स्वस्ति तेऽस्त्विति चोक्त्वा वै पतमानो दिवाकरः॥ १३.१०॥
वचनात्तस्य विप्रर्षेर्न पपात दिवो महीम्।
अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः॥१३.११॥
यज्ञेष्वत्रेर्बलञ्चैव देवैर्यस्य प्रतिष्ठितम्।
स तासु जनयामास पुत्रिकास्वात्मकामजान्॥ १३.१२ ॥
दश पुत्रान् महासत्त्वांस्तपस्युग्रे रतांस्तथा।
ते तु गोत्रकरा विप्रा ऋषयो वेदपारगाः॥१३.१३ ॥
ब्रह्मपुराणम्/अध्यायः (१३)
खड्गदण्डद्विदण्डौ च सुमहाकालव्यालिनौ ॥ ३,४४.५३ ॥ ब्रह्माण्ड पुराण)
छगलण्डद्विरण्डौ द्वौ समहाकालवालिनौ ॥२९३.०४५ अग्निपुराण)
"अत्रेः पत्न्यनसूया त्रीन् जज्ञे सुयशसः सुतान् ।
दत्तं दुर्वाससं सोमं आत्मेशब्रह्मसम्भवान् ॥१५
"विदुर उवाच -
अत्रेर्गृहे सुरश्रेष्ठाः स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।
किञ्चित् चिकीर्षवो जाता एतदाख्याहि मे गुरो ॥ १६।
मनु जी ने अपनी दूसरी कन्या देवहूति कर्दम जी को ब्याही थी।
अत्रि की पत्नी अनसूया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चन्द्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमशः भगवान् विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे।
सन्दर्भ-
•{लोकाचरण-खण्ड}-
अध्याय -पञ्चम- कृष्ण अस्तित्व के ऐतिहासिक साक्ष्य-•
"उत्तर- समाधान -
उत्तर-१
यह मोहनजो-दारो, लरकाना जिले, सिंध (अब पाकिस्तान में) के पुरातात्विक स्थल से खोदी गई एक साबुन की गोली है।
विशेष:-
सोपस्टोन (जिसे स्टीटाइट या सोपरॉक के नाम से भी जाना जाता है) एक टैल्क-शिस्ट है, जो एक प्रकार की रूपांतरित चट्टान है। यह मुख्य रूप से मैग्नीशियम से भरपूर खनिज टैल्क से बना है। यह डायनेमोथर्मल मेटामोर्फिज्म और मेटासोमैटिज्म द्वारा निर्मित होता है, जो उन क्षेत्रों में होता है जहां टेक्टोनिक प्लेटें नीचे जाती हैं, गर्मी और दबाव से, तरल पदार्थ के प्रवाह के साथ, लेकिन पिघले बिना चट्टानों को बदलती हैं। यह हजारों वर्षों से नक्काशी का एक माध्यम रहा है
यह भगवान कृष्ण के जीवन की एक महत्वपूर्ण कहानी के साथ अद्भुत समानता दर्शाता है।
टैबलेट में एक युवा लड़के को दो पेड़ों को उखाड़ते हुए दिखाया गया है। इन दोनों पेड़ों से दो मानव आकृतियाँ निकल रही हैं और कुछ पुरातत्वविदों ने इसे भगवान कृष्ण से जुड़ी तारीखें तय करने के लिए एक दिलचस्प पुरातात्विक खोज करार दे रहे हैं।
यह छवि यमलार्जुन प्रकरण- (भागवत और हरिवंश पुराण दोनों में उल्लिखित) से मिलती जुलती है।
टैबलेट पर मौजूद युवा लड़के के भगवान कृष्ण होने की बहुत संभावना है, और पेड़ों से निकलने वाले दो इंसान दो शापित गंधर्व हैं, जिन्हें नलकूबर और मणिग्रीव के रूप में पहचाना जाता है।
ऊपर: मोहेंजो-दारो, लरकाना जिला, सिंध (अब पाकिस्तान में) के पुरातात्विक स्थल से सोपस्टोन टैबलेट की खुदाई की गई। स्रोत - मैके की रिपोर्ट, भाग 1, पृष्ठ 344-45, भाग 2, प्लेट 90, वस्तु संख्या। डीके 10237.
दिलचस्प बात यह है कि मोहनजो-दारो में खुदाई करने वाले डॉ. ईजेएच मैके ने भी इस छवि की तुलना यमलार्जुन प्रकरण से की है। इस विषय के एक अन्य विशेषज्ञ प्रो. वीएस अग्रवाल ने भी इस पहचान को स्वीकार किया है। इसलिए, यह काफी संभव है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग भगवान कृष्ण की कहानियों से अवगत थे। बेशक, इस तरह का एक और पृथक साक्ष्य तथ्यों को स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है। हालाँकि, सबूतों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस सन्दर्भ में और अधिक अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है।
द्वारका के साथ सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों (पूरे उपमहाद्वीप में) की भौगोलिक निकटता को देखते हुए, इस कोण को भी ध्यान में रखते हुए अनुसंधान किया जाना चाहिए।
जबकि मोहनजो-दारो शब्द का आम तौर पर स्वीकृत अर्थ 'मुर्दों का टीला' है, इसके समानांतर अर्थ - 'मोहन का टीला' की जांच की भी कुछ गुंजाइश है। समानता एक संयोग से भी अधिक हो सकती है!
रुचि रखने वालों के लिए मोहनजो-दारो की पृष्ठभूमि की जानकारी (स्रोत:www.harappa.com)
मोहनजो-दारो की खोज मूल रूप से 1922 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के एक अधिकारी आरडी बनर्जी ने की थी, हड़प्पा में प्रमुख खुदाई शुरू होने के दो साल बाद।
बाद में, 1930 के दशक के दौरान जॉन मार्शल, केएन दीक्षित, अर्नेस्ट मैके और कई अन्य लोगों के निर्देशन में साइट पर बड़े पैमाने पर खुदाई की गई।
हालाँकि उनके तरीके उतने वैज्ञानिक या तकनीकी रूप से अच्छे नहीं थे जितने होने चाहिए थे, फिर भी वे बहुत सारी जानकारी लेकर आए जिसका अभी भी विद्वानों द्वारा अध्ययन किया जा रहा है।
इस स्थल पर अंतिम प्रमुख उत्खनन परियोजना 1964-65 में स्वर्गीय डॉ. जीएफ डेल्स द्वारा की गई थी, जिसके बाद मौसम से उजागर संरचनाओं को संरक्षित करने की समस्याओं के कारण खुदाई रोक दी गई थी।
1964-65 के बाद से साइट पर केवल बचाव उत्खनन, सतह सर्वेक्षण और संरक्षण परियोजनाओं की अनुमति दी गई है।
इनमें से अधिकांश बचाव अभियान और संरक्षण परियोजनाएं पाकिस्तानी पुरातत्वविदों और संरक्षकों द्वारा संचालित की गई हैं।
1980 के दशक में व्यापक वास्तुशिल्प दस्तावेज़ीकरण, विस्तृत सतह सर्वेक्षण, सतह स्क्रैपिंग और जांच के साथ मिलकर जर्मन और इतालवी सर्वेक्षण टीमों द्वारा डॉ. माइकल जानसन (आरडब्ल्यूटीएच) और डॉ. मौरिज़ियो तोसी (आईएसएमईओ) के नेतृत्व में किया गया था।
शिलापट पर श्रीकृष्ण जन्म के प्रमाण-
भगवान श्रीकृष्ण के मथुरा में जन्म लेने को लेकर यूं कोई संदेह नहीं। धर्मग्रंथों में उनकी न जाने कितनी लीलाओं का वर्णन है। इसके पुरातात्विक प्रमाण भी मौजूद हैं, लेकिन आमतौर पर जानकारी में नहीं हैं। सत्तानवे साल पहले गताश्रम टीला से मिली मूर्ति को भगवान कृष्ण के जन्म का पुरातत्व में पहला प्रमाण है। धर्मग्रन्थ
एक व्यक्तित्व के रूप में कृष्ण का विस्तृत विवरण सबसे पहले ऋग्वेद और उसके बाद छान्दोग्योपनिषद में मिलता है।
फिर बहुत बाद में महाकाव्य महाभारत में कृष्ण के विषय में लिखा गया है , जिसमें कृष्ण को विष्णु के अवतार के रूप में दर्शाया गया है। जबकि महाभारत से पूर्व लिखित ग्रन्थ ब्रह्म वैवर्तपुराण में कृष्ण को विष्णु का भी मूल कहा गया है।
महाभारत के बाद के परिशिष्ट हरिवंशपुराण में कृष्ण के बचपन और युवावस्था का एक विस्तृत संस्करण है। इसके अतिरिक्त
भारतीय-यूनानी मुद्रण में भी कृष्ण चरित्र अंकित हैं।-
180 ईसा पूर्व लगभग इंडो-ग्रीक राजा एगैथोकल्स ने देवताओं की छवियों पर आधारित कुछ सिक्के जारी किये थे।
भारत में अब उन सिक्को को वैष्णव दर्शन से संबंधित माना जाता है। सिक्कों पर प्रदर्शित देवताओं को विष्णु के अवतार बलराम -( संकर्षण) के रूप में देखा जाता है जिसमें गदा और हल और वासुदेव-कृष्ण , शंख और सुदर्शन चक्र दर्शाये हुए हैं।
प्राचीन संस्कृत व्याकरण भाष्यकार पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भारतीय ग्रंथों के देवता कृष्ण और उनके सहयोगियों के कई संदर्भों का उल्लेख किया है।
पाणिनी की श्लोक- (३/१/२६) पर अपनी टिप्पणी में, वह कंसवध अथवा कंस की हत्या का भी उल्लेख करते हैं, जो कि कृष्ण से सम्बन्धित किंवदन्तियों का एक महत्वपूर्ण अंग है।
पाणिनि का समय भी ईसा पूर्व 800 से 400 के मध्य है, विद्वान् पाणिनि का समय भगवान बुद्ध से पूर्व बताते हैं,। पाणिनी पणि ( फोनीशियन ) जाति से सम्बन्धित थे जिन्होंने भाषा और लिपि पर कार्य किया।
दुनिया की प्रथम लिपि फोनेशियन पति लोगो की देन है जिससे कालांतर में दुनियाभर की अन्य लिपियाँ विकसित हुई ।
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बौद्ध ग्रन्थ पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गये हैं।
ब्राह्मी लिपि के विषय में नीचे कुछ विश्लेषण है। जिसमें कृष्ण चरित्र को लिखा गया है।
हेलीडियोरस स्तंभ और अन्य शिलालेख-
मध्य भारतीय राज्य मध्य प्रदेश में औपनिवेशिक काल के पुरातत्वविदों ने एक ब्राह्मी लिपि में लिखे शिलालेख के साथ एक स्तंभ की खोज की थी। आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए, इसे १२५ और १०० ईसा पूर्व के बीच का घोषित किया गया है और ये निष्कर्ष निकाला गया कि यह एक इंडो-ग्रीक प्रतिनिधि द्वारा एक क्षेत्रीय भारतीय राजा के लिए बनवाया गया था जो ग्रीक राजा एण्टिलासिडास के एक राजदूत के रूप में उनका प्रतिनिधि था। इसी इंडो-ग्रीक के नाम अब इसे हेलेडियोरस स्तंभ के रूप में जाना जाता है। इसका शिलालेख "वासुदेव" के लिए समर्पण है जो भारतीय परम्परा में कृष्ण का दूसरा नाम है। कई विद्वानों का मत है कि इसमें "वासुदेव" नामक देवता का उल्लेख है, क्योंकि इस शिलालेख में कहा गया है कि यह " भागवत हेलियोडोरस" द्वारा बनाया गया था और यह " गरुड़ स्तंभ" (दोनों विष्णु-कृष्ण-संबंधित शब्द हैं)।
इसके अतिरिक्त, शिलालेख के एक अध्याय में कृष्ण से संबंधित कविता भी शामिल हैं महाभारत के अध्याय ११/७ का सन्दर्भ देते हुए बताया गया है कि अमरता और स्वर्ग का रास्ता सही ढंग से तीन गुणों का जीवन जीना है: स्व- संयम ( दमः ), उदारता ( त्याग ) और सतर्कता ( अप्रामदाह )।
हेलियोडोरस शिलालेख एकमात्र प्रमाण नहीं है। तीन हाथीबाड़ा शिलालेख और एक घोसूंडी शिलालेख,जो कि राजस्थान राज्य में स्थित हैं। और आधुनिक कार्यप्रणाली के अनुसार जिनका समयकाल 19 वीं सदी ईसा पूर्व है उनमें भी कृष्ण का उल्लेख किया गया है। पहली सदी ईसा पूर्व , संकर्षण (बलराम का एक नाम ) और वासुदेव का उल्लेख करते हुए, उनकी पूजा के लिए एक संरचना का निर्माण किया गया था। ये चार शिलालेख प्राचीनतम ज्ञात संस्कृत शिलालेखों में से एक है ।
हाथीबाड़ा घोसुण्डी शिलालेख (या, घोसुंडी शिलालेख, या हाथीबाड़ा शिलालेख), राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के पास प्राप्त शिलालेख हैं जिनकी भाषा संस्कृत है और लिपि ब्राह्मी है।
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ये ब्राह्मी लिपि में, संस्कृत के प्राचीनतम शिलालेख हैं। हाथीबाड़ा शिलालेख, नगरी गाँव से प्राप्त हुए थे जो चित्तौड़गढ़ से 8 किलोमीटर उत्तर में है।
घोसुण्डी शिलालेख (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व)
यह लेख कई शिलाखण्डों में टूटा हुआ है। इसके कुछ टुकड़े ही उपलब्ध हो सके हैं। इसमें एक बड़ा खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है।
घोसुण्डी का शिलालेख नगरी चित्तौड़ के निकट घोसुण्डी गांव में प्राप्त हुआ था इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है। घोसुंडी का शिलालेख सर्वप्रथम डॉक्टर डी० आर० भण्डारकर द्वारा पढ़ा गया यह राजस्थान में वैष्णव या भागवत संप्रदाय से संबंधित सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख है इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि उस समय तक राजस्थान में भागवत धर्म लोकप्रिय हो चुका था।
इसमें भागवत की पूजा के निमित्त शिला प्राकार बनाए जाने का वर्णन है
इस लेख में संकर्षण और वासुदेव के पूजागृह के चारों ओर पत्थर की चारदीवारी बनाने और गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख है। इस लेख का महत्त्व द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रचार, संकर्षण तथा वासुदेव की मान्यता और अश्वमेघ यज्ञ के प्रचलन आदि में है।
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कई पुराणों में कृष्ण की जीवन कथा को बताया या कुछ इस पर प्रकाश डाला गया है ।
- ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक (असोक) द्वारा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनवाये गये शिलालेखों के रूप में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। नये अनुसंधानों के आधार 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के लेख भी मिले है। ब्राह्मी भी खरोष्ठी की तरह ही पूरे एशिया में फैली हुई थी।
- अशोक ने अपने लेखों की लिपि को 'धम्मलिपि' का नाम दिया है; उसके लेखों में कहीं भी इस लिपि के लिए 'ब्राह्मी' नाम नहीं मिलता। लेकिन बौद्धों, जैनों तथा ब्राह्मण-धर्म के ग्रंथों के अनेक उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इस लिपि का नाम 'ब्राह्मी' लिपि ही रहा होगा।
- बौद्ध ग्रंथ 'ललितविस्तर' में 64 लिपियों के नाम दिए गए हैं। इनमें पहला नाम 'ब्राह्मी' है और दूसरा 'खरोष्ठी' है ।
- जैनों के 'पण्णवणासूत्र' तथा 'समवायांगसूत्र' में 16 लिपियों के नाम दिए गए हैं, जिनमें से पहला नाम 'बंभी' (ब्राह्मी) का है।
- 'भगवतीसूत्र' में सर्वप्रथम 'बंभी' (ब्राह्मी) लिपि को नमस्कार करके (नमो बंभीए लिविए) सूत्र का आरंभ किया गया है।
- 668 ई. में लिखित एक चीनी बौद्ध विश्वकोश 'फा-शु-लिन्' में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का उल्लेख मिलता है। इसमें लिखा है कि, 'लिखने की कला का शोध दैवी शक्ति वाले तीन आचार्यों ने किया है; उनमें सबसे प्रसिद्ध ब्रह्मा है, जिसकी लिपि बाईं ओर से दाहिनी ओर को पढ़ी जाती है।'
- इससे यही जान पड़ता है कि ब्राह्मी भारत की सार्वदेशिक लिपि थी और उसका जन्म भारत में ही हुआ किंतु बहुत-से विदेशी पुराविद मानते हैं कि किसी बाहरी वर्णमालात्मक लिपि के आधार पर ही ब्राह्मी वर्णमाला का निर्माण किया गया था।
- ब्यूह्लर जैसे प्रसिद्ध पुरालिपिविद की मान्यता रही कि ब्राह्मी लिपि का निर्माण फिनीशियन लिपि के आधार पर हुआ। इसके लिए उन्होंने एरण के एक सिक्के का प्रमाण भी दिया था।
- एरण (सागर ज़िला, म.प्र.) से तांबे के कुछ सिक्के मिले हैं, जिनमें से एक पर 'धमपालस' शब्द के अक्षर दाईं ओर से बाईं ओर को लिखे हुए मिलते हैं। चूंकि, सेमेटिक लिपियां भी दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थीं, इसलिए ब्यूह्लर ने इस अकेले सिक्के के आधार पर यह कल्पना कर ली कि आरंभ में ब्राह्मी लिपि भी सेमेटिक लिपियों की तरह दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। ओझा जी तथा अन्य अनेक पुरालिपिविदों ने ब्यूह्लर की इस मान्यता का तर्कयुक्त खंडन किया है। उस समय ओझा जी ने लिखा था, 'किसी सिक्के पर लेख का उलटा आ जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि सिक्के पर उभरे हुए अक्षर सीधे आने के लिए सिक्के के ठप्पे में अक्षर उलटे खोदने पड़ते हैं, अर्थात् जो लिपियां बाईं ओर से दाहिनी ओर लिखी जाती हैं उनके ठप्पों में सिक्कों की इबारत की पंक्ति का आरंभ दाहिनी ओर से करके प्रत्येक अक्षर उलटा खोदना पड़ता है, परंतु खोदनेवाला इसमें चूक जाए और ठप्पे पर बाईं ओर से खोदने लग जाए तो सिक्के पर सारा लेख उलटा आ जाता है, जैसा कि एरण के सिक्के पर पाया जाता है।' साथ ही, ओझा जी ने लिखा था, 'अब तक कोई शिलालेख इस देश में ऐसा नहीं मिला है कि जिसमें ब्राह्मी लिपि फ़ारसी की नाईं उलटी लिखी हुई मिली हो।'
- यह 1918 के पहले की बात है।
पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह भाषाविकास जो संस्कृत से माना जाता है वह ठीक नहीं।
यथार्थत: वैदिककाल से ही साहित्यिक भाषा के साथ साथ उससे मिलती जुलती लोकभाषा ने देश एवं कालभेदानुसार साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का रूप धारण किया है।
पालि भी अपनी पूरी विरासत संस्कृत से नहीं ले रही, क्योंकि उसमें अनके शब्दरूप ऐसे पाए जाते हैं जिसका मेल संस्कृत से नहीं, किंतु उसका उत्पत्ति मिलान वेदों की भाषा से बैठता है।
उदाहरणार्थ- पालि एवं अन्य प्राकृतों में तृतीया बहुवचन के देवेर्भि, देवेहि, जैसे रूप मिलते हैं।
अकारान्त संज्ञाओं के ऐसे रूपों का संस्कृत में सर्वथा अभाव है, किंतु वैदिक में देवेभिर्, उतना ही सुप्रचिलित है जितना देवै:।
वैदिक भाषा में देवेभिर्- और दैवै: दोनों शब्द प्रचलन में रहे परन्तु पूर्व शब्द देवेभिर् ही है परन्तु लौकिक भाषा संस्कृत में देवै: ही प्रचलित है।
अतएव उक्त रूप की परंपरा पालि तथा प्राकृतों में वैदिक भाषा से ही उत्पन्न मानी जा सकती है। उसी प्रकार पालि में 'यमामसे', 'मासरे', 'कातवे' आदि अनेक रूप ऐसे हैं जिनके प्रत्यय संस्कृत में पाए ही नहीं जाते, किंतु वैदिक भाषा में विद्यमान हैं।
पालि के ग्रंथों तथा अशोक की प्रशस्तियों से पूर्व का प्राकृत (लोकभाषाओं) में लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है तथा प्राकृत वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए संस्कृत को प्रकृति मानकर प्राकृत भाषा का व्याकरणात्मक विश्लेषण किया है और इसीलिए यह भ्रांति उत्पन्न हो गई है कि प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से हुई।
पालि के कच्चान, मोग्गल्लान आदि व्याकरणों में यह दोष नहीं पाया जाता, क्योंकि वहाँ भाषा का वर्णन संस्कृत को प्रकृति मानकर नहीं किया गया।
पालि भाषा दीर्घकाल तक राज्य भाषा के रूप में भी गौरवान्वित रही है। भगवान बुद्ध ने पालि भाषा में ही उपदेश दिये थे। अशोक के समय में इसकी बहुत उन्नति हुई। उस समय इसका प्रचार भी विभिन्न बाहरी देशों में हुआ। अशोक के समय सभी लेख पालि भाषा में ही लिखे गए थे। यह कई देशो जैसे श्री लंका, बर्मा तिब्बत आदि देशों की धर्म भाषा के रूप में सम्मानित हुई।
‘पाली’ भाषा का उद्भव गौतम बुद्ध से लगभग तीन सौ वर्ष पहले ही हो चुका था, किन्तु उसके प्रारम्भिक साहित्य का पता नहीं लगता। प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य प्रारम्भिक अवस्था में कथा, गीत, पहेली आदि के रूप में रहता है और उसकी रूपरेखा तब तक लोगों को जबानी याद रहती है जब तक कि वह लेखबद्ध हो या ग्रंथारूढ न हो जाय।
इस काल में पालि भाषा की जैसे उत्पत्ति हुई वैसे ही विकास भी हुआ। प्रारंभ से लेकर लगभग तीन सौ वर्षों तक पालि भाषा जन साधारण के बोलचाल की भाषा रही, किन्तु जिस समय भगवान बुद्ध ने इसे अपने उपदेश के लिए चुना और इसी भाषा में उपदेश देना शुरू किया, तब यह थोड़े ही दिनों में शिक्षित समुदाय की भाषा होने के साथ राजभाषा भी बन गई। ‘पालि’ शब्द का सबसे पहला व्यापक प्रयोग हमें आचार्य बुद्धघोष की अट्टकथाओं और उनके विसुद्धिमग्ग में मिलता है। परन्तु अश्व घोष ने बुद्ध चरित संस्कृत भाषा में लिखा-
वहाँ यह बात अपने उत्तर कालीन भाषा संबंधी अर्थ से मुक्त है। आचार्य बुद्धघोष ने पालि शब्द -दो अर्थों में इसका प्रयोग किया है- (१) बुद्ध-बचन या मूल टिपिटक के अर्थ में (२) पाठ या मूल टिपिटक के पाठ अर्थ में।
‘पालि भाषा’ से तात्पर्य उस भाषा से लेते हैं जिसमें स्थविरवाद(थेरवाद)-बौद्धधर्म का तिपिटक और उसका संपूर्ण उपजीवी साहित्य रखा हुआ है। किन्तु ‘पालि’ शब्द का इस अर्थ में प्रयोग स्वयं पालि साहित्य में भी उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व कभी नहीं किया गया। पालि भाषा मूलतः मागधी भाषा ही थी। मगध आधुनिक समय में विहार का दक्षिणी भाग ही पहले मगध था "अधुना वेहाराख्यदेशस्य दक्षिण- भागः"
वा हार की पालि भाषा के उदाहरण कच्चायन-व्याकरण में देखने को मिलते हैं।
मागधी ही मूल भाषा है, जिसमें प्रथम कल्प के मनुष्य बोलते थे, जो ही अश्रुत वचन वाले शिशुओं की मूल भाषा है और जिसमें ही बुद्ध ने अपने धर्म का, मूल रूप से भाषण किया। इसी प्रकार महावंश के परिवर्द्धित अंश चोल वंश के परिच्छेद 37 की 244 वीं गाथा में कहा गया है “सब्बेसं मूलभासाय मागवाय निरुत्तीया” आदि। निश्चय ही सिंहली परंपरा अपनी इस मान्यता में बड़ी दृढ़ है कि जिसे हम आज पालि कहते हैं, वह बुद्धकालीन भारत में बोली जाने वाली मागध भाषा ही थी। बुद्ध बचनों की भाषा को ही सिंहली परंपरा ‘मागधी’ कहना नहीं चाहती, वह अट्टककथाओं तक की भाषा को बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में मागधी कहना ही अधिक पसन्द करती है।
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- यह बाँये से दाँये की तरफ लिखी जाती है।
- यह मात्रात्मक लिपि है। व्यंजनों पर मात्रा लगाकर लिखी जाती है।
- कुछ व्यंजनों के संयुक्त होने पर उनके लिये 'संयुक्ताक्षर' का प्रयोग (जैसे प्र= प् + र)
- वर्णों का क्रम वही है जो आधुनिक भारतीय लिपियों में है।
- सम्राट अशोक के ब्राह्मी लिपि में अंकित प्रमुख अभिलेख
- रुम्मिनदेई - स्तम्भलेख
- गिरनार - शिलालेख
- बराबर - गृहालेख
- मानसेहरा - शिलालेख
- शाहबाजगद्री - शिलालेख
- दिल्ली - स्तम्भलेख
- गुर्जर - लघु-शिलालेख
- मस्की- शिलालेख
- कान्धार - द्विभाषी शिलालेख
ब्राह्मी लिपि से उद्गम हुई कुछ लिपियाँ और उनकी आकृति एवं ध्वनि में समानताएं स्पष्टतया देखी जा सकती हैं। इनमें से कई लिपियाँ ईसा के समय के आसपास विकसित हुई थीं। इन में से कुछ इस प्रकार हैं-
- १-देवनागरी, २-बांग्ला लिपि, ३-उड़िया लिपि, ४-गुजराती लिपि, ५-गुरुमुखी, ६-तमिल लिपि, ७-मलयालम लिपि, ८-सिंहल लिपि, ९-कन्नड़ लिपि, तेलुगु लिपि, १०तिब्बती लिपि, ११-रंजना, प्रचलित १२-नेपाल, १३-भुंजिमोल, १४-कोरियाली, १५-थाई, १६-बर्मेली, १७-लाओ, १८-ख़मेर, १९-जावानीज़, २०-खुदाबादी लिपि आदि।
अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदोहते ॥४॥
(असुन्वन्तम्)= अभिषवादिनिष्पादनपुरुषार्थरहितम् (समम्)= सर्वम् (जहि)= मारो- हन् धातु लोटलकार । (दूणाशम्)= दुःखेन नाशनीयम् (यः)=जो (न)= निषेधे (ते)= तव (मयः)= सुखम् (अस्मभ्यम्) (अस्य) (वेदनम्)= धनम् (दद्धि) धर । अत्र दध धारण इत्यस्माद्बहुलं छन्दसीति शपो लुक् व्यस्ययेन परत्मैपदञ्च । (सूरिः) =विद्वान् (चित्) इव (ओहते) व्यवहारान् वहति । अत्र वाच्छन्दसीति संप्रसारणं लघूपधगुणः ॥ ४ । |
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