अनपत्यः क्रतुस्त्वस्मिन्स्मृतो वैवस्वतेऽन्तरे॥
अत्रेः पत्न्यो दशैवासन्सुन्दर्यश्च पतिव्रताः॥३८॥
"अनुवाद:- वैवस्वत मन्वन्तर में सप्तर्षियों में एक क्रतु प्रजापति सन्तान हीन ही कहे गये । तृतीय प्रजापति अत्रि की दश सुन्दर और पतिव्रता पत्नीयाँ थीं।
भद्राश्वस्य घृताच्यां जज्ञिरे दश चाप्सराः ॥३९॥
"अनुवाद:- जो भद्राश्व वर्ष के अधिपति भद्राश्व की घृताची अप्सरा में उत्पन्न दश पुत्रीयाँ थीं।
भद्रा शूद्रा च मद्रा च नलदा जलदा तथा ॥ उर्णा पूर्णा च देवेशि या च गोपुच्छला स्मृता॥7.1.20.४०॥
तथा तामरसा नाम दशमी रक्तकोटिका॥ एतासां च महादेवि ख्यातो भर्त्ता प्रभाकर:॥४१॥
अनुवाद:- भद्रा, मुद्रा, मद्रा,नलदा, जलदा,उर्णा, पूर्णा ,गोपुच्छला कही गयी है॥४०
अनुवाद:- तथा तामरसा, दशमी हैं जिसे रक्त कोटिका भी कहते है इन सब महा देवीयाों के भर्ता प्रभाकर अत्रि थे।४१।
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स्वर्भानुना हते सूर्ये पतितेस्मिन्दिवो महीम् ॥
तमोऽभिभूते लोकेस्मिन्प्रभा येन प्रवर्त्तिता॥४२॥
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अनुवाद:- स्वर्भानु (राहु) के द्वारा आहत सूर्य देवलोक से पृथ्वी पर गिरने पर यह लोक अन्धकार से ढक गया तब जिस अत्रि के द्वारा प्रभा उत्पन्न कर फैलाया गयी।४२।
"स्वस्ति तेस्त्विति चैवोक्तः पतन्निह दिवाकरः ॥
ब्रह्मर्षेर्वचनात्तस्य न पपात यतः प्रभुः ॥ ४३ ॥
अनुवाद:- स्वस्ति स्वस्ति ते:( तेरा कल्याण हो ! तेरा कल्याण हो! और एसा कहने पर पृथ्वी लोक पर गिरता हुआ सूर्य(दिवाकर) ब्रह्मर्षि अत्रि के वचन से फिर नहीं गिरा जिससे सामर्थ्यवान् अत्रि को प्रभाकर इस प्रकार से कहा गया।
ततः प्रभाकरेत्युक्तः प्रभुरेवं महर्षिभिः॥
भद्रायां जनयामाम् सोमं पुत्रं यशस्विनम्॥४४॥
अनुवाद:- अत्रि को प्रभाकर इस प्रकार से कहा गया। महर्षि प्रभाकर अत्रि ने भद्रा नाम की पत्नी में सोम (चन्द्रमा) उत्पन्न किया। जो बड़ा यशस्वी हुआ।४४।
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त्विषिमान्घर्मपुत्रस्तु सोमो देवो वरस्तु सः ॥
शीतरश्मिः समुत्पन्नः कृत्तिकासु निशाचरः॥४५॥
अनुवाद:- 45. तेजस्वी भगवान सोम अत्रि के केवल धर्म के पुत्र थे । उसकी किरणें शीतल हैं. उनका जन्म कृत्तिकाओं से हुआ था। वह रात्रि-( (निशा) में चर( गमन) करने वाला होने से (निशाचर ) है।।
पिता सोमस्य वै देवि ! जज्ञेऽत्रिर्भगवानृषिः ॥
तत्रात्रिः सर्वलोकेशं भृत्वा स्वे नयने स्थितः ॥४६॥
अनुवाद:- हे देवि ! भगवान अत्रि ने चन्द्रमा को उत्पन्न किया अत: वे सोम के पिता हुए वहाँ अत्रि ने सभी लोके के स्वामी चन्द्रमा को अपने नेत्रों में धारणकर स्थित किया।46।
त्विषिमान् घर्म्मपुत्रस्तु सोमो विश्वावसुस्तथा।
शीतरश्मिः समुत्पन्नः कृत्तिकासु निशाकरः ।। ५३.१०५ ।
अनुवाद:- घर्म्म पुत्र त्विषमान्, सोम, विश्वासु- शीतरश्मि ये सब रात्रि करने वाले कृतिका नक्षत्र में उत्पन्न हुए।५३.१०५।
विश्वावसु- वैदिक ज्योतिष में उनतीसवें संवत्सर ("जोवियन वर्ष)" को संदर्भित करता है ।
"श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते ज्योतिःसन्निवेशो नाम त्रिपञ्चाशोऽध्यायः।५३।
त्विषिमान् .-घर्म( सूर्यातप- घाम) का पुत्र; 1 चाक्षुष युग में कृत्तिकों से जन्मीं; पाँच किरणों में से 2 । 3
1 त्विषिमान्घर्मपुत्रस्तु सोमदेवो वसुः स्मृतः।
शुक्रो देवस्तु विज्ञेयो भार्गवोऽसुरराजकः ।। ५३.८० ।।
घर्म शब्द को अनेक पुराणों में भ्रान्ति वश धर्म लिखकर प्रकरण के विपरीत अर्थ कर दिया गया है। ज्योतिषचक्र प्रकरण में धर्म के स्थान पर घर्म शब्द ही युक्तियुक्त है।
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स्कन्दपुराण-खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम्- अध्यीय 20-
अनपत्यः क्रतुस्त्वस्मिन्स्मृतो वैवस्वतेंतरे ॥
अत्रेः पत्न्यो दशैवासन्सुन्दर्यश्च पतिव्रताः ॥३८॥
भद्राश्वस्य घृताच्यां जज्ञिरे दश चाप्सराः ॥३९॥
भद्रा शूद्रा च मद्रा च नलदा जलदा तथा ॥
उर्णा पूर्णा च देवेशि या च गोपुच्छला स्मृता॥7.1.20.४०॥
तथा तामरसा नाम दशमी रक्तकोटिका ॥
एतासां च महादेवि ख्यातो भर्त्ता प्रभाकरः ॥ ४१ ॥
स्वर्भानुना हते सूर्ये पतितेस्मिन्दिवो महीम् ॥
तमोऽभिभूते लोकेस्मिन्प्रभा येन प्रवर्त्तिता ॥! ॥ ४२ ॥
स्वस्ति तेस्त्विति चैवोक्तः पतन्निह दिवाकरः ॥
ब्रह्मर्षेर्वचनात्तस्य न पपात यतः प्रभुः ॥ ४३ ॥
ततः प्रभाकरेत्युक्तः प्रभुरेवं महर्षिभिः ॥
भद्रायां जनयामाम् सोमं पुत्रं यशस्विनम् ॥ ४४ ॥
त्विषिमान्धर्मपुत्रस्तु सोमो देवो वरस्तु सः ॥
शीतरश्मिः समुत्पन्नः कृत्तिकासु निशाचरः॥ ।४५॥
पिता सोमस्य वै देवि जज्ञेऽत्रिर्भगवानृषिः ॥
तत्रात्रिः सर्वलोकेशं भृत्वा स्वे नयने स्थितः ॥ ४६ ॥
कर्मणा मनसा वाचा शुभान्येव समा चरत् ॥
काष्ठकुड्यशिलाभूत ऊर्द्ध्वबाहुर्महाद्युतिः ॥४७॥
सुदुस्तरं नाम तपस्तेन तप्तं महत्पुरा ॥
त्रीणि वर्षसहस्राणि दिव्यानि सुरसुंदरि ॥ ४८ ॥
तस्योर्द्ध्वरेतसस्तत्र स्थितस्यानिमिषस्य ह ॥
सोमत्वं वपुरापेदे महाबुद्धेस्तु वै शुभे ॥ ४९ ॥
ऊर्द्ध्वमाचक्रमे तस्य सोमसंभावितात्मनः ॥
नेत्राभ्यां सोमः सुस्राव दशधा द्योतयन्दिशः ॥ 7.1.20.५० ॥
तद्गर्भं विधिना दृष्टा दिशोदश दधुस्तदा ॥
समेत्य धारयामासुर्न च धर्तुमशक्नुवन् ॥ ॥ ५१ ॥
स ताभ्यः सहसैवेह दिग्भ्यो गर्भश्च शाश्वतः ॥ पपात भावयँल्लोकाञ्छीतांशुः सर्वभावनः ॥ ५२ ॥
यदा न धारणे शक्तास्तस्य गर्भस्य ताः स्त्रियः ॥
ततस्ताभ्यः स शीतांशुर्निपपात वसुंधराम् ॥ ५३ ॥
पतितं सोममालोक्य ब्रह्मा लोकपितामहः॥
रथमारोपयामास लोकानां हितका म्यया ॥ ५४ ॥
38. यह स्मरणीय है कि इस वैवस्वत मन्वन्तर में क्रतु निःसंतान थे । अत्रि की दस पत्नियाँ थीं। वे सभी सुन्दर और पवित्र थे।
39. घृताचि में दस दिव्य देवियाँ भद्राश्व( भविष्य पुराण भविष्य पर्व में भद्राश्व के स्थान पर रूद्राश्व है) से उत्पन्न हुई थी ।
40-41. हे महान देवी, प्रभाकर अत्रि इन दसों के पति के रूप में प्रसिद्ध हैं: भद्रा , शूद्रा, मद्रा , नलदा , जलदा, उरना [ श्रण ?], पूर्णा , गोपुच्चला, ताम्रसा और रक्तकोटिका दसवीं पत्नी है।
42-44. जब सूर्य को स्वर्भानु (अर्थात राहु ) ने मारा और सूर्य स्वर्ग से जमीन पर गिर पड़े, तो पूरी दुनिया अंधेरे से घिर गई ! उस समय अत्रि ऋषि ने कहा: तेरा कल्याण तेरा कल्याण हो"। दिवाकर (सूर्य देव) जो गिरने वाले थे, फिर वे नहीं गिरे।
इसलिए ऋषि अत्रि को प्रभाकर कहा जाता था क्योंकि उन्होंने प्रकाश( प्रभा) को क्रियान्वित किया। महान ऋषियों ने उन अत्रि को ऐसा ही कहा है ।
भगवान प्रभाकर अत्रि ने भद्रा से प्रतिष्ठित पुत्र सोम को जन्म दिया।
अत्रि अग्नि का रूपान्तरण है। ईरानी ग्रन्थों में अतर- अग्नि का वाचक है। इस श्लोक में भी अत्रि को प्रकाश करने वाला " कहा गया है।
45. तेजस्वी भगवान सोम घर्म के पुत्र थे । उसकी किरणें शीतल हैं. उनका जन्म कृत्तिकाओं से हुआ था । वह रात्रि का कारण है। (निशाचर ))।
46. हे देवी, अत्रि ने समस्त लोकों के स्वामी को अपनी दृष्टि में रखा और स्वयं को इस प्रकार स्थापित किया। इस प्रकार महर्षि अत्रि सोम के पिता बने।
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47. मानसिक, वाचिक और शारीरिक रूप से उन्होंने जो कुछ भी किया वह शुभ ही था।
अपनी तपस्या के दौरान अत्यधिक चमकदार ऋषि लकड़ी के टुकड़े, दीवार या चट्टान की तरह स्थिर रहे। उसने अपनी भुजाएँ ऊपर उठा रखी थीं।
48. पूर्व में उनके द्वारा की गई तपस्या अत्यंत कठोर एवं महान थी। हे सुन्दरी देवी, उन्होंने देवताओं की गणना के अनुसार तीन हजार वर्षों तक तपस्या की।
49. हे शुभ महिला, अत्यधिक बुद्धिमान महिला इस प्रकार बिना पलक झपकाए रह गई। उसने अपनी यौन ऊर्जा को उच्चीकृत कर लिया था। उनका शरीर सोम (चन्द्रमा) की अवस्था को प्राप्त हुआ।
50. जैसे ही उनके शरीर ने सोम की स्थिति प्राप्त की, चंद्रमा ऊपर उठे और सोम रस उनकी आंखों से बह निकला और दसों दिशाओं को प्रकाशित कर दिया।
51. दसों प्रसन्न दिशाओं ने विधिपूर्वक इसे अपने गर्भ में धारण किया। उन्होंने इसे सामूहिक रूप से प्राप्त किया लेकिन वे इसे धारण नहीं कर सके।
52. वह शाश्वत भ्रूण, शीतल किरण वाला चंद्रमा, सभी को प्रसन्न करने वाला, अचानक दिशाओं से नीचे गिर गया और लोकों को प्रकाशित कर दिया।
53. जब वे स्त्रियाँ भ्रूण को पकड़ने में असमर्थ हो गईं, तो शीतांशु (ठंडी किरण वाला चंद्रमा) दिशाओं से जमीन पर गिर पड़ा।
54. लोकों के पितामह ब्रह्मा ने पतित सोम को देखा। समस्त लोकों के कल्याण की इच्छा से उन्होंने उसे रथ पर बिठा लिया।
55. हे देवी, हे सुरस की सुंदरी, मेरे द्वारा धर्मपरायणता स्थापित करने के उद्देश्य से रथ में एक हजार सफेद घोड़े लगाए गए थे। वह बोलने में सच्चा था।
56. हे देवी, जब अत्रि के पुत्र महान आत्मा गिर पड़े, तो ब्रह्मा के प्रसिद्ध मानसिक पुत्रों ने उनकी स्तुति की।
57. इनके साथ-साथ भृगु के सभी अंगिरसों और पुत्रों ने ऋग्वेद , सामवेद और अथर्ववेद के मंत्रों से उनकी स्तुति की ।
58. जैसे-जैसे उनकी स्तुति की जा रही थी, देदीप्यमान सोम का तेज सुपोषित और बढ़ गया। उन्होंने तीनों लोकों को प्रकाशित किया।
59 उस अति प्रसिद्ध व्यक्ति ने उस उत्कृष्ट रथ पर सवार होकर इक्कीस बार समुद्र-गहनी पृथ्वी की प्रदक्षिणा की।
60. (उनके) तेजस् के अंश से , जो पृथ्वी पर पहुंचा, औषधीय जड़ी-बूटियां उत्पन्न हुईं (उत्पन्न हुईं) जो महान चमक के साथ चमकीं।
61. उनसे वह (अर्थात चन्द्रमा) इस जगत् तथा चारों प्रकार के विषयों (सृष्टि) को सजीव करता है। ये ओषधि (औषधीय जड़ी-बूटियाँ) सत्रह प्रकार की होती हैं (अनाज और दाल के रूप में)। वे परिपक्व होते हैं और फल देते हैं।
अनपत्यः क्रतुस्तस्मिन् स्मृतो वैवस्वतेन्तरे।
अत्रेः पत्न्यो दशैवासन् सुंदर्यश्च पतिव्रताः।६८।
भद्राश्वस्य घृताच्यां वै दशाप्सरसि सूनवः।
भद्राभद्रा च जलदा मंदा नंदा तथैव च।६९।
बलाबला च विप्रेन्द्रा या च गोपाबला स्मृता।
तथा तामरसा चैव वरक्रीडा च वै दश।७०।
आत्रेयवंशप्रभवा स्तासां भर्ता प्रभाकरः।।
स्वर्भानुपिहिते सूर्ये पतितेस्मिन्दिवो महीम्।.७१ ।
तमोऽभिभूते लोकेस्मिन्प्रभा येन प्रवर्तिता।।
स्वस्त्यस्तु हि तवेत्युक्ते पतन्निह दिवाकरः।७२ ।
ब्रह्मर्षेर्वचनात्तस्य पपात न विभुर्दिवः।
ततः प्रभाकरेत्युक्तः प्रभुरत्रिर्महर्षिभिः।७३।
भद्रायां जनयामास सोमं पुत्रं यशस्विनम्।
स तासु जनयामास पुनः पुत्रांस्तपोधनः।७४।
स्वस्त्यात्रेया इति ख्याता ऋषयो वेदपारगाः।
तेषां द्वौ ख्यातयशसौ ब्रह्मिष्ठौ च महौजसौ। ७५ ।
दत्तो ह्यत्रिवरो ज्येष्ठो दुर्वासास्तस्य चानुजः।।
यवीयसी स्वसा तेषाममला ब्रह्मवादिनी।७६।
तस्य गोत्रद्वये जाताश्चत्वारः प्रथिता भुवि।।
श्यावश्च प्रत्वसश्चैव ववल्गुश्चाथ गह्वरः।७७ ।
आत्रेयाणां च चत्वारः स्मृताः पक्षा महात्मनाम्।।
काश्यपो नारदश्चैव पर्वतानुद्धतस्तथा।.७८।
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे देवादिसृष्टिकथनं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः।। ६३।।
अनुवाद:- वैवस्वत मन्वन्तर में क्रतु प्रजापति सन्तान हीन ही कहे गये । तृतीय प्रजापति अत्रि की दश सुन्दर और पतिव्रता पत्नीयाँ थीं।६८।
"अनुवाद:- भद्राश्व वर्ष के अधिपति भद्राश्व की घृताची अप्सरा में उत्पन्न दश पुत्रीयाँ थीं।६९।
अनुवाद:- भद्रा, मुद्रा, मद्रा,नलदा, जलदा,उर्णा, पूर्णा, ,गोपुच्छला कही गयी है।७०।
अनुवाद:- तथा तामरसा,और दशमी रक्त कोटिका थी इन सब महा देवीयों के भर्ता प्रभाकर अत्रि थे।।७१।
अनुवाद:- स्वर्भानु (राहु) के द्वारा आहत सूर्य के देवलोक से पृथ्वी पर गिरने पर यह लोक अन्धकार से ढक गया तब जिस अत्रि के द्वारा ही प्रभा( प्रकाश) उत्पन्न कर फैलाया गयी।७२।
अनुवाद:- स्वस्ति स्वस्ति ते:( तेरा कल्याण हो ! तेरा कल्याण हो! और एसा कहने पर पृथ्वी लोक पर गिरता हुआ सूर्य(दिवाकर) ब्रह्मर्षि अत्रि के वचन से फिर नहीं गिरा जिससे सामर्थ्यवान् अत्रि को प्रभाकर इस प्रकार से कहा गया।७३।
अनुवाद:- अत्रि को प्रभाकर इस प्रकार से कहा गया। महर्षि प्रभाकर अत्रि ने भद्रा नाम की पत्नी में सोम ( चन्द्रमा) उत्पन्न किया। जो बड़ा यशस्वी हुआ।७४।
सन्दर्भ:-
लिंगपराण-अध्याय-63 का अनुवाद-
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अनुवाद:- उस तपोवन ऋषि ने उन पत्नीयों से पुन: और भी पुत्र उत्पन्न किए वे सब स्वस्त्यात्रेय कहलाए और वेदों में पारंगत ऋषि हुए।७५।
अनुवाद:- उनमें दो प्रसिद्ध यश वाले ब्रह्मिष्ठ और महान ओजस्वी हुए। दत्तात्रेय अत्रि के ज्येष्ठ पुत्र और दुर्वासा उनके छोटे पुत्र थे। अत्रि की पुत्री अमला ब्रह्म वादिनी हुई।७६।
अनुवाद:- उनके दो गोत्रों में श्याव, प्रत्वस, ववल्गु गह्वर ये चार उपगोत्र उत्पन्न हुए। ये भूलोक में प्रसिद्ध है। ७७।
अनुवाद:- महान आत्मा वाले आत्रेयों के चार पक्ष कहे गये हैं। काश्यप, नारद, पर्वत,अनुद्धत ।७८।
सन्दर्भ:-
लिंगपराण-अध्याय-63 का अनुवाद-
स्कन्द पुराण
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स्कन्द पुराण-अध्याय 20 - चन्द्रमा की उत्पत्ति -: खंड 1 - प्रभास-क्षेत्र-महात्म्य
38. यह स्मरणीय है कि इस वैवस्वत मन्वन्तर में क्रतु ऋषि निःसंतान थे । अत्रि की दस पत्नियाँ थीं। वे सभी सुन्दर और पवित्र थी।
39. घृताची में दस दिव्य देवियाँ भद्राश्व से उत्पन्न हुई थीं ।
40-41. हे महान देवी, प्रभाकर ( अत्रि) इन दसों के पति के रूप में प्रसिद्ध हैं: भद्रा , शूद्रा, मद्रा , नलदा , जलदा, उरना [ श्रण ?], पूर्णा , गोपुच्छला, ताम्रसा और रक्तकोटिका दसवीं थी।
42-44. जब सूर्य को स्वर्भानु (अर्थात राहु ) ने मारा और सूर्य स्वर्ग से जमीन पर गिर पड़े, तो पूरी दुनिया अंधेरे से घिर गई (आच्छादित हो गई)। उस समय अत्रि ऋषि ने कहा: तेरा कल्याण हो"। दिवाकर (सूर्य देव) जो गिरने वाले थे, फिर नहीं गिरे।
इसलिए ऋषि को प्रभाकर कहा जाता था क्योंकि उन्होंने प्रकाश को क्रियान्वित किया। महान ऋषियों ने उनके विषय में ऐसा ही कहा।
भगवान प्रभाकर अत्रि ने भद्रा से प्रतिष्ठित पुत्र सोम को जन्म दिया।
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45. तेजस्वी भगवान सोम "घर्म के पुत्र थे । उसकी किरणें शीतल हैं. उनका जन्म कृत्तिका नक्षत्र में हुआ था । वह रात्रि का कारण है ( निशाकरः ])।
46. हे देवी, अत्रि ने समस्त लोकों के स्वामी को अपनी दृष्टि में रखा और स्वयं को इस प्रकार स्थापित किया। इस प्रकार महर्षि अत्रि सोम के पिता बने।
47. मानसिक, वाचिक और शारीरिक रूप से उन्होंने जो कुछ भी किया वह शुभ ही था।
अपनी तपस्या के दौरान अत्यधिक चमकदार ऋषि लकड़ी के टुकड़े, दीवार या चट्टान की तरह स्थिर रहे। उसने अपनी भुजाएँ ऊपर उठा रखी थीं।
48. पूर्व में उनके द्वारा की गई तपस्या अत्यंत कठोर एवं महान थी। हे सुन्दरी देवी, उन्होंने देवताओं की गणना के अनुसार तीन हजार वर्षों तक तपस्या की।
49. हे शुभ महिला, अत्यधिक बुद्धिमान महिला इस प्रकार बिना पलक झपकाए रह गई। उसने अपनी यौन ऊर्जा को उच्चीकृत कर लिया था। उनका शरीर सोम (चन्द्रमा) की अवस्था को प्राप्त हुआ।
50. जैसे ही उनके शरीर ने सोम की स्थिति प्राप्त की, चंद्रमा ऊपर उठे और सोम रस उनकी आंखों से बह निकला और दसों दिशाओं को प्रकाशित कर दिया।
51. दसों प्रसन्न दिशाओं ने विधिपूर्वक इसे अपने गर्भ में धारण किया। उन्होंने इसे सामूहिक रूप से प्राप्त किया लेकिन वे इसे धारण नहीं कर सकीं।
52. वह शाश्वत भ्रूण, शीतल किरण वाला चंद्रमा, सभी को प्रसन्न करने वाला, अचानक दिशाओं से नीचे गिर गया और जिसने लोकों को प्रकाशित कर दिया।
53. जब वे स्त्रियाँ भ्रूण को पकड़ने में असमर्थ हो गईं, तो शीतांशु (ठंडी किरण वाला चंद्रमा) दिशाओं से जमीन पर गिर पड़ा।
54. लोकों के पितामह ब्रह्मा ने पतित सोम को देखा। समस्त लोकों के कल्याण की इच्छा से उन्होंने उसे रथ पर बिठा लिया।
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पूरोः पुत्रो महावीर्यो राजाऽऽसीज्जनमेजयः ।
प्रचिन्वांस्तु सुतस्तस्य यः प्राचीमजयद् दिशम्।५।
प्रचिन्वतः प्रवीरोऽभून्मनस्युस्तस्य चात्मजः ।
राजा चाभयदो नाम मनस्योरभवत् सुतः।६।
तथैवाभयदस्यासीत् सुधन्वा तु महीपतिः ।
सुधन्वनो बहुगवः शम्यातिस्तस्य चात्मजः ।७ ।
शम्यातेस्तु रहस्याती रौद्राश्वस्तस्य चात्मजः ।
रौद्राश्वस्य घृताच्यां वै दशाप्सरसि सूनवः ।८।******
ऋचेयुः प्रथमस्तेषां कृकणेयुस्तथैव च ।
कक्षेयुः स्थण्डिलेयुश्च सन्नतेयुस्तथैव च ।९।
दशार्णेयुर्जलेयुश्च स्थलेयुश्च महायशाः ।
धनेयुश्च वनेयुश्च पुत्रिकाश्च दश स्त्रियः ।। 1.31.१०।
रुद्रा शूद्रा च भद्रा च मलदा मलहा तथा ।
खलदा चैव राजेन्द्र नलदा सुरसापि च ।
तथा गोचपला तु स्त्रीरत्नकूटा च ता दश।११।
ऋषिर्जातोऽत्रिवंशे तु तासां भर्ता प्रभाकरः ।
रुद्रायां जनयामास सुतं सोमं यशस्विनम् ।१२।
स्वर्भानुना हते सूर्ये पतमाने दिवो महीम् ।
तमोऽभिभूते लोके च प्रभा येन प्रवर्तिता ।१३।
स्वस्ति तेऽस्त्विति चोक्तो वै पतमानो दिवाकरः ।
वचनात् तस्य विप्रर्षेर्न पपात दिवो महीम् ।१४।
अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः ।
यज्ञेष्वत्रेर्धनं चैव सुरैर्यस्य प्रवर्तितम् ।१५।
स तासु जनयामास पुत्रिकासु सनामकान् ।
दश पुत्रान् महात्मा स तपस्युग्रे रतान्सदा ।१६।
ते तु गोत्रकरा राजन्नृषयो वेदपारगाः ।
स्वस्त्यात्रेया इति ख्याताः किं त्वत्रिधनवर्जिताः। १७।
हे जनमेजय, पुरु का पुत्र अत्यंत शक्तिशाली राजा था प्रचिनवान्- था जिसने पूर्वी क्षेत्र पर विजय प्राप्त की।
6-7. प्रचिनवान का पुत्र प्रवीर था जिसका पुत्र मनस्यु हुआ । उनके पुत्र राजा अभयद हुए और जिनका पुत्र राजा सुधन्वा था । उसका पुत्र बहुगव था जिसका पुत्र शाम्यति था।
8. और इस शाम्याति का पुत्र राहस्याति हुआ- जिसका पुत्र रौद्राश्व(भद्राश्व) था इसके दस बेटे और दश बेटियाँ थीं।
9-11. पुत्रों के नाम क्रमशः १-दशार्णोयु, २-"कृकणेयु , ३-कक्षेयु , ४-स्थण्डिलेयु-, ५-सन्नतेयु-, ६- ऋचेयु , ७-स्थलेयु , अत्यंत यशस्वी ८-जलेयु, ९-धनेयु और १० वाँ पुत्र वनेयु आदि थे ।
रुद्रा शूद्रा च भद्रा च मलदा मलहा तथा ।
खलदा चैव राजेन्द्र नलदा सुरसापि च ।
तथा गोचपला तु स्त्रीरत्नकूटा च ता दश।११।
पुत्रियों के नाम १-रुद्रा , २-शूद्रा , ३-भद्रा , ४-मलहा , ५-मलदा , ६-खलदा , ७- "नलदा , ८-सुरसा और ९-गोचपला १०-स्त्रीरत्नकूटा । इन दस पुत्रियाँ थीं। 11।
12. अत्रि( अग्नि) वंश में जन्मे प्रभाकर ऋषि उनके पति थे। उन्होंने रुद्रा* से अपने यशस्वी पुत्र सोम को जन्म दिया ।
ब्रह्माण्ड पुराण आदि में रू ग्रा के स्थान पर भद्रा लिखा है। और अत्रि का दूसरा नाम प्रभाकर बताया है।
13. राहु से पराजित होने पर सूर्य पृथ्वी पर गिर जाता है, और जब पूरी दुनिया अंधेरे से ढक जाती है तो वह अत्रि अपनी किरणें हर जगह फैलाता है।
14. जब उस ऋषि ने कहा, "तुम्हारा भला हो" तो उसके शब्दों के अनुसार, सूर्य आकाश से नहीं नीचे नहीं गिरता है।
15. महान तपस्वी अत्रि महान कुलों के संस्थापक थे। उनके बलिदान पर देवताओं ने भी धन-सम्पत्ति को प्रवर्तित किया।
16. इस उच्चात्मा ऋषि ने रौद्राश्व की दस पुत्रियों से दस पुत्रों को जन्म दिया जो सदैव कठिन तपस्या में लगे रहते थे।
17. हे राजन, वे ऋषि , जो वेदों में पारंगत थे , परिवारों के संस्थापक थे। वे स्वस्तात्रेय के नाम से प्रवर्तित हुए। लेकिन अत्रि ने यज्ञों में धन वर्जित किया।
श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि कुक्षेयुवंशानुकीर्तनं नाम एकत्रिंशोऽध्यायः ।। ३१ ।।
भद्राश्व (भद्राश्व)।—पुरुवंश का एक राजा। वह राहस्याति(रहोवादी)का पुत्र था। भद्रश्व के दस पुत्र थे: ऋक्षेयु, कृषेयु, सन्नतेयु, घृतेयु, सितेयु, स्थण्डिलेयु, धर्मेयु, सम्मितेयु, कृतेयु और मतिनारा।
अग्निरुवाच
पुरोर्जनमेजयोऽभूत्प्राचीन्नन्तस्तु तत्सुतः ।
प्राचीन्नन्तान्मनस्युस्तु तस्माद्वीतमयो तृपः ।। २७८.१ ।।
शुन्धुर्वीतमयाच्चाऽभूच्छुन्धोर्बहुविधः सुतः ।
बहुविधाच्च संयातिरहोवादी च तत्सुतः ।२७८.२ ।
तस्य पुत्रोऽथ भद्राश्वो भद्राश्वस्य दशात्मजाः ।
ऋचेयुश्च कृषेयुश्च सन्नतेयुस्तथात्मजः ।२७८.३ ।।
घृतेयुश्च चितेयुश्च स्थण्डिलेयुश्च सत्तमः ।
धर्म्मोयुः सन्नतेयुश्चः कृचेयुर्म्मतिनारकः ।२७८.४ ।।
तंसुरोघः प्रतिरथः पुरस्तो मतिनारजाः ।
आसीत्प्रतिरथात्कण्वः कण्वान्मेधातिथिस्त्वभूत् ।। २७८.५ ।।
(अध्याय- 278, अग्नि पुराण)।
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दूसरा भद्राश्व - अग्नीध्र का पुत्र और माल्यवंता का स्वामी: घृताची के माध्यम से उनकी दस बेटियाँ (अप्सराएँ) थीं; भद्राश्व को मेरु के पूर्व के राज्य का प्रभारी नियुक्त किया गया।
रहमावरका का एक पुत्र और अप्सराओं के माध्यम से 10 पुत्रों का पिता, घृत (धृत)। *
- * मत्स्य-पुराण 49. 4.
पूरुवंशवर्णनम्।
पूरोः पुत्रो महातेजा राजा स जनमेजयः।
प्राची ततः सुतस्तस्य यः प्राचीमकरोद्दिशम्।। ४९.१ ।।
प्राचीत तस्य तनयो मनस्युश्च तथा भवत्।
राजा पीतायुधो नाम मनस्योरभवत् सुतः।४९.२ ।।
दायादस्तस्य चाप्यासीद् धुन्धुर्नाम महीपतिः।
धुन्धोर्बहुविधः पुत्रः सम्पातिस्तस्य चात्मजः।। ४९.३ ।।
सम्पातेस्तु रहं वर्चा भद्राश्वस्तस्य चात्मजः।
भद्राश्वस्य धृताच्यां(घृताच्यां) तु दशाप्सरसि सूनवः।। ४९.४ ।।
औचेयुश्च हृषेयुश्च कक्षेयुश्च सनेयुकः।
घृतेयुश्च विनेयुश्च स्थलेयुश्चैव सत्तमः।। ४९.५ ।।
धर्मेयुः सन्नतेयुश्च पुण्येयुश्चेति ते दश।
औचेयोर्ज्वलना नाम भार्या वै तक्षकात्मजा।। ४९.६ ।।
तस्यां स जनयामास रन्तिनारं महीपतिम्।
रन्तिनारो मनस्विन्यां पुत्रान् जज्ञे परान् शुभान्।। ४९.७ ।।
अमूर्तरयसंवीरं त्रिवनञ्चैव धार्मिकम्।
गौरी कन्या तृतीया च मान्धातुर्जननी शुभा।। ४९.८
पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
सूतजी कहते हैं— ऋषियो। (ययातिके सबसे छोटे पुत्र) पूरु का पुत्र महातेजस्वी राजा जनमेजय (प्रथम) था। उसका पुत्र प्राचीत्वत (प्राचीनवंत) हुआ, जिसने प्राची (पूर्व) दिशा बसायी प्राचीत्वत का पुत्र मनस्यु' हुआ। मनस्यु का पुत्र राजा वीतायुध (अभय) हुआ। उसका पुत्र धुन्धु नाम का राजा हुआ। धुन्धु का पुत्र बहुविध (बहुविद्य, अन्यत्र बहुगव) और उसका पुत्र संयाति हुआ। संयाति का पुत्र रहंवर्चा और उसका पुत्र भद्राश्व (रौद्राश्व) हुआ। भद्राश्वके घृता (घृताची, अन्यत्र मिश्रकेशी) नामकी अप्सरा के गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न हुए। उन दसों के नाम हैं- १-औचेयु (अधिकांश पुराणोंमें ऋचेयु), २-हृषेयु, ३-कक्षेयु, ४-सनेय, ५-धृतेयु, ६-विनेयु श्रेष्ठ ७-स्थलेयु, ८-धर्मेयु, ९-संनतेयु और १०पुण्येयु ।
औचेयु (ऋचेयु) की पत्नी का नाम ज्वलना था। वह नागराज तक्षक की कन्या थी। उसके गर्भसे उन्होंने भूपाल रन्तिनार (यह प्रायः सर्वत्र मतिनार, पर भागवत में रन्तिभार है) को जन्म दिया। रन्तिनार ने अपनी पत्नी मनस्विनी के गर्भ से कई सुन्दर पुत्रों को उत्पन्न किया, जिनमें वीरवर अमूर्तरय और धर्मात्मा त्रिवन प्रधान थे। उसकी तीसरी संतति गौरी नामकी सुन्दरी कन्या थी, जो मान्धाताकी जननी हुई।
इलिना यमराज की कन्या थी । उसने त्रिवन से ब्रह्मवाद में श्रेष्ठ पराक्रमी ऐलिन (ऐलिक, त्रंसु या जंसु) नामक प्रिय पुत्र उत्पन्न किया। इलिना नन्दन ऐलिन (जंसु) के संयोगसे उपदानवी ने ऋष्यन्त, दुष्यन्त, प्रवीर तथा अनघ नामक चार पुत्रोंको प्राप्त किया। इनमें द्वितीय पुत्र राजा दुष्यन्तके संयोग से शकुन्तला के गर्भ से भरत का जन्म हुआ, जो आगे चलकर संग्राम विजयी चक्रवर्ती सम्राट् हुआ। उसीके नामपर उसके वंशधर 'भारत' नामसे कहे जाने लगे ॥ 1-11 ॥
इसी दुष्यन्त-पुत्र भरत के विषयमें आकाशवाणीने | राजा दुष्यन्तसे कहा था- 'दुष्यन्त ! माता का गर्भाशय तो एक चमड़ेके थैलेके समान है, उसमें गर्भाधान करनेके कारण पुत्र पिताका ही होता है; अतः जो जिससे पैदा होता है, वह उसका आत्मस्वरूप ही होता है। इसलिये तुम अपने पुत्र का भरण-पोषण करो और शकुन्तला का अपमान मत करो। पुत्र अपने मरे हुए पिता को यमपुरीके कष्टोंसे छुटकारा दिलाता है। इस गर्भ का आधान करने वाले तुम्हीं हो, शकुन्तला ने यह बिलकुल सच बात कही है। पूर्वकाल में भरत के सभी पुत्रों का विनाश हो गया था। माता के कोप के कारण उनके पुत्रों का यह पुत्र का महासंहार हुआ था। यह देखकर मरुद्गणों ने बृहस्पति के पुत्र भरद्वाज को लाकर भरत के हाथों में समर्पित किया था। बृहस्पति अपने इस पुत्र को वन में छोड़कर चले गये थे ।।12-25॥
इस प्रकार माता-पिताद्वारा त्यागे गये उस शिशुको देखकर मरुद्गणोंका हृदय पिघल गया था, तब उन्होंने उस भरद्वाज नामक शिशु को उठा लिया।
विशेष :- भरद्वाज- की कथा भरत के साथ जोड़ने के पीछे पुरोहितवादी वर्चस्व के स्थापन का प्रयोजन ही है।
भरद्वाज का जन्म वैसे भी बृहस्पति के द्वारा अपने भाई उतथ्य की पत्नी ममता के साथ किए गये बलात्कार (व्यभिचार) के परिणाम स्वरूप हुआ था।
"तच्च गर्भं प्रविशद्गर्भस्थेन स्थानसङ्कोचभयात् पार्ष्णिप्रहारेणापास्तं बहिः पतितमपि अमोघ वीर्य्यतया बृहस्पतेर्भरद्वाजनामपुत्त्रोऽभूत् ।
गर्भस्थश्च बृहस्पतिना तस्मादेवापराधादन्धो भवेति शप्तो दीर्घतमा नामाभवत् !
यह सुनकर बालक तो गर्भ से निकल भागा परन्तु बृहस्पति ने ममता के साथ बलात्कार करके उसे पुन: गर्भ वती कर दिया तब वह बालक उत्थ्य और बृहस्पति दौनों की सन्तान होने से
भरद्वाज कहलाया।
शाप के कारण 'वह बालक दीर्घतमा कहलाया -
फिर बृहस्पति बोले ममता से !
हे मूढे ममते "द्बाजं द्वाभ्यामावाभ्यां जातमिमं पुत्त्रं त्वं भर रक्ष ।
अनुवाद:-,
अर्थात् हे ममता मुझ बृहस्पति और उतथ्य द्वारा उत्पन्न इस बालक का तू पालन कर !
"एवं बृहस्पतिनोक्तेव ममता तमाह हे बृहस्पते !
द्वाजं द्बाभ्यां जातमिममेकाकिनी किमित्यहं भरिष्यामि । त्वमिमं भरेति परस्परमुक्त्वा तं पुत्त्रं त्यक्त्वा यस्मात् पितरौ ममताबृहस्पती ततो यातौ
ततो भरद्वाजाख्योऽयम् ।
पाठान्तरे एवं विवदमानौ ।
यद्दुःखात् यन्निमित्ताद् दुःखात् पितरौ यातावित्यर्थः । तदेवं ताभ्यां त्यक्तो मरुद्भिर्भृतः ।
मरुत्सोमाख्येन च यागेनाराधितैर्मरुद्भिस्तस्य वितथे पुत्त्र- जन्मनि सति दत्तत्वाद्बितथसंज्ञाञ्चावाप ।
इति विष्णुपुराण चतुर्थ अंश- १९वाँ अध्यायः।
" भरद्वाज शब्द की व्युत्पत्ति भी उस बालक के जन्म के आधार पर हुई- -,
अर्थात् बड़े भाई उतथ्य की पत्नी ममता से बृहस्पति द्वारा बलात्कार से उत्पन्न सन्तान भरद्वाज।
(जन् + डः)
ततः पृषोदरादित्वात् द्वाजः =सङ्करः ।
भ्रियते मरुद्भिरिति ।
भृ + अप् = भरः । भरश्चासौ द्बाजश्चेति कर्म्मधारयः) मुनिविशेषः ।
(भागवत पुराण-श्लोक 9.20.34 ) |
तस्यासन् नृप वैदर्भ्य: पत्न्यस्तिस्र: सुसम्मता: जघ्नुस्त्यागभयात् पुत्रान् नानुरूपा इतीरिते॥ ३४ ॥ |
शब्दार्थ |
तस्य—उसकी (भरत की); आसन्—थीं; नृप—हे राजा परीक्षित ! वैदर्भ्य:—विदर्भ की कन्याएँ; पत्न्य:—पत्नियाँ; तिस्र:—तीन; सु-सम्मता:—अत्यन्त मनोहर तथा उपयुक्त; जघ्नु:—मार डाला; त्याग-भयात्—त्यागे जाने के भय से; पुत्रान्—अपने पुत्रों को; न अनुरूपा:—अपने पिता की तरह न होने से; इति—इस तरह; ईरिते—विचार करते हुए पर ।. |
अनुवाद:-, |
हे राजा परीक्षित, महाराज भरत की तीन मनोहर पत्नियाँ थीं जो विदर्भ के राजा की पुत्रियाँ थीं। जब तीनों के सन्तानें हुईं तो वे राजा के समान नहीं निकलीं, अतएव इन पत्नियों ने यह सोचकर कि राजा उन्हें कृतघ्न रानियाँ समझकर त्याग देंगे, उन्होंने अपने अपने पुत्रों को मार डाला। |
(भागवत पुराण-श्लोक 9.20.35 ) |
तस्यैवं वितथे वंशे तदर्थं यजत: सुतम् । मरुत्स्तोमेन मरुतो भरद्वाजमुपाददु: ॥ ३५ ॥ |
शब्दार्थ |
तस्य—उसके; एवम्—इस प्रकार; वितथे—परेशान होकर; वंशे—सन्तान उत्पन्न करने में; तत्-अर्थम्—पुत्र प्राप्ति के लिए; यजत:— यज्ञ सम्पन्न करते हुए; सुतम्—एक पुत्र को मरुत्-स्तोमेन—मरुत्स्तोम यज्ञ करने से; मरुत:—मरुत्गण देवता; भरद्वाजम्—भरद्वाज को; उपाददु:—भेंट कर दिया ।. |
अनुवाद:-, |
सन्तान के लिए जब राजा का प्रयास इस तरह विफल हो गया तो उसने पुत्रप्राप्ति के लिए मरुत्स्तोम नामक यज्ञ किया। सारे मरुत्गण उससे पूर्णतया सन्तुष्ट हो गये तो उन्होंने उसे भरद्वाज नामक पुत्र उपहार में दिया। |
(भागवत पुराण-श्लोक 9.20.36 ) | |||||||||||||||||||||||||||||||
अन्तर्वत्न्यां भ्रातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पति: । प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वा वीर्यमुपासृजत् ॥ ३६ ॥ | |||||||||||||||||||||||||||||||
शब्दार्थ:- | |||||||||||||||||||||||||||||||
अन्त:-वत्न्याम्—गर्भवती; भ्रातृ-पत्न्याम्—भाई की पत्नी से; मैथुनाय—संभोग की इच्छा से; बृहस्पति:—बृहस्पति नामक देवता; प्रवृत्त:—प्रवृत्त; वारित:—मना किया गया; गर्भम्—गर्भ के भीतर के पुत्र को; शप्त्वा—शाप देकर; वीर्यम्—वीर्य; उपासृजत्— स्खलित किया ।. | |||||||||||||||||||||||||||||||
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अनुवाद | |||||||||||||||||||||||||||||||
बृहस्पति देव ने अपने भाई की पत्नी ममता पर मोहित होने पर उसके गर्भवती होते हुए भी उसके साथ संभोग करना चाहा। उसके गर्भ के भीतर के पुत्र ने मना किया लेकिन बृहस्पति ने उसे शाप दे दिया और बलात् ममता के गर्भ में वीर्य स्थापित कर दिया। ____ "क्या अपराधी निरपराध को शाप देने की सामर्थ्य रखता है। | |||||||||||||||||||||||||||||||
तात्पर्य | |||||||||||||||||||||||||||||||
इस संसार में संभोग की इच्छा इतनी प्रबल होती है कि देवताओं के गुरु तथा अत्यन्त पंडित बृहस्पति ने भी अपने भाई की गर्भवती पत्नी के साथ संभोग करना चाहा। जब उच्चतर देवताओं के समाज में ऐसा हो सकता है तो मानव समाज के विषय में क्या कहा जाये ? संभोग की इच्छा इतनी प्रबल है कि बृहस्पति जैसा विद्वान व्यक्ति भी विचलित हो सकता है।
|
भागवतपुराण 9,20,36, में भरद्वाज की उत्पत्ति का प्रसंग इस प्रकार है । एक वार बृहस्पति ने अपने छोटे भाई उतथ्य की पत्नी ममता के साथ उसको पहले से भी गर्भवती होने पर बलात्कार करना चाहा उस समय गर्भस्थ शिशु ने मना किया परन्तु बृहस्पति नहीं माने काम वेग ने उन्हें विवश कर दिया ।
बृहस्पति नें बालक को शाप दे दिया की तू दीर्घ काल तक अन्धा (तमा) हो जाय ।
यह सुनकर बालक तो निकल भागा परन्तु बृहस्पति ने ममता के साथ बलात्कार करके उसे पुन: गर्भवती कर दिया तब वह बालक उतथ्य और बृहस्पति दौनों की सन्तान होने से
भरद्वाज कहलाया ।
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माता भस्त्र पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।
भरस्व पुत्रं दुष्यंतमावमंस्थाश्शकुंतलाम् ।१२ ।
रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात् ।
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुंतला ।१३ ।
भरतस्य पत्नित्रये नव पुत्रा बभूवुः ।१४ ।
नैते ममानुरूपा इत्यभिहितास्तन्मातरः परित्यागभयात्तत्पुत्राञ्जघ्नुः ।१५ ।
ततोस्य वितथे पुत्रजन्मनि पुत्रार्थिनो मरुत्सोमयाजिनो दीर्घतमसः पार्ष्ण्यपास्तद्बृहस्पतिवीर्यादुतथ्यपत्न्यां ममतायां समुत्पन्नो भरद्वाजाख्यः पुत्रो मरुद्भिर्दत्तः ।१६ ।
तस्यापि नामनिर्वचनश्लोकः पठ्यते ।१७ ।
मूढे भर द्वाजमिमं भरद्वाजं बृहस्पते।
यातौ यदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम् इति ।।।१८ ।
भरद्वाजस्स तस्य वितथे पुत्रजन्मनि मरुद्भिर्दत्तः ततो वितथसंज्ञामवाप ।१९ ।
वितथस्यापि मन्युः पुत्रोऽभवत् ।२० ।
बृहत्क्षत्रमहावीर्यनगरगर्गा अभवन्मन्युपुत्राः ।२१ ।
नगरस्य संकृतिस्संकृतेर्गुरुप्रीतिरंतिदेवौ ।२२ ।
गर्गाच्छिनिः ततश्च गार्ग्याश्शैन्याः क्षत्रोपेता द्विजातयो बभूवु ।२३ ।
इति विष्णुपुराणे ४ अंशे १९ अध्यायः।
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सन्दर्भ:-
(मत्स्य पुराण-अध्याय-४९-)
नीलमतपुराण के अनुसार, त्रेतायुग एक कलियुग की तीन गुना मात्रा वाली समयावधि को संदर्भित करता है। जैसा कि हमें बताया गया है, सूर्य का राशि चक्र की एक राशि से होकर गुजरना सौर मास कहलाता है। दो महीनों से एक ऋतु बनती है, तीन ऋतुओं से एक अयन और दो अयन से एक वर्ष बनता है।
चार लाख बत्तीस हजार वर्ष कलियुग बनाते हैं। कलियुग से दोगुना द्वापर है, तीन युगों से त्रेता है और चार युगों से एक चतुर्युग बनता है और इकहत्तर चतुर्युगों से एक मन्वंतर बनता है।
त्रेतायुग (त्रेतायुग).—चार युगों में से दूसरा। कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग ये चार युग हैं। त्रेतायुग में तीन हजार देववर्ष हैं।
श्री राम का जन्म त्रेतायुग के अंत में हुआ था। त्रेतायुग ईसा पूर्व- (867100) में समाप्त हुआ। श्री राम ने ग्यारह हजार वर्षों तक देश पर शासन किया।
"दश-वर्ष-सहस्राणिनी दश-वर्ष-शतानि च / रामो राज्यमुपाषित्वा ब्रह्मलोकं प्रयस्यति //" (वाल्मीकि रामायण)।
(दस हजार वर्षों तक अपनी भूमि की सेवा करने के बाद और दस सौ वर्षों (दस हजार से अधिक हजार वर्ष) तक सेवा करने के बाद श्री राम ब्रह्मलोक जाएंगे)। जब राम ने प्रशासन की बागडोर संभाली तब वह केवल चालीस वर्ष के थे। मन्वंतर और युग के अंतर्गत देखें। (शास्त्रीय संस्कृत साहित्य)।
____________
रौद्राश्वस्य दशार्णेयुः कृकाणेयुस्तथैव च।
कक्षेयुस्थण्डिलेयुश्च सन्नतेयुस्तथैव च॥ १३.५ ॥
ऋचोयुश्च जलेयुश्च स्थलेयुश्च महाबलः।
धनेयुश्च वनेयुश्च पुत्रकाश्च दश स्त्रियः॥ १३.६ ॥
भद्रा शूद्रा च मद्रा च शलदा तथा।
खलदा च ततो विप्रा नलदा सुरसापि च॥ १३.७ ॥
तथा गोचपला च स्त्रीरत्नकूटा च ता दश।
ऋषिर्जातोऽत्रिवंशे च तासां भर्त्ता प्रभाकरः॥ १३.८ ॥
भद्रायां जनयामास सुतं सोमं यशस्विनम्।
स्वर्भानुना हते सूर्य्ये पतमाने दिवो महीम्॥१३.९॥
तमोऽभिभूते लोके च प्रभा येन प्रवर्त्तिता।
स्वस्ति तेऽस्त्विति चोक्त्वा वै पतमानो दिवाकरः॥ १३.१०॥
वचनात्तस्य विप्रर्षेर्न पपात दिवो महीम्।
अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः॥१३.११॥
यज्ञेष्वत्रेर्बलञ्चैव देवैर्यस्य प्रतिष्ठितम्।
स तासु जनयामास पुत्रिकास्वात्मकामजान्॥ १३.१२ ॥
दश पुत्रान् महासत्त्वांस्तपस्युग्रे रतांस्तथा।
ते तु गोत्रकरा विप्रा ऋषयो वेदपारगाः॥१३.१३ ॥
ब्रह्मपुराणम्/अध्यायः (१३)
खड्गदण्डद्विदण्डौ च सुमहाकालव्यालिनौ ॥ ३,४४.५३ ॥ ब्रह्माण्ड पुराण)
छगलण्डद्विरण्डौ द्वौ समहाकालवालिनौ ॥२९३.०४५ अग्निपुराण)
"अत्रेः पत्न्यनसूया त्रीन् जज्ञे सुयशसः सुतान् ।
दत्तं दुर्वाससं सोमं आत्मेशब्रह्मसम्भवान् ॥१५
"विदुर उवाच -
अत्रेर्गृहे सुरश्रेष्ठाः स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।
किञ्चित् चिकीर्षवो जाता एतदाख्याहि मे गुरो ॥ १६।
मनु जी ने अपनी दूसरी कन्या देवहूति कर्दम जी को ब्याही थी।
अत्रि की पत्नी अनसूया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चन्द्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमशः भगवान् विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे।
सन्दर्भ-
•{लोकाचरण-खण्ड}-
अध्याय -पञ्चम- कृष्ण अस्तित्व के ऐतिहासिक साक्ष्य-•
"उत्तर- समाधान -
उत्तर-१
यह मोहनजो-दारो, लरकाना जिले, सिंध (अब पाकिस्तान में) के पुरातात्विक स्थल से खोदी गई एक साबुन की गोली है।
विशेष:-
सोपस्टोन (जिसे स्टीटाइट या सोपरॉक के नाम से भी जाना जाता है) एक टैल्क-शिस्ट है, जो एक प्रकार की रूपांतरित चट्टान है। यह मुख्य रूप से मैग्नीशियम से भरपूर खनिज टैल्क से बना है। यह डायनेमोथर्मल मेटामोर्फिज्म और मेटासोमैटिज्म द्वारा निर्मित होता है, जो उन क्षेत्रों में होता है जहां टेक्टोनिक प्लेटें नीचे जाती हैं, गर्मी और दबाव से, तरल पदार्थ के प्रवाह के साथ, लेकिन पिघले बिना चट्टानों को बदलती हैं। यह हजारों वर्षों से नक्काशी का एक माध्यम रहा है
यह भगवान कृष्ण के जीवन की एक महत्वपूर्ण कहानी के साथ अद्भुत समानता दर्शाता है।
टैबलेट में एक युवा लड़के को दो पेड़ों को उखाड़ते हुए दिखाया गया है। इन दोनों पेड़ों से दो मानव आकृतियाँ निकल रही हैं और कुछ पुरातत्वविदों ने इसे भगवान कृष्ण से जुड़ी तारीखें तय करने के लिए एक दिलचस्प पुरातात्विक खोज करार दे रहे हैं।
यह छवि यमलार्जुन प्रकरण- (भागवत और हरिवंश पुराण दोनों में उल्लिखित) से मिलती जुलती है।
टैबलेट पर मौजूद युवा लड़के के भगवान कृष्ण होने की बहुत संभावना है, और पेड़ों से निकलने वाले दो इंसान दो शापित गंधर्व हैं, जिन्हें नलकूबर और मणिग्रीव के रूप में पहचाना जाता है।
ऊपर: मोहेंजो-दारो, लरकाना जिला, सिंध (अब पाकिस्तान में) के पुरातात्विक स्थल से सोपस्टोन टैबलेट की खुदाई की गई। स्रोत - मैके की रिपोर्ट, भाग 1, पृष्ठ 344-45, भाग 2, प्लेट 90, वस्तु संख्या। डीके 10237.
दिलचस्प बात यह है कि मोहनजो-दारो में खुदाई करने वाले डॉ. ईजेएच मैके ने भी इस छवि की तुलना यमलार्जुन प्रकरण से की है। इस विषय के एक अन्य विशेषज्ञ प्रो. वीएस अग्रवाल ने भी इस पहचान को स्वीकार किया है। इसलिए, यह काफी संभव है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग भगवान कृष्ण की कहानियों से अवगत थे। बेशक, इस तरह का एक और पृथक साक्ष्य तथ्यों को स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है। हालाँकि, सबूतों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस सन्दर्भ में और अधिक अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है।
द्वारका के साथ सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों (पूरे उपमहाद्वीप में) की भौगोलिक निकटता को देखते हुए, इस कोण को भी ध्यान में रखते हुए अनुसंधान किया जाना चाहिए।
जबकि मोहनजो-दारो शब्द का आम तौर पर स्वीकृत अर्थ 'मुर्दों का टीला' है, इसके समानांतर अर्थ - 'मोहन का टीला' की जांच की भी कुछ गुंजाइश है। समानता एक संयोग से भी अधिक हो सकती है!
रुचि रखने वालों के लिए मोहनजो-दारो की पृष्ठभूमि की जानकारी (स्रोत:www.harappa.com)
मोहनजो-दारो की खोज मूल रूप से 1922 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के एक अधिकारी आरडी बनर्जी ने की थी, हड़प्पा में प्रमुख खुदाई शुरू होने के दो साल बाद।
बाद में, 1930 के दशक के दौरान जॉन मार्शल, केएन दीक्षित, अर्नेस्ट मैके और कई अन्य लोगों के निर्देशन में साइट पर बड़े पैमाने पर खुदाई की गई।
हालाँकि उनके तरीके उतने वैज्ञानिक या तकनीकी रूप से अच्छे नहीं थे जितने होने चाहिए थे, फिर भी वे बहुत सारी जानकारी लेकर आए जिसका अभी भी विद्वानों द्वारा अध्ययन किया जा रहा है।
इस स्थल पर अंतिम प्रमुख उत्खनन परियोजना 1964-65 में स्वर्गीय डॉ. जीएफ डेल्स द्वारा की गई थी, जिसके बाद मौसम से उजागर संरचनाओं को संरक्षित करने की समस्याओं के कारण खुदाई रोक दी गई थी।
1964-65 के बाद से साइट पर केवल बचाव उत्खनन, सतह सर्वेक्षण और संरक्षण परियोजनाओं की अनुमति दी गई है।
इनमें से अधिकांश बचाव अभियान और संरक्षण परियोजनाएं पाकिस्तानी पुरातत्वविदों और संरक्षकों द्वारा संचालित की गई हैं।
1980 के दशक में व्यापक वास्तुशिल्प दस्तावेज़ीकरण, विस्तृत सतह सर्वेक्षण, सतह स्क्रैपिंग और जांच के साथ मिलकर जर्मन और इतालवी सर्वेक्षण टीमों द्वारा डॉ. माइकल जानसन (आरडब्ल्यूटीएच) और डॉ. मौरिज़ियो तोसी (आईएसएमईओ) के नेतृत्व में किया गया था।
शिलापट पर श्रीकृष्ण जन्म के प्रमाण-
भगवान श्रीकृष्ण के मथुरा में जन्म लेने को लेकर यूं कोई संदेह नहीं। धर्मग्रंथों में उनकी न जाने कितनी लीलाओं का वर्णन है। इसके पुरातात्विक प्रमाण भी मौजूद हैं, लेकिन आमतौर पर जानकारी में नहीं हैं। सत्तानवे साल पहले गताश्रम टीला से मिली मूर्ति को भगवान कृष्ण के जन्म का पुरातत्व में पहला प्रमाण है। धर्मग्रन्थ
एक व्यक्तित्व के रूप में कृष्ण का विस्तृत विवरण सबसे पहले ऋग्वेद और उसके बाद छान्दोग्योपनिषद में मिलता है।
फिर बहुत बाद में महाकाव्य महाभारत में कृष्ण के विषय में लिखा गया है , जिसमें कृष्ण को विष्णु के अवतार के रूप में दर्शाया गया है। जबकि महाभारत से पूर्व लिखित ग्रन्थ ब्रह्म वैवर्तपुराण में कृष्ण को विष्णु का भी मूल कहा गया है।
महाभारत के बाद के परिशिष्ट हरिवंशपुराण में कृष्ण के बचपन और युवावस्था का एक विस्तृत संस्करण है। इसके अतिरिक्त
भारतीय-यूनानी मुद्रण में भी कृष्ण चरित्र अंकित हैं।-
180 ईसा पूर्व लगभग इंडो-ग्रीक राजा एगैथोकल्स ने देवताओं की छवियों पर आधारित कुछ सिक्के जारी किये थे।
भारत में अब उन सिक्को को वैष्णव दर्शन से संबंधित माना जाता है। सिक्कों पर प्रदर्शित देवताओं को विष्णु के अवतार बलराम -( संकर्षण) के रूप में देखा जाता है जिसमें गदा और हल और वासुदेव-कृष्ण , शंख और सुदर्शन चक्र दर्शाये हुए हैं।
प्राचीन संस्कृत व्याकरण भाष्यकार पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भारतीय ग्रंथों के देवता कृष्ण और उनके सहयोगियों के कई संदर्भों का उल्लेख किया है।
पाणिनी की श्लोक- (३/१/२६) पर अपनी टिप्पणी में, वह कंसवध अथवा कंस की हत्या का भी उल्लेख करते हैं, जो कि कृष्ण से सम्बन्धित किंवदन्तियों का एक महत्वपूर्ण अंग है।
पाणिनि का समय भी ईसा पूर्व 800 से 400 के मध्य है, विद्वान् पाणिनि का समय भगवान बुद्ध से पूर्व बताते हैं,। पाणिनी पणि ( फोनीशियन ) जाति से सम्बन्धित थे जिन्होंने भाषा और लिपि पर कार्य किया।
दुनिया की प्रथम लिपि फोनेशियन पति लोगो की देन है जिससे कालांतर में दुनियाभर की अन्य लिपियाँ विकसित हुई ।
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बौद्ध ग्रन्थ पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गये हैं।
ब्राह्मी लिपि के विषय में नीचे कुछ विश्लेषण है। जिसमें कृष्ण चरित्र को लिखा गया है।
हेलीडियोरस स्तंभ और अन्य शिलालेख-
मध्य भारतीय राज्य मध्य प्रदेश में औपनिवेशिक काल के पुरातत्वविदों ने एक ब्राह्मी लिपि में लिखे शिलालेख के साथ एक स्तंभ की खोज की थी। आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए, इसे १२५ और १०० ईसा पूर्व के बीच का घोषित किया गया है और ये निष्कर्ष निकाला गया कि यह एक इंडो-ग्रीक प्रतिनिधि द्वारा एक क्षेत्रीय भारतीय राजा के लिए बनवाया गया था जो ग्रीक राजा एण्टिलासिडास के एक राजदूत के रूप में उनका प्रतिनिधि था। इसी इंडो-ग्रीक के नाम अब इसे हेलेडियोरस स्तंभ के रूप में जाना जाता है। इसका शिलालेख "वासुदेव" के लिए समर्पण है जो भारतीय परम्परा में कृष्ण का दूसरा नाम है। कई विद्वानों का मत है कि इसमें "वासुदेव" नामक देवता का उल्लेख है, क्योंकि इस शिलालेख में कहा गया है कि यह " भागवत हेलियोडोरस" द्वारा बनाया गया था और यह " गरुड़ स्तंभ" (दोनों विष्णु-कृष्ण-संबंधित शब्द हैं)।
इसके अतिरिक्त, शिलालेख के एक अध्याय में कृष्ण से संबंधित कविता भी शामिल हैं महाभारत के अध्याय ११/७ का सन्दर्भ देते हुए बताया गया है कि अमरता और स्वर्ग का रास्ता सही ढंग से तीन गुणों का जीवन जीना है: स्व- संयम ( दमः ), उदारता ( त्याग ) और सतर्कता ( अप्रामदाह )।
हेलियोडोरस शिलालेख एकमात्र प्रमाण नहीं है। तीन हाथीबाड़ा शिलालेख और एक घोसूंडी शिलालेख,जो कि राजस्थान राज्य में स्थित हैं। और आधुनिक कार्यप्रणाली के अनुसार जिनका समयकाल 19 वीं सदी ईसा पूर्व है उनमें भी कृष्ण का उल्लेख किया गया है। पहली सदी ईसा पूर्व , संकर्षण (बलराम का एक नाम ) और वासुदेव का उल्लेख करते हुए, उनकी पूजा के लिए एक संरचना का निर्माण किया गया था। ये चार शिलालेख प्राचीनतम ज्ञात संस्कृत शिलालेखों में से एक है ।
हाथीबाड़ा घोसुण्डी शिलालेख (या, घोसुंडी शिलालेख, या हाथीबाड़ा शिलालेख), राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के पास प्राप्त शिलालेख हैं जिनकी भाषा संस्कृत है और लिपि ब्राह्मी है।
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ये ब्राह्मी लिपि में, संस्कृत के प्राचीनतम शिलालेख हैं। हाथीबाड़ा शिलालेख, नगरी गाँव से प्राप्त हुए थे जो चित्तौड़गढ़ से 8 किलोमीटर उत्तर में है।
घोसुण्डी शिलालेख (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व)
यह लेख कई शिलाखण्डों में टूटा हुआ है। इसके कुछ टुकड़े ही उपलब्ध हो सके हैं। इसमें एक बड़ा खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है।
घोसुण्डी का शिलालेख नगरी चित्तौड़ के निकट घोसुण्डी गांव में प्राप्त हुआ था इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है। घोसुंडी का शिलालेख सर्वप्रथम डॉक्टर डी० आर० भण्डारकर द्वारा पढ़ा गया यह राजस्थान में वैष्णव या भागवत संप्रदाय से संबंधित सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख है इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि उस समय तक राजस्थान में भागवत धर्म लोकप्रिय हो चुका था।
इसमें भागवत की पूजा के निमित्त शिला प्राकार बनाए जाने का वर्णन है
इस लेख में संकर्षण और वासुदेव के पूजागृह के चारों ओर पत्थर की चारदीवारी बनाने और गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख है। इस लेख का महत्त्व द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रचार, संकर्षण तथा
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