तारपूर्वक सुनकर सारी बात पर विचार किया।
        ***
        आयुष, नहुष, और ययाति का प्रकरण 
        ( लक्ष्मीनारायण- संहिता खण्ड- तृतीय-3- द्वापरयुग सन्तान अध्याय-(73) 
        पर भी इसी प्रकार पद्मपुराण के समान ययाति का वैष्णव चरित्र वर्णित है। जिसके निम्न दो श्लोकों में ययाति के द्वारा अन्त में गोलोक में जाने का वर्णन है।

        ययातिः प्रययौ विष्णोर्वैकुण्ठं वैष्णवैः सह ।
        ब्रह्मलोकं ययुः सर्वे पूजिताश्चाऽमरादिभिः ।१११।

        एवं भक्तिप्रभावोऽस्ति लक्ष्मि निर्बन्धकृत् सदा 
        अहं नयामि वैकुण्ठं गोलोकं चाऽक्षरं परम् ।१ १२।
        सन्दर्भ:-
        लक्ष्मीनारायण- संहिता खण्ड- तृतीय-3- द्वापरयुग सन्तान अध्याय-(73)
         




        पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय (76) प्रारम्भ-)


                          "सुकर्मोवाच-
        सौरिर्दूतैस्तथा सर्वैः सह स्वर्गं जगाम सः।
        द्रष्टुं तत्र सहस्राक्षं देववृंदैः समावृतम् ।१।

        धर्मराजं समायांतं ददर्श सुरराट्तदा ।
        समुत्थाय त्वरायुक्तो दत्वा चार्घमनुत्तमम्।२।

        पप्रच्छागमनं तस्य कथयस्व ममाग्रतः ।
        समाकर्ण्य महद्वाक्यं देवराजस्य भाषितम् ।३।
        धर्मराजोऽब्रवीत्सर्वं ययातेश्चरितं महत् ।
                      "धर्मराज उवाच-
        श्रूयतां देवदेवेश यस्मादागमनं मम।४।
        कथयाम्यहमत्रापि येनाहमागतस्तव ।
        नहुषस्यात्मजेनापि वैष्णवेन महात्मना।५।
        वैष्णवाश्च कृता मर्त्या ये वसन्ति महीतले ।
        वैकुण्ठस्य समं रूपं मर्त्यलोकस्य वै कृतम्।६।

        अमरा मानवा जाता जरारोगविवर्जिताः ।
        पापमेव न कुर्वंति असत्यं न वदंति ते।७।

        कामक्रोधविहीनास्ते लोभमोहविवर्जिताः ।
        दानशीला महात्मानः सर्वे धर्मपरायणाः।८।
        सर्वधर्मैः समर्चन्ति नारायणमनामयम् ।
        तेन वैष्णवधर्मेण मानवा जगतीतले ।९।
        निरामया वीतशोकाः सर्वे च स्थिरयौवनाः ।
        दूर्वा वटा यथा देव विस्तारं यान्ति भूतले ।१०।

        तथा ते विस्तरं प्राप्ताः पुत्रपौत्रैः प्रपौत्रकैः ।
        तेषां पुत्रैः प्रपौत्रैश्च वंशाद्वंशांतरं गताः।११।
        एवं हि वैष्णवः सर्वो जरामृत्युविवर्जितः ।
        मर्त्यलोकः कृतस्तेन नहुषस्यात्मजेन वै।१२।
        पदभ्रष्टोस्मि सञ्जातो व्यापारेण विवर्जितः ।
        एतत्सर्वं समाख्यातं मम कर्मविनाशनम् ।१३।
        एवं ज्ञात्वा सहस्राक्ष लोकस्यास्य हितं कुरु ।
        एतत्ते सर्वमाख्यातं यथापृष्टोस्मि वै त्वया ।१४।
        एतस्मात्कारणादिन्द्र आगतस्तव सन्निधौ ।
                            "इन्द्र उवाच-
        पूर्वमेव मया दूत आगमाय महात्मनः।१५।
        प्रेषितो धर्मराजेन्द्र दूतेनास्यापि भाषितम् ।
        नाहं स्वर्गसुखस्यार्थी नागमिष्ये दिवं पुनः।१६

        स्वर्गरूपं करिष्यामि सर्वं तद्भूमिमंडलम् ।
        इत्याचचक्षे भूपालः प्रजापाल्यं करोति सः।१७।

        तस्य धर्मप्रभावेण भीतस्तिष्ठामि सर्वदा ।
                       "धर्म उवाच-
        येनकेनाप्युपायेन तमानय सुभूपतिम् ।१८।
        देवराज महाभाग यदीच्छसि मम प्रियम् ।
        इत्याकर्ण्य वचस्तस्य धर्मस्यापि सुराधिपः।१९।
        चिन्तयामास मेधावी सर्वतत्वेन भूपते ।
        कामदेवं समाहूय गंधर्वांश्च पुरंदरः।२०।
        मकरन्दं रतिं देव आनिनाय महामनाः ।
        तथा कुरुत वै यूयं यथाऽगच्छति भूपतिः।२१।
        यूयं गच्छन्तु भूर्लोकं मयादिष्टा न संशयः ।
                          "काम उवाच-
        युवयोस्तु प्रियं पुण्यं करिष्यामि न संशयः।२२।
        राजानं पश्य मां चैव स्थितं चैव समा युधि।
        तथेत्युक्त्वा गताः सर्वे यत्र राजा स नाहुषिः।२३।
        नटरूपेण ते सर्वे कामाद्याः कर्मणा द्विज ।
        आशीर्भिरभिनन्द्यैव ते च ऊचुः सुनाटकम् ।२४।
        तेषां तद्वचनं श्रुत्वा ययातिः पृथिवीपतिः ।
        सभां चकार मेधावी देवरूपां सुपण्डितैः। २५।
        समायातः स्वयं भूपो ज्ञानविज्ञानकोविदः ।
        तेषां तु नाटकं राजा पश्यमानः स नाहुषिः।२६।
        चरितं वामनस्यापि उत्पत्तिं विप्ररूपिणः।
        रूपेणाप्रतिमा लोके सुस्वरं गीतमुत्तमम् ।२७।
        गायमाना जरा राजन्नार्यारूपेण वै तदा ।
        तस्या गीतविलासेन हास्येन ललितेन च ।२८।
        मधुरालापतस्तस्य कन्दर्पस्य च मायया ।
        मोहितस्तेन भावेन दिव्येन चरितेन च ।२९।
        बलेश्चैव यथारूपं विंध्यावल्या यथा पुरा ।
        वामनस्य यथारूपं चक्रे मारोथ तादृशम् ।३०।
        सूत्रधारः स्वयं कामो वसंतः पारिपार्श्वकः ।
        नटीवेषधरा जाता सा रतिर्हृष्टवल्लभा।३१।
        नेपथ्यान्तश्चरी राजन्सा तस्मिन्नृत्यकर्मणि ।
        मकरन्दो महाप्राज्ञः क्षोभयामास भूपतिम् ।३२।
        यथायथा पश्यति नृत्यमुत्तमं गीतं समाकर्णति स क्षितीशः ।
        तथातथा मोहितवान्स भूपतिं नटीप्रणीतेन महानुभावः ।३३।
        इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थे ययातिचरित्रे षट्सप्ततितमोऽध्यायः ।७६।

          "अध्याय-76 -धर्मराज बेरोजगार हो गये-
        अनुवाद:-
        सुकर्मन ने कहा :
        1-4. सूर्य के पुत्र ( यम ) अपने सभी दूतों के साथ देवताओं के समूहों से घिरे इंद्र से  मिलने  के लिए स्वर्ग गए । तभी उस देवराज (अर्थात इन्द्र) ने धर्मराज को अपनी सभा में देखा। 
        उसने झट से उठकर उसे उत्तम सम्मानपूर्ण भेंट दी और उससे  उनके आने का कारण पूछा  "मुझे बताओ  (तुम क्यों आए हो)।" देवताओं के राजा के भारी वचनों को सुनकर धर्मराज ने उन्हें ययाति का सारा महान वृत्तान्त कह सुनाया ।
        धर्मराज ने कहा :
        4-11. हे देवराज, सुनो मैं किस लिये आया हूँ। मैं यही  तुम्हें बताऊँगा कि मैं क्यों आया हूँ। विष्णु के भक्त नहुष के कुलीन पुत्र ने पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्यों को विष्णु का भक्त बना दिया है। उन्होंने नश्वर संसार का स्वरूप वैकुण्ठ जैसा बना दिया है । 
        मनुष्य अमर हो गया है और बुढ़ापे तथा रोगों से मुक्त हो गया है। वे न तो कोई पाप करते हैं और न ही झूठ बोलते हैं।

        वे काम और क्रोध से मुक्त हैं, और लोभ और भ्रम से रहित हैं। श्रेष्ठजनों को दान दिया जाता है और वे सभी धर्म के प्रति समर्पित होते हैं। 
        सभी अच्छे कार्यों के साथ वे ध्वनि नारायण की पूजा करते हैं । उस वैष्णव धर्म के  पालन करने के कारण पृथ्वी पर सभी मनुष्य स्वस्थ हैं।, शोक से मुक्त हैं और सभी स्थिर युवा हैं। 
        हे भगवन्, जिस प्रकार दूर्वा (घास) और बून के वृक्ष पृथ्वी पर फैलते हैं, उसी प्रकार वे अपने पुत्र, पौत्र और प्रपौत्रों के कारण विस्तार (अर्थात संख्या में वृद्धि) कर चुके हैं। 
        अपने पुत्रों और प्रपौत्रों के साथ वे एक राजवंश से दूसरे राजवंश में चले गये (अर्थात विभिन्न राजवंशों की शुरुआत की)।
        12-15. इस प्रकार नहुष के पुत्र ने संपूर्ण नश्वर संसार को विष्णु का भक्त  वैष्णव बना दिया और बुढ़ापे और मृत्यु से मुक्त कर दिया। 
        कार्य से मुक्त (अर्थात शून्य) होने के कारण मैं (मानो) अपने पद से वंचित हो गया हूँ।
         इस प्रकार मैंने तुम्हें वह सब कुछ बता दिया है जो मेरे कार्य को समाप्त कर देता है। हे हजार नेत्रों वाले (इंद्र) ऐसा जानकर वही करो जो इस संसार के लिए हितकर हो। जैसा कि आपने मुझसे पूछा था, मैंने यह सब आपको बता दिया है। इसी कारण से, हे इंद्र, मैं आपके समीप (अर्थात आपके पास आया हूं।
        इंद्र ने कहा :
        15-18. हे महान धर्मराज, पहले केवल मैंने ही अपने दूत (अर्थात् मातलि ) को उस महान व्यक्ति के पास  उस महान ययाति को यहाँ लाने के लिए) भेजा था। यहाँ तक कि मेरे दूत ने भी उससे बात की। (लेकिन ययाति ने उससे कहा:) “मुझे स्वर्ग में सुख की इच्छा नहीं है। मैं स्वर्ग में (बिल्कुल नहीं) आऊंगा। मैं पूरे विश्व को स्वर्ग की प्रकृति का बना दूंगा।
        इन्द्र ने कहा हे धर्मराज-
        इस प्रकार राजा ने (मेरे दूत मातलि से) कहा। वह राजा अपनी प्रजा की रक्षा कर रहा है. उसकी धार्मिकता के बल से मैं भी सदैव संकट में रहता हूँ।
        धर्म ने कहा :
        18-19. हे देवताओं के महामहिम स्वामी, यदि आप मुझे प्रिय वस्तु देना चाहते हैं तो उस अच्छे राजा को किसी भी तरह से लालसा देकर (स्वर्ग में) ले आइए।
        19-22. हे राजन, उस धर्मराज के ये वचन सुनकर बुद्धिमान देवराज ने सभी बातों पर तथ्यात्मक दृष्टि से विचार किया। श्रेष्ठ मन वाले भगवान इंद्र ने कामदेव और गंधर्वों को बुलाकर कोयल वसन्त (मकरन्द) और रति को ले आये । (उन्होंने उनसे कहा:) "वह करो जिससे राजा (यहाँ) आये।" मेरी आज्ञा से तुम पृथ्वी पर चले जाओ। (इस बारे में) तुम्हें कोई झिझक नहीं होनी चाहिए।”
         "कामदेव ने कहा :
        22-23. इसमें कोई संदेह नहीं कि मैं वही करूँगा जो आपके अनुकूल एवं जो तुम्हें उचित लगेगा।मुझे और राजा को युद्ध में (एक दूसरे के विपरीत) खड़े हुए देखिये।
        23-24. 'ठीक है' कहकर सभी वहाँ चले गये जहाँ वह राजा नहुष का पुत्र ययाति रहता था। 
        हे ब्राह्मण , उन सभी ने, काम देव आदि ने, अभिनेताओं के रूप में (अर्थात स्वयं को छिपाकर) राजा को आशीर्वाद दिया और अपने अच्छे नाटक के बारे में राजा को बताया (अर्थात अच्छे अभिनय के साथ उनसे बात की)।
        25-33. उनकी ये बातें सुनकर पृथ्वी के बुद्धिमान स्वामी ययाति ने अत्यंत विद्वानों के साथ एक दिव्य सभा की व्यवस्था की। पवित्र तथा अपवित्र विद्या में निपुण राजा स्वयं (वहां) आये। नहुष के पुत्र राजा ने वह नाटक देखा। (उन्होंने देखा) वामन का जीवन , एक ब्राह्मण के रूप में उनका जन्म भी है। 
        उस समय जरा (अर्थात् वृद्धावस्था) ने संसार में सौंदर्य में अद्वितीय स्त्री का रूप धारण करके एक उत्तम, मधुर गीत गाया, हे राजन! उसके गायन के आकर्षण के कारण, उसकी मनोहर हंसी (अर्थात मुस्कान) के कारण, और उसके मीठे शब्दों के कारण, और कामदेव की युक्ति, ढंग और दिव्य व्यवहार के कारण वह राजा मोहित हो गया था। कामदेव का रूप पहले बलि , और विंध्य या वामन की पंक्ति जैसा था। 
        कामदेव स्वयं मुख्य अभिनेता और मंच प्रबंधक बन गए, और  वसन्त रति उनके सहायक थे। वह रति, जिसका पति प्रसन्न था, उस रति ने मुख्य अभिनेत्री की पोशाक पहन ली। उस नृत्य-प्रदर्शन में वह  विश्राम-कक्ष में चली गईं।अत्यंत बुद्धिमान कोयल ने राजा को उत्साहित कर दिया। जैसे ही गौरवशाली राजा ने उत्कृष्ट नृत्य देखा और उत्कृष्ट संगीत सुना, वह मुख्य अभिनेत्री (अर्थात् रति) द्वारा प्रस्तुत (इनसे) मोहित हो गया।
        मकरन्द:- पुष्परस-कामवर्धक पदार्थ- मकरमपि द्यति कामजनकत्वात् दो--अवखण्डने क पृषो० मुम् ।(१)-पुष्पमधौ अमरः कोश ।
        "पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः 
        ←  अध्याय 77)

                           'सुकर्मोवाच-
        कामस्य गीतलास्येन हास्येन ललितेन च।

        मोहितो राजराजेंद्रो नटरूपेण पिप्पल ।१।
        कृत्वा मूत्रं पुरीषं च स राजा नहुषात्मजः ।
        अकृत्वा पादयोः शौचमासने उपविष्टवान् ।२।

        तदंतरं तु संप्राप्य संचचार जरा नृपम् ।
        कामेनापि नृपश्रेष्ठ इंद्रकार्यं कृतं हितम् ।३।

        निवृत्ते नाटके तस्मिन्गतेषु तेषु भूपतिः ।
        जराभिभूतो धर्मात्मा कामसंसक्तमानसः।४।
        मोहितः काममोहेन विह्वलो विकलेंद्रियः ।
        अतीव मुग्धो धर्मात्मा विषयैश्चापवाहितः।५।
        एकदा तु गतो राजा मृगया व्यसनातुरः।
        वने च क्रीडते सोपि मोहरागवशं गतः।६।
        सरसं क्रीडमानस्य नृपतेश्च महात्मनः ।
        मृगश्चैकः समायातश्चतुःशृंगो ह्यनौपमः ।७।
        सर्वांगसुंदरो राजन्हेमरूपतनूरुहः।
        रत्नज्योतिः सुचित्रांगो दर्शनीयो मनोहरः।८।
        अभ्यधावत्स वेगेन बाणपाणिर्धनुर्द्धरः।
        इत्यमन्यत मेधावी कोपि दैत्यः समागतः।९।
        मृगेण च स तेनापि दूरमाकर्षितो नृपः ।
        गतः सरथवेगेन श्रमेण परिखेदितः।१०।
        वीक्षमाणस्य तस्यापि मृगश्चांतरधीयत ।
        स पश्यति वनं तत्र नंदंनोपममद्भुतम्।११।
        चारुवृक्षसमाकीर्णं भूतपंचकशोभितम् ।
        गुरुभिश्चंदनैः पुण्यैः कदलीखंडमंडितैः।१२।
        बकुलाशोकपुंनागैर्नालिकेरैश्च तिंदुकैः ।
        पूगीफलैश्च खर्जूरैः कुमुदैः सप्तपर्णकैः।१३।
        पुष्पितैः कर्णिकारैश्च नानावृक्षैः सदाफलैः ।
        पुष्पितामोदसंयुक्तैः केतकैः पाटलैस्ततः।१४।
        वीक्षमाणो महाराज ददर्श सर उत्तमम् ।
        पुण्योदकेन संपूर्णं विस्तीर्णं पंचयोजनम्।१५।
        हंसकारंडवाकीर्णं जलपक्षिविनादितम् ।
        कमलैश्चापि मुदितं श्वेतोत्पलविराजितम्।१६।
        रक्तोत्पलैः शोभमानं हाटकोत्पलमंडितम् ।
        नीलोत्पलैः प्रकाशितं कल्हारैरतिशोभितम् ।१७।
        मत्तैर्मधुकरैश्चपि सर्वत्र परिनादितम् ।
        एवं सर्वगुणोपेतं ददर्श सर उत्तमम् ।१८।
        पंचयोजनविस्तीर्णं दशयोजनदीर्घकम् ।
        तडागं सर्वतोभद्रं दिव्यभावैरलंकृतम् ।१९।
        रथवेगेन संखिन्नः किंचिच्छ्रमनिपीडितः।
        निषसाद तटे तस्य चूतच्छायां सुशीतलाम् ।२०।
        स्नात्वा पीत्वा जलं शीतं पद्मसौगंध्यवासितम् ।
        सर्वश्रमोपशमनममृतोपममेव तत् ।२१।
        वृक्षच्छाये ततस्तस्मिन्नुपविष्टेन भूभृता ।
        गीतध्वनिः समाकर्णि गीयमानो यथा तथा ।२२।
        यथा स्त्री गायते दिव्या तथायं श्रूयते ध्वनिः।
        गीतप्रियो महाराज एव चिंतां परां गतः।२३।
        चिंताकुलस्तु धर्मात्मा यावच्चिंतयते क्षणम् ।
        तावन्नारी वरा काचित्पीनश्रोणी पयोधरा।२४।
        नृपतेः पश्यतस्तस्य वने तस्मिन्समागता ।
        सर्वाभरणशोभांगी शीललक्षणसंपदा।२५।
        तस्मिन्वने समायाता नृपतेः पुरतः स्थिता ।
        तामुवाच महाराजः का हि कस्य भविष्यसि।२६।
        किमर्थं हि समायाता तन्मे त्वं कारणं वद ।
        पृष्टा सती तदा तेन न किंचिदपि पिप्पल।२७।
        शुभाशुभं च भूपालं प्रत्यवोचद्वरानना ।
        प्रहस्यैव गता शीघ्रं वीणादंडकराऽबला।२८।
        विस्मयेनापि राजेंद्रो महता व्यापितस्तदा ।
        मया संभाषिता चेयं मां न ब्रूते स्म सोत्तरम्।२९।
        पुनश्चिंतां समापेदे ययातिः पृथिवीपतिः ।
        यो वै मृगो मया दृष्टश्चतुःशृंगः सुवर्णकः।३०।
        तस्मान्नारी समुद्भूता तत्सत्यं प्रतिभाति मे ।
        मायारूपमिदं सत्यं दानवानां भविष्यति।३१।
        चिंतयित्वा क्षणं राजा ययातिर्नहुषात्मजः ।
        यावच्चिंतयते राजा तावन्नारी महावने।३२।
        अंतर्धानं गता विप्र प्रहस्य नृपनंदनम् ।
        एतस्मिन्नंतरे गीतं सुस्वरं पुनरेव तत्।३३।
        शुश्रुवे परमं दिव्यं मूर्छनातानसंयुतम् ।
        जगाम सत्वरं राजा यत्र गीतध्वनिर्महान्।३४।
        जलांते पुष्करं चैव सहस्रदलमुत्तमम् ।
        तस्योपरि वरा नारी शीलरूपगुणान्विता ।३५।
        दिव्यलक्षणसंपन्ना दिव्याभरणभूषिता ।
        दिव्यैर्भावैः प्रभात्येका वीणादंडकराविला ।३६।
        गायंती सुस्वरं गीतं तालमानलयान्वितम् ।
        तेन गीतप्रभावेण मोहयंती चराचरान् ।३७।
        देवान्मुनिगणान्सर्वान्दैत्यान्गंधर्वकिन्नरान् ।
        तां दृष्ट्वा स विशालाक्षीं रूपतेजोपशालिनीम्।३८।
        संसारे नास्ति चैवान्या नारीदृशी चराचरे ।
        पुरा नटो जरायुक्तो नृपतेः कायमेव हि ।३९।
        संचारितो महाकामस्तदासौ प्रकटोभवत् ।
        घृतं स्पृष्ट्वा यथा वह्नी रश्मिवान्संप्रजायते।४०।
        तां च दृष्ट्वा तथा कामस्तत्कायात्प्रकटोऽभवत् ।
        मन्मथाविष्टचित्तोसौ तां दृष्ट्वा चारुलोचनाम्।४१।
        ईदृग्रूपा न दृष्टा मे युवती विश्वमोहिनी ।
        चिंतयित्वा क्षणं राजा कामसंसक्तमानसः।४२।
        तस्याः सविरहेणापि लुब्धोभून्नृपतिस्तदा ।
        कामाग्निना दह्यमानः कामज्वरेणपीडितः।४३।
        कथं स्यान्मम चैवेयं कथं भावो भविष्यति ।
        यदा मां गूहते बाला पद्मास्या पद्मलोचना।४४।
        यदीयं प्राप्यते तर्हि सफलं जीवितं भवेत् ।
        एवं विचिंत्य धर्मात्मा ययातिः पृथिवीपतिः।४५।
        तामुवाच वरारोहां का त्वं कस्यापि वा शुभे ।
        पूर्वं दृष्टा तु या नारी सा दृष्टा पुनरेव च ।४६।
        तां पप्रच्छ स धर्मात्मा का चेयं तव पार्श्वगा ।
        सर्वं कथय कल्याणि अहं हि नहुषात्मजः।४७।

        सोमवंशप्रसूतोहं सप्तद्वीपाधिपः शुभे ।
        ययातिर्नाम मे देवि ख्यातोहं भुवनत्रये ।४८।
        तव संगमने चेतो भावमेवं प्रवांछते ।
        देहि मे संगमं भद्रे कुरु सुप्रियमेव हि ।४९।
        यं यं हि वांछसे भद्रे तद्ददामि न संशयः ।
        दुर्जयेनापि कामेन हतोहं वरवर्णिनि ।५०।
        तस्मात्त्राहि सुदीनं मां प्रपन्नं शरणं तव ।
        राज्यं च सकलामुर्वीं शरीरमपि चात्मनः ।५१।

        संगमे तव दास्यामि त्रैलोक्यमिदमेव ते ।
        तस्य राज्ञो वचः श्रुत्वा सा स्त्री पद्मनिभानना ।५२।

        विशालां स्वसखीं प्राह ब्रूहि राजानमागतम् ।
        नाम चोत्पत्तिस्थानं च पितरं मातरं शुभे ।५३।

        ममापि भावमेकाग्रमस्याग्रे च निवेदय ।
        तस्याश्च वांछितं ज्ञात्वा विशाला भूपतिं तदा ।५४।

        उवाच मधुरालापैः श्रूयतां नृपनंदन ।
                       "विशालोवाच-
        काम एष पुरा दग्धो देवदेवेन शंभुना ।५५।

        रुरोद सा रतिर्दुःखाद्भर्त्राहीनापि सुस्वरम् ।
        अस्मिन्सरसि राजेंद्र सा रतिर्न्यवसत्तदा ।५६।

        तस्य प्रलापमेवं सा सुस्वरं करुणान्वितम् ।
        समाकर्ण्य ततो देवाः कृपया परयान्विताः ।५७।

        संजाता राजराजेंद्र शंकरं वाक्यमब्रुवन् ।
        जीवयस्व महादेव पुनरेव मनोभवम् ।५८।

        वराकीयं महाभाग भर्तृहीना हि कीदृशी ।
        कामेनापि समायुक्तामस्मत्स्नेहात्कुरुष्व हि ।५९।

        तच्छ्रुत्वा च वचः प्राह जीवयामि मनोभवम् ।
        कायेनापि विहीनोयं पंचबाणो मनोभवः ।६०।

        भविष्यति न संदेहो माधवस्य सखा पुनः ।
        दिव्येनापि शरीरेण वर्तयिष्यति नान्यथा ।६१।

        महादेवप्रसादाच्च मीनकेतुः स जीवितः ।
        आशीर्भिरभिनंद्यैवं देव्याः कामं नरोत्तम ।६२।

        गच्छ काम प्रवर्तस्व प्रियया सह नित्यशः ।
        एवमाह महातेजाः स्थितिसंहारकारकः ।६३।

        पुनः कामः सरःप्राप्तो यत्रास्ते दुःखिता रतिः ।
        इदं कामसरो राजन्रतिरत्र सुसंस्थिता ।६४।

        दग्धे सति महाभागे मन्मथे दुःखधर्षिता ।
        रत्याः कोपात्समुत्पन्नः पावको दारुणाकृतिः ।६५।

        अतीवदग्धा तेनापि सा रतिर्मोहमूर्छिता ।
        अश्रुपातं मुमोचाथ भर्तृहीना नरोत्तम ।६६।

        नेत्राभ्यां हि जले तस्याः पतिता अश्रुबिंदवः।
        तेभ्यो जातो महाशोकः सर्वसौख्यप्रणाशकः।६७।

        जरा पश्चात्समुत्पन्ना अश्रुभ्यो नृपसत्तम ।
        वियोगो नाम दुर्मेधास्तेभ्यो जज्ञे प्रणाशकः ।६८।

        दुःखसंतापकौ चोभौ जज्ञाते दारुणौ तदा ।
        मूर्छा नाम ततो जज्ञे दारुणा सुखनाशिनी ।६९।

        शोकाज्जज्ञे महाराज कामज्वरोथ विभ्रमः ।
        प्रलापो विह्वलश्चैव उन्मादो मृत्युरेव च ।७०।

        तस्याश्च अश्रुबिंदुभ्यो जज्ञिरे विश्वनाशकाः ।
        रत्याः पार्श्वे समुत्पन्नाः सर्वे तापांगधारिणः ।७१।

        मूर्तिमंतो महाराज सद्भावगुणसंयुताः ।
        काम एष समायातः केनाप्युक्तं तदा नृप ।७२।

        महानंदेन संयुक्ता दृष्ट्वा कामं समागतम् ।
        नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां पतिता अश्रुबिन्दवः ।७३।

        अप्सु मध्ये महाराज चापल्याज्जज्ञिरे प्रजाः ।
        प्रीतिर्नाम तदा जज्ञे ख्यातिर्लज्जा नरोत्तम ।७४।

        तेभ्यो जज्ञे महानंद शांतिश्चान्या नृपोत्तम ।
        जज्ञाते द्वे शुभे कन्ये सुखसंभोगदायिके ।७५।

        लीलाक्रीडा मनोभाव संयोगस्तु महान्नृप ।
        रत्यास्तु वामनेत्राद्वै आनंदादश्रुबिंदवः ।७६।

        जलांते पतिता राजंस्तस्माज्जज्ञे सुपंकजम् ।
        तस्मात्सुपंकजाज्जाता इयं नारी वरानना ।७७।

        अश्रुबिंदुमती नाम रतिपुत्री नरोत्तम । तस्याः प्रीत्या सुखं कृत्वा नित्यं वर्त्ते समीपगा।७८।
        सखीभावस्वभावेन संहृष्टा सर्वदा शुभा ।
        विशाला नाम मे ख्यातं वरुणस्य सुता नृप ।७९।
        अस्याश्चांते प्रवर्तामि स्नेहात्स्निग्धास्मि सर्वदा ।
        एतत्ते सर्वमाख्यातमस्याश्चात्मन एव ते ।८०।
        तपश्चचार राजेंद्र पतिकामा वरानना ।
                          -राजोवाच-
        सर्वमेव त्वयाख्यातं मया ज्ञातं शुभे शृणु ।८१।
        मामेवं हि भजत्वेषा रतिपुत्री वरानना ।
        यमेषा वांछते बाला तत्सर्वं तु ददाम्यहम् ।८२।
        तथा कुरुष्व कल्याणि यथा मे वश्यतां व्रजेत् ।
                          विशालोवाच-
        अस्या व्रतं प्रवक्ष्यामि तदाकर्णय भूपते ।८३।
        पुरुषं यौवनोपेतं सर्वज्ञं वीरलक्षणम् ।
        देवराजसमं राजन्धर्माचारसमन्वितम् ।८४।
        तेजस्विनं महाप्राज्ञं दातारं यज्विनां वरम् ।
        गुणानां धर्मभावस्य ज्ञातारं पुण्यभाजनम् ।८५।
        लोक इंद्रसमं राजन्सुयज्ञैर्धर्मतत्परम् ।
        सर्वैश्वर्यसमोपेतं नारायणमिवापरम् ।८६।
        देवानां सुप्रियं नित्यं ब्राह्मणानामतिप्रियम् ।
        ब्रह्मण्यं वेदतत्त्वज्ञं त्रैलोक्ये ख्यातविक्रमम् ।८७।
        एवंगुणैः समुपेतं त्रैलोक्येन प्रपूजितम् ।
        सुमतिं सुप्रियं कांतं मनसा वरमीप्सति ।८८।
                          'ययातिरुवाच-
        एवं गुणैः समुपेतं विद्धि मामिह चागतम् ।
        अस्यानुरूपो भर्त्ताहं सृष्टो धात्रा न संशयः ।८९।
                           'विशालोवाच-
        भवंतं पुण्यसंवृद्धं जाने राजञ्जगत्त्रये ।

        पूर्वोक्ता ये गुणाः सर्वे मयोक्ताः संति ते त्वयि ।९०।
        एकेनापि च दोषेण त्वामेषा हि न मन्यते ।
        एष मे संशयो जातो भवान्विष्णुमयो नृप ।९१।
                             "ययातिरुवाच-
        समाचक्ष्व महादोषं यमेषा नानुमन्यते ।
        तत्त्वेन चारुसर्वांगी प्रसादसुमुखी भव ।९२।
                              विशालोवाच-
        आत्मदोषं न जानासि कस्मात्त्वं जगतीपते ।
        जरया व्याप्तकायस्त्वमनेनेयं न मन्यते ।९३।
        एवं श्रुत्वा महद्वाक्यमप्रियं जगतीपतिः ।
        दुःखेन महताविष्टस्तामुवाच पुनर्नृपः ।९४।
        जरादोषो न मे भद्रे संसर्गात्कस्यचित्कदा ।
        समुद्भूतं ममांगे वै तं न जाने जरागमम् ।९५।
        यं यं हि वांछते चैषा त्रैलोक्ये दुर्लभं शुभे ।
        तमस्यै दातुकामोहं व्रियतां वर उत्तमः ।९६।
                        "विशालोवाच-
        जराहीनो यदा स्यास्त्वं तदा ते सुप्रिया भवेत् ।
        एतद्विनिश्चितं राजन्सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।९७।
        श्रुतिरेवं वदेद्राजन्पुत्रे भ्रातरि भृत्यके ।
        जरा संक्राम्यते यस्य तस्यांगे परिसंचरेत् ।९८।
        तारुण्यं तस्य वै गृह्य तस्मै दत्वा जरां पुनः ।
        उभयोः प्रीतिसंवादः सुरुच्या जायते शुभः।९९।
        यथात्मदानपुण्यस्य कृपया यो ददाति च ।
        फलं राजन्हि तत्तस्य जायते नात्र संशयः।१००।
        दुःखेनोपार्जितं पुण्यमन्यस्मै हि प्रदीयते ।
        सुपुण्यं तद्भवेत्तस्य पुण्यस्य फलमश्नुते।१०१।
        पुत्राय दीयतां राजंस्तस्मात्तारुण्यमेव च ।
        प्रगृह्यैव समागच्छ सुंदरत्वेन भूपते।१०२।
        यदा त्वमिच्छसे भोक्तुं तदा त्वं कुरुभूपते ।
        एवमाभाष्य सा भूपं विशाला विरराम ह ।१०३।
                         "सुकर्मोवाच-
        एवमाकर्ण्य राजेंद्रो विशालामवदत्तदा ।
                           "राजोवाच-
        एवमस्तु महाभागे करिष्ये वचनं तव ।१०४।
        कामासक्तः समूढस्तु ययातिः पृथिवीपतिः ।
        गृहं गत्वा समाहूय सुतान्वाक्यमुवाच ह ।१०५।
        तुरुं पूरुं कुरुं राजा यदुं च पितृवत्सलम्।
        कुरुध्वं पुत्रकाः सौख्यं यूयं हि मम शासनात् ।१०६।
                           "पुत्रा ऊचुः-
        पितृवाक्यं प्रकर्तव्यं पुत्रैश्चापि शुभाशुभम् ।
        उच्यतां तात तच्छीघ्रं कृतं विद्धि न संशयः।१०७।
        एवमाकर्ण्यतद्वाक्यं पुत्राणां पृथिवीपतिः ।
        आचचक्षे पुनस्तेषु हर्षेणाकुलमानसः।१०८।
        "इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रे सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ।७७।)
        "अनुवाद"
        अध्याय 77 - ययाति जुनून को जन्म देता है
        सुकर्मन ने कहा :
        1-5. हे पिप्पल , कामदेव के संगीत के आकर्षण, उनकी मनमोहक मुस्कान और एक अभिनेता के रूप में उनके रूप से राजाओं के राजा ययाति मोहित हो गए थे । नहुष का पुत्र राजा ययाति, मल मूत्र त्याग कर  , पैर धोए बिना ही अपने आसन पर बैठ गया। उस अवसर लाभ उठाकर  जरा (अर्थात बुढ़ापा) राजा के पास चला गया। हे श्रेष्ठ राजा,  तभी कामदेव ने भी इंद्र के लिए लाभकारी कार्य पूरा कर दिया।
        जब नाटक समाप्त हो गया और वे चले गए, तो धार्मिक विचारों वाला राजा बुढ़ापे से ग्रस्त हो गया, उसका मन वासना में आसक्त हो गया, कामदेव द्वारा उत्पन्न भ्रम से मोहित हो गया, व्याकुल हो गया, उसके अंग कमजोर हो गए; वह धर्मात्मा (राजा) अत्यंत मूर्च्छित होगया था और इन्द्रिय विषयों से दूर हो गया था।
        6-11. एक बार एक राजा शिकार की इच्छा से (अर्थात् शिकार करने को उत्सुक) जंगल में गया। वह मोह के वशीभूत होकर वन में क्रीड़ा करने लगा। जब वह प्रतापी राजा रुचिपूर्वक खेल रहा था, तभी चार सींगों वाला एक अतुलनीय हिरण (वहां) आया। हे राजन, उसका पूरा शरीर सुंदर था, उसके बाल सुनहरे रंग के थे, उसका शरीर मणि के समान चमक से युक्त था; यह सुंदर और आकर्षक था. धनुर्धर (अर्थात राजा) हाथ में तीर लेकर तेजी से (उसकी ओर) दौड़ा।
         बुद्धिमान (राजा) ने सोचा कि (वहाँ) कोई राक्षस आया है। हिरण ने भी राजा को खींच लिया। वह रथ की गति से (उसके पीछे) चला, और थकावट से पीड़ित हो गया। जब वह देख रहा था, हिरण गायब हो गया।
        11-20. वहाँ उन्होंने इन्द्र की वाटिका के समान एक अद्भुत वन देखा; यह सुंदर पेड़ों से भरा हुआ था, और पांच तत्वों के साथ शानदार लग रहा था, बड़े पवित्र चंदन के पेड़ और केले के पेड़ों के आकर्षक समूहों के साथ, (जैसे) बकुला , अशोक , पुन्नागा , नालिकेरा (यानी कोको-अखरोट के पेड़) के साथ। तिंदुका , पुगीफला (सुपारी के पेड़), खजूर के पेड़, कमल और सप्तपर्ण के पेड़, खिले हुए कर्णिकारा (पेड़), और विभिन्न पेड़ जिन पर हमेशा फल लगते हैं, इसी तरह केतका और पाटल के साथ भी । (इन्हें) देखते समय महान राजा को एक उत्तम झील दिखाई दी। वह पवित्र जल से भरा हुआ था; वह पाँच योजन तक व्यापक (फैला हुआ) था ; उसमें हंसों और बत्तखों की भीड़ थी; वह जलीय पक्षियों से गूँज रहा था; वह कमलों से भी रमणीय था; वह लाल कमलों से आकर्षक लग रही थी, और सुनहरे कमलों से सुशोभित थी; श्वेत कमलों के कारण वह अत्यंत मनमोहक लग रहा था; यह हर जगह नशे में धुत मधुमक्खियों से भी गूंज रहा था। इस प्रकार उन्होंने झील को सभी उत्कृष्टताओं से संपन्न देखा। यह पाँच

        योजन चौड़ा और दस योजन लम्बा था। झील सब तरफ से शुभ थी; और दिव्य वस्तुओं से सुशोभित था। रथ की गति से थककर और थकान से परेशान होकर वह उसके किनारे एक आम के पेड़ की छाया में बैठ गया।
        21-26. उसमें स्नान करके, अमृत के समान कमल की सुगंध से सुगन्धित उसके शीतल जल को पीकर (अर्थात् पिया) और सारी थकावट दूर कर देता है। पेड़ की छाया में बैठे राजा को किसी तरह (किसी के द्वारा) गाए जा रहे गीत की आवाज सुनाई दी। यह ध्वनि उस गीत के रूप में सुनी गई (यह ध्वनि होगी) जिसे एक दिव्य महिला गाएगी। संगीत प्रेमी वह महान राजा अत्यंत विचारशील हो गया। जब वह कुलीन इस प्रकार चिंतित हुआ और एक क्षण के लिए सोचने लगा, तभी जंगल में एक स्त्री, जिसके नितम्ब और स्तन थे, आ पहुँची, जिसे राजा देख रहे थे। वह, जिसका शरीर सभी आभूषणों से सुंदर लग रहा था, और अच्छे चरित्र और (शुभ) चिह्नों से युक्त थी, जंगल में आई और राजा के सामने खड़ी हुई।
        26-32. राजा ने उससे कहा: “तुम कौन हो? आप किसके हैं? तुम यहाँ क्यों आये हो? मुझे इसका कारण बताओ।” हे पिप्पला, उस उत्कृष्ट मुख वाली स्त्री ने उस समय राजा द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर न तो अच्छा उत्तर दिया और न ही बुरा। वह स्त्री, जिसकी गर्दन हाथ में थी, हँसी और तेजी से चली गई। तब राजा बड़े आश्चर्य से भर गये, 'जब मैंने उससे बात की तो वह उत्तर नहीं दे रही है।' फिर उस राजा ययाति ने सोचा: '(ये) चार सींग जो मैंने देखे थे। मुझे लगता है कि यही सच है. यह वास्तव में राक्षसों का एक कपटपूर्ण रूप होना चाहिए (अर्थात् द्वारा अपनाया गया)।' हे ब्राह्मण , नहुष के पुत्र राजा ययाति ने एक क्षण के लिए (इस प्रकार) सोचा।
        32-38. जब राजा ऐसा सोच रहा था; महिला राजकुमार पर हंसते हुए जंगल में गायब हो गई। इस बीच, उन्होंने फिर से गाना सुना, जो मधुर था, बहुत दिव्य था और संगीत के पैमाने के माध्यम से ध्वनियों के स्वर और नियमित उतार-चढ़ाव के साथ था। राजा उस स्थान पर गया (जहाँ से) गीत की महान ध्वनि आ रही थी। जल में एक हज़ार पंखुड़ियों वाला एक उत्कृष्ट कमल था। उस पर एक उत्कृष्ट महिला थी, जो (अच्छे) चरित्र, सुंदरता और गुणों से संपन्न थी। वह दिव्य चिन्हों से युक्त थी; वह दिव्य आभूषणों से सुसज्जित थी; वह दिव्य वस्तुओं से चमकती थी; उसका हाथ लुटेरे की गर्दन पकड़ने में लगा हुआ था। वह ताल और समय मापने तथा विराम के साथ एक मधुर गीत गा रही थी। उस गाने की शक्ति से उसने जंगम और स्थावर, देवताओं, ऋषियों के समूहों, सभी राक्षसों, गंधर्वों और किन्नरों को भी मोहित कर लिया ।
        38-42. उस (स्त्री को) चौड़ी आंखों वाली, सौंदर्य और तेज से युक्त देखकर (उसने सोचा) कि इस चराचर और स्थावर संसार में उसके समान दूसरी कोई स्त्री नहीं है। पूर्वकाल में अभिनेता महान कामदेव राजा के शरीर में प्रविष्ट हो गये थे; उन्होंने उस समय स्वयं को प्रकट किया। जैसे आग, घी के संपर्क में आने से प्रकाश की किरणें निकालती है (यानी उज्ज्वल होती है), उसी तरह कामदेव (यानी जुनून) उसे देखने के बाद (यानी राजा के बाद) खुद को प्रकट करते हैं। उस मनमोहक नेत्रों वाली स्त्री को देखकर उसके मन पर कामदेव (अर्थात जुनून) हावी हो गया। (उसने सोचा:) 'मैंने (पहले) ऐसी युवा महिला को दुनिया को लुभाते हुए कभी नहीं देखा।'
        42-43. एक पल के लिए सोचने पर राजा का मन कामवासना में बंध गया। उसके वियोग में राजा कामाग्नि से जलकर तथा काम-ज्वर से पीड़ित होकर उसकी लालसा करने लगा।
        44-46. (उसने सोचा:) 'वह मेरी कैसे होगी? उसे (मुझसे) प्रेम कैसे होगा? मेरा जीवन तभी सफल होगा जब कमल के समान मुख वाली तथा कमल के समान नेत्रों वाली यह युवती मुझे गले लगाएगी अथवा मुझे प्राप्त होगी।' इस प्रकार विचार करके उस धर्मात्मा राजा ययाति ने उस सुन्दरी से कहा- हे शुभा आप कौन हैं? आप किसके हैं?” वह महिला जो पहले देखी गई थी वह फिर से (मुझे) दिखाई दी है।
        47-52. धर्मी ने उससे पूछा: “तुम्हारे पास कौन है? हे शुभ, मुझे सब कुछ बताओ। मैं नहुष का पुत्र हूं। हे दयालु, मैं चंद्र वंश में पैदा हुआ हूं और सात द्वीपों का स्वामी हूं। हे आदरणीय महिला, मेरा नाम ययाति है; मैं तीनों लोकों में विख्यात हूँ। इस प्रकार मेरा हृदय आपके साथ मिलन की अभिलाषा रखता है। हे अच्छी महिला, मेरे साथ एकजुट हो जाओ, वह करो जो (मुझे) बहुत प्रिय है। हे अच्छी महिला, इसमें कोई संदेह नहीं है कि मैं तुम्हें वह सब कुछ दूंगा जो तुम चाहोगी। हे उत्कृष्ट रंगरूप वाले आप, मैं अजेय जुनून से अभिभूत हूं। अत: मुझ अत्यंत असहाय और आपकी शरण में आये हुए लोगों की रक्षा कीजिये। तुम्हारे साथ मिलन के लिए (अर्थात बदले में) मैं अपना राज्य, पूरी पृथ्वी या यहां तक ​​कि अपना शरीर भी दे दूंगा। ये तीनों लोक आपके हैं।”

        52-55 राजा के वचन सुनकर कमल के समान मुख वाली उस स्त्री ने अपनी सखी विशाला से कहा- जो राजा यहाँ आये हैं, उन्हें मेरा नाम, मेरा जन्म स्थान, मेरा नाम बताओ। मेरे पिता और माता, हे अच्छी स्त्री! उसे (उसके लिए) मेरे प्यार के बारे में भी बताओ।” उसकी इच्छा को समझकर विशाला ने मीठे शब्दों में राजा से कहा, "हे राजकुमार, सुनो।"
        विशाला ने कहा :
        55-7. इस कामदेव को पहले देवताओं के देवता शम्भु (अर्थात शिव ) ने जला दिया था। वह रति अपने पति से वंचित होकर दुःख के कारण मधुर स्वर में रोने लगी। हे राजाश्रेष्ठ, उस समय वह रति इसी सरोवर में रहती थी। हे राजाओं के राजा, देवताओं ने उसके इस प्रकार दुःख से युक्त मधुर विलाप को सुनकर (उस पर) बड़ी दया की। उन्होंने शंकर से (ये) शब्द कहे : “हे महान देवता, मन में जन्मे (कामदेव) को फिर से जीवित करो। हे महिमामयी, वह किस स्वभाव की होगी (अर्थात उसकी क्या दुर्दशा होगी) जो अपने पति से वंचित होकर असहाय हो गयी है? हमारे प्रति आपके स्नेह के कारण (अर्थात चूँकि आप हमसे प्रेम करते हैं, कृपया) उसे कामदेव से मिला दें।” उन शब्दों को सुनकर (शिव) ने कहा: "मैं कामदेव को पुनर्जीवित करूंगा।" पांच बाणों से युक्त यह मन-जन्मा (अर्थात कामदेव), शरीर न होते हुए भी, फिर से वसंत का मित्र होगा। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है। वह दिव्य शरीर के साथ रहेगा; (और) अन्यथा नहीं (अर्थात् किसी अन्य निकाय के साथ नहीं)।” वह मछली-बैनर वाला देवता (अर्थात कामदेव), महान देवता (अर्थात शिव) की कृपा से जीवित हो गया। हे श्रेष्ठ पुरुष, इस प्रकार आदरणीय महिला (अर्थात रति) की इच्छा को आशीर्वाद के साथ मंजूरी दे दी (शिव ने कहा:) "हे कामदेव, जाओ और हमेशा अपने प्रिय के साथ रहो।" इस प्रकार महान तेज वाले (संसार के) पालन और विनाश के कारण भगवान ने (कामदेव से) कहा। कामदेव फिर से उस झील पर आए जहां दुखी रति रह गई थी। हे राजा, यह (उस झील को कामसरस कहा जाता है) (अर्थात कामदेव से संबंधित) जहां रति अच्छी तरह से बसी हुई है। जब महान कामदेव को (शिव द्वारा) जला दिया गया तो वह दुःख से उबर गई। रति के क्रोध से भयानक रूप वाली अग्नि उत्पन्न हुई। उसने रति को भी बहुत झुलसा दिया और बेहोश हो गई। हे नरश्रेष्ठ, वह अपने पति से वंचित होकर आँसू बहा रही थी। उसकी आँखों से आँसू पानी में गिर गये। उनसे महान् दुःख उत्पन्न हुआ जिसने समस्त सुखों को नष्ट कर दिया। हे श्रेष्ठ राजा, उसके बाद जरा (अर्थात बुढ़ापा) आंसुओं से अस्तित्व में आया। उनमें से मंदबुद्धि विनाशक अर्थात्। अलगाव उभर आया. भयानक दुःख और यातना दोनों भी तब सामने आये। उनसे भयानक और सुख को नष्ट करने वाला भ्रम उत्पन्न हुआ। हे महान राजा, दुःख से जुनून और त्रुटि का बुखार उत्पन्न हुआ। व्यथित विलाप, पागलपन और मृत्यु, सब कुछ नष्ट कर देने वाली, उसके आँसुओं से उत्पन्न हुई।
        71-79. हे महान राजा, रति की ओर से सभी पीड़ा के शरीर को धारण करते हैं और, सभी अच्छी भावनाओं के गुणों से युक्त होकर, अवतार लेते हैं। हे राजा, तभी किसी ने कहा: "यह कामदेव (वह) आया है।" (वहां) आये हुए कामदेव को देखकर वह (अर्थात रति) अत्यंत आनंद से भर गयी। उसकी आँखों से आँसू गिर पड़े। हे महान राजा, जल में प्राणियों की उत्पत्ति शीघ्र हो गयी। हे श्रेष्ठ पुरुष, उस समय लव नाम की (एक महिला) उत्पन्न हुई, उसी प्रकार रेनॉउन और शेम भी। हे श्रेष्ठ राजा, उनमें से (अर्थात आंसुओं से) महान आनंद उत्पन्न हुआ और दूसरा, अर्थात्। शांति। सुख और भोग देने वाली दो मंगलमय कन्याएँ उत्पन्न हुईं। हे राजन, मनोरंजन, खेल और मन की भक्ति का अद्भुत संयोजन था। हे राजन, खुशी के मारे रति की बायीं आंख से आंसू छलक पड़े। उनसे एक उत्तम कमल उत्पन्न हुआ। हे पुरुषश्रेष्ठ, उस अच्छे कमल से रति की पुत्री, अश्रुबिन्दुमती नाम की यह सुंदर स्त्री उत्पन्न हुई। उसके प्रति प्रेम के कारण, मैं उसका मित्र होने के कारण, सदैव प्रसन्न और सदाचारी होकर, उसके निकट रहता हूँ और उसे सुख देता हूँ। मेरा नाम विशाला के नाम से जाना जाता है (अर्थात मुझे इस नाम से जाना जाता है)। हे राजन, मैं वरुण की पुत्री हूं।
        80-81  मैं उसके प्रति सदैव स्नेहशील रहकर उसके प्रेम के द्वारा उसके निकट रहता हूँ। इस प्रकार मैंने तुम्हें उसका (वृत्तान्त) सब बता दिया है और अपना भी। हे राजाओं के स्वामी, इस सुंदरी ने पति की इच्छा से तपस्या की।
        राजा ने कहा :
        81 -83। हे मंगलमयी, तूने जो कुछ मुझसे कहा है, वह सब मैं समझ गया हूँ; सुनो, रति की इस सुन्दर पुत्री को मुझे चुनने दो। मैं इस युवती को वह सब कुछ दूँगा जो वह चाहती है। हे शुभ स्त्री, ऐसा करो जिससे वह मेरे वश में हो जाये।

        विशाला ने कहा :
        83-88. मैं तुम्हें उसका संकल्प बताऊंगा. इसे सुनो, हे राजा! वह अपने दूल्हे के रूप में एक ऐसे पुरुष की इच्छा रखती है, जो यौवन से संपन्न हो; जो सर्वज्ञ है; जिसमें वीर पुरुष के लक्षण हों; जो देवताओं के स्वामी के समान है; जो धर्मात्मा आचरण रखता हो; जो प्रतिभाशाली है; अत्यंत तेजस्वी, दानी तथा यज्ञों में श्रेष्ठ; जो सद्गुणों और धर्म के प्रति समर्पण को जानता है (अर्थात् सराहना करता है); जो धर्म और अच्छे आचरण से युक्त है; जो संसार में इन्द्र के समान है; जो महान बलिदानों के माध्यम से धार्मिक प्रथाओं का इरादा रखता है; जो समस्त वैभव से संपन्न है; जो मानो दूसरा विष्णु है ; जो सदैव देवताओं को अत्यंत प्रिय है और ब्राह्मणों को अत्यंत प्रिय है ; जो ब्राह्मणों का मित्र है; जो वेदों के सत्य को जानता है ; जिनकी वीरता तीनों लोकों में विख्यात है। वह ऐसा ही वर चाहती है
        ययाति ने कहा :
        89. जो लोग यहाँ आये हैं, मुझे इन गुणों से सम्पन्न जानो। इसमें कोई संदेह नहीं कि विधाता ने (मुझमें) उसके योग्य पति उत्पन्न किया है।
        विशाला ने कहा :
        90. हे राजा, मैं जानता हूं कि आप तीनों लोकों में धार्मिक गुणों से समृद्ध हैं। जो गुण मैंने पहले बताये हैं वे आपमें विद्यमान हैं।
        91. केवल एक दोष के कारण वह आपके बारे में अच्छा नहीं सोचती। यह शंका मेरे मन में उत्पन्न हो गई है। (अन्यथा) हे राजा, आप विष्णु से परिपूर्ण हैं।
        ययाति ने कहा :
        92. मुझे वह महान दोष बताओ, जो सभी अंगों में सुंदर है, वास्तव में इसका प्रतिकार नहीं करता। मेरा पक्ष लेने के लिए अच्छी तरह तैयार रहें।
        विशाला ने कहा :
        93. हे जगत के स्वामी, तू अपना दोष क्यों नहीं जानता? तुम्हारा शरीर बुढ़ापे से ढका हुआ है। इस (दोष) के कारण वह तुम्हें पुरस्कार नहीं देती।
        94. इन महान् (महत्वपूर्ण) और अप्रिय वचनों को सुनकर जगत् के स्वामी राजा ने बड़े दुःख से आतुर होकर फिर कहा:
        95. “हे शुभ नारी, मेरे शरीर पर बुढ़ापे का यह दोष किसी के संसर्ग का कारण नहीं है। मैं नहीं जानता कि मेरे शरीर में यह बुढ़ापा (कैसे) आ गया है।
        96. हे मंगलमयी, वह संसार में जो भी कठिन वस्तु प्राप्त करना चाहती है, मैं उसे देने को तैयार हूं। सर्वोत्तम वरदान चुनें।”
        विशाला ने कहा :
        97-100. जब तुम बुढ़ापे से मुक्त हो जाओगे, तब वह तुम्हारी परम प्रिय (पत्नी) होगी। यह निश्चित है, हे राजा; मैं (आपको) सच (और) सच (केवल) बता रहा हूं। जो अपने बेटे, (या) भाई, (या) नौकर से अपनी जवानी छीनकर उसे अपना बुढ़ापा दे देता है, उसके शरीर पर जवानी हावी हो जाती है। अच्छे स्वाद के कारण दोनों के बीच एक सुखद समझौता हो जाता है। हे राजा, उसे उस व्यक्ति के पुण्य के समान ही फल मिलता है जो दया करके स्वयं को अर्पित करता है। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।
        101-103. जब कठिनाई से प्राप्त पुण्य किसी और को दिया जाता है तो उसके पास महान धार्मिक योग्यता होगी। पुण्य का फल (इस प्रकार) प्राप्त होता है। अत: हे राजा, अपने पुत्र को (अपनी वृद्धावस्था) दे दो और उससे (यौवन) प्राप्त करके रूप रूप धारण करके (अर्थात प्राप्त करके) लौट आओ। हे राजन, जब तुम्हें (उसका) आनंद लेने की इच्छा हो तो ऐसा करो।
        इस प्रकार, राजा से बात करते हुए, विशाला ने बोलना बंद कर दिया।
        सुकर्मन ने कहा :
        104. फिर श्रेष्ठ राजा के समान सुनकर विशाला से बोले।
        राजा ने कहा :
        104-106. हे महानुभाव, ऐसा ही हो; मैं आपकी बात मानूंगा (अर्थात जैसा आपने मुझसे कहा है वैसा ही करूंगा)।
        पृथ्वी के उस मूर्ख स्वामी, ययाति ने, जोश से वशीभूत होकर, घर जाकर, अपने पुत्रों तुरु, पुरु , कुरु और यदु को बुलाकर , पिता से प्रेम करते हुए, उनसे (ये) शब्द कहे: "मेरे आदेश पर, हे बेटों, (मेरे लिए) खुशियाँ लाओ।”
        बेटों ने कहा :
        107-108. पिता के शब्द (अर्थात आदेश) - चाहे अच्छे हों या बुरे - पुत्रों को निष्पादित करने पड़ते हैं। हे पिता, शीघ्र बोलो, और जान लो कि इसका (अर्थात आदेश का) पालन किया जाता है। इसमें कोई शक नहीं है।
        पुत्रों की ये बातें सुनकर पृथ्वी के स्वामी हर्ष से अभिभूत होकर फिर उनसे बोले।
        पद्मपुराण /खण्डः २ (भूमिखण्डः)अध्यायः (७८)

        पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डःअध्यायः 78)

                        "ययातिरुवाच-
        एकेन गृह्यतां पुत्रा जरा मे दुःखदायिनी ।
        धीरेण भवतां मध्ये तारुण्यं मम दीयताम् ।१।
        स्वकीयं हि महाभागाः स्वरूपमिदमुत्तमम् ।
        संतप्तं मानसं मेद्य स्त्रियां सक्तं सुचंचलम् ।२।
        भाजनस्था यथा आप आवर्त्तयति पावकः ।
        तथा मे मानसं पुत्राः कामानलसुचालितम् ।३।
        एको गृह्णातु मे पुत्रा जरां दुःखप्रदायिनीम् ।

        स्वकं ददातु तारुण्यं यथाकामं चराम्यहम् ।४।
        यो मे जरापसरणं करिष्यति सुतोत्तमः ।
        स च मे भोक्ष्यते राज्यं धनुर्वंशं धरिष्यति ।५।
        तस्य सौख्यं सुसंपत्तिर्धनं धान्यं भविष्यति ।
        विपुला संततिस्तस्य यशः कीर्तिर्भविष्यति ।६।
                         "पुत्रा ऊचुः-
        भवान्धर्मपरो राजन्प्रजाः सत्येन पालकः ।
        कस्मात्ते हीदृशो भावो जातः प्रकृतिचापलः ।७।
                           "राजोवाच-
        आगता नर्तकाः पूर्वं पुरं मे हि प्रनर्तकाः ।
        तेभ्यो मे कामसंमोहे जातो मोहश्च ईदृशः ।८।
        जरया व्यापितः कायो मन्मथाविष्टमानसः ।
        संबभूव सुतश्रेष्ठाः कामेनाकुलव्याकुलः ।९।
        काचिद्दृष्टा मया नारी दिव्यरूपा वरानना ।
        मया संभाषिता पुत्राः किंचिन्नोवाच मे सती ।१०।
        विशालानाम तस्याश्च सखी चारुविचक्षणा ।
        सा मामाह शुभं वाक्यं मम सौख्यप्रदायकम् ।११।
        जराहीनो यदा स्यास्त्वं तदा ते सुप्रिया भवेत् ।
        एवमंगीकृतं वाक्यं तयोक्तं गृहमागतः ।१२।
        मया जरापनोदार्थं तदेवं समुदाहृतम् ।
        एवं ज्ञात्वा प्रकर्तव्यं मत्सुखं हि सुपुत्रकाः ।१३।
                            "तुरुरुवाच-
        शरीरं प्राप्यते पुत्रैः पितुर्मातुः प्रसादतः ।
        धर्मश्च क्रियते राजञ्शरीरेण विपश्चिता ।१४।
        पित्रोः शुश्रूषणं कार्यं पुत्रैश्चापि विशेषतः ।
        न च यौवनदानस्य कालोऽयं मे नराधिप ।१५।
        प्रथमे वयसि भोक्तव्यं विषयं मानवैर्नृप ।
        इदानीं तन्न कालोयं वर्तते तव सांप्रतम् ।१६।
        जरां तात प्रदत्वा वै पुत्रे तात महद्गताम् ।
        पश्चात्सुखं प्रभोक्तव्यं न तु स्यात्तव जीवितम् ।१७।
        तस्माद्वाक्यं महाराज करिष्ये नैव ते पुनः ।
        एवमाभाषत नृपं तुरुर्ज्येष्ठसुतस्तदा ।१८।
        तुरोर्वाक्यं तु तच्छ्रुत्वा क्रुद्धो राजा बभूव सः ।
        तुरुं शशाप धर्मात्मा क्रोधेनारुणलोचनः ।१९।
        अपध्वस्तस्त्वयाऽदेशो ममायं पापचेतन ।
        तस्मात्पापी भव स्वत्वं सर्वधर्मबहिष्कृतः ।२०।
        शिखया त्वं विहीनश्च वेदशास्त्रविवर्जितः ।
        सर्वाचारविहीनस्त्वं भविष्यसि न संशयः ।२१।
        ब्रह्मघ्नस्त्वं देवदुष्टः सुरापः सत्यवर्जितः ।
        चंडकर्मप्रकर्ता त्वं भविष्यसि नराधमः ।२२।
        सुरालीनः क्षुधी पापी गोघ्नश्च त्वं भविष्यसि ।
        दुश्चर्मा मुक्तकच्छश्च ब्रह्मद्वेष्टा निराकृतिः ।२३।
        परदाराभिगामी त्वं महाचंडः प्रलंपटः ।
        सर्वभक्षश्च दुर्मेधाः सदात्वं च भविष्यसि ।२४।
        सगोत्रां रमसे नारीं सर्वधर्मप्रणाशकः ।
        पुण्यज्ञानविहीनात्मा कुष्ठवांश्च भविष्यसि ।२५।
        तव पुत्राश्च पौत्राश्च भविष्यंति न संशयः ।
        ईदृशाः सर्वपुण्यघ्ना म्लेच्छाः सुकलुषीकृताः ।२६।
        एवं तुरुं सुशप्त्वैव यदुं पुत्रमथाब्रवीत् ।
        जरां वै धारयस्वेह भुंक्ष्व राज्यमकंटकम् ।२७।
        बद्धाञ्जलिपुटो भूत्वा यदू राजानमब्रवीत् ।
                         *** "यदुरुवाच-
        जराभारं न शक्नोमि वोढुं तात कृपां कुरु ।२८।

        शीतमध्वा कदन्नं च वयोतीताश्च योषितः ।
        मनसः प्रातिकूल्यं च जरायाः पञ्चहेतवः ।२९।

        जरादुःखं न शक्नोमि नवे वयसि भूपते ।
        कः समर्थो हि वै धर्तुं क्षमस्व त्वं ममाधुना ।३०।

        यदुं क्रुद्धो महाराजः शशाप द्विजनंदन ।
        राज्यार्हो न च ते वंशः कदाचिद्वै भविष्यति
         ।३१।
        बलतेजः क्षमाहीनः क्षात्रधर्मविवर्जितः 
        भविष्यति न सन्देहो मच्छासनपराङ्मुखः ।३२।

                           "यदुरुवाच-
        निर्दोषोहं महाराज कस्माच्छप्तस्त्वयाधुना 
        कृपां कुरुष्व दीनस्य प्रसादसुमुखो भव ।३३।

                            "राजोवाच-
        महादेवः कुले ते वै स्वांशेनापि हि पुत्रक ।
        करिष्यति विसृष्टिं च तदा पूतं कुलं तव ।३४।

                              "यदुरुवाच-
        अहं पुत्रो महाराज निर्दोषः शापितस्त्वया ।
        अनुग्रहो दीयतां मे यदि मे वर्त्तते दया ।३५।

                               "राजोवाच-
        यो भवेज्ज्येष्ठपुत्रस्तु पितुर्दुःखापहारकः ।
        राज्यदायं सुभुंक्ते च भारवोढा भवेत्स हि ।३६।

        त्वया धर्मं न प्रवृत्तमभाष्योसि न संशयः ।
        भवता नाशिताज्ञा मे महादण्डेन घातिनः ।३७।

        तस्मादनुग्रहो नास्ति यथेष्टं च तथा कुरु ।
                              "यदुरुवाच-
        यस्मान्मे नाशितं राज्यं कुलं रूपं त्वया नृप ।३८।

        तस्माद्दुष्टो भविष्यामि तव वंशपतिर्नृप ।
        तव वंशे भविष्यंति नानाभेदास्तु क्षत्त्रियाः ।३९।

        तेषां ग्रामान्सुदेशांश्च स्त्रियो रत्नानि यानि वै ।
        भोक्ष्यंति च न संदेहो अतिचंडा महाबलाः ।४०।

        मम वंशात्समुत्पन्नास्तुरुष्का म्लेच्छरूपिणः ।
        त्वया ये नाशिताः सर्वे शप्ताः शापैः सुदारुणैः ।४१।

        एवं बभाषे राजानं यदुः क्रुद्धो नृपोत्तम ।
        अथ क्रुद्धो महाराजः पुनश्चैवं शशाप ह ।४२।

        मत्प्रजानाशकाः सर्वे वंशजास्ते शृणुष्व हि ।
        यावच्चंद्रश्च सूर्यश्च पृथ्वी नक्षत्रतारकाः ।४३।

        तावन्म्लेच्छाः प्रपक्ष्यन्ते कुम्भीपाके चरौ रवे ।
        कुरुं दृष्ट्वा ततो बालं क्रीडमानं सुलक्षणम् ।४४।


        समाह्वयति तं राजा न सुतं नृपनन्दनम् ।
        शिशुं ज्ञात्वा परित्यक्तः सकुरुस्तेन वै तदा ।४५।

        शर्मिष्ठायाः सुतं पुण्यं तं पूरुं जगदीश्वरः ।
        समाहूय बभाषे च जरा मे गृह्यतां पुनः ।४६।

        भुंक्ष्व राज्यं मया दत्तं सुपुण्यं हतकंटकम् ।
                             "पूरुरुवाच-
        राज्यं देवे न भोक्तव्यं पित्रा भुक्तं यथा तव ।४७।
        त्वदादेशं करिष्यामि जरा मे दीयतां नृप ।
        तारुण्येन ममाद्यैव भूत्वा सुंदररूपदृक् ।४८।
        भुंक्ष्व भोगान्सुकर्माणि विषयासक्तचेतसा ।
        यावदिच्छा महाभाग विहरस्व तया सह ।४९।
        यावज्जीवाम्यहं तात जरां तावद्धराम्यहम् ।
        एवमुक्तस्तु तेनापि पूरुणा जगतीपतिः ।५०।
        हर्षेण महताविष्टस्तं पुत्रं प्रत्युवाच सः ।
        यस्माद्वत्स ममाज्ञा वै न हता कृतवानिह ।५१।
        तस्मादहं विधास्यामि बहुसौख्यप्रदायकम् ।
        यस्माज्जरागृहीता मे दत्तं तारुण्यकं स्वकम् ।५२।
        तेन राज्यं प्रभुंक्ष्व त्वं मया दत्तं महामते ।
        एवमुक्तः सुपूरुश्च तेन राज्ञा महीपते ।५३।
        तारुण्यंदत्तवानस्मै जग्राहास्माज्जरां नृप ।
        ततः कृते विनिमये वयसोस्तातपुत्रयोः ।५४।
        तस्माद्वृद्धतरः पूरुः सर्वांगेषु व्यदृश्यत ।
        नूतनत्वं गतो राजा यथा षोडशवार्षिकः ।५५।
        रूपेण महताविष्टो द्वितीय इव मन्मथः ।
        धनूराज्यं च छत्रं च व्यजनं चासनं गजम् ।५६।
        कोशं देशं बलं सर्वं चामरं स्यंदनं तथा ।
        ददौ तस्य महाराजः पूरोश्चैव महात्मनः ।५७।
        कामासक्तश्च धर्मात्मा तां नारीमनुचिंतयन् ।
        तत्सरः सागरप्रख्यंकामाख्यं नहुषात्मजः ।५८।
        अश्रुबिंदुमती यत्र जगाम लघुविक्रमः ।
        तां दृष्ट्वा तु विशालाक्षीं चारुपीनपयोधराम् ।५९।
        विशालां च महाराजः कंदर्पाकृष्टमानसः ।
                          "राजोवाच-
        आगतोऽस्मि महाभागे विशाले चारुलोचने।६०।
        जरात्यागःकृतो भद्रे तारुण्येन समन्वितः ।
        युवा भूत्वा समायातो भवत्वेषा ममाधुना ।६१।
        यंयं हि वांछते चैषा तंतं दद्मि न संशयः ।
                            "विशालोवाच-
        यदा भवान्समायातो जरां दुष्टां विहाय च ।६२।
        दोषेणैकेनलिप्तोसि भवंतं नैव मन्यते ।
                              "राजोवाच-
        मम दोषं वदस्व त्वं यदि जानासि निश्चितम् ।६३।तं तु दोषं परित्यक्ष्येगुणरूपंनसंशयः ।६४।
         "इति श्रीपद्मपुराणेभूमिखंडेवेनोपाख्यानेमातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरितेऽष्टसप्ततितमोऽध्यायः ७८।
        "अनुवाद"
        अध्याय -78 - पुरु ने अपनी जवानी ययाति को दे दी
        ययाति ने कहा :
        1-4. हे मेरे श्रेष्ठ पुत्रों, तुममें से जो बुद्धिमान है, उसे मेरे इस बुढ़ापे को, जो मुझे कष्ट दे रहा है, ले लेना चाहिए और अपना यौवन तथा उत्तम रूप मुझे दे देना चाहिए; (ताकि) मैं जैसा चाहूँ वैसा व्यवहार करूँ। आज मेरा अत्यंत चंचल मन क्रोधित हो गया है और एक स्त्री में आसक्त हो गया है। जैसे घड़े में भरे हुए पानी के चारों ओर अग्नि घूमती रहती है, उसी प्रकार हे मेरे पुत्रों, काम की अग्नि से मेरा मन अत्यंत कंपित हो रहा है। हे (मेरे) पुत्रों, तुम में से एक को मेरा यह बुढ़ापा जो मुझे दुःख दे रहा है, ले लेना चाहिए और अपनी जवानी (मुझे) दे देनी चाहिए; (ताकि) मैं अपनी इच्छा के अनुसार आचरण करूँ।
        5-6. वह श्रेष्ठ पुत्र, जो अपनी युवावस्था मुझे सौंप देगा, वह मेरे राज्य का आनंद उठाएगा और मेरा धनुष उठाएगा (और मेरी वंशावली को आगे बढ़ाएगा)। उसके पास सुख, प्रचुर धन, ऐश्वर्य और धान्य होगा। उसके बहुत से बच्चे होंगे, उसे यश और कीर्ति प्राप्त होगी।
        बेटों ने कहा :
        7. हे राजन, आप धर्म परायण राजा हैं। आप सच्चाई से अपनी प्रजा की रक्षा कर रहे हैं। आपके मन में यह स्वाभाविक रूप से चंचल विचार किस कारण उत्पन्न हुआ है?
        राजा ने कहा :
        8-10. पूर्व नर्तक, श्रेष्ठ नर्तक, मेरे शहर में आये। उन्हीं के कारण मुझमें ऐसी भ्रांति उत्पन्न हुई है, जब कामदेव ने मुझे मोहित कर लिया था। मेरा शरीर बुढ़ापे से ढका हुआ है; और मेरा मन कामदेव (अर्थात् जोश) से वश में हो गया। हे श्रेष्ठ पुत्रों, मैं क्रोधित था और जोश से वश में था। मैंने एक दिव्य रूप वाली सुन्दर कन्या को देखा। हे पुत्रों, मैं ने उस से बातें कीं; लेकिन अच्छे ने कुछ नहीं कहा.
        11-13. उसकी आकर्षक और चतुर दोस्त का नाम विशाला है। उसने मुझसे अच्छे शब्द कहे, जिससे मुझे खुशी हुई: "जब तुम बुढ़ापे से मुक्त हो जाओगे, तो सबसे प्रिय तुम्हारा होगा।" मैंने उसके कहे हुए इन शब्दों को मान लिया (अर्थात् मान लिया) और (फिर) घर आ गया। मैंने अपने बुढ़ापे को दूर करने के लिये तुमसे ऐसा कहा है (उसने मुझसे कहा था)। हे भले पुत्रों, ऐसा समझकर तुम्हें वही करना चाहिए (जिससे मुझे प्रसन्नता हो)।
        14-18. पिता और माता की कृपा से पुत्रों को शरीर मिलता है। हे राजन, शरीर की सहायता से बुद्धिमान व्यक्ति धार्मिक कार्य करता है। पुत्र को अपने पिता की विशेष सेवा करनी चाहिए। फिर भी, हे राजा, यह मेरे लिए अपनी जवानी तुम्हें देने का समय नहीं है। हे राजन, पुरुषों को युवावस्था में इंद्रियों का सुख भोगना चाहिए। अभी तुम्हारे लिए (इन सुखों को भोगने का) उचित समय नहीं

        है। (आप कहते हैं) हे पिता, आप उस सुख का आनंद तब उठाएंगे जब आप अपना परिपक्व बुढ़ापा अपने पुत्रों को दे देंगे; लेकिन (तब) आपके पास (इतना) जीवन नहीं होगा (यानी आप इतने लंबे समय तक जीवित नहीं रहेंगे)। इसलिए, हे महान राजा, मैं आपके शब्दों का पालन नहीं करूंगा (अर्थात जैसा आप कहते हैं वैसा ही करूंगा)।
        इस प्रकार ज्येष्ठ पुत्र तुरु ने उस समय उनसे बात की।
        19 तुरु की ये बातें सुनकर राजा को क्रोध आया। धर्मात्मा ने क्रोध से लाल आँखें करके तुरु को श्राप दिया।
        20-26. “हे दुष्ट पुत्र, तू ने मेरी इस आज्ञा का उल्लंघन किया है। अत: सब धर्मों से बहिष्कृत पापी मनुष्य बनो। तुम सिर के मुकुट पर बालों की लट से रहित रहोगे; तुम पवित्र ग्रंथों से वंचित रह जाओगे; तुम सभी शिष्टाचार से रहित हो जाओगे। इसमें कोई संदेह नहीं है. तुम ब्राह्मणों के हत्यारे होगे ; तुम देवताओं द्वारा नष्ट किये जाओगे; तुम शराबी होगे; तुम सत्यता से रहित हो जाओगे; तू भयंकर काम करेगा; तुम सबसे नीच आदमी होगे. तुम्हें शराब पीने की लत लग जायेगी; आप। भूखा, पापी और गौहत्यारा होगा। आपकी त्वचा खराब हो जाएगी; तेरे निचले वस्त्र का आंचल खुला रहेगा; तुम ब्राह्मणों से घृणा करोगे; तुम विकृत हो जाओगे. तू व्यभिचारी होगा; तुम बहुत उग्र होगे; तुम बहुत कामातुर हो जाओगे; तुम सब कुछ खाओगे; तुम सदैव दुष्ट रहोगे. तू अपने ही कुटुम्बी स्त्री के साथ संभोग करेगा; आप सभी धार्मिक प्रथाओं को नष्ट कर देंगे; तुम पवित्र ज्ञान से रहित हो जाओगे; और तुम कुष्ठ रोग से पीड़ित हो जाओगे. तुम्हारे पुत्र और पौत्र भी सभी पवित्र वस्तुओं को नष्ट कर देंगे, बर्बर होंगे और इसी प्रकार (अर्थात् इसी प्रकार) बहुत बिगड़ जायेंगे।”
        27. इस प्रकार तुरु को बहुत बुरी तरह श्राप देने के बाद, उन्होंने (अपने दूसरे) पुत्र, यदु से कहा : "अब (मेरा) बुढ़ापा ले लो, और किसी भी प्रकार की परेशानी से मुक्त होकर राज्य का आनंद लो।"
        28. यदु ने हाथ जोड़कर राजा से कहा:
        यदु ने कहा :
        28-30. हे पिता, मैं (आपके) बुढ़ापे का बोझ सहन करने में असमर्थ हूँ; (कृपया) मुझ पर दया करें (अर्थात् क्षमा करें)। बुढ़ापे के पांच कारण हैं: ठंडक, यात्रा, गलत खान-पान, वृद्ध स्त्री और मन का अरुचि। हे राजन, मैं अपनी युवावस्था में (अर्थात् जवान होते हुए) दुःख सहने में समर्थ नहीं हूँ। बुढ़ापे को कौन रोक सकता है? अब (कृपया) मुझे क्षमा करें।
        31-32. हे ब्राह्मण पुत्र , क्रोधित महान राजा ने यदु को श्राप दिया: “तुम्हारा वंश कभी भी राज्य का हकदार नहीं होगा। यह शक्ति, चमक, सहनशीलता से रहित हो जाएगा और क्षत्रियों के आचरण से वंचित हो जाएगा (क्योंकि आपने) मेरे आदेश से मुंह मोड़ लिया है। इसमें कोई अनिश्चितता नहीं है।”
        यदु ने कहा :
        33. हे राजा, मैं निर्दोष हूं; अब तुमने मुझे क्यों शाप दिया है? (कृपया) उस गरीब (अर्थात मुझ पर) का पक्ष लें। मुझ पर अनुग्रह करने की कृपा करें.
        राजा ने कहा :
        34. हे पुत्र, (जब) ​​महान देवता अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेगा, तब तेरा कुल शुद्ध हो जायेगा।
        यदु ने कहा :
        35. हे राजा, तू ने मुझ निर्दोष पुत्र को शाप दिया है; यदि आपको मुझ पर दया है तो (कृपया) मुझ पर कृपा करें।
        राजा ने कहा :
        36. जो ज्येष्ठ पुत्र हो उसे पिता का दुःख दूर करना चाहिए। वह राज्य की विरासत का अच्छी तरह से आनंद लेता है, और वह (राज्य का) बोझ भी उठाएगा।
        37-38ए. आपने (अपना) कर्तव्य नहीं निभाया है, (इसलिए) आप निश्चित रूप से बात करने के लायक नहीं हैं। तूने मेरे उस आदेश को नष्ट कर दिया है (अर्थात अवज्ञा की है) जिसे मैं महान् (अर्थात् भारी) दण्ड दे सकता हूँ। इसलिए आपका पक्ष नहीं लिया जा सकता, आप जैसा चाहें वैसा करें।
        यदु ने कहा :
        38-42. हे राजा, चूँकि तुमने मेरे राज्य, रूप और परिवार को नष्ट कर दिया है, इसलिए मैं, तुम्हारे परिवार का मुखिया, दुष्ट होगा। आपके परिवार में विभिन्न रूपों वाले (जन्म लेने वाले) क्षत्रिय होंगे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अत्यंत भयंकर और अत्यंत शक्तिशाली (प्राणी) अपने गाँवों, अच्छे क्षेत्रों, अपनी स्त्रियों और उनके पास जो भी रत्न होंगे, उनका आनंद लेंगे। मेरे कुल में बर्बरों के रूप वाले तुरुष्क उत्पन्न होंगे - जो नष्ट हो गए थे और जिन्हें आपने बहुत भयंकर शाप दिया था। हे श्रेष्ठ राजा, क्रोधित यदु ने राजा ( ययाति ) से इस प्रकार कहा।
        42-45. तब क्रोधित महान राजा ने फिर से (यदु) को श्राप दिया: “सुनो, यह जान लो कि तुम्हारे परिवार में जो भी जन्म लेगा वह मेरी प्रजा को नष्ट कर देगा। जब तक चंद्रमा, सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्र और तारे (अंतिम) रहेंगे तब तक म्लेच्छ कुंभीपाक और रौरव (नरक) में भुने रहेंगे । तब राजा ने युवा कुरु को खेलते हुए और अच्छे अंक प्राप्त करते हुए देखकर उस पुत्र को राजकुमार नहीं कहा। कुरु को बालक जानकर राजा वहां से चले गये।

        46-47. तब संसार के स्वामी (अर्थात् ययाति) ने शर्मिष्ठा के मेधावी पुत्र पुरु को बुलाया और उससे कहा: "मेरा बुढ़ापा ले लो और मेरे द्वारा दिए गए उपद्रव के स्रोतों को नष्ट करके, (और) मेरे अत्यंत अच्छे राज्य का आनंद लो ( आपको)।"
        पुरु ने कहा :
        47-49. प्रभु (यदि आप) अपने पिता के समान राज्य का उपभोग करें, तो मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। हे राजा, मेरी जवानी के बदले मुझे अपना बुढ़ापा दे दो। आज केवल सुंदर दिखने वाले, भोग-विलास करने वाले, मन को इंद्रिय विषयों, भोग-विलास और अच्छे कर्मों में आसक्त रखने वाले हैं।
        49-54. हे महानुभाव, जब तक तुम चाहो उसके साथ खेलो। हे पिता, जब तक मैं जीवित हूं, बुढ़ापा कायम रखूंगा।
        उस पुरु के इस प्रकार कहने पर जगत् के स्वामी ने बड़े हर्ष से भरे हुए हृदय से अपने पुत्र से फिर कहा, “हे पुत्र, चूँकि तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया, (इसके विपरीत) उसका पालन किया, इसलिए मैं तुम्हें दूँगा।” तुम्हें बहुत ख़ुशी है. हे परम बुद्धिमान, तू ने मेरा बुढ़ापा ले लिया, और मुझे अपनी जवानी दे दी, इस कारण तू मेरे दिए हुए राज्य का उपभोग कर। हे राजन, राजा द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर उस अच्छे पुरु ने उसे अपनी जवानी दे दी और उससे बुढ़ापा ले लिया।
        54 -60. हे प्रियजन, जब पिता और पुत्र की आयु का आदान-प्रदान हुआ, तो पुरु अपने सभी अंगों में राजा से अधिक उम्र का प्रतीत हुआ। राजा युवावस्था तक पहुँच गया, (और एक आदमी की तरह दिखता था) सोलह साल का, और बहुत आकर्षण रखता था (दिखता था) जैसे कि वह एक और कामदेव था। महान राजा ने उस महान पुरु को सब कुछ दे दिया - (उसका) धनुष, राज्य, छत्र, पंखा, आसन और हाथी, (साथ ही) उसका पूरा खजाना, देश, सेना, चौरी और रथ भी। वह नहुष का धर्मात्मा पुत्र, जो वासना से आसक्त था, उस कन्या के बारे में सोचता हुआ, तेज कदमों से उस काम नामक झील पर गया , जो समुद्र के समान थी, जहाँ अश्रुबिन्दुमति (रखी) थी। बड़े-बड़े नेत्रों वाली तथा सुन्दर एवं मोटे स्तनों वाली उस प्रतिष्ठित कन्या को देखकर कामदेव के प्रति आकर्षित मन वाले महान राजा ने विशाला से कहा:
        राजा ने कहा :
        60-62. हे महान और आकर्षक आँखों वाली प्रतिष्ठित महिला, हे शुभ, मैंने अपना बुढ़ापा त्याग दिया है, और (अब) युवावस्था से संपन्न हूँ। जवान होकर मैं (यहाँ) आया हूँ। अब उसे मेरा होने दो। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह जो चाहेगी मैं उसे दूँगा।
        विशाला ने कहा :
        62-63. जब (अब) तुम दुष्ट बुढ़ापे को त्याग कर आये हो, (फिर भी) तुम पर अब भी एक दोष लगा हुआ है। (इसलिए) वह आपको पुरस्कार नहीं देती।
        राजा ने कहा :
        63-64. यदि तुम निश्चय ही मेरा दोष जानते हो तो (मुझसे) कहो। मैं निःसंदेह उस निम्न प्रकृति के दोष को त्याग दूँगा।

        पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-79)


                       "विशालोवाच-
        शर्मिष्ठा यस्य वै भार्या देवयानी वरानना ।
        सौभाग्यं तत्र वै दृष्टमन्यथा नास्ति भूपते ।१।
        तत्कथं त्वं महाभाग अस्याः कार्यवशो भवेः ।
        सपत्नजेन भावेन भवान्भर्ता प्रतिष्ठितः ।२।
        ससर्पोसि महाराज भूतले चंदनं यथा ।
        सर्पैश्च वेष्टितो राजन्महाचंदन एव हि ।३।
        तथा त्वं वेष्टितः सर्पैः सपत्नीनामसंज्ञकैः ।
        वरमग्निप्रवेशश्च शिखाग्रात्पतनं वरम् ।४।

        रूपतेजः समायुक्तं सपत्नीसहितं प्रियम् ।
        न वरं तादृशं कांतं सपत्नीविषसंयुतम् ।५।

        तस्मान्न मन्यते कांतं भवंतं गुणसागरम् ।
                          राजोवाच-
        देवयान्या न मे कार्यं शर्मिष्ठया वरानने ।६।
        इत्यर्थं पश्य मे कोशं सत्वधर्मसमन्वितम् ।
                         अश्रुबिंदुमत्युवाच-
        अहं राज्यस्य भोक्त्री च तव कायस्य भूपते।७।
        यद्यद्वदाम्यहं भूप तत्तत्कार्यं त्वया ध्रुवम् ।
        इत्यर्थे मम देहि स्वं करं त्वं धर्मवत्सल ।८।
        बहुधर्मसमोपेतं चारुलक्षणसंयुतम् ।
                          राजोवाच-
        अन्य भार्यां न विंदामि त्वां विना वरवर्णिनि ।९।
        राज्यं च सकलामुर्वीं मम कायं वरानने ।
        सकोशं भुंक्ष्व चार्वंगि एष दत्तः करस्तव।१०।
        यदेव भाषसे भद्रे तदेवं तु करोम्यहम्।
        अश्रुबिंदुमत्युवाच-
        अनेनापि महाभाग तव भार्या भवाम्यहम् ।११।
        एवमाकर्ण्य राजेंद्रो हर्षव्याकुललोचनः ।
        गांधर्वेण विवाहेन ययातिः पृथिवीपतिः ।१२।

        उपयेमे सुतां पुण्यां मन्मथस्य नरोत्तम ।
        तया सार्द्धं महात्मा वै रमते नृपनंदनः।१३।

        सागरस्य च तीरेषु वनेषूपवनेषु च ।
        पर्वतेषु च रम्येषु सरित्सु च तया सह ।१४।
        रमते राजराजेंद्रस्तारुण्येन महीपतिः ।
        एवं विंशत्सहस्राणि गतानि निरतस्य च ।१५।
        भूपस्य तस्य राजेंद्र ययातेस्तु महात्मनः।
                        विष्णुरुवाच-
        एवं तया महाराजो ययातिर्मोहितस्तदा ।१६।

        कंदर्पस्य प्रपंचेन इंद्रस्यार्थे महामते ।
                         सुकर्मोवाच-
        एवं पिप्पल राजासौ ययातिः पृथिवीपतिः।१७।
        तस्या मोहनकामेन रतेन ललितेन च ।
        न जानाति दिनं रात्रिं मुग्धः कामस्य कन्यया ।१८।
        एकदा मोहितं भूपं ययातिं कामनंदिनी ।
        उवाच प्रणतं नम्रं वशगं चारुलोचना ।१९।
                      "अश्रुबिंदुमत्युवाच-
        संजातं दोहदं कांत तन्मे कुरु मनोरथम् ।
        अश्वमेधमखश्रेष्ठं यजस्व पृथिवीपते ।२०।
                            "राजोवाच-
        एवमस्तु महाभागे करोमि तव सुप्रियम् ।
        समाहूय सुतश्रेष्ठं राज्यभोगे विनिःस्पृहम् ।२१।
        समाहूतः समायातो भक्त्यानमितकंधरः ।
        बद्धांजलिपुटो भूत्वा प्रणाममकरोत्तदा ।२२।
        तस्याः पादौ ननामाथ भक्त्या नमितकंधरः ।
        आदेशो दीयतां राजन्येनाहूतः समागतः।२३।
        किं करोमि महाभाग दासस्ते प्रणतोस्मि च ।
                             "राजोवाच-
        अश्वमेधस्य यज्ञस्य संभारं कुरु पुत्रक ।२४।
        समाहूय द्विजान्पुण्यानृत्विजो भूमिपालकान् ।
        एवमुक्तो महातेजाः पूरुः परमधार्मिकः।२५।
        सर्वं चकार संपूर्णं यथोक्तं तु महात्मना ।
        तया सार्धं स जग्राह सुदीक्षां कामकन्यया ।२६।
        अश्वमेधयज्ञवाटे दत्वा दानान्यनेकधा ।
        ब्राह्मणेभ्यो महाराज भूरिदानमनंतकम् ।२७।
        दीनेषु च विशेषेण ययातिः पृथिवीपतिः ।
        यज्ञांते च महाराजस्तामुवाच वराननाम् ।२८।
        अन्यत्ते सुप्रियं बाले किं करोमि वदस्व मे ।
        तत्सर्वं देवि कर्तास्मि साध्यासाध्यं वरानने।२९।
                            "सुकर्मोवाच-
        इत्युक्ता तेन सा राज्ञा भूपालं प्रत्युवाच ह ।
        जातो मे दोहदो राजंस्तत्कुरुष्व ममानघ ।३०।
        इंद्रलोकं ब्रह्मलोकं शिवलोकं तथैव च।
        विष्णुलोकं महाराज द्रष्टुमिच्छामि सुप्रियम् ।३१।
        दर्शयस्व महाभाग यदहं सुप्रिया तव ।
        एवमुक्तस्तयाराजातामुवाचससुप्रियाम् ।३२।
        साधुसाधुवरारोहेपुण्यमेवप्रभाषसे ।
        स्त्रीस्वभावाच्चचापल्यात्कौतुकाच्चवरानने ।३३।
        यत्तवोक्तं महाभागे तदसाध्यं विभाति मे।
        तत्साध्यं पुण्यदानेन यज्ञेन तपसापि च ।३४।
        अन्यथा न भवेत्साध्यं यत्त्वयोक्तं वरानने ।
        असाध्यं तु भवत्या वै भाषितं पुण्यमिश्रितम् ।३५।
        मर्त्यलोकाच्छरीरेण अनेनापि च मानवः।
        श्रुतो दृष्टो न मेद्यापि गतः स्वर्गं सुपुण्यकृत् ।३६।
        ततोऽसाध्यं वरारोहे यत्त्वया भाषितं मम ।
        अन्यदेव करिष्यामि प्रियं ते तद्वद प्रिये ।३७।
                        "देव्युवाच-
        अन्यैश्च मानुषै राजन्न साध्यं स्यान्न संशयः ।
        त्वयि साध्यं महाराज सत्यंसत्यं वदाम्यहम् ।३८।
        तपसा यशसा क्षात्रै र्दानैर्यज्ञैश्च भूपते ।
        नास्ति भवादृशश्चान्यो मर्त्यलोके च मानवः ।३९।
        क्षात्रं बलं सुतेजश्च त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
        तस्मादेवं प्रकर्तव्यं मत्प्रियं नहुषात्मज ।४०।
        इति 
         "श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रे एकोनाशीतितमोऽध्यायः ।७९।

        "अनुवाद"
        अध्याय 79 - युवा ययाति अश्रुबिन्दुमति के साथ आनंद लेते हैं
        विशाला ने कहा :
        1-2. वहाँ (अर्थात उस राजा में) ही सौभाग्य देखा जाता है , जिसकी पत्नी शर्मिष्ठा हो और जिसकी पत्नी सुंदर देवयानी हो। हे राजा, यह बात झूठी नहीं हो सकती; तो फिर हे प्रतापी राजा, आप इस युवती के शरीर (सौंदर्य) पर कैसे मोहित हो गए  जबकि आप दो पत्नियों वाले पति के रूप में जाने जाते हैं ?
        3-4. हे राजा, चंदन के समान आपके (चारों ओर) सर्प हैं। हे राजन, जैसे एक विशाल चंदन का वृक्ष सर्पों से घिरा रहता है, उसी प्रकार आप सह-पत्नियों नामक सर्पों से घिरे रहते हैं।
        4-6. अग्नि में प्रवेश करना उत्तम है, (पहाड़ की) चोटी से गिरना उत्तम है, परंतु सुन्दरता और तेज से युक्त आप जैसे  प्रिय पति का होना  सहपत्नियों के साथ -उत्तम नहीं है,  सहपत्नी रूपी विष के साथ रहना उत्तम नहीं है इसलिए वह आपको, गुणों के सागर, अपने प्रेमी के रूप में पुरस्कृत नहीं करती है।
        राजा ने कहा :
        अश्रुबिन्दुमति ने कहा :
        7-9. हे राजन, मैं आपके राज्य और आपके शरीर का भोक्ता बनूंगी। हे राजा, मैं जो कुछ करने को कहूँगी तुम्हें अवश्य ही करना पड़ेगा। इस प्रयोजन के लिए, हे धर्मपरायण लोगों, अनेक गुणों से युक्त और शुभ चिह्नों से युक्त अपना हाथ मुझे दीजिए।
        राजा ने कहा :
        9-11. हे अति सुन्दर रूप वाली, मैं तेरे सिवा कोई दूसरी पत्नी नहीं रखूँगा। हे सुंदर स्त्री, हे मनमोहक शरीर वाली स्त्री, मेरे संपूर्ण राज्य का उसके धन सहित, इसी प्रकार संपूर्ण पृथ्वी और मेरे शरीर का भी आनंद लो। (इसके प्रमाण रूप में) मैंने अपना यह हाथ तुम्हें अर्पित किया है।हे अच्छी महिला, तुम जो कहोगी मैं वही करूंगा।
        अश्रुबिन्दुमति ने कहा :
        11. बस इस (वादे) के साथ, हे महान व्यक्ति, मैं तुम्हारी पत्नी बनूंगी।

        12-16. यह सुनकर, पृथ्वी के स्वामी, राजाओं के राजा, ययाति ने खुशी से भरी आँखों के साथ कामदेव की उस पवित्र पुत्री से गंधर्व विधि से विवाह किया।   देखें नीचे प्रमाण
        एवमाकर्ण्य राजेंद्रो हर्षव्याकुललोचनः ।
        गांधर्वेण विवाहेन ययातिः पृथिवीपतिः ।१२।

        उपयेमे सुतां पुण्यां मन्मथस्य नरोत्तम ।
        तया सार्द्धं महात्मा वै रमते नृपनंदनः।१३।

        राजा नहुष का कुलीन पुत्र  उसके साथ समुद्र तटों, जंगलों और उद्यानों में आनंद लेता था।
        ,वह  राजाओं के स्वामी, युवावस्था में उसके साथ पहाड़ों और सुंदर नदियों में क्रीड़ा करता था। इस प्रकार हे राजन्!, उस महान राजा ययाति को उसके साथ क्रीड़ा करते हुए बीस हजार (वर्ष) बीत गये।
        विष्णु ने कहा :
        16-17. हे अत्यंत बुद्धिमान, उस समय कामदेव के कपटपूर्ण कार्य के माध्यम से, महान राजा ययाति इंद्र के लाभ के लिए उसके द्वारा मोहित हो गए थे।
        सुकर्मन ने कहा :
        17-19. हे पिप्पल , पृथ्वी के स्वामी ययाति को कामदेव की पुत्री के मोहक जोश और मोहक मिलन से मोहित होकर दिन या रात का ज्ञान नहीं रहता था। एक बार आकर्षक नेत्रों वाली कामदेव की पुत्री ने उन स्तब्ध, विनम्र, आज्ञाकारी राजा ययाति को प्रणाम करके कहा:
        अश्रुबिन्दुमति ने कहा :
        20. हे प्रिय, मेरी इच्छा उत्पन्न होती है; अत: मेरी वह इच्छा पूरी करो: सर्वोत्तम यज्ञ करो, अर्थात्। अश्वमेध , हे पृथ्वी के स्वामी!
        राजा ने कहा :
        21-24. हे गौरवशाली, ऐसा ही हो; मैं वही करूंगा जो तुम्हें बहुत पसंद है.
        उन्होंने अपने छोटे श्रेष्ठ बेटे को आमंत्रित किया, जिसे राज्य का आनंद लेने की कोई इच्छा नहीं थी।
        (पुत्र) बुलाये जाने पर भक्तिभाव से गर्दन (अर्थात् सिर) झुकाकर तथा हाथ जोड़कर (ययाति को) प्रणाम करके वहाँ पुरु  आया। उसने भी अपनी गर्दन (अर्थात् सिर) झुकाकर उसके चरणों को प्रणाम किया। “हे राजा, मुझे आज्ञा दीजिए क्योंकि मैं पुरु , जिसे आपके द्वारा बुलाया गया था, मैं आ गया हूं। हे महानुभाव, मुझे क्या करना चाहिए? मैं आपका सेवक हूँ जिसने आपको प्रणाम किया है।”
        राजा ने कहा :
        24-29. हे पुत्र, ब्राह्मणों , यज्ञ करने वाले मेधावी पुरोहितों ,और राजाओं को आमंत्रित करके, अश्व-यज्ञ की तैयारी करो।
        इस प्रकार संबोधित करते हुए, उस अत्यंत तेजस्वी और अत्यधिक धार्मिक पुरु ने महिमावान के कहे अनुसार सब कुछ पूर्ण रूप से किया।कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती  के साथ उन्होंने विधिवत दीक्षा ली (अर्थात स्वयं को यज्ञ के लिए समर्पित कर लिया)। हे महान राजा, पृथ्वी के स्वामी ययाति ने यज्ञ स्थल पर ब्राह्मणों को विभिन्न उपहार दिए, उसी प्रकार विशेष रूप से गरीबों को अनंत, प्रचुर उपहार दिए; और यज्ञ के अंत में उन्होंने उस खूबसूरत महिला अश्रुबिन्दुमती से कहा: “हे युवा महिला, मुझे बताओ कि तुम्हारा प्रिय मुझे और क्या करना चाहिए। हे सुंदरी, मैं वह सब कुछ करूंगा जो प्राप्य है और प्राप्य भी नहीं है।"
        सुकर्मन ने कहा :
        30-37. राजा के इस प्रकार कहने पर वह उत्तर में बोली, “हे राजा, मुझमें एक इच्छा उत्पन्न हुई है; हे भोले, तू इसे कर (अर्थात् संतुष्ट कर)। हे महान राजा, मैं इंद्र, ब्रह्मा , शिव और विष्णु का अत्यंत सुखदायक लोक देखने की इच्छा रखती हूँ । हे कुलीन, यदि मैं तुम्हें बहुत प्रिय हूं तो मुझे दिखाओ।'' उसके इस प्रकार संबोधित करने पर राजा ने उससे, जो उसे बहुत प्रिय थी, कहा: ''हे सुंदरी, अच्छा, तुम न्यायप्रिय हो पवित्र बातें कह रही हो। हे सुंदरी, मुझे लगता है कि स्त्री स्वभाव, चंचलता और जिज्ञासा के कारण आपने जो कहा, वह अप्राप्य है, 
        हे महान महिला !  आपने जो कहा  है वह पवित्र उपहार, त्याग और तपस्या के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है; किसी अन्य माध्यम से, प्राप्त नहीं किया जा सकता है   हे सुन्दर महिला। आपने अभी कुछ ऐसा कहा है जो अप्राप्य है क्योंकि यह धार्मिक गुणों के साथ मिश्रित (अर्थात् जुड़ा हुआ) है। मैंने अभी तक किसी अत्यंत मेधावी व्यक्ति के बारे में नहीं देखा या सुना है जो नश्वर संसार से अपने शरीर के साथ स्वर्ग गया हो । 
        इसलिए, हे सुंदरी, तुमने जो कहा वह मेरे लिए अप्राप्य है। मैं कुछ और कर सकूँ। हे प्रिय मुझे वही बताओ।"
        आदरणीय महिला ने कहा :
        38-40. हे राजन, यह निश्चित रूप से अन्य मनुष्यों के लिए प्राप्य नहीं है; लेकिन यह आपके लिए प्राप्य है; मैं सत्य ही कह रही हूं। हे राजन, इस मृत्युलोक में तपस्या में, यश में, वीरतापूर्वक कार्य करने में, दान देने में और यज्ञ करने में आपके समान कोई दूसरा मनुष्य नहीं है।
         सब कुछ - एक क्षत्रिय की शक्ति , ऊर्जा की आग - आप में स्थापित है। इसलिए, हे नहुष के पुत्र, यह (बात) मुझे प्रिय है  यह कार्य (तुम्हारे द्वारा) किया जाना ही चाहिए।
        सन्दर्भ:-[1] :
        मौजूदा पाठ में "कार्यवशो" का कोई अर्थ नहीं है। इसे "कायवशो" से प्रतिस्थापित करना बेहतर होगा जिसका हमने यहां अनुवाद किया है। 


        पद्मपुराण /खण्डः २ (भूमिखण्डः)/अध्यायः (७८ ) में उद्धृत अंश-
        ________
        ***           "यदुरुवाच-
        जराभारं न शक्नोमि वोढुं तात कृपां कुरु ।२८।

        शीतमध्वा कदन्नं च वयोतीताश्च योषितः।
        मनसः प्रातिकूल्यं च जरायाः पञ्चहेतवः ।२९।


        जरादुःखं न शक्नोमि नवे वयसि भूपते ।
        कः समर्थो हि वै धर्तुं क्षमस्व त्वं ममाधुना ।३०।

        यदुं क्रुद्धो महाराजः शशाप द्विजनन्दन ।
        राज्यार्हो न च ते वंशः कदाचिद्वै भविष्यति ।३१।

        बलतेजः क्षमाहीनः क्षात्रधर्मविवर्जितः।
        भविष्यति न सन्देहो मच्छासनपराङ्मुखः ।३२।

                         "यदुरुवाच-
        निर्दोषोहं महाराजकस्माच्छप्तस्त्वयाधुना ।
        कृपां कुरुष्व दीनस्य प्रसादसुमुखो भव ।३३।

                         "राजोवाच-
        महादेवः कुले ते वै*** स्वांशेनापि हि पुत्रक ।
        करिष्यति विसृष्टिं च तदा पूतं कुलं तव ।३४।

                          "यदुरुवाच-
        अहं पुत्रो महाराज निर्दोषः शापितस्त्वया ।
        अनुग्रहो दीयतां मे यदि मे वर्त्तते दया ।३५।

        "अनुवाद"
        यदु ने कहा :
        33. हे राजा, मैं निर्दोष हूं; अब तुमने 
        मुझे क्यों शाप दिया है? (कृपया) मुझ 
        गरीब  का पक्ष लें। मुझ पर दया करने की
         कृपा करें.

        राजा ने कहा :

        34- हे पुत्र, (जब) ​​महान देवता (स्वराटविष्णु)
         अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेगा,
         तब तेरा कुल शुद्ध हो जायेगा।

                          "राजोवाच-
        यो भवेज्ज्येष्ठपुत्रस्तु पितुर्दुःखापहारकः।
        राज्यदायं सुभुन्क्ते च भारवोढा भवेत्स हि।३६।

        त्वया धर्मं न प्रवृत्तमभाष्योसि न संशयः।
        भवता नाशिताज्ञा मे महादण्डेन घातिनः ।३७।

        तस्मादनुग्रहो नास्ति यथेष्टं च तथा कुरु ।
                            "यदुरुवाच-
        यस्मान्मे नाशितं राज्यं कुलं रूपं त्वया नृप ।३८।

        तस्माद्दुष्टो भविष्यामि तव वंशपतिर्नृप ।
        तव वंशे भविष्यंति नानाभेदास्तु क्षत्त्रियाः ।३९।

        तेषां ग्रामान्सुदेशांश्च स्त्रियो रत्नानि यानि वै ।
        भोक्ष्यन्ति च न संदेहो अतिचणडा महाबलाः ।४०।

        मम वंशात्समुत्पन्नास्तुरुष्का म्लेच्छरूपिणः ।
        त्वया ये नाशिताः सर्वे शप्ताः शापैः सुदारुणैः ।४१।

        एवं बभाषे राजानं यदुः क्रुद्धो नृपोत्तम ।
        अथ क्रुद्धो महाराजः पुनश्चैवं शशाप ह ।४२।

        मत्प्रजानाशकाः सर्वे वंशजास्ते शृणुष्व हि ।
        यावच्चंद्रश्च सूर्यश्च पृथ्वी नक्षत्रतारकाः ।४३।

        तावन्म्लेच्छाः प्रपक्ष्यन्ते कुम्भीपाके चरौ रवे ।
        कुरुं दृष्ट्वा ततो बालं क्रीडमानं सुलक्षणम् ।४४।

        समाह्वयति तं राजा न सुतं नृपनन्दनम् ।
        शिशुं ज्ञात्वा परित्यक्तः सकुरुस्तेन वै तदा ।४५।

        शर्मिष्ठायाः सुतं पुण्यं तं पूरुं जगदीश्वरः।
        समाहूय बभाषे च जरा मे गृह्यतां पुनः ।४६।

        "अनुवाद"


        27. इस प्रकार तुरुवसु को बहुत बुरी तरह शाप देने के बाद, उन्होंने (अपने अन्य) पुत्र,यदु से कहा "अब (मेरा) 
        बुढ़ापा ले लो, और किसी भी प्रकार की कष्टों
         से मुक्त होकर राज्य का आनंद लो।"

        28. यदु ने हाथ जोड़कर राजा से कहा:
        हे पिता, मैं (आपके) बुढ़ापे का बोझ सहन 
        करने में असमर्थ हूँ; (कृपया) मुझ पर दया करें

        बुढ़ापे के पाँच कारण  हैं।: ठंडक, मदिरा, 
        गलत खान-पान, वृद्ध स्त्री और मन का अरुचि।
        शीतमध्वा कदन्नं च वयोतीताश्च योषितः।
        मनसः प्रातिकूल्यं च जरायाः पञ्चहेतवः
        ________
         हे राजन, मैं अपनी युवा
        वस्था में (अर्थात् जवान
         होते हुए) दुःख सहने में समर्थ नहीं हूँ।
         बुढ़ापे को कौन रोक सकता है? अब (कृपया)
         मुझे क्षमा करें।

        31-32. हे ब्राह्मण पुत्र , क्रोधित महान राजा 
         ययाति ने यदु को श्राप दिया: 
        “तुम्हारा वंश कभी भी राज्य का हकदार नहीं होगा। यह शक्ति, चमक, सहनशीलता से रहित हो जाएगा और 
        क्षत्रियों के आचरण से वंचित हो जाएगा 
        (क्योंकि आपने) मेरे आदेश से मुंह मोड़ लिया है।
         इसमें कोई अनिश्चितता नहीं है।”
        ___
        यदु ने कहा :
        33. हे राजा, मैं निर्दोष हूं; 
        अब तुमने मुझे क्यों शाप दिया है? (कृपया)
         मुझ गरीब  का पक्ष लें। मुझ पर दया करने
         की कृपा करें.

        राजा ने कहा :
        34- हे पुत्र, (जब) ​​महान देवता (स्वराटविष्णु) 
        अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेगा, तब तेरा
         कुल शुद्ध हो जायेगा।

        यदु ने कहा :
        35. हे राजा, तमने मुझ निर्दोष पुत्र को शाप
        दिया है; यदि आपको मुझ पर दया है तो मुझ 
        पर कृपा करें।

        राजा ने कहा :
        36. जो ज्येष्ठ पुत्र हो उसे पिता का दुःख दूर करना
        चाहिए। वह राज्य की विरासत का अच्छी तरह से
        आनंद लेता है, और वह (राज्य का) बोझ भी 
        उठाएगा।

        37-38 आपने (अपना) कर्तव्य नहीं निभाया है, 
        इसलिए) आप निश्चित रूप से बात करने के लायक
         नहीं हैं। तूने मेरे उस आदेश को नष्ट कर दिया है ।
        (अर्थात अवज्ञा की है) जिसे मैं महान् 
        (अर्थात् भारी) दण्ड दे सकता हूँ।
        इसलिए आपका पक्ष नहीं लिया जा सकता, 
        आप जैसा चाहें वैसा करें।

        यदु ने कहा :
        38-42. हे राजा, चूँकि तुमने मेरे राज्य, रूप और
        परिवार को नष्ट कर दिया है, इसलिए मैं, 
        तुम्हारे परिवार का मुखिया, दुष्ट होगा।
        आपके परिवार में विभिन्न रूपों वाले 
        (जन्म लेने वाले) क्षत्रिय होंगे।

         इसमें कोई संदेह नहीं है कि अत्यंत भयंकर और
         अत्यंत शक्तिशाली (प्राणी) अपने गाँवों, 
        अच्छे क्षेत्रों, अपनी स्त्रियों और उनके पास
         जो भी रत्न होंगे, उनका आनंद लेंगे।

        मेरे कुल में बर्बरों के रूप वाले तुरुष्क उत्पन्न होंगे -
        जो नष्ट हो गए थे और जिन्हें आपने बहुत भयंकर शाप दिया था। हे श्रेष्ठ राजा, क्रोधित यदु ने राजा  से इस प्रकार कहा।

        42-45. तब क्रोधित महान राजा ने फिर से (यदु) को श्राप दिया: “सुनो, यह जान लो कि तुम्हारे परिवार में जो भी जन्म लेगा वह मेरी प्रजा को नष्ट कर देगा। जब तक चंद्रमा, सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्र और तारे (अंतिम) रहेंगे तब तक म्लेच्छ कुंभीपाक और रौरव (नरक) में भुने रहेंगे । तब राजा ने युवा कुरु को खेलते हुए और अच्छे अंक प्राप्त करते हुए देखकर उस पुत्र को राजकुमार नहीं कहा। कुरु को बालक जानकर राजा वहां से चले गये।

        46-47. तब संसार के स्वामी (अर्थात् ययाति) ने शर्मिष्ठा के मेधावी पुत्र पुरु को बुलाया और उससे कहा: "मेरा बुढ़ापा ले लो और मेरे द्वारा दिए गए उपद्रव के स्रोतों को नष्ट करके, (और) मेरे अत्यंत अच्छे राज्य का आनंद लो ( आपको)।"

        पुरु ने कहा :
        47-49. प्रभु (यदि आप) अपने पिता के समान राज्य का उपभोग करें, तो मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। हे राजा, मेरी जवानी के बदले मुझे अपना बुढ़ापा दे दो। 

        आज केवल सुंदर दिखने वाले, भोग-विलास करने वाले, मन को इंद्रिय विषयों, भोग-विलास और अच्छे कर्मों में आसक्त रखने वाले हैं।

        49-54. हे महानुभाव, जब तक तुम चाहो उसके साथ खेलो। हे पिता, जब तक मैं जीवित हूं, बुढ़ापा कायम रखूंगा।

        उस पुरु के इस प्रकार कहने पर जगत् के स्वामी ने बड़े हर्ष से भरे हुए हृदय से अपने पुत्र से फिर कहा, “हे पुत्र, चूँकि तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया, (इसके विपरीत) उसका पालन किया, इसलिए मैं तुम्हें राज्य दूँगा।” तुम्हें बहुत ख़ुशी है. हे परम बुद्धिमान, तू ने मेरा बुढ़ापा ले लिया, और मुझे अपनी जवानी दे दी, इस कारण तू मेरे दिए हुए राज्य का उपभोग कर। हे राजन, राजा द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर उस अच्छे पुरु ने उसे अपनी जवानी दे दी और उससे बुढ़ापा ले लिया।

        ← पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-80)
        कामकन्यां यदा राजा उपयेमे द्विजोत्तम ।
        किं चक्राते तदा ते द्वे पूर्वभार्ये सुपुण्यके ।१।
        देवयानी महाभागा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।
        तयोश्चरित्रं तत्सर्वं कथयस्व ममाग्रतः ।२।
                       "सुकर्मोवाच-
        यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा ।
        अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।३।

        तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
        शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।४।

        रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
        शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।

        दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा ।
        राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।

        ****
        अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
        शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।७।

        सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
        एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा ।८।

        प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
        नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।९।

        मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
        तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम् ।१०।

        दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत् ।
        भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।११।

        पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
        एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये ।१२।

        यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह ।
        शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः ।१३।
        यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि ।
        मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः ।१४।
        एवमुक्त्वा यदुं पुत्रं ययातिः पृथिवीपतिः ।
        पुत्रं शप्त्वा महाराजस्तया सार्द्धं महायशाः ।१५।
        रमते सुखभोगेन विष्णोर्ध्यानेन तत्परः ।
        अश्रुबिंदुमतीसा च तेन सार्द्धं सुलोचना ।१६।
        बुभुजे चारुसर्वांगी पुण्यान्भोगान्मनोनुगान् ।
        एवं कालो गतस्तस्य ययातेस्तु महात्मनः ।१७।
        अक्षया निर्जराः सर्वा अपरास्तु प्रजास्तथा ।
        सर्वे लोका महाभाग विष्णुध्यानपरायणाः ।१८।
        तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पल ।
        सर्वे लोका महाभाग सुखिनः साधुसेवकाः ।१९।
        "इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने   ८०।

        अध्याय- 80 -ययाति के कहने से जब यदु ने अपनी दौंनो माताओं (देवयानी- और शर्मिष्ठा) को मारने से मना कर दिया तब ययाति यदु को शाप दिया ।
        पिप्पला ने कहा :
        1-2. हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा ( ययाति ) ने कामदेव की पुत्री से विवाह किया, तो उनकी दो पूर्व, बहुत शुभ, पत्नियों, अर्थात्। कुलीन देवयानी और वृषपर्वन् की पुत्री शर्मिष्ठा क्या किया ? दोनों का सारा वृत्तान्त बताओ।
        सुकर्मन ने कहा :
        3-9. जब वह राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गया, तो वह उच्च विचार वाली देवयानी (उसके साथ) बहुत प्रतिद्वंद्विता करने लगी। "इस कारण आकुलमन वाले राजा ययाति ने क्रोध के वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) को श्राप दे दिया। जो देवयानी नामक बड़ी रानी से उत्पन्न हुए थे" मनस्विनी देवयानी ने शर्मिष्ठा को बुलाकर उससे सारी बाते कहीं। तब रूप, तेज और दान के द्वारा शर्मिष्ठा और देवयानी  उस अश्रुुबिन्दुमती के साथ अत्यधिक प्रतिस्पर्धा करने लगीं। तब कामदेव की पुत्री ने  उनकी  इस प्रतिस्पर्द्धा को जान लिया। तभी उसने राजा को सारी र अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) को श्राप दे दिया। जो देवयानी नामक बड़ी रानी से उत्पन्न हुए थे" मनस्विनी देवयानी ने शर्मिष्ठा को बुलाकर उससे सारी बाते कहीं। तब रूप, तेज और दान के द्वारा शर्मिष्ठा और देवयानी  उस अश्रुुबिन्दुमती के साथ अत्यधिक प्रतिस्पर्धा करने लगीं। तब कामदेव की पुत्री ने  उनकी  इस प्रतिस्पर्द्धा को जान लिया। तभी उसने राजा को सारी बात बता दी, हे ब्राह्मण! तब क्रोधित होकर महान राजा ने यदु को बुलाया और उनसे कहा:
         “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी (देवयानी) को मार डालो । 
        हे पुत्र, यदि तुम्हें सुख की परवाह है तो वही करो जो मुझे सबसे प्रिय है।” अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने अपने पिता, राजाओं के स्वामी, को उत्तर दिया:
        9-14. “हे घमंडी पिता, मैं अपराधबोध से मुक्त होकर इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है। 
        इसलिए, हे महान राजा, मैं इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। हे महान राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर सौ दोष लगें, तो उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए।
        यह जानकर, हे महान राजा, मैं (इन) दोनों माताओं को कभी नहीं मारूंगा। उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये।
        पृथ्वी के स्वामी ययाति ने तब अपने पुत्र को शाप दिया: और कहा "चूंकि तुमने (मेरे) आदेश की अवज्ञा की है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का आनंद लो"।
        ******
        15-19. अपने
         पुत्र यदु से इस प्रकार बात करते हुए, पृथ्वी के स्वामी, ययाति, महान प्रतापी राजा, ने अपने पुत्र  यदु को शाप दे दिया, और पूरी तरह से विष्णु के प्रति समर्पित न होकर , कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के  साथ सुख भोगा।
        आकर्षक नेत्रों वाली और सभी अंगों में सुंदर अश्रुबिन्दुमती ने उसके साथ अपनी इच्छानुसार सभी सुंदर भोगों का आनंद लिया। 
        इस प्रकार उस श्रेष्ठ ययाति ने अपना समय व्यतीत किया। अन्य सभी विषय बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के थे; सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान के प्रति समर्पित थे।हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से भलाई की।
        __
        पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डःअध्यायः81-)
          →
                        " सुकर्मोवाच-
        यथेंद्रोसौ महाप्राज्ञः सदा भीतो महात्मनः।
        ययातेर्विक्रमं दृष्ट्वा दानपुण्यादिकं बहु ।१।
        मेनकां प्रेषयामास अप्सरां दूतकर्मणि ।
        गच्छ भद्रे महाभागे ममादेशं वदस्व हि ।२।
        कामकन्यामितो गत्वा देवराजवचो वद।
        येनकेनाप्युपायेन राजानं त्वमिहानय ।३।
        एवं श्रुत्वा गता सा च मेनका तत्र प्रेषिता ।
        समाचष्ट तु तत्सर्वं देवराजस्य भाषितम् ।४।
        एवमुक्ता गता सा च मेनका तत्प्रचोदिता ।
        गतायां मेनकायां तु रतिपुत्री मनस्विनी ।५।
        राजानं धर्मसंकेतं प्रत्युवाच यशस्विनी ।
        राजंस्त्वयाहमानीता सत्यवाक्येन वै पुरा।६।
        स्वकरश्चांतरे दत्तो भवनं च समाहृता ।
        यद्यद्वदाम्यहं राजंस्तत्तत्कार्यं हि वै त्वया।७।
        तदेवं हि त्वया वीर न कृतं भाषितं मम ।
        त्वामेवं तु परित्यक्ष्ये यास्यामि पितृमंदिरम्।८।
                            राजोवाच-
        यथोक्तं हि त्वया भद्रे तत्ते कर्त्ता न संशयः ।
        असाध्यं तु परित्यज्य साध्यं देवि वदस्व मे।९।
                      "अश्रुबिंदुमत्युवाच-
        एतदर्थे महीकांत भवानिह मया वृतः ।

        सर्वलक्षणसंपन्नः सर्वधर्मसमन्वितः।१०।
        सर्वं साध्यमिति ज्ञात्वा सर्वधर्तारमेव च ।
        कर्त्तारं सर्वधर्माणां स्रष्टारं पुण्यकर्मणाम्।११।
        त्रैलोक्यसाधकं ज्ञात्वा त्रैलोक्येऽप्रतिमं च वै।
        विष्णुभक्तमहं जाने वैष्णवानां महावरम् ।१२।
        इत्याशया मया भर्त्ता भवानंगीकृतः पुरा।
        यस्य विष्णुप्रसादोऽस्ति स सर्वत्र परिव्रजेत् ।१३।
        दुर्लभं नास्ति राजेंद्र त्रैलोक्ये सचराचरे ।
        सर्वेष्वेव सुलोकेषु विद्यते तव सुव्रत।१४।
        विष्णोश्चैव प्रसादेन गगने गतिरुत्तमा ।
        मर्त्यलोकं समासाद्य त्वयैव वसुधाधिप।१५।
        जरापलितहीनास्तु मृत्युहीना जनाः कृताः ।
        गृहद्वारेषु सर्वेषु मर्त्यानां च नरर्षभ।१६।
        कल्पद्रुमा अनेकाश्च त्वयैव परिकल्पिताः ।
        येषां गृहेषु मर्त्यानां मुनयः कामधेनवः ।१७।
        त्वयैव प्रेषिता राजन्स्थिरीभूताः सदा कृताः ।
        सुखिनः सर्वकामैश्च मानवाश्च त्वया कृताः।१८।
        गृहैकमध्ये साहस्रं कुलीनानां प्रदृश्यते ।
        एवं वंशविवृद्धिश्च मानवानां त्वया कृता।१९।
        यमस्यापि विरोधेन इंद्रस्य च नरोत्तम।
        व्याधिपापविहीनस्तु मर्त्यलोकस्त्वया कृतः ।२०।
        स्वतेजसाहंकारेण स्वर्गरूपं तु भूतलम् ।
        दर्शितं हि महाराज त्वत्समो नास्ति भूपतिः।२१।
        नरो नैव प्रसूतो हि नोत्पत्स्यति भवादृशः ।
        भवंतमित्यहं जाने सर्वधर्मप्रभाकरम् ।२२।
        तस्मान्मया कृतो भर्ता वदस्वैवं ममाग्रतः ।
        नर्ममुक्त्वा नृपेंद्र त्वं वद सत्यं ममाग्रतः।२३।
        यदि ते सत्यमस्तीह धर्ममस्ति नराधिप ।
        देवलोकेषु मे नास्ति गगने गतिरुत्तमा ।२४।
        सत्यं त्यक्त्वा यदा च त्वं नैव स्वर्गं गमिष्यसि।
        तदा कूटं तव वचो भविष्यति न संशयः।२५।
        पूर्वंकृतं हि यच्छ्रेयो भस्मीभूतं भविष्यति ।
                           "राजोवाच-
        सत्यमुक्तं त्वया भद्रे साध्यासाध्यं न चास्ति मे।२६।
        सर्वंसाध्यं सुलोकं मे सुप्रसादाज्जगत्पते।
        स्वर्गं देवि यतो नैमि तत्र मे कारणं शृणु ।२७।
        आगंतुं तु न दास्यंति लोके मर्त्ये च देवताः ।
        ततो मे मानवाः सर्वे प्रजाः सर्वा वरानने ।२८।
        मृत्युयुक्ता भविष्यंति मया हीना न संशयः ।
        गंतुं स्वर्गं न वाञ्छामि सत्यमुक्तं वरानने ।२९।
                       "देव्युवाच-।
        लोकान्दृष्ट्वा महाराज आगमिष्यसि वै पुनः ।
        पूरयस्व ममाद्यत्वं जातां श्रद्धां महातुलाम् ।३०।
                       "राजोवाच-
        सर्वमेवं करिष्यामि यत्त्वयोक्तं न संशयः ।
        समालोक्य महातेजा ययातिर्नहुषात्मजः ।३१।
        एवमुक्त्वा प्रियां राजा चिंतयामास वै तदा ।
        अंतर्जलचरो मत्स्यः सोपि जाले न बध्यते ।३२।
        मरुत्समानवेगोपि मृगः प्राप्नोति बंधनम् ।
        योजनानां सहस्रस्थमामिषं वीक्षते खगः ।३३।
        सकंठलग्नपाशं च न पश्येद्दैवमोहितः ।
        कालः समविषमकृत्कालः सन्मानहानिदः ।३४।
        परिभावकरः कालो यत्रकुत्रापि तिष्ठतः ।
        नरं करोति दातारं याचितारं च वै पुनः ।३५।
        भूतानि स्थावरादीनि दिवि वा यदि वा भुवि ।
        सर्वं कलयते कालः कालो ह्येक इदं जगत् ।३६।
        अनादिनिधनो धाता जगतः कारणं परम् ।
        लोकान्कालः स पचति वृक्षे फलमिवाहितम् ।३७।
        न मंत्रा न तपो दानं न मित्राणि न बांधवाः ।
        शक्नुवंति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम् ।३८।
        त्रयः कालकृताः पाशाः शक्यंते नातिवर्तितुम् ।
        विवाहो जन्ममरणं यदा यत्र तु येन च ।३९।
        यथा जलधरा व्योम्नि भ्राम्यंते मातरिश्वना ।
        तथेदं कर्मयुक्तेन कालेन भ्राम्यते जगत् ।४०।
                       "सुकर्मोवाच- 
        कालोऽयं कर्मयुक्तस्तु यो नरैः समुपासितः ।
        कालस्तु प्रेरयेत्कर्म न तं कालः करोति सः।४१।
        उपद्रवा घातदोषाः सर्पाश्च व्याधयस्ततः ।
        सर्वे कर्मनियुक्तास्ते प्रचरंति च मानुषे ।४२।
        सुखस्य हेतवो ये च उपायाः पुण्यमिश्रिताः ।
        ते सर्वे कर्मसंयुक्ता न पश्येयुः शुभाशुभम् ।४३।
        कर्मदा यदि वा लोके कर्मसम्बधि बान्धवाः ।
        कर्माणि चोदयंतीह पुरुषं सुखदुःखयोः ।४४।
        सुवर्णं रजतं वापि यथा रूपं विनिश्चितम् ।
        तथा निबध्यते जंतुः स्वकर्मणि वशानुगः ।४५।
        पञ्चैतानीह सृज्यंते गर्भस्थस्यैव देहिनः ।
        आयुः कर्म च वित्तं च विद्यानिधनमेव च ।४६।
        यथा मृत्पिण्डतः कर्ता कुरुते यद्यदिच्छति ।
        तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।४७।
        देवत्वमथ मानुष्यं पशुत्वं पक्षिता तथा ।
        तिर्यक्त्वं स्थावरत्वं च प्राप्यते च स्वकर्मभिः।४८।
        स एव तत्तथा भुंक्ते नित्यं विहितमात्मना ।
        आत्मना विहितं दुःखं चात्मना विहितं सुखम्। ४९।
        गर्भशय्यामुपादाय भुंजते पूर्वदैहिकम् ।
        संत्यजंति स्वकं कर्म न क्वचित्पुरुषा भुवि।५०।
        बलेन प्रज्ञया वापि समर्थाः कर्तुमन्यथा ।
        सुकृतान्युपभुंजंति दुःखानि च सुखानि च।५१।
        हेतुं प्राप्य नरो नित्यं कर्मबंधैस्तु बध्यते ।
        यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विंदति मातरम्।५२।
        तथा शुभाशुभं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।
        उपभोगादृते यस्य नाश एव न विद्यते ।५३।

        प्राक्तनं बंधनं कर्म कोन्यथा कर्तुमर्हति ।
        सुशीघ्रमपि धावंतं विधानमनुधावति ।५४।
        शेते सह शयानेन पुरा कर्म यथाकृतम् ।
        उपतिष्ठति तिष्ठंतं गच्छंतमनुगच्छति ।५५।
        करोति कुर्वतः कर्मच्छायेवानु विधीयते ।
        यथा छायातपौ नित्यं सुसंबद्धौ परस्परम् ।५६।
        तद्वत्कर्म च कर्ता च सुसंबद्धौ परस्परम् ।
        ग्रहा रोगा विषाः सर्पाः शाकिन्यो राक्षसास्तथा ५७।
        पीडयन्ति नरं पश्चात्पीडितं पूर्वकर्मणा ।
        येन यत्रोपभोक्तव्यं सुखं वा दुःखमेव वा ।५८।
        स तत्र बद्ध्वा रज्ज्वा वै बलाद्दैवेन नीयते ।
        दैवः प्रभुर्हि भूतानां सुखदुःखोपपादने ।५९।
        अन्यथा चिंत्यते कर्म जाग्रता स्वपतापि वा ।
        अन्यथा स तथा प्राज्ञ दैव एवं जिघांसति ।६०।
        शस्त्राग्नि विष दुर्गेभ्यो रक्षितव्यं च रक्षति ।
        अरक्षितं भवेत्सत्यं तदेवं दैवरक्षितम् ।६१।
        दैवेन नाशितं यत्तु तस्य रक्षा न दृश्यते ।
        यथा पृथिव्यां बीजानि उप्तानि च धनानि च।६२।
        तथैवात्मनि कर्माणि तिष्ठंति प्रभवंति च ।
        तैलक्षयाद्यथा दीपो निर्वाणमधिगच्छति ।६३।
        कर्मक्षयात्तथा जंतुः शरीरान्नाशमृच्छति ।
        कर्मक्षयात्तथा मृत्युस्तत्त्वविद्भिरुदाहृतः।६४।
        विविधाः प्राणिनस्तस्य मृत्यो रोगाश्च हेतवः ।
        तथा मम विपाकोयं पूर्वं कृतस्य नान्यथा ।६५।
        संप्राप्तो नात्र संदेहः स्त्रीरूपोऽयं न संशयः ।
        क्व मे गेहं समायाता नाटका नटनर्तकाः ।६६।
        तेषां संगप्रसंगेन जरा देहं समाश्रिता ।
        सर्वं कर्मकृतं मन्ये यन्मे संभावितं ध्रुवम् ।६७।
        तस्मात्कर्मप्रधानं च उपायाश्च निरर्थकाः ।
        पुरा वै देवराजेन मदर्थे दूतसत्तमः ।६८।
        प्रेषितो मातलिर्नाम न कृतं तस्य तद्वचः ।
        तस्य कर्मविपाकोऽयं दृश्यते सांप्रतं मम ।६९।
        इति चिंतापरो भूत्वा दुःखेन महतान्वितः ।
        यद्यस्याहि वचः प्रीत्या न करोमि हि सर्वथा ।७०।
        सत्यधर्मावुभावेतौ यास्यतस्तौ न संशयः ।
        सदृशं च समायातं यद्दृष्टं मम कर्मणा ।७१।
        भविष्यति न संदेहो दैवो हि दुरतिक्रमः ।
        एवं चिंतापरो भूत्वा ययातिः पृथिवीपतिः। ७२।
        कृष्णं क्लेशापहं देवं जगाम शरणं हरिम् ।
        ध्यात्वा नत्वा ततः स्तुत्वा मनसा मधुसूदनम् ।७३।
        त्राहि मां शरणं प्राप्तस्त्वामहं कमलाप्रिय ।७४।
        "इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रे एकाशीतितमोऽध्यायः ।८१। )

        अध्याय 81 - नियति अप्रतिरोध्य है
        सुकर्मन ने कहा :
        1-3. अत्यंत बुद्धिमान इंद्र , जो हमेशा कुलीन ययाति से डरते थे , उन्होंने उनके वीरता और उपहार देने जैसे कई सराहनीय कार्यों को देखकर, स्वर्ग की अप्सरा मेनका को एक दूत के रूप में कार्य करने के लिए भेजा
         (उसने उससे कहा:) "हे अच्छे और प्रतिष्ठित व्यक्ति मातलि!, जाओ और मेरा आदेश बताओ । यहां से जाकर कामदेव की पुत्री से देवताओं के स्वामी (मेरे) ये शब्द (अर्थात आदेश) कहो:  वे राजा ययाति को'राजा को किसी भी तरह यहां ले आऐं।''
        4. यह सुनकर वह मेनका (इंद्र द्वारा) भेजी हुई वहां गयी; और जो कुछ देवताओं के प्रभु ने कहा था, वह सब उसे बता दिया।
        5-8. इस प्रकार उसे यह बताने के बाद कि मेनका, उसके द्वारा निर्देशित (यानी कामदेव की बेटी) के पास चली गई  जब मेनका चली गई, और अश्रुबिन्दुमती राजा ययाति के पास गयी तो रति की उस उच्च विचारधारा वाली, गौरवशाली बेटी अश्रुबिन्दुमती ने राजा को वैध समझौते की बात कही: “हे राजा, आपने पहले सच्ची वाणी के साथ मुझे (यहाँ) लाया था; इस बीच तू ने मुझे अपना हाथ दिया, और मुझे अपने निवास में ले आया। हे राजा, तुम्हें यहाँ (अर्थात अभी) वही करना होगा जो मैं तुमसे कहती हूँ। हे वीर, जो मैं ने तुझ से कहा था, वह तू ने नहीं किया; मैं तुम्हें त्याग कर अपने पिता के घर चली जाऊँगी।”
        राजा ने कहा :
        9. हे भद्रे!, जो कुछ तू ने मुझ से कहा है, मैं अवश्य वैसा ही करूंगा। हे आदरणीय नारी, जो अप्राप्य है उसे छोड़कर (अर्थात् न बताना) और जो प्राप्य है वह बताओ।
        अश्रुबिन्दुमति ने कहा :
               "अश्रुबिन्दुमत्युवाच-
        एतदर्थे महीकान्त भवानिह मया वृतः ।
        सर्वलक्षणसंपन्नः सर्वधर्मसमन्वितः ।१०।

        सर्वं साध्यमिति ज्ञात्वा सर्वधर्तारमेव च ।
        कर्त्तारं सर्वधर्माणां स्रष्टारं पुण्यकर्मणाम्।११।

        10-11.  इस प्रयोजन के लिए, हे पृथ्वी के स्वामी, मैं तुम्हें विवाह के लिए चुनती हूँ, यह जानते हुए कि तुम सभी (शुभ) चिह्नों वाले और सभी गुणों से संपन्न हो, और यह जानते हुए कि तुम सब कुछ पूरा करोगे, हर चीज का समर्थन करोगे, सभी अच्छे उपयोग करोगे और सृजन करोगे ( अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान करो, और तीनों लोकों को प्राप्त करोगे, और यह जानोगे कि तुम तीनों लोकों में अतुलनीय हो। मैं जानती हूं कि आप एक भक्त हैं और विष्णु के अनुयायियों में सर्वश्रेष्ठ हैं । इसी आशा से मैंने पहले तुम्हें अपना पति समझ लिया था। जिस पर विष्णु की कृपा होगी वह हर जगह विचरण करेगा। हे राजाओं के स्वामी, ऐसा कुछ भी नहीं है जो (आपके द्वारा) तीनों लोकों में - स्थावर या (स्थिर रहने वाला)- में पूरा न किया जा सके। अच्छे व्रत के कारण आपके लिए सभी

        लोकों में सब कुछ (प्राप्त करने योग्य) है। विष्णु की कृपा से ही तुम आकाश में स्वतंत्र रूप से विचरण कर सकते हो। नश्वर संसार में आकर, हे पृथ्वी के स्वामी, आपने लोगों को बुढ़ापे, सफ़ेद बालों और मृत्यु से मुक्त किया है। हे राजन, आपने स्वयं ही मनुष्यों के सभी घरों के द्वारों के पास बहुत से इच्छा फल देने वाले वृक्ष लगाए हैं।हे राजन, आपने स्वयं मनुष्यों के घरों में ऋषियों को भेजा है और उनके घरों में इच्छा देने वाली गायों को हमेशा दृढ़ता से बसाया है। तुमने मनुष्यों की सब अभिलाषाएं पूरी करके उन्हें प्रसन्न किया है। एक घर में हजारों कुलीन लोग देखे जाते हैं।
        - 19-26-इस प्रकार तुमने यमराज और इन्द्र के विरोध के बावजूद भी मनुष्य जाति को बढ़ाया है। हे ययाति आपने नश्वर संसार को रोग और पापों से मुक्त कर दिया)। हे महान राजा  आपने अपने पराक्रम और स्वाभिमान से पृथ्वी को स्वर्ग बना दिया- आपके समान इस संसार में दूसरा कोई राजा नहीं हुआ - और ना ही भविष्य में कभी होगा। मैं तुम्हें सम्पूर्ण धर्म का प्रकाशक मानती हूँ। इस लिए मैं कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती तुम्हें अपना पति चुनती हूँ।
         हे राजाओं के स्वामी, मजाक छोड़ कर मेरे सामने सत्य बोलो। हे राजन, यदि तुममें सत्य और धर्मपरायणता है तो सच बोलो। "मैं दिव्य लोकों में विचरण नहीं करती, न ही आकाश में स्वतंत्र रूप से विचरण कर सकती हूँ"। जब तुम सत्य को त्यागकर (ऐसा कहते हो) तो कभी स्वर्ग में नहीं जाओगे; तुम्हारी बातें निश्चय झूठी होंगी; और पहले किए गए सभी अच्छे काम राख में मिल जाएंगे।
        राजा ने कहा :
        26-29. हे सुन्दरी, आपने सच कहा, मेरे लिए अप्राप्य जैसा कुछ भी नहीं है। जगत् के स्वामी की कृपा से मेरे लिए सब कुछ प्राप्य है। हे आदरणीय नारी, मैं  जिस कारण से स्वर्ग नहीं जा रहा हूँ, उसका कारण सुनो।
        वे देवताओं को नश्वर संसार में जाने की अनुमति नहीं देंगे; परिणामस्वरूप सभी मनुष्य-मेरी प्रजा-मेरे द्वारा त्याग दिए जाने पर मृत्यु को प्राप्त होंगे; 
        इसमें कोई संदेह नहीं है, हे सुन्दरी! मुझे स्वर्ग जाने की इच्छा नहीं है; हे सुन्दरी, मैं ने तुझ से सत्य कहा है।
        अश्रुबिन्दुमती ने कहा :
        30. हे राजा, तुम उन सभी लोकों को देखकर फिर  पुन: पृथ्वी पर लौट आएगे। आज मेरी अतुलनीय प्रबल इच्छा पूरी करो.
        राजा ने कहा :
        31-40. आपने जो कुछ कहा है मैं अवश्य वह सब करूँगा। नहुष के पुत्र अत्यंत तेजस्वी राजा ययाति ने (इस प्रकार) देखा और अपनी प्रियतमा से इस प्रकार कहा, फिर सोचा: 'एक मछली पानी में घूमती हुई भी जाल में बंधी हुई है (अर्थात फंसी हुई है)। वायु के समान वेग वाला मृग भी बंधा हुआ है। एक हजार योजन की दूरी पर होने पर भी पक्षी शिकार को देख लेता है । नियति के बहकावे में आकर यह अपनी गर्दन पर लटका हुआ फंदा नहीं देख पाता। नियति अच्छी और बुरी चीजें लेकर आती है। 
        नियति सम्मान को नष्ट कर देती है. नियति जहां चाहे वहाँ  रहकर अपमान भी कराती है। यह मनुष्य को दाता या याचक बनाती है। नियति सब कुछ धारण करती है - सभी गतिहीन और स्वर्ग या पृथ्वी पर रहने वाले अन्य प्राणी। इस संसार का कर्म ही एकमात्र भाग्यविधायक है।
        यह उत्पत्ति और मृत्यु से रहित है और संसार का सबसे बड़ा कारण है।
        नियति दुनिया भर को उसी तरह पकाती है जैसे पेड़ पर लगे फल को समय पकाता है।
        भूतानि स्थावरादीनि दिवि वा यदि वा भुवि ।
        सर्वं कलयते कालः कालो ह्येक इदं जगत् ।३६।

        अनादिनिधनो धाता जगतः कारणं परम् ।
        लोकान्कालः स पचति वृक्षे फलमिवाहितम् ।३७।

        न मन्त्रा न तपो दानं न मित्राणि न बान्धवाः ।
        शक्नुवन्ति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम् ।३८।

        त्रयः कालकृताः पाशाः शक्यन्ते नातिवर्तितुम्।
        विवाहो जन्ममरणं यदा यत्र तु येन च ।३९।

        यथा जलधरा व्योम्नि भ्राम्यन्ते मातरिश्वना ।
        तथेदं कर्मयुक्तेन कालेन भ्राम्यते जगत् ।४०।

                         "सुकर्मोवाच- 
        कालोऽयं कर्मयुक्तस्तु यो नरैः समुपासितः ।
        कालस्तु प्रेरयेत्कर्म न तं कालः करोति सः।४१।

        भजन, तप, दान, मित्र या सम्बन्धी भी भाग्य से पीड़ित मनुष्य की रक्षा करने में समर्थ नहीं होते।नियति के तीन बंधनों पर काबू पाना संभव नहीं है: विवाह, जन्म और मृत्यु - किसी को ये कब और कहाँ मिलेंगे, और किसके साथ या किसके माध्यम से मिलेंगे। 
        जैसे आकाश में बादल हवा से चलते हैं, वैसे ही संसार (प्राणियों के) कर्मों (फलों) के साथ मिलकर भाग्य से चलता है।
        सुकर्मन ने कहा :
        41-67. लेकिन नियति, जो कर्म (कर्म) के साथ संयुक्त है, मनुष्यों द्वारा पूजनीय है, (केवल) कर्म (कर्मों के फल) के लिए आग्रह करती है, और इसे बनाती नहीं है। मानव (संसार) में विपत्तियाँ, विपत्तियाँ, सर्प और बीमारियाँ (किसी के) कर्मों के अनुसार ही चलती हैं। जो सुख के कारण और साधन हैं, वे सब पुण्य से मिश्रित होकर (कर्मों के) फल से संयुक्त हैं। वे शुभ और (क्या है) अशुभ नहीं देखेंगे (अर्थात् इसकी परवाह नहीं करेंगे)।(अस्पष्ट!) कर्मों

        के फल से जुड़े रिश्तेदार उनका आदान-प्रदान कर सकते हैं [1] ; परन्तु (अकेले) कर्मों का फल ही मनुष्यों को इस संसार में सुख और दुःख की ओर ले जाता है। जिस प्रकार सोने या चांदी का स्वभाव निश्चित होता है, उसी प्रकार जीव अपने कर्मों के अनुसार बंधा होता है। मनुष्य जब (अपनी माँ के) गर्भ में होता है, तब ये पाँच उत्पन्न होते हैं (अर्थात निर्णय लेते हैं): उसका जीवन (अर्थात दीर्घायु), कर्म, धन, विद्या और मृत्यु। जिस प्रकार कुम्हार निर्जीव गांठ से जो चाहे बना देता है, उसी प्रकार पहले किए गए कर्म कर्ता के पीछे चले जाते हैं। कोई अपने कर्मों के अनुसार देवता, या मनुष्य, या जानवर, या पक्षी, या निचला जानवर, या स्थिर वस्तु बन जाता है।वह हमेशा उसी के अनुसार आनंद लेता है जो उसके द्वारा पूरा किया जाता है - दुख उसके अपने कार्यों से उत्पन्न होता है; ख़ुशी व्यक्ति के अपने कर्मों से मिलती है। गर्भ शैया प्राप्त करके वह अपने पूर्व शरीर के कर्मों (अर्थात पूर्व जन्म में किये गये कर्मों) का फल भोगता है। पृथ्वी पर मनुष्य अपने कर्मों का फल कभी नहीं त्यागते (अर्थात् कभी नहीं छोड़ सकते)। वे
        अपनी शक्ति या बुद्धि से उन्हें बदलने में सक्षम नहीं हैं। वे पुण्य कर्मों, दुखों और सुखों का आनंद लेते हैं। किसी कारण तक पहुंचकर (अर्थात् कारण से) मनुष्य सदैव अपने कर्मों के बंधन से बंधा रहता है। 
        जैसे हजारों गायों में से एक बछड़ा अपनी माँ को खोज लेता है, उसी प्रकार शुभ या अशुभ कर्मों का फल - जो 'भोग (या दुःख) के अलावा नष्ट नहीं होता है - अपने कर्ता के पीछे-पीछे जाता है। पूर्व जन्म में किये गये कर्म का फल कौन बदल सकता है? जो बहुत तेज दौड़ता है, उसके कर्म का फल भी उसका पीछा करता है। पूर्व जन्म के कर्मों का फल, जैसा कि किया गया था, सोने वाले के साथ सोता है। यह उसके साथ खड़ा रहता है जो खड़ा रहता है, और जो चलता है उसका अनुसरण करता है। जो कार्य करता है, उसके कर्म का फल; यह उसकी छाया की तरह उसका पीछा करता है।
        जिस प्रकार छाया और प्रकाश सदैव एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं, उसी प्रकार एक कार्य और उसके कर्ता आपस में जुड़े होते हैं। ग्रह, रोग, विषैले साँप, राक्षसियाँ [2] तथा राक्षस सबसे पहले अपने ही कर्मों से पीड़ित मनुष्य को कष्ट देते हैं।जिसे किसी स्थान पर सुख भोगना होता है या दुख भोगना होता है, वह वहां रस्सी से बंधा होता है, भाग्य उसे बलपूर्वक ले जाता है। सुख या दुख देने में भाग्य ही प्राणियों का स्वामी होता है। हे बुद्धिमान, जागते या सोते रहने से एक प्रकार से कर्म की कल्पना की जाती है और नियति उसे दूसरा मोड़ देकर नष्ट कर देती है। 
        यह उसकी रक्षा करता है जिसकी रक्षा की जानी चाहिए (अर्थात जिसकी वह रक्षा करना चाहता है) उसे हथियार, आग, जहर या कठिनाइयों से बचाता है। सचमुच जिसकी रक्षा नहीं की जा सकती, नियति इसी प्रकार उसकी रक्षा करती है।जो नियति द्वारा नष्ट कर दिया जाता है, उसकी रक्षा कभी नहीं की जा सकती। जैसे भूमि में बोए गए बीज और धन पहले (सुप्त) रहते हैं और (फिर) बढ़ते (सक्रिय) होते हैं, उसी प्रकार आत्मा में कर्म (अक्षुण्ण) रहते हैं और (फिर) सक्रिय हो जाते हैं। जैसे तेल के समाप्त हो जाने से अग्नि बुझ जाती है, उसी प्रकार कर्मों के फल के समाप्त हो जाने से जीव अपने शरीर से नाश को प्राप्त हो जाता है (अर्थात् चला जाता है); 
        क्योंकि जो लोग सत्य को जानते हैं वे कहते हैं कि मृत्यु (किसी के) कर्मों के (फलों की) समाप्ति के कारण होती है। उसकी मृत्यु का कारण विभिन्न जीव-जंतु और रोग हैं। 'इस प्रकार यह मेरे पूर्व अस्तित्व के कर्मों का पकना है। यह अन्यथा नहीं है. यह (अब) निश्चित रूप से इस महिला के रूप में (मेरे पास) आया है; इसके बारे में कोई संदेह नहीं है। अभिनेताओं, नर्तकों और बार्डों को मेरे घर आना पड़ता था; उनके सम्पर्क से मेरे शरीर में बुढ़ापा आ गया है। मेरा मानना ​​है कि सब कुछ (अर्थात्) किसी के (पूर्व अस्तित्व में) कर्मों के कारण होता है, क्योंकि यह (अब) निश्चित रूप से उत्पन्न हो चुका है।
        68 (क). इसलिये कर्म ही प्रधान हैं; प्रयास बेकार हैं.
        68 (ख)-74. पूर्वकाल में देवताओं के राजा ने मुझे (स्वर्ग में) ले जाने के लिए मातलि नामक सर्वश्रेष्ठ दूत भेजा था । मैंने उनकी बात (अर्थात जो उन्होंने मुझसे कहा था) वैसा नहीं किया। अब मैं उन कर्मों का पकना देख रहा हूं।' वह (ययाति) इस प्रकार चिंता से भरा हुआ था, और महान दुःख से उबर गया था। (उसने सोचा:) 'यदि मैं ख़ुशी से वह नहीं करूँगा जो वह कहती है, तो सत्यता और धर्मपरायणता दोनों चली जाएँगी (अर्थात नष्ट हो जाएँ); इसके बारे में कोई संदेह नहीं है। मेरे कर्मों के अनुसार जो निश्चय हुआ वह आ गया; (जो पूर्वनिर्धारित है) अवश्य घटित होगा। नियति पर विजय पाना कठिन है।' पृथ्वी के स्वामी ययाति इस प्रकार विचार में लीन थे।उन्होंने संकट हरने वाले कृष्ण , हरि की शरण मांगी ,

        उनका ध्यान करके, उन्हें नमस्कार किया और उनकी स्तुति की: 'हे आप जिन्हें लक्ष्मी प्रिय हैं, मेरी रक्षा करें जिन्होंने आपकी शरण ली है।'
        संदर्भ: टिप्पणी
        [1] :"कर्मदायादिवाणोके" संभवतः एक भ्रष्ट वाचन है।
        [2] :साकिनी - एक प्रकार की महिला, दुर्गा की परिचरिका को राक्षसी या परी माना जाता है।
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          पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डःअध्याय-82 नीचे देखे-)


                      "सुकर्मोवाच-
        एवं चिन्तयते यावद्राजा परमधार्मिकः ।
        तावत्प्रोवाच सा देवी रतिपुत्री वरानना ।१।
        किमु चिन्तयसे राजंस्त्वमिहैव महामते ।
        प्रायेणापि स्त्रियः सर्वाश्चपलाः स्युर्न संशयः ।२।
        नाहं चापल्यभावेन त्वामेवं प्रविचालये ।
        नाहं हि कारयाम्यद्य भवत्पार्श्वं नृपोत्तम ।३।
        अन्यस्त्रियो यथा लोके चपलत्वाद्वदंति च ।
        अकार्यं राजराजेंद्र लोभान्मोहाच्च लंपटाः ।४।
        लोकानां दर्शनायैव जाता श्रद्धा ममोरसि ।
        देवानां दर्शनं पुण्यं दुर्लभं हि सुमानुषैः ।५।
        तेषां च दर्शनं राजन्कारयामि वदस्व मे ।
        दोषं पापकरं यत्तु मत्संगादिह चेद्भवेत् ।६।
        एवं चिंतयसे दुःखं यथान्यः प्राकृतो जनः ।
        महाभयाद्यथाभीतो मोहगर्ते गतो यथा ।७।
        त्यज चिंतां महाराज न गंतव्यं त्वया दिवि ।
        येन ते जायते दुःखं तन्न कार्यं मया कदा ।८।
        एवमुक्तस्तथा राजा तामुवाच वराननाम् ।
        चिंतितं यन्मया देवि तच्छृणुष्व हि सांप्रतम् ।९।
        मानभंगो मया दृष्टो नैव स्वस्य मनःप्रिये ।
        मयि स्वर्गं गते कांते प्रजा दीना भविष्यति।१०।
        त्रासयिष्यति दुष्टात्मा यमस्तु व्याधिभिः प्रजाः।
        त्वया सार्धं प्रयास्यामि स्वर्गलोकं वरानने ।११।
        एवमाभाष्य तां राजा समाहूय सुतोत्तमम् ।
        पूरुं तं सर्वधर्मज्ञं जरायुक्तं महामतिम् ।१२।
        एह्येहि सर्वधर्मज्ञ धर्मं जानासि निश्चितम् ।
        ममाज्ञया हि धर्मात्मन्धर्मः संपालितस्त्वया ।१३।
        जरा मे दीयतां तात तारुण्यं गृह्यतां पुनः ।
        राज्यं कुरु ममेदं त्वं सकोशबलवाहनम् ।१४।
        आसमुद्रां प्रभुंक्ष्व त्वं रत्नपूर्णां वसुंधराम् ।
        मया दत्तां महाभाग सग्रामवनपत्तनाम् ।१५।
        प्रजानां पालनं पुण्यं कर्तव्यं च सदानघ ।
        दुष्टानां शासनं नित्यं साधूनां परिपालनम् ।१६।
        कर्तव्यं च त्वया वत्स धर्मशास्त्रप्रमाणतः ।
        ब्राह्मणानां महाभाग विधिनापि स्वकर्मणा ।१७।
        भक्त्या च पालनं कार्यं यस्मात्पूज्या जगत्त्रये।पञ्चमे सप्तमे घस्रे कोशं पश्य विपश्चितः।१८।
        बलं च नित्यं संपूज्यं प्रसादधनभोजनैः ।
        चारचक्षुर्भवस्व त्वं नित्यं दानपरो भव ।१९।
        भव स्वनियतो मंत्रे सदा गोप्यः सुपंडितैः ।
        नियतात्मा भव स्वत्वं मा गच्छ मृगयां सुत।२०।
        विश्वासः कस्य नो कार्यः स्त्रीषु कोशे महाबले ।
        पात्राणां त्वं तु सर्वेषां कलानां कुरु संग्रहम्।२१।
        यज यज्ञैर्हृषीकेशं पुण्यात्मा भव सर्वदा ।
        प्रजानां कंटकान्सर्वान्मर्दयस्व दिने दिने ।२२।
        प्रजानां वांछितं सर्वमर्पयस्व दिने दिने ।
        प्रजासौख्यं प्रकर्तव्यं प्रजाः पोषय पुत्रक।२३।
        स्वको वंशः प्रकर्तव्यः परदारेषु मा कृथाः।
        मतिं दुष्टां परस्वेषु पूर्वानन्वेहि सर्वदा ।२४।
        वेदानां हि सदा चिंता शास्त्राणां हि च सर्वदा।
        कुरुष्वैवं सदा वत्स शस्त्राभ्यासरतो भव।२५।
        संतुष्टः सर्वदा वत्स स्वशय्या निरतो भव ।
        गजस्य वाजिनोभ्यासं स्यंदनस्य च सर्वदा ।२६।
        एवमादिश्य तं पुत्रमाशीर्भिरभिनंद्य च ।
        स्वहस्तेन च संस्थाप्य करे दत्तं स्वमायुधम् ।२७।
        स्वां जरां तु समागृह्य दत्त्वा तारुण्यमस्य च ।
        गंतुकामस्ततः स्वर्गं ययातिः पृथिवीपतिः ।२८।
        "इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रे द्व्यशीतितमोऽध्यायः ।८२।
        अनुवाद-★
        अध्याय 82 - ययाति ने अपना बुढ़ापा वापस ले लिया
        सुकर्मन ने कहा :
        1-8. जब राजा इस प्रकार सोच में डूबे हुए थे, तब रति की सुंदर पुत्री ने कहा: "हे अत्यंत बुद्धिमान राजा, आप अभी क्या सोच रहे हैं? इसमें कोई शक नहीं कि ज्यादातर महिलाएं चंचल होती हैं। मैं तुम्हें चंचलता से दूर नहीं ले जा रहा हूँ। हे श्रेष्ठ राजा, मैं आज किसी कपटपूर्ण उपाय का उपयोग नहीं कर रही हूं, (बोलकर) जैसा कि अन्य लालची महिलाएं बोलती हैं, कुछ ऐसा जो लालच और भ्रम के माध्यम से नहीं किया जा सकता है। मेरे हृदय में समस्त लोकों को देखने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हो गई है।देवताओं का दर्शन पुण्यदायी है और सज्जनों को भी प्राप्त होना अत्यंत कठिन है। 
        हे राजा, मुझसे कहो कि तुम मुझे देवताओं के दर्शन कराओगे।दूसरे साधारण मनुष्य की भाँति महान् दुःख से भयभीत होकर मोह की खाई में गिरे हुए आप यह सोच रहे हैं कि क्या अब मेरी संगति से कोई महान् पाप होगा। 
        अपनी चिंता छोड़ो; तुम्हें स्वर्ग नहीं जाना चाहिए. मैं ऐसा कभी नहीं करूंगी जिससे तुम्हें दुःख पहुंचे।”

        9-11. राजा ने (उसके द्वारा) संबोधित करते हुए, उस सुंदर महिला से कहा: “हे आदरणीय महिला, अब मैंने जो सोचा है उसे सुनो। मैं (यहाँ) अपना अपमान देखता हूँ, अपने मन की (संतुष्टि) नहीं देखता। हे प्रिय, जब मैं स्वर्ग जाऊंगा, तो मेरी प्रजा असहाय हो जाएगी। दुष्ट मन वाले यमराज मेरी प्रजा को रोगों से परेशान करेंगे। हे सुंदरी, तब  मैं तुम्हारे साथ स्वर्ग क्यों जाऊंगा।
        12-26. इस प्रकार उससे बात करके और अपने सबसे अच्छे बेटे पुरु को बुलाकर , जो वृद्ध और महान बुद्धि वाला था । राजा ने उससे कहा:) "चलो, हे पुरु! तुम जो सभी पारंपरिक अनुष्ठानों को जानते हो, तुम निश्चित रूप से अपना कर्तव्य जानते हो। हे धार्मिक विचारधारा वाले, तुमने मेरे आदेश से धर्मपरायणता बनाए रखी है। हे पुत्र, मुझे (मेरा) बुढ़ापा वापस दे दो, और (अपनी) जवानी वापस ले लो। धन, सेना और वाहनों सहित मेरे इस राज्य की रक्षा करो।
        मेरे द्वारा (तुम्हें) दी गयी रत्नों से भरी पृथ्वी का, गाँवों, वनों और नगरों सहित पालन कर जीवन व्यती करते हुए आनन्द उठाओ।
        हे निष्पाप, तुम्हें पुण्यदायी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए; पवित्र ग्रंथों के आधार पर तुम्हें हमेशा दुष्टों को दंडित करना चाहिए और अच्छे लोगों की रक्षा करनी चाहिए। हे गौरवशाली, आपको अपने कर्मों द्वारा भक्तिपूर्वक और नियमों के अनुसार ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मणों की रक्षा करनी चाहिए , क्योंकि वे तीनों लोकों में सम्मान के पात्र हैं। हर पांचवें या सातवें दिन खजाने का निरीक्षण करें और विद्वानों से मिलें। तुम्हें हमेशा अपनी सेना का समर्थन करके और उन्हें धन और भोजन देकर उनका सम्मान करना चाहिए। अपने गुप्तचरों को सदैव अपनी आँखें बनाकर काम में लो और सदैव परोपकार में लगे रहो। अपने परामर्श में हमेशा संयमित रहें, क्योंकि इसकी राज्य की रक्षा हमेशा बहुत बुद्धिमान लोगों द्वारा की जाती है। हे पुत्र, तू सदैव अपने ऊपर नियंत्रण रख; शिकार करने मत जाओ. किसी पर भी भरोसा मत करो - महिलाओं पर, खजाने पर या अपनी महान सेना पर भी। 
        सदैव योग्य व्यक्तियों और सभी कलाओं का संग्रह करें। यज्ञों से विष्णु की अवश्य पूजा करो 
        और सदैव सदाचारी रहो। प्रजा में उपद्रव फैलाने वाले स्रोतों को प्रतिदिन कुचल डालो। प्रतिदिन अपनी प्रजा को वह सब कुछ दो जो वह चाहती है। प्रजा को सुख दो, प्रजा का पालन करो, हे पुत्र ! अपने ही परिवार में (केवल एक महिला अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध) रखें; किसी और की पत्नी के साथ ऐसा न करें. दूसरे के धन के बारे में बुरा मत सोचो; सदैव अपने पूर्वजों का अनुसरण करो। 
        सदैव वेदों और पवित्र ग्रंथों का मनन करो; हे बालक, शस्त्र विद्या के अध्ययन में लग जाओ। हे वत्स!, सदैव सन्तुष्ट रहो और अपनी शय्या (अर्थात् पत्नी) के प्रति समर्पित रहो। सदैव हाथियों, घोड़ों और रथों का अध्ययन करो।”
        27-28. इस प्रकार अपने पुत्र को उपदेश देकर,और  आशीर्वाद देकर अभिनन्दन करके, अपने हाथ से उसे (सिंहासन पर बैठाकर) ययाति ने अपना दण्ड उसके हाथ में दे दिया।तब पृथ्वी के स्वामी ययाति ने (पुरु से) उसका बुढ़ापा वापस लेकर (अपनी जवानी) उसे दे दी और गोलोक( वैकुण्ठ का ऊपरी लोक) जाने की इच्छा की।
                  पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डःअध्याय: 83)


                          "सुकर्मोवाच-समाहूय प्रजाः सर्वा द्वीपानां वसुधाधिपः।हर्षेण महताविष्ट इदं वचनमब्रवीत्।१।
        इन्द्रलोकं ब्रह्मलोकं रुद्रलोकमतः परम् ।
        वैष्णवं सर्वपापघ्नं प्राणिनां गतिदायकम्।२।
        व्रजाम्यहं न सन्देहो ह्यनया सह सत्तमाः।
        ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः सशूद्राश्च प्रजा मम।३।
        सुखेनापि सकुटुम्बैः स्थातव्यं तु महीतले ।
        पूरुरेष महाभागो भवतां पालकस्त्विह ।४।
        स्थापितोस्ति मया लोका राजा धीरः सदण्डकः ।
        एवमुक्तास्तु ताः सर्वाः प्रजा राजानमब्रुवन् ।५।
        श्रूयते सर्ववेदेषु पुराणेषु नृपोत्तम ।
        धर्म एवं यतो लोके न दृष्टः केन वै पुरा ।६।
        दृष्टोस्माभिरसौ धर्मो दशांगः सत्यवल्लभः।
        सोमवंशसमुत्पन्नो नहुषस्य महागृहे ।७।
        हस्तपादमुखैर्युक्तः सर्वाचारप्रचारकः।
        ज्ञानविज्ञानसंपन्नः पुण्यानां च महानिधिः ।८।
        गुणानां हि महाराज आकरः सत्यपण्डितः।
        कुर्वन्ति च महाधर्मं सत्यवन्तो महौजसः ।९।
        तं धर्मं दृष्टवन्तः स्म भवन्तं कामरूपिणम् ।
        भवन्तं कामकर्तारमीदृशं सत्यवादिनम् ।१०।
        कर्मणा त्रिविधेनापि वयं त्यक्तुं न शक्नुमः ।
        यत्र त्वं तत्र गच्छामः सुसुखं पुण्यमेव च ।११।
        नरकेपि भवान्यत्र वयं तत्र न संशयः ।
        किं दारैर्धनभोगैश्च किं जीवैर्जीवितेन च ।१२।
        त्वां विनासुमहाराज तेन नास्त्यत्र कारणम् ।
        त्वयैव सह राजेंद्र वयं यास्याम नान्यथा ।१३।

        एवं श्रुत्वा वचस्तासां प्रजानां पृथिवीपतिः ।
        हर्षेण महताविष्टः प्रजावाक्यमुवाच ह ।१४।
        आगच्छन्तु मया सार्द्धं सर्वे लोकाः सुपुण्यकाः ।
        नृपो रथं समारुह्य तया वै कामकन्यया ।१५।
        रथेन हंसवर्णेन चंद्रबिंबानुकारिणा ।
        चामरैर्व्यजनैश्चापि वीज्यमानो गतव्यथः ।१६।
        केतुना तेन पुण्येन शुभ्रेणापि महीयसा ।
        शोभमानो यथा देवो देवराजः पुरन्दरः ।१७।
        ऋषिभिः स्तूयमानस्तु बंदिभिश्चारणैस्तथा ।
        प्रजाभिः स्तूयमानश्च ययातिर्नहुषात्मजः ।१८।
        प्रजाः सर्वास्ततो यानैः समायाता नरेश्वरम् ।
        गजैरश्वै रथैश्चान्यैः प्रस्थिताश्च दिवं प्रति ।१९।
        ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चान्ये पृथग्जनाः।
        सर्वे च वैष्णवा लोका विष्णुध्यानपरायणाः ।२०।

        तेषां तु केतवः शुक्ला हेमदण्डैरलंकृताः ।
        शंखचक्रांकिताः सर्वे सदण्डाः सपताकिनः ।२१।
        प्रजावृन्देषु भासन्ते पताका मारुतेरिताः ।
        दिव्यमालाधरास्सर्वे शोभितास्तुलसीदलैः ।२२।
        दिव्यचन्दनदिग्धांगा दिव्यगन्धानुलेपनाः ।
        दिव्यवस्त्रकृता शोभा दिव्याभरणभूषिताः ।२३।
        सर्वे लोकाः सुरूपास्ते राजानमुपजग्मिरे ।
        प्रजाशतसहस्राणि लक्षकोटिशतानि च ।२४।
        अर्वखर्वसहस्राणि ते जनाः प्रतिजग्मिरे ।
        ते तु राज्ञा समं सर्वे वैष्णवाः पुण्यकारिणः।२५।
        विष्णुध्यानपराः सर्वे जपदानपरायणाः ।
        सुकर्मोवाच-
        एवं ते प्रस्थिताः सर्वे हर्षेण महतान्विताः ।२६।
        पूरुं पुत्रं महाराज स्वराज्ये परिषिच्य तम् ।
        ऐंद्रं लोकं जगामाथ ययातिः पृथिवीपतिः ।२७।
        तेजसा तस्य पुण्येन धर्मेण तपसा तदा ।
        ते जनाः प्रस्थिताः सर्वे वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।२८।
        ततो देवाः सगन्धर्वाः किन्नराश्चारणास्तथा ।
        सहिता देवराजेन आगताः सम्मुखं तदा ।२९।
        तस्यैवापि नृपेंद्रस्य पूजयन्तो नृपोत्तम।
        इन्द्र उवाच-
        स्वागतं ते महाराज मम गेहं समाविश।३०।
        अत्र भोगान्प्रभुंक्ष्व त्वं दिव्यान्कामान्मनोऽनुगान्।
        राजोवाच-
        सहस्राक्ष महाप्राज्ञ तव पादाम्बुजद्वयम्।३१।
        नमस्करोम्यहं देव ब्रह्मलोकं व्रजाम्यहम् ।
        देवैः संस्तूयमानश्च ब्रह्मलोकं जगाम ह।३२।
        पद्मयोनिर्महातेजाः सार्धं मुनिवरैस्तदा ।
        आतिथ्यं च चकारास्य पाद्यार्घादि सुविष्टरैः।३३।
        उवाच विष्णुलोकं हि प्रयाहि त्वं स्वकर्मणा।
        एवमाभाषिते धात्रा जगाम शिवमन्दिरम्।३४।
        चक्रे आतिथ्यपूजां च उमया सह शंकरः ।
        तस्यै वापि नृपेन्द्रस्य राजानमिदमब्रवीत्।३५।
        कृष्णभक्तोसि राजेन्द्र ममापि सुप्रियो भवान् ।
        ततो ययाते राजेन्द्र वस त्वं मम मन्दिरम्।३६।
        सर्वान्भोगान्प्रभुंक्ष्व त्वं दुःखप्राप्यान्हि मानुषैः ।
        अन्तरं नास्ति राजेन्द्र मम विष्णोर्न संशयः।३७।
        योसौ विष्णुस्वरूपेण स वै रुद्रो न संशयः।
        यो रुद्रो विद्यते राजन्स च विष्णुः सनातनः।३८।
        उभयोरन्तरं नास्ति तस्माच्चैव वदाम्यहम् ।
        ।३९।
        तस्मादत्र महाराज स्थातव्यं हि त्वयानघ ।
        एवमुक्तः शिवेनापि ययातिर्हरिवल्लभः।४०।
        भक्त्या प्रणम्य देवेशं शंकरं नतकन्धरः ।
        एतत्सर्वं महादेव त्वयोक्तमिह साम्प्रतम् ।४१।
        युवयोरन्तरं नास्ति एका मूर्तिर्द्विधाभवत् ।
        वैष्णवं गन्तुमिच्छामि पादौ तव नमाम्यहम् ।४२।
        एवमस्तु महाराज गच्छ लोकं तु वैष्णवम् ।
        समादिष्टः शिवेनापि प्रतस्थे वसुधाधिपः।४३।
        पृथ्वीशस्तैर्महापुण्यैर्वैष्णवैर्विष्णुवल्लभैः ।
        नृत्यमानैस्ततस्तैस्तु पुरतस्तस्य भूपतेः।४४।
        शंखशब्दैः सुपापघ्नैः सिंहनादैः सुपुष्कलैः ।
        जगाम निःस्वनै राजा पूज्यमानः सुचारणैः।४५।
        सुस्वरैर्गीयमानस्तु पाठकैः शास्त्रकोविदैः ।
        गायन्ति पुरतस्तस्य गन्धर्वा गीततत्पराः।४६।
        ऋषिभिः स्तूयमानश्च देववृंदैः समन्वितैः ।
        अप्सरोभिः सुरूपाभिः सेव्यमानः स नाहुषिः।४७।
        गन्धर्वैः किन्नरैः सिद्धैश्चारणैः पुण्यमंगलैः ।
        साध्यैर्विद्याधरै राजा मरुद्भिर्वसुभिस्तथा।४८।
        रुद्रैश्चादित्यवर्गैश्च लोकपालैर्दिगीश्वरैः ।
        स्तूयमानो महाराजस्त्रैलोक्येन समन्ततः।४९।
        ददृशे वैष्णवं लोकमनौपम्यमनामयम् ।
        विमानैः काञ्चनै राजन्सर्वशोभासमाविलैः ।५०।
        हंसकुन्देन्दुधवलैर्विमानैरुपशोभितैः ।
        प्रासादैः शतभौमैश्च मेरुमन्दरसन्निभैः ।५१।
        शिखरैरुल्लिखद्भिश्च स्वर्व्योमहाटकान्वितैः ।
        जाज्वल्यमानैः कलशैः शोभते सुपुरोत्तमम् ।५२।
        तारागणैर्यथाकाशं तेजः श्रिया प्रकाशते ।
        प्रज्वलत्तेजोज्वालाभिर्लोचनैरिव लोकते ।५३।
        नानारत्नैर्हरेर्लोकः प्रहसद्दशनैरिव ।
        समाह्वयति तान्पुण्यान्वैष्णवान्विष्णुवल्लभान्।५४।
        ध्वज व्याजेन राजेंद्र चलिताग्रैः सुपल्लवैः ।
        श्वसनांदोलितैस्तैश्च ध्वजाग्रैश्च मनोहरैः ।५५।
        हेमदण्डैश्च घण्टाभिः सर्वत्रसमलंकृतम् ।
        सूर्यतेजः प्रकाशैश्च गोपुराट्टालकैस्ततः ।५६।
        गवाक्षैर्जालमालैश्च वातायनमनोहरैः ।
        प्रतोलीनां प्रकाशैश्च प्राकारैर्हेमरूपकैः ।५७।
        तोरणैः सुपताकाभिर्नानाशब्दैः सुमंगलैः ।

        कलशाग्रैश्चक्रबिंबै रविबिम्बसमप्रभैः ।५८।
        सुभोगैः शतकक्षैश्च निर्जलाम्बुदसन्निभैः ।
        दण्डच्छत्रसमाकीर्णैः कलशैरुपशोभितैः ।५९।
        प्रावृट्कालांबुदाकारैर्मदिरैरुपशोभितैः ।
        कलशैः शोभमानैस्तैर्ऋक्षैर्द्यौरिव भूतलम् ।६०।
        दण्डजालपताकाभिर्ऋक्षजालसमप्रभैः ।
        तादृशैः स्फाटिकाकारैः कान्तिशंखेन्दुसन्निभैः।६१।
        हेमप्रासादसम्बाधैर्नानाधातुमयैस्ततः ।
        विमानैरर्बुदसंख्यैः शतकोटिसहस्रकैः ।६२।
        सर्वभोगयुतैश्चैव शोभते हरिपत्तनम् ।
        यैः समाराधितो देवः शंखचक्रगदाधरः ।६३।
        ते प्रसादात्तस्य तेषु निवसन्ति गृहेषु च ।
        सर्वपुण्येषु दिव्येषु भोगाढ्येषु च मानवाः ।६४।
        वैष्णवाः पुण्यकर्माणो निर्धूताशेषकल्मषाः ।
        एवंविधैर्गृहैः पुण्यैः शोभितं विष्णुमन्दिरम् ।६५।
        नानावृक्षैः समाकीर्णं वनैश्चन्दनशोभितैः ।
        सर्वकामफलै राजन्सर्वत्र समलंकृतम् ।६६।
        वापीकुंडतडागैश्च सारसैरुपशोभितैः ।
        हंसकारण्डवाकीर्णैः कल्हारैरुपशोभितैः ।६७।
        शतपत्रैर्महापद्मैः पद्मोत्पलविराजितैः ।
        कनकोत्पलवर्णैश्च सरोभिश्च विराजते ।६८।
        वैकुण्ठं सर्वशोभाढ्यं देवोद्यानैरलंकृतम् ।
        दिव्यशोभासमाकीर्णं वैष्णवैरुपशोभितम् ।६९।
        वैकुण्ठं ददृशे राजा मोक्षस्थानमनुत्तमम् ।
        देववृन्दैः समाकीर्णं ययातिर्नहुषात्मजः ।७०।
        प्रविवेश पुरं रम्यं सर्वदाहविवर्जितम् ।
        ददृशे सर्वक्लेशघ्नं नारायणमनामयम् ।७१।
        विमानैरुपशोभन्तं सर्वाभरणशालिनम् ।
        पीतवासं जगन्नाथं श्रीवत्सांकं महाद्युतिम् ।७२।
        वैनतेयसमारूढं श्रियायुक्तं परात्परम् ।
        सर्वेषां देवलोकानां यो गतिः परमेश्वरः ।७३।
        परमानन्दरूपेण कैवल्येन विराजते ।
        सेव्यमानं महालोकैःसुपुण्यैर्वैष्णवैर्हरिम् ।७४।
        देववृन्दैः समाकीर्णं गंधर्वगणसेवितम् ।
        अप्सरोभिर्महात्मानं दुःखक्लेशापहं हरिम् ।७५।
        नारायणं ननामाथ स्वपत्न्या सह भूपतिः ।
        प्रणेमुर्मानवाः सर्वे वैष्णवा मधुसूदनम् ।७६।
        गता ये वैष्णवाः सर्वे सह राज्ञा महामते ।
        पादाम्बुजद्वयं तस्य नेमुर्भक्त्या महामते ।७७।
        प्रणमन्तं महात्मानं राजानं दीप्ततेजसम् ।
        तमुवाच हृषीकेशस्तुष्टोऽहं तव सुव्रत ।७८।
        वरं वरय राजेंद्र यत्ते मनसि वर्तते ।
        तत्ते ददाम्यसंदेहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।
        राजोवाच
        यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
        दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते ।८०।
        विष्णुरुवाच-
        एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
        लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।
        एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः ।
        प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम् ।८२।
        निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३।

         "इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने पितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रे ययातेः स्वर्गारोहणं नाम त्र्यशीतितमोऽध्यायः ।८३।)
        अनुवाद-★
        अध्याय 83 - ययाति ने दिव्य लोकों का दौरा किया
        सुकर्मन ने कहा :-
        1-5. पृथ्वी के स्वामी ने ययाति ने सभी हिस्सों से सभी प्रजा को बुलाकर अत्यंत प्रसन्नता से कहा, "हे मेरी प्रजा में श्रेष्ठ लोगों सुनो! - ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र , मैं इस महिला के साथ जा रहा हूं।" इंद्र का स्वर्ग, ब्रह्मा का लोक, रुद्र का लोक और फिर विष्णु के वैकुण्ठ में, सभी पापों को नष्ट करके मोक्ष का कारण बनता है। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।
         (अपने) परिवार सहित (तुम) पृथ्वी पर सुखपूर्वक रहो। हे प्रजा, मैंने इस गौरवशाली और बुद्धिमान पुरु को आपका संरक्षक और राजदंडधारी राजा नियुक्त किया है।
        5-13. इस प्रकार संबोधित करते हुए, उन सभी विषयों में राजा से कहा: “हे श्रेष्ठ राजा, (अर्थात्) सभी वेदों और पुराणों में हम धर्म के बारे में सुनते हैं ; लेकिन जैसा कि हमने देखा, किसी ने भी धर्म को नहीं देखा, जैसा कि नहुष के महान घर में पैदा हुआ ययाति  (यानी आप), दस घटकों में से एक, चंद्र वंश में, सत्य से प्यार करने वाले, हाथ, पैर और चेहरे वाला, सभी (अच्छे) का प्रचार करने वाले अभ्यास, आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान से संपन्न, और धार्मिक गुणों का एक बड़ा खजाना, गुणों की खान और सत्य में कुशल, हे महान राजा आप हो।
        सत्यवादी और अत्यधिक तेजस्वी लोग महान गुणों का अभ्यास करते हैं। हमने आप में वह धर्म देखा है, जो वांछनीय रूप (या कामदेव के समान सुंदर), (हमारी) इच्छाओं को पूरा करने वाला और इतना सत्य बोलने वाला है। तीन प्रकार के कृत्यों (अर्थात शरीर, मन और वाणी) के साथ भी हम आपको त्यागने में असमर्थ हैं,।
        आप जहां भी जाएंगे, हम खुशी से और सहमति से आप के साथ  जाएंगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम जहां रहोगे (अर्थात यदि तुम नरक में रहोगे तो) हम नरक में ही होंगे। हे महान राजा, आपके बिना पत्नी, भोग या जीवन का क्या लाभ? हमारा उससे (अर्थात् पत्नी आदि) से कोई लेना-देना नहीं है। हे राजाओं के स्वामी ययाति, हम तो तेरे संग ही चलेंगे; यह अन्यथा नहीं होगा।”

        Yadav Yogesh Kumar Rohi:
        14-26. प्रजा की ये बातें सुनकर पृथ्वी के स्वामी ययाति ने अत्यंत प्रसन्नता से भरकर प्रजा से कहा, "हे सभी मेधावी लोगों, मेरे साथ आओ।" कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती को लेकर राजा रथ पर चढ़ गये। (वह) नहुष के पुत्र ययाति , देवताओं के स्वामी इंद्र की तरह चमकते थे, उनके रथ का रंग हंसों जैसा और चंद्रमा की कक्षा के समान था; 
        वह चाउरी और प्रशंसकों द्वारा प्रशंसित होने के संकट से मुक्त था (जैसा कि वह था); वह भी उस भाग्यशाली, शुभ और महान ध्वजा से चमक उठा। 
        ऋषि-मुनियों, पंडितों और गायकों के साथ-साथ उनकी प्रजा भी उनकी प्रशंसा करती थी। तब उसकी सारी प्रजा वाहनों में सवार होकर मनुष्यों के स्वामी के पास पहुंची; और वे हाथियों और घोड़ों के साथ (अर्थात् उन पर चढ़कर) वैकुण्ठ की ओर चले गए।
        वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्य सामान्य लोग थे। वे सभी विष्णु के अनुयायी थे और विष्णु के ध्यान में लीन थे । उनके झण्डे श्वेत थे और सुनहरी डंडियों से सुशोभित थे। (वह सभी एक वर्ण वैष्णव के लोग हो गये)
        सभी पर शंख और चक्र अंकित थे और उनके पास दण्ड और ध्वज थे। हवा से प्रेरित बैनर प्रजा की भीड़ के बीच चमक उठे। सभी (प्रजा) ने दिव्य मालाएँ पहन रखी थीं और तुलसी के पत्तों से सुशोभित थे। उनके शरीर पर दिव्य चंदन और (दिव्य काले देवदारु और चन्दन) की लकड़ी का लेप लगाया गया था। वे दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित थे और दिव्य आभूषणों से अलंकृत थे। वे सभी सुन्दर लोग राजा के पीछे चलने लगे। सारी प्रजा - हजारों, सैकड़ों, लाखों और करोड़ों की संख्या में लोग , और अरव , खर्व (अर्थात् 10,000,000,000) जैसी बहुत बड़ी संख्या में लोग (राजा के साथ) चले गए। वे सभी, विष्णु के अनुयायी, मेधावी कार्य करते हुए, विष्णु के ध्यान में, पवित्र नामों के जाप में और दान में राजा के साथ चले गए।
        सुकर्मन ने कहा :
        26-30. हे महान राजा, वे सभी बड़े हर्ष से भरे हुए (राजा के साथ) आगे बढ़े, अपने पुत्र पुरु को अपने सिंहासन पर बैठाया, जिससे पृथ्वी के स्वामी ययाति विष्णु के लोक में चले गए। उनके तेज, धार्मिक गुण और धर्मपरायणता के कारण वे सभी लोग विष्णु के सर्वोत्तम लोक वैकुण्ठ ( गोलोक) में चले गये। तब देवताओं के राजा के साथ, गंधर्वों , किन्नरों और भांडों के साथ देवता उनके सामने आए (उनका स्वागत करने के लिए), हे श्रेष्ठ राजा, उन राजाओं का सम्मान करते हुए।
        इंद्र ने कहा :
        30. हे महान राजा, आपका स्वागत है। मेरे घर में प्रवेश करो.
        31. यहां अपनी इच्छानुसार सभी दिव्य सुखों का आनंद उठायें।
        राजा ने कहा :
        31-40. हे सहस्र नेत्रों वाले, अत्यंत बुद्धिमान भगवान, मैं आपके कमल-सदृश चरणों को नमस्कार कर रहा हूँ। फिर मैं ब्रह्मा के लोक में जाऊंगा।
        देवताओं द्वारा प्रशंसा किये जाने पर वह ब्रह्मा के लोक में चला गया। अत्यंत तेजस्वी ब्रह्मा ने उत्कृष्ट ऋषियों के साथ उनके पैर धोने के लिए जल, आदरपूर्वक प्रसाद और उत्कृष्ट आसन देकर उनका आतिथ्य सत्कार किया; (और) उससे कहा: "अपने कर्मों के बल से विष्णु के वैकुण्ठ में जाओ।" विधाता के इस प्रकार कहने पर वह शिव के घर गया। उमा (अर्थात पार्वती ) के साथ शिव ने उसी राजा का आतिथ्य सत्कार किया और राजा से ये शब्द कहे:
        "कृष्णभक्तोसि राजेंद्र ममापि सुप्रियो भवान् ।
        ततो ययाते राजेंद्र वस त्वं मम मंदिरम्।३६।

        सर्वान्भोगान्प्रभुंक्ष्व त्वं दुःखप्राप्यान्हि मानुषैः ।
        अंतरं नास्ति राजेंद्र मम विष्णोर्न संशयः।३७।

        अनुवाद:-
        हे राजाओं के राजा, आप कृष्ण के भक्त हैं , आप मुझे भी बहुत प्रिय हैं; इसलिए, हे राजाओं के स्वामी ययाति, मेरे लोक में रहो। उन सभी सुखों का आनंद लें जो मनुष्य को प्राप्त करना कठिन है।
        हे राजाओं के स्वामी, विष्णु और मुझमें निश्चित रूप से कोई अंतर नहीं है।
        इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो विष्णु का रूप है वह शिव है, और हे राजा, जो शिव है वह प्राचीन विष्णु है। दोनों में कोई अंतर नहीं है. इसलिये मैं ही (इस प्रकार) बोलता हूँ। मैं विष्णु के एक मेधावी भक्त को (अपने निवास में) स्थान देता हूं। इसलिए, हे निर्दोष महान राजा, आपको यहीं रहना चाहिए।
        40-43. शिव द्वारा इस प्रकार संबोधित किए जाने पर, विष्णु के प्रिय ययाति ने, भक्ति में अपनी गर्दन (अर्थात सिर) झुकाकर, देवताओं के स्वामी शिव को नमस्कार किया, (और उनसे कहा:) "हे महान भगवान, आपने जो कुछ भी कहा है वह उचित है . आप दोनों में कोई अंतर नहीं है. यह दो भागों में विभाजित एक रूप है। मैं विष्णु के पास (वैकुण्ठ) जाने की इच्छा रखता हूँ; मैं आपके चरणों को नमस्कार करता हूँ।” “हे महान राजा, ऐसा ही हो; विष्णु के लोक  को जाओ।”

        43-65. (इस प्रकार) शिव द्वारा निर्देशित, पृथ्वी के स्वामी, विष्णु के बहुत मेधावी भक्तों के साथ, विष्णु के प्रिय राजा - उनके सामने नृत्य करते हुए (विष्णु के लोक की ओर) आगे बढ़े। वह महापापों का नाश करने वाले शंख-ध्वनि और सिंहों की बहुत सी दहाड़ें, बहुत सी (अन्य) ध्वनियों के साथ, अच्छे पंडितों द्वारा पूजे जाने वाले, (उनकी स्तुति) शास्त्रों में कुशल पाठकों द्वारा मधुर स्वर में गाए जाने पर, (आगे बढ़ गए) गाने में उत्सुकता से लगे गंधर्वों ने उनके सामने गाना गाया। ऋषि-मुनियों के साथ-साथ देवताओं की टोली भी उनकी स्तुति कर रही थी। नहुष के उस पुत्र की सेवा सुंदर दिव्य युवतियाँ कर रही थीं। उस महान राजा की प्रशंसा मेधावी और शुभ गंधर्वों, किन्नरों, सिद्धों , साधुओं, साध्यों , विद्याधरों , मरुतों और वसुओं द्वारा की जाती है , साथ ही रुद्र और आदित्यों के समूहों द्वारा, और अभिभावकों और देवताओं द्वारा, और तीनों लोकों द्वारा की जाती है। चारों ओर, विष्णु का अतुलनीय और कुण्ठा रहित लोक वैकुण्ठ( गोलोक) देखा। हे राजा, वह उत्कृष्ट और सर्वश्रेष्ठ नगर स्वर्णिम,  दिव्य यानों  से चमक रहा था, सभी सुंदरता से भरा हुआ था, सौ मंजिला हवेली थी जिसमें हंस, कुंड  (फूल) या चंद्रमा की तरह सफेद महालय( महल) थे, और मेरु और मंदार के समान थे। वे पर्वत जिनकी चोटियाँ स्वर्ग और आकाश को छूती थीं, और जिनके शिखरों पर चमकीले सुनहरे घड़े थे।वह बहुत से तारों वाले आकाश के समान तेज से चमका; धधकती हुई चमक की लपटों के साथ वह मानो आँखों से देख रहा था। हे राजाओं के देव, उस शिव के लोक ने, अनेक रत्नों से युक्त, हँसते हुए दाँत दिखाते हुए, और पत्ते उछालते हुए ध्वज के बहाने, विष्णु के प्रिय, मेधावी भक्तों को आमंत्रित किया। 
        वह हर जगह हवा से उछाले गए आकर्षक बैनरों के शीर्षों, सुनहरे डंडों और घंटियों से सुशोभित था। वह सूर्य की चमक के समान (उज्ज्वल) दिखने वाले द्वारों और निगरानी टावरों से चमक रहा था, सुंदर गोल खिड़कियों, जाली की पंक्तियों और चौड़े मार्गों की चमक वाली खिड़कियों, और सुनहरे प्राचीरों, मेहराबों, अच्छे बैनरों और कई बहुत ही शुभ ध्वनियों के साथ, घड़ों के शीर्षों से युक्त, दर्पण जैसा चक्र जो चमक में सूर्य के गोले के समान होता है, महान शोभा के साथ, पानी से रहित बादलों के समान सैकड़ों निजी कक्षों के साथ, कर्मचारियों और छतरियों और घड़ों से भरे हुए, बरसात के मौसम में बादलों के समान कक्षों के साथ, और (इतने सारे) घड़ों से पृथ्वी ऐसी दिखाई देती थी, मानो आकाश तारों से भरा हो।विष्णु की नगरी बहुत से तारों के समान चमक वाली, शंख या चंद्रमा के समान दिखने वाली, स्फटिक की वस्तुओं के आकार की, शंख या चंद्रमा के समान चमकने वाली, बहुत सी धातुओं से बने सोने के महलों और  की भीड़ के साथ, बहुत सारी छड़ियों और बैनरों से सुंदर लग रही थी, दस करोड़ और हज़ारों करोड़ों की संख्या में दिव्य विमानो के साथ; और सभी आनंद के साथ. वे मनुष्य, विष्णु के भक्त, धार्मिक कर्मों वाले और अपने सभी पापों को धोकर, उनकी कृपा से उन घरों में रहते हैं, जो पूरी तरह से मेधावी, दिव्य और सभी सुखों से समृद्ध हैं।
        65-75. विष्णु का लोक इस प्रकार की उत्कृष्ट (वस्तुओं) से सुशोभित था। वह सर्वत्र नाना प्रकार के वृक्षों से भरा हुआ था, चंदन के वृक्षों से सुशोभित था, सभी वांछित फलों से युक्त था। यह कुओं, तालाबों और सारस से सुशोभित झीलों से चमकता था, उसी प्रकार हंसों और बत्तखों से भरी झीलों से भी, सफेद कमलों से सुशोभित, (अन्य) कमल, बड़े सफेद कमल, (अन्य प्रकार के) कमल और नीले कमल, और (अन्य) से सुशोभित था। ) सुनहरे कमल के समान रंग वाला (अर्थात् सदृश)। वैकुण्ठ (अर्थात विष्णु का लोक) सभी सौंदर्य से समृद्ध था, दिव्य उद्यानों से सुशोभित था, दिव्य आकर्षण से भरा था और विष्णु के भक्तों से सुशोभित था। राजा ने (यह) वैकुण्ठ, मोक्ष का अतुलनीय स्थान देखा। नहुष के पुत्र ययाति ने देवताओं की सेना से भरे हुए और किसी भी प्रकार के भयंकर तीव्र ताप  से मुक्त उस सुंदर शहर में प्रवेश किया। उसने देखा कि विष्णु, सभी कष्टों का नाश करने वाले, किसी भी क्षति से मुक्त, दिव्य विमानो से चमकने वाले, सभी आभूषणों से देदीप्यमान, पीले वस्त्र पहने हुए, श्रीवत्स से चिह्नित , और बहुत चमकदार, श्री के साथ गरुड़ पर चढ़े हुए , सर्वोच्च से भी ऊंचे , - सर्वोच्च देवता, सभी संसारों के आश्रय, (जो) सर्वोच्च आनंद के रूप में पूर्ण वैराग्य के साथ चमकते थे, और विष्णु के महान, बहुत मेधावी भक्तों द्वारा उनकी सेवा की जा रही थी।

        76-79. पृथ्वी के स्वामी ने, अपनी पत्नी के साथ, नारायण (अर्थात विष्णु) को नमस्कार किया, जो देवताओं के समूह से भरे हुए थे, गंधर्वों और दिव्य अप्सराओं के समूहों द्वारा प्रतीक्षा कर रहे थे, जो उदार थे और जिन्होंने सभी कष्टों को दूर कर दिया था। राजा के साथ गए विष्णु के सभी भक्तों ने विष्णु को नमस्कार किया, हे परम बुद्धिमान! हे अत्यंत बुद्धिमान, उन्होंने भक्तिपूर्वक उनके दोनों चरणों को नमस्कार किया। विष्णु ने उस तेजस्वी राजा से कहा, जो तेज से चमक रहा था और जो उसे नमस्कार कर रहा था: “हे अच्छे व्रत वाले, मैं तुमसे प्रसन्न हूं। हे राजाओं के स्वामी, जो वरदान तुम्हारे मन में हो, वह माँग लो; मैं इसे तुम्हें अवश्य प्रदान करूंगा। तुम मेरे भक्त हो, हे अत्यंत बुद्धिमान ययाति।”
        राजा ने कहा :
        80. हे मधुसूदन , हे देवताओं के स्वामी, यदि आप प्रसन्न हैं, तो हे लोकों के स्वामी, मुझे सदैव अपनी दासता प्रदान करें (अर्थात मुझे अपना दास बना लें)।
        विष्णु ने कहा :
        81-83. हे गौरवशाली, ऐसा ही हो; तुम निःसंदेह मेरे भक्त हो; हे महान राजा, इस महिला के साथ आप मेरे वैकुण्ठ अथवा गोलोक में रह सकते हैं।
        पृथ्वी के स्वामी, महान राजा ययाति, इस प्रकार संबोधित करते हुए, उस भगवान की कृपा से, विष्णु के उत्कृष्ट वैकुण्ठ में रहते थे, जो सुशोभित था।
        "पद्म-पुराण सृष्टिखण्ड के अन्तर्गत यदु की वंशावली-  
        पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-80)
        "कामकन्यां यदा राजा उपयेमे द्विजोत्तम।
        किं चक्राते तदा ते द्वे पूर्वभार्ये सुपुण्यके।१।
        "अनुवाद- जब राजा ययाति नें कामदेव की पुत्री के साथ विवाह कर लिया; तब राजा की पहले वाली दोनों पत्नियों ने क्या किया।१।
        देवयानी महाभागा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
        तयोश्चरित्रं तत्सर्वं कथयस्व ममाग्रतः।२।
        "अनुवाद- महाभागा देवयानी और शर्मिष्ठा उन  दोंनो का सब आचरण ( कर्म) मेरे समक्ष कहो।२।
                       "सुकर्मोवाच-
        यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा ।
        अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।३।

        "अनुवाद- सुकर्मा ने कहा :- महाराज ययाति जब कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती को  अपने घर लाये तो मनस्विनी देवयानी ने उस अश्रुबिन्दुमती के साथ अत्यधिक स्पर्धा ( होड़) की।३।
        तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
        शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।४।

        "अनुवाद- इस कारण से राजा ययाति नें क्रोध से व्याकुल मन होकर देवयानी से उत्पन्न अपने दोनों  यदु और तुर्वसु नामक पुत्रों को शाप दे दिया। तब शर्मिष्ठा को बुलाकर यशस्विनी देवयानी नें राजा द्वारा दिए गये शाप की सब बातें कहीं।४।
        रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
        शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।

        "अनुवाद- रूप तेज दान सत्यता , और पुण्य के द्वारा शर्मिष्ठा और देवयानी दोंनो ने उस ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती के साथ स्पर्धा( होड़ )की।५।
        दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
        राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।

        "अनुवाद-   तब कामदेव की पुत्री राजा की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती ने देवयानी और शर्मिष्ठा का वह स्पर्धा वाला दूषितभाव जान लिया और राजा ययाति को सब उसी समय बता दिया।६।
        ****
        अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
        शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।७।

        "अनुवाद-  उसके बाद राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बुलाकर कहा। हे यदु तुम जाकर शर्मिष्ठा और देवयानी दोंनो को मार दो।७।
        सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
        एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा ।८।

        "अनुवाद-  हे वत्स !  मेरा यह प्रिय कार्य करो यदि तुम इसे सही मानते हो तो, यदु ने इस प्रकार ययाति की ये बातें सुनकर  ।८।
        प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
        नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।९।

        "अनुवाद- राजा ययाति उस अपने पिता को उत्तर दिया , हे माननीय पिता जी मैं इन दोंनो निर्दोष  माता ओं का बध नहीं करुँगा।९।
        मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
        तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।१०।

        "अनुवाद- वेद के जानने वाले विद्वानों ने माता को मारने का महापाप बताया है। हे महाराज  इस लिए मैं इन दोंनो मीताओं का बध नहीं करुँगा।१०।
        दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत् ।
        भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।११।

        "अनुवाद- माता ,बहिन और पुत्री यदि हजारों दोषों से युक्त हो तो भी हे महाराज!।११।
        पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
        एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।१२।

        "अनुवाद-  वह पुत्र भाई तथा पिता आदि के द्वारा कभी भी वध करने योग्य नहीं है। इस प्रकार यह सब जानकर मैं अपनी इन दोंनो माताओं का वध नहीं कर सकता हूँ।

        यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह ।
        शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।१३।
        "अनुवाद- यदु की यह बात सुनकर राजा क्रोधित होगया। और इसके बाद ययाति ने यदु को शाप दे दिया।१३।
        यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि ।
        मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः।१४।
        "अनुवाद- तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है। इस कारण तुम पापी हो इस लिए मेरे शाप के कारण पापी बने हुए तुम अपनी माता के अँश को ही प्राप्त करो।१४।
        एवमुक्त्वा यदुं पुत्रं ययातिः पृथिवीपतिः ।
        पुत्रं शप्त्वा महाराजस्तया सार्द्धं महायशाः।१५।
        "अनुवाद-  इस प्रकार कह कर पृथ्वीपति ययाति पुत्र यदु को शाप देकर अपनी तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती के साथ वहाँ से चले गये।१५।
        रमते सुखभोगेन विष्णोर्ध्याने न तत्परः ।
        अश्रुबिन्दुमतीसा च तेन सार्द्धं सुलोचना।१६।
        अनुवाद-  सुन्दर नेत्रों वाली अश्रुबिन्दुमती के साथ सुखभोग के द्वारा आनन्दित होने पर राजा भगवान विष्णु के ध्यान में भी तत्पर नहीं रह सके।१६।
        बुभुजे चारुसर्वांगी पुण्यान्भोगान्मनोनुगान् ।
        एवं कालो गतस्तस्य ययातेस्तु महात्मनः।१७।
        अनुवाद-  सर्वांग सुन्दरी अश्रुबिन्दुमती ने मन के अनुकूल सभी पुण्यमयी -भोगों का भोग करती  ,इस तरह महान आत्मा राजा ययाति का बहुत समय व्यतीत हुआ।१७।
        अक्षया निर्जराः सर्वा अपरास्तु प्रजास्तथा ।
        सर्वे लोका महाभाग विष्णुध्यानपरायणाः।१८।
        अनुवाद-  विनाश और बुढापे से रहित उनकी अन्य प्रजाऐं आदि सभी लोग भगवान विष्ण के ध्यान में लगे रहते थे।१८।
        तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पल ।
        सर्वे लोका महाभाग सुखिनः साधुसेवकाः।१९।
        सुकर्मा ने कहा- हे महाभाग पिप्पल! तपस्या ,सत्य भाव तथा भगवान विष्णु के ध्यान में लगे सभी लोग सुखी तथा साधु जनों के सेवक थे।१९।

        इतिहास में एक व्यक्ति वह हुआ जिसने अपने पिता के कहने पर  अपनी निर्दोष माता को केवल व्यभिचारी होने के शक में कत्ल कर दिया - गर्भस्थ शिशुओं की हत्या की वह भगवान बना दिया गया । जबकि एक व्यक्ति वह भी था जिसने पिता के कहने पर अपनी निर्दोष माता ओं का कत्ल नहीं किया और उल्टे पिता को ही दोषी सिद्ध किया स्वयं  परिपूर्णत्तम ब्रह्म ने  अपने अशांवतारों सहित स्वयं अवतार लिया परन्तु उनको पुरोहितों नें वह सम्मान नहीं दिया जिसपर उनका अधिकार था।  

        सन्दर्भ:-
        "इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रेऽशीतितमोऽध्यायः ।८०।


        " यदु के पुत्रों का वर्णन पद्मपुराण- सृष्टिखण्ड अध्याय-12 के अनुसार- 

        यदु के उनकी तपस्विनी पत्नी यजनशीला  यज्ञवती में  चार पुत्र  हुए जो बड़े प्रसिद्ध थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु। पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय-(13) में  यदु के पाँच पुत्र भी बताये गये हैं।

        "यदोर्यज्ञवत्यां  बभूवुश्च पञ्च देवसुतोपमाः पुत्रा ।९८। 

        सहस्रजित्तथा ज्येष्ठः क्रोष्टा नीलोञ्जिको रघुः।
        सहस्रजितो दायादः शतजिन्नाम पार्थिवः।।९९।।
        अनुवाद:-अनुवाद:-यदु के देवों के समान पाँच पुत्र उत्पन्न हुए।98।
        सबसे बड़े थे सहस्रजित , फिर क्रोष्ट्रा , नील , अंजिका और रघु ।99।
         
         राजा सहस्रजीत का पुत्र शतजित था।
        और शतजित के तीन पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। हैहय का धर्म, धर्म का नेत्र, नेत्र का कुन्ति, कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ।

        "यदोः पुत्रा बभूवुर्हि पञ्च देवसुतोपमाः। सहस्रजिदथ श्रेष्ठः क्रोष्टुर्नीलो जितो लघुः।१।
        अनुवाद:-यदु के पाँच देवताओं के समानपुत्र हुए- १-सहस्रजित - २-क्रोष्टु - ३-नील-४-अञ्जिक-५-लघु -
        सन्दर्भ-
        (वायुपुराणम्/उत्तरार्धम्/अध्यायः ३२ )

        यदोः पुत्रा बभूवुर्हि पञ्च देवसुतोपमाः ।
        सहस्रजिदथ श्रेष्ठः क्रोष्टुर्नीलोञ्जिको लघुः ॥ २,६९.२ ॥
        अनुवाद:- यदु के पाँच देवताओं के समानपुत्र हुए- १-सहस्रजित - २-क्रोष्टु - ३-नील-४-अञ्जिक-५-लघु -
        सन्दर्भ:-
        ब्रह्माण्डपुराणम्/मध्यभागः/अध्यायः ।६९। -




        स्कन्दपुराणम्‎ | खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)‎ | प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम्
            


        कार्तवीर्य  शौर्य  गाथा
        हैहय वंशावली परिचय “हैहय-कथा” का पहला भाग

        हैहय वंशावली परिचय:
        हैहयराज कार्तृवीर्य सहस्रार्जुन, सोमवंशीय क्षत्रिय थे। उनका जन्म पुरुरवा वंश में हुआ था। इस वंश में राजा नहुष और ययाति जैसे महान पराक्रमी, कलाप्रेमी, धर्मात्मा, तपस्वी और लोक-हितकारी राजा हुए थे।
           
        _______
        "भगवान्- सहस्रबाहु की पूजा का पुराणों में विधान है।
        हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः ।।
        विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।। ७५-१०६।

        अनुवाद:- हनुमान की भक्ति से आसक्त सुधीजन कार्तवीर्य अर्जुन की आराधना प्रारम्भ कर जैसा कहते  है वैसा ही फल प्राप्त करते हैं।।।१०६। 

        सन्दर्भ :- नारदपुराण पूर्वभाग 75 वाँ अध्याय :-

        जो सत्य हम कहेंगे वह कोई नहीं नहीं कहेगा-
        एक स्थान पर परशुराम ने  स्वयं- कार्तवीर्य्य अर्जुन के द्वारा वध अपना वध होने से पूर्व सहस्रबाहू की प्रशंसा करते हुए कहा-
        हे राजन्!
        (प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है ; और ना ही आगे होगा। 

        पुराणों के अतिरिक्त संहिता ग्रन्थ भी इस आख्यान का वर्णन करते हैं।

        लक्ष्मीनारायणसंहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड के समान ही हैं। प्रस्तुत करते हैं।

        लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम          (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः (४५८ ) में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार है। 
                         
        दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् ।जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।
        अर्थ:-परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को भी कार्तवीर्य ने स्तम्भित(जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित हो गये।
        श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
        ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।

        अर्थ:- जब परशुराम ने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित राजा सहस्रबाहू को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण द्वारा प्रदत्त कवच) को भी परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९। 

        _________
        तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः।
        ददौ शूलं हि परशुरामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च।८५।।
        अर्थ- उसके बाद अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन्होंने आकर परशुराम के विनाश के लिए अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म (काला-कवच) प्रदान किया।८५। 

        विशेष :- यदि परशुराम विष्णु का अवतरण थे तो विष्णु के ही अंशावतार दत्तात्रेय ने परशुराम के वध के निमित्त सहस्रबाहू को शूल और कृष्ण वर्म क्यों प्रदान किया ?
        _________   
        "जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप परशुरामकन्धरे।मूर्छामवाप रामः सःपपात श्रीहरिं स्मरन्।८६। 

        अर्थ:-तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत्त शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था  परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का नाम लेते   हुए परशुराम मूर्छित हो गिर गये।।८६।

        परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये और कोहराम मच गया , उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।

        इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं-
        यदि परशुराम हरि (विष्णु) के अवतार थे तो उन्होंने मूर्च्छित होकर मरते समय विष्णु अथवा हरि को क्यो नाम लिया।  यदि वे स्वयं विष्णु के अवतार थे तो  इसका अर्थ यही है कि परशुराम हरि अथवा विष्णु का अवतार नही थे।
        उन्हें बाद में पुरोहितों ने अवतार बना दिया

        वास्तव में सहस्रबाहू ने परशुराम का वध कर दिया था।

        परन्तु परशुराम का वध जातिवादी पुरोहित वर्ग का वर्चस्व समाप्त हो जाना ही था। इसीलिए इसी समस्या के निदान के लिए पुरोहितों ने  ब्रह्मवैवर्त- पुराण में  निम्न श्लोक बनाकर जोड़ दिया कि परशुराम को मरने बाद शिव द्वारा जीवित करना बता दिया गया । 

        और इस घटना को चमत्कारिक बना दिया गया। यह ब्राह्मण युक्ति थी । परन्तु सच्चाई यही है कि मरने के व़बाद कभी कोई जिन्दा ही नहीं हुआ।

        विशेष :- उपर्युक्त श्लोक में कृष्ण रूप में भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सहस्रबाहू की परशुराम से युद्ध होने पर रक्षा कर रहे हैं तो सहस्रबाहू को परशुराम कैसे मार सकते हैं ।

        यदि शास्त्रकार सहस्रबाहू को परशुराम द्वारा मारा जाना वर्णन करते हैं तो भी उपर्युक्त श्लोक में विष्णु को शक्तिहीन और साधारण होना ही सूचित करते हैं जोकि शास्त्रीय सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत ही है। जबकि  विष्णु सर्वशक्तिमान हैं।

        ____
          
        जिस प्रकार पुराणों में बाद में यह आख्यान जोड़ा गया कि परशुराम ने 
        "गर्भस्थ शिशुओं की हत्या की  और क्षत्रियों पत्नीयों  क्या तक को मार डाला।  यह कृत्य करना विष्णु के अवतारी का गुण  हो सकता है। ? कभी नहीं।

        महाभारत शान्तिपर्व में वर्णन है कि - परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ? यह सर्वविदित ही है। इस सन्दर्भ में देखें निम्न श्लोक
        _______

        "स पुनस्ताञ्जघान् आशु बालानपि नराधिप गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ति पुनरेवाभवत्तदा ।62।

        "जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह।        अरक्षंश्च सुतान्कान्श्चित्तदाक्षत्रिय योषितः।63।

        "त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।

        सन्दर्भ:-(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय- ४८)
        _____
        "अर्थ- 
        "नरेश्वर! परशुराम ने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक को शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी।
        राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् (स्रुवा) लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
        ________
        (ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय (४०)
        में भी वर्णन है कि (२१) बार पृथ्वी से क्षत्रिय को नष्ट कर दिया और उन क्षत्रियों की पत्नीयों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर दी ! यह आख्यान भी परशुराम को विष्णु  का अवतार सिद्ध नहीं करता-
        क्योंकि विष्णु कभी भी निर्दोष गर्भस्थ शिशुओं का वध नहीं करेंगे।

         ________
        "एवं त्रिस्सप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुन्धराम् ।।
        रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन्।७३
        "गर्भस्थं मातुरङ्कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमम्।
        जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै।७४।
        ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ३ (गणपतिखण्डः)/अध्यायः ४०
         _____

        _______

            गीताप्रेस- गोरखपुर संस्करण)
                          महाभारत: वनपर्व: 

         सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः(117) श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद :-
        रेणुका स्नान करने के लिए गंगा नदी तट पर गयी। राजन! जब वह स्नान करके लौटने लगी, उस समय अकस्मात उसकी दृष्टी मार्तिकावत देश के राजा चित्ररथ पर पड़ी, जो कमलों की माला धारण करके अपनी पत्नी के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था। 

        उस समृद्धिशाली नरेश को उस अवस्था में देखकर रेणुका ने उसकी इच्छा की। 

        उस समय इस मानसिक विकार से द्रवित हुई रेणुका जल में बेहोश-सी हो गयी।  फिर त्रस्त होकर उसने आश्रम के भीतर प्रवेश किया।  परन्तु ऋषि उसकी सब बातें जान गये।  उसे धैर्य से च्युत और ब्रह्मतेज से वंचित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली महर्षि‍ ने धिक्कारपूर्ण वचनों द्वारा उसकी निन्दा की। 

        इसी समय जमदग्नि के ज्येष्‍ठ पुत्र रुमणवान वहाँ आ गये। फिर क्रमश: सुशेण, वसु और विश्वावसु भी आ पहूंचे। भगवान जमदग्नि ने बारी-बारी से उन सभी पुत्रों को यह आज्ञा दी कि 'तुम अपनी माता का वध कर डालो', 

        परंतु मातृस्नेह उमड़ आने से वे कुछ भी बोल न सके, बेहोश-से खड़े रहे। तब महर्षि‍ ने कुपित हो उन सब पुत्रों को शाप दे दिया। 

        शापग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना( होश) खो 

        रविवार, 24 मार्च 2024इतिहास के बिखरे हुए पन्ने"-★

        २-

        Yadav Yogesh Kumar Rohi:
        बैठे और तुरन्त मृग एवं पक्षि‍यों के समान जड़-बुद्धि हो गये।
        "महाभारत: वनपर्व: अध्‍याय: (११७ )वाँ श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद
        __

        तदनन्तर शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने वाले परशुराम सबसे पीछे आश्रम पर आये। उस समय महातपस्वी महाबाहु जमदग्नि ने उनसे कहा-‘बेटा ! अपनी इस पापिनी माता को अभी मार डालो और इसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद न करो। तब परशुराम ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला। 

        इतिहास में एक व्यक्ति वह हुआ जिसने अपने पिता के कहने पर  अपनी निर्दोष माता को केवल व्यभिचारी होने के शक में कत्ल कर दिया - गर्भस्थ शिशुओं की हत्या की वह भगवान बना दिया गया । जबकि एक व्यक्ति वह भी था जिसने पिता के कहने पर अपनी निर्दोष माता ओं का कत्ल नहीं किया और उल्टे पिता को ही दोषी सिद्ध किया स्वयं  परिपूर्णत्तम ब्रह्म ने  अपने अशांवतारों सहित स्वयं अवतार लिया परन्तु उनको पुरोहितों नें वह सम्मान नहीं दिया जिसपर उनका अधिकार था।  

        __
        कालिका पुराण में भी महाभारत वन पर्व के समान कथा वर्णित है।

        "एकदा तस्य जननी स्नानार्थं रेणुका गता।
        गङ्गातोये ह्यथापश्यन्नाम्ना चित्ररथं नृपम्।८३.८।
        अनुवाद:-
        एक बार परशुराम की माता रेणुका स्नान के
        लिए गयीं तभी  गंगा के जल में स्नान करते हुए  चित्ररथ नामक एक राजा को देखा।८।

        "भार्याभिः सदृशीभिश्च जलक्रीडारतं शुभम्।
        सुमालिनं सुवस्त्रं तं तरुणं चन्द्रमालिनम्। ८३.९ ।।
        अनुवाद:-
        वह अपनी सुन्दर पत्नीयों के साथ शुभ जल क्रीडा
        में रत था। वह राजा सुन्दर मालाओं  सुन्दर वस्त्र
        से युक्त युवा चन्द्रमा के समान सुशोभित 
        हो रहा था।९।

        "तथाविधं नृपं दृष्ट्वा सञ्जातमदना भृशम्।
        रेणुका स्पृहयामास तस्मै राज्ञे सुवर्चसे। ८३.१० ।
        अनुवाद:-
        उस प्रकार राजा को देखकर वह रेणुका अत्यधिक काम से पीडित हो गयी और रेणुका ने उस वर्चस्व शाली राजा की इच्छा की।१०।
        "स्पृहायुतायास्तस्यास्तु संक्लेदः समजायत।
        विचेतनाम्भसा क्लिन्ना त्रस्ता सा स्वाश्रमं ययौ।८३.११ ।  
        अनुवाद:-
        राजा की इच्छा करती हुई वह रज:स्रवित हो गयी
        और चेतना हीन रज स्राव के जल से भीगी हुई डरी हुई अपने आश्रम को गयी।।११।

        "अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृतां तथा।
        धिग् धिक्काररतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः। ८३.१२ ।।
        अनुवाद:-
        उस रेणुका को जमदग्नि ने विकृत अवस्था में जानकर  उसकी सब प्रकार से निन्दा की और उस रति पीडिता को धिक्कारा।१२।

        "ततः स तनयान् प्राह चतुरः प्रथमं मुनिः।
        रुषण्वत्प्रमुखान् सर्वानेकैकं क्रमतो द्रुतम्।८३.१३। 
        अनुवाद:-
        तब  क्रोधित जमदग्नि ने अपने रुषणवत् आदि चारों पुत्रों से एक एक से कहा। १३।

        "छिन्धीमां पापनिरतां रेणुकां व्यभिचारिणीम्।
        ते तद्वचो नैव चक्रुर्मूकाश्चासन् जडा इव।८३.१४। 
        अनुवाद:-
        जल्दी ही पाप में निरत इस  रेणुका को  काट दो 
        लेकिन  पुत्र उनकी बात न मान कर मूक और जड़ ही बने रहे।१४।

        कुपितो जमदग्निस्ताञ्छशापेति विचेतसः।
        भवध्वं यूयमाचिराज्जडा गोबुद्धिर्गर्द्धिता:।
         ८३.१५ ।।अनुवाद:-

        क्रोधित जमदग्नि ने उन सबको शाप दिया की सभी जड़ बुद्धि हो जाएं । कि तुम सब  सदैव के लिए घृणित   जड़ गो बुद्धि को प्राप्त हो जाओ।१५।

        अथाजगाम चरमो जामदग्न्येऽतिवीर्यवान्।।
        तं च रामं पिता प्राह पापिष्ठां छिन्धि मातरम्।
         ८३.१६ ।।
        अनुवाद:-
        तभी जमदग्नि के अन्तिम पुत्र शक्तिशाली परशुराम आये  जमदग्नि ने परशुराम से कहा पापयुक्ता इस माता को तुम काट दो।१६।

        स भ्रातृंश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा ज्ञानविवर्जितान्।। 
        पित्रा शप्तान् महातेजाः प्रसूं परशुनाच्छिनत्।
        ८३.१७ ।।
        अनुवाद:-
        पिता के  द्वारा  शापित ज्ञान से शून्य अपने भाइयों को देखकर उस परशुराम ने अपनी माता रेणुका का शिर फरसा से काट दिया ।

        "रामेण रेणुकां छिन्नां दृष्ट्वा विक्रोधनोऽभवत्।। 
        जमदग्निः प्रसन्नः सन्निति वाचमुवाच ह।८३.१८ ।।
        अनुवाद:-
        परशुराम के द्वारा कटी हुई रेणुका को देखकर 
        जमदग्नि क्रोधरहित हो गये। और जमदग्नि प्रसन्न होते हुए यह वचन बोले!।१८।

        "प्रीतोऽस्मि पुत्र भद्र ते यत् त्वया मद्वचः कृतम्।। ८३.१८- १/२।
        अनुवाद:-
        मैं प्रसन्न हूँ। पुत्र तेरा कल्याण हो !  तू मुझसे कुछ माँग ले!।१९।

        "श्रीकालिकापुराणे त्र्यशीतितमोऽध्यायः।८३।

        शास्त्रों के कुछ गले और दोगले विधान जो जातीय द्वेष की परिणित थे। -
        उनसे प्रभावित पुरोहितों नें पुराणों में कालान्तर में लेखन कार्य जोड़ दिए-

        सहस्रबाहु की कथा को विपरीत  अर्थ -विधि से लिखा गया

        परशुराम ने  कभी भी पृथ्वी से २१ बार क्षत्रिय हैहयवंशीयों का वध किया ही नहीं।
        परन्तु इस अस्तित्व हीन बात को बड़ा- चढ़ाकर बाद में लिखा गया।

         यज्ञ केवल देवों की प्रसन्नता के लिए किए जाते थे और ये यज्ञ भी निर्दोष पशुओं पक्षीयों की हत्या के बिना सम्पन्न नहीं माने जाते थे। इन्द्र स्वयं यज्ञ में पशुमेध का समर्थ था।
        वेदों में तथा पुराणों में इन्द्र का चरित्र पूर्णतया राजसिक है । वह पुराणों में तो अपनी कामुक प्रवृत्ति के लिए जाना जाता है। वेदों वनो  भी उसका विलासी चरित्र उभर कर आता है। उसमें सत्व गण का कोई भाव नहीं है। भोग विलास में निरन्तर लगा हुआ इन्द्र आध्यात्मिक ज्ञान से विमुख और परे है।
        ____
        महाभारत
         के आदि पर्व में इन्द्र का यज्ञ भूमि में सोम पीकर उन्मत्त होने का वर्णन है।
        सोम एक नशीला पदार्थ था जिसे पारसी धर्म ग्रन्थों में होम कहा गया है क्योंकि फारसी में प्राय: वैदिक भाषा के " स" वर्ण का उच्चारण "ह"वर्ण के रूप में होता है"
        प्राचीन भारत में सुर, सुरा, सोम और मदिरा आदि का बहुत प्रचलन था। कहते हैं कि इंद्र की सभा में सुंदरियों के नृत्य के बीच सुरों के साथ सुरापान होता था। 
        सोम रस : सभी देवता लोग सोमरस का सेवन करते थे। प्रमाण- 'यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इंद्रदेव को प्राप्त हो।-
        सुतपाव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये ।
        सोमासो दध्याशिरः ॥५॥

        सुतऽपाव्ने । सुताः । इमे । शुचयः । यन्ति । वीतये।सोमासः । दधिऽआशिरः ॥५।
        सायणभाष्य:-
        “इमे "सोमासः अस्मिन् कर्मणि संपादिताः सोमाः "सुतपाव्ने= अभिषुतस्य सोमस्य पानकर्त्रे । षष्ठ्यर्थे चतुर्थी । तस्य पातुः =“वीतये भक्षणार्थं "यन्ति तमेव प्राप्नुवन्ति । कीदृशाः सोमाः । "सुता:= अभिषुताः । “शुचयः =दशापवित्रेण शोधितत्वात् शुद्धाः । "दध्याशिरः =अवनीयमानं दधि आशीर्दोषघातकं येषां सोमानां ते दध्याशिरः ।। सुतपाव्ने । सुतं पिबतीति सुतपावा । वनिप: पित्त्वात् धातुस्वर एव शिष्यते । समासे द्वितीयापूर्वपदप्रकृतिस्वरं बाधित्वा कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम् । शुचयः । शुच दीप्तौ'। ‘इन्' इत्यनुवृत्तौ ‘इगुपधात्कित्' (उ. सू. ४. ५५९) इति इन् । कित्त्वाल्लघूपधगुणाभावः। नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् । वीतये । ‘ वि गतिप्रजनकान्त्यशनखादनेषु' इत्यस्मात् ' मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः ' ( पा. सू. ३, ३. ९६ ) इति क्तिन् उदात्तः । सोमासः । ‘ षुञ् अभिषवे'। ‘ अर्तिस्तुसुहुसृधृक्षि° ' ( उ. सू. १. १३७ ) इत्यादिना मन् । नित्त्वादाद्युदात्तः । ‘ आज्जसेरसुक्' (पा. सू. ७. १. ५० } इत्यसुगागमः । दध्याशिरः । दधाति पुष्णातीति दधि । ‘डुधाञ् धारणपोषणयोः । ‘ आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च ' ( पा. सू. ३. २. १७१ ) इति किन् । लिङ्वद्भावात् द्विर्भावः । कित्त्वादाकारलोपः । नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् ।शॄ ‘हिंसायाम् ' । शृणाति हिनस्ति सोमेऽवनीयमानं सत् सोमस्य स्वाभाविकं रसम्  ऋजीषत्वप्रयुक्तं नीरसं दोषं वा इत्याशीः । क्विपि ‘ ऋत इद्धातोः ' ( पा. सू. ७, १. १०० ) इति इत्वं रपरत्वं च । दध्येव आशीर्येषां सोमानां ते दध्याशिरः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ।९ ॥ (ऋग्वेद-1/5/5).
        तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे ।
        वायो तान्प्रस्थितान्पिब ॥१॥
        "शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदुनिम्नं न रीयते।। 
        (ऋग्वेद-1/23/1).. 
        शतं वा यः शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम् ।
        एदु निम्नं न रीयते ॥२॥
        (ऋग्वेद-1/30/2) 
        इन्द्रा य गाव आशिरं दुदुह्रे वज्रिणे मधु” (ऋग्वेद- ८/, ५८,/ ६ )
        इमे त इन्द्र सोमास्तीव्रा अस्मे सुतासः ।
        शुक्रा आशिरं याचन्ते ॥१०॥
        ताँ आशिरं पुरोळाशमिन्द्रेमं सोमं श्रीणीहि ।
        रेवन्तं हि त्वा शृणोमि ॥११॥
        हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।
        ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥१२॥

        सुरापान : प्राचीन काल में सुरा एक प्रकार से शराब ही थी कहते हैं कि सुरों द्वारा ग्रहण की जाने वाली हृष्ट (बलवर्धक) प्रमुदित (उल्लासमयी) वारुणी (पेय) इसीलिए सुरा कहलाई। कुछ देवता सुरापान करते थे। 
        हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।
        ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥१२॥ (ऋग्वेदः सूक्तं 8/2/12)
        अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर नंगे  होकर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात ही मचाया करते हैं।
        वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,प्रसंग समुद्र मंथन.

        विश्वामित्र राम लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे बताते हुए कहते हैं ....
        असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः 
        हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)
        ('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये 
        और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई.
        वारुणी को   ग्रहण करने से देवतालोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
        इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी"

        धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं।
        धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, असु राति अर्थात् जो प्राण देता है, के रूप में चित्रित किया गया है
        'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'असु युक्त अथवा प्राण -युक्त के अर्थ में किया गया है । और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है।
        'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८)
        और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है।
        विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक भी  है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है।
        परन्तु लौकिक संस्कृत में सुर के विपरीत असुर हैं।
        वाल्मीकि रामायण को बाल काण्ड नें सुरा पीने वाले को सुर" ( देव) कहा है ।
        वाल्मीकि रामायण-
        बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
         सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है- 
        “सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
        "सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥ ३८।
        (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड)
        उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है. 
        चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे। 

        वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,
        प्रसंग ( समुद्र मंथन.) विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं ।
        और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे में बताते हुए कहते हैं ।

        "असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः। (३८)
         ('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई. 

        वारुणी को ग्रहण करने से देवता लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
        इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी" के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिन्द्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है.।
        ____
        ये तो सर्वविदित ही है कि इन्द्र सुरा और सुन्दरियों के रूपरस का  पान करता रहता था। 
        इन्द्र एक व्यभिचारी देव था। कृष्ण ने सर्वप्रथम इन्द्र के इस कुत्सित कर्म को दृष्टिगत करते हुए उसकी पूजा पर रोक लगाई।
        तो इन्द्रोपासक पुरोहितों ने षड्यन्त्र पूर्वक कृष्ण के चरित्र को इन्द्र से भी अधिक दूषित करके चित्रित किया गया। और जो देवसंस्कृति के समर्थन में कृष्ण ने काम नहीं किया उसे भी कृष्ण के नाम पर जोड़कर कृष्ण के विचारों के साथ भी षड्यन्त्र कर दिया।
        इन्द्र सुरापान करके उन्मत्त रहता था । और सुरापान करने वाला ही कामुक और उन्मत्त होकर व्यवहार करता है।
        अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर नंगे  होकर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात ही मचाया करते हैं।
        हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् । ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥(ऋग्वेद -8/2./12)
        पदान्वय:-सुरायाम्- पीतासो= सुरा पीने वाले।दुर्मदासो= बुरी तरह उन्मत्त होकर। नग्ना हृत्सु:- नंगे होकर छाती या हृदय में स्थित । ऊध: - स्तनो को  । जरन्ते - जारके समान मसलते या जीर्ण करते हैं।
        (न ) जिस प्रकार- (दुर्मदास:- दूषित मद से उन्मत्त लोग। युध्यन्ते-युद्ध करते हैं। हृत्सु- हृदयों में। सुरायाम्- पीतास:- सुरा पीने वाले लोग। नग्ना: - नंगे लोग।ऊध:-स्तन या छाती। जरन्ते- जारों की तरह मसलते रहते हैं। जीर्ण करते रहते हैं।
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        इन्द्र भी इसी प्रकार का चरित्र व्यवहार करता है।
        "व्युषिताश्व इति ख्यातो बभूव किल पार्थिवः ।पुरा परमधर्मिष्ठः पूरोर्वंशविवर्धनः ।७।
        तस्मिंश्च यजमाने वै धर्मात्मनि महात्मनि।उपागमंस्ततो देवाः सेन्द्राः सह महर्षिभिः।८।
        अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।व्युषिताश्वस्य राजर्षेस्ततो यज्ञे महात्मनः।९।
        महाभारत आदिपर्व- (1/120/ 7-8-9-10)
          "अनुवाद :-एक समय वे महाबाहु धर्मात्‍मा नरेश व्युषिताश्व जब यज्ञ करने लगे, उस समय इन्‍द्र आदि देवता देवर्षियों के साथ उस यज्ञ में पधारे थे। उसमें देवराज इन्‍द्र सोमपान करके उन्‍मत्त हो उठे !थे तथा ब्राह्मण लोग पर्याप्त दक्षिणा पाकर हर्ष से फूल उठे थे।

        इन्द्रोपासक पुरोहित भी केवल भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए इन्द्र की स्तुति करते हैं। इन्द्र के उपासक केवल स्वर्ग" सुन्दर स्त्री और भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए ही इन्द्र की उपासना करते है।
        इन्द्र बहुत से बैलों( उक्षण) को खाने वाला और अपनी यज्ञों में पशु बलि माँगता है।
        ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्त-(86) जो वृषाकपि के नाम से है   उसकी समस्त ऋचाऐं इन्द्र के विलासी चरित्र का दिग्दर्शन करती हैं।
        ऋग्वेदः सूक्तं १०/८६/
                        " वृषाकपिसूक्तम्
        "तैइस ऋचाओं का यह वृषाकपि सूक्त है जिसमें  वृषाकपि नामक इन्द्र अन्य पत्नू से उत्पन्न एक पुत्र था इन्द्र और इन्द्राणी( शचि) का परस्पर संवाद है
        वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥१॥ 
        "सोम-अभिषव करने के लिए यज्ञ में मुझ इन्द्र द्वारा आज्ञा दिए हुए स्तोताओं ने वृषाकपि का पूजन किया। वहाँ उपस्थित दैदीप्मीन मुझ  इन्द्र की मेरे द्वारा प्रेरित होकर भी उन स्तोताओं ने स्तुति नहीं की किन्तु मेरे पुत्र वृषाकपि की ही स्तुति की जिस सोम से बढ़े हुए यज्ञो में स्वामी वृषाकपि मेरा पुत्र और मेरा मित्र होकर सोमपान में हालांकि हर्षित हुआ। तो भी उन यज्ञों में मैं इन्द्र सम्पूर्ण जगत में श्रेष्ठतर हूँ। आचार्य माधव भट्ट के अनुयायी इस ऋचा को इन्द्राणी का वचन मानते हैं। उनका कहना है कि इन्द्राणी के लिए अर्पित हवि को वृषाकपि के स्थान में विद्यमान किसी अन्य मृग ( पशु ) ने दूषित कर दिया है। वहाँ इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। उस पक्ष में तो इस ऋचा का यह अर्थ है।)सोमाभिषव करने के लिए आज्ञा दिए गये  यजमान सोनाभिषव की प्रक्रिया से अलग हो गये और मेरे पति इन्द्रदेव की   स्तोता उस जनपद में स्तुति नहीं करते हैं। जिस जनपद में बढ़े हुए धनों  में स्वामी वृषाकपि  हर्षित होता है। मेरे मित्र और मेरे प्रिय इन्द्र देव सब जगत् में श्रेष्ठतर हैं।१।
        परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः। नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥२॥
          "अनुवाद :- हे इन्द्र तुम अत्यन्त चलकर वृषाकपि के पास जाते हो। अर्थात् अन्यत्र सोम पीने के लिए नहीं जाते हो। वही इन्द्र समस्त जगत् में श्रेष्ठतर है।२।
        किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः। यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्रप उत्तरः ॥३॥
          "अनुवाद :-  हे इन्द्र हरित वर्ण वाले वृषाकपि ने तुम्हारा क्या प्रिय कार्य किया ? क्यों कि वृषाकपि मृग पशु) जाति का है। जिस वृषा कपि के तुम इन्द्र उदार होकर पुष्टिकर धन शीघ्र न करते हो। जो इन्द्र समस्त जगति में श्रेष्ठतर है।३।
        यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि । श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥
          "अनुवाद :-  हे इन्द्र तुम जिस अभिलाषित   वृषाकपि का पालन करते हो उस वृषाकपि को सूकर  खाने की इच्छाकरने वाला कुत्ता शीघ्र भक्षण करे।और उसके कान को पकड़े । क्योंकि कुत्ता सूअर को खाना चाहता है। इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठतर है।४।
        प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत् ।शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥
          "अनुवाद :-  मुझ इन्द्राणी के लिए यजमानों द्रारा अर्पितप्रिय और  विशेषरूप से घृतयुक्त  हवियोंं को वृषाकपि के स्थान में विद्मान किसी कपि ने दूषित कर दिया। तत्पश्चात् मेरी इच्छा गै कि उस कि स्वामी वृषाकपि का शिर शीघ्र काट दूँ। मैं इस दुष्ट कर्म करने वाले वृषाकपि के लिए सुखकर न होऊँ। इस मुझ इन्द्राणी के पति इन्द्र समस्त जगत् में श्रेष्ठतर हैं।५।
        न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत् ।न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥६॥
          "अनुवाद :-
        मुझ इन्द्राणी से दूसरी कोई नारी अत्यन्त सौभाग्य वती नहीं है। मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी अत्यन्त सुखी अथवा सुपुत्रों वाली नहीं है। जैसा कि यह ऋचा कहती है ।६।
        "यह बहुत रज वाली रमणी मुझ स्वनय राजा को बहुत बार भोग( संभोग) प्रदान करती है। मेरे से दूसरी नारी पुरुषो को अत्यधिक रूप से अपना शरीर समर्पित करने वाली नहीं है। मेरी तुलना में दूसरी स्त्री संभोग में लीन अपनी दौंनों जाघों को ऊपर उठाने वाली नहीं है। मेरे पति समस्त जगत में उत्कृष्टतर हैं।६।
        _____
        वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।
        ______

        इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 
        इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। 
        इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है 
        उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्ग भविष्यति ।भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥
         "अनुवाद :-"इस प्रकार इन्द्राणी द्रारा बुरा भला कहा हुआ वृषाकपि कहता है कि हे माता ! सुन्दर लाभभ मे जिस प्रकार से तुमने कहा है। वैसा ही अंग शीघ्र हो जाये । तुम्हारे इस प्रेम करने को स्वीकार करने में मेरा क्या प्रयोजन है। मेरे पिता के लिए तुम्हारी यौनि उपयुक्त हो ।और मेरे पिता के लिए तुम्हीरी जंघा उपयुक्त हो। मेरे पिता इन्द्र को आपका शिर प्रेमालाप करने में कोयल आदि पक्षी  की तरह हर्षिकत करे। मेरे पिता इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।७।
        इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों में ही जीवन का आनन्द खोजता है । इन्द्र शचि से कहता है  कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-
        किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥
         "अनुवाद :- इन्द्र  क्रोधित इन्द्राणी को शान्त करते हुए कहता है कि हे सुन्दर भुजाओं वाली ,सुन्दर अंगुरियों वाली बड़े बालों वाली चौड़ी जाँघो वाली  तथा वीर पत्नी इन्द्राणी! तुम हमारे पुत्र वृषाकपि पर क्यो क्रोध कर रही हो।जिसका पिता मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।८।


        अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥९॥
        संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥
        इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।नह्यस्या अपरं चन साकं मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥
        नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेरृते ।यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥
        _____   
        वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे । घसत्ते इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥
         "अनुवाद :-
        मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी सौभाग्य शाली नहीं  है । कामनाओं की वर्षा करने से वृषभ अभीष्टदेश को जाने से इन्द्र वृषाकपि है। हे धनवाली और उत्तम पुत्र वाली और पुत्र वधू वाली शचि ! तुम्हारे ये पति इन्द्र वीर्य दान करने नें समर्थ पशु ( बैल)को शीघ्र खाऐं। और तुम्हें सुख कर हवि प्रदान करें । तुम्हारे पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।१३ ।
        ______
        उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् ।उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥
         "अनुवाद :-
        इसके बाद इन्द्र कहता है।  मेरी पत्नी इन्द्राणी द्वारा भेजे हुए याज्ञिक   पन्द्रह से बीस बैलों( वृषभों) को एक साथ पकाते हैं। और उन्हें  मैं  इन्द्र खाता हूँ । तथा उन्हें खाकर मोटा होता हूँ।मेरी मैंने कोशों को यज्ञ करने वाले सोम रस से भरते हैं। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१४।


        वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत् मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥
         "अनुवाद :- इसके बाद इन्द्राणी कहती है कि हे  इन्द्र! जैसे तेज लिंग या सींगों वाला वृषभ गायों के समूह के बीच  में आवाज करता हुआ प्रसन्न होता है। वैसे ही तुम मेरे साथ रमण( सैक्स ) करो । तुम्हारे हृदय के लिए दधिमन्थन के सयय में शब्द करता हुआ  कल्याण कारी हो। तुम्हारे लिए इन्द्राणी भावाभिलाषिणी जिस सोम को अभिषुत करती है। वह सोम भी कल्याण कारी हो । मेरे पति समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१५।
        न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत् । सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥
         "अनुवाद :- 
        हे इन्द्र वह मनुष्य  कभी मैथुन नहीं कर सकता  , जिस पुरुष का लिंग जंघाओं के बीच में लम्बा होकर लटक जाता है। वही पुरुष स्त्री के साथ मैथुन कर सकता है  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग जम्हाई लेता हो । इन्द्राणी का पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१६।

        न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥
        अनुवाद :-वह मनुष्य मैथुन नहीं कर सकता  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग लटक जाता है।किन्तु वही मनुष्य मैथुन कर सकता है जिस मनुष्य का लिंग जंघाओं के बीच में  अकड़ता जम्हाई लेता है।
        शेष अर्थ पूर्ववत् है। यहाँ पूर्वोक्त का अन्तर  देखने योग्य है। पहली ऋचा में इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। और उस दूसरी ऋचा में इन्द्र इन्द्राणी से कहता है। इस प्रकार दौंनों में कोई विरोध नहीं है।१७। कामशास्त्र की खुलकर वार्ता है।
        अर्थ:- (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे इन्द्र  (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार  (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही (यस्य कपृत्) जिसका लिंग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों  जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता लटकता है (स-इत्-ईशे) वह ही समर्थ होता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला लिंग  विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह मैथुन  नहीं कर सकता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमों  वाला अङ्ग लिंग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर -जङ्घाओं के बीच में लिंग लम्बा होता है, वह ही स्त्रीयों पर अधिकार कर पाता है॥१७॥
        अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत् ।असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥
        १८ हे  “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं= हिंसितं “विदत् =विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं =शस्त्रं "सूनाम्= उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं =भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “{एधस्य काष्ठस्य} “आचितं=संगृहीतं "अनः =शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥
        बैल पकाने का जिक्र-
        अनुवाद :-
        सायण- भाष्य-−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-है।(परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य- कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्)  नव अन्न हवि को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः)- पकाने के लिये ईंधन के भरे अन:-छकड़े को (इन हत्या के साधनों को) चयनित कर लिया ॥१८॥


        अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम् । पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥
        अनुवाद :-
        तत्पश्चात इन्द्र कहता है। मैं इन्द्र यजमानों को देखता हुआ। दास और आर्य को अलग करता हुआ यज्ञ में जाता हूँ।तथा हवि पकाने वाले औरसोम अभिषव करने वाले यजमान का  परिपक्व मन से सोम अभिषव करने वाले यजमान का सोम पीता हूँ। तथा बुद्धि मान यजमान को मैं इन्द्र देखता हूँ। जो मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१९।
        धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहाँ उप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥
        अनुवाद :-जल शून्य और जल विहीन देश धन्व होता है। काटने योग्य वन कृन्तत्र होता है।जो जल शून्य और वन विहीन देश होता है। ऐसा वन मृगों के निर्वासन वाला होता है। किन्तु सघन जल नहीं होता है उस शत्रु गृह और हमारे घर के बीच कितने योजनों की दूरी है। अर्थात वह हमारा घर अत्यन्त दूर नहीं हैं।अत: निकटवर्ती शत्रुगगृह से ही हे वृषाकपि ! तुम हमारे घर में विशेष रूप में चले आओ और आकर यज्ञ गृहों के समीप जाओ । क्योंकि मैं इन्द्र सबसे अधिक श्रेष्ठ हूँ।२०।

        पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै । य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥
        अनुवाद :-आकर वापिस गये हुए वृषाकपि से इन्द्र कहते हैं। हे वृषाकपि तुम फिर हमारी ओर आओ!और तुम्हारे आने पर तुम्हारे चित को प्रसन्न करने वाले कर्मों को इन्द्राणी और मैं इन्द्र हम दोनों  विचार कर पूर्ण करें ! उदय होकर सब प्राणियों की नींद के नाशक जो सूर्य हैं जैसे वे अस्त होते हैं वैसे ही तुम मार्ग में अपने आवास को जाते हो। क्योंकि मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ ।२१।

        यदुदञ्चो वृषाकपे ! गृहमिन्द्राजगन्तन । क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगञ्जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥
        अनुवाद :-जाकर फिर आये हुए वृषाकपि से इन्द्र पूछते हैं। हे परम ऐश्वर्य शाली वृषाकपि ! तुम सीधे खड़े़ होकर मेरे घर में आओ ! एक वृषाकप् के लिए बहुवचन पद पूजा-( सम्मान) के लिए प्रयुक्त है। हे वृषाकपि वहाँ आप से सम्बन्धित बहुत से पाथिक( मार्गसम्बन्धी) रसों का उपभोक्ता वह मृग कहाँ रह गया अथवा मनुष्यों को हर्षित करने वाला मृग किस देश को चला गया। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ ।२२।

        पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् । भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥
        अनुवाद :-
        इन्द्र के द्वारा छोड़े जाते हुए वाण से  इस मन्त्र के द्वारा वषाकपि आश करते हैं। कि हे इन्द्र द्वारा छोड़े हुए वाण पर्शु नाम की मृगी थी इस मनु पुत्री पर्ष़शु ने एक साथ बीस पुत्रों को जन्म दिया उसका उदर गर्भ में स्थित बीस पुत्रों से पुष्ट हो गया था। उस पर्शु का कल्याण हो मेरे पिता इन्द्र जगत में सबसे श्रेष्ठ हैं।२३।
        सायणभाष्यम्: - मूल संस्कृत रूप-
        "यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् ।निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थमहेश्वरम् ॥
        अष्टमाष्टकस्य चतुर्थोऽध्याय आरभ्यते । तत्र ‘वि हि ' इति त्रयोविंशत्यृचं द्वितीयं सूक्तम् ।
        _____
        वृषाकपिर्नामेन्द्रस्य पुत्रः । स चेन्द्राणीन्द्रश्चैते त्रयः संहताः संविवादं कृतवन्तः । तत्र ‘वि हि सोतोरसृक्षत ' : किं सुबाहो स्वङ्गुरे ' ‘ इन्द्राणीमासु नारिषु ' इति द्वे ‘ उक्ष्णो हि मे ' ' अयमेमि' इति चतस्र इत्येता नवर्च इन्द्रवाक्यानि । अतस्तासामिन्द्र ऋषिः । ‘ पराहीन्द्र ' इति पञ्च ‘ अवीराम् ' इति द्वे ' वृषभो न तिग्मशृङ्गः' इत्याद्याश्चतस्र इत्येकादशर्चं इन्द्राण्या वाक्यानि । अतस्तासामिन्द्राण्यृषिः । ‘ उवे अम्ब ' ‘ वृषाकपायि रेवति ' • पशुर्ह नाम ' इति तिस्रो वृषाकपेर्वाक्यानि । अतस्तासां वृषाकपिर्ऋषिः । सर्वं सूक्तमैन्द्रं पञ्चपदापङ्क्तिच्छन्दस्कम् । तथा चानुक्रान्तं -- वि हि त्र्यधिकैन्द्रो वृषाकपिरिन्द्राणीन्द्रश्च समूदिरे पाङ्तम् ' इति । षष्ठेऽहनि ब्राह्मणाच्छंसिन उक्थ्यशस्त्र एतत्सूक्तम् । सूत्रितं च ---- ‘ अथ वृषाकपिं शंसेद्यथा होताज्याद्यां चतुर्थे ' ( आश्व. श्रौ. ८. ३) इति । यदि षष्ठे:हन्युक्थ्यस्तोत्राणि द्विपदासु न स्तुवीरन् सामगा यदि वेदमहरग्निष्टोमः स्यात्तदानीं ब्राह्मणाच्छंसी माध्यंदिने सवन आरम्भणीयाभ्यः ऊर्ध्वमेतत्सूक्तं शंसेद्विश्वजित्यपि । तथा च सूत्रितं -- सुकीर्तिं ब्राह्मणाच्छंसी वृषाकपिं च पङ्क्तिशंसम् ' (आश्व. श्रौ. ८. ४) इति ।। 
        "अनुवादभाष्य :-
         ॥१।।सोतोः =सोमाभिषवं कर्तुं "वि "असृक्षत । यागं प्रति मया विसृष्टा अनुज्ञाताः स्तोतारो= वृषाकपेर्यष्टारः । “हि= इति पूरणः । तत्र "देवं= द्योतमानम् "इन्द्रं मां “न “अमंसत । मया प्रेरिताः सन्तोऽपि ते स्तोतारो न स्तुतवन्तः । किंतु मम पुत्रं वृषाकपिमेव स्तुतवन्तः । "यत्र येषु “पुष्टेषु सोमेन प्रवृद्धेषु यागेषु "अर्यः= स्वामी “वृषाकपिः मम पुत्रः मत्सखा मम सखिभूतः सन् “अमदत् सोमपानेन हृष्टोऽभूत् । यद्यप्येवं तथापि “इन्द्रः अहं "विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगतः "उत्तरः =उत्कृष्टतरः। माधवभट्टास्तु वि हि सोतोरित्येषर्गिन्द्राण्या वाक्यमिति मन्यन्ते। तथा च तद्वचनम् । इन्द्राण्यै कल्पितं हविः कश्चिन्मृगोऽदूदुषदिन्द्रपुत्रस्य वृषाकपेर्विषये वर्तमानः । तत्रेन्द्रमिन्द्राणी वदति । तस्मिन्पक्षे त्वस्या ऋचोऽयमर्थः । सोतोः= सोमाभिषवं कर्तुं वि ह्यसृक्षत। उपरतसोमाभिषवा आसन् यजमाना इत्यर्थः । किंच मम पतिमिन्द्रं देवं नामंसत स्तोतारो न स्तुवन्ति । कुत्रेति अत्राह । यत्र यस्मिन् जनपदे पुष्टेषु प्रवृद्धेषु धनेष्वर्यः स्वामी वृषाकपिरमदत् । मत्सखा मत्प्रियश्चेन्द्रो विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगत उत्तरः उत्कृष्टतरः ।।
        "अनुवाद भाष्य :-
        ॥२।हे “इन्द्र त्वम् "अति {अत्यन्तं “व्यथिः= चलितः "वृषाकपेः =वृषाकपिं “परा “धावसि= प्रतिगच्छसि । "अन्यत्र "सोमपीतये सोमपानाय “नो "अह नैव च “प्र “विन्दसि प्रगच्छसीत्यर्थः । सोऽयम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ।
        "अनुवाद भाष्य :-

        ॥३।हे इन्द्र “त्वां प्रति "हरितः= हरितवर्णः "मृगः= मृगभूतः "अयं वृषाकपिः। मृगजातिर्हि =वृषाकपि। "किं प्रियं "चकार अकार्षीत् । "यस्मै वृषाकपये "पुष्टिमत्= पोषयुक्तं "वसु= धनम् "अर्यो “वा उदार इव स त्वं "नु क्षिप्रम् “इरस्यसीत् प्रयच्छस्येव । यः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥
        "अनुवाद भाष्य :-

        ५=“मे मह्यमिन्द्राण्यै “तष्टानि यजमानैः कल्पितानि “प्रिया प्रियाणि “व्यक्ता व्यक्तान्याज्यैर्विशेषेणाक्तानि हवींषि कश्चित् वृषाकपेर्विषये वर्तमानः "कपिः “व्यदूदुषत्= दूषयामास । ततोऽहम् “अस्य तत्कपिस्वामिनो वृषाकपेः “शिरो “नु क्षिप्रं "राविषं लुनीयाम् । "दुष्कृते दुष्टस्य कर्मणः कर्त्रे वृषाकपयेऽस्मै {"सुगं= सुखं} न "भुवम् अहं न भवेयम् । अस्मै सुखप्रदात्री न भवामीत्यर्थः । अस्या मम पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥१।
        "अनुवाद :-भाष्य
        6-“मत् मत्तोऽन्या "स्त्री नारी "सुभसत्तरा अतिशयेन सुभगा "न "भुवत् न भवति । नास्तीत्यर्थः । किंच मत्तोऽन्या स्त्री "सुयाशुतरा अतिशयेन सुसुखातिशयेन

        सुपुत्रा वा "न भवति । तथा च मन्त्रान्तरं -- ददाति मह्यं यादुरी =याशूनां =भोज्या शता' (ऋ. सं. १. १२६. ६) इति । किंच “मत् मत्तोऽन्या “प्रतिच्यवीयसी पुमांसं प्रति शरीरस्यात्यन्तं च्यावयित्री “न अस्ति । किंच मत्तोऽन्या स्त्री “सक्थ्युद्यमीयसी संभोगेऽत्यन्तमुत्क्षेप्त्री “न अस्ति । न मत्तोऽन्या काचिदपि नारी मैथुनेऽनुगुणं!
        अयं शरारु:) यह घातक  (माम्) मुझको (अवीराम् इव) अबला की भाँति (अभि मन्यते) मानता है ।(वीरिणी अस्मि) वीराङ्गना हूँ (इन्द्रपत्नी) मैं इन्द्र की पत्नी हूँ (मरुत् सखा)  मरुत जिनके मित्र है। (इन्द्रः)  (विश्वस्मात् उत्तर:) संसार में सबसे श्रेष्ठ है।
        "अनुवाद :-भाष्य
        मुझ इन्द्राणी से दूसरी कोई नारी अत्यन्त सौभाग्य वती नहीं है। मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी अत्यन्त सुखी अथवा सुपुत्रों वाली नहीं है। जैसा कि यह ऋचा कहती है ।६।
        "यह बहुत रज वाली रमणी मुझ सुना राजा को बहुत बार भोग( संभोग) प्रदान करती है। मेरे से दूसरी नारी पुरुषो को अत्यधिक रूप से अपना शरीर समर्पित करने वाली नहीं है। मेरी तुलना में दूसरी स्त्री संभोग में अपनी दौंनों जाघों को ऊपर उठाने वाली नहीं है। मेरे पति समस्त जगत में उत्कृष्ट हैं।६।
        ______
        वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।
        ______

        "इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है!
        इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। 
        इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है 
        इन्द्र शचि से कहता है  कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-
        "नाहमिन्द्राणि शरण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते।‘‘
        _____ 
        ब्याज पर उधार में दिए जाने वाली वस्तुओं में स्वर्ण, अन्न और गायों के साथ स्त्रियों का भी उल्लेख आता है। 
        सम्भवतः इसी कारण पी0वी0 काणे जी लिखते हैं, ‘‘ऋग्वेद (1.109.12) गलत सन्दर्भ), मैत्रायाणी संहिता (1.10.1), निरूक्त (6.9,1.3) तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.7,10) आदि के अवलोकन से यह विदित होता है कि प्राचीन काल में विवाह के लिए लड़कियों का क्रय-विक्रय होता था।‘‘ 
        अथर्ववेदः/ काण्डं २०/सूक्तम् १२६-

        अथर्ववेदः - काण्डं २०
        सूक्तं २०.१२६
        वृषाकपिरिन्द्राणी च।
        दे. इन्द्रः। छ. पङ्क्तिःवृषाकपिसूक्तम्
                  (अथर्ववेद  20/126)
        वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।
        यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१॥
        परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः ।
        नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२॥
        किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः ।
        यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥३॥
        यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि ।
        श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥
        प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत्।
        शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥
        न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत्।
        न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥६॥
        उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्गं भविष्यति ।
        भसन् मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥
        किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।
        किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥
        अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।
        उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥९॥
        संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।
        वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥
        इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।
        नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥
        ________
        नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते ।
        यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥

        वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे ।
        घसत्त इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥
        उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंसतिम् ।

        उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥
        वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत्।
        मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥
        न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्।
        सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥
        न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते ।
        सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥
        अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत्।
        असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥
        अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन् दासमार्यम् ।
        पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥
        धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।
        नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहामुप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥
        पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै ।
        य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥
        यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन ।
        क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगं जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥
        पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् ।
        भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥
        _____    
        ॥७-एवमिन्द्राण्या शप्तो वृषाकपिर्ब्रवीति । “उवे इति संबोधनार्थो निपातः । हे "अम्ब= मातः “सुलाभिके= शोभनलाभे त्वया "यथैव येन प्रकारेणैवोक्तं तथैव तत् "अङ्ग क्षिप्रं "भविष्यति भवतु । किमनेन त्वदनुप्रीतिकारिणा ग्रहेण मम प्रयोजनम् । किंच "मे मम पितुः त्वदीयो “भसत् भग उपयुज्यताम्। किंच मम पितुस्त्वदीयं "सक्थि चोपयुज्यताम् । किंच "मे मम पितरमिन्द्रं त्वदीयं "शिरः च प्रियालापेन “वीव यथा कोकिलादिः पक्षी तद्वत् “हृष्यति हर्षयतु । मम पिता “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः ॥
        "अनुवाद :-
        इस प्रकार इन्द्राणी के द्वारा बुरा भला कहा गया वृषाकपि कहता है। हे माता ! सुन्दर लाभ में जिस प्रकार तुमने कहा है। वैसा ही अंग शीघ्र हो जाए तुम्हारे इस प्रेम करने में मेरा क्या प्रयोजन है। मेरे पिता के लिये तुम्हारी यौनि  उपयुक्त हो। और मेरे पिता के लिए तुम्हारी जंघा उपयुक्त हो। मेरे पिता को तुम्हारा सिर प्रेमालाप से कोयल आदि पक्षीयों की भाँति  हर्षित करे। मेरे पिता इन्द्र समस्त जगत में उत्तम है।७।
         ।८-क्रुद्धामिन्द्र उपशमयति । हे “सुबाहो हे =शोभनबाहो{ "स्वङ्गुरे= शोभनाङ्गुलिके} “पृथुष्टो पृथुकेशसंघाते “पृथुजघने विस्तीर्णजघने "शूरपत्नि वीरभार्ये हे इन्द्राणि “त्वं "नः अस्मदीयं “वृषाकपिं “किं किमर्थम् "अभ्यमीषि अभिक्रुध्यसि । एकः किंशब्दः पूरणः । यस्य पिता “इन्द्रः अहं “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥
        "अनुवाद :-
        ॥९-पुनरिन्द्रमिन्द्राणी ब्रवीति ।“शरारुः= घातुको मृगः “अयं वृषाकपिः “माम् इन्द्राणीम् “अवीरामिव "अभि "मन्यते विजानाति । "उत अपि च “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्या "अहम् इन्द्राणी “वीरिणी पुत्रवती " *मरुत्सखा मरुद्भिर्युक्ता च "अस्मि भवामि ।*
        अनुवाद:
        “[ इन्द्राणी बोलती है]: यह क्रूर जानवर ( वृशाकापि ) मुझे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में तुच्छ जानता है जिसका कोई नर (रक्षक) नहीं है, और फिर भी मैं नर संतानों की मां हूं, इंद्र की पत्नी हूं , मरुतों की मित्र  ; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।”
        सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य (ऋग्वेद 10/86/9)
        [इंद्राणी बोलती है]: यह जंगली जानवर (वृषाकपि) मुझे ऐसे तुच्छ समझता है जैसे कि उसका कोई नर (रक्षक) नहीं है, और फिर भी मैं नर संतानों की मां हूं, इंद्र की पत्नी हूं, मरुतों की मित्र हूं; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।
        "अनुवाद :-
        १०-नारी= स्त्री “ऋतस्य= सत्यस्य "वेधाः= विधात्री “वीरिणी= पुत्रवती “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्येन्द्राणी “संहोत्रं स्म समीचीनं यज्ञं खलु “समनं= संग्रामं “वा। समितिः समनम्' इति संग्रामनामसु पाठात् । "अव प्रति “पुरा “गच्छति । “महीयते स्तोतृभिः स्तूयते च । तस्या मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ २ ॥
        "अनुवाद :-
         ॥११-अथेन्द्राणीमिन्द्रः स्तौति । "आसु सौभाग्यवत्तया प्रसिद्धासु "नारिषु स्त्रीषु स्त्रीणां मध्ये “इन्द्राणीं “सुभगां सौभाग्यवतीम् "अहम् इन्द्रः “अश्रवम् अश्रौषम्। किंच “अस्याः इन्द्राण्याः “पतिः पालकः "विश्वस्मात् "उत्तरः उत्कृष्टतरः "इन्द्रः “अपरं “चन अन्यद्भूतजातमिव "जरसा =वयोहान्या ("नहि "मरते न खलु म्रियते )
        । यद्वा । इदं वृषाकपेर्वाक्यम् । तस्मिन् पक्षे त्वहमिति शब्दो वृषाकपिपरतया योज्यः । अन्यत्समानम् ॥
        "अनुवाद :-
        ______
        १३-हे वृषाकपायि । कामानां वर्षकत्वादभीष्टदेशगमनाच्चेन्द्रो वृषाकपिः । तस्य पत्नि । यद्वा । वृषाकपेर्मम मातरित्यर्थः । “रेवति धनवति "सुपुत्रे शोभनपुत्रे "सुस्नुषे शोभनस्नुषे हे इन्द्राणि "ते तवायम्

        _______
        "इन्द्रः {"उक्षणः= Oxen सेचन समर्थान् “आदु= अद् भक्षणे) अनन्तरमेव । शीघ्रमेवेत्यर्थः । पशून्- “घसत्= प्राश्नातु । किंच “काचित्करम् । कं= सुखम् । तस्याचित् संघः । तस्करं हविः "प्रियम् इष्टं कुर्विति शेषः । किंच ते पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् “उतरः । तथा च यास्कः - ‘ वृषाकपायि रेवति सुपुत्रे मध्यमेन {सुस्नुषे}  पुत्रवधू-
        माध्यमिकया वाचा । स्नुषा साधुसादिनीति वा साधुसानिनीति वा । प्रियं कुरुष्व सुखाचयकरं हविः सर्वस्माद्य इन्द्र उत्तरः' (निरु. १२, ९) इति
        "अनुवाद :-कामनाओं की वर्षा करने से वृषभ अभीष्टदेश को जाने से इन्द्र वृषाकपि है। हे धनवाली और उत्तम पुत्र वाली और पुत्र वधू वाली शचि ! तुम्हारे ये पति इन्द्र वीर्य दान करने नें समर्थ पशु ( बैल) को शीघ्र खाऐं। और तुम्हें सुख कर हवि प्रदान करें । तुम्हारे पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।१३ ।
        ॥१४-अथेन्द्रो ब्रवीति । “मे =मदर्थं “पञ्चदश पञ्चदशसंख्याकान् “विंशतिं= विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः= वृषभान् "साकं= सह मम भार्ययेन्द्राण्या। प्रेरिता यष्टारः "पचन्ति =। “उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि । जग्ध्वा चाहं "पीव =“इत स्थूल एव भवामीति शेषः । किंच "मे मम “उभा= उभौ “कुक्षी “पृणन्ति= सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः ॥
        इसके बाद इन्द्र कहता है।  मेरी पत्नी इन्द्राणी द्वारा भेजे हुए याज्ञिक   पन्द्रह से बीस बैलों( वृषभों) को एक साथ पकाते हैं। और उन्हें  मैं  इन्द्र खाता हूँ । तथा उन्हें खाकर मोटा होता हूँ।मेरी मैंने कोशों को यज्ञ करने वाले सोम रस से भरते हैं। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१४।
        १५-अथेन्द्राणी ब्रवीति ।"{तिग्मशृङ्गः =तीक्ष्णशृङ्गः शेप: वा} "वृषभो "न यथा वृषभः "यूथेषु गोसंघेषु “अन्तः =मध्ये “रोरुवत्= शब्दं कुर्वन् गा अभिरमयति- (मैथुन करोति) तथा हे इन्द्र त्वं मामभिरमय इति शेषः । किंच “हे इन्द्र "ते =तव "हृदे हृदयाय "मन्थः =दध्नो मथनवेलायां शब्दं कुर्वन् “शं शंकरो भवत्विति शेषः । किंच "ते तुभ्यं "यं सोमं “भावयुः भावमिच्छन्तीन्द्राणी “सुनीति अभिषुणोति सोऽपि शंकरो भववित्यर्थः । मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥१५ ॥
        "अनुवाद :-
        इसके बाद इन्द्राणी कहती है कि हे  इन्द्र! जैसे तेज लिंग या सींगों वाला वृषभ गायों के समूह के बीच  में आवाज करता हुआ प्रसन्न होता है। वैसे ही तुम मेरे साथ रमण( सैक्स ) करो । तुम्हारे हृदय के लिए दधिमन्थन के सयय में शब्द करता हुआ  कल्याण कारी हो। तुम्हारे लिए इन्द्राणी भावाभिलाषिणी जिस सोम को अभिषुत करती है। वह सोम भी कल्याण कारी हो । मेरे पति समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१५।
        १६- हे इन्द्र "सः जनः “न “ईशे मैथुनं कर्तुं नेष्टे न शक्नोति "यस्य जनस्य “कपृत् =शेपः “सक्थ्या= सक्थिनी “अन्तरा "रम्बते= लम्बते । "सेत् स एव स्त्रीजने “ईशे =मैथुनं कर्तुं शक्नोति “यस्य जनस्य “निषेदुषः शयानस्य "रोमशम् उपस्थं "=विज़म्भते विवृतं भवति । यस्य च पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् “उत्तरः ॥
        अश्लील अर्थ-
        "अनुवाद :-
        हे इन्द्र वह मनुष्य  कभी मैथुन नहीं कर सकता  , जिस पुरुष का लिंग जंघाओं के बीच में लम्बा होकर लटक जाता है। वही पुरुष स्त्री के साथ मैथुन कर सकता है  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग विस्तृत हो जाता है। इन्द्राणी का पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१६।
        न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥
        (अथर्ववेद में भी  - काण्ड » 20; सूक्त » 126; ऋचा » 16 है।
        सः) वह पुरुष (न ईशे) ऐश्वर्यवान् नहीं होता है, (यस्य) जिसका (कपृत्) लिंग (सक्थ्या अन्तरा) दोनों जंघाओं के बीच (रम्बते) नीचे लटकता है, (सः इत्) वही पुरुष (ईशे) ऐश्वर्यवान् होता है, (यस्य निषेदुषः) जिस बैठे हुए  हुए]पुरुष का (रोमशम्) रोमवाला लिंग।(विजृम्भते) जम्हाई लेता है फैलता है, (इन्द्रः) इन्द्र (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१६॥
        सक्थि= उरु( जाँघ) (सज्यते इति । सन्ज सङ्गे + “ असिसञ्जिभ्यां क्थिन् ।  “ उणा० ३ । १५४ । क्थिन् । )  ऊरुः ।  इत्यमरः कोश ॥  (यथा   मार्कण्डेये ।  १८ ।  ४९ । “ नृणां पदे स्थिता लक्ष्मीर्निलयं संप्रयच्छति । सक्थ्नोश्च संस्थिता वस्त्रं तथा नानाविधं वसु ॥ ) शकटावयवविशेषः । इत्युणादिकोषः ॥
        सक्थि शब्द यूरोपीय तथा ईरानी ईराकी भाषाओं में भी है।
        Etymology-
        From Proto-Indo-Iranian *sáktʰiš,(सक्थि) from Proto-Indo-European *sokʷHt-i-s (“thigh”). Cognate with Avestan 𐬵𐬀𐬑𐬙𐬌‎ (haxti, “thigh”), Old Armenian ազդր (azdr), Middle Persian [script needed] (h(ʾ)ht' /⁠haxt⁠/, “thigh”), Ossetian агъд (aǧd), Hittite [Term?] (/⁠šakuttai⁠/).

        Noun-
        सक्थि  (sákthi) n
        the thigh, thigh-bone quotations 
        the pole or shafts of a cart
        (euphemistic, in the dual) the female genitals quotations 
        Declension-
        Neuter i-stem declension of सक्थि (sákthi)
        Further reading
        Monier Williams (1899), “सक्थि”, in A Sanskrit–English Dictionary, […], new edition, Oxford: At the Clarendon Press→OCLC, page 1124.
        कपृत्- लिंग![संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग "लिंग।"
         < रोमश[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, नपुंसकलिंग"वल्व =गर्भे (उल्व- यौनि भग)
        "अनुवाद :-वह मनुष्य मैथुन नहीं कर सकता  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग लटक जाता है।किन्तु वही मनुष्य मैथुन कर सकता है जिस मनुष्य का लिंग जंघाओं के बीच में  अकड़ता जम्हाई लेता है।
        शेष अर्थ पूर्ववत् है। यहाँ पूर्वोक्त का अन्तर  देखने योग्य है। पहली ऋचा में इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। और उस दूसरी ऋचा में इन्द्र इन्द्राणी से कहता है। इस प्रकार दौंनों में कोई विरोध नहीं है।१७। कामशास्त्र की खुलकर वार्ता है।
        अर्थ:- (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे इन्द्र  (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार  (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही (यस्य कपृत्) जिसका लिंग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों  जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता लटकता है (स-इत्-ईशे) वह ही समर्थ होता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला लिंग  विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह मैथुन  नहीं कर सकता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमोंवाला अङ्ग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर -जङ्घाओं के बीच में लिंग विजृम्भित होता है, वह ही स्त्रीयोंपर अधिकार कर पाता  है ॥१७॥
        शृङ्गं हि मन्मथोद्भेदस्तदागमनहेतुकः । उत्तमप्रकृतिप्रायो रसः शृङ्गार इष्यते ॥
        शृङ्ग= न॰ शॄ--गन् पृषो॰ मुम् ह्रस्वश्च।
        १ पर्वतोपरिभागेसातौ अमरः कोश।
        २ प्रभुत्वे
        ३ चिह्ने
        ४ जलक्रीडार्थयन्त्रभेदे(पिचकारी) लिङ्गे च। यूरोपीय  रूप सिरञ्ज- syringe से साम्य- दीनां विषाणे (शृङ्गा)
        ६ उत्कर्षे चमेदि॰।
        ७ ऊर्ये
        ८ तीक्ष्णे
        ९ पद्मे च शब्दर॰
        १० महिष- शृङ्गनिर्मितवाद्यभेदे (शिङ्ग)
        ११ कामोद्रेके साहित्यदर्पण- शृङ्गार शब्दे दृश्यम्।
        १२ कूर्चशीर्षकवृक्षे पु॰ मेदिनीकोश।
        syringe (noun) (latin-suringa)  (Greek-syringa,)
        सिरिंज (संज्ञा) संकीर्ण ट्यूब," जो"तरल  धारा इंजेक्ट करने के लिए 15-वीं सदी की शुरुआत में.प्रयोग होता था (पहले यह  सुरिंगा, 14वीं सदी के अंत में था), जो लेट लैटिन के (सिरिंज,)(श्रृंगा-) से ग्रीक के  (सिरिंज,) सिरिंक्स से आया।
        "ट्यूब, होल, चैनल, शेफर्ड पाइप," सिरिजिन से संबंधित "पाइप, सीटी, फुसफुसाहट के लिए" ,'' श्रृँग - सींग -से सम्बन्धित हैं।
        १८ हे  “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं= हिंसितं “विदत् =विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं =शस्त्रं "सूनाम्= उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं =भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “{एधस्य काष्ठस्य} “आचितं पूर्णम् "अनः =शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥
        बैल पकाने का जिक्र-
        −(इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-है।(परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्)  नव अन्न हवि को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः) जलाने के लिये ईंधन के भरे शकट-छकड़े को इन हत्या के साधनों को अपने अधीन कर लिया, ॥१८॥
        ______
        "अनुवाद : भाष्य-
         ॥१९-अथेन्द्रो ब्रवीति । "विचाकशत् पश्यन् यजमानान् “दासम्= उपक्षपयितारम् {सुरम्= "आर्यम् }अपि च "विचिन्वन् = पृथक्कुर्वन् "अयम् अहमिन्द्रः “एमि= यज्ञं प्रति गच्छामि। यज्ञं गत्वा च “पाकसुत्वनः । पचतीति =पाकः । सुनोतीति =सुत्वा । हविषां पक्तुः सोमस्याभिषोतुर्यजमानस्य पाकेन विपक्वेन मनसा सोमस्याभिषोतुर्वा यजमानस्य संबन्धिनं सोमं "पिबामि । तथा “धीरं धीमन्तं यजमानम् "अभि "अचाकशम्= अभिपश्यामि । योऽहम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः॥
        "अनुवाद :-भाष्य-
        ॥२०"धन्व निरुदकोऽरण्यरहितो देशः । "कृन्तत्रं कर्तनीयमरण्यम् । "यत् यत् "च “धन्व "च कृन्तत्रं च भवति । मृगोद्वासमरण्यमेवंविधं भवति न त्वत्यन्तविपिनम् । तस्य शत्रुनिलयस्यास्मदीयगृहस्य च मध्ये "कति "स्वित् “ता तानि “योजना योजनानि स्थितानि । नात्यन्तदूरे तद्भवतीत्यर्थः । अतः "नेदीयसः अतिशयेन समीपस्थाच्छत्रुनिलयात् हे "वृषाकपे त्वम् "अस्तम् अस्माकं गृहं

        “वि “एहि विशेषेणागच्छ । आगत्य च "गृहान् यज्ञगृहान् "उप गच्छ । यतोऽहम् "इन्द्रः सर्वस्मादुत्कृष्टः ॥
        "अनुवाद :-भाष्य-
        २१-आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥
        "अनुवाद :-भाष्य-
        २२-गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र= परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन =आगच्छ ।
        एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् =अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः-- ‘यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥
        "अनुवाद :-भाष्य-
        २३-इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । ("पर्शुः "नाम मृगी) । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं= सह "ससूव= अजीजनत् । "त्यस्यै =तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् =भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या
         "उदरमामयत्= गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥
        "अनुवाद :-भाष्य-
        Yima (Yama) – the first mortal king to have ruled. He was favored by the gods and given supernatural powers. When the population grew too large, he enlarged the world and also saved the world when the gods informed him a bitter winter was coming and he enclosed animals, vegetation, and seeds in a giant barn (a tale preceding the biblical narrative of Noah and his Ark) to preserve life. He fell from divine grace when he began to think more highly of himself than he should have. Even so, for his virtuous service, he was made Lord of the Dead, and the afterlife was initially known as Yima's Realm.

        Jamshid (Jam, Yima Kshaeta) – the fourth king of the world who brought civilization to its greatest height, initiated the construction of cities, established social hierarchy, and introduced winemaking. According to one part of his legend, Jamshid banished a woman of his harem who, in attempting to commit suicide afterwards, drank a bottle of fermented grape juice thinking it was poison. When she found it produced pleasing sensations, she brought the rest to Jamshid who reinstated her and decreed that grapes should be used in making wine.
        Indar – the early god of courage, bravery, heroism, and warfare.
        Indra – the demon of apostasy who encouraged the abandonment of religious practice and true faith.
        Haoma सोम:– god of the harvest, health, strength, and vitality; personification of the haoma plant whose juices brought enlightenment and of which Gaokerena was the greatest and largest.
        Daevas व- – the mostly male demons in the service of Angra Mainyu who spread lies and disorder in the world. They are the sworn enemies of the Amesha Spentas and all that is good and work closely with the drujs who are mostly female demons.
        Dev – demon of war and the terror of war, one of the most powerful daevas, completely lacking in morality or compassion.
        Atar अत्रि- – the god of fire who is also the personification of fire and physically present when fires are lighted. He is associated with light, righteousness, and purity.


        २१-आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि

        कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥
        "अनुवाद :-भाष्य-
        २२-गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र= परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन =आगच्छ ।
        एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् =अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः---- ‘ यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥
        "अनुवाद :-भाष्य-
        २३-इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । ("पर्शुः "नाम मृगी) । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं= सह "ससूव= अजीजनत् । "त्यस्यै =तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् =भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या
         "उदरमामयत्= गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥
        "अनुवाद :-भाष्य-
        Yima (Yama) – the first mortal king to have ruled. He was favored by the gods and given supernatural powers. When the population grew too large, he enlarged the world and also saved the world when the gods informed him a bitter winter was coming and he enclosed animals, vegetation, and seeds in a giant barn (a tale preceding the biblical narrative of Noah and his Ark) to preserve life. He fell from divine grace when he began to think more highly of himself than he should have. Even so, for his virtuous service, he was made Lord of the Dead, and the afterlife was initially known as Yima's Realm.

        Jamshid (Jam, Yima Kshaeta) – the fourth king of the world who brought civilization to its greatest height, initiated the construction of cities, established social hierarchy, and introduced winemaking. According to one part of his legend, Jamshid banished a woman of his harem who, in attempting to commit suicide afterwards, drank a bottle of fermented grape juice thinking it was poison. When she found it produced pleasing sensations, she brought the rest to Jamshid who reinstated her and decreed that grapes should be used in making wine.
        Indar – the early god of courage, bravery, heroism, and warfare.
        Indra – the demon of apostasy who encouraged the abandonment of religious practice and true faith.
        Haoma सोम:– god of the harvest, health, strength, and vitality; personification of the haoma plant whose juices brought enlightenment and of which Gaokerena was the greatest and largest.
        Daevas व- – the mostly male demons in the service of Angra Mainyu who spread lies and disorder in the world. They are the sworn enemies of the Amesha Spentas and all that is good and work closely with the drujs who are mostly female demons.
        Dev – demon of war and the terror of war, one of the most powerful daevas, completely lacking in morality or compassion.
        Atar अत्रि- – the god of fire who is also the personification of fire and physically present when fires are lighted. He is associated with light, righteousness, and purity.


         
         हित्ती पौराणिक कथा - , हुर्रियन और हित्ती प्रभावों का मिश्रण है । मेसोपोटामिया( ईरान ईराॐ और कनानी प्रभाव हुर्रियन पौराणिक कथाओं के माध्यम से अनातोलिया की पौराणिक कथाओं में प्रवेश करता हैं। हित्ती निर्माण मिथक क्या रहा होगा, इसका कोई ज्ञात विवरण नहीं है, लेकिन विद्वानों का अनुमान है कि हिट्टियन मातृ देवी, जिसे नवपाषाण स्थल कैटालहोयुक से ज्ञात "महान देवी" अवधारणा से जुड़ा माना जाता है , अनातोलियन तूफान की पत्नी हो सकती है। भगवान (जो थोर , इंद्र और ज़ीउस जैसी अन्य परंपराओं के तुलनीय देवताओं से संबंधित माना जाता है )।
        यूरोपीय पुरातन कथाओं में इन्द्र को "एण्ड्रीज" (Andreas) के रूप में वर्णन किया गया है । जिसका अर्थ होता है शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ।
          🌅⛵ 
        Andreas - son of the river god peneus and founder of orchomenos in Boeotia।

        Andreas Ancient Greek - German was the son of river god peneus in Thessaly from whom the district About orchomenos in Boeotia was called Andreas in Another passage pousanias speaks of Andreas( it is , however uncertain whether he means the same man as the former) as The person who colonized the island of Andros .... 
        अर्थात् इन्द्र थेसिली में एक नदी देव पेनियस का पुत्र था । जिससे एण्ड्रस नामक द्वीप नामित हुआ 
        पेनिस - लिंगेन्द्रीय का वाचक है। _________
        "डायोडॉरस के अनुसार .." ग्रीक पुरातन कथाओं के अनुसार एण्ड्रीज (Andreas) रॉधामेण्टिस (Rhadamanthys) से सम्बद्ध था । रॉधमेण्टिस ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र और मिनॉस (मनु) का भाई था । 
        ग्रीक पुरातन कथाओं में किन्हीं विद्वानों के अनुसार एनियस (Anius) का पुत्र एण्ड्रस( Andrus) के नाम से एण्ड्रीज प्रायद्वीप का नामकरण करता है।
        जो अपॉलो का पुजारी था  परन्तु पूर्व कथन सत्य है । ग्रीक भाषा में इन्द्र शब्द का अर्थ शक्ति-शाली पुरुष है । जिसकी व्युत्पत्ति- ग्रीक भाषा के ए-नर (Aner) शब्द से हुई है ।
        जिससे एनर्जी (energy) शब्द विकसित हुआ है। संस्कृत भाषा में{ अन् =श्वसने प्राणेषु च }के रूप में  वैदिक कालीन धातु विद्यमान है ।
        जिससे प्राण तथा अणु जैसे शब्दों का विकास हुआ है।
        कालान्तरण में वैदिक  भाषा में नर शब्द भी इसी रूप से व्युत्पन्न हुआ .... वेल्स भाषा में भी नर व्यक्ति का वाचक है । फ़ारसी मे नर शब्द तो है ।
        परन्तु इन्द्र शब्द नहीं है  इनदर है। वेदों में इन्द्र को वृत्र का शत्रु बताया है।यह सर्व विदित है।
        वृत्र को केल्टिक माइथॉलॉजी मे (ए-बरटा) ( Abarta ) कहा है । जो वहाँ दनु और त्वष्टा परिवार का सदस्य है । 
        इन्द्रस् देवों का नायक अथवा यौद्धा था ।
        भारतीय पुरातन कथाओं में त्वष्टा को इन्द्र का पिता बताया है।
         शम्बर को ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के सूक्त १४ / १९ में कोलितर कहा है पुराणों में इसे दनु का पुत्र कहा है । जिसे इन्द्र मारता है । ऋग्वेद में इन्द्र पर आधारित २५० सूक्त हैं । यद्यपि कालान्तरण में सुरों के नायक को ही इन्द्र उपाधि प्राप्त हुई ।
        अत: कालान्तरण में भी जब देवोपासक  भू- मध्य रेखीय भारत भूमि में आये ... जहाँ भरत अथवा वृत्र की अनुयायी व्रात्य ( वारत्र )नामक जन जाति पूर्वोत्तरीय स्थलों पर निवास कर रही थी।
         भारत में भी यूरोप से आगत सुरों की सांस्कृतिक मान्यताओं में भी स्वर्ग उत्तर में है । और नरक दक्षिण में है ।
        स्मृति रूप में अवशिष्ट रहीं ... और विशेष तथ्य यहाँ यह है कि नरक के स्वामी यम हैं यह मान्यता भी यहीं से मिथकीय रूप में स्थापित हुई ।
        नॉर्स माइथॉलॉजी के ग्रन्थ प्रॉज-एड्डा में नारके का अधिपति यमीर को बताया गया है। 
        यमीर यम ही यूरोपीय रूपान्तरण है । हिम शब्द संस्कृत में यहीं से विकसित है यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में हीम( Heim) शब्द हिम के लिए आज भी यथावत है। 
        नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में यमीर (Ymir) Ymir is a primeval being , who was born from venom that dripped from the icy - river earth from his flesh and from his blood the ocean , from his bones the hills from his hair the trees from his brains the clouds from his skull the heavens from his eyebrows middle realm in which mankind lives" _______
         (Norse mythology prose adda) अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है। यह हिम नद से उत्पन्न , नदी और समुद्र का अधिपति हो गया । पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए .. ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी । वहाँ यम को यम रूप में ही नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है। 
        जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है, यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी 
        बाल्टिक सागर के तट वर्ती प्रदेशों पर दीर्घ काल तक क्रीडाऐं करते रहे .
        पश्चिमी बाल्टिक सागर के तटों पर इन्हीं देव संस्कृति के अनुयायीयों ने मध्य जर्मन स्केण्डिनेवीया द्वीपों से उतर कर बोल्गा नदी के द्वारा दक्षिणी रूस .त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर प्रवास किया आर्यों के प्रवास का सीमा क्षेत्र बहुत विस्तृत था । आर्यों की बौद्धिक सम्पदा यहाँ आकर विस्तृत हो गयी थी ।

        मनुः जिसे जर्मन आर्यों ने मेनुस् (Mannus) कहा आर्यों के पूर्व - पिता के रूप में प्रतिष्ठित थे ! मेन्नुस mannus( थौथा) (त्वष्टा)--(Thautha ) की प्रथम सन्तान थे ! 
        मनु के विषय में रोमन लेखक टेकिटस (tacitus) के अनुसार---- Tacitus wrote that mannus was the son of tuisto and The progenitor of the three germanic tribes ---ingeavones--Herminones and istvaeones .... ________ in ancient lays, their only type of historical tradition they celebrate tuisto , a god brought forth from the earth they attribute to him a son mannus, the source and founder of their people and to mannus three sons from whose names those nearest the ocean are called ingva eones , those in the middle Herminones, and the rest istvaeones some people inasmuch as anti quality gives free rein to speculation , maintain that there were more tribal designations- Marzi, Gambrivii, suebi and vandilii-and that those names are genuine and Ancient Germania __________
        Chapter 2 ग्रीक पुरातन कथाओं में मनु को मिनॉस (Minos)कहा गया है । जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र तथा क्रीट का प्रथम राजा था । जर्मन जाति का मूल विशेषण डच (Dutch) था । जो त्वष्टा नामक इण्डो- जर्मनिक देव ही है ।
         टेकिटिस लिखता है , कि Tuisto ( or tuisto) is the divine encestor of German peoples...... ट्वष्टो tuisto---tuisto--- शब्द की व्युत्पत्ति- भी जर्मन भाषाओं में *Tvai----" two and derivative *tvis --"twice " double" thus giving tuisto--- The Core meaning -- double अर्थात् द्वन्द्व -- अंगेजी में कालान्तरण में एक अर्थ द्वन्द्व- युद्ध (dispute / Conflict )भी होगया यम और त्वष्टा दौनों शब्दों का मूलत: एक समान अर्थ था इण्डो-जर्मनिक संस्कृतियों में  मिश्र की पुरातन कथाओं में त्वष्टा को (Thoth) अथवा tehoti ,Djeheuty कहा गया जो ज्ञान और बुद्धि का अधिपति देव था । ________
        आर्यों में यहाँ परस्पर सांस्कृतिक भेद भी उत्पन्न हुए विशेषतः जर्मन आर्यों तथा फ्राँस के मूल निवासी गॉल ( Goal ) के प्रति जो पश्चिमी यूरोप में आवासित ड्रूयूडों की ही एक शाखा थी l जो देवता (सुर ) जर्मनिक जन-जातियाँ के थे लगभग वही देवता ड्रयूड पुरोहितों के भी थे । यही ड्रयूड( druid ) भारत में द्रविड कहलाए 
        इन्हीं की उपशाखाऐं  वेल्स (wels) केल्ट (celt )तथा ब्रिटॉन (Briton )के रूप थीं जिनका तादात्म्य (एकरूपता ) भारतीय जन जाति क्रमशः भिल्लस् ( भील ) किरात तथा भरतों से प्रस्तावित है ये भरत ही व्रात्य ( वृत्र के अनुयायी ) कहलाए आयरिश अथवा केल्टिक संस्कृति में वृत्र  का रूप अवर्टा ( Abarta ) के रूप में है यह एक देव है। जो थौथा (thuatha) (जिसे वेदों में त्वष्टा कहा है !) और दि - दानन्न ( वैदिक रूप दनु ) की सन्तान है .
        Abarta an lrish / celtic god amember of the thuatha त्वष्टाः and De- danann his name means = performer of feats अर्थात् एक कैल्टिक देव त्वष्टा और दनु परिवार का सदस्य वृत्र या Abarta जिसका अर्थ है कला या करतब दिखाने बाला देव यह अबर्टा ही ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटों Briton का पूर्वज और देव था इन्हीं ब्रिटों की स्कोट लेण्ड ( आयर लेण्ड ) में शुट्र--- (shouter )नाम की एक शाखा थी , जो पारम्परिक रूप से वस्त्रों का निर्माण करती थी ।
         वस्तुतःशुट्र फ्राँस के मूल निवासी गॉलों का ही वर्ग था , जिनका तादात्म्य भारत में शूद्रों से प्रस्तावित है , ये कोल( कोरी) और शूद्रों के रूप में है ।
        जो मूलत: एक ही जन जाति के विशेषण हैं एक तथ्य यहाँ ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में जर्मन आर्यों और गॉलों में केवल सांस्कृतिक भेद ही था जातीय भेद कदापि नहीं ।
         क्योंकि आर्य शब्द का अर्थ यौद्धा अथवा वीर होता है । यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में इसका यही अर्थ है । 
        बाल्टिक सागर से दक्षिणी रूस के पॉलेण्ड त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर बॉल्गा नदी के द्वारा कैस्पियन सागर होते हुए भारत ईरान आदि स्थानों पर इनका आगमन हुआ । 
        आर्यों के ही कुछ क़बीले इसी समय हंगरी में दानव नदी के तट पर परस्पर सांस्कृतिक युद्धों में रत थे ।
        भरत जन जाति यहाँ की पूर्व अधिवासी थी संस्कृत साहित्य में भरत का अर्थ जंगली या असभ्य किया है। 
        और भारत देश के नाम करण कारण यही भरत जन जाति थी ।भारतीय प्रमाणतः जर्मन आर्यों की ही शाखा थे जैसे यूरोप में पाँचवीं सदी में जर्मन के ऐंजीलस कबीले के आर्यों ने ब्रिटिश के मूल निवासी ब्रिटों को परास्त कर ब्रिटेन को एञ्जीलस - लेण्ड अर्थात् इंग्लेण्ड कर दिया था और ब्रिटिश नाम भी रहा जो पुरातन है ।

        इसी प्रकार भारत नाम भी आगत आर्यों से पुरातन है दुष्यन्त और शकुन्तला पुत्र भरत की कथा बाद में जोड़ दी गयी जैन साहित्य में एक भरत ऋषभ देव परम्परा में थे। जिसके नाम से भारत शब्द बना।
        इस लिए द्रविड और शूद्र शब्द भी यूरोपीय मूल के हैं।
        आर्य द्रविड और शूद्र थ्योरी सत्यनिष्ठ नहीं है।
        दिया. इसलिए अधिकतर लोग संस्कृत भाषा बोलने लगे.
        संस्कृत बोलने वाले सीरिया के इस साम्राज्य के बारे में पहले जानते थे।
        इंडो-आर्यन परम्परा में . इन्द्र नाम की सबसे पुरानी तारीख़ी घटना 14-वीं सदी ईसापूर्व की बोगाज़कोय की प्रसिद्ध हित्ती-मितानी संधि में है। हां मितन्नी( मितज्ञु) दैवीय गवाहों के रूप में मित्र-वरुण, इंद्र और नासत्य का आह्वान करते हैं 
        यह सन्देश कीलाक्षर लिपि में है। जो उस समय सुमेर की लिपि थी।
        मितन्नी "एमोराइट-(मरुत) तथा हित्ती ये सुमेरियन जातियाँ थी।
        यदु और तुर्वसु को जब पुरोहितों ने नहीं छोड़ा तो उनके वंशज कृष्ण को कैसे छोड़ के।
        वेदों में यदु और तुर्वसु का नकारात्मक वर्णन-
        स॒त्यं तत्तु॒र्वशे॒ यदौ॒ विदा॑नो अह्नवा॒य्यं ।  व्या॑नट् तु॒र्वणे॒ शमि॑ ॥२७।
        (ऋग्वेद 8/45/27) 
        (पद-पाठ)
        स॒त्यम् । तत् । तु॒र्वशे॑ । यदौ॑ । विदा॑नः । अ॒ह्न॒वा॒य्यम् ।
        वि । आ॒न॒ट् । तु॒र्वणे॑ । शमि॑ ॥२७।।
        (सायण-भाष्य)
        “तुर्वशे राज्ञि “यदौ च यदुनामके च राज्ञि “तत् प्रसिद्धं यागादिलक्षणं “शमि कर्म  शची शमी' इति कर्मनामसु पाठात् । "सत्यं परमार्थं "विदानः जानंस्तयोः प्रीत्यर्थम् अह्नवाय्यम् अह्नवाय्यनामकं तयोः शत्रुं 
        “तुर्वणे= संग्रामे “व्यानट्= व्याप्तवान् ।।
        (पद का अर्थान्वय)
        _____
        अग्निना । तुर्वशम् । यदुम् । पराऽवतः । उग्रऽदेवम् । हवामहे ।   अग्निः । नयत् । नवऽवास्त्वम् । बृहत्ऽरथम् । तुर्वीतिम् । दस्यवे । सहः ॥१८।।
        (सायण-भाष्य)
        “अग्निना सहावस्थितान् तुर्वशनामकं यदुनामकम् उग्रदेवनामकं च राजर्षीन् "परावतः =दूरदेशात् "हवामहे =आह्वयामः ।                                  स च "अग्निः नववास्तुनामकं बृहद्रथनामकं तुर्वीतिनामकं च राजर्षीन् "नयत्= इहानयतु । कीदृशोऽग्निः ।                                       "दस्यवे "सहः अस्मदुपद्रवहेतोश्चोरस्याभिभविता ॥{ नयत् । ‘णीञ् प्रापणे'। लेटि अडागमः  इतश्च लोपः' इति इकारलोपः  } नववास्त्वम् । नवं वास्तु यस्यासौ नववास्तुः । ‘ वा छन्दसि' इत्यनुवृत्तेः अमि पूर्वत्वाभावे यणादेशः । बृहद्रथम् । बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥
        ________
        प्रियासः । इत् । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नरः । मदेम । शरणे । सखायः । नि । तुर्वशम् । नि । याद्वम् । शिशीहि । अतिथिऽग्वाय । शंस्यम् । करिष्यन् ॥८।
        अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
         हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान 
        अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
        और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण  करने वाले उनका नाश करने  बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 
        (ऋग्वेद-7/19 /8)

        हे "मघवन्= धनवन्निन्द्र “ते =तव "अभिष्टौ =अभ्येषणे "नरः =स्तोत्राणां नेतारो वयं "सखायः समानख्यातयः “प्रियासः =प्रियाश्च सन्तः “शरणे ="इत् गृह एव “मदेम= मोदेम ।                    किञ्च “अतिथिग्वाय । पूजयातिथीन् गच्छतीत्यतिथिग्वः । 

        तस्मै सुदासे दिवोदासाय= वास्मदीयाय राज्ञे “शंस्यं= शंसनीयं सुखं "करिष्यन् =कुर्वन् 
        "तुर्वशं राजानं "नि "शिशीहि =वशं कुरु । "याद्वं च राजानं “नि शिशीहीत्यर्थः ॥

        सायण-भाष्यम् :-
        तृतीयेऽनुवाके सप्त सूक्तानि । तत्र ‘अया वीती' इति त्रिंशदृचं प्रथमं सूक्तम् । अमहीयुर्नामाङ्गिरस ऋषिः । गायत्री छन्दः । पवमानः सोमो देवता । तथा चानुक्रान्तम्- अया वीती त्रिंशदमहीयुः' इति । उक्तो विनियोगः ॥

        अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इंदो॒ मदे॒ष्वा ।अ॒वाह॑न्नव॒तीर्नव॑ ॥१।।
        पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।
        (ऋग्वेद9/61/1-2)

        हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था। उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।

        शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।
        पदपाठ-
        अ॒या । वी॒ती । परि॑ । स्र॒व॒ । यः । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । मदे॑षु । आ ।
        अ॒व॒ऽअह॑न् । न॒व॒तीः । नव॑ ॥१।।

        (सायण-भाष्य)
        हे “इन्दो= सोम “अया =अनेन रसेन “वीती= वीत्या इन्द्रस्य भक्षणाय “परि “स्रव =परिक्षर । कीदृशेन रसेनेत्यत आह । “ते= तव “यः रसः “मदेषु= संग्रामेषु “नवतीर्नव इति नवनवतिसंख्याकाश्च शत्रुपुरीः “अवाहन =जघान  अमुं सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्र उक्तलक्षणाः शत्रुपुरीर्जघानेति कृत्वा रसो जघानेत्युपचारः ॥

        _________
        पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।
        शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।

        पुरः॑ । स॒द्यः । इ॒त्थाऽधि॑ये । दिवः॑ऽदासाय । शम्ब॑रम् ।
        अध॑ । त्यम् । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् ॥२।
        (पद का अर्थान्वय)
         (इत्थाधिये दिवोदासाय) दिवोदास के लिए(शम्बरम्) शम्बर को (त्यम् तुर्वशम् यदुम्) और यदु और तुर्वसु को (अध) (पुरः) पुर को ध्वंसन करो ॥२॥

        (ऋग्वेद9/61/1-2)

        “सद्यः एकस्मिन्नेवाह्नि “पुरः =शत्रूणां पुराणि सोमरसोऽवाहन् । “इत्थाधिये सत्यकर्मणे “दिवोदासाय राज्ञे “शम्बरं शत्रुपुराणां स्वामिनम् "अध अथ =“त्यं तं “तुर्वशं तुर्वशनामकं राजानं दिवोदासशत्रुं “यदुं यदुनामकं राजानं च वशमानयञ्च । 

        अत्रापि सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्रः सर्वमेतदकार्षीदिति सोमरसे कर्तृत्वमुपचर्यते ॥

        ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।  वह भी गोपों के रूप में सम्भवत: वैदिक सन्दर्भ में दास - दाता का वाचक रहा परन्तु लोकिक संस्कृत में दास पराधीन और गुलाम का वाचक रहा जो शूद्र वर्ण में सम्मिलित किए गये।

        " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी   " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 

        (ऋग्वेद १०/६२/१०)

        यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।

        प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ   नरो मदेम शरणे सखाय:।
        नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि   अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
        (ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा

        सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
        व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७

        हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन (शमन) कर डाला ।

        अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
        निह्नवाकर्त्तरि ।

        “सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है 

        किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।।
        अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/

        हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
        तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । 
        तुम मुझे क्षीण न करो 

        _________

        शतमहं तिरिन्दिरे सहस्रं पर्शावा ददे ।
        राधांसि याद्वानाम् ॥४६॥(ऋग्वेद ८/६/४६)

        (सायण-भाष्य)
        इदमादिकेन तृचेन तिरिन्दिरस्य राज्ञो दानं स्तूयते । “पर्शौ परशुनाम्नः पुत्रे । उपचारज्जन्ये जनकशब्दः । “तिरिन्दिरे एतत्संज्ञे राजनि “याद्वानाम् । यदुरिति मनुष्यनाम । यदव एव याद्वाः । स्वार्थिकस्तद्धितः । तेषां मध्ये “अहं “शतं शतसंख्याकानि “सहस्रं सहस्रसंख्याकानि च “राधांसि धनानि “आ “ददे स्वीकरोमि । यद्वा । याद्वानां यदुकुलजानामन्येषां राज्ञां स्वभूतानि राधांसि बलादपहृतानि तिरिन्दिरे वर्तमानान्यहं प्राप्नोमि ।।

        त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ।
        ददुष्पज्राय साम्ने ॥४७॥ऋग्वेद ८/६/
        _______
        त्रीणि॑ श॒तान्यर्व॑तां स॒हस्रा॒ दश॒ गोना॑म् ।
        द॒दुष्प॒ज्राय॒ साम्ने॑ ॥४७।।

        सायण-भाष्य-
        पूर्वस्यामृचि स्वसंप्रदानकं दानमुक्तम् । अधुनान्येभ्योऽप्यृषिभ्यस्तिरिन्दिरो बहु धनं दत्तवानित्याह । 

        “अर्वतां गन्तॄणामश्वानां “त्रीणि "शतानि "गोनां गवां “दश दशगुणितानि "सहस्रा सहस्राणि च "पज्राय स्तुतीनां प्रार्जकाय “साम्ने एतत्संज्ञायर्षये । यद्वा । साम्ने ।
         साम स्तोत्रम् । तद्वते पज्राय पज्रकुलजाताय कक्षीवते । “ददुः तिरिन्दिराख्या राजानो दत्तवन्तः ।।

        उदानट् ककुहो दिवमुष्ट्राञ्चतुर्युजो ददत् ।
        श्रवसा याद्वं जनम् ॥४८॥(ऋग्वेद ८/६/४८)

        उत् । आ॒न॒ट् । क॒कु॒हः । दिव॑म् । उष्ट्रा॑न् । च॒तुः॒ऽयुजः॑ । दद॑त् ।
        श्रव॑सा । याद्व॑म् । जन॑म् ॥४८।।
        सायण-भाष्य-
        अयं राजा “ककुहः उच्छ्रितः सन् “श्रवसा कीर्त्या “दिवं स्वर्गम् "उदानट् उत्कृष्टतरं व्याप्नोत् । किं कुर्वन् । "चतुर्युजः चतुर्भिः स्वर्णभारैर्युक्तान् “उष्ट्रान् “ददत् प्रयच्छन् । तथा “याद्वं “जनं च द्रासत्वेन प्रयच्छन् ॥ ॥ १७ ॥
        __   

        यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
        ऋग्वेद ८/६/४६
        _______
        त्वं धुनि॑रिन्द्र॒ धुनि॑मतीरृ॒णोर॒पः सी॒रा न स्रव॑न्तीः ।
        प्र यत्स॑मु॒द्रमति॑ शूर॒ पर्षि॑ पा॒रया॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ स्व॒स्ति ॥१२।।

        पदपाठ-
        त्वम् । धुनिः । इन्द्र । धुनिऽमतीः । ऋणोः । अपः । सीराः । न । स्रवन्तीः ।
        प्र । यत् । समुद्रम् । अति । शूर । पर्षि । पारय । तुर्वशम् । यदुम् । स्वस्ति ॥१२

        हे "इन्द्र “धुनिः शत्रूणां कम्पयिता “त्वं “धुनिमतीः

        धुनिर्नामासुरो यासु निरोधकतया विद्यते ताः “अपः उदकानि "सीरा “न नदीरिव “स्रवन्तीः प्रवहन्तीः “ऋणोः अगमयः ।
        धुनिं हत्वा तेन निरोधितान्युदकानि प्रवाहयतीत्यर्थः ।
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         हे “शूर वीरेन्द्र “यत् यदा “समुद्रम् “अति अतिक्रम्य “प्र “पर्षि प्रतीर्णो भवसि तदा समुद्रपारे तिष्ठन्तौ “तुर्वशं “यदुं च "स्वस्ति क्षेमेण “पारय अपारयः । समुद्रमतारयः ।।
        अनुवाद:-
        हमारे कल्याण के लिए यदु और तुर्वसु को समुद्र के दूसरी पार करते हो। अर्थात्  क्यों पुरोहितों को आशंका है कि ये दौंनों कहीं आँखों के सामने न रहें।

        __________________________________

        "य आनयत्परावतः सुनीती तुर्वशं यदुम् ।
        इन्द्रः स नो युवा सखा ॥१॥

         (ऋग्वेद-6/45/1)
        इन्द्रः॑। सः। नः॒ । युवा॑। सखा॑ ॥१
        यः । आ । अनयत् । पराऽवतः । सुऽनीती । तुर्वशम् । यदुम् ।
        यः इन्द्रः "तुर्वशं “यदुं चैतत्संज्ञौ राजानौ शत्रुभिर्दूरदेशे प्रक्षिप्तौ “सुनीती सुनीत्या शोभनेन नयनेन “परावतः तस्माद्दूरदेशात् “आनयत् अनीतवान् “युवा तरुणः “सः “इन्द्रः “नः अस्माकं “सखा भवतु ।।

        पदों का अर्थ:-(यः) जो (युवा) जवानी युक्त (इन्द्रः) इन्द्र देव (सुनीती) सुन्दर न्याय से (परावतः)- दूरदेशात्  दूर देश से भी  -परा+अव--वा० अति । १ दूरदेशे निघण्टुः (तुर्वशम्)  तुर्वसु को  (यदुम्) यदु को (आ) सब प्रकार से (अनयत्) लङ्(अनद्यतन भूत) वह इन्द्र ले गया । (सः) वह (नः) हम लोगों का (सखा) मित्र हो ॥१॥

        ऋग्वेद 6.45.1 व्याकरण का अंग्रेजी विश्लेषण]

        य < यः < यद्[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग"कौन; कौन सा; यत् [सर्वनाम]।"
        अनयत ्<  < √ नी [क्रिया], एकवचन, अपूर्ण" वापस करना; निकालना; निकालना।"

        परावतः < परवत्[संज्ञा], विभक्ति, एकवचन, स्त्रीलिंग"दूरी; ।"
        सुनीति < सुनीति [संज्ञा], अच्छी नीति, एकवचन, स्त्रीलिंग“सुनीति।”
        तुर्वश< तुर्वशुम्< 

        [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

        यदुम् < यदु

        [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

        “यदु; यदु।” इंद्रः < इंद्र

        [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग

        सा < तद् [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग

        "यह; वह, वह, यह (निरर्थक सर्वनाम); संबंधित(ए); वह; कर्तावाचक; तब; विशेष(ए); संबंधकारक; वाद्य; आरोपवाचक; वहाँ; बालक [शब्द]; संप्रदान कारक; एक बार; वही।"

        नहीं < नः <हमको

        [संज्ञा], संबंधवाचक, बहुवचन"मैं; मेरा।"

        युवा < युवान[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग "युवा; युवा।”
        सखा < सखी

        [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग; साथी; सखी [शब्द]।”

        "उत त्या तुर्वशायदू अस्नातारा शचीपतिः ।
        इन्द्रो विद्वाँ अपारयत् ॥१७॥
        हे इन्द्र ! उन दौंनों यदु और तुर्वसु को तुमने बन्धी बनाया और दूर समुद्र पार कर दिया। विद्वान इसे जानते हैं।१७।
        पदों के अर्थ:-
        उत अपि च "अस्नातारा= अस्नातारौ।  इन्द्रेण परिबद्धौ "त्या =त्यौ तौ= तौ द्वे । “तुर्वशायदू तुर्वशनामानं यदुनामकं च राजानौ “शचीपतिः= शचीन्द्रस्य भार्या । 
        तस्याः पतिर्भर्ता "विद्वान् -सकलमपि जानन् “इन्द्रः "अपारयत्=  पारे दूरे अकरोत् - पार दूर कर दिया।
        ____________________
        ऋग्वेदः सूक्तं ४,/३०/१७

        ष्णै- धातु के रूप द्विवचन वैदिक रूप अस्ना तारा- दौंनों  को बाँध दिया।
        जबकि ष्ना- स्ना धातु का भी यही समान  अनद्यतन भूत काल का रूप  सेना धातु का वैदिक है।
        अत: अनुवादक भ्रमित हैं कि स्नातारा- स्नान अर्थ में है। जबकि ष्णै- बन्धने वेष्टने वा। वेष्टन= घेरने या लपेटने की क्रिया या भाव है।

        क्यों कि पूर्वी ऋचाओं में यदु और तुर्वसु को अपने वश में करने लिए ब्राह्मण पुरोहित इन्द्र से निरन्तर प्रार्थना करते हैं ।
        फिर इन्द्र कि द्वारा यदु और तुर्वशु में एक का ही राज्याभिषेक होना चाहिए । परन्तु यहाँ यदु-तुर्वसु दौंनों का राज्याभिषेक कैसे हो सकता है ? अत: अस्नातारा= ष्णै = वैष्टने धातु का  लङ्(अनद्यतन भूत)का वैदिक द्विवचन रूप है। जिसका अर्थ है दौंनों को बाँध लिया लपेट लिया।

        लुट्(अनद्यतन भविष्यत् ष्णै=बन्धने वेष्टने वा" )
        एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
        प्रथमपुरुषःस्नातास्नातारौस्नातारः
        मध्यमपुरुषःस्नातासिस्नातास्थःस्नातास्थ
        उत्तमपुरुषःस्नातास्मिस्नातास्वःस्नातास्मः

        दोनों धातुओं के समान रूप होने से अर्थ भ्रान्ति होना स्वाभाविक ही है।
        लुट्(अनद्यतन भविष्यत् - ष्ना= शुचौ स्नाने वा" )
        एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
        प्रथमपुरुषःस्नातास्नातारौस्नातारः
        मध्यमपुरुषःस्नातासिस्नातास्थःस्नातास्थ
        उत्तमपुरुषःस्नातास्मिस्नातास्वःस्नातास्मः

        कृष्ण की अवधारणा भारत है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के मोहन -जोदारो में कृष्ण की बाल लीला सम्बन्धी भित्ति चित्र है।

        वेदों में इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णित है।

        अथर्ववेद-(20/137/7)
        ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा
        देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् । सूक्तम् - (१३७)
        "अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः। आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥
        (इयानः) =चलता हुआ (अंशुमतीम्)=  यमुना नदी को । अव अतिष्ठत्= ठहरा है। (नृमणाः= नर  के समान मन वाले (इन्द्रः) इन्द्र  ने (तम् धमन्तम्) उस हाँफते हुए को (शच्या) शचि के साथ  (आवत्)-युद्ध किया ।
        लङ्(अनद्यतन भूत)
        एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
        प्रथमपुरुषःआवत्=युद्ध किया 
        (स्नेहितीः) स्नेहयुक्त (अप अधत्त) हटा लिया है ॥७॥
        टिप्पणी:-
        (धमन्तम्) =उच्छ्वसन्तम्।  पराभवेन दीर्घंश्वसन्तम्- उसास लेते हुए को।  (स्नेहितीः) स्नेहतिः स्नेहतिर्वधकर्मा-निघ० २।१९। स्वकीया मारणशीलाः सेनाः (नृमणाः) नेता के समान मन वाले- नेतृतुल्यमनस्कः (अप अधत्त) -दूर हटा दिया-दूरे धारितवान् -निवर्तितवान् ॥

        ऋग्वेद प्रथम एवम् अष्टम मण्डल में कृष्ण का वर्णन सायण भाष्य सहित-

        ऋग्वेदः सूक्तं १.१०१
        कुत्स आङ्गिरसः
        देवता- इन्द्रः( १ गर्भस्राविण्युपनिषद्)। जगती, ८-११ त्रिष्टुप्

        "प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥(ऋ०१/१०१/१)
        _________________________________
        सायण का अर्थ-
        हे ऋत्विजो ! स्तुति योग्य उन इन्द्र के लिए हवि रूप अन्न से युक्त स्तुति रूप वचन का उत्कृष्टता से उच्चारण करो !  जिन इन्द्र ने ऋजिश्वा नामक मित्र राजा के साथ कृष्ण नानक असुर के द्वारा गर्भवती उसकी स्त्रीयों का वध  किया था। अर्थात् कृष्ण नामक असुर को मारकर  उसके पुत्रों का जन्म न होने देने के लिए ही उसकी गर्भवती स्त्रियों का भी इन्द्र ने बध कर दिया था । रक्षा पाने के इच्छुक हम कामनाओं की वर्षा करने वाले और वज्र युक्त दक्षिण हाथ वाले मरुतों से युक्त उन इन्द्र का मित्रता के लिए आह्वान करते हैं।यहाँ मूल ऋचा में कृष्ण के लिए असुर शब्द नहीं है परन्तु सायण ने असुर विशेषण अपनी तरफ से जोड़ दिया है।

        आंध्र " को " इंद्र " से लिया जाना चाहिए, जैसा कि फ़्रेंच में " आंद्रेई " है।
        वह वज्र के नाम से जाना जाने वाला बिजली का वज्र धारण करता है और ऐरावत नामक सफेद हाथी पर सवार होता है। इंद्र सर्वोच्च देवता हैं और अग्नि के जुड़वां भाई हैं और उनका उल्लेख अदिति के पुत्र आदित्य के रूप में भी किया गया है। उनका घर स्वर्ग में मेरु पर्वत पर स्थित है।

        इंद्र पारसी धर्म में एक देवता के नाम के रूप में प्रकट होता है । उन्हें बर्मीज़ में ðadʑá mɪ́ɴ , थाई में พระอินทร์ (Phra In), मलय में Indera, तेलुगु में ఇంద్రుడు (Indrudu), तमिल में இந்தி के नाम से जाना जाता है। ரன் (इंथिरन), चीनी में 帝释天 (दिशितिआन), और में जापानी के रूप में 帝釈天 (ताईशाकुटेन)।
        वह वज्रपाणि से जुड़े हैं - मुख्य धर्मपाल या बुद्ध, धर्म और संघ के रक्षक और रक्षक जो पांच ध्यानी बुद्ध की शक्ति का प्रतीक हैं।

        एक देवता के रूप में इंद्र अन्य इंडो-यूरोपीय देवताओं के सजातीय हैं; वे या तो थोर, पेरुन और ज़ीउस जैसे गरजने वाले देवता हैं, या डायोनिसस जैसे नशीले पेय के देवता हैं। मितन्नी के देवताओं में इंद्र (इंदारा) के नाम का भी उल्लेख किया गया है, जो एक हुरियन-भाषी लोग थे जिन्होंने लगभग 1500BC-1300BC तक उत्तरी सीरिया पर शासन किया था।

        ऋग्वेद संहिता की ऋचाएँ वैदिक साहित्य के सबसे पुराने और जटिल साहित्य का प्रतिनिधित्व करती हैं। 
        (ऋग्वेद 1.101.1)

        "प्र मंदिने पितुमद अर्चता वाको यः कृष्णगर्भा निर्हन्न ऋषिस्वना | अवस्यावो विष्वाणं वज्रदक्षिणं मारुतवन्तं सख्यय हवामहे। (ऋग्वेद १/१०१/१)
        अनुवाद:-
        “जो प्रसन्न है (प्रशंसा के साथ), उसे आहुतियों के साथ प्रणाम करो, जिसने ऋषिस्वन के साथ, कृष्ण की मूर्ति को नष्ट कर दिया ; सुरक्षा की इच्छा से, हम अपने मित्र बनने के लिए उसकी मांग करते हैं, जो (लाभों का) दाता है, जो अपने दाहिने हाथ में वज्र रखता है , उसकी देखभाल मारुति करता है।

        सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य-
        ऋजिश्वान एक राजा और इंद्र का मित्र था ; कृष्ण एक असुर थे, जिनमें उनके स्त्रियों की भी हत्या कर दी गई थी, ताकि उनका कोई भी संतान जीवित न रह सके। 

        व्याकरणिक टिप्पणी:-
         प्र=
        [विशेषक्रिया]
        "की ओर; आगे।"
        मंदिने=
        [संज्ञा], मूलवाचक, एकवचन, पुल्लिंग
        “नशीला पदार्थ; ताज़ा करने वाला।”

        पितुमद < पितुमत्
        [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग
        "आहार।"

        अर्चता= अर्च्-स्तुतौ-
        [क्रिया], बहुवचन, वर्तमान अनिवार्यता

        "गाओ; पूजा करना; सम्मान; प्रशंसा; स्वागत।"

        वचो < वाचः < वचस्
        [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

        "कथन; आज्ञा; भाषण; शब्द; सलाह; शब्द; आवाज़।"

        यः < यद्
        [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग
        "कौन; कौन सा; यत् [सर्वनाम]।"

        कृष्ण < कृष्ण
        [संज्ञा]

        कृष्णगर्भ < गर्भः < गर्भ
        [संज्ञा], कर्मवाचक, बहुवचन, स्त्रीलिंग

        “भ्रूण; गर्भ; अंदर; गुला; भ्रूण; गर्भ; बच्चा; ; गर्भाद्रुति; उत्तर; गर्भावस्था; यार; पेट; निशेचन; अंदर; उधेड़; बच्चा; द्रवपुंज; बीच" स्त्री

        निर्हन्न < निर्हन्न < निर्हन्न < √हन्
        [क्रिया], एकवचन, मूल सिद्धांतकार (इंड.)

        ऋजिस्वान < ऋजिस्वान
        [संज्ञा], वाद्य, एकवचन, पुल्लिंग

        ऋजिस्वान्।”

        अवस्यावो < अवस्यावः < अवस्यु
        [संज्ञा], कर्तावाचक, बहुवचन, पुल्लिंग

        “सुरक्षा की मांग करना; मजबूरन

        विश्णम् < विश्णम् < विश्णम्
        [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

        "साँड़; इंद्र; घोड़ा; विश्णु; आदमी।"

        वज्रदक्षिणम् < वज्र
        [संज्ञा], पुल्लिंग

        “वज्र; वज्र; वज्र; वज्र; बिजली चमकाना; अभ्र; वज्रमुषा; हीरा; वज्र [शब्द]; वज्रकपात; वज्र; वैक्रान्त।"

        वज्रदक्षिणम् < दक्षिणम् < दक्षिणा
        [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

        “दक्षिणी; सही; दक्षिण; दक्षिण दिशा में; दक्षिणा [शब्द]; ईमानदार; दक्षिणवर्त; चतुर्।"

        मरुतवंतं < मरुतवंतम् < मारुतवंत
        [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

        “इंद्र; मेरुवंत [शब्द]।"

        साख्य < साख्य
        [संज्ञा], संपुष्टकारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

        "दोस्ती; सहायता; कंपनी।"

        हवामहे < ह्वा
        [क्रिया], बहुवचन, वर्तमान सूचक
        "उठाना; अपील करना; बुलाना; बुलाओ।"

        यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन्पिप्रुमव्रतम्।                                        इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥२॥

        यस्य द्यावापृथिवी पौंस्यं महद्यस्य व्रते वरुणो यस्य सूर्यः ।                                              यस्येन्द्रस्य सिन्धवः सश्चति व्रतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥३॥
        सामवेदः -कौथुमीया/संहिता -ग्रामगेयः-प्रपाठकः १०-वैरूपम्

        सामवेदः‎ - कौथुमीया‎ - संहिता‎ - ग्रामगेयः‎ - प्रपाठकः १०
        :32 वैरूपम्.-
        प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना ।
        अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हुवेमहि ।। ३८० ।। तथा  ऋग्वेद १/१०१/१

        (३८०।१) ।। वैरूपम् । विरूपो जगतीन्द्रो मरुत्त्वान्।
        प्रमंदाऽ२३४इने ।। पितुमदाऽ३र्च्चाऽ३तावचः । यःकाऽ३ओऽ२३४वा ।
        कृष्णगर्भानिरहन्नृजिश्वनाऽ३ । अवस्याऽ२३४वाः। वृषणंवा । ज्रादक्षाऽ२३४इणाम् ।
        मारौवाओऽ२३४वा ।। त्वन्तꣳसख्यायहुवाऽ५इमहाउ ।। वा ।।
        ( दी ३ । प० १० । मा० ९ )२३ ( णो । ६५१)

        द्र. पञ्चनिधनं वैरूपम्
        वैरूपोपरि वैदिकसंदर्भाः

        अस्मिन् जगति अस्माकं इन्द्रियाणि यत्किंचित् संवेदनं प्राप्नुवन्ति, तत् सर्वं असत्यं तु नैवास्ति, किन्तु विरूपितं अवश्यमस्ति। यदा वयं वैराजपदं प्राप्नुवन्ति, तदा अस्माकं दृष्टिः सत्यस्य दर्शने समर्था भवति।"
        ________
        यो अश्वानां यो गवां गोपतिर्वशी य आरितः कर्मणिकर्मणि स्थिरः।                        वीळोश्चिदिन्द्रो यो असुन्वतो वधो मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥४॥
        ___________

        यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत् ।  इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥५॥

        यः शूरेभिर्हव्यो यश्च भीरुभिर्यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभिः ।                                                इन्द्रं यं विश्वा भुवनाभि संदधुर्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥६॥

        रुद्राणामेति प्रदिशा विचक्षणो रुद्रेभिर्योषा तनुते पृथु ज्रयः ।                                                इन्द्रं मनीषा अभ्यर्चति श्रुतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥७॥

        यद्वा मरुत्वःपरमे सधस्थे यद्वावमे वृजने मादयासे।अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा त्वाया हविश्चकृमा सत्यराधः ॥८॥

        त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्चकृमा ब्रह्मवाहः।                                                अधा नियुत्वः सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व ॥९॥

        मादयस्व हरिभिर्ये त इन्द्र विष्यस्व शिप्रे वि सृजस्व धेने ।                                              आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन्हव्यानि प्रति नो जुषस्व ॥१०॥

        मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा वयमिन्द्रेण सनुयाम वाजम् ।                                                  तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥११॥

        {सायण-भास्यम्}
        प्र मन्दिने' इति एकादशर्चमष्टमं सूक्तमाङ्गिरसस्य कुत्सस्यार्षम् । अष्टम्याद्याश्चतस्रस्त्रिष्टुभः शिष्टाः सप्त जगत्यः । इन्द्रो देवता । तथा चानुक्रान्तं - ' प्रमन्दिन एकादश कुत्स आद्या गर्भस्राविण्युपनिषच्चतुस्त्रिष्टुबन्तम्' इति । दशरात्रस्य नवमेऽहनि मरुत्वतीये एतत्सूक्तम् । विश्वजितः' इति खण्डे सूत्रितं- ‘प्र मन्दिन इमा उ त्वेति मरुत्वतीयम्' (आश्व. श्रौ. ८.७.) इति ॥
        ____________________
        प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥
        अर्थ-
        अच्छी प्रकार से  इन्द्र और उसके सखा राजा   ऋजिश्वन् की  स्तुति करने वाले के लिए यह निर्देश है कि वे उनकी अन्न से पूरित हवि आदि से अर्चना करते हुए  ऐसे वचनों से कहें कि वे इन्द्र मरुतगण जिनके सखा है और जिन इन्द्र ने दाहिने हाथ में वज्र धारण करते हुए कृष्ण के द्वारा गर्भिताओं का वध कर दिया था ;रक्षा के इच्छुक हम सब उन शक्ति शाली इन्द्र का ही आह्वान करते हैं । 

        विशेष=असुर शब्द का प्रयोग तो कृष्ण के लिए सायण ने अपने भाष्य में ही किया है । अन्यथा मूल ऋचा में असुर पद नहीं  होकर अदेव पद है ।
        ____
          . १०९-११५ ) । एतदनार्षत्वेनानादरणीयं भवति । एषोऽर्थः क्रमेणर्क्षु वक्ष्यते । तथा चास्या ऋचोsयमर्थः । 1“द्रप्सः =। द्रुतं सरति गच्छतीति द्रप्सः । पृषोदरादिः । द्रुतं गच्छन् "दशभिः “सहसैः दशसहस्रसंख्यैरसुरैः “इयानः= “कृष्णः एतन्नामकोऽसुरः "अंशुमतीं नाम नदीम् “अव “अतिष्ठत् =अवतिष्ठते । ततः 2-“शच्या= कर्मणा प्रज्ञानेन वा 3-“धमन्तम्= उदकस्यान्तरुच्छ्वसन्तं यद्वा जगद्भीतिकरं शब्दं कुर्वन्तं “तं =कृष्णमसुरम् “इन्द्रः मरुद्भिः सह 5-“आवत् =प्राप्नोत् । पश्चात्तं कृष्णमसुरं तस्यानुचरांश्च हतवानिति वदति । “नृमणाः नृषु मनो यस्य सः । यद्वा । कर्मनेतृष्वृत्विक्ष्वेकविधं मनो यस्य स तथोक्तः । तादृशः सन् “स्नेहितीः । स्नेहतिर्वधकर्मसु पठितः । सर्वस्य हिंसित्रीस्तस्य सेनाः “अप “अधत्त ।6- अपधानं =हननम् । अवधीदित्यर्थः । ‘ अप स्नीहितिं नृमणा अधद्राः' (सा. सं. १. ४. १.४.१) इति छन्दोगाः पठन्ति । तस्यानुचरान् हत्वा तं द्रुतं गच्छन्तमसुरमपाधत्त । हतवान् ॥
        _________________
        "द्र॒प्सम॑पश्यं॒ विषु॑णे॒ चर॑न्तमुपह्व॒रे न॒द्यो॑ अंशुमत्या:।
        नभो॒ न कृ॒ष्णम॑वतस्थि॒वांस॒मिष्या॑मि वो वृषणो॒ युध्य॑ता॒जौ ॥१४
        द्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्यः । अंशुऽमत्याः ।
        नभः । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । वः । वृषणः । युध्यत । आजौ ॥१४

        तुरीयपादो मारुतः । मरुतः प्रति यद्वाक्यमिन्द्र उवाच तदत्र कीर्त्यते । हे मरुतः “द्रप्सं द्रुतगामिनं कृष्णमहम् “अपश्यम् =अदर्शम् । कुत्र वर्तमानम् । “विषुणे= विष्वगञ्चने सर्वतो विस्तृते देशे । यद्वा । विषुणो विषमः । विषमे परैरदृश्ये गुहारूपे देशे। “चरन्तं =परितो गच्छन्तम् । किंच “अंशुमत्याः एतन्नामिकायाः “नद्यः =नद्याः “उपह्वरे= अत्यन्तं गूढे स्थाने “नभो “न नभसि यथादित्यो दीप्यते तद्वत्तत्र दीप्यमानम् “अवतस्थिवांसम् उदकस्यान्तरवस्थितं “कृष्णम् एतन्नामकमसुरमपश्यम् । तस्मिन् दृष्टे सति हे “वृषणः कामानामुदकानां वा सेक्तारो मरुतः “वः युष्मान् युद्धार्थम् “इष्यामि अहमिच्छामि । ततो यूयं तमिमं कृष्णम् "आजौ । अजन्ति गच्छन्त्यत्र योद्धार आयुधानि प्रक्षेपयन्तीति वाजिः संग्रामः । तस्मिन् "युध्यत संहरत । वाक्यभेदादनिघातः । केचित् इष्यामि वो मरुतः इति पठन्ति । तत्र हे मरुतः वो युष्मानिच्छामीत्यर्थो भवति ॥

        अध॑ द्र॒प्सो अं॑शु॒मत्या॑ उ॒पस्थेऽधा॑रयत्त॒न्वं॑ तित्विषा॒णः।विशो॒ अदे॑वीर॒भ्या॒३॒॑चर॑न्ती॒र्बृह॒स्पति॑ना यु॒जेन्द्र: ससाहे ॥१५।अध । द्रप्सः । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः ।
        विशः। अदेवीः ।अभि। आऽचरन्तीः ।बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥१५।

        1-“अध= अथ 2-“द्रप्सः =द्रुतगामी कृष्णः 3-“अंशुमत्याः= नद्याः 4-“उपस्थे =समीपे 5-“तित्विषाणः= दीप्यमानः सन् 6-“तन्वम् =आत्मीयं शरीरम् 7-“अधारयत् । =परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन 8-“युजा= सहायेन 9-“अदेवीः =अद्योतमानाः । कृष्णरूपा इत्यर्थः । यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । 10-“आचरन्तीः= आगच्छन्तीः 11-“विशः= असुरसेनाः "अभि 12-"ससहे =जघान । तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ३४ ॥ 

        त्वं ह॒ त्यत्स॒प्तभ्यो॒ जाय॑मानोऽश॒त्रुभ्यो॑ अभव॒ः शत्रु॑रिन्द्र ।
        गू॒ळ्हे द्यावा॑पृथि॒वी अन्व॑विन्दो विभु॒मद्भ्यो॒ भुव॑नेभ्यो॒ रणं॑ धाः ॥१६
        पद पाठ:-
        त्वम् । ह । त्यत् । सप्तऽभ्यः । जायमानः । अशत्रुऽभ्यः । अभवः । शत्रुः । इन्द्र ।
        गूळ्हे इति । द्यावापृथिवी इति । अनु । अविन्दः । विभुमत्ऽभ्यः । भुवनेभ्यः । रणम् । धाः ॥१६

        हे “इन्द्र “त्वं खलु “त्यत् तत् कर्म कृतवानसि। किं तत् उच्यते । "जायमानः त्वं प्रादुर्भवन्नेव । “अशत्रुभ्यः स्तुरहितेभ्यः “सप्तभ्यः कृष्णवृत्रनमुचिशम्बरादिसप्तभ्यो बलवद्भ्यः शत्रुभ्यः तदर्थं “शत्रुः “अभवः । यद्वा । सप्तभ्यः । ससैवाङ्गिरसः । सप्तभ्योङ्गिरोभ्यो गवानयनार्थं प्रादुर्भवन्नेवाशत्रुभ्यो बलवद्भ्यः पणिभ्यः शत्रुरभवः । किंच हे इन्द्र त्वं “गूळ्हे तमसा गूढे संवृते “द्यावापृथिवी द्यावापृथिव्यौ सूर्यात्मना ते प्रकाश्यानुक्रमेण "अविन्दः अलभथाः । तथा “विभुमद्भ्यः महत्त्वयुक्तेभ्यः "भुवनेभ्यः लोकेभ्यः "रणं रमणं “धाः धारयसि । विदधासीत्यर्थः ॥
        _________________________

        drip (v.)
        c. 1300, drippen, "to fall in drops; let fall in drops," from Old English drypan, also dryppan, from Proto-Germanic *drupjanan (source also of Old Norse dreypa, Middle Danish drippe, Dutch druipen, Old High German troufen, German triefen), perhaps from a PIE root *dhreu-. Related to droop and drop. Related: Dripped; dripping.

        drip (n.)
        mid-15c., drippe, "a drop of liquid," from drip (v.). From 1660s as "a falling or letting fall in drops." Medical sense of "continuous slow introduction of fluid into the body" is by 1933. The slang meaning "stupid, feeble, or dull person" is by 1932, perhaps from earlier American English slang sense "nonsense" (by 1919).

        विषुण-अनेक रूप का। बहुरूपी। २. सर्वग। सर्वगत। ३. विप्रकीर्ण। बिखरा हुआ। ४. पराङमुख [को०]।

        अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
        आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥
        द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
        नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥
        अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
        विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
        _______________________________________
        क्रमशः उपर्युक्त तीनों ऋचाओं का पदपाठ-

        "अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
        आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥

        पद का अन्वय= अव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः ।आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥१३।

        शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण-                १-अव= तुम रक्षा करो लोट्लकर  मध्यम पुरुष एकवचन।
        २-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में  ।
        ३- अंशुमतीम् = यमुनाम्  –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।
        ४-अवतिष्ठत् =  अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश  लङ्लकार रूप)  स्थित हुए।
        ५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक  तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।
         ६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं  कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को।  (ध्मा धातु का धम आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप  एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है  ।
        ७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।
        ८-नृमणां( धनानां) 
        ९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्यपुरुषएकवचने) 
        विशेषटिप्पणी-
        १०-अव्=१- रक्षण २-गति ३-कान्ति ४-प्रीति ५-तृप्ति ६-अवगम ७-प्रवेश ८-श्रवण ९- स्वाम्यर्थ १०-याचन ११-क्रिया। १२ -इच्छा १३- दीप्ति १४-अवाप्ति १५-आलिङ्गन १६-हिंसा १७-दान  १८-वृद्धिषु।                
        ११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
        प्रथम पुरुष एक वचन का लङ् लकार(अनद्यतन भूूूतकाल का रूप।
        आवत् =प्राप्त किया । 
        हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया  और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप  धन दिया।
        भाष्य-
        कृष्णो दशसहस्रैर्गोपै:परिवृत: सन्  अँशुमतीनामधेयाया नद्या:  यमुनाया: तटेऽतिष्ठत् तत्र कृष्णस्य नाम्न: प्रसिद्धं  तं गोपं नद्यार्जलेमध्ये   स्थितं इन्द्रो ददर्श स इन्द्र: स्वपत्न्या शच्या सार्धं आगत्य  जले स्निग्धे तं गोपं कृष्णं तस्यानुचरानुपगोपाञ्च अतीवानि धनानि अदात्।

        हिन्दी अनुवाद- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं अशुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप कृष्ण को यमुना नदी के जल  में स्थित देखा।

        ________________________________
        द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
        नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥

        पद का अन्वय= द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ ।
        नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१४।।

        हिन्दी अर्थ-इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा  और इस साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं देखना चाहूँगा । अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़  कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं देखना चाहूँगा। जहाँ जल और- ( नभ) बादल भी न हो ऐसे स्थान पर-
        (अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
        _______________    
        शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण-
        १-द्र॒प्सम्= जल को कर्मकारक द्वित्तीया।अपश्यम्=अदर्शम्  दृश् धातु का लङ्लकार  (सामान्य भूतकाल ) क्रिया पदरूप  - मैंने देखा ।__________________

        २- वि + सवन(‌सुन) रूप विषुण -(विभिन्न रूप)।   षु (सु)= प्रसवऐश्वर्ययोः - परस्समैपदीय सवति सोता [ कर्मणि- ]  सुषुवे सुतः सवनः सवः अदादौ (234) सौति स्वादौ षुञ् अभिषवे (51) सुनोति (911) सूनुः, पुं, (सूयते इति । सू + “सुवः कित् ।” उणादिसूत्र्र ३।३५। इति (न:) स:च कित् )

        पुत्त्रः । (यथा, रघुः । १ । ९५ ।
        “सूनुः =सुनृतवाक् स्रष्टुः विससर्ज्जोदितश्रियम् ) अनुजः । सूर्य्यः । इति मेदिनी ॥ अर्कवृक्षः । इत्यमरः कोश ॥
        षत्व विधान सन्धि :-"विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद 'कु(कखगघड•)     'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई  स्वर जैैैसे इ उ आदि हो अथवा 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।

        शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु। हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

        परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।__________________________

        विषुण-विभिन्न रूपी।
        ३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्=  चरते हुए साँड  को।
        ४-आजौ =  संग्रामे  युद्ध में।
        ५-अ॒व॒ = उपसर्ग
        ६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है । तस्थिवस्=  स्था--क्वसु  स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।
        ७-व:= युष्मान् - तुम सबको ।  युष्मभ्यम् ।  युष्माकम् । यष्मच्छब्दस्य द्बितीया चतुर्थी षष्ठी बहुवचनान्तरूपोऽयम् इति व्याकरणम् ॥
        ८-उपह्वरे= निर्जन देशे।
        ९-वृ॒ष॒णः॒ = साँड ने ।
        १०-युध्य॑त= युद्ध करते हुए।
        ११-आजौ= युद्ध में ।
        १२-इष्या॑मि= मैं इच्छा करुँगा।
        ___________________________________

        "अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
        विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
        ______________
        अर्थ-कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया  जो इनके गोपों - विशों (गोपालन आदि करने वाले -वैश्यवृत्ति सम्पन्न) थे ।  चारो ओर चलती हुई गायों के साथ रहने वाले गोपों को इन्द्र ने बृहस्पति की  सहायता से दमन किया ।
        पदपाठ-विच्छेदन :-
        । द्रप्स:। अंशुऽमत्याः। उपऽस्थे ।अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः। विशः। अदेवीः ।अभि । आऽचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा । इन्द्रः। ससहे॥१५।
        “अध =अथ अधो वा “द्रप्सः= द्रव्य अथवा जल बिन्दु: “अंशुमत्याः= यमुनाया: नद्याः“(उपस्थे=समीपे “(  त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे  तित्विषाणः= दीप्यमानः)( सन् =भवन् ) “(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “(अधारयत्  = शरीर धारण किया)। परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन “युजा =सहायेन “अदेवीः = देवानाम्  ये न पूजयन्ति इति अदेवी:। कृष्णरूपा इत्यर्थः । 
        यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । “आचरन्तीः =आगच्छन्तीः “विशः= गोपालका:"अभि "ससहे षह्(सह्) लिट्लकार ( अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) ।।शक्यार्थे - चारो और से सख्ती की ।
         सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह अधेः प्रसहने (1333) इत्यत्र सह्यतेः सहतेर्वा निर्देश इति शक्तावुपेक्षायाञ्च उदाहृतं तमधिचक्रे इति (7) 22  तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ॥ ३४ ॥ 

        ऋग्वेद २/१४/७ में भी सायण ने "उपस्थ' का अर्थ उत्संग( गोद) ही किया है । जैसे 
        अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
        कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥देखे हे अध्वर्यवो जघन्वान् पूर्वं शत्रून् हतवान् य इंद्रः शतं सहस्रमसुरान् भूम्या उपस्थ उत्संगेऽवपत् । एकैकेन प्रकारेणापातयत् । किंच यः कुत्सस्यैतन्नामकस्य राजर्षेः । आयोः पौरूरवसस्य राजर्षेः। अतिथिग्वस्य दिवोदासस्य । एतेषां त्रयाणां वीरानभिगंतॄन्प्रति द्वंद्विनः शुष्णादीनसुरान् न्यवृणक् । वृणक्तिर्हिंसाकर्मा । अवधीत् । तथा च मंत्रवर्णः । त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारंधयोऽतिथिग्वाय शंबरं ।१. ५१. ६.। इति । तादृशायेंद्राय सोमं भरत ॥
         
        तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
        हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

        १-तस्मिन् -उसमें ।
         २-रमते लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन - क्रीडा करते हैं रमण करते हैं । रम्=क्रीडायाम्
        ३-देव:(प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक।
        स्त्रीभि:=  तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप स्त्रीयों के साथ।
        परिवृत:= चारों ओर से घिरे हुए।

        हारनूपुरकेयूररशना आद्यै: तृतीया विभक्ति वहुवचन = हार नूपुर(घँघुरू) केयूर(बाँह में पहनने का एक आभूषण  ,बिजायठ  बजुल्ला ,अंगद , बहुँठा अथवा भुजबंद भी जिसकी हिन्दी नाम हैं  आदि के द्वारा । 
        तदा= तस्मिन् काले -उस समय में।
        भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
        ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
        भूषितानां= भूषण पहने हुओं का (षष्ठी वहुवचन रूप सम्बन्ध बोधक रूप)
        वरस्त्रीणां=श्रेष्ठ स्त्रीयों का ।
        चारु=सुन्दर । अङ्गीनाम्= अंगों वाली का षष्ठी विभक्ति वहुचन रूप ।
        विशेषत:=विशेष से पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।
        शुभम्- जल जैसा राजनिघण्टु में शुभम् नपुँसक रूप में जल अर्थ उद्धृत किया है । अत: उपर्युक्त श्लोक में 'शुभम् शुभगन्धान्वितं' विशेषण का विशेष्य पद है ।
        शुभगन्धान्वितं= शुभ (कल्याण कारी) गन्धों से युक्त को द्वितीया विभक्ति  कर्म कारक पद रूप ।

        कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान भी नहीं किया ।
        सुर संस्कृति से प्रभावित  कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते रहे होंगे । परन्तु  सुरापान यादवों की सांस्कृतिक परम्परा या पृथा नहीं थी।
        जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में  

        वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
        सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
        “सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
        सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥
        (वाल्मीकि रामायण  बालकाण्ड सर्ग 45 के श्लोक 38)
        उपर्युक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
        चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
        इस कारण देवोपासक पुरोहितों  के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों  द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।

        परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिक अर्थ प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों को कहा गया है ।
        इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने 
        ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर  (13,14,15,) में कृष्ण को असुर अथवा अदेव"  कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
        परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेष वश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है।
        परन्तु फिर भी ये लोग पूर्ण त: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
        राजनिर्घण्टः।। शुभम्-(उदकम् । इति निघण्टुः । १।१२।
        सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते ( सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है ।

        भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है।
        स्त्रियों के साथ दिन में रमण ( संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है ।
        कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
        और करोड़ो देवों की पूजा करना। ये कृष्ण ने नहीं किया।
        ______
        जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा
        येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
        तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।9/23।
        _______________
        श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक
        अर्थ: –हे अर्जुन ! जो भक्त दूसरे देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, लेकिन उनकी यह पूजा विना विधि पूर्वक ही होती है।
        कृष्ण का तो एक ही उद्घोष( एलान) था कि सभी देवताओं से सम्बन्धित सम्प्रदाय ( धर्मों) को छोड़कर मेरी शरण आजा मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
        श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय अठारह का मूल श्लोकः देखें निम्न रूपों में
        __________
        सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
        अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।18.66। 
        सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
         कृष्ण के सन्दर्भ में कुछ तथाकथित नव बौद्ध कहते हैं कि कृष्ण शब्द संस्कृत का है और पाली भाषा में नहीं है।

        परन्तु उनको पता होना चाहिए कि( र) वर्ण पाली भाषा में है।
        जो कि (ऋ+ अ = र) का सन्ध्यक्षर संक्रमण का नवीन रूप है।
        ___________    

        "दातव्यं दानं तु दीयते दीनं दयनीयं वा।
        उच्च दानं दातुः इच्छानुरूपं सुप्रभा।
        भिक्षितव्य भिक्षा भिक्षुकस्य इच्छानुरूपा
        पुण्यरहिता तुच्छा हीना  इयं  किंवा ।१।
        अनुवाद:-
        "दान देना ही कर्तव्य है" - तो दान दीन को देना चाहिए जो दया का पात्र होता है यह दान उच्च और दाता की इच्छा के अनुसार होता है।
        भीख भिखारी की इच्छा के अनुसार और दान की अपेक्षा तुच्छ व हीन होती है इसका कोई पुण्य नही होता है।१।
          आभीर संहिता-
        यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
        भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।
        (श्रीमद्भगवद्गीता-9/25) 
        अनुवाद:-
        देवताओं का पूजन करनेवाले  देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों का पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को ही प्राप्त होते हैं।
        परन्तु  हे अर्जुन!  मेरा पूजन करने वाले वैष्णव भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।



        इस संसार में प्रत्येक प्राणी के जीवन में  सभी घटित  घटनाओं और प्राप्त  वस्तुओं का अस्तित्व उद्देश्य पूर्ण और सार्थक ही है।  वह नियत है , और निश्चित भी है।

        भले हीं उसकी उपयोगिता हमारे जीवन के अनुकूल उस समय हो या नहो हो ।  क्योंकि उसकी घटित सूक्ष्म वास्तविकताओं का हम्हें  कभी स्थूल बोध ही नहीं होता है।

        लोगों को कभी भी  भविष्य में स्वयं द्वारा करने वाले कर्ता बनकर कर्मों के लिए दाबा नहीं करना चाहिए- और बीते हुए समय में  भूल से की गयी गलत क्रियाओं के लिए  भी पछतावा भी नहीं करना  चाहिए । बुद्धिमानी इसी में है। 

        हाँ भूत काल की घटनाओं से उनके सकारात्मक या नकारात्मक परिणामों से मनुष्य शिक्षा लेकर भविष्य की  सुधारात्मक परियोजना का  अवश्य विचार करना चाहिए  । 

        यद्यपि कर्म तो वर्तमान के ही धरातल पर सम्पादित  होता है। अत: वर्तमान को ही बहुत सजग तरीके जीना- जीवन की कला है।

        भविष्य की घटित घटनाओं का ज्ञान  स्थूल दृष्टि से तो कोई नहीं कर सकता है।
        परन्तु रात्रि के अन्तिम पहर में देखे हुए स्वप्न भी जीवन में सन्निकट भविष्य में होने वाली कुछ घटनाओं का प्रकाशन अवश्य करते  हैं।
        विज्ञान के युग में भी यह एक गूढ़ पहेली है। इसके मूल में न दि मत इच्छाऐं हैं और न आने वाले जीवन की परीक्षाऐं-

        ये भविष्य की घटनाएँ कभी प्रतिकूल प्रतीत होते हुए भी अनुकूल स्थितियों का निर्माण करती हैं । मनुष्य इसे नहीं जान पाता-

        और अनुकूल प्रतीत होते हुए भी वाली ये  घटनाएँ  प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण कर देती हैं।  ये सब तो प्रारब्ध का विधान ही है। प्रारब्ध कर्म संस्कार के धागों से निर्मित जीवन का मानचित्र( नक्शा) है।

        कभी कभी हम बचपन में केवल शोक अथवा सनक में ऐसी वस्तुओं का संग्रह कर लेते हैं जो उस समय तो निरर्थक और बेकार सी होती हैं परन्तु भविष्य में कभी उनकी उपयोगिता सार्थक हो जाती है। यह तो प्रारब्ध का विधान है।

        दर-असल प्रारब्ध अनेक जन्मों के मन के  निर्देशन द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों से किए गये कर्मों का सञ्चित रूप में से एक जीवन के  निर्देशन के लिए विभाजित रूप है। 
        अर्थात  ( एक जीवन में फलित परिस्थितियों और उपलब्धियों की सुलभता का नाम एक दूसरा नाम  है।  स्वभाव की रवानगी में यही प्रारब्ध ही  व्याप्त है। 

        यही प्रारब्ध  भाग्य संज्ञा से भी  अभिहित किया जाता है।

        परन्तु जब लोग स्वभाव के विपरीत संयम से कुछ नया करते हैं तब  वह साधना नवीन कर्म संस्कार का निर्माण करती है। 

        यही क्रियमाण कर्म है। जिससे आगामी जीवन के प्रारब्ध का निर्माण होता है।

        यही जीवन का सत्य है। हमने जीवन की प्रयोगशाला में  यह अनुभव रूपी प्रयोग भी किया है। यह प्रयोगशाला और प्रयोग सबका मौलिक ही होता है। सार्वजनिक कदापि नहीं -

         दुनियाँ के  सभी  प्राणियों  की क्रियाविधि काल के तन्तुओं से निर्मित‌ प्रारब्ध की डोर से नियन्त्रित है।

        परिस्थितियों के वस्त्रों में  है डोर या धागा  सबका प्रारब्ध का लगा है  इन वस्त्रों से  जीवन आवृत  है। और डोर वही प्रारब्ध ( भाग्य ) की लगी हुई  है।
        इसी लिए अहंकार रहित होकर कर्तव्य करने में ही जीवन की सार्थकता है।

         -  योगेश रोहि  -

        श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: 

                           इति - समापनम्★•

         -

        Yadav Yogesh Kumar Rohi:
        पुराणों में श्री कृष्ण की आयु ( जीवन काल) और उनकी लौकिक लीलाऐं-

        ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः 4 (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय 129 श्री कृष्ण के गोलोक गमन तथा उनकी १२५ वर्ष की आयु का विवरण-)


        विषय सूची
        १ कृष्ण काल
        २ कृष्ण का समय
        ३ कंस के समय मथुरा
        ४ प्राचीनतम संस्कृत साहित्य
        ५ पुराणेतर ग्रंथ


        संसार में एक कृष्ण ही हुए जिन्होंने फिलॉसोफी को  गीत बनाकर अपनी मुरली की तानों पर  गुनगुनाया है।

        श्रीकृष्ण के समय का निर्धारण विभिन्न विद्वानों ने किया है । 

        कई विद्वान श्री कृष्ण को 3500 वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मानते है ।
        भारतीय मान्यता के अनुसार कृष्ण का काल 5000 वर्ष से भी कुछ अधिक पुराना लगता है । इसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार भी कुछ विद्वानों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है ।

        श्रीकृष्ण का समय के संबंध में श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी का मत- "वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई॰ पू० 1500 माना जाता है। 

        ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड कृष्ण की आयु 125 वर्ष निर्धारित करता है।
        अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहते हुए भी जीवन के यथार्थ की व्यवहारिक व्याख्या की । 
        उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ ।

        बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक प्रान्तो में भी जाना पडा़ ।
        जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत आदि में मिलती है 

        वैदिक साहित्य में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है विशेषत: ऋग्वेद में  और उसमें भी उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है। 

         एक  विचारक डॉ० प्रभुदयाल मित्तल द्वारा प्रस्तुत प्रमाण कृष्ण काल को 5000 वर्ष पूर्व का प्रमाणित करते हैं उन्होंने छांदोग्योपनिषद के श्लोक का हवाला दिया है । 
        ज्योतिष का प्रमाण देते हुए श्री मित्तल लिखते हैं- "मैत्रायणी उपनिषद और शतपथ ब्राह्मण के “कृतिका स्वादधीत” उल्लेख से तत्कालीन खगोल-स्थिति की गणना कर ट्रेनिंग कालेज, पूना के गणित प्राध्यापक स्व. शंकर बालकृष्ण दीक्षित महोदय ने मैत्रायणी उपनिषद की ईसवी सन् ने 1600 पूर्व का और शतपथ ब्राह्मण को 3000 वर्ष का माना था ।

        मैत्रायणी उपनिषद सबसे पीछे का उपनिषद कहा जाता है और उसमें छांदोग्य उपनिषद के अवतरण मिलते है, इसलिए छांदोग्य मैत्रीयणी से पूर्व का उपनिषद हुआ।

        शतपथ ब्राह्मण और उपनिषद आजकल के विद्वानों के मतानुसार एक ही काल की रचनाएं हैं, अत: छांदोग्य का काल भी ईसा से 3000 वर्ष पूर्व का हुआ।

        छांदोग्य उपनिषद में देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख मिलता है ( छान्दोग्य उपनिषद,प्रथम भाग,खण्ड 17) “देवकी पुत्र” विशेषण के कारण उक्त उल्लेख के कृष्ण स्पष्ट रूप से वृष्णि वंश के कृष्ण हैं। 

        इस प्रकार कृष्ण का समय प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का ज्ञात होता है ।" - डा प्रभुदयाल मित्तल डॉ० मित्तल ने किस आधार पर छांदोग्योपनिषद को 5000 वर्ष प्राचीन बताया है यह कहीं उल्लेख नहीं है ।

        छांदोग्योपनिषद के ई पू 500 से 1000 वर्ष से अधिक प्राचीन होने के प्रमाण नहीं मिलते ।


        कृष्ण का समय
        डा॰ मित्तल लिखते हैं -" परीक्षित के समय में सप्तर्षि (आकाश के सात तारे) मघा नक्षत्र पर थे, जैसा शुक्रदेव द्वारा परीक्षित से कहे हुए वाक्य से प्रमाणित है। 

        ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सप्तर्षि एक नक्षत्र पर एक सौ वर्ष तक रहते है । आजकल सप्तर्षि कृतिका नक्षत्र पर है जो मघा से 21 वां नक्षत्र है।

        इस प्रकार मघा के कृतिक पर आने में 2100 वर्ष लगे हैं। 
        किंतु यह 2100 वर्ष की अवधि महाभारत काल कदापि नहीं है।
        इससे यह मानना होगा कि मघा से आरम्भ कर 27 नक्षत्रों का एक चक्र पूरा हो चुका था और दूसरे चक्र में ही सप्तर्षि उस काल में मघा पर आये थे।
         पहिले चक्र के 2700 वर्ष में दूसरे चक्र के 2100 वर्ष जोड़ने से 4800 वर्ष हुए ।

        यह काल परीक्षित की विद्यमानता का हुआ । परीक्षित के पितामह अर्जुन थे, जो आयु में श्रीकृष्ण से 18 वर्ष छोटे थे । इस प्रकार ज्योतिष की उक्त गणना के अनुसार कृष्ण-काल अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का सिद्ध होता है ।"
        _________
        आजकल के चैत्र मास के वर्ष का आरम्भ माना जाता है, जब कि कृष्ण काल में वह मार्गशीर्ष से होता था ।बसन्त ऋतु भी इस काल में मार्गशीर्ष माह में होती थी। 

        महाभारत में मार्गशीर्ष मास से ही कई स्थलों पर महीनों की गणना की गयी है । गीता में जहाँ भगवान की विभूतियों का वर्णन हुआ हैं, वहाँ “मासानां मार्गशीर्षोऽहम” और “ऋतुनां कुसुमाकर” के उल्लेखों से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है ।

         ज्योतिष शास्त्र के विद्धानों ने सिद्ध किया है कि मार्गशीर्ष में वसन्त सम्पात अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व होता था । (भारतीय ज्योतिषशाला,पृष्ठ 34) इस प्रकार भी श्रीकृष्ण काल के 5000 वर्ष प्राचीन होने की पुष्टि होती है ।

        श्रीकृष्ण द्वापर युग के अन्त और कलियुग के आरम्भ के सन्धि-काल में विद्यमान थे । भारतीय ज्योतिषियों के मतानुसार कलियुग का आरम्भ शक संवत से 3176 वर्ष पूर्व की चैत्र शुक्ल 1 को हुआ था । आजकल 1887 शक संवत है । 

        इस प्रकार कलियुग को आरम्भ हुए 5066 वर्ष हो गये है । कलियुग के आरम्भ होने से 6 माह पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल 14 को महाभारत का युद्ध का आरम्भ हुआ था, जो 18 दिनों तक चला था । उस समय श्रीकृष्ण की आयु 83 वर्ष की थी । उनका तिरोधान 119 वर्ष की आयु में हुआ था।
        परन्तु ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड कृष्ण की आयु125 वर्ष वर्णन करता है।

        इस प्रकार भारतीय मान्यता के अनुसार श्रीकृष्ण विद्यमानता या काल शक संवत पूर्व 3263 की भाद्रपद कृष्ण. 8 बुधवार के शक संवत पूर्व 3144 तक है । भारत के विख्यात ज्योतिषी वराह मिहिर, आर्यभट, ब्रह्मगुप्त आदि के समय से ही यह मान्यता प्रचलित है । 

        भारत का सर्वाधिक प्राचीन युधिष्ठिर संवत जिसकी गणना कलियुग से 40 वर्ष पूर्व से की जाती है, उक्त मान्यता को पुष्ट करता है ।

        पुरातत्ववेत्ताओं का मत है कि अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व एक प्रकार का प्रलय हुआ था । उस समय भयंकर भूकम्प और आंधी तूफानों से समुद्र में बड़ा भारी उफान आया था । उस समय नदियों के प्रवाह परिवर्तित हो गये थे, विविध स्थानों पर ज्वालामुखी पर्वत फूट पड़े थे और पहाड़ के श्रृंग टूट-टूटकर गिर गये थे ।

        वह भीषण दैवी दुर्घटना वर्तमान इराक में बगदाद के पास और वर्तमान मैक्सिको के प्राचीन प्रदेशों में हुई थी, जिसका काल 5000 वर्ष पूर्व का माना जाता है । उसी प्रकार की दुर्घटनाओं का वर्णन महाभारत और भागवत आदि पुराणों भी मिलता है । इनसे ज्ञात होता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात उसी प्रकार के भीषण भूकम्प हस्तिनापुर और द्वारिका में भी हुए थे, जिनके कारण द्वारिका तो सर्वथा नष्ट ही हो गयी थी ।

        बगदाद(ईराक) और हस्तिनापुर तथा प्राचीन मग प्रदेश( ईरान) और द्वारिका प्राय: एक से आक्षांशों पर स्थित हैं, अत: उनकी दुर्घटनाओं का पारिस्परिक सम्बन्ध विज्ञान सम्मत है । 

        बगदाद प्रलय के पश्चात वहाँ बताये गये “उर” नगर को तथा मैक्सिको (दक्षिणी अमेरिका, ) स्थित मय प्रदेश के ध्वंस को जब 5000 वर्ष प्राचीन माना जा सकता है, जब महाभारत और भागवत में वर्णित वैसी ही घटनाओं, जो कृष्ण के समय में हुई थी, उसी काल का माना जायगा । ऐसी दशा में पुरातत्व के साक्ष्य से भी कृष्ण-काल 5000 वर्ष प्राचीन सिद्ध होता है ।

         यह दूसरी बात है कि महाभारत और भागवत ग्रंथों की रचना बहुत बाद में हुई थी, किंतु उनमें वर्णित कथा 5000 वर्ष पुरानी ही है ।

        ज्योतिष और पुरातत्व के अतिरिक्त इतिहास के प्रमाण से भी कृष्ण-काल विषयक भारतीय मान्यता की पुष्टि होती है । यवन नरेश सैल्युक्स ने मैगस्थनीज नामक अपना एक राजदूत भारतीय नरेश चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा था । मैगस्थनीज ने उस समय के अपने अनुभव लेखबद्ध किये थे ।

        इस समय उस यूनान राजदूत का मूल ग्रंन्थ तो नहीं


        Yadav Yogesh Kumar Rohi:
        लोकाचरण-खण्ड}- " सम्पूर्ण खण्ड" संशोधित-पाठ - कॉपीड-भाग ४
        मिलता है, किंतु उसके जो अंश एरियन आदि अन्य यवन लेखकों ने उद्धृत किये थे, वे प्रकाशित हो चुके है ।

        मैगस्थनीज ने लिखा है कि मथुरा में शौरसेनी लोगों का निवास है । वे विशेष रूप से हरकुलीज (हरि कृष्ण) की पूजा करते है । उनका कथन है कि डायोनिसियस के हरकुलीज 15 पीढ़ी और सेण्ड्रकोटस (चन्द्रगुप्त) 153 पीढ़ी पहले हुए थे । इस प्रकार श्रीकृष्ण और चन्द्रगुप्त में 138 पीढ़ियों के 2760 वर्ष हुए। 

        चन्द्रगुप्त का समय ईसा से 326 वर्ष पूर्व है । इस हिसाब से श्रीकृष्ण काल अब से (1965+326+2760) 5051 वर्ष पूर्व सिद्ध होता है ।

        कंस के समय मथुरा-
        कंस के समय में मथुरा का क्या स्वरूप था, इसकी कुछ झलक पौराणिक वर्णनों में देखी जा सकती है। यद्यपि ये वर्णन अतिशयक्ति पूर्ण व काव्यात्मक ही हैं।
        जब श्रीकृष्ण ने पहली बार इस नगरी को देखा तो भागवतकार के शब्दों में उसकी शोभा इस प्रकार थी।

        'उस नगरी के प्रवेश-द्वार ऊँचे थे और स्फटिक पत्थर के बने हुए थे। उनके बड़े-बड़े सिरदल और किवाड़ सोने के थे। 
        नगरी के चारों ओर की दीवाल (परकोटा) ताँबे और पीतल की बनी थी तथा उसके नीचे की खाई दुर्लभ थी। 
        नगरी अनेक उद्यानों एक सुन्दर उपवनों से शोभित थी।'


        'सुवर्णमय चौराहों, महलों, बगीचियों, सार्वजनिक स्थानों एवं विविध भवनों से वह नगरी युक्त थी। वैदूर्य, बज्र, नीलम, मोती, हीरा आदि रत्नों से अलंकृत छज्जे, वेदियां तथा फर्श जगमगा रहे थे और उन पर बैठे हुए कबूतर और मोर अनेक प्रकार के मधुर शब्द कर रहे थे। गलियों और बाज़ारों में, सड़कों तथा चौराहों पर छिड़काव किया गया था। और उन पर जहाँ-तहाँ फूल-मालाएँ,

        दूर्वा-दल, लाई और चावल बिखरे हुए थे।'


        'मकानों के दरवाजों पर दही और चन्दन से अनुलेपित तथा जल से भरे हुए मङल-घट रखे हुए थे, फूलों, दीपावलियों, बन्दनवारों तथा फलयुक्त केले और सुपारी के वृक्षों से द्वार सजाये गये थे और उन पर पताके और झड़ियाँ फहरा रही थी।'


        उपर्युक्त वर्णन कंस या कृष्ण कालीन मथुरा से कहाँ तक मेल खाता है, यह बताना कठिन है। परन्तु इससे तथा अन्य पुराणों में प्राप्त वर्णनों से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि तत्कालीन मथुरा एक समृद्ध पुरी थी। उसके चारों ओर नगर-परकोटा थी तथा नगरी में उद्यानों का बाहुल्य था। मोर पक्षियों की शायद इस समय भी मथुरा में अधिकता थी। महलों, मकानों, सड़कों और बाज़ारों आदि के जो वर्णन मिलते है उनसे पता चलता है कि कंस के समय की मथुरा एक धन-धान्य सम्पन्न नगरी थी।

        इस प्रकार भारतीय विद्वानों के सैकड़ों हज़ारों वर्ष प्राचीन निष्कर्षों के फलस्वरूप कृष्ण-काल की जो भारतीय मान्यता ज्योतिष, पुरातत्व और इतिहास से भी परिपुष्ट होती है, उसे न मानने का कोई कारण नहीं है । 

        आधुनिक काल के विद्वानों इतिहास और पुरातत्व के जिन अनुसन्धानों के आधार पर कृष्ण-काल की अवधि 3500 वर्ष मानते है, वे अभी अपूर्ण हैं इस बात की पूरी सम्भावना है कि इन अनुसन्धानों के पूर्ण होने पर वे भी भारतीय मान्यता का समर्थन करने लगेंगे ।

        प्राचीनतम संस्कृत साहित्य-
        वैदिक संहिताओं के अनंतर संस्कृत के प्राचीनतम साहित्य-आरण्यक, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथों और पाणिनीय सूत्रों में श्रीकृष्ण का थोड़ा बहुत उल्लेख मिलता है । 

        जैन साहित्य में श्रीकृष्ण को तीर्थंकर नेमिनाथ जी का चचेरा भाई बतलाया गया है । इस प्रकार जैन धर्म के प्राचीनतम साहित्य में श्रीकृष्ण का उल्लेख हुआ है ।

         बौद्ध साहित्य में जातक कथाएं अत्यंत प्राचीन है उनमें से “घट जातक” में कृष्ण कथा वर्णित है । यद्यपि उपर्युक्त साहित्य कृष्ण – चरित्र के स्त्रोत से संबंधित है, तथापि कृष्ण-चरित्र के प्रमुख ग्रंथ 1. महाभारत 2. हरिवंश, 3. विविध पुराण, 4. गोपाल तापनी उपनिषद और 5. गर्ग संहिता हैं ।

        यहाँ इन ग्रंथों में वर्णित श्रीकृष्ण के चरित्र पर प्रकाश डाला जाता है ।

        पुराणेतर ग्रंथ
        जिन पुराणेतर ग्रंथों में श्रीकृष्ण का चरित्र वर्णित है, उसमें “गोपाल तापनी उपनिषद” और “गर्ग संहिता” प्रमुख है । 

        यहाँ पर उनका विस्तृत विवरण दिया जाता है – गोपाल तापनी उपनिषद : - यह कृष्णोपासना से संबंधित एक आध्यात्मिक रचना है । इसके पूर्व और उत्तर नामक दो भाग है । पूर्व भाग को “कृष्णोपनिषद” और उत्तर भाग को “अथर्वगोपनिषद” कहा गया है ।

        यह रचना सूत्र शैली में है, अत: कृष्णोपासना के परवर्ती ग्रंथो की अपेक्षा यह प्राचीन जान पड़ती है । इसका पूर्व भाग उत्तर भाग से भी पहले का ज्ञात होता है । श्रीकृष्ण प्रिया राधा और उनके लीला-धाम ब्रज में से किसी का भी नामोल्लेख इसमें नहीं है । इससे भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती हैं । 

        डा. प्रभुदयाल मीतल, कृष्ण का समय 5000 वर्ष पूर्व मानते हैं । वे इसको अनेक तथ्य एवं उल्लेखों के आधार पर प्रमाणित भी करते हैं । श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी का मत भिन्न है, वे कृष्ण काल को 3500 वर्ष से अधिक पुराना नहीं मानते । 


        श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ0 39, 52; आर0जी0 भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ0 58-291;

         विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ0 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि0 1, पृ0 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।

        तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच

        तद्धैतत्घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच,अपिपास एव
         बभूवसोऽन्तवेलायामेतत् त्रयँ प्रतिपद्येत, 'अक्षितमसि', 'अच्युतमसि',
        'प्राणसँशितमसी'ति  तत्रैते द्वे ऋचौ भवतः ।।  ।।
        "छांदोग्य उपनिषद (3,17,6),
        जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या विष्णु रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (देखें तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; पाणिनि-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)। महाभारत तथा हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण, वायु पुराण, भागवत पुराण, पद्म पुराण, देवी भागवत अग्नि पुराण तथा ब्रह्म वैवर्त पुराण पुराणों में उन्हें प्राय: भागवान रूप में ही दिखाया गया है।

        इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं।

        पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे।
         इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा उपनिषदों के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा।

        बौद्ध-ग्रंथ घट जातक तथा जैन-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि ब्रज के कृष्ण, द्वारका के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे।

        अथापराह्ने भगवान् कृष्णः सङ्‌कर्षणान्वितः ।
         मथुरां प्राविशद् गोपैः दिदृक्षुः परिवारितः ॥ १९ ॥
        ( मिश्र )
        ददर्श तां स्फाटिकतुङ्ग गोपुर
             द्वारां बृहद् हेमकपाटतोरणाम् ।
         ताम्रारकोष्ठां परिखादुरासदां
             उद्यान रम्योप वनोपशोभिताम् ॥ २० ॥
         सौवर्णशृङ्‌गाटकहर्म्यनिष्कुटैः
             श्रेणीसभाभिः भवनैरुपस्कृताम् ।
         वैदूर्यवज्रामलनीलविद्रुमैः
             मुक्ताहरिद्‌भिर्वलभीषु वेदिषु ॥ २१ ॥
         जुष्टेषु जालामुखरन्ध्रकुट्टिमेषु
             आविष्टपारावतबर्हिनादिताम् ।
         संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरां
             प्रकीर्णमाल्याङ्‌कुरलाजतण्डुलाम् ॥ २२ ॥
         आपूर्णकुम्भैर्दधिचन्दनोक्षितैः
             प्रसूनदीपावलिभिः सपल्लवैः ।
         सवृन्दरम्भाक्रमुकैः सकेतुभिः
             स्वलङ्‌कृतत् द्वारगृहां सपट्टिकैः ॥ २३ ॥

        (भागवतपुराण- 10/ 41/20-23)
        भगवान ने देखा कि नगर के परकोटे में स्फटिकमणि के बहुत ऊँचे-ऊँचे गोपुर तथा घरों में भी बड़े-बड़े फाटक बने हुए हैं।
         उनमें सोने के बड़े-बड़े किंवाड़ लगे हैं और सोने के ही तोरण बने हुए हैं।
         नगर के चारों ओर ताँबें और पीतल की चहरदीवारी बनी हुई है।
        खाई के कारण और और कहीं से उस नगर में प्रवेश करना बहुत कठिन है।
        स्थान-स्थान पर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन शोभायमान हैं। 
        सुवर्ण से सजे हुए चौराहे, धनियों के महल, उन्हीं के साथ के बगीचे, कारीगरों के बैठने के स्थान या प्रजावर्ग के सभा-भवन और साधारण लोगों के निवासगृह नगर की शोभा बढ़ा रहे हैं।
         वैदूर्य, हीरे, स्फटिक नीलम, मूँगे, मोती और पन्ने आदि से जड़े हुए छज्जे, चबूतरे, झरोखे एवं फर्श आदि जगमगा रहे हैं।
         उन पर बैठे हुए कबूतर, मोर आदि पक्षी भाँति-भाँति बोली बोल रहे हैं।
        सड़क, बाजार, गली एवं चौराहों पर खूब छिड़काव किया गया है।
         स्थान-स्थान पर फूलों के गजरे, जवारे खील और चावल बिखरे हुए हैं।
         घरों के दरवाजों पर दही और चन्दन आदि से चर्चित जल से भरे हुए कलश रखे हैं और वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपलें फलसहित केले और सुपारी के वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रों से भलीभाँति सजाए हुए हैं।


        चंद्रमा (यानी कृष्ण) एक समूह से घिरा हुआ है। आत्माएं उनकी किरणों के अंश हैं क्योंकि घटकों की प्रकृति आत्मा में मौजूद है। कृष्ण दो भुजाओं से घिरे हुए हैं। उनकी कभी चार भुजाएं नहीं होतीं.

        वहाँ वह एक ग्वालिन से घिरा हुआ सदैव क्रीड़ा करता रहता है। गोविंदा (अर्थात कृष्ण) अकेले ही एक पुरुष हैं; ब्रह्मा आदि स्त्रियाँ ही हैं। उसी से प्रकृति प्रकट होती है। यह स्वामी प्रकृति का एक स्वरूप है।


        _      
        न राधिका समा नारी न कृष्णसदृशः पुमान् ।
        वयः परं न कैशोरात्स्वभावः प्रकृतेः परः ।५२।
        अनुवाद:-
        न तो राधा के समान कोई स्त्री है और न ही कृष्ण के समान कोई पुरुष है। किशोरावस्था से बढ़कर कोई (बेहतर) उम्र नहीं है; यह प्रकृति का महान सहज स्वभाव है।५२। 

        ध्येयं कैशोरकं ध्येयं वनं वृंदावनं वनम् ।
        श्याममेव परं रूपमादिदेवं परो रसः ।५३।
        अनुवाद:-
        किशोरावस्था में स्थित कृष्ण का  ध्यान करना चाहिए. वृन्दावन-उपवन का ध्यान करना चाहिए। सबसे महान रूप (वह) श्याम है , और वह परम रस  का प्रथम देव  है।५३।

        बाल्यं पंचमवर्षांतं पौगंडं दशमावधि ।
        अष्टपंचककैशोरं सीमा पंचदशावधि ।५४।
        बाल्य पाँचवें वर्ष तक रहता है। 
        पोगण्ड दसवें वर्ष तक होता है।
        (पाँच से दस वर्ष तक की अवस्था की बालक)
        किशोरावस्था तेरह  वर्ष तक चलती है और
        (इसकी) सीमा पन्द्रहवाँ वर्ष है।

        यौवनोद्भिन्नकैशोरं नवयौवनमुच्यते ।
        तद्वयस्तस्य सर्वस्वं प्रपंचमितरद्वयः ।५५।
        युवावस्था ( यौवन ) से उत्पन्न होने वाली किशोरावस्था को तरुण युवा ( नवयौवन ) कहा जाता है। बाल्यावस्था और युवावस्था के बीच का अर्थात् ग्यारह से पंद्रह वर्ष तक की अवस्था का बालक किशोर होता है। यह अवस्था ही उसका सर्वस्व है; (उससे भिन्न) आयु अवास्तविक ( प्रपंच ) है।

        बाल्यपौगंडकैशोरं वयो वंदे मनोहरम् ।
        बालगोपालगोपालं स्मरगोपालरूपिणम् ।५६।
        मैं मनोहर अवस्था बचपन, लड़कपन और किशोरावस्था को सलाम करता हूं। मैं उन बाल ग्वाल कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो कामदेव रूपी ग्वाले के रूप में हैं।

        वंदे मदनगोपालं कैशोराकारमद्भुतम् ।
        यमाहुर्यौवनोद्भिन्न श्रीमन्मदनमोहनम् ।५७।
        एक किशोर की प्रकृति के हैं और अद्भुत हैं, और जिन्हें वे कामदेव-मोहक कहते हैं, मैं उन्हें नमस्कार करता हूं।५७।

        अध्याय 77 - कृष्ण का वर्णन
         पाताल-खंड )

        ___
        सत्यंनित्यंपरानंदंचिद्घनंशाश्वतंशिवम् ।
        नित्यां मे मथुरां विद्धि वनं वृंदावनं तथा ।२६।

        यमुनां गोपकन्याश्च तथा गोपालबालकाः ।
        ममावतारो नित्योऽयमत्र मा संशयं कृथाः ।२७।
        अनुवाद:-
        तब भगवान ने स्वयं वृन्दावन उपवन में विचरण करते हुए मुझसे कहा: 

        "मेरा कोई भी रूप उससे बड़ा नहीं है जो दिव्य, शाश्वत, अंशहीन, क्रियाहीन, शांत और शुभ, बुद्धि और आनंद का रूप है, पूर्ण है।" 
        ,जिसकी आंखें पूरी तरह से खिले हुए कमल की पंखुड़ियों की तरह हैं, जिन्हें आपने (अभी) देखा था। वेद इसका वर्णन केवल कारणों के कारण के रूप में करते हैं, जो सत्य है, शाश्वत है, महान आनंद स्वरूप है, बुद्धि का पुंज है, शाश्वत और शुभ है। मेरी मथुरा को शाश्वत जानो,

        वैसे ही वृन्दावन भी; इसी प्रकार (अनन्त जानो) यमुना, ग्वाले और ग्वाले। मेरा यह अवतार अनन्त है।२६-२७।

        ममेष्टा हि सदा राधा सर्वज्ञोऽहं परात्परः ।
        सर्वकामश्च सर्वेशः सर्वानंदः परात्परः ।२८।

        मयि सर्वमिदं विश्वं भाति मायाविजृंभितम् ।
        ततोऽहमब्रुवं देवं जगत्कारणकारणम्। २९।
        अनुवाद:-
        इसमें कोई संदेह न रखें. राधा मुझे सदैव प्रिय है। मैं सर्वज्ञ हूं, महानों से भी महान हूं। मेरी सभी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, मैं सबका स्वामी हूं, मैं संपूर्ण आनंद हूं और महान से भी महान हूं।२८-२९।

        काश्च गोप्यस्तु के गोपा वृक्षोऽयं कीदृशो मतः ।
        वनं किं कोकिलाद्याश्च नदी केयं गिरिश्च कः ।३०।

        कोऽसौ वेणुर्महाभागो लोकानंदैकभाजनम् ।
        भगवानाह मां प्रीतः प्रसन्नवदनांबुजः ।३१।
        अनुवाद:-
        तब मैंने संसार के कारण भगवान से कहा: “ग्वाले कौन हैं? ग्वालिनें क्या हैं? यह किस प्रकार का वृक्ष बताया गया है? यह गिरि कौन है? कोयल आदि क्या हैं? नदी क्या है? और पहाड़ क्या है? यह महान बांसुरी कौन है, जो सभी लोगों के लिए आनंद का एकमात्र स्थान है?।।३०-३१।

        गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेया ऋचो वै गोपकन्यकाः ।
        देवकन्याश्च राजेंद्र तपोयुक्ता मुमुक्षवः ।३२।

        गोपाला मुनयः सर्वे वैकुंठानंदमूर्त्तयः ।
        कल्पवृक्षः कदंबोऽयं परानंदैकभाजनम् ।३३।
        अनुवाद:-
        भगवान ने प्रसन्न होकर और अपने कमल के समान मुख से प्रसन्न होकर मुझसे कहा: “ग्वालों को वेदों को जानना चाहिए। ग्वालों की युवा पुत्रियों को ऋक्स (भजन) के रूप में जाना जाना चाहिए। हे राजन, वे दिव्य देवियाँ हैं। वे तपस्या से संपन्न हैं और मोक्ष की इच्छा रखते हैं। सभी ग्वाले साधु हैं, वैकुंठमें आनंद स्वरूप हैं।यह कदंब इच्छा-प्राप्ति वाला वृक्ष है, सर्वोच्च आनंद का भंडार है।३२-३३।


        इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे वृंदावनादिमथुरामाहात्म्यकथनंनाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।७३।


        ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः १२८
          ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय - 128)

        अथाष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
                   "नारायण उवाच
        श्रीकृष्णश्च समाह्वानं गोपांश्चापि चकार सः।
        भाण्डीरे वटमूले च तत्र स्वयमुवास ह ।।१।।

        पुराऽन्नं च ददौ तस्मै यत्रैव ब्राह्मणीगणः।
        उवास राधिका देवी वामपार्श्वे हरेरपि ।।२।।


        दक्षिणे नन्दगोपश्च यशोदासहितस्तथा ।
        तद्दक्षिणो वृषभानस्तद्वामे सा कलावती ।।३।।

        अन्ये गोपाश्च गोप्यश्च बान्धवाः सुहृदस्तथा ।
        तानुवाच स गोविन्दो यथार्थ्यं समयोचितम्।।४।।

                          "श्रीभगवानुवाच
        शृणु नन्द प्रवक्ष्यामि सांप्रतं समयोचितम्।
        सत्यं च परमार्थं च परलोकसुखावहम् ।।५।।

        आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं भ्रमं सर्वं निशामय।
        विद्युद्दीप्तिर्जले रेषा यथा तोयस्य बुद्बुदम्।।६।।

        मथुरायां सर्वमुक्तं नावशेषं च किंचन।
        यशोदां बोधयामास राधिका कदलीवने ।।७।।

        तदेव सत्यं परमं भ्रमध्वान्तप्रदीपकम्।
        विहाय मिथ्यामायां च स्मर तत्परमं पदम्।।८ ।।

        जन्ममृत्युजराव्याधिहरं हर्षकरं परम्।
        शोकसंतापहरणं कर्ममूलनिकृन्तनम् ।।९।।

        मामेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।
        ध्यायंध्यायं पुत्रबुद्धिं त्यक्त्वा लभ परंपदम्।।१०।।

        गोलोकं गच्छ शीघ्रं त्वं सार्धं गोकुलवासिभिः।
        आरात्कलेरागमनं कर्ममूलनिकृन्तनम् ।।११।।


        स्त्रीपुंसोर्नियमो नास्ति जातीनां च तथैव च ।
        विप्रेसन्ध्यादिकंनास्ति चिह्नं यज्ञोपवीतकम्।१२ ।

        यज्ञसूत्रं च तिलकं शेषं लुप्तं सुनिश्चितम् ।
        दिवाव्यवायनिरतं विरतं धर्मकर्मणि ।।१३।।

        यज्ञानां च व्रतानां च तपसां लुप्तमेव च।
        केदारकन्याशापेनधर्मो नास्त्येव केवलम्।।१४।।

        स्वच्छन्दगामिनीस्त्रीर्णा पतिश्च सततं वशे ।
        ताडयेत्सततंतं च भर्त्सयेच्छ दिवानिशम्।।१५।।

        प्राधान्यं स्त्रीकुटुम्बानां स्त्रीणां च सततं व्रज।
        स्वामीचभक्तस्तासां च पराभूतो निरन्तरम्।।१६।।

        कलौ च योषितः सर्वा जारसेवासु तत्पराः।
        शतपुत्रसमः स्नेहस्तासां जारे भविष्यति ।।१७।।

        ददाति तस्मै भक्ष्यं च यथा भृत्याय कोपतः।
        सस्मिता सकटाक्षा साऽमृतदृष्ट्या निरन्तरम्।।१८।

        जारं पश्यति कामेन विषदृष्ट्या पतिं सदा।
        सततं गौरवं तासां स्नेहं च जारबान्धवे ।।१९।।

        पत्यौ करप्रहारं च नित्यं नित्यं करोति च।
        मिष्टान्नं श्रद्धया भक्त्या जाराय प्रददाति च।२०।

        वेषयुक्ता च सततं जारसेवनतत्परा।
        प्राणा बन्धुर्गतिश्चाऽऽत्मा कलौ जारश्चयौषिताम्। २१।

        लुप्ता चातिथिसेवा च प्रलुप्तं विष्णुसेवनम्।
        पितृणामर्चनं चैव देवानां च तथैव च ।।२२।।

        विष्णुवैष्णवयोर्द्वेषी सततं च नरो भवेत्।
        वाममन्त्रोपासकाश्च चतुर्वर्णाश्च तत्पराः ।।२३।।

        शालग्रामं च तुलसीं कुशं गङ्गोदकं तथा।
        नस्पृशेन्मानवो धूर्तो म्लेच्छाचाररतः सदा।।२४।।

        कारणं कारणानां च सर्वेषां सर्वबीजकम्।
        सुखदं मोक्षदं शश्वद्दातारं सर्वसम्पदाम् ।।२५।।

        त्यक्त्वा मां परया भक्त्या क्षुद्रसम्पत्प्रदायिनम्।
        वेदनिघ्नं वाममन्त्रं जपेद्विप्रश्च मायया ।।२६।।

        सनातनी विष्णुमाया वञ्चितं तं करिष्यति।
        ममाऽऽज्ञयाभगवती जगतां च दुरत्यया।।२७ ।।

        कलेर्दशसहस्राणि मदर्चा भुवि तिष्ठति ।
        तदर्धानि च वर्षाणि गङ्गा भुवनपावनी ।।२८।।

        तुलसी विष्णुभक्ताश्च यावद्गङ्गा च कीर्तनम् ।
        पुराणानि च स्वल्पानि तावदेव महीतले ।।२९।।

        मम चोत्कीर्तनं नास्ति एतदन्ते कलौ व्रज ।
        एकवर्णा भविष्यन्तिकिराता बलिनःशठाः।।३० ।।

        पित्रोः सेवा गुरोः सेवा सेवा च देवविप्रयोः ।
        विवर्जिता नराः सर्वे चातिथीनां तथैव च।।३१।।

        सस्यहीना भवेत्पृथ्वी साऽनावृष्ट्या निरन्तरम् ।
        फलहीनोऽपि वृक्षश्च जलहीना सरित्तथा।।३२।।

        वेदहीनो ब्राह्मणश्च बलहीनश्च भूपतिः।
        जातिहीनाजनाःसर्वे म्लेच्छोभूपोभविष्यति।।३३।।


        भृत्यवत्ताडयेत्तातं पुत्रः शिष्यस्तथा गुरुम् ।
        कान्तं च ताडयेत्कान्ता लुब्धकुक्कुटवद्गृही।३४।

        नश्यन्ति सकला लोकाः कलौ शेषे च पापिनः।
        सूर्याणामातपात्केचिज्जलौघेनापि केचन ।।३५।।

        हे गोपेन्द्र प्रतिकलौ न नश्यति वसुंधरा ।
        पुनःसृष्टौ भवेत्सत्यं सत्यबीजं निरन्तरम्।।३६।।


        एतस्मिन्नन्तरे विप्र रथमेव मनोहरम् ।
        चतुर्योजनविस्तीर्णमूर्ध्वे च पञ्चयोजनम् ।।३७।।

        शुद्धस्फटिकसंकाशं रत्नेन्द्रसारनिर्मितम्।
        अम्लानपारिजातानां मालाजालविराजितम्।।३८।।

        मणीनां कौस्तुभानां च भूषणेन विभूषितम् ।
        अमूल्यरत्नकलशं हीरहारविलम्बितम् ।।३९।।

        मनोहरैः परिष्वक्तं सहस्रकोटिमन्दिरैः ।
        सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।।४०।।

        सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च गोपीकोटीभिरावृतम् ।
        गोलोकादागतं तूर्णं ददृशुः सहसा व्रजे ।।४१।।

        कृष्णाज्ञया तमारुह्य ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।
        राधा कलावती देवीधन्या चायोनिसंभवा।।४२।।

        गोलोकाद गता गोप्यश्चायोनिसंभवाश्च ताः ।
        श्रुतिपत्न्यश्च ताः सर्वाः स्वशरीरेण नारद।।४३।।

        सर्वे त्यक्त्वा शरीराणि नश्वराणि सुनिश्चितम् ।
        गोलोकं च ययौ राधा सार्घं गोकुलवासिभिः ।४४।

        ददर्श विरजातीर्र नानारत्नविभूषितम् ।
        तदुत्तीर्य ययौ विप्र शतशृङ्गं च पर्वतम् ।।४५।।

        नानामणिगणाकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
        ततो ययौ कियद्दूरं पुण्यं वृन्दावनं वनम्।।४६ ।।

        सा ददर्शाक्षयवटमूर्ध्वे त्रिशतयोजनम् ।
        शतयोजनविस्तीर्णं शाखाकोटिसमावृतम् ।।४७ ।।

        रक्तवर्णैः फलौघैश्च स्थूलैरपि विभूषितम् ।
        गोपीकोटिसहस्रैश्च सार्धं वृन्दा मनोहरा ।।४८ ।।

        अनुव्रजं सादरं च सस्मिता सा समाययौ ।
        अवरुङ्य रथात्तूर्णं राधां सा प्रणनाम च ।।४९ ।।

        रासेश्वरीं तां संभाष्य प्रविवेश स्वमालयम् ।
        रत्नसिंहासने रम्ये हीरहारसमन्विते ।। ५०।।

        वृन्दा तां वासयामास पादसेवनतत्परा ।
        सप्तभिश्च सखीभिश्च सेवितां श्वेतचामरैः ।।५१ ।।

        आययुर्गोपिकाः सर्वा द्रष्टुं तां परमेश्वरीम् ।
        नन्दादिकं प्रकल्प्यैतद्राधा वासं पृथकपृथक्।५२।

        परमानन्दरूपा सा परमानन्दपूर्वकम् ।
        स्ववेश्मनि महारम्ये प्रतस्थे गोपिका सह ।। ५३ ।
        _____

        इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनारायणो संवाद
        भांडीरवने व्रजजनसमक्षं नन्दं बोधयता कृष्णेन कलिदोषाणां निरूपणम्, अकस्मात्प्राप्तेनाद्भुतरथेन राधादिसर्वगोपीनां गोलोके गमनं च
        अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।।१२८।।
        "हिन्दी अनुवाद:-
        "पत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्न दिया था; उस भाण्डीर वट की छाया में श्रीकृष्ण स्वयं विराजमान हुए और वहीं समस्त गोपों को बुलवा भेजा। श्रीहरि के वामभाग में राधिकादेवी, दक्षिणभाग में यशोदा सहित नन्द, नन्द के दाहिने वृषभानु और वृषभानु के बायें कलावती तथा अन्यान्य गोपगोपी, भाई-बन्धु तथा मित्रों ने आसन ग्रहण किया। तब गोविन्द ने उन सबसे समयोचित यथार्थ वचन कहा।

        श्री भगवान बोले- नन्द! इस समय जो समयोचित, सत्य, परमार्थ और परलोक में सुखदायक है; उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त सभी पदार्थ बिजली की चमक, जल के ऊपर की हुई रेखा और पानी के बुलबुले के समान भ्रमरूप ही हैं- ऐसा जानो। मैंने मथुरा में तुम्हें सब कुछ बतला दिया था, कुछ भी उठा नहीं रखा था।
         उसी प्रकार कदलीवन में राधिका ने यशोदा को समझाया था। वही परम सत्य भ्रमरूपी अंधकार का विनाश करने के लिए दीपक है; इसलिए तुम मिथ्या माया को छोड़कर उसी परम पद का स्मरण करो। 
        वह पद जन्म-मृत्यु-जरा व्याध का विनाशक, महान हर्षदायक, शोक संताप का निवारक और कर्ममूल का उच्छेदक है।
         मुझ परम ब्रह्म सनातन भगवान का बारंबार ध्यान करके तुम उस परम पद को प्राप्त करो। अब कर्म की जड़ काट देने वाले कलियुग का आगमन संनिकट है; अतः तुम शीघ्र ही गोकुलवासियों के साथ गोलोक को चले जाओ. तदनन्तर भगवान ने कलियुग के धर्म तथा लक्षणों का वर्णन किया।
        विप्रवर! इसी बीच वहाँ व्रज में लोगों ने सहसा गोलोक से आये हुए एक मनोहर रथ को देखा। वह रथ चार योजन विस्तृत और पाँच योजन ऊँचा था; बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से उसका निर्माण हुआ था। 
        वह शुद्ध स्फटिक के समान उद्भासित हो रहा था; विकसित पारिजात पुष्पों की मालाओं से उसकी विशेष शोभा हो रही थी; वह कौस्तुभमणियों के आभूषणों से विभूषित था; उसके ऊपर अमूल्य रत्नकलश चमक रहा था; उसमें हीरे हार लटक रहे थे; वह सहस्रों करोड़ मनोहर मंदरियों से व्याप्त था; उसमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े उसका भार वहन कर रहे थे तथा उस पर सूक्ष्म वस्त्र का आवरण पड़ा हुआ था एवं वह करोड़ों गोपियों से समावृत था।
         नारदराधा और धन्यवाद की पात्र कलावती देवी का जन्म किसी के गर्भ से नहीं हुआ था। यहाँ तक कि गोलोक से जितनी गोपियाँ आयी थीं; वे सभी आयोनिजा थीं। 
        उसके रूप में श्रुतिपत्नियाँ ही अपने शरीर से प्रकट हुई थीं। वे सभी श्रीकृष्ण की आज्ञा से अपने नश्वर शरीर का त्याग करके उस रथ पर सवार हो उत्तम गोलोक को चली गयीं।
        साथ ही राधा भी गोकुलवासियों के साथ गोलोक को प्रस्थित हुईं।
        ब्रह्मन! मार्ग में उन्हें विरजा नदी का मनोहर तट दीख पड़ा, जो नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित था।
        उसे पार करके वे शतश्रृंग पर्वत पर गयीं। वहाँ उन्होंने अनेक प्रकार के मणिसमूहों से व्याप्त सुसज्जित रासमण्डल को देखा।
        उससे कुछ दूर आगे जाने पर पुण्यमय वृन्दावन मिला। 
        आगे बढ़ने पर अक्षयवट दिखायी दिया, उसकी करोड़ों शाखाएँ चारों ओर फैली हुई थीं। 
        वह सौ योजन विस्तारवाला और तीन सौ योजन ऊँचा था और लाल रंग के बड़े-बड़े फलसमूह उसकी शोभा बढ़ा रहे थे।
        उसके नीचे मनोहर वृन्दा हजारों करोड़ों गोपियों के साथ विराजमान थीं। 
        उसे देखकर राधा तुरंत ही रथ से उतरकर आदर सहित मुस्कराती हुई उसके निकट गयीं। वृन्दा ने राधा को नमस्कार किया।
         तत्पश्चात रासेश्वरी राधा से वार्तालाप करके वह उन्हें अपने महल के भीतर लिवा ले गयी। वहाँ वृन्दा ने राधा को हीरे के हारों से समन्वित एक रमणीय रत्नसिंहासन पर बैठाया और स्वयं उनकी चरण सेवा में जुट गयी।

        सात सखियाँ श्वेत चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं। इतने में परमेश्वरी राधा को देखने के लिए सभी गोपियाँ वहाँ आ पहुँचीं। तब राधाने नन्द आदि के लिए पृथक-पृथक आवासस्थान की व्यवस्था की। 
        तदनन्तर परमान्दरूपा गोपिका राधा परमानन्द पूर्वक सबके साथ अपने परम रुचिर भवन को प्रस्थित हुईं।
        ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय - 128)
         योगेश कुमार "रोहि" द्वारा संपादित किया गया

         

             ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः 4 (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय 129 श्री कृष्ण के गोलोक गमन तथा उनकी १२५ वर्ष की आयु का विवरण-)
        अथैकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः   
                    "नारायण उवाच
        श्रीकृष्णो भगवांस्तत्र परिपूर्णतमः प्रभुः ।दृष्ट्वा सालोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम् ।१।                                       
            "महादेव उवास
         पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके ।  ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा । २ ।
        अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।

        अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः ।३ ।
        गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः ।तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।४।
        गोकुलस्थाश्च गोपाश्च समाश्वासं चकार सः उवाच मधुरं वाक्यं हितं नीतं च दुर्लभम् । ५।
        श्री भगवानुवाच हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव । रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।६।
        तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।७।

        तथा जगाम भाण्डीरं विधाता जगतामपि ।स्वयं शेषश्च धर्मश्च भवान्या च भवःस्वयम् । ८ ।
        सूर्यश्चापि महेन्द्रश्च चन्द्रश्चापि हुताशनः ।कुबेरो वरुणश्चैव पवनश्च यमस्तथा ।। ९ ।।
        ईशानश्चापि देवाश्च वसवोऽष्टौ तथैव च ।सर्वे ग्रहाश्च रुद्राश्च मुनयो मनवस्तथा ।। १० ।।
        त्वरिताश्चाऽऽययुः सर्वे यत्राऽऽस्ते भगवान्प्रभुः । प्रणम्य दण्डवद्भूभौ तमुवाच विधिः स्वयम् ।। ११ 
        ब्रह्मवाच परिपूर्णतम् ब्रह्मस्वरूप नित्यविग्रह । ज्योतिःस्वरूप परम नमोऽस्तु प्रकृतेः पर ।१२।
        सुनिर्लिप्त निराकार साकार ध्यानहेतुना ।स्वेच्छामय परं धाम परमात्मन्नमोऽस्तु ते। १३।
        सर्वकार्यस्वरूपेश कारणानां च कारण ।ब्रह्मेशशेषदेवेश सर्वेश ते नामामि ।१४।
        सरस्वतीश पद्मेश पार्वतीश परात्पर । हे सावित्रीश राधेश रासेश्वर ते नमामि ।१५।
        सर्वेषामादिभूतर्स्त्वं सर्वः सर्वेश्वरस्तथा ।सर्वपाता च संहर्ता सृष्टिरूप नमामि । १६।
        त्वत्पादपद्मरजसा धन्या पूता वसुन्धरा ।शून्यरूपा त्वयि गते हे नाथ परमं पदम् ।। १७।  
        "यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् ।
        त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम् ।। १८ ।।

                   "महादेव उवाच
        ब्रह्मणा प्रार्थितस्त्वं च समागत्य वसुन्धराम् भूभारहरणं कृत्वा प्रयासि स्वपदं विभो। १९।
        त्रैलोक्ये पृथिवी धन्या सद्यः पूता पदाङ्किता। वयं च मुनयो धन्याः साक्षाद्दृष्ट्वा पदाम्बुजम् । २०।
        ध्यानासाध्यो दुराराध्यो मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् अस्माकमपि यश्चेशः सोऽधुना चाक्षुषो भुवि ।२१।
        वासुः सर्वनिवासश्च विश्वनि यस्य लोमसु ।देवस्तस्य महाविष्णुर्वासुदेवो महीतले ।। २२ ।
        सुचिरं तपसा लब्धं सिद्धेन्द्राणां सुदुर्लभम् यत्पादपद्ममतुलं चाक्षुषं सर्वजीविनाम् । २३।                                                            "अनन्त उवाच
        त्वमनन्तो हि भगवन्नाहमेव कलांशकः ।विश्वैकस्थे क्षुद्रकूर्मे मशकोऽहं गजे यथा ।२४।
        असंख्यशेषाः कूर्माश्च ब्रह्मविषणुशिवात्मकाः । असंख्यानि च विश्वानि तेषामीशः स्वयं भवान् ।। २५ ।।
        अस्माकमीदृशं नाथ सुदिनं क्व भविष्यति स्वप्नादृष्टश्चयश्चेशः स दृष्टः सर्वजीविनाम् । २६ ।
        नाथ प्रयासि गोलोकं पूतां कृत्वा वसुन्धराम् तामनाथां रुदन्तीं च निमग्नां शोकसागरे । २७ ।                                            "देवा ऊचु: 
        वेदाःस्तोतुं न शक्ता यं ब्रह्मेशानादयस्तथा ।तमेव स्तवनं किं वा वयं कुर्मो नमोऽस्तु ते ।२८।
        इत्येवमुक्त्वा देवास्ते प्रययुर्द्वारकां पुरीम् ।तत्रस्थं भगवन्तं च द्रष्टुं शीघ्रं मुदाऽन्विताः।२९।
        अथ तेषां च गोपाला ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।पृथिवी कम्पिता भीता चलन्तः सप्तसागराः ।। ३० ।।
        हतश्रियं द्वारकां च त्यक्त्वा च ब्रह्मशापतः मूर्तिं कदम्बमूलस्थां विवेश राधिकेश्वरः ।। ३१।
        ते सर्वे चैरकायुद्धे निपेतुर्यादवास्तथा ।चितामारुह्य देव्यश्च प्रययुः स्वामिभिः सह ।३२ ।
        अर्जुनः स्वपुरं गत्वा समुवाच युधिष्ठिरम् ।स राजा भ्रातृभिः सार्धं ययौ स्वर्गं च भार्यया ।। ३३ ।।
        दृष्ट्वा कदम्बमूलस्थं तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।देवा ब्रह्मादयस्ते च प्रणेमुर्भक्तिपूर्वकम् ।। ३४।

        तुष्टुवुः परमात्मानं देवं नारायणं प्रभुम् ।श्यामं किशोरवयसं
        व्याधास्त्रसंयुतं पादपद्मं पद्मादिवन्दितम् ।दृष्ट्वा ब्रह्मादिदेवांस्तानभयं सस्मितं ददौ । ३७।
        पृथिवीं तां समाश्वास्य रुदन्ती प्रेमविह्वलाम् व्याधं प्रस्थापयामास परं स्वपदमुत्तमम् । ३८ ।
        बलस्य तेजः शेषे च विवेश परमाद्भुतम् ।प्रद्युम्नस्य च कामे वै वाऽनिरुद्धस्य ब्रह्मणि ।३९।
        अयोनिसंभवा देवी महालक्ष्मीश्च रुक्मिणी वैकुण्ठं प्रययौ साक्षात्स्वशरीरेण नारद । ४०।
        सत्यभामा पृथिव्यां च विवेश कमलालया।स्वयं जाम्बवती देवी पार्वत्यां विश्वमातरि।४१।
        या या देव्यश्च यासां चाप्यंशरुपाश्च भूतले ।तस्यां तस्यां प्रविविशुस्ता एव च पृथक्पृथक् । ४२।
        साम्बस्य तेजः स्कन्दे च विवेश परमाद्भुतम् कश्यपे वसुदेवश्चाप्यदिव्यां देवकी तथा । ४३ ।
        रुक्मिणीमन्दिरं त्यकत्वा समस्तां द्वारकां पुरीम् । स जग्राह समुद्रश्च प्रफुल्लवदनेक्षणः ।४४ ।।
        लवणोदः समागत्य तुष्टाव पुरुषोत्तमम् ।रुरोद तद्वियोगेन साश्रुनेत्रश्च विह्वलः । ४५।
        गङ्गा सरस्वती पद्मावती च यमुना तथा ।गोदावरी स्वर्णरेखा कावेरी नर्मदा मुने । ४६ ।
        शरावती बाहृदा च कृतमाला च पुण्यदा ।समाययुश्च ताः सर्वाः प्रणेमुः परमेश्वरम् । ४७ ।
        उवाच जाह्नवी देवी रुदती परमेश्वरम् ।साश्रुनेत्राऽतिदीना सा विरहज्वरकातरा ।। ४८ ।।
                "भागीरथयुवाच
         हे नाथ रमणश्रेष्ठ यासि गोलोकमुत्तमम् । अस्माकं का गतिश्चात्र भविष्यति कलौ युगे ।। ४९ ।।
        श्रीभगवानुवाच कलेः पञ्चसहस्राणि वर्षाणि तिष्ठ भूतले । पापानि पापिनो यानि तुभ्यं दास्यन्ति स्नात: ।। ५० ।।

        मन्मन्त्रोपासकस्पर्शाद्भस्मीभूतानि तत्क्षणात् ।भविष्यन्ति दर्शनाच्च स्नानादेव हि जाह्नवि ।। ५१ ।।

        हरेर्नामानि यत्रैव पुराणानि भवन्ति हि । तत्र गत्वा सावधानमाभिः सार्धं च श्रोष्यसि ।।५२।।

        पुराणश्रवणाच्चैव हरेर्नामानुकीर्तनात् ।भस्मीभूतानि पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च ।। ५३ ।।

        भस्मीभूतानि तान्येव वैष्णवालिङ्गनेन च ।तृणानि शुष्ककाष्ठानि दहन्ति पावका यथा ।। ५४ ।।

        तथाऽपि वैष्णवा लोके पापानि पापिनामपि । पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यान्यपि च जाह्नवि ।। ५५ ।।

        मद्भक्तानां शरीरेषु सन्ति पूतेषु संततम् मद्भक्तपादरजसा सद्यः पूता वसुंधरा ।। ५६ ।।
        सद्यः पूतानि तीर्थानि सद्याः पूतं जगत्तथा । मन्मन्त्रोपासका विप्रा ये मदुच्छिष्टभोजिनः ।। ५७ ।।

        मामेव नित्यं ध्यायन्ते ते मत्प्राणाधिकाः प्रियाः । तदुपस्पर्शमात्रेण पूतो वायुश्च पावकः ।। ५८ ।।


        कलेर्दशसहस्राणि मद्भक्ताः सन्ति भूतले ।एकवर्णा भविष्यन्ति मद्भक्तेषु गतेषु च। ५९।

        मद्भक्तशून्या पृथिवी कलिग्रस्ता भविष्यति एतस्मिन्नन्तरे तत्र कृष्णदेहाद्विनिर्गतः ।६० ।

        चतुर्भुजश्च पुरुषः शतचन्द्रसमप्रभः ।शङ्खचक्रगदापद्मधरः श्रीवत्सलाञ्छनः । ६१ ।

        सुन्दरं रथमारुह्य श्रीरोदं स जगाम ह ।सिन्धुकन्या च प्रययौ स्वयं मूर्तिमती सती। ६२।

        श्रीकृष्णमनसा जाता मर्त्यलक्ष्मीर्मनोहरा । श्वेतद्वीपं गते विष्णौ जगत्पालनकर्तरि ।६३ ।

        शुद्धसत्त्वस्वरूपे च द्विधारूपो बभूव सः । दक्षिणांशश्च द्विभुजो गोपबालकरूपकः ।। ६४ ।।

        नपीनजलदश्यामः शोभितः पीतवाससा । श्रीवंशवदनः श्रीमान्सस्मितः पद्मलोचनः ।६५ ।

        शतकोटीन्दुसौन्दर्यं शतकोटिस्मरप्रभाम् । दधानः परमानन्दः परिबूर्णतमः प्रभुः ।६६ ।

        परं धाम परं ब्रह्मस्वरूपो निर्गुणः स्वयम् । परमात्मा च सर्वेषां भक्तानुग्रहविग्रहः ।। ६७ ।।

        नित्यदेहश्च भगवानीश्वरः प्रकृतेः परः ।योगिनो यं वदन्त्येवं ज्योतीरूपं सनातनम् ।। ६८ ।।

        ज्योतिरम्यन्तरे नित्यरूपं भक्ता विदन्ति यम् । वेदा वदन्ति सत्यं यं नित्यमाद्यं विचक्षणाः ।। ६९ ।।

        यं वदन्ति सुराः सर्वे परं स्वेच्छामयं प्रभूम् । सिद्धेन्द्रा मुनयः सर्वे सर्वरूपं वदन्ति यम् ।। ७० ।।

        यमनिर्वचनीयं च योगीन्द्रः शंकरो वदेत् । स्वयं विधाता प्रवदेत्कारणानां च कारणम् ।। ७१ ।।

        शेषो वदेदनन्तं यं नवधारूपमीश्वरम् ।तर्काणामेव षण्णां च षड्विधं रूपमीप्सितम् ।। ७२ ।।

        वैष्णवानामेकरूपं वेदानामेकमेव च ।पुराणानामेकरूपं तस्मान्नवविधं स्मृतम् ।। ७३ ।।

        न्यायोऽनिर्वचनीयं च यं मतं शंकरो वदेत् ।नित्यं वैशेषिकाश्चाऽऽद्यं तं वदन्ति विचक्षणाः ।। ७४ ।।

        सांख्य वदन्ति तं देवं ज्योतीरूपं सनातनम् मीमांसा सर्वरूपं च वेदान्तः सर्वकारणम् ।। ७५ ।।

        पातञ्जलोऽप्यनन्तं च वेदाः सत्यस्वरूपकम् । स्वेच्छामयं पुराणं च भक्ताश्च नित्यविग्रहम् ।। ७६ ।।

        सोऽयं गोलोकनाथश्च राधेशो नन्दनन्दनः ।गोकुले गोपवेषश्च पुण्ये वृन्दावने वने ।। ७७ ।।

        चतुर्भुजश्च वैकुण्ठे महालक्ष्मीपतिः स्वयम् नारायणश्च भगवान्यन्नाम मुक्तिकारणम् ।७८।

        सकृन्नारायणेत्युक्त्वा पुमान्कल्पशतत्रयम् ।गङ्गादिसर्वतीर्थेषु स्नातो भवति नारद ।। ७९ ।।

        सुनन्दनन्दकुमुदैः पार्षदैः परिवारितः ।शङ्खचक्रगदापद्मधरः श्रीवत्सलाञ्छनः ।। ८० ।।

        कौस्तुभेन मणीन्द्रेण भूषितो वनमालया । देवैः स्तुतश्च यानेन वैकुण्ठं स्वपदं ययौ ।। ८१ ।।

        गते वैकुण्ठनाथे च राधेशश्च स्वयं प्रभुः चकार वंशीशब्दं च त्रैलोक्यमोहनं परम् ।। ८२ ।।

        मूर्च्छांप्रापुर्देवगणा मुनयश्चापि नारद ।अचेतना बभूवुश्च मायया पार्वतीं विना ।। ८३ ।।

        उवाच पार्वती देवी भगवन्तं सनातनम् विष्णुमाया भगवती सर्वरूपा सनातनी ।। ८४ ।।

        परब्रह्मस्वरूपा या परमात्मस्वरूपिणी । सगुणा निर्गुणा सा च परा स्वेच्छामयी सती।८५।

                     "पार्वत्युवाच
        एकाऽहं राधिकारूपा गोलोके रासमण्डले रासशून्यं च गोलोकं परिपूर्ण कुरु प्रभो ।। ८६ ।।

        गच्छ त्वं रथमारुह्य मुक्तामाणिक्यभूषितम् परिबूर्णतमाऽहं च तव वङः स्थलस्थिता ।। ८७ ।।

        तवाऽऽज्ञया महालक्ष्मीरहं वैकुण्ठगामिनी । सरस्वती च तत्रैव वामे पार्श्वे हरेरपि । ८८।

        तवाहं मनसा जाता सिन्धुकन्या तवाऽऽज्ञया । सावित्री वेदमाताऽहं कलया विधिसंनिधौ ।। ८९ ।।

        तैजःसु सर्वदेवानां पुरा सत्ये तवाऽऽज्ञया ।अधिष्ठानं कृत तत्र धृतं देव्या शरीरकम् ।। ९० ।।

        शुम्भादयश्च दैत्याश्च निहताश्चावलीलया । दुर्ग निहत्य तुर्गाऽहं त्रिपुरा त्रिपुरे वधे ।। ९१ ।।

        निहत्य रक्तबीजं च रक्तबीजविनाशिनी । तवाऽऽज्ञया दक्षकन्या सती सत्यस्वरूपिणी ।९२।

        योगेन त्यक्त्वा देहं च शैलजाऽहं तवाऽऽज्ञया । त्वया दत्तवा (त्ताः शंकराय गोलोके रासमण्डले ।९३ ।

        विष्णुभक्तिरहं तेन विष्णुमाया च वैष्णवी ।नारायणस्य मायाऽहं तेन नारायणी स्मृता । ९४।

        कृष्णप्राणाधिकाऽहं च प्राणाधिष्ठातृदेवता महाविष्णोश्च वासोश्च जननी राधिका स्वयम् ।९५।

        तवाऽऽज्ञया पञ्चधाऽहं पञ्चप्रकृतिरूपिणी । कलाकलांशयाऽहं च देवपत्नयो गृहे गृहे ।। ९६ ।।

        शीघ्रं गच्छ महाभाग तत्राऽहं विरहातुरा । गोपीभिः सहिता रासं भ्रमन्ती परितः सदा ।। ९७ ।।

        पार्वतीवचनं श्रुत्वा प्रहस्य रसिकेश्वरः । रत्नयानं समारुह्य ययौ गोलोकमुत्तमम् ।। ९८ ।।

        पार्वती बोधयामास स्वयं देवगणं तथा । मायावंशीरवाच्छन्नं विष्णुमाया सनातनी ।। ९९ ।।

        कृत्वा ते हरिशब्दं च स्वगृहं विस्मयं ययुः ।शिवेन सार्धं दुर्गा सा प्रहृष्टा स्वपुरं ययौ ।। १०० ।।

        अथ कृष्णं समायान्तं राधा गोपीगणैः सह अनुव्रजं ययौ हृष्टा सर्वज्ञा प्राणवल्लभम् ।। १०१ ।।

        दृष्ट्वा समीपमायान्तमवरुह्य रथात्सती । प्रणनाम जगन्नाथं सिरसा सखिभिः सह ।। १०२ ।।

        गोपा गोप्यश्च मुदिताः प्रफुल्लवदनेक्षणाः । दुन्दुभिं वादयामासुरीश्वरागमनोत्सुकाः ।। १०३ ।।

        विरजां च समुत्तीर्य दृष्ट्वा राधां जगत्पतिः अवरुह्य रथात्तूर्णं गृहीत्वा राधिकाकरम् ।। १०४ ।।

        शतशृङ्गं च बभ्राम सुरम्यं रासमण्डलम् । दृष्ट्वाऽक्षयवटं पुण्यं पुण्यं वृन्दावनं ययौ ।। १०५ ।।

        तुलसीकाननं दृष्ट्वा प्रययौ मालतीवनम् । वामे कृत्वा कुन्दवनं माधवीकाननं तथा ।। १०६ ।।

        चकार दक्षिणे कृष्णश्चम्पकारण्यमीप्सिनम् चकार पश्चात्तूर्णं च चारुचन्दनकाननम् ।। १०७ ।।

        ददर्श पुरतो रम्यं राधिकाभवनं परम् ।उवास राधया सार्धं रत्नसिंहासने वरे ।। १०८ ।।

        सकर्पूरं च ताम्बूलं बुभुजे वासितं जलम् । सुष्वाप पुष्पतल्पे च सुगन्धिचन्दनार्चिते ।। १०९ ।।

        स रेमे रामया सार्धं निमग्नो रससागरे ।इत्येवं कथितं सर्वं धर्मवक्त्राच्च यच्छ्रुतम् ।। ११० ।।

        गोलोकारोहणं रम्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। १११ ।।      

        ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 128 
        श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 128-

        तब श्रीकृष्ण ने उन ब्रह्मा आदि देवों की ओर मुस्कराते हुए देखकर उन्हें अभयदान दिया। पृथ्वी प्रेमविह्वल हो रही थी; उसे पर्णरूप से आश्वासन दिया और व्याध को अपने उत्तम परम पद को भेज दिया। तत्पश्चात बलदेव जी परम अद्भुत तेज शेषनाग में, प्रद्युम्न का कामदेव में और अनिरुद्ध का ब्रह्मा में प्रविष्ट हो गया। नारद! देवी रुक्मिणी, जो अयोनिजा तथा साक्षात महालक्ष्मी थीं; अपने उसी शरीर से वैकुण्ठ को चली गयीं। कमलालया सत्यभामा पृथ्वी में तथा स्वयं जाम्बवती देवी जगज्जननी पार्वती में प्रवेश कर गयीं। इस प्रकार भूतल पर जो-जो देवियाँ जिन जिनके अंश से प्रकट हुई थीं; वे सभी पृथक-पृथक अपने अंशी में विलीन हो गयीं। साम्ब का अत्यंत निराला तेज स्कन्द में, वसुदेव कश्यप में और देवकी अदिति में समा गयीं। विकसित मुख और नेत्रों वाले समुद्र ने रुक्मिणी के महल को छोड़कर शेष सारी द्वारकापुरी को अपने अंदर समेट लिया। इसके बाद क्षीरसागर ने आकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का स्तवन किया। उस समय उनके वियोग का कारण उसके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये और वह व्याकुल होकर रोने लगा। मुने! तत्पश्चात गंगा, सरस्वती, पद्मावती, यमुना, गोदावरी, स्वर्णरेखा, कावेरी, नर्मदा, शरावती, बाहुदा और पुण्यदायिनी कृतमाला ये सभी सरिताएँ भी वहाँ आ पहुँचीं और सभी ने परमेश्वर श्रीकृष्ण को नमस्कार किया। उनमें जह्नुतनया गंगा देवी विरह-वेदना से कातर तथा अत्यंत दीन हो रही थी। उनके नेत्रों में आँसू उमड़ आये थे। वे रोती हुई परमेश्वर श्रीकृष्ण से बोलीं।

        भागीरथी ने कहा- नाथ! रमणश्रेष्ठ! आप तो उत्तम गोलोक को पधार रहे हैं; किंतु इस कलियुग में हमलोगों की क्या गति होगी?

        तब श्री भगवान बोले- जाह्नवि! पापीलोग तुम्हारे जल में स्नान करने से तुम्हें जिन पापों को देंगे; वे सभी मेरे मंत्र की उपासना करने वाले वैष्णव के स्पर्श, दर्शन और स्नान से तत्काल ही भस्म हो जाएंगे। जहाँ हरि नाम संकीर्तन और पुराणों की कथा होगी; वहाँ इन सरिताओं के साथ जाकर सावधानतया श्रवण करोगी। उस पुराण-श्रवण तथा हरि नाम संकीर्तन से ब्रह्महत्या आदि महापातक जलकर राख हो जाते हैं। वे ही पाप वैष्णव के आलिंगन से भी दग्ध हो जाते हैं। जैसे अग्नि सूखी लकड़ी और घास फूस को जला डालती है; उसी प्रकार जगत में वैष्णव लोग पापियों के पापों को भी नष्ट कर देते हैं। गंगे! भूतल पर जितने पुण्यमय तीर्थ हैं; वे सभी मेरे भक्तों के पावन शरीरों में सदा निवास करते हैं। मेरे भक्तों की चरण रज से वसुन्धरा तत्काल पावन हो जाती है, तीर्थ पवित्र हो जाते हैं तथा जगत शुद्ध हो जाता है। जो ब्राह्मण मेरे मंत्र के उपासक हैं, मुझे अर्पित करने के बाद मेरा प्रसाद भोजन करते हैं और नित्य मेरी ही ध्यान में तल्लीन रहते हैं; वे मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। उनके स्पर्शमात्र से वायु और अग्नि पवित्र हो जाते हैं। 

        *

        मेरे भक्तों के चले जाने पर सभी वर्ण एक हो जाएंगे और मेरे भक्तों से शून्य हुई पृथ्वी पर कलियुग का पूरा साम्राज्य हो जायेगा। इसी अवसर पर वहाँ श्रीकृष्ण के शरीर से एक चार-भुजाधारी पुरुष प्रकट हुआ। उसकी प्रभा सैकड़ों चंद्रमाओं को लज्जित कर रही थी। वह श्रीवत्स-चिह्न से विभूषित था और उसके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा रहे थे।

        ब्रह्म वैवर्त पुराण
        श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 128-
        वह एक सुंदर रथ पर सवार होकर क्षीरसागर को चला गया। तब स्वयं मूर्तिमती सिन्धुकन्या भी उनके पीछे चली गयीं। जगत के पालनकर्ता विष्णु के श्वेतद्वीप चले जाने पर श्रीकृष्ण के मन से उत्पन्न हुई मनोहरा मर्त्यलक्ष्मी ने भी उनका अनुगमन किया। इस प्रकार उस शुद्ध सत्त्वस्वरूप के दो रूप हो गये। उनमें दक्षिणांग हो भुजाधारी गोप-बालक के रूप में प्रकट हुआ।

        वह नूतन जलधर के समान श्याम और पीताम्बर से शोभित था; उसके मुख से सुंदर वंशी लगी हुई थी; नेत्र कमल के समान विशाल थे; वह शोभासंपन्न तथा मन्द मुस्कान से युक्त था। वह सौ करोड़ चंद्रमाओं के समान सौंदर्यशाली, सौ 
        करोड़ कामदेवों की सी प्रभावाला, परमानन्द स्वरूप, परिपूर्णतम, प्रभु, परमधाम, परब्रह्मस्वरूप, निर्गुण, सबका परमात्मा, भक्तानुग्रहमूर्ति, अविनाशी शरीरवाला, प्रकृति से पर और ऐश्वर्यशाली ईश्वर था। योगीलोग जिसे सनातन ज्योतिरूप जानते हैं और उस ज्योति के भीतर जिसके नित्य रूप को भक्ति के सहारे समझ पाते हैं।

        विचक्षण वेद जिसे सत्य, नित्य और आद्य बतलाते हैं, सभी देवता जिसे स्वेच्छामय परम प्रभु कहते हैं, सारे सिद्धशिरोमणि तथा मुनिवर जिसे सर्वरूप कहकर पुकारते हैं, योगिराज शंकर जिसका नाम अनिर्वचनीय रखते हैं, स्वयं ब्रह्मा जिसे कारण के कारण रूप से प्रख्यात करते हैं और शेषनाग जिस नौ प्रकार के रूप धारण करने वाले ईश्वर को अनन्त कहते हैं; छः प्रकार के धर्म ही उनके छः रूप हैं, फिर एक रूप वैष्णवों का, रूप वेदों और एक रूप पुराणों का है; इसीलिए वे नौ प्रकार के कहे जाते हैं। जो मत शंकर का है, उसी मत का आश्रय ले न्यायशास्त्र जिसे अनिर्वचनीय रूप से निरूपण करता है, दीर्घदर्शी वैशेषिक जिसे नित्य बतलाते हैं; सांख्य उन देव को सनातन ज्योतिरूप, मेरा अंशभूत वेदान्त सर्वरूप और सर्वकारण, पतञ्जलिमतानुयायी अनन्त, वेदगण सत्यस्वरूप, पुराण स्वेच्छामय और भक्तगण नित्यविग्रह कहते हैं; वे ही ये गोलोकनाथ श्रीकृष्ण गोकुल में वृन्दावन नामक पुण्यवन में गोपवेष धारण करके नन्द के पुत्ररूप से अवतीर्ण हुए हैं। ये राधा के प्राणपति हैं। ये ही वैकुण्ठ में चार-भुजाधारी महालक्ष्मीपति स्वयं भगवान नारायण हैं; जिनका नाम मुक्ति प्राप्ति का कारण है।


        नारद ! जो मनुष्य एक बार भी ‘नारायण’ नाम का उच्चारण कर लेता है; वह तीन सौ कल्पों तक गंगा आदि सभी तीर्थों में स्नान करने का फल पा लेता है।

        तदनन्तर जो शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं; जिनके वक्षःस्थल में श्रीवत्स का चिह्न शोभा देता है; मणिश्रेष्ठ कौस्तुभ और वनमाला से जो सुशोभित होते हैं; वेद जिनकी स्तुति करते हैं; वे भगवान नारायण सुनन्द, नन्द और कुमुद आदि पार्षदों के साथ विमान द्वारा अपने स्थान वैकुण्ठ को चले गये। 

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        उन वैकुण्ठनाथ के चले जाने पर राधा के स्वामी स्वयं श्रीकृष्ण ने अपनी वंशी बजायी, जिसका सुरीला शब्द त्रिलोकी को मोह में डालने वाला था। नारद! उस शब्द को सुनते ही पार्वती के अतिरिक्त सभी देवतागण और मुनिगण मूर्च्छित हो गये और उनकी चेतना लुप्त हो गयी
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        तब जो भगवती विष्णुमाया, सर्वरूपा, सनातनी, परब्रह्मस्वरूपा, परमात्मस्वरूपिणी सगुणा, निर्गुणा, परा और स्वेच्छामयी हैं; वे सती साध्वी देवी पार्वती सनातन भगवन श्रीकृष्ण से बोलीं।
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        पार्वती ने क
        हा- प्रभो! गोलोक स्थित रासमण्डल में मैं ही अपने एक राधिकारूप से रहती हूँ।

        इस समय गोलोक रासशून्य हो गया है; अतः आप मुक्ता और माणिक्य से विभूषित रथ पर आरूढ़ हो वहाँ जाइये 
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        और उसे परिपूर्ण कीजिए। आपके वक्षःस्थल पर वास करने वाली परिपूर्णतमा देवी मैं ही हूँ. 

        आपकी आज्ञा से वैकुण्ठ में वास करने वाली महालक्ष्मी मैं ही हूँ। 

        वहीं श्रीहरि के वामभाग में स्थित रहने वाली सरस्वती भी मैं ही हूँ।
        *
         मैं आपकी आज्ञा से आपके मन से उत्पन्न हुई सिन्धुकन्या हूँ।
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        ब्रह्मा के संनिकट रहने वाली अपनी कला से प्रकट हुई वेदमाता सावित्री मेरा ही नाम है।
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         पहले सत्ययुग में आपकी आज्ञा से मैंने समस्त देवताओं के तेजों से अपना वासस्थान बनाया और उससे प्रकट होकर देवी का शरीर धारण किया। उसी शरीर से मेरे द्वारा लीलापूर्वक शुम्भ आदि दैत्य मारे गये। 

        मैं ही दुर्गासुर का वध करके ‘दुर्गा’, त्रिपुर का संहार करने पर ‘त्रिपुरा’ और रक्तबीज को मारकर ‘रक्तबीज विनाशिनी’ कहलाती हूँ।

         आपकी आज्ञा से मैं सत्यस्वरूपिणी दक्षकन्या ‘सती’ हुई।

        वहाँ योगधारण द्वारा शरीर का त्याग करके आपके ही आदेश से पुनः गिरिराजनन्दिनी ‘पार्वती’ हुई; जिसे आपने गोलोक स्थित रासमण्डल में शंकर को दे दिया था।

        मैं सदा विष्णुभक्ति में रत रहती हूँ; इसी कारण मुझे वैष्णवी और विष्णुमाया कहा जाता है।

        नारायण की माया होने के कारण मुझे लोग नारायणी कहते हैं।
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         मैं श्रीकृष्ण की प्राणप्रिया, उनके प्राणों की अधिष्ठात्री देवी और वासु स्वरूप महाविष्णु की जननी स्वयं राधिका हूँ।

        आपके आदेश से मैंने अपने को पाँच रूपों में विभक्त कर दिया; जिससे पाँचों प्रकृति मेरा ही रूप हैं। 
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        मैं ही घर–घर में कला और कलांश से प्रकट हुई वेद पत्नियों के रूप में वर्तमान हूँ। महाभाग! वहाँ गोलोक में मैं विरह से आतुर हो गोपियों के साथ सदा अपने आवास स्थान में चारों ओर चक्कर काटती रहती हूँ; अतः आप शीघ्र ही वहाँ पधारिये। 
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        नारद ! पार्वती के वचन सुनकर रसिकेश्वर श्रीकृष्ण हँसे और रत्ननिर्मित विमान पर सवार हो उत्तम गोलोक को चले गये।

         तब सनातनी विष्णुमाया स्वयं पार्वती ने मायारूपिणी वंशी के नाद से आच्छन्न हुए देवगण को जगाया। 

        वे सभी हरिनामोच्चारण करके विस्मयाविष्ट हो अपने-अपने स्थान के चले गये। 

        श्रीदुर्गा भी हर्षमग्न हो शिव के साथ अपने नगर को चली गयीं। तदनन्तर सर्वज्ञा राधा हर्षविभोर हो आते हुए प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के स्वागतार्थ गोपियों के साथ आगे आयीं। 
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        श्रीकृष्ण को समीप आते देखकर सती राधिका रथ से उतर पड़ीं और सखियों के साथ आगे बढ़कर उन्होंने उन जगदीश्वर के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया।

        ग्वालों और गोपियों के मन में सदा श्रीकृष्ण के आगमन की लालसा बनी रहती थी; अतः उन्हें आया देखकर वे आनन्दमग्न हो गये। उनके नेत्र और मुख हर्ष से खिल उठे फिर तो वे दुन्दुभियाँ बजाने लगे।

        उधर विरजा नदी को पार करके जगत्पति श्रीकृष्ण की दृष्टि ज्यों ही राधा पर पड़ी, त्यों ही वे रथ से उतर पड़े और राधिका के हाथ को अपने हाथ में लेकर शतश्रृंग पर्वत पर घूमने चले गये। वहाँ सुरम्य रासमण्डल, अक्षयवट और पुण्यमय वृन्दावन को देखते हुए तुलसी कानन में जा पहुँचे। 

        वहाँ से मालतीवन को चले गये। फिर श्रीकृष्ण ने कुन्दवन तथा माधवी कानन को बायें करके मनोरम चम्पकारण्य को दाहिने छोड़ा। पुनः सुरुचिर चन्दन कानन को पीछे करके आगे बढ़े तो सामने राधिका का परम रमणीय भवन दीख पड़ा। 

        वहाँ जाकर वे राधा के साथ श्रेष्ठ रत्नसिंहासन पर विराजमान हुए। फिर उन्होंने सुवासित जल पिया तथा कपूरयुक्त पान का बीड़ा ग्रहण किया। तत्पश्चात वे सुगन्धित चंदन से चर्चित पुष्पशय्या पर सोये और रास-सागर में निमग्न हो सुंदरी राधा के साथ विहार करने लगे। नारद! इस प्रकार मैंने (नारायण)
        रमणीय गोलोकारोहण के विषय में अपने पिता धर्म के मुख से जो कुछ सुना था, वह सब तुम्हें बता दिया। 

        अब पुनः और क्या सुनना चाहते हो ?


        उपर्युक्त कथानक में नारद और नारायण का संवाद है  ये नारायण क्षीरसागर वाले नहीं है। ये धर्नके पुत्र हैं जो उनकी पत्नी दक्ष कन्या मूर्ति के गर्भ से उत्पन्न हुए हरि ,कृष्ण नर और नारायण)


                                                            
        इति श्रीब्रह्मवैवर्त  महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनारायण - सौति शौनक के बीच  गोलोकारोहण नामैकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। १२९ ।।
                          ब्रह्म वैवर्त पुराण
        श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 129
        श्रीकृष्ण के गोलोक गमन का वर्णन-

        श्रीनारायण कहते हैं- नारद! परिपूर्णतम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण वहाँ तत्काल ही गोकुलवासियों के सालोक्य मोक्ष को देखकर भाण्डीरवन में वटवृक्ष के नीचे पाँच गोपों के साथ ठहर गए।

        वहाँ उन्होंने देखा कि सारा गोकुल तथा गो-समुदाय व्याकुल है। 
        रक्षकों के न रहने से वृन्दावन शून्य तथा अस्त-व्यस्त हो गया है। 
        *****
        तब उन कृपासागर को दया गयी। फिर तो, उन्होंने योगधारणा द्वारा अमृत की वर्षा करके वृन्दावन को मनोहर, सुरम्य और गोपों तथा गोपियों से परिपूर्ण कर दिया। 

        साथ ही गोकुलवासी गोपों को ढाढस भी बँधाया। तत्पश्चात वे हितकर नीतियुक्त दुर्लभ मधुर वचन बोले।

        श्रीभगवान ने कहा- हे गोपगण! हे बन्धो! तुमलोग सुख का उपभोग करते हुए शान्तिपूर्वक यहाँ वास करो; क्योंकि प्रिया के साथ विहार, सुरम्य रासमण्डल और वृन्दावन नामक पुण्यवन में श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक रहेगा, जब तक रहेगा, जब तक सूर्य और चंद्रमा की स्थिति रहेगी। 

        तत्पश्चात लोकों के विधाता ब्रह्मा भी भाण्डीरवन में आये। 
        उनके पीछे स्वयं शेष, धर्म, भवानी के साथ स्वयं शंकर, सूर्य, महेंद्र, चंद्र, अग्नि, कुबेर, वरुण, पवन, यम, ईशान आदि देव, आठों वसु, सभी ग्रह, रुद्र, मुनि तथा मनु- ये सभी शीघ्रतापूर्वक वहाँ आ पहुँचे, जहाँ सामर्थ्यशाली भगवान श्रीकृष्ण विराजमान थे।

        तब स्वयं ब्रह्मा ने दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया और यों कहा।

        ब्रह्मा बोले- भगवन! आप परिपूर्णतम ब्रह्मस्वरूप, नित्य विग्रहधारी, ज्योतिः स्वरूप, परमब्रह्मा और प्रकृति से परे हैं, आपको मेरा नमस्कार प्राप्त हो। परमात्मान! आप परम निर्लिप्त, निराकार, ध्यान के लिए साकार, स्वेच्छामय और परमधाम हैं; आपको प्रणाम है। सर्वेश! आप संपूर्ण कार्य स्वरूपों के स्वामी, कारणों के कारण और ब्रह्मा, शिव, शेष आदि देवों के अधिपति हैं, आपको बारंबार अभिवादन है। 

        परात्पर ! आप सरस्वती, पद्मा, पार्वती, सावित्री और राधा के स्वामी हैं; रासेश्वर! आपको मेरा प्रणाम स्वीकार हो। सृष्टिरूप! आप सबके आदिभूत, सर्वरूप, सर्वेश्वर, सबके पालक और संहारक हैं; आपको नमस्कार प्राप्त हो। हे नाथ! आपके चरणकमल की रज से वसुन्धरा पावन तथा धन्य हुई हैं; आपके परमपद चले जाने पर यह शून्य हो जायेगी।

        इस पर क्रीड़ा करते आपके एक सौ पचीस वर्ष बीत गये। 
        "यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् ।
        त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम् ।। १८ ।।

         ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय-129
        विरहातुरा रोती हुई पृथ्वी को छोड़कर
         अपने गोलोक धाम को पधार रहे हैं।
        ग्रन्थ्थ समापनम

        ★-Yadav Yogesh Kumar "Rohi"-★

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