"अध्याय - प्रथम"-
"कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र- ऋषिकुमार नचिकेता और यम देव के बीच प्रश्नोत्तरों के रूप में आत्मा की स्थित का कथामयी वर्णन है।
बालक नचिकेता की आध्यात्मिक शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे लौकिक उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य के सम्बन्ध का स्पष्टीकरण करते हैं ।
सम्बन्धित आख्यान में यम देव के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचनसारगर्भित हैं।
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।
सन्दर्भ:-(कठोपनिषद्,अध्याय-१,वल्ली ३,श्लोक- ३)
अनुवाद:-इस जीवात्मा को तुम रथी, (रथ में सबार ) समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी- (रथ हांकने वाला) और मन को लगाम समझो । (लगाम – इंद्रियों पर नियंत्रण के लिए होता है। अगले श्लोक में उल्लेख है।)
"इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।
सन्दर्भ:-(कठोपनिषद्,अध्याय १,वल्ली ३,श्लोक ४)
अनुवाद:-मनीषियों, (मननशील पुरुषों), ने इन्द्रियों को इस शरीर रूपी-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इन्द्रिय-विषय ही विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है ।
प्राचीन भारतीय विचारकों का चिन्तन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रवृति का रहा है । ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा।
परन्तु उसकी परिवर्तनशील व नश्वरता ने उनका मोह अवश्य खण्डित किया होगा। तत्पश्चात उनका प्रयास रहा होगा कि वे उसके मिथ्या आकर्षण पर विजय पायें ।
उनकी आध्यात्मिक साधना इसी प्रयास या रूपान्तरण है।
ततः सद्यो विमुच्येत यद् बिभेति स्वयं भयम्।१४।
आपन्नः – उलझा हुआ; संसृतिम् - जन्म और मृत्यु रूपी चक्र में ; घोरम् - बहुत जटिल; यत् - जो; नाम - नाम; विवशः - असमर्थ; गृणान् - स्तुतियों को ततः -उससे; सद्यः - तुरन्त; विमुच्येत - मुक्ति मिले ; यत् - जो; बिभेति - डरता है ; स्वयंम् – व्यक्तिगत रूप से; भयम् - भय ही।
अनुवाद:-
जो जीवित प्राणी जन्म और मृत्यु के जटिल चक्र में फंसे हुए हैं, वे अनजाने में भी कृष्ण के पवित्र नाम का जाप करके तुरंत मुक्त हो सकते हैं, जिससे भय भी भयभीत होता है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण वैष्णव पुराण में श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताता है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ ही है- ब्रह्म का विवर्त ( परिवर्तन- नृत्य) अथवा विलास- क्रीड़ा या खेल है।
उत्तरमीमांसा (वेदान्त दर्शन)का सबसे विशेष दार्शनिक सिद्धान्त यह है कि जड़ जगत का उपादान( सामग्री) और निमित्त कारण चेतन ब्रह्म ही है।
"ठीक उसी प्रकार जैसे मकड़ी अपने भीतर से उत्पन्न लार से ही जाल बुनकर तानती है, वैसे ही ब्रह्म भी इस जगत् को अपनी ही शक्ति द्वारा उत्पन्न करता है। यही नहीं, वही इसका पालक है और वही इसका संहार भी करता है।
जीव और ब्रह्म का तादात्म्य( एकरूपता) है और इसी लिए अनेक प्रकार के साधनों और उपासनाओं द्वारा वह ब्रह्म के साथ तादात्म्य का अनुभव करके जगत् के कर्म-जाल से और बारम्बार के जन्म और मरण से मुक्त हो जाता है। तब मुक्तावस्था में परम आनन्द का अनुभव करता है।
संसार की सृष्टि का मूल स्वत्व है और उसका अहंकार से उत्पन्न रूप संकल्प है। यही संकल्प प्रवाहित होकर इच्छा का रूप धारण करता है।
ये इच्छाओं की आपूर्ति का मूर्त प्रयास ही कर्म है। ये सम्पूर्ण संसार कर्म से निर्मित हुआ है। यदि व्यक्ति कर्म से हीन हो जाए यदि उसकी इच्छाओं का शमन हो जाए तो संसार उसके लिए निस्सार हो जाता है।
"स्वप्न की सृष्टि( उत्पत्ति) भी प्राय: मन की इच्छाओं के दमित( दबे हुए) परिणाम का रूपान्तरण है। इस लिए स्वप्न के विश्लेषण से सृष्टि उत्पत्ति के रहस्य को सुलझाया जा सकता है।
परन्तु स्वप्न विश्लेषण व्यक्तिगत अनुभव है। लौकिक उपमा मकड़ी की हा सुबोध्य है।
जिसका प्रस्तुतिकरण हम पुन: करते हैं।
"भूतयोन्यक्षरमित्युक्तम्। तत्कथं भूतयोनित्वमित्युच्यते प्रसिद्धदृष्टान्तैः -
(1.1.7)
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति। यथा सतः पुरुषात्केशलोमानितथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम्।।1.1.7।
1.1.7।
यथा लोके प्रसिद्धम् - ऊर्णनाभिर्लूताकीटः किञ्चित्कारणान्तरमनपेक्ष्य स्वयमेव सृजते स्वशरीराव्यतिरिक्तानेव तन्तून्बहिप्रसारयति पुनस्तानेव गृह्यते च गृह्णाति स्वात्मभावमेवापादयति। यथा च पृथिव्यामोषधयो व्रीह्यादिस्थावरान्ता इत्यर्थः। स्वात्माव्यतिरिक्ता एव प्रभवन्ति। यथा च सतो विद्यमानाञ्जीवतः पुरुषात्केशलोमानि केशाश्च लोमानि च सम्भवन्ति विलक्षणानि।
यथैते दृष्टानातास्तथा विलक्षणं सलक्षणं च निमित्तान्तन्तरानपेक्षाद्यथोक्तलक्षणादक्षरात्सम्भवति समुत्पद्यत इह संसारमण्डले विश्वं समस्तं जगत्। अनेकदृष्टान्तोपादानं तु सुखार्थप्रबोधनार्थम्।1.1.7।
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ऊर्णनाभः, पुल्लिंग- (ऊर्णेव तन्तुर्नाभौ यस्य-ऊन के समान तन्तु जिसकी नाभि में हैं वह ऊर्णनाभ है।
अनुवाद:- अक्षर ब्रह्म( नाद- ब्रह्म) का विश्व कारणत्व
पूर्व में इस प्रकार कहा जा चुका है। कि अक्षर ब्रह्म भूतों (प्राणियों) की योनि (जन्मस्थान) है। उसका वह भूत योनित्व किस प्रकार है। वह प्रसिद्ध दृष्टान्त द्वारा बतलाया जाता है।
जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती और फिर निगल जाती है। जैसे पृथ्वी में औषधीयाँ उत्पन्न होती हैं। जैसे सजीव पुरुषों से जड़ केश तथा लोम उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार उस अक्षर ब्रह्म से यह विश्व उत्पन्न होता है।
जिस प्रकार संसार में प्रसिद्ध है। कि ऊर्णनाभि (मकड़ी) किसी अन्य उपकरण की अपेक्षा ( इच्छा) न कर स्वयं ही अपने शरीर से अभिन्न तन्तुओं (धागों) को रचती अर्थात उन्हें बाहर फैलाती है। और फिर आवश्यकता समाप्त होने पर उसे ग्रहीत( घरी) भी कर लेती है। यानि अपने शरीर में समाविष्ट कर लेती है । जैसे पृथ्वी में व्रीहि (धान) यव ( जौ)इत्यादि अन्न से लेकर वृक्ष पर्यन्त ( तक ) सम्पूर्ण औषधीयाँ उससे अभिन्न ही उत्पन्न होती हैं। सत् (चेतनसत्ता) युक्त पुरुष से भिन्न विलक्षण केश तथा रोम ( लोम) उत्पन्न होते हैं।
जैसा कि यह दृष्टान्त है उसी प्रकार इस संसार मण्डल में इससे विभिन्न और समान लक्षणों वाला यह विश्व-( समस्त जगत्) किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा न करने वाले उस उपर्युक्त लक्षण विशिष्ट अक्षर से ही उत्पन्न होता है।
ये अनेक दृष्टान्त केवल विषय को सरलता से समझने के लिए ही दिए गये हैं।७।
द्वितीयः खण्डः
समाप्तमिदं तृतीयकं मुण्डकम्
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मुण्डकोपनिषद् की कथा का विवरण इस लेख में प्रस्तुत किया गया है । प्रश्नोपनिषद् के समान, मुण्डकोपनिषद् में भी कथा का अंश बहुत कम है, और सम्भवतः यह भी, कथा न होकर, किसी ऐतिहासिक घटना का वर्णन है ।
मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद की शौनकी शाखा से है इसमें परम-ब्रह्म और उसको प्राप्त करने के मार्ग का सुन्दर उपदेश है । भारत सरकार द्वारा गर्वान्वित उपदेश ’सत्यमेव जयते’ भी इसी उपनिषद् से संग्रहीत है ।
इसी प्रकार इसके अन्य श्लोकांश भी सुविख्यात दार्शनिकता से पूर्ण हैं ।
इसके कुछ श्लोक कठोपनिषद् में भी पाए जाते हैं यह उपनिषद् तीन अध्यायों में बटा है, जिन्हें मुण्डक कहा जाता है । प्रत्येक मुण्डक में दो-दो खण्ड है, जिनमें कुल ६४ श्लोक हैं ।
अति-स्पष्ट होने से, परातपर ब्रह्म के ज्ञान हेतु यह उपनिषद् अवश्य ही पढ़ना चाहिए ।
उपनिषद् बताता है कि देवों की जो प्रथम सृष्टि हुई, उनमें भी सबसे ज्ञानी ब्रह्मा हुए, जो सबके कर्ता और लोकों के रक्षक हुए (सम्भवतः, उन्होंने मनुष्य-जाति को आगे बढ़ाने में योगदान दिया और धर्म के प्रवचन से सब प्राणियों की रक्षा के निमित्त हुए – यह इसका अर्थ है ।
"इस ’ब्रह्मा’ को परमात्मा-वाची ’ब्रह्म’ कभी नहीं समझना चाहिए – क्योंकि नपुंसकलिंग ’ब्रह्मन्’ शब्द परमात्मा के लिए प्रयुक्त होता है, और प्रायः पुंल्लिङ्ग ब्रह्मन्" शब्द ’ब्रह्मा’ के लिए होता- है क्यों कि देव-/मनुष्य-वाची( पुल्लिंग) होता है ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को ब्रह्मविद्या दी । अथर्वा ने अंगिरा ऋषि को इस विद्या का पात्र बनाया ।
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मुण्डकोपनिषद, 1.1.7
यथा - - जैसे । ऊर्णाभिः - - ऊन से । सृजते - - रचना करता है । गृह्णते च - - और संग्रह करता है( समेटता है) । यथा पृथिवीम् --जैसा कि पृथ्वी को ओषधयः - जड़ी-बूटियाँ ।सम्भवन्ति - उत्पन्न होती हैं। यथा सतः पुरूषात् - - जैसे कि एक सत पुरुष से से ।केशलोमानि - सिर और शरीर के बाल हैं - तथा इह - वैसे ही यह अक्षरात् - अक्षर से अपरिवर्तनीय | विश्वम् सम्भवति - - संसार का जन्म होता है |
श्लोक 1.1.7
जैसे मकड़ी अपने लार से उत्पन्न जाल को बनाती और अपने में पुन: निगल लेती है, जैसे औषधीय पौधे पृथ्वी से उगते हैं, जैसे जीवित व्यक्ति से निर्जीव आभासी बाल उगते हैं, वैसे ही यह ब्रह्माणड परात्पर ब्रह्म से विकसित और अन्त में उसमें ही विलय हो जाता है।
"यह सृष्टि ब्रह्म का वैवर्त है (ब्रह्म -वैवर्त- पुराण -पुरुष और प्रकृति के परिणामों की कथानक मूलक प्रस्तुति करने वाला प्रथम और प्राचीन पुराण है। इसमें कोई सन्देह नहीं है।
अन्य अठारह पुराणों में इसकी गणना उसी रूप में नहीं की जा सकती है जैसे पद्मपुराण, मत्स्य पुराण, अथवा भागवत पुराण की की जाती है ।
पद्मपुराण कि सृष्टि खण्ड अन्य सभी पुराणों में प्राचीनतर है जिसकी तर्ज पर स्कन्द पुराण का लेखन भी किया गया ।-
वेदान्त के मनीषीयों जैसे रामानुजाचार्य आदि का मत है कि सृष्टि का आधार सत्कार्यवाद का सिद्धान्त है।
इसकी मान्यता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में विद्यमान रहता है। जैसे एक छोटे से पीपल के बीज में सम्पूर्ण विशाल पीपल के वृक्ष की पूर्ण सम्भावनाऐं समाविष्ट (समाई) हुई होती हैं। अनुकूल परिस्थितियों के आने पर समय पर सम्पूर्ण पीपल काम विकास हो जाता है।
यह कारण और कार्य की एकता का अकाट्य सिद्धान्त है। यह सत्कार्यवाद के परिणामवादी रूप को मानता है।
इसका सिद्धान्त ब्रह्म-परिणामवाद कहलाता है जिसके अनुसार यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्म का, उसके विशेषणांश का परिणाम है।
अचित् ज्ञानशून्य (जड़) एवं परिणामी द्रव्य है। और चित् (आत्मा) अपरिवर्तित रूप है।
यह अचित्- तीन प्रकार का है।
● शुद्ध सत्य या नित्य-विभूति
● मिश्र सत्त्व या प्रकृति एवं
● सत्त्वशून्य या काल शुद्ध
"सत्त्वं रजस्तमस्रहित एवं उदात्तीभूत प्रकृति है। यह वह उपादान है जिससे आदर्श जगत् (वैकुण्ठ लोक) की वस्तुएं, ईश्वर तथा मुक्त जीवों के शरीर बनते हैं। सत्त्वशून्य जड़द्रव्य 'काल' है।
यह भी परिणामी है।
वाराहमिहिर कृत ‘सूर्य सिद्धान्त’ में तारों, सूर्य, चन्द्रमा और अन्य ग्रहों की गति और गणितीय व्युत्पत्तियों के आधार पर समय के मापन की नौ पद्धतियों का विवेचन किया गया है।
तद्नुसार काल की नौ इकाईयाँ हैं।
१-ब्राह्म’, २‘दिव्य’, ३‘त्रिज्या ४-प्राजापत्य’, ५‘गौरव’, ६‘सौर’, ७‘सावन’, ‘८ चान्द्र’ और -‘आर्क्ष’।
प्रथम छ: इकाइयों ‘ब्राह्म से सौर पर्यन्त’ का प्रयोग ब्रह्माण्ड के आविर्भाव से व्यतीत होने वाले समय को परिभाषित करने में किया गया है।
चान्द्रमान का उपयोग दैनिन्दिनदर्शिका (पंचांग) के निर्माण में होता है, जिससे विभिन्न संस्कारों तथा त्योहारों का निर्धारण किया जाता है।
सावन दिन (Solar day) और नाक्षत्र दिन (Sidereal day) का उपयोग ग्रहों की गति की गणना में किया जाता है।
सावन दिन:-पूरे एक दिन और एक रात का समय होता।
एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक के समय को सावन दिन कहा जाता है अर्थात् 60 दंड का समय ।
विशेष— इस प्रकार के ३० दिनों का एक सावन मास होता है और ऐसे बारह सावन मासों अर्थात् ३६० दिनों का एक सावन वर्ष होता है, मलमासतत्व के अनुसार — 'सौर संवत्सरे दिवस षट्काधिक ? सावनो भवति'।
अर्थात् सौर और सावन वर्ष में लगभग ६ दिनों का अंतर होता है।
"सवनं यागाङ्गं स्नानं सोमनिष्पीडनं वा तस्येदमण् सावनं - “अहोरात्रेण चैकेन सावनो दिवसः स्मृतः” ब्रह्मसिद्धान्तोक्ते (१) -अहोरात्रात्मके दिवसे, सवनत्रयस्य अहोरात्र- साध्यत्वादह्नस्तत्सम्बन्धित्वम्
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आधुनिक भौतिक विज्ञान के इस युग में भी हमने समय की इन दो इकाइयों को महत्त्व दिया है।
‘सावन दिन’ अपनी उपयोगिता के कारण दोनों पद्धतियों (वैशेषिक एवं भौतिकी) में समय के मापन का ठोस एवं उत्तम आधार तैयार करता है।
प्राचीन भारतीय पद्धति में काल की इकाई का विभाजन और उपविभाजन अधोलिखित प्रकार से होता है-
60 विपल=1 पल
60 पल=1 घंटि (नाडी/दण्ड)
21/2 घंटि=1 होरा (hour)
24 होरा = 1 सावन दिन
आधुनिक समय में हम काल (समय) का विभाजन तथा उपविभाजन निम्न प्रकार से करते हैं-
६० सैकेण्ड=१ मिनट
६० मिनट=१ घण्टा
२४ घण्टा=१ दिन (सूर्य- दिवस)
भारतीय ज्योतिष में ग्रह, के अर्थ में, जो भी पिण्ड अंतरिक्ष में नक्षत्रों के सापेक्ष हमें गति करते दिखते हैं वे ग्रह कहलाते हैं। ग्रह का शाब्दिक अर्थ प्लैनेट के रूप में व्यवहार ज्योतिष की दृष्टि से असंगत है।
काल (समय) की इकाई होरा (जो घण्टा के समतुल्य है) साप्ताहिक दिनों के नामों की व्यवस्था प्रदान करता है।
काल के विपरीत दिशा- आकाश से अभिन्न है और प्रकृतिजन्य है।
मिश्रसत्त्व में सत्त्व, रजस् एवं तमस्, तीनों गुण रहते हैं। इसे प्रकृति या माया कहते हैं।
रामानुज प्रकृति को ही सृष्टि का मूलभूत कारण कहते हैं।
उल्लेखनीय है कि रामानुज की प्रकृति सांख्य दर्शन की प्रकृति से पूरी तरह भिन्न भी नहीं है।
जैसे, सत्व, रजस् एवं तमस् सांख्य की प्रकृति के निर्माणक घटक हैं एवं द्रव्य रूप हैं, जबकि ये रामानुज की प्रकृति के गुण या विशेषण हैं जिससे संसार निर्माण होता है।।
ये उससे अवियोजनीय होते हुए भी मित्र हैं। पुनः, सांख्य की प्रकृति स्वतन्त्र है जब द्वन्द्व के सापेक्ष हो तब, जबकि रामानुज की प्रकृति ब्रह्म पर आश्रित है।
रामानुज के दर्शन में बन्धन और मोक्ष -रामानुज के अनुसार ब्रह्म ही संसार का ( उपादान - (कार्य सामग्री) और निमित्त कारण दोनों है।
ईश्वर के अंशभूत तत्त्व, जीव और प्रकृति, जगत् के उपादान कारण हैं। ईश्वर के संकल्प से सृष्टि का प्रारम्भ होता है। अतः ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण भी है।
जब ईश्वर अपने संकल्प से जीवों को उनके अतीत कर्मों का फल दिलाने के लिए चित् और प्रकृति का प्रवर्तन करता है तब सृष्टि उत्पन्न होती है। इसी को रामानुज ब्रह्म की लीला कहते हैं।
इस प्रकार रामानुज का ब्रह्मपरिणामवाद लीलावाद है।
" यह सृष्टि ब्रह्म की लीला है जिसे प्रकार मकड़ी के अन्दर से जाला निकलता है और आवश्यकता समाप्त होने पर वह मकड़ी उस जाले को स्वयं ही निगल लेती है। उसी प्रकार ब्रह्म के अन्दर से सृष्टि निकली है और अन्त में उसी में विलीन हो जाती है।
ब्रह्म के रूप
ब्रह्म के दो रूप हैं
● कारणावस्था और
● कार्यावस्था
"ब्रह्म की कार्यावस्था ही सृष्टि है जो कारणरूप ब्रह्म में बीज रूप में सदैव निहित होती है।
यह सृष्टि ब्रह्म का ही यथार्थ रूपांतरण( वैवर्त) है। ईश्वर प्रलयकाल में कारण रूप में रहता है। यह ब्रह्माण्ड अव्यक्त रूप में उसमें निहित होता है। सृष्टि की स्थिति में अव्यक्त रूप ब्रह्माण्ड व्यक्त होता है।
इस अवधि में सूक्ष्म भूत स्थूल हो जाते हैं और जीव का धर्मभूत ज्ञान विस्तृत होकर अतीत कर्मों के अनुसार उसे भौतिक शरीरों से संयुक्त कर देता है।
"इस प्रकार एकमात्र ईश्वर ही सृष्टि का निमित्त एवं उपादान कारण है।
उपादान:-वह कारण जो स्वयं कार्य रूप में परिणत हो जाय । वह सामग्री जिससे कोई वस्तु तैयार हो उपादान है ।
जैसे, घड़े का उपादान कराण मिट्टी है । वैशेषिक में इसी को "समवायिकरण" कहते हैं । सांख्य के मत से उपादान और कार्य एक ही है ।
अर्थात् सृष्टि किसी बाह्य साधन की सहायता के बिना ही उससे स्वतः विकसित होती है। रामानुज के अनुसार यह परिणाम केवल ईश्वर के विशेषणांश में होता है, ईश्वर स्वतः इससे अप्रभावित रहता है। इस प्रकार ब्रह्म इस परिवर्तनशील जगत् का अपरिवर्तनशील केन्द्र है। जैसे किसी चक्र की परिधि और धुरी या सम्बन्ध होता है।
जगत् भी सत् है-
"मुण्डकोपनिषद् की मान्यता है कि सत् कारण से उत्पन्न होने के कारण जगत् भी सत् है , संविशेष ब्रह्म की विभूति होने के कारण जगत् की सत्ता पारमार्थिक है। रामानुज शंकर के इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हैं "कि जगत् केवल व्यावहारिक दृष्टि से सत् है और परमार्थतः( सिद्धान्तत:) असत् है ।
रामानुज की दृष्टि में शंकराचार्य का विचार श्रुति विरोधी है। उन्होंने इस बात का प्रतिपादन किया कि सृष्टि वास्तविक है। यह जगत् उतना ही सत्य है जितना ब्रह्म ।
श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णन है -
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24।।
अर्थ- जिस यज्ञ में अर्पण भी ब्रह्म है, हवि भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है, जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है।छान्दोग्योपनिषद (तृतीय प्रपाठक चतुर्दश खण्ड हिंदी भावार्थ सहित) (चतुर्दशः खण्डः)
अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके
पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत
॥ ३. १४. १ ॥
यह ब्रह्म ही सब कुछ है । यह समस्त संसार उत्पत्तिकाल में इसी परम्- ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है और अनंतकाल में इसी में लीन हो जायेगा । ऐसा ही जान कर उपासक को शान्तचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म की सदा उपासना करे। जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मान्तर में वैसा ही हो जाता है।
रामानुज नानात्व का निषेध करने वाले 'नेह नानास्ति किञ्चन्' तथा उनकी एकता को स्वीकार करने वाले 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म', इत्यादि श्रुतिवाक्यों की व्याख्या करते हुए कहते हैं।
कि ये वाक्य विषयों की सत्ता को अस्वीकार नहीं करते हैं। वे केवल यह बताते हैं कि उनमें एक ही ब्रह्म निहित है। जिस प्रकार स्वर्ण के सभी आभूषण स्वर्ण ही हैं उसी प्रकार इन विषयों का आन्तरिक सत्य ब्रह्म ही है।
सृष्टि का विकास क्रम -
रामानुज भी सांख्य दर्शन की तरह प्रकृति से सृष्टि का विकास क्रम दिखाते हैं।
रामानुज भी सृष्टि का विकास क्रम लगभग सांख्य-जैसा ही मानते हैं। दोनों में प्रमुख अन्तर यह है कि रामानुज उपनिषदों में प्रतिपादित 'पञ्चीकरण की प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं, जबकि सांख्य दर्शन भी इसे मान्यता तो देता है परन्तु इसका निरूपण नहीं करता है।
इस प्रक्रिया के अनुसार 'भूतादि अहंकार' से सर्वप्रथम पाँच सूक्ष्म भूतों का इस क्रम से आविर्भाव होता है —
◾ आकाश का गुण- ( ध्वनि)
◾ वायु का गुण -(स्पर्श)
◾ अग्नि का गुण- ( तेज)
◾ जल का गुण- (रस )
◾ पृथ्वी का गुण-( गन्ध)
इन पाँचों सूक्ष्म भूतों का पुनः पाँच प्रकार से संयोग होता है जिससे पाँच स्थूल महाभूतों का आविर्भाव होता है। पञ्चीकरण सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक स्थूल महाभूत में आधा भाग (1/2) इस महाभूत का अपना होता है और शेष आधे भाग में अन्य महाभूतों के बराबर भाग (1/8) होते हैं।
अभिप्राय यह है कि पंचीकरण-सिद्धान्त से पाँच स्थूल महाभूतों का आविर्भाव निम्नलिखित क्रम और अनुपात से होता है—
"आकाश महाभूत= 1/2 आकाश+ 1/8 वायु + 1/8 अग्नि+1/8 जल+1/8 पृथ्वी।
"वायु महाभूत= 1/2वायु + 1/8 आकाश + 1/8 अग्रि + 1/8 जल + 1/8 पृथ्वी
"अग्नि महाभूत = 1/2अग्नि +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 जल + 1/8
"पृथ्वी जल महाभूत= 1/2 जल +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 अग्नि + 1/8 पृथ्वी ।
"पृथ्वी महाभूत= 1/2 पृथ्वी +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 जल +1/8 अग्नि
रामानुज के अनुसार सभी सांसारिक पदार्थ जिसमें जीव का शरीर भी शामिल है, इन्हीं पंचमहाभूतों से उत्पन्न होते हैं।
इसीलिए सभी सांसारिक वस्तुओं में पाँचों महाभूतों के तत्त्व पाये जाते हैं। पुनः, रामानुज ब्रह्म एवं जगत् के सम्बन्ध को आत्मा एवं शरीर के सम्बन्ध के समान मानते हैं।
"समालोचना-
हम ब्रह्म के स्वरूप विवेचन में देख चुके हैं कि रामानुज का 'परम यथार्थता' "का सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से भले ही सन्तोषजनक न हो परन्तु दार्शनिक रूप से सार्थक है।
और उनका लीलावाद का सिद्धान्त एक प्रकार का रहस्यवाद है जिसे बौद्धिक धरातल पर ग्राह्य नहीं माना जा सकता क्यों कि यह रहस्य मानवीय भौतिक बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है।
ईश्वर सृष्टि रचना का संकल्प क्यों करता है? क्या इसमें उसका कोई प्रयोजन निहित है ?
अवश्य प्रयोजन निहित है लीला विलास उसका उद्देश्य है। सत- चित और आनन्द उस आत्मा की मौलिक सत्ताऐं हैं।
पुनः जगत् को ईश्वर के विशेषणांश या अंश (चिदचित्) का परिणाम बताया जाता है। क्या विशेषणांश के परिवर्तन से विशेष्य अप्रभावित रह सकता है ? क्या अंशों में परिणाम होने पर भी अंशी अपरिणामी बना रह सकता है ? क्या जगत् के दोष ब्रह्म को व्याप्त नहीं करते हैं?
रामानुज इन प्रश्नों का समाधान 'आत्मा-शरीर' एवं 'राजा-प्रजा' की उपमाओं के आधार पर करने का प्रयास करते हैं।
किन्तु वे इस प्रयास में तर्कतः सफल नहीं होते। वास्तव में, यदि ब्रह्म अंशी है और जगत् अंश है तो जगत् के दोषों से ब्रह्म अक्षुण्ण नहीं रह सकता। इसी लिए उसका दोष पूर्ण रूपान्तरण ही जीवात्मा है।
विशेषणांश के परिणामी होने पर विशेष्यांश के अपरिणामी बने रहने की बात स्थूल रूप से समझ में नहीं आती। परन्तु द्वन्द्व वाद के विवेचन करने पर यह बात समझ में आ जाती है। जैसे आधेय और आधार केन्द्र और परिधि आदि रूप इसी प्रकार समन्वित हैं।
यह संसार मन में स्वप्न के समान अथवा समुद्र में लहर के समान परिणामी है।
वह एक कृष्ण ही अनेक रूपों में उद्भासित होते हैं। अर्थात् ब्रह्म का रूपान्तर ही उसका वैवर्त है।
ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है।
विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है।
'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है।
कृष्ण से ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश और प्रकृति का जन्म बताया गया है। उनके दाएं पार्श्व से त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम) उत्पन्न होते हैं। फिर उनसे महत्तत्त्व, अहंकार और पंच तन्मात्र उत्पन्न हुए। फिर नारायण का जन्म हुआ जो श्याम वर्ण, पीताम्बरधारी और वनमाला धारण किए चार भुजाओं वाले थे। पंचमुखी शिव का जन्म कृष्ण के वाम पार्श्व( बगल) से हुआ। नाभि से ब्रह्मा, वक्षस्थल से धर्म, वाम पार्श्व से पुन: लक्ष्मी, मुख से सरस्वती और विभिन्न अंगों से दुर्गा, सावित्री, कामदेव, रति, अग्नि, वरुण, वायु आदि देवी-देवताओं का आविर्भाव हुआ। ये सभी भगवान के 'गोलोक' में स्थित हो गए
विद्युत के साथ चुम्बकत्व जुड़ी हुई घटना है।विद्युत आवेश वैद्युतचुम्बकीय क्षेत्र पैदा करते हैं। विद्युत क्षेत्र में रखे विद्युत आवेशों पर बल लगता है।
समस्त विद्युत का आधार इलेक्ट्रॉन हैं। क्योंकि इलेक्ट्रॉन हल्के होने के कारण ही आसानी से स्थानांतरित हो पाते हैं। इलेक्ट्रानों के हस्तानान्तरण के कारण ही कोई वस्तु आवेशित होती है। आवेश की गति की दर विद्युत धारा है।
"अध्याय - तृतीय-"
" आत्मा का अस्तित्व तथा आध्यात्म के मूल में विद्यमान "आत्मा" शब्द भारत यूरोप की सभी महान संस्कृतियों में विद्यमान- है-
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। (श्रीमद्भगवद्गीता- 2/23)
एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च ।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम् ।।
एनं कदम्बमारुह्य तदेव शिशुलीलया ।
विनिपत्य ह्रदे घोरे दमयिष्यामि कालियम्।५९।
एवं कृते बाहुवीर्ये लोके ख्यातिं गमिष्यति। 2.11.६०।
इसीलिये व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिये मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।कुमार्ग पर स्थित हुए इन दुरात्माओं का दमन करने के लिये ही यहाँ मेरा अवतार हुआ है। मैं बालकों के खेल-खेल में ही इस कदम्ब पर चढ़कर उस घोर ह्नद में कूद पड़ूँगा और कालिय नाग का दमन करूँगा।
ऐसा करने पर संसार में मेरे बाहुबल की ख्याति होगी।
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि बालचरिते यमुनावर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ।११।
श्री भगवान द्वारा सृष्टि के कार्य में नियुक्त ब्रह्माजी कमलकोष में प्रवेश किया और उसके ही भू:, भव:, और सव: तीन भाग किए । जीवों के भोगस्थान के रूप में इन्ही तीन लोकों का शास्त्रों में वर्णन हुआ है। जो निष्काम कर्म करने वाले हैं, उन्हें मह:, तप: जन: और सत्यलोकस्वरूप ब्रहमलोक की प्राप्ति होती है।
विषयों का निरंतर बदलना ही काल का आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष अनादि और अनन्त है। उसी को निमित्त बना कर भगवान खेल खेल में ही अपने आपको सृष्टि के रूप में प्रकट कर देते हैं। पहले यह सारा विश्व भगवान की माया से लीं होकर ब्रह्मरूप से स्थित था। उसी को अव्यक्त मूर्ति काल के द्वारा भगवान ने प्रथक रूप से प्रकट किया है।
यह जगत जैसा अब है पहले भी वैसा ही था और भविष्य में भी ऐसा ही होगा। प्रलयकाल आने पर सृष्टि के सम्पूर्ण विनाश के बाद, भगवान सृष्टि की पुनः रचना करते है। आदि काल से यह चक्र निर्विवाद रूप से विद्यमान है।
जगत की सृष्टि नौ प्रकार की होती है तथा प्राकृत वैकृत भेद से एक दसवीं सृष्टि और भी है । सृष्टि का प्रलयकाल, द्रव्य तथा गुणों के द्वारा तीन प्रकार होता है। दस प्रकार की सृष्टि का भेद निम्न प्रकार के बताया गया है:
छह प्राकृत सृष्टि-
१. पहली सृष्टि महत्व की है। भगवान की कृपा से सत्वआदि गुणो में विषमता होना ही इसका स्वरूप है।
२. दूसरी सृष्टि अहंकार की है। जिससे पृथ्वी आदि पंचभूत ज्ञानेंद्रिय और कर्मइंद्रियों की उत्पत्ति होती है।
३. तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है जिससे पंचमहाभूतों को उत्पन्न करने वाला तन्मात्र वर्ग रहता है।
४. चौथी सृष्टि इंद्रियों की है। यह ज्ञान और क्रिया शक्ति से उत्पन्न होती है।
५. पाँचवी सृष्टि सात्विक अहंकार से उत्पन्न हुए देवताओं इंद्रियाधिष्ठाताओ देवताओं की है, मन भी इसी सृष्टि के अंतर्गत है।
६. छठी सृष्टि अविद्या की है। इसमें तमिस्र, अंधतमिस्र, तम, मोह और महामहिम- यह पाँच गाँठें हैं। यह जीवों की आत्मा का आवरण और विक्षेप करने वाली हैं।
वैकृत सृष्टि-
७. सातवी प्रधान वैकृत सृष्टि छह प्रकार के स्थावर वृक्षों की होती है। इनका संचार नीचे (जड़) से ऊपर की और होता है। इनके ज्ञान शक्ति नहीं होती, यह अंदर ही अंदर केवल स्पर्श का अनुभव करते है, इनमे से प्रत्येक के गुण अलग होते हैं।
– वनस्पति – जो बिना बौर आए ही फलते हैं जैसे गूलर, बड़, पीपल।
– औषधि – जो फलों के पक जाने पर नष्ट हो जाते हैं जैसे धान, गेहूँ, चना ।
– लता – जो किसी का आश्रय ले कर बढ़ते हैं जैसे ब्राह्मी।
– तवकसार – जिनकी छाल बहुत कठोर होती है जैसे बाँस ।
– वीरुध- जिनकी लता पृथ्वी पर ही फैलती है जैसे तरबूज़।
– द्रुम- जिनमे फूल आ कर फिर फूलों के स्थान पर ही फल लगते हैं जैसे जामुन।
८. आठवीं सृष्टि तिर्यग्योनियों (पशु पक्षियों) की है। इन्हें काल का ज्ञान नहीं होता और तमोगुण की अधिकता के कारण यह केवल खाना- पीना मैथुन तथा सोना ही जानते हैं। इन्हें सूँघने मात्र से से वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। इनके मस्तिष्क में विचारशक्ति नहीं होती।
– द्विशफ – दो खुरों वाले पशु जैसे गाय, बकरा, भैंसा, मृग, शूकर, भेद और ऊँट।
– एकशफ – एक खुर वाले पशु जैसे गधा, घोड़ा, खच्चर।
– पञ्च नख – पाँच नखों वाले पशु जैसे कुत्ता, भेड़िया, बाघ, बिल्ली, सिंह, हाथी इत्यादि
– उड़ने वाले जीव – जैसे बगुला, गिध, हंस, मोर, कौवा, सरस उल्लू, इत्यादि
९. मनुष्य – नवी सृष्टि मनुष्यों की है। यह एक ही प्रकार के हैं। परस्पर इनमे कोई भेद नहीं है । इनका आहार ऊपर से नीचे की और होता है। मनुष्य रजोगुण प्रधान, कर्म परायण और दुःख: रूप विषयों में ही सुख मनने वाले होते हैं।
उपरोक्त के अतिरिक्त देव सृष्टि आठ प्रकार की –
देवता-पितर,असुर,
गंधर्व -अप्सरा,
यक्ष – राक्षस,
सिद्ध- चारण-विद्याधर,
भूत- प्रेत-पिशाच और
किन्नर-किम्पपुरुष-अश्वमुख है ।
इस प्रकार सृष्टि करने वाले सत्य संकल्प के रूप श्री हरि ही ब्रह्मा जी के रूप में प्रत्येक कल्प के आदि में रजोगुण से व्याप्त होकर स्वयं ही जगत के रूप में अपनी ही रचना करते हैं।
भक्तिनारदसमागमो नामक प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥)
"अध्याय- पञ्चम"
'पञ्चम वैष्णव वर्ण के गोपों की सृष्टि गोलोक में स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के रोमकूपों से"
इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो को हम प्रस्तुत करते हैं।
इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो को हम प्रस्तुत करते हैं।
कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना ही इसी तथ्य को सूचित करता है। कि गोपों से श्रेष्ठ इस सृष्टि मैं को ईव दूसरा नहीं है।
अनुवाद:- जब स्वयं कृष्ण राधा की एक सखी बनकर स्वयं ही कृष्ण की राधा से निन्दा करते हैं तब राधा कहती हैं -
"भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण गोपों के घर में प्रकट हुए हैं। फिर तुम हे सखी ! उन आदिपुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।२१-२२।
(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)
गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं।
और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत: इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_
ऋग्वेद में विष्णु के लिए 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं।
जो पुराण वर्णित गोलोक का ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।
इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।
विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ रहती हैं , वहाँ पड़ता है।
"कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।
ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)
शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥
इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी ब्रह्मा को यज्ञकार्य हेतु तत्काल एक पत्नी की आवशयकता होती है। "होता"यज्ञ में आहुति देनेवाला तथा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालने वाले के रूप में उपस्थित माना जाता है । अत्रि इस "होता" की भूमिका में हैं। सभी सप्तर्षि इस यज्ञ में किसी न किसी भूमिका में हैं।
विशेष—यह चार प्रधान ऋत्विजों में है जो ऋग्वेद के मंत्र पढ़कर देवताओं का आह्वान करता है।
ब्रह्मा की पत्नी सावित्री गृह कार्य में व्यस्त हैं अत: वे यज्ञ- स्थल में आने को तैयार नहीं हैं।अब मुहूर्त का समय निकला जा रहा है। तभी सप्तर्षियों के कहने पर ब्रह्मा अपने यज्ञ कार्य के लिए इन्द्र को एक पत्नी बनाने के लिए कन्या लाने को कहते हैं। तब आभीर कन्या गायत्री को इन्द्र ब्रह्मा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
विष्णु ही इस कन्या के दत्ता( कन्यादान करनेवाले पिता बनकर ) ब्रह्मा से इसका विवाह सम्पन्न कराते हैं।
ये ब्रह्मा की सृष्टि से पृथक थे इसलिए यज्ञ में अपनी सम्पूर्ण सृष्टि के साथ इन्हें ब्रह्मा द्वारा आमन्त्रित नहीं किया गया। ब्रह्मा का यह यज्ञ एक हजार वर्ष तक चला था।
इसलिए अत्रि ने गायत्री को माँ कहकर सम्बोधित किया तब अत्रि को अहीरों का पूर्वज कैसे कहा जा सकता है।?
विदित हो कि वामन अवतार कृष्ण के अंशावतार विष्णु का ही अवतार है नकि स्वयं कृष्ण का अवतार -क्योंकि कृष्ण का साहचर्य सदैव गो और गोपों में ही रहता है।
"कृष्ण हाई वोल्टेज रूप हैं तो विराट और क्षुद्र विराट आदि रूप उनके ही कम वोल्टेज के रूप हैं।
विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि ( इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।
विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड ' ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।
ऋग्वेद 1.22.18) में भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।
विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।
और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु(कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।
"व्यक्ति अपनी भक्ति और तप की शक्ति से गोलोक को प्राप्त कर गोप जाति में जन्म लेता है।
वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।
हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।
अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
"इति समापनम्-
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