"अध्याय -चतुर्थ".
- ब्रह्मा की सृष्टि तथा ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न वर्ण- व्यवस्था में गोपों का समाहित न होना"
श्री भगवान द्वारा सृष्टि के कार्य में नियुक्त ब्रह्माजी कमलकोष में प्रवेश किया और उसके ही भू:, भव:, और सव: तीन भाग किए । जीवों के भोगस्थान के रूप में इन्ही तीन लोकों का शास्त्रों में वर्णन हुआ है। जो निष्काम कर्म करने वाले हैं, उन्हें मह:, तप: जन: और सत्यलोकस्वरूप ब्रहमलोक की प्राप्ति होती है।
विषयों का निरंतर बदलना ही काल का आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष अनादि और अनन्त है। उसी को निमित्त बना कर भगवान खेल खेल में ही अपने आपको सृष्टि के रूप में प्रकट कर देते हैं। पहले यह सारा विश्व भगवान की माया से लीं होकर ब्रह्मरूप से स्थित था। उसी को अव्यक्त मूर्ति काल के द्वारा भगवान ने प्रथक रूप से प्रकट किया है।
यह जगत जैसा अब है पहले भी वैसा ही था और भविष्य में भी ऐसा ही होगा। प्रलयकाल आने पर सृष्टि के सम्पूर्ण विनाश के बाद, भगवान सृष्टि की पुनः रचना करते है। आदि काल से यह चक्र निर्विवाद रूप से विद्यमान है।
जगत की सृष्टि नौ प्रकार की होती है तथा प्राकृत वैकृत भेद से एक दसवीं सृष्टि और भी है । सृष्टि का प्रलयकाल, द्रव्य तथा गुणों के द्वारा तीन प्रकार होता है। दस प्रकार की सृष्टि का भेद निम्न प्रकार के बताया गया है:
छह प्राकृत सृष्टि-
१. पहली सृष्टि महत्व की है। भगवान की कृपा से सत्वआदि गुणो में विषमता होना ही इसका स्वरूप है।
२. दूसरी सृष्टि अहंकार की है। जिससे पृथ्वी आदि पंचभूत ज्ञानेंद्रिय और कर्मइंद्रियों की उत्पत्ति होती है।
३. तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है जिससे पंचमहाभूतों को उत्पन्न करने वाला तन्मात्र वर्ग रहता है।
४. चौथी सृष्टि इंद्रियों की है। यह ज्ञान और क्रिया शक्ति से उत्पन्न होती है।
५. पाँचवी सृष्टि सात्विक अहंकार से उत्पन्न हुए देवताओं इंद्रियाधिष्ठाताओ देवताओं की है, मन भी इसी सृष्टि के अंतर्गत है।
६. छठी सृष्टि अविद्या की है। इसमें तमिस्र, अंधतमिस्र, तम, मोह और महामहिम- यह पाँच गाँठें हैं। यह जीवों की आत्मा का आवरण और विक्षेप करने वाली हैं।
वैकृत सृष्टि-
७. सातवी प्रधान वैकृत सृष्टि छह प्रकार के स्थावर वृक्षों की होती है। इनका संचार नीचे (जड़) से ऊपर की और होता है। इनके ज्ञान शक्ति नहीं होती, यह अंदर ही अंदर केवल स्पर्श का अनुभव करते है, इनमे से प्रत्येक के गुण अलग होते हैं।
– वनस्पति – जो बिना बौर आए ही फलते हैं जैसे गूलर, बड़, पीपल।
– औषधि – जो फलों के पक जाने पर नष्ट हो जाते हैं जैसे धान, गेहूँ, चना ।
– लता – जो किसी का आश्रय ले कर बढ़ते हैं जैसे ब्राह्मी।
– तवकसार – जिनकी छाल बहुत कठोर होती है जैसे बाँस ।
– वीरुध- जिनकी लता पृथ्वी पर ही फैलती है जैसे तरबूज़।
– द्रुम- जिनमे फूल आ कर फिर फूलों के स्थान पर ही फल लगते हैं जैसे जामुन।
८. आठवीं सृष्टि तिर्यग्योनियों (पशु पक्षियों) की है। इन्हें काल का ज्ञान नहीं होता और तमोगुण की अधिकता के कारण यह केवल खाना- पीना मैथुन तथा सोना ही जानते हैं। इन्हें सूँघने मात्र से से वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। इनके मस्तिष्क में विचारशक्ति नहीं होती।
– द्विशफ – दो खुरों वाले पशु जैसे गाय, बकरा, भैंसा, मृग, शूकर, भेद और ऊँट।
– एकशफ – एक खुर वाले पशु जैसे गधा, घोड़ा, खच्चर।
– पञ्च नख – पाँच नखों वाले पशु जैसे कुत्ता, भेड़िया, बाघ, बिल्ली, सिंह, हाथी इत्यादि
– उड़ने वाले जीव – जैसे बगुला, गिध, हंस, मोर, कौवा, सरस उल्लू, इत्यादि
९. मनुष्य – नवी सृष्टि मनुष्यों की है। यह एक ही प्रकार के हैं। परस्पर इनमे कोई भेद नहीं है । इनका आहार ऊपर से नीचे की और होता है। मनुष्य रजोगुण प्रधान, कर्म परायण और दुःख: रूप विषयों में ही सुख मनने वाले होते हैं।
उपरोक्त के अतिरिक्त देव सृष्टि आठ प्रकार की –
देवता-पितर,असुर,
गंधर्व -अप्सरा,
यक्ष – राक्षस,
सिद्ध- चारण-विद्याधर,
भूत- प्रेत-पिशाच और
किन्नर-किम्पपुरुष-अश्वमुख है ।
इस प्रकार सृष्टि करने वाले सत्य संकल्प के रूप श्री हरि ही ब्रह्मा जी के रूप में प्रत्येक कल्प के आदि में रजोगुण से व्याप्त होकर स्वयं ही जगत के रूप में अपनी ही रचना करते हैं।
भक्तिनारदसमागमो नामक प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥)
"अध्याय- पञ्चम"
'पञ्चम वैष्णव वर्ण के गोपों की सृष्टि गोलोक में स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के रोमकूपों से"
इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो को हम प्रस्तुत करते हैं।
इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो को हम प्रस्तुत करते हैं।
कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना ही इसी तथ्य को सूचित करता है। कि गोपों से श्रेष्ठ इस सृष्टि मैं को ईव दूसरा नहीं है।
अनुवाद:- जब स्वयं कृष्ण राधा की एक सखी बनकर स्वयं ही कृष्ण की राधा से निन्दा करते हैं तब राधा कहती हैं -
"भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण गोपों के घर में प्रकट हुए हैं। फिर तुम हे सखी ! उन आदिपुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।२१-२२।
(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)
गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं।
और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत: इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_
ऋग्वेद में विष्णु के लिए 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं।
जो पुराण वर्णित गोलोक का ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।
इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।
विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ रहती हैं , वहाँ पड़ता है।
"कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।
ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)
शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥
इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी ब्रह्मा को यज्ञकार्य हेतु तत्काल एक पत्नी की आवशयकता होती है। "होता"यज्ञ में आहुति देनेवाला तथा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालने वाले के रूप में उपस्थित माना जाता है । अत्रि इस "होता" की भूमिका में हैं। सभी सप्तर्षि इस यज्ञ में किसी न किसी भूमिका में हैं।
विशेष—यह चार प्रधान ऋत्विजों में है जो ऋग्वेद के मंत्र पढ़कर देवताओं का आह्वान करता है।
ब्रह्मा की पत्नी सावित्री गृह कार्य में व्यस्त हैं अत: वे यज्ञ- स्थल में आने को तैयार नहीं हैं।अब मुहूर्त का समय निकला जा रहा है। तभी सप्तर्षियों के कहने पर ब्रह्मा अपने यज्ञ कार्य के लिए इन्द्र को एक पत्नी बनाने के लिए कन्या लाने को कहते हैं। तब आभीर कन्या गायत्री को इन्द्र ब्रह्मा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
विष्णु ही इस कन्या के दत्ता( कन्यादान करनेवाले पिता बनकर ) ब्रह्मा से इसका विवाह सम्पन्न कराते हैं।
ये ब्रह्मा की सृष्टि से पृथक थे इसलिए यज्ञ में अपनी सम्पूर्ण सृष्टि के साथ इन्हें ब्रह्मा द्वारा आमन्त्रित नहीं किया गया। ब्रह्मा का यह यज्ञ एक हजार वर्ष तक चला था।
इसलिए अत्रि ने गायत्री को माँ कहकर सम्बोधित किया तब अत्रि को अहीरों का पूर्वज कैसे कहा जा सकता है।?
विदित हो कि वामन अवतार कृष्ण के अंशावतार विष्णु का ही अवतार है नकि स्वयं कृष्ण का अवतार -क्योंकि कृष्ण का साहचर्य सदैव गो और गोपों में ही रहता है।
"कृष्ण हाई वोल्टेज रूप हैं तो विराट और क्षुद्र विराट आदि रूप उनके ही कम वोल्टेज के रूप हैं।
विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि ( इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।
विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड ' ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।
ऋग्वेद 1.22.18) में भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।
विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।
और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु(कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।
"व्यक्ति अपनी भक्ति और तप की शक्ति से गोलोक को प्राप्त कर गोप जाति में जन्म लेता है।
वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।
हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।
अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
"इति समापनम्-
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