"श्रीकृष्ण गोपेश्वर सर्वस्वं कथा समिति "वैष्णववर्ण भाग द्वितीय-"
भाग द्वितीयम्-श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चंवर्णम्-
विशेष:- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जातियाँ नहीं हैं ये वर्ण हैं जातियाँ वर्णों के अन्तर्गत ही होती है।
"उपर्युक्त श्लोकों में गोपों के वैष्णव वर्ण तथा भागवत धर्म का संकेत है जिसे अन्य जाति के पुरुष गोपों के प्रति श्रृद्धा और कृष्ण भक्ति से प्राप्त कर लेते हैं।।
"विशेष:-वैष्णव= विष्णोरस्य रोमकूपैर्भवति अण्सन्तति वाची- विष्णु+ अण् = वैष्णव= विष्णु से उत्पन्न अथवा विष्णु से सम्बन्धित- जन वैष्णव हैं।
अर्थ-वैष्णव= विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न अण्- प्रत्यय सन्तान वाची भी है विष्णु पद में तद्धित अण् प्रत्यय करने पर वैष्णव शब्द निष्पन्न होता है। अत: गोप वैष्णव वर्ण के हैं।
उपर्युक्त श्लोकों में पञ्चम जाति के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है ।
अत: चन्द्रमा के अत्रि से उत्पन्न होने का प्रकरण प्रक्षेप ही है।
चन्द्रमा की वास्तविक और प्राचीन उत्पत्ति का सन्दर्भ- ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें पुरुष सूक्त की (13) वीं ऋचा में है। जिसको हम उद्धृत कर रहे हैं ।
📚: चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है मन ही हृदय अथवा प्राण के तुल्य है। चन्द्रमा भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से भी वैष्णव है। चन्द्रमा के वैष्णव होने के भी अनेक शास्त्रीय सन्दर्भ हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें सूक्त में विराट पुरुष से विश्व का सृजन होते हुए दर्शाया है। और इसी विराट स्वरूप के दर्शन का कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिखाया जाना श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में वर्णन किया गया है।
नीचे 'विराट पुरुष' के स्वरूप का वर्णन पहले ऋग्वेद तत्पश्चात श्रीमद्भगवद्गीता में देखें
"तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
(ऋग्वेद-10/90/5 )
अनुवाद:- उस विराट पुरुष से यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ। उसी विराट से जीव समुदाय उत्पन्न हुआ। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया।5।
'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं। इस विराट पुरुष के द्वारा इसी प्रकार अनेक लोकों को रचा गया ।14।
श्रीमद्भगवद्-गीता अध्याय (11) श्लोक ( 19)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद -
आपको मैं अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते हुए देख रहा हूँ।11/19.
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अब एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि चातुर्यवर्ण व्यवस्था विराट पुरुष से उत्पन्न है।
अथवा उस विराट पुरुष के नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्मा से उत्पन्न है।
समाधान:- वास्तव में चातुर्य-वर्ण की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही हुई है। जिसमें ब्रह्मा की प्रथम और प्रमुख सन्तान ब्राह्मण हैं। इस बात से
पुष्टि भी अनेक ग्रन्थों में होती है।
पहले सभी ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-
"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-
भृगु ने कहा-ब्राह्मणादिभृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बादमें कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥
ब्राह्मणः शब्द पुल्लिंग ब्रह्मन् शब्द से सन्तान के अर्थ में (अण्) प्रत्यय लगने पर बनता है।
जबकि नपुसंसक लिंग ब्रह्मन् से ब्राह्मणम्,शब्द बनता है। (ब्रह्मन् + अण् न टिलोपः।) ब्रह्म- संघातः । वेदभागः । इति मेदिनी ।
ब्राह्मणः शब्द पुल्लिंग ब्रह्मन् शब्द से सन्तान के अर्थ में (अण्) प्रत्यय लगने पर बनता है।
"ब्राह्मणो विप्रस्य प्रजापतेर्वा अपत्यम् ।
ब्रह्म वेदस्तमधीते वा सः । इति भरतः ॥ (ब्रह्मन् + अण् “ब्राह्मोऽजातौ ।” ६।४ ।१७१। इति नटिलोपः । तत्पर्य्यायः । द्विजातिः २ अग्रजन्मा ३ भूदेवः ४ बाडवः ५ विप्रः ६ । इत्यमरः ॥ २ । ७ । ४ ॥ द्बिजः ७ सूत्र- कण्ठः ८ ज्येष्ठवर्णः ९ अग्रजातकः १० द्विजन्मा ११ वक्त्रजः १२ मैत्रः १३ वेदवासः १४ नयः १५ गुरुः १६ । इति शब्दरत्नाबली ॥
अर्थ :- हमारे राष्ट्र में ब्रह्मवर्चसी ब्राह्मण उत्पन्न हों । हमारे राष्ट्र में शूर, बाणवेधन में कुशल, महारथी क्षत्रिय उत्पन्न हों । यजमान की गायें दूध देने वाली हों, बैल भार ढोने में सक्षम हों, घोड़े शीघ्रगामी हों । स्त्रियाँ सुशील और सर्वगुण सम्पन्न हों । रथवाले, जयशील, पराक्रमी और यजमान पुत्रवान् हों । हमारे राष्ट्र में आवश्यकतानुसार समय-समय पर मेघ वर्षा करें । फ़सलें और औषधियाँ फल-फूल से युक्त होकर परिपक्वता प्राप्त करें । और हमारा योगक्षेम उत्तम रीति से होता रहे ।
व्याख्या :- यहाँ ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी एवं राजाओं के लिए शूरत्व आदि की प्रार्थना आयी है यदि वेदों में वर्णव्यवस्था कथित गुण कर्मानुरूप होती तो ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी की प्रार्थना उसमें नहीं होती तब वेद में ब्रह्मवर्चस युक्त को ही नाम ब्राह्मण होता एव ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी प्रार्थना एवं आशिर्वाद ही व्यर्थ होता।
यह प्रार्थना ही यहाँ जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्धि करती है,
पद्म पुराण के निम्नांकित श्लोक से भी सिद्ध होता है कि ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं।
पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।
महाराज ! ये चारों वर्ण यज्ञ के उत्तम साधन हैं; अतः ब्रह्माजी ने यज्ञानुष्ठान की सिद्धि के लिये ही इन सबकी सृष्टि की।
ब्राह्मण= ब्राह्मोऽजातौ (ब्रह्मन्+ अण्) (अष्टाध्यायी- ६।४।१७१- इस पाणिनि सूत्र से अपत्य एवं जाति में ब्राह्मण शब्द होता है अब अर्थ हुआ कि हे ब्रह्मन् ! ब्राह्मण ब्रह्मवर्चसी होवें अथवा ब्रह्मन्–ब्राह्मण में (सप्तम्या लुक्) ब्रह्मवर्चसी ब्राह्मण उत्पन्न होवें।
विशेष—ऋग्वेद के पुरूषसूक्त में ब्राह्मणों की उत्पत्ति विराट् या ब्रह्म के मुख से कही गई है।
यह पूर्णत: प्रक्षेप है। क्यों ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं। परम् ब्रह्म की सन्तान नहीं है।
दूसरी बात वर्ण व्यवस्था की यह है कि ब्राह्मण शब्द ब्रह्म+ अण्= ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं जबकि क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र ये किसकी सन्तान हैं। वास्तव में ये बाद के तीन नाम केवल अभिधामूलक हैं। सम्भवत: पहले ब्रह्मा का एक ही वर्ण था ब्राह्मण परन्तु उसके वही अन्य वृत्ति मूलक रूप क्रमशः क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र हैं। वैदिक काल में शूद्र थे नहीं ऋग्वेद में केवल एक बार शूद्र शब्द आया है ऋग्वेद 10/90/12 पर उद्धृत है। कृष्ण ने स्वयं को गोप और क्षत्रिय रूपों में प्रस्तुत किया।
दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे । उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वालाक्षत्रिय बताया।
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"ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः।3/80/ 9 ।•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ । उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ। सम्पूर्ण लोकों का रक्षक( गोप्ता) और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ । हरिवशं पुराण भविष्यपर्व के सौंवें अध्याय का यह इकतालीस वाँ श्लोक (पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण) गोप शब्द की वीरता मूलक व्युत्पत्ति का प्रतिपादन करता है।
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर थे और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है जो वीरता से रहित है वह क्षत्रिय नहीं हो सकता है भले ही उसका जन्म किसी क्षत्रिय पुरुष से हुआ हो । इसमें ब्राह्मण की सन्तान ब्राह्मण होन की वाध्यता नहीं है। हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व के सौंवे अध्याय में पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर ! देखें उस सन्दर्भ को
कृष्ण गोपों को क्षत्रियोचित रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। परन्तु रूढ़ि वादी पुरोहित गोपों के गोपालन और कृषि करने वाले होने से वैश्य वर्ण में समायोजित करते है।
"कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्"।
अब यदि कृष्ण ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था के समर्थक होते तो उनके गोपालक गोप कभी भी नारायणी सेना के यौद्धा नहीं होते क्योंकि गोप गोपालन और कृषि कार्य ही मुख्य रूप से करते हैं । परन्तु गोप व्यापार नहीं करते यह व्यापार कार्य तो बनिया( वणिक) लोगों का ही व्यवसाय है।
अब कृष्ण स्वयं को क्षत्रिय भी कह रहे हैं और गोप भी कह रहे हैं।
ब्राह्मण प्रधान वर्णव्यवस्था में तो यह गोपों का युद्ध सम्बन्धित विधान सम्भव नहीं है। गोप ब्राह्मण वर्णव्यवस्था से पृथक वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत हैं। जिसमें गोपालन ही श्रेष्ठ वृत्ति है।
परन्तु गोप पशुपालन, युद्ध ईश्वरीय ज्ञानार्जन और कृषि कार्य भी करते हैं।
गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उनके हृदय से ही उत्पन्न होते हैं। वह तो वैष्णव हैं ही। क्योंकि वे स्वराट- विष्णु के तनु से उत्पन्न उनकी सन्तान हैं।
वेदों में चन्द्रमा को भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न दर्शाया है। और वेदों का साक्ष्य पुराणों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ व प्रबल है।
चन्द्रमा यादवों का आदि वंश द्योतक है।
नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।
ऋग्वेद पुरुष सूक्त में जोड़ी गयी (12) वीं ऋचा ब्रह्मा से सम्बन्धित है।
📚: उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की सम्पूर्ण (18) ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है।
जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- हैं । अत: पुरुरवा एक गो- पालक राजा ही सम्राट् भी है।
पुरुरवा बुध ग्रह और पृथ्वी ग्रह (इला) ग्रह से सम्बन्धित होने से इनकी सन्तान माना गया है।
यही व्युत्पत्ति सैद्धान्तिक है।
यदि आध्यात्मिक अथवा काव्यात्मक रूप से इला-वाणी अथवा बुद्धिमती स्त्री और बुध बुद्धिमान पुरुष का भी वाचक है । और पुरुरवा एक शब्द और उसकी अर्थवत्ता के विशेषज्ञ कवि का वाचक है। और उर्वशी उसकी काव्य शक्ति है।
यदि पुरुरवा को बुध ग्रह और इला स्त्री से उत्पन्न भी माना जाय तो इला की ऐतिहासिकता सन्दिग्ध है। परन्तु पुरुरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेद, पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में है। पुरुरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है।
"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र पुरुरवा को गायें देकर वन को चला गया।४२।
श्रीमद्भागवत महापुराण
नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥
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वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही हैं । पुरुरवा ,बुध ,और इला की सन्तान था।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।
यूरोपीय भाषाओं में चन्द्रमा का नामान्तरण मून है। जिसका सीधा सम्बन्ध भारोपीय(मूल वैदिक शब्द मान=(मन+अण्- मनसो जात: चन्द्रमा) अर्थात मन से उत्पन्न- इस प्रकरण पर हम विस्तृत विश्लेषण आगे क्रमश करते हैं।
मन से मनन( विचार) उत्पन्न होकर निर्णीत होने पर बुध:( ज्ञान) बनता है और इसी ज्ञान(बुध:) के साथ इला ( वाणी) मिलकर परुरवा(कवि) कविः पुल्लिंग-(कवते सर्व्वं जानाति सर्व्वं वर्णयति सर्व्वं सर्व्वतो गच्छति वा । (कव् +इन्) । यद्वा कुशब्दे + “अचः इः” । उणादि सूत्र ४ । १३८ । इति इः ।
कवि शब्द शब्दार्थ के विशेषज्ञ का वाचक है। जो कि एक कवि की मौलिक विशेषता होती है।
"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा( मान ) कहलाया चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से, यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं।
और इस मान -मन्यु:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में ।
स्वयं पुरुरवा शब्द का अभिधा मूलक अर्थ है। पुरु- प्रचुरं रौति कौति इति पुरुरवस्-
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे।
इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।
अत्रि, चन्द्रमा और बुध का सम्बन्ध प्राय: आकाशीय ग्रह, उपग्रह आदि नक्षत्रीय पिण्डों से सम्बन्धित होने से ऐतिहासिक धरातल पर प्रतिष्ठित नहीं होता है। परन्तु पुरुरवा और उर्वशी ऐतिहासिक पात्र हैं। दौनों ही नायक नायिका का वर्ण एक है। आभीर तथा गोष(घोष) रूप में गोपालक जाति के आदि प्रवर्तक के रूप में इतिहास की युगान्तकारी खोज है।
इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए , स्वयं कृष्ण और संकर्षण(बलराम) कृषि पद्धति के जनक थे बलराम ने हल का आविष्कार कर उसे ही अपना शस्त्र स्वीकार किया। स्वयं आभीर शब्द "आर्य के सम्प्रसारण "वीर का सम्प्रसारण है।
उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुद सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।
"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है। वह उर्वशी है यह भाव मलक अर्थ भी सार्थक है।
"कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
हृदय सागर की अप्सरा ।
संवेदन लहरों में विकसी।।
एक रस बस ! प्रेमरस सृष्टि
नहीं कोई काव्य सी !
"प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी और आदि कवि गोपालक पुरुरवा ही है -क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त में 18 ऋचाओं में सबसे प्राचीन यह "प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।
सत्य पछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गया हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
कवि बनने का केवल उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक (गोष - गोपीथ )आदि के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।
"कालान्तरण पुराणों में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों ने जोड़-तोड़ और तथ्यों को मरोड़ कर अपने स्वार्थ के अनुरूप लिपिबद्ध किया तो परिणाम स्वरूप तथ्यों में परस्पर विरोधाभास और शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत बाते सामने आयीं।
गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर(गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है । गो सेवक अथवा पालक।
वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवा करने वाला" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।
"जज्ञिषे इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥
सायण-भाष्य"-
“इत्था= इत्थं = इस प्रकार इत्थम्भावः इत्थम्भूतः "गोपीथ्याय – गौः =पृथिवी /धेनू। पीथं= पालनम् के लिए । स्वार्थिकस्तद्धितः । भूमे रक्षणीय जज्ञिषे =( जनी धातु मध्यम पुरुष एकवचन लिट् लकार “हि जातोऽसि खलु पुत्ररूपेण । 'आत्मा वै पुत्रनामा ' इति श्रुतेः। पुनस्तदेवाह ।
भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है। हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥
पहले सभी ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-
"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-
भृगु ने कहा-ब्राह्मणादिभृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बादमें कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥
सन्दर्भ:-
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--)
निष्कर्षत: चार वर्ण केवल एक ब्राह्मण वर्ण का विस्तार हैं । मूलत: एक वर्ण ब्राह्मण जो ब्रह्मा से उत्पन्न था उसी से अन्य वर्ण रूप विकसित हुए।
मनुस्मृति ने कहा है कि ब्राह्मण को ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत या सत्यानृत इन पाँच साधनों के द्वारा जीविका निर्वाह करना चाहिए।
१-ऋत का अर्थ है भूमि पर पडे़ हुए अनाज के दानों को चुनना (उंछ वृत्ति) या छोडी़ हुई बालों से दाने झाड़ना (शिलवृत्ति)।
बिना माँगे जो कुछ भीख मिल जाय उसे ले लेना २-अमृत वृति है;
३-भीख माँगने का नाम है मृतवृत्ति।
४-कृषि 'प्रमृत' वृति है और
५-वाणिज्य सत्यानृत वृति' है।
इन्ही वृत्तियों के अनुसार ब्राह्मण चार प्रकार का कहे गए हैं—कुशूलधान्यक, कुभीधान्यक, त्र्यैहिक और अश्वस्तनिक।
जो तीन वर्ष तक के लिये अन्नादि सामग्री संचित कर रखे उसे कुशलधान्यक, जो एक वर्ष के लिये संचित करे उसे कुंभीधान्यक, जो तीन दिन के लिये रखे, उसे त्र्यैहिक और जो नित्य संग्रह करे ओर नित्य खाय उसे अश्वस्तनिक कहते है।
चारो में अश्वस्तनिक श्रेष्ठ है। आदिम काल में मंत्रकार या वेदपाठी ऋषि ही ब्राह्मण कहलाते थे। भ्रमर की तरह निरन्तर ब्रह्- ब्रह्-की ध्वनि करने वाला ब्राह्मण कहा जाता था यह ध्वनि अनुकरण मूलक व्युत्पत्ति है ।
'मासं पुमान् स भविता मासं स्त्री तव गोत्रजः । इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम् ॥ ३९ ॥
36 -मैंने विश्वस्त सूत्रों से सुना है कि मनु-पुत्र सुद्युम्न ने इस प्रकार स्त्रीत्व प्राप्त करके अपने कुलगुरु वसिष्ठ का स्मरण किया।
37-सुद्युम्न की इस शोचनीय स्थिति को देखकर वसिष्ठ अत्यधिक दुखी हुए। उन्होंने सुद्युम्न को उसका पुरुषत्व वापस दिलाने की इच्छा से फिर से शिवजी की पूजा प्रारम्भ कर दी।
38-39 हे राजा परीक्षित, शिवजी वसिष्ठ पर प्रसन्न हुए। अतएव शिवजी ने उन्हें संतुष्ट करने तथा पार्वती को दिये गये अपने वचन को सत्य रखने के उद्देश्य से उस ऋषि से कहा, “आपका शिष्य मनुपुत्र सुद्युम्न एक मास (महीना) तक नर रहेगा और दूसरे मास (महीना) नारी होगा। इस तरह वह इच्छानुसार जगत पर शासन कर सकेगा।
वाल्मीकिरामायण के उत्तरकाण्ड में यह कथा कर्दम ऋषि की सन्तान इल से सम्बन्धित है। और भागवत पुराण में वैवस्वत मनु के पुत्र सुद्युम्न के नाम से - अब एक व्यक्ति के दो- दो मातापिता कैसे हो सकते हैं।
"इला" के माता-पिता कि निर्धारण न होने के कारण और उसके एक महीना नर -और एक महीना नारी होने की घटना के सैद्धांतिक न होने से भी ये कथा प्रक्षिप्त है।
सन्तान जो नौ महीना में गर्भ से भ्रूण और प्रसव पूर्व सन्तान तक निर्मित होती है वह तो एक महीने में सम्भव नहीं है। ।
इस प्रकार कर्दम से वह राजा उत्पन्न हुआ इल, एक महीने के लिए पुरुष अगले महीने इला के नाम पर एक महिला बन गया,(वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड-सर्ग- (87 श्लोक 29)
कुछ पुराणों के अनुसार -
कर्दम ऋषि की उत्पत्ति सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी की छाया से हुई थी।
ब्रह्मा जी ने उन्हें प्रजा में वृद्धि करने की आज्ञा दी। उनके आदेश का पालन करने के लिये कर्दम ऋषि ने स्वयंभुव मनु की द्वितीय कन्या देवहूति से विवाह कर नौ कन्याओं तथा एक पुत्र की उत्पत्ति की।
कन्याओं के नाम कला, अनुसुइया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरुन्धती और शान्ति थे तथा पुत्र का नाम कपिल था।
वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड के पर्व 83,3 में प्रजापति कर्दम के पुत्र को बाह्लीकों राजा कहा गया है--'श्रूयते हि पुरा सौम्य कर्दमस्य प्रजापते:, पुत्रो बाह्लीश्वर: श्रीमानिलोनाम सुधारमिक:' जिसकी नाम इल था।
अत: बुध से वैवस्वत मनु की पुत्री इला अथवा कर्दम ऋषि के पुत्र इल का इला होरकर सन्तान उत्पन्न करना काल्पनिक व सिद्धांत हीन है।
ध्रुव महाराज का यक्षों से युद्ध श्रीमद्भागवत - स्कन्ध 4 अध्याय 10-
समानार्थी शब्द:-इल्याम् - अपनी इला द्वारा नियुक्त पत्नी को; अपि - भी; भार्याम् - अपनी पत्नी के प्रति; वायुः - देवता वायु (वायु के नियंत्रक) का; पुत्रीम् – पुत्री को; महा - बलः - शक्तिशाली शक्तिशाली ध्रुव महाराज; पुत्रम् – पुत्र; उत्कल – उत्कल; नामानम् – नाम का; योषित - स्त्री; रत्नम् – रत्न;अजीजानत - उसका जन्म हुआ।
अनुवाद:-महाबली ध्रुवकी दूसरी स्त्री वायुपुत्री इला थी। उससे उनके उत्कल नामके एक पुत्र और एक कन्यारत्नका जन्म हुआ ॥ 2 ॥
📚: इस प्रसंग में संस्कृत के पौराणिक कथा-कोश लक्ष्मीनारायण संहिता से उद्धृत निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं।
कि जब ययाति यदु से उनकी युवावस्था का अधिग्रहण करने को कहते हैं
तब यदु उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।
"यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।७२।
अनुवाद:-उन ययाति ने यदु से कहा :-कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का भोग करो ।
यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप।
जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।७३।
कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्।
सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।७४।
"अनुवाद:-यदु ने कहा-: हे राजा, मैं अपनी जवानी तुम्हें नहीं दे सकता। शरीर के जरावस्था( जर्जर होने के पांच कारण होते हैं १-चिंता और २-वृद्ध महिलाएं ३-खराब खानपान (कदन्न )और ४-नित्य सुरापान करने से पेट में (५-शीतजाठर की पीडा)। मुझे ये जरा( बुढ़ापा) अच्छा नहीं लगता यह मेरा भोग करने का समय है ।७३-।७४।
श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।
"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
देहि मे यौवनं पुत्र गृहाण त्वं जरां मम ।
कुरुः प्राह करिष्यामि भजनं श्रीहरेः सदा ।७७।
"अनुवाद:-पुत्र मुझे यौवन देकर तुम मेरा जरा( बुढ़ापा) ग्रहण करो पुरु ( कुरु वंश के जनक) ने कहा मैं हरि का सदैव भजन करूँगा।७७।
📚: उर्वशी का वर्णन अहीर कन्या के नाम से इतिहास में जुड़ा है। मत्स्यपुराण इसका साक्ष्य है।
"एक आभीर कन्या जिसने भीमदवादशी का पालन किया, और उर्वशी बन गई।
विवरण:- वीर! तुम्हारे द्वारा इसका अनुष्ठान होनेपर यह व्रत तुम्हारे ही नामसे प्रसिद्ध होगा। इसे लोग भीमद्वादशी' कहेंगे। यह भीमद्वादशी सब पापोंको नाश करनेवाली और शुभकारिणी होगी। प्राचीन कल्पोंमें इस व्रतको 'कल्याणिनी व्रत' कहा जाता था। महान् वीरोंमें श्रेष्ठ वीर भीमसेन! इस वाराहकल्पमें तुम इस व्रतके सर्वप्रथम अनुष्ठानकर्ता बनो। इसका स्मरण और कीर्तनमात्र करनेसे मनुष्यका सारा पाप नष्ट हो जाता है और वह देवताओंका राजा इन्द्र बन जाता है ॥ 51-58 ॥
कालान्तर में एक बद्रिका वन के समीप पद्मसेन अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह नर्तकी अप्सराओं की अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में वह उर्वशी नाम से विख्यात है।
इसी प्रकार वैश्य कुलमें उत्पन्न हुई, एक दूसरी कन्याने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्रीरूपमें उत्पन्न होकर इन्द्र की पत्नी बनी उसके अनुष्ठान कालमें जो उसको सेविका थी,वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है।
📚: "चन्द्रमा (मान) से बुध( ज्ञान) और बुध और इला ( वाणी) से काव्यशक्ति ( पुरुरवा - कवि उत्पन्न की दार्शनिक थ्योरी है।
चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है अत: चन्द्रा़मा भी वैष्णव है। गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न हैं। वह तो वैष्णव हैं रही। नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।
'आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।10.21।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय(10)
अनुवाद:-
द्वादश आदित्यों में मैं विष्णु नामक आदित्य हूँ। प्रकाश करनेवाली ज्योतियों में मैं किरणोंवाला सूर्य हूँ। वायुसम्बन्धी देवताओंके भेदों में मैं मरीचि नामक देवता हूँ और नक्षत्रों में मैं शशी (चन्द्रमा) हूँ।
'पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।९२।
अनुवाद :-
पशुओं जीवों में गौ वनों में चन्दन पवित्र करने वालों में तीर्थ और निशंक अथवा निर्भीकों में वैष्णव हूँ।९२।
विशेष- गोपों की निर्भीक प्रवृत्ति के कारण ही उनको संसार में आभीर भी कहा जाता है और कृष्ण ने स्वयं को इस रूप में स्वीकार किया है।
न वैष्णवात्परः प्राणी मन्मन्त्रोपासकश्च यः।
वृक्षेष्वङ्कुररूपोऽहमाकारः सर्ववस्तुषु ।९३ ।
अनुवाद :-
वैष्णव से बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है। विशेषत: वह जो मेरे मन्त्र की उपासना करता है।वह सर्वश्रेष्ठ हैं। मैं वृक्षों में अंकुर तथा सम्पूर्ण वस्तुओं में उसका आकार हूँ।९३।
यूरोपीय भाषाओं में चन्द्रमा का नामान्तरण मून है। जिसका सीधा सम्बन्ध भारोपीय मूल वैदिक शब्द मान=(मन+अण्- मनसो जात: चन्द्रमा) अर्थात मन से उत्पन्न- मान -इस प्रकरण पर हम विस्तृत विश्लेषण आगे क्रमश: करते हैं।
चन्द्रमा (मान) से बुध( ज्ञान) और बुध और इला ( वाणी) से काव्यशक्ति ( पुरुरवा - कवि उत्पन्न की दार्शनिक थ्योरी है।
मन से मनन( विचार) उत्पन्न होकर निर्णीत होने पर बुध:( ज्ञान) बनता है और इसी ज्ञान(बुध:) के साथ इला ( वाणी) मिलकर परुरवा(कवि) हैं
कविः शब्द पुल्लिंग है जिसकी उत्पत्ति- कु धातु के "कव् रूप से (कवते सर्व्वं जानाति सर्व्वं वर्णयति सर्व्वं सर्व्वतो गच्छति वा । रूप में हुई है।कवि=(कव् +इन्) । यद्वा कुशब्दे + “अचः इः” । उणादि सूत्र ४ । १३८ । इति इः।
कवि शब्द शब्दार्थ के विशेषज्ञ का वाचक है। जो कि एक कवि की मौलिक विशेषता होती है।
"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा( मान ) कहलाया चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं।
और इस मान -मन्यु:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में ।
स्वयं पुरुरवा शब्द का अभिधा मूलक अर्थ है। पुरु- प्रचुरं रौति कौति इति पुरुरवस्-
पुरूरवसे - पुरु रौतीति पुरूरवाः । ‘रु शब्दे '। अस्मात् औणादिके असुनि ‘पुरसि च पुरूरवाः' (उणादि. सूत्र ४. ६७१) इति पूर्वपदस्य दीर्घो निपात्यते की सिद्धि से ।
सुकृते । ‘सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः ' (पाणिनीय सूत्र- ३. २. ८९) इति क्विप् । ततः तुक् प्रत्यय।
(अग्ने) हे अग्ने ! (सुकृत्तरः) अत्यन्त सुकृत कर्म करनेवाले (त्वम्) आप (पुरूरवसे) अधिक स्तुति करने वाले कवि के लिए (मनवे) ज्ञानवान् विद्वान् के लिये (द्याम्) द्यौ लोक को (अवाशयः) - तुम प्रकाशित हुए।
मध्यम अवाशयः
(वश्- प्रकाशित होना- धातु का लङ्लकार मध्यम पुरुष एक वचन का
रूप अवाशय:) - तुम प्रकाशित किए हुए हो । (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पूर्वसमय में (अपरम्) इसके आगे (पुनः) बार-बार (अनयन्) आते हैं। जो (त्वा) तुझे (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पिछले (अपरम्) अगले को प्राप्त कराता है (पित्रोः) माता और पिता से तू (पर्यामुच्यसे) सब प्रकार छूट जाता (आ) अच्छे प्रकार कर ॥ ४ ॥
📚: वश्- प्रकाशित होना- धातु का लङ्लकार मध्यम पुरुष एक वचन का
रूप अवाशय:) - तुम प्रकाशित किए हुए हो । (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पूर्वसमय में (अपरम्) इसके आगे (पुनः) बार-बार (अनयन्) आते हैं। जो (त्वा) तुझे (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पिछले (अपरम्) अगले को प्राप्त कराता है (पित्रोः) माता और पिता से तू (पर्यामुच्यसे) सब प्रकार छूट जाता (आ) अच्छे प्रकार कर ॥ ४ ॥
"सायण भाष्य-मूलक अर्थ-
हे अग्नि ! तुम मनन शील व्यक्ति (मनु) के लिए स्वर्ग से प्रकाशित हुए।
अच्छे से अच्छा कर्म करने वाले पुरुरवा के उन अच्छे कार्यों के परिणाम स्वरूप उसके लिए भी प्रकाशित हुए ।
जब अरणियों (लकड़ीयों) के शीघ्र मन्थन से तुम चारो ओर उत्पन्न होते हो। जब अरणियों से उत्पन्न हुए तुम्हें वेदी के पहले स्थान को ले जाते हुए आह्वानीय रूप से स्थापित किया गया और उसके पश्चात पश्चिम स्थान को ले जाते हुए तुम्हें गार्हपत्य रूप में स्थापित किया गया ।(ऋ०१/३१/४)
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आपको पता होना चाहिए कि संसार की रचना का आलंकारिक वर्णन शास्त्रों में प्रतिपादित हुआ है। ब्रह्म वैवर्तपुराण में एक स्थान पर चन्द्र उत्पति का वर्णन है
मरीचेर्मनसो जातः कश्यपश्च प्रजापतिः।।
अत्रेर्नेत्रमलाच्चन्द्रः क्षीरोदे च बभूव ह ।।२।।
प्रचेतसोऽपि मनसो गौतमश्च बभूव ह ।।
पुलस्त्यमानसः पुत्रो मैत्रावरुण एव च ।।३।।
अनुवाद- मरीचि ब्रह्मा के मन से उत्पन्न हुए और मरीचि के मन से कश्यप उत्पन्न हुए। और अत्रि के नेत्रमल-(आँखों के कीचड़) से समुद्र के जल में हुआ और प्रचेतस भी गौतम के मन से उत्पन्न है।
और पुलस्त्य जो ब्रह्मा के मन से उत्पन्न हुए उन्हीं पुलस्त्य के मन से मैत्रावरुण उत्पन्न हुए।२-।
'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं। इस विराट पुरुष के द्वारा इसी प्रकार अनेक लोकों को रचा गया ।14।
[1/8, : भगवद् गीता अध्याय 11 श्लोक( 19)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद -
आपको मैं अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते हुए देख रहा हूँ।
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📚:
उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल के- 95 वें सूक्त की 18 ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- है। अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।
📚: इस प्रसंग में संस्कृत के पौराणिक कथा-कोश लक्ष्मीनारायण संहिता से उद्धृत निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं।
कि जब ययाति यदु से उनकी युवावस्था का अधिग्रहण करने को कहते हैं
तब यदु उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।
"यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।७२।
अनुवाद:-उन ययाति ने यदु से कहा :-कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का भोग करो ।
'यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप।
जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।७३।
कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्।
सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।७४।
"अनुवाद:-यदु ने कहा-: हे राजा, मैं अपनी जवानी तुम्हें नहीं दे सकता। शरीर के जरावस्था( जर्जर होने के पांच कारण होते हैं।
१-चिंता और २-वृद्धता ३- विलासनी स्त्रीयाँ ४-खराब खानपान (कदन्न )और ५-नित्य सुरापान करने से पेट में (६-शीतजाठर की पीडा)।
मुझे ये जरा( बुढ़ापा) अच्छा नहीं लगता यह मेरा भोग करने का समय है ।७३-।७४।
"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्त 62 की ऋचा 10 में यदु और तुर्वसु का गोप रूप जानने योग्य है।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
देहि मे यौवनं पुत्र गृहाण त्वं जरां मम ।
कुरुः प्राह करिष्यामि भजनं श्रीहरेः सदा ।७७।
"अनुवाद:-पुत्र मुझे यौवन देकर तुम मेरा जरा( बुढ़ापा) ग्रहण करो पुरु ( कुरु वंश के जनक) ने कहा मैं हरि का सदैव भजन करूँगा।७७।
📚: इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ॥३॥
-पदार्थ-
(इषुधेः) =इषु कोश से (असना) =फेंका जाने वाला (इषुः)= बाण (श्रिये न) विजयलक्ष्मी में समर्थ नहीं होता है, तुझ भार्या सहयोग के बिना, (रंहिः-न) मैं वेगवान् भी नहीं (गोषाः-शतसाः) सैकड़ो गायों का सेवक (अवीरे) हे आभीरे ! (उरा क्रतौ) विस्तृत यज्ञकर्म में या संग्रामकर्म में (न विदविद्युतत्) मेरा वेग प्रकाशित नहीं होता (धुनयः) शत्रुओं को कंपाने वाले मेरे सैनिक (मायुम्) अब आदेश को (न चिन्तयन्त) नहीं मानते हैं ! ॥३॥
सरलार्थ:-
तूणीर( वाणकोश) से फेंका जाने वाले बाण वियश्री में समर्थ नहीं होते हैं, तुझ भार्या उर्वशी के सहयोग के बिना, मैं वेगवान् भी नहीं हूँ। (गोषाः-शतसाः) मैं सैकड़ो गायों का सेवक (अवीरे) हे आभीरे ! विस्तृत कर्म में या संग्रामकर्म में अब मेरा वेग प्रकाशित नहीं होता है। शत्रुओं को कंपाने वाले मेरे सैनिक भी अब मेरे आदेश को नहीं मानते हैं ॥३।
विवरण:- वीर! तुम्हारे द्वारा इसका अनुष्ठान होनेपर यह व्रत तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा। इसे लोग भीमद्वादशी' कहेंगे।
यह भीमद्वादशी सब पापोंको नाश करनेवाली और शुभकारिणी होगी।
प्राचीन कल्पोंमें इस व्रतको 'कल्याणिनी व्रत' कहा जाता था। महान् वीरोंमें श्रेष्ठ वीर भीमसेन! इस वाराहकल्पमें तुम इस व्रतके सर्वप्रथम अनुष्ठानकर्ता बनो।
इसका स्मरण और कीर्तनमात्र करनेसे मनुष्यका सारा पाप नष्ट हो जाता है और वह देवताओंका राजा इन्द्र बन जाता है ॥ 51-58 ॥
कालान्तर में एक बद्रिका वन के समीप पद्मसेन अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह उर्वशी नर्तकी -अप्सराओं की अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी नाम से विख्यात है। इसी प्रकार वैश्य कुल में उत्पन्न हुई एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्री रूप में उत्पन्न होकर इन्द्र की पत्नी बनी उसके अनुष्ठान काल में जो उसको सेविका थी, वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है।
अनुवाद :- नन्द जी ! को कृष्ण अपने वैष्णव विभूतियों के सन्दर्भ में कहते हैं कि छन्दों में गायत्री, संपूर्ण शास्त्रों में वेद, जलचरों में उनका राजा वरुण, अप्सराओं में उर्वशी, मेरी विभूति हैं इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनां नन्दादि-
णोकप्रमोचनं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३।
"कृत्वा च यामप्सरसामधीशा नर्तकीकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
जन्मान्तर में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह स्वर्ग नर्तकी अप्सराओं की अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी नामसे विख्यात है।५९।
पुरुरवा (पुरूरवस) एक प्राचीन राजा का नाम है, जिसने (अहिर्बुध्न्यसंहिता) के अध्याय:- 47 में वर्णित शांति अनुष्ठान किया था, जो पंचरात्र( भागवत/वैष्णव धर्म )की परम्परा से संबंधित है, जो धर्मशास्त्र, अनुष्ठान, प्रतिमा विज्ञान, कथा पौराणिक कथाओं और अन्य से संबंधित है।
तदनुसार, "[यह संस्कार] जब वे संकट में हों तो अत्यंत गौरवशाली संप्रभुओं द्वारा नियोजित किया जाना चाहिए-
,अलर्क, मांधात्र, पुरुरवा, राजोपरिचर, धुंधु, शिबि और श्रुतकीर्तन - पुराने राजाओं ने इसे करने के बाद सार्वभौमिक संप्रभुता प्राप्त की।
वे रोगमुक्त और शत्रुमुक्त हो गये। उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी और वे निर्दोष थे।”
पञ्चरात्र
भागवत धर्म की एक परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है जहां विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है।
वैष्णववाद से संबंधित क्लोज़ले के अनुसार, पंचरात्र साहित्य में कई वैष्णव दर्शनों को समाहित करने वाले विभिन्न आगम और तंत्र शामिल हैं।।
नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म गाथा-
श्री देवी (अर्थात पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74.-इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।
इस प्रकार (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
एक बार दत्तात्रेय की सेवा करते करते आयुष को जब कई दिनों का लंबा समय बीत गया, तो उस योगी दत्तात्रेय ने उन्मत्त हालत में राजा से कहा: हे राजन् “जैसा मैं तुमसे कहता हूं वैसा ही करो। मुझे प्याले में दाखमधु दो; और मांस का भोजन जो पक गया है उसे दो।” उनके इन शब्दों को सुनकर, पृथ्वी के स्वामी आयुष ने उत्सुक होकर, तुरन्त एक प्याले में शराब ली, और तुरंत अपने हाथ से अच्छी तरह से पका हुआ मांस काट लिया, और, राजा ने उसे दत्तात्रेय को दे दिया। वह श्रेष्ठ मुनि मन में प्रसन्न हो गये। (आयुष की) भक्ति, पराक्रम और गुरु के प्रति महान सेवा को देखकर, उन्होंने राजाओं के भी राजा उस विनम्र आयुष से कहा:
129. “हे राजन, आपका कल्याण हो, ऐसा वर मांगो जो पृथ्वी पर प्राप्त करना कठिन हो।” अब मैं तुम्हें वह सब कुछ दूँगा जो तुम चाहते हो।”
राजा ने कहा :
130-135. हे मुनिश्रेष्ठ, आप मुझ पर दया करके सचमुच वरदान दे रहे हैं। तो मुझे सद् गुणों से संपन्न, सर्वज्ञ, , देवताओं की शक्ति से युक्त और देवताओं और दैत्यों, क्षत्रियों , दिग्गजों, भयंकर राक्षसों और किन्नरों से अजेय पुत्र दीजिए । (वह केवल ) देवताओं और ब्राह्मणों के प्रति समर्पित होना चाहिए, और (उसे) विशेष रूप से अपनी प्रजा की देखभाल करने वाला , त्यागी, दान का स्वामी (अर्थात् सर्वश्रेष्ठ दाता), शूरवीर, अपने आश्रय पाने वालों के प्रति स्नेही, दाता, भोक्ता, उदार और वेदों तथा पवित्र ग्रंथों का ज्ञाता, धनुर्वेद (अर्थात धनुर्विद्या) में कुशल होना चाहिए। और पवित्र उपदेशों में पारंगत हैं। उसकी बुद्धि (होनी चाहिए) और वह अजेय; बहादुर और युद्धों में अपराजित होना वाला हो। उसमें ऐसे गुण होने चाहिए, वह सुंदर होना चाहिए और ऐसा होना चाहिए जिससे वंश आगे बढ़े। हे महामहिम, यदि आप कृपा करके मुझे एक वरदान देना चाहते हैं, तो हे प्रभु, मुझे मेरे परिवार का भरण-पोषण करने वाला (ऐसा) पुत्र अवश्य दीजिए।
दत्तात्रेय ने कहा :
136-138- ऐसा ही होगा, हे गौरवशाली राजी! आपके महल में एक पुत्र होगा, जो मेधावी होगा, आपके वंश को कायम रखेगा और सभी जीवित प्राणियों पर दया करेगा। वह सभी सद्गुणों और विष्णु के अंश से संपन्न होगा। वह, मनुष्यों का स्वामी, इंद्र के बराबर एक संप्रभु सम्राट होगा।
इस प्रकार उसे वरदान देने के बाद, महान ध्यानी योगी दत्तात्रेय ने राजा को एक उत्कृष्ट फल दिया और उससे कहा: "इसे अपनी पत्नी को देना।" इतना कहकर, और उस आयुस् को, जो उसके सामने नतमस्तक हुआ था, दत्तात्रेय उसे आशीर्वाद देकर , वह गायब हो गये।
नहुष चन्द्रवंश का एक प्रसिद्ध राजा था। वह सम्राट आयुष् के पुत्र थे। एक समय तो वह इंद्र भी बन गया थे। अंत में अगस्त्य ऋषि ने उन्हें सर्प बनने का श्राप दे दिया।
परिवार
पिता: आयुष्
माता : इन्दुमती
भाई: क्षत्रियवृद्ध, राभ, अनैना
पत्नी: अशोकसुन्दरी
पुत्र : याति, ययाति , संयाति, अयाति, वियाति, कृति
(नह्यति सर्व्वाणि भूतानि माययेति - जो माया द्वाराजगत के सभी प्राणियों को बाँधता है वह विष्णु नहुष हैं।
(महाभारते ।१३।१४९।४७। “
परन्तु पद्मपुराण भूमि-खण्ड में नहुष शब्द की व्युत्पत्ति {नञ्+ हुष्+घञ्}=नहुष: जो कभी पराजित न हो।
नहुष को स्वर्ग में प्रवेश करने की अनुमति दी गई क्योंकि उसने वैष्णव यज्ञ करके खुद को शुद्ध कर लिया था।
(महाभारत, वन पर्व, अध्याय 257, श्लोक 5)।
महाभारत, सभा पर्व, अध्याय 8, श्लोक 8
में कहा गया है कि नहुष, मृत्यु के बाद, राजा यम (मृत्यु के देवता) के महल में रहते है।
(9) ऋग्वेद , मण्डल 1, अनुवाक 7, सूक्त 31 की 11वीं ऋचा में पुरुरवा के पुत्र आयुस् वर्णन है और उसके भी पुत्र नहुष के इन्द्र बनने का उल्लेख मिलता है।
-हे (अग्ने) तुम ! (देवाः) देवों ने (नहुषस्य) पुरुरवा के पौत्र की (आयवे) आयुस् के लिये इस (इळाम्) वाणी को (अकृण्वन्) प्रकाशित किया तथा (मनुष्यस्य) मनुष्यमात्र की (शासनीम्) सत्य शिक्षा को (अकृण्वन्) प्रकाशित किया और (यत्) जैसे (ममकस्य) हम लोगों के (पितुः) पिता का (पुत्रः) (जायते) उत्पन्न होता है।॥ ११ ॥
सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य
नहुष पुरुरवा के पुत्र 'आयुष- का पुत्र था , जिसे इंद्र के रूप में स्वर्ग में पदोन्नत किया गया था । इला( पृथ्वी - गाय) यज्ञ करने के पहले नियमों को साधन बनाती है, इसलिए वह शासनि = धर्मोपदेशकर्तृ, कर्तव्य में वाद्य कर्म की दाता है।
"कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र- ऋषिकुमार नचिकेता और यम देव के बीच प्रश्नोत्तरों के रूप में आत्मा की स्थित का कथामयी वर्णन है।
बालक नचिकेता की आध्यात्मिक शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे लौकिक उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य के सम्बन्ध का स्पष्टीकरण करते हैं ।
सम्बन्धित आख्यान में यम देव के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचनसारगर्भित हैं।
अनुवाद:-इस जीवात्मा को तुम रथी, (रथ में सबार ) समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी- (रथ हांकने वाला) और मन को लगाम समझो । (लगाम – इंद्रियों पर नियंत्रण के लिए होता है। अगले श्लोक में उल्लेख है।)
अनुवाद:-मनीषियों, (मननशील पुरुषों), ने इन्द्रियों को इस शरीर रूपी-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इन्द्रिय-विषय ही विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है ।
प्राचीन भारतीय विचारकों का चिन्तन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रवृति का रहा है । ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा।
परन्तु उसकी परिवर्तनशील व नश्वरता ने उनका मोह अवश्य खण्डित किया होगा। तत्पश्चात उनका प्रयास रहा होगा कि वे उसके मिथ्या आकर्षण पर विजय पायें ।
उनकी आध्यात्मिक साधना इसी प्रयास या रूपान्तरण है।
"रथ में सबार यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है। अब यह. प्रेरणा शारीरिक क्रिया तो है नहीं आत्मा रथी के रूप में रथ के चालक को मात्र प्रेरणा ही देता है।
वास्तव में रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है ।
रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है।
और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि को रथ हाँकने वाला सारथि जान लें । और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या कहें लगाम है।
अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है। और बुद्धि मन को नियन्त्रण करता है । और मन इन्द्रियों को-
विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं ।और विषय ही मार्ग में आया हुआ उनका भोजन ( ग्रास) आदि है।
वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है ।
जब उसमे अहं का भाव हो जाय तब यह भोक्ता भाव से युक्त होता है।
स्वत्व आत्मबोध या रूपान्तरण है। परन्तु अहंकार इसके विपरीत आत्मा के अबोध कि रूपान्तरण है।
अहंकार की भूमि पर संकल्प का बीज इच्छाओं की वल्लरी( वेल) बनता है। जिसपर कर्म रूपी फल लगा हुआ है।
बिना इच्छाओं के कर्म उबले हुए बीज की तरह अंकुरित ही नहीं हो सकता है।
संसार रूपी बारी में इच्छाओं सी वही वेल चलती फूलती हैं।
इन सबके मूल में माया रूपी अज्ञानता से जनित प्रतीति है। द्वन्द्व संसार की आत्मा है।
संसार शब्द की व्युत्पत्ति "संसरत्यस्मादिति- संसार । सं + सृ गतौ +घञ् । जो सम्यक् रूप से सरति(गच्छति) गमन करता है।
जो जीवित प्राणी जन्म और मृत्यु के जटिल चक्र में फंसे हुए हैं, वे अनजाने में भी कृष्ण के पवित्र नाम का जाप करके तुरंत मुक्त हो सकते हैं, जिससे भय भी भयभीत होता है।
संसार में फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिये अध्यात्मिक तत्त्वों को प्रकाशित कराने वाला यह एक अद्वितीय दीपक है।
क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं। दु:ख सुख आत्मा का विषय है ही नहीं।
व्यक्ति के मूर्च्छित होने पर दु:ख सुख की प्रतीति( अनुभव) नहीं होता है।
जीव जन्म- मरण के चक्र में वही अनादि काल से घूम रहा है।
दु:ख सुख मन के स्तर पर ही विद्यमान हैं ये परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं । परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है। यही आत्मा की एक अवस्था व सहज अनुभूति है।
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सत् - चित् और आनन्द = सच्चिदानन्द ईश्वरीय अस्तित्व का बोधक है।
और यह मूल आत्मा परमात्मा का ही एक इकाई अथवा अंश रूप है।
आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)-आनन्द ) से युक्त है इसी लिए मनीषियों ने परमात्मा को सच्चिदानन्द कहा है।
अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे अवश्य मिलता है । यही क्रम संसार का अनादि काल से चलता-रहता है।
और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है ।
यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में निरन्तर पीसता रहता है । _________________________________________________
श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है । वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना ही पड़ेगा । क्यों संसार द्वन्द्व रूप है ।
भगवान कृष्ण ने अपनी विभूतियों के सन्दर्भ में कहा भी है-
अनुवाद :-मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।।
अर्थात् ये मेरी विभूतियाँ हैं । ये तो सभी भाषाविद् जानते ही हैं कि "भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ" स्वर सबका आधार है।
"अ" स्वर का ही उदात्त (ऊर्ध्वगामी) रूप "उ" तथा अनुदात्त (अधोगामी) "इ" रूप है।
और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए।
"अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ । इन दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-(एकरूपता) श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान विद्यमान है ।
"ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण के रूप मे गुम्फित है। और "अ" आत्मा के रूप में ।
"अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है।
हिब्रू तथा फोंनेशियन आदि सैमेटिक भाषाओं में "अकार का रूपान्तरण "अलेफ" वर्ण है ।
द्वन्द्वः सामासिकस्य च -मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात् द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है ।
स्त्री-पुरुष द्वन्द्व हैं । शीत- और उष्ण(गर्मी) द्वन्द्व हैं।
संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं।
समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है। द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है?
जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का दौनों में किसी एक का ही होता है।
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है ।
अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा(शरीर) दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता ? -जैसे माया और ईश्वर ।
परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जैसे कलहंस के लिए नीर और क्षीर-
ये विवेक ( सत्य असत्य को अलग करने का ज्ञान) बुद्धि पर ईश्वरीय प्रकाश है। विवेक निर्णीत ज्ञान है।
वेद लौकिक ज्ञान के उद्भासक हैं।
वेद अध्यात्म की उस गहराई का कभी प्रतिपादन नहीं करते है। जिसका विवेचन भगवान कृष्ण स्वयं श्रीमद्भगवद्गीता में करते हैं।
हे अर्जुुन सारे वेद सत्, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं। अर्थात् इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों से परे होकर तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो ! जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर मनुष्य का छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता है ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता !
ब्रह्म वैवर्त पुराण वैष्णव पुराण में श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताता है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ ही है- ब्रह्म का विवर्त ( परिवर्तन- नृत्य) अथवा विलास- क्रीड़ा या खेल है।
उत्तरमीमांसा (वेदान्त दर्शन)का सबसे विशेष दार्शनिक सिद्धान्त यह है कि जड़ जगत का उपादान( सामग्री) और निमित्त कारण चेतन ब्रह्म ही है।
"ठीक उसी प्रकार जैसे मकड़ी अपने भीतर से उत्पन्न लार से ही जाल बुनकर तानती है, वैसे ही ब्रह्म भी इस जगत् को अपनी ही शक्ति द्वारा उत्पन्न करता है। यही नहीं, वही इसका पालक है और वही इसका संहार भी करता है।
जीव और ब्रह्म का तादात्म्य( एकरूपता) है और इसी लिए अनेक प्रकार के साधनों और उपासनाओं द्वारा वह ब्रह्म के साथ तादात्म्य का अनुभव करके जगत् के कर्म-जाल से और बारम्बार के जन्म और मरण से मुक्त हो जाता है। तब मुक्तावस्था में परम आनन्द का अनुभव करता है।
संसार की सृष्टि का मूल स्वत्व है और उसका अहंकार से उत्पन्न रूप संकल्प है। यही संकल्प प्रवाहित होकर इच्छा का रूप धारण करता है।
ये इच्छाओं की आपूर्ति का मूर्त प्रयास ही कर्म है। ये सम्पूर्ण संसार कर्म से निर्मित हुआ है। यदि व्यक्ति कर्म से हीन हो जाए यदि उसकी इच्छाओं का शमन हो जाए तो संसार उसके लिए निस्सार हो जाता है।
"स्वप्न की सृष्टि( उत्पत्ति) भी प्राय: मन की इच्छाओं के दमित( दबे हुए) परिणाम का रूपान्तरण है। इस लिए स्वप्न के विश्लेषण से सृष्टि उत्पत्ति के रहस्य को सुलझाया जा सकता है।
परन्तु स्वप्न विश्लेषण व्यक्तिगत अनुभव है। लौकिक उपमा मकड़ी की हा सुबोध्य है।
ऊर्णनाभः, पुल्लिंग- (ऊर्णेव तन्तुर्नाभौ यस्य-ऊन के समान तन्तु जिसकी नाभि में हैं वह ऊर्णनाभ है।
अनुवाद:- अक्षर ब्रह्म( नाद- ब्रह्म) का विश्व कारणत्व
पूर्व में इस प्रकार कहा जा चुका है। कि अक्षर ब्रह्म भूतों (प्राणियों) की योनि (जन्मस्थान) है। उसका वह भूत योनित्व किस प्रकार है। वह प्रसिद्ध दृष्टान्त द्वारा बतलाया जाता है।
जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती और फिर निगल जाती है। जैसे पृथ्वी में औषधीयाँ उत्पन्न होती हैं। जैसे सजीव पुरुषों से जड़ केश तथा लोम उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार उस अक्षर ब्रह्म से यह विश्व उत्पन्न होता है।
जिस प्रकार संसार में प्रसिद्ध है। कि ऊर्णनाभि (मकड़ी) किसी अन्य उपकरण की अपेक्षा ( इच्छा) न कर स्वयं ही अपने शरीर से अभिन्न तन्तुओं (धागों) को रचती अर्थात उन्हें बाहर फैलाती है। और फिर आवश्यकता समाप्त होने पर उसे ग्रहीत( घरी) भी कर लेती है। यानि अपने शरीर में समाविष्ट कर लेती है । जैसे पृथ्वी में व्रीहि (धान) यव ( जौ)इत्यादि अन्न से लेकर वृक्ष पर्यन्त ( तक ) सम्पूर्ण औषधीयाँ उससे अभिन्न ही उत्पन्न होती हैं। सत् (चेतनसत्ता) युक्त पुरुष से भिन्न विलक्षण केश तथा रोम ( लोम) उत्पन्न होते हैं।
जैसा कि यह दृष्टान्त है उसी प्रकार इस संसार मण्डल में इससे विभिन्न और समान लक्षणों वाला यह विश्व-( समस्त जगत्) किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा न करने वाले उस उपर्युक्त लक्षण विशिष्ट अक्षर से ही उत्पन्न होता है।
ये अनेक दृष्टान्त केवल विषय को सरलता से समझने के लिए ही दिए गये हैं।७।
द्वितीयः खण्डः समाप्तमिदं तृतीयकं मुण्डकम्
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मुण्डकोपनिषद् की कथा का विवरण इस लेख में प्रस्तुत किया गया है । प्रश्नोपनिषद् के समान, मुण्डकोपनिषद् में भी कथा का अंश बहुत कम है, और सम्भवतः यह भी, कथा न होकर, किसी ऐतिहासिक घटना का वर्णन है ।
मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद की शौनकी शाखा से है इसमें परम-ब्रह्म और उसको प्राप्त करने के मार्ग का सुन्दर उपदेश है । भारत सरकार द्वारा गर्वान्वित उपदेश ’सत्यमेव जयते’ भी इसी उपनिषद् से संग्रहीत है ।
इसी प्रकार इसके अन्य श्लोकांश भी सुविख्यात दार्शनिकता से पूर्ण हैं ।
इसके कुछ श्लोक कठोपनिषद् में भी पाए जाते हैं यह उपनिषद् तीन अध्यायों में बटा है, जिन्हें मुण्डक कहा जाता है । प्रत्येक मुण्डक में दो-दो खण्ड है, जिनमें कुल ६४ श्लोक हैं ।
अति-स्पष्ट होने से, परातपर ब्रह्म के ज्ञान हेतु यह उपनिषद् अवश्य ही पढ़ना चाहिए ।
उपनिषद् बताता है कि देवों की जो प्रथम सृष्टि हुई, उनमें भी सबसे ज्ञानी ब्रह्मा हुए, जो सबके कर्ता और लोकों के रक्षक हुए (सम्भवतः, उन्होंने मनुष्य-जाति को आगे बढ़ाने में योगदान दिया और धर्म के प्रवचन से सब प्राणियों की रक्षा के निमित्त हुए – यह इसका अर्थ है ।
यथा - - जैसे । ऊर्णाभिः - - ऊन से । सृजते - - रचना करता है । गृह्णते च - - और संग्रह करता है( समेटता है) । यथा पृथिवीम् --जैसा कि पृथ्वी को ओषधयः - जड़ी-बूटियाँ ।सम्भवन्ति - उत्पन्न होती हैं। यथा सतः पुरूषात् - - जैसे कि एक सत पुरुष से से ।केशलोमानि - सिर और शरीर के बाल हैं - तथा इह - वैसे ही यह अक्षरात् - अक्षर से अपरिवर्तनीय | विश्वम् सम्भवति - - संसार का जन्म होता है |
श्लोक 1.1.7
जैसे मकड़ी अपने लार से उत्पन्न जाल को बनाती और अपने में पुन: निगल लेती है, जैसे औषधीय पौधे पृथ्वी से उगते हैं, जैसे जीवित व्यक्ति से निर्जीव आभासी बाल उगते हैं, वैसे ही यह ब्रह्माणड परात्पर ब्रह्म से विकसित और अन्त में उसमें ही विलय हो जाता है।
वेदान्त के मनीषीयों जैसे रामानुजाचार्य आदि का मत है कि सृष्टि का आधार सत्कार्यवाद का सिद्धान्त है।
इसकी मान्यता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में विद्यमान रहता है। जैसे एक छोटे से पीपल के बीज में सम्पूर्ण विशाल पीपल के वृक्ष की पूर्ण सम्भावनाऐं समाविष्ट (समाई) हुई होती हैं। अनुकूल परिस्थितियों के आने पर समय पर सम्पूर्ण पीपल काम विकास हो जाता है।
यह कारण और कार्य की एकता का अकाट्य सिद्धान्त है। यह सत्कार्यवाद के परिणामवादी रूप को मानता है।
इसका सिद्धान्त ब्रह्म-परिणामवाद कहलाता है जिसके अनुसार यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्म का, उसके विशेषणांश का परिणाम है।
इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि रामानुज तत्त्वत्रय ईश्वर, चित्त( जीव) और अचित्त( प्रकृति) में विश्वास तो करते हैं। परन्तु अन्त में सबको एक ब्रह्म में तिरोहित ( समाविष्ट) कर देते हैं।
इनमें ईश्वर विशेष्य है तथा चित् एवं अचित् उसके विशेषण हैं।
ईश्वर अंशी है और चिदचित् उसके अंश हैं।
अंश कभी अंशी से पृथक ( अलग) नहीं हो सकता है।
ब्रह्म के विशेषणांश (चिदचित्) का ही यथार्थ रूपान्तरण यह चराचर जगत् है ।
अचित् ज्ञानशून्य (जड़) एवं परिणामी द्रव्य है। और चित् (आत्मा) अपरिवर्तित रूप है।
यह अचित्- तीन प्रकार का है।
● शुद्ध सत्य या नित्य-विभूति
● मिश्र सत्त्व या प्रकृति एवं
● सत्त्वशून्य या काल शुद्ध
"सत्त्वं रजस्तमस्रहित एवं उदात्तीभूत प्रकृति है। यह वह उपादान है जिससे आदर्श जगत् (वैकुण्ठ लोक) की वस्तुएं, ईश्वर तथा मुक्त जीवों के शरीर बनते हैं। सत्त्वशून्य जड़द्रव्य 'काल' है।
यह भी परिणामी है।
वाराहमिहिर कृत ‘सूर्य सिद्धान्त’ में तारों, सूर्य, चन्द्रमा और अन्य ग्रहों की गति और गणितीय व्युत्पत्तियों के आधार पर समय के मापन की नौ पद्धतियों का विवेचन किया गया है। तद्नुसार काल की नौ इकाईयाँ हैं।
१-ब्राह्म’, २‘दिव्य’, ३‘त्रिज्या ४-प्राजापत्य’, ५‘गौरव’, ६‘सौर’, ७‘सावन’, ‘८ चान्द्र’ और -‘आर्क्ष’। प्रथम छ: इकाइयों ‘ब्राह्म से सौर पर्यन्त’ का प्रयोग ब्रह्माण्ड के आविर्भाव से व्यतीत होने वाले समय को परिभाषित करने में किया गया है।
चान्द्रमान का उपयोग दैनिन्दिनदर्शिका (पंचांग) के निर्माण में होता है, जिससे विभिन्न संस्कारों तथा त्योहारों का निर्धारण किया जाता है।
सावन दिन (Solar day) और नाक्षत्र दिन (Sidereal day) का उपयोग ग्रहों की गति की गणना में किया जाता है।
सावन दिन:-पूरे एक दिन और एक रात का समय होता।
एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक के समय को सावन दिन कहा जाता है अर्थात् 60 दंड का समय ।
विशेष— इस प्रकार के ३० दिनों का एक सावन मास होता है और ऐसे बारह सावन मासों अर्थात् ३६० दिनों का एक सावन वर्ष होता है, मलमासतत्व के अनुसार — 'सौर संवत्सरे दिवस षट्काधिक ? सावनो भवति'।
अर्थात् सौर और सावन वर्ष में लगभग ६ दिनों का अंतर होता है।
भारतीय ज्योतिष में ग्रह, के अर्थ में, जो भी पिण्ड अंतरिक्ष में नक्षत्रों के सापेक्ष हमें गति करते दिखते हैं वे ग्रह कहलाते हैं। ग्रह का शाब्दिक अर्थ प्लैनेट के रूप में व्यवहार ज्योतिष की दृष्टि से असंगत है। काल (समय) की इकाई होरा (जो घण्टा के समतुल्य है) साप्ताहिक दिनों के नामों की व्यवस्था प्रदान करता है।
काल के विपरीत दिशा- आकाश से अभिन्न है और प्रकृतिजन्य है।
मिश्रसत्त्व में सत्त्व, रजस् एवं तमस्, तीनों गुण रहते हैं। इसे प्रकृति या माया कहते हैं।
रामानुज प्रकृति को ही सृष्टि का मूलभूत कारण कहते हैं।
उल्लेखनीय है कि रामानुज की प्रकृति सांख्य दर्शन की प्रकृति से पूरी तरह भिन्न भी नहीं है।
जैसे, सत्व, रजस् एवं तमस् सांख्य की प्रकृति के निर्माणक घटक हैं एवं द्रव्य रूप हैं, जबकि ये रामानुज की प्रकृति के गुण या विशेषण हैं जिससे संसार निर्माण होता है।।
ये उससे अवियोजनीय होते हुए भी मित्र हैं। पुनः, सांख्य की प्रकृति स्वतन्त्र है जब द्वन्द्व के सापेक्ष हो तब, जबकि रामानुज की प्रकृति ब्रह्म पर आश्रित है।
ईश्वर के अंशभूत तत्त्व, जीव और प्रकृति, जगत् के उपादान कारण हैं। ईश्वर के संकल्प से सृष्टि का प्रारम्भ होता है। अतः ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण भी है।
जब ईश्वर अपने संकल्प से जीवों को उनके अतीत कर्मों का फल दिलाने के लिए चित् और प्रकृति का प्रवर्तन करता है तब सृष्टि उत्पन्न होती है। इसी को रामानुज ब्रह्म की लीला कहते हैं।
यह सृष्टि ब्रह्म का ही यथार्थ रूपांतरण( वैवर्त) है। ईश्वर प्रलयकाल में कारण रूप में रहता है। यह ब्रह्माण्ड अव्यक्त रूप में उसमें निहित होता है। सृष्टि की स्थिति में अव्यक्त रूप ब्रह्माण्ड व्यक्त होता है।
इस अवधि में सूक्ष्म भूत स्थूल हो जाते हैं और जीव का धर्मभूत ज्ञान विस्तृत होकर अतीत कर्मों के अनुसार उसे भौतिक शरीरों से संयुक्त कर देता है।
अर्थात् सृष्टि किसी बाह्य साधन की सहायता के बिना ही उससे स्वतः विकसित होती है। रामानुज के अनुसार यह परिणाम केवल ईश्वर के विशेषणांश में होता है, ईश्वर स्वतः इससे अप्रभावित रहता है। इस प्रकार ब्रह्म इस परिवर्तनशील जगत् का अपरिवर्तनशील केन्द्र है। जैसे किसी चक्र की परिधि और धुरी या सम्बन्ध होता है।
रामानुज की दृष्टि में शंकराचार्य का विचार श्रुति विरोधी है। उन्होंने इस बात का प्रतिपादन किया कि सृष्टि वास्तविक है। यह जगत् उतना ही सत्य है जितना ब्रह्म ।
अर्थ- जिस यज्ञ में अर्पण भी ब्रह्म है, हवि भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है, जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है।
छान्दोग्योपनिषद (तृतीय प्रपाठक चतुर्दश खण्ड हिंदी भावार्थ सहित) (चतुर्दशः खण्डः)
सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत। अथ खलु क्रतुमयः पुरुषोयथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवतितथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत ॥ ३. १४. १ ॥ यह ब्रह्म ही सब कुछ है । यह समस्त संसार उत्पत्तिकाल में इसी परम्- ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है और अनंतकाल में इसी में लीन हो जायेगा । ऐसा ही जान कर उपासक को शान्तचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म की सदा उपासना करे। जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मान्तर में वैसा ही हो जाता है।
रामानुज नानात्व का निषेध करने वाले 'नेह नानास्ति किञ्चन्' तथा उनकी एकता को स्वीकार करने वाले 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म', इत्यादि श्रुतिवाक्यों की व्याख्या करते हुए कहते हैं।
कि ये वाक्य विषयों की सत्ता को अस्वीकार नहीं करते हैं। वे केवल यह बताते हैं कि उनमें एक ही ब्रह्म निहित है। जिस प्रकार स्वर्ण के सभी आभूषण स्वर्ण ही हैं उसी प्रकार इन विषयों का आन्तरिक सत्य ब्रह्म ही है।
सृष्टि का विकास क्रम -
रामानुज भी सांख्य दर्शन की तरह प्रकृति से सृष्टि का विकास क्रम दिखाते हैं।
रामानुज भी सृष्टि का विकास क्रम लगभग सांख्य-जैसा ही मानते हैं। दोनों में प्रमुख अन्तर यह है कि रामानुज उपनिषदों में प्रतिपादित 'पञ्चीकरण की प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं, जबकि सांख्य दर्शन भी इसे मान्यता तो देता है परन्तु इसका निरूपण नहीं करता है।
इस प्रक्रिया के अनुसार 'भूतादि अहंकार' से सर्वप्रथम पाँच सूक्ष्म भूतों का इस क्रम से आविर्भाव होता है —
◾ आकाश का गुण- ( ध्वनि)
◾ वायु का गुण -(स्पर्श)
◾ अग्नि का गुण- ( तेज)
◾ जल का गुण- (रस )
◾ पृथ्वी का गुण-( गन्ध)
इन पाँचों सूक्ष्म भूतों का पुनः पाँच प्रकार से संयोग होता है जिससे पाँच स्थूल महाभूतों का आविर्भाव होता है। पञ्चीकरण सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक स्थूल महाभूत में आधा भाग (1/2) इस महाभूत का अपना होता है और शेष आधे भाग में अन्य महाभूतों के बराबर भाग (1/8) होते हैं।
अभिप्राय यह है कि पंचीकरण-सिद्धान्त से पाँच स्थूल महाभूतों का आविर्भाव निम्नलिखित क्रम और अनुपात से होता है—
"पृथ्वी जल महाभूत= 1/2 जल +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 अग्नि + 1/8 पृथ्वी ।
"पृथ्वी महाभूत= 1/2 पृथ्वी +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 जल +1/8 अग्नि
रामानुज के अनुसार सभी सांसारिक पदार्थ जिसमें जीव का शरीर भी शामिल है, इन्हीं पंचमहाभूतों से उत्पन्न होते हैं।
इसीलिए सभी सांसारिक वस्तुओं में पाँचों महाभूतों के तत्त्व पाये जाते हैं। पुनः, रामानुज ब्रह्म एवं जगत् के सम्बन्ध को आत्मा एवं शरीर के सम्बन्ध के समान मानते हैं।
"समालोचना-
हम ब्रह्म के स्वरूप विवेचन में देख चुके हैं कि रामानुज का 'परम यथार्थता' "का सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से भले ही सन्तोषजनक न हो परन्तु दार्शनिक रूप से सार्थक है।
और उनका लीलावाद का सिद्धान्त एक प्रकार का रहस्यवाद है जिसे बौद्धिक धरातल पर ग्राह्य नहीं माना जा सकता क्यों कि यह रहस्य मानवीय भौतिक बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है।
ईश्वर सृष्टि रचना का संकल्प क्यों करता है? क्या इसमें उसका कोई प्रयोजन निहित है ?
अवश्य प्रयोजन निहित है लीला विलास उसका उद्देश्य है। सत- चित और आनन्द उस आत्मा की मौलिक सत्ताऐं हैं।
पुनः जगत् को ईश्वर के विशेषणांश या अंश (चिदचित्) का परिणाम बताया जाता है। क्या विशेषणांश के परिवर्तन से विशेष्य अप्रभावित रह सकता है ? क्या अंशों में परिणाम होने पर भी अंशी अपरिणामी बना रह सकता है ? क्या जगत् के दोष ब्रह्म को व्याप्त नहीं करते हैं?
रामानुज इन प्रश्नों का समाधान 'आत्मा-शरीर' एवं 'राजा-प्रजा' की उपमाओं के आधार पर करने का प्रयास करते हैं।
किन्तु वे इस प्रयास में तर्कतः सफल नहीं होते। वास्तव में, यदि ब्रह्म अंशी है और जगत् अंश है तो जगत् के दोषों से ब्रह्म अक्षुण्ण नहीं रह सकता। इसी लिए उसका दोष पूर्ण रूपान्तरण ही जीवात्मा है।
विशेषणांश के परिणामी होने पर विशेष्यांश के अपरिणामी बने रहने की बात स्थूल रूप से समझ में नहीं आती। परन्तु द्वन्द्व वाद के विवेचन करने पर यह बात समझ में आ जाती है। जैसे आधेय और आधार केन्द्र और परिधि आदि रूप इसी प्रकार समन्वित हैं।
यह संसार मन में स्वप्न के समान अथवा समुद्र में लहर के समान परिणामी है।
वह एक कृष्ण ही अनेक रूपों में उद्भासित होते हैं। अर्थात् ब्रह्म का रूपान्तर ही उसका वैवर्त है।
ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है।
विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है।
'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है।
कृष्ण से ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश और प्रकृति का जन्म बताया गया है। उनके दाएं पार्श्व से त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम) उत्पन्न होते हैं। फिर उनसे महत्तत्त्व, अहंकार और पंच तन्मात्र उत्पन्न हुए। फिर नारायण का जन्म हुआ जो श्याम वर्ण, पीताम्बरधारी और वनमाला धारण किए चार भुजाओं वाले थे। पंचमुखी शिव का जन्म कृष्ण के वाम पार्श्व( बगल) से हुआ। नाभि से ब्रह्मा, वक्षस्थल से धर्म, वाम पार्श्व से पुन: लक्ष्मी, मुख से सरस्वती और विभिन्न अंगों से दुर्गा, सावित्री, कामदेव, रति, अग्नि, वरुण, वायु आदि देवी-देवताओं का आविर्भाव हुआ। ये सभी भगवान के 'गोलोक' में स्थित हो गए
जिस प्रकार ब्रह्माण्ड, शरीर और परमाणु परस्पर समष्टि (समूह) और व्यष्टि (इकाई) के रूप में सम्बन्धित हैं। उसी प्रकार सृष्टि का भी क्रम है
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यह परमाणु भी त्रिगुणात्मक है --सत् धनात्मक तथा तमस् ऋणात्मक तथा रजो गुण न्यूट्रॉन के रूप में मध्यस्थ होने से न्यूट्रल (Neutral ) है जो उदासीन है। परमाणु को जब और शूक्ष्मत्तम रूप में देखा तो अल्फा, बीटा और गामा कण भी त्रिगुणात्मक ही सिद्ध होते है।
परन्तु ये सभी पूर्ण नहीं हैं; केवल उसके अवयव रूप हैं परमाणु का मध्य भाग जिसे नाभिक (Nucleus)भी कहते हैं ,उसी में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन उसी प्रकार समायोजित हैं , जैसे सत्य का समायोजन ब्रह्म से हो। अथवा सतोगुण का समायोजन परम्-ब्रह्म में हो।
क्योंकि परम्- ब्रह्म की प्राप्ति के लिए सतोगुण को तो धारण करना पड़ेगा और अन्त में उसका परित्याग करना ही पड़ता है।
क्वार्क बोसॉन एक प्राथमिक कण है तथा यह पदार्थ का मूल घटक है। क्वार्क एकजुट होकर सम्मिश्रण कण हेड्रान बनाते है। परमाणु के मुख्य अवयव प्रोटॉन व न्यूट्रॉन इनमें से सर्वाधिक स्थिर होते है और बोसॉन जो कि गौड पार्टीकल्स के नाम से मशहूर है , जिससे बिग बैंग का पता चला था , उसी को बोसॉन कहते है ,
विदित हो कि परमाणु के केन्द्र में प्रतिष्ठित प्रोटॉन (Protons) पूर्णतः घन आवेशित कण है और इसी केन्द्र के चारो ओर भिक्षुक के सदृश्य(समान) प्रोटॉन के विपरीत ऋण-आवेशित कण इलैक्ट्रॉन गतिशील हैं।
जो कक्षाओं में निरन्तर चक्कर काटते रहते हैं इलैक्ट्रान पर भी प्रोटॉन के धन आवेश के बराबर ही ऋण आवेश की संख्या होती है।
अर्थात् परमाणु में इलैक्ट्रॉन की संख्या भी प्रोटॉन की संख्या के बराबर होती है।
इलेक्ट्रॉन ही वस्तु के विद्युतीयकरण के लिए उत्तर दायी होते हैं।
परमाणु के द्रव्यमान का 99.94% से अधिक भाग नाभिक में होता है ।
प्रॉटॉन पर सकारात्मक विद्युत आवेश होता है । तथा इलेक्ट्रॉन पर नकारात्मक विद्युत आवेश होता है । और न्यूट्रॉन पर कोई विद्युत आवेश नहीं होता ।
तथा परमाणु का इलेक्ट्रॉन इस विद्युतीय बल द्वारा एक परमाणु के नाभिक में प्रॉटॉन की ओर आकर्षित होता है तथा परमाणु में प्रॉटॉन और न्यूट्रॉन एक अलग बल अर्थात् परमाणु बल के द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करते हैं ।
विद्युत के साथ चुम्बकत्व जुड़ी हुई घटना है।विद्युत आवेश वैद्युतचुम्बकीय क्षेत्र पैदा करते हैं। विद्युत क्षेत्र में रखे विद्युत आवेशों पर बल लगता है।
समस्त विद्युत का आधार इलेक्ट्रॉन हैं। क्योंकि इलेक्ट्रॉन हल्के होने के कारण ही आसानी से स्थानांतरित हो पाते हैं। इलेक्ट्रानों के हस्तानान्तरण के कारण ही कोई वस्तु आवेशित होती है। आवेश की गति की दर विद्युत धारा है।
आधुनिक शब्द 'इलेक्ट्रॉन' का उपयेग यूनानी भाषा में अंबर के लिए किया जाता है। 'इलेक्ट्रिसिटी' शब्द का उपयोग सन् 1650 में वाल्टर शार्ल्टन (Walter Charlton) ने किया। इसी समय राबर्ट बायल -1627-1691 ई.) ने पता लगाया कि आवेशित वस्तुएँ हल्की वस्तुओं को शून्य में भी आकर्षित करती हैं, अर्थांत् विद्युत के प्रभाव के लिए हवा का माध्यम होना आवश्यक नहीं है।
वस्तुओं की रगड़ के कारण विद्युत दो प्रकार की होती है, घनात्मक एवं ऋणात्मक। पहले इनके क्रमश: काचाभ (vitreous) तथा रेजिनी (resionous) नाम प्रचलित थे।
सन्-1737में डूफे (Du Fay,1699-1739 ने बताया कि सजातीय आवेश एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं तथा विजातीय आकर्षित करते हैं।
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ऐसा ही आकर्षण स्त्री और पुरुष का पारस्परिक रूप से है । परमाणु किसी पदार्थ की सबसे पूर्ण सूक्षत्तम इकाई है।
वस्तुएँ न्यूनतम ऊर्जा विन्यास तक पहुँचने की प्रवृत्ति रखती हैं।
एक अन्य चुंबक उदाहरण, यदि आप दो बार चुंबकों को एक साथ रखते हैं, तो एक चुंबक का उत्तरी ध्रुव दूसरे के दक्षिणी ध्रुव के साथ संरेखित हो जाएगा। यह एक चुंबक के क्षेत्रों को दूसरे की ओर विपरीत दिशा में निर्देशित कर देगा, जिससे अधिकांश क्षेत्र रद्द हो जाएंगे, और इस प्रकार न्यूनतम ऊर्जा उत्पन्न होगी।
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समान ध्रुवों के बीच हमेशा प्रतिकर्षण बल होता है और विपरीत ध्रुवों के बीच में आकर्षण बल होता है।
इसका कारण दौनों ध्रुवों का परस्पर अपूर्णत्व ही है। इस लिए दौंनों मिलकर स्वयं को पूर्ण करना चाहते हैं।
स्त्री पुरुष की भी यही मिलन प्रवृत्ति है।
_पुरुष स्त्री की कोमलता का आकाँक्षी है तो स्त्री उसके पौरुष( परुषता) - या कठोरता की सहज आकाँक्षी है। ______________________________________________
सत्य ज्ञान का गुण है और चेतना भी ज्ञान एक गुण है सत्य और ज्ञान दौनों मिलकर ही आनन्द का स्वरूप धारण करते हैं। जैसे सत्य पुष्प के रूप में हो तो ज्ञान इसकी सुगन्ध और चेतना इसका पराग और आनन्द स्वयं उसका मकरन्द (पुष्प -रस )है ; आत्मा सत्य है ।
क्योंकि इसकी सत्ता शाश्वत है । एक दीपक से अनेक दीपक जैसे जलते हैं ; ठीक उसी प्रकार उस अनन्त सच्चिदानन्द ब्रह्म से अनेक आत्माऐं उद्भासित हैं ।
अन्धकार तमोगुणात्मक है ,तथा प्रकाश सतो गुणात्मक है यही दौनो गुण द्वन्द्व के प्रतिक्रिया रूप में रजो गुण के कारक हैं!
यही द्वन्द्व (दो) की सृष्टि में पुरुष और स्त्री के रूप में विद्यमान है। स्त्री स्वभाव से ही कोमल और भावना प्रधान प्रकृति कि है और पुरुष कठोर तथा विचार प्रधान प्रकृति का है।
वस्तुत: कहना चाहिए कि स्त्री प्रवृत्ति गत रूप से भावनात्मक रूप से प्रबल होती हैं ; और पुरुष विचारात्मक रूप से प्रबल होता है।
इसके परोक्ष में सृष्टा का एक सिद्धान्त निहित है वह भी विज्ञान - संगत क्योंकि व्यक्ति इन्हीं दौनों विचार भावनाओं से पुष्ट होकर ही ज्ञान से संयोजित होता है ।
अन्यथा नहीं , वास्तव में इलैक्ट्रॉन के समान सृष्टि सञ्चालन में स्त्री की ही प्रधानता है।
और संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द का व्यापक अर्थ है :--जो सर्वत्र चराचर में व्याप्त है ।
-आत्मा शब्द द्वन्द्व से रहित ब्रह्म का वाचक भी है और ब्रह्मन्- नपुसंक लिंग शब्द है। और द्वन्द्व से संयोजित जीव का वाचक भी है।
जैसे समुद्र में लहरें उद्वेलित हैं वैसे ही आत्मा में जीव उद्वेलित है ,वास्तव में लहरें समुद्र जल से पृथक् नहीं हैं ,लहरों का कारक तो मात्र एक आवेश या वेग है यह वेग जीवात्मा में मन अथवा चित्त या है ।
ब्रह्म रूपी दीपक से जीवात्मा रूपी अनेक दीपकों में जैसे एक दीपक की अग्नि का रूप अनेक रूपों ही प्रकट हो जाता है ।
इच्छा संकल्प काम ही आवेशात्मक रूपान्तरण है। और आवेश द्वन्द्व के परस्पर घर्षण का परिणाम है जीव अपने में अपूर्णत्व का अनुभव करता है । परन्तु यह अपूर्णत्व किसका अनुभव करता है उसे ज्ञात नहीं :-
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"ज्ञान दूर है और क्रिया भिन्न !
श्वाँसें क्षण क्षण होती विच्छिन्न ।
पर खोज अभी तक जारी है ।
अपने स्वरूप से मिलने की ।
हम सबकी अपनी तैयारी है ।
आशा के पढ़ाबों से दूर निकर
संसार में किसी पर मोह न कर।
ये हार का हार स्वीकार न कर ।।
मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है ।
शोक मोह में तू क्यों खिन्न है ।
कुछ पल के रिश्ते सब छिन्न है ।
'ये मतलब की दुनियाँ सारी है ।
मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है ।
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शक्ति , ज्ञान और आनन्द के अभाव में व्यक्ति अनुभव करता है कि उसका कुछ तो खो गया है । जिसे वह जन्म जन्म से प्राप्त करने में संलग्न है । परन्तु परछाँईयों में वह उसे खोजता है।
सबका समाधान और निदान आत्मा का ज्ञान अथवा उसका साक्षात्कार ही है ।
और यह केवल मन के शुद्धिकरण से ही सम्भव है।
स्व: में आत्म सत्ता का बोध सम्पूर्णत्व के साथ है ; यह सिन्धुत्व का भाव (समु्द्र होने का भाव )है । व्यक्ति के अन्त: करण में स्व: का भाव तो उसका स्वयं के अस्तित्व का बोधक है ।
परन्तु अहं का भाव केवल मैं ही हूँ ; इस भाव का बोधक है। इसमें अति का भाव ,अज्ञानता है । _________________________________________
अल्पज्ञानी अहं भाव से प्रेरित होकर कार्य करते हैं ; तो ज्ञानी सर्वस्व: के भाव से प्रेरित होकर ,
सम्पूर्ण सृष्टि में जीव की भिन्नता का कारण प्राणी का चित् अथवा मन ही है ।
हमारा चित्त ही हमारी दृष्टि- ज्ञान और वाणी का संवाहक है, हमारी चेतना जितनी प्रखर होगी ,हमारा ज्ञान वाणी और दृष्टि उतनी ही उन्नत होगी।
स्त्री और पुरुष का जो भेद है, वह केवल मन के स्तर पर ही है ।
आत्मा के स्तर पर कदापि नहीं है जन्म-जन्मातरण तक यह मन ही हमारे जीवन का दिशा -निर्देशन करता है ।
सुषुप्ति ,जाग्रति और स्वप्न ये मन की ही त्रिगुणात्मक अवस्थाऐं हैं ।
परन्तु चतुरीय (तुरीय) अवस्था आत्मा की अवस्था है।
"प्राणी जीवन का संचालन मन में समायोजित प्रवृत्तियों के द्वारा होता है
जैसे कम्प्यूटर का संचालन सी.पी.यू.-(केन्द्रिय प्रक्रिया इकाई) के द्वारा होता है ।
जिसमें सॉफ्टवेयर इन्सटॉल्ड (installed)होते हैं उसी प्रकार प्रवृत्तियों के (System Software) तथा (Application Software )हमारे मन /चित्त के (सी. पी.यू.) में समायोजित हैं।
जिन्हें हम क्रमश: प्रवृत्ति और स्वभाव कहते हैं । वास्तव में प्रवृत्तियाँ प्राणी की जाति(ज्ञाति)से सम्बद्ध होती हैं ।
और स्वभाव पूर्व-जन्म के कर्म-गत संस्कारों से सम्बन्धित होता है।
जैसे सभी स्त्री और पुरुषों की प्रवृत्तियाँ तो समान होती परन्तु स्वभाव भिन्न भिन्न होते हैं।जिन्हें हम क्रमश: सिष्टम सॉफ्टवेयर और एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर कह सकते है।
आत्मा का वाचक प्रेत शब्द भारतीय भाषाओं में अपने मूल व प्रारम्भिक अर्थें में प्रेरक- शक्ति का वाचक रहा होगा ।
जो अंग्रजी में स्प्रिट (Spirit) है ।
पुरानी फ्रेंच भाषा में लैटिन प्रभाव से "(espirit)" शब्द है जिसका अर्थ होता है --श्वाँस लेना (Breathing) अथवा (inspiration)----जिसका सम्बन्ध लैटिन क्रिया -(Spirare---to breathe) से है।
भाषा वैज्ञानिक इस शब्द का सम्बन्ध भारोपीय धातु स्पस् (speis)" से निर्धारित करते हैं ।
यद्यपि ईश्वर आदि और अन्त की सीमाओं से सर्वथा परे है। समुद्र बूँद तो नहीं हो सकता परन्तु अपनी इकाई रूप में बूँद अवश्य हो सकती है।
वह अन्तर्यामी ईश्वर व्यापक होते हुए भी अपने एक इकाई रूप से पृथ्वी पर भी अवतरित होता है।
भगवान कृष्ण गोलोक से सीधे भूलोक पर गोपों में ही अवतरित होते हैं।
क्यों वे धर्म की रक्षा के लिए अवतरण करते हैं।
"व्रजोपभोग्या च यथा नागे च दमिते मया ।
सर्वत्र सुखसंचारा सर्वतीर्थसुखाश्रया ।५७।
एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च । अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम् ।।
एवं कृते बाहुवीर्ये लोके ख्यातिं गमिष्यति। 2.11.६०।
अनुवाद:-मुझे इस नागराज का दमन करना है, जिससे जल देने वाली यह नदी कल्याणकारी जल का आश्रय हो सके। इस नाग का मेरे द्वारा दमन हो जाने पर यहाँ की नदी समूचे व्रज के उपभोग में आने योग्य हो जायेगी। यहाँ सब ओर सुखपूर्वक विचरण करना सम्भव हो जायगा तथा यह नदी समस्त तीर्थों और सुखों का आश्रय हो जायगी।
इसीलिये व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिये मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।कुमार्ग पर स्थित हुए इन दुरात्माओं का दमन करने के लिये ही यहाँ मेरा अवतार हुआ है। मैं बालकों के खेल-खेल में ही इस कदम्ब पर चढ़कर उस घोर ह्नद में कूद पड़ूँगा और कालिय नाग का दमन करूँगा।
ऐसा करने पर संसार में मेरे बाहुबल की ख्याति होगी।
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में बाललीला के प्रसंग में यमुना वर्णन नामक ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ ।
फिर आप लोग पुस्तक के अन्तिम व तीसरे खण्ड में यह भी जान पाएंगे कि ब्रह्मा जी की सृष्टि- रचना चार वर्णों के अतिरिक्त भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक पाँचवा वर्ण अर्थात वैष्णव वर्ण भी विद्यमान है।
जो ब्रह्मा जी के चार वर्णो से अलग है और जिसकी उत्पत्ति सर्वोच्च सत्ता- श्रीकृष्ण अर्थात जिसे (स्वराट- विष्णु ) भी कह सकते हैं से हुई है।
जिनके सदस्यगण व लीला सहचर एक मात्र गोप (अहीर ) ही हैं। जिन अहीरों को ही वास्तविक वैष्णव कहा जाता है । ये स्वराट्- विष्णु से उत्पन्न होने से ही वैष्णव हैं। स्वराट् विष्णु कृष्ण ही अपर नाम है।
श्री भगवान द्वारा सृष्टि के कार्य में नियुक्त ब्रह्माजी कमलकोष में प्रवेश किया और उसके ही भू:, भव:, और सव: तीन भाग किए । जीवों के भोगस्थान के रूप में इन्ही तीन लोकों का शास्त्रों में वर्णन हुआ है। जो निष्काम कर्म करने वाले हैं, उन्हें मह:, तप: जन: और सत्यलोकस्वरूप ब्रहमलोक की प्राप्ति होती है।
विषयों का निरंतर बदलना ही काल का आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष अनादि और अनन्त है। उसी को निमित्त बना कर भगवान खेल खेल में ही अपने आपको सृष्टि के रूप में प्रकट कर देते हैं। पहले यह सारा विश्व भगवान की माया से लीं होकर ब्रह्मरूप से स्थित था। उसी को अव्यक्त मूर्ति काल के द्वारा भगवान ने प्रथक रूप से प्रकट किया है।
यह जगत जैसा अब है पहले भी वैसा ही था और भविष्य में भी ऐसा ही होगा। प्रलयकाल आने पर सृष्टि के सम्पूर्ण विनाश के बाद, भगवान सृष्टि की पुनः रचना करते है। आदि काल से यह चक्र निर्विवाद रूप से विद्यमान है।
जगत की सृष्टि नौ प्रकार की होती है तथा प्राकृत वैकृत भेद से एक दसवीं सृष्टि और भी है । सृष्टि का प्रलयकाल, द्रव्य तथा गुणों के द्वारा तीन प्रकार होता है। दस प्रकार की सृष्टि का भेद निम्न प्रकार के बताया गया है:
छह प्राकृत सृष्टि-
१. पहली सृष्टि महत्व की है। भगवान की कृपा से सत्वआदि गुणो में विषमता होना ही इसका स्वरूप है।
२. दूसरी सृष्टि अहंकार की है। जिससे पृथ्वी आदि पंचभूत ज्ञानेंद्रिय और कर्मइंद्रियों की उत्पत्ति होती है।
३. तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है जिससे पंचमहाभूतों को उत्पन्न करने वाला तन्मात्र वर्ग रहता है।
४. चौथी सृष्टि इंद्रियों की है। यह ज्ञान और क्रिया शक्ति से उत्पन्न होती है।
५. पाँचवी सृष्टि सात्विक अहंकार से उत्पन्न हुए देवताओं इंद्रियाधिष्ठाताओ देवताओं की है, मन भी इसी सृष्टि के अंतर्गत है।
६. छठी सृष्टि अविद्या की है। इसमें तमिस्र, अंधतमिस्र, तम, मोह और महामहिम- यह पाँच गाँठें हैं। यह जीवों की आत्मा का आवरण और विक्षेप करने वाली हैं।
वैकृत सृष्टि-
७. सातवी प्रधान वैकृत सृष्टि छह प्रकार के स्थावर वृक्षों की होती है। इनका संचार नीचे (जड़) से ऊपर की और होता है। इनके ज्ञान शक्ति नहीं होती, यह अंदर ही अंदर केवल स्पर्श का अनुभव करते है, इनमे से प्रत्येक के गुण अलग होते हैं।
– वनस्पति – जो बिना बौर आए ही फलते हैं जैसे गूलर, बड़, पीपल। – औषधि – जो फलों के पक जाने पर नष्ट हो जाते हैं जैसे धान, गेहूँ, चना । – लता – जो किसी का आश्रय ले कर बढ़ते हैं जैसे ब्राह्मी। – तवकसार – जिनकी छाल बहुत कठोर होती है जैसे बाँस । – वीरुध- जिनकी लता पृथ्वी पर ही फैलती है जैसे तरबूज़। – द्रुम- जिनमे फूल आ कर फिर फूलों के स्थान पर ही फल लगते हैं जैसे जामुन।
८. आठवीं सृष्टि तिर्यग्योनियों (पशु पक्षियों) की है। इन्हें काल का ज्ञान नहीं होता और तमोगुण की अधिकता के कारण यह केवल खाना- पीना मैथुन तथा सोना ही जानते हैं। इन्हें सूँघने मात्र से से वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। इनके मस्तिष्क में विचारशक्ति नहीं होती।
– द्विशफ – दो खुरों वाले पशु जैसे गाय, बकरा, भैंसा, मृग, शूकर, भेद और ऊँट। – एकशफ – एक खुर वाले पशु जैसे गधा, घोड़ा, खच्चर। – पञ्च नख – पाँच नखों वाले पशु जैसे कुत्ता, भेड़िया, बाघ, बिल्ली, सिंह, हाथी इत्यादि – उड़ने वाले जीव – जैसे बगुला, गिध, हंस, मोर, कौवा, सरस उल्लू, इत्यादि
९. मनुष्य – नवी सृष्टि मनुष्यों की है। यह एक ही प्रकार के हैं। परस्पर इनमे कोई भेद नहीं है । इनका आहार ऊपर से नीचे की और होता है। मनुष्य रजोगुण प्रधान, कर्म परायण और दुःख: रूप विषयों में ही सुख मनने वाले होते हैं।
उपरोक्त के अतिरिक्त देव सृष्टि आठ प्रकार की –
देवता-पितर,असुर,
गंधर्व -अप्सरा,
यक्ष – राक्षस,
सिद्ध- चारण-विद्याधर,
भूत- प्रेत-पिशाच और
किन्नर-किम्पपुरुष-अश्वमुख है ।
इस प्रकार सृष्टि करने वाले सत्य संकल्प के रूप श्री हरि ही ब्रह्मा जी के रूप में प्रत्येक कल्प के आदि में रजोगुण से व्याप्त होकर स्वयं ही जगत के रूप में अपनी ही रचना करते हैं।
सौति कहते हैं– शौनक जी! तब भगवान की आज्ञा के अनुसार तपस्या करके सृष्टि क्रम में अभीष्ट सिद्धि पाकर ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम मधु और कैटभ के मेद(चर्बी ) से मेदिनी की सृष्टि की।
उन्होंने आठ प्रधान पर्वतों की रचना की।
वे सब बड़े मनोहर थे।
उनके बनाये हुए छोटे-छोटे पर्वत तो असंख्य हैं, उनके नाम क्या बताऊँ ? मुख्य-मुख्य पर्वतों की नामावली सुनिये– सुमेरु, कैलास, मलय, हिमालय, उदयाचल, अस्ताचल, सुवेल और गन्धमादन – ये आठ प्रधान पर्वत हैं। फिर ब्रह्मा जी ने सात समुद्रों, अनेकानेक नदों और कितनी ही नदियों की सृष्टि की।
वृक्षों, गाँवों और नगरों का निर्माण किया। समुद्रों के नाम सुनिये– लवण, इक्षुरस, सुरा, घृत, दही, दूध और सुस्वादु जल के वे समुद्र हैं।
उनमें से पहले की लंबाई-चौड़ाई एक लाख योजन की है। बाद वाले उत्तरोत्तर दुगुने होते गये हैं। इन समुद्रों से घिरे हुए सात द्वीप हैं।
उनके भूमण्डल कमल पत्र की आकृति वाले हैं। उनमें उपद्वीप और मर्यादा पर्वत भी सात-सात ही हैं।
ब्रह्मन! अब आप उन द्वीपों के नाम सुनिये, जिनकी पहले ब्रह्मा जी ने रचना की थी।
वे हैं–जम्बूद्वीप, शाकद्वीप, कुशद्वीप, प्लक्षद्वीप, क्रौंचद्वीप, न्यग्रोध (अथवा शाल्मलि) द्वीप तथा पुष्करद्वीप।
भगवान ब्रह्मा ने मेरु पर्वत के आठ शिखरों पर आठ लोकपालों के विहार के लिये आठ मनोहर पुरियों का निर्माण किया। उस पर्वत के मूलभाग–पाताल लोक में उन्होंने भगवान अनन्त (शेषनाग) की नगरी बनायी।
तदनन्तर लोकनाथ ब्रह्मा ने उस पर्वत के ऊपर-ऊपर सात स्वर्गों की सृष्टि की।
शौनक जी ! उन सबके नाम सुनिये– भूर्लोक, भुवर्लोक, परम मनोहर- स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक।
मेरु के सबसे ऊपरी शिखर पर जरा-मृत्यु आदि से रहित ब्रह्मा का लोक ब्रह्मलोक है।
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उससे भी ऊपर ध्रुवलोक है,( उत्तरीध्रुव) जो सब ओर से अत्यन्त मनोहर है। जगदीश्वर ब्रह्मा जी ने उस पर्वत के निम्न भाग में सात पातालों का निर्माण किया।
मुने ! वे स्वर्ग की अपेक्षा भी अधिक भोग-साधनों से सम्पन्न हैं और क्रमशः एक से दूसरे उत्तरोत्तर नीचे भाग में स्थित हैं।
उनके नाम इस प्रकार हैं– अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल तथा रसातल। सबसे नीचे रसातल ही है।
सात द्वीप, सात स्वर्ग तथा सात पाताल– इन लोकों सहित जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है, वह ब्रह्मा जी के ही अधिकार में है।
शौनक! ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और महाविष्णु के रोमांच-विवरों ( रोमकूपों)में उनकी स्थिति है।
श्रीकृष्ण की माया से प्रत्येक ब्रह्माण्ड में दिक्पाल, ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर हैं, देवता, मनुष्य आदि सभी प्राणी स्थित हैं।
इन ब्रह्माण्डों की गणना करने में न तो लोकनाथ ब्रह्मा, न शंकर, न धर्म और न विष्णु ही समर्थ हैं; फिर और देवता किस गिनती में हैं ?
विप्रवर! कृत्रिम विश्व तथा उसके भीतर रहने वाली जो वस्तुएँ हैं, वे सब अनित्य तथा स्वप्न के समान नश्वर हैं।
वैकुण्ठ, शिवलोक तथा इन दोनों से परे जो गोलोक है, ये सब नित्य-धाम हैं। इन सबकी स्थिति कृत्रिम विश्व से बाहर है। ठीक उसी तरह, जैसे आत्मा, आकाश और दिशाएँ कृत्रिम जगत से बाहर तथा नित्य हैं।
सावित्री से वेद आदि की सृष्टि करते हैं, ब्रह्मा जी से सनकादि की, सस्त्रीक स्वायम्भुव मनु की, रुद्रों की, पुलस्त्यादि मुनियों की तथा नारद की उत्पत्ति, भी सावित्री द्वारा होती है । सावित्री प्रसव की देवी हैं। इसी उपरान्त नारद को ब्रह्मा का और ब्रह्मा जी को नारद का शाप
सौति कहते हैं – तदनन्तर सावित्री ब्रह्मा के संयोग से चार मनोहर वेदों को प्रकट किया। साथ ही न्याय और व्याकरण आदि नाना प्रकार के शास्त्र-समूह तथा परम मनोहर एवं दिव्य छत्तीस रागिनियाँ उत्पन्न कीं।
नाना प्रकार के तालों से युक्त छः सुन्दर राग प्रकट किये। सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलहप्रिय कलियुग; वर्ष, मास, ऋतु, तिथि, दण्ड, क्षण आदि; दिन, रात्रि, वार, संध्या, उषा, पुष्टि, मेधा, विजया, जया, छः कृत्तिका, योग, करण, कार्तिकेय प्रिया सती महाषष्ठी देवसेना– जो मातृकाओं में प्रधान और बालकों की इष्ट देवी हैं, इन सबको भी सावित्री ने ही उत्पन्न किया।******
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ब्रह्मा, पाद्म और वाराह– ये तीन कल्प माने गये हैं। नित्य, नैमित्तिक, द्विपरार्ध और प्राकृत – ये चार प्रकार के प्रलय हैं।
इन कल्पों और प्रलयों को तथा काल, मृत्युकन्या एवं समस्त व्याधिगणों को उत्पन्न करके सावित्री ने उन्हें अपना स्तन पान कराया।
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तदनन्तर ब्रह्मा जी के पृष्ठ देश से अधर्म उत्पन्न हुआ। अधर्म से वामपार्श्व से अलक्ष्मी उत्पन्न हुई, जो उसकी पत्नी थी।
ब्रह्मा जी के नाभि देश से शिल्पियों के गुरु विश्वकर्मा हुए। साथ ही आठ महावसुओं की उत्पत्ति हुई, जो महान बल-पराक्रम से सम्पन्न थे। *******
तत्पश्चात् विधाता के मन से चार कुमार आविर्भूत हुए, जो पाँच वर्ष की अवस्था के-से जान पड़ते थे और ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे।
उनमें से प्रथम तो सनक थे, दूसरे का नाम सनन्दन था, तीसरे सनातन और चौथे ज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवान सनत्कुमार थे।
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इसके बाद ब्रह्मा जी के मुख से सुवर्ण के समान कान्तिमान कुमार उत्पन्न हुआ, जो दिव्य रूपधारी था। उसके साथ उसकी पत्नी भी थी।
वह श्रीमान एवं सुन्दर युवक था। क्षत्रियों का बीजस्वरूप था। उसका नाम था स्वायम्भुव मनु।
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जो स्त्री थी, उसका नाम शतरूपा था। वह बड़ी रूपवती थी और लक्ष्मी की कलास्वरूपा थी। पत्नी सहित मनु विधाता की आज्ञा का पालन करने के लिये उद्यत रहते थे।
स्वयं विधाता ने हर्ष भरे पुत्रों से, जो बड़े भगवद्भक्त थे, सृष्टि करने के लिये कहा।
परंतु वे श्रीकृष्ण परायण होने के कारण ‘नहीं’ करके तपस्या करने के लिये चले गये। इससे जगत्पति विधाता को बड़ा क्रोध हुआ।
कोपासक्त ब्रह्मा ब्रह्मतेज से जलने लगे।
प्रभो! इसी समय उनके ललाट से ग्यारह रुद्र प्रकट हुए।
उन्हीं में से एक को संहारकारी 'कालाग्नि रुद्र' कहा गया है। समस्त लोगों में केवल वे ही तामस या तमोगुणी माने गये हैं।
गोलोकनाथ श्रीकृष्ण निर्गुण हैं; क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं। जो परम अज्ञानी और मूर्ख हैं, वे ही शिव को तामस (तमोगुणी) कहते हैं। वे शुद्ध, सत्त्वस्वरूप, निर्मल तथा वैष्णवों में अग्रगण्य हैं।
अब रुद्रों के वेदोक्त नाम सुनो– महान, महात्मा, मतिमान, भीषण, भयंकर, ऋतुध्वज, ऊर्ध्वकेश, पिंगलाक्ष, रुचि, शुचि तथा कालाग्नि रुद्र।
ब्रह्मा जी के दायें कान से पुलस्त्य, बायें कान से पुलह, दाहिने नेत्र से अत्रि,वाम नेत्र से क्रतु, नासिका छिद्र से अरणि, मुख से अंगिरा एवं रुचि, वामपार्श्व से भृगु, दक्षिणपार्श्व से दक्ष, छाया से कर्दम, नाभि से पंचशिख, वक्षःस्थल से वोढु, कण्ठ देश से नारद, स्कन्ध देश से मरीचि, गले से अपान्तरतमा, रसना से वसिष्ठ, अधरोष्ठ से प्रचेता, वामकुक्षि से हंस और दक्षिणकुक्षि से यति प्रकट हुए। विधाता ने अपने इन पुत्रों की सृष्टि करने की आज्ञा दी।
पिता की बात सुनकर नारद ने उनसे कहा। नारद बोले – जगत्पते! पितामह! पहले सनक, सनन्दन आदि ज्येष्ठ पुत्रों को बुलाइये और उनका विवाह कीजिये। तत्पश्चात् हम लोगों से ऐसा करने के लिये कहिये। जब पिता जी! आपने उन्हें तपस्या में लगाया है, तब हमें ही क्यों संसार-बन्धन में डाल रहे हैं?
अहो ! कितने खेद की बात है कि प्रभु की बुद्धि विपरीत भाव को प्राप्त हो रही है। भगवन! आपने किसी पुत्र को तो अमृत से भी बढ़कर तपस्या का कार्य दिया है और किसी को आप विष से भी अधिक विषम विषय-भोग दे रहे हैं।
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पिताजी! जो अत्यन्त निम्न कोटि के भयानक भवसागर में गिरता है, उसका करोड़ों कल्प बीतने पर भी उद्धार नहीं होता। भगवान पुरुषोत्तम ही सबके आदि कारण तथा निस्तार के बीज हैं। वे ही सब कुछ देने वाले, भक्ति प्रदान करने वाले, दास्यसुख देने वाले, सत्य तथा कृपामय हैं। वे ही भक्तों को एकमात्र शरण देने वाले, भक्तवत्सल और स्वच्छ हैं।
भक्तों के प्रिय, रक्षक और उन पर अनुग्रह करने वाले भी वे ही हैं। भक्तों के आराध्य तथा प्राप्य उन परमेश्वर श्रीकृष्ण को छोड़कर कौन मूढ़ विनाशकारी विषय में मन लगायेगा?
अमृत से भी अधिक प्रिय श्रीकृष्ण सेवा छोड़कर कौन मूर्ख विषय नामक विषम विष का भक्षण (आस्वादन) करेगा?
विषय तो स्वप्न के समान नश्वर, तुच्छ, मिथ्या तथा विनाशकारी है।
मरीचि आदि ब्रह्मकुमारों तथा दक्षकन्याओं की संतति का वर्णन, दक्ष के शाप से पीड़ित चन्द्रमा का भगवान शिव की शरण में जाना, अपनी कन्याओं के अनुरोध पर दक्ष का चन्द्रमा को लौटा लाने के लिये जाना, शिव की शरणागत वत्सलता तथा विष्णु की कृपा से दक्ष को चन्द्रमा की प्राप्ति
सौति कहते हैं– विप्रवर शौनक! तदनन्तर ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों को सृष्टि करने की आज्ञा दी। नारद को छोड़कर शेष सभी पुत्र सृष्टि के कार्य में संलग्न हो गये।
मरीचि के मन से प्रजापति कश्यप का प्रादुर्भाव हुआ।
अत्रि के नेत्रमल से क्षीरसागर में चन्द्रमा प्रकट हुए। प्रचेता के मन से भी गौतम का प्राकट्य हुआ। मैत्रावरुण पुलस्त्य के मानस पुत्र हैं।
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मनु से शतरूपा के गर्भ से तीन कन्याओं का जन्म हुआ– आकूति, देवहूति और प्रसूति।
वे तीनों ही पतिव्रता थीं। मनु-शतरूपा से दो मनोहर पुत्र भी हुए, जिनके नाम थे– प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे।
मनु ने अपनी पुत्री आकूति का विवाह प्रजापति रुचि के साथ तथा प्रसूति का विवाह दक्ष के साथ कर दिया।
इसी तरह देवहूति का विवाह-सम्बन्ध उन्होंने कर्दम मुनि के साथ किया, जिनके पुत्र साक्षात भगवान कपिल हैं।
दक्ष के वीर्य और प्रसूति के गर्भ से आठ कन्याओं का जन्म हुआ। उनमें से आठ कन्याओं का विवाह दक्ष ने धर्म के साथ किया, ग्यारह कन्याओं को ग्यारह रुद्रों के हाथ में दे दिया। एक कन्या सती भगवान शिव को सौंप दी।
तेरह कन्याएँ कश्यप को दे दीं तथा सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को अर्पित कर दीं।
विप्रवर! अब मुझसे धर्म की पत्नियों के नाम सुनिये– शान्ति, पुष्टि, धृति , तुष्टि, क्षमा, श्रद्धा, मति और स्मृति।
शान्ति का पुत्र संतोष और पुष्टि का पुत्र महान हुआ।
धृति से धैर्य का जन्म हुआ। तुष्टि से दो पुत्र हुए – हर्ष और दर्प।
क्षमा का पुत्र सहिष्णु था और श्रद्धा का पुत्र धार्मिक।
मति से ज्ञान नामक पुत्र हुआ और स्मृति से महान जातिस्मर का जन्म हुआ।
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धर्म की जो पहली पत्नी मूर्ति थी, उससे नर - नारायण नामक दो ऋषि उत्पन्न हुए।
शौनक जी ! धर्म के ये सभी तीन पुत्र बड़े धर्मात्मा हुए।
अब आप सावधान होकर रुद्र पत्नियों के नाम सुनिये। कला, कलावती, काष्ठा, कालिका, कलहप्रिया, कन्दली, भीषणा, रास्रा, प्रमोचा, भूषणा और शुकी। इन सबके बहुत-से पुत्र हुए, जो भगवान शिव के पार्षद हैं।
दक्षपुत्री सती ने यज्ञ में अपने स्वामी की निन्दा होने पर शरीर को त्याग दिया और पुनः हिमवान की पुत्री पार्वती के रूप में अवतीर्ण हो भगवान शंकर को ही पतिरूप में प्राप्त किया।
धर्मात्मन! अब कश्यप की पत्नियों के नाम सुनिये। देवमाता, अदिति, दैत्यमाता दिति, सर्पमाता कद्रू, पक्षियों की जननी विनता,
गौओं और भैंसों की माता सुरभि, दानवजननी दनु तथा अन्य पत्नियाँ भी इसी तरह अन्यान्य संतानों की जननी हैं।
मुने! इन्द्र आदि बारह आदित्य तथा उपेन्द्र (वामन) आदि देवता अदिति के पुत्र कहे गये हैं, जो महान बल-पराक्रम से सम्पन्न हैं।
ब्रह्मन! इन्द्र का पुत्र जयन्त हुआ, जिसका जन्म शची के गर्भ से हुआ था। आदित्य (सूर्य) की पत्नी तथा विश्वकर्मा की पुत्री सर्वणा के गर्भ से शनैश्चर और यम नामक दो पुत्र तथा कालिन्दी नाम वाली एक कन्या हुई।
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उपेन्द्र के वीर्य और पृथ्वी के गर्भ से मंगल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
तदनन्तर भगवान उपेन्द्र अंश और धरणी के गर्भ से मंगल के जन्म का प्रसंग सुनाकर सौति बोले– मंगल की पत्नी मेधा हुई, जिसके पुत्र महान घंटेश्वर और विष्णु तुल्य तेजस्वी व्रणदाता हुए। दिति से महाबली हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक पुत्र तथा सिंहिका नाम वाली कन्या का जन्म हुआ।
सैंहिकेय (राहु) सिंहिका का ही पुत्र है। सिंहिका का दूसरा नाम निर्ऋति भी था। इसीलिये राहु को नैर्ऋत कहते हैं। हिरण्याक्ष को कोई संतान नहीं थी। वह युवावस्था में ही भगवान वाराह के हाथों मारा गया। हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद हुए, जो वैष्णवों में अग्रगण्य माने गये हैं। उनके पुत्र विरोचन हुए और विरोचन के पुत्र साक्षात राजा बलि। बलि का पुत्र बाणासुर हुआ, जो महान योगी, ज्ञानी तथा भगवान शंकर का सेवक था। यहाँ तक दिति का वंश बताया गया।
अब कद्रू के वंश का परिचय सुनिये। अनन्त, वासुकि, कालिय, धनंजय, कर्कोटक, तक्षक, पद्म, ऐरावत, महापद्म, शंकु, शंक, संवरण, धृतराष्ट्र, दुर्धर्ष, दुर्जय, दुर्मुख, बल, गोक्ष, गोकामुख तथा विरूप आदि को कद्रू ने जन्म दिया था।
शौनक जी! जितनी सर्प-जातियाँ हैं, उन सब में प्रधान ये ही हैं। लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई मनसादेवी कद्रू की कन्या हैं। ये तपस्विनी स्त्रियों में श्रेष्ठ, कल्याणस्वरूपा और महातेजस्विनी हैं। इन्हीं का दूसरा नाम जरत्कारु है। इन्हीं के पति मुनिवर जरत्कारु थे, जो नारायण की कला से प्रकट हुए थे।
विष्णु तुल्य तेजस्वी आस्तीक इन्हीं मनसा देवी के पुत्र हैं। इन सबके नाम मात्र से मनुष्यों का नागों से भय दूर हो जाता है। यहाँ तक कद्रू के वंश का परिचय दिया गया। अब विनता के वंश का वर्णन सुनिये।
विनता के दो पुत्र हुए– अरुण और गरुड़। दोनों ही विष्णु-तुल्य पराक्रमी थे। उन्हीं दोनों से क्रमशः सारी पक्षी-जातियाँ प्रकट हुईं। गाय, बैल और भैंसे – ये सुरभि की श्रेष्ठ संतानें हैं।
समस्त सारमेय (कुत्ते) सरमा के वंशज हैं। दनु के वंश में दानव हुए तथा अन्य स्त्रियों के वंशज अन्यान्य जातियाँ। यहाँ तक कश्यप-वंश का वर्णन किया गया।
अब चन्द्रमा का आख्यान सुनिये।
पहले चन्द्रमा की पत्नियों के नामों पर ध्यान दीजिये। फिर पुराणों में जो उनका अत्यन्त अपूर्व पुरातन चरित्र है, उसको श्रवण कीजिये। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पूजनीया साध्वी पुनर्वसु, पुष्या, आश्लेषा, मघा, पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी, हस्ता, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा, उत्तरषाढा, श्रवणा, धनिष्ठा, शुभा शतभिषा, पूर्वभाद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा तथा रेवती– ये सत्ताईस चन्द्रमा की पत्नियाँ हैं।
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इनमें रोहिणी के प्रति चन्द्रमा का विशेष आकर्षण होने के कारण चन्द्रमा ने अन्य सब पत्नियों की बड़ी अवहेलना की। तब उन सबने जाकर पिता दक्ष को अपना दुःख सुनाया। दक्ष ने चन्द्रमा को क्षय-रोग से ग्रस्त होने का शाप दे दिया। चन्द्रमा ने दुःखी होकर भगवान शंकर की शरण ली और शंकर ने उन्हें आश्रय देकर अपने मस्तक में स्थान दिया।
तब से उनका ‘चन्द्रशेखर’ हो गया।
देवताओं तथा अन्य लोगों में शिव से बढ़कर शरणागत पालक दूसरा कोई नहीं है।
अपने पति के रोग मुक्त और शिव के मस्तक में स्थित होने की बात सुनकर दक्ष कन्याएँ बारंबार रोने लगीं और तेजस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ पिता दक्ष की शरण में आयीं। वहाँ जाकर अपने अंगों को बारंबार पीटती हुई वे उच्चस्वर से रोने लगीं तथा दीनानाथ ब्रह्मपुत्र दक्ष से दीनतापूर्वक कातर वाणी में बोलीं।
दक्ष कन्याओं ने कहा- पिताजी! हमें स्वामी का सौभाग्य प्राप्त हो, इसी उद्देश्य को लेकर हमने आपसे अपना दुःख निवेदन किया था। परंतु सौभाग्य तो दूर रहे, हमारे सद्गुणशाली स्वामी ही हमें छोड़कर चल दिये। तात! नेत्रों के रहते हुए भी हमें सारा जगत अन्धकारपूर्ण दिखायी देता है। आज यह बात समझ में आयी है कि स्त्रियों का नेत्र वास्तव में उनका पति ही है। पति ही स्त्रियों की गति है, पति ही प्राण तथा सम्पत्ति है। ****
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का हेतु तथा भवसागर का सेतु भी पति ही है। पति ही स्त्रियों का नारायण है, पति ही उनका व्रत और सनातन धर्म है। जो पति से विमुख हैं उन स्त्रियों का सारा कर्म व्यर्थ है।
(श्रीपद्मपुराण उत्तरखण्ड श्रीमद्भागवतमाहात्म्य भक्तिनारदसमागमो नामक प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥)
अनुवाद:-
हे सत् चित्त आनंद! हे संसार की उत्पत्ति के कारण! हे दैहिक, दैविक और भौतिक तीनो तापों का विनाश करने वाले महाप्रभु! हे श्रीकृष्ण! आपको हम कोटि कोटि नमन करते हैं।
स्वयं भगवान स्वराट् विष्णु ( श्रीकृष्ण) जो गोलोक में अपने मूल कारण कृष्ण रूप में ही विराजमान हैं वही आभीर जाति में मानवरूप में सीधे अवतरित होकर इस पृथ्वी पर आते हैं;
क्योंकि आभीर(गोप) जाति साक्षात् उनके रोम कूप ( शरीर) से उत्पन है जो गुण-धर्म में उन्हीं कृष्ण के समान होती है।
इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो को हम प्रस्तुत करते हैं।
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इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो को हम प्रस्तुत करते हैं।
कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना ही इसी तथ्य को सूचित करता है। कि गोपों से श्रेष्ठ इस सृष्टि मैं को ईव दूसरा नहीं है।
अनुवाद:- जब स्वयं कृष्ण राधा की एक सखी बनकर स्वयं ही कृष्ण की राधा से निन्दा करते हैं तब राधा कहती हैं -
"भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण गोपों के घर में प्रकट हुए हैं। फिर तुम हे सखी ! उन आदिपुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।२१-२२।
(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)
गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं। और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत: इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_
ऋग्वेद में विष्णु के लिए 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं।
जो पुराण वर्णित गोलोक का ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।
इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।
विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ रहती हैं , वहाँ पड़ता है।
"कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।
ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।
शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥
इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी ब्रह्मा को यज्ञकार्य हेतु तत्काल एक पत्नी की आवशयकता होती है। "होता"यज्ञ में आहुति देनेवाला तथा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालने वाले के रूप में उपस्थित माना जाता है । अत्रि इस "होता" की भूमिका में हैं। सभी सप्तर्षि इस यज्ञ में किसी न किसी भूमिका में हैं।
विशेष—यह चार प्रधान ऋत्विजों में है जो ऋग्वेद के मंत्र पढ़कर देवताओं का आह्वान करता है।
ब्रह्मा की पत्नी सावित्री गृह कार्य में व्यस्त हैं अत: वे यज्ञ- स्थल में आने को तैयार नहीं हैं।अब मुहूर्त का समय निकला जा रहा है। तभी सप्तर्षियों के कहने पर ब्रह्मा अपने यज्ञ कार्य के लिए इन्द्र को एक पत्नी बनाने के लिए कन्या लाने को कहते हैं। तब आभीर कन्या गायत्री को इन्द्र ब्रह्मा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
विष्णु ही इस कन्या के दत्ता( कन्यादान करनेवाले पिता बनकर ) ब्रह्मा से इसका विवाह सम्पन्न कराते हैं।
विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि ( इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।
विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड ' ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।
ऋग्वेद 1.22.18) में भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।
विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।
और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु(कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।
वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! अभ्युत्थानम्-अधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजामि- अहम्।।
श्रीमद्भगवद्गीता ( 4/7)
हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।
अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी नरदेव ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्रारा हल्लीसक नृत्य का आयोजन किया।६८।
हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व /अध्याय- 89/ श्लोक-68
श्री कृष्ण और संकृष्ण( संकर्षण) दौंनो ही महापुरुष अपने युग के महान कृषि पद्धति के जन्मदाता थे । कृष्ण ने संगीत और कलाओं में महारत हासिल की और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार
उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी नरदेव ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्रारा हल्लीसक नृत्य का आयोजन किया।६८।
हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व /अध्याय- 89/ श्लोक-68
श्री कृष्ण और संकृष्ण( संकर्षण) दौंनो ही महापुरुष अपने युग के महान कृषि पद्धति के जन्मदाता थे । कृष्ण ने संगीत और कलाओं में महारत हासिल की और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार किया उस समय संगीत में स्वरों के स्वरग्राम (सरगम) के सन्धान के लिए वंशी बाँस के वृक्ष से निर्माण कर कृष्ण ने बनायी कृष्ण ने संगीत को सृष्टि ती आदि विद्या और कला मानकर आभीर जाति के नाम पर राग आभीर भी दिया ।
वेदों में ऋग्वेद के प्राचीन होने पर भी संगीत के वेद साम वेद को अपनी विभूति माना
मैं वेदोमें सामवेद हूँ ? देवों में वासव हूँ और इन्द्रियों में संकल्पविकल्पात्मक मन हूँ। सब भूतों- प्राणियोंमें चेतना हूँ। कार्यकरणके समुदायरूप शरीरमें सदा प्रकाशित रहनेवाली जो चिन्तन वृत्ति है ? उसका नाम चेतना है।
वास्तव में रास का प्रारम्भिक रूप हल्लीषक नृत्य है। हललीषक - नृत्य का आधार हल और ईषा-(ईसा) की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही है। मनुष्य जीवन पर्यन्त जिन व्यवहारों का नित्य सम्पादन करता रहता है वह अपने उत्सवों में भी वही अभिनय समन्वित कर आनन्दित होता है।
वस्तव में उत्सव जीवन की भागदौड़ में एक विश्राम स्थल( पड़ाव) हैं जहाँ जीवन की भाग दौड़ से थका हुआ व्यक्ति कुछ समय के लिए सब भूलकर विश्राम करता है।
कृष्ण का जन्म गोप - आभीर जाति में हुआ जो सनातन काल से गोपालक रही है। गो चारण काल में इन गोपों की आवश्यकता ने पशुओं के चारे घास आदि के के लिए और स्वयं अपने भोजन के लिए भी कृषि विधि के जन्म दिया । ग्राम शब्द का मूल अर्थ - ग्रास या घास युक्त भूमि से है। जहाँ पशुपालक- अपना पाव डालते थे धीरे धीरे उनके ये पड़ाव स्थाई होने लगे और ग्रामसभ्यता कै जन्म हुआ। जबकि नगर सभ्यता व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक केन्द्र थे जिन्हे आज हम बाजारवाद कह सकते हैं। जहाँ वणिकों की बस्तियाँ होती थीं।
ग्रामीण जीवन या पालन करने वाली गोपों की गोप ललनाऐं विशेष उत्सवों पर हल्लीसक नृत्य का आयोजन पुरुषों के सहयोग से करती थीं। और अनेक रागों पर गीत गाती थीं। अहीरों ने संगीत को अनेक लौकिक अवदान दिये ।
हल्लीसक- शब्द पुराणों विशेषत: हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय( 89 )में वर्णित है।
हल -विलेखे भ्वादिगणीय परस्मैपदीय सकर्म सेट् धातु से हलति अहालीत् आदि क्रिया रूप बनते हैं। हलः हालः- हल्यते कृष्यतेऽनेन इति हल्+ घञर्थे करणे (क) । लाङ्गल ( हल) अमरः कोश। कृषि शब्दे २१९८ पृ० दृश्यम् ।
हल वह यन्त्र जिससे कृषि कार्य किया जाए-
और ईषा -हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठे (लाङ्गलदण्डे)वा हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड - हल और ईषा इन दोनों शब्दों से तद्धित शब्द बनता है। हल्लीषा- हल्लीषक ।
हल्लीषा- एक नृत्य जो हल और उसके ईषा ( दण्ड) के समानांतर दृश्य में आकृति बनाकर किया मण्डलाकार विधि से किया जाता था।
वैसे कृष्ण और संकर्षण शब्द कृषकों के विशेषण हैं। गोपों में जन्म लेने वाले ये दौंनों महानायक कृषि पद्धति के जनक भी थे कृषि करने के लिए हल तथा उस धान्य को पीट कर अन्न पृथक करने के लिए मूसल- का आविष्कार भी कृष्ण के बड़े भाई संकर्षण के द्वारा ही किया गया था।
इनकी लोक संस्कृति में भी यही आविष्कार प्रदर्शित थे उनका सांस्कृतिक नृत्य हल्लीषम्- हल और ईषा की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही था ।
जिसे पुराणकारों ने श्रृँगार रस में डुबोकर रास के नाम से काव्यात्मक रूप में वर्णन किया है। संकर्षण कि हलधर विशेषण भी उनके कृषक होने का प्रमाण है।
हलधर= हलं धरति आयुधत्वं कृषिसाधनत्व वा धृ +अच् । बलराम कृषक उदाहरण “उन्मूलिता हलधरेण पदावधतैः” उद्भटः ।
इन गोपों कि हल्लीषम् नृत्य (हल्लीश, हल्लीष)=
नाट्यशास्त्र में वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के रूप में मान्य है।
विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है।
इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं जिसे मंडल बाँधकर जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।
साहित्यदर्पण(। ६ । ५५५ । ) में इसका लक्षण
“हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः। वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः। मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः॥
विशेष—पौराणिक परम्परा इस क्रीड़ा का आरंभ कृष्ण द्वारा कभी मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को तो कभी कार्तिकी पूर्णिमा को आधी रात के समय को मानती है।
तब से गोप लोग यह क्रीड़ा करने लगे थे। पीछे से इस क्रीड़ा के साथ कई प्रकार के पूजन आदि मिल गए और यह मोक्षप्रद मानी जाने लगी।
इस अर्थ में यह शब्द प्रायः स्त्रीलिंग बोला जाता है। जैसे हल्लीषा-
इसमें लास्य नृत्य ( स्त्री नृत्य) की प्रधानता ही होती है इसी लिए इसे रास्य( लास्य) भी कहा जने लगा।
भारतीय संस्कृति में प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति होती थी। कृष्ण की रासलीला इसका प्रतीक है।
भक्तिकाव्य में रासलीला शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। दरअसल रास एक कलाविधा है।
प्रेम और आनंद की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण की उदात्त प्रेमलीलाओं का भावाभिनय ही रासलीला कहलाता है।
मूलतः यह एक नृत्य है जिसमें कृष्ण को केंद्र में रख गोपियां उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति मैं वृत्ताकार नर्तन करती हैं।
अष्टछाप के भक्तकवियों नें प्रेमाभिव्यक्ति करने वाले अनेक रासगीतों की रचना की है।
रास में आध्यात्मिकता भी है जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति अनुराग व्यक्त होता है।
कि हल्लीसं शब्द ़यूनानी इलिशियन- नृत्यों ( इलीशियन मिस्ट्री डांस) से विकसित है। इसका विकास ईस्वी सन् के आसपास माना जाता है।
सन्दर्भ- हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन-पृष्ठ संख्या 33-
वास्तव में हल्लीषम् और इलिशियन दौंनो शब्द पृथक पृथक है।
विशेषण को तौर पर एलिसियन शब्द एक आनंदमय स्थिति का वर्णन करता है, जैसा कि अधिकांश लोग हवाई छुट्टियों पर आनंद लेने की उम्मीद करते हैं।
एलीसियन शब्द एलीसियन फील्ड्स नामक रमणीय यूनानी पौराणिक स्थान से आया है।
हालाँकि अब इस शब्द को अक्सर स्वर्ग के साथ समझा जाता है, ग्रीक एलीसियन फील्ड्स वासतव में मृत्यु के बाद के जीवन में जाने के लिए एक स्वर्गीय विश्राम स्थल था।
संभवतः इस अवधारणा की कल्पना मूल रूप से युद्ध के दौरान सैनिकों में वीरता को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी।
आजकल, लोग किसी भी स्वर्गीय दृश्य का वर्णन करने के लिए एलिसियन का उपयोग करते हैं -
एलीसियम -
1590 के दशक, लैटिन एलीसियम से, ग्रीक एलीसियन (पेडियन) से "एलिसियन क्षेत्र", मृत्यु के बाद धन्य लोगों का निवास, जहां नायक और गुणी निवास करते हैं, जो अज्ञात मूल का है, शायद प्री-ग्रीक (एक गैर-आईई सब्सट्रेट भूमध्यसागरीय भाषा) से ). इसका उपयोग पूर्ण प्रसन्नता की स्थिति के लाक्षणिक रूप में भी किया जाता है।
दूसरा लैटिन शब्द इल्युशन भी है
पुरानी फ्रांसीसी भाष से , लैटिन (illuso) से और (illūdere) से क्रियाओं विकसित शब्द -
, में (in- में " ) + lūdere -"खेलने के लिए क्रीड़ा करना खेलना ") आदि रूपों से सम्बन्धित है।
यह क्रिया, लैटिन के साथ (ludus)"एक खेल, खेलो, ये सम्बन्धित है।"
PIE आद्य भारोपीय रूट -*leid-या*loid- से सम्बंधित है जिसका अर्थ"खेलना,"
मृगतृष्णा
लैटिन( illusio) से ही फ्रांसीसी में विकसित (illusion) भ्रम का वाचक है। इस इल्युशन शब्द के मोह माया जादू आदि अन्य अर्थ भी प्रचलित हैं।
देखा जाय तो संस्कृत में भी
१-लड्=
विलास करना /क्रीडा करना
२-लड= उपसेवायाम्
३-लड= विकाशे आदि अर्थों की वाचक धातु धातुपाठ में लिखित है।
मध्यकाल में इसमें जो आध्यात्मिकता थी वह धीरे धीरे गायब होती गई और विशुद्ध मनोरंजन शैलियों वाली गिरावट इस भक्ति और अध्यात्म को अभिव्यक्त करनेवाली विशिष्ट विधा में भी समा गई। वैसे आज भी बृज की रास मण्डलियां प्रसिद्ध हैं।
कथक से भी रास को जोड़ा जाता है किन्तु कथक की पहचान जहां एकल प्रस्तुति में मुखर होती है वहीं रास सामूहिक प्रस्तुति है।
अलबत्ता रास शैली का प्रयोग कथक और मणिपुरी जैसी शास्त्रीय नृत्यशैलियों में हुआ है। इसके अलावा गुजरात का जग प्रसिद्ध डांडिया नृत्य रास के नाम से ही जाना जाता है। रास का मुहावरेदार प्रयोग भी बोलचाल की भाषा में खूब होता है। रास रचाना यानी स्त्री-पुरुष में आपसी मेल-जोल बढ़ना। रास-रंग यानी ऐश्वर्य और आमोद-प्रमोद में लीन रहना।
रास शब्द रास् धातु से आ रहा है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है।
इससे बना है रासः जिसमें होहल्ला, किलोल सहित एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे।
इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है। कुछ कोशों में इसका अर्थ हास्यनाटक भी कहा गया है।
दरअसल रासलीला जब कला विधा में विकसित हो गई तो वह सिर्फ नृत्य न रहकर नृत्यनाटिका के रूप में सामने आई।
नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है।
रासलीला में हंसोड़पात्र भी आते हैं जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं। इसलिए रासकम् को सिर्फ हास्यनाटक कहना उचित नहीं है। मूलतः रास् से बने रासकम् का ही रूप मध्यकालीन साहित्य की एक विधा रासक के रूप में सामने आया।
रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं।
विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है। र औ ल एक ही वर्णक्रम में आते हैं। लास्य का ही प्राकृत रूप रास्स होता है।
कतिपय विद्वानों का मानना है कि श्रीकृष्ण के समय रास शब्द प्रचलित नहीं था। वे नृत्य की परिपाटी और श्रीकृष्ण के कलाप्रेम को खारिज नहीं करते हैं। कृष्णचरित से कलाओं को अलग किया ही नहीं जा सकता। मुरलीमनोहर और गोप-गोपियों के मेल ने भारतीय संस्कृति को विविध कलाएं दी हैं। गुप्तकालीन रचना रास पंचाध्यायी से मण्डलाकार नृत्य के लिए रास शब्द का प्रचलन बढ़ा है। निश्चित ही रास ब्रज क्षेत्र का पारम्परिक लोकनृत्य रहा है। कृष्ण चरित से इस शब्द के जुड़ा होने के पीछे की भ्रम की गुंजाइश नहीं है।
पण्डा शब्द का संदर्भ पोथी-जन्त्री तक ही सीमित है। इस वर्ग का नृत्य या कलाकर्म में कोई दखल नहीं था इसलिए रास शब्द से इन्हें जोड़ना भी ठीक नहीं।
संलापकं श्रीगदितं शिल्पकं च विलासिका ।
दुर्मल्लिका प्रकरणी हल्लीशो भाणिकेति च ।। सूत्र ६.५ ।। साहित्य दर्पण-
हल्लीशक महाभारत में वर्णित एक नृत्यशैली है। इसका एकमात्र विस्तृत वर्णन महाभारत के खिल्ल भाग हरिवंश (विष्णु पर्व, अध्याय 20) में मिलता है।
विद्वानों ने इसे रास का पूर्वज माना है साथ ही रासक्रीड़ा का पर्याय भी। आचार्य नीलकंठ ने टीका करते हुए लिखा है - 'हस्लीश क्रेडर्न एकस्य पुंसो बहुभि: स्त्रीभि: क्रीडन सैव रासकीड़'। (हरि. 2.20.36) 'हल्लीशक' का शाब्दिक अर्थ है - 'हल का ईषा- हत्था'।
यह नृत्य स्त्रियों का है जिसमें एक ही पुरुष श्रीकृष्ण होता है। यह दो दो गोपिकाओं द्वारा मंडलाकार बना तथा श्रीकृष्ण को मध्य में रख संपादित किया जाता है। हरिवंश के अनुसार श्रीकृष्ण वंशी, अर्जुन मृदंग, तथा अन्य अप्सराएँ अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बजाते हैं।
इसमें अभिनय के लिए रंभा, हेमा, मिश्रकेशी, तिलोत्तमा, मेनका, आदि अप्सराएँ प्रस्तुत होती हैं। सामूहिक नृत्य, सहगान आदि से मंडित यह कोमल नृत्य श्रीकृष्णलीलाओं के गान से पूर्णता पाता है। इसका वर्णन अन्य किसी पुराण में नहीं आता।
भासकृत बालचरित् में हल्लीशक का उल्लेख है। अन्यत्र संकेत नहीं मिलता।
शूरसेन या मथुरा मंडल जिसमें श्रीकृष्ण के लीला स्थल विशेष रुप से सम्मिलित है, भक्तिकाल में ब्रज प्रदेश के रुप में प्रसिद्ध हुआ। पुराणकाल में यह क्षेत्र मथुरा मंडल तथा विभिन्न ग्रंथों में शूरसेन जनपद के रुप में विख्यात रहा था। वर्तमान ब्रज क्षेत्र पर यदि ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए तो यह क्षेत्र भी कभी एक सुरम्य वन प्रदेश था, जहाँ प्रमुख रुप से आभीर निवास करते थे। मथुरा राज्य के आदि संस्थापक मधु ने हरिवंश पुराण में स्वयं कहा है कि मेरे राज्य में चारों ओर आभीरों की बस्ती है।
इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि आभीर जाति देव संस्कृति के अनुयायियों से इतर थी और उनकी संस्कृति बहुत समृद्ध थी तथा देव संस्कृति से उसमें काफी असमानता थी। आभीरों में स्त्री-स्वातंत्र्य देवसंसकृति की अपेक्षा अधिक था, वे नृत्य-गान में परम प्रवीण और केशो की दो वेणी धारण करने वाली थीं। 'हल्लीश' या 'हल्लीसक नृत्य' इन आभीरों की सामाजिक नृत्य था, जिसमें आभीर नारियाँ अपनी रुचि के किसी भी गोप पुरुष के साथ समूह बनाकर मंडलाकार नाचती थीं। हरिवंश पुराण के हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय में उल्लेख है- कृष्ण की इंद्र पर विजय के उपरांत आभीर रमणियों ने उनके साथ नृत्य करने का प्रस्ताव किया। भाई या पति व अन्य आभीरों के रोकने पर भी वे नहीं रुकीं और कृष्ण को खोजने लगीं-
"ता वार्यमाणा: पतिमि भ्रातृभिर्मातृमिस्तथा। कृष्ण गोपांगना रात्रो मृगयन्ते रातेप्रिया:।। - हरिवंश, हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय, श्लोक २४
आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था। नृत्य का स्वरुप स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्र का टीका में अभिनव गुप्त ने कहा है-
"मण्डले च यत स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकंतु तत्। नेता तत्र भवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।।
इसी नृत्य को श्री कृष्ण ने अपनी कला से सजाया तब वह रास के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण 'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं।
द्वारका के राज दरबार में प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त द्वारका आकर उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रुप से जोड़ा व इसे स्री-समाज को सिखाया और देश देशांतरों में इसे लोकप्रिय बनाया। सारंगदेव ने अपने 'संगीत-रत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। वह लिखते है-
"पार्वतीत्वनु शास्रिस्म, लास्यं वाणात्मामुवाम्। तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।।७।। तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:। एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्।।८।।
इस प्रकार रास की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली। जैन धर्म में रास की विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा, क्योंकि जैनियों के २३वे तीर्थकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही आभीर यदुवंशी थे। उन्हें प्रसन्न करने का रास किया जा सकता है
आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था परन्तु कामुकता नही थी ।
ब्रज का रास भारत के प्राचीनतम नृत्यों में अग्रगण्य है। अत: भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्र में रास को रासक नाम से उप-रुपकों में रखकर इसके तीन रुपों का उल्लेख किया है-
१- मंडल रासक, २-ताल रासक,३- दंडक रासक या लकुट रासक।
देश में आज जितने भी नृत्य रुप विद्यमान हैं, उन परत्र रास का प्रभाव किसी-न-किसी रुप में पड़ा है।
गुजरात का 'गरबा', राजस्थान का 'डांडिया' आदि नृत्य, मणिपुर का रास-नृत्य तथा संत ज्ञानदेव के द्वारा स्थापित 'अंकिया नाट' तो पूरी तरह रास से ही प्रभावित नृत्य व नाट्य रुप है।
यह हल्लीसक एक प्रकार का वादन – गान के साथ लोकनृत्य था । यही रास का प्रारम्भिक रूप था । छालिक्य एक समूह गीत था , जिसके अन्तर्गत विभिन्न वाद्यों का वादन एवं नृत्य होता था । विष्णु पर्व के अनुसार इसको विभिन्न ग्रामरागों के अन्तर्गत विविध स्थान तथा मूर्च्छनाओं के साथ गाया जाता था ।
यह गान शैली अत्यन्त कठिन थी ।
"आधुनिक विद्वानों का मत हैं, 'रास' शब्द कृष्ण-काल में प्रचलित नहीं था ; उसका प्रचलन बहुत बाद में हुआ। 'रास' शब्द के सर्वाधिक प्रचार का श्रेय श्रीमद्भागवत की 'रास-पंचाध्यायी' को है, जिसकी रचना गुप्त काल से पहिले की नहीं मानी जाती है।
कुछ विद्वान 'रास' का पूर्व रूप 'हल्लीसक' मानते है। 'रास' और 'हल्लीसक' पृथक्-पृथक् परंपराएँ थी। जो बाद में एक-दूसरे से संबंद्ध हो गई थीं।
इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य-नाट्य का आरंभिक नाम 'हल्लीसक' था। उसके लिए सदा से 'रास' शब्द ही लोक में प्रचलित नहीं रहा है। ऐसा ज्ञात होता है 'रास' की पहिले मौखिक परंपरा थी, जो प्रचुर काल तक विद्यमान रही थी। उसी मौखिक और लोक प्रचलित शब्द को 'भागवत' कार ने साहित्य में अमर-कर दिया था।
श्रीकृष्ण द्वारा प्रचलित तथाकथित 'रास' आरंभ में ब्रज का एक लोक-नृत्य अथवा लोक नृत्य-नाट्य था, जो पुरातन ब्रजवासियों के मनोविनोद का साधन था। जब कृष्णोपासना का प्रचार हुआ, तब 'रास' को भी धार्मिक महत्व प्राप्त हो गया था।
उस समय लोक के साथ धर्म के क्षेत्र में भी रास का प्रवेश हो गया था। कृष्णोपासक भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मो ने 'रास' की धार्मिक महत्व को स्वीकार किया था, और श्रीमद्भागवत ने उसके गौरव को बढ़ाया था।
प्राचीन ब्रज में बुद्ध एवं महावीर द्वारा प्रवर्तित बौद्ध तथा जैन धर्मो का प्रचार हुआ, तब भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मों का प्रभाव कुछ कम हो गया था।
फलत: कृष्णोपासना तथा 'रास' के धार्मिक महत्व में भी कमी आ गई थी। उसका एक बड़ा कारण यह था कि बौद्ध और जैन धर्म वैराग्य एंव निवृत्ति प्रधान थे; जिनकी धार्मिक मान्यता में कृष्णोपासना एवं 'रास' के लिए कोई समुचित स्थान नहीं था।
बौद्ध-जैन धर्मों को कुछ समय पश्चात ही अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना पड़ा था। तब उनके द्वारा नृत्य-नाट्य के धार्मिक स्वरूप को प्रश्रय प्रदान किया गया। उस परिवर्तन का प्रभाव प्राचीन ब्रज में दिखलाई देने लगा था। फलत: पौराणिक हिंदू धर्मों के मंदिर-देवालयों की भाँति बौद्ध-जैन धर्मो के उपासनालयों एवं पूजा-गृहों में भी नृत्य-नाट्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। इसका प्रमाण तत्कालीन साहित्यिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक उल्लेखों और स्थापत्य की कलाकृतियों में मिलता है। जहाँ तक 'रास' का संबंध हैं, उसकी स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ कलाकृतियों में उसके रूप का आभास होता है।
नृत्य अहीरों में पहले से रहा है। उर्वशी का नाम एक खूबसूरत नर्तकी के रूप में लिया जाता था और उस युग में नर्तकियों को अप्सरा कहा जाता था। । पुरुरवा और उर्वशी नाम इतिहास में शामिल करते समय इन दोनों के माता पिताओं का नाम अहीर जाति से सम्बन्धित है।,
तथा उर्वशी भगवान कृष्ण की विभूति हैं। पुरुरवा गोप और उर्वशी अहीर का नाम इतिहास में जुड़ा तो बहुत बड़ी महाक्रान्ति होगी।
जितने अपने को चन्द्र वंशी ,सोमवंशी यदुवंशी कुरुवंशी राजपूत क्षत्रिय कहते हैं। वह सब अहीरों से सम्बन्धित शाखाएं हैं।
यादवों का प्राचीन काल से ही गायन वादन और नृत्य अर्थात संगीत विधा पर पूर्ण स्वामित्व रहा है।
"हल्लिशम नृत्य और आभीर राग अहीरों की मौलिक संगीत सर्जना का प्रमाण है।
भगवान कृष्ण का जन्म व बाल्यकाल आभीर जाति में हुआ था। आभीरों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति थी, जिसमें पूर्ण नारी- स्वातंत्रय तो था ही, साथ ही वे राग- रंग के भी बड़े प्रेमी थे। उनका लोकनृत्य हल्लीश या हल्लीसक सर्वविख्यात रहा है, जिसका वर्णन अनेक लक्षण ग्रंथों में भी मिल जाता है --
नाट्यशास्त्र में भी वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के सन्दर्भ में हल्लीसक नृत्य या विवेचन है ।
विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है।
इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं।
यह गोप संस्कृति का प्राचीन नृत्य है जो उत्सव विशेष पर किया जाता था।
मंडल बाँधकर होनेवाला एक प्रकार का नाच जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।
इसी को नीमान्तरण से लास्य: तो कहीं रास्य या रास भी कहा जाने लगा।
यह हल्लीसक नृत्य एक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें नायिका अनेक किंतु नायक एक ही होता था। इस नृत्य के लिए आभीर स्त्रियाँ उस पराक्रमी पुरुष को अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित करती थीं, तो अतुलित पराक्रम प्रदर्शित करता था।
हरिवंश पुराण के अनुसार आभीर नारियों ने श्री कृष्ण को इस नृत्य के लिए उस समय आमंत्रित किया था, जब इंद्र- विजय के उपरांत वह महापराक्रमी वीर पुरुष के रुप में प्रतिष्ठित हुए थे।
इन्द्र- विजय के उपरान्त आभीर नारियों के साथ श्री कृष्ण के इस नृत्य का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के हल्लीसक क्रीड़न अध्याय में हुआ है।
इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सःरास' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।
भगवान कृष्ण के द्वारकाधीश चले जाने पर यह नृत्य कृष्णकाल में द्वारका के यदुवंशियों
का राष्ट्रीय नृत्य बन गया था। इस नृत्योत्सव का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के "छालिक्य संगीत' अध्याय में उपलब्ध है। शारदातनय का कथन है कि द्वारका में रास के विकास में श्री कृष्ण की पौत्रवधू अनिरुद्ध- पत्नी उषा का बड़ा योगदान था, जो स्वयं नृत्य में पारंगत थी। यह पार्वतीजी की शिष्या थी,जिसने उनसे लास्य- नृत्य की शिक्षा ग्रहण की थी।
उसने द्वारका के नारी- समाज को विशेष रुप से रास- नृत्य मं प्रशिक्षित किया था।
द्वारका पहुँचने पर यह रास- नृत्य नाटिकाओं का रुप ले चुका था। जिसमें श्री कृष्ण व बलराम की जीवन की प्रमुख घटनाओं का प्रदर्शन होता था।
भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्र में लोकधर्मी उपरुपकों के अंतर्गत रास के "रासक' और "नाट्य रासक' दो रुपों का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि उस काल में रास के दो रुप अलग- अलग विकसित हो गए थे। "नाट्य रासक' जहाँ नाट्योन्मुख नृत्य- संगीत का प्रतिनिधि था, वहाँ इसका शुद्ध नृत्य रुप "रासक' था। "रासक' के भरतमुनि ने भेद किए हैं --
१. मण्डल रासक
२. लकुट रासक तथा
३. ताल रासक।
मण्डलाकार नृत्य मंडल रासक, हाथों से दंडा बजाकर नृत्य करना लकुट रासक या दंड रासक और हाथों से ताल देकर समूह में नृत्य करना संभवतः ताल रासक था। यह रासक परंपरा बाद में विभिन्न रुपों में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों में विकसित हुई ( जिसका परिचय यहाँ देना संभव नहीं है ) बाद में जैन धर्म में ही रासक परम्परा बाद बहुत लोकप्रिय हुई, क्योंकि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमिनाथजी को जैन धर्म ने अपना २३ वाँ तीर्थंकर स्वीकार कर लिया था। जिन्हें प्रसन्न करने के लिए जैन मंदिरों में भी रास उपासना का अंग बन गया।
कहने का तात्पर्य यह है कि कृष्णकाल से प्रारम्भ होकर रास की प्राचीन परम्परा विभिन्न उतार- चढ़ावों के मध्य १५ वीं शताब्दी के अन्त तक या १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक आभीर जाति में रही , जबकि वर्तमान रास का पुनर्गठन हुआ, निरन्तर किसी न किसी रुप में विद्यमान रही और उसी के वर्तमान रास- मञ्च उद्भूत हुआ।
इस प्रकार रास भारत का वह मंच है जो कृष्णकाल से आज तक निरंतर जीवित- जाग्रत रहा है।
भारत में दूसरा कोई ऐसा मंच नहीं जो इतना दीर्घजीवी हुआ हो। इसी के रास की लोकप्रियता और महत्ता स्पष्ट है।
अहीर भैरव एक लोकप्रिय राग है जिसमें कोमल ऋषभ और कोमल निषाद के स्वरों का संयोजन होता है।
कृष्णेच्छया च त्रिदिवान्नृदेव अनुग्रहार्थं भुवि मानुषाणाम् । स्थितं च रम्यं हरितेजसेव प्रयोजयामास स रौक्मिणेयः।७४। छालिक्यगान्धर्वमुदारबुद्धिस्तेनैव ताम्बूलमथ प्रयुक्तम् । प्रयोजितं पञ्चभिरिन्द्रतुल्यैश्छालिक्यमिष्टं सततं नराणाम् ।७५।
शुभावहं वृद्धिकरं प्रशस्तं मङ्गल्यमेवाथ तथा यशस्यम । पुण्यं च पुष्ट्यभ्युदयावहं च नारायणस्येष्टमुदारकीर्तेः । ७६ । जयावहं धर्मभरावहं च दुःस्वप्ननाशं परिकीर्त्यमानम् । करोति पापं च तथा विहन्ति शृण्वन् सुरावासगतो नरेन्द्रः ।७७।
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