वेदों में कृष्ण और इन्द्र के युद्ध सम्बन्धी तथ्य-
भारतीय भाषाओं में इन्द्र" नाम की कोई निश्चित व्युत्पत्ति नहीं है। सबसे प्रशंसनीय रूप से यह एक प्रोटो-इण्डो-यूरोपियन मूल का शब्द है।
यूरोपीय भाषाओं में एण्डरो-(andró) शब्द ग्रीक भाषा के Aner से विकसित हुआ है। Aner का सम्बन्ध कारक रूप एण्डरो- है। मूल भरोपीय भाषाओं में (H- Ner) हनर-
ओस्कैन में (ner)- "पुरुषों का"), अल्बानियाई में नजेरी "आदमी, मानव," वेल्स- नर । मितन्नी में इन-द-र- शब्द है। यद्यपि अवेस्ता में इन्द्र एक दुष्ट शक्ति है। क्योंकि देव शब्द ही अवेस्ता में दुष्ट का वाचक है। पारसी मिथ को के सम्बन्ध में इन्द्र और देव शब्द पर आगे यथा क्रम विचार किया जाएगा ।
संस्कृत(Sanskrit) एक वैदिक भाषा परिनिष्ठित व संशोधित रूपान्तरण है. कुछ लोगों का मानना है कि ये दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है, जो लगभग 5000 साल पुरानी है. ऋग्वेद जिस भाषा में लिखा गया है वो इसका यानी संस्कृत का प्रथम स्वरूप है, लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि संस्कृत ऋग्वेद से भी पहले इस्तेमाल होती थी. इस भाषा का इस्तेमाल आज से लगभग 3500 साल पहले सीरिया का एक राजवंश किया करता था. आज हम उसी राजवंश के बारे में आपको आगे यथाक्रम बताएंगे.
भारतीय वेदों में इन्द्र की सबसे अधिक स्तुति वैदिक ब्राह्मणों ने की है। और इन्द्र को वेदों में सबसे वड़ा देव घोषित किया गया है ।
परन्तु वैदिक पुरोहित भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए ही इन्द्र आदि देवताओं का योजन( यज्ञ) आदि किया करते थे। देवताओं की उपासना से आध्यात्मिक ज्ञान अथवा मोक्ष तो मिन नहीं सकता और न ही यज्ञों के सम्पादन से न ईश्वर की अनुभूति हो सकती है और नहीं आत्मज्ञान प्राप्त होता है।
यज्ञ केवल देवों की प्रसन्नता के लिए किए जाते थे और ये यज्ञ भी निर्दोष पशुओं पक्षीयों की हत्या के बिना सम्पन्न नहीं माने जाते थे। इन्द्र स्वयं यज्ञ में पशुमेध का समर्थ था।
वेदों में तथा पुराणों में इन्द्र का चरित्र पूर्णतया राजसिक है । वह पुराणों में तो अपनी कामुक प्रवृत्ति के लिए जाना जाता है। वेदों वनो भी उसका विलासी चरित्र उभर कर आता है। उसमें सत्व गण का कोई भाव नहीं है। भोग विलास में निरन्तर लगा हुआ इन्द्र आध्यात्मिक ज्ञान से विमुख और परे है।
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महाभारत के आदि पर्व में इन्द्र का यज्ञ भूमि में सोम पीकर उन्मत्त होने का वर्णन है।
सोम एक नशीला पदार्थ था जिसे पारसी धर्म ग्रन्थों में होम कहा गया है क्योंकि फारसी में प्राय: वैदिक भाषा के " स" वर्ण का उच्चारण "ह"वर्ण के रूप में होता है"
प्राचीन भारत में सुर, सुरा, सोम और मदिरा आदि का बहुत प्रचलन था। कहते हैं कि इंद्र की सभा में सुंदरियों के नृत्य के बीच सुरों के साथ सुरापान होता था।
सोम रस : सभी देवता लोग सोमरस का सेवन करते थे। प्रमाण- 'यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इंद्रदेव को प्राप्त हो।-
सुतपाव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये ।
सोमासो दध्याशिरः ॥५॥
सुतऽपाव्ने । सुताः । इमे । शुचयः । यन्ति । वीतये।सोमासः । दधिऽआशिरः ॥५।
सायणभाष्य:-
“इमे "सोमासः अस्मिन् कर्मणि संपादिताः सोमाः "सुतपाव्ने= अभिषुतस्य सोमस्य पानकर्त्रे । षष्ठ्यर्थे चतुर्थी । तस्य पातुः =“वीतये भक्षणार्थं "यन्ति तमेव प्राप्नुवन्ति । कीदृशाः सोमाः । "सुता:= अभिषुताः । “शुचयः =दशापवित्रेण शोधितत्वात् शुद्धाः । "दध्याशिरः =अवनीयमानं दधि आशीर्दोषघातकं येषां सोमानां ते दध्याशिरः ।। सुतपाव्ने । सुतं पिबतीति सुतपावा । वनिप: पित्त्वात् धातुस्वर एव शिष्यते । समासे द्वितीयापूर्वपदप्रकृतिस्वरं बाधित्वा कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम् । शुचयः । शुच दीप्तौ'। ‘इन्' इत्यनुवृत्तौ ‘इगुपधात्कित्' (उ. सू. ४. ५५९) इति इन् । कित्त्वाल्लघूपधगुणाभावः। नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् । वीतये । ‘ वि गतिप्रजनकान्त्यशनखादनेषु' इत्यस्मात् ' मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः ' ( पा. सू. ३, ३. ९६ ) इति क्तिन् उदात्तः । सोमासः । ‘ षुञ् अभिषवे'। ‘ अर्तिस्तुसुहुसृधृक्षि° ' ( उ. सू. १. १३७ ) इत्यादिना मन् । नित्त्वादाद्युदात्तः । ‘ आज्जसेरसुक्' (पा. सू. ७. १. ५० } इत्यसुगागमः । दध्याशिरः । दधाति पुष्णातीति दधि । ‘डुधाञ् धारणपोषणयोः । ‘ आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च ' ( पा. सू. ३. २. १७१ ) इति किन् । लिङ्वद्भावात् द्विर्भावः । कित्त्वादाकारलोपः । नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् ।शॄ ‘हिंसायाम् ' । शृणाति हिनस्ति सोमेऽवनीयमानं सत् सोमस्य स्वाभाविकं रसम् ऋजीषत्वप्रयुक्तं नीरसं दोषं वा इत्याशीः । क्विपि ‘ ऋत इद्धातोः ' ( पा. सू. ७, १. १०० ) इति इत्वं रपरत्वं च । दध्येव आशीर्येषां सोमानां ते दध्याशिरः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ।९ ॥ (ऋग्वेद-1/5/5).
तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे ।
वायो तान्प्रस्थितान्पिब ॥१॥
"शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदुनिम्नं न रीयते।।
(ऋग्वेद-1/23/1)..
शतं वा यः शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम् ।
एदु निम्नं न रीयते ॥२॥
(ऋग्वेद-1/30/2)
इन्द्रा य गाव आशिरं दुदुह्रे वज्रिणे मधु” (ऋग्वेद- ८/, ५८,/ ६ )
इमे त इन्द्र सोमास्तीव्रा अस्मे सुतासः ।
शुक्रा आशिरं याचन्ते ॥१०॥
ताँ आशिरं पुरोळाशमिन्द्रेमं सोमं श्रीणीहि ।
रेवन्तं हि त्वा शृणोमि ॥११॥
हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।
ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥१२॥
सुरापान : प्राचीन काल में सुरा एक प्रकार से शराब ही थी कहते हैं कि सुरों द्वारा ग्रहण की जाने वाली हृष्ट (बलवर्धक) प्रमुदित (उल्लासमयी) वारुणी (पेय) इसीलिए सुरा कहलाई। कुछ देवता सुरापान करते थे।
हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।
ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥१२॥ (ऋग्वेदः सूक्तं 8/2/12)
अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर नंगे होकर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात ही मचाया करते हैं।
धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं।
धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, असु राति अर्थात् जो प्राण देता है, के रूप में चित्रित किया गया है
'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'असु युक्त अथवा प्राण -युक्त के अर्थ में किया गया है । और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है।
'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८)
और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है।
विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक भी है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है।
परन्तु लौकिक संस्कृत में सुर के विपरीत असुर हैं।
वाल्मीकि रामायण को बाल काण्ड नें सुरा पीने वाले को सुर" ( देव) कहा है ।
इन्द्र सुरापान करके उन्मत्त रहता था । और सुरापान करने वाला ही कामुक और उन्मत्त होकर व्यवहार करता है।
अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर नंगे होकर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात ही मचाया करते हैं।
हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् । ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥(ऋग्वेद -8/2./12)
पदान्वय:-सुरायाम्- पीतासो= सुरा पीने वाले।दुर्मदासो= बुरी तरह उन्मत्त होकर। नग्ना हृत्सु:- नंगे होकर छाती या हृदय में स्थित । ऊध: - स्तनो को । जरन्ते - जारके समान मसलते या जीर्ण करते हैं।
(न ) जिस प्रकार- (दुर्मदास:- दूषित मद से उन्मत्त लोग। युध्यन्ते-युद्ध करते हैं। हृत्सु- हृदयों में। सुरायाम्- पीतास:- सुरा पीने वाले लोग। नग्ना: - नंगे लोग।ऊध:-स्तन या छाती। जरन्ते- जारों की तरह मसलते रहते हैं। जीर्ण करते रहते हैं।
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इन्द्र भी इसी प्रकार का चरित्र व्यवहार करता है।
"व्युषिताश्व इति ख्यातो बभूव किल पार्थिवः ।पुरा परमधर्मिष्ठः पूरोर्वंशविवर्धनः ।७।
तस्मिंश्च यजमाने वै धर्मात्मनि महात्मनि।उपागमंस्ततो देवाः सेन्द्राः सह महर्षिभिः।८।
अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।व्युषिताश्वस्य राजर्षेस्ततो यज्ञे महात्मनः।९।
महाभारत आदिपर्व- (1/120/ 7-8-9-10)
"अनुवाद :-एक समय वे महाबाहु धर्मात्मा नरेश व्युषिताश्व जब यज्ञ करने लगे, उस समय इन्द्र आदि देवता देवर्षियों के साथ उस यज्ञ में पधारे थे। उसमें देवराज इन्द्र सोमपान करके उन्मत्त हो उठे !थे तथा ब्राह्मण लोग पर्याप्त दक्षिणा पाकर हर्ष से फूल उठे थे।
इन्द्रोपासक पुरोहित भी केवल भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए इन्द्र की स्तुति करते हैं। इन्द्र के उपासक केवल स्वर्ग" सुन्दर स्त्री और भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए ही इन्द्र की उपासना करते है।
इन्द्र बहुत से बैलों( उक्षण) को खाने वाला और अपनी यज्ञों में पशु बलि माँगता है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्त-(86) जो वृषाकपि के नाम से है उसकी समस्त ऋचाऐं इन्द्र के विलासी चरित्र का दिग्दर्शन करती हैं।
ऋग्वेदः सूक्तं १०/८६/
" वृषाकपिसूक्तम्
वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥१॥
"सोम-अभिषव करने के लिए यज्ञ में मुझ इन्द्र द्वारा आज्ञा दिए हुए स्तोताओं ने वृषाकपि का पूजन किया। वहाँ उपस्थित दैदीप्मीन मुझ इन्द्र की मेरे द्वारा प्रेरित होकर भी उन स्तोताओं ने स्तुति नहीं की किन्तु मेरे पुत्र वृषाकपि की ही स्तुति की जिस सोम से बढ़े हुए यज्ञो में स्वामी वृषाकपि मेरा पुत्र और मेरा मित्र होकर सोमपान में हालांकि हर्षित हुआ। तो भी उन यज्ञों में मैं इन्द्र सम्पूर्ण जगत में श्रेष्ठतर हूँ। आचार्य माधव भट्ट के अनुयायी इस ऋचा को इन्द्राणी का वचन मानते हैं। उनका कहना है कि इन्द्राणी के लिए अर्पित हवि को वृषाकपि के स्थान में विद्यमान किसी अन्य मृग ( पशु ) ने दूषित कर दिया है। वहाँ इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। उस पक्ष में तो इस ऋचा का यह अर्थ है।)सोमाभिषव करने के लिए आज्ञा दिए गये यजमान सोनाभिषव की प्रक्रिया से अलग हो गये और मेरे पति इन्द्रदेव की स्तोता उस जनपद में स्तुति नहीं करते हैं। जिस जनपद में बढ़े हुए धनों में स्वामी वृषाकपि हर्षित होता है। मेरे मित्र और मेरे प्रिय इन्द्र देव सब जगत् में श्रेष्ठतर हैं।१।
परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः। नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥२॥
"अनुवाद :- हे इन्द्र तुम अत्यन्त चलकर वृषाकपि के पास जाते हो। अर्थात् अन्यत्र सोम पीने के लिए नहीं जाते हो। वही इन्द्र समस्त जगत् में श्रेष्ठतर है।२।
किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः। यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्रप उत्तरः ॥३॥
"अनुवाद :- हे इन्द्र हरित वर्ण वाले वृषाकपि ने तुम्हारा क्या प्रिय कार्य किया ? क्यों कि वृषाकपि मृग पशु) जाति का है। जिस वृषा कपि के तुम इन्द्र उदार होकर पुष्टिकर धन शीघ्र न करते हो। जो इन्द्र समस्त जगति में श्रेष्ठतर है।३।
यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि । श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥
"अनुवाद :- हे इन्द्र तुम जिस अभिलाषित वृषाकपि का पालन करते हो उस वृषाकपि को सूकर खाने की इच्छाकरने वाला कुत्ता शीघ्र भक्षण करे।और उसके कान को पकड़े । क्योंकि कुत्ता सूअर को खाना चाहता है। इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठतर है।४।
प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत् ।शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥
"अनुवाद :- मुझ इन्द्राणी के लिए यजमानों द्रारा अर्पितप्रिय और विशेषरूप से घृतयुक्त हवियोंं को वृषाकपि के स्थान में विद्मान किसी कपि ने दूषित कर दिया। तत्पश्चात् मेरी इच्छा गै कि उस कि स्वामी वृषाकपि का शिर शीघ्र काट दूँ। मैं इस दुष्ट कर्म करने वाले वृषाकपि के लिए सुखकर न होऊँ। इस मुझ इन्द्राणी के पति इन्द्र समस्त जगत् में श्रेष्ठतर हैं।५।
न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत् ।न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥६॥
मुझ इन्द्राणी से दूसरी कोई नारी अत्यन्त सौभाग्य वती नहीं है। मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी अत्यन्त सुखी अथवा सुपुत्रों वाली नहीं है। जैसा कि यह ऋचा कहती है ।६।
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वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।
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इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया।
इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है
उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्ग भविष्यति ।भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥
"अनुवाद :-"इस प्रकार इन्द्राणी द्रारा बुरा भला कहा हुआ वृषाकपि कहता है कि हे माता ! सुन्दर लाभभ मे जिस प्रकार से तुमने कहा है। वैसा ही अंग शीघ्र हो जाये । तुम्हारे इस प्रेम करने को स्वीकार करने में मेरा क्या प्रयोजन है। मेरे पिता के लिए तुम्हारी यौनि उपयुक्त हो ।और मेरे पिता के लिए तुम्हीरी जंघा उपयुक्त हो। मेरे पिता इन्द्र को आपका शिर प्रेमालाप करने में कोयल आदि पक्षी की तरह हर्षिकत करे। मेरे पिता इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।७।
इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों में ही जीवन का आनन्द खोजता है । इन्द्र शचि से कहता है कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-
किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥
"अनुवाद :- इन्द्र क्रोधित इन्द्राणी को शान्त करते हुए कहता है कि हे सुन्दर भुजाओं वाली ,सुन्दर अंगुरियों वाली बड़े बालों वाली चौड़ी जाँघो वाली तथा वीर पत्नी इन्द्राणी! तुम हमारे पुत्र वृषाकपि पर क्यो क्रोध कर रही हो।जिसका पिता मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।८।
अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥९॥
संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥
इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।नह्यस्या अपरं चन साकं मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥
नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेरृते ।यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥
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वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे । घसत्ते इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥
मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी सौभाग्य शाली नहीं है । कामनाओं की वर्षा करने से वृषभ अभीष्टदेश को जाने से इन्द्र वृषाकपि है। हे धनवाली और उत्तम पुत्र वाली और पुत्र वधू वाली शचि ! तुम्हारे ये पति इन्द्र वीर्य दान करने नें समर्थ पशु ( बैल)को शीघ्र खाऐं। और तुम्हें सुख कर हवि प्रदान करें । तुम्हारे पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।१३ ।
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उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् ।उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥
इसके बाद इन्द्र कहता है। मेरी पत्नी इन्द्राणी द्वारा भेजे हुए याज्ञिक पन्द्रह से बीस बैलों( वृषभों) को एक साथ पकाते हैं। और उन्हें मैं इन्द्र खाता हूँ । तथा उन्हें खाकर मोटा होता हूँ।मेरी मैंने कोशों को यज्ञ करने वाले सोम रस से भरते हैं। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१४।
वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत् मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥
"अनुवाद :- इसके बाद इन्द्राणी कहती है कि हे इन्द्र! जैसे तेज लिंग या सींगों वाला वृषभ गायों के समूह के बीच में आवाज करता हुआ प्रसन्न होता है। वैसे ही तुम मेरे साथ रमण( सैक्स ) करो । तुम्हारे हृदय के लिए दधिमन्थन के सयय में शब्द करता हुआ कल्याण कारी हो। तुम्हारे लिए इन्द्राणी भावाभिलाषिणी जिस सोम को अभिषुत करती है। वह सोम भी कल्याण कारी हो । मेरे पति समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१५।
न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत् । सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥
हे इन्द्र वह मनुष्य कभी मैथुन नहीं कर सकता , जिस पुरुष का लिंग जंघाओं के बीच में लम्बा होकर लटक जाता है। वही पुरुष स्त्री के साथ मैथुन कर सकता है जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग जम्हाई लेता हो । इन्द्राणी का पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१६।
न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥
अनुवाद :-वह मनुष्य मैथुन नहीं कर सकता जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग लटक जाता है।किन्तु वही मनुष्य मैथुन कर सकता है जिस मनुष्य का लिंग जंघाओं के बीच में अकड़ता जम्हाई लेता है।
शेष अर्थ पूर्ववत् है। यहाँ पूर्वोक्त का अन्तर देखने योग्य है। पहली ऋचा में इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। और उस दूसरी ऋचा में इन्द्र इन्द्राणी से कहता है। इस प्रकार दौंनों में कोई विरोध नहीं है।१७। कामशास्त्र की खुलकर वार्ता है।
अर्थ:- (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे इन्द्र (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही (यस्य कपृत्) जिसका लिंग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता लटकता है (स-इत्-ईशे) वह ही समर्थ होता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला लिंग विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह मैथुन नहीं कर सकता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमों वाला अङ्ग लिंग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर -जङ्घाओं के बीच में लिंग लम्बा होता है, वह ही स्त्रीयों पर अधिकार कर पाता है॥१७॥
अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत् ।असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥
१८ हे “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं= हिंसितं “विदत् =विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं =शस्त्रं "सूनाम्= उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं =भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “{एधस्य काष्ठस्य} “आचितं=संगृहीतं "अनः =शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥
बैल पकाने का जिक्र-
सायण- भाष्य-−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-है।(परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य- कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्) नव अन्न हवि को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः)- पकाने के लिये ईंधन के भरे अन:-छकड़े को (इन हत्या के साधनों को) चयनित कर लिया ॥१८॥
अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम् । पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥
तत्पश्चात इन्द्र कहता है। मैं इन्द्र यजमानों को देखता हुआ। दास और आर्य को अलग करता हुआ यज्ञ में जाता हूँ।तथा हवि पकाने वाले औरसोम अभिषव करने वाले यजमान का परिपक्व मन से सोम अभिषव करने वाले यजमान का सोम पीता हूँ। तथा बुद्धि मान यजमान को मैं इन्द्र देखता हूँ। जो मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१९।
धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहाँ उप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥
अनुवाद :-जल शून्य और जल विहीन देश धन्व होता है। काटने योग्य वन कृन्तत्र होता है।जो जल शून्य और वन विहीन देश होता है। ऐसा वन मृगों के निर्वासन वाला होता है। किन्तु सघन जल नहीं होता है उस शत्रु गृह और हमारे घर के बीच कितने योजनों की दूरी है। अर्थात वह हमारा घर अत्यन्त दूर नहीं हैं।अत: निकटवर्ती शत्रुगगृह से ही हे वृषाकपि ! तुम हमारे घर में विशेष रूप में चले आओ और आकर यज्ञ गृहों के समीप जाओ । क्योंकि मैं इन्द्र सबसे अधिक श्रेष्ठ हूँ।२०।
पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै । य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥
अनुवाद :-आकर वापिस गये हुए वृषाकपि से इन्द्र कहते हैं। हे वृषाकपि तुम फिर हमारी ओर आओ!और तुम्हारे आने पर तुम्हारे चित को प्रसन्न करने वाले कर्मों को इन्द्राणी और मैं इन्द्र हम दोनों विचार कर पूर्ण करें ! उदय होकर सब प्राणियों की नींद के नाशक जो सूर्य हैं जैसे वे अस्त होते हैं वैसे ही तुम मार्ग में अपने आवास को जाते हो। क्योंकि मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ ।२१।
यदुदञ्चो वृषाकपे ! गृहमिन्द्राजगन्तन । क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगञ्जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥
अनुवाद :-जाकर फिर आये हुए वृषाकपि से इन्द्र पूछते हैं। हे परम ऐश्वर्य शाली वृषाकपि ! तुम सीधे खड़े़ होकर मेरे घर में आओ ! एक वृषाकप् के लिए बहुवचन पद पूजा-( सम्मान) के लिए प्रयुक्त है। हे वृषाकपि वहाँ आप से सम्बन्धित बहुत से पाथिक( मार्गसम्बन्धी) रसों का उपभोक्ता वह मृग कहाँ रह गया अथवा मनुष्यों को हर्षित करने वाला मृग किस देश को चला गया। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ ।२२।
पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् । भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥
इन्द्र के द्वारा छोड़े जाते हुए वाण से इस मन्त्र के द्वारा वषाकपि आश करते हैं। कि हे इन्द्र द्वारा छोड़े हुए वाण पर्शु नाम की मृगी थी इस मनु पुत्री पर्ष़शु ने एक साथ बीस पुत्रों को जन्म दिया उसका उदर गर्भ में स्थित बीस पुत्रों से पुष्ट हो गया था। उस पर्शु का कल्याण हो मेरे पिता इन्द्र जगत में सबसे श्रेष्ठ हैं।२३।
सायणभाष्यम्: - मूल संस्कृत रूप-
"यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् ।निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थमहेश्वरम् ॥
अष्टमाष्टकस्य चतुर्थोऽध्याय आरभ्यते । तत्र ‘वि हि ' इति त्रयोविंशत्यृचं द्वितीयं सूक्तम् ।
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वृषाकपिर्नामेन्द्रस्य पुत्रः । स चेन्द्राणीन्द्रश्चैते त्रयः संहताः संविवादं कृतवन्तः । तत्र ‘वि हि सोतोरसृक्षत ' : किं सुबाहो स्वङ्गुरे ' ‘ इन्द्राणीमासु नारिषु ' इति द्वे ‘ उक्ष्णो हि मे ' ' अयमेमि' इति चतस्र इत्येता नवर्च इन्द्रवाक्यानि । अतस्तासामिन्द्र ऋषिः । ‘ पराहीन्द्र ' इति पञ्च ‘ अवीराम् ' इति द्वे ' वृषभो न तिग्मशृङ्गः' इत्याद्याश्चतस्र इत्येकादशर्चं इन्द्राण्या वाक्यानि । अतस्तासामिन्द्राण्यृषिः । ‘ उवे अम्ब ' ‘ वृषाकपायि रेवति ' • पशुर्ह नाम ' इति तिस्रो वृषाकपेर्वाक्यानि । अतस्तासां वृषाकपिर्ऋषिः । सर्वं सूक्तमैन्द्रं पञ्चपदापङ्क्तिच्छन्दस्कम् । तथा चानुक्रान्तं -- वि हि त्र्यधिकैन्द्रो वृषाकपिरिन्द्राणीन्द्रश्च समूदिरे पाङ्तम् ' इति । षष्ठेऽहनि ब्राह्मणाच्छंसिन उक्थ्यशस्त्र एतत्सूक्तम् । सूत्रितं च ---- ‘ अथ वृषाकपिं शंसेद्यथा होताज्याद्यां चतुर्थे ' ( आश्व. श्रौ. ८. ३) इति । यदि षष्ठे:हन्युक्थ्यस्तोत्राणि द्विपदासु न स्तुवीरन् सामगा यदि वेदमहरग्निष्टोमः स्यात्तदानीं ब्राह्मणाच्छंसी माध्यंदिने सवन आरम्भणीयाभ्यः ऊर्ध्वमेतत्सूक्तं शंसेद्विश्वजित्यपि । तथा च सूत्रितं -- सुकीर्तिं ब्राह्मणाच्छंसी वृषाकपिं च पङ्क्तिशंसम् ' (आश्व. श्रौ. ८. ४) इति ।।
॥१।।सोतोः =सोमाभिषवं कर्तुं "वि "असृक्षत । यागं प्रति मया विसृष्टा अनुज्ञाताः स्तोतारो= वृषाकपेर्यष्टारः । “हि= इति पूरणः । तत्र "देवं= द्योतमानम् "इन्द्रं मां “न “अमंसत । मया प्रेरिताः सन्तोऽपि ते स्तोतारो न स्तुतवन्तः । किंतु मम पुत्रं वृषाकपिमेव स्तुतवन्तः । "यत्र येषु “पुष्टेषु सोमेन प्रवृद्धेषु यागेषु "अर्यः= स्वामी “वृषाकपिः मम पुत्रः मत्सखा मम सखिभूतः सन् “अमदत् सोमपानेन हृष्टोऽभूत् । यद्यप्येवं तथापि “इन्द्रः अहं "विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगतः "उत्तरः =उत्कृष्टतरः। माधवभट्टास्तु वि हि सोतोरित्येषर्गिन्द्राण्या वाक्यमिति मन्यन्ते। तथा च तद्वचनम् । इन्द्राण्यै कल्पितं हविः कश्चिन्मृगोऽदूदुषदिन्द्रपुत्रस्य वृषाकपेर्विषये वर्तमानः । तत्रेन्द्रमिन्द्राणी वदति । तस्मिन्पक्षे त्वस्या ऋचोऽयमर्थः । सोतोः= सोमाभिषवं कर्तुं वि ह्यसृक्षत। उपरतसोमाभिषवा आसन् यजमाना इत्यर्थः । किंच मम पतिमिन्द्रं देवं नामंसत स्तोतारो न स्तुवन्ति । कुत्रेति अत्राह । यत्र यस्मिन् जनपदे पुष्टेषु प्रवृद्धेषु धनेष्वर्यः स्वामी वृषाकपिरमदत् । मत्सखा मत्प्रियश्चेन्द्रो विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगत उत्तरः उत्कृष्टतरः ।।
॥२।हे “इन्द्र त्वम् "अति {अत्यन्तं “व्यथिः= चलितः "वृषाकपेः =वृषाकपिं “परा “धावसि= प्रतिगच्छसि । "अन्यत्र "सोमपीतये सोमपानाय “नो "अह नैव च “प्र “विन्दसि प्रगच्छसीत्यर्थः । सोऽयम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ।
॥३।हे इन्द्र “त्वां प्रति "हरितः= हरितवर्णः "मृगः= मृगभूतः "अयं वृषाकपिः। मृगजातिर्हि =वृषाकपि। "किं प्रियं "चकार अकार्षीत् । "यस्मै वृषाकपये "पुष्टिमत्= पोषयुक्तं "वसु= धनम् "अर्यो “वा उदार इव स त्वं "नु क्षिप्रम् “इरस्यसीत् प्रयच्छस्येव । यः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥
५=“मे मह्यमिन्द्राण्यै “तष्टानि यजमानैः कल्पितानि “प्रिया प्रियाणि “व्यक्ता व्यक्तान्याज्यैर्विशेषेणाक्तानि हवींषि कश्चित् वृषाकपेर्विषये वर्तमानः "कपिः “व्यदूदुषत्= दूषयामास । ततोऽहम् “अस्य तत्कपिस्वामिनो वृषाकपेः “शिरो “नु क्षिप्रं "राविषं लुनीयाम् । "दुष्कृते दुष्टस्य कर्मणः कर्त्रे वृषाकपयेऽस्मै {"सुगं= सुखं} न "भुवम् अहं न भवेयम् । अस्मै सुखप्रदात्री न भवामीत्यर्थः । अस्या मम पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥१।
6-“मत् मत्तोऽन्या "स्त्री नारी "सुभसत्तरा अतिशयेन सुभगा "न "भुवत् न भवति । नास्तीत्यर्थः । किंच मत्तोऽन्या स्त्री "सुयाशुतरा अतिशयेन सुसुखातिशयेन
सुपुत्रा वा "न भवति । तथा च मन्त्रान्तरं -- ददाति मह्यं यादुरी =याशूनां =भोज्या शता' (ऋ. सं. १. १२६. ६) इति । किंच “मत् मत्तोऽन्या “प्रतिच्यवीयसी पुमांसं प्रति शरीरस्यात्यन्तं च्यावयित्री “न अस्ति । किंच मत्तोऽन्या स्त्री “सक्थ्युद्यमीयसी संभोगेऽत्यन्तमुत्क्षेप्त्री “न अस्ति । न मत्तोऽन्या काचिदपि नारी मैथुनेऽनुगुणं!
अयं शरारु:) यह घातक (माम्) मुझको (अवीराम् इव) अबला की भाँति (अभि मन्यते) मानता है ।(वीरिणी अस्मि) वीराङ्गना हूँ (इन्द्रपत्नी) मैं इन्द्र की पत्नी हूँ (मरुत् सखा) मरुत जिनके मित्र है। (इन्द्रः) (विश्वस्मात् उत्तर:) संसार में सबसे श्रेष्ठ है।
मुझ इन्द्राणी से दूसरी कोई नारी अत्यन्त सौभाग्य वती नहीं है। मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी अत्यन्त सुखी अथवा सुपुत्रों वाली नहीं है। जैसा कि यह ऋचा कहती है ।६।
"यह बहुत रज वाली रमणी मुझ सुना राजा को बहुत बार भोग( संभोग) प्रदान करती है। मेरे से दूसरी नारी पुरुषो को अत्यधिक रूप से अपना शरीर समर्पित करने वाली नहीं है। मेरी तुलना में दूसरी स्त्री संभोग में अपनी दौंनों जाघों को ऊपर उठाने वाली नहीं है। मेरे पति समस्त जगत में उत्कृष्ट हैं।६।
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वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।
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"इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है!
इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया।
इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है
इन्द्र शचि से कहता है कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-
"नाहमिन्द्राणि शरण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते।‘‘
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ब्याज पर उधार में दिए जाने वाली वस्तुओं में स्वर्ण, अन्न और गायों के साथ स्त्रियों का भी उल्लेख आता है।
सम्भवतः इसी कारण पी0वी0 काणे जी लिखते हैं, ‘‘ऋग्वेद (1.109.12) गलत सन्दर्भ), मैत्रायाणी संहिता (1.10.1), निरूक्त (6.9,1.3) तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.7,10) आदि के अवलोकन से यह विदित होता है कि प्राचीन काल में विवाह के लिए लड़कियों का क्रय-विक्रय होता था।‘‘
अथर्ववेदः/ काण्डं २०/सूक्तम् १२६-
अथर्ववेदः - काण्डं २० सूक्तं २०.१२६ वृषाकपिरिन्द्राणी च। |
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(अथर्ववेद 20/126)
वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।
यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१॥
परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः ।
नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२॥
किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः ।
यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥३॥
यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि ।
श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥
प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत्।
शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥
न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत्।
न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥६॥
उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्गं भविष्यति ।
भसन् मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥
किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।
किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥
अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।
उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥९॥
संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।
वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥
इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।
नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥
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नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते ।
यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥
वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे ।
घसत्त इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥
उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंसतिम् ।
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥
वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत्।
मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥
न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्।
सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥
न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते ।
सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥
अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत्।
असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥
अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन् दासमार्यम् ।
पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥
धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।
नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहामुप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥
पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै ।
य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥
यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन ।
क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगं जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥
पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् ।
भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥
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॥७-एवमिन्द्राण्या शप्तो वृषाकपिर्ब्रवीति । “उवे इति संबोधनार्थो निपातः । हे "अम्ब= मातः “सुलाभिके= शोभनलाभे त्वया "यथैव येन प्रकारेणैवोक्तं तथैव तत् "अङ्ग क्षिप्रं "भविष्यति भवतु । किमनेन त्वदनुप्रीतिकारिणा ग्रहेण मम प्रयोजनम् । किंच "मे मम पितुः त्वदीयो “भसत् भग उपयुज्यताम्। किंच मम पितुस्त्वदीयं "सक्थि चोपयुज्यताम् । किंच "मे मम पितरमिन्द्रं त्वदीयं "शिरः च प्रियालापेन “वीव यथा कोकिलादिः पक्षी तद्वत् “हृष्यति हर्षयतु । मम पिता “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः ॥
इस प्रकार इन्द्राणी के द्वारा बुरा भला कहा गया वृषाकपि कहता है। हे माता ! सुन्दर लाभ में जिस प्रकार तुमने कहा है। वैसा ही अंग शीघ्र हो जाए तुम्हारे इस प्रेम करने में मेरा क्या प्रयोजन है। मेरे पिता के लिये तुम्हारी यौनि उपयुक्त हो। और मेरे पिता के लिए तुम्हारी जंघा उपयुक्त हो। मेरे पिता को तुम्हारा सिर प्रेमालाप से कोयल आदि पक्षीयों की भाँति हर्षित करे। मेरे पिता इन्द्र समस्त जगत में उत्तम है।७।
।८-क्रुद्धामिन्द्र उपशमयति । हे “सुबाहो हे =शोभनबाहो{ "स्वङ्गुरे= शोभनाङ्गुलिके} “पृथुष्टो पृथुकेशसंघाते “पृथुजघने विस्तीर्णजघने "शूरपत्नि वीरभार्ये हे इन्द्राणि “त्वं "नः अस्मदीयं “वृषाकपिं “किं किमर्थम् "अभ्यमीषि अभिक्रुध्यसि । एकः किंशब्दः पूरणः । यस्य पिता “इन्द्रः अहं “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥
॥९-पुनरिन्द्रमिन्द्राणी ब्रवीति ।“शरारुः= घातुको मृगः “अयं वृषाकपिः “माम् इन्द्राणीम् “अवीरामिव "अभि "मन्यते विजानाति । "उत अपि च “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्या "अहम् इन्द्राणी “वीरिणी पुत्रवती " *मरुत्सखा मरुद्भिर्युक्ता च "अस्मि भवामि ।*
अनुवाद:
“[ इन्द्राणी बोलती है]: यह क्रूर जानवर ( वृशाकापि ) मुझे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में तुच्छ जानता है जिसका कोई नर (रक्षक) नहीं है, और फिर भी मैं नर संतानों की मां हूं, इंद्र की पत्नी हूं , मरुतों की मित्र ; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।”
सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य (ऋग्वेद 10/86/9)
[इंद्राणी बोलती है]: यह जंगली जानवर (वृषाकपि) मुझे ऐसे तुच्छ समझता है जैसे कि उसका कोई नर (रक्षक) नहीं है, और फिर भी मैं नर संतानों की मां हूं, इंद्र की पत्नी हूं, मरुतों की मित्र हूं; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।
१०-नारी= स्त्री “ऋतस्य= सत्यस्य "वेधाः= विधात्री “वीरिणी= पुत्रवती “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्येन्द्राणी “संहोत्रं स्म समीचीनं यज्ञं खलु “समनं= संग्रामं “वा। समितिः समनम्' इति संग्रामनामसु पाठात् । "अव प्रति “पुरा “गच्छति । “महीयते स्तोतृभिः स्तूयते च । तस्या मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ २ ॥
॥११-अथेन्द्राणीमिन्द्रः स्तौति । "आसु सौभाग्यवत्तया प्रसिद्धासु "नारिषु स्त्रीषु स्त्रीणां मध्ये “इन्द्राणीं “सुभगां सौभाग्यवतीम् "अहम् इन्द्रः “अश्रवम् अश्रौषम्। किंच “अस्याः इन्द्राण्याः “पतिः पालकः "विश्वस्मात् "उत्तरः उत्कृष्टतरः "इन्द्रः “अपरं “चन अन्यद्भूतजातमिव "जरसा =वयोहान्या ("नहि "मरते न खलु म्रियते )
। यद्वा । इदं वृषाकपेर्वाक्यम् । तस्मिन् पक्षे त्वहमिति शब्दो वृषाकपिपरतया योज्यः । अन्यत्समानम् ॥
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१३-हे वृषाकपायि । कामानां वर्षकत्वादभीष्टदेशगमनाच्चेन्द्रो वृषाकपिः । तस्य पत्नि । यद्वा । वृषाकपेर्मम मातरित्यर्थः । “रेवति धनवति "सुपुत्रे शोभनपुत्रे "सुस्नुषे शोभनस्नुषे हे इन्द्राणि "ते तवायम्
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"इन्द्रः {"उक्षणः= Oxen सेचन समर्थान् “आदु= अद् भक्षणे) अनन्तरमेव । शीघ्रमेवेत्यर्थः । पशून्- “घसत्= प्राश्नातु । किंच “काचित्करम् । कं= सुखम् । तस्याचित् संघः । तस्करं हविः "प्रियम् इष्टं कुर्विति शेषः । किंच ते पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् “उतरः । तथा च यास्कः - ‘ वृषाकपायि रेवति सुपुत्रे मध्यमेन {सुस्नुषे} पुत्रवधू-
माध्यमिकया वाचा । स्नुषा साधुसादिनीति वा साधुसानिनीति वा । प्रियं कुरुष्व सुखाचयकरं हविः सर्वस्माद्य इन्द्र उत्तरः' (निरु. १२, ९) इति
"अनुवाद :-कामनाओं की वर्षा करने से वृषभ अभीष्टदेश को जाने से इन्द्र वृषाकपि है। हे धनवाली और उत्तम पुत्र वाली और पुत्र वधू वाली शचि ! तुम्हारे ये पति इन्द्र वीर्य दान करने नें समर्थ पशु ( बैल) को शीघ्र खाऐं। और तुम्हें सुख कर हवि प्रदान करें । तुम्हारे पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।१३ ।
॥१४-अथेन्द्रो ब्रवीति । “मे =मदर्थं “पञ्चदश पञ्चदशसंख्याकान् “विंशतिं= विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः= वृषभान् "साकं= सह मम भार्ययेन्द्राण्या। प्रेरिता यष्टारः "पचन्ति =। “उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि । जग्ध्वा चाहं "पीव =“इत स्थूल एव भवामीति शेषः । किंच "मे मम “उभा= उभौ “कुक्षी “पृणन्ति= सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः ॥
इसके बाद इन्द्र कहता है। मेरी पत्नी इन्द्राणी द्वारा भेजे हुए याज्ञिक पन्द्रह से बीस बैलों( वृषभों) को एक साथ पकाते हैं। और उन्हें मैं इन्द्र खाता हूँ । तथा उन्हें खाकर मोटा होता हूँ।मेरी मैंने कोशों को यज्ञ करने वाले सोम रस से भरते हैं। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१४।
१५-अथेन्द्राणी ब्रवीति ।"{तिग्मशृङ्गः =तीक्ष्णशृङ्गः शेप: वा} "वृषभो "न यथा वृषभः "यूथेषु गोसंघेषु “अन्तः =मध्ये “रोरुवत्= शब्दं कुर्वन् गा अभिरमयति- (मैथुन करोति) तथा हे इन्द्र त्वं मामभिरमय इति शेषः । किंच “हे इन्द्र "ते =तव "हृदे हृदयाय "मन्थः =दध्नो मथनवेलायां शब्दं कुर्वन् “शं शंकरो भवत्विति शेषः । किंच "ते तुभ्यं "यं सोमं “भावयुः भावमिच्छन्तीन्द्राणी “सुनीति अभिषुणोति सोऽपि शंकरो भववित्यर्थः । मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥१५ ॥
इसके बाद इन्द्राणी कहती है कि हे इन्द्र! जैसे तेज लिंग या सींगों वाला वृषभ गायों के समूह के बीच में आवाज करता हुआ प्रसन्न होता है। वैसे ही तुम मेरे साथ रमण( सैक्स ) करो । तुम्हारे हृदय के लिए दधिमन्थन के सयय में शब्द करता हुआ कल्याण कारी हो। तुम्हारे लिए इन्द्राणी भावाभिलाषिणी जिस सोम को अभिषुत करती है। वह सोम भी कल्याण कारी हो । मेरे पति समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१५।
१६- हे इन्द्र "सः जनः “न “ईशे मैथुनं कर्तुं नेष्टे न शक्नोति "यस्य जनस्य “कपृत् =शेपः “सक्थ्या= सक्थिनी “अन्तरा "रम्बते= लम्बते । "सेत् स एव स्त्रीजने “ईशे =मैथुनं कर्तुं शक्नोति “यस्य जनस्य “निषेदुषः शयानस्य "रोमशम् उपस्थं "=विज़म्भते विवृतं भवति । यस्य च पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् “उत्तरः ॥
अश्लील अर्थ-
हे इन्द्र वह मनुष्य कभी मैथुन नहीं कर सकता , जिस पुरुष का लिंग जंघाओं के बीच में लम्बा होकर लटक जाता है। वही पुरुष स्त्री के साथ मैथुन कर सकता है जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग विस्तृत हो जाता है। इन्द्राणी का पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१६।
न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥
(अथर्ववेद में भी - काण्ड » 20; सूक्त » 126; ऋचा » 16 है।
सः) वह पुरुष (न ईशे) ऐश्वर्यवान् नहीं होता है, (यस्य) जिसका (कपृत्) लिंग (सक्थ्या अन्तरा) दोनों जंघाओं के बीच (रम्बते) नीचे लटकता है, (सः इत्) वही पुरुष (ईशे) ऐश्वर्यवान् होता है, (यस्य निषेदुषः) जिस बैठे हुए हुए]पुरुष का (रोमशम्) रोमवाला लिंग।(विजृम्भते) जम्हाई लेता है फैलता है, (इन्द्रः) इन्द्र (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१६॥
सक्थि= उरु( जाँघ) (सज्यते इति । सन्ज सङ्गे + “ असिसञ्जिभ्यां क्थिन् । “ उणा० ३ । १५४ । क्थिन् । ) ऊरुः । इत्यमरः कोश ॥ (यथा मार्कण्डेये । १८ । ४९ । “ नृणां पदे स्थिता लक्ष्मीर्निलयं संप्रयच्छति । सक्थ्नोश्च संस्थिता वस्त्रं तथा नानाविधं वसु ॥ ) शकटावयवविशेषः । इत्युणादिकोषः ॥
सक्थि शब्द यूरोपीय तथा ईरानी ईराकी भाषाओं में भी है।
Etymology-
From Proto-Indo-Iranian *sáktʰiš,(सक्थि) from Proto-Indo-European *sokʷHt-i-s (“thigh”). Cognate with Avestan 𐬵𐬀𐬑𐬙𐬌 (haxti, “thigh”), Old Armenian ազդր (azdr), Middle Persian [script needed] (h(ʾ)ht' /haxt/, “thigh”), Ossetian агъд (aǧd), Hittite [Term?] (/šakuttai/).
Noun-
सक्थि • (sákthi) n
- the thigh, thigh-bone quotations
- the pole or shafts of a cart
- (euphemistic, in the dual) the female genitals quotations
Declension-
Neuter i-stem declension of सक्थि (sákthi) |
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Further reading
- Monier Williams (1899), “सक्थि”, in A Sanskrit–English Dictionary, […], new edition, Oxford: At the Clarendon Press, →OCLC, page 1124.
शेष अर्थ पूर्ववत् है। यहाँ पूर्वोक्त का अन्तर देखने योग्य है। पहली ऋचा में इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। और उस दूसरी ऋचा में इन्द्र इन्द्राणी से कहता है। इस प्रकार दौंनों में कोई विरोध नहीं है।१७। कामशास्त्र की खुलकर वार्ता है।
अर्थ:- (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे इन्द्र (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही (यस्य कपृत्) जिसका लिंग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता लटकता है (स-इत्-ईशे) वह ही समर्थ होता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला लिंग विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह मैथुन नहीं कर सकता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमोंवाला अङ्ग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर -जङ्घाओं के बीच में लिंग विजृम्भित होता है, वह ही स्त्रीयोंपर अधिकार कर पाता है ॥१७॥
शृङ्गं हि मन्मथोद्भेदस्तदागमनहेतुकः । उत्तमप्रकृतिप्रायो रसः शृङ्गार इष्यते ॥
शृङ्ग= न॰ शॄ--गन् पृषो॰ मुम् ह्रस्वश्च।
१ पर्वतोपरिभागेसातौ अमरः कोश।
२ प्रभुत्वे
३ चिह्ने
४ जलक्रीडार्थयन्त्रभेदे(पिचकारी) लिङ्गे च। यूरोपीय रूप सिरञ्ज- syringe से साम्य- दीनां विषाणे (शृङ्गा)
६ उत्कर्षे चमेदि॰।
७ ऊर्ये
८ तीक्ष्णे
९ पद्मे च शब्दर॰
१० महिष- शृङ्गनिर्मितवाद्यभेदे (शिङ्ग)
११ कामोद्रेके साहित्यदर्पण- शृङ्गार शब्दे दृश्यम्।
१२ कूर्चशीर्षकवृक्षे पु॰ मेदिनीकोश।
syringe (noun) (latin-suringa) (Greek-syringa,)
सिरिंज (संज्ञा) संकीर्ण ट्यूब," जो"तरल धारा इंजेक्ट करने के लिए 15-वीं सदी की शुरुआत में.प्रयोग होता था (पहले यह सुरिंगा, 14वीं सदी के अंत में था), जो लेट लैटिन के (सिरिंज,)(श्रृंगा-) से ग्रीक के (सिरिंज,) सिरिंक्स से आया।
"ट्यूब, होल, चैनल, शेफर्ड पाइप," सिरिजिन से संबंधित "पाइप, सीटी, फुसफुसाहट के लिए" ,'' श्रृँग - सींग -से सम्बन्धित हैं।
१८ हे “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं= हिंसितं “विदत् =विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं =शस्त्रं "सूनाम्= उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं =भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “{एधस्य काष्ठस्य} “आचितं पूर्णम् "अनः =शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥
बैल पकाने का जिक्र-
−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-है।(परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्) नव अन्न हवि को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः) जलाने के लिये ईंधन के भरे शकट-छकड़े को इन हत्या के साधनों को अपने अधीन कर लिया, ॥१८॥
______________________
॥१९-अथेन्द्रो ब्रवीति । "विचाकशत् पश्यन् यजमानान् “दासम्= उपक्षपयितारम् {सुरम्= "आर्यम् }अपि च "विचिन्वन् = पृथक्कुर्वन् "अयम् अहमिन्द्रः “एमि= यज्ञं प्रति गच्छामि। यज्ञं गत्वा च “पाकसुत्वनः । पचतीति =पाकः । सुनोतीति =सुत्वा । हविषां पक्तुः सोमस्याभिषोतुर्यजमानस्य पाकेन विपक्वेन मनसा सोमस्याभिषोतुर्वा यजमानस्य संबन्धिनं सोमं "पिबामि । तथा “धीरं धीमन्तं यजमानम् "अभि "अचाकशम्= अभिपश्यामि । योऽहम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः॥
॥२०"धन्व निरुदकोऽरण्यरहितो देशः । "कृन्तत्रं कर्तनीयमरण्यम् । "यत् यत् "च “धन्व "च कृन्तत्रं च भवति । मृगोद्वासमरण्यमेवंविधं भवति न त्वत्यन्तविपिनम् । तस्य शत्रुनिलयस्यास्मदीयगृहस्य च मध्ये "कति "स्वित् “ता तानि “योजना योजनानि स्थितानि । नात्यन्तदूरे तद्भवतीत्यर्थः । अतः "नेदीयसः अतिशयेन समीपस्थाच्छत्रुनिलयात् हे "वृषाकपे त्वम् "अस्तम् अस्माकं गृहं “वि “एहि विशेषेणागच्छ । आगत्य च "गृहान् यज्ञगृहान् "उप गच्छ । यतोऽहम् "इन्द्रः सर्वस्मादुत्कृष्टः ॥
२१-आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥
२२-गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र= परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन =आगच्छ ।
एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् =अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः-- ‘यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥
२३-इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । ("पर्शुः "नाम मृगी) । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं= सह "ससूव= अजीजनत् । "त्यस्यै =तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् =भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या
"उदरमामयत्= गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥
Yima (Yama) – the first mortal king to have ruled. He was favored by the gods and given supernatural powers. When the population grew too large, he enlarged the world and also saved the world when the gods informed him a bitter winter was coming and he enclosed animals, vegetation, and seeds in a giant barn (a tale preceding the biblical narrative of Noah and his Ark) to preserve life. He fell from divine grace when he began to think more highly of himself than he should have. Even so, for his virtuous service, he was made Lord of the Dead, and the afterlife was initially known as Yima's Realm.
Jamshid (Jam, Yima Kshaeta) – the fourth king of the world who brought civilization to its greatest height, initiated the construction of cities, established social hierarchy, and introduced winemaking. According to one part of his legend, Jamshid banished a woman of his harem who, in attempting to commit suicide afterwards, drank a bottle of fermented grape juice thinking it was poison. When she found it produced pleasing sensations, she brought the rest to Jamshid who reinstated her and decreed that grapes should be used in making wine.
Indar – the early god of courage, bravery, heroism, and warfare.
Indra – the demon of apostasy who encouraged the abandonment of religious practice and true faith.
Haoma सोम:– god of the harvest, health, strength, and vitality; personification of the haoma plant whose juices brought enlightenment and of which Gaokerena was the greatest and largest.
Daevas व- – the mostly male demons in the service of Angra Mainyu who spread lies and disorder in the world. They are the sworn enemies of the Amesha Spentas and all that is good and work closely with the drujs who are mostly female demons.
Dev – demon of war and the terror of war, one of the most powerful daevas, completely lacking in morality or compassion.
Atar अत्रि- – the god of fire who is also the personification of fire and physically present when fires are lighted. He is associated with light, righteousness, and purity.
२१-आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥
२२-गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र= परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन =आगच्छ ।
एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् =अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः---- ‘ यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥
२३-इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । ("पर्शुः "नाम मृगी) । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं= सह "ससूव= अजीजनत् । "त्यस्यै =तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् =भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या
"उदरमामयत्= गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥
Yima (Yama) – the first mortal king to have ruled. He was favored by the gods and given supernatural powers. When the population grew too large, he enlarged the world and also saved the world when the gods informed him a bitter winter was coming and he enclosed animals, vegetation, and seeds in a giant barn (a tale preceding the biblical narrative of Noah and his Ark) to preserve life. He fell from divine grace when he began to think more highly of himself than he should have. Even so, for his virtuous service, he was made Lord of the Dead, and the afterlife was initially known as Yima's Realm.
Jamshid (Jam, Yima Kshaeta) – the fourth king of the world who brought civilization to its greatest height, initiated the construction of cities, established social hierarchy, and introduced winemaking. According to one part of his legend, Jamshid banished a woman of his harem who, in attempting to commit suicide afterwards, drank a bottle of fermented grape juice thinking it was poison. When she found it produced pleasing sensations, she brought the rest to Jamshid who reinstated her and decreed that grapes should be used in making wine.
Indar – the early god of courage, bravery, heroism, and warfare.
Indra – the demon of apostasy who encouraged the abandonment of religious practice and true faith.
Haoma सोम:– god of the harvest, health, strength, and vitality; personification of the haoma plant whose juices brought enlightenment and of which Gaokerena was the greatest and largest.
Daevas व- – the mostly male demons in the service of Angra Mainyu who spread lies and disorder in the world. They are the sworn enemies of the Amesha Spentas and all that is good and work closely with the drujs who are mostly female demons.
Dev – demon of war and the terror of war, one of the most powerful daevas, completely lacking in morality or compassion.
Atar अत्रि- – the god of fire who is also the personification of fire and physically present when fires are lighted. He is associated with light, righteousness, and purity.
यूरोपीय पुरातन कथाओं में इन्द्र को "एण्ड्रीज" (Andreas) के रूप में वर्णन किया गया है । जिसका अर्थ होता है शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ।
🌅⛵
Andreas - son of the river god peneus and founder of orchomenos in Boeotia।
Andreas Ancient Greek - German was the son of river god peneus in Thessaly from whom the district About orchomenos in Boeotia was called Andreas in Another passage pousanias speaks of Andreas( it is , however uncertain whether he means the same man as the former) as The person who colonized the island of Andros ....
अर्थात् इन्द्र थेसिली में एक नदी देव पेनियस का पुत्र था । जिससे एण्ड्रस नामक द्वीप नामित हुआ
पेनिस - लिंगेन्द्रीय का वाचक है। _____________________________
"डायोडॉरस के अनुसार .." ग्रीक पुरातन कथाओं के अनुसार एण्ड्रीज (Andreas) रॉधामेण्टिस (Rhadamanthys) से सम्बद्ध था । रॉधमेण्टिस ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र और मिनॉस (मनु) का भाई था ।
ग्रीक पुरातन कथाओं में किन्हीं विद्वानों के अनुसार एनियस (Anius) का पुत्र एण्ड्रस( Andrus) के नाम से एण्ड्रीज प्रायद्वीप का नामकरण करता है।
जो अपॉलो का पुजारी था परन्तु पूर्व कथन सत्य है । ग्रीक भाषा में इन्द्र शब्द का अर्थ शक्ति-शाली पुरुष है । जिसकी व्युत्पत्ति- ग्रीक भाषा के ए-नर (Aner) शब्द से हुई है ।
जिससे एनर्जी (energy) शब्द विकसित हुआ है। संस्कृत भाषा में{ अन् =श्वसने प्राणेषु च }के रूप में वैदिक कालीन धातु विद्यमान है ।
जिससे प्राण तथा अणु जैसे शब्दों का विकास हुआ है।
कालान्तरण में वैदिक भाषा में नर शब्द भी इसी रूप से व्युत्पन्न हुआ .... वेल्स भाषा में भी नर व्यक्ति का वाचक है । फ़ारसी मे नर शब्द तो है ।
परन्तु इन्द्र शब्द नहीं है इनदर है। वेदों में इन्द्र को वृत्र का शत्रु बताया है।यह सर्व विदित है।
वृत्र को केल्टिक माइथॉलॉजी मे (ए-बरटा) ( Abarta ) कहा है । जो वहाँ दनु और त्वष्टा परिवार का सदस्य है ।
इन्द्रस् देवों का नायक अथवा यौद्धा था ।
भारतीय पुरातन कथाओं में त्वष्टा को इन्द्र का पिता बताया है।
शम्बर को ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के सूक्त १४ / १९ में कोलितर कहा है पुराणों में इसे दनु का पुत्र कहा है । जिसे इन्द्र मारता है । ऋग्वेद में इन्द्र पर आधारित २५० सूक्त हैं । यद्यपि कालान्तरण में सुरों के नायक को ही इन्द्र उपाधि प्राप्त हुई ।
अत: कालान्तरण में भी जब देवोपासक भू- मध्य रेखीय भारत भूमि में आये ... जहाँ भरत अथवा वृत्र की अनुयायी व्रात्य ( वारत्र )नामक जन जाति पूर्वोत्तरीय स्थलों पर निवास कर रही थी।
भारत में भी यूरोप से आगत सुरों की सांस्कृतिक मान्यताओं में भी स्वर्ग उत्तर में है । और नरक दक्षिण में है ।
स्मृति रूप में अवशिष्ट रहीं ... और विशेष तथ्य यहाँ यह है कि नरक के स्वामी यम हैं यह मान्यता भी यहीं से मिथकीय रूप में स्थापित हुई ।
नॉर्स माइथॉलॉजी के ग्रन्थ प्रॉज-एड्डा में नारके का अधिपति यमीर को बताया गया है।
यमीर यम ही यूरोपीय रूपान्तरण है । हिम शब्द संस्कृत में यहीं से विकसित है यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में हीम( Heim) शब्द हिम के लिए आज भी यथावत है।
नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में यमीर (Ymir) Ymir is a primeval being , who was born from venom that dripped from the icy - river earth from his flesh and from his blood the ocean , from his bones the hills from his hair the trees from his brains the clouds from his skull the heavens from his eyebrows middle realm in which mankind lives" _______________________________
(Norse mythology prose adda) अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है। यह हिम नद से उत्पन्न , नदी और समुद्र का अधिपति हो गया । पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए .. ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी । वहाँ यम को यम रूप में ही नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है।
जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है, यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी
बाल्टिक सागर के तट वर्ती प्रदेशों पर दीर्घ काल तक क्रीडाऐं करते रहे .
पश्चिमी बाल्टिक सागर के तटों पर इन्हीं देव संस्कृति के अनुयायीयों ने मध्य जर्मन स्केण्डिनेवीया द्वीपों से उतर कर बोल्गा नदी के द्वारा दक्षिणी रूस .त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर प्रवास किया आर्यों के प्रवास का सीमा क्षेत्र बहुत विस्तृत था । आर्यों की बौद्धिक सम्पदा यहाँ आकर विस्तृत हो गयी थी ।
मनुः जिसे जर्मन आर्यों ने मेनुस् (Mannus) कहा आर्यों के पूर्व - पिता के रूप में प्रतिष्ठित थे ! मेन्नुस mannus( थौथा) (त्वष्टा)--(Thautha ) की प्रथम सन्तान थे !
मनु के विषय में रोमन लेखक टेकिटस (tacitus) के अनुसार---- Tacitus wrote that mannus was the son of tuisto and The progenitor of the three germanic tribes ---ingeavones--Herminones and istvaeones .... ____________________________________ in ancient lays, their only type of historical tradition they celebrate tuisto , a god brought forth from the earth they attribute to him a son mannus, the source and founder of their people and to mannus three sons from whose names those nearest the ocean are called ingva eones , those in the middle Herminones, and the rest istvaeones some people inasmuch as anti quality gives free rein to speculation , maintain that there were more tribal designations- Marzi, Gambrivii, suebi and vandilii-__and that those names are genuine and Ancient Germania ____________________________________________
Chapter 2 ग्रीक पुरातन कथाओं में मनु को मिनॉस (Minos)कहा गया है । जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र तथा क्रीट का प्रथम राजा था । जर्मन जाति का मूल विशेषण डच (Dutch) था । जो त्वष्टा नामक इण्डो- जर्मनिक देव ही है ।
टेकिटिस लिखता है , कि Tuisto ( or tuisto) is the divine encestor of German peoples...... ट्वष्टो tuisto---tuisto--- शब्द की व्युत्पत्ति- भी जर्मन भाषाओं में *Tvai----" two and derivative *tvis --"twice " double" thus giving tuisto--- The Core meaning -- double अर्थात् द्वन्द्व -- अंगेजी में कालान्तरण में एक अर्थ द्वन्द्व- युद्ध (dispute / Conflict )भी होगया यम और त्वष्टा दौनों शब्दों का मूलत: एक समान अर्थ था इण्डो-जर्मनिक संस्कृतियों में मिश्र की पुरातन कथाओं में त्वष्टा को (Thoth) अथवा tehoti ,Djeheuty कहा गया जो ज्ञान और बुद्धि का अधिपति देव था । ____________________________________
आर्यों में यहाँ परस्पर सांस्कृतिक भेद भी उत्पन्न हुए विशेषतः जर्मन आर्यों तथा फ्राँस के मूल निवासी गॉल ( Goal ) के प्रति जो पश्चिमी यूरोप में आवासित ड्रूयूडों की ही एक शाखा थी l जो देवता (सुर ) जर्मनिक जन-जातियाँ के थे लगभग वही देवता ड्रयूड पुरोहितों के भी थे । यही ड्रयूड( druid ) भारत में द्रविड कहलाए
इन्हीं की उपशाखाऐं वेल्स (wels) केल्ट (celt )तथा ब्रिटॉन (Briton )के रूप थीं जिनका तादात्म्य (एकरूपता ) भारतीय जन जाति क्रमशः भिल्लस् ( भील ) किरात तथा भरतों से प्रस्तावित है ये भरत ही व्रात्य ( वृत्र के अनुयायी ) कहलाए आयरिश अथवा केल्टिक संस्कृति में वृत्र का रूप अवर्टा ( Abarta ) के रूप में है यह एक देव है। जो थौथा (thuatha) (जिसे वेदों में त्वष्टा कहा है !) और दि - दानन्न ( वैदिक रूप दनु ) की सन्तान है .
Abarta an lrish / celtic god amember of the thuatha त्वष्टाः and De- danann his name means = performer of feats अर्थात् एक कैल्टिक देव त्वष्टा और दनु परिवार का सदस्य वृत्र या Abarta जिसका अर्थ है कला या करतब दिखाने बाला देव यह अबर्टा ही ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटों Briton का पूर्वज और देव था इन्हीं ब्रिटों की स्कोट लेण्ड ( आयर लेण्ड ) में शुट्र--- (shouter )नाम की एक शाखा थी , जो पारम्परिक रूप से वस्त्रों का निर्माण करती थी ।
वस्तुतःशुट्र फ्राँस के मूल निवासी गॉलों का ही वर्ग था , जिनका तादात्म्य भारत में शूद्रों से प्रस्तावित है , ये कोल( कोरी) और शूद्रों के रूप में है ।
जो मूलत: एक ही जन जाति के विशेषण हैं एक तथ्य यहाँ ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में जर्मन आर्यों और गॉलों में केवल सांस्कृतिक भेद ही था जातीय भेद कदापि नहीं ।
क्योंकि आर्य शब्द का अर्थ यौद्धा अथवा वीर होता है । यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में इसका यही अर्थ है ।
बाल्टिक सागर से दक्षिणी रूस के पॉलेण्ड त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर बॉल्गा नदी के द्वारा कैस्पियन सागर होते हुए भारत ईरान आदि स्थानों पर इनका आगमन हुआ ।
आर्यों के ही कुछ क़बीले इसी समय हंगरी में दानव नदी के तट पर परस्पर सांस्कृतिक युद्धों में रत थे ।
भरत जन जाति यहाँ की पूर्व अधिवासी थी संस्कृत साहित्य में भरत का अर्थ जंगली या असभ्य किया है।
और भारत देश के नाम करण कारण यही भरत जन जाति थी ।भारतीय प्रमाणतः जर्मन आर्यों की ही शाखा थे जैसे यूरोप में पाँचवीं सदी में जर्मन के ऐंजीलस कबीले के आर्यों ने ब्रिटिश के मूल निवासी ब्रिटों को परास्त कर ब्रिटेन को एञ्जीलस - लेण्ड अर्थात् इंग्लेण्ड कर दिया था और ब्रिटिश नाम भी रहा जो पुरातन है ।
इसी प्रकार भारत नाम भी आगत आर्यों से पुरातन है दुष्यन्त और शकुन्तला पुत्र भरत की कथा बाद में जोड़ दी गयी जैन साहित्य में एक भरत ऋषभ देव परम्परा में थे। जिसके नाम से भारत शब्द बना।
इस लिए द्रविड और शूद्र शब्द भी यूरोपीय मूल के हैं।
आर्य द्रविड और शूद्र थ्योरी सत्यनिष्ठ नहीं है।
दिया. इसलिए अधिकतर लोग संस्कृत भाषा बोलने लगे.
संस्कृत बोलने वाले सीरिया के इस साम्राज्य के बारे में पहले जानते थे।
इंडो-आर्यन परम्परा में . इन्द्र नाम की सबसे पुरानी तारीख़ी घटना 14-वीं सदी ईसापूर्व की बोगाज़कोय की प्रसिद्ध हित्ती-मितानी संधि में है। जहां मितन्नी( मितज्ञु) दैवीय गवाहों के रूप में मित्र-वरुण, इंद्र और नासत्य का आह्वान करते हैं
यह सन्देश कीलाक्षर लिपि में है। जो उस समय सुमेर की लिपि थी।
मितन्नी "एमोराइट-(मरुत) तथा हित्ती ये सुमेरियन जातियाँ थी।
यदु और तुर्वसु को जब पुरोहितों ने नहीं छोड़ा तो उनके वंशज कृष्ण को कैसे छोड़ के।
पदों का अर्थ:-(यः) जो (युवा) जवानी युक्त (इन्द्रः) इन्द्र देव (सुनीती) सुन्दर न्याय से (परावतः)- दूरदेशात् दूर देश से भी -परा+अव--वा० अति । १ दूरदेशे निघण्टुः (तुर्वशम्) तुर्वसु को (यदुम्) यदु को (आ) सब प्रकार से (अनयत्) लङ्(अनद्यतन भूत) वह इन्द्र ले गया । (सः) वह (नः) हम लोगों का (सखा) मित्र हो ॥१॥
ऋग्वेद 6.45.1 व्याकरण का अंग्रेजी विश्लेषण]
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग
“यदु; यदु।” इंद्रः < इंद्र
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग
"यह; वह, वह, यह (निरर्थक सर्वनाम); संबंधित(ए); वह; कर्तावाचक; तब; विशेष(ए); संबंधकारक; वाद्य; आरोपवाचक; वहाँ; बालक [शब्द]; संप्रदान कारक; एक बार; वही।"
[संज्ञा], संबंधवाचक, बहुवचन"मैं; मेरा।"
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग; साथी; सखी [शब्द]।”
लुट्(अनद्यतन भविष्यत् ष्णै=बन्धने वेष्टने वा" ) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रथमपुरुषः | स्नाता | स्नातारौ | स्नातारः |
मध्यमपुरुषः | स्नातासि | स्नातास्थः | स्नातास्थ |
उत्तमपुरुषः | स्नातास्मि | स्नातास्वः | स्नातास्मः |
लुट्(अनद्यतन भविष्यत् - ष्ना= शुचौ स्नाने वा" ) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रथमपुरुषः | स्नाता | स्नातारौ | स्नातारः |
मध्यमपुरुषः | स्नातासि | स्नातास्थः | स्नातास्थ |
उत्तमपुरुषः | स्नातास्मि | स्नातास्वः | स्नातास्मः |
कृष्ण की अवधारणा भारत है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के मोहन -जोदारो में कृष्ण की बाल लीला सम्बन्धी भित्ति चित्र है।
वेदों में इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णित है।
लङ्(अनद्यतन भूत) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रथमपुरुषः | आवत्=युद्ध किया |
इति - समापनम्★•
पुराणों में श्री कृष्ण की आयु ( जीवन काल) और उनकी लौकिक लीलाऐं-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः 4 (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय 129 श्री कृष्ण के गोलोक गमन तथा उनकी १२५ वर्ष की आयु का विवरण-)
विषय सूची
१ कृष्ण काल
२ कृष्ण का समय
३ कंस के समय मथुरा
४ प्राचीनतम संस्कृत साहित्य
५ पुराणेतर ग्रंथ

संसार में एक कृष्ण ही हुए जिन्होंने फिलॉसोफी को गीत बनाकर अपनी मुरली की तानों पर गुनगुनाया है।
श्रीकृष्ण के समय का निर्धारण विभिन्न विद्वानों ने किया है ।
कई विद्वान श्री कृष्ण को 3500 वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मानते है ।
भारतीय मान्यता के अनुसार कृष्ण का काल 5000 वर्ष से भी कुछ अधिक पुराना लगता है । इसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार भी कुछ विद्वानों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है ।
श्रीकृष्ण का समय के संबंध में श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी का मत- "वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई॰ पू० 1500 माना जाता है।
ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड कृष्ण की आयु 125 वर्ष निर्धारित करता है।
अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहते हुए भी जीवन के यथार्थ की व्यवहारिक व्याख्या की ।
उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ ।
बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक प्रान्तो में भी जाना पडा़ ।
जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत आदि में मिलती है
वैदिक साहित्य में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है विशेषत: ऋग्वेद में और उसमें भी उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है।
एक विचारक डॉ० प्रभुदयाल मित्तल द्वारा प्रस्तुत प्रमाण कृष्ण काल को 5000 वर्ष पूर्व का प्रमाणित करते हैं उन्होंने छांदोग्योपनिषद के श्लोक का हवाला दिया है ।
ज्योतिष का प्रमाण देते हुए श्री मित्तल लिखते हैं- "मैत्रायणी उपनिषद और शतपथ ब्राह्मण के “कृतिका स्वादधीत” उल्लेख से तत्कालीन खगोल-स्थिति की गणना कर ट्रेनिंग कालेज, पूना के गणित प्राध्यापक स्व. शंकर बालकृष्ण दीक्षित महोदय ने मैत्रायणी उपनिषद की ईसवी सन् ने 1600 पूर्व का और शतपथ ब्राह्मण को 3000 वर्ष का माना था ।
मैत्रायणी उपनिषद सबसे पीछे का उपनिषद कहा जाता है और उसमें छांदोग्य उपनिषद के अवतरण मिलते है, इसलिए छांदोग्य मैत्रीयणी से पूर्व का उपनिषद हुआ।
शतपथ ब्राह्मण और उपनिषद आजकल के विद्वानों के मतानुसार एक ही काल की रचनाएं हैं, अत: छांदोग्य का काल भी ईसा से 3000 वर्ष पूर्व का हुआ।
छांदोग्य उपनिषद में देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख मिलता है ( छान्दोग्य उपनिषद,प्रथम भाग,खण्ड 17) “देवकी पुत्र” विशेषण के कारण उक्त उल्लेख के कृष्ण स्पष्ट रूप से वृष्णि वंश के कृष्ण हैं।
इस प्रकार कृष्ण का समय प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का ज्ञात होता है ।" - डा प्रभुदयाल मित्तल डॉ० मित्तल ने किस आधार पर छांदोग्योपनिषद को 5000 वर्ष प्राचीन बताया है यह कहीं उल्लेख नहीं है ।
छांदोग्योपनिषद के ई पू 500 से 1000 वर्ष से अधिक प्राचीन होने के प्रमाण नहीं मिलते ।
कृष्ण का समय
डा॰ मित्तल लिखते हैं -" परीक्षित के समय में सप्तर्षि (आकाश के सात तारे) मघा नक्षत्र पर थे, जैसा शुक्रदेव द्वारा परीक्षित से कहे हुए वाक्य से प्रमाणित है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सप्तर्षि एक नक्षत्र पर एक सौ वर्ष तक रहते है । आजकल सप्तर्षि कृतिका नक्षत्र पर है जो मघा से 21 वां नक्षत्र है।
इस प्रकार मघा के कृतिक पर आने में 2100 वर्ष लगे हैं।
किंतु यह 2100 वर्ष की अवधि महाभारत काल कदापि नहीं है।
इससे यह मानना होगा कि मघा से आरम्भ कर 27 नक्षत्रों का एक चक्र पूरा हो चुका था और दूसरे चक्र में ही सप्तर्षि उस काल में मघा पर आये थे।
पहिले चक्र के 2700 वर्ष में दूसरे चक्र के 2100 वर्ष जोड़ने से 4800 वर्ष हुए ।
यह काल परीक्षित की विद्यमानता का हुआ । परीक्षित के पितामह अर्जुन थे, जो आयु में श्रीकृष्ण से 18 वर्ष छोटे थे । इस प्रकार ज्योतिष की उक्त गणना के अनुसार कृष्ण-काल अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का सिद्ध होता है ।"
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आजकल के चैत्र मास के वर्ष का आरम्भ माना जाता है, जब कि कृष्ण काल में वह मार्गशीर्ष से होता था ।बसन्त ऋतु भी इस काल में मार्गशीर्ष माह में होती थी।
महाभारत में मार्गशीर्ष मास से ही कई स्थलों पर महीनों की गणना की गयी है । गीता में जहाँ भगवान की विभूतियों का वर्णन हुआ हैं, वहाँ “मासानां मार्गशीर्षोऽहम” और “ऋतुनां कुसुमाकर” के उल्लेखों से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है ।
ज्योतिष शास्त्र के विद्धानों ने सिद्ध किया है कि मार्गशीर्ष में वसन्त सम्पात अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व होता था । (भारतीय ज्योतिषशाला,पृष्ठ 34) इस प्रकार भी श्रीकृष्ण काल के 5000 वर्ष प्राचीन होने की पुष्टि होती है ।
श्रीकृष्ण द्वापर युग के अन्त और कलियुग के आरम्भ के सन्धि-काल में विद्यमान थे । भारतीय ज्योतिषियों के मतानुसार कलियुग का आरम्भ शक संवत से 3176 वर्ष पूर्व की चैत्र शुक्ल 1 को हुआ था । आजकल 1887 शक संवत है ।
इस प्रकार कलियुग को आरम्भ हुए 5066 वर्ष हो गये है । कलियुग के आरम्भ होने से 6 माह पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल 14 को महाभारत का युद्ध का आरम्भ हुआ था, जो 18 दिनों तक चला था । उस समय श्रीकृष्ण की आयु 83 वर्ष की थी । उनका तिरोधान 119 वर्ष की आयु में हुआ था।
परन्तु ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड कृष्ण की आयु125 वर्ष वर्णन करता है।
इस प्रकार भारतीय मान्यता के अनुसार श्रीकृष्ण विद्यमानता या काल शक संवत पूर्व 3263 की भाद्रपद कृष्ण. 8 बुधवार के शक संवत पूर्व 3144 तक है । भारत के विख्यात ज्योतिषी वराह मिहिर, आर्यभट, ब्रह्मगुप्त आदि के समय से ही यह मान्यता प्रचलित है ।
भारत का सर्वाधिक प्राचीन युधिष्ठिर संवत जिसकी गणना कलियुग से 40 वर्ष पूर्व से की जाती है, उक्त मान्यता को पुष्ट करता है ।
पुरातत्ववेत्ताओं का मत है कि अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व एक प्रकार का प्रलय हुआ था । उस समय भयंकर भूकम्प और आंधी तूफानों से समुद्र में बड़ा भारी उफान आया था । उस समय नदियों के प्रवाह परिवर्तित हो गये थे, विविध स्थानों पर ज्वालामुखी पर्वत फूट पड़े थे और पहाड़ के श्रृंग टूट-टूटकर गिर गये थे ।
वह भीषण दैवी दुर्घटना वर्तमान इराक में बगदाद के पास और वर्तमान मैक्सिको के प्राचीन प्रदेशों में हुई थी, जिसका काल 5000 वर्ष पूर्व का माना जाता है । उसी प्रकार की दुर्घटनाओं का वर्णन महाभारत और भागवत आदि पुराणों भी मिलता है । इनसे ज्ञात होता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात उसी प्रकार के भीषण भूकम्प हस्तिनापुर और द्वारिका में भी हुए थे, जिनके कारण द्वारिका तो सर्वथा नष्ट ही हो गयी थी ।
बगदाद(ईराक) और हस्तिनापुर तथा प्राचीन मग प्रदेश( ईरान) और द्वारिका प्राय: एक से आक्षांशों पर स्थित हैं, अत: उनकी दुर्घटनाओं का पारिस्परिक सम्बन्ध विज्ञान सम्मत है ।
बगदाद प्रलय के पश्चात वहाँ बताये गये “उर” नगर को तथा मैक्सिको (दक्षिणी अमेरिका, ) स्थित मय प्रदेश के ध्वंस को जब 5000 वर्ष प्राचीन माना जा सकता है, जब महाभारत और भागवत में वर्णित वैसी ही घटनाओं, जो कृष्ण के समय में हुई थी, उसी काल का माना जायगा । ऐसी दशा में पुरातत्व के साक्ष्य से भी कृष्ण-काल 5000 वर्ष प्राचीन सिद्ध होता है ।
यह दूसरी बात है कि महाभारत और भागवत ग्रंथों की रचना बहुत बाद में हुई थी, किंतु उनमें वर्णित कथा 5000 वर्ष पुरानी ही है ।
ज्योतिष और पुरातत्व के अतिरिक्त इतिहास के प्रमाण से भी कृष्ण-काल विषयक भारतीय मान्यता की पुष्टि होती है । यवन नरेश सैल्युक्स ने मैगस्थनीज नामक अपना एक राजदूत भारतीय नरेश चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा था । मैगस्थनीज ने उस समय के अपने अनुभव लेखबद्ध किये थे ।
इस समय उस यूनान राजदूत का मूल ग्रंन्थ तो नहीं मिलता है, किंतु उसके जो अंश एरियन आदि अन्य यवन लेखकों ने उद्धृत किये थे, वे प्रकाशित हो चुके है ।
मैगस्थनीज ने लिखा है कि मथुरा में शौरसेनी लोगों का निवास है । वे विशेष रूप से हरकुलीज (हरि कृष्ण) की पूजा करते है । उनका कथन है कि डायोनिसियस के हरकुलीज 15 पीढ़ी और सेण्ड्रकोटस (चन्द्रगुप्त) 153 पीढ़ी पहले हुए थे । इस प्रकार श्रीकृष्ण और चन्द्रगुप्त में 138 पीढ़ियों के 2760 वर्ष हुए।
चन्द्रगुप्त का समय ईसा से 326 वर्ष पूर्व है । इस हिसाब से श्रीकृष्ण काल अब से (1965+326+2760) 5051 वर्ष पूर्व सिद्ध होता है ।
कंस के समय मथुरा-
कंस के समय में मथुरा का क्या स्वरूप था, इसकी कुछ झलक पौराणिक वर्णनों में देखी जा सकती है। यद्यपि ये वर्णन अतिशयक्ति पूर्ण व काव्यात्मक ही हैं।
जब श्रीकृष्ण ने पहली बार इस नगरी को देखा तो भागवतकार के शब्दों में उसकी शोभा इस प्रकार थी।
'उस नगरी के प्रवेश-द्वार ऊँचे थे और स्फटिक पत्थर के बने हुए थे। उनके बड़े-बड़े सिरदल और किवाड़ सोने के थे।
नगरी के चारों ओर की दीवाल (परकोटा) ताँबे और पीतल की बनी थी तथा उसके नीचे की खाई दुर्लभ थी।
नगरी अनेक उद्यानों एक सुन्दर उपवनों से शोभित थी।'
'सुवर्णमय चौराहों, महलों, बगीचियों, सार्वजनिक स्थानों एवं विविध भवनों से वह नगरी युक्त थी। वैदूर्य, बज्र, नीलम, मोती, हीरा आदि रत्नों से अलंकृत छज्जे, वेदियां तथा फर्श जगमगा रहे थे और उन पर बैठे हुए कबूतर और मोर अनेक प्रकार के मधुर शब्द कर रहे थे। गलियों और बाज़ारों में, सड़कों तथा चौराहों पर छिड़काव किया गया था। और उन पर जहाँ-तहाँ फूल-मालाएँ,
दूर्वा-दल, लाई और चावल बिखरे हुए थे।'
'मकानों के दरवाजों पर दही और चन्दन से अनुलेपित तथा जल से भरे हुए मङल-घट रखे हुए थे, फूलों, दीपावलियों, बन्दनवारों तथा फलयुक्त केले और सुपारी के वृक्षों से द्वार सजाये गये थे और उन पर पताके और झड़ियाँ फहरा रही थी।'
उपर्युक्त वर्णन कंस या कृष्ण कालीन मथुरा से कहाँ तक मेल खाता है, यह बताना कठिन है। परन्तु इससे तथा अन्य पुराणों में प्राप्त वर्णनों से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि तत्कालीन मथुरा एक समृद्ध पुरी थी। उसके चारों ओर नगर-परकोटा थी तथा नगरी में उद्यानों का बाहुल्य था। मोर पक्षियों की शायद इस समय भी मथुरा में अधिकता थी। महलों, मकानों, सड़कों और बाज़ारों आदि के जो वर्णन मिलते है उनसे पता चलता है कि कंस के समय की मथुरा एक धन-धान्य सम्पन्न नगरी थी।
इस प्रकार भारतीय विद्वानों के सैकड़ों हज़ारों वर्ष प्राचीन निष्कर्षों के फलस्वरूप कृष्ण-काल की जो भारतीय मान्यता ज्योतिष, पुरातत्व और इतिहास से भी परिपुष्ट होती है, उसे न मानने का कोई कारण नहीं है ।
आधुनिक काल के विद्वानों इतिहास और पुरातत्व के जिन अनुसन्धानों के आधार पर कृष्ण-काल की अवधि 3500 वर्ष मानते है, वे अभी अपूर्ण हैं इस बात की पूरी सम्भावना है कि इन अनुसन्धानों के पूर्ण होने पर वे भी भारतीय मान्यता का समर्थन करने लगेंगे ।
प्राचीनतम संस्कृत साहित्य-
वैदिक संहिताओं के अनंतर संस्कृत के प्राचीनतम साहित्य-आरण्यक, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथों और पाणिनीय सूत्रों में श्रीकृष्ण का थोड़ा बहुत उल्लेख मिलता है ।
जैन साहित्य में श्रीकृष्ण को तीर्थंकर नेमिनाथ जी का चचेरा भाई बतलाया गया है । इस प्रकार जैन धर्म के प्राचीनतम साहित्य में श्रीकृष्ण का उल्लेख हुआ है ।
बौद्ध साहित्य में जातक कथाएं अत्यंत प्राचीन है उनमें से “घट जातक” में कृष्ण कथा वर्णित है । यद्यपि उपर्युक्त साहित्य कृष्ण – चरित्र के स्त्रोत से संबंधित है, तथापि कृष्ण-चरित्र के प्रमुख ग्रंथ 1. महाभारत 2. हरिवंश, 3. विविध पुराण, 4. गोपाल तापनी उपनिषद और 5. गर्ग संहिता हैं ।
यहाँ इन ग्रंथों में वर्णित श्रीकृष्ण के चरित्र पर प्रकाश डाला जाता है ।
पुराणेतर ग्रंथ
जिन पुराणेतर ग्रंथों में श्रीकृष्ण का चरित्र वर्णित है, उसमें “गोपाल तापनी उपनिषद” और “गर्ग संहिता” प्रमुख है ।
यहाँ पर उनका विस्तृत विवरण दिया जाता है – गोपाल तापनी उपनिषद : - यह कृष्णोपासना से संबंधित एक आध्यात्मिक रचना है । इसके पूर्व और उत्तर नामक दो भाग है । पूर्व भाग को “कृष्णोपनिषद” और उत्तर भाग को “अथर्वगोपनिषद” कहा गया है ।
यह रचना सूत्र शैली में है, अत: कृष्णोपासना के परवर्ती ग्रंथो की अपेक्षा यह प्राचीन जान पड़ती है । इसका पूर्व भाग उत्तर भाग से भी पहले का ज्ञात होता है । श्रीकृष्ण प्रिया राधा और उनके लीला-धाम ब्रज में से किसी का भी नामोल्लेख इसमें नहीं है । इससे भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती हैं ।
डा. प्रभुदयाल मीतल, कृष्ण का समय 5000 वर्ष पूर्व मानते हैं । वे इसको अनेक तथ्य एवं उल्लेखों के आधार पर प्रमाणित भी करते हैं । श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी का मत भिन्न है, वे कृष्ण काल को 3500 वर्ष से अधिक पुराना नहीं मानते ।
श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ0 39, 52; आर0जी0 भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ0 58-291;
विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ0 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि0 1, पृ0 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।
तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच
तद्धैतत्घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच,अपिपास एव
स बभूव, सोऽन्तवेलायामेतत् त्रयँ प्रतिपद्येत, 'अक्षितमसि', 'अच्युतमसि',
'प्राणसँशितमसी'ति । तत्रैते द्वे ऋचौ भवतः ।। ६ ।।
"छांदोग्य उपनिषद (3,17,6),
जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या विष्णु रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (देखें तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; पाणिनि-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)। महाभारत तथा हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण, वायु पुराण, भागवत पुराण, पद्म पुराण, देवी भागवत अग्नि पुराण तथा ब्रह्म वैवर्त पुराण पुराणों में उन्हें प्राय: भागवान रूप में ही दिखाया गया है।
इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं।
पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे।
इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा उपनिषदों के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा।
बौद्ध-ग्रंथ घट जातक तथा जैन-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि ब्रज के कृष्ण, द्वारका के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे।
अथापराह्ने भगवान् कृष्णः सङ्कर्षणान्वितः ।
मथुरां प्राविशद् गोपैः दिदृक्षुः परिवारितः ॥ १९ ॥
( मिश्र )
ददर्श तां स्फाटिकतुङ्ग गोपुर
द्वारां बृहद् हेमकपाटतोरणाम् ।
ताम्रारकोष्ठां परिखादुरासदां
उद्यान रम्योप वनोपशोभिताम् ॥ २० ॥
सौवर्णशृङ्गाटकहर्म्यनिष्कुटैः
श्रेणीसभाभिः भवनैरुपस्कृताम् ।
वैदूर्यवज्रामलनीलविद्रुमैः
मुक्ताहरिद्भिर्वलभीषु वेदिषु ॥ २१ ॥
जुष्टेषु जालामुखरन्ध्रकुट्टिमेषु
आविष्टपारावतबर्हिनादिताम् ।
संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरां
प्रकीर्णमाल्याङ्कुरलाजतण्डुलाम् ॥ २२ ॥
आपूर्णकुम्भैर्दधिचन्दनोक्षितैः
प्रसूनदीपावलिभिः सपल्लवैः ।
सवृन्दरम्भाक्रमुकैः सकेतुभिः
स्वलङ्कृतत् द्वारगृहां सपट्टिकैः ॥ २३ ॥
(भागवतपुराण- 10/ 41/20-23)
भगवान ने देखा कि नगर के परकोटे में स्फटिकमणि के बहुत ऊँचे-ऊँचे गोपुर तथा घरों में भी बड़े-बड़े फाटक बने हुए हैं।
उनमें सोने के बड़े-बड़े किंवाड़ लगे हैं और सोने के ही तोरण बने हुए हैं।
नगर के चारों ओर ताँबें और पीतल की चहरदीवारी बनी हुई है।
खाई के कारण और और कहीं से उस नगर में प्रवेश करना बहुत कठिन है।
स्थान-स्थान पर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन शोभायमान हैं।
सुवर्ण से सजे हुए चौराहे, धनियों के महल, उन्हीं के साथ के बगीचे, कारीगरों के बैठने के स्थान या प्रजावर्ग के सभा-भवन और साधारण लोगों के निवासगृह नगर की शोभा बढ़ा रहे हैं।
वैदूर्य, हीरे, स्फटिक नीलम, मूँगे, मोती और पन्ने आदि से जड़े हुए छज्जे, चबूतरे, झरोखे एवं फर्श आदि जगमगा रहे हैं।
उन पर बैठे हुए कबूतर, मोर आदि पक्षी भाँति-भाँति बोली बोल रहे हैं।
सड़क, बाजार, गली एवं चौराहों पर खूब छिड़काव किया गया है।
स्थान-स्थान पर फूलों के गजरे, जवारे खील और चावल बिखरे हुए हैं।
घरों के दरवाजों पर दही और चन्दन आदि से चर्चित जल से भरे हुए कलश रखे हैं और वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपलें फलसहित केले और सुपारी के वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रों से भलीभाँति सजाए हुए हैं।
चंद्रमा (यानी कृष्ण) एक समूह से घिरा हुआ है। आत्माएं उनकी किरणों के अंश हैं क्योंकि घटकों की प्रकृति आत्मा में मौजूद है। कृष्ण दो भुजाओं से घिरे हुए हैं। उनकी कभी चार भुजाएं नहीं होतीं. वहाँ वह एक ग्वालिन से घिरा हुआ सदैव क्रीड़ा करता रहता है। गोविंदा (अर्थात कृष्ण) अकेले ही एक पुरुष हैं; ब्रह्मा आदि स्त्रियाँ ही हैं। उसी से प्रकृति प्रकट होती है। यह स्वामी प्रकृति का एक स्वरूप है।
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न राधिका समा नारी न कृष्णसदृशः पुमान् ।
वयः परं न कैशोरात्स्वभावः प्रकृतेः परः ।५२।
अनुवाद:-
न तो राधा के समान कोई स्त्री है और न ही कृष्ण के समान कोई पुरुष है। किशोरावस्था से बढ़कर कोई (बेहतर) उम्र नहीं है; यह प्रकृति का महान सहज स्वभाव है।५२।
ध्येयं कैशोरकं ध्येयं वनं वृंदावनं वनम् ।
श्याममेव परं रूपमादिदेवं परो रसः ।५३।
अनुवाद:-
किशोरावस्था में स्थित कृष्ण का ध्यान करना चाहिए. वृन्दावन-उपवन का ध्यान करना चाहिए। सबसे महान रूप (वह) श्याम है , और वह परम रस का प्रथम देव है।५३।
बाल्यं पंचमवर्षांतं पौगंडं दशमावधि ।
अष्टपंचककैशोरं सीमा पंचदशावधि ।५४।
बाल्य पाँचवें वर्ष तक रहता है।
पोगण्ड दसवें वर्ष तक होता है।
(पाँच से दस वर्ष तक की अवस्था की बालक)
किशोरावस्था तेरह वर्ष तक चलती है और
(इसकी) सीमा पन्द्रहवाँ वर्ष है।
यौवनोद्भिन्नकैशोरं नवयौवनमुच्यते ।
तद्वयस्तस्य सर्वस्वं प्रपंचमितरद्वयः ।५५।
युवावस्था ( यौवन ) से उत्पन्न होने वाली किशोरावस्था को तरुण युवा ( नवयौवन ) कहा जाता है। बाल्यावस्था और युवावस्था के बीच का अर्थात् ग्यारह से पंद्रह वर्ष तक की अवस्था का बालक किशोर होता है। यह अवस्था ही उसका सर्वस्व है; (उससे भिन्न) आयु अवास्तविक ( प्रपंच ) है।
बाल्यपौगंडकैशोरं वयो वंदे मनोहरम् ।
बालगोपालगोपालं स्मरगोपालरूपिणम् ।५६।
मैं मनोहर अवस्था बचपन, लड़कपन और किशोरावस्था को सलाम करता हूं। मैं उन बाल ग्वाल कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो कामदेव रूपी ग्वाले के रूप में हैं।
वंदे मदनगोपालं कैशोराकारमद्भुतम् ।
यमाहुर्यौवनोद्भिन्न श्रीमन्मदनमोहनम् ।५७।
एक किशोर की प्रकृति के हैं और अद्भुत हैं, और जिन्हें वे कामदेव-मोहक कहते हैं, मैं उन्हें नमस्कार करता हूं।५७।
अध्याय 77 - कृष्ण का वर्णन
पाताल-खंड )
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सत्यंनित्यंपरानंदंचिद्घनंशाश्वतंशिवम् ।
नित्यां मे मथुरां विद्धि वनं वृंदावनं तथा ।२६।
यमुनां गोपकन्याश्च तथा गोपालबालकाः ।
ममावतारो नित्योऽयमत्र मा संशयं कृथाः ।२७।
अनुवाद:-
तब भगवान ने स्वयं वृन्दावन उपवन में विचरण करते हुए मुझसे कहा:
"मेरा कोई भी रूप उससे बड़ा नहीं है जो दिव्य, शाश्वत, अंशहीन, क्रियाहीन, शांत और शुभ, बुद्धि और आनंद का रूप है, पूर्ण है।"
,जिसकी आंखें पूरी तरह से खिले हुए कमल की पंखुड़ियों की तरह हैं, जिन्हें आपने (अभी) देखा था। वेद इसका वर्णन केवल कारणों के कारण के रूप में करते हैं, जो सत्य है, शाश्वत है, महान आनंद स्वरूप है, बुद्धि का पुंज है, शाश्वत और शुभ है। मेरी मथुरा को शाश्वत जानो,
वैसे ही वृन्दावन भी; इसी प्रकार (अनन्त जानो) यमुना, ग्वाले और ग्वाले। मेरा यह अवतार अनन्त है।२६-२७।
ममेष्टा हि सदा राधा सर्वज्ञोऽहं परात्परः ।
सर्वकामश्च सर्वेशः सर्वानंदः परात्परः ।२८।
मयि सर्वमिदं विश्वं भाति मायाविजृंभितम् ।
ततोऽहमब्रुवं देवं जगत्कारणकारणम्। २९।
अनुवाद:-
इसमें कोई संदेह न रखें. राधा मुझे सदैव प्रिय है। मैं सर्वज्ञ हूं, महानों से भी महान हूं। मेरी सभी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, मैं सबका स्वामी हूं, मैं संपूर्ण आनंद हूं और महान से भी महान हूं।२८-२९।
काश्च गोप्यस्तु के गोपा वृक्षोऽयं कीदृशो मतः ।
वनं किं कोकिलाद्याश्च नदी केयं गिरिश्च कः ।३०।
कोऽसौ वेणुर्महाभागो लोकानंदैकभाजनम् ।
भगवानाह मां प्रीतः प्रसन्नवदनांबुजः ।३१।
अनुवाद:-
तब मैंने संसार के कारण भगवान से कहा: “ग्वाले कौन हैं? ग्वालिनें क्या हैं? यह किस प्रकार का वृक्ष बताया गया है? यह गिरि कौन है? कोयल आदि क्या हैं? नदी क्या है? और पहाड़ क्या है? यह महान बांसुरी कौन है, जो सभी लोगों के लिए आनंद का एकमात्र स्थान है?।।३०-३१।
गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेया ऋचो वै गोपकन्यकाः ।
देवकन्याश्च राजेंद्र तपोयुक्ता मुमुक्षवः ।३२।
गोपाला मुनयः सर्वे वैकुंठानंदमूर्त्तयः ।
कल्पवृक्षः कदंबोऽयं परानंदैकभाजनम् ।३३।
अनुवाद:-
भगवान ने प्रसन्न होकर और अपने कमल के समान मुख से प्रसन्न होकर मुझसे कहा: “ग्वालों को वेदों को जानना चाहिए। ग्वालों की युवा पुत्रियों को ऋक्स (भजन) के रूप में जाना जाना चाहिए। हे राजन, वे दिव्य देवियाँ हैं। वे तपस्या से संपन्न हैं और मोक्ष की इच्छा रखते हैं। सभी ग्वाले साधु हैं, वैकुंठमें आनंद स्वरूप हैं।यह कदंब इच्छा-प्राप्ति वाला वृक्ष है, सर्वोच्च आनंद का भंडार है।३२-३३।
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे वृंदावनादिमथुरामाहात्म्यकथनंनाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।७३।
ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः १२८
ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय - 128)
अथाष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
"नारायण उवाच
श्रीकृष्णश्च समाह्वानं गोपांश्चापि चकार सः।
भाण्डीरे वटमूले च तत्र स्वयमुवास ह ।।१।।
पुराऽन्नं च ददौ तस्मै यत्रैव ब्राह्मणीगणः।
उवास राधिका देवी वामपार्श्वे हरेरपि ।।२।।
दक्षिणे नन्दगोपश्च यशोदासहितस्तथा ।
तद्दक्षिणो वृषभानस्तद्वामे सा कलावती ।।३।।
अन्ये गोपाश्च गोप्यश्च बान्धवाः सुहृदस्तथा ।
तानुवाच स गोविन्दो यथार्थ्यं समयोचितम्।।४।।
"श्रीभगवानुवाच
शृणु नन्द प्रवक्ष्यामि सांप्रतं समयोचितम्।
सत्यं च परमार्थं च परलोकसुखावहम् ।।५।।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं भ्रमं सर्वं निशामय।
विद्युद्दीप्तिर्जले रेषा यथा तोयस्य बुद्बुदम्।।६।।
मथुरायां सर्वमुक्तं नावशेषं च किंचन।
यशोदां बोधयामास राधिका कदलीवने ।।७।।
तदेव सत्यं परमं भ्रमध्वान्तप्रदीपकम्।
विहाय मिथ्यामायां च स्मर तत्परमं पदम्।।८ ।।
जन्ममृत्युजराव्याधिहरं हर्षकरं परम्।
शोकसंतापहरणं कर्ममूलनिकृन्तनम् ।।९।।
मामेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।
ध्यायंध्यायं पुत्रबुद्धिं त्यक्त्वा लभ परंपदम्।।१०।।
गोलोकं गच्छ शीघ्रं त्वं सार्धं गोकुलवासिभिः।
आरात्कलेरागमनं कर्ममूलनिकृन्तनम् ।।११।।
स्त्रीपुंसोर्नियमो नास्ति जातीनां च तथैव च ।
विप्रेसन्ध्यादिकंनास्ति चिह्नं यज्ञोपवीतकम्।१२ ।
यज्ञसूत्रं च तिलकं शेषं लुप्तं सुनिश्चितम् ।
दिवाव्यवायनिरतं विरतं धर्मकर्मणि ।।१३।।
यज्ञानां च व्रतानां च तपसां लुप्तमेव च।
केदारकन्याशापेनधर्मो नास्त्येव केवलम्।।१४।।
स्वच्छन्दगामिनीस्त्रीर्णा पतिश्च सततं वशे ।
ताडयेत्सततंतं च भर्त्सयेच्छ दिवानिशम्।।१५।।
प्राधान्यं स्त्रीकुटुम्बानां स्त्रीणां च सततं व्रज।
स्वामीचभक्तस्तासां च पराभूतो निरन्तरम्।।१६।।
कलौ च योषितः सर्वा जारसेवासु तत्पराः।
शतपुत्रसमः स्नेहस्तासां जारे भविष्यति ।।१७।।
ददाति तस्मै भक्ष्यं च यथा भृत्याय कोपतः।
सस्मिता सकटाक्षा साऽमृतदृष्ट्या निरन्तरम्।।१८।
जारं पश्यति कामेन विषदृष्ट्या पतिं सदा।
सततं गौरवं तासां स्नेहं च जारबान्धवे ।।१९।।
पत्यौ करप्रहारं च नित्यं नित्यं करोति च।
मिष्टान्नं श्रद्धया भक्त्या जाराय प्रददाति च।२०।
वेषयुक्ता च सततं जारसेवनतत्परा।
प्राणा बन्धुर्गतिश्चाऽऽत्मा कलौ जारश्चयौषिताम्। २१।
लुप्ता चातिथिसेवा च प्रलुप्तं विष्णुसेवनम्।
पितृणामर्चनं चैव देवानां च तथैव च ।।२२।।
विष्णुवैष्णवयोर्द्वेषी सततं च नरो भवेत्।
वाममन्त्रोपासकाश्च चतुर्वर्णाश्च तत्पराः ।।२३।।
शालग्रामं च तुलसीं कुशं गङ्गोदकं तथा।
नस्पृशेन्मानवो धूर्तो म्लेच्छाचाररतः सदा।।२४।।
कारणं कारणानां च सर्वेषां सर्वबीजकम्।
सुखदं मोक्षदं शश्वद्दातारं सर्वसम्पदाम् ।।२५।।
त्यक्त्वा मां परया भक्त्या क्षुद्रसम्पत्प्रदायिनम्।
वेदनिघ्नं वाममन्त्रं जपेद्विप्रश्च मायया ।।२६।।
सनातनी विष्णुमाया वञ्चितं तं करिष्यति।
ममाऽऽज्ञयाभगवती जगतां च दुरत्यया।।२७ ।।
कलेर्दशसहस्राणि मदर्चा भुवि तिष्ठति ।
तदर्धानि च वर्षाणि गङ्गा भुवनपावनी ।।२८।।
तुलसी विष्णुभक्ताश्च यावद्गङ्गा च कीर्तनम् ।
पुराणानि च स्वल्पानि तावदेव महीतले ।।२९।।
मम चोत्कीर्तनं नास्ति एतदन्ते कलौ व्रज ।
एकवर्णा भविष्यन्तिकिराता बलिनःशठाः।।३० ।।
पित्रोः सेवा गुरोः सेवा सेवा च देवविप्रयोः ।
विवर्जिता नराः सर्वे चातिथीनां तथैव च।।३१।।
सस्यहीना भवेत्पृथ्वी साऽनावृष्ट्या निरन्तरम् ।
फलहीनोऽपि वृक्षश्च जलहीना सरित्तथा।।३२।।
वेदहीनो ब्राह्मणश्च बलहीनश्च भूपतिः।
जातिहीनाजनाःसर्वे म्लेच्छोभूपोभविष्यति।।३३।।
भृत्यवत्ताडयेत्तातं पुत्रः शिष्यस्तथा गुरुम् ।
कान्तं च ताडयेत्कान्ता लुब्धकुक्कुटवद्गृही।३४।
नश्यन्ति सकला लोकाः कलौ शेषे च पापिनः।
सूर्याणामातपात्केचिज्जलौघेनापि केचन ।।३५।।
हे गोपेन्द्र प्रतिकलौ न नश्यति वसुंधरा ।
पुनःसृष्टौ भवेत्सत्यं सत्यबीजं निरन्तरम्।।३६।।
एतस्मिन्नन्तरे विप्र रथमेव मनोहरम् ।
चतुर्योजनविस्तीर्णमूर्ध्वे च पञ्चयोजनम् ।।३७।।
शुद्धस्फटिकसंकाशं रत्नेन्द्रसारनिर्मितम्।
अम्लानपारिजातानां मालाजालविराजितम्।।३८।।
मणीनां कौस्तुभानां च भूषणेन विभूषितम् ।
अमूल्यरत्नकलशं हीरहारविलम्बितम् ।।३९।।
मनोहरैः परिष्वक्तं सहस्रकोटिमन्दिरैः ।
सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।।४०।।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च गोपीकोटीभिरावृतम् ।
गोलोकादागतं तूर्णं ददृशुः सहसा व्रजे ।।४१।।
कृष्णाज्ञया तमारुह्य ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।
राधा कलावती देवीधन्या चायोनिसंभवा।।४२।।
गोलोकाद गता गोप्यश्चायोनिसंभवाश्च ताः ।
श्रुतिपत्न्यश्च ताः सर्वाः स्वशरीरेण नारद।।४३।।
सर्वे त्यक्त्वा शरीराणि नश्वराणि सुनिश्चितम् ।
गोलोकं च ययौ राधा सार्घं गोकुलवासिभिः ।४४।
ददर्श विरजातीर्र नानारत्नविभूषितम् ।
तदुत्तीर्य ययौ विप्र शतशृङ्गं च पर्वतम् ।।४५।।
नानामणिगणाकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
ततो ययौ कियद्दूरं पुण्यं वृन्दावनं वनम्।।४६ ।।
सा ददर्शाक्षयवटमूर्ध्वे त्रिशतयोजनम् ।
शतयोजनविस्तीर्णं शाखाकोटिसमावृतम् ।।४७ ।।
रक्तवर्णैः फलौघैश्च स्थूलैरपि विभूषितम् ।
गोपीकोटिसहस्रैश्च सार्धं वृन्दा मनोहरा ।।४८ ।।
अनुव्रजं सादरं च सस्मिता सा समाययौ ।
अवरुङ्य रथात्तूर्णं राधां सा प्रणनाम च ।।४९ ।।
रासेश्वरीं तां संभाष्य प्रविवेश स्वमालयम् ।
रत्नसिंहासने रम्ये हीरहारसमन्विते ।। ५०।।
वृन्दा तां वासयामास पादसेवनतत्परा ।
सप्तभिश्च सखीभिश्च सेवितां श्वेतचामरैः ।।५१ ।।
आययुर्गोपिकाः सर्वा द्रष्टुं तां परमेश्वरीम् ।
नन्दादिकं प्रकल्प्यैतद्राधा वासं पृथकपृथक्।५२।
परमानन्दरूपा सा परमानन्दपूर्वकम् ।
स्ववेश्मनि महारम्ये प्रतस्थे गोपिका सह ।। ५३ ।।
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इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनारायणो संवाद
भांडीरवने व्रजजनसमक्षं नन्दं बोधयता कृष्णेन कलिदोषाणां निरूपणम्, अकस्मात्प्राप्तेनाद्भुतरथेन राधादिसर्वगोपीनां गोलोके गमनं च
अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।।१२८।।
"हिन्दी अनुवाद:-
"पत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्न दिया था; उस भाण्डीर वट की छाया में श्रीकृष्ण स्वयं विराजमान हुए और वहीं समस्त गोपों को बुलवा भेजा। श्रीहरि के वामभाग में राधिकादेवी, दक्षिणभाग में यशोदा सहित नन्द, नन्द के दाहिने वृषभानु और वृषभानु के बायें कलावती तथा अन्यान्य गोप, गोपी, भाई-बन्धु तथा मित्रों ने आसन ग्रहण किया। तब गोविन्द ने उन सबसे समयोचित यथार्थ वचन कहा।
श्री भगवान बोले- नन्द! इस समय जो समयोचित, सत्य, परमार्थ और परलोक में सुखदायक है; उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त सभी पदार्थ बिजली की चमक, जल के ऊपर की हुई रेखा और पानी के बुलबुले के समान भ्रमरूप ही हैं- ऐसा जानो। मैंने मथुरा में तुम्हें सब कुछ बतला दिया था, कुछ भी उठा नहीं रखा था।
उसी प्रकार कदलीवन में राधिका ने यशोदा को समझाया था। वही परम सत्य भ्रमरूपी अंधकार का विनाश करने के लिए दीपक है; इसलिए तुम मिथ्या माया को छोड़कर उसी परम पद का स्मरण करो।
वह पद जन्म-मृत्यु-जरा व्याध का विनाशक, महान हर्षदायक, शोक संताप का निवारक और कर्ममूल का उच्छेदक है।
मुझ परम ब्रह्म सनातन भगवान का बारंबार ध्यान करके तुम उस परम पद को प्राप्त करो। अब कर्म की जड़ काट देने वाले कलियुग का आगमन संनिकट है; अतः तुम शीघ्र ही गोकुलवासियों के साथ गोलोक को चले जाओ. तदनन्तर भगवान ने कलियुग के धर्म तथा लक्षणों का वर्णन किया।
विप्रवर! इसी बीच वहाँ व्रज में लोगों ने सहसा गोलोक से आये हुए एक मनोहर रथ को देखा। वह रथ चार योजन विस्तृत और पाँच योजन ऊँचा था; बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से उसका निर्माण हुआ था।
वह शुद्ध स्फटिक के समान उद्भासित हो रहा था; विकसित पारिजात पुष्पों की मालाओं से उसकी विशेष शोभा हो रही थी; वह कौस्तुभमणियों के आभूषणों से विभूषित था; उसके ऊपर अमूल्य रत्नकलश चमक रहा था; उसमें हीरे हार लटक रहे थे; वह सहस्रों करोड़ मनोहर मंदरियों से व्याप्त था; उसमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े उसका भार वहन कर रहे थे तथा उस पर सूक्ष्म वस्त्र का आवरण पड़ा हुआ था एवं वह करोड़ों गोपियों से समावृत था।
नारद! राधा और धन्यवाद की पात्र कलावती देवी का जन्म किसी के गर्भ से नहीं हुआ था। यहाँ तक कि गोलोक से जितनी गोपियाँ आयी थीं; वे सभी आयोनिजा थीं।
उसके रूप में श्रुतिपत्नियाँ ही अपने शरीर से प्रकट हुई थीं। वे सभी श्रीकृष्ण की आज्ञा से अपने नश्वर शरीर का त्याग करके उस रथ पर सवार हो उत्तम गोलोक को चली गयीं।
साथ ही राधा भी गोकुलवासियों के साथ गोलोक को प्रस्थित हुईं।
ब्रह्मन! मार्ग में उन्हें विरजा नदी का मनोहर तट दीख पड़ा, जो नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित था।
उसे पार करके वे शतश्रृंग पर्वत पर गयीं। वहाँ उन्होंने अनेक प्रकार के मणिसमूहों से व्याप्त सुसज्जित रासमण्डल को देखा।
उससे कुछ दूर आगे जाने पर पुण्यमय वृन्दावन मिला।
आगे बढ़ने पर अक्षयवट दिखायी दिया, उसकी करोड़ों शाखाएँ चारों ओर फैली हुई थीं।
वह सौ योजन विस्तारवाला और तीन सौ योजन ऊँचा था और लाल रंग के बड़े-बड़े फलसमूह उसकी शोभा बढ़ा रहे थे।
उसके नीचे मनोहर वृन्दा हजारों करोड़ों गोपियों के साथ विराजमान थीं।
उसे देखकर राधा तुरंत ही रथ से उतरकर आदर सहित मुस्कराती हुई उसके निकट गयीं। वृन्दा ने राधा को नमस्कार किया।
तत्पश्चात रासेश्वरी राधा से वार्तालाप करके वह उन्हें अपने महल के भीतर लिवा ले गयी। वहाँ वृन्दा ने राधा को हीरे के हारों से समन्वित एक रमणीय रत्नसिंहासन पर बैठाया और स्वयं उनकी चरण सेवा में जुट गयी।
सात सखियाँ श्वेत चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं। इतने में परमेश्वरी राधा को देखने के लिए सभी गोपियाँ वहाँ आ पहुँचीं। तब राधाने नन्द आदि के लिए पृथक-पृथक आवासस्थान की व्यवस्था की।
तदनन्तर परमान्दरूपा गोपिका राधा परमानन्द पूर्वक सबके साथ अपने परम रुचिर भवन को प्रस्थित हुईं।
ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय - 128)
योगेश कुमार "रोहि" द्वारा संपादित किया गया
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः 4 (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय 129 श्री कृष्ण के गोलोक गमन तथा उनकी १२५ वर्ष की आयु का विवरण-)
अथैकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
"नारायण उवाच
श्रीकृष्णो भगवांस्तत्र परिपूर्णतमः प्रभुः ।दृष्ट्वा सालोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम् ।१।
पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके । ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा । २ ।
अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।
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